Wednesday, December 12, 2012

Asafalta (असफलता)


जब भी असफल या निराश हों, सबसे पहले ये करें....
जब कभी हम परेशान होते हैं तो परेशानी दूर करने का निदान ढूंढ़ते हैं। ऐसा करना भी चाहिए। ऐसा करते हुए एक काम और किया जाए। उस परेशानी के कारण को भी पकड़ें। यहां यह ध्यान रखें कि कारण दूसरों में न ढूंढे़।

जब भी हम निराश हों, असफल हों, दुखी हों तो सीधे अपने भीतर छलांग लगाएं और टटोलें कि इसके पीछे हम कहां हैं। अब जैसे-जैसे हम गहराई में उतरकर अपने पर ही काम करेंगे, हमारी मुलाकात हमारी इंद्रियों से होगी। इंद्रियां भी चूंकि एक नहीं हैं, इसलिए उनमें से उस एक को पकड़ो, जो सबसे ज्यादा ताकतवर है और विषयों से जुड़कर हमें परेशान कर रही है।

लेकिन उससे झगड़ा न किया जाए, क्योंकि उसकी शक्ति हमारी कमजोरी बनती है। उसका अनियंत्रण ही हमारी परेशानी का कारण है। जीवन में गुरु अपने शिष्यों की कमजोरियों को इंद्रियों के माध्यम से पकड़ते हैं और उसी कमजोरी को शक्ति में रूपांतरित कर देते हैं।

इंद्रियों को हमारा दुश्मन बनाने की जगह दोस्त बनाने की कला एक सच्चा गुरु जानता है। इंद्रियों से जितना अधिक झगड़ा करेंगे, उतनी ही परेशानी हम और बढ़ा लेंगे। हम भीतर ही भीतर खुद से उलझने लग जाएंगे। इंद्रियां हमारी खुशी और परेशानी के लिए एक पुल की तरह हैं। वे एक रास्ते के माफिक हैं। हम उनसे झगड़ा करके पुल को ध्वस्त कर लेते हैं और रास्ते को ऊबड़-खाबड़ बना लेते हैं।

कोई कभी उनसे भी झगड़ा करता है, जो काम आने वाले लोग हों। इंद्रियां जितना काम बिगाड़ती हैं, उससे ज्यादा काम बना भी सकती हैं। इसलिए इंद्रियों को समझें तो सुख और दुख के कारण समझ में आ जाएंगे तथा निदान भी सही हो जाएगा।

असफलता और दुःख का सबसे बड़ा कारण यह है...
अधिकांश विवादों की जड़ में मैंहोता है। अहंकार समाधान कम, समस्याएं ज्यादा पैदा करता है। सफल से सफल लोग अहंकारी होने पर भले ही असफल न हुए हों, पर अशांत जरूर हो गए और अशांति अपने आप में एक असफलता है। अहंकार कैसे उल्टे-उल्टे काम कराता है, पता ही नहीं लगने देता है कि आदमी कब हंस रहा है और कब रो रहा है। चलिए, रावण की सभा में चलते हैं।

सुंदरकांड का वह दृश्य चल रहा था, जहां विश्वविजेता रावण के दरबार में हनुमानजी खड़े थे।

कपिहि बिलोकि दसानन बिहसा कहि दुर्बाद।
सुत बध सुरति कीन्हि पुनि उपजा हृदयं बिषाद।।

हनुमानजी को देखकर रावण दुर्वचन कहता हुआ खूब हंसा। फिर पुत्रवध का स्मरण किया तो उसके हृदय में विषाद उत्पन्न हो गया। यहां दो दृश्य एकसाथ चले हैं।

पहले तो रावण हंसा। इसके बाद उसे तत्काल विषाद, दुख हो गया था। उसे ऐसा लगता था कि दुनिया में कभी उसकी पराजय नहीं हो सकती। उसने तपस्या करके यह वरदान प्राप्त कर लिया था कि वह किसी के हाथों नहीं मारा जाएगा, मनुष्य और बंदरों को छोड़कर।

इतनी बड़ी उपलब्धि एक अहंकारी के लिए उसके अभिमान में वृद्धि करने के लिए काफी थी, लेकिन वह यह भूल गया था कि वरदान उसे मिला है, उसके बेटे को नहीं। अभिमानी रावण ने अपने बच्चों को भी खूब गलत मार्ग दिखाए थे।

आदमी का अहंकार स्वयं को और उसके आसपास के लोगों को परेशानी में डालता ही है। नतीजे में एक बेटा मारा गया और जो रावण सारी दुनिया को दुखी कर रहा था, वह अपनी ही सभा में स्वयं दुखी हो गया और माध्यम थे हनुमानजी।

असफल होने पर भी अपनी ये आदत ना छोड़ें...
उत्सव मनाना और सौभाग्य को आमंत्रित करना लगभग एक जैसा है। सफलता का उत्सव तो बहुत लोग मनाते हैं, लेकिन असफल होने पर भी उत्सव की वृत्ति न छोड़ें। भारतीय संस्कृति उत्सवों की ही संस्कृति है।
उत्सव का अर्थ यह नहीं होता कि खुशियों का बंटवारा कर लें, बल्कि उत्सव का अर्थ होता है, उत्साह को पैदा करना। सुख और दुख बांटो या न बांटो, उनके अपने फैलने के तरीके होते हैं, लेकिन उत्साह हमें भीतर से ही लाना पड़ेगा। उत्सव का अर्थ धूम-धड़ाका और भाग-दौड़ ही न मान लें।

सच तो यह है कि जिस दिन आप खूब शांति से बैठ जाते हैं, उस दिन आप भरपूर उत्सव में डूबे रहते हैं। तमाशे और उत्सव में यही फर्क है। जिंदगी की चलती हुई गाड़ी में उत्सव उस कील की तरह है, जिसके आसपास पहिया घूम रहा है। हम कहते हैं, वाहन चल रहा है।

दरअसल वाहन दो हिस्सों में बंटा है। उसका चलना उसके पहिये पर निर्भर है और पहिये का घूमना उसकी बीच की कील पर निर्भर है। कील रुकी रहती है, पहिया घूमता है और गाड़ी को चलता हुआ बताया जाता है। बस जिंदगी की गाड़ी भी ऐसी ही है। आप घूमते हुए पहिए पर ज्यादा न टिकें। उस रुकी हुई कील पर ध्यान दें, जिसे जीवन का केंद्र कहा गया है।

जो सचमुच उत्सव मनाना चाहते हैं, वे अपनी प्रशंसा को, उत्साह को उस कील पर टिकाएं। जो आयोजन, प्रयोजन कील पर केंद्रित होगा तो वह उत्सव होगा और जब वह पहिए पर आधारित होगा तो तमाशा होगा। जिसमें धूम-धड़ाका होगा, जिसमें शोर होगा। खामोशी से मनाया उत्सव जीवन को और संचारित तथा उत्साहित कर देता है।

असफलता से बचने के लिए जरूरी हैं ये तीन गुण...
सारे व्यावसायिक प्रयास कुल मिलाकर धन के आसपास केंद्रित रहते हैं। यह धन कमाने का दौर है। जब इसका नशा चढ़ता है, तो आदमी अच्छे और बुरे तरीके पर ध्यान नहीं देता।अपने व्यावसायिक जीवन में धन कमाने को तीन बातों से जोड़े रहिए- योग्यता, परिश्रम और ईमानदारी।

ये त्रिगुण जिसके पास हैं, वह किसी भी व्यावसायिक व्यवस्था में शेर की तरह होगा। शेर का सामान्य अर्थ लिया जाता है हिंसक पशु, लेकिन यहां शेर से अर्थ समझा जाए जिसके पास नेतृत्व की, यानी राजा बनने की क्षमता।

एक पुरानी कहानी है। एक शेर का बच्च माता-पिता से बिछड़ भेड़ों के झुंड में शामिल हो गया। उनके साथ रह उसकी चाल-ढाल, रंग-ढंग सब बदल गए। संयोग से किसी शेर ने भेड़ों के उस काफिले पर हमला किया। भेडें भागीं, तो शेर का बच्च भी भागा। हमलावार शेर को समझ में आ गया।

उसने भेड़ों को छोड़ा और उस शेर के बच्चे को पकड़ा। पानी में चेहरा दिखाया और कहा- तू मेरे जैसा है। तू शेर है, सबसे अलग, सबसे ऊपर। हमारे साथ ऐसा ही होना चाहिए। हमारे त्रिगुण हमें आईना दिखाते हैं कि हमें योग्यता, परिश्रम और ईमानदारी से धन कमाना है।

संस्थानों में अनेक लोगों की भीड़ होगी, पर हमें सबसे अलग रहना है। जो धन हम कमा रहे हैं वह तभी शुद्ध होगा और हमें अपनी सफलता के साथ शांति भी देगा। शास्त्रों में लिखा है- सर्वेषामेव शौचानामर्थशौचं पर स्मृतम्। योर्थै शुचिहिं स शुचिर्न मृद्वारिशुचि: शुचि:।। सभी शुद्धियों में धन की शुद्धि सर्वोपरि है।

वास्तव में वही शुद्ध है जो धन से शुद्ध है। जल और मिट्टी की शुद्धि कोई शुद्धि नहीं है। धन कमाने के मामले में हमारे ये त्रिगुण हमें बार-बार सामान्य लोगों की भीड़ से अलग, विशिष्ट बनाएंगे। अब जो समय है वह माचिस से आग जलाने का नहीं रहा। अब तो अपने व्यक्तित्व के तेज से प्रकाश फैलाने का वक्त है।

किसी भी संस्थान में इंसानों का ढेर होगा। उसमें यदि पूरे और सलामत आप दिखना चाहें तो लगातार अपने इन त्रिगुणों पर टिके रहिए और योग-प्राणायाम को थोड़ा समय जरूर दीजिए। यह बात सच है कि अपने विषय में सच्चई से कुछ कहना प्राय: कठिन होता है, क्योंकि स्वयं के अंदर दोष देखना सभी को अप्रिय लगता है, लेकिन आपके द्वारा अपने दोषों का अनदेखा करना दूसरों को अप्रिय लगता है।

असफलता का डर दूर करने के लिए जरूरी है ये बातें...
उस परमशक्ति, परमात्मा की अनुभूति होने पर व्यक्ति के मन में पहली इच्छा यह आती है कि यदि मैंने पा लिया है उसे, तो वह दूसरों को भी जरूर मिले। मैंने रसपान कर लिया है तो दूसरे भी प्यासे न रहें। लेकिन संसार की उपलब्धियां बांटने में कष्ट होता है।

इस समय संसार में दो बातों के लिए आदमी प्रयासरत और बेताब है- सफलता और प्रसिद्धि। कामयाब आदमी ख्याति जरूर बांटता है। इससे अहंकार को पुष्टि मिलती है। बिना सफल हुए भी कुछ लोग ख्यात होना चाहते हैं, फिर वे कुख्यात बनने की ओर बढ़ जाते हैं।

सफलता को तो लोग फिर भी आपस में बांट लेते हैं, लेकिन प्रसिद्धि का बंटवारा दौलत के बंटवारे से भी अधिक कठिन हो जाता है। बाप-बेटे, भाई-भाई, पति-पत्नी के रिश्ते भी ख्याति के बंटवारे के मामले में ईष्र्या में डूब जाते हैं।

जीवन में सफलता और प्रसिद्धि आने पर उदारता का स्वभाव और बढ़ा देना चाहिए। बिना उदार भाव के ये दोनों आपको ही खा जाएंगी। अपने उदार भाव को अधिक प्रदर्शन में न रखें। जो इसे थोड़ा रहस्यमयी रखेंगे, उन्हें अहंकार से बचने में सुविधा होगी। उदारता हमारे भीतर के बड़प्पन को संवार रही है। जब सेवा करें तो उसे रहस्यमयी न रखें, उसमें पूरा खुलापन रखें।

जिन्हें परमात्मा की अनुभूति होती है, उनके लिए सफलता और सेवा के अर्थ भिन्न हो जाते हैं। वे बांटने को उतावले होते हैं। हमें मिला तो दूसरों को भी मिले, उनका हर कृत्य इस भाव से भरा रहता है। ऐसे लोग सांसारिक वस्तुओं को बांटने में भी संकोच नहीं करते हैं। यह भी प्रेम का एक रूप होगा।

असफल होना नहीं चाहते तो इस एक आदत से बचें...
अपनी प्रशंसा अपने मुख से करना सीधे-सीधे अहंकार का अंकुरण करना है। सफलता को पचाना भी बड़ी ताकत का काम है। हम लोग अपने जीवन में जरा भी सफल होते हैं, तो सबसे पहले इसे शोर और प्रदर्शन में तब्दील करते हैं। सुंदरकांड में हनुमानजी महाराज हमें सिखा रहे हैं कि सफल होने पर थोड़ा खामोश हो जाइए। हमारी सफलता की कहानी कोई दूसरा बयान करे, तो कामयाबी में चार चांद लगना ही है।

लंका जलाकर और सीताजी को संदेश देने के बाद उनका रामजी की ओर लौटना सफलता की चरम सीमा थी। वह चाहते तो अपने इस काम को स्वयं श्रीरामजी के सामने बयान कर सकते थे। जैसा हम लोगों के साथ होता है, हम लोग अपनी सफलता की कहानी स्वयं दूसरों को न सुनाएं, तो कइयों का तो पेट दुखने लगता है। लेकिन हनुमानजी जो करके आए, उसकी गाथा श्रीरामजी को जामवंत सुना रहे थे।

तुलसीदासजी को लिखना पड़ा-

नाथ पवनसुत कीन्हि जो करनी। सहसहुं मुख न जाइ सो बरनी।।

पवनतनय के चरित्र सुहाए। जामवंत रघुपतिहि सुनाए।।

हे नाथ! पवनपुत्र हनुमान ने जो करनी की, उसका हजार मुखों से भी वर्णन नहीं किया जा सकता। तब जामवंत ने हनुमानजी के सुंदर चरित्र (कार्य) श्रीरघुनाथजी को सुनाए।।

आगे लिखा गया है- सुनत कृपानिधि मन अति भाए। पुनि हनुमान हरषि हियं लाए।। सुनने पर कृपानिधि श्रीरामचंद्रजी के मन को बहुत ही अच्छे लगे। उन्होंने हर्षित होकर हनुमानजी को फिर हृदय से लगा लिया। परमात्मा के हृदय में स्थान मिल जाना अपने प्रयासों का सबसे बड़ा पुरस्कार है।

बड़े लक्ष्य पाना हो तो गणेश जी से बात सीखें...
केवल मनुष्य ही ऐसा होता है जिसके पास श्रेष्ठ से श्रेष्ठ और तुच्छ से तुच्छ दोनों एक समान होता है। उसके पास विचारों की चरम ऊंचाई है, तो आचरण की निम्नतम गति भी है। उठेगा तो इतना ऊंचा उठ जाएगा कि देवत्व लांघ ले और गिरेगा तो इतना नीचे गिर जाएगा कि पशु भी शर्मिदा हो जाएं।

भारत के पास श्रेष्ठतम शास्त्र रहे हैं, एक से बढ़कर एक महापुरुष आए इस धरती पर, अवतारों ने जीवन जीने की कला सिखा दी, फिर भी लोग चूकते गए। इसके पीछे एक बड़ा कारण यह रहा कि हमने विवेक-शून्य होकर इनका उपयोग किया।

जिस दिन हम विवेकहीन हो जाते हैं, हमारा आधार ही खिसक जाता है। हम धार्मिक भावनाओं में इतने बह गए कि सही-गलत ही भूल गए। भावुकता उत्तेजना बन गई। यथार्थ का धरातल विवेक मांगता है। बड़े लक्ष्यों की पूर्ति के लिए कल्पनाशक्ति और दूरदर्शिता जरूरी है। पर बिना विवेक के ये भी घातक हैं। विचार जब ओवरफ्लो होते हैं, तो भाव बन जाते हैं। यह भावना का बहाव ही बहा ले जाता है। कोई बांध चाहिए जो इस बहाव का सदुपयोग कर ले। इसीलिए हिंदुओं ने गणेशजी को खूब पूजा है। वह विवेक के देवता हैं।

स्पष्ट है कि उन्हें अकारण ही प्रथम पूज्य नहीं बनाया गया है। उनका विवेक शुभ से जुड़ा है और जब भी कोई कार्य शुभ से आरंभ होगा, विवेक से गुजरेगा तो उसे शत-प्रतिशत सफल होना ही है। इसलिए हर कार्य से पहले गणपति की आराधना होती है। गणोश उत्सव इस धरती पर लोक-देवताओं से जुड़े कई अद्भुत प्रयोगों में से एक है।


जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK




Ashaanti (अशांति)

यहां खोजें अपनी अशांति और गुस्से के कारणों को...
कभी तसल्ली से बैठकर इस बात की सूची बनाइए कि आपको किन बातों पर गुस्सा आता है और किन बातों से आप अशांत हो जाते हैं। सूची बनने के बाद फिर विश्लेषण करिए कि इनमें से कितनी बातों का कारण आप हैं और कितनी बातों में दूसरे जिम्मेदार हैं।

यह काम निष्पक्षता से किया जाए, क्योंकि हमारी आदत होती है कि हम अपने क्रोध और अशांति का कारण सदैव दूसरे में देखते हैं। थोड़ी देर के लिए आया हुआ क्रोध हमारी ऊर्जा का नुकसान कर जाता है। हम उस ऊर्जा को खो देते हैं, जो किसी और उपयोगी काम में खर्च की जा सकती है।

कई स्थितियां ऐसी होती हैं, जब क्रोध आता है, लेकिन हम उसे व्यक्त नहीं कर पाते और नई बीमारी शुरू हो जाती है। अब क्रोध भीतर ही भीतर बहने लगता है। भारत के ऋषि-मुनियों ने हर औरत के भीतर आधा आदमी और हर आदमी के भीतर आधी औरत का बड़ा सुंदर सिद्धांत दिया है।

सद्गुण और दुगरुण भीतर ही भीतर इसी वृत्ति से अपने परिणाम देते हैं। आज हम क्रोध की बात कर रहे हैं। क्रोध जब पुरुष भाव से जुड़ता है तो वह प्रकट हो जाता है और स्त्री भाव से जुड़कर कुढ़न में बदल जाता है। कुढ़न ईष्र्या के आसपास की स्थिति है। स्त्री भाव से जुड़कर क्रोध जलन, दाह, रश्क में बदल जाता है। पुरुष भाव से जुड़कर क्रोध आगबबूला मुद्रा में आ जाता है।

वह अपनी अप्रसन्नता को भी आक्रमण से प्रस्तुत करने लगता है। उसका क्रोध झल्लाहट, बौखलाहट और हिंसा में भी उतर सकता है। जब तक क्रोध के कारण दूसरों में ढूंढ़े जाएंगे, तब तक स्त्री हो या पुरुष दोनों भाव से जुड़कर नुकसान ही पहुंचाएंगे। इसलिए कारण अपने में ढूंढ़िए और अपने आप से जुड़िए।

इस कारण भी युवा पीढ़ी झेल रही है डिप्रेशन...
इस समय जितनी शिक्षा बढ़ी है, उतनी ही अधीरता भी बढ़ रही है। पढ़े-लिखे लोग अपने लक्ष्य प्राप्ति के लिए इस कदर अधीर होते जा रहे हैं कि जरा-सी रुकावट या देरी उन्हें डिप्रेशन की ओर ले जाती है। जो थोड़े हिम्मत वाले हैं, वे अपने आप को डिप्रेशन से तो बचा लेते हैं, लेकिन चिड़चिड़े हो जाते हैं।

कुल मिलाकर शिक्षा ने आदमी को बुद्धिमान बनाया, पर बेताब भी बना दिया। हर पढ़े-लिखे आदमी को यह बात जरूर समझनी चाहिए कि कुछ बातें होकर ही रहती हैं। जीवन के प्रवाह में कुछ ऐसा होता ही है, जो घट जाता है।

आप चाहें या न चाहें। उस समय शिक्षा को समझ का काम करना चाहिए। प्रिय लोगों की मृत्यु, बिछड़ना, अचानक नुकसान हो जाना, दुर्घटनाएं इत्यादि पर आपका सीधा वश नहीं चलता। ऐसे वक्त पढ़े-लिखे होने का अर्थ है हिम्मत न हारें। जैसे निरोगी काया एक सुख है, वैसे ही समझ देने वाली शिक्षा भी अपने आप में बहुत बड़ा सुख है।

अत: यह उपलब्धि हमारे लिए काम की होनी चाहिए। दो वक्त की रोटी को पढ़ाई-लिखाई तो जुटा ही देगी लेकिन शरीर और मन के स्वास्थ्य के अलावा एक और स्वास्थ्य होता है, जिसे नैतिक स्वास्थ्य कहते हैं। इसकी अनुभूति शिक्षा कराती है। नैतिक रूप से निरोगी व्यक्ति दूसरों के प्रति प्रेम, सेवा, परोपकार, उदारता और मधुरता का व्यवहार करता है।

दरअसल शिक्षा एक समझ की तरह बननी चाहिए, जो मनुष्य के शरीर और आत्मा के संयोग को समझा सके, क्योंकि मनुष्य पूरी दुनिया में आत्मा और शरीर का अद्भुत संयोग है और इस अनुभूति को शिक्षा परिपक्व कर देती है।

इसके बिना आपके जीवन में शांति संभव नहीं है...
योग न तो फैशन है, न धंधा। थोड़ा अफसोस होता है, लेकिन यह सही है कि इन दिनों योग के साथ ये दोनों बातें जुड़ गई हैं। योग को उपलब्ध होने का अर्थ है शांति को प्राप्त होना और शांति जिस भी कीमत पर मिले, जरूर हासिल करें।

विज्ञान के युग में भौतिक साधनों की कोई कमी नहीं है। लेकिन शांति विज्ञान का विषय नहीं है और जो लोग जीवन में योग लाना चाहें, उन्हें मन को नियंत्रित करना आना चाहिए।

फकीरों ने कहा है कि मन को नियंत्रित किए बिना किसी के जीवन में योग या शांति नहीं आ सकती। करोड़ों में ही कोई ऐसा होगा, जिसे मन को नियंत्रित किए बिना शांति मिल जाएगी।

लेकिन यह अपवाद है। कोई पहुंचा हुआ फकीर ही इस स्थिति में मिलेगा। सामान्य व्यवस्था यह है कि मन को काबू में किया जाए। मस्तिष्क के तीन विभाग हैं - अवचेतन मन, चेतन मन और अचेतन मन। ये आत्मा से अलग हैं।रहा सवाल शरीर का तो उसकी रचना कोशिकाओं से हुई है। चिकित्सा विज्ञान के लोग जानते हैं कि एक सूक्ष्म कोशिका कितनी बड़ी जटिल रचना होती है।

ऐसा कहा गया है कि एक वर्ग इंच में 11 लाख 77 हजार 500 कोशिकाएं देखी गई हैं। एक कोशिका नष्ट होने पर अपने सारे आनुवंशिक गुण दूसरी में दे जाती है। विज्ञान के लिए भी ये बड़ी अजीब घटना है।

इसलिए मनुष्य के भीतर झांकना केवल शरीर के स्तर पर भी विज्ञान के लिए लगातार शोध का विषय है। ऐसे में मन तो और सूक्ष्म हो जाता है, लेकिन सांस के माध्यम से आप मन को पकड़ सकेंगे। शरीर का इलाज तो चिकित्सक पर छोड़ दें, लेकिन कम से कम साधक तो हुआ जा सकता है, ताकि मन का इलाज तो कर ही लें।

अशांति का एक कारण है गुस्सा, इसे ऐसे काबू करें...
आजकल गुस्सा तो लोगों की नाक पर बैठा है। ऐसा इसलिए कहा जाता है क्योंकि नाक शरीर का वह अंग है जिसका संबंध सांस से है और सांस मन को भोजन प्रदान करती है। यह एकमात्र क्रिया है, जिसका संबंध परमात्मा के हाथ में है।

इसीलिए नाक पर बैठा गुस्सा फौरन भीतर जाता है और क्रोध वह विष है, जो शरीर में तुरंत फैल जाता है। हमें अपने जीवन में जिन-जिन बातों को गंभीरता से लेना चाहिए, उनमें से एक क्रोध है। एक बड़ा खतरा भविष्य के लिए दिख रहा है कि इस समय बच्चे बुरी तरह गुस्सैल हो उठे हैं।

मैं पिछले दिनों अलग-अलग सामाजिक और आर्थिक स्तर के लगभग 15 परिवारों के संपर्क में आया। इनमें से 12 परिवार के लोगों की दिक्कत यह थी कि उनके घर के छोटे बच्चे, जो 5 साल से 14 साल के हैं, बहुत अधिक गुस्सा करने लगे हैं।

क्रोध के कारण हमारे हार्मोस में एक विषैला तत्व पैदा हो जाता है। हम अपने ही द्वारा, अपने ही भीतर एक चिता तैयार कर लेते हैं और उसकी अग्नि में न सिर्फ खुद, बल्कि अन्य लोगों को भी झुलसाने लगते हैं। कम से कम बड़े तो इस बात को समझ लें कि हर क्रोध के मूल में अहंकार होता है।

अहंकार अपने ही प्रति एक तरह का अज्ञान माना जाता है। इसके पीछे यह हठ होता है कि हर व्यक्ति हमारी बात माने। जिन्हें अपने क्रोध पर नियंत्रण पाना हो, वे निरहंकारी होने का प्रयास करें। निरहंकारी वही हो पाएगा, जिसने अहंकार को जाना है। जैसे ही आप अपने अहंकार से परिचित होते हैं, यह विसर्जित होने लगता है और यहीं से क्रोध नियंत्रण में आ जाता है। अगर बड़ों का क्रोध नियंत्रण में है तो वे बच्चों को भी इससे मुक्ति दिला पाएंगे।

शांति से जीना है तो ये तीन बातें कभी ना भूलें....
परमात्मा ने हमारे जीवन प्रबंधन को बहुत ही व्यवस्थित तरीके से जमाकर हमें दिया है, लेकिन हम उसे समझ नहीं पाते और बिना समझे उसका उपयोग करने लगते हैं, जो बाद में दुरुपयोग में बदल जाता है। इन छोटी-छोटी बातों को गहराई से समझ लें तो बहुत काम आएंगी।

जिसे भी शांतिपूर्ण जीवन जीना है तो उसे शरीर, मन और आत्मा तीनों को कभी नहीं भूलना चाहिए। इंद्रियों को आत्मा का औजार कहा गया है। परमात्मा ने यह औजार हमें देकर आत्मा की आवश्यकताएं पूरी करने के अवसर दिए।

इंद्रियों का संबंध उपभोग से जोड़ा गया है और सामान्य रूप से भोगों की आलोचना की जाती है। साधारण लोग इसका अर्थ ये ले लेते हैं कि इंद्रियों के कारण पतन होता है, इसलिए इनका दमन किया जाए। शास्त्रों में शब्द आया है इंद्रिय-निग्रह।

इसका अर्थ दमन करना नहीं है, इनकी दिशाओं को मोड़कर इनका सदुपयोग करना है। नियंत्रित इंद्रियां सबसे अच्छी दोस्त होंगी और अनियंत्रित इंद्रियों से बड़ा कोई दुश्मन नहीं होता। जो लोग अपनी इंद्रियों से परिचित रहेंगे, वे स्वयं का और दूसरों का भी पूरा व्यक्तित्व ही देखेंगे। अभी इंद्रियों के दुरुपयोग के कारण हम न तो स्वयं को जान पाते हैं और न ही दूसरों को, इसी कारण अशांत रहते हैं।

इंद्रियां हमें मनुष्य से मनुष्य में भेद करा देती हैं। अपना-पराया, भोग-विलास के झंझट यही से शुरू होते हैं। अध्यात्म कहता है, इंद्रियों के प्रति जागरूकता आते ही हम उस समग्र के प्रति विसर्जित होने लगते हैं, जिसे परमात्मा कहा गया है। इसलिए थोड़ा समय बाहर की दुनिया से हटकर भीतर की दुनिया में उतरकर इंद्रियों के प्रति होश जगाने में लगाएं।

अशांति से बचने के लिए यह संतुलन जरूरी है..
मनुष्य शरीर और आत्मा दोनों से बना है, लेकिन इस सिद्धांत को व्यावहारिक रूप से समझना होगा। जीवन में जो भी क्रिया करें, दोनों को समझकर करें। केवल शरीर पर टिककर करेंगे तो जीवन भौतिकता में ही डूब जाएगा और केवल आत्मा से जोड़कर करेंगे तो अजीब-सी उदासी जीवन में होगी।

न बाहर से कटना है और न बाहर से पूरी तरह जुड़ना है। दोनों का संतुलन रखिए। जैन संत तरुणसागरजी दो घटनाएं शरीर से जुड़ी सुनाते हैं।महावीर स्वामी पेड़ के नीचे ध्यानमग्न बैठे थे। पेड़ पर आम लटक रहे थे। बच्चों ने आम तोड़ने के लिए पत्थर फेंके। कुछ पत्थर आम को लगे और एक महावीर स्वामी को लगा। बच्चों ने कहा - प्रभु! हमें क्षमा करें, हमारे कारण आपको कष्ट हुआ है। प्रभु बोले - नहीं, मुझे कोई कष्ट नहीं हुआ। बच्चों ने पूछा - तो फिर आपकी आंखों में आंसू क्यों?

महावीर ने कहा - पेड़ को तुमने पत्थर मारा तो इसने तुम्हें मीठे फल दिए, पर मुझे पत्थर मारा तो मैं तुम्हें कुछ नहीं दे सका, इसलिए मैं दुखी हूं। यहां शरीर का महत्व बताया गया है।आखिर इस शरीर पर किसका अधिकार है? माता-पिता कहते हैं - संतान मेरी है। पत्नी कहती है - मैं अपने माता-पिता को छोड़कर आई हूं, इसलिए इस पर मेरा अधिकार है। मृत्यु होने पर शरीर को श्मशान ले जाते हैं तो श्मशान कहता है - इस पर अब मेरा अधिकार है। चिता की अग्नि कहती है - यह तो मेरा भोजन है।

अब आप ही विचार करें कि इस शरीर पर आखिर किसका अधिकार है? इसलिए शरीर और आत्मा को जोड़कर, समझकर जिएंगे तो शरीर का सदुपयोग कर पाएंगे और आत्मा का भी आनंद ले पाएंगे।

हमारे भीतर की अशांति का एक कारण ये भी है...
फिजूलखर्ची एक बुराई है, लेकिन ज्यादातर मौकों पर हम इसे भोग, अय्याशी से जोड़ लेते हैं। फिजूलखर्ची के पीछे बारीकी से नजर डालें तो अहंकार नजर आएगा। अहं को प्रदर्शन से तृप्ति मिलती है। अहं की पूर्ति के लिए कई बार बुराइयों से रिश्ता भी जोड़ना पड़ता है।

अहंकारी लोग बाहर से भले ही गंभीरता का आवरण ओढ़ लें, लेकिन भीतर से वे उथलेपन और छिछोरेपन से भरे रहते हैं। जब कभी समुद्र तट पर जाने का मौका मिले, तो देखिएगा लहरें आती हैं, जाती हैं और यदि चट्टानों से टकराती हैं तो पत्थर वहीं रहते हैं, लहरें उन्हें भिगोकर लौट जाती हैं।

हमारे भीतर हमारे आवेगों की लहरें हमें ऐसे ही टक्कर देती हैं। इन आवेगों, आवेशों के प्रति अडिग रहने का अभ्यास करना होगा, क्योंकि अहंकार यदि लंबे समय टिकने की तैयारी में आ जाए तो वह नए-नए तरीके ढूंढ़ेगा।

स्वयं को महत्व मिले अथवा स्वेच्छाचारिता के प्रति अति आग्रह, ये सब फिर सामान्य जीवनशैली बन जाती है। ईसा मसीह ने कहा है- मैं उन्हें धन्य कहूंगा, जो अंतिम हैं। आज के भौतिक युग में यह टिप्पणी कौन स्वीकारेगा, जब नंबर वन होने की होड़ लगी है। ईसा मसीह ने इसी में आगे जोड़ा है कि ईश्वर के राज्य में वही प्रथम होंगे, जो अंतिम हैं और जो प्रथम होने की दौड़ में रहेंगे, वे अभागे रहेंगे।

यहां अंतिम होने का संबंध लक्ष्य और सफलता से नहीं है। जीसस ने विनम्रता, निरहंकारिता को शब्द दिया है अंतिम। आपके प्रयास व परिणाम प्रथम हों, अग्रणी रहें, पर आप भीतर से अंतिम हों यानी विनम्र, निरहंकारी रहें। वरना अहं अकारण ही जीवन के आनंद को खा जाता है।

अशांति दूर करने का सबसे सटीक रास्ता ये है...
अधिकांश मनुष्य चाहते हैं कि उनके भीतर प्रसन्नता, कर्तव्य और पवित्रता बनी रहे। कई लोग ईमानदार प्रयास करते भी हैं, फिर भी दुगरुणों के झोंके अचानक भीतर प्रवेश कर जाते हैं। पता नहीं कौन-सा झरोखा खुला रह जाता है कि सारे प्रयासों के बाद भी मन में मलिनता आ ही जाती है।

हमारे भीतर विपरीत विचारों की टकराहट चलती ही रहती है। जिस समय जो विचार जीत जाते हैं, मनुष्य का वैसा ही आचरण हो जाता है। यदि हम अपनी आत्मा में सात्विकता की वृद्धि करना चाहें तो हमें इस टकराहट को लेकर सावधान रहना होगा।

ऋषि-मुनिमें मुनि उनके लिए कहा गया है, जिनके भीतर मौन घटित हो जाता है। मुनि हर वह मनुष्य हो सकता है जो भीतर से मौन साध ले। जो लोग लगातार ध्यान की क्रिया से गुजरेंगे, उनके भीतर मौन का जन्म होगा। मेडिटेशन का बाय-प्रोडक्टमौन है। आपको अपने ही भीतर मौन का अनुभव होने लगेगा। विचारों की टकराहट बंद हो जाएगी।

विचार सांस से प्रवेश करते हैं और हमें सांस के प्रति 24 घंटे में कुछ समय अतिरिक्त रूप से सजग रहना होगा। जिन बातों से विचार जन्म लेते हैं, वे बातें हमारे चाहने पर ही होंगी। जैसे ही मौन घटित होता है, मनुष्य के चेहरे पर असाधारण शांति, प्रसन्नता, संतोष और तेज प्रकट होने लगता है।

फिर वह जो भी करता है, पुण्यमय होता है। करुणा, दया, उदारता, मैत्री और आत्मीयता उसका सहज व्यवहार हो जाता है। उसकी क्रिया में अपने आप तप, साधना, स्वाध्याय, सत्संग घटित होने लगता है। ये मौन के परिणाम हैं। 24 घंटे में कुछ समय भीतर से बिल्कुल खामोश हो जाएं।

शांति चाहिए तो खुद पर भी एक ये एहसान जरूर करें...
जीवन में वे अवसर ढूंढ़े जाने चाहिए, जब हम अपना उपकार कर सकें। अशांति से मुक्ति चाहने वालों को स्वयं पर एक उपकार करना होगा। हमारे भीतर कुछ दैवीय गुण होते हैं। उन्हें जाग्रत करने से शांति प्राप्त करना सरल है। इन दिनों अनेक लोगों के जीवन में तीन बातें बहुत परेशान करती हैं।

जीभ पर नियंत्रण नहीं होना पहली परेशानी है। हमारा अधिकांश समय इसी में उलझा रहता है। दूसरी बड़ी झंझट है क्रोध। बाहर से हम इसे नियंत्रित कर लेते हैं तो भीतर से यह कई बीमारियों को जन्म दे जाता है।

तीसरी दिक्कत है अपवित्र-अवांछित विचार, जो हमारे भीतर चलते ही रहते हैं। विचारों के प्रवाह में हमारी शांति बह जाती है। ये तीनों ही गुलामी के लक्षण हैं। इन पर पार पाने की औषधि का नाम है आत्म-संयम।

इसे समझ लें कि शरीर और आत्मा अलग हैं। यह बोध ही आत्म-संयम को हमारे जीवन में ले आएगा। मैं शरीर नहीं आत्मा हूं, लगातार इसका चिंतन करना होगा। हमारी अशांति बसी ही इसी में है कि हमने जीवन के केंद्र में शरीर और उसके सुखों को रख छोड़ा है।

अपने मैंको विसर्जित करने में ही सुख और शांति है। शरीर जन्म लेता है तो मृत्यु भी होती है और इन दोनों में दुख है। इसीलिए हम जीवनभर दुख आने से डरते हैं और सुख की चाहत में भटकते हैं।

जैसे और जितने हम आत्मा से परिचित होते जाएंगे, हम समझने लगेंगे कि आत्मा का न जन्म है, न मृत्यु। इस बोध के बाद हमारे जीवन में वही सब होगा जो हो रहा है, लेकिन हम अशांति से दूर होंगे क्योंकि हम द्रष्टा भाव से चीजों को लेंगे। हम ही कर रहे हैं और हम ही अलग हटकर देख रहे हैं। फिर किस बात का दुख?

तो दर्द और अशांति में भी पाया जा सकता है आनंद
हर बीमारी का कोई न कोई इलाज है। जो बीमारी लाइलाज मानी गई, उसका इलाज अध्यात्म के पास है। और वह है सहनशक्ति। सहनशक्ति आती है सद्गुणों के संग्रहण से। थोड़ी-सी अक्ल से काम लिया जाए, तो हम अपनी बीमारी से अध्यात्म के मार्ग पर जा सकेंगे। लोगों ने अपनी व्याधि से भगवान ढूंढ़ लिए। पीड़ा से भी आनंद का मार्ग ढूंढ़ा जा सकता है। नर्क से भी स्वर्ग प्राप्त हो सकता है। भारत में तो भूख से लोगों ने आत्मा स्पर्श कर ली।

जहां मेडिकल साइंस की सीमा समाप्त हो जाए, वह हाथ ऊंचे कर दे, वहां से तपश्चर्या और उपवास मददगार साबित होंगे। इन दोनों की शुरुआत शरीर से होती है और समापन आत्मा पर होता है।हम जब जीवित होते हैं, तो हमारे पास दो तरह की रोशनी होती है।एक शरीर का प्रकाश है और दूसरी आत्मा की ज्योति है। सामान्य तौर पर हम इन दोनों में फर्कनहीं कर पाते। बल्कि यूं कहें कि पहचान नहीं पाते।

जब हम उपवास और तपश्चर्या से शरीर को सुखाते हैं, उसके दोष दूर कर गुण पकड़ते हैं, तब उसका प्रकाश कम होने लगता है। यह प्रकाश जितना मद्धम होगा, उतनी ही दूसरी ज्योति हमें ज्यादा दिखेगी। उस आत्मा की ज्योति का सहारा लें उस समय और वहीं से बीमारी के प्रति एक सहनशक्ति जागेगी। हमको लगने लगेगा कि हमारे भीतर कुछ ऐसा है, जो शरीर से हटकर है। वही हमारी असली ताकत है। इसके लिए सतत अभ्यास करते रहें। अच्छे विचार लगातार इकट्ठा करें। इन्हें बीज मानकर बीजांकुर का कोई मौका न चूकें।सद्गुण हमें शरीर के प्रकाश से गुजारकर आत्मा की ज्योति तक ले जाने में सेतु साबित होंगे।


जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK