Tuesday, September 7, 2010

Utility of tantra(तँत्र विद्या की उपयोगिता)

तँत्र विद्या की उपयोगिता
प्रकृति अनन्त शक्तियों का भण्डार है । वैज्ञानिकों ने वायुयान, रेडियो, विद्युत, वाष्प आदि के अनेक आश्चर्य जनक आविष्कार किये हैं और नित्यप्रति होते जा रहे हैं पर प्रकृति का शक्ति भण्डार अनन्त और अपार है कि धुरधंर वैज्ञानिक अब तक यही कह रहे हैं कि हमने उस महासागर में से अभी कुछ सीपें और घोघें ही ढूंढ पाये हैं ।
उस अनन्त तत्व के शक्ति परिमाणुओं की महान् शक्ति का उल्लेख करते हुए सर्वमान्य वैज्ञानिक डॉक्टर टामसन कहते हैं कि एक 'शक्ति-परिमाणु' (इलैक्ट्रान) की ताकत से लन्दन जैसे तीन नगरों को भस्म किया जा सकता है । ऐसे अरबों-खरबों परिमाणु एक एक इंच जगह में घूम रहे हैं फिर समस्त ब्रह्माण्ड की शक्ति की तुलना ही क्या हो सकती है ।

हमारी आत्मा भी इसी चेतन्य तत्व का अंश है हमारे शरीर में भी असंख्य इलैक्ट्रान व्याप्त हैं इसलिए मानवीय शरीर और आत्मा भी अनन्य शक्ति सम्पन्न है उसे हाड़-माँस का पुतला मात्र न समझना चाहिए
काल चक्र सदैव घूमता रहता है उसी के अनुसार संसार की अनन्त विद्याओं में से समय पाकर कोई लुप्त हो जाती है तो कोई प्रकाश में आती है । अब तक कितनी ही विद्यायें लुप्त और प्रकट हो चुकीं हैं और आगे कितनी लुप्त और प्रकट होने वाली हैं इसे हम नहीं जानते । आज जिस प्रकार भौतिक तत्वों के अन्वेषण से योरोप में नित्य नये वैज्ञानिक यंत्रों का आविष्कार हो रहा है उसी प्रकार अब से कुछ सहास्रब्दियों पूर्व भारत वर्ष में आध्यात्म विद्या और ब्रह्मविद्या का बोलवाला था ।

उस समय योग के ऐसे साधनों का आविष्कार हुआ था जिनके द्वारा नाना प्रकार की सिद्धियों को प्राप्त करके साधक लोग ईश्वर का साक्षात्कार करते थे और जीवन मुक्त हो जाते थे । आज लोग अपने अज्ञान के आधार पर उन बातों की सच्चाई में भले ही संदेह करें पर सत्य-सत्य ही रहेगा । अब भी उस महान अध्यात्म विद्या का पूर्ण लोप नहीं हुआ है । भारतवर्ष की पुण्य भूमि में अभी असंख्य सिद्ध योगों भरे पड़े हैं और उनको विश्वास है कि भौतिक आविष्कारों की अपेक्षा आध्यात्मिक शक्तियाँ करोड़ों गुनी बलवान और स्थायी हैं वे मनुष्य और समाज का कल्याण आध्यात्म उन्नति में ही समझते हैं ।

प्रत्यक्ष उदाहरणों में धुरंधर विद्वान और महान नेता एवं विचारक योगी अरविन्द की योग साधना हमारे सामने है । इस शक्ति भण्डार में से एक सीप योरोप के पण्डितों के हाथ भी लगी है।मैस्मरेजम और हिप्नोटेजम नामक उनके दो छोटे आध्यात्म आविष्कार हैं । जिनके द्वारा, सिद्ध की आत्मशक्ति साधक में प्रवेश करके उस पर अपना पूर्ण आधिपत्य जमा लेती है । तब मोह निन्द्रा में डूब हुआ साधक अनेंक आश्चर्यजनक और गुप्त बातें बताता है । आँखों से पट्टी बाँध कर पूरी तरह से संदूक या कोठरी में बन्द कर देने पर भी वह लोगों के मन की बात, उनके पास छिपी हुई चीजें, गुप्त बातें आदि बताता है । मोह निद्रित साधक, सिद्ध की इच्छा का पूर्ण अनुचर बन जाता है । उससे कहा जाय कि यह नीम का पत्ता पेड़ के समान मीठा है तो सचमुच उसकी बुद्धि और ज्ञानेन्द्रियाँ उस कडुए पत्ते को मीठा अनुभव करती हैं और वह बड़े प्रेम से उन्हें खाता है ।

इस विधि से वे सिद्ध, रोगियों की चिकित्सा भी करते हैं । अब से दो शताब्दी पूर्व जब सुँघा कर बेहोश करने की 'क्लोराफार्म' नामक दवा का आविष्कार नहीं हुआ था तब पश्चिमोय डाक्टर मैस्मरेजम की विधि से रोगी के पीड़ित स्थान को संज्ञा शुन्य करके तब आपरेशन करते थे । कलकत्ता के बड़े अस्पताल में एक प्रसिद्ध डाक्टर ने मैस्मरेजम के तरीके से ही कई सौ रोगियों को या उनके पीड़ित स्थान को बेहोश करके बड़े-बड़े आपरेशन किये थे । यहाँ एक ध्यान रखना चाहिए कि मैस्मरेजम योग महासागर की एक बिन्दू मात्र है ।

प्राचीन काल में योग की शक्ति संसार की बड़ी सेवा की गई है । अनेक योगी, दुखियों के दुःख निवारण में ही अपना जीवन लगा देते थे । महाप्रभु ईसा मसीह ने जीवन भर अपनी आत्म शक्ति के बल से दुखियों के दुःख दूर किये । उन्होंने बीमारों के रोग मुक्त किया । अन्धों को आँखें दी, कोड़ियों के शरीर शुद्ध कर दिये, लोगों की आत्मा से चिपटे हुए दुवृत्तियों के भूतों को छुड़ाया, जो अशान्ति और नाना प्रकार के दुःखों से चिल्ला रहे थे उनको सुख और शांति प्रदान की । अन्त में उस महात्मा ने दूसरों के दुःख और पापों को अपने ऊपर ओढ़ कर उनको भार मुक्त कर दिया ।

भारतवर्ष में शंकर, अश्विनी कुमार, धनवन्तरि, गोरखनाथ, मत्स्येन्द्रनाथ, नागार्जुन, चरक आदि के बारे में ऐसी कथाएँ मिलती हैं जिनसे प्रतीत होता है कि जीवन भर वे लोगों के दुःख दुर करने में ही लगे रहे । दुर्भाग्य से उस समय के महात्माओं में भी दो दल हो गये । एक दल ईश्वर प्राप्ति के कार्य को ही अपना लक्ष्य मानता था । दूसरा जन दुःख निवारण का भी समर्थक था । यह मतभेद बहुत बड़ा और जन-दुःख निवारकों की शक्ति पूजक, शक्ति, तांत्रिक संज्ञा बना कर उनका अपनी श्रेणी से अलग कर दिया गया, तांत्रिक या शाक्त अपने आरंभ काल में परमतत्त्व की आराधना से शक्ति प्राप्त करने और उसके द्वारा सिद्धि प्राप्त करके जनता के शारीरिक एवं मानसिक दुःखों को दूर करते थे ।

समय के परिवर्तन के साथ इस महान् विज्ञान का भी दुर्दिन आया । महासिद्ध नागार्जुन के अवसाद के बाद तंत्र विद्या कुपात्रों के हाथ में चली गई और उन्होंने उसका रावण की भाँति दुरुपयोग आरंभ कर दिया । मारण, मोहन, उच्चाटन, वशीकरण आदि का प्रयोग अपनी इन्द्रियों के सुख या धन लालसा के लिए किया जाने लगा ।
जिस तलवार से दस्युओं और हिंसक पशुओं का मुकाबला किया जाता है उसी से अबोध शिशुओं, ब्रह्माणों और गायों की गर्दने भी काटी जा सकती । परन्तु ईश्वर के यहाँ सुव्यवस्था है । उसने जालिम को उम्र थोड़ी रख छोड़ी है ।

अवश्यम्भावी परिणाम के अनुसार तांत्रिक नष्ट हो गये । जनता में उनके कार्य के विरूद्ध तीव्र घृणा फैल गई । वाममार्गी और तांत्रिक, हिंसक पशु समझे जाने लगे । अंत में तंत्र विद्या का वैज्ञानिक और उच्च कोटि का स्वरूप लुप्त हो गया । यवन राज्य में तंत्र शास्त्र के हजारों महान ग्रंथों को जला डाला गया इस प्रकार शास्त्र इस महाविद्या का दुःखद अंत हुआ । चूँकि तंत्र विद्या की उपयोगिता और उसके आश्चर्यजनक लाभों की जनता कायल थी इसलिए उसकी वैज्ञानिकता और उच्च साधन का अभाव हो जाने पर भी अधूरे तांत्रिक बने रहे और अपनी सामर्थ के अनुसार लोगों का हित करते रहे । इतना समय बीत जाने के बाद जो लंगड़ी-लूली तंत्र विद्या बच रही है वह भी अच्छे से अच्छे वैज्ञानिक को अचम्भे में डालने के लिए पर्याप्त है ।

अभी भी तांत्रिक लोग, जहरीले सांपों के काटे हुए आदमी को मंत्र द्वारा अच्छा कर देते हैं । उस सांप को मंत्रोबल से बुला कर काटे हुए स्थान से जहर चुसवाते हैं, बिच्छू आदि का जहर उतारते हैं, वृक्षों की टहनी या मोरपंख की झाड़ू लगाकर फोड़ों को अच्छा करते हैं, एवं मंत्रबल से हजारों रोगियों को अच्छा करते हैं, भूत, प्रेतों के ऐसे आक्रमण जिन्हें देखकर डाक्टर लोग किंर्तव्य विमूढ़ हो जाते हैं, तांत्रिक ही ठीक करते हैं
वैज्ञानिक लोग तंत्र विद्या द्वारा दिया हुआ मंत्र (सजेशन) साधक क अंतरमन (सब कॉन्ससनेस) में गहरा चला जाता है जिससे साधक या रोगी का मन एवं शरीर उसी के अनुसार कार्य करने लगता है । फलस्वरूप इच्छित लाभ प्राप्त हो जाता है । एक और वैज्ञानिक डाक्टर उड जिन्होंने मनुष्य शरीर की बिजली का अनुसंधान किया है, इस विषय पर और अधिक प्रकाश डाला है उनका कथन है कि मनुष्य शरीर से एक प्रकार का तेज निकल कर आकाश में प्रवाहित होता है यह तेज अपनी इच्छानुसार ऐसा बनाया जा सकता है जिससे निश्चित व्यक्तियों को हानि या लाभ पहुँचाया जा सके ।

एक अन्य वैज्ञानिक डाक्टर फ्रेडन का कहना है कि मनुष्य के सुदृढ़ संकल्प संयुक्त विचार ईथर तत्व में मिलकर क्षण भर में निश्चित व्यक्ति तक पहुँचते हैं और उसका हित-अनहित करते हैं । सामूहिक प्रार्थना इसलिए की जाती है कि वह अधिक शक्तिशाली होकर अधिक असर दिखा सके । विद्वानों का कहना है कि तांत्रिकों के मंत्र से उत्पन्न हुए कम्पन तथा तत्सम्बन्धी उपचार क्रियाओं की लहरें मिलकर बहुत शक्तिशाली जो जाती हैं और जो लोग उन्हें ग्रहण करते हैं, उन पर आश्चर्यजनक चमत्कार दिखाती हैं । विद्वानों की बात छोड़िये हम अपने दैनिक जीवन में देखते हैं कि अपने दूरस्थ प्रियजनों में से किसी की मृत्यु या हानि होने पर हमें दुःस्वप्न आते हैं और अविष्ट की आशंका से मन कांप उठता है ।

कई बार जो अचानक जागृत और स्वप्न की अवस्था में ऐसी आशंकायें उठ खड़ी होती हैं की अमुक व्यक्ति का अमुक अनिष्ट हो गया और कुछ देर बाद सचमुच वह बात सत्य होने का समाचार मिलता है । दूरस्थ पुत्र पर दुःख आने पर माता के कुचों में दूध उमड़ने लगता है । पति का अनिष्ट होने पर स्त्री के अंग टूटने लगते हैं । प्रेमी जब अपना प्रेमिकाके लिए विरल में तड़तपा है तब उसी समस दूरस्थ प्रेमिका भी व्याकुल हो उठती है । यह सब उसी महान सत्य की अनुभूतियाँ मात्र हैं जिसके आधार पर तंत्र शास्त्र स्थित है और रेडियो या टेलीविजन का आविष्कार हुआ है ।

शक्तिशाली और एकाग्र मन द्वारा निश्चित रूप के दूसरों के लिए सुख-दुःख की लहरें भेज सकती हैं । हाँ उनसे लाभ उठाना साधक की इच्छा पर निर्भर है । उच्च शक्ति के साथ ब्रौडकास्ट की हुई आकाशवाणी को भी तब तक ठीक तरह नहीं सुना जा सकता जब तक आपका रेडियो दोष रहित न हो। इस महा विज्ञान से लाभ उठाने की एक शर्त है वह है-साधन में अटूट श्रद्धा और विश्वास का होना । बिना इसके लाभ नहीं मिल सकता । मोती लेने के लिए समुद्र में गहरा घुसना पड़ेगा । शंकर का मधुर स्वाद चखने के लिए ईख बोनी पड़ेगी, पेट भरने के लिए मुँह चलाना पड़ेगा ।

जो सज्जन श्रद्धा और विश्वास नहीं रख सकते वे इधर कदम बढ़ाने का व्यर्थ प्रयत्न न करें । अपने टूटे हुए रेडियो सैट पर आप विशुद्ध ब्रौडकास्ट को नहीं सुन पायेंगे । जो लोग तंत्र विज्ञान पर विश्वास नहीं करते वे इसकी परीक्षा कर देखें। हमारे अनुभव में ऐसे बीसियों कट्टर अविश्वासी आये हैं जो इसे ढोंग, अन्धविश्वास और मूर्खता कह कर मजाक उड़ाते थे, पर जब उन्होंने कुछ दिन अभ्यास किया तो तंत्र विद्या के प्रत्यक्ष लाभों को देख कर उसक अनन्य भक्त बन गये । हमारा इतना कहना ही है कि जो भी सज्जन अविश्वास करते हों, वे इसकी परीक्षा करें ।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है....मनीष

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