Monday, June 27, 2016

जीने की राह (Jeene Ki Rah 6)

भीतरी संतुलन से क्रोध पर काबू पाएं
आजकल अधिकतर लोगों के जीवन में क्रोध ने स्थायी ठिकाना बना लिया है। फर्क यही है कि कुछ थोड़ी देर गुस्सा करते हैं और कुछ ज्यादा देर तक गुस्सा रहते हैं। किंतु जीवन को एक आशा अभी भी है, क्योंकि गुस्सा करने वाले लोग बाद में पछताते हैं। यही पछतावा गुस्से से बाहर ले जा सकता है। मालूम पड़ जाता है कि किस परिस्थिति में हमें गुस्सा आने वाला है। ऐसे समय गुस्सा करने से पहले आंखें बंद कर खुद को संतुलित कर लें। असंतुलित व्यक्ति को क्रोध जल्दी जकड़ लेता है। व्यक्तित्व भीतर से संतुलित होगा तो क्रोध उससे टकराकर चला जाएगा पर प्रकट नहीं हो पाएगा। भीतर संतुलन लाने के लिए छोटा-सा प्रयोग है।

रात को सोने से पहले अपने बाएं पैर पर खड़े हों, दाएं पैर को थोड़ा उठाएं और बाएं पैर के घुटने के भीतर वाले हिस्से पर दाएं पैर के पंजे को रख दें। दृश्य ऐसा होगा कि हम एक पैर पर खड़े हैं और दूसरा पैर मुड़कर उसका सपोर्ट बन गया है। दो-तीन मिनट खड़े रहें इसके बाद इस क्रिया को उल्टा कर दें। दाएं पैर पर खड़े हो जाएं, बाएं पैर को मोड़कर दाएं घुटने पर टिका लें। इसके बाद दोनों पैर पर खड़े हो जाएं। दोनों पैर चौड़े हों और कल्पना करिए कि एक बार शरीर का सारा वजन बाएं पैर पर था, दूसरी बार दाएं पैर पर रहा और अब ठीक बीच में है। चूंकि दोनों पैर एक-एक बार वजन उठा चुके होंगे इसलिए जब दोनों पैर जमीन पर होंगे और आपकी कल्पना यह होगी कि पूरा वजन दोनों पैर पर भी नहीं, बीच में उस गैप पर है जो दोनों पैरों के बीच में है। अचानक हफ्ते-दस दिन में आपके भीतर एक संतुलन स्थापित हो गया है। जब कभी क्रोध आए, आंखें बंद करें और इन तीनों स्थितियों पर क्रमश: विचार कर लें। बहुत जल्दी पाएंगे जिन परिस्थितियों में क्रोधित होते थे, आप वहीं रहे और वे स्थितियां आसपास से गुजर गईं।

मन, वचन व कर्म से एक होना जरूरी
जब हमें कोई महत्वपूर्ण दायित्व सौंपा जाए, वह तब पूरा होगा जब हमारे पास उसे करने का तरीका निराला होगा। चर्चा चल रही है किष्किंधा कांड के उस प्रसंग की जब वानरों को सीताजी की खोज का बड़ा दायित्व सौंपा गया था। सुग्रीव के मुंह से जो आदेश निकल रहे थे वे आज प्रबंधन के युग में किसी बड़ी जिम्मेदारी को पूरा करने के सबक हैं। तुलसीदासजी ने चौपाई लिखी, ‘मन क्रम बचन सो जतन बिचारेहु। रामचंद्र कर काजु संवारेहु।। भानु पीठि सेइअ उर आगी। स्वामिहि सर्ब भाव छल त्यागी।।मन, वचन तथा कर्म से उसी का (सीताजी का पता लगाने का) उपाय सोचना। श्रीरामचंद्रजी का कार्य सम्पन्न करना। सूर्य को पीठ से और अग्नि को हृदय से सेवन करना चाहिए। परंतु स्वामी की सेवा तो छल छोड़कर सर्वभाव से (मन, वचन, कर्म से) करनी चाहिए।

इन पंक्तियों में तुलसीदासजी ने मन, वचन और कर्म से काम करने की हिदायत दी है। होता यह है कि हमारे मन में कुछ और होता है, बोलते कुछ और हैं तथा करते कुछ और। जितना यह भेद है आप उतने ही कमजोर होते जाएंगे। मन, वचन और कर्म इन तीनों में मन और चंद्रमा एक-दूसरे से संचालित होते हैं। इसलिए रामजी के नाम को उन्होंने रामचंद्र लिखा, तो मन का संबंध चंद्रमा से है। कर्म का संबंध सूर्य से है और वचन का संबंध अग्नि से। आगे लिखा, ‘स्वामी का कार्य छल-कपट छोड़कर करना चाहिए।इसी के उदाहरण में समझाया कि जैसे हम सूर्य को पीठ से और अग्नि को सामने से सेंकते हैं तो इसमें हमारा स्वार्थ होता है, क्योंकि सूर्य पीठ से सेंकने पर ही उपयोगी है और अग्नि सामने से। नहीं तो दोनों नुकसान करेंगे। जब आपको कोई आदेश दिया जाए। स्वामी मतलब आपका प्रबंधन हो सकता है, वह आपकी व्यवस्था हो सकती है। ऐसे काम में छल-कपट या भेद न करें।

सफलता के लिए चाहिए प्रयोगधर्मिता
जब काम आपकी हैसियत से बड़ा हो तो मन का एक हिस्सा कहता है ऐसा न करो, असफल हो जाओगे। देखिए, किसी भी काम को करने के लिए पहले सृजनधर्मिता यानी क्रिएटिविटी चाहिए। फिर उसके साथ प्रयोगधर्मिता भी चाहिए। यह सिखाएगी कि असफलता से निराश न होते हुए दूसरा प्रयास करें। एक बार मैंने गांव में कुआं खोदने वालों के साथ एक व्यक्ति देखा, जो तंत्र-मंत्र करके जमीन के नीचे कहां पानी है, बता देता था। किंतु वह दस जगह बताता, जिसमें से आठ पर पानी नहीं मिलता। उसने मुझसे कहा, हम निराश नहीं होते, लगातार लगे रहते हैं। उसने एक बात बहुत अच्छी कही कि इन दिनों मैंने यह प्रयोगधर्मिता की कि पहले हम औजार और मानवशक्ति से कुआं खोदते थे, अब मशीनें बुला लीं।

मंत्र से पानी देखना और मशीन का उपयोग करना यह सृजन और प्रयोग दोनों का मिला-जुला रूप है। असफल हो रहे हों तो निराश होने की बजाय प्रयोग बड़ा काम आता है, क्योंकि जैसे ही हम प्रयोग करते हैं, जितने भी सकारात्मक विचार होते हैं, दौड़कर हमारी ओर चलने लगते हैं। जैसे ही हम थोड़ा-सा असफल होते हैं, नकारात्मक विचार तैयार ही रहते हैं, इसलिए असफलता के समय प्रयोगधर्मिता बढ़ा दें, पाएंगे आपके आसपास का वातावरण पॉजीटिव हो गया। जब सफलता नहीं मिल रही हो तो सोते समय यह मंत्र जरूर बोलें, ‘नहीं, मुझे निराश नहीं होना और हां, यह मैं करके रहूंगा।’‘नहींऔर हांवह भी अपने आप से कहना, एक मंत्र है। सुबह उठते समय नहीं और हांइन्हें सांस के साथ नाभि तक लाइए। नहीं, निराश नहीं होना और हां, सफल होना ही है। शरीर का वह संबंधित चक्र, सांस और दबाव से कहे गए हां-नहींतीनों जब जुड़ जाएंगे तो मंत्र की तरह प्रभावी होंगे और सकारात्मक विचार आपकी ओर आने लगेंगे।

वर्तमान के अभाव का आनंद उठाएं
दुनिया जो हमारा मूल्यांकन करती है वह अधूरा ही होगा, लेकिन जब हम अपना मूल्यांकन स्वयं करें तब हमारा मूल्यांकन पूरा होगा। इसे आज की भाषा में यूं भी कह सकते हैं कि संसार ने जो हमारे ऊपर टैग लगाया है उसको यदि सही ढंग से पहना है, तो हमें अपना टैग भी लगाना पड़ेगा। हमारे अलावा हमें अच्छी तरह कोई नहीं जान सकता। इसे तब और लागू करें जब आप अपने वर्तमान में जो अभाव आपके सामने है, उसे सोच-सोचकर निराश हो रहे हों। बहुत सारे लोगों के पास वे सारी चीजें नहीं होतीं जो दूसरों के पास हैं, तब हम परेशान होते हैं कि हमारे पास ऐसा कब होगा? अपने वर्तमान को देखेंगे तो अभाव हमें बहुत खलेगा, इसलिए स्वयं को समझाएं कि जिन बातों का अभाव है वे हमारी प्रगति में बाधा नहीं बनेंगी।

विचार करें कि मेरी हैसियत ऐसी है, जो वर्तमान से मेरे भविष्य को और संवारेगी। मैं इस आशा को समाप्त नहीं करूंगा कि आज जो नहीं है वह कल भी नहीं होगा। आप जिन समर्थ और समृद्ध लोगों को देख रहे हैं, हो सकता है कल इनके पास उतना नहीं रहा हो। मनोवैज्ञानिक हिटलर का उदाहरण देकर कहते हैं कि सच और झूठ में इतना ही फर्क है कि झूठ को लगातार, तेजी से दबाव के साथ बोला जाए तो वह सच लगने लगता है। वैसे यह सिद्धांत गलत है, पर हमारे काम का हो सकता है कि कोई एक बात लगातार दोहराई जाए तो आप पाएंगे कि वह सही होने लगती है। यदि सही बात हम दोहराने लगें फिर तो सत्य हमको मिलेगा ही। एक सत्य जीवन में उतारें कि भविष्य हमारे लिए उज्ज्वल है। भविष्य हमारे वर्तमान से और दिव्य होगा, इसलिए वर्तमान के अभाव का आनंद उठाएं और भविष्य की उपलब्धियों पर नज़र रखें। आपको वह जरूर मिलेगा जो आपने सोचा है।

माला जपने से मिलती है भीतरी ऊर्जा
पिछले दिनों सफर करते हुए एयरपोर्ट पर जब मैं माला जप रहा था तो एक बहुत पढ़े-लिखे युवक ने मुझे पूछा, ‘मैं जानना चाहता हूं कि माला जपने से क्या होता है?’ मैं जानता था यदि मैं कहूंगा परमात्मा मिलेंगे, यह एक पूजा है तो यह उत्तर इसके किसी काम का नहीं है। तब मैंने उससे कहा, ‘ इससे शक्ति मिलती है।जाहिर है उसका अगला सवाल था कि इससे शक्ति कैसे मिल सकती है? यदि ऐसा है तो मैं भी माला जपूंगा, लेकिन साबित कीजिए। मैंने साबित किया और उस युवक ने आजकल माला रखनी शुरू कर दी है।

जब हम मानसिक जप करते हैं तो हमारे भीतर घर्षण होता है। यदि हम दोनों हथेलियां रगड़ें तो हम गर्मी महसूस करते हैं। ऐसे ही लगातार भीतर जाती सांस के धक्के से शरीर में रक्त-प्रवाह बनता है। अब यदि सांस से हम किसी ऐसे नाम को जोड़ लें या मंत्र का संबंध बना दें, जिसमें हमारा विश्वास हो, तो सांस और मंत्र की रगड़ से ऊर्जा पैदा होगी जो रक्त-प्रवाह के जरिये शरीर में उत्तेजना पैदा करेगी। यह उत्तेजना वैसी नहीं है जैसी बाहरी चीजों को देखकर होती है। इसमें होश होता है।

किसी मंत्र, किसी नाम के साथ एक माला जपें, फिर माला को रोक लें और उसी शब्द को भीतर सुनें। कान जब बाहर से कोई शब्द सुनते हैं तो उसकी सीमा है। कान से सुने शब्द भीतर जो कंपन पैदा करते हैं, उन्हीं कंपनों के जरिये बाहर के शब्दों को सुनने की जगह भीतर ही भीतर सुनें तो ऊर्जा पैदा होगी। मैं फिर दोहरा रहा हूं। पहले माला जपेंगे, हमारे भीतर फ्रिक्शन (घर्षण) होगा। फिर हम उसी को स्वयं सुनेंगे तो एक कंपन पैदा होगा। यही घर्षण और कंपन हमारे लिए ऊर्जा बन जाता है। होशपूर्ण उत्तेजना इसी को कहेंगे। जब होशपूर्ण उत्तेजना आपके भीतर आए तब आप देखेंगे कि आपकी योग्यता क्या परिणाम देती है।

कर्तव्य की स्पष्टता प्रमुख गुण
जीवन में जो भी काम करें, स्वेच्छा से करें। स्वेच्छा यानी मनमर्जी नहीं, उस काम को करने के लिए अपने आप में स्पष्ट होकर पूरे व्यक्तित्व को स्वीकृति देना। तब जो भी काम करेंगे वह गलत नहीं होगा और सफलता के काफी निकट होगा। प्रसंग चल रहा है किष्किंधा कांड का। सीताजी की खोज के लिए दक्षिण दिशा में भेजे वानरों के दल का नेतृत्व अंगद कर रहे थे। सुग्रीव दल को समझाइश दे रहे थे। इसे अपने जीवन में लागू करने में फायदा ही होगा। तुलसीदासजी ने लिखा है-तजि माया सेइअ परलोका। मिटहिं सकल भवसंभव सोका।।माया (विषयों की ममता-आसक्ति) को छोड़कर परलोक प्राप्ति का साधन करना चाहिए, जिससे भव (जन्म-मरण) से उत्पन्न सारे शोक मिट जाएं।

यहां तीन शब्दों का प्रयोग हुआ है- माया, परलोक और शोक। माया के लिए आम शब्द है जादू।
जो दिखना चाहिए वह दिखता नहीं है, यही तो जादू है। परलोक का अर्थ है सफलता के साथ शांति और शोक का मतलब तनाव। सुग्रीव समझा रहे हैं उलझन छोड़कर पूरी स्पष्टता के साथ यह काम करना। हम लोग जब कोई दायित्व निभाते हैं तो भ्रम में डूब जाते हैं। तनाव में आ जाते हैं। सुग्रीव से सीखें कल क्या होगा, इस चक्कर में न पड़ें। आज क्या होगा इसको संवारें। आगे सुग्रीव ने कहा वे ही लोग भाग्यवान और गुणवान हैं, जो अपने कर्तव्य के प्रति स्पष्ट हैं। सोइ गुनग्य सोई बड़भागी। जो रघुबीर चरन अनुरागी।।सद्‌गुणों को पहचानने वाला (गुणवान) तथा बड़भागी वही है जो श्रीरघुनाथजी के चरणों का प्रेमी है। तुलसीदासजी कहना चाह रहे हैं चरण यानी आचरण। जिनका आचरण श्रीराम की तरह है वे ही लोग भाग्यवान और गुणवान हैं। हमें जीवन में महान लोगों द्वारा बताए गए मार्ग का अनुसरण करना चाहिए। फिर भाग्य और गुण अपने आप हमारे गहने बन जाएंगे।

प्रशंसा व्यक्ति के काम की अधिक हो
भाषा का अपना द्वंद्व होता है। इसका सीधा संबंध शब्दों से होता है। मनुष्य जीवन में शब्दों का बड़ा प्यारा प्रयोग है - प्रशंसा और आलोचना। कोई कितना ही मौन साधे इन दो स्थितियों से बच नहीं सकता। हमारी भाषा कैसी हो यह एक कला है। सार्वजनिक जीवन में तो ठीक है, लेकिन परिवार में भाषा और शब्द, कलह और प्रेम का कारण बन जाते हैं। जब किसी की प्रशंसा करनी हो तो सबके सामने करिए और आलोचना करनी हो तो एकांत में करिए। आइए, पहले प्रशंसा को समझ लें। प्रशंसा में दो गड़बड़ हो सकती है। सामने वाला भ्रम में डूब सकता है, अहंकार में गिर सकता है या फिर हमें चापलूस मान सकता है, इसलिए प्रशंसा में उसके कार्य को अधिक फोकस करें। हम व्यक्ति की प्रशंसा करने लगते हैं। उसके काम को भी तीन भागों में बांटकर प्रशंसा करें।

एक, यह काम उन्होंने किया कैसे? हमें भी इसकी समझ होनी चाहिए, इसलिए बिना जाने किसी की प्रशंसा न करें। दो, अब ऐसे प्रशंसनीय कार्य कौन-कौन कर गए, इस तरह के कार्य की प्रशंसा करें। इसमें व्यक्ति की बात भी आ जाएगी और व्यक्तित्व की तुलना भी हो जाएगी। तीन, इस कार्य से अन्य लोगों को क्या फायदा होगा। ऐसा दर्शाने से उनका कार्य सेवा में बदल जाएगा। सामने वाले को महसूस होगा कि प्रशंसा उसके व्यक्तित्व की नहीं, उसके सेवा-कार्य की हो रही है। इससे वह अहंकार से बच जाएगा और वह जान जाएगा कि हर प्रशंसा करने वाला चापलूस नहीं होता। अब बात करते हैं आलोचना की। जब आलोचना करनी ही पड़ जाए तो सार्वजनिक रूप से बचें। व्यक्ति कितना ही बड़ा या छोटा क्यों न हो उससे अकेले में ही बात करें। सार्वजनिक रूप से की गई आलोचना अपमान में बदल जाती है और एकांत में की गई आलोचना अच्छी सलाह बन जाती है।

सत्संग बनकर दूसरों को सुख दें
दार्शनिक क्षेत्र में प्राय: कहा जाता है कि यह कभी न भूलो कि जीवन के अंत में मौत के साथ क्या जाएगा? सिकंदर जब इस दुनिया से गया तो उसके दोनों हाथ खाली थे। यह बात सुनने में बिल्कुल सीधी लगती है। यदि इस संवाद के पीछे के दर्शन को ठीक से समझा जाए तो जीते-जी बहुत बड़ी उपलब्धि हाथ लग जाएगी। यह तय है कि अंत समय दुनिया ने जो आपको दिया होगा वह आप नहीं ले जा सकते, लेकिन जो आपने दुनिया को दिया होगा वह आपके साथ जरूर जाएगा। मृत व्यक्ति के साथ जाती हुईं चीजें दिखती नहीं, लेकिन स्मृति में होती हैं, चर्चा में होती हैं, अनुभूति में होती हैं। हम जब संसार में रहते हैं तो इस दुनिया को क्या दे सकते हैं? सबसे पहले है धन। जरूरी नहीं है कि हमारे पास धन हो।

धन भी हो तो जरूरी नहीं कि हमारे पास देने का मन हो। इसलिए एक चीज संसार के लोगों को जरूर दें और वह है समय। दूसरों को ऐसा समय दीजिए जो उनके लिए हितकारी हो। जैसे कोई दुखी हो और यदि उसे आपके साथ वक्त बिताने का मौका मिल जाए तो उसका दुख खुशी में बदल जाएगा। अपने घर-परिवार के लोगों को उनके हिस्से का समय दीजिए। अभी तो न सिर्फ हम उनके हिस्से का समय चुरा रहे हैं, बल्कि डाका भी डाल रहे हैं। उन्हें समय देने का सबसे अच्छा तरीका है, भोजन के समय साथ रहें। शरीर को दो तरह की भूख होती है। दोनों में वह घनिष्ठता चाहता है। शरीर की भूख भोग-विलास से मिटती है, लेकिन सूक्ष्म शरीर पवित्र संग चाहता है। मनुष्य ने मनुष्य से पहला संबंध भोजन के माध्यम से ही जाना। बच्चा अपनी मां से पहली बार उसके दूध के जरिये जुड़ता है। भोजन में आत्मीयता होती है, इसलिए संसार में रहते हुए दूसरों को ऐसा समय दीजिए कि वह सत्संग बनकर उन्हें सुख प्रदान करे।

भीतर से तैयारी देगी स्थायी खुशी
आजकल खुश रहने की खूब बातेें की जाती हैं। यह बात सबको समझ में आ चुकी है कि 15-20 साल बाद खुशी जिंदगी के बाजार का सबसे महंगा प्रोडक्ट होगी। जिन्हें खुशी को स्थायी बनाना है, उन्हें शांति का मतलब समझना होगा वरना अस्थायी खुशी तो आसानी से मिलती रहेगी। हमारे ऋषि-मुनियों ने बड़ी सुंदर बात कही है कि खुश रहना है तो बहुत अधिक उठापटक न करते हुए बस, दो काम करो। पहला जब-जो करो, जमकर करो। खुद को शत-प्रतिशत उसमें झोंक दो। यदि नौकरी कर रहे हों तो जमकर सेवक बन जाओ। घर में माता-पिता हों तो शत-प्रतिशत माता-पिता बने रहो। दूसरी बात उन्होंने कही कि जीवन में खुशी साधन-सुविधा, धन-दौलत से ही नहीं मिलती। यह मन में उतार लें कि यदि जीवन में चुनौतियां आएं तो भी खुशी मिल सकती है। चुनौतियां कभी किसी की खत्म नहीं होंगी।

जिस युग में भगवान ने अवतार लिया उन्हें भी चुनौतियों का सामना करना पड़ा। बुरा आदमी जब चुनौतियां देता है तो परेशानियां और बढ़ जाती हैं। आपका संबंध किसी से भी हो, भगवान और शैतान सभी में मिल जाएंगे। शैतान का मतलब ही चुनौती है, भगवान का मतलब ही समाधान है। धार्मिक लोग यह गलतफहमी दूर कर लें कि भक्त होने से, भगवान को मानने से चुनौतियां, समस्याएं नहीं आएंगी। आप तब भी दुखी रह सकते हैं और आपको खुश रहने के मंत्र खुद ढूंढ़ने पड़ेंगे। इसलिए यदि खुश रहना है तो जो तैयारियां हमारे ऋषि-मुनियों ने कीं, पीर-पैगंबर और अवतारों ने जो आचरण किया उन्हें हम भी अपना लें। जो भीतर से तैयार है वह स्थायी खुशी पाएगा। जिसकी तैयारी केवल बाहरी है उसके जीवन में खुशी आएगी और जाएगी। खुश रहने के मौके खुद ढूंढ़िए। दूसरों पर आधारित रहकर खुश रहने की तैयारी किसी नए दुख को आमंत्रण होगा।

धैर्य से नेतृत्व का भरोसा जीतें
हम कितने योग्य हैं इस बात को चार लोग समझते हैं। एक हैँ संसारी लोग, जिनसे हमारा बहुत गहरा नाता नहीं है। ये संसारी लोग हमारी योग्यता को थोड़ा-बहुत समझते हैं। दूसरा वर्ग होता है हमारे निकट के लोगों का। इनमें हमारे माता-पिता, भाई, बहन, जीवन साथी और रिश्तेदार हो सकते हैं। तीसरे हम खुद जो अपनी योग्यता से भली-भांति परिचित होते हैं। इन तीनों से सबसे ऊपर होता है भगवान। वह जानता है कि हम कितने सक्षम हैं और क्या कर सकते हैं। बाकी तीन जगह आप बड़ी-बड़ी बातें हांक सकते हैं परंतु ईश्वर के सामने सबकुछ साफ होता है। वह परम शक्ति किसी भी काम के लिए हमारा चयन पहले ही कर लेती है। किष्किंधा कांड में एक बड़ी सुंदर घटना आती है। सारे वानर प्रसन्न होकर सीताजी की खोज में चल पड़े, लेकिन हनुमानजी जो बहुत सहज और सरल थे, पीछे खड़े रहे।

तुलसीदासजी ने लिखा है, ‘पाछे पवन तनय सिरू नावा। जानि काज प्रभु निकट बोलावा।। परसा सीस सरोरुह पानी। करमुद्रिका दीन्हि जन जानी।।इन पंक्तियों में हनुमानजी की सरलता और श्रीराम की सजगता प्रकट होती है। पहली बात तो यह कि हनुमानजी को प्रदर्शन करना बिल्कुल पसंद नहीं था और रामजी जानते थे कि बहुत सारे लोग जा रहे हैं पर कौन होगा, जो मेरा काम करेगा। इसीलिए उन्होंने हनुमानजी को जो सबसे पीछे थे, समीप बुलाया और अपनी अंगूठी निकालकर दे दी। यह हनुमान के प्रति उनका विश्वास था। हमें भी अपनी योग्यता पर इतना भरोसा होना चाहिए कि परमात्मा हम पर विश्वास कर सकें। वे चयन करेंगे तो मानकर चलिए हम सफल होकर रहेंगे। इसलिए थोड़ा धैर्य, थोड़ी समझ रखते हुए अपने नेतृत्व को यह विश्वास दिलाइए कि वह हम पर भरोसा कर सकता है। इस प्रसंग में हनुमानजी यही सीख दे रहे हैं।

विचारों की सफाई भी आवश्यक
यह बहुत सीधी-सी बात है कि भीड़ में सही और गलत को छांटना मुश्किल हो जाता है। भीड़ में जो लोग होते हैं उनका अपना कोई विवेक नहीं होता और इसीलिए जब-जब आप भीड़ से घिरे हुए होंगे, अपने आप को अशांत पाएंगे। किसी की योग्यता टटोलना हो, कोई जिम्मेदारी सौंपनी हो तो उसे भीड़ से निकालकर अकेले में लाना पड़ता है। मनुष्य अकेला हो तो आप उसकी जिम्मेदारी तय कर सकते हैं। मनुष्यों की भीड़ की कहानी तो स्पष्ट है ही, लेकिन विचारों की भीड़ भी यही परिणाम देती है। हमारे भीतर जो विचार भीड़ की तरह आ जाते हैं, लगातार आने लगते हैं, धक्का-मुक्की करते हैं तो हम भ्रम में पड़कर गलत की ओर चलने लगते हैं, अशांत हो जाते हैं। हमारे साथ ज्यादातर मौकों पर ऐसा ही होता है।

लगता है जैसे विचारों का रेला चला आ रहा हो। अब ऐसे में आप किस विचार को जिम्मेदार ठहराएंगे अच्छे काम के लिए। कैसे चयन करेंगे कि कौन-सा विचार आपको सफलता दिला सकता है, क्योंकि भीड़ में से छांटना बड़ा मुश्किल हो जाता है। एक प्रयोग करते रहिएगा। कई बार ऐसा होता है कि हम काम की चीज को रद्‌दी में फेंक देते हैं और हमारे आस-पास रद्‌दी पड़ी रह जाती है। विचारों की रद्‌दी को भी रोज-रोज साफ करते रहिए। सप्ताह में कोई एक दिन तय कर लें और इस रद्‌दी की सफाई करें। इसमें मजेदार बात यह है कि रद्‌दी के खरीदार भी आप ही हैं, बेचने वाले भी आप और ट्रेंचिंग ग्राउंड भी आप ही का है, लेकिन यदि यह सफाई नहीं की तो एक दिन विचारों की यह भीड़ आपको लगभग पागल जैसा बना देगी। आप बाहर से भले ही विद्वान, समझदार दिखें, लेकिन भीतर से लगभग पागल जैसे ही हरकतें शुरू कर देंगे। इसलिए विचारों की भीड़ को रद्‌दी मानकर जब भी मौका मिले ठिकाने लगाते रहिए, सफाई करते रहिए।

सफलता से प्रभावित न हो जीवनशैली
सफलता ऐसी होनी चाहिए जो जीवनशैली को नहीं, जीवन को प्रभावित करे। जब हम सफल होते हैं, तो सबसे ज्यादा प्रभावित होती है हमारी जीवनशैली। कार, बंगला, अच्छे कपड़े, अच्छे स्थानों पर घूमने जाना, महंगे शौक, ये सब जीवनशैली में आते हैं। ज्यादातर लोग सफलता को जीवनशैली से जोड़ते हैं और इसीलिए अशांत भी हो जाते हैं। सफलता जीवन को प्रभावित करने वाली होनी चाहिए, क्योंकि जीवन भीतर होता है। जीवन गहराई है, समग्र है और जीवनशैली एक छोटी-सी घटना। जब जीवन में उतरते हैं तो आप अहंकार शून्य होते हैं। अपने अलावा दूसरों को भी महत्व देते हैं। जीवनशैली का आग्रह खुद के लिए होता है। उसे प्रदर्शन अच्छा लगता है। इसी तरह जब असफल हो जाएं तो ध्यान रहे कि असफलता केवल जीवनशैली को प्रभावित करे, जीवन को प्रभावित न करे। विफलता में तनाव होगा, अवसाद होगा। इसे भीतर न ले जाएं।

जब विफल हों तो लाइफ स्टाइल बदल दें, लेकिन जीवन को उससे न जोड़ें। हम उल्टा करते हैं। सफलता को जीवन से काटते हैं व विफलता को जीवन से जोड़ते हैं। यहीं से अशांति आती है। सफल होने के लिए विश्वास चाहिए, लेकिन विफल हो जाएं तो विश्वास को श्रद्धा से जोड़ें। जल्दी ही असफलता से बाहर आ जाएंगे। जब हम विश्वास में जीते हैं तो कई लोगों के साथ रहते हैं। किसी और ने विश्वास किया, उसी सिद्धांत पर हमने भी विश्वास कर लिया। श्रद्धा अकेली होती है। यदि आपके भीतर किसी के प्रति श्रद्धा जागी तो आप यह चिंता नहीं करेंगे कि और कितने लोग उसके प्रति श्रद्धावान हैं। वह आपका निजी मामला है। विश्वास व श्रद्धा मिल जाएं तो भरोसा पैदा होता है। जब आपका भरोसा दृढ़ है, तब आप सफल होकर अशांत नहीं होंगे। विफल हैं तो भी शांत रहेंगे।

योग-ध्यान से अहंकार पर काबू पाएं
हर मनुष्य के शरीर में कुछ बातें ऐसी हैं, जो उसे खूब परेशान करती हैं। परेशान व दुखी होने के लिए जरूरी नहीं है कि आक्रमण बाहर से हो। हमारे भीतर भी कुछ ऐसा होता है, जिसके कारण हम खुद बहुत दिक्कत में आ जाते हैं। हमें यह समझना चाहिए कि हमारे शरीर में सबसे ज्यादा परेशान करने वाली चीज है हमारा अहंकार और सबसे ज्यादा न परेशान करने वाली चीज है हमारी सरलता। अहंकार हमें बात-बात पर परेशान करता है, क्योंकि तुलना से अहंकार को बहुत बेचैनी होती है। दूसरे के पास यदि कार है तो हमारा अहंकार अंगड़ाई लेने लगेगा। हमारे पास भी वैसी कार, वैसा मकान, वैसा पद हो।

अहंकार तो यहां तक उतर आता है कि भले ही मर जाओ या मार डालो पर मेरी पूर्ति जरूर होनी चाहिए, इसलिए हमें अपने भीतर के अहंकार और सरलता को पहचानना है, पकड़ना हैै और निदान निकालना है। किंतु सरलता का अर्थ हमें समझना पड़ेगा। बाहर से विनम्र हो जाएं, मीठा बोलने लग जाएं, इसी से सरलता नहीं आती। हम पारदर्शी हों, निर्मल हों साथ में स्पष्टवादी हों और भ्रम बिल्कुल न हो। सरलता की यह भी पहचान है कि लोग हम पर भरोसा कर हमारे सान्निध्य में खुद को सुरक्षित महसूस कर सकें। सच्ची सरलता तभी है, अन्यथा सबकुछ अभिनय होगा। आज के वक्त में हमारा अहंकार जब किसी के साथ रहता है तो उसे सुरक्षा देने की जगह अपने लिए क्या लूट सकते हैं, इसकी तैयारी करता है। दूसरों को आहत करना, अपने लिए कुछ भी करने पर उतर आना, ये सब अहंकार के लक्षण हैं। चूंकि मामला भीतर का है, इसलिए इससे निपटने की तैयारी भी भीतर करनी पड़ेगी। आप भीतर से कहां अहंकारी हैं और कहां निर्मल-सरल हैं यह जानना हो तो योग-ध्यान करना होगा। आप वहां पहुंच जाएंगे जहां हम सबको पहुंचना जरूरी है।

हनुमानजी के जरिये योग से जुड़ें
हनुमानजी से बड़ा कोई योगी नहीं। यह कोई दावा नहीं, मान्यता-सी है। सच तो यह है कि योग सबके लिए है। इसे किसी धर्म से जोड़ना नादानी होगी। किंतु यदि किसी को जानना है कि योग देता क्या है तो उसे हनुमानजी से परिचय जरूर करना चाहिए। श्रीराम ने हनुमानजी को साथ इसीलिए रखा, क्योंकि वे जानते थे कि जो बहुत बड़ा अभियान मुझे पूरा करना है उसमें आने वाली बाधाएं कोई योगी ही पार करा सकता है। हम भी ध्यान रखें हमारा लक्ष्य श्रीराम जैसा ही है। रावण चारों तरफ मौजूद हैं। रावण मतलब सफलता की ऊंचाइयों पर बैठा हुआ व्यक्ति, जो अब लगातार गलतियां कर रहा हो और उसका पतन हो रहा हो। आज कई लोग ऐसे हैं जो अपनी योग्यता का दुरुपयोग कर रहे हैं, रावण की तरह शीर्ष पर पहुंच गए हैं और अनुचित कर रहे हैं।

आप जिस भी क्षेत्र में जाएंगे ऐसे लोगों से आपका मुकाबला होगा। जो कुछ भी श्रीराम ने किया वह हमें करना है। वे हर बड़ा काम हनुमानजी से कराते थे। हनुमानजी ने हमें सिखाया है कि चुनौतियां कभी किसी की कम नहीं होंगी। पहली चुनौती या समस्या संसार से आती है। दूसरी सम्पत्ति से, तीसरी संबंधों से, चौथी स्वास्थ्य से और पांचवीं चुनौती आती है संतान से। जब ये चुनौतियां बाहर से आती हैं, तो योगी बाहर के साथ-साथ भीतर उतरना जानता है। जो लोग केवल बाहर रहकर इन चुनौतियों का सामना करेंगे वे एक दिन अशांत, परेशान होंगे, लेकिन जो थोड़ा अपने भीतर उतरेंगे उनके लिए चुनौतियों के आक्रमण कम होंगे। भीतर उतरकर अपनी आत्मा के निकट बैठा हुआ व्यक्ति इन चुनौतियों से बहुत अच्छे ढंग से जूझ सकेगा। योग का यह एक बहुत बड़ा परिणाम है, इसलिए जिन्हें योग से जुड़ना हो वे हनुमानजी को अपना माध्यम बना सकते हैं, क्योंकि उनसे बड़ा योगी और कौन हो सकता है।

हर घटना को साक्षी भाव से देखें
दूसरों के मामले में कई बार हम वे बातें सोच लेते हैं, जिनका उस व्यक्ति से कोई लेना-देना नहीं होता। हम किसी को फोन करें और व्यस्तता के कारण वह न उठाए तो हम मन ही मन सोचने लगते हैं कि यह इतना बड़ा हो गया कि हमें अवॉइड कर रहा है। अपने बच्चों, जीवनसाथी के भी फोन नहीं उठाने पर भी उनके लिए हमारे विचार ऐसे ही होते हैं। कभी सार्वजनिक रूप से किसी ने ठीक से हमसे चर्चा न की हो तो हमारा मन उसको आलोचना में घेर लेता है।

हम काफी समय ऐसे ही चिंतन में लगा देते हैं, जबकि घटना वैसी नहीं होती। इससे ऊर्जा भी नष्ट होती है और हम अकारण तनाव में आ जाते हैं। किसी के प्रति कोई नज़रिया रखना हो तो उसके तीन स्तर होते हैं। यदि केवल शरीर के स्तर पर नज़रिया बनाएंगे तो उसमें तेरे-मेरे की गुंजाइश बहुत होगी। हमें ऐसी उम्मीद थी, उसने ऐसा नहीं किया और हम उलझन में पड़ जाएंगे। मन के स्तर से नज़रिया बनाएंगे तो उदास बहुत जल्दी हो जाएंगे, क्योंकि हमारे हिसाब से घटना नहीं घटी तो मन तुरंत उदासी ला देता है या चिड़चिड़ा बना देता है।

तीसरा स्तर होता है आत्मा का। यह साक्षीभाव का स्तर है। जब आप किसी घटना के बारे में आत्मा के स्तर पर सोचते हैं तो आपको थोड़ा भीतर जाना पड़ता है। शरीर से चलकर मन को पार करके जब हम आत्मा पर पहुंचते हैं तब यह तो तय है कि आत्मा का कोई आकार हमें नहीं दिखेगा, लेकिन अभ्यास से यह भी तय हो जाएगा कि हम स्वयं से जुड़ रहे हैं, अपने आप को देख रहे हैं। इसके बाद किसी घटना का चिंतन करें तो हम पाएंगे जो हो गया सो हो गया, अब हम क्यों उलझें। बेकार में उन बातों को क्यों सोचें जिनके बारे में कन्फर्म नहीं हैं। आपके भीतर भारीपन नहीं आएगा, दूसरों के प्रति सदाशयी रहेंगे और अपने आप में प्रसन्न रहेंगे।

ऐसे दूर करें कलह पति-पत्नी
कामकाजी महिलाओं को जितनी समस्याओं का सामना करना पड़ता है उतना पुरुषों को नहीं करना पड़ता यह तो तय है। एक पुरानी कहावत है, ‘औरत घर से निकली समझो हाथ से निकली।यहां दो बातें हैं- हाथ और घर। कहावत बनाने वाला घर को स्त्री के लिए सबसे सुरक्षित स्थान मानता होगा। हाथ का मतलब है नियंत्रण। इसी हाथ के नियंत्रण ने पुरुष को शोषक बनाया और स्त्री शोषित होती रहे ऐसी व्यवस्था दी।

शिक्षा का विस्तार हुआ और महिलाएं कामकाज के लिए घर से निकलने लगीं तब उनके जीवन में कुछ कलह के केंद्र बने। वैसे तो संसार की सबसे पहली कामकाजी महिला सीताजी थीं। वे पहली बार पति राम के साथ घर से निकली थीं। यदि वे घर से निकलीं तो क्या हाथ से निकल गईं, निरंकुश हो गईं? बस यही बात समझनी है। स्त्री का काम करना केवल आर्थिक दृष्टिकोण से न देखें। इसमें मूल्य और परंपरा बहुत गहराई से जुड़े हैं।

पहले कलह के केंद्र परिवार और खासकर सास-बहू हुआ करते थे, लेकिन अब कलह का केंद्र बदल गया है। ससुराल वालों ने अनुमति दी और माता-पिता ने भी बेटियों को काम करने से नहीं रोका तो कलह का केंद्र हो गए पति-पत्नी। दोनों का कामकाजी होना दोनों के धैर्य को खा रहा है, इसलिए कामकाजी महिलाएं उन तमाम सेवानिवृत्त महिलाओं से जानें कि कामकाजी दौर में उन्होंने परेशानियों से कैसे पार पाया।

वे अच्छे से जानती हैं कि उनके कामकाजी होने का क्या फायदा और क्या नुकसान रहा। ये बात यदि आज की महिलाएं उनसे शेयर करें तो हो सकता है उन्हें पति-पत्नी का कलह दूर करने में सुविधा होगी। यदि ऐसा नहीं किया तो यह कलह का केंद्र एक दिन माता-पिता और बच्चों में उतरेगा और उस दिन स्त्री का कामकाजी होना बच्चों के लिए महंगा साबित हो सकता है।

ज़िद को योग से जोड़ें, शुभ होगा
आजकल ज्यादातर माता-पिता यह शिकायत करते हैं कि बच्चे बहुत ज़िद्‌दी हो गए हैं। हमें ज़िद शब्द की परिभाषा ठीक से समझनी चाहिए। बिना विवेक के जो मांग की जाती है और उसकी पूर्ति तत्काल हो जाए, जब यह अति आग्रह होता है तो वह ज़िद है। बच्चों में विवेक की कमी होती है और मांगी गई वस्तु उसी समय चाहते हैं। न मिले तो ज़िद अपने एक्टिव रूप उपद्रव में बदल जाती है, लेकिन ज़िद यदि विवेक से जुड़े तो वह संकल्प में बदलती है। जिस ज़िद से हम बड़े लक्ष्य प्राप्त करते हैं उसके नीचे संकल्प काम कर रहा होता है।
तो अपरिपक्व संकल्प ज़िद है और परिपक्व ज़िद संकल्प। ज़िद करते बच्चों को पूरी तरह से नहीं नकारें, क्योंकि उस समय उनकी ऊर्जा भीतर उफान पर होती है। यदि इस ऊर्जा को ठीक से रूपांतरित कर दें तो वह संकल्प में बदल जाएगी, इसलिए बच्चों को सिखाएं और बड़े भी सीखें कि कुछ बातों का ध्यान रखें कि इससे हमारी कार्यक्षमता का विकास होगा या नहीं, हमारा चित्त जागरूक बनेगा या नहीं, ज़िद की पूर्ति के बाद शांति मिलेगी या नहीं और ज़िद के दौरान पैदा ऊर्जा से हमारे मस्तिष्क की तरंगें कैसे प्रभावित हुईं।
नहीं तो सिरदर्द या ब्रेन हेमरेज तक हो सकता है। आदमी डिप्रेशन में जा सकता है। बाहरी वस्तुओं को पाने की वृत्तियों को थोड़ा भीतर मोड़ें तो पाएंगे जिस सुख की तलाश में हम बाहर हैं वह भीतर भी है, बल्कि उससे अच्छी स्थिति में है। बाहर के सुख को नकारना नहीं है पर भीतर के सुख को भी न भूलें। बस, यहीं से ज़िद के साथ संकल्प जुड़ जाए तो आप जो पाना चाहते हैं उसके परिणाम में कभी अशांत नहीं होंगे। अपने भीतर उतरकर सुख को टटोलने का नाम योग है। तो ज़िद को योग से जोड़े रखिए, फिर देखिए आपके संकल्प आपको कितने शुभ परिणाम देंगे।

आलसी होकर बैठना संतोष नहीं है
कहा है कि संतोषी सदा सुखी। परंतु आज का युवा कहेगा कि यह तो जीवन ध्वस्त करने जैसी बात है। इस दौर में जिसने संतोष किया समझ लीजिए वह पिछड़ गया, इसलिए संतोष शब्द को ठीक से समझना होगा। मनुष्य के जीवन की खूबी यह है कि वह कुछ न कुछ देता रहता है, इसलिए हमारी अपेक्षाएं बढ़ जाती हैं। यहीं से असंतोष का जन्म होता है। इसका दूसरा नाम अशांति है, लेकिन कुछ लोगों ने इसे प्रगति नाम भी दिया है। जिससे मनुष्य आगे बढ़ता है, महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति करता है वह असंतोष नहीं, अति आग्रह है। यह तो तय है कि संतोषी व्यक्ति सुखी अवश्य होगा। संतोषी होना समझदारी है। अपनी सीमा को पहचानकर दूसरे से तुलना न करते हुए अपने आप को समर्थ बनाना संतोष है।
इस दुनिया में सभी अधूरे हैं। जिनके पास बहुत कुछ है वे भी कहीं न कहीं अधूरे हैं, इसलिए हम समझें कि सबको सब नहीं मिल जाता। इच्छा और आवश्यकता का अर्थ समझने पर ही जीवन में संतोष उतरता है। संतोष को कोई बेबसी न समझे इसलिए समझदारी से इसे स्वीकार कर लें। ध्यान रहें कि जीवन में जब भी संतोषी बनने का प्रयास करेंगे, आपका अहंकार बाधा पहुंचाएगा। अहंकार को दूसरों से आगे निकलना और अपने को छोटा न मानने में विशेष रुचि होती है। जिन्हें शांति की तलाश हो वे समझें कि संतोष की वृत्ति जीवन में परमात्मा पर भरोसा करने से बड़ी आसानी से उतरती है, क्योंकि जब हम ईश्वर पर भरोसा करते हैं तो एक बात दिल में उतर आती है कि हमारे परिश्रम का परिणाम वह हमारे लायक दे देगा और यही बात हमें संतोष की ओर ले जाती है। इसलिए संतोष का मतलब आलसी बनकर बैठ जाना नहीं है और असंतोष का मतलब प्रगति की राह पर चलना नहीं है। इसे ठीक से समझ लें तो शांति आसानी से मिल सकती है।

उत्साह हो तो काम अच्छा होता है
अगर किसी को कोई काम ठीक से समझाया जाए और वह उस काम के प्रति उत्साही हो, समर्पित हो तो काम बहुत अच्छे ढंग से निपटेगा। बात कर रहे हैं किष्किंधा कांड के उस प्रसंग की जिसमें सीताजी की खोज में सुग्रीव ने वानरों का दल भेजा था। सबसे पीछे खड़े हनुमानजी को देखकर श्रीराम ने एकांत में उनसे बात की थी। हमें इससे यह शिक्षा मिलती है कि किसी को काम सौंपते हुए क्या करना है, कैसे करना है और क्यों करना है, यह सब बहुत साफ तरीके से समझा दिया जाए। 

तुलसीदासजी ने चौपाई लिखी है - बहु प्रकार सीतहि समुझाएहु। कहि बल बिरह बेगि तुम्ह आएहु।। हनुमत जन्म सुफल करि माना। चलेउ हृदयं धरि कृपानिधाना।  श्रीराम ने कहा, ‘बहुत प्रकार से सीता को समझाना और मेरा बल तथा विरह (प्रेम) कहकर शीघ्र लौट आना। हनुमानजी ने अपना जन्म सफल समझा और कृपानिधान प्रभु को हृदय में धारण कर चले।

श्रीराम ने हनुमानजी से पहली बात कही कि सीता को समझाना है। जिस स्थिति में सीता होंगी, जो उनकी मानसिकता होगी उसमें सीधी बातचीत से काम नहीं चलेगा। उन्हें समझाना भी पड़ेगा। दूसरी बात कहते हैं मेरे बल की व्याख्या करना और जिस विरह में मैं डूबा हुआ हूं उसकी भी चर्चा करना। साथ ही सब काम करके शीघ्र लौट आना। हनुमानजी को जब यह कार्य सौंपा गया तो वे बहुत प्रसन्न हुए। आभार व्यक्त किया और भगवान को हृदय में रखकर चल दिए। हम कोई भी काम करें, उसके प्रति कृतज्ञता होनी चाहिए। काम को बोझ न मानें। परमात्मा को हृदय में रखने का अर्थ है ऐसी शक्ति को अपने से जोड़े रखें जो हमें निराशा से बचाए। इस दृश्य में हमने संदेश देने वाले की स्पष्टता देखी और काम करने के लिए जिन्होंने संदेश लिया उनकी प्रसन्नता व उत्साह की मानसिकता देखी। ये दोनों ही हमारे बड़े काम के हैं।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है....मनीष

Wednesday, June 22, 2016

कुण्डलिनी-साधना ( Kundalini Sadhana )


कुण्डलिनी शक्ति क्या है?
योग कुण्डल्युपनिषद् में कुण्डलिनी का वर्णन इस तरह किया गया है- ´कुण्डले अस्या´ स्त: इति: कुण्डलिनी। दो कुण्डल वाली होने के कारण पिण्डस्थ उस शक्ति प्रवाह को कुण्डलिनी कहते हैं। दो कुण्डल अर्थात इड़ा और पिंगला। बाईं ओर से बहने वाली नाड़ी को ´इड़ा´ और दाहिनी ओर से बहने वाली नाड़ी को ´पिगला´ कहते हैं। इन दोनों नाडियों के बीच जिसका प्रवाह होता है, उसे सुषुम्ना नाड़ी कहते हैं। इस सुषुम्ना नाड़ी के साथ और भी नाड़ियां होती है। जिसमें एक चित्रणी नाम की नाड़ी भी होती है। इस चित्रणी नाम की नाड़ी में से होकर कुण्डलिनी शक्ति प्रवाहित होती है, इसलिए सुषुम्ना नाड़ी की दोनों ओर से बहने वाली उपयुक्त 2 नाड़ियां ही कुण्डलिनी शक्ति के 2 कुण्डल हैं।

कुण्डलिनी यज्ञ का विशेष वर्णन करते हुए मुण्डकोपनिषद के २/१/८ संदर्भ में कहा गया है-
 ''सत्तप्राणी उसी से उत्पन्न हुए । अग्नि की सात ज्वालाएँ उसी से प्रकट हुईं । यही सप्त समिधाएँ हैं, यही सात हवि हैं । इनकी ऊर्जा उन सात लोकों तक जाती जिनका सृजन परमेश्वर ने उच्च प्रयोजनों के लिए किया गया है ।''

उपनिषद् में कुण्डलिनी शक्ति के स्वरूप का वर्णन-
मूलाधारस्य वहवयात्म तेजोमध्ये व्यवस्थिता।
जीवशक्ति: कुण्डलाख्या प्राणाकारण तैजसी।।

अर्थात कुण्डलिनी मूलाधार चक्र में स्थित आत्माग्नी तेज के मध्य में स्थित है। वह जीवनी शक्ति है। तेज और प्राणाकार है।

कुण्डलिनी शक्ति का ज्ञानार्णव तंत्र में वर्णन इस प्रकार किया गया है-
मूलाधारे मूलविद्दया विद्युत्कोटि समप्रभासम्।
सूर्यकटि प्रतीकाशां चन्द्रकोटि द्रवां प्रिये।।

अर्थात मूलाधार चक्र में विद्युत प्रकाश ही करोड़ों किरणों वाला, करोड़ों सूर्यो और चन्द्रमाओं के प्रकाश के समान, कमल की डण्डी के समान अविच्छिन्न तीन घेरे डाले हुए मूल विद्या रूपिणी कुण्डलिनी स्थित है। वह कुण्डलिनी परम प्रकाशमय है, अविच्छिन्न शक्तिधारा है और तेजोधारा है।

घेरण्ड संहिता के अनुसार-
घेरण्ड संहिता में कुण्डलिनी को ही आत्मशक्ति या दिव्य शक्ति व परम देवता कहा गया है।

मूलाधारे आत्मशक्ति: कुण्डली परदेवता।
शमिता भुजगाकारा, सार्धत्रिबलयान्विता।।

अर्थात मूलाधार में परम देवी आत्माशक्ति कुण्डलिनी तीन बलय वाली सर्पिणी के समान कुण्डल मारकर सो रही है।

महाकुण्डलिनी प्रोक्त: परब्रह्म स्वरूपिणी।
शब्दब्रह्ममयी देवी एकाऽनेकाक्षराकृति:।।

अर्थात कुण्डलिनी शक्ति परम ब्रह्मा स्वरूपिणी, महादेवी, प्राण स्वरूपिणी तथा एक और अनेक अक्षरों के मंत्रों की आकृति में माला के समान जुड़ी हुई बतायी जाती है।

कन्दोर्ध्व कुण्डली शक्ति: सुप्ता मोक्षाय योगिनाम्।
बन्धनाय च मूढ़ानां यस्तां वेति से योगिवित्।।

अर्थात कन्द के ऊपर कुण्डलिनी शक्ति अवस्थित है। यह कुण्डलिनी शक्ति सोई हुई अवस्था में होती है। इस कुण्डलिनी शक्ति के द्वारा ही योगिजनों को मोक्ष प्राप्त होता है। सुख के बन्धन का कारण भी कुण्डलिनी है। जो कुण्डलिनी शक्ति को अनुभाव पूर्ण रूप से कर पाता है, वही सच्चा योगी होता है।

सप्त लोकों का देवी भागवत में अन्य प्रकार से उल्लेख हुआ है-
उसमें भूः में धरित्री भुवः में वायु स्वः में तेजस महः में महानता, जनः में जनसमुदाय, तपः में तपश्चर्या एवं सत्य में सिद्धवाण्-वाक सिद्धि रूप सात शक्तियाँ समाहित बतायी गयी हैं ।

इस प्रकार कुण्डलिनी योग के अंतर्गत चक्र समुदाय में वह सभी कुछ आ जाता है, जिसकी कि भौतिक और आत्मिक प्रयोजनों के लिए आवश्यकता पड़ती है ।

मानवी काया को एक प्रकार से भूलोक के समान माना गया है। इसमें अवस्थित मूलाधार चक्र को पृथ्वी की तथा सहस्रार को सूर्य की उपमा दी गई है । दोनों के बीच चलने वाले आदान-प्रदान माध्यम को मेरुदण्ड कहा गया है । ब्रह्मरंध्र ब्रह्मण्ड का प्रतीक है । ठीक इसी प्रकार सहस्रार लोक ब्रह्मण्डीय चेतना का अवतरण केन्द्र है और इस महान् भण्डागार में से मूलाधार को जिस कार्य के लिए जितनी मात्रा में जिस स्तर की शक्ति कि आवश्यक्ता होती है उसकी पूर्ति लगातार होती रहती है ।

कुण्डलिनी प्रसंग योग वशिष्ठ, योग चूड़ामणि, देवी भवगत्, शारदा तिलक, शान्डिल्योसपनिषद मुक्ति-कोपनिषद, हठयोग संहिता, कुलार्णन तंत्र, योगिनी तंत्र बिन्दूपनिषद, रुद्र यामल तंत्र सौन्दर्य लहरी आदि गंथों में विस्तार पूर्वक दिया गया है ।

यही कारण है कि ऋग्वेद में ऋषि कहते हैं-
हे ''प्राणाग्नि! मेरे जीवन में ऊषा बनकर प्रकटों अज्ञान का अंधकार दूर करों, ऐसा बल प्रदान करो जिससे देव शक्तियाँ खिंची चली आएँ ।''

त्रिशिखिब्रहोपनिषद में शास्त्रकार ने कहा है-
''योग साधना द्वारा जगाई हुई कुण्डलिनी बिजली के समान लडपती और चमकती है । उससे जो है, सोया सा जागता है । जो जागता है, वह दौड़ने लगता है ।''

महामंत्र में वर्णन आता है-
''जाग्रत हुई कुण्डलिनी असीम शक्ति का प्रसव करती है । उससे नाद बिन्दू, कला के तीनों अभ्यास स्वयंमेव सध जाते हैं । परा, पश्यन्ति, मध्यमा और बैखरी चारों वाणियाँ मुखर हो उठती हैं । इच्छा शक्ति, ज्ञान शक्ति और क्रिया शक्ति में उभार आता है । शरीर-वीणा के सभी तार क्रमबद्ध हो जाते हैं और मधुर ध्वनि में बजते हुए अन्तराल को झंकृत करते हैं । शब्दब्रह्म की यह सिद्धि मनुष्य को जीवनमुक्त कर देवात्मा बना देती है । ''

शरीर में कुण्डलिनी की अवस्था
जननेन्द्रिय के मूल में या लिंग उपस्थ में नाड़ियों का एक गुच्छा है। योग शास्त्रों में इसी को “कन्द” कहा जाता है। इसी पर कुण्डलिनी गहरी नींद में जन्म-जन्मान्तर से सो रही होती है।

कुण्डलो कुटिलाकारा सर्पवत् परिकीर्तिता।
सा शक्तिश्चालिता येन, स युक्तों नात्र संशय।।

अर्थात कुण्डलिनी को सर्प के आकार की कुटिल कहा गया है। जिस तरह सांप कुण्डली मारकर सोता है, उसी प्रकार कुण्डलिनी शक्ति भी आदिकाल से ही मनुष्य के अन्दर सोई हुई रहती है।

यावत्सा निद्रिता देहे तावज्जीव: पयुयेथा।
ज्ञान न जायते तावत् कोटि योगविधेरपि।।

अर्थात जब तक कुण्डलिनी शक्ति मनुष्य के अन्दर सोई हुई अवस्था में रहती है, तब तक मनुष्य परिस्थिति के अधीन रहता है। ऐसे व्यक्ति का आचरण पशुओं के समान होता है। ऐसे व्यक्ति दीन-हीन जीवन यापन करते हैं, तथा उनका रहन-सहन, भावों और विचारों, आहार-विहार आदि में आत्म विश्वास, धैर्य, सूझ-बूझ, उमंग, उत्साह, उल्लास, दृढ़ता, स्थिरता, एकाग्रता, कार्य कुशलता, उदारता और हृदय विशालता जैसे गुणों का अभाव होता है। ऐसे व्यक्ति अनेक योग साधना, पूजा-पाठ आदि करके भी अपने ब्रह्माज्ञान विवेक को प्राप्त नहीं कर पाता।

मूलाधारे प्रसुप्त साऽऽमशक्ति उन्न्द्रिता-
विशुद्धे तिष्ठति मुक्तिरूपा पराशक्ति:।

अर्थात वह प्रबल आत्मशक्ति मूलाधार में सो रही है। उसका प्रयोग किसी बड़े या चमत्कारी कार्य में न होने से वह अपमानित व्यक्ति की तरह शिथिल और गतिहीन बनी हुई है। व्यक्ति के अन्दर जागी हुई इच्छाशक्ति के महान उद्देश्यों की पूर्ति में नियोजित वही शक्ति पराशक्ति के रूप में विराजती है।

कुण्डलिनी जागृत करने का कारण
शरीर के अन्दर कुण्डलिनी शक्ति का जागरण होने से शरीर के अन्दर मौजूद दूषित कफ, पित्त, वात आदि से उत्पन्न होने वाले विकार नष्ट हो जाते हैं। इसके जागरण से मनुष्य के अन्दर काम, क्रोध, लोभ, मोह जैसे दोष, आदि खत्म हो जाते हैं। इस शक्ति का जागरण होने से यह अपनी सोई हुई अवस्था को त्याग कर सीधी हो जाती है और विद्युत तरंग के समान कम्पन के साथ इड़ा, पिंगला नाड़ियों को छोड़कर सुषुम्ना से होते हुए मस्तिष्क में पहुंच जाती है।

कुण्डल्येव भवेच्छक्तिस्तां तु सचालयेत बुध:।
स्पश्यनादाभ्रवोर्मध्य, शक्तिचालनमुच्चते।।

अर्थात अपने अन्दर आंतरिक ज्ञान व अत्याधिक शक्ति की प्राप्ति के लिए सभी मनुष्यों को चाहिए कि वह अपने अन्दर सोई हुई कुण्डलिनी (आत्मशक्ति) का जागरण करें, उसे कार्यशील बनाएं! प्राणायाम के द्वारा जब मूलाधार से स्फूर्ति तरंग की तरह ऊर्जा शक्ति उठकर मस्तिष्क में आती हुई महसूस होने लगे तो समझना चाहिए कि कुण्डलिनी शक्ति जागृत हो चुकी है।

ज्ञेया शक्तिरियं विश्नोनिर्भया स्वर्णभ: स्वरा।

अर्थात शरीर में उत्पन्न होने वाली इस कुण्डलिनी शक्ति को स्वर्ण के समान सुन्दर विष्णु की निर्भय शक्ति ही समझना चाहिए। यही शक्ति आत्मशक्ति, जीवशक्ति आदि नाम से भी जाना जाता है। यही ईश्वरीय शक्ति भी है, प्राणशक्ति और कुण्डलिनी शक्ति भी है। मनुष्य के शरीर में मौजूद कुण्डलिनी शक्ति और पारलौकिक शक्ति दोनों एक ही शक्ति के अलग-अलग रूप हैं।

पतांजलि द्वारा रचित ´योग दर्शन´ शास्त्र के अनुसार-
पतांजलि द्वारा रचित ´योग दर्शन´ शास्त्र के साधनापद में कुण्डलिनी शक्ति के जागरण के अनेकों उपाय बताए गए है। मंत्र ग्रन्थों में जितने योगों का वर्णन है, वे सभी कुण्डलिनी जागरण की ही साधना है। महाबन्ध, महावेध, महामुद्रा, खेचरी मुद्रा, विपरीत करणी मद्रा, अश्विनी मुद्रा, योनि मुद्रा, शक्ति चालिनी मुद्रा, आदि कुण्डलिनी जागरण में सहायता करते हैं। इसमें प्राणायाम के द्वारा कुण्डलिनी को जागरण करना और उसे सुषुम्ना में लाना कुण्डलिनी जागरण का सबसे अच्छा उपाय है। प्राणायाम के द्वारा कुछ समय में ही कुण्डलिनी शक्ति का जागरण कर उसके लाभों को प्राप्त किया जा सकता है।

प्राणायाम से केवल कुण्डलिनी शक्ति ही जागृत ही नहीं होती बल्कि इससे अनेकों लाभ भी प्राप्त होते हैं। ´योग दर्शन´ के अनुसार प्राणायाम के अभ्यास से ज्ञान पर पड़ा हुआ अज्ञान का पर्दा नष्ट हो जाता है। इससे मनुष्य भ्रम, भय, चिंता, असमंजस्य, मूल धारणाएं और अविद्या व अन्धविश्वास आदि नष्ट होकर ज्ञान, अच्छे संस्कार, प्रतिभा, बुद्धि-विवेक आदि का विकास होने लगता है। इस साधना के द्वारा मनुष्य अपने मन को जहां चाहे वहां लगा सकता है। प्राणायाम के द्वारा मन नियंत्रण में रहता है। इससे शरीर, प्राण व मन के सभी विकार नष्ट हो जाते हैं। इससे शारीरिक क्षमता व शक्ति का विकास होता है। प्राणायाम के द्वारा प्राण व मन को वश में करने से ही व्यक्ति आश्चर्यजनक कार्य को कर सकने में समर्थ होता है। प्राणायाम आयु को बढ़ाने वाला, रोगों को दूर करने वाला, वात-पित्त-कफ के विकारों को नष्ट करने वाला होता है। यह मनुष्य के अन्दर ओज-तेज और आकर्षण को बढ़ाता है। यह शरीर में स्फूर्ति, लचक, कोमल, शांति और सुदृढ़ता लाता है। यह रक्त को शुद्ध करने वाला है, चर्म रोग नाशक है। यह जठराग्नि को बढ़ाने वाला, वीर्य दोष को नष्ट करने वाला होता है।

प्राणायाम के द्वारा वीर्य और प्राण के ऊर्ध्वगमन से बुद्धि तंत्र के बन्द कोष खुलते है, साथ ही शरीर की नस-नस में अत्यंत शक्ति, साहस का संचार होने से क्रियाशीलता का विकास भी होता है।

कुंडलिनी जागरण का अर्थ है
मनुष्य को प्राप्त महानशक्ति को जाग्रत करना। यह शक्ति सभी मनुष्यों में सुप्त पड़ी रहती है। कुण्डली शक्ति उस ऊर्जा का नाम है जो हर मनुष्य में जन्मजात पायी जाती है। इसे जगाने के लिए प्रयास या साधना करनी पड़ती है।

कुंडली जागरण के लिए साधक को शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक स्तर पर साधना या प्रयास करना पड़ता है। जप, तप, व्रत-उपवास, पूजा-पाठ, योग आदि के माध्यम से साधक अपनी शारीरिक एवं मानसिक, अशुद्धियों, कमियों और बुराइयों को दूर कर सोई पड़ी शक्तियों को जगाता है। अत: हम कह सकते हैं कि विभिन्न उपायों से अपनी अज्ञात, गुप्त एवं सोई पड़ी शक्तियों का जागरण ही कुंडली जागरण है।

योग और अध्यात्म में इस कुंडलीनी शक्ति का निवास रीढ़ की हड्डी के समानांतर स्थित छ: चक्रों में से प्रथम चक्र मूलाधार के नीचे माना गया है। यह रीढ की हड्डी के आखिरी हिस्से के चारों ओर साढे तीन आँटे लगाकर कुण्डली मारे सोए हुए सांप की तरह सोई रहती है।

आध्यात्मिक भाषा में इन्हें षट्-चक्र कहते हैं।

ये चक्र क्रमश:
इस प्रकार है:- मूलधार-चक्र, स्वाधिष्ठान-चक्र, मणिपुर-चक्र, अनाहत-चक्र, विशुद्ध-चक्र, आज्ञा-चक्र। साधक क्रमश: एक-एक चक्र को जाग्रत करते हुए, आज्ञा-चक्र तक पहुंचता है। मूलाधार-चक्र से प्रारंभ होकर आज्ञाचक्र तक की सफलतम यात्रा ही कुण्डलिनी जागरण कहलाता है।

षट्-चक्र एक प्रकार की सूक्ष्म ग्रंथियां है। इन चक्र ग्रंथियों में जब साधक अपने ध्यान को एकाग्र करता है तो उसे वहां की सूक्ष्म स्थिति का बड़ा विचित्र अनुभव होता है। इन चक्रों में विविध शक्तियां समाहित होती है। उत्पादन, पोषण, संहार, ज्ञान, समृद्धि, बल आदि। साधक जप के द्वारा ध्वनि तरंगों को चक्रों तक भेजता है। इन पर ध्यान एकाग्र करता है। प्राणायम द्वारा चक्रों को उत्तेजित करता है। आसनों द्वारा शरीर को इसके लिए उपयुक्त बनाता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि विभिन्न शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक प्रयासों के द्वारा साधक, शक्ति के केंद्र इन चक्रों को जाग्रत करता है।

वैदिक ग्रन्थों में लिखा है कि मानव शरीर आत्मा का भौतिक घर मात्र है। आत्मा सात प्रकार के कोषों से ढकी हुई हैः- १- अन्नमय कोष (द्रव्य, भौतिक शरीर के रूप में जो भोजन करने से स्थिर रहता है), २- प्राणामय कोष (जीवन शक्ति), ३- मनोमय कोष (मस्तिष्क जो स्पष्टतः बुद्धि से भिन्न है), ४- विज्ञानमय कोष (बुद्धिमत्ता), ५- आनन्दमय कोष (आनन्द या अक्षय आनन्द जो शरीर या दिमाग से सम्बन्धित नहीं होता), ६- चित्-मय कोष (आध्यात्मिक बुद्धिमत्ता) तथा ७- सत्-मय कोष (अन्तिम अवस्था जो अनन्त के साथ मिल जाती है)। मनुष्य के आध्यात्मिक रूप से पूर्ण विकसित होने के लिये सातों कोषों का पूर्ण विकास होना अति आवश्यक है।

साधक की कुण्डलिनी जब चेतन होकर सहस्त्रार में लय हो जाती है, तो इसी को मोक्ष कहा गया है।

कुण्डलिनी योग के अंतर्गत शक्तिपात विधान का वर्णन अनेक ग्रंथों में मिलता है जैसे-
योग वशिष्ठ, तेजबिन्दूनिषद्, योग चूड़ामणि, ज्ञान संकलिनी तंत्र, शिव पुराण, देवी भागवत, शाण्डिपनिषद, मुक्तिकोपनिषद, हठयोग संहिता, कुलार्णव तंत्र, योगनी तंत्र, घेरंड संहिता, कंठ श्रुति ध्यान बिन्दूपनिषद, रुद्र यामल तंत्र, योग कुण्डलिनी उपनिषद्, शारदा तिलक आदि ग्रंथों में इस विद्या के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डाला गया है ।

तैत्तरीय आरण्यक में चक्रों को देवलोक एवं देव संस्थान कहा गया । शंकराचार्य कृत आनन्द लहरी के १७ वें श्लोक में भी ऐसा ही प्रतिपादन है ।

योग दर्शन समाधिपाद का ३६वाँ सूत्र है-
'विशोकाया ज्योतिष्मती'
इसमें शोक संतापों का हरण करने वाली ज्योति शक्ति के रूप में कुण्डलिनी शक्ति की ओर संकेत है।

हमारे ऋषियों ने गहन शोध के बाद इस सिद्धान्त को स्वीकार किया कि जो ब्रह्माण्ड में है, वही सब कुछ पिण्ड (शरीर) में है। इस प्रकार “मूलाधार-चक्र” से “कण्ठ पर्यन्त” तक का जगत “माया” का और “कण्ठ” से लेकर ऊपर का जगत “परब्रह्म” का है।

मूलाद्धाराद्धि षट्चक्रं शक्तिरथानमूदीरतम् ।
कण्ठादुपरि मूर्द्धान्तं शाम्भव स्थानमुच्यते॥ -वराहश्रुति

अर्थात मूलाधार से कण्ठपर्यन्त शक्ति का स्थान है । कण्ठ से ऊपर से मस्तक तक शाम्भव स्थान है ।

मूलाधार से सहस्रार तक की यात्रा को ही महायात्रा कहते हैं । योगी इसी मार्ग को पूरा करते हुए परम लक्ष्य तक पहुँचते हैं । जीव, सत्ता, प्राण, शक्ति का निवास जननेन्द्रिय मूल में है । प्राण उसी भूमि में रहने वाले रज वीर्य से उत्पन्न होते हैं । ब्रह्म सत्ता का निवास ब्रह्मलोक (ब्रह्मरन्ध्र) में माना गया है । यही द्युलोक, देवलोक, स्वर्गलोक है। आत्मज्ञान (ब्रह्मज्ञान) का सूर्य इसी लोक में निवास करता है ।

पतन के गर्त में पड़ी क्षत-विक्षत आत्म सत्ता अब उर्ध्वगामी होती है तो उसका लक्ष्य इसी ब्रह्मलोक (सूर्यलोक) तक पहुँचना होता है । योगाभ्यास का परम पुरुषार्थ इसी निमित्त किया जाता है । कुण्डलिनी जागरण का उद्देश्य यही है ।

आत्मोत्कर्ष की महायात्रा जिस मार्ग से होती है उसे मेरुदण्ड या सुषुम्ना कहते हैं ।

मेरुदण्ड को राजमार्ग या महामार्ग कहते हैं । इसे धरती से स्वर्ग पहुँचने का देवयान मार्ग कहा गया है । इस यात्रा के मध्य में सात लोक हैं । इस्लाम धर्म के सातवें आसमान पर खुदा का निवास माना गया है । ईसाई धर्म में भी इससे मिलती-जुलती मान्यता है । हिन्दू धर्म के भूः, भुवः, स्वः, तपः, महः, सत्यम् यह सात-लोक प्रसिद्ध है । आत्मा और परमात्मा के मध्य इन्हें विराम स्थल माना गया है ।

षट्-चक्र-भेदन-
षट्-चक्र-भेदन विधान कितना उपयोगी एवं सहायक है इसकी चर्चा करते हुए ‘आत्म विवेक’ नामक साधना ग्रंथ में कहा गया है कि-
गुदालिङान्तरे चक्रमाधारं तु चतुर्दलम्।
परमः सहजस्तद्वदानन्दो वीरपूर्वकः॥
योगानन्दश्च तस्य स्यादीशानादिदले फलम्।
स्वाधिष्ठानं लिंगमूले षट्पत्रञ्त्र् क्रमस्य तु॥
पूर्वादिषु दलेष्वाहुः फलान्येतान्यनुक्रमात्।
प्रश्रयः क्रूरता गर्वों नाशो मूच्छर् ततः परम्॥
अवज्ञा स्यादविश्वासो जीवस्य चरतो ध्रुरवम्।
नाभौ दशदलं चक्रं मणिपूरकसंज्ञकम्।
सुषुप्तिरत्र तृष्णा स्यादीष्र्या पिशुनता तथा॥
लज्ज् भयं घृणा मोहः कषायोऽथ विषादिता।
लौन्यं प्रनाशः कपटं वितर्कोऽप्यनुपिता॥
आश्शा प्रकाशश्चिन्ता च समीहा ममता ततः।
क्रमेण दम्भोवैकल्यं विवकोऽहंक्वतिस्तथा॥
फलान्येतानि पूर्वादिदस्थस्यात्मनों जगुः।
कण्ठेऽस्ति भारतीस्थानं विशुद्धिः षोडशच्छदम्॥
तत्र प्रणव उद्गीथो हुँ फट् वषट् स्वधा तथा।
स्वाहा नमोऽमृतं सप्त स्वराः षड्जादयो विष॥
इति पूर्वादिपत्रस्थे फलान्यात्मनि षोडश॥

(1) गुदा और लिंग के बीच चार दल (पंखुड़ियों) वाला ‘आधार चक्र’ है। वहाँ वीरता और आनन्द भाव का वास है।

(2) इसके बाद स्वाधिष्ठान-चक्र लिंग मूल में है। इसके छः दल हैं। इसके जाग्रत होने पर क्रूरता, गर्व, आलस्य, प्रमाद, अवज्ञा, अविश्वास आदि दुर्गणों का नाश होता है।

चक्रों की जागृति मनुष्य के गुण, कर्म, स्वभाव को प्रभावित करती है। स्वाधिष्ठान की जागृति से मनुष्य अपने में नव शक्ति का संचार अनुभव करता है। उसे बलिष्ठता बढ़ती प्रतीत होती है। श्रम में उत्साह और गति में स्फूर्ति की अभिवृद्धि का आभास मिलता है।

(3) नाभि में दस दल वाला मणिपूर-चक्र है। यह प्रसुप्त पड़ा रहे तो तृष्णा, ईर्ष्या, चुगली, लज्जा, भय, घृणा, मोह, आदि कषाय-कल्मष मन में जड़ जमाये रहते हैं।

मणिपूर चक्र से साहस और उत्साह की मात्रा बढ़ जाती है। संकल्प दृढ़ होते हैं और पराक्रम करने के हौसले उठते हैं। मनोविकार स्वयंमेव घटते जाते हैं और परमार्थ प्रयोजनों में अपेक्षाकृत अधिक रस मिलने लगता है।

(4) हृदय स्थान में अनाहत-चक्र है। यह बारह दल वाला है। यह सोता रहे तो लिप्सा, कपट, तोड़-फोड़, कुतर्क, चिन्ता, मोह, दम्भ, अविवेक तथा अहंकार से साधक भरा रहेगा। इसके जागरण होने पर यह सब दुर्गुण हट जायेंगे।

अनाहत चक्र की महिमा ईसाई धर्म में सबसे ज्यादा मानी जाती है। हृदय स्थान पर कमल के फूल की भावना करते हैं और उसे महाप्रभु ईसा का प्रतीक ‘आईचीन’ कनक कमल मानते हैं। भारतीय योगियों की दृष्टि से यह भाव संस्थान है। कलात्मक उमंगें-रसानुभुति एवं कोमल संवेदनाओं का उत्पादक स्रोत यही है। बुद्धि की वह परत जिसे विवेक-शीलता कहते हैं। आत्मीयता का विस्तार, सहानुभूति एवं उदार सेवा, सहाकारिता, इस अनाहत चक्र से ही उद्भूत होते हैं।

(5) कण्ठ में विशुद्ध-चक्र है। यह सरस्वती का स्थान है। यह सोलह दल वाला है। यहाँ सोलह कलाएँ तथा सोलह विभूतियाँ विद्यमान है।

कण्ठ में विशुद्ध चक्र है। इसमें बहिरंग स्वच्छता और अंतरंग पवित्रता के तत्त्व रहते हैं। दोष व दुर्गुणों के निराकरण की प्रेरणा और तदनुरूप संघर्ष क्षमता यहीं से उत्पन्न होती है। मेरुदण्ड में कंठ की सीध पर अवस्थित विशुद्ध चक्र, चित्त संस्थान को प्रभावित करता है। तदनुसार चेतना की अति महत्वपूर्ण परतों पर नियंत्रण करने और विकसित एवं परिष्कृत कर सकने के सूत्र हाथ में आ जाते हैं। नादयोग के माध्यम से दिव्य श्रवण जैसी कितनी ही परोक्षानुभूतियाँ विकसित होने लगती हैं।

(6) भ्रू-मध्य में आज्ञा चक्र है। यहाँ- ॐ, उद्गीय, हूँ, फट, विषद, स्वधा, स्वहा, सप्त स्वर आदि का वास है। आज्ञा चक्र के जागरण होने से यह सभी शक्तियाँ जाग जाती हैं।

(7) सहस्रार मस्तिष्क के मध्य भाग में है। शरीर संरचना में इस स्थान पर अनेक महत्वपूर्ण ग्रंथियों का अस्तित्व है। वहाँ से ऊर्जा का स्वयंभू प्रवाह होता है। यह ऊर्जा मस्तिष्क के अगणित केन्द्रों की ओर जाती/दौड़ती हैं। इसमें से छोटी-छोटी किरणे निकलती रहती हैं। उनकी संख्या की सही गणना तो नहीं हो सकती, पर वे हजारों में होती है। इसलिए इस चक्र के लिये ‘सहस्रार’ शब्द प्रयोग में लाया जाता है। सहस्रार चक्र का नामकरण इसी आधार पर हुआ है।

यह संस्थान ब्रह्माण्डीय चेतना के साथ सम्पर्क साधने में अग्रणी है, इसलिए उसे ब्रह्मरन्ध्र या ब्रह्मलोक भी कहते हैं। हिन्दू धर्मानुयायी इस स्थान पर शिखा रखते हैं।

कबीर साहिब ने अपनी निम्नलिखित प्रसिद्ध रचना ‘कर नैनों दीदार महल में प्यारा है’ में सब कमलों का वर्णन विस्तार पूर्वक इस प्रकार किया है-
कर नैनो दीदार महल में प्यारा है ॥टेक॥
काम क्रोध मद लोभ बिसारो, सील संतोष छिमा सत धारो ।
मद्य मांस मिथ्या तजि डारो, हो ज्ञान घोड़े असवार, भरम से न्यारा है ॥1॥
धोती नेती वस्ती पाओ, आसन पद्म जुगत से लाओ ।
कुंभक कर रेचक करवाओ, पहिले मूल सुधार कारज हो सारा है ॥2॥
मूल कँवल दल चतुर बखानो, कलिंग जाप लाल रंग मानो ।
देव गनेस तह रोपा थानो, रिध सिध चँवर ढुलारा है ॥3॥
स्वाद चक्र षट्दल बिस्तारो, ब्रह्मा सावित्री रूप निहारो ।
उलटि नागिनी का सिर मारो, तहां शब्द ओंकारा है ॥4॥
नाभी अष्टकँवल दल साजा, सेत सिंहासन बिस्नु बिराजा ।
हिरिंग जाप तासु मुख गाजा, लछमी सिव आधारा है ॥5॥
द्वादस कँवल हृदय के माहीं, जंग गौर सिव ध्यान लगाई ।
सोहं शब्द तहां धुन छाई, गन करै जैजैकारा है ॥6॥
षोड़श दल कँवल कंठ के माहीं, तेहि मध बसे अविद्या बाई ।
हरि हर ब्रह्मा चँवर ढुराई, जहं शारिंग नाम उचारा है ॥7॥
ता पर कंज कँवल है भाई, बग भौरा दुह रूप लखाई ।
निज मन करत तहां ठुकराई, सौ नैनन पिछवारा है ॥8॥
कंवलन भेद किया निर्वारा, यह सब रचना पिण्ड मंझारा ।
सतसंग कर सतगुरु सिर धारा, वह सतनाम उचारा है ॥9॥
आंख कान मुख बंद कराओ अनहद झिंगा सब्द सुनाओ ।
दोनों तिल इकतार मिलाओ, तब देखो गुलजारा है ॥10॥
चंद सूर एकै घर लाओ, सुषमन सेती ध्यान लगाओ ।
तिरबेनी के संघ समाओ, भोर उतर चल पारा है ॥11॥
घंटा संख सुनो धुन दोई सहस कँवल दल जगमग होई ।
ता मध करता निरखो सोई, बंकनाल धस पारा है ॥12॥
डाकिन साकिनी बहु किलकारें, जम किंकर धर्म दूत हकारें ।
सत्तनाम सुन भागें सारे, जब सतगुरु नाम उचारा है ॥13॥
गगन मंडल विच उर्धमुख कुइआ, गुरुमुख साधू भर भर पीया ।
निगुरे प्यास मरे बिन कीया, जा के हिये अंधियारा है ॥14॥
त्रिकुटी महल में विद्या सारा, घनहर गरजें बजे नगारा ।
लाला बरन सूरज उजियारा, चतुर कंवल मंझार सब्द ओंकारा है ॥15॥
साध सोई जिन यह गढ़ लीना, नौ दरवाजे परगट चीन्हा ।
दसवां खोल जाय जिन दीन्हा, जहां कुंफुल रहा मारा है ॥16॥
आगे सेत सुन्न है भाई, मानसरोवर पैठि अन्हाई ।
हंसन मिल हंसा होइ जाई, मिलै जो अमी अहारा है ॥17॥
किंगरी सारंग बजै सितारा, अच्छर ब्रह्म सुन्न दरबारा ।
द्वादस भानु हंस उजियारा, खट दल कंवल मंझार सब्द रारंकारा है ॥18॥
महासुन्न सिंध बिषमी घाटी, बिन सतगुर पावै नाही बाटी ।
ब्याघर सिंह सरप बहु काटी, तहं सहज अचिंत पसारा है ॥19॥
अष्ट दल कंवल पारब्रह्म भाई, दाहिने द्वादस अचिंत रहाई ।
बायें दस दल सहज समाई, यूं कंवलन निरवारा है ॥20॥
पांच ब्रह्म पांचों अंड बीनो, पांच ब्रह्म निःअक्षर चीन्हो ।
चार मुकाम गुप्त तहं कीन्हो, जा मध बंदीवान पुरुष दरबारा है ॥21॥
दो पर्बत के संध निहारो, भंवर गुफा ते संत पुकारो ।
हंसा करते केल अपारो, तहां गुरन दरबारा है ॥22॥
सहस अठासी दीप रचाये, हीरे पन्ने महल जड़ाये ।
मुरली बजत अखंड सदाये, तहं सोहं झुनकारा है ॥23॥
सोहं हद्द तजी जब भाई, सत्त लोक की हद पुनि आई ।
उठत सुगंध महा अधिकाई, जा को वार न पारा है ॥24॥
षोड़स भानु हंस को रूपा, बीना सत धुन बजै अनूपा ।
हंसा करत चंवर सिर भूपा, सत्त पुरुष दरबारा है ॥25॥
कोटिन भानु उदय जो होई, एते ही पुनि चंद्र लखोई ।
पुरुष रोम सम एक न होई, ऐसा पुरुष दीदारा है ॥26॥
आगे अलख लोक है भाई, अलख पुरुष की तहं ठकुराई ।
अरबन सूर रोम सम नाहीं, ऐसा अलख निहारा है ॥27॥
ता पर अगम महल इक साजा, अगम पुरुष ताहि को राजा ।
खरबन सूर रोम इक लाजा, ऐसा अगम अपारा है ॥28॥
ता पर अकह लोक हैं भाई, पुरुष अनामी तहां रहाई ।
जो पहुँचा जानेगा वाही, कहन सुनन से न्यारा है ॥29॥
काया भेद किया निर्बारा, यह सब रचना पिंड मंझारा ।
माया अवगति जाल पसारा, सो कारीगर भारा है ॥30॥
आदि माया कीन्ही चतुराई, झूठी बाजी पिंड दिखाई ।
अवगति रचन रची अंड माहीं, ता का प्रतिबिंब डारा है ॥31॥
सब्द बिहंगम चाल हमारी, कहैं कबीर सतगुर दइ तारी ।
खुले कपाट सब्द झुनकारी, पिंड अंड के पार सो देस हमारा है ॥32॥

कुण्डलिनी शक्ति 
अभी तक हमने जितना समझा है, वह सब शास्त्रों के अनुसार समझा है कि कुण्डलिनी शक्ति क्या है और कैसे काम करती है। अब अपनी बात कुण्डलनी शक्ति इन्सान के शरीर में उस परमात्मा द्वारा दी गई समस्त शक्तियों में से सबसे ज्यादा शक्तिशाली एवं अति गुप्त विद्या है। कुण्डलिनी शक्ति के ऊपर प्रारम्भ से ही अनेको बार, अनेको व्याखायें दी जा चुकी है। तथा अनेको बार इसके ऊपर शास्त्रार्थ हो चुका है। आज के समय में साधकों का सम्प्रदाय दो हिस्सों में बट चुका है। जो साधक संत मत को मानते हैं, वे कुण्डलिनी शक्ति से दूर रहते है, अर्थात कुण्डलनी शक्ति को जगाना और इसके बारे में जानना वो आवश्यक नहीं समझते। उनके अनुसार आज्ञा चक्र पर ध्यान लगाना और नाम का जाप करना, इसको ही वो प्रधान मानते है। ये साधक आज्ञा चक्र से नीचे के चक्रो को कोई भी महत्व देना पसन्द नहीं करते। इनके अनुसार नीचे के चक्रो पर साधना करने का मतलब है- समय की बरबादी। इनके अनुसार कुन्डलिनी शक्ति जाग्रत हो कर आज्ञा चक्र पर ही पहुँचती है। इसलिये क्यो न आज्ञा चक्र से ही यात्रा शुरू की जाये। आज्ञा चक्र से साधना करने का कितना फायदा होता है, यह तो वही साधक जाने।

किन्तु हमारी दृष्टी में ऐसा सम्भव नहीं है, क्योंकि बिना कुन्डलिनी शक्ति के जाग्रत हुऐ आज्ञा चक्र का जाग्रत होना असम्भव है। क्योंकि सभी चक्रो को जाग्रत करने के मूल में कुण्डलिनी शक्ति का महत्वपूर्ण योगदान है। जो साधक सीधे ही आज्ञा चक्र से साधना प्रारम्भ करते है। सालों-साल बीत जाने पर भी उनकी मानसिक स्थिती और उनकी विचारधारा में तनिक/बिलकुल भी बदलाव नहीं आता। यदि उन से इस बारे में पूछा जाये तो उनके अनुसार कम-से-कम चार जन्मो में वो अपनी मुक्ति मानते है। कोई उनसे पूछने वाला हो तो कि यह जन्म तो बिताना इतना मुश्किल है। आगे के तीन जन्मो के बारे में क्या बात करें।
उन साधकों के अनुसार यदि गुरू कृपा हो तो चार जन्म में मुक्ति सम्भव है और यह साधक सिर्फ मुक्ति के लिये ही साधना करते है। गुरू और नाम जाप पर इनकी पूर्ण श्रद्धा होती है। इनमे से अधिकांश साधक नीचे के चक्रो के नाम से ही डरते है, वो कहते है कि- यदि नीचे के चक्र जाग्रत हो गये तो अनेको सिद्धियाँ की प्राप्ति होगी, जिससे कि साधक मुक्ति के मार्ग से भ्रष्ट हो सकता है और सिद्धियों के लालच में फंस कर अपने आप को खराब कर लेता है।

लेकिन जब इन साधकों की नाम और गुरू के प्रति इतनी श्रद्धा और विश्वास है, तो यह साधक कैसे भटक सकते है, क्योंकि इनका पूर्ण गुरू तो हर वक्त इनके साथ है फिर भटकाव क्यों और कैसे?

हमारी नजर में कोई माने या न माने या तो इनके गुरूओं को कुण्डलिनी शक्ति जागरण का विधान, उसके नियम आदि नहीं मालूम और यदि मालूम है तो- ये अपने शिष्यों को बताना या सिखाना नहीं चाहते, क्योंकि कुण्डलिनी जागरण की प्रकिया बहुत ही गहन और जटिल है। कुण्डलिनी जागरण के दौरान गुरू-शिष्य का साथ-साथ पुरूषार्थ करना अति आवश्यक है। मात्र प्रवचन दे कर या शास्त्रों/ग्रन्थो की काहानियाँ सुना कर या रामायण, गीता आदि का उपदेश दे कर कुण्डलिनी जागरण सम्भव नहीं है।

असल में कुण्डलिनी शक्ति के लिये पूरी मेहनत, पूर्ण आत्म-विश्वास और पूर्ण-गुरु का होना आवश्यक है। क्योंकि कुन्डलिनी शक्ति जाग्रत होने पर मात्र मोक्ष ही नहीं, भोग भी प्रदान करती है।

मोटे तोर पर आज का साधक सम्प्रदाय तीन हिसों में बटा हुआ है। ध्यान-योग, हठ-योग और तन्त्र योग। तंत्र को, साधक योग नही मानते। उनकी नजर में तंत्र या तो एक वीभत्स क्रिया है, या फिर एक चमत्कार दिखाने की विधि। हमारी नजर में तंत्र का अर्थ है- तन्+प्राण= तन से मुक्ति पाने का उपाय तंत्र है, अर्थात अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय आदि सप्त शरीरो से मुक्ति पाना और आत्मा का उस परमात्मा में पूर्ण लय होना ही तंत्र है। पूर्ण तंत्र में बिन्दू का रज से मिलन करना ही कुण्डलिनी शक्ति है, अर्थात तंत्र की सर्वोच्चय-भैरवी-साधना ही कुन्डलिनी साधना है। जैसे-जैसे साधक अपने आप को उधर्व-मुखी करना शुरू करते है। उनकी कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत हो कर पूर्ण यात्रा को निकल पड़ती है। आदि शंकराचार्य ने इस कुण्डलिनी शक्ति का प्रारूप ‘श्री यंत्र अर्थात श्री चक्र’ को बनाया है।

बहुत ही ध्यान पुर्वक यदि हम तंत्र और संत मत का अध्ययन या विश्लेषण करे तो हमे ऐसा महसूस होगा जैसे किसी ने हमारी बुद्धि को ठग लिया हो। संत मत के अनुसार-

ब्रह्मा मरे, विष्णु मरे, मरे शंकर भगवान।
अक्षर मरे, क्षर मरे, तब प्रकटे पूर्ण भगवान॥

तंत्र के अनुसार ‘श्री चक्र’ में स्थित कामेश्वर और कामेश्वरी जहाँ वास करते हैं। जिस आसन पर विराजमान रहते है, उस आसन का पूर्व दिशा का पाया ब्रह्म-प्रेत है अर्थात वहाँ पर ब्रह्मा को प्रेत माना गया है। पश्चिमी पाया विष्णु-प्रेत अर्थात वहाँ पर श्री हरी को प्रेत रूप में माना गया है। दक्षिण दिशा का पाया रूद्र-प्रेत अर्थात यहाँ पर शिव को मृत माना गया है। उत्तर पाया ईश्वर-प्रेत माना गया है, यहाँ पर अक्षर-ब्रह्म को मृत माना गया है। कामेश्वर और कामेश्वरी जिस फलक के उपर आसीन है, उसे सदाशिव या क्षर-ब्रहम माना गया है। असल में कामेश्वर और कामेश्वरी कोई देवी या देवता नही है, बल्कि आत्मा-रूपी कामेश्वरी ही, परब्रह्म रूपी कामेश्वर के साथ आलिंगन बद्ध है।

जहाँ संत मत सिर्फ गुरू-तत्व का ध्यान करता है। वहीं तंत्र या हठ-योगी अनेकों प्रकार की क्रियायें करके सभी प्रकार का आंनद लेते हुऐ अपनी आत्मा रूपी प्रेयसी को प्रीतम रूपी परमात्मा से मिला देता है। हठ योग की साधना का आधार अष्टाँग योग है। इसके अंतरगत आसन, प्रणायाम, बन्द, यम-नियम मुख्य है। साथ ही ध्यान-धारणा और समाधी के द्वारा कुण्डलिनी जागरण करना इनका ध्येय है। इन साधकों की नजर में यदि प्राण-वायु की अपान-वायु में एवं अपान-वायु की प्राण-वायु में आहुति दे दी जाये तो कुण्डलिनी जागरण सम्भव हैं। इसके लिये हठ-योगी मूल रूप से तीन बन्धो को प्रयोग करते है- मूल-बन्द, उड़ियान-बन्ध, जालन्धर-बन्ध। मूल-बन्ध अर्थात गुदा का संकोचन अर्थात अपान वायु का बाहर न निकलने देना। उड़ियान बन्ध अर्थात पूर्ण-बाह्य-कुम्भक का प्रयोग करना। जालन्धर बन्द अर्थात अपनी ठोड़ी का अपने कन्ठ से लगाना।

हमारा ध्येय किसी भी साधना को अच्छा या बुरा बताना नहीं है। जैसा की आज के समय में अधिकतर पुरूष अपने योग को बड़ा और दूसरे के योग को छोटा बताते है। साधकों की इसी विचार धारा की वजह से ही हिन्दुस्तान से अनेकों विद्याये लुप्त हो गई है।

हम एक उदाहरण दे कर समस्त साधकों को समझाने की कोशिश/प्रयास करते है। आपको समझ में आये या न आये यह हमारे बस में नहीं है। जब हम अपने बच्चे को स्कूल ले कर जाते है, तो हम हर चीज का ध्यान रखते है, जैसे की- स्कूल, उसके अध्यापक, केन्टीन और सबसे खास चीज विषय(सब्जेक्ट), बच्चों को पढ़ाये जाने वाली पुस्तकें आदि। हम अपने बच्चे को मात्र एक ही विषय नहीं दिलवाते, उसके सभी विषयों का ख्याल रखते है। साथ में ही खेलना, कुदना, नृत्य आदि का भी ध्यान रखते है। हम अपने बच्चे को सब कुछ देते है, किन्तु वह बच्चा किसी विशेष विषय की तरफ अपना विशेष ध्यान देता है, और बाकी सभी विषयों को साधारण रूप से ग्रहण करता है। अधिकतर ऐसा होता है की माँ-बाप उसे डॉक्टर, इंजीनियर आदि बनाना चाहते है, किन्तु वह बच्चा बनता कुछ ओर ही है। यदि बच्चे को स्कूल में होमवर्क ना मिले या उसकी चेकिंग न हो तो हम अपनी शिकायत ले कर मुख्य-अध्यापक के पास पहुँच जाते है।

हम अपने जीवन में हर चीज का ख्याल रखते है, हर चीज पर ध्यान देते है। किन्तु हमने साधना मार्ग को इतना सस्ता क्यों जान लिया? क्यों मान लिया?

क्या साधना मार्ग इतना सस्ता है कि, कोई भी साधारण व्यक्ति, किसी भी गुरू या संत के पास जा कर दीक्षा ग्रहण करे और नाम का जाप करे, तो क्या मुक्ति सम्भव है?

आज के गुरूओं और शिष्यों, दोनो ने मिल कर साधना और मुक्ति के मायने ही बदल दिये हैं। हमारी नजर में मात्र शब्द का रट्टा लगा कर, कहानियाँ, किताबें पढ़कर प्रवचन सुन कर मुक्ति सम्भव नहीं है।

मुक्ति एक महान और उच्च स्थान है। जहाँ पहुँच कर आत्मा सभी बंधनों से मुक्त हो जाती है।

कुण्डलिनी साधना के लिये हमे तपना पड़ता है। अत्यधिक मेहनत की जरूरत होती है। जैसे कोई व्यक्ति जब किसी विशेष परीक्षा की तैयारी करता है तो, वह तैयारी के दौरान हर तरफ से अपना ध्यान हटा कर अपनी शिक्षा पर केन्द्रित करता है। मात्र कुछ दिनो के लिये वह अपना सब सुख-सुविधा का त्याग करके अपनी शिक्षा को पूर्ण करता है, और शिक्षा पूर्ण होने पर अर्थात उसको एक अच्छी नौकरी लग जाने पर वह सन्तुष्ट हो कर सारी-उम्र सभी सुखों का भोग भोगता है। उसी प्रकार यदि एक साधक चाहे तो अपनी साधना के बल पर पूर्ण मुक्ति का फल प्राप्त कर सकता है, और मुक्त हुई जीव आत्मा शरीर में रहते हुऐ भी उन महान भोगों को भोगती है। जिस के लिये बड़े-बड़े सेठ साहुकार और धनी तरसते है।

चलते-चलते दो बात- यदि नीचे के चक्र, माया रूप हैं, जैसा कि कुछ मत या पंथों का मानना है और ऊपर के चक्र असली है तो जो चक्र(लोक) ब्रह्माण्ड में है वे क्या हैं?

चाहे नीचे के चक्र यानि लोक हो या ऊपर के चक्र हो, हैं तो शरीर के अन्दर ही।

जो अण्ड में है, वो पिण्ड में हैं और जो पिण्ड में हैं, वो अण्ड में हैं। यह कहना तो ठीक है किन्तु जब मृत्यु के उपरान्त जब पिण्ड जलकर ख़ाक हो जाएगा तो फिर आत्मा किस चक्र या लोक में वास करेगी। क्योंकि सारी उम्र तो पिण्ड में अण्ड का आभास करके, पिण्ड के लोकों यानि चक्रो की साधना की है। लेकिन जब पिण्ड खत्म हो जाएगा, तो आत्मा को किस लोक में स्थान मिलेगा, फैसला तो तब ही होगा। क्योंकि मन के सहारे जिन लोको की साधना की थी, वे तो खत्म हो गये। अब आत्मा के सामने असली लोक अर्थात मण्डल हैं। जिनके देवों की साधना नहीं की, कभी आराधना नहीं की। क्या वे देव इस आत्मा को अपने लोक में स्थान देंगे, कदापि नहीं। मन को जितना मर्जी भरमा लो, शिष्यों को जितना मर्जी बहका लो। सत्य तो एक दिन खुल कर रहेगा, कि पिण्ड के बाहार जो है, वही सत्य है और पिण्ड के अन्दर जो है वह मिथ्या है। इसलिये कुछ संतों ने जगत को मिथ्या या माया का खेल कहा है।

जब तक सूक्ष्म-शरीर, स्थूल-शरीर से अलग हो कर ब्रह्माण्ड के सत्य लोको या मण्डलों की आराधना, सेवा, भजन, दर्शन नहीं करेगा, तब तक सब बेकार है। सूक्ष्म-शरीर को स्थूल-शरीर से अलग करने का मात्र एक ही विधान है- कुण्डलिनी साधना।

उदाहरण के तौर पर- जिस प्रकार एक छोटा बच्चा खाना पीना, बोलना-चलना, लिखना-पढ़ना आदि का प्रारम्भ तो घर से ही करता है, किन्तु कुछ समय बाद हम उसे उच्च शिक्षा हेतु अच्छे विद्यालय में प्रवेश करा देते हैं। उसी प्रकार एक साधक के लिये साधना का प्रारम्भ तो शरीर में स्थित मण्डलों से ही होता है, किन्तु जब सूक्ष्म-शरीर, स्थूल-शरीर से अलग हो जाता है, तो ब्रह्माण्ड में स्थित उच्च लोको की साधना करके, पूर्ण ब्रह्म-ज्ञान को प्राप्त करके, जीव आत्मा पूर्ण कैवल्य पद को प्राप्त कर लेती है। जिस प्रकार हमारे देश में एक अच्छे साधू या नेता की इज्जत की जाती है, उसी प्रकार उस आत्मा का भी, उच्च लोको में वैसा ही सम्मान या आदर किया जाता है।

कुन्डलनी साधना बाहुबल की साधना है। आप के साहस, आप के आत्म-विश्वास और आपकी सहन-शीलता की साधना है।

यदि हम कुण्डलिनी साधक की उपमा दे तो ऐसी होगी, जैसे एक वीर जवान अपने देश की रक्षा के लिये अपना सर्वस्व बलिदान करके सीना ताने, जान हथेली पर लिये खड़ा हो। वहीं एक साधारण साधक की उपमा ध्यान योगी की उपमा, नाम-जप करने वालों की उपमा, मात्र ऐसी है- जैसे एक समाज सुधारक की छवि होती है।

अब आपने फैसला करना है कि, आप को किस रास्ते पर चलना है। हमने जो जाना, जो पाया, जो समझा, वो आपके सामने रख दिया है। शब्दों का कभी अन्त नहीं होता, उदाहरणो की संख्या नहीं होती। समझाने वाले और समझने वाले पर निर्भर करता है कि, वो कितना समझा सकता है, और दूसरा कितना समझ सकता है। सभी बातों को लिख कर नहीं समझाया जा सकता।

रूद्रयामल में कुण्डलिनी-साधकों के लिये एक ‘उदघाटन-कवच’ दिया गया है जिसका श्रद्धा-पूर्वक पाठ करना साधकों के लिये अत्यन्त लाभप्रद माना गया है-
॥ उदघाटन-कवच ॥
मूलाधारे स्थिता देवि, त्रिपुरा चक्र नायिका ।
नृजन्म भीति-नाशार्थं, सावधाना सदाऽस्तु ॥1॥
स्वाधिष्ठानाख्य चक्रस्था, देवी श्रीत्रिपुरेशिनी ।
पशु बुद्धिं नाशयित्वा, सर्वैश्वर्य प्रदाऽस्तु मे ॥2॥
मणिपुरे स्थिता देवी, त्रिपुरेशीति विश्रुता ।
स्त्री जन्म-भीति नाशार्थं, सावधाना सदाऽस्तु ॥3॥
स्वस्तिके संस्थिता देवी, श्रीमत्-त्रिपुर सुन्दरी ।
शोक भीति परित्रस्तं, पातु मामनघं सदा ॥4॥
अनाहताख्या निलया, श्रीमत्-त्रिपुर वासिनी ।
अज्ञान भीतितो रक्षां, विदधातु सदा मम ॥5॥
त्रिपुरा श्रीरिति ख्याता, विशुद्धाख्या स्थल स्थिता ।
जरोद्-भव भयात् पातु, पावनी परमेश्वरी ॥6॥
आज्ञा चक्र स्थिता देवी, त्रिपुरा मालिनी तु या ।
सा मृत्यु भीतितो रक्षां, विदधातु सदा मम ॥7॥
ललाट पदम् संस्थाना, सिद्धा या त्रिपुरादिका ।
सा पातु पुण्य सम्भूतिर्-भीति-संघात् सुरेश्वरी ॥8॥
त्रिपुराम्बेति विख्याता, शिरः पद्मे सु-संस्थिता ।
सा पाप भीतितो रक्षां, विदधातु सदा मम ॥9॥
ये पराम्बा पद स्थान गमने, विघ्न सञ्चयाः ।
तेभ्यो रक्षतु योगेशी, सुन्दरी सकलार्तिहा ॥10॥

कुण्डलिनी जगरण के यों तो अनेकों उपाय हैं, किन्तु बाबा जी द्वारा रचित ये गुरु-स्तोत्र अपने आप में एक अनुभुत प्रयोग है। कुण्डलिनी जगरण के इच्छुक साधक यदि स-स्वर इस स्तोत्र का लगातार पाठ करते हैं तो बहुत ही जल्दी कुण्डलिनी जगरण होने लगेगी और साधकों को कुण्डलिनी जगरण के अनूठे अनुभव होने लगेंगे।


॥ गुरु-स्तोत्र ॥
॥ ॐ गुरु ॐ ॐ गुरु ॐ ॥ ॐ गुरु ॐ ॐ गुरु ॐ ॥
दायें गुरु है, बायें गुरु है । आगे गुरु है, पीछे गुरु है ॥
ऊपर गुरु है, नीचे गुरु है । अंदर गुरु है, बाहर गुरु है ॥
ॐ गुरु ॐ ॐ गुरु ॐ ॥ ॐ गुरु ॐ ॐ गुरु ॐ ॥1॥

अंड में गुरु है, पिंड में गुरु है । जल में गुरु है, थल में गुरु है ॥
पवन में गुरु है, अनल में गुरु है । नभ में गुरु है, अंतर में गुरु है ॥
ॐ गुरु ॐ ॐ गुरु ॐ ॥ ॐ गुरु ॐ ॐ गुरु ॐ ॥2॥

तन में गुरु है, मन में गुरु है । घर में गुरु है, वन में गुरु है ॥
मंत्र में गुरु है, में यंत्र गुरु है । तंत्र में गुरु है, माला में गुरु है ॥
ॐ गुरु ॐ ॐ गुरु ॐ ॥ ॐ गुरु ॐ ॐ गुरु ॐ ॥3॥

धूप में गुरु है, दीप में गुरु है । फूल में गुरु है, फल में गुरु है ॥
भोग में गुरु है, पूजा में गुरु है । लोक में गुरु है, परलोक में गुरु है ॥
ॐ गुरु ॐ ॐ गुरु ॐ ॥ ॐ गुरु ॐ ॐ गुरु ॐ ॥4॥

जप में गुरु है, तप में गुरु है । हठ में गुरु है, यज्ञ में गुरु है ॥
जोग में गुरु है, में योग गुरु है । ज्ञान में गुरु है, ध्यान में गुरु है ॥
ॐ गुरु ॐ ॐ गुरु ॐ ॥ ॐ गुरु ॐ ॐ गुरु ॐ ॥5॥

॥ ॐ तत्सत् ॥
जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है...
मनीष

प्राचीन विधि-विधान (Prachin Vidhi Vidhan )


प्राचीन विधि-विधान
अनादि काल से एक ही परिपाटी चली आ रही थी, जिसमें की साधक और गुरू, चाहे वशिष्ठ हो या राम, कृष्ण हो या सांदीपन, दोनो ही गायत्री मंत्र युक्त संध्या व हवन करते थे एवं ॐकार के द्वारा ध्यान करते थे। इस तरह गायत्री संध्या से उस आदिशक्ति की उपासना पूर्ण होती थी और ॐकार के ध्यान के द्वारा परब्रहम् की उपासना सम्पूर्ण होती थी। प्राचीन महर्षियों ने पुरूष और प्रकृति की उपासना का यह विधान इतना श्रेष्ठ बनाया था, की इस विधान के करने वाले साधक को भौतिक और आध्यात्मिक दोनों ही क्षेत्रों में सम्पूर्ण सफलता मिलती थी। वह सम्पूर्ण शक्तियों का मालिक बनते हुऐ, उस परमात्मा में लीन रहता था। सम्पूर्ण सुख-समृद्धि का भोग करते हुऐ मोक्ष को प्राप्त करता था। किन्तु समय का पहिया गतिशील है। प्रकृति में समय-समय पर बदलाव होते रहे हैं, उसी के अनुसार साधक की मन और बुद्धि भी बदलती है।

कालान्तर में गायत्री-संध्या के साथ-साथ अनेकों ही महापुरूषों ने तान्त्रिक-संध्या का विधान बनाया। जहाँ गायत्री-संध्या में गायत्री-मंत्र की ही उपासना होती थी एवं गायत्री ही सबकी अधिष्ठात्री होती थी। वहीं पर तान्त्रिक-संध्या में नये-नये देवता और मंत्र जुड़ने लगे। सर्वप्रथम जहाँ पर गायत्री को इष्ट माना जाता था, वहीं पर साधकों ने बाद में अपने अलग-अलग इष्ट बनाने प्रारम्भ कर दिये। जो साधक शिव को अपना इष्ट मानने लगा, वह शिव मंत्र के द्वारा ही संध्या करने लगा। यह शिव की तान्त्रिक-संध्या कहलाई। इस सम्प्रदाय को मानने वाले साधकों ने जो अपना मत बनाया वह शैव-मत कहलाया। भगवान शिव के उपासकों में घन्टाकर्ण नाम का एक ऐसा उपासक भी हुआ, जिसने अपने कानों में घन्टे लटका लिये। अगर उसके सामने कोई भी व्यक्ति या साधक भगवान शिव के नाम के अलावा, किसी भी दूसरे देव का नाम लेता था, तो वह अपने सिर को हिलाने लगता था। जिससे कि उसके कानों में बंधे हुऐ घन्टे बजने लगते थे और किसी दूसरे देव का नाम उसे सुनाई नहीं पड़ता था।

इसी तरह शैव-मत के बाद वैष्णव-मत सामने आया, जिसमें कि राम, कृष्ण और विष्णु की मुर्ति-रूप में सुन्दर प्रतीक बनाये जाने लगे और विष्णु के मंत्रो के द्वारा ही संध्या की जाने लगी। उसके कुछ समय बाद दस महा-विद्या सामने आई और इन महा-विद्याओं के मंत्रों के द्वारा तान्त्रिक-संध्या करने वाले साधक शाक्त कहलाये, यहीं से कलियुग का प्रारम्भ हुआ और धीरे-धीरे यह तीनों ही मत फलने-फूलने लगे। जिस तरह गायत्री-संध्या के बाद तान्त्रिक-संध्या आई, उसी तरह शक्ति मत के भी दो मत हो गये। शक्ति-मत में दस महा-विद्याओं की तान्त्रिक-संध्या करने वाले व्यक्ति दो कुलों में विभाजित हो गये। एक श्रीकुल कहलाया एवं दूसरा कालीकुल । यहाँ तक दोनों कुलों की उपासना करने वाले, तन्त्र के साथ-साथ ब्रहम् को भी मानने वाले थे। धीरे-धीरे ये दोनों कुल भी दो भागों में बँट गये। एक दक्षिण-मार्गी और दूसरा वाम-मार्गी। दक्षिण-मार्गी उन को कहा गया, जो कि काली-कुल के अन्तर्गत आने वाली शक्तियों की उपासना सात्विक रूप से करते थे। प्रारम्भ में दोनों कुलों के उपासक सात्विक ही थे, किन्तु बाद में जब इसके दो भेद हो गये, तो दक्षिण-मार्गी सात्विक कहलाऐ एवं वाम मार्गी तामसिक। सात्विक मार्ग में अनादि काल से ले कर आज तक बहुत कम बदलाव आया जो थोड़ा बहुत बदलाव आया, तो वह यह था कि अपने इष्ट के सामने प्रतीक रूप में घी की बजाय तेल का दिया जलाना। आज भी कुछ साधक शक्ति मार्ग में घी का दीपक जलाते है, तो कुछ सरसों के तेल का और कुछ तिलों के तेल का। दुसरा जो बदलाव आया वह वस्त्र का था।

सात्विक शक्ति उपासक अपनी इच्छा के अनुसार सफेद या लाल कपड़े का इस्तेमाल करने लगे। जबकि तामसिक साधक अधिकतर काले कपड़ो का इस्तेमाल करने लगे।कोई काली को बड़ा मानता तो कोई तारा को और कोई श्रीविद्या को। अनेकों ही शक्ति की साधना-उपासना करने वालों ने अपने-अपने ग्रन्थ लिखे और अपने-अपने इष्ट को सम्पूर्ण बताया। छोटे-बड़े का मत भेद बढ़ता चला गया। किन्तु अन्तः करण से सभी उस अनादि शक्ति को ही अपने इष्ट-रूप में मानते थे। सभी साधक यही कहते थे कि सभी महा-विद्याऐं उस आदिशक्ति का ही अंश रूप है। किन्तु अंश रूप में भी सभी भेद रखते थे। जिस प्रकार वैष्ण्व मत में राम को 14 कला अवतार एवं कृष्ण को 16 कला अवतार माना जाता है। उसी प्रकार शाक्त मत में भी यही भेद था, किन्तु धीरे-धीरे इनके अधिकार क्षेत्र बांट दिये गये। हर महाविद्या को एक सीमित क्षेत्र में सीमित कर दिया गया। जब की वह महाविद्या अपने आप में सम्पूर्ण थी। जहाँ दुष्टों के नाश का अधिकार क्षेत्र बगलामुखी को दिया गया, वहीं धन का अधिकार क्षेत्र कमला-महाविद्या को दिया गया। काली को जो अधिकार क्षेत्र दिया गया वह शक्ति का था और तारा का अधिकार क्षेत्र ज्ञान की वृद्धि के लिये था। भुवनेश्वरी का अधिकार क्षेत्र आकस्मिक धन प्राप्ति के लिऐ होता था। वहीं मातगीं का अधिकार क्षेत्र वशीकरण, आकर्षण एवं विद्या क्षेत्र था। जहाँ शरीर के ताप को मिटाने का और तान्त्रिक द्वारा अभिचार कर्म को काटने का अधिकार क्षेत्र धूमावती के पास था। वहीं साधक की इच्छाओं की पूर्ती का अधिकार क्षेत्र छिन्नमस्ता के पास है। जहाँ मन, इच्छा अनुसार स्त्री या पुरूष की प्राप्ति का अधिकार क्षेत्र त्रिपुर-भैरवी के पास है। यह साधकों के अन्दर भय का नाश करती है। वहीं सम्पूर्ण सुख-समृद्धि एवं ऐश्वर्य प्राप्ति का अधिकार क्षेत्र श्रीविद्या राज-राजेशवरी त्रिपुर-सुन्दरी के पास है।

शक्ति उपासकों का जो दुसरा वाम मार्गी मत था, उसमें शराब को जगह दी गई। उसके बाद बलि प्रथा आई और माँस का सेवन होने लगा। इसी प्रकार इसके भी दो हिस्से हो गये, जो शराब और माँस क सेवन करते थे, उन्हे साधारण-तान्त्रिक कहा जाने लगा। लेकिन जिन्होने माँस और मदिरा के साथ-साथ मीन(मछली), मुद्रा(विशेष क्रियाँऐं), मैथुन(स्त्री का संग) आदि पाँच मकारों का सेवन करने वालों को सिद्ध-तान्त्रिक कहाँ जाने लगा। आम व्यक्ति इन सिद्ध-तान्त्रिकों से डरने लगा। किन्तु आरम्भ में चाहे वह साधारण-तान्त्रिक हो या सिद्ध-तान्त्रिक, दोनों ही अपनी-अपनी साधनाओं के द्वारा उस ब्रहम् को पाने की कोशिश करते थे। जहाँ आरम्भ में पाँच मकारों के द्वारा ज्यादा से ज्यादा ऊर्जा बनाई जाती थी और उस ऊर्जा को कुन्डलिनी जागरण में प्रयोग किया जाता था, ताकि कुन्डलिनी जागरण करके सहस्त्र-दल का भेदन किया जा सके और दसवें द्वार को खोल कर सृष्टि के रहस्यों को समझा जा सके। किन्तु धीरे-धीरे पाँच मकारों का दुर-उपयोग होने लगा और यह पाँच मकार सिर्फ स्वार्थ सिद्धि, नशा और काम वासना की पुर्ति के साधन मात्र ही रह गये।

कोई माने या न माने लेकिन यदि काम भाव का सही इस्तेमाल किया जा सके तो इससे ब्रहम् की प्राप्ति सम्भव है।इसी वक्त एक और मत सामने आया जिसमें की भैरवी साधना या भैरवी चक्र को प्राथमिकता दी गई। इस मत के साधक वैसे तो पाँचो मकारों को मानते थे, किन्तु उनका मुख्य ध्येय काम के द्वारा ब्रहम् की प्राप्ति था इसी समय में शैव-मत में से एक मत अलग हो कर बाहर आया जिसे अघोर-मत कहा जाने लगा। आघोर-मत को मानने वाले साधक नशे के रुप में गाँजे का सेवन करते थे एंव श्मशान में बैठ कर तामसिक शिव या भैरव मंत्रों का जाप करते थे। प्रारम्भ में जहाँ नशा करके चेतन मन को शान्त कर दिया जाता था और अवचेतन मन के द्वारा परमात्मा के नाम का जाप किया जाता था। वहीं बाद में परमात्मा के ‘ॐ’ नाम को छोड़ कर विभिन्न मंत्रों का जाप होने लगा। धीरे-धीरे यह साधक पर-ब्रहम् को भूल कर आम व्यक्तियों को चमत्कार दिखाने की खातिर शव-साधना करने लगे। ऐसे मंत्रों का निर्माण हुआ जिन के द्वारा तुच्छ सिद्धियाँ प्राप्त करके आम जनता को चमत्कार दिखाया जा सके। आज वाम मार्गीयों का सबसे वीभत्स रूप हमारे सामने है। आज के समय में साधारण-तान्त्रिक, सिद्ध-तान्त्रिक, भैरवी-मत को मानने वाले या अघोर आदि अधिकतर साधक उस परमात्मा को भूल ही गये है। अगर ऐसा नहीं होता तो आज जो तान्त्रिकों का विभत्स रूप हमारे सामने है, वह नहीं होता।

ब्रहम् को मानने वाला तान्त्रिक अपनी शक्तियों का कभी दुर-उपयोग नहीं करेगा।लेकिन आज अधिकतर तान्त्रिक अपनी सिद्धियों का दुर-उपयोग के अलावा और कहीं इस्तेमाल नहीं करते। प्रारम्भ का तान्त्रिक जहाँ ब्रहम् का उपासक होता था, वहीं आज का तान्त्रिक पैसे का उपासक बन गया है। कुछ सौ वर्षों पहले एक नई विद्या प्रकाश में आई। इसको मानने वाले भी अपने आप को तान्त्रिक, ओझा या गुणी कहते थे। अगर इस विद्या का सही इस्तेमाल किया जाऐ तो, आम व्यक्ति को काफी हद तक फायदा हो सकता है। किन्तु इससे ब्रहम् की प्राप्ति सम्भव नहीं है। इस विद्या को मानने वाले साबर-मंत्रों का प्रयोग करते है। इस विद्या का अपना कोई नाम नहीं है। किन्तु साबर-मंत्रों का इस्तेमाल करने वालों को ओझा या गुणी ही कहा जाता है। नाथ समप्रदाय में ‘बाबा मछन्दर नाथ’ के शिष्य ‘गुरू गोरक्ष नाथ जी’ थे। गुरू गोरक्ष नाथ जी ने साबर-मंत्रों की रचना साधारण व्यक्तियों के लिये की। जिससे की वे साबर-मंत्रों का प्रयोग करके सुख-समृद्धि को प्राप्त कर सके। आज के समय में साबर-मंत्रों के उपर अनेकों ग्रन्थ देखने में आते है, पर इन ग्रथों के अन्दर न तो सही विधि-विधान लिखा हुआ है और न ही सम्पूर्ण मंत्र लिखें हुऐ हैं। साबर-मंत्रों में जो सिद्ध मंत्र है, वह आज भी गुरू परम्परा के अनुसार चले आ रहे हैं । अगर कोई साधक गुरू से प्राप्त साबर-मंत्र का जाप करता है, तो उसे सभी भौतिक सुखों की प्राप्ति होती है। साथ ही इन मंत्रों के द्वारा लोक-देवताओं की सिद्धि भी सम्भव है। गोरक्ष नाथ जी द्वारा रचित साबर-मंत्रों में काली, भैरव, हनुमान की सिद्धि, वीर सिद्धि, मन इच्छा अनुसार खाद्य-पदार्थ सामग्री को प्राप्त करने हेतु वेताल सिद्धि आदि है। किन्तु आज के समय में साबर-मंत्रों का भी दुर-उपयोग होने लगा है।

प्रारम्भ का तान्त्रिक केवल 10 महा विद्याओं को मानता था, किन्तु जैसे-जैसे समय बदलता चला गया वैसे-वैसे साधक 10 महा विद्याओं की कठिन साधना से बचने लगे और जो दुसरा तान्त्रिक पड़ाव आया उस में 10 महाविद्याओं कि जगह, 9 दुर्गाओं ने ली। कहने का तात्पर्य यह है कि आम व्यक्ति दस महा विद्याओं की कठिन साधनाओं को छोड़ कर नौ दुर्गाओं की साधना करने लगा और इस प्रकार नवरात्रों का प्रारम्भ हुआ। कहने को तो यह 9 दुर्गायें आदिशक्ति माता पार्वती का ही रूप है। किन्तु इनकी शक्तियाँ एवं कार्य क्षेत्र अगल-अगल है। इन्ही नौ दुर्गाओं के आधार पर नवरात्रे शुरू हुऐ, जिसमें कि तान्त्रिक साधक आदिशक्ति के नाम पर उपवास रखतें है और अपनी इच्छा अनुसार दुर्गा के किसी एक रूप की साधना करते है। आज भी अनेकों साधक इसी नियम को मानते हुऐ साधना करते आ रहे है। किन्तु इन साधकों में भी दो मत बन गये- एक सात्विक दुसरा तामसिक। सात्विक साधक साधना पूर्ण होने पर खीर-हलवे आदि का भोग लगाते है। किन्तु तामसिक साधक साधना पूर्ण होने पर मदिरा और बकरे आदि कि बलि लगाते है। सिद्धियाँ दोनों ही साधकों को प्राप्त होती है और दोनों ही साधक अपनी इच्छा अनुसार अपनी सिद्धियों का उपयोग करते है। किन्तु जो साधक लोक-कल्याण में अपनी सिद्धि का उपयोग करता है, वह सद्गति को प्राप्त होता है। और जो साधक अपनी सिद्धि का दुर-उपयोग करता है, वह दुर्गति को प्राप्त होता है।

शैव-सम्प्रदाय को मानने वाले तान्त्रिक शिव के साथ-साथ धीरे-धीरे भैरव की उपासना करने लगे। भैरव-साधना को स्थापित करने के पीछे जो मूल कारण था, वह यह था कि साधक का तामसिक होना। क्योंकि भगवान शिव कि साधना सात्विक है। इसलिऐ शिव-संप्रदाय में जो तामसिक साधक पैदा हुऐ, उन्होंने भैरव-साधना प्रारम्भ कि और साथ ही माँस-मदिरा का सेवन प्रारम्भ कर दिया। यहीं से तान्त्रिकों में व्यभिचार उत्पन्न हो गया। क्योंकि जो साधक सात्विक से तामसिक बन गया हो, तो उस कि तामसिकता का अन्त सहज नहीं होता। धीरे-धीरे भैरव-उपासकों ने एवं नौ दुर्गा उपासकों ने अपने आप को नीचे कि तरफ गिराना प्रारम्भ कर दिया। धीरे-धीरे मूल साधनाऐं और सात्विक साधनाऐं समाप्त होने लगी और सभी जगह तामसिकता ने स्थान ग्रहण कर लिया। नौ दुर्गाओं का स्थान 64 योगनियों ने ले लिया और साथ-ही-साथ डाकनी, शाकनी की पूजा, नवदुर्गा के सात्विक और तामसिक साधकों ने प्रारम्भ कर दी। दुसरी तरफ भैरव-साधना करने वाले साधक भूत, प्रेत की सिद्धि करने लगे। इन साधकों का मुख्य ध्येय यही था कि आम व्यक्तियों को अपनी सिद्धि का चमत्कार दिखाया जा सके और चमत्कार के द्वारा अपना स्वार्थ सिद्ध किया जा सके। तान्त्रिकों का व्यभिचार बढ़ता चला गया।

तन्त्र के इस वीभत्स रूप को देख कर आम व्यक्ति सामने आया, जो शास्त्रों कि बड़ी-बड़ी सिद्धियों को तो नहीं कर सकता था। अपितु वह परमात्मा के लिये श्रद्धा और भावना से भरा हुआ था। इन आम व्यक्तियों ने छोटे-छोटे मंत्र जिनकों कि यह असानी से याद कर सकते थे, उनका जाप प्रारम्भ कर दिया। इन मंत्रो में अधिकतर साबर मंत्र थे, क्योंकि साबर मंत्र आम बोल-चाल कि भाषा में होते थे और इन्हे याद करना भी आसान होता था। कहते हैं कि श्रद्धा में शक्ति होती है और इन आम व्यक्तियों कि श्रद्धा रंग लाई और ओझा-गुणीयों का मत प्रारम्भ हो गया। ये ओझा-गुणी-साधक न तो कोई लम्बा चौड़ा विधान जानते थे और न ही कोई विशेष कर्म-कांड करते थे। यह साधक तो श्रद्धा और भावना से भरे हुऐ थे। धीरे-धीरे तन्त्र-सम्प्रदाय मिटने लगा और ओझा-गुणीयों का समप्रदाय फलने-फुलने लगा। आम व्यक्ति या जन-मानस को अत्यधिक फायदा होने लगा। अधिकतर हर छोटी-बड़ी समस्याओं का ईलाज, इन साधकों के पास होता था और ये साधक नि-स्वार्थ भाव से जन-सेवा करते थे। एक समय ऐसा भी आया जब तान्त्रिकों और इन साधकों में टकराव उत्पन्न हुआ। जिस में तान्त्रिकों कि हार हुई और इन श्रद्धा से भरे हुऐ साधकों कि जीत हुई। इस जीत से भी इस सम्प्रदाय को बल मिला और धीरे-धीरे यह सम्प्रदाय, एक छोटे से गाँव से ले कर शहरों तक फैलता चला गया।

इस सम्प्रदाय कि मुख्य पहँचान यही थी कि यह साधक सात्विक होते हुऐ भी श्रद्धा और भावना से भरे हुऐ थे। मंत्रो के नाम पर सिर्फ अपने देवता का नाम लेते थे और हर समस्या का समाधान करते थे। यह साधक लोक-देवताओं को प्रधान मानते हुऐ, निष्कपट भाव से उनकी सेवा करते थे। जहाँ तान्त्रिक अनुष्ठान करके सिद्धि को प्राप्त करते थे, वहीं यह साधक अपने लोक-देवता को स्नान आदि करा कर या सिर्फ अपने घर में ही एक अलग स्थान बना कर, अपने देवता के नाम का एक अलग दीपक(चिराग) जलाते थे। इतना भर करने से ही उन्हें उस देवता कि कृपा प्राप्त होती थी। जो साधक मन, क्रम, वचन से अधिक पवित्र होता था, उसे उतनी ही जल्दी उस देवता कि कृपा प्राप्त होती थी। इन साधकों ने अपने लोक-देवताओं में जिनको मुख्य स्थान दिया- उन में हनुमान जी, भैरव जी, क्षेत्रपाल, कुल देवता (अपने कुल की परम्परा में जिस देवता की पूजा होती थी), ग्राम देवता(गाँव में जो प्रधान देवता होता है), नगर देवता(सम्पूर्ण नगर का श्रेष्ठ देवता, जैसे कि दिल्ली में कालका जी)। सिर्फ इतना ही नहीं, इन साधकों ने हिन्दु और मुस्लिमों का भेद भाव त्याग कर सयैद, पीर, परी आदि कि साधना भी प्रारम्भ की। प्रत्येक साधक अपनी गुरू परम्परा के अनुसार या अपनी इच्छा अनुसार देवताओं की पूजा करने लगा। इन्हीं साधकों ने कुछ समय बाद सात-माताओं की पूजा पर बल दिया और हर गाँव या नगर में, एक छोटे से मन्दिर के रूप में इन सात माताओं कि स्थापना होने लगी। साधकों के साथ-साथ आम व्यक्ति भी इन माताओं की पूजा करते लगा। आज भी होली से ठीक सात दिन बाद जो शीतला माता की पूजा होती है, वह वास्तव में सात माताओं कि पूजा होती है।

सात माताओं कि सहज पूजा के मूल में दस महाविद्याओं में से सात महाविद्याओं का रहस्य छिपा हुआ है। दस महाविद्याओं कि साधना कठिन होने कि वजह से इन्हें सात-माताओं का सुक्ष्म रूप दिया गया। दस में से सात को स्थान देने के पीछे जो रहस्य था, वह यही था कि दस महाविद्याओं में से सात महाविद्याऐं सात्विक और तामसिक दोनों है। इसलिऐ एक नई परिपाटी प्रारम्भ की ताकि सात्विक और तामसिक दोनों ही साधक अपनी इच्छा अनुसार पूजा कर सके। क्योंकि ओझा-गुणीयों में भी धीरे-धीरे तामसिकता आने लगी थी। आज भी इन सात-माताओं की पूजा सात्विक और तामसिक दोनों साधक अपने-अपने ढंग से करते है एवं हिन्दु धर्म की लगभग सभी जातियाँ इनकी पूजा करती है, चाहे वह क्षत्रिय हो या ब्राह्मण, वैश्य हो या शुद्र। इससे जो सबसे बड़ा फायदा हुआ, वह यह था कि दोनों ही तरह के साधक एक ही जगह बन्ध कर रह गये। जहाँ पुरानी परिपाटी में सात्विक-सात्विक था और तामसिक-तामसिक, वहीं इस नई परिपाटी में दोनों एक हो गये और जन-मानस को फायदा होने लगा। सात-माताओं कि स्थापना गाँव कि सीमा पर की जाती थी। इससे साधकों को दुसरा जो सबसे बड़ा फायदा था, वह यह था कि यह सात-माताऐं उस गाँव को प्रत्येक अला-बला और बिमारियों से सुरक्षा प्रदान करती थी।

इन सात-माताओं के साधकों में से कुछ साधक व्यभिचार होकर श्मशान की साधनाओं की तरफ बढ़ने लगे। श्मशान की तरफ बढ़ने वाले ये साधक, भैरव-साधकों की तरह भूत, प्रेत या शव-साधना नहीं करते थे। बल्कि ये मसान और कलवों की पूजा करने लगे। इस पूजा में यह लोग मरे हुऐ छोटे बच्चों के शव को बाहर निकालतें और उस कि सिद्धि करते, जिसे कलवा सिद्धि या मसान सिद्धि कहाँ जाता है। इन साधकों कि यह सिद्धि प्रारम्भ में लोक-कल्याण कारक थी, किन्तु कुछ समय बाद इसका भी वीभत्स रूप आम व्यक्ति को देखने को मिला। मसान आदि की सिद्धि करने वाले साधक धीरे-धीरे लोभ में फँसने लगे और जहाँ ये साधक प्रारम्भ में जन सेवा करते थे या दुष्टों का मूठ या घात चला कर नाश करते थे। वहीं बाद में ये साधक पैसा ले कर किसी के उपर भी मूठ या घात चलाने लगे जिससे कि आम जन-मानस परेशान हो उठा। ऐसे दुष्ट-साधकों से बदला लेने के लिये वीर-सिद्धि के साधक सामने आये। इसमें पाँच-वीरों की साधना को प्रधानता दी गई। इन पाँच-वीरों को एक चिराग या पाँच चिराग जला कर और सफेद रंग का कोई भी प्रसाद लगा कर सिद्ध किया जाता था। इन पाँच-वीरों में जो मुख्य स्थान मिला वह गुगाजी(जाहर वीर) को था। गुगाजी को जाहर वीर भी कहा जाता है। जाहर वीर के झन्ड़े तले पाँच वीरों की स्थापना हुई और 52 वीरों का जन्जीरा बना। कुछ साधक 52 वीरों के जन्जीरे को, 52 डोर के नाम से भी जाना जाता है। पाँच वीरों में जाहार वीर, हनुमन्त वीर, नाहरसिहं वीर, अंघोरी वीर, भैरव वीर मुख्य थे। 52 वीरों के जन्जीरे के पाँच मालिक हैं। सात्विक और तामसिक देवताओं का यह अनुठा गठबन्धन था। इन वीरों में जहाँ जाहर वीर और हनुमन्त वीर सात्विक है, वहीं नारसिहं, भैरव वीर और अंघोरी वीर तामसिक है। इस की जो स्थापना की गई, उसमें सात्विक और तामसिक दोनों ही पूजा विधान रखे गये। इस साधना में भी श्रद्धा और भावना को प्रधान माना गया। किन्तु पाँच वीरों की साधना करने वाला साधक, अपनी इच्छा अनुसार अपनी सिद्धि का इस्तेमाल नहीं कर सकते थे।

यहाँ पर साधक या आम व्यक्ति केवल अर्जी लगा कर (प्रार्थना करके) छोड़ देता है। उस अर्जी का फैसला उन पाँच वीरों के हाथ में होता है। ये पाँच वीर साधक की अर्जी को सुनकर, उसके भाग्य, कर्म, श्रद्धा और भक्ति को देख कर ही फैसला करते है। हिन्दुओं की इस नई व्यवस्था को देख कर ही, मुस्लिम सम्प्रदाय में भी पाँच पीरों की स्थापना हुई। इन पाँच पीरों को कुछ साधक पाँच-बली भी कहते है। अस्त बली, शेरजंग, मोहम्मद वीर, मीरा साहब और कमाल-खाँ-सैयद जैसी व्यवस्था पाँच पीरों-वीरों की साधना में थी। वैसी ही परम्परा और व्यवस्था पाँच पीरों में थी जैसी कि पाँच वीरों में थी। दोनों ही मतों में श्रद्धा और भावना प्रदान थी। आज के समय में इस परम्परा का रूप अनेकों ही जगह देखा जा सकता है। धीरे-धीरे पाँच हिन्दू वीर और पाँचों मुस्लमानी पीर इकठ्ठे पूजे जाने लगे। अधिकतर हिन्दू पाँच वीरों के साथ-साथ पाँच पीरों को भी मानने लगे। जहाँ पाँच वीर साधक और आम व्यक्ति को सुरक्षा प्रदान करते हुऐ, दुष्टों का विनाश करते थे, वहीं पाँचों पीर सुख और समृद्धि प्रदान करते थे। इसी प्रकार सिख धर्म में भी पंच प्यारे हैं।

धीरे-धीरे आवेश का प्रचलन प्रारम्भ हुआ जो साधक बदन को हिलाते अर्थात झुमते हुऐ लोगों कि समस्याओं का समाधान करने थे। ऐसे साधकों के बारे में कहा जाता है कि इस साधक के अन्दर देवता की आत्मा ने प्रवेश किया हुआ है। साधक के शरीर में किसी भी देवी या देवता की आत्मा का प्रवेश करना आवेश कहलाता है। ऐसे साधक जोर-जोर से हिलने लगते है और अपने पास आये हुऐ आम व्यक्तियों का ईलाज करते है। इस व्यवस्था में आम व्यक्ति और देवता के बीच कोई माध्यम नहीं होता अपितु आप व्यक्ति सीधे ही देवता से बात करके अपनी समस्या का समाधान पाता है।

साधना का यह प्रयोग भी आम व्यक्तियों के बीच में काफी प्रचलित है। किन्तु सही मायने में यह क्रिया तभी फलीभूत है, जब साधक गुरू के सान्निध्य में इस साधना को बार-बार करे। क्योंकि ऐसा न करने वाले साधक को अनेकों ही परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है। मान लीजिऐ किसी साधक के अन्दर देवता के आवेश की बजाऐ किसी भूत या प्रेत का आवेश आ गया और उसे देवता का आवेश मान कर वह साधक जन-कल्याण करने लगा तो सम्भव है, कि आम व्यक्ति की समस्याऐं तो दूर होने लगेगीं, किन्तु साधक और उसके परिवार को अनेकों ही परेशानियों का सामना करना पड़ेगा। आज अनेकों ही ऐसे साधक हैं, जिन में देवता का नहीं बल्कि भूत-प्रेतों का आवेश आता है।

जिसके द्वारा वह जन कल्याण करते हैं। किन्तु साधक व उसका परिवार अनेकों ही परेशनियों से घिरा रहता है। अगर कोई उनसे कहे कि आप तो साधक हो देवता कि आप के ऊपर असीम कृपा है। फिर आप या आपके परिवार में परेशानी क्यों है। तो ऐसे साधक हँसकर यही जवाब देते हैं, कि जैसी देवता की इच्छा। अगर अधिक जोर देकर उनसे पूछा जाऐ तो वह, यह कहते है, कि जिस प्रकार एक डॉक्टर अपना ईलाज़ स्वयं नहीं कर सकता उसी तरह हम स्वयं अपनी समस्या का समाधान नहीं कर सकते। जो साधक ऐसा कहते है, यह पूर्णतः मिथ्या प्रचार है। अगर आप मन, कर्म, वचन से पवित्र हैं और पूर्णतः देवता का ही आवेश है, तो आपके घर परिवार में किसी भी प्रकार की कोई भी परेशानी नहीं होगी। जिन साधकों के घरों में यह परेशानियाँ है, वह साधक मन, कर्म, वचन से पवित्र नहीं है अथवा देवता के आवेश के स्थान पर भूत या प्रेत का आवेश है। आज का जो समय है, इसमें सबसे ज्यादा जो देखने को तन्त्र मिलता है, वह ओझा, गुणी या आवेश वाले तान्त्रिकों का अधिक है। सिद्ध तान्त्रिक तो बहुत ही कम देखने को मिलते है। अघोर-विद्या के जो भी सिद्ध तान्त्रिक थे, वह भी धीरे-धीरे समाप्त होते जा रहे है। भैरवी-साधना का तो बड़ी मुश्किल से ही कोई नाम लेवा बचा है। कोई माने या न माने किन्तु सभी साधनाऐं धीरे-धीरे समाप्त होती जा रही है।

इसके मूल में जो कारण है, वह यही है कि तान्त्रिकों का व्यभिचारी होना एवं शिष्यों की आस्था का न होना। जब तक गुरू और शिष्य दोनों के ही अन्दर श्रद्धा भाव नहीं होगा और दोनों ही ब्रहम् के प्रति समर्पित नहीं होगे, तब तक तन्त्र का उत्थान सम्भव नहीं है। प्राचीन काल में जो भी साधना की जाती थी, उसके मूल में गुरू और शिष्य का एक ही उद्देश्य होता था कि अधिक से अधिक ऊर्जा का इकट्ठा करना एव कुन्डलिनी-शक्ति को जाग्रत करते हुऐ, उस के द्वारा ब्रहम् को प्राप्त करना। ऊर्जा शक्ति को इकट्ठा करने हेतु, फिर चाहे सात्विक साधना करनी पड़े या तामसिक। साधना कोई भी क्यों न हो सभी साधनाऐं हमें ऊर्जा प्रदान करती है। अगर इस ऊर्जा का हम सही इस्तेमाल करें, तो हम पूर्ण ब्रहम् को प्राप्त कर सकते हैं। अगर हमारा उद्देश्य पवित्र है, तो फिर कोई भी शक्ति हमें उस परमात्मा से मिलने से रोक नहीं सकती।

हम सभी का कर्तव्य है कि एक बार फिर से एक नये युग की रचना हो और जितनी भी साधनाऐं लुप्त होती जा रही है, उन सबको पुनः स्थापित करें।अगर हमने समय रहते अपने आपको जागरूक नहीं बनाया तो एक दिन ऐसा आयेगा, जब हमारी सभी प्राचीन धरोहर समाप्त हो जायेगी। अगर हम ध्यान-पूर्वक अध्ययन करें तो कुछ वक्त पहले वेदों का अध्ययन सभी करते थे, किन्तु आज के समय में अधिकतर व्यक्तियों को तो चार वेदों के नाम तक भी मालूम नहीं है। कैसी विड़म्बना है कि जिन चार वेदों से यह सम्पूर्ण सृष्टि बनी है हमें उन का नाम तक याद नहीं। अगर यही हाल रहा तो एक समय ऐसा भी आयेगा, जब हम धीरे-धीरे करके सब कुछ खो चुके होगें। किन्तु कहते है कि ‘फिर पछतायेत होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत’ इसलिये हम आवाहन करते है, उन साधकों का जो सही मायने में हिन्दु धर्म कि सभ्यता को और हिन्दु धर्म के मूल तत्त्व श्रद्धा और भावना को बचाना चाहते है।

अगर हमने समय के रहते अपने आप को नहीं संभाला तो एक समय ऐसा भी आऐगा, जब हमारी हालत पश्चिमी सभ्यता से भी बुरी हो जाऐगी। पश्चिम के देशों की नकल करके हम अपने आप को महान समझ रहे है। ध्यान-पूर्वक अध्ययन करने पर पता चलता है कि आज वही पश्चिमी देश वेद-मंत्रों और गीता के ऊपर अनुसंधान (रिसर्च) कर रहे है। आर्य सभ्यता में 21 वीं सदी के अन्दर धीरे-धीरे जहाँ यह कहा जाने लगा है कि वेदों में क्या रखा है। वही पश्चिमी देशों ने वेदों का अध्ययन करके अपनी ध्यान-योग की शक्ति को इतना अधिक बढ़ा लिया है, कि जिसके बारे में हिन्दुस्तान का आम व्यक्ति सोच भी नही सकता। हिन्दुस्तान का आम व्यक्ति पश्चिमी सभ्यता की देन रेकी, लामाफैरा, क्रिश्टल-हीलिंग, फैंग-शूई, टच-थेरेपी आदि की तरफ भाग रहा है। वही पश्चिम का आम व्यक्ति हिन्दुस्तान के प्राचीन ग्रन्थों का अनुसंधान करने में लगा हुआ है। इसे हम अपना दुर्भाग्य ही कहगें कि आर्यों के पास सब कुछ होते हुऐ भी, वह पश्चिम के देशों की नकल कर रहा है। इसलिऐ हम सबको फिर से जागना होगा और जगाना होगा आम व्यक्ति को, ताकि लुप्त होती जा रही आर्य सभ्यता को समय के रहते बचाया जा सके।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है...
मनीष