Tuesday, April 22, 2014

Maan Shakti (मन शक्ति)

पाँच तत्त्वों से बने हुऐ हमारे इस शरीर को माया ने पूरी तरह से अपने कब्जे में ले रखा है। आज तक अनेकों ॠषि, महर्षियों ने हमे अनेकों बार ब्रह्म-ज्ञान का उपदेश दिया किन्तु हम कहाँ पहुँचे? जब तक हम किसी संत के समीप होते है, तो उतनी ही देर के लिऐ हमारा चेतन मन शान्त होता है और अवचेतन मन जाग्रत हो जाता है। हम जो भी ग्रहण करते हैं या सुनते हैं, एक तरह से वे सब का हमारे अवचेतन मन में चला जाता है। हमारे अवचेतन मन में ही हमारे सभी जन्मों का लेखा-जोखा छिपा हुआ है। जब तक हमारा अवचेतन मन जाग्रत होता है, तब तक हम पाप और पुण्य, धर्म और अधर्म, ज्ञान और अज्ञान, विद्या और अविद्या के प्रति जागरूक रहते है। सन्त जो भी बोलता है, तब अवचेतन मन उसे ग्रहण कर लेता है और फैसला करता है, कि इन में से कौन-कौन सी बात मैने पहले सुनी हुई है और कौन सी बात नहीं सुनी हुई। क्योंकि जो बाते अवचेतन मन ने पहले भी ग्रहण की हुई है, वह उन बातों को छोड़ देता है, क्योंकि वे बातें तो पहले से ही अवचेतन मन के अन्दर छिपी हुई है। जो नई बातें है, उन को अवचेतन मन अपने अन्दर ग्रहण कर लेता है। यह सभी कुछ अवचेतन मन करता है, किन्तु इन्सान समझाता है कि मैने किया, सभी फैसले अवचेतन मन के होते है, किन्तु इन्सान का अहंकार अपनी मैं, अर्थात् अपने चेतन-मन पर केंद्रित होता है। जो नई बातें होती है, उनके बारे में व्यक्ति सोचता है कि, मैं घर जा कर आज से यह काम करूँगा या नहीं करूँगा। किन्तु जैसे ही साधक संत को छोड़ कर अपने घर पहुँचता है, तो वहाँ के वातावरण में जो अशुद्धियाँ होती है उस की वजह से अवचेतन-मन सो जाता है और चेतन-मन फिर से जाग्रत हो जाता है।

वातावरण की इन्हीं अशुद्धियों को दूर करने के लिऐ, अनादि काल से आर्य-सभ्यता में हवन करने का विधान है। जब अवचेतन-मन निष्कृय हो जाता है, तो चेतन-मन माया के चक्र में उलझ कर अपना काम करने लगता है, और जैसा की आप सभी ने देखा, सुना या पढ़ा होगा की फिर चेतन-मन जो की सन्त के पास बिलकुल निष्क्रिय था, वह सक्रिय हो कर संत की निंदा करने लगता है। उस के बाद चेतन-मन को संत कि जो-जो बातें पसन्द आती है, उनको वह ग्रहण करता है, किन्तु शेष बातों के बारे में कहता है कि ‘संतो का काम तो है ही बेकार की बातें करना’, इन के पास तो समय ही समय है, ये जो भी चाहे नियमों का पालन कर सकते हैं। लेकिन आम आदमी के पास समय कहाँ है जो इतनी मेहनत और नियमों का पालन कर सके। चेतन-मन से जैसे भी बन पड़ता है, वह अपनी तरफ से संत की निंदा करने में कोई कसर नहीं छोड़ता। हमें ध्यानपूर्वक चेतन और अवचेतन-मन को समझना पड़ेगा।

हम जितना भी मौखिक रूप से काम करते है। यह सभी काम चेतन-मन करता है। हम सभी अगर ध्यान पूर्वक अपने चरित्र को देखें तो हमे महसूस होगा की हमारा अवेचतन-मन कैसे काम करता है। मान लीजियें कि हमारे घर पर कोई मेहमान आ जाऐं तो हम उसका पूरी तरह से सत्कार करेंगे। इसके पीछे हमारा अवचेतन-मन है, क्योंकि हमारे अवचेतन-मन मे ही सभी संस्कार विद्यमान है। इसी तरह अगर किसी को सम्मोहित कर दिया जाये तो वह व्यक्ति आपकी हर बात मानने को बाध्य होगा, क्योंकि सम्मोहन से उसका चेतन-मन गहरी निंद्रा में चला गया है। किन्तु अवचेतन-मन हमेशा क्रियाशील रहता है। अगर सम्मोहन के द्वारा सम्मोहित व्यक्ति को किसी गलत काम के लिऐ निर्देश दिया जाऐं, जो की अवचेतन-मन में संस्कारों के खिलाफ हो। जैसे की सम्मोहित व्यक्ति को अगर कहा जाऐं की तुम संपूर्ण रूप से निर्वस्त्र हो जाओ, तो ऐसा सुनते ही सम्मोहित व्यक्ति का सम्मोहन टूट जाऐगा और वह जाग जाऐगा। इस तरह हम ध्यान्पूर्वक अपने चेतन और अवचेतन-मन को समझ सकते हैं। इसको योगियों ने जागना कहा है, कि तुम हमेशा अपने अवचेतन-मन की तरफ ध्यान दो और अपने संस्कारो के अनुरूप ही कार्य करो। जो व्यक्ति योग निन्द्रा के द्वारा अपने चेतन-मन को निष्क्रिय कर देता है और हमेशा अवचेतन-मन के अनुसार ही संस्कार युक्त कार्य करता है, ऐसा व्यक्ति ही पूर्ण योगी कहलाता है। जिसने योग के द्वारा माया को जीत लिया और चेतन-मन को अवचेतन-मन में पूर्ण रूप से विलीन कर लिया।

हम कितना ही पढ़ ले, जान ले, समझ ले किन्तु जब तक हमें संपूर्णता प्राप्त नहीं हो जाती, हम अधूरे है और तब तक जिज्ञासायें जन्म लेती रहेंगी। हर साधक के अंदर के उसके अपने पूर्व-जन्म के संस्कारों के अनुसार ही जिज्ञासायें जन्म लेती है। अनेकों बार समझाने और समझने के बाद भी साधकों के मन में एक प्रश्न पैदा होता है, कि क्या हम सिर्फ नाम के द्वारा ही उस परमात्मा को पा सकते है या नहीं? अगर कोई भी व्यक्ति परमात्मा के किसी भी नाम का जाप करे तो वह उस मंडल तक ही पहुँच पायेगा, जिस मंडल तक उस नाम की सीमा रेखा है। मान लीजिये आप राम, कृष्ण, नारायण, हरि आदि शब्दों को इस्तेमाल करते हैं, तो आप सिर्फ सहस्त्रदल तक ही पहुँच पाओगे, क्योंकि सहस्त्रदल, त्रिलोकी नाथ नारायण का स्थान है। इसलिऐ अगर आप नारायण या उस के किसी भी प्रायवाची शब्द का जाप करते है, तो हम वहीं तक पहुँच पायेगें। इसी तरह हर मंडल का देव व उस का मंत्र भी अलग है। लेकिन ऐसा नहीं है की हम सीधे ही आखिरी मंडल का जाप करके उस परमात्मा को पा सकते है। जिस तरह एक छोटा बच्चा स्कूल जाता है, और स्वर-व्यंजन पढ़ते हुऐ प्रथम कक्षा से अपनी शिक्षा प्रारम्भ करता है। उसी तरह योगियों की प्रथम कक्षा मणिपुर मंडल (मणिपुर चक्र) है। जो कि हमारी नाभि में स्थित है, कुछ दिव्य महापुरूष त्रिकुटी पर ध्यान लगाना बताते हैं, कि यहीं से अपनी ध्यान-साधना प्रारम्भ करो। कुछ व्यक्ति विशेषों का यह वहम है, की हम त्रिकुटी में ध्यान लगा कर जल्द से जल्द उस परमात्मा को प्राप्त कर लेगें, लेकिन ऐसा नहीं है।

आप नाभि से प्रारम्भ करे या चाहें तो त्रिकुटी से। दोनो में समय और मेहनत एक ही लगेगी। अनेकों ही साधक त्रिकुटी में ध्यान लगा कर प्रकाश को देखने व शब्द को सुनने की कोशिश करते हैं, लेकिन ध्यान से देखा जाऐ तो जिन साधकों को त्रिकुटी में प्रकाश एंव दिव्य ध्वनी सुनाई पड़ती है। जैसे ही त्रिकुटी प्रकाशवान होगी वैसे ही नीचे के सभी मंडल भी प्रकाशवान होगें। इसलिऐ अनेकों महापुरूषों ने नया-विधान बनाया जिसमे की न तो अधिक समय लगता है और ना ही अधिक मेहनत की आवश्यकता है, क्योंकि अगर आप नाभि से प्रारम्भ करते हुऐ त्रिकुटी तक पहुँचते हैं तो एक-एक मंडल को जाग्रत करने में अधिक समय लगेगा। इसी तरह अगर हम त्रिकुटी में ध्यान लगाते है, तो भी हमे समय अधिक लगेगा। लेकिन इस नये-विधान के अनुसार अगर साधना की जाये तो नाभि से ले के त्रिकुटी तक के सभी मंडल शीघ्र ही क्रियाशील हो जाऐंगे। क्योंकि परमात्मा का निज नाम ॐ है। इसलिऐ हमें ॐ के ‘अ’, ‘उ’, ‘म’ को ले कर यह साधना करनी होगी। जो साधक इस साधना को करना चाहे, वह पद्मासन या सिद्धासन में बैठ कर, (अगर कोई साधक ये आसन न लगा सके तो सुखासन में बैठ कर) मेरूदंड को सीधा रखते हुऐ नाभी के अन्दर ‘अ’ हृदय के अन्दर ‘उ’ और त्रिकुटी में ‘म’ का ध्यान करते हुए दीर्घ स्वर में ॐ का जाप करें। जहाँ तक सम्भव हो सके श्वांस को गहरा लेते हुऐ ॐ का जाप व ध्यान करें। साथ ही साथ नाभि के अन्दर पीले रंग का, हृदय में हरे रंग का एवं त्रिकुटी में सफेद रंग का ध्यान करें। ऐसा करके साधक थोडे ही समय में नाभि से ले के त्रिकुटी तक के सभी मंडलों को प्रकाशवान बना सकता है। जब त्रिकुटी में प्रकाश व दिव्य-ध्वनी सुनाई देने लगे तो उस के बाद की साधना किसी योग्य-गुरू के निर्देशन में करें क्योंकि त्रिकुटी से आगे का रास्ता मुश्किल ही नहीं अपितु खतरनाक भी है। इसलिऐ साधना करते हुऐ आलस्य न करे और जहाँ तक कोशिश हो सके, एक दिन के लिऐ भी साधना का त्याग न करें। अगर हम बिना नागा किये प्रतिदिन एक ही समय पर साधना करेंगे, तो उस परमात्मा को प्राप्त कर लेना मुश्किल नहीं है।

मन ही माया है
मन से मुक्त हो जाना ही संन्यास है। इसके लिए पहाड़ों पर या गुफाओं में जाने की कोई जरूरत नहीं है। दुकान में, बाजार में, घर में.. हम जहां भी हों, वहीं मन से छूटा जा सकता है..। संत लाख कहें कि संसार माया है, लेकिन सौ में से निन्यानबे संत तो खुद ही माया में उलझे रहते हैं। लोग भी अंधे नहीं हैं। वे सब समझते हैं। वे समझते हैं कि महाराज हमें समझा रहे हैं कि संसार माया है, वहीं वे स्वयं माया में ही उलझे हुए हैं। मेरा मानना है कि संसार माया नहीं, बल्कि सत्य है।

संसार माया नहीं, वास्तविक है। परमात्मा से वास्तविक संसार ही पैदा हो सकता है। अगर ब्रह्मा सत्य है, तो जगत मिथ्या कैसे हो सकता है? ब्रह्मा का ही अवतरण है जगत। उसी ने तो रूप धरा, उसी ने तो रंग लिया। वही तो निराकार आकार में उतरा। उसने देह धरी। अगर परमात्मा ही असत्य हो, तभी तो संसार असत्य हो सकता है।

लेकिन न तो परमात्मा असत्य है, न ही संसार। दोनों सत्य के दो पहलू हैं- एक दृश्य एक अदृश्य। माया फिर क्या है? मन माया है। मैं संसार को माया नहीं कहता, मन को कहता हूं। मन है एक झूठ, क्योंकि मन वासनाओं, कामनाओं, कल्पनाओं और स्मृतियों का जाल है।

संसार माया है, यह भ्रामक बात समझकर लोग संसार छोड़कर भागने लगे। आखिर संसार को छोड़कर कहां जाओगे? जहां जाओगे, वहां संसार ही तो है। एक आदमी संसार से भाग गया। वह क्रोधी था। उसने किसी साधु से सत्संग किया, तो साधु ने कहा- संसार माया है। इसमें रहोगे, तो क्रोध, लोभ, मोह, काम और कुत्सा सब घेरेंगे। इस संसार को छोड़ दो।

उस आदमी को बात समझ में आ गई। उसने कहा- ठीक है। वह जंगल में जाकर एक पेड़ के नीचे बैठ गया। पेड़ पर बैठे एक कौवे ने उसके ऊपर बीठ कर दी। कौवा तो ठहरा पक्षी, उसमें इतना ज्ञान कहां। कौवा साधु-संत और सामान्य लोगों में फर्क कैसे कर सकता है। उस आदमी ने क्रोध से आगबबूला होकर हाथों में डंडा उठा लिया। अब कौवा उड़ता रहा और वह डंडा लेकर उसके नीचे-नीचे दौड़ता रहा। कभी वह कौवे की ओर डंडा फेंकता तो कभी उसे पत्थर मारता।

संसार से भागोगे, तो यही होगा। आखिर उसने खुद से ही कहा - यह जंगल भी किसी काम का नहीं। यहां क्रोध से मुक्ति नहीं मिलेगी। यहां भी माया है। वह जाकर नदी किनारे बैठ गया, जहां आसपास कोई पेड़-पौधा नहीं था। वह अपने क्रोध के जाल से इतना उदास और हताश हो गया था कि उसे जीवन अकारथ नजर आने लगा। उसकी नजरों में जब संसार ही अकारथ है और माया है, तो जीने का अर्थ ही क्या? उसने लकडि़यां इकट्ठी कीं और अपने लिए चिता बनाने लगा। उसने सोचा इसमें आग लगाकर खुद बैठ जाऊंगा। आग लगाने को ही था कि आसपास के गांव के लोग आ गए। उन्होंने कहा कि आप यह सब कहीं और जाकर करें, पुलिस हमें बेवजह तंग करेगी। आप जलेंगे, तो दुर्र्गध भी तो हमें ही आएगी। उस आदमी के क्रोध की सीमा न रही।

संसार से भागोगे, तो भागोगे कहां? यहां जीना भी मुश्किल, मरना भी मुश्किल। संसार से भाग नहीं सकते हो। संसार माया है, इस धारणा ने लोगों को गलत संन्यास का रूप दे दिया है। संसार तो परमात्मा का प्रसाद है। संसार के फूल उसी के सौंदर्य की कथा कहते हैं। ये पक्षी उसी की प्रीति के गीत गाते हैं। ये तारे उसी की आंखों की जगमगाहट हैं। यह सारा अस्तित्व उससे भरपूर है, लबालब है।
लेकिन फिर भी मैं जानता हूं कि संसार में अगर कोई चीज माया है, तो वह एक ही है- वह है मन। मन ही भ्रमित करता है।

इसलिए संसार से भागना नहीं, बल्कि मन से छूट जाना संन्यास है। मन से मुक्त हो जाना संन्यास है। इसके लिए पहाड़ों पर, गुफाओं में जाने की कोई जरूरत नहीं। दुकान में, बाजार में, घर में- तुम जहां हो, वहीं मन से छूटा जा सकता है। मन से छूटने की सीधी सी विधि है : अगर मन अतीत में जाता है, तो उसे जाने दो। लेकिन जब भी वह अतीत में जाए, उसे वापस लौटा लाओ। कहो कि भैया, अतीत में नहीं जाते। जो हो गया, सो हो गया। पीछे नहीं लौटते। इसी तरह जब मन भविष्य में जाने लगे, तब भी कहना, भैया इधर भी नहीं। अभी भविष्य आया ही नहीं, तो वहां जाकर क्या करोगे। यहीं, अभी और इस वक्त में रहो। यह क्षण तुम्हारा सर्वस्व हो। ऐसा होते ही, सारी माया मिट जाएगी। मन के सारे जंजाल खत्म हो जाएंगे। ऐसे में अंधकार चला जाता है और रोशनी हो जाती है। क्योंकि अतीत और भविष्य दोनों ही अभाव हैं, उनका अस्तित्व नहीं है। वे अंधकार की तरह हैं, जबकि वर्तमान ज्योतिर्मय है।

जिन ऋषियों ने कहा है कि हे प्रभु, हमें तमस से ज्योति की ओर ले चलो, वे उस अंधेरे की बात नहीं कर रहे हैं, जो अमावस की रात को घेर लेता है। वे उस अंधेरे की बात कर रहे हैं, जो तुम्हारे अतीत और भविष्य में डोलने के कारण तुम्हारे भीतर घिरा है। और वे किस ज्योतिर्मय लोक की बात कर रहे हैं? वर्तमान में ठहर जाओ, ध्यान में रुक जाओ, समाधि का दीया जल जाए, तो अभी रोशनी हो जाए। जब तुम्हारे भीतर रोशनी हो जाए, तो तुम जो देखोगे, वही सत्य है।

मन एक जमीन है..
यदि हम यह कहें कि मेरा मन मेरा नहीं, तो फिर यह किसका है? आम व्यवहार में हम यही अनुभव करते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति का मन अलग-अलग होता है। मन हमारा नहीं होता का अर्थ यह कतई नहीं है कि वह पूरी तरह से दूसरे का होता है। चूंकि मन हमारा है, हमारे द्वारा संचालित है, वह हमारी ही इच्छा और विचारों को जन्म देता है, इसलिए वह हमारा है। लेकिन यहां प्रश्न यह है कि क्या यह सचमुच हमारा है? आइए, इसे थोड़ी गंभीरता से समझने की कोशिश करें, अन्यथा हमारा मन के साथ व्यर्थ ही झगड़ा होता रहेगा।

मान लीजिए खेत की एक जमीन है। इस जमीन के मालिक आप हैं। इस जमीन में आप जो चाहें, बो सकते हैं-धान, गेहूं, कपास, चना, सरसों आदि कुछ भी। यह पूरी तरह आपके ऊपर निर्भर करता है। लेकिन सोचकर देखिए कि ये जितनी भी बातें हैं, क्या सचमुच इन सभी पर आपका अपना ही नियंत्रण है? कहीं ऐसा तो नहीं कि नियंत्रण किसी और का है। आपको केवल इस बात का आभास हो रहा है कि नियंत्रण आपका है। जमीन आपकी नहीं है। आप उसके केवल मालिक हैं। जमीन किसी की नहीं है। चूंकि वह मिट्टी से बनी है, इसलिए प्राकृतिक सत्य यह है कि जमीन मिट्टी की है, आपकी नहीं।

अब आते हैं दूसरे प्रश्न पर कि आप उसमें अपनी इच्छानुसार कुछ भी बो सकते हैं। ऐसा भी नहीं है। यदि मिट्टी काली है, तो आप उसमें चना या कपास बोने को बाध्य हैं। आपको केवल इतनी ही छूट है कि चाहे आप कपास बोएं या चना या फिर दोनों ही आधा-आधा, लेकिन आप यह स्वतंत्रता लेने की हिम्मत कतई नहीं कर सकते कि आप उसमें सरसों या बाजरा बो दें। इसका अर्थ यह हुआ कि जैसी मिट्टी होगी, उसमें उसी तरह की फसल उगेगी। यदि ऐसा नहीं हुआ, तो इससे जहां मिट्टी का दुरुपयोग होगा, वहीं फसल की भी हानि होगी।

यही प्रकृति का नियम है। अब हम इस उदाहरण को अपने मन पर लागू करके देखें। मन एक जमीन है। यह अपने आप में न तो बीज है, न फसल है और न ही किसान। यह मात्र एक पृष्ठभूमि है, जिसमें आपको बीज बोने हैं या लकीरें उकेरनी हैं। यदि मन एक जमीन है, तो इसके मालिक तो आप हो सकते हैं, लेकिन मिट्टी आपकी नहीं है। मिट्टी तो प्रकृति ने बनाई है। तो मन की इस जमीन की मिट्टी को किसने बनाया है? यदि यह मिट्टी आपने नहीं बनाई तो फिर आप खुद बताइए कि ऐसी जमीन आपकी कैसे हो सकती है? चूंकि वह आपके अंदर है, केवल इसलिए वह आपकी है। आपने उसे पैदा नहीं किया है, उसे प्राप्त किया है। पैदा करने वाला सच्चा मालिक होता है, प्राप्त करने वाला नहीं। प्राप्त करने वाला तो केवल उसका संरक्षक है।

मन की इस जमीन को किसने तैयार किया है? इसमें हमारे जीवन के संस्कार शामिल हैं। इसमें सदियों से चली आ रही हमारी सभ्यता-संस्कृति शामिल है। हमारे माता-पिता के जींस शामिल हैं। हमारे आसपास का समाज शामिल है। हमारा संपूर्ण बाह्य भौतिक वातावरण, हमारा इतिहास इसमें शामिल है। ये सारे तत्व मिलकर मन की इस जमीन के लगभग नब्बे प्रतिशत हिस्से की रचना कर देते हैं। मुश्किल से दस प्रतिशत हिस्सा ही ऐसा रह जाता है, जिसे हम अपना कह सकते हैं। इस दस प्रतिशत हिस्से को भी केवल वे ही लोग समझ पाते हैं, जो सोचते हैं और सजग रहते हैं।

मन के रूप अनेक
मन के तीन रूप माने गए हैं-चेतन, अवचेतन और अचेतन, लेकिन मन की संख्या इतने तक ही सीमित नहीं है। कई बार ये तीन मन तीन हजार बन जाते हैं। कैसे और कब बनता है मन एक से अनेक..? जब हम कुछ सोचते हैं या किसी से बात करते हैं, तब हमारा एक ही मन सक्रिय रहता है। यहां तक कि जब हम निर्णय लेने के लिए द्वंद्व की स्थिति में रहते हैं, तब भी। हालांकि तब लगता है कि हमारे दो मन हो गए हैं, जिसमें से एक हां कह रहा है तो दूसरा नहीं। लेकिन यहां भी मन एक ही होता है, बस वही मन विभाजित होकर दो हो जाता है।

सामान्यतया मन [चेतना] के तीन स्तर माने गए हैं- चेतन, अवचेतन और अचेतन मन। लेकिन मन की संख्या यहीं तक सीमित नहीं है। ये तीन मन परिवर्तन एवं सम्मिश्रणों द्वारा तीन हजार मन बन जाते हैं, लेकिन इनका उद्गम इन तीन स्तरों से ही होता है।

चेतन मन वह है, जिसे हम जानते हैं। इसके आधार पर अपने सारे काम करते हैं। यह हमारे मन की जाग्रत अवस्था है। विचारों के स्तर पर जितने भी द्वंद्व, निर्णय या संदेह पैदा होते हैं, वे चेतन मन की ही देन हैं। यही मन सोचता-विचारता है।

लेकिन चेतन मन संचालित होता है अवचेतन और अचेतन मन से। यानी हमारे विचारों और व्यवहार की बागडोर ऐसी अदृश्य शक्ति के हाथ में होती है, जो हमारे मन को कठपुतली की तरह नचाती है। हम जो भी बात कहते हैं, सोचते हैं, उसके मूल में अवचेतन मन होता है।

अवचेतन आधा जाग रहा है और आधा सो रहा है। मूलत: यह स्वप्न की स्थिति है। जिस तरह स्वप्न पर नियंत्रण नहीं होता, उसी प्रकार अवचेतन पर भी नियंत्रण नहीं होता। हम जाग रहे हैं, तो हम फैसला कर सकते हैं कि हमें क्या देखना है, क्या नहीं।लेकिन सोते हुए हम स्वप्न में क्या देखेंगे, यह फैसला नहीं कर सकते। स्वप्न झूठे होकर भी सच से कम नहींलगते।

मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि जो इच्छाएं पूरी नहीं हो पातीं, वे अवचेतन मन में आ जाती हैं। फिर कुछ समय बाद वे अचेतन मन में चली जाती हैं। भले ही हम उन्हें भूल जाएं, वे नष्ट नहीं होतीं। फ्रायड का मानना था कि अचेतन मन कबाड़खाना है, जहां सिर्फ गंदी और बुरी बातें पड़ी होती हैं, पर भारतीय विचारकों का मानना है कि संस्कार के रूप में अच्छी बातें भी वहां जाती हैं।
अचेतन एक प्रकार का निष्क्रिय मन है। यहां कुछ नहीं होता। यह भंडार गृह है। हमारा अवचेतन या चेतन मन जब इन वस्तुओं [विचारों] में से किसी की मांग करता है, तब अचेतन मन उसकी सप्लाई कर देता है।

निष्क्रिय होकर भी अचेतन मन में कुछ न कुछ उबलता-उफनता रहता है, जो हमारे व्यक्तित्व के रूप में उभर कर सामने आता है। हम भले ही अचेतन मन की उपेक्षा करें, लेकिन चेतन मन और अवचेतन मन जो कुछ भी करते हैं, वे सब वही करते हैं, जो अचेतन मन उनसे कराता है।

फ्रायड ने बिल्कुल सही कहा था कि मन एक हिमखंड की तरह होता है, जिसका 10 प्रतिशत हिस्सा ही ऊपर दिखाई देता है। 90 फीसदी भाग तो पानी के अंदर छिपा होता है। इसी तरह युंग ने भी कहा था - ज्ञात मन [चेतन] तो केवल छोटे से द्वीप के समान है, पर चारों तरफ फैला महासागर अज्ञात [अचेतन] मन है। यही अज्ञात मन सब कुछ है।


मन को ऐसे साधें
मन बंदर-सा चंचल है। मन को वश में करने की शक्ति पाने के पूर्व हमें मन का भली-भांति अध्ययन करना चाहिए। चंचल मन को संयत करके उसे विषयों से खींचना होगा और उसे एक विचार पर केंद्रित करना होगा। बार-बार इस क्रिया को करें।

मन को स्थिर करने का सबसे सरल उपाय यह है कि चुपचाप बैठ जाएं और मन जहां जाएउसे जाने दें। बस उसे देखते रहें। दृढ़तापूर्वक इस भाव का चिंतन करें कि मैं मन को विचरण करते हुए देखने वाला साक्षी हूं। मैं मन नहीं हूं। फिर ऐसी कल्पना करें कि मानो मन मुझसे बिल्कुल अलग है और मैं ईश्वर से जुड़ा हूं। सोचिए कि मन एक विस्तृत सरोवर है और आने-जाने वाले विचार इसके तल पर उठने वाले बुलबुले हैं।

दृढ़तापूर्वक इस भाव का चिंतन करें कि मैं मन नहीं हूं। मैं सिर्फ मन को देख रहा हूं। इसका अभ्यास करने से आप मन और भावना से अपने को अलग करते जाएंगे। अंत में व्यक्ति मन से अपने को बिल्कुल अलग समझ सकेगा। इसके बाद मन साधक का सेवक हो जाएगा और वह व्यक्ति इस पर इच्छानुसार शासन कर सकेगा। इंद्रियों से परे हो जाना योगी की प्रथम स्थिति है और जब वह मन पर विजय प्राप्त कर लेता हैतब वह सर्वोच्च स्थिति प्राप्त कर लेता है।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है...
मनीष

Monday, April 7, 2014

Prarthna (प्रार्थना)

इस तरह करेंगे तो हर प्रार्थना स्वीकार करेंगे भगवान....
हर इंसान जीवन में कभी ना कभी भगवान से प्रार्थना जरूर करता है। प्रार्थना हमारे दैनिक जीवन का हिस्सा होना चाहिए लेकिन अक्सर लोग तभी भगवान को याद करते हैं जब वे किसी बड़ी परेशानी से दो-चार होते हैं।

कई लोग ये भी कहते हैं कि वे प्रार्थना तो बहुत करते हैं लेकिन भगवान सुनता ही नहीं। दरअसल हम जब भी प्रार्थना करते हैं तो उसमें वो भाव नहीं होता जो भगवान को चाहिए। हम मिन्नतों में भी भगवान को वस्तुओं का लालच देते हैं। सिर्फ ये सोचने की बात है कि जिसने इस पूरे संसार की रचना की है वो क्या किसी साधारण लालच से पिघल जाएगा। प्रार्थना में सिर्फ आपकी भावनाएं ऐसी हों जो उसे छू सके।

भागवत में भक्त धु्रव की कथा आती है। धु्रव के पिता की दो पत्नियां थीं। पिता को अपनी दूसरी पत्नी से अधिक प्रेम थाजो कि ज्यादा सुंदर थी। उसी से पैदा हुए पुत्र से ज्यादा स्नेह भी था। एक दिन एक सभा के दौरान धु्रव अपने पिता की गोद में बैठने के लिए आगे बढ़ा तो सौतेली मां ने उसे रोक दिया।

पांच साल के अबोध धु्रव को रोना आ गया। सौतेली मां ने कहा जा जाकर भगवान की गोद में बैठ जा। धु्रव ने अपनी मां के पास जाकर पूछा मां भगवान कैसे मिलेंगे। मां ने जवाब दियाउसके लिए तो जंगल में जाकर घोर तपस्या करनी पड़ेगी।

बालक धु्रव ने जिद पकड़ ली कि अब भगवान की गोद में ही बैठना है। जंगल की ओर निकल पड़ा। एक पेड़ के नीचे बैठकर ध्यान लगाया। लेकिन कोई मंत्र नहीं आता था। नारदजी उधर से गुजरे तो बालक धु्रव को गुरु मंत्र दे दिया। ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय नम:। बस अब बालक धु्रव मंत्र जपने लगा। कोई और इच्छा नहीं थीसिर्फ एक भाव की भगवान की गोद में बैठना है।

मन से भगवान को पुकारने लगा। बच्चे का निर्दोष भाव देखकर भगवान भी पिघल गए। प्रकट हुए। वर मांगने को कहा। बालक धु्रव ने कहा मुझे अपनी गोद में बैठा लीजिए। भगवान ने इच्छा पूरी कर दी।

ना कोई प्रसादना कोई चढ़ावासिर्फ भावों से ही भगवान को जीत लिया पांच साल के धु्रव ने। राज्य में बड़ा सम्मान हुआ। पिता ने सिंहासन भेंट कर दिया।

कभी भगवन की प्रार्थना से मुंह फेरने की गलती न करें...
दुःख में भगवान को याद करना चाहिएलोग गलती यह करते हैं कि जब बहुत दुखी होते हैं तो भगवान् को भी भूल जाते हैं। दुख किसके जीवन में नहीं आता। बड़े से बड़ा और छोटे से छोटा व्यक्ति भी दुखी रहता है। पहुंचे हुए साधु से लेकर सामान्य व्यक्ति तक सभी के जीवन में दुख का समय आता ही है। कोई दुख से निपट लेता है और किसी को दुख निपटा देता है। दुख आए तो सांसारिक प्रयास जरूर करेंपर हनुमानजी एक शिक्षा देते हैं और वह है थोड़ा अकेले हो जाएं और परमात्मा के नाम का स्मरण करें।

सुंदरकांड में अशोक वाटिका में हनुमानजी ने सीताजी के सामने श्रीराम का गुणगान शुरू किया। वे अशोक वृक्ष पर बैठे थे और नीचे सीताजी उदास बैठीं हनुमानजी की पंक्तियों को सुन रही थीं। रामचंद्र गुन बरनैं लागा। सुनतहिं सीता कर दुख भागा।।

वे श्रीरामचंद्रजी के गुणों का वर्णन करने लगेजिन्हें सुनते ही सीताजी का दुख भाग गया। तब हनुमंत निकट चलि गयऊ। फिरि बैठीं मन बिसमय भयऊ।। तब हनुमानजी पास चले गए। उन्हें देखकर सीताजी मुख फेरकर बैठ गईं। हनुमानजी रामजी का गुणगान कर रहे थे। सुनते ही सीताजी का दुख भाग गया। दुख किसी के भी जीवन में आ सकता है।

जिंदगी में जब दुख आए तो संसार के सामने उसका रोना लेकर मत बैठ जाइए। परमात्मा का गुणगान सुनिए और करिएबड़े से बड़ा दुख भाग जाएगा। आगे तुलसीदासजी ने लिखा है कि हनुमानजी को देखकर सीताजी मुंह फेरकर बैठ गईं। यह प्रतीकात्मक घटना बताती है कि हम भी कथाओं से मुंह फेरकर बैठ जाते हैं और यहीं से शब्द अपना प्रभाव बदल लेते हैं। शब्दों के सम्मुख होना पड़ेगाशब्दों के भाव को उतारना पड़ेगातब परिणाम सही मिलेंगे। इसी को सत्संग कहते हैं।

जानिएकैसे लाया जाए प्रार्थना में असर?
प्रार्थनाएं हर बार नहीं सुनी जातींलेकिन कई बार एक ही आवाज में भगवान दौड़े आते हैं। उन शब्दों में ऐसा कौन सा जादू होता हैजिससे भगवान पिघलते हैं। प्रार्थना कभी खाली ना जाएइसमें ऐसा असर कैसे जगाया जाए।

कहते हैं प्रार्थना में शब्दों की जगह भाव होना चाहिए। कुछ नियम प्रार्थना के भी होते हैं। हम जब मांगने पर आते हैं तो यह भी नहीं देखते कि क्या हमारे लिए जरूरी है और क्या नहीं। बस मंदिर पहुंचते ही मांग रख देते हैं। मांगने की भी मर्यादाएं होती हैं। अनुचित और गैर-जरूरी चीजें मांगने से सिर्फ समय और प्रार्थना की बर्बादी होती है।

अपनी प्रार्थना में असर लाने के लिए भगवान से मांगने का भाव छोड़ दें। हम जितना मांगेंगेउतना कम मिलेगा। सही तरीका यह है कि जीवन उसके भरोसे छोड़ दें और अपना कर्म करते चलें। फिर मांगने की जरूरत नहीं पड़ेगी। जो आवश्यकता होगीवो अपनेआप मिल जाएगा।

गुजरात के प्रसिद्ध संत हुए हैं नरसिंह मेहता। नरसिंह मेहता बड़े नगर सेठ थे। उनकी एक ही बेटी थी। वे कृष्ण भक्ति में इतने लीन थे कि अपनी सारी दौलत गरीबों और जरूरतमंदों को दान कर दी। उनका अंदाज भी फकीराना हो गया। लोग समझाते कि कभी तुमको कोई जरूरत पड़ी तो क्या करोगे। फिर कहां से इना धन आएगा। मेहता कहते कि सब सांवरिया सेठ भगवान कृष्ण करेंगे।

बेटी के ससुराल में एक समारोह हुआ। नरसिंह मेहता को मायरे की भेंट देनी थी लेकिन पास में एक ढेला भी नहीं था। वो खाली हाथ ही चल दिए। भगवान का नाम जपते चल रहे थे। भगवान कृष्ण ने देखा कि ऐसे खाली हाथ जाएगा तो मेरे भक्त की इज्जत क्या रह जाएगी। भगवान खुद गाड़ीभर कर मायरे का सामान लेकर नरसिंह मेहता की बेटी के ससुराल पहुंच गए।

हमारी प्रार्थना में भाव समर्पण का होना चाहिएइसके बाद तो भगवान बिना मांगे ही सब दे देगा।

फिर कोई भी परेशानी आपके लिए चिंता का कारण नहीं रहेगी...
कई बार हम संकट में भगवान को भूल जाते हैंदिन-रात उस परेशानी से निकलने के लिए छटपटाते हैं लेकिन रास्ता नहीं मिलता।अक्सर देखा गया है कि ऐसे मुश्किल समय में हम भगवन को भूल जाते हैं. अगर प्रार्थना का क्रम जारी रहे तो फिर मुश्किलों से निकलने में कोई समस्या नहीं आएगी।रामचरित मानस के सुंदरकांड का एक प्रसंग यही बात सिखाता है।जिंदगी में संकट किसी भी रूप में आ जाता है। कभी-कभी तो हम थक जाते हैं कि आखिर हम इससे कैसे निपटेंकुछ लोगों ने महसूस किया होगा कि हमारा अनुभव भी ऐसे समय काम नहीं आता। हम कितनी ही ऊंची कक्षा के व्यक्ति होंकुछ संकट ऐसे होते हैंजो हमें विचलित कर ही जाते हैं। सुंदरकांड में सीताजी के साथ ऐसा ही हुआ था। वे परमज्ञानी विदेहराज जनक की बेटी थीं।

स्वयं बहुत सुलझी हुई स्त्री थीं और श्रीरामजी की धर्मपत्नी थीं। इसके बावजूद जब हनुमानजी उनसे पहली बार मिले तो वे अत्यधिक विचलित थीं। तुलसीदासजी ने लिखा है - कह कपि हृदयं धीर धरु माता। सुमिरु राम सेवक सुखदाता।। उर आनहु रघुपति प्रभुताई। सुनि मम बचन तजहु कदराई।। हनुमानजी ने कहा - हे माता! हृदय में धर्य धारण करो और सेवकों को सुख देने वाले श्रीरामजी का स्मरण करो।

उनकी प्रभुता को हृदय में लाओ और कायरता छोड़ दो। हनुमानजी के सामने दो जिम्मेदारियां थीं - पहलीश्रीराम का विरह संदेश देना और दूसरी सीताजी को सांत्वना देकर शोक से बाहर निकालना। तब हनुमानजी सीताजी को समझाते हैं - चार बातों को स्मरण रखें तो बड़े से बड़े संकट से पार हो जाएंगे।

पहली बातधर्य न छोड़ेंदूसरीभगवान का स्मरण करें। स्मरण धर्य का काम करता है। तीसरी बातभगवान सर्वशक्तिमान हैंउनकी ताकत को प्रभुता कहा है। उसे अपने हृदय में रखें। चौथी बातकायरता छोड़ दें। ये दिन भी बीत जाएंगेऐसा भाव बनाए रखें। दुनिया का बड़े से बड़ा संकट आया है तो जाएगा भी।

भगवान को सबसे अच्छी लगती है ये प्रार्थना
मंत्रपूजा-पाठ और हवन-पूजन अपनी जगह है लेकिन प्रार्थना का एक तरीका ऐसा भी है जिससे बिना कुछ किए भी भगवान तक पहुंचा जा सकता है। ये तरीका आपकी अपनी मुस्कुराहट। कहते हैं आदमी उसी चेहरे को देखना पसंद करता है जिसमें कोई आकर्षण हो।

मुस्कुराहट से बड़ा कोई आकर्षण नहीं है। भगवान राम हो या कृष्णगौतम हो या महावीरसभी के चेहरों पर आकर्षण का प्रमुख कारण था उनकी निष्पाप मुस्कान। हम भी प्रयास करें कि चेहरे पर मुस्कान खिली रहे। इससे हमारा मन भी तनाव मुक्त होगा और हम अधिक सहज रह पाएंगे।

अध्यात्म का एक स्वरूप है आनन्द की खोज। जो लोग परमपिता परमेश्वर से जुडऩा चाहें उन्हें मुस्कुराना जरूर आना चाहिए। हर धर्म ने मुस्कुराहट को अपने-अपने तरीके से जरूरी ही माना है। मुस्कुराहट आनन्द की सतह है। जैसे समंदर में लहरें उठती हैं ऐसे ही आनन्द के समुद्र में मुस्कुराहट की लहर उठती है।

आजकल देखा गया लोग घर से निकलते हैं अपने धंधे-पानीनौकरी-पेशा तक जाते-जाते जितने लोग मिलते हैं सबको देखकर मुस्कुराते हैं और घर आते ही एकदम सीरियस हो जाते हैं। घर में एक-दूसरे सदस्यों को देखकर कोई नहीं मुस्कुराता। हम घर में आपस में झगड़ते हैं और दूसरों को देखकर मुस्कुराते हैं। अपनों से मिलकर हंसिए।

जिस क्षण हम मुस्कुराते हैं परमात्मा मुड़कर हमारी ओर चलने लगता है। जो स्माईल जीने की चीज है वह लेने और देने की चीज बन गई है। हम मुस्कुराहट को भी शस्त्र की तरह इस्तेमाल करते हैं जबकि वह हमारी शान्ति का कारण हो सकती है। कई लोगों की हंसी भी बीमार हो गई है। कई लोगों ने स्माईल को भी बिजनेस पीस बना डाला है। अब तो देखा गया है द्विअर्थी संवाद या अश्लील चर्चा पर ही लोग हंसते हैं।

जिन्हें भक्ति करना होजो सद्गुण अपनाना चाहेंजो शान्ति की खोज में हों उन्हें सदैव अपनी हंसी को प्रेम और करुणामयी बनाए रखना चाहिए। फकीरों को हंसता हुआ देखिए। उनकी हंसी में चोट नहीं होती और हम किसी को गिरता हुआ देखकर भी हंसने लगते हैं। यह बहुमूल्य क्रिया है। इसे प्रेम के साथ प्रदर्शित करिए। इसलिए सुबह हो या शामअपनों से मिलें या गैरों सेघर के भीतर हों या बाहरजब भी मौका मिले जरा मुस्कुराइए...परमात्मा यह प्रार्थना जरूर सुनता और देखता है।

जानिएभगवान से प्रार्थना में क्या मांगा जाए...
हम मंदिर या किसी भी देव स्थान पर जब भी जाते हैंहमारी मांगों की फेहरिस्त तैयार ही होती है। कभी बिना मांगे हम किसी दरवाजे से नहीं लौटते। परमात्मा से मांगने की भी एक सीमा और मर्यादा होती है। हमेशा भौतिक वस्तुओं या सांसारिक सुख की मांग ही ना की जाए। कभी-कभी कुछ ऐसा भी मांगें जो हमें भीतर से परमात्मा की ओर मोड़ दे। ईश्वर गुणों की खान होता हैउससे हम अपने लिए सद्गुण मांगें तो ज्यादा बेहतर होगा।

परमात्मा से जब भी की जाए गुण ग्रहण की ही प्रार्थना की जाए। प्रार्थना तो करें परन्तु उसे आचरण में भी लाएं। अन्यथा प्रार्थना फलीभूत नहीं हो पाएगी। गुण ग्रहण की प्रार्थना करने का अर्थ है कि हम सुबह उठकर एक अच्छा काम करने का संकल्प लें और रात सोने से पहले एक बुराई का त्याग करके सोएं।

जो ऐसा करते हैं वे गुणग्राहीजीवन को गुणों से सम्पन्न बना लेते हैं। धन से सम्पन्न होना तो सरल एवं सहज है लेकिन गुणों से सम्पन्न होना मुश्किल हो जाता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि हम बुराइयों को छोडऩे और अच्छाइयों एवं गुणों को ग्रहण करने में अपने आपको कमजोर पाते हैं।

इस कमजोरी के कारण हम गुणों को देखने के स्थान पर दोष देखने लगते हैं। अपने व्यक्तित्व में सृजन का भाव लगातार विकसित करें। मानव जीवन को कल्पवृक्ष बनाने का श्रेय इन्हीं रचनात्मक विचारों का होता है।

इस तथ्य को भली प्रकार समझते हुए चिन्तन को मात्र रचनात्मक एवं उच्च स्तरीय विचारों में ही संलग्न करना चाहिए। विचार मानव के जीवन में महान शक्ति है। वही कर्म के रूप में परिणत होती और परिस्थिति बनकर सामने आती है। जैसा बीज होगा वैसा पेड़ बनेगा। जैन मुनि प्रज्ञा सागरजी ने अपनी पुस्तक मेरी किताब में इस विषय पर बहुत अच्छे विचार दिए हैं।

उनका कहना है- कुछ लोग दूसरे की कमी क्यों देखते हैंअपनी कमी को छिपाने के लिए। जैसे लोमड़ी अंगूर तक नहीं पहुँच पाती तो स्वयं को दोष देने की बजाय अंगूरों को दोष देने लगती है। खाने की वासना तो है लेकिन अपनी असमर्थता छुपाने के लिए अंगूर को ही खट्टा बता दिया। ऐसे ही हम भी अपनी कमी छुपाते-छुपाते दूसरों की कमी देखने के आदी हो गए हैं।

ये हैं भगवान को पाने के लिए छः सबसे जरुरी बातें...
दुनिया और दुनिया बनाने वाले दोनों को यदि हम पाना चाहें तो जीवन में एक संतुलन बनाना पड़ेगा। यह संतुलन शक्ति से बनता है। हमारे भीतर छ: प्रकार की शक्तियाँ हैं जिन्हें हम ठीक से जान लें तो हमारे लिए भौतिकता और भक्ति समझना आसान हो जाएगा।
1. पराशक्ति - यह सब शक्तियों का मूल और आधार है।

2. ज्ञान शक्ति - यह मनबुद्धिचित्त और अहंकार का रूप धारण करमनुष्य की क्रिया का कारण बन जाती है। इसके द्वारा दूरदृष्टिअंतज्र्ञान और अंतदृष्टि जैसी सिद्धियां प्राप्त होती हैं।

3. इच्छाशक्ति - यह शरीर के स्नायु मण्डल में लहरें उत्पन्न करती हैं जिससे इन्द्रियां सक्रिय होती हैं और कार्य करने की तरफ संचालित होती हैं। जब यह शक्ति सत्गुण से जुड़ जाती है तो सुख और शान्ति की वृद्धि होती है।

4. क्रियाशक्ति - सात्विक इच्छा शक्ति इसी के द्वारा कार्यरूप में परिणित फल को पैदा करती है।

5. कुण्डलिनी शक्ति - यह एक तरह से जीवन शक्ति है। इसके दो रूप हैं समष्टि और व्यष्टि। समष्टि का अर्थ है पूरी श्रृष्टि में कई रूपों में विद्यमान रहना जैसे - पेड़-पौधों में प्राणप्रकृति का जीवन तत्व। व्यष्टि रूप में मनुष्य के शरीर के भीतर तेजोमई शक्ति के रूप में रहती है। इसी शक्ति के द्वारा मन संचालित होता है। इसे परमात्मा की ओर मोड़ दें तो माया के बंधन से मुक्ति मिलती है। यह साधना से जागृत होती है।

6. मातृका शक्ति - यह अक्षरबिजाक्षरशब्दवाक्य तथा गान विद्या की शक्ति है। मंत्रों में शब्दों को जो प्रभाव होता है वह इसी के कारण है। इसी शक्ति की सहायता से इच्छा शक्ति और क्रिया शक्ति अपना फल दे पाती है। इसके बिना कुण्डलिनी शक्ति नहीं जागती। अपनी इन शक्तियों को भीतर से पहचानें और इनका उपयोग सफलता प्राप्त करने में करें।

केवल इस ताकत से पाया जा सकता है भगवान को....
हर तरह से बलशाली बनने के इस समय में बाहुबलधनबलजनबल इन्हें भौतिक तौर-तरीकों से पाया जा सकता है। यह कोई बहुत कठिन काम नहीं होता। यह सब तो रावण के पास भी थाक्योंकि उसने अर्जित किया था। लेकिन आत्मबल की कमी उसमें भी थी और आज भी कई लोगों में रहती है।
लगातार प्रयास करते रहिए कि बाहर से सब तरह से सक्षम होने के साथ हम आत्मबली भी हों। इसकी शुरूआत आत्मज्ञान से होती है। आत्मज्ञान का अर्थ है स्वयं को जानना। अपने को जानने की पहली सीढ़ी है हम भीतर से क्या हैंया यूं कहें हमारे भीतर हमारे अलावा और कौन रहता है?
जैसे ही इस सवाल के जवाब में हम थोड़ा गहरे उतरेंगे तभी हमें अनुभूति होगी हमारे भीतर परमात्मा रहता है और जितने उसके निकट जाएंगे उतना ही हम यह अधिक महसूस करेंगे कि हम ही परमात्मा हैं। हमारे भीतर रहकर ईश्वर ने हमें अपने जैसा बनाया हैलेकिन संभावना छोड़ दी है कि हम पहचानें या न पहचानें। हम भगवान की शानदार कृति हैं और वे हमारे भीतर बसे ही हैं।
इस अनुभव को बढ़ाने के लिए एक प्रयोग करें। जब भी हम कोई काम करें इस बात का दबाव स्वयं पर बनाएं कि हमारा हर कृत्य हमारी भगवत्ता को जरूर स्पर्श करे। यदि हम कुछ गलत कर रहे हैं तो हमारी भगवत्ता उससे अछूति नहीं है। फिर विचार करें परमात्मा अनुचित नहीं करता। चूंकि हम उससे कट गए हैं इसलिए जीवन में गलत शुरू हो गया है।
  
जैसे ही हम भीतर उससे जुड़ेंगे अनुचित अपने आप उचित में बदलने लगेगा। भीतर भगवान से जुडऩा ही आत्मबल है। कोई है जो हमसे सीधे-सीधे जुड़ा है। भीतर से उनका साथ होना बाहर हमारे व्यक्तित्व को ओज और तेजमय बना देगा।

भगवान की भक्ति का एक तरीका यह भी है...
जिन्हें भक्ति करना होजो जीवन में शान्ति चाहते होंअपने व्यक्तित्व में मौलिकता रखना चाहते हों उन्हें प्रकृति के साथ कुछ प्रयोग करना चाहिए। शास्त्रों में लिखा है प्रकृति परमात्मा की पहली और सच्ची प्रतिनिधि है। परमात्मा का रूप मनुष्य ने अपनी रूचिश्रद्धा और जाति के अनुसार बना लिया है और यदि ऐसे स्वरूप की प्राप्ति न हो रही हो तो प्रकृति से अवश्य जुड़ें।
  
प्रकृति अपने से जुड़ाव को व्यर्थ नहीं जाने देती। प्रकृति पर एक दिन सुबह से ही विचार कर लें कि आज आप प्रकृति के प्रत्येक हिस्से के प्रति पूर्ण समर्पित हो जाएंगे। पूरा दिन प्रकृति के लिए होगा। अपनी सामान्य गतिविधि करते रहें लेकिन प्रकृति के जितने हिस्से उस दिन आपको दिखें या उनके संपर्क में आए तो आप उनके प्रति अतिरिक्त रूप से संवेदनशील बन जाएं। जैसे किसी पेड़ को देखेंकिसी पक्षी को देखें या पशु को स्पर्श करें तो पूरी तरह प्रेम से भर जाएं।
  
विचार करें कि हम उस देश में रहते हैं जहां नदीपहाड़वृक्षपशु-पक्षी पूजे गए हैं। इस तरह से हम सम्पूर्ण पूजा के भाव में डूब जाएंगे। दिनभर में किसी पत्ती को स्पर्श करके विचार करें जैसे आप अपने बच्चे के गाल को स्पर्श कर रहे हैं। कुल मिलाकर आज का दिन प्रकृति के नाम है। इस विचार और कल्पना को अपनी रूचि से जोड़ते और बढ़ाते जाएं। रात को सोते समय चिंतन करें क्या हम आज प्रकृति में समा पाए?

प्रार्थना में अगर ऐसा भाव हो तो फिर वो बेकार है...
भगवान के सामने प्रार्थना में भी लोग मोलभाव से नहीं चूकते। उसका नाम जुबान पर बाद में आता हैमन से अपनी मांग पहले निकल जाती है। यहीं से हमारी आस्था घायल होती है। भक्ति में व्यापार प्रवेश गया और प्रार्थना भगवान तक पहुंच ही नहीं पाई। जब हम परमात्मा के सामने खड़े हों तो मांगने की बजाय समर्पण का भाव मन से निकलना चाहिएतभी प्रार्थना उसके कानों तक पहुंचती है।

लेकिन आजकल इसका ठीक उलट हो रहा है। लोग ईश्वर को भी चढ़ावे का लालच देकर अपना काम निकलवाना चाहते हैं। इसके लिए एक बात समझनी होगी कि जिसने हमें ये सब दिया है क्या वो इन्हीं भौतिक साधनों के लालच में फंसेगा।

फकीरों ने कहा कि स्वयं को मिटाए बिना परमात्मा नहीं मिलता। यह संवाद भय पैदा करता है। स्वयं को मिटाने में डर लगता है लेकिन स्वयं को मिटाने का अर्थ है अपने अहंकार को गला देना। इसके लिए एक सरल प्रक्रिया है जप करना। जप कि यह विशेषता है कि नाम की बार-बार आवृत्ति होने पर रस बना रहता है। जप मेंप्रार्थना में दरअसल स्वयं को मिटाना होगा।

मिटे बिना न तो सही प्रार्थना हो सकती है और न जप हो सकता है। यदि प्रार्थना करते-करते हम पिघले नजप करते-करते हम स्वयं को न खो दें तो फिर ये प्रार्थनाहमारी अक्ल का हिसाब ही मानी जाएगा। फिर प्रार्थना एक गणित होगीएक धंधा होगी।

एक चर्च में एक पादरी प्रवचन दे रहे थे तो उन्हें बड़ी हैरानी हुई क्योंकि सामने एक बुढिय़ा बैठी थी और पादरी जब भी ईश्वर का नाम लेते वह आमीन-आमीन कहती। आमीनओम का ही रूपांतरण है। लेकिन जब पादरी शैतान का नाम लेते तब भी बुढिय़ा कहती-आमीन। पादरी को बड़ी हैरानी हुई। प्रवचन के बाद जब वे मंच से उतरे और बुढिय़ा के पास गएउस बुढिय़ा से कहा- समझ में नहीं आता कि ईश्वर का नाम लेते समय तो आमीन करते देखापर आप शैतान के नाम पर भी आमीन कह रही हैं।

बुढिय़ा ने कहा- यह मेरा मृत्यु का समय हैअंतिम समय हैकिसी से भी बुरा क्यों बनें। क्या मालूम संसार से जाने के बाद में किसके पास जाना पड़ेपता नहीं भगवान के हाथ लगें या शैतान के। इसे कहेंगे गणित। यह पूजा नहीं की जा रही है। दोनों को राजी रखना क्या ठीक हैदरअसल यह बुद्धि का हिसाब है। यह मिटना नहीं हैयह मोलभाव है। जप एवं साधना ऐसे नहीं हो सकतीइसमें मिटना ही पड़ेगा।


इस तरह प्रार्थना हमारे लिए लीडरशिप का काम करती है...
हमारे जीवन की हर व्यवस्था में एक शीर्ष पद होता है। कोई न कोई प्रमुख होता हैजिसके निर्देश पर अन्य को काम करना पड़ता है। परिवार में मुखियाकार्यालयों में बॉससामाजिक जीवन में कर्णधार। ऐसी अनेक शक्लों में आदेशप्रेरणा और निर्णय लेने वाले लोग होते हैं।

चलिएआज इस बात पर चर्चा करें कि जीवन कितना आदेशों से और कितना प्रेरणा से चलता है। फिर इसे भी समझ लें कि किसका आदेश मानें और किससे प्रेरित हों।आप किसके प्रति आज्ञाकारी हैंकिनके निर्देशों से संचालित हैंइससे जिंदगी की गति तय होती है। व्यावहारिकपारिवारिक जीवन में शीर्ष व्यक्ति का चयन हमारे हाथों में नहीं होता। माता-पिता और बॉस के चयन की गुंजाइश कम ही लोगों को मिलेगी।

ये तय होते हैंलेकिन हमारे निजीआध्यात्मिक जीवन में आदेश और प्रेरणा के स्रोत हम स्वयं चुन सकते हैं। जैसे हमारा मन हमारी आत्मा की प्रेरणा से चलना चाहिएपर वह हो जाता है स्वेच्छाचारी। यदि हम आत्मा तक न पहुंच पाएंतो कम से कम मनबुद्धि द्वारा तो प्रेरित रहें।
शीर्ष पर बुद्धि होनिर्णय लेने के अधिकार बुद्धि के पास रहेंपर चूंकि मन ये अधिकार छीन लेता है तो हमें वो उन आकर्षणों की ओर ले जाता हैजो नुकसानदायक हैं। हमारे जीवन के शीर्ष पर आत्मा व बुद्धि होनी चाहिएलेकिन प्रभावशाली हो जाता है मन।

इसलिए थोड़ी देर प्रार्थना से जरूर गुजरिए। प्रार्थना हमें वर्तमान पर टिकाकर परमशक्ति में डुबोने की क्रिया है। जैसे ही हम प्रार्थना में उतरेमन निष्क्रिय हो जाएगाक्योंकि प्रार्थना मांग नहीं हैसिर्फ जुड़ाव है और यहीं से हम सही नेतृत्व में जीवन को चलाने लगेंगे।

हमारे व्यक्तित्व को इस तरह संवारती है प्रार्थना...
प्रार्थना परत उतारने की प्रक्रिया है। हमने संसार में रहते हुए अपने चेहरे परअपने व्यक्तित्व पर कई परतें जमा कर ली हैं। प्रार्थना द्वार जैसी है परमात्मा तक जाने के लिए। उस दिव्य शक्ति के सामने छिपा हुआ चेहरा लेकर नहीं जा सकते। वहां तो जैसे हैं वैसा ही रहना होगा।

हम क्या हैं यह बताने की क्रिया जगत में अलग होती है और जगदीश के सामने अलग होती है। दुनिया में कई लोगों के सामने हम चिल्लाते हैं जानते नहीं मैं कौन हूं?

हमारा मनपसंद काम नहीं हुआअपमान हुआतो हम एक दम ब्लास्ट हो जाते हैं। अभी बताता हूं मैं क्या हूं। यह अकड़ का प्रदर्शन हैपरिचय का नहींशब्दों की हिंसा है। अध्यात्म जगत थोड़ा उल्टा चलता है। यहां जब यह कहा जाए कि जानते नहीं मैं कौन हूं तो सबसे पहले मैं गिर जाएगा। क्योंकि जो जानता है उसका मैं गल ही जाएगा।

जानने में ही मैं का विसर्जन है। हमारा मैं दुनिया में तीन रूप में एपियर होता है। अकड़हिंसा और अहंकार। जबकि ये तीनों पानी के बुलबुले जैसेताश के पत्तों के महल समान और कागज की नाव की औकात के होते हैं।

ढह जाएंगे एक दिन ये तीनोंपर नुकसान पहुंचा कर। प्रार्थना यदि सच्ची रहे तो परमात्मा के सामने हमारा वो चेहरा प्रकट होगा जो हमारे जन्म से पहले था और मृत्यु के बाद रहेगा। बीच में जीते जी जो भी दुर्गुणों से लिपापुता हमने अपना चेहरा बनाया वह असत्य लेपन था। प्रार्थना इसी की धुलाई है। प्रार्थना में जब हम अपने व्यक्तित्व को धोते हैं तब हम पवित्र होने लगते हैं और पवित्रता परमात्मा की पहली पसंद है।
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तीन चरण बना लें प्रार्थना केपहला आरम्भ में भीतर से विचार शून्य होंदूसरा मध्य में बाहर से समर्पण रखें और तीसरा समापन पर जरा मुस्कुराइए...।

इस तरह पुकारें तो आप तक दौड़े आएंगे भगवान...
भगवान ऐसी व्यवस्था का नाम है जिसमें भरोसा रखो तो उसे देख भी सकते हैं और अगर भरोसा नहीं हो तो लाख पुकारें वो नहीं आएंगा। भगवान किसी मंत्र या पूजा से कभी खुश नहीं हो सकता जब तक की उसमें भावनाओं का प्रसाद नहीं चढ़ाया गया हो। भगवान को पुकारना है तो दिल में ऐसी भावनाओं को जगाना पड़ेगा फिर पुकारिएभगवान खींचे चले आएंगे।

जिनका शरीरसांस और मन पर नियंत्रण है उनका ध्यान घटना है और यह ध्यान की अवस्था उन्हें सिद्ध योगी सा बना देती है। ऐसी दिव्य स्थिति में उनसे जो कृत्य होते हैं फिर वो चमत्कार की श्रेणी में आते हैं।अबुलहसन उच्च दर्जे के मुस्लिम फकीर हुए हैं। इनके मुंह से जो अलफाज निकलते थे वो सच हो जाते थे। जिनके जीवन में ध्यान सही रूप से उतर जाए तो उनकी वाणी सिद्ध हो जाती है।

एक बार हज यात्रियों को अपने ऊपर खतरा लगा। उन्होंने अबुल हसन के पास जाकर कहा कोई ऐसी दुआ बता दीजिए जिससे सफर में हमारे ऊपर कोई खतरा न रहे। फकीर ने जवाब दिया जब कोई मुसीबत हो तो अबुल हसन को याद कर लेना। कुछ को विश्वास आया कुछ ने बात हंसी में उड़ा दी। रास्ते में डाकू आ गए। एक धनवान को अबुल हसन की बात याद आ गई और उसने फकीर को याद किया। कहते हैं वह ओझल हो गयाडाकुओं को नजर नहीं आया। डाकुओं के जाने के बाद वह फिर नजर आ गया। उसका धन बच गया।

जब सबने पूछा तो उसने कहा मैंने फकीर अबुल हसन को याद कर लिया था। लोगों ने बाद में अबुल हसन से पूछा हमने खुदा को याद किया और इस धनवान ने आपको याद किया था। ये बच गया हम लुट गए ऐसा क्योंफकीर ने जवाब दिया आप लोग खुदा को जुबान से याद करते हो और मैं दिल से बस उसी का फर्क था।दिल से इबादत ऐसे ही नहीं हो जाती है। उसके लिए शरीरसांस और मन में एकसाथ शांति लाना पड़ती है। इसका नाम ध्यान होता है।


जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है...मनीष

Thursday, April 3, 2014

Sukh Dukh (सुख- दुःख)

जब कभी जीवन में दुःख आये तो क्या करें?
दु:ख और आघात सभी की जिन्दगी में आते रहते हैं। कोशिश करिए ये अल्पकालीन रहेंजितनी जल्दी हो इन्हें विदा कर दीजिए। इनका टिकना खतरनाक है। क्योंकि ये दोनों स्थितियां जीवन का नकारात्मक पक्ष है। यहीं से तनाव का आरम्भ होता है।

तनाव यदि अल्पकालीन है तो उसमें से सृजन किया जा सकता है। रचनात्मक बदलाव के सारे मौके कम अवधि के तनाव में बने रहते हैं। लेकिन लम्बे समय तक रहने पर यह तनाव उदासी और उदासी आगे जाकर अवसाद यानी डिप्रेशन में बदल जाती है।

कुछ लोग ऐसी स्थिति में ऊपरी तौर पर अपने आपको उत्साही बताते हैंवे खुश रहने का मुखौटा ओढ़ लेते हैं और कुछ लोग इस कदर डिप्रेशन में डूब जाते हैं कि लोग उन्हें पागल करार कर देते हैं। दार्शनिकों ने कहा है बदकिस्मती में भी गजब की मिठास होती है।

इसलिए दु:खनिराशाउदासी के प्रति पहला काम यह किया जाए कि दृष्टिकोण बहुत बड़ा कर लिया जाए और जीवन को प्रसन्न रखने की जितनी भी सम्भावनाएं हैं उन्हें टटोला जाए। मसलन अकारण खुश रहने की आदत डाल लें। हम दु:खी हो जाते हैं इसकी कोई दिक्कत नहीं है पर लम्बे समय दु:खी रह जाएं समस्या इस बात की है। हमने जीवन की तमाम सम्भावनाओं को नकार दियाइसलिए हम परेशान हैं।

अगर आप चाहते हैं कि जीवन में भरपूर सुख हो...
जीवन में मंगल और शुभ की तलाश सभी को रहती है। अमंगल को आमंत्रण कोई नहीं देना चाहता। हनुमान चालीसा के समापन पर तुलसीदासजी ने हनुमानजी को मंगल के रूप में याद किया है।

पवन तनय संकट हरनमंगल मूरति रूप।
राम लखन सीता सहितहृदय बसहु सुर भूप।।

हे पवनसुत! आप सारे संकटों को दूर करने वाले साक्षात् कल्याण स्वरूप हैं। आप भगवान श्रीरामलक्ष्मणजी और सीताजी के साथ मेरे हृदय में निवास करें। श्री हनुमान चालीसा का आरंभ 'श्रीगुरु चरन सरोज रजसे हुआ है और अंत 'हृदयपर हुआ है।

गुरु के चरण-रज से मन को साफ करेंक्योंकि परमात्मा को बसाने के लिए एकमात्र स्थान है हृदय। हृदय से स्वभाव बनता है और मस्तिष्क से व्यवहार बनता है। बाहरी संसार मनुष्य के व्यवहार से संचालित होता है और भीतरी जगत् (आध्यात्मिक) मनुष्य के स्वभाव से नियंत्रित होता है। पहली श्रेणी में वे लोग होते हैं जो व्यवहार से स्वभाव को बनाते हैं। दूसरी श्रेणी में ऐसे लोग होते हैं जो स्वभाव से व्यवहार बनाते हैं। ज्ञानकर्मउपासनाअपनी नौकरीव्यवसायसमाजपरिवार में दोनों ही प्रकार के लोग अलग-अलग परिणाम देते हैं।

पहली श्रेणी के लोग कुशल होते हैंकिन्तु उनके कार्यकलाप कहीं न कहीं स्वार्थ से प्रेरित होंगे। दूसरी श्रेणी के लोग सर्वप्रिय रहेंगे और उनकी कार्यशैली में मूलरूप से ईमानदारी रहेगी। ऐसे लोग स्वयं का मंगल करेंगे तथा दूसरों का भी कल्याण करेंगे। इनका हर काम शुभ और जनहितकारी होगा। आप दूसरों के संकट तभी हर सकते हैं जब आपके भीतर शुभ करने की वृत्ति हो। इसलिए अपना स्वभाव साधें। इसके लिए एक काम जरूर करें जरा मुस्कराइए...।

इस तरह नहीं हो सकता है हमारे दुःख और तनाव का निदान...
मानवीय सुख हमारे परिवारों की प्राचीन मांग है। अधिकांश लोगों की गृहस्थी की शुरुआत इसी से होती है। देह का भानउसकी तृप्ति और अतृप्ति ही अशांति का कारण बनती है।कई रिश्ते तो घरों में देह से चलकर देह पर ही खत्म हो जाते हैं। शरीर से परे हो ही नहीं पाता परस्पर आत्म समर्पण। अधिक समय दांपत्य जब शरीर पर ही टिकता है तो त्याग की भावना जन्म नहीं ले पाती।

भोगउसकी पूर्ति और अपेक्षा के आसपास जीवन मंडराने लगता है। फिर शुरू होता है तनाव। केवल शरीर पर टिके रहकर तनाव का निदान नहीं हो सकता। फिर तनाव अपना वंश बढ़ाता हैतब प्रवेश होता है अशांति का। एक-दूसरे के प्रति शंका होने लगती है।संदेह एक धीमा जहर है घर-परिवार के लिए। परिवार का हर व्यक्ति फिर अपने-अपने अधिकार मेंअपने-अपने अधिकार के लिए ही जीने लगता है। दांपत्य में अपेक्षासंदेहदेहअधिकार जैसी वृत्तियों से बचने के लिए एक ही उपाय है और वह है प्रेम।

यह प्रेम न तो दहेज में मिलता हैन डिग्री से प्राप्त होता हैइसे कोई तिजोरी भी नहीं उगल पातीन किसी दवा की शक्ल में बाजार में उपलब्ध है। इसे अपने भीतर जगाने का एक ही तरीका है अपनी सांसों से अपनी चेतना को जोड़कर थोड़ा भीतर उतरने का अभ्यास रोज करें। हृदय को जब सांसों से चेतना का पवित्र स्पंदन मिलता है तो आप स्वत: प्रेमपूर्ण हो जाते हैं। योग से योगी ही तैयार नहीं होतेप्रेमपूर्ण व्यक्तित्व भी निर्मित होते हैंइसीलिए अपने घर में किसी भी सदस्य को दया का पात्र न बनाएंबल्कि प्रेम का भागीदार बनाएं।

हमेशा सुखी रहने के लिए यह बहुत जरूरी है...
हमारी प्रसन्नता या उदासी हमारे आसपास प्रवाहित होती है। जब हम भीतर से खुश रहते हैंतब बाहर भी एक सदाशय व्यक्तित्व की तरह फैलते हैं और जब अन्दर से दुखी या अप्रसन्न रहते हैंतब हमारा व्यक्तित्व संकुचितछोटा और दूसरों को भी बोझिल कर देने वाला बन जाता है।

कुल मिलाकर सारा मामला संचरण का है। इसलिए जब एक-दूसरे से मिलें तो अपना बेहतर उसको देने की कोशिश करें। हमारे यहां सत्संग की व्यवस्था इसीलिए है। सत्संग का अर्थ है किसी के अच्छे गुणों की चर्चा। सुंदरकांड में तुलसीदासजी ने विभीषण और हनुमानजी की बातचीत के दौरान एक चौपाई में लिखा है- एहि बिधि कहत राम गुन ग्रामा। पावा अनिर्बाच्य बिश्रामा।।

इस प्रकार श्रीरामजी के गुण समूहों को कहते हुए उन्होंने अनिर्वचनीय शांति प्राप्त की। यहां एक शब्द आया है दोनों को यानी हनुमानजी और विभीषण को शांति प्राप्त हुई। वे दोनों ही श्रीराम की चर्चा कर रहे थे। इसका सीधा-सा अर्थ है अच्छे व्यक्तियों के गुणगान के बादपरमात्मा के स्मरण के बाद शांति प्राप्त होनी चाहिए।

इसलिए जब भी सत्संग करें तो इस तरह करें कि बाद में शांति प्राप्त हो। विश्राम की उपलब्धि के लिए परमात्मा का यशगान होना चाहिए। सुंदरकांड में ऐसे अनेक प्रसंग हैंजो जीवन को सुंदर बनाते हैं ।

दुनियाभर के काम करने के बाद शांति उपलब्ध हो जाएतब जीवन सुंदर है और यहां शांति के लिए सूत्र दिया गया है कि जब भी अवसर मिलेअच्छे लोगों के साथ समय बिताएं और सत्संग करते रहें।

सुखी रहने के सारे तरीकों में ये सबसे अच्छा है...
सब चाहते हैं कि वे खुश रहेंसुखी रहें लेकिन ऐसा हो नहीं पाता। कारण क्या हैसारे भौतिक संसाधनजमानेभर की सुविधाएं और हर तरह का सुख होने के बाद भी हम भीतर से कहीं दु:खी ही हैं। ऐसा क्यों होता है। कारण बहुत सीधा और सरल हैनिदान भी वैसा ही सहज है।

हम संसाधनों पर टिक गए हैं। बाहरी आवरण को ही दुनिया समझ रहे हैं। जबकि असली सुख भीतर की यात्रा में मिलेगा। अगर सुखी रहना है तो एक यात्रा अपने भीतर की ओर भी करें।

खुश रहने के कई तरीके हैं। सांसारिक माध्यम से जब हम खुश रहते हैं तो एक दिक्कत आती है वह माध्यम खत्म हुआ और हम पुन: दु:खी हो जाते हैं। क्लब गएटीवी देखीखेल खेला उनसे दूर हटे और हम वापस अशांत हुए। कुछ स्थाई इलाज ढूंढना होंगे। अपनी निजी और आंतरिक वृत्तियों में इसके सहारे ढूंढे जाएं।

यदि स्थाई प्रसन्न रहना है तो अपने आंतरिक सुख को पकड़ें। जो लोग भी इस संसार में स्थाई रूप से प्रसन्न रहे हैं उन्होंने अपने अकेलेपन को ठीक से समझा है और उसका एक बड़ा लाभ यह उठाया है कि उस अकेलेपन के दौरान अपनी भीतरी शक्तियों को विकसित कर लियाक्योंकि ऐसा करने के लिए थोड़ा संसार से कटना जरूरी हो जाता है। भीतरी सुख थोड़ा सहज होता हैलेकिन सांसारिक सुख में एक उत्तेजना होती है।

मजेदार बात यह है इस संसार का दु:ख भी उत्तेजित करता है और सुख भीलेकिन इन दोनों को जब अपनी भीतरी शक्तियों से जोड़ दें तो भीतर न सुख होता है न दु:ख और इन दोनों के पार की स्थिति है शांति। परमात्मा ने हर व्यक्ति की समझदारी का एक आंतरिक तल तय कर दिया है।

आप जितनी जल्दी उस तल तक पहुंच जाएंगे उतने ही शीघ्र शांत हो सकेंगे। इस तल पर कोई उत्तेजना नहीं होती। यहां सबकुछ ठहरा हुआ रहता है। आप सुख और दु:ख दोनों को भोग रहे होते हैं लेकिन उत्तेजित नहीं रहते। बाहर अनेक लोगों से घिरे हुए रहने के बाद भी भीतर बिल्कुल एकांत घट रहा होता है। ऐसी शांति सुगंध बनकर आपके व्यक्तित्व से झरती है और उस घेरे में आने वाले अन्य व्यक्तियों को वह महसूस भी होती है।

सुखी रहने के सारे तरीकों में ये सबसे अच्छा है...
सब चाहते हैं कि वे खुश रहेंसुखी रहें लेकिन ऐसा हो नहीं पाता। कारण क्या हैसारे भौतिक संसाधनजमानेभर की सुविधाएं और हर तरह का सुख होने के बाद भी हम भीतर से कहीं दु:खी ही हैं। ऐसा क्यों होता है। कारण बहुत सीधा और सरल हैनिदान भी वैसा ही सहज है।

हम संसाधनों पर टिक गए हैं। बाहरी आवरण को ही दुनिया समझ रहे हैं। जबकि असली सुख भीतर की यात्रा में मिलेगा। अगर सुखी रहना है तो एक यात्रा अपने भीतर की ओर भी करें।

खुश रहने के कई तरीके हैं। सांसारिक माध्यम से जब हम खुश रहते हैं तो एक दिक्कत आती है वह माध्यम खत्म हुआ और हम पुन: दु:खी हो जाते हैं। क्लब गएटीवी देखीखेल खेला उनसे दूर हटे और हम वापस अशांत हुए। कुछ स्थाई इलाज ढूंढना होंगे। अपनी निजी और आंतरिक वृत्तियों में इसके सहारे ढूंढे जाएं।

यदि स्थाई प्रसन्न रहना है तो अपने आंतरिक सुख को पकड़ें। जो लोग भी इस संसार में स्थाई रूप से प्रसन्न रहे हैं उन्होंने अपने अकेलेपन को ठीक से समझा है और उसका एक बड़ा लाभ यह उठाया है कि उस अकेलेपन के दौरान अपनी भीतरी शक्तियों को विकसित कर लियाक्योंकि ऐसा करने के लिए थोड़ा संसार से कटना जरूरी हो जाता है। भीतरी सुख थोड़ा सहज होता हैलेकिन सांसारिक सुख में एक उत्तेजना होती है।

मजेदार बात यह है इस संसार का दु:ख भी उत्तेजित करता है और सुख भीलेकिन इन दोनों को जब अपनी भीतरी शक्तियों से जोड़ दें तो भीतर न सुख होता है न दु:ख और इन दोनों के पार की स्थिति है शांति। परमात्मा ने हर व्यक्ति की समझदारी का एक आंतरिक तल तय कर दिया है।

आप जितनी जल्दी उस तल तक पहुंच जाएंगे उतने ही शीघ्र शांत हो सकेंगे। इस तल पर कोई उत्तेजना नहीं होती। यहां सबकुछ ठहरा हुआ रहता है। आप सुख और दु:ख दोनों को भोग रहे होते हैं लेकिन उत्तेजित नहीं रहते। बाहर अनेक लोगों से घिरे हुए रहने के बाद भी भीतर बिल्कुल एकांत घट रहा होता है। ऐसी शांति सुगंध बनकर आपके व्यक्तित्व से झरती है और उस घेरे में आने वाले अन्य व्यक्तियों को वह महसूस भी होती है।

कैसे पाएं सफलता के साथ सुख-शांतिसीखें सुंदरकांड से...
युवाओं के सामने बड़ी विकट स्थिति होती है। सफलता तो बहुत मिल जाती है लेकिन शांति नहीं मिल पाती। सुख और शांति के अभाव में सफलता हमेशा अजीब लगती है। एक अधूरापनकुछ खाली-खाली सा हमेशा महसूस होता है। आखिर सफलता के साथ शांति और सुख कैसे पाया जाएये सिखना है तो सुंदरकांड से सीखें। बाबा हनुमान के चरित्र और उनके व्यवहार में वे सब बातें शामिल हैं।

यह दिख रही सफलता को केवल अर्जित करने का ही नहींबल्कि नई-नई सफलता गढऩे का भी युग है। असफल कोई नहीं रहना चाहता। इसी कारण सतत् सफलता का तनाव असफलता से भी ज्यादा हो गया है। सुख अर्जित करना एक बड़ी सफलता माना जा रहा है।

पढ़ा-लिखा हो या बिना पढ़ा-लिखा आजकल इतना सक्षम और जुगाड़ु तो आदमी होता ही जा रहा है कि इधर-उधर से सुख उठा ही लेता है। सुख की सामान्य परिभाषा यही बना दी गई है कि जो हमारे अनुकूल हो वह सुख तथा विपरीत हो वह दु:ख। तो सुख अर्जित करना इस समय बहुत कठिन काम नहीं है। परन्तु सवाल यह है कि शांति कहां से लाएंगे?

यह किसी तिजोरी से नहीं निकलतीकिसी सैलेरी से नहीं मिलतीकेवल बही-खाते में नहीं बसी हैकिसी इंस्टीट्यूट में नहीं पढ़ाई जाती। यह तो आदमी को खुद अर्जित करना पड़ेगी। सुख के साथ जब शांति होगी तभी सफलता सही और स्थाई होगी तथा जीवन सुंदर होगा। तुलसीदासजी ने रामचरितमानस के पाँचवें सौपान का नाम सुंदरकाण्ड रखा है।

इसमें हनुमानजी की सफलताओं के प्रसंग हैं। इसके आरंभ के श्लोक का पहला शब्द ही शांति को समर्पित है-
शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदं...

शान्तसनातनअप्रमेय (प्रमाणों से परे)निष्पापमोक्षरूप परम्शान्ति देने वाले श्रीराम की वंदना इन पंक्तियों में की गई है। जीवन सुंदर ही तब है जब सफलता के साथ शांति हो। सुंदरकाण्ड में हनुमानजी ने तीन बड़ी सफलताएं एक साथ अर्जित की थीं। सीताजी को संदेश दिया थाविभीषण के हृदय में श्रीराम का स्वभाव स्थापित किया और रावण के मन में प्रभाव।

सुखी होने के लिए यह तरीका सबसे अच्छा है...
जब भी हम दु:खों को दूर करने के बारे में सोचते हैंकुछ ही उपाय हमारे सामने होते हैं। कोई धन से सुखी होता हैकोई तन सेकोई भौतिक साधनों से तो कोई भावनाओं के संबल से।लेकिन इनके अलावा भी एक साधन है जो ना केवल दु:ख दूर करता है बल्कि सुख का अनुभव भी कराता है। यह तरीका भगवान हनुमान से सीखा जा सकता है। रामचरितमानस के सुंदर कांड में इस पर तुलसीदासजी ने बहुत सुंदर वर्णन लिखा है।

भक्ति भी एक युक्ति है। युक्ति यानी उपाय। परमात्मा को पाने का तरीकाढंग या रीति। भगवान विशेष प्रयास से मिलते हैं। सुंदरकांड में युक्ति का एक प्रसंग आता है। विभीषण और हनुमानजी की चर्चा हो रही थी। हनुमानजी ने विभीषण से सीताजी का पता पूछा। तुलसीदासजी ने चौपाई लिखी -

जुगुति बिभीषन सकल सुनाई। चलेउ पवनसुत बिदा कराई।।
विभीषण ने (माता के दर्शन की) सब युक्तियां कह सुनाईं।

विभीषण को हनुमानजी समझा चुके थे कि आप राम-नाम तो लेते हैंपरंतु राम-काम नहीं करते। ज्यादातर लोग संसार में ऐसा ही करते हैं। राम-काम का अर्थ तिलक लगानामंदिर जानापूजा करना ही नहीं हैअसली राम-काम है ईमानदारीनिष्ठा और परिश्रम से अपना कर्तव्य पूरा करना। सीताजी को भक्तिशक्ति व शांति का प्रतीक बताया गया है।

विभीषण ने सीताजी की खोज की युक्ति बताई थीइसका अर्थ है कि हम समाज की शांतिभक्ति व शक्ति की खोज में लगे रहेंयही राम-काम है। हनुमानजी ने अशोक वाटिका में जाकर सीताजी को देखा। वे कृशकाय हो चुकी थीं और राम-नाम का जप कर रही थीं। उनको देखकर हनुमानजी भी दुखी हो गए।

परम दुखी भा पवनसुत देखि जानकी दीन।। (दोहा-8)
हनुमानजी हमें समझा रहे हैं कि दूसरों के दुख का ठीक से एहसास करें। भक्त दूसरों के दुख को समझता है और उसे दूर करने का प्रयास भी करता है। आज उल्टा हैहम दूसरों के दुख से दुखी नहींबल्कि उनके सुख से दुखी हैं। हनुमानजी से सीखें दूसरों का दुख समझकर कैसे दूर किया जाता है।

कैसा होना चाहिए सुख या दुःख में हमारा व्यवहार...
मानव जीवन में सुख और दुःख का आना-जाना लगा रहता है। ये दोनों चीजें हमारे कर्म और व्यवहार पर निर्भर करता है। कभी-कभी हमारा व्यवहार और हमारी सोच ही सुख और दुःख के प्रभाव को कम कर देते हैं।

जीवन जितना उच्च है उतना ही हम घटनाओं में अनुकूलता देखने लगेंगे और जीवन की गतिविधियां जितनी अधिक निम्न स्तर की होंगी हम प्रतिकूलता देखेंगे। अनुकूल यानी सुखप्रतिकूल यानी दु:ख। कोई भी दावा नहीं कर सकता कि सदैव एक ही स्थिति बनी रहेगी।

इसलिए कोशिश यह की जाए कि दोनों ही हालात में जो उत्तम हैजो जीवन को ऊँचा ले जा सकता है वह सब ग्रहण किया जाए और बाकी छोड़ दिया जाए। सुख और दु:ख दोनों ही हमारे ऊपर राज न करे बल्कि हम उन पर अधिकार बना लें।

जैसे ही अधिकार बनेगा दोनों के प्रति हमारा आग्रह बदल जाएगा। अभी हमारा सुख के प्रति आग्रह होता है और दु:ख के प्रति नकारने का भाव होता है। श्रेष्ठ लोगों ने अपने जीवन में अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थिति आने पर कैसा आचरण किया लगातार इस पर वॉच रखें।

सभी धर्मों ने यह सुविधा दी है कि आप कई विभूतियों के माध्यम से सीख सकते हैं। अवतार परंपरा संभवत: इसीलिए हुई है। यह न समझें कि अवतार किसी पुराने युग में हुएउनका जीवन आज कैसे प्रेरणा दायक होगा और यह भी न मानें कि आज तो हमारे बीच वे अवतार नहीं हैं। जिस भी युग में ऐसे लोग हुए उस समय जिन लोगों ने उन्हें पाया ठीक वैसी ही स्थितियाँ आज भी हमारे साथ हैं।

हम अवतारों को उनके पुराने रूप में खोजने की आदत बना लेते हैं। हमने जो अपने भीतर छवि बनाई है वह अपनी सुविधा से बना ली है। लेकिन भगवान हर काल में नए-नए रूप में आता है। वह तब भी था और आज भी है। देशकालपरिस्थिति के अनुसार वह नए स्वरूप में हमें मिलेगा ही। इसके लिए सबसे पहले स्वयं के भीतर के परमात्मा को स्वीकार करना पड़ेगा।

हम उसका अंश हैं यह एहसास ही हमें उसके स्वरूप से परिचित करा देगा। और तब जीवन का जो भी उत्तम है वह हमारे हाथ जरूर लगेगा।

इस कारण से हमें दुःख बहुत भारी लगता है...
दूसरों के दुख में हम शामिल होते हैंलेकिन उसे अपने भीतर नहीं लाते। हमें यह मालूम रहता है कि यह सारा घटनाक्रम दूसरे का है। लेकिन ऐसी ही घटना जब अपने ही जीवन में घटे तो दुख तत्काल हम भीतर ले आते हैं। चूंकि हमें सुख भी भीतर लाने की आदत हैइसलिए दुख भी ले आएंगे और फिर असली परेशानी शुरू होती है।

जैसे हम दूसरे के दुख को देखकर भीतर नहीं लातेऐसे ही हम अपने सुख के साथ हो जाएंतब एक नई स्थिति आनंद की अनुभूति होगीजिसमें सुख है न दुख। पर हम जी-तोड़ कोशिश करते हैं कि केवल सुख मिलेदुख मिले ही नहीं। पर ऐसा मुमकिन हो नहीं सकता। सुख और दुख इतने जुड़े हुए हैं कि एक का सुख दूसरे का दुख बन जाता है और दूसरे का दुख किसी और के लिए सुख होता है।

हिंदुओं में पुनर्जन्म की कल्पना इसमें बड़ी राहत पहुंचाती है। एक घर में हुई मृत्यु का दुखदूसरे किसी घर में हुए जन्म का सुख बन जाता है। जो लोग दूसरों के दुख में विवेकपूर्ण ढंग से उन्हें समझाते हैंऐसे लोग अपने दुख में सारी समझ भूल जाते हैं। निर्लिप्त रहने का जितना अभ्यास बढ़ाएंगेसुख और दुख दोनों एक जैसा रस देने लगेंगे।

यदि प्रेम को ठीक से समझें तो पाएंगे कि प्रेम की अपनी पीड़ा है। प्रेम के बिना पीड़ा हो नहीं सकतीपर उस पीड़ा में भी एक रस हैवरना दुनिया से प्रेम मिट जाएगा। इसलिए सुख व दुख दोनों ही स्थितियों में प्रेमपूर्ण जरूर बने रहें। प्रेम के लिए पहला पात्र परमात्मा को बनाएं तो धीरे-धीरे उसी का विस्तार संसार में हो जाता है और तब संसार छोड़ने की जरूरत नहीं पड़ती और न ही वह तकलीफ पहुंचाता है।

जब भी दुःख या परेशानी आए तो यह काम करें...
किसके जीवन में मुसीबत नहीं आती। छोटे को छोटी और बड़े को बड़ी दिक्कतें आती ही रहती हैं। मुसीबतों को आने के लिए कोई रिजर्वेशन नहीं कराना पड़ता और ना ही वे पूर्व सूचना दिए आती हैं।

कुछ तो वे स्वयं चलकर आती हैं और कुछ हम खुद आमंत्रित करते हैं। स्वआमंत्रित समस्याओं के मामले में कुछ लोग बहुत भरेपूरे होते हैं। जैसे ही मुसीबतों के आने का एहसास हो या वह सामने आकर खड़ी ही हो जाए तो अपने भीतर के अध्यात्म को जगाएं। यहीं से आपका होश बदलेगासोचने का तरीका परिवर्तित हो जाएगा।

अपने मन में ग्रंथी न बनने दें। हानि-लाभखुशी-गम इनके बारे में ज्यादा न सोचें क्योंकि जब मुसीबत आती है हम उसके परिणाम पर टिक जाते हैं। अभी घटा नहीं है और हम भविष्य के भय से जुड़ जाते हैं। मन को ग्रंथी बांधने का शौक होता है।

इसी कारण वह दिमाग में उलझनें और उथल-पुथल पैदा कर देता है। ऐसे समय सात्विक आहारशुद्ध विचार और संतुलित शारीरिक क्रियाएं बड़े काम आती हैं। मुसीबत आते ही इन तीनों पर काम करना शुरू कर दीजिए। मन ऐसे समय बार-बार हमें कुछ पुरानी स्थितियोंव्यक्तियों से विपरीत भाव से जोड़ता है। हम निदान निकालने की जगह पुरानी झंझटों में उलझ जाते हैं। एक अजीब सा उद्वेग पैदा होने लगता है।

इससे मुसीबत को बड़ा होने में सुविधा हो जाती है। यहीं से मेंटल बॉडी का लोड फिजीकल बॉडी पर और फिजीकल का लोड मेंटल बॉडी पर आने लगता है। हम शक्तिहीन होने लगते हैं। जबकि हमारा धर्महमारी भक्ति हमें सिखाती है शरीर और आत्मा दोनों के महत्व को जानें और दोनों के बीच अंतर को बढ़ाएं।

कुछ लोग केवल आत्मा पर टिककर शरीर को भूल जाते हैं और कुछ लोग केवल शरीर पर टिककर आत्मा को भूल जाते हैंलेकिन हमें दोनों पर टिकना है अंतर बनाकर। और फिर कैसी भी समस्या होमुसीबत रहेहम पार लग जाएंगे।

अगर आप दुःख और अभावों में जी रहे हैं तो...
अभाव किसी को भी नहीं भाता। वस्तु पास में न होस्थिति अनुकूल न रहे तब जो अभाव होता है वह तो समझ में आता है परन्तु मन चाहा मिल जाए और फिर भी जीवन में अभावअसंतोष बना रहेखतरा यहां से शुरू होता है और आज अनेक लोग इसी खतरनाक स्थिति में जी रहे हैं। जो लोग ये मानते हैं कि सम्पन्नता के साधनों से ही प्रसन्नता आएगी और प्रगति होगी वे भूल जाते हैं कि केवल इससे ही कुछ नहीं होगा।

इन बाहरी साधनों के साथ भीतर की मनोवृत्ति पर भी काम करते रहना होगा। हमारी मनोवृत्ति में यदि संतोषसहानुभूतिसंयम और सदाचार नहीं है तो बाहर से सबकुछ मिल जाने पर भी अभाव का भाव बना रहेगा जो अशांति का कारण बनेगा। इसी कारण जिनके पास सबकुछ है जरूरी नहीं कि उनके पास शांति भी हो।

भौतिकता और आध्यात्मिकता का संघर्ष यहीं से शुरू होता है। भौतिकता कहती है पदार्थ ही प्रमाण हैमटैरिएलिस्कि एप्रोच बनाए रखोभावनाएं भ्रांति हैं। आध्यात्मिकता का आग्रह है पदार्थ गौण हैंसंवेदनाओं को साधोइसी छीना-झपटी में मनुष्य उलझ जाता है फिर कैसे जीतें इस द्वन्द कोगुरूनानक की बात काम आ सकती है। वे कहते हैं-जिउ भावै तिउ राखु तूं मै हरि नामु अधारू

हे प्रभु जैसे भी तुझे भाता हो हमें रखतेरी मर्जी। ये जो दो शब्द हैं तेरी मर्जी ये हमारे सारे पुरूषार्थ को पवित्र और प्रभावशाली बना देंगे। हम कर्म तो पूरा करेंगे पर फल की प्राप्ति या अप्राप्ति हमें अशांत नहीं करेगी।

नानक कहते हैं ऐसे रहते हुए शब्द कीनाम की कमाई करो। व्यावसायिक जीवन में जो भी कमाएं परन्तु आध्यात्मिक जीवन की इस आमदानी को न भूलें जिसे नानक ने च्च्नामु अधारूज्ज् कहा। नाम की कमाई सारे अभाव दूर कर देती है। वे शरीर के सौंदर्य के प्रति जागरूक हैं। सुसज्जित रहने का स्वभाव भी एक गुण है। वे यह नहीं कहते कि जो ब्रह्मचर्य का पालन करे वह सौंदर्यबोध को ठुकरा दे। सुंदरता की अनुभूति भी परमात्मा तक पहुंचने में साधक बन जाती है।

हमारे दुःखों का एक कारण यह भी है...
जीवन में उत्थान और पतन चलता ही रहता है। भौतिक सफर में ऐसा हो तो आश्चर्य नहींलेकिन आध्यात्मिक यात्रा में भी ऐसा हो जाता है और इसकी चिंता पालना चाहिए। कई बार पतन के बाद भी उत्थान का क्रम बन जाता हैलेकिन जीवन की कुछ स्थितियां ऐसी होती हैं कि पतन पर पहुंचकर आदमी उत्थान पर पहुंचना ही नहीं चाहता।

इसका उदाहरण है रावण। रावण एक ऐसा पात्र है जिसको कई बार अनेक पात्रों ने अपने-अपने स्तर पर समझाया था। हनुमानजीअंगदशूर्पणखामंदोदरीमारीच जैसे लोगों ने उसे समझाया लेकिन उसे समझ में नहीं आया। मानस रोगों का वर्णन करते हुए लिखा गया है-

'मोह सकल व्याधिन कर मूला।'

मोह ही मूल है और रावण साक्षात मोह का प्रतीक है। मेघनाथ काम है और शूर्पणखा अंदर की वासना है। रावण को मेघनाथ और शूर्पणखा दोनों बहुत प्यारे थे। शूर्पणखा का अर्थ है जिसके नाखून बड़े हों। इंद्रियों में जो वासनाएं होती हैं उसकी तुलना नाखूनों से की जाती है।

यानी एक सीमा तक वासना ठीक हैउसके बाद नाखूनों को काट देना चाहिए। जो अपने नाखून नहीं काटेगासमाज में उसका जीवन अमर्यादित हो जाएगा। कुछ लोगों का मानना है कि रावण ने कुछ गलत नहीं किया था। उसकी बहन की नाक काटे जाने पर उसने राम की पत्नी का हरण कर लिया। शूर्पणखा ने राम-लक्ष्मण से विवाह का प्रस्ताव रखाइसमें क्या गलत था।

इस प्रसंग को लोग गहराइयों में नहीं देखते। शूर्पणखा ने पूरे समय झूठ बोला थाछल किया था। रावण ने शूर्पणखा यानी छल का पक्ष लिया। जो छल का पक्ष लेता है वह रावण के समान होता है और पतन में गिरने के बाद उत्थान की संभावना को रावण ने स्वयं नकार दिया था।

अगर ऐसा नहीं करेंगे तो सुख का आनंद नहीं उठा पाएंगे...
हर मनुष्य के भीतर ऊर्जा का एक हिस्सा रचनात्मक कार्यों के लिए रहता ही है। अपनी ऊर्जा के जिस हिस्से से हम नाम और दाम कमाने में सक्रिय रहते हैंउससे ही जीवन में पूर्णता नहीं आती। इस तरह लगातार काम करने से दो ही प्रकार के लोग समाज में बनते हैं।

एकशोषण और लूट के द्वारा धन कमाने वाले और दूसरेशोषित और लुटने वाले लोग। इन दोनों वर्गो के बीच मनमुटावप्रतिद्वंद्विता और वैमनस्य आना स्वाभाविक है। इसका सीधा असर राष्ट्रीयसामाजिक व पारिवारिक जीवन पर पड़ता है। कुल मिलाकर हर क्षेत्र में अशांति हाथ लगती है।
इसलिए हम किसी भी स्तर के व्यक्ति होंअपनी ऊर्जा का रचनात्मक हिस्सा जरूर सक्रिय रखें। इससे भेदभाव मिटेगावार्तालाप का वातावरण बनेगा और एक-दूसरे के प्रति सद्भाव जागेगा। जितना हम रचनात्मकता की ओर बढ़ेंगेउतना ही पॉजिटिव होते जाएंगे।

जीवन निषेध का नाम नहीं है। जीवन को विधेय से चलाना चाहिएयानी सकारात्मकता बढ़ाने के प्रयास लगातार करते रहें। प्रतिस्पर्धा के इस युग में सुख और दुख आते ही रहते हैं।

यदि हम पॉजिटिव नहीं रहे तो सुख का सदुपयोग नहीं कर पाएंगे और दुख हमसे लगातार ऐसे काम करवा लेगाजिन्हें हम होश में तो कभी नहीं करना चाहेंगे। दुख विचलन लाता है और यदि लंबे समय विचलन टिक जाएतो मनुष्य या तो डिप्रेशन में डूब जाएगा या डिस्ट्रक्टिव हो जाएगा।
इसलिए 24 घंटे में कुछ समय अपनी ऊर्जा की रचनात्मकता पर पकड़ बनाए रखें। अन्यथा यह एक बार गलत दिशा में बह गई तो लौटाकर लाना कठिन हो जाएगा।

सुख नहींदु:ख सिखाता है जीवन के कई अनुभव
हर कोई सुख की डोर को पकड़कर जिंदगी का सफर तय करना चाहता है। जीवन सिर्फ सुख के लिए नहीं होताअक्सर जो अनुभव और ज्ञान सुख नहीं दे पातावो दु:ख सीखा जाता है। सुख के पीछे भागने वाले अक्सर सबसे ज्यादा दु:खों से घिरते हैं। जो दु:खों की परवाह नहीं करतेसुख उन्हें बिना खोजे ही मिल जाता है।

रामसीता और लक्ष्मण वनवास को जा रहे थे। राम वन जाने के अपने फैसले पर अडिग थे। राज परिवार के लोग सीता को समझा रहे थेजंगल में कितने दु:ख और परेशानियां होंगी। जंगली जीवोंराक्षसों का डरना सुख का बिस्तर नाशाही भोजन। फिर भी सीता राम के साथ जाने पर अड़ी रहीं। कारण थावो जंगल के दुखों के बारे में नहीं सोच रही थींवो पति के सामिप्य और उनकी सेवा से मिलने वाले सुख को लेकर आश्वस्त थी।

कई बार हम भौतिक सुख-सुविधाओं के चक्कर में मानसिक सुख को गौण कर देते हैं। पहले तो ये सुख अच्छा लगता है लेकिन जब अपनों की कमी महसूस होती हैतो वो ही साधन अखरने लगते हैं। परिवार से बढ़कर सुख का और दूसरा कोई रास्ता नहीं हो सकता। हमेशा क्षणिक या आंशिक सुख के बारे में ना सोचेंकभी-कभी भीतरी सुख को भी ध्यान में रखें।

तनाव और चिंता में भी हो सकता है रचनात्मक काम...
तनाव यदि अल्पकालीन है तो उसमें से सृजन किया जा सकता है। रचनात्मक बदलाव के सारे मौके कम अवधि के तनाव में बने रहते हैं। लेकिन लम्बे समय तक रहने पर यह तनाव उदासी और उदासी आगे जाकर अवसाद यानी डिप्रेशन में बदल जाती है।

दु:ख और आघात सभी की जिन्दगी में आते रहते हैं। कोशिश करिए ये अल्पकालीन रहेंजितनी जल्दी हो इन्हें विदा कर दीजिए। इनका टिकना खतरनाक है। क्योंकि ये दोनों स्थितियां जीवन का नकारात्मक पक्ष है। यहीं से तनाव का आरम्भ होता है। 

कुछ लोग ऐसी स्थिति में ऊपरी तौर पर अपने आपको उत्साही बताते हैंवे खुश रहने का मुखौटा ओढ़ लेते हैं और कुछ लोग इस कदर डिप्रेशन में डूब जाते हैं कि लोग उन्हें पागल करार कर देते हैं। दार्शनिकों ने कहा है बदकिस्मती में भी गजब की मिठास होती है।

इसलिए दु:खनिराशाउदासी के प्रति पहला काम यह किया जाए कि दृष्टिकोण बहुत बड़ा कर लिया जाए और जीवन को प्रसन्न रखने की जितनी भी सम्भावनाएं हैं उन्हें टटोला जाए। मसलन अकारण खुश रहने की आदत डाल लें। हम दु:खी हो जाते हैं इसकी कोई दिक्कत नहीं है पर लम्बे समय दु:खी रह जाएं समस्या इस बात की है। हमने जीवन की तमाम सम्भावनाओं को नकार दियाइसलिए हम परेशान हैं।

पैदा होने पर मान लेते हैं बस अब जिन्दगी कट जाएगी लेकिन जन्म और जीवन अलग-अलग मामला है। जन्म एक घटना है और उसके साथ जो सम्भावना हमें मिली है उस सम्भावना के सृजन का नाम जीवन है।

इसलिए केवल मनुष्य होना पर्याप्त नहीं है। इस जीवन के साथ होने वाले संघर्ष को सहर्ष स्वीकार करना पड़ेगा और इसी सहर्ष स्वीकृति में समाधान छुपा है। सत्संगपूजा-पाठगुरु का सान्निध्य इससे बचने और उभरने के उपाय हैं।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है...मनीष