Friday, May 30, 2014

Ten Mahawhidya (दस महाविद्या)

शक्तिपात युक्त - दस महाविद्या दीक्षा
जिसे प्राप्त करना ही जीवन की पूर्णता कहा गया है,इस सृष्टि के समस्त जड़-चेतन पदार्थ अपूर्ण हैंक्योंकि पूर्ण तो केवल वह ब्रह्म ही है जो सर्वत्र व्याप्त है। अपूर्ण रह जाने पर ही जीव को 'पुनरपि जन्मं पुनरपि मरणंके चक्र में बार-बार संसार में आना पड़ता हैऔर फिर उन्हीं क्रिया-कलापों में संलग्न होना पड़ता है। शिशु जब मां के गर्भ से जन्म लेता हैतो ब्रह्म स्वरुप ही होता हैउसी पूर्ण का रूप होता हैपरन्तु गर्भ के बाहर आने के बाद उसके अन्तर्मन पर अन्य लोगों का प्रभाव पड़ता है और इस कारण धीरे-धीरे नवजात शिशु को अपना पूर्णत्व बोध विस्मृत होने लगता है और एक प्रकार से वह पूर्णता से अपूर्णता की ओर अग्रसर होने लगता है।

और इस तरह एक अन्तराल बीत जाता हैवह छोटा शिशु अब वयस्क बन चुका होता है। नित्य नई समस्याओं से जूझता हुआ वह अपने आप को अपने ही आत्मजनों की भीड़ में भी नितान्त अकेला अनुभव करने लगता है। रोज-रोज की भीग-दौड़ से एक तरह से वह थक जाता हैऔर जब उसे याद आती है प्रभु कीतो कभी-कभी पत्थर की मूर्तियों के आगे दो आंसू भी ढुलक देता है।

परन्तु उसे कोई हल मिलता नहीं। चलते-चलते जब कभी पुण्यों के उदय होने पर सदगुरू से मुलाक़ात होती हैतब उसके जीवन में प्रकाश की एक नई किरण फूटती है। ऐसा इसलिए होता हैक्योंकि मात्र सदगुरू ही उसे बोध कराते हैकि वह अपूर्ण था नहीं अपितु बना गया है। गुरुदेव उसे बोध कराते हैंकि वह असहाय नहींअपितु स्वयं उसी के अन्दर अनन्त संभावनाएं भरी पड़ी हैंअसम्भवको भी सम्भव दिखाने की क्षमता छुपी हुई हैगुरु कि इसी क्रिया को दीक्षा कहते हैंजिसमे गुरु अपने प्राणों को भर कर अपनी ऊर्जा को अष्ट्पाश में बंधे जिव में प्रवाहित करते है।

गुरु दीक्षा प्राप्त करने के बाद साधक का मार्ग साधना के क्षेत्र में खुल जाता है। साधनाओं की बात आते ही दस महाविद्या का नाम सबसे ऊपर आता है। प्रत्येक महाविद्या का अपने आप में अलग ही महत्त्व है। लाखों में कोई एक ही ऐसा होता है जिसे सदगुरू से महाविद्या दीक्षा प्राप्त हो पाती है। इस दीक्षा को प्राप्त करने के बाद सिद्धियों के द्वार एक के बाद एक कर साधक के लिए खुलते चले जाते है।

महाकाली महाविद्या दीक्षायह तीव्र प्रतिस्पर्धा का युग है। आप चाहे या न चाहे विघटनकारी तत्व आपके जीवन की शांतिसौहार्द भंग करते ही रहते हैं। एक दृष्ट प्रवृत्ति वाले व्यक्ति की अपेक्षा एक सरल और शांत प्रवृत्ति वाले व्यक्ति के लिए अपमानतिरस्कार के द्वार खुले ही रहते हैं। आज ऐसा एक भी व्यक्ति नहीं हैजिसका कोई शत्रु न हो ... और शत्रु का तात्पर्य मानव जीवन की शत्रुता से ही नहींवरन रोगशोकव्याधिपीडा भी मनुष्य के शत्रु ही कहे जाते हैंजिनसे व्यक्ति हर क्षण त्रस्त रहता है ... और उनसे छुटकारा पाने के लिए टोने टोटके आदि के चक्कर में फंसकर अपने समय और धन दोनों का ही व्यय करता हैपरन्तु फिर भी शत्रुओं से छुटकारा नहीं मिल पाता।

महाकाली दीक्षा 
महाकाली दीक्षा के माध्यम से व्यक्ति शत्रुओं को निस्तेज एवं परास्त करने में सक्षम हो जाता हैचाहे वह शत्रु आभ्यांतरिक हों या बाहरीइस दीक्षा के द्वारा उन पर विजय प्राप्त कर लेता हैक्योंकि महाकाली ही मात्र वे शक्ति स्वरूपा हैंजो शत्रुओं का संहार कर अपने भक्तों को रक्षा कवच प्रदान करती हैं। जीवन में शत्रु बाधा एवं कलह से पूर्ण मुक्ति तथा निर्भीक होकर विजय प्राप्त करने के लिए यह दीक्षा अद्वितीय है। देवी काली के दर्शन भी इस दीक्षा के बाद ही सम्भव होते हैगुरु द्वारा यह दीक्षा प्राप्त होने के बाद ही कालिदास में ज्ञान का स्रोत फूटा थाजिससे उन्होंने 'मेघदूत' , 'ऋतुसंहारजैसे अतुलनीय काव्यों की रचना कीइस दीक्षा से व्यक्ति की शक्ति भी कई गुना बढ़ जाती है।

तारा दीक्षा 
तारा के सिद्ध साधक के बारे में प्रचिलित हैवह जब प्रातः काल उठाता हैतो उसे सिरहाने नित्य दो तोला स्वर्ण प्राप्त होता है। भगवती तारा नित्य अपने साधक को स्वार्णाभूषणों का उपहार देती हैं। तारा महाविद्या दस महाविद्याओं में एक श्रेष्ठ महाविद्या हैं। तारा दीक्षा को प्राप्त करने के बाद साधक को जहां आकस्मिक धन प्राप्ति के योग बनने लगते हैंवहीं उसके अन्दर ज्ञान के बीज का भी प्रस्फुटन होने लगता हैजिसके फलस्वरूप उसके सामने भूत भविष्य के अनेकों रहस्य यदा-कदा प्रकट होने लगते हैं। तारा दीक्षा प्राप्त करने के बाद साधक का सिद्धाश्रम प्राप्ति का लक्ष्य भी प्रशस्त होता हैं।

षोडशी त्रिपुर सुन्दरी दीक्षा  
त्रिपुर सुन्दरी दीक्षा प्राप्त होने से आद्याशक्ति त्रिपुरा शक्ति शरीर की तीन प्रमुख नाडियां इडासुषुम्ना और पिंगला जो मन बुद्धि और चित्त को नियंत्रित करती हैंवह शक्ति जाग्रत होती है। भू भुवः स्वः यह तीनों इसी महाशक्ति से अद्भुत हुए हैंइसीसलिए इसे त्रिपुर सुन्दरी कहा जाता है। इस दीक्षा के माध्यम से जीवन में चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति तो होती ही हैसाथ ही साथ आध्यात्मिक जीवन में भी सम्पूर्णता प्राप्त होती हैकोई भी साधना होचाहे अप्सरा साधना होदेवी साधना होशैव साधना होवैष्णव साधना होयदि उसमें सफलता नहीं मिल रहीं होतो उसको पूर्णता के साथ सिद्ध कराने में यह महाविद्या समर्थ हैयदि इस दीक्षा को पहले प्राप्त कर लिया जाए तो साधना में शीघ्र सफलता मिलती है। गृहस्थ सुखअनुकूल विवाह एवं पौरूष प्राप्ति हेतु इस दीक्षा का विशेष महत्त्व है। मनोवांछित कार्य सिद्धि के लिए भी यह दीक्षा उपयुक्त है। इस दीक्षा से साधक को धर्मअर्थकाम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति होती है।

भुवनेश्वरी दीक्षा  
भूवन अर्थात इस संसार की स्वामिनी भुवनेश्वरीजो 'ह्रींबीज मंत्र धारिणी हैंवे भुवनेश्वरी ब्रह्मा की भी आधिष्ठात्री देवी हैं। महाविद्याओं में प्रमुख भुवनेश्वरी ज्ञान और शक्ति दोनों की समन्वित देवी मानी जाती हैं। जो भुवनेश्वरी सिद्धि प्राप्त करता हैउस साधक का आज्ञा चक्र जाग्रत होकर ज्ञान-शक्तिचेतना-शक्तिस्मरण-शक्ति अत्यन्त विकसित हो जाती है। भुवनेश्वरी को जगतधात्री अर्थात जगत-सुख प्रदान करने वाली देवी कहा गया है। दरिद्रता नाशकुबेर सिद्धिरतिप्रीती प्राप्ति के लिए भुवनेश्वरी साधना उत्तम मानी है है। इस महाविद्या की आराधना एवं दीक्षा प्राप्त करने वाले व्यक्ति की वाणी में सरस्वती का वास होता है। इस महाविद्या की दीक्षा प्राप्त कर भुवनेश्वरी साधना संपन्न करने से साधक को चतुर्वर्ग लाभ प्राप्त होता ही है। यह दीक्षा प्राप्त कर यदि भुवनेश्वरी साधना संपन्न करें तो निश्चित ही पूर्ण सिद्धि प्राप्त होती है।

छिन्नमस्ता महाविद्या दीक्षा  
भगवती छिन्नमस्ता के कटे सर को देखकर यद्यपि मन में भय का संचार अवश्य होता हैपरन्तु यह अत्यन्त उच्चकोटि की महाविद्या दीक्षा है। यदि शत्रु हावी होबने हुए कार्य बिगड़ जाते होंया किसी प्रकार का आपके ऊपर कोई तंत्र प्रयोग होतो यह दीक्षा अत्यन्त प्रभावी है। इस दीक्षा द्वारा कारोबार में सुदृढ़ता प्राप्त होती हैआर्थिक अभाव समाप्त हो जाते हैंसाथ ही व्यक्ति के शरीर का कायाकल्प भी होना प्रारम्भ हो जाता है। इस साधना द्वारा उच्चकोटि की साधनाओं का मार्ग प्रशस्त हो जाता हैतथा उसे मौसम अथवा सर्दी का भी विशेष प्रभाव नहीं पङता है।

त्रिपुर भैरवी दीक्षा भूत-प्रेत एवं इतर योनियों द्वारा बाधा आने पर जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है। ग्रामीण अंचलों में तथा पिछडे क्षेत्रों के साथ ही सभ्य समाज में भी इस प्रकार के कई हादसे सामने आते हैजब की पूरा का पूरा घर ही इन बाधाओं के कारण बर्बादी के कगार पर आकर खडा हो गया हो। त्रिपुर भैरवी दीक्षा से जहां प्रेत बाधा से मुक्ति प्राप्त होती हैवही शारीरिक दुर्बलता भी समाप्त होती हैव्यक्ति का स्वास्थ्य निखारने लगता है। इस दीक्षा को प्राप्त करने के बाद साधक में आत्म शक्ति त्वरित रूप से जाग्रत होने लगती हैऔर बड़ी से बड़ी परिस्थियोंतियों में भी साधक आसानी से विजय प्राप्त कर लेता हैअसाध्य और दुष्कर से दुष्कर कार्यों को भी पूर्ण कर लेता है। दीक्षा प्राप्त होने पर साधक किसी भी स्थान पर निश्चिंतनिर्भय आ जा सकता हैये इतर योनियां स्वयं ही ऐसे साधकों से भय रखती है।

धूमावती दीक्षा 
धूमावती दीक्षा प्राप्त होने से साधक का शरीर मजबूत व् सुदृढ़ हो जाता है। आए दिन और नित्य प्रति ही यदि कोई रोग लगा रहता होया शारीरिक अस्वस्थता निरंतर बनी ही रहती होतो वह भी दूर होने लग जाती है। उसकी आखों में प्रबल तेज व्याप्त हो जाता हैजिससे शत्रु अपने आप में ही भयभीत रहते हैं। इस दीक्षा के प्रभाव से यदि कीसी प्रकार की तंत्र बाधा या प्रेत बाधा आदि होतो वह भी क्षीण हो जाती है। इस दीक्षा को प्राप्त करने के बाद मन में अदभुद साहस का संचार हो जाता हैऔर फिर किसी भी स्थिति में व्यक्ति भयभीत नहीं होता है। तंत्र की कई उच्चाटन क्रियाओं का रहस्य इस दीक्षा के बाद ही साधक के समक्ष खुलता है।

बगलामुखी दीक्षा 
यह दीक्षा अत्यन्त तेजस्वीप्रभावकारी है। इस दीक्षा को प्राप्त करने के बाद साधक निडर एवं निर्भीक हो जाता है। प्रबल से प्रबल शत्रु को निस्तेज करने एवं सर्व कष्ट बाधा निवारण के लिए इससे अधिक उपयुक्त कोई दीक्षा नहीं है। इसके प्रभाव से रूका धन पुनः प्राप्त हो जाता है। भगवती वल्गा अपने साधकों को एक सुरक्षा चक्र प्रदान करती हैंजो साधक को आजीवन हर खतरे से बचाता रहता है।

मातंगी दीक्षा
आज के इस मशीनी युग में जीवन यंत्रवतठूंठ और नीरस बनकर रह गया है। जीवन में सरसताआनंदभोग-विलासप्रेमसुयोग्य पति-पत्नी प्राप्ति के लिए मातंगी दीक्षा अत्यन्त उपयुक्त मानी जाती है। इसके अलावा साधक में वाक् सिद्धि के गुण भी जाते हैं। उसमे आशीर्वाद व् श्राप देने की शक्ति आ जाती है। उसकी वाणी में माधुर्य और सम्मोहन व्याप्त हो जाता है और जब वह बोलता हैतो सुनने वाले उसकी बातों से मुग्ध हो जाते है। इससे शारीरिक सौन्दर्य एवं कान्ति में वृद्धि होती हैरूप यौवन में निखार आता है। इस दीक्षा के माध्यम से ह्रदय में जिस आनन्द रस का संचार होता हैउसके फलतः हजार कठिनाई और तनाव रहते हुए भी व्यक्ति प्रसन्न एवं आनन्द से ओत-प्रोत बना रहता है।

कमला दीक्षा 
धर्मअर्थकाम और मोक्ष इन चार प्रकार के पुरुषार्थों को प्राप्त करना ही सांसारिक प्राप्ति का ध्येय होता है और इसमे से भी लोग अर्थ को अत्यधिक महत्त्व प्रदान करते हैं। इसका कारण यह है की भगवती कमला अर्थ की आधिष्ठात्री देवी है। उनकी आकर्षण शक्ति में जो मात्रु शक्ति का गुण विद्यमान हैउस सहज स्वाभाविक प्रेम के पाश से वे अपने पुत्रों को बांध ही लेती हैं। जो भौतिक सुख के इच्छुक होते हैंउनके लिए कमला सर्वश्रेष्ठ साधना है। यह दीक्षा सर्व शक्ति प्रदायक हैक्योंकि कीर्तिमतिद्युतिपुष्टिबलमेधाश्रद्धाआरोग्यविजय आदि दैवीय शक्तियां कमला महाविद्या के अभिन्न देवियाँ हैं।

प्रत्येक महाविद्या दीक्षा अपने आप में ही अद्वितीय हैसाधक अपने पूर्व जन्म के संस्कारों से प्रेरित होकर या गुरुदेव से निर्देश प्राप्त कर इनमें से कोई भी दीक्षा प्राप्त कर सकते हैं। प्रत्येक दीक्षा के महत्त्व का एक प्रतिशत भी वर्णन स्थानाभाव के कारण यहां नहीं हुआ हैवस्तुतः मात्र एक महाविद्या साधना सफल हो जाने पर ही साधक के लिए सिद्धियों का मार्ग खुल जाता हैऔर एक-एक करके सभी साधनों में सफल होता हुआ वह पूर्णता की ओर अग्रसर हो जाता है।

यहां यह बात भी ध्यान देने योग्य हैकि दीक्षा कोई जादू नहीं हैकोई मदारी का खेल नहीं हैकि बटन दबाया और उधर कठपुतली का नाच शुरू हो गया।

दीक्षा तो एक संस्कार हैजिसके माध्यम से कुस्नास्कारों का क्षय होता हैअज्ञानपाप और दारिद्र्य का नाश होता हैज्ञान शक्ति व् सिद्धि प्राप्त होती है और मन में उमंग व् प्रसन्नता आ पाती है। दीक्षा के द्वारा साधक की पशुवृत्तियों का शमन होता है ... और जब उसके चित्त में शुद्धता आ जाती हैउसके बाद ही इन दीक्षाओं के गुण प्रकट होने लगते हैं और साधक अपने अन्दर सिद्धियों का दर्शन कर आश्चर्य चकित रह जाता है।

जब कोई श्रद्धा भाव से दीक्षा प्राप्त करता हैतो गुरु को भी प्रसनता होती हैकि मैंने बीज को उपजाऊ भूमि में ही रोपा है। वास्तव में ही वे सौभाग्यशाली कहे जाते हैजिन्हें जीवन में योग्य गुरु द्वारा ऐसी दुर्लभ महाविद्या दीक्षाएं प्राप्त होती हैंऐसे साधकों से तो देवता भी इर्ष्या करते हैं।


जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है...मनीष

Monday, May 26, 2014

Kundalini Sadhana (कुण्डलिनी-साधना)


कुण्डलिनी शक्ति क्या है?
योग कुण्डल्युपनिषद् में कुण्डलिनी का वर्णन इस तरह किया गया है- ´कुण्डले अस्या´ स्त: इति: कुण्डलिनी। दो कुण्डल वाली होने के कारण पिण्डस्थ उस शक्ति प्रवाह को कुण्डलिनी कहते हैं। दो कुण्डल अर्थात इड़ा और पिंगला। बाईं ओर से बहने वाली नाड़ी को ´इड़ा´ और दाहिनी ओर से बहने वाली नाड़ी को ´पिगला´ कहते हैं। इन दोनों नाडियों के बीच जिसका प्रवाह होता है, उसे सुषुम्ना नाड़ी कहते हैं। इस सुषुम्ना नाड़ी के साथ और भी नाड़ियां होती है। जिसमें एक चित्रणी नाम की नाड़ी भी होती है। इस चित्रणी नाम की नाड़ी में से होकर कुण्डलिनी शक्ति प्रवाहित होती है, इसलिए सुषुम्ना नाड़ी की दोनों ओर से बहने वाली उपयुक्त 2 नाड़ियां ही कुण्डलिनी शक्ति के 2 कुण्डल हैं।

कुण्डलिनी यज्ञ का विशेष वर्णन करते हुए मुण्डकोपनिषद के २/१/८ संदर्भ में कहा गया है-
 ''सत्तप्राणी उसी से उत्पन्न हुए । अग्नि की सात ज्वालाएँ उसी से प्रकट हुईं । यही सप्त समिधाएँ हैं, यही सात हवि हैं । इनकी ऊर्जा उन सात लोकों तक जाती जिनका सृजन परमेश्वर ने उच्च प्रयोजनों के लिए किया गया है ।''

उपनिषद् में कुण्डलिनी शक्ति के स्वरूप का वर्णन-
मूलाधारस्य वहवयात्म तेजोमध्ये व्यवस्थिता।
जीवशक्ति: कुण्डलाख्या प्राणाकारण तैजसी।।

अर्थात कुण्डलिनी मूलाधार चक्र में स्थित आत्माग्नी तेज के मध्य में स्थित है। वह जीवनी शक्ति है। तेज और प्राणाकार है।

कुण्डलिनी शक्ति का ज्ञानार्णव तंत्र में वर्णन इस प्रकार किया गया है-
मूलाधारे मूलविद्दया विद्युत्कोटि समप्रभासम्।
सूर्यकटि प्रतीकाशां चन्द्रकोटि द्रवां प्रिये।।

अर्थात मूलाधार चक्र में विद्युत प्रकाश ही करोड़ों किरणों वाला, करोड़ों सूर्यो और चन्द्रमाओं के प्रकाश के समान, कमल की डण्डी के समान अविच्छिन्न तीन घेरे डाले हुए मूल विद्या रूपिणी कुण्डलिनी स्थित है। वह कुण्डलिनी परम प्रकाशमय है, अविच्छिन्न शक्तिधारा है और तेजोधारा है।

घेरण्ड संहिता के अनुसार-
घेरण्ड संहिता में कुण्डलिनी को ही आत्मशक्ति या दिव्य शक्ति व परम देवता कहा गया है।

मूलाधारे आत्मशक्ति: कुण्डली परदेवता।
शमिता भुजगाकारा, सार्धत्रिबलयान्विता।।

अर्थात मूलाधार में परम देवी आत्माशक्ति कुण्डलिनी तीन बलय वाली सर्पिणी के समान कुण्डल मारकर सो रही है।

महाकुण्डलिनी प्रोक्त: परब्रह्म स्वरूपिणी।
शब्दब्रह्ममयी देवी एकाऽनेकाक्षराकृति:।।

अर्थात कुण्डलिनी शक्ति परम ब्रह्मा स्वरूपिणी, महादेवी, प्राण स्वरूपिणी तथा एक और अनेक अक्षरों के मंत्रों की आकृति में माला के समान जुड़ी हुई बतायी जाती है।

कन्दोर्ध्व कुण्डली शक्ति: सुप्ता मोक्षाय योगिनाम्।
बन्धनाय च मूढ़ानां यस्तां वेति से योगिवित्।।

अर्थात कन्द के ऊपर कुण्डलिनी शक्ति अवस्थित है। यह कुण्डलिनी शक्ति सोई हुई अवस्था में होती है। इस कुण्डलिनी शक्ति के द्वारा ही योगिजनों को मोक्ष प्राप्त होता है। सुख के बन्धन का कारण भी कुण्डलिनी है। जो कुण्डलिनी शक्ति को अनुभाव पूर्ण रूप से कर पाता है, वही सच्चा योगी होता है।

सप्त लोकों का देवी भागवत में अन्य प्रकार से उल्लेख हुआ है-
उसमें भूः में धरित्री भुवः में वायु स्वः में तेजस महः में महानता, जनः में जनसमुदाय, तपः में तपश्चर्या एवं सत्य में सिद्धवाण्-वाक सिद्धि रूप सात शक्तियाँ समाहित बतायी गयी हैं ।

इस प्रकार कुण्डलिनी योग के अंतर्गत चक्र समुदाय में वह सभी कुछ आ जाता है, जिसकी कि भौतिक और आत्मिक प्रयोजनों के लिए आवश्यकता पड़ती है ।

मानवी काया को एक प्रकार से भूलोक के समान माना गया है। इसमें अवस्थित मूलाधार चक्र को पृथ्वी की तथा सहस्रार को सूर्य की उपमा दी गई है । दोनों के बीच चलने वाले आदान-प्रदान माध्यम को मेरुदण्ड कहा गया है । ब्रह्मरंध्र ब्रह्मण्ड का प्रतीक है । ठीक इसी प्रकार सहस्रार लोक ब्रह्मण्डीय चेतना का अवतरण केन्द्र है और इस महान् भण्डागार में से मूलाधार को जिस कार्य के लिए जितनी मात्रा में जिस स्तर की शक्ति कि आवश्यक्ता होती है उसकी पूर्ति लगातार होती रहती है ।

कुण्डलिनी प्रसंग योग वशिष्ठ, योग चूड़ामणि, देवी भवगत्, शारदा तिलक, शान्डिल्योसपनिषद मुक्ति-कोपनिषद, हठयोग संहिता, कुलार्णन तंत्र, योगिनी तंत्र बिन्दूपनिषद, रुद्र यामल तंत्र सौन्दर्य लहरी आदि गंथों में विस्तार पूर्वक दिया गया है ।

यही कारण है कि ऋग्वेद में ऋषि कहते हैं-
हे ''प्राणाग्नि! मेरे जीवन में ऊषा बनकर प्रकटों अज्ञान का अंधकार दूर करों, ऐसा बल प्रदान करो जिससे देव शक्तियाँ खिंची चली आएँ ।''

त्रिशिखिब्रहोपनिषद में शास्त्रकार ने कहा है-
''योग साधना द्वारा जगाई हुई कुण्डलिनी बिजली के समान लडपती और चमकती है । उससे जो है, सोया सा जागता है । जो जागता है, वह दौड़ने लगता है ।''

महामंत्र में वर्णन आता है-
''जाग्रत हुई कुण्डलिनी असीम शक्ति का प्रसव करती है । उससे नाद बिन्दू, कला के तीनों अभ्यास स्वयंमेव सध जाते हैं । परा, पश्यन्ति, मध्यमा और बैखरी चारों वाणियाँ मुखर हो उठती हैं । इच्छा शक्ति, ज्ञान शक्ति और क्रिया शक्ति में उभार आता है । शरीर-वीणा के सभी तार क्रमबद्ध हो जाते हैं और मधुर ध्वनि में बजते हुए अन्तराल को झंकृत करते हैं । शब्दब्रह्म की यह सिद्धि मनुष्य को जीवनमुक्त कर देवात्मा बना देती है । ''

शरीर में कुण्डलिनी की अवस्था
जननेन्द्रिय के मूल में या लिंग उपस्थ में नाड़ियों का एक गुच्छा है। योग शास्त्रों में इसी को “कन्द” कहा जाता है। इसी पर कुण्डलिनी गहरी नींद में जन्म-जन्मान्तर से सो रही होती है।

कुण्डलो कुटिलाकारा सर्पवत् परिकीर्तिता।
सा शक्तिश्चालिता येन, स युक्तों नात्र संशय।।

अर्थात कुण्डलिनी को सर्प के आकार की कुटिल कहा गया है। जिस तरह सांप कुण्डली मारकर सोता है, उसी प्रकार कुण्डलिनी शक्ति भी आदिकाल से ही मनुष्य के अन्दर सोई हुई रहती है।

यावत्सा निद्रिता देहे तावज्जीव: पयुयेथा।
ज्ञान न जायते तावत् कोटि योगविधेरपि।।

अर्थात जब तक कुण्डलिनी शक्ति मनुष्य के अन्दर सोई हुई अवस्था में रहती है, तब तक मनुष्य परिस्थिति के अधीन रहता है। ऐसे व्यक्ति का आचरण पशुओं के समान होता है। ऐसे व्यक्ति दीन-हीन जीवन यापन करते हैं, तथा उनका रहन-सहन, भावों और विचारों, आहार-विहार आदि में आत्म विश्वास, धैर्य, सूझ-बूझ, उमंग, उत्साह, उल्लास, दृढ़ता, स्थिरता, एकाग्रता, कार्य कुशलता, उदारता और हृदय विशालता जैसे गुणों का अभाव होता है। ऐसे व्यक्ति अनेक योग साधना, पूजा-पाठ आदि करके भी अपने ब्रह्माज्ञान विवेक को प्राप्त नहीं कर पाता।

मूलाधारे प्रसुप्त साऽऽमशक्ति उन्न्द्रिता-
विशुद्धे तिष्ठति मुक्तिरूपा पराशक्ति:।

अर्थात वह प्रबल आत्मशक्ति मूलाधार में सो रही है। उसका प्रयोग किसी बड़े या चमत्कारी कार्य में न होने से वह अपमानित व्यक्ति की तरह शिथिल और गतिहीन बनी हुई है। व्यक्ति के अन्दर जागी हुई इच्छाशक्ति के महान उद्देश्यों की पूर्ति में नियोजित वही शक्ति पराशक्ति के रूप में विराजती है।

कुण्डलिनी जागृत करने का कारण
शरीर के अन्दर कुण्डलिनी शक्ति का जागरण होने से शरीर के अन्दर मौजूद दूषित कफ, पित्त, वात आदि से उत्पन्न होने वाले विकार नष्ट हो जाते हैं। इसके जागरण से मनुष्य के अन्दर काम, क्रोध, लोभ, मोह जैसे दोष, आदि खत्म हो जाते हैं। इस शक्ति का जागरण होने से यह अपनी सोई हुई अवस्था को त्याग कर सीधी हो जाती है और विद्युत तरंग के समान कम्पन के साथ इड़ा, पिंगला नाड़ियों को छोड़कर सुषुम्ना से होते हुए मस्तिष्क में पहुंच जाती है।

कुण्डल्येव भवेच्छक्तिस्तां तु सचालयेत बुध:।
स्पश्यनादाभ्रवोर्मध्य, शक्तिचालनमुच्चते।।

अर्थात अपने अन्दर आंतरिक ज्ञान व अत्याधिक शक्ति की प्राप्ति के लिए सभी मनुष्यों को चाहिए कि वह अपने अन्दर सोई हुई कुण्डलिनी (आत्मशक्ति) का जागरण करें, उसे कार्यशील बनाएं! प्राणायाम के द्वारा जब मूलाधार से स्फूर्ति तरंग की तरह ऊर्जा शक्ति उठकर मस्तिष्क में आती हुई महसूस होने लगे तो समझना चाहिए कि कुण्डलिनी शक्ति जागृत हो चुकी है।

ज्ञेया शक्तिरियं विश्नोनिर्भया स्वर्णभ: स्वरा।

अर्थात शरीर में उत्पन्न होने वाली इस कुण्डलिनी शक्ति को स्वर्ण के समान सुन्दर विष्णु की निर्भय शक्ति ही समझना चाहिए। यही शक्ति आत्मशक्ति, जीवशक्ति आदि नाम से भी जाना जाता है। यही ईश्वरीय शक्ति भी है, प्राणशक्ति और कुण्डलिनी शक्ति भी है। मनुष्य के शरीर में मौजूद कुण्डलिनी शक्ति और पारलौकिक शक्ति दोनों एक ही शक्ति के अलग-अलग रूप हैं।

पतांजलि द्वारा रचित ´योग दर्शन´ शास्त्र के अनुसार-
पतांजलि द्वारा रचित ´योग दर्शन´ शास्त्र के साधनापद में कुण्डलिनी शक्ति के जागरण के अनेकों उपाय बताए गए है। मंत्र ग्रन्थों में जितने योगों का वर्णन है, वे सभी कुण्डलिनी जागरण की ही साधना है। महाबन्ध, महावेध, महामुद्रा, खेचरी मुद्रा, विपरीत करणी मद्रा, अश्विनी मुद्रा, योनि मुद्रा, शक्ति चालिनी मुद्रा, आदि कुण्डलिनी जागरण में सहायता करते हैं। इसमें प्राणायाम के द्वारा कुण्डलिनी को जागरण करना और उसे सुषुम्ना में लाना कुण्डलिनी जागरण का सबसे अच्छा उपाय है। प्राणायाम के द्वारा कुछ समय में ही कुण्डलिनी शक्ति का जागरण कर उसके लाभों को प्राप्त किया जा सकता है।

प्राणायाम से केवल कुण्डलिनी शक्ति ही जागृत ही नहीं होती बल्कि इससे अनेकों लाभ भी प्राप्त होते हैं। ´योग दर्शन´ के अनुसार प्राणायाम के अभ्यास से ज्ञान पर पड़ा हुआ अज्ञान का पर्दा नष्ट हो जाता है। इससे मनुष्य भ्रम, भय, चिंता, असमंजस्य, मूल धारणाएं और अविद्या व अन्धविश्वास आदि नष्ट होकर ज्ञान, अच्छे संस्कार, प्रतिभा, बुद्धि-विवेक आदि का विकास होने लगता है। इस साधना के द्वारा मनुष्य अपने मन को जहां चाहे वहां लगा सकता है। प्राणायाम के द्वारा मन नियंत्रण में रहता है। इससे शरीर, प्राण व मन के सभी विकार नष्ट हो जाते हैं। इससे शारीरिक क्षमता व शक्ति का विकास होता है। प्राणायाम के द्वारा प्राण व मन को वश में करने से ही व्यक्ति आश्चर्यजनक कार्य को कर सकने में समर्थ होता है। प्राणायाम आयु को बढ़ाने वाला, रोगों को दूर करने वाला, वात-पित्त-कफ के विकारों को नष्ट करने वाला होता है। यह मनुष्य के अन्दर ओज-तेज और आकर्षण को बढ़ाता है। यह शरीर में स्फूर्ति, लचक, कोमल, शांति और सुदृढ़ता लाता है। यह रक्त को शुद्ध करने वाला है, चर्म रोग नाशक है। यह जठराग्नि को बढ़ाने वाला, वीर्य दोष को नष्ट करने वाला होता है।

प्राणायाम के द्वारा वीर्य और प्राण के ऊर्ध्वगमन से बुद्धि तंत्र के बन्द कोष खुलते है, साथ ही शरीर की नस-नस में अत्यंत शक्ति, साहस का संचार होने से क्रियाशीलता का विकास भी होता है।

कुंडलिनी जागरण का अर्थ है
मनुष्य को प्राप्त महानशक्ति को जाग्रत करना। यह शक्ति सभी मनुष्यों में सुप्त पड़ी रहती है। कुण्डली शक्ति उस ऊर्जा का नाम है जो हर मनुष्य में जन्मजात पायी जाती है। इसे जगाने के लिए प्रयास या साधना करनी पड़ती है।

कुंडली जागरण के लिए साधक को शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक स्तर पर साधना या प्रयास करना पड़ता है। जप, तप, व्रत-उपवास, पूजा-पाठ, योग आदि के माध्यम से साधक अपनी शारीरिक एवं मानसिक, अशुद्धियों, कमियों और बुराइयों को दूर कर सोई पड़ी शक्तियों को जगाता है। अत: हम कह सकते हैं कि विभिन्न उपायों से अपनी अज्ञात, गुप्त एवं सोई पड़ी शक्तियों का जागरण ही कुंडली जागरण है।

योग और अध्यात्म में इस कुंडलीनी शक्ति का निवास रीढ़ की हड्डी के समानांतर स्थित छ: चक्रों में से प्रथम चक्र मूलाधार के नीचे माना गया है। यह रीढ की हड्डी के आखिरी हिस्से के चारों ओर साढे तीन आँटे लगाकर कुण्डली मारे सोए हुए सांप की तरह सोई रहती है।

आध्यात्मिक भाषा में इन्हें षट्-चक्र कहते हैं।

ये चक्र क्रमश:
इस प्रकार है:- मूलधार-चक्र, स्वाधिष्ठान-चक्र, मणिपुर-चक्र, अनाहत-चक्र, विशुद्ध-चक्र, आज्ञा-चक्र। साधक क्रमश: एक-एक चक्र को जाग्रत करते हुए, आज्ञा-चक्र तक पहुंचता है। मूलाधार-चक्र से प्रारंभ होकर आज्ञाचक्र तक की सफलतम यात्रा ही कुण्डलिनी जागरण कहलाता है।

षट्-चक्र एक प्रकार की सूक्ष्म ग्रंथियां है। इन चक्र ग्रंथियों में जब साधक अपने ध्यान को एकाग्र करता है तो उसे वहां की सूक्ष्म स्थिति का बड़ा विचित्र अनुभव होता है। इन चक्रों में विविध शक्तियां समाहित होती है। उत्पादन, पोषण, संहार, ज्ञान, समृद्धि, बल आदि। साधक जप के द्वारा ध्वनि तरंगों को चक्रों तक भेजता है। इन पर ध्यान एकाग्र करता है। प्राणायम द्वारा चक्रों को उत्तेजित करता है। आसनों द्वारा शरीर को इसके लिए उपयुक्त बनाता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि विभिन्न शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक प्रयासों के द्वारा साधक, शक्ति के केंद्र इन चक्रों को जाग्रत करता है।

वैदिक ग्रन्थों में लिखा है कि मानव शरीर आत्मा का भौतिक घर मात्र है। आत्मा सात प्रकार के कोषों से ढकी हुई हैः- १- अन्नमय कोष (द्रव्य, भौतिक शरीर के रूप में जो भोजन करने से स्थिर रहता है), २- प्राणामय कोष (जीवन शक्ति), ३- मनोमय कोष (मस्तिष्क जो स्पष्टतः बुद्धि से भिन्न है), ४- विज्ञानमय कोष (बुद्धिमत्ता), ५- आनन्दमय कोष (आनन्द या अक्षय आनन्द जो शरीर या दिमाग से सम्बन्धित नहीं होता), ६- चित्-मय कोष (आध्यात्मिक बुद्धिमत्ता) तथा ७- सत्-मय कोष (अन्तिम अवस्था जो अनन्त के साथ मिल जाती है)। मनुष्य के आध्यात्मिक रूप से पूर्ण विकसित होने के लिये सातों कोषों का पूर्ण विकास होना अति आवश्यक है।

साधक की कुण्डलिनी जब चेतन होकर सहस्त्रार में लय हो जाती है, तो इसी को मोक्ष कहा गया है।

कुण्डलिनी योग के अंतर्गत शक्तिपात विधान का वर्णन अनेक ग्रंथों में मिलता है जैसे-
योग वशिष्ठ, तेजबिन्दूनिषद्, योग चूड़ामणि, ज्ञान संकलिनी तंत्र, शिव पुराण, देवी भागवत, शाण्डिपनिषद, मुक्तिकोपनिषद, हठयोग संहिता, कुलार्णव तंत्र, योगनी तंत्र, घेरंड संहिता, कंठ श्रुति ध्यान बिन्दूपनिषद, रुद्र यामल तंत्र, योग कुण्डलिनी उपनिषद्, शारदा तिलक आदि ग्रंथों में इस विद्या के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डाला गया है ।

तैत्तरीय आरण्यक में चक्रों को देवलोक एवं देव संस्थान कहा गया । शंकराचार्य कृत आनन्द लहरी के १७ वें श्लोक में भी ऐसा ही प्रतिपादन है ।

योग दर्शन समाधिपाद का ३६वाँ सूत्र है-
'विशोकाया ज्योतिष्मती'
इसमें शोक संतापों का हरण करने वाली ज्योति शक्ति के रूप में कुण्डलिनी शक्ति की ओर संकेत है।

हमारे ऋषियों ने गहन शोध के बाद इस सिद्धान्त को स्वीकार किया कि जो ब्रह्माण्ड में है, वही सब कुछ पिण्ड (शरीर) में है। इस प्रकार “मूलाधार-चक्र” से “कण्ठ पर्यन्त” तक का जगत “माया” का और “कण्ठ” से लेकर ऊपर का जगत “परब्रह्म” का है।

मूलाद्धाराद्धि षट्चक्रं शक्तिरथानमूदीरतम् ।
कण्ठादुपरि मूर्द्धान्तं शाम्भव स्थानमुच्यते॥ -वराहश्रुति

अर्थात मूलाधार से कण्ठपर्यन्त शक्ति का स्थान है । कण्ठ से ऊपर से मस्तक तक शाम्भव स्थान है ।

मूलाधार से सहस्रार तक की यात्रा को ही महायात्रा कहते हैं । योगी इसी मार्ग को पूरा करते हुए परम लक्ष्य तक पहुँचते हैं । जीव, सत्ता, प्राण, शक्ति का निवास जननेन्द्रिय मूल में है । प्राण उसी भूमि में रहने वाले रज वीर्य से उत्पन्न होते हैं । ब्रह्म सत्ता का निवास ब्रह्मलोक (ब्रह्मरन्ध्र) में माना गया है । यही द्युलोक, देवलोक, स्वर्गलोक है। आत्मज्ञान (ब्रह्मज्ञान) का सूर्य इसी लोक में निवास करता है ।

पतन के गर्त में पड़ी क्षत-विक्षत आत्म सत्ता अब उर्ध्वगामी होती है तो उसका लक्ष्य इसी ब्रह्मलोक (सूर्यलोक) तक पहुँचना होता है । योगाभ्यास का परम पुरुषार्थ इसी निमित्त किया जाता है । कुण्डलिनी जागरण का उद्देश्य यही है ।

आत्मोत्कर्ष की महायात्रा जिस मार्ग से होती है उसे मेरुदण्ड या सुषुम्ना कहते हैं ।

मेरुदण्ड को राजमार्ग या महामार्ग कहते हैं । इसे धरती से स्वर्ग पहुँचने का देवयान मार्ग कहा गया है । इस यात्रा के मध्य में सात लोक हैं । इस्लाम धर्म के सातवें आसमान पर खुदा का निवास माना गया है । ईसाई धर्म में भी इससे मिलती-जुलती मान्यता है । हिन्दू धर्म के भूः, भुवः, स्वः, तपः, महः, सत्यम् यह सात-लोक प्रसिद्ध है । आत्मा और परमात्मा के मध्य इन्हें विराम स्थल माना गया है ।

षट्-चक्र-भेदन-
षट्-चक्र-भेदन विधान कितना उपयोगी एवं सहायक है इसकी चर्चा करते हुए ‘आत्म विवेक’ नामक साधना ग्रंथ में कहा गया है कि-
गुदालिङान्तरे चक्रमाधारं तु चतुर्दलम्।
परमः सहजस्तद्वदानन्दो वीरपूर्वकः॥
योगानन्दश्च तस्य स्यादीशानादिदले फलम्।
स्वाधिष्ठानं लिंगमूले षट्पत्रञ्त्र् क्रमस्य तु॥
पूर्वादिषु दलेष्वाहुः फलान्येतान्यनुक्रमात्।
प्रश्रयः क्रूरता गर्वों नाशो मूच्छर् ततः परम्॥
अवज्ञा स्यादविश्वासो जीवस्य चरतो ध्रुरवम्।
नाभौ दशदलं चक्रं मणिपूरकसंज्ञकम्।
सुषुप्तिरत्र तृष्णा स्यादीष्र्या पिशुनता तथा॥
लज्ज् भयं घृणा मोहः कषायोऽथ विषादिता।
लौन्यं प्रनाशः कपटं वितर्कोऽप्यनुपिता॥
आश्शा प्रकाशश्चिन्ता च समीहा ममता ततः।
क्रमेण दम्भोवैकल्यं विवकोऽहंक्वतिस्तथा॥
फलान्येतानि पूर्वादिदस्थस्यात्मनों जगुः।
कण्ठेऽस्ति भारतीस्थानं विशुद्धिः षोडशच्छदम्॥
तत्र प्रणव उद्गीथो हुँ फट् वषट् स्वधा तथा।
स्वाहा नमोऽमृतं सप्त स्वराः षड्जादयो विष॥
इति पूर्वादिपत्रस्थे फलान्यात्मनि षोडश॥

(1) गुदा और लिंग के बीच चार दल (पंखुड़ियों) वाला ‘आधार चक्र’ है। वहाँ वीरता और आनन्द भाव का वास है।

(2) इसके बाद स्वाधिष्ठान-चक्र लिंग मूल में है। इसके छः दल हैं। इसके जाग्रत होने पर क्रूरता, गर्व, आलस्य, प्रमाद, अवज्ञा, अविश्वास आदि दुर्गणों का नाश होता है।

चक्रों की जागृति मनुष्य के गुण, कर्म, स्वभाव को प्रभावित करती है। स्वाधिष्ठान की जागृति से मनुष्य अपने में नव शक्ति का संचार अनुभव करता है। उसे बलिष्ठता बढ़ती प्रतीत होती है। श्रम में उत्साह और गति में स्फूर्ति की अभिवृद्धि का आभास मिलता है।

(3) नाभि में दस दल वाला मणिपूर-चक्र है। यह प्रसुप्त पड़ा रहे तो तृष्णा, ईर्ष्या, चुगली, लज्जा, भय, घृणा, मोह, आदि कषाय-कल्मष मन में जड़ जमाये रहते हैं।

मणिपूर चक्र से साहस और उत्साह की मात्रा बढ़ जाती है। संकल्प दृढ़ होते हैं और पराक्रम करने के हौसले उठते हैं। मनोविकार स्वयंमेव घटते जाते हैं और परमार्थ प्रयोजनों में अपेक्षाकृत अधिक रस मिलने लगता है।

(4) हृदय स्थान में अनाहत-चक्र है। यह बारह दल वाला है। यह सोता रहे तो लिप्सा, कपट, तोड़-फोड़, कुतर्क, चिन्ता, मोह, दम्भ, अविवेक तथा अहंकार से साधक भरा रहेगा। इसके जागरण होने पर यह सब दुर्गुण हट जायेंगे।

अनाहत चक्र की महिमा ईसाई धर्म में सबसे ज्यादा मानी जाती है। हृदय स्थान पर कमल के फूल की भावना करते हैं और उसे महाप्रभु ईसा का प्रतीक ‘आईचीन’ कनक कमल मानते हैं। भारतीय योगियों की दृष्टि से यह भाव संस्थान है। कलात्मक उमंगें-रसानुभुति एवं कोमल संवेदनाओं का उत्पादक स्रोत यही है। बुद्धि की वह परत जिसे विवेक-शीलता कहते हैं। आत्मीयता का विस्तार, सहानुभूति एवं उदार सेवा, सहाकारिता, इस अनाहत चक्र से ही उद्भूत होते हैं।

(5) कण्ठ में विशुद्ध-चक्र है। यह सरस्वती का स्थान है। यह सोलह दल वाला है। यहाँ सोलह कलाएँ तथा सोलह विभूतियाँ विद्यमान है।

कण्ठ में विशुद्ध चक्र है। इसमें बहिरंग स्वच्छता और अंतरंग पवित्रता के तत्त्व रहते हैं। दोष व दुर्गुणों के निराकरण की प्रेरणा और तदनुरूप संघर्ष क्षमता यहीं से उत्पन्न होती है। मेरुदण्ड में कंठ की सीध पर अवस्थित विशुद्ध चक्र, चित्त संस्थान को प्रभावित करता है। तदनुसार चेतना की अति महत्वपूर्ण परतों पर नियंत्रण करने और विकसित एवं परिष्कृत कर सकने के सूत्र हाथ में आ जाते हैं। नादयोग के माध्यम से दिव्य श्रवण जैसी कितनी ही परोक्षानुभूतियाँ विकसित होने लगती हैं।

(6) भ्रू-मध्य में आज्ञा चक्र है। यहाँ- ॐ, उद्गीय, हूँ, फट, विषद, स्वधा, स्वहा, सप्त स्वर आदि का वास है। आज्ञा चक्र के जागरण होने से यह सभी शक्तियाँ जाग जाती हैं।

(7) सहस्रार मस्तिष्क के मध्य भाग में है। शरीर संरचना में इस स्थान पर अनेक महत्वपूर्ण ग्रंथियों का अस्तित्व है। वहाँ से ऊर्जा का स्वयंभू प्रवाह होता है। यह ऊर्जा मस्तिष्क के अगणित केन्द्रों की ओर जाती/दौड़ती हैं। इसमें से छोटी-छोटी किरणे निकलती रहती हैं। उनकी संख्या की सही गणना तो नहीं हो सकती, पर वे हजारों में होती है। इसलिए इस चक्र के लिये ‘सहस्रार’ शब्द प्रयोग में लाया जाता है। सहस्रार चक्र का नामकरण इसी आधार पर हुआ है।

यह संस्थान ब्रह्माण्डीय चेतना के साथ सम्पर्क साधने में अग्रणी है, इसलिए उसे ब्रह्मरन्ध्र या ब्रह्मलोक भी कहते हैं। हिन्दू धर्मानुयायी इस स्थान पर शिखा रखते हैं।

कबीर साहिब ने अपनी निम्नलिखित प्रसिद्ध रचना ‘कर नैनों दीदार महल में प्यारा है’ में सब कमलों का वर्णन विस्तार पूर्वक इस प्रकार किया है-
कर नैनो दीदार महल में प्यारा है ॥टेक॥
काम क्रोध मद लोभ बिसारो, सील संतोष छिमा सत धारो ।
मद्य मांस मिथ्या तजि डारो, हो ज्ञान घोड़े असवार, भरम से न्यारा है ॥1॥
धोती नेती वस्ती पाओ, आसन पद्म जुगत से लाओ ।
कुंभक कर रेचक करवाओ, पहिले मूल सुधार कारज हो सारा है ॥2॥
मूल कँवल दल चतुर बखानो, कलिंग जाप लाल रंग मानो ।
देव गनेस तह रोपा थानो, रिध सिध चँवर ढुलारा है ॥3॥
स्वाद चक्र षट्दल बिस्तारो, ब्रह्मा सावित्री रूप निहारो ।
उलटि नागिनी का सिर मारो, तहां शब्द ओंकारा है ॥4॥
नाभी अष्टकँवल दल साजा, सेत सिंहासन बिस्नु बिराजा ।
हिरिंग जाप तासु मुख गाजा, लछमी सिव आधारा है ॥5॥
द्वादस कँवल हृदय के माहीं, जंग गौर सिव ध्यान लगाई ।
सोहं शब्द तहां धुन छाई, गन करै जैजैकारा है ॥6॥
षोड़श दल कँवल कंठ के माहीं, तेहि मध बसे अविद्या बाई ।
हरि हर ब्रह्मा चँवर ढुराई, जहं शारिंग नाम उचारा है ॥7॥
ता पर कंज कँवल है भाई, बग भौरा दुह रूप लखाई ।
निज मन करत तहां ठुकराई, सौ नैनन पिछवारा है ॥8॥
कंवलन भेद किया निर्वारा, यह सब रचना पिण्ड मंझारा ।
सतसंग कर सतगुरु सिर धारा, वह सतनाम उचारा है ॥9॥
आंख कान मुख बंद कराओ अनहद झिंगा सब्द सुनाओ ।
दोनों तिल इकतार मिलाओ, तब देखो गुलजारा है ॥10॥
चंद सूर एकै घर लाओ, सुषमन सेती ध्यान लगाओ ।
तिरबेनी के संघ समाओ, भोर उतर चल पारा है ॥11॥
घंटा संख सुनो धुन दोई सहस कँवल दल जगमग होई ।
ता मध करता निरखो सोई, बंकनाल धस पारा है ॥12॥
डाकिन साकिनी बहु किलकारें, जम किंकर धर्म दूत हकारें ।
सत्तनाम सुन भागें सारे, जब सतगुरु नाम उचारा है ॥13॥
गगन मंडल विच उर्धमुख कुइआ, गुरुमुख साधू भर भर पीया ।
निगुरे प्यास मरे बिन कीया, जा के हिये अंधियारा है ॥14॥
त्रिकुटी महल में विद्या सारा, घनहर गरजें बजे नगारा ।
लाला बरन सूरज उजियारा, चतुर कंवल मंझार सब्द ओंकारा है ॥15॥
साध सोई जिन यह गढ़ लीना, नौ दरवाजे परगट चीन्हा ।
दसवां खोल जाय जिन दीन्हा, जहां कुंफुल रहा मारा है ॥16॥
आगे सेत सुन्न है भाई, मानसरोवर पैठि अन्हाई ।
हंसन मिल हंसा होइ जाई, मिलै जो अमी अहारा है ॥17॥
किंगरी सारंग बजै सितारा, अच्छर ब्रह्म सुन्न दरबारा ।
द्वादस भानु हंस उजियारा, खट दल कंवल मंझार सब्द रारंकारा है ॥18॥
महासुन्न सिंध बिषमी घाटी, बिन सतगुर पावै नाही बाटी ।
ब्याघर सिंह सरप बहु काटी, तहं सहज अचिंत पसारा है ॥19॥
अष्ट दल कंवल पारब्रह्म भाई, दाहिने द्वादस अचिंत रहाई ।
बायें दस दल सहज समाई, यूं कंवलन निरवारा है ॥20॥
पांच ब्रह्म पांचों अंड बीनो, पांच ब्रह्म निःअक्षर चीन्हो ।
चार मुकाम गुप्त तहं कीन्हो, जा मध बंदीवान पुरुष दरबारा है ॥21॥
दो पर्बत के संध निहारो, भंवर गुफा ते संत पुकारो ।
हंसा करते केल अपारो, तहां गुरन दरबारा है ॥22॥
सहस अठासी दीप रचाये, हीरे पन्ने महल जड़ाये ।
मुरली बजत अखंड सदाये, तहं सोहं झुनकारा है ॥23॥
सोहं हद्द तजी जब भाई, सत्त लोक की हद पुनि आई ।
उठत सुगंध महा अधिकाई, जा को वार न पारा है ॥24॥
षोड़स भानु हंस को रूपा, बीना सत धुन बजै अनूपा ।
हंसा करत चंवर सिर भूपा, सत्त पुरुष दरबारा है ॥25॥
कोटिन भानु उदय जो होई, एते ही पुनि चंद्र लखोई ।
पुरुष रोम सम एक न होई, ऐसा पुरुष दीदारा है ॥26॥
आगे अलख लोक है भाई, अलख पुरुष की तहं ठकुराई ।
अरबन सूर रोम सम नाहीं, ऐसा अलख निहारा है ॥27॥
ता पर अगम महल इक साजा, अगम पुरुष ताहि को राजा ।
खरबन सूर रोम इक लाजा, ऐसा अगम अपारा है ॥28॥
ता पर अकह लोक हैं भाई, पुरुष अनामी तहां रहाई ।
जो पहुँचा जानेगा वाही, कहन सुनन से न्यारा है ॥29॥
काया भेद किया निर्बारा, यह सब रचना पिंड मंझारा ।
माया अवगति जाल पसारा, सो कारीगर भारा है ॥30॥
आदि माया कीन्ही चतुराई, झूठी बाजी पिंड दिखाई ।
अवगति रचन रची अंड माहीं, ता का प्रतिबिंब डारा है ॥31॥
सब्द बिहंगम चाल हमारी, कहैं कबीर सतगुर दइ तारी ।
खुले कपाट सब्द झुनकारी, पिंड अंड के पार सो देस हमारा है ॥32॥

कुण्डलिनी शक्ति 
अभी तक हमने जितना समझा है, वह सब शास्त्रों के अनुसार समझा है कि कुण्डलिनी शक्ति क्या है और कैसे काम करती है। अब अपनी बात कुण्डलनी शक्ति इन्सान के शरीर में उस परमात्मा द्वारा दी गई समस्त शक्तियों में से सबसे ज्यादा शक्तिशाली एवं अति गुप्त विद्या है। कुण्डलिनी शक्ति के ऊपर प्रारम्भ से ही अनेको बार, अनेको व्याखायें दी जा चुकी है। तथा अनेको बार इसके ऊपर शास्त्रार्थ हो चुका है। आज के समय में साधकों का सम्प्रदाय दो हिस्सों में बट चुका है। जो साधक संत मत को मानते हैं, वे कुण्डलिनी शक्ति से दूर रहते है, अर्थात कुण्डलनी शक्ति को जगाना और इसके बारे में जानना वो आवश्यक नहीं समझते। उनके अनुसार आज्ञा चक्र पर ध्यान लगाना और नाम का जाप करना, इसको ही वो प्रधान मानते है। ये साधक आज्ञा चक्र से नीचे के चक्रो को कोई भी महत्व देना पसन्द नहीं करते। इनके अनुसार नीचे के चक्रो पर साधना करने का मतलब है- समय की बरबादी। इनके अनुसार कुन्डलिनी शक्ति जाग्रत हो कर आज्ञा चक्र पर ही पहुँचती है। इसलिये क्यो न आज्ञा चक्र से ही यात्रा शुरू की जाये। आज्ञा चक्र से साधना करने का कितना फायदा होता है, यह तो वही साधक जाने।

किन्तु हमारी दृष्टी में ऐसा सम्भव नहीं है, क्योंकि बिना कुन्डलिनी शक्ति के जाग्रत हुऐ आज्ञा चक्र का जाग्रत होना असम्भव है। क्योंकि सभी चक्रो को जाग्रत करने के मूल में कुण्डलिनी शक्ति का महत्वपूर्ण योगदान है। जो साधक सीधे ही आज्ञा चक्र से साधना प्रारम्भ करते है। सालों-साल बीत जाने पर भी उनकी मानसिक स्थिती और उनकी विचारधारा में तनिक/बिलकुल भी बदलाव नहीं आता। यदि उन से इस बारे में पूछा जाये तो उनके अनुसार कम-से-कम चार जन्मो में वो अपनी मुक्ति मानते है। कोई उनसे पूछने वाला हो तो कि यह जन्म तो बिताना इतना मुश्किल है। आगे के तीन जन्मो के बारे में क्या बात करें।
उन साधकों के अनुसार यदि गुरू कृपा हो तो चार जन्म में मुक्ति सम्भव है और यह साधक सिर्फ मुक्ति के लिये ही साधना करते है। गुरू और नाम जाप पर इनकी पूर्ण श्रद्धा होती है। इनमे से अधिकांश साधक नीचे के चक्रो के नाम से ही डरते है, वो कहते है कि- यदि नीचे के चक्र जाग्रत हो गये तो अनेको सिद्धियाँ की प्राप्ति होगी, जिससे कि साधक मुक्ति के मार्ग से भ्रष्ट हो सकता है और सिद्धियों के लालच में फंस कर अपने आप को खराब कर लेता है।

लेकिन जब इन साधकों की नाम और गुरू के प्रति इतनी श्रद्धा और विश्वास है, तो यह साधक कैसे भटक सकते है, क्योंकि इनका पूर्ण गुरू तो हर वक्त इनके साथ है फिर भटकाव क्यों और कैसे?

हमारी नजर में कोई माने या न माने या तो इनके गुरूओं को कुण्डलिनी शक्ति जागरण का विधान, उसके नियम आदि नहीं मालूम और यदि मालूम है तो- ये अपने शिष्यों को बताना या सिखाना नहीं चाहते, क्योंकि कुण्डलिनी जागरण की प्रकिया बहुत ही गहन और जटिल है। कुण्डलिनी जागरण के दौरान गुरू-शिष्य का साथ-साथ पुरूषार्थ करना अति आवश्यक है। मात्र प्रवचन दे कर या शास्त्रों/ग्रन्थो की काहानियाँ सुना कर या रामायण, गीता आदि का उपदेश दे कर कुण्डलिनी जागरण सम्भव नहीं है।

असल में कुण्डलिनी शक्ति के लिये पूरी मेहनत, पूर्ण आत्म-विश्वास और पूर्ण-गुरु का होना आवश्यक है। क्योंकि कुन्डलिनी शक्ति जाग्रत होने पर मात्र मोक्ष ही नहीं, भोग भी प्रदान करती है।

मोटे तोर पर आज का साधक सम्प्रदाय तीन हिसों में बटा हुआ है। ध्यान-योग, हठ-योग और तन्त्र योग। तंत्र को, साधक योग नही मानते। उनकी नजर में तंत्र या तो एक वीभत्स क्रिया है, या फिर एक चमत्कार दिखाने की विधि। हमारी नजर में तंत्र का अर्थ है- तन्+प्राण= तन से मुक्ति पाने का उपाय तंत्र है, अर्थात अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय आदि सप्त शरीरो से मुक्ति पाना और आत्मा का उस परमात्मा में पूर्ण लय होना ही तंत्र है। पूर्ण तंत्र में बिन्दू का रज से मिलन करना ही कुण्डलिनी शक्ति है, अर्थात तंत्र की सर्वोच्चय-भैरवी-साधना ही कुन्डलिनी साधना है। जैसे-जैसे साधक अपने आप को उधर्व-मुखी करना शुरू करते है। उनकी कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत हो कर पूर्ण यात्रा को निकल पड़ती है। आदि शंकराचार्य ने इस कुण्डलिनी शक्ति का प्रारूप ‘श्री यंत्र अर्थात श्री चक्र’ को बनाया है।

बहुत ही ध्यान पुर्वक यदि हम तंत्र और संत मत का अध्ययन या विश्लेषण करे तो हमे ऐसा महसूस होगा जैसे किसी ने हमारी बुद्धि को ठग लिया हो। संत मत के अनुसार-

ब्रह्मा मरे, विष्णु मरे, मरे शंकर भगवान।
अक्षर मरे, क्षर मरे, तब प्रकटे पूर्ण भगवान॥

तंत्र के अनुसार ‘श्री चक्र’ में स्थित कामेश्वर और कामेश्वरी जहाँ वास करते हैं। जिस आसन पर विराजमान रहते है, उस आसन का पूर्व दिशा का पाया ब्रह्म-प्रेत है अर्थात वहाँ पर ब्रह्मा को प्रेत माना गया है। पश्चिमी पाया विष्णु-प्रेत अर्थात वहाँ पर श्री हरी को प्रेत रूप में माना गया है। दक्षिण दिशा का पाया रूद्र-प्रेत अर्थात यहाँ पर शिव को मृत माना गया है। उत्तर पाया ईश्वर-प्रेत माना गया है, यहाँ पर अक्षर-ब्रह्म को मृत माना गया है। कामेश्वर और कामेश्वरी जिस फलक के उपर आसीन है, उसे सदाशिव या क्षर-ब्रहम माना गया है। असल में कामेश्वर और कामेश्वरी कोई देवी या देवता नही है, बल्कि आत्मा-रूपी कामेश्वरी ही, परब्रह्म रूपी कामेश्वर के साथ आलिंगन बद्ध है।

जहाँ संत मत सिर्फ गुरू-तत्व का ध्यान करता है। वहीं तंत्र या हठ-योगी अनेकों प्रकार की क्रियायें करके सभी प्रकार का आंनद लेते हुऐ अपनी आत्मा रूपी प्रेयसी को प्रीतम रूपी परमात्मा से मिला देता है। हठ योग की साधना का आधार अष्टाँग योग है। इसके अंतरगत आसन, प्रणायाम, बन्द, यम-नियम मुख्य है। साथ ही ध्यान-धारणा और समाधी के द्वारा कुण्डलिनी जागरण करना इनका ध्येय है। इन साधकों की नजर में यदि प्राण-वायु की अपान-वायु में एवं अपान-वायु की प्राण-वायु में आहुति दे दी जाये तो कुण्डलिनी जागरण सम्भव हैं। इसके लिये हठ-योगी मूल रूप से तीन बन्धो को प्रयोग करते है- मूल-बन्द, उड़ियान-बन्ध, जालन्धर-बन्ध। मूल-बन्ध अर्थात गुदा का संकोचन अर्थात अपान वायु का बाहर न निकलने देना। उड़ियान बन्ध अर्थात पूर्ण-बाह्य-कुम्भक का प्रयोग करना। जालन्धर बन्द अर्थात अपनी ठोड़ी का अपने कन्ठ से लगाना।

हमारा ध्येय किसी भी साधना को अच्छा या बुरा बताना नहीं है। जैसा की आज के समय में अधिकतर पुरूष अपने योग को बड़ा और दूसरे के योग को छोटा बताते है। साधकों की इसी विचार धारा की वजह से ही हिन्दुस्तान से अनेकों विद्याये लुप्त हो गई है।

हम एक उदाहरण दे कर समस्त साधकों को समझाने की कोशिश/प्रयास करते है। आपको समझ में आये या न आये यह हमारे बस में नहीं है। जब हम अपने बच्चे को स्कूल ले कर जाते है, तो हम हर चीज का ध्यान रखते है, जैसे की- स्कूल, उसके अध्यापक, केन्टीन और सबसे खास चीज विषय(सब्जेक्ट), बच्चों को पढ़ाये जाने वाली पुस्तकें आदि। हम अपने बच्चे को मात्र एक ही विषय नहीं दिलवाते, उसके सभी विषयों का ख्याल रखते है। साथ में ही खेलना, कुदना, नृत्य आदि का भी ध्यान रखते है। हम अपने बच्चे को सब कुछ देते है, किन्तु वह बच्चा किसी विशेष विषय की तरफ अपना विशेष ध्यान देता है, और बाकी सभी विषयों को साधारण रूप से ग्रहण करता है। अधिकतर ऐसा होता है की माँ-बाप उसे डॉक्टर, इंजीनियर आदि बनाना चाहते है, किन्तु वह बच्चा बनता कुछ ओर ही है। यदि बच्चे को स्कूल में होमवर्क ना मिले या उसकी चेकिंग न हो तो हम अपनी शिकायत ले कर मुख्य-अध्यापक के पास पहुँच जाते है।

हम अपने जीवन में हर चीज का ख्याल रखते है, हर चीज पर ध्यान देते है। किन्तु हमने साधना मार्ग को इतना सस्ता क्यों जान लिया? क्यों मान लिया?

क्या साधना मार्ग इतना सस्ता है कि, कोई भी साधारण व्यक्ति, किसी भी गुरू या संत के पास जा कर दीक्षा ग्रहण करे और नाम का जाप करे, तो क्या मुक्ति सम्भव है?

आज के गुरूओं और शिष्यों, दोनो ने मिल कर साधना और मुक्ति के मायने ही बदल दिये हैं। हमारी नजर में मात्र शब्द का रट्टा लगा कर, कहानियाँ, किताबें पढ़कर प्रवचन सुन कर मुक्ति सम्भव नहीं है।

मुक्ति एक महान और उच्च स्थान है। जहाँ पहुँच कर आत्मा सभी बंधनों से मुक्त हो जाती है।

कुण्डलिनी साधना के लिये हमे तपना पड़ता है। अत्यधिक मेहनत की जरूरत होती है। जैसे कोई व्यक्ति जब किसी विशेष परीक्षा की तैयारी करता है तो, वह तैयारी के दौरान हर तरफ से अपना ध्यान हटा कर अपनी शिक्षा पर केन्द्रित करता है। मात्र कुछ दिनो के लिये वह अपना सब सुख-सुविधा का त्याग करके अपनी शिक्षा को पूर्ण करता है, और शिक्षा पूर्ण होने पर अर्थात उसको एक अच्छी नौकरी लग जाने पर वह सन्तुष्ट हो कर सारी-उम्र सभी सुखों का भोग भोगता है। उसी प्रकार यदि एक साधक चाहे तो अपनी साधना के बल पर पूर्ण मुक्ति का फल प्राप्त कर सकता है, और मुक्त हुई जीव आत्मा शरीर में रहते हुऐ भी उन महान भोगों को भोगती है। जिस के लिये बड़े-बड़े सेठ साहुकार और धनी तरसते है।

चलते-चलते दो बात- यदि नीचे के चक्र, माया रूप हैं, जैसा कि कुछ मत या पंथों का मानना है और ऊपर के चक्र असली है तो जो चक्र(लोक) ब्रह्माण्ड में है वे क्या हैं?

चाहे नीचे के चक्र यानि लोक हो या ऊपर के चक्र हो, हैं तो शरीर के अन्दर ही।

जो अण्ड में है, वो पिण्ड में हैं और जो पिण्ड में हैं, वो अण्ड में हैं। यह कहना तो ठीक है किन्तु जब मृत्यु के उपरान्त जब पिण्ड जलकर ख़ाक हो जाएगा तो फिर आत्मा किस चक्र या लोक में वास करेगी। क्योंकि सारी उम्र तो पिण्ड में अण्ड का आभास करके, पिण्ड के लोकों यानि चक्रो की साधना की है। लेकिन जब पिण्ड खत्म हो जाएगा, तो आत्मा को किस लोक में स्थान मिलेगा, फैसला तो तब ही होगा। क्योंकि मन के सहारे जिन लोको की साधना की थी, वे तो खत्म हो गये। अब आत्मा के सामने असली लोक अर्थात मण्डल हैं। जिनके देवों की साधना नहीं की, कभी आराधना नहीं की। क्या वे देव इस आत्मा को अपने लोक में स्थान देंगे, कदापि नहीं। मन को जितना मर्जी भरमा लो, शिष्यों को जितना मर्जी बहका लो। सत्य तो एक दिन खुल कर रहेगा, कि पिण्ड के बाहार जो है, वही सत्य है और पिण्ड के अन्दर जो है वह मिथ्या है। इसलिये कुछ संतों ने जगत को मिथ्या या माया का खेल कहा है।

जब तक सूक्ष्म-शरीर, स्थूल-शरीर से अलग हो कर ब्रह्माण्ड के सत्य लोको या मण्डलों की आराधना, सेवा, भजन, दर्शन नहीं करेगा, तब तक सब बेकार है। सूक्ष्म-शरीर को स्थूल-शरीर से अलग करने का मात्र एक ही विधान है- कुण्डलिनी साधना।

उदाहरण के तौर पर- जिस प्रकार एक छोटा बच्चा खाना पीना, बोलना-चलना, लिखना-पढ़ना आदि का प्रारम्भ तो घर से ही करता है, किन्तु कुछ समय बाद हम उसे उच्च शिक्षा हेतु अच्छे विद्यालय में प्रवेश करा देते हैं। उसी प्रकार एक साधक के लिये साधना का प्रारम्भ तो शरीर में स्थित मण्डलों से ही होता है, किन्तु जब सूक्ष्म-शरीर, स्थूल-शरीर से अलग हो जाता है, तो ब्रह्माण्ड में स्थित उच्च लोको की साधना करके, पूर्ण ब्रह्म-ज्ञान को प्राप्त करके, जीव आत्मा पूर्ण कैवल्य पद को प्राप्त कर लेती है। जिस प्रकार हमारे देश में एक अच्छे साधू या नेता की इज्जत की जाती है, उसी प्रकार उस आत्मा का भी, उच्च लोको में वैसा ही सम्मान या आदर किया जाता है।

कुन्डलनी साधना बाहुबल की साधना है। आप के साहस, आप के आत्म-विश्वास और आपकी सहन-शीलता की साधना है।

यदि हम कुण्डलिनी साधक की उपमा दे तो ऐसी होगी, जैसे एक वीर जवान अपने देश की रक्षा के लिये अपना सर्वस्व बलिदान करके सीना ताने, जान हथेली पर लिये खड़ा हो। वहीं एक साधारण साधक की उपमा ध्यान योगी की उपमा, नाम-जप करने वालों की उपमा, मात्र ऐसी है- जैसे एक समाज सुधारक की छवि होती है।

अब आपने फैसला करना है कि, आप को किस रास्ते पर चलना है। हमने जो जाना, जो पाया, जो समझा, वो आपके सामने रख दिया है। शब्दों का कभी अन्त नहीं होता, उदाहरणो की संख्या नहीं होती। समझाने वाले और समझने वाले पर निर्भर करता है कि, वो कितना समझा सकता है, और दूसरा कितना समझ सकता है। सभी बातों को लिख कर नहीं समझाया जा सकता।

रूद्रयामल में कुण्डलिनी-साधकों के लिये एक ‘उदघाटन-कवच’ दिया गया है जिसका श्रद्धा-पूर्वक पाठ करना साधकों के लिये अत्यन्त लाभप्रद माना गया है-
॥ उदघाटन-कवच ॥
मूलाधारे स्थिता देवि, त्रिपुरा चक्र नायिका ।
नृजन्म भीति-नाशार्थं, सावधाना सदाऽस्तु ॥1॥
स्वाधिष्ठानाख्य चक्रस्था, देवी श्रीत्रिपुरेशिनी ।
पशु बुद्धिं नाशयित्वा, सर्वैश्वर्य प्रदाऽस्तु मे ॥2॥
मणिपुरे स्थिता देवी, त्रिपुरेशीति विश्रुता ।
स्त्री जन्म-भीति नाशार्थं, सावधाना सदाऽस्तु ॥3॥
स्वस्तिके संस्थिता देवी, श्रीमत्-त्रिपुर सुन्दरी ।
शोक भीति परित्रस्तं, पातु मामनघं सदा ॥4॥
अनाहताख्या निलया, श्रीमत्-त्रिपुर वासिनी ।
अज्ञान भीतितो रक्षां, विदधातु सदा मम ॥5॥
त्रिपुरा श्रीरिति ख्याता, विशुद्धाख्या स्थल स्थिता ।
जरोद्-भव भयात् पातु, पावनी परमेश्वरी ॥6॥
आज्ञा चक्र स्थिता देवी, त्रिपुरा मालिनी तु या ।
सा मृत्यु भीतितो रक्षां, विदधातु सदा मम ॥7॥
ललाट पदम् संस्थाना, सिद्धा या त्रिपुरादिका ।
सा पातु पुण्य सम्भूतिर्-भीति-संघात् सुरेश्वरी ॥8॥
त्रिपुराम्बेति विख्याता, शिरः पद्मे सु-संस्थिता ।
सा पाप भीतितो रक्षां, विदधातु सदा मम ॥9॥
ये पराम्बा पद स्थान गमने, विघ्न सञ्चयाः ।
तेभ्यो रक्षतु योगेशी, सुन्दरी सकलार्तिहा ॥10॥

कुण्डलिनी जगरण के यों तो अनेकों उपाय हैं, किन्तु बाबा जी द्वारा रचित ये गुरु-स्तोत्र अपने आप में एक अनुभुत प्रयोग है। कुण्डलिनी जगरण के इच्छुक साधक यदि स-स्वर इस स्तोत्र का लगातार पाठ करते हैं तो बहुत ही जल्दी कुण्डलिनी जगरण होने लगेगी और साधकों को कुण्डलिनी जगरण के अनूठे अनुभव होने लगेंगे।

॥ गुरु-स्तोत्र ॥
॥ ॐ गुरु ॐ ॐ गुरु ॐ ॥ ॐ गुरु ॐ ॐ गुरु ॐ ॥
दायें गुरु है, बायें गुरु है । आगे गुरु है, पीछे गुरु है ॥
ऊपर गुरु है, नीचे गुरु है । अंदर गुरु है, बाहर गुरु है ॥
ॐ गुरु ॐ ॐ गुरु ॐ ॥ ॐ गुरु ॐ ॐ गुरु ॐ ॥1॥

अंड में गुरु है, पिंड में गुरु है । जल में गुरु है, थल में गुरु है ॥
पवन में गुरु है, अनल में गुरु है । नभ में गुरु है, अंतर में गुरु है ॥
ॐ गुरु ॐ ॐ गुरु ॐ ॥ ॐ गुरु ॐ ॐ गुरु ॐ ॥2॥

तन में गुरु है, मन में गुरु है । घर में गुरु है, वन में गुरु है ॥
मंत्र में गुरु है, में यंत्र गुरु है । तंत्र में गुरु है, माला में गुरु है ॥
ॐ गुरु ॐ ॐ गुरु ॐ ॥ ॐ गुरु ॐ ॐ गुरु ॐ ॥3॥

धूप में गुरु है, दीप में गुरु है । फूल में गुरु है, फल में गुरु है ॥
भोग में गुरु है, पूजा में गुरु है । लोक में गुरु है, परलोक में गुरु है ॥
ॐ गुरु ॐ ॐ गुरु ॐ ॥ ॐ गुरु ॐ ॐ गुरु ॐ ॥4॥

जप में गुरु है, तप में गुरु है । हठ में गुरु है, यज्ञ में गुरु है ॥
जोग में गुरु है, में योग गुरु है । ज्ञान में गुरु है, ध्यान में गुरु है ॥
ॐ गुरु ॐ ॐ गुरु ॐ ॥ ॐ गुरु ॐ ॐ गुरु ॐ ॥5॥

॥ ॐ तत्सत् ॥

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है...
मनीष

Sunday, May 25, 2014

Jeene Ki Rah2 (जीने की राह)

विचारों के परे समस्या का समाधान
यदि हम कोई चीज पाना चाहें तो शुरुआत कैसे करेंगे? सामान्य उत्तर तो यही है कि कोई पद पाना चाहें तो योग्य बनें। धन चाहें तो परिश्रम करें। हालांकि, इसका आध्यात्मिक उत्तर है- सबसे पहले उसका सपना देखें। जब हम किसी चीज का स्वप्न देखते हैं तो हमारे मस्तिष्क के तंतू उसकी कल्पना में डूब जाते हैं। मस्तिष्क में एक हलचल शुरू हो जाती है। इसी हलचल में कुछ रास्ते छिपे हुए हैं। इन रास्तों पर ध्यान दीजिए। किंतु होता यह है कि लक्ष्य का सपना देखते समय हम वैचारिक हलचल में ही उलझ जाते हैं। तेजी से आते विचार आपको मार्ग की ओर जाने का मौका ही नहीं देते। इसीलिए कई लोग सपने ही देखते रह जाते हैं। दोष सपने देखने में नहीं है। गड़बड़ है उस दौरान आ रहे विचार प्रवाह को न समझने में है। सपने को लेकर रात को सोने से पहले एक प्रयोग करें। नींद आने के पूर्व पीठ के बल लेट जाएं।

आंखें बंद रखें और ऊँ का उच्चारण करें। अवधि 5 मिनट से 20 मिनट तक हो सकती है। जैसे ही आप ऊँ  का उच्चारण करेंगे आपका मस्तिष्क भाषा रहित हो जाएगा और नींद आ जाएगी। और जागने के बाद जब आप लक्ष्य पाने का बिना नींद वाला सपना देखेंगे तो विचारों के तूफान के बीच आपको उस सपने का रास्ता नजर आएगा। वजह यह है कि विचारों की एक भाषा है, शब्द होते हैं। इसी कारण आप विचारों के प्रवाह में उलझ जाते हैं। सोने से पहले का यह अभ्यास आपको विचारों में भाषा शून्य बनाने का अभ्यास करा देगा और यहीं से सपने पूरे करने में सुविधा होगी।

नींद से पहले करें आत्म-विश्लेषण
रुपए पैसे का हानि-लाभ आसानी से आंका जा सकता है। नफे-नुकसान की भरपाई भी आसान है। किंतु यदि जीवन का हानि-लाभ बिना ऑडिट के रह जाए तो फिर ईश्वर के ऑडिट में हमें तकलीफ होगी। इसलिए एक डेली ऑडिट चार्ट बनाना चाहिए। ऑडिट हानि-लाभ का नहीं, सही रास्तों का करिए। रात को सोने के पहले ऑडिट करें कि अपने काम के दौरान हमने जो रास्ते अपनाए वे कितने सही या गलत थे। प्रतिष्ठा को बचाने के लिए कब-कब चरित्र को दांव पर लगाया। धन के लिए किस-किस का शोषण किया। झूठ को कितनी बार शस्त्र बनाया। किस-किस के साथ छल किया।

ईमानदारी से इसका ऑडिट करें। ध्यान रखिएगा आप करें या न करें, ऊपर वाला कर ही रहा है। देखिए, मन सबसे अधिक बेईमान होता है। इसलिए अपना ऑडिट रात को सोने से पहले ही करिए, जब  मन की गति कम होती है। असल में रात को सोने के पहले एक वक्त ऐसा आता है जब आप अपने भीतर का कंपन महसूस कर सकते हैं। जैसे भारी वाहन पास में से गुजर जाए तो धरती का कंपन हमारे शरीर में भी उतर जाता है। सोने के पहले सीधे खड़े हो जाएं। दोनों हाथ जोड़ लें। पैर इतने चिपका लें जैसे शरीर एक है। सारा ध्यान उत्सर्जन इंद्रियों पर यानी मूलाधार चक्र पर टिका दें और दिनभर की गतिविधियों को फिल्म की तरह देखें। पांच मिनट भी काफी होंगे। शुरुआत एक कंपन से होगी और धीरे-धीरे आप स्थिर होने लगेंगे। इसके बाद सो जाएं। कुछ दिनों बाद अपने आप ऑडिट होने लगेगा और आप स्वयं को सही मार्ग पर पाएंगे।

प्रकृति से प्राप्त करें रचनात्मकता
विज्ञान के इस युग में लगातार नई-नई खोज हो रही हैं।  पुराने में लगातार बदलाव आ रहा है। जैसे मोबाइल-फोन की खोज महत्वपूर्ण घटना थी, लेकिन उसमें लगातार जो परिवर्तन हो रहे हैं ये भी उस खोज से कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। इसलिए आप अपने काम में क्या नवीनता ला सकते हैं इस पर आपकी सफलता टिकी है। एक समय कथा में संगीत का प्रयोग हुआ और उसके बाद तो भक्ति-संगीत की लहर चल पड़ी। हर जगह कुछ नया करने की क्रांति-सी हो रही है। ऐसे में यदि आप चूक गए तो पीछे रह जाएंगे। कुछ नया करने की चाहत का नाम ही रचनात्मक सोच है।

अभी भी कई लोग समझते हैं कि क्रिएटिविटी का संबंध विज्ञान या कला के क्षेत्र से है। केवल पढ़े-लिखे लोग ही क्रिएटिव हो पाएंगे। यह एक बहुत बड़ी गलतफहमी है। जो भी कुछ नया करने की हिम्मत रखेगा, अपने सीमित साधनों से भी असीमित परिणाम देने की इच्छा करेगा, समझ लीजिए वो क्रिएटिव है। अपने भीतर क्रिएटिविटी पैदा करने और बढ़ाने के लिए एक आध्यात्मिक प्रयोग करें, प्रकृति से जुड़ें।  दिनचर्या पर विचार करें कि हम प्रकृति के कितने निकट हैं। ऐसा क्यों?

इसका उत्तर जान लें। एक फल जब किसी पेड़ पर लगता है तो उसके भीतर जो भी मिठास, विटामिन, स्वाद है वह केवल धरती से नहीं आया है, उसमें सूर्य का भी योगदान है, उसमें हवाओं ने भी मदद की है। हम भी एक फल की तरह हैं। प्रकृति से मदद लीजिए और आपके भीतर अपने आप क्रिएटिविटी का विटामिन जा जाएगा।

भीतर प्रकाश बढ़ाने का एक प्रयोग
अच्छे अच्छे समझदार लोग जीवनभर कुछ चीजें नहीं समझ पाते। हर मनुष्य मरते समय अपने साथ कुछ अज्ञान लेकर जाता है, क्योंकि सबकी अपनी मर्यादा है। जैसे कोई योग्य डॉक्टर हो, लेकिन खेत-खलिहान के बारे में नहीं जानता। यह स्वाभाविक है। झंझट शुरू होता है जब आदमी अपने क्षेत्र में यह मानने लगता है कि मुझे सब आता है। यह भ्रम आपकी विकास यात्रा को रोक देगा। ठोस सफलता के लिए अपनी कार्यशैली में क्रम इस प्रकार रखें। जानना, सीखना और सुधार करना। इसमें सबसे बड़ी बाधा हमारा ज्ञान, हमारी समझ बन जाती है। हमें लगता है जब जान गए हैं तो सीखना क्या और जब सीख लिया है तो सुधार की क्या जरूरत है। इसीलिए सफलता की यात्रा में बाधा आती है। इस तीन चरण वाली यात्रा को आसान बनाने के लिए पूजा में मेडिटेशन कीजिए। एक प्रयोग करें। आंख बंद कर भीतर प्रकाश महसूस करें।

फिर इस प्रकाश को टॉर्च में बदलें। टॉर्च की रोशनी किसी एक जगह पर टिकती है, आसपास अंधेरा ही रहता है। यह है जानना। थोड़ी देर बाद इस प्रकाश को दीपक में बदल दें, जिसका प्रकाश चारों ओर फैलता है। इसमें सब दिखने लगता है। यह सीखने का चरण है।  इसलिए दीपक की तरह बनना पड़ेगा और फिर अपने भीतर सूर्य जैसा प्रकाश बना लें। अब प्रकाश का दायरा बढ़ गया और हमारा तीसरा चरण शुरू हुआ सुधार करने का। मेडिटेशन का यह प्रयोग आपके व्यावसायिक जीवन में भी काम आएगा।

निर्णय लेने में ऊँ की ध्वनि मददगार
जब हमारे भीतर कोई नया विचार जन्म लेता है तो पहले हम मंथन करते हैं। फिर उस विचार को कर्म के रूप में पूरा करते हैं। फिर यह विचार शुरू होता है कि जो किया वह सही है या नहीं। मिला हुआ परिणाम वैसा है या नहीं, जैसा हमने चाहा था। अब हमारा विचार इस पर टिक जाता है। यह एक चक्र है और इसमें हम अकेले होते हैं। बुद्धिमानी इसमें है कि इसमें दूसरों को भी शामिल करें। दूसरों की राय को खुले मन से स्वीकार करें। अपने विचार और दूसरों की राय का तालमेल बैठा लें। ध्यान रखिए, यह आसान नहीं है। हमारी अकड़ और दूसरे के प्रति संदेह इस समय सक्रिय रहेगा। अपने को सरल बनाने और दूसरों के प्रति भरोसा जगाने के लिए तैयारी करनी होगी। पूजा के समय आंखें बंद और कमर सीधी करके बैठें। फिर जोर से ऊँ की ध्वनि का उच्चारण करें। अपने प्रश्न व दूसरों के उत्तर उस ध्वनि के साथ कक्ष में फैला दें। बार-बार ऊँ का उच्चारण करें। ध्यान रखें, पहले गहरी सांस भीतर भरें, फिर ‘अ’ शब्द बोलें, फिर ‘ऊ’ शब्द बोलें। इन दोनों को बोलते समय होंठ खुले रहेंगे और ‘म’ बोलते हुए होंठ बंद कर लें। ‘अ’ और ‘ऊ’ के बोलने की समय सीमा 20 प्रतिशत रहेगी तथा होंठ बंद करके ‘म’ बोलते हुए 80 प्रतिशत समय बिताएं। और इस ऊँ की ध्वनि से अपने आपको भिगो लें। कल्पना करें कि आपके प्रश्न और दूसरों के उत्तर आपको भिगो रहे हैं। इसी गुंजन में एक जागरण पैदा होगा, जो आपको निर्णय लेने में फायदा पहुंचाएगा।

ढीले वस्त्र देते हैं विश्राम की अनुभूति
क्या कपड़ों का संबंध केवल फैशन से है या आपके व्यक्तित्व से भी है? वेश-भूषा को लेकर खूब रिसर्च होती है। ऋषि-मुनियों ने वस्त्रों पर अपने तरीके से काम किया है, क्योंकि कपड़े व्यक्तित्व का महत्वपूर्ण हिस्सा होते हैं। वस्त्रों से ही कई लोगों की छवि बन जाती है। लोग अपने कार्यस्थल पर सुविधा की दृष्टि से कपड़े पहनते हैं। आजकल जींस तो इस तरह से स्वीकार कर ली गई है, जैसे चुस्त रहने के लिए उसमें अमृतकण बसे हों। सब मानकर चलते हैं कि इसे पहनने के बाद हमारी सक्रियता बढ़ जाती है। हम खुद को फिट समझते हैं। चलिए, कपड़ों को भारतीय ऋषि-मुनियों की दृष्टि से देखते हैं। ढीले कपड़े पहनने से मनुष्य भीतर विश्राम की अनुभूति करता है। इसीलिए पूजा-पाठ, ध्यान-योग के समय ढीले कपड़े पहने जाते हैं। भारत में तो स्त्री-पुरुषों का परिधान ढीला ही रहा है। 

उद्देश्य यही था कि पूरे समय हम भीतर से शांत रहें। अंतरवस्त्र चुस्त इसलिए रखे जाते हैं कि इंद्रियों का नियंत्रण होता है, लेकिन पूरा शरीर वस्त्रों से कसा हुआ न हो, अन्यथा कसी हुई इंद्रियां कसे हुए शरीर के साथ तनाव पैदा करेंगी। आप जितने चुस्त कपड़े पहनेंगे, भीतर से तनावपूर्ण होने की आशंका उतनी ही बढ़ जाएगी। आप आक्रमक होंगे, लेकिन अशांत भी रहेंगे। कसे हुए कपड़ों में हम बाहर की फिटनेस और कंफर्टेबिलिटी तो देखते हैं, लेकिन उसका दूसरा आध्यात्मिक परिणाम है मन का बेचैन होना। इसलिए समय-समय पर वस्त्रों को भी शांति-अशांति से जोड़कर पहनें।

निराशा से उबारता है साक्षी भाव
सब कुछ प्राप्त करने के बाद भी लोग निराशा में घिर जाते हैं। जिन्हें मनचाहा न मिले वो निराश हो जाएं यह तो समझ में आता है पर मनचाहा मिलने पर भी बेचैनी बनी रहती है। ऐसा व्यावसायिक क्षेत्र के लोगों के साथ होता है। नौकरी या धंधा करते हुए कभी लगे कि सब कुछ ठीक चल रहा है, फिर भी भीतर निराशा घेर रही है तो कुछ प्रयोग करिएगा। पहली बात, विस्तार में विश्वास बढ़ा दें। यानी यह सोचें कि इस समय जहां आप हैं, आपका जो भी काम है उसको और कैसे फैलाया जाए, विकास-विस्तार किया जाए। दूसरी बात, हमेशा सर्वश्रेष्ठ लोगों के आस-पास रहने का प्रयास करें। 

स्पर्धा भी करें तो अच्छे लोगों से करें। जिस क्षेत्र में घटिया लोग हों उनसे बचें। तीसरी बात, हमेशा ऊंचे लक्ष्य रखें और इस बात को दिमाग में बैठा लें कि हमारा भविष्य उज्ज्वल है। चौथी बात, छोटी-मोटी गलतियों, लोगों की विपरीत टिप्पणियों को नजरअंदाज करें। ये सारे बाहर के काम हैं। निराशा घेरने लगे तो कुछ देर के लिए अकेले में बैठकर आंख बंद करें, गहरी सांस लेते रहें और फिर भीतर जो घट रहा है उसको देखें। भीतर आप चार बातों से गुजरेंगे। सबसे पहले विचार आएंगे, उसके बाद व्यक्ति दिखना शुरू होंगे, तीसरे चरण में स्थितियां दिखेंगी। ये स्थितियां भी ऐसी होंगी कि आपको लगेगा आपका इनसे कोई लेना-देना नहीं है। इनसे घबराएं न, एक फिल्म की तरह देखें, तब चौथे चरण में एक शून्य आएगा। यह है साक्षी भाव। भीतर का यह अभ्यास बाहर के अभ्यासों में मदद करेगा, करके देखिए।

धाराप्रवाह चिंतन बदल देता है भाव दशा
जब कभी आप विवादास्पद स्थिति से गुजर रहे हों। आपको सहमति बनाने में दिक्कत हो रही हो। गुस्से की शुरुआत हो रही हो। दूसरों को कोसने के लिए शब्द भीतर से उछाल ले रहे हों, तब केवल बाहर की समझाइश से काम नहीं चलेगा। सुंदरकांड की इस चौपाई को लेकर आज भी ज्ञानी और भक्त दोनों वर्ग इसी तरह परेशान हैं। ढोल गवांर सूद्र पसु नारी। सकल ताडऩा के अधिकारी।। समुद्र ने कहा था - ढोल, गवांर, शूद्र, पशु और स्त्री ये सब शिक्षा के अधिकारी हैं। इसे जितना पढ़ें, मन में उतने ही सवाल पैदा होते हैं। इसका उत्तर ढूंढऩा है तो केवल शब्द पर टिकने से काम नहीं चलेगा। भावभूमि पर जाकर सोचना होगा। यह चौपाई तो एक प्रतीक है। 

जीवन में कई ऐसे संवाद आएंगे, जो आपको ऐसी ही स्थिति में खड़ा कर देंगे। पूजा के दौरान कभी-कभी एक काम यह करिए कि जब भीतर असंतोष हो, अस्वीकृति हो तो पांच मिनट के लिए इससे उल्टा सोचना शुरू कर दें। संतोष क्या होता है, स्वीकृति क्या होती है, करुणा और प्रेम क्या होता है इस पर धाराप्रवाह सोचें तो असंतोष प्रदान करने वाली ऊर्जा उल्टी बहने लगेगी। आपके भीतर स्वीकृति और संतोष का भाव आएगा। आपके पूजाघर में जो भी मूर्ति हो उसके सामने बैठकर ऐसा करें। मूर्ति ऊर्जा परिवर्तन में मदद करती है और फिर इस चौपाई पर विचार करें, तो आप पाएंगे तुलसी नारी को इनसे क्यों जोड़ रहे थे। क्योंकि ताडऩ यानी वॉच करने के मामले में ये चारों एक समान महत्वपूर्ण हैं। अगली बार और आगे बढ़कर सोचेंगे, लेकिन भावदशा को पॉजीटिव कर लें।

घटनाओं को लेकर भीतर सतर्क रहें
संसार में रहते हुए हमारा सामना कई घटनाओं से होता है। हर घटना हमारे ऊपर तीन रास्तों से प्रभाव डालती है। ये रास्ते हैं हमारे शरीर, मन और आत्मा के। कुछ घटनाएं केवल शरीर पर रुक जाएंगी तो कुछ मन पर या आत्मा पर। कुछ घटनाएं या तो दो पर ही टिकेंगी या तीनों से भी गुजर सकती हैं। हमें सावधान रहकर देखना होगा कि किस घटना को कहां तक ले जाना है, और कहां रोक देना है। इतनी सावधानी यदि हम रख लेंगे, तो घटना के परिणाम की शांति-अशांति पर हमारा पूरा कंट्रोल होगा। जैसे हमारे व्यावसायिक कार्यालयों में हर कार्रवाई के लिए अलग-अलग विभाग होते हैं। जैसा कि सरकारी महकमों में होता है, फाइल गलत विभाग में चली जाए या जानबूझकर भेज दी जाए तो परेशानी होनी ही है। ऐसे ही हमें घटनाओं को अपने तीन विभागों में ठीक से भेजना होगा। कुछ घटनाएं शरीर तक ही ठीक है खासतौर पर हमारी व्यावसायिक गतिविधियां। कुछ को आत्मा तक ले जाना है।

पारिवारिक घटनाएं संवेदना लिए होती हैं, इन्हें आत्मा तक पहुंचाना सही निर्णय होगा। शरीर और आत्मा के मध्य मन एक ऐसा विभाग है जहां जरूरत से ज्यादा सावधानी रखनी होगी। सबसे अधिक गड़बडिय़ों का केंद्र यही है। घटनाएं यहां से बहुत सावधानी से गुजारी जाएं। इन तीनों से घटनाओं को गुजरना ही है। हम यदि सावधानी रखें, तो हर घटना हमें परेशान करने की जगह आनंद दे जाएगी। बाहर से आ रही घटनाओं पर हमारा वश नहीं है, लेकिन उन्हें कहां से गुजारना है इस पर पकड़ बनाए रखें।

हर काम की समय सीमा तय हो
अपनी प्रोफेशनल लाइफ में किसी बड़े प्रोजेक्ट पर काम करते हुए लोग बहुत योजना बनाते हैं। भारत में जो काम किया जाए उससे भारतीयता विलग नहीं होनी चाहिए। ऋषि-मुनियों ने बड़े कार्य करने के लिए बड़े तार्किक और व्यावहारिक विधान बनाए हैं। भागवत या शिवपुराण पढि़ए, उसमें कथा आयोजन की तैयारियों पर सुंदर निर्देश दिए गए हैं। उन्हें हम अपनी प्रोफेशनल लाइफ में भी उतार सकते हैं। उसमें कथा के आयोजन के लिए लिखा है पहले मुहूर्त देखें, फिर जिन लोगों को जोडऩा है उन्हें बुलाएं। स्थान का चयन सावधानी से करें।

ऐसे लोग वक्ता हों यानी जो लीडर हों वे ज्ञानी, पवित्र, दक्ष, शांत, दयालु और परिश्रमी हों। फिर लिखा है समय साधें। कथा के आरंभ होने का और समाप्त होने का समय सुनिश्चित रहे। आज बिना डेड लाइन यानी समय सीमा के कोई काम करना असफलता के शिलान्यास जैसा है। गणेश स्थापना की जाए यानी शुभ के साथ कार्य आरंभ हो। पुस्तक पूजन यानी डाक्यूमेंटेशन प्रॉपर हो। श्रवण करते समय श्रोता चिंता मुक्त रहे यह भी कहा गया है। हमें भी काम के समय बेकार का लोड नहीं रखना चाहिए। ऊर्जा परिश्रम में लगाएं, चिंता में खर्च न करें। श्रोता-वक्ता के लिए खान-पान का संयम बताया गया है।

यह व्यावसायिक जीवनशैली के लिए भी जरूरी है। खूब काम करने वालों को कैलोरी मैनेजमेंट में सावधान रहना होगा। नींद तथा आलस्य पर  काबू रखना होगा। ये दो बातें व्यावसायिक जीवन में जिन्होंने जीत ली, सफलता उनके सामने खुद प्रस्तुत हो जाएगी।

अपनों को राह में अकेले न छोड़ें
एक चित्र मुझे तो बहुत याद रहता है और आप में से कई लोगों की स्मृति में भी होगा। एक गडरिये का चित्र। वह अपने कंधे पर एक लंगड़ी भेड़ को लादे हुए भेड़ के झुंड को हांक रहा है। यह चित्र एक बहुत बड़ा संदेश देता है। इस कमजोर भेड़ को उसने जंगल में छोड़ नहीं दिया। अपने कंधे पर रख उसे सुरक्षित लाया है। 

यह कहानी घर परिवार के सदस्यों के लिए बड़े काम की है। हमारे घर में कई सदस्य कमजोर रह जाते हैं। कुछ तो स्वाभाव से, कर्म से कमजोर होते हैं तो कुछ को हालात तोड़ देते हैं। ऐसे समय में हमें चाहिए कि हम अपने कंधों को मजबूत रखें और उनके काम का भी रखें। परिवार में एक दूसरे का सहारा ही सबसे बड़ी ताकत है। कुदरत की मार की सुई कब किसकी ओर मुड़ जाए पता नहीं चलता। ऐसे में अपनेपन का अहसास भी सहारा बन जाता है। उस गडरिये ने कमजोर भेड़ को कंधे पर रखकर यह बता दिया कि अपनों को राह में अकेेले छोड़ा नहीं जाता। 

यदि आप मां-बाप हैं तो कमजोर बच्चे को आपके होने का भरपूर अहसास कराएं। अपनी संतानों ने कमजोरी के कारण अपराध किया है तो न्यायाधीश बनकर दंड न दीजिए। यहां आपको उसे मिटाने की जगह उसके भीतर की बुराई मिटानी है। घर परिवार में सबूत, गवाह और कानून की धाराओं की तरह  फैसले नहीं किए जा सकते। आपके फैसलों में आपके वंश का भविष्य छुपा है। इसलिए गडरिये के चित्र से समझाएं खुद को कि सबके साथ रहें, सबको साथ लेकर चलें तो परिवार कभी नहीं टूटेगा।

सुख-दु:ख जीवन नैया की दो पतवार
जब कभी हमारे साथ अनहोनी होती है, हम पहला पत्थर भगवान की ओर उछालते हैं। उन्हें दोष देने लगते हैं। खासतौर पर जब घर में किसी सदस्य की असमय मृत्यु  हो जाती है तब हमारे मन में यह सवाल उठता ही है कि हमने कभी किसी का बुरा नहीं किया फिर भगवान ने हमारे साथ ऐसा क्यों किया? चूंकि भगवान तो उत्तर देने आ नहीं सकते इसलिए कई लोगों के सवाल  अनुत्तरित ही रह जाते हैं। यह रोष धीरे-धीरे उदासी में और उदासी फिर डिप्रेशन में बदल जाती है।

इसलिए बिना उत्तर प्राप्त किए जीवन को बोझ बनाकर न जीएं। ईश्वर अवतार लेता ही इसलिए है कि वे हमारे ऐसे प्रश्नों का उत्तर दे सकें। ईश्वर हमारी पहली सांस के साथ ही अंतिम सांस पर भी हस्ताक्षर कर चुका होता है। इस दौरान वह हमें उम्रभर खुशी और गम के पल देता रहता है। इस धरती पर हम सीखने आए हैं। यह उसी का हिस्सा है। जब अच्छा होता है तो हम आभार जताते हैं।

धीरे-धीरे हम हमारा हक मान लेते हैं कि ईश्वर को हमारे साथ अच्छा करना ही होगा। इसलिए जब अनहोनी होती है तो हम बिखर जाते हैं और परमात्मा को कोसने लगते हैं। पर वह ऐसा करके हमें यही याद दिला रहा होता है कि सुख-दुख एक नाव की दो पतवार हैं। एक से नाव चलाओगे तो भंवर बनकर नाव एक जगह घूमेगी और डूबेगी। दो पतवारों से चलने वाली नाव का अपना एक किनारा और यात्रा तय होती है। इसलिए परमात्मा के फैसले में धैर्य के साथ भविष्य में झांके, वो फिर कुछ अच्छा करने के लिए खड़ा है और दिखाई भी देगा।

दोष को गुण में बदलती है जागरूकता
आज प्रबंधन के युग में निरीक्षण करने, चौकसी करने के लिए पूरे विभाग बनाए जाते हैं। महत्वपूर्ण, उपयोगी लोगों के प्रति अतिरिक्त जागरूकता रखनी पड़ती है। तुलसीदासजी ने इसी चौकसी को ताडऩ लिखा है। उनकी इस बहुचर्चित चौपाई- ढोल गवांर सूद्र पसु नारी। सकल ताडऩा के अधिकारी।। समुद्र ने कहा था, ढोल, गवांर, शूद्र, पशु और स्त्री ये सब शिक्षा के अधिकारी हैं। इस चौपाई ने शब्दों के फेर के कारण लोगों को खूब उलझाया। यदि ताडऩ का अर्थ वॉच करना, चौकसी रखना माना जाए तो चौपाई बड़े सार्थक अर्थ दे देगी। चलिए, आएं ढोल से ही शुरू करें।

तुलसीदासजी के समय जो वाद्य हुआ करते थे, उनकी संख्या सीमित ही थी। वो फॉर्टी पीस ऑर्केस्ट्रा का जमाना नहीं था। ऊंची आवाज के लिए ढोल सर्वाधिक उपयोगी और लोकप्रिय वाद्य था। ढोल बजाने को बातचीत की भाषा में पीटना भी कहा जाता था। इसलिए ऐसा समझा जा रहा है कि नारी को पीटा जाना क्या ठीक है, लेकिन ढोल और ताडऩ का एक मतलब यह है कि उसे बजाने के पूर्व वॉच करना पड़ता है। मौसम की मार उसके चमड़े को ढीला या कस भी देती है। इसलिए ढोलक, तबला, ढोल बजाने वाले उसके उपयोग के पूर्व उसे ठीक से चढ़ाते हैं। उसे चढ़ाने में ठोकना पड़ता है। इसे ही वॉच करना कहते हैं, वरना उससे ठीक से सुर प्राप्त नहीं कर पाएंगे। ढोल की आवाज का रस उसके ताडऩ (वॉच) करने में ही है। उसके इस दोष में से गुण निकलता है। यही स्थिति गंवार के साथ भी है, जिसे आगे समझते रहेंगे।

सफलता को शांति से जरूर जोड़ें
मेहनत का शांति से कोई लेना-देना नहीं है। खूब परिश्रम करने वाले लोग भीतर से काफी परेशान नजर आएंगे। अशांति का दूसरा नाम नर्क है जबकि शांति में स्वर्ग है। जितनी मेहनत करके हम नर्क प्राप्त करते हैं, उससे आधी मेहनत में हमें स्वर्ग मिल सकता है। आपके लिए सफलता का जो भी मापदंड हो उसे शांति से जरूर जोडि़ए। अब तो लोग इतने अशांत रहते हैं कि उन्हें इसका अहसास ही नहीं होता।

वे मानते हैं कि इतनी अशांति रखे बिना सफलता नहीं मिलेगी।  लंबे समय में इस अशांति के परिणाम घातक होंगे। इसका बाय प्रॉडक्ट है बीमारियां। हमें तब पता चलता है जब अशांति हमारे शरीर को पर्याप्त कुतर चुकी होती है। अशांत व्यक्ति अपने आसपास के वातावरण को भी दूषित करता है। यदि आप अपने कार्यस्थल पर अशांत हैं तो फिर भी मामला धक जाएगा, क्योंकि वहां लोगों के तनाव के कारण नेगेटिविटी पहले ही काफी रहती है। किंतु अपनी अशांति से बड़ा नुकसान करेंगे आप अपने घर में। हम परिवार के लिए बहुत दौड़-भाग करते हैं पर उसमें हम अशांति के कण छोड़कर सब किए-धरे पर पानी फेर देते हैं। जरा सोचिए कौन-सी बातें आपको शांति देती हैं, उन्हें जरूर करें। उसमें टीवी देखना, घूमना, पढऩा, शाम को भी स्नान करना, किसी से फोन पर बतियाना आदि। बारी-बारी से दिनभर में ये काम जरूर कर लें। चिडिय़ा जैसे तिनके-तिनके चुनकर घोंसला बनाती है, हमें भी तिनका-तिनका शांति चुननी पड़ेगी। थैली भर सफलता में दो-चार तिनके शांति के पर्याप्त होंगे।

जीवन जीने में अभिनय का आनंद लें
यह बहस बहुत पुरानी है कि यदि सबकुछ होना ही है तो फिर हम अतिरिक्त प्रयास क्यों करें। कितना भाग्य, कितना कर्म, इसका झगड़ा कभी खत्म नहीं होगा। यह मामला सुलझेगा समझ से। एक घटना याद करिए। कहते हैं ऋषि वाल्मीकि ने दिव्य दृष्टि से रामायण श्रीराम के जन्म के पूर्व ही लिख दी थी। फिर आए राम। उन्हें मालूम था कि उनकी लीला में कौन-कौन से दृश्य पूर्व नियोजित हैं। शाप और वरदान के कुछ प्रसंग घट चुके थे। अत: वे समझ गए थे कि सबकुछ नियत है और सब तय है तो राम को क्या करना है।

राम को सिर्फ अपनी भूमिका निभानी थी। इसी प्रकार श्रीकृष्ण भी अपने आने वाले जीवन से भलीभांति परिचित थे। दोनों ही बहुत अच्छे अभिनेता भी थे। भारत में ही नहीं, दुनिया में राम-कृष्ण को पूजने, मानने, समझने वाले सभी धर्मों के  लोग हैं। हम इन्हें पूजते समय पाप-पुण्य के चक्कर में ही लगे रहते हैं, जबकि ये दोनों पात्र सिखा रहे हैं कि हमारे जीवन में भी इसी प्रकार से सबकुछ नियत है। इसलिए इस साइकोड्रामा के एक हिस्से बन जाएं। पट कथा लिखी जा चुकी है, हमें तो सिर्फ अभिनय करना है। 

रंग मंच पर अच्छा अभिनेता अपने रोल को ऐसे करता है जैसे सचमुच जी रहा हो और हमें अपने जीवन में अभिनय करते हुए जुडऩे के बाद भी अलग रहने की कला सीखनी चाहिए। जब सबकुछ तय है तो क्यों हम करें, यह मूर्खता या लापरवाही कही जाएगी। एक अच्छे अभिनेता की तरह जमकर अभिनय करें और फिर उसका आनंद उठाएं। जीवन हमसे यही अपेक्षा कर रहा है।

शरीर के साथ मन का विश्राम भी जरूरी
कुछ लोग बहुत काम करने के बाद भी कम थकते हैं तो कुछ लोग बिना काम किए ही थक जाते हैं। सबका अपना-अपना ऊर्जा का लेवल है। नवरात्रा में उपवास की परंपरा है। कुछ लोग पूजा-पाठ, उपवास के बाद थके-थके से नजर आते हैं जबकि इस दौरान हमें अतिरिक्त शक्ति प्राप्त करनी है। हमारी थकान के सारे इलाज इन नौ दिनों में हो सकते हैं। जब हम बाहर थकते हैं तो आराम करते हैं। बाहर से शरीर को आराम देने के बाद भी कुछ लोगों की भीतरी थकान नहीं मिटती। इसलिए एक बात साफ समझ ली जाए कि हमारी थकान के भी दो लेवल हैं - पहला है शरीर का, दूसरा है मन का। शरीर को रेस्ट देकर हम पहली स्थिति संभाल सकते हैं, लेकिन मन का क्या करें। वो रेस्ट लेना ही नहीं चाहता। उसकी उठा-पटक कभी खत्म ही नहीं होती।

एक काम किया जा सकता है। जब हम शरीर को रेस्ट दे रहे हों उसी समय हम अपने भीतर जाती हुई सांस पर ध्यान दें और जब वह सांस भीतर से बाहर आए तो कुछ समय के लिए उसको रोक लें। इसे पांच सेकंड से अधिकतम आधे मिनट की अवधि में रखें और रुकी हुई सांस के इस अंतराल में विचार शून्य हो जाएं। इस क्रिया द्वारा शरीर और मन दोनों एक साथ शांत होने लगेंगे। नवरात्रा में इस प्रयोग को अपनी पूजा-पाठ के समय भी करते रहें। जो लोग उपवास कर रहे हों, उन्हें अन्न का प्रमाद कम होगा तथा उन्हें ऊर्जा की और सुविधा मिल जाएगी। जैसे ही मन निष्क्रिय हुआ, आपकी ऊर्जा खर्च होने की जगह एकत्रित होने लगेगी। जिन कामों को करने के बाद आप थकते थे, अब अधिक आनंदित रहेंगे।

धैर्य व परिश्रम से संघर्ष बनता है आनंद
संघर्ष के बाद मिली उपलब्धि स्थायी होती है और उसका मजा कुछ अलग ही रहता है। इस समय हर व्यक्ति अपनी योग्यता को मांजने पर लगा है। किसी काम को करने के लिए जब आप पूरी ताकत लगा रहे होते हैं, तब दूसरा भी यही कर रहा होता है। इसीलिए प्रतिस्पर्धा खूब बढ़ गई है। इसलिए संघर्ष को जीवनशैली बना लें। हो सकता है जब संघर्ष शुरू हो आप अकेले रहें, लेकिन एक आदमी का संघर्ष बाद में कई लोगों का संघर्ष बन जाता है। संघर्ष की स्थिति आए तो पहले ठीक से उसका आकलन करिए। कितना उसमें भाग्य-दुर्भाग्य काम कर रहा है, स्थिति कौन सी है, आपके संघर्ष के पक्ष-विपक्ष में कौन हैं और आपका लक्ष्य क्या है।

कभी-कभी संघर्ष में लोग लक्ष्य ही भूल जाते हैं। जब आकलन ठीक से हो जाए, फिर शुरुआत करिए। अपने कर्म में विचार, धैर्य, परिश्रम, प्रसन्नता को बनाए रखें। ये बातें होंगी तो संघर्ष एक तरह का आनंद बन जाएगा। क्योंकि संघर्ष के दौर में चीजें व्यवस्थित और तयशुदा नहीं होतीं। बहुत कुछ अचानक होने लगता है। आप अभ्यास करते हुए सब काम नहीं कर पाएंगे। आपको प्रयोग करने की आदत डालनी पड़ेगी। अभ्यास और प्रयोग में थोड़ा सा अंतर है। लंबे समय अभ्यास करते रहें तो आदत बन जाती है, लेकिन प्रयोग में नवीनता बनी रहती है। अध्यात्म में ऋषि-मुनियों ने कहा है कि शुरुआत अभ्यास से होती है, लेकिन धीरे-धीरे आध्यात्मिक गतिविधियों के प्रयोग शुरू करने चाहिए। इससे आंतरिक बोध जागता है। बस यही प्रयोग हमारे व्यावसायिक जीवन के संघर्ष में काम आएगा।

आत्मिक बल से कीजिए सार्थक सेवा
आपके मन में सेवा करने की इच्छा है, लेकिन आपको लगता है कि धन, शिक्षा और बल में आप उतने सक्षम नहीं हैं तो निराश बिलकुल न हों। मैं ऐसे कई लोगों को जानता हूं जो इसीलिए सेवा के क्षेत्र में कदम नहीं बढ़ा पाते। उन्हें यह भ्रम है कि सक्षम व समृद्ध लोग ही सेवा कर सकते हैं। सेवा के लिए पैसा, उच्च शिक्षा या बल होना बिलकुल जरूरी नहीं है। आप अपनी आत्मा को इसके लिए तैयार कीजिए और फिर देखिए आत्मिक बल इन तीनों के अभाव में भी आपसे वैसी सेवा करा लेगा जैसी अच्छे-अच्छे लोग नहीं कर पाते। मैं आपको एक सेवा प्रस्तावित करता हूं।

जब भी किसी व्यक्ति से मिलें उसे तीन चीज देने का प्रयास करें। पहला उसमें उत्साह भरिए। दूसरा उसे महत्वपूर्ण बनाइए और तीसरा उसका विश्वास जीतिए। इनके लिए जरूरी नहीं है कि आप बहुत शिक्षित हों, समृद्ध हों या बलवान हों। इसके लिए आपको मानसिक रूप से स्वयं तैयार करना होता है कि यदि आपने कुछ पाया है तो उसे प्रकट जरूर करें।

अहंकार के लिए नहीं, दूसरों के हित के लिए। अब सवाल उठता है कि पाया कैसे जाए। अभी-अभी नवरात्रा बीता है अपने भीतर शक्ति का केंद्र ढूंढि़ए, जो हमारी नाभि है। जितना आप अपनी नाभि पर टिकते हैं, उतना ही आप पाएंगे कि आपके पास कुछ ऐसा अनूठा आ जाता है जो दूसरों को उत्साहित करने के लिए, उन्हें महत्वपूर्ण बनाने के लिए और उनका विश्वास जीतने के लिए काम आता है। किसी को ये तीन चीज देना भी बहुत बड़ी समाजसेवा है।

मिलने वाले हर व्यक्ति से अच्छाई लें
यूं तो आप अपनी जिंदगी में अनेक लोगों से मिलते होंगे। कुछ ध्यान रह जाते होंगे, कुछ को ध्यान रखना पड़ता होगा। कुछ को जबर्दस्ती भुलाना पड़ता होगा और कुछ अपने आप विस्मृत हो जाते हैं। हम जागरूक ही नहीं रह पाते कि उनकी अच्छाइयों से हमने क्या फायदा उठाया। आपके संपर्क में आने वाले लोगों को तीन खानों में बांटिए। पहले, बहुत प्रगतिशील, स्पष्ट और प्रेरणा दायक। इनसे तो जितना ले सकें, ले लीजिए। पता नहीं ऐसे लोग दोबारा मिलें या न मिलें। दूसरे, जो खुद संघर्ष कर रहे हों, बहुत सफल नहीं होंगे, परेशान भी दिखेंगे, लेकिन हिम्मत नहीं छोड़ी होगी। इनसे भी कुछ लिया जा सकता है। किंतु तीसरे वर्ग में वे लोग होंगे जो बिल्कुल औसत दर्जे के होंगे, जिन्होंने अपनी लापरवाही, मूर्खता और आलस्य के कारण सफलता को दूर कर रखा होगा। ये जीवन के प्रति नकारात्मक होंगे। ऐसे लोगों से आप बच नहीं सकेंगे। इन्हें भी सुनें, समझें और इन्होंने जो किया है उसका उल्टा आप करने लगें। 

कभी-कभी विपरीत करने से सही परिणाम आ जाते हैं। कुछ संत इसका प्रयोग करते हैं। मेडिटेशन पूरा होने के बाद वे खड़े होकर घूमने लगते हैं। उनका कहना है कि यह भी हमारे मेडिटेशन का अंतिम पार्ट है। वैसे चलना शांति के मामले में उल्टा काम है। बैठना यानी शांति और चलना यानी उस शांति को भंग करना, लेकिन वे चलते हुए उस शांति को बनाए रखते हैं। थके हुए लोगों से मिलने पर आप ऐसा ही प्रयोग करिए। उनकी थकान आपके लिए ऊर्जा बन जाएगी।

सत्संग बनाता है हमें अमृतयुक्त
क्या आपको बहुत अधिक बातें करने का शौक है। क्या आप खुद बोलना पसंद करते हैं और दूसरों की सुनना कम। यदि अकेले हों और किसी से बात करने को न मिले तो आपको घबराहट होने लगती है। अनजाना या जान-पहचान का कोई भी व्यक्ति मिल जाए तो बिना बात किए आप नहीं रह सकते हों, तो थोड़ी सावधानी बरतनी शुरू कर दीजिए। जीवन की लंबी यात्रा में यह आदत खतरनाक साबित हो सकती है। बातचीत में से सत्य चला जाए, आलोचना आ जाए, कल्पना की उड़ान अत्यधिक होने लगे, तो उसे गपशप कहते हैं।

गपशप में जो विचार शब्दों के रूप में बदल रहे होते हैं उनकी प्रमाणिकता, सत्यता बहुत कम होती है। इसीलिए अधिकांश मौकों पर गपशप जहरीली होती है। गपशप के केंद्र में वे लोग होते हैं जो अनुपस्थित रहते हैं। उनकी गतिविधियों का छिद्रान्वेषण चलता है।

कई बार जिन घटनाओं में आप होते ही नहीं, आप खुद को उसमें फ्रेम कर देते हैं। आप जिससे गपशप लड़ा रहे हैं वह भी यही कर रहा है और बिना सत्य और तथ्य का यह वार्तालाप पूरे वातावरण को, आपके शरीर की रासायनिक क्रिया को जहरीला बनाएगा। हम अपनी अधूरी कामनाओं को कल्पना के झूठ से पूरा कर रहे होते हैं। गपशप की आदत सुधारें। इसके लिए समय का सदुपयोग करें और उसका सबसे अच्छा तरीका है सत्संग कर लें। सत्संग में जो विचार निकलता है वह बहुत छनकर आता है और पवित्र होता है। आपको विष रहित और अमृतयुक्त बना देता है।

व्यासपीठ पर काम करती है परमशक्ति
कई लोग वक्ताओं से सवाल पूछते हैं कि मंच से उतरकर उन्हें कैसा लगता है। अच्छे वक्ता के साथ उस समय दो संभावनाएं होती हैं। अपने कहे हुए के प्रति संतोष और प्रशंसा का अहंकार। यह स्थिति कलाकार के साथ भी होती है। इसे थोड़ा अध्यात्मिक दृष्टि से देखें। सांसारिक दृष्टिकोण से मंच परीक्षा स्थल जैसा होता है। आप पास या फेल हो सकते हैं। आध्यात्मिक धरातल पर यही मंच व्यासपीठ में बदल जाता है। प्रवचनकारों व कथावाचकों के लिए व्यासपीठ मां की गोद से कम नहीं होता। वैसे वे बिल्कुल सामान्य आदमी होते हैं, लेकिन व्यासपीठ पर बैठते ही शक्तिपात होता है। अगर वक्ता ईमानदार, चरित्रवान और साधक है तो फिर उसके भीतर कोई और शक्ति बैठकर बुलवाती है। श्रोताओं का स्नेह और प्रेम भरा आमंत्रण भी वक्ता के लिए शक्ति बन जाता है।

ऐसे लोग दोहरा जीवन जीते हैं। एक व्यक्तित्व का, दूसरा अस्तित्व का। व्यासपीठ से हटकर जो जीवन है, वह व्यक्तित्व है। इसमें उस वक्ता के और श्रोता में कोई भेद नहीं है। मगर व्यासपीठ पर बैठते ही वह अस्तित्व पर टिक जाता है। तब उसके भीतर एक परमशक्ति काम करने लगती है। यह प्रयोग व्यासपीठ पर ही नहीं सामान्य जीवन जीते हुए भी हो सकता है। थोड़ा सा शांत बैठकर अपने आपको नाभि पर टिकाएं, आपको ऊर्जा महसूस होगी। नाभि व्यासपीठ की तरह ही है और आप अस्तित्व पर आ जाएंगे। फिर जो भी करेंगे वह हो रहा होगा। कर्म होगा, कर्ता नहीं होगा।

वायु तत्व के प्रतीक हैं हनुमानजी
जन्म मृत्यु के बीच में जीवन नामक महत्वपूर्ण घटना घटती है। जन्म तो जानवरों का भी होता है, लेकिन उनमें जीवन नहीं घटता। यह संभावना सिर्फ मनुष्य में है। जन्म को जीवन में बदलने का एक  उदाहरण हनुमानजी का है। कई लोग पूछते हैं कि हनुमानजी मनुष्य हैं या बंदर। कोई उन्हें मानने को तैयार नहीं है तो कोई उन्हें लेकर अनुभूति के कई प्रसंग सुना सकता है। कहीं वे सेवा के प्रतिमान हैं तो कहीं जीवन प्रबंधन गुरु। उन्हें वानर कहा गया है, वन में रहने वाले नर। इसीलिए वे मनुष्य की श्रेष्ठतम स्थिति का प्रतीक हैं। वे पशु की दिव्यता को भी झलकाते हैं। हिंदू धर्म ने प्रकृति और प्राणी को बड़े वैज्ञानिक ढंग से जोड़ा है। पंचतत्व की कल्पना इसी का प्रमाण है। पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु, आकाश और मनुष्य का शरीर, सब संयुक्त हैं।

हनुमानजी वायु तत्व का प्रतीक हैं। ये सब अपना-अपना हिस्सा हमें दे रहे हैं। हम ठीक से लेना न जानते हों, यह अलग बात है। हनुमान साधना का अर्थ ही यह है कि प्रकृति में वायु तत्व से उसका श्रेष्ठ ग्रहण कर लेें। इसीलिए प्राणायाम के साथ श्रीहनुमानचालीसा को किया जाए। सांस लेने के साथ यदि हनुमत तत्व यानी वायु तत्व से जुड़ जाएं, तो हमारे शरीर में जो जीवन के केंद्र हैं वे जाग्रत हो जाएंगे। यह बड़ी निजी अनुभूति होगी। इसलिए हनुमान जयंती के दिन खूब पूजा-पाठ, कर्मकांड करें, लेकिन कुछ समय श्रीहनुमानचालीसा की एक चौपाई सांस के साथ भीतर और दूसरी चौपाई सांस के साथ बाहर निकालें। आप हनुमानजी को बिल्कुल निकट पाएंगे।

प्रकृति देती है स्वस्थ विचार-प्रक्रिया
आज व्यावसायिक दृष्टिकोण से मनुष्य को यदि लाभ हुआ है तो एक बड़ी हानि भी हुई है। लाभ यह कि मनुष्य ने अपना, अपने से जुड़े लोगों का, क्षेत्र का विकास किया और नुकसान यह है कि भावनात्मक रूप से दूसरों के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करता। जैसे ही दृष्टिकोण व्यावसायिक होता है, मनुष्य सबको वस्तु समझने लगता है। भावनात्मक संबंध बनते हैं अस्तित्व से। व्यावसायिक विकास रुकना नहीं चाहिए। हम खूब प्रगति करें, लेकिन केवल यही दृष्टि हो तो मनुष्य का भावनात्मक संतुलन बिगड़ जाता है। उसके भीतर एक अजीब सा असंतोष जन्म ले लेता है।

वह प्राणी और प्रकृति दोनों पर आक्रमण करने लगता है। यदि आप व्यावसायिक जगत के यात्री हैं तो दूसरों के अस्तित्व का सम्मान करने के लिए स्वयं को प्रकृति से जोड़ें। प्रकृति को जीवित मनुष्य की तरह मान करें। विज्ञान की अति पर टिके हुए लोग कहते हैं कि हमारे पास ऐसे साधन हैं कि हम प्रकृति के प्रकोप को भी नियंत्रित कर लेंगे। जब लोग प्रकृति को ही कुछ न समझें तो मनुष्य के अस्तित्व को कैसे सम्मान देंगे।

प्रकृति के तत्व हमेशा मदद करने के लिए तैयार हैं। वृक्ष, जल और पृथ्वी को सम्मान देना आरंभ करें, तो हमारी एक कमी दूर हो जाएगी और वह है काम पहले करना, विचार बाद में करना। वैसे हम मानते हैं कि हम सोच-समझकर काम करते हैं, लेकिन ऐसा होता नहीं है। यदि प्राकृतिक तत्व हमारे शरीर में संतुलित हैं, तो हमारी स्वस्थ विचार प्रक्रिया शुरू होगी और उसके बाद हम कर्म करेंगे, फिर सफलता भी ठोस होगी।

तेज संभालकर व्यक्तित्व निखारें
हमारे व्यक्तित्व में ऐसा क्या है जो सबसे सूक्ष्म है, लेकिन सबसे बलशाली है। जो अदृश्य है, लेकिन हम इसे दृश्य में बदल सकते हैं। इसे हमें जानना चाहिए, पर जीवनभर जान नहीं पाते। चाणक्य हमेशा पूछते थे कि सबसे बड़ा बलवान कौन? हाथी बहुत विशाल होता है, लेकिन छोटा-सा अंकुश उसे वश में रखता है। दीपक आकार में छोटा होता है, पर दूर-दूर के अंधकार को पी जाता है। इंद्र का वज्र छोटा है, पर बड़े-बड़े पहाड़ तोड़ चुका है। तो क्या अंकुश, दीपक या वज्र ये सब बड़े हैं या बलवान हैं। तब चाणक्य कहते थे - हैं तो ये छोटे, लेकिन इनके भीतर ताकत होती है और वह है इनका तेज।

ऋषियों ने कहा है कि पुरुषों और महिलाओं को चाहिए कि वे अपना तेज व्यर्थ नष्ट न करें। ये भोग-विलास के साधन नहीं हैं। जो लोग अपने व्यक्तित्व को निखारना चाहते हों, उन्हें अपने तेज को बहुमूल्य पूंजी की तरह संभालना और संवारना चाहिए। इसके लिए अपने तेज को जानना होगा। एक प्रयोग करते रहिएगा। २४ घंटे में कुछ समय इस बात पर ध्यान दीजिए कि जब आप सांस लेते हैं, तो भीतर गई सांस अपना अंतिम पड़ाव किसको रखती है। यदि ये उथली है, तो कंठ से ही लौट आएगी। कभी-कभी फेफड़ों में घूमकर आएगी। कुछ लोग उदर तक भी ले जाएंगे, लेकिन इसके परिणाम सामान्य ही रहेंगे। इसे अपनी नाभि तक ले जाने का प्रयास करें। आती-जाती सांस जितना नाभि के केंद्र को छुएगी, आप उतने ही अपने तेज को जान पाएंगे। करके देखिए, व्यक्तित्व का तेज बोलेगा और दूसरे भी उसे महसूस करेंगे।

सांस से साधें संयम और जगाएं चरित्र
संजिदा लोग बढ़ते हुए अपराधों को लेकर बहुत परेशान हैं। महिलाओं के साथ हो रहे अपराध तो परिवार को भीतर तक तोड़ देते हैं। खासतौर जब बच्चियां अपराध की शिकार हों। कानून अपना काम कर रहा है। धर्म चिल्ला-चिल्लाकर सिखा रहा है चरित्र बचाओ। आइए, हम सब भी अपनी सीमा में और अपने स्तर पर इससे मुक्ति का प्रयास करें। आस-पास के लोगों को समझाएं कि अपराध के दो बड़े कारण हैं - असंयम और अहंकार। असंयम वासनाओं को प्रवेश का अवसर देता है और अहंकार आवेश, आक्रोश, क्रोध में बदलता है, जो दुष्कृत्य में हिंसा भी उतार देता है। आज जो भी संयम दिखता है उसके पीछे सामाजिक या न्यायिक मजबूरी है। अवसर मिलते ही मनुष्य का मन चाहे वह फिर किसी भी उम्र का हो, मर्यादा तोडऩे में पीछे नहीं हटता। इसलिए हम परिवार के सदस्यों को संयम से जरूर जोड़ें।

तीन परत हैं - पहली प्रतिष्ठा की, दूसरी  आचरण की और तीसरी चरित्र की। हमें चरित्र पर काम करना होगा। चरित्र सांस से संचालित होता है। आचरण को विचार प्रभावित करते हैं और प्रतिष्ठा का संबंध रहन-सहन से है। जिन्हें बच्चों के चरित्र पर काम करना हो, वे उन्हें सिखाएं कि अपनी सांस को महसूस करें। यदि समुद्र में हमें लहरें दिखती हैं। अब लहर के पीछे की हवा को देखने का अभ्यास करें। ऐसे ही सांस के पीछे के प्राण को देखें। भीतर जाती सांस को पीछा करते हुए और बाहर निकलती सांस के साथ स्वयं चलते हुए थोड़ा समय बिताएं। अपने आप चरित्र जागेगा और संयम क्या होता है यह समझा देगा।

साथ में प्राणायाम करें पति और पत्नी
पानी के लिए कहा जाता है कि यदि उसे शून्य डिग्री मिले तो बर्फ बनना ही है और सौ डिग्री पर भाप होना ही है। हमारे विचार भी पानी की तरह हैं। ये दूसरों के विचारों से संचालित हो जाते हैं। जम भी सकते हैं और उबल भी सकते हैं। इसके सबसे खतरनाक परिणाम पति-पत्नी का रिश्ता  भुगतता है। ऊपरी तौर पर तो यह विवाह आधारित है, लेकिन गहराई से देखें तो यह स्नेह-प्रधान रिश्ता है। देखने में आता है कि शादी और स्नेह का अनिवार्य संबंध नहीं है। कहते हैं बगैर प्रेम के विवाह नहीं होना चाहिए। जरूरी नहीं कि जहां प्रेम हो, वहां विवाह हो ही जाए।

तीसरा तथ्य यह है कि जहां प्रेम रहा हो वह विवाह के पश्चात बचा रहे। परिवार में पति-पत्नी नामक संस्था में प्रेम की संभावना विवाह के पहले और बाद, दोनों में बनी रहनी चाहिए। इसमें कोई स्थायी नियम लागू नहीं होगा, क्योंकि इस रिश्ते में प्रेम व काम, त्याग व भोग, अनुशासन व विलास एक साथ चलते हैं।

यह केवल संबंध नहीं, भावना भी है। इसलिए इसका आधार आत्मीयता को बनाना होगा। अभी पति-पत्नी बनते हैं दोनों के विचार तंत्र भी टकराते हैं। एक विचार तंत्र का असर दूसरे पर होता है। कभी एक की विचार शृंखला बर्फ हो जाएगी तो कभी दूसरे से प्रभावित होकर भाप बन जाएगी। हमारे शरीर की एक बहुत अच्छी व्यवस्था है एक आंतरिक अंग दूसरे से संचालित है। विचार तंत्र मन से संचालित है, मन सांस से और सांस प्राणायाम से। इसलिए पति-पत्नी को थोड़ी देर एकसाथ प्राणायाम करना चाहिए। कम से कम अनावश्यक तनाव तो अपने आप गिरने लगेगा।

सांस से साधें संयम और जगाएं चरित्र
संजिदा लोग बढ़ते हुए अपराधों को लेकर बहुत परेशान हैं। महिलाओं के साथ हो रहे अपराध तो परिवार को भीतर तक तोड़ देते हैं। खासतौर जब बच्चियां अपराध की शिकार हों। कानून अपना काम कर रहा है। धर्म चिल्ला-चिल्लाकर सिखा रहा है चरित्र बचाओ। आइए, हम सब भी अपनी सीमा में और अपने स्तर पर इससे मुक्ति का प्रयास करें। आस-पास के लोगों को समझाएं कि अपराध के दो बड़े कारण हैं - असंयम और अहंकार। असंयम वासनाओं को प्रवेश का अवसर देता है और अहंकार आवेश, आक्रोश, क्रोध में बदलता है, जो दुष्कृत्य में हिंसा भी उतार देता है। आज जो भी संयम दिखता है उसके पीछे सामाजिक या न्यायिक मजबूरी है। अवसर मिलते ही मनुष्य का मन चाहे वह फिर किसी भी उम्र का हो, मर्यादा तोडऩे में पीछे नहीं हटता। इसलिए हम परिवार के सदस्यों को संयम से जरूर जोड़ें।

तीन परत हैं - पहली प्रतिष्ठा की, दूसरी  आचरण की और तीसरी चरित्र की। हमें चरित्र पर काम करना होगा। चरित्र सांस से संचालित होता है। आचरण को विचार प्रभावित करते हैं और प्रतिष्ठा का संबंध रहन-सहन से है। जिन्हें बच्चों के चरित्र पर काम करना हो, वे उन्हें सिखाएं कि अपनी सांस को महसूस करें। यदि समुद्र में हमें लहरें दिखती हैं। अब लहर के पीछे की हवा को देखने का अभ्यास करें। ऐसे ही सांस के पीछे के प्राण को देखें। भीतर जाती सांस को पीछा करते हुए और बाहर निकलती सांस के साथ स्वयं चलते हुए थोड़ा समय बिताएं। अपने आप चरित्र जागेगा और संयम क्या होता है यह समझा देगा।

पालकों के लिए जागरूकता का वक्त
आगे आने वाला समय नतीजों से भरा होगा। विद्यार्थियों के रिजल्ट आने वाले हैं। फिर देश भी एक परीक्षा से गुजर रहा है। मई तक उसकी चुनावी परीक्षा के भी नतीजे आ जाएंगे। अभी माहौल ऐसा है कि परीक्षा हॉल में कॉपियां तो नेता भर रहे हैं, लेकिन परीक्षा देश दे रहा है। इसमें हार-जीत का नफा-नुकसान तो सामूहिक होगा। इसलिए उनसे निपटना कठिन नहीं है, लेकिन नतीजों का प्रभाव हमारे परिवारों के भीतर भी आ रहा है।  परीक्षा-फल अनुकूल न आने पर बच्चे आत्महत्या पर उतारू हो जाते हैं। खबरें आने भी लग गई हैं। इस दु:खदायी घड़ी से हमें सावधानी से निपटना होगा। रिजल्ट से पहले और बाद में बच्चों के साथ माता-पिता पूरे होश में और सावधानी से रहें।

आपकी जरा सी लापरवाही जीवनभर का दु:ख दे जाएगी। गीता में लिखा है जब संसार जागता है तो योगियों की रात होती है और जब संसार सोता है तब योगी जाग रहा होता है। यानी जब लोग संसार में भोग-विलास में डूबते हैं तो इसे नींद कहेंगे और इसका उल्टा संयमी का जागना है। रिजल्ट आने पर माता-पिताओं को संयमी की तरह जागना है। कॅरियर, महत्वाकांक्षा, लक्ष्य इस दबाव में हम भले ही सांसारिक रूप से सोए हुए हों, लेकिन अब प्रेरणा, प्रोत्साहन और संरक्षण के लिए जाग जाइए। आजकल बच्चे जितनी जल्दी आवेश में आते हैं, उससे भी ज्यादा तेजी से अवसाद में डूब जाते हैं। मनुष्य का मन दु:ख को जल्दी पकड़ता है। इस समय माता-पिता बच्चों के मन को स्वस्थ और जागरूक रखें ताकि सफलता-असफलता के अर्थ आध्यात्मिक दृष्टि से लिए जाएं।

स्त्रियों के प्रति समानता का भाव रखें
हम लोगों के जीवन में परेशानी का एक कारण यह होता है कि हम जो हैं उसको स्वीकार नहीं कर पाते। जैसे हमारे भीतर क्रोध हो, हिंसा हो, काम हो, तो हम भीतर या बाहर इसका प्रदर्शन भी करते हैं, लेकिन स्वीकार नहीं करते कि हम क्रोधी हैं, हिंसक हैं या कामी हैं। एक आवरण सा ओढ़ लेते हैं और उस खोल के भीतर हम वो सब करते हैं जो बाहर नहीं कर पाते। हमें स्वयं को स्वीकार करना होगा कि हममें क्या दोष है और फिर निवारण करें। इन दिनों सामाजिक जीवन में हमारा एक दोष यह भी है कि हमने स्त्री-पुरुष में बहुत भेद बना दिए हैं और इसीलिए जब भी स्त्रियों की बात आएगी हमारी दृष्टि बदल जाती है।

कभी-कभी तो लगता है औरत के लिए जमाना कभी नहीं बदला, न तब और न अब। और इसीलिए सही बात भी गलत ढंग से देखी जाती है। हम बात कर रहे हैं तुलसी की उस चौपाई की- ढोर, गंवार, शूद्र, पशु नारी। सकल ताडऩा के अधिकारी।। चौपाई का आशय है- ढोर, गंवार, शूद्र, पशु और स्त्री ये सब शिक्षा के अधिकारी हैं। इस बहुचर्चित चौपाई में स्त्रियों के मनोविज्ञान पर इशारा किया है। यदि ताडऩा का अर्थ टार्चर भी मान लें तो देखा यह गया है कि स्त्री स्वयं को पर्याप्त प्रताडि़त करती है और उसका ढंग पुरुष से अलग होता है।


पुरुष को क्रोध आएगा तो वह दबाता है। इसीलिए पुरुषों को हृदय रोग अधिक होता है। क्रोध के प्रति स्त्रियों की सहजता ने उन्हें हार्टअटैक से मुक्त कराया है। पुरुषों के मुकाबले स्त्रियां इस बीमारी से कम मरती हैं। तुलसी का उद्देश्य स्त्रियों की आलोचना करना नहीं, उनके मनोविज्ञान पर इशारा करना है।
दूसरों के अस्तित्व का सम्मान कीजिए
विज्ञान चेतन के भीतर की जड़ को ढूंढ़ लेता है। इसका मतलब है जो कुछ बाहर सजीव है विज्ञान उसके भीतर के निर्जीव को पकड़ता है। जैसे कवि के हाथ फूल लग जाए तो शृंगार की कविता लिख दे। माली को उसमें अपने बच्चों जैसे प्राण दिखते हैं, लेकिन वैज्ञानिक के हाथ लग जाए, तो उसके लिए उस फूल के भीतर वनस्पति का शास्त्र मात्र है।

आध्यात्मिक ज्ञान जड़ में से चेतन को ढूंढ़ता है। इसीलिए हमारे ऋषि-मुनियों ने कहा है कि मनुष्य को कभी वस्तु मत मानो और वस्तुओं में भी जीवन देखो। आज लोगों के पारस्परिक संबंध इसीलिए खराब हो गए हैं कि एक-दूसरे को वस्तु मानकर अधिकार जताया जाता है। आप कितने ही पढ़े-लिखे हों जीवन में आध्यात्मिक ज्ञान जरूर उतारें। उसे प्राप्त करने के लिए तीन काम करने पड़ते हैं। शास्त्रों में कहा है जिससे ज्ञान लेना हो सबसे पहले उसे प्रणाम करें, फिर सेवाभाव जाग्रत करें और उसके बाद जिज्ञासा से प्रश्न करें, संदेह से नहीं। विनम्रता, सेवा और जिज्ञासा ज्ञान प्राप्त करने के मार्ग हैं।

यह ज्ञान बताता है कि किसी को निर्जीव, वस्तु न समझें। सबके भीतर परम पिता ने प्राण डाले हैं। वस्तु बनाते ही हम एक-दूसरे पर मालिकाना हक जताने लग जाते हैं। पति-पत्नी के झगड़े इसी बात के हैं। इसीलिए पति-पत्नी को संयुक्त रूप से आध्यात्मिक ज्ञान से गुजरना चाहिए। इसके लिए योग में ध्यान की व्यवस्था दी गई है। ध्यान का अर्थ होता है अपने अस्तित्व पर टिकना और ऐसे लोग दूसरों के अस्तित्व का भी मान करते हैं और यहीं से संबंध मधुर होते हैं।

हृदय से चलते हैं परिवार के रिश्ते
इस समय माता-पिता अपने बच्चों को लेकर एक विशेष परिस्थिति से गुजर रहे हैं। बच्चे उनसे दूर चले जाते हैं और वे बच्चों के बिना अकेले हो जाते हैं। ऐसी स्थिति तीन बार बनती है। पहली बार तो तब जब बच्चे पढ़ाई-लिखाई के लिए माता-पिता से दूर जाएं। इस समय माता-पिता उत्साहित रहते हैं, क्योंकि सुनहरा भविष्य सामने है, लेकिन अकेलापन अपना काम कर रहा होता है। दूसरी स्थिति तब बनती है, जब बच्चे अपनी नौकरी-व्यवसाय के कारण माता-पिता से दूर जाते हैं। यह अकेलापन थोड़ा अधिक भारी हो जाता है, क्योंकि इसमें उनके लौटकर आने की संभावना कम रहती है। या तो माता-पिता को उनके पास जाना है, या फिर ऐसे ही अकेले रहना है। तीसरी स्थिति तब बनती है जब मतभेद के कारण बच्चे अलग हो जाएं। सभी माता-पिता लालन-पालन के दौरान बच्चों को आत्मनिर्भर होने की ट्रेनिंग देते हैं।

इस समय माता-पिता को भी थोड़ा सावधान रहना चाहिए। लालन-पालन के समय बच्चों को मस्तिष्क और हृदय का अंतर बताते रहें। पढ़े-लिखे आदमी को यह कला आना चाहिए कि वो बाहर की दुनिया में मस्तिष्क का उपयोग करे और भीतर आते ही हृदय पर टिक जाए। दुनियादारी में डूबकर हम मस्तिष्क का इतना उपयोग करने लगते हैं कि भूल ही जाते हैं कि घर-परिवार के रिश्ते हृदय से चलते हैं। जीवन हृदय-शून्य होता जाता है और उसका परिणाम माता-पिता अपने अकेलेपन से चुकाते हैं। बच्चों को अभ्यस्त किया जाए कि घर आने पर हृदय-प्रधान जीवन हो।

अच्छी वृत्ति से पाएं समस्या का समाधान
यह एक आदर्श वाक्य है कि हर समस्या के साथ उसका निदान भी आता है, लेकिन निदान को कैसे पकड़ा जाए, यह फिर एक समस्या है। शास्त्रों में मनुष्य के भीतरी स्वभाव को वृत्ति कहा गया है। यानी विचारों को क्रिया में बदलने वाली शक्ति। हर मनुष्य में अच्छी और बुरी वृत्ति है। महाभारत में कहा गया है, 'मैं धर्म को जानता हूं, परंतु धर्म में मेरी प्रवृत्ति नहीं हो रही है। मैं अधर्म को जानता हूं, परंतु उससे मेरी निवृत्ति नहीं हो रही है।'

हमारे भीतर की अच्छी वृत्ति हमसे अच्छे काम कराती है और बुरी वृत्ति अच्छे काम करने नहीं देती। इसलिए समस्या आए तो अच्छी वृत्ति पर टिकें और निदान को पकडऩे का प्रयास करें। अच्छी वृत्ति पर जितना टिकेंगे, उतनी आसानी से समाधान के कारण पर जा पाएंगे। एक होती है श्वान वृत्ति,  इसमें कुत्ता सिर्फ काम को देखता है। दूसरी होती है सिंह वृत्ति। शेर हमेशा कारण को देखता है।

यह काम क्यों किया जा रहा है, यह सिंह वृत्ति है। कारण को जितना आसानी से पकड़ेंगे, निदान उतनी ही जल्दी हाथ में आएगा। जैसे किसी से कोई अपराध हो जाए, तो अपराध एक कार्य है, पर उसके पीछे का कारण देखें तो वह है काम वृत्ति, हिंसा वृत्ति, गरीबी, नशा आदि। हम कारणों को जितना कमजोर बनाएंगे, अपराध करने से उतने ही बच सकेंगे। अच्छी वृत्ति हमें अच्छे कारणों से जोड़ती है। कारण अच्छा है तो कर्म गलत नहीं होगा। अच्छी वृत्ति के लिए केवल पूजा-पाठ काम नहीं आएगा। इसके लिए आत्मा पर टिकना होगा, जिसकी वृत्ति सदैव शुद्ध है। तो चलिए, गलत काम से बचने के लिए अच्छी वृत्ति बनाए रखें।

चेतना केंद्रित कर पाएं कर्म से मुक्ति
सभी धर्मों में सिद्धांतों को लेकर कुछ मतभेद हैं। लक्ष्य भले ही एक हो, लेकिन मार्ग अलग-अलग हैं। परंतु कर्म के सिद्धांत को लेकर सभी सहमत हैं। ज्ञान और भक्ति में सबके अलग-अलग रास्ते हैं। कहीं-कहीं तो ज्ञान को श्रेष्ठ माना है, भक्ति को गौण। लेकिन कर्म के मामले में सभी ने स्वीकार किया है कि यह तो करना ही पड़ेगा। शारीरिक और मानसिक क्रियाओं का नाम कर्म है। जब क्रिया अहंकार, वासना, सेवा ऐसे तत्वों से जुड़ती है, तब वह अच्छे या बुरे कर्म का रूप ले लेती है। जब तक आप कर्म करेंगे, तब तक तनाव भी रहेगा। इसीलिए शास्त्रों में कहा है कर्म से मुक्ति पाएं। इसका लोग गलत अर्थ लगा लेते हैं। वे कर्म छोडऩे का मतलब कर्म से मुक्ति समझते हैं।

तीन तरीके बताए गए हैं जिनके माध्यम से कर्म की मुक्ति को समझा जा सकता है - पहला, काम  के सुख या दु:ख देने वाले परिणाम को भोग लिया जाए, तो मुक्ति होगी। दूसरा, इन दोनों तरह के परिणामों को सेवा, पूजा या भक्ति से जोड़ लें तो भी कर्म मुक्ति होगी और तीसरा तरीका है आत्म-ज्ञान से दोनों तरह के परिणामों से मुक्त हो सकते हैं। वरना कर्म करते रहें और परेशान भी होते रहें। एक अभ्यास लगातार करते रहिए।

24 घंटे में थोड़ी देर के लिए शांत बैठ जाएं और शरीर के किसी भी एक हिस्से पर पूरी चेतना को केंद्रित कर लें। थोड़ी देर में आप महसूस करेंगे कि आप अलग हैं और शरीर अलग। इस अनुभूति को दिनभर बनाए रखें। एक दिन आप पाएंगे कि आपका शरीर काम कर रहा है और आप उसे देख रहे हैं। कर्म से मुक्ति का यह एक अच्छा तरीका है।

शांतिपूर्ण जीवन के लिए भरोसा जरूरी
यदि आपको किसी के साथ लंबा जीवन बिताना हो तो उसका आधार विश्वास ही बनाना होगा। भौतिक सुख-सुविधाएं एक-दूसरे को निकट ला सकती हैं, लेकिन शांतिपूर्ण जीवन के लिए एक-दूसरे पर विश्वास होना बहुत जरूरी है। कई बार रिश्तों में विश्वास खत्म हो जाता है। अतीत में आपसे किसी ने झूठ बोला हो और आप भुला न पाएं तो आपका वर्तमान भी बिगड़ जाता है। हो सकता है आप एक अच्छा रिश्तेदार खो दें। वो जीवनसाथी या भाई-बहन भी हो सकते हैं।

गलती किसी और ने की तथा कीमत आप चुकाएंगे। कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनकी आदतें बहुत गोपनीय होती हैं। इनके साथ रिश्ता निभाना कठिन हो जाता है। ऐसे में केवल विश्वास का आधार काम करता है। दूसरों पर भी विश्वास करें और खुद भी विश्वसनीय हों, इसके लिए दो काम करिए- अतीत को भूलें और वर्तमान पर टिकें। ज्यादा अतीत में जाएंगे तो विश्वास डगमगाने लगेगा। विश्वास को दृढ़ करने का सरल तरीका है प्रेमपूर्ण हो जाएं। पर प्रेम में प्रदर्शन न हो। हमें ही देना है, वापस मिले या न मिले इसकी चिंता नहीं करना है। जब कोई किसी के प्रेम में होता है तो अपना श्रेष्ठ दिखाता है।

होता कुछ और है, दिखाता कुछ और है क्योंकि सारा मामला आकर्षण का रहता है। इसीलिए प्रेम-विवाह सफल नहीं होते। दिखावे की परत हटते ही यथार्थ सामने आ जाता है। लेन-देन और अधिकार का भाव आते ही प्रेम रफूचक्कर हो जाता है। इसलिए विश्वास बचाना हो तो  ऐसे प्रेमपूर्ण हो जाएं, जिसमें देना ही है। मिलेगा क्या इसकी फिक्र परमात्मा पर छोड़ दें।

मन को नियंत्रित कर शांतिदूत बनाएं
मनुष्य के मन को पढऩा कठिन काम है। अभी विज्ञान भी इसमें असफल है। सिर्फ दो ही लोग जान पाते हैं कि मन में क्या चल रहा है। एक वह जिसका मन है और दूसरा उसका भगवान। मन के मामले में मनुष्य और पशु लगभग समान होते हैं, अमर्यादित। पशु को मर्यादित करना पड़ता है। अनुशासन में रहना उसकी मजबूरी है, क्योंकि उसके पास अपनी कोई दृष्टि नहीं, अपना कोई विचार नहीं।

यह स्वतंत्रता मनुष्य को मिली है। लेकिन फिर भी मनुष्य अपने मन पर काम नहीं करता। योग-विज्ञान के मुताबिक मन का कारक चंद्रमा है और बुद्धि का कारक सूर्य। शरीर में दो स्वर होते हैं - बायां चंद्र स्वर व दायां सूर्य स्वर। स्त्रियां चंद्र स्वर प्रधान होती हैं। इसलिए मन के कारण स्त्रियां उदास जल्दी हो जाती हैं। इसलिए उन्हें मन पर अधिक काम करना है। पुरुष का मन उच्छृंखल होता है। इसलिए वह अपनी उदासी को जल्दी बाहर फेंकता है, भले ही गलत तरीके से। स्त्री घुटने लगती है।

तुलसीदासजी ने सुंदरकांड की चौपाई में लिखा है - ढोल गवांर सूद्र पसु नारी। सकल ताडऩा के अधिकारी।। उन्होंने समुद्र के मुंह से कहलवाया कि ये चारों शिक्षा के अधिकारी हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि वे नारी विरोधी हैं। वे नारी मनोविज्ञान पर एक ऐसी टिप्पणी कर रहे हैं, जो नारी जाति की मानसिक शांति के लिए विशेष संकेत दे रही है। मातृशक्ति उदास रहे और खासतौर से परिवार में तो समाज का पूरा विकास नहीं माना जाएगा। ताडऩा का अर्थ है मन को नियंत्रित किया जाए। उसे शांतिदूत बनाया जाए, न कि अशांति का हथियार।

करुणा की सुगंध से पैदा होता है भरोसा
कुछ लोगों की आदत सी पड़ जाती है कि यदि उनकी पसंद का काम न हो तो वे साथ वालों को सताने लगते हैं। जब किसी को परेशान किया जाता है तो यह शारीरिक मामला होता है, लेकिन जब कोई सताने पर उतर आए तो चोट हृदय तक लगती है। परेशान करने के लिए आक्रामक होना पड़ता है, लेकिन सताने की क्रिया में शांति से भी लोग काम दिखा जाते हैं। बच्चे मां-बाप को परेशान भी करते हैं और सताते भी हैं। जीवनसाथियों के बीच भी यह घटता है।

दोनों यह घोषणा कर दें कि हमें एक-दूसरे से कोई लेना-देना नहीं है तो वे एक-दूसरे को परेशान ही कर रहे होते हैं। लेकिन जैसे ही वे एक-दूसरे पर नियंत्रण जताने लगते हैं, तब सताने का काम शुरू हो जाता है। हर बात पर सलाह देना, अपने नियंत्रण की घोषणा करना सामने वाले के आत्म-सम्मान और आत्मविश्वास को कमजोर करता है। जब हम  साथ रहते हैं तो निश्चित ही एक-दूसरे की समस्याओं के प्रति सहानुभूतिपूर्ण भी रहना पड़ता है। यहीं से हम अधिकार भी जताने लगते हैं। एक काम करिएगा, अपने परिवारों में सहानुभूतिपूर्ण होने की जगह करुणामयी हो जाएं। सहानुभूति सतह का मामला है और करुणा गहराई से उपजती है।

जब हम एक-दूसरे के प्रति करुणा से भरे होते हैं तो अहंकार का निष्कासन होना शुरू हो जाता है। उस समय न हम किसी को परेशान कर रहे होते हैं और न ही सता रहे होते हैं। सामने वाले को अपने आप महसूस होने लगेगा कि यदि आप उनके साथ हैं, इतना ही काफी है। क्योंकि करुणा की सुगंध भरोसा पैदा करती है।
स्थितियों को स्वीकार कर तनाव से बचें
प्रबंधन के इस युग में हम सब काफी प्लानिंग से चलते हैं। इसीलिए सफल भी होते हैं। पर मैंने देखा है कि अत्यधिक प्लानिंग से चलने वाले लोग जरा भी अप्रत्याशित हो जाएं तो चिड़चिड़ाने लगते हैं, परेशान हो उठते हैं। खुद को भरोसा दिलाइए कि कुछ स्थितियां आपके हाथ में नहीं हैं और जब ऐसा हो तो हैरान-परेशान न हों।

यात्रा के दौरान मैंने देखा है, खासतौर पर फ्लाइट के समय कि सभी यात्री टाइम के मामले में कट-टू-कट होते हैं। उनके पास समय कम होता है। जब फ्लाइट डिले हो जाए, ट्रेन लेट हो जाए तो अप्रत्याशित परेशानियां शुरू हो जाती हैं। कई लोग चिड़चिड़ाने लगते हैं। बाहर से व्यक्त नहीं करेंगे, तो भीतर उथल-पुथल शुरू हो जाती है। चेहरे से तनाव झलकने लगता है। यदि ऐसा हो तो एक प्रयोग करिए। शांति से बैठकर विचार करें कि नदी क्यों बहती है, पक्षी क्यों उड़ते हैं, बादल एक जगह से दूसरी जगह क्यों जा रहे हैं। प्रकृति से पूछें कि वह ऐसा क्यों करती है।

आपको प्रकृति से जवाब मिलेगा, 'मैं करती नहीं हूं, कुछ चीजों को होने देती हूं। फूल के खिलने में, फल के पकने में, हवा के चलने में कोई प्रयोजन नहीं है। भक्त इसे भगवान की लीला कहता है। विज्ञान इसे घटना मानता है। बस, ऐसे ही लें आपके साथ हो रही अप्रत्याशित घटना को। हो रहा है तो होने दें, ऐसा मान लें और रिलेक्स हो जाएं। कुछ चीजों को घट जाने दीजिए। हर जगह अपना हस्तक्षेप मत करिए। थोड़ी देर बाद आप वापस उसी मुख्य धारा में होंगे, जिसके आप बने हैं, फिर क्षणिक विचलन क्यों रखें।

ईश्वर पर भरोसा छोड़ा कि आई उदासी
परमात्मा के हाथ से कभी गलत निर्माण नहीं होता। इसीलिए हमें अपने मनुष्य होने पर गर्व करना चाहिए। परमात्मा ने हमें बनाते समय एक चीज दी है, वह है प्रसन्नता। क्योंकि मनुष्य बनाने के बाद ईश्वर स्वयं बहुत प्रसन्न हुआ। उसने  यह प्रसन्नता मनुष्य में स्थानांतरित कर दी। परमात्मा ने हमें बनाया, अब हमें अपनी परिस्थितियों को बनाना है। इनसे दो चीजें जुड़ी हैं - तकलीफ और सुविधा। जिस परिस्थिति को हम बदल सकते हैं उसे जरूर बदल दें। पर यह समझ में आ जाए कि यह बदली नहीं जा सकती, तो उसे प्रसन्नता से स्वीकार करें। उदास बिल्कुल न हों। उदासी का अर्थ है हाथ में पत्थर लेकर परमात्मा की ओर उछालना।

मनुष्य की उदासी, प्रसन्नता देने वाले परमात्मा की अवमानना है। आपने उस पर से भरोसा छोड़ा, तभी उदासी आई। उदासी आने पर तीन काम जरूर करिए - एक तो अपनी बॉडी लेंग्वेज को चुस्त बना लें। शरीर जितना स्फूर्तिभरा होगा, उदासी उतनी भीतर कम फैलेगी। दूसरा, अच्छे विचारों को अंदर लाएं और बुरे विचार बाहर फेंकें। तीसरा, चिंतित बिल्कुल न हों। उदासी घिरने लगे तो सीधे खड़े हो जाएं। दोनों पैरों और पंजों को चिपका लें, हाथ को जोड़ते हुए छाती से टिका लें। अपना सारा ध्यान मूलाधार चक्र पर जमा लें और सोचें कि आपकी पूरी चेतना वहीं टिक गई है। आपके भीतर समुद्र जैसी लहरें उठ रही हैं। समुद्र अपनी गहराई में सबकुछ उतार लेता है। पांच मिनट बाद आप उदासी से मुक्त होने लगेंगे। उदास रहकर अपने और परमात्मा से रिश्ते का अपमान न करें।

दिखना सहज है और होना कठिन
होने और दिखने की प्रक्रिया में दिलचस्प फर्क है। दिखना सहज है और होना कठिन है। अधिकतर लोग दिखना चाहते हैं, इसलिए दिखने की प्रक्रिया सामान्य है। होना कोई नहीं चाहता है, क्योंकि यह गलने और ढलने की कठोर प्रक्रिया है। दिखने और दिखाने से अहं को संतुष्टि मिलती है।

ऐसा लगता है कि हम भी कोई हैं, हमारा भी कुछ वजूद है और सही मायने में देखा जाए, तो ऐसा होता नहीं है। दिखाने वाले आडंबर का मनोविज्ञान विकारों और विकृतियों से भरा है। जो हम नहीं हैं और जिसे हम अच्छी तरह जानते हैं कि हम ऐसे हैं। जो नहीं है, इस झूठ को हम संसार में सच्चाई के रूप में प्रतिष्ठित करते हैं। प्रतिष्ठा की इस झूठी चमक की अंतहीन प्यास के जगते ही हम इसकी सुरक्षा, संरक्षण और प्रसार के लिए अपनी समस्त ऊर्जा को नष्ट कर देते हैं। कोई यदि इसके विरुद्ध उंगली उठाता है या फिर प्रतिकूल बोलता है तो वह हमारा सबसे बड़ा विरोधी बनता है।

विडंबना यह है कि हम झूठ को, आंतरिक खोखलेपन को प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाते हैं और सारा जीवन दूसरों को दिखाने के लिए ही अपनी अमूल्य जीवन-ऊर्जा को जलाकर खाक कर देते हैं। समाज में हमारा यह दोहरा व्यक्तित्व दूसरों की झूठी प्रशंसा से तुष्ट होता है। वस्तुत: दिखने और दिखाने की प्रक्रिया गलत नहीं है, गलत है इससे दूसरों को नुकसान पहुंचाना और स्वार्थ सिद्ध करना। इसके ठीक विपरीत होने और बनने की प्रक्रिया आंतरिक संतुष्टि देती है। होना सर्जन है और सर्जन की यह पटकथा अहं की अग्नि-नींव पर नहीं, बल्कि राख पर लिखी जाती है। जब अहंकार नष्ट हो जाता है, तभी अंतर में भगवत्ता प्रकट होती है और अहंकारशून्य पुरुष आकाश पुरुष बन जाता है। सर्जन की यह आदर्श और उत्कृष्ट दशा है। इस अवस्था में दिखाने और दिखने का कोई आडंबर नहीं होता है।

दिखाने का यह मुखौटा समाज के विभिन्न क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न ढंग से प्रस्तुत करना पड़ता है और उस भूमिका को सफल बनाने के लिए स्वयं की मौलिकता को मिटाना पड़ता है। पहली दशा में व्यक्ति दूसरों को धोखा देता है और दूसरी अवस्था में वह स्वयं को छलता है। इसके ठीक विपरीत होने और निर्माण की प्रक्रिया में मौलिकता निखर उठती है। अंतहीन शक्तियां विकसित होकर अपने शिखर को छूती हैं। बहरहाल, होने और दिखने की इस दुविधाग्रस्तता में आवश्यकता है एक अच्छे इंसान का जीवन जीने की।

चिंतन विकसित मस्तिष्क की सहज प्रक्रिया है
चिंतन विकसित मस्तिष्क की सहज प्रक्रिया है। जहां चिंतन है वहीं विचार है, वैचारिक दर्शन है। चिंतन एक प्रकार का मंथन है। यदि चिंतन शुभ और गहन है, तो मंथन अमृतदायी है और यदि सतही है, तो विष उत्पादक है। समुद्र मंथन से भी पहले प्राणाहार विष ही प्राप्त हुआ था, कारण वह सतही मंथन था। जब सुरों-असरों ने गंभीर होकर गहन मंथन किया, तो उन्हें अमरता प्रदान करने वाला अमृत लाभ हुआ। चिंतन वही शुभकारी होता है, जो अमृतदायी हो। अशुभ चिंतन का यहां विष तो बहुत है, पर विषपायी कोई नहीं है। हमें विषपान से बचने के लिए चिंतन को शुभ रखना ही होगा।

उदाहरणार्थ सूर्य पूर्व में उगता है, प्रकाश फैलाता है और सायं अस्त हो जाता है और हमें अंधकार के महाकूप में डुबो जाता है। यह बात सच नहींहै बल्कि हमारा दृष्टिभ्रम है। सूर्य न तो उगता है और न अस्त होता है। पृथ्वी ही उसकी परिक्रमा करती है।

पृथ्वी की यह परिक्रमा और परिभ्रमण ही हमें भ्रमित करता है और यही भ्रम हमारे चिंतन को दूषित भी। यह दूषित चिंतन डूबते सूर्य के सदृश हमें भी अवसादों के अंधकार में डुबोता रहता है। सूर्य और आत्मा, दोनों ही शाश्वत हैं। पृथ्वी और तन दोनों ही क्षरणशील, नश्वर और मायाग्रस्त हैं, लेकिन हमारा गलत या असंतुलित चिंतन इसके उलट सूर्य को गतिशील और पृथ्वी को स्थिर मानता है।

तभी तो वह सूर्योदय और सूर्यास्त जैसे भ्रामक शब्द गढ़ता और उन्हें दूसरों को भी स्वीकार कराने का यत्‍‌न करता है। 1सूर्य का उदाहरण सामने रख आत्मा की अक्षरता, अजरता और अमरता का हम निरंतर शुभ चिंतन करें, पृथ्वी की तरह शरीर को स्थिर मानकर स्वयं को भ्रमित न करें। दूसरों को भुलावे में रखकर हम भले ही किसी तथाकल्पित लाभ की बगिया मन में उगा लें, किंतु स्वयं को भुलावे में रखना सजी संवरी बगिया को उजाड़ना ही है। पात्र को आधा रिक्त समझने वाला चिंतन कभी शुभ नहीं होता है। वह तनाव, अवसाद और निराशाओं का जनक होता है। फूलों का मुरझाना, पत्तियों का झड़ना, सूरज का डूबना, खालीपन को महसूस करना आदि अशुभ चिंतन को त्यागकर हमें फूलों का खिलना, पत्तियों का पल्लवित होना, सूरज का निकलना, पूर्णता का आनंद लेना आदि के बारे में शुभ चिंतन करना चाहिए। यह शुभ चिंतन ही श्रेष्ठ और शुभ्र होता है।

मतभेद बुरा नहीं है, मनभेद गलत है
मतभेद बुरा नहीं है, मनभेद गलत है। मनभेद की कोख से धर्माधता जन्म लेती है, जो सारे अनर्थो की जड़ है। परस्पर संवाद से सत्य का बोध होता है। जैसे विभिन्न नदियां विविध स्त्रोतों से निकलकर अंतत: समुद्र में समा जाती हैं, वैसे ही भिन्न-भिन्न रुचि वाले मतावलंबी अंत में शिव या परम सत्ता में मिल जाते हैं।

रुचिभेद के कारण एक ही सत्य तक पहुंचाने के लिए विभिन्न धार्मिक मार्गो का होना लाजमी है। जरूरत है इष्ट निष्ठा की। स्वामी विवेकानंद का विचार है कि संसार के लिए वह दिन बुरा होगा, जब सभी मनुष्यों का धार्मिक मत एक हो जाएगा। तब उस स्थिति में मनुष्य की चिंतन धारा ठहर जाएगी और ज्ञान का संवर्धन रुक जाएगा। जो अनुष्ठान तुम्हें ईश्वर की ओर ले जा रहा है, उसे बेहिचक ग्रहण करो। चाहे राम कहो या रहीम कहो, मतलब तो खुदा की चाह से है। जैसे लिफाफा चिट्ठी नहीं है, वैसे ही मंदिर या मस्जिद परमात्मा नहीं है, बल्कि चित्त शुद्धि के साधन हैं। सत्य एक है, लेकिन विविध पंथ उसके रंग-बिरंगे फूल हैं। दुनिया का कोई भी धर्म छोटा या बड़ा नहीं होता। सभी धर्मो में नैतिकता की शिक्षा दी गई है और मानव कल्याण को सर्वोपरि मूल्य बताया गया है।

इसलिए देवालयों के विवाद में उलझना न तो तार्किक है और न ही मानव कल्याण के हित में। हमारे शास्त्रों में कहा गया है कि सांप्रदायिकता से घृणा करो, संप्रदायों से नहीं। संप्रदायों को बने रहना चाहिए इसमें कोई बुराई नहीं। ऐसा इसलिए, क्योंकि इनसे चिंतन की कई धाराएं बह निकली हैं। जो सबको अपने आप में देखता है, वही धर्म के वास्तविक मर्म को जानता है और ईश्वर के उद्देश्यों को पूरा करता है।

जैसे बादल बिना भेदभाव के सभी खेतों में बरसता है, वैसे ही प्रभु की कृपा सब पर समान रूप से होती है। जागरूक कृषक की तरह सभी धर्मनिष्ठ जीवन में उसका लाभ उठाते हैं। ईश्वर को जानना नहीं है, बल्कि जीवन में इसे जीना है। तोते की तरह राम का नाम जपने से काम नहीं चलेगा। राम को भीतर से जीना होगा। धर्म की पहचान निश्छल प्रेम में होती है, बाहरी कर्मकांड में नहीं। अशुद्ध मन से मंदिर जाना पाप है। जहां संत बसते हैं, वहीं तीर्थ बन जाता है। केवल शिवलिंग में ही शिव को नहीं देखना है, अपितु सर्वत्र शिव का दीदार करना है। कोरा ज्ञान पांडित्य प्रदर्शन है। यदि खबरों का संग्रह विद्वता का प्रमाण है, तो पुस्तकालय श्रेष्ठ मुनि है।

समाज में व्यक्ति का सबसे बड़ा दायित्व है 'परमार्थ'
मनुष्य और समाज, शरीर और उसके अंगों के सदृश हैं। दोनों परस्पर पूरक हैं। एक के बिना दूसरे का स्थायित्व संभव ही नहीं है। दोनों में आपसी सहयोग परमावश्यक है। मनुष्य की समाज के प्रति एक नैतिक जिम्मेदारी होती है, जिसके बिना समाज सुव्यवस्थित नहीं रह सकता। इसे हम मानव शरीर के उदाहरण द्वारा उचित तरीके से समझ सकते हैं।

शरीर के विभिन्न अंग यदि अपना काम करना छोड़ दें तो वह शिथिल और जर्जर हो जाएगा। शरीर को स्वस्थ व सुदृढ़ बनाने के लिए प्रत्येक अंग का कार्यरत और क्रियाशील होना जरूरी है। ठीक यही स्थिति समाज के लिए आवश्यक है। समाज को समुचित स्थिति में रखने के लिए प्रत्येक मनुष्य में अपने उत्तरदायित्व को निभाने के लिए क्रियाशीलता अपेक्षित होती है। विभिन्न अंगों के पृथक ढंग से कार्य करने पर असहयोग की स्थिति उत्पन्न होगी। उस समय शरीर की दशा अत्यंत शोचनीय हो जाएगी। शरीर एक मशीन की भांति है, एक भी पुर्जा गड़बड़ हुआ तो सारी मशीन बिगड़ जाती है। व्यक्ति का स्वार्थमय जीवन भी समाज के लिए अत्यंत दुखदायी है। इस स्थिति में समाज का सदस्य सुखी नहीं रह सकता।

समाज में शक्ति संपन्नता और उसका विकास पूर्णतया असंभव है। यदि किसी मनुष्य ने अपनी उन्नति या विकास कर लिया, किंतु उससे समाज को कोई लाभ न मिला तो उसकी समस्त उपलब्धियां व्यर्थ हैं। स्वार्थी और संकुचित व्यक्ति समाज का शोषण और अहित करते हैं। इस तरह के व्यक्ति समाज के शत्रु होते हैं, जो निरंतर असहयोग की दुर्भावना फैलाते रहते हैं और समस्याएं खड़ी करते हैं। ऐसे व्यक्ति समाज को पतन के गर्त में ले जाते हैं। ऐसे लोग अविश्वसनीय, संदेहास्पद, झगड़ालू प्रवृत्ति के होते हैं।

सुखी-संपन्न समाज तभी निर्मित हो सकता है जब मनुष्य व्यक्तिवादी विचारधारा को छोड़कर समष्टिवादी बने। इसी में समाज का कल्याण और मानव का हित है। व्यक्तिवादी विचारधारा को छोड़कर समष्टिवादी बनें। इसी में समाज का कल्याण और मानव का हित है। समाज में पारस्परिक सहानुभूति प्रेमभावना, उदारता सेवा और संगठन की भावनाएं अत्यंत आवश्यक हैं। इन्हीं से समाज का विकास और समृद्धि संभव है। समाज में व्यक्ति का सबसे बड़ा दायित्व है 'परमार्थ'। समाज के जरूरतमन्द और निराश्रित व्यक्तियों की सेवा-सुश्रषा करना एक महान कर्तव्य और दायित्व होना चाहिए।

जन्म पा लेना ही काफी नहीं, जीवन को जीना भी आना चाहिए
माया-मोह जनित अज्ञानता की पट्टी आंखों पर बांधे हुए मनुष्य का लक्ष्य से विमुख होना कोई आश्चर्य की बात नहीं। आज मनुष्य की जिंदगी एक अंधी दौड़ बनकर रह गई है। जीवन के पथ पर वह इधर-उधर भटक रहा है। इस लक्ष्यहीन भटकाव से जूझते मानव का जीवन एक ऐसी रिक्ति, एक ऐसा खालीपन का ढेर बन गया है, जहां घोर पछतावा,आत्मग्लानि और उत्पीड़न का अंतहीन सिलसिला जारी रहता है। फलस्वरूप उसका जीवन घड़ी के पेंडुलम की तरह कभी यहां तो कभी वहां डोलता रहता है।

उसके जीवन में कभी दुख के दायरे से बाहर निकलकर चैन की सांस लेने की नौबत नहीं आती। क्या आप जानते हैं कि यह सब क्यों होता है? शायद नहीं। ज्यादातर लोगों के साथ यह सब इसलिए होता है क्योंकि वे धर्म मार्ग पर नहीं चलते। धर्म नीति के अनुरूप चलने वाले किसी भी व्यक्ति को इस प्रकार का कष्ट नहीं भोगना पड़ता। लेकिन अफसोस कि ज्यादातर लोग ऐसा नहीं करते। हर कोई यह चाहता है कि किसी प्रकार मैं दुख के दायरे से बाहर निकलकर स्वाभाविक रूप से जीवन का आनंद ग्रहण करूं, किंतु अज्ञानतावश वह सही दिशा में नहीं बढ़ पाता और जहां शांति न हो, वहां पर आनंद नहीं प्राप्त हो सकता। इस प्रकार वह दुख के दलदल से बाहर नहीं निकल पाता। उसका जीवन दुख-दर्द की एक लंबी दास्तान बनकर रह जाता है। इस दुनिया में जन्म लेना एक बात है और इस जीवन को सही तरीके से जीना दूसरी बात। संसार में बहुत से लोग जन्म लेते हैं और बिना सही तरीके से जिए ही मर जाते हैं। जन्म पा लेना ही काफी नहीं, जीवन को जीना भी आना चाहिए।

आज हर प्राणी सुख की खोज कर रहा है। इसके लिए वह भौतिक सुखों की ओर भागता है, लेकिन असली सुख उधर नहीं, इधर है। आप यह जानने की कोशिश करें कि आपका हृदय क्या चाहता है? आपका अंतर्मन क्या खोज रहा है? आपकी तलाश क्या है? सच्चई यह है कि आप सब आनंद की खोज कर रहे हैं। यदि ऐसा है, तो आप इस बात पर गौर कीजिए कि आपको धर्म नीति पर
चलना होगा। यहां धर्म का अर्थ किसी धर्म या पंथ विशेष के कहे अनुसार नहीं, बल्कि शाश्वत आनंद की खोज के पथ पर चलने से है।

सत्य और असत्य
जैसे ज्ञान है वैसे ही अज्ञान है। ज्ञान दृष्टि से मनुष्य ज्ञान जगत अथवा दृश्य जगत से संबंधित बातों को जान सकता है। इसी तरह मनुष्य अज्ञान दृष्टि से अज्ञान के विविध पहलुओं को जान सकता है।

जिन दो आंखों से हम परिचित हैं, जिन दो आंखों से हम देखते हैं, जिन दो चक्षुओं को हम जानते हैं, वह अज्ञानता के चक्षु हैं। अज्ञान की स्थिति में ये दो आंखें काम करती हैं और ज्ञान की दृष्टि बंद रहती है और यह भी सत्य है कि जब ज्ञान दृष्टि खुल जाती है तब अज्ञान दृष्टि बंद हो जाती है। जिस तरह अज्ञान दृष्टि बाहर की ओर काम करती है, उसी प्रकार ज्ञान दृष्टि भीतर की ओर काम करती है।

दोनों में क्रिया एक ही तरह है। दोनों में अंतर यह है कि एक जहां हमें वाह्य जगत का बोध कराती है और तमाम तरह के भौतिक अथवा सांसारिक अनुभव देती है वही दूसरी दृष्टि या कहें ज्ञान की दृष्टि हमें आंतरिक अथवा पारलौकिक जगत का बोध कराती है। हमारा जीवन इन दोनों का ही मिलन बिंदु है। इसलिए जरूरी है कि हम अपने दोनों ही ज्ञान चक्षुओं से अपने वास्तविक जीवन का अहसास करें और जीवन की पूर्णता हासिल करें। यह सच है कि ज्ञान और विज्ञान के बारे में आंखों से हम सीमित जानकारी हासिल कर सकते हैं, लेकिन इन आंखों से परे एक अदृश्य आंख भी है।

इस आंख को तीसरी आंख या त्रिनेत्र कहते हैं जिसे ज्ञानमय दृष्टि कहा जाता है। अज्ञानमय दृष्टि की तरह तीसरी आंख भी मनुष्य में विद्यमान है। यह तीसरी आंख दृश्य जगत का अदृश्य जगत के साथ संबंध स्थापित करती है। तीसरा नेत्र भौतिक-अज्ञानमय जगत के तत्वों से अलग हटकर सूक्ष्म जगत की सूक्ष्म गतिविधियों का अनुभव कराता है। यही आंख दिव्य भाव में आत्मलीन कर परम सत्ता का साक्षात्कार कराती है। तीसरी आंख के खुलने के बाद ज्ञान शक्ति और अज्ञान शक्ति दोनों ही उस मनुष्य के अधिकार में होती है। इस स्थिति को प्राप्त करने के बाद व्यक्ति संसार की वास्तविकताओं को जान लेता है, समझ लेता है।

सत्य और असत्य क्या है, इन सबके बारे में वह सब कुछ जान लेता है। त्रिनेत्र को जाग्रत करने वाला व्यक्ति जो भी कार्य-व्यवहार करता है, वह नैतिक व आध्यात्मिक मूल्यों की कसौटी के पूर्णत: अनुकूल होता है।

व्यक्तित्व में ताजगी लाने का मंत्र
मस्ती का एक मंत्र होता है। भक्ति में यह मंत्र आसानी से मिल जाता है। मस्ती का मतलब है अनियंत्रित अनुशासन, भोली-भाली प्रसन्नता, स्वनिर्मित खुशनुमा माहौल। इन सबका मिला-जुला नाम होता है मस्ती। हम सबने बचपन में खूब मस्ती की, क्योंकि हम उस समय वर्तमान में जीना जानते थे। अतीत को बहुत जल्दी भूल जाते थे और भविष्य की ज्यादा चिंता पाली नहीं गई थी। बचपन इसी का नाम है। बड़े होते-होते जो चीजें खो जाती हैं उसमें से एक चीज है मस्ती। आजकल हर बात का दबाव है। काम करो तो दबाव, रिश्ते निभाओ तो प्रेशर, घर आओ तो परेशानी, बाहर रहो तो दिक्कत। चैन खोने के सैकड़ों तरीके शरीर से लिपटे हुए रहते हैं। लक्ष्य पूरा नहीं हुआ तो निकम्मे साबित हो जाएंगे। इस दबाव ने सांस लेना मुश्किल कर दिया है। परिवार के लिए ही सब किया जा रहा है, फिर भी परिवार असंतुष्ट है। इस यक्ष प्रश्न ने अच्छे-अच्छे फौलादी लोगों की कमर तोड़ दी। आखिर ऐसा कब तक चलेगा। महीने में एकाध बार आपके कपड़े ड्रायक्लीनिंग पर जाते होंगे, कार की सर्विसिंग होती है तो क्यों न अपने व्यक्तित्व को भी महीने-दो महीने में मस्ती के मंत्र से धो डालें। इसके लिए प्रतिदिन भक्ति करते रहें। भक्त के तीन लक्षण होते हैं - पहला होता है कृपा के कारण वह पूर्ण संतुष्ट होता है। दूसरा, भरोसे के कारण उसमें भविष्य का भय नहीं होता और तीसरा, समर्पण के कारण वह अपने को समाप्त करने के लिए तैयार रहता है। इन तीन लक्षणों को किसी एक दिन भरपूर जिएं। अगले दिनों के लिए तरोताजा हो जाएंगे।

सूक्ष्म शरीर में है थकान की जड़
बहुत काम करने के बाद थकान स्वाभाविक है, लेकिन कभी-कभी अकारण थकान आ जाती है। लगता है जैसे शरीर कपड़े की तरह निचोड़ दिया गया है। आराम के बाद भी थकान सी बनी रहती है। ऐसी अकारण थकान आए तो सावधान हो जाएं, क्योंकि इसका अगला चरण उदासी और उसका अगला चरण डिप्रेशन होगा। असल में देखा जाए तो अकारण कुछ नहीं होता। ऐसा तब होता है जब जिंदगी में कोई दुख आ जाता है। ऐसा दुख जिसकी कल्पना भी न की गई हो। उसका भीतर मंथन चलता है तो अकारण थकान महसूस होती है। परिश्रम की अति और आराम की भी अति में शरीर थकता है। मनुष्य के जीवन में दो अतियां जरूर आती हैं - एक जन्म, दूसरा मृत्यु। हम जन्म पर अति की सीमा तक टिके हुए हैं और इसीलिए मृत्यु की अति पर टिक जाते हैं। हमेशा इसमें उलझे रहते हैं। इन दोनों के मध्य में जो जीवन है, उसको जी ही नहीं पाते। इसलिए अकारण थकान महसूस होती है। जब कभी ऐसा हो तो अपने शरीर को बांटकर देखिएगा। हमारे पास दो शरीर हैं - एक पंचतत्व व इंद्रियों द्वारा संचालित स्थूल शरीर, जो दिखता है। इस स्थूल शरीर के बाहर चारों ओर 3-8 इंच के घेरे में हमारा सूक्ष्म शरीर होता है। इसे ओरा लेवल भी कहा गया है। यह हमारी एनर्जी बॉडी है। इस सूक्ष्म शरीर को हमेशा दिव्य रखिए तो स्थूल शरीर कभी भी अकारण नहीं थकेगा। योग केवल बीमारियों से बचने के लिए नहीं किया जाता है। योग से हमारा ओरा लेवल विस्तारित होता है, जो हमारे स्थूल शरीर को सुरक्षित रखता है थकान, उदासी और निराशा से।

योजना पर दृढ़ रहें, बाधा दूर हो जाएगी
समझदार लोग पुरानी यादों पर ज्यादा ध्यान नहीं देते। वे आने वाले वक्त के लिए योजना बनाने पर ऊर्जा लगाते हैं। सुंदरकांड में लंका जाने के लिए श्रीराम ने समुद्र से मार्ग मांगा था। रावण का मित्र होने के कारण समुद्र ने श्रीराम को सीधे-सीधे मार्ग नहीं दिया। दोनों की वार्ता अंतिम चरण में थी। राम चाहते तो आक्रमण कर सकते थे, लेकिन वे जानते थे कि ईश्वर की विराट योजना में अकारण कुछ भी नहीं होता।

इसलिए समुद्र द्वारा पैदा की गई कठिनाई भी अकारण नहीं है। किसी पर विजय पाने के तीन रास्ते हैं। या तो आक्रमण कर दिया जाए या उसमें परिवर्तन किया जाए। आध्यात्मिक तरीका है उसका रूपांतरण कर दिया जाए। श्रीराम समुद्र का रूपांतरण कर रहे थे। अब समुद्र ने सोचा,'मैंने रावण जैसे गलत आदमी से मित्रता कर रखी है। राम जैसा व्यक्तित्व जीवन में आए और हम चूक जाएं यह मूर्खता होगी। यह बात समुद्र समझ चुका था। इसीलिए उसने कहा, '

प्रभु प्रताप मैं जाब सुखाई। उतरिहि कटकु न मोरि बड़ाई।।
प्रभु अग्या अपेल श्रुति गाई। करौं सो बेगि जो तुम्हहि सोहाई।।

प्रभु के प्रताप से मैं सूख जाऊंगा और सेना पार उतर जाएगी। इसमें मेरी बढ़ाई नहीं है (मर्यादा नहीं रहेगी)। तथापि प्रभु आपकी आज्ञा का उल्लंघन नहीं हो सकता। ऐसा वेद गाते हैं। अब आपको जो अच्छा लगे, मैं तुरंत वही करूं। यहां श्रीराम से यह सीखें कि हर बात का समाधान क्रोध, आवेश और आक्रमण में नहीं है। अपनी योजना, निर्णय और उसका क्रियान्वयन दृढ़ हो तो समुद्र जैसी बाधा भी दूर होकर मार्ग देगी ही।

जड़ों से जुड़े रहें, पछताना नहीं पड़ेगा
गौर कीजिए कि चौबीस घंटे में हफ्तेभर में या एक महीने या वर्षभर में ऐसा कितनी बार हुआ कि आपको अपने किए हुए पर पछतावा करना पड़ा। हमें इस पर बारीकी से ध्यान देना चाहिए। उन स्थितियों और घटनाओं को पकड़कर रखिएगा, जिनके कारण हमें पछताना पड़ा हो। मनुष्य का स्वभाव ही ऐसा है कि उसे कुछ बातें देर से ही समझ में आती हैं। गलतियां करता है, पछताता है और फिर वही गलती करता  है। यह सिलसिला जिंदगीभर चलता रहता है। पछतावे में जब दोबारा भूल न करने का संकल्प शामिल हो जाता है तो इसे प्रायश्चित कहेंगे। प्रायश्चित यानी भूल सुधारना और दोबारा नहीं करना। यह जागरूकता का आरंभ है।

दुनियादारी के काम में गलती हो जाने पर पछतावा हो वह तो फिर भी चल जाएगा, लेकिन लोग जीवन के प्रति गलती कर दें और फिर पछताएं, यह महंगा सौदा है। हम जीवन में एक बड़ी गलती यह करते हैं कि जीवन से ही कट जाते हैं और संसार में अत्यधिक डूब जाते हैं। जीवन से कटने का क्या मतलब है इसे भी समझ लें। हम दो जगह से जुड़े हैं - एक परमात्मा से और दूसरा अपने परिवार से। यहां हमारी जड़ें हैं। आप कभी किसी पेड़ को कटते हुए देखिए। कटने के थोड़ी देर बाद तक उसमें हरियाली बची रहती है, लेकिन धीरे-धीरे वह सूख जाता है, क्योंकि जड़ से कट चुका था। ऐसे ही हम जब इन दो जगहों से कटते हैं, तो शुरू में भले ही हरे-भरे रह जाएं, पर बाद में सूखना है और इस भूल पर फिर हम एक दिन पछताते हैं। समय रहते अपनी जड़ों से जुड़े रहिए, बाद में पछताना नहीं पड़ेगा।

आत्मा पर टिककर हासिल करें शक्ति
शायद ही कोई ऐसा इंसान हो, जिसे बिना बाधाओं के सफलता मिली हो। समस्याएं, बाधाएं, परेशानियां सफलता के मार्ग पर आएंगी ही। यदि किसी को सीधे सफलता मिल गई तो वह उसे ज्यादा दिन पचा नहीं पाएगा। सफलता के मार्ग पर हुए संघर्ष में मनुष्य अपनी गहराई नाप लेता है। सबकुछ ठीकठाक चलता तो कोई भी अपने भीतर नहीं उतरता। संसार में बड़ा रस है। इस रसपान को करते हुए कोई भीतर क्यों  मुड़े, लेकिन जब यह रस गला घोंटने लगता है, तब मनुष्य भीतर उतरता है। इसलिए असफलता के इस दौर में केवल बाहर टिककर निराश न हों। योग की सीढिय़ों से भीतर उतरें, आपको ऊर्जा के भंडार में से यह आवाज सुनाई देगी कि किसी न किसी को तो सफल होना ही है, तो फिर वह हम क्यों नहीं हो सकते। इसी का दूसरा नाम आत्म-विश्वास और उत्साह है। भीतर उतरने वाला व्यक्ति समझ जाता है कि कुछ यात्राएं अकेले ही करनी चाहिए। अध्यात्म में एकांत भी शक्ति देता है। दूसरे लोगों की टिप्पणियां, आलोचनाओं के तीर, निंदाओं के वाक्य आपको थका सकते हैं। इसलिए इन सब में अपनी शक्ति बर्बाद न करें।

योग का समय बढ़ा दें, क्योंकि हम बाहर की दुनिया में संघर्ष कर रहे होते हैं शरीर से। ऊर्जा के मामले में शरीर की अपनी सीमाएं हैं। वह थक जाता है, फिर मन भी उसे विचलित करता रहता है। यदि आप शरीर और मन से कट कर आत्मा पर टिक गए तो यहीं से परमात्मा की शक्ति आपके साथ हो लेती है। असफलता के बाद फिर एक नई यात्रा शुरू होती है, जो सफलता के शिखर पर ही समाप्त होगी।

होश के साथ आचरण ही ब्रह्मचर्य
विद्यार्थी जीवन में शिक्षा के साथ चरित्र का तालमेल योग्यता में दिव्यता लाता है। केवल शिक्षा योग्य बना सकती है। ऐसी योग्यता से अच्छा पद, धन या प्रतिष्ठा मिल सकती है, लेकिन साथ में अशांति, अवसाद, चिड़चिड़ापन और क्रोध बोनस माक्र्स के रूप में जीवन की मार्कशीट में जुड़ जाएंगे। शिक्षण संस्थाओं के कैंपस में चरित्र को तो जैसे दफन ही कर दिया गया है। मौज-मस्ती इस दौर में होनी ही चाहिए, लेकिन यह भोग-विलास में बदल जाए, यह विद्यार्थी जीवन के लिए खतरनाक है। ऋषि-मुनियों ने विद्यार्थियों को एक बहुत प्यारा शब्द दिया था ब्रह्मचर्य। इस एक शब्द में शिक्षा, संस्कार, योग्यता और चरित्र सब कुछ समाया हुआ है।

चूंकि अधिकांश बच्चे केवल शरीर पर टिके हुए हैं इसलिए वे ब्रह्मचर्य का अर्थ ही नहीं समझते। हमारे भीतर ब्रह्म की एक शक्ति होती है। यह चरित्र, संयम और अनुशासन से बढ़ती है। विद्यार्थी को इसे बहुत सावधानी से साधना चाहिए। विद्यार्थी के लिए ब्रह्मचर्य का एक अर्थ यह भी है कि भावी जीवनसाथी की पवित्रता से प्रतीक्षा की जाए और उसके मिलने पर निष्ठा के साथ इस संबंध को निभाया जाए। विद्यार्थी रहते हुए जो लोग उन्मुक्त हैं, विलासी हैं, वे दाम्पत्य जीवन में भी जीवनसाथी के साथ निष्ठावान नहीं रह सकते। इसलिए जो मां-बाप बच्चों को पढ़ा रहे हों, वे समय रहते उन्हें ब्रह्मचर्य का अर्थ समझाएं। उनमें योग-ध्यान का होश जगाएं। होश के साथ वे जो भी आचरण करेंगे वह ब्रह्मचर्य होगा, जो उनके भावी जीवन में भी काम आएगा, उसे दिव्य बनाएगा।

ये तीन नियंत्रित हुए तो क्रोध काबू में
क्रोध बुरी बात है यह सब समझते हैं। दूसरे को गुस्से में देखकर हर एक के भीतर ज्ञान उमडऩे लगता है। क्रोध मत करो इस आदर्श वाक्य को वे सभी बोलते हैं, जो अपने समय में क्रोध करने से नहीं चूकते। गुस्सा जब आता है, तो अच्छे-अच्छे अक्लमंद मूर्खों जैसे हो जाते हैं। यह आता भी अपनी मर्जी से है और जाता भी अपनी इच्छा से। कुछ लोग प्रयास भी करते हैं कि क्रोध नियंत्रित हो जाए। क्रोध एक रोग और शोक दोनों है। यह परिवार में वैमनस्य बढ़ा देता है। व्यक्ति को चिंता में डुबो देता है। समाज में घृणा का वातावरण भर देता है और व्यावसायिक जीवन में प्रतिस्पर्धा की जगह प्रतिशोध पैदा कर देता है। क्रोध को नियंत्रित करने के लिए हमारे भीतर जो तीन शक्तियां होती हैं उनको बचाने का प्रयास करिए, क्योंकि क्रोध इन तीनों को खाता है। पहली शक्ति है मनोभाव, दूसरी विचार और तीसरी शब्द। क्रोध हमारी मनोदशा की उपज है, तो सबसे पहले इसे स्वस्थ रखें। मन को गंदे-गलत काम पसंद हैं। इसे जितना शुद्ध रखेंगे, विचार उतने ही नियंत्रित होंगे। विचारों को भूतकाल की बजाय वर्तमान से जोड़ें। जो अभी चल रहा है, उस पर एकाग्र हों और उसके बाद फिर शब्दों पर काम करें। शुद्ध मन, एकाग्र विचार शब्दों में मिठास, स्पष्टता और दृढ़ता लाएगा। ये तीन नियंत्रित हुए तो क्रोध काबू में आएगा, क्योंकि क्रोध का डायनासोर आते ही इन्हें तहस-नहस करता है। ये तीनों दृढ़ हैं तो क्रोध को वापस जाना ही होगा और वह अगली बार समझ जाएगा कि इस जगह जाने से कोई फायदा नहीं है। यहां से मुझे लौटाने की पूरी तैयारी है।

शिक्षा व कॅरिअर जितनी अहम है नींद
साइंस और टेक्नोलॉजी के इस युग में जब कभी धर्म, अध्यात्म, परमात्मा और शास्त्र इनकी बातें की जाती हैं तो पढ़े-लिखे लोग एकदम से सब स्वीकार नहीं करते। उनको हर बात का तार्किक स्वरूप चाहिए। फिर नई पीढ़ी तो हर रिश्ते को उपयोगिता से तोलती है। जो उसके काम का नहीं, उसे वह योग्य नहीं मानती। चाहे माता-पिता हो या परमात्मा। जब हर बात वैज्ञानिक दृष्टि से स्वीकारी जा रही हो, तब इस पीढ़ी को समझना होगा कि नींद का भी अपना विज्ञान है। ज्यादातर लोग सिर्फ इतना जानते हैं कि जागने के समापन पर जो स्थिति बनती है वह नींद है। आज के इंसानों ने जिन-जिन बातों से छेड़छाड़ की है उसमें से नींद भी एक है।

नींद यदि ज्यादा आए तो बीमारी है और नहीं आए तो भी घातक है। शरीर की मेहनत, चिंतामुक्त विचार, सोने का स्थान और सोने तथा उठने का समय, इन पांच बातों का सीधा संबंध नींद से है। एक भी गड़बड़ हुई तो नींद पर सीधा असर पड़ता है। देर-सवेर आप कोई न कोई बीमारी ओढ़ लेंगे। बच्चों में शुरू से यह आदत डालें कि वे नींद को मजबूरी न समझें। प्रतिदिन के ये 6-7 घंटे उनके जीवन में शिक्षा और कॅरिअर जितने ही जरूरी हैं। मां-बाप थोड़ी समझदारी से काम लें तो अपने बच्चों को सोता हुआ देखकर उसके आचरण और मानसिकता को भी पकड़ सकते हैं। हमारे ऋषि-मुनियों ने तो किस दिशा में सिर या पैर रखकर सोया जाए इसका पूरा विज्ञान स्थापित किया है। विज्ञान के इस युग में नींद के विज्ञान को पूरे सम्मान और सजगता के साथ स्वीकार करें।

समस्या का समाधान देता है योग
दुनिया में कोई भी ऐसी समस्या या बाधा नहीं है जो अपने साथ समाधान या उपाय लेकर न आए। समस्या आती है तो उससे निपटने के लिए हम अपनी सारी सक्रियता और ऊर्जा बाहर लगा देते हैं। हमारा सारा ध्यान बाहर की स्थितियों और व्यक्तियों पर रहता है, लेकिन इसी के साथ समानांतर रूप से अपने भीतर झांकने का काम भी शुरू कर देना चाहिए। बाहर की स्थितियां हमें कई विषयों में उलझाती हैं। कभी हम व्यक्ति को पकड़ते हैं, कभी हालात पर टिकते हैं। हमारी ऊर्जा भी बिखरी-बिखरी होती है। भीतर उतरने पर ऊर्जा एकाग्र होने लगती है। वैसे तो हमारे शरीर में सात केंद्र हैं और हर केंद्र का अपना परिणाम है। समस्या आने पर आप या तो मस्तिष्क के केंद्र पर या हृदय के केंद्र पर या नाभि के केंद्र पर टिक जाएं। केंद्र का चयन अपने व्यक्तित्व की सुविधा अनुसार करिए। सारी चेतना उसी केंद्र पर लगाकर १० मिनट बैठे रहिए।

आप पाएंगे बाहर की स्थितियों पर आपका नियंत्रण हो गया। श्रीराम के साथ सुंदरकांड में ऐसा ही हुआ था। वे नियमित योग करते थे। इसलिए कठिन परिस्थिति में भी मुस्कुराते हुए उन्होंने समुद्र से कहा, 'सुनत बिनीत बचन अति कह कृपाल मुसुकाइ। जेहि बिधि उतरै कपि कटकु तात सो कहहु उपाइ।' समुद्र के अत्यंत विनीत वचन सुनकर कृपालु श्रीरामजी ने मुस्कराकर कहा, 'जिस प्रकार वानरों की सेना पार उतर जाए, वह उपाय बताओ। जो समुद्र बाधा था वही उपाय बन गया। योग और मेडिटेशन समाधान को आपके सामने ला देते हैं। करके देखिए, विश्वास हो जाएगा।

योग देता है बच्चों से रिश्ते को मजबूती
संतान के लालन-पालन को लेकर इन दिनों माता-पिता बहुत परेशान हैं। आर्ट ऑफ पेरेंटिंग के कोर्स चल रहे हैं। हमें यह समझ में आ गया है कि यदि बच्चे योग्य नहीं हुए तो किया-धरा सब बेकार चला जाएगा। शिक्षा के साथ संस्कार जरूरी है। स्वास्थ्य, रहन-सहन, कॅरिअर इन सबको श्रेष्ठ बनाने के लिए अलग-अलग दृष्टि से मां-बाप को सक्रिय रहना होगा। योजनाबद्ध तरीके से तो आजकल माता-पिता काम करते ही हैं, लेकिन छोटे-छोटे काम रोजमर्रा की जिंदगी में भी लालन-पालन से जोड़ दिए जाएं। प्राचीन काल में ऋषि-मुनियों ने अपने श्रेष्ठ ज्ञान को शिष्यों में स्थानांतरित किया था। उस समय न लिखने के लिए कागज था न ही कंप्यूटर की तरह टेक्नोलॉजी थी।

सबकुछ श्रुति और स्मृति पर चलता था। सुनो और याद रखो। गुरु को इस स्थानांतरण में बहुत सावधानी रखनी पड़ती थी। सारा खेेल स्पर्श शक्ति का था। अधिकांश मां-बाप बच्चों के लालन-पालन में सारे प्रयास ऊपरी तौर पर करते हैं, वे किए जाने चाहिए। लेकिन ऐसे प्रयास आधे परिणाम देंगे। बच्चे योग्य हो जाएंगे पर अपनापन खो देंगे। मां-बाप उन्हें दुनिया के रास्तों पर दौड़ा तो देंगे, लेकिन वे लौटकर वापस नहीं आएंगे। फिर मां-बाप के पास रह जाएगा अकेलापन। इसलिए माता-पिता को बच्चों के लिए ही योग करना चाहिए। योग के माध्यम से माता-पिता का मनस शरीर, मेंटल बॉडी संवेदनाओं को बच्चों में स्थानांतरित करेगी। यहीं से ऐसा अटूट संबंध बनेगा, जो लालन-पालन को सही दिशा दे सकेगा।

जन्मदिन का सबसे सुंदर तोहफा
सभी के जीवन में कुछ तिथियों का बड़ा महत्व होता है। इन तारीखों में कुछ लोग आपके जीवन से जुड़ते हैं। जैसे विवाह की तिथि में जीवनसाथी का महत्व है। आजकल हर बात के दिन तय कर दिए गए हैं। मित्रता की आड़ में रंगरेलियां मनाना हो तो वैलेंटाइन डे। फादर्स डे, मदर्स डे ऐसे कितने ही दिन मनाए जाते हैं। कुछ तिथियों का कुदरत ने ही आध्यात्मिक महत्व तय कर रखा है। इनमें सबसे अलग और महत्वपूर्ण है जन्म तारीख। कुछ लोगों का जन्मदिवस बधाइयां लेने में ही बीत जाता है तो कुछ इसलिए उदास हो जाते हैं कि जिन्हें बधाई देनी थी उन्होंने ही नहीं दी। एक अलग ही किस्म का बही-खाता इस दिन खोलकर बैठ जाते हैं लोग।

हमारे फकीरों ने कहा है कि अपने जन्मदिवस पर एक ऐसी छलांग लगाएं कि जिसमें वापस वहीं लौटें, जहां से आपके जन्म की शुरुआत हुई थी। क्योंकि जन्मदिवस की हर नई तिथि आपकी आयु को घटा रही है। इसमें बढ़ाई जा सकती है जीवन ऊर्जा जिसके केंद्र आपके जन्मदाता हैं। खासतौर पर आपकी माता। यदि वे जीवित हैं तो आपको जन्मदिन का इससे अच्छा उपहार परमात्मा ने और क्या दिया होगा। यदि जन्म देने वाले दिवंगत हो गए तो आप उस दिन थोड़ी देर के लिए आंख बंद करें और अपने सारे ध्यान को नाभि पर ले जाएं यहीं से पहली बार आप अपनी माता से अलग होकर संसार में आए थे। उन्हें धन्यवाद दें कि आपने यह दिन और दुनिया दिखाई। यहीं से एक नई जीवन ऊर्जा आपको मिलेगी जो जन्मदिवस का सुंदर तोहफा होगी।

परिवार को बचाना है तो प्रेम बढ़ाएं
आज के समय में परिवार को बचाए रखने में बड़ी ताकत लगती है। पहले किसी एक वरिष्ठ सदस्य के पीछे पूरा परिवार चलता था। नेतृत्व उसके पास इसलिए भी था कि वही कमाने वाला होता था और अक्ल का ठेका भी उसी के पास था। फिर परिवार में शिक्षा का प्रवेश हुआ। अक्ल के कई टीले बन गए। कमाई के अलग-अलग दरवाजे हो गए। यहीं से परिवार में हर व्यक्ति अधिकार संपन्न होने लगा। अपने-अपने अधिकार के साथ एक-दूसरे की सेवा करने की जगह अहंकार टकराने लगे। भारतीय परिवार लंबे समय तक एक रहे उसके पीछे कारण था आपस का प्रेम। पे्रम तो ऐसा रफूचक्कर हुआ कि उसने परिवारों की तरफ मुड़कर देखना ही बंद कर दिया।

अब परिवार के सदस्यों से कहें कि प्रेमपूर्ण हो जाएं तो थोड़ा मुश्किल लगता है। एक काम करें करुणा, दया, सहानुभूति और अपनापन इन चारों को परिवार में बचाने की कोशिश की जाए, क्योंकि प्रेम के लिए हृदयपूर्ण होना पड़ेगा जबकि आजकल लोग घरों में दिल से अधिक दिमाग से रहते हैं। दिमाग दूसरे को नीचा दिखाने में रुचि रखता है। करुणा, दया, सहानुभूति और अपनापन इन चारों का प्रयोग लोग अपने को उठाने के लिए ही करते हैं, जबकि प्रेम समानता मांगता है। हमें हर हालत में अपना परिवार बचाना है। अच्छा तो यही होगा कि प्रेम बचाया जाए, पर यदि कोई सदस्य हठ पर उतर आए, कुबुद्धि मस्तक पर नाचने लगे तो भी आप उसे अपने से दूर न करें। इन चारों का प्रयोग करके परिवार के सूत्रों की गांठ खुलने न दें।

योग से सावधानी को बदलें होश में
जीवन की सामान्य गतिविधियों में हमारी आदतें हावी हो जाती हैं। इसीलिए असावधानी बढ़ जाती है। चलने, भोजन करने, बोलने, सोने, बैठने जैसे काम करते हुए हम उतने ही सावधान रहते हैं कि बाहरी नुकसान न हो। चूंकि सारा जीवन ही बाहरी रूप से संचालित हो रहा है, इसलिए नफा-नुकसान भी उसी दृष्टि से देखा जाता है। धीरे-धीरे इन गतिविधियों में हम जो भी सावधानी या असावधानी रखते हैं वह हमारी आदत में शुमार हो जाता है। इसीलिए हम इसके भीतरी नुकसान नहीं देख पाते।

जीवनशैली की रक्षा तो कर लेते हैं पर भूल जाते हैं कि जीवन कहीं न कहीं आहत हो रहा है। इससे बचने के लिए सावधानी को होश में बदलना है। दोनों में बारीक किंतु महत्वपूर्ण फर्क है। सावधान तो चोर भी होता है। देखा जाए तो अच्छे काम करने वालों से ज्यादा सावधान तो गलत काम करने वाले होते हैं। हालांकि, सावधानी जब होश में बदलती है तो पहले कदम से यह तय हो जाता है कि गलत काम करना ही नहीं है। गलत काम चूंकि बेहोशी में ही होते हैं इसलिए  छोटी-छोटी गतिविधियों में भी होश बनाए रखिए। जैसे सावधानी के साथ भोजन करना और होश के साथ भोजन करने का फर्क। सावधानी कहती है भोजन दूषित न हो, कोई गंदी चीज उसमें न गिर जाए, लेकिन होश कहता है भोजन भीतर जाकर अपनी क्या भूमिका निभा रहा है। कहीं प्रमाद तो नहीं बढ़ा रहा। ऐसे ही सभी गतिविधियों में अपनी सावधानी को होश में बदलें और होश आता है योग से।

भीतर मौजूद भलाई की याद दिलाएं
जीवन में कई बातें ऐसी होती हैं जिन्हें हम पहले से जानते हैं, लेकिन समय आने पर उनका उपयोग नहीं कर पाते। भूल जाते हैं या भ्रम में पड़ जाते हैं। ऐसे में किसी के मार्गदर्शन की जरूरत पड़ती है। परमात्मा ने मनुष्य का जीवन कुछ तयशुदा सिद्धांतों के साथ बनाया है, जिन्हें मूल्य कहा गया है। आप इनके साथ जितना छेड़छाड़ करेंगे, उतना ही उलझेंगे। वेल्यू बेस्ड लाइफ  हमारे जीवन में शांति ही लाएगी। इसलिए कुछ अच्छी बातें याद करने के लिए मार्गदर्शक का सहारा लिया जाए। सुंदरकांड में वर्णित है कि समुद्र रावण के पास रहकर अपनी विशेषता भूल गया था।

राम जानते थे कि हर इंसान मूल रूप से भला होता है। इसलिए श्रीराम ने समुद्र पर आक्रमण न करके उसकी भलाई को उजागर किया। फलस्वरूप समुद्र श्रीराम  को बताता है कि उनकी सेना में मौजूद दो भाई नल और नील सेतु निर्माण कर सकेंगे। फिर दिल की बात भी कह देता है। 'मैं पुनि उर धरि प्रभु प्रभुताई। करिहउं बल अनुमान सहाई।। एहि बिधि नाथ पयोधि बंधाइअ। जेहिं यह सुजसु लोक तिहुं गाइअ।।'

मैं भी प्रभु की प्रभुता को हृदय में धारण कर अपने बल के अनुसार सहायता करूंगा। हे नाथ! इस प्रकार समुद्र को बंधाइए, जिससे तीनों लोकों में आपका सुंदर यश गाया जाए। वह श्रीराम को इशारा करता है कि मेरे ऊपर सेतु बनाने से आपका यश बढ़ेगा। श्रीराम से यह कला हम भी सीखें कि दूसरों के भीतर की भलाई को उन्हें याद दिलाएं। आपको कम मेहनत में अधिक अच्छे परिणाम मिलने लगेंगे।

वृद्धावस्था में वैराग्य देता है दिव्यता
बुढ़ापे में जिन बातों की तकलीफ होती है उनमें से एक है खुद के ऊपर गुस्सा आना। शरीर लाचार हो चुका होता है। इसलिए कई ऐसी गलतियां हो जाती हैं जो जवानी के दिनों में नहीं हुई थीं। गलती करने के बाद बुजुर्गों को खुद पर गुस्सा आता है कि ऐसा क्यों हुआ। स्वयं पर यह क्रोध उनके जीवन को और जहरीला बना देता है। उन्हें अपनी वृद्धावस्था स्वीकार कर यह सोचना चाहिए कि जाने-अनजाने में हमसे कुछ गलतियां होंगी, इसलिए ऐसे समय खुद पर गुस्सा करने की जगह प्रेम करें। अन्यथा क्रोध आपकी ऊर्जा को पी जाएगा और प्रेम आपकी ऊर्जा को बढ़ाएगा। ध्यान रखिएगा प्रेम करना है, मोह नहीं। क्योंकि यदि अपने शरीर से मोह किया तो बुढ़ापे में नर्क की तैयारी है, पर यदि प्रेम किया तो एक वैराग्य जागेगा। यह वैराग्य मृत्यु के क्षण में बड़ा काम आएगा। क्योंकि यह तो तय है कि बुढ़ापे में और खासतौर पर मृत्यु के पूर्व ऐसा महसूस होता है कि जो कुछ हमने किया वह एक सपना था।

चौबीस घंटे में से अधिकांश समय स्मृतियों में बीतने लगता है और लगने भी लगता है कि हमने जीवन में जो किया वह किसी काम का नहीं था। फिर एक चिड़चिड़ाहट शुरू हो जाती है। इसलिए बीते हुए कल पर बहुत अधिक न टिकें, क्योंकि बीते कल की वासना जागेगी और वह आज की वासना को भी जगाएगी। लिहाजा हमारा वर्तमान भी बिगड़ेगा। इसलिए वृद्धावस्था में प्रेम के परिणाम में जितना वैराग्य जागेगा, जीवन का समापन उतना ही गरिमामय, शांतिपूर्ण और दिव्यमय होगा।

बांटने से मिलती है भीतरी शांति
जब हम बाजार जाते हैं तो हमारी कोशिश रहती है अच्छी से अच्छी चीज ढूंढ़ी जाए। इसीलिए खरीदते समय खूबियों पर बहुत ध्यान देते हैं। खूबियों के चक्कर में आदमी कभी-कभी अपनी औकात से बाहर जाकर खर्च कर देता है। फिर यह तो क्वालिटी का युग है। लोग नारे की तरह यह घोषणा करते हैं कि दो पैसे भले ही ज्यादा लग जाएं, पर क्वालिटी चाहिए। क्वालिटी खोजने की इस आदत को खुद पर लागू करें। थोड़ा शांति से बैठकर अपने भीतर की खूबियों का विश्लेषण करें। जब ऊपर वाले ने हमें इस संसार में भेजा तो अपनी इच्छा से भेजा। इसी तरह हमें यह भी समझ लेना चाहिए कि यह संसार हमें कुछ देने के लिए बाध्य नहीं है।

अपनी खूबियों को इससे लेना है। जो अपनी खूबियों का उपयोग नहीं करते, वे अपनी कमजोरियों से संसार से लूटकर लेते हैं, जो अपराध है। हमारे भीतर इतनी खूबियां हैं कि यदि उनका सही इस्तेमाल करें तो संसार तश्तरी में रखकर देने को तैयार है। मगर दुनिया कहती है यदि वह आपको दे रही है तो आप लौटाइएगा जरूर। अपनी योग्यता से संसार से लें और करुणावान होकर अपने हिस्से का रखते हुए कुछ वापस दुनिया को लौटा दें। जो इस चक्र को ठीक से समझ लेंगे, वे दुनिया को भरपूर जिएंगे। आपके पास जो भी खूबी है, उसे संसार में बांटिए जरूर। ऐसे लोगों से परमात्मा खुश रहता है। जो अपनी खूबियों को बचाएंगे, वे भीतर ही भीतर परेशान भी होंगे, लेकिन जो बांटेंगे वो थोड़े हल्के हो जाएंगे, जिसके परिणाम में उन्हें शांति मिलेगी।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है...
मनीष