Wednesday, March 30, 2016

अष्टावक्र गीता (Ashtaokr Gita )

अष्टावक्र गीता अध्यात्म विज्ञान का बेजोड़ ग्रंथ है।
ज्ञान कैसे प्राप्त होता है ? मुक्ति कैसे होगी ? और वैराग्य कैसे प्राप्त होगा ? ये तीन शाश्वत प्रश्न हैं जो हर काल में आत्मानुसंधानियों द्वारा पूछे जाते रहे हैं। राजा जनक ने भी ऋषि अष्टावक्र से ये ही प्रश्न किये थे। ऋषि अष्टावक्र ने इन्हीं तीन प्रश्नों का संधान राजा जनक के साथ संवाद के रूप में किया है जो अष्टावक्र गीता के रूप में प्रचलित है। ये सूत्र आत्मज्ञान के सबसे सीधे और सरल वक्तव्य हैं। इनमें एक ही पथ प्रदर्शित किया गया है जो है ज्ञान का मार्ग। ये सूत्र ज्ञानोपलब्धि के, ज्ञानी के अनुभव के सूत्र हैं। स्वयं को केवल जानना है—ज्ञानदर्शी होना, बस। कोई आडम्बर नहीं, आयोजन नहीं, यातना नहीं, यत्न नहीं, बस हो जाना वही जो हो। इसलिए इन सूत्रों की केवल एक ही व्याख्या हो सकती है, मत मतान्तर का कोई झमेला नहीं है; पाण्डित्य और पोंगापंथी की कोई गुंजाइश नहीं है।अष्टावक्र गीताअ में इतनी सीधी-सादी और सरल व्याख्या की गई है जो सर्वसाधारण को बोधगम्य हो।

अष्टावक्र गीता के कुछ अंश अष्टावक्र आठ अंगों से टेढ़े-मेढ़े पैदा होने वाले ऋषि थे। शरीर से जितने विचित्र थे, ज्ञान से उतने ही विलक्षण। उनके पिता कहोड़ ऋषि थे जो उछालक के शिष्य थे और उनके दामाद भी। कहोड़ अपनी पत्नी सुजाता के साथ उछालक के आश्रम में ही रहते थे। ऋषि कहोड़ वेदपाठी पंडित थे। वे रोज रात भर बैठ कर वेद पाठ किया करते थे। उनकी पत्नी सुजाता गर्भवती हुई। गर्भ में बालक जब कुछ बड़ा हुआ तो एक रात को गर्भ के भीतर से ही बोला, "हे पिता ! आप रात भर वेद पढ़ते हैं लेकिन आपका उच्चारण कभी शुद्ध नहीं होता। मैंने गर्भ में ही आपके प्रसाद से वेदों के सभी अंगों का ज्ञान प्राप्त कर लिया है।" गर्भस्थ बालक ने यह भी कहा कि रोज-रोज के पाठ मात्र से क्या लाभ। वे तो शब्द मात्र हैं। शब्दों में ज्ञान कहाँ? ज्ञान स्वयं में है। शब्दों में सत्य कहाँ? सत्य स्वयं में है।

ऋषि कहोड़ के पास अन्य ऋषि भी बैठे थे। अजन्में गर्भस्थ बालक की इस तरह की बात सुनकर उन्होंने अत्यन्त अपमानित महसूस किया। बेटा अभी पैदा भी नहीं हुआ और इस तरह की बात कहे। वेद पण्डित पिता का अहंकार चोट खा गया था। वे क्रोध से आग बबूला हो गये। क्रोध में पिता ने बेटे को अभिशाप दे दिया। हे बालक ! तुम गर्भ में रहकर ही मुझसे इस तरह का का वक्र वार्तालाप कर रहे हो। मैं तुम्हें शाप देता हूँ कि कि तुम आठ स्थानों से वक्र होकर अपनी माता के गर्भ से उत्पन्न होगे। कुछ दिनों पश्चात् बालक का जन्म हुआ। शाप के अनुसार वह आठ स्थानों पर से ही वक्र था। आठ जगह से कुबड़े, ऊँट की भाँति इरछे-तिरछे। इसलिए उसका नाम अष्टावक्र पड़ा।

अष्टावक्र के जन्म के पूर्व ही पिता ऋषि कहोड़ धन अर्जन की आवश्यकतावश राजा जनक के वहाँ गये जहाँ शास्त्रार्थ का आयोजन था। एक हजार गाएँ राजमहल के द्वार पर खड़ी की गई थीं। उन गायों के सींगों पर सोना मढ़ दिया गया था। उनके गलों में हीरे-जवाहरात लटका दिये गये थे। शास्त्रार्थ की शर्त यह थी कि जो विजेता होगा वह इन गायों को हाँक ले जाएगा। तथा विजेता हारने वाले का किसी भी तरह से वध कर सकेगा। शास्त्रार्थ राज्य के महापण्डित वंदिन से करना होता था। कहते हैं शास्त्रार्थ में ऋषि कहोड़ हार गये। इसलिए विजेता पण्डित वंदिन ने उन्हें पानी में डुबाकर मरवा डाला।

जब काफी दिनों कर ऋषि कहोड़ आश्रम में लौटकर नहीं आये तो उछालक ने उनकी खोज कराई। उनके शिष्य द्वारा ज्ञात हुआ कि कहोड़ को शास्त्रार्थ में पराजित होने के फलस्वरूप वंदिन ने मरवा डाला है। इस तथ्य को बालक अष्टावक्र से छुपा कर रखा गया था। बालक अष्टावक्र अपने नाना उछालक को ही अपना पिता जानता था। बारह वर्ष बीत गये। अष्टावक्र तो गर्भ में ही महान पण्डित और ज्ञानी हो चुका था। इसके साथ ही उसने अपने नाना उछालक के आश्रम में बारह वर्ष तक और अध्ययन किया। तब तो वह ब्रह्मा के समान मेधावी हो चुका था। तभी एक दिन अचानक उसे अपने पिता के बारे में वास्तविक तथ्य की जानकारी हुई। उसने अपनी माता से इस सम्बन्ध में पूछा। तब उसकी माँ ने सारा वृत्तान्त कह सुनाया। बालक अष्टावक्र को बड़ा आघात लगा। उसने उसी समय माँ से कहा माँ मुझे आज्ञा दो, मैं अभी जाकर उस दुष्ट को परास्त करता हूँ तब मैं अपने पिता का बदला अच्छी तरह से लूँगा।

माँ ने बालक को बहुत मनाया कि यह इसके लिए घातक होगा। वह अभी बालक है। लेकिन अष्टावक्र नहीं माने। वह अपने मामा श्वेतकेतु को साथ लेकर राजा जनक के नगर की ओर चल पड़ा। उस समय जनक के वहाँ महायज्ञ हो रहा था। उसमें भाग लेने के लिए देश भर से अनेक पण्डित बुलाए गए थे। अष्टावक्र सीधे राजप्रसाद की ओर पहुँच गए। लेकिन द्वारपाल ने अन्दर जाने से रोक दिया। उसने कहा कि वृद्ध और चतुर ब्राह्मण ही यज्ञ में जाने के अधिकारी हैं। बालकों को इसके अन्दर जाने का अधिकार नहीं है। अष्टावक्र ने अनेक प्रकार से द्वारपाल से वाद-विवाद किया। अन्त में उन्होंने कहा द्वारपाल!सिर के बाल सफेद होने से कोई मनुष्य वृद्ध नहीं हो जाता। जो व्यक्ति बालक होकर भी ज्ञानी है उसे ही देवताओं ने स्थविर कहा है। अगर ऋषियों के द्वारा स्थापित धर्म के अनुसार विचार करो तो अवस्था से, बाल पकने से, धन से या बन्धुओं के अधिक होने से मनुष्य को कोई महत्त्व नहीं मिलता है। सांगोपांग वेद को जानने वाले विद्वान् ही महत् और वृद्ध हैं। हम तुम्हारे महापण्डित वंदिन को देखने आए हैं। हम उस वंदिन को शास्त्रार्थ में परास्त करके विद्वानों को चकित कर देंगे। तब तुम्हें हमारी मेधा के बारे में मालूम होगा तब कहीं द्वारपाल ने अष्टावक्र को अन्दर जाने दिया।

अष्टावक्र दरबार में भीतर चले गये। महापण्डित भीतर इकट्ठे थे। पण्डितों ने उसे देखा। उसका आठ भागों से टेढ़ा-मेढ़ा शरीर। वह चलता तो भी लोगों को देखकर हँसी आ जाती। उनका चलना भी बड़ा हास्यपद था। सारी सभा अष्टावक्र को देखकर हँसने लगी। अष्टावक्र भी खिलखिलाकर हँसा। जनक को विचित्र लगा। उन्होंने पूछा, और सब हँसते हैं, वह तो मैं समझ गया कि क्यों हँसते हैं। परंतु बालक तुम क्यों हँसे? बारह वर्ष के बालक अष्टावक्र ने कहा मैं इसलिए हँस रहा हूँ कि चमड़े के पारखियों (मूर्खों) की सभा में सत्य का निर्णय हो रहा है। यह सभी सुनकर सन्न रह गये। सभा में सन्नाटा छा गया। महापण्डितों की जमात तिलमिला उठी। सम्राट् जनक ने धैर्य पूर्वक पूछा धृष्ट बालक! तुम्हारा मतलब क्या है? अष्टावक्र जरा भी विचलित नहीं हुआ। उसने जवाब दिया बड़ी सीधी-सी बात है। इनको चमड़ी ही दिखाई पड़ती है। मैं नहीं दिखाई पड़ता। इनको आड़ा-टेढ़ा शरीर दिखाई पड़ता है। ये चमड़ी के पारखी हैं। इसलिए ये चमार हैं। राजन् ! मन्दिर के टेढ़े होने से कहीं आकाश टेढ़ा होता है ? घड़े के फूटे होने से कहीं आकाश फूटता है ? आकाश तो निर्विकार है। मेरा शरीर टेढ़ा-मेढ़ा है, लेकिन मैं तो नहीं। यह जो भीतर बसा है इसकी तरफ देखो। बालक के मुख से ज्ञानपूर्ण उपहास सुनकर सभी पण्डित हतप्रभ और लज्जित रह गये। उन्हें अपने अहंकार और मूर्खता पर अत्यन्त पश्चाताप हुआ।

अष्टावक्र ने राजा जनक से कहा—हे राजन् ! अब मैं आपके उस मेघावी राजपण्डित से मिलना चाहता हूँ, जो पण्डितों के बीच में भय बना हुआ है। उसी से शास्त्रार्थ करने की इच्छा से मैं यहाँ आया हूँ। मैं अद्वैत ब्रह्मवाद के विषय में उससे वार्ता करूँगा। राजा जनक ने कई तरह से उसे विचलित करने के लिए डराया और समझाया। शास्त्रार्थ के विचार को त्याग देने के लिए कहा लेकिन अष्टावक्र अडिग रहा और स्वर कठोर करके कहा—हे राजन् ! बालक कहकर आप मुझे हीन क्यों कहते हैं ? मेरा आग्रह है कि आप वंदिन को शास्त्रार्थ के लिए बुलाइए फिर आप देखेंगे कि मैं उसको किस प्रकार परास्त करता हूँ। राजा को विश्वास होने लगा कि यह बालक असाधारण है। उन्होंने परीक्षा के लिए कुछ प्रश्न किये।

जनक ने पूछा—हे ब्राह्मणपुत्र ! जो मनुष्य तीस अंग वाले, बारह अंश वाले, चौबीस पर्व वाले, तीन सौ साठ आरे वाले पदार्थ के अर्थ को जानता है वही सबसे बड़ा पण्डित है।अष्टावक्र ने तुरन्त उत्तर दिया, हे राजन्! चौबीस पर्व छः नाभि, बारह प्रधि और तीन सौ साठ आरे वाला वही शीघ्रगामी कालचक्र आपकी रक्षा करे।राजा जनक ने फिर कहा, जो दो वस्तुएँ अश्विनी के समान से संयुक्त और बाज पक्षी के समान टूट पड़ने वाली हैं उनका देवताओं में से कौन देवता गर्भाधान कराता है ? वे वस्तुएँ क्या उत्पन्न करती हैं?अष्टावक्र ने कहा हे राजन् ! ऐसी अशुभ वस्तुओं की आप कल्पना भी न करें। वायु उनका सारथी है, मेघ उनका जन्मदाता है। फिर वे भी मेघ को उत्पन्न करती हैं।राजा जनक ने पूछा,सोते समय आँख कौन नहीं मूँदता ? जन्म लेकर कौन नहीं हिलता ? हृदय किसके नहीं है ? और कौन सी वस्तु वेग के साथ बढ़ती है?अष्टावक्र ने कहा,मछली सोते समय अपनी आँख नहीं मूँदती। अण्डा उत्पन्न होकर नहीं हिलता। पत्थर के हृदय नहीं होता। नदी वेग से बढ़ती है।

अष्टावक्र के वचनों को सुनकर राजा जनक प्रसन्न हो गये। उन्होंने उस ब्राह्मण बालक के हाथ जोड़कर कहा—हे ब्राह्मणपुत्र ! आपकी जैसी अवस्था है वैसे आप बालक नहीं हैं। ज्ञान में आप निश्चित ही वृद्ध हैं। मुझे आपकी मेधा पर निश्चित ही विश्वास हो गया है। आप जाइए, इस मण्डप के भीतर महापण्डित वंदिन बैठे हैं। उनके सामने बैठकर शास्त्रार्थ प्रारम्भ कीजिये।अष्टावक्र ने अन्दर पहुँचकर वंदिन को शास्त्रार्थ के लिये ललकारा। वंदिन देखकर चौंक पड़ा। बिना उत्तर दिये उसकी नादानी पर हँसा। अष्टावक्र ने कहा—हे महाभिमानी पण्डित वंदिन। कायरों की भाँति चुप क्यों बैठा है। आ मेरे सामने शास्त्रार्थ कर।

वंदिन ने अपमानपूर्ण वाणी सुनकर आवेश में प्रश्न प्रारम्भ किये। उसने कहा, एक अग्नि कई प्रकार से प्रज्वलित की जाती है। सूर्य एक होकर भी सम्पूर्ण जगत को प्रकाशित करता है। एक वीर इन्द्र सब शत्रुओं का नाश करता है और यमराज सब पितरों के स्वामी हैं।अष्टावक्र ने कहा—इन्द्र और अग्नि दोनों सखा के रूप में साथ-साथ विचरते हैं। नारद और पर्वत दोनों देवर्षि हैं। अश्विनीकुमार दो हैं। रथ के पहिये दो होते हैं! और विधाता के विधान के अनुसार स्त्री और पति दो व्यक्ति होते हैं। फिर वंदिन बोला—कर्म से तीन प्रकार के जन्म होते हैं। तीन वेद मिलकर वाजपेय यज्ञ को सम्पन्न करते हैं। अव्वर्यु गण तीन प्रकार के स्नानों की विधि बताते हैं। लोक तीन प्रकार के हैं और लोक तीन प्रकार के हैं और ज्योंति के भी तीन भेद कहे गये हैं।

अष्टावक्र ने उत्तर दिया—ब्राह्मणों के आश्रम चार प्रकार के हैं। चार वर्ण यज्ञ को सम्पन्न करते हैं। दिशाएँ चार हैं। वर्ण चार प्रकार के हैं। और गाय के चार पैर होते हैं।’’वंदिन ने कहा,अग्नि पाँच हैं। पंक्ति द्वंद्व में पाँच चरण होते हैं। यज्ञ पाँच प्रकार के हैं। वेद में चैत्नय प्रमाण विकल्प, विपर्यय, निद्र और स्मृति ये पाँच प्रकार की वृत्तियाँ कही गई हैं। और पंचनद देश सर्वत्र पवित्र कहा गया है।फिर अष्टावक्र ने कहा—अग्न्याधान की दक्षिणा में छः गोदान की विधि है। ऋतुएँ छः हैं। इन्द्रियाँ छः हैं और सारे वेद में छः साद्यस्क यज्ञ की विधि का वर्णन है।वंदिन बोला,ग्राम्य पशु सात प्रकार के होते हैं। वन के पशु भी सात प्रकार के होते हैं। सात छन्दों से एक यज्ञ सम्पन्न होता है। ऋषि सात हैं। पूजनीय सात हैं और वीणा का नाम सप्ततंत्री है।अष्टावक्र ने कहा—आठ गोपों का एक शतमान होता है। सिंह को मारने वाले शरभ के आठ पैर होते हैं। देवताओं में आठ वसु हैं। और सभी यज्ञों में आठ पहर का यूप होता है।

वंदिन ने उत्तर दिया,पितृ यज्ञ में नौ समधेनी होती है। नौ भागों से सृष्टि क्रिया होती है। बृहती छंद के चरण में नौ अक्षर होते हैं। और गणित के अंक नौ हैं।अष्टावक्र ने कहा,दिशाएँ दस हैं। दस सैकड़ों का एक हजार होता है। स्त्रियों का गर्भ दस महीने में पूर्णावस्था को पहुँचता है। तत्व के उपदेसक दस हैं। अधिकारी दस हैं। और द्वेष करने वाले भी दस हैं।वंदिन बोला—इंद्रियों के विषय ग्यारह प्रकार के होते हैं। ग्यारह विषय ही जीव रूपी पशु के बन्धन स्तम्भ हैं। प्राणियों के विकार ग्यारह प्रकार के हैं। और रुद्र ग्यारह प्रसिद्ध हैं।

अष्टावक्र ने उत्तर दिया—वर्ष बारह महीने में पूर्ण होता है। जगती द्वंद्व के बारह अक्षर होते हैं। बारह दिनों में प्राकृत यज्ञ पूरा होता है। और आदित्य सर्वत्र विख्यात है।फिर वंदिन बोला—त्रयोदशी तिथि पुण्यतिथि कहीं गयी है। पृथ्वी के तेरह द्वीप हैं। बस इतना कहकर वंदिन चुप पड़ गया उसको आगे बोलते न देख अष्टावक्र ने विषय की पूर्ति करते हुए कहा—आत्मा के भोग तेरह प्रकार के हैं। और बुद्धि आदि तेरह उसकी रुकावटें हैं।बस इतना सुनते ही वंदिन ने अपना सिर झुका लिया। दूसरे ही क्षण सभा में कोलाहल मच गया। सभी अष्टावक्र की जय-जयकार करने लगे। आज महात्मा कहोड़ की आत्मा किसी अज्ञात लोक से अपने पुत्र अष्टावक्र को कितना आशीर्वाद दे रही होगी। सभी उपस्थित ब्राह्मण हाथ जोड़कर अष्टावक्र की वंदना करने लगे। तब अष्टावक्र ने कहा हे ब्राह्मणों! मैंने इस अहंकारी वंदिन को आज परास्त कर दिया है। इस अत्याचारी ने कितने ही पुण्यात्मा ब्राह्मणों को पराजित करके पानी में डुबवा दिया है। इसलिए मैं भी आज्ञा देता हूँ कि इस पराजित वंदिन को उसी तरह पानी में डुबा दिया जाय।अष्टावक्र राजा जनक की आज्ञा की प्रतीक्षा करने लगा। राजा स्तब्ध बैठे थे। अष्टावक्र क्रुद्ध होने लगा और कहा कि आप डुबाए जाने की आज्ञा क्यों नहीं देते। इस तरह चुप बैठे रहना मेरा अपमान है। राजा जनक ने अत्यन्त विनीत स्वर में कहा हे ब्राह्मण ! आप साक्षात् ब्रह्मा हैं। इसलिए मैं आपके इस कठोर स्वर को भी सुन रहा हूँ। आपने वंदिन को जिस प्रकार की आज्ञा दी है उसका मैं समर्थन करता हूँ।

वंदिन ने आज्ञा स्वीकार करते हुए कहा इससे मेरा उपकार होगा। मुझे अपने पिता वरुण का दर्शन होगा। अष्टावक्र की ओर मुड़कर वंदिन ने कहा,हे ऋषि अष्टावक्र!आप महान हैं। सूर्य के समान दीप्यमान आपकी मेधा है। और अग्नि के समान आपका तेज है। मैं चलते समय आपको वरदान देता हूँ कि आप इसी क्षण अपने स्वर्गीय पिता कहोड़ को फिर से जीवित अवस्था में पाएँगे। उनके साथ अन्य ब्राह्मण भी जल से निकल आयेंगे।उसी क्षण अन्य ब्राह्मणों के साथ कहोड़ जल से बाहर निकल आये। उन्होंने राजा जनक की वंदना की। राजा ने प्रसन्न होकर अनेकों बहुमूल्य उपहार देकर उन्हें विदा किया। कहोड़, अष्टावक्र और श्वेतकेतु के साथ उद्यालक आश्रम में वापस आये। कहोड़ ने पत्नी सुजाता और अष्टावक्र को समंगा नदी में स्नान करने के लिए कहा। अष्टावक्र ने जाकर उस नदी में स्नान किया। उसी क्षण उसका कुबड़ापन दूर हो गया। वह सुन्दर शरीर वाले युवक की तरह जल से बाहर निकला।

राजा जनक अष्टावक्र के ज्ञान से अत्यन्त प्रभावित हुए थे। उन्हें अपनी पूर्व धारणा पर पश्चाताप था। अष्टावक्र की बातों ने उन्हें झकझोर दिया था। दूसरे दिन जब सम्राट् घूमने निकले तो उन्हें अष्टावक्र राह में दिख गये। उतर पड़े घोड़े से और अष्टावक्र को साष्टांग प्रणाम् किया। उन्होंने निवेदन किया, महापुरुष ! राजमहल में पधारें। कृपया मेरी जिज्ञासाओंका समाधान करें। राजमहल विशेष अतिथि के सत्कार के लिये सजाया गया। बारह वर्ष के अष्टावक्र को उच्च सिंहासन पर बैठाया गया। उससे जनक ने अपनी जिज्ञासाएँ बतायीं। जनक की जिज्ञासा पर ज्ञान का संवाद प्रवाहित हो चला। जनक अपनी जिज्ञासा प्रस्तुत करते। अष्टावक्र उनको समझाते। जनक की जिज्ञासाओं के समाधान में अष्टावक्र अपना ज्ञान उड़ेलते गये। ज्ञान की गंगा बह चली। जनक अष्टावक्र का संवाद 298 सूत्र-श्लोकों में निबद्ध हुआ है।

इस प्रकार अष्टावक्र गीता की रचना हुई। अध्यात्म ज्ञान का अनुपम शास्त्र ग्रंथ रचा गया। इसमें 82 सूत्र जनक द्वरा कहे गये हैं और शेष 216 अष्टावक्र के मुख से प्रस्फुटित हुए हैं। यह ग्रंथ अष्टावक्र संहिता के नाम से भी जाना जाता है।संवाद का प्रारम्भ जनक की जिज्ञासा से हुआ है। सचेतन पुरुष की अपने को जानने की शाश्वत जिज्ञासा। वही तीन मूल प्रश्न की-पुरुष को ज्ञान कैसे प्राप्त होता है?,मुक्ति कैसे होगी?,वैराग्य कैसे प्राप्त होगा?तीन बीज प्रश्न हैं ये। इन्हीं में से और प्रश्न निकलते हैं। इन प्रश्नों के उत्तर आकार फिर इन्हीं प्रश्नों में विलीन हो जाते हैं। इन प्रश्नों के संधान में खोजियों के खोज के अनुभव का ज्ञान अपार भण्डार सृजित हुआ है। अनेकानेक पथ और पंथ बन गये। भारत में अध्यात्म आत्मन्वेषण की परम्परा प्राचीनकाल से सतत सजीव है। इन प्रश्नों के जो समाधान-उपाय ढूँढ़े गये, उन्हें सामान्यतया तीन मुख्य धाराओं में वर्गीकृत किया जाता है। अर्थात् भक्ति मार्ग, कर्ममार्ग और ज्ञानयोग मार्ग। भागवत् गीता जो युद्धक्षेत्र-कर्मक्षेत्र में कृष्ण-अर्जुन का संवाद है, जो हिन्दुओं का शीर्ष ग्रन्थ है, में तीनों मार्गों को समन्वित किया गया है। समन्वयवादी दृष्टिकोण है कृष्ण की गीता का। भक्ति भी, ज्ञान भी, कर्म भी। जिसे जो रुचे चुन ले। इसलिए गीता की सहस्त्रों टीकाएँ हैं, अनेकानेक भाष्य हैं। सबने अपने-अपने दृष्टिकोण का प्रतिपादन गीता के भाष्य में किया है। अपने दृष्टिकोण की पुष्टि गीता से प्रमाणित की है। इसलिए गीता हिन्दुओं का गौरव ग्रंथ है, सर्वमान्य है।

परन्तु अष्टावक्र गीता एक निराला, अनूठा ग्रंथ है। सत्य का सपाट, सीधा व्यक्तव्य। सत्य जैसा है वैसा ही बताया गया है। शब्दों में कोई लाग-लपेट नहीं है। इतना सीधा और शुद्धतम व्यक्तव्य कि इसका कोई दूसरा अर्थ हो ही नहीं सकता। इसमें अपने-अपने अर्थ खोजने की गुंजाइश ही नहीं है। जो है, वही है। अन्यथा नहीं कहा जा सकता। इसलिए अष्टावक्र गीता के भाष्य नहीं है, विभिन्न व्याख्याएँ नहीं है।

अष्टावक्र गीता सार
यह देह,मन,बुद्धि,अहम् भ्रम जाल किंचित सत नहीं ,

पर कर्म कर कर्तव्य वत्बिन चाह फल के , रत नहीं .[1]
अब तेरी चेष्टाएं सब प्रारब्ध के आधीन हैं

कर्म रत पर मन विरत , चित्त राग द्वेष विहीन हैं [ २ ]
पर रूप में जो अरूप है , वही सत्य ब्रह्म स्वरूप है

दृष्टव्य अनुभव गम्य जो , तेरे भाव के अनुरूप है. [ ३ ]
तू शुद्ध , बुद्ध, प्रबुद्ध , चिन्मय आत्मा चैतन्य है .

बोध रूप अरूप ब्रह्म का , तत्व है तू धन्य है . [ ४ ]
यह तू है और मैं का विभाजन , अहम् मय अभिमान है ,

व्यक्तिव जब अस्तित्व में मिल जाए तब ही विराम है , [ ५ ]
निर्जीव होने से प्रथम , निर्बीज यदि यह जीव है

उन्मुक्त , मुक्त विमुक्त , यद्यपि कर्मरत है सजीव है . [ ६ ]
अनेकत्व से एकत्व का , जब बोध उदबोधन हुआ ,

बस उसी पल आत्मिक जीवन का संशोधन हुआ , [ ७ ]
विक्षेप मन चित , देह और संसार के निःशेष हैं ,

सर्वोच्च स्थिति आत्मज्ञान में आत्मा ही शेष है . [ ८ ]
ब्रह्माण्ड में चैतन्य की ही ऊर्जा है , विधान है ,

निर्जीव रह निर्बीज कर , यही मूल ज्ञान प्रधान है [ ९ ]

अष्टावक्र गीता
आध्यत्मिक उपलब्धियों में वैरागी चित्त अनिवार्य एवं प्रथम वचन बद्धता हैं। पूर्व जन्म की पात्रता और इस जन्म की मुमुक्षा के संयोग से ही आत्म ज्ञान होता है आत्म ज्ञानी सभी द्वंद्वों के पार एक रस हो जाता है। वह स्वभाव रहित आत्मा के स्वभाव के अनुरूप हो जाता है। अतः उसके संस्कार नहीं बनते , जिसने आत्मा को जान लिया, उसका संसार स्वयं छूट जाता है ,संसार छोड़ने से आत्म ज्ञान नहीं होता है, संन्यास लेना या देना जैसा कुछ भी नहीं होता हैं, यह विरक्ति और त्याग की ,मन की अवस्थाएँ हैं , अतः सन्यास कार्य नहीं अनुभूति है।

ज्ञान के सन्दर्भ में अष्टावक्र जी कहते हैं कि पुस्तकीय ज्ञान दूसरों का ज्ञान है तुम्हारा अपना नहीं . वह केवल विज्ञान है . ज्ञान तो स्वयं की अनुभूति का नाम है. देह मिली है जिसका अर्थ है प्रारब्ध और वासनाओं का व्यापार अभी शेष है . देह के सभी आवरण केवल भ्रांति हैं और भ्रांति का नाश केवल बोध से होता है . जो कुछ भी परिवर्तन शील है केवल भ्रांति हैं .आत्मा पारमार्थिक सत्ता है शरीर नहीं . सृष्टि के इस मूल तत्त्व का नाम ही ब्रह्म है. इसी से जन्म इसी में लीन हो जाते हैं ।

यते वा इमानि भूतानि जायन्ते येन जातानि जीवन्ति यात्प्रन्त्याभिंस विशन्ति इति श्रुतेः,
जिस आत्म ब्रह्म से ये सब भूत प्राणी उत्पन्न होते हैं, जिस ब्रह्म की सत्ता से उत्पन्न होकर जीते हैं और
फिर मर कर जिसमें लय होते हैं. उसी को तुम अपना जानो. अष्टावक्र गीता सार को यदि एक वाक्य में
निरूपण किया जाए तो वह वाक्य है-निर्जीव रहनी, निर्बीज करनी।


जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है....
.मनीष

Monday, March 21, 2016

जीने की राह (Jeene Ki Rah 3)

हनुमानजी से सीखें समझाना
अपने आपको समझदार मानने का हक सबको है। दूसरे को नासमझ मानना बीमारी है। इन दिनों ज्यादातर लोग इसी बीमारी से ग्रस्त हैं। खतरा तब और बढ़ जाता है, जब ऐसे लोगों को समझाना पड़ता है। बड़े पद पर व्यक्ति बैठा हो और यदि उसे कोई बात समझाना पड़े तो यह बहुत बड़ी रिस्क होती है। मुद्‌दा यह होता है कि उसके अहंकार को कितनी चोंट पहुंच रही है। हनुमानजी के सामने किष्किंधा कांड में यही चुनौती आ गई थी। रामजी का काम भूलकर सुग्रीव गलती कर रहे थे। हनुमानजी जान चुके थे कि यह भूल मेरे राजा को महंगी पड़ेगी। किसी राजा को समझाना या बड़े पद पर बैठे व्यक्ति को कुछ कहना मधुमक्खी के छत्ते पर पत्थर फेंकने जैसा है। सामने वाले की अहंकारजन्य मक्खियां आपको नोंच सकती हैं।

जिस ढंग से हनुमानजी ने सुग्रीव को समझाया उससे मोहित होकर तुलसीदासजी ने चौपाई लिखी, ‘निकट जाई चरनन्हि सिरू नावा। चारिहु बिधि तेहि कहि समुझावा।हनुमानजी सुग्रीव के पास गए, प्रणाम किया और चार विधि से समझाया। हनुमानजी जानते थे कि राजा में अहंकार होता है। उसे संतुष्ट किए बिना न तो वे सुनेंगे और न समझेंगे। फिर अपनी वाणी और विचार में प्रभाव डालने के लिए समझाने की चार विधियों का उपयोग किया- साम, दाम, दंड और भेद। साम में उन्होंने बताया कि मित्रता निभाइए। पहले उन्होंने निभाई, अब आपका अवसर है। दाम, उन्होंने राज्य दिलाया है। उपकार का बदला चुकाएं। दंड, जो श्रीराम बाली को दंड दे सकते हैं वे आपको भी नहीं छोड़ेंगे। भेद, आपके ऊपर अंगद को युवराज बनाया है, जो बाली का बेटा है। सुग्रीव को तुरंत समझ में आ गया। हनुमानजी जीवन में होने का यही मतलब है कि भूल करने पर वे हमें सही समझ देकर अच्छे काम करवा लेंगे।

सच को स्थापित करेगी विनम्रता
कुछ काम बिना ताकत लगाए पूरे हो ही नहीं सकते। इन दिनों जिस काम के लिए बहुत ताकत लगानी पड़ती है वह है सच बोलना। लोग साफ कहते हैं, सच बोलकर सभी काम नहीं हो सकते। धीरे-धीरे यह मान्यता दृढ़ हो गई कि कुछ काम झूठ बोलकर ही होते हैं। झूठ की यही विशेषता है कि उसे अपनी जगह बनाना बहुत अच्छी तरह से आता है। झूठ के पास अपना एक नशा है और यह उड़ान में विश्वास रखता है। चूंकि आज सभी जल्दी में हैं तो उन्हें झूठ का फर्राटा बहुत पसंद आता है। तेजी से जो काम हो जाए उसे सफलता मान लिया जाता है। कुछ परिणाम ऐसे हैं कि संसार को उसमें सुख दिखता है, लेकिन कुछ परिणाम ऐसे हैं जिन्हें सिर्फ आप देख पाएंगे और उनमें शांति बसी होगी। झूठ अपने साथ एक प्रतिबिंब लेकर जरूर चलता है, जिसका नाम है सुख। झूठ अपने साथ सुविधा भी लेकर चलता है पर बाद में दुविधाएं पैदा करता है।

सत्य दुविधा लेकर चलता है परंतु बाद में अद्‌भुत सुविधा देगा। लोग सच क्यों नहीं बोल पाते? या जो लोग सच बोल रहे हैं वे दूसरों को प्रेरित क्यों नहीं कर पाते? इसका कारण यह है कि सच बोलने वाले ज्यादातर रूखे हो जाते हैं, सख्त हो जाते हैं, चिड़चिड़े हो जाते हैं। यदि सत्य बोलने वाला व्यक्ति भीतर रस रखे, मधुरता रखे, नम्रता रखे, तो सत्य की भी सही मार्केटिंग हो सकेगी। झूठ बोलने वालों ने झूठ की गजब की मार्केटिंग की है। सत्यवादियों ने कहा हम तो सच बोलते हैं। सामने वाले को बुरा लगे या भला लगे। यह एक खराब मार्केटिंग है, इसलिए सच बोलने वालों को चाहिए कि उनके पास जो सच का प्रोडक्ट है उसकी सही ढंग से मार्केटिंग करें। इसके लिए खुद उन्हें अपनी प्रस्तुति सर्वोत्तम करनी पड़ेगी, इसलिए जब भी सच बोलें वाणी की विनम्रता और व्यक्तित्व का आकर्षण जरूर बनाए रखें।

बंटवारे में प्रेम भाव ऐसे बचाएं
न्यायालयों में खासतौर पर पारिवारिक प्रकरण का अध्ययन करने का अवसर मिले तो मत चूकिए। समझ में आएगा कि जो फैसले घर के भीतर किए जा सकते हैं, वे जरा सी नादानी और अहंकार के कारण अदालतों में पहुंच जाते हैं। एक ही माता-पिता की संतानों के बीच जब बंटवारा होता है और यदि उसमें समझदारी न रखी जाए तो वसीयत शस्त्र बन जाती है और अदालत ही कुरुक्षेत्र होता है। मैं अनेक मारवाड़ी परिवारों से परिचित हूं और वहां के धीर-गंभीर लोग चिंतित हैं कि बंटवारा सदस्यों में नहीं, परिवार के प्रेम में हो जाए तो बड़ी पीड़ा होती है। इस बात पर सहमति है कि सदस्यों में बंटवारा होगा ही, लेकिन कम से कम प्रेम का धागा न टूटे। बंटवारे में परिश्रम, योग्यता, धन और समय ये मुद्‌दे होते हैं। किसी सदस्य का दावा होता है कि उसने परिश्रम अधिक किया।

धन का साम्राज्य उसकी योग्यता से है, इसलिए उसे मूल्य अधिक मिले। यह तो सही है कि सदस्यों में कोई ऊंचा-नीचा जरूर होगा। व्यावहारिक पक्ष तो यह है कि सबको समान मिल जाए। जिन घरों में ठाकुरजी की पूजा होती हो, परमात्मा का नाम लिया जाता हो वहां के सदस्यों को समझना चाहिए कि पूजा का मतलब है धैर्य, समझ। अपने परिश्रम को पूजा मान लें। धन यदि आपके पास कम आ रहा है तो दान मानकर छोड़ दें। जो समय आपने अपने सदस्यों के साथ एक ही काम में दिया हो उसको भविष्य के लिए इन्वेस्टमेंट मान लें और जब बंटवारा हो तो व्यवहार की दृष्टि से सजग रहें, लेकिन फिर जो भी हो गया हो उसको लेकर मन में जन्मा वैमनस्य मिटाने का प्रयास करें। जब हम भगवान की पूजा करते हैं, तो यह भी भरोसा रखिए कि आपके हिस्से का कोई ले नहीं सकता तथा किसी और के हिस्से का आपको मिल नहीं सकता। बस यही भाव बंटवारे में प्रेम बचाएगा।

ऊर्जा के सदुपयोग से आत्मविकास
विज्ञान और धर्म एक-दूसरे के विरोध में कई तर्क देते हैं। वैज्ञानिकों की नजर में धर्म लगभग अंधविश्वास है। धार्मिक लोग वैज्ञानिकों को संस्कृति, संस्कार का पतन करने वाला मानते हैं। इनके झगड़े में नई पीढ़ी बहुत भ्रम में पड़ जाती है कि किसे मानें? उनकी प्रगति में विज्ञान का महत्वपूर्ण योगदान है। विज्ञान ने उन्हें सबकुछ दिया, इसलिए विज्ञान को छोड़ना या उसकी आलोचना करना लगभग मूर्खता है, लेकिन जब शांति की बात आती है तो विज्ञान भी हाथ खड़े कर देता है। विज्ञान कहता है कि मैंने जो तुम्हें सुख दिया है, वही शांति है, लेकिन ऐसा होता नहीं है। शांति अपने आप में बिल्कुल अलग बात है। सुखी व्यक्ति शांत हो यह जरूरी नहीं। शांत व्यक्ति जरूर सुखी हो सकता है।

शांति का क्षेत्र शुरू होता है धर्म के साथ, लेकिन धर्म क्षेत्र वालों ने भी कोई कम उपद्रव नहीं मचा रखा है। वे भी उतने ही अशांत हैं जितने विज्ञान वाले। दोनों ही क्षेत्र के लोग जहां सदुपयोग करना था वहां दुरुपयोग कर रहे हैं। किंतु विज्ञान और धर्म शक्ति और ऊर्जा पर सहमत हैं। विज्ञान की सारी गतिविधि और शोध एनर्जी पावर पर टिकी है। धर्म ने इन दोनों का उपयोग आत्मविकास के लिए किया है। शोध दोनों ही क्षेत्रों में हुआ है। ऋषि-मुनि भी बहुत बड़े वैज्ञानिक थे। वैज्ञानिक भी ऋषि-भाव से ही सफल हो पाता है। शास्त्रों ने कहा है कि बड़ा काम करने निकलें तो अधिक प्रतिरोध न करें। अहंकार, कर्कश वाणी इन सबको छोड़ दें। इसका सीधा अर्थ है सहमत हो जाएं, शांत रहें। ऋषि-मुनियों ने इसको शक्ति का सदुपयोग कहा है, कमजोरी नहीं माना है। यह ऊर्जा का रूपांतरण है। इसी रूपांतरण से वैज्ञानिकों ने सुख-साधन तैयार किए और ऊर्जा के इसी सदुपयोग से हम आत्मविकास भी कर सकते हैं।

इंद्रियों को योग से अनुशासित करें
मनुष्य को यदि मालूम पड़ जाए कि वह जिन कारणों से भूल कर रहा है उसे अब दूर करने का समय आ गया है तो इसे बुद्धिमानी कहेंगे, लेकिन ऐसी बुद्धिमानी अच्छे-अच्छों के पास नहीं आ पाती। वे जानकर भी गलत कारण छोड़ नहीं पाते। यदि ऐसी समझदारी न आए तो कम से कम उन लोगों को अपने साथ रखें, जो ऐसी समझदारी दे सकें। यह रिश्ता हनुमानजी और सुग्रीव के बीच था। हनुमानजी ने उन्हें चार विधि से समझा दिया। सुग्रीव ने गलती स्वीकार भी कर ली, बल्कि उसका कारण भी बताया। वह कारण हमारे लिए भी बड़े काम का है। तुलसीदासजी ने लिखा है, ‘सुनि सुग्रीव परम भय माना। विषय मोर लीन्हेउ ग्याना।।यानी मैं विषयों के वश में ऐसी गलती कर गया।

विषय का मतलब वे सारी बातें, जिनमें काम, क्रोध, मद और लोभ छुपा है। सीधी-सी भाषा में कहें तो भोग और विलास। ये दो ऐसे विषय हैं, जिनमें आदमी उलझ जाता है। हम विषयों का कुछ नहीं कर सकते। अशोभनीय दृश्य, अनुचित बातें हमारे आसपास घट रही हैं, हम कब तक इनसे बचेंगे? हमें समझना होगा कि ये विषय हमारे जीवन में उतरते कैसे हैं। उसका माध्यम होती हैं इंद्रियां- हाथ, पैर, मल-मूत्र की दो इंद्रियां, कंठ, आंख, नाक, कान, त्वचा और जिह्वा। इंद्रियां यदि अनियंत्रित हुईं तो ये विषयों तक जाएंगी और यदि नियंत्रित हो गईं तो ये अपने ही भीतर उतरकर ऊर्जा प्राप्त कर लेंगी। सुग्रीव का हनुमानजी से जुड़ने का मतलब हनुमान योगी हैं, अनुशासित व्यक्तित्व हैं। हमारी इंद्रियों को योग यानी अनुशासन मिल जाए तो वे भोग-विलास में ऊर्जा नष्ट नहीं करेंगी बल्कि हमारा व्यक्तित्व निखारने में, हमें सफलता दिलाने में और लक्ष्य तक पहुंचाने में मदद करेंगी।

व्यावहारिकता से हो शादी का फैसला
विवाह को लेकर आज भी कई प्रश्न उठते रहते हैं। शुरुआत यहां से होती है कि क्या विवाह किया जाए? जीवनसाथी का चुनाव कैसे करें? किस उम्र में किया जाए? क्या विवाह जन्मपत्री मिलाकर करें और प्रेम-विवाह हो या परिवार की सहमति से? पहले जीवनसाथी के चयन की बहुत अधिक स्वतंत्रता नहीं थी। माता-पिता निर्णय कर देते थे। फिर एक दौर आया कि बच्चों से पूछा जाने लगा। हालांकि, राय बड़े लोगों की ही हावी रहती थी। अब इस दौर में बच्चों की राय अधिक प्रभावशाली है। किंतु अनेक माता-पिता मुझसे पूछते रहते हैं कि क्या विवाह जन्मपत्री मिलाकर किया जाना चाहिए। यदि प्रस्ताव अच्छा हो औैर पत्री न मिलें तो क्या करें और यदि पत्री मिल जाए, लेकिन हालात ठीक न लगें तो क्या करें?

यह बिल्कुल सही है कि ज्योतिष अंधविश्वास का नहीं, विज्ञान का मामला है। ऐसे ही सवाल श्रीकृष्ण के जीवन में भी आए थे, जब उन्हें यह निर्णय लेना था कि सुभद्रा का विवाह दुर्योधन से हो या अर्जुन से? कृष्ण ने बड़े भाई को समझाते हुए कहा था कि सबसे पहले उनकी राय लेनी चाहिए जिनका विवाह हो रहा हो। दूसरा, दोनों वंशों का स्तर देखें, तीसरा आप जिस भी पक्ष में हों; उसके धैर्य के मामले में जरूर जानकरी रखें, क्योंकि गृहस्थी में धैर्य और समझ बाद में बहुत काम आती है, और चौथी बात उन दोनों का भविष्य थोड़ा अपने विवेक से देखें। यदि यह सब सही है तो जन्मपत्री भगवान के ऊपर छोड़ दें और यदि ये सब ठीक नहीं लग रहा हो तो जन्मपत्री का भी रास्ता बुरा नहीं है, इसलिए बहुत अधिक भ्रम में न पड़ते हुए व्यावहारिक दृष्टि से विज्ञान मानकर ज्योतिष का उपयोग करें। कहीं ऐसा न हो कि न मानने या मानने की अति आपके प्रिय को गलत जीवनसाथी सौंप दे।

योग में है बच्चों की ज़िद के लिए दवा
बच्चे जिद पर उतर आएं तब क्या करें यह सवाल माता-पिता को परेशान कर देता है। मैंने पिछले दिनों एक यात्रा के दौरान करीब 16 साल की बेटी को मां से ऐसी जिद करते हुए देखा, जो थोड़ी देर में झगड़े में बदल गई। युवती जिद को क्रोध के निकट ला चुकी थी, इसलिए मर्यादा का भान खो बैठी। मां बड़प्पन के कारण आंख में आंसू लिए चुपचाप थी। जब युवती कहीं गई तो मां ने मुझसे कहा, ‘आपने सबकुछ देखा, क्या आपके पास इसका कोई समाधान है?’ मुझे जो उस समय सूझा वह बता दिया। शायद आपके भी काम आ सके। मैंने कहा कि माता-पिता को समझ लेना चाहिए कि बच्चे जब गलत जिद करें तो उसे उसी समय निपटाने की कोशिश कभी न करें। जिद और वर्तमान का छत्तीस का आंकड़ा है।

हठ यदि अहंकार पूर्ति के लिए है, यदि यह भाव है कि मेरी ही बात सही है, यदि उद्‌देश्य की जगह व्यक्तिगत कामना काम कर रही है तो वह हठ थोड़ी देर में क्रोध में बदलेगा। क्रोधी व्यक्ति को तत्काल समझाना यानी हथेली पर सरसों उगाने जैसा है। धैर्य से बर्दाश्त कर लें और बाद में जब एकांत मिले तो केवल समझाइश से काम नहीं चलेगा। समझाने वाले को अपने शरीर से सकारात्मक तरंगें बच्चे तक स्थानांतरित करनी पड़ेंगी। माता-पिता के शरीर में अपनी संतानों के लिए जो तरंगें हैं उन तरंगों को सकारात्मकता में बदलना होगा और इसके लिए उनके पास योग के अतिरिक्त और कोई साधन नहीं है, इसलिए कम से कम केवल इसी बात के लिए थोड़ी देर योग करें कि आपको अपने बच्चों से बात करनी है और उन्हें ऐसी तरंगें देनी है, जिन्हें आप अपने विचारों में सही मानते हैं। विश्वास कीजिए, योग ऐसा विज्ञान है जो दवा बनकर इस अकारण जिद का इलाज बन जाता है।

आज्ञा में अपनापन होना चाहिए
इन दिनों माता-पिता और बच्चों के बीच जितनी झंझटें चल रही हैं उनमें से एक न मानने की भी है। माता-पिता सोचते हैं बच्चे भविष्य के मामले में उतना नहीं जानते जितना हम जानते हैं, इसलिए हम जो कह रहे हैं उसे इन्हें मानना चाहिए। दूसरी ओर बच्चे मानकर चलते हैं कि हम किसी का कहना क्यों मानें? जो हमें ठीक लग रहा है वही करें। दोनों अपनी-अपनी जगह ठीक हैं। बाहर की दुनिया इतनी तेजी से बदल रही है कि घर के कुछ कायदे लागू नहीं होते और घर के ज्यादा कायदे लादे जाएं तो फिर बच्चे बाहर से घर की ओर मुड़ना नहीं चाहते। यदि आप माता-पिता हैं तो बच्चों को केवल आदेश देने से काम नहीं चलेगा। पहले के माता-पिता मानते थे कि हमने आदेश दिया और बच्चों को उसका पालन करना ही है, लेकिन अब ऐसा नहीं है।

आपकी आज्ञा में अपनापन होना चाहिए, जिसमें तीन बातें होंगी- समझाइश, सुझाव और निवेदन। ये तीनों जब ठीक से मिल जाएं तब आज्ञा में अपनापन पैदा हो जाएगा। और आजकल के बच्चे इसे तो फिर भी मान लेंगे पर यदि उन्हें केवल आदेश दिया तो मानकर चलिए मतभेद बढ़ना ही है। तो माता-पिता के रूप में आज्ञा में अपनापन लाएं। यदि आप बच्चे हैं और माता-पिता की आज्ञा नहीं मानना चाहते तो उद्‌दंडता न करें। उनकी आज्ञा को नहीं मानने के लिए तीन काम बच्चों को भी करना चाहिए। एक, तुरंत प्रतिक्रिया न दें। थोड़ी देर रुक जाएं। हो सकता है आपका यह रुकना आप ही को कुछ अच्छी बात समझा दे। दो, इनकार में विनम्रता न छोड़ें और माता-पिता के शब्दों में विश्वास पूरा रखें। तीन, विश्वास, विनम्रता और धैर्य यदि इन तीनों के साथ इनकार करेंगे तो बात बिगड़ेगी नहीं। वरना कहना मानना और नहीं मानना परिवार में उपद्रव का एक बड़ा कारण बन जाता है।

प्रेमी चित्त शिकायत नहीं करता
कई बातों के मतलब धीरे-धीरे बदल गए। नई पीढ़ी तो जानना भी नहीं चाहती कि पहले क्या अर्थ रहा होगा? प्रेम ऐसा ही एक शब्द है। इसे केवल क्रिया मान लिया गया है, जिसमें आकर्षण प्रधान हो गया है। कोई किसी से आकर्षित हो गया और तत्काल घोषणा कर दी जाती है कि यही प्रेम है। भक्ति में प्रेम का अर्थ समझ में आता है, पर भक्ति भी मात्र कर्मकांड रह गई है, इसलिए प्रेम का रूप बिगड़ना ही था। प्रेम अहसास है। इसे अनुभूति और स्वाद भी कहा जा सकता है। इन तीनों की कोई व्याख्या नहीं होती। सूफी फकीरों के लिए प्रेम का मतलब है परमात्मा से जुड़ाव। कुछ प्रेमी ऐसे हुए हैं, जो भावनाओं की गहराई से जुड़े थे, शरीर महत्वपूर्ण नहीं था।

परमात्मा है या नहीं, यही सवाल खड़ा हो गया, इसलिए प्रेम के मायने बदल गए। प्रेम को सरलता से समझना हो तो दो बातों पर टिकना होगा, विरह और आभार। जब भी हम प्रेम करेंगे, विरह अपना प्रभाव रखेगा। विरह का मतलब एक ऐसी पीड़ा, जिसमें सुख भी है। जब कोई प्रेम में डूबता है तो वह समूची प्रकृति के प्रति आभार प्रदर्शन करने लगता है। प्रेमी चित्त कभी किसी से शिकायत नहीं करता। हम किसी से प्रेम करें यह जरूरी नहीं, पर हमारा चित्त प्रेमी हो जाए यह आवश्यक है। जैसे ही हम प्रेम में डूबेंगे, हमारी चेतना निखर जाएगी। यदि प्रेमपूर्ण हैं तो हमारी पूरी दिनचर्या इससे प्रभावित होगी। सुबह प्रसन्न उठेंगे, क्योंकि हम प्रेम से भरे हैं। दोपहर के विश्राम में भी पूरा सुख होगा। हमारी शाम में धन्यवाद का भाव होगा कि चलो दिन बीत रहा है। प्रेम से परिपूर्ण व्यक्तित्व रात को सोने से पहले प्रार्थना तथा आभार में डूब जाता है। ऐसी नींद अगले दिन के लिए ताज़गी का कारण बन जाएगी।

शांति हो सफलता का पैमाना
किसी काम को करने के बाद चाहे सफलता मिले या विफलता, लेकिन यदि आप अशांत होते हैं तो मानकर चलिए वह काम ठीक से पूरा नहीं हुआ है। अत: सफलता का मापदंड शांति होना चाहिए, न कि आंकड़े या अर्जित धन। ऐसा नहीं है कि ये सफलता की श्रेणी में नहीं आएंगे, लेकिन इनके साथ शांति प्राप्त नहीं हुई तो सफलता अधूरी है। खूब परिश्रम करते हुए काम नशा न बन जाए और परिणाम बोझ न बने इसके लिए योग से जुड़ना जरूरी हो जाता है। सूफी संत कहते हैं, ‘अपने अस्तित्व को मिटाकर परमशक्ति में मिल जाना ही भक्ति है।आज के किसी व्यक्ति को यह बात समझ में ही नहीं आएगी। पहले तो वह अस्तित्व में ही उलझ जाएगा।


इसे यूं समझें, आप जो दिखते हैं और लोग जो आपको समझते हैं उसका नाम व्यक्तित्व है। आप जो होते हैं उसका नाम अस्तित्व है। अस्तित्व को मिटाने का मतलब है खुद को नहीं मिटाना, अपने भीतर के मैंको मिटाना। मैंमिटा तो अहंकार गया। अहंकार हटाकर काम किया जाएगा तो सफल हो या असफल, अशांति नहीं आएगी। अहंकार अशांति को जन्म देता है। अहंकार मिटाने के कई तरीके हैं। इनमें से एक है मंत्र का जप करना। प्रश्न है कि मंत्र जप से अहंकार कैसे मिटेगा? दरअसल, जब हम मंत्र जप करते हैं तो खुद को भूल जाते हैं और उस परमशक्ति से जुड़ने का प्रयास करते हैं। स्वयं के रूप की विस्मृति और विराट परमात्मा की स्मृति होने लगती है। उसके रूप का चिंतन कराता है मंत्र। कर्म में कर्तापन का अभाव आ जाता है। मैं कर रहा हूंका बोध खत्म होने लगता है, इसलिए योग से जुड़कर जब भी कोई काम किया जाएगा, जीतें या हारें दोनों ही स्थिति में मस्ती बनी रहेगी।


हनुमानजी गुरु और चालीसा मंत्र
मित्र लोग आपस में बातचीत करते समय यारशब्द का प्रयोग करते हैं। धीरे-धीरे यह शब्द भी हल्का होता जा रहा है। कुछ मित्रों ने मित्रता को इतना कलंकित किया कि यारशब्द गाली लगने लगता है। सूफी संतों ने मुरशद यानी गुरु को अपना यार कहा है। इन्हीं को कभी खुदा, कभी माशूक, आशिक या कभी साईं कहा है। इस मायने में यार शब्द बड़ा गहरा होता है। शास्त्रों में गुरु और परमात्मा को अनोखे ढंग से जोड़ा गया है। कहीं-कहीं तो गुरु को ईश्वर से भी अधिक महत्व दे दिया गया है।

थोड़ी-सी अतिशयोक्ति करके कहा गया है कि तीनों लोकों में गुरु से बड़ा कोई नहीं। जो काम ईश्वर नहीं कर सकता, वह गुरु कर सकता है। सुनने में यह बात अजीब लगती है। भौतिक दृष्टि से देखेंगे तो बात गले नहीं उतरती। अध्यात्म कहता है कि ईश्वर चूंकि सारी सृष्टि का संचालन करता है, इसलिए वह बंधन में भी डाल देता है और मोक्ष भी प्रदान करता है, लेकिन गुरु केवल मोक्ष देकर बंधन से मुक्ति देता है। मोक्ष को यह न समझें कि यह मृत्यु मौत के बाद की कोई स्थिति होती होगी। जीते जी अशांति से मुक्त होना ही मोक्ष है।

परमात्मा ने बनाया तो हमें इंद्रियां भी दीं, भोग-विलास भी दिया। मतलब बंधन में डाल दिया। जब गुरु जीवन में आता है तो वह इनसे मुक्त कराता है। गुरु हमारे अंधकार को अपने मंत्र से हटा देता है, इसलिए गुरु की जरूरत बताई जाती है। कोई मनुष्य गुरु मिल जाए तो आप सौभाग्यशाली हैं अन्यथा हनुमानजी को गुरु बना लीजिए और श्री हनुमान चालीसा को मंत्र। तीन से पांच मिनट में पूरी हो जाने वाली ये पंक्तियां आपको जीवन में न सिर्फ स्पष्टता देगी, बल्कि आत्मविश्वास से भर देंगी। शांति की तलाश हो तो एक बार प्रयोग और उपयोग करके अवश्य देखिए।

परमात्मा की प्रतिनिधि है महिला
अभी शिवरात्रि का पर्व बीता है और अब  हम महिला दिवस मना रहे हैं। अद्‌भुत संयोग है। भगवान शंकर ने अर्धनारीश्वर अवतार लेकर स्त्री-पुरुष समानता का अद्‌भुत संदेश दिया है। हर पुरुष के भीतर आधी स्त्री व आधा पुरुष होता है और हर स्त्री के भीतर आधा पुरुष व आधी स्त्री। इसलिए उनमें विचारों की पृथकता तथा व्यक्तित्व में भेद स्वाभाविक है। जो इस मनोविज्ञान को समझ जाएंगे वो स्त्री-पुरुष के हर रिश्ते की गरिमा रखेंगे। पुरुष के भीतर की आधी स्त्री बेचैन होती है तो बाहर का पुरुष क्रोधित हो जाता है। स्त्री के भीतर का आधा पुरुष अतृप्त है, तो बाहर की स्त्री ईष्या में डूबी होगी।

पति-पत्नी जब एक-दूसरे के भीतर के स्त्री-पुरुष को संतुष्ट कर दें, तो इनके रिश्ते गरिमामयी होंगे। जब परमात्मा को बहुत बड़ी गरिमा ,जिम्मेदारी देनी थी तो उन्होंने स्त्री का चयन किया। मां बनने का अधिकार स्त्री को देकर भगवान ने घोषणा कर दी कि मेरा यह नवीनतम संस्करण मुझे बड़ा प्रिय है और मैं इस पर आधारित हूं। स्त्रियों को अभिमान होना चाहिए कि आप परमात्मा की सबसे सुंदर कृति और प्रतिनिधि हैं। फिर क्यों मन में संकोच, मन में यह पीड़ा कि हम पुरुष से कम हैं? पुरुष ईश्वर के निर्णय का मान करें और स्त्रियों को एक अलग दृष्टि से देखें, क्योंकि वे पूरी प्रकृति की प्रतिनिधि हैं। उन्हें नमन करना, प्रेम करना भी परमात्मा की पूजा ही होगी।

बीमारी में धैर्य न छोड़ें, सहयोग दें
बीमारियों के अलग-अलग नाम होते हैं, लेकिन फिर भी वह होती बीमारी ही है। हर उम्र में बीमारी के मतलब बदल जाते हैं। बचपन में बीमारी में दूसरे हमारी चिंता हमसे ज्यादा करते हैं। हमें सिर्फ पीड़ा होती है, चिंता करने के लिए दूसरे होते हैं। युवावस्था में शरीर तो समर्थ हो चुका होता है बीमारी से मुकाबला करने के लिए, पर कुछ भय सताने लगते हैं और बुढ़ापे में तो बीमारी का मतलब लगभग मृत्यु का आलिंगन हो जाता है। बूढ़ा व्यक्ति जब बीमार होता है तो सबसे ज्यादा फिक्र यह सताती है कि देखभाल कौन करेगा। उम्र के तीनों दौर में जो बीमारी का अर्थ ठीक से समझ लेगा उसके लिए उम्र भी मददगार हो जाएगी।

बूढ़े व्यक्ति को जब बीमारी घेरे तो उसे पुरानी उपलब्धि भूल जाना चाहिए और अधूरी महत्वाकांक्षाओं को बिल्कुल याद नहीं करना चाहिए। एक तो शरीर बूढ़ा हो चुका होता है, ऊपर से ये उपलब्धि-महत्वाकांक्षाएं और परेशान करती हैं। यह है बीमारी में बीमारी जोड़ लेना। हम किसी भी उम्र में हों, एक तैयारी बीमार व्यक्ति को जरूर करनी चाहिए और वह है सहयोग देना। जब लोग हमारी सेवा कर रहे होते हैं तब हम उन्हें खूब सहयोग दें। दूसरी बात, बीमार व्यक्ति को धैर्य नहीं छोड़ना चाहिए। बोलें कम, सुनें ज्यादा। अन्यथा सेवा करने वाले इसी बात से परेशान हो जाते हैं कि इनकी सेवा में सबसे बड़ी दिक्कत ये खुद हैं। ध्यान रखिए, बीमारी किसी को नहीं छोड़ने वाली, लेकिन यदि उम्र के इन तीनों दौर में बीमारी को ठीक से समझ लिया जाए तो आधा इलाज तो हम ही कर लेंगे, बाकी का डॉक्टर संभाल लेंगे और इन सबके साथ जब प्रभु कृपा मिल जाए तो फिर बीमारी जीवन के लिए बोझ नहीं, एक जरूरत बनकर गुजर जाएगी।

विकल्प होंगे तो सहमति आसान
किसी विषय में यदि निर्णय हमें अकेले लेना हो तो दिक्कत कम होगी पर यदि सबकी सहमति लेनी हो तो चुनौती शुरू हो जाती है। खासतौर पर यदि हम किसी समूह में काम कर रहे हों और सभी लोगों की सहमति लेनी हो। किसी विषय पर सभी की राय का सम्मान करना हो तो बड़ी सावधानी रखनी पड़ती है। एेसे मौके पर यदि आप नेतृत्व कर रहे हों और समूह में सभी की सहमति पर काम करना हो या आप नेतृत्व न करके सामान्य स्थिति में हों, उस स्थिति में भी अपने प्रस्ताव के विकल्प पर जरूर काम करिए। वजह यह है कि आप कोई प्रस्ताव लेकर आए और यदि सब उससे सहमत नहीं हुए तो या तो वह प्रस्ताव हाशिए पर पटक दिया जाएगा या उसकी तत्काल हत्या हो जाएगी। इसलिए सदैव विकल्प लेकर चलें।

सबकी सहमति के मामले में समझदार आदमी अपना विकल्प बहुत अच्छे से तैयार रखता है। दूसरा काम यह करें कि जब आपके प्रस्ताव पर समूह में विरोध हो तो विरोध करने वाले के व्यक्तित्व पर न टिकें, उसकी मानसिकता को समझें। यदि व्यक्तित्व पर टिकेगे तो हमारे भीतर ईर्ष्या पैदा हो सकती है। उसकी मानसिकता पढ़ेंगे तो हम परिपक्वता के साथ विरोध को समझेंगे। उसी विरोध के साथ अपना विकल्प स्थापित कर सकेंगे। आज हमारे परिवारों में कलह का बड़ा कारण यही है कि आपसी सहमति नहीं हो पाती और सब एक-दूसरे से उलझ जाते हैं। यदि हमें परिवार बचाना है तो एक-दूसरे के प्रति सहमत होना ही पड़ेगा। उसके लिए विकल्प और मानसिकता प्रस्तुत करना आना चाहिए। एक-दूसरे के व्यक्तित्व की जगह मानसिकता को समझना पड़ेगा। इतनी समझदारी आ गई तो परिवार का प्रत्येक सदस्य असहमत होने के बाद भी एक साथ प्रेम से रह सकेगा।

हमें परस्पर जोड़ने का माध्यम अन्न
समझदार लोग हर वस्तु का कोई न कोई उपयोग कर लेते हैं। आए दिन पढ़ने में आता है कि प्रमुख राजनेता दलितों के साथ भोजन करेंगे। समाजसेवी भी अन्न का वितरण करके अपने उद्‌देश्य का प्रदर्शन करते हैं। इन दिनों हमारे राष्ट्र में अन्न को भी राजनीति, समाजसेवा और व्यवसाय से अलग ढंग से जोड़ा जा रहा है। इसी बीच यह खबर पढ़ने को मिलती है कि संत लोग पिछड़ी जाति, अनुसूचित जाति के लोगों के साथ धार्मिक मेलोंं में बैठकर भोजन करेंगे। लोग भी सुनकर और पढ़कर टिप्पणी करते हैं कि यह सब दिखावा है। राजनेता, समाजसेवी और व्यवसायियों की बात छोड़ दें तो संत जब ऐसा करते हैं तो उसके पीछे कोई न कोई उद्‌देश्य जरूर होता है। किसी के साथ बैठकर अन्नग्रहण जीवन में शांति का बहुत बड़ा संदेश है।

अन्न से मन बनने की शास्त्रों की घोषणा को यदि ठीक से समझ ले तो जीवन में शांति आसानी से आ जाएगी। जो लोग गृहस्थी के प्रति गंभीर हों, जिन्हें अपना परिवार बचाने में रुचि हो, उन्हें इन लोगों से कम से कम इतनी शिक्षा तो लेनी चाहिए कि हम भी अपने परिवार में अन्न का सदुपयोग करें। शाकाहार करें और ईमानदारी से कमाए हुए धन से अन्न को घर में लाएं। इसके साथ गृहस्थ को अन्न को रिश्तों में आपस में जोड़ने के लिए सेतु भी बना लेना चाहिए। जब घर के सदस्य बैठकर एक साथ भोजन करते हैं और यदि उस भोजन निर्माण की प्रक्रिया में मां, बहन, बेटी का प्रेमपूर्ण योगदान है तो सदस्यों के विचार प्रेमपूर्ण होंगे। अन्न भी एक-दूसरे को जोड़कर रखने का माध्यम बन जाएगा। भोजन के प्रति आज भारत के घरों में लापरवाही-सी आ गई है, जबकि सबसे ज्यादा गंभीर इसी बात के लिए होना चाहिए। अन्न हमारे परिवारों को जोड़ने का ऐसा धागा है, जिसमें हर सदस्य फूल की तरह बहुत अच्छे से पिरोया जा सकता है।

प्रीति व नीति नेतृत्व के अहम अंग
खुद काम करना आसान है, किसी से करवाना कठिन। किसी से काम लेना हो तो पहले समझाना पड़ता है। यदि हमें समझाना नहीं आता तो करना क्या है, यह वह समझ नहीं पाएगा। इस अधूरी समझ में उसकी योग्यता भी शामिल हो जाती है। यदि व्यक्ति अधिक योग्य है तो उस अधूरी जानकारी को पूरी कर लेगा, लेकिन योग्यता कम है तो काम का नुकसान होगा, इसलिए कई लोग खुद काम करना पसंद करते हैं; लेकिन हमेशा ऐसा नहीं हो सकता। समाज में सभी व्यवस्थाएं सहयोग से चलती हैं, इसलिए लोगों का योगदान लेना ही पड़ता है। दूसरों से कैसे काम लिया जाए इसमें हनुमानजी माहिर थे। सीताजी की खोज के लिए वानर भेजने का निर्णय सुग्रीव ने लिया। उसका क्रियान्वयन हनुमानजी को कराना था।


हनुमानजी ने जो किया उसके लिए तुलसीदासजी ने लिखा है, ‘तब हनुमंत बोलाए दूता। सब कर करि सनमान बहूता।।तब हनुमानजी ने दूतों को बुलाया और बहुत सम्मान किया।' भय अरु प्रीति नीति देखराई। चले सकल चरनन्हि सिर नाई।।सबको भय, प्रीति और नीति दिखलाई। सब बंदर चरणों में सिर नवाकर चले। हनुमानजी ने चार काम किए- पहला, सबको बुलाकर सम्मान दिया। काम लेना हो तो सम्मान में कमी मत रखिए। सम्मान एक तरह का प्रोत्साहन है। दूसरा काम, सबको भय दिखाया। यहां भय दिखाने का अर्थ केवल डराना नहीं बल्कि अनुशासन के दायरे में लाना है। तीसरा काम, सबको प्रेम से समझाया। जब किसी को प्रेम से बताया जाता है तो उसके साथ समानता प्रदर्शित की जाती है। चौथा, नीति का कोई भी काम कायदे से बाहर जाकर नहीं किया। प्रबंधन से जुड़े लोगों के लिए यह अच्छा संदेश है कि यदि आप किसी समूह का नेतृत्व कर रहे हों तो हनुमानजी की तरह सम्मान, भय, प्रीति और नीति का प्रयोग कीजिए।


मन की सत्ता में दुर्गुणों से क्षति
जेल ऐसी जगह होती है, जहां अच्छे और बुरे दोनों पहुंच जाते हैं। इतिहास गवाह है कि बिना अपराध भले लोग जेल गए। अपराध करने के बाद भी लोग सलाखों के पीछे नहीं पहुंचे। वहां आदमी को कानून ही पहुंचाता है। कानून की पुरानी घोषणा है कि वह अंधा होता है। जिस मार्ग की शुरुआत ही अंधत्व से हो, फिर वहां अच्छे-बुरे का क्या भेद? महाभारत में धृतराष्ट्र की सत्ता लगभग अंधी थी। दिमाग शकुनि के पास था। हाथ दुर्योधन के थे। ताकत कर्ण की थी। ऐसे ही हाल कंस के समय थे, इसीलिए कृष्ण को भी कारागृह में जन्म लेना पड़ा। उनके माता-पिता देवकी और वसुदेव सर्वथा निर्दोष थे। स्पष्ट है कि निर्दोष भी जेल जा सकते हैं। खतरा तो तब है जब दोषी जेल नहीं पहुंच पाते। बुरे लोग अपराध करने के पहले ही सुरक्षा के इंतजाम कर लेते हैं। सबमें सत्ता का बड़ा खेल है।

शास्त्रों में कथा है। राजा जन्मेजय ने सर्प यज्ञ किया। उनके पिता परीक्षित को तक्षक ने डंसा था। बदला लेने के लिए उस यज्ञ में सर्पों की आहूति दी जा रही थी। तक्षक इंद्र के सिंहासन के नीचे छिप गया। तब जन्मेजय ने कहा, ‘अगर इंद्र ने तक्षक को सुरक्षा दी है तो ऋषि-मुनि ऐसे मंत्र पढ़ें कि इंद्र भी सिंहासन के साथ यज्ञ में आकर गिरें।सत्ताएं अपराधियों को संरक्षण दें यह इतिहास इंद्र के समय से ही चल रहा है। फिर अब तो कभी-कभी अपराधी ही इंद्र बन जाता है। जब इंद्र का सिंहासन हिला तब उसने तक्षक से कहा, ‘अब मैं तेरी रक्षा नहीं कर पाऊंगा।कहानी तो लंबी है, पर हमारे काम की बात यह है कि गलत लोगों को यदि जेल पहुंचाना है तो सत्ताओं को हिलाना पड़ेगा। इसका आध्यात्मिक दृष्टिकोण यह है कि हमारे भीतर यदि मन की सत्ता है, दुर्गुण मुक्त रहकर हमें नुकसान पहुंचाते रहेंगे। उन्हें जेल पहुंचाना हो तो हमारे व्यक्तित्व में बुद्धि की सत्ता, नेतृत्व जाग्रत करना होगा।

आपकी सजगता, बच्चों की जिंदगी
असफलता कोई नहीं चाहता। सफलता जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा है। फिर आजकल तो सफलता के लिए जीवन झोंक दिया जाता है। सफलता की अंधी दौड़ चल रही है। यदि आप गिरे तो कोई न तो आपके लिए रुकेगा, न उठाएगा, बल्कि यह भीड़ पैरों तले रौंदते हुए निकल जाएगी। आपका शव आपके ही लोग नहीं पहचान पाएंगे। मृत्यु का ऐसा वर्णन ठीक नहीं है। देश के कोने-कोने से परीक्षा में असफल होने पर आत्महत्या करने की खबरें आ रही हैं। इसके दो कारण हैं- नासमझी और दबाव। ये दोनों ही आसपास के लोगों की देन हैं। जिनके ऊपर इनके लालन-पालन की जिम्मेदारी है, सावधानी उन्हें रखनी होगी। इस उम्र के पास जितना जोश है, उतनी ही तीव्र निराशा भी है। हम बच्चों को बहुत अधिक हिदायतें न दें। कुछ मां-बाप को बीमारी-सी लग जाती है। हर गतिविधि, निर्णय पर समझाने बैठ जाते हैं। इसकी बजाय अधिक समय दें।


बच्चों को दिया जाने वाला जो समय है, उसका ठीक से अर्थ समझें। इसमें पहला काम यह करें कि उन्हें खूब सुनें। वे आपके सामने पूरी तरह से खुल जाने चाहिए। वे भीतर से खाली हो जाएं। तब उन्हें इस तरह समझाएं कि उसमें सहयोग का भाव ज्यादा हो। हुक्म की शक्ल में ज्ञान न बांटें। इसे मदद के रूप में पेश करें। यदि आपको यह अंदाज हो जाए कि आपका बेटा या बेटी इन दिनों कुछ परेशान हैं, सफलता प्राप्त करने के दबाव में हैं, तो उन्हें अकेला बिल्कुल न छोड़ें। यह अकेलापन अच्छे-अच्छों को मार डालता है। किसी का अकेलापन मिटाने के लिए समय देना पड़ता है, इसलिए बच्चों के मामले में समय को लेकर सावधान हो जाएं। यदि वे मृत्यु का आलिंगन करने के लिए आगे बढ़ रहे हैं, तो केवल आपका प्रेम उन्हें नहीं रोक पाएगा, आपकी सजगता ही उनका जीवन बन सकेगी।



जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है.....मनीष

Thursday, March 17, 2016

गृहस्थी (Grahasthi )

कैसे बनाएं अपनी गृहस्थी को सुखी और सफल? सीखें ये सूत्र...
पति-पत्नी किसी भी गृहस्थी की धुरी होते हैं। इनकी सफल गृहस्थी ही सुखी परिवार का आधार होती है। अगर पति-पत्नी के रिश्ते में थोड़ा भी दुराव या अलगाव है तो फिर परिवार कभी खुश नहीं रह सकता। परिवार का सुख, गृहस्थी की सफलता पर निर्भर करता है।

पति-पत्नी का संबंध तभी सार्थक है जबकि उनके बीच का प्रेम सदा तरोताजा बना रहे। तभी तो पति-पत्नी को दो शरीर एक प्राण कहा जाता है। दोनों की अपूर्णता जब पूर्णता में बदल जाती है तो अध्यात्म के मार्ग पर बढऩा आसान और आंनदपूर्ण हो जाता है। मात्र पत्नी से ही सारी अपेक्षाएं करना और पति को सारी मर्यादाओं और नियम-कायदों से छूट दे देना बिल्कुल भी निष्पक्ष और न्यायसंगत नहीं है। स्त्री में ऐसे कई श्रेष्ठ गुण होते हैं जो पुरुष को अपना लेना चाहिए। प्रेम, सेवा, उदारता, समर्पण और क्षमा की भावना स्त्रियों में ऐसे गुण हैं, जो उन्हें देवी के समान सम्मान और गौरव प्रदान करते हैं।

जिस प्रकार पतिव्रत की बात हर कहीं की जाती है, उसी प्रकार पत्नी व्रत भी उतना ही आवश्यक और महत्वपूर्ण है। जबकि गहराई से सोचें तो यही बात जाहिर होती है कि पत्नी के लिये पति व्रत का पालन करना जितना जरूरी है उससे ज्यादा आवश्यक है पति का पत्नी व्रत का पालन करना। दोनों का महत्व समान है। कर्तव्य और अधिकारों की दृष्टि से भी दोनों से एक समान ही हैं।

जो नियम और कायदे-कानून पत्नी पर लागू होते हैं वही पति पर भी लागू होते हैं। ईमानदारी और निष्पक्ष होकर यदि सोचें तो यही साबित होता है कि स्त्री पुरुष की बजाय अधिक महम्वपूर्ण और सम्मान की हकदार है।

देखिए भगवान राम ने कैसे सीता से अपने विवाह के साथ ही सफल दाम्पत्य की नींव रखी। सीता को भगवान राम ने विवाह के बाद सबसे पहला उपहार क्या दिया। राम ने सीता को वचन दिया कि जिस तरह से दूसरे राजा कई रानियां रखते हैं, कई विवाह करते हैं, वे ऐसा कभी नहीं करेंगे। हमेशा सीता के प्रति ही निष्ठा रखेंगे। विवाह के पहले ही दिन एक दिव्य विचार आया। रिश्ते में भरोसे और आस्था का संचार हो गया। सफल गृहस्थी की नींव पड़ गई। राम ने अपना यह वचन निभाया भी। सीता को ही सारे अधिकार प्राप्त थे। राम ने उन्हें कभी कमतर नहीं आंका।

गृहस्थी और संतान का सुख चाहिए, तो यह पढ़ें...
परिवार का आधार गृहस्थी होती है और गृहस्थी की धुरी दाम्पत्य पर टिकी होती है। लोग परिवार, गृहस्थी और दाम्पत्य को एक ही समझते हैं लेकिन इनमें बहुत बारीक अंतर होता है। दाम्पत्य, पति-पत्नी के निजी संबंधों से चलता है, गृहस्थी पति-पत्नी के साथ संतान की जिम्मेदारियों से जुड़ी होती है, जिसमें आर्थिक, मानसिक और भौतिक तीनों स्तरों पर व्यवस्था मुख्य होती है।

परिवार इन सब का समग्र रूप है, जिनमें पति-पत्नी और संतान के अलावा अन्य रिश्ते भी शामिल होते हैं। अगर गृहस्थी की बात करें तो यह शुरू होती है दाम्पत्य से। पति-पत्नी के रिश्ते में समर्पण, प्रेम और कर्तव्य का भाव ना हो तो गृहस्थी सफल हो ही नहीं सकती। हमारे प्रेम और कर्मों से ही हमारी संतानों के संस्कार और भविष्य दोनों जुड़े हैं। पति-पत्नी सिर्फ खुद के लिए ना जीएं, संतान हमारी सम्पत्ति हैं, इन्हें व्यर्थ ना जाने दें। संस्कार दें, समझ दें और कर्तव्य का भाव पैदा करें।

देखिए महाभारत में धृतराष्ट्र और गांधारी का दाम्पत्य। धृतराष्ट्र जन्म से अंधे थे। उनका विवाह सुंदर गांधारी से हुआ। गांधारी ने जब देखा कि मेरे पति जन्म से अंधे हैं तो उसने भी अपनी आंखों पर पट्टी बांध ली। पिता अंधा था, माता ने अंधत्व ओढ़ लिया। दोनों अपनी संतानों के प्रति कर्तव्य से विमुख हो गए। संस्कार और शिक्षा दोनों की व्यवस्था सेवकों के हाथों में आ गई। माता-पिता में से कोई भी उनकी ओर देखने वाला नहीं था। सो, सारी संतानें दुराचारी हो गईं।

गांधारी अगर यह सोचकर आंखों पर पट्टी नहीं बांधती कि संतानों का क्या होगा, उनके लालन-पालन की व्यवस्था कौन देखेगा तो शायद महाभारत का युद्ध होने से रुक जाता। लेकिन पति-पत्नी ने सिर्फ अपने दाम्पत्य के सुख को देखा, गृहस्थी यानी संतान और अन्य कामों की तरफ ध्यान ही नहीं दिया। संतानें सिर्फ सम्पत्ति नहीं होती, वे हमारा कर्तव्य भी हैं। अगर अपने रिश्तों में इस बात का ध्यान नहीं दिया तो परिणाम भी हमें ही देखना होगा।

गृहस्थी में हो ये भूख तो सुखी रहेंगे पति-पत्नी...
सही भूख हो तो रूखी रोटी भी छप्पन भोग का मजा दे जाती है, वरना छप्पन भोग भी अपच कर जाएंगे। भूख का अर्थ है जीवन के प्रति एक तीव्र आवश्यकता। गृहस्थी एक भूख है। अगर जीवन में यह भूख नहीं हो तो गृहस्थी के सारे सुख बेस्वाद हो जाएंगे। गृहस्थी की भूख को बढ़ाने में आपसी संतुलन और प्रेम टॉनिक का काम करते हैं। ये भूख तो बढ़ाते ही हैं, स्वाद भी इन्हीं में निहित है।

यदि इसमें प्रेम है तो स्वाद है, वरना यह बेस्वाद है। कुछ लोगों ने अपनी गृहस्थी को मन और विचार में उठी भूख की तरह बना लिया है। बिना स्वाद के खाए चले जा रहे हैं। आज भी घरों में अन्न का केंद्रीय नियंत्रण महिलाओं के हाथ में रहता है। वे चौके-चूल्हे ही नहीं, वहां से संस्कारों का संचालन भी करती हैं।

इसीलिए घर की स्त्री सम्मानित, संतुष्ट व स्वावलंबी होनी चाहिए, लेकिन उन्हें चौके तक ही सीमित कर दिया जाए, यह भी उचित नहीं। उनका यही ममता भरा भाव जब देहरी पार आकर सार्वजनिक जीवन में उतरेगा तो समाज में व्याप्त स्वार्थपरकता, निष्ठुरता, हिंसा और विलासिता का वातावरण भी नियंत्रित होगा।

पांडवों को देखिए, पांचों भाइयों की गृहस्थी में प्रेम और रिश्तों का संतुलन देखिए। पांचों भाइयों की एक पत्नी थी द्रौपदी। पांचों भाइयों की अपनी अलग-अलग गृहस्थी भी थी। फिर भी देखिए, पांचों भाइयों का प्रेम द्रौपदी के लिए एक समान था। पांचों कभी द्रौपदी को अकेला नहीं छोड़ते थे। ना ही अपनी अन्य पत्नियों के लिए उनके मन में प्रेम कम हुआ। ये सिर्फ प्रेम के कारण ही संभव है। अर्जुन, भीम की तो दो से अधिक पत्नियां थीं फिर भी द्रौपदी का स्थान सबसे अलग था।

इसका सिर्फ एक कारण था, उनकी गृहस्थी वासना पर नहीं टिकी थी। शरीर से परे भावनाएं उनके लिए ज्यादा महत्वपूर्ण थी। एक-दूसरे के प्रति सम्मान, एक दूसरे की भावनाओं का आदर, एक दूसरे के प्रति प्रेम ही आधार था।

गृहस्थी बसाने से पहले ये एक काम जरूर कर लें
भगवान राम के विवाह प्रसंग में चलते हैं। सीता का स्वयंवर चल रहा है। शिव का धनुष तोडऩे वाले से सीता का विवाह किया जाएगा, यह शर्त थी सीता के पिता जनक की। कई राजाओं और वीरों ने प्रयास किया लेकिन धनुष किसी से हिला तक नहीं। तक ऋषि विश्वामित्र ने राम को आज्ञा दी। जाओ राम धनुष उठाओ। राम ने सबसे पहले अपने गुरु को नमन किया। फिर शिव का ध्यान करके धनुष को प्रणाम किया। देखते ही देखते, धनुष को उठाया और उसे किसी खिलौने की तरह तोड़ दिया।

आखिर धनुष ही क्यों उठाया और तोड़ा गया। धनुष ही विवाह के पहले की शर्त क्यों थी। वास्तव में इसके मर्म में चलें तो इस प्रसंग को आसानी से समझा जा सकता है। अगर दार्शनिक रूप से समझें तो धनुष अहंकार का प्रतीक है। अहंकार जब तक हमारे भीतर हो, हम किसी के साथ अपना जीवन नहीं बीता सकते। अहंकार को तोड़कर ही गृहस्थी में प्रवेश किया जाए। इसके लिए विवाह करने वाले में इतनी परिपक्वता और समझ होना आवश्यक है।

भारतीय परिवार में अक्सर विवाह या तो नासमझी में किया जाता है या फिर आवेश में। आवेश सिर्फ क्रोध का नहीं होता, भावनाओं का होता है। फिर चाहे प्रेम की भावना में बहकर किया गया हो लेकिन अक्सर लोग अपनी गृहस्थी की शुरुआत ऐसे ही करते हैं।

विवाह एक दिव्य परंपरा है, गृहस्थी एक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है लेकिन हम इसे सिर्फ एक रस्म के तौर पर देखते हैं। गृहस्थी बसाने के लिए सबसे पहले भावनात्मक और मानसिक स्तर पर पुख्ता होना होता है। हम अपने आप को परख लें। घर के जो बुजुर्गवार रिश्तों के फैसले तय करते हैं वे अपने बच्चों की स्थिति को समझें। क्या बच्चे मानसिक और भावनात्मक स्तर पर इतने सशक्त हैं कि वे गृहस्थी जैसी जिम्मेदारी को निभा लेंगे।

जीवन में उत्तरदायित्व कई शक्लों में आता है। सबसे महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है शादी करके घर बसाना। गृहस्थ जीवन को कभी भी आवेश या अज्ञान में स्वीकार न करें, वरना इसकी मधुरता समाप्त हो जाएगी। आवेश में आकर गृहस्थी में प्रवेश करेंगे तो ऊर्जा के दुरुपयोग की संभावना बढ़ जाएगी। हो सकता है रिश्तों में क्रोध अधिक बहे, प्रेम कम। यदि अज्ञान में आकर घर बसाएंगे, तब हमारे निर्णय परिपक्व व प्रेमपूर्ण नहीं रहेंगे।

गृहस्थी का आधार सिर्फ धन या वासना ना रहे, इसमें इन्हें भी रखें...
समाज या देश कोई भी हो, अक्सर लोगों का वैवाहिक जीवन दो ही चीजों पर टिक जाता है अर्थ और काम। या तो रिश्ते को अर्थ की भूख ढंक लेती है या पति-पत्नी वासना की चादर ओढ़ लेते हैं। दोनों ही परिस्थितियों में गृहस्थी केवल एक समझौता हो जाती है। दाम्पत्य एक दिव्य संबंध होता है, जो सीधे परमात्मा से जोड़ता है। अपनी गृहस्थी को मंदिर बनाइए। इसमें जैसे ही परमात्मा का प्रवेश होगा, ये सांसारिकता से ऊपर उठ जाएगी।

विवाह केवल शारीरिक आवश्यकता या वश वृद्धि के लिए नहीं होता। भागवत के प्रसंग में चलिए। जहां सृष्टि का निर्माण हुआ। पहले पुरुष मनु और पहली स्त्री शतरूपा का जन्म हुआ। उन पर ही मानव वंश की वृद्धि का भार भी था लेकिन उन्होंने कभी अपने रिश्ते का आधार वासना को नहीं बनाया। उन्होंने संतान उत्पत्ति को भी परमात्मा को समर्पित किया। घोर तपस्या की। ब्रह्मा को प्रसन्न किया। वरदान मांगा देव तुल्य संतानों की उत्पत्ति का।

मनु और शतरूपा ने ही सारे मानव और देव वंश को आगे बढ़ाया लेकिन उनके संबंध में न तो अर्थ था और ना ही कभी काम आया। दोनों ही भाव उनसे दूर रहे। दोनों ने अपने दाम्पत्य में कुछ कड़े नियम तय किए। जैसे संभोग सिर्फ संतान उत्पत्ति का साधन रहे, ना कि वो पूरे रिश्ते का आधार बने। देव पूजा नियमित हो, जो भी संतान उत्पन्न हो उसमें उच्च संस्कारों का संचार किया जाए। इसलिए मनु को आदि पुरुष माना गया है। जिन्होंने समाज को पूरी व्यवस्था दी।

हम भी गृहस्थी में रहें तो पति-पत्नी दोनों अपने लिए कुछ नियम तय करें। जिसमें परिवार, संतान, समाज और परमात्मा सभी के लिए कुछ सकारात्मक और रचनात्मक हो। तभी दाम्पत्य सफल भी होगा।

गृहस्थी में ये दो बातें जरूरी हैं तभी मिलेगा सुख
अगर हम ये मानें कि गृहस्थी एक वृक्ष है तो इसके फल क्या हैं। गृहस्थी के वृक्ष के दो ही फल हो सकते हैं संतुष्टि और शांति। अगर दाम्पत्य में ये दोनों फल नहीं हैं तो गृहस्थी बंजर है। ये दो फल ही तय करते हैं कि आपका दाम्पत्य कितना सफल है।

जिस घर में संतुष्टि और शांति नहीं हो, वो असफल है। परिवार के वृक्ष पर ये फल तब ही लगेंगे, जब जड़ें गहरी और मजबूत होंगी। जड़ों में जब पर्याप्त जल और खाद डाली जाती है, तब वृक्ष फलता-फूलता है। यही प्राकृतिक समीकरण गृहस्थी पर भी लागू होता है। जैसे वृक्ष हमसे मांगते कम हैं और हमें देते ज्यादा हैं, यही सिद्धांत जब परिवार के सदस्यों में उतरता है तो गृहस्थी यहीं वैकुंठ बन जाती है। समर्पण का भाव जितना अधिक होगा, देने की वृत्ति उतनी ही प्रबल होगी।

स्त्री और पुरुष दोनों के धर्म का मूल स्रोत समर्पण में है। इस प्रवृत्ति को अधिकार द्वारा लोग समाप्त कर लेते हैं। घर-परिवार में हम जितना अधिक अधिकार बताएंगे, विघटन उतना अधिक बढ़ जाएगा। प्रेम गायब हो जाएगा और भोग घरभर में फैल जाएगा। एक-दूसरे को सुख पहुंचाने, प्रसन्न रखने के इरादे खत्म होने लगते हैं और मेरे लिए ही सबकुछ किया जाए, यह विचार प्रधान बन जाता है। स्वच्छंदता यहीं से शुरू होती है, जो परिवार के अनुशासन को लील लेती है।

भागवत में चलते हैं, ऋषि कश्यप और दिति के दाम्पत्य में। ऋषि कश्यप की कई पत्नियां थी, वे सभी बहनें थी और प्रजापति दक्ष की पुत्रियां थी। धरती के सारे जीव, देवता और दानव इन्हीं की संतानें मानी जाती हैं। अदिति से सारे देवताओं का जन्म हुआ, जबकि दिति से दानवों का। पिता एक ही है लेकिन संतानें एकदम अलग-अलग। सिर्फ दाम्पत्य में संतुष्टि और शांति का फर्क है। अदिति और कश्यम के दाम्पत्य में ये दोनों बातें थीं लेकिन दिति ने अपने भोग और वासना के आगे, शांति और संतुष्टि दोनों को त्याग दिया।

जिस समय ऋषि कश्यप संध्या-पूजन के लिए जा रहे थे, दिति ने कामवश होकर उसी समय उनसे रतिदान मांग लिया। देव पूजन के समय भी संयम नहीं बरता गया। कश्यम ने पत्नी की इच्छा तो पूरी कर दी लेकिन उसे ये भी बता दिया इस रतिदान से जो संतानें उत्पन्न होंगी वे सब दुराचारी होंगी।

गृहस्थी में वासना और देह ही सब कुछ नहीं होते। इसमें संतुष्टि और अनुशासन को भी स्थान देना होता है।

ऐसी हो गृहस्थी तो भगवान को भी झुकना पड़ता है
आज के युवा वर्ग में अक्सर गृहस्थी की शुरुआत आकर्षण से शुरू हो, वासना से गुजरती हुई, अशांति पर आकर ठहर जाती है। लोग गृहस्थी को एक समझौता या दैहिक आवश्यकता मानकर रह जाते हैं। इसलिए कई बार ऐसा भी होता है कि शादी एक बंधन और गृहस्थी एक कैद सी महसूस होने लगती है।

हम चूक जाते हैं इस रिश्ते के रचनात्मक निर्माण में। अक्सर विवाह दैहिक होकर ही रह जाता है। उसमें वो दिव्यता नहीं आ पाती जो हमें परमात्मा की राह पर ले जाए। रामायण के एक प्रसंग में अत्रि ऋषि और अनुसुईया के दाम्पत्य में चलते हैं। अत्रि ऋषि और अनुसुईया दोनों पति-पत्नी होने के साथ ही बड़े तपस्वी भी थे।

उनके तप में इतना बल था कि ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों देवताओं को उनके आगे नतमस्तक होना पड़ा। उनके रिश्ते में इतनी दिव्यता थी कि शरीर का भाव जाता रहा। एक बार तीनों देवताओं ने उनकी परीक्षा लेने की ठानी। तीनों साधु का वेश बनाकर भिक्षा मांगने आ गए। अनुसुईया भिक्षा देने आई तो तीनों ने शर्त रख दी कि भिक्षा तभी लेंगे जब अनुसुईया अपने शरीर के ऊपरी वस्त्र निकालकर आए।

यह एक कठिन समय था। कोई और स्त्री होती तो शायद तीनों को अपमानित कर भगा देती लेकिन अनुसुईया ने सोचा कि साधुओं को खाली हाथ लौटाने में अशुभ की आशंका है। पति के साथ कुछ अशुभ ना हो जाए। अनुसुईया ने मन ही मन परमात्मा का ध्यान किया। अपने ईष्ट का स्मरण करते हुए मन ही मन प्रार्थना की अगर मेरा पतिव्रत सच्चा है, मेरी तपस्या में पुण्य है तो ये तीनों साधु तत्काल बालक बन जाएं।

नन्हें अबोध बालकों के सामने इस अवस्था में जाना माता के लिए मुश्किल नहीं था। तीनों देवता, अनुसुईया के इस सतीत्व और पतिव्रत से प्रसन्न हुए। उन्होंने अनुसुईया से इसका रहस्य पूछा तो उसने तीनों देवों को बताया कि हमारे दाम्पत्य का आधार प्रेम और परमात्मा है। हमने आपसी प्रेम को एक डोर में पिरोकर उसे परमशक्ति को समर्पित कर दिया है। इस लिए हमारे दाम्पत्य में इतनी दिव्यता है। हम सिर्फ एक दूसरे से ही प्रेम और विश्वास नहीं रखते, हमने इस प्रेम और विश्वास को परमात्मा से जोड़ दिया है।

वो दाम्पत्य सबसे ज्यादा खुशहाल है जिसमें ये पांच बातें हों...
गृहस्थी कौन सी सबसे ज्यादा सुखी मानी जाती है। इस बात को लेकर लंबी बहस हो सकती है लेकिन सच तो यही है कि गृहस्थी वो ही सबसे ज्यादा सुखी है जहां प्रेम, त्याग, समर्पण, संतुष्टि और संस्कार ये पांच तत्व मौजूद हों। इनके बिना दाम्पत्य या गृहस्थी का अस्तित्व ही संभव नहीं है।

अगर इन पांच तत्वों में से कोई एक भी अगर नहीं हो तो रिश्ता फिर रिश्ता नहीं रह जाता, महज एक समझौता बन जाता है। गृहस्थी कोई समझौता नहीं हो सकती। इसमें मानवीय भावों की उपस्थिति अनिवार्य है।

आइए, भागवत में चलते हैं, देखिए महान राजा हरिश्चंद्र के चरित्र और उनकी पत्नी तारामति के साथ उनके दाम्पत्य को। हरिश्चंद्र अपने सत्य भाषण के कारण प्रसिद्ध थे। वे हमेशा सत्य बोलते थे, उनके इस सत्यव्रत में उनकी पत्नी तारामति भी पूरा सहयोग करती थी। वो ऐसी कोई परिस्थिति उत्पन्न नहीं होने देती जिससे सत्यव्रत टूटे।

अब आइए, देखें उनके दाम्पत्य में ये पांच तत्व कैसे कार्य कर रहे थे। पहला तत्व प्रेम, हरिश्चंद्र और तारामति के दाम्पत्य का पहला आधार प्रेम था। हरिश्चंद्र, तारामति से इतना प्रेम करते थे कि उन्होंने अपने समकालीन राजाओं की तरह कभी कोई दूसरा विवाह नहीं किया। एक पत्नीव्रत का पालन किया। तारामति के लिए पति ही सबकुछ थे, पति के कहने पर उसने सारे सुख और राजमहल छोड़कर खुद को दासी का रूप दे दिया। ये उनके बीच समर्पण और त्याग की भावना थी।

दोनों ने एक दूसरे से कभी किसी बात को लेकर शिकायत नहीं की। जीवन में जो मिला उसे भाग्य समझकर स्वीकार किया। दोनों ने यहीं गुण अपने पुत्र में भी दिए। प्रेम, समर्पण, त्याग, संतुष्टि और संस्कार पांचों भाव उनके दाम्पत्य में, उनकी गृहस्थी में थे, इसलिए राज पाठ खोने के बाद भी, वे अपना धर्म निभाते रहे, और इसी के बल पर एक दिन इसे फिर पा भी लिया।

सिर्फ इस एक कारण से बिगड़ते हैं पति--पत्नी के रिश्ते
अक्सर पति-पत्नी के रिश्ते में तनाव की एक बारीक सी डोर भी होती है। इसमें थोड़ा भी खिंचाव आने पर रिश्ते तन जाते हैं। ज्यादा दबाव दिया जाए तो टूट भी जाते हैं। ये डोर होती है अपेक्षा की। हम एक-दूसरे से जब रिश्ता जोड़ते हैं तो अपनी अपनेक्षाएं भी उसके साथ चिपका देते हैं। रिश्ता कोई भी हो हम उसमें कभी नि:स्वार्थ नहीं रह पाते हैं। हमारा कोई भी रिश्ता निष्काम नहीं होता।

यह अपेक्षा ही तनाव और बिखराव का कारण बनती है। अपनों से की गई अपेक्षा तो और उपद्रव खड़े करती है। अपनों से अपेक्षा पूरी हो जाए तो शांति नहीं मिलती लेकिन यदि पूरी न हो तो अशांति जरूर ज्यादा हो जाती है। इसीलिए पति-पत्नी और रिश्तेदारों के बीच के संबंध हमेशा खटपट वाले बने रहते हैं क्योंकि हमने इनका आधार अपेक्षा बना लिया है।

हम अपने भीतर पसंद, नापसंद का एक ऐसा आरक्षण कर लेते हैं कि जिसके कारण हम लोगों की अच्छाइयों से वंचित हो जाते हैं। हम जितना दूसरों की अच्छाइयों के निकट जाएंगे उतना ही अपने भीतर शांति पाएंगे।

भागवत सिखाती है कि कैसे दाम्पत्य में अपेक्षा रहीत होकर ज्यादा सुखी रहा जा सकता है। भगवान कृष्ण की प्रमुख आठ पटरानियों में रुक्मिणी और सत्यभामा को देखिए। रुक्मिणी भगवान से निर्मल स्नेह और प्रेम रखती थीं। उन्हें भगवान का जितना साथ मिल जाए, उसी में सौभाग्य मानकर संतुष्टि मानती थी लेकिन इसके विपरीत सत्यभामा अक्सर भगवान से यह अपेक्षा रखती थीं कि वे ज्यादा से ज्यादा उनके पास रहें।

हर जन्म में उन्हीं के साथ रहें। इस लालच में उन्होंने एक बार नारद की बातों में आकर भगवान को ही दान कर दिया। बहुत पीड़ा झेली, सौतनों की उलाहना भी सही। आपके दाम्पत्य में संतुष्टि का भाव होना चाहिए। जितनी ज्यादा अपेक्षा रखेंगे, उतनी ज्यादा परेशानी और अशांति आपको ही झेलनी पड़ेगी।

खुशहाल गृहस्थी के लिए पति-पत्नी के बीच ऐसा रिश्ता जरूरी है...
सफल गृहस्थी का आधार सुखी दाम्पत्य होता है। दाम्पत्य वो सुखी है जिसमें पति-पत्नी एक दूसरे के सम्मान और स्वाभिमान की मर्यादा को ना लांघें। पति, पत्नी से या पत्नी, पति से समान पूर्वक व्यवहार ना करें तो उस घर में कभी भी परमात्मा नहीं आ सकता। परमात्मा पे्रेम का भूखा है। जहां प्रेम और सम्मान होगा वहीं उसका वास भी होगा।

पतियों का पुरुषत्व वाला अहंकार उन्हें स्त्री के आगे झुकने नहीं देता। कई महिलाओं के लिए भी पुरुषों के आगे झुकने में असहज महसूस करती हैं। बस यहीं से अशांति की शुरुआत होती है दाम्पत्य में।

तुलसीदासजी ने रामचरितमानस में इसके संकेत दिए हैं। तुलसीदासजी ने शिव और पार्वती के दाम्पत्य का एक छोटा सा प्रसंग लिखा है। जिसमें बहुत गहरी बात कही है। प्रसंग है शिव-पार्वती के विवाह के बाद पार्वती ने एक दिन भगवान को शांतभाव से बैठा देख, उनसे रामकथा सुनने की इच्छा जाहिर की। यहां तुलसीदासजी लिखते हैं कि

बैठे सोह कामरिपु कैसे। धरें सरीरु सांतरसु जैसे।।
पारबती भल अवसरु जानी। गई संभु पहि मातु भवानी।।

एक दिन भगवान शिव शांत भाव से बैठे थे। तो पार्वती ने सही अवसर जानकर उनके पास गई। देखिए पत्नी के मन में पति को लेकर कितना आदर है कि उनसे बात करने के लिए भी सही अवसर की प्रतीक्षा की। जबकि आजकल पति-पत्नी में एक-दूसरे के समय और कार्य को लेकर कोई सम्मान का भाव नहीं रह गया। फिर तुलसीदासजी ने लिखा है -

जानि प्रिया आदरु अति कीन्हा। बाम भाग आसनु हर दीन्हा।।

शिव ने पार्वती को अपना प्रिय जानकर उनका बहुत आदर किया। अपने बराबर वाम भाग में आसन बैठने को दिया। पति, पत्नी को आदर दे रहा है। ये भारतीय संस्कृति में ही संभव है। कई लोग आज गृहस्थी को जंजाल भी कहते हैं। लेकिन अगर एक-दूसरे के प्रति इस तरह प्रेम और सम्मान का भाव हो तो गृहस्थी कभी जंजाल नहीं लगेगी।

अपनी गृहस्थी को सुखी और सफल कैसे बनाएं? सीखें ये सूत्र...
पति-पत्नी किसी भी गृहस्थी की धुरी होते हैं। इनकी सफल गृहस्थी ही सुखी परिवार का आधार होती है। अगर पति-पत्नी के रिश्ते में थोड़ा भी दुराव या अलगाव है तो फिर परिवार कभी खुश नहीं रह सकता। परिवार का सुख, गृहस्थी की सफलता पर निर्भर करता है।

पति-पत्नी का संबंध तभी सार्थक है जबकि उनके बीच का प्रेम सदा तरोताजा बना रहे। तभी तो पति-पत्नी को दो शरीर एक प्राण कहा जाता है। दोनों की अपूर्णता जब पूर्णता में बदल जाती है तो अध्यात्म के मार्ग पर बढऩा आसान और आंनदपूर्ण हो जाता है। मात्र पत्नी से ही सारी अपेक्षाएं करना और पति को सारी मर्यादाओं और नियम-कायदों से छूट दे देना बिल्कुल भी निष्पक्ष और न्यायसंगत नहीं है। स्त्री में ऐसे कई श्रेष्ठ गुण होते हैं जो पुरुष को अपना लेना चाहिए। प्रेम, सेवा, उदारता, समर्पण और क्षमा की भावना स्त्रियों में ऐसे गुण हैं, जो उन्हें देवी के समान सम्मान और गौरव प्रदान करते हैं।

जिस प्रकार पतिव्रत की बात हर कहीं की जाती है, उसी प्रकार पत्नी व्रत भी उतना ही आवश्यक और महत्वपूर्ण है। जबकि गहराई से सोचें तो यही बात जाहिर होती है कि पत्नी के लिये पति व्रत का पालन करना जितना जरूरी है उससे ज्यादा आवश्यक है पति का पत्नी व्रत का पालन करना। दोनों का महत्व समान है। कर्तव्य और अधिकारों की दृष्टि से भी दोनों से एक समान ही हैं।

जो नियम और कायदे-कानून पत्नी पर लागू होते हैं वही पति पर भी लागू होते हैं। ईमानदारी और निष्पक्ष होकर यदि सोचें तो यही साबित होता है कि स्त्री पुरुष की बजाय अधिक महम्वपूर्ण और सम्मान की हकदार है।

देखिए भगवान राम ने कैसे सीता से अपने विवाह के साथ ही सफल दाम्पत्य की नींव रखी। सीता को भगवान राम ने विवाह के बाद सबसे पहला उपहार क्या दिया। राम ने सीता को वचन दिया कि जिस तरह से दूसरे राजा कई रानियां रखते हैं, कई विवाह करते हैं, वे ऐसा कभी नहीं करेंगे। हमेशा सीता के प्रति ही निष्ठा रखेंगे। विवाह के पहले ही दिन एक दिव्य विचार आया। रिश्ते में भरोसे और आस्था का संचार हो गया। सफल गृहस्थी की नींव पड़ गई। राम ने अपना यह वचन निभाया भी। सीता को ही सारे अधिकार प्राप्त थे। राम ने उन्हें कभी कमतर नहीं आंका।

अगर एकांत में पति-पत्नी का व्यवहार ऐसा हो तो गृहस्थी स्वर्ग है...
सुंदर कांड का प्रसंग है। जब हनुमान ने सीता को राम की अंगुठी दी। सीता चकित थीं और डरी हुई भी। वे ये मानने को तैयार नहीं थीं कि राम का दूत कोई वानर होगा। वो इसे रावण की ही कोई माया समझ रही थीं। हनुमान ने उन्हें समझाया और कहा

रामदूत मैं मातु जानकी। सत्य सपथ करूणानिधान की।।

हे माता मैं भगवान राम का ही दूत हूं। करुणा निधान श्रीराम की ही शपथ खाकर कहता हूं।

जैसे ही हनुमान ने श्री राम को करूणा निधान कहा, सीता को भरोसा हो गया कि ये राम का ही भेजा हुआ दूत है। ऐसा इस कारण से क्योंकि सीता ही भगवान राम को अकेले में करूणा निधान कहती थीं। अपने द्वारा उपयोग किया जाने वाला गुप्त संबोधन जब उन्होंने हनुमान के मुंह से सुना तो तत्काल पहचान लिया।

आज के दाम्पत्य में ऐसा प्रेम नहीं है। पत्नी-पति के एकांत में संबोधन ऐसे हो सकते हैं जो शायद सार्वजनिक नहीं किए जा सकते हों। हमारे दाम्पत्य में अगर डोर प्रेम, आदर और विश्वास की है तो उससे बने संबोधन भी निश्चित ही सुंदर होंगे।

पति-पत्नी को कोशिश करनी चाहिए कि एकांत में भी एक-दूसरे के लिए उपयोग किए जाने वाले संबोधनों में प्रेम, आदर दोनों झलके। अक्सर पति-पत्नी का एकांत सिर्फ तनाव या वासना इन दो भावों में से किसी एक का केंद्र होकर रह जाता है।

अगर हम एक दूसरे के प्रति एकांत में भी वैसा ही आदर और प्रेम रखें तो रिश्तों में तनाव कभी आ ही नहीं सकता। वरन दाम्पत्य महकने लगता है। हमेशा प्रेम से रहें। जीवन साथी से कठोर लहजे में बात करने से पहले उसकी और खुद की, दोनों की गरिमा का ध्यान रखना जरूरी है।

पति-पत्नी का रिश्ता टूट सकता है अगर उसमें ये बात ना हो....
रामचरित मानस के बालकांड में शिव और सती का एक प्रसंग है। शिव और सती, अगस्त ऋषि के आश्रम में रामकथा सुनने गए। अगस्त शिव के शिष्य भी हैं। राम, शिव के आराध्य देव। सती को यह थोड़ा अजीब लगा। कथा में ध्यान नहीं रहा, पूरे समय सोचने में बिता दिया कि शिव जो तीनों लोकों के स्वामी माने जाते हैं वे राम की कथा सुनने के लिए आए हैं। कथा समाप्त हुई और शिव-सती लौटने लगे। उस समय रावण ने सीता का हरण किया था और राम सीता के वियोग में दु:खी जंगलों में घूम रहे थे।

सती को आश्चर्य हुआ। जिसे शिव अपना आराध्य कहते हैं, वो एक स्त्री के वियोग में साधारण इंसान की तरह रो रहा है। सती ने शिव के सामने ये बात रखी तो शिव ने समझाया कि ये तो सब उनकी लीला है। भ्रम में मत पड़ो। लेकिन सती नहीं मानी। उन्होंने राम की परीक्षा लेनी चाही। शिव ने रोका, लेकिन सती पर कोई असर नहीं हुआ। वे सीता का रूप धर कर राम के सामने जा पहुंची।

राम ने सती को पहचान लिया और पूछा हे माता आप अकेली इस घने जंगल में क्या कर रही हैं? शिवजी कहां हैं? सती एकदम डर गई और चुपचाप शिव के पास लौट आई। शिव ने पूछा तो वे कुछ जवाब ना दे सकीं। लेकिन शिव ने सब देख लिया कि सती ने सीता का रूप बनाया था। जिन राम को वे अपना आराध्य देव मानते हैं, उनकी पत्नी का रूप सती ने बना लिया था। शिव ने मन ही मन सती का त्याग कर दिया। सती भी ये बात समझ गई और दक्ष के यज्ञ में जाकर आत्मदाह कर लिया।

ये प्रसंग बताता है कि पति-पत्नी में अगर थोड़ा भी अविश्वास हो तो रिश्ता खत्म होने की कगार पर भी पहुंच जाता है। कई बार पत्नियां, पति की और पति, पत्नी की बात पर विश्वास नहीं करते। नतीजा रिश्ते में बिखराव आ जाता है।

गृहस्थी को सुख से चलाना है तो पति-पत्नी को एक-दूसरे की आस्था और निष्ठा पर भरोसा करना पड़ेगा। अविश्वास तनाव पैदा करता है, तनाव से दुराव का प्रवेश होता है। अपने रिश्तों को टूटने से बचाना है तो एक-दूसरे पर भरोसा करें। अन्यथा इसके परिणाम गंभीर हो सकते हैं।

पति-पत्नी के रिश्ते में प्रेम कायम रखना है तो यह जरुरी है....
अक्सर पति-पत्नी के संबंधों में थोड़े समय बाद ही तनाव पैदा होने लग जाता है। गृहस्थी एक जंजाल लगने लगती है। ऐसा सिर्फ एक ही कारण से होता है। वो कारण है पति-पत्नी के विचारों का तालमेल नहीं होना। एक-दूसरे को समझे बिना ही अक्सर गृहस्थी शुरू हो जाती है, ना परिवार को समझा, ना एक दूसरे को।

भागवत के एक प्रसंग में देखिए, भगवान कृष्ण की पत्नी सत्यभामा द्रौपदी से पूछ रही है कि वो पांच पतियों को अपने वश में कैसे रखती है। कोई भी उसकी बात नहीं काटता। हर पति उसे उतना ही चाहता है। आखिर ऐसा कौन सा जादू है। द्रौपदी ने जो जवाब दिया वो आज हर एक गृहस्थ के लिए जरूरी है।

भागवत हमें इसके बारे में भी गंभीरता से समझाती है। एक प्रसंग है द्रोपदी भगवान कृष्ण की रानी सत्यभामा को समझा रही हैं कि महिला परिवार को प्रेम से कैसे चला सकती हैं। द्रौपदी कह रही है कि जो समझदार, परिपक्व और सुघढ़ गृहिणी होती है वो एक काम यह करे कि अपने परिवार के रिश्तों की पूरी जानकारी रखे। एक भी रिश्ता चूक गए तो वह रिश्ता अपमानित हो सकता है। प्रत्येक रिश्ते की जानकारी रखिए जो पुरूखों से चले आ रहे हैं। द्रौपदी कहती है कि मैं अपने पांडव परिवार के एक-एक रिश्ते से परिचित हूं। सबसे पहले मैंने इसका अध्ययन किया।

आप देखिए पांच हजार साल पहले चेतावनी दी जा रही है। अभी भी ऐसा होता है कभी घर में पुरूष का निधन हो जाए तो मालूम ही नहीं रहता कि कितनी बीमे की पालिसी और कहां इनवेस्टमेंट किया। स्त्रियों को पुरूष अपना काम बताने में आज भी शर्म करते हैं या फिर पता नही किस हीनता की अनुभूति करते हैं।

परिवार में प्रेम कायम रखना हो तो अपने जीवन में पारदर्शिता लाइए। अहंकार या अज्ञान के कारण कोई भी बात रहस्य ना रखें। परिवार के लोग एक दूसरे से दुराव-छुपाव रखने लगें तो प्रेम का अंत होना तय है। प्रेम को कायम रखने के लिए हमारे पारिवारिक जीवन में खुलापन होना जरूरी है। परिवार के साथ बैठकर अपनी बातें साझा करें, इससे प्रेम तो बढ़ेगा ही, साथ ही कई समस्याओं का निराकरण भी स्वत: ही हो जाएगा।

पति-पत्नी ध्यान रखें ये दो जरूरी बातें, तभी मिलेगा सुख
अगर हम ये मानें कि गृहस्थी एक वृक्ष है तो इसके फल क्या हैं। गृहस्थी के वृक्ष के दो ही फल हो सकते हैं संतुष्टि और शांति। अगर दाम्पत्य में ये दोनों फल नहीं हैं तो गृहस्थी बंजर है। ये दो फल ही तय करते हैं कि आपका दाम्पत्य कितना सफल है।

जिस घर में संतुष्टि और शांति नहीं हो, वो असफल है। परिवार के वृक्ष पर ये फल तब ही लगेंगे, जब जड़ें गहरी और मजबूत होंगी। जड़ों में जब पर्याप्त जल और खाद डाली जाती है, तब वृक्ष फलता-फूलता है। यही प्राकृतिक समीकरण गृहस्थी पर भी लागू होता है। जैसे वृक्ष हमसे मांगते कम हैं और हमें देते ज्यादा हैं, यही सिद्धांत जब परिवार के सदस्यों में उतरता है तो गृहस्थी यहीं वैकुंठ बन जाती है। समर्पण का भाव जितना अधिक होगा, देने की वृत्ति उतनी ही प्रबल होगी।

स्त्री और पुरुष दोनों के धर्म का मूल स्रोत समर्पण में है। इस प्रवृत्ति को अधिकार द्वारा लोग समाप्त कर लेते हैं। घर-परिवार में हम जितना अधिक अधिकार बताएंगे, विघटन उतना अधिक बढ़ जाएगा। प्रेम गायब हो जाएगा और भोग घरभर में फैल जाएगा। एक-दूसरे को सुख पहुंचाने, प्रसन्न रखने के इरादे खत्म होने लगते हैं और मेरे लिए ही सबकुछ किया जाए, यह विचार प्रधान बन जाता है। स्वच्छंदता यहीं से शुरू होती है, जो परिवार के अनुशासन को लील लेती है।

भागवत में चलते हैं, ऋषि कश्यप और दिति के दाम्पत्य में। ऋषि कश्यप की कई पत्नियां थी, वे सभी बहनें थी और प्रजापति दक्ष की पुत्रियां थी। धरती के सारे जीव, देवता और दानव इन्हीं की संतानें मानी जाती हैं। अदिति से सारे देवताओं का जन्म हुआ, जबकि दिति से दानवों का। पिता एक ही है लेकिन संतानें एकदम अलग-अलग। सिर्फ दाम्पत्य में संतुष्टि और शांति का फर्क है। अदिति और कश्यम के दाम्पत्य में ये दोनों बातें थीं लेकिन दिति ने अपने भोग और वासना के आगे, शांति और संतुष्टि दोनों को त्याग दिया।

जिस समय ऋषि कश्यप संध्या-पूजन के लिए जा रहे थे, दिति ने कामवश होकर उसी समय उनसे रतिदान मांग लिया। देव पूजन के समय भी संयम नहीं बरता गया। कश्यम ने पत्नी की इच्छा तो पूरी कर दी लेकिन उसे ये भी बता दिया इस रतिदान से जो संतानें उत्पन्न होंगी वे सब दुराचारी होंगी।

गृहस्थी में वासना और देह ही सब कुछ नहीं होते। इसमें संतुष्टि और अनुशासन को भी स्थान देना होता है।

ये पांच बातें वैवाहिक जीवन को बनाती हैं खुशहाल...
गृहस्थी कौन सी सबसे ज्यादा सुखी मानी जाती है। इस बात को लेकर लंबी बहस हो सकती है लेकिन सच तो यही है कि गृहस्थी वो ही सबसे ज्यादा सुखी है जहां प्रेम, त्याग, समर्पण, संतुष्टि और संस्कार ये पांच तत्व मौजूद हों। इनके बिना दाम्पत्य या गृहस्थी का अस्तित्व ही संभव नहीं है।

अगर इन पांच तत्वों में से कोई एक भी अगर नहीं हो तो रिश्ता फिर रिश्ता नहीं रह जाता, महज एक समझौता बन जाता है। गृहस्थी कोई समझौता नहीं हो सकती। इसमें मानवीय भावों की उपस्थिति अनिवार्य है।

आइए, भागवत में चलते हैं, देखिए महान राजा हरिश्चंद्र के चरित्र और उनकी पत्नी तारामति के साथ उनके दाम्पत्य को। हरिश्चंद्र अपने सत्य भाषण के कारण प्रसिद्ध थे। वे हमेशा सत्य बोलते थे, उनके इस सत्यव्रत में उनकी पत्नी तारामति भी पूरा सहयोग करती थी। वो ऐसी कोई परिस्थिति उत्पन्न नहीं होने देती जिससे सत्यव्रत टूटे।

अब आइए, देखें उनके दाम्पत्य में ये पांच तत्व कैसे कार्य कर रहे थे। पहला तत्व प्रेम, हरिश्चंद्र और तारामति के दाम्पत्य का पहला आधार प्रेम था। हरिश्चंद्र, तारामति से इतना प्रेम करते थे कि उन्होंने अपने समकालीन राजाओं की तरह कभी कोई दूसरा विवाह नहीं किया। एक पत्नीव्रत का पालन किया। तारामति के लिए पति ही सबकुछ थे, पति के कहने पर उसने सारे सुख और राजमहल छोड़कर खुद को दासी का रूप दे दिया। ये उनके बीच समर्पण और त्याग की भावना थी।

दोनों ने एक दूसरे से कभी किसी बात को लेकर शिकायत नहीं की। जीवन में जो मिला उसे भाग्य समझकर स्वीकार किया। दोनों ने यहीं गुण अपने पुत्र में भी दिए। प्रेम, समर्पण, त्याग, संतुष्टि और संस्कार पांचों भाव उनके दाम्पत्य में, उनकी गृहस्थी में थे, इसलिए राज पाठ खोने के बाद भी, वे अपना धर्म निभाते रहे, और इसी के बल पर एक दिन इसे फिर पा भी लिया।

पति-पत्नी को हमेशा ध्यान रखना चाहिए ये 7 बातें, क्योंकि...
दाम्पत्य कहते किसे हैं? क्या सिर्फ विवाहित होना या पति-पत्नी का साथ रहना दाम्पत्य कहा जा सकता है। पति-पत्नी के बीच का ऐसा धर्म संबंध जो कर्तव्य और पवित्रता पर आधारित हो। इस संबंध की डोर जितनी कोमल होती है, उतनी ही मजबूत भी। जिंदगी की असल सार्थकता को जानने के लिये धर्म-अध्यात्म के मार्ग पर दो साथी, सहचरों का प्रतिज्ञा बद्ध होकर आगे बढऩा ही दाम्पत्य या वैवाहिक जीवन का मकसद होता है।

यह एक वैज्ञानिक तथ्य है कि शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक स्तरों पर स्त्री और पुरुष दोनों ही अधूरे होते हैं। दोनों के मिलन से ही अधूरापन भरता है। दोनों की अपूर्णता जब पूर्णता में बदल जाती है तो अध्यात्म के मार्ग पर बढऩा आसान और आंनद पूर्ण हो जाता है। दाम्पत्य की भव्य इमारत जिन आधारों पर टिकी है वे मुख्य रूप से सात हैं। रामायण में राम सीता के दाम्पत्य में ये सात बातें देखने को मिलती हैं।

संयम : यानि समय-यमय पर उठने वाली मानसिक उत्तेजनाओं जैसे- कामवासना, क्रोध, लोभ, अहंकार तथा मोह आदि पर नियंत्रण रखना। राम-सीता ने अपना संपूर्ण दाम्पत्य बहुत ही संयम और प्रेम से जीया। वे कहीं भी मानसिक या शारीरिक रूप से अनियंत्रित नहीं हुए।

संतुष्टि : यानि एक दूसरे के साथ रहते हुए समय और परिस्थिति के अनुसार जो भी सुख-सुविधा प्राप्त हो जाए उसी में संतोष करना। दोनों एक दूसरे से पूर्णत: संतुष्ट थे। कभी राम ने सीता में या सीता ने राम में कोई कमी नहीं देखी।

संतान : दाम्पत्य जीवन में संतान का भी बड़ा महत्वपूर्ण स्थान होता है। पति-पत्नी के बीच के संबंधों को मधुर और मजबूत बनाने में बच्चों की अहम् भूमिका रहती है। राम और सीता के बीच वनवास को खत्म करने और सीता को पवित्र साबित करने में उनके बच्चों लव और कुश ने बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।

संवेदनशीलता : पति-पत्नी के रूप में एक दूसरे की भावनाओं का समझना और उनकी कद्र करना। राम और सीता के बीच संवेदनाओं का गहरा रिश्ता था। दोनों बिना कहे-सुने ही एक दूसरे के मन की बात समझ जाते थे।

संकल्प : पति-पत्नी के रूप अपने धर्म संबंध को अच्छी तरह निभाने के लिये अपने कर्तव्य को संकल्पपूर्वक पूरा करना।

सक्षम : सामर्थ्य का होना। दाम्पत्य यानि कि वैवाहिक जीवन को सफलता और खुशहाली से भरा-पूरा बनाने के लिये पति-पत्नी दोनों को शारीरिक, आर्थिक और मानसिक रूप से मजबूत होना बहुत ही आवश्यक है।

समर्पण : दाम्पत्य यानि वैवाहिक जीवन में पति-पत्नी का एक दूसरे के प्रति पूरा समर्पण और त्याग होना भी आवश्यक है। एक-दूसरे की खातिर अपनी कुछ इच्छाओं और आवश्यकताओं को त्याग देना या समझौता कर लेना दाम्पत्य संबंधों को मधुर बनाए रखने के लिये बड़ा ही जरूरी होता है।



जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है....
मनीष

Friday, March 4, 2016

मातृभक्ति (Matribhakti )

माता-पिता को स्वार्थपूर्ति का माध्यम न समझें
माता-पिता अपने बच्चों के लिए जीवन में बहुत कुछ करते हैं। वे बच्चों की जरुरतों को पूरा ध्यान रखते हैं लेकिन अक्सर देखने में यह आता है कि जब बच्चे बड़े हो जाते हैं और मां-बाप बुढ़े। तो बच्चे उन्हें घर का अनावश्यक सामान समझने लगते हैं जबकि उम्र के इस पढ़ाव पर उन्हें अपनों के प्रेम की सबसे ज्यादा आवश्यकता होती है। इसलिए अपने माता-पिता की आवश्यकताओं को समझें और उनके साथ प्रेमपूर्वक व्यवहार करें।

एक बहुत बड़ा पेड़ था। उस पेड़ के आस-पास एक बच्चा खेलने आया करता था। बच्चे और पेड़ की दोस्ती हो गई। पेड़ ने उस बच्चे से कहा तू आता है तो मुझे बहुत अच्छा लगता है। बच्चा बोला लेकिन तुम्हारी शाखाएं बहुत ऊंची है मुझे खेलने में दिक्कत होती है। बच्चे के लिए पेड़ थोड़ा नीचे झुक गया। वह बच्चा खेलने लगा। एक बार बहुत दिनों तक बच्चा नहीं आया तो पेड़ उदास रहने लगा। और जब वह आया तो वह युवा हो चुका था। पेड़ ने उससे पूछा तू अब क्यों मेरे पास नहीं आता? वह बोला अब मैं बड़ा हो गया हूं। अब मुझे कुछ कमाना है। पेड़ बोला मैं नीचे झुक जाता हूं तो मेरे फल तोड़ ले और इसे बेच दे। तेरी समस्या का समाधान हो जाएगा।

इस तरह वह पेड़ जवानी में भी उसके काम आ गया। फिर बहुत दिनों तक वह नहीं आया। पेड़ फिर उदास रहने लगा। फिर बहुत दिनों वह वापस लौटा तो पेड़ ने कहा तुम कहा रह गए थे। वह बोला क्या बताऊं बड़ी समस्या है। परिवार बड़ा हो गया है अब मुझे एक घर बनाना है। पेड़ बोला एक काम कर मुझे काट ले। मेरी लकडिय़ां तेरे कुछ काम आएंगी। उसने पेड़ काट डाला। अब केवल एक ठूंठ रह गया पेड़ के स्थान पर। फिर लंबे अरसे तक वह नहीं आया। फिर एक दिन वह आया तो बड़ा चिंतित था। पेड़ बोला तुम कहा रह गए थे और इतने परेशान क्यों हो। वह बोला मैं तो पूरी तरह से परिवार में उलझ गया हूं। बाल-बच्चे हो गए हैं।

बेटी के लिए रिश्ता देखने जाना है। रास्ते में नदी है कैसे जाऊँ? पेड़ बोला। तू एक काम कर यह जो थोड़ी लकड़ी और बची है इसे काटकर एक नाव बना और अपनी बेटी के लिए लड़का देखने जा। उसने ऐसा ही किया। फिर वह बहुत दिनों तक नहीं आया। बहुत दिनों बाद जब वह आया तो बड़ा परेशान था। पेड़ ने पूछा अब क्या हुआ? वह बोला मैंने बच्चों को बड़ा तो कर दिया पर अब यह चिंता है कि मेरे बच्चे मेरे चिता की लकड़ी भी लाएंगे कि नहीं? पेड़ ने कहा ये जो भी कुछ बचा है मेरे शरीर का हिस्सा। इसे भी तू काट ले यह तेरे अंतिम समय में काम आएगा। और उसने पेड़ का बाकी हिस्सा भी काट लिया। और इस तरह उस पेड़ ने उस बच्चे के प्रेम में अपना संपूर्ण व्यक्तित्व ही न्यौछावर कर दिया।

सफलता के नशे में माता-पिता को मत भूलो
राजा ज्ञानसेन के दरबार में प्राय: शास्त्रार्थ हुआ करता था। शास्त्रार्थ में जो विजयी होता, ज्ञानसेन उसे धन और मान से उपकृत करते। ज्ञान की ऐसी प्रतिस्पर्धा और फिर श्रेष्ठ ज्ञानी उपलब्धि में राजा ज्ञानसेन को आनंद की अनुभूति होती थी।

एक दिन ज्ञान सेन के दरबार में शास्त्रार्थ चल रहा था। उस शास्त्रार्थ में विद्वान भारवि विजेता घोषित किए गए। राजा ज्ञानसेन ने उन्हें हाथी पर बैठाया और स्वयं चंवर डुलाते हुए उनके घर तक ले गए। भारवि जब ऐसे बड़े सम्मान के साथ घर पहुंचे तो उनके माता-पिता की खुशी का ठीकाना न रहा। घर लौटकर भारवि ने सर्वप्रथम अपनी माता को प्रणाम किया किंतु पिता की ओर उपेक्षा भरा अभिवादन मात्र किया। माता को यह उचित नहीं लगा। उन्होंने भारवि को साष्टांग दंडवत के लिए इशारा किया तो उन्होंने बड़े बेमन से इसका निर्वाह किया।

पिता ने भी अनिच्छा से चिरंजीवी रहो कह दिया। बात समाप्त हो गई किंतु माता-पिता खिन्न बने रहे। उन्हें वैसी प्रसन्नता न थी जैसी होना चाहिए थी। कारण भी स्पष्ट था। कारण भी स्पष्ट था। किसी बड़ी उपलब्धि को अर्जित करने पर संतान जिस विनम्रता के भाव से माता-पिता को नमन करती हैं उसका भारवि में सर्वथा अभाव था। उन्हें तो राजा द्वारा हाथी पर बैठाकर चंवर डुलाते हुए घर तक लाने का अहंकार था। इस अहंकार में उन्होंने शिष्टाचार व विनम्रता को भुला दिया था। थोड़े दिनों तक माता-पिता की खिन्नता देखने के बाद भारवि माता से कारण पूछने गए। माता बोलीं- विजयी होकर लौटने के पीछे तुम्हारे पिता की कठोर साधना को तुम भुल गए। शास्त्रार्थ के दसों दिन उन्होंने मात्र जल लेकर तुम्हारी सफलता के लिए उपवार किया और उससे पूर्व पढ़ाने में कितना श्रम किया। यह तुम्हें याद ही न रहा। भारवि को अपनी भूल का अहसास हुआ और उन्होंने माता-पिता से क्षमा मांगी।

वस्तुत: सफलता कितनी ही बड़ी क्यों ना हो ङ्क्षकतु उसके मूल में माता-पिता के स्नेह एवं परिश्रम को भुलाना नहीं चाहिए। उनसे सदैव विनम्र बने रहना चाहिए क्योंकि विनम्रता से ही ज्ञान शोभा पाता है।

मातृभक्त बालक डाकू के सामने भी सत्य बोला
एक बार एक लंबा काफिला बगदाद की ओर जा रहा था। रास्ते में उस पर डाकू टूट पड़े और लूटमार करने लगे। चारो ओर हाहाकार मच गया। उस काफिले में 9 वर्ष का एक बालक भी था, जो एक और चुपचाप खड़ा इस लूटमार को देख रहा था। एक डाकू की नजर बालक पर पड़ी। उसने बालक से पूछा- तेरे पास भी कुछ है?
बालक ने उत्तर दिया- मेरे पास 40 अशर्फियां है।
डाकू हंसा और बोला- क्या कहा? तेरे 40 अशर्फियां हैं।

बालक ने कहा- मैं सत्य कहा रहा हूं। डाकू ने बालक का हाथ पकड़कर सरदार के पास ले गया और बोला- यह बालक अपने पास 40 अशर्फियां बताता है। सरदार ने बालक को अशर्फियां बताने को कहा। बालके ने अपनी सदरी उतारी और उसके अस्तर को फाड़कर अशर्फियां सामने डाल दी। डाकू हैरान रह गए। सरदार ने पूछा- लड़के, अशर्फियां इस प्रकार से रखने का उपाया किसने बताया? बालक ने कहा- मेरी मां ने इन्हें सदरी के अस्तर में सी दिया था। जिससे किसी को इसका पता न चले।

सरदार ने अचरज से पूछा- तो तूने इनके विषय में हमें क्यों बताया?
बालक बोला- चलते समय मेरी मां ने कहा था कि कभी झूठ न बोलना।
झूठ बोलना पाप है। इसलिए मैं आपसे झूठ कैसे बोलता?
डाकू बच्चे से बहुत प्रभावित हुआ और वह अपने साथियों से बोला- यह छोटा सा बच्चा अपनी मां का इतना कहना मानता है कि ऐसे संकट में भी झूठ नहीं बोला और हम लोग बड़े होकर भी सन्मार्ग पर नहीं चलते।
सभी डाकूओं ने उसी क्षण से लूटमार त्याग दी और उस मातृभक्त बालक को अपना गुरु स्वीकार किया। इस बालक का नाम अब्दुल काफिर था। जो आगे चलकर एक महान संत हुआ और आज भी मुसलमानों में बड़े पीर के नाम से प्रसिद्ध है। वस्तुत: मां की शिक्षा उस नींव को तैयार करती हैं, जिस पर सज्जनता का ऐसा भव्य महल खड़ा होता है, जो स्थाई यश का आधार बनता है। इसलिए मां द्वारा प्रदत्त ज्ञान को वाणी के साथ ही व्यवहार का अंग भी बनाइए।

सभी मुश्किलों का हल है आत्म बल
अमेरिका में एक छोटा-सा परिवार रहता था। माता-पिता और दो बच्चे। चारों प्रेम से रहते थे।सर्दियों के मौसम की बात है। दोनों बच्चे घर में अकेले थे। ठंड की अधिकता ने दोनों की अंगीठी सुलगाकर तापने के लिए प्रेरित किया। दोनों छोटे थे। इसलिए एक गलती कर बैठे। अंगीठी सुलगाने के प्रयास में मिट्टी के तेल के स्थान पर पेट्रोल डाल दिया। पेट्रोल की आग एकदम भड़क उठी। जिसमें एक बच्चा तो तत्काल मर गया और दूसरा बहुत अधिक जल गया। उसे अस्पताल पहुंचाया गया। वह लंबे समय तक अस्पताल में रहा और ठीक भी हो गया, लेकिन अब वह पूर्व की तरह सामान्य दिखाई देने वाला बच्चा नहीं रह गया था। वह बेहद कुरूप और अपंग हो गया था। उसके दोनों पैर लकड़ी की तरह सूख चुके थे। पहिएदार कूर्सी पर बैठकर जब वह घर लौटा तो उसकी मां फफक-फफककर रो पड़ी। पिता भी निराशा के गहन अंधकार में डूबे थे।

किसी को आशा नहीं थी कि वह फिर चल सकेगा, किंतु उस बच्चे ने हिम्मत नहीं छोड़ी। वह अपने वर्तमान से अधिक बेहतर स्थिति पाने के लिए निरंतर प्रयास करता रहा। खिन्न होने के स्थान पर उसने प्रतिकूलताओं को चुनौती के रूप में लिया और उसे अनुकूलता में बदलने के लिए अपनी बुद्धि, पौरुष और कौशल को दांव पर लगा दिया। उसने बैसाखी के सहारे न केवल चलने में बल्कि दौडऩे में भी सफलता पाई और अनेक पुरस्कार भी प्राप्त किए। अपना अध्ययन जारी रखते हुए एम.ए. और पी.एच.डी. उत्तीर्ण की और विश्वविद्यालय के निदेशक पद पर आसीन हुआ। साहस की अद्भूत बानगी पेश करते हुए द्वितीय विश्वयुद्ध में मोर्चे पर भी गया।

जब वह निदेशक पद से निवृत्त हुआ, तो अपनी जमापूंजी से अपंगों को स्वावलंबन देने वाली एक संस्था खोली, जिसमें हजारों अपंगों के रहने, पढऩे और कमाने का सुव्यवस्थित प्रबंध था। ऐसे दृढ़ संकल्पवान पुरुष का नाम था- ग्रेट कनिंघम, जिन्हें अमेरिका में देवता की भांति पूजा जाता है।कथा संदेश देती है कि व्यक्ति की सभी मुश्किलों का हल एक मात्र आत्मबल होता है। कितनी भी विकट परिस्थिति हो, किंतु आत्मबल दृढ़ होने पर उस पर आसानी से विजय प्राप्त कर लक्ष्य की उपलब्धि की जा सकती है।

उस बालक ने मां के लिए प्राण दे दिए
सन् 1880 ई. में उड़ीसा में बड़ा भारी अकाल पड़ा था। अन्न के बिना लोग भूखों मर रहे थे। एक गरीब परिवार में एक पुरुष, उसकी पत्नी व दो बच्चे थे। जब घर में भोजन के लिए कुछ भी नहीं रह गया और कहीं मजदूरी भी नहीं मिली, तो पुरुष से अपनी पत्नी व बच्चे का भुख से तड़पना नहीं देखा गया। वह उन्हें छोड़कर कहीं चला गया। बेचारी उस स्त्री ने घर के बर्तन और कपड़े बेचकर जितने दिन काम चल सकता था, चलाया। जब घर खाली हो गया, तो वह दोनों बच्चों को लेकर भीख मांगने निकली। भीख में जो कुछ मिलता था, उसे पहले बच्चों को खिलाकर तब वह बचा हुआ खाती और न बचता, तो पानी पीकर ही सो जाया करती थी।

थोड़े दिनों के बाद वह स्त्री बीमार हो गई। उसके दस वर्षीय बड़े लड़के को भीख मांगने जाना पड़ता था। किंतु वह बालक भीख में जो कुछ पाता था, उससे तीनों का पेट नहीं भरता था। माता ज्वर में बेसुध पड़ी रहती थी और छोटे बच्चे को संभालने वाला कोई न था। वह भूख के मारे इधर-उधर भटका करता और एक दिन वह मर गया। बड़ा लड़का जो भीख में पाता वह मां को खिला देता। एक बार कई दिनों तक उसे अपने भोजन के लिए कुछ नहीं मिला। वह एक सज्जन पुरुष के घर पहुंचा, तो उन्होंने कहा- ‘‘मेरे पास थोड़े-सा भात है। तुम यहीं बैठकर खा लो।’’ लड़के ने बीमार मां का हवाला देते हुए उसके लिए दो मुट्ठी भात की मांग की। उन सज्जन ने कहा- ‘‘भात इतना कम है कि तुम्हारा भी पेट नहीं भरेगा। इसलिए तुम्हीं खा लो। तब लड़का बोला- ‘‘मां जब अच्छी थी, तो मुझे खिलाकर स्वयं बिना खाए रह जाती थी। अब उसके बीमार होने पर मैं उसे बिना खिलाए कैसे खा सकता हूं?’’ लड़के की मातृभक्ति देखकर सज्जन बहुत प्रसन्न हुए और भात लेने घर में गए। किंतु लौटकर आने पर देखा कि वह लड़का भूमि पर गिरकर मृत्यु को प्राप्त हो चुका था। यह थी उस अनाम बालक की मातृभक्ति, जिसने मां को अन्न दिए बिना भोजन स्वीकार नहीं किया जबकि भूख के कारण उसके प्राण ही चले गए। सार यह है कि जो मां हमारे लिए अपना खाना-पीना, सोना अर्थात् सभी सुख-सुविधाओं का त्याग कर देती है समय आने पर हमें भी उसके लिए हर प्रकार का बलिदान करने के लिए तत्पर रहना चाहिए। ऐसी मातृभक्ति मात्र हमारा कर्तव्य ही नहीं बल्कि आत्मिक संतोष पाने का श्रेष्ठ माध्यम भी है।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है.....मनीष