Thursday, April 5, 2018

संस्कार (Sanskaar )

हनुमान से सीखें ये सबसे महत्वपूर्ण संस्कार...
दूसरे का मान रखते हुए हम सम्मान अर्जित कर लेंइसमें गहरी समझ की जरूरत है। होता यह है कि जब हम अपनी सफलतासम्मान या प्रतिष्ठा की यात्रा पर होते हैंउस समय हम इसके बीच में आने वाले हर व्यक्ति को अपना शत्रु ही मानते हैं।

महत्वाकांक्षा पूरी करने के लिए मनुष्य सारे संबंध दांव पर लगा देता है। आज के युग में महत्वाकांक्षी व्यक्ति का न कोई मित्र होता हैन कोई शत्रु। उसे तो सिर्फ अपनी महत्वाकांक्षा की पूर्ति करनी होती है। हर संबंध उसके लिए शस्त्र की तरह हैं। लेकिन कुछ लोग ऐसे होते हैंजो दूसरे की भावनाओंरिश्ते की गरिमा और सबके मान-सम्मान को ध्यान में रखकर अपनी यात्रा पर चलते हैं। हनुमानजी उनमें से एक हैं। सुंदरकांड में एक प्रसंग है।

हनुमानजी और मेघनाद का युद्ध हो रहा था। मेघनाद बार-बार हनुमानजी पर प्रहार कर रहा थालेकिन उसका नियंत्रण बन नहीं रहा था। तब उसने हनुमानजी पर ब्रह्मास्त्र का प्रहार किया। हनुमानजी को भी वरदान था कि वह किसी अस्त्र-शस्त्र से पराजित नहीं होंगे। उनका नाम बजरंगी इसीलिए है कि वे वज्रांग हैं। जिसे कह सकते हैं स्टील बॉडी।

जैसे ही शस्त्र चलाहनुमानजी ने विचार किया और तुलसीदासजी ने लिखा -

ब्रह्मा अस्त्र तेहि सांधा कपि मन कीन्ह बिचार।
जौं न ब्रह्मासर मानउं महिमा मिटइ अपार।।

अंत में उसने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग कियातब हनुमानजी ने मन में विचार किया कि यदि ब्रह्मास्त्र को नहीं मानता हूं तो उसकी अपार महिमा मिट जाएगी। यहां हनुमानजी ने अपने पराक्रम का ध्यान न रखते हुएब्रह्माजी के मान को टिकाया। दूसरों का सम्मान बचाते हुए अपना कार्य करना कोई हनुमानजी से सीखें।

पिछले जन्मों के संस्कारों का भी हो सकता है ये परिणाम...
अक्सर पूछा जाता है कि दुख दूर करने के सरल उपाय क्या हैंइसका उत्तर ढूंढ़ने में ही कुछ लोगों ने अपने आसपास और बड़े-बड़े दुख खड़े कर लिए हैं। हमारे शास्त्रों में भी आत्म-साक्षात्कार के जो साधन बताए गए हैंवे दुख से मुक्ति के ही तरीके हैं। दुख की समझ ही दुख से मुक्ति है। इस समझदारी से आगमन होता है सुखशांति और प्रसन्नता का।

भारत की संस्कृति ने दुख को समझने के लिए उसे प्रारब्ध से जोड़ा है। प्रारब्ध यानी पूर्व संचित कर्म एवं संस्कारों का परिणाम। ये भोगकर ही पूरे होते हैं। इसी को दुख माना गया है। जीवन में समझ आने पर इनके भोगने की सहनशक्ति आ जाती है। दूसरे हमारे व्यवहार से पैदा होने वाले दुख हैं। इन्हीं में बीमारियां आती हैं। रोगी काया बहुत बड़ा दुख है। तीसरे तरीके से जीवन में दुख मनुष्य द्वारा स्वनिर्मित दुख होते हैं।

डिप्रेशन इसी का परिणाम है। जीवन से दुख मिटाने के लिए अपने व्यक्तित्व को दो भागों में बांटकर देखिए। हमारा एक हिस्सा संसारी होता है और दूसरा संन्यासी। हम संसारी हिस्से पर ही ज्यादा टिके रहते हैं। संसार छोड़ना नहीं हैसाथ ही संन्यास को भी पकड़ना है। संन्यास उस समझ का नाम हैजिसमें हम जान जाते हैं कि जीवन में कई ऐसी बातों से हमने स्वयं को जोड़ रखा है जो मरण धर्मा हैंव्यर्थ हैंछोड़ने लायक हैं।

तो कुछ ऐसी बातों से स्वयं को जोड़ा जाए जो मृत नहींअमृत हैं। जैसे ही हम अमृत से जुड़ेंगेहमारा हर कार्य अमृत हो जाएगा। हमारा परिश्रम नशा नहींपूजा बनकर हमें दुख मुक्त कर देगा। इसलिए अपने व्यक्तित्व के संन्यासी हिस्से को जानने के लिए कुछ समय दीजिए।

अगर परिवार को सुखी रखना है तो इस संस्कार की सफलता जरूरी है....
जीवन की जिन-जिन गतिविधियों पर हमें भविष्य का संदेह बना रहता हैउनमें से एक है विवाह। वर्तमान में विवाह एक संस्कार न होकर दबाव बन गया है।विवाह करने और कराने वाले सभी इस बात को लेकर आशंकित रहते हैं कि भविष्य में शांति मिलेगी या नहीं। अब जो शादियां हो रही हैंउनमें समूचे परिवार की जिम्मेदारी केंद्र में नहीं है। अब केंद्र में दो व्यक्तियों की महत्वाकांक्षाएं हैं। सबकी अपनी-अपनी दिशाएं हैं।

इसलिए सहयोग समन्वय से ज्यादा समझ का कारक वैवाहिक जीवन में जरूरी हो गया है। आपसी समझ का उदाहरण शिव-पार्वती के दांपत्य में आया है। आज एक बड़ा समाज महेश जयंती मना रहा है। इस दिन का संदेश यह होना चाहिए कि शिव से सीख लें कि परिवार कैसे बचाया जाता है।

परिवार के तीन कोण हैं - पहला है भोगजिसका संबंध शरीर से है। दूसरा है संतानउत्पत्तिजो परिवार से जुड़ता है और तीसरा है भावनाजिससे परिवार में अध्यात्म जगता है। भोग दांपत्य जीवन की आवश्यक बुराई है।

इसलिए रास्ता यह निकाला जाए कि भोग भावना और अध्यात्म से जुड़ जाए। इससे यह हानिकारक नहीं रहेगा। इसलिए शादी और समझ का गठबंधन पहले होना चाहिएफिर फेरे लगाते समय गठबंधन की बात की जाए। स्त्री और पुरुष का जुड़ाव निरपेक्ष भाव से होगा तो शादी का आनंद ही अलग होगा। पर हमारे यहां विवाह मांग से शुरू होते हैंमांग से ही चलते हैं और मांगते-मांगते ही खत्म हो जाते हैं। जिसने वैवाहिक जीवन दान से चलायाजो अपने जीवनसाथी को देने को तयार होबस वहीं से सुगंध उठेगी और वहीं से बैकुंठ जागेगा।

परिवार का निर्माण ऐसे संस्कारों की नींव पर करें...
हमने अपने विकास का ढांचा पूरी तरह से पश्चिम देशों से उठा लिया है। 15-20 साल बाद हमारे देश के पास विकास की वही स्थिति होगीजो आज किसी भी विकसित पश्चिमी देश की है। कामयाबी के सारे शिखर हम छू चुके होंगेपर सावधान रहना होगा। जो नुकसान पश्चिम ने उठायाखासतौर पर पारिवारिक जीवनशैली मेंकहीं वो हमें न उठाना पड़े।

हमारे पास परिवार और संस्कार ये दो बातें आज भी ऐसी हैं कि हम इनका ध्यान रखते हुए विकास करें। पश्चिम ने विकास किया और नुकसान दिखने के बाद देर हो गई। हमारे पास संभावना है कि हम उस नुकसान के प्रति अभी से सचेत हो जाएं।

हमारे यहां परिवार के केंद्र में माताएं और बहनें हैं। इनका आत्मविश्वास ही हमारे परिवार को बचाएगा। माताओं और बहनों से जुड़ा एक त्योहार है रक्षाबंधन। वे राखी का एक धागा बांधकर अपना प्रेम प्रदर्शित करती हैंलेकिन हम उन्हें इसके एवज में न तो पूरा सम्मान दे पा रहे हैं और न ही संरक्षण।

अज्ञात भयअकेलेपन और अवसाद में डूबी हमारी कतिपय माताएं-बहनें घर व बाहर दोनों जगह संघर्ष कर रही हैं। महिलाएं भी अपना रिश्ता भगवान हनुमान से जोड़ें। प्रेमसेवाबुद्धिविवेक और बल के देवता हनुमानजी हैं। जब वे स्त्रियों से भाईपितापुत्र या गुरु के रूप में जुड़ेंगे तो उनके जीवन की गरिमा ही बदल जाएगी।

ये संस्कार आपको सम्मान दिलाता है...
आप अपने ही घर में बुजुर्ग लोगों पर नजर डालें तो पाएंगे कि वे विश्वास से अधिक जिए हैं और नई पीढ़ी पर दृष्टि रखें तो पाएंगे कि ये लोग विचार से जीते हैं। विश्वास से जीने वालों के पास संतोषधर्य और शांति होती है। वे तर्क के सामने निरुत्तर होते हैं।

गुजरती पीढ़ी से यदि पूछा जाए कि वे आज भी कुछ काम ऐसे कर रहे हैंजिनका उनके पास जवाब नहीं है तो वे यही कहेंगे कि सारा मामला विश्वास का है। उन्होंने रिश्तों में विश्वास किया हैप्रकृति पर विश्वास किया है और सबसे बड़ा विश्वास उनके लिए परमात्मा है।

नई पीढ़ी विचार को प्रधानता देती है। विचार और विश्वास सही तरीके से मिल जाएं तो आनंद और बढ़ जाएगा। खाली विश्वास एक दिन आदमी को पंगु बना देगा। उसकी सक्रियता आलस्य में बदल सकती है। इस बदलते युग में वह लाचार हो जाएगा और शायद बेकार भी।

खाली विचार से चलने वाले लोग घोर अशांत पाए जाते हैं। उदारता इसमें है कि जीवन में दोनों का संतुलन हो। विश्वास का अर्थ है स्वयं के प्रति आदरपूर्ण होना। विश्वास और विचार जुड़ते ही हम समग्र के प्रति आदरपूर्ण हो सकते हैं। जब हम कहते हैं कि परमात्मा महान है तो इसका विश्वास में अर्थ है कि सचमुच वो महान है और विचार का अर्थ होगा कि वो महान है इसलिए उसकी कृति के रूप में हम भी महान हैं। हमें उस महानता को याद रखना है और वैसे ही कार्य करने हैं।

किसी को आदर देकर हम स्वयं भी सम्मान पाते हैं। जैसे-जैसे विचार और विश्वास जीवन में मिलते जाएंगेवैसे-वैसे विज्ञान और धर्म का भी संतुलन जिंदगी में होता रहेगा।

काम को भी सृजन से जोड़िए...संतानें संस्कारी होंगी
भारतीय संस्कृति ने जीवन की कुछ सामान्य क्रियाओं को बड़े ही अद्भुत दर्शन से जोड़ा है। हमने जीवन के हर प्रमुख कृत्य को संस्कार नाम दिया है। जिस इरादे से आप काम कर रहे हैंवह महत्वपूर्ण है।

परिणाम क्या होगाइसमें हमारे प्रयास और ईश्वरीय शक्ति को जोड़कर देखा गया है। मनुष्य के शरीर में जो जीवन ऊर्जा होती हैउससे सांसारिक कर्म तो पूरे होते ही हैंलेकिन संतान उत्पत्ति भी इसी जीवन ऊर्जा का परिणाम है।

इसीलिए इसे काम ऊर्जा भी कहा गया है। जब यह काम ऊर्जा अमर्यादित हो जाती हैतो इसके भीतर की अग्नि मनुष्य के शरीर पर विपरीत असर डालती है। जीवनशक्ति का प्रवाह बड़े से बड़ा पराक्रम करा सकता है और इसी के भीतर की अग्नि काम क्रीड़ा में भी पटक देती है। काम ऊर्जा से जो दहक शरीर में आती हैउसके कारण कई आवश्यक शारीरिक धातुएं जलने और पिघलने लगती हैं।

शरीर में जो आवश्यक तत्व हैंउनका संतुलन कामाग्नि के कारण बिगड़ने लगता है। इसके संतुलित उपयोग से बुद्धिविचारहृदय तीनों ही अद्भुत परिणाम देते हैंलेकिन इसका असंयमित आचरण देह को खोखला भी बना देता है। इसलिए ऋषि-मुनियों ने काम को भी अध्यात्म से जोड़कर समझाया है।

अतिरिक्त कामाग्नि सबसे अधिक घातक असर मस्तिष्क पर करती है। आदमी की स्मरण शक्ति चली जाती है और उसके विचारों में विस्फोट होने लगता है। उसके संकल्प क्षीण होने लगते हैं। कामुक आदमी किसी भी समय अपने-पराए का बोध छोड़ देता है। इसलिए काम ऊर्जा को जीवन ऊर्जा से जोड़कर सृजन की ओर मोड़ना चाहिए।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है...मनीष
ॐ शिव हरि....जय गुरुदेव..जय गुरुदेव कल्याणदेव जी....

Wednesday, April 4, 2018

जीवन जीने की राह (Jeevan Jeene Ki Rah4)


परमशक्ति हमेशा सत्य के साथ रहती है
मनुष्य को खाना, पीना, सोना और विषय का भोग कैसे करना ये बातें सिखानी नहीं पड़ती। लालन-पालन में बचपन से कुछ चीजें जुड़ती चली जाती हैं और आदमी को समझ में जाता है कि खूब धन कमाओ, दूसरों को पीछे छोड़कर आगे बढ़ो। धर्म मनुष्य की इस जन्मजात वृत्ति को मर्यादित बनाता है।
  
दुनियादारी में आदमी अमर्यादित हो जाए तो समझ में आता है लेकिन, कभी-कभी धर्म निभाते हुए वह कुटिल हो जाता है और परमात्मा को पाने में षड्यंत्र करने लगता है। धर्म के संसार में भी अमर्यादित आचरण करने लगता है, इसीलिए संत लोग मनुष्यों को तीन तरीके से धर्म का सही अर्थ समझाते हैं- पुकारकर, पुचकारकर और पिलाकर। पुकारना यानी सत्संग, पुचकारने को गुरु का सान्निध्य कहते हैं और पिलाते हैं भजन-कीर्तन के माध्यम से।

भगवान राम शिवलिंग की स्थापना के समय ये तीनों काम कर रहे थे। तुलसीदासजी ने लिखा, ‘लिंग थापि बिधिवत करि पूजा। सिव समान प्रिय मोहि दूजा।।अर्थात शिवलिंग की स्थापना कर विधिवत उसका पूजन किया और बोले शिवजी के समान मुझे अन्य कोई प्रिय नहीं है। यहां रामजी ने शंकरजी से अपने संबंधों को बड़ी गरिमा के साथ प्रस्तुत किया है, क्योंकि वे जानते थे कि युद्ध रावण से होना है और वह शिवभक्त है।

भविष्य में लोग इसका अनुचित अर्थ निकालेंगे कि राम ने शिवभक्त को मारा, जबकि उन्होंने एक गलत व्यक्ति पर प्रहार किया था। धर्म और धार्मिक स्थितियों का लोग आज भी ऐसा ही दुरुपयोग करते हुए धर्म से धर्म तथा एक ही धर्म की परमशक्ति को भी आपस में उलझा देते हैं। राम यही कहना चाहते हैं कि शिव मुझे प्रिय है, इसका मतलब है परमशक्ति किसी से भेद नहीं करती, वह सदैव सत्य के साथ है।

परिजनों के साथ भी आचरण उत्तम रखें
हम छोटी-छोटी बातों को छोटा मानने की बड़ी भूल कर जाते हैं। दिनचर्या में कुछ काम ऐसे होते हैं, जिन्हें हम मशीन की तरह करते हैं और उन पर ध्यान नहीं देते। जैसे हमारा उठना, बैठना, भोजन करना, किसी से बात करना, अजनबी के साथ सफर करना, कार्यक्षेत्र में साथियों के साथ फुरसत का समय या जीवनसाथी के साथ बिताया जाने वाला एकांत। इन सब छोटी-छोटी बातों में ध्यान नहीं रहता कि हमारा आचरण कैसा होना चाहिए। हम आम काम की ही तरह ये सब भी करने लगते हैं।

हमारे शास्त्रों में गृत्समद ऋषि का वर्णन आया है। वे कवि, वैज्ञानिक और गणितज्ञ होने के साथ बहुत अच्छे किसान भी थे और बुनकर भी कमाल के थे। कुल-मिलाकर बहुत हुनरमंद होकर कई क्षेत्रों में दक्ष थे। उन्होंने एक बहुत अच्छी पंक्ति लिखी है- प्रायेप्राये जिगीवांस: स्याम।इसका मतलब है हमें हर एक व्यवहार में विजय होना है। यहां ‘हर एक व्यवहारशब्द पर ध्यान दीजिएगा। हर छोटे से छोटे काम में भी हमारी मुद्रा विजय की होनी चाहिए। विजय का अर्थ किसी को हराना नहीं है। वे कहना चाहते हैं हर काम, हर स्थिति में श्रेष्ठ होना।

उदाहरण के लिए यदि आप परिवार के साथ डाइनिंग टेबल पर बैठे हैं तो काम छोटा-सा है भोजन करना परंतु यहां भी मुद्रा विजय की होनी चाहिए। जैसे हम किसी के घर जाते हैं या किसी को अपने घर बुलाते हैं तो बड़े सलीके से बातचीत व भोजन आदि का आग्रह करते हैं। ऐसा ही आचरण हर दिन अपने घर में भी होना चाहिए। हर सदस्य का ध्यान रखा जाए। बस, यहीं से आपमें अपनापन जागेगा, जो दूसरों के प्रति प्रेमपूर्ण बना देगा। इसका सबसे बड़ा फायदा होगा कि आप अचानक शांत होने लगेंगे। किसी भी क्रिया का आप पर दबाव नहीं आएगा।

खुद को जानने के ये तीन दर्पण
हम लोग जीवनभर जो होते हैं वह दिखने नहीं देते। कुछ जान-बूझकर ऐसा करते हैं, कुछ अनजाने में। मनुष्य अपने आपको पूरी तरह प्रकट होने ही नहीं देता। भीतर से हम क्या हैं और बाहर से क्या हो जाते हैं इसका अंतर समझाता है अध्यात्म। यदि जानना चाहें कि भीतर से क्या हैं और जो कर रहे हैं वह ठीक है या नहीं तो इसके लिए अध्यात्म ने तीन दर्पण दिए हैं।

इनमें चेहरा देखेंगे तो आप जो हैं, जान जाएंगे। दुनिया आपको क्या समझती है यह अलग बात है लेकिन, कम से कम मनुष्य शरीर में रहते हुए यह जानना जरूरी है कि हम हैं क्या। बाहर की देह सामान्य दर्पण में देखी जा सकती है और भीतर की देखना हो, अपने आप को जानना हो तो इन तीन दर्पणों का प्रयोग कीजिए- परिश्रम, ईमानदारी और भलाई। आप कितने ही परिश्रमी हों लेकिन, ध्यान रखिए, परिश्रम तो कोई दूसरा भी करा सकता है और मजबूरी में भी करना पड़ सकता है। पर परिश्रम के दर्पण में अपने आपको देखें तो पाएंगे परिश्रम हमें साहस देता है।

परिश्रम के इस दर्पण पर आलस्य की धूल न जमने दें। दूसरा दर्पण है ईमानदारी का। परिश्रम तो मजबूरी हो सकती है पर ईमानदारी बिल्कुल स्वैच्छिक क्रिया होनी चाहिए। इस दर्पण में अपने आपको देखेंगे तो पाएंगे भीतर प्रेम उतर आया है। इस दर्पण पर भी धूल जमती है, जिसका नाम है अहंकार। अहंकार आते ही आप प्रेम से कट जाते हैं, इसलिए इस धूल से भी बचना होगा। तीसरा दर्पण है भलाई और इस पर जमने वाली धूल का नाम है ईर्ष्या। इस दर्पण में झांकेंगे तो सेवा दिखेगी। जितनी अधिक सेवा करेंगे उतने ही ईर्ष्या से मुक्त हो जाएंगे। दुनिया भले ही आपको कुछ भी समझे पर इन तीन आईनों में देखकर अपने आपको जान जाएंगे। खुद को जानने का यही उपाय है।

ईश कृपा से सफलता आसान हो जाती है
मेहनतकश को हरि कृपा मिल जाए तो सफलता और आसान हो जाती है। कोई कठिन काम भी करने निकलें तो वह पूरा तो कठिनाई से ही होगा लेकिन, उसे करने में आनंद आने लगेगा। यह आनंद इस बात का आभास कराएगा कि मुश्किलें दूर हो गईं। अपने से ऊपर की परमशक्ति कैसे हमसे जुड़ जाती है और फिर हमें क्या लाभ होता है इसका दृश्य लंका कांड में देखने को मिलता है।

जब नल और नील ने पत्थरों का सेतु बना दिया तब यह बात सामने आई कि वानर सेना ज्यादा है और सेतु की चौड़ाई कम। ऐसे में सभी उस पर से कैसे गुजर पाएंगे? उसी समय श्रीराम समुद्र के किनारे खड़े हो गए और सारे जलचर रामजी को देखने वहां एकत्र हो गए। तुलसीदासजी ने लिखा, ‘प्रभुहि बिलोकहिं टरहिं न टारे। मन हरषित सब भए सुखारे।।भगवान राम को देखकर सब के सब ऐसे हर्षित हुए कि हटाने पर भी नहीं हट रहे थे। आगे दोहा लिखते हैं- ‘सेतु बंध भइ भीर अति कपि नभ पंथ उड़ाहिं। अपर जलचरन्हि ऊपर चढ़ि चढ़ि पारहि जाहिं।।

तब कुछ सेना पत्थर के सेतु से गई, कुछ उड़कर और बाकी बचे सदस्य रामजी की आज्ञा पाकर उन जीव-जंतुओं के ऊपर से चले गए। इस पूरी घटना से भगवान राम संदेश दे रहे हैं कि कोई भी काम करें, श्रम तो करना ही पड़ेगा। एक सेतु तो तुमने परिश्रम का बनाया लेकिन, दूसरा जो जलजंतुओं का सेतु है, वह मेरे कारण बना है। इसे मेरी कृपा मानिए। मेहनतकश लोग परिश्रम करते हुए दबाव में आ जाते हैं, परेशान हो जाते हैं और कभी-कभी अपनी मेहनत को दुर्भाग्य मानने लगते हैं। तब भगवान कहते हैं- थोड़ा दाएं-बाएं देखो, मेरी कृपा का भी सेतु मिलेगा। यहां सेतु से मतलब है, एक तरीका, प्रोत्साहन और साहस। ये सब मिल जाने के बाद आप अपने अभियान में जरूर सफल होंगे।

शास्त्रों के दृष्टांतों में हर समस्या का हल
कल्पना की क्रियाशील अभिव्यक्ति का नाम प्रबंधन है। इस दौर में जिस तरह से विज्ञान और तकनीक ने हमारे जीवन को प्रभावित किया है, यदि प्रबंधन ठीक नहीं हुआ तो इन दोनों का नुकसान ही उठाएंगे। भारत में प्रबंधन के अर्थ पूरी दुनिया से थोड़े अलग हो जाते हैं, क्योंकि हमारी जड़ें मूल रूप से धर्म से जुड़ी हैं। धर्म-अध्यात्म को लेकर भारत के ऋषि-मुनियों ने हमें जो चिंतन परम्परा दी ऐसी दुनिया में किसी और देश के पास है भी नहीं, इसलिए यहां प्रबंधन को थोड़ा शास्त्रों और ऋषि-मुनियों के चिंतन से जोड़ दिया जाए तो शायद दुनिया में प्रबंधन का हम जैसा अच्छा अर्थ कोई और नहीं निकाल सकेगा।

भारत में जन्मे या किसी भी रूप में यहां की धरती से जुड़े हर व्यक्ति की जड़ें कहीं न कहीं, किसी न किसी धर्म से जुड़ी हैं। पश्चिमी मान्यता तने से शुरू होती है। एक गलती हम लगातार कर रहे हैं कि जीवन को तना ही मानकर चल रहे हैं लेकिन, उसका पोषण जड़ से होता है। अपनी जड़ों से न कटें इसके लिए धर्म को समझें, अपने धर्म में जीएं और दूसरों के धर्म का मान करें। किसी भी धर्म के शास्त्र पढ़िए, उनके रूपकों में, प्रसंगों में प्रबंधन की झलक जरूर मिलेगी।

प्रबंधन से जुड़े लोगों को प्राचीन शास्त्रों, ऋषि-मुनि, फकीरों की बातों को प्रबंधन में जोड़ते रहना चाहिए। यदि ठीक से अध्ययन किया तो उनमें बड़ी से बड़ी समस्या का समाधान दृष्टांत के साथ मिल जाएगा। कुछ ऐसे पात्र मिल जाएंगे जो आपके रोल मॉडल हो सकते हैं।

आज जब आदर्श व्यक्तित्व की कमी-सी हो गई है तो मार्गदर्शन किससे लें, किसको प्रेरणास्रोत बनाएं? यह एक समस्या हो गई है। इन सबका समाधान उन शास्त्रों में, धर्म गुरुओं के पास मिल जाएगा। उन तक पहुंचिए और इसके लिए अपनी जड़ों से जुड़े रहिए।

हनुमानजी की ये चार बातें जीवन में उतारें
जिसका भी जन्म हुआ है उसकी मृत्यु भी होगी ही। जन्म और मृत्यु के बीच जो महत्वपूर्ण घटना घटती है वह है जीवन। अधिकतर लोग जान ही नहीं पाते कि जीवन को जीवन बनाया कैसे जाए? वो जन्म और मृत्यु को ही जीवन का हिस्सा समझ लेते हैं। जीते तो पशु भी हैं लेकिन, जीवन को जानने की संभावना ईश्वर ने सिर्फ मनुष्य को दी है। जन्म-मृत्यु के बीच में जीवन कैसा तैयार किया जाता है, इसका जीता-जागता उदाहरण है हनुमानजी। जिस-जिस धर्म में जो-जो भी संदेश हैं वे समूचे व्यक्तित्व यानी हनुमानजी में उतरे हैं। आज उनकी जयंती है। अपने जन्म के उद्देश्य को समझने के साथ उनका जन्मोत्सव मनाया जाए। हनुमान जयंती का मतलब ही होगा कि सचमुच जान सकें कि इस धरती पर हम मनुष्य बनाए क्यों गए हैं। हनुमानजी ने बचपन में मां से पूछा था- मैं बड़ा होकर क्या बनूंगा? तब मां अंजनी ने कहा था कि चार काम करते रहना तो तू वह बन जाएगा, जिसके लिए संसार में भेजा गया है। लक्ष्य को कभी मत भूलना, समय का सदुपयोग करना, ऊर्जा का दुरुपयोग मत करना और सेवा का कोई अवसर मत चूकना। इन बातों को हनुमानजी ने बचपन से ही आत्मसात कर लिया था। यदि सच्चे हनुमान भक्त हैं तो आज हमें भी इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि हम लक्ष्य से भटक जाएं। हनुमानजी ने बचपन में ही तय कर लिया था कि मेरा लक्ष्य श्रीराम का दूत बनकर उनकी सेवा करना है और वो बने भी। सच्चा हनुमान भक्त सच्चा सेवक भी होता है। एक-एक पल का उपयोग कीजिए। ऊर्जा का दुरुपयोग मत करिए। हनुमानजी के चरित्र की ये चार बातें जीवन में उतार लें, तब ही लगेगा सच्ची भक्ति भावना के साथ सही अर्थ में उनकी जयंती मनाई गई।

अपनी आत्मा से जुड़ेंगे तो अशांत नहीं होंगे
वस्तुओं का इस्तेमाल करने की अक्ल और अधिकार केवल मनुष्य को है। पशुओं के भाग्य में यह नहीं होता। समझदार मनुष्य यदि कोई चीज खरीदकर लाता है या उसे प्राप्त होती है तो वह उसका उपयोग जानता है। यहां गाड़ियों का उदाहरण लिया जा सकता है। यदि आपके पास एक से अधिक गाड़ियां हैं तो आपको मालूम होता है कि कब किस गाड़ी का उपयोग करना है। लंबे समय तक यदि किसी वाहन का उपयोग करें तो पड़े-पड़े ही उसकी बैटरी खराब हो जाएगी और जिस दिन उसका उपयोग करना चाहेंगे, वह सही काम नहीं करेगी, इसलिए गाड़ियों को काम में लेते रहिए ताकि जरूरत के समय धोखा दे जाए। आइए, इस उदाहरण को जिंदगी के एक पक्ष से जोड़ते हैं। ईश्वर ने हमें तीन चीजें दी हैं- शरीर, मन और आत्मा।

 इन तीनों को चलाने, इनसे जुड़े रहने के लिए साधन भी दिए हैं। शरीर तीन बातों से चलता है- भोजन, नींद और भोग। ये तीनों शरीर की जरूरत हैं। इनमें संयम खोया कि शरीर को नुकसान हुआ। मन के लिए मनुष्य को सांस से जोड़ दिया गया। मन यदि सक्रिय है तो आप अशांत हो जाएंगे, परेशान रहेंगे। निष्क्रिय है तो जीवन में शांति उतरेगी। इन दोनों का संबंध सांस से है। तीसरी चीज यानी आत्मा सिर्फ अनुभूति से जुड़ी है। इसे न कोई देख सकता है, न जान सकता है। आत्मा के मामले में भी वाहन वाला नियम लागू होता है। इसे लंबे समय तक स्पर्श नहीं किया तो अशांत होना ही है। आत्मा के साथ जुड़ने के लिए योग करना पड़ता है। शरीर के लिए तीनों क्रियाएं हम करते ही हैं, मन भी दौड़ता है, थकता है। आत्मा के साथ भी समय-समय पर झाड़-पोंछ का काम करते रहना चाहिए। आत्मा काम आती रहे तो फिर किसी को कोई अशांत नहीं कर सकता।

अपने व्यक्तित्व को सकारात्मक बनाइए
हमारे साथ कोई कदम से कदम मिलाकर क्यों चले? इस सवाल के जवाब में तीन बातें सामने आएंगी- किसी व्यवस्था का दबाव, अपनापन या कोई मजबूरी। हम किसी व्यवस्था का हिस्सा हों, कहीं नौकरी या कोई व्यवसाय कर रहे हों तो कुछ लोगों के साथ चलना पड़ेगा या कुछ हमारे साथ चलेंगे। यह व्यवस्था का हिस्सा है। इसकी बहुत अधिक व्याख्या नहीं हो सकती। चूंकि साथ काम करना है तो चलना भी पड़ेगा। दूसरी बात है अपनापन। लोग अपनेपन के कारण भी साथ चलते हैं। तीसरा कारण बनता है मजबूरी। कोई ऐसी मजबूरी जाती है कि हमें किसी के साथ या किसी को हमारे साथ लंबा चलना पड़े। यहीं चौंकाने वाली बात सामने आती है कि अब तो लोगों ने अपनापन भी मजबूरी में बदल दिया है।

कई घरों में रिश्ते निभाते हुए लोग एक-दूसरे के प्रति मजबूरी का अपनापन लिए चल रहे हैं। इन तीनों के साथ एक चौथी स्थिति का निर्माण भी किया जा सकता है, वह है- हमारे भीतर के आकर्षण को देखकर कोई साथ चले। व्यक्तित्व में ऐसा खिंचाव आ जाए कि साथ चलने वाला सिर्फ चले। उसके पास कोई जवाब न हो कि वह क्यों चल रहा है।

इस स्थिति के निर्माण के लिए यह समझना पड़ेगा कि हमारे शरीर से तरंगें निकलती रहती हैं। यदि मन निगेटिव है तो तरंगें नकारात्मक होंगी और मन पॉजिटीव है तो तरंगें भी सकारात्मक होंगी। एक भक्त का, योगी का मन निर्मल होता है और निर्मल मन से जो तरंगें निकलती हैं वो दूसरों को आकर्षित करेंगी ही। यह चौथा प्रयोग इसलिए जरूरी हो गया है कि यदि ऐसा नहीं हुआ तो सारे रिश्ते एक-दूसरे को ढोएंगे, घसीटते हुए चलेंगे। कोई बड़ा अभियान नहीं चलाना है। थोड़ा समय निकालिए, योग से जुड़िए और अपने व्यक्तित्व से सकारात्मक तरंगें प्रवाहित कीजिए।

मृत्यु को भी संदेश बना देते हैं महापुरुष...
महापुरुष मृत्यु को भी संदेश बना जाते हैं। सदकार्य करते हुए कुछ लोग प्रेरणा के स्रोत बन जाते हैं लेकिन, वे सचमुच महान होते हैं जो संसार से जाते-जाते भी बहुत कुछ सिखा जाते हैं। आज ईसा मसीह को सलीब पर चढ़ाए जाने का दिन है। गुड फ्राइडे अपने आप में उत्सव है,क्योंकि एक फकीर दुनिया को बहुत कुछ देकर विदा हुआ था। मृत्यु सभी की होना है। हम सब मृत्यु के पहले और उसके बाद की तैयारी जरूर करते हैं। वृद्धावस्था से पहले मनुष्य धन, रहन-सहन आदि की व्यवस्था इस तरह से जुटा लेता है कि कहता है मरें तो संतोष से मरें।

यह मौत के पहले की तैयारी है। समाज में ज्यादातर लोग इसी तैयारी से मृत्यु की ओर चलते हैं। कुछ बीमा, वसीयत आदि के रूप में मृत्यु के बाद की भी तैयारी करके रखते हैं। बहुत कम लोग होते हैं जो मौत की ही तैयारी कर लें। असाधारण लोग जिनके भीतर फकीरी घट चुकी होती है, वे पहले या बाद के चक्कर में न पड़ते हुए सीधे मृत्यु की ही तैयारी करते हैं। उनकी रुचि इसी में होती है कि जब मौत आए उसी क्षण उसके साथ चल दें। इसी को कहते हैं मृत्यु से साक्षात्कार। मौत आने पर अच्छे-अच्छों को होश नहीं रहता कि वह कैसे आती है और कैसे ले जाएगी। आपकी मृत्यु में आपका कोई योगदान नहीं होता। सारा काम मृत्यु की देवी ही संपन्न करती है। महान लोग जिन्होंने आत्मा की गहराई तक की यात्रा कर ली है, वे सारा काम उस देवी को न करने देते हुए मृत्यु में अपनी भी भूमिका शुरू कर देते हैं। मृत्यु भी उन लोगों का सम्मान करती है, जो आगमन पर उसका स्वागत करते हैं। सुनने में कठिन लगता है पर यदि कोई ऐसा करने पर उतर आए तो अपनी ही मौत को देखना जीवन का सबसे सुखद पक्ष होगा।

सोशल मीडिया के नशे से परिवार बचाएं
नशा इनसान की फितरत में शामिल है। हर किसी के पास एक नशा है। रूप का, बल का, धन का और एक होता है खुद को भूल जाने का नशा। बाकी सारे नशे फिर भी चल सकते हैं पर जिस दिन इनसान खुद को भूलने के लिए कोई नशा करता है वह बहुत खतरनाक हो जाता है। हमारे देश में पुराने लोग गांजा, अफीम, शराब आदि का सीमित नशा करते थे। धीरे-धीरे ये बढ़ते गए और नशे की लत ने विकराल रूप ले लिया।

कोकीन, चरस जैसी चीजें आ गईं, नशा जहर बनकर कई भारतीयों के रक्त में घुल गया। युवा पीढ़ी ने मस्ती के नाम पर नशे को अपना लिया। इनके दुष्परिणामों से बचने के उपाय शुरू हुए, नशामुक्ति केंद्र बने लेकिन, लोग भूल गए कि आने वाले दस-पंद्रह वर्षों में ऐसा नशा भारतीयों के मिजाज में घुस जाएगा, जिसे निकालना मुश्किल होगा। वह होगा सोशल मीडिया का नशा। गांजा आदि नशीले पदार्थों का सेवन करने वालों को पैसा चाहिए और इसके लिए वे अपराध करते हैं। जिन्होंने सोशल मीडिया को नशा बना लिया, वे पागलों की तरह समय चुराने लगे। जो भी समय होता है, इसमें झोंक देते हैं।

आने वाले दिनों में यह ऐसा नशा बनेगा कि इसके लिए भी एडिक्शन बूट कैंप लगाने पड़ेंगे। चूंकि ये सब पढ़े-लिखे लोग होंगे तो उन्हें इससे निकालना बड़ा मुश्किल हो जाएगा। पुराने नशों के परिणाम से शरीर खराब होता है और अब तो पूरा जीवन ही खराब होने लगा है। अकेलापन मिटाने के लिए लोग सोशल मीडिया को जीवन में उतारते हैं और वही एक दिन उन्हें इतना अकेला कर देगा कि जीवन बोझ लगने लगेगा। यदि परिवार में यह लत उतर चुकी है तो थोड़ा सावधान हो जाएं। आने वाले दस वर्षों के लिए तैयारी नहीं की तो पूरा परिवार इस नशे की भेंट चढ़ने वाला है।

इन चार लोगों के करीब जरूर रहें
कुछ अच्छा सीखने की तमन्ना हो तो जीवन को चार लोगों से जरूर गुजारिए। साइन्स और टेक्नोलॉजी तेजी से विकसित होती दुनिया की जानकारी दे देगी। जिस भी विषय में दक्षता चाहें उसकी जानकारियां जुटाना भी कठिन नहीं रहा। अब तो शोध भी टेक्नोलॉजी के साथ किया जा सकता है।

इसमें शारीरिक और मानसिक श्रम के ढंग बदल जाते हैं लेकिन, एक चीज सदियों से जिस ढंग से सीखी जा सकती है, आज जिसकी जरूरत है और भविष्य में भी शायद उसमें बदलाव न आए, वह है जीवन की कला। इसे न तो कोई विज्ञान समझा सकता है न कोई तकनीक। यह स्वयं ही सीखनी है और इसे सिखाने वाले लोग भी अलग होते हैं। इसीलिए चार लोगों- कोच, शिक्षक, गुरु और सदगुरु को आसपास रखिए। कोच मतलब वह व्यक्ति जो नियमित रूप से शरीर का संयम सिखाए, उसके कायदों से परिचित कराए। उसके बाद शिक्षक की भूमिका शुरू होती है। कोच ने तैयार कर दिया कि आप शरीर से सक्षम हैं। फिर शिक्षक थोड़ा मन से गुजरकर बुद्धि तक जाता है। वह बताता है कि जो भी कोच से सिखा है उससे आजीविका कैसे चलाई जाए। इन दोनों के बाद जरूरत पड़ती है गुरु की।

कोच ने शरीर तक ठीक से ला दिया, शिक्षक मस्तक तक ले गया लेकिन, इसके बाद जब मन को क्रास कर आत्मा तक जाना है तो बिना गुरु के जा ही नहीं सकते। चूंकि हम शरीर और बुद्धि से गुजरे हुए रहते हैं तो भीतर कई दोष उतर आते हैं। गुरु उनकी सफाई कर आत्मा तक जाने का रास्ता बताता है। आत्मा का अगला चरण होता है परमात्मा। मतलब शांति, आंतरिक प्रसन्नता। परमात्मा तक पहुंचाने का काम करते हैं सदगुरु, इसलिए अच्छे काम करने वालों को इन चार लोगों को अपने आसपास जरूर रखना चाहिए।

इंद्रियों का सदुपयोग ही संयम है
स्वतंत्रता नियंत्रित नहीं हुई तो स्वछंदता में बदल जाती है। स्वतंत्रता कहती है सब अपना-अपना काम करें और मैं भी अपने ढंग से अपना काम करूं। स्वछंदता कहती है मैं जब अपने ढंग से काम करूं तो कोई मुझे रोके-टोके नहीं। मैं किसी अनुशासन में बंधना नहीं चाहती। अनुशासन में यदि निजी स्वतंत्रता रहे तो वह दबाव लगने लगता है। आज जब किसी व्यवस्था का अनुशासन लादा जाता है या कहें कि स्वेच्छा से उस अनुशासन से बंधना पड़े तो थोड़े दिन में लोग विद्रोह करने लगते हैं।

लंबे समय यदि मन को मारकर नियम को पालना पड़े तो फिर जब भी अवसर मिलेगा, मन विद्रोह या गलत काम कराएगा, इसलिए यदि अनुशासन को दबाव नहीं बनाना चाहते हों तो थोड़ा संयम को समझ लें। अनुशासन बाहर से आता है, संयम भीतर से जाग्रत होता है। संयम में चूंकि सहमति होती है, इसलिए वह दबाव नहीं बनाता। साने गुरुजी तो कहा करते थे कि संयम भारतीय संस्कृति की आत्मा है। यदि श्रेष्ठ कार्य करना हो तो अनुशासन और संयम दोनों का तालमेल बैठाना पड़ेगा। संयम को समझने के लिए कछुए का उदाहरण लिया जा सकता है। कछुए की विशेषता होती है कि जरा-सा खतरा आने पर पैरों को समेटकर ऐसा हो जाता है कि उसकी पीठ पर कोई आक्रमण नहीं हो सकता। संयम का मतलब है हमारी इंद्रियों का हम जब चाहें उपयोग करें और जैसे ही भोग-विलास या पतन का खतरा दिखे, उन्हें समेट लें।

संयम का मतलब कुछ छोड़ना नहीं है। इसका मतलब है यह जागरूकता कि इंद्रियों का सदुपयोग कैसे करें। जिसके पास संयम व अनुशासन का तालमेल बैठ जाए, वह जो भी काम करेगा, श्रेष्ठ होकर सफलता पर ही पूरा होगा।

भीतर उतरने पर मिलेगी कल्याण शांति..
किसी दार्शनिक ने कहा था- मनुष्य स्वतंत्र होने के लिए अभिशप्त है। स्वतंत्रता उसकी पहली पसंद है, इसलिए यहीं से उसके जीवन में चुनाव शुरू हो जाता है। हम एक चीज चुनते हैं, दूसरी ठुकराते हैं। फिर तीसरी पकड़ते हैं, चौथी हाथ से निकल जाती है। चुनते-चुनते इतनी चिंता में डूब जाते हैं कि एक दिन जो पाना चाहते हैं वह मिल तो जाता है लेकिन, जीवन से शांति चली जाती है।

लंका कांड में भगवान राम ने रावण से युद्ध से पहले शिवलिंग की स्थापना की और जो कहा उसे तुलसीदासजी ने ऐसे लिखा, ‘संकरप्रिय मम द्रोही सिव द्रोही मम दास। ते नर करहिं कलप भरि घोर नरक महुं बास।।अर्थात जिन्हें शिवजी प्रिय हैं परंतु मेरे विरोधी हैं एवं जो शिवजी के द्रोही पर मुझे चाहने वाले हैं वे लोग घोर नरक में निवास करते हैं। यहां नर्क का मतलब है अशांति। राम का कहना है मुझसे और शिवजी से यदि ठीक से कोई जुड़ जाए, वह अशांति से बच सकता है। राम मर्यादा के प्रतीक हैं और शिव को कल्याण कहा गया है। मर्यादा का अर्थ है अनुशासन, जिंदगी की दौड़-भाग में थोड़ा विराम और कल्याण मतलब अपनी उपलब्धियों में से दूसरों के हित का काम करना। इसीलिए कल्याण को विश्राम माना है।

विराम यानी रुकना, विश्राम यानी रुके हुए को भीतर उतारना। जैसे ही आप थोड़ा-सा भीतर उतरते हैं, अपने निकट चले जाते हैं। जब मनुष्य अपने से एकाकार हो जाता है, तो स्वतंत्रता, चुनाव, भेद ये सब समाप्त हो जाते हैं। सबसे बड़ी शांति मिलती है। इसके लिए योग कीजिए, स्वयं के भीतर उतरिए। अपने निकट पहुंचते ही आप और परमशक्ति एक हो जाएंगे। यहीं से जीवन में मर्यादा और कल्याण शांति प्रदान करते हैं। रामजी यही संदेश दे रहे हैं।


जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है...मनीष
ॐ शिव हरि....जय गुरुदेव..जय गुरुदेव कल्याणदेव जी....