Monday, August 29, 2016

बाबा कीनाराम जी (Baba Kinaramji)

अघोरेश्वर कीनाराम जी
(आविर्भाव सन् १६०१ ई. -महाप्रयाण १७७१ ई.)
उत्तर प्रदेश में वाराणसी जिले की चन्दौली तहसील (अब जिला) के रामगढ़ ग्राम में अकबरसिंह नामक एक रघुवंशी क्षत्रिय रहते थे। उनकी पत्नी मनसा देवी को स्वप्न में भगवान् शिव नन्दी बैल पर बैठे हुए दिखलायी पड़े। पुरोहितों ने इस स्वप्न को सुनकर मनसा देवी से कहा- 'आपके गर्भ से ९ माह बाद भगवान् सदाशिव अवतार लेंगे। शिशु के जन्म के पूर्व तीन महात्मा चातुर्मास्य का बहाना लेकर उस गाँव में ठहरे थे। जन्म होने पर तीनों महात्माओ ने अकबर सिंह के द्वार पर उपस्थित होकर शुभकामना व्यक्त की। उन तीनों में से सबसे वयोवृद्ध महात्मा ने बालक को अपनी गोद में लेकर उसके कान में कुछ शब्द कहे जो सम्भवत: दीक्षामन्त्र था। पुरोहितों ने अकबर सिंह को परामर्श दिया कि ६० वर्ष की उम्र में आपको पुत्ररत्न मिला है इसके दीर्घजीवी होने के लिए आप इसको किसी के हाथ बेचकर फिर 'किन' (खरीद) लें। इस परामर्श का क्रियान्वयन होने के कारण बालक का नाम कीनाराम हुआ। इसका राशिनाम शिवा था। इन्हीं की वैष्णव लोग 'शिवारामके नाम से जानते थे।

किशोर वय में कीनाराम का विवाह हुआ। पत्नी का नाम कात्यायनी था। पति के घर जाने से पूर्व ही उसका देहान्त हो गया फलस्वरूप अत्यन्त तीव्र वैराग्य उत्पन्न होने के कारण कीनाराम तीर्थयात्रा पर निकल पड़े। इस क्रम में वे गाजीपुर जिले के कारो गाँव (अब बलिया में है) में पहुँचे। वहाँ एक क्रूर जमींदार ने मालगुजारी बकाया रहने के कारण एक विधवा के पुत्र बीजाराम कोहाथ पैर बाँधकर जेठ की दोपहरी मेंभूमि पर लिटा दिया था। कीनाराम ने जमींदार से कहा- 'अपने पैर के नीचे की जमीन खोदो। तुम्हें बकाया मालगुजारी और जमीन खोदने का पारिश्रमिक दोनों मिल जायेगा।जमींदार ने वैसा ही किया। पैसा मिलने पर उसने कीनाराम से क्षमा माँगी और बीजाराम को छोड़ दिया।

माँ के दुराग्रह पर बाबा कीनाराम बीजाराम को लेकर चल दिये। बालक बीजाराम आजीवन कीनाराम के साथ छाया की तरह रहा।कारो ग्राम से चलकर बाबा गिरनार की ओर बढ़ गये। कीनाराम को पादुकासिद्धि (=खड़ाऊँ पहन कर पानी या कीचड़ के ऊपर या आसमान में चलना) प्राप्त थी। इसके साथ उन्होंने पृथिवी में प्रवेश कीआकाशगमन की भी सिद्धि स्वत: प्राप्त की। जूनागढ़ पहुँच कर बाबा भिक्षाटन करने लगे। जूनागढ़ के नवाब के आदेशानुसार सिपाहियों ने पहले भिक्षाटन करते हुए बीजाराम को फिर बाबा कीनाराम को जेल में बन्द कर दिया। वहाँ और भी साधु बन्दी थे। इस जेल में ९८१ चक्कियाँ थीं। सबके साथ एक चक्की बाबा को भी आटा पीसने के लिये दी गयी। बाबा ने चक्की को देखा और कहा- 'चल'। वह नहीं चली। इस पर उन्होंने चक्की पर एक कुबड़ी (=छोटा डण्डा) मारी। देखते ही सारी ९८१ चक्कियाँ चलने लगीं। यह सुनकर नवाब दौड़ा-दौड़ा बाबा के पास आया और क्षमा माँगा। बाबा ने उसे दो आदेश दिये-(१) आज से किसी साधु को तंग मत करना। (२) जो साधु फक़ीर तुम्हारे यहाँ आये उसे खुदा के नाम पर ढ़ाई पाव राशन दे देना। वहाँ बाबा के दोनों आदेशों का पालन चलता रहा और बाबा के आशीर्वाद से जूनागढ़ में मुसलमान शासक की वंशपरम्परा भी चली।

जूनागढ़ से चलकर बाबा कीनाराम खाड़ी और दलदलों को पार करते हुए कराँची से ७० किमी. दूर हिंगलाज१ पहुँचे। हिंगलाज मन्दिर से कुछ दूरी पर उन्होंने धूनी लगायी। हिंगलाज देवी स्वयं एक कुलीन महिला के रूप में वहाँ उन्हें प्रतिदिन भोजन पहुँचाती थी। धूनी की साफ-सफाई भैरव स्वयं एक वटुक के रूप में करते थे। कुछ दिनों के बाद बाबा ने उस महिला से परिचय पूछा तो देवी ने स्वयं अपने रूप का दर्शन दिया और कहा- 'जिसके लिये आप तप कर रहे हैं मैं वही हूँ। मेरा यहाँ का समय पूरा हो गया है। अब मुझे मेरे स्थान काशी में ले चलो। मैं काशी में केदारखण्ड के क्रीं कुण्ड में निवास करूँगी।बाबा ने धूनी ठंडी कीऔर चल दिये।

सन् १६३८ में बाबा हिंगलाज से मुल्तान और मुल्तान से कन्धार पहँचे। कन्धार में मिट्टी का एक विशाल किला था जो व्यापारिक और सामरिक दृष्टि से भारत और फारस दोनों देशों के लिये बहुत महत्त्वपूर्ण था। बाबा के आशीर्वाद से शाहजहाँ ने किले को फारस के शाहअब्बास से जीत लिया। बाद में उसने वहाँ बुलाकर बाबा का भव्य सत्कार किया। कुछ दिनों बाद शाहजहाँ से बाबा की भेंट उत्तर भारत में हुई। इस समय शाहजहाँ अपनी प्रिय पत्नी मुमताज महल के ऊपर दीवाना था और राजकोष का बहुत अपव्यय कर रहा था। बाबा के प्रति उसने अवज्ञा और उद्दण्डता दिखायी। बाबा ने उसे शाप दे दिया- 'तुमने साधु की अवज्ञा की है। तुम बीबी के गुलाम हो। अपनी ही औलाद के हाथों दु:ख पाओगे और अपनी करनी का फल चखोगे।वैसा ही हुआ। शाहजहाँ अपने पुत्र औरंगजेब के हाथों जेल में बन्द किया गया और यातना भोगता रहा।

महाराज कीनाराम फिर जूनागढ़ आ गये। वहाँ उन्होंने कमण्डलु कुण्ड अघोरी शिला पर सिद्धेश्वर दत्तात्रेय को बड़े विभत्स रूप में मांस का टुकड़ा लिये देखा। दत्तात्रेय ने उस मांस में से एक टुकड़ा काटकर कीनाराम को दिया। उसे खाने के बाद कीनाराम को दूरदृष्टि प्राप्त हो गयी। एक ही समय में अनेक स्थानों में प्रकट होने की सिद्धि उन्हें पहले से प्राप्त थी। उन्होंने गिरनार पर्वत से दिल्ली के बादशाह को घोड़े पर सवार और वजीर से दुशाला लेते देखा था।

गिरनार से कश्मीर और दिल्ली होते हुए बाबा कीनाराम काशी में आये और वहाँ हरिश्चन्द्र घाट पर भगवान् दत्तात्रेय के अंशभूत कालूराम से उनकी भेंट हुई। कालूराम उस समय मुर्दों की खोपड़ियों से अनेक चमत्कार दिखा रहे थेउन्हें चना खिला रहे थे। कालूराम ने इशारे से कीनाराम से भोजन माँगा। बाबा ने गंगा की ओर ऊपर हाथ उठाया और गंगा जी से मछलियाँ निकल-निकल कर चिता में गिरने लगीं। कालूराम ने उनका भोजन किया। कालूराम और कीनाराम ने उस समय के जमींदार राघवेन्द्र सिंह को बुलाकर उनसे सम्पर्क किया और क्रींकुण्ड तथा उसके आस पास की ९० बीघा भूमि दान में प्राप्त की। यहाँ कीनारामकालूराम और कीनाराम के शिष्य रामजियावनजिसको बाबा ने मरने के बाद जीवित कर लिया थाकी समाधि है।

एक बार बाबा कीनाराम के आदेश से बीजाराम सितार लिये हुए आकाश में उड़ गये। वहाँ उनके शरीर से ज्वाला उत्पन्न हुईचिनगारियाँ निकलने लगींमानो पूरा शरीर जल गया। बाद में सब लोगों के देखते-देखते बीजाराम चमगादड़ों के साथ नीचे उतर आयेबाबा को प्रणाम किया और सितार बजाने लगे। तब से क्रींकुण्ड पर पेड़ों में बहुत सारे चमगादड़ रहते हैं।

बनारस में ईश्वरगंगी मुहल्ले में बाबा लोटादास रहते थे। उनको लोटा की सिद्धि प्राप्त थी। वे उस पात्र में से मनोवाञ्छित वस्तु निकालकर दूसरों को दे देते थे। कीनाराम ने किसी समय लोटादास की किसी मामले में सहायता की थी। तब से दोनों में प्रगाढ़ सम्बन्ध था। एक बार लोटादास ने भण्डारा कियाउसमें कीनाराम को निमन्त्रित नहीं किया। कीनाराम चुपचाप जाकर वहाँ बैठ गये। जब भोजन के लिये पत्तल और पानी परोसा गया तो पत्तलों पर मछलियाँ कूदने लगीं और पानी में शराब की दुर्गन्ध आने लगी। लोटादास ने आकर बाबा से क्षमा मांगी। तब सब्जी की जगह तैर रहीं मछलियाँ बदल गयीं और पानी में सुगन्ध आ गयी। लोटादास ने अपने सिद्ध लोटा से कीनाराम के पात्र (=कपाल) में भोजन देना शुरु किया। कई लोटा और दही देने पर भी कपाल नहीं भरा। क्षमा माँगने पर कीनाराम ने लोटादास के भण्डार गृह में पहले से चार गुनी अधिक दही पूड़ी की व्यवस्था कर दी।

एक बार क्रींकुण्ड के पास शिवाला घाट पर काशीनरेश चेतसिंह के किले में वैदिक ब्राह्मण वेदपाठ कर रहे थे। कीनाराम गधे पर चढ़कर वहाँ पहुँचे। ब्राह्मणों ने उनका अपमान कर दिया। बाबा बोले - लोलुप ! ठगविद्या का आश्रय लेने वालोउदरनिमित्त अपने धर्म से विमुख ब्राह्मणोदेखो मेरा गदहा वेद बोल रहा है। ऐसा कहकर महाराज ने गदहे का कान ऐंठा और थप्पड़ मारा। गधा वेदमन्त्र बोलने लगा। कीनाराम ने अक्षत लेकर किला की ओर फेंका और शाप दिया-'किला में कबूतर बीट करेंगे। छोड़कर भागना होगा। यह किला विधर्मियों के अधिकार में चला जायगा। यहाँ उपस्थित सभी लोग नि:संतान होंगे।वैसा ही हुआ। अंग्रेजों के आक्रमण पर चेतसिंह को किला छोड़कर भागना पड़ा। आज भी उस किले में कबूतरों का झुण्ड रहता है।

एक बार कीनाराम अपनी जन्मभूमि रामगढ़ में रह रहे थे। उनके पास आकाशमार्ग से एक भैरवी आयी जो पूर्णतया नग्न थी। महाराज ने अपनी जटा से एक बहुत सुगन्धित रेशमी वस्त्र निकाल कर भैरवी के ऊपर फेंक दिया। भैरवी के ऊपर जो कोई वस्त्र फेंका जाता वह जल जाता था पर वह वस्त्र नहीं जला। भैरवी आश्चर्य में पड़ गयी। बाबा के पास एक ही लंगोटी रहती थी। नहाने के पहले उसे धुलकर आकाश में फेंक देते थे। नहाने के बाद हाथ आकाश में उठाते और लंगोटी उनके हाथ में आ जाती। लंगोटी को फट्कारने पर उसमें से चिनगारियाँ निकलती थीं। हाथ से सुरकने पर उसमें से रंगविरंगी किरणें निकला करती थी। इसी प्रकार नि:संतान ब्राह्मण दम्पती को चार पुत्रों की प्राप्तिछोटी लकड़ी को आवश्यकता से अधिक बड़ी करना उनका चमत्कार था। रामगढ़ में कुँवा खोदने के लिए इन्होंने आकाश में हाथ उठाकर कई अञ्जली सिक्के मँगाये थे। तथा इंर्टों के घट जाने पर उपलों से कुँये को बँधवाया था। रामगढ़ में आज भी वह कुआँ विद्यमान है। इस कुँये में चार घाट है और हर घाट के पानी का स्वाद अलग-अलग है। स्वामी जी ने ७० वर्ष की उम्र में कायाकल्प किया था।

काशी में क्रींकुण्ड में दो कुँयें हैं। जिस कुण्ड का पानी पीया जाता है एक बार बाबा उसमें प्रवेश कर गये। वापस न निकलने पर लोगों को चिन्ता हुई। उसी समय एक भक्त जगन्नाथपुरी गया हुआ था। वहाँ उसने हाथ में नारियल का कमण्डलु लिये जटाजूटधारी बाबा कीनाराम को जगन्नाथ मन्दिर से बाहर आते देखा। काशी आकर उसने यह घटना बतलायी। बाबा ने औरंगजब को फट्कारा था- 'धर्म के नाम पर पृथिवी को न रंगें। भविष्य आपका कृतज्ञ नहीं होगा।...आपकी मृत्यु नजदीक है...आप लोलुपचित्त हैं....दिल्ली तक आपका पहुँचना कठिन है।

एक बार उन्होंने अपने सामने उपस्थित कामासक्त स्त्रियों को उपदेश के द्वारा कामवासनारहित कर सन्मार्ग पर पहुँचाया था। एक बार बाबा मुंगेर जिले में श्मशान के समीप चातुर्मास्य कर रहे थे। एक मध्यरात्रि में पीले रंग के मांगलिक वस्त्र को पहने खड़ाऊँ पर चढ़ी एक योगिनी आकाशमार्ग से बाबा के सामने उतरी और निवेदन किया-'गिरनार की काली गुफा में निवास करती हूँ। अन्त:प्रेरणा हुई और आपके पास आगयी। आप तान्त्रिक क्रियाओं द्वारा मेरे साध्य को पूरा करें ताकि मैं पूर्ण हो जाऊँ। श्मशान में एक शव था। चार खूँटियाँ चार कोनों में गाड़ कर शव के हाथ-पैर को चारों खूँटियों से बाँध दिया गया। लालवस्त्र से शव को ढँककर उसका मुख खोल दिया गया। योगिनी और महाराज भगलिङ्ग आसन पर बैठकर शव के मुख में हवन करते रहे। योगिनी तृप्त हुई। अन्त में श्मशान-देवता नन्दी पर बैठ कर उपस्थित हुए और इस साधना को सफल होने का आशीर्वाद दिया। अभी भी यदा कदा जूनागढ़ अहमदाबाद मार्ग पर योगिनियों का दर्शन लोगों को मिलता रहता है। इस प्रकार की अनेक चमत्कारपूर्ण घटनायें बाबा के जीवन में घटित हुईं। विस्तार के भय से उनका वर्णन यहाँ नहीं किया जा रहा है।

भविष्यवाणी- एक बार विजयकृष्ण गोस्वामी को सम्बोधित करते हुए बाबा ने कहा -'पुरुष की जरूरत पुत्रादि के लिए होती है। शताब्दियों बाद विज्ञान का चमत्कार सामने आयेगा तब स्त्रियाँ पुत्रों के लिये कृत्रिम गर्भाधान करायेंगी। अपनी उपेक्षा और अवहेलना के प्रतिशोध में पुरुषों की उपेक्षा और अवहेलना करने को वे उद्यत होंगी।'

उपदेश-'पुरुष विधुर हो सकते हैं स्त्रियाँ विधवा नहीं हो सकती। पति की मृत्यु के ६ महीने बाद रजस्वला होने पर उनका विवाह कराया जा सकता है।'

'मनुष्य को कामना दु:ख देती है। विषयासक्त जीवन अथाह होता है। दम्भ से भरा व्यक्तित्व झुलस जाता है...मान-बड़ाई-स्तुति और कुत्ते का लिङ्ग पैठते-पैठते पैठ जाता है पर निकलने के समय बहुत कष्ट देता है।...चोरी नारी (=व्यभिचार)मिथ्या त्याग और साधु की इच्छा इन तीनों से अपने को बचाओ और बचो।'

'दुविधा धोबी कुमति कलवार तृष्णा तेली हम धरकार।
हमरे भीतर भरा मूत खखार कहे कीनाराम रहिये ओही पार।'
'साधु है तुरीयातीतसाधु की दृष्टि में नहीं कोई अमीत।'

जीवन जीने के लिये नहीं है। जीवन मरने के लिए भी नहीं है। जीवन जानने के लिए है। सन्यास वैराग्य देह का विषय है आत्मा का नहीं। आत्मा शुद्ध चैतन्य है। उसमें किसी का प्रतिबिम्ब नहीं होता। देह और मन में ही प्रतिबिम्ब होता है।

१. हिंगलाज देवी का मन्दिर अब पाकिस्तान में है। वहाँ के लोग उसे बीवी-नानी के नाम से जानते हैं।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है.... मनीष

Wednesday, August 24, 2016

गुरु गोरखनाथ जी (Guru Gorakhnath ji)

महायोगी गुरु गोरखनाथ
महायोगी गोरखनाथ मध्ययुग के एक विशिष्ट महापुरुष है। गोरखनाथ के गुरु मत्स्येन्द्रनाथ (मछंदरनाथ) थे। इन दोनों ने नाथ सम्प्रदाय को सुव्यवस्थित कर इसका विस्तार किया। इस सम्प्रदाय के साधक लोगों को योगी, अवधूत, सिद्ध, औघड़ कहा जाता है।

गुरु गोरखनाथ हठयोग के आचार्य थे। कहा जाता है कि एक बार गोरखनाथ समाधि में लीन थे। इन्हें गहन समाधि में देखकर माँ पार्वती ने भगवान शिव से उनके बारे में पूछा। शिवजी बोले, लोगों को योग शिक्षा देने के लिए ही उन्होंने गोरखनाथ के रूप में अवतार लिया है। इसलिए गोरखनाथ को शिव का अवतार भी माना जाता है। इन्हें चौरासी सिद्धों में प्रमुख माना जाता है। इनके उपदेशों में योग और शैव तंत्रों का सामंजस्य है। ये नाथ साहित्य के आरम्भकर्ता माने जाते हैं। गोरखनाथ की लिखी गद्य-पद्य की चालीस रचनाओं का परिचय प्राप्त है।

इनकी रचनाओं तथा साधना में योग के अंग क्रिया-योग अर्थात् तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान को अधिक महत्व दिया है। गोरखनाथ का मानना था कि सिद्धियों के पार जाकर शून्य समाधि में स्थित होना ही योगी का परम लक्ष्य होना चाहिए। शून्य समाधि अर्थात् समाधि से मुक्त हो जाना और उस परम शिव के समान स्वयं को स्थापित कर ब्रह्मलीन हो जाना, जहाँ पर परम शक्ति का अनुभव होता है। हठयोगी कुदरत को चुनौती देकर कुदरत के सारे नियमों से मुक्त हो जाता है और जो अदृश्य कुदरत है, उसे भी लाँघकर परम शुद्ध प्रकाश हो जाता है।

गोरखनाथ के जीवन से सम्बंधित एक रोचक कथा इस प्रकार है- एक राजा की प्रिय रानी का स्वर्गवास हो गया। शोक के मारे राजा का बुरा हाल था। जीने की उसकी इच्छा ही समाप्त हो गई। वह भी रानी की चिता में जलने की तैयारी करने लगा। लोग समझा-बुझाकर थक गए पर वह किसी की बात सुनने को तैयार नहीं था। इतने में वहां गुरु गोरखनाथ आए। आते ही उन्होंने अपनी हांडी नीचे पटक दी और जोर-जोर से रोने लग गए। राजा को बहुत आश्चर्य हुआ। उसने सोचा कि वह तो अपनी रानी के लिए रो रहा है, पर गोरखनाथ जी क्यों रो रहे हैं। उसने गोरखनाथ के पास आकर पूछा, 'महाराज, आप क्यों रो रहे हैं?' गोरखनाथ ने उसी तरह रोते हुए कहा, 'क्या करूं? मेरा सर्वनाश हो गया। मेरी हांडी टूट गई है। मैं इसी में भिक्षा मांगकर खाता था। हांडी रे हांडी।' इस पर राजा ने कहा, 'हांडी टूट गई तो इसमें रोने की क्या बात है? ये तो मिट्टी के बर्तन हैं। साधु होकर आप इसकी इतनी चिंता करते हैं।' गोरखनाथ बोले, 'तुम मुझे समझा रहे हो। मैं तो रोकर काम चला रहा हूं तुम तो मरने के लिए तैयार बैठे हो।' गोरखनाथ की बात का आशय समझकर राजा ने जान देने का विचार त्याग दिया।

कहा जाता है कि राजकुमार बप्पा रावल जब किशोर अवस्था में अपने साथियों के साथ राजस्थान के जंगलों में शिकार करने के लिए गए थे, तब उन्होंने जंगल में संत गुरू गोरखनाथ को ध्यान में बैठे हुए पाया। बप्पा रावल ने संत के नजदीक ही रहना शुरू कर दिया और उनकी सेवा करते रहे। गोरखनाथ जी जब ध्यान से जागे तो बप्पा की सेवा से खुश होकर उन्हें एक तलवार दी जिसके बल पर ही चित्तौड़ राज्य की स्थापना हुई।

गोरखनाथ जी ने नेपाल और पाकिस्तान में भी योग साधना की। पाकिस्तान के सिंध प्रान्त में स्थित गोरख पर्वत का विकास एक पर्यटन स्थल के रूप में किया जा रहा है। इसके निकट ही झेलम नदी के किनारे राँझा ने गोरखनाथ से योग दीक्षा ली थी। नेपाल में भी गोरखनाथ से सम्बंधित कई तीर्थ स्थल हैं। उत्तरप्रदेश के गोरखपुर शहर का नाम गोरखनाथ जी के नाम पर ही पड़ा है। यहाँ पर स्थित गोरखनाथ जी का मंदिर दर्शनीय है।

गोरखनाथ जी से सम्बंधित एक कथा राजस्थान में बहुत प्रचलित है। राजस्थान के महापुरूष गोगाजी का जन्म गुरू गोरखनाथ के वरदान से हुआ था। गोगाजी की माँ बाछल देवी निःसंतान थी। संतान प्राप्ति के सभी यत्न करने के बाद भी संतान सुख नहीं मिला। गुरू गोरखनाथ 'गोगामेडी' के टीले पर तपस्या कर रहे थे। बाछल देवी उनकी शरण मे गईं तथा गुरू गोरखनाथ ने उन्हें पुत्र प्राप्ति का वरदान दिया और एक गुगल नामक फल प्रसाद के रूप में दिया। प्रसाद खाकर बाछल देवी गर्भवती हो गई और तदुपरांत गोगाजी का जन्म हुआ। 

गुगल फल के नाम से इनका नाम गोगाजी पड़ा। गोगाजी वीर और ख्याति प्राप्त राजा बने। गोगामेडी में गोगाजी का मंदिर एक ऊंचे टीले पर मस्जिदनुमा बना हुआ है, इसकी मीनारें मुस्लिम स्थापत्य कला का बोध कराती हैं। कहा जाता है कि फिरोजशाह तुगलक सिंध प्रदेश को विजयी करने जाते समय गोगामेडी में ठहरे थे। रात के समय बादशाह तुगलक व उसकी सेना ने एक चमत्कारी दृश्य देखा कि मशालें लिए घोड़ों पर सेना आ रही है। तुगलक की सेना में हाहाकार मच गया। तुगलक की सेना के साथ आए धार्मिक विद्वानों ने बताया कि यहां कोई महान सिद्ध है जो प्रकट होना चाहता है। फिरोज तुगलक ने लड़ाई के बाद आते समय गोगामेडी में मस्जिदनुमा मंदिर का निर्माण करवाया। यहाँ सभी धर्मो के भक्तगण गोगा मजार के दर्शनों हेतु भादौं (भाद्रपद) मास में उमड़ पडते हैं।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,

और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है... मनीष

Thursday, August 18, 2016

जाहरवीर गोगाजी (Jaharveer Goga ji)

गोगाजी महाराज( सिद्धनाथ वीर गोगादेव)
गोगाजी राजस्थान के लोक देवता हैं जिन्हे जाहरवीर गोगाजी के नाम से भी जाना जाता है । राजस्थान के हनुमानगढ़ जिले का एक शहर गोगामेड़ी है। यहां भादव शुक्लपक्ष की नवमी को गोगाजी देवता का मेला भरता है। इन्हे हिन्दु और मुस्लिम दोनो पूजते है ।

वीर गोगाजी गुरुगोरखनाथ के परमशिस्य थे। चौहान वीर गोगाजी का जन्म विक्रम संवत 1003 में चुरू जिले के ददरेवा गाँव में हुआ था सिद्ध वीर गोगादेव के जन्मस्थानजो राजस्थान के चुरू जिले के दत्तखेड़ा ददरेवा में स्थित है। जहाँ पर सभी धर्म और सम्प्रदाय के लोग मत्था टेकने के लिए दूर-दूर से आते हैं। कायम खानी मुस्लिम समाज उनको जाहर पीर के नाम से पुकारते हैं तथा उक्त स्थान पर मत्था टेकने और मन्नत माँगने आते हैं। इस तरह यह स्थान हिंदू और मुस्लिम एकता का प्रतीक है।

मध्यकालीन महापुरुष गोगाजी हिंदूमुस्लिमसिख संप्रदायों की श्रद्घा अर्जित कर एक धर्मनिरपेक्ष लोकदेवता के नाम से पीर के रूप में प्रसिद्ध हुए। विक्रम संवत 1003 में गोगा जाहरवीर का जन्म राजस्थान के ददरेवा (चुरू) चौहान वंश के राजपूत शासक जैबर (जेवरसिंह) की पत्नी बाछल के गर्भ से गुरु गोरखनाथ के वरदान से भादो सुदी नवमी को हुआ था। जिस समय गोगाजी का जन्म हुआ उसी समय एक ब्राह्मण के घर नाहरसिंह वीर का जन्म हुआ। ठीक उसी समय एक हरिजन के घर भज्जू कोतवाल का जन्म हुआ और एक वाल्मीकि के घर रत्नावीर जी का जन्म हुआ। यह सभी गुरु गोरखनाथ जी के शिष्य हुए। गोगाजी का नाम भी गुरु गोरखनाथ जी के नाम के पहले अक्षर से ही रखा गया।  यानी गुरु का गु और गोरख का गो यानी की गुगो जिसे बाद में गोगा जी कहा जाने लगा। गोगा जी ने गुरु गोरख नाथ जी से तंत्र की शिक्षा भी प्राप्त की थी।

चौहान वंश में राजा पृथ्वीराज चौहान के बाद गोगाजी वीर और ख्याति प्राप्त राजा थे। गोगाजी का राज्य सतलुज सें हांसी (हरियाणा) तक था। जयपुर से लगभग 250 किमी दूर स्थित सादलपुर के पास दत्तखेड़ा (ददरेवा) में गोगादेवजी का जन्म स्थान है। दत्तखेड़ा चुरू के अंतर्गत आता है। गोगादेव की जन्मभूमि पर आज भी उनके घोड़े का अस्तबल है और सैकड़ों वर्ष बीत गएलेकिन उनके घोड़े की रकाब अभी भी वहीं पर विद्यमान है। उक्त जन्म स्थान पर गुरु गोरक्षनाथ का आश्रम भी है और वहीं है गोगादेव की घोड़े पर सवार मूर्ति। भक्तजन इस स्थान पर कीर्तन करते हुए आते हैं और जन्म स्थान पर बने मंदिर पर मत्था  टेककर मन्नत माँगते हैं।

आज भी सर्पदंश से मुक्ति के लिए गोगाजी की पूजा की जाती है गोगाजी के प्रतीक के रूप में पत्थर या लकडी पर सर्प मूर्ती उत्कीर्ण की जाती है लोक धारणा है कि सर्प दंश से प्रभावित व्यक्ति को यदि गोगाजी की मेडी तक लाया जाये तो वह व्यक्ति सर्प विष से मुक्त हो जाता है भादवा माह के शुक्ल पक्ष तथा कृष्ण पक्ष की नवमी तिथि को गोगाजी की स्मृति में मेला लगता है उत्तर प्रदेश में इन्हें जहर पीर तथा मुसलमान इन्हें गोगा पीर कहते हैं।

हनुमानगढ़ जिले के नोहर उपखंड में स्थित गोगाजी के पावन धाम गोगामेड़ी स्थित गोगाजी का समाधि स्थल जन्म स्थान से लगभग 80 किमी की दूरी पर स्थित हैजो साम्प्रदायिक सद्भाव का अनूठा प्रतीक हैजहाँ एक हिन्दू व एक मुस्लिम पुजारी खड़े रहते हैं। श्रावण शुक्ल पूर्णिमा से लेकर भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा तक गोगा मेड़ी के मेले में वीर गोगाजी की समाधि तथा गोगा पीर व जाहिर वीर के जयकारों के साथ गोगाजी तथा गुरु गोरक्षनाथ के प्रति भक्ति की अविरल धारा बहती है। भक्तजन गुरु गोरक्षनाथ के टीले पर जाकर शीश नवाते हैंफिर गोगाजी की समाधि पर आकर ढोक देते हैं। प्रतिवर्ष लाखों लोग गोगा जी के मंदिर में मत्था टेक तथा छड़ियों की विशेष पूजा करते हैं।

गोगा जाहरवीर जी की छड़ी का बहुत महत्त्व होता है और जो साधक छड़ी की साधना नहीं करता उसकी साधना अधूरी ही मानी जाती है क्योंकि मान्यता के अनुसार जाहरवीर जी के वीर छड़ी में निवास करते है । सिद्ध छड़ी पर नाहरसिंह वीर सावल सिंह वीर आदि अनेकों वीरों का पहरा रहता है। छड़ी लोहे की सांकले होती है, जिसपर एक मुठा लगा होता है । जब तक गोगा जाहरवीर जी की माड़ी में अथवा उनके जागरण में छड़ी नहीं होती तब तक वीर हाजिर नहीं होते ऐसी प्राचीन मान्यता है । ठीक इसी प्रकार जब तक गोगा जाहरवीर जी की माड़ी अथवा जागरण में चिमटा नहीं होता तब तक गुरु गोरखनाथ सहित नवनाथ हाजिर नहीं होते।

छड़ी अक्सर घर में ही रखी जाती है और उसकी पूजा की जाती है । केवल सावन और भादो के महीने में छड़ी निकाली जाती है और छड़ी को नगर में फेरी लगवाई जाती है इससे नगर में आने वाले सभी संकट शांत हो जाते है । जाहरवीर के भक्त दाहिने कन्धे पर छड़ी रखकर फेरी लगवाते है । छड़ी को अक्सर लाल अथवा भगवे रंग के वस्त्र पर रखा जाता है।

यदि किसी पर भूत प्रेत आदि की बाधा हो तो छड़ी को पीड़ित के शरीर को छुवाकर उसे एक बार में ही ठीक कर दिया जाता है ! भादो के महीने में जब भक्त जाहर बाबा के दर्शनों के लिए जाते है तो छड़ी को भी साथ लेकर जाते है और गोरख गंगा में स्नान करवाकर जाहर बाबा की समाधी से छुआते है । ऐसा करने से छड़ी की शक्ति कायम रहती है ।

प्रदेश की लोक संस्कृति में गोगाजी के प्रति अपार आदर भाव देखते हुए कहा गया है कि गाँव-गाँव में खेजड़ीगाँवगाँव में गोगा वीर गोगाजी का आदर्श व्यक्तित्व भक्तजनों के लिए सदैव आकर्षण का केन्द्र रहा है।गोरखटीला स्थित गुरु गोरक्षनाथ के धूने पर शीश नवाकर भक्तजन मनौतियाँ माँगते हैं। विद्वानों व इतिहासकारों ने उनके जीवन को शौर्यधर्मपराक्रम व उच्च जीवन आदर्शों का प्रतीक माना है।

जातरु (जात लगाने वाले) ददरेवा आकर न केवल धोक आदि लगाते हैं बल्कि वहां समूह में बैठकर गुरु गोरक्षनाथ व उनके शिष्य जाहरवीर गोगाजी की जीवनी के किस्से अपनी अपनी भाषा में गाकर सुनाते हैं। प्रसंगानुसार जीवनी सुनाते समय वाद्ययंत्रों में डैरूं व कांसी का कचौला विशेष रूप से बजाया जाता है। इस दौरान अखाड़े के जातरुओं में से एक जातरू अपने सिर व शरीर पर पूरे जोर से लोहे की सांकले मारता है। मान्यता है कि गोगाजी की संकलाई आने पर ऐसा किया जाता है।

गोरखनाथ जी से सम्बंधित एक कथा राजस्थान में बहुत प्रचलित है। राजस्थान के महापुरूष गोगाजी का जन्म गुरू गोरखनाथ के वरदान से हुआ था। गोगाजी की माँ बाछल देवी निःसंतान थी। संतान प्राप्ति के सभी यत्न करने के बाद भी संतान सुख नहीं मिला।

गुरू गोरखनाथ गोगामेडी’ के टीले पर तपस्या कर रहे थे। बाछल देवी उनकी शरण मे गईं तथा गुरू गोरखनाथ ने उन्हें पुत्र प्राप्ति का वरदान दिया और एक गुगल नामक फल प्रसाद के रूप में दिया। प्रसाद खाकर बाछल देवी गर्भवती हो गई और तदुपरांत गोगाजी का जन्म हुआ। गुगल फल के नाम से इनका नाम गोगाजी पड़ा।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है... मनीष