Tuesday, March 19, 2013

Dharm-Karm (धर्म-कर्म)


होलाष्टकअशुभ क्यों हैं ये दिन?
होली की सूचना होलाष्टक से प्राप्त होती है। फाल्गुन शुक्ल पक्ष की अष्टमी से लेकर होलिका दहन तक के समय को धर्मशास्त्रों में होलाष्टक का नाम दिया गया है।

ज्योतिष के ग्रंथों में होलाष्टक’ के आठ दिन समस्त मांगलिक कार्यों में निषिद्ध कहे गए हैं। इस साल होलाष्टक 20 मार्च से शुरू हो रहा है। माना जाता है इस दौरान शुभ कार्य करने पर अपशकुन होता है। इस मान्यता के पीछे यह कारण है किभगवान शिव की तपस्या भंग करने का प्रयास करने पर कामदेव को शिव जी ने फाल्गुन शुक्ल अष्टमी तिथि को भष्म कर दिया था।

कामदेव प्रेम के देवता माने जाते हैंइनके भष्म होने पर संसार में शोक की लहर फैल गयी थी। कामदेव की पत्नी रति द्वारा शिव से क्षमा याचना करने पर शिव जी ने कामदेव को पुनर्जीवन प्रदान करने का आश्वासन दिया। इसके बाद लोगों ने खुशी मनायी। होलाष्टक का अंत दुलहंडी के साथ होने के पीछे एक कारण यह माना जाता है।

होलाष्टक के दौरान शुभ कार्य प्रतिबंधित रहने के पीछे धार्मिक मान्यता के अलावा ज्योतिषीय मान्यता भी है। ज्योतिष के अनुसार अष्टमी को चंद्रमानवमी को सूर्यदशमी को शनिएकादशी को शुक्रद्वादशी को गुरुत्रयोदशी को बुधचतुर्दशी को मंगल तथा पूर्णिमा को राहु उग्र रूप लिए हुए रहते हैं।

इससे पूर्णिमा से आठ दिन पूर्व मनुष्य का मस्तिष्क अनेक सुखद व दुःखद आशंकाओं से ग्रसित हो जाता हैजिसके परिणामस्वरूप चैत्र कृष्ण प्रतिपदा को अष्ट ग्रहों की नकारात्मक शक्ति के क्षीण होने पर सहज मनोभावों की अभिव्यक्ति रंगगुलाल आदि द्वारा प्रदर्शित की जाती है।

सामान्य रूप से देखा जाए तो होली एक दिन का पर्व न होकर पूरे आठ दिन का त्योहार है। भगवान श्रीकृष्ण आठ दिन तक गोपियों संग होली खेले और दुलहंडी के दिन अर्थात होली को रंगों में सने कपड़ों को अग्नि के हवाले कर दियातब से आठ दिन तक यह पर्व मनाया जाने लगा।

होलाष्टक पूजन विधि 
होलिका पूजन करने के लिए होली से आठ दिन पहले होलिका दहन वाले स्थान को गंगाजल से शुद्ध कर उसमें सूखे उपलेसूखी लकड़ीसूखी घास व होली का डंडा स्थापित कर दिया जाता है।

जिस दिन यह कार्य किया जाता हैउस दिन को होलाष्टक प्रारंभ का दिन भी कहा जाता है। जिस गांवक्षेत्र या मौहल्ले के चौराहे पर यह होली का डंडा स्थापित किया जाता हैहोली का डंडा स्थापित होने के बाद संबंधित क्षेत्र में होलिका दहन होने तक कोई शुभ कार्य संपन्न नहीं किया जाता है।

शिव-हनुमान मंत्रों से दनादन दूर होती हैं मुसीबतें
सोमवार, शिव ही नहीं बल्कि उनके हर संकटमोचक अवतार के स्मरण का दिन है। जगत का दुःख हरने वाले माने गए रुद्र का अंश होने से हनुमानजी भी मंगलमूर्ति पुकारे जाते हैं।
खासतौर पर सोमवार को तो शिव के साथ रुद्र अवतार श्रीहनुमान की पूजा के कुछ आसान उपाय काल, भय, पीड़ा, रोग व उलझनों से छुटकारा दिलाने में बेहद असरदार माने गए हैं।

इन उपायों में ऐसे 3 मंत्रों का स्मरण भी है, जिनके जरिए शिव-हनुमानजी का साथ-साथ ही ध्यान हो जाता है और इनके प्रभाव हर परेशानी का अंत करने में अचूक होते हैं।

- तीर्थ जल से स्नान के बाद शिव मंदिर में शिव का जल से अभिषेक कर सफेद चंदन के साथ एक बिल्वपत्र व पांच सफेद आंकड़े के फूल चढ़ाएं। साथ ही मिठाई, एक मुट्ठी गेहूं और नारियल शिवलिंग के सामने चढ़ाएं।

- इसी तरह श्रीहनुमान को पवित्र जल से स्नान कराकर लाल फूलों की माला, पान व जनेऊ चढ़ाकर गुड़ से बने लड्डू या शहद का भोग लगाएं।

- अब इन शिव मंत्रों के साथ हनुमान का ध्यान संकटमोचन की कामना से करें -

- ऊँ रुद्राय नम:
- ऊँ सर्वविद्या सर्वसम्पत्ति प्रदायकाय नमः
- ऊँ सर्वदुःखहराय नमः

- शिव चालीसा व हनुमान चालीसा का पाठ कर शिव-हनुमान की आरती गुग्गल धूप, दीप से करें।

- शिव स्नान का जल व श्रीहनुमान का सिंदूर व प्रसाद ग्रहण करें व बांटे। इन सामान्य पूजा उपायों से पितृदोष, ग्रहदोष और शनिदोष का बुरा असर भी जीवन व घर-परिवार पर नहीं होता।

सूर्य से जुड़ी यह बात आपके लिए भी होगी अनसुनी!
सूर्य की महिमा बताने वाले हिन्दू धर्मग्रंथ भविष्यपुराण के मुताबिक सूर्यदेव ही सर्वशक्तिमान ईश्वर है। सूर्य से ही सृष्टि रचना हुई। आदित्य को ही पूरे जगत का आधार और सर्वव्यापक माना गया है। इसलिए सूर्यदेव को 'आदित्य' भी पुकारा जाता है।

माना गया है कि आदित्य के कारण ही सारे देवता और जगत का तेज संभव है।  ब्रह्मा, विष्णु, महेश भी सूर्यदेव को पूजते हैं। सारे देवता और जगत की ऊर्जा व शक्ति सूर्य से ही संभव है। अग्रि में किया गया होम भी सूर्य को मिलता है। सूर्यदेव के कारण ही होने वाली बारिश और पैदा अन्न जगत में प्राण फूंकते हैं। सारी कालगणना का आधार भी सूर्य हैं।

भविष्यपुराण के मुताबिक सूर्य की अद्भुत शक्तियों और गुणों के बिना संसार के सारी क्रिया और व्यवहार का नाश हो जाता है। धार्मिक नजरिए से सूर्यनारायण इन शक्तियों, गुणों और ऊर्जा से हिन्दू पंचांग के बारह माहों में अलग-अलग 12 रूपों में जगत का पालन-पोषण करते हैं। ये द्वादश यानी बारह आदित्य के रूप में भी जाने जाते हैं।

भविष्य पुराण में 12 आदित्यों के अलावा सूर्यदेव के 12 मंगलकारी नाम भी उजागर हैं। जानिए सूर्य के ये कल्याणकारी बारह नाम और बारह आदित्य के माहवार नाम -

सूर्य के बारह नाम हैं - आदित्यसविता, सूर्य, मिहिर, अर्क, प्रतापन, मार्तण्ड, भास्कर, भानु, चित्रभानु, दिवाकर और रवि।

इसी तरह सूर्य ये बारह आदित्य रूप अलग-अलग माहों में उदय होते हैं। जानिए किस माह सूर्यदेव किस शक्ति के रूप में प्रकट होते हैं -

चैत्र माह -  विष्णु
वैशाख - अर्यमा
ज्येष्ठ - विवस्वान
आषाढ़ - अंशुमान
श्रावण - पर्जन्य
भाद्रपद - वरुण
आश्विन - इन्द्र
कार्तिक - धाता
मार्गशीर्ष - मित्र
पौष - पूषा
माघ - भग
फाल्गुन – त्वष्टा

पुरुष दोस्ती में न करें ये 3 काम!
मित्रता की अहमियत समझने के लिए कई पहलू हो सकते हैं, लेकिन मोटे तौर पर समझना चाहे तों मित्रता, प्रेम और विश्वास का ही दूसरा नाम है, जिसके जरिए कोई व्यक्ति मुश्किल वक्त, दु:ख और डर का भी सामना आसानी से कर लेता है। यहां तक कि सच्चा मित्र उतना ही भरोसेमंद होता है जितना माता, पत्नी, भाई और पुत्र।

सच्ची मित्रता नि:स्वार्थ होती है। शास्त्रों में भी दोस्ती के कई प्रसंग इस बात को साबित भी करते हैं। इनमें कृष्ण-सुदामा की मित्रता हर काल में आदर्श है। आज के दौर में मित्रता की बात करें तो यह भी देखा जाता है कि किसी स्वार्थ या खास वजह से मित्रता होती है और जल्द बिगड़ती भी है। क्योंकि प्रेम और भावना दिखावा या सतही होती है। इसलिए जब स्वार्थ टकराते हैं तो दोस्ती में कटुता आने में देर नहीं लगती और नतीजे में मिलते हैं दु:ख और कलह।

अगर आप भी स्वार्थ व दुःख से परे सच्ची मित्रता का सुख चाहते हैं या अलगाव, मतभेदों या गलतफहमियों के कारण दोस्ती में दरार से बचना चाहते हैं तो खासतौर पर पुरुष शास्त्रों में बताए इन 3 कामों से जरूर बचें।
द्यूत क्रीड़ा यानी जुआ खेलना - द्यूत या जुआ असल में लोभ और लालच का कारण है। यह लत रिश्तों की मर्यादा और भावना को भंग कर देता है। इससे कटुता आना स्वाभाविक है।

पैसों का लेन-देन यानी धन का व्यवहार - संकेत यही है कि मित्र से धन का लेन-देन साफ हो। मदद के रूप में मित्र से पाए धन को किसी विवशता के अलावा, लौटाने में आनाकानी या किसी भागीदारी में धन के हिसाब-किताब में खोट मित्रता से विश्वास उठाकर शत्रुता भी पैदा कर सकती है।

मित्र की स्त्री पर अप्रत्यक्ष दृष्टि या दर्शन - मित्र की स्त्री के लिए गलत सोच, नजर, भाव या व्यवहार धार्मिक नजरिए से तो पाप हैं ही, व्यावहारिक तौर से भी विश्वास भंग करने वाले दोष हैं, जो मित्रता का सबसे बड़ा आधार है।

शिव को कहते हैं "पशुपति", पर ऐसे नाम की यह वजह आप नहीं जानते होंगे
हिन्दू शैव (शिव की महिमा बताने वाले) ग्रंथों के मुताबिक शिव लीला ही सृष्टि, रक्षा और विनाश करने वाली है। शिव साकार भी है और निराकार भी।  वे  जन्म और मृत्यु से भी परे हैं यानी अनादि व अनन्त हैं  इसलिए भगवान शिव की भक्ति कल्याणकारी होती हैं।

भगवान शिव को ऐसे विलक्षण शक्तियों और स्वरूप के कारण पशुपति नाम से भी पुकारा जाता प्रमुख है। आखिर कौन सी अद्भुत शक्तियां शिव के इस नाम से जुड़ीं हैं, इनका रहस्य शिव पुराण में बताया गया है। 

शिव पुराण के मुताबिक भगवान ब्रह्मदेव से लेकर सभी सांसारिक जीव शिव के पशु हैं। इनके जीवन, पालन और नियंत्रण करने वाले भगवान शिव हैं। इन पशुओं के पति यानी स्वामी होने से ही शिव पशुपति हैं।

भगवान शिव ही इन पशुओं को माया और विषयों द्वारा बंधन में बांधते हैं। इनके द्वारा शिव ब्रह्मा सहित सभी जीवों को कर्म से जोड़ते हैं। पशुपति द्वारा ही बुद्धि, अहंकार से इन्द्रियां व पंचभूत बनते हैं, जिससे देह बनती हैं। इसमें बुद्धि कर्तव्य और अहंकार अभिमान नियत करती है। साथ ही चित्त में चेतना, मन में संकल्प, ज्ञानेन्द्रियों द्वारा अपने विषय और कर्मेन्दियों द्वारा अपने नियत कर्म पशुपति की आज्ञा से ही संभव है।

पशुपति ही आराधना और भक्ति से प्रसन्न होकर ब्रह्म से लेकर कीट आदि पशु सभी को जन्म-मरण और सभी सांसारिक बंधनों से मुक्त करते हैं।

महाभारत के इस 7 अंकों के हिसाब-किताब में है आपके हर सवाल का जवाब!
अगर हम पशुओं के स्वाभाविक खान-पान, व्यवहार या दिनचर्या पर गौर करें तो उनमें बदलाव नजर नहीं आते। वहीं व्यावहारिक तौर पर अक्सर देखा जाता है बुद्धिमान होने के बावजूद भी इंसान पशु की तरह व्यवहार करते हैं। जाहिर है कि इंसान व पशु के तौर-तरीकों में इस फर्क की वजह बुद्धि ही होती है।

इस बात से यह भी साफ है कि बुद्धि के उपयोग से ही अच्छे या बुरे कर्म इंसान के सुख-दु:ख नियत करते है। बुद्धि ईश्वर की वह देन है, जो हर इंसान को प्राप्त होती है। किंतु धर्मशास्त्रों के मुताबिक ज्ञान के साथ अनुभव और व्यवहार के जरिए ही बुद्धि निखरती है। यानी विद्या, पुण्य कर्म और विचार बुद्धि को धार देते हैं। वहीं ज्ञान के अभाव, बुरे या पाप कर्मो से बुद्धि का नाश होता है।

हिन्दू धर्मशास्त्र महाभारत में सुखी जीवन के लिए ही बुद्धि के सही उपयोग से सुख की मंजिल तय करने के लिये ऐसा अंक गणित भी बताया गया है, जिसे सीखकर हर इंसान सांसारिक जीवन के संघर्ष में सफलता पा सकता है।

लिखा गया है कि -
एकया द्वे विनिनिश्चित्य त्रींश्चतुर्भिवशे कुरु।
पञ्च जित्वा विदित्वा षट् सप्त हित्वा सुखो भव।।

इस श्लोक में जीवन में कर्म, व्यवहार और नीति में बुद्धि के उपयोग द्वारा सुख बंटोरने के लिये 1 से लेकर 7 अलग-अलग सूत्रों को उजागर किया गया है। सरल शब्दों में जानिए यह अंक गणित -

1 यानी बुद्धि से 2 यानी कर्तव्य और अकर्तव्य का निर्णय कर 4 यानी साम, दाम, दण्ड, भेद द्वारा 3 यानी दुश्मन, दोस्त और तटस्थ को काबू में करें। इनके साथ-साथ 5 यानी पांच इन्द्रियों के संयम द्वारा 6 यानी छ: गुण यानी सन्धि- मेलजोल या मित्रताविग्रह - संधि विच्छेद या मित्रता के रिश्ते न रखनायान - सही मौके पर वारआसन - विपरीत हालात में शांत रहना, द्वैधीभाव - ऊपर से मित्रता अंदर से शत्रुता का भाव और
समाश्रय - सक्षम व सबल की पनाह लेना, समझें और जानें। साथ ही 7 यानी स्त्री, जूआ, मृगया यानी शिकार, नशा, कटु वचन, कठोर दण्ड और गलत तरीके से धन कमाने के बुरे गुण और कर्म को छोडऩा, कठिन और विरोधी स्थितियों में किसी भी इंसान के लिये सुख का कारण बन जाते हैं।

जानिए हनुमानजी का बताया वह खास उपाय, जिससे कभी न होंगे दुःखी
हर इंसान ज़िंदगी को सुकूनभरा बनाने के लिये हर दिन जूझता है। हालांकि यह सच है कि सुख और दु:ख के रास्ते ही ज़िंदगी का सफर तय होता है। इस सफर को सफलतापूर्वक पूरा करने के लिये गुण, योग्यता, विचार और शक्तियां अहम होती हैं। किंतु सुरक्षित रहने और दु:खों से परे रहने की सोच और आतुरता कई मौकों पर उसको सुकून के बजाए ज्यादा चिंता में डूबो देती है।

धर्मशास्त्रों में ऐसे ही दु:खों और चिंता से दूर जीवन के लिये ऐसे सूत्र बताए गए हैं, जिनमें छुपे अर्थ को गंभीरता से समझा जाए तो वह जीवन में संतुलन लाने के साथ तमाम मुश्किलों से निजात दिला सकते हैं।
इसी कड़ी में संकटमोचक देवता और संयम के महान आदर्श हनुमानजी का दु:ख व तनावों से बचने के लिए बताया एक सूत्र सांसारिक जीवन के लिये बहुत ही सटीक और कारगर है।

श्रीहनुमान चिरंजीवी सरल शब्दों में कहें तो अमर देवता माने गए हैं। माना जाता है कि वे हर युग में सशरीर मौजूद होते हैं। इसलिए उनका किसी भी रूप में स्मरण हर संकट व दुःख को टालने वाला माना गया है।  श्रीहनुमान चरित्र का एक सुखद पहलू है भक्ति। इससे जुड़े सुख-शांति के कई सूत्र सांसारिक जीवन में भी कलह व संताप दूर कर देते हैं। इसी कड़ी में रामचरितमानस में श्रीहनुमान के बोल हैं कि

कह हनुमंत बिपत्ति प्रभु सोई।
जब तब सुमिरन भजन न होई।।

इस चौपाई में श्रीहनुमान द्वारा देव स्मरण, भक्ति और समर्पण की अहमियत बताते हुए जीवन को सुखी बनाने का बहुत ही अच्छा संदेश दिया है। इसमें दु:ख को अच्छा मानते हुए संकेत है कि साधारण इंसान दु:ख को मुसीबत मानता है, किंतु असल में दु:ख सुख से श्रेष्ठ इसलिए हो जाता है कि ऐसे वक्त में ही भगवान की याद आती है। इसके विपरीत बुरा समय तो वह होता है जब भगवान का स्मरण न हो।

व्यावहारिक रूप से प्रेरणा यही है कि चूंकि बुरा वक्त इंसान को सोने की तरह तपाकर निखारने वाला होता है। कहा भी जाता है कि सांसारिक जीवन में सुख के साथी प्राणी व दुःख के भगवान होते हैं। इसलिए ऐसे वक्त हिम्मत हारकर रुकने के बजाय इंसान ईश्वर और खुद पर विश्वास रख आगे बढ़ता चले। साथ ही वह दु:ख ही नहीं बल्कि सुखों में भी अहंकार से परे रहे। सुख-दुःख दोनों को ही ईश्वर की देन मानकर हमेशा सरल और सहज भाव से देव स्मरण कर ज़िंदगी गुजारता चले।

इस तरह श्रीहनुमान के इस सूत्र को अपनाने से बड़े से बड़े दु:ख में भी इंसान अस्थिर और अशांत नहीं होता।


संसार जल से पैदा हुआ और जल में ही मिल जाएगा

हे जल ! आप कल्याणकारी हैं, हमारे बल की वृद्धि और परमात्मा की प्राप्ति के लिए पालन करें। जिस प्रकार माता अपनी संतानों को पुष्ट करने के लिए उन्हें अपना दुग्ध पान कराती हैं, उसी प्रकार आप भी हमारे पोषण के लिए अपने परम कल्याणमय रस का हमे भागी बनाओ। हे जल! जगत् के जिस रस के एक अंश से तुम समस्त विश्व को तृप्त करते हो उस रस कि पूर्णता को हम प्राप्त हों।'



एक भारतीय धर्मानुयायी को जितने भी संस्कार और कर्मकाण्ड होते है, पूजा पाठ और संध्यावंदन जैसे नित्य कर्मो का विधान निभाना होता है, उन सबमें इस आशय के मार्जन मन्त्र का पाठ भी अनिवार्य है। जल प्रसेचन और आराधना तो दिन में पांच सात बार करने पड़ते है। लौकिक जीवन तो जल; के बिना चलता ही नहीं सकता, धर्मिक और आत्मिक जीवन के लिए तो जल और भी आवश्यक है।



इसीलिए कहा गया है कि संसार की उत्पत्ति जल से हुई। जल जीवन का ही नहीं उसके अधिपति परमात्मा का भी आधार है। पुराणों के विवरण प्रसिद्ध है कि संसार की उत्पत्ति के अधिष्ठाता ब्रह्मा जल से ही उत्पन्न हुए। वे जिस कमल पर बैठे प्रकट हुए थे वह विष्णु की नाभि या संकल्प से निकला था और विष्णु गहरे सागर में शेष शैय्या पर सोए हुए थे.. संहार या कल्याण के देवता शिव भी ब्रह्मा के आंसुओं से ही हर हर कहते हुए निकले बताए जाते है।



सृष्टि, जीवन और संहार तीनो के अधिपति देवताओ के जल से ही जन्म लेने की तो यह एक बानगी है। वर्ना समुद्र मंथन में से निकले चौदह रत्नो समेत विष और अमृत भी जल की ही देन है। भारतीय धर्म में माने गए दस अवतारों में से शुरू के तीन स्वरुप मत्स्य कश्यप और वराह भी सागर के गर्भ से ही प्रकट होते है।

तैंतीस मुख्य देवताओं में से आठ का सीधा सम्बन्ध-उनके जन्म से हो या कर्म से पूरी तरह जल से ही है। इसलिए सारभूत तथ्य यह है कि जल जीवन ही नहीं धर्म संस्कृति और आत्मचेतना का भी आधार है।

निर्विवाद तथ्य है कि वेदप्राचीनतम ग्रन्थ हैं। इनकी भाषा और छन्द भी कल्पनातीत-पुरातन है। वैदिक मन्त्रदृष्टा ऋषियों ने जलका विभिन्न रूपों में अनुभव किया और उसी तरह उन मंत्रों का विनियोगभी  किया। जल की बारे में कुछ जानने के लिए उन अनुभवों और विनियोगों को जान लेना चाहिए।

पहली बात तो यह की वेदों के करीब बीस हजार मन्त्रों में दो हजार से ज्यादा मंत्र जल और उससे जुड़े देवताओ के बारे में हैं। वेदों और उनकी व्याख्या के लिए लिखे-कहे गए आसान कथा काव्य स्वरुप ग्रंथ पुराणों में जल, उसकी उत्पत्ति और नित्यता या सदा बने रहने के बारे में तरह तरह से कहा गया है।

इन मान्यताओं में कुछ विरोधाभास भी है। यह विरोध अनुभूति और अभिव्यक्ति की शैलियों के कारण है। वरना वेदों की नै मीमांसा शैली के लिए प्रसिद्घ कुमार स्वामी के अनुसार मूल रूप से वे स्थापना विरोधाभासी होने के बजाय मूल रूप में एक ही ही है, एक धारणा के अनुसार सृष्टि से पहले सिवा परब्रह्मके कुछ नहीं था। परब्रह्मने अपने आपको पुरुष’, ‘प्रधानऔर कालरूप में विभाजित किया।

कालके प्रभाव से प्रधान और पुरुष ने मिलकर तो चौथे रूप व्यक्त संसार की रचना की। इस व्यक्तसे सर्वप्रथम महत्तत्व और अह्नाकार उत्पन्न हुआ। एक स्थापना के अनुसार महत्तत्व से लेकर प्रकृति के सभी विकारों के सहयोग से एक बृहद-अण्ड अस्तित्व में आया जो हिरण्यगर्भकहलाया। यह पिंड लगभग एक कल्पतक जलमें रहा। बाद में इसके दो भाग हो गये जिनमें प्रथम भाह द्युलोकतथा द्वितीय भाग भूलोकके नाम से जाना गया।

इन दोनो के मध्यवर्ती भाग को आकाशकहा गया। इस अण्डसे सर्वप्रथम ब्रह्माकी तत्पश्चात् स्थावर जंगम या जड़ चेतन की सृष्टि हुई। वेद और पुराण सृष्टिको अनादिमानते हैं, उन के अनुसार सृष्टि-स्थिति-संहार की तीनों क्रियाएँ अनवरत चलती रहती हैं। कोई नहीं बता सकता कि ये कब शुरु हुईं और कब समाप्त होंगी?

महाप्रलय के समय सब कुछ नष्ट हो जाएगा और केवल जल ही शेष रह जाएगा है जिसे एकार्णवकहते हैं। इन गूढ़ दार्शनिक सिद्धांतों की विवेचना करते हुए स्वामी अकहंदानंद कहा करते थे जलवस्तुतः वह तत्वहै जो सृष्टि के आदि से अन्त तक मौजूद रहता है। ऐसा तत्व केवल परब्रह्मही हो सकता है। यह वह महाभूत नहीं है जो तामस-अहंकारके कारण पैदा होता है।

बल्कि वह तत्है जो परब्रह्म की वाचक है एवं जिसे ब्रह्मा-विष्णु-तथा रुद्र का रसमय-रूपमाना गया है। संभवतः इसी कारण जलके लिए मुख्यतः आपःशब्द का प्रयोग किया गया है और वेदों के मंत्रों में इसे आपो देवताकहा गया है। आधुनिक वैज्ञानिक भी इस तथ्य को मानते हैं कि सृष्टि से पहले कोई न कोई नित्य तत्वअवश्य रहता है।


इस तरह जल से जन्म हुआ पृथ्वी और मनुष्य का

सृष्टि के आरम्भ में संपूर्ण ब्रह्माण्ड जलमग्न था। केवल भगवान नारायण ही शेष शैया पर विराजते योगनिद्रा में लीन थे। सृजन का समय आने पर कालशक्ति ने भगवान नारायण को जगाया।



उनके नाभि प्रदेश से सूक्ष्म तत्व कमल कोष बाहर निकला और सूर्य के समान तेजोमय होकर उस अपार जलराशि को प्रकाशित करने लगा। उस देदीप्यमान कमल में स्वयं भगवान विष्णु प्रविष्ट हो गये और ब्रह्मा के रूप में प्रकट हुये। कमल पर बैठे ब्रह्मा को भगवान ने जगत की रचना के लिए आदेश दिया।



"ब्रह्मा जी ने सृष्टि के लिए संकल्प किया और उनके मन से मरीचि, नेत्रों से अतरि, मुख से अंगिरा, कान से पुलस्त्य, नाभि से पुलह, हाथ से कृतु, त्वचा से भृगु, प्राण से विशष्ठ, अँगूठे से दक्ष तथा गोद से नारद उत्पन्न हुये। इसी प्रकार उनके दायें स्तन से धर्म, पीठ से अधर्म, हृदय से काम, दोनों भौंहों से क्रोध, मुख से सरस्वती, नीचे के ओंठ से लोभ, देह से समुद्र, निऋति आदि और छाया से कर्दम ऋषि प्रकट हुये।


इस प्रकार यह जगत ब्रह्मा के मन और शरीर से उत्पन्न हुए हैं। ब्रह्मा की कन्या सरस्वती अत्यन्त लावण्यमयी थीं। ब्रह्मा उस कन्या को देख कर आसक्त हो उठे। इस पर ब्रह्मा को उनके पुत्रों ने समझाया कि यह अधर्मपूर्ण है। इस पर ब्रह्मा ने लज्जित होकर अपना शरीर त्याग दिया। उनके निष्प्राण शरीर को दिशाओं ने कोहरे और अन्धकार के रूप में ग्रहण कर लिया।

इसके बाद ब्रह्मा के पूर्व वाले मुख से ऋग्वेद, दक्षिण वाले मुख से यजुर्वेद, पश्चिम वाले मुख से सामवेद और उत्तर वाले मुख से अथर्ववेद की ऋचाएँ निकली। इसके बाद ब्रह्मा ने आयुर्वेद, धनुर्वेद, गन्धर्ववेद और स्थापत्व (शिलपविद्या) आदि उप-वेदों की रचना की। इसके बाद उन्होंने अपने मुख से इतिहास पुराण उत्पन्न किए।

फिर योग विद्या, दान, तप, सत्य, धर्म, चारों आश्रम और विकृतिया आदि की रचना की। उनके हृदय से ओंकार, अन्य अंगों से वर्ण, स्वर, छन्दादि तथा क्रीड़ा से षडज्, ऋषभ, गान्धार, मध्यम, पंचम, धैवत् और निषाद ये सात सुर प्रकट हुये। "इतनी रचना करने के बाद भी ब्रह्मा ने देखा कि सृष्टि में वृद्धि नहीं हो रही है तो उन्होंने अपने शरीर को दो भागों में बाँट लिया।

उनके नाम 'का' और 'या' (काया) हुये। उन्हीं दो भागों में से एक से पुरुष तथा दूसरे से स्त्री की उत्पत्ति हुई। पुरुष का नाम स्वयम्भुव मनु और स्त्री का नाम शतरूपा था। स्वयम्भुव मनु और शतरूपा से दो पुत्र प्रियव्रत तथा उत्तानपाद और तीन कन्यायें आकूति, देवाहुति एवं प्रसुति की उत्पत्ति हुई। मनु ने आकूति का विवाह रुचि प्रजापिता और देवाहुति का विवाह मुनि कर्दम के साथ कर दिया।

इन्हीं तीन कन्याओं से सारे जगत की रचना हुई। "फिर ब्रह्मा ने इन सबके निवास के लिए भगवान नारायण से प्रार्थना की कि वे जलमग्न सृष्टि से पृथ्वी को बाहर निकालें। उनकी प्रार्थना पर भगवान नारायण ने वाराह का अवतार धारण करके पृथ्वी को निकाला। वहां स्वायंभु मनु और शतरूपा की सन्तानें, जो कि मानव कहे जाते हैं, रहने लगे।


आमलकी एकादशी, आंवले से करें मोक्ष प्राप्ति के उपाय

फाल्गुन मास की शुक्ल पक्ष एकादशी को आमलकी एकादशी कहा गया है। यह एकादशी इस वर्ष 23 मार्च को है। आमलकी का अर्थ होता है आंवला इस एकादशी का महत्व अक्षय नवमी के समान है। जिस तरह अक्षय नवमी में आंवले के वृक्ष की पूजा होती है उसी प्रकार आमलकी एकादशी के दिन आंवले की वृक्ष के नीचे भगवान विष्णु की पूजा करने से पुण्य की प्राप्ति होती है।



आमलकी एकादशी के विषय में कई पुराणों में वर्णन मिलता है। आध्यात्मिक विषयों के जानकार 'पण्डित शास्त्री जी ' बताते हैं कि अमालकी एकादशी के दिन आंवले की पूजा का महत्व इसलिए है क्योंकि इसी दिन सृष्टि के आरंभ में आंवले के वृक्ष की उत्पत्ति हुई थी।



इस संदर्भ में कथा है कि विष्णु की नाभि से उत्पन्न होने के बाद ब्रह्मा जी के मन में जिज्ञासा हुई कि वह कौन हैं, उनकी उत्पत्ति कैसे हुई। इस प्रश्न का उत्तर जानने के लिए ब्रह्मा जी परब्रह्म की तपस्या करने लगे। ब्रह्म जी की तपस्या से प्रश्न होकर परब्रह्म भगवान विष्णु प्रकट हुए। विष्णु को सामने देखकर ब्रह्मा जी खुशी से रोने लगे।

इनके आंसू भगवान विष्णु के चरणों पर गिरने लगे। ब्रह्मा जी की इस प्रकार भक्ति भावना देखकर भगवान विष्णु प्रसन्न हुए। और ब्रह्मा जी के आंसूओं से आमलकी यानी आंवले का वृक्ष उत्पन्न हुआ। भगवान विष्णु ने ब्रह्मा जी से कहा कि आपके आंसूओं से उत्पन्न आंवले का वृक्ष और फल मुझे अति प्रिय रहेगा। जो भी आमलकी एकादशी के दिन आंवले के वृक्ष की पूजा करेगा उसके सारे पाप समाप्त हो जाएंगे और व्यक्ति मोक्ष प्राप्ति का अधिकारी होगा।

अमालकी एकादशी की कथा में इस संदर्भ में एक राजा की कथा का उल्लेख किया गया है जो पूर्व जन्म में एक शिकारी था। एक बार आमलकी एकादशी के दिन जब सभी लोग मंदिर में एकादशी का व्रत करके भजन और पूजन कर रहे थे तब मंदिर में चोरी के उद्देश्य से वह मंदिर के बाहर छुप कर बैठा रहा।

मंदिर में चल रही पूजा अर्चना देखते हुए वह लोगों के जाने का इंतजार कर रहा था। अगले दिन सुबह हो जाने पर शिकारी घर चला गया। इस तरह अनजाने में शिकारी से आमलकी एकादशी का व्रत हो गया। कुछ समय बाद शिकारी की मृत्यु हुई और उसका जन्म राज परिवार में हुआ।

पण्डित जी कहते है कि कई जगहों पर भगवान विष्णु के थूक से आंवले के वृक्ष की उत्पत्ति की कथा मिलती है जो सही नहीं है। अगर आंवला भगवान का थूक है तो वह भगवान को इतना प्रिय नहीं हो सकता।

आमलकी एकादशी व्रत विधिः 
एकादशी के दिन प्रातः स्नानादि से निवृत होकर भगवान विष्णु एवं आंवले के वृक्ष की पूजा करें। अगर आंवले का वृक्ष उपलब्ध नहीं हो तो आंवले का फल भगवान विष्णु को प्रसाद स्वरूप अर्पित करें। घी का दीपक जलकार विष्णु सहस्रनाम का पाठ करें। जो लोग व्रत नहीं करते हैं वह भी इस एकादशी के दिन भगवान विष्णु को आंवला अर्पित करें और स्वयं खाएं भी।

शास्त्रों के अनुसार आमलकी एकादशी के दिन आंवले का सेवन भी पाप का नाश करता है।

इन 4 देवताओं के भक्तों पर बेअसर होती है शनि की तिरछी नजर
हिन्दू धर्मशास्त्रों के मुताबिक शनिवार विशेष रूप से सूर्य पुत्र शनि की उपासना का विशेष दिन है। क्रूर स्वभाव वाले शनि की प्रसन्नता या रुष्ट होना इंसान के जीवन में सुख-दु:ख नियत करने वाला माना गया है। ज्योतिष शास्त्रों में शनि दृष्टि, दशा और चाल इंसान के जीवन में बड़ा फेरबदल लाने वाली मानी गई है।

कुण्डली में शनि दशा में अन्य ग्रहों से युति या दृष्टि से बने बुरे योग के कारण या शनि दोष इंसान की तन,मन और आर्थिक पीड़ा का कारण बन सकते हैं। जीवन में बाधक शनि के बुरे प्रभाव से रक्षा के लिए ही शनि उपासना के अलावा अन्य देवताओं की पूजा के छोटे-छोटे उपाय असरदार माने गए हैं। खासतौर पर इन देवताओं के भक्तों पर शनि की दशा व  दोष के अशुभ प्रभाव नहीं होते।

पौराणिक मान्यताओं के मुताबिक हनुमानजी पर क्रूर दृष्टि बेअसर होने व उनसे पस्त होकर शनि ने हनुमान भक्तों को शनि पीड़ा से मुक्त रहने का वचन दिया। इसलिए शनिवार को श्रीहनुमान के चरणों में जाकर काली उड़द चढ़ाकर शनि दोष शांति की कामना करें।

शास्त्रों के मुताबिक शनि के कोप से बचने के लिये मंगलमूर्ति श्रीगणेश की भक्ति भी बहुत मंगलकारी है। इसलिए शनिवार को श्री गणेश पूजन में 21 दूर्वा या मोदक का भोग लगाएं और काम पर जाते समय श्रीगणेश मूर्ति से कार्यसिद्धी और शनि कोप व अनिष्ठ से रक्षा की कामना करें। पौराणिक मान्यताओं में शनि की दृष्टि से श्रीगणेश का सिर धड़ से अलग होने पर श्रापित हुए शनि श्रीगणेश वंदना से ही श्राप मुक्त हुए।

शिव भक्ति शनि को प्रसन्न करती है। क्योंकि शनि शिव भक्ति से ही नवग्रहों में श्रेष्ठ और दण्डाधिकारी बने। वहीं शिव भी शक्ति के बिना अधूरे माने जाते हैं। इसलिए देवी भक्ति भी शनि सहित नवग्रहों की शांति के लिए बड़ी ही असरदार मानी गई है। शिव जी को मात्र जल, दूध व बिल्वपत्र चढ़ाकर व देवी को लाल रंग की पूजा सामग्री चढ़ाकर शनि दोष से रक्षा की प्रार्थना करें।

पुराणों में शनिदेव को कृष्ण भक्त भी बताया गया है। इसलिए बालकृष्ण को केसर चंदन लगाकर माखन-मिश्री का भोग अर्पित करें और शनि की प्रसन्नता की कामना करें।

इसके अलावा शनिवार को शनि व्रत कर शनिदेव की भी तिल, सरसों या अन्य कोई मीठा तेल अर्पित कर कमजोर या ब्राह्मण को दान कर दें।


गुड फ्राइडे:जानिए, कौन सी हैं प्रभु यीशु की सात वाणियां
ईसाई धर्म के लोग गुड फ्राइडे को प्रभु यीशु को क्रूस पर चढ़ाए जाने और पापियों के लिए प्राण देने की याद में मनाते हैं। इस दिन से पहले 40 दिनों तक ईसाई धर्म के लोग व्रत भी रखते हैं। इस बार गुड फ्राइडे 28 मार्च, शुक्रवार को है।

इसे गुड फ्राइडे इसलिए कहा जाता है क्योंकि इस दिन प्रभु यीशु ने पापियों के लिए क्रूस पर प्राण देकर समस्त मानवजाति के लिए उद्धार का मार्ग खोल दिया।

गुड फ्राइडे के दिन दोपहर 12 से 3 बजे तक गिरिजाघरों में विशेष प्रार्थना होती है, जिसमें यीशु के दु:ख उठाने एवं क्रूस पर सात पर वाणी आदि पर प्रवचन होते हैं। ये सात वाणियां इस प्रकार हैं-

1- हे पिता। इन्हें क्षमा कर, क्योंकि ये जानते नहीं कि क्या कर रहे हैं। (लूका 23:24)
2- मैं तुझसे सच-सच कहता हूं कि आज ही मेरे साथ स्वर्गलोक में होगा (यह शब्द एक डाकू से कहे गए थे, जो यीशु के साथ क्रूस पर टंगा था)। (लूका 23:43)
3- हे नारी। देख तेरा पुत्र(माता मरियम से कहा) और देख तेरी माता(यूहन्ना चेले से कहा)। (यूहन्ना 19:26)
4- हे मेरे परमेश्वर। हे मेरे परमेश्वर। तूने मुझे क्यों छोड़ दिया(क्योंकि उस समय यीशु मानव रूप में थे) (मत्ती 27:46) (मरकुस 15:34)
5- मैं प्यासा हूं।(यूहन्ना 19:28)
6- पूरा हुआ।(यूहन्ना 19:30)
7- हे पिता। मैं अपनी आत्मा तेरे हाथों में सौंपता हूँ। (लूका 23:46)

गणेश चतुर्थी , इस व्रत से पूरी होती है हर मनोकामना
भगवान गणेश सभी दु:खों को हरने वाले हैं। इनकी कृपा से असंभव कार्य भी संभव हो जाते हैं। भगवान गणेश को प्रसन्न करने के लिए प्रत्येक महीने के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को व्रत किया जाता है, इसे गणेश चतुर्थी व्रत कहते हैं। इस बार यह व्रत 30 मार्च, शनिवार को है। गणेश चतुर्थी का व्रत इस प्रकार करें-

- सुबह जल्दी उठकर स्नान आदि काम जल्दी ही निपटा लें।
- दोपहर के समय अपने सामथ्र्य के अनुसार सोने, चांदी, तांबे, पीतल या मिट्टी से बनी भगवान गणेश की प्रतिमा स्थापित करें।
- संकल्प मंत्र के बाद श्रीगणेश की षोड़शोपचार पूजन-आरती करें। गणेशजी की मूर्ति पर सिंदूर चढ़ाएं। गणेश मंत्र (ऊँ गं गणपतयै नम:) बोलते हुए 21 दूर्वा दल चढ़ाएं।
- गुड़ या बूंदी के 21 लड्डूओं का भोग लगाएं। इनमें से 5 लड्डू मूर्ति के पास रख दें तथा 5 ब्राह्मण को दान कर दें शेष लड्डू प्रसाद के रूप में बांट दें।
- पूजा में भगवान श्री गणेश स्त्रोत, अथर्वशीर्ष, संकटनाशक स्त्रोत आदि का पाठ करें।
- ब्राह्मण भोजन कराएं और उन्हें दक्षिणा प्रदान करने के पश्चात् संध्या के समय स्वयं भोजन ग्रहण करें। संभव हो तो उपवास करें।
व्रत का आस्था और श्रद्धा से पालन करने पर भगवान श्रीगणेश की कृपा से मनोरथ पूरे होते हैं और जीवन में निरंतर सफलता प्राप्त होती है।

ईस्टर संडे,  इस दिन फिर दुनिया में लौट आए थे प्रभु यीशु
ईस्टर संडे, ईसाइयों का महत्वपूर्ण धार्मिक पर्व है। ईसाई धार्मिक ग्रन्थों के अनुसार सूली पर लटकाए जाने के तीसरे दिन यीशु पुनर्जीवित हो गए थे। इस पर्व को ईसाई धर्म के लोग ईस्टर दिवस, ईस्टर रविवार या संडे के रूप में मनाते हैं। इस बार ईस्टर संडे 31 मार्च को है।

ईस्टर संडे, गुड फ्राईडे के बाद आने वाले रविवार को मनाया जाता है। ईस्टर खुशी का दिन होता है। इस पवित्र रविवार को खजूर इतवार भी कहा जाता है। ईस्टर का पर्व नए जीवन और जीवन के बदलाव के प्रतीक के रूप में मनाया जाता है। ईस्टर रविवार के पहले सभी गिरजाघरों में रात्रि जागरण तथा अन्य धार्मिक परंपराएं पूरी की जाती है तथा असंख्य मोमबत्तियां जलाकर प्रभु यीशु में अपने विश्वास प्रकट करते हैं।

यही कारण है कि ईस्टर पर सजी हुई मोमबत्तियां अपने घरों में जलाना तथा मित्रों में इन्हें बांटना एक प्रचलित परंपरा है। ईसाई धर्म की कुछ मान्यताओं के अनुसार ईस्टर शब्द की उत्पत्ति ईस्त्र शब्द से हुई है। यूरोप में प्रचलित पौराणिक कथाओं के अनुसार ईस्त्र वसंत और उर्वरता की एक देवी थी।

इस देवी की प्रशंसा में अप्रैल माह में उत्सव होते थे। जिसके कई अंश यूरोप के ईस्टर उत्सवों में आज भी पाए जाते हैं इसलिए इसे नवजीवन या ईस्टर महापर्व का नाम दे दिया गया।


सिक्ख गुरू बनने के लिए अंगद को देनी पड़ी सात कठिन परीक्षाएं

सिक्खों के दूसरे गुरू अंगद देव का जन्म 31 मार्च 1504 ईश्वी को हुआ था और मार्च महीने की ही 28 तारीख को 1552 ईश्वी में इन्होंने शरीर त्याग दिया।


इनका वास्तविक नाम लहणा था। गुरू नानक जी ने इनकी भक्ति और आध्यात्मिक योग्यता से प्रभावित होकर इन्हें अपना अंग मना और अंगद नाम दिया।

नानक देव जी ने जब अपने उत्तराधिकारी को नियुक्त करने का विचार किया तब अपने पुत्रों सहित लहणा यानी अंगद देव जी की कठिन परीक्षाएं ली।

परीक्षा में गुरू नानक देव जी के पुत्र असफल रहे, केवल गुरू भक्ति की भावना से ओत-प्रोत अंगद देव जी ही परीक्षा में सफल रहे।

नानक देव ने पहली परीक्षा में कीचड़ के ढे़र से लथपथ घास फूस की गठरी अंगद देव जी को सिर पर उठाने के लिए कहा।

दूसरी परीक्षा में नानक देव ने धर्मशाला में मरी हुई चुहिया को उठाकर बाहर फेंकने के लिए कहा। उन दिनों यह काम केवल शूद्र किया करते थे।

जात-पात की परवाह किये बिना अंगद देव ने चुहिया को धर्मशाला से उठाकर बाहर फेंक दिया।

तीसरी परीक्षा में गुरू नानक देव जी ने मैले के ढ़ेर से कटोरा निकालने के लिए कहा। नानक देव के दोनों पुत्रों ने ऐसे करने से इंकार कर दिया जबकि अंगद देव जी गुरू की आज्ञा मानकर इस कार्य के लिए सहर्ष तैयार हो गये।

चौथी परीक्षा के लिए नानक देव जी ने सर्दी के मौसम में आधी रात को धर्मशाला की टूटी दीवार बनाने की हुक्म दिया, अंगद देव जी इसके लिए भी तत्काल तैयार हो गये।

पांचवी परीक्षा में गुरु नानक देव ने सर्दी की रात में कपड़े धोने का हुक्म दिया। सर्दी के मौसम में रावी नदी के किनारे जाकर इन्होंने आधी रात को ही कपड़े धोना शुरू कर दिया।

छठी परीक्षा में नानक देव ने अंगद देव की बुद्धि और आध्यात्मिक योग्यता की जांच की। एक रात नानक देव ने अंगद देव से पूछा कि कितनी रात बीत चुकी है।

अंगद देव ने उत्तर दिया परमेश्वर की जितनी रात बितनी थी बीत गयी। जितनी बाकी रहनी चाहिये उतनी ही बची है।

इस उत्तर को सुनकर गुरु नानक देव समझ गये कि उनकी अध्यात्मिक अवस्था चरम सीमा पर पहुंच चुकी है। सातवीं परीक्षा लेने के लिए नानक देव जी अंगद देव को शमशान ले गये।

शमशान में एक मुर्दे को देखकर नानक देव ने कहा कि तुम्हें इसे खाना है, अंगद देव इसके लिए भी तैयार हो गये।

तब नानक देव ने अंगद को अपने सीने से लगा लिया और अंगद देव को अपना उत्तराधिकारी बना लिया।


रोगों से मुक्ति दिलाती हैं माता शीतला और उनका मंत्र
चैत्र कृष्णपक्ष अष्टमी तिथि को महाशक्ति के एक प्रमुख रूप शीतलामाता की पूजा पुराने समय से की जाती रही है।

इस वर्ष यह तिथि तीन अप्रैल को है शीतला की आराधना दैहिक तापों ज्वर, राजयक्ष्मा, संक्रमण तथा अन्य विषाणुओं के दुष्प्रभावों से मुक्ति दिलाती हैं।

मान्यता है कि ज्वर, चेचक, एड्स, कुष्ठरोग, दाहज्वर, पीतज्वर, विस्फोटक, दुर्गन्धयुक्त फोड़े तथा अन्य चर्मरोगों से आहत होने पर मां की आराधना रोगमुक्त कर देती है।

यही नहीं व्रती के कुल में भी यदि कोई इन रोंगों से पीड़ित हो तो ये रोग-दोष दूर हो जाते हैं। इन्हीं की कृपा से मनुष्य अपना धर्माचरण कर पाता है बिना शीतला माता की अनुकम्पा के देहधर्म संभव नहीं है।

मां का पौराणिक मंत्र 'हृं श्रीं शीतलायै नमः' भी प्राणियों को सभी संकटों से मुक्ति दिलाते हुए समाज में मान सम्मान दिलाता है। मां के वंदना मंत्र में भाव व्यक्त किया गया है कि शीतला स्वच्छता की अधिष्ठात्री देवी हैं।

शीलता माता के हाथ में झाड़ू और कलश होता है। हाथ में झाडू होने का अर्थ है कि हम लोगों को भी सफाई के प्रति जागरूक होना चाहिए।

कलश में सभी तैतीस करोड देवी देवताओं का वास रहता है अतः इसके स्थापन-पूजन से घर परिवार में समृद्धि आती है। स्कन्द पुराण में इनकी अर्चना का स्तोत्र शीतलाष्टक के रूप में मिलता है।

इस स्तोत्र की रचना भगवान शंकर ने जनकल्याण के लिए की थी। शीतलाष्टक शीतला देवी की महिमा गान करता है, साथ ही उनकी उपासना के लिए भक्तों को प्रेरित भी करता है।

इनकी आराधना मध्य भारत एवं उत्तरपूर्व के राज्यों में बड़े धूम-धाम से की जाती है!
11 अप्रैल से शुरु होगा हिंदू नव वर्ष, गुरु होगा राजा और शनि मंत्री
विश्व में विभिन्न धर्मों में अलग-अलग तिथि व समय को नया वर्ष मनाया जाता है। इसी तरह हिंदू धर्म में नए साल का प्रारंभ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा यानी गुड़ी पड़वा से माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि भगवान ब्रह्मा ने इसी दिन से सृष्टि निर्माण का कार्य प्रारंभ किया था। इस दिन से चैत्र नवरात्रि का प्रारंभ भी होता है। इस बार हिंदू नव वर्ष का प्रारंभ 11 अप्रैल, गुरुवार से हो रहा है।

इस तिथि से विक्रम संवत् का प्रारंभ भी होता है। ग्रंथों के अनुसार उज्जयिनी (वर्तमान उज्जैन) के राजा विक्रमादित्य ने इसी तिथि से कालगणना के लिए विक्रम संवत् का प्रारंभ किया था जो आज भी हिंदू कालगणना के लिए सर्वोत्तम माना जाता है। ज्योतिष के अनुसार प्रत्येक संवत् का एक विशेष नाम होता है तथा विभिन्न ग्रह इस संवत् के स्वामी, राजा व मंत्री होते हैं जिसका असर वर्ष भर जन सामान्य पर दिखाई देता है।

हिंदू पंचांग के अनुसार इस वर्ष ११ अप्रैल 2013 को विक्रम संवत् 2070 का प्रारंभ होगा। इस वर्ष विश्वेदेवा युग में पराभव नामक संवत्सर रहेगा जिसके स्वामी बुध हैं। विष्णु विशंति में इस पराभव नामक संवत्सर की गणना 20वें क्रमांक पर होती है। इस संवत्सर के राजा गुरु, मंत्री शनि है साथ ही दुर्गेश का पद शुक्र के पास रहेगा। इस वर्ष मेघों में संवर्त नाम का मेघ बारीश करेगा।


दुर्गासप्तशती

जगतजननी दुर्गा आद्यशक्ति पुकारी जाती हैं। शास्त्रों में इसी आद्यशक्ति के अलग-अलग रूपों में जगत के मंगल के लिए प्रकट होने की महिमा बताई गई है। देवी शक्ति के खासतौर पर तीन रूप जगत प्रसिद्ध है - महादुर्गा, महालक्ष्मी और महासरस्वती। वहीं नवदुर्गा, दश महाविद्या के रूप में भी देवी के अद्भुत और चमत्कारिक स्वरूप पूजनीय है।

देवी उपासना सांसारिक जीवन के सभी दु:खों का नाश कर भरपूर सुख देने वाली मानी गई है। यह शक्ति साधना के रूप में भी प्रसिद्ध है। इसके लिए अनेक धार्मिक विधान, देवी मंत्र, स्त्रोत व स्तुतियों का बहुत महत्व बताया गया है।

इसी कड़ी में नवरात्रि में दुर्गासप्तशती का पाठ बहुत मंगलकारी और धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष प्रदान करने वाला माना गया है। यही कारण है कि दुर्गासप्तशती और उसका हर मंत्र बड़ा शक्तिशाली व चमत्कारी भी माना जाता है। खासतौर पर देवी उपासना के विशेष कालों शुक्रवार या नवमी तिथि में तो इन मंत्र शक्तियों के शुभ प्रभाव जीवन को संकटमुक्त कर देते हैं।

दुर्गासप्तशती मार्कण्डेय पुराण का अंग है, जो वेदव्यास द्वारा रचित पवित्र पुराणों में एक है। श्रीव्यास भगवान विष्णु के अवतार माने गए हैं। मार्कण्डेय पुराण में दुर्गासप्तशती के रूप में मार्कण्डेय मुनि द्वारा पूरे जगत की रचना व मनुओं के बारे में बताते हुए जगतजननी देवी भगवती की शक्तियों की स्तुति की गई है। इसमें देवी की शक्ति व महिमा उजागर करते सात सौ मंत्रों के शामिल होने से यह सप्तशती नाम से पुकारी जाती है। इसमें देवी की 360 शक्तियों की स्तुति है।

दुर्गासप्तशती के मंगलकारी होने के पीछे धार्मिक दर्शन है कि जगतपालक विष्णु द्वारा स्वयं भगवान वेद व्यास के रूप में अवतरित होकर शक्ति रहस्य उजागर किया गया है। दूसरा इसमें शामिल पद्य संस्कृत भाषा में रचे गए हैं। संस्कृत देववाणी कहलाती है। देव कृपा व प्रसन्नता के लिए ही तपोबली महान मुनि और ऋषियों द्वारा इस भाषा का उपयोग कर देव साधनाओं के लिए दुर्गासप्तशती के साथ अन्य देव स्तुतियों और स्त्रोतों की रचना की गई। इसलिए ऋषि-मुनियों की ये स्तुतियां देववाणी होने व तप के प्रभाव से संकट व अनिष्ट से रक्षा के लिए बहुत असरदार मानी गई है। यही वजह है कि श्री वेदव्यास रचित मार्कण्डेय पुराण व उसके अंग दुर्गासप्तशती के मंत्र भी देव शक्तियों और तप के शुभ प्रभाव से भक्त के जीवन में सकारात्मक बदलाव लाकर चमत्कारी व मंगलकारी सिद्ध होते हैं। ये मंत्र हर कामनासिद्धी का अचूक उपाय भी माने गए हैं।

बिना धड़ के सिर ने देखा पूरा महाभारत और युद्घ का निर्णायक बना
बात उस समय कि है जब महाभारत का युद्घ आरंभ होने वाला था। भगवान श्री कृष्ण युद्घ में पाण्डवों के साथ थे जिससे यह निश्चित जान पड़ रहा था कि कौरव सेना भले ही अधिक शक्तिशाली है लेकिन जीत पाण्डवों की होगी।

ऐसे समय में भीम का पौत्र और घटोत्कच का पुत्र बर्बरीक ने अपनी माता को वचन दिया कि युद्घ में जो पक्ष कमज़ोर होगा वह उनकी ओर से लड़ेगा बर्बरीक ने महादेव को प्रसन्न करके उनसे तीन अजेय बाण प्राप्त किये थे। भगवान श्री कृष्ण को जब बर्बरीक की योजना का पता चला तब वह ब्राह्मण का वेष धारण करके बर्बरीक के मार्ग में आ गये।

श्री कृष्ण ने बर्बरीक का मजाक उड़ाया कि, वह तीन वाण से भला क्या युद्घ लड़ेगा। कृष्ण की बातों को सुनकर बर्बरीक ने कहा कि उसके पास अजेय बाण है। वह एक बाण से ही पूरी शत्रु सेना का अंत कर सकता है। सेना का अंत करने के बाद उसका बाण वापस अपने स्थान पर लौट आएगा।

इस पर श्री कृष्ण ने कहा कि हम जिस पीपल के वृक्ष के नीचे खड़े हैं अपने बाण से उसके सभी पत्तों को छेद कर दो तो मैं मान जाउंगा कि तुम एक बाण से युद्घ का परिणाम बदल सकते हो। बर्बरीक ने चुनौती स्वीकार करके, भगवान का स्मरण किया और बाण चला दिया। पेड़ पर लगे पत्तों के अलावा नीचे गिरे पत्तों में भी छेद हो गया।

इसके बाद बाण भगवान श्री कृष्ण के पैरों के चारों ओर घूमने लगा क्योंकि एक पत्ता भगवान ने अपने पैरों के नीचे दबाकर रखा था। भगवान श्री कृष्ण जानते थे कि युद्घ में विजय पाण्डवों की होगी और माता को दिये वचन के अनुसार बर्बरीक कौरावों की ओर से लड़ेगा जिससे अधर्म की जीत हो जाएगी।

इसलिए ब्राह्मण वेषधारी श्री कृष्ण ने बर्बरीक से दान की इच्छा प्रकट की। बर्बरीक ने दान देने का वचन दिया तब श्री कृष्ण ने बर्बरीक से उसका सिर मांग लिया। बर्बरीक समझ गया कि ऐसा दान मांगने वाला ब्राह्मण नहीं हो सकता है। बर्बरीक ने ब्राह्मण से कहा कि आप अपना वास्तविक परिचय दीजिए। इस पर श्री कृष्ण ने उन्हें बताया कि वह कृष्ण हैं।

सच जानने के बाद भी बर्बरीक ने सिर देना स्वीकार कर लिया लेकिन, एक शर्त रखी कि, वह उनके विराट रूप को देखना चाहता है तथा महाभारत युद्घ को शुरू से लेकर अंत तक देखने की इच्छा रखता है। भगवान ने बर्बरीक की इच्छा पूरी कि, सुदर्शन चक्र से बर्बरीक का सिर काटकर सिर पर अमृत का छिड़काव कर दिया और एक पहाड़ी के ऊंचे टीले पर रख दिया। यहां से बर्बरीक के सिर ने पूरा युद्घ देखा।


युद्घ समाप्त होने के बाद जब पाण्डवों में यह विवाद होने लगा कि किसका योगदान अधिक है तब श्री कृष्ण ने कहा कि इसका निर्णय बर्बरीक करेगा जिसने पूरा युद्घ देखा है। बर्बरीक ने कहा कि इस युद्घ में सबसे बड़ी भूमिका श्री कृष्ण की है। पूरे युद्घ भूमि में मैंने सुदर्शन चक्र को घूमते देखा। श्री कृष्ण ही युद्घ कर रहे थे और श्री कृष्ण ही सेना का संहार कर रहे थे।


जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK

Wednesday, March 13, 2013

Yama Niyama (यम-नियम )


यम-नियम
सभी संत एवं मत अहंकार के त्याग पर बल देते हैं। सभी संतों का यही कहना है कि अगर इन्सान अहंकार का त्याग कर दे, तो वह परमेश्वर को प्राप्त कर सकता है। बिना अहंकार के त्याग के परब्रह्म-परमेश्वर कि प्राप्ति कभी भी नहीं हो सकती। जब तक इन्सान का अहंकार समाप्त नहीं होगा। तब तक वह साधक बनने के लायक ही नहीं है। किन्तु आज के समय में प्रत्येक व्यक्ति या साधक अहंकार में डूबा हुआ है। एक आम व्यक्ति जब साधना के पथ पर बढ़ता है, तो उसे आवश्यकता होती है गुरू की, एक शिक्षक की। जब वह गुरू द्वारा बताये हुऐ यम-नियमों का पालन करते हुऐ, जैसे-जैसे साधना करता जाता है, वैसे-वैसे उस का अहंकार बढ़ता जाता है। कभी-कभी तो अहंकार इतना अत्यधिक बढ़ जाता है, कि वह अपने सामने दूसरे व्यक्तियों एवं अन्य साधकों को तुच्छ समझने लगता है। साधक के अन्दर जहाँ, साधना करते हुऐ अहंकार समाप्त होना चाहिऐ, किन्तु वहीं इस के विपरीत अहंकार घटने कि बजाये बढ़ने लगता है। अगर हम ध्यान-पूर्वक अध्ययन करे तो हमे पता चलेगा कि साधक की साधना ही उसके अहंकार को बढ़ावा देती है। क्योंकि इस के मूल में जो कारण है, वह है नियम। अनेकों ही जगह देखने को मिलता है कि अगर कोई साधक साधना करते हुऐ, मात्र प्याज का भी त्याग कर देता है तो वह अनेकों ही जगह इस का बखान करने लगता है और कहता है कि, मुझे प्याज खाये इतने साल हो गये या मैं प्याज बिल्कुल नहीं खाता। मात्र एक छोटी सी वस्तु प्याज जिसका कि त्याग साधक ने कर दिया, वह उसका बखान अनेकों ही लोगों के सामने करता है, और इस प्रकार साधक साधना कि तरफ कम ध्यान देता है और अपने यम-नियमों का बख़ान अनेकों व्यक्तियों के सामने करता है। जिससे कि उसके अहंकार को बढ़ावा मिलता है। यही हाल सभी साधकों का है। किसी साधक को अगर किसी वस्तु के त्याग का अहंकार है तो, किसी को अपने वस्त्र और उपवास का अहंकार है। किसी साधक को अपनी माला तथा जाप का अहंकार है कि मैने इतना जाप कर लिया, तो किसी साधक को अपने गुरू या अपने मत का अहंकार है। यही हाल सभी साधकों का है।

यम-नियम बनाये तो इस लिऐ गये थे, कि साधक की तरक्की में चार चाँद लग जाऐं और साधक जल्दी से जल्दी सिद्धि को प्राप्त हो जाऐं। किन्तु आज का साधक सिद्धि तो बहुत दूर कि बात, उसकी परछाई तक को प्राप्त नहीं कर पाता। क्योंकि जहाँ अहंकार होगा, वहाँ सिद्धि हो ही नहीं सकती। प्रश्न वहीं का वहीं है कि क्या यम-नियमों से उस परमात्मा को प्राप्त किया जा सकता है। इसको जानने के लिऐ, हमें विभिन्न धर्मों के इतिहास को समझना होगा। जैसे कि मुस्लिम-सम्प्रदाय में शराब का त्याग बताया गया है। वहीं दूसरी तरफ सिख-सम्प्रदाय में तम्बाखू के सेवन पर प्रतिबन्ध है। इसके विपरीत सिख सम्प्रदाय में शराब का सेवन होता है और मुस्लिम-सम्प्रदाय में तम्बाखू का सेवन। अगर एक आम व्यक्ति के सामने इन दोनों ही मत के नियमों को रखा जाऐं कि शराब के त्याग से वह परमेश्वर मिल सकता है। तो अब तक सभी मुस्लिमों को उस अल्लाह का दीदार हो गया होता। दूसरी तरफ अगर तम्बाखू छोड़ने से वह परमात्मा मिलता तो सभी सिखों को उस परमेश्वर के दर्शन हो गये होते। सही मायने में कोई भी चीज क्यों न हो, किसी के भी त्याग से या सेवन से वह परमात्मा किसी को भी प्राप्त नहीं हो सकता। अगर आपने कोई नियम बना लिया है और उस नियम का आप के अलावा किसी को भी मालूम नहीं है, तभी वह नियम सही मायने में नियम है। अगर आप ने कोई नियम बनाया और उसका बखान लोगों के सामने कर दिया तो वह नियम, नियम नहीं रहा। अगर आपको अपने अहंकार का त्याग करना है, तो आपको एक ही नियम कि आवश्यकता है और वह यह है, कि गुरू को सम्पूर्ण रूप से पूर्ण मानना और उसके बताऐ हुऐ मार्ग पर चलना। अगर आपने कोई गुरू नहीं बना रखा हो तो आप का धर्म बनता है, कि सभी जीवों में उस परमेश्वर को ही देखें और उस परमात्मा कि बन्दगी करते हुऐ, उस परमेश्वर के ध्यान में ही खोऐ रहें। कोई भी ऐसा काम ना करें, जिससे कि किसी दूसरे व्यक्ति के मन को दुखः पहुँचे। क्योंकि सभी जीवों में वह परमेश्वर ही विराजमान है और जब आप किसी व्यक्ति को दुखः देते है या परेशान करते है, तो आप उस व्यक्ति को नहीं बल्कि उस के अन्दर विराजमान परमात्मा को ही दुखः पहुँचाते है।

अगर आप सम-भाव से सभी में उस परमेश्वर को दिखेगें, तो आपके अन्दर का अहंकार स्वतः ही समाप्त हो जाऐगा। साथ-ही-साथ आपके अन्दर किसी भी मत-विशेष या धर्म-विशेष का अहंकार पैदा न हो, इसके लिऐ आप अपने साधना कक्ष में सभी धर्मो या मतों के देवताओं या संतों के स्वरूपों को लगाऐं। जिससे कि आप को यह ऐहसास हो सके, कि आप जो भी अराधना कर रहे है या आप जो भी नियमों का पालन कर रहे हो, उससे अधिक कठोर नियमों का पालन करते हुऐ एवं कठोर साधना करते हुऐ सभी धर्मो के संतो ने उस परमेश्वर को प्राप्त किया है। इससे आप के अन्दर अत्यधिक उत्साह पैदा होगा और आप के मन में भी उन के जैसा बनने कि कामना पैदा होगी। जिस प्रकार हम इस संसार में एक दूसरे से मदद माँगते है या एक दूसरे कि मदद करते हैं, उसी प्रकार जब हम परमात्मा को प्राप्त करने के रास्ते पर बढ़ते चले जाते हैं तो, अनेकों ही दिव्य-आत्माऐं एवं सिद्ध-पुरूष हमारी अदृश्य रूप से मदद करते है और हमें ज्ञान और मोक्ष का रास्ता बताते है। ये दिव्य-आत्माऐं एवं सिद्ध-महापुरूष बिना किसी भेद-भाव के साधक कि मदद करते है। साधक चाहे किसी भी धर्म या जाति का क्यों न हो, इन पवित्र-आत्माओं कि नजर में सभी साधक एक समान हैं। हमें नियमों कि नहीं बल्कि परमेश्वर की आवश्यकता है। जैसे-जैसे हम साधना-मार्ग पर बढ़ते जायेंगे नियम अपने आप ही बनते व टूटते चले जायेंगे।

अगर हम बात करे बाबा नानक कि तो उन्होंने सभी नियमों का त्याग कर उस परमेश्वर से एकाकार हुऐ और अनहद् नाद रूप में ॐकारको प्राप्त किया एवं सम्पूर्ण मानव जाति को ॐकारका ही सन्देश दिया। जब उन्होंनें अनहद-नादको प्राप्त किया तो उन के श्रीमुख से जो पहला शब्द निकला वह था एक ॐकार सत् नामअर्थात उस परब्रह्म (सत् का अर्थ है- परब्रह्म)का केवल एक ही नाम है और वह है । सभी धर्मों के सन्तों ने ॐकारपर ही जोर दिया है। इसलिऐ आप भी ॐकार का ही जाप करें। जैसे-जैसे आप ॐकार का जाप करते जायेंगे, वैसे-वैसे आपका मन, बुद्धि और आत्मा ॐकार में विलीन होती चली जायेगी और आप उस परमात्मा को प्राप्त हो जाओगे। इस प्रकार जब कोई नियम ही नहीं होगा तो अहंकार का जन्म ही नहीं होगा और जब अहंकार नहीं होगा तो मन निर्मल हो जायेगा। मन के निर्मल होने से मन-बुद्धि में, बुद्धि-आत्मा में और आत्मा उस परमात्मा में समा जायेगी और बिना समय गँवाये, थोडे से समय में ही आप उस परमात्मा को अपने हृदय में प्रकट कर लोगे। जहाँ यम-नियमों की वजह से सालों कि तपस्या करने के बाद भी, वह परमात्मा आप को नहीं मिला। वहीं यम-नियमों का त्याग करते ही आप का अहंकार गिर जायेगा, आप कि बुद्धि पवित्र हो जाऐगी और जिस परमात्मा कि एक झलक पाने के लिए आप तरस रहें थे वह परमात्मा आप के रोम-रोम में एवं सृष्टि के कण-कण में आप को दिखाई देगा। जो अनहद-नाद कठोर नियमों का पालन करने पर भी सुनाई नहीं दिया, वह अनहद-नाद आप के रोम-रोम में प्रकट हो जाऐगा।

अनेकों ही व्यक्तियों के मन में यह प्रश्न उठता है कि यम-नियमों का त्याग करने से क्या वह परमात्मा हमें प्राप्त होगा। तो इसका सबसे बड़ा उदाहरण है महात्मा-बुद्ध। महात्मा-बुद्ध ने राज-पाट का त्याग करके सन्यास ले लिया और वनों में घुमने लगे। परमात्मा को प्राप्त करने कि अभिलाषा मन में थी। इसलिऐ वनों में जो भी साधू-सन्यासी मिलता, महात्मा-बुद्ध उससे परमात्मा को पाने का रास्ता पूछते और सामने वाला साधू जो भी रास्ता बताता वह उससे भी ज्यादा कठोर नियमों के साथ साधना करते। किन्तु ॠद्धि-सिद्धियाँ तो प्राप्त होती चली गई, किन्तु उस परमात्मा कि प्राप्ति नहीं हो सकी। महात्मा-बुद्ध को अनेकों ही साधुओं ने साधना बताई और महात्मा-बुद्ध ने सभी साधनाऐं पूर्ण-विधान के साथ सम्पन्न कि किन्तु मन में साधना का अहंकार होने कि वजह से सिद्धियां तो अनेकों प्राप्त हुई किन्तु परमात्मा कि प्राप्ति नहीं हो सकी। किन्तु आखिर में बौद्धि-वृक्ष के नीचे बैठ कर महात्मा-बुद्ध ने सभी नियमों और सिद्धियों का त्याग कर दिया और शांत चित्त हो गये। जैसे ही नियमों और सिद्धियों का त्याग कर दिया और शांत चित्त हो गये। जैसे ही नियमों और सिद्धियों का त्याग हुआ वैसे ही अहंकार तिरोहित हो गया और महात्मा-बुद्ध बौद्धित्व को प्राप्त हो गये अर्थात् उन्हें पूर्ण-परब्रहम्-परमेश्वर कि प्राप्ति हो गई और वे स्वयं उस परमात्मा का रूप बन गये। आवश्यकता यम-नियमों कि नहीं है, बल्कि उस परमेश्वर के प्रति समर्पित होने की है। जब तक आप यम-नियमों मे बंधे हुऐ है, तब तक आप उस परमात्मा के प्रति सम्पूर्ण रूप से समर्पित हो ही नहीं सकते। क्योंकि बंधा हुआ इन्सान एक गुलाम के समान होता है और गुलाम उसका होता है, जिसने उसको बांध रखा हो। सम्पूर्ण रूप से बन्धन मुक्त हो कर ही आप उस परमेश्वर को प्राप्त कर सकते है। क्योंकि परमात्मा न तो स्वयं बंधा हुआ है और न ही वह किसी को बन्धनों में बांधता है।

वह परमात्मा तो सर्व-व्यापक और स्वतन्त्र है। इसलिऐ स्वतन्त्र साधक ही उस परमात्मा को प्राप्त करके सर्व-व्यापक बन सकता है। बंधा हुआ व्यक्ति कभी भी अपनी सीमा से बाहर नहीं निकल सकता। इसलिऐ वह कभी भी सर्व-व्यापक नहीं बन सकता। कहने का तात्पर्य यही है कि बन्धन-युक्त व्यक्ति कभी उस परमात्मा को नहीं प्राप्त कर सकता, बल्कि बन्धन-मुक्त साधक ही उस परमेश्वर को अपने हृदय में प्रकट कर सकता है और उसका साक्षात्कार कर सकता है। अधिकतर साधक विशेष रंग के वस्त्र, विशेष माला, विशेष आसन आदि पर ही टिके रहते हैं, कि हमारे गुरू ने हमें वस्त्र, माला और जिस आसन के लिये कहा है, हम उसी का इस्तेमाल करेंगे। किन्तु ऐसा सम्भव नहीं है। क्योंकि वस्त्र, माला और आसन गुरू के अनुसार नहीं अपितु इष्ट के अनुसार होते हैं। जिसका जैसा इष्ट होगा, उसका वस्त्र, माला और आसन भी उसी के अनुसार होगें। जैसे कि गायत्री उपासकों के लिये श्वेत वस्त्र, रूद्राक्ष की माला और कुशा का आसन अनिवार्य है, वहीं पर काली के उपासकों हेतु लाल वस्त्र, काले हकीक की माला और कम्बल का आसन होना अनिवार्य है। दुर्गा एवं हनुमान के उपासकों के लिये लाल वस्त्र, लाल चंदन कि माला और लाल रंग का आसन आवश्यक है।

आज के समय में जिन यम नियमो की आवश्यकता है, उनको तो मानने व करने के लिये कोई भी तैयार नहीं है। सभी संतो ने जिन यम-नियमो के लिये, साधकों को कहा उनको तो साधक समझ नहीं पाऐ, अपितु उल्टे-सीधे नियमों में उलझ कर रह गये। जिसका परिणाम यह हुआ कि सिद्धि तो प्राप्त हुई ही नहीं, उल्टे साधक अपना मानसिक संतुलन भी खो बैठे। आज के समय में साधक के लिये, जो यम-नियम जरूरी है, वह यह है कि साधक किसी से घृणा न करें, किसी से द्वैष न रखें, काम क्रोध और अहंकार पर काबू रखें, किसी से ईर्ष्या न करें एवं स्वयं सहित सबके अन्दर उस परमपिता-परमात्मा का आभास करते हुऐ उस परमात्मा के ध्यान में आनंदित रहें। इस प्रकार यदि कोई साधक यम-नियमों का पालन करता है, तो आठों सिद्धियाँ उस साधक की गुलाम होती हैं और वह साधक आत्म-ज्योति का साक्षात्कार करता हुऐ एवं अनहद-शब्द को सुनते हुऐ पूर्णता को प्राप्त हो जाऐगा और कह उठेगा सोऽहं-सोऽहंअर्थात् मैं वही हूँ, मैं वही हूँ

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK

Monday, March 11, 2013

Sohamsadna(सोऽहं-साधना)


सोऽहं
‘सोऽहं’ का अर्थ है- ‘मैं वह हूँ’ ‘ॐ’ अर्थात् ‘आत्मा’। ‘वह’ अर्थात् ‘परमात्मा’। ‘सोऽहम्’ शब्द में आत्मा और परमात्मा का समन्वय है, साथ ही शरीर और प्राण का भी। ‘सोऽहम्-साधना’ जितनी सरल है, बन्धन रहित है, उतनी ही महत्वपूर्ण भी है। उच्चस्तरीय साधनाओं में ‘सोऽहम्-साधना’ को सर्वोपरि माना गया है, क्योंकि उसके साथ जो संकल्प जुड़ा हुआ है, वह चेतना को उच्चतम स्तर तक जाग्रत कर देने में, जीव और ब्रह्म को एकाकार कर देने में विशेष रुप से समर्थ है। इतनी इस स्तर की भाव संवेदना और किसी साधना में नहीं है। अस्तु, इसे सामान्य साधनाओं की पंक्ति में न रखकर स्वतंत्र नाम दिया गया है। इसे ‘हंसयोग’ भी कहा गया है। जीवात्मा सहज स्वभाव में सोऽहम् का जाप श्वाँस-प्रश्वाँस किया के साथ-साथ अनायास ही करता रहता है, यह संख्या चौबीस घण्टे में 21600 के लगभग हो जाती है। गोरक्ष-संहिता के अनुसार यह जीव ‘हकार’ की ध्वनि से बाहर आता है, और ‘सकार’ की ध्वनि से भीतर जाता है। इस प्रकार वह सदा हंस-हंस जाप करता रहता है। इस तरह एक दिन-रात में जीव इक्कीस हजार छः सौ मन्त्र का जाप करता रहता है। संस्कृत व्याकरण के आधार पर ‘सोऽहम्’ का संक्षिप्त रुप ‘ओऽम्’ हो जाता है। सोऽहम् पद में से सकार और हकार का लोप करके शेष का सन्धि योजन करने से वह प्रणव (ॐकार) रूप हो जाता है।

‘सोऽहम्’ साधना गायत्री की योग-साधना है। यह साधना व्यक्ति के श्वास लेते-निकालते समय स्वतः होती रहती है। श्वास बाहर निकालते समय ‘हकार’ की ध्वनि और भीतर ग्रहण करते समय ‘सकार’ की ध्वनि होती है, विद्वान लोग इसी को ‘सोऽहम्’ साधना कहते है।

इस साधना की दूसरी प्रेरणा जीवात्मा और ब्रह्म कि तथा आत्मा और परमात्मा की तात्त्विक एकता का भी प्रतिपादन करती है। ‘सो’ अर्थात् ‘वह’। अहम् अर्थात् मैं। इन दोनों का मिला-जुला निष्कर्ष निकला- वह मैं हूँ। वह अर्थात् परमात्मा, मैं अर्थात् ‘जीवात्मा’ दोनो का समन्वय-एकीभाव-सोऽहम्। इससे आत्मा और परमात्मा एक है- इस अद्वैत सिद्धान्त का समर्थन होता है। ‘तत्त्वमसि’, अयमात्मा ब्रह्म, शिवोऽहम्, सच्चिदानन्दोऽहम्- जैसे वाक्यों में इसी का प्रतिपादन हैं।

‘सोऽहम् साधना’ को ‘अजपा-जप’ अथवा प्राण-गायत्री भी कहा गया है। इसको अजपा-जाप इसलिए कहा गया है, क्योंकि यह जाप अपने आप होता रहता है। इसको जपने की नहीं बल्कि सुनने की आवश्यक्ता है। साथ ही इसको प्राण-गायत्री इसलिए कहा गया है क्योंकि यह जाप प्रत्येक श्वांस के साथ स्वतः ही होता रहता है।

अजपा गायत्री योगियों को मोक्ष प्रदान करने वाली है। उसका विज्ञान जानने से मनुष्य समस्त पापों से मुक्त हो जाता है। इसके समान और कोई विद्या नहीं है। इसके बराबर और कोई पुण्य न भूतकाल में हुआ है न भविष्य में ही होगा।

सोऽहम् को सद्ज्ञान, तत्वज्ञान, ब्रह्मज्ञान कहा गया है। इसमें आत्मा को अपनी वास्तविक स्थिति समझने, अनुभव करने का संकेत है। ‘वह परमात्मा मैं ही हूँ’, इस तत्त्वज्ञान में मायामुक्ति स्थिति की शर्त जुड़ी हुई है। नर-किट, नर-पशु और नर-पिशाच जैसी निकृष्ट परिस्थितियों में घिरी ‘अहंता’ के लिए इस पुनीत शब्द का प्रयोग नहीं हो सकता। ऐसे तो रावण, कंस, हिरण्यकश्यप जैसे अहंकारग्रस्त आतताई लोगों के मुख से अपने को ईश्वर कहलाने के लिए बाधित करते थे। अहंकार-उन्मत मनःस्थिति में वे अपने को वैसा समझते भी थे, पर इससे बना क्या? उनका अहंकार ही उन्हें ले डूबा।

‘सोऽहम्’ साधना में पंचतत्वों और तीन गुणों से बने शरीर को ईश्वर मानने के लिए नहीं कहा गया है। ऐसी मान्यता तो उल्टा अहंकार जगा देगी और उत्थान के स्थान पर पतन का नया कारण बनेगी, यह दिव्य संकेत आत्मा के शुद्ध स्वरूप का विवेचन है। वह वस्तुतः ईश्वर का अंश हैं। समुद्र और लहरों की, सूर्य और किरणों की मटाकाश और घटाकाश की, ब्रह्माण्ड और पिण्ड की, आग-चिंगारी की उपमा देकर परमात्मा और आत्मा की एकता का प्रतिपादन करते हुए मनीषियों ने यही कहा है कि मल-आवरण विक्षेपों से, कषाय-कल्मषों से मुक्त हुआ जीव वस्तुतः ब्रह्म ही है। दोनों की एकता में व्यवधान मात्र अज्ञान का है, यह अज्ञान ही अहंता के रूप में विकसित होता है और संकीर्ण स्वार्थपरता में निमग्न होकर व्यर्थ चिन्तन तथा अनर्थ कार्य में निरत रहकर अपनी दुर्गति अपने आप बनाता है।

तत्त्वमसि, अयमात्मा ब्रह्म, शिवोहम् सच्चिदानन्दोहम्, शुद्धोसि, बुद्धोसि, निरंजनोसि जैसे वाक्यों में इसी दर्शन का प्रतिपादन है, उनमें जीव और ब्रह्म की तात्विक एकता का प्रतिपादन है।

सोऽहम् शब्द का निरन्तर जाप करने से उसका एक शब्द चक्र बन जाता है, जो उलट कर ‘हंस’ के समान प्रतिध्वनित होता है। योग-रसायन में कहा गया है, हंसो-हंसो इस पुनरावर्तित क्रम से जप करते रहने पर शीघ्र ही ‘सोहं-सोहं’ ऐसा जाप होने लगता है। अभ्यास के अनन्तर चलते, बैठते और सोते समय भी हंस-मंत्र का चिंतन परम् सिद्धिदायक है। इसे ही ‘हंस’, ‘हंसो’, ‘सोऽहम्’ मंत्र कहते है।

जब मन उस हंस तत्व में लीन हो जाता है, तो मन के संकल्प-विकल्प समाप्त हो जाता हैं और शक्ति रुप, ज्योती रुप, शुद्ध-बुद्ध, नित्य-निरंजन ब्रह्म का प्रकाश प्रकाशित होता है। समस्त देवताओं के बीच ‘हंस’ ही परमेश्वर है, हंस ही परम वाक्य है, हंस ही वेदों का सार है, हंस परम रुद्र है, हंस ही परात्पर ब्रह्म है।

समस्त देवों के बीच हंस अनुपम ज्योति बन कर विद्यमान है।

सदा तन्मयतापूर्वक हंस मन्त्र का जप निर्मल प्रकाश का ध्यान करते हुए करना चाहिए।

जो अमृत से अभिसिंचन करते हुए ‘हंस’ तत्त्व का जाप करता है, उसे सिद्धियों और विभूतियों की प्राप्ति होती है।

जो ‘हंस’ तत्त्व की साधना करता है, वह त्रिदेव रुप है। सर्वव्यापी भगवान को जान ही लेता है।

शिव स्वरोदय के अनुसारः- श्वाँस के निकलने में ‘हकार’ और प्रविष्ट होने में ‘सकार’ जैसी ध्वनी होती है। ‘हकार’ शिवरुप और ‘सकार’ शक्ति रुप कहलाता है।

प्रसंग आता है कि एक बार पार्वती जी ने भगवान् शंकर से सभी प्रकार की सिद्धियों को प्रदान करने वाले योग के विषय में पूछा, तो भगवान् शंकर ने इसका उत्तर देते हुए पार्वती जी से कहा- अजपा नाम की गायत्री योगियों को मोक्ष प्रदान करने वाली है। इसके संकल्प मात्र से सभी पाप नष्ट हो जाते हैं। यह सुनकर पार्वती जी को इस विषय में और अधिक जानने की इच्छा हुई। इसके सम्पूर्ण विधि-विधान को जानना चाहा। तब भगवान शंकर ने पुनः कहा-हे देवी, यह देह (शरीर) ही देवालय है। जिसमें देव प्रतिमा स्वरुप जीव विद्यमान है। इसलिए अज्ञान रुपी निर्माल्य (पुराने फ़ूल-मालाओं) को त्याग कर ‘सोऽहम्’ भाव से उस (देव) की आराधना करनी चाहिए।

देवी भागवत के अनुसार- हंसयोग में सभी देवताओं का समावेश है, अर्थात् ब्रह्य, विष्णु, महेश, गणेशमय हंसयोग है। हंस ही गुरु है, हंस ही जीव-ब्रह्म अर्थात् आत्मा-परमात्मा है।

सोऽहम् साधना में आत्मबोध, तत्त्वबोध का मिश्रित समावेश है। मैं कौन हूँ? उत्तर- ‘परमात्मा’। इसे जीव और ईश्वर का मिलना, आत्म-दर्शन, ब्रह्म-दर्शन भी कह सकते है और आत्मा परमात्मा की एकता भी। यही ब्रह्म-ज्ञान है। ब्रह्म-ज्ञान के उदय होने पर ही आत्म-ज्ञान, सद्ज्ञान, तत्त्व-ज्ञान, व्यवहार-ज्ञान आदि सभी की शाखाएँ-प्रशाखाएँ फ़ूटने लगती है।

साँस खींचते समय ‘सो’ की, रोकते समय ‘अ’ की और निकालते समय ‘हम्’ की सूक्ष्म ध्वनि को सुनने का प्रयास करना ही ‘सोऽहम्’ साधना है। इसे किसी भी स्थिति में, किसी भी समय किया जा सकता है। जब भी अवकाश हो, उतनी ही देर इस अभ्यास क्रम को चलाया जा सकता है। यों शुद्ध शरीर, शान्त मन और एकान्त स्थान और कोलाहल रहित वातावरण में कोई भी साधना करने पर उसका प्रतिफ़ल अधिक श्रेयस्कर होता है, अधिक सफ़ल रहता है।

‘सोऽहम्’ साधना का चमत्कारी परिणाम भी अतुल है। यह प्राण-योग ‘सोऽहम्’ साधना का चमत्कारी परिणाम भी अतुल है। यह प्राण-योग की विशिष्ट साधना है।

दस प्रधान और चौवन(54) गौण, कुल चौंसठ(64) प्राणायामों का विधि-विधान साधना-विज्ञान के अन्तर्गत आता है। इनकें विविध लाभ हैं। इन सभी प्राणायामों में ‘सोऽहम्’ साधना रुपी प्राण-योग सर्वोपरि है। यह अजपा-गायत्री जप, प्राण-योग के अनेक साधना-विधानों में सर्वोच्च है। इस एक के ही द्वारा सभी प्रणायामों का लाभ प्राप्त हो सकता है।

सोऽहम् और कुण्डलिनी शक्ति
षटचक्र भेदन में प्राण्तत्त्व का ही उपयोग होता है। नासिका द्वारा प्राण तत्त्व में जाने पर आज्ञाचक्र तक तो एक ही ढंग से कार्य चलता है, पर पीछे उसके भावपरक तथा शक्तिपरक ये दो भाग हो जाते हैं। भावपरक हिस्से में फ़ेंफ़ड़े में पहुँचा हुआ प्राण शरीर के समस्त अंग-प्रत्यगों में समाविष्ट होकर सत् का संस्थापन और असत् का विस्थापन करता है। शक्तिपरक प्राणधारा आज्ञाचक्र से मस्तिष्क के पिछले हिस्से को स्पर्श करती हुई मेरूदण्ड में निकल जाती है, जहाँ ब्रह्मनाड़ी का महानाद है। इसी ब्रह्म-नाद में इड़ा-पिंगला दो विधुत धाराएँ प्रभावित हैं, जो मूलाधार चक्र तक जाकर सुषुम्ना-सम्मिलन के बाद लौट आती है। मेरूदण्ड स्थित ब्रह्मनाड़ी के इस महानाद में ही षटचक्र भँवर की तरह स्थित है। इन्हीं षटचक्रों में लोक-लोकान्तरों से सम्बन्ध जोड़ने वाली रहस्यमय कुन्जियाँ सुरक्षित रखी हुई हैं। जो जितने रत्न-भण्डारों से सम्बन्ध स्थापित कर ले, वह उतना ही महान।

कुण्डलिनी शक्ति भौतिक एवं आत्मिक शक्तियों की आधारपीठ है। उसका जागरण षटचक्र भेदन द्वारा ही सम्भव है। चक्र-भेदन प्राणतत्त्व पर आधिपत्य के बिना सम्भव नहीं है। प्राणतत्त्व के नियन्त्रण में सहायक प्राणायामों में सोऽहम् का प्राणयोग सर्वश्रेष्ठ व सहज है।

सोऽहम् साधना द्वारा एक अन्य लाभ है- दिव्य गन्धों की अनुभूति। गन्ध वायु तत्त्व की तन्मात्रा है। इन तन्मात्रा द्वारा देवतत्त्वों की अनुभूति होती है। नासिका सोऽहम् साधना के समय गन्ध तन्मात्रा को विकसित करती है, परिणामस्वरूप दिक्गन्धों की अनायास अनुभूति समय-समय पर होती रहती है। इन गन्धों को कुतूहल या मनोविनोद की दृष्टि से नहीं लेना चाहिए। अपितु इनमें सन्निहित विभूतियों का उपयोग कर दिव्य शक्तियों की प्राप्ति का प्रयास किया जाना चाहिए। उपासना स्थल में धूपबती जलाकर, गुलदस्ता सजाकर, चन्दन, कपूर आदि के लेपन या इत्र-गुलाब जल के छिड़काव द्वारा सुगन्ध पैदा की जाती है और उपासना अवधि में उसी की अनुभूति गहरी होती चले तो साधना-स्थल से बाहर निकलने पर, बिना किसी गन्ध-उपकरण के भी दिव्य गन्धआती रहेगी। 

ऐसी दिव्य गन्ध एकाग्रता की अभिरूचि का चिन्ह है। विभिन्न पशु-पक्षियों, कीड़े-मकोड़ों में घ्राण-शक्ति का महत्व सर्वविदित है। उसी के सहारे वे रास्ता ढूँढ़ते है, शत्रु को भाँपते और सुरक्षा का प्रबन्ध करते, प्रणय-सहचर को आमंत्रित करते, भोजन की खोज करते तथा मौसम की जानकारी प्राप्त करते है। इसी घ्राण-शक्ति के आधार पर प्रशिक्षित कुत्ते अपराधियों को ढूँढ़ निकालते हैं। मनुष्य अपनी घ्राण-शक्ति को विकसित कर अतीन्द्रिय संकेतों तथा अविज्ञात गतिविधियों को समझ सकते हैं। दिव्य-शक्तियों से सम्बन्ध का भी गन्धानुभूति एक महत्वपूर्ण माध्यम है। सोऽहम् साधना इसी शक्ति को विकसित करती है।

सोऽहम् साधना विधान
साधना करते समय जब साँस भीतर जा रही हो तब ‘सो’ की भावना, भीतर रूक रही हो तब ‘अ’ का और जब उसे बाहर निकाला जा रहा हो तब ‘हम्’ ध्वनि का ध्यान करना चाहिए। इन शब्दों को मुख से बोलने की आवश्यकता नहीं है। मात्र श्वांस के आवागमन पर ध्यान केन्द्रित किया जाता है और साथ ही यह भावना की जाती है कि आवागमन के साथ दोनों शब्दों की ध्वनि हो रही है।

आरम्भ में कुछ समय यह अनुभूति उतनी स्पष्ट नहीं होती, किन्तु प्रयास जारी रखने पर कुछ ही समय उपरान्त इस प्रकार का ध्वनि प्रवाह अनुभव में आने लगता है और उसे सुनने में न केवल चित्त ही एकाग्र होता है, वरन् आनन्द का अनुभव होता है।

ध्यान से मन का बिखराव दूर होता है और प्रकृति को एक केन्द्र पर केन्द्रित करने से उससे एक विशेष मानसिक शक्ति उत्पन्न होती है। उससे जिस भी प्रयोजन के लिए- जिस भी केन्द्र पर केन्द्रित किया जाये, उसमें जाग्रति- स्फुरणा उत्पन्न होती है। मस्तिष्कीय प्रसुप्त क्षमताओं को, षट्चक्रों को, तीन ग्रन्थियों को, जिस भी केंद्र पर केन्द्रित किया जाय वहीं सजग हो उठता है और उसके अन्तर्गत जिन सिद्धियों का समावेश है, उसमें तेजस्विता आती है।

सोऽहम् साधना के लिए किसी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं है। न समय का, न स्थान का। स्नान जैसा भी कोई प्रतिबन्ध नहीं है। जब भी अवकाश हो, सुविधा हो, भाग-दौड़ का काम न हो, मस्तिष्क चिन्ताओं से खाली हो। तभी इसे आरम्भ कर सकते है। यों हर उपासना के लिए स्वच्छता, नियत समय, स्थिर मन के नियम हैं। धूप-दीप से वातावरण को प्रसन्नतादायक बनाने की विधि है। वे अगर सुविधापूर्वक बन सकें तो श्रेष्ठ अन्यथा रात्रि को आँख खुलने पर बिस्तर पर लेटे-लेटे भी इसे किया जा सकता है। यों मेरूदण्ड को सीधा रखकर पद्मासन से बैठना हर साधना में उपयुक्त माना जाता है, पर इस साधना में उन सबका अनिवार्य प्रतिबन्ध नहीं है।

एकाग्रता के लिए हर साँस पर ध्यान और उससे भी गहराई में उतरकर सूक्ष्म ध्वनि का श्रवण इन दो प्रयोजनों के अतिरिक्त तीसरा भाव पक्ष है, जिसमें यह अनुभूति जुड़ी हुई है कि ‘मैं वह हूँ’ अर्थात् आत्मा, परमात्मा के साथ एकीभूत हो रही है। इसके निमित्त वह सच्चे मन से आत्म-समर्पण कर रही है। यह समर्पण इतना गहरा है कि, दोनों के मिलने से एक की सत्ता मिट जाती है और दूसरे की रह जाती है। दीपक जलता है तो लौ ही दृष्टिगोचर होती है। तेल तो नीचे पेंदे में पड़ा अपनी सत्ता बत्ती के माध्यम से प्रकाश रूप में ही समाप्त करता चला जाता है।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK