Friday, May 19, 2017

जीवन जीने की राह (Jeevan Jeene Ki Rah5)

बुरी आदत परेशान करे तो पैदल घूमें
बुरी आदतें आजकल बड़ी आसानी से चिपक जाती हैं। पहले दूषित वातावरण के मौके कम हुआ करते थे, आज तो घर से बाहर मानो दुर्गुणों की आंधियां चल रही हैं। कई थपेड़े तो ऐसे आते हैं कि हर उम्र को प्रभावित कर जाते हैं और ऐसे दुर्गुण लोग घर तक ले आते हैं। कभी-कभी तो लगता है, लोग घर में भी सलामत नहीं रहे। कुमति, कुसंग, दुर्गुण चारों ओर फैल चुके हैं, जो आदमी के भीतर बुरी और गलत आदतें भर देते हैं। एक दिन वह गलत इतना हावी हो जाता है कि छोड़ना मुश्किल लगने लगता है। जिन्हें बुरी आदतें छोड़ना हों, उन्हें दो स्तर पर काम करना चाहिए- बाहर और भीतर।

बाहरी स्तर पर चार बातें हमें गलत रास्ते पर ले जाती हैं- व्यक्ति, वस्तु, स्थान और समय। ये चार चीजें कड़ी की तरह जुड़ जाएं तो बुरी आदतों से बचना मुश्किल हो जाता है। जब भी कोई बुरी आदत घेरे, जरा देखिएगा किन व्यक्तियों के साथ आपकी वे आदतें ज्यादा बलशाली हो जाती हैं। वह कौन-सी वस्तु है जो गलत मार्ग पर ले जा रही हैं, किस स्थान विशेष पर आप भटकते हैं और किस समय अपने आप पर नियंत्रण नहीं कर पाते? यदि समझदारी से इन चारों पर नियंत्रण पा लिया या इन्हें हटा लिया तो बाहरी स्तर पर तो बुराइयों से मुक्त हो ही जाएंगे। एक भीतरी स्तर भी चलता है।

भीतर मनुष्य को गलत मार्ग पर ले जाता है उसका मन। मन को एकांत से जोड़ना हो तो सबसे पहले जीभ पर नियंत्रण पाएं। ऐसा कुछ खाएं-पीएं, जिससे मन को गलत दिशा मिले। आंखें बंद कर लें, हो सके तो हाथों से माला जपें और जब लगे कोई बुरी आदत परेशान कर रही है तो तुरंत पैदल घूमिए। इससे मन को नियंत्रित करने में आसानी होगी। इन दो स्तरों पर काम कीजिए। कोई भी बुरी आदत घेरकर अशांत नहीं कर पाएगी।

तीन गलतियां हों तो दांपत्य वैकुंठ
कई लोगों ने अपने-अपने ढंग से विवाह की व्याख्या की है। एक महत्वपूर्ण संस्कार तो यह है ही, शास्त्रों में इसे यज्ञ की तरह भी माना गया है। यज्ञ में यजमान जब आहुति देता है तोस्वाहाबोलता है। इसका अर्थ होता है कि मैं अपने हिस्से का उस देवता को अर्पित कर रहा हूं, जिसके लिए मंत्रोच्चार किया गया। जब उस देवता को अपना हिस्सा प्राप्त हो जाता है तो वहतथास्तुकहता है, जिसका मतलब होता है तुम्हें इसका फल प्राप्त हो। यह यज्ञ की साधारण-सी क्रिया है। विवाह को यज्ञ इसलिए कहा जा रहा है कि यज्ञ के लिए एक व्यवस्था करनी पड़ती है। सामग्री एकत्र की जाती है और सबसे बड़ी बात, बैठकर क्रिया भी करनी पड़ती है। घर-गृहस्थी में वे लोग नाकाम हो जाएंगे जो तीन गलतियां कर रहे होंगे।

एक, कुछ लोग गृहस्थी बसाने के बाद काम नहीं करना चाहते। गृहस्थी बसा लेने वाले को आलस तो एकदम छोड़ देना चाहिए। दो, कुछ लोग जिम्मेदारी उठाना नहीं चाहते जबकि घर-परिवार तो नाम ही जिम्मेदारी का है। तीन, झूठ कभी बोलें। यज्ञ के मंत्र सत्य के निकट होते हैं। यज्ञ पूरी तरह से जिम्मेदारी है कि मैं आहुति दे रहा हूं, आपको स्वीकार करनी है। व्यवस्था का मतलब है आलस्यमुक्त जीवन।

इस दौर में लोगों का वैवाहिक जीवन टूटने के जो भी कारण है उनमें ये तीन भी हैं। जरा-सी बात पर बहस होती है और लोग जिम्मेदारी से भागने लगते हैं। पति हो या पत्नी, यदि जिम्मेदारी से भागेंगे तो अपने आपको सही साबित करने के लिए कुछ ऐसे कारण बताते हैं जो होते ही नहीं। जो भी हो, यदि ये तीन गलतियां नहीं कर रहे हैं तो विवाह नाम का यह यज्ञ आपके दांपत्य को ऐसा वैकुंठ बना देगा जहां प्रतिपल प्रसन्नता होगी, प्रेम की सुगंध बहती रहेगी।

अहंकार से बचाता है परिश्रम में सेवाभाव
प्रतिष्ठित, बड़े पदों पर बैठे या बहुत समृद्ध लोगों के माथे पर यदि अहंकार चढ़ जाए तो एक समय बाद वे भी गलत निर्णय लेने लगते हैं। कुछ ऐसी मूर्खताएं करने लगते हैं कि शिखर से शून्य की यात्रा शुरू हो जाती है। आदमी का पतन उसका दुर्भाग्य नहीं कराता। अधिकतर मौकों पर अपनी मूर्खता के कारण ही वह स्वयं के पतन को निमंत्रित करता है। मूर्खता का प्रवेश अहंकार के दरवाजे से होता है। इस समय जब हर आदमी ऊंचा उठना चाह रहा हो, ज्यादा से ज्यादा धन, पद-प्रतिष्ठा कमाने में लगा हो तो अहंकार से कैसे बचा रहेगा? इसके लिए दो काम करते रहिए- परहित की भावना के साथ परिश्रम करें और शांति प्राप्ति का कोई मौका चूकें, क्योंकि अशांत व्यक्ति भी अहंकार को जल्दी आमंत्रित कर लेता है। उसकी सूझ-बूझ कम हो जाती है। जब परिश्रम कर रहे हों, सफलता की यात्रा पर हों तो कई लोग आपके साथ होंगे या आप कुछ लोगों के साथ होंगे। हर स्थिति में दूसरों की भलाई का भाव बनाए रखिए।

किसी का अहित कर सफलता की लंबी यात्रा नहीं कर पाएंगे और कर भी ली तो शांत नहीं रहेंगे। सफल व्यक्ति यदि अशांत है तो अध्यात्म तो कहता है वह सफल हुआ ही नहीं। जीवन में यदि सफलता उतरती है तो शांत होना ही है और शांति आती है सेवाभाव से। यदि आपके हाथ के नीचे कुछ लोग काम कर रहे हैं तो उनसे काम लेने में भी सेवाभाव रखिए। समझिए भगवान ने अवसर दिया है कि आप अपने अधिनस्थों की सेवा कर रहे हैं, उन्हें ईमानदारी से दो रोटी कमाने का अवसर दे रहे हैं। वे भी आपके साथ आगे बढ़ जाएं यह भाव आपको जरूर शांत करेगा। सेवाभाव में डूबे लोग अहंकार रहित होंगे ही और जो अहंकार से दूर है वह अशांत नहीं रह सकता।

कामयाबी को अहंकार से बचाएं
अहंकार से सदैव सावधान रहिए। वह जितना देता है उससे ज्यादा ले लेता है। इसी क्रम में एक चीज ऐसी छीन लेता है जिसके परिणाम बहुत बुरे आते हैं, वह है सोचने की शक्ति। भीतर की ऊर्जा, आत्मविश्वास और सोचने की ताकत ही किसी को सफलता के साथ शीर्ष तक पहुंचाती है। वहां सावधान रहे तो अहंकार घेरकर हमारी सोच को परिवर्तित कर देता है। रावण के साथ ऐसा ही हो रहा था। सारी दुनिया को जीत लेना आसान नहीं था। अपनी पूरी क्षमता झोंककर वह विश्वविजेता बना था लेकिन, शिखर पर पहुंचते ही अहंकार में डूब गया। जैसे ही सूचना मिली कि राम सेतु बांधकर लंका में पहुंच चुके हैं,उसने जिस तरह से प्रतिक्रिया दी वह हमारे लिए सबक है।

पहला ही प्रश्र किया- ‘बांध्यो बननिधि नीरनिधि जलधि सिंधु बारीस। सत्य तोयनिधि कंपति उदधि पयोधि नदीस।।क्या सचमुच उस समुद्र को बांध लिया? तुलसीदासजी ने लिखा- ‘निज बिकलता बिचारि बहोरी। बिहंसि गयउ गृह करि भय भोरी।।समुद्र बंधन की बात सुनते ही अपनी व्याकुलता छिपाकर हंसता हुआ महल में चला गया। व्याकुलता दो तरह की होती है- एक बाहर गलत काम करें और भीतर व्याकुल हो जाएं, दूसरी, बाहर सही करते हुए भी भीतर परेशान हो जाएं।

बड़े-बड़े कामयाब लोग क्यों डिप्रेशन में चले जाते हैं यह रावण बता रहा है। उसकी व्याकुलता का कारण अहंकार था, जिसे हंसी से दबाया। हंसी और मुस्कान मनुष्य को खोलती है परंतु लोग उदासी और निराशा को छिपाने के लिए इन्हें भी हथियार बना लेते हैं। रावण यदि व्याकुल और चिंतित था तो अपने ही कारणों से। हम सब सफलता की यात्रा पर निकले हैं पर इस यात्रा में रावण जैसी गलती कभी करें। अपने परिश्रम, अपनी कामयाबी को अहंकार से बचाएं।

किसी को दोष दें, आत्मविश्लेषण करें
पुनर्जन्म को लेकर दो मौकों पर व्यक्ति बहुत परेशान हो जाता है। पहली परेशानी तब आती है जब परिवार या परिचितों में से किसी का निधन हो जाए। उस समय ब्राह्मण लोग जो कर्मकांड कराते हैं उसमें अनेक क्रियाएं ऐसी होती हैं, जिनका संबंध पुनर्जन्म से बताया जाता है। दूसरी उस समय जब वह लगातार असफल हो रहा हो, संकटों में डूबा हो और समझाने वाले अंत में कहते हैं, ‘ ये सब प्रारब्ध का योग है।प्रारब्ध और पुनर्जन्म क्या होता है, यह बहस का विषय है। लेकिन, जिन दिनों आप परेशान होते हैं और लगता है कोई ऐसा मार्ग मिल जाए कि परेशानियां मिट जाएं, शांति प्राप्त हो जाए तो इन दोनों पर भरोसा रखना फायदेमंद होगा। इस बहस में पड़ें कि ये सब होता है या नहीं। यदि इसे समझा जाए तो नुकसान कम, फायदा ज्यादा है। ये दोनों बातें समझाती हैं कि जीवन को नियंत्रित करने से ज्यादा जरूरी है उसे समझना।

जीवन को नियंत्रित करने का मतलब है हम इस तरह के सिद्धांतों को मानें, ऐसी जीवनशैली अपनाएं, किस धर्म विशेष के प्रति रुचि रखें। लेकिन, यदि उसे समझ लें तो किसी भी धर्म से हों, कोई भी जीवनशैली हो, आप उसका फायदा उठा लेंगे। पुनर्जन्म और प्रारब्ध की अवधारणा सिखाती है कि जब कोई गलती हो, सफल हो सकें तो दोष किसी और को देते हुए स्वयं का विश्लेषण कीजिए।

पिछले जन्म की घटनाएं वर्तमान को और वर्तमान भविष्य को प्रभावित करता है। पुनर्जन्म और प्रारब्ध बीते की प्रतिक्रियाएं हैं। इनको स्वीकार करते हैं तो जीवन की विरोधाभासी स्थितियों से निपटने में ज्यादा सक्षम हो जाते हैं। पुनर्जन्म को मानेंगे, प्रारब्ध में विश्वास रखेंगे तो लगेगा जो हुआ, ठीक है, आगे एक नए उत्साह से चलें। नए उत्साह की यह धारणा अंधविश्वास से तो बचाएगी ही, भीतर से मजबूत भी करेगी।

अपनी रुचि को दबाएं नहीं, ईश्वर से जोड़ें
इस बात पर जरूर विचार कीजिएगा कि आपकी कुछ रुचियां ऐसी होती हैं, जिन्हें आप ही जानते हैं। बहुत निकट के लोग भी उन्हें नहीं जान पाते। हो सकता है आपने कभी प्रकट की हों और ऐसा भी हुआ होगा कि प्रकट की हों पर दूसरों ने उस पर ध्यान नहीं दिया हो। आत्मरुचि के मामले में बहुत सावधान रहें। बहुत शालीनता से उसे अभिव्यक्त करें। दबाएंगे तो भीतर विचलन पैदा होगा। जब हमारी परवरिश हो रही होती है, जीवन दूसरों से निर्धारित होता है तब आत्मरुचि निखरती भी है, दबती भी है। फिर एक समय ऐसा आता है कि आप स्वतंत्र हो जाते हैं। उस समय यदि उस पर नियंत्रण नहीं पाया तो हो सकता है कुसंग कर गलत राह पकड़ लें। फिर एक दौर आता है वैवाहिक जीवन का। यहां आत्मरुचि फिर चुनौती बन जाती है, क्योंकि अब आपके साथ-साथ जीवनसाथी की रुचि भी चलने लगती है। यहां अपनी रुचि को शालीनता से व्यक्त करें और सामने वाले की रुचि को प्रेमपूर्ण होकर जानें, समझें। दूसरों की रुचि का मान करने से आपकी रुचि संतुष्ट होती है। एक प्रयोग और किया जा सकता है- दूसरे की रुचि ठीक से पढ़ लें और अपनी रुचि को अभिव्यक्त करने का मौका नहीं भी मिले तो उसे परमात्मा से जोड़ दीजिए। यदि आपकी रुचि है पहाड़ पर जाना, प्रकृति के बीच में रहना, टीवी देखना या किसी और रूप में मनोरंजन करना। जो भी हो और किन्हीं कारण से पूरी हो तो उन्हें दबाएं नहीं, परमशक्ति से जोड़ दें। वहां हल्का-सा संतोष मिलेगा। दबाएंगे तो लगेगा जैसे संसार एक नदी है और आप उसमें डूब रहे हैं, हाथ-पैर चला रहे हैं। परमशक्ति से जोड़ देंगे तो इसी नदी में तैरते और आनंद में बहते नजर आएंगे। आत्मरुचि के साथ जीएं, जीवन के अर्थ ही बदल जाएंगे।

हर काम परहित, धर्महित राष्ट्रहित में हो
महापुरुष हमें जो-जो सिखा गए उनमें एक संदेश यह भी है कि सामान्य रहकर असामान्य बनें। आज शिवाजी जयंती पर उन्हें याद करते हुए एक संदेश जीवन में उतारा जाए। उनका कहना था आपकी सफलता आपके किए हुए का फल है। इसे कभी अहंकार, प्रदर्शन, पाखंड, शोषण और विलास से जोड़ें। शिवाजी के जीवन का सारा संघर्ष इन्हीं बातों पर टिका था। वे कहते थे- आपकी हर क्रिया परहित, धर्महित और राष्ट्रहित के लिए होनी चाहिए। करना है इसलिए कर रहे हैं, ऐसा करें। कोई भी आपका शत्रु इसलिए है कि वह गलत आचरण कर रहा है लेकिन, उसके भीतर भी एक इंसान है, उसको जरूर पढ़ लेना चाहिए। हमारी शत्रुता मनुष्य से नहीं, उसके भीतर के गलत आचरण से होना चाहिए। शिवाजी के भीतर का योद्धा हमेशा इस बात के लिए सावधान रहा कि आक्रमण में कोई कमी हो पर अत्याचार हो जाए। शिवाजी ने जीवन में गुरु को बहुत महत्व दिया। उनके भीतर ऊर्जा के भंडार में प्रतिपल जो विस्फोट होता था उसे नियंत्रित करने और सही दिशा देने का काम गुरु करते थे। हर सफल आदमी की एक छवि होती है और शिवाजी की छवि एक महान राजा की बन गई थी। तब गुरु ने समझाया था कि मनुष्य शिवा पर राजा शिवा हावी हो जाए। तुम योद्धा इसलिए हो कि तुम्हें सत्य स्थापित करना है, पर ऐसा हो कि सत्य स्थापित करते-करते अहंकार माथे चढ़ जाए और आक्रमण अत्याचार में बदल जाए। शिवाजी जयंती पर हम कम से कम इतना तो तय कर लें कि उनके जो शुभ कार्य शेष रह गए वे हमारा ध्येय होना चाहिए और गलत का विरोध करने में आत्मविश्वास के साथ संस्कार जरूर होना चाहिए। आज के विपरीत वातावरण में इसकी बहुत आवश्यकता है।

दांपत्य में क्रोध अहंकार का स्थान हो
आपका संबंध किसी भी धर्म से हो लेकिन, जिस दिन मनुष्य बनकर इस धरती पर आए, आपके साथ शरीर, मन, एक महात्मा, आत्मा और परमात्मा भी आया। शरीर के आधार पर धर्म, नाम ये सब तय हो जाता है लेकिन, भीतर की बातें सबके लिए समान होती हैं। परमात्मा चूंकि हमारे साथ ही संसार में आया है तो जीवनभर साथ रह भी सकता है। जिसने पहली सांस को अपना सान्निध्य दिया हो वह अंतिम सांस के समय भी उपस्थित रहता है। किंतु बीच में इस कारण दूर हो जाता है कि मनुष्य के जीवन में कुछ दुर्गुण उतर आते हैं। खास तौर पर अहंकार और क्रोध के आते ही परमात्मा हमसे दूरी बना लेता है। रावण भी यही गलती कर रहा था। सूचना मिल चुकी थी कि राम सेना के साथ लंका पार उतर आए हैं लेकिन, वह अड़ा रहा कि सीता को नहीं लौटाऊंगा। जब पत्नी मंदोदरी समझाने का प्रयास करती हैं उस दृश्य का तुलसीदासजी ने मनोवैज्ञानिक विशलेषण करते हुए लिखा है, कर गहि पतिहि भवन निज आनी। बोली परम मनोहर बानी।। चरन नाइ सिरु अंचलु रोपा। सुनहु बचन प्रिय परिहरि कोपा।।रावण को महल में ले जाकर बड़ी विनम्रता से उसके चरणों में आंचल फैलाते हुए निवेदन करती है, ‘मेरी बात क्रोध छोड़कर सुनिए।लेकिन अहंकार में डूबा रावण मानने को तैयार ही नहीं था। क्रोध और अहंकार के कारण लोग जीवनसाथी द्वारा दी जाने वाली सीख भी स्वीकार नहीं करते और स्वयं ही पतन को आमंत्रित कर लेते हैं। पत्नी जब पति को कुछ समझाए, पति पत्नी से कुछ कहे तो दोनों के बीच क्रोध अहंकार का कोई स्थान नहीं होना चाहिए। जितनी निकटता पति-पत्नी के बीच होती है उतनी और किसी रिश्ते में नहीं होती। इसलिए एक-दूसरे की सलाह क्रोध छोड़कर सुनिए और मानिए भी।

जिम्मेदारी लेने से चरित्र में आती हैं विशेषताएं
जिम्मेदारी से बचने की कोशिश कभी मत कीजिए, जो लोग दायित्व बोध के प्रति गंभीर होते हैं उनके चरित्र में कई विशेषताएं अपने आप उतरने लगती हैं। हर उम्र की अपनी जिम्मेदारियां होती हैं। माना जाता है कि बचपन की जिम्मेदारी का एक बड़ा हिस्सा घर के बड़े लोग उठा लेते हैं और बचपन हल्का होता है। युवा अवस्था आते-आते जिम्मेदारियों का रूप बदल जाता है और बुढ़ापा आने पर तो मनुष्य सोचता है कि जिम्मेदारियों से मुक्त होकर नए ढंग से जीएं। लेकिन, कुदरत कभी-कभी जिम्मेदारी और उम्र का वह फर्क ही बंद कर देती है। हमें तालमेल बैठाना पड़ता है। मैं कई ऐसे लोगों को जानता हूं, जिनके जीवन में बुढ़ापे में भी वे सारी जिम्मेदारियां गईं जो वे लंबे समय से निभाते रहे हैं और कभी-कभी तो थक ही जाते हैं। थकें नहीं और जिम्मेदारी उम्र के जिस भी पड़ाव में आए, पूरे उत्साह से निभाइए। सबसे बड़ी जिम्मेदारी आती है सोलह से तीस साल के बीच। यही वह उम्र होती है, जिसमें जिम्मेदारियों से अपने आपको संवारा जा सकता है। किंतु, जैसे ही दायित्व आता है, लोग उसके प्रति गंभीर होने की बजाय चिंतित अशांत हो जाते हैं। बूढ़े लोग तो कभी-कभी शरीर के साथ मन से भी थक जाते हैं कि अब जिम्मेदारी उठा पाना हमारे बस में नहीं। पता नहीं ऊपर वाला किसे, कैसी जिम्मेदारी सौंप दे। हो सकता है उम्रभर आप जिन जिम्मदारियों से गुजरे होंगे वे अंतिम पड़ाव तक भी पीछा छोड़ें। इसलिए जिम्मेदारी और उम्र का तालमेल बनाए रखिए। जिस उम्र की जो जिम्मेदारी हो, जब जो करना हो वह तो जरूर करें पर यदि कोई दायित्व पहले या बाद में भी जाए तो निराश हों। उम्र के हर पड़ाव में शरीर का अपना महत्व होता है। इसे बनाकर रखिए, बचाकर रखिए।

सांस पर काबू पाकर मन को मर्जी से चलाएं
किसी के दिल का हाल जान लेना बड़ा मुश्किल काम है लेकिन, दूसरे के मन में क्या चल रहा है, यह पता लगाने में मनुष्य की रुचि जरूर होती है। चूंकि मनुष्य कभी भी भीतर से स्वयं को उजागर नहीं करता, इसलिए जानना मुश्किल हो जाता है। हर आदमी बाहर से जैसा दिखता है, वैसा भीतर से होता नहीं है। चूंकि हम भीतर जान नहीं पाते इसलिए मान लेते हैं कि जो बाहर दिखाया जा रहा है वैसा ही है। किसी को भीतर से जानने में मन बहुत बड़ी बाधा है। मन का स्वभाव है संदेह करना, नकारात्मक सोचना। इसलिए जैसे ही किसी को भीतर से पढ़ने का प्रयास करेंगे, वह अपना काम दिखाना शुरू कर देगा। किसी को पढ़ने के चार तरीके होते हैं- संग, चेहरा, आंख और सांस। संग से मतलब है आप उसके पास किस स्थान पर, कैसे बैठे हैं, उससे आपका संबंध क्या है? फिर ध्यान से उसका चेहरा पढ़िए। आंखों में झांकिए और अपनी सांस से उसकी सांस को महसूस कीजिए। यह एक आध्यात्मिक क्रिया है और इसके लिए योग द्वारा अपनी सांस पर नियंत्रण पाना होगा। जैसे ही सांस पर नियंत्रण हुआ, मन आपके हिसाब से चलने लगेगा। किसी के और खास तौर पर परिवार में सदस्यों के भीतर क्या चल रहा है, यह जानना बहुत जरूरी है। भारत जैसे देश में जहां अध्यात्म, आत्मा, शांति पर इतना काम हुआ, ऋषि-मुनियों ने बहुत अच्छे ढंग से इनके साधन जुटाए, उसके बाद भी यहां की 36 प्रतिशत आबादी उदासी में डूबी है। डिप्रेशन अस्थायी पागलपन है। यदि समय पर इलाज नहीं कराया तो उसे स्थायी होने में देर नहीं लगेगी। इसके लिए मिलकर प्रयास करने होंगे। परिवार में, समाज में या कार्यस्थल पर कोई उदास है तो योग से जुड़कर उसकी उदासी मिटाने में आप बड़ी मदद कर सकते हैं।

पति-पत्नी के रिश्ते में भरोसा आवश्यक
इन दिनों देश के कई परिवार एक ऐसी समस्या से जूझ रहे हैं, जिसका सीधा संबंध परिवार से है, वह है तलाक। जिनके तलाक हो चुके हैं वे भी सुखी नहीं हैं और जो इसके द्वार पर खड़े हैं वो तो परेशान हैं ही। एक बड़ा वर्ग है जो जैसे-तैसे इस स्थिति को रोके हुए है। चूंकि बहुत अधिक दबाया जा रहा है इसलिए बीमारी-सा बन गया और नतीजे में पारिवारिक जीवन घोर अशांत होकर सीधा असर बच्चों पर पड़ रहा है। स्त्री-पुरुष जब पति-पत्नी बनते हैं तो विलास भी होगा ही। यह विलास दो लोगों के बीच सीमित, मर्यादित रहे तब तो ठीक लेकिन, जब बाहर फैलता है तो परिवार टूटने की नौबत जाती है। तलाक के पीछे जो बड़ा कारण सामने रहा है वह है जीवनसाथी के अलावा अन्य से दैहिक संबंध। तनाव की शुरुआत छोटी-छोटी बातों से होती है।

जीवनशैली टकराती है, मतभेद शुरू हो जाते हैं और जब लंबे समय चलते हैं तो दोनों को एक-दूसरे की देह में रुचि समाप्त हो जाती है। पर शरीर तो उसकी जरूरी मांग करेगा ही। यहीं से भटकाव शुरू होता है। तलाक के अधिकांश मामलों में पीछे कोई तीसरा खड़ा दिखेगा। विवाह से पहले के जीवन में देह सुरक्षित रही हो इसकी संभावना कम ही लोग देखते हैं। नतीजा विवाह के बाद सामने जाता है। तलाक के जितने भी बिंदु हैं उनमें से कम से कम इस पर जरूर काम किया जाए। जीवनशैली में तो फिर भी सुधार लाया जा सकता है पर एक बार चरित्र से गिर जाएं तो इतना बड़ा अविश्वास पैदा हो जाता है कि किसी के भी साथ रहें, कहीं कहीं शरीर भटकाएगा और आप फिर तलाक नाम के तनाव से घिर चुके होंगे। इस अप्रिय स्थिति से पति-पत्नी के बीच एक-दूसरे के प्रति विश्वास ही बचा सकता है।

आत्मा के स्पर्श से बुद्धि बनती है प्रज्ञा
समाज में रहते हुए मित्रता और शत्रुता का खेल चलता ही रहता है। लाख कोशिश करें कि आपका कोई शत्रु हो तो भी कोई कोई खड़ा हो ही जाएगा। सफलता शत्रु पैदा कर देती है, लोकप्रियता अकारण आलोचक खड़े कर देती है। यदि आपका कोई आलोचक है तो मानकर चलिए उसके भीतर हल्के से छींटे शत्रुता के भी होंगे। संभव है आपको शत्रुता निभानी भी पड़ जाए तब क्या करेंगे? मंदोदरी पति रावण को समझा रही थी कि यदि शत्रु आपसे बढ़कर है तो बैर भूलते हुए कोई रास्ता निकालकर खुद को सुरक्षित कर लेना चाहिए। श्रीराम के बारे में चिंतन करते हुए मंदोदरी जो कह रही थी उस पर तुलसीदासजी ने लिखानाथ बयरू कीजे ताही सों। बुधि बल सकिअ जीति जाही सों।। तुम्हहि रघुपतिहि अंतर कैसा। खलु खद्योत दिनकरहि जैसा।।अर्थात बैर उसी के साथ करना चाहिए, जिसे बुद्धि और बल द्वारा जीता जा सके। फिर, आपमें श्रीराम में तो जुगनू और सूर्य जैसा अंतर है। यहां समझाने के साथ-साथ मंदोदरी रावण को सावधान भी कर रही है। हमारे जीवन में भी जब कभी ऐसा अवसर जाए कि किसी से टकराना ही पड़े तो उसकी बुद्धि-बल की जानकारी निकालिए और अपने बुद्धि-बल से तौलिए। बल बाहर का मामला होकर शरीर से जुड़ा है, जबकि बुद्धि भीतर उतरने पर ही प्राप्त होती है। जीवन प्रबंधन स्वभाव और व्यवहार से चलता है। ऐसे युद्ध में जब शत्रु आपसे मजबूत हो, जीवन प्रबंधन बहुत काम आएगा। व्यवहार बाहर ही बाहर होता है। उसका आधार बल हो सकता है लेकिन, स्वभाव आत्मा पर टिकने पर मिलता है। बुद्धि को आत्मा का थोड़ा-सा स्पर्श मिल जाए तो वह परिष्कृत होगी, प्रज्ञा में बदल जाएगी और फिर जो निर्णय होंगे वे आपके बल को और प्रभावी बनाएंगे।

हनुमानजी से जुड़कर कुमति से बचें
जब हम किसी को कोई गलत काम करता हुआ देखते हैं और अन्य स्थितियों में उसे समझदार पाया हो तो चौंकते हुए तुरंत टिप्पणी करते हैं कि इनकी मति यानी बुद्धि भ्रष्ट हो गई है। जब मति भ्रष्ट होती है तो उल्टे-उल्टे काम ही कराती है और वैसे उल्टे ही परिणाम भी भोगने पड़ते हैं। एक कहावत है, ‘देव मारे हाथ से, कुमति देत चढ़ाय।भगवान को जब किसी को दंड देना होता है तो उसके जितने तरीके हैं उनमें से एक यह भी है कि उसकी मति भ्रष्ट कर देता है। ऊपर वाले की व्यवस्था में अनुचित का दंड निश्चित है। कोई गलत काम करके अच्छे कामों से उसे ढंक नहीं सकता। हां, सही करके गलत के परिणाम भुगतने की ताकत जरूर पा सकता है। गलत करने पर जो दंड मिला है उसे समझकर उससे पार पाया जा सकता है लेकिन, अगर कोई यह सोचे कि पाप तो कर ही लिया है, अब थोड़ा पुण्य कर लें तो ध्यान रखिए, पाप का बीज अपनी भ्रूण हत्या कभी नहीं कराता। पाप बोया है तो पाप ही उगेगा और पुण्य का बीज डाला है तो वैसा ही फल भी मिलेगा। इसलिए प्रयास तो यह कीजिए कि कुमति जीवन में आए ही नहीं। यहां एक बात ध्यान में रखिए कि कुमति दूर हो गई तो आप खाली हो जाएंगे। समय पर यदि अपने आपको सुमति से नहीं भरा तो कुमति लौटकर फिर सकती है। कुछ देवता हैं, जिनकी उपासना से कुमति दूर हो जाती है। तुलसीदासजी ने हनुमान चालीसा की तीसरी चौपाई में लिखा है- ‘महावीर बिक्रम बजरंगी, कुमति निवारि सुमति के संगी।इसका मतलब ही है हनुमानजी योग का प्रतीक हैं, जीवनशैली श्रेष्ठ कैसे हो सकती है इसके प्रतिनिधि हैं। उनसे जुड़कर, उनको समझकर स्वयं को कुमति से बचाया जा सकता है।

आध्यात्मिक नेतृत्व में पारदर्शिता भी हो
जैसा बीज वैसा ही पेड़ होगा। कुछ लोग भूल कर जाते हैं कि बीज कुछ और बोते हैं, पेड़ या फल कोई और पाना चाहते हैं। ऐसा हो नहीं सकता और फिर वे दुखी होने लगते हैं। सामान्य मनुष्य यह शिकायत करे कि हम जो चाहते थे वह नहीं मिला तो समझ में भी आता है। किंतु, अब तो जो लोग धर्म क्षेत्र में प्रतिनिधि हैं, जिनके पास नेतृत्व है, जिन्हें शास्त्र समाज में साधु-संत कहा और माना गया है, कभी-कभी वे भी यह शिकायत करते दिखते हैं। इनकी यात्रा दिव्यता से शुरू होती है, लोकप्रियता मिल जाती है पर अचानक देखने में आता है कि किसी का समापन जेल में हो गया, कोई सत्ता पर बैठ गया, किसी ने भव्य आश्रम बना लिए, कोई भीड़ से घिरा है। इसके बावजूद अकेले में वे भी यही कहते पाए जाते हैं कि जो मिला, वह तृप्त नहीं कर पाया। जब बीज ही पाखंड का बोया तो पेड़ तृप्ति का कैसे हो सकता है? साधु-संत, फकीर-महात्माओं से लोगों का जो जुड़ाव होता है उसके पीछे श्रद्धा काम कर रही होती है जिसके कारण जानते हए भी लोग इनकी गलतियों को नकार देते हैं। आध्यात्मिक नेतृत्व में पवित्रता और पारदर्शिता की बहुत जरूरत है। स्वयं के और जिनसे जुड़े हैं उनके भीतर भी ये दो बातें जरूर देखते रहें। पहले के दौर में सिर्फ पवित्रता देखकर श्रद्धा बढ़ा सकते थे पर आज के समय में तो थोड़ी पारदर्शिता भी देखी जाए। ख्यात, चर्चित और स्थापित होने की प्रतिस्पर्धा संत समाज में भी उतर आई है। गुरु और शिष्य के संबंधों का रूप भी बदल गया है। सही है कि किसी फकीर से जुड़ना, किसी गुरु का जीवन में आना ईश्वर का फलादेश है, लेकिन सावधानी रखिए। जुड़ने से पहले पवित्रता और पारदर्शिता अपने और उनके भीतर भी टटोलते रहिए।

अज्ञात भय सताए तो अध्यात्म ही सहारा
खराब या अप्रिय स्थिति से निपटने का एक सूत्र है बचकर रहो। यदि आसपास के हालात खराब हों और लगे कि आप उसमें उलझ सकते हैं तो सावधान होते हुए उनसे बचे रहें और धैर्य के साथ अच्छे समय का इंतजार करें। मेरा जिन भी लोगों से संपर्क है उनमें अधिकतर व्यापार-व्यवसाय वाले हैं। यदि सौ लोगों से मिलता हूं तो उनमें से नब्बे यह कहते पाए जाते हैं कि नोटबंदी के बाद जो नया परिदृश्य सामने आया उससे देश के बाजार की हालत बहुत खराब है। एक सज्जन ने तो जो कहा, सुनकर मैं चौंक गया। उनका कहना था इस समय बाजार में भरोसा खत्म होता जा रहा है। एक-दूसरे पर विश्वास का जो स्तर था वह गिर गया। बाजार तो बैठ ही गया, लोगों का जमीर भी डोलने लगा है। जिन लोगों ने किसी को पैसे उधार दिए थे उनको डर-सा लगता है कि वो पैसे लौटकर आएंगे भी या नहीं? जिन्होंने बाजार से पैसे लिए थे उनकी नीयत साफ होने के बाद भी हालात इतने खराब हैं कि लौटा नहीं पा रहे हैं। कुल-मिलाकर इस समय धंधा करने वाले 99 प्रतिशत लोग परेशान हैं, तनाव में और टूटे हुए नज़र आते हैं। यहां वही सूत्र बड़े काम का है कि हालात बुरे हों तो उनसे अपने आप को बचाइए। इसका तरीका अध्यात्म के पास है। आध्यात्मिक जीवनशैली अपना लीजिए, आज नहीं तो कल बाजार तो ठीक हो ही जाएगा, लेकिन उसके ठीक होते-होते कहीं ऐसा हो कि आप पूरी तरह टूट जाएं। जब कोई अज्ञात भय सता रहा हो तब अध्यात्म बड़ा सहारा होगा। आध्यात्मिक जीवनशैली कहती है कि अपनी आत्मा से परिचय कीजिए। इसके लिए थोड़ा समय योग को देना होगा। ये दिन भी गुजर जाएंगे और जब अच्छे दिन आएंगे तो उनका उपभोग करने के लिए अपने आपको बचाकर रख पाएंगे।

परिवार के मामले में भाग्य पर भरोसा रखें
एक पुराने गीत की पंक्ति हैं, ‘कागज हो तो हर कोई बांचे, भाग बांचे कोय..भाग्य को पढ़ पाना बड़ा मुश्किल है। ज्योतिष ऐसा विज्ञान है, जिसे नकारा नहीं जा सकता पर कुछ मामलों में यह भी विफल हो जाता है। मनुष्य के जीवन के भाग्य का यदि प्रामाणिक दृश्य देखना हो तो पारिवारिक जीवन में झांकिए। परिवार के जीवन का बड़ा हिस्सा भाग्य आधारित जीना पड़ता है। हमारे माता-पिता कौन होंगे, सहोदर कौन रहेंगे ये हम तय नहीं कर सकते। आप कितने ही पुरुषार्थी हों, कितने ही सक्षम हों पर ये सारे लोग भाग्य के अनुसार ही मिलेंगे। परिवार के जीवन में मनुष्य को यदि किसी के चयन का अधिकार है तो वह है जीवनसाथी का। पति या पत्नी का चयन अपनी मर्जी से किया जा सकता है और ऐसा करते हुए लोग पूरी सावधानी रखते हैं, समझदारी से निर्णय लेते हैं इसके बाद भी कई जोड़ों के साथ भाग्य काम कर जाता है। जिन्हें अपने ऊपर बहुत ज्यादा भरोसा होता है कि हम भाग्य नहीं मानते, सबकुछ कर्म से ठीक कर देंगे ऐसे लोग भी पारिवारिक जीवन में शीर्षासन करते नज़र आते हैं। उन्हें दुनिया उल्टी दिखती है और लोग उनको उल्टा देखते हैं। यहीं से दांपत्य गड़बड़ाता है। कोई बुराई नहीं है कि भाग्य पर भरोसा कर लिया जाए। खासकर परिवार के मामले में। माता-पिता, बच्चे, पति, पत्नी, भाई-बहन के रूप में जो लोग जीवन में चुके हैं और यदि लगे कि इससे भी बेहतर हो सकते थे तो आप बदल तो कुछ नहीं सकते लेकिन प्रेम, धैर्य और परिवार टूटने देने का संकल्प दुर्भाग्य को धीरे-धीरे भाग्य में बदल सकता है, इसलिए पारिवारिक जीवन में भाग्य पर भरोसा रखकर भगवान की कृपा बनी रहे इस आकांक्षा के साथ रिश्तों का निर्वहन कीजिए। शायद परिवार टूटने से बच जाएंगे।

इच्छाओं के मामले में मन नियंत्रित रखें
इच्छा किसके मन में नहीं होती। यहां तक कि पशु भी अपनी इच्छा रखते हैं, लेकिन पशु जब इच्छा पूरी करने पर उतरता है तो कोई नियम नहीं पालता और इसीलिए उलझ भी जाता है। जो मनुष्य अपनी इच्छाओं को पशु की तरह पूरी करने का प्रयास करेंगे वे परेशान हो जाएंगे, क्योंकि अव्यवस्थित इच्छा कामना बन जाती है और कामना इंसान की समझ को ढंक देती है। यहीं से समझदार आदमी भी गलत काम कर जाता है। हम सबके भीतर कुछ इच्छाएं हैं। इन्हें बड़ी सावधानी से तीन खानों में बांटिए- सात्विक, राजसी और तामसिक। सात्विक इच्छा वह जो अच्छे काम कराती है। राजसी में मनुष्य हानि-लाभ के बारे में अधिक सोचता है और तामसिक इच्छा तो गलत काम ही करवाती है। अपराध इसी श्रेणी में आते हैं। जब भीतर कोई इच्छा जागे तो जरा ध्यान दीजिएगा कि इसका संचालन मन से हो रहा है या बुद्धि से? अपनी इच्छाओं को बुद्धि से चलाएंगे तो फिर भी उन्हें तीन खानों में ठीक से बांट सकेंगे। पर यदि मन से संचालित हों तो तय है आप तामसिक खंड में जा गिरेंगे। हमारे मन में विचार दो तरह से आते हैं। एक तो खुद खुद कि आपको मालूम ही नहीं पड़ता और घुसे चले आते हैं। दूसरा जब हम कुछ सोचते हैं तब आते हैं। ये दोनों ही स्थितियां खतरनाक हैं। इनसे उभरना हो, मन को नियंत्रित करना हो तो सोचने से ऊपर की एक स्थिति होती है ध्यान देना। जैसे ही दोनों ही स्थितियों में आने वाले विचार पर ध्यान देना शुरू करते हैं, उनके प्रति होश जगा लेते हैं। यहीं से मन नियंत्रण में आते हुए इच्छा को तामसिक होने से बचा लेता है। अन्यथा अच्छे से अच्छे लोग भी गलत कर जाते हैं और बाद में पछताते हैं। इच्छाओं के मामले में मन पर पूरा नियंत्रण रखिए।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,

और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है... मनीष
ॐ शिव हरि....जय गुरुदेव..जय गुरुदेव कल्याणदेव जी....