Friday, January 14, 2011

Naada Bharama((शब्द-ब्रह्म))

नाद-ब्रह्म (शब्द-ब्रह्म)
ब्रह्माण्डीय चेतना एवं सशक्तता का उद्गम स्त्रोत कहाँ है? इसकी तलाश करते हुए तत्त्वदर्शी-ॠषि अपने गहन अनुसंधानों के सहारे इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं, कि यह समस्त हलचलें जिस आधार पर चलती हैं, वह शक्ति स्रोत ‘शब्द’ है। अचिन्त्य, अगम्य, अगोचर, परब्रह्म को जगत चेतना के साथ अपना स्वरूप निर्धारित करते हुए ‘शब्द-ब्रह्म’ के रूप में प्रकट होना पड़ा। सृष्टि से पूर्व यहाँ कुछ नहीं था। कुछ से सब कुछ को उत्पन्न होने का प्रथम चरण ‘शब्द-ब्रह्म’ था, उसी को ‘नाद-ब्रह्म’ कहते हैं। उसकी परमसत्ता का आरम्भ-अवतरण इसी प्रकार होता है, उसके अस्तित्व एवं प्रभाव का परिचय प्राप्त करना सर्वप्रथम शब्द के रूप में ही सम्भव हो सका।
यह विश्व अनन्त प्रकाश के गर्भ में पलने वाला और उसी की गोदी में खेलने वाला बालक है। ग्रह-नक्षत्रों का, निहारिकाओं का, प्राणी और पदार्थो का निर्वाह इस आकाश की छत्र-छाया में ही हो रहा है। सृष्टि से पूर्व आकाश ही था, आकाश में ऊर्जा में हलचलें उत्पन्न हुई। हलचलें सघन होकर पदार्थ बन गयी। पदार्थ से पंचतत्व और पंचप्राण बने। इन्हीं के सम्मिश्रण से विभिन्न प्रकार की वस्तुएँ बनी और प्राण बने। सृष्टि के इस आरम्भ क्रम से आत्मविज्ञानी और भौतिक विज्ञानी प्रायः सभी समान रूप से सहमत हो चले।

शब्द का आरम्भ जिस रूप में हुआ उसी स्थिति में वह अनंतकाल तक बना रहेगा। आरम्भ शब्द ‘ओउम्’ माना गया है। यह कांस्य पात्र पर हथौड़ा पड़ने से उत्पन्न झन्झनाहट या थरथराहट की तरह का प्रवाह है।

घड़ियाल पर लकड़ी की हथौड़ी मारकर आरती के समय जो ध्वनि उत्पन्न की जाती है, उसे ‘ओंकार’ के समतुल्य माना जा सकता है। ‘ओ’ शब्द का आरम्भ और उसके प्रवाह में अर्थ अनुस्वरों की श्रृंखला जोड़ दी जा सकती है। ‘ओ’ शब्द का आरम्भ और उसके प्रवाह में अर्थ अनुस्वरों की श्रृंखला जोड़ दी जाये तो यही ‘ओउम्’ बन जायेगा। उसके उच्चारण का स्वरूप समझाते हुए ‘ओ’ शब्द के आगे ३ का अंक लिखा जाता है। तदुपरान्त आधा ‘म्’ लिखते हैं। ३ का अंक लिखने का अर्थ है उसे अपेक्षाकृत अधिक जोर से बोला जाये हृस्व, दीर्घ, प्लुत के संकेतों से ३ गुनी शक्ति से बोले जाने वाले अक्षर को प्लुत कहते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि ‘ओ’ शब्द को सामान्य की अपेक्षा तीन गुनी क्षमता से बोला जाये, तदुपरान्त उसके साथ अर्ध ‘म्’ की अर्धबिन्दु अर्ध अनुस्वरों की एक कड़ी जोड़ दी जाये, यही ‘ओउम्’ का उच्चारण है। ‘ओ,३,म्’ इन तीनों का संक्षिप्त प्रतीक स्वरूप ‘ॐ’ के रूप में लिखा जाता है। यही वह स्वरूप है जिसका सृष्टि आरम्भ के लिए उद्भव हुआ और उसी की पुनरावृत्ति परा प्रकृति के अन्तराल में यथावत् होती आ रही है।

शब्द ब्रह्म प्रकृति और पुरूष का मध्यवर्ती सम्बन्ध सूत्र है। इस पर अधिकार होने से दोनों ही क्षेत्रों में घनिष्ठता सध जाती है। प्रकृति क्षेत्र की शक्तियाँ और ब्रह्म क्षेत्र की चेतानाएँ करतलगत हो सकें तो ॠद्धियों और सिद्धियों का, सम्पदाओं और विभूतियों का उभयपक्षीय वैभव उपलब्ध हो सकता है।

अग्निपुराण के अनुसार- एक ‘शब्दब्रह्म’ है, दूसरा ‘परब्रह्म’। शास्त्र और प्रवचन से ‘शब्द ब्रह्म’ तथा विवेक, मनन, चिन्तन से ‘परब्रह्म’ की प्राप्ति होती है। इस ‘परब्रह्म’ को ‘बिन्दु’ भी कहते हैं।

शतपथ के अनुसार- ‘शब्दब्रह्म’ को ठीक तरह जानने वाला ‘ब्रह्म-तत्त्व’ को प्राप्त करता है।

श्रुति के अनुसार- ‘शब्दब्रह्म’ की तात्त्विक अनुभूति हो जाने से समस्त मनोरथों की पूर्ति हो जाती है।

भारतीय मनीषियों ने ‘शब्द’ को ‘नाद-ब्रह्म’ कहा है। ब्रह्म या परमात्मा एक विराट् तथा सर्वव्यापी तेजस सत्ता का नाम है। जिसकी शक्ति का कोई पारावार नहीं। इस तरह से तत्त्वदर्शी भारतीयों ने ‘शब्दब्रह्म’ की सामर्थ्य को बहुत पहले ही जान लिया था। यही नहीं उस पर गम्भीर खोजें हुई थी और ‘मन्त्र-विज्ञान’ नाम की एक स्वतन्त्र शाखा की स्थापना हुई थी।

नाद-ब्रह्म के दो भेद हैं- आहात और अनाहत। ‘आहत’ नाद वे होते हैं, जो किसी प्रेरणा या आघात से उत्पन्न होते हैं। वाणी के आकाश तत्त्व से टकराने अथवा किन्हीं दो वस्तुओं के टकराने वाले शब्द ‘आहत’ कहे जाते हैं। बिना किसी आघात के दिव्य प्रकृति के अन्तराल से जो ध्वनियाँ उत्पन्न होती हैं, उन्हें ‘अनाहत’ या ‘अनहद’ कहते हैं। अनहद नाद का शुद्ध रूप है –‘प्रताहत नाद’। स्वच्छन्द-तन्त्र ग्रन्थ- में इन दोनों के अनेकों भेद-उपभेद बताये हैं। आहात और अनाहत नाद को आठ भागों में विभक्त किया है। घोष, राव, स्वन, शब्द, स्फुट, ध्वनि, झंकार, ध्वंकृति। अनाहत की चर्चा महाशब्द के नाम से की गई है। इस शब्द को सुननें की साधना को ‘सुख’ कहते है। अनहद नाद एक बिना नाद की दैवी सन्देश-प्रणाली है। साधक इसे जान कर सब कुछ जान सकता है। इन शब्दों में ‘ॐ’ ध्वनि आत्म-कल्याण कारक और विभिन्न प्रकार की सिद्धियों की जननी है। इन्हें स्थूल-कर्णेन्द्रियाँ नहीं सुन पाती, वरन् ध्यान-धारणा द्वारा अन्तः चेतना में ही इनकी अनुभूति होती है।

जाबाल दर्शनोपनिषद्- ब्रह्मरन्ध्र में प्राण का प्रवेश होने पर शंख ध्वनि एंव मेघ गर्जन के समान नाद होता है। वायु के मस्तक में प्रवेश करने से झरने जैसी ध्वनि सुनाई पड़ती है। इससे प्रसन्नता होती है और अन्तःर्मुखी प्रवृत्ति बढ़ती है।

महायोग विज्ञान- जब अन्तर में ज्योति स्वरूप आत्मा का प्रकाश जागता है, तब साधक को कई प्रकार के नाद सुनाई पड़ते हैं। इसमें से एक व्यक्त होते हैं, दूसरे अव्यक्त। जिन्हें किसी बाहर के शब्द से उपमा न दी जा सके, उन्हें अव्यक्त कहते हैं, यह अन्तर में सुनाई पड़ते हैं और उनकी अनुभूति मात्र होती है। जो घण्टा आदि की तरह कर्णेन्द्रियों द्वारा अनुभव में आवें उन्हें व्यक्त कहते हैं। अव्यक्त ध्वनियों को ‘अनाहत’ अथवा ‘शब्द-ब्रह्म’ भी कहा जाता है।

महायोग विज्ञान- जब प्राणायाम द्वारा प्राण वायु स्थिर हो जाता है, तो नाना प्रकार के नाद सुनाई पड़ते हैं और चन्द्रमण्डल से अमृत टपकता है। जिह्वा को यह दिव्य रसास्वादन होने लगता है। यह शीतल अमृत जैसा रस साधक को अमर बना देता है।

हठयोग प्रदीपिका- जिस प्रकार पुष्पों का मकरन्द पीने वाला भ्रमर अन्य गन्धों को नहीं चाहता, उसी प्रकार नाद में रस लेने वाला चित्त, विषय-सुखों की आकाँक्षा नहीं करता। विषय रूपी बगीचे में मदोमत्त हाथी की तरह विचरण करने वाले मन को नाद रूपी अंकुश से नियन्त्रण में लाया जाता हैं।

अनाहत नाद की उपासना विश्वव्यापी है। पाश्चात्य विद्वानों तथा साधकों ने उसके वर्णन के लिए इन शब्दों का प्रयोग किया है –‘वर्ड लोगोस’, ‘हिवस्पर्स’, ‘फ्राम द अननोन’, ‘इनर हवसाय’, ‘द लेंग्वेज ऑफ सोल’, ‘प्रिमार्डियल साउण्ड’, ‘द ह्वायस फ्राम हैवन’, ‘द ह्वायस ऑफ सोल’ आदि।

बाइबिल में कहा गया है- ‘आरम्भ में शब्द था। शब्द ईश्वर के साथ था और शब्द ईश्वर था’। इन दि बिगिनिंग वाज दि वर्ड, दि वर्ड वॉज विद गॉड, दि वर्ड वॉज गॉड।

नाद-मण्डल यमलोक से बहुत ऊपर हैं। इसलिए नाद साधक को यमदूत पकड़ने की सामर्थ्य नहीं रखते।

नाद-साधक का इतना आत्मिक उत्थान हो जाता है कि काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार आदि उस पर कोई प्रभाव नहीं दिखा सकते। आक्रमण करना तो इनका स्वभाव ही है, परन्तु नाद-साधक पर यह विजय प्राप्त नहीं कर सकते। वह सदा इनसे अप्रभावित ही रहता है, इसलिए दिनों-दिन उसकी शक्तियों का विकास होता है। नाद-साधना से अन्तिम सीढ़ी तक पहुँचना सम्भव है।

मन ही इन्द्रियों का स्वामी है, क्योंकि मन का संयोग न होने से कोई भी इन्द्रिय काम करने में समर्थ नहीं रहती। फिर मन, प्राण और वायु के आधीन है, अतः वायु वशीभूत होते ही मन का ‘लय’ हो जाता है। मन लय होकर नाद में अवस्थान करता है।

सदा नाद के अनुसन्धान करने से संचित पापों के समूह भी नष्ट हो जाते हैं और उसके अनन्तर निर्गुण एवं चैतन्य ब्रह्म मे मन व प्राण दोनो निश्चय ही विलीन हो जाते है।

तब नाद के विषयीभूत अन्तःकरण की वृत्ति से प्राप्त सुख को जीतकर स्वाभाविक आत्मा के सुख का आविर्भाव होता है। वात, पित्त, कफ, रूप दोष, दुःख, वृद्धावस्था, ज्वरादिक व्याधि, भूख, प्यास, निद्रा इन सबसे रहित वह आत्म-सुखी हो जाता है।

हृदयाकाश में नाद के आरम्भ होने पर प्राण वायु से पूर्ण हृदय वाला योगी रूप, लावण्य आदिकों से युक्त दिव्य देह वाला हो जाता है। वह प्रतापी हो जाता है और उसके शरीर से दिव्य गन्ध प्रकट हुआ करती है तथा वह योगी रोगों से भी रहित हो जाता है।

इन्द्रियों का स्वामी मन। मन का स्वामी प्राण। प्राण का स्वामी लय और यह लय, नाद के आश्रित है। सिद्धासन के समान कोई आसन नहीं, कुम्भक के समान कोई बल नहीं, खेचरी के समान मुद्रा नहीं और नाद के समान लय नहीं।

शिव और शक्ति का संयोग और पारस्परिक सम्बन्ध ही ‘नाद’ कहलाता है इसे अव्यक्त ध्वनि और अचल अक्षर मात्र भी कहा जाता है।

तांत्रिकाचार्यों का कथन है कि- यह नाद प्रवाह ऊपर से भ्रूमध्य में गिरता है। इसी से सारे विश्व की उत्पत्ति होती है और उत्पन्न होकर सारे जगत् में यही प्राण और जीवनी शक्ति के रूप में विद्यमान रहती है। मानव-शरीर में श्वास-प्रश्वास का खेल प्राण करता है। तांत्रिक भाषा में इसे ‘हंस’ कहते हैं। ‘हं’ हकार शिव या पुरूष-तत्त्व का और ‘स’ सकार शक्ति या प्रकृति-तत्त्व का पर्याय है। जहाँ इन दोनों का मिलन होता है, वहीं नाद की अनुभूति होती है।

शिव-संहिता में कहा गया है- ‘मन को लय करने वाले साधनों में, नाद की तुलना करने वाला और कोई साधन नहीं है’।

‘शब्द’ को ‘ब्रह्म’ कहा है क्योंकि ईश्वर और जीव को एक श्रृंखला में बाँधने का काम शब्द द्वारा ही होता है। सृष्टि की उत्पत्ति का प्रारम्भ भी शब्द से हुआ है। पंच तत्त्वों में सबसे पहले आकाश बना, आकाश की तन्मात्रा शब्द हैं। अन्य समस्त पदार्थों की भाँति शब्द भी दो प्रकार का है- ‘सूक्ष्म’ और ‘स्थूल’। ‘सूक्ष्म-शब्द’ को ‘विचार’ कहते हैं और ‘स्थूल-शब्द’ को ‘नाद’।

शब्द ब्रह्म का दूसरा रूप जो विचार- सन्देश की अपेक्षा कुछ सूक्ष्म है, वह नाद है। प्रकृति के अन्तराल में एक ध्वनि प्रतिक्षण उठती रहती है, जिसकी प्रेरणा से आघातों के द्वारा परमाणुओं में गति उत्पन्न होती है और सृष्टि का समस्त क्रिया-कलाप चलता है। यह प्रारम्भिक शब्द ‘ॐ’ है। यह ‘ॐ’ ध्वनि जैसे-जैसे अन्य तत्त्वों के क्षेत्र में होकर गुजरती है, वैसे ही उसकी ध्वनि में अन्तर आता है। वंशी के छिद्रों में हवा फूँकते हैं, तो उसमें एक ध्वनि उत्पन्न होती है। पर आगे छिद्रों में से जिस छिद्र में जितनी हवा निकाली जाती है, उसी के अनुसार भिन्न-भिन्न स्वरों की ध्वनियाँ उत्पन्न होती हैं, इसी प्रकार ॐ ध्वनि भी विभिन्न तत्त्वों के सम्पर्क में आकर विविध प्रकार की स्वर-लहरियों में परिणित हो जाती है। इन स्वर लहरियों को सुनना ही नादयोग है।

तंत्रशास्त्र के अनुसार- ‘यह शिव बिन्दु है, सम्पूर्ण प्राणियों में नादात्मक शब्द के रूप में विद्यमान रहता है। अपने से अभिन्न विश्व का परामृष्ट करने वाला परावग्रुप विमर्श ही शब्द है। सब भूतों में ‘जीवकर्ता’ के रूप में स्फुरित होने के कारण उसे नाद कहते है’।

तंत्र का मत है कि- प्राणात्मक उच्चार से जो एक अव्यक्त ध्वनि निकलती है, उसी को ‘अनाहत नाद’ कहा जाता है। इस का कर्ता और बाधक कोई नहीं है। यह नाद हर प्राणी के हृदय में अपने आप ध्वनित होता रहता है अर्थात् ‘एक ही नाद के स्वरूप वाला वर्ण है, जो सब वर्णों के अभिभाग वाला है। वह अन्स्तमित रूप वाला होने से अनाहत की भाँति उदित होता है’।

संगीत रत्नाकर-ग्रन्थ- नाद-ब्रह्म की गरिमा पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है कि नाद-ब्रह्म समस्त प्राणियों में चैतन्य और आन्नदमय है। उसकी उपासना करने से ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीनों की सम्मिलित उपासना हो जाती है। वे तीनों नाद-ब्रह्म के साथ बँधे हुए हैं।

प्राण का नाम ‘ना’ है और अग्नि को ‘द’ कहते हैं। अग्नि और प्राण के संयोग से जो ध्वनि उत्पन्न होती है, उसे ‘नाद’ कहते हैं। जब अनाहत नाद सुनाई पड़ने लगता है, तब इसका अर्थ यह है कि योगी का धीरे-धीरे अन्तर्जगत में प्रवेश होने लगा। वह अपने भूले हुए स्वरूप को कुछ-कुछ पहचानने लगता है। शक्ति, वैभव और ज्ञान के भण्डार की झलक पाने लगता है, अर्थात् महाकाली, महालक्ष्मी, महासरस्वती के दर्शन होने लगते है। जो अभ्यासी वहीं उलझकर रह गया यह दुःख का विषय है, कि सचमुच बहुत से अभ्यासी इसके आगे नहीं बढ़ते हैं। पर जो तल्लीनता के साथ बढ़ता जाता है, वह क्रमशः ऊपर के लोकों में प्रवेश करता है। अन्त में वह अवस्था आती है, जहाँ वह आकाश की सीमा का उल्लंघन करने का अधिकारी हो जाता है ओर वही शब्द का अन्त है।

नाद के प्रकार
नाद-साधना में सहायक ध्वनियाँ अनेक है। शास्त्रों में इनका वर्णन मेघ की गर्जन, समुद्र की तर्जन, विद्युत की कड़क, वायु की सन-सनाहट, निर्जन की साँय-साँय, अग्नि शिखा की धू-धू, निर्झर निनाद, प्रकृति गत ध्वनियाँ हमें समय-समय पर सुनने को मिलती रहती है। साथ ही झींगुर की ध्वनि, घन्टे की ध्वनि, शंख की ध्वनि, डमरू की ध्वनि आदि भी सुनाई पड़ती है। नाद-साधक को इन ध्वनियों का सुनाई पड़ना उसकी उन्नति का संकेत होता है।

ध्वनि ऊर्जा की इन बहुरूपी धाराओं का उद्गम केन्द्र एक की हैं। वह केन्द्र ‘ॐकार’ ध्वनि है और यही मूल ध्वनि है। नाद साधना की सर्वोच्च परिणति इस ‘ॐकार’ ध्वनि से तादात्म्य स्थापित करना है।

वे ध्वनियाँ किस प्रकार की होती हैं। इसका उल्लेख जाबाल- दर्शनोपनिषद् में इस प्रकार है- जब ब्रह्मरन्ध्र में प्राणवायु का प्रवेश हो जाता है, तब प्रथम शंख ध्वनि के समान नाद सुनाई पड़ता है। फिर मेघ ध्वनि की तरह मन्द्र, गम्भीर नाद सुनाई पड़ता है। जब यह प्राण-वायु सिर के मध्य में स्थित होती है, तब ऐसा लगता है, मानो पर्वत से कोई झरना कल-कल नाद करता स्रावित हो रहा है। तदुपरान्त अत्यन्त प्रसन्नता का अनुभव होता है और साधक सूक्ष्म आत्म-तत्त्व की ओर उन्मुख हो जाता है।

शिव पुराण में ‘ॐकार’ के अतिरिक्त नौ ध्वनियाँ इस प्रकार गिनाई गई हैं- 1 समुद्र गर्जन जैसा घोष, 2 काँसे की थाली पर चोट लगाने जैसी झंझनाहट, 3 श्रृंग अर्थात् तुरही बजने जैसी आवाज, 4 घन्टे बजने जैसी, 5 वीणा बजने जैसी, 6 वंशी जैसी, 7 दुन्दुभि नगाड़े बजने के समान, 8 शंख ध्वनि, 9 मेघ गर्जन, नौ ध्वनियाँ नादयोग में सुनाई पड़ती हैं।

नाद बिन्दूपनिषद्- आरम्भ में यह नाद कई प्रकार का होता है और जोर से सुनाई पड़ता हैं पीछे धीमा हो जाता है। आरम्भ में यह ध्वनियाँ, नागरी, झरना, भेरी, मेघ जैसी होती हैं, पीछे भ्रमर, वीणा, बंशी, किंकिणी जैसी मधुर प्रतीत होती हैं।

महायोग विज्ञान- आदि में बादल के गरजने-बरसने, झरनों के झरने, भेरी बजने जैसे शब्द होते हैं। मध्म में मर्दल, शंख, घण्टा, मृदंग जैसे अन्त में किंकिणी, बंशी, वीणा, भ्रमर-गुंजन जैसे शब्द सुनाई पड़ते हैं। यह अनेक प्रकार के नाद है, जो समय-समय पर साधक को सुनाई पड़ते रहते हैं।

मेघ नाद में शरीर में झनझनाहट होती है, चिण नाद में शरीर टूटता है, घण्टा नाद से प्रस्वेद होता है, शंखनाद से सिर झन्नाता है, तन्त्री नाद में तालु से रस टपकता हैं, करताल नाद से मधुस्वाद मिलता है, बंशी नाद से गूढ़ विषयों का ज्ञान होता हैं, मृदंग नाद से परावाणी प्रस्फुटित होती है, भेरी नाद से दिव्य नेत्र खुलते हैं तथा आरोग्य बढ़ता है। उपरोक्त 9 नादों के अतिरिक्त दशवें ॐकार नाद में ब्रह्म और जीव का सम्बन्ध जुड़ता है।

जब घण्टा जैसे शब्द सुनाई पड़े तो समझना चाहिए अब योग सिद्धि दूर नहीं हैं।

ॐकार ध्वनि जब सुनाई पड़ने लगती है, तो निन्द्रा, तन्द्रा या बेहोशी जैसी दशा उत्पन्न होने लगती है। उसी स्थिति के ऊपर बढ़ने वाली आत्मा परमात्मा में प्रवेश करती जाती है और पूर्णतयः परमात्म-अवस्था प्राप्त कर लेती है।

कहीं-कहीं पायल बजने, बुलबुल की चह-चहाहट जैसी मधुर ध्वनियों का भी वर्णन है। यह वीणा-नाद से मिलती-जुलती है। सिंह गर्जन का उल्लेख मेघ गर्जन जैसा है।

प्रथमतः अभ्यास के समय ध्वनि-नाद मिश्रित सुनाई पड़ता है। जब अभ्यास दृढ़ हो जाता है, तो पृथक्-पृथक् ध्वनियाँ सुनाई पड़ती है।

नाद श्रवण की पूर्णता
नाद श्रवण की पूर्णता अनाहत ध्वनि (ॐ) की अनुभूति में मानी गई है। साधक अन्य दिव्य ध्वनियों को सुनते-सुनते अन्त में अनाहत लक्ष्य (ॐ) तक जा पहुँचता है।

प्राण के मस्तक में पहुँचने पर योगी को सुन्दर अनाहत नाद (ॐ) की ध्वनि सुनाई पड़ती है।

ध्यान बिन्दुपनिषद् में नादयोग के सम्बन्ध में लिखा है- अनाहत शब्द (ॐ), उससे परे और उससे परे जो (सोऽहं) है। उसे प्राप्त करके योगी समस्त संशयों से मुक्त हो जाता है।

गहराई से ‘ओउम्’ शब्द को परख लीजिए। अ, उ, म् के संयोग से यह शब्द बना हुआ है। ‘ओउम्’ परमात्मा का सर्वोतम नाम है। वेदादि शास्त्रों में परमात्मा का मुख्य नाम ‘ओउम्’ ही बताया गया है।

नाद साधना विधान
नादबिन्दुपनिषद् के अनुसार- हे वत्स! आत्मा और ब्रह्म की एकता का जब चिन्तन करते हैं, तब कल्याणकारी ज्योतिस्वरूप परमात्मा का नाद रूप में साक्षात्कार होता है। यह संगीत-ध्वनि बहुत मधुर होती है। योगी को सिद्धासन में बैठकर वैष्णवी मुद्रा धारण कर अनाहत ध्वनि को सुनना चाहिये। इस अभ्यास से बाहरी कोलाहल शून्य होकर अन्तरंग तुर्य पद प्राप्त होता है।

नाद क्रिया के दो भाग हैं- बाह्य और अन्तर। बाह्य नाद में बाहर की दिव्य आवाजें सुनी जाती है और बाह्य जगत की हलचलों की जानकारियाँ प्राप्त की जाती हैं और ब्रह्माण्डीय शक्ति धाराओं को आकर्षित करके अपने में धारण किया जाता है। अतः नाद में भीतर से शब्द उत्पन्न करके भीतर ही भीतर परिपक्व करते और परिपुष्टि होने पर उसे किसी लक्ष्य विशेष पर, किसी व्यक्ति के अथवा क्षेत्र के लिए फेंका जाता है और उससे अभीष्ट प्रयोजन की पूर्ति की जाती है। इसे धनुष बाण चलाने के समतुल्य समझा जा सकता है।

अन्तः नाद के लिए भी बैठना तो ब्रह्मनाद की तरह ही होता है, पर अन्तर ग्रहण एवं प्रेषण का होता है। सुखासन में मेरूदंड को सीधा रखते हुए षड़मुखी मुद्रा में बैठने का विधान है।

षड़मुखी मुद्रा का अर्थ है- दोनों अँगूठों से दोनों कान के छेद बन्द करना। दोनों हाथों की तर्जनी और मध्यमा अंगुलियों से दोनों नथुनों पर दबाव डालना। नथुनों पर इतना दबाव नहीं डाला जाता कि साँस का आवागमन ही रूक जाय। होठ बन्द, जीभ बन्द मात्र भीतर ही परा, पशयन्ती वाणियों से ॐकार के गुंजन का प्रयास करना होता है। अन्तः नाद में कंठ से मन्द ध्वनि होती रहती है।

साधना आरम्भ करने के दिनों में दस-दस सैकिण्ड के तीन गुंजन बीच-बीच में पाँच-पाँच सैकिण्ड रूकते हुए करने चाहिए। इस प्रकार 40 सैकिण्ड का एक शब्द उत्थान हो जायेगा। इतना करके उच्चारण बन्द कर देना चाहिये और उसकी प्रतिध्वनि सुनने का प्रयत्न करना चाहिए। जिस प्रकार गुम्बजों में, पक्के कुओं में, विशाल भवनों में, पहाड़ों की घाटियों में जोर से शब्द करने पर उसकी प्रतिध्वनि उत्पन्न होती है, उसी प्रकार अपने अन्तः करण में ॐकार का गुंजन करके छोड़े हुए शब्द-प्रवाह की प्रतिध्वनि उत्पन्न हुई अनुभव करनी चाहिए और पूरी तरह ध्यान एकाग्र करके इस सुक्ष्म प्रतिध्वनि का आभास करना चाहिये। ॐकार की उठती हुई प्रतिध्वनि अन्तः क्षेत्र के प्रत्येक विभाग को, क्षेत्र को, प्रखर बनाती है और संस्थानों की प्रसुप्त शक्ति जगाती है। उससे आत्मबल बढ़ता है और छिपी हुई दिव्य शक्तियाँ प्रकट एवं परिपुष्ट होती है।

शिव संहिता में कहा गया है कि- दोनों अँगूठो से दोनों कर्ण बन्द करें और दोनों तर्जनी से दोनों नेत्रों को, दोनों मध्यमा अँगुलियों से दोनों नासारन्ध्र को बन्द करें और दोनों अनामिका अँगुली और कनिष्ठा से मुख को बन्द करें। यदि इस प्रकार योगी वायु को निरोध करके इसका बारम्बार अभ्यास करे तो आत्मा ज्योति स्वरूप का हृदयाकाश में भान होता है।

दोनों कान, आँख, नासिका और मुख इन सबका निरोध करना चाहिए, तब शुद्ध सुषुम्ना नाड़ी के मार्ग में शुद्ध-नाद प्रगट रूप से सुनाई पड़ने लगता है।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK

Wednesday, January 12, 2011

Yoga(योग)

योग क्या है ?
भारत के वैदिक, बौद्ध और जैन मुख्य दर्शन हैं। ये तीनों आत्मा, पुण्य-पाप, परलोक और मोक्ष इन तत्वों को मानते है, इसलिये ये आस्तिक-दर्शन हैं। योग शब्द युज् धातु से बना है। संस्कृत में युज् धातु दो हैं। एक का अर्थ है जोड़ना और दुसरे का है समाधि । इनमें से जोड़ने के अर्थ वाले युज् धातु को योगार्थ में स्वीकार किया है।
अर्थात् जिन-जिन साधनों से आत्मा की शुद्धि और मोक्ष का योग होता है, उन सब साधनों को योग कह सकते हैं। पातंजलि-योगदर्शन में योग का लक्षण योगश्चित्तवृत्ति-निरोधः कहा है। मन, वचन, शरीर आदि को संयत करने वाला धर्म-व्यापार ही योग है, क्योंकि यही आत्मा को उसके साध्य मोक्ष के साथ जोड़ता है।

जिस समय मनुष्य सब चिन्ताओं का परित्याग कर देता है, उस समय, उसके मन की उस लय-अवस्था को लय-योग कहते हैं। अर्थात् चित्त की सभी वृत्तियों को रोकने का नाम योग है। वासना और कामना से लिप्त चित को वृत्ति कहा है। इस वृत्ति का प्रवाह जाग्रत , स्वप्न, सुषुप्ति-इन तीनों अवस्थाओं में मनुष्य के हृदय पर प्रवाहित होता रहता है। चित्त सदा-सर्वदा ही अपनी स्वाभाविक अवस्था को पुनः प्राप्त करने के लिये प्रयत्न करता रहता है, किन्तु इन्द्रियाँ उसे बाहर आकर्षित कर लेती हैं। उसको रोकना एवं उसकी बाहर निकलने की प्रवृत्ति को निवृत करके उसे पीछे घुमाकर चिद्-घन पुरूष के पास पहुँचने के पथ में ले जाने का नाम ही योग है। हम अपने हृदयस्थ चैतन्य-घन पुरूष को क्यों नहीं देख पाते? कारण यही है कि हमारा चित्त हिंसा आदि पापों से मैला और आशादि वृत्तियों से आन्दोलित हो रहा है। यम-नियम आदि की साधना से चित्त का मैल छुड़ाकर चित्त वृत्ति को रोकने का नाम योग है।

अष्टांग योग
योग के आठ अंग है। आठ अंगों वाले योग को शास्त्रों में अष्टांगयोग के नाम से जाना जाता है। साधक को उन्हीं आठ अंगों को साधना होता है। साधना का अर्थ है- अभ्यास। योग के आठ अंग इस प्रकार है-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि। योग की साधना करना अर्थात् पूर्ण मनुष्य बनकर स्वरूप- ज्ञान प्राप्त करना हो तो योग के इन आठ अंगों की साधना यानि अभ्यास करना चाहिये।

योग में विशेष सावधानी
साधना में सबसे पहले निम्नलिखित कुछ बातों पर विशेष ध्यान देना चाहिये- नित्य नियमित रूप से एक ही स्थान पर साधना करनी चाहिये। ऐसा करने से उस स्थान पर एक प्रकार की शक्ति पैदा हो जाती है। क्योंकि जब कभी भी मन चंचल होता है, तब उस स्थान पर पहुँचते ही मन शांत हो जाता है, तथा एक प्रकार की आनन्दावस्था अपने आप ही प्राप्त होती है। जिस स्थान पर साधना की जाये, वह स्थान विशेष हवादार, साफ-सुथरा और शुद्ध होना चाहिये। उस स्थान को नित्य अपने ही हाथों साफ करना चाहिये। दूसरे आदमी से सफाई आदि नहीं करानी चाहिये। क्योंकि इससे आपकी शक्ति का कुछ अंश चला जाता है, जिससे उस आदमी को तो कुछ फायदा मिलता है, मगर साधक उतने अंश में शक्ति हीन हो जाता है। जिस आसन (जैसे कम्बलासन, कुशासन, व्याघ्रासन आदि) पर बैठ कर स्वयं साधना की जाये, उस आसन को कोई दूसरा व्यक्ति इस्तेमाल ना करे। इस बात पर भी ध्यान रखना चाहिये कि जिन कपड़ों को साधक इस्तेमाल करे उन को ओर कोई प्रयोग ना करे। साधक को मिट्टी के तेल का दीपक, मोमबत्ती आदि का प्रयोग नहीं करना चाहिये। शुद्ध भाव से साधना करने पर कुछ महीने बाद ही साधक स्वयं महापुरुषों तथा देवी-देवताओं की अनुकम्पा का अनुभव करने लगेगा। साधना करने स पहले साधक को स्नान करके अथवा हाथ-पैर धोकर, साफ कपड़े पहनकर साधना करनी चाहिये। साधक को तामसिक भोजन का प्रयोग नहीं करना चाहिये।

Yam (यम)
अष्टांग योग का पहला चरण
यम- अष्टांग योग की आठ अवस्थाएं हैं- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। पहली अवस्था है- यम। ईश्वर को प्राप्त करने का एक रास्ता योग है। इस मार्ग से ईश्वर तक पहुंचने वाले महर्षि पतंजलि के अष्टांग योग सिद्धांत का पालन करते हैं। यह सिद्धांत बताता है कि हम योग की आठ अवस्थाओं से गुजर कर ही ईश्वर तक पहुंच सकते हैं। इसकी पहली अवस्था है- यम।यम का मतलब शांतियम का अर्थ है शांति। योग करने वाले के चारों तरफ अर्थात अंदर और बाहर शांति का वातावरण होना चाहिए। हमारे जीवन में शांति कैसे आए इसके लिए यम का पालन जरूरी है। यम के पालन में पांच बातों का ध्यान रखा जाता है। पंतजलि ने कहा है- अहिंसासत्यास्तेय ब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमा:। - योगसूत्र २/३०अर्थात-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह ही यम है। इन पांच बातों को जीवन में उतार कर ही हम योग की पहली सीढ़ी चढ़ते हैं।यम के पांच नियमअहिंसा- इसका अर्थ है हमारे मन, वचन या कर्म से किसी भी प्राणी को कोई कष्ट न हो। मन में किसी को दु:ख पहुंचाने का विचार तक नहीं आए। अपने आप पर भी कोई ज्यादती न करें। जो व्यक्ति अहिंसा का इस तरह पालन करता है, उसके विरोधी लोग भी विरोध नहीं कर पाते। अहिंसा का व्रत हमारे जीवन में बदलाव लाता है। समाज में हमें विशेष सम्मान दिलाता है। सत्य- इसका अर्थ है हम कपट से और धोखा देने की नीयत से कोई बात न कहें। जो बात जैसी है उसे उसी तरह कहना सत्य है। हम आत्मा को सत्य मानें और ईश्वर की खोज करें। जब यह सत्य हमारे जीवन में उतरता है तो उसके लाभ मिलते ही हैं।अस्तेय- अर्थात चोरी नहीं करना। हमें दूसरे का धन हड़पने का विचार भी नहीं करना चाहिए। चोरी, ठगी, धोखाधड़ी और अन्य किसी गलत तरीके से दूसरे के धन, वस्तु या अन्य किसी चीज को हथियाना अपराध है। हमें इस बुराई से बचना चाहिए। अस्तेय का पालन हमें सद्चरित्र बनाता है।ब्रह्मचर्य- इसका मतलब है इंद्रियों का संयम। हमारा भोजन, विचार, व्यवहार सभी कुछ युक्तियुक्त होना चाहिए। जो संयम से नहीं रहता वह बलहीन हो जाता है, उसमें आत्मविश्वास नहीं रहता। जो ब्रह्मïचर्य का पालन करते हैं उन्हें अक्षुण्ण बल की प्राप्ति होती है। स्वस्थ, निरोग और प्रसन्न व्यक्ति ही किसी भी कार्य को सफल करने के लिए योग्य होता है। अपरिग्रह- इसका अर्थ है हम बिना आवश्यकता के वस्तुओं का संग्रह न करें। जब हम वस्तुएं इकट्ठा करते हैं तो उनकी वृद्धि, रक्षा और दिखावे में हमारा मन लग जाता है। तब हम मन को एकाग्र नहीं कर पाते। मन की शांति के लिए वस्तुओं से अनावश्यक मोह न रखना, आलस्य, संशय, प्रमाद का त्याग जरूरी है। मन यदि इस बाहरी दिखावे से हट जाए तो फिर हम मनुष्य जन्म की सफलता के बारे में सोच सकते हैं।शांति से सफलताउक्त पांच तत्वों के संकल्प से हमारे जीवन में शांति का अनुभव होता है। शांति का मतलब खामोशी नहीं है। शांति का मतलब है सुख-संतुष्टि, मन में किसी प्रकार का कोई दु:ख, क्षोभ या तनाव नहीं रहना। जब हम अंदर से इस तरह शांत होते हैं तो हमारा वातावरण भी इसी में ढलने लगता है। यदि हम इस तरह शांत चित्त होकर कोई कार्य करते हैं तो उसकी सफलता की संभावना बहुत अधिक बढ़ जाती है। जब मन में और आस-पास के वातावरण में शांति हो तभी हम योग की साधना की पहली मंजिल यम पर पहुंचते हैं।

योग की पहली पायदान है यम
अष्टांग योग की आठ अवस्थाएं हैं- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। पहली अवस्था है- यम। ईश्वर को प्राप्त करने का एक रास्ता योग है। इस मार्ग से ईश्वर तक पहुंचने वाले महर्षि पतंजलि के अष्टांग योग सिद्धांत का पालन करते हैं। यह सिद्धांत बताता है कि हम योग की आठ अवस्थाओं से गुजर कर ही ईश्वर तक पहुंच सकते हैं। इसकी पहली अवस्था है- यम।

यम का मतलब शांति
यम का अर्थ है शांति। योग करने वाले के चारों तरफ अर्थात अंदर और बाहर शांति का वातावरण होना चाहिए। हमारे जीवन में शांति कैसे आए इसके लिए यम का पालन जरूरी है। यम के पालन में पांच बातों का ध्यान रखा जाता है। पंतजलि ने कहा है-

अहिंसासत्यास्तेय ब्रम्हचर्यापरिग्रहा यमा:। - योगसूत्र २/३क्

अर्थात-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रम्हचर्य , अपरिग्रह ही यम है। इन पांच बातों को जीवन में उतार कर ही हम योग की पहली सीढ़ी चढ़ते हैं।

यम के पांच नियम
अहिंसा- इसका अर्थ है हमारे मन, वचन या कर्म से किसी भी प्राणी को कोई कष्ट न हो। मन में किसी को दु:ख पहुंचाने का विचार तक नहीं आए। अपने आप पर भी कोई ज्यादती न करें। जो व्यक्ति अहिंसा का इस तरह पालन करता है, उसके विरोधी लोग भी विरोध नहीं कर पाते। अहिंसा का व्रत हमारे जीवन में बदलाव लाता है। समाज में हमें विशेष सम्मान दिलाता है।

सत्य का साथ दें
इसका अर्थ है हम कपट से और धोखा देने की नीयत से कोई बात न कहें। जो बात जैसी है उसे उसी तरह कहना सत्य है। हम आत्मा को सत्य मानें और ईश्वर की खोज करें। जब यह सत्य हमारे जीवन में उतरता है तो उसके लाभ मिलते ही हैं।
अस्तेय : भ्रष्टाचार से दूर रहें
अर्थात चोरी नहीं करना। हमें दूसरे का धन हड़पने का विचार भी नहीं करना चाहिए। चोरी, ठगी, धोखाधड़ी और अन्य किसी गलत तरीके से दूसरे के धन, वस्तु या अन्य किसी चीज को हथियाना अपराध है। हमें इस बुराई से बचना चाहिए। अस्तेय का पालन हमें सद्चरित्र बनाता है।
ब्रम्हचर्य : संयम से रहें
इसका मतलब है इंद्रियों का संयम। हमारा भोजन, विचार, व्यवहार सभी कुछ युक्तियुक्त होना चाहिए। जो संयम से नहीं रहता वह बलहीन हो जाता है, उसमें आत्मविश्वास नहीं रहता। जो ब्रम्हचर्य का पालन करते हैं उन्हें अक्षुण्ण बल की प्राप्ति होती है। स्वस्थ, निरोग और प्रसन्न व्यक्ति ही किसी भी कार्य को सफल करने के लिए योग्य होता है।
अपरिग्रह: संग्रह की प्रवृत्ति छोड़ें इसका अर्थ है हम बिना आवश्यकता के वस्तुओं का संग्रह न करें। जब हम वस्तुएं इकट्ठा करते हैं तो उनकी वृद्धि, रक्षा और दिखावे में हमारा मन लग जाता है। तब हम मन को एकाग्र नहीं कर पाते। मन की शांति के लिए वस्तुओं से अनावश्यक मोह न रखना, आलस्य, संशय, प्रमाद का त्याग जरूरी है। मन यदि इस बाहरी दिखावे से हट जाए तो फिर हम मनुष्य जन्म की सफलता के बारे में सोच सकते हैं।

शांति से सफलता
यम के पांच तत्वों के संकल्प से हमारे जीवन में शांति का अनुभव होता है। शांति का मतलब खामोशी नहीं है। शांति का मतलब है सुख-संतुष्टि, मन में किसी प्रकार का कोई दु:ख, क्षोभ या तनाव नहीं रहना। जब हम अंदर से इस तरह शांत होते हैं तो हमारा वातावरण भी इसी में ढलने लगता है। यदि हम इस तरह शांत चित्त होकर कोई कार्य करते हैं तो उसकी सफलता की संभावना बहुत अधिक बढ़ जाती है। जब मन में और आस-पास के वातावरण में शांति हो तभी हम योग की साधना की पहली मंजिल यम पर पहुंचते हैं।

क्या आप पूर्ण स्वस्थ हैं ?
पूर्ण स्वस्थ इंसान की पहचान क्या है? क्या शरीर से मोटा होना ही अच्छे स्वास्थ्य की पहचान है? कहा जाता है कि कलयुग में वही इंसान सुखी है जिसके पास ये तीन चीजें हैं:-
- पर्याप्त धन
- स्वस्थ शरीर
- आज्ञाकारी पत्नी व संतान
उपरोक्त कसौटियों से यह सिद्ध है कि उत्तम स्वास्थ्य का होना सुखी इंसान की अनिवार्य योग्यता है। अनुभव के आधार पर यह सभी जानते हैं कि स्वास्थ्य दवाओं पर नहीं बल्कि उचित आहार-विहार पर निर्भर होता है। तभी तो आज दुनिया भर में भारतीय योग विज्ञान और आयुर्वेद को आग्रह पूर्वक अपनाया जा रहा है। क्योंकि योग में है हजारों वर्षों के रिसर्च का निचोड़ । योग आपको उत्तम स्वास्थ्य का सुनिश्चित भरोसा दिलाता है, क्योंकि यह रोग के सिम्टम्स को नहीं बल्कि शरीर के सिस्टम को ही दुरुस्त करता है। आयुर्वेद और योग में स्वस्थ इंसान की पहचान करने के निम्र सूत्र दिये हैं। इन सूत्रों के आधार पर आप भी जान सकते हैं कि आपके स्वास्थ्य का स्तर क्या है? तो आइये जाने:-
- स्वस्थ इंसान को दोनों समय खुलकर भूख लगती है।
- स्वस्थ इंसान को बिस्तर पर जाते ही जल्दी और गहरी नींद आती है।
- स्वस्थ व्यक्ति सुबह जागने पर भरपूर ताजगी और स्फूर्ति का अनुभव करता है।
- स्वस्थ मनुष्य को प्रतिदिन सुबह बिना किसी प्रयास के खुलकर शौच होता है।
- स्वस्थ मनुष्य में गरमी और ठंड सहने की पर्याप्त क्षमता होती है।
- स्वस्थ इंसान शारीरिक श्रम करने पर अत्यधिक थकान महसूस नहीं करता है।
स्वस्थ इंसान की पहचान की इन कसौटियों पर यदि आप खरे नहीं उतरते हैं, तो योग को अपने जीवन का अभिन्न अंग बनाएं। योग से स्वस्थ होने के लिये योग सम्बंधी लेखों को ध्यान से पढ़ें और अपनी दिनचर्या में योग को शामिल करें। योग सिग्मेंट में कल से आप पाएंगे प्रतिदिन किसी विशेष शारीरिक व मानिसिक समस्या का सटीक और सुनिश्चित योगिक उपाय।

मन अशांत हैं? यह करें...
ऐसा कहा जाता है कि हमारा दिमाग कभी आराम नहीं करता, हमेशा कार्य करता है। यहां तक कि जब हम सोते हैं तब भी हमारा दिमाग सतत सोचते रहता है। ऐसे में कार्य की अधिकता से दिमाग पर प्रेशर बना रहता है। ऐसी स्थिति के चलते कुछ समय बाद हमारा स्वभाव चिढ़चिढ़ा, गुस्सेवाला और अशांत हो जाता है।
योगासन के माध्यम से मन की अशांति दूर की जा सकती है। प्रतिदिन सुबह निम्नलिखित क्रिया करें। लाभ अवश्य प्राप्त होगा।
- किसी शांत और हवादार स्थान पर आसन बिछाकर बैठ जाएं।
- पद्मासन की अवस्था में आ जाएं।
- अब हाथ व अंगूलियों को ज्ञान मुद्रा की स्थिति में रखें।
- फिर पीठ को तान कर रीढ़ को एकदम सीधा करें।
- गर्दन को ढीला छोड़ दें।
- अब गर्दन को एक बार ऊपर-नीचे करें।
- इसके बाद गर्दन को दाएं-बाएं घुमाएं।
उक्त क्रिया को चारों तरफ कम से कम 5-5 बार करें। धीरे-धीरे कुछ दिनों इस क्रिया की अवधि बढ़ाना शुरू करें।
इस क्रिया से आप बहुत जल्द मानसिक तनाव से मुक्त हो जाएंगे। मन को शांति मिलेगी।
किसी को दुख ना देना ही अहिंसा है...
जीवन को सुखी और स्वस्थ बनाने वाले अष्टांग योग का पहला चरण है यम। योगशास्त्र में यम शब्द का अर्थ है समाज के प्रति हमारे कर्तव्य। जिस समाज में हम रहते हैं उसके प्रति हमारे कुछ कर्तव्य बताए गए हैं। इन्हीं कर्तव्यों को यम कहा जाता है।

यम पांच प्रकार के होते हैं-
- अहिंसा
- सत्य
- अस्तेय
- ब्रह्मचर्य
- अपरिग्रह
यम का पहला चरण है अहिंसा। सामन्यत: अहिंसा का मतलब होता है किसी प्रकार की हिंसा ना करना। योग शास्त्र के अनुसार अहिंसा का अर्थ है कि कभी भी किसी को दुख ना देना। जाने-अनजाने भी क्रूरता का मजे लेने के लिए किसी को सताना वर्जित किया गया है।
ऐसी क्रूरता हमें अशांत बनाती है, जिससे हमारा मन ध्यान की ओर नहीं लग पाता। अत: योगशास्त्र में किसी को दुखी ना करने की बात सबसे जरूरी बताई गई है।

अधिक बचत क्यों ना करें?
अष्टांग योग के आठ चरण बताए गए हैं। इन सभी चरणों को पूर्ण करने पर साधक की कुंडलिनी जागृत हो जाती है। इन चरणों में पहला है यम।
यम के भी पांच चरण बताए गए हैं। इसमें पंचम चरण है अपरिग्रह।
पांचवां यम अपरिग्रह है अर्थात् आवश्यकता से धन संग्रह नहीं करना चाहिए। योगशास्त्र के अनुसार सामान्य आवश्यकता से अधिक साधनों का संग्रह करना या धन की बचत करना चिंताओं को बढ़ाता है। साथ ही अधिक धन बचाने वाला व्यक्ति समाज में ईष्र्या का पात्र भी बनता है। इससे मानसिक शांति छीन जाती है और कई परिस्थितियों में लोगों से दुश्मनी भी हो जाती है।
अष्टांग योग के साधक के लिए यह आवश्यक है कि वह आवश्यकता से अधिक धन न बचाए, जिससे उसका मन शांत रहे और वह योग साधना में ध्यान लगा सके। साथ ही कई लोग धन और सुविधाओं का त्याग करते हैं और उस त्याग को अपने मन में अहंकार के रूप में याद रखते हैं। यह मानसिक शांति दूर करने वाला होता है।
जबकि अष्टांग योग के साधक को नेकी कर दरिया में डाल कहावत को सार्थक करना चाहिए।

ब्रह्मचर्य पालन मतलब काम पर लगाम
अष्टांग योग की सिद्धियां प्राप्त करने के लिए यह अति आवश्यक है कि यम में बताए गए सभी चरणों का कड़ा पालन करें। यम का चतुर्थ चरण है ब्रह्मचर्य का पालन करना।
अष्टांग योग में यह चरण काफी महत्वपूर्ण है। क्योंकि जो व्यक्ति ब्रह्मचर्य व्रत का पालन नहीं कर पाता वह कुण्डलिनी जागरण की अवस्था तक कतई नहीं पहुंच सकता।
ब्रह्मचर्य का पालन करना सर्वाधिक कठिन माना गया है। काम भाव की उत्पत्ति के संबंध में विद्वानों का कहना है कि विपरित लिंग के आकर्षण की वजह से ही ब्रह्मचर्य व्रत का पालन नहीं हो पाता।
कुण्डलिनी जागरण की अवस्था प्राप्त करने के लिए यह अतिआवश्यक है कि हम हमारे मन में विपरिंग लिंग का स्मरण तक ना लाएं। क्योंकि यदि पुरुष किसी स्त्री का स्मरण काम की दृष्टि से करेगा या स्त्री किसी पुरुष का वैसा ही स्मरण करती है तो ब्रह्मचर्य व्रत का पालन कर पाना असंभव सा ही है।
अष्टांग योग में यह सबसे अहम चरण है इसका पालन करना अति आवश्यक है।

जैसा देखा-सुना है, उसे आगे बढ़ाओं
योग शास्त्र का प्रथम अंग यम है। यम में जीवन जीने के कुछ सूत्र बताए गए हैं। इन सूत्रों पर अमल करने से साधक का जीवन समाज के लिए आर्दश बन जाता है। यम का प्रथम चरण है अहिंसा और दूसरा चरण है सत्य। इसी तरह यम के पांच चरण बताए गए हैं।
यम के द्वितीय चरण सत्य के संबंध में बताया गया है कि जैसा देखा गया है, जिस प्रकार सुना गया है, जैसा हमें समझ आ रहा है, वैसा ही आगे बढ़ाना सत्य है, ठीक वैसा ही अन्य लोगों को बताना ही सत्य है। इसके विपरित किए आचरण को झूठ ही माना जाता है।
सत्य दूसरों के कल्याण की भावना सहित होना चाहिए। इसके अतिरिक्त किए गए कार्य झूठ की तरह ही हैं। साहित्य के अलंकार झूठ होकर भी यदि आधारभूत सत्य को सामने लेकर आए तो वह सत्य के समान ही है। जिस प्रकार पंचतंत्र की कहानियां जंगली जानवरों की बातचीत कल्पना मात्र ही है परंतु वह समाज कल्याण की सीमा में आती है अत: वह भी सत्य के समान ही मानना चाहिए।
जो सत्य घृणा और वैमनस्य फैलाते हैं वह सत्य होकर भी असत्य की तरह ही माने जाने चाहिए।

महाव्रत और सिद्धियां किसे कहते हैं?
योग शास्त्र में जीवन को सुखी बनाने के कई सूत्र बताए गए हैं। इन्हीं सूत्रों में कुछ महाव्रत और सिद्धियां बताई गई हैं।
यह इस प्रकार है-
- अहिंसा के पूर्णत: पालन से हमारा सभी से वैर भाव खत्म हो जाता है। सभी हमारे मित्र बन जाते हैं। शत्रु कोई नहीं रहता।
- सदैव सच बोलने वाले व्यक्ति को वाक् सिद्धि प्राप्त हो जाती है, फिर उसकी बोली हुई हर बात पूरी हो जाती है।
- कभी भी चोरी न करने वाले व्यक्ति को सभी रत्न आदि स्वत: ही प्राप्त हो जाती हैं। बस योगी के मन में कभी भी किसी भी प्रकार की चोरी का विचार तक नहीं आना चाहिए।
- जो साधक ब्रह्मचर्य का पूरा-पूरा पालन करता है वह शक्तिशाली और लंबे समय तक जवान बना रहता है।
- अपरिग्रह का पालन करने वाले साधक को कई जन्मों का ज्ञान हो जाता है।
अच्छे स्वास्थ्य और सुंदर शरीर के लिए टिप्स
फिट रहना कौन नहीं चाहता, सभी अच्छा स्वास्थ्य और सुंदर शरीर पाना चाहते हैं। जो लोग स्वास्थ्य को लेकर सावधान हैं वे कुछ न कुछ फंडे अवश्य अपनाते हैं जिससे उनका शरीर फीट रहता है। कुछ सामान्य टिप्स जिससे आप भी फिट फिगर प्राप्त कर सकते हैं-
- प्रतिदिन सुबह उठने के बाद ज्यादा से ज्यादा 2 घंटे नाश्ता अवश्य करें। नाश्ता में कुछ भी ले सकते हैं जो आपके स्वास्थ्य के ठीक है।
- खाने में रोटी और चावल अलग-अलग समय पर खाएं।
- प्रतिदिन एक केला, सेब और फ्रूट ज्यूस अवश्य लें। दिनभर थोड़ी-थोड़ी देर में फ्रूट आदि खाते रहें।
- ज्यादा मिठाई ना खाएं।
- लंच और डीनर प्रतिदिन समय पर लें।
- तली हुई चीजों से भी दूर रहें।
- प्रतिदिन सुबह उठकर हल्की एक्सरसाइज या व्यायाम अवश्य करें।
- कम से कम 15-20 मिनिट प्रतिदिन ध्यान लगाएं। आंख बंद करके शांत बैठें और मस्तिष्क को आराम दें।
- प्रतिदिन सुबह या शाम को लॉन्ग वॉक पर जाएं।
- चटपटे खाने और मैदे से बनी खाने की चीजों से दूर रहें।
- खाने पहले सलाद अवश्य खाएं।
- खाने के बाद छाछ पीएं।
- रात का खाना सोने से कम से कम 2 घंटे पहले खा लें।
- खाने के तुरंत बाद कभी न सोएं।
- कुछ ना कुछ शारीरिक कार्य अवश्य करते रहें। जैसे डांस, वॉक, एक्सरसाइज आदि।

सिद्धि चाहिए तो चोरी ना करना
अष्टांग योग के पहले भाग में यम को रखा गया है। यम का तीसरा चरण है अस्तेय अर्थात् चोरी ना करना।
सामान्यत: चोरी से तात्पर्य यही है कि किसी की नजर बचाकर कुछ चुरा लेना। यह चोरी का आंशिक अर्थ है। चोरी यानि वे सभी क्रियाएं जिनसे हम किसी वस्तु को उसके समाज में निर्धारित मूल्य चुकान बिना अपने पास रख ले। साथ ही जो मालिक अपने श्रमिक को सही पारिश्रमिक नहीं देता वह भी चोरी के समान ही है।
योग शास्त्र के अनुसार किसी भी तरह की चोरी करने वाला व्यक्ति अष्टांग योग में सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकता। इसी वजह से मन से किसी भी प्रकार की चोरी का ख्याल निकाल देना चाहिए। जब ऐसा कोई विचार मन में नहीं होगा तो साधक अच्छे ध्यान लगा सकेगा और अष्टांग योग से प्राप्त होने वाली सिद्धियां उसे प्राप्त होती जाएंगी।

किसी को सताना भी है वर्जित
जीवन को सुखी और स्वस्थ बनाने वाले अष्टांग योग का पहला चरण है यम। योगशास्त्र में यम शब्द का अर्थ है समाज के प्रति हमारे कर्तव्य। जिस समाज में हम रहते हैं उसके प्रति हमारे कुछ कर्तव्य बताए गए हैं। इन्हीं कर्तव्यों को यम कहा जाता है।
यम पांच प्रकार के होते हैं-
- अहिंसा
- सत्य
- अस्तेय
- ब्रह्मचर्य
- अपरिग्रह
यम का पहला चरण है अहिंसा। सामन्यत: अहिंसा का मतलब होता है किसी प्रकार की हिंसा ना करना। योग शास्त्र के अनुसार अहिंसा का अर्थ है कि कभी भी किसी को दुख ना देना। जाने-अनजाने भी क्रूरता का मजे लेने के लिए किसी को सताना वर्जित किया गया है।
ऐसी क्रूरता हमें अशांत बनाती है, जिससे हमारा मन ध्यान की ओर नहीं लग पाता। अत: योगशास्त्र में किसी को दुखी ना करने की बात सबसे जरूरी बताई गई है।

Niyam(नियम)
अष्टांग योग का दूसरा चरण
महर्षि पतंजलि के योग सूत्र का दूसरा चरण नियम है। पहला चरण यम जहां मन को शांति देता है, वहीं दूसरा चरण नियम हमें पवित्र बताता है। योग मार्ग पर चलने के लिए आत्मशांति के साथ मन, कर्म, वचन की पवित्रता भी आवश्यक है। नियम के पालन से हमारे आचरण, विचार और व्यवहार पवित्र होते हैं।

नियम के पांच अंगमहर्षि पातंजलि के योग सूत्र में नियम के पांच अंग बताए गए हैं-शौचसन्तोषतप: स्वाध्यायेश्वर प्रमिधानानि नियमा:। (योगदर्शन- 2/३२)अर्थात- पवित्रता, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर की भक्ति यही नियम है।योग मार्ग की सिद्धि के लिए हमारे आचार-विचार पवित्र होना चाहिए। शरीर और विचारों की शुद्धि से संतोष का गुण आता है। तभी हम शास्त्रों के ज्ञान से ईश्वर की भक्ति की साधना में सफल हो सकते हैं। योग मार्ग से ईश्वर को प्राप्त करने की दिशा में नियम की यह अवस्था भी आवश्यक योग्यता है।पवित्रता- धर्म क्षेत्र में पवित्रता का मतलब सभी तरह की शुद्धता से है। जैसे शरीर की शुद्धता स्नान से, व्यवहार और आचरण की शुद्धता त्याग से, सही तरीके से कमाए धन से प्राप्त सात्विक भोजन से आहार की शुद्धता रहती है। इसी तरह दुर्गुणों से बचकर हम मन को शुद्ध रखते हैं। घमंड, ममता, राग-द्वेष, ईष्र्या, भय, काम-क्रोध आदि दुर्गुण हैं।संतोष- संतोष का अर्थ है हर स्थिति में प्रसन्न रहना। दु:ख हो या सुख, लाभ हो या हानि, मान हो या अपमान, कैसी भी परिस्थिति हो, हमें समान रूप से प्रसन्न रहना चाहिए।तप- तप का मतलब है लगन। अपने लक्ष्य को पाने के लिए संयमपूïर्वक जीना। व्रत-उपवास करना तप कहलाता है, जिनसे हमारे अंदर लगन पैदा होती है।स्वाध्याय- स्वाध्याय का अर्थ है हम शास्त्रों के अध्ययन से ज्ञान प्राप्त करें तथा जप, स्त्रोतपाठ आदि से ईश्वर का स्मरण करें।ईश्वर प्रणिधान- ईश्वर-प्रणिधान का मतलब है हम ईश्वर के अनुकूल ही कर्म करें। अर्थात हमारा प्रत्येक कार्य ईश्वर के लिए और ईश्वर के अनुकूल ही हो। ऊपर बताए गए नियम की इन पांच बातों को जीवन में उतारने से योग मार्ग की दूसरी अवस्था प्राप्त हो जाती है।

नियम से लाभनियम सिखाते हैं हम पवित्र रहें। यह पवित्रता सिर्फ तन की न हो, मन की भी हो। हम संतोष रखें अर्थात सुख-दु:ख में समान रहें। तप हमें संयम सिखाता है तो स्वाध्याय हमें अध्ययन की ओर प्रेरित करता है। जब हम अध्ययन करेंगे तो हमें ज्ञान होगा और अंत में ईश्वर के अनुकूल कार्य करने की प्रेरणा मिलेगी।

नियम : जीवन में पवित्रता
नियम का अर्थ है पवित्रता। महर्षि पतंजलि के योग सूत्र का दूसरा चरण नियम है। पहला चरण यम जहां मन को शांति देता है, वहीं दूसरा चरण नियम हमें पवित्र बताता है। योग मार्ग पर चलने के लिए आत्मशांति के साथ मन, कर्म, वचन की पवित्रता भी आवश्यक है। नियम के पालन से हमारे आचरण, विचार और व्यवहार पवित्र होते हैं।
ये हैं नियम के पांच अंग
महर्षि पातंजलि के योग सूत्र में नियम के पांच अंग बताए गए हैं-
शौचसन्तोषतप: स्वाध्यायेश्वर प्रमिधानानि नियमा:। (योगदर्शन- 2/३२)
अर्थात- पवित्रता, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर की भक्ति यही नियम है।
योग मार्ग की सिद्धि के लिए हमारे आचार-विचार पवित्र होना चाहिए। शरीर और विचारों की शुद्धि से संतोष का गुण आता है। तभी हम शास्त्रों के ज्ञान से ईश्वर की भक्ति की साधना में सफल हो सकते हैं। योग मार्ग से ईश्वर को प्राप्त करने की दिशा में नियम की यह अवस्था भी आवश्यक योग्यता है।
पवित्रता- धर्म क्षेत्र में पवित्रता का मतलब सभी तरह की शुद्धता से है। जैसे शरीर की शुद्धता स्नान से, व्यवहार और आचरण की शुद्धता त्याग से, सही तरीके से कमाए धन से प्राप्त सात्विक भोजन से आहार की शुद्धता रहती है। इसी तरह दुगरुणों से बचकर हम मन को शुद्ध रखते हैं। घमंड, ममता, राग-द्वेष, ईष्र्या, भय, काम-क्रोध आदि दुगरुण हैं।
संतोष- संतोष का अर्थ है हर स्थिति में प्रसन्न रहना। दु:ख हो या सुख, लाभ हो या हानि, मान हो या अपमान, कैसी भी परिस्थिति हो, हमें समान रूप से प्रसन्न रहना चाहिए।
तप- तप का मतलब है लगन। अपने लक्ष्य को पाने के लिए संयमपूर्वक जीना। व्रत-उपवास करना तप कहलाता है, जिनसे हमारे अंदर लगन पैदा होती है।
स्वाध्याय- स्वाध्याय का अर्थ है हम शास्त्रों के अध्ययन से ज्ञान प्राप्त करें तथा जप, स्त्रोतपाठ आदि से ईश्वर का स्मरण करें।
ईश्वर प्रणिधान- ईश्वर-प्रणिधान का मतलब है हम ईश्वर के अनुकूल ही कर्म करें। अर्थात हमारा प्रत्येक कार्य ईश्वर के लिए और ईश्वर के अनुकूल ही हो। ऊपर बताए गए नियम की इन पांच बातों को जीवन में उतारने से योग मार्ग की दूसरी अवस्था प्राप्त हो जाती है।

ये हैं नियम से लाभ
- नियम सिखाते हैं हम पवित्र रहें।
- यह पवित्रता सिर्फ तन की न हो, मन की भी हो।
- हम संतोष रखें अर्थात सुख-दु:ख में समान रहें।
- तप हमें संयम सिखाता है तो स्वाध्याय हमें अध्ययन की ओर प्रेरित करता है।
- जब हम अध्ययन करेंगे तो हमें ज्ञान होगा और अंत में ईश्वर के अनुकूल कार्य करने की प्रेरणा मिलेगी।

पांच नियम जिनसे मिलती है सफलता
अष्टांग योग की आठ अवस्थाएं हैं- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। ईश्वर को पाने का एक रास्ता योग है हम योग की आठ अवस्थाओं से गुजर कर ईश्वर तक पहुंच सकते हैं। पंतजलि ने कहा है- अहिंसासत्यास्तेय ब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमा: अर्थात-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मïचर्य, अपरिग्रह इन पांच बातों को जीवन में उतार कर ही हम योग की पहली सीढ़ी चढ़ते हैं।अहिंसा- जो व्यक्ति अहिंसा का इस तरह पालन करता है, उसके विरोधी लोग भी विरोध नहीं कर पाते। अहिंसा का व्रत हमारे जीवन में बदलाव लाता है। समाज में हमें विशेष सम्मान दिलाता है। सत्य- इसका अर्थ है हम कपट से और धोखा देने की नीयत से कोई बात न कहें। जो बात जैसी है उसे उसी तरह कहना सत्य है। अस्तेय- अर्थात चोरी नहीं करना चोरी, ठगी, धोखाधड़ी और अन्य किसी गलत तरीके से दूसरे के धन, वस्तु या अन्य किसी चीज को हथियाना अपराध है।ब्रह्मïचर्य- इसका मतलब है इंद्रियों का संयम। हमारा भोजन, विचार, व्यवहार सभी कुछ युक्तियुक्त होना चाहिए। जो संयम से नहीं रहता वह बलहीन हो जाता है, उसमें आत्मविश्वास नहीं रहता। अपरिग्रह- इसका अर्थ है हम बिना जरूरत के चीजों का संग्रह न करें। मन यदि बाहरी दिखावे से हट जाए तो फिर हम मनुष्य जन्म की सफलता के बारे में कह सकते हैं। शांति का मतलब खामोशी नहीं है। शांति का मतलब है सुख-संतुष्टि, मन में किसी प्रकार का कोई दु:ख, क्षोभ या तनाव नहीं रहना। जब मन में और आस-पास के वातावरण में शांति हो तभी हम योग की साधना की पहली मंजिल यम पर पहुंचते हैं।

बढ़ता वजन कैसे करें कम...
हम प्रतिस्पर्धा के चलते अधिकतर समय अपने-अपने कार्यों को देते हैं और इसी वजह से हम स्वास्थ्य पर ध्यान नहीं दे पाते। आज अधिकांश लोगों को अधिक वजह यानि मोटापे की समस्या परेशान कर रही है। अंसतुलित खान-पान और सही समय पर खाना न खाना, इन कारणों से यह बीमारी और अधिक बढ़ जाती है। इससे निजात पाने के लिए निम्न उपाय अपनाएं-
- वजन कम करने के लिए योगासन से अच्छा कोई और विकल्प नहीं हैं।
- योगा से कम समय में ही शरीर को संतुलित किया जाता है अत: प्रतिदिन कुछ समय योगा अवश्य करें।
- अधिक कैलोरी वाले खाने का पूर्णत: त्याग करें। शरीर को कम कैलरी मिलेगी तो शरीर पहले से जमा कैलरी का इस्तेमाल करेगा।
- एक्सर्साइज और योगा करें। शारीरिक श्रम अधिक करें।
- सब्जियां अधिक से अधिक खाएं।
- फल या ज्यूस खाने में रोज लें।
- दिनभर में कम से कम 3 लीटर पानी पीएं।
- खाने में मीठा कम करें।

क्या हैं मन के शौच?
सामान्यत: सभी शौच शब्द का अर्थ मल-मूत्र से ही समझा जाता है परंतु योग शास्त्र में शौच शब्द का विस्तृत अर्थ बताया गया है। योगाचार्यों के अनुसार शौच में वे सभी क्रियाएं शामिल हैं जो हमारे तन का स्वच्छ रखने के लिए की जाती हैं।
योग शास्त्र के अनुसार शरीर और मन से सभी प्रकार की बुराई या कलुष दूर करना ही शौच है। योगाचार्यों के अनुसार मन की कुछ बुराई यानि कलुष बताए गए हैं-
- सभी सुखी होने की इच्छा रखते है किंतु सुख के साधन न होने पर मन को दुखी करना राग कलुष है।
- दूसरों की संपत्ति, गुण, यश से मन को दुखी करना ईष्र्या कलुष है।
- ईर्ष्या पात्र के अपकार करने की इच्छा अपकार कलुष है।
- ईर्ष्या पात्र का अनादर करना उसकी चुगली करना यह असूया कलुष है।
- किसी से बदला लेने की भावना मन में रखना अमर्ष कलुष है।
शौच नियम की सिद्धि होने पर न हमारा तन तो स्वस्थ होता ही है और साथ ही मन भी स्वस्थ और सुंदर हो जाता है। जब शौच के नियम से मन सिद्ध हो जाता है तो मन से घृणा, द्वेष, क्रोध आदि बुराइयां हमेशा के लिए दूर हो जाती हैं।

मन का संतोष क्या है?
सामान्यत: संतोष शब्द का यही अर्थ है कि सभी इच्छाओं को शांत करना और सुख की अनुभूति प्राप्त करना। आज के युग में संतोष को अच्छा नहीं माना जाता। ऐसा माना जाता है कि संतोष उन्नति के शिखर तक पहुंचने में बाधक है परंतु योग शास्त्र में संतोष ध्यान के अति आवश्यक है।
योग शास्त्र के अनुसार संतोष के बिना ध्यान नहीं लगाया जा सकता। संतोष का मतलब यही है कि मन की सारी तृष्णाओं या इच्छाओं को शांत कर लिया और फिर ध्यान लगाया जाए। संतोष के अभाव में ध्यान द्वारा प्राप्त होने वाला परम आनंद प्राप्त नहीं किया जा सकता। जिसका मन सुखी है वह सबसे सुखी व्यक्ति बन सकता है। इसी वजह से योग शास्त्र में संतोष को ही सबसे बड़ा सुख माना गया है।

योग से पहले...
योग हर परिस्थिति में हमारे शरीर को स्वास्थ्य लाभ प्रदान करता है लेकिन योग करने से पहले कुछ ध्यान देने योग्य बातें हैं। इन बातों को अपनाने से योग का अधिक फायदा प्राप्त होता है। कुछ आवश्यक सावधानियों पर ध्यान देना आवश्यक है-
- योग शौच क्रिया एवं स्नान से निवृत्त होने के बाद ही किया जाना चाहिए।
- योग के एक घंटे बाद स्नान करें।
- योग समतल भूमि पर आसन बिछाकर करना चाहिए।
- ढीले वस्त्र पहनना चाहिए।
- योग खुले एवं हवादार कमरे में करना चाहिए। ताकि आप सांस के साथ आप वायु ले सकें।
- योग घर के बाहर भी किया जा सकता है लेकिन वातावरण शुद्ध तथा मौसम अच्छा होना चाहिए।
- अनावश्यक जोर नहीं लगाना चाहिए।
- मासिक धर्म, गर्भावस्था, बुखार, गंभीर रोग आदि के दौरान आसन न करें या फिर किसी योग प्रशिक्षक से परामर्श अवश्य लें।
- प्रतिदिन संतुलित आहार लें और खाने का समय निर्धारित रखें।
- वज्रासन को छोड़कर सभी आसन खाली पेट करें।
- आसन के प्रारंभ और अंत में विश्राम करें। आसन विधिपूर्वक ही करें। प्रत्येक आसन दोनों ओर से करें एवं उसका पूरक अभ्यास करें।
- योग प्रारम्भ करने के पूर्व अंग-संचालन करना आवश्यक है। इससे अंगों की जकडऩ समाप्त होती है तथा आसनों के लिए शरीर तैयार होता है। अंग-संचालन कैसे किया जाए इसके लिए अंग संचालन देखें।
योग किसी योग्य योग प्रशिक्षक की देख-रेख में करें तो ज्यादा अच्छा होगा।

शांति के लिए पांच नियम है जरूरी
योग शास्त्र के अनुसार मन की शांति के लिए पांच नियम बताए गए हैं। यह नियम इस प्रकार है-
- शौच
- संतोष
- तप
- स्वाध्याय
- ईश्वर प्राणिधान
इन पांच नियमों की उपयोगिता योग शास्त्र में इसप्रकार बताई गई है-
शौच से अपने अंगों से घृणा होती है तथा दूसरों के संसर्ग घट जाता है। साथ चित्त की शुद्धि, मन की प्रसन्नता, एकाग्रता तथा आत्मदर्शन की योग्यता प्राप्त होती है।
संतोष से सर्वोत्तम सुख प्राप्त होता है।
तप से अशुद्धि का दूर होती है।
स्वाध्याय से इष्ट देवता की कृपा प्राप्त होती है।
ईश्वर प्राणिधान से समाधि क सिद्धि प्राप्त होती है।
सभी सूत्रों के लिए विद्वानों द्वारा अलग-अलग व्याख्या की गई है।

किस माह में क्या खाएं या क्या करें?
अच्छे स्वास्थ्य के लिए जरूरी है हमारा संतुलित खाना। योग शास्त्र के अनुसार 12 महीनों के लिए खाने के संबंध में अलग-अलग चीजे बताई गई हैं। नए साल में एक कैलेंडर खाने का भी बनाना चाहिए। जिससे हर माह में क्या खाना चाहिए यह ज्ञात हो सके। योग शास्त्र के अनुसार बताए गए नियम का पालन करने से हमारा शरीर पूरी तरह स्वस्थ और निरोगी रहेगा।
हमारा खान-पान ही हमारे शरीर को पूरी तरह तंदुस्त रखता है। अच्छे भोजन से हमारी कार्यक्षमता सही बनी रहती है, जल्दी थकान नहीं होती और साथ ही कई छोटी-छोटी बीमारियां हमेशा ही हमसे दूर रहती है।
पुराने समय में एक कहावत कही गई है- चैत चना, बैसाखे बेल, जैठे शयन, आषाढ़े खेल, सावन, हर्रे, भादो तिल।
कुवार मास गुड़ सेवै नित, कार्तिक मूल, अगहन तेल, पूस करे दूध से मेल।
माघ मास घी-खिचड़ी खाय, फागुन उठ नित प्रात नहाय।
किस माह में क्या खाएं या करें?
माह: क्या खाएं या करें
जनवरी-फरवरी: घी, खिचड़ी
फरवरी-मार्च: घी, खिचड़ी और सुबह जल्दी नहाना फायदेमंद है।
मार्च-अप्रैल: चना का सेवन करें।
अप्रैल-मई: बेल
मई-जून: इन माह में पर्याप्त नींद लेना अति आवश्यक है। अन्यथा इसका बुरा प्रभाव झेलना पड़ सकता है।
जून-जुलाई: अधिक से अधिक व्यायाम और खेलना-कूदना आदि क्रियाएं करें।
जुलाई-अगस्त: हरड़ का सेवन करें।
अगस्त-सितंबर: तिल खाएं।
सितंबर-अक्टूबर: गुड़ का सेवन करें, बहुत फायदेमंद रहेगा।
अक्टूबर-नवंबर: मूली
नवंबर: दिसंबर: तेल, तेल से बनी हुई चीजे अधिक खाएं।
दिसंबर-जनवरी: नियमित रूप से दूध अवश्य पीएं।साथ ही एक सेब प्रतिदिन अवश्य लें।

क्या न खाए?, क्या न करें?
जीने के लिए खाना जितना जरूरी है, उतना ही अच्छे स्वास्थ्य के लिए कुछ खाने की चीजों से दूरी बनाए रखना जरूरी है। साथ ही हमेशा निरोगी और स्वस्थ रहने के लिए प्रतिदिन योग का अभ्यास करना चाहिए। योग शास्त्र में 12 महीनों के लिए कुछ ऐसी खाने की चीजे बताई गई हैं, जिन्हें अलग-अलग माह में नहीं खाना चाहिए। हमारा खान-पान ही हमारे शरीर को पूरी तरह तंदुस्त रखता है। अच्छे भोजन से हमारी कार्यक्षमता सही बनी रहती है, जल्दी थकान नहीं होती और साथ ही कई छोटी-छोटी बीमारियां हमेशा ही हमसे दूर रहती है।
पुराने समय में एक कहावत कही गई है- चौते गुड़, वैशाखे तेल, जेठ के पंथ, अषाढ़े बेल।
सावन साग, भादो मही, क्वार करेला, कार्तिक दही।
अगहन जीरा, पूसै धना, माघै मिसरी, फागुन चना।
जो कोई इतने परिहरै, ता घर बैद पैर नहिं धरै।
किस माह में क्या न खाएं या क्या न करें?
माह: क्या न खाएं या क्या न करें
जनवरी-फरवरी: मिस्री
फरवरी-मार्च: चना
मार्च-अप्रैल: गुड़
अप्रैल-मई: तेल
मई-जून: इस माह में गर्मी का अत्यधिक प्रकोप रहता है अत: ज्यादा घुमना-फिरना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है।
जून-जुलाई: हरी सब्जियों को अच्छे साफ करके खाएं।
जुलाई-अगस्त: सत्तू, हरी सब्जियां अच्छे साफ की हुई होना चाहिए।
अगस्त-सितंबर: छाछ, दही का कम से कम सेवन करें।
सितंबर-अक्टूबर: करेला
अक्टूबर-नवंबर: छाछ, दही
नवंबर: दिसंबर: जीरा
दिसंबर-जनवरी: धनिया

AAsan( आसन)
आसन से आसान होगी जिंदगी
अष्टांग योग का तीसरा चरण आसन है। पहले दो चरण यम और नियम से हम शांति व पवित्रता हासिल कर आसन के रूप में तीसरे चरण में प्रवेश करते हैं।
आसन का अर्थ शरीर संतुलन से है।अर्थात् योग के लिए हमें किस तरह बैठना चाहिए यह जानना जरूरी है। महषर्ि पंतजलि के योगसूत्र में आसन के बारे में जानकारी दी गई है। लंबे समय तक निश्चल होकर एक ही स्थिति में बैठना आसन है। आसन सिद्धि कम से कम तीन घंटे ३६ मिनट और अधिकतम चार घंटे ४८ मिनट बैठने से होती है।
योगदर्शन में कहा गया है शरीर की स्वाभाविक क्रियाएं शांत कर परमात्मा में मन को तन्मय करने से आसन की सिद्धि होती है।
योग के लिए आसन की सिद्धि मतलब एक ही स्थान पर सुविधापूर्वक तन्मय होकर बहुत समय तक बैठने का अभ्यास जरूरी है। बैठने की यह प्रक्रिया और स्थिति ही आसन है।

अष्टांग योग
आत्मा और परमात्मा का मिलन या जोड़ ही योग का लक्ष्य है। यह जोड़ एक और एक दो वाला जोड़ नहीं है। यह एक और एक पर एक होने वाला ही जोड़ है। आप हैरान होंगे यह क्या है। लेकिन योग में ऐसा ही है। शरीर और आत्मा जुड़ती है, होते दो हैं पर योग उन्हें एक कर देता है। और फिर एक ही रह जाता है वह परमात्मा का भाव है। परमात्मा से जुडऩे की पहली इबारत है :अष्टांग योग।आजकल योग को व्यायाम के संदर्भ में भी लिया जा रहा है लेकिन ऐसा नहीं है। व्यायाम का संबंध सिर्फ शरीर है लेकिन योग शरीर के माध्यम से आत्मा और फिर परमात्मा की यात्रा कराता है। पहली इबारत अष्टांग योग में ही वे सारे सूत्र समाए हुए हैं, जिनको अपनाकर हम सारे दु:ख और संतापों से मुक्ति पा सकते हैं। आइए, पहले अष्टांग योग को जानें।आचार्य पातंजलि- पातंजलि योग सूत्र के अनुसार योग के आठ अंग हैं- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि।1. यम- योग जीवन यात्रा है। यह यात्रा बाहर से अंदर, स्थूल से सूक्ष्म की ओर है। यह हमारे जीवन को नियमित करती है। बाहर से अंदर की ओर की इस यात्रा का पहला चरण पांच भागों में होता है जिन्हें यम कहते है:अ. अहिंसा- इसका अर्थ है हिंसा नहीं करना। हिंसा सिर्फ अस्त्र-शस्त्र से किसी को नुकसान पहुंचाना ही नहीं है। मन, कार्य, व्यवहार एवं वाणी द्वारा भी हिंसा होती है। इनसे बचें।ब. सत्य- जो जैसा है, उसे वैसा ही देखना, समझना और कहना सत्य है। सत्य पालन के लिए कम और तथ्यपरक बोलना चाहिए। अपनी भावनाओं को अपने शब्दों के साथ व्यक्त न करें। ये भावनाएं सत्य को दूषित करती हैं। स. अस्तेय- इसका अर्थ है चोरी न करना। इससे बचें। किसी के अधिकार या अमानत को हड़प लेना या इच्छा करना भी चोरी है।द. ब्रह्मचर्य- अर्थ है ब्रह्म जैसा व्यवहार। आखिर क्या है ब्रह्म का व्यवहार। उत्तर होगा- हर काम संतुलित तरीके से होना। यानी सैक्स में डूबो तो संतान उत्पत्ति के लिए, शरीर सुख के लिए नहीं। यदि ऐसे ही हर काम होगा तो फिर दु:ख गायब हो जाएगा।ई. अपरिग्रह- यानी वस्तुओं का संग्रह न करना। जब सभी कुछ इसी संसार में छूट जाना है तो फिर संग्रह क्यों।2 नियम- नियम बताते हैं हमारा खुद के प्रति व्यवहार कैसा है। ये पांच हैं:-अ. शौच- यानी पवित्रता। हमारा अंदर और बाह्य जीवन पवित्र हो, हमारा घर, परिवेश, वस्त्र, भोजन आदि स्वच्छ व सुंदर हो। मन और विचारों की पवित्रता भी परम आवश्यक है। ब. संतोष- जो पाया उस पर संतोष होना ही सुख है। क र्म पूरी लगन से किया जाए किन्तु फल की चिन्ता न रहे। स. तप- इसका अर्थ है जीवन के उतार-चढ़ावों में विचलित नहीं होना तथा जीवन में संघर्र्ष शील रहते हुए प्रगति के मार्ग पर बढऩा।द. स्वाध्याय- शास्त्रों का अध्ययन, जीवन के अनुभव व स्वयं का आत्म विश्लेषण करना स्वाध्याय है।ई. ईश्वर प्रणिधान- मन, कर्र्म, वचन से ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण ही ईश्वर प्रणिधान है। ३. आसन- योग का तीसरा अंग है आसन। जिस स्थिति में शरीर व मन स्थिर और सुखी हो, वही आसन है। आसनों की संख्या अनेक है। योग के क्षेत्र में ८४ आसन प्रसिद्ध हैं। ४. प्राणायाम- स्थिर आसन में श्वास की गति का नियमन प्राणायाम है। प्राणायाम में श्वास पर ध्यान किया जाता है, जो मन को विशेष स्थिरता देता है। यह श्वास छोडऩे और भरने की कला भी है। शरीर को स्वस्थ रखने में इसका उपयोग हो सकता है।5. प्रत्याहार-बाहर की ओर जाती इंद्रियों को अंदर की ओर मोडऩा । इसमें ध्यान द्वारा मन को इंद्रियों के भोग विलाश से हटाकर ईश्वर की ओर केन्द्रित किया जाता है। 6. धारणा-अर्थ है एकाग्रता। चित्त को किसी एक स्थान पर एकाग्र करना धारणा कहलाता है।7. ध्यान-एकाग्रता को किसी एक जगह स्थिर करना ध्यान है। लंबे समय तक ध्यान करने से मन का बाहर की ओर भटकाव रुक जाता है और वह एक जगह स्थिर हो जाता है। 8. समाधि-लंबे समय तक ध्यान में स्थित रहने से समाधि पद प्राप्त होता है। समाधिस्थ होने पर सारा उतार-चढ़ाव खत्म हो जाता है। बस बचती है तो एक चेतना जो परमात्मा की ओर ले जाती है। सच तो यह है कि योग केवल शरीर की क्रिया नहीं है। न ही योग का मतलब व्यायाम है। यह तो स्टेप बाय स्टेप एक आंतरिक प्रक्रिया है। जो शरीर के माध्यम से परमात्मा तक ले जाती है। अष्टांग योग की शुरुआती छह स्टेप के बाद सातवें पर ध्यान घटता है। जो छह स्टेप पार करने में सफल होता है वही सातवें तक पहुंचता है और जो ध्यान को भी पा लेता है, वह समाधि लगाने का पात्र बनता है। योग दुनिया को भारत की देन है। अफसोस यह है कि आज भारत में आम लोग इससे दूर हो गए हैं। यदि हर व्यक्ति निजी रूप से इसे अपने ऊपर लागू करे तो समाज, देश और दुनिया का भला होगा।पतंजलि कौन- ईसा पूर्व चौथी शताब्दी के ऋषि। उनके जमाने में योग आम लोगों में प्रचलित तो था, लेकिन सूत्रबद्ध नहीं। पांतजलि ने योग के प्रयोग किए और उन्हें सूत्रबद्ध किया। यही पांतजलि योग सूत्र कहलाता है।

योगिक और पूर्ण वैज्ञानिक व्यायाम
आसन-अष्टांग योग का तीसरा चरण आसन है। पहले दो चरण यम और नियम से हम शांति व पवित्रता हासिल कर आसन के रूप में तीसरे चरण में प्रवेश करते हैं। आसन का मतलब आसन का अर्थ शरीर संतुलन से है।यानि योग के लिए हमें किस तरह बैठना चाहिए यह जानना जरूरी है। महर्षि पंतजलि के योगसूत्र में आसन के बारे में जानकारी दी गई है। लंबे समय तक निश्चल होकर एक ही स्थिति में बैठना आसन है। आसन सिद्धि कम से कम तीन घंटे ३६ मिनट और अधिकतम चार घंटे ४८ मिनट बैठने से होती है।स्थिरसुखमासनम्। - योगदर्शन (२/४६) यानि बिना कष्ट के बहुत समय तक बैठना ही आसन है।योगदर्शन में कहा गया है शरीर की स्वाभाविक क्रियाएं शांत कर परमात्मा में मन को तन्मय करने से आसन की सिद्धि होती है।योग के लिए आसन की सिद्धि मतलब एक ही स्थान पर सुविधापूर्वक तन्मय होकर बहुत समय तक बैठने का अभ्यास जरूरी है। बैठने की यह प्रक्रिया और स्थिति ही आसन है।
आसन के प्रकार- आसन कई प्रकार से लगाया जा सकता है। योग में आत्मसंयम के लिए सिद्धासन, पद्मासन और स्वस्तिकासन अधिक फलदायी हैं। जिस आसन में बैठने में हमें सुविधा हो उसी को हमारे लिए उत्तम आसन मानना चाहिए।आसन में सिर, गर्दन और रीढ़ की हड्डी एक सीध में होनी चाहिए। हमारी दृष्टि नाक पर या भृकुटी की ओर रहना चाहिए। आसन में आंखें बंद कर बैठा जा सकता है।उत्तम स्वास्थ्यआसन लगाना योग की क्रिया होने से इससे हमारे स्वास्थ्य पर भी असर होता है। आसन लगाने से शरीर निरोग रहता है। हमारा शरीर संयत होता है जिससे तनाव घटता है। मन में शांति का अनुभव होता है।

सम्पूर्ण व्यायाम: योगासन
शरीर को स्वस्थ रखने के लिये व्यायाम की कई विधियां प्रचलित हैं। लेकिन योगासन से बेहतर कुछ भी नहीं। आसनशरीर और मन दोनों को स्वस्थ व संतुलित करता है। आसन शरीर को स्वस्थ रखने का एक वैज्ञानिक तरीका है। आचार्य पतंजलि ने अष्टांगयोग में योग के आठ अंगो का वर्णन किया है। आसन अष्टांग योग में तीसरे क्र म पर आता है। वेसे तो आसनों की संख्या सेकड़ों में हे किन्तु कुछ आसन अधिक महत्वपूर्ण एवं सभी के लिये लाभदायक हैं। क्योंकि आसन सूक्ष्म व्यायाम है इसलिये इसे करने के कुछ नियम भी हैं जिनका पालन करना आवश्यक है।
आसनों की शुरुआत से पूर्व की सावधानियां-आसनों को सीखना प्रारम्भ करने से पूर्व कुछ आवश्यक सावधानियों पर ध्यान देना आवश्यक है। आसन प्रभावकारी तथा लाभदायक तभी हो सकते हैं, जबकि उनको उचित रीति से किया जाए।1. योगासन शौच क्रिया एवं स्नान से निवृत्त होने के बाद ही किया जाना चाहिए। 2. योगासन समतल भूमि पर आसन बिछाकर करना चाहिए एवं मौसमानुसार ढीले वस्त्र पहनना चाहिए।3. योगासन खुले एवं हवादार कमरे में करना चाहिए, ताकि श्वास के साथ आप स्वतंत्र रूप से शुद्ध वायु ले सकें। अभ्यास आप बाहर भी कर सकते हैं, परन्तु आस-पास वातावरण शुद्ध तथा शांत हो।4. आसन करते समय अनावश्यक जोर न लगाएँ। यद्धपि प्रारम्भ में आप अपनी माँसपेशियों को कड़ी पाएँगे, लेकिन कुछ ही सप्ताह के नियमित अभ्यास से शरीर लचीला हो जाता है। आसनों को धैर्र्य के साथ करें। शरीर के साथ ज्यादती न करें।5. मासिक धर्म, गर्भावस्था, बुखार, गंभीर रोग आदि के दौरान आसन न करें।6. योगाभ्यासी को सम्यक आहार अर्थात भोजन प्राकृतिक और उतना ही लेना चाहिए जितना कि पचने में आसानी हो। वज्रासन को छोड़कर सभी आसन खाली पेट करें।7. आसन के प्रारंभ और अंत में विश्राम करें। आसन विधिपूर्वक ही करें। प्रत्येक आसन दोनों ओर से करें एवं उसका पूरक अभ्यास करें।8. यदि आसन को करने के दौरान किसी अंग में अत्यधिक पीड़ा होती है तो किसी योग चिकित्सक से सलाह लेकर ही आसन करें।9. यदि आतों में वायु, अत्यधिक उष्णता या रक्त अत्यधिक अशुद्ध हो तो सिर के बल किए जाने वाले आसन न किए जाएँ। विषैले तत्व मस्तिष्क में पहुँचकर उसे क्षति न पहुँचा सकें, इसके लिए सावधानी बहुत महत्वपूर्ण है।10. योग प्रारम्भ करने के पूर्व अंग-संचालन करना आवश्यक है। इससे अंगों की जकडऩ समाप्त होती है तथा आसनों के लिए शरीर तैयार होता है। अत: आसनों को किसी योग्य योग चिकित्सक की देख-रेख में करें तो ज्यादा अच्छा होगा।

योगासनों के गुण और लाभ
(1) योगासनों का सबसे बड़ा गुण यह हैं कि वे सहज साध्य और सर्वसुलभ हैं। योगासन ऐसी वेज्ञानिक एवं प्रामाणिक व्यायाम पद्धति है जिसमें न तो कुछ विशेष व्यय होता है और न इतनी साधन-सामग्री की आवश्यकता होती है।
(2) योगासन अमीर-गरीब, बूढ़े-जवान, सबल-निर्बल सभी स्त्री-पुरुष कर सकते हैं।
(3) आसनों में जहां मांसपेशियों को तानने, सिकोडऩे और ऐंठने वाली क्रियायें करनी पड़ती हैं, वहीं दूसरी ओर साथ-साथ तनाव-खिंचाव दूर करनेवाली क्रियायें भी होती रहती हैं, जिससे शरीर की थकान मिट जाती है और आसनों से व्यय शक्ति वापिस मिल जाती है। शरीर और मन को तरोताजा करने, उनकी खोई हुई शक्ति की पूर्ति कर देने और आध्यात्मिक लाभ की दृष्टि से भी योगासनों का अपना अलग महत्व है।
(4) योगासनों से भीतरी ग्रंथियां अपना काम अच्छी तरह कर सकती हैं और युवावस्था बनाए रखने एवं वीर्य रक्षा में सहायक होती है।
(5) योगासनों द्वारा पेट की भली-भांति सुचारु रूप से सफाई होती है और पाचन अंग पुष्ट होते हैं। पाचन-संस्थान में गड़बडिय़ां उत्पन्न नहीं होतीं।
(6) योगासन मेरुदण्ड-रीढ़ की हड्डी को लचीला बनाते हैं और व्यय हुई नाड़ी शक्ति की पूर्ति करते हैं।
(7) योगासन पेशियों को शक्ति प्रदान करते हैं। इससे मोटापा घटता है और दुर्बल-पतला व्यक्ति तंदरुस्त होता है।
(8) योगासन स्त्रियों की शरीर रचना के लिए विशेष अनुकूल हैं। वे उनमें सुन्दरता, सम्यक-विकास, सुघड़ता और गति, सौन्दर्य आदि के गुण उत्पन्न करते हैं।
(9) योगासनों से बुद्धि की वृद्धि होती है और धारणा शक्ति को नई स्फूर्ति एवं ताजगी मिलती है। ऊपर उठने वाली प्रवृत्तियां जागृत होती हैं और आत्म-सुधार के प्रयत्न बढ़ जाते हैं।
(10) योगासन स्त्रियों और पुरुषों को संयमी एवं आहार-विहार में मध्यम मार्ग का अनुकरण करने वाला बनाते हैं, मन और शरीर को स्थाई तथा सम्पूर्ण स्वास्थ्य, मिलता है।
(11) योगासन श्वास- क्रिया का नियमन करते हैं, हृदय और फेफड़ों को बल देते हैं, रक्त को शुद्ध करते हैं और मन में स्थिरता पैदा कर संकल्प शक्ति को बढ़ाते हैं।
(12) योगासन शारीरिक स्वास्थ्य के लिए वरदान स्वरूप हैं क्योंकि इनमें शरीर के समस्त भागों पर प्रभाव पड़ता है, और वह अपने कार्य सुचारु रूप से करते हैं।
(13) आसन रोग विकारों को नष्ट करते हैं, रोगों से रक्षा करते हैं, शरीर को निरोग, स्वस्थ एवं बलिष्ठ बनाए रखते हैं।
(14) आसनों से नेत्रों की ज्योति बढ़ती है। आसनों का निरन्तर अभ्यास करने वाले को चश्में की आवश्यकता समाप्त हो जाती है।
(15) योगासन से शरीर के प्रत्येक अंग का व्यायाम होता है, जिससे शरीर पुष्ट, स्वस्थ एवं सुदृढ़ बनता है। आसन शरीर के पांच मुख्यांगों, स्नायु तंत्र, रक्ताभिगमन तंत्र, श्वासोच्छवास तंत्र की क्रियाओं का व्यवस्थित रूप से संचालन करते हैं जिससे शरीर पूर्णत:स्वस्थ बना रहता है और कोई रोग नहीं होने पाता। शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और आत्मिक सभी क्षेत्रों के विकास में आसनों का अधिकार है। अन्य व्यायाम पद्धतियां केवल वाह्य शरीर को ही प्रभावित करने की क्षमता रखती हैं, जब कि योगसन मानव का चहुँमुखी विकास करते हैं।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK

Pranayam( प्राणायाम)

प्राणों के संग्रह का विज्ञान
अष्टांग योग के पहले तीन चरणों यम, नियम, आसन के बाद चौथा चरण है प्राणायाम। प्राणायाम के माध्यम से चित्त की शुद्धि की जाती है। चित्त की शुद्धि का अर्थ है हमारे मन-मस्तिष्क में कोई बुरे विचार नहीं हों। आइए जानें प्राणायाम की क्रिया क्या है-अष्टांग योग में प्राणायाम चौथा चरण है। प्राण मतलब श्वास और आयाम का मतलब है उसका नियंत्रण। अर्थात जिस क्रिया से हम श्वास लेने की प्रक्रिया को नियंत्रित करते हैं उसे प्राणायाम कहते हैं। प्राणायाम से मन-मस्तिष्क की सफाई की जाती है। हमारी इंद्रियों द्वारा उत्पन्न दोष प्राणायाम से दूर हो जाते हैं। कहने का मतलब यह है कि प्राणायाम करने से हमारे मन और मस्तिष्क में आने वाले बुरे विचार समाप्त हो जाते हैं और मन में शांति का अनुभव होता है। प्राणायाम से जब चित्त शुद्ध होता है तो योग की क्रियाएं आसान हो जाती हैं।

प्राणायाम की विधितस्मिन् सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेद: प्राणायाम:। योगदर्शन 2/४९अर्थात् आसन के सिद्ध हो जाने पर श्वास और प्रश्वास की गति के नियंत्रित और संतुलित हो जाने का नाम प्राणायाम है। बाहरी वायु का भीतर प्रवेश करना श्वास कहलाता है और भीतर की वायु का बाहर निकालना प्रश्वास कहलाता है। इन दोनों के नियंत्रण का नाम प्राणायाम है।प्राणायाम में हम पहले श्वास को अंदर खींचते हैं, जिसे पूरक कहते हैं। पूरक मतलब फेफड़ों में श्वास की पूर्ति करना। श्वास लेने के बाद कुछ देर के लिए श्वास को फेफड़ों में ही रोका जाता है, जिसे कुंभक कहते हैं। इसके बाद जब श्वास को बाहर छोड़ा जाता है तो उसे रेचक कहते हैं। इस तरह प्राणायाम की सामान्य विधि पूर्ण होती है।

प्राणायाम के अंगयोगदर्शन में प्राणायाम के तीन अंग बताए गए हैं- १. भीतर की श्वास को बाहर निकालकर बाहर ही रोके रखना बाह्यकुंभक कहलाता है। २. श्वास को भीतर खींचकर भीतर रोकने रखने को आभ्यंतरकुंभक कहते हैं। ३. बाहर या भीतर कहीं भी सुखपूर्वक श्वासों को रोकने का नाम स्तंभवृत्ति प्राणायाम कहलाता है। प्राणायाम को किसी जानकार योगी की देखरेख में ही सीखना चाहिए। प्राणायाम का एक और प्रकार केवल कुंभक है। बाहरी और भीतर के विषयों के त्याग से केवल कुंभक होता है। शब्द, स्पर्श आदि इंद्रियों के बाहरी विषय हैं तथा संकल्प, विकल्प आदि आंतरिक विषय हैं। उनका त्याग करना चतुर्थ प्राणायाम कहलाता है।

प्राणायाम के लाभ-योग में प्राणायाम क्रिया सिद्ध होने पर पाप और अज्ञानता का नाश होता है। -प्राणायाम की सिद्धि से मन स्थिर होकर योग के लिए समर्थ और सुपात्र हो जाता है। -प्राणायाम के माध्यम से ही हम अष्टांग योग की प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और अंत में समाधि की अवस्था तक पहुंचते हैं।-प्राणायाम से हमारे शरीर का संपूर्ण विकास होता है। फेफड़ों में अधिक मात्रा में शुद्ध हवा जाने से शरीर स्वस्थ रहता है। -प्राणायाम से हमारा मानसिक विकास भी होता है। प्राणायाम करते हुए हम मन को एकाग्र करते हैं। इससे मन हमारे नियंत्रण में आ जाता है। -प्राणायाम से श्वास संबंधी रोग तथा अन्य बीमारियां दूर हो जाती हैं।

प्राणों के संचार की विधि प्राणायाम
अष्टांग योग के पहले तीन चरणों यम, नियम, आसन के बाद चौथा चरण है प्राणायाम। प्राणायाम के माध्यम से चित्त की शुद्धि की जाती है। चित्त की शुद्धि का अर्थ है हमारे मन-मस्तिष्क में कोई बुरे विचार नहीं हों। आइए जानें प्राणायाम की क्रिया क्या है-
अष्टांग योग में प्राणायाम चौथा चरण है। प्राण मतलब श्वास और आयाम का मतलब है उसका नियंत्रण। अर्थात जिस क्रिया से हम श्वास लेने की प्रक्रिया को नियंत्रित करते हैं उसे प्राणायाम कहते हैं। प्राणायाम से मन-मस्तिष्क की सफाई की जाती है। हमारी इंद्रियों द्वारा उत्पन्न दोष प्राणायाम से दूर हो जाते हैं। कहने का मतलब यह है कि प्राणायाम करने से हमारे मन और मस्तिष्क में आने वाले बुरे विचार समाप्त हो जाते हैं और मन में शांति का अनुभव होता है। प्राणायाम से जब चित्त शुद्ध होता है तो योग की क्रियाएं आसान हो जाती हैं।

इस तरह करें प्राणायाम
तस्मिन् सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेद: प्राणायाम:। योगदर्शन 2/४९
अर्थात् आसन के सिद्ध हो जाने पर श्वास और प्रश्वास की गति के नियंत्रित और संतुलित हो जाने का नाम प्राणायाम है। बाहरी वायु का भीतर प्रवेश करना श्वास कहलाता है और भीतर की वायु का बाहर निकालना प्रश्वास कहलाता है। इन दोनों के नियंत्रण का नाम प्राणायाम है।प्राणायाम में हम पहले श्वास को अंदर खींचते हैं, जिसे पूरक कहते हैं। पूरक मतलब फेफड़ों में श्वास की पूर्ति करना। श्वास लेने के बाद कुछ देर के लिए श्वास को फेफड़ों में ही रोका जाता है, जिसे कुंभक कहते हैं। इसके बाद जब श्वास को बाहर छोड़ा जाता है तो उसे रेचक कहते हैं। इस तरह प्राणायाम की सामान्य विधि पूर्ण होती है।

ये हैं प्राणायाम के अंग
योगदर्शन में प्राणायाम के तीन अंग बताए गए हैं-
१. भीतर की श्वास को बाहर निकालकर बाहर ही रोके रखना बाह्यकुंभक कहलाता है।
२. श्वास को भीतर खींचकर भीतर रोकने रखने को आभ्यंतरकुंभक कहते हैं।
३. बाहर या भीतर कहीं भी सुखपूर्वक श्वासों को रोकने का नाम स्तंभवृत्ति प्राणायाम कहलाता है।

प्राणायाम को किसी जानकार योगी की देखरेख में ही सीखना चाहिए।
प्राणायाम का एक और प्रकार केवल कुंभक है। बाहरी और भीतर के विषयों के त्याग से केवल कुंभक होता है। शब्द, स्पर्श आदि इंद्रियों के बाहरी विषय हैं तथा संकल्प, विकल्प आदि आंतरिक विषय हैं। उनका त्याग करना चतुर्थ प्राणायाम कहलाता है।
कई तरह से होते हैं प्राणायाम के लाभ
-योग में प्राणायाम क्रिया सिद्ध होने पर पाप और अज्ञानता का नाश होता है।
-प्राणायाम की सिद्धि से मन स्थिर होकर योग के लिए समर्थ और सुपात्र हो जाता है।
-प्राणायाम के माध्यम से ही हम अष्टांग योग की प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और अंत में समाधि की अवस्था तक पहुंचते हैं।
-प्राणायाम से हमारे शरीर का संपूर्ण विकास होता है। फेफड़ों में अधिक मात्रा में शुद्ध हवा जाने से शरीर स्वस्थ रहता है।
-प्राणायाम से हमारा मानसिक विकास भी होता है। प्राणायाम करते हुए हम मन को एकाग्र करते हैं। इससे मन हमारे नियंत्रण में आ जाता है।
-प्राणायाम से श्वास संबंधी रोग तथा अन्य बीमारियां दूर हो जाती हैं।

मोटापा कम होता है कपाल भाति से
अव्यवस्थित दिनचर्या और असंतुलित खाने की वजह से अधिकांश लोगों को मोटापे की समस्या से जूझना पड़ रहा है। मोटापे की वजह से हमारे स्वास्थ्य को कई खतरनाक बीमारियों का खतरा सदैव बना रहता है। मोटापे को जल्द से जल्द कम करने के लिए योग क्रिया की मदद ली जा सकती है। ऐसी ही एक क्रिया है कपाल भाति, जिससे निश्चित ही मोटापे पर नियंत्रण किया जा सकता है।

कपाल भाति क्रिया करने की विधि:
समतल स्थान पर साफ टॉवेल या अन्य कपड़ा बिछाकर अपनी सुविधानुसार आसन में बैठ जाएं। बैठने के बाद पेट को ढीला छोड़ दें। अब तेजी से सांस बाहर निकालें और पेट को भीतर की ओर खींचें। सांस को बाहर निकालने और पेट को पिचकाने के बीच सामंजस्य रखें। प्रारंभ में दस बार यह क्रिया करें, धीरे-धीरे 60 तक बढ़ा दें। बीच-बीच में विश्राम ले सकते हैं। इस क्रिया से फेफड़े के निचले हिस्से की प्रयुक्त हवा एवं कार्बन डाइ ऑक्साइड बाहर निकल जाती है और सायनस साफ हो जाती है साथ ही पेट पर जमी फालतू चर्बी खत्म हो जाती है।
सावधानियां:
- श्वास संबंधी बीमारियों से ग्रसित व्यक्ति इस क्रिया को ना करें।
- कपाल भाति क्रिया प्रात: काल खाली पेट ही करें।
- किसी योग विशेषज्ञ की सलाह लेकर ही करें।

शरीर स्वस्थ, दिमाग तेज और शक्तिशाली मन
मुद्राओं में अश्विनी मुद्रा और योग में प्राणायाम लम्बी उम्र के लिये १०० प्रतिशत कारगर विद्याएं हैं। प्राणायाम को सर्व उपलब्ध अमृत की संज्ञा दी जा सकती है। इस ब्रह्मांड में सहज-सुलभ होकर सिर्फ लाभकारी होने की कोई क्रिया योग में है तो वह है प्राणायाम।इसके नित उपयोग से शारीरिक ऊर्जा की वृद्धि, रोग प्रतिरोध क्षमता की बढ़ोतरी, आध्यात्मिक अनुभूति, मानसिक विकारों का समापन आदि अनेक लाभ प्रकृति के इस वरदान से मिल सकते हैं। इस यौगिक क्रिया में आवश्यकता सिर्फ समय व लगन की रहती है, जिसकी जरूरत भी सामान्यत: प्रारंभ में ही अधिक होती है। कुछ समय उपरांत इसके लाभ का ज्ञान व अनुभव, इसे करने वाले पर इतना प्रभाव छोड़ते हैं कि फिर उसे नहीं करने का मन बनना ईश्वरीय प्रकोप अथवा दुर्भाग्य के सूचक के अतिरिक्त संभव नहीं है।अन्यथा बिना कीमत चुकाए मिलने वाले इस सर्व सुलभ अमृत को पाने के लिये कोई प्रयास न करना इंसान का दुर्भाग्य नहीं तो और क्या है ?

तीन बंध जिनसे जागती है कुंडलिनी
मुद्राओं के अभ्यास के बिना योग में सिद्धि प्राप्त नहीं होती और मुद्राओं की सिद्धि के बिना कुण्डलिनी जागृत नहीं होती। मुद्राएं नाडिय़ों की बीमारियां दूर करने में काफी फायदेमंद होती हैं।
असंतुलित खान-पान और अव्यवस्थित दिनचर्या के चलते हमारे शरीर का सिस्टम बिगड़ जाता है। जिससे कई बीमारियां होने की संभावना बन जाती है। हमारे शरीर की कार्यप्रणाली सुधारने के लिए योगिक मुद्राओं का सहारा लिया जा सकता है। इन्हीं मुद्राओं में तीन प्रकार के बंध होते हैं। ये मल-विसर्जन की क्रिया को नियमित तो करते ही हैं साथ ही कुछ चक्रों पर भी उनका अद्भुत प्रभाव पड़ता है। यह तीन बंध इस प्रकार हैं-
- उड्डीयान बंध
- जालंधर बंध
- मूल बंध

यह तीनों बंध हठयोग से संबंधित हैं। यह काफी सरल होने के साथ-साथ बहुत लाभदायक भी है। इनके नियमित अभ्यास से हमारा स्वास्थ्य हमेशा ठीक रहता है। मानसिक शक्ति बढ़ती है। पाचन तंत्र सही रहता है। यह तीनों कुण्डलिनी जागरण में सहायक होते हैं।
पेट साफ रहता है और भूख बढ़ती है इस क्रिया से

किसी भी व्यायाम में ऐसी व्यवस्था नहीं है कि पेट के सभी तंत्रों को कुछ क्षण के लिए आराम दिया जा सके। पेट की संपूर्ण पेशियों की मालिश भी प्राकृत रूप से हो जाती है। जिनका कब्ज रहता हो, उनके लिए यह उड्डीयन बन्ध सबसे अधिक फायदेमंद है।

उड्डीयन बंध की विधि
सबसे पहले कंबल या दरी बिछाकर पद्मासन में बैठ जाएं। पेट के अंदर की सारी वायु निकाल दें और पेट को अंदर की ओर खलाएं। जब पेट अंदर चला जाए, तो नाभि के नीचे के के भाग को सिकोड़ें। इसप्रकार महाप्राचीरा ऊपर को उठेगी और नाभि के अंग पेडू और गुप्तांग के आसपास की पेशियों का शिथलीकरण हो जाए। घुटनों को थोड़ा मोड़ें और दोनों घुटनों पर रखें। सांस बाहर निकाल दें।अब घुटनों पर जोर देते हुए पेट को अंदर खलाएं जिससे पेट में गड्ढा सा बन जाए। इस स्थिति के बाद नाभि के नीचे के भाग पेडू और गुप्तांग के चारों ओर की पेशियों को ऊपर की ओर तानें। इस प्रकार उदर, पेडू और नीचे की पेशियों का शिथलिकरण हो जाएगा। इसी स्थिति में रहकर पेट का तनाव कम कर दें और धीरे-धीरे सांस अंदर जाने दें। यह पूर्ण उड्डीयन की स्थिति होगी। जबतक सांस सरलता से रोक सके, उतनी ही देर खलाने की क्रिया जारी रखें। जब यह महसूस होने लगे की अब सांस नहीं रुकेगी तो धीरे-धीरे अंदर की ओर सांस भरना शुरू करें।
सावधानी: हाई ब्लड प्रेशर के रोगी इस बंध को ना करें।

उड्डीयन बंध के फायदे
इस बंध से पेट के सभी तंत्रों की मालिश हो जाती है। पाचन शक्ति बढ़ती है। कुण्डलिनी जागरण में यह बंध महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यदि किसी व्यक्ति को कब्ज की समस्या है तो उसे यह बंध नियमित करना चाहिए। साथ ही इस बंध से भूख बढ़ती है एवं पेट संबंधी कई रोग दूर होते हैं।

पूरे सिर का व्यायाम होता है जालंधर बंध से
हमारे सिर में कई वात-नाडिय़ों का एक जाल सा फैला हुआ है। इन्हीं से हमारे पूरे शरीर का संचालन होता है। इसी वजह से इस हिस्से का पूर्ण स्वस्थ रहना बहुत जरूरी है। इसके लिए जालंधर बंध सबसे अच्छा उपाय है जिससे सिर का अच्छे से व्यायाम होता है और हम स्वस्थ रहते हैं।

जालंधर बंध की विधि
कंबल या दरी बिछाकर पद्मासन में बैठ जाएं। शरीर को एकदम सीधा रखें। गर्दन में स्थित मेरुदंड का भाग झुकेगा। गला और ठोड़ी स्पर्श करेगी। कुछ योगियों के अनुसार सिर और गर्दन को इतना झुकाना चाहिए कि ठोड़ी की हड्डी के नीचे छाती के भाग को स्पर्श करे और ठोड़ी में चार-पांच अंगुल का अंतर रह जाए।

जालंधर बंध के लाभ
इस क्रिया से हमारे सिर, मस्तिष्क, आंख, नाक, कान, गले की नाड़ी का संचालन नियंत्रित रहता है। जालंधर बंध इन सभी अंगों के नाड़ी जाल और धमनियों आदि को स्वस्थ रखता है।
मानसिक शांति मिलती है सूर्य भेदन कुंभक प्राणायम से
दिनभर की दौड़-धूप के बाद सभी को मानसिक अशांति महसूस होने लगती है। मन को शांत करने के लिए प्राणायाम सबसे सरल और सहज उपाय है। सूर्य भेदन कुंभक प्राणायाम के कुछ ही समय अभ्यास करने से लाभ प्राप्त होने लगता है।

प्राणायाम की विधि
किसी भी सुविधाजनक आसन में बैठ जाएं। जिस पर बैठने में किसी कष्ट का आभास तक ना हो। वैसे इसके लिए पद्मासन, सुखासन या सिद्धासन लगाकर बैठना अधिक उपयुक्त रहता है और उनमें बैठकर प्राणायाम करना अधिक सुविधाजनक भी रहता है। कोई भी आसन लगाकर बायां नासारंध्र दबाकर बंद कर लें और दक्षिण नासारंध्र से या सूर्य नाड़ी से पूरक करें।
जब सांस पूरी भर जाए, तब जालंधर बंध लगाकर कुंभक करें। इस कुंभक की पूर्ण अवस्था को कुंभक थोड़ा ही करना चाहिए। जिससे किसी भी अंग पर दबाव न पड़े। अब धीरे-धीरे अभ्यास बढ़ाते जाएं और उस अवस्था तक कुंभक को पहुंचाएं, जब तक कि शरीर पसीना न बहने लगे।फिर जालंधर बंध खोलकर बाएं नासारंध्र से रेचक करें और रेचक करते समय उड्डीयन बंध लगा लें। उड्डीयन बंध लगाने की विधि यह है कि नाभि को अंदर इतना खींचे कि रीढ़ की अस्थि तक नाभि पहुंच जाए और पेट में गड्ढा सा पड़ जाए। सभी योग ग्रंथों से यह बताया गया है कि यह प्राणायाम में बाएं नासारंध्र से रेचक किया जाए।

सूर्य भेदन कुंभक प्राणायम के लाभ
इस प्राणायाम से मस्तिष्क शुद्ध होता है। वातदोष का नाश होता है। साथ ही कृमि दोष नष्ट होते हैं। यह सूर्य भेदन कुंभक बार-बार करना चाहिए। इससे सभी उदर-विकार दूर होते हैं और जठराग्नि बढ़ती है। कुंडलिनी जागरण में यह सहायक होता है। यह एक श्रेष्ठ व्यायाम है।

10 प्रकार की वायु देती हैं स्वस्थ जीवन
जब से हम जन्म लेते हैं तभी से हम सांस लेना शुरू कर देते हैं और अंत समय तक सांस लेते रहते हैं। इस बात से यह स्पष्ट होता है कि सांस का हमारा जीवन से कितना गहरा संबंध है। सांस लेने की क्रिया पर ही हमारा अच्छा स्वास्थ्य निर्भर करता है।
सांस लेने की क्रिया के संबंध में योगशास्त्र के अनुसार 10 प्रकार की वायु बताई गई है। यह 10 प्रकार की वायु इस प्रकार है- प्राण, अपान, समान, उदान, ज्ञान, नाग, कूर्म, क्रीकल, देवदत्त और धनन्जय। अच्छे स्वास्थ्य में इन सभी प्रकार की वायु पर नियंत्रण करना अति आवश्यक है।
प्राणायाम से ही इन दसों वायु पर नियंत्रण होता है। प्राणायाम मन को एकाग्र करने में सर्वश्रेष्ठ उपाय है। साथ ही इससे चित्त की शुद्धि होती है।

हम हर पल करते हैं पूरक और रेचक क्रिया
योग शास्त्र में प्राणायाम की क्रियाएं अच्छे स्वास्थ्य के लिए काफी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। प्राणायाम में दो क्रियाएं सर्वाधिक महत्वपूर्ण होती है, पहली क्रिया है प्राण वायु को अंदर खींचते हैं या भरते हैं, दूसरी क्रिया है सांस द्वारा अंदर की वायु को बाहर की ओर निकालना।

योग भी भाषा में सांस लेने की क्रिया को पूरक और श्वास छोडऩे की क्रिया को रेचक कहा जाता है। इसका यही मतलब है कि हम जन्म के समय लेकर मृत्यु के समय तक पूरक और रेचक क्रिया करते हैं।
प्राणायाम में सांस रोकने की क्रिया पर विशेष रूप से ध्यान दिया जाता है। सांस रोकने की इस क्रिया को कुंभक कहा जाता है। कुंभक दो प्रकार के होते हैं-
पहला है आभ्यांतर कुंभक, दूसरा है बाह्य कुंभक।

उज्जायी प्राणायाम: सर्दी रहेगी दूर...
ठंड का मौसम शुरू हो गया है, सभी के गर्म कपड़े बाहर निकल आए हैं, फिर भी कई बार ठंड इतनी अधिक रहती है कि उससे बच पाना मुश्किल हो जाता है। ठंड का प्रभाव कम करने के लिए प्रतिदिन उज्जायी प्राणायाम करें तो कुछ ही दिनों में कड़ाके ठंड भी आपको पर ज्यादा प्रभावित नहीं कर पाएगी।

उज्जायी प्राणायाम के विधि
सुविधाजनक स्थान पर कंबल या दरी बिछाकर बैठ जाएं। अब गहरी सांस लें। कोशिश करें कि पेट की मांसपेशियां प्रभावित न हो। गला, छाती, हृदय से सांस अंदर खींचे। जब सांस पूरी भर जाएं तो जालंधर बंध लगाकर कुंभक करें। (जालंधर बंध और कुंभक के संबंध में लेख पूर्व में प्रकाशित किया जा चुका है।) अब बाएं नासिका के छिद्र को खोलकर सांस धीरे-धीरे बाहर निकालें। सांस भरते समय श्वांस नली का मार्ग हाथ से दबाकर रखें। जिससे सांस अंदर लेते समय सिसकने का स्वर सुनाई दे। उसी प्रकार सांस छोड़ते समय भी करें।

उज्जायी प्राणायाम को बैठकर या खड़े होकर भी किया जा सकता है। कुंभक के बाद नासिका के दोनों छिद्रों से सांस छोड़ी जाती है। प्रारंभ में इस प्राणायाम को एक मिनिटि में चार बार करें। अभ्यास के साथ ही इस प्राणायाम की संख्या बढ़ाई जाना चाहिए।

प्राणायाम के लाभ
यह प्राणायाम सर्दी में काफी लाभदायक सिद्ध होता है। इस प्राणायाम के अभ्यास कफ रोग, अजीर्ण, गैस की समस्या दूर होती है। साथ ही हृदय संबंधी बीमारियों में यह आसन बेहद फायदेमंद है। इस प्राणायम को नियमित करने से ठंड के मौसम का भी ज्यादा प्रभाव नहीं पड़ता है।

चेहरे की झुर्रियां खत्म होती है सीत्कारी प्राणायम से...
आकर्षक व्यक्तित्व में चेहरे पर चमक का सबसे अहम भूमिका निभाता है। ऐसे में चेहरे का ठीक से ध्यान रखने के लिए अच्छे खाने के साथ-साथ प्राणायाम फायदेमंद रहता है। सीत्कारी प्राणायाम के नियमित अभ्यास से कुछ ही दिन में आपका चेहरा चमक उठेगा।

सीत्कारी प्राणायाम की विधि
सीत्कारी प्राणायाम में सीत्कार का शब्द करते हुए सांस लेने की क्रिया होती है। इस प्राणायम में नासिका से सांस नहीं ली जाती है बल्कि मुंह के होठों को गोलाकार बना लेते हैं और जीभ के दाएं और बाएं के दोनों किनारों को इस प्रकार मोड़ते हैं कि जीभ का का आकार गोलाकार हो जाए। इस गोलाकार जीभ को गोल किए गए होठों से मिलाकर इसके छोर को तालू से लगा लिया जाता है। अब सीत्कार के समान आवाज करते हुए मुख से सांस लें। फिर कुंभक करके नासिका के दोनों छिद्रों से सांस छोड़ी जाती है। पुन: इस क्रिया को दोहराएं। इसे बैठकर या खड़े होकर भी किया जा सकता है।

सीत्कारी प्राणायाम के लाभ
इस प्राणायाम से आपके चेहरे पर चमक उत्पन्न हो जाती है। दिनभर स्फूर्ति और उत्साह बना रहता है। इसके नियमित अभ्यास से अनेक प्रकार की सिद्धियां प्राप्त होती है। असंयमित नींद, आलस्य और भूख-प्यास की समस्या खत्म हो जाती है। चेहरे की झुर्रियां समाप्त होकर त्वचा सुंदर बन जाती है।

जहर से बचाता है शीतली प्राणायाम
प्राणायाम ऐसी क्रिया है जिसके नियमित अभ्यास से बड़ी-बड़ी बीमारियां साधक से दूर रहती है। साथ ही व्यक्ति का रंग-रूप भी निखर जाता है। शीतली प्राणायाम के संबंध में ऐसा माना जाता है कि इसका नियमित अभ्यास करने वाले व्यक्ति को कभी जहर भी नहीं चढ़ता।

शीतली प्राणायाम की विधि
शीतली प्राणायाम और सीत्कारी प्राणायाम लगभग एक जैसे ही हैं। अंतर केवल इतना है कि सीत्कारी प्राणायाम में जीभ गोलकर तालु से लगा ली जाती है और शीतली में जीभ को गोलाकार बना लेते हैं और सीत्कार करते हुए मुंह द्वारा वायु को पेट में भर लेते हैं। इस प्राणायाम को खड़े होकर, चलते हुए अथवा बैठकर भी कर सकते हैं। इसमें मुंह को गोल करके जीभ को भी गोल कर लिया जाता है और होंठ को बाहर निकालकर सांस लेते हैं। जितना संभव हो उतना समय सांस रोककर फिर सांस को बाहर निकाल दिया जाता है।

शीतली प्राणायाम के लाभ
इस प्राणायाम से पित्त, कफ, अपच जैसी बीमारियां बहुत जल्द समाप्त हो जाती है। योग शास्त्र के अनुसार लंबे समय तक इस प्राणायाम के नियमित अभ्यास से व्यक्ति पर जहर का भी असर नहीं होता।

सांस की बीमारियों का श्रेष्ठ निदान
सुबह-सुबह थोड़ा सा व्यायाम या योगासन करने से हमारा पूरा दिन स्फूर्ति और ताजगीभरा बना रहता है। यदि आपको दिनभर अत्यधिक मानसिक तनाव झेलना पड़ता है तो यह क्रिया करें, दिनभर चुस्त रहेंगे। इस क्रिया को करने वाले व्यक्ति से फेफड़े और सांस से संबंधित बीमारियां सदैव दूर रहेंगी।

क्रिया की विधि:
समतल और हवादार स्थान पर किसी भी आसन जैसे पदमासन या सुखापन में बैठकर इस क्रिया को किया जाता है। दोनों हाथ को दोनों घुटनों पर रखें। अब नाक के दोनों छिद्र से तेजी से गहरी सांस लें। फिर सांस को बिना रोकें, बाहर छोड़ दें।
इस तरह कई बार तेज गति से सांस लें और फिर उसी तेज गति से सांस छोड़ते हुए इस क्रिया को करें। इस क्रिया में पहले कम और बाद में धीरे-धीरे इसकी संख्या को बढ़ाएं।

इस क्रिया से लाभ
इस क्रिया के अभ्यास से फेफड़े में स्वच्छ वायु भरने से फेफड़े स्वस्थ्य और रोग दूर होते हैं। यह आमाशय तथा पाचक अंग को स्वस्थ्य रखता है। इससे पाचन शक्ति और वायु में वृद्धि होती है तथा शरीर में शक्ति और स्फूर्ति आती है। इस क्रिया से सांस संबंधी कई बीमारियां दूर ही रहती हैं।

सावधानी
यदि किसी व्यक्ति को दमा या सांस संबंधी कोई बीमारी हो तो वह अपने डॉक्टर से परामर्श कर ही इस क्रिया को करें।
ब्रह्म, विष्णु और रुद्र ग्रंथि ठीक रहती है प्राणायाम से...
कुण्डलिनी जागरण में तीन ग्रंथियों का भेदन होना अत्यंत आवश्यक है। यह तीन ग्रंथियां है ब्रह्म ग्रंथि, विष्णु ग्रंथि और रुद्र ग्रंथि। इनके बिना कुण्डलिनी जागृत नहीं हो सकती। इन्हें जागृत करने के लिए भस्त्रिका प्राणायाम का अभ्यास नियमित रूप से करना होता है।

भस्त्रिका प्राणायाम की विधि
किसी सुविधाजनक स्थान पर पद्मासन में बैठ जाएं। रीढ़, गर्दन और सिर को स्थिर रखें। मुंह को अच्छे से बंद कर लें। नाक के किसी एक छिद्र से प्रयत्न पूर्वक सांस बाहर निकाल दें। सांस निकालने की क्रिया को रेचक कहते हैं और सांस लेने की क्रिया को पूरक कहते हैं। रेचक करने में इस बात का ध्यान रखें कि शब्द करती हुई प्राण-वायु कपाल, कंठ और हृदय पर्यंत भर लें। इस प्रकार बार-बार पूरक और रेचक करें। जिसमें ऐसा लगे, जैसे लुहार की धौकनी चल रही हो। लुहार क धौकनी को ही भस्त्रिका कहते हैं। बार-बार तेजी से पूरक और रेचक क्रिया करें। यही भस्त्रिका प्राणायाम की विधि है।
कई बार रेचक और पूरक के करके नाक के दाएं छिद्र से कुंभक करें। कुंभक में जालंधर बंध और मूल बंध करना आवश्यक होता है। कुंभक करते समय नासिका के दोनों छिद्रों को उंगलियों से दबा कर बंद कर देना चाहिए। दाहिने हाथ में अंगूठे से दाहिने छिद्र और उसी की कनिष्ठा और अनामिका अंगुली से नाक का बायां छिद्र और उसी की कनिष्ठा और अनामिका से नाक के बाएं छिद्र को बंद करके कुंभक करें। जब ऐसा लगे की सांस अब ना रुकेगी तो नासिका के बाएं छिद्र से सांस छोड़ दें।
इस प्राणायाम के दिनों में साधक को घी-दूध का सेवन भी खूब करना चाहिए। इससे शरीर को बल मिलता है और अच्छा स्वास्थ्य बना रहता है।

प्राणायाम के लाभ:
इससे पित्त-कफ की बीमारियों में लाभ होता है। साथ कुण्डलिनी जागरण में अहम भूमिका निभाने वाली ब्रह्म, विष्णु और रुद्र गंथि का भेदन होता है। इस प्राणायाम मदद से ही कुण्डलिनी जागृत होती है।

आधी रात के बाद करें यह प्राणायाम
प्राणायाम मन को शांत रखने का सर्वश्रेष्ठ उपाय है। साथ ही इससे किसी भी कार्य को करने की एकाग्रता बढ़ती है। भ्रामरी प्राणायाम के नियमित अभ्यास से यह लाभ सहज ही प्राप्त हो जाते हैं।

भ्रामरी प्राणायाम की विधि
योगियों के अनुसार यह प्राणायाम रात्रि के समय किया जाना चाहिए। जब आधी रात व्यतीत हो जाए और किसी भी जीव-जंतु का कोई स्वर सुनाई ना दे। उस समय किसी भी सुविधाजनक आसन में बैठकर दोनों हाथों की उंगलियों को दोनों कानों में लगाकर सांस अंदर खींचे और कुंभक द्वारा सांस को रोकें। इसमें कान बंद होने पर भौरों के समान शब्द सुनाई देने लगता है। यह शब्द दाएं कान में अनुभव होता है।

भ्रामरी प्राणायाम के लाभ
योगियों के अनुसार इस आसन से मन की चंचलता दूर होती है। मन एकाग्र होता है। जो व्यक्ति अत्यधिक तनाव महसूस करते हैं उन्हें यह प्राणायाम अवश्य करना चाहिए।

प्राणायाम: छोटी सी विधि, बड़े लाभ
प्रतिस्पर्धा के युग में सभी के पास इतना समय नहीं होता कि वे प्रतिदिन योगा कर सके। अच्छे स्वास्थ्य के लिए जरूरी है कि प्रतिदिन कुछ समय योग अवश्य करें। एक प्राणायाम ऐसा है जिसमें न तो समय का बंधन है और ना ही इसकी विधि लंबी है। यह प्राणायाम है लघुश्वासी प्राणायाम।
प्राणायाम की विधि- किसी भी सुविधाजनक स्थान पर बैठ जाएं। अब मन शांत करके धीरे-धीरे सांस लें और तुरंत ही छोड़ दें। बस यही विधि है लघुश्वासी प्राणायाम की।
प्राणायाम के लाभ- इस प्राणायाम से खून शुद्ध होता है। फेफड़ों को बल मिलता है और शरीर हष्ट-पुष्ट होता है। साथ ही इससे कई श्वांस संबंधी रोगों में लाभ प्राप्त होता है।

बुरे सपने नहीं आएंगे...
आजकल अधिकांश लोगों का मन स्थिर नहीं रहता साथ ही कई बुरे विचार हमेशा दिमाग में चलते रहते हैं। इसी वजह से इन्हें सपने भी वैसे ही आते हैं। जो कि हमारे स्वास्थ्य के लिए भी खतरनाक है। अच्छे स्वास्थ्य के लिए जरूरी है कि आपका मन भी शुद्ध रहे। मन का शुद्ध रखने के लिए ओंकार जप प्राणायाम सबसे अच्छा उपाय है।

प्राणायाम की विधि
शांत एवं शुद्ध वातावरण वाले स्थान पर कंबल या दरी बिछाकर किसी भी आसन में बैठ जाएं। अब अपनी आंखों को बंद करें। गहरी सांस भरकर ओम शब्द का आवाज के साथ उच्चारण करें। इस क्रिया को कम से कम 11 बार करें।

प्राणायाम के लाभ
ओम शब्द की पवित्रता और महत्व से सभी भलीभांति परिचित हैं। यह शिवजी का प्रतीक है। इसके निरंतर जप से मन शांत और शुद्ध होता है। मानसिक विकार यानि बुरे विचार दूर होते हैं। मन स्थिर रहता है। पूरे दिन कार्य में मन लगता है। आवाज का आकर्षण बढ़ता है और आनंद की अनुभूति होती है। अनिद्रा की बीमारी दूर होती और नींद अच्छे से आती है। साथ ही जिन लोगों को बुरे सपने परेशान करते हैं उन्हें भी प्राणायाम से लाभ प्राप्त होता है।

कैसे कंट्रोल करें बढ़ता वजन?
असंयमित दिनचर्या और असमय खान-पान के चलते बहुत अधिक संख्या में ऐसे लोग देखे जा सकते हैं जो मोटापे से त्रस्त हैं। मोटापा एक ऐसी समस्या है जिस पर लगाम लगाना काफी मुश्किल होता है। सही समय पर इसे कंट्रोल न किया जाए तो कई घातक परिणाम भोगने पड़ सकते हैं।
इसे कंट्रोल करने के लिए सर्वश्रेष्ठ उपाय है प्राणायाम। प्रतिदिन कपाल भाति प्राणायाम इस बीमारी से आपको निजात अवश्य दिला देगा।

कपाल भाति प्राणायाम की विधि
कपाल भाति प्राणायाम के लिए किसी शांत एवं शुद्ध वातावरण वाले स्थान का चयन करें। किसी भी सुविधाजनक आसन में बैठ जाएं। इस प्राणायाम में पूरक अर्थात सांस लेने की गति धीमी और रेचक यानि सांस छोडऩे की गति तेज होती है। सामान्य गति से सांस लें और शक्तिपूर्वक सांस बाहर निकालें। प्रतिदिन इस क्रिया को कम से कम पांच बार अवश्य करें।

कपाल भाति के लाभ
इस प्राणायाम से चेहरे पर हमेशा ताजगी, प्रसन्नता और शांति दिखाई देगी। कब्ज और डाइबिटिज की बीमारी से परेशान लोगों के लिए यह काफी फायदेमंद है। दिमाग से संबंधित रोगों में लाभदायक है। वजन को कंट्रोल करता है, जो लोग ज्यादा वजन से परेशान है वे इस प्राणायाम से बहुत कम समय में ही फायदा प्राप्त कर सकते हैं। इससे हमारा वजन संतुलित रहता है। कैंसर में भी इससे लाभ प्राप्त होता है।

सावधानी
जो लोग नेत्र रोग से पीडि़त हैं, कान से पीप आता हो, तो वे इस प्राणायाम को किसी योग प्रशिक्षण से सलाह लेकर ही करें।
ब्लड प्रेशर की समस्या हो तो भी इस प्राणायाम को न करें।

पांच प्रकार के होते हैं प्राण
अष्टांग योग में प्राणायाम का विशेष स्थान है। प्राणायाम शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है प्राण और आयाम। प्राण का अर्थ है जीवन शक्ति। चरक संहिता के अनुसार यह प्राण पांच प्रकार के बताए गए हैं।
1. प्राण
2. अपान
3. समान
4. उदान
5. व्यान

श्वास पर नियंत्रण रखता है प्राण
प्रथम प्राण हमारी सांस की क्रिया पर नियंत्रण रखता है। यह वह शक्ति से जिससे हम सांस अंदर की ओर खींचते हैं और वक्षीय क्षेत्रों में गतिशीलता प्रदान करती है।

नाभि स्थान के नीचे क्रियाशील रहता है अपान
अपान उदर क्षेत्र के नीचे अर्थात् नाभि क्षेत्र के नीचे सक्रीय रहता है। मूत्र, वीर्य और मल निष्कासन को नियंत्रित करता है।

पाचन क्रिया में मदद करता है समान
उदर अथवा पेट स्थान को गतिशील करता है समान। यह पाचन क्रिया में मदद करता है। पेट के अवयवों को ठीक ढंग से काम करने के लिए सुरक्षा प्रदान करता है।
उदान वाणी और भोजन को व्यवस्थित करता है
उदान जीह्वा द्वारा कार्य करता है। यह वाणी और भोजन को व्यवस्थित करता है। उदान रीढ़ की हड्डी के नीचले हिस्से से ऊर्जा को मस्तिष्क तक पहुंचाता है।
नस-नस तक ऊर्जा पहुंचाता है व्यान
हमारे पूरे शरीर की गतिविधियों को व्यान नियंत्रित करता है। यह भोजन और सांस से मिलने वाली ऊर्जा को धमनियों, शिराओं और नाडिय़ों द्वारा पूरे शरीर में पहुंचाता है।

शरीर में गर्मी बढ़ेगी...
ठंड के मौसम में सर्दी-जुकाम की बीमारी बहुत ही सामान्य बात है। कई बार यह समस्या ज्यादा बढ़ जाती है जिससे बहुत से लोग बीमार हो जाते हैं। इस मौसम में ठंड से निपटने के लिए सूर्य-भेदन प्राणायाम श्रेष्ठ है। इसके नियमित अभ्यास से साधक के शरीर में हमेशा गर्मी बनी रहती है और उस पर ठंड का कोई प्रभाव नहीं होता।

सूर्य भेदन प्राणायाम की विधि
किसी साफ एवं स्वच्छ वातावरण वाले सुविधाजनक स्थान पर सुखासन में बैठ जाएं। नाक के बाएं छिद्र को दाएं हाथ से बंद कर दाहिने नासिका द्वार से गहन (दीर्घ) सांस लीजिए। नाक बंद करें। कुछ देर सांस अंदर ही रोकें। जालंधर और मूलबंध लगाइए। बंध शिथिल करते हुए बाएं द्वार से धीरे-धीरे रेचक क्रिया करें (सांस छोड़ें)। यह एक चक्र हुआ। इस प्रकार क्रमश: 10 चक्र तक बढ़ाइएं।

सूर्य भेदन प्राणायाम के लाभ
पाचन तंत्र मजबूत करता है क्योंकि दाहिना स्वर इस कार्य में सहायक होता है। शरीर में गर्मी बढ़ती है। इसका लाभ ठंड दिनों में मिलता है। सर्दी-जुकाम में लाभ होता है। त्वचा विकार ठीक होते हैं। कम ब्लड प्रेशर के रोगियों को फायदा होता है।
दिमाग दौडऩे लगेगा...

अच्छे स्वास्थ्य की प्राप्ति के लिए प्राणायाम सबसे अच्छा उपाय है। अष्टांग योग में प्राणायाम का महत्वपूर्ण स्थान है। मात्र सांस लेने की क्रिया से ही हमारे स्वास्थ्य को बहुत लाभ प्राप्त होता है। प्राणायाम से मन को शांति मिलती है और साथ ही दिमाग तेजी से कार्य करने लगता है। चंद्र भेदन प्राणायाम से हमारे तर्क शक्ति बढ़ती है और दिमाग दौडऩे लगता है।

चंद्र भेदन प्राणायाम की विधि
किसी भी शांत एवं स्वच्छ वातावरण वाले स्थान पर सुखासन में बैठ जाएं। अब नाक के बाएं छिद्र से सांस अंदर खींचें। पूरक अथवा सांस धीरे-धीरे गहराई से लें। अब नाक के दोनों छिद्रों को बंद करें। अब सांस को रोक कर लें (कुंभक करें), जालंधर बंध और मूलबंध लगाएं। बंध शिथिल करें और नाक के दाएं छिद्र से सांस छोड़ दें। यही क्रिया कम से कम 10 बार करें।

सावधानी
एक ही दिन में सूर्य भेदन प्राणायाम और चंद्र भेदन प्राणायाम न करें।

प्राणायाम के लाभ
शरीर में शीतलता आती है और मन प्रसन्न रहता है। पित्त रोग में फायदा होता है। यह प्राणायाम मन को शांत करता है और क्रोध पर नियंत्रण लगाता है। अत्यधिक कार्य होने पर भी मानसिक तनाव महसूस नहीं होता। दिमाग तेजी से कार्य करने लगता है। हाई ब्लड प्रेशर वालों को इस प्राणायाम से विशेष लाभ प्राप्त होता है।

तीन प्रकार के होते हैं हमारे शरीर
योग शास्त्र और वेदों के अनुसार जिस प्रकार हमारे प्राण 5 प्रकार के होते हैं उसी प्रकार हमारे शरीर 3 प्रकार के बताए गए हैं।
वेदों के अनुसार हमारे शरीर तीन प्रकार के होते हैं। जो कि हमारी आत्मा को घेरे रहते हैं। इन तीनों शरीरों का निर्माण 5 कोषों से होता हैं।
यह तीन प्रकार के शरीर इस प्रकार है-
1. स्थूल शरीर
यह हमारा शारीरिक अन्नमय कोष कहलाता है। इसका आकार मोटा होता है।
2. सूक्ष्म शरीर
सूक्ष्म शरीर का निर्माण मनोमय, प्राणमय और विज्ञानमय कोष करते हैं।
3. कारण शरीर
यह हमारे शरीर का आनंदमय कोष है। इसके कारण हमें चेतना का अनुभव होता है।

आंखों की बढ़ेगी चमक...
आंखों की चमक में आत्मविश्वास की झलक होती है। जिस व्यक्ति में आत्म विश्वास होता है वह समाज में एक अलग मुकाम बना लेता है। लोगों को आकर्षित करने के लिए आंखों में आत्मविश्वास दिखाई दे यह बहुत जरूरी है। आंखों की चमक बढ़ाने के लिए यह शांभवी मुद्रा करें-

शांभवी मुद्रा की विधि
शांत एवं शुद्ध हवा वाले स्थान पर सुखासन में बैठ जाएं। मेरुदण्ड (रीढ़ की हड्डी), गर्दन एवं सिर एक सीध में रखें। हाथों को एक दूसरे के ऊपर रख लें या घुटनों पर रखकर ज्ञान मुद्रा बना लें। अब पूर्ण एकाग्रचित होकर दृष्टि दोनों भौंहों के बीच करें और ध्यान लगाएं।

शांभवी मुद्रा के लाभ
इस मुद्रा से आज्ञा चक्र जो कि दोनों भौंहों के मध्य स्थित है, विकसित हो जाता है। दिमाग तेजी से कार्य करना शुरू कर देता है। आंखों की चमक बढ़ती है, आत्मविश्वास की झलक दिखाई देती है। इस मुद्रा के नियमित अभ्यास से मन शांत होता है और एकाग्रता बढ़ती है। याददाश्त में गजब की बढ़ोतरी होती है।

जाने-अनजाने सभी करते हैं प्राणायाम
अष्टांग योग में प्राणायाम विशेष स्थान है। सांस लेने और छोडऩे की क्रिया ही प्राणायाम कहलाती है। योग शास्त्र में प्राणायाम के तीन प्रकार बताए गए हैं-
1. भीतर की श्वास को बाहर निकालकर बाहर ही रोके रखना बाह्यïकुंभक कहलाता है।
2. श्वास को भीतर खींचकर भीतर रोकने रखने को आभ्यंतरकुंभक कहते हैं।
3. बाहर या भीतर कहीं भी सुखपूर्वक श्वासों को रोकने का नाम स्तंभवृत्ति प्राणायाम कहलाता है।
उक्त तीनों प्रकार के प्राणायाम की पृथक-पृथक विधियां हैं। प्राणायाम को किसी जानकार योगी की देखरेख में ही सीखना चाहिए।
प्राणायाम का एक और प्रकार केवल कुंभक है। बाहरी और भीतर के विषयों के त्याग से केवल कुंभक होता है। शब्द, स्पर्श आदि इंद्रियों के बाहरी विषय है तथा संकल्प, विकल्प आदि आंतरिक विषय है। उनका त्याग करना चतुर्थ प्राणायाम कहलाता है।

सांस की बीमारियां दूर होती है...
अष्टाग योग में प्राणायाम का विशेष महत्व है। प्राणायाम का कई बीमारियों में सीधा फायदा मिलता है। प्राणायाम से सांस से संबंधित सभी बीमारियां दूर हो जाती है।
-योग में प्राणायाम क्रिया सिद्ध होने पर पाप और अज्ञान का नाश होता है।
-प्राणायाम की सिद्धि से मन स्थिर होकर योग के लिए समर्थ और पात्र हो जाता है।
-प्राणायाम के माध्यम से ही हम अष्टांग योग की प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और अंत में समाधि की अवस्था तक पहुंचते हैं।
-प्राणायाम से हमारे शरीर का संपूर्ण विकास होता है। फेफड़ों में अधिक मात्रा में शुद्ध हवा जाने से शरीर स्वस्थ रहता है।
-प्राणायाम से हमारा मानसिक विकास भी होता है। प्राणायाम करते हुए हम मन को एकाग्र करते हैं। इससे मन हमारे नियंत्रण में आ जाता है।
-प्राणायाम से श्वास संबंधी रोग तथा अन्य बीमारियां दूर हो जाती हैं।

पॉजीटिव एनर्जी मिलने लगेगी...
एनर्जी दो प्रकार की होती है, एक पॉजीटिव और दूसरी नेगेटिव एनर्जी। सकारात्मक ऊर्जा हमारे विचारों को भी ऐसा बना देती है जिससे कि हम कई मुश्किल कार्य भी आसानी से कर लेते हैं। जबकि नेगेटिव एनर्जी हमें तनाव और अशांति देती है जिससे कई बार हम सही कार्य भी गलत ढंग से कर बैठते हैं। हमेशा हमारी सोच पॉजीटिव रहे इसके लिए जरूरी है कि हम वातावरण से हमेशा सकारात्मक ऊर्जा ग्रहण करते रहे। पॉजीटिव एजर्नी ग्रहण करने के लिए प्रणव प्राणायाम सर्वश्रेष्ठ उपाय है।
प्रणव प्राणायाम की विधि
किसी शांत एवं शुद्ध वातावरण वाले स्थान पर कंबल या अन्य कोई आसन बिछाकर सुखासन में बैठ जाएं। अब आंखें बंद कर लें। ध्यान लगाएं। ध्यान के साथ ही ऊँ का जप करें।
प्रणव प्राणायाम के लाभ
वातावरण में पॉजीटिव और नेगेटिव एनर्जी दोनों सक्रिय रहती हैं। इस प्राणायाम से हमारा शरीर सकारात्मक ऊर्जा ग्रहण कर लेता है। जिससे हमारा मन शांत और विचार शुद्ध होते हैं। सिर दर्द, माइग्रेन, डीप्रेशन और मस्तिष्क के संबंधित सभी रोगों में लाभ प्राप्त होता है। मन और मस्तिष्क की शांति मिलती है। एकाग्रता बढ़ती है।

मुद्रा से तनाव होता है दूर
आज की भागमभाग वाली जिंदगी में हम अपने शरीर के लिए समय नहीं निकाल पा रहे है। इस व्यस्तता भरी दिनचर्या से शरीर के साथ ही साथ दिमाग पर भी असर पड़ रहा जिससे कई प्रकार की बीमारियां उत्पन्न हो रही है। जैसे अनिद्रा, सिरदर्द, अनावश्यक क्रोध, विद्यार्थी भी प्रतियोगिता के युग में तनाव झेल रहें है।
मानसिक तनाव को कम करने के लिए योग से अच्छा अन्य कोई उपाय नहीं है। योग में ज्ञान मुद्रा बताई गई है। इस मुद्रा से मन को शांति मिलती है और मानसिक तनाव कम होता है।
मुद्रा की विधि- किसी भी सुविधाजनक स्थान पर शांति से सुखासन में बैठ जाएं। अब दोनों हाथों को लंबाकर दोनों घुटनों पर रखकर अंगुठे को तर्जनी अंगुली के सिरे पर लगा दें। शेष तीनों उंगली सीधी रखें इसको ज्ञान मुद्रा कहते है। योग का यह एक आसान उपाय है। प्रतिदिन पन्द्रह मिनट ऐसा करने से आप सात दिनों में लाभ महसूस करेगें।

मन-मस्तिष्क को नियंत्रित करता है...
अष्टांग योग में प्राणायाम चौथा चरण है। प्राण मतलब श्वास और आयाम का मतलब है उसका नियंत्रण। अर्थात जिस क्रिया से हम श्वास लेने की प्रक्रिया को नियंत्रित करते हैं उसे प्राणायाम कहते हैं। प्राणायाम से मन-मस्तिष्क की सफाई की जाती है। हमारी इंद्रियों द्वारा उत्पन्न दोष प्राणायाम से दूर हो जाते हैं। कहने का मतलब यह है कि प्राणायाम करने से हमारे मन और मस्तिष्क में आने वाले बुरे विचार समाप्त हो जाते हैं और मन में शांति का अनुभव होता है। प्राणायाम से जब चित्त शुद्ध होता है तो योग की क्रियाएं आसान हो जाती हैं।
आसन के सिद्ध हो जाने पर श्वास और प्रश्वास की गति के अवरोध हो जाने का नाम प्राणायाम है। बाहरी वायु का भीतर प्रवेश करना श्वास कहलाता है और भीतर की वायु का बाहर निकालना प्रश्वास कहलाता है। इन दोनों के रुकने का नाम प्राणायाम है।
प्राणायाम में हम पहले श्वास को अंदर खींचते हैं, जिसे पूरक कहते हैं। पूरक मतलब फेफड़ों में श्वास की पूर्ति करना। श्वास लेने के बाद कुछ देर के लिए श्वास को फेफड़ों में ही रोका जाता है, जिसे कुंभक कहते हैं। इसके बाद जब श्वास को बाहर छोड़ा जाता है तो उसे रेचक कहते हैं। इस तरह प्राणायाम की सामान्य विधि पूर्ण होती है।

कैसे करें प्राणायाम?

प्राणायाम का नियमित अभ्यास हमें सभी बीमारियों से हमेशा दूर रखता है। जो भी व्यक्ति प्रतिदिन कुछ समय प्राणायाम करता है वह हमेशा स्वस्थ रहता है, उसका मन शांत रहता है, हर कार्य अच्छे से करता है। प्राणायाम मन को नियंत्रित करने के लिए सबसे अच्छा उपाय है।

प्राणायाम के लिए किसी शांत और अच्छे वातावरण वाले स्थान का चयन करना चाहिए। सांस लेने और छोडऩे की क्रिया को प्राणायाम कहा जाता है। सांस लेने की क्रिया को पूरक कहते हैं और छोडऩे की क्रिया को रेचक कहा जाता है। इन दोनों का सही नियंत्रण ही प्राणायाम है।

प्राणायाम में हम सांस लेते हैं जिसे पूरक कहते हैं। पूरक मतलब फेफड़ों में सांस की पूर्ति करना। सांस लेने के बाद कुछ देर के लिए सांस को अंदर ही रोका जाता है, जिसे कुंभक कहते हैं। इसके बाद जब सांस को बाहर छोड़ा जाता है तो उसे रेचक कहते हैं। इस तरह प्राणायाम की सामान्य विधि पूर्ण होती है।

हर बीमारी दूर रहती प्राणायाम से
खान-पान में थोड़ी सी लापरवाही होने पर हमारा शरीर कई छोटी-बड़ी बीमारियों का शिकार हो जाता है। इसलिए खान के संबंध में हमें पूरी सावधानी रखने की आवश्कयता है। इस सावधानी के साथ-साथ हमें नियमित रूप से प्राणायाम का अभ्यास भी करना चाहिए।
- प्राणायाम से हमारे शरीर को कई स्वास्थ्य लाभ प्राप्त होते हैं।
- प्राणायाम के नियमित अभ्यास के कई धार्मिक लाभ बताए गए हैं।
- प्राणायाम से मन स्थिर होता है जिससे भगवान की भक्ति अच्छे हो पाती हैं।
-प्राणायाम के माध्यम से ही हम अष्टांग योग की प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और अंत में समाधि की अवस्था तक पहुंचते हैं।
- प्राणायाम से हमारे शरीर का संपूर्ण विकास होता है। फेफड़ों में अधिक मात्रा में शुद्ध हवा जाने से शरीर स्वस्थ रहता है।
- प्राणायाम से हमारा मानसिक विकास भी होता है। प्राणायाम करते हुए हम मन को एकाग्र करते हैं। इससे हमारा मन नियंत्रित होता है।
- प्राणायाम से श्वास संबंधी रोग तथा अन्य बीमारियां दूर हो जाती हैं।

प्रार्थना भी है एक योग
योग शास्त्र द्वारा हमारे अच्छे स्वास्थ्य के लिए व्यायाम बताए गए हैं। इनमें कई ऐसी क्रियाएं शामिल हैं जो हम प्रतिदिन कई बार करते हैं। ऐसी ही एक क्रिया है प्रार्थना। मंदिर में या घर में या कहीं भगवान का ध्यान करते समय हम प्रार्थना करते हैं। इस प्रार्थना को विधिवत रूप से किया जाए तो इसका लाभ हमारे स्वास्थ्य को मिलता है।
प्रार्थना की विधि
सामान्य स्थिति में खड़े हो जाए। अब दोनों हाथों को नमस्कार की स्थिति में ले आए जैसे में भगवान के सामने प्रार्थना करते हैं। अब मन को एकदम शांत कर लें और अपना ध्यान अपने इष्ट भगवान में लगाएं। आंखे बंद रखें। कुछ देर एकदम शांत इसी तरह खड़े रहें। सांस की क्रिया सामान्य रखें।
प्रार्थना के लाभ
इस क्रिया से मन को स्थिरता मिलती है, मन शांत रहता है। क्रोध पर नियंत्रण होता है। स्मरण शक्ति बढ़ती हैं और चेहरे की चमक बढ़ जाती है। साथ ही इस तरह प्रार्थना करने पर जल्दी ही भगवान की कृपा भी प्राप्त होती है।

ठंड से परेशान हैं?
लगातार गिरते तापमान ने सभी को बुरी तरह प्रभावित कर रखा है। इसके प्रभाव से बड़ी संख्या में लोग बीमार भी हो रहे हैं। इस ठंड का प्रभाव कम करने के लिए प्रतिदिन उज्जायी प्राणायाम करें तो कुछ ही दिनों में कड़ाके ठंड भी आपको पर ज्यादा प्रभावित नहीं कर पाएगी।

उज्जायी प्राणायाम के विधि
सुविधाजनक स्थान पर कंबल या दरी बिछाकर बैठ जाएं। अब गहरी सांस लें। कोशिश करें कि पेट की मांसपेशियां प्रभावित न हो। गला, छाती, हृदय से सांस अंदर खींचे। जब सांस पूरी भर जाएं तो जालंधर बंध लगाकर कुंभक करें। (जालंधर बंध और कुंभक के संबंध में लेख पूर्व में प्रकाशित किया जा चुका है।) अब बाएं नासिका के छिद्र को खोलकर सांस धीरे-धीरे बाहर निकालें। सांस भरते समय श्वांस नली का मार्ग हाथ से दबाकर रखें। जिससे सांस अंदर लेते समय सिसकने का स्वर सुनाई दे। उसी प्रकार सांस छोड़ते समय भी करें।
उज्जायी प्राणायाम को बैठकर या खड़े होकर भी किया जा सकता है। कुंभक के बाद नासिका के दोनों छिद्रों से सांस छोड़ी जाती है। प्रारंभ में इस प्राणायाम को एक मिनिटि में चार बार करें। अभ्यास के साथ ही इस प्राणायाम की संख्या बढ़ाई जाना चाहिए।

प्राणायाम के लाभ
यह प्राणायाम सर्दी में काफी लाभदायक सिद्ध होता है। इस प्राणायाम के अभ्यास कफ रोग, अजीर्ण, गैस की समस्या दूर होती है। साथ ही हृदय संबंधी बीमारियों में यह आसन बेहद फायदेमंद है। इस प्राणायम को नियमित करने से ठंड के मौसम का भी ज्यादा प्रभाव नहीं पड़ता है।

रंग-रूप भी निखरता है प्राणायाम से
प्राणायाम ऐसी क्रिया है जिसके नियमित अभ्यास से बड़ी-बड़ी बीमारियां साधक से दूर रहती है। साथ ही व्यक्ति का रंग-रूप भी निखर जाता है। शीतली प्राणायाम के संबंध में ऐसा माना जाता है कि इसका नियमित अभ्यास करने वाले व्यक्ति को कभी जहर भी नहीं चढ़ता।
शीतली प्राणायाम की विधि
शीतली प्राणायाम और सीत्कारी प्राणायाम लगभग एक जैसे ही हैं। अंतर केवल इतना है कि सीत्कारी प्राणायाम में जीभ गोलकर तालु से लगा ली जाती है और शीतली में जीभ को गोलाकार बना लेते हैं और सीत्कार करते हुए मुंह द्वारा वायु को पेट में भर लेते हैं। इस प्राणायाम को खड़े होकर, चलते हुए अथवा बैठकर भी कर सकते हैं। इसमें मुंह को गोल करके जीभ को भी गोल कर लिया जाता है और होंठ को बाहर निकालकर सांस लेते हैं। जितना संभव हो उतना समय सांस रोककर फिर सांस को बाहर निकाल दिया जाता है।
शीतली प्राणायाम के लाभ
इस प्राणायाम से पित्त, कफ, अपच जैसी बीमारियां बहुत जल्द समाप्त हो जाती है। योग शास्त्र के अनुसार लंबे समय तक इस प्राणायाम के नियमित अभ्यास से व्यक्ति पर जहर का भी असर नहीं होता।


जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK