Friday, August 22, 2014

Yama Niyama (यम-नियम )

यम-नियम
सभी संत एवं मत अहंकार के त्याग पर बल देते हैं। सभी संतों का यही कहना है कि अगर इन्सान अहंकार का त्याग कर देतो वह परमेश्वर को प्राप्त कर सकता है। बिना अहंकार के त्याग के परब्रह्म-परमेश्वर कि प्राप्ति कभी भी नहीं हो सकती। जब तक इन्सान का अहंकार समाप्त नहीं होगा। तब तक वह साधक बनने के लायक ही नहीं है। किन्तु आज के समय में प्रत्येक व्यक्ति या साधक अहंकार में डूबा हुआ है। एक आम व्यक्ति जब साधना के पथ पर बढ़ता हैतो उसे आवश्यकता होती है गुरू कीएक शिक्षक की। जब वह गुरू द्वारा बताये हुऐ यम-नियमों का पालन करते हुऐजैसे-जैसे साधना करता जाता हैवैसे-वैसे उस का अहंकार बढ़ता जाता है। कभी-कभी तो अहंकार इतना अत्यधिक बढ़ जाता हैकि वह अपने सामने दूसरे व्यक्तियों एवं अन्य साधकों को तुच्छ समझने लगता है। साधक के अन्दर जहाँसाधना करते हुऐ अहंकार समाप्त होना चाहिऐकिन्तु वहीं इस के विपरीत अहंकार घटने कि बजाये बढ़ने लगता है। अगर हम ध्यान-पूर्वक अध्ययन करे तो हमे पता चलेगा कि साधक की साधना ही उसके अहंकार को बढ़ावा देती है। क्योंकि इस के मूल में जो कारण हैवह है नियम। अनेकों ही जगह देखने को मिलता है कि अगर कोई साधक साधना करते हुऐमात्र प्याज का भी त्याग कर देता है तो वह अनेकों ही जगह इस का बखान करने लगता है और कहता है किमुझे प्याज खाये इतने साल हो गये या मैं प्याज बिल्कुल नहीं खाता। मात्र एक छोटी सी वस्तु प्याज जिसका कि त्याग साधक ने कर दियावह उसका बखान अनेकों ही लोगों के सामने करता हैऔर इस प्रकार साधक साधना कि तरफ कम ध्यान देता है और अपने यम-नियमों का बख़ान अनेकों व्यक्तियों के सामने करता है। जिससे कि उसके अहंकार को बढ़ावा मिलता है। यही हाल सभी साधकों का है। किसी साधक को अगर किसी वस्तु के त्याग का अहंकार है तोकिसी को अपने वस्त्र और उपवास का अहंकार है। किसी साधक को अपनी माला तथा जाप का अहंकार है कि मैने इतना जाप कर लियातो किसी साधक को अपने गुरू या अपने मत का अहंकार है। यही हाल सभी साधकों का है।

यम-नियम बनाये तो इस लिऐ गये थेकि साधक की तरक्की में चार चाँद लग जाऐं और साधक जल्दी से जल्दी सिद्धि को प्राप्त हो जाऐं। किन्तु आज का साधक सिद्धि तो बहुत दूर कि बातउसकी परछाई तक को प्राप्त नहीं कर पाता। क्योंकि जहाँ अहंकार होगावहाँ सिद्धि हो ही नहीं सकती। प्रश्न वहीं का वहीं है कि क्या यम-नियमों से उस परमात्मा को प्राप्त किया जा सकता है। इसको जानने के लिऐहमें विभिन्न धर्मों के इतिहास को समझना होगा। जैसे कि मुस्लिम-सम्प्रदाय में शराब का त्याग बताया गया है। वहीं दूसरी तरफ सिख-सम्प्रदाय में तम्बाखू के सेवन पर प्रतिबन्ध है। इसके विपरीत सिख सम्प्रदाय में शराब का सेवन होता है और मुस्लिम-सम्प्रदाय में तम्बाखू का सेवन। अगर एक आम व्यक्ति के सामने इन दोनों ही मत के नियमों को रखा जाऐं कि शराब के त्याग से वह परमेश्वर मिल सकता है। तो अब तक सभी मुस्लिमों को उस अल्लाह का दीदार हो गया होता। दूसरी तरफ अगर तम्बाखू छोड़ने से वह परमात्मा मिलता तो सभी सिखों को उस परमेश्वर के दर्शन हो गये होते। सही मायने में कोई भी चीज क्यों न होकिसी के भी त्याग से या सेवन से वह परमात्मा किसी को भी प्राप्त नहीं हो सकता। अगर आपने कोई नियम बना लिया है और उस नियम का आप के अलावा किसी को भी मालूम नहीं हैतभी वह नियम सही मायने में नियम है। अगर आप ने कोई नियम बनाया और उसका बखान लोगों के सामने कर दिया तो वह नियमनियम नहीं रहा। अगर आपको अपने अहंकार का त्याग करना हैतो आपको एक ही नियम कि आवश्यकता है और वह यह हैकि गुरू को सम्पूर्ण रूप से पूर्ण मानना और उसके बताऐ हुऐ मार्ग पर चलना। अगर आपने कोई गुरू नहीं बना रखा हो तो आप का धर्म बनता हैकि सभी जीवों में उस परमेश्वर को ही देखें और उस परमात्मा कि बन्दगी करते हुऐउस परमेश्वर के ध्यान में ही खोऐ रहें। कोई भी ऐसा काम ना करेंजिससे कि किसी दूसरे व्यक्ति के मन को दुखः पहुँचे। क्योंकि सभी जीवों में वह परमेश्वर ही विराजमान है और जब आप किसी व्यक्ति को दुखः देते है या परेशान करते हैतो आप उस व्यक्ति को नहीं बल्कि उस के अन्दर विराजमान परमात्मा को ही दुखः पहुँचाते है।

अगर आप सम-भाव से सभी में उस परमेश्वर को दिखेगेंतो आपके अन्दर का अहंकार स्वतः ही समाप्त हो जाऐगा। साथ-ही-साथ आपके अन्दर किसी भी मत-विशेष या धर्म-विशेष का अहंकार पैदा न होइसके लिऐ आप अपने साधना कक्ष में सभी धर्मो या मतों के देवताओं या संतों के स्वरूपों को लगाऐं। जिससे कि आप को यह ऐहसास हो सकेकि आप जो भी अराधना कर रहे है या आप जो भी नियमों का पालन कर रहे होउससे अधिक कठोर नियमों का पालन करते हुऐ एवं कठोर साधना करते हुऐ सभी धर्मो के संतो ने उस परमेश्वर को प्राप्त किया है। इससे आप के अन्दर अत्यधिक उत्साह पैदा होगा और आप के मन में भी उन के जैसा बनने कि कामना पैदा होगी। जिस प्रकार हम इस संसार में एक दूसरे से मदद माँगते है या एक दूसरे कि मदद करते हैंउसी प्रकार जब हम परमात्मा को प्राप्त करने के रास्ते पर बढ़ते चले जाते हैं तोअनेकों ही दिव्य-आत्माऐं एवं सिद्ध-पुरूष हमारी अदृश्य रूप से मदद करते है और हमें ज्ञान और मोक्ष का रास्ता बताते है। ये दिव्य-आत्माऐं एवं सिद्ध-महापुरूष बिना किसी भेद-भाव के साधक कि मदद करते है। साधक चाहे किसी भी धर्म या जाति का क्यों न होइन पवित्र-आत्माओं कि नजर में सभी साधक एक समान हैं। हमें नियमों कि नहीं बल्कि परमेश्वर की आवश्यकता है। जैसे-जैसे हम साधना-मार्ग पर बढ़ते जायेंगे नियम अपने आप ही बनते व टूटते चले जायेंगे।

अगर हम बात करे बाबा नानक कि तो उन्होंने सभी नियमों का त्याग कर उस परमेश्वर से एकाकार हुऐ और अनहद् नाद रूप में ॐकार’ को प्राप्त किया एवं सम्पूर्ण मानव जाति को ॐकार’ का ही सन्देश दिया। जब उन्होंनें अनहद-नाद’ को प्राप्त किया तो उन के श्रीमुख से जो पहला शब्द निकला वह था एक ॐकार सत् नाम’ अर्थात उस परब्रह्म (सत् का अर्थ है- परब्रह्म)का केवल एक ही नाम है और वह है । सभी धर्मों के सन्तों ने ॐकार’ पर ही जोर दिया है। इसलिऐ आप भी ॐकार का ही जाप करें। जैसे-जैसे आप ॐकार का जाप करते जायेंगेवैसे-वैसे आपका मनबुद्धि और आत्मा ॐकार में विलीन होती चली जायेगी और आप उस परमात्मा को प्राप्त हो जाओगे। इस प्रकार जब कोई नियम ही नहीं होगा तो अहंकार का जन्म ही नहीं होगा और जब अहंकार नहीं होगा तो मन निर्मल हो जायेगा। मन के निर्मल होने से मन-बुद्धि मेंबुद्धि-आत्मा में और आत्मा उस परमात्मा में समा जायेगी और बिना समय गँवायेथोडे से समय में ही आप उस परमात्मा को अपने हृदय में प्रकट कर लोगे। जहाँ यम-नियमों की वजह से सालों कि तपस्या करने के बाद भीवह परमात्मा आप को नहीं मिला। वहीं यम-नियमों का त्याग करते ही आप का अहंकार गिर जायेगाआप कि बुद्धि पवित्र हो जाऐगी और जिस परमात्मा कि एक झलक पाने के लिए आप तरस रहें थे वह परमात्मा आप के रोम-रोम में एवं सृष्टि के कण-कण में आप को दिखाई देगा। जो अनहद-नाद कठोर नियमों का पालन करने पर भी सुनाई नहीं दियावह अनहद-नाद आप के रोम-रोम में प्रकट हो जाऐगा।

अनेकों ही व्यक्तियों के मन में यह प्रश्न उठता है कि यम-नियमों का त्याग करने से क्या वह परमात्मा हमें प्राप्त होगा। तो इसका सबसे बड़ा उदाहरण है महात्मा-बुद्ध। महात्मा-बुद्ध ने राज-पाट का त्याग करके सन्यास ले लिया और वनों में घुमने लगे। परमात्मा को प्राप्त करने कि अभिलाषा मन में थी। इसलिऐ वनों में जो भी साधू-सन्यासी मिलतामहात्मा-बुद्ध उससे परमात्मा को पाने का रास्ता पूछते और सामने वाला साधू जो भी रास्ता बताता वह उससे भी ज्यादा कठोर नियमों के साथ साधना करते। किन्तु ॠद्धि-सिद्धियाँ तो प्राप्त होती चली गईकिन्तु उस परमात्मा कि प्राप्ति नहीं हो सकी। महात्मा-बुद्ध को अनेकों ही साधुओं ने साधना बताई और महात्मा-बुद्ध ने सभी साधनाऐं पूर्ण-विधान के साथ सम्पन्न कि किन्तु मन में साधना का अहंकार होने कि वजह से सिद्धियां तो अनेकों प्राप्त हुई किन्तु परमात्मा कि प्राप्ति नहीं हो सकी। किन्तु आखिर में बौद्धि-वृक्ष के नीचे बैठ कर महात्मा-बुद्ध ने सभी नियमों और सिद्धियों का त्याग कर दिया और शांत चित्त हो गये। जैसे ही नियमों और सिद्धियों का त्याग कर दिया और शांत चित्त हो गये। जैसे ही नियमों और सिद्धियों का त्याग हुआ वैसे ही अहंकार तिरोहित हो गया और महात्मा-बुद्ध बौद्धित्व को प्राप्त हो गये अर्थात् उन्हें पूर्ण-परब्रहम्-परमेश्वर कि प्राप्ति हो गई और वे स्वयं उस परमात्मा का रूप बन गये। आवश्यकता यम-नियमों कि नहीं हैबल्कि उस परमेश्वर के प्रति समर्पित होने की है। जब तक आप यम-नियमों मे बंधे हुऐ हैतब तक आप उस परमात्मा के प्रति सम्पूर्ण रूप से समर्पित हो ही नहीं सकते। क्योंकि बंधा हुआ इन्सान एक गुलाम के समान होता है और गुलाम उसका होता हैजिसने उसको बांध रखा हो। सम्पूर्ण रूप से बन्धन मुक्त हो कर ही आप उस परमेश्वर को प्राप्त कर सकते है। क्योंकि परमात्मा न तो स्वयं बंधा हुआ है और न ही वह किसी को बन्धनों में बांधता है।

वह परमात्मा तो सर्व-व्यापक और स्वतन्त्र है। इसलिऐ स्वतन्त्र साधक ही उस परमात्मा को प्राप्त करके सर्व-व्यापक बन सकता है। बंधा हुआ व्यक्ति कभी भी अपनी सीमा से बाहर नहीं निकल सकता। इसलिऐ वह कभी भी सर्व-व्यापक नहीं बन सकता। कहने का तात्पर्य यही है कि बन्धन-युक्त व्यक्ति कभी उस परमात्मा को नहीं प्राप्त कर सकताबल्कि बन्धन-मुक्त साधक ही उस परमेश्वर को अपने हृदय में प्रकट कर सकता है और उसका साक्षात्कार कर सकता है। अधिकतर साधक विशेष रंग के वस्त्रविशेष मालाविशेष आसन आदि पर ही टिके रहते हैंकि हमारे गुरू ने हमें वस्त्रमाला और जिस आसन के लिये कहा हैहम उसी का इस्तेमाल करेंगे। किन्तु ऐसा सम्भव नहीं है। क्योंकि वस्त्रमाला और आसन गुरू के अनुसार नहीं अपितु इष्ट के अनुसार होते हैं। जिसका जैसा इष्ट होगाउसका वस्त्रमाला और आसन भी उसी के अनुसार होगें। जैसे कि गायत्री उपासकों के लिये श्वेत वस्त्ररूद्राक्ष की माला और कुशा का आसन अनिवार्य हैवहीं पर काली के उपासकों हेतु लाल वस्त्रकाले हकीक की माला और कम्बल का आसन होना अनिवार्य है। दुर्गा एवं हनुमान के उपासकों के लिये लाल वस्त्रलाल चंदन कि माला और लाल रंग का आसन आवश्यक है।

आज के समय में जिन यम नियमो की आवश्यकता हैउनको तो मानने व करने के लिये कोई भी तैयार नहीं है। सभी संतो ने जिन यम-नियमो के लियेसाधकों को कहा उनको तो साधक समझ नहीं पाऐअपितु उल्टे-सीधे नियमों में उलझ कर रह गये। जिसका परिणाम यह हुआ कि सिद्धि तो प्राप्त हुई ही नहींउल्टे साधक अपना मानसिक संतुलन भी खो बैठे। आज के समय में साधक के लियेजो यम-नियम जरूरी हैवह यह है कि साधक किसी से घृणा न करेंकिसी से द्वैष न रखेंकाम क्रोध और अहंकार पर काबू रखेंकिसी से ईर्ष्या न करें एवं स्वयं सहित सबके अन्दर उस परमपिता-परमात्मा का आभास करते हुऐ उस परमात्मा के ध्यान में आनंदित रहें। इस प्रकार यदि कोई साधक यम-नियमों का पालन करता हैतो आठों सिद्धियाँ उस साधक की गुलाम होती हैं और वह साधक आत्म-ज्योति का साक्षात्कार करता हुऐ एवं अनहद-शब्द को सुनते हुऐ पूर्णता को प्राप्त हो जाऐगा और कह उठेगा सोऽहं-सोऽहं’ अर्थात् मैं वही हूँमैं वही हूँ

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है... मनीष

Wednesday, August 13, 2014

Jaharveer Baba ji (जाहरवीर गोगाजी )


गोगाजी महाराज( सिद्धनाथ वीर गोगादेव)
राजस्थान के सिद्धों के सम्बन्ध में एक चर्चित दोहा है : ‘‘पाबू, हडबू, रामदे, माँगलिया, मेहा। पाँचू पीर पधारज्यों, गोगाजी जेहा'' सिद्ध वीर गोगादेव राजस्थान के लोक देवता हैं जिन्हे जाहरवीर गोगाजी के नाम से भी जाना जाता है । राजस्थान के हनुमानगढ़ जिले का एक शहर गोगामेड़ी है। यहां भादव शुक्लपक्ष की नवमी को गोगाजी देवता का मेला भरता है। इन्हे हिन्दु और मुस्लिम दोनो पूजते है ।

वीर गोगाजी गुरुगोरखनाथ के परमशिस्य थे। चौहान वीर गोगाजी का जन्म विक्रम संवत 1003 में चुरू जिले के ददरेवा गाँव में हुआ था सिद्ध वीर गोगादेव के जन्मस्थान, जो राजस्थान के चुरू जिले के दत्तखेड़ा ददरेवा में स्थित है। जहाँ पर सभी धर्म और सम्प्रदाय के लोग मत्था टेकने के लिए दूर-दूर से आते हैं। कायम खानी मुस्लिम समाज उनको जाहर पीर के नाम से पुकारते हैं तथा उक्त स्थान पर मत्था टेकने और मन्नत माँगने आते हैं। इस तरह यह स्थान हिंदू और मुस्लिम एकता का प्रतीक है।

गोरखनाथ जी से सम्बंधित एक कथा राजस्थान में बहुत प्रचलित है। राजस्थान के महापुरूष गोगाजी का जन्म गुरू गोरखनाथ के वरदान से हुआ था। गोगाजी की माँ बाछल देवी निःसंतान थी। संतान प्राप्ति के सभी यत्न करने के बाद भी संतान सुख नहीं मिला। गुरू गोरखनाथ ‘गोगामेडी’ के टीले पर तपस्या कर रहे थे। बाछल देवी उनकी शरण मे गईं तथा गुरू गोरखनाथ ने उन्हें पुत्र प्राप्ति का वरदान दिया और एक गुगल नामक फल प्रसाद के रूप में दिया। प्रसाद खाकर बाछल देवी गर्भवती हो गई और तदुपरांत गोगाजी का जन्म हुआ। गुगल फल के नाम से इनका नाम गोगाजी पड़ा।

मध्यकालीन महापुरुष गोगाजी हिंदू, मुस्लिम, सिख संप्रदायों की श्रद्घा अर्जित कर एक धर्मनिरपेक्ष लोकदेवता के नाम से पीर के रूप में प्रसिद्ध हुए। विक्रम संवत 1003 में गोगा जाहरवीर का जन्म राजस्थान के ददरेवा (चुरू) चौहान वंश के राजपूत शासक जैबर (जेवरसिंह) की पत्नी बाछल के गर्भ से गुरु गोरखनाथ के वरदान से भादो सुदी नवमी को हुआ था। जिस समय गोगाजी का जन्म हुआ उसी समय एक ब्राह्मण के घर नाहरसिंह वीर का जन्म हुआ। ठीक उसी समय एक हरिजन के घर भज्जू कोतवाल का जन्म हुआ और एक वाल्मीकि के घर रत्ना जी  का जन्म हुआ। यह सभी गुरु गोरखनाथ जी के शिष्य हुए। गोगाजी का नाम भी गुरु गोरखनाथ जी के नाम के पहले अक्षर से ही रखा गया।  यानी गुरु का गु और गोरख का गो यानी की गुगो जिसे बाद में गोगा जी कहा जाने लगा। गोगा जी ने गूरू गोरख नाथ जी से तंत्र की शिक्षा भी प्राप्त की थी।

चौहान वंश में राजा पृथ्वीराज चौहान के बाद गोगाजी वीर और ख्याति प्राप्त राजा थे। गोगाजी का राज्य सतलुज सें हांसी (हरियाणा) तक था। जयपुर से लगभग 250 किमी दूर स्थित सादलपुर के पास दत्तखेड़ा (ददरेवा) में गोगादेवजी का जन्म स्थान है। दत्तखेड़ा चुरू के अंतर्गत आता है। गोगादेव की जन्मभूमि पर आज भी उनके घोड़े का अस्तबल है और सैकड़ों वर्ष बीत गए, लेकिन उनके घोड़े की रकाब अभी भी वहीं पर विद्यमान है। उक्त जन्म स्थान पर गुरु गोरक्षनाथ का आश्रम भी है और वहीं है गोगादेव की घोड़े पर सवार मूर्ति। भक्तजन इस स्थान पर कीर्तन करते हुए आते हैं और जन्म स्थान पर बने मंदिर पर मत्था  टेककर मन्नत माँगते हैं।

आज भी सर्पदंश से मुक्ति के लिए गोगाजी की पूजा की जाती है. गोगाजी के प्रतीक के रूप में पत्थर या लकडी पर सर्प मूर्ती उत्कीर्ण की जाती है. लोक धारणा है कि सर्प दंश से प्रभावित व्यक्ति को यदि गोगाजी की मेडी तक लाया जाये तो वह व्यक्ति सर्प विष से मुक्त हो जाता है. भादवा माह के शुक्ल पक्ष तथा कृष्ण पक्ष की नवमियों को गोगाजी की स्मृति में मेला लगता है. उत्तर प्रदेश में इन्हें जाहर पीर तथा मुसलमान इन्हें गोगा पीर कहते हैं।

हनुमानगढ़ जिले के नोहर उपखंड में स्थित गोगाजी के पावन धाम गोगामेड़ी स्थित गोगाजी का समाधि स्थल जन्म स्थान से लगभग 80 किमी की दूरी पर स्थित है, जो साम्प्रदायिक सद्भाव का अनूठा प्रतीक है, जहाँ एक हिन्दू व एक मुस्लिम पुजारी खड़े रहते हैं। श्रावण शुक्ल पूर्णिमा से लेकर भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा तक गोगा मेड़ी के मेले में वीर गोगाजी की समाधि तथा गोगा पीर व जाहिर वीर के जयकारों के साथ गोगाजी तथा गुरु गोरक्षनाथ के प्रति भक्ति की अविरल धारा बहती है। भक्तजन गुरु गोरक्षनाथ के टीले पर जाकर शीश नवाते हैं, फिर गोगाजी की समाधि पर आकर ढोक देते हैं। प्रतिवर्ष लाखों लोग गोगा जी के मंदिर में मत्था टेक तथा छड़ियों की विशेष पूजा करते हैं।

गोगा जाहरवीर जी की छड़ी का बहुत महत्त्व होता है और जो साधक छड़ी की साधना नहीं करता उसकी साधना अधूरी ही मानी जाती है क्योंकि मान्यता के अनुसार जाहरवीर जी के वीर छड़ी में निवास करते है । सिद्ध छड़ी पर नाहरसिंह वीर , सावल सिंह वीर आदि अनेकों वीरों का पहरा रहता है। छड़ी लोहे की सांकले होती है जिसपर एक मुठा लगा होता है । जब तक गोगा जाहरवीर जी की माड़ी में अथवा उनके जागरण में छड़ी नहीं होती तब तक वीर हाजिर नहीं होते , ऐसी प्राचीन मान्यता है । ठीक इसी प्रकार जब तक गोगा जाहरवीर जी की माड़ी अथवा जागरण में चिमटा नहीं होता तब तक गुरु गोरखनाथ सहित नवनाथ हाजिर नहीं होते।

छड़ी अक्सर घर में ही रखी जाती है और उसकी पूजा की जाती है । केवल सावन और भादो के महीने में छड़ी निकाली जाती है और छड़ी को नगर में फेरी लगवाई जाती है , इससे नगर में आने वाले सभी संकट शांत हो जाते है । जाहरवीर के भक्त दाहिने कन्धे पर छड़ी रखकर फेरी लगवाते है । छड़ी को अक्सर लाल अथवा भगवे रंग के वस्त्र पर रखा जाता है।

यदि किसी पर भूत प्रेत आदि की बाधा हो तो छड़ी को पीड़ित के शरीर को छुवाकर उसे एक बार में ही ठीक कर दिया जाता है ! भादो के महीने में जब भक्त जाहर बाबा के दर्शनों के लिए जाते है तो छड़ी को भी साथ लेकर जाते है और गोरख गंगा में स्नान करवाकर जाहर बाबा की समाधी से छुआते है । ऐसा करने से छड़ी की शक्ति कायम रहती है ।

प्रदेश की लोक संस्कृति में गोगाजी के प्रति अपार आदर भाव देखते हुए कहा गया है कि गाँव-गाँव में खेजड़ी, गाँव-गाँव में गोगा वीर गोगाजी का आदर्श व्यक्तित्व भक्तजनों के लिए सदैव आकर्षण का केन्द्र रहा है।गोरखटीला स्थित गुरु गोरक्षनाथ के धूने पर शीश नवाकर भक्तजन मनौतियाँ माँगते हैं। विद्वानों व इतिहासकारों ने उनके जीवन को शौर्य, धर्म, पराक्रम व उच्च जीवन आदर्शों का प्रतीक माना है।

जातरु (जात लगाने वाले) ददरेवा आकर न केवल धोक आदि लगाते हैं बल्कि वहां समूह में बैठकर गुरु गोरक्षनाथ व उनके शिष्य जाहरवीर गोगाजी की जीवनी के किस्से अपनी-अपनी भाषा में गाकर सुनाते हैं। प्रसंगानुसार जीवनी सुनाते समय वाद्ययंत्रों में डैरूं व कांसी का कचौला विशेष रूप से बजाया जाता है। इस दौरान अखाड़े के जातरुओं में से एक जातरू अपने सिर व शरीर पर पूरे जोर से लोहे की सांकले मारता है। मान्यता है कि गोगाजी की संकलाई आने पर ऐसा किया जाता है।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है... मनीष