बीमारी से उबरने की सही राह…
सभी को जीवन में कभी न कभी बीमार होना पड़ता है। बड़ी नहीं तो छोटी-मोटी बीमारी
हरेक से चिपक गई है। जब बीमार पड़ें तो थोड़ा-सा विचार कीजिएगा कि हमारे साथ पांच
बातें जुड़ जाती हैं- एक, हमारा शरीर। पहला ध्यान उसी पर जाता है, क्योंकि शुरुआत वहीं से
होना है। कुछ लोग केवल इसी पर टिक जाते हैं और यहीं से इलाज करते रहते हैं। दो,
फिर हमारा ध्यान
डॉक्टर की ओर जाता है। यदि वह योग्य मिल जाए तो हम भाग्यशाली हैं। वरना शरीर और
बीमारी के साथ-साथ हम डॉक्टर से भी उलझने लगते हैं। तीन, दवा। डॉक्टर अच्छा मिल जाए,
लेकिन दवा काम न
करे या दवा लेने का हमारा ढंग उल्टा-सीधा हो तो भी प्रभाव उल्टा पड़ेगा। चार,
हमारे केयर टेकर।
बीमारी के दौरान हमारी देखभाल करने वाले लोग ठीक न हों तो भी बीमारी में उल्टा असर
पड़ता है। पांच, भविष्य का डर। कल क्या होगा, कौन सेवा करेगा, धन की व्यवस्था कहां से आएगी? ठीक होंगे या नहीं यह संदेह बना
रहता है।
इन पांच बातों का मिला-जुला नाम है बीमारी। ज्यादातर लोग इन्हीं में उलझ जाते
हैं, लेकिन
जो धर्म और अध्यात्म में रुचि रखते हों, उन्हें इससे आगे बढ़कर छठी बात पर गौर करना चाहिए और
वह है अपनी आत्मा पर टिकें। शरीर हम जान चुके हैं। अब हमें शरीर से मन को गुजारते
हुए आत्मा तक पहुंचना चाहिए। यानी यह महसूस करना कि शरीर अलग है और मन अलग है। इस
अभ्यास के अध्यात्म में अपने-अपने ढंग हैं। जितना आत्मा पर टिककर यह महसूस करेंगे
उतना ही ये पांच बातें आपको कम परेशान करेंगी। संभव है स्वस्थ होने में ही मदद मिल
जाए, क्योंकि
आत्मा पर टिकते ही आत्मविश्वास जाग जाता है। जितना आत्मविश्वास अधिक होगा ये
पांचों बातें उतनी ही अनुकूल होती जाएंगी।
श्रेष्ठ लेकर ही यहां से जाएं
ऋषि-मुनि कहते आए हैं हैं कि हम परमात्मा का अंश हैं और हमें एक दिन उसी में
मिलना है। तो क्यों न अपने भीतर उसके विराट आनंद का समावेश करें। यह आदर्श वाक्य
सभी को समझ में नहीं आता। खासतौर पर नई पीढ़ी के बच्चे आत्मा-परमात्मा की बातों से
घबराने लगते हैं। एक वर्ग विज्ञान के आधार पर इसको खारिज कर देता है। कुछ लोग इस
बात को सुनकर अपने भीतर उतरते हैं और भगवान को ढूंढ़ने लगते हैं। निराश हो जाते
हैं तो कहा जाता है कि ये सब बकवास है। फिर भी लोग आस्थावान होते हैं। मूर्ति पूजा
में, मंदिर
जाने में, कर्मकांड में लग जाते हैं, लेकिन शांत नहीं हो पाते। दोनों पक्ष ध्यान रखें, यदि आप यह मान लें कि वह
परमशक्ति प्रकृति के रूप में बिखरी हुई है और हमारे भीतर वही बसा है तो हमें शांत
होने में सुविधा होगी।
विज्ञान की दृष्टि से विचार किया जा सकता है कि बीमारी में हमारे शरीर से खून
की कुछ बूंदे निकाली जाती हैं और उन बूंदों से पूरे शरीर में होने वाले
परिवर्तन-दोष की जानकारी मिल जाती है। अगर रक्त की एक बूंद में हमारा पूरा शरीर
समाया है तो फिर हम भी उस परमात्मा की एक बूंद की तरह हैं और वह विराट हममें समाया
है। एक बूंद में यदि पूरे की जानकारी हो सकती है तो एक मनुष्य में पूरा परमात्मा
क्यों प्राप्त नहीं हो सकता। विज्ञान भी इससे सहमत है। इसी विज्ञान के आधार पर
हमें यह मानना चाहिए कि हमारे भीतर वह सबकुछ है, जिसे परमशक्ति या परमात्मा कहते
हैं। जब इतनी बड़ी संभावना हमारे भीतर है, फिर हम छोटी-छोटी बातों से निराश क्यों हो जाते हैं,
इसलिए इस भाव को
सदैव बनाए रखिए कि हम श्रेष्ठ लेकर आए हैं, श्रेष्ठ लेकर जीना है, क्योंकि जाते समय
श्रेष्ठ ही साथ जाएगा। बाकी सारा संसार यहीं छूट जाना है।
परेशानियों में ईश्वर का सहारा
जरूरी नहीं कि कमजोर व्यक्ति को ही सहारा चाहिए। सक्षम और समर्थ व्यक्ति भी
सहारा चाहता है। जीवन में कुछ घटनाएं ऐसी होती हैं जहां अगर सहारा मिल जाए तो
योग्यता को बल मिल जाता है। किष्किंधा कांड में श्रीराम भगवान के सहारे का क्या
महत्व है इसे अपने ढंग से लक्ष्मणजी को समझा रहे हैं। तुलसीदासजी ने बड़ी ही सुंदर
चौपाई लिखी, ‘सुखी मीन जे नीर अगाधा। जिमि हरि सरन न एकउ बाधा। फूलें कमल सोह सर कैसा।
निर्गुन ब्रह्म सगुन भएं जैसा।। ‘जो मछलियां अथाह जल में हैं वे सुखी हैं। जैसे श्रीहरि की
शरण में चले जाने पर एक भी बाधा नहीं रहती। कमलों के फूलने से तालाब ऐसी शोभा दे
रहा है, जैसे
निर्गुण ब्रह्म सगुण होने पर शोभित होता है। मछली जब गहरे जल में होती है, तब वह अपने आप को
सुरक्षित समझती है।
परमात्मा की कृपा का जल ऐसा ही होता है। इस कृपा के सागर में जो डूब गया उसे
संसार सागर में परेशानी कम उठानी पड़ेगी। आज भी भक्ति करने के दो तरीके हैं-
निराकार और साकार। कुछ लोग मानते हैं परमात्मा का कोई आकार नहीं है और वे उसी ढंग
से उस तक पहुंचते हैं। अधिकांश परमात्मा को साकार मानते हैं। चाहे वह किसी मूर्ति
में हो, अवतार
में हो या किसी देव पुरुष में। तुलसीदासजी को रामजी का साकार रूप खासतौर पर वनवासी
और तपस्वी रूप बहुत भाता था, इसीलिए वे कहते हैं, ‘ये वही रामजी हैं, जिनको वेद ने भी गाया,
वहां वे निर्गुण
हैं लेकिन यहां अपने भक्तों के लिए सगुण हो गए हैं, बिल्कुल अपने जैसे। मनुष्य को जब
परमात्मा इस रूप में मिलता है तो वह बहुत बड़ा सहारा बन जाता है। परमात्मा अवतार
लेकर हमें बताता ही है कि मैं सगुण रूप में तुम्हारा सहारा बनूंगा। इस कृपा के
सागर में अपने आप को सुरक्षित समझो।
नए रिश्तों में पूरी सच्चाई रखें
पहले अधिकतर लोग जिस नगर में पढ़ते थे उसी में नौकरी कर लेते थे या अपने
पारिवारिक व्यवसाय से जुड़ जाते थे। यदि नौकरी या व्यवसाय के लिए बाहर निकलते तो
अपने मूल स्थान पर लौटकर जरूर आते थे। जिस जगह बचपन बीता हो उस जगह से लोगों को
बड़ा लगाव हुआ करता था। फिर लोग नौकरी-धंधे के लिए अपने शहर से बाहर निकलने लगे।
एक जगह रहकर जिस ढंग से रिश्तेदारी निभाई जाती थी अब वैसा नहीं रहा। कई लोग तो ऐसे
नगर में पहुंच जाते हैं जहां उनकी जाति-बिरादरी, रिश्तेदारी के लोग होते ही नहीं।
यहां से शुरू होती है नई रिश्तेदारी। पुराने रिश्तेदारों को यह अखरता है कि ये दूर
जाकर हमें भूल गए, लेकिन बदलते जीवन में अगर नए लोग आएं तो पुराने लोगों को आपत्ति नहीं होनी
चाहिए। रिश्तेदारी का सीधा मतलब था कि संकट के समय एक-दूसरे के काम आना।
अब जब लोग इतनी दूर निकल गए कि वहां दूर-दूर तक अपने ही लोग नज़र न आएं तो फिर
उन्हें अपना बनाना ही पड़ेगा जो कभी पराए रहे हों, इसीलिए कोई टाउनशिप में रहता है,
कोई बहुमंजिला
इमारत में रहता है और एक नया ही परिवार तैयार हो जाता है। ऐसे में बड़े संतुलन के
साथ पुराने रिश्तों को भुलाया भी न जाए और जो पुराने रिश्ते निभा रहे हैं उन्हें
नए रिश्तों का भी मान रखना चाहिए। जब भी रिश्ते बनाने जाएं तब बाहरी सावधानियां तो
रखें ही, पर
अपने भीतर अपने मन को इस बात के लिए नियंत्रण में रखिए कि वह संदेह न करे। बाहर जो
लोग हैं उनके प्रति गलत आचरण में न उतरें, क्योंकि यह मन का स्वभाव होता है। वह संदेह, शिकायत करता है और
अनुचित जरूर सोचता है। संबंध बनाने में पहले स्वीकृति लाएं, सहमत हों और व्यवहार में सच्चाई
रखें। नए संबंध भी वही आनंद देंगे, जो पुराने रिश्ते दे रहे हैं।
ध्यान के जरिये मिटाएं अकेलापन
कुछ स्थितियों में अकेलापन सबसे बड़ी समस्या बन जाता है। यह समस्या किसी भी
उम्र में आ सकती है। कई बार जवानी में आ जाती है। कोई धोखा हो जाए, मनपसंद काम न हो तो
अकेलापन घेर लेता है। विवाह के पश्चात नए जोड़ों में भी अकेलेपन का दर्द उतर आता
है। लंबी गृहस्थी जीने के बाद पति-पत्नी को इसकी शिकायत हो सकती है, लेकिन सबसे बुरी स्थिति
तब होती है जब जीवनसाथी चला जाए। यह अकेलापन दुनिया में सबसे ज्यादा तोड़ने वाला
होता है। खासतौर पर यदि बुढ़ापे में पति हो या पत्नी, उसके लिए जीवन बोझ लगने लगता है।
इससे मनुष्य इतना तंग आ जाता है कि उसे लगता है कि बस अब मृत्यु आ जाए। यह मृत्यु
का अनचाहा आमंत्रण होता है। यह अकेलापन जिस तरह से तोड़ता है, उस टूटन का इलाज स्वयं
निकालना पड़ेगा।
जिस किसी को संसार में इस स्थिति का सामना करना पड़े, उसे दो मार्ग से इस पर विचार
करना होगा। एक है सांसारिक, दूसरा आध्यात्मिक। सांसारिक मार्ग यह है कि किसी गतिविधि से
जुड़ जाएं, लोगों में उठने-बैठने लगें और शरीर को पूरी तरह से स्वस्थ रखकर कहीं न कहीं
खुद को जोड़े रखें, लेकिन बुढ़ापे में यह सब भी हमेशा संभव नहीं होता। ऐसे में दूसरा मार्ग है
आध्यात्मिक। इसमें आपको बाहर गतिविधि नहीं करनी है। यदि आप ध्यान (मेडिटेशन) के
लिए तैयार हैं, तो आप इसका अभ्यास और बढ़ाइए। जितनी यात्रा भीतर करेंगे उतना ही बाहर का
अकेलापन मिटेगा। ध्यान वह अवसर होता है जब आप स्वयं से जुड़ जाते हैं। उदासी
मिटाने का इससे अच्छा तरीका नहीं है कि इतना योगाभ्यास किया जाए कि शरीर भी सध जाए
और मन से गुजरकर हम आत्मा तक पहुंच जाएं।
जिंदगी के केंद्र में हो जीवनसाथी
कहते हैं परिवार के केंद्र में परमात्मा होना चाहिए और परिधि पर संसार रख देना
चाहिए। जैसे परिवार के केंद्र में परमात्मा होना चाहिए ऐसे ही मनुष्य को जीवन के
केंद्र मेें कुछ रिश्ते रखने पड़ते हैं। हमें जो रिश्ते निभाने हैं उनमें
माता-पिता, जीवनसाथी और हमारे बच्चे होते हैं। माता-पिता से सेवा के संबंध हों, जीवनसाथी के प्रति
समर्पण का भाव हो और बच्चों को भरपूर सहयोग दीजिए, लेकिन केंद्र में जीवनसाथी होना
चाहिए। समझदार माता-पिता और सुलझे हुए बच्चे भी यही चाहते हैं। माता-पिता जानते
हैं कि उनकी आयु अधिक नहीं है। बच्चे भी पढ़-लिखकर अपनी दुनिया में उतर जाएंगे।
फिर आप और आपका जीवनसाथी रह जाएंगे। केंद्र में यदि जीवनसाथी है तो जीवन काटना
कठिन नहीं होगा। इन रिश्तों को निभाते हुए कभी-कभी मनुष्य भूल जाता है।
पति-पत्नी के बीच जो तनाव और झगड़े होते हैं उसका एक बड़ा कारण यही है कि
दायित्व का बंटवारा करते समय परिपक्वता और प्रेम नहीं रखा जाता। किसी-किसी घर में
तो तीनों पीढ़ी एक साथ होती है। जिन माता-पिता ने योग्य बनाया, अब उनका अधिकार है और
हमारा कर्तव्य है कि हम उनकी भरपूर सेवा करें। फिर बच्चों को भी इस योग्य बनाना है
कि एक दिन वे हमारी सेवा कर सकें। जब माता-पिता और बच्चों से आप मुक्त हो जाएं तो
सारा ध्यान जीवनसाथी पर लगाएं। आने वाले वक्त में दोनों को अधिकांश समय अकेले रहना
है। यदि उन्होंने अपना वक्त प्रेमपूर्ण नहीं बिताया तो एक नया तनाव और उलझन पैदा
हो जाएगी, इसलिए प्रयास किया जाए कि माता-पिता की सेवा हो, जीवनसाथी केंद्र में हो समर्पण
के साथ और बच्चों को भरपूर सहयोग दें, तब गृहस्थी अपने नए अर्थ लेकर हमारे जीवन से
जुड़ेगी।
छोटी-छोटी बातों से तनाव मुक्ति
इस समय सभी के जीवन में तनाव बहुत है और समय बहुत कम। मनुष्य ने जिन-जिन चीजों
को इकट्ठा करना शुरू किया (धन, पद, नाम आदि, साथ में तनाव भी आता गया। कोई योग के शिविर, कोर्स करता है, कोई सत्संग करता है,
कुछ लोग डॉक्टर के
पास पहुंच जाते हैं। सब अपने-अपने ढंग से तनावमुक्त होना चाहते हैं। फिर भी हाथ
लगता है बढ़ा हुआ तनाव। ऐसे में दिनभर की जीवनचर्या में आने वाले अवसरों को
छोटे-छोटे योग से जोड़ लें। मेरा संपर्क ऐसे अनेक लोगों से है, जो कहते हैं सब कर सकते
हैं पर समय नहीं है। उन्हें मेरा सुझाव है कि कितना ही व्यस्त व्यक्ति हो, वह छह काम तो अवश्य करता
है- सोना, उठना, खाना, पीना, बोलना और सुनना। इन्हें योग से जोड़ लिया जाए।
सोने का एक विशेष ढंग, एक अनुशासन है। सोते समय कुछ खास क्रियाएं की जाएं, खासतौर पर श्री
हनुमानचालीसा से मेडिटेशन करके सोया जाए। उठते समय भी यही क्रिया दोहराई जा सकती
है। अचानक बिस्तर से कभी न उठें। दो या तीन मिनट के लिए अपने आप को शून्य करें।
पानी पीते समय प्रत्येक घूंट के साथ महसूस करें कि यह पानी आपकी सांस में घुल गया
और जो भी आपका मंत्र हो उसको पढ़ते हुए पानी पी लें। यही काम भोजन के साथ किया जा
सकता है। बोलते समय जागरूक रहें कि जो शब्द आप बोल रहे हैं वे कंठ से नहीं,
नाभि से बोल रहे
हैं। सुनते समय जब शब्द कान में आएं तो उन्हें पकड़कर हृदय तक लाएं। ये छोटी-छोटी
बातें आपको तनावमुक्त करेंगी। यह अभ्यास जितना बढ़ेगा, आप बिना अधिक समय दिए खुद को
तनावमुक्त पाएंगे।
संतों के पास पाप मुक्ति की दृष्टि
किष्किंधा कांड के एक प्रसंग में श्रीराम लक्ष्मण को पाप की परिभाषा बताते
हैं। इसे तुलसीदासजी ने ऐसे लिखा है, ‘गुंजत मधुकर मुखर अनूपा। सुंदर खग रव नाना रूपा।।
चक्रबाक मन दुख निसि पेखी। जिमि दुर्जन पर संपति देखी।।’ भौंरों की अनूठी गूंज सुनाई दे
रही है तथा कई प्रकार के सुंदर पक्षी कलरव कर रहे हैं। रात देखकर चकवा वैसे ही
दुखी है जैसे दूसरे की संपत्ति देखकर दुष्ट दुखी होता है। दूसरे की संपत्ति को
देखकर दुष्ट को जैसा लगता है, वह एक तरह का पाप है। कई बार हमें लगता है कि जो कुछ दूसरों
के पास है वह हमारे पास भी हो। इसमें बुराई नहीं है। बुराई उसे पाने के अनुचित
प्रयास में है। जो मिला है उसमें संतोष करिए, जो दूसरे को मिला है उसमें
प्रसन्न हो जाएं। ईर्ष्या आए, लोभ आए पर छीनने की वृत्ति आए तो पाप है।
फिर श्रीराम कहते हैं- ‘चातक रटत तृषा अति ओही। जिमि सुख लहइ न संकरद्रोही। सरदातप
निसि ससि अपहरई। संत दरस जिमि पातक टरई।।’ प्यास के कारण पपीहा व्याकुल है। जैसे शंकरजी का
द्रोही सुख नहीं पाता। सुख प्राप्त करने के लिए जो खीज, चिढ़, जो बेचैनी प्राप्त होती है वह भी
एक तरह का पाप है। अंत में शरद ऋतु के चंद्रमा की शीतलता को संतों से जोड़ते हुए
कहते हैं,‘शरद-ऋतु के ताप को चंद्रमा हर लेता है, जैसे संतों के दर्शन से पाप दूर
हो जाते हैं। संत एक ऐसी दृष्टि दे देते हैं, जिससे हम जान जाते हैं कि भीतर
से हमें कुछ और ही होना है। इसलिए यह गलतफहमी मिटा ली जाए कि संत के पास या तीर्थ
में जाने से पाप मिट जाएंगे। वहां पाप मिटाने की दृष्टि दे दी जाती है। जब भी अवसर
मिले, किसी
तीर्थ में, किसी संत के पास जाकर वह दृष्टि प्राप्त करें, जो हमें पाप से मुक्त होने को
प्रेरित करेगी।
अनिर्णय में जीएं, ऊर्जा प्राप्त करें
लगभग सभी के जीवन में कई बार ऐसे अवसर आते हैं कि सारी आशाएं ध्वस्त हो जाती
हैं। बहुत अच्छे ढंग से योजना बनाई जाती है, पूरी ताकत उसमें झोंक दी जाती है,
योग्य लोग जुड़
जाते हैं फिर भी लक्ष्य हासिल नहीं होता। शत-प्रतिशत प्रयास करने के बाद भी सफलता
न मिले तो लोग भारी निराशा में चले जाते हैं। जब खुद से भरोसा उठने लगे, सारी आशाएं ध्वस्त हो
जाएं तो कुछ आध्यात्मिक गतिविधियां करिए। भले ही वह एक दिन हो, पांच-दस घंटे हों। फैसला
लेना बंद कर दें। कोई निर्णय मत लीजिए, बिल्कुल रुक जाएं। जो हो रहा है, उसे होने दीजिए। जो हम
चाह रहे हैं और जो हो रहा है इसका फर्क नहीं समझा गया तो फिर अपने ऊपर भरोसा लौटकर
आना मुश्किल है।
यह मूल्यांकन बिल्कुल बंद कर दें कि असफलता क्यों आई। जितना मूल्यांकन करेंगे
उतना ही आप अशांत होते जाएंगे। आपकी आलोचना हो रही है, होने दीजिए। असफलता के बाद
आर्थिक दबाव आया तो थोड़ी देर उसे भी घटने दीजिए। इसका यह मतलब नहीं है कि इस
स्थिति को लंबे समय टिकाना है और चलाना है। उदाहरण के तौर पर आपको असफलता मिली और
एक महीने में आपको उससे पार पाना है तो आप हफ्ते में एक दिन अभ्यास कीजिए। एक
मंत्र बना लीजिए कि जो हो रहा है, अभी एक दिन के लिए होने देते हैं। उस एक दिन में जैसे ही
आपकी वृत्ति इससे जुड़ेगी, अगले दिन आप अधिक ऊर्जा और स्पष्टता से काम कर सकेंगे,
क्योंकि उलझन से
बाहर आकर ही चीजों को सुलझाया जा सकता है। इस आध्यात्मिक अभ्यास के लिए ध्यान यानी
मेडिटेशन ही काम आएगा। वही इस विचार को परिपक्व करेगा कि होने दीजिए जो हो रहा है,
इसलिए जीवन में
ध्यान को समय जरूर दिया जाए।
विचारों की भीड़ से मुक्ति पाइए
कुछ लोगों के लिए कहा जाता है कि उनकी खोपड़ी बहुत तेज चलती है। यानी उनके
दिमाग में एक ही समय में कई लोग, कई स्थितियां होती हैं। कहीं आप भी तो उनमें से एक नहीं हैं?
क्योंकि जब हमारे
मन-मस्तिष्क में लोगों की भीड़ इकट्ठी हो जाती है, तो एक दिन हम अपना ही मूल स्वरूप
भूल जाते हैं। कभी-कभी तो सोते समय भी बाहर के ये लोग हमारे भीतर प्रवेश कर जाते
हैं। इस भीड़ से बचने के दो तरीके हैं। पहला तो यह कि बहुत सख्ती से सोच लिया जाए
कि किसी को भी मन-मस्तिष्क में प्रवेश नहीं देंगे। थोड़ा आसान दूसरा तरीका यह है
कि यदि लोग प्रवेश कर ही चुके हैं और हम उन्हें रोक नहीं पा रहे हैं तो उनके साथ
जुड़ न जाएं।
दूर खड़े होकर उनको आता-जाता देखें। स्थितियां हो या व्यक्ति, आएंगे विचारों के माध्यम
से ही। जैसे ही इनसे अलग हटेंगे तो इन्हें रोकना भी सरल हो जाएगा। जब भीड़ में
धक्का-मुक्की हो जाए, कोई गिर जाए तो उस गिरे हुए को उठाने में किसी की रुचि नहीं होती। सब या तो
भागना चाहते हैं या अपने को बचाना चाहते हैं। हमारा मूल व्यक्तित्व कहीं दब जाता
है। इसलिए कभी-कभी जान भी नहीं पाते कि हम किन बातों से परेशान और दुखी हैं?
हमारे भीतर दूसरों
के दुख व परेशानियां ही इतनी प्रवेश कर चुकी होती हैं कि हम उन्हीं में उलझकर रह
जाते हैं, इसलिए जैसे कठपुतली के खेल में हर पात्र डोरी से जुड़ा होता है, उसी तरह लोगों व
स्थितियों से जितने भी हमारे संबंध हैं, सब डोर की तरह हैं। डोर काट दीजिए, संबंध टूट जाएंगे। बात
सिर्फ विचारों की हो रही है। मतलब यह नहीं है कि अपने लोगों के बारे में भी सोचना
छोड़ दें, लेकिन थोड़ा अंतर रखिएगा। फिर आप वही सोचेंगे और उन्हीं लोगों को अपने भीतर
लाएंगे जो आपके अपने हैं, जो जरूरी हैं।
ऊर्जा के अपने परम स्रोत से जुड़ें
यह रहस्यमय सवाल कई बार मुझसे पूछा गया है और लोगों ने खुद से भी पूछा है कि
हम कहां से आए हैं, शरीर में आने के पहले कहां थे और इसके बाद कहां जाएंगे? एक वर्ग साइंस के हवाले से कहता
है कि माता-पिता के योगदान से पैदा हुए और शरीर की क्रियाएं समाप्त होंगी तो मर गए।
इसमें सोचना क्या? परंतु एक वर्ग ऐसा भी है, जो जीवन को अध्यात्म की दृष्टि से देखता है। उसके मन में ये
प्रश्न कभी न कभी जरूर आते हैं। यदि इसका उत्तर ठीक से मिल जाए तो आने और जाने के
बीच में जो जीवन होता है उसका असली आनंद मिल सकेगा। यदि इसे ठीक से नहीं समझा तो
जिसे हम जी रहे हैं, उसका भी दुरुपयोग कर जाएंगे। शास्त्रों ऋषि-मुनियों ने इशारा किया है कि हमारा
स्रोत, हमारे
जन्म का कारण कुल-मिलाकर ऊर्जा है।
यह एक ऐसी शक्ति है, जिसका कोई रूप नहीं, कोई आकार नहीं। इस ऊर्जा के मुद्दे
पर धर्म और विज्ञान एक हो जाते हैं। यही ऊर्जा माता-पिता के वीर्य और रज के कण के
रूप में हमारे जीवन को तैयार करती है। यह ऊर्जा कभी समाप्त नहीं होती, सतत बह रही है। जब हमें
यह होश जाए कि हम आए हैं तो उस ऊर्जा से और जाएंगे भी उसी ऊर्जा से तो फिर जीवन का
जो बीच का समय है उसको उस ऊर्जा से जोड़ने का प्रयास किया जाए, जो इस ब्रह्मांड में बह
रही है। इस ऊर्जा के जिस हिस्से से हम पैदा हुए, वह हमारे रोम-रोम में बह रही है।
जैसे ही एकांत में उतरकर हम शरीर की सारी एकाग्रता एक स्थान पर ले आते हैं,
वैसे ही उस परम
तत्व से जुड़ जाते हैं। श्री हनुमानचालीसा की एक-एक चौपाई सांस के साथ भीतर उतारें
और बाहर ले जाएं। जीवन का आनंद बढ़ जाएगा। यह वही विधि है, जिससे हम उस ऊर्जा से जुड़ते हैं
जो हमारा स्रोत है।
सरलता में ही सफलता व शांति
हम मूल रूप से आध्यात्मिक प्राणी हैं और अस्थायी रूप से मानव हैं। आजकल सभी से
यह उम्मीद होती है कि वे व्यवहार में सरल हों, साफ-सुथरे हों, पारदर्शी हों। जब हम
अपने आपको सरल बनाने के लिए प्रयास करते हैं तो सबसे पहले यही संदेह उठता है कि
लोग हमारी सरलता का दुरुपयोग न कर लें। चिंता न करें, क्योंकि यदि आप सरल हैं तो आसपास
ऐसी ऊर्जा पैदा हो जाएगी, जो आपकी रक्षा करेगी और दूसरों को आपके प्रति बदलेगी। भरोसा
कीजिए कि हम मनुष्य हैं, लेकिन हमारे भीतर दिव्यात्मा का अंश है। सबसे बड़ी उपलब्धि
होगी हम खूब शांत हो जाएंगे, क्योंकि सरल व्यक्ति किसी से भी जुड़ने में खुद को सहज महसूस
करता है। प्रकृति में सरलता होती है। जब कोई फूल खिलता है तो वह दूसरे फूल से अपने
सौंदर्य की तुलना नहीं करता। सुंदर, असुंदर का यह भेद मनुष्य लाता है, उसकी कुटिलता लाती है।
हम भी इसी तरह इतने सरल हो जाएं कि जब जो करें, होने दें। कोई तुलना न करें।
पशुओं में एक सरलता होती है। प्रकृति में जितने तत्व हैं वे सब अपने ही ढंग से सरल
होकर अपना काम कर रहे हैं। वायु बह रही है। सूर्य अपने प्रकाश के लिए कोई आग्रह
नहीं करता। जल अपनी सहजता में है, पृथ्वी अपना काम कर रही है तो आकाश कोई अतिरिक्त भेदभाव
नहीं रखता। जब हमारे भीतर ये पांच तत्व हैं तो हम फिर क्यों चक्कर में पड़ें। पूरी
सरलता के साथ सुबह से रात तक करते रहिए। जो-जो भी आपकी मदद कर रहे हैं उससे भी
अधिक सहयोग आपको मिलने लगेगा और आप कम परिश्रम में अधिक और ऐसी सफलता अर्जित
करेंगे, जो
आपके लिए खूब शांति लेकर आएगी। तब आपको अपने सरल होने पर गर्व भी होगा और खुशी भी।
हमारा आचरण संयमित, सहज हो
जीवन में सबसे बड़ी सफलता तो तब है, जिसमें जो मिले उसमें आंतरिक शांति भंग न हो।
श्रीराम व लक्ष्मण ऐसे ही व्यक्तित्व थे जो संकटों से घिरने के बाद भी शांत और सहज
थे। किष्किंधा कांड में उनकी आपसी बातचीत संदेश बनती जा रही थी। छोटे भाई को
समझाते हुए श्रीराम टिप्पणी करते हैं, ‘देखि इंदु चकोर समुदाई। चितवहिं जिमि हरिजन हरि
पाई।। मसक दंस बीते हिम त्रासा। जिमि द्विज द्रोह किएं कुल नासा।। चकोरों के
समुदाय चंद्रमा को देखकर इस प्रकार टकटकी लगाए हैं जैसे भगवद भक्त भगवान को पाकर
उनके (निर्निमेष नेत्रों से) दर्शन करते हैं। मच्छर और डास जाड़े से इस प्रकार
नष्ट हो गए जैसे ब्राह्मण के साथ वैर करने से कुल का नाश हो जाता है। यहां इशारा
यह है कि क्या देखा जाए? देखने के मामले में हम लोग अत्यधिक लापरवाह होते जा रहे
हैं।
जो दृश्य आंखों से देखे जाते हैं वेे अवचेतन मन पर असर करते हैं। इन्हें विचार
और आचरण में उतरने में देर नहीं लगाते। पहले तो फिर भी जो दिख रहा था वह संयमित
होता था। आज बहुत कम ढंका हुआ और मर्यादित होता है। इस खुले वातावरण में सारी
सुरक्षा अपने ही नेत्रों से हमें ही करनी है। ब्राह्मण से द्वेष लेने संबंधी
श्रीराम के इस संवाद को कई लोग ठीक ढंग से नहीं ले पाते। यहां जाति नहीं आचरण की
ओर इशारा है। जिनका आचरण ब्रह्म से जुड़ा हो वह ब्राह्मण होना चाहिए और ऐसा
व्यक्ति सबके लिए हितकारी है, उससे वैर न लिया जाए। हमें भी ऐसा ही व्यक्तित्व अपनाना
चाहिए, इसलिए
अवश्य आचरण में कुछ न कुछ अनुशासन उतारें। यह अनुशासन हमको श्रीराम जैसा
संयमित-सहज और लक्ष्मणजी जैसा संयमित बना देगा। आने वाले कुछ दिन हम इन्हीं
छोटी-छोटी क्रियाओं पर चर्चा करेंगे।
दैनिक क्रियाओं में योग एेसे जोड़ें
हमारे पास मनुष्य का शरीर तो है, लेकिन ज्यादातर लोग यह नहीं जान पाते कि इसका उपयोग
अनुशासन के साथ करना चाहिए। पिछले दिनों इसी स्तंभ में मैंने चर्चा की थी कि हम
शरीर, मन
और आत्मा तीनों से बने हैं और तीनों के अनुशासन के लिए योग अवश्य किया जाए। यदि
योग के लिए समय नहीं है तो दिनचर्या में छोटी-छोटी बातों को शामिल कर लिया जाए। इस
बारे में बहुत सारे लोगों ने हमसे संपर्क किया है। चलिए इस पर बात करें। आने वाले
दिनों में सोना, उठना, खाना, पीना, बोलना और सुनना इन छह कामों को कुछ ऐसी क्रियाओं से जोड़ दें जो योग का परिणाम
दे देंगी। जब हम सोने जाएं तो इस बात का ध्यान रखें कि हमें शरीर को इस तरह से
सुलाना है कि हमारा मन भी कंपन बंद कर दे और पूरी शांति के साथ सो जाए।
मन की सक्रिय रहने की आदत बिगड़ जाती है तो वह नींद में भी सक्रिय रहता है।
जिसे साउंड स्लिप कहते हैं उसमें बाधा है मन। हमें लगता है कि जीवन में कुछ घटनाएं
ऐसी घट गईं, जो सोने नहीं दे रहीं। यदि ठीक से सो लिए तो उठना भी ठीक से हो जाएगा। सोने से
पहले छोटी सी क्रिया करें। अपने शयन कक्ष में एकदम सीधे खड़े हो जाएं। पंजे चिपके
रहें, घुटने
चिपके रहें, हाथ छाती पर जोड़ लें, आंखें बंद कर लें और पूरे शरीर को एक कर दें। आप पाएंगे कि
आपका शरीर हल्का-हल्का हिल रहा है। यह कंपन मन के कंपन से जुड़ा हुआ है। सारा
ध्यान नाभि पर या मेरूदंड के निचले हिस्से पर लगा लें और दो-तीन मिनट तक यही करें।
हफ्ते-दस दिन में कंपन कम होगा तथा धीरे-धीरे आप शरीर और मन को अनुमति देंगे कि वे
शैया तक जा सकें। अभी इतना किया जाए। धीरे-धीरे बात फिर आगे बढ़ाएंगे, क्योंकि जो ठीक से सो
लिया वह अच्छे से जरूर उठेगा।
नींद को लेकर अनुशासन अपनाएं
नींद ऐसी क्रिया है जो अधिक आए तो भी बीमारी और कम आए तो भी अस्वस्थ होने के
लक्षण दे जाती है। इसलिए नींद को लेकर अनुशासन जरूरी है। जैसे ही शयन कक्ष में
जाएं, शरीर
को एक कर भीतर से कम्पन मिटाया जाए। शरीर बाहर से हिल रहा है तो उसे कैसे रोका जाए?
जब हम हाथ जोड़कर
खड़े रहेंगे, पंजे नीचे से जुड़े रहेंगे तो शरीर पेंडुलम की तरह हल्का-हल्का हिलेगा। यही इस
बात का प्रमाण है कि दिनभर हमारे आंतरिक व्यक्तित्व ने इतना वाइब्रेशन किया। कम्पन
को मिटाकर ही शैया पर बैठें। लेटने के पहले या तो पलंग पर या किसी अन्य स्थान पर
कमर सीधी करके बैठ जाएं। कुछ समय कमर सीधी करके बैठें और सारा ध्यान दोनों भौहों
के बीच लगा लें।
वैसे तो जितना अधिक किया जाए लाभकारी है, लेकिन यहां अभी तीन चरण। पहले
चरण में शरीर को सीधा करके कम्पन मिटा लिया। दूसरे चरण में कमर सीधी रख बैठ जाएं
और सारा ध्यान दोनों भौहों के बीच लगा लें। जैसे ही ध्यान दोनों भौहों के बीच आए,
सवाल यह खड़ा होगा
कि क्या सोचा जाए? कोई भी एकदम से विचारशून्य नहीं हो सकता। जितना प्रयास करेंगे, विचारों के आक्रमण उतने
ही बढ़ जाएंगे, इसलिए बहुत अधिक प्रयास न करें। परमात्मा के जिस भी स्वरूप में रुचि हो और
नहीं तो माता-पिता या गुरु का एक चित्र, उनकी आकृति दोनों भौहों के बीच में लाएं और सिर्फ
उसे देखें। जितनी गहराई से उसे देखेंगे उतने ही तेजी से विचार रुकेंगे। यह दूसरा
चरण आपको सोने के लिए तैयार कर रहा है। ध्यान रखिएगा, जीवन में सोना एक ऐसी क्रिया है
कि बहादुर से बहादुर, संयमित से संयमित व्यक्ति को भी इससे गुजरना होता है। जिस क्रिया का सम्मान
करना है उसे ठीक से किया जाए।
हर सांस के साथ शुभ भीतर जाए
हमारी नींद में सबसे बड़ी बाधा हम ही बन जाते हैं। बाहर के शोर व स्थितियों पर
हमारा अधिक वश नहीं है, पर हम भीतर की बाधा तो दूर कर ही सकते हैं। दो चरण नींद के
पहले के हम पूरे कर चुके हैं। अब तीसरा चरण समझते हैं। जब भी लेटें, सीधे कभी न लेटें। बाईं
करवट लेकर बाएं कंधे से टिकते हुए लेट जाएं और कुछ क्षण ऐसे ही लेटे रहें। यदि
विचार रुक न रहे हों तो फिर विचार कोई शुभ हो। एक शुभ विचार यह लिया जा सकता है कि
आज दिनभर में कौन-सा अच्छा काम किया? बस, उसे सोचते हुए करवट बदलकर पीठ के बल लेट जाएं। तीसरे चरण के
दूसरे हिस्से में पीठ के बल लेटकर गहरी सांस लेते हुए महसूस करें कि शरीर के एक-एक
अंग में सांस पहुंचा रहे हैं।
उस समय सांस के साथ कोई भी मंत्र, कोई भी शुभ वाक्य जरूर लीजिए। श्री हनुमान चालीसा का
पाठ भी कर सकते हैं। कई लोग प्रश्न करते हैं कि क्या शैया पर श्री हनुमान चालीसा
पढ़ी जाए? मंत्र तो शुद्धि के साथ ही पढ़ा जाता है। श्रेष्ठ तो यही है कि वह पूजा स्थल
या तप स्थल पर पढ़ी जाए, लेकिन यदि शयन के पूर्व मानसिक स्मरण करें तो भी पाप तो
नहीं लगेगा, थोड़ी शुद्धि अवश्य होती रहेगी। ध्यान रखिएगा, यह एक यौगिक क्रिया है। इसे
पूजा-पाठ की तरह न करें तो शुद्धि अपने आप उतरेगी। इस समय संयम की आवश्यकता होती
है। शयन के समय यही संयम शुद्धि बन जाएगा और यही शुद्धि आपको ठीक से सुलाएगी। नींद
आने तक इस क्रिया को जारी रखिए। यदि सांस के साथ शुभ शब्द भीतर गए और निद्रा में
बदल गए तो यही योग निद्रा हो जाएगी। ये सारी क्रियाएं उन लोगों के लिए हैं,
जिनके पास समय कम
है और जो योग से गंभीरता से नहीं जुड़ पा रहे हों।
उठने के पहले करें शैया स्नान
जिस प्रकार कमीज का पहला बटन गलत लग जाए तो नीचे के सारे बटन गलत ही होंगे और
उस वस्त्र का स्वरूप बिगड़ जाएगा। ऐसे ही यदि सुबह ठीक से नहीं उठे तो समझ लीजिए
दिन को अस्त-व्यस्त करने की तैयारी कर ली है। यदि सुबह उठने की क्रिया पर ध्यान
दें तो ज्यादातर लोग शर्मिंदगी महसूस करेंगे। स्वयं से स्वस्थ और प्रसन्न होकर
उठने वाले लोग धीरे-धीरे खत्म हो रहे हैं। रात को देर से सोने के कारण सुबह जल्दी
उठना मुश्किल ही है। सबसे अच्छा है कि सूर्योदय के एक घंटा पहले उठ जाएं। ऐसा न भी
कर सकें तो जब भी उठें मस्ती यानी आंतरिक प्रसन्नता के साथ उठें। कुछ लोग नींद
खुलने के बहुत देर बाद तक निर्णय नहीं ले पाते कि उठा जाए। जब भी उठें तो सीधे
बिल्कुल न उठें।
बिस्तर छोड़ने से पहले शरीर को पीठ के बल बिल्कुल सीधा लेटाते हुए शैया स्नान
करा दें। यह स्नान होगा सांसों से। गहरी सांस इस तरह से लीजिए जैसे सांस ली और
वायु का जल आपके मस्तिष्क, होठ, कंठ, छाती, पेट, जांघ, घुटने से होकर पंजों से बाहर निकल गया। दो-तीन बार ऊपर से
नीचे तक और उसके बाद क्रिया को उलटी कर लें। अब जब सांस लें तो नीचे से लें और ऊपर
की ओर छोड़ें। इस वायु को जल की तरह मानकर भीतर ही भीतर प्रत्येक अंग को धो लें।
कुछ अलग से नहीं करना है। बस पलंग छोड़ने के पहले यह मानसिक क्रिया करना है। कुछ ही
दिनों में आप एक अलग किस्म की ताज़गी महसूस करेंगे। हो सकता है शुरू में आपको अटपटा
लगे, लेकिन
करिएगा जरूर। पहला चरण ठीक से करने के बाद बाईं करवट मुड़ जाएं। थोड़ी देर बाएं
कंधे पर वजन रखकर शरीर को छोड़ें उसके बाद ही पलंग से उतरें। कैसे उतरें और आगे
क्या करें, हमारी चर्चा चलती रहेगी।
जागने पर धरती से ऊर्जा ग्रहण करें
इस दौर में मनुष्य के पास सबकुछ है, लेकिन एक मामले में आदमी कंगाल होता जा रहा है और वह
है वक्त। धनाढ्य से धनाढ्य आदमी भी समय के मामले में दरिद्र हो गया। आप खूब
परिश्रम करके सफलता प्राप्त कर लें और यदि अशांत रहें तो समझो इसके पीछे समय का
दुरुपयोग काम कर रहा है। योग करने को कहें तो पूछा जाता है कि कैसे करें? इसीलिए सोचा कि जीवन
मेें छोटी-छोटी बातों से योग जोड़ा जाए। सोने के तरीकों और शैया स्नान पर हम चर्चा
कर ही चुके हैं। श्रीराम प्रकृति से जोड़कर लक्ष्मण को जीवन का बड़ा सुंदर संदेश देते हैं और वह
संदेश आज हमारे उठने की क्रिया के दूसरे चरण पर लागू हो रहा है। ध्यान रखिएगा कभी
भी सीधे पीठ के बल न उठें।
जब भी उठना हो या लेटना हो, बाईं करवट लेटें, थोड़ी देर रुकें और फिर दोनों पैर पृथ्वी पर रख दें।
तुलसीदासजी ने भूमि को लेकर यहां एक चौपाई कही है। ‘भूमि जीव संकुल रहे गए सरद रितु
पाइ। सदगुर मिलें जाहिं जिमि संसय भ्रम समुदाइ।।’ वर्षाऋतु के कारण पृथ्वी पर जो
जीव भर गए थे, वे शरद ऋतु को पाकर वैसे ही नष्ट हो गए जैसे सद्गुरु के मिल जाने पर संदेह और
भ्रम के समूह नष्ट हो जाते हैं। इसमें वे कहते हैं गुरु भ्रम और संदेह नष्ट कर
देता है। अब हमेें अपने दिन की शुरुआत करनी है। बिना भ्रम, संदेह के जो लोग दिनभर के काम
में उतरेंगे उनके लिए सफलता के मतलब ही बदल जाएंगे। जैसे ही धरती पर पैर रखें,
थोड़ी देर ऐसे ही
बैठे रहें। अब आपको पृथ्वी से मिलने वाली ऊर्जा प्राप्त करनी है। इस ऊर्जा को कैसे
ग्रहण करें, इस पर विचार करेंगे कल और फिर चलेंगे एक नए दिन की शुरुआत के लिए।
सांस के साथ प्राण तत्व ग्रहण करें
हमारी संस्कृति ने प्रकृति के साथ मनुष्य के संबंधों की बड़ी सुंदर व्याख्या
की है। ऋषि-मुनियों ने पंचतत्वों को सुंदर प्रतीक बनाकर हमसे जोड़ा है। पृथ्वी को
मां माना गया है। हमारी चर्चा चल रही है उठने के क्रम में। प्रात:काल जब उठें तो
इस क्रिया को तीन चरण में पूरी करना है। उठने का पहला चरण था पीठ के बल लेटे हुए
शैया स्नान करना। फिर पलंग पर बैठे-बैठे पृथ्वी से दिन का पहला स्पर्श करना।
कल्पना करें कि हम मां की गोद में उतर रहे हैं। जैसे बच्चा मांग की गोद में अपने
आपको सुरक्षित मानता है, ऐसा ही भाव पृथ्वी के प्रति पैदा कीजिए। इस भाव के साथ सांस
खींचते हुए ऐसा महसूस कीजिए कि आपके पंजों से एक ऊर्जा भीतर आ रही है।
उठते ही शांति के साथ नाता जोड़ लें
कोई मनुष्य कितना ही एकांतप्रिय हो, संसार में रहते हुए दूसरों के साथ बोलना पड़ता है।
उठना-बैठना पड़ता है। हम योग का एक ऐसा चरण जी रहे हैं, जिसको उठना कहते हैं। पहले चरण
में हमने शैया स्नान किया। फिर धरती से ऊर्जा ले ली।और अब तीसरे चरण में चल रहे
हैं वॉशरूम की ओर। इसमें आप दिन की पहली मुलाकात खुद से कीजिए। फिर तो दिनभर कई
लोगों से मिलना है। स्वयं से मुलाकात होगी आईने के माध्यम से। ब्रश करने के पहले
या बाद में या ब्रश करते हुए अपनी ही आंख मेें आंख डालकर आईने में देखिए। अचानक
पाएंगे कि देखने वाला कोई और है तथा आप कोई और। बस यह वह अनुभूति है, जो मनुष्य को समाधि में
मिलती है, क्योंकि वास्तविकता यही है।
अपनी आंखों में गहराई से देखेंगे तो जो अनुभूति होगी वह प्रात:काल की सबसे
पहली दिव्य अनुभूति होगी और आप उस ऊर्जा से भर जाएंगे कि आप कोई और हैं। फिर जो भी
घटनाएं, जो
भी स्थितियां दिनभर आपके साथ घटेंगी, आप उन्हें दूर खड़े होकर देख सकेंगे। यह साक्षीभाव
आपके भीतर शांति लाएगा। अब दिनभर जो भी काम करना है उसमें अशांति के कई झोंके
आएंगे। आप अपने आप को दर्पण देखकर तैयार कर लीजिए और जब दर्पण से हटें तो एक बार
मुस्कुराइएगा जरूर। दूसरों को देखकर मुस्कुराना हमारी व्यावसायिकता है, मजबूरी है, लेकिन जैसे ही खुद को
देखकर मुस्कराएंगे, फिर अपने लोगों से मुस्कराने में शर्म खत्म हो जाएगी, हिचकिचाहट मिट जाएगी। जो दूसरों
के साथ-साथ अपनों से मुस्कुराता है, भगवान आशीर्वाद के रूप में उसको अतिरिक्त रूप से
शांति देता है। उठने की क्रिया में योग के ये तीन चरण पूरे करने से हमको बड़ी
आसानी से शांति मिल जाएगी।
यज्ञ कुंड में आहुति जैसा हो भोजन
कहावत है जितना गुड़ उतनी मिठास। किंतु संभव है बिना मीठा डाले मिठाई का स्वाद
आ जाए। इसे योग कहते हैं। जीवन के जितने हिस्से में योग का समावेश होगा, उतना हिस्सा अवश्य मीठा
होगा, स्वादपूर्ण
होगा। हम छह छोटी-छोटी क्रियाओं से योग को जोड़ रहे हैं- सोना, उठना, खाना, पीना, बोलना और सुनना। हमने
सोने को समझा, उठने को जाना। इसके बाद तैयार होकर हमें घर छोड़ना होता है।
आप किसी भी धर्म से जुड़े हों, घर से निकलने से पहले एक बार घर के देवस्थान पर जरूर जाएं,
फिर वह किसी भी
रूप में क्यों न हो। यह ऊर्जा का केंद्र होता है। अब हम बात करें भोजन की। यह तीन
भागों में बंटा है- दोपहर का भोजन यानी लंच, फिर डिनर यानी रात का भोजन और
बीच में एक-दो बार नाश्ता। इसे चार भागों में बांट लें। दोपहर का भोजन और उसके
पहले का नाश्ता, शाम का नाश्ता और रात का भोजन। एक बार का नाश्ता और भोजन दिन के पहले हिस्से
में। दूसरी बार का नाश्ता और भोजन दिन के दूसरे हिस्से में। अब दिन दो भाग में बंट
गया है और चार बार हमें भोजन से गुजरना है। पहली बात, शांत रहना चाहें तो शाकाहारी
भोजन अधिक कीजिए। ऐसा नहीं है कि शाकाहारी लोग अशांत और क्रोधित नहीं होते पर
शाकाहार शांत होने और क्रोध मिटाने में मददगार है। अब जब भी नाश्ता या भोजन करने
बैठें, सोचें
कि पेट यज्ञ कुंड है और उसमें हमें आहुति देनी है। प्रत्येक ग्रास उतनी ही सजगता
से लें, जितनी
सजगता कामकाज में एक-एक पैसा कमाने को लेकर रहती है। पेट में डाला जा रहा अन्न
बेशकीमती धन है। सावधान रहें कि यह गलत तरीके से खर्च न हो जाए। पहले इस मानसिकता
से जुड़िए। कल फिर भोजन के साथ योग कैसे हो सकता है, इस पर विचार करेंगे।
भोजन करते समय शांत रहे मन
भूल जाना मनुष्य का स्वभाव है, लेकिन यह मत भूलिए कि भूल जब गलती हो जाए और उसके गलत
परिणाम जीवन पर पड़ें तो उसे कैसे सुधारा जाए। किष्किंधा कांड में श्रीराम ने बालि
को मारकर सुग्रीव को किष्किंधा का राजा बना दिया। सुग्रीव ने श्रीराम को वचन दिया
था कि मैं सीताजी की खोज में वानर भेजूंगा। राजपाट पाकर सुग्रीव रामजी का काम भूल
गए। रामजी को छोटे भाई लक्ष्मण से कहते हैं- ‘सुग्रीवहुं सुधि मोरि बिसारी।
पावा राज कोस पुर नारी।’ श्रीराम ने आपत्ति ली कि सुग्रीव मेरा काम भूल गया है। सही
बात जब आप भूल जाएं तो ईश्वर नाराज होता है। इन दिनों एक भूल हम कर रहे हैं,
और वह है भोजन की
भूल। भोजन आरंभ करें तो एक-एक ग्रास को मंत्र की तरह भीतर उतारें।
मस्तिष्क का काम है विचारों से आकृति बनाना। कोई विचार आया तो मस्तिष्क उसको
डिजाइन कर देता है। इधर अन्न व उधर से आकृतियां भीतर आ रही हैं। आंतों को अन्न
पचाना है और मस्तिष्क आकृतियों में उलझा है, तो तालमेल बिगड़ेगा ही। भोजन के
रूप में आप विष भर रहे हैं। ऋषि-मुनियों ने कहा है अन्न से मन बनता है। यहां मन का
मतलब व्यक्तित्व से है। व्यक्तित्व बनने की जगह भीतर एक घालमेल शुरू हो गया। यदि
प्रत्येक ग्रास के साथ शांत नहीं हैं, एकाग्र नहीं हैं तो फिर आप आकृतियां यानी संसार खा
रहे हैं और अन्न का जो शुभ परिणाम शांति में होना चाहिए, वह नहीं होता। भोजन वह अवसर हो
सकता है जब आप मेडिटेशन कर शांति उपलब्ध कर सकते हैं और हम उस अवसर को गंवा देते
हैं। हमारा सारा जोर है हर हालत में शांत रहना। खूब काम कीजिए पर शांत रहिए और
भोजन का ऐसा ही उपयोग करना है। चलिए, कल फिर बात करेंगे कि भोजन से शांति कैसे प्राप्त की
जाए।
अन्न को योग का माध्यम बनाएं
अनुशासन अपनाया तो परिणाम में शांति मिलकर रहेगी। भोजन को लेकर हम चर्चा कर
चुके हैं कि यह शाकाहारी हो। यह भी महत्वपूर्ण है कि किसके हाथ का बना हुआ है?
कहां किया जा रहा
है? और
चौथी बात भारतीय संस्कृति में भोजन कैसे भोग बन जाता है। परमात्मा को अर्पित होने
के बाद भोजन भोग बनता है। यह बहुत सुंदर फिलॉसाफी है। सही है कि आपने भगवान की
किसी मूर्ति को खाते नहीं देखा होगा, लेकिन यह मनोवैज्ञानिक कृत्य है कि आप भोजन परमात्मा
को अर्पित करके भोग मान लेते हैं, प्रसाद मान लेते हैं और फिर ग्रहण करते हैं। इसका सीधा मतलब
है कि अब संसार की आकृतियां भोजन के साथ समाप्त हुईं और परमात्मा की आकृति अन्न के
साथ उतरना आरंभ हो गई। इसे ही भोग कहेंगे। जब भोजन करने बैठें तो सिर्फ दो काम
कीजिए।
पहला, वर्तमान में टिक जाइए यानी भोजन की थाली से बिल्कुल बाहर न जाएं। दूसरा,
जब अन्न अंदर जा
रहा हो तब शून्य हों। शून्यता को भरने के लिए कोई मंत्र, भगवान का कोई नाम जपते रहें।
अन्न का प्रत्येक कण मंत्र से जुड़ गया। भोजन की इस क्रिया को जितनी देर करेंगे,
धीरे-धीरे आपको
परिणाम में शांति मिलने लगेगी। इसके लिए अलग से कुछ नहीं करना है। बस, जो किया जा रहा है उसे
व्यवस्थित करना है। इसे अन्न योग कहेंगे। खूब व्यस्तता हो तो भी बस पांच-दस मिनट
ऐसे ही भोजन कीजिए। आप अन्न के साथ-साथ अपने शरीर का भी मान बढ़ाएंगे। अन्न का हर
कण योग का माध्यम बन जाएगा। हम सब कहीं न कहीं शांति की तलाश में हैं। सोते हुए,
उठते हुए और अब
भोजन करते हुए हमने शांति प्राप्त की। चलिए, कल इस पर भी विचार करेंगे कि
खाने के बाद जो पीना होता है वह हमें योग से कैसे जोड़ सकता है।
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है.....मनीष