Friday, February 26, 2016

जीने की राह (Jeene Ki Rah 2)

क्रोध के सही उपयोग में ही फायदा
हम लोग दूसरों की कई बातों से परेशान हो जाते हैं, लेकिन कभी-कभी अपनी कुछ बातों से भी दिक्कत में आ जाते हैं। मुझसे कई लोग कहते हैं कि हम अपने गुस्से से बड़े परेशान हैं। क्रोध कर तो लेते हैं पर बाद में पछताते हैं। दुर्गुणों के साथ ऐसा ही होता है। पता नहीं उनमें क्या आकर्षण होता है। हमें लगता है हमने उनका उपयोग किया, परंतु असल में वे हमारा उपयोग कर लेते है। आज अगर क्रोध की चर्चा करें तो हमें समझना होगा कि किष्किंधा कांड में श्रीराम ने क्रोध का जैसा उपयोग किया वैसा हम भी करें। सुग्रीव से श्रीराम दुखी भी थे और उन पर क्रोधित भी, इसलिए उन्होंने लक्ष्मण से कहा, ‘जाओ, सुग्रीव को लेकर आओ।

लक्ष्मण बड़े भाई को क्रोध में देखकर ज्यादा उत्साह से चल दिए, क्योंकि वे उग्र स्वभाव के थे। उसके बाद श्रीराम के व्यवहार में जो परिवर्तन आया उस परिपक्वता पर तुलसीदासजी ने लिखा है, ‘तब अनुजहिं समुझावा रघुपति करुना सींव। भय देखाइ लै आवहु तात सखा सुग्रीव।।अर्थात हे तात, सुग्रीव को केवल भय दिखाकर ले आओ। उसे मारने की बात नहीं कर रहा हूं। इसमें श्रीराम के लिए लिखा है कि वे दया की सीमा हैं। जिन्हें क्रोध पर नियंत्रण पाना हो वे भीतर की करुणा पर लगातार काम करते रहें। दूसरी बात, ‘भय दिखाकर ले आओका मतलब है श्रीराम क्रोध के उद्‌देश्य को जानते थे, सिर्फ भय दिखाना। इसी तरह हमें भी ज्ञात हो कि हम अपनी कमजोरी के कारण क्रोध नहीं कर रहे, उस व्यवस्था का आवश्यक तत्व मानकर क्रोध को ला रहे हैं और भेज भी देंगे, इसीलिए श्रीराम ने कहा कि बात सुग्रीव को मारने की नहीं, भय दिखाने की है। हम क्रोध में व्यथित हो जाते हैं, अनियंत्रित हो जाते हैं और यहीं से क्रोध नुकसानकारी है। यदि इसका सही उपयोग कर लिया जाए तो क्रोध भी फायदे पहुंचाकर जाएगा।

दो स्तरों पर जीवन को देखना ही धर्म
राजनीतिक-सामाजिक क्षेत्र में जब मतभेद होते हैं तो लोग मानकर चलते हैं कि ऐसा तो होगा ही, क्योंकि यहां सबके स्वार्थ और निजहित जुड़े रहते हैं। किंतु जब धार्मिक व्यक्ति विवाद में आते हैं तो लोगों की टिप्पणियां आक्रामक हो जाती हैं। यह कहना बड़ा आसान हो जाता है कि जिनके भरोसे लोग जीवन की शांति ढूंढ़ने निकले हैं वे ही लड़ रहे हैं, लेकिन धर्म के क्षेत्र में बहुत कुछ अनदेखा है। धर्म का मतलब ही है दो स्तरों पर जीवन को देखना। एक जो दिख रहा है और दूसरा जो नहीं दिख रहा। समाज और राजनीति दिख रहे पर चलती है और धर्म अनदेखे पर चलता है। कोई संत, महात्मा, किसी आरोपित आचरण के कारण कारागृह चला जाए, कलंक लग जाए, तो उसकी खिल्ली उड़ाना आसान है, लेकिन उसकी साधना में कुछ ऐसा था जो अनदेखा रह जाता है। दुनिया में सबसे सरल है किसी को बदनाम कर देना।

उज्जैन में होने वाले कुंभ के मेले, जिसे सिंहस्थ भी कहते हैं, को लेकर आए-दिन विवादों की चर्चा होती है। साधु-संत कभी एक-दूसरे के पक्ष में तो कभी विरोध में बयान देते हैं। लोग कहते हैं क्या साधु ऐसे होते हैं? जिस मनुष्य ने अपने दुर्गुणों की संख्या बहुत कम कर दी वह साधु हो गया, लेकिन दुर्गुण कभी किसी के नहीं मरते। कब, कौन-सा दुर्गुण अंगड़ाई ले ले, कोई भरोसा नहीं। परंतु एक दुर्गुण के परिणाम से किसी की समूची साधना खारिज नहीं की जा सकती। साधुओं के मतभेद फकीर की मस्ती है, जिसमें वह किसी का लिहाज नहीं पालता। फकीर जैसी मस्ती के विवाद और संसार में निजहित में डूबे हुए लोगों के विवाद का अंतर जिस दिन समझ में आएगा उस दिन हम धर्म के क्षेत्र की व्यर्थ की आलोचना बंद कर देंगे, क्योंकि जब-जब धर्म की बिना समझ से आलोचना की जाएगी, नुकसान धर्म और धर्म को मानने वालों का ही होगा।

भीतरी तैयारी से हटाएं बाहरी रुकावटें
बहुत कम लोग होंगे जो संपूर्ण रूप से स्वस्थ हैं। मुझे तो लगता है कि ऐसे लोग शायद ही हों जो कह सकें, ‘मैं बीमार नहीं हूं।’ कुछ बीमारियां ऐसी हैं जिनका इलाज डॉक्टर के पास नहीं है। ऐसी बीमारियों का इलाज आपको स्वयं करना है। यदि यह सीख गए तो आपको अपने जीवन की कुछ यात्राएं बड़ी आसान लगने लगेंगी। जैसे हम एक यात्रा पर निकले हैं, सफल हो जाएं, ख्यात बन जाएं, बड़े दिखने लगें, लोग हमें नोटिस करें, हमें सम्मान दें। इस यात्रा पर लगभग सभी निकले हैं। किसी ने कोई रूप दे दिया तो किसी ने कोई और रूप। ध्यान रखिए, यदि आप ऐसी यात्रा पर निकले हैं जहां अपने लक्ष्य की पूर्ति करनी है तो मान, अपमान और सम्मान की चिंगारियां, इसके छींटे आपके ऊपर गिरते रहेंगे। ये आपको चोट भी दे सकते हैं।

चोट घाव बनी और बीमारी शुरू हुई, इसलिए आपको कुछ कवच खुद तैयार करने होंगे, क्योंकि कामयाब होने में जो बाधाएं आने वाली हैं वे बाहर ही नहीं, भीतर से भी आएंगी। बाहर की बाधाएं दूसरे पहुंचाएंगे और भीतर की रुकावट हम ही शुरू करेंगे। हमारा जो अशांत चित्त है वह इसे और बढ़ाएगा। कोशिश करिए कि हम भीतर से कुछ समय ध्यान, मेडिटेशन से गुजरें। तब बिना संबंधों का लाभ उठाए हम अपनी ताकत से चीजों को बिगड़ने भी नहीं देंगे और सफल भी हो जाएंगे। यह तय है कि सफलता की यात्रा में हमें दूसरों की मदद लेनी है और जब दूसरे आए तो सहयोग भी होगा और असहयोग भी। मान-अपमान सब होगा। किंतु यदि आपने भीतरी तैयारी कर ली तो बाहरी रुकावटें अपने आप दूर हो जाएंगी। यदि भीतर से बाधाएं पैदा कर लीं तो किसी गुरु की आवश्यकता पड़ेगी या स्वयं को इस योग्य बनाना पड़ेगा कि कोई गुरु आकर कृपा कर दें। वरना सारी मेहनत जिस सफलता के लिए की जा रही है वह बेकार हो जाएगी।

लोगों में ईश्वर देखें, भेदभाव दूर होगा
भेदभाव की समस्या वर्षों से चली आ रही है। इसे लेकर युद्ध हुए, तब भी और अब भी। भेदभाव का अंतिम परिणाम हिंसा ही होता है। धर्म के क्षेत्र में भी भेदभाव ने पर्याप्त घुसपैठ कर रखी है, लेकिन बहुत बारीकी से देखें तो किसी भी धर्म के अवतार हों, शास्त्र हों या शीर्ष पुरुष हों, उन्होंने भेदभाव का खंडन किया है। परमपिता परमात्मा भाव का भूखा होता है, इसलिए उसकी दृष्टि में भेद होता ही नहीं है। जाति का भेद, धन के आधार पर भेद, पद के आधार पर भेद और स्त्री-पुरुष का भेद। इसके कई रूप हैं। शरीर में काम के अनुसार अंगों में भेद होता है, यह समझ में आता है। चूंकि हम शरीर की दृष्टि से जीवन बिताते हैं, इसलिए हम अंगों जैसा भेद मनुष्यों में भी करते हैं। यहीं से जाति-भेद आरंभ होता है, जबकि शास्त्रों के मुताबिक परमात्मा की घोषणा है कि महत्व काम का होना चाहिए जाति और लिंग का नहीं। गीता में कहा गया है, ‘पंडित: समदर्शिन:।’

इसका मतलब जो विद्वान हैं, जो भक्त हैं वह सबको समान देखता है। हमारे यहां शीर्ष धार्मिक पुरुषों ने शांति के लिए समानता का संदेश दिया है, क्योंकि वे जानते थे कि असमानता आई तो अशांति आई। जो लोग असमानता में विश्वास करेंगे, भेदभाव को बढ़ाएंगे वे कुल-मिलाकर समाज में अशांति ही लाएंगे। फिर धर्म का क्षेत्र तो संदेश देने का ही क्षेत्र है। यदि वहीं से मैसेज गलत आने लग जाएगा तो बाकी संसार तो उपद्रव करने के लिए तैयार ही बैठा है, इसलिए जिनका धर्म से जरा-सा भी संबंध है वह पहले तो यह समझें कि धर्म का अर्थ ही सब समान हैं। सभी के भीतर वही आत्मा है और वही आत्मा-परमात्मा है। यदि किसी परमशक्ति में विश्वास रखते हैं तो प्रत्येक मनुष्य में उसका दर्शन करें। तब न जाति का भेद होगा, न पद का, न प्रतिष्ठा का, न ही स्त्री और पुरुष होने का।

अनुचित से बचाती है हनुमान चालीसा
कुसंग तो करना ही नहीं चाहिए, लेकिन सतर्कता बरतें कि सदैव समझदार और योग्य लोग साथ रहें। ऐसे में दो फायदे होते हैं, ‘एक तो वे हमें सही सलाह देते हैं और दूसरा गलत करने से रोक लेते हैं। उनके पास यह कला होती है कि किसी बड़े अहंकारी व्यक्ति को भी सही बात समझा दे। सुग्रीव श्रीराम का काम भूल चुके थे। प्रवर्षण पर्वत पर श्रीराम और लक्ष्मण द्वारा सुग्रीव के प्रति क्रोध व्यक्त करने के प्रसंग में तुलसीदासजी ने पंक्ति लिखी, ‘इहां पवनसुत हृदयं बिचारा। राम काजु सुग्रीवं बिसारा।।’ इहां शब्द का अर्थ है यहां हनुमानजी ने विचार किया। वहां श्रीराम व लक्ष्मण बात कर रहे थे और यहां हनुमानजी तथा सुग्रीव में चर्चा चल रही थी। ‘इहां’ का मतलब यह भी है कि तुलसीदासजी भी मौजूद थे।

हनुमानजी एक योगी हैं। वे लोगों का मन पढ़ लेते हैं। कहीं न कहीं हनुमानजी को लग रहा था सुग्रीव गलती कर रहे हैं और श्रीराम क्रोधित हो रहे हैं। आदमी जब ऊपर उठता है तो नीचे की कई चीजें दिखना बंद हो जाती हैं। अहंकार भी एक अंधापन है। सुग्रीव को हित और अहित दोनों ही नहीं दिख रहे थे। तब हनुमानजी ने सुग्रीव को रामजी का काम याद दिलाया। हम सब सुग्रीव की तरह कोई न कोई ऐसी भूल जरूर करते हैं, जिसमें अहंकार का छींटा होता है। हमारे साथ हनुमानजी होने का मतलब ही यह है कि एक ऐसी सीख और समझ जीवन में बनी रहेगी कि जब भी कोई गलत कदम उठाएंगे हमारे ही भीतर की अंतरात्मा हमको समझाएगी कि सावधान हो जाओ। इन संकेत, इशारों का नाम ही हनुमान है। हनुमानजी हमारे साथ रहें इसका एक ही तरीका है कि श्री हनुमान चालीसा को सांस से अपने जीवन से जोड़े रहें। यहीं से उनकी अनुभूति जीवन में उतरेगी और हम अनुचित से बच सकेंगे।

बेटियों का चुनौतियों से परिचय कराएं
बेटे-बेटी के लालन-पालन में भेद नहीं होना चाहिए। शास्त्रों के अनुसार तो यह पाप है। इस संसार की जो पहली पांच संतानें हुई थीं, उनमें से तीन बेटियां थीं। मनु-शतरूपा हिंदू संस्कृति के अनुसार मनुष्यों के पहले माता-पिता थे और उनसे जो मैथुनि सृष्टि निर्मित हुई उसमें दो पुत्र- उत्तानपाद और प्रियव्रत तथा तीन बेटियां -आकुति, देवहुति और प्रसूति ने जन्म लिया था। समझदार माता-पिता अब दोनों को एक जैसा पाल रहे हैं, लेकिन इसी के साथ एक जागरूकता और आनी चाहिए। लालन-पालन में भेद न करें, लेकिन दोनों के सामने जो भविष्य में चुनौतियां आने वाली हैं, उस फर्क को उन्हें जरूर समझाएं। बेटियों को एक दिन बहू बनना है, जो सबसे बड़ी चुनौती है।

इस समय की पढ़ी-लिखी बच्चियां अपने वैवाहिक जीवन के बाद के भविष्य को लेकर थोड़ी चिंतित तो हैं पर फिर भी एक बेफिक्री है कि संबंध नहीं जमा तो तोड़ लेंगे। किंतु उनके मां-बाप के लिए तो यह जीवन-मरण का प्रश्न है, इसलिए बच्चों के लालन-पालन में बेटे-बेटी को यह एहसास जरूर कराया जाए कि स्त्री के लिए क्या मायने हैं ससुराल के। पहला तो बदलाव, दूसरा अपेक्षा और तीसरा अपने ससुराल में आत्मनिर्भर होकर बिना कलह के मार्ग ढूंढ़ना। ये तीन बड़ी चुनौतियां स्त्री के सामने आती हैं। स्त्री जब बहू बनती है तो उसे नए घर में दो बातें नहीं भूलनी चाहिए। योजनाबद्ध तरीके से विनम्रता के साथ सबको जीता जाए। पेट की भूख सही ढंग से यदि मिटा दी जाए, तो दिल जीता जा सकता है, इसलिए अन्न पर माता-बहनों का नियंत्रण किसी भी घर में समाप्त नहीं होना चाहिए। जिस घर में माता-बहनों के हाथ से अन्न का नियंत्रण निकलेगा, उस घर में शांति संदेहास्पद हो जाएगी। इस चुनौती को इसी तरह से समझाया जाए।

संयुक्त परिवार जैसा है भारत
भारत आदर्श संयुक्त परिवार है। संयुक्त परिवार को बचाने वालों ने दो काम किए थे। एक, प्रत्येक सदस्य के स्वभाव का अध्ययन किया और उसे उसी छत के नीचे जीने की स्वतंत्रता दी। दो, त्याग सिखाया। धीरे-धीरे संयुक्त परिवारों के जुड़ाव का तीसरा कारण आया- आर्थिक गतिविधि। एक ही व्यापार-व्यवसाय के कारण जुड़े रहे, लेकिन धन के अपने दोष हैं। जिस धन से संयुक्त परिवार जुड़े रहे, वही धन उन्हें तोड़ता भी गया। भारत के साथ भी यही हुआ। यहां अनेक जाति, धर्म के लोग हैं। सबके अपने-अपने काम हैं, लेकिन फिर भी आए दिन अशांति, उपद्रव, हिंसा है। ऐसा धर्म व राष्ट्रीयता को न समझने के कारण है।

मनुष्य अपनी वासना और आर्थिक लोलुपता के कारण अपराध करे तो समझ में आता था, पर जब अपराध धर्म और राष्ट्रीयता की आड़ में हों यह बहुत खतरनाक स्थिति है, इसलिए नेतृत्व देने वाले, समाजसेवी, संजीदा लोगों को कहीं न कहीं राष्ट्रीयता के साथ धर्म और धर्म के साथ आध्यात्मिकता को बुद्धिमानी से जोड़ना पड़ेगा। इसमें जितनी देर होगी उतने खतरे बढ़ेंगे। आज राष्ट्र के साथ धर्म को जोड़ो तो लोग तुरंत सांप्रदायिकता का शोर मचाने लगते हैं। इसे बार-बार समझाया जाए कि धर्म का मतलब दस लक्षणों को जीवन में उतारना है। धैर्य, क्षमा, दम (संयम), अस्तेय (चोरी न करना), शौच (शुद्धि, पवित्रता), इंद्रीय निग्रह (आंतरिक संयम), धी, विद्या, सत्य और अक्रोध। इन दस लक्षणों में से कोई भी ऐसा नहीं है जो मनुष्य को ऊंचा न उठाए। धर्म का मतलब है किसी को भी श्रेष्ठ होने की संभावना देना। फिर इसे राष्ट्रीयता, अपने काम से क्यों न जोड़ा जाए? इसलिए धर्म की गलत परिभाषा न करें और इस संयुक्त परिवार को प्रेमपूर्ण बनाने के लिए केंद्र में धर्म रखा जाए, तभी भारत, भारत रहेगा।

संगठन की तरह हो परिवार
जंगल का एक नियम है, जो भी कमजोर पशु अकेला छूटा, वह अपने से बड़े हिंसक पशु का शिकार हो जाएगा। इसीलिए हम पाते हैं कि जंगल में पशु दौड़ते ही रहते हैं, क्योंकि पता नहीं कब आक्रमण हो जाए, कब खतरा सामने आ जाए। आजकल नगरीय जीवन में भी ऐसा ही होने लगा है। आप जिस भी शहर में रहते हों कमोबेश उसमें कुछ जंगलराज समानांतर चल रहे हैं। किसी कॉर्पोरेट ऑफिस में जाएं, किसी बड़े मॉल में जाएं, बाजार की भीड़ हो या विवाह का उत्सव, सब जंगलराज की तरह एक-दूसर के शिकार में लगे हैं। कभी-कभी तो शिकार इस तेजी से होता है कि शिकार और शिकारी का फर्क भी खत्म हो जाता है। शिकारी शिकार बन सकता है, शिकार शिकारी बन जाता है। जंगल में पशु भी जानता है कि समूह में रहेंगे तो बच जाएंगे। शहर में हमें भी समूह में रहने की जरूरत है।

मनुष्य की अधिक संख्या भीड़ भी कहलाती है और समूह भी। भीड़ का न कोई उसूल होता है न कोई भाव, लेकिन भीड़ यदि व्यवस्थित हो जाए, किसी एक अच्छे उद्‌देश्य के लिए एकत्र हो जाए तो समूह बन जाएगा। केवल समूह से भी काम नहीं चलेगा। समूह में जब एक-दूसरे के हित की बात हो तो यह एकता संगठन बन जाती है। आज घर में पति-पत्नी भी भीड़ की तरह रहते हैं, भटक रहे हैं। इन्हें संगठन में बदलना होगा। इसीलिए भारतीय संस्कृति ने विवाह को गठबंधन कहा है, क्योंकि संगठन एक-दूसरे के हित के लिए होता है। संगठन के परिणाम सदैव हितकारी होते हैं। हर परिवार का हर सदस्य एक-दूसरे से एक संगठन बनाकर चले। अन्यथा आज एक छत के नीचे भारी भीड़ इकट्‌ठी हो गई है। बाहर से अकेलापन और भीतर से भीड़ की अशांति मनुष्य की नीति बन गई है, इसलिए एक बार फिर परिवार में भी संगठन पर काम किया जाना चाहिए।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है.....मनीष



Tuesday, February 9, 2016

श्रीमद् भागवत Srimdbhagwat Part (6)

ब्रह्माजी ने कैसे ली श्रीकृष्ण की परीक्षा?
भागवत में अभी तक हमने पढ़ा कि भगवान श्रीकृष्ण ने वृंदावन में बकासुर, वत्सासुर व अघासुर का वध कर दिया। भगवान की लीलाओं को देखकर ब्रह्माजी ने उनकी परीक्षा लेने का मन बनाया। एक दिन जब श्रीकृष्ण अपने साथी बाल-ग्वालों के साथ वन में गायों को चराने गए तो ब्रह्माजी भी वहां आ गए और बालकृष्ण की परीक्षा लेने का उपाय सोचने लगे। गायों को चराते-चराते कृष्ण आदि बाल-ग्वाल जब यमुना के पुलिन पर आए तो कृष्ण ने उनसे कहा कि यमुनाजी का यह पुलिन अत्यंत रमणीय है। अब हम लोगों को यहां भोजन कर लेना चाहिए क्योंकि दिन बहुत चढ़ आया है और हम लोग भूख से पीडि़त हो रहे हैं। बछड़े पानी पीकर समीप ही धीरे-धीरे हरी-हरी घास चरते रहें। सभी ने कृष्ण की बात मान ली।

उसी समय उनकी गाए व बछड़े हरी-हरी घास के लालच में घोर जंगल में बड़ी दूर निकल गए। जब ग्वालबालों का ध्यान उस ओर गया, तब वे भयभीत हो गए। तब कृष्ण उन सभी को वहीं छोड़कर स्वयं गायों व बछड़ों को लेने वन में चले गए। कृष्ण के वन में जाते ही ब्रह्माजी ने अपनी लीला दिखा दी व गौधन को अदृश्य कर दिया। बहुत ढूंढने पर भी जब गाएं आदि नहीं मिले तो कृष्ण वापस लौट आए। यहां आकर उन्होंने देखा कि उनके साथी ग्वाल-बाल भी अपने स्थान पर नहीं है।

तब उन्होंने वन में घूम-घूमकर चारों ओर उन्हें ढूंढा। परन्तु जब ग्वालबाल और बछड़े उन्हें कहीं न मिले, तब वे तुरंत जान गए कि यह सब ब्रह्माजी की ही माया है। तब भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं बछड़ों तथा उन बाल-ग्वालों का रूप बना लिया और वृंदावन चले गए। किसी को इस बात का पता नहीं चला।

ब्रह्माजी ने की श्रीकृष्ण की स्तुति

हमने पढ़ा कि ब्रह्माजी ने श्रीकृष्ण की परीक्षा लेने के लिए बछड़ों तथा उनके साथी बाल-ग्वालों को हर लिया। तब श्रीकृष्ण ने स्वयं उनका रूप धरा और वृंदावन चले गए। भगवान इस लीला में वही बात बता रहे हैं, जो बाद में महाभारत युद्ध के दौरान उन्होंने अर्जुन को बताई। सभी प्राणी उनका ही अंश हैं। सब में वे ही विराजित हैं। कोई आपकी देह यानी स्थूल रूप को तो हर कर ले जा सकता है लेकिन उसमें विराजित सूक्ष्म रूप को चुराया नहीं जा सकता।

इस तरह एक वर्ष का समय बीत गया तब एक दिन भगवान श्रीकृष्ण बलरामजी के साथ बछड़ों को चराते हुए वन में गए। तब उसी समय ब्रह्माजी बह्मलोक से वृंदावन में लौट आए। उनके कालमान से अब तक केवल एक त्रुटि (क्षण) समय व्यतीत हुआ था। यहां आकर उन्होंने देखा कि जिन बछड़ों तथा बाल-ग्वालों को मैंने हर लिया है वे सब तो यहां उपस्थित हैं। तब ब्रह्माजी ने अपनी दिव्य दृष्टि से देखा तो पता चला कि सभी बछड़ों तथा बाल-ग्वालों में तो स्वयं कृष्ण विराजमान हैं।

यह दृश्य देखकर ब्रह्माजी चकित रह गए। वे भगवान के तेज से निस्तेज होकर मौन हो गए। ब्रह्माजी के इस मोह और असमर्थता को जानकर बिना किसी प्रयास के तुरंत अपनी माया का परदा हटा दिया। वे श्रीकृष्ण के पास गए और उनकी स्तुति करने लगे। तब भगवान श्रीकृष्ण ने भी उन्हें प्रणाम किया। श्रीकृष्ण के कहने पर ब्रह्माजी ने उन बछड़ों तथा बाल-ग्वालों को छोड़ दिया। भगवान की माया से किसी को इस बात का आभास नहीं हुआ।

धेनुकासुर राक्षस का वध क्यों किया बलराम ने?
वृंदावन में रहते हुए अब बलराम और श्रीकृष्ण ने पौगण्ड-अवस्था में अर्थात छठे वर्ष में प्रवेश किया। बलरामजी और श्रीकृष्ण के सखाओं में एक प्रधान गोपबालक थे श्रीदामा। एक दिन उन्होंने बड़े प्रेम से बलराम और श्रीकृष्ण से बोला कि - हम लोगों को सर्वदा सुख पहुंचाने वाले बलरामजी। आपके बाहुबल की तो कोई थाह ही नहीं है। हमारे मनमोहन श्रीकृष्ण। दुष्टों को नष्ट कर डालना तो तुम्हारा स्वभाव ही है।

यहां से थोड़ी ही दूर पर एक बड़ा भारी वन है। उसमें बहुत सारे ताड़ के वृक्ष हैं। वे सदा फलों से लदे रहते हैं। वहां धेनुक नाम का दुष्ट दैत्य भी रहता है। उसने उन फलों पर रोक लगा रखी है। वह दैत्य गधे के रूप में रहता है। श्रीकृष्ण। हमें उन फलों को खाने की बड़ी इच्छा है।

अपने सखा ग्वालबालों की यह बात सुनकर भगवान श्रीकृष्ण और बलरामजी दोनों हंसे और फिर उन्हें प्रसन्न करने के लिए उनके साथ तालवन के लिए चल पड़े। उस वन में पहुंचकर बलरामजी ने अपनी बांहों से उन ताड़ के पेड़ों को पकड़ लिया और बड़े जोर से हिलाकर बहुत से फल नीचे गिरा दिए। जब गधे के रूप में रहने वाले दैत्य ने फलों के गिरने का शब्द सुना, तब वह बलराम की ओर दौड़ा।

बलरामजी ने अपने एक ही हाथ से उसके दोनों पैर पकड़ लिए और उसे आकाश में घुमाकर एक ताड़ के पेड़ पर दे मारा। घुमाते समय ही उस गधे के प्राणपखेरू उड़ गए। धेनुकासुर को जिस तरह मारा, ग्वालबाल बलराम के बल की प्रशंसा करते नहीं थकते। धेनुकासुर वह है जो भक्तों को भक्ति के वन में भी आनंद के मीठे फल नहीं खाने देता। बलराम बल और शौर्य के प्रतीक हैं, जब कृष्ण हृदय में हो तो बलराम के बिना अधूरे हैं। बलराम ही भक्ति के आनंद को बढ़ाने वाले हैं। ग्वालबाल अब मीठे फल भी खा रहे हैं।

जब ग्वालों ने पी लिया विषैला जल
भगवान् श्रीकृष्ण इस प्रकार वृन्दावन में कई तरह की लीलाएं करते। एक दिन श्री कृष्ण अपने सभी सखा यानी दोस्त ग्वालों को यमुना के तट पर लेकर गए। उस दिन बलराम जी कृष्णा के साथ नहीं थे। आषाढ़ की चिलचिलाती धुप में ग्वाले गर्मी से बेहाल थे। प्यास से उनका कण्ठ सुख रहा था। इसलिए उन्होने यमुना जी का विषैला जल पी लिया। उन्हे प्यास के कारण इस बात का ध्यान नहीं रहा था। इसलिए सभी गौएं और ग्वाले प्राणहीन होकर यमुना के तट पर गिर पड़े। उन्हे ऐसी हालत में देखकर श्री कृष्ण ने उन्हें अपनी अपनी अमृत बरसाने वाली दृष्टी से जीवित कर दिया। उनके स्वामी और सर्वस्व तो एकमात्र श्री कृष्ण थे। चेतना आने पर वे सब यमुनाजी के तट पर उठ खड़े हुए और आश्चर्यचकित होकर एक-दूसरे की ओर देखने लगे। अन्त में उन्होंने यही निष्चय किया कि हम लोग विषैला जल पी लेने के कारण मर चुके थे, परन्तु हमारे श्रीकृष्ण ने अपनी अनुग्रह भरी दृष्टि से देखकर हमें फिर से जीवित कर दिया है। यह भक्ति का वह रूप है जब भक्त अज्ञानवष कोई भयंकर भूल कर बैठता है और जीवन का सारा नियंत्रण खो देता है। तब ऐसे में भगवान ही अपने भक्तों पर इतना अनुग्रह रखते हैं कि उन्हें साक्षात् राम के बंधन से छुड़ा दें। बस, चित्त में कान्हा ही रहे।

जब कूद पड़े कान्हा विषैले जल में
यमुनाजी में कालिया नाग का एक कुण्ड था। उसका जल विष की गर्मी से खौलता रहता था। यहां तक कि उसके ऊपर उडऩे वाले पक्षी भी झुलसकर उसमें गिर जाया करते थे। उसके विषैले जल की उत्ताल तरंगों का स्पर्श करके तथा उसकी छोटी-छोटी बूंदें लेकर जब वायु बाहर आती और तट के घास-पात, वृक्ष, पशु-पक्षी आदि का स्पर्श करती, तब वे उसी समय पर जाते थे।

भगवान् का अवतार तो दुष्टों का दमन करने के लिए ही होता है। जब उन्होंने देखा कि उस सांप के विष का वेग बड़ा प्रचण्ड है और वह भयानक विष ही उसका महान् बल है तथा उसके कारण मेरे विहार का स्थान यमुनाजी भी दूषित हो गई हैं, तब भगवान् श्रीकृष्ण अपनी कमर कसकर एक बहुत ऊंचे कदम्ब के वृक्ष पर चढ़ गए और वहां से ताल ठोंककर उस विषैले जल में कूद पड़े। यमुनाजी का जल सांप के विश के कारण पहले से ही खौल रहा था। उसकी तरंगें लाल-पीली और अत्यन्त भयंकर उठ रही थीं। पुरुशोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के कूद पडऩे से उसका जल और भी उछलने लगा। उस समय तो कालियदह का जल इधर-उधर उछलकर चार सौ हाथ तक फैल गया। तट पर खड़े ग्वालबाल चिल्लाने लगे। कान्हा, ये क्या किया, भयंकर विष भरे जल में कूद गए। ग्वालबालों की दशा ऐसी हो गई जैसे दोबारा किसी ने उनके प्राण छीन लिए हों।

भगवान् श्रीकृष्ण कालियदह में कूदकर अतुल बलशाली मतवाले गजराज के समान जल उछालने लगे। आंख से ही सुनने वाले कालिया नाग ने वह आवाज सुनी और देखा कि कोई मेरे निवास स्थान का तिरस्कार कर रहा है। उसे यह सहन न हुआ। वह चिढ़कर भगवान् श्रीकृष्ण के सामने आ गया। उसने देखा कि सामने एक सांवला-सलोना बालक है।

उसने श्री कृ्ष्ण को मर्मस्थानों में डंसकर अपने शरीर के बन्धन से उन्हें जकड़ लिया। भगवान् श्रीकृष्ण नागपाश में बंधकर बेहोश हो गए। यह देखकर उनके प्यारे सखा ग्वालबाल बहुत ही पीडि़त हुए और उसी समय दु:ख, पश्चाताप और भय से मूच्र्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। क्योंकि उन्होंने अपने शरीर, सुहृद्, धन-सम्पत्ति, स्त्री, पुत्र, भोग और कामनाएं सब कुछ भगवान् श्रीकृष्ण को ही समर्पित कर रखा था। गाय, बैल, बछिया और बछड़े बड़े दु:ख से डकराने लगे। श्रीकृष्ण की ओर ही उनकी टकटकी बंध रही थी। वे डरकर इस प्रकार खड़े हो गए, मानो रो रहे हों। उस समय उनका शरीर हिलता-डोलता तक न था।

कुछ तट पर खड़े रहे, कुछ ग्वालबाल गांव की ओर दौड़ पड़े। नंदबाबा को बुलाओ, बलराम को बुलाओ पुकार मचने लगी। समाचार मिलते ही व्रजवासी भी यमुना तट पर दौड़ आए। कान्हा को कालिया नाग के चंगुल में देख उनके प्राण सूख गए।

बस सोचिए तो, हर काम आसान हो जाएगा
जगत के सब कार्य करते हुए उनके प्रति अनासक्त हुए बिना वैराग्य में दृढ़ता नहीं आती। वैराग्य और अभ्यास के समानान्तर पथ पर चलकर ही जीवन आध्यात्म की मंजिल, मोक्ष, ईश्वर प्राप्ति, परमानन्द प्राप्त कर सकता है। यह अत्यन्त कठिन और अत्यन्त सरल है। कठिनता और सरलता इसके प्रति दृष्टिकोण पर निर्भर करती है।

सतत् अभ्यास से सहजता आती है और सहजता सरल बनाती है। इसके विपरित कठिनता है। सब भावना का खेल है। यदि भावना हो कि मेरे प्रियतम परमात्मा मेरे अन्दर हैं और मैं सर्वव्यापी परमात्मा के अन्दर मैं हूं, बस काम आसान हो जाता है। इस भावना को आत्मबोध की संज्ञा दी जा सकती है और जब यह निरन्तर बनी रहती है तब इसे आत्मदर्शन कहा जा सकता है। इसमें दृढ़ता व अनन्यता आने पर जो अभ्यास से आती है, आत्म प्रबोधिक साधक अपने मानव जीवन के अन्तिम लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है, इसे जीवनमुक्त अवस्था की भी संज्ञा दी जाती है।

जीवन मुक्त में अटूट आत्मबल होता है। आत्मबली का मन निश्चल, निर्मल, स्थिर और षक्ति सम्पन्न होता है।यह प्रसंग अग्नि के माध्यम से हमको समझा रहा है कि जीवन में अनासक्ति, वैराग्य का क्या महत्व है।

अब तक भागवत में आपने पड़ा कि कृष्णा कालीया नाग के आतंक से ब्रजवासियों को मुक्त करवाने के लिए यमुना में कूद पड़ते हैं और कालीया नाग का मर्दन करते है अब आगे की कथा इस प्रकार है..व्रजवासी और गौएं सब बहुत ही थक गए थे। ऊपर से भूख-प्यास भी लग रही थी। इसलिए उस रात वे व्रज में नहीं गए, वही यमुनाजी के तट पर सो रहे। गर्मी के दिन थे, उधर का वन सूख गया था। आधी रात के समय उसमें आग लग गई। उस आग ने सोये हुए व्रजवासियों को चारों ओर से घेर लिया और वह उन्हें जलाने लगी। आग की आंच लगने पर व्रजवासी घडबड़ाकर उठ खड़े हुए और लीला- मनुष्य भगवान् श्रीकृष्ण की शरण में गए।

उन्होंने कहा-प्यारे श्रीकृष्ण! श्यामसुन्दर! महाभाग्यवान् बलराम! तुम दोनों का बल विक्रम अनन्त है। देखा, देखो यह भयंकर आग तुम्हारे सगे सम्बन्धी हम स्वजनों को जलाना ही चाहती है। तुम में सब सामथ्र्य है। हम तुम्हारे सुहृद् हैं, इसलिए इस प्रलय की अपार आग से हमें बचाओ। प्रभो! हम मृत्यु से नहीं डरते, परन्तु तुम्हारे अकुतोभय चरण कमल छोडऩे में हम असमर्थ हैं। भगवान् अनन्त हैं, वे अनन्त शक्तियों को धारण करते हैं, उन जगदीश्वर भगवान् श्रीकृष्ण ने जब देखा कि मेरे स्वजन इस प्रकार व्याकुल हो रहे हैं तब वे उस भयंकर आग को पी गए।

मित्रता के सूत्र सीखें कृष्ण से
प्रलंबासुर वध-कंस का भेजा गया प्रलंबासुर नामक राक्षस गोप ग्वालों के मध्य आ गया। कृष्ण ने पहचाना अपने बड़े भाई को संकेत समझा दिया और खेल में जब घोड़ा बनने की बारी आई तो बलराम उसकी पीठ पर बैठ गए वो बलराम को लेकर दूर भागा। अपने वास्तविक रूप में जब आया तो बलराम ने उसकी भलीभांति पिटाई की और वही उसका प्रणान्त हो गया।

राम और श्याम वृन्दावन की नदी, पर्वत, घाटी, कुन्ज, वन और सरोवरों में वे सभी खेल खेलते, जो साधारण बच्चे संसार में खेला करते है। एक दिन जब बलराम और श्रीकृश्ण ग्वालबालों के साथ उस वन में गौएं चरा रहे थे, तब ग्वाल के वेश में प्रलम्ब नाम का एक असुर आया। उसकी इच्छा थी कि मैं श्रीकृष्णऔर बलराम को हर ले जाऊँ।

भगवान् श्रीकृष्ण सर्वज्ञ हैं। वे उसे देखते ही पहचान गए। फिर भी उन्होंने उसका मित्रता का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। जब भी जीवन में बुराइयां प्रवेश करती है तो यह आवश्यक नहीं कि वे शत्रु बनकर ही आएं। कुछ बुराइयां मित्र भी होती हैं। भगवान ही उनको पहचान सकते हैं। वे इसे समझ जाते हैं और जब मित्र के रूप में आया संकट अपना रूप दिखाता है तो भगवान इसे तत्काल खत्म कर देते हैं।

तप क्या है?
तप- तप का उद्देश्य पूर्व संचित संस्कारों को रोकना और भविष्य के संस्कारों को संचित न होने देना है। तप स्वाध्याय जप तथा सद्ग्रंथों का पठन-पाठन और ईश्वर प्रणिधान तीनों मिलकर भोग कहे जाते हैं। शरीर, इन्द्रियों व मन का संयम तप शारीरिक वाचिक तथा मानसिक तीन प्रकार का होता है। व्रत, उपवास रखना, भक्ष्य अभक्ष्य का ध्यान रखना, तीर्थाटन करना, गर्मी, सर्दी सहन करना आदि सात्विक श्रेणी के कार्य करना-यथा शक्ति सहन करना। मानसिकता में मान, अपमान में समता। वाचिक रूप में सत्य बोलना, कम बोलना (आवश्यक बोलना) मौन का अर्थ हृदयगत विचार शून्यता कही जा सकती है। यहां इस घटना में अग्रि को तप से जोड़ा गया है। भक्त का तपस्वी होना ही उसका गहना है।

एक बार जब ग्वालबाल खेल कूद में लग गए, तब उनकी गौएं बेरोकटोक चरती हुई बहुत दूर निकल गईं और हरी-हरी घास के लोभ से एक गहन वन में घुस गईं। उनकी बकरियां, गायें और भैंसे एक वन से दूसरे वन में होती हुई आगे बढ़ गईं तथा गर्मी के ताप से व्याकुल हो गईं।

जब श्रीकृष्ण, बलराम आदि ग्वालबालों ने देखा कि हमारे पशुओं का तो कहीं पता ठिकाना नहीं है, तब उन्हें अपने खेल-कूद पर बड़ा पछतावा हुआ और वे बहुत कुछ खोज बीन करने पर भी अपनी गौओं का पता न लगा सके। इस प्रकार भगवान् उन गायों को पुकार ही रहे थे कि उस वन में सब ओर अकस्मात् दावाग्रि लग गई जो वनवासी जीवों का काल ही होती है। इससे सब ओर फैली हुई वह प्रचण्ड अग्नि अपनी भयंकर लपटों से समस्त चराचर जीवों को जलाने करने लगी। जब ग्वालों और गौओं ने देखा कि दावानल चारों ओर से हमारी ही ओर बढ़ता आ रहा है, तब वे अत्यन्त भयभीत हो गए और मृत्यु के भय से डरे हुए जीव जिस प्रकार भगवान् की शरण में आते हैं, वैसे ही वे श्रीकृष्ण और बलरामजी की शरण में आते हैं, वैसे ही वे श्रीकृष्ण और बलरामजी के शरणापन्न होकर उन्हें पुकारते हुए बोले-महावीर श्रीकृष्ण! परम बलशाली बलराम! हम तुम्हारे शरणागत हैं।

देखो, इस समय हम दावानल से जलना नही चाहते हैं। तुम दोनों हमें बचाओ।श्रीकृष्ण ने कहा-डरो मत, तुम अपनी आंखें बंद कर लो। भगवान् की आज्ञा सुनकर उन ग्वालबालों ने कहा बहुत अच्छा और अपनी आंखें मूंद ली। तब योगेष्वर भगवान् श्रीकृष्ण ने उस भयंकर आग को अपने मुंह से पी लिया और इस प्रकार उन्हें घोर संकट से छुड़ा दिया।

खो जाइए संगीत में कृष्ण अपने आप मिल जाएंगे
भक्ति का एक अंग संगीत है, जो हमेशा भगवत ध्यान में लीन रहते हैं लेकिन भगवान के स्वरूप में लीन नहीं हो पाते, हमेशा भगवान को चेतन-अवचेतन रूप में अपने भीतर और खुद को भगवान में खो देना चाहते हैं, संगीत उनके लिए श्रेष्ठ उपाय है। भजन का यही मतलब है, आप संगीत की स्वर लहरियों में खुद को भिगो लीजिए और अपने आपको भगवान में रमा दीजिए।

वेणू गीत जैसे प्रसंग बताते हैं कि यहां आकर बुद्धि को विश्राम देना होगा। बुद्धि का अपना महत्व है। वेणुगीत-ब्रज की कुमारियां कृष्ण को ही पति के रूप में प्राप्त करने के अगहन मास में कात्यायिनी का व्रत किया करती थीं। वे नित्य की भांति तट पर स्नान करने गईं, रास लीला में जाना है कि सभी दुर्गुणों का पहले नाश करिए। दुर्गुण रहित होने पर ही जीव कृष्ण लीला में स्थान पा सकता है।
कन्हैया की बांसुरी सुनकर उसकी मधुर तान का जो वर्णन किया गया है, वही वेणु गीत कहलाता है।

वेणुगीत यानी अब भक्ति में भजन का प्रवेश हो रहा है। कृष्ण तो सम्पूर्ण कलाओं के अवतार हैं। बंसी की मधुर तान गोपियों और कृष्ण प्रेम में डुबे ब्रजवासियों को भक्ति रस में भिगो रही है।

शरद् ऋतु के कारण वह वन बड़ा सुन्दर हो रहा था। जल निर्मल था और जलाषयों में खिले हुए कमलों की सुगन्ध से सनकर वायु मन्द-मन्द चल रही थी। भगवान् श्रीकृ्रष्ण ने गौओं और ग्वालबालों के साथ उस वन में प्रवेष किया।मधुपति श्रीकृष्ण ने बलरामजी और ग्वालबालों के साथ उसके भीतर घुसकर गौओं को चराते हुए अपनी बांसुरी पर बड़ी मधुर तान छेड़ी। श्रीकृष्ण की वह वंशी कीध्वनि भगवान् के प्रति प्रेमभाव को, उनके मिलन की आकांक्षा को जगाने वाली थी (उसे सुनकर गोपियों का हृदय प्रेम से परिपूर्ण हो गया) वे एकान्त में अपनी सखियों से उनके रूप, गुण और वंशीध्वनि के प्रभाव का वर्णन करने लगीं।

अरी सखी! यह वृन्दावन वैकुण्ठलोक तक पृथ्वी की कीर्ति का विस्तार कर रहा है। क्योंकि यशोदानन्दन श्रीकृष्ण के चरणकमलों के चिन्हों से यह चिन्हित हो रहा है! सखि! जब श्रीकृष्ण अपनी मुनिजन मोहिनी मुरली बजाते हैं, तब मोर मतवाले होकर उसकी ताल पर नाचने लगते हैं।

वृन्दावनविहारी श्रीकृष्ण की ऐसी-ऐसी एक नहीं, अनेक लीलाएं हैं। गोपियां प्रतिदिन आपस में उनका वर्णन करतीं और तन्मय हो जातीं। भगवान् की लीलाएं उनके हृदय में स्फुरित होने लगतीं।


मन की चुप्पी ही मौन है

बांसुरी का एक गुण यह भी है कि जब वह अकेली होती है तब मौन ही रहती है। हम भी ईश्वर के ध्यान में एकांत के समय मौन का पालन करें। कई लोग शरीर से तो सावधान रहते हैं, मुंह बन्द रखते हैं किन्तु मन से चलते-फिरते बोलते रहते हैं। मौन का अर्थ है मन से भी कुछ न बोला जाए। मन का मौन ही सर्वोत्तम मौन है। बांसुरी वादन तो नाद ब्रह्म की उपासना है। बांसुरी को लेकर गोपियां चर्चा करती हैं कि अरी सखी यह कन्हैया बंसी बजा रहा है।

दूसरी गोपी कहती है ये बंसी नहीं कृष्ण की पटरानी है। मैंने सुना है कि जब वह भोजन करने बैठता है तब बांसुरी को कमर की फेंट में ही रखता है और जब सोता है तो उसे अपने साथ सेज पर रखता हैं, आंखें दासियां हैं, पलकें पंखे हैं, नथनी छत्र है। इस बांसुरी का परमात्मा के साथ विवाह हुआ है। अत: इसे नित्य संयोग प्राप्त हुआ। इस वेणु ने अपने पूर्व जन्म में न जाने कौन सी तपस्चर्या की कि उसे कृष्ण के अधरामृत का नित्यपान करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।एक गोपी ने बांसुरी से पूछा-अरी सखी! तूने ऐसा कौन सा पुण्य कमाया था, कि तुझे प्रभु ने अपना लिया। बांसुरी बोली-मैंने बड़ी तपस्चर्या की। मेरा पेट खाली है, मैं अपने पेट में कुछ भी नहीं रखती। बांसुरी अपने पेट में कुछ भी नहीं रखती। जो बांसुरी जैसा बन जाता है, वह भगवान् को भाता है।

जब कृष्ण ने हर लिए गोपियों के वस्त्र
श्रीकृष्ण तो सर्वव्यापी हैं वे जल में भी हैं। तो गोपियों से मिले हुए ही थे। किन्तु गोपियां अज्ञान और वासना से आवृत्त होने के कारण श्रीकृष्ण का अनुभव नहीं कर पाती थीं। सो उनके बुद्धिगत अज्ञान और वासना रूपी वस्त्रों को भगवान् उठाकर ले गए। वैसा प्रभु तब करते हैं जबकि जीव उनका हो जाता है।देह से ऊपर उठना होगा तब यह प्रसंग समझ में आएगा। हम अपने शरीर को समझें। गोपियां नित्य की भांति स्नान करने के लिए वस्त्र उतारकर नदी में प्रवेश कर गईं।

कृष्ण भगवान् भी अपने मित्रों के सहित उस ओर गए। उन्होंने गोपियों को इस प्रकार वरूणदेव का अनादर करते देखा तो वे उन्हें पाठ पढ़ाने के लिए वे उनके वस्त्र लेकर कदम के वृक्ष पर चढ़ गए। गोपियां इससे त्रस्त हो गईं। बहुत अनुनय-विनय करने के बाद उन्होंने वस्त्र लौटाए। गोपियां इससे रूष्ट नहीं हुईं, उन्हें कृष्ण का हर आचरण प्रिय था।इस चीर हरण की लीला में भी एक रहस्य है। कुमारियों के मन में ऐसी भावना थी कि वे नारी हैं ऐसा भाव अहंकार का द्योतक है। उनका वह अहमभाव दूर करने के लिए श्रीकृष्ण ने वैसा व्यवहार किया।

क्योंकि अब रास लीला आने वाली है और रासलीला के गहन अर्थ को जो समझेगा, वही इस चीरहरण के अर्थ को समझेगा। भगवान उन्हीं को रासलीला में ले जाएंगे जिन्हें देह का भान नहीं होगा। उनका वह अहम्भाव दूर करने के लिए श्रीकृष्ण ने उस प्रकार का व्यवहार किया। इस लीला में अहंकार का पर्दा हटाकर प्रभु को सर्वस्व अर्पण करने का उद्देष्य है। द्वेष का आवरण दूर करोगे, तो रास में प्रवेष मिलेगा, भगवान् मिलेगा।

वासना वृत्तियों के आवरण का नष्ट होना ही चीरहरण लीला है। आवरण नाश के पश्चात् जीव के आत्मा का प्रभु से मिलन रासलीला है। इसी कारण से रासलीला चीरहरण के बाद आती है। भगवान् कभी लौकिक वस्त्रों की चोरी नहीं करते।

वे तो बुद्धिगत अज्ञान कामवासना की चोरी करते हैं। सोचिए, क्या कन्हैया गोपियों का नग्न अवस्था में देखना चाहते है? नहीं। श्रीकृष्ण तो सर्वव्यापी हैं वे जल मेंभी हैं। तो गोपियों से मिले हुए ही थे। किन्तु गोपियां अज्ञान और वासना से आवृत्त होने के कारण श्रीकृष्ण का अनुभव नहीं कर पाती थीं। सो उनके बुद्धिगत अज्ञान और वासना रूपी वस्त्रों को भगवान् उठाकर ले गए। वैसा प्रभु तब करते हैं जबकि जीव उनका हो जाता है।देह से ऊपर उठना होगा तब यह प्रसंग समझ में आएगा।

खोलें अपने मन की आंखें

तो भगवान को पहचानना मुश्किल हो जाता अधिक ज्ञान हो तो बुद्धि और मन पर हावी हो जाता है। जिस परमात्मा को पाने के लिए यज्ञ कर रहे थे, उसी परमपिता के सखाओं की बात वे टाल गए। मन भक्ति में लीन था लेकिन बुद्धि ने उस पर अंकुश लगा दिया। भक्ति में भी होशोहवास जरूरी है, कब किस रूप में भगवान आपके सामने आ गए जाएं, यह कोई चेतन बुद्धि वाला ही समझ सकता है। मन की आंखें अगर बुद्धि ने बंद कर दी हो तो भगवान को पहचानना मुश्किल होता है, क्योंकि बुद्धि अपने सामने आई हर वस्तु को अपनी कसौटी पर परखती है। मन सीधे अपनाना है। ब्राम्हण लोग अभी जागे हुए नहीं थे। साधना में होश जरूरी है। इसे ही आत्मानुशासन कहा गया है।

ब्राह्मणियों का भोग-एक बार ग्वालों को वन में मधुर फल खाने के साथ मिष्ठान्न खाने की भी इच्छा हुई। कृष्ण को ध्यान आया कि ब्राह्मणियां मिष्ठान्न तैयार कर रही हैं। श्रीकृष्ण ने ग्वाबालों को उनके पास भेजा। जब उन्होंने श्रीकृष्ण का नाम लिया तो ब्राह्मणियां स्वयं मिष्ठान्न लेकर उपस्थित हो गईं। आईये इस प्रसंग का आनन्द लें।ग्वालबालों ने कहा-नयनाभिराम बलराम! तुम बड़े पराक्रमी हो। हमारे चित्तचोर श्यामसुन्दर! तुमने बड़े-बड़े दुष्टों का संहार किया है। उन्हीं दुष्टों के समान यह भूख भी हमें सता रही है। अत: तुम दोनों इसे भी बुझाने का कोई उपाय करो।

श्रीकृष्ण बोले-यहां से थोड़ी दूर पर वेदवादी ब्राम्हण स्वर्ग की कामना से आंगरस नामक यज्ञ कर रहे हैं। तुम उनकी यज्ञशाला में जाओ। मेरे भेजने सेवहां जाकर तुम लोग मेरे बड़े भाई भगवान् बलरामजी का और मेरा नाम लेकर कुछ थोड़ा-सा भात-भोजन की सामग्री मांग लाओ। जब भगवान् ने ऐसी आज्ञा दी, तब ग्वालबाल उन ब्राम्हणों की यज्ञशाला में गए और उनसे भगवान् की आज्ञा के अनुसार ही अन्न मांगा।

भगवान् बलराम और श्रीकृष्ण गौएं चराते हुए यहां से थोड़े ही दूर पर आए हुए हैं। उन्हें इस समय भूख लगी है और वे चाहते हैं कि आप लोग उन्हें थोड़ा सा भात दे दें। ब्राम्हणों! आप धर्म का मर्म जानते है। यदि आपकी श्रद्धा हो तो उन भोजनार्थियों के लिए कुछ भात दे दीजिए।

परीक्षित! इस प्रकार भगवान् के अन्न मांगने की बात सुनकर भी उन ब्राम्हणों ने उस पर कोई ध्यान नहीं दिया। वे चाहते थे स्वर्गादि तुच्छ फल और उनके लिए बड़े-बड़े कर्मों में उलझे हुए थे। सच पूछो तो वे ब्राम्हण ज्ञान की दृष्टि से थे बालक ही, परन्तु अपने को बड़ा ज्ञानवृद्ध मानते थे।

प्रभु मिलन के लिए जरूरी है प्रेम
जब भगवान के प्रति प्रेम जागृत हो जाए तो सबसे कठिन होता है उसे प्रकट करना। प्रेम है तो फिर कोई भय नहीं होना चाहिए। परमात्मा के प्रति प्रेम होने के बाद भी अगर मन में कोई भय, शंका हो तो समझिए प्रेम अभी पूर्णत: जागृत नहीं हुआ क्योंकि परमात्मा के प्रति प्रेम से तो स्वयं मृत्यु का भय भी चला जाता है। गृहस्थी में परमात्मा के मिलने की संभावना रहती है, यह प्रसंग, यही बात बता रहा है। इसमें वैराग्य की बड़ी भूमिका है।

ब्राम्हण चूक गए और उनकी पत्नियों में वैराग्य जागा था। थोड़ा वैराग्य और गृहस्थाश्रम को समझ लें। इधर जब ब्राम्हणों को यह मालूम हुआ कि श्रीकृण तो स्वयं भगवान् हैं, तब उन्हें बड़ा पछतावा हुआ। वे सोचने लगे कि जगदीश्वर भगवान् श्रीकृष्ण और बलराम की आज्ञा का उल्लंघन करके हमने बड़ा भारी अपराध किया है। वे तो मनुष्य की सी लीला करते हुए भी रामेश्वर ही हैं। जब उन्होंने देखा कि हमारी पत्नियों के हृदय में तो भगवान् का अलौकिक प्रेम है और हम लोग उससे बिलकुल रीते हैं, तब वे पछता-पछताकर अपनी निन्दा करने लगे। कितने आश्चर्य की बात है! देखो तो सही-यद्यपि ये स्त्रियां हैं, तथापि जगद्गुरु भगवान् श्रीकृष्ण में इनका कितना अगाध प्रेम है, अखण्ड अनुराग है। उसी से इन्होंने गृहस्थी की वह बहुत बड़ी फांसी भी काट डाली, जो मृत्यु के साथ भी नहीं कटती। उपवास, परमात्मा की प्राप्ति के ये कठिन मार्ग हैं। इन मार्गों की बाधा दूर करने का सबसे आसान रास्ता है प्रेम।

परंपरा के नाम पर ना करें अंधविश्वास
कृष्ण समझा रहे हैं कि भगवान तो हमारे मध्य ही हैं। ये नदियां, वन, पर्वत जो हमारी रक्षा भी करते हैं और पालन भी। हमें प्रकृति के प्रति कृतज्ञ रहना चाहिए, प्राकृतिक संसाधनों के प्रति सावधान भी रहना चाहिए। हमें जीवित रखने के लिए ये उपयोगी चीजें देते हैं और मौसम को भी हमारे अनुकूल रखते हैं। कृष्ण के इस संदेश में उनका पर्यावरण प्रेम भी छुपा हुआ है।कृष्ण यह संदेश भी दे रहे हैं कि हर जो घटना हमारे सामने घट रही है, उसे ऐसे ही न हो जाने दें। परम्परा के नाम पर जो गलत हो रहा, धर्म सम्मत नहीं है उसका विरोध भी आवश्यक है। धर्म के नाम पर केवल अनिष्ट के भय से, देवताओं के डर से हम कोई कृत्य न करें। भगवान् अब श्रीकृष्ण बलरामजी के साथ वृन्दावन में रहकर अनेकों प्रकार की लीलाएं कर रहे थे। उन्होंने एक दिन देखा कि वहां के सब गोप इन्द्र यज्ञ करने की तैयारी कर रहे हैं। कृष्ण ने कहा-यह संसारी मनुष्य समझे-बेसमझे अनेकों प्रकार के कर्मों का अनुष्ठान करता है। उनमें से समझ-बूझकर करने वाले पुरुषों के कर्म जैसे सफल होते हैं, वैसे बेसमझ के नहीं। अत: इस समय आप लोग जो क्रियायोग करने जा रहे हैं वह सुहृदों के साथ विचारित शस्त्र सम्मत है अथवा लौकिक ही है। मैं यह सब जानना चाहता हूं आप कृपा करके स्पष्ट रूप से बतलाइये।

नन्दबाबा ने कहा-बेटा! भगवान् इन्द्र वर्षा करने वाले मेघों के स्वामी हैं। ये मेघ उन्हीं के अपने रूप हैं। वे समस्त प्राणियों को तृप्त करने वाला एवं जीवनदान करने वाला जल बरसाते हैं। मेरे प्यारे पुत्र! हम और दूसरे लोग भी उन्हीं मेघपति भगवान् इन्द्र की यज्ञों के द्वारा पूजा किया करते हैं।

श्रीकृष्ण ने कहा-पिताजी! प्राणी अपने कर्म के अनुसार ही पैदा होता और कर्म से ही मर जाता है। उसे उसके कर्म के अनुसार ही सुख-दुख, भय और मंगल के निमित्तों की प्राप्ति होती है। जब सभी प्राणी अपने-अपने कर्मों का ही फल भोग रहे हैं, तब हमें इन्द्र की क्या आवश्यकता है? पिताजी! इसलिए मनुष्य को चाहिए कि पूर्व संस्कारों के अनुसार अपने वर्ण तथा आश्रम के अनुकूल धर्मों का पालन करता हुआ कर्म का ही आदर करे जिसके द्वारा मनुष्य की जीविका सुगमता से चलती है, वही उसका इष्टदेव होता है।

बालक कृष्ण की ऐसी बातें सुनकर व्रजवासी आश्चर्य में पड़ गए। कृष्ण ने गोर्वधन की पूजा कराई। उसको भोग ग्रहण कराया। गिरिराज महिमा का गान किया। इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण की प्रेरणा से नन्दबाबा आदि बड़े-बूढ़े गोपों ने गिरिराज, गौ और ब्राह्मणों का विधिपूर्वक पूजन किया तथा फिर श्रीकृष्ण के साथ सब व्रज में लौट आए।जब इन्द्र को विदित हुआ तो वह रूष्ट हो गया। उसने ब्रज क्षेत्र में वृष्टि का प्रलय मचा दिया।

तब भगवान ने गोवर्धन पर्वत को अपने हाथ में उठा लिया
इन्द्र को अपने पद का बड़ा घमण्ड था, वे समझते थे कि मैं ही त्रिलोकी का ईश्वर हूं। उन्होंने क्रोध से तिलमिलाकर प्रलय करने की आज्ञा दी और कहा- जाकर इनके धन के घमण्ड और हेकड़ी को धूल में मिला दो तथा उनके पशुओं का संहार कर डालो। मैं भी तुम्हारे पीछे-पीछे ऐरावत हाथी पर चढ़कर नन्द के व्रज का नाश करने के लिए महापराक्रमी मरुद्रणों के साथ आता हूं। इन्द्र ने इस प्रकार प्रलय के मेघों को आज्ञा दी और उनके बन्धन खोल दिए। अब वे बड़े वेग से नन्दबाबा के व्रज पर चढ़ आए और मूसलधार पानी बरसाकर सारे व्रज को पीडि़त करने लगे। चारों ओर बिजलियां चमकने लगीं, बादल आपस में टकराकर कड़कने लगे और प्रचण्ड आंधी की प्रेरणा से बड़े-बड़े ओले बरसाने लगे। शरण में आए। भगवान् ने देखा कि वर्षा और ओलों की मार से पीडि़त होकर सब बेहोश हो रहे हैं। वे समझ गए कि यह सारी करतूत इन्द्र की है। उन्होंने ही क्रोधवश ऐसा किया है।

वे मन ही मन कहने लगे-हमने इन्द्र का यज्ञ भंग कर दिया है, इसी से वे व्रज का नाश करने के लिए बिना ऋतु के ही यह प्रचण्ड वायु और ओलों के साथ घनघोर वर्षा कर रहे हैं। अच्छा, मैं अपनी योगमाया से इसका भलीभांति जवाब दूंगा। ये मूर्खतावश अपने को लोकपाल मानते हैं, इनके ऐश्वर्य और धन का घमण्ड तथा अज्ञान मैं चूर-चूर कर दूंगा। देवता लोग तो सत्वप्रधान होते हैं। इनमें अपने ऐश्वर्य और पद का अभिमान न होना चाहिए। अत: यह उचित ही है कि इन सत्वगुण से च्युत दुष्ट देवताओं का मैं मान-भंग कर दूं। इससे अन्त में उन्हें शान्ति ही मिलेगी। यह सारा व्रज मेरे आश्रित है, मेरे द्वारा स्वीकृत है और एकमात्र मैं ही इसका रक्षक हूं। अत: मैं अपनी योगमाया से इसकी रक्षा करूंगा। संतों की रक्षा करना तो मेरा व्रत ही है। अब उसके पालन का अवसर आ पहुंचा है।भगवान ने इन्द्र पर क्रोध नहीं किया बल्कि वे तो इन्द्र को अहंकार से दूर कर रहे रहे थे। उन्होंने ग्वाल-ग्वालिनों से गोवर्धन पर्वत की पूजा करवाई, उसे ही देवता बनाया तो अब उसका महत्व भी सिद्ध करना था। भगवान ने गोवर्धन को ही इन्द्र के मान-मर्दन का निमित्त बनाया। उसे अपने हाथ में धारण करने का निष्चय किया ताकि व्रजवासियों को भी यह यकीन हो जाए कि गोवर्धन उनकी रक्षा करने में समर्थ है। इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण ने खेल-खेल में एक ही हाथ से गिरिराज गोवर्धन को उखाड़ लिया और जैसे छोटे-छोटे बालक बरसाती छत्ते के पुष्प को उखाड़कर हाथ में रख लेते हैं, वैसे ही उन्होंने उस पर्वत को धारण कर लिया।

इसके बाद भगवान् ने गोपों से कहा-माताजी, पिताजी और व्रजवासियों! तुम लोग अपनी गौओं और सब सामग्रियों के साथ इस पर्वत के गड्ढे में आकर आराम से बैठ जाओ। भगवान् श्रीकृष्ण ने सब व्रजवासियों के देखते-देखते भूख-प्यास की पीड़ा, आराम-विश्राम की आवश्यकता आदि सब कुछ भुलाकर सात दिन तक लगातार उस पर्वत को उठाए रखा। वे एक डग भी वहां से इधर-उधर नहीं हुए। श्रीकृष्ण की योगमाया का यह प्रभाव देखकर देखकर इन्द्र के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। अपना संकल्प पूरा न होने के कारण उनकी सारी हेकड़ी बंद हो गई, वे भौचक्के से रह गए। आकाश से बादल छंट गए और सूर्य दिखने लगे, तब उन्होंने गोपों से कहा-मेरे प्यारे गोपों! अब तुम लोग निडर हो जाओ और अपनी स्त्रियों, गोधन तथा बच्चों के साथ बाहर निकल आओ। देखो, अब आंधी-पानी बंद हो गया तथा नदियों का पानी भी उतर गया।

यशोदा ने कन्हैया से पूछा, क्यों रे तू किसका बेटा है?
यशोदारानी, रोहिणीजी, नन्दबाबा और बलवानों में श्रेष्ठ बलरामजी ने स्नेहातुर होकर श्रीकृष्ण को हृदय से लगा लिया तथा आशीर्वाद दिए। इन्द्र नीचे आया। भगवान् से कहा आप लीला कर रहे हो पर मेरी व्यवस्था क्यों उठा रहे हो। कृष्ण ने कहा तुम गलत काम कर रहे हो। पानी के नाम पर लोगों से सौदा मत करो। तुम्हारा काम है वर्षा करना, तो वर्षा करनी पड़ेगी। जो लोग अपने कर्तव्यों के निर्वहन के लिए यह उम्मीद करते हैं कि लोग उनकी पूजा करें वह गलत है। आपको आपका कर्तव्य निभाना है। अकारण पूजित होने का प्रयास मत करो। इन्द्र चला गया।

कृष्ण ने सम्पूर्ण सृष्टि को इस प्रसंग से शिक्षा दी कि प्रकृति, मानव जाति और समाज के प्रति हमारा जो कर्तव्य है उसे हम सेवा मानकर करें। मन में यह अहंकार नहीं आए कि हम किसी पर कृपा कर रहे हैं। कोई हमारे कर्तव्य पालन के लिए हमें पूजे या उपहार दे। हमारा जो कर्तव्य है उसे हम नि:स्वार्थ भाव से पूरा करें, किसी से भेदभाव किए बिना करें। भगवान होने की आशंका (काला क्यों)-गोवर्धन लीला के बाद कुछ लोगों का आशंका हुई कि यह कन्हैया शायद ईश्वर है, तो एक सभा-सी हुई और चर्चा चल पड़ी कि ये सात बरस का लड़का और कहां ये भारी भरकम गोवर्धन पर्वत? यह नन्दजी का ही पुत्र है या कहीं से उठाकर लाया गया है? नंदजी से पूछते हैं कि यह लड़का किसका है। नन्दबाबा ने कहा मेरा पुत्र है। गर्गाचार्य ने बताया था कि कन्हैया में नारायण जैसे गुण हैं। यशोदा ने चर्चा सुनी तो कन्हैया से पूछा कि क्यों रे तू किसका बेटा है। कन्हैया ने कहा तेरा ही तो हूं मैं।

यशोदा बोली-लोगों का कहना है कि मैं और तेरे पिताजी गोरे हैं फिर भी तू काला क्यों है। कन्हैया बोला मां जन्म के समय तो मैं गोरा था किन्तु तेरी भूल के कारण मैं काला हो गया। मेरा जब जन्म हुआ था तब बड़ा अंधेरा छाया हुआ था और सभी नींद में डूबे हुए थे। मैं अधेरे में सारी रात करवटें बदलता रहा, सो अंधेरा मुझसे चिपक गया और मैं काला बन गया। भोली यशोदा ने कन्हैया की बात सच्ची मानी। हां सचमुच 12 बजे तक मैं जाग रही थी और उसके बाद न जाने क्या हुआ। मेरी ही भूल के कारण कन्हैया काला हो गया। भक्ति और प्रेम दोनों ऐसे होते हैं, जो हमारा इष्ट कह दे वही सत्य मान लिया जाता है। भक्ति और प्रेम दोनों ही तर्क और बुद्धि से परे हैं। कृष्ण के प्रेम और भक्ति में आकंठ डूबे नंद-यशेदा को कान्हा की बात एकदम ठीक लगी, बालक होने पर भी उन्होंने कृष्ण से कोई तर्क नहीं किया।

शेष लोगों ने अपने हिसाब से ही कृष्ण के काले रंग के कारण को खुद का प्रेम समझ लिया। एकनाथजी महाराज एक नया कारण बताते हैं। मनुष्य का रंग काला है क्योंकि उसमें पहले काम रहता है।श्रीकृष्ण कीर्तन, ध्यान, धारणा, स्मरण चिन्तन करने वाले की कालिमा कन्हैया खींच लेता है। वैष्णवों के हृदय को उज्जवल करते-करते कन्हैया काला हो गया था। गोपियों का कहना है हम आंखों में काजल लगाती हैं। कन्हैया हमारी आंखों में बसा रहता है सो काजल से काला हो गया। राधा ने एक बार प्यार से पूछा-नाथ वैसे तो तुम सुन्दर हो किन्तु श्याम क्यों हो? कृष्ण बोले वैसे तो मैं गौरा ही था किन्तु राधे आपकी शोभा को वृद्धिगत करने के लिए श्याम हो गया हूं। आपका सौंदर्य बढ़ेगा तो लोग आपकी प्रशंसा करेंगे। यदि हम दोनों ही गोरे होते तो आपकी प्रशंसा कौन करता। ऐसी अनेक लीलाएं भगवान् ने की हैं।

रासलीला कामलीला नहीं, कामविजय लीला है
रास-कार्तिक मास की पूर्णिमा की रात्रि में रासलीला के कार्यक्रम निश्चय अनुसार श्रीकृष्ण निर्धारित स्थान और समय पर वहां पहुंच कर बांसुरी बजाने लगे। रासलीला को समझ लीजिए। रासलीला के तीन सिद्धान्त हैं। इसमें गोपी के शरीर के साथ कुछ लेना-देना नहीं है। इसमें लौकिक काम भी नहीं है और तीसरी बात यह साधारण स्त्री पुरूष का नहीं, जीव और ईश्वर का मिलन है। शुद्ध जीव का ब्रह्म के साथ विलास ही रास है। शुद्ध जीव का अर्थ है माया के आवरण से रहित जीव। ऐसे जीव का ब्रम्ह से मिलन होता है। शुकदेवजी कहते हैं कि इस लीला का चिन्तन करना है अनुकरण नहीं। शरद पूर्णिमा की रात्रि आई। रासलीला कामलीला नहीं है यह तो काम विजय लीला है। ब्रह्मादि देवों की पराजय हुई तो कन्दर्प कामदेव का अभिमान जाग उठा कि अब तो मैं ही सबसे बड़ा देव हूं। उसने कृष्ण के पास आकर मल्लयुद्ध का प्रस्ताव रखा।

श्रीकृष्ण-काम-ऐसी कथा आती है कि काम का एक नाम मार भी है। उसे सभी मारते हैं कृष्ण ने कामदेव से पूछा कि शिवजी ने तुझे भस्मीभूत कर दिया था, वह क्या भूल गया तू ? कामदेव बोला हां वह तो ठीक है मुझसे जरा गड़बड़ हो गई थी। कृष्ण ने कहा कि रामावतार में भी तू हार गया। काम ने कहा आपने उस अवतार में मर्यादा का अतिशय पालन करके मुझे हराया। उस अवतार में आप एक पत्नी व्रत का पालन करते थे, तो मैं हार गया।

अब तेरी क्या इच्छा है? कृष्ण ने पूछा। कामदेव बोला-अब आप इस कृष्णावतार में तो किसी मर्यादा का पालन करते नहीं और वृन्दावन की युवतियों के साथ विहार किया करते हैं। मैं चाहता हूं कि आप पर तीर चलाऊं, यदि आप निर्विकारी रहेंगे तो विजय आपकी होगी और आप कामाधीन होंगे तो विजय मेरी होगी। आप निर्विकारी रहेंगे तो आपको ईश्वर मानुंगा और कामधीन हो गए तो मैं ईश्वर बन जाऊंगा।

श्रीकृष्ण ने अनगिनत सुंदरियों के साथ रहकर काम का पराभव किया।काम ने धनुष-बाण फेंक दिए और श्रीकृष्ण की शरण ले ली। श्रीकृष्ण का नाम मदनमोहन हैं। श्रीकृष्ण तो योग योगेश्वर हैं। काम ने प्राय: सभी को हरा दिया था। सो उसका गर्विष्ठ होना सहज था। रासलीला से भगवान् ने उसके गर्व का नाश कर दिया। काम विशेषत: रात्रि के दूसरे पहर में अधिक आता है। सो उस समय स्नान आदि करके पवित्र होकर रासलीला का चिन्तन करोगे तो काम नहीं सताएगा। पुन: स्मरण कर लें कि रासलीला अनुकरणीय नहीं, चिन्तनीय है। उसका चिन्तन कामनाशी है। प्रभु ने सोचा कि इन गोपियों का प्रेम सच्चा है। यदि मैं आज इन्हें दूर हटाऊंगा तो ये प्राण त्याग कर देंगी। प्रभु को विश्वास हो गया कि जीव शुद्ध भाव से मुझे मिलने आया है तो उन्होंने अपना लिया। प्रभु ने साथ ही अनेक स्वरूप भी धारण किए। जितनी गोपियां थीं उतने स्वरूप बना लिए और प्रत्येक गोपी के साथ एक-एक स्वरूप रखकर रास आरम्भ किया।

जहां प्रेम होता है वहां अभिमान नहीं होता
जिन्दगी का असली आनन्द प्रेम है। प्रेम का कोई स्वरूप नहीं है। जहां प्रेम होता है वहां अभिमान नहीं होता है। जहां अभिमान होता है वहां प्रेम हो ही नहीं सकता है क्योंकि परमात्मा से मिलन के लिए आपको अपने चित्त को सारे आवरणों से मुक्त करना होगा। गोपियां कृष्णमय, भगवानमय हो गईं। सभी हाथों से हाथ मिलाकर नाचने लगीं। यह तो ब्रह्म से जीव का मिलन हुआ है। रास में साहित्य, संगीत और नृत्य का समन्वय होता है। इस लीला में काम का अंश मात्र भी नहीं।

श्रीकृष्ण और ब्रह्मा-रास लीला को निहारते -निहारते ब्रह्माजी सोचने लगे कि कृष्ण और गोपियां तो निष्काम हैं तो फिर भी देहाभिमान भूलकर इस प्रकार पराई नारी से लीला करना शास्त्र मर्यादा का भंग ही है। कृष्णावतार धर्म मर्यादा के पालन के लिए है, स्वेच्छाचार करने के लिए नहीं। ब्रह्माजी रजोगुण के प्रतिष्ठाता देव हैं। उनकी आंखों में रजोगुण है, वे हर कहीं वैसा ही देखते हैं। ब्रह्मा सशंंकित हुए। कृष्णजी सोच रहे हैं कि ब्रह्माजी को धर्म मैंने ही तो सिखाया है और आज वे मुझे ही सिखाने जा रहे हैं। ब्रह्मा यह नहीं जानते कि यह रासलीला धर्म नहीं धर्म का फल है। प्रभु ने एक और खेल रचा। सभी गोपियों को अपना स्वरूप दे दिया। अब तो सब ओर कृष्ण ही दिखाई दे रहे हैं। ब्रह्माजी ने मान लिया कि यह स्त्री पुरूष का मिलन नहीं है ये कृष्ण ही गोपी रूप हो गए हैं। ब्रह्माजी ने कृष्णजी को प्रणाम किया।

रासलीला नारद-नारदी-नारदजी अफसोस करने लगे कि वे पुरूष रूप में आने के बदले स्त्री रूप में आए होते तो उन्हें रास रस की प्राप्ति हो जाती । नारदजी क्या जानें कि पुरूष तो एक पुरूषोत्तम और सब ब्रजनारी हैं। इतने में राधाजी ने नारदजी को दुखी को देखा। वृंदावन की ईश्वरी राधिका यह नहीं चाहती थी कि वृंदावन के किसी भी अतिथि को किसी भी प्रकार का कष्ट या दु:ख हो। उन्होंने नारदजी से कारण पूछा। नारजी बोले-मुझे श्रीकृष्ण के साथ रास खेलकर गोपियों-सा आनन्द पाना है। तो राधा बोलीं कि आप राधा कुंड में स्नान करेंगे तो रासलीला में प्रवेश मिलेगा। नारजी राधा कुण्ड में स्नान करते हैं तो वे नारी बन गए। उन्होंने सोच लिया था कि यदि परमात्मा मिलते हों तो नारी बनने में क्या आपत्ति है। आज तक पुरूषत्व के अभिमान से ही तो मुझे प्रभु से इतना दूर रखा है। आज तक मैं इसी अभिमान में डूबा रहा कि मैं पुरूष हूं बड़ा कीर्तनकार हूं। गोपियों ने अपना अस्तित्व छोड़ दिया और नारदजी ने अपना पुरूषत्व छोड़ दिया। ऐसा देहभान छोड़े बिना जीव ईश्वर के निकट नहीं जा सकता है।

सुन्दरता के घमंड में किसी का मजाक ना बनाए

शरीर और आत्मा दोनों ही परमात्मा की ही देन है। कई बार हम चित्त पर इतने आवरणों को धारण कर लेते हैं कि हमें अपनी नश्वर काया पर अभिमान होने लगता है। कई बार हम जाने अनजाने घमंड में किसी के दिल को चुभने वाली बात बोल जाते हैं जो उसके दुख का कारण बन जाती है।

एक बार नन्दबाबा आदि गोपों ने शिवरात्रि के अवसर पर बड़ी उत्सुकता, कौतूहल और आनन्द से भरकर बैलों से जुती हुई गाडिय़ों पर सवार होकर अम्बिका वन की यात्रा की। वहां उन लोगों ने सरस्वती नदी में स्नान किया। उस अम्बिका वन में एक बड़ा भारी अजगर रहता था। उस दिन वह भूखा भी बहुत था। दैववश वह उधर ही आ निकला और उसने सोये हुए नन्दजी को पकड़ लिया। अजगर के पकड़ लेने पर नन्दरायजी चिल्लाने लगे-बेटा कष्ण! कृष्ण! दौड़ो-दौड़ो। देखा बेटा! यह अजगर मुझे निगल रहा है। मैं तुम्हारी शरण में हूं। जल्दी मुझे इस संकट से बचाओ। नन्दबाबा का चिल्लाना सुनकर सब के सब गोप एकाएक उठा खड़े हुए और उन्हें अजगर के मुंह में देखकर घबरा गए।

अब वे लकडिय़ों से उस अजगर को मारने लगे किन्तु लुकाठियों से मारे जाने और जलने पर भी अजगर ने नन्दबाबा को छोड़ा नहीं। इतने में ही भक्तवत्सल भगवान् श्रीकृष्ण ने वहां पहुंचकर अपने चरणों से उस अजगर को छू दिया।भगवान के श्रीचरणों का स्पर्श होते ही अजगर के सारे अशुभ भस्म हो गए और वह उसी क्षण अजगर का शरीर छोड़कर रूपवान बन गया। उस पुरुष के शरीर से दिव्य ज्योति निकल रही थी। वह सोने के हार पहने हुए था। जब वह प्रणाम करने के बाद हाथ जोड़कर भगवान् के सामने खड़ा हो गया, तब उन्होंने उससे पूछा- तुम कौन हो?अजगर के शरीर से निकला पुरुष बोला- भगवन मैं पहले एक विद्याधर था। मेरा नाम सुदर्शन था। मेरे पास सौन्दर्य तो था ही, लक्ष्मी भी बहुत थी। इससे मैं विमान पर चढ़कर यहां से वहां घूमता रहता था। एक दिन मैंने अंगिरा गोत्र के कुरूप ऋषियों को देखा। अपने सौन्दर्य के घमंड से मैंने उनकी हंसी उड़ायी। मेरे इस अपराध से कुपित होकर उन लोगों ने मुझे अजगर योनि में जाने का शाप दे दिया। यह मेरे पापों का ही फल था।

तो जीवन की हर परेशानी अपने आप मिट जाएगी
जीवन में जब भक्ति का आनंद और परमात्मा आता है तो हमारे उस ध्यान को, हमारी उस अवस्था को भंग करने के लिए अलग-अलग रूपों में समस्याएं, परेशानियां भी आती हैं। मोहग्रस्त लोग ऐसे समय में परमात्मा को भूल पीड़ा से व्याकुल हो जाते हैं लेकिन ज्ञानी लोग प्रभु प्रेम नहीं छोड़ते। वे अपनी परेशानियां भी अपने जीवन की तरह ही परमात्मा को सौंप देते हैं। भक्त जब भगवान में लीन रहे तो सारी समस्याएं भगवान खुद ही दूर कर देते हैं। व्रज पूरा कृष्णमय है, इसलिए व्रज मण्डल पर आने वाली हर विपदा भगवान खुद निपटा रहे हैं।

एक दिन की बात है, अलौकिक कर्म करने वाले भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी रात्रि के समय वन में गोपियों के साथ विहार कर रहे थे। भगवान् श्रीकृष्ण निर्मल पीताम्बर और बलरामजी नीलाम्बर धारण किए हुए थे। उसी समय वहां शंखचूड नाम का एक यक्ष आया। वह कुबेर का अनुचर था। दोनों भाइयों के देखते-देखते वह उन गोपियों को लेकर बेखट के उत्तर की ओर भाग चला। जिनके एकमात्र स्वामी भगवान् श्रीकृष्ण ही हैं, वे गोपियां उस समय रो-रोकर चिल्लाने लगीं। ''डरो मत, डरो मत'' इस प्रकार अभयवाणी कहते हुए श्रीकृष्ण बलराम हाथ में शाल का वृक्ष लेकर बड़े वेग से क्षणभर में ही उस नीच यक्ष के पास पहुंच गए। यक्ष ने देखा कि काल और मृत्यु के समान ये दोनों भाई मेरे पास आ पहुंचे। तब वह मूढ़ घबड़ा गया। उसने गोपियों को तो वहीं छोड़ दिया, स्वयं प्राण बचाने के लिए भागा। तब स्त्रियों की रक्षा करने के लिए बलरामजी तो वहीं खड़े रह गए, परन्तु भगवान् श्रीकृष्ण जहां-जहां वह भाग कर गया, उसके पीछे-पीछे दौड़ते गए।

वे चाहते थे कि उसके सिर की चूडामणि निकाल लें। कुछ ही दूर जाने पर भगवान् ने उसे पकड़ लिया और उस दुष्ट के सिर पर कसकर एक घूंसा जमाया और चूडामणि के साथ उसका सिर भी धड़ से अलग कर लिया। जिस समय भगवान श्रीकृष्ण व्रज में प्रवेश कर रहे थे और वहां आनन्दोत्सव की धूम मची हुई थी, उसी समय अरिश्टासुर नाम का एक दैत्य बैल का रूप धारण करके आया। उस तीखे सींग वाले बैल को देखकर गोपियां और गोप सभी भयभीत हो गए। पशु तो इतने डर गए कि अपने रहने का स्थान छोड़कर भाग ही गए। भगवान् ने देखा कि हमारा गोकुल अत्यन्त भयातुर हो रहा है। उन्होंने वृशासुर को ललकारा।

भगवान् श्रीकृष्ण की इस चुनौती से वह क्रोध के मारे तिलमिला उठा और अपने खुरों से बड़े जोर से धरती खोदता हुआ श्रीकृष्ण की ओर झपटा। उस समय उसकी उठायी हुई पूंछ के धक्के से आकाश के बादल तितर-बितर होने लगे। भगवान् ने उसके सींग पकड़ लिए और उसे लात मारकर जमीन पर गिरा दिया और फिर पैरों से दबाकर उसका कचूमर निकाल दिया। जब भगवान् श्रीकृष्ण ने इस प्रकार बैल के रूप में आने वाले अरिश्टासुर को मार डाला, तब सभी गोप उनकी प्रशंसा करने लगे। उन्होंने बलरामजी के साथ गोश्ठ में प्रवेश किया और उन्हें देख-देखकर गोपियों के नयन मन आनन्द से भर गए। जब राधा ने यह देखा तो उसने कृष्ण की गौ जाति की हत्या के अपराध से निवृत्ति के लिए सब तीर्थ में स्थान का परामर्श दिया।श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर एक कुण्ड खुदवाया उसमें सभी तीर्थों का आह्वान किया और फिर उसमें स्नान कर पाप से मुक्ति पाई। उस कुण्ड का नाम राधा कुण्ड है।

जब कंस ने की कृष्ण को मारने की साजिश
जब कंस को यह मालूम हो गया कि वसुदेव के लड़के ही मेरी मृत्यु के कारण हैं, तब उसने देवकी और वसुदेव को हथकड़ी और बेड़ी से जकड़कर फिर जेल में डाल दिया। जब देवर्शि नारद चले गए, तब कंस ने केशी को बुलाया और कहा-तुम व्रज में जाकर बलराम और कृष्ण को मार डालो। वह चला गया। इसके बाद कंस ने मुष्टिक, चाणूर, शल, तोषल आदि पहलवानों, मन्त्रियों और महावतों को बुलाकर कहा-वीरवर चाणूर और मुश्टिक! तुम लोग ध्यानपूर्वक मेरी बात सुनो। वसुदेव के दो पुत्र बलराम और कृष्ण नन्द के व्रज में रहते हैं। उन्हीं के हाथ से मेरी मृत्यु बतलाई जाती है।

अत: जब वे यहां आवें, तब तुम लोग उन्हें कुश्ती लडऩे-लड़ाने के बहाने मार डालना। अब तुम लोग भांति भांति के मंच बनाओ और उन्हें अखाड़े के चारों ओर गोल-गोल सजा दो। उन पर बैठकर नगरवासी और देश की दूसरी प्रजा इस स्वच्छन्द दंगल को देखें। महावत! तुम बड़े चतुर हो।देखो भाई! तुम दंगल के घेरे के फाटक पर ही अपने कुवलयापीड हाथी को रखना और जब मेरे शत्रु उधर से निकलें, तब उसी के द्वारा उन्हें मरवा डालना। इसी चतुर्दशी को विधि-पूर्वक धनुशयज्ञ प्रारंभ कर दो और उसकी सफलता के लिए वरदानी भूतनाथ भैरवे को बहुत से पवित्र पशुुओं की बलि चढ़ाओ।कंस का काल अब निकट आ गया था। उसके दैत्य मित्रों में से लगभग सभी का उद्धार भगवान ने कर दिया। कैशी और व्योमासुर के अलावा व्रज में जाकर कान्हा वध का प्रयास करने की शक्ति और किसी में नहीं थी। कंस ने सोचा कि अपनी शक्ति को व्रज में नष्ट करने के बजाय अब कृष्ण को ही मथुरा बुला लिया जाए। अपनी आंखों के सामने ही उसे खत्म कर दिया जाय। कंस तो केवल स्वार्थ साधन का सिद्धान्त जानता था।

इसलिए उसने मन्त्री, पहलवान और महावत को इस प्रकार आज्ञा देकर श्रेष्ठ यदुवंशी अक्रूर को बुलवाया।अक्रूरजी दुष्ट बुद्धि के नहीं हैं, उनका मन कृष्ण में रमा हुआ था। कंस राजा भी था और मित्र भी, इसलिए उसकी बात टाली नहीं जा सकती थी। अक्रूरजी शुद्ध चित्त और धर्म में प्रवत्त थे। कंस भगवान को बुलवाना चाहता था और भगवान कंस की दुष्ट बुद्धि के आमंत्रण को स्वीकार नहीं करते। भगवान को स्वच्छ चरित्र, शुद्ध बुद्धि और भक्ति से ही बुलाया जा सकता है। अत: कृष्ण को बुलवाने के लिए कंस ने अक्रूरजी का सहारा लिया। उनका हाथ अपने हाथ में लेकर बोला-अक्रूरजी! आप तो बड़े उदार दानी हैं। सब तरह से मेरे आदरणीय हैं।

आज आप मेरा एक मित्रोचित काम कर दीजिए, क्योंकि भोजवंषी और वृश्णिवंषी यादवों में आपसे बढ़कर मेरी भलाई करने वाला दूसरा कोई नहीं है। यह काम बहुत बड़ा है, इसलिए मेरे मित्र! मैंने आपका आश्रय लिया है। ठीक वैसे ही, जैसे इन्द्र, समर्थ होने पर भी विश्णु का आश्रय लेकर अपना स्वार्थ साधता रहता है। आप नन्दराय के व्रज में जाइये। वहां वसुदेवजी के दो पुत्र हैं। उन्हें इसी रथ पर चढ़ाकर यहां ले आइये। बस अब इस काम में देरी नहीं होनी चाहिए। सुनते हैं, विष्णु के भरोसे जीने वाले देवताओं ने उन दोनों को मेरी मृत्यु का कारण निश्चित किया है। इसलिए आप उन दोनों को तो ले ही आइये, साथ ही नन्द आदि गोपों को भी बड़ी-बड़ी भेंटों के साथ ले आइये। यहां आने पर मैं उन्हें अपने काल के समान कुवलयापीड हाथी से मरवा डालूंगा। यदि वे कदाचित् उस हाथी से बच गए, तो मैं अपने व्रज के समान मजबूत और फुर्तीले पहलवान मुष्टिक-चाणूर आदि से उन्हें मरवा डालूंगा। उनके मारे जाने पर वसुदेव आदि वृष्णि, भोज और दशार्हवंषी उनके भाई बन्धु शोकाकुल हो जाएंगे। फिर उन्हें मैं अपने हाथों मार डालूंगा। मेरा पिता उग्रसेन यों तो बूढ़ा हो गया है, परन्तु अभी उसको राज्य का लोभ बना हुआ है। यह सब कर चुकने के बाद मैं उसको उसके भाई देवक को और दूसरे भी जो-जो मुझसे द्वेश करने वाले उन सबको तलवार के घाट उतार दूंगा। मित्र अक्रूरजी। फिर तो मैं होऊंगा और आप होंगे, तथा होगा इस पृथ्वी का अकण्टक राज्य। जरासन्ध हमारे बड़े-बढ़े ससुर हैं और वानरराज द्विविद मेरे प्यारे सखा हैं। शम्बरासुर, नकासुर और बाणासुर ये तो मुझसे मित्रता करते ही हैं, मेरा मुंह देखते रहते हैं, इन सबकी सहायता से मैं देवताओं के पक्षपाती नरपतियों को मारकर पृथ्वी का अकण्टक राज्य भोगूंगा। यह सब अपनी गुप्त बातें मैंने आपको बतला दी।

अच्छा सहायक कैसा हो?नारद भक्ति हैं, भगवान ने उनकी बातें सुन मन-ही-मन कह दिया तथास्तु। नारद स्वयं त्रिकालदर्षी भी हैं और भगवान के टाइमकीपर भी। भगवान की व्रजलीलाएं पूर्व हो रही हैं, सो वे भगवान को यह याद दिलाने आए हैं कि अब मथुरा, हस्तिनापुर, कुरूक्षेत्र और द्वारिका की लीलाओं का समय आ रहा है। एक अच्छे सहायक का यह कर्तव्य भी है कि स्वामी के सावधान रहने पर भी उन्हें समय-समय पर सारे कामों की याद दिलाता रहे। नारद यही करते हैं। आप जल्द से जल्द बलराम और कृष्ण को यहां ले आइये। अभी तो वे बच्चे ही हैं। उनको मार डालने में क्या लगता है? उनसे केवल इतनी ही बात कहियेगा कि वे लोग धनुष यज्ञ के दर्शन और यदुवंशियों की राजधानी मथुरा की शोभा देखने के लिए यहां जाएं। केशी-व्योमासुर वध-केशी दैत्य के द्वारा हत्या की योजना बनाई। कैशी अश्व के रूप में वृंदावन पहुंचा, लेकिन कृष्ण ने उसको पहचान लिया। उसके गले में अपना लोह सदृश हाथ डालकर उसके प्राण ही खेंच लिए। केशी के वध का समाचार कंस ने जब सुना, तो व्योमासुर को वृन्दावन भेजा। वृन्दावन में व्योमासुर का भी प्राणान्त कर दिया। कंस ने जिस केशी नामक दैत्य को भेजा था, वह बड़े भारी घोड़े के रूप में मन के समान वेग से दौड़ता हुआ व्रज में आया। भगवान् श्रीकृष्ण ने देखा कि उसकी हिनहिनाहट से उनके आश्रित रहने वाला गोकुल भयभीत हो रहा है।

उन्होंने अपने दोनों हाथों से उसके दोनों पिछले पैर पकड़ लिए और जैसे गरुड़ सांप को पकड़कर झटक देते हैं, उसी प्रकाश क्रोध से उसे घुमाकर बड़े अपमान के साथ चार सौ हाथ की दूरी पर फेंक दिया और स्वयं अकड़कर खड़े हो गए। इसके बाद वह क्रोध से तिलमिलाकर और मुंह फाड़कर बड़े वेग से भगवान् की ओर झपटा। उसको दौड़ते देख भगवान् मुसकराने लगे। उन्होंने अपना बांया हाथ उसके मुंह में इस प्रकार डाल दिया जैसे सर्प बिना किसी आशंका के अपने बिल में घुस जाता है।थोड़ी ही देर में उसका शरीर निष्चेश्ट होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा तथा उसके प्राण पखेरू उड़ गए। देवर्षि नारदजी भगवान् के परम प्रेमी और समस्त जीवों के सच्चे हितैशी हैं।

कंस के यहां से लौटकर वे अनायास ही अद्भुत कर्म करने वाले भगवान् श्रीकृष्ण के पास आए और एकांत में उनसे कहने लगे-यह बड़े आनन्द की बात है कि आपने खेल ही खेल में घोड़े के रूप में रहने वाले इस केशी दैत्य को मार डाला। प्रभो! अब परसों मैं आपके हाथों चाणूर, मुश्टिक, दूसरे पहलवान, कुवलयापीड हाथी और स्वयं कंस को भी मरते देखूंगा। उसके बाद शंखासुर, काल-यवन, मुर और नरकासुर का वध देखूंगा। आप स्वर्ग से कल्पवृक्ष उखाड़ लायेंगे और इन्द्र के चीं-चपड़ करने पर उनको उसका मजा चखायेंगे। आप अपनी कृपा, वीरता, सौन्दर्य आदि का शुल्क देकर वीर-कन्याओं से विवाह करेंगे और जगदीश्वर!

आप द्वारका में रहते हुए नृग को पाप से छुड़ायेंगे। आप जाम्बवती के साथ स्यमन्तक मणि को जाम्बवान् से ले आएंगे और अपने धाम से ब्राह्मण के मरे हुए पुत्रों को ला देंगे। इसके पश्चात आप पौण्ड्रक मिथ्यावासुदेव का वध करेंगे। काशीपुरी को जला देंगे। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में चेदिराज शिशुपाल को और वहां से लौटते समय उसके मौसेरे भाई दन्तवक्त्र को नष्ट करेंगे। प्रभो! द्वारका में निवास करते समय आप और भी बहुत से पराक्रम प्रकट करेंगे, जिन्हें पृथ्वी के बड़े-बड़े ज्ञानी और प्रतिभाशील पुरुष आगे चलकर गाएंगे। मैं वह सब देखूंगा।

इसके बाद आप पृथ्वी का भार उतारने के लिए कालरूप से अर्जुन के सारथि बनेंगे और अनेक अक्षौहिणी सेना का संहार करेंगे। यह सब मैं अपनी आंखों से देखूंगा। इस समय आपने अपनी लीला प्रकट करने के लिए मनुष्य का सा श्रीविग्रह प्रकट किया है। और आप यदु, वृश्णि तथा सात्वतवंषियों के शिरोमणि बने हैं। प्रभो! मैं आपको नमस्कार करता हूं। भगवान् के दर्शनों के आहाद से नारदजी का रोम रोम खिल उठा। तदन्तर उनकी आज्ञा प्राप्त करके वे चले गए। इधर भगवान् श्रीकृष्णा कोषी को लड़ाई में मारकर फिर अपने प्रेमी एवं प्रसन्न चित्त ग्वालबालों के साथ पूर्ववत् पशुपालन के काम में लग गए।

क्या हुआ जब व्यामासुर खेलने लगा कृष्ण के साथ?

एक समय वे सब ग्वालबाल पहाड़ की चोटियों पर गाय आदि पशुओं को चरा रहे थे तथा कुछ चोर और कुछ रक्षक बनकर छिपने-छिपाने का लुका-लुकी का खेल खेल रहे थे। उसी समय ग्वाल का वेष धारण करके व्योमासुर वहां आया। वह मायावियों के आचार्य मयासुर का पुत्र था और स्वयं भी बड़ा मायावी था। वह खेल में बहुधा चोर ही बनता और भेड़ बने हुए बहुत से बालकों को चुराकर छिपा आता। वह महान् असुर बार-बार उन्हें ले जाकर एक पहाड़ की गुफा में ढक देता। इस प्रकार ग्वालबालों में केवल चार-पांच बालक ही बच रहे। भक्तवत्सल भगवान् उसकी यह करतूत जान गए। जिस समय वह ग्वालबालों को लिए जा रहा था, उसी समय उन्होंने जैसे सिंह भेडिय़े को दबोच ले, उसी प्रकार उसे धर दबाया। व्योमासुर बड़ा बली था। उसने पहाड़ के समान अपना असली रूप प्रकट कर दिया और चाहा कि अपने को छुड़ा लूं। परन्तु भगवान् ने उसको इस प्रकार अपने शिकंजे में फांस लिया था कि वह अपने को छुड़ा न सका। तब भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने दानों हाथों से जकड़ कर उसे भूमि पर गिरा दिया और पषु की भांति गला घोंटकर मार डाला। देवता लोग विमानों पर चढ़कर उनकी यह लीला देख रहे थे। अब भगवान् श्रीकृष्ण ने गुफा के द्वार पर लगे हुए संकटपूर्ण स्थान से निकाल लिया।

यहां भगवान की बाल लीलाओं पर विराम लग रहा है। व्रज की आनंद लीला समापन की ओर है। अब भगवान मथुरा जाएंगे। कंस का बुलावा आ रहा है, अक्रूरजी कृश्ण की छवि मन में बसाए, नंद को कंस का निमंत्रण देने आ रहे हैं। अक्रूर आगमन-अक्रूरजी भगवान को लेने आए हैं। रास्तें में सोचते हैं कि भगवान श्रीकृष्ण तो पतितपावन हैं। वे मुझे अवश्य अपना लेंगे। यदि मुझे पापी को नहीं अपनाएंगे, तो फिर उनको पतितपावन कौन कहेगा। हे नाथ! मैं पतित हूं और आप पतितपावन हैं मुझे अपना लीजिएगा। विचार करना ही है तो पवित्र विचार करो। बुरे विचार मन को विकृत कर देते हैं। अक्रूरजी भगवान को लेने के लिए निकले हैं।

आदिनारायण का चिन्तन उनके मन में हो रहा है। उन्होंने मार्ग में श्रीकृष्ण के चरणचिह्न देखे। कमल ध्वजा और अंकुशयुक्त चरण तो मेरे श्रीकृष्ण के ही हो सकते हैं। ऐसा अक्रूरजी ने सोचा। इसी मार्ग से कन्हैया अवश्य गया होगा। इसी मार्ग से वह खुले पांव ही गायों का चराता फिरता होगा। ऐसा चिन्तन करते-करते अक्रुरजी ने सोचा कि यदि मेरे प्रभु खुले पांव पैदल घूमते हैं तो मैं तो उनका सेवक हूं। मैं रथ में कैसे बैठ सकता हूं। मैं सेवा करने योग्य नहीं हूं अधर्मी हूं, पापी हूं। मैं तो श्रीकृष्ण की शरण में जा रहा हूं। मुझे रथ पर सवार होने का क्या अधिकार? ऐसा सोचकर अक्रुरजी पैदल चलने लगे।

गोकुल पहुंचकर वहां की रज उन्होंने सारे शरीर पर लपेट ली। वृजरज की बड़ी महिमा है, क्योंकि वह प्रभु के चरणों से पवित्र हुई है। अक्रुरजी वन्दना भक्ति के आचार्य हैं। अक्रुरजी भगवान के पास पहुंचे। प्रणाम किया, अक्रुरजी के मस्तक पर अपना वरदहस्त रखते हुए श्रीकृष्ण ने उनको खड़ा किया।

अक्रुरजी ने सोचा कि जब कन्हैया उन्हें चाचा कहकर पुकारेगा तभी वे खड़े होंगे। लेकिन अक्रुरजी सोचते हैं कि मुझ पापी को भला वे काका क्यों कहेंगे। भगवान ने अक्रुरजी का मनोभाव जान लिया। अक्रुरजी चाहते थे कि कृष्ण काका कहकर पुकारें। श्रीकृष्ण ने उनके मस्तक पर हाथ धरते हुए कहा कि काका अब उठिए भी। उनको उठाकर आलिंगन किया। जीव जब षरण में आता है तो भगवान् उसको अपनी बांहों में भर लेते हैं। आज अक्रुरजी को वही अनुभुति हो रही हैं जो कभी निषात को हुई थी, तब श्रीराम ने उन्हें हृदय से लगाया था। जो कभी प्रहलाद को हुई थी जब नरसिंह अवतार ने प्रहलाद को हृदय से लगाया था।अक्रुरजी अपना भाव भुल बैठे। अक्रुरजी बोले-नन्दजी! मैं तो आप सबको राजा कंस की ओर से आमन्त्रण देने आया हूं। मथुरा में धनुष यज्ञ किया जा रहा है। आपको दर्शनार्थ बुलाया गया है। आप चहे गाड़ी से आएं किन्तु बलराम और श्रीकृष्ण के लिए सुवर्ण रथ लेकर आया हूं। कंस ने सुवर्ण रथ भेजा है। गांव के बालकों ने जब ये बात जानी तो वे भी साथ चलने को तैयार हो गए। नन्दबाबा ने सभी बच्चों को साथ चलने की अनुमति दे दी।

यह खबर सुनकर यशोदा दुखी हो गई

मथुरा प्रस्ताव से यशोदा दुखी-यह सारी बात जब यशोदा तक पहुंची, तो उनका दिल बैठ गया। यह अकू्रर नहीं क्रूर है। मेरे लला को मत जाने दो। वह चला जाएगा, तो गोकुल उजड़ जाएगा और यदि ले जाना ही है तो बलराम को ले जाओ। कन्हैया को मत ले जाओ। सुना है मथुरा की नारियां बहुत जादूगरनी होती हैं। कुछ ऐसा टोना कर देंगी कि मेरा कन्हैया वापस नहीं आ सकेगा। यशोदा नन्दजी से विनती करती हैं। यदि तुम्हें मथुरा जाना है तो चले जाओ। किन्तु लला को न ले जाओ। वहां उसकी देखभाल कौन करेगा। वह बड़ा शर्मीला है भूखा होने पर मांगता नहीं। उसको मनाकर कौन खिलायेगा। दो तीन दिन पहले ही मैंने बुरा सपना देखा था। मेरा लला मुझे छोड़कर हमेशा के लिए मथुरा जा रहा है। नन्दबाबा ने यशोदा को ढांढस बंधाते हुए समझाया। कन्हैया 11 बरस का तो हुआ है अब कितने दिनों तक तू उसे अपने घर में रखेगी। उसे बाहर का जगत भी देखना चाहिए। मैं अब उसे गोकुल के राजा बनने योग्य बनाना चाहता हूं। हम दो-चार दिन में मथुरा घूम-फिरकर वापस लौट आएंगे। तू चिन्ता मत कर। मैं इस वृद्धावस्था में कन्हैया के लिए तो जी रही थी। यही तो आधार है मेरा। रात आई, सब सो गए। किन्तु यशोदा की आंखों से नींद दूर चली गई थी। न जाने कल क्या होगा। कन्हैया चला जाएगा। मैं अकेले कैसे जी पाऊंगी।

बार-बार आंगन में आकर सिसकियां भरने लगीं। कन्हैया की आंखें अचानक खुल गईं तो देखा कि सेज पर माता नहीं थी। वह उसे इधर-उधर ढूंढने लगा। माता के गले में हाथ डालकर उसके आंसू पोंछते हुए रोने का कारण पूछने लगा। तू क्यों रोती है मां। तू रोती है तो मुझे बड़ा दुख होता है। कन्हैया की बात सुनकर माता को कुछ तसल्ली हुई। वह कहने लगी वैसे तो कोई विशेष बात नहीं है। तू कल जा रहा है सो मेरी आंखें बरस रही हैं। मुझे छोड़कर तू कहीं भी न जाना। मैं तेरे ही सहारे जी रही हूं। कन्हैया माता को आश्वासन देते हैं तू क्यों चिन्ता करती है मां, मैं जरूर वापस आऊंगा। यद्यपि लला ने यह नहीं बताया कि वह कब लौटेगा माता ने भी नहीं पूछा। वह तो लला के वापस आने की बात सुनकर प्रसन्न हो गई। वह अवष्य लौटेगा, वापस आने की बात सुनकर वह आनन्द में इतनी मग्न हो गई कि यह पूछना ही भूल गई कि वह लौटेगा तो कब लौटेगा। यशोदा ने लला से कहा कि चल अब हम सो जाएं। मां और बेटे दोनों एक ही सेज पर सो गए।

आज श्रीकृष्ण ने यशोदा के हृदय में प्रवेश किया। अब कन्हैया बाहर नहीं भीतर ही दिखाई देगा। गोकुल से विदाई-प्रात:काल हुआ, मंगलस्नान समाप्त हुआ, तो माता कन्हैया का श्रृंगार करने लगी। तेरा मनोहर रूप अब मैं कब देख पाऊंगी कन्हैया। कन्हैया ने वापस आने का पुन: वचन दिया। यषोदाजी का मन आज अधीर हो उठा। उन्होंने स्वयं भोजन बनाया और कन्हैया को खिलाया। अक्रुरजी रथ लेकर आंगन में आए। जब गोपियों को समाचार मिला तो वे दौड़ती हुई आ पहुंची। उनमें राधिकाजी भी थीं। उनके मुख पर दिव्य तेज फैला हुआ था और साध्वी जैसा उनका श्रृंगार था। आज तक कभी वियोग हुआ नहीं था। सो आज वियोग का प्रसंग उपस्थित हुआ तो राधिकाजी अचेत-सी हो गईं। वे अचेतावस्था में ही कहने लगीं कि हे प्यारे कृष्ण! मेरा त्याग मत करो, हमें छोड़कर मत जाओ।

गोपियां रो रही हैं क्योंकि....

देखो सखी! यह अक्रूर कितना निठुर, कितना हृदयहीन है। इधर तो हम गोपियां इतनी दुखित हो रही हैं और यह हमारे परम प्रियतम नन्ददुलारे श्यामसुन्दर को हमारी आंखों से ओझल करके बहुत दूर ले जाना चाहता है और दो बात कहकर हमें धीरज भी नहीं बंधाता, आश्वासन भी नहीं देता। सचमुच ऐसे अत्यन्त क्रूर पुरुष का अक्रूर नाम नहीं होना चाहिए था। सखी हमारे ये श्यामसुन्दर भी तो कम निठुर नहीं हैं। देखो-देखो, वे भी रथपर बैठ गए और मतवाले गोपगण छकड़ों द्वारा उनके साथ जाने के लिए कितनी जल्दी मचा रहे हैं। सचमुच ये मूर्ख हैं और हमारे बड़े-बूढ़े! उन्होंने तो इन लोगों की जल्दबाजी देखकर उपेक्षा कर दी है कि जाओ जो मन में आवे करो। अब हम क्या करें? आज विधाता सर्वथा हमारे प्रतिकूल चेश्टा कर रहा है।

गोपियां परमात्मा से अलग होने का जिम्मेदार भी विधाता को ही ठहरा रही हैं। यह भक्ति और प्रेम की पराकाष्ठा है। कन्हैया उनके लिए अभी भी एक माखन चोर, रास रचाने वाला, उन्हें अपनी लीलाओं से हंसाने और आनंदित करने वाला एक ग्वाल-बाल ही था, वो परम योगेश्वर को अपना सखा, अपने बीच का ही मानती थीं, न कि कोई अवतार। असल में भगवान मिलते भी तभी हैं जब हम उसे अपना, अपने जैसा अपने बीच का मानें, चाहे पिता, भाई, रखा या पति, तभी वह हमारे जीवन में उतरता है। गोपियां वाणी से तो इस प्रकार कह रही थीं, परन्तु उनका एक-एक मनोभाव भगवान् श्रीकृष्ण का स्पर्श कर रहा था। वे विरह की सम्भावना से अत्यन्त व्याकुल हो गईं और लाज छोड़कर 'हे गोविन्द! हे दामोदर! हे माधव! इस प्रकार ऊंची आवाज से पुकार-पुकार कर रोने लगीं।

अक्रूरजी को सूझ ही नहीं रहा कि इन गोपियों को कैसे समझाएं। कृष्ण ने गोपियों से कहा मैं तुम सबको प्रसन्न रखने के लिए बांसुरी बजाता था और खेल रचाता था लेकिन अब मुझे जाना ही होगा।कृष्ण ने मूर्छित राधा को देखा। उनके पास जाकर कान में बोले- राधे! पृथ्वी पर असुर बहुत बढ़ गए हैं। उन पापी राक्षसों का नाष करके पृथ्वी का बोझ हल्का करना है। आज तक तेरे साथ प्रेम से नाचता खेलता रहा। अब जगत् को नचाने जा रहा हूं। मैं तुम सबके साथ भी नाच सकता हूं औरों के साथ भी। सखियों मैं तो जा रहा हूं, किन्तु मेरे प्राण तो यहां तुम्हारे पास ही रहेंगे। मैं अपने प्राण तुम्हारे हृदय में रखकर जा रहा हूं। मेरे प्राणों की रक्षा के लिए तुम अपने प्राणों की रक्षा करना। राधे, मैं आज तक तो तेरे समीप ही था, अब कुछ दूर जा रहा हूं किन्तु हम तो अभिन्न हैं। लीला के हेतु ही हमन अलग-अलग शरीर धारण किए हैं। मुझे अपने प्राणों से भी यह बांसुरी अधिक प्यारी है। तू जब यह बांसुरी बजाएगी तो मैं दौड़ा चला आऊंगा। बाहर के पानी से नहीं आज आंखों से बरसते हुए प्रेमाश्रु से ही मन धोया जा रहा है।

गोपियां रो रही हैं कृष्ण उन्हें धीरज बंधा रहे हैं। मेरे मंगलमय प्रस्थान के समय रोने से अपशकुन होंगे। श्रीकृष्ण रथ पर चढ़े। रथ चलने लगा। गोपियां भी पीछे-पीछे चलने लगीं। कन्हैया के मना करने पर आंसू रुक तो गए, किन्तु फिर बह निकले। न जाने कन्हैया कब लौटेगा, न जाने कब दर्शन होंगे, फिर रथ के चलने पर बड़े जोरों से रोने लगीं। हे गोविन्द, हे माधव, इस गोकुल को मत उजाड़ो, नाथ इस! गोकुल को अनाथ न करो। हमको भूल न जाना। एक गोपी कह रही है कि तुम्हारे दर्शन के बिना नाथ पानी तक पीने का मेरा नियम कैसे पूरा होगा। यहां कुछ क्षणों के लिए आते रहना, नहीं तो मैं जल ग्रहण नहीं कर पाऊंगी।सारा गांव रो रहा था और अक्रूरजी भी द्रवित हो गए। ग्रामजनों का कृष्ण प्रेम और कृष्ण विरह का दुख देखकर अक्रूरजी की आंखों से भी आंसू बहने लगे।

समय प्रबंधन सीखें कृष्ण से ...
कृष्ण का चरित्र हमें यह बताता है कि समय कैसे साधा जाए जीवन में प्रोफेसर अगर दस मिनट व्यर्थ खर्च करें, तो विधार्थी के दस घंटे, समाज दस महीने और देश दस वर्ष पिछड़ जाता है।विदेशी समय को रत्न कणों की तरह चुनते हैं और हम धूल की तरह उड़ा देते हैं। गांधीजी कहा करते थे कि पैसे का नहीं, समय का हिसाब रखो। डायरी रखो, खाता रोकड़ बनाओ। समय को नापो। समाज को समय का हिसाब दो। समय काल देवता पर तन मन धन न्यौछावर कर दो। समय का मूल्य समझा जाए। वर्तमान् का क्षण ही तुम्हारे जीव का सम्बल है। इसे बचाकर रखिए। एक दिन शबरी अस्पृश्य थी बहिष्कृत कर दी गई थी। और एक दिन वही षबरी देखते ही देखते राम की उपस्थिति के कारण स्वर्ग चली गई। समय बड़ा बलवान होता है। रावण ने नवग्रह और यम तक की सीढिय़ां बना दी और एक दिन उसी रावण के कटे मस्तक धूल में लुढ़कते पड़े थे। समय को पहचानिए।

गायें भी रो रही थीं। कोई गोपी रथ के पीछे दोड़ रह थी, तो कोई मूर्छित होकर गिर गई। श्रीकृष्ण ने अक्रूरजी से कहा-ये प्रेम के छलकते हुए हृदय वाले ग्रामजन मुझे आगे बढऩे ही नहीं देंगे। सो रथ जरा जल्दी चलाओ काका। अधीरता से यशोदा रथ के पीछे दौडऩे लगीं। प्रभु ने दौड़ती हुई अपनी माता का देखा, तो रथ रूकवाया। माता ने पुत्र की नजर उतारी, आरती की, बेटे तेरे जाने से मुझे बड़ा दुख हो रहा है। मैं तो चाहती थी कि मेरी आंखों से कभी दूर न होने पाए किन्तु मैंने केवल अपने ही लिए तुझे प्यार नहीं किया। मैं प्रार्थना करती हूं कि जहां भी रहे, सुखी रहे। कन्हैया, मथुरा में तू यह भूल जाना कि मैंने तुझे कभी मूसल से बांधा था। कन्हैया बोलते हैं मां सब कुछ भूल सकता हूं किन्तु तेरे बंधनों को कैसे भूल जाऊं। रथ आगे बढऩे लगा। गोपियां पीछे दौडऩे लगीं। उन्होंने कन्हैया की आरती उतारना चाही तो रथ फिर से रोका गया।

श्रीकृष्ण गोपियों से कहने लगे-दुष्टों की हत्या, दैत्यों का संहार तो मेरे जन्म का गौण प्रयोजन है। मेरे अवतार का मुख्य प्रयोजन है- गोकुल में प्रेमलीला करना। मेरा एक स्वरूप यहां तुम्हारे पास रहेगा और दूसरा स्वरूप वहां मथुरा में। पहले मात्र यशोदा के घर ही एक कन्हैया था। अब हर गोपी के घर में एक-एक कृष्ण है। कृष्ण ने सभी गोपियों के हृदय मे प्रवेश किया। यह अंतरंग का संयोग है और बहिरंग का वियोग है। प्रत्येक गोपी अनुभव कर रही है कि श्रीकृष्ण उनके पास ही बसे हुए हैं मथुरा नहीं गए। श्रीकृष्ण को लेकर रथ चला गया और गोपियां चित्र लिखित-सी खड़ी-खड़ी देखती रहीं।

कन्हैया ने गोकुल का त्याग नहीं किया है वह तो हरेक गोपी के हृदय में बसा हुआ है।भगवान् ने वचन दिया था कि वियोग के बिना तन्मयता नहीं आ सकती। बिना वियोग के ध्यान में एकाग्रता नहीं आ पाती और साक्षात्कार नहीं होता। ये कृष्ण हैं, अद्भुत हैं। कृष्ण की लीला अद्भुत है, वे जानते थे कि वृन्दावन का समय हो गया है। अब लीला मथुरा में करना है, लीला को मथुरा ले जाना है, सो एक क्षण भी उन्होंने बर्बाद नहीं किया और वृन्दावन छोड़कर मथुरा की ओर चले गए।इधर भगवान् श्रीकृष्ण भी बलरामजी और अक्रूरजी के साथ वायु के समान वेग वाले रथ पर सवार होकर पापनाषिनी यमुनाजी के किनारे जा पहुंचे। वहां उन लोगों ने हाथ-मुंह धोकर यमुनाजी का मरकतमणि के समान नीला और अमृत के समान मीठा जल पिया। इसके बाद बलरामजी के साथ भगवान् वृक्षों के झुरमुट में खड़े रथ पर सवार हो गए।

अक्रूर के मन में संशय था इसलिए कृष्ण ने....
अक्रूर भक्त थे लेकिन उनके मन में संशय था। वे भगवान के विराट स्वरूप की तलाश में थे, सो बाल कृष्ण को भगवान मानने में मन थोड़ा हिचक रहा था। वे बार-बार कृष्ण से बालकोचिन व्यवहार ही करते, बात-बात पर समझाते। कृष्ण ने अक्रूरजी की मनोदशा को ताड़ लिया। अक्रूरजी का संशय दूर करने के लिए उन्होंने यमुना के किनारे भी एक छोटी सी लीला की।

अक्रूरजी ने दोनों भाइयों को रथ पर बैठाकर उनसे आज्ञा ली और यमुनाजी के कुण्ड पर आकर वे विधिपूर्वक स्नान करने के बाद वे जल में डुबकी लगाकर गायत्री का जप करने लगे। उसी समय जल के भीतर अक्रूरजी ने देखा कि श्रीकृष्ण और बलराम दोनों भाई एक साथ ही बैठे हुए हैं। अब उनके मन में यह शंका हुई कि वसुदेवजी के पुत्रों को तो मैं रथ पर बैठा आया हूं, अब वे यहां जल में कैसे आ गए? जब यहां हैं तो शायद रथ पर नहीं होंगे। ऐसा सोचकर उन्होंने सिर बाहर निकालकर देखा। वे उस रथ पर भी पूर्ववत् बैठे हुए थे। उन्होंने यह सोचकर कि मैंने उन्हें जो जल में देखा था, वह भ्रम ही रहा होगा, फिर डुबकी लगाई। परन्तु फिर उन्होंने वहां भी देखा कि साक्षात् अनन्त देव श्री शेष नाग जी पर विराजमान हैं और सिद्ध, चारण, गन्धर्व एवं असुर अपने-अपने सिर झुकाकर उनकी स्तुति कर रहे हैं।

भगवान् की यह झांकी निरखकर अक्रूरजी का हृदय परमानन्द से लबालब भर गया। उन्हें परम भक्ति प्राप्त हो गई। सारा शरीर हर्शावेश से पुलकित हो गया। प्रेमभाव का उद्रेक होने से उनके नेत्र आंसू से भर गए। अब अकू्ररजी ने अपना साहस बटोरकर भगवान् के चरणों में सिर रखकर प्रणाम किया और वे उसके बाद हाथ जोड़कर बड़ी सावधानी से धीरे-धीरे गद्गद हो भगवान् की स्तुति करने लगे। अब सारी शंका, सारा संशय दूर हो गया। भगवान की लीला देख ली। बालकों के रूप में साक्षात् नारायण के दर्शन हो गए। बस भगवान की शरण ले ली। भगवान ने भी अक्रूरजी को भक्ति का प्रसाद दिया। अक्रूरजी के साथ श्रीकृष्ण जब मथुरा नगरी पहुंचे, तो नगरवासी भी उनके दर्शन कर कृत-कृत्य हो गए।

भगवान श्रीकृष्ण ने विनीतभाव से खड़े अक्रूरजी का हाथ अपने हाथ में लेकर मुसकाते हुए कहा-चाचाजी! आप रथ लेकर पहले मथुरापुरी में प्रवेश कीजिए और अपने घर जाइये। हम लोग पहले यहां उतरकर फिर नगर देखने के लिए आएंगे। अक्रूरजी ने कहा-प्रभो! आप दोनों के बिना मैं मथुरा में नहीं जा सकता। स्वामी! मैं आपका भक्त हूं। भक्तवत्सल प्रभो! आप मुझे मत छोडि़ए। श्री भगवान् ने कहा-चाचाजी! मैं दाऊ भैया के साथ आपके घर आऊंगा और पहले इस यदुवंशियों के द्रोही कंस को मारकर तब अपने सभी सुहृत्-स्वजनों का प्रिय करूंगा।

बुरे लोगों का यही अंत होता है..
दुष्टों का यही अंत होता है। जो जिंदगी भर निरपराध और कमजोरों को सताते हैं, वे अपनी मृत्यु को सामने देख ऐसे ही घबराते हैं। कंस मृत्यु के भय से ही जीवनभर पाप करता रहा। कई बेगुनाहों के प्राण लिए। कई घरों के चिराग बुझ दिए। अब मृत्यु स्वयं उसके दरवाजे पर खड़ी है। भगवान नगर घूम रहे हैं। हर भक्त से मिल रहे हैं, उनका उद्धार कर रहे हैं। मथुरा के जिस रास्ते से कान्हा गुजरे वहां उनका स्वागत करने, आरती उतारने वालों की कतारें लग गई। भक्तवत्सल ने किसी को निराश नहीं किया। हर एक से मिले। अब कंस की अंतिम घड़ी आ गई सो उसकी यज्ञशाला की ओर चल पड़े।

भगवान् श्रीकृष्ण पुरवासियों से धनुष यज्ञ का स्थान पूछते हुए रंगशाला में पहुंचे और वहां उन्होंने इन्द्र धनुष के समान एक अद्भुत धनुष देखा। उस धनुश में बहुत सा धन लगाया गया था, अनेक बहुमूल्य अलंकारों से उसे सजाया गया था। उसकी खूब पूजा की गई थी और बहुत से सैनिक उसकी रक्षा कर रहे थे। भगवान् श्रीकृष्ण ने रक्षकों के रोकने पर भी उस धनुष को उठा लिया। उन्होंने सबके देखते-देखते उस धनुष को बायें हाथ से उठाया, उस पर डोरी चढ़ायी और एक क्षण में खींचकर बीचोंबीच से उसी प्रकार उसके दो टुकड़े कर डाले जैसे बहुत बलवान मतवाला हाथी खेल ही खेल में ईख को तोड़ डालता है। जब धनुष टूटा तब उसके शब्द से आकाश, पृथ्वी और दिशाएं भर गईं, उसे सुनकर कंस भी भयभीत हो गया। अब धनुष के रक्षक आततायी असुर अपने सहायकों के साथ बहुत ही बिगड़े। वे भगवान् श्रीकृष्ण को घेरकर खड़े हो गए और उन्हें पकड़ लेने की इच्छा से चिल्लाने लगे-पकड़ लो, बांध लो, जाने न पावे। उनका दुष्ट अभिप्राय जानकर बलरामजी और श्रीकृष्ण भी तनिक क्रोधित हो गए और उस धनुष के टुकड़ों को उठाकर उन्हीं से उनका काम तमाम कर दिया।उन्हीं धनुष खण्डों से उन्होंने उन असुरों की सहायता के लिए कंस की भेजी हुई सेना का भी संहार कर डाला। इसके बाद वे यज्ञ के प्रधान द्वार से होकर बाहर निकल आए और बड़े आनन्द से मथुरापुरी की शोभा देखते हुए विचरने लगे।

सत्ता उसी को मिलना चाहिए जो अधिकारी हो...
उग्रसेन को राजा बनाकर कृष्ण ने बड़ा महत्वपूर्ण संदेश दिया। युद्ध आपका व्यक्तिगत हो या धर्म के लिए, जीत के बाद राज उसी को मिलना चाहिए जो वास्तविक अधिकारी हैं, जिसने पहले भी नि:स्वार्थ रूप से प्रजा का पालन किया है। जो आयु और अनुभव दोनों ही में श्रेष्ठ है। उग्रसेन को राज देकर उन्होंने यह भी जता दिया कि वे केवल दुष्टों को मारने और धर्म की रक्षा के लिए आए हैं, राजपाठ में उनका मोह नहीं है, न ही वे कहीं अपनी सत्ता स्थापित करना चाहते हैं क्योंकि वे तो यूं भी सर्वव्यापी हैं।

भगवान् श्रीकृष्ण ही सारे संसार के जीवनदाता हैं। उन्होंने रानियों को ढांढस बंधाया, सान्त्वना दी। फिर लोकरीति के अनुसार मरने वालों का जैसा क्रिया कर्म होता है, वह सब कराया। तदन्तर भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी ने जेल में जाकर अपने माता-पिता को बन्धन से छुड़ाया और सिर से स्पर्श करके उनके चरणों की वन्दना की, किन्तु अपने पुत्रों के प्रणाम करने पर भी देवकी और वसुदेव ने उन्हें जगदीश्वर समझकर अपने हृदय से नहीं लगाया। उन्हें शंका हो गई कि हम जगदीश्वर को पुत्र कैसे समझें। कंस के परिजनों को सांत्वना दी। कंस के वध का समाचार फैला। जो राजा अपने राजपाट छोड़कर इधर-उधर लुप्त हो गए थे वे भगवान कृष्ण के आश्वासन पर पुन: लौट आए लेकिन कंस को मारकर श्रीकृष्ण न तो स्वयं राज सिंहासन पर बैठे और न ही अपने भाई को बैठाया और न ही अपने पिता को बैठाया। अपितु कंस के पिता उग्रसेन को ही सिंहासन वापस बैठा दिया।अब देवकीनन्दन भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी दोनों ही नन्दबाबा के पास आए और गले लगने के बाद उनसे कहने लगे-पिताजी! आपने और मां यशोदा ने बड़े स्नेह और दुलार से हमारा लालन-पालन किया है।

इसमें कोई संदेह नहीं कि माता-पिता सन्तान पर अपने शरीर से भी अधिक स्नेह करते हैं। जिन्हें पालन-पोषण न कर सकने के कारण स्वजन-संबंधियों ने त्याग दिया है, उन बालकों को जो लोग अपने पुत्र के समान लाड़-प्यार से पालते हैं, वे ही वास्तव में उनके मां-बाप हैं। पिताजी! अब आप लोग व्रज में जाइएं। इसमें सन्देह नहीं कि हमारे बिना वात्सल्य स्नेह के कारण आप लोगों को बहुत दुख होगा। यहां के सुहृद-संबंधियों को सुखी करके हम आप लोगों से मिलने के लिए आएंगे।

कृष्ण ने चौसठ दिन में ही पूरी कर ली पढ़ाई!
देवकीनन्दन भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी दोनों ही नन्दबाबा के पास आए और गले लगने के बाद उनसे कहने लगे-पिताजी! आपने और मां यशोदा ने बड़े स्नेह और दुलार से हमारा लालन-पालन किया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि माता-पिता सन्तान पर अपने शरीर से भी अधिक स्नेह करते हैं। जिन्हें पालन-पोषण न कर सकने के कारण स्वजन-संबंधियों ने त्याग दिया है, उन बालकों को जो लोग अपने पुत्र के समान लाड़-प्यार से पालते हैं, वे ही वास्तव में उनके मां-बाप हैं। पिताजी! अब आप लोग व्रज में जाइए।

इसमें सन्देह नहीं कि हमारे बिना वात्सल्य स्नेह के कारण आप लोगों को बहुत दुख होगा। यहां के सुहृद-सम्बन्धियों को सुखी करके हम आप लोगों से मिलने के लिए आएंगे। भगवान् श्रीकृष्ण ने नन्दबाबा और दूसरे व्रजवासियों को इस प्रकार समझा बुझाकर बड़े आदर के साथ वस्त्र, आभूषण और अनेक धातुओं के बने बरतन आदि देकर उनका सत्कार किया। भगवान् की बात सुनकर नन्दबाबा ने प्रेम से अधीर होकर दोनों भाईयों को गले लगा लिया और फिर नेत्रों में आंसू भरकर गोपों के साथ व्रज के लिए प्रस्थान किया।वाणी और वर्तन एक हुए बिना वाणी शक्तिशाली नहीं हो पाती। ज्ञान को क्रियात्मक रूप देना है यह कृष्ण ने बताया।

बंगले में रहकर विलासी जीवन जीने वाला व्यक्ति वेदान्त की चर्चा किस अधिकार से कर सकता है। अधिक पढऩे की अपेक्षा जीवन में सिद्धान्त को उतारने की आवश्यकता अधिक है। श्रीकृष्ण ने अपना उपदेश जीवन में उतारा। उन्होंने गीता में निष्काम कर्म का उपदेश दिया।इसके बाद वसुदेवजी ने अपने पुरोहित गर्गाचार्य तथा दूसरे ब्राह्मणों से दोनों पुत्रों का विधिपूर्वक द्विजाति-समुचित यज्ञोपवीत संस्कार करवाया।इस प्रकार यदुवंश के आचार्य गर्गजी से संस्कार कराकर बलरामजी और भगवान् श्रीकृष्ण द्विजत्व को प्राप्त हुए।

उनका ब्रह्मचर्यव्रत अखण्ड तो था ही, अब उन्होंने गायत्रीपूर्वक अध्ययन करने के लिए उसे नियमत: स्वीकार किया।अब श्रीकृष्ण अपनी लीला से जीवन में शिक्षा का महत्व बताते हैं।कृष्ण जो सर्वज्ञ हैं, वे भी शिक्षा ग्रहण करने गुरू के पास आए हैं। हर व्यक्ति के जीवन में गुरू का महत्व है। हम कितने भी ज्ञानी क्यों न हों, उस ज्ञान को जब तक कोई सही दिशा देने वाला न हो वह बेकार है। गुरू हमारा मार्गदर्शक होता है जो जीवन के व्यवहारिक और सैद्धांतिक दोनों पक्षों में हमें सही दिशा बताता है। यहां से कथा नया मोड़ लेने जा रही है, कृष्ण अब अपने गुरू की सेवा में हैं।

यहां वे सारी कलाएं सीखेंगे। अब वे दोनों गुरुकुल में निवास करने की इच्छा से काश्यपगोत्री सान्दीपनि मुनि के पास गए जो अवन्तीपुर (उज्जैन) में रहते थे।वे दोनों भाई विधिपूर्वक गुरुजी के पास रहने लगे। उस समय वे बड़े ही सुख, संयत, अपनी चेष्टाओं को सर्वथा नियमित रक्खे हुए थे। गुरुजी तो उनका आदर करते ही थे, भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी भी गुरु की उत्तम सेवा कैसे करनी चाहिए, इसका आदर्श लोगों के सामने रखते हुए बड़ी भक्ति से इष्टदेव के समान उनकी सेवा करने लगे।

गुरुवर सान्दीपनिजी उनकी शुद्धभाव से युक्त सेवा से बहुत प्रसन्न हुए।उन्होंने दोनों भाइयों को छहों अंक और उपनिषदों के सहित सम्पूर्ण वेदों की शिक्षा दी। इनके सिवा मन्त्र और देवताओं के ज्ञान के साथ धनुर्वेद, मनुस्मृति आदि धर्मशास्त्र, मीमांसा आदि वेदों का तात्पर्य बतलाने वाले शास्त्र, तर्कविद्या (न्यायशास्त्र) आदि की भी शिक्षा दी।

साथ ही सन्धि, विग्रह, यान, आसन, द्वैघ और आश्रय-इन छ: भेदों से युक्त राजनीति का भी अध्ययन कराया। भगवान् श्रीकृष्ण और बलराम सारी विद्याओं के प्रवर्तक हैं। इस समय केवल श्रेष्ठ मनुष्य का सा व्यवहार करते हुए ही वे अध्ययन कर रहे थे। उन्होंने गुरुजी के केवल एक बार कहने मात्र से सारी विद्याएं सीख लीं। केवल चौसठ दिन-रात में ही संयमी शिरोमणि दोनों भाइयों ने चौसठ कलाओं का ज्ञान प्राप्त कर लिया।

तभी जिंदगी का असली आनंद महसूस होगा
कहते हैं कि यदि आपसे कोई कुछ मांगता है तो परामात्मा उसे तभी आपके पास भेजता है जब आपके पास उसे देने का सामथ्र्य होता है। वेदों में भी कहा गया है कि सौ हाथों से कमाये और हजार हाथों से खर्च करें तभी आप जिंदगी का असली आनंद महसुस करेंगे। इसलिए अब जब भी कोई कुछ मांगे तो यह सोचें कि आप उसे अपने सामथ्र्य के अनुसार क्या दे सकते हैं? कृष्ण का अध्ययन समाप्त होने पर उन्होंने सान्दीपनि मुनि से प्रार्थना की कि आपकी जो इच्छा हो, गुरु दक्षिणा मांग लें। महाराज! सान्दीपनि मुनि ने अपनी पत्नी से सलाह करके यह गुरुदक्षिणा मांगी कि प्रभास क्षेत्र में हमारा बालक समुद्र में डूबकर मर गया था, उसे तुम लोग ला दो।

यह गुरू की महिमा है और मर्यादा भी। गुरू दक्षिणा मांगते समय अपने मांगने की मर्यादा और शिष्य के देने का सामथ्र्य दोनों नाप लें। सांदीपनि महाराज कृष्ण की अनन्त शक्ति और उनके परमात्मा स्वरूप दोनों को जानते थे, इसलिए ऐसी ही चीज मांगी जिसे देने का सामथ्र्य केवल कृष्ण में ही था। बलरामजी और श्रीकृष्ण का पराक्रम अनन्त था। दोनों ही महारथी थे। उन्होंने 'बहुत अच्छा कहकर गुरुजी की आज्ञा स्वीकार की और रथ पर सवार होकर प्रभास क्षेत्र में गए। वे समुद्रतट पर जाकर क्षणभर बैठे रहे। उस समय यह जानकर कि ये साक्षात् परमेश्वर हैं, अनेक प्रकार की पूजा-सामग्री लेकर समुद्र उनके सामने उपस्थित हुआ।

जब कृष्ण पहुंच गए यमराज के पास तो...

हमारे धर्म शास्त्रों मै आरूणी और एकलव्य जैसे उदाहरण हैं। जिन्होंने अपने गुरु की आज्ञा को ही हर हाल में सर्वोपरी माना। श्रीकृष्ण तो स्वयं परमेश्वर हैं लेकिन उन्होंने भी गुरु की आज्ञा को सबसे ऊपर माना इसीलिए वे यमराज के घर से भी उनके पुत्र को वापस ले आए।

शिक्षा के लिए श्रीकृष्ण और बलराम का सान्दीपनि मुनि के आश्रम आना। मात्र चौसठ दिनों में अपनी शिक्षा पूर्ण करना और गुरु दक्षिणा में सान्दीपनि मुनि द्वारा अपना खोया पुत्र मांगना अब आगे... भगवान् ने समुद्र से कहा-समुद्र! तुम यहां अपनी बड़ी-बड़ी तरंगों से हमारे जिस गुरु के पुत्र को बहा ले गए थे, उसे लाकर शीघ्र हमें दो।

मनुष्य वेशधारी समुद्र ने कहा-देवाधिदेव श्रीकृष्ण! मैंने उस बालक को नहीं लिया है। मेरे जल में पश्चजन नाम का एक बड़ा भारी दैत्य जाति का असुर शंख के रूप में रहता है। अवश्य ही उसी ने वह बालक चुरा लिया होगा। समुद्र की बात सुनकर भगवान् तुरंत ही जल में जा घुसे और शंखासुर को मार डाला। परन्तु वह बालक उसके पेट में नहीं मिला। तब उसके शरीर का शंख लेकर भगवान् रथ पर चले आए। वहां से बलरामजी के साथ श्रीकृष्ण ने यमराज की प्रिय पुरी संयमनी में जाकर अपना शंख बजाया। शंख का शब्द सुनकर सारी प्रजा का शासन करने वाले यमराज ने उनका स्वागत किया और भक्तिभाव से भरकर विधिपूर्वक उनकी बहुत बड़ी पूजा की। उन्होंने नम्रता से झुककर समस्त प्राणियों के हृदय में विराजमान सच्चिदानंद स्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा-लीला से ही मनुष्य बने हुए सर्वव्यापक परमेश्वर! मैं आप दोनों की क्या सेवा करूं?श्री भगवान् ने कहा-यमराज! यहां अपने कर्म बन्धन के अनुसार मेरा गुरुपुत्र लाया गया है। तुम मेरी आज्ञा स्वीकार करो और उसके कर्म पर ध्यान न देकर उसे मेरे पास ले आओ। यमराज ने जो आज्ञा कहकर भगवान् का आदेश स्वीकार किया और उनका गुरुपुत्र ला दिया। तब यदुवंश शिरोमणि भगवान् श्रीकृ्रष्ण और बलरामजी उस बालक को लेकर उज्जैन लौट आए और उसे अपने गुरुदेव को सौंप दिया।

भक्ति के बिना ज्ञान घमंडी बनाता है
भगवान पुन: पढ़कर लौटे हैं। मथुरावासियों ने उनका स्वागत किया। राजा उग्र्रसेन स्वयं स्वागत करने आए। कुछ काल मथुरा में रहे, फिर कृष्ण को वृन्दावन की याद आई और उन्होंने उद्धवजी को वृंदावनवासियों की सुधि लेने के लिए भेजा था।उद्धव की कथा वक्ता के लिए एक आव्हान है। दक्षिण के महात्माओं का ऐसा मत है कि इस प्रसंग में ज्ञान और भक्ति का मधुर कलह है। इसमें ज्ञान और भक्ति का समन्वय भी है और उद्धवजी निर्गुण ज्ञान के पक्षधर हैं तो गोपियां शुद्ध प्रेम लक्षणा सगुण भक्ति की।

जीवन संतुलन का नाम है यह इस प्रसंग में दिखेगा।वैसे तो भक्ति और ज्ञान में कोई अन्तर नहीं, भक्ति ही परिणति है ज्ञान। उद्धव ज्ञानी तो थे, किन्तु उनके ज्ञान को भक्ति का साथ नहीं था। भक्ति रहित ज्ञान अभिमानी बनाता है। भक्ति ज्ञान को नम्र बनाती है। भक्ति का साथ न हो, तो ज्ञान अभिमान के द्वारा जीव को उद्धण्ड बना देता है। श्रीकृष्ण अब मथुरानाथ हो गए हैं। यहां ऐश्वर्य का प्राधान्य है। गोकुल के गोपाल अब मथुरा के अधिपति हैं। गायें चराने वाले कन्हैया की

अब कई दास-दासियां सेवा कर रही हैं। उद्धवजी भी श्री अंग सेवा करते हैं। सभी प्रकार का सुख और ऐश्वर्य चरणों में स्थित है। जीव ऐश्वर्यमय हो गया किन्तु भगवान ने ब्रजवासियों के प्रेम को भुलाया नहीं। राजप्रासाद की अटारी में बैठकर वे गोकुल की झांकी याद करते रहते हैं। वे बार-बार यशोदाजी को याद करते हैं, वे मेरी प्रतीक्षा में रोती रहती होंगी।

भोली माता मेरे वचन को याद करके राह निहारती होंगी। मेरी प्यारी गायें और उनके बछड़े क्या करते होंगे। मथुरा की ओर मुंह करके मुझे पुकारते होंगे। मेरे बाबा भी मुझे याद करते होंगे। इस प्रकार वे बार-बार सभी को याद करते थे और आंसू बहाते थे।मथुरा में ऐश्वर्य तो था, किन्तु प्रेम नहीं था। प्रभु को तो उनसे प्रेम करने वाले जीव की आवश्यकता है, उनके ऐश्वर्य के प्रेमी की नहीं।

शांति के लिए त्याग जरूरी है
श्रीकृष्ण बार-बार ब्रजवासियों को याद करके रोते रहते थे, माता-पिता गोपियां याद आ जातीं और वे रो लेते। प्रेमी की विरह में बहने वाले अश्रु सुखदायी से लगते हैं। विरह में आंसू ही साथ देते हैं जीव का ईश्वर स्मरण तो साधारण भक्ति है किन्तु जिस जीव का स्वयं भगवान् स्मरण करें, वह तो असाधारण है। कौन है यह राधा जो हृदय सिंहासन पर आसन जमाकर आपको सताती रहती है।

आपका दु:ख मुझसे देखा नहीं जाता। यहां उद्धव-कृष्णजी की भक्ति में समर्पण विषय पर सुंदर चर्चा आई है। गोपियों की स्थिति तक पहुंचने की क्रिया में ईश्वर प्रणिधान के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। संतों ने प्रणिधान की व्याख्या में स्पष्ट कर दिया कि निश्चयपूर्वक ईश्वरीय भावना को धारण किया जाए जिससे वृत्तियों का निरोध हो। वृत्तियों का निरोध क्रम से शनै: शनै: या तीव्र गति से अकर्मक स्थिति का निर्माण कर देता है। ईश्वर को ध्यान एक नाम जप द्वारा तथा उसकी शरण में रहकर, सब कर्मों के फल ईश्वर को समर्पित कर धारण किया जाता है।

इसी संदर्भ में गीता के बारहवें अध्याय के श्लोक नौ, दस, ग्यारह व बारह की विवेचना की जाय तो समझना आसान हो जाता है-प्रबल इच्छा की जाय कि भगवत् दर्शन हों, ध्यान किया जाय, इसमें असमर्थता हो तो ईश्वर निमित्त कर्म किए जायें, इसमें असमर्थता का अनुभव हो तो कर्मों के फलों को ईश्वर अर्पण करके त्याग किया जाए, निश्चित है कि त्याग से परम शान्ति मिलती है।

इतना कहते ही श्रीकृष्ण की आंखों में आंसू आ गए

कृष्णजी बोले-उद्धवजी पूरी मथुरा में मेरा दु:ख पूछने वाले एक तुम ही निकले। क्या-क्या बताऊं मैं तुम्हें, मेरे सच्चे माता-पिता तो देवकी व वसुदेव हैं किन्तु गोकुल में रहकर यशोदा नन्दजी भी तो मेरे माता-पिता हैं। मेरी माता मुझे कितने दुलार से खिलाती-पिलाती थी। मुझे अपनी सखियां, अपने मित्र और अपनी गायें बहुत याद आती हैं।

सभी ग्वाल बाल मुझे अपने घरों से लाई हुई खाद्य सामग्री खिलाते थे। कोमल पत्तों से सेज बनाकर सुलाते थे और मेरी गायों की रखवाली करते थे।मैं अपने माता-पिता, मित्रों, सखियों को कैसे भुला दूं।मेरी सखियां, गाय सभी मुझे याद करके रोते होंगे। मैं ब्रज को नहीं भुला पाता।उद्धव कहने लगे, बचपन में गोप बालकों के साथ खेलते रहने की बात तो ठीक है।

किन्तु अब आप मथुरा के राजा हैं और राजा को गोपाल बालक वे कहते हैं-महाराज वहां जाने में मुझे कोई आपत्ति तो नहीं है, किन्तु गांव की अनपढ़ गोपियां कैसे समझेंगी ? मेरे तत्व ज्ञान का उपदेश बड़ा गहन है।सो मेरा जाना वहां निरर्थक ही है।श्रीकृष्ण गोपियों की बुराई सह न सके, उन्होंने उद्धव से कहा उद्धवजी! मेरी गोपियां अनपढ़ नहीं, ज्ञान से परे हैं। वे पढ़ी-लिखी तो अधिक नहीं हैं, किन्तु शुद्ध प्रेम की ज्ञाता हैं।

इसी कारण से तो वे मुझे प्राप्त कर सकी हैं और क्या कहूं।उद्धव गोकुल रवाना-उद्धवजी की तो इच्छा नहीं थी, फिर भी श्रीकृष्ण के कारण वे ब्रज जाने को तैयार हुए। आपका आदेष है तो मैं जाता हूं। मैं वहां नन्दजी, यशोदाजी और गोपालों को उपदेश दे आऊं। मैं जाता हूं।उद्धवजी का रथ चलने लगा, तो श्रीकृष्ण ने उद्धवजी से कहा-मेरे माता-पिता को मेरा प्रणाम कहना और उन्हें आश्वासन देना कि उनका कन्हैया अवश्य आएगा। इतना कहते-कहते ही श्रीकृष्ण को रोना आ गया।

यशोदा की दशा क्या हुई, जब कृष्ण चले गए मथुरा?
ब्रज का यह दृश्य देखकर उद्धवजी का ज्ञानी मन भी थोड़ा विचलित हो रहा था, ज्ञान को भक्ति और प्रेम का साथ मिलने वाला था, सो थोड़ी बेचैनी भी थी। उद्धवजी ने अपने को थोड़ा संभाला। मन को विचलित होने से भी रोकने की चेष्टा की, सोचा मैं तो इन्हें उपदेश देने जा रहा हूं, सो मेरा विकल होना ठीक नहीं।गोपों के घरों में अग्नि, सूर्य, अतिथि, गौ, ब्राह्मण और देवता-पितरों की पूजा की हुई थी।

धूप की सुगन्ध चारों ओर फैल रही थी और दीपक जगमगा रहे थे। उन घरों को पुष्पों से सजाया गया था। ऐसे मनोहर गृहों से सारा व्रज और भी मनोरम हो रहा था। चारों ओर वन पंक्तियां फूलों से लद रही थीं। पक्षी चहक रहे थे और भौंरे गुंजार कर रहे थे। वहां जल और स्थल दोनों ही कमलों के वन से शोभायमान थे और हंस, बत्तख आदि पक्षी वन में विहार कर रहे थे।जब से कन्हैया मथुरा गया, यशोदा नन्दजी ने अन्न का एक दाना मुंह में नहीं रखा। जब तक वह नहीं लौटेगा हम नहीं खाएंगे। न रात को नींद आती है न दिन को चैन।

कृष्ण विरह में जीव अकुलाएगा, छपटाएगा और आंखें बरसने लगेंगी तो मन की मलिनता धुल जाएगी। बाहर का जल शरीर को धोता है विरहाश्रु हृदय की मलिनता को धोते हैं। विरहाश्रु हृदय को शुद्ध और पवित्र करते हैं।यशोदाजी सोचती रहती थीं कि अपना कन्हैया जब लौटैगा, तो मैं उसे अपने गले लगा लूंगी और गोद में बैठाकर भोजन कराऊंगी। उसे खिलाकर ही मैं खाऊंगी। घर की हर वस्तु कन्हैया की याद दिलाती थी। इस पात्र में लला माखन-मिश्री खाता था। उस सेज पर आराम करता था। नन्द-यशोदा इस प्रकार लला की याद में डूबे रहते। आंसू बहाते रहते और परस्पर आश्वासन देते-लेते रहते।यशोदाजी आंगन में बैठे हुए नन्दजी को उल्हाना दे रही थीं।

आप ही के कारण लाला ब्रज छोड़ गया। व्रज से जाते समय उसने वापस आने का वचन दिया था। मेरे आंसू वह देख नहीं पाता था। जब भी मैं रोती वह मुझे मनाने लगता था। आज वह ऐसा निष्ठुर क्यों हो गया। यशोदा रोने लगती हैं। एक दिन वे दोनों आंगन में बैठकर कृष्ण लीलाओं की याद में खोए हुए थे। तभी एक कौआ आकर कांव-कांव करने लगा। कौए की बोली शगुनमय मानी जाती है। कौए को सुना, तो यशोदा ने सोचा कि आज मथुरा से शायद कोई आएगा।

कृष्ण को न देखा तो नन्दजी मूर्छित हो गए...
वह कृष्ण के वचन को याद करते हुए कौए से कहने लगी-मेरा कन्हैया यदि आ जाए तो तेरी चोंच मैं सोने से मढ़वाऊंगी, तुझे मिष्ठान्न खिलाऊंगी। हे काग! तू बता, मेरा लला कब आ रहा है।श्रीदामा, मधुमंगल आदि सब ग्वालवाल रास्ते पर बैठे हुए लाला की प्रतीक्षा कर रहे थे कि दूर से एक रथ आता दिखाई दिया। बालकों ने सोचा लाला ही आया होगा। वे दौड़ते हुए रथ के पास पहुंचे।किन्तु रथ में जो बैठा था वह नीचे नहीं उतरा। यदि कन्हैया होता तो कूदकर नीचे आकर गले लग जाता। उद्धवजी, बालकों को देखकर भी रथ में बैठे रहे।

बच्चों से कहने लगे मैं श्रीकृष्ण का सन्देशा लेकर आया हूं, वह आने वाला है। मैं उद्धव हूं। बालक कहने लगे-उद्धवजी! हम कन्हैया को सुखी करने के लिए उसकी सेवा करते थे, कभी हमने ऐसा तो सोचा ही नहीं था, कि वह ऐसा निष्ठुर हो जाएगा। कन्हैया के बिना यहां सब सूना-सूना लगता है।

वंशीवट, यमुना तट, वृन्दावन सब कुछ सूना और उदास है।बालक उद्धवजी को नन्दबाबा के घर का रास्ता दिखलाते हुए कहने लगे-अच्छा हुआ तुम आ गए। हमें भी कन्हैया को संदेशा भेजना है, किन्तु तुम पहले नन्द-यशोदा के पास जाकर सन्त्वना दो। वे रात-दिन लला की प्रतीक्षा में रोते हैं। हम फिर मिलने आएंगे।नंद-यशोदा-उद्धव- इधर यशोदा कौए से बात कर रही हैं और उधर रथ आंगन मे आ पहुंचा। नन्द-यशोदा ने माना कि कन्हैया ही आया है। दोनों की जान में जान आ गई। दोनों रथ की ओर दौड़ पड़े। दोनों पुकार उठे कन्हैया आया। लाला आया। वे दोनों दौड़ते हुए रथ के पास पहुंचे। किन्तु उसमें कन्हैया नहीं, कोई और ही था। कृष्ण को न देखा तो कृष्ण को पुकारते हुए नन्दजी मूर्छित हो गए।उद्धवजी की तो कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि ये लोग कृष्ण का नाम लेकर क्यों रो रहे हैं। यशोदाजी धीरज धरकर एक दासी से कहने लगीं-यह कोई बड़े व्यक्ति लगते हैं

इनका स्वागत करो। नन्दजी को प्रणाम करते हुए उद्धवजी ने कहा-मैं आपके कन्हैया का मित्र हूं और उसका सन्देश लाया हूं। नन्दजी ने भी कुशलमंगल पूछा। उन्होंने सोचा कि कन्हैया स्वयं नहीं आ सका होगा। सो अपने मित्र को भेजा होगा। उद्धवजी आप आए स्वागत है। कंस की मृत्यु के बाद यादव सुखी हुए होंगे। उद्धवजी एक बात सच-सच बतलाना क्या कन्हैया कभी हमको याद करता है? उद्धवजी कन्हैया से कहना कि यह गिरिराज, यह यमुना उसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। यह उसकी गंगी गाय तो वन में घूमती फिरती है। मुझे रोज-रोज उसकी बांसुरी की मधुर तान सुनाई देती रहती है। उद्धवजी कई बार मुझे लगता है कि वह मेरी गोद में बैठा हुआ खेल रहा है। यमुना में स्नान करने के लिए जाता हूं तो मेरे पीछे-पीछे चला आ रहा है। उद्धवजी मेरा कन्हैया कब लौटेगा ? नन्द पूछ रहे हैं।

क्या संदेश लेकर आए उद्धव गोकुलवासियों के लिए?
उद्धवजी, वसुदेवजी से कहना कि कन्हैया उन्हीं का पुत्र है मैं तो उनका दास हूं। लाला से कहना कि उसकी माता सारा दिन रोती रहती हैं। वह जब यहां था, तो माता को मना लेता था। पर अब कौन मनाए। नन्द इतना बोलते-बोलते व्याकुल हो गए। उद्धवजी उलझन में पड़ गए। मैं इन्हें क्या उपदेश दूं, इन्हें तो हर कहीं कृष्ण ही कृष्ण दिखाई देते हैं। पलने में, घर में, आंगन में, वन में, यमुना किनारे, कदम की डाली पर, कृष्ण ही कृष्ण के दर्शन करते हैं ये नन्दजी।ब्रह्म की सर्वव्यापकता का उपदेशक होकर मैं वैसा अनुभव आज तक नहीं कर पाया। मैं ऐसी ब्रह्म दृष्टि वाले नन्दजी को क्या उपदेश दूं।उन्होंने नन्दजी से कहा-बाबा आप धन्य हैं।

आपका जीवन सफल हो गया। आप कृष्णमय हो चुके हैं। इतने में वहां यशोदाजी आ पहुंची। उद्धवजी का धैर्य टूट गया उन्हें देखकर। यशोदाजी बोलीं-उद्धवजी, सच-सच बताओ, मेरा लाला कुशल से तो है। वह खाने के समय बड़ा हठ करता था, वह कहीं दुबला तो नहीं हो गया है। कभी मुझे याद भी करता है। वहां कौन मनाता होगा उसे। गोकुल में था तब तो वह मेरे आंसू देख नहीं सकता था और मुझे मना लेता था। मैंने एक बार मूसल से बांधा था उसे। कहीं इसीलिए तो वह नहीं रूठा है।वह मुझे याद भी करता है क्या। मैं उसकी माता तो हूं नहीं।

उसकी माता तो देवकी हैं, देवकी से कहना कि सेविका की आवश्यकता हो तो मुझे बुला लें। कृष्ण विरह में हम मरे जा रहे हैं। वह जहां हो वहां हमें ले चलो उद्धवजी। हमें वहां ले चलोगे तो भगवान् तुम्हारा कल्याण कर देंगे।यशोदा प्रेम देखा उद्वव ने-मैं नारायण से प्रार्थना करती हूं कि कन्हैया चाहे यहां न आए किन्तु जहां भी रहे, सुखी रहे। उद्धवजी बोले-माताजी! कृष्ण तुम सबको बार-बार याद करते हैं। वे स्वयं यहां आने वाले थे, किन्तु मथुरा का शासन उन्होंने संभाला है सो उन्हें अवकाश नहीं मिलता। मुझसे कहा है कि मथुरा में आकर इस कारोबार में डूब गया हूं, माता को मेरा कुशल मंगल दे आ। नन्द-यशोदा का कृष्ण प्रेम देखकर उद्धवजी का आधा अभिमान तो हवा हो गया। जो व्यक्ति पलने में, घर में, आंगन में, वृक्षों पर, वन में, हर कहीं कृष्ण को ही देख रहा हो, उसे ब्रह्म के सर्वव्यापी रूप का अनुभव कराना व्यर्थ है। वह तो पहले से ही उसका आनन्द ले रहा है।

जब गोपियों ने उद्धव को देखा तो उन्हें लगा...
जब भगवान् भुवनभास्कर का उदय हुआ, तब व्रजांगनाओं ने देखा कि नन्दबाबा के दरवाजे पर एक सोने का रथ खड़ा है। वे एक-दूसरे से पूछने लगीं यह किसका रथ है? किसी गोपी ने कहा कंस का प्रयोजन सिद्ध करने वाला अक्रूर ही तो कहीं फिर नहीं आ गया है? जो कमलनयन प्यारे श्यामसुंदर को यहां से मथुरा ले गया था। किसी दूसरी गोपी ने कहा- क्या अब वह हमें ले जाकर अपने मरे हुए स्वामी कंस का पिण्डदान करेगा ? अब यहां उसके आने का और क्या प्रयोजन हो सकता है? व्रजवासिनी स्त्रियां इसी प्रकार आपस में बातचीत कर रही थीं कि उसी समय नित्यकर्म से निवृत्त होकर उद्धवजी आ पहुंचे।गोपी प्रेम देखा-उद्धवजी यशोदा की आज्ञा से यमुना स्नान को चले। सखियों को भी कन्हैया का सन्देश देना था।

गोपियों का कृष्ण कीर्तन सुना, तो उन्होंने सोचा कि जिनके कण्ठ इतने मधुर हैं, वे कैसी अद्भुतस्वरूपा होंगी। उन्होंने अब तक किसी भी गोपी का दर्शन पाया नहीं था।ब्रह्म मुहूर्त में कृष्ण कीर्तन करने वाले ये गोप धन्य हैं। कृष्ण के स्मरण मात्र से इनके हृदय द्रवित होते हैं। उद्धवजी का ज्ञानमार्ग धीरे-धीरे मिट रहा था। उद्धव भये सुद्धव। उद्धव का ज्ञान भक्ति रहित था, सो कृष्ण ने उनको ब्रज भेजा। उद्धवजी नन्द-यशोदा की प्रेम मूर्ति को देखकर आनन्दित हो गए।नन्द के आंगन में गोपियां प्रणाम करने आईं। गोपियों ने देखा कि वहां रथ खड़ा है। उनको अक्रूर प्रसंग याद आ गया। हमारे कन्हैया को ले जाने वाला अक्रूर लगता है फिर आया, क्यों आया होगा ?
ललिता नाम की सखी कहने लगी-मैं कृष्ण को ज्यों-ज्यों भूलने का प्रयत्न करती हूं वे उतने ही याद आते हैं। कल मैं कुंए पर जल भरने गई थी तो बांसुरी का स्वर सुनाई दिया। एक गोपी कहती है लोग चाहे कुछ भी कहें किन्तु मुझे तो कृष्ण यहीं दिखाई देता है मथुरा गया ही नहीं।उद्धवजी ने गोपियों को अपना परिचय देते हुए कहा-मैं तुम्हारे मथुरावासी श्रीकृष्ण का अन्तरंग सखा उद्धव हूं और आपके लिए उनका सन्देश लाया हूं। गोपियां बोलीं-तुम थोथे पण्डित ही हो। क्या श्रीकृष्ण केवल मथुरा में ही बसते हैं। वे तो सर्वत्र हैं, तुम्हें मात्र मथुरा में ही भगवान दिखाई देते हैं और हमको तो यहां कण-कण में उनका दर्शन हो रहा है

उद्धव मथुरा पहुंचकर गोपियों की प्रशंसा करने लगे क्योंकि....
हमारी वाणी नित्य-निरन्तर उन्हीं के नामों का उच्चारण करती रहे और शरीर उन्हीं को प्रणाम करने, उन्हीं के आज्ञा-पालन और सेवा में लगा रहे। उद्धवजी! हम सच कहते हैं, हमें मोक्ष की इच्छा बिल्कुल नहीं है। हम भगवान् की इच्छा से अपने कर्मों के अनुसार चाहे जिस योनि में जन्म लें वहां शुभ आचरण करें, दान करें और उसका फल यही पावें कि हमारे अपने ईश्वर श्रीकृष्ण में हमारी प्रीति उत्तरोत्तर बढ़ती है। प्रिय परीक्षित नन्दबाबा आदि गोपों ने इस प्रकार श्रीकृष्ण भक्ति के द्वारा उद्धवजी का सम्मान किया।अब वे भगवान् श्रीकृष्ण के द्वारा सुरक्षित मथुरा में लौटे आए। वहां पहुंचकर उन्होंने भगवान् श्रीकृष्ण को प्रणाम किया और उन्हें व्रजवासियों की प्रेममयी भक्ति का उद्रेक, जैसा उन्होंने देखा था, कह सुनाया।मथुरा लौटै-उद्धवजी कृष्ण के पास आए। अन्तरयामी श्रीकृष्ण जानते हैं कि उद्धवजी क्या कहने जा रहे हैं। सो वे कहने लगे-उद्धव जब तुम इधर थे, तो मेरी प्रशंसा करते थे।

अब गोकुल हो आए हो, तो गोपियों की प्रशंसा करने लगे हो। मैं निष्ठुर नहीं हूं। उद्धव का गोकुलागमन प्रसंग ज्ञान और भक्ति के मधुर कलह का चित्रण है।यूं कहा जा सकता है कि गोकुल से लौटकर उद्धवजी की कुण्डलिनी जाग्रत हो गई थी। गोपी भाव योगी भाव एक जैसे हैं एक स्थिति में जाकर।आत्म स्वरूपा शक्ति कुण्डलिनी ब्रम्हा ही है। पंच महाभूतों के माध्यम से यह जब व्यक्त होती है तो जड़ कहलाती है और इन्द्रिय मन, बुद्धि, चित्त अहंकार के माध्यम से व्यक्त होती है, तब चेतन कहलाती है। इसका शक्तिपात में रूपांतरण होता है। चेतनता का गुरु शक्तिपात द्वारा जाग्रत करते हैं।

तब उद्धव हस्तिनापुर के लिए निकल पड़े क्योंकि...
अक्रूरजी का हस्तीनापुर जाना-भगवान् ने अक्रूरजी के घर जाकर उनसे निवेदन किया कि वे एक बार हस्तीनापुर जाकर पांडवों की सुध लें। अब भगवान का उस कथा में प्रवेश हो रहा है जो हमें उनके विराट रूप, अद्भूत ज्ञान और धर्म स्वरूप के दर्शन कराएगी। भगवान हस्तिनापुर जाने वाले हैं जहां धर्म का दमन हो रहा है, उनके अभिन्न सखा अर्जुन से मिलने वाले हैं, दुनिया को गीता का उपदेश मिलने वाला है। हमने ऐसा सुना है कि राजा पाण्डु के मर जाने पर अपनी माता कुन्ती के साथ युधिष्ठिर आदि पाण्डव बड़े दुख में पड़ गए थे। अब राजा धृतराष्ट्र उन्हें अपनी राजधानी हस्तिनापुर में ले आए हैं और वे वहीं रहते हैं। आप जानते ही हैं कि राजा धृतराष्ट्र एक तो अंधे हैं और दूसरे उनमें मनोबल की भी कमी है। उनका पुत्र दुर्योधन बहुत दुष्ट है और उसके अधीन होने के कारण वे पाण्डवों के साथ अपने पुत्रों जैसा समान व्यवहार नहीं कर पाते। इसलिए आप वहां जाइये और मालूम कीजिए कि उनकी स्थिति अच्छी है या बुरी। आपके द्वारा उनका समाचार जानकर मैं ऐसा उपाय करूंगा, जिससे उन सुहृदों को सुख मिले। भगवान् का आदेश पाकर अक्रूरजी हस्तिनापुर गए। वहां उन्होंने पाण्डवों की दशा देखी। यहां से श्रीकृष्ण के जीवन में महाभारत युग का आरंभ हो रहा है।

भगवान् के आज्ञानुसार अक्रूरजी हस्तिनापुर गए। वहां की एक-एक वस्तु पर पुरुवंशी नरपतियों की अमर कीर्ति की छाप लग रही है। वे वहां पहले धृतराष्ट्र, भीष्म, विदुर, कुन्ती, बाम्हीक और उनके पुत्र सोमदत्त, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, कर्ण, दुर्योधन, द्रोणपुत्र अश्वत्थामा, युधिष्ठिर आदि पांचों पाण्डव तथा अन्यान्य इष्ट मित्रों से मिले। जब गान्दिनीनन्दन अकू्ररजी सब इष्ट मित्रों और संबंधियों से भलीभांति मिल चुके, तब उनसे उन लोगों ने अपने मथुरावासी स्वजन, संबंधियों की कुशल क्षेम पूछी। उनका उत्तर देकर अक्रूरजी ने भी हस्तिनापुरवासियों के कुशल मंगल के संबंध में पूछताछ की। अक्रूरजी यह जानने के लिए कि धृतराष्ट्र पाण्डवों के साथ कैसा व्यवहार करते हैं, कुछ महीनों तक वहीं रहे।

यह कहानी आपको जीवन के भीतर चल रही महाभारत दिखाएगी
सच पूछो तो धृतराष्ट्र में अपने दुष्ट पुत्रों की इच्छा के विपरीत कुछ भी करने का साहस न था। वे शकुनि आदि दुष्टों की सलाह के अनुसार ही काम करते थे। अक्रूरजी को कुन्ती और विदुर ने यह बतलाया कि धृतराष्ट्र के लड़के दुर्योधन आदि पाण्डवों के प्रभाव, शस्त्रकौशल, बल, वीरता तथा विनय आदि सद्गुण देख-देखकर उनसे जलते रहते हैं। जब वे यह देखते हैं कि प्रजा पाण्डवों से ही विशेष प्रेम रखती है, तब तो वे और भी चिढ़ जाते हैं और पाण्डवों का अनिष्ट करने पर उतारू हो जाते हैं। अब तक दुर्योधन आदि धृतराष्ट्र के पुत्रों ने पाण्डवों पर कई बार विषदान आदि बहुत से अत्याचार किए हैं और आगे भी बहुत कुछ करना चाहते हैं।

यह कथा हमें हमारे जीवन के भीतर चल रही महाभारत को दिखाएगी। हमारा मन भी एक कुरुक्षेत्र है, जिसमें हर समय विचारों, भावनाओं और न जाने कितने सवालों का युद्ध चलता रहता है। यह कथा हमें इसी द्वंद्व में जीना और जीतना सिखाएगी। जब अक्रूरजी कुन्ती के घर आए, तब वह अपने भाई के पास जो बैठी। अक्रूरजी को देखकर कुन्ती के मन में अपने मायके की स्मृति जग गई और नेत्रों में आंसू भर आए।

उन्होंने कहा - प्यारे भाई! क्या कभी मेरे मां-बाप, भाई-बहिन, भतीजे, कुल की स्त्रियां और सखी-सहेलियां मेरी याद करती हैं? मैंने सुना है कि हमारे भतीजे भगवान् श्रीकृष्ण और कमलनयन बलराम बड़े ही भक्तवत्सल और शरणागत-रक्षक हैं। क्या वे कभी अपने इन फुफेरे भाइयों को भी याद करते हैं? मैं शत्रु के बीच घिरकर शोकाकुल हो रही हूं। मेरे बच्चे बिना बाप के हो गए हैं। क्या हमारे श्रीकृष्ण कभी यहां आकर मुझको और इन अनाथ बालकों को सांत्वना देंगे? अपने बच्चों के साथ दुख पर दुख भोग रही हूं। तुम्हारी शरण में आई हूं। मेरी रक्षा करो। मेरे बच्चों को बचाओ। श्रीकृष्ण को स्मरण करके अत्यंत दुखित हो गई और रोने लगी।

क्या कहा अक्रूरजी ने धृतराष्ट्र से?
अक्रूरजी जब मथुरा जाने लगे, तब राजा धृतराष्ट्र के पास आए। अब तक यह स्पष्ट हो गया था कि राजा अपने पुत्रों का पक्षपात करते हैं और भतीजों के साथ अपने पुत्रों का-सा बर्ताव नहीं करते! अब अक्रूरजी ने कौरवों की भरी सभा में श्रीकृष्ण और बलरामजी आदि का हितैशिता से भरा संदेश कह सुनाया। अक्रूरजी ने कहा-महाराज धृतराष्ट्रजी! आप कुरुवंशियों की उज्जवल कीर्ति को और भी बढ़ाइये।

यदि आप विपरीत आचरण करेंगे तो इस लोक में आपकी निन्दा होगी। इसलिए अपने पुत्रों और पाण्डवों के साथ समानता का बर्ताव कीजिए। इसलिए महाराज! यह बात समझ लीजिए कि यह दुनिया चार दिन की चांदनी है, सपने का खिलवाड़ है, जादू का तमाशा है और है मनोराज्य मात्र! आप अपने प्रयत्न से, अपनी शक्ति से चित्त को रोकिये, ममतावश पक्षपात न कीजिए। आप समर्थ हैं, समत्व में स्थित हो जाइये और इस संसार की ओर से उपराम शांत हो आइये। श्लोक पर बैठकर स्नान का कुछ ही क्षणों राजा धृतराष्ट्र ने कहा आप मेरे कल्याण भले की बात कह रहे हैं जैसे मरने वाले को अमृत मिल जाए तो वह उससे तृप्त नहीं हो सकता वैसे ही मैं भी आपकी इन बातों से तृप्त नहीं हो रहा हूं।

फिर भी हमारे हितैशी अक्रूरजी! मेरे चंचल चित्त में आपकी यह प्रिय शिक्षा तनिक भी नहीं ठहर रही है क्योंकि मेरा हृदय पुत्रों की ममता के कारण अत्यन्त विषम हो गया है। जैसे स्फटिक पर्वत के शिखर पर एक बार बिजली कौंधती है और दूसरे ही क्षण अन्र्तध्यान हो जाती है। वही दशा आपके उपदेशों की है। अक्रूरजी! सुना है भगवान् पृथ्वी का भार उतारने के लिए यदुकुल में अवतीर्ण हुए हैं। ऐसा कौन पुरुष है। जो उनके विधान में उलट फेर कर सके उनकी जैसी इच्छा होगी वही होगा।इस प्रकार अक्रूरजी महाराज धृतराष्ट्र का अभिप्राय जानकर और कुरुवंशी स्वजन संबंधियों से प्रेम पूर्वक अनुमति लेकर मथुरा लौट आए।

उसी का नाम अभिमान है
भागवत का दसवां स्कंध दो भागों में है। पूर्वाद्र्ध में 49 अध्याय हैं। उत्तरार्ध में 50वें अध्याय से लेकर 90 अध्याय तक प्रसंग हैं। यदि भागवत कथा सात दिन के अनुसार रहे तो इस समय पांचवे दिवस की कथा चल रही है। पांचवे दिन की कथा दसवें स्कंध के 54वें अध्याय में समाप्त होती है जहां भगवान श्रीकृष्ण का रुक्मिणीजी के साथ विवाह होता है।कृष्ण के वैवाहिक जीवन में प्रवेश करने से पहले कंस और उसके जीवन को समझना आवश्यक है। कंस हिंसा का प्रतीक है। हिंसा अभिमान और अधर्म के पक्ष से हो तो वह कंस को ही जन्म देगी। कंस की दो पत्नियां हैं, यहां से हम अधर्म और हिंसा को बेहतर समझ सकते हैं। कंस अधर्म और हिंसा का प्रतीक था सो उसकी जीवन संगिनियां भी वैसी ही थीं, जो उसके इस अवगुण को बढ़ावा दे।

कंस की अस्ति और प्राप्ति नामक दो पत्नियां थीं। कंस यानी अभिमान होता है। हिंसक: एव कंस: इति उच्यते-जो हिंसा करे, उसका नाम कंस है। वह हिंसा ऐसे करता है कि किसी वस्तु को देश, काल से परिच्छिन्न करके मैं बना लेता है। उसी का नाम अभिमान है। 'अभि तो मान: परिणाम:- जिसके चारों ओर मान हो, परिमाण अलग-थलग कर देता है। अपने चारों ओर चहारदीवारी बनाकर कहता है-अहं ब्राह्मण:, क्षत्रियो न भवामिमैं ब्राह्मण हूं क्षत्रिय नहीं हूं,-त्वं क्षत्रिय:, मत्तो भिन्न:-तू क्षत्रिय है, मुझसे भिन्न है आदि। अभिमान केवल जाति का ही नहीं कुल का, कर्म का, विद्या का, बुद्धि का-अनेक प्रकार का होता है और परिच्छेदन ही इसका नाम है। यह अभिमान बड़ा भारी हिंसक होता है। अब कंस की अस्ति और प्राप्ति नामक दोनों पत्नियों का स्वरूप देखो। अस्ति यानी इतना तो हमारे पास है, इतने के हम मालिक हैं और प्राप्ति यानी आगे इतना और प्राप्त करेंगे।

इसी में अभिमानी लगा रहता है।यहां से दशम स्कंध का उत्तरार्ध आरम्भ होता है। कंस को यमलोक पहुंचा देने के बाद ब्रजवासी सुखी हो गए। उस पर राजा उग्रसेन के राज्य में सब भांति सुख था, किन्तु कंस की पत्नियां दुखी थीं। उन्होंने अपने पिता जरासंध को जाकर ये सारी बातें कहीं। जरासंध को सहन नहीं हुआ। उसने अपने हितचितन्कों को सूचना दी, राजाओं को एकत्रित किया और मथुरा पर आक्रमण कर दिया।उसने यह निश्चय करके कि मैं पृथ्वी पर एक भी यदुवंशी नहीं रहने दूंगा, युद्ध की बहुत बड़ी तैयारी की और तेईस अक्षौहिणी सेना के साथ यदुवंशियों की राजधानी मथुरा को चारों ओर से घेर लिया।

शांति चाहिए तो.....
भगवान श्रीकृष्ण ने देखा-जरासन्ध की सेना क्या है, उमड़ता हुआ समुद्र है। उन्होंने यह भी देखा कि उसने चारों ओर से हमारी राजधानी घेर ली है और हमारे स्वजन तथा पुरवासी भयभीत हो रहे हैं। भगवान ने विचार किया कि अभी मगधराज जरासन्ध को नहीं मारना चाहिए, क्योंकि वह जीवित रहेगा तो फिर से असुरों की बहुत सी सेना लाएगा। मेरे अवतार का यही प्रयोजन है कि मैं पृथ्वी का बोझ हल्का कर दूं, साधु-सज्जनों की रक्षा करूं और दुष्ट-दुर्जनों का संहार। समय-समय पर धर्मरक्षा के लिए और बढ़ते हुए अधर्म को रोकने के लिए मैं और भी अनेकों शरीर ग्रहण करता हूं।कृ्ष्ण दिग्दृष्टा थे वे दूर की सोचते थे। क्षणिक आवेश उनका स्वभाव ही नहीं था। उन्होंने अपने पूरे जीवनकाल में शांति को सबसे ज्यादा महत्व दिया। शांति किसी भी मोल मिले, सस्ती ही है। हम जीवनभर जिस सुख की तलाश में भटकते हैं, वह खोज अंतत: शांति पर ही आकर टिकती है।

हर युद्ध के पहले कृष्ण ने किसी न किसी तरह से शांति का महत्व बताया है। शांति तभी मिलती है जब सारे विकार मिट जाएं। भगवान सारे विकारों को मिटाने के लिए जरासंध को हर बार जिन्दा छोड़ देते हैं, ताकि ये फिर अपने बचे-खुचे साथियों को जोड़कर लाए।उस समय दोनों भाई अपने-अपने आयुध लिए हुए थे और छोटी सी सेना उनके साथ-साथ चल रही थी। श्रीकृष्ण का रथ हांक रहा था दारुक। पुरी से बाहर निकलकर उन्होंने अपना पांच्यजन्य शंख बजाया। उनके शंख की भयंकर ध्वनि सुनकर शत्रुपक्ष की सेना के वीरों के हृदय डर के मारे थर्रा उठे।

इस तरह काल को भी जीता जा सकता है
पचास वर्ष पूर्ण होने पर जरासंध आता है। जीव का पूर्वाद्र्ध समाप्त हुआ और अब उत्तरार्ध आया है वृद्धावस्था। वृद्धावस्था शुरू हो गई है। जरासंध के आने पर मथुरा का गढ़ टूटने लगता है। आंखों की, कानों की, हाथ पैरों की शक्ति क्षीण होती जाती है। चालीसवां वर्ष शुरू होते ही प्रवृत्ति में कटौती करनी शुरू करनी चाहिए। प्रभु की सेवा का समय बढ़ा देना चाहिए।जब जरासंध वृद्धावस्था अपने साथ काल को भी ले आता है तब बचना और कठिन है।

जरासंध और कालयवन एक साथ आ धमके तो श्रीकृष्ण को मथुरा छोड़ द्वारिका आना पड़ा।कालयवन का आगमन का समाचार सुनकर श्रीकृष्ण ने उसको कंस के समान ही समझा और यादवों की रक्षा के लिए एक नए दुर्ग का निर्माण किया। सभी यादवों को उस जगह भेजकर सुरक्षित कर दिया। स्वयं दुर्ग से बाहर निकल आए। जब कालयवन भगवान् श्रीकृष्ण की ओर दौड़ा, तब वे दूसरी ओर मुंह करके रणभूमि से भाग चले और उन योगिदुर्लभ प्रभु को पकडऩे के लिए कालयवन उनके पीछे-पीछे दौडऩे लगा। रणछोड़ भगवान् लीला करते हुए भाग रहे थे, कालयवन पग-पग पर यही समझता था कि अब पकड़ा, तब पकड़ा। इस प्रकार भगवान् बहुत दूर एक पहाड़ की गुफा में घुस गए। उनके पीछे कालयवन भी घुसा। वहां उसने एक दूसरे ही मनुष्य को सोते हुए देखा। उसे देखकर कालयवन ने सोचा ''देखो तो सही, यह मुझे इस प्रकार इतनी दूर ले आया और अब इस तरह-मानो इसे कुछ पता ही न हो, साधु बाबा बनकर सो रहा है।

यह सोचकर उस मूढ़ ने उसे कसकर एक लात मारी। वह पुरुषबहुत दिनों से वहां सोया हुआ था। पैर की ठोकर लगने से वह उठ पड़ा और धीरे-धीरे उसने अपनी आंखें खोलीं। इधर-उधर देखने पर पास ही कालयवन खड़ा हुआ दिखाई दिया। वह पुरुष इस प्रकार ठोकर मारकर जगाए जाने से कुछ रुष्ट हो गया था। उसकी दृष्टि पड़ते ही कालयवन के शरीर में आग पैदा हो गई और वह क्षणभर में जलकर राख का ढेर हो गया।यह काल को जीतने का तरीका है, जब हम पर काल का हमला हो तो डरे नहीं, परमात्मा को उसके आगे कर दें। परमात्मा को आगे कर देने से लाभ यह होगा कि काल आपको सताएगा नहीं। परमात्मा जब आगे हो जाएगा तो फिर सद्गुरु, सद्पुरुषों और सत्संग की इच्छा जागेगी। जीवन में सत्संग घटने लगेगा तो काल और उससे भयंकर उसका भय दोनों स्वत: ही समाप्त हो जाएंगे। कालयवन को जो पुरुष गुफा में सोए मिले.....।

वे इक्ष्वाकुवंषी महाराजा मान्धाता के पुत्र राजा मुचुकुन्द थे। वे ब्राह्मणों के परम भक्त, सत्यप्रतिज्ञ, संग्राम विजयी और महापुरुष थे। एक बार इन्द्रादि देवता असुरों से अत्यन्त भयभीत हो गए थे। उन्होंने अपनी रक्षा के लिए राजा मुचुकुन्द से प्रार्थना की और उन्होंने बहुत दिनों तक उनकी रक्षा की।

कृष्ण को रणछोड़ क्यों कहते हैं?
उस समय देवताओं ने कह दिया था कि सोते समय यदि आपको कोई मूर्ख बीच में ही जगा देगा, तो वह आपकी दृष्टि पड़ते ही उसी क्षण भस्म हो जाएगा।कालयवन के भस्म होते ही भगवान श्रीकृष्ण मुचुकुंद के समक्ष प्रकट हुए मुचुकुंद ने उनको प्रणाम किया। भगवान् ने उसे बद्रिकाश्रम जाने के लिए कहा। दोनों भाई वापस मथुरा लौट आए। इधर भगवान् श्रीकृष्ण मथुरापुरी में लौट आए। अब तक कालयवन की सेना ने उसे घेर रखा था।

अब उन्होंने म्लेच्छों की सेना का संहार किया और उसका सारा धन छीनकर द्वारका को ले चले। जिस समय भगवान् श्रीकृष्ण के आज्ञानुसार मनुष्यों और बैलों पर वह धन ले जाया जाने लगा, उसी समय मगधराज जरासन्ध फिर (अठारहवीं बार) तेईस अक्षौहिणी सेना लेकर आ धमका। शत्रु-सेना का प्रबल वेग देख कर भगवान् श्रीकृष्ण और बलराम मनुष्यों की सी लीला करते हुए उसके सामने से बड़ी फुर्ती के साथ भाग निकले।

उनके मन में तनिक भी भय न था। फिर भी मानो अत्यन्त भयभीत हो गए हों इस प्रकार का नाट्य करते हुए, वह सब का सब धन वहीं छोड़कर अनेक योजनों तक वे अपने कमलदल के समान सुकोमल चरणों से ही पैदल भागते चले गए। जीवन में शांति के महत्व पर भगवान की यह सबसे अद्भुत लीला थी। जिनका एक केश मात्र ही पूरी पृथ्वी का भार कम करने में सक्षम है वे श्रीकृष्ण नंगे पैर भागे। कृष्ण, कंस के अत्याचार झेल चुके मथुरावासियों के जीवन में अब पूर्ण शांति चाहते थे।

जरूरत है तो सिर्फ तरीका बदलने की
जीवन जीने के लिए काम करना जरूरी है आप अपने काम के तरीके से ही अपने जीवन को स्वर्ग और नर्क बना सकते हैं। सोचिए कि परमात्मा ने मनुष्य को अन्य जीवों से श्रेष्ठ क्यों बनाया? क्योंकि वो चाहता है कि आप अपना जीवन श्रेष्ठ तरीके से जीएं। भगवान ने हर मनुष्य को समान योग्यताएं दी हैं। बस जरूरत है तो उसे उपयोग करने की। यहां कथा के माध्यम से कृष्ण भी कुछ ऐसा ही संदेश दे रहे हैं।

जब महाबली मगधराज जरासन्ध ने देखा कि श्रीकृष्ण और बलराम तो भाग रहे हैं, तब वह हंसने लगा। उसे भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी के ऐश्वर्य, प्रभाव आदि का ज्ञान न था। बहुत दूर तक दौडऩे के कारण दोनों भाई कुछ थक से गए। अब वे बहुत ऊंचे प्रवर्शण पर्वत पर चढ़ गए। उस पर्वत का प्रवर्षण नाम इसलिए पड़ा था कि वहां सदा ही मेघ वर्षा किया करते थे। जब जरासन्ध ने देखा कि वे दोनों पहाड़ में छिप गए और बहुत ढूंढने पर भी पता न चला, तब उसने ईंधन से भरे हुए प्रवर्शण पर्वत के चारों ओर आग लगवा कर उसे जला दिया। जब भगवान् ने देखा कि पर्वत के छोर जलने लगे हैं, तब दोनों भाई जरासन्ध की सेना के घेरे को लांघते हुए बड़े वेग से उस ग्यारह योजन (44 कोस) ऊंचे पर्वत से एकदम नीचे धरती पर कूद आए। उन्हें जरासन्ध ने अथवा उसके किसी सैनिक ने देखा नहीं और वे दोनों भाई वहां से चलकर फिर अपनी समुद्र से घिरी हुई द्वारकापुरी में चले आए।

जरासन्ध ने ऐसा मान लिया कि श्रीकृष्ण और बलराम तो जल गए और फिर वह अपनी बहुत बड़ी सेना लौटाकर मगध देश को चला गया। इस बात की बड़ी चर्चा होती है कि भगवान युद्ध से भागे थे। आईए इस फिलॉसाफी पर चर्चा करें....। गीता में भगवान ने कहा-हे पार्थ! मुझे तीनों लोकों में कुछ भी करने को नहीं है। पाने योग्य कोई ऐसी वस्तु नहीं है जो पाई न हो। तो भी मैं कार्य में लगा रहता हूं। भगवान के कार्य सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी, पवन इत्यादि को अविराम और अचूक गति से चलने में दिखाई देते हैं। भगवान् वह ईश्वर ही तो ''सब कारणों का एक मात्र अधिष्ठाता है, इस जगत् के रूप में व्यक्त हो रहा है।ईश्वर प्रकृति रूप में जब अबाधगति से कर्मरत है तो व्यक्ति क्यों कर्म विमुख हो? कर्म समाप्त नहीं होते।

अगर चाहिए सुख तो जीएं कुछ इस तरह
अब सवाल है, कर्म कैसे हों और किस प्रकार उन्हें सम्पादित किया जाए जिससे कि व्यक्ति साधक की श्रेणी में आ जाए और महर्शियों की सनातन परम्परा चलती रहे ताकि परम-सुख का जीवित रहते अनुभव होता रहे? मृत्यु-उपरांत जन्म-मरण का चक्र टूट भी जाए तो भी अचेतन अवस्था में चक्र चलते ही रहते हैं। भगवान् बुद्ध का कथन था-दुख था, दुख है व दुख होगा। माना कि यह निराशा का द्योतक है, किन्तु गहराई से देखें तो सुख में भी दुख ही छुपा रहता है। अनित्य कभी स्थाई सुख नहीं दे सकता। सुख रूप में प्रतीत होने वाला यह सब कुछ दुख है, ऐसा मानने वाला घोर एवं दुस्तर संसार से पार हो जाता है। इस दर्शन या कथन को हम इस रूप में लें दुख प्रतीत होने वाले से आसक्ति नहीं होती और अनासक्ति की प्रकृति बनती जाती है। किन्तु यह सब भौतिक सुख के विषय में ही लेना ठीक है। आध्यात्मिक सुख-परम सुख तो संसार से पार करने में बाधक नहीं वरन् सहायक ही है।सुख या दुख की अनुभूति कर्म करते हुए प्रत्येक व्यक्ति को होती है।

लौकिक या भौतिक ज्ञान-विज्ञान (ब्राह्म कर्म) राज्यावस्था, (क्षात्र कर्म) भूमि- उत्पाद से संबंधित कार्य (वैश्य कर्म) तथा अन्य सेवा कार्य के रूप में विभाजित हैं। कभी इनमें, विशेष भारत में, कड़ी सीमा रेखाएं थीं अब श्रम कार्य- विभाजन (डिवीजन ऑफ लेबर) के रूप में स्वीकारा जाता है। कार्य परिवर्तन पहले जड़ था फिर उनमें शिथिलता आई। द्रोणाचार्य, आचार्य कृप आदि ने ब्राह्मण होते हुए युद्ध किया था। विश्वामित्र ब्राह्मण हुए, रावण राजा बना था आदि आदि। इन लौकिक कर्मों का समाज चलाते रखने में महत्व है।

आजीविका के लिए अपनी अपनी योग्यता, देश, काल, परिस्थिति के अनुसार आवश्यक है। इन लौकिक कार्यों के करते सफलता या असफलता, लाभ या हानि, यश या अपयश या कुछ नहीं पल्ले पड़ता है और मन-स्थिति को साम्य बनाए रखने में कर्म के प्रति अनासक्ति बड़ा योगदान देती है। यह तब संभव हो जाता है जब ईश्वरीय शक्ति में विश्वास हो, शुद्ध अटूट आसक्ति हो।कार्य करते हुए कुछ प्राप्ति या फल आकांक्षा रही तो दुख है ही योगी के लक्षण अपने में उत्पन्न करने के लिए आवश्यक है।

प्रेम ऐसा हो तो उसे ढूंढना नहीं पड़ता
रुक्मिणी, भक्ति और प्रेम का सामंजस्य है। वह भगवान की जितनी भक्त हैं, उतनी ही प्रेमी भी। बिना देखे, बिना मिले, कृष्ण के गुणों से, स्वरूप से प्रेम हो गया। भगवान को देखा नहीं, लेकिन उनके अलावा कुछ दिखता भी नहीं। मन से अपना सबकुछ मान लिया। अपना सर्वस्व अर्पित भी कर दिया।जब प्रेम ऐसा हो जाए तो फिर परमात्मा को खोजने के लिए भटकना नहीं पड़ता। वह तो खुद ही हमें ढूंढता चला आता है।

रुक्मिणीजी ने मन में भगवान को सर्वोच्च स्थान दिया, अब उसके जीवन में भगवान खुद प्रवेश करने वाले हैं। खुद आएंगे और उसे सदा के लिए अपनी शरण में ले जाएंगे।जब रुक्मिणीजी को यह मालूम हुआ कि मेरा बड़ा भाई रुक्मी शिशुपाल के साथ मेरा विवाह करना चाहता है, तब वे बहुत उदास हो गईं। उन्होंने बहुत कुछ सोच-विचारकर एक विश्वासपात्र ब्राह्मण को तुरंत श्रीकृष्ण के पास भेजा। जब वे ब्राह्मण देवता द्वारकापुरी में पहुंचे, तब द्वारपाल उन्हें राजमहल के भीतर ले गए।ध्यान रखें, जब संदेश भगवान को भेजना हो तो किसी श्रेष्ठ को ही चुनिए।

ऐसे व्यक्ति के हाथों भगवान को संदेश भेजें जो खुद भगवान और उस संदेश के महत्व को समझता हो। जीवन में यह कार्य आपका गुरु करता है। अगर पथभ्रष्ट या अज्ञानी को गुरु बनाया तो वह आपकी तपस्या पर पानी भी फेर सकता है।ब्राह्मणशिरोमणे! आपका चित्त तो सदा-सर्वदा सन्तुष्ट रहता है न? आपको अपने पूर्व पुरुषों द्वारा स्वीकृत धर्म का पालन करने में कोई कठिनाई तो नहीं होती। ब्राह्मण यदि जो कुछ मिल जाए, उसी में सन्तुष्ट रहे और अपने धर्म का पालन करे, उससे च्युत न हो, तो वह संतोष ही उसकी सारी कामनाएं पूर्ण कर देता है।

जिनका स्वभाव बड़ा ही मधुर है और जो समस्त प्राणियों के परम हितैशी, अहंकार रहित और शांत हैं उन ब्राह्मणों को मैं सदा सिर झुकाकर नमस्कार करता हूं। श्रीकृष्ण ने जब इस प्रकार ब्राह्मण देवता से पूछा, तब उन्होंने सारी बात कह सुनाई। इसके बाद वे भगवान् से रुक्मिणीजी का संदेश कहने लगे। मैंने आपको पति रूप से वरण किया है। मैं आपको आत्मसमर्पण कर चुकी हूं। आप यहां पधारकर मुझे अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार कीजिए। वे मुझ पर प्रसन्न हों, तो भगवान् श्रीकृष्ण आकर मेरा पाणिग्रहण करें।

ताकि रिश्ते में कोई कड़वाहट ना रहे
ब्राह्मण ने कहा-यदुवंशशिरोमणे! यही रुक्मिणीजी के अत्यंत गोपनीय संदेश हैं, जिन्हें लेकर मैं आपके पास आया हूं।श्रीकृष्ण ने यह जानकर कि रुक्मिणी के विवाह की लग्न परसों रात्रि में ही है, सारथी को आज्ञा दी कि 'दारुक ! तनिक भी विलम्ब न करके रथ जोत लाओ। दारुक भगवान् के रथ में शैव्य, सुग्रीव, मेघपुश्प और बलाहक नाम के चार घोड़े जोतकर उसे ले आया और हाथ जोड़कर भगवान् के सामने खड़ा हो गया।

शूरनन्दन श्रीकृष्ण ब्राह्मण देवता को पहले रथ पर चढ़ाकर फिर आप भी सवार हुए और उन शीघ्रगामी घोड़ों के द्वारा एक ही रात में आनर्त देश से विदर्भ देश में जा पहुंचे।कुण्डिन नरेश महाराज भीष्मक अपने बड़े लड़के रुक्मी के स्नेहवष अपनी कन्या शिशुपाल को देने के लिए विवाहोत्सव की तैयारी करा रहे थे। चेदिनरेश राजा दमघोश ने भी अपने पुत्र शिशुपाल के लिए मन्त्रज्ञ ब्राह्मणों से अपने पुत्र के विवाह संबंधी मंगलकृत्य कराए। उस बारात में शाल्व, जरासन्ध, दन्तवक्त्र, विदूरथ और पौण्डक आदि शिशुपाल के सहस्त्रों मित्र नरपति आए थे।

वे सब राजा श्रीकृष्ण और बलरामजी के विरोधी थे और राजकुमारी रुक्मिणी शिशुपाल को ही मिले, इस विचार से आए थे। उन्होंने अपने-अपने मन में यह पहले से ही निश्चय कर रखा था कि यदि श्रीकृष्ण-बलराम आदि यदुवंशियों के साथ आकर कन्या को हरने की चेष्टा करेगा तो हम सब मिलकर उससे लड़ेंगे। यही कारण था कि उन राजाओं ने अपनी-अपनी पूरी सेना और रथ, घोड़े, हाथी आदि भी अपने साथ ले लिए थे। शिशुपाल की सेना ने श्रीकृष्ण का पीछा किया किन्तु यादव सेना ने उनका मार्ग अवरुद्ध कर दिया। सब लौट आए किन्तु रुकमणि के भाई रूक्मी ने प्रतिज्ञा की कि जब तक वह श्रीकृष्ण से प्रतिशोध नहीं ले लेगा, तब तक वह अपनी नगरी कुंडनपुर में प्रवेश नहीं करेगा। श्रीकृष्ण का पीछा किया। श्रीकृष्ण पर प्रहार किया। श्रीकृष्ण ने निषस्त्र और नि:सैन्य कर दिया किन्तु उसने पराजय स्वीकार नहीं की। अन्त में श्रीकृष्ण उसका संहार करने लगे कि रूक्मी की बहन रुकमणि ने श्रीकृष्ण को रोक दिया। आप परम् बलवान् हैं। परन्तु कल्याण स्वरूप भी तो हैं। प्रभो! मेरे भैया को मारना आपके योग्य काम नहीं है। तब भगवान् श्रीकृश्ण ने उसको उसी के दुपट्टे से बांध दिया और उसकी दाढ़ी-मूंछ तथा केश कई जगह से मूंड कर उसे कुरूप बना दिया।

शक्तिमान् भगवान् बलरामजी को बड़ी दया आई और उन्होंने उसके बंधन खोलकर उसे छोड़ दिया तथा श्रीकृष्ण ने कहा-कृष्ण तुमने यह अच्छा नहीं किया। यह निन्दित कार्य हम लोगों के योग्य नहीं है। अपने संबंधी की दाढ़ी-मूंछ मूंडकर उसे कुरूप कर देना, यह तो एक प्रकार का वध ही है। इसके बाद बलरामजी ने रुक्मिणी को संबोधन करके कहा-साध्वी! तुम्हारे भाई का रूप विकृत कर दिया गया है, यह सोचकर हम लोगों से बुरा न मानना, क्योंकि जीव को सुख-दुख देने वाला कोई दूसरा नहीं है।

उसे तो अपने ही कर्म का फल भोगना पड़ता है। बलरामजी ने परिवार में आने वाली नई बहू के प्रति सावधानी और संवेदना रखी। सद्पुरुषों का स्वभाव ऐसा ही होता है, बलराम ने परिस्थिति को संभाल लिया और रुक्मिणी के मन में भविष्य में उत्पन्न होने वाले दुराग्रह को पहले ही मिटा दिया। गृहस्थी में यह आवश्यक है अगर रिश्ते की शुरुआत में ही मन में कोई मैल हो तो रिश्ता ज्यादा मधुर नहीं रह सकता। कई बार ऐसे रिष्ते जल्दी ही टूट भी जाते हैं। अत: अगर आप गृहस्थी में हैं तो अपने जीवन साथी के प्रति कोई मैल या दुराग्रह न रखें।

जरूरत है तो सिर्फ सच्ची भावना की
भक्ति और प्रेम के सामने यह सबसे बड़ी कठिनाई है। जब मन भगवान में लीन होना चाहता है तो अन्य इन्द्रियां इसे विकारों में भटकाने की कोशिश करती हैं। मन तटस्थ हो तो विकार हावी नहीं होते लेकिन अगर मन ही डगमगा जाए तो भगवान दूर भी हो सकते हैं। रुक्मिणीजी मन हैं। वे परमात्मा में लीन रहना चाहती हैंए लेकिन इन्द्रियां उन्हें विकारों की ओर ले जा रही हैं। परमात्मा अकेला है और शिशुपाल आदि विकार पूरी सेना हैं। लेकिन मन यानी रुक्मिणी केवल भगवान में लगी हैं। सो परमात्मा स्वयं उसके द्वार पर खड़े हो गए हैं।विपक्षी राजाओं की इस तैयारी का पता भगवान् बलरामजी को लग गया और जब उन्होंने यह सुनाकि भैया श्रीकृष्ण अकेले ही राजकुमारी का हरण करने के लिए चले गए हैं।

तब उन्हें वहां लड़ाई-झगड़े की बड़ी आशंका हुई। यद्यपि वे श्रीकृष्ण का बलविक्रम जानते थे फिर भी भ्रातृ स्नेह से उनका हृदय भर आयाए वे तुरंत ही हाथी घोड़े रथ और पैदलों की बड़ी भारी चतुरंगिणी सेना साथ लेकर कुण्डिनपुर के लिए चल पड़े।इधर परम्सुंदरी रुक्मिणीजी भगवान् श्रीकृष्ण के शुभागमन की प्रतीक्षा कर रही थीं। उन्होंने देखा कि श्रीकृष्ण की तो कौन कहे अभी ब्राह्मण देवता भी नहीं लौटे वे बड़ी चिंता में पड़ गईं।

रुक्मिणीजी भगवान नाम को मंत्र बनाकर जपने लगी थीं। थोड़ा मंत्र को समझें।मंत्रों की संख्या असंख्य है। मंत्रों का अपना विज्ञान है। किसी ग्रंथ में पढ़कर या किसी से सुनकर मंत्र का जप करना उचित नहीं इससे वांछित लाभ के स्थान पर हानि की पूरी संभावना रहती हैए वैसे भगवान का नाम सदैव मंगलकारी होता है। वही नाम यदि मंत्र रूप में स्वीकार किया जाए तो जपकर्ता के नामए राशि के अनुसार तिथिवार नक्षत्र योगवरन् लाभ और सिद्धिदायक होता है। समर्थ गुरु के न मिलने तक क्या जप न किया जाए यह प्रश्न सहज की मानस में उठता है।

शुद्ध भावना के साथ निष्काम भाव से प्रभु का नाम फिर जो हो सतत् लेने से आत्मदर्शन हो जाता है और वह समय भी आ जाता है जब गुरु स्वयं शिष्य को खोजकर आ जाते हैं। यहां मंत्र सिद्धि के झमेले में न पड़कर सीधे ईश्वर अर्पण की भावना से जप करें तो कोई भी नाम उतना ही काम करेगा जितना की कोई महामंत्र।

हर कोई जो करता है ''मैं'' के लिए करता है
यह चोरी उस दिन मिटती है जब तेरे-मेरे का भाव मिट जाता है। मेरे का भाव तिरोहित करना पड़ेगा।समस्त परिग्रह चोरी है। हमारे इस मेरे भाव से ही मैं को गति मिलती है। जितना मेरे का विस्तार करेंगे, मैं मजबूत होता जाएगा। यह सारी धन-दौलत प्रतिष्ठा, मैं के पोषण के लिए होती है। उपनिषदों में बड़ी सुन्दर बात आती है। कोई धन के लिए धन को प्रेम नहीं करता, मैं के लिए करता है। मैं के लिए धन को प्रेम किया जाता है। कोई पत्नियों के प्रति पत्नियों को प्रेम नहीं करता। मैं के लिए पत्नियों को प्रेम करता है। त्याग का अर्थ है उन सब सहारों को अलग कर देना जो इस मैं को मजबूत करते हैं लेकिन यह मैं बड़ा कुशल है। यह त्याग को भी अपनी बैसाखी बना लेता है। मैं इतना, मैंने इतना त्याग किया। मैं इतना त्यागी हूं, ये भी मैं को सहारा देने लगते हैं।

यहूदियों की एक अच्छी कहावत है कि मैं कहने का अधिकार सिर्फ ईश्वर को है। इस कारण हम भगवान से क्षमा मांगें कि हम मैं और मेरा कहकर अपराध कर रहे हैं हम चोरे बन रहे हैं, दरअसल मैं हमारा कुछ है नहीं, सब परमात्मा का है तो लक्ष्मी के मामले में बहुत सावधान रहिए। लक्ष्मी के तीन भेद बताए गए हैं शास्त्रों में। लक्ष्मी, महालक्ष्मी और अलक्ष्मी। नीति और अनीति दोनों तरह से प्राप्त धन साधारण लक्ष्मी है। जिसका कुछ सदुपयोग भी होगा, कुछ दुरूपयोग भी। दूसरी है महालक्ष्मी। धर्मानुसार प्राप्त धन महालक्ष्मी है। श्रम की मात्रा से अधिक लाभ उठाना मुनाफा लेना पाप और चोरी है। जीव में धन नहीं धर्म मुख्य है। धर्म ही मृत्यु के पश्चात साथ जाता है। धर्मानुसार श्रमपूर्वक नीति से प्राप्त धन महालक्ष्मी है। ऐसा धन हमेशा शुभ कार्यो में खर्च होगा। अलक्ष्मी: पापाचरण अनीति से प्राप्त धन अलक्ष्मी है। ऐसा धन विलासिता में ही रह जाएगा। जीवन को शांति के बदले रुलाता जाएगा। शिशु के लालन-पालन में जिसका धन और समय लगा रहता है वह पुरूष ही शिशुपाल है। जो हमेशा सांसारिक ओर भौतिक सुखों के पीछे भागता है वही शिशुपाल है। ये शिशुपाल रुकमणीजी से विवाह करना चाहता था। भगवान् ने मथुरा में एक भी विवाह नहीं किया उन्होंने सभी विवाह द्वारिका में किए।

जो काम करो जमकर करो क्योंकि...
अब हम भगवान श्रीकृष्ण की कथा के उस भाग में प्रवेश कर रहे हैं, जहां भगवान एक साथ कई शिक्षा दे रहे हैं। भगवान की गृहस्थी, सामाजिक जीवन और उनके उपदेश सभी आएंगे। यहां से कथा का छठा दिन भी शुरु हो रहा है। हरि कथा अब चरम की ओर बढ़ रही है, जीवन परमानंद की ओर।

कृष्ण के जीवन में हर वह चीज दो या उससे अधिक संख्या में है जो आम संसारी के जीवन में एक ही होती है। भगवान श्रीकृष्ण यहां हमें संतुलन सिखाते हैं। हमारे जीवन में वस्तु, रिश्ते, परिवार, समाज और राष्ट्र के बीच संतुलन कैसा हो, यह कृष्ण के जीवन से सीखा जा सकता है। द्वापर के कृष्ण ऐसे देव हैं जो निरंतर मनुष्य बनने की कोशिश करते रहे। यहां राम और कृष्ण की तुलना आलोचना या कोई समीक्षा नहीं है, यह तो भाव है भक्तों का। जमकर-कृष्ण जो भी करते जमकर करते, खाते तो जमकर, प्यार करते तो जमकर, रक्षा भी करते तो जमकर करते थे।

पूर्ण भोग, पूर्ण प्यार, पूर्ण रक्षा, कृष्ण की सभी क्रियाएं उसकी शक्ति के पूरे इस्तेमाल से ओत-प्रोत रहती थी। शक्ति का कोई अंश बचाकर नहीं रखते थे। कृष्ण कंजूस बिलकुल नहीं थे। ऐसे दिलफेंक, ऐसे शरीर फेंक, ऐसा मनुष्यों में संभव न हो लेकिन मनुष्य ही हो सकता है। जो काम करो जमकर करो, अपना पूरा मन और शरीर उसमें फेंक दो। देवता बनने की कोशिश में मनुष्य कुछ कृपण हो गया। पूर्ण आत्मर्पण में सब कुछ भूल-सा गया। जरूरी नही है कि वह अपने आप को किसी दूसरे को समर्पण करे। अपने ही कामों में पूरा आत्मसमर्पण करें, यही कृष्ण की बात है।

जीवन के हर क्षेत्र में कैसे करें उन्नति?

इसके अंदर वेदों की ऋचाएं हैं, वेदों के संदेश है, यह पुराणों का तिलक है। ज्ञानियों का चिंतन है, संतों का मनन है, भक्तों का वंदन है, भारत की धड़कन है। यह ऐसा समन्वयकारी साहित्य है जो हमारे मनभेद और मतभेद दोनों मिटा देता है। इसके पद-पद में, पंक्ति-पंक्ति, शब्द-शब्द में रस घुला हुआ है।

यह ऐसा साहित्य है जिसमें भगवान बार-बार कह रहे हैं कि मैं कौन हूं, तू कौन है यह जान ले। इस साहित्य को ऐसे रचा गया है कि इसमें बीते कल की स्मृति है, आज का शोध है और भविष्य की योजना है। इस अद्भुत साहित्य में हम प्रवेश कर रहे हैं। पूर्व में हम कथा सुन चुके थे भगवान पहुंच गए हैं मथुरा। भगवान की लीला नए रूप में आरंभ होने वाली है। भगवान गोकुल और ब्रज में सबको छोड़कर मथुरा आ गए।

मथुरा में भगवान का जीवन आरंभ हुआ और भगवान ने अपना विवाह रचाया। भगवान का दाम्पत्य आरंभ हो रहा है। मैं आपको पुन: दोहरा दूं हम बार-बार यह स्मरण करते आए हैं कि श्रीमद्भागवत परमात्मा का वाङमय स्वरूप है। इसमें शास्त्रों का सार है और जीवन का व्यवहार है।

भागवत हमें मरना सिखा रही है, महाभारत हमें रहना सिखा रही है, रामायण जीना सिखा रही है और गीता करना।
हमने अपने जीवन की चार शैली है जिसमें से सामाजिक जीवन में पारदॢशता, हमारे व्यवसायिक जीवन का परिश्रम और हमारे परिवार का प्रेम और निजी जीवन का पावित्र इसके लगातार प्रसंग देख रहे हैं। अब निजी जीवन के पवित्रता वाले भाग में प्रवेश कर रहे हैं। निजी जीवन कैसे पवित्र हो हमारे भगवान श्रीकृष्ण से हम देखते चलेंगे और चूंकि अब हम अंत समय की ओर बढ़ रहे हैं जीवन का वो काल जिसका एक दिन सबको मुकाबला करना है, भगवान हमको वहां लेकर चल रहे हैं। हमने सात दिन में दाम्पत्य के सात सूत्र देखे थे।

आज हमारा सूत्र है कैसे हम सक्षम बनें। भगवान कहते हैं सक्षम होने का अर्थ उन्नयन करें, प्रगति करें, आगे बढ़ें और हर तरह से तन, मन और धन से सक्षम होना दाम्पत्य की उपलब्धि है। भगवान कहते हैं कि क्या हम करते हैं यह महत्वपूर्ण नहीं है महत्वपूर्ण यह है कि क्या हम होते हैं। आखिर अपने आपको पहचानना पड़ेगा। हम लोगों ने कई चीजों में उलझकर अपना जीवन इतना उथला और धुंधला कर लिया है कि हम पहचान नहीं पा रहे हैं और अब अपने ही केंद्र पर विस्फोट करने का समय आ गया है।

अब भीतर हमको एक जाग्रति लानी ही पड़ेगी। भगवान अपने चरित्र से यह घोषणा कर रहे हैं कि बहुत चीजों में उलझकर आराम का जीवन, अपनी सुविधा का जीवन, अपनी निजी पंसद का जीवन बहुत जी लिया अब थोड़ा संघर्ष का जीवन आया है। अब व्यापक दृष्टिकोण रखना पड़ेगा। भगवान कहते हैं कि आपकी समस्याओं का निदान सिर्फ आप ही हो सकते हैं दूसरों से उधार मत लीजिएगा। भगवान हमको सिखा रहे हैं भगवान हमको कह रहे हैं उधार का जीवन, उधार के विचार, उधार की शैली बहुत लंबे नही ले जाएगी।

जीवन की हर उलझन का है, ये जवाब...
भगवान हमको सिखा रहे हैं भगवान हमको कह रहे हैं उधार का जीवन, उधार के विचार, उधार की शैली बहुत लंबे नही ले जाएगी।बलरामजी आए थे बलरामजी और भगवान मथुरा में अपना जीवन आरंभ कर रहे हैं। द्वारिका में जब भगवान का विवाह हुआ तो भगवान के दाम्पत्य का आरंभ हुआ तो भगवान ने कुछ नियम बना लिए और यहीं से हम दसवें स्कंध के उतरार्ध को आरंभ कर रहे हैं। भागवत का यह सबसे बड़ा स्कंध है, दसवां स्कंध। इसके दो भाग थे तो हम इसके उतरार्ध में प्रवेश कर रहे हैं।अब श्रीकृष्ण की जो लीलाएं आएंगी उनमें हमें कई दार्शनिक विचार मिलेंगे। कामदेव उनके पुत्र बनकर आएंगे।

काम और मन का बड़ा संबंध है।आध्यात्मिक पुरुष कट्टरवाद से बहुत दूर हैं। मन का कोई सम्प्रदाय नहीं, कोई जाति अथवा देश नहीं। मन इन सभी सीमाओं से अतीत है। मन ही मनुष्य का सबसे बड़ा मित्र भी है तथा शत्रु भी। मन ही जीवन है। मन ही व्यक्तित्व है। मन ही वर्तमान भविष्य है। मन ही कर्म का आधार है। जीवन का भी केन्द्र बिन्दु है। मन ही शान्ति तथा युद्ध का कारण है, शुभ तथा अशुभ कर्म मन की ही गतिविधियां हैं। शास्त्रों ने कहा, मन ही बंध एवं मोक्ष का कारण है। जो मन हमें भासित होता है, अनुभव होता है, वह शुद्ध मन नहीं हैं उसका प्रतिबिम्ब मात्र है। उस मूल मन पर आवरण हैं-प्रकृति के, हमारे कर्मों के। जो कुछ समय में आता है, असल में उससे बहुत भिन्न है।

इस भिन्नता के कारण ही हम जीवन की उलझनों से बाहर नहीं निकल पाते, सुख का अनुभव नहीं कर पाते। जीवन भर थपेड़े खा कर भी शान्ति का अनुभव नहीं कर पाते। इस यथार्थ मन तथा प्रतिबिम्बत मन को ही बहिर्मन तथा अन्तर्मन कहा गया है। इसी को जगदाभिमुखी मन तथा आत्माभिमुखी मन भी कहा जाता है। अन्तर्मन में ही संस्कारों का भण्डार, वृत्तियों का उदयाहत, वासनाओं का समूह एवं इच्छाओं, कामनाओं की निरंतर गतिशीलता विद्यमान है। मनुष्य का वास्तविक व्यक्तित्व उसके अंतर्मन में निहित है। बहिर्मन यदि जगत के समीप है तो अन्तर्मन आत्मा से सटा हुआ है।

मन जल्दी से हार मानने वाला नहीं है,क्योंकि...इस प्रसंग के माध्यम से हम मन की स्थिति पर एक बार फिर चिंतन कर लें। मन की तीन अवस्थाएं हैं- अभियंत्रित अर्थात असंयमित, नियंत्रित अर्थात् संयमित तथा स्वाभाविक। अनियंत्रित अवस्था से नियंत्रित अवस्था की ओर आने के लिए अपने आपको संभालना पड़ता है, संयम का प्रयास करना पड़ता है, भागते मन के पीछे भागकर उसे पकडऩा पड़ता है, बार-बार उसके प्रवाह को मोडऩे का प्रयास करना पड़ता है। यह समय साधक के लिए काफी संघर्शमय होता है। किसी अन्य से नहीं, अपनेआप से संघर्ष मन की वासनाओं, कुविचारों तथा कुप्रवाहों से संघर्ष, मन की चंचलताओं एवं उपद्रवों से संघर्ष। इस अवस्था में अंतर की वासनाएं उदय होकर बाहर भयंकर तूफान के रूप में प्रकट होती है तथा मनुष्य को तिनके की भांति, संसार के प्रलोभनों, आकर्षणों तथा उत्तेजनाओं के अनंत आकाश के लिए उड़ती है। संयम के सहारे साधक, अपने पांव जमाए रखने का प्रयत्न करता है। यदि कभी, तूफान के आवेग में उसके पांव उखडऩे लगते हैं तो जमाने का प्रयास करता है, ईश्वर को पुकारता है।

मन जल्दी हार मानने वाला नहीं है। जन्म-जन्मांतर के अर्जित तथा स्थापित साम्राज्य को इतनी आसानी से हाथ से जाने भी कैसे दिया जा सकता है? वह साम, दाम, दण्ड का सहारा लेकर किसी भी प्रकार साधक को रणक्षेत्र से खदेडऩे का प्रयत्न करता है। वास्तव में यह युद्ध अंतर में लड़ा जाता है। बाहर उसके केवल प्रतिछाया होती है। अंतर में अस्त्रों-शास्त्रों का प्रयोग होता है एवं अंतर में ही घात-प्रतिघात। अंतर में ही चेतना का विकास होता है तथा अंतर में ही लहुलुहान होता है। यदि साधक को व्यवहार-शुद्धि का युद्ध जीतना है तो उसे आंतरिक शक्ति का विकास करना होगा, मन का बिखराव रोकना होगा, उसे नियंत्रित एवं अनुशासित करना होगा।

और कृष्ण पर लगा हत्यारे होने का कलंक
वहां द्वारिका में कृष्णजी के यदुवंश में एक बहुत प्रतिष्ठित व्यक्ति थे सत्राजीत। सत्राजीत सूर्य देवता के उपासक थे। सूर्य देवता ने प्रसन्न होकर सत्राजीत को एक मणि दी। मणि का नाम था स्यमन्तक मणि। कथा इस प्रकार है। सत्राजीत भगवान् सूर्य का बहुत बड़ा भक्त था। वे उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर उसके बहुत बड़े मित्र बन गए थे। सूर्य भगवान् ने ही प्रसन्न होकर बड़े प्रेम से उसे स्यमन्तक मणि दी थी।

सत्राजीत उस मणि को गले में धारणकर ऐसा चमकने लगा, मानो स्वयं सूर्य ही हो।जब सत्राजीत द्वारिका में आया, तब अत्यंत तेजस्विता के कारण लोग उसे पहचान न सके। दूर से ही उसे देखकर लोगों की आंखें उसके तेज से चौंधिया गईं। लोगों ने समझा कि कदाचित् स्वयं भगवान् सूर्य आ रहे हैं। उन लोगों ने भगवान् के पास आकर उन्हें इस बात की सूचना दी। उस समय भगवान् श्रीकृष्ण चौसर खेल रहे थे।

यह बात सुनकर श्रीकृष्ण हंसने लगे। उन्होंने कहा - अरे, ये सूर्यदेव नहीं हैं। यह तो सत्राजीत है, जो मणि के कारण इतना चमक रहा है। इसके बाद सत्राजीत अपने समृद्ध घर में चला गया। घर पर उसके शुभागमन के उपलक्ष्य में मंगल उत्सव मनाया जा रहा था। उसने ब्राह्मणों के द्वारा स्यमन्तक मणि को एक देव मंदिर में स्थापित करा दिया। भगवान के लिए लोक हित, राष्ट्रहित सर्वोपरि है।

वे व्यक्तिगत उपलब्धियों को महत्व नहीं देते, वे लोक नायक हैं जब तक किसी उपलब्धि से राष्ट्र का हित न हो, वे उसे उपलब्धि नहीं मानते। सत्राजीत ने सूर्य से मणि प्राप्त की लेकिन इसे व्यक्तिगत उन्नति और सम्पन्नता में लगा दिया।वह मणि प्रतिदिन आठ भार सोना दिया करती थी और जहां वह पूजित होकर रहती थी। उसने भगवान की आज्ञा को अस्वीकार कर दिया।

एक दिन सत्राजीत के भाई प्रसेन ने उस परम प्रकाशमयी मणि को अपने गले में धारण कर लिया और फिर वह घोड़े पर सवार होकर शिकार खेलने वन में चला गया। वहां एक सिंह ने घोड़े सहित प्रसेन को मार डाला और उस मणि को छीन लिया। वह अभी पर्वत की गुफा में प्रवेष कर ही रहा था कि मणि के लिए ऋक्षराज जाम्बवान् ने उसे मार डाला। उन्होंने वह मणि अपनी गुफा में ले जाकर बच्चे को खेलने के लिए दे दी। अपने भाई प्रसेन के न लौटने से सत्राजीत को बड़ा दुख हुआ। इधर सत्राजीत ने देखा कि मणि भी नहीं है और मेरा भाई भी नहीं है तो सत्राजीत लोगों से कहता है कि मुझे यह संदेह होता है कि श्रीकृष्ण ने मेरे भाई को मार डाला और मणि ले ली क्योंकि श्रीकृष्ण कह रहे थे कि मणि हमें दे दो और मैंने मना कर दिया। बात खुसुर-फुसर फैल गई और सारी द्वारिका में यह चर्चा होने लगी कि कृष्ण ने मणि ले ली और कृष्ण हत्यारे हैं। कृष्ण पर कलंक लगना आरम्भ हुआ।

तब कृष्ण को पत्नी के रूप में मिली सत्यभामा

भगवान उसको लेकर वापस आते हैं और जब वो मणि सत्राजीत को दी गई तो सत्राजीत को बड़ा दुख हुआ, ग्लानि भी हुई, लज्जा भी आई कि मैंने कृष्णजी पर आरोप लगाया हत्या व चोरी का। उसने क्षमा मांगी और उसने कृष्णजी से कहा मैं अपनी ग्लानि को मिटाना चाहता हूं तो मेरी पुत्री है सत्यभामा आपको मैं सौंपता हूं। आप उसे स्वीकार करिए और उसने कहा यह मणि भी आप रखिए दहेज में। कृष्ण ने कहा-यह मणि तो आफत का काम है और दो-दो मणि मिल गई एक मणि के चक्कर में। मैं इन्हीं को संभालता हूं। आप यह मणि रखो अपने पास।

सत्यभामा, जामवती, रुक्मिणी कृष्णजी के जीवन में आ गईं। मणि उन्होंने सत्राजीत को वापस कर दी। ऐसा कहते हैं कि उस मणि ने इतनी आफत पैदा कर दी कि जब भगवान् को सूचना मिली कि लाक्ष्यागृह में पाण्डव जल गए हैं तो भगवान् कुछ दिन के लिए हस्तिनापुर चले गए। भगवान श्रीकृष्ण के हस्तिनापुर चले जाने से द्वारिका में अक्रूर और कृतवर्मा को अवसर मिल गया।

उन लोगों ने शतधन्वा से आकर कहा-तुम सत्राजीत से मणि क्यों नहीं छीन लेते? सत्राजीत ने अपनी श्रेष्ठ कन्या सत्यभामा का विवाह हमसे करने का वचन दिया था और अब उसने हम लोगों का तिरस्कार करके उसे श्रीकृश्ण के साथ ब्याह दिया है। अब सत्राजीत भी अपने भाई प्रसेन की तरह क्यों न यमपुरी में जाए? शतधन्वा पापी था और अब तो उसकी मृत्यु भी उसके सिर नाच रही थी। अक्रूर और कृतवर्मा के इस प्रकार बहकाने पर शतधन्वा उनकी बातों में आ गया और उस महादुष्ट ने लोभवश सोये हुए सत्राजीत को मार डाला और मणि लेकर वहां से चंपत हो गया। सत्यभामा को यह देखकर कि मेरे पिता मार डाले गए हैं बड़ा शोक हुआ। वह हस्तिनापुर को गईं।

सफलता चूमने लगती है कदम जब...
कहते है संकल्प से बड़ी कोई शक्ति नहीं है। जिसकी संकल्प शक्ति प्रबल होती सफलता उसके कदम अपने आप चूमने लगती है। हर मुश्किल हर बाधा उसके सामने सिर झूकाती है। कुछ लोग इसे यूं सोचते हैं कि व्यक्ति के संकल्प से परमात्मा निकट आता है। आज गोकुल का दृश्य देखिए आप अब उद्धवजी वहां पहुंचे। वहां स्वयं के समर्पण से निकट आया है। वृन्दावन में जब समर्पित हो गए तो ईश्वर इतना निकट पहुंच गया कि सबके घर-घर में, शरीर में, मन में बस गया। संकल्पवान परमात्मा को खोजें और फिर झुकें और समर्पण से भरा व्यक्ति सिर झुकाता है और जो सिर झुकाता है वही उसके चरण आ जाते हैं। कभी-कभी तो संकल्प से चलने वाले लोगों ने भी अंत में नहीं कहा है कि चले संकल्प से और पहुंचे समर्पण से।भक्त कहता है असहाय होना ही उसके पाने का उपाय है तो अपने स्वभाव को संकल्प और समर्पण में तय कर लें। सोलह हजार से विवाह-59वें अध्याय में कहा गया है कि प्रभु ने सोलह हजार युवतियों के साथ विवाह किया। भामासुर ने कन्याओं को बंदी बनाकर रखा था। ये सोलह हजार कन्याएं तो वेदों की ऋचाएं हैं। वेद के तीन कांड हैं और लाख मंत्र हैं। कर्मकांड में इसके अस्सी हजार मंत्र हैं जो ब्रह्मचारियों के लिए हैं और ज्ञानकांड में इसके चार हजार मंत्र हैं जो वानप्रस्थ के लिए हैं। वेदांत का ज्ञान विरक्त के लिए है विलासी के लिए नहीं।

विलासी उपनिशद का तत्व ज्ञान नहीं समझ पाता, किन्तु भागवत सभी के लिए है। अब भगवान् की लीला आगे बढ़ रही है। चलो लगे-लगे भगवान् के अन्य विवाहों की भी चर्चा कर लें। पहला विवाह भगवान् का रुक्मिणीजी से, दूसरा जामवंतीजी से, तीसरा सत्यभामा से हो गया और अब आओ भगवान् के आगे के विवाह की चर्चा कर लें। बताते हैं कि एक बार हस्तिनापुर की यात्रा में जब कृष्णजी थे तो कृष्ण और अर्जुन शिकार पर निकले।

कालिंदी नदी के तट पर बैठकर एक स्त्री पूजा कर रही थी। कृष्णजी ने अर्जुन से कहा जरा पता लगाओ यह स्त्री कौन है। अर्जुन उसके पास गए बोले देवी आप कौन हैं वो बोली मैंने विष्णु को अपना पति वर लिया मानसिक रूप से। मैं पूजा कर रही हूं और तब तक पूजा करूंगी जब तक विष्णु मेरे जीवन में पति के रूप में नहीं आ जाते। कृष्ण ने अर्जुन से कहा सूचना करो, हम आ गए हैं। ऐसे चौथा विवाह उनका कालिंदीजी से हो गया। कृष्णजी जितने भी विवाह करते थे उनमें से एक भी विवाह द्वारिका में नहीं हुआ। जब वो कहीं चले जाते थे काम पर जैसे कालिंदी मिल गई। ऐसे ही कहीं न कहीं, एक-एक मिलती गईं। वो उसको साथ में नहीं रखते थे अपने सैनिकों और सचिवों से कहते इसको घर ले जाओ द्वारिका और रुक्मिणीजी के हवाले कर दो। रुक्मिणीजी पटरानी थीं। उनका एक ही काम था आने वाली रानियों को संभालो और उनकी व्यवस्था करो।

अपने भी पराए हो जाते हैं जब...

भयभीत होकर द्वारिका में भाग खड़े हुए। भगवान ने दूत को भेजकर अक्रूरजी को ढुंढवाया और आने पर उनसे बातचीत की। भगवान् ने उनका खूब स्वागत सत्कार किया और मीठी-मीठी प्रेम की बातें कहकर उनसे संभाशण किया। भगवान् सबके चित्त का एक-एक संकल्प देखते रहते हैं। इस लिए उन्होंने मुसकराते हुए अक्रूर से कहा- चाचाजी! आप दान-धर्म के पालक हैं। हमें यह बात पहले से ही मालूम है कि शतधन्वा आपके पास वह स्यमन्तक मणि छोड़ गया है, जो बड़ी ही प्रकाशमान और धन देने वाली है।

आप जानते ही हैं कि सत्राजीत के कोई पुत्र नहीं है। इसलिए उनकी लड़की के लड़के यानी उनके नाती ही उन्हें तिलांजलि और पिण्डदान करेंगे, उनका ऋण चुकाऐंगे और जो कुछ बचेगा उसके उत्तराधिकारी होंगे।इस प्रकार शास्त्रीय दृष्टि से यद्यपि स्यमन्तक मणि हमारे पुत्रों को ही मिलनी चाहिए, तथापि वह मणि आपके ही पास रहे, क्योंकि आप बड़े व्रतनिष्ठ और पवित्रात्मा हैं तथा दूसरों के लिए उस मणि को रखना अत्यन्त कठिन भी है।

परन्तु हमारे सामने एक बहुत बड़ी कठिनाई यह आ गई है कि हमारे बड़े भाई बलरामजी मणि के संबंध में मेरी बात का पूरा विश्वास नहीं करते। इसलिए महाभाग्यवान् अक्रूरजी!आप वह मणि दिखाकर हमारे इष्टमित्र बलरामजी, सत्यभामा और जाम्बवती का सन्देह दूर कर दीजिए।जब भगवान श्रीकृष्ण ने इस प्रकार सान्त्वना देकर उन्हें समझाया-बुझाया, तब अक्रूरजी ने वस्त्र में लपेटी हुई सूर्य के समान प्रकाशमान वह मणि निकाली और भगवान श्रीकृष्ण को दे दी।

भगवान् श्रीकृष्ण ने वह स्यमन्तक मणि अपने जाति भाइयों को दिखाकर अपना कलंक दूर किया और उसे अपने पास रखने में समर्थ होने पर भी पुन: अक्रूरजी को लौटा दिया।धन का मोह ऐसा ही होता है। एक स्यमन्तक मणि ने ऐसी माया फैलाई कि खुद भगवान पर उनके ही परिजन शक करने लगे। एक ज्ञानी पुरुष सद्मार्ग से भटक गया, तप से पाई मणि को खुद की सम्पदा समझने वाला सत्राजीत अपने प्राण खो बैठा। आपके पास जो सम्पत्ति है उसे केवल अपना समझकर न रखें।

भगवान कहते हैं यह समाज और राष्ट्रहित में लगा दें। तप को सम्पत्ति की सम्पत्ति का इससे बेहतर और कोई सदुपयोग नहीं है।सर्वशक्तिमान् सर्वव्यापक भगवान श्रीकृष्ण के पराक्रमों से परिपूर्ण यह आख्यान समस्त पापों, अपराधों और कलंकों का मार्जन करने वाला तथा परम मंगलमय है।जो इसे पढ़ता, सुनता अथवा स्मरण करता है, वह सब प्रकार की अपकीर्ति और पापों से छूटकर शान्ति का अनुभव करता है।देखिए सम्पत्ति जो है कलह का कारण बन जाएगी। यदि द्वेष भाव है, षडय़न्त्र है, एक दूसरे पर सन्देह है तो भगवान् ने सबको समझाया कि इतनी बढिय़ा मणि द्वारिका में है और हम लोग इसके लिए लड़ रहे हैं यह प्रतिदिन सोना देती है।

तब कृष्ण ने 16000 स्त्रियों की रक्षा का वचन दिया...

उनकी आठवी पत्नी लक्ष्मणा बनी। भगवान् अपनी रानियों के साथ बैठे हुए विचार कर रहे थे और उसी समय उनको सूचना दी गई कि कुछ लोग आपसे मिलना चाहते हैं। विशेष रूप से कुछ स्त्रियां हैं और उनके साथ कुछ पुरूष हैं और वो बहुत परेशान हैं। भगवान् ने कहा-ठीक है। भगवान् की सभा का नाम था सुधर्मा सभा। भगवान् ने कहा उनको भेजा जाए। वो लोग आए। उन्होंने भगवान् को प्रणाम किया। उन स्त्रियों ने भगवान् से कहा आपका उदय हो गया है। हमने सुना है आप सबके रखवाले हैं, आपने कंस का वध किया है। आप बार-बार घोषणा करते हैं कि आप स्त्री शक्ति, मातृ शक्ति के रक्षक हैं। क्या आप जानते हैं कि आज प्राज्ञज्योतिपुर नाम के नगर में एक राजा है नरकासुर। उसने सोलह हजार स्त्रियों को अपनी कैद में कर रखा है। उन सारी स्त्रियों को वो उठा लाया जो किसी की मां हैं, बहन हैं, पत्नी हैं, बेटी हैं और उसने अपने कारावास में उनको बन्दी बना लिया है। उस कारावास में बन्दियों की क्षमता पांच हजार है। उस पांच हजार की क्षमता वाले कारावास में उसने सोलह हजार स्त्रियों को बन्दी करके रखा है। पशु की भांति जीवन बिता रही हैं वो सब। नरकासुर जिस दिन चाहता है कारावास का दरवाजा खोलकर स्त्रियों को उठाकर ले जाता है। उसके वे मंत्री इतने कुटिल, अत्याचारी व कामी हैं कि हमारा कोई रक्षण नहीं है। आज हम आपके पास आए हैं। नरकासुर को कोई जीत नहीं सकता। आज की राजनीति, आज की राज सत्ताएं आपके आसपास हैं। हम कब तक कैद में रहेंगे? यह सुनकर भगवान् के चेहरे पर बल पड़ गए। भगवान् ने कहा-मैं आपकी रक्षा का वचन देता हूँ।

इसी का नाम जिंदगी है...

द्वारिकाधीश ने नरकासुर को दण्ड दे दिया, वो मारा गया। आप जहां से आई हैं, जिस घर से आई हैं, जिस रिश्तेदारी से आई हैं वहां जा सकती हैं। आप स्वतंत्र हैं। वहां से चलकर एक स्थान पर भगवान विश्राम कर रहे थे। कुछ लोग भगवान से मिलने आए। उद्धव ने कहा-कुछ स्त्रियां आपसे मिलना चाहती हैं। भगवान ने कहा-भेजो। उनमें से कुछ स्त्रियों ने कहा आपने हमें मुक्त तो करा दिया है। यदि अब हम अपने घर जाएंगी तो हमारे घर वाले हमको स्वीकार नहीं करेंगे, क्योंकि हम किसी राजा के कारावास में बंदी रहे हैं। हमें वो पवित्र नहीं मानते। स्त्री यदि एक रात के लिए बिना बताए घर से बाहर चली जाए, सारा घर उसको प्रष्नों के घेरे में खड़ा कर देगा। पुरूष से कोई नहीं पूछता।स्त्री आज भी यदि एक रात कारावास या जेल में चली जाए, सारा समाज उसको हीन दृष्टि से देखता है। भगवान श्रीकृष्ण ने सोचा कहां जाएंगी ये सब। उद्धव, दारूप द्वारिका के सारे लोग कृष्ण की ओर देखने लगे। क्या कृष्ण अब एक-एक को घर छोडऩे जाएंगे।

अब कृष्ण किस-किस को समझाएंगे कि सम्मान दो। तब कृष्ण ने उन स्त्रियों से कहा मैं जानता हूं पर मैं आज आपको आश्वस्त करता हूँ। वसुदेव का पुत्र द्वारिका का यह कृष्ण आपको आश्वस्त कर रहा है कि मैं आपको समाज में वो दर्जा दूंगा जो किसी भी स्त्री को प्रतिष्ठित पुरुष से विवाह करने के बाद प्राप्त होता है। मैं आज से आपको अपनी धर्मपत्नी स्वीकार करता हूं और मैं इस पूरी समूची स्त्रीशक्ति को आश्वस्त करता हूं कि आपकी प्रतिष्ठा पर कोई आंच नहीं आएगी। भगवान् ने सारी स्त्रियों से विवाह किया। तब जो लोग प्रश्न करते हैं न कि कृष्ण सोलह हजार विवाह रचाने की क्या जरूरत थी, किसी की ताकत है जो स्त्रियों को इतना सम्मान दिला सके। पर ये कृष्ण ने किया है।

कृष्ण ने कहा-आज से आप मेरी भार्या हैं। द्वारिका में आप ससम्मान निवास करेंगी।यह कृष्ण का चरित्र है। जिस व्यक्ति की बांसुरी की एक तान पर संसारभर की स्त्रियां मोहित हो जाती हैं, जिसकी एक झलक पाने के लिए संसार का सारा सौंदर्य बेताब हो, जिसके पास रहने के लिए, जिसको जीवन में उतारने के लिए गोप, गोपियां, रानियां, राजकुमारियां बावली हुआ करती थीं। जिसके आसपास स्त्रियों का जमघट घूमता होगा उस कृष्ण का एक भी विवाह शान्ति से नहीं हुआ। आप सोचिए एक भी स्त्री को वो चैन से नहीं ला पाए। जो हुआ उसमें कोई न कोई उपद्रव हुआ पर कृष्ण ने कहा इसी का नाम जीवन है। सबको स्वीकार किया।

मन क्यों भटकता है?

इन्द्रियों की भोग विलासी प्रवृत्तियों, चित्त का प्रवृत्ति मार्ग पर चलते रहने की इच्छा, यत्न, मन का नाना प्रकार के भौतिक व सांसारिक प्रवृत्तियों में आर्किषत होते रहने की वृत्तियों में उलझे रहने की सहजता पर जब निवृत्त होने की अवस्था आ जाए तब उसे वैराग्य की कोटि में रखा जा सकता है।

सामान्यत: संन्यासी व योगी वैराग्यवान माना जाता है, लेकिन भगवान श्रीकृष्ण द्वारा योगी के लक्षण इस प्रकार बताए गए हैं-मन पर विजय प्राप्त करने वाला, प्रसन्न एवं शांत चित्त वाला, सर्दी-गर्मी, सुख-दुख और मान-अपमान में सम, ज्ञान विज्ञान में तृप्त, अचल, जितेन्द्रिय-स्वर्ण व मिट्टी में सम बुद्धि लक्षणों वाला योगी, साधक, भक्त परमात्मा के निकट होता है। गीतामृत के उपक्रम (भूमिका) में स्वामी श्रीविष्णुतीर्थजी महाराज ने वैराग्य के लिए संसार की लिप्सा, मोह और आसक्ति का त्याग आवश्यक बताया।

ब्रह्मलीन चोला बदलना वैराग्य नहीं। गृहस्थ भी वैराग्यवान हो सकता है। स्वामी श्री शिवोम्तीर्थजी महाराज ने पातंजल योग दर्शन की भूमिका में वैराग्य की विषद व्याख्या की है। वह इस प्रकार है-वैराग्य के बिना योग-साधना अथवा किसी भी प्रकार के आध्यात्मिक उपाय का कोई अर्थ नहीं। जीव की जगत के विभिन्न पक्षों और क्रियाकलापों में इतनी आसक्ति रहती है कि उसका मन संसार में ही भटकता रहता है, यहां तक कि स्वप्न में भी संसार नजर आता है, यह जीवन पर्यन्त चलता रहता है।

इस आसक्ति का पूर्ण अभाव को वैराग्य की संज्ञा दी जा सकती है। मन पर काबू पाने का वैराग्य जहां उपाय है वहीं मन को संसार से हटाने का अभ्यास ईश्वर प्रणिप्रधान है।वैराग्य एक सोपान है जिसे प्रथम स्थान दिया जा सकता है, जब तक संसार से मन हटे नहीं ईश्वर के प्रति लग नहीं सकता। मन तो एक ही है, यह सत्य है कि बिना मन की स्थिति हुए साधन, भजन, पूजन, पाठ, जपादि आधे-अधूरे ही रहते हैं।

मन ईश्वराभिमुख हो इसलिए उसको ईश्वराधन में इस प्रकार युक्त किया जाए कि वह उसमें न केवल तल्लीन हो जाए बल्कि अखंड आनंदाभूति करता रहे।भगवान के दाम्पत्य में अब आगे अनिरूद्ध का विवाह ऊषा से बताते हैं।बहुत आनन्द से भगवान् का दाम्पत्य चल रहा था।

प्यार एक ऐसी पूंजी है जो कभी खत्म नहीं होती...
मेरे पास और तो कुछ है नहीं। एक पूंजी मेरे पास है जो कभी खत्म नहीं होती और मैं जितना बांटता हूं बढ़ती जाती है। मेरे पास अगर कुछ है तो प्रेम है। अब रूक्मिणीजी को लगा कि यह तो टिप्पणी मेरे ऊपर कर दी इन्होंने। फिर भगवान् ने कहा आप जानती हैं मेरा उदासीन व्रत है। अब इतने सब दुर्गुण हैं तो भी आपकी कृपा है जो आपने विवाह कर लिया। अब रूक्मिणीजी पानी-पानी हो गईं, उन्होंने माफी मांगी।भगवान को जो नहीं भाता वह है अहंकार। दंभ या गर्व होने पर भगवान खुद ही उसे दूर करने को तैयार हो जाते हैं।

जो भगवान के जितना ज्यादा निकट है भगवान उसे उतने प्रेम से सिखाते हैं। फिर रुक्मिणीजी तो उनकी अर्धांगिनी थीं सो भगवान ने हंसी-ठिठौली में ही उनका अहंकार दूर कर दिया। भगवान समझा रहे हैं कि दाम्पत्य ऐसा रिश्ता है जिसमें कभी अहंकार को स्थान नहीं मिलना चाहिए। जहां अहंकार आया रिश्ते में खटास भर जाती है। इसलिए भगवान कह रहे हैं कि पति-पत्नी के बीच हंसी-मजाक के हल्के-फुल्के क्षण भी होने चाहिए, ताकि रिश्ते की मधुरता बनी रहे।जब रुक्मिणीजी ने अपने परम प्रियतम पति त्रिलोकेश्वर भगवान् की यह अप्रिय वाणी सुनी जो पहले कभी नहीं सुनी थी, तब वे अत्यंत भयभीत हो गईं, उनका हृदय धड़कने लगा, वे रोते-रोते चिन्ता के अगाध समुद्र में डूबने-उतरने लगीं।

भगवान् श्रीकृष्ण ने देखा कि मेरी प्रेयसी रुक्मिणी हास्य विनोद की गंभीरता नहीं समझ रही हैं और प्रेमपाश की दृढ़ता के कारण उनकी यह दशा हो रही है। स्वभाव से ही कारुणिक भगवान् श्रीकृष्ण का हृदय उनके प्रति करुणा से भर गया। भगवान् श्रीकृष्ण समझाने-बुझाने में बड़े कुशल और अपने प्रेमी भक्तों के एकमात्र आश्रय हैं। जब उन्होंने देखा कि हास्य की गंभीरता के कारण रुक्मिणीजी की बुद्धि चक्कर में पड़ गई है और वे अत्यंत दीन हो रही हैं तब उन्होंने इस अवस्था के अयोग्य अपनी प्रेयसी रुक्मिणी को समझाते हुए कहा-परमप्रिये! घर के काम-धंधों में रात-दिन लगे रहने वाले गृहस्थों के लिए घर गृहस्थी में इतना ही तो परम लाभ है कि अपनी प्रिय अद्र्धांगिनी के साथ हास-परिहास करते हुए कुछ घडिय़ां सुख से बिता ली जाती हैं।

मांगलिक कार्यों में इस बात का ध्यान जरूर रखें
कथा में यहां जो प्रसंग आ रहा है वह बड़ा गंभीर है और सामयिक भी। कैसे कुसंग, व्यसन हमारे जीवन में अमंगल लाते हैं। यह प्रसंग सभी को सीखने के लिए है कि कभी मांगलिक कार्यों में व्यसनों का उपयोग मत कीजिए। कृष्ण के जीवन की यह एक महत्वपूर्ण घटना है, जिससे बहुत कुछ सीखा जा सकता है। अनिरुद्ध के विवाहोत्सव में सम्मिलित होने के लिए भगवान् श्रीकृष्ण, बलरामजी, रुक्मिणीजी, प्रद्युम्न, साम्ब आदि द्वारकावासी भोजकट नगर में पधारे। जब विवाहोत्सव निर्विघ्न समाप्त हो गया, तब कलिंग नरेश आदि घमंडी नरपतियों ने रुक्मी से कहा कि तुम बलरामजी को पासों के खेल में जीत लो। बलरामजी को पासे डालने तो आते नहीं, परन्तु उन्हें खेलने में बड़ी रूचि है। उन लोगों के बहकावे से रुक्मी ने बलरामजी को बुलवाया और वह उनके साथ चौसर खेलने लगा।

बलरामजी खुद सज्जन थे लेकिन कुसंग में पड़ गए। हम ध्यान रखें कि किसी के दुर्गुण हम पर हावी न हों। रुक्मी रिश्तेदार थे सो उनके लिहाज में बलराम जुआ खेलने बैठ गए। भोले थे सो जल्दी हार भी गए।बलरामजी की हंसी उड़ाते हुए रुक्मी ने कहा-बलरामजी! आखिर आप लोग वन-वन भटकने वाले ग्वाले ही तो ठहरे। आप पासा खेलना क्या जानें? पासों और बाणों से तो केवल राजा लोग ही खेला करते हैं, आप जैसे नहीं? रुक्मी के इस प्रकार आक्षेप और राजाओं के उपहास करने पर बलरामजी क्रोध से आगबबूला हो उठे। उन्होंने एक मुद्गर उठाया और उस मांगलिक सभा में ही रुक्मी को मार डाला। इतनी बड़ी घटना घट गई। विवाह के मंगल मौके पर हत्या हो गई। भगवान असमंजस में पड़ गए, किसका साथ दें। मरने वाला उनकी पत्नी का भाई और मारने वाला उनका भाई। जब हम मांगलिक कार्यों में व्यसनों को खुद ही आमंत्रित करते हैं तो अब परमात्मा क्या कह सकते हैं। वे तो मौन ही रहेंगे। इसलिए ध्यान रखें जब भी मंगल उत्सव हों, व्यसनों को दूर रखें

जीवनसाथी चुने तो क्या ध्यान रखें?
भगवान् श्रीकृष्ण ने यह सोचकर कि बलरामजी का समर्थन करने से रुक्मिणीजी अप्रसन्न होंगी और रुक्मी के वध को बुरा बतलाने से बलरामजी रुष्ट होंगे। अपने साले रुक्मी की मृत्यु पर भला-बुरा कुछ भी न कहा। इसके बाद अनिरुद्धजी का विवाह और शत्रु का वध दोनों प्रयोजन सिद्ध हो जाने पर भगवान् ने आश्रित बलरामजी आदि यदुवंशी नवविवाहिता दुल्हन रोचना के साथ अनिरुद्धजी को श्रेष्ठ रथ पर चढ़ाकर भोजकट नगर से द्वारिकापुरी को चले आए।

भगवान के जीवन के कुछ और प्रसंगों में चलते हैं। ये प्रसंग जीवन से जुड़े हैं। इनमें आज के जीवन की मर्यादाएं हैं। सामाजिक, राजनीतिक, पारिवारिक और व्यक्तिगत जीवन कैसा हो, इन कथाओं के जरिए हम समझ सकते हैं।अब ऊषा-अनिरुद्ध के प्रसंग आते हैं। भगवान के परिवार के प्रसंगों में भी संदेश है। दैत्यराज बलिका और पुत्र बाणासुर भगवान शिव की भक्ति में सदा रत रहता था। बाणासुर की एक कन्या थी, उसका नाम था ऊषा अभी वह कुमारी ही थी कि एक दिन स्वप्न में उसने देखा कि परम सुन्दर अनिरुद्धजी के साथ मेरा विवाह हो रहा है। बाणासुर के मंत्री का नाम था कुम्भाण्ड। उसकी एक पुत्री थी जिसका नाम था चित्रलेखा। ऊषा और चित्रलेखा एक-दूसरे की सहेलियां थीं। चित्रलेखा ने ऊषा से पूछा-राजकुमारी! अभी तक किसी ने तुम्हारा पाणिग्रहण भी नहीं किया है फिर तुम किसे ढूंढ रही हो।

ऊषा ने कहा- मैंने स्वप्न में एक बहुत ही सुन्दर नवयुवक को देखा है। उसके शरीर का रंग सांवला-सांवला सा है। मैं उसी को ढूंढ रही हूं। चित्रलेखा ने बहुत से देवता, गन्धर्व, सिद्ध, चारण, पन्नग, दैत्य, विद्याधर, यक्ष और मनुष्यों के चित्र बना दिए। मनुष्यों में उसने वसुदेवजी, बलरामजी और भगवान् श्रीकृष्ण आदि के चित्र बनाए। जब ऊषा ने अनिरुद्ध का चित्र देखा तब तो लज्जा के मारे उसका सिर नीचा हो गया, फिर मंद-मंद मुसकाते हुए कहा-मेरा वह प्राणवल्लभ यही हैं।

यहां एक संदेश है जब जीवन साथी चुनें तो केवल उसका आधार देह ही न हो। चित्रलेखा ने माया रची। अनिरुद्ध को जगाया, मोहित किया और अपने साथ ले चली। ऊशा ने अमर्यादित व्यवहार किया।चित्रलेखा योगिनी थीं। वह आकाश मार्ग से रात्रि में ही भगवान् श्रीकृष्ण के द्वारा सुरक्षित द्वारिकापुरी में पहुंची। वहां अनिरुद्ध बहुत ही सुंदर पलंग पर सो रहे थे। चित्रलेखा योगसिद्धि के प्रभाव से उन्हें उठाकर शोणितपुर ले आईं और अपनी सखी ऊषा को उसके प्रियतम का दर्र्शन करा दिया।

अनिरुद्धजी उस कन्या के अन्त:पुर में छिपे रहकर अपने-आपको भूल गए। उन्हें इस बात का भी पता न चला कि मुझे यहां आए कितने दिन बीत गए। ये घटनाएं ये बता रही हैं कि जीवनसाथी चुनने का अधिकार सबको है पर आचरण मर्यादित होना चाहिए। ये मर्यादा ही यह बताती है कि हमारा निजत्व कितना पवित्र है। अगर हमारे निजी जीवन में पवित्रता नहीं है तो फिर हम भगवान के ही रिश्तेदार क्यों न थे इसका दुष्परिणाम भुगतना ही पड़ता है।

यही होता है चोरी-छूपे काम करने का नतीजा...
चित्रलेखा योगिनी थीं। वह आकाश मार्ग से रात्रि में ही भगवान् श्रीकृष्ण के द्वारा सुरक्षित द्वारिकापुरी में पहुंची। वहां अनिरुद्ध बहुत ही सुंदर पलंग पर सो रहे थे। चित्रलेखा योगसिद्धि के प्रभाव से उन्हें उठाकर शोणितपुर ले आईं और अपनी सखी ऊषा को उसके प्रियतम का दर्शन करा दिया।अनिरुद्धजी उस कन्या के अन्त:पुर में छूपे रहकर अपने-आपको भूल गए।

उन्हें इस बात का भी पता न चला कि मुझे यहां आए कितने दिन बीत गए। ये घटनाएं ये बता रही हैं कि जीवनसाथी चुनने का अधिकार सबको है पर आचरण मर्यादित होना चाहिए। ये मर्यादा ही यह बताती है कि हमारा निजत्व कितना पवित्र है। अगर हमारे निजी जीवन में पवित्रता नहीं है तो फिर वो भगवान के रिश्तेदार ही क्यों ना हो इसका दुष्परिणाम भुगतना ही पड़ता है।

यदुकुमार अनिरुद्धजी के सहवास से ऊषा का कुआंरपन नष्ट हो चुका था। उसके शरीर पर ऐसे चिन्ह प्रकट हो गए, जो स्पष्ट इस बात की सूचना दे रहे थे और जिन्हें किसी प्रकार छूपाया नहीं जा सकता था। ऊषा बहुत प्रसन्न भी रहने लगी। पहरेदारों ने समझ लिया कि इसका किसी न किसी पुरुष से संबंध अवश्य हो गया है। उन्होंने जाकर बाणासुर से निवेदन किया हम लोग आपकी अविवाहिता राजकुमारी का जैसा रंग-ढंग देख रहे हैं, वह आपके कुल पर बट्टा लगाने वाला है। प्रभो! इसमें सन्देह नहीं कि हम लोग बिना क्रम टूटे, रात-दिन महल का पहरा देते रहते हैं। आपकी कन्या को बाहर के मनुष्य देख भी नहीं सकते। फिर भी वह कलंकित कैसे हो गई? इसका कारण हमारी समझ में नहीं आ रहा है।

हमारी निजता यानी व्यक्तिगत जीवन में पवित्रता हो यह जरूरी है। कोई भी संबंध परिवार या हमारे ईष्टों की जानकारी के बिना बनाए गए हों तो चाहे उनके पीछे भावना कोई भी रही हो, उसका परिणाम गलत आता है। जब किसी से प्रेम करें, मित्रता करें या कोई और संबंध हों। सदैव याद रखें कि उसमें परिवार और इष्टों की सहमति अवश्य लें। अगर हम चोरी-छूपे कोई काम करते हैं तो उसका परिणाम दुखदायी ही होता है।

क्या हुआ जब बाणासुर ने राजधानी को चारों ओर से घेर लिया?
जब अनिरुद्धजी ने देखा कि बाणासुर बहुत से आक्रमणकारी शस्त्रास्त्र से सुसज्जित वीर सैनिकों के साथ महल में घुस आया है, तब वे उन्हें धराशायी कर देने के लिए लोहे का एक भयंकर परिघ लेकर डट गए।बाणासुर ने देखा कि यह तो मेरी सारी सेना का संहार कर रहा है, तब वह क्रोध से तिलमिला उठा और उसने नागपाश से उन्हें बांध लिया। ऊषा ने जब सुना कि उसके प्रियतम को बांध लिया गया है, तब वह अत्यंत शोक और विषाद से विहृल हो गईं। उसके नेत्रों से आंसू की धारा बहने लगी, वह रोने लगी।उसे अपने किए पर पछतावा भी था, बाणासुर राजा बलि का पुत्र और भगवान विष्णु के अनन्य भक्त प्रहलाद का पौत्र था। उसने कठिन तप कर बल तो अर्जित किया ही साथ ही भगवान शिव की कृपा भी प्राप्त की थी।

भगवान शिव उस पर बड़ा स्नेह रखते थे। इधर बरसात के चार महीने बीत गए, परन्तु अनिरुद्धजी का कहीं पता न चला। उनके घर के लोग, इस घटना से बहुत ही शोकाकुल हो रहे थे। एक दिन नारदजी ने आकर अनिरुद्ध का शोणितपुर जाना, वहां बाणासुर के सैनिकों को हराना और फिर नागपाश में बांधा जाना-यह सारा समाचार सुनाया। तब श्रीकृष्ण को ही अपना आराध्यदेव मानने वाले यदुवंशियों ने शोणितपुर चढ़ाई कर दी।श्रीकृष्ण और बलरामजी के साथ उनके अनुयायी सभी यदुवंशी-प्रद्युम्न, सात्यकि, गद, साम्ब, सारण, नन्द, उपनन्द और भद्र आदि ने बारह अक्षौहिणी सेना के साथ व्यूह बनाकर चारों ओर से बाणासुर की राजधानी को घेर लिया। बाणासुर की ओर से साक्षात् भगवान शंकर वृषभराज नन्दी पर सवार होकर अपने पुत्र कार्तिकेय और गणों के साथ रण भूमि में पधारे और उन्होंने भगवान् श्रीकृष्ण तथा बलरामजी से युद्ध किया।

क्योंकि भरोसा ही सबकुछ है
अर्जुन भगवान के चले जाने के बाद रथ की प्रतिक्षा कर रहे थे। थोड़ी ही देर में इन्द्र का सारथि मातलि दिव्य रथ की प्रतीक्षा कर रहे थे। थोड़ी ही देर में इन्द्र का सारथि सातलि दिव्य रथ लेकर वहां उपस्थित हुआ। उस रथ की उज्जवल क्रांति से आकाश में अंधेरा मिट गया। बादल तितर बितर हो रहे थे।

भीषण ध्वनि से दिशाएं प्रतिध्वनित हो रही थी। उसकी कांति दिव्य थी। रथ में तलवार, शक्ति, गदाएं, तेजस्वी, भाले, वज्र पहियोंवाली, तोपें आदि दस हजार हवा की रफ्तार से चलने वाले घोड़े थे। उस दिव्य रथ की चमक से आंखे चौंधिया जाती थी। भीषण युद्ध हुआ। शिव और कृष्ण को आमने-सामने देखकर देवताओं में हलचल मच गई। कृष्ण ने अपने चक्र से बाणासुर की दोनों भुजाएं काट दी। बाणासुर की सेना में कोहराम मच गया। बाणासुर बहुभुज था, दो भुजाएं कटने के बाद भी उसके शरीर पर चार और भुजाएं थीं। युद्ध में कोई कम नहीं था। तब भगवान शिव ने बाणासुर की प्राण रक्षा का उपाय किया।

जब भगवान् शंकर ने देखा कि बाणासुर की भुजाएं कट रही हैं तब वे चक्रधारी भगवान् श्रीकृष्ण के पास आए और स्तुति करने लगे।शंकरजी ने कहा-भगवान आप वेदमन्त्रों में तात्पर्य रूप से छिपे हुए परमज्योति स्वरूप परब्रम्ह हैं। शुद्ध हृदय महात्मागण आपके आकाश के समान सर्वव्यापक और निर्विकार स्वरूप का साक्षात्कार करते हैं।भगवान आपकी माया से मोहित होकर लोग स्त्री-पुरुष, देह-गेह आदि में आसक्त हो जाते हैं और फिर दुख के अपार सागर में डूबने-उतरने लगते हैं।

हे प्रभो! हम सब संसार से मुक्त होने के लिए आपका भजन करते हैं। देव! यह बाणासुर मेरा परमप्रिय, कृपापात्र और सेवक है। मैंने इसे अभयदान दिया है। प्रभो! जिस प्रकार इसके परदादा दैत्यराज प्रहलाद पर आपका कृपा प्रसाद है, वैसा ही आप इस पर भी करें।श्रीकृष्ण ने कहा-भगवान आपकी बात मानकर जैसा आप चाहते हैं मैं इसे निर्भय किए देता हूं। आपने पहले इसके संबंध में जैसा निश्चय किया था मैंने इसकी भुजाएं काटकर उसी का अनुमोदन किया है। मैं जानता हूं कि बाणासुर दैत्यराज बलि का पुत्र है।

इसलिए मैं भी इसका वध नहीं कर सकता, क्योंकि मैंने प्रहलाद को वर दे दिया है कि मैं तुम्हारे वंश में पैदा होने वाले किसी भी दैत्य का वध नहीं करूंगा। इसका घमंड चूर करने के लिए ही मैंने इसकी भुजाएं काट दी हैं। अब इसकी चार भुजाएं बच रही हैं। ये अजर, अमर बनी रहेंगी। यह बाणासुर आपके पार्षदों में मुख्य होगा। अब इसको किसी से किसी प्रकार का भय नहीं हैभगवान कई पीढिय़ों तक अपने भक्तों का भला करते हैं। परमात्मा भविष्य के प्रति एक बड़ा आश्वासन होते हैं। भरोसा ही भक्त की पूंजी है।

यह शरीर सिर्फ एक बंधन है क्योंकि..
वह (आत्मा) अजन्मा है, नित्य है, शाश्वत है, पुरातन है-शरीर के नाश होने से इसका नाश होता है। इस व्याख्या के अनुसार ईश्वर (परमात्मा) और आत्मा में अद्भुत साम्यता दिखाई देती है। साम्यता होने के साथ-साथ आत्मा सगुण रूप होकर माया रूप, उपाधि सहित, चेतन अशुद्ध बन वे ईश्वर सगुण ब्रम्ह बन अवतरित होते हैं। अवतारवाद इस तथ्य की पुष्टिकरता है कि सगुण रूप ने परात्पर राम, जगद्गुरु कृष्ण,महाबुद्ध,पैगम्बर, देवदूत या महात्मा बन लीला करने के लिए प्रकट होते हैं। महत्त्व से युक्त होकर वे सगुण आदि देव ब्रम्हा, विष्णु, महेश आदि बनते हैं और अणु बुद्धि से युक्त होकर जीवात्मा बनते हैं। विस्मयकारक चिंतन तो यह है कि एक ही समय में भिन्न-भिन्न कार्य करते हैं। यहां कपितय अवधारणाओं की संक्षिप्त व्याख्या ली जा रही है।

जीवात्मा-देह, इन्द्रियां, अंत:करण, प्राण, अविद्यांश(बुद्धि) इनमें मैं, अपने की भावना करने वाला आत्मा ही जीव कहलाता है। वास्तव में जीव नाम का कोई आत्मा से अलग है ही नहीं। मैं देहादि नहीं शुद्धात्मा हूं, सत्य स्वरूप, परमानंद स्वरूप व ज्ञान स्वरूप हूं। यह भावना सिद्ध करने से जीव के बंधन से कटकर आत्मा अपने मुक्त स्वरूप से एक रूप हो सकेगी जो कि पिंड में व्याप्त वह जीव और जो ब्रम्हाण्ड में व्याप्त वह परब्रम्ह या शिव कहलाता है।

माया-बन्धन ही माया है। सर्वथा मुक्त आत्मा बंधन में न होने पर भी जीव रूप से अज्ञानवश अपने को बंधन में समझता है। देहाभिमानी जीव ही देह धर्म के मिथ्या धर्मों से बंधा हुआ अनुभव करता है। यह अनुभव चाहे मिथ्या ही सही मोह का जनक होता है। माया के बंधन में जगत के नाना प्रकार के सुख और दुख अनुभव करता हुआ जीव अपने को अपने अंष परब्रम्ह से पृथक मानकर द्वैत भावना से युक्त कम्पित रहता है।

कैसे हम अनजाने में ही पाप कर बैठते हैं?
श्रीकृष्ण कुएं पर आए। उन्होंने बाएं हाथ से उसको बाहर निकाल लिया। भगवान् श्रीकृष्ण के करकमलों का स्पर्श होते ही उसका गिरगिट रूप जाता रहा और वह एक देवता के रूप में परिणत हो गया। अब उसके शरीर का रंग तपाये हुए सोने के समान चमक रहा था और उसके शरीर पर अद्भुत वस्त्र, आभूषण और पुपों के हार शोभा पा रहे थे। यद्यपि भगवान् श्रीकृष्ण जानते थे कि इस दिव्य पुरुष को गिरगिट योनि क्यों मिली थी, फिर भी वह कारण सर्वसाधारण को मालूम हो जाए इसलिए उन्होंने दिव्य पुरुष से पूछा-महाभाग! तुम्हारा रूप तो बहुत ही सुन्दर है। तुम हो कौन? मैं तो ऐसा समझता हूं कि तुम आवश्य ही कोई श्रेष्ठ देवता हो।

किस कर्म के फल से तुम्हें इस योनि में आना पड़ा था? वास्तव में तुम इसके योग्य नहीं हो। हम लोग तुम्हारा वृतांत जानना चाहते हैं। यदि तुम हम लोगों को वह बतलाना उचित समझो तो अपना परिचय अवश्य दो।

उस पुरुष ने जो कथा बताई वह हमारे जीवन में बड़ी उपयोगी है। कैसे हम पुण्य में भी अनजाने ही कोई पाप कर बैठते हैं। जब भी पुण्य कर रहे हों तो सजग रहें कहीं आपका किया पुण्य किसी का अहित तो नहीं कर रहा है।उसने कहा-मैं महाराज इक्ष्वाकु का पुत्र राजा नृग हूं। जब कभी किसी ने आपके सामने दानियों की गिनती की होगी, तब उसमें मेरा नाम भी अवश्य ही आपके कानों में पड़ा होगा।पृथ्वी में जितने धूलिकण हैं, आकाश में जितने तारे हैं और वर्र्षा में जितनी जल की धाराएं गिरती हैं, मैंने उतनी ही गौएं दान की थीं।

एक दिन किसी दान न लेने वाले, तपस्वी ब्राह्मण की एक गाय बिछुड़कर मेरी गौओं में आ मिली। मुझे इस बात का बिल्कुल पता न चला। इसलिए मैंने अनजान में उसे किसी दूसरे ब्राह्मण को दान कर दिया। जब उस गाय को वे ब्राह्मण ले चले, तब उस गाय के असली स्वामी ने कहा-यह गौ मेरी है। दान ले जाने वाले ब्राह्मण ने कहा यह तो मेरी है, क्योंकि राजा नृग ने मुझे इसका दान किया है।

वे दोनों ब्राह्मण आपस में झगड़ते हुए अपनी-अपनी बात कायम करने के लिए मेरे पास आए। एक ने कहा-यह गाय अभी-अभी आपने मुझे दी है और दूसरे ने कहा कि यदि ऐसी बात है तो तुमने मेरी गाय चुरा ली है। उन दोनों ब्राह्मणों की बात सुनकर मेरा चित्त भ्रमित हो गया। मैंने धर्म-संकट में पड़कर उन दोनों से बड़ी अनुनय विनय की और कहा कि मैं बदले में एक लाख उत्तम गौएं दूंगा। आप लोग मुझे यह गाय दे दीजिए। मैं आप लोगों का सेवक हूं। मुझसे अनजान में यह अपराध बन गया है। मुझ पर आप लोग कृपा कीजिए और मुझे इस घोर कष्ट से तथा घोर नरक में गिरने से बचा लीजिए।

क्रमश:...

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है.....
मनीष