Wednesday, September 30, 2015

श्रीमद् भागवत Srimdbhagwat Part (1)

सृष्टि के आरंभ से कलियुग तक की कथा है भागवत
श्रीमद् भागवत पुराण वैष्णव संप्रदाय सहित अन्य संप्रदायों के लिए सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ है। इसमें भगवान विष्णु के विभिन्न प्रमुख 24 अवतारों का वर्णन है, किंतु श्री कृष्ण चरित्र इसमें प्रधान माना जाता है।श्रीमद्भागवत की रचना महर्षि कृष्णद्वैपायन व्यास (वेद व्यास) ने ब्रह्मर्षि नारद की प्रेरणा से की।क्यों लिखी - कथा प्रचलित है कि महाभारत जैसे महाग्रंथ की रचना के बाद भी वेद व्यास संतुष्ट और प्रसन्न नहीं थे, उनके मन में एक खिन्नता का भाव था। तब श्री नारद ने वेद व्यास को प्रेरणा दी कि वे एक ऐसे ग्रंथ ही रचना करें जिसके केंद्र में भगवान विष्णु हों। इसके बाद वेद व्यास ने इस ग्रंथ की रचना की। श्रीमद् भागवत के 12 स्कंध हैं तथा 18 हजार श्लोक हैं। भारतीय पुराण साहित्य में श्रीमद् भागवत को समस्त श्रुतियों का सार, महाभारत का तात्पर्य निर्णायक तथा ब्रह्म सूत्रों का भाष्य कहा जाता है।इसमें सृष्टि की रचना से लेकर कलियुग यानी सृष्टि के विनाश तक की कहानी है। इसमें भगवान के अवतारों की कथाओं के जरिए जीवन में कर्म और अन्य शिक्षाओं को पिरोया गया है। भागवत व्यवहारिक और गृहस्थ्य जीवन का ग्रंथ है। इसमें आम जीवन में उपयोगी कई बातों को गूढ़ कथाओं में समझाया गया है। श्री वेद व्यास के पुत्र शुकदेव को इस कथा श्रेष्ठ कथाकार माना गया है। वे इस कथा का संपूर्ण मर्म जानते थे। उन्होंने ही इसे आमजनों में प्रचारित किया।

क्या है भागवत के 12 स्कंधों में

भागवत 12 स्कंधों में बंटी है, इन स्कंधों में कई अध्याय है। ग्रंथ का प्रारंभ भागवत माहात्म से होता है। जिसमें देवर्षि नारद की भक्ति से भेंट होती है, भक्ति के दोनों पुत्र ज्ञान और वैराग्य वृद्धावस्था और कमजोरी की हालत में होते हैं। नारद उन्हें इसका उपचार बताते हैं। इसके बाद गोकर्ण और धुंधुकारी की कथा है।

प्रथम स्कंध कथा

इसमें अवतार वर्णन, महाभारत युद्ध के पश्चात की कथा, परीक्षित श्राप व शुकदेव आगमन है। भगवान की सभी लीलाओं का संक्षिप्त वर्णन, अश्वत्थामा द्वारा द्रोपदी के पांच पुत्रों को मारना, अर्जुन और अश्वत्थामा का युद्ध, उत्तरा के गर्भ की रक्षा, भीष्म का प्राण त्याग, कृष्ण के महाप्रयाण के बाद अर्जुन का लौटना और पांडवों का स्वर्गारोहण। पात्र : श्रीकृष्ण, सूतजी, शौनकादि ऋषि, अश्वत्थामा, पांडव, द्रोपदी, विदूर आदि।

द्वितीय स्कंध कथा 

इसमें शुकदेव द्वारा कथारंभ है, जिसमें सृष्टि आरंभ का वर्णन है। भगवान के स्थूल और सूक्ष्म रूपों का वर्णन, भगवान के विराट स्वरूप की कथा, भागवत के दस लक्षण। पात्र : शुकदेव, विदूर, मैत्रेयी, परीक्षित आदि।

तृतीय स्कंध कथा

सृष्टि विस्तार, सांख्य तत्व उत्पत्ति, योग विषयक, उद्धव और विदूर की वार्ता, विराट शरीर की उत्पत्ति, ब्रह्माजी की उत्पत्ति, वाराह अवतार कथा, दिति का गर्भधारण, जय-विजय को सनकादिक ऋषि का शाप, हिरण्यकक्षिपु और हिरण्याक्ष का जन्म, दिग्विजय, वध, देवहुति और कर्दम ऋषि का विवाह आदि प्रसंग। पात्र - विदूर, उद्धव, मैत्रेयी, जय-विजय, भगवान विष्णु, ब्रह्मा, हिरयणकक्षिपु, हिरण्याक्ष आदि।

चतुर्थ स्कंध कथा

शिव कथा, स्वायम्भुव मनु की पुत्रियों का वंश वर्णन, ध्रुव की कथा, राजा वेन और पृथु की कथा, पृथ्वी का दोहन, राजा पुरंजय की कथा, प्रचेता कथा। पात्र : भगवान शिव, सति, प्रजापति दक्ष, धु्रव, राजा वेन, पृथु, पृथ्वी, पुरंजय, प्रचेता आदि।

पंचम स्कंधकथा 

ऋषभदेव चरित्र, भरत चरित्र, भुवनकोश का वर्णन, गंगा का वर्णन, शिशुमारचक्र का वर्ण, राहु आदि का वर्णन, अन्यान्य लोको का वर्णन। पात्र : राजा प्रियव्रत, आग्रिध, नाभि, ऋषभदेव, भरत, जड़भरत, रहूगण, शिव, संकर्षण और राहु।

षष्ठ स्कंधकथा

प्रजापति वंश वर्णन, इंद्र ब्रह्म हत्या, अजामिल की कथा, दक्षपुत्रों की कथा, विश्वरूप का वर्णन, वृत्रासुर का वध, चित्रकेतु का वैराग्य, अदिति और दिति की संतानों का वर्णन। पात्र : दक्ष, नारद, विष्णु, चित्रकेतु, अजामिल, वृत्रासुर, कश्यप, अदिति-दिति आदि।

सप्तम स्कंधकथा

प्रह्लाद चरित्र, नरसिंह अवतार, हिरण्यकशिपु का वध, मानव, राजधम और स्त्रीधर्म का निरुपण, गृहस्थों के लिए मोक्षधर्म का वर्णन। पात्र - नारद, युधिष्ठिर, जय-विजय, हिरण्यकशिपु, नरसिंह, आदि।

अष्टम स्कंध कथा

प्रमुख रूप से देवासुर संग्राम कथा, मनवंतरों का वर्णन, समुद्रमंथन, मोहिनी अवतार की कथा, राजा बलि की स्वर्ग पर विजय, वामन अवतार की कथा। पात्र : ब्रह्मा, विष्णु, शिव, इंद्र, बलि, बृहस्पति, मनु, कश्यप, अदिति आदि।

नवम् स्कंध कथा

मनुवंश की कथा, सूर्यवंश, श्रीराम लीला, भगीरथ का तप से गंगा को पृथ्वी पर लाना, परशुराम द्वारा क्षत्रियों का संहार, ययाति चरित्र आदि। पात्र : वैवस्तव मनु, नाभाग, अंबरीष, भगीरथ, सगर, निमि, ऋचिक, जमदग्रि, परशुराम, दशरथ, श्रीराम आदि।

दशम स्कंध कथा

वसुदेव देवकी का विवाह, कंस द्वारा बंदी बनाया जाना, श्रीकृष्ण जन्म, ब्रज में श्रीकृष्ण की बाललीलाएं, असुरों का वध, कंस वध, श्रीकृष्ण की शिक्षा, विवाह, पांडवों की कथा, पांडवों को वनवास, कौरवों की हठ, महाभारत युद्ध, गीता उपदेश। पात्र : श्रीकृष्ण, वसुदेव, देवकी, बलराम, नंद, यशोदा, कंस, अक्रूर, उद्धव, गोप-गोपियां, पांडव, कौरव आदि।

एकादश स्कंधकथा

अवधूत उपाख्यान, सांख्य क्रिया योग, विभिन्न आश्रमों पर उपदेश हैं।पात्र : राजा जनक, नारद, वसुदेव, श्रीकृष्ण आदि।

द्वादश स्कंधकथा

कलियुग धर्म, वंशावली व भागवत माहात्म का वर्णन है।

यह सीखें भागवत से

श्रीमद् भागवत से प्राप्त भक्ति, ज्ञान और वैराग्य जीवन में बदलाव लाते हैं। मनुष्य अधर्म अर्थात गलत कार्यों को छोड़कर धर्म के अर्थात अच्छाई के मार्ग पर चलता है।

- जब मनुष्य प्रत्येक वस्तु या प्राणी में ईश्वर को देखता है तो अन्याय, अनीति, अत्याचार और अपमान करने से बचता है। उसमें दया और सद्भाव के गुण आते हैं।


- माया-मोह, लोभ, मद और वासना जैसी बुराइयों से मुक्त हो जाता है।


- आज जब सारे संसार में आपसी द्वेष और स्वार्थ का युद्ध छिड़ा हुआ है, ऐसे में श्रीमद् भागवत ही संपूर्ण विश्व को मानवता, सद्भाव और संवेदनशीलता का संदेश दे सकती है।


- श्रीमद् भागवत केवल मानव-मानव के बीच ही नहीं प्राणीमात्र के प्रति हमें सहिष्णु बनाती है, वहीं प्रकृति और मनुष्य के बीच भी समन्वय स्थापित करती है।


- आवश्यकता इस बात की है कि हम श्रीमद् भागवत को आज के संदर्भ में समझें और जन-जन को इसके संदेश से परिचित कराएं।


युवाओं का ग्रंथ है श्रीमद्भागवत..!

युवाओं की यह सोच है कि धर्म ग्रंथ बुढ़ापे में पढ़ने के लिए होते हैं। श्रीमद्भागवत जैसे ग्रंथ को भी युवा नहीं पढ़ते हैं, इसे भी वृद्धावस्था में समय काटने का साधन मानते हैं लेकिन सच यह है कि यह ग्रंथ केवल युवाओं के लिए है। यह युवा अवस्था की ही कहानी है और इसमें जीवन प्रबंधन के जो फंडे हैं वे भी युवाओं के लिए हैं, जीवन के उपयोगी सूत्र हैं। आप जानते हैं महात्मा गांधी ने अपनी युवा अवस्था में इस ग्रंथ को पढ़ा था और उसके बाद ही उनके जीवन में वह बदलाव आया, जिसने उन्हें बेरिस्टर मोहनदास गांधी से महात्मा गांधी बना दिया। इसमें जीवन प्रबंधन के गूढ़ रहस्य हैं, जिन्हें कई लेखक प्रेरित होकर जीवन प्रबंधन की अपनी किताबों में शामिल कर रहे हैं। आइए जानते हैं ऐसा क्या है श्रीमद्भागवत में..।

वास्तव में भागवत पुराण भगवान विष्णु के अवतारों की कहानी है। भगवान के चौबीस अवतारों का वर्णन है, जिसमें भगवान ने जीवन में सफलता के सूत्र स्थापित किए हैं। महर्षि वेद व्यास ने इसकी रचना करते समय युवाओं को ही ध्यान में रखा, इसलिए इस पूरे ग्रंथ के सूत्रधार दो युवा ही हैं। पहले हैं राजा परीक्षित जिन्होंने यह कथा सुनी और दूसरे हैं वेद व्यास के 16 वर्षीय पुत्र शुकदेव जिन्होंने राजा परीक्षित को यह कथा सुनाई। इस ग्रंथ की विशेषता यह है कि इसमें जितनी भी कहानियां हैं, अधिकांश युवाओं की है जिन्होंने अपने युवा जीवन में अद्भुत कर्म किए। इसमें वृद्धावस्था का वर्णन बहुत थोड़ा है, सारे युवा राजाओं, भगवान के अवतारों की ही कथा है। जिनके जरिए यह संदेश दिया गया है कि अगर मनुष्य अपने लक्ष्य को जल्द ही पहचान ले तो वह बहुत कम समय में कैसे अधिक सफलता हासिल कर सकता है और जीवन के सारे सुख भोग सकता है। यह ग्रंथ युवा अवस्था के ऐसे डर को दूर करता है जो अमूमन हर व्यक्ति के जीवन में होते हैं। अगर आपके जीवन में भी ऐसे कोई डर हों, सही रास्ता नहीं सूझता हो, मन में अशांति रहती हो तो श्रीमद्भागवत का पाठ करें और इसमें छिपे सफलता के सूत्रों को समझने का प्रयास करें, आपको खुद के भीतर ही परिवर्तन महसूस होने लगेगा


यहां से शुरू होती है भागवत

श्रीमद्भागवत महापुराण की शुरुआत महात्म्य से होती है। ऐसी मान्यता है कि हर ग्रंथ के पाठ से पहले उसके महात्म्य की बात की जाती है। महात्म्य का अर्थ होता है महत्व, कुछ विद्वान इसका अर्थ महानता से भी लेते हैं। श्रीमद् भागवत में महात्म्य के छह अध्यान हैं। इसमें मुख्य पात्र सूतजी, शौनक आदि ऋषि, व्यास, नारद, शुकदेव, धुंधकारी व गोकर्ण है।

भागवत में कुल 12 स्कंध हैं। माहात्म्य इनके अतिरिक्त है। माहात्म्य सबसे पहले बताया गया है। छह छोटे अध्यायों में बंटे माहात्म्य की कथा नारद की भक्ति से भेंट के साथ शुरू होती है। नारद पृथ्वी पर आते हैं और कलियुग में पृथ्वी की दुर्दशा देखकर दु:खी होते हैं। तब यमुना के तट पर उन्हें एक स्त्री दिखाई देती है। पूछने पर पता चलता है वह भक्ति है। उसके साथ दो पुत्र भी मिलते हैं जो थके हुए हैं। एक ज्ञान है दूसरा वैराग्य। भक्ति के निवेदन पर नारद दोनों पुत्रों को नींद से जगाते हैं और उनकी थकान दूर करते हैं। कलियुग में धर्म की स्थापना के लिए भक्ति, ज्ञान और वैराग्य को भागवत का माहात्म्य बताया जाता है और तीनों संतुष्ट होते हैं। 

इसी के साथ माहात्म्य की कथा आगे बढ़ती है। इसी में आत्मदेव का प्रसंग है। आत्मदेव एक ब्राह्मण था। उसकी पत्नी धुंधुलि झगड़ालु थी। दोनों नि:संतान थे। एक दिन संतान न होने पर द़ु:खी आत्मदेव को एक संन्यासी मिला। संन्यासी ने आत्मदेव को एक फल दिया और कहा कि इसे पत्नी को खिलाना, तब पुत्र की प्राप्ति होगी। आत्मदेव ने फल अपनी पत्नी धुंधुलि को दिया लेकिन धुंधुलि ने फल खुद न खाते हुए अपनी बहन को दे दिया। बहिन पहले से गर्भवती थी। उसने वह फल गाय को खिला दिया। कुछ समय बाद बहिन को पुत्र हुआ और उसने वह पुत्र अपनी बहिन धुंधुलि को दे दिया। आत्मदेव और धुंधुलि के इस पुत्र का नाम धुंधुकारी रखा गया। इधर जिस गाय को संन्यासी का दिया फल खिलाया गया था उसने भी मनुष्य रूप में एक शिशु को जन्म दिया। इसका नाम गोकर्ण रखा गया।

दोनों बालक धुंधुकारी और गोकर्ण साथ पले-बढ़े। गोकर्ण ज्ञानी हुआ तो धुंधुकारी दुष्ट निकला। धुंधुकारी ने बुरी संगत में पड़कर पिता की सारी संपत्ति नष्ट कर दी। उसके ऐसे आचरण से दु:खी पिता आत्मदेव को दूसरे पुत्र गोकर्ण ने समझाइश दी और आत्मदेव मोह त्यागकर वन में चले गए। इधर धुंधुकारी ने अपनी मां को पीटना शुरू किया। वह पांच वेश्याओं के चक्कर में पड़ गया। वेश्याओं ने उससे धन व आभूषण मांगे और नहीं देने पर उसकी हत्या कर दी। धुंधुकारी प्रेत बना। कुछ समय बाद गोकर्ण की अपने प्रेत बने भाई से मुलाकात हुई। तब गोकर्ण ने अपने प्रेत भाई धुंधुकारी को भागवत की कथा सुनाई और उसकी मुक्ति हुई। इस तरह भागवत के इस माहात्म्य के स्कंध में गोकर्ण और धुंधुकारी की कथा के माध्यम से भागवत सुनने के फायदे बताए गए हैं। धुंधुकारी जिन पांच वेश्याओं के चक्कर में थे वे प्रतीक रूप में इंद्रियां हैं। इंद्रियों के वश में पड़े धुंधुकारी का नाश हुआ और वह अकाल मृत्यु मर कर प्रेत बना। उसी का भाई गोकर्ण ज्ञानी हुआ और भागवत सुनाकर उसने अपने प्रेत भाई को मुक्त किया।


कौन हैं सूतजी और वेद व्यास

सूतजी- पुराणों में सूतजी को परम ज्ञानी ऋषि कहा गया है। वे भागवत की कथा सुनाते हैं। कथा सुनने वालों में शौनक सहित 84 हजार ऋषि शामिल हैं। शौनक- ये भी ऋषि हैं। जिज्ञासु और भागवत कथा के रसिक हैं। वे सूतजी से कथा सुनते हैं। वेद व्यास- ये विष्णु के अंशावतार माने गए हैं। उन्होंने ब्रह्मासूत्र, महाभारत के अलावा भागवत सहित 18 पुराण लिखे। इन्होंने ही वेदों का विभाजन किया। इसलिए इन्हें वेद व्यास कहा जाता है |

जवान मां के बूढ़े बच्चे हैं ये

यह सुनने में अजीब लगता है लेकिन सत्य है। श्रीमद् भागवत महापुराण की कथा यहीं से शुरू होती है। ये कथा भागवत का महात्म्य है। हर ग्रंथ के शुरुआत में उसका महात्म्य होता है। भागवत के इसी महात्म्य में यह कथा है, जब नारद मृत्युलोक यानी पृथ्वी पर भ्रमण करते हैं और उन्हें एक युवती रोती दिखाई देती है। उसकी गोद में सिर रख दो बूढ़े पुरुष सो रहे हैं, दोनों बहुत कमजोर और बीमार दिखाई दे रहे हैं। जब नारद उस युवती से पूछते हैं तो वह बताती है कि दोनों बूढ़े पुरुष उसके पुत्र हैं। यह सुनकर नारद को बड़ा आश्चर्य होता है, एक जवान स्त्री के बच्चे इतने बूढ़े कैसे हो सकते हैं।

तब वह युवती बताती है कि वह भक्ति है और उसके दोनों बूढ़े पुत्र पहले स्वस्थ्य और जवान थे लेकिन कलियुग में उनकी यह दुर्दशा हो गई है। दोनों पुत्रों के नाम थे ज्ञान और वैराग्य। तब नारद भक्ति को श्रीमद् भागवत का श्रवण करने का उपाय बताते हैं, जिससे उसके बूढ़े बच्चे ज्ञान और वैराग्य फिर स्वस्थ्य और जवान हो गए। कथा यह बताती है कि कलियुग यानी आधुनिक युग में लोगों में भक्ति तो होगी लेकिन ज्ञान और वैराग्य का अभाव होगा। ज्ञान इसलिए नहीं होगा क्योंकि लोग धर्म शास्त्रों का अध्ययन करना छोड़ देंगे। ज्ञान नहीं होगा तो मन में वैराग्य का भाव नहीं आएगा। भक्ति अधूरी ही रहेगी, ज्ञान और वैराग्य के बिना। परम ज्ञान के लिए भागवत का अध्ययन सबसे श्रेष्ठ उपाय है। इससे हमें सारी सृष्टि का ज्ञान होता है और जीवन को नई दृष्टि मिलती है।


लक्ष्मी ने मांगा विष्णु को
भागवत में भगवान विष्णु के अवतार वामन और राजा बलि का प्रसंग आता है। दैत्यराज बलि दानवीर था। वह किसी को खाली हाथ नहीं जाने देता था। भगवान वामन ने राजा बलि से तीन पग जमीन मांगी। दानी बलि वामनदेव को तीन पग जमीन देने के लिए मान गए।

वामनदेव ने एक पग में स्वर्ग और दूसरे पग में पृथ्वी को नाप लिया। जब भगवान वामन ने दो ही पग में स्वर्ग और पृथ्वी नाप ली तो तीसरा पैर कहां रखे? इस बात को लेकर बलि के सामने संकट उत्पन्न हो गया। वचन के पक्के बलि अपना सिर भगवान के सामने कर दिया और कहा हे देव तीसरा पग आप मेंरे सिर पर रख दीजिए। भगवान वामन ने वैसा ही किया और पैर रखते ही बलि सुतल लोक में पहुंच गया।


बलि की उदारता से भगवान बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने उसे सुतल लोक का राजा बना दिया और वर मांगने के लिए कहा। बलि ने वर मांगा कि भगवान विष्णु आप मेरे द्वारपाल बनकर रहें। विष्णु ने उसे यह वर प्रदान किया और वे बलि के द्वारपाल बनकर रहने लगे। इससे विष्णुप्रिया लक्ष्मीजी चिंता में पड़ गईं कि अगर स्वामी सुतल लोक में द्वारपाल बन कर रहेंगे तब बैकुंठ लोक का क्या होगा? देवी लक्ष्मी ऐसा विचार कर ही रही थी कि देवर्षि नारद वहां आ गए। देवर्षि को देख लक्ष्मीजी ने उन्हें अपनी समस्या कह सुनाई। नारदजी ने कहा कि आप राजा बलि को अपना भाई बना लीजिए। लक्ष्मीजी ने वैसा ही करा और राजा बलि को रक्षासूत्र बांधकर भाई बना लिया। तब बलि ने बहन लक्ष्मी से वर मांगने के लिए कहा। लक्ष्मीजी ने तुरंत ही अपने स्वामी भगवान विष्णु को वर में मांग लिया। इस तरह देवी लक्ष्मी को भगवान विष्णु पुन: मिल गए।


श्रीहरि ने बचाए गजेंद्र के प्राण

भागवत के अनुसार तामस मन्वंतर में हरिमेधा ऋषि की पत्नी हरिणि के गर्भ से श्रीहरि के रूप में भगवान विष्णु ने अवतार लिया। इसी अवतार में उन्होंने मगरमच्छ से गजेन्द्र हाथी की रक्षा की।गजेंद्र एक हाथी था। गजेंद्र पूर्व जन्म में द्रविड़ देश का इन्द्रद्युम्र नाम का राजा था। जो कि भगवान का अनन्य भक्त था। भक्ति के वश होकर राजा ने सबकुछ छोड़कर पर एक पर्वत पर मौनव्रत धारण कर रहने लगा। पर्वत पर वह कठोर तप में लीन हो गया। एक दिन उनके पास महर्षि अगस्त्य आए परंतु इंद्रद्युम्र भगवान की भक्ति में इतने खोए थे कि उन्हें पता ही नहीं चला कि महर्षि अगस्त आए हैं। इसी कारण इन्द्रद्युम्र ने अगस्त मुनि की न आवभगत की और न ही उनके चरण-स्पर्श किए। तब अगस्त्य मुनि ने उनको हाथी बनने का शाप दे दिया था। इसी शाप के प्रभाव से इन्द्रद्युम्र अगले जन्म में गजेंद्र नाम का हाथी बना।

गजेंद्र हाथी अन्य हाथियों के साथ एक सरोवर में पानी पीने के लिए गया लेकिन पानी पीने के बाद वह सरोवर में साथी हाथियों के साथ जलक्रीड़ा करने लगा। इसी दौरान सरोवर में एक मगरमच्छ ने गजेंद्र का एक पैर पकड़ लिया। हाथी ने पहले तो खुद को बचाने के बहुत प्रयास किए परंतु उसके सारे प्रयास असफल हो गए। अब गंजेंद्र ने मृत्यु निश्चित मानकर भगवान का स्मरण आरंभ कर खुद को भगवान की शरण में छोड़ दिया। गजेंद्र को अपने पूर्वजन्म में की गई भगवान की आराधना का स्मरण था। उस समय गजेंद्र ने परमात्मा की जो प्रार्थना की वह गजेंद्र मोक्ष त के नाम से प्रसिद्ध हुई। गजेंद्र की प्रार्थना सुन कर भगवान विष्णु वहां आए और गजेंद्र को उस मगर से बचाया। विष्णु का यह अवतार श्रीहरि अवतार कहा गया है। भगवान श्रीहरि ने गजेंद्र के प्राणों की रक्षा की तथा मोक्ष प्रदान कर अपना पार्षद बनाया।


भक्ति सिखाती है भागवत

श्रीमद् भागवत कथा भक्ति, ज्ञान और वैराग्य को स्थापित करती है। नारदजी कहते हैं अनेक जन्मों के पुण्य इकट्ठे होते हैं तो सत्संग मिलता है जिससे मनुष्य का मोह-मद का अंधकार हट जाता है तथा विवेक का उदय होता है। भागवत में धुंधुकारी प्रसंग बताता है कि किस तरह मनुष्य वेश्यारूपी पांच इंद्रियों की इच्छाएं पूरी करने में जीवन नष्ट कर देता है और अंत में वह प्रेत बन जाता है, जिसे भागवत कथा सुनने के बाद मुक्ति मिलती है। भागवत के पहले स्कंध में प्रमुख रूप से कलियुग से प्रभावित राजा परीक्षित की मुक्ति का प्रसंग हमें संदेश देता है कि जीवन का मुख्य लक्ष्य जीवन-मरण के चक्कर से मुक्ति पाना है। जीवन का जो समय बचा है उसे इस दिशा में ले जाएं।

भागवत में स्कंध-दर-स्कंध आगे बढ़ती कथा के विभिन्न प्रसंगों के माध्यम से यही समझाया गया है कि इस संसार के पहले भी एकमात्र ईश्वर था और इस दिखाई देने वाले सारे संसार में वही ईश्वर है। जब यह संसार खत्म होगा तो यही ईश्वर शेष रह जाएगा। प्राणियों के शरीर के रूप में पंचभूत (आकाश, पृथ्वी, वायु, जल और अग्नि) ईश्वर हैं तो आत्मा के रूप में ईश्वर है। कहने का तात्पर्य यही है कि संपूर्ण संसार में एकमात्र ईश्वर ही है। ईश्वर ही वास्तविकता है। इसलिए हमें सभी में ईश्वर को ही देखना चाहिए। श्रीमद् भागवत हमें ईश्वर को समझने के लिए पहले भक्ति सिखाती है, फिर इसका ज्ञान देती है। भक्ति और ज्ञान से जब हम ईश्वर की सत्ता को समझ लेते हैं तो मन वैराग्य की ओर मुड़ जाता है। इस स्थिति में श्रीमद् भागवत हमें वास्तविक वैराग्य से परिचित कराती है।


क्रमश:...


जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है.....
.मनीष

Tuesday, September 22, 2015

Jeene Ki Rah9 (जीने की राह)

अध्यात्म में संसार का समाधान
जीवन और संसार दोनों गतिशील हैं। बदलते संसार को भौतिकता से पकड़िए। नित, नए हो रहे जीवन को आध्यात्मिकता से जानिए। स्थितियां चाहे निराशाजनक हों, प्रतिकूल हों इन दोनों से समझौता मत कीजिए। किष्किंधा कांड में हनुमानजी के माध्यम से सुग्रीव को राज्य मिल गया। श्रीराम ने कहा, ‘चार मास के लिए मैं वन में जाता हूं, आप राज करो और उसके बाद सीताजी को ढूंढ़ेंगेे। उनके जीवन का सर्वाधिक विपरीत काल चल रहा था।

कोई और होता तो निराशा में टूट जाता, लेकिन श्रीराम हमें समझा रहे हैं कि हमारे पास सबसे बड़ी पूंजी हमारे होने की है, हमारी आत्मा की है। किंतु हम आत्मा को भूलकर बाहर की स्थितियों पर आश्रित हो जाते हैं। तुलसीदासजी ने दोनों भाइयों की बातचीत का वर्णन बड़ी सुंदर चौपाइयों में किया है, ‘कहत अनुज संग कथा अनेका, भगति विरती विरह अनेक विवेका।श्रीराम छोटे भाई लक्ष्मण से भक्ति, वैराग्य, राजनीति और ज्ञान, चार तरह की बातें कर रहे थे। भक्ति तथा वैराग्य का संबंध अध्यात्म से है और राजनीति तथा ज्ञान का संबंध भौतिकता से है। वे हमें भी सिखा रहे हैं कि जीवन में जब निराशा आ जाए, आप संघर्ष की स्थिति में हों तो अपने लोगों के साथ बैठकर संसार और अध्यात्म दोनों की चर्चा करें।

दोनों के श्रेष्ठ को भीतर उतारें। अगर हमने संसार को, उसके बदलाव को ठीक से समझा, जीवन जो प्रतिपल नया है उसको पकड़ लिया तो इसका एक सुपरिणाम यह होता है कि हमें समाधान दिखने लगता है, क्योंकि कभी-कभी अध्यात्म का समाधान संसार में और संसार का समाधान अध्यात्म में मिल जाता है। श्रीराम किष्किंधा कांड में उस समय यही कर रहे थे। आगे की घटनाएं जो होने वाली हैं यह सब उसी की तैयारी थी। हम भी सबक लें, क्योंकि हमारे जीवन में भी ऐसी घटनाएं होती रहेंगी।

भीतर के विष का विसर्जन करें
जब भी नाग का नाम आता है उसे विष के साथ ही जोड़ा जाता है। सर्पदंश मतलब मौत की दस्तक। परंतु भारतीय संस्कृति ने तो पेड़-पौधे और प्राणियों को अपने ढंग से प्रतीक मानकर पूजा है। भगवान शंकर का आभूषण है सर्प। कथा है कि समुद्र मंथन से निकले विष का जब शिवजी पान कर रहे थे तो विष की कुछ बूंदें पृथ्वी पर गिर गई। जिन जीव-जंतुओं ने उसे पी लिया वे विषैले हो गए, इसलिए वे निर्दोष हैं। विषैला होने के कारण जंतु को मार डाला जाए, यह अपराध है।

विष की बात करें तो बहुत सारा विष आधुनिक मनुष्य ने भी निर्मित किया है, जो जीव-जंतुओं में मौजूद विष से भी खतरनाक है। हमारे भीतर जब काम, क्रोध, मद और लोभ जैसे दुर्गुण अंगड़ाइयां लेते हैं तो शरीर में हार्मोनल चेंज होता है, वह एक तरह का विष निर्माण ही है। अर्थी ले जाते लोगों को देखिएगा थोड़ी-थोड़ी देर में कंधे बदलते जाते हैं। अर्थी वही है, कंधे बदले जा रहे हैं। हम भी यही कर रहे हैं। एक के बाद एक विष स्वयं तैयार कर रहे हैं, जुड़ रहे हैं, हट रहे हैं और शरीर को लगभग अर्थी बना लेते हैं। फिर इन्हीं विष को आज का फैशनेबल संसार नए-नए ढंग से प्रस्तुत करता है। सर्वाधिक उपयोगी वस्तु मोबाइल भी अपने गैर-जिम्मेदाराना उपयोग के कारण विष उगलने लगेगी।

बस, यह है कि सांप का काटा ज्यादा देर जिंदा नहीं रहेगा, लेकिन मोबाइल का डंसा हुआ धीरे-धीरे एक ऐसे विष को अपने भीतर पैदा कर लेगा, जो बाद में कहीं न कहीं अपना असर दिखाएगा। इसलिए आज नागपंचमी के दिन इस पर विचार किया जाए कि जो विष हम निर्मित कर रहे हैं आज उसका भी विसर्जन किया जाए। सावधान रहा जाए, क्योंकि मनुष्य का शरीर बेशकीमती है इसे कम से कम उस विष से तो समाप्त न करें, जिसे हम रोक सकते हैं।

विनम्रता से आती है शांति
प्रयास कीजिएगा कि दिनभर में जितने भी लोग मिलें उनको कुछ न कुछ जरूर दीजिए। कोई ऐसी चीज दीजिए, जिसमें आपको आर्थिक दबाव न हो और सामने वाले की स्मृति में स्थायी रूप से टिक जाए। ऐसी ही एक चीज है विनम्रता। कहते हैं विनम्रता भक्त का गहना होती है। आपका किसी भी धर्म से संबंध हो, लेकिन भक्ति में विनम्रता जरूर उतारिए। छोटे व्यक्ति से मिलें या बड़े से, विनम्रता मत खोइए। हममें से अधिकांश लोगों का कभी रेलवे स्टेशन पर कुली या ऑटो वाले से झगड़ा जरूर हुअा होगा। ये भले लोगों के बीच चलने वाली स्थायी लड़ाइयां हैं। कुछ गृहिणियां बाइयों से भी पंगा ले चुकी होंगी, लेकिन विनम्रता न खोएं।

खासतौर पर विरोध करते समय जरूर विनम्र बने रहें। इससे विरोध में शालीनता आती है। लेकिन विनम्रता होती क्या है? अगर सांसारिक दृष्टि से विनम्रता को लेंगे तो वह प्रदर्शन है, सिर्फ व्यावसायिक अंदाज है। अध्यात्म कहता है विनम्रता आपका निजी प्रेमपूर्ण कृत्य होना चाहिए। समझ लीजिए विनम्रता ईश्वर की आज्ञा है, तो हम विनम्रता भगवान के लिए अपना रहे हैं। हम किसी मनुष्य से विनम्रता के साथ व्यवहार कर रहे हैं, लेकिन भीतर से हम भगवान की सेवा कर रहे हैं।

विनम्रता का सीधा अर्थ है यह जो उठा-पटक दुनिया में चल रही है, मैंने इससे अपने आपको अलग कर लिया है, क्योंकि मैं एक परमशक्ति से जुड़ा हूं। मैं उसी के आदेश पर चलूंगा, इसलिए विनम्रता दूसरों को प्रभावित करने का कृत्य न होकर स्वयं को आनंद में डुबाने वाला सत्कर्म होना चाहिए। धीरे-धीरे आप पाएंगे लगातार जी गई विनम्रता अपने आप शांति पैदा कर देगी। जिस शांति की खोज के लिए हम बड़े-बड़े आयोजन करते हैं वह शांति इस विनम्रता नाम के भाव से आ सकती है।

अपने परिवार को सत्संग से जोड़ें
संसार में रहते हुए हम स्वयं कुछ बातों से प्रेरित होते हैं और दूसरों को भी प्रेरित करते हैं। हम शिक्षा, व्यवसाय, प्रतिष्ठा अर्जित करने जैसे कई बातों के लिए प्रेरित करते हैं। इसके साथ जब भी अवसर मिले, अपने लोगों को सत्संग के लिए जरूर प्रेरित करें। इसे केवल कथा-प्रवचन न समझ लिया जाए। जहां भी अच्छे विचार मिलें, जीवन ऊपर उठाने के लिए जो भी सिद्धांत मिलें वह सत्संग है।

हम सुखी जीवन के लिए, जितने सूत्र दूसरों को देते हैं यदि उसमें सत्संग शामिल नहीं हुआ तो बुद्धि, बल, शिक्षा यह सब घातक भी हो सकते हैं, क्योंकि सत्संग के अभाव में लोग शिक्षा-बल का दुरुपयोग करेंगे ही। हमारे अपने ऐसे लोग हैं जो समझदार, चतुर और पढ़े-लिखे भी हैं, पर गलत काम में लगे हुए हैं। इसलिए जिन पर अपना बस चले उन्हें सत्संग से जरूर जोड़िए। यह न सिर्फ उनके लिए, बल्कि समाज और राष्ट्र के लिए भी बड़ी सेवा होगी। सत्संग मनुष्य को भगवान या मोक्ष दिलाए या न दिलाए, सही रास्ता जरूर दिखा सकता है। आज तेजी से सामाजिक वातावरण बदला है। घर के बाहर निकलते हैं दुनिया नए रंग-रूप में दिखती है।

लौटने के बाद वैसी ही तैयारी घर में शुरू हो जाती है। किंतु यदि हम और हमारा परिवार सत्संग से जुड़ा है तो हमारे भीतर वह विवेक जाग्रत होगा कि समाज में भोग-विलास और दुष्कर्मों से घिरकर जो बदलाव आ रहा है वैसा हमारे घर में न आए। क्योंकि विकास के साथ समाज को बदलने में संस्कारों, नैतिक मूल्यों की चिंता नहीं की जाती। सारी चीजें भौतिक मानकों पर तौली जाती हैं, लेकिन परिवार के मामले में ऐसा नहीं हो सकता। इसलिए खूब शिक्षा आए, धन आए, बल आए, लेकिन संस्कार न खो जाएं, मूल्य न चले जाएं। यदि हम सत्संग से जुड़े हैं तो समाज की जो भी स्थिति हो, परिवार को जरूर बचा जाएंगे।


भीतर उतरकर रिश्ते ताजा करें
यदि ध्यान से सुनें तो हमारे भीतर बीती उम्र की आवाजें सुनाई देंगी। और गहरे उतरें तो कुछ लोगों के चेहरे दिख जाएंगे जो आपको संबोधित कर रहे होंगेे। आधुनिक जीवनशैली में रिश्तों को पकड़कर जीने में किसी की रुचि नहीं है। लोग माता-पिता तक से संबंध छोड़ने को तैयार हैं। ऐसे में अन्य रिश्ते गंभीरता से कौन निभाएगा? इसलिए हम कुछ समय अपने भीतर उतरें और स्वयं को पहचानें, क्योंकि भीतर से आप खुद को नहीं जोड़ेंगे तो आप धीरे-धीरे कमजोर होते जाएंगे।

कमजोर लोग किसी भी रिश्ते के साथ न्याय नहीं कर सकते। जब आप छोटे थे तो कुछ मित्रों, रिश्तेदारों के साथ बहुत समय बिताते थे। बड़े हुए तो नए लोग जिंदगी में आए और पुराने लगभग छूट गए। अब क्या करें? जब हम मेडिटेशन करते हैं तो गहरे उतरकर स्वयं से जुड़ जाते हैं। हमारी उस अंतर्स्थिति में हमें वे पुराने लोग याद भी आते हैं। हो सकता है आप दुखी हो जाएं या अच्छा भी लगे। किंतु थोड़ी सावधानी से यदि ध्यान के साथ भीतर उतरने का अभ्यास किया तो ध्यान में तो सब शून्य हो जाता है, पर जब आप ध्यान से लौटते हैं, तो आपकी स्मृति में बड़े स्वस्थ ढंग से वे पुरानी बातें, पुराने लोग उतर आएंगे।

नए से संबंध रखना ही है, लेकिन पुराने लोगों को याद करने का यह एक ढंग है। यह जो अंदर उतरने की क्रिया है ये आपको प्रेरित करेगी कि पुराने लोग मिलें तो भूल मत जाइए। हो सकता है आपकी व्यस्तता के कारण आपकी प्राथमिकताओं में पुराने लोग न हों, लेकिन अंतर्मन से जुड़े हुए लोग हर हाल में पुराने संबंधों को जब कभी भी वो किसी मोड़ पर मिलते हैं तो जरूर ताजे कर लेते हैं।

आचरण की मर्यादा कभी न छोड़ें
अधिकार या नेतृत्व जिनके हाथों में आ जाते हैं उनमें से अधिकतर सेवा और कर्तव्य की जगह निज हित, मौज-मस्ती में डूब जाते हैं। काम वही करते हैं, जिसमें उनकी बुरी नीयत पहले से बनी हुई थी। खूब सुख आ जाए या बहुत दुख आए तो मनुष्य अमर्यादित आचरण करने लगता है। सामान्य व्यक्ति ऐसा करे तो फिर भी ठीक है, लेकिन जिन्हें विशिष्ट कार्य का दायित्व सौंपा गया हो, उनका ऐसा करना निराशाजनक है।

सीताजी के विरह के बाद भी श्रीराम का व्यवहार संतुलित था। उनके हाथों दुगुर्णों के विनाश के अभियान का बड़ा नेतृत्व सौंपा गया था। वे जानते थे उनका आचरण भविष्य के लिए आचार संहिता बनने वाला है। श्रीराम लक्ष्मणजी से जो बातचीत कर रहे थे उसमें विशिष्ट संदेश दिए जा रहे थे। लछिमन देखु मोर गन नाचत बारिद पेखि। गृही बिरति रत हरष जस बिष्नुभगत कहुं देखि।।यानी हे लक्ष्मण! देखो, मोरों के झुंड बादलों को देखकर नाच रहे हैं। जैसे वैराग्य में अनुरक्त गृहस्थ किसी विष्णु भक्त को देखकर हर्षित होते हैं।

वे लक्ष्मण से कहते हैं कि गृहस्थ को भक्त होना चाहिए पर गृहस्थी से उन्हें सीताजी की याद आग गई। घन घमंड नभ गरजत घोरा। प्रिया हीन डरपत मन मोरा।। दामिनि दमक रह न घन माहीं। खल कै प्रीति जथा थिर नाहीं।।आकाश में बादल घोर गर्जना कर रहे हैं, प्रिया (सीताजी) के बिना मेरा मन डर रहा है। बिजली की चमक बादलों में ठहरती नहीं, जैसे दुष्ट की प्रीति स्थिर नहीं रहती। उन्होंने कहा कि जब हमारा कोई प्रिय हमसे दूर चला जाए या संसार छोड़कर ही चला जाए, तो ऐसे विरह में निश्चित ही हम टूटेंगे, लेकिन उस समय हमारा आचरण संतुलित होना चाहिए। यही श्रीराम से हमें सीखना है। विपरीत परिस्थिति आए तो भी अपना मर्यादित आचरण न छोड़ें।

अतीत से सीख लें, उलझन में न पड़ें
जो लोग सफलता को लेकर बहुत गंभीर होते हैं वे परिश्रम भी बहुत करते हैं। फिर परिश्रम नशा बन जाता हैै। अधिकांश परिश्रम भविष्य पर निगाह रखकर किया जाता है। हमें यह प्राप्त करना है, हमारा यह लक्ष्य है। ऐसा होना भी चाहिए। थोड़ा होश रखकर परिश्रम का एक हिस्सा अतीत के लिए भी बचाएं। अतीत की कुछ घटनाएं हमारे भीतर निगेटिविटी पैदा करती हैं और उसे मिटाने के लिए परिश्रम चाहिए, लेकिन हम परिश्रम की सारी ऊर्जा भविष्य के लिए झोंक चुके होते हैं।

अपने ही अतीत की घटनाओं से दूर खड़े रहने के लिए मन को खींचना पड़ेगा। इसमें बड़ी ताकत लगती है, इसलिए उस ताकत को सावधानी से बचाया जाए। इसके लिए मौन प्रयास करना पड़ता है। जब कभी आप अपने बीते हुए से कट रहे हों तो आस-पास के लोगों को पता भी नहीं लगने दें कि आपके भीतर यह प्रक्रिया चल रही है। अकेले प्रयास करेंगे तो अतीत से जल्दी मुक्ति पा लेंगे। दो-चार लोगों को यदि इसकी भनक लग गई तो और अतीत में पटक देंगे। अगर आप देखें तो पता लगेगा कि ज्यादातर लोग ऐसे हैं, जिनके पास बीते समय में धन कम था और धीरे-धीरे अधिक हो रहा है। भारत में एक बड़ा मध्यम वर्ग बन गया है, जिसकी समान कहानी है कि जो कुछ भी पहले नहीं था, अब सबकुछ है उनके पास।

कुछ लोग ऐसे भी हैं जिनके पास अधिक था, अब कम रह गया है। जो आज है वह भी आपको अतीत में ही पटक रहा है। अतीत से यदि जुड़ना है तो सीख के स्तर पर थोड़ा बहुत जुड़ जाएं, लेकिन उलझन के स्तर पर तुरंत मुक्ति पाएं। मन को उलझाने में बड़ा मजा आता है, इसीलिए वह अतीत में ले जाता है। चलिए अपने परिश्रम का एक हिस्सा बचाएं और अपने आप को अतीत की इन बातों से मुक्त रखें, जो आपके वर्तमान को बिगाड़ सकती हैं।

दूसरों की उपलब्धि से प्रेरणा लें
कई बार ऐसा हो जाता है कि जो हमें नहीं मिला वह दूसरों को मिल जाता है। दूसरे यदि अपरिचित हों तब तो हमें इतनी दिक्कत नहीं होती। समस्या तब होती है जब हमें न मिले और हमारे परिचित को वह प्राप्त हो जाए। तुलना और बेचैनी शुरू हो जाती है और यदि परिपक्वता न दिखाई तो अनजाने में ही हम आलोचना पर उतर आते हैं। आपको नहीं मिला तो आपने आलोचना का सहारा ले लिया, जबकि होना यह चाहिए कि ऐसे समय हम विश्लेषण करें कि यदि उसे मिला है तो हमें क्यों नहीं मिला।

सारा जोर इस पर लगाइए कि हमारे भीतर वे कौन-सी कमजोरियां थीं या हमारे मुकाबले सामने वाले में वे क्या अच्छाइयां थीं। जब वांछित चीज हमें नहीं मिलती, तो हमारा समय और ऊर्जा उन लोगों पर खर्च होने लगती है, जिन्हें मिला है। इसीलिए हम उसे प्राप्त करने के लिए भय का निर्माण करते हैं, स्वयं के लिए भी और दूसरों के लिए भी। जीवन में भय दो रूपों में आता है लालच या दबाव। हम भय के द्वारा सामने वाले पर दबाव बनाते हैं या उसे लालच में डाल देते हैं। दोनों ही दुरुपयोग हैं।

भविष्य का भय हमें डरा रहा है कि अब क्या होगा और उसी भय से हम दूसरों को डराने की कोशिश कर रहे हैं कि तुझे कैसे मिल गया। धीरे-धीरे यह भय हिंसा में बदल जाता है। इसलिए तुरंत अपने व्यक्तित्व पर नियंत्रण करिए और उन कारणों को खोजिए जहां हम चूक गए। ऊर्जा इसमे नष्ट न करें कि उसे क्यों मिल गया। उसकी योग्यता हमारे लिए सीख हो, ईर्ष्या का कारण न हो। जो उसे प्राप्त हुआ वह हमारे लिए प्रेरणा बने। आज अधिकांश लोग इसी चक्कर में असंतुष्ट पाए जाते हैं, अशांत पाए जाते हैं। तुलना मनुष्य का स्वभाव है। प्रतिस्पर्द्धा योग्यता को मांजती है। ऐसा करना भी चाहिए, लेकिन सावधानी के साथ।

प्रकृति प्रेम, मनुष्य होने की शर्त
आज के मशीनी युग में हमारे लिए प्रकृति का मतलब है जल, वायु, अग्नि जैसे उसके तत्वों का हमारे लिए उपयोग। तो क्या प्रकृति सिर्फ यही सब है? किष्किंधा कांड में श्रीराम जब सुग्रीव को राजा बनाने के बाद वन में आए तब वे विरह में डूबे हुए थे। ऐसे में तुलसीदासजी ने श्रीराम के मुंह से मनुष्य जीवन और प्रकृति पर बड़ी अद्‌भुत टिप्पणियां करवाई हैं। अपने कवि हृदय को जाग्रत कीजिए और फिर जुड़ें श्रीराम की भावनाओं से। अब हम इसी स्तंभ में कुछ दिन श्रीराम-लक्ष्मण की बातचीत के माध्यम से प्रकृति और जीवन-संदेश से जुड़ते चलेंगे।

श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा, ‘लछिमन देखु मोर गन नाचत बारिद पेखि। गृही बिरति रत हरष जस बिष्नुभगत कहुं देखि।।हे लक्ष्मण! देखो, मोरों के झुंड बादलों को देखकर नाच रहे हैं। जैसे वैराग्य में अनुरक्त गृहस्थ किसी विष्णुभक्त को देखकर हर्षित होते हैं।' ‘घन घमंड नभ गरजत घोरा। प्रिया हीन डरपत मन मोरा।।’ ‘दामिनि दमक रह न घन माहीं। खल कै प्रीति जथा थिर नाहीं।।आकाश में बादल घुमड़-घुमड़कर घोर गर्जना कर रहे हैं, प्रिया (सीताजी) के बिना मेरा मन डर रहा है। बिजली की चमक बादलों में ठहरती नहीं, जैसे दुष्ट की प्रीति स्थिर नहीं रहती।

श्रीराम कहते हैं गृहस्थ को थोड़ा वैराग्य भाव पालना चाहिए। वैराग्य का मतलब चीजों को छोड़ देना नहीं बल्कि अपनी चीजों में संतोष रखकर सदुपयोग करना है। यही सच्चा वैराग्य है। जब वैराग्य आएगा तब विरह का मतलब समझ में आएगा। सभी के जीवन में कहीं न कहीं ऐसी स्थिति आती है, जिसका नाम दुख है। दुख को हटाने के लिए, कम करने के लिए और अधिक दुखी होने से बचने के लिए प्रकृति क्या काम आती है इस पर विचार करते चलेंगे, क्योंकि प्रकृति प्रेमी होना हमारे मनुष्य होने की आवश्यक शर्त है।

भीतर सत्संग की सुगंध पैदा करें
नई पीढ़ी के बच्चे बोलें न भी पर मन ही मन सोचते हैं कि लोग सत्संग में क्यों जाते हैं। क्या मिलता है सत्संग से? सत्संग में सामान्यत: कोई व्यक्ति बोल रहा होता है और अनेक लोग उसको सुन रहे होते हैं। उसके मूल में कथा भी हो सकती है, व्याख्यान, प्रवचन हो सकता हैै। शाब्दिक अर्थ यह है कि अच्छी बात के लिए एकत्र होकर संग करना, लेकिन आज के बच्चों को यह बात गले नहीं उतरती। उनका मानना है कि किसी का कुछ नहीं बदलता। भयभीत लोग ऐसे स्थानों पर जाकर अपना भय मिटाने का प्रयास करते हैं। कई माता-पिता मेरे पास आते हैं और कहते हैं कि हमारे बच्चे सत्संग में नहीं जाते। बच्चे जाएंगे भी नहीं, क्योंकि एक तो उनके पास समय नहीं है, दूसरी बात रुचि नहीं है। ऐसे में यदि हम सत्संग उन तक ला सकें तो हमारी बड़ी उपलब्धि होगी। सत्संग को उन तक लाने के लिए अपने भीतर रूपांतरण लाना पड़ेगा। यदि सत्संग में जाकर आपके भीतर के कुछ दोष मिट जाएं, आपके व्यक्तित्व में दूसरों को महसूस होने वाली शांति आए, तब वे सोचेंगे ये ऐसी जगह गए थे जहां से कुछ श्रेष्ठ मिलता है। हमारा बदलाव सत्संग को उन तक ला सकेगा। वक्त तो बच्चे कहीं न कहीं बिता रहे हैं, इसलिए इनके जीवन में कुछ समय सत्संग जीवित रखने के लिए अपने भीतर परिवर्तन लाना पड़ेगा। सत्संग से जो सबसे बड़ा अंतर आता है वह है आपके चरित्र से सुगंध उठने लगती है और यह ऐसी सुगंध है, जो दूसरे महसूस करेंगे ही। माता-पिता के चरित्र की सुगंध बच्चों में उतरती ही उतरती है। चरित्र का मतलब केवल आचरण नहीं है। यह उस समझ का नाम है, जिसमें जो भी किया जाए उसके प्रति होश पैदा हो जाए, इसलिए जब भी सत्संग में जाएं एक अच्छा और सही परिवर्तन लेकर लौटें।

सीख के साथ संस्कार भी महत्वपूर्ण
पहले मनुष्य प्राकृतिक संसाधनों से जीवन जीता था। इसीलिए दैनिक उपयोग की वस्तुएं भी लाभकारी होती थीं। वस्तुओं के उपयोग के प्रति हम जागरूक रहते थे कि ये भविष्य में हमारे लिए कितनी उपयोगी हैं और कितनी नुकसानदायक। विज्ञान और तकनीक के इस दौर में हमने सुविधाओं के चक्कर में यह भुला दिया कि हमारे शरीर को इससे कितना नुकसान होगा। केवल टीवी, मोबाइल और कम्प्यूटर का ही उदाहरण लें। इस त्रिवेणी ने शरीर पर जो तूफान लाया है वह नज़र नहीं आता। आज अधिकतर लोग इनका दुरुपयोग ही कर रहे हैं। भविष्य में देह इसकी कीमत चुकाएगी।

आज परिश्रम इतना करना पड़ता है कि लोगों के पास आंतरिक और बाहरी स्वास्थ्य के लिए वक्त नहीं है। यदि इन संसाधनों का उपयोग समझना हो तो सीख और संस्कार का अंतर समझना होगा। सीख दुनिया में दो वक्त की रोटी जुटाने में काम आती है और संस्कार जीवन बचाने के काम आते हैं। सीख किताबों से मिल सकती है, लेकिन संस्कार घरों में बड़ी उम्र के लोगों के आचरण से मिलेंगे। सीख देना आसान है परंतु संस्कार देना कठिन, क्योंकि सीख सतह पर दी जा सकती है। संस्कार के लिए देने और लेने वाले दोनों को गहराई में उतरना होगा। सीख देते समय केवल इतना ध्यान रखना है कि जानकारी सही हो, लेकिन संस्कार देते समय धैर्य रखना पड़ेगा। सीख अस्थायी मामला है और संस्कार स्थायी। जिनके पास संस्कार होंगे उन्हें यह समझ भी आ जाएगी कि भौतिक संसाधनों का उपयोग किस प्रकार हितकारी बनाया जाए। अन्यथा मोबाइल, टीवी और कम्प्यूटर चलाने की सीख तो सबके पास है, लेकिन इनके अज्ञात दुष्परिणाम से बचने की समझ नहीं है। हमें हमारे ही भीतर यह समझ पैदा करनी होगी।

भीतर गहराई से जोड़ता है ध्यान
यदि व्यक्ति केवल शिक्षित है और प्रबंधन में योग्य नहीं है तो वह लगभग घर ही बैठा रहेगा। ऐसे अनेक पढ़े-लिखे लोग हैं, जिनकी योग्यता पर कोई संदेह नहीं है, लेकिन यदि उनमें प्रबंधकीय कौशल नहीं है तो वह शिक्षा ऐसी होगी जैसे रेफ्रिजरेटर में रखा हुआ भोजन जो सुरक्षित है, लेकिन उसमें ताजगी नहीं है। दूसरा पक्ष यह है कि कुछ लोग बहुत अच्छे प्रबंधक होते हैं, लेकिन शिक्षा के मामले में थोड़े कमजोर हैं। ऐसे लोगों के परिणाम में क्वालिटी, गहराई नहीं होगी तथा वे दूरगामी नहीं होंगे। कुछ लोग ऐसे भी हैं कि शिक्षा और प्रबंधन दोनों मिलने के बाद भी, सफलता का दृश्य दिखने के बाद भी यदि असफल जैसे लगते हैं तो इसका मतलब है हम केवल बाहर टिककर शिक्षा और प्रबंधन का उपयोग कर रहे हैं।

प्रबंधन में शक्ति है, शिक्षा में समझ है। प्रबंधन के पास क्रियाशीलता है, शिक्षा के पास विचार हैं। इसलिए शिक्षित व्यक्ति को यह समझ जरूर होनी चाहिए कि जो शक्ति उसे प्रबंधन से मिल रही है वैसी ही ईश्वरीय शक्ति, आध्यात्मिक ऊर्जा उसके भीतर है और प्रबंधन का उसको यह उपयोग करना चाहिए कि भीतर की शक्ति को चार भागों में बांट लें। शारीरिक, मानसिक, नैतिक और व्यावसायिक। तब भीतर की शक्ति बाहर अद्‌भुत परिणाम देगी। अभी हम भीतर की शक्ति का उपयोग ही नहीं कर पाते। जैसे ही आप संसार प्रदत्त शक्ति और ईश्वर द्वारा दी गई शक्ति का अंतर समझेंगे, आपकी काम करने की क्षमता ही बदल जाएगी। अध्यात्म कहता है थोड़ा-सा अपनी आत्मा के निकट बैठिए। इसलिए कुछ समय मेडिटेशन जरूर कीजिए। यह किसी मोक्ष, पाप-पुण्य का मामला नहीं है। ध्यान आपको गहरे में अपने भीतर जोड़ेगा और आपकी शक्ति चार भागों में ठीक से बंट जाए इसमें मदद करेगा।

अंधेरे की विदाई का पर्व जन्माष्टमी
कुछ लोग हैं जो अंधेरे से डरते हैं और कुछ लोग अंधेरे में गलत काम करते हैं। कुल-मिलाकर अंधेरा अप्रिय होता है। अंधकार की परिभाषाओं में सबसे सही यही है कि प्रकाश के अभाव का नाम अंधकार है, क्योंकि इसका कोई अस्तित्व नहीं है। इसके बावजूद यदि प्रकाश नहीं है तो अंधकार अपना काम करेगा। हिंदू देवताओं में श्रीकृष्ण अवतार की अनेक विशेषता हैं। उनमें एक है उनका अपने आप को अंधकार से जोड़ना। वे आधी रात को जन्म लेते हैं। यह घोषणा करते हैं कि तुम्हारे जीवन में जब अंधकार हो, भ्रम, निराशा, उदासी हो मैं तब भी आऊंगा। ईश्वर का हमारे जीवन में आने का मतलब है प्रकाश का आना। जो दिख नहीं रहा था वह स्पष्ट हो जाना।

श्रीकृष्ण ने कहा था- अंधकार मिटाना इसलिए भी आवश्यक है कि प्रकाश में वह दिखने लगता है, जो जरूरी है। चुनौतियां अंधकार में नज़र नहीं आती। धीरे-धीरे अंधकार खुद एक चुनौती बन जाता है। श्रीकृष्ण के पास अपने ज्ञान, अपनी समझ का प्रकाश था, इसलिए वे सारी चुनौतियों के पार चले गए। उनके जीवन में लगभग वह सब हुआ, जो हमारे जीवन में होता है। सबसे बड़ी चुनौती तो यह थी कि उन्हें सारा संघर्ष अपने लोगों से करना पड़ा। अपने लोग अपनेपन और विरोध दोनों का अंधकार निर्मित करते हैं। जब अपनेपन की अति हो तब भी अंधकार छा जाता है, दिखना बंद हो जाता है। ऐसे ही जब विरोध हो तो भी अंधकार छा जाता है। जो लोग प्रतिपल जीवन जीने के लिए तैयार हैं उन्हें हर हाल में अंधकार को विदा करने की तैयारी कर लेनी चाहिए। जीवन जिस चुनौती पर खड़ा होता है उसमें अपने-पराए, मित्र-शत्रु इन सबसे निपटने के लिए एक प्रकाश चाहिए। श्रीकृष्ण जन्माष्टमी संघर्ष से सीधे सामना करने के लिए सुंदर तिथि के रूप में आती है।

धैर्य का परिणाम विनम्रता में हो
परमात्मा ने अपने ही स्वरूप को प्रकृति में बदलकर पूरी मनुष्यता के लिए अद्‌भुत ढंग से उपयोगी बनाया है। हम प्रकृति के हर हिस्से से कुछ न कुछ सीख सकते हैं। धार्मिक दृष्टि से प्रकृति को परमात्मा से जोड़ा गया है। विज्ञान उस नेचर से रिसर्च कर उसे मनुष्य के लिए उपयोगी बना देता है, इसीलिए विज्ञान की दृष्टि में यह सब नेचरल एक्टिविटी है। यहां विज्ञान और प्रकृति का संबंध एकदम मशीनी हो जाता है। यदि किसी भक्त से पूछें कि उसके लिए नदी का क्या मतलब है तो उसकी आस्था सीधे गंगा में डुबकी लगाएगी। वो पहाड़ को सीधे गोवर्धन से जोड़कर परिक्रमा में उतर जाएगा। उसे वायु में हनुमानजी नजर आएंगे। उसके लिए अग्नि का मतलब यज्ञ है।

आकाश वह स्थान है जहां भगवान का वैकुण्ठ बसा है। तो यहीं से भाव बदल जाते हैं। किष्किंधा कांड में तुलसीदासजी ने श्रीराम-लक्ष्मण संवाद के जरिये प्रकृति के महत्व को बड़े मनोवैज्ञानिक ढंग से प्रस्तुत किया है। बरषहिं जलद भूमि निअराएं। जथा नवहिं बुध बिद्या पाएं।। बूंद अघात सहहिं गिरि कैसें। खल के बचन संत सह जैसें।। बादल पृथ्वी के समीप आकर (नीचे उतरकर) बरस रहे हैं, जैसे विद्या पाकर विद्वान नम्र हो जाते हैं। बूंदों की चोट पर्वत कैसे सहते हैं, जैसे दुष्टों के वचन संत सहते हैं। विद्या को पाकर विद्वान को विनम्र होना चाहिए। उदाहरण दिया है जैसे बादल पृथ्वी के पास आकर झुक जाते हैं। विनम्रता तभी पूरी होती है जब उसमें सहनशीलता आ जाए। वरना विनम्रता भी एक मुखौटा बन जाएगी। सहनशील होने के लिए श्रीराम ने पर्वत पर बूंदों की चोट का उदाहरण दिया है। ये दोनों ही उदाहरण हमें समझा रहे हैं कि अपने भीतर सहनशीलता यानी धैर्य का परिणाम बाहर विनम्रता होना चाहिए। धैर्य शिक्षित और परिश्रमी व्यक्ति के लिए गहना है।

व्यक्तित्व में लचीलापन लाएं
भाषा में एक शब्द आता है दुहना। इसे पशुओं से जोड़कर देखा जाता है। जैसे गाय का दूध दुहना। किसी के श्रेष्ठ का किसी और के द्वारा उपयोग किया जाना। मनुष्य जीवन में अपने लिए श्रेष्ठ और उपयोगी बातें दुहने के कई अवसर हैं। जिंदगी लगातार सुख-दु:ख प्रवाहित कर रही है, क्षमता आपकी है कि आप किसे ग्रहण कर रहे हैं सुख या दु:ख। यदि आप दु:खों से बचना चाहते हैं तो आपको थोड़ा लचीला होना पड़ेगा यानी चीजों से जुड़ जाएं। अपने आप को किसी से काटंे न। कुछ लोग खुद को समाज से काट लेते हैं, परिवार से काट लेते हैं और फिर मनुष्य स्वयं से भी कट जाता है। यहां लचीले होने का मतलब है हर परिस्थिति में ढल जाना। नर्तक दक्ष हो तो नृत्य-कला में शरीर का लोच उसे निखारता है। इसी तरह हमारे पूरे व्यक्तित्व में लोच होनी चाहिए। हम हर स्थिति में ढल जाएंगे और श्रेष्ठ प्राप्त कर लेंगे। लचीलेपन का मतलब आचरण से गिरना नहीं है।

सफलता के लिए अपनी योग्यता का सदुपयोग करना ही लचीलापन है। लचीलेपन का यह उपयोग है कि हम जीवनभर शरीर पर टिक जाते हैं। लचीला व्यक्तित्व हर स्थिति का लाभ उठाना जानता है। और तो और, जीवन में उदासी आ जाए तो उसका भी फायदा उठाया जा सकता है। उदासी में अकेलापन नुकसान पहुंचाएगा, पर यदि व्यक्तित्व में लचीलापन है तो आप अकेलेपन को एकाग्रता में बदल सकेंगे और एकाग्रता में बदलने के लिए शरीर से हटकर भीतर आत्मा तक जाना जरूरी है। उदासी शरीर से हटी, शरीर की थकान गई और आप स्फूर्त हुए। आत्मा पर जाने से जो ऊर्जा मिलने वाली है वह आपकी समूची स्थिति को बदल देगी, इसलिए लचीलेपन को ठीक से समझकर अपने व्यक्तित्व में स्थितियों के प्रति लोच लाकर उन सफलताओं को जरूर हासिल करें, जो इसी कारण हमसे दूर हैं।

आत्मा पर ध्यान से आती है पवित्रता
दूसरे की देह में रुचि रखना मनुष्य की कमजोरी ही नहीं उसका स्वाभाविक लक्षण है और यह रुचि हर उम्र में अपने हिसाब से बनी रहती है। आज हमारे चारों ओर कुछ ऐसे दृश्य सरलता से उपलब्ध हैं, जिन्हें देखकर शरीर तुरंत अपने प्रवेश द्वार खोल देता है। उत्तेजक विज्ञापन, उत्तेजक फिल्में अब एक क्लिक पर आपके एकांत में सहज उपलब्ध है। ऐसे में शरीर का असंयमित होना सरल और स्वाभाविक है। अब शरीर कब कुचेष्टा पर उतर आए पता नहीं, क्योंकि बाहर के खुलेपन ने भीतर के खोखलेपन को जन्म दे दिया है। बाहर विकास की आंधी ने भीतर असंयमित वासना के थपेड़े चला लिए। ऐसे में शरीर में हार्मोनल परिवर्तन के कारण जहर बनेगा ही बनेगा और इसीलिए हम शरीर की जरूरत की बजाय उसकी मांग पर टिक जाते हैं। शरीर अगर अकेले संचालित होता तो कठिनाई नहीं थी।

मन और बुद्धि इसके पीछे काम कर रहे होते हैं। मन से जुड़ते ही भोग की इच्छा शुरू हो जाती है। दूसरों की देह में रुचि अपनी आत्मा पर टिकने से ही खत्म होगी। इसलिए यदा-कदा इस शरीर को, जो दूसरे शरीरों की ओर लगभग दौड़ता है थोड़ा-सा मोड़िए और आत्मा से जोड़िए। जितना हम अपनी आत्मा पर टिकेंगे, उतना ही हम अपनी और दूसरों की देह के प्रति सजग हो जाएंगे। दूसरों की देह से बचने का एक ही तरीका है हम होश में आ जाएं अपनी देह को लेकर। आपको समझ में आएगा कि यह नष्ट होने वाली व्यवस्था है। जैसे मेरी देह नष्ट होगी वैसे ही दूसरों की भी होगी। फिर क्यों न स्थायी पर टिका जाए, जो कि आत्मा है और यहीं से हम अपने शरीर का भी मान करेंगे और दूसरों की देह का भी सम्मान करेंगे। इस मान-सम्मान का नाम है पवित्र भाव। इसे बनाने के लिए कुछ समय अपनी आत्मा के साथ जरूर बिताएं।

मानव से वस्तु जैसा व्यवहार न करें
आजकल अपने हित में दूसरों का इस्तेमाल कितना और कैसे करते हैं, इसे बड़ी योग्यता माना जाता है। दूसरों का उपयोग करने के बाद हम उनका दुरुपयोग करने लगते हैं। कुछ लोग इससे भी आगे शोषण पर उतर आते हैं। चीजों को संभालकर न रखने की प्रवृत्ति तो बन ही गई है। अपनी प्राचीन संस्कृति, बीते जमाने की चीजों, स्थिति के प्रति लगाव को कभी देशभक्ति कहा जाता था। उपयोग करो और फेंकोकी प्रवृत्ति धीरे-धीरे व्यक्तियों तक पहुंच जाती है। कोई कुछ समय तक आपके काम का था, आपका काम निकल गया, आपने उसे हटा दिया। कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो सामने वाले में खतरा देखने लगते हैं तो हटाते-हटाते मिटा ही देते हैं। हमारी कोशिश होनी चाहिए कि हम उपयोग और फेंकने की प्रवृत्ति पर विश्वास न रखें। कम से कम जिन लोगों का आपने उपयोग किया है उनका सम्मान अवश्य रखें।

स्वयं के व्यक्तित्व को ऐसा बनाएं कि हम दूसरों के लिए उपयोगी बनें और दूसरे हमें फेंक न सकें। विश्वसनीयता, हितकारी दृष्टिकोण, निष्ठा, ईमानदारी ये कुछ ऐसे गुण हैं जो हमारे साथ हैं तो हमारा उपयोग करके लोग हमे फेंक दें ऐसे अवसर कम आएंगे। मनुष्य और धन में बहुत बड़ा अंतर है। मनुष्य के पास जो आज दिखता है केवल उतना ही नहीं होता। मनुष्य असीम संभावना का दूसरा नाम है। आपको लग रहा है आपने किसी को पूरा निचोड़ लिया अब फेंक दें, तो आप गलती कर रहे हैं। आप जान ही नहीं पाए कि इसके भीतर और क्या हो सकता है, इसलिए कम से कम मनुष्यों के मामले में तो यूज एंड थ्रो का व्यवहार न करें। यदि कोई आपके लिए उपयोगी है और बाहरी परिस्थितियों के कारण आज उपयोगी न लग रहा हो, तो उपयोग में न लें पर उसे मिटाइए मत। उसके भीतर की संभावना पता नहीं किस दिन आपके काम आ जाए।

तटस्थता देती है भीतरी मजबूती
ऐसा बहुत बार हो जाता है कि हम खूब परिश्रम करते हैं, सभी लोग मानते हैं कि हमें सफलता जरूर मिल जाएगी। अग्रिम बधाइयां भी मिलने लगती हैं। फिर अचानक हमारी अपेक्षाएं धरी रह जाती हैं। कुछ लोग दोहरे परिश्रम में पुन: जुट जाते हैं, लेकिन यह आसान नहीं होता। कुछ लोग लंबे समय के लिए उलझ जाते हैं। इन दोनों ही स्थितियों में हमें तटस्थ भाव रखना चाहिए। भाषा की दृष्टि से शब्द थोड़ा कठिन है, लेकिन जीवन में अपनाने पर अद्‌भुत परिणाम देगा। तटस्थ मतलब किसी के प्रति कोई राग-द्वेष न रखकर अपनी भूमिका निभाना। जब इस तरह की अप्रत्याशित असफलता जीवन में आए तो तटस्थ भाव से मूल्यांकन करिए।

अब इस तटस्थ भाव को लाएं कैसे? इसके लिए एक दृश्य को अपने जीवन से जोड़िए। किसी तेज चलते हुए पंखे को देखिएगा। उसकी अलग-अलग पंखुड़ियां एक लगने लगती हैं। इसे यदि हम चक्र कहें तो चक्र के सारे प्राण उसके केंद्र में होते हैं, जिसको आप कील या सेंटर कह लें। बीच की कील मजबूत है तो आस-पास घूमने वाला पहिया सही ढंग से चलेगा। बल्कि उसकी पूरी चाल कील पर टिकी है। इसमें अच्छी बात यह है कि कील जरा भी नहीं हिलती, चक्का पूरा घूम जाता है। बस, हमें अपने आंतरिक व्यक्तित्व को कील मानना चाहिए। दुनिया जितनी तेजी से घूम रही है हम उतने ही दृढ़ हैं। कील हिल गई तो चक्र की गति प्रभावित होगी ही। अपने आंतरिक व्यक्तित्व को कील की तरह मजबूत रखने के लिए हमें अपने ही केंद्र पर जाना पड़ेगा और जिसका अपना केंद्र मजबूत है वह बाहर से कहीं भी, कभी भी टूटेगा नहीं, दु:खी नहीं होगा। इस केंद्र पर जाने के लिए योग के जो आठ चरण हैं वो आठ सीढ़ियों की तरह हैं, इसीलिए कुछ समय योग करने में जरूर बिताया जाए।

भीतर संसार रहे तो परेशानी      
हमारा दैनिक जीवन प्रकृति के पांच तत्वों में घुला-मिला है। जीवन के लिए प्रकृति के पास बहुत सारे तत्व हैं, लेकिन जीवन को समझने के लिए भी बड़े सुंदर इशारे हैं। इसे श्रीरामजी ने बहुत अच्छे से समझा और छोटे भाई लक्ष्मणजी को भी समझाया। किष्किंधा कांड में दोनों भाई चातुर्मास में जीवन बिता रहे थे। सुग्रीव आश्वासन दे चुके थे कि चार मास के बाद मैं सीताजी की खोज के लिए वानर भेजूंगा। इस अवधि में श्रीराम ने भाई को तो ज्ञान दिया ही, स्वयं का आत्मबल भी बढ़ाया। तुलसीदासजी दोनों भाइयों की बातचीत में व्यक्त दर्शन प्रकृति के आधार पर बता रहे हैं, ‘क्षुद्र नदीं भरि चलीं तोराई। जस थोरेहुं धन खल इतराई।। भूमि परत भा ढाबर पानी। जनु जीवहि माया लपटानी।।

रामजी कहते हैं जैसे छोटी नदियां थोड़ा-सा पानी आने पर इतरा जाती हैं और जैसे बारिश का शुद्ध पानी जब जमीन पर गिर जाए तो कीचड़ से मिलकर गंदा हो जाता है। ऐसे ही कई लोग होते हैं, जिन्हें जीवन में सफलता, प्रसिद्धि, प्रतिष्ठा मिल जाए, तो वो ऐसे ही इतराते हैं। भूल जाते हैं कि यह सब माया है। माया यानी जादू, जिसका सीधा मतलब है जो है वह दिखता नहीं और जो दिख रहा है वह होता नहीं। परमात्मा हमें संसार में ऐसी माया दिखाते हैं कि हम भ्रम में पड़ जाते हैं और मैंमें डूब जाते हैं। मेरी सम्पत्ति, मेरा घर, मेरी सफलता, मैंने ही सबकुछ किया है। इसी में माया का प्रवेश हो जाता है। हम भूल जाते हैं कि करने वाले भले ही हम हैं, पर कराने वाला कोई और है। जब मनुष्य माया से जुड़ता है, तो उसका व्यक्तित्व थोड़ा धुंधला हो जाता है। इसलिए संसार में रहना है, सारे काम करना हैं। संसार में रहने में दिक्कत नहीं है। परेशानी तब शुरू होती है जब संसार हमारे भीतर रहने लगता है। इन पंक्तियों में श्रीराम हमें यही समझा रहे हैं।


विसर्जन से ही होता है नवसृजन
मनुष्य शरीर मिला है तो परेशानिया आएंगी ही। कुछ परेशानियां कुदरती होती हैं, कुछ को संसार हमारी ओर फेंकता है और कुछ दिक्कतों के निर्माता हम खुद होते हैं। भारतीयों के लिए परेशानियों से निपटने के लिए सबसे सरल, स्वीकृत तरीका है उत्सव, त्योहार, परंपराओं में डूब जाना। धर्म से संबंध होते ही उत्सव में गरिमा आ जाती है। श्रेष्ठ को जीते हुए यदि मन प्रसन्न हो, आनंदित हो तो वह उत्सव है।


गणेशोत्सव तो इन बातों में अद्‌भुत है और आश्चर्यजनक भी। सबसे अनूठी बात है प्रतिमा की स्थापना के पश्चात, उत्सव के बाद उसका विसर्जन करना। पिछले दिनों भारत की संन्यास परंपरा के शीर्ष संत स्वामी सत्यमित्रानंद गिरिजी से मिलना हुआ। उन्होंने अभी-अभी अपने सारे दायित्व स्वामी अवधेशानंद गिरिजी को सौंपे हैं। छोड़ने में बड़ी ताकत लगती है। छोड़ना यदि साधु को भी पड़े तो उसे भीतर मंथन से गुजरना पड़ता है। संसार चाहे जो समझे, लेकिन सांसारिक समीकरण साधु को भी घेरते हैं। उस दिन स्वामी सत्यमित्रानंदजी ने त्याग की बड़ी सुंदर परिभाषा दी। उन्होंने कहा, ‘कमाना तो मनुष्य को खुद पड़ता है , लेकिन छुड़वाता केवल भगवान है।यह बड़ा सुंदर इशारा है। जिस दिन भगवान चाहता है, उस दिन सब आसानी से छूट जाता है। 

चूंकि वह छुड़वाता है इसलिए त्याग का आनंद बढ़ जाता है। इसे यदि सांसारिक लोग समझ लें तो उनके जीवन से जब भी कुछ छूटे वे समझ लें यह परमात्मा करवा रहा है, इसलिए विसर्जन से हम यह सीखें कि गणेशजी महाराज स्थापित होते हैं और खूब आनंद मनवाते हैं और फिर यह कहते हैं चलो विसर्जन करें, क्योंकि एक नया सृजन करना है। जैसे सत्यमित्रानंद गिरिजी ने विसर्जन किया और अवधेशानंद गिरिजी नवसृजन करेंगे। हमारे जीवन के लिए अर्जन और विसर्जन का यह सुंदर संदेश है।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है....मनीष

Friday, September 11, 2015

Prachin Vidhi Vidhan (प्राचीन विधि-विधान)


प्राचीन विधि-विधान
अनादि काल से एक ही परिपाटी चली आ रही थी, जिसमें की साधक और गुरू, चाहे वशिष्ठ हो या राम, कृष्ण हो या सांदीपन, दोनो ही गायत्री मंत्र युक्त संध्या व हवन करते थे एवं ॐकार के द्वारा ध्यान करते थे। इस तरह गायत्री संध्या से उस आदिशक्ति की उपासना पूर्ण होती थी और ॐकार के ध्यान के द्वारा परब्रहम् की उपासना सम्पूर्ण होती थी। प्राचीन महर्षियों ने पुरूष और प्रकृति की उपासना का यह विधान इतना श्रेष्ठ बनाया था, की इस विधान के करने वाले साधक को भौतिक और आध्यात्मिक दोनों ही क्षेत्रों में सम्पूर्ण सफलता मिलती थी। वह सम्पूर्ण शक्तियों का मालिक बनते हुऐ, उस परमात्मा में लीन रहता था। सम्पूर्ण सुख-समृद्धि का भोग करते हुऐ मोक्ष को प्राप्त करता था। किन्तु समय का पहिया गतिशील है। प्रकृति में समय-समय पर बदलाव होते रहे हैं, उसी के अनुसार साधक की मन और बुद्धि भी बदलती है।

कालान्तर में गायत्री-संध्या के साथ-साथ अनेकों ही महापुरूषों ने तान्त्रिक-संध्या का विधान बनाया। जहाँ गायत्री-संध्या में गायत्री-मंत्र की ही उपासना होती थी एवं गायत्री ही सबकी अधिष्ठात्री होती थी। वहीं पर तान्त्रिक-संध्या में नये-नये देवता और मंत्र जुड़ने लगे। सर्वप्रथम जहाँ पर गायत्री को इष्ट माना जाता था, वहीं पर साधकों ने बाद में अपने अलग-अलग इष्ट बनाने प्रारम्भ कर दिये। जो साधक शिव को अपना इष्ट मानने लगा, वह शिव मंत्र के द्वारा ही संध्या करने लगा। यह शिव की तान्त्रिक-संध्या कहलाई। इस सम्प्रदाय को मानने वाले साधकों ने जो अपना मत बनाया वह शैव-मत कहलाया। भगवान शिव के उपासकों में घन्टाकर्ण नाम का एक ऐसा उपासक भी हुआ, जिसने अपने कानों में घन्टे लटका लिये। अगर उसके सामने कोई भी व्यक्ति या साधक भगवान शिव के नाम के अलावा, किसी भी दूसरे देव का नाम लेता था, तो वह अपने सिर को हिलाने लगता था। जिससे कि उसके कानों में बंधे हुऐ घन्टे बजने लगते थे और किसी दूसरे देव का नाम उसे सुनाई नहीं पड़ता था।

इसी तरह शैव-मत के बाद वैष्णव-मत सामने आया, जिसमें कि राम, कृष्ण और विष्णु की मुर्ति-रूप में सुन्दर प्रतीक बनाये जाने लगे और विष्णु के मंत्रो के द्वारा ही संध्या की जाने लगी। उसके कुछ समय बाद दस महा-विद्या सामने आई और इन महा-विद्याओं के मंत्रों के द्वारा तान्त्रिक-संध्या करने वाले साधक शाक्त कहलाये, यहीं से कलियुग का प्रारम्भ हुआ और धीरे-धीरे यह तीनों ही मत फलने-फूलने लगे। जिस तरह गायत्री-संध्या के बाद तान्त्रिक-संध्या आई, उसी तरह शक्ति मत के भी दो मत हो गये। शक्ति-मत में दस महा-विद्याओं की तान्त्रिक-संध्या करने वाले व्यक्ति दो कुलों में विभाजित हो गये। एक श्रीकुल कहलाया एवं दूसरा कालीकुल । यहाँ तक दोनों कुलों की उपासना करने वाले, तन्त्र के साथ-साथ ब्रहम् को भी मानने वाले थे। धीरे-धीरे ये दोनों कुल भी दो भागों में बँट गये। एक दक्षिण-मार्गी और दूसरा वाम-मार्गी। दक्षिण-मार्गी उन को कहा गया, जो कि काली-कुल के अन्तर्गत आने वाली शक्तियों की उपासना सात्विक रूप से करते थे। प्रारम्भ में दोनों कुलों के उपासक सात्विक ही थे, किन्तु बाद में जब इसके दो भेद हो गये, तो दक्षिण-मार्गी सात्विक कहलाऐ एवं वाम मार्गी तामसिक। सात्विक मार्ग में अनादि काल से ले कर आज तक बहुत कम बदलाव आया जो थोड़ा बहुत बदलाव आया, तो वह यह था कि अपने इष्ट के सामने प्रतीक रूप में घी की बजाय तेल का दिया जलाना। आज भी कुछ साधक शक्ति मार्ग में घी का दीपक जलाते है, तो कुछ सरसों के तेल का और कुछ तिलों के तेल का। दुसरा जो बदलाव आया वह वस्त्र का था।

सात्विक शक्ति उपासक अपनी इच्छा के अनुसार सफेद या लाल कपड़े का इस्तेमाल करने लगे। जबकि तामसिक साधक अधिकतर काले कपड़ो का इस्तेमाल करने लगे।कोई काली को बड़ा मानता तो कोई तारा को और कोई श्रीविद्या को। अनेकों ही शक्ति की साधना-उपासना करने वालों ने अपने-अपने ग्रन्थ लिखे और अपने-अपने इष्ट को सम्पूर्ण बताया। छोटे-बड़े का मत भेद बढ़ता चला गया। किन्तु अन्तः करण से सभी उस अनादि शक्ति को ही अपने इष्ट-रूप में मानते थे। सभी साधक यही कहते थे कि सभी महा-विद्याऐं उस आदिशक्ति का ही अंश रूप है। किन्तु अंश रूप में भी सभी भेद रखते थे। जिस प्रकार वैष्ण्व मत में राम को 14 कला अवतार एवं कृष्ण को 16 कला अवतार माना जाता है। उसी प्रकार शाक्त मत में भी यही भेद था, किन्तु धीरे-धीरे इनके अधिकार क्षेत्र बांट दिये गये। हर महाविद्या को एक सीमित क्षेत्र में सीमित कर दिया गया। जब की वह महाविद्या अपने आप में सम्पूर्ण थी। जहाँ दुष्टों के नाश का अधिकार क्षेत्र बगलामुखी को दिया गया, वहीं धन का अधिकार क्षेत्र कमला-महाविद्या को दिया गया। काली को जो अधिकार क्षेत्र दिया गया वह शक्ति का था और तारा का अधिकार क्षेत्र ज्ञान की वृद्धि के लिये था। भुवनेश्वरी का अधिकार क्षेत्र आकस्मिक धन प्राप्ति के लिऐ होता था। वहीं मातगीं का अधिकार क्षेत्र वशीकरण, आकर्षण एवं विद्या क्षेत्र था। जहाँ शरीर के ताप को मिटाने का और तान्त्रिक द्वारा अभिचार कर्म को काटने का अधिकार क्षेत्र धूमावती के पास था। वहीं साधक की इच्छाओं की पूर्ती का अधिकार क्षेत्र छिन्नमस्ता के पास है। जहाँ मन, इच्छा अनुसार स्त्री या पुरूष की प्राप्ति का अधिकार क्षेत्र त्रिपुर-भैरवी के पास है। यह साधकों के अन्दर भय का नाश करती है। वहीं सम्पूर्ण सुख-समृद्धि एवं ऐश्वर्य प्राप्ति का अधिकार क्षेत्र श्रीविद्या राज-राजेशवरी त्रिपुर-सुन्दरी के पास है।

शक्ति उपासकों का जो दुसरा वाम मार्गी मत था, उसमें शराब को जगह दी गई। उसके बाद बलि प्रथा आई और माँस का सेवन होने लगा। इसी प्रकार इसके भी दो हिस्से हो गये, जो शराब और माँस क सेवन करते थे, उन्हे साधारण-तान्त्रिक कहा जाने लगा। लेकिन जिन्होने माँस और मदिरा के साथ-साथ मीन(मछली), मुद्रा(विशेष क्रियाँऐं), मैथुन(स्त्री का संग) आदि पाँच मकारों का सेवन करने वालों को सिद्ध-तान्त्रिक कहाँ जाने लगा। आम व्यक्ति इन सिद्ध-तान्त्रिकों से डरने लगा। किन्तु आरम्भ में चाहे वह साधारण-तान्त्रिक हो या सिद्ध-तान्त्रिक, दोनों ही अपनी-अपनी साधनाओं के द्वारा उस ब्रहम् को पाने की कोशिश करते थे। जहाँ आरम्भ में पाँच मकारों के द्वारा ज्यादा से ज्यादा ऊर्जा बनाई जाती थी और उस ऊर्जा को कुन्डलिनी जागरण में प्रयोग किया जाता था, ताकि कुन्डलिनी जागरण करके सहस्त्र-दल का भेदन किया जा सके और दसवें द्वार को खोल कर सृष्टि के रहस्यों को समझा जा सके। किन्तु धीरे-धीरे पाँच मकारों का दुर-उपयोग होने लगा और यह पाँच मकार सिर्फ स्वार्थ सिद्धि, नशा और काम वासना की पुर्ति के साधन मात्र ही रह गये।

कोई माने या न माने लेकिन यदि काम भाव का सही इस्तेमाल किया जा सके तो इससे ब्रहम् की प्राप्ति सम्भव है।इसी वक्त एक और मत सामने आया जिसमें की भैरवी साधना या भैरवी चक्र को प्राथमिकता दी गई। इस मत के साधक वैसे तो पाँचो मकारों को मानते थे, किन्तु उनका मुख्य ध्येय काम के द्वारा ब्रहम् की प्राप्ति था इसी समय में शैव-मत में से एक मत अलग हो कर बाहर आया जिसे अघोर-मत कहा जाने लगा। आघोर-मत को मानने वाले साधक नशे के रुप में गाँजे का सेवन करते थे एंव श्मशान में बैठ कर तामसिक शिव या भैरव मंत्रों का जाप करते थे। प्रारम्भ में जहाँ नशा करके चेतन मन को शान्त कर दिया जाता था और अवचेतन मन के द्वारा परमात्मा के नाम का जाप किया जाता था। वहीं बाद में परमात्मा के ‘ॐ’ नाम को छोड़ कर विभिन्न मंत्रों का जाप होने लगा। धीरे-धीरे यह साधक पर-ब्रहम् को भूल कर आम व्यक्तियों को चमत्कार दिखाने की खातिर शव-साधना करने लगे। ऐसे मंत्रों का निर्माण हुआ जिन के द्वारा तुच्छ सिद्धियाँ प्राप्त करके आम जनता को चमत्कार दिखाया जा सके। आज वाम मार्गीयों का सबसे वीभत्स रूप हमारे सामने है। आज के समय में साधारण-तान्त्रिक, सिद्ध-तान्त्रिक, भैरवी-मत को मानने वाले या अघोर आदि अधिकतर साधक उस परमात्मा को भूल ही गये है। अगर ऐसा नहीं होता तो आज जो तान्त्रिकों का विभत्स रूप हमारे सामने है, वह नहीं होता।

ब्रहम् को मानने वाला तान्त्रिक अपनी शक्तियों का कभी दुर-उपयोग नहीं करेगा।लेकिन आज अधिकतर तान्त्रिक अपनी सिद्धियों का दुर-उपयोग के अलावा और कहीं इस्तेमाल नहीं करते। प्रारम्भ का तान्त्रिक जहाँ ब्रहम् का उपासक होता था, वहीं आज का तान्त्रिक पैसे का उपासक बन गया है। कुछ सौ वर्षों पहले एक नई विद्या प्रकाश में आई। इसको मानने वाले भी अपने आप को तान्त्रिक, ओझा या गुणी कहते थे। अगर इस विद्या का सही इस्तेमाल किया जाऐ तो, आम व्यक्ति को काफी हद तक फायदा हो सकता है। किन्तु इससे ब्रहम् की प्राप्ति सम्भव नहीं है। इस विद्या को मानने वाले साबर-मंत्रों का प्रयोग करते है। इस विद्या का अपना कोई नाम नहीं है। किन्तु साबर-मंत्रों का इस्तेमाल करने वालों को ओझा या गुणी ही कहा जाता है। नाथ समप्रदाय में ‘बाबा मछन्दर नाथ’ के शिष्य ‘गुरू गोरक्ष नाथ जी’ थे। गुरू गोरक्ष नाथ जी ने साबर-मंत्रों की रचना साधारण व्यक्तियों के लिये की। जिससे की वे साबर-मंत्रों का प्रयोग करके सुख-समृद्धि को प्राप्त कर सके। आज के समय में साबर-मंत्रों के उपर अनेकों ग्रन्थ देखने में आते है, पर इन ग्रथों के अन्दर न तो सही विधि-विधान लिखा हुआ है और न ही सम्पूर्ण मंत्र लिखें हुऐ हैं। साबर-मंत्रों में जो सिद्ध मंत्र है, वह आज भी गुरू परम्परा के अनुसार चले आ रहे हैं । अगर कोई साधक गुरू से प्राप्त साबर-मंत्र का जाप करता है, तो उसे सभी भौतिक सुखों की प्राप्ति होती है। साथ ही इन मंत्रों के द्वारा लोक-देवताओं की सिद्धि भी सम्भव है। गोरक्ष नाथ जी द्वारा रचित साबर-मंत्रों में काली, भैरव, हनुमान की सिद्धि, वीर सिद्धि, मन इच्छा अनुसार खाद्य-पदार्थ सामग्री को प्राप्त करने हेतु वेताल सिद्धि आदि है। किन्तु आज के समय में साबर-मंत्रों का भी दुर-उपयोग होने लगा है।

प्रारम्भ का तान्त्रिक केवल 10 महा विद्याओं को मानता था, किन्तु जैसे-जैसे समय बदलता चला गया वैसे-वैसे साधक 10 महा विद्याओं की कठिन साधना से बचने लगे और जो दुसरा तान्त्रिक पड़ाव आया उस में 10 महाविद्याओं कि जगह, 9 दुर्गाओं ने ली। कहने का तात्पर्य यह है कि आम व्यक्ति दस महा विद्याओं की कठिन साधनाओं को छोड़ कर नौ दुर्गाओं की साधना करने लगा और इस प्रकार नवरात्रों का प्रारम्भ हुआ। कहने को तो यह 9 दुर्गायें आदिशक्ति माता पार्वती का ही रूप है। किन्तु इनकी शक्तियाँ एवं कार्य क्षेत्र अगल-अगल है। इन्ही नौ दुर्गाओं के आधार पर नवरात्रे शुरू हुऐ, जिसमें कि तान्त्रिक साधक आदिशक्ति के नाम पर उपवास रखतें है और अपनी इच्छा अनुसार दुर्गा के किसी एक रूप की साधना करते है। आज भी अनेकों साधक इसी नियम को मानते हुऐ साधना करते आ रहे है। किन्तु इन साधकों में भी दो मत बन गये- एक सात्विक दुसरा तामसिक। सात्विक साधक साधना पूर्ण होने पर खीर-हलवे आदि का भोग लगाते है। किन्तु तामसिक साधक साधना पूर्ण होने पर मदिरा और बकरे आदि कि बलि लगाते है। सिद्धियाँ दोनों ही साधकों को प्राप्त होती है और दोनों ही साधक अपनी इच्छा अनुसार अपनी सिद्धियों का उपयोग करते है। किन्तु जो साधक लोक-कल्याण में अपनी सिद्धि का उपयोग करता है, वह सद्गति को प्राप्त होता है। और जो साधक अपनी सिद्धि का दुर-उपयोग करता है, वह दुर्गति को प्राप्त होता है।

शैव-सम्प्रदाय को मानने वाले तान्त्रिक शिव के साथ-साथ धीरे-धीरे भैरव की उपासना करने लगे। भैरव-साधना को स्थापित करने के पीछे जो मूल कारण था, वह यह था कि साधक का तामसिक होना। क्योंकि भगवान शिव कि साधना सात्विक है। इसलिऐ शिव-संप्रदाय में जो तामसिक साधक पैदा हुऐ, उन्होंने भैरव-साधना प्रारम्भ कि और साथ ही माँस-मदिरा का सेवन प्रारम्भ कर दिया। यहीं से तान्त्रिकों में व्यभिचार उत्पन्न हो गया। क्योंकि जो साधक सात्विक से तामसिक बन गया हो, तो उस कि तामसिकता का अन्त सहज नहीं होता। धीरे-धीरे भैरव-उपासकों ने एवं नौ दुर्गा उपासकों ने अपने आप को नीचे कि तरफ गिराना प्रारम्भ कर दिया। धीरे-धीरे मूल साधनाऐं और सात्विक साधनाऐं समाप्त होने लगी और सभी जगह तामसिकता ने स्थान ग्रहण कर लिया। नौ दुर्गाओं का स्थान 64 योगनियों ने ले लिया और साथ-ही-साथ डाकनी, शाकनी की पूजा, नवदुर्गा के सात्विक और तामसिक साधकों ने प्रारम्भ कर दी। दुसरी तरफ भैरव-साधना करने वाले साधक भूत, प्रेत की सिद्धि करने लगे। इन साधकों का मुख्य ध्येय यही था कि आम व्यक्तियों को अपनी सिद्धि का चमत्कार दिखाया जा सके और चमत्कार के द्वारा अपना स्वार्थ सिद्ध किया जा सके। तान्त्रिकों का व्यभिचार बढ़ता चला गया।

तन्त्र के इस वीभत्स रूप को देख कर आम व्यक्ति सामने आया, जो शास्त्रों कि बड़ी-बड़ी सिद्धियों को तो नहीं कर सकता था। अपितु वह परमात्मा के लिये श्रद्धा और भावना से भरा हुआ था। इन आम व्यक्तियों ने छोटे-छोटे मंत्र जिनकों कि यह असानी से याद कर सकते थे, उनका जाप प्रारम्भ कर दिया। इन मंत्रो में अधिकतर साबर मंत्र थे, क्योंकि साबर मंत्र आम बोल-चाल कि भाषा में होते थे और इन्हे याद करना भी आसान होता था। कहते हैं कि श्रद्धा में शक्ति होती है और इन आम व्यक्तियों कि श्रद्धा रंग लाई और ओझा-गुणीयों का मत प्रारम्भ हो गया। ये ओझा-गुणी-साधक न तो कोई लम्बा चौड़ा विधान जानते थे और न ही कोई विशेष कर्म-कांड करते थे। यह साधक तो श्रद्धा और भावना से भरे हुऐ थे। धीरे-धीरे तन्त्र-सम्प्रदाय मिटने लगा और ओझा-गुणीयों का समप्रदाय फलने-फुलने लगा। आम व्यक्ति या जन-मानस को अत्यधिक फायदा होने लगा। अधिकतर हर छोटी-बड़ी समस्याओं का ईलाज, इन साधकों के पास होता था और ये साधक नि-स्वार्थ भाव से जन-सेवा करते थे। एक समय ऐसा भी आया जब तान्त्रिकों और इन साधकों में टकराव उत्पन्न हुआ। जिस में तान्त्रिकों कि हार हुई और इन श्रद्धा से भरे हुऐ साधकों कि जीत हुई। इस जीत से भी इस सम्प्रदाय को बल मिला और धीरे-धीरे यह सम्प्रदाय, एक छोटे से गाँव से ले कर शहरों तक फैलता चला गया।

इस सम्प्रदाय कि मुख्य पहँचान यही थी कि यह साधक सात्विक होते हुऐ भी श्रद्धा और भावना से भरे हुऐ थे। मंत्रो के नाम पर सिर्फ अपने देवता का नाम लेते थे और हर समस्या का समाधान करते थे। यह साधक लोक-देवताओं को प्रधान मानते हुऐ, निष्कपट भाव से उनकी सेवा करते थे। जहाँ तान्त्रिक अनुष्ठान करके सिद्धि को प्राप्त करते थे, वहीं यह साधक अपने लोक-देवता को स्नान आदि करा कर या सिर्फ अपने घर में ही एक अलग स्थान बना कर, अपने देवता के नाम का एक अलग दीपक(चिराग) जलाते थे। इतना भर करने से ही उन्हें उस देवता कि कृपा प्राप्त होती थी। जो साधक मन, क्रम, वचन से अधिक पवित्र होता था, उसे उतनी ही जल्दी उस देवता कि कृपा प्राप्त होती थी। इन साधकों ने अपने लोक-देवताओं में जिनको मुख्य स्थान दिया- उन में हनुमान जी, भैरव जी, क्षेत्रपाल, कुल देवता (अपने कुल की परम्परा में जिस देवता की पूजा होती थी), ग्राम देवता(गाँव में जो प्रधान देवता होता है), नगर देवता(सम्पूर्ण नगर का श्रेष्ठ देवता, जैसे कि दिल्ली में कालका जी)। सिर्फ इतना ही नहीं, इन साधकों ने हिन्दु और मुस्लिमों का भेद भाव त्याग कर सयैद, पीर, परी आदि कि साधना भी प्रारम्भ की। प्रत्येक साधक अपनी गुरू परम्परा के अनुसार या अपनी इच्छा अनुसार देवताओं की पूजा करने लगा। इन्हीं साधकों ने कुछ समय बाद सात-माताओं की पूजा पर बल दिया और हर गाँव या नगर में, एक छोटे से मन्दिर के रूप में इन सात माताओं कि स्थापना होने लगी। साधकों के साथ-साथ आम व्यक्ति भी इन माताओं की पूजा करते लगा। आज भी होली से ठीक सात दिन बाद जो शीतला माता की पूजा होती है, वह वास्तव में सात माताओं कि पूजा होती है।

सात माताओं कि सहज पूजा के मूल में दस महाविद्याओं में से सात महाविद्याओं का रहस्य छिपा हुआ है। दस महाविद्याओं कि साधना कठिन होने कि वजह से इन्हें सात-माताओं का सुक्ष्म रूप दिया गया। दस में से सात को स्थान देने के पीछे जो रहस्य था, वह यही था कि दस महाविद्याओं में से सात महाविद्याऐं सात्विक और तामसिक दोनों है। इसलिऐ एक नई परिपाटी प्रारम्भ की ताकि सात्विक और तामसिक दोनों ही साधक अपनी इच्छा अनुसार पूजा कर सके। क्योंकि ओझा-गुणीयों में भी धीरे-धीरे तामसिकता आने लगी थी। आज भी इन सात-माताओं की पूजा सात्विक और तामसिक दोनों साधक अपने-अपने ढंग से करते है एवं हिन्दु धर्म की लगभग सभी जातियाँ इनकी पूजा करती है, चाहे वह क्षत्रिय हो या ब्राह्मण, वैश्य हो या शुद्र। इससे जो सबसे बड़ा फायदा हुआ, वह यह था कि दोनों ही तरह के साधक एक ही जगह बन्ध कर रह गये। जहाँ पुरानी परिपाटी में सात्विक-सात्विक था और तामसिक-तामसिक, वहीं इस नई परिपाटी में दोनों एक हो गये और जन-मानस को फायदा होने लगा। सात-माताओं कि स्थापना गाँव कि सीमा पर की जाती थी। इससे साधकों को दुसरा जो सबसे बड़ा फायदा था, वह यह था कि यह सात-माताऐं उस गाँव को प्रत्येक अला-बला और बिमारियों से सुरक्षा प्रदान करती थी।

इन सात-माताओं के साधकों में से कुछ साधक व्यभिचार होकर श्मशान की साधनाओं की तरफ बढ़ने लगे। श्मशान की तरफ बढ़ने वाले ये साधक, भैरव-साधकों की तरह भूत, प्रेत या शव-साधना नहीं करते थे। बल्कि ये मसान और कलवों की पूजा करने लगे। इस पूजा में यह लोग मरे हुऐ छोटे बच्चों के शव को बाहर निकालतें और उस कि सिद्धि करते, जिसे कलवा सिद्धि या मसान सिद्धि कहाँ जाता है। इन साधकों कि यह सिद्धि प्रारम्भ में लोक-कल्याण कारक थी, किन्तु कुछ समय बाद इसका भी वीभत्स रूप आम व्यक्ति को देखने को मिला। मसान आदि की सिद्धि करने वाले साधक धीरे-धीरे लोभ में फँसने लगे और जहाँ ये साधक प्रारम्भ में जन सेवा करते थे या दुष्टों का मूठ या घात चला कर नाश करते थे। वहीं बाद में ये साधक पैसा ले कर किसी के उपर भी मूठ या घात चलाने लगे जिससे कि आम जन-मानस परेशान हो उठा। ऐसे दुष्ट-साधकों से बदला लेने के लिये वीर-सिद्धि के साधक सामने आये। इसमें पाँच-वीरों की साधना को प्रधानता दी गई। इन पाँच-वीरों को एक चिराग या पाँच चिराग जला कर और सफेद रंग का कोई भी प्रसाद लगा कर सिद्ध किया जाता था। इन पाँच-वीरों में जो मुख्य स्थान मिला वह गुगाजी(जाहर वीर) को था। गुगाजी को जाहर वीर भी कहा जाता है। जाहर वीर के झन्ड़े तले पाँच वीरों की स्थापना हुई और 52 वीरों का जन्जीरा बना। कुछ साधक 52 वीरों के जन्जीरे को, 52 डोर के नाम से भी जाना जाता है। पाँच वीरों में जाहार वीर, हनुमन्त वीर, नाहरसिहं वीर, अंघोरी वीर, भैरव वीर मुख्य थे। 52 वीरों के जन्जीरे के पाँच मालिक हैं। सात्विक और तामसिक देवताओं का यह अनुठा गठबन्धन था। इन वीरों में जहाँ जाहर वीर और हनुमन्त वीर सात्विक है, वहीं नारसिहं, भैरव वीर और अंघोरी वीर तामसिक है। इस की जो स्थापना की गई, उसमें सात्विक और तामसिक दोनों ही पूजा विधान रखे गये। इस साधना में भी श्रद्धा और भावना को प्रधान माना गया। किन्तु पाँच वीरों की साधना करने वाला साधक, अपनी इच्छा अनुसार अपनी सिद्धि का इस्तेमाल नहीं कर सकते थे।

यहाँ पर साधक या आम व्यक्ति केवल अर्जी लगा कर (प्रार्थना करके) छोड़ देता है। उस अर्जी का फैसला उन पाँच वीरों के हाथ में होता है। ये पाँच वीर साधक की अर्जी को सुनकर, उसके भाग्य, कर्म, श्रद्धा और भक्ति को देख कर ही फैसला करते है। हिन्दुओं की इस नई व्यवस्था को देख कर ही, मुस्लिम सम्प्रदाय में भी पाँच पीरों की स्थापना हुई। इन पाँच पीरों को कुछ साधक पाँच-बली भी कहते है। अस्त बली, शेरजंग, मोहम्मद वीर, मीरा साहब और कमाल-खाँ-सैयद जैसी व्यवस्था पाँच पीरों-वीरों की साधना में थी। वैसी ही परम्परा और व्यवस्था पाँच पीरों में थी जैसी कि पाँच वीरों में थी। दोनों ही मतों में श्रद्धा और भावना प्रदान थी। आज के समय में इस परम्परा का रूप अनेकों ही जगह देखा जा सकता है। धीरे-धीरे पाँच हिन्दू वीर और पाँचों मुस्लमानी पीर इकठ्ठे पूजे जाने लगे। अधिकतर हिन्दू पाँच वीरों के साथ-साथ पाँच पीरों को भी मानने लगे। जहाँ पाँच वीर साधक और आम व्यक्ति को सुरक्षा प्रदान करते हुऐ, दुष्टों का विनाश करते थे, वहीं पाँचों पीर सुख और समृद्धि प्रदान करते थे। इसी प्रकार सिख धर्म में भी पंच प्यारे हैं।

धीरे-धीरे आवेश का प्रचलन प्रारम्भ हुआ जो साधक बदन को हिलाते अर्थात झुमते हुऐ लोगों कि समस्याओं का समाधान करने थे। ऐसे साधकों के बारे में कहा जाता है कि इस साधक के अन्दर देवता की आत्मा ने प्रवेश किया हुआ है। साधक के शरीर में किसी भी देवी या देवता की आत्मा का प्रवेश करना आवेश कहलाता है। ऐसे साधक जोर-जोर से हिलने लगते है और अपने पास आये हुऐ आम व्यक्तियों का ईलाज करते है। इस व्यवस्था में आम व्यक्ति और देवता के बीच कोई माध्यम नहीं होता अपितु आप व्यक्ति सीधे ही देवता से बात करके अपनी समस्या का समाधान पाता है।

साधना का यह प्रयोग भी आम व्यक्तियों के बीच में काफी प्रचलित है। किन्तु सही मायने में यह क्रिया तभी फलीभूत है, जब साधक गुरू के सान्निध्य में इस साधना को बार-बार करे। क्योंकि ऐसा न करने वाले साधक को अनेकों ही परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है। मान लीजिऐ किसी साधक के अन्दर देवता के आवेश की बजाऐ किसी भूत या प्रेत का आवेश आ गया और उसे देवता का आवेश मान कर वह साधक जन-कल्याण करने लगा तो सम्भव है, कि आम व्यक्ति की समस्याऐं तो दूर होने लगेगीं, किन्तु साधक और उसके परिवार को अनेकों ही परेशानियों का सामना करना पड़ेगा। आज अनेकों ही ऐसे साधक हैं, जिन में देवता का नहीं बल्कि भूत-प्रेतों का आवेश आता है।

जिसके द्वारा वह जन कल्याण करते हैं। किन्तु साधक व उसका परिवार अनेकों ही परेशनियों से घिरा रहता है। अगर कोई उनसे कहे कि आप तो साधक हो देवता कि आप के ऊपर असीम कृपा है। फिर आप या आपके परिवार में परेशानी क्यों है। तो ऐसे साधक हँसकर यही जवाब देते हैं, कि जैसी देवता की इच्छा। अगर अधिक जोर देकर उनसे पूछा जाऐ तो वह, यह कहते है, कि जिस प्रकार एक डॉक्टर अपना ईलाज़ स्वयं नहीं कर सकता उसी तरह हम स्वयं अपनी समस्या का समाधान नहीं कर सकते। जो साधक ऐसा कहते है, यह पूर्णतः मिथ्या प्रचार है। अगर आप मन, कर्म, वचन से पवित्र हैं और पूर्णतः देवता का ही आवेश है, तो आपके घर परिवार में किसी भी प्रकार की कोई भी परेशानी नहीं होगी। जिन साधकों के घरों में यह परेशानियाँ है, वह साधक मन, कर्म, वचन से पवित्र नहीं है अथवा देवता के आवेश के स्थान पर भूत या प्रेत का आवेश है। आज का जो समय है, इसमें सबसे ज्यादा जो देखने को तन्त्र मिलता है, वह ओझा, गुणी या आवेश वाले तान्त्रिकों का अधिक है। सिद्ध तान्त्रिक तो बहुत ही कम देखने को मिलते है। अघोर-विद्या के जो भी सिद्ध तान्त्रिक थे, वह भी धीरे-धीरे समाप्त होते जा रहे है। भैरवी-साधना का तो बड़ी मुश्किल से ही कोई नाम लेवा बचा है। कोई माने या न माने किन्तु सभी साधनाऐं धीरे-धीरे समाप्त होती जा रही है।

इसके मूल में जो कारण है, वह यही है कि तान्त्रिकों का व्यभिचारी होना एवं शिष्यों की आस्था का न होना। जब तक गुरू और शिष्य दोनों के ही अन्दर श्रद्धा भाव नहीं होगा और दोनों ही ब्रहम् के प्रति समर्पित नहीं होगे, तब तक तन्त्र का उत्थान सम्भव नहीं है। प्राचीन काल में जो भी साधना की जाती थी, उसके मूल में गुरू और शिष्य का एक ही उद्देश्य होता था कि अधिक से अधिक ऊर्जा का इकट्ठा करना एव कुन्डलिनी-शक्ति को जाग्रत करते हुऐ, उस के द्वारा ब्रहम् को प्राप्त करना। ऊर्जा शक्ति को इकट्ठा करने हेतु, फिर चाहे सात्विक साधना करनी पड़े या तामसिक। साधना कोई भी क्यों न हो सभी साधनाऐं हमें ऊर्जा प्रदान करती है। अगर इस ऊर्जा का हम सही इस्तेमाल करें, तो हम पूर्ण ब्रहम् को प्राप्त कर सकते हैं। अगर हमारा उद्देश्य पवित्र है, तो फिर कोई भी शक्ति हमें उस परमात्मा से मिलने से रोक नहीं सकती।

हम सभी का कर्तव्य है कि एक बार फिर से एक नये युग की रचना हो और जितनी भी साधनाऐं लुप्त होती जा रही है, उन सबको पुनः स्थापित करें।अगर हमने समय रहते अपने आपको जागरूक नहीं बनाया तो एक दिन ऐसा आयेगा, जब हमारी सभी प्राचीन धरोहर समाप्त हो जायेगी। अगर हम ध्यान-पूर्वक अध्ययन करें तो कुछ वक्त पहले वेदों का अध्ययन सभी करते थे, किन्तु आज के समय में अधिकतर व्यक्तियों को तो चार वेदों के नाम तक भी मालूम नहीं है। कैसी विड़म्बना है कि जिन चार वेदों से यह सम्पूर्ण सृष्टि बनी है हमें उन का नाम तक याद नहीं। अगर यही हाल रहा तो एक समय ऐसा भी आयेगा, जब हम धीरे-धीरे करके सब कुछ खो चुके होगें। किन्तु कहते है कि ‘फिर पछतायेत होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत’ इसलिये हम आवाहन करते है, उन साधकों का जो सही मायने में हिन्दु धर्म कि सभ्यता को और हिन्दु धर्म के मूल तत्त्व श्रद्धा और भावना को बचाना चाहते है।

अगर हमने समय के रहते अपने आप को नहीं संभाला तो एक समय ऐसा भी आऐगा, जब हमारी हालत पश्चिमी सभ्यता से भी बुरी हो जाऐगी। पश्चिम के देशों की नकल करके हम अपने आप को महान समझ रहे है। ध्यान-पूर्वक अध्ययन करने पर पता चलता है कि आज वही पश्चिमी देश वेद-मंत्रों और गीता के ऊपर अनुसंधान (रिसर्च) कर रहे है। आर्य सभ्यता में 21 वीं सदी के अन्दर धीरे-धीरे जहाँ यह कहा जाने लगा है कि वेदों में क्या रखा है। वही पश्चिमी देशों ने वेदों का अध्ययन करके अपनी ध्यान-योग की शक्ति को इतना अधिक बढ़ा लिया है, कि जिसके बारे में हिन्दुस्तान का आम व्यक्ति सोच भी नही सकता। हिन्दुस्तान का आम व्यक्ति पश्चिमी सभ्यता की देन रेकी, लामाफैरा, क्रिश्टल-हीलिंग, फैंग-शूई, टच-थेरेपी आदि की तरफ भाग रहा है। वही पश्चिम का आम व्यक्ति हिन्दुस्तान के प्राचीन ग्रन्थों का अनुसंधान करने में लगा हुआ है। इसे हम अपना दुर्भाग्य ही कहगें कि आर्यों के पास सब कुछ होते हुऐ भी, वह पश्चिम के देशों की नकल कर रहा है। इसलिऐ हम सबको फिर से जागना होगा और जगाना होगा आम व्यक्ति को, ताकि लुप्त होती जा रही आर्य सभ्यता को समय के रहते बचाया जा सके।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है...
मनीष