Thursday, September 18, 2014

Hinduism (हिंदू धर्म)

हिंदू धर्म
हिंदू शब्द की उत्पत्ति एवं अर्थवास्तव में यह 'हिंदू' शब्द भौगोलिक (स्थान, देश से संबंधित) है। मुसलमानों को यह शब्द फारस अथवा ईरान में मिला था। फारसी कोषों में 'हिंद' और इससे व्युत्पन्न अनेक शब्द पाए जाते हैं। जैसे हिंदू, हिंदी, हिंदुवी, हिंदुवानी, हिंदुकुश आदि। इन शब्दों के अस्तित्व से स्पष्ट होता है 'हिंद' शब्द मूलत: फारसी है और उसका अर्थ 'भारतवर्ष' है। फारसी व्याकरण के अनुसार संस्कृत का 'स' अक्षर 'ह' में परिवर्तित हो जाता है। इस कारण 'सिंधु' (सिंधु नदी) शब्द 'हिंदू' हो गया। पहले हिंद के रहने वाले 'हिंदू' कहलाए। धीरे-धीरे संपूर्ण भारत के लिए इसका प्रयोग होने लगा। इसी प्रकार व्यापक रूप में भारत में रहने वाले लोगों का धर्म हिंदू धर्म कहलाया।

हिंदू और हिंदुत्व की एक परिभाषा लोकमान्य तिलक ने प्रस्तुत की थी। जो इस प्रकार है:'सिंधु नदी के उद्गम स्थान (जहां से यह निकलती है) से लेकर हिंदमहासागर तक संपूर्ण भारत भूमि जिसकी मातृभूमि तथा पवित्र भूमि है वह हिंदू कहलाता है और उसका धर्म हिंदुत्व।'विश्वविख्यात महात्मा श्री विनोबाजी भावे ने हिंदू शब्द की परिभाषा एवं लक्षण इस प्रकार बताए हैं:जो वर्णों और आश्रमों की व्यवस्था में निष्ठा रखनेवाला, गो-सेवक, श्रुतियों (धार्मिक ग्रंथों) को माता की भांति पूज्य मानने वाला तथा सब धर्मों का आदर करने वाला है,देवमूर्ति की जो अवज्ञा नही करता, पुनर्जन्म को मानता और उससे मुक्त होने की चेष्टा करता है तथा जो सदा सब जीवों के अनुकूल बर्ताव को अपनाता है। वही 'हिंदू' माना गया है। हिंसा से उसका चित्त दु:खी होता है, इसलिए उसे 'हिंदू' कहा गया है।

सनातन धर्म का अमिट स्वरूप प्राचीनकाल से लेकर वर्तमान समय तक अनेक जातियों, संप्रदायों, मतों, पंथों एवं वादों का भारत में आगमन होता रहा है। भारत में आदिकाल (प्रारंभ) से निवास करने वाली 'हिंदू' जाति ने अपने मूल सनातन धर्म जिसे बाद में 'हिंदू' धर्म कहा जाने लगा को सदैव सुरक्षित एवं परिपूर्ण बनाए रखा। विश्व के विभिन्न देशों में जन्मे एवं पनपे अनेक धर्मों एवं संस्कृतियों का अस्तित्व वर्तमान में लगभग समाप्त हो चुका है। जबकि हिंदू धर्म और संस्कृति उसी मूल स्वरूप में आज तक जीवित एवं नित-नवीन रूप मे विस्तारमान है।

वैदिक धर्महिंदू जाति ने अपना धर्म श्रुति-वेदों से प्राप्त किया है। उनकी धारणा है कि वेद अनादि और अनंत हैं। वेदों का अर्थ है, भिन्न-भिन्न कालों में भिन्न-भिन्न व्यक्तियों द्वारा आविस्कृत आध्यात्मिक सत्यों का संचित कोष। वेदों की घोषणा है- 'मैं शरीर में रहने वाली आत्मा हूं, मैं शरीर नहीं हूं। शरीर मर जाएगा, पर मैं नहीं मरूंगा। मैं इसमें विद्यमान (रहने वाला) हूं और जब यह शरीर नहीं रहेगा तब भी मेरा अस्तित्व बना रहेगा।

मेरा एक अतीत (पिछला जन्म) भी है।'आत्मा का अमर स्वरूप हिंदू धर्म में शरीर को नश्वर तथा आत्मा का निवास स्थान बताया गया है। आत्मा को ही मनुष्य का मूल स्वरूप मानते हुए, उसे अजर-अमर अर्थात् अनश्वर माना गया है। आत्मा की अमरता के बाद, कर्मफल की मान्यता भी हिंदू धर्म की प्रधान विशेषता है। प्रत्येक कर्म का फल या परिणाम मिलना निश्चित माना गया है। मनुष्य को उसके जीवन में मिलने वाले दु:ख, सुख, अमीरी-गरीबी एवं मान-अपमान स्वयं उसके ही पिछले और वर्तमान के कर्मों का परिणाम है। हिंदू धर्म की मान्यता है कि मनुष्य की वर्तमान अवस्था उसके ही पूर्व कर्मों का परिणाम है और भविष्य में उसकी जो भी अवस्था होगी वह उसके वर्तमान कर्मों द्वार निर्धारित होगी।

हिंदू धर्म में यह मान्यता है कि मनुष्य का मूल स्वरूप उसकी 'आत्मा है न कि शरीर। उसको (आत्मा) शस्त्र काट नहीं सकते। अग्नि जला नहीं सकती, जल भिगो नहीं सकता, और वायु सुखा नहीं सकती। हिंदुओं की ऐसी मान्यता है कि आत्मा एक ऐसा वृत्त है, जिसकी परिधि कहीं नहीं है, किंतु जिसका केंद्र शरीर में अवस्थित है, और मृत्यु का अर्थ है इस केंद्र का एक शरीर से दूसरे शरीर में स्थानांतरित हो जाना।सर्वव्यापी ईश्वरईश्वर के स्वरूप और गुणधर्मों के विषय में 'हिंदू' धर्म की मान्यता है कि वह परमात्मा सर्वत्र (सभी जगह रहने वाला) है।

शुद्ध व पूर्ण पवित्र है, निराकार (जिसका आकार न हो), सर्व शक्तिमान है, सब पर उसकी पूर्ण दया है, वही सबका पिता है, सबकी माता है, वही सबका परमप्रिय सखा है, वही सभी शक्तियों का मूल है, वह हमें इस जीवन के उत्तरदायित्वों, कत्र्तव्यों को वहन करने की शक्ति दे क्योंकि वह इस संपूर्ण ब्रह्मांड का भार वहन करता है। जीवन का लक्ष्य मोक्ष हिंदू धर्म के आधार स्तंभ वेद कहते हैं कि आत्मा दिव्य स्वरूप है, वह केवल पंच तत्वों (पृथ्वी, अग्रि, जल, वायु व आकाश) या पंचमहाभूतों के बंधनों में बंध गई है और उन बंधनों के टूटने पर वह अपने असली स्वरूप को प्राप्त कर लेगी। इसी अवस्था का नाम मुक्ति या मोक्ष है। जिसका अर्थ है स्वाधीनता, अपूर्णता के बंधनों से छुटकारा, जन्म-मृत्यु से छुटकारा। इस प्रकार हिंदुओं की सारी साधना, प्रणाली का लक्ष्य है - बिना रुके, बिना थके, लगातार के प्रयास द्वारा पूर्ण बन जाना, दिव्य बन जाना, ईश्वर को प्राप्त करना या साक्षात्कार करना।

प्रमुख सिद्धांतबड़े-बड़े विद्वान ऋषियों के हजारों वर्षों के प्रयास के बल पर इस हिंदू धर्म का विकास किया है। हिंदू धर्म के प्रमुख सिद्धांत इस प्रकार हैं।
1. वेद हिंदू धर्म के प्रामाणिक धर्म ग्रंथ।
2. ईश्वर में विश्वास और नाना रूपों में उसकी उपासना।
3. जीवन में नैतिक एंव मर्यादित आचरण पर अडिग रहना।
4. ऋषि-मुनियों द्वारा बनाई गई आश्रम व्यवस्था को मानना। जो कि पूर्णत: वैज्ञानिक प्रणाली है।
5. कर्म, पुनर्जन्म और मोक्ष के सिद्धांत पर पूर्ण विश्वास।

हिंदू धर्म के आधार ग्रंथहिंदू धर्म में वेदों को ज्ञान का भंडार एवं ईश्वरीय पुस्तक के रूप में मान्यता एवं सम्मान प्राप्त है। इनकी संख्या चार है जो कि इस प्रकार हैं :
1. ऋग्वेद
2. यजुर्वेद
3. सामवेद
4. अथर्ववेद

धर्मग्रंथ हिंदुओं के धर्म शास्त्रों को दो भागों में बांटा गया है : श्रुति और स्मृति। श्रुति अर्थात् सुनी गई यानि ईश्वर के पास से साक्षात् सुनी गई वाणी। वेद से लेकर उपनिषद् तक श्रुतियों में आते हैं। स्मृति अर्थात् स्मरण की गई, स्मरण में रखकर याद करके और उसके बताए विषयों पर विचार करके जो शास्त्र रचे गए उनका नाम स्मृति है। स्मृतियों में छ: वेदांग, धर्मशास्त्र, इतिहास, पुराण और नीति के ग्रंथ आते हैं। धर्म शास्त्रों में धर्म सूत्र, स्मृतियों और निबंधकारों का साहित्य आता है।

वेदांगों में कल्प का बहुत अधिक महत्व है। कल्प सूत्रों में यज्ञ भाग के संस्कारों की विधियां दी गई है। कल्प सूत्र के तीन भाग हैं: श्रौत, ग्रह्य सूत्र और धर्म सूत्र। श्रौत सूत्र में वैदिक यज्ञों का कर्मकाण्ड (पूजा पद्धति) है। ग्रह्य सूत्र में जन्म से लेकर मृत्यु तक किए जाने वाले पारिवारिक जीवन संबंधी कर्मों का विधान है, इसमें पाक यज्ञ भी है और पंच महायज्ञ भी। श्राद्ध तथा अन्य संस्कार भी धर्म सूत्रों में हैं। मुख्य धर्म सूत्र हैं : आपस्तंब,बौधायन, गौतमीय, हिरण्याकेशन। स्मृतियों की रचना भी आगे चलकर धर्मसूत्रों में से ही हुई है।

स्मृतियां :हिंदू धर्म शास्त्रों में स्मृतियों का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। स्मृतियों की संख्या 18 से लेकर 56 तक बताई जाती है। मनु, याज्ञवल्क्य, अत्रि, विष्णु, हारीत, उशनस, अंगिरा, कात्यायन, बृहस्पति, व्यास, गौतम, वशिष्ठ और पाराशर की मुख्य स्मृतियां मानी गई हैं। मनुस्मृति या मानव धर्म शास्त्र सबसे पुरानी स्मृति मानी जाती है। मनु स्मृति में 12 अध्याय है। इसके 12 अध्यायों में व्यक्ति, परिवार एवं समाज के लिए नियम कायदे दिए गए हैं।

धर्म निबंधस्मृतियों की प्रामाणिक संख्या को लेकर जब मत-भिन्नता (मतभेद, अलग-अलग राय) उत्पन्न हो गई और स्मृतियों की संख्या बहुत बढ़ गई तब धर्म निबंधों की रचना हुई। उस समय के राजाओं ने स्मृतियों का सारांश धर्म निबंधों के रूप में तैयार करवाया। स्मृति कल्पतरू, सबसे पुराना धर्म निबंध है। मुख्य धर्म निबंध है- स्मृति चंद्रीका, चतुर्वर्ग चिंतामणि, स्मृति रत्नाकर, धर्म रत्न, निर्णय सिंधु।

हिंदू इतिहास में दो ग्रंथ माने जाते हैं रामायण और महाभारत। आदिकवि वाल्मीकि ने अयोध्या के राजा एवं विष्णु के दशावतारों में सातवें अवतार भगवान राम की पूरी कथा का वर्णन किया है। वाल्मीकि द्वारा रची गई रामायण की भाषा संस्कृत होने के कारण आधुनिक लोगों के लिए कठिन प्रतीत होती थी। तुलसीदास ने इसी रामायण को वर्तमान भाषा में रचकर सबके लिए सुलभ एवं सहज बना दिया। तुलसीकृत रामायण का नाम रामचरितमानस है। हिंदू धर्म में रामायण (भगवान राम की कथा) की अत्यधिक महत्ता है।

महाभारत महर्षि वेदव्यास की रचना है। इसमें कोरवों और पाण्डवों के युद्ध का विस्तार से वर्णन है। यह संपूर्ण ग्रंथ बहुत बड़ा है। जिसे 18 पर्वों में विभाजित किया गया है। युद्ध वर्णन के साथ-साथ महाभारत में कई अन्य कथाएं एंव प्रेरणास्पद उपदेश दिए गए हैं।

पुराणपुराण शब्द का अर्थ प्राचीन या पुराना होता है। प्राचीनता के कारण ही उक्त ग्रंथों का नाम पुराण पड़ा। वेदों, उपनिषदें, स्मृतियों आदि धर्म शास्त्रों के गूढ़ (कठिन) गंभीर तत्वज्ञान को, सरल भाषा में कथा कहानियों के रूप में जिन ग्रंथों में वर्णित किया गया उन्हीं को पुराण कहते हैं। महाभारत और श्रीमद्भागवत के रचनाकार महर्षि वेदव्यास ही पुराणों के भी रचनाकार (लेखक)माने गए हैं। प्रमुख पुराणों की संख्या 18 मानी गई है। जो कि इस प्रकार हैं : ब्रह्मपुराण, पद्मपुराण, विष्णु पुराण, शिव पुराण, श्रीमद्भागवत पुराण, हरिवंश पुराण, मार्कण्डेय पुराण, अग्नि पुराण, भविष्य पुराण, ब्रह्मवैवर्त पुराण, लिंग पुराण, वाराह पुराण,स्कंद पुराण,वामन पुराण, कूर्म पुराण मत्स्य पुराण, गरुड़ पुराण, ब्रह्मांड पुराण।यदि समस्त पुराणों का अध्ययन करने पर इनका मूलभाव निकाला जाए तो वह है - परोपकार ही पुण्य है और स्वार्थ में किसी को कष्ट देना या हानि पहुंचाना ही सबसे बड़ा पाप है।

दर्शनशास्त्र जीवन और जीवन के उद्देश्य के विषय में एक विशेष दृष्टिकोण रखने वाले शास्त्र दर्शनशास्त्र कहलाते हैं। मूलत: भारतीय हिंदू दर्शन आस्तिक दर्शन है। किंतु अत्यंत कम प्रभाव व प्रसार वाले नास्तिक दर्शनों का भी अस्तित्व भारत में रहा है। अत: सुविधा की दृष्टि से हम दर्शन को दो भागों में बांटते हैं।

आस्तिक दर्शनवेदों का प्रमाण मानने वाले छ: दर्शन आस्तिक दर्शन कहलाते हैं जो इसप्रकार हैं:
1. न्याय दर्शन
2. वैशेषिक दर्शन
3. सांख्य दर्शन
4. योग दर्शन
5. मीमांसा दर्शन
6. वेदांत दर्शन

नास्तिक दर्शन तीन माने गए हैं :
1. चार्वाक
2. जैन दर्शन
3. बौद्ध दर्शन

इन दर्शनों में बहुत गहरा तत्वज्ञान समाया हुआ है। मानव जीवन का उद्देश्य, जीवन का अर्थ, जीवन की सार्थकता, परमज्ञान की प्राप्ति, परमानंद एवं चिरशांति का मार्ग आदि मनुष्य जीवन से जुड़े महत्वपूर्ण विषयों का बड़ा महत्वपूर्ण एवं गहन विवेचन व विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है। सभी की यह मान्यता एवं अनुभव है कि आनंद प्राप्ति के लिए, मुक्ति के लिए, मोक्ष के लिए, निश्चित रूप से शुद्ध, पवित्र एवं नि:स्वार्थ जीवन जीना अनिवार्य आवश्यकता है।

नैतिक आचरण
हिंदू धर्म के भिन्न-भिन्न उपासना मार्गों में चाहे वह भक्ति मार्ग हो, ज्ञान मार्ग हो, योग मार्ग हो, चाहे तंत्र मार्ग हो सब में पवित्र नैतिक आचरण पर बल दिया गया है। पवित्र आचरण और नैतिकता हिंदू धर्म की आधार-शिला है। इसलिए हिंदू धर्म की प्रत्येक साधना का प्रारंभ यम और नियम से ही होता है। यम और नियम के बिना कोई भी साधना और धर्म कार्य सफल नहीं हो सकता। यम के भी कुछ अंग हैं:

ब्रह्मचर्य, दया, क्षमा, ध्यान, सत्य, नम्रता, अहिंसा, चोरी न करना, मधुर स्वभाव, इंद्रियों पर नियंत्रण।
यम की तरह नियम के भी कुछ अंग बताए गए हैं,जो कि इस प्रकार हैं: स्नान, मौन, उपवास, यज्ञ, स्वाध्याय, इंद्रियनिग्रह, गुरु सेवा, शौच, क्रोध न करना, प्रमाद न करना।

हिंदू धर्म में नारियों का सम्मान
हिंदू धर्म में नारियों का स्थान अत्यंत उच्च एवं पूजनीय है। नारियों के लिए हिंदू शास्त्रों में कहा गया है कि: ''यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते तत्र रमन्ते देवता'' हिंदू धर्म में मान्यता है कि जहां पर नारियों की पूजा एवं आदर-सम्मान होता है,वहां देवताओं (दैवीय शक्तियों) का वास होता है। जहां पर उनका सम्मान, सत्कार व सुख-सुविधा की व्यवस्था और परंपरा नहीं होती वहां दु:ख, दरिद्रता(गरीबी) अशांति, रोग-शोक एवं संकटों का वातावरण बना रहता है। जिस घर में दु:खी होकर नारियों के आंसू गिरते हैं। वहां से सुख, समृद्धि एवं शांति नष्ट हो जाते हैं।

हिंदू धर्म के प्रमुख ग्रंथ
यद्यपि हिंदू धर्म में अनेक ग्रंथ और शास्त्र हैं। जिनकी संख्या बहुत बड़ी है, किंतु जो सर्वाधिक प्रचलित एवं उपलब्ध हैं, वे इस प्रकार हैं:

1. गीता
2. महाभारत
3. रामायण
4. वेद (चार)
5. पुराण
6. उपनिषद्(१०८)
7. मनुस्मृति
8. सत्यार्थ प्रकाश (आर्य समाज)

ईश्वर, (भगवान,परमात्मा) के विभिन्न रूप
वैदिक संस्कृति ही सच्ची भारतीय हिंदू संस्कृति है। वैदिक काल में, ब्रह्म, इंद्र, वरुण आदि रूप में एक ही परमेश्वर की उपासना चलती थी। बाद में जगत की सृष्टि, स्थिति और तप को लेकर भगवान के ब्रह्मा, विष्णु और महेश रूप की उपासना चल पड़ी। पुराण काल में इन तीनों देवों को मुख्य माना गया है। ब्रह्मा की अपेक्षा विष्णु और शिव की उपासना हिंदू धर्म में अधिक व्यापक रूप से प्रचलित है। हिंदू धर्म में ईश्वर को साकार और निराकार दोनों ही रूपों की मान्यता एवं उपासना प्रचलित है। मनुष्यों के बौद्धिक स्तर एवं रुचियों में भिन्नता के कारण ही ईश्वर को साकार एवं निराकार दोनों रूपों में परिभाषित किया गया है। ईश्वर के सगुण एवं साकार रूप की उपासना अधिक सरल, सहज एवं रुचिकर होने के कारण सुविधाजनक होती है। उच्च बुद्धि प्रधान मनुष्यों के लिए निराकार ईश्वर के प्रकाश स्वरूप परब्रह्म स्वरूप का विवेचन भी हिंदू धर्म में किया गया है।

हिंदू धर्म में अवतार परंपरा
हिंदू धर्म में ईश्वर के पृथ्वी पर मनुष्य रूप में अवतरित होने की मान्यता है। धरती पर अधर्म, अत्याचार, एवं अव्यवस्था बढऩे पर ईश्वर मनुष्य रूप में अवतार लेते हैं। हिंदू धर्म में विष्णु पर(परमात्मा)के दस अवतार माने गए हैं ये दस अवतार इस प्रकार हैं:
1. मत्स्य अवतार
2. कूर्म अवतार
3. वराह अवतार
4. नरसिंह अवतार
5. वामन अवतार
6. परशुराम अवतार
7. राम अवतार
8. कृष्ण अवतार
9. बुद्ध अवतार
10. कल्कि अवतार

विष्णु के उपासक वैष्णव एवं शिव के उपासक शैव कहलाते हैं। कुछ लोग शिव, विष्णु, सूर्य, गणपति और अंबिका के संयुक्त पंचदेव स्वरूप की उपासना करते हैं। स्मार्त लोग किसी भी विशेष संप्रदाय की दीक्षा नहीं लेते वे केवल स्मृति में बताए धर्म का पालन करते हैं। इनके अलावा भी हिंदू धर्म में अनेक देवी-देवताओं की पूजन उपासना प्रचलित है।शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य, वल्लभाचार्य, निंबार्काचार आदि धर्माचार्यों ने अद्वैव, विशिष्टता द्वेत, द्वैताद्वैत, शुद्धाद्वैत आदि कई संप्रदाय चलाए, जिसे जो संप्रदाय पसंद है वह उसके अनुसार उपासना करता है।

हिंदू धर्म में वर्ण व्यवस्था
हिंदू धर्म में चार वर्ण माने गए हैं: ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र।
1. ब्राह्मण का धर्म है: यज्ञ करना-कराना, दान लेना-देना, विद्या पढऩा-पढ़ाना।
2. क्षत्रिय का धर्म: प्रजा की रक्षा करना, यज्ञ करना, दान करना, विद्या अध्ययन करना।
3. वैश्य का धर्म: व्यापार, वाणिज्य व्यवसाय, गौ-सेवा, पशु रक्षा, दान करना।
4. शुद्र का काम: सेवा करना, स्वच्छता एवं व्यवस्था बनाए रखना।

पहले यह व्यवस्था व्यक्ति के गुण-कर्म और स्वभाव के आधार पर निर्मित हुई थी। अर्थात् व्यक्ति अपने गुण, कर्म व स्वभाव के आधार पर किसी भी वर्ण में शामिल हो सकता था। एक ही पिता के चार पुत्र भिन्न-भिन्न गुण, कर्म और स्वभाव के आधार पर चार भिन्न-भिन्न वर्ण के सदस्य हो सकते थे। किंतु बाद में इस वर्ण व्यवस्था में कुछ विकृति आ गई। गुण की बजाय इस व्यवस्था को जन्ममूलक बना दिया। वर्ण व्यवस्था मे आई इस विकृति (बुराई,खराबी)के कारण ही यह व्यवस्था जन्मजात हो गई तथा समाज कई जातियों में बंट गया।

आश्रम व्यवस्था
सुचारू रूप से समाज के संचालन के लिए आश्रम व्यवस्था बनाई गई। जिस प्रकार वर्ण व्यवस्था बनाकर समाज का विकास एवं संचालन किया गया ठीक उसी प्रकार आश्रम व्यवस्था का निर्माण किया गया। इस व्यवस्था के अंतर्गत मनुष्य के जीवन को चार भागों में विभक्त कर दिया गया -
१.ब्रह्मचर्य
२.गृहस्थ
३.वानप्रस्थ
४. सन्यास

ब्रह्मचर्य आश्रमजन्म से लेकर 25 वर्षों तक की अवस्था को ब्रह्मचर्य आश्रम के अंतर्गत रखा गया है। ब्रह्मचर्य आश्रम के अंतर्गत यह नियम है कि सादगी से रहते हुए बालक गुरु आश्रम में जाकर अध्ययन करे। ब्रह्मचारी को शराब, मांस, सुंगध, माला, रस, स्त्री, मीण प्रयोग वर्जित था तथा प्राणी की हिंसा करना भी निषेध था। शरीर पर तेल मलना, काजल लगाना, खड़ाऊ पहनना, छाता लगाना, काम क्रोध के चक्कर में पडऩा, नाचना, गाना, संगीत, जुआ, लड़ाई-झगड़ा, निंदा, असत्य बोलना, स्त्री देखना या संग करना इस ब्रह्मचर्य आश्रम में पूर्णत: वर्जित है।

गृहस्थ आश्रमब्रह्मचर्य आश्रम की सफलतापूर्वक पूर्णता पर जब व्यक्ति समस्त ज्ञान, विद्या, कुशलता, गृहस्थ जीवन के कर्तव्यों की पूर्ति की शक्ति आदि प्राप्त कर गुरु आश्रम से घर लोटकर विवाह करने के बाद गृहस्थ धर्म का पालन करे। ईश्वर को अपना लक्ष्य मानकर धर्म पर चलते हुए सांसारिक सुख भोगना, अतिथि और प्राणी मात्र की सेवा, पवित्र जीवन बिताना, सदाचरण करना, सत्य, न्याय, परोपकार आदि का पालन करना एवं अपने आश्रितों, परिवारजनों, बच्चों, बूढ़ों का पालन पोषण करना गृहस्थ धर्म है।

आयु: 25- 50 वर्षवानप्रस्थ आश्रमधर्म पर चलते हुए, सांसारिक सुख भोगकर एवं समस्त कर्तव्यों एवं जिम्मेदारियों का निर्वाह करने के बाद व्यक्ति को गृहस्थ आश्रम का त्याग कर वन में चले जाना चाहिए। अर्थात् बच्चों के होने एवं आत्मनिर्भर हो जाने पर मनुष्य को घर त्यागकर वानप्रस्थ आश्रम में चले जाना चाहिए। अध्ययन, तप, त्याग एवं तितीक्षा के माध्यम से आत्म-ज्ञान की प्राप्ति का प्रयास, समाज में धर्म एवं सद्ज्ञान का प्रचार-प्रसार करना भी वानप्रस्थी के लिए अनिवार्य कर्तव्य है। आयु: 50 से 75 वर्ष।

सन्यास आश्रमवानप्रस्थ आश्रम की सफलतापूर्वक पूर्णता पर चौथे आश्रम सन्यास आश्रम का क्रम आता है। इसमें 75 वर्ष से लेकर 100 वर्ष तक की आयु वर्ग के लोग आते हैं। सन्यास आश्रम में प्रतिज्ञा करनी होती है कि आज से मैंने पुत्र की, धन की, प्रसिद्धि की कामना छोड़ दी है। मेरे द्वारा सभी प्राणियों को अभय प्राप्त हो। सब कुछ त्यागकर निकल पडऩा सन्यासी का कर्तव्य बताया गया है। सन्यासी वह है जो सब कर्मों का त्याग कर दे। भिक्षा मांग कर खाए, एक जगह न रहे, ब्रह्म का सदा चिंतन करता रहे।

कर्म और पुनर्जन्म
हिंदू धर्म में कर्मफल का सिद्धांत अत्यंत महत्वपूर्ण सिद्धांत है। कर्मफल का सिद्धांत अत्यंत तर्क पूर्ण एवं वैज्ञानिक सिद्धांत है। कर्मफल का सिद्धांत यह कहता है कि जैसा कर्म होता है उसका फल वैसा ही होता है। मनुष्य को अपने पूर्व कर्मों के आधार पर ही वर्तमान जन्म, परिवार एवं परिस्थितियां प्राप्त होती है। हिंदू धर्म की यह अटल मान्यता है कि मनुष्य को उसके कर्मों के आधार पर अगला जन्म मिलता है। आत्म-ज्ञान या मोक्ष की प्राप्ति तक जन्म-मरण का चक्र चलता रहता है। मनुष्य अपने भविष्य का निर्माता स्वयं है। उसके ही पूर्व कर्मों ने उसके वर्तमान जीवन को गढ़ा(तैयार किया) है, और उसके वर्तमान कर्म ही उसके भविष्य के जीवन का निर्माण करेंगे।

चार पुरुषार्थ हिंदू धर्म शास्त्रों में भारतीय ऋषियों-मुनियों ने मनुष्य के लिए चार पुरुषार्थ करना अनिवार्य बताया गया है। ये चार पुरुषार्थ इस प्रकार है:1. धर्म2. अर्थ3. काम4. मोक्षजिन कर्मों से समाज उन्नति करता है, समाज टिकता है, उन कर्मों का नाम धर्म है। काम यानी कामना का विषय सुख के लिए मनुष्य नाना प्रकार के काम करता है। किंतु ये सारे काम धर्मानुकूल होने चाहिए। अर्थ, अर्थात् धन, सुख पाने के लिए भी धन चाहिए पर यह धन भी धर्म के रास्ते से ही आना चाहिए। मोक्ष अर्थात् बंधन से छुटकारा। स्वार्थ एवं मोह रहित होकर अपने कर्तव्यों का पालन करना एवं अनासक्त भाव से कर्म करते हुए कर्म के फल से मुक्त होना ही मोक्ष है।

हिंदू धर्म के लक्षण
सभी को धारण करने वाला स्वयं धारण करने योग्य तथा समस्त प्राणियों को पूर्णता की ओर अग्रसर करने वाला अतिमहत्वपूर्ण कारक धर्म है। विद्वानों ने धर्म के दस लक्षण बताए हैं:धृति, क्षमा, यम, नियम, चोरी न करना, मन, वाणी और शरीर की पवित्रता, इंद्रियों का संयम, सद्बुद्धि, विद्या, सत्य बोलना और क्रोध न करना।

दया, क्षमा, सत्यता, दान, अहिंसा, नम्रता, प्रीति, प्रसन्नता, प्रेम वचन और कोमलता ये दस नियम हैं। पवित्रता, यज्ञ, तप, दान, स्वाध्याय, ब्रह्मचर्य, व्रत, मौन, उपवास और स्नान ये दस नियम है।अपना हो या पराया, भाई हो या बैरी, शत्रु हो या मित्र, चाहे जो भी हो यदि वह मुसीबत और कष्ट में हो तो उसकी सहायता और रक्षा करना प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है। मनुष्य की इसी उदार भावना को दया और करुणा कहा जाता है।

हिंदू धर्म की मान्यता है कि पाप करने वाले के साथ-साथ उसकी सहायता करने वाला और साथ देने वाला भी पाप का भागीदार बनता है। उदाहरण के लिए मांस खाने वाला ही नहीं, खाने की राय देने वाला, जीव की हत्या करने वाला,उसको लाने वाला, बचने वाला, पकाने वाला, परोसने वाला आदि सभी व्यक्ति पाप के समान भागीदार है।

हिंदू धर्म की मान्यता है कि ग्रहस्थ के घर चूल्हा, चक्की, ओखली, पानी के घड़े, से जीवों की हिंसा होती है। ये पांच स्थान हिंसा के हैं। इनसे मनुष्य पाप में बंधता है। गृहस्थ को इन दोषों से मुक्त करने के लिए ऋषि-मुनियों ने पंच महायज्ञ करने को कहा है। विद्या का प्रसार करना ब्रह्म यज्ञ है, माता-पिता की सेवा करना एवं पितरों का तर्पण करना पितृ यज्ञ है, हवन करना देव यज्ञ है। बलिवैश्वदेव भूत यज्ञ है, अतिथि सत्कार मनुष्य यज्ञ है। ये ही पांच महायज्ञ हैं।

गुरुजनों, माता-पिता एवं बड़ों की सेवाअज्ञान रूपी अंधकार से ज्ञान रूपी प्रकाश की ओर ले जाने वाली गुरु सत्ता, जन्म से लेकर बड़े होने तक तप, त्याग और कष्टपूर्वक पालन-पोषण करने वाले माता-पिता तथा बड़े भाई, चाचा, ताऊ, बुजुर्ग एवं अन्य वरिष्ठ जन अत्यंत आदर एवं सम्मान के पात्र हैं। गुरु एवं माता-पिता के उपकारों से ऋण मुक्त होना तो संभव नहीं हैं किंतु इनकी सेवा, आज्ञा का पालन एवं सम्मान करना प्रत्येक हिंदू का धर्म कर्तव्य है।गुरु, माता-पिता, बड़ों, बुर्जुगों आदि का सम्मान एवं सेवा करने वालों की आयु, विद्या, यश और बल चारों बढ़ते हैं।

यह सिखाता है हिंदू धर्म
1. ईश्वर एक है, सर्वशक्तिमान है एवं सर्वसमर्थ है।
2. एक ही ईश्वर को संसार में भिन्न-भिन्न नामों से पुकारा जाता है। कोई भगवान, कोई अल्लाह, कोई परमात्मा, कोई वाहे गुरु आदि भिन्न-भिन्न नामों से ईश्वर को पुकारता है।
3. सत्य, दया, अहिंसा, प्रेम, सेवा, परोपकार, त्याग, सादगी आदि उच्चतम मानवीय आदर्शों को जीवन में अपनाना ही हिंदू धर्म की पहचान है।
4. सभी मनुष्यों एवं अन्य जीवों में भी अपना ही रूप देखना एवं प्रेम व भाईचारे से जीवन यापन करना ही मनुष्य का धर्म है।
5. सांसारिक सुख-वैभव एवं भोग विलास को क्षणिक, नष्ट होने वाला और अस्थाई मानकर उसमें मन को न लगाना।
6. आत्मा को ही अपना वास्तविक स्वरूप मानकर शारीरिक सुख-भोग में जीवन को व्यर्थ न गवाना।
7. दूसरों में दोष न देखकर अपने ही अवगुणों को खोजना एवं दूर करना।
8. आत्मा ही मनुष्य का वास्तविक स्वरूप है। आत्मा अजन्मा एवं अमर है। मृत्यु में सिर्फ शरीर बदलता है, आत्मा अजर, अमर एवं अविनाशी है।
9. सेवा, परोपकार एवं सद्कर्मों के द्वारा मनुष्य जीवन के अंतिम लक्ष्य जिसे पूर्णता, मोक्ष, निर्वाण एवं आत्मज्ञान कहा जाना, को प्राप्त किया जाता है।
10. पूर्ण पवित्रता, नैतिकता, एवं सादगीपूर्ण जीवन जीते हुए जीवन के अंतिम लक्ष्य को खोजना और प्राप्त करना ही जीवन की सार्थकता एवं उपयोगिता है।
11. अपने निजी लाभ एवं स्वार्थ को भूलकर परोपकार एवं विश्व कल्याण के लिए प्रयास करना मनुष्य का कर्तव्य है।
12. गाय, गंगा, गीता, गायत्री, वेद एवं रामायण अत्यंत पवित्र एवं हर हिंदू के लिए पूज्य हैं।
13. माता-पिता, गुरु, बड़ों, विद्वानों, संतों, महापुरुषों, ब्राह्मणों एवं आचार्यों की सेवा एवं सम्मान करना हर हिंदू का कर्तव्य है।
14. व्रत, उपवास, तप, तयाग, प्रेम, योग आदि के माध्यम से शारीरिक एवं मानसिक पवित्रता प्राप्त करना चाहिए।
15. सांसारिक जीवन अस्थाई है। शरीर की मृत्यु निश्चित है। अत: आत्मा एवं आत्मज्ञान की खोज प्रत्येक मनुष्य के लिए परम आवश्यक है।

हिंदुओं के इष्टदेव राम
हिंदू धर्म में ईश्वर के जिन 10 अवतारों की मान्यता है उनमें से भगवान राम सातवें एवं अत्यंत लोकप्रिय अवतार हैं। संपूर्ण भारत में समान रूप से लोकप्रिय अवतार भगवान श्रीराम अयोध्या के राजा थे।श्रीराम पूर्ण धर्मज्ञ, सत्यप्रतिज्ञ, प्रजाहितरत, यशस्वी, ज्ञान संपन्न, सूरवीर, दूरदृष्टा, भक्ति-तत्पर, शरणागति रक्षक, परम दयालू, प्रजापति, प्रजापालक, तेजस्वी, सर्वश्रेष्ठ गुणधारक, रिपु विनाशक, जीव रक्षा करने वाले, धर्म के रक्षक शास्त्र तत्ववेत्ता, परम प्रतिभावान, सर्वप्रति, परम साधु (सज्जन) सदैव प्रसन्नचित्त, महापंडित, परमज्ञानी एवं विज्ञानी तथा निर्धनों के रक्षक, सज्जनों के सहायक विद्वानों का आदर करने वाले, परमश्रेष्ठ हंसमुख, सुख-दु:ख के सहकर्ता, प्रियदर्शन, सर्वगुणयुक्त व सच्चे पुरुष थे।

हिंदू धर्म के प्रमुख तीर्थ
1. गंगोत्री
2. जमनोत्री
3. केदारनाथ
4. ब्रदीनाथ
5. जगन्नाथ
6. रामेश्वरम्
7. द्वारिका
8. अमरनाथ

सप्तपुरी
1. अयोध्यापुरी
2. मथुरापुरी
3. मायापुरी
4. काशीपुरी
5. कांचीपुरी
6. अवंतिकापुरी
7. जगन्नाथपुरी

हिंदू धर्म के प्रमुख त्योहार
हिंदू धर्म के प्रमुख त्योहारहिंदू धर्म में मानव जीवन को एक उत्सव के रूप में आनंद स्वरूप माना गया है। यही कारण है कि हिंदू धर्म में वर्ष भर व्रत, त्योहार, एवं उत्सव मनाए जाते हैं। हिंदुओं में प्रचलित उत्सव और त्योहार मात्र आनंद प्राप्ति के लिए ही नहीं अपितु धर्म और अध्यात्म को जीवन मे सम्मिलित करने के उद्देश्य से भी मनाए जाते हैं। हिंदुओं में प्रचलित त्योहारों एवं उत्सवों के सार्थक उद्देश्य एवं वैज्ञानिक आधार होते हैं। जो व्यक्ति और समाज को सुख, शांति, धर्म एवं भाईचारे की ओर जाते हैं। हिंदुओं के प्रमुख त्योहार इस प्रकार है:रक्षाबंधन, कृष्ण जन्माष्टमी, गणेश चतुर्थी, विश्वकर्मा पूजा, दुर्गाअष्टमी, दशहरा, नवरात्र पूजन, वाल्मीकि जयंती, दीपावली, अन्नकूट-गोवर्धन पूजा, भाई दूज, मकर संक्रांति, नाग पंचमी, रविदास जयंती, महाशिवरात्रि, होली, दुलहंडी (फाग), रामनवमी।

हिंदू संस्कृति का संक्षिप्त रूप
हिंदू धर्म की दृष्टि में धर्म, संस्कृति, जीवन तीनों का विस्तार समान है। तीनों एक दूसरे में समाहित (घुले-मिले) है। हिंदू संस्कृति समन्वय प्रधान है। इसीलिए वसुदेव कुटुम्बकम हिंदू संस्कृति का मूल भाव माना गया है। विश्व के साथ समभाव प्राप्त करने की पद्धति समन्यव है। विश्व के अन्य प्राचीन धर्म एवं संस्कृतियां आज लुप्त हो चुके हैं, किंतु हिंदू धर्म अपनी सहिष्णुता की प्राण वायु से आज तक जीवित है। बहुलता मे एकत्व की पहचान हिंदू संस्कृति का प्रयत्न रहा है। जड़ व चेतन का अपेक्षित मुल्यांकन हिंदू धर्म व संस्कृति की विशेषता है। भौतिक जीवन की नश्वरतासांसारिक सुख-भोग क्षणिक व नश्वर है, तथा ये त्यागने योग्य है ऐसी दृढ़ मान्यता हिंदू धर्म की अपनी विशिष्ट पहचान है। लोक और परलोक का समन्वय प्राप्त करने की प्रवृति हिंदू धर्म की मूल भावना है। हिंदू धर्म व संस्कृति में साहित्य, कला, सौदंर्य और संयमित जीवन के अनेक वरदानों को प्रतिष्ठित स्थान दिया गया है।

धर्म और जीवन का मेल हिंदू संस्कृति के आग्रह का विषय है। अध्यात्म की साधना, त्याग और सच्चरित्रता हिंदू संस्कृति के आग्रह का विषय है। हिंदू धर्म और संस्कृति में कर्म पर विशेष जोर दिया गया है। गीता में स्वयं भगवान कृष्ण ने बहुत सुंदर व उत्तम उपदेश दिया है जिसे मानना हर हिंदू का धर्म कत्र्तव्य है।

आध्यात्मिक जीवनहिंदू धर्म व संस्कृति लौकिक विजय से इतनी तृप्त नहीं होती जितनी आध्यात्मिकता से प्रफुल्लित, तृप्त एवं संतुष्ट होती है। सांसारिक विजय और उपलब्धि के भीतर लोभ, स्वार्थ और ङ्क्षहसा छिपे हैं। जबकि आध्यात्मिकता केवल धर्म और आत्म ज्ञान पर आधारित है। हिंदू धर्म में निहित उपासना, साधना एवं संस्कार मनुष्य को जन्म से लेकर देहांत तक आध्यात्मिक जीवन के लिए तैयार करते हैं। हिंदू धर्म परोपकार, त्याग, संयम, क्षमा, दया, करुणा, अहिंसा, सत्य, प्रेम, ईमानदारी, कर्तव्यनिष्ठा, सेवा, नि:स्वार्थता आदि सदुगुणों की संयुक्त मूर्ति है। जिसमें उपरोक्त सभी गुण निहित हैं। वही सच्चा हिंदू कहलाने का अधिकारी है।

हिंदू धर्म के आधार ग्रंथ वेद
हिंदू धर्म के प्रामाणिक व मूल धर्म ग्रंथ वेद है। वेद का अर्थ है ज्ञान अथवा विवेक। वेद मानव रचित नहीं, अपितु ईश्वर के द्वारा सुपात्र, योग्य ऋषि-मुनियों को नि:शब्द वाणी में प्रदान की गई अनुभूतियों का लिपिबद्ध संग्रह है। वेदों की संख्या चार है। जिनके नाम इस प्रकार है: ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद व अथर्ववेद। इनमें ऋग्वेद सर्वाधिक प्राचीन है। ऋग्वेद सर्वकल्याणकारी प्रार्थनाओं का संग्रह है। यजुर्वेद में यज्ञ के विधानों और कर्मकाण्ड का विवरण है। सामवेद में ऋग्वेद की चुनी हुई ऋचाओं को संगीतबद्ध किया गया है।

जिसका विशेष यज्ञों के अवसर पर सस्वर संगीतमय पाठ किया जाता है। सामवेद विभिन्न राग-रागनियों का भी उद्गम है। अथर्ववेद नीति संबंधी सिद्धांतों का संकलन है। उसमें आयुर्वेद विज्ञान, स्वास्थ्य, आयु एवं वृद्धि संबंधी तथ्यों का विस्तृत विवरण है।

हिंदू धर्म का विश्व विख्यात महान ग्रंथ गीता
भारतीय संस्कृति एवं हिंदू धर्म का विश्व को प्रदान किया गया अनुपम उपहार है -गीता। सारे विश्व में निर्विवाद रूप से 'गीता नामक ग्रंथ को सर्वोत्तम कृति माना जाता है। एकमात्र गीता में ही समस्त धर्मों एवं मानव जीवन का सार समाया हुआ है। इतने छोटे आकार में इतना विशाल, व्यापक एवं गंभीर शाश्वत ज्ञान प्रदान करने वाला दूसरा ग्रंथ जग में दूसरा नहीं है। गीता में संपूर्ण धर्मों एवं संपूर्ण ग्रंथों का निचोड़ समाया हुआ है। गीता से तुलना की जाए तो इसके समक्ष समस्त संसार का ज्ञान तुच्छ है।

गीता में जीवन प्रबंधनगीता एक उच्चकोटि का दर्शनशास्त्र है। मानव जीवन के सर्वोत्तम सदुपयोग को बताने वाला गीता जैसा दूसरा कोई ग्रंथ दुनिया भर में नहीं है। मानव जीवन के समस्त दु:खों, अभावों, भयों, आशंकाओं एवं जिज्ञासाओं का संपूर्ण समाधान गीता में समाया हुआ है। आज जीवन प्रबंधन, समय प्रबंधन एवं जीवन जीने की कला सीखने के लिए विश्वभर में गीता का सहारा लिया जा रहा है।

चाहे किसी भी धर्म अथवा संप्रदाय को मानने वाला व्यक्ति हो, उसे जीवन में एक बार अवश्य गीता को पूरे मनोयोग से अध्ययन करना चाहिए। गीता में निश्चित रूप से मानव जीवन की समस्त समस्याओं का अंतिम व स्थायी समाधान निहित है।

उपनिषदः वेदों का मस्तक
संस्कृत साहित्य में उपनिषद नाम के ग्रंथों (पुस्तकों) का बड़ा ही महत्वपूर्ण दर्जा है। उपनिषदों में समाए हुए बहुमूल्य व उपयोगी ज्ञान के कारण ही इन्हें वेदों का सार या वेदों का मस्तक भी कहा जाता है। अध्यात्म के विषय में सर्वोच्च स्तर का सर्वश्रेष्ठ ज्ञान प्राप्त करने का एक मात्र प्रामाणिक साधन उपनिषद ग्रंथ हैं।

उपनिषदों के रचनाकाल के विषय में एक से अधिक मत प्रचलित हैं। वैदिक साहित्य के प्रकाण्ड विद्वान एवं ज्योतिष गणित के जानकार लोकमान्य तिलक ने उपनिषदों के रचनाकाल के विषय में उल्लेख किया है। तिलक ने अपनी सुप्रसिद्ध पुस्तक गीता रहस्य (पृष्ठ 552) में उपनिषदों का रचनाकाल 1500 से 2000 वर्ष ई.पू. अर्थात् आज से 3510 से 4010 साल पहले के आसपास माना है। जबकि संस्कृत साहित्य के अन्य उद्भट विद्वानों एवं इतिहासकारों का मानना है कि इन महानतम व दुर्लभ पुस्तकों को चार हजार वर्षों से भी बहुत पूर्व लिखा गया था। विद्वानों ने अपनी बात की सच्चाई के प्रमाण में ऐतिहासिक तथ्य भी प्रस्तुत किए हैं। जो कि काफी पुख्ता हैं। अत: निष्कर्ष के रूप में हमें यही कहना चाहिए कि हजारों वर्ष पूर्व लिखे गए उपनिषद ग्रंथ अद्भुत एवं अमूल्य ज्ञान के अथाह भंडार हैं।

उपनिषदों से सीखें जीवन जीने की कला
आधुनिक मनुष्य के पास पहले की अपेक्षा अधिक सुविधा एवं सम्पन्नता है, इसके बावजूद आज का मनुष्य तनावग्रस्त, अभावग्रस्त एवं भयग्रस्त बना हुआ है। ऐसे में हमें ज्ञान के उस अद्भुत, अमूल्य एवं असीम भंडार के दरवाजे खोलना चाहिए, जिसमें सफल, सुखद एवं समृद्ध जीवन के सूत्र दिए गए हैं। उपनिषदों के ऐसे ही कुछ अनमोल सूत्र इस प्रकार हैं:

1. सदैव सच बोलो, इससे तुम्हारी अधिकांश समस्याएं स्वत: ही मिट जाएगी।
2. धर्म के मार्ग पर चलो। अर्थात् यदि तुम अपने कर्तव्य का पालन और धर्म की रक्षा करोगे तो धर्म निश्चित रूप से तुम्हारी रक्षा करेगा।
3. स्वाध्याय को जीवन का अनिवार्य अंग बनाओ अर्थात् उत्तम साहित्य का नियमित अध्ययन तथा अपने जीवन के विषय में गहन चिंतन करो।
4. पूर्ण ब्रह्मचर्यपूर्वक जीवन व्यतीत करते हुए पूरी एकाग्रता से ज्ञान-विज्ञान को प्राप्त करो तथा ज्ञान प्राप्ति के पश्चात ग्रहस्थ में प्रवेश कर कर्तव्यों का पालन करो।
5. जीवन में जब भी कोई शुभ कार्य का अवसर आए तो अवश्य करो। बाद के लिए नहीं टालो।
6. जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उन्नति एवं प्रगति करने के लिए हर उचित प्रयास करो।
7. वेद, उपनिषद आदि उच्च स्तर के साहित्य का अध्ययन एवं अनुकरण अवश्य करो।
8. नियमित ईश्वर की उपासना एवं माता-पिता की सेवा में कभी भी आलस्य न करो।
9. माता-पिता एवं गुरु में ईश्वर का स्वरूप समझो।
10. अतिथि की उचित सेवा एवं सम्मान करो।
11. कोई अनैतिक, अमर्यादित अथवा अधार्मिक कर्म गलती से भी न करो।
12. अपनी कमाई का एक हिस्सा जरूरतमंद और समाज की भलाई के लिए अवश्य निकालो।
13. ज्ञानी और शक्तिशाली बनो। कमजोर रहना बड़ा भारी पाप है।
14. क्षणिक इंद्रिय सुखों के लिए आत्मसम्मान और आत्मज्ञान को मत ठुकराओ।
15. जीवन के लक्ष्य को खोजो और समय के हर एक अंश का सर्वोत्तम सदुपयोग करो।
16. सभी में एक ही आत्मा समाया हुआ है। अत: सभी के साथ समान एवं उत्तम व्यवहार ही करना चाहिए।
17. अपने प्रति कठोर और दूसरों के प्रति उदार व सहनशील रहना चाहिए। अर्थात् स्वयं की गलतियों के प्रति कठोरता एवं दूसरों की गलतियों के प्रति क्षमा भावना होना चाहिए।
18. आत्मतत्व की प्राप्ति के लिए तप और अहिंसा अनिवार्य है।
19. इंद्रियां ओर मन हमें कभी भी जीवन के उद्देश्य से परिचय नहीं करा सकते।
20. जब तक सच्चा आत्म ज्ञान जागृत नहीं होता। तब तक जीवन में दुख, अभाव एवं अशांति बने ही रहेंगे।

सबसे पुरानी किताबों में जीवन का सार
वेद दुनिया के सबसे प्राचीन ग्रंथ माने गए हैं। चार वेदों में जीवन के गूढ़ रहस्य छिपे हैं। ये मूलत: विचारों के ग्रंथ है, इस कारण इन्हें सारी संस्कृति विशेष रूप से आर्य संस्कृति का प्रारंभिक ग्रंथ माना गया है। वेद ज्ञान का भंडार है, विज्ञान हो या खगोलशास्त्र, यज्ञ विधि या देवताओं की स्तुति सभी चार वेदों (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद) में है। वेद का शाब्दिक अर्थ है ज्ञान या जानना। वेदों को पूरे विश्व में सबसे पुराने ग्रंथों के रूप में मान्यता मिल चुकी है। वेदों को श्रुति भी कहा जाता है, श्रुति यानी सुनकर लिखा गया। माना जाता है ऋषि-मुनियों ने इन ग्रंथों को खुद ब्रह्मा से सुनकर लिखा था। वेदों की ऋचाओं (मंत्रों) में कई प्रयोग और सूत्र हैं।

खगोल, विज्ञान, आयुर्वेद, तकनीकी हर क्षेत्र के लिए विभिन्न मंत्र हैं। नासा ने भी वेदों में छिपे ज्ञान को प्रामाणिक माना है। उपनिषदों का रचना काल करीब 4000 साल पुराना है, इस आधार पर यह माना जाता है कि वेदों का रचना काल 5000 हजार वर्ष से भी पूर्व का है।

ऋग्वेद : ऋग्वेद सबसे पहला वेद है। इसमें धरती की भौगोलिक स्थिति, देवताओं के आवाहन के मंत्र हैं। इस वेद में 1028 ऋचाएं (मंत्र) और 10 मंडल (अध्याय) हैं।

यजुर्वेद : यजुर्वेद में यज्ञ की विधियां और यज्ञों में प्रयोग किए जाने वाले मंत्र हैं। इस वेद की दो शाखाएं हैं शुक्ल और कृष्ण। 40 अध्यायों में 1975 मंत्र हैं।

सामवेद : इस वेद में ऋग्वेद की ऋचाओं (मंत्रों) का संगीतमय रूप है।
इसमें मूलत: संगीत की उपासना है। इसमें 1875 मंत्र हैं।

अथर्ववेद : इस वेद में रहस्यमय विद्याओं के मंत्र हैं, जैसे जादू, चमत्कार, आयुर्वेद आदि। यह वेद सबसे बड़ा है, इसमें 20 अध्यायों में 5687 मंत्र हैं।

पहले एक ही थे वेद
ऐसा प्रचलित है कि पहले वेद चार भागों में नहीं थे। ये एक ही थे। विद्वानों का मानना है कि महाभारत काल के बाद श्रीकृष्णद्वैपायन व्यास (वेद व्यास) ने इन्हें चार भागों में बांटा। उनके चार शिष्य जो अपने समय के महान संत हुए, पैल, वैश्यंपायन, जैमिनि और सुमंतु ने उनसे इनकी शिक्षा पाई थी। इसके बाद इन चार वेदों का ही प्रचलन हुआ। कई विद्वानों का यह भी मानना है कि वेद ब्रह्मा की मानस पुत्री गायत्री से उत्पन्न हुए हैं। गायत्री ही इन वेदों की रचनाकार भी मानी गई हैं।

स्वास्थ्य और भाग्य दोनों पर सीधा प्रभाव डालता है सूर्य
सूर्य ऊर्जा का केंद्र है। मानव जीवन को सीधे-सीधे प्रभावित करता है। एक छोटे से पौधे को भी पेड़ बनने के लिए जल के साथ-साथ सूर्य के प्रकाश की आवश्यकता होती है। सूर्य के प्रकाश में विटामीन ई प्रचुरता से विद्यमान होता है। जो त्वचा के लिए उत्तम होता है। प्रात: काल सूर्योदय के समय सूर्य की जो रश्मियां निकलती है। वह स्वास्थ्यवर्धक होती है। उनसे त्वचा, सांस, कफ, पित्त, वात, अनिद्रा, हृदय आदि रोगों में रक्षा होती है।

धर्म शास्त्रों में इसलिए ही प्रात: सूर्य को जल चढ़ाने का विधान किया गया है। उसमें यह भी बताया गया है कि सूर्य से कभी सीधे नजरें नहीं मिलाना चाहिए। इससे आंखे की रेटिना पर बुरा प्रभाव पड़ सकता है तथा ज्यादा देर तक सूर्य की ओर देखने से भी नेत्र भी खो सकता है। सूर्यास्त के समय भी सूर्य के दर्शन नहीं करने चाहिए।

वह भी स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है। सूर्य अपनी प्रचण्ड गर्मी से समुद्र, तालाब, झीलों के पानी को वाष्प बनाकर उड़ाता है जो बादल का रूप धकर जीवनदायिनी वर्षा करते हैं। जिससे सभी प्राणियों को अन्न एवं जल मिलता है। यही जल नदियों के द्वारा कई प्राणियों का पोषण करता है। इसी से सूर्य को प्रत्यक्ष देवता माना गया है। जो समुद्र के खारे जल को भी मीठे में परिणीत कर सभी का पोषण करता है। अपने स्वयं के प्रकाश एवं प्रभाव से भी जगत को संचारित करता है।

चौवीस अवतारों में प्रथम
सष्टि के रचनाकार ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना करने से पूर्व कठोर तप किया। ब्रह्म देव की इस कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर ,सम्पूर्ण विश्व के आधार यानि कि ईश्वर ने सनक,सनन्दन,सनातन और सनत्कुमार के रूप में प्रथम अवतार ग्रहण किया।

एक बार सनकादि ऋषि वैकुण्ठनाथ श्री हरि के दर्शन करने हेतु उनके धाम पहुंचे। किन्तु जब उन्होंने जैसे ही मुख्य द्वार में प्रवेश करना चाहा तो जय-विजय नामक पार्षदों ने उन्हें अन्दर जाने से रोक दिया। वैकुण्ठनाथ के दर्शनों में आई इस रुकावट से दु:खी होकर सनकादि कुमारों ने जय-विजय नाम के उन द्वारपालों को देत्यों के वंश में जन्म लेने का श्राप दे दिया। जब वैकुण्ठनाथ श्रीहरि को सनकादि ऋषि के आगमन और अपमान का पता चला तो वे तत्काल वहां पंहुचे एवं सनकादि कुमारों के प्रति पे्रम एवं स्नेह प्रकट किया। वैकुण्ठनाथ श्रीहरि के अद्भुत,अनुपम एवं अलौकिक सौन्दर्य को देखकर सनकादि कुमार अत्यंत चकित एवं प्रसन्न हुए।

सनकादि ऋषियों के श्राप के कारण ही वैकुण्ठ धाम के पार्षद जय-विजय अगले तीन जन्मों में हिरण्यकश्यपु-हिरण्याक्ष,रावण-कुम्भकरण और शिशुपाल-दन्तवक्र के रूप में जन्मे। एक बार सनकादि कुमार भगवान के अंशावतार महाराज पृथु के पास पहुंचे। महाराज प्रथु ने सनकादि ऋषियों के आगमन को अपना सौभाग्य समझा तथा अत्यंत आदर सत्कार के साथ उनका स्वागत किया। जाते समय सनकादि ऋषियों ने महाराज पृथु को महत्वपूर्ण उपदेश दिया जो कि इस प्रकार है: हे महाराज पृथु सांसारिक सुख-वैभव,धन-ऐश्वर्य,भोग-विलास आदि चीजें इंसान को झूंठी और नकली जिंदगी की और घसीट ले जाती हैं। मनुष्य को हर स्थिति एवं परिस्थिति में हर प्रकार से ईश्वर की समीपता का प्रयास करना चाहिये।मन और इन्द्रियां यदि नियंत्रित एवं प्रशिक्षित नहीं हैं तो ये मनुष्य को बर्बादी के ही रास्ते पर धकेलते हैं।

चिर बालपन: सनकादि ऋषि, < हरि शरणम > मंत्र के जप प्रभाव से सदा पांच वर्ष के कुमार ही बने रहते हैं। सनकादि कुमार कहते हैं कि विद्या के समान कोई नैत्र नहीं है। सत्य के समान कोई तप नहीं है। राग के समान कोई दु:ख नहीं है और त्याग के समान कोई सुख नहीं है। त्याग से प्राप्त सुख सच्चा एवं एवं स्थाई होता।

जानें, क्या है शिव का तृतीय नेत्र ?
भगवान शिव जितना अपने कर्मों से अद्भुत हैं उतने ही अपने स्वरूप में भी रहस्यमयी हैं। भक्ति से प्रसन्न हो जाएं तो उनसे ज्यादा कोई भोला नहीं। अधर्म और अनीति देख कर यदि चिढ़ जाएं तो उनसे बढ़कर कोई क्रोधी और महाकाल नहीं। जाने कितनी ही विचित्रताएं और अनोखापन देखने को मिलता है भगवान शिव में । ऐसी ही एक विचित्रता है- भगवान शिव की तीसरी आंख। दो आंखें तो सभी देवताओं की हैं। तो फिर भगवान शिव के तीसरे नेत्र का रहस्य क्या है? यहां हमे गहराई और बारीकी से चिंतन करने की जरूरत है। भगवान के चित्रों में हम जो तीसरी आंख देखते हैं वास्तव में वह एक प्रतीकात्मक नेत्र है। नेत्र का कार्य होता है रास्ता दिखाना तथा मार्ग में आने वाले संकटों और अवरोधों से हमें सावधान करना। किन्तु जीवन में कई बार कुछ ऐसे संकट भी आते जिन्हें देख पाना इन स्थूल दो नेत्रों के वश में नहीं होता। ऐसे समय में विवेक ही होता है जो एक सच्चे मार्गदर्शक की तरह हमें आने वाले अदृष्य संकटों से आगाह करता है। यह विवेक ही चित्रों में शिव के तीसरे नेत्र के रूप में दिखाया जाता है। जिसे अन्त:प्रेरणा या इन्ट्यूशन कहा जाता है वह और कुछ नहीं विवेक ही है। अब क्योंकि भगवान शिव तो विवेक के साक्षात विग्रह ही हैं इसलिए चित्रों में उन्हैं त्रिनेत्र धारी बताया जाता है । भगवान शिव के चित्रों में जहां पर तीसरा नेत्र दर्शाया जाता है वह स्थान आज्ञाचक्र का केन्दस्थान है। यह आज्ञाचक्र ही विवेकबुद्धि का स्रोत भी है।

भारतीय सनातन धर्म के संवाहक
भारतीय सनातन धर्म और संस्कृति को आज निर्विवाद रूप से प्राचीनतम माना जाता है। सनातन धर्म और संस्कृति को विश्व में सर्वाधिक प्राचीन होने का गौरव और प्रमाण दिलाते हैं ये बहुमूल्य ग्र्रंथ। इन ग्रंथों में समाया हुआ अनमोल और अद्वितीय ज्ञान विश्व भर में अनूठा है और अपनी अलग पहचान रखता है। वास्तव में ये ग्रंथ ही भारतीय सनातन धर्म के संवाहक हैं। इन अद्भुत और विलक्षण ग्रंथों के बारे में कुछ महत्वपूर्ण बातें इस प्रकार हैं-

वेद- इसका अर्थ है ज्ञान। ये प्राचीनतम् भारतीय ग्रंथ हैं। रचनाकाल 7000 साल पुराना है। संख्या चार हैं।

उपनिषद- वेदों के ज्ञान की विस्तृत चर्चा (डिटेलिंग) उपनिषदों में है। इनकी संख्या 108 मानी जाती है।

पुराण- पुराणों का संपादन महर्षि वेद व्यास ने किया। प्रमुख पुराण 18 हैं।

रामायण- महर्षि वाल्मीकि ने लिखी। उपलब्ध कई रामकथाओं में रामायण एकमात्र ऐसा ग्रंथ है, जिसके लिखने वाले भगवान राम के समकालीन माने जाते हैं।

भागवत- महापुराण है। इसमें भगवान विष्णु के 24 अवतारों की कथा है। मुख्य रूप से कृष्ण चरित्र का वर्णन है।

गीता- गीता महाभारत का हिस्सा है। 18 अध्यायों वाली गीता भगवान कृष्ण की वाणी है।

महाभारत-कौरवों और पांडवों की कथा है। इसे वेद व्यास ने लिखा। इसमें एक लाख श्लोक माने गए हैं।
रामचरितमानस- इसकी रचना करीब 500 साल पहले गोस्वामी तुलसीदासजी ने की। इसमें भगवान राम का जीवन चरित्र है।

असीम आत्मबल पाएं त्रिकाल संध्या से
एक समय ऐसा भी था जब संध्या पूजा को दैनिक जीवन का अभिन्न एवं अनिवार्य हिस्सा माना जाता था। संध्या पूजा के प्रति इस समर्पण भाव का ही यह परिणाम था कि मनुष्य सौ वर्षों तक तन, मन और धन से सम्पन्न होकर जीवन जीता था। नियमपूर्वक संध्या करने से इंसान पाप रहित हो जाता है। पापरहित होने से ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है।

नियमित संध्या पूजा करने वाले साधक को अटूट आत्मविश्वास और असीम आत्मबल की प्राप्ति होती है। रात या दिन में जो बुरे कर्म हो जाते हैं,वे त्रिकाल संध्या से नष्ट हो जाते हैं। संध्या नहीं करने से पुण्यकर्म का फल नहीं मिलता। समय पर की गई संध्या इच्छानुसार फल देती है।

प्रात:काल संध्या पूजन, मध्यान्ह संध्या पूजन व सायं संध्या पूजन एवं विनियोग के मंत्र अलग हैं। सूर्य उपस्थान की मुद्रा बदल जाती है। प्रात:काल ब्रह्मरूपा गायत्री, मध्यान्ह में विष्णुरूपा गायत्री तथा सायंकाल शिवरूपा गायत्री का ध्यान किया जाता है। सायं सांध्य पूजन में दीप-अर्चना और आरती का भी विशेष महत्व बताया जाता है। आरती से पूजन में हुई भूल की पूर्ति हो जाती है।

कौन व क्या हैं भगवान कालभैरव ?
भैरव शब्द का अर्थ ही होता है- भीषण, भयानक, डरावना। भैरव को शिव के द्वारा उत्पन्न हुआ या शिवपुत्र माना जाता है। भगवान शिव के आठ विभिन्न रूपों में से भैरव एक है। वह भगवान शिव का प्रमुख योद्धा है। भैरव के आठ स्वरूप पाए जाते हैं। जिनमे प्रमुखत: काला और गोरा भैरव अतिप्रसिद्ध हैं।

'रुद्रमाला से सुशोभित, जिनकी आंखों में से आग की लपटें निकलती हैं, जिनके हाथ में कपाल है, जो अति उग्र हैं, ऐसे कालभैरव को मैं वंदन करता हूं।'- भगवान कालभैरव की इस वंदनात्मक प्रार्थना से ही उनके भयंकर एवं उग्ररूप का परिचय हमें मिलता है।

कालभैरव की उत्पत्ति की कथा शिवपुराण में इस तरह प्राप्त होती है-
एक बार मेरु पर्वत के सुदूर शिखर पर ब्रह्मा विराजमान थे, तब सब देव और ऋषिगण उत्तम तत्व के बारे में जानने के लिए उनके पास गए। तब ब्रह्मा ने कहा वे स्वयं ही उत्तम तत्व हैं यानि कि सर्वश्रेष्ठ और सर्वोच्च हैं। किंतु भगवान विष्णु इस बात से सहमत नहीं थे। उन्होंने कहा कि वे ही समस्त सृष्टि से सर्जक और परमपुरुष परमात्मा हैं। तभी उनके बीच एक महान ज्योतिप्रकट हुई। उस ज्योति के मंडल में उन्होंने पुरुष का एक आकार देखा। तब तीन नेत्र वाले महान पुरुष शिवस्वरूप में दिखाई दिए। उनके हाथ में त्रिशूल था, सर्प और चंद्र के अलंकार धारण किए हुए थे। तब ब्रह्मा ने अहंकार से कहा कि आप पहले मेरे ही ललाट से रुद्ररूप में प्रकट हुए हैं। उनके इस अनावश्यक अहंकार को देखकर भगवान शिव अत्यंत क्रोधित हो गए और उस क्रोध से भैरव नामक पुरुष को उत्पन्न किया। यह भैरव बड़े तेज से प्रज्जवलित हो उठा और साक्षात काल की भांति दिखने लगा। इसलिए वह कालराज से प्रसिद्ध हुआ और भयंकर होने से भैरव कहलाने लगा। काल भी उनसे भयभीत होगा इसलिए वह कालभैरव कहलाने लगे। दुष्ट आत्माओं का नाश करने वाला यह आमर्दक भी कहा गया। काशी नगरी का अधिपति भी उन्हें बनाया गया। उनके इस भयंकर रूप को देखकर बह्मा और विष्णु शिव की आराधना करने लगे और गर्वरहित हो गए।

देवी-देवता, कल्पना या हकीकत?
देवता शब्द का अर्थ होता है देनेवाला। देवी-देवता संबधी मान्यता भारत में हजारों साल पहले से प्रचलित रही है। ऐसा करके प्राचीन मनुष्य ने अपनी सूक्ष्म और वैज्ञानिक बुद्धि का ही परिचय दिया है। सूक्ष्म और न दिखने वाली प्राकृतिक शक्तियों को देवी-देवताओं का प्रतीकात्मक रूप प्रदान किया गया। देवता मुख्यत: तीन प्रकार के होते हैं- वैदिक, पौराणिक और लोकदेवता। मोटे तौर पर लोकदेवताओं का वेद-पुराणों में या अन्य शास्त्रों में उल्लेख नहीं हुआ है। लेकिन किन्हीं का मूल वेद-पुराणों में ढूढा जा सकता है।

प्राचीनकाल में भारत में आदिवासी-अनार्य भी रहते थे। उनका धर्म आर्यों से कुछ भिन्न था। अनार्य लोग प्राय: भूत-पिशाच, यक्ष, पशु, सर्प (नाग), लिंग इत्यादि को देव मानकर उनकी उपासना करते थे। अनार्यों के ऐसे भयंकर एवं कुछ मलिन देवों का प्रभाव आर्य-देवों पर भी पड़ा। इसके उपरांत सतीप्रथा, वीर पूजा, नारीशक्ति प्रभाव,कुदरत के रहस्य समझने की अशक्ति, भय इत्यादि कारणों से सती,वीर, पीर, क्षेत्रपाल, नाग, देव-देवियों के विभिन्न ग्राम्य-स्वरूप, स्थान-देवता, ग्राम देवता, कुल देवता आदि का ख्याल अस्तित्व में आया। इसतरह ऐसे असंख्य लोक देव-देवियां भारत के सभी भूभागों में विभिन्न नामों से बहुधा सामाजिक दृष्टि से पिछड़ी जातियों में, लोक समाज में व्याप्त हो गए, लोक समुदाय श्रद्धापूर्वक उनकी सीधी-सादी उपासना करने लगा। आज भी लोगों में लोकदेवताओं के प्रति प्रबल श्रद्धा है

क्यों लड़ते हैं देवता और असुर ?
परमात्मा ने सुख प्राप्ति के लिए इन्द्रियाँ बनायी हैं। इन्द्रियों के माध्यम से मन ही सुख भोगता है। स्मरण-शक्ति के कारण मन पूर्व में भोगे गये सुख को याद रखता है। इस सुख को पाने के लिए मन अनुचित साधन भी अपना लेता है। ईश्वर ने मन को देवत्व प्रदान किया है। किन्तु इन्द्रिय सुख की प्रबल कामना मन को असुर बना देती है। असुर का अर्थ है बुराई को गति देने वाला। अच्छे संस्कारमन को अच्छाई या देवत्व के गुण अपनाने को प्रेरित करते हैं। इन्द्रिय सुख का लोभ मन को बुराई की ओर ढकेल देता है जिससे कोई इंसान बलात्कार, छल, कपट आदि में संलग्न हो जाता है। दो विपरीत धाराओं में मन का जाना ही देवासुर संग्राम है। मन ही देवता है, मन ही राक्षस है। मानसिक द्वन्द्व को ही देवासुर संग्राम की प्रतीकात्मक भाषा में बताया गया है।

आखिर कहां है पाताल लोक?
जितना व्यापक और विस्तृत हिन्दू धर्म है, उसमें उतनी ही अद्भुत और विलक्षण बातें भी हैं। स्वर्ग-नर्क, आकाश-पाताल, इन्द्रलोक, देवी -देवता ये ऐसी बाते हें, जिनपर सहसा विश्वास तो नहीं होता किन्तु आश्चर्य अवश्य होता है। यदि पाताल लोक की ही बात करें तो हम देखते हैं कि हिन्दू धर्म के अनुसार पृथ्वी के नीचे सात प्रकार के पाताल होते हैं। विष्णु पुराण में भी सात प्रकार के पाताल लोक बताए गए हैं। विष्णु पुराण की मान्यता है कि यह समस्त भूमण्डल पचास करोड़ योजन विस्तार वाला है। इसकी ऊंचाई सत्तर सहस्र योजन है। इसके नीचे सात पाताल प्रकार के पाताल नगर हैं। ये पाताल लोक इस प्रकार से हैं:-
अतल, वितल ,नितल ,गभस्तिमान ,महातल ,सुतल ,पाताल

क्या सिखाता है महाभारत का  चित्र......
'गीतोपदेश' विहंगम दृश्य और झिंझोड़ता सबक दोनों तरफ लाखों-करोड़ों की सेना। दोनों ही पक्षों में ऐसे सेकड़ों योद्धा जो अकेले ही युद्ध का परिणाम बदल दें। युद्ध के अंतिम निर्णायक तो श्री कृष्ण ही थे। किन्तु कृष्ण के अतिरिक्त पांडव पक्ष का सारा का सारा दारोमदार अर्जुन पर ही था। वही अर्जुन अचानक मोह और कायरता से ग्रसित यानि कि संक्रमित हो गया। ऐसे में श्री कृष्ण, जो कि अधर्म का विनाश करने ही अवतरित हुए थे को सक्रीय होना पड़ा। लगभग पूरी तरह हताश हो चुके अर्जुन को विष्णु अवतार गोविंद ने इंसानी जिंदगी के जो सूत्र दिये वे आज भी कालजई हैं। महाभारत के उस अद्भुत और अद्वितीय दृश्य से जो अनमोल सबक मिलते हैं, वो इंसान को जिंदगी का महाभारत जीतने का रहस्य दे जाते है:-

- स्वयं श्री कृष्ण इंसान को विश्वास दिलाते हैं कि यदि हम न्याय और कर्तव्य के रास्ते पर हैं, तो वो खुद हमारे जीवन रथ की लगाम अपने हाथ मे ले लेंगे।

- जीवन है तो संघर्ष भी है। धर्म, न्याय और कर्तव्य की रक्षा के लिये यदि युद्ध भी करना पड़े तो जरूर करना चाहिये।

- इंसान को ईश्वर ने संघर्ष करने और शक्तिवान बनने ही भेजा है। संघर्षों से मुक्त सीधी सरल और आसान जिंदगी कोरी कल्पना के सिवाय कुछ भी नहीं।

- मोह इंसान को कायर और कमजोर बनाता है अत: इस पर सदैव नियंत्रण रखें।

- धर्म, न्याय और कर्तव्यों के लिये जो इंसान, अपनी जान हथेली पर रख कर लडऩे को तैयार हो जाता है उसे धन, मान-सम्मान और प्रसिद्धि अपने आप ही मिल जाती है।

- किस्मत हमेशा संघर्ष करने वालों का ही साथ देती हैं। यह सौ फीसदी सत्य है कि भगवान भी उसी की सहायता करता हैं जो स्वयं अपनी मदद करता है।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK

Friday, September 12, 2014

Bhumika (भूमिका)

भूमिका
आग अर्थात् अग्नि के बार में सभी जानते हैं, इसका महत्त्व भी सभी समझते हैं। शास्त्रों के अनुसार अग्नि सात प्रकार की है, तो कुछ जगह अग्नि की सात जिह्वा मानी गई है। वेदों में अग्नि के अनेकों नाम हैं, किन्तु योग-शास्त्र के अनुसार अग्नि के नाम- क्रोधाग्नि, कामाग्नि, ज्ठराग्नि आदि। योग-शास्त्र के अनुसार सभी अग्नियों में कामाग्नि की भूमिका महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि जब यह कामाग्नि ऊर्ध्वगामी हो जाती है, तो यह ज्ञानाग्नि में बदल जाती है। जब यह हमारे नाभि-स्थल में स्थित मणिपुर-चक्र में पूर्ण रूप से जाग्रत हो जाती है और आज्ञा-चक्र की तरफ अग्रसर होती है, तो यही कुण्डलिनी-शक्ति होती है। इसी को कुण्डलिनी जागरण भी कहते है।

(ज्ठराग्नि > क्रोधाग्नि > कामाग्नि > ज्ञानाग्नि > कुण्डलिनी शक्ति > पराशक्ति > परब्रह्म)
या
(ज्ठराग्नि > क्रोधाग्नि > कामाग्नि > ज्ञानाग्नि > कुण्डलिनी शक्ति > नादब्रह्म > ज्योति ब्रह्म)

कामाग्नि का ही पवित्र रूप प्रेमाग्नि है। यह प्रेम, प्यार या इश्क जब किसी विपरीत लिंगी के प्रति होता है, तो प्रारम्भ में वह प्रेमाग्नि के रूप में होता है और बाद में यह पवित्र-प्रेम कामाग्नि में बदल जाता है। जब यह इश्क या प्रेम परमात्मा के प्रति होता है, तो यह प्रेमाग्नि बाद में ज्ञानाग्नि में बदल जाती है। इसलिये कहा गया है कि

ये इश्क नहीं आसाँ, इक आग का दरिया है।
डूब के नहीं, तैर के उस पार निकलना है।।

आगे कहा गया है कि
इश्क ने गालिब हमको निकम्मा कर दिया।
वरना हम भी थे आदमी काम के॥
  
हम परमात्मा के प्रेम में कितने पागल है या परमात्मा के प्रति हमारे हृदय में कितनी प्रेमाग्नि प्रज्वलित है। इसी आधार पर हमें परमात्मा की प्राप्ति होती है। शास्त्रों में भक्ति मार्ग को श्रेष्ठ बताया गया है, इसी भक्ति के दो पुत्र कहे गये हैज्ञान और वैराग्य। जहाँ कलयुग में भक्ति के हजारों उपासक हुऐ हैं, वहाँ ज्ञान और वैराग्य के बहुत कम उपासक हुये हैं। भक्ति की पूर्णता ज्ञान और वैराग्य के बिना असम्भव है। सही मायने में भक्ति, ज्ञान और वैराग्य एक दूसरे के पूरक है। भक्ति उपासकों में जहाँ भक्ति कि प्रधानता दिखाई देती है, वहीं इनके अन्दर ज्ञान और वैराग्य अप्रत्यक्ष रूप से विद्यमान रहते है। इसी प्रकार ज्ञान और वैराग्य के उपासकों में जहाँ ज्ञान और वैराग्य की प्रधानता दिखाई देती है, वहीं इनके अन्दर भक्ति अप्रत्यक्ष रूप से विद्यमान रहती है।

भक्ति, ज्ञान और वैराग्य कि परिभाषायें यों तो अनेकों ही उपासकों ने की हैं। किन्तु इन परिभाषाओं में से जो श्रेष्ठ हैं, वह परिभाषा हम सभी साधकों को समझाने की कोशिश करेंगे -

भक्ति(नवधा-भक्ति)
श्रवणं कीर्तनं विष्णों स्मरणं पाद सेवनम्।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यम् आत्म निवेदनम्॥

प्रथम भगति संतन्ह कर संगा। दूसरि रति मम कथा प्रसंगा।
गुर पद पंकज सेवा तिसरि भगति अमान।
चौथि भगति मम गुन गन करई कपट तजि गान॥
मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा। पंचम भजन सो बेद प्रकासा॥
छठ दम सील बिरति बहु करमा। निरत निरंतर सज्जन धरमा॥
सातवँ सम मोहि मय जग देखा। मोतें संत अधिक करि लेखा॥
आठवँ जथालाभ संतोषा। सपनेहुँ नहिं देखई परदोषा॥
नवम सरल सब सन छलहीना। मम भरोस हियँ हरष न दीना॥

ज्ञान
शुभेच्छा अर्थात् विवेक वैराग्यकी स्थिति।
विचारणा अर्थात् श्रवण मनन की अवस्था।
मनुमानसा अर्थात् पंचभूतात्मक देह अनित्य और आत्मा नित्य-शुद्ध-बुद्ध है।
सत्त्वापत्ति अर्थात् अहं स्मिमैं ब्रह्म हूँ, इस धारणा को दृढ़ करना।
असंसक्ति अर्थात् नाना विधि सिद्धियों की ओर से अनासक्ति।
पदार्थाभाविनी- अहं ब्रह्मास्मिभी तो एक अहंवृत्ति ही है, अतः इसका भी लय होना।
तिर्यगा अर्थात् आत्मस्वरूप से न उठना।

वैराग्य
मन लोभी, मन लालची, मन चंचल, मन चौर।
मन के मत चलिये नहीं, पलक पलक मन और॥

असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते॥

संत चरन पंकज अति प्रेमा। मन क्रम बचन भजन दृढ़ नेमा॥
गुरू पितु मातु बंधु पति देवा। सब मोहि कहँ जानै दृढ़ सेवा॥
मम गुन गावत पुलक सरीरा। गदग द गिरा नयन बह नीरा॥
काम आदि मद दंभ न जाकें। तात निरंतर बस मैं ताकें॥
बचन कर्म मन मोरि गति भजनु करहिं निःकाम।
तिन्ह के हृदय कमल महुँ कर-उँ सदा बिश्राम॥

कलयुग के अन्दर भक्ति तो सभी करते हैं, किन्तु ज्ञान और वैराग्य ना के बराबर है। कोई भी साधक कितनी ही भक्ति कर ले, लेकिन जब तक उस के अन्दर वैराग्य नहीं होगा तब तक उसे ज्ञान की प्राप्ति असम्भव है, और बिना ज्ञान की प्राप्ति के परमात्मा की प्राप्ति असम्भव है। इसलिये हमें भक्ति और वैराग्य का सहारा ले कर ज्ञान को पाना होगा। तभी परमात्मा की प्राप्ति है। किसी भी चीज के पाने हेतु हमारे मन में लगन की जरूरत है। किसी भी काम को हम जितनी लगन से करेंगे, उसका प्रभाव वैसा ही होगा और जिस काम को हम बे-मन से करेंगे उसका प्रभाव वैसा ही होगा। इसलिये हमें अपने अन्दर ज्ञान की आग पैदा करनी होगी।

जब तक हमारे अन्दर ज्ञान की ज्योति प्रकट नहीं होगी, तब तक हमें सही-गलत और अच्छे-बुरे का ज्ञान नहीं होगा। आज का साधक दिन रात भक्ति में, पूजा-पाठ में लगा हुआ है, किन्तु उसके मन में, उसके विचारों में और उसकी अपनी खुद की सोच में रत्ती भर भी बदलाव नहीं आया है। जैसे की हम अपने बच्चों को कहते हैं, कि तुम ज्यादा से ज्यादा शिक्षा को प्राप्त करो, जिससे कि तुम्हारा भविष्य उज्ज्वल हो।

लेकिन बच्चों के मन में शिक्षा के प्रति लगन होनी आवश्यक है। जब तक बच्चे का मन पढ़ाई में नहीं लगेगा, वह अपनी शिक्षा पूरी नहीं कर सकता। उसी प्रकार ज्ञान रूपी शिक्षा पाने के लिये साधक के हृदय में परमात्मा के प्रति लगन अर्थात् आग पैदा होनी चाहिये। जब ये लगन रूपी आग लगती है, तो सब कुछ जला कर स्वाहा कर देती है। साधक के अन्दर परमात्मा को पाने के लिये जितनी तेजी से प्रेमाग्नि प्रज्वलित होगी, उतनी ही जल्दी साधक को परमात्मा की प्राप्ति होगी। जब यह अग्नि हमारे अन्दर पूरी तरह से धधक उठेगी, तो हमारे पूर्व जन्म और इस जन्म के सभी पाप-ताप जल कर खाक हों जायेंगे। मृत्यु उपरान्त शरीर के खाक होने पर राख बनती है, किन्तु जीते जी तमाम पाप और ताप के खाक होने पर परमात्मा रूपी ज्ञान की ज्योति प्रकट होती है।

सनातन धर्म के अनुसार पुरूष, प्रकृति और जीव कि उत्पत्ति एक साथ मानी गई है। सनातन धर्म के अनुसार ये तीनों एक दूसरे के पूरक हैं। पुरूष को परमात्मा, प्रकृति को शक्ति और जीव को 84 लाख योनियों में बाँटा गया है। अनादि काल से ही समय के प्रवाह के अनुसार अनेकों ही सन्तों एवं महापुरूषों का जन्म हुआ। जिन्होनें पुरूष, प्रकृति और जीव कि अलग-अलग परिभाषायें अपने-अपने समय के अनुसार अपने भक्तों या आम व्यक्तियों को समझाई। इसी प्रकार धीरे-धीरे अध्यात्मिक क्षेत्र दो भागों में बट कर रह गया। एक द्वैत-वाद और दूसरा अद्वैत-वाद्। इन दोनों में भी अनेकों ही शाखाओं ने जन्म लिया, जैसे की साँख्य-योग, ज्ञान-योग, राज-योग, हठ-योग, भक्ति-योग एवं लय-योग आदि। धीरे-धीरे समय का चक्र चलता गया और विभिन्न शाखाओं को मानने वालों ने धीरे-धीरे अपना अलग मत, पंथ या धर्म बना लिया।

हमारी कोशिश एक बार फिर से सभी धर्मों को इकट्ठा करने की है। पहली बार यह कोशिश सिख गुरूओं ने की थी, “गुरू ग्रंथ साहबकी रचना करके। गुरू ग्रंथ साहबमें सभी मतो एवं सभी धर्मों के महापुरूषों के पवित्र शब्दों को इकट्ठा करके लिखा गया। किन्तु बाद में कारण जो भी रहा हो, लेकिन आज के समय में गुरू ग्रंथ साहबपर सिखों का एकाधिकार है। शायद इसका एक मूल कारण गुरू ग्रंथ साहबका गुरमुखी भाषा में लिखा होना हो सकता है।

परमात्मा और धर्म तो एक दूसरे से बंधे हुऐ हैं और यह दोनों नित-नये हैं। चाहे हम नानक की बात करें या कबीर की, महावीर की या महात्मा-बुद्ध की, कहने का तात्पर्य यह है कि जितने भी पूर्ण-सन्त हुऐ उनकी अपनी भाषा और अपने शब्द थे। चाहे वो सन्त किसी भी जाति या धर्म से सम्बन्ध रखता हो, किन्तु फिर भी उसने उस परमात्मा कि व्याख्या या बड़ाई करते वक्त अपनी भाषा और अपने शब्दों का हमेशा इस्तेमाल किया। चाहे समाज के ठेकेदारों नें इन संतो को पत्थर मारे या सत्-गुरू अर्जुन देव जी जैसे पूर्ण ब्रह्म-ज्ञानी महा-पुरूष को गरम तवे पर क्यों न बिठा दिया, किन्तु ये महा-पुरूष हमेशा ही कठिन से कठिन सजा को हंसते हुऐ सह गये और हमेशा ही नित-नये परमात्मा को अपनी भाषा और अपने शब्दों में परिभाषित करते गये। पूर्ण-सन्त का काम आँखों देखी कहने का है।

सच्चा सन्त जो भी परमात्मा की लीला अपने ह्रदय में देखता है, और उसी को अपने शब्दों में बोलता है, न कि पढ़कर या इधर-उधर से सुने हुऐ शब्दों को। सन्त के अपने शब्द अपने लिऐ होते है, किन्तु कभी-कभी कुछ खास भक्तों के उद्धार के लिऐ परमात्मा की आज्ञा अनुसार वे सन्त उन शब्दों को आम व्यक्ति पर प्रकट करता है। जिन भक्तों के लिऐ या यों कहें कि जिन खास शिष्यों के लिऐ वे शब्द होते हैं, वे शिष्य तो उन शब्दों को समझ कर अपनी मंजिल अर्थात् परमात्मा को पा लेते है, किन्तु जिन व्यक्तियों के लिऐ वे शब्द नहीं होते, वे उन्हें नहीं समझ पाते और उस पूर्ण-सन्त में हजारों कमियाँ निकालते हैं।

अनादि-काल से आज तक जितने भी महापुरुष हुऐ हैं, उनकी तो दृष्टि मात्र से पापी से पापी व्यक्ति भी मुक्ति को प्राप्त कर लेता था, किन्तु आज के समय में ऐसे सन्त ना के बराबर हैं, और जो थोड़े-बहुत हैं, वे शिष्य की योग्यता के अनुसार उसके ऊपर दृष्टि-पात करते हैं। किन्तु जो अयोग्य शिष्य होते हैं, वे या तो अपने भाग्य को कोसते है या भाग्य के भरोसे बैठे रहते हैं। कोई भी शिष्य गुरू के अयोग्य कहने पर एकलव्य बनने की कोशिश नहीं करता। यदि कोई भी साधक एकलव्य की तरह दृढ़-निश्चय कर ले तो वह अर्जुन से भी अधिक सर्व-श्रेष्ठ धनुर्धर बन सकता है।

किन्तु आज का साधक अपने अन्दर इतना उलझ गया है, या यों कहें कि अपने आपको हीन भावना से इतना अधिक ग्रस्त पाता है कि वह स्वयं में कुछ भी करने को तैयार नहीं है। आज का साधक हमेशा ही ऐसे गुरू-रूपी कंधे की खोज में लगा रहता है, जिसके ऊपर बन्दूक रख कर निशाना साध सके, और जब किसी पूर्ण-गुरू की प्राप्ति नहीं होती तो साधक गुरूओं के ऊपर या अपने भाग्य के ऊपर आरोप-प्रत्यारोप करता है। किन्तु स्वयं हिम्मत करके आगे बढ़ने कि कोशिश कोई नहीं करता। कहा गया है कि- जिन खोजा तिन पाईयाँ ॥ लेकिन आज का साधक बिना खोजे ही उस परमात्मा को पाना चाहता है।

हमारी कोशिश ऐसे ही साधकों को उस परमात्मा को खोजने पर मजबूर करने की है। जो साधक कहते है, कि हमें कोई बताने वाला या समझाने वाला नहीं है, हमें कोई सत्य का मार्ग दिखाने वाला नहीं है। हमारी कोशिश ऐसे ही अंधेरे में भटकने वाले साधकों को रास्ता अर्थात् प्रकाश दिखाने की है। हम सभी धर्मों एवं जाति के साधकों के लिये अति सहज आध्यात्मिक मार्ग दिखाने की कोशिश करेंगे, जिसके द्वारा सभी साधक परमात्मा के दिव्य-स्वरूप और उसके अनहद-नाम को देख व सुन सकें।

हम सभी धर्मों एवं जातियों व उनके महापुरुषों को कोटी-कोटी नमन् करके उनसे अपने और आप सभी के लिये यही प्रार्थना करते हैं कि वह हम सब को सत-धर्म का मार्ग दिखलाऐं और हमारे हृदय में प्रकाश करे एवं हम सभी के मानसिक, वाचिक तथा समस्त पापों का नाश करे। हम सब उन पूर्ण-महापुरुषों कि तरह उस परमपिता-परमात्मा का साक्षात्कार कर सके तथा पूर्ण ब्रह्म-ज्ञान को प्राप्त करें।

हमारा उद्देश्य है कि एक ऐसे धर्म-स्तंभ की स्थापना की जाऐं, जहाँ पर किसी भी मत, पंथ, धर्म या जाति का व्यक्ति अपने-अपने धर्मानुसार पूजा-पाठ आदि कर सके। जहाँ पर किसी भी जाति या धर्म का एकाधिकार ना हो।

हमारा उद्देश्य है कि एक ही छत के नीचे और पवित्र सर्व-धर्म-स्तंभ के सम्मुख वेद-शास्त्रों के मन्त्र, कुराण की आयतें, गुरू ग्रंथ साहब की बाणी, बाईबल की प्रार्थना, कबीर के शब्द, बौद्ध-मन्त्र और जिन-वाणी आदि का एक साथ उच्चारण हो और सभी धर्मों की पवित्र-ज्योति को इस सर्व-धर्म-स्तंभ में स्थापित किया जाये। जिससे कि किसी भी धर्म या जाति का व्यक्ति किसी भी प्रकार से अपने साधारण से साधारण यम-नियमों का पालन करके उस परमात्मा की स्तुति करके आसानी से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्राप्त कर सके।

हमारी सत-धर्म पर चलने की इस कोशिश मे आप सभी भक्त-जन हमारी मदद करेंगे ऐसा हमारा विश्वास है।


जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है....मनीष

Monday, September 8, 2014

Chanakya Neeti (चाणक्य नीति)


कौन है आचार्य चाणक्य?
आचार्य चाणक्य तक्षशिला के गुरुकुल में अर्थशास्त्र के आचार्य थे लेकिन उनकी राजनीति में गहरी पकड़ थी। इनके पिता का नाम आचार्य चणीक था इसी वजह से इन्हें चणीक पुत्र चाणक्य कहा जाता है। संभवत: पहली बार कूटनीति का प्रयोग आचार्य चाणक्य द्वारा ही किया गया था। जब उन्होंने सम्राट सिकंदर को भारत छोडऩे पर मजबूर कर दिया। इसके अतिरिक्त कूटनीति से ही उन्होंने चंद्रगुप्त को अखंड भारत का सम्राट भी बनाया। आचार्य चाणक्य द्वारा श्रेष्ठ जीवन के लिए चाणक्य नीति ग्रंथ रचा गया है। इसमें दी गई नीतियों का पालन करने पर जीवन में सफलताएं अवश्य प्राप्त होती हैं।

ऐसा माना जाता है सबसे पहले अखंड भारत की परिकल्पना आचार्य चाणक्य ने ही की थी। उस समय भारत आर्यावर्त के नाम से जाना जाता था। तब भारत की सीमाएं बहुत ही विस्तृत थीं, जो कि कई छोटे-छोटे साम्राज्य में विभाजित थीं। इन सभी साम्राज्यों को जोड़कर अखंड भारत बनाने का सपना आचार्य चाणक्य ने देखा था।

जब सम्राट सिकंदर भारत पर आक्रमण के लिए आया तब चाणक्य ने कूटनीति से उसे पुन: लौटा दिया था। उस समय भारत के सभी साम्राज्यों में से एक सबसे शक्तिशाली साम्राज्य था मगध। मगध की राजधानी पाटलीपुत्र थी जो कि आज पटना के नाम से प्रसिद्ध है। मगध का सम्राट धनानंद हमेशा ही भोग-विलास में डूबा रहता था और प्रजा की उसे कोई चिंता नहीं थी। वह सभी छोटे-छोटे राजाओं से मनमाना कर वसूल करता था। धनानंद ने अपनी सभा में आचार्य चाणक्य का अपमान कर दिया था। तब चाणक्य ने धनानंद का कुशासन समाप्त करने की प्रतिज्ञा ली।

प्रतिज्ञा को पूरा करने के लिए आचार्य चाणक्य ने एक सामान्य से बालक चंद्रगुप्त को तक्षशिला में शिक्षा दी। इसी बालक चंद्रगुप्त की मदद से चाणक्य ने धनानंद का कुशासन समाप्त किया और अखंड भारत की स्थापना की।

चाणक्य नीति क्या है?
आचार्य चाणक्य तक्षशिला के गुरुकुल में अर्थशास्त्र के आचार्य थें लेकिन उन्हें राजनीति और कूटनीति में भी महारत हासिल थी। चाणक्य ने एक महत्वपूर्ण ग्रंथ भी रचा जिसका नाम है चाणक्य नीति। इस नीति शास्त्र में जीवन में सफलता कैसे प्राप्त करें, इस संबंध में महत्वपूर्ण नीतियां बताई गई हैं। इन नीतियों का पालन करने वाला व्यक्ति निश्चित रूप से जीवन में हर कदम सफलता प्राप्त करता है और उल्लेखनीय कार्य करता है।

सही समय पर सही विकल्प पहचानने वाले रच देते हैं इतिहास...
समस्याएं सभी के जीवन में होती हैं और इन समस्याओं को दूर करने के कई रास्ते भी होते हैं। कुछ लोग सही समय पर सही रास्ता चुन लेते हैं और वे सफलता के पथ पर आगे बढ़ जाते हैं। वहीं कुछ लोग सब कुछ भाग्य या नियति के भरोसे छोड़कर बैठ जाते हैं, जीवनभर दुखी होते रहते हैं।

एक सामान्य बालक चंद्रगुप्त को अखंड भारत का सम्राट बनाने वाले आचार्य चाणक्य ने इस संबंध में कई महत्वपूर्ण सूत्र दिए हैं। इन सूत्रों को अपनाकर कोई भी इंसान सफलता एक नया इतिहास रच सकता है। चाणक्य ने कहा है कि नियति तो अपना खेल रचती रहती है और इस खेल के प्रभाव से हमें कभी दुख मिलते हैं तो कभी सुख। दुख के समय में एक बात हमेशा याद रखनी चाहिए कि नियति केवल कोई संयोग मात्र नहीं है, नियति व्यक्ति को हर समस्या से निकलने के लिए विकल्प अवश्य देती है।

बुद्धिमान इंसान वही है जो उन विकल्पों को पहचानकर, उनमें से सही विकल्प चुन लेता है। सबकुछ नियति के भरोसे छोड़कर बैठने वाले इंसान सदैव कष्ट और दुख के ही प्रतिभागी बन जाते हैं। ऐसे लोग जीवन में ना तो कुछ बन पाते हैं और ना ही कोई इतिहास बना पाते हैं। इसीलिए समझदारी इसी में है कि सही समय पर सही रास्तों को पहचाना जाए और उन रास्तों पर बिना समय गंवाए आगे बढ़ा जाए।

आचार्य चाणक्य की यह बात हर परिस्थिति में बहुत ही कारगर और समस्याओं से निजात दिलाने वाली है। जो भी इंसान नियति के इशारों को समझकर उन्हें जीवन में उतार लेता है वह नए इतिहास रच देता है। जीवन में सफलता प्राप्त करने के लिए यह अचूक उपाय है।

इन सातों को नींद से जगाना मतलब खतरे की घंटी...
जीवन को सुखी और शांत बनाए रखने के लिए शास्त्रों में कई अचूक नियम और उपाय बताए गए हैं। इन उपायों और नियमों का पालन करने वाले इंसान को कभी भी दुख का सामना नहीं करना पड़ता। वे लोग हर पल सुखी और चिंताओं से मुक्त रहते हैं।
जीवन में सफलताएं प्राप्त करने के लिए कई बातों का ध्यान रखना अनिवार्य है। इस संबंध में आचार्य चाणक्य द्वारा कई सटीक सूत्र बताए गए हैं। इन्हीं से एक सूत्र ये है सर्प, नृप अथवा राजा, शेर, डंक मारने वाले जीव, छोटे बच्चे, दूसरों के कुत्ते और मूर्ख, इन सातों को नींद से नहीं जगाना चाहिए, ये सो रहे हैं तो इन्हें इसी अवस्था में रहने देना ही लाभदायक है।

यदि किसी सोते हुए सांप को जगा दिया जाए तो वह हमें अवश्य डंसेगा। किसी राजा को जगाने पर राजा का क्रोध झेलना पड़ सकता है। यदि किसी शेर को जगा दिया तब तो निश्चित ही मृत्यु का सामना करना पड़ सकता है। किसी डंक मारने वाले जीव को जगाने पर भी मृत्यु का संकट खड़ा हो सकता है। यदि कोई छोटा बच्चा सो रहा है तो उसे जगाने पर संभालना मुश्किल होता है। दूसरों के कुत्तों को जगा दिया जाए तो वह भौंकना शुरू कर देगा, काट भी सकता है। यदि कोई मूर्ख इंसान सो रहा है तो उसे भी सोते रहने देना चाहिए क्योंकि मूर्ख व्यक्ति को समझा पाना बड़े-बड़े विद्वानों के लिए भी संभव नहीं हैं।

खुद से पूछो ये तीन सवाल फिर कदम-कदम पर मिलेगी कामयाबी...
किसी भी कार्य की सफलता या असफलता उसके लिए की गई योजना पर निर्भर होती है। पूर्व नियोजित ढंग से किए गए कार्य में सफलता प्राप्त होने की संभावनाएं काफी अधिक होती हैं। योजना के साथ ही व्यक्ति की दृढ़ इच्छा शक्ति भी उसे निर्धारित लक्ष्य तक पहुंचने में मदद करती है।

लक्ष्य कैसे प्राप्त किया जाए... इस संबंध में आचार्य चाणक्य ने बताया है कि किसी भी कार्य की शुरूआत से पहले हमें खुद से तीन सवाल पूछने चाहिए। ये तीन सवाल ही लक्ष्य प्राप्ति में आ रही बाधाओं को पार करने में मददगार साबित होंगे। इसके साथ ही ये कार्य की सफलता भी सुनिश्चित करेंगे। ये तीन प्रश्न हैं-

- मैं ये क्यों कर रहा हूं?

- मेरे द्वारा किए जा रहे इस कार्य के परिणाम क्या-क्या हो सकते हैं?

- मैं जो कार्य प्रारंभ करने जा रहा हूं, क्या मैं सफल हो सकूंगा?

इन तीन प्रश्नों पर गहराई से चिंतन करें। इसके बाद यदि आपको इन सवालों के संतोषजनक और सही जवाब मिल जाए, तभी कार्य को प्रारंभ करना चाहिए। यदि इन प्रश्नों के संतोषजनक जवाब नहीं मिल पा रहे हैं तो बुद्धिमानी यही है कि उस कार्य को न किया जाए। तीनों प्रश्नों के संतोषजनक जवाब मिलने के बाद आप अपने लक्ष्य की ओर बिना समय गवाएं आगे बढ़ सकते हैं। फिर लक्ष्य तक पहुंचने में किसी भी प्रकार की बाधा को पार करने में आपस अवश्य सफल पाएंगे। दृढ़ इच्छा शक्ति के बल पर आप हर कदम सफलता प्राप्त करेंगे।

जानिए चाणक्य के अनुसार हमारी सबसे बड़ी बीमारी कौन सी है...
बीमारी, हमेशा ही दुख और यातना देती है, तड़पाती है, मनोबल तोड़ देती है। बीमारियां कई प्रकार की होती हैं लेकिन हर स्थिति में ये हमारे लिए बुरी ही होती है। हर बीमारी का एक सटीक उपचार होता है जिससे हम पुन: स्वस्थ हो सकते हैं। कुछ बीमारियां शारीरिक होती हैं तो कुछ मानसिक।

शारीरिक बीमारियों का उपचार उचित दवाइयों से किया जा सकता है लेकिन मानसिक या वैचारिक बीमारियों का उपचार किसी दवाई से होना संभव नहीं है। इस संबंध में आचार्य चाणक्य ने सबसे बुरी बीमारी बताई है लोभ। लोभ यानि लालच। जिस व्यक्ति के मन में लालच जाग जाता है वह निश्चित ही पतन की ओर दौडऩे लगता है। लालच एक ऐसी बीमारी है जिसका इलाज आसानी से नहीं हो पाता। इसी वजह से आचार्य ने इसे सबसे बड़ी बीमारी बताया है।

जिस व्यक्ति को लोभ की बीमारी हो जाए वह सभी रिश्ते-नातों से दूर हो जाता है, इनके सच्चे मित्र भी साथ छोड़ देते हैं, समाज में मान-सम्मान प्राप्त करना मुश्किल हो जाता है। लालच का भूत सवार होने के बाद व्यक्ति की बुद्धि और विवेक भी उसका साथ छोड़ देते हैं। जिससे इंसान लालच के मद में अंधा होकर अधार्मिक मार्ग पर चल देता है। अधार्मिक मार्ग पर चलने वालों को कभी भी शांति और सुख प्राप्त नहीं हो सकता। ऐसे लोग हमेशा ही भटकते रहते हैं लेकिन इनकी आत्मा को शांति नहीं मिल पाती। अत: बुद्धिमान इंसान वही है तो लोभ की बीमारी से खुद को दूर रखे, अन्यथा बहुत भयंकर परिणाम झेलने पड़ सकते हैं।

ये लोग कभी भी उल्लेखनीय कार्य नहीं कर सकते, क्योंकि...
व्यक्ति केवल दो ही प्रकार होते हैं एक बुद्धिमान और एक मूर्ख। या तो कोई व्यक्ति बुद्धिमान हो सकता है या मूर्ख। इसके अलावा अन्य किसी ओर प्रकार का मनुष्य नहीं हो सकता है। बुद्धिमान व्यक्ति वही है जो हर ज्ञान की बात को ग्रहण करें और अपने जीवन में अपनाएं। जबकि मूर्ख व्यक्ति कभी भी ज्ञान प्राप्त करने की चेष्टा ही नहीं करते हैं।

बुद्धिमान और मूर्ख व्यक्ति के संबंध में आचार्य चाणक्य ने कहा है कि किसी मूर्ख व्यक्ति के लिए किताबें उतनी ही उपयोगी हैं जितना कि एक अंधे व्यक्ति के लिए आईना उपयोगी। जिस प्रकार किसी अंधे व्यक्ति के आईना व्यर्थ है, उसका कोई उपयोग नहीं है। कोई भी अंधा व्यक्ति जब कुछ देख ही नहीं सकता तो उसके लिए आईना किसी भी प्रकार से उपयोगी नहीं हो सकता। ठीक इसी प्रकार किसी भी मूर्ख व्यक्ति के लिए किताबें या ज्ञान की बात भी फिजूल ही है। क्योंकि मूर्ख व्यक्ति ज्ञान की बातों पर भी तर्क-वितर्क करते हैं और उन्हें समझ नहीं पाते।

आचार्य चाणक्य के अनुसार मूर्ख व्यक्ति अक्सर कुतर्क में ही समय नष्ट करते रहते हैं जबकि बुद्धिमान व्यक्ति ज्ञान को ग्रहण कर उसे अपने जीवन में उतार लेते हैं। ऐसे में बुद्धिमान लोग तो जीवन में कुछ उल्लेखनीय कार्य कर लेते हैं लेकिन मूर्ख व्यक्ति का जीवन कुतर्क करने में ही निकल जाता है। मूर्ख व्यक्ति को कोई भी समझा नहीं सकता है अत: बेहतर यही होता है कि उनसे बहस न की जाए, ना ही उन्हें समझाने का प्रयास किया जाए।

किसी भी मूर्ख व्यक्ति के सामने ज्ञान की किताबों का ढेर लगा देने से भी वह उनसे कुछ भी ग्रहण नहीं कर पाएगा। उनके लिए किताबें मूल्यहीन ही है और किताबों में लिखी ज्ञान की बातें फिजूल है। अत: किसी भी मूर्ख व्यक्ति को समझाने में अपना समय व्यर्थ नहीं करना चाहिए।

कोई बड़ी बात नहीं, आप भी बन सकते हैं महान...
हर व्यक्ति की इच्छा होती है वह घर-परिवार, समाज और देश में ख्याति प्राप्त करें। हर जगह उसे मान-सम्मान प्राप्त हो और सभी उसका नाम बड़े आदर के साथ लें। इस संबंध में ऐसी मान्यता है कि यदि कोई व्यक्ति बड़े घर, संपन्न परिवार में जन्म लेता है तो उसे यह सब स्वत: ही प्राप्त हो जाता है।

समाज में ख्याति कैसे प्राप्त करें? कैसे बनें महान? कैसे मिलेगा आपको मान-सम्मान? इस संबंध में आचार्य चाणक्य ने बताया है कि किसी भी व्यक्ति के महान बनने के लिए जरूरी है उसके उल्लेखनीय कर्म। व्यक्ति केवल जन्म से महान नहीं बन सकता, इसके लिए उसे दृढ़ निश्चय के साथ महान कार्य करने होते हैं। केवल उच्च कुल में जन्म लेने मात्र से किसी भी व्यक्ति का कल्याण हो, ऐसा जरूरी नहीं है। अक्सर देखने में आता है कि विद्वान पिता का पुत्र यदि मूर्ख होगा तो वह जीवनभर उचित सम्मान प्राप्त नहीं कर सकेगा। इसके विपरित यदि निम्न परिवार में जन्म लेने के बाद कोई व्यक्ति समाज के लिए, राष्ट्र के लिए, परिवार के हित में उल्लेखनीय कार्य करता है तो वह महान बन सकता है।

किसी भी व्यक्ति के लिए जरूरी है कि वह लक्ष्य निर्धारित कर, दृढ़ निश्चय के साथ उसकी ओर चलता रहे। मार्ग में आने वाली विषम परिस्थितियां ही उसे महान बनाती है। जिन लोगों के जीवन में जितनी अधिक विषम परिस्थितियां आती हैं वह व्यक्ति उतना ही अधिक निखरता है, महान बनता है। इसके विपरित जो व्यक्ति परिस्थितियों से डर लक्ष्य से भटक जाता है वह जीवन में कभी भी उल्लेखनीय कार्य नहीं कर पाता। अत: परिस्थितियों का सामना करते हुए व्यक्ति दृढ़ निश्चय के साथ ही आगे की ओर बढ़ते रहना चाहिए।

आपकी जो बातें छिपाने वाली हैं उन्हें छिपाकर ही रखें, यही अच्छा है...
मुसीबत या परेशानियां स्वयं किसी व्यक्ति के जीवन में नहीं आती। इंसान के कर्म ही उसे समस्याओं में उलझा देते हैं। अच्छे कार्यों का परिणाम देर से ही सही पर अच्छा ही आता है वहीं बुरे कर्मों का फल बुरा ही होता है। हर व्यक्ति के जीवन कुछ गोपनीय बातें अवश्य होती हैं। ऐसे में यदि ये राज की बातें किसी अन्य व्यक्ति को मालुम हो जाए तब यह गंभीर मुसीबतों को बुलाने जैसा ही है।

हर व्यक्ति के अपने जीवन की गोपनीय बातों के संबंध आचार्य चाणक्य ने बताया है कि राज की बातें किसी अन्य मित्र या रिश्तेदार को भी नहीं बताना चाहिए। क्योंकि जिस इंसान को आपके सारे राज मालुम है वही आपके लिए सबसे बड़ा खतरा भी बन सकता है। भविष्य यदि किसी भी प्रकार से हमराज व्यक्ति से मतभेद हो तो तब वह आपकी गोपनीय बातों का गलत लाभ उठाता सकता है। इस प्रकार आप गंभीर मुसीबतों में फंस सकते हैं। इसी वजह से अपने जीवन की गोपनीय बातें किसी भी इंसान पर जाहिर नहीं करना चाहिए।

चाणक्य ने बताया कि राज की बातों को राज ही रहने देना चाहिए। इस प्रकार की गोपनीय बातें ही राजा-महाराजाओं की सत्ता को भी पलट सकती हैं। अत: आम व्यक्ति को भी इस प्रकार की गोपनीय बातें किसी पर भी जाहिर नहीं करना चाहिए।

आप बस इसे छोड़ दें, हमेशा मजे में रहेंगे...
सुख और दुख एक सिक्के के दो पहलु, यही दो अवस्थाएं हर इंसान के जीवन में होती हैं। या तो कोई इंसान सुखी हो सकता है या दुखी। सामान्य मनुष्य के लिए इन दोनों पहलुओं के बीच की और कोई अवस्था है ही नहीं। व्यक्ति को सुख मिलेगा या दुख, इसका निर्णय स्वयं इंसान के कर्म ही करते हैं।

व्यक्ति को मिलने वाले सुख और दुख की के संबंध में आचार्य चाणक्य ने कहा है कि दुख की सबसे बड़ी वजह से लगाव। लगाव किसी के भी साथ हो सकता है, आमतौर पर लोगों को अपने परिवार के साथ लगाव होता है। यही लगाव तब दुख का कारण बन जाता है जब यह अत्यधिक हो जाए। शास्त्रों में कहा भी गया है अति हमेशा बुरी ही होती है। कई लोगों को धन से मोह होता है। वे धन को ही सबकुछ मानकर जीते हैं।

जो लोग धन से लगाव रखते हैं वे जीवन में कभी भी सुखी नहीं रह सकते। इन लोगों को हर पल धन ही धन दिखाई देता है। पहले धन कमाने की चिंता और इस धन को संभालने की चिंता। ज्यादा धन होने के बाद भी व्यक्ति को चोरी होने का भय हमेशा ही सताता रहता है। ऐसे व्यक्ति की रातों की नींद गायब हो जाती है, सुख-चैन छीन जाता है। अत: जो व्यक्ति इस लगाव को छोड़ देगा वही सुखी हो जाएगा। अन्यथा जीवनभर मोह में फंसा रहता है। यह बात कड़वी जरूर है लेकिन जो व्यक्ति अपने परिवार के साथ भी जरूरत ज्यादा से मोह या लगाव रखता है उसे भी जीवन में कई बार दुख का सामना करना पड़ता है।

हमेशा खुश रहना है तो ऐसे जीएं...
जो बीत गया वो अतित है, उसे दोबारा नहीं जिया नहीं जा सकता। बीता हुआ समय अच्छा था या बुरा। उसे बदलना किसी के बस में नहीं है। इसी वजह से जो बीत गया है उसके विषय में सोचकर दुखी नहीं होना चाहिए।

आचार्य चाणक्य के अनुसार जो इंसान जो बीते हुए वक्त को लेकर चिंतित रहता है, वह कभी सुखी नहीं हो सकता। बीते समय की बातों को याद करने से कोई लाभ प्राप्त नहीं होता अपितु वर्तमान अवश्य प्रभावित होता है। भूतकाल या पिछले समय में हमनें जो भी अच्छा या बुरा कर्म किया है उससे सीख लेते हुए हमें आगे की ओर बढऩा चाहिए। हमसे जो भी बुरे कर्म हुए, वैसा फिर से ना हो ऐसा ध्यान रखना चाहिए।

जिस प्रकार बीते समय की बातों को याद करके दुखी नहीं होना चाहिए उसी प्रकार भविष्य की चिंता भी नहीं करना चाहिए। आने वाले समय में क्या होगा? इस बात का सटीक उत्तर देना किसी सामान्य इंसान के बस में नहीं है। भविष्य के संबंध में की जाने वाली भविष्यवाणियां भी संभावित ही मानी जा सकती है। अत: भविष्य की चिंता भी नहीं करना चाहिए।

आचार्य चाणक्य के अनुसार व्यक्ति को केवल वर्तमान में ही जीना चाहिए। आज हम क्या कर सकते हैं? हमारा पूरा ध्यान इसी ओर केंद्रित होना चाहिए। आज के समय का सही उपयोग करके हम जो भी उल्लेखनीय कार्य कर सकते हैं वही करें। ऐसा करने पर हमें भविष्य में किसी भी प्रकार के दुख या चिंता का सामना नहीं करना पड़ेगा। हमें बस वर्तमान समय का सही उपयोग करना है।

आपकी ये बात, आपको मशहूर बना देगी...
आदतें, हाव-भाव और स्वभाव ही निर्धारित करता है कि हमें घर-परिवार और समाज में कैसा स्थान मिलेगा? कुछ लोगों को घर हो या ऑफिस या मित्रों के साथ हो या रिश्तेदारों के साथ हर जगह मान-सम्मान प्राप्त होता है। वहीं कुछ लोगों को अधिकांशत: अपमान ही झेलना पड़ता है। जबकि कोई इंसान नहीं चाहता कि उसे कभी भी अपमानजनक व्यवहार सहना पड़े।

घर और समाज में आसपास के लोगों से मान-सम्मान प्राप्त हो, इसके लिए जरूरी है कि आपका व्यवहार सभी के साथ अच्छा रहे। ध्यान रखें कि किसी भी व्यक्ति के संबंध में हम जाने-अनजाने कोई अपमानजनक या कटू शब्दों का प्रयोग न करें। आचार्य चाणक्य के अनुसार फूलों की महक उसी दिशा में फैलती है जिस ओर हवा बह रही है। जबकि अच्छे इंसान की अच्छाई सभी दिशाओं में फैलती है। वह व्यक्ति हर ओर सम्मान प्राप्त करेगा, प्रसिद्ध हो जाएगा।

इंसान की अच्छाई ही उसे सभी जगह घर-परिवार, समाज, मित्रों में उचित आदर दिलाती है। जो व्यक्ति सभी के लिए अच्छा सोचता है वह कभी भी निरादर का पात्र नहीं होता। सभी की भलाई के लिए कार्य करने वाले इंसान को विशेष स्थान प्राप्त होता है। वहीं जो व्यक्ति निजी स्वार्थ के लिए दूसरों को कष्ट पहुंचाता है, राष्ट्रहित में कार्य नहीं करता, हमेशा बुराइयों के साथ ही जीवन व्यतीत करता है वह कभी भी सम्मान का पात्र हो ही नहीं सकता। अत: हमें हमारी आदतें और स्वभाव वैसा ही रखना चाहिए जिनसे किसी अन्य व्यक्ति को किसी प्रकार की असुविधा न हो।

जब मौत सर पर आएगी, आप कुछ नहीं कर पाएंगे...
हमें ऐसे कर्म करना चाहिए जो बाद में याद किए जा सके। उल्लेखनीय कर्म करने वाले लोगों को ही इतिहास में स्थान मिल पाता है। अत: ऐसे कर्म करें जो हमारी मृत्यु के बाद भी याद किए जा सके।

कैसे कर्म करने चाहिए? इस संबंध में आचार्य चाणक्य ने बताया है कि हमें ऐसे कार्य करने चाहिए जो कभी भी हमारी आत्मा पर बोझ न बने। हमारा हर कार्य राष्ट्रहित और जनहित के लिए ही होना चाहिए और ऐसे कार्य जब तक हमारा शरीर स्वस्थ है तभी तक किए जा सकते हैं। शरीर में जब तक शक्ति है, जब तक हम स्वस्थ है, जब तक हमारा दिमाग नियंत्रण में है तक ही हम सही दिशा में कार्य कर सकते हैं। क्योंकि जब मृत्यु का समय आएगा तो यकीन मानिए हम उस समय कुछ भी कर पाने की स्थिति में नहीं रहेंगे।

आत्मा पर बोझ बढ़ाने वाले कार्य जैसे निजी स्वार्थ के लिए दूसरे लोगों को सताना, उन्हें प्रताडि़त करना हर परिस्थिति में अधार्मिक ही है। कर्म केवल निजी स्वार्थ के लिए नहीं किया जा सकता। ऐसे लोगों की आत्मा मृत ही मानी जाती है जो खुद की इच्छाओं पूरा करने के लिए दूसरों को कष्ट पहुंचाते हैं और अधार्मिक कृत्यों में लिप्त रहते हैं। अत: अपनी आत्मा को बचाने के लिए हमें जो भी करना है वह तब तक ही किया जा सकता है जब तक हम स्वस्थ है। हमारी आत्मा तभी बचेगी जब हम राष्ट्रहित और जनहित में कार्य करेंगे।

क्योंकि हम अकेले ही पैदा होते हैं और अकेले ही मर जाते हैं!
जब इस दुनिया में किसी व्यक्ति का जन्म होता है तो वह अकेले ही आता है। उसके साथ कोई और नहीं होता है। जन्म के बाद ही उसे परिवार, समाज, मित्र आदि प्राप्त होते हैं। जैसे कर्म वह करता है उसी के अनुसार जीवनभर सुख या दुख प्राप्त करते रहता है। अंत में व्यक्ति अकेले ही मर जाता है।

आचार्य चाणक्य ने जीवन से जुड़ी कई सटीक नीतियां बताई हैं। इन नीतियों में जीवन की सत्यता छिपी हुई है। जो व्यक्ति इन नीतियों को अपने व्यवहार में उतार लेता है वह निश्चित ही श्रेष्ठ व्यक्ति बन सकता है। आचार्य ने बताया है कि इस दुनिया में हमें आना अकेले ही है और जाना भी अकेले ही पड़ता है, अत: स्वर्ग या नर्क भी हमें अकेले भी भोगना है।

चाणक्य के अनुसार जन्म लेने के बाद व्यक्ति को जो घर-परिवार और वातावरण प्राप्त होता है उसी के अनुसार वह कर्म करते रहता है। यदि कोई व्यक्ति अच्छे कर्म करेगा तो उसे इनके शुभ फल प्राप्त होंगे। वहीं यदि कोई व्यक्ति बुराई के कार्यों में लिप्त रहता है तो उसे इन सभी कार्यों के भयंकर परिणाम झेलने पड़ सकते हैं। जन्म से मृत्यु तक हमें अच्छे-बुरे कर्मों के फल अवश्य ही प्राप्त हो जाते हैं।

कोई भी व्यक्ति यदि अपने निजी स्वार्थ के लिए या किसी और के लिए बुरा कार्य करता है तो यह निश्चित ही दुख देने वाली बात है। लेकिन जिन लोगों के लिए व्यक्ति अधर्म के मार्ग पर चलता है वे सभी लोग भी मृत्यु के समय उनका साथ छोड़ देते हैं। इसीलिए कभी भी किसी भी परिस्थिति में बुरे कार्यों से बचना चाहिए। हमेशा ऐसे कर्म करें जिनसे दूसरों का अहित न हो।

जानिए, हम कैसे जीएं कि हमेशा खुश और सुखी रहें?
कैसा जीवन श्रेष्ठ है? हमें किस प्रकार जीना चाहिए? हम कैसे जीएं कि हमेशा खुश और सुखी रहें? ऐसे ही कई सवाल प्राय: अधिकांश लोगों के मन में घुमते रहते हैं। इन सवालों के जवाब सामान्यत: आसानी से नहीं खोजे जा सकते।

श्रेष्ठ जीवन वही व्यक्ति जी सकता है जो हर परिस्थिति में खुद की नजरों में भी सम्मानीय बना रहे। इस संबंध में आचार्य चाणक्य ने बताया है कि जो व्यक्ति समाज में, घर-परिवार में, मित्रों में सम्मान पाता है, अच्छे कर्म करता है, अन्य लोगों को किसी प्रकार की हानि नहीं पहुंचाता है, वही श्रेष्ठ और सुखी जीवन जी सकता है। इसके विपरित यदि कोई इंसान अपने बुरे कर्मों की वजह से हमेशा ही निरादर का पात्र बनता है या जिसे बार-बार अपमानित होना पड़ता है, ऐसे इंसान का जीवन किसी मृत्यु के समान ही है।

जिन लोगों को अपने बुरे कर्मों की वजह से घर-परिवार और समाज से तिरस्कार झेलना पड़ता है उनके ऐसे जीवन से तो मृत्यु ही श्रेष्ठ है। जो व्यक्ति खुद के स्वार्थ की पूर्ति के लिए अन्य लोगों को कष्ट पहुंचा रहा है उसे कभी भी सम्मान प्राप्त नहीं हो सकता है। वह सदैव अपमान ही प्राप्त करेगा। इसी वजह से ऐसे कार्य करने चाहिए जिनसे हमें हर स्थान पर सम्मान ही प्राप्त हो।

जो व्यक्ति लगातार अपमान झेलता है उसके लिए मृत्यु ही श्रेष्ठ उपाय है। क्योंकि मृत्यु को बस एक पल का कष्ट देती है जबकि अपमान जीवनभर हर पल पीड़ा पहुंचता है। ऐसा जीवन मृत्यु के समान ही है। अत: हमें ऐसे कार्यों से खुद को दूर रखना चाहिए जिनसे हम अपमान के पात्र बनते हो। ऐसे कार्य करें जिनसे राष्ट्रहित जुड़ा हो और दूसरों को प्रसन्नता प्राप्त हो। तभी हम श्रेष्ठ जीवन जी सकते हैं।

यदि किसी भी काम में बार-बार लगता है डर, तो क्या करें...
किसी भी कार्य में सफलता के लिए जरूरी है कि आप हर कदम निडरता के साथ आगे बढ़ते रहे। लक्ष्य तक पहुंचने के लिए जरूरी है मन में किसी भी प्रकार का डर या संशय न हो। जब किसी व्यक्ति के मन में डर आता है तो वह सफलता से दूर हो जाता है।

जीवन में सभी के लिए कोई न कोई लक्ष्य अवश्य ही निर्धारित रहता है। लक्ष्य तक पहुंचने के मार्ग में कई प्रकार की बाधाएं आती हैं जो कि हमारे मन में कई प्रकार की शंका और डर की भावनाओं को जागृत कर देती है। लक्ष्य कैसे प्राप्त किया जाएं? इस प्रश्न के उत्तर में आचार्य चाणक्य ने बताया है कि यदि आप सफलता प्राप्त करना चाहते हैं, निर्धारित लक्ष्य तक पहुंचना चाहते हैं तो डर को अपने पास मत आने दीजिए। जैसे डर आपके पास आए उसे उसी क्षण खत्म कर दो। अन्यथा डर आपको खत्म कर देगा।

चाणक्य के अनुसार डर ही हमें कमजोर बना देता है। जिस व्यक्ति के मन में भय आ जाए वह कभी भी लक्ष्य तक पहुंच नहीं सकता है। सफलता उसी को मिलती है जो निर्भय होकर दृढ़ता के साथ अपने मार्ग पर चलता रहे। डर भावना आने पर व्यक्ति के कदम स्वत: मार्ग से हटने लगते हैं, डगमगाने लगते हैं। ऐसे में शत्रुओं या कमजोरियों द्वारा डरे हुए व्यक्ति पर आक्रमण कर दिया जाता है और वह हार जाता है। हमारी कमजोरियों को कभी भी खुद हावी नहीं होने देना चाहिए। जबकि डर कमजोरियों को बढ़ता है और मनोबल को तोड़ता है। अत: जैसे ही डर आपके पास आए आप उसे खत्म कर दीजिए।

सफलता का मूल मंत्र- अपनी प्लानिंग किसी को न बताए क्योंकि...
आज के दौर जैसे-जैसे आपसी प्रतिस्पर्धा बढ़ रही है ठीक उसी तरह कार्यों में सफलता पाना उतना ही अधिक मुश्किल हो गया है। इसकी वजह यह है कि किसी भी व्यक्ति की आसपास के लोगों या अन्य लोगों से उसकी प्रतिस्पर्धा का स्तर काफी अधिक बढ़ गया है। सभी चाहते है कि वे सबसे आगे रहे और इसके लिए वे कई प्रकार के प्रयास भी करते हैं। यदि आप भी सफलता प्राप्त करना चाहते हैं तो यह मूल मंत्र अपनाएं।

सफलता प्राप्त करने के लिए सबसे अधिक जरूरी है सुव्यवस्थित योजना। इस संबंध में आचार्य चाणक्य ने बताया है कि योजना इतनी सटीक होना चाहिए कि किसी भी बिंदू पर उसके निष्फल होने की संभावनाएं कम से कम रहे। इसके अलावा यह बात सबसे अधिक ध्यान रखने योग्य है कि अपनी योजना क्या है यह किसी अन्य व्यक्ति पर भूलकर भी जाहिर नहीं होने देना चाहिए। बुद्धिमानी इसी में है कि अपनी योजनाओं का रहस्य बनाए रखें। चुपचाप अपना काम करते रहे और आपके प्रतिस्पर्धियों को बिल्कुल समझ नहीं आना चाहिए आपकी योजना क्या है?

आचार्य चाणक्य के अनुसार इस बात को व्यक्त मत होने दीजिये कि आपने क्या करने के लिए सोचा है, बुद्धिमानी से अपनी योजना को रहस्य बनाए रखिए और लक्ष्य की ओर चुपचाप बढ़ते रहें। अपनी योजनाएं किसी ओर पर जाहिर होने के बाद वह आपके क्षति भी पंहुचा सकते हैं और लक्ष्य तक पहुंचने में आपके लिए मुश्किल अवश्य बढ़ जाएंगी। इस बात का सदैव ध्यान रखें।

जो हमारे चिंतन हैं, जिसके विषय में हम सोचते रहते हैं वो इंसान...
आज के दौर में वैसे तो हमारे आसपास बहुत से लोग रहते हैं। काफी लोगों से प्रतिदिन हमारी मुलाकात भी होती है लेकिन क्या वे सभी आपके करीब हैं? क्या वे लोग आपके सुख-दुख के साथी हैं? क्या वे आपके शुभचिंतक हैं? इन प्रश्नों का उत्तर यही है कि अधिकांश लोग आपके आसपास जरूर रहते हैं लेकिन वे आपके करीब नहीं है।

कभी-कभी ऐसा होता है जो लोग हमसे दूर होते हैं वहीं हमारे सबसे करीब रहते हैं। कौन रहता है हमारे सबसे करीब? इस संबंध में आचार्य चाणक्य के अनुसार हमारे सबसे करीब वहीं इंसान रह सकता है जिसके विषय में हम निरंतर सोचते रहते हैं। जो व्यक्ति लगातार हमारे चिंतन में बना हुआ है वहीं हमारे सबसे करीब है।

चाणक्य की यह बात काफी सटीक है कि हमारे करीब वही व्यक्ति है जो हमारे चिंतन में हैं, जिसके विषय में हम सोचते रहते हैं। फिर वह इंसान वास्तविकता में हमसे बहुत दूर ही क्या न हो, जो व्यक्ति हमारे हृदय के करीब है वही हमारे सबसे करीब रहने वाला इंसान है। हमारे आसपास बहुत से लोग रहते हैं लेकिन वे सभी हमारे करीब हों ऐसा जरूरी नहीं है। जो व्यक्ति हमारे हृदय में नहीं है, हमारे चिंतन में नहीं है वह हमारे करीब हो ही नहीं सकता।

ये चार बहुत जरूरी बातें, कोई किसी को नहीं सीखा सकता...
इंसान के जन्म के बाद ही वह बहुत कुछ सीखता है। अच्छी आदतें या बुरी आदतें व्यक्ति उसके आसपास के वातावरण और लोगों के व्यवहार को देखकर ही सीखता है। जीवन की कई बातें वह गुरु या शिक्षा के माध्यम से सीखता है। कुछ आदतें व्यक्ति के स्वभाव में ही शामिल होती हैं जिन्हें बदलना किसी अन्य व्यक्ति के लिए काफी मुश्किल कार्य है।

कुछ बातें ऐसी हैं जो व्यक्ति के जन्म के साथ ही स्वभाव में शामिल रहती हैं इन बातों को कोई भी किसी को नहीं सीखा सकता। आचार्य चाणक्य ने चार बातें बताई हैं, इन बातों को कोई भी व्यक्ति किसी को नहीं सीखा सकता। ये चार बातें हैं व्यक्ति की दानशक्ति, मीठा बोलना, धैर्य धारण करना, समय पर उचित या अनुचित निर्णय लेना।

चाणक्य के अनुसार कोई भी व्यक्ति कितना दानवीर है वह उसके स्वभाव में ही रहता है। किसी भी इंसान की दानशक्ति को कम करना या बढ़ाना बहुत ही मुश्किल कार्य है। यह आदत व्यक्ति के जन्म के साथ ही आती है।

दूसरी बात, मीठा बोलना। यदि कोई व्यक्ति कड़वा बोलने वाला है तो उसे लाख समझा लो कि वह मीठा बोलें लेकिन वह अपना स्वभाव लंबे समय तक नहीं बदल सकता है। जो व्यक्ति जन्म से ही कड़वा बोलने वाला है उसे कोई मीठा बोलना नहीं सिखाया जा सकता। यह आदत भी व्यक्ति के जन्म के साथ ही उसके स्वभाव में शामिल रहती है।

तीसरी बात, धैर्य धारण करना। धैर्य एक ऐसा गुण है जो व्यक्ति को हर विषम परिस्थिति से बचाने में सक्षम है। विपरित परिस्थितियों में धैर्य धारण करके ही बुरे समय को दूर किया जा सकता है। यदि कोई व्यक्ति हर कार्य जल्दबाजी में करता है, त्वरित निर्णय कर लेता है और बाद में हानि उठाता है। ऐसे लोगों को धैर्य की शिक्षा देना भी समय की बर्बादी ही है क्योंकि यह गुण भी व्यक्ति के जन्म के साथ ही उसके स्वभाव में रहता है।

चौथी बात है समय पर उचित या अनुचित निर्णय लेने क्षमता। किसी भी व्यक्ति को यह नहीं सिखाया जा सकता कि वह किस समय कैसे निर्णय लें। जीवन में हर पल अलग-अलग परिस्थितियां निर्मित होती हैं। ऐसे में सही या गलत का निर्णय व्यक्ति को स्वयं ही करना पड़ता है। जो भी व्यक्ति समय पर उचित और अनुचित निर्णय समझ लेता है वह जीवन में काफी उपलब्धियां प्राप्त करता है। यह गुण भी व्यक्ति के जन्म के साथ ही आता है और स्वभाव में ही शामिल रहता है।

सांप, बिच्छु और मक्खी से ज्यादा जहरीले होते हैं ऐसे लोग...
हमारे आसपास कई लोग रहते हैं, सभी का स्वभाव, आदतें, रहन-सहन का तरीका, हाव-भाव, सोच-विचार हर बात एक-दूसरे से अलग होती है। कुछ लोग मन से और विचारों से पवित्र होते हैं वे कभी भी किसी अधार्मिक या गलत कार्य में नहीं फंसते। जबकि कुछ लोग विचारों से ही अपवित्र होते हैं, हमेशा ही अधार्मिक कार्य करते हैं और दूसरों को भी ऐसे मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते हैं।

आचार्य चाणक्य बताते हैं कि हमारे आसपास कई लोग हैं कुछ अच्छे स्वभाव और अच्छे विचारों वाले हैं, कुछ दुष्ट स्वभाव के अधार्मिक लोग होते हैं। दुष्ट लोगों की संगति हमेशा ही दुखों और परेशानियों को बढ़ाने वाली ही होती है। सांप का सारा जहर केवल फन में ही होता है, मक्सी मुख से जहर फैलाती है और बिच्छु का केवल डंक जहरीला होता है जबकि दुष्ट स्वभाव वाला इंसान इन तीनों भयंकर जहरीले जीवों से भी ज्यादा जहरीला होता है।

चाणक्य के अनुसार दुष्ट स्वभाव वाला इंसान अपने घर-परिवार, समाज, मित्र, राष्ट्र आदि सभी के लिए नुकसान पहुंचाने वाला होता है। ऐसे लोग जहां रहते हैं वहीं जहर फैलाते हैं। घर-समाज का वातावरण अपने बुरे विचारों से दूषित करते हैं। अत: ऐसे लोगों की संगति से बचना चाहिए। यहां बुरे विचारों से तात्पर्य है ऐसे विचारों जो निजी स्वार्थ की पूर्ति के लिए दूसरों को हानि पहुंचाने वाले होते हैं। अधार्मिक मार्ग या गलत कार्य या बुरी आदतें जो समाज को क्षति पहुचाती हैं इनसे स्वयं को दूर रखना चाहिए।

हर व्यक्ति का अपना एक मंदिर होता है...
ऐसा माना जाता है मंदिर वह स्थान है जहां भगवान के दर्शन प्राप्त किए जाते हैं, भगवान को महसूस किया जाता है, देवी-देवताओं की शक्तियां वहां सक्रिय रहती है। इसी वजह से इंसान जीवन में जब भी समस्याओं से घिर जाता है भगवान के घर यानि मंदिर की ओर जाता है। मंदिर जाने के बाद भी कुछ लोगों की समस्याएं कम नहीं होती है। तब वे लोग सोचते हैं मंदिर में भगवान है भी या नहीं।

आचार्य चाणक्य कहते हैं भगवान मूर्तियों या मंदिरों में नहीं है। भगवान हमारी अनुभूति में ही विराजमान है। हमारी आत्मा ही भगवान का मंदिर है। सभी के शरीर में आत्मा रूपी मंदिर में अनुभूति रूपी भगवान विराजित रहते हैं। बस इंसान इन्हें महसूस नहीं कर पाता और दुनियाभर में खोजता रहता है। जबकि भगवान हमारे अंदर ही मौजूद हैं।

चाणक्य के अनुसार भगवान को महसूस करने के लिए आत्मसाक्षात्कार जरूरी है। जो व्यक्ति इस बात को समझ लेता है कि भगवान उसी के अंतर्मन में निवास करते हैं वो सभी दुखों और समस्याओं के प्रभाव से बहुत ऊपर हो जाता है। इसलिए भगवान को मंदिरों में, मूर्तियों में नहीं खोजना चाहिए। हमें अपनी आत्मा में ही भगवान को महसूस करना चाहिए और हमें ऐसे कार्यों से बचना चाहिए जो शास्त्रों द्वारा मना किए गए हैं। तभी भगवान की कृपा हमें तुरंत ही प्राप्त हो जाएगी।

जानिए चाणक्य के अनुसार भगवान कहां रहते हैं?
ऐसा माना जाता है मंदिर वह स्थान है जहां भगवान के दर्शन प्राप्त किए जाते हैं, भगवान को महसूस किया जाता है, देवी-देवताओं की शक्तियां वहां सक्रिय रहती है। इसी वजह से इंसान जीवन में जब भी समस्याओं से घिर जाता है भगवान के घर यानि मंदिर की ओर जाता है। मंदिर जाने के बाद भी कुछ लोगों की समस्याएं कम नहीं होती है। तब वे लोग सोचते हैं मंदिर में भगवान है भी या नहीं।

आचार्य चाणक्य कहते हैं भगवान मूर्तियों या मंदिरों में नहीं है। भगवान हमारी अनुभूति में ही विराजमान है। हमारी आत्मा ही भगवान का मंदिर है। सभी के शरीर में आत्मा रूपी मंदिर में अनुभूति रूपी भगवान विराजित रहते हैं। बस इंसान इन्हें महसूस नहीं कर पाता और दुनियाभर में खोजता रहता है। जबकि भगवान हमारे अंदर ही मौजूद हैं।

चाणक्य के अनुसार भगवान को महसूस करने के लिए आत्मसाक्षात्कार जरूरी है। जो व्यक्ति इस बात को समझ लेता है कि भगवान उसी के अंतर्मन में निवास करते हैं वो सभी दुखों और समस्याओं के प्रभाव से बहुत ऊपर हो जाता है। इसलिए भगवान को मंदिरों में, मूर्तियों में नहीं खोजना चाहिए। हमें अपनी आत्मा में ही भगवान को महसूस करना चाहिए और हमें ऐसे कार्यों से बचना चाहिए जो शास्त्रों द्वारा मना किए गए हैं। तभी भगवान की कृपा हमें तुरंत ही प्राप्त हो जाएगी।

जिनकी पत्नी ऐसी हो, उस पति का जीवन स्वर्ग है...
विवाह या शादी एक अनिवार्य संस्कार है। सामान्यत: सभी के जीवन में यह अवसर अवश्य ही आता है। इस अवसर के बाद केवल दो लोगों का नहीं बल्कि दो परिवारों का जीवन पूरी तरह बदल जाता है। विवाह के बाद का जीवन कैसा रहेगा? यह बताना काफी मुश्किल होता है।

आचार्य चाणक्य के अनुसार यदि किसी व्यक्ति की पत्नी आज्ञाकारी है, सर्वगुण संपन्न है, अपने पति और परिवार का ध्यान रखने वाली है, ईश्वर में श्रद्धा रखने वाली है तब तो उसका जीवन स्वर्ग के समान ही रहेगा।

वहीं यदि व्यक्ति की पत्नी पति की सही बात भी न मानते हुए खुद की बातें मनवाती है, जो स्त्री अपने ससुराल के सदस्यों का मान-सम्मान नहीं करती है, जो पत्नी गृह कार्य में दक्ष नहीं है वहां अक्सर क्लेश और कलह का वातावरण रहता है। इसके अलावा जो स्त्रियां धर्म से विमुख हैं उस घर में सुख नहीं रहता है। ऐसी पत्नी के पति का जीवन नर्क के समान ही होता है।

धन से ज्यादा स्त्री की रक्षा करनी चाहिए, क्योंकि...
कई लोग धन, पैसा, सोना-चांदी, हीरे-मोती, ज्वेलरी आदि की सुरक्षा के लिए सब कुछ न्यौछावर कर देते हैं। काफी लोगों के लिए धन ही सब कुछ होता है और वे इसके आगे हर रिश्ते को छोटा ही समझते हैं। जो लोग धन को बहुत अधिक महत्व देते हैं वे एक दिन निश्चित ही नष्ट हो जाते हैं। इन लोगों को जब किसी के साथ की जरूरत होती है तब ये अकेले ही रह जाते हैं।

आचार्य चाणक्य कहते हैं कि किसी भी व्यक्ति को हर परिस्थिति में धन से ज्यादा की अपनी पत्नी की रक्षा करनी चाहिए। धन चले के बाद केवल पत्नी ही आपका साथ नहीं छोड़ती जबकि अन्य सभी रिश्तेदार समस्या के समय आपसे मुंह मोड़ लेते हैं। इसी वजह से पत्नी की हर हाल में धन से अधिक सुरक्षा करनी चाहिए।

जो लोग धन को अधिक महत्व देते हैं उनके जीवन में अवश्य एक समय ऐसा आता है जब उन्हें पत्नी के साथ की आवश्यकता होती है। ऐसे में यदि वे जीवनभर पत्नी को अधिक महत्व नहीं देते हैं तो कठिन समय से उन्हें अकेले ही लडऩा पड़ता है। धन चले जाने के बाद पुन: प्राप्त किया जा सकता है लेकिन पत्नी यदि चले जाए तो उसके वापस लौटने की संभावनाएं बहुत कम होती है।

चाणक्य के अनुसार व्यक्ति को धन और पत्नी से अधिक खुद की सुरक्षा करनी चाहिए क्योंकि जब तक वह खुद सुरक्षित है तब तक वह अपनी पत्नी और धन की रक्षा कर सकता है।

ऐसी स्त्रियों से व्यवहार करने पर दुख ही मिलता है
आचार्य चाणक्य ने तीन प्रकार के ऐसे लोग बताए हैं जिनसे किसी भी प्रकार का व्यवहार करने पर दुख ही प्राप्त है। अत: इन लोगों से हमेशा दूर रहना ही बुद्धिमानी है।

चाणक्य कहते हैं-

मूर्खाशिष्योपदेशेन दुष्टास्त्रीभरणेन च।

दु:खिते सम्प्रयोगेण पंडितोऽप्यवसीदति।।

इस श्लोक का अर्थ है कि मूख शिष्य को उपदेश देने पर, किसी व्यभिचारिणी स्त्री का भरण-पोषण करने पर और दुखी व्यक्तियों के साथ किसी भी प्रकार का व्यवहार करने पर दुख ही प्राप्त होता है।

आचार्य कहते हैं कि किसी भी मूर्ख शिष्य या विद्यार्थी को शिक्षा देने का कोई लाभ नहीं है। मूर्ख शिष्य को कितना ही समझाया जाए लेकिन शिक्षक को अंत में दुख ही प्राप्त होता है। किसी कर्कशा, दुष्ट, बुरे स्वभाव वाली, व्यभिचारिणी स्त्री का भरण-पोषण करने वाले व्यक्ति को कभी भी सुख प्राप्त नहीं होता है। ऐसी स्त्रियों का चाहे जितना भी अच्छा किया जाए अंत में व्यक्ति को दुख ही भोगना पड़ता है। इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति दुखी है, विभिन्न रोगों से ग्रस्त है तो उनसे किसी भी प्रकार का व्यवहार करने वाले व्यक्ति को रोग होने की संभावनाएं रहती हैं। अत: इन तीन प्रकार के लोगों से दूर ही रहना चाहिए।

ऐसी चरित्र वाली स्त्री, दोस्त या नौकर के साथ रहना मृत्यु के समान है...
हमारे आसपास कई तरह लोग रहते हैं। कुछ हमारे रिश्तेदार हैं, मित्र हैं, नौकर हैं तो कुछ अनजान लोग। सभी का अलग-अलग स्वभाव होता है। कुछ अच्छे स्वभाव वाले होते हैं तो कुछ बुरे स्वभाव के। आचार्य चाणक्य बताया है कि किस प्रकार के लोगों से हमें दूर रहना चाहिए-

आचार्य चाणक्य कहते हैं-

दुष्टा भार्या शठं मित्रं भृत्यश्चोत्तरदायक:।

स-सर्पे च गृहे वासो मृत्युरेव न संशय:।।

इस श्लोक का अर्थ है कि दुष्ट स्वभाव वाली, कड़वा बोलने वाली, बुरे चरित्र वाली स्त्री, नीच और कपटी मित्र, पलटकर जवाब देने वाला नौकर और जिस घर में अक्सर सांप दिखाई देते हैं वहां रहने वाले इंसानों का जीवन भयंकर कष्टों में ही गुजरता है वहां हर पल मृत्यु का डर बना रहता है।

आचार्य के अनुसार जिस स्त्री का चरित्र अपवित्र है, जिसका स्वभाव दुष्ट प्रवृत्ति का है उसके साथ रहने वाले लोगों का जीवन हमेशा ही संकटों से भरा रहता है। ऐसे स्वभाव वाली स्त्री के पति का जीवन मृत्यु के समान ही व्यतीत होता है। इसके अलावा जिन लोगों के मित्र कपटी और नीच स्वभाव के हैं उन पर विश्वास नहीं करना चाहिए। अन्यथा वे कब धोखा दे देंगे, समझना मुश्किल है। जिन लोगों के नौकर सामने से जवाब देते हैं, मालिक का आदर नहीं करते उन्हें तुरंत हटा देना चाहिए। ऐसे नौकर कभी भी नुकसान पहुंचा सकते हैं। इसके अलावा जिस घर में अक्सर सांप दिखाई देते हैं वहां रहने पर भी सर्पदंश से मृत्यु का भय हमेशा ही बना रहता है। अत: ऐसे स्थान को छोड़ देना चाहिए।

जानिए, कब और कैसे होती है श्रेष्ठ पत्नी की परख?
किसी भी इंसान को परखना या समझना बहुत मुश्किल होता है। कोई आसानी से नहीं बता सकता कि किसी व्यक्ति के मन में क्या चल रहा है? आचार्य चाणक्य द्वारा हमसे जुड़े हर इंसान को परखने के लिए अलग-अलग समय बताया गया है।

आचार्य के अनुसार रिश्तेदारों या मित्रों को समझने का समय अलग होता है और पत्नी को परखने का समय अलग। जब किसी व्यक्ति के जीवन में घोर विपत्ति आती है, ऐसे ही समय में पत्नी की परीक्षा हो जाती है। यदि कोई पत्नी अपने पति का साथ बुरी से बुरी परिस्थितियों में भी नहीं छोड़ती वह नि:संदेह श्रेष्ठ और पतिव्रता स्त्री है।

सुख के समय में तो सभी साथ देते हैं। यदि आपके पास पैसा है, समाज में मान-सम्मान है तो हर छोटी-बड़ी में परेशानियों आपके साथ काफी लोग खड़े रहेंगे। इसके विपरित यदि परिस्थितियां बदल जाए, आपका धन नष्ट हो जाए, समाज में मान-सम्मान न हो तब रिश्तेदारों से, मित्रों से अपेक्षा होती है कि वे आपकी मदद करेंगे। कभी-कभी रिश्तेदार और मित्र भी आपके बुरे समय में साथ छोड़ देते हैं, ठीक उसी समय पत्नी का साथ व्यक्ति को बड़ी से बड़ी मुश्किल से भी निकाल सकता है। विपरित परिस्थितियों में जिस व्यक्ति की पत्नी भी साथ छोड़ दे तो उसका जीवन निश्चित ही नरक के समान हो जाएगा।

जानिए, हम कैसे जीएं कि हमेशा खुश और सुखी रहें?
कैसा जीवन श्रेष्ठ है? हमें किस प्रकार जीना चाहिए? हम कैसे जीएं कि हमेशा खुश और सुखी रहें? ऐसे ही कई सवाल प्राय: अधिकांश लोगों के मन में घुमते रहते हैं। इन सवालों के जवाब सामान्यत: आसानी से नहीं खोजे जा सकते।

श्रेष्ठ जीवन वही व्यक्ति जी सकता है जो हर परिस्थिति में खुद की नजरों में भी सम्मानीय बना रहे। इस संबंध में आचार्य चाणक्य ने बताया है कि जो व्यक्ति समाज में, घर-परिवार में, मित्रों में सम्मान पाता है, अच्छे कर्म करता है, अन्य लोगों को किसी प्रकार की हानि नहीं पहुंचाता है, वही श्रेष्ठ और सुखी जीवन जी सकता है। इसके विपरित यदि कोई इंसान अपने बुरे कर्मों की वजह से हमेशा ही निरादर का पात्र बनता है या जिसे बार-बार अपमानित होना पड़ता है, ऐसे इंसान का जीवन किसी मृत्यु के समान ही है।

जिन लोगों को अपने बुरे कर्मों की वजह से घर-परिवार और समाज से तिरस्कार झेलना पड़ता है उनके ऐसे जीवन से तो मृत्यु ही श्रेष्ठ है। जो व्यक्ति खुद के स्वार्थ की पूर्ति के लिए अन्य लोगों को कष्ट पहुंचा रहा है उसे कभी भी सम्मान प्राप्त नहीं हो सकता है। वह सदैव अपमान ही प्राप्त करेगा। इसी वजह से ऐसे कार्य करने चाहिए जिनसे हमें हर स्थान पर सम्मान ही प्राप्त हो।

जो व्यक्ति लगातार अपमान झेलता है उसके लिए मृत्यु ही श्रेष्ठ उपाय है। क्योंकि मृत्यु को बस एक पल का कष्ट देती है जबकि अपमान जीवनभर हर पल पीड़ा पहुंचता है। ऐसा जीवन मृत्यु के समान ही है। अत: हमें ऐसे कार्यों से खुद को दूर रखना चाहिए जिनसे हम अपमान के पात्र बनते हो। ऐसे कार्य करें जिनसे राष्ट्रहित जुड़ा हो और दूसरों को प्रसन्नता प्राप्त हो। तभी हम श्रेष्ठ जीवन जी सकते हैं।

हमें खुद को दूसरों के सामने समझदार साबित करना चाहिए, क्योंकि...
समझदार इंसान वही है जो हर परिस्थिति में सहज रहे और समस्याओं का निराकरण आसानी से निकाल लें। किसी भी प्रकार की विषम परिस्थिति को दूर करने की क्षमता जिस व्यक्ति में होती है वही समझदार होता है। जो व्यक्ति हालात और समय में छिपे संकेतों को समझ ले वहीं समझदार है।

इस प्रकार के गुण यदि किसी इंसान में नहीं है तो उसे क्या करना चाहिए? इस संबंध में आचार्य चाणक्य ने एक सटीक उपाय बताया है। चाणक्य के अनुसार जिस प्रकार यदि कोई सांप जहरीला ना हो तो भी उसे स्वयं को जहरीला ही दिखाना चाहिए। ठीक इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति समझदार या विद्वान न हो तब भी उसे दूसरों के सामने समझदार बने रहना चाहिए। इसी में भलाई है।

चाणक्य की यह बात अलग-अलग परिस्थितियों में अलग-अलग रूप से प्रभावशाली हो सकती है। यदि को शक्तिशाली नहीं है तो उसे स्वयं को कभी भी निर्बल सिद्ध नहीं होने देना चाहिए। अन्यथा शक्तिशाली लोग उस पर अपना अधिकार कर लेंगे। यदि कोई व्यक्ति दूसरों के सामने मूर्ख सिद्ध हो जाए तो उसे हमेशा ही तिरस्कार और अपमान ही झेलना पड़ेगा। ऐसे में सही उपाय यही है कि वह हमेशा ही खुद को समझदार ही दिखाए। इसके साथ ही वह अपने स्तर पर हालात और परिस्थितियों को समझने का प्रयत्न करता रहे। इस प्रकार उसे समाज में अपमान का पात्र नहीं बनना पड़ेगा और वह हमेशा ही अन्य लोगों के सामने आदरणीय बना रहेगा।

जिस जगह पर ये 5 चीजें न मिले वहां रुकना नहीं चाहिए...
हमें कहां रहना चाहिए और कहां नहीं... किन स्थानों से हमें तुरंत हट जाना चाहिए। इस संबंध में आचार्य चाणक्य ने बताया है कि-

यस्मिन देशे न सम्मानो न वृत्तिर्न च बांधव:।

न च विद्यागमोऽप्यस्ति वासस्तत्र न कारयेत्।।

इस संस्कृत श्लोक का अर्थ है कि जिस देश में न सम्मान हो, न रोजी हो, न कोई मित्र या भाई या रिश्तेदार हो, जहां विद्या न हो, जहां कोई गुण न हो वैसे स्थानों पर निवास नहीं करना चाहिए। इन जगहों को तुरंत छोड़ देना चाहिए।

आचार्य चाणक्य कहते हैं जिस जगह हमें आदर-सम्मान न मिलें, जिस स्थान पर पैसा कमाने का कोई साधन न हो, जहां हमारा कोई मित्र या रिश्तेदार न हो, जहां कोई ज्ञान न हो और जहां कोई गुण या अच्छे कार्य न हो, वैसे स्थानों को तुरंत छोड़ देना चाहिए। यही समझदार इंसान की पहचान है।

ऐसी सुंदर लड़की से शादी नहीं करना चाहिए, क्योंकि...
विवाह या शादी को जीवन का महत्वपूर्ण संस्कार माना जाता है। सामान्यत: हर इंसान का विवाह अवश्य होता है। विवाह के बाद वर-वधु के साथ दोनों के परिवारों का जीवन बदलता है। इसी वजह से शादी किससे की जाए, इस संबंध में सावधानी अवश्य रखी जाती है।

कैसी लड़की से विवाह करना चाहिए और कैसी लड़की से नहीं, इस संबंध में आचार्य चाणक्य बताया है कि-

वरयेत् कुलजां प्राज्ञो विरूपामपि कन्यकाम्।

रूपशीलां न नीचस्य विवाह: सदृशे कुले।।

आचार्य चाणक्य कहते हैं समझदार मनुष्य वही है जो विवाह के लिए नारी की बाहरी सुंदरता न देखते हुए मन की सुंदरता देखे। यदि कोई उच्च कुल की कुरूप कन्या सुंस्कारी हो तो उससे विवाह कर लेना चाहिए। जबकि कोई सुंदर कन्या यदि संस्कारी न हो, अधार्मिक हो, नीच कुल की हो, जिसका चरित्र ठीक न हो तो उससे किसी भी परिस्थिति में विवाह नहीं करना चाहिए। विवाह हमेशा समान कुल में शुभ रहता है।

आचार्य चाणक्य के अनुसार समझदार और श्रेष्ठ मनुष्य वही है जो उच्चकुल में जन्म लेने वाली सुसंस्कारी कुरूप कन्या से विवाह कर लेता है। विवाह के बाद कन्या के गुण ही परिवार को आगे बढ़ाते हैं। जबकि सुंदर नीच कुल में पैदा होने वाली कन्या विवाह के बाद परिवार को तोड़ देती है। ऐसे लड़कियों का स्वभाव व आचरण निम्न ही रहता है। जबकि धार्मिक और ईश्वर में आस्था रखने वाली संस्कारी कन्या के आचार-विचार भी शुद्ध होंगे जो एक श्रेष्ठ परिवार का निर्माण करने में सक्षम रहती है।

जिनमें ये पांच गुण न हो उनसे दोस्ती करना मूर्खता है...
सभी रिश्ते व्यक्ति के जन्म के साथ ही बनते हैं। जिस घर-परिवार में हमारा जन्म हुआ है वहां से संबंधित सभी लोगों से हमारा रिश्ता स्वत: ही जुड़ जाता है। इन रिश्तों को तोडऩा या जोडऩा व्यक्ति के हाथों में नहीं रहता है। ये रिश्ते हमेशा ही बने रहते हैं। इन रिश्तों के अतिरक्ति एक रिश्ता है जो हम अपने व्यवहार से बनाते हैं, वह है मित्रता। मित्रता ही एकमात्र ऐसा रिश्ता है जो हम खुद जोड़ते हैं। मित्र हम स्वयं चुनते हैं।

सच्चे मित्र ही हमें सभी परेशानियों से बचा लेते हैं और कठिन समय में मदद करते हैं। हमें कैसे मित्र चुनना चाहिए? इस संबंध में आचार्य चाणक्य ने कहा है कि जिस व्यक्ति में अपने परिवार का पालन पोषण करने की योग्यता ना हो, जो व्यक्ति अपनी गलती होने पर भी किसी से न डरता हो, जो व्यक्ति शर्म नहीं करता है, लज्जावान न हो, अन्य लोगों के लिए जिसमें उदारता का भाव न हो, जो इंसान त्यागशील नहीं है, वे मित्रता के योग्य नहीं कहे जा सकते।

चाणक्य के अनुसार यदि कोई व्यक्ति अपने परिवार का भरण-पोषण सिर्फ आलस्य और झूठे अभिमान की वजह से नहीं करते हैं। हमेशा जो व्यर्थ की बातों में समय नष्ट करते हैं। ऐसे लोगों से दूर ही रहना चाहिए। इसके अलावा जो लोग अपनी गलती होने पर भी किसी न डरे, विद्वान और वृद्धजन का आदर-सम्मान नहीं करते हैं। उनसे मित्रता नहीं करना चाहिए। जिन लोगों में लज्जा का गुण न हो, जो किसी भी गलत कार्य को करने में संकोच न करें, जो लज्जा हीन हो उनसे मित्रता नहीं करनी चाहिए। जिन लोगों में अन्य लोगों के लिए उदारता का गुण न हो वे भी मित्रता योग्य नहीं होते हैं। दूसरे के दुख पर उपहास करना, किसी की मदद न करने वालों से मित्रता न करें। इसके अलावा जो लोग त्याग की भावना नहीं रखते हो उनसे भी मित्रता नहीं करना चाहिए।

जहां कोई धनी और ये चार बातें हो वहां होना चाहिए हमारा घर
हमें कैसे स्थान को अपना निवास, घर बनाना चाहिए इस संबंध में आचार्य चाणक्य ने 5 बातें बताई हैं। जिस भी स्थान पर ये बातें उपलब्ध वहां रहना सर्वश्रेष्ठ उपाय है और वहां रहने वाला व्यक्ति हमेशा प्रसन्न रहता है।

आचार्य चाणक्य कहते हैं-

धनिक: श्रोत्रियो राजा नदी वैद्यस्तु पंचम:।

पंच यत्र न विद्यन्ते तत्र दिवसं वसेत्।।

इस संस्कृत श्लोक का अर्थ है कि जिस स्थान कोई धनी हो वहां व्यवसाय में बढ़ोतरी होती है। धनी व्यक्ति के आसपास रहने वाले लोगों को भी रोजगार प्राप्त होने की संभावनाएं रहती है। जिस स्थान पर कोई ज्ञानी, वेद जानने वाला व्यक्ति हो वहां रहने से धर्म लाभ प्राप्त होता है। हमारा ध्यान पाप की ओर नहीं बढ़ता है। जहां राजा या शासकीय व्यवस्था से संबंधित व्यक्ति रहता है वहां रहने से हमें सभी शासन की योजनाओं का लाभ प्राप्त होता है। जिस स्थान पर नदी बहती हो, जहां पानी प्रचुर मात्रा में वहां रहना से हमें समस्त प्राकृतिक वस्तुएं और लाभ प्राप्त होते हैं। अंत पांचवी बात है वैद्य का होना। जिस स्थान पर वैद्य हो वहां रहने से हमें बीमारियों से तुरंत मुक्ति मिल जाती है।

अत: आचार्य चाणक्य द्वारा बताई गई ये पांच जहां हो वहां रहना ही लाभकारी रहता है।

कोई इन 6 हालातों में भी आपका साथ दे तो समझ लें कि...
वैसे तो हमारे आसपास कई लोग हमेशा ही रहते हैं और उनका हमारे जीवन में काफी हस्तक्षेप भी रहता है। इन लोगों में हमारे परिवारजन, मित्र रिश्तेदार आदि शामिल होते हैं। सभी लोगों का अलग-अलग महत्व रहता है और कौन व्यक्ति हमारा कितना हितेषी है यह समय आने पर ही मालुम होता है। अपने-पराए लोगों की परख करने के लिए आचार्य चाणक्य ने कुछ खास बातें बताई हैं।

आचार्य चाणक्य कहते हैं-

आतुरे व्यसने प्राप्ते दुर्भिक्षेत्र शत्रुसंकटे।

राजद्वारे श्मशाने च यस्तिष्ठति स बांधव:।

चाणक्य के अनुसार जो व्यक्ति आपकी बीमारी में, दुख में, दुर्भिक्ष में, शत्रु द्वारा कोई संकट खड़ा करने पर, शासकीय कार्यों में, शमशान में ठीक समय पर आ जाए वही इंसान आपका सच्चा हितैषी हो सकता है।

जब कोई व्यक्ति किसी भयंकर बीमारी से ग्रस्त हो और उस जो लोग उसका साथ देते हैं वे ही उसके सच्चे हितैषी होते हैं। जब जीवन में कोई भयंकर दुख आ जाए या कोई मुकादमा, कोर्ट केस में फंस जाए तब जो इंसान गवाह के रूप में साथ देता है वही मित्र कहलाने का अधिकारी होता है। इसके अलावा मृत्यु के समय पर जो व्यक्ति उपस्थित हो जाए वही सच्चा मित्र होता है। जब किसी शासकीय कार्य में कोई अड़चन आ जाए और जो मित्र आपका साथ दे वही सच्चा इंसान है।

ये 6 हालात ऐसे हैं जहां आपका सच्चा हितैषी ही साथ दे सकता है। अत: जो इन स्थितियों में आपका साथ देता है उनसे मित्रता कभी भी नहीं तोडऩा चाहिए। सदैव उनसे स्नेह रखें।

जो पास है उसे छोड़कर दूसरी की ओर भागना मूर्खता है
सामान्यत: ऐसा देखा जाता है कि व्यक्ति ज्यादा अच्छी वस्तु प्राप्त करने के लिए जो उसके पास है उसे छोड़कर दूसरी की ओर भागता है। इस परिस्थिति में दोनों ही वस्तुएं उसके हाथों से निकल जाती है। ऐसी परिस्थितियों के संबंध में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि-

यो ध्रुवाणि परित्यज्य अध्रुवं परिषेवते।

ध्रुवाणि तस्य नश्यन्ति अध्रुवं नष्टमेव हि।।

इस श्लोक का अर्थ है कि जो व्यक्ति निश्चित वस्तुओं को छोड़कर अनिश्चित वस्तुओं की ओर भागता है उसके हाथों से दोनों ही वस्तुएं निकल जाती है। अत: जीवन में निर्धारित लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए इस प्रकार की गलतियां हमें नहीं करना चाहिए।

आचार्य चाणक्य के अनुसार लालची लोगों के साथ अक्सर ऐसा ही होता है, अंत में वह खाली हाथ ही रह जाता है। जो वस्तुएं, सुविधाएं हमारे पास पहले से ही हैं उन्हें छोड़कर अनिश्चित सुविधाओं के पीछे भागने वाले इंसान को अंत में दुख का ही सामना करना पड़ता है। जबकि समझदारी इसी में है कि जो वस्तुएं या सुविधाएं हमारे पास हैं उन्हीं से संतोष प्राप्त करें। इसके विपरित जो सुविधाएं हमारे पास हैं वे भी नष्ट हो जाएंगी।

ऐसे स्वभाव वाली स्त्रियों पर विश्वास नहीं करना चाहिए
सामान्यत: विश्वास या भरोसे पर ही हमारा जीवन चलता है। हमारे आसपास कई लोग होते हैं, जिन पर हम विश्वास करते हैं। इंसानों के साथ ही कई अन्य जीव भी हैं जिन पर हम विश्वास रखते हैं। आचार्य चाणक्य ने बताया है कि हमें किस-किस पर भरोसा नहीं करना चाहिए ताकि जीवन सुखमय बना रहे।

आचार्य चाणक्य कहते हैं-

नदीनां शस्त्रपाणीनां नखीनां श्रृंगीणां तथा।

विश्वासो नैव कर्तव्य: स्त्रीषु राजकुलेषु च।।

इस संस्कृत श्लोक का अर्थ यही है कि हमें नदियों पर कभी विश्वास नहीं करना चाहिए। शस्त्रधारियों पर भरोसा करना खतरनाक हो सकता है। जिन जानवरों के नाखुन और सींग नुकिले होते हैं उन पर विश्वास करने वाले को जान का जोखिम बन सकता है। चंचल स्वभाव की स्त्रियों पर भी विश्वास नहीं करना चाहिए। इनके साथ ही किसी राज्यकुल के व्यक्ति, शासन से संबंधित लोगों का भी भरोसा नहीं करना चाहिए।

चाणक्य कहते हैं कि जिन नदियों के पुल कच्चे हैं, जीर्ण-शीर्ण अवस्था में हैं उस नदी पर भरोसा नहीं करना चाहिए क्योंकि कोई नहीं जान सकता कि कब नदी के पानी का बहाव तेज हो जाए, उसकी दिशा बदल जाए। जिन जीवों के नाखुन और सिंग होते हैं उन पर भरोसा करना जानलेवा हो सकता है। क्योंकि ऐसे जीवों का कोई भरोसा नहीं होता कि वे कब बिगड़ जाए और नाखुन या सींगों से प्रहार कर दे। हमारे आसपास यदि कोई ऐसा व्यक्ति को जो अपने साथ हथियार रखता हो उस पर भी विश्वास नहीं करना चाहिए क्योंकि जब भी वह गुस्से या आवेश में होगा तब उस हथियार का उपयोग कर सकता है। जिन स्त्रियों का स्वभाव चंचल होता है उन पर भरोसा नहीं किया जा सकता। जिन लोगों का संबंध शासन से है उन पर विश्वास करना भी नुकसानदायक हो सकता है क्योंकि वे अपने स्वार्थ सिद्ध करने के लिए कभी भी आपको धोखा दे सकते हैं।

संस्कारहीन घर की ऐसी कन्या से विवाह किया जा सकता है
प्रतिदिन कई लोगों से हमारा संपर्क होता है, उनमें से कुछ अच्छे चरित्र और व्यवहार वाले होते हैं तो कुछ बुरे स्वभाव वाले होते हैं। अच्छे लोगों से सीखने और लेने के लिए काफी कुछ रहता है लेकिन हम बुरे लोगों से भी अच्छी बातें ग्रहण कर सकते हैं। इस संबंध में आचार्य चाणक्य ने कहा है कि-

विषादप्यमृतं ग्राह्ममेध्यादपि कांचनम्।

नीचादप्युत्तमां विद्यां स्त्रीरत्नं दुष्कुलादपि।।

इसका अर्थ है कि विष से अमृत ले लेना चाहिए। गंदगी में यदि सोना पड़ा हुआ है तो उसे उठा लेना चाहिए। कोई नीच व्यक्ति है और उसके पास कोई उत्तम विद्या है तो उसे ग्रहण कर लेना चाहिए। यदि किसी दुष्टकुल यानि संस्कारहीन परिवार में कोई सुसंस्कारी स्त्री है तो अविवाहित युवा को उस कन्या से विवाह कर लेना चाहिए।

आचार्य चाणक्य कहते हैं यदि कहीं बुराई है तो वहां से अच्छाई ग्रहण की जा सकती है। यदि कहीं विष है और वहां अमृत भी हो तो वहां से केवल अमृत को ही स्वीकार करना चाहिए। इसी प्रकार यदि कहीं गंदगी में सोने के आभूषण या अन्य मूल्यवान वस्तु पड़ी हो तो उसे उठा लेना चाहिए। इसके अलावा यदि कोई व्यक्ति स्वभाव से नीच है, अधर्मी है लेकिन उसके पास को उत्तम विद्या है तो उससे वह विद्या प्राप्त कर लेना चाहिए।

चाणक्य के अनुसार यदि किसी परिवार के सदस्यों के संस्कार और व्यवहार अच्छा नहीं है लेकिन वहां रहने वाली स्त्री सुसंस्कारी, शिक्षित है, गुणवान है, अविवाहित है तो उससे किसी योग्य वर को विवाह कर लेना चाहिए।

ये स्त्रियों का स्वभाव होता है झूठ बोलना, नखरे करना और...
स्त्रियों के संबंध में ऐसा माना जाता है कि उन्हें कोई नहीं समझ सकता। इसी वजह से स्त्रियों को जानने और समझने की जिज्ञासा सभी को रहती है। स्त्रियों के स्वभाव के संबंध में आचार्य चाणक्य ने लिखा है कि-

अनृतं साहसं माया मूर्खत्वमतिलोभिता।

अशौचत्वं निर्दयत्वं स्त्रीणां दोषा: स्वभावजा:।।

इस संस्कृत श्लोक में आचार्य चाणक्य ने लिखा है कि सामान्यत: अधिकांश स्त्रियां झूठ बोलती हैं, एकदम से कोई कार्य कर देती हैं, नखरे दिखाती हैं, नादान स्वभाव होता है, ज्यादा लालच करती हैं। ये कुछ लक्षण है जो सभी स्त्रियों में नहीं लेकिन अधिकांश स्त्रियों पाए जाते हैं।

आज समय के साथ अधिकांश महिलाएं भी शिक्षित हो रही हैं अत: इस प्रकार के दोष शिक्षित स्त्रियों में कम ही देखने को मिलते हैं। आचार्य चाणक्य कहते हैं कि सामान्यत: अधिकांश स्त्रियां छोटी-छोटी बातों पर भी झूठ बोलती हैं। कुछ स्त्रियां अचानक से कोई कार्य कर देती हैं। कई बार नादानी में बड़ी समस्याएं खड़ी कर लेती हैं। काफी स्त्रियां नखरे भी बहुत दिखाती हैं वहीं कुछ महिलाएं धन के प्रति पुरुषों से अधिक लालची होती हैं।

सबसे बड़ा मूलमंत्र- कभी भी किसी को भी न बताएं अपनी वैसी बातें
आज के समय में बढ़ती आपराधिक घटनाएं यही बताती हैं कि हमें हमेशा ही सावधान और सर्तक रहना चाहिए। ज्यादातर अपराध जान-पहचान वाले लोगों द्वारा ही किए जाते हैं। अत: हमें ऐसे लोगों को पहचानकर इनसे दूर ही रहना चाहिए। आचार्य चाणक्य बताया है कि-

न विश्वसेत् कुमित्रे च मित्रे चापि न विश्वसेत्।

कदाचित् कुपितं मित्रं सर्वगुह्यं प्रकाशयेत्।।

इसका अर्थ है कि अपनी गुप्त बात के लिए किसी पर भी विश्वास नहीं करना चाहिए। यदि कोई मित्र बुरे स्वभाव वाला है तो उस पर तो कभी भी अपनी राज की बातें जाहिर न होने दें। यहां तक कि जो आपके अच्छे मित्र हैं उन्हें भी ऐसी बातें नहीं बताना चाहिए क्योंकि जब उस व्यक्ति से मित्रता बिगड़ जाए तो वह आपको क्षति भी पहुंचा सकता है।

आचार्य चाणक्य कहते हैं कि जो व्यक्ति स्वभाव से अच्छा न हो उस कभी भी भरोसा नहीं करना चाहिए। क्योंकि अधिकांश आपराधिक घटनाओं के पीछे अपनों का ही हाथ होता है। इसी वजह से कहा जाता है कि घर का भेदी लंका ढहाए। यह कहावत आज भी पूरी तरह सत्य है। यदि किसी मित्र को भी अपनी राज की बातें बताई जाती हैं तो यह भी आपके लिए खतरनाक हो सकता है। ऐसे में यदि किसी भी परिस्थिति में उस मित्र से मन-मुटाव या विवाद हो तो वह इन गुप्त बातों का अनुचित लाभ उठाकर आपको नुकसान अवश्य पहुंचाएगा। अत: अपनी गुप्त बातें किसी पर भी जाहिर न करें।

मूर्खता और जवानी से भी बढ़कर कष्टदायक है ये बात...
कष्ट, दुख, परेशानियां तो हमेशा ही बनी रहती हैं। इस प्रकार की कुछ परिस्थितियों पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं होता है तो कुछ हमारे कर्मों से ही उत्पन्न होती हैं। जाने-अनजाने हम कई ऐसे कार्य कर बैठते हैं जो कि भविष्य में किसी कष्ट का कारण बन जाते हैं। इस संबंध में आचार्य चाणक्य कहते हैं-

कष्टं च खलु मूर्खत्वं कष्टं च खलु यौवनम्।

कष्टात् कष्टतरं चैव परगेहे निवासनम्।।

इस श्लोक का अर्थ है कि पहला कष्ट है मूर्ख होना, दूसरा कष्ट है जवानी और इन दोनों से कष्टों से बढ़कर कष्ट है पराए घर में रखना।

आचार्य चाणक्य के अनुसार किसी भी व्यक्ति के लिए सबसे बड़ा दुख है मूर्ख होना। यदि कोई व्यक्ति मूर्ख है तो वह जीवन में कभी भी सुख प्राप्त नहीं कर सकता। वह जीवन में हद कदम दुख और अपमान ही झेलना पड़ता है। बुद्धि के अभाव में इंसान कभी उन्नति नहीं कर सकता। दूसरा कष्ट है जवानी। जी हां जवानी भी दुखदायी हो सकती है। क्योंकि इस दौरान व्यक्ति में अत्यधिक जोश और क्रोध होता है। कोई व्यक्ति जवानी के इस जोश को सही दिशा में लगाता है तब तो वह निर्धारित लक्ष्यों तक अवश्य ही पहुंच जाएगा। इसके विपरित यदि कोई इस जोश और क्रोध के वश होकर गलत कार्य करने लगता है तब नि:सेदह वह बड़ी परेशानियों में घिर सकता है। इन दोनों कष्टों से कहीं अधिक खतरनाक कष्ट है किसी पराए घर में रहना। यदि कोई व्यक्ति किसी पराए घर में रहता है तो उस इंसान के लिए कई प्रकार मुश्किलें सदैव बनी रहती हैं। दूसरों के घर में रहने से स्वतंत्रता पूरी तरह खत्म हो जाती है। ऐसे में इंसान अपनी मर्जी से कोई भी कार्य नि:सकोच रूप से नहीं सकता है।

पत्नी या प्रेमिका से दूरी और ये 4 बातें हर पल आग में जलाती हैं
किसी भी पुरुष के जीवन में उसकी प्रेमिका या पत्नी सर्वाधिक महत्व रखती है। जब कोई व्यक्ति पूरी तरह किसी स्त्री के प्रेम में डूब जाता है तब वह उससे बिछडऩे का सोच भी नहीं सकता है। फिर भी भाग्यवश जब अलग होना पड़ता है तो उनका जीवन पूरी तरह निराशा में डूब जाता है। इसके अतिरिक्त कुछ और भी बातें हैं जो इंसान को जीते जी ही आग में जलाती हैं।

इस संबंध में आचार्य चाणक्य ने कहा है कि-

कांता-वियोग: स्वजनामानो,

ऋणस्य शेष: कुनृपस्य सेवा।

दरिद्रभावो विषमा सभा च,

विनाग्निना ते प्रदहन्ति कायम्।।

अर्थात् स्त्री या प्रेमिका का वियोग, अपने मित्रों या रिश्तेदारों से अपमान, कर्ज देने से बचा हुआ ऋण, दुष्ट राजा या मालिक की सेवा, गरीब और स्वार्थी लोगों का साथ ये बातें व्यक्ति को आग में ही जलाती हैं।

आचार्य चाणक्य के अनुसार कोई भी अच्छा इंसान अपनी पत्नी या प्रेमिका का वियोग या उससे दूर होना सहन नहीं कर पाता है। इसके अलावा कोई मित्र या रिश्तेदार अपमान कर देता है तब भी व्यक्ति को दुख का ही सामना करना पड़ता है। अपने लोगों से अपमानित होने के बाद कोई भी व्यक्ति वह समय नहीं भुला पाता है। जो लोग अत्यधिक कर्ज ले लेते हैं और चुकाने में असमर्थ रहते हैं तो उन्हें हर पल ऐसे ऋण का विचार ही असनीय पीड़ा देता है।

जो लोग कपटी और चरित्रहीन राजा या मालिक के सेवक हैं वे हमेशा ही इस बात से दुखी रहते हैं। किसी भी इंसान के लिए सबसे बड़ा दुख है गरीबी। गरीबी एक अभिशाप की तरह ही है। गरीब व्यक्ति हर पल आर्थिक तंगी के चलते जलता रहता है। इसके अलावा यदि किसी व्यक्ति के आसपास के लोग स्वार्थी स्वभाव के हैं और फिर भी उनके साथ रहना पड़ता है तो यह भी एक दुख ही है।
किसी भी पुरुष के जीवन में उसकी प्रेमिका या पत्नी सर्वाधिक महत्व रखती है। जब कोई व्यक्ति पूरी तरह किसी स्त्री के प्रेम में डूब जाता है तब वह उससे बिछडऩे का सोच भी नहीं सकता है। फिर भी भाग्यवश जब अलग होना पड़ता है तो उनका जीवन पूरी तरह निराशा में डूब जाता है। इसके अतिरिक्त कुछ और भी बातें हैं जो इंसान को जीते जी ही आग में जलाती हैं।

इस संबंध में आचार्य चाणक्य ने कहा है कि-

कांता-वियोग: स्वजनामानो,

ऋणस्य शेष: कुनृपस्य सेवा।

दरिद्रभावो विषमा सभा च,

विनाग्निना ते प्रदहन्ति कायम्।।

अर्थात् स्त्री या प्रेमिका का वियोग, अपने मित्रों या रिश्तेदारों से अपमान, कर्ज देने से बचा हुआ ऋण, दुष्ट राजा या मालिक की सेवा, गरीब और स्वार्थी लोगों का साथ ये बातें व्यक्ति को आग में ही जलाती हैं।

आचार्य चाणक्य के अनुसार कोई भी अच्छा इंसान अपनी पत्नी या प्रेमिका का वियोग या उससे दूर होना सहन नहीं कर पाता है। इसके अलावा कोई मित्र या रिश्तेदार अपमान कर देता है तब भी व्यक्ति को दुख का ही सामना करना पड़ता है। अपने लोगों से अपमानित होने के बाद कोई भी व्यक्ति वह समय नहीं भुला पाता है। जो लोग अत्यधिक कर्ज ले लेते हैं और चुकाने में असमर्थ रहते हैं तो उन्हें हर पल ऐसे ऋण का विचार ही असनीय पीड़ा देता है।

जो लोग कपटी और चरित्रहीन राजा या मालिक के सेवक हैं वे हमेशा ही इस बात से दुखी रहते हैं। किसी भी इंसान के लिए सबसे बड़ा दुख है गरीबी। गरीबी एक अभिशाप की तरह ही है। गरीब व्यक्ति हर पल आर्थिक तंगी के चलते जलता रहता है। इसके अलावा यदि किसी व्यक्ति के आसपास के लोग स्वार्थी स्वभाव के हैं और फिर भी उनके साथ रहना पड़ता है तो यह भी एक दुख ही है।

ऐसी महिलाओं का जीवन हमेशा रहता है मुसीबत में...
प्राचीन काल से स्त्रियों के संबंध में कई तरह के नियम और परंपराएं बताई गई हैं क्योंकि स्त्रियों को ही मान-सम्मान का प्रतीक माना जाता रहा है। यदि किसी भी कारण से स्त्री के मान-सम्मान या प्रतिष्ठा पर कोई सवाल उठता है तो उससे पूरे परिवार को परेशानियों का सामना करना पड़ता है। इसी वजह से स्त्रियों की सुरक्षा के संबंध में कई नियम बनाए गए हैं। आचार्य चाणक्य कहते हैं कि

नदीतीरे च ये वृक्षा: परगेहेषु कामिनी।

मंत्रिहीनाश्च राजान: शीघ्रं नश्यन्त्यसंशयम्।।

इस श्लोक का अर्थ है कि नदी किनारे लगे हुए पेड़-पौधे, दूसरों के घर में रहने वाली महिला और जिस राज्य में मंत्री न हो उसका राजा बहुत ही जल्द नष्ट हो जाते हैं, समाप्त हो जाते हैं।

चाणक्य के अनुसार जो वृक्ष, पेड़-पौधे किसी नदी के किनारे पर लगे होते हैं उनका जीवन सदैव संकट में ही रहता है। नदी में जब भी बाढ़ आएगी वह पानी में इन पेड़-पौधों को बहाकर ले जाएगी। इसी प्रकार जो स्त्रियां पराए घर में रहती हैं उनका जीवन भी सदैव संकट में ही रहता है। स्त्रियों को केवल अपने माता-पिता, पति के यहां ही रहना चाहिए। इनके अतिरिक्त विशेष परिस्थितियों में वे अपने विश्वसनीय रिश्तेदारों के यहां भी रह सकती हैं लेकिन पराए घर में रहना उनके लिए दुखों का कारण बन सकता है। ऐसी संभावनाएं सदैव बनी रहती हैं।

आचार्य कहते हैं जिस राज्य के राजा का कोई मंत्री या सलाहकार नहीं है वह बहुत ही जल्द नष्ट हो जाता है। राजा मंत्रियों की सलाह के बिना राज्य पर शासन नहीं कर सकता है।

अपनी इज्जत प्यारी है तो हमेशा ध्यान रखें ये 3 बातें...
आचार्य चाणक्य को उच्चकोटि की राजनीति और कूटनीति के लिए जाना जाता है। उन्होंने कई ऐसी अचूक नीतियां बताई हैं जिनमें जीवन का सारांश छिपा हुआ है। इन नीतियों को अपनाने वाला इंसान जीवन में हर कदम सफलता प्राप्त करता है। हमें किन लोगों के प्रति लगाव रखना चाहिए और किन लोगों से दूर रहना चाहिए। इस संबंध में आचार्य ने बताया है कि-

निद्र्धनं पुरुषं वेश्या प्रजा भग्नं नृपं त्यजेत्।

खगा वीतफलं वृक्ष भुक्तवा चाभ्यागतो गृहम्।।

इस श्लोक का अर्थ है कि यदि कोई बहुत अमीर व्यक्ति किसी वैश्या पर मोहित होकर अपना सबकुछ भी उसे दे तब भी वह उसे छोड़ सकती है। वैश्याओं का काम दूसरों का पैसा लूटना होता है। वे तब तक ही किसी पुरुष के संपर्क में रहती हैं जब तक वह आदमी धनी है। गरीब पुरुष को वैश्या तुरंत छोड़ देती है। इसी प्रकार जिस देश का राजा निर्बल है उसकी राज्य की प्रजा अपने राजा पर भरोसा नहीं करती है और उसे सम्मान नहीं देती है। यहां तक कि पक्षी भी उसी वृक्ष पर निवास करते हैं जहां उन्हें फल प्राप्त होते हैं। समाज का एक नियम यह भी है कि मेहमान अच्छा भोजन, स्वागत-सत्कार के बाद तुरंत अपने लक्ष्य की ओर आगे बढ़ जाते हैं। कहने तात्पर्य यह है कि हमें अपने आत्म सम्मान की रक्षा स्वयं करनी है और अपमान की स्थिति बने इससे पहले हमें संभल जाना चाहिए। किसी भी स्थान विशेष, व्यक्ति, वस्तु से अधिक लगाव रखना उचित नहीं है।

पति को तब मालूम होता है उसकी पत्नी अच्छी है या नहीं...
किसी भी इंसान को परखना या समझना बहुत मुश्किल होता है। कोई आसानी से नहीं बता सकता कि किसी व्यक्ति के मन में क्या चल रहा है? आचार्य चाणक्य द्वारा हमसे जुड़े हर इंसान को परखने के लिए अलग-अलग समय बताया गया है।

आचार्य के अनुसार रिश्तेदारों या मित्रों को समझने का समय अलग होता है और पत्नी को परखने का समय अलग। जब किसी व्यक्ति के जीवन में घोर विपत्ति आती है, ऐसे ही समय में पत्नी की परीक्षा हो जाती है। यदि कोई पत्नी अपने पति का साथ बुरी से बुरी परिस्थितियों में भी नहीं छोड़ती वह नि:संदेह श्रेष्ठ और पतिव्रता स्त्री है।

सुख के समय में तो सभी साथ देते हैं। यदि आपके पास पैसा है, समाज में मान-सम्मान है तो हर छोटी-बड़ी में परेशानियों आपके साथ काफी लोग खड़े रहेंगे। इसके विपरित यदि परिस्थितियां बदल जाए, आपका धन नष्ट हो जाए, समाज में मान-सम्मान न हो तब रिश्तेदारों से, मित्रों से अपेक्षा होती है कि वे आपकी मदद करेंगे। कभी-कभी रिश्तेदार और मित्र भी आपके बुरे समय में साथ छोड़ देते हैं, ठीक उसी समय पत्नी का साथ व्यक्ति को बड़ी से बड़ी मुश्किल से भी निकाल सकता है। विपरित परिस्थितियों में जिस व्यक्ति की पत्नी भी साथ छोड़ दे तो उसका जीवन निश्चित ही नरक के समान हो जाएगा।

सांप मौका मिलते ही एक बार ही डंसता है लेकिन...
हमारे आसपास दो प्रकार के लोग होते हैं एक तो सज्जन या अच्छे लोग और दूसरे हैं दुर्जन या बुरे लोग। सज्जन लोगों के साथ किसी को कोई परेशानी नहीं रहती है। जबकि दुर्जनों लोगों का साथ हमेशा ही दुख और परेशानियां देने वाला होता है। दुर्जन लोगों के लिए आचार्य चाणक्य ने कहा है कि-

दुर्जनस्य च सर्पस्य वरं सर्पो न दुर्जन:।

सर्पो दंशति काले तु दुर्जनस्तु पदे पदे।।

अर्थात् दुर्जन और सांप दोनों ही जहरीले होते हैं फिर भी दुर्जनों की तुलना में सांप ज्यादा अच्छे होते हैं। क्योंकि सांप मौका मिलते ही केवल एक ही बार डंसता है जबकि दुर्जन लोग हर पल काटते हैं।

आचार्य चाणक्य कहते हैं कि हमारे आसपास जो दुर्जन लोग हैं वे सांपों से अधिक जहरीले होते हैं और हानिकारक रहते हैं। जो लोग कपटी और नीच होते हैं उनसे दूर ही रहना चाहिए। सांप केवल तभी हमला करता है जब उसे स्वयं के प्राणों का संकट दिखाई देता है। सांप केवल एक ही बार डंसता है। इसके विपरित जो भी लोग कपटी, नीच और दुराचारी होते हैं वे सदैव दूसरों को कष्ट पहुंचाते रहते हैं। इन लोगों की वजह से कई बार निर्दोष व्यक्ति भी बड़ी परेशानियों में उलझ जाता है। कपटी इंसान हर पल समस्याएं खड़ी करते रहते हैं। इसी वजह से ऐसे लोगों सांपों से भी अधिक खतरनाक होते हैं। इन लोगों से दूर रहने में ही भलाई होती है।

किसी के शरीर को देखकर मालूम हो जाती है ये खास बात...
किसी भी व्यक्ति से मिलते समय यदि कुछ बातों पर ध्यान दें तो हम उसके विषय में काफी कुछ जान सकते हैं, समझ सकते हैं। किसी अनजान व्यक्ति से मिलते ही उसके स्वभाव और गुण-अवगुण को जानने के लिए आचार्य चाणक्य ने सटीक बात बताई है-

आचार: कुलमाख्याति देशमाख्याति भाषणम्।

सम्भ्रम: स्नेहमाख्याति वपुराख्याति भोजनम्।।

आचार्य कहते हैं कि किसी भी मनुष्य का आचरण उसके कुल या परिवार कैसा है बता देता है। व्यक्ति की बोली देश या क्षेत्र की जानकारी दे देती है। आदर भाव वाला व्यक्ति प्रेमी स्वभाव का होता है। व्यक्ति का शरीर देखकर मालुम हो जाता है कि वह कैसा भोजन करता है...

आचार्य चाणक्य के अनुसार किसी भी व्यक्ति का आचरण पर ध्यान दिया जाए तो हम जान सकते हैं कि उसका परिवार कैसा है? उसका कुल सभ्य है या असभ्य। हमारी बोलने की शैली बता देती है कि हम किस देश या क्षेत्र में रहते हैं। हर क्षेत्र या शहर के लोगों का बोलने का अंदाज अलग-अलग होता है। किसी भी व्यक्ति का व्यवहार, हाव-भाव बता देता है कि उसका स्वभाव कैसा है? ठीक ऐसे ही किसी भी मनुष्य का शरीर देखकर मालुम किया जा सकता है कि वह कैसा और कितना भोजन खाता है।

ऐसे लोगों से दूर ही रहें, यही आपके लिए अच्छा है...
हमारे आसपास रहने वाले लोगों में सभी प्रकार के लोग रहते हैं। कुछ लोग बुद्धिमान होते हैं तो कुछ बुद्धिहीन होते हैं। सभी लोगों का अलग-अलग स्वभाव होता है। इनमें से किन लोगों को हमें अपने साथ रखना चाहिए और किन लोगों को संपर्क नहीं रखना चाहिए इस संबंध में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि-

मूर्खस्तु परिहत्र्तव्य: प्रत्यक्षो द्विपद: पशु:।

भिद्यते वाक्यशूलेन अद्वश्यं कण्टकं यथा।।

इस श्लोक का अर्थ है कि मूर्ख या बेवकूफ व्यक्ति दो पैर वाला जानवर ही है। अत: ऐसे लोगों को छोड़ देना चाहिए। क्योंकि बुद्धिहीन लोग अक्सर शब्दों के शूल से नुकसान पहुंचाते रहते हैं।

आचार्य चाणक्य कहते हैं कि हमारे आसपास कई ऐसे लोग हैं जो अपनी बुद्धि का प्रयोग नहीं करते। ये लोग समय-समय पर मूर्खता पूर्ण कार्य करते रहते हैं। इस प्रकार के मूर्ख या बेवकूफ लोग किसी दो पैर वाले पशु के समान ही है, जिनमें सोचने-समझने की शक्ति नहीं होती है। इन लोगों का आचरण और स्वभाव भी दूषित ही होता है। हमेशा ही मूर्ख लोगों के द्वारा ऐसी बातें कही जाती हैं जो हमें किसी कांटे की चूभन के समान दर्द पहुंचाती है। अत: ऐसे लोगों से हमें दूर ही रहना चाहिए।

जहां होती हैं ये तीन बातें, महालक्ष्मी बरसाती है पैसा ही पैसा
हमेशा से ही धन सभी की अनिवार्य आवश्यकता रहा है। मात्र धन से ही सभी सुविधाएं जुटाई जा सकती हैं। धन अभाव में काफी परेशानियों का सामना करना पड़ता है। कुछ लोग काफी मेहनत करते हैं लेकिन फिर भी वे धन की कमी से त्रस्त रहते हैं। इस संबंध आचार्य चाणक्य ने तीन मुख्य बातें बताई हैं। चाणक्य कहते हैं-

मूर्खा यत्र न पूज्यन्ते धान्यं यत्र सुसन्चितम्।

दाम्पत्ये कलहो नास्ति तत्र श्री: स्वयमागता।।

जिस देश या स्थान पर मूर्खों की पूजा नहीं होती, जहां हमेशा पर्याप्त मात्रा अन्न का भंडार रहता है, जिस घर में पति और पत्नी में झगड़े नहीं होते हैं वहां महालक्ष्मी सदैव निवास करती हैं।

आचार्य चाणक्य के अनुसार जिस घर में मूर्खों की अपेक्षा बुद्धिमान लोगों को उचित मान-सम्मान दिया जाता है, स्वागत किया जाता है वहां महालक्ष्मी सदैव निवास करती हैं। इसके अतिरिक्त जिन घरों अन्न के पर्याप्त भंडार रहते हैं, जिस घर से कोई भूखा या खाली हाथ नहीं जाता है, जहां सभी अतिथियों अच्छे से आदर सत्कार किया जाता है, जहां सात्विक भोजन किया जाता है वहां धन की देवी महालक्ष्मी स्वयं विराजमान होती है। जिस घर में पति और पत्नी सदैव प्रेम से रहते हैं, जहां लड़ाई-झगड़ा नहीं होता है वहां से महालक्ष्मी कभी नहीं जाती हैं। जिन लोगों के साथ ये तीन बातें रहती हैं उन पर महालक्ष्मी सदैव कृपा बनाए रखती हैं।

मौत का दिन, समय और सब कुछ उसी दिन लिखा जाता हैं जब...
हमेशा से ही ऐसा माना जाता है कि हमारा भाग्य पूर्व निर्धारित होता है। हमें मिलने वाली सभी सुविधाएं, सफलता-असफलता पहले से तय रहती है। आचार्य चाणक्य कहते हैं-

आयु: कर्म च वित्तं च विद्या निधनमेव च।

पंचैतानि हि सृज्यंते गर्भस्थस्यैव देहिन:।।

उम्र, कर्म, पैसा, शिक्षा और मृत्यु का समय यह पांचों बातें उसी समय निर्धारित हो जाती हैं जब व्यक्ति गर्भ में रहता है।

आचार्य चाणक्य कहते हैं जब किसी व्यक्ति का जन्म होता है उसी समय भगवान निर्धारित कर देते हैं कि वह कितने वर्ष जिएगा। व्यक्ति की मृत्यु कब और कैसे होगी? यह जन्म से पहले निर्धारित हो जाता है। कोई व्यक्ति किस प्रकार का कार्य करेगा और कितना धन प्राप्त करेगा यह भी पहले से ही तय रहता है। हमारी शिक्षा भी पूर्व में निश्चित हो जाती है। इन चार बातों के अतिरिक्त हमारी मृत्यु का दिन तक उसी समय निर्धारित हो जाता है जब हम गर्भ में होते हैं। मृत्यु किस प्रकार होगी यह भी पहले से निर्धारित हो जाता है। इन सभी बातों से यही सिद्ध होता है कि हमारा पूरा जीवन पहले से निर्धारित रहता है।

शास्त्रों में इन पांचों बातों के बाद भी यह बताया गया है कि हमारा पहला कर्तव्य है कर्म। कर्म से ही इन पांचों बातों को भी बदला जा सकता है। श्रीकृष्ण ने भी कर्म को ही प्रधान बताया है। अत: व्यक्ति को किसी भी परिस्थिति में कर्म को नहीं छोडऩा चाहिए। हमेशा धर्म के मार्ग पर चलते हुए कर्म करते रहना चाहिए। धार्मिक कर्मों से ही हमारा भाग्य बदल सकता है।

किसी भी व्यक्ति को कैसे वश में करें?
वशीकरण या किसी व्यक्ति को अपने नियंत्रण में करना बहुत मुश्किल कार्य है। सभी चाहते हैं कि सभी लोग उनकी बात सुने, उनके वश में रहे लेकिन ऐसा संभव नहीं होता है। किसी भी व्यक्ति को कैसे वश में किया जाए... इस संबंध में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि...

लुब्धमर्थेन गृह्णीयात् स्तब्धमंजलिकर्मणा।

मूर्खं छन्दानुवृत्त्या च यथार्थत्वेन पण्डितम्।।

जो व्यक्ति धन का लालची है उसे पैसा देकर, घमंडी या अभिमानी व्यक्ति को हाथ जोड़कर, मूर्ख को उसकी बात मान कर और विद्वान व्यक्ति को सच से वश में किया जा सकता है।

आचार्य चाणक्य कहते हैं कि हमारे आसपास कई प्रकार के लोग हैं। कुछ धन के लोभी हैं तो कुछ घमंडी भी हैं। कुछ मूर्ख हैं तो कुछ लोग बुद्धिमान भी हैं। इन लोगों को वश में करने का सबसे सरल मार्ग है कि किसी लालची व्यक्ति को धन देकर वश में किया जा सकता है। वहीं जो लोग घमंड में चूर होते हैं उन्हें हाथ जोड़कर या उन्हें उचित मान-सम्मान देकर वश में किया जाना चाहिए। यदि किसी मूर्ख व्यक्ति को वश में करना हो तो वह व्यक्ति जैसा-जैसा बोलता हैं हमें ठीक वैसा ही करना चाहिए। झूठी प्रशंसा से मूर्ख व्यक्ति वश में हो जाता है। इसके अलावा यदि किसी विद्वान और समझदार व्यक्ति को वश में करना है तो उसके सामने केवल सच ही बोलें। वह आपके वश में हो जाएगा।

सोते हुए सांप के साथ ऐसा करने का मतलब है मौत को आमंत्रण...
सांप एक ऐसा जीव है जिस देखते ही साहसी लोगों के भी पसीने छूट जाते हैं। इसी वजह से इनसे दूर ही रहना चाहिए। जिस प्रकार सांप को नहीं छेडऩा चाहिए ठीक वैसे ही आचार्य चाणक्य ने प्राणी बताएं हैं जिनसे दूर रहना चाहिए-

आचार्य कहते हैं-

अहिं नृपं च शार्दूलं बरटि बालकं तथा।

परश्वानं च मूर्खं च सप्त सुप्तान्न बोधयेत्।।

सांप, राजा, शेर, सुअर, बालक, दूसरों का कुत्ता और मूर्ख, ये सातों यदि सो रहे हों तो इन्हीं नहीं जगाना चाहिए।

आचार्य चाणक्य कहते हैं यदि कहीं आपको सोता हुआ सांप दिख जाए तो उससे दूर से ही निकल जाएं। उसे किसी प्रकार छेडऩे का साहस न दिखाएं। अन्यथा आपके जीवन पर मौत का संकट गहरा सकता है। सभी जानते हैं विषैले सांप के डंसने के बाद व्यक्ति का बचना काफी मुश्किल हो जाता है। अत: सोते हुए सांप को जगाना नहीं चाहिए।

चाणक्य के अनुसार किसी राजा को नींद से जगाने का दु:साहस नहीं करना चाहिए। ऐसा करने पर राजा का क्रोध झेलना पड़ सकता है। यदि कोई शेर या जंगली जानवर सो रहा है तो उससे भी दूर से ही निकल जाना चाहिए। अन्यथा प्राणों का संकट खड़ा हो सकता है। यदि कोई सुअर सो रहा हो तो उसे भी नहीं जगाना चाहिए। अन्यथा वह उठते ही हर जगह गंदगी फैला देगा। इसके अलावा यदि कोई छोटा बच्चा सो रहा है तो उसे भी न उठाएं। अन्यथा उसे चुप कराना बहुत मुश्किल होगा। यदि आप किसी के घर जाएं और उनका कुत्ता सो रहा है तो उसे जगाने से भूल न करें। वह आपको कांट सकता है। अंतिम सातवां प्राणी है मूर्ख व्यक्ति। यदि किसी मूर्ख व्यक्ति को जगा दिया तो उसे समझना लगभग असंभव ही है। ऐसे में विवाद ही बढ़ेगा।

किसी का भी स्वभाव हंस के जैसा नहीं होना चाहिए...
घर-परिवार और समाज में हमारा व्यवहार कैसा होना चाहिए, हमें अन्य लोगों के साथ कैसे रहना चाहिए, हमारा रिश्ता कैसा हो? इस संबंध आचार्य चाणक्य कहते हैं कि-

यत्रोदकस्तत्र वसन्ति हंसा

स्तथैव शुष्कं परिवर्जयन्ति।

न हंसतुल्येन नरेण भाव्यं

पुनस्त्यजन्त: पुनराश्रयन्त:।।

जिस स्थान पर जल रहता है हंस वही रहते हैं। हंस उस स्थान को तुरंत ही छोड़ देते हैं जहां पानी नहीं होता है। हमें हंसों के समान स्वभाव वाला नहीं होना चाहिए।

आचार्य चाणक्य कहते हैं कि हमें कभी भी अपने मित्रों और रिश्तेदारों का साथ नहीं छोडऩा चाहिए। जिस प्रकार हंस सूखे तालाब को तुरंत छोड़ देते हैं, इंसान का स्वभाव वैसा नहीं होना चाहिए। यदि तालाब में पानी न हो तो हंस उस स्थान को भी तुरंत छोड़ देते हैं जहां वे वर्षों से रह रहे हैं। बारिश के बाद तालाब में जल भरने के बाद हंस वापस उस स्थान पर आ जाते हैं। हमें इस प्रकार का स्वभाव नहीं रखना चाहिए। हमारे मित्रों और रिश्तेदारों का सुख-दुख हर परिस्थिति में साथ नहीं छोडऩा चाहिए। एक बार जिससे संबंध बनाया जाए उससे हमेशा निभाना चाहिए। हंस के समान स्वार्थी स्वभाव नहीं होना चाहिए।

हमेशा गुस्से में रहने वाली पत्नी को त्याग देना चाहिए
ऐसा माना जाता है कि पति और पत्नी का रिश्ता सात जन्मों का होता है। कई विपरित परिस्थितियों में भी पति-पत्नी एक-दूसरे का साथ निभाते हैं। यदि पत्नी सर्वगुण संपन्न है तो तब तो दोनों का जीवन सुखी बना रहता है लेकिन पत्नी हमेशा क्रोधित रहने वाली है तो दोनों के जीवन में हमेशा ही मानसिक तनाव बना रहता है। आचार्य चाणक्य कहते हैं कि-

त्यजेद्धर्मं दयाहीनं विद्याहीनं गुरुं त्यजेत्।

त्यजेत्क्रोधमुखं भार्यां नि:स्नेहान् बान्धवांस्त्यजेत्।।

जिस धर्म में दया का उपदेश न हो, उस धर्म को छोड़ देना चाहिए। जो गुरु ज्ञानहीन हो उसे त्याग देना चाहिए। यदि पत्नी हमेशा क्रोधित ही रहती है तो उसे छोड़ देना चाहिए और जो भाई-बहन स्नेहहीन हो उन्हें भी त्याग देना चाहिए।

आचार्य चाणक्य कहते हैं कि यदि किसी धर्म में दया उपदेश नहीं दिया गया हो तो उसे छोड़ देना चाहिए। क्योंकि दया ही मानवता का मुख्य कर्तव्य है। प्रेम और दया के अभाव में धर्म अहिंसा का ही उपदेश दे सकता है। किसी भी गुरु का प्रमुख कर्तव्य है कि वह अपने विद्यार्थी को ज्ञान दें। यदि कोई गुरु विद्वान नहीं है तो उसे छोड़ देना चाहिए। अज्ञानी गुरु का महत्व नहीं है। ठीक इसी प्रकार यदि किसी व्यक्ति की पत्नी हमेशा क्रोध में रहती है, पति को प्रेम नहीं करती है, पतिव्रत धर्म का पालन नहीं कर रही है, हमेशा पति को दुख देती रहती है तो ऐसी पत्नी को तुरंत त्याग देना चाहिए। जो रिश्तेदार, भाई-बहन दुख के समय साथ छोड़ देते हैं उनसे दूर रहने में ही भलाई है। जहां प्रेम का अभाव वहां कोई रिश्ता नहीं रखना चाहिए।

ऐसा कोई इंसान नहीं है जो कभी दुखी नहीं हुआ...
सुख और दुख, जीवन के ये दो पहलू हैं। ये दोनों ही हर व्यक्ति के जीवन में आते-जाते रहते हैं, हमेशा चलते रहते हैं। ऐसा कोई इंसान नहीं है जिसके जीवन में कभी दुख न आया हो या वह कभी सुखी न हुआ हो। आचार्य चाणक्य कहते हैं कि-

कस्य दोष: कुले नास्ति व्याधिना केन पीडि़ता:।

व्यसनं केन संप्राप्तं कस्य सौख्यं निरंतरम्।।

ऐसा कोई इंसान है जिसके कुल में कोई दोष या बुराई नहीं है। ऐसा कोई सा प्राणी है जो कभी किसी रोग से ग्रस्त नहीं हुआ है। ऐसा कौन है जो हमेशा ही सुख प्राप्त करता आया है जिसे कभी दुख नहीं मिला।

इस संबंध में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि प्राचीन काल से ही ऐसा कोई वंश नहीं हुआ है जिसमें कोई दोष नहीं है। जो वंश पूरी तरह से निष्पाप है। कभी भी ऐसा कोई व्यक्ति नहीं हुआ है जिसे जीवनभर रोग न हुआ हो, जो कभी किसी बीमारी से पीडि़त न रहा हो। चाहे जितना गुणी इंसान हो यदि वह बुरी आदतों में पड़ जाता है तो उसे गलत कार्यों की लत अवश्य ही पड़ जाएगी। फिर उस इंसान को कष्ट झेलना पड़ते हैं। अत: अभी तक ऐसा कोई प्राणी नहीं हुआ है जिसे दुख न देखने पड़े हो। जो कभी दुखी न हुआ हो।

हमेशा ही हमारे जीवन में केवल सुख ही सुख रहे, ऐसा नहीं हो सकता। कभी-कभी दुख का भी सामना करना पड़ता है। जो लोग सदैव सुखी रहते हैं, खुश रहते हैं उनके जीवन में भी छोटी-छोटी परेशानियां अवश्य ही आ सकती हैं। कोई भी इंसान पूरी तरह से सुखी नहीं हो सकता है। यही प्रकृति का नियम भी है, यही एक अटल सत्य है। हर व्यक्ति को सुख और दुख दोनों का ही सामना करना पड़ता है।

शेर से सीख लें ये एक बात, कामयाबी चूमेगी आपके कदम...
किसी भी कार्य में सफलता इस बात पर निर्भर होती है कि आपका प्रयास कैसा है? लक्ष्य प्राप्त करने के लिए आप किस प्रकार कार्य कर रहे हैं? जीवन में हर कदम कामयाबी चाहिए तो आचार्य चाणक्य की ये नीति अपनाना चाहिए।

आचार्य कहते हैं-

प्रभूतं कायमपि वा तन्नर: कर्तुमिच्छति।

सर्वारम्भेण तत्कार्यं सिंहादेकं प्रचक्षते।।

यदि किसी व्यक्ति को अपना लक्ष्य प्राप्त करना है तो उसे चाहिए वह पूरी शक्ति लगाकर कार्य करें। ठीक उसी तरह जैसे कोई शेर अपना शिकार करता है।

आचार्य चाणक्य कहते हैं हमें जो भी कार्य करना है वह पूरी ताकत से करना चाहिए। कार्य चाहे जितना छोटा या बड़ा हो हमें पूरी शक्ति लगाकर ही करना चाहिए। तभी हमारी कामयाबी पक्की हो जाती है। जिस प्रकार कोई शेर अपने शिकार पर पूरी शक्ति से झपटता है और शिकार को भागने का मौका नहीं देता, इसी गुण के कारण वह कभी असफल नहीं होता है। हमें सिंह की भांति ही अपने लक्ष्य की ओर झपटना चाहिए, आगे बढऩा चाहिए। कार्य में किसी प्रकार का ढीलापन हुआ तो कामयाबी आपसे दूर हो जाएगी। यही सफलता प्राप्त करने का अचूक उपाय है।

इस उम्र में पिटाई हो तो, बच्चे बिगड़ते नहीं है...
बच्चों की सही परवरिश उनका जीवन सुधार सकती है। यही परवरिश में जरा सी भी लापरवाही हो तो बच्चों का जीवन गलत दिशा में जा सकता है। माता-पिता का कर्तव्य होता है कि वे बच्चों को सही शिक्षा दी जाए और उनका जीवन सुखमय बनाए। बच्चों को शिक्षा देने के संबंध में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि-

पांच वर्ष लौं लालिये,, दस लौं ताडऩ देइ।

सुतहीं सोलह वर्ष में, मित्र सरसि गनि लेइ।।

सभी माता-पिता को चाहिए कि वे पांच वर्ष की आयु तक अपने बच्चों के साथ प्रेम और दुलार करें। इसके जब पुत्र दस वर्ष का हो जाए तो और यदि वह गलत आदतों का शिकार हो रहा है तो उसे ताडऩा या दण्ड भी दिया जा सकता है। जिससे उसका भविष्य सुरक्षित रह सके। जब बच्चा सोलह वर्ष का हो जाए तो उसके साथ मित्रों के जैसा व्यवहार करना चाहिए।

आचार्य चाणक्य कहते हैं कि जब तक बच्चा पांच वर्ष का हो जाए तब तक माता-पिता को उससे बहुत प्रेम और दुलार के साथ पेश आना चाहिए। अक्सर ज्यादा लाड़-प्यार में बच्चे गलत आदतों के शिकार हो जाते हैं और प्रेम से वे नहीं समझ रहे हैं तो उन्हें सजा देकर सुधारा जा सकता है। डरा-धमकाकर बच्चों को सही राह पर लाया जा सकता है। इसके अतिरिक्त जब बच्चा सोलह वर्ष का हो जाए उसके बाद उनके साथ मित्रों की तरह व्यवहार रखना चाहिए। इस उम्र के बाद बच्चों के साथ किसी भी तरह की ताडऩा या पिटाई नहीं की जानी चाहिए। अन्यथा बच्चा घर छोड़कर भी जा सकता है। जब बच्चा घर-संसार को समझने लगे तो उससे मित्रों की तरह व्यवहार रखना श्रेष्ठ रहता है।

स्त्री की सबसे बड़ी शक्ति है सुंदरता, यौवन और...
स्त्री हो या पुरुष, सभी के पास कुछ गुण, कुछ शक्तियां होती हैं जिनसे वे अपने कार्य सिद्ध कर सकते हैं। वैसे तो हर व्यक्ति की अलग-अलग शक्तियां होती हैं लेकिन आचार्य चाणक्य ने बताया है कि किसी भी स्त्री की शक्ति उसकी सुंदरता, यौवन और मीठी वाणी होती है। चाणक्य कहते हैं-

बाहुवीर्यबलं राज्ञो ब्राह्मणो ब्रह्मविद् बली।

रूप-यौवन-माधुर्यं स्त्रीणां बलमनुत्तमम्।।

किसी भी राजा की शक्ति उसका स्वयं का बाहुबल है। ब्राह्मणों की ताकत उनका ज्ञान होता है। स्त्रियों की ताकत उनका सौंदर्य, यौवन और उनकी मीठी वाणी होती है।

आचार्य कहते हैं कि वैसे तो किसी भी राजा के अधीन उसकी सेना, मंत्री और अन्य राजा रहते हैं लेकिन उसका स्वयं का ताकतवर होना भी जरूरी है। यदि कोई राजा स्वयं शक्तिहीन है तो वह किसी पर राज नहीं कर सकता। राजा जितना शक्तिशाली होगा उतना ही अच्छा शासक रहता है। इसीलिए यह जरूरी है कि राजा का बाहुबल से भी शक्तिशाली हो।

किसी भी ब्राह्मण की शक्ति उसका ज्ञान है। ब्राह्मण जितना ज्ञानी होगा वह उतना ही अधिक सम्मान प्राप्त करेगा। ईश्वर और जीवन से संबंधित ज्ञान ही किसी भी ब्राह्मण की सबसे बड़ी शक्ति हो सकता है।

आचार्य चाणक्य कहते हैं किसी भी स्त्री का सौंदर्य और यौवन ही उसकी सबसे बड़ी शक्ति होती है। यदि कोई स्त्री सुंदर नहीं है लेकिन मधुर व्यवहार वाली है तब भी वह जीवन में कभी भी परेशानियों का सामना नहीं करती है। मधुर व्यवहार से ही स्त्री मान-सम्मान प्राप्त करती हैं।

इन 6 बातों से आपकी कामयाबी का रास्ता हो जाएगा साफ
जीवन में सफलता और सुख वही व्यक्ति प्राप्त करता है जो हमेशा ही चिंतन और मनन करता है। जो निर्धारित लक्ष्य प्राप्त करने के लिए योजनाबद्ध तरीके से कार्य करते रहता है वहीं कुछ उल्लेखनीय कार्य कर पाता है। इस संबंध में आचार्य चाणक्य कहते हैं-

हौं केहिको का मित्र को, कौन काल अरु देश।

लाभ खर्च को मित्र को, चिंता करे हमेशा।

अभी समय कैसा है? मित्र कौन हैं? यह देश कैसा है? मेरी कमाई और खर्च क्या हैं? मैं किसके अधीन हूं? और मुझमें कितनी शक्ति है? इन छ: बातों को हमेशा ही सोचते रहना चाहिए।

आचार्य चाणक्य कहते हैं कि वही व्यक्ति समझदार और सफल है जिसे इन छ: प्रश्नों के उत्तर हमेशा मालुम रहते हो। समझदार व्यक्ति जानता है कि वर्तमान में कैसा समय चल रहा है। अभी सुख के दिन हैं या दुख के। इसी के आधार पर वह कार्य करता हैं। हमें यह भी मालुम होना चाहिए कि हमारे सच्चे मित्र कौन हैं? क्योंकि अधिकांश परिस्थितियों में मित्रों के भेष में शत्रु भी आ जाते हैं। जिनसे बचना चाहिए।

व्यक्ति को यह भी मालुम होना चाहिए कि जिस जगह वह रहता है वह कैसी हैं? वहां का वातावरण कैसा हैं? वहां का माहौल कैसा है? इन बातों के अलावा सबसे जरूरी बात हैं व्यक्ति को उसकी आय और व्यय की पूरी जानकारी होना चाहिए। व्यक्ति की आय क्या है उसी के अनुसार उसे व्यय करना चाहिए।

चाणक्य कहते हैं कि समझदार इंसान को मालुम होना चाहिए कि वह कितना योग्य है और वह क्या-क्या कुशलता के साथ कर सकता है। जिन कार्यों में हमें महारत हासिल हो वहीं कार्य हमें सफलता दिला सकते हैं। इसके साथ व्यक्ति को यह भी मालुम होना चाहिए कि उसका गुरु या स्वामी कौन हैं? और वह आपसे चाहता क्या हैं?

ऐसी पत्नी ही सर्वश्रेष्ठ है जो पति को हमेशा सुख देती है...
मनुष्य जीवन के सभी 16 संस्कारों में एक सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्कार है विवाह। विवाह के बाद सिफ वर-वधू ही नहीं दोनों के परिवारों का भी जीवन बदल जाता है। पत्नी का स्वभाव अच्छा होगा तो वह ससुराल में सभी का मोह सकती है और सभी का जीवन सुखी हो सकता है। इसके विपरित पत्नी का स्वभाव होगा तो पति को अक्सर परेशानियों का ही सामना करना पड़ता है। इस संबंध में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि-

सत्य मधुर भाषे वचन, और चतुर शुचि होय।

पति प्यारी और पतिव्रता, त्रिया जानिए सोय।।

वहीं पत्नी अच्छी पत्नी है जो पवित्र, काम-काज में निपूण, पतिव्रता, पतिपरायण और सच बोलने वाली हैं।

आचार्य चाणक्य कहते हैं कि ऐसी पत्नी ही सर्वश्रेष्ठ है जो पति को सुख देने वाली है। जो पत्नी मन, वचन और कर्म से पवित्र होती है, कभी भी मन में बुरे विचार नहीं लाती है वही श्रेष्ठ है। पति से पत्नी किसी प्रकार का भेदभाव नहीं रखती हो, पति से कोई बात न छुपाती है। इसके साथ ही वह पतिव्रत धर्म का पालन करने वाली होनी चाहिए। घर के सभी कार्यों में दक्ष और चतुर होना चाहिए। जो पत्नी अपने पति से सदैव प्रेम करती है, सदैव सच बोलती है वहीं सर्वश्रेष्ठ पत्नी मानी जाती है। ऐसी पत्नी को पूरा मान-सम्मान देना चाहिए, उसका सदैव ध्यान रखना पति का कर्तव्य है।

ध्यान रखें इन सातों को आपका पैर नहीं लगना चाहिए...
हिंदू धर्म में प्राचीन काल से ही पुण्य और पाप कर्मों के संबंध में कई आवश्यक नियम प्रचलित हैं। इन्हीं के आधार पर हमारे कर्मों को पाप और पुण्य की श्रेणी में विभाजित किया जाता है। आचार्य चाणक्य ने कुछ ऐसे कार्य बताए हैं जिन्हें पाप की श्रेणी में रखा जाता है। चाणक्य कहते हैं-

अनल विप्र गुरु धेनु पुनि, कन्या कुंवारी देत।

बालक के अरु वृद्ध के, पग न लगावहु येत।।

अग्नि, गुरु, ब्राह्मण, गौ, कुमारी कन्या, वृद्ध और बालक, इन सातों को कभी भी हमारे पैर नहीं लगना चाहिए।

आचार्य चाणक्य के अनुसार अग्नि, गुरु, ब्राह्मण, गाय, अविवाहित कन्या, बुजूर्ग लोग, छोटे बच्चे इन्हें किसी भी व्यक्ति का पैर लगता है तो उसे पाप का भागी होना पड़ता है। ऐसे लोगों के पुण्य कम हो जाते हैं और उन्हें दोष लगता है। शास्त्रों के अनुसार अग्नि को पवित्र और देवता माना जाता है। इसी वजह से अग्नि को पैर लगना अशुभ माना गया है। इसी प्रकार गुरु, ब्राह्मण और गाय को भी पवित्र और पूजनीय माना जाता है। इन्हें पैर लगने से इनका अपमान माना जाता है। इनके साथ ही कुंवारी कन्या, वृद्ध लोग और छोटे बच्चे भी सम्मान के ही पात्र होते हैं। अत: इन्हें भी हमारा पैर नहीं लगना चाहिए।

किसी भी परिस्थिति में किसी का भी अपमान करना अनुचित ही माना जाता है। इन सात लोगों को जाने-अनजाने हमारा पैर लगना या ठोकर लगना मूर्खता का ही परिचय है। अत: हमेशा ही ऐसा प्रयास करना चाहिए कि किसी भी व्यक्ति का अनादर हमारे द्वारा न हो। यदि भूलवश ऐसा हो जाता है तो इसके लिए तुरंत ही क्षमा याचना करना चाहिए।

ये पांच बातें किसी को न बताए यही समझदारी है...
जीवन में बहुत कुछ ऐसा होता है जो हमारे लिए परेशानियां का कारण बन जाता है, इन घटनाओं पर हमारा नियंतत्रण नहीं होता। वहीं कई बार हम स्वयं ही जाने-अनजाने कुछ ऐसा काम कर देते हैं तो भविष्य किसी न किसी परेशानी का कारण बन जाता है। इस संबंध में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि-

अरथ नाश मन ताप अरु, दा चरि घर माहिं।

वंचनता अपमान निज, सुधी प्रकाशत नाहिं।।

पैसों का नुकसान, मन का दुख, पत्नी का चरित्र, नीच मनुष्य की कही हुई बातें, यदि किसी ने अपमान किया हो तो, इन बातों को राज ही रखना चाहिए। यही समझदार इंसान की पहचान है।

आचार्य चाणक्य कहते हैं समझदार इंसान वहीं है जो अपनी कमजोरियां और गुप्त बातों को गुप्त ही रखता है। जो लोग अपनी इन बातों को दूसरों पर जाहिर कर देते हैं वे निश्चित ही भविष्य में किसी बड़ी समस्या का शिकार हो सकते हैं। हमें कभी भी हमारी वास्तविक आर्थिक स्थिति की जानकारी किसी को नहीं देना चाहिए। हमें किन बातों से दुख पहुंचता है, मन का दुख या संताप भी गुप्त ही रखना चाहिए। लगभग हर इंसान के वैवाहिक जीवन में कुछ न कुछ परेशानियां अवश्य ही रहती हैं। अत: पति-पत्नी की इन बातों को भुलवश भी किसी को नहीं बताना चाहिए।

कई बार किसी नीच व्यक्ति या संस्कारहीन व्यक्ति से वाद-विवाद की स्थिति भी बन जाती है ऐसे में उन लोगों के शब्दों की कोई गरिमा नहीं होती है। अत: उनके द्वारा कही गई बातों को भी किसी के सामने नहीं बोलना चाहिए। चाणक्य कहते हैं यदि आपको भी अपमान का सामना करना पड़ा हो तो उसे भी किसी अन्य व्यक्ति के सामने नहीं बोलना चाहिए।

इन सभी बातों को दूसरों पर जाहिर करने पर अवश्य की परेशानियों का सामना करना पड़ता है। अत: ये सभी बातें गुप्त ही रखनी चाहिए।

अपनी तारीफ खुद नहीं करना चाहिए...
अपनी प्रशंसा या तारीफ भला किसे अच्छी नहीं लगती। सभी चाहते हैं कि उनके कार्यों की प्रशंसा की जाए और इसीलिए वे ऐसे अच्छे कार्य ही करते हैं। इस संबंध आचार्य चाणक्य कहते हैं कि-

औरन के वर्णन किए, गुणहु हीन गुणवान।

इंदौ लघुताई लहै, निज मुख किये बखान।।

यदि दूसरे लोग किसी व्यक्ति की प्रशंसा करते हैं तो यह गुणहीन व्यक्ति को भी गुणी बना देती है। इसके विपरित यदि कोई व्यक्ति स्वयं अपने मुंह से खुद की तारिफ करता है तो देवराज इंद्र भी छोटे ही माने जाएंगे।

आचार्य चाणक्य कहते हैं कि किसी व्यक्ति को स्वयं अपनी तारिफ नहीं करना चाहिए। ऐसा करने वाला व्यक्ति उपहास का पात्र बनता है और अन्य लोग उसकी बातों को गंभीरता से नहीं लेते। स्वयं खुद की तारीफ करने वाला चाहे जितना बड़ा हो, उसको वैसा मान-सम्मान और यश प्राप्त नहीं होगा जिसका वह अधिकारी है। हमें सिर्फ अपने कर्म ऐसे करने चाहिए जिससे दूसरे लोग हमारी प्रशंसा करें। ऐसा होने पर व्यक्ति यदि कम गुणी भी होगा तब भी वह समाज में भरपूर मान-सम्मान प्राप्त कर लेगा।

जानिए कौन किस चीज से खुश होता है?
सभी लोगों के लिए कुछ न कुछ खास बात या चीज होती है जिससे उन्हें खुशी प्राप्त होती है। इस संबंध में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि-

तुष्ट होत भोजन किये, ब्राह्मण लखि घन मोर।

पर संपत्ति लखि साधु जन, खल लखि दुख घोर।।

किसी भी ब्राह्मण को यदि स्वादिष्ट भोजन मिल जाए तो वह खुश हो जाता है। मोर बादलों की गरज से खुश होते हैं। सज्जन लोग दूसरों के सुख को देखकर सुखी होते हैं। जबकि बुरे स्वभाव वाले लोग दूसरों के दुख को देखकर प्रसन्न होते हैं।

आचार्य चाणक्य कहते हैं कि किसी भी ब्राह्मण को यदि स्वादिष्ट पकवान मिल जाए तो उसे बड़ी प्रसन्नता होती है। इन्हें तृप्त करने का यही एक सरल मार्ग है। जब भी बादल गजरते हैं, बारिश का वातावरण बनता है तो मोर नाचने लगते हैं, प्रसन्न हो जाते हैं। जिन लोगों का स्वभाव अच्छा होता है, जो सपने में भी किसी का बुरा नहीं सोचते हैं वे दूसरों की खुशी, अन्य लोगों के सुख को देखकर ही प्रसन्न हो जाते हैं। इन लोगों को स्वयं के सुख से इतना सुख नहीं मिलता जितना दूसरों को खुश देखकर सुख प्राप्त होता है।

आचार्य कहते हैं जो भी नीच स्वभाव, दुर्जन लोग होते हैं वे दूसरों को मुसीबत में देखकर ही प्रसन्न होते हैं। इनसे दूसरों की खुशी नहीं देखी जाती, हमेशा अन्य लोगों के साथ बुरा हो, यही प्रयास करते रहते हैं।

बुरे चरित्र की स्त्रियों से हमेशा मिलता है सिर्फ दुख...
आचार्य चाणक्य ने तीन प्रकार के ऐसे लोग बताए हैं जिनसे किसी भी प्रकार का व्यवहार करने पर दुख ही प्राप्त है। अत: इन लोगों से हमेशा दूर रहना ही बुद्धिमानी है।

चाणक्य कहते हैं-

मूर्खाशिष्योपदेशेन दुष्टास्त्रीभरणेन च।

दु:खिते सम्प्रयोगेण पंडितोऽप्यवसीदति।।



इस श्लोक का अर्थ है कि मूर्ख शिष्य को उपदेश देने पर, किसी व्यभिचारिणी स्त्री का भरण-पोषण करने पर और दुखी व्यक्तियों के साथ किसी भी प्रकार का व्यवहार करने पर दुख ही प्राप्त होता है।

आचार्य कहते हैं कि किसी भी मूर्ख शिष्य या विद्यार्थी को शिक्षा देने का कोई लाभ नहीं है। मूर्ख शिष्य को कितना ही समझाया जाए लेकिन शिक्षक को अंत में दुख ही प्राप्त होता है। किसी कर्कशा, दुष्ट, बुरे स्वभाव वाली, व्यभिचारिणी स्त्री का भरण-पोषण करने वाले व्यक्ति को कभी भी सुख प्राप्त नहीं होता है। ऐसी स्त्रियों का चाहे जितना भी अच्छा किया जाए अंत में व्यक्ति को दुख ही भोगना पड़ता है। इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति दुखी है, विभिन्न रोगों से ग्रस्त है तो उनसे किसी भी प्रकार का व्यवहार करने वाले व्यक्ति को रोग होने की संभावनाएं रहती हैं। अत: इन तीन प्रकार के लोगों से दूर ही रहना चाहिए।

इन चार कामों में कभी भी शर्म नहीं करना चाहिए...
कुछ कार्य ऐसे हैं जिन्में करने में हमें किसी भी प्रकार की शर्म नहीं करना चाहिए। अन्यथा हानि उठानी पड़ सकती है। आचार्य चाणक्य कहते हैं कि-

संचित धन अरु धान्यं कूं, विद्या सीखत बार।

करत और व्यवहार कूं, लाल न करिय अगार।।

धन-धान्य के लेन-देन, विद्याध्ययन, भोजन, सांसारिक व्यवसाय इन चार कामों के करने में किसी भी प्रकार की लज्जा नहीं करना चाहिए।

आचार्य चाणक्य कहते हैं कि किसी व्यक्ति को धन से संबंधित कार्य में संकोच नहीं करना चाहिए। धन का जो भी लेन-देन है उसे स्पष्ट रूप से कह देना चाहिए। अन्यथा धन को लेकर वाद-विवाद होने की पूरी संभावनाएं रहती है। इसी प्रकार कभी शिक्षा के संबंध में भी लज्जा नहीं करना चाहिए। कुछ सीखना हो तो इसे बताने में शर्माना नहीं चाहिए। अन्यथा जीवन पर अज्ञानी की भांति रहना पड़ सकता है। जो व्यक्ति खाने के संबंध में संकोच करता है वह अक्सर भूखा ही रह जाता है। इसलिए भूख लगने पर संबंधित व्यक्ति खाना ले लेना चाहिए। अन्यथा भूखे रहना पड़ सकता है। इसी प्रकार यदि कोई व्यवसायी है तो उसे अपने ग्राहकों या देनदारों से शर्म नहीं करना चाहिए। धन और सामान से जुड़ी समस्त बातें साफ-साफ कर लेनी चाहिए।

हमारा गुस्सा हमेशा यमराज के समान ही होता है...
सामान्यत: कुछ बुराइयां सभी में होती हैं, कुछ आदतें दुर्गुण की श्रेणी में मानी गई है। क्रोध या गुस्सा भी एक बुराई के समान ही है। क्रोध के संबंध में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि-

तुषना वैतरणी नदी, धरमराज सह रोष।

कामधेनु विद्या कहिय, नन्दन बन संतोष।।

क्रोध हमेशा ही यमराज के समान ही होता है। तृत्णा वैतरणी नदी है और शिक्षा या विद्या कामधेनु के समान है। इसके साथ ही संतोष नन्दन वन है।

आचार्य चाणक्य कहते हैं कि हमारा क्रोध हर परिस्थिति में नुकसान दायक ही रहता है। क्रोध के वश में होकर इंसान अक्सर कुछ गलत कर बैठता है। जिस प्रकार यमराज इंसान के शरीर को नष्ट कर देते हैं ठीक उसी प्रकार क्रोध भी यही काम करता है। हमारी इच्छाएं या मनोकामनाएं कभी समाप्त नहीं होती है। ये ठीक वैसी ही हैं जैसी वैतरणी नदी। शास्त्रों के अनुसार ऐसा माना जाता है कि वैतरणी नदी को कोई पार नहीं कर सकता है। उसी प्रकार हमारी इच्छाओं को पार करना असंभव सा ही है, ये कभी समाप्त नहीं होती हैं।

आचार्य के अनुसार शिक्षा या विद्या कामधेनु के समान होती हैं। ये हर परिस्थिति में हमारा मार्गदर्शन करती है और परेशानियों से बचाती है। शिक्षा के प्रभाव से व्यक्ति जीवन में सभी सुख-सुविधाएं प्राप्त कर सकता है। हर परिस्थिति में व्यक्ति को संतोष रखना चाहिए। संतोष से ही सुख और आनंद प्राप्त होता है। चाणक्य ने संतोष को देवराज इंद्र की वाटिका के समान माना है। इंद्र की वाटिका परम सुख देने वाली मानी गई है। ठीक इसी प्रकार संतोषी व्यक्ति भी हमेशा ही आनंद प्राप्त कर सकता है।

उस समय पत्नी का मरना है दुर्भाग्य की बात...
शास्त्रों के अनुसार पति और पत्नी का साथ सात जन्मों का माना जाता है। कई बार दुर्भाग्य वश एक ही जन्म में पति-पत्नी मृत्यु के कारण अलग हो जाते हैं। आचार्य चाणक्य कहते हैं कि-

वृद्धकाले मृता भार्या बंधुहस्ते गतं धनम्।

भोजनं च पराधीनं त्रय: पुंसां विडम्बना:।।

बुढ़ापे में पत्नी की मृत्यु अभाग्य ही है। इसी तरह हमारा धन किसी और के हाथ में चला जाए या किसी के गुलाम बनकर जीवन यापन करना ये बातें व्यक्ति के लिए अभाग्य या दुर्भाग्य है।

आचार्य चाणक्य के अनुसार पति-पत्नी एक-दूसरे के लिए सबसे बड़ा सहारा होते हैं। विवाह के बाद दोनों का जीवन आपसी तालमेल और प्रेम से ही आगे बढ़ता है। यदि किसी भी कारण से इन्हें अलग होना पड़े तो यह स्थिति कई परेशानियों को जन्म देती है। पति-पत्नी को एक-दूसरे की सबसे ज्यादा जरूरत बुढ़ापे के समय होती है। उस समय यदि पत्नी मृत्यु को प्राप्त हो जाए तो नि:संदेह यह अभाग्य की बात है। इसी तरह यदि हमारा कमाया हुआ धन किसी ओर को मिल जाए या किसी कारण से वह किसी ओर के हाथ में चला जाए तो यह भी भाग्यहीन होने की निशानी है। साथ ही किसी भी व्यक्ति के लिए सबसे बड़ा नर्क से गुलामी का जीवन। गुलाम व्यक्ति स्वयं के लिए कभी भी कुछ नहीं कर पाता है।

आपको ज्यादा सीधा-साधा नहीं होना चाहिए वरना हमेशा रहना पड़ेगा परेशान...
जीवन में कई बार हमें हमारे स्वभाव के कारण या तो सुख प्राप्त होता है या दुख। आजकल जैसा वातावरण है उसके अनुसार जो सीधे-साधे लोग हैं उन्हें काफी परेशानियों का सामना करना पड़ता है। इस संबंध आचार्य चाणक्य कहते हैं कि-

अतिहि सरल नहिं होइये, देखहु जा बनमाहिं।

तरु सीधे छेदत तिनहिं, बांके तरु रहि जाहि।।

जिन लोगों का स्वभाव अधिक सीधा-साधा है, उन्हें ऐसे नहीं रहना चाहिए क्योंकि यह अच्छा नहीं है। वन में हम देख सकते हैं जो पेड़ सीधे होते हैं सबसे पहले काटने के लिए उन्हें ही चुना जाता है।

आचार्य चाणक्य कहते हैं कि जिन लोगों का स्वभाव जरूरत से ज्यादा सीधा, सरल और सहज होता हैं उन्हें अक्सर समाज में परेशानियों का ही सामना करना पड़ता है। चालक और चतुर लोग इनके सीधे स्वभाव का गलत फायदा उठाते हैं। ऐसे लोगों को दुर्बल ही समझा जाता है। अनावश्यक रूप से लोगों की प्रताडऩा झेलना पड़ती है। अत्यधिक सीधा स्वभाव भी मूर्खता की श्रेणी में ही आता है। अत: व्यक्ति को थोड़ा चतुर और चालक भी होना चाहिए। ताकि वह जीवन में कुछ उल्लेखनीय कार्य कर सके। इसका एक सटीक और प्रत्यक्ष उदाहरण है जंगल में लगे सीधे वृक्ष। सामान्यत: देखा जा सकता है कि जंगल में लगे सीधे वृक्ष ही सबसे काटने के लिए चुने जाते हैं। इसी प्रकार हमारे जीवन में भी जो लोग सीधे-साधे होते हैं उनसे चतुर लोग अनुचित लाभ अवश्य ही उठाते हैं।

इन सात लोगों को नींद में से भी जगा देना चाहिए...
आचार्य चाणक्य द्वारा रचित चाणक्य नीति में सफलता प्राप्त करने के लिए अनेक सूत्र दिए गए हैं। जिन्हें जीवन में उतारने वाले व्यक्ति को निश्चित ही हर कदम सफलता प्राप्त होगी। आचार्य चाणक्य कहते हैं कि-

द्वारपाल, सेवक, पथिक, समय क्षुधातुर पाय।

भंडारी विद्यारथी, सोवत सात जगाय।।

द्वारपाल, नौकर, राहगीर, भूखा व्यक्ति, भंडारी, विद्यार्थी और डरे हुए व्यक्ति को नींद में से तुरंत उठा देना चाहिए।

आचार्य चाणक्य की यह नीति आज के समय में भी सटीक है। यदि कोई विद्यार्थी अधिकांश समय सोने में व्यतीत करता है तो उसे अच्छा परिणाम प्राप्त नहीं हो सकता। अत: सोते हुए विद्यार्थी को नींद से जगा देना चाहिए। इसी प्रकार यदि कोई मालिक काम के समय में नौकर सोता हुआ देख ले तो उसे नौकरी से निकाल देगा। अत: उसे भी उठा देना चाहिए। कोई राहगीर या यात्री कहीं रास्ते में सोता हुआ दिखाई दे तो उसे भी तुरंत उठा देना चाहिए। क्योंकि ऐसे में उसके सामान की चोरी का भय रहता है। इसी प्रकार यदि कोई भूखा व्यक्ति सोता हुआ दिखाई दे तो उसे भी उठा देना चाहिए और खाना खिला देना चाहिए।

चाणक्य कहते हैं कि अगर कोई भण्डार गृह का रक्षक, द्वारपाल या कोई डरा हुआ व्यक्ति सो रहा है तो इन्हें भी तुरंत उठा देना चाहिए क्योंकि इनके सोने से बहुत से लोगों को हानि का सामना करना पड़ सकता है।

नहाने से पहले भी खा सकते हैं ये चीजें...
शास्त्रों के अनुसार भगवान की पूजा के संबंध में कई नियम बताए गए हैं। इन्हीं नियमों में से एक है कि कुछ खाने के तुरंत बाद पूजा नहीं करना चाहिए। साथ ही स्नान के बाद ही भोजन आदि ग्रहण करना चाहिए। इसके अलावा ऐसा भी नियम है कि दान करने के बाद हमें भोजन या अन्य अन्न ग्रहण करना चाहिए। इस संबंध में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि-

ऊख वारि पय मूल, पुनि औषधहू खायके।

तथा खाय तांबूल, स्नान दान आदिक उचित।।

ऊख, जल, दूध, पान, फल-फूल, औषधि इन 6 चीजों को खाने के बाद भी हम स्नान कर सकते हैं, दान कर सकते हैं, पूजा कर सकते हैं।

सामान्यत: ऐसा माना जाता है कि भगवान की पूजा से पहले हमें कुछ भी खाद्य पदार्थ ग्रहण नहीं करना चाहिए। भोजन आदि खाने की चीजों को नहाने के बाद ही खाना चाहिए। जबकि इस संबंध में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि यदि कोई व्यक्ति किसी बीमारी से ग्रस्त है तो उसे इन नियमों में बांधा नहीं जा सकता है। बीमारी की अवस्था में रोगी व्यक्ति दूध, जल, फल, दवाई आदि ग्रहण करके भी स्नान आदि क्रियाएं कर सकता है। इसके बाद वह पूजा आदि धार्मिक कार्य भी कर सकता है, ऐसा करने से भी रोगी पाप का भागी नहीं होता है।

चाणक्य नीति से जानिए, गरीबी और दुख कैसे होते हैं दूर?
सुख और दुख यह जीवन की अवस्थाएं बताई गई हैं। सभी लोगों के जीवन में सुख और दुख आते-जाते रहते हैं। कोई नहीं चाहता कि उनके जीवन में कभी दुख आए या गरीबी से कभी भी उनका सामना हो। इस संबंध में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि-

दरिद नाशन दान, शील दुर्गतिहिं नाशियत।

बुद्धि नाश अज्ञान, भय नाशत है भावना।।

दान से दरिद्रता या गरीबी का नाश होता है। शील या व्यवहार दुखों को दूर करता है। बुद्धि अज्ञानता को नष्ट कर देती है। हमारे विचार सभी प्रकार के भय से मुक्ति दिलाते हैं।

आचार्य चाणक्य के अनुसार यदि कोई इंसान उसकी कमाई से कुछ हिस्सा दान करता रहे तो उसे कभी भी गरीबी का सामना नहीं करना पड़ेगा। व्यक्ति जो भी कमाता है, जो भी धन प्राप्त करता है उसमें कुछ भाग हमेशा ही जरूरतमंद लोगों की मदद में लगाना चाहिए, धार्मिक कार्य करना चाहिए। ऐसा करने पर हमारे पुण्य कर्मों की वृद्धि होती है जिससे महालक्ष्मी की कृपा सदैव हम पर बनी रहती है। इंसान के जीवन में काफी दुखों के कारण से उसके बुरे स्वभाव से संबंधित ही होते हैं। अत: अच्छे गुण और नम्र व्यवहार रखने से सभी लोगों से सुख प्राप्त होता है और दुख या कष्ट हमसे दूर ही रहते हैं। जो लोग नियमित रूप से भगवान की भक्ति में लगे रहते हैं, धर्म ग्रंथ पढ़ते हैं, उनसे ज्ञान प्राप्त करते हैं वे ज्ञानी हो जाते हैं। उन लोगों की अज्ञानता नष्ट हो जाती है। साथ ही इन कार्यों से हमारे विचार भी शुद्ध होते हैं और जीवन-मृत्यु, सुख-दुख के सभी भय दूर हो जाते हैं।

ऐसे लोगों के नाराज होने पर आपको कोई फर्क नहीं पड़ेगा...
किसी भी व्यक्ति के परिवार के अतिरिक्त उसके आसपास हमेशा ही कई लोग रहते हैं। कुछ लोगों हमारे करीब होते हैं तो कुछ केवल जान-पहचान वाले। कभी-कभी ये लोग किसी वाद-विवाद या अन्य किसी कारण के चलते नाराज भी हो जाते हैं। इस परिस्थिति के संबंध में आचार्य चाणक्य ने सटीक नीति बताई है।

आचार्य कहते हैं कि-

रुष्ट भये भय तुष्ट में, नहीं धनागम होय।

दण्ड सहाय न करि सकै, का रिसाय करु सोय।।

जिस व्यक्ति के नाराज होने से हमें कोई डर नहीं है, किसी के खुश होने पर हमें कोई लाभ नहीं हो सकता, जो हमें न तो कुछ दे सकता है और ना ही कोई कृपा कर सकता है, ऐसे लोगों नाराज हो जाए तब भी क्या हो सकता है?

आचार्य चाणक्य के अनुसार हमें उन लोगों के नाराज होने से कोई प्रभाव नहीं पड़ता है जिनके नाराज होने पर भी हमारा कोई अहित नहीं होता। कुछ लोगों ऐसे होते हैं जिनके नाराज होने पर यह भय रहता है कि वे हमारा कुछ अहित कर सकते हैं जबकि कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनके क्रोध से भी हमारा कुछ नहीं बिगड़ सकते। इसी प्रकार जो लोग खुश होने पर भी हमारे लिए कुछ अच्छा कर नहीं सकते, जिनसे हमें किसी प्रकार का कोई लाभ प्राप्त नहीं हो सकता, वे लोग यदि गुस्सा भी हो जाए तो यह कोई गंभीर विषय नहीं है।

कोई व्यक्ति यदि हमें कुछ देने योग्य है, हमारी मदद करने योग्य है, हमारे दुखों को कम कर सकता है, हमें परेशानियों से मुक्ति दिला सकता है तो इन लोगों को नाराज नहीं होने देना चाहिए। जबकि जो लोग किसी प्रकार से हमारे कार्य सिद्ध नहीं कर सकते है और ना ही हम पर किसी प्रकार की कृपा करने में भी असमर्थ हैं उनके नाराज होने पर भी हमारा कुछ बिगड़ नहीं सकता है। अत: इस प्रकार के लोगों के रुष्ट होने पर भी हमें ज्यादा सोचना नहीं चाहिए।

चार बहुत जरूरी बातें, जो कोई किसी को नहीं सीखा सकता...
इंसान के जन्म के बाद ही वह बहुत कुछ सीखता है। अच्छी आदतें या बुरी आदतें व्यक्ति उसके आसपास के वातावरण और लोगों के व्यवहार को देखकर ही सीखता है। जीवन की कई बातें वह गुरु या शिक्षा के माध्यम से सीखता है। कुछ आदतें व्यक्ति के स्वभाव में ही शामिल होती हैं जिन्हें बदलना किसी अन्य व्यक्ति के लिए काफी मुश्किल कार्य है।

कुछ बातें ऐसी हैं जो व्यक्ति के जन्म के साथ ही स्वभाव में शामिल रहती हैं इन बातों को कोई भी किसी को नहीं सीखा सकता। आचार्य चाणक्य ने चार बातें बताई हैं, इन बातों को कोई भी व्यक्ति किसी को नहीं सीखा सकता। ये चार बातें हैं व्यक्ति की दानशक्ति, मीठा बोलना, धैर्य धारण करना, समय पर उचित या अनुचित निर्णय लेना।

चाणक्य के अनुसार कोई भी व्यक्ति कितना दानवीर है वह उसके स्वभाव में ही रहता है। किसी भी इंसान की दानशक्ति को कम करना या बढ़ाना बहुत ही मुश्किल कार्य है। यह आदत व्यक्ति के जन्म के साथ ही आती है।

दूसरी बात, मीठा बोलना। यदि कोई व्यक्ति कड़वा बोलने वाला है तो उसे लाख समझा लो कि वह मीठा बोलें लेकिन वह अपना स्वभाव लंबे समय तक नहीं बदल सकता है। जो व्यक्ति जन्म से ही कड़वा बोलने वाला है उसे कोई मीठा बोलना नहीं सिखाया जा सकता। यह आदत भी व्यक्ति के जन्म के साथ ही उसके स्वभाव में शामिल रहती है।

तीसरी बात, धैर्य धारण करना। धैर्य एक ऐसा गुण है जो व्यक्ति को हर विषम परिस्थिति से बचाने में सक्षम है। विपरित परिस्थितियों में धैर्य धारण करके ही बुरे समय को दूर किया जा सकता है। यदि कोई व्यक्ति हर कार्य जल्दबाजी में करता है, त्वरित निर्णय कर लेता है और बाद में हानि उठाता है। ऐसे लोगों को धैर्य की शिक्षा देना भी समय की बर्बादी ही है क्योंकि यह गुण भी व्यक्ति के जन्म के साथ ही उसके स्वभाव में रहता है।

चौथी बात है समय पर उचित या अनुचित निर्णय लेने क्षमता। किसी भी व्यक्ति को यह नहीं सिखाया जा सकता कि वह किस समय कैसे निर्णय लें। जीवन में हर पल अलग-अलग परिस्थितियां निर्मित होती हैं। ऐसे में सही या गलत का निर्णय व्यक्ति को स्वयं ही करना पड़ता है। जो भी व्यक्ति समय पर उचित और अनुचित निर्णय समझ लेता है वह जीवन में काफी उपलब्धियां प्राप्त करता है। यह गुण भी व्यक्ति के जन्म के साथ ही आता है और स्वभाव में ही शामिल रहता है।

ऐसे लोग कभी भी बड़ा कार्य नहीं कर सकते, क्योंकि...
व्यक्ति केवल दो ही प्रकार होते हैं एक बुद्धिमान और एक मूर्ख। या तो कोई व्यक्ति बुद्धिमान हो सकता है या मूर्ख। इसके अलावा अन्य किसी ओर प्रकार का मनुष्य नहीं हो सकता है। बुद्धिमान व्यक्ति वही है जो हर ज्ञान की बात को ग्रहण करें और अपने जीवन में अपनाएं। जबकि मूर्ख व्यक्ति कभी भी ज्ञान प्राप्त करने की चेष्टा ही नहीं करते हैं।

बुद्धिमान और मूर्ख व्यक्ति के संबंध में आचार्य चाणक्य ने कहा है कि किसी मूर्ख व्यक्ति के लिए किताबें उतनी ही उपयोगी हैं जितना कि एक अंधे व्यक्ति के लिए आईना उपयोगी। जिस प्रकार किसी अंधे व्यक्ति के लिए आईना व्यर्थ है, उसका कोई उपयोग नहीं है। कोई भी अंधा व्यक्ति जब कुछ देख ही नहीं सकता तो उसके लिए आईना किसी भी प्रकार से उपयोगी नहीं हो सकता। ठीक इसी प्रकार किसी भी मूर्ख व्यक्ति के लिए किताबें या ज्ञान की बात भी फिजूल ही है। क्योंकि मूर्ख व्यक्ति ज्ञान की बातों पर भी तर्क-वितर्क करते हैं और उन्हें समझ नहीं पाते।

आचार्य चाणक्य के अनुसार मूर्ख व्यक्ति अक्सर कुतर्क में ही समय नष्ट करते रहते हैं जबकि बुद्धिमान व्यक्ति ज्ञान को ग्रहण कर उसे अपने जीवन में उतार लेते हैं। ऐसे में बुद्धिमान लोग तो जीवन में कुछ उल्लेखनीय कार्य कर लेते हैं लेकिन मूर्ख व्यक्ति का जीवन कुतर्क करने में ही निकल जाता है। मूर्ख व्यक्ति को कोई भी समझा नहीं सकता है अत: बेहतर यही होता है कि उनसे बहस न की जाए, ना ही उन्हें समझाने का प्रयास किया जाए।

किसी भी मूर्ख व्यक्ति के सामने ज्ञान की किताबों का ढेर लगा देने से भी वह उनसे कुछ भी ग्रहण नहीं कर पाएगा। उनके लिए किताबें मूल्यहीन ही है और किताबों में लिखी ज्ञान की बातें फिजूल है। अत: किसी भी मूर्ख व्यक्ति को समझाने में अपना समय व्यर्थ नहीं करना चाहिए।

इन 4 कार्यों के तुरंत नहाना बहुत जरूरी है, क्योंकि...
हमेशा से ही माना जाता है कि अच्छा स्वास्थ्य ही सबसे बड़ा धन है। इसी वजह से स्वास्थ्य के संबंध में कई प्रकार के नियम बनाए गए हैं। अच्छे खान-पान के साथ ही रहन-सहन और आदतों का भी हमारी सेहत पर प्रभाव पड़ता है। काफी बीमारियों तो केवल नहाने से ही दूर रहती हैं। इस संबंध में आचार्य चाणक्य ने कुछ कार्य ऐसे बताए हैं जिनके होने के बाद व्यक्ति को तुरंत नहा लेना चाहिए।

आचार्य चाणक्य कहते हैं जब भी शरीर पर तेल मालिश की जाए, शमशान से आने के बाद, हजामत बनवाने के बाद और स्त्री प्रसंग के बाद स्नान करना अनिवार्य माना गया है।

स्वस्थ्य शरीर और चमकदार त्वचा के लिए जरूरी है कि कम से कम सप्ताह में एक बार अवश्य ही तेल मालिश की जानी चाहिए। तेल मालिश के बाद शरीर के रोम छिद्र खुल जाते हैं और अंदर का मेल बाहर हो जाता है। अत: तेल मालिश के तुरंत बाद नहा लेना चाहिए। इससे शरीर का समस्त मेल साफ हो जाता है। त्वचा में चमक आती है। इसी तरह यदि शमशान में जाने के बाद भी घर आकर तुरंत नहा लेना चाहिए। शमशान के वातावरण में विभिन्न प्रकार के कीटाणु और विषाणु रहते हैं जो कि हमारे स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होते हैं। अत: वहां से घर आकर तुरंत नहा लेना चाहिए।

आचार्य चाणक्य कहते हैं कि हजामत करवाने के बाद भी तुरंत स्नान कर लेना चाहिए। बाल कटवाने के बाद पूरे शरीर पर छोटे-छोटे बाल चिपक जाते हैं अत: इस कार्य के बाद जब शरीर सामान्य स्थिति में आ जाए तो तुरंत नहाना चाहिए। स्त्री प्रसंग के बाद भी नहाना अनिवार्य है। इस कार्य के बाद पवित्रता भंग हो जाती है अत: नहाने के बाद पवित्र हो जाना चाहिए।

हमारी सबसे बड़ी इस बीमारी का इलाज दवा नहीं है...
बीमारी, हमेशा ही दुख और यातना देती है, तड़पाती है, मनोबल तोड़ देती है। बीमारियां कई प्रकार की होती हैं लेकिन हर स्थिति में ये हमारे लिए बुरी ही होती है। हर बीमारी का एक सटीक उपचार होता है जिससे हम पुन: स्वस्थ हो सकते हैं। कुछ बीमारियां शारीरिक होती हैं तो कुछ मानसिक।

शारीरिक बीमारियों का उपचार उचित दवाइयों से किया जा सकता है लेकिन मानसिक या वैचारिक बीमारियों का उपचार किसी दवाई से होना संभव नहीं है। इस संबंध में आचार्य चाणक्य ने सबसे बुरी बीमारी बताई है लोभ। लोभ यानि लालच। जिस व्यक्ति के मन में लालच जाग जाता है वह निश्चित ही पतन की ओर दौडऩे लगता है। लालच एक ऐसी बीमारी है जिसका इलाज आसानी से नहीं हो पाता। इसी वजह से आचार्य ने इसे सबसे बड़ी बीमारी बताया है।

जिस व्यक्ति को लोभ की बीमारी हो जाए वह सभी रिश्ते-नातों से दूर हो जाता है, इनके सच्चे मित्र भी साथ छोड़ देते हैं, समाज में मान-सम्मान प्राप्त करना मुश्किल हो जाता है। लालच का भूत सवार होने के बाद व्यक्ति की बुद्धि और विवेक भी उसका साथ छोड़ देते हैं। जिससे इंसान लालच के मद में अंधा होकर अधार्मिक मार्ग पर चल देता है। अधार्मिक मार्ग पर चलने वालों को कभी भी शांति और सुख प्राप्त नहीं हो सकता। ऐसे लोग हमेशा ही भटकते रहते हैं लेकिन इनकी आत्मा को शांति नहीं मिल पाती। अत: बुद्धिमान इंसान वही है तो लोभ की बीमारी से खुद को दूर रखे, अन्यथा बहुत भयंकर परिणाम झेलने पड़ सकते हैं।

पत्नी यदि सुंदर नहीं हो तब भी दुखी नहीं होना चाहिए...
जीवन में अधिकांश परेशानियों की वजह है असंतोष। जो वस्तुएं या सुख-सुविधाएं हमें प्राप्त होती हैं हमें उनसे संतुष्ट रहना चाहिए। यदि असंतोष बना रहेगा तो निश्चित ही दुख और परेशानियों का जन्म होता है। आचार्य चाणक्य ने तीन ऐसी परिस्थितियां बताई हैं, जिसमें व्यक्ति को संतोष करना चाहिए। चाणक्य कहते हैं-

संतोषषस्त्रिषु कर्तव्य: स्वदारे भोजने धने।

त्रिषु चैव न कर्तव्यो अध्ययने जपदानयो:।।

हमें तीन बातों में संतोष कर लेना चाहिए अन्यथा कष्ट झेलना पड़ते हैं। ये तीन बातें हैं पत्नी की सुंदरता के संबंध में, भोजन के संबंध में, धन जितना भी हो। इसके अलावा तीन बातों में कभी भी संतोष नहीं करना चाहिए।

आचार्य चाणक्य कहते हैं कि पत्नी यदि सुंदर न हो तो व्यक्ति को संतोष कर लेना चाहिए। विवाह के बाद किसी भी परिस्थिति में अन्य स्त्रियों के पीछे नहीं भागना चाहिए। क्योंकि ऐसा होने पर व्यक्ति के जीवन में कई प्रकार की परेशानियां प्रारंभ हो जाती है। अत: इन दुखों से बचने के लिए इस बात का ध्यान रखना चाहिए। भोजन जैसा भी मिले खुशी से ग्रहण करना चाहिए। व्यक्ति के पास जितना पैसा हो, जितनी उसकी आय हो उसी में खुश रहना चाहिए। आय से अधिक खर्च नहीं करना चाहिए। जैसी आर्थिक स्थिति हो व्यक्ति को उसी में संतोष कर लेना चाहिए।

ये तीन बातें ऐसी हैं जिनमें व्यक्ति को संतुष्ट रहना चाहिए। इसके अतिरिक्त तीन ऐसी बातें हैं जिनमें हमें कभी भी संतोष नहीं करना चाहिए। चाणक्य के अनुसार अध्ययन, दान और जप में संतोष नहीं करना चाहिए। ये तीनों कर्म आप जितना अधिक करेंगे आपके पुण्यों में उतनी ही वृद्धि होगी।

पराए घर में नहीं रहना चाहिए, क्योंकि...
कष्ट, दुख, परेशानियां तो हमेशा ही बनी रहती हैं। इस प्रकार की कुछ परिस्थितियों पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं होता है तो कुछ हमारे कर्मों से ही उत्पन्न होती हैं। जाने-अनजाने हम कई ऐसे कार्य कर बैठते हैं जो कि भविष्य में किसी कष्ट का कारण बन जाते हैं। इस संबंध में आचार्य चाणक्य कहते हैं-

कष्टं च खलु मूर्खत्वं कष्टं च खलु यौवनम्।

कष्टात् कष्टतरं चैव परगेहे निवासनम्।।

इस श्लोक का अर्थ है कि पहला कष्ट है मूर्ख होना, दूसरा कष्ट है जवानी और इन दोनों से कष्टों से बढ़कर कष्ट है पराए घर में रहना।

आचार्य चाणक्य के अनुसार किसी भी व्यक्ति के लिए सबसे बड़ा दुख है मूर्ख होना। यदि कोई व्यक्ति मूर्ख है तो वह जीवन में कभी भी सुख प्राप्त नहीं कर सकता। वह जीवन में हद कदम दुख और अपमान ही झेलना पड़ता है। बुद्धि के अभाव में इंसान कभी उन्नति नहीं कर सकता। दूसरा कष्ट है जवानी। जी हां जवानी भी दुखदायी हो सकती है। क्योंकि इस दौरान व्यक्ति में अत्यधिक जोश और क्रोध होता है। कोई व्यक्ति जवानी के इस जोश को सही दिशा में लगाता है तब तो वह निर्धारित लक्ष्यों तक अवश्य ही पहुंच जाएगा। इसके विपरित यदि कोई इस जोश और क्रोध के वश होकर गलत कार्य करने लगता है तब नि:सेदह वह बड़ी परेशानियों में घिर सकता है। इन दोनों कष्टों से कहीं अधिक खतरनाक कष्ट है किसी पराए घर में रहना। यदि कोई व्यक्ति किसी पराए घर में रहता है तो उस इंसान के लिए कई प्रकार मुश्किलें सदैव बनी रहती हैं। दूसरों के घर में रहने से स्वतंत्रता पूरी तरह खत्म हो जाती है। ऐसे में इंसान अपनी मर्जी से कोई भी कार्य नि:सकोच रूप से नहीं सकता है।

ये 5 काम करने वाला इंसान हमेशा खुश रहता है...
कैसा जीवन श्रेष्ठ है? हमें किस प्रकार जीना चाहिए? हम कैसे जीएं कि हमेशा खुश और सुखी रहें? ऐसे ही कई सवाल प्राय: अधिकांश लोगों के मन में घुमते रहते हैं। इन सवालों के जवाब सामान्यत: आसानी से नहीं खोजे जा सकते।

श्रेष्ठ जीवन वही व्यक्ति जी सकता है जो हर परिस्थिति में खुद की नजरों में भी सम्मानीय बना रहे। इस संबंध में आचार्य चाणक्य ने बताया है कि जो व्यक्ति समाज में, घर-परिवार में, मित्रों में सम्मान पाता है, अच्छे कर्म करता है, अन्य लोगों को किसी प्रकार की हानि नहीं पहुंचाता है, वही श्रेष्ठ और सुखी जीवन जी सकता है। इसके विपरित यदि कोई इंसान अपने बुरे कर्मों की वजह से हमेशा ही निरादर का पात्र बनता है या जिसे बार-बार अपमानित होना पड़ता है, ऐसे इंसान का जीवन किसी मृत्यु के समान ही है।

जिन लोगों को अपने बुरे कर्मों की वजह से घर-परिवार और समाज से तिरस्कार झेलना पड़ता है उनके ऐसे जीवन से तो मृत्यु ही श्रेष्ठ है। जो व्यक्ति खुद के स्वार्थ की पूर्ति के लिए अन्य लोगों को कष्ट पहुंचा रहा है उसे कभी भी सम्मान प्राप्त नहीं हो सकता है। वह सदैव अपमान ही प्राप्त करेगा। इसी वजह से ऐसे कार्य करने चाहिए जिनसे हमें हर स्थान पर सम्मान ही प्राप्त हो।

जो व्यक्ति लगातार अपमान झेलता है उसके लिए मृत्यु ही श्रेष्ठ उपाय है। क्योंकि मृत्यु को बस एक पल का कष्ट देती है जबकि अपमान जीवनभर हर पल पीड़ा पहुंचता है। ऐसा जीवन मृत्यु के समान ही है। अत: हमें ऐसे कार्यों से खुद को दूर रखना चाहिए जिनसे हम अपमान के पात्र बनते हो। ऐसे कार्य करें जिनसे राष्ट्रहित जुड़ा हो और दूसरों को प्रसन्नता प्राप्त हो। तभी हम श्रेष्ठ जीवन जी सकते हैं।

जीवन के अंतिम पल में कोई कुछ नहीं कर सकता...
हमें ऐसे कर्म करना चाहिए जो बाद में याद किए जा सके। उल्लेखनीय कर्म करने वाले लोगों को ही इतिहास में स्थान मिल पाता है। अत: ऐसे कर्म करें जो हमारी मृत्यु के बाद भी याद किए जा सके।

कैसे कर्म करने चाहिए? इस संबंध में आचार्य चाणक्य ने बताया है कि हमें ऐसे कार्य करने चाहिए जो कभी भी हमारी आत्मा पर बोझ न बने। हमारा हर कार्य राष्ट्रहित और जनहित के लिए ही होना चाहिए और ऐसे कार्य जब तक हमारा शरीर स्वस्थ है तभी तक किए जा सकते हैं। शरीर में जब तक शक्ति है, जब तक हम स्वस्थ है, जब तक हमारा दिमाग नियंत्रण में है तक ही हम सही दिशा में कार्य कर सकते हैं। क्योंकि जब मृत्यु का समय आएगा तो यकीन मानिए हम उस समय कुछ भी कर पाने की स्थिति में नहीं रहेंगे।

आत्मा पर बोझ बढ़ाने वाले कार्य जैसे निजी स्वार्थ के लिए दूसरे लोगों को सताना, उन्हें प्रताडि़त करना हर परिस्थिति में अधार्मिक ही है। कर्म केवल निजी स्वार्थ के लिए नहीं किया जा सकता। ऐसे लोगों की आत्मा मृत ही मानी जाती है जो खुद की इच्छाओं पूरा करने के लिए दूसरों को कष्ट पहुंचाते हैं और अधार्मिक कृत्यों में लिप्त रहते हैं। अत: अपनी आत्मा को बचाने के लिए हमें जो भी करना है वह तब तक ही किया जा सकता है जब तक हम स्वस्थ है। हमारी आत्मा तभी बचेगी जब हम राष्ट्रहित और जनहित में कार्य करेंगे।

कैसे लोगों से दोस्ती नहीं करना चाहिए...
सभी रिश्ते व्यक्ति के जन्म के साथ ही बनते हैं। जिस घर-परिवार में हमारा जन्म हुआ है वहां से संबंधित सभी लोगों से हमारा रिश्ता स्वत: ही जुड़ जाता है। इन रिश्तों को तोडऩा या जोडऩा व्यक्ति के हाथों में नहीं रहता है। ये रिश्ते हमेशा ही बने रहते हैं। इन रिश्तों के अतिरक्ति एक रिश्ता है जो हम अपने व्यवहार से बनाते हैं, वह है मित्रता। मित्रता ही एकमात्र ऐसा रिश्ता है जो हम खुद जोड़ते हैं। मित्र हम स्वयं चुनते हैं।

सच्चे मित्र ही हमें सभी परेशानियों से बचा लेते हैं और कठिन समय में मदद करते हैं। हमें कैसे मित्र चुनना चाहिए? इस संबंध में आचार्य चाणक्य ने कहा है कि जिस व्यक्ति में अपने परिवार का पालन पोषण करने की योग्यता ना हो, जो व्यक्ति अपनी गलती होने पर भी किसी से न डरता हो, जो व्यक्ति शर्म नहीं करता है, लज्जावान न हो, अन्य लोगों के लिए जिसमें उदारता का भाव न हो, जो इंसान त्यागशील नहीं है, वे मित्रता के योग्य नहीं कहे जा सकते।

चाणक्य के अनुसार यदि कोई व्यक्ति अपने परिवार का भरण-पोषण सिर्फ आलस्य और झूठे अभिमान की वजह से नहीं करते हैं। हमेशा जो व्यर्थ की बातों में समय नष्ट करते हैं। ऐसे लोगों से दूर ही रहना चाहिए। इसके अलावा जो लोग अपनी गलती होने पर भी किसी न डरे, विद्वान और वृद्धजन का आदर-सम्मान नहीं करते हैं। उनसे मित्रता नहीं करना चाहिए। जिन लोगों में लज्जा का गुण न हो, जो किसी भी गलत कार्य को करने में संकोच न करें, जो लज्जा हीन हो उनसे मित्रता नहीं करनी चाहिए। जिन लोगों में अन्य लोगों के लिए उदारता का गुण न हो वे भी मित्रता योग्य नहीं होते हैं। दूसरे के दुख पर उपहास करना, किसी की मदद न करने वालों से मित्रता न करें। इसके अलावा जो लोग त्याग की भावना नहीं रखते हो उनसे भी मित्रता नहीं करना चाहिए।

ऐसे लोगों से आपको बचकर रहना चाहिए, क्योंकि...
हमारे आसपास कई लोग रहते हैं, सभी का स्वभाव, आदतें, रहन-सहन का तरीका, हाव-भाव, सोच-विचार हर बात एक-दूसरे से अलग होती है। कुछ लोग मन से और विचारों से पवित्र होते हैं वे कभी भी किसी अधार्मिक या गलत कार्य में नहीं फंसते। जबकि कुछ लोग विचारों से ही अपवित्र होते हैं, हमेशा ही अधार्मिक कार्य करते हैं और दूसरों को भी ऐसे मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते हैं।

आचार्य चाणक्य बताते हैं कि हमारे आसपास कई लोग हैं कुछ अच्छे स्वभाव और अच्छे विचारों वाले हैं, कुछ दुष्ट स्वभाव के अधार्मिक लोग होते हैं। दुष्ट लोगों की संगति हमेशा ही दुखों और परेशानियों को बढ़ाने वाली ही होती है। सांप का सारा जहर केवल फन में ही होता है, मक्सी मुख से जहर फैलाती है और बिच्छु का केवल डंक जहरीला होता है जबकि दुष्ट स्वभाव वाला इंसान इन तीनों भयंकर जहरीले जीवों से भी ज्यादा जहरीला होता है।

चाणक्य के अनुसार दुष्ट स्वभाव वाला इंसान अपने घर-परिवार, समाज, मित्र, राष्ट्र आदि सभी के लिए नुकसान पहुंचाने वाला होता है। ऐसे लोग जहां रहते हैं वहीं जहर फैलाते हैं। घर-समाज का वातावरण अपने बुरे विचारों से दूषित करते हैं। अत: ऐसे लोगों की संगति से बचना चाहिए। यहां बुरे विचारों से तात्पर्य है ऐसे विचारों जो निजी स्वार्थ की पूर्ति के लिए दूसरों को हानि पहुंचाने वाले होते हैं। अधार्मिक मार्ग या गलत कार्य या बुरी आदतें जो समाज को क्षति पहुंचाती हैं इनसे स्वयं को दूर रखना चाहिए।

अपनी गोपनीय बातों को छिपाकर ही रखें, यही आपके लिए अच्छा है...
मुसीबत या परेशानियां स्वयं किसी व्यक्ति के जीवन में नहीं आती। इंसान के कर्म ही उसे समस्याओं में उलझा देते हैं। अच्छे कार्यों का परिणाम देर से ही सही पर अच्छा ही आता है वहीं बुरे कर्मों का फल बुरा ही होता है। हर व्यक्ति के जीवन कुछ गोपनीय बातें अवश्य होती हैं। ऐसे में यदि ये राज की बातें किसी अन्य व्यक्ति को मालुम हो जाए तब यह गंभीर मुसीबतों को बुलाने जैसा ही है।

हर व्यक्ति के अपने जीवन की गोपनीय बातों के संबंध आचार्य चाणक्य ने बताया है कि राज की बातें किसी अन्य मित्र या रिश्तेदार को भी नहीं बताना चाहिए। क्योंकि जिस इंसान को आपके सारे राज मालुम है वही आपके लिए सबसे बड़ा खतरा भी बन सकता है। भविष्य यदि किसी भी प्रकार से हमराज व्यक्ति से मतभेद हो तो तब वह आपकी गोपनीय बातों का गलत लाभ उठाता सकता है। इस प्रकार आप गंभीर मुसीबतों में फंस सकते हैं। इसी वजह से अपने जीवन की गोपनीय बातें किसी भी इंसान पर जाहिर नहीं करना चाहिए।

चाणक्य ने बताया कि राज की बातों को राज ही रहने देना चाहिए। इस प्रकार की गोपनीय बातें ही राजा-महाराजाओं की सत्ता को भी पलट सकती हैं। अत: आम व्यक्ति को भी इस प्रकार की गोपनीय बातें किसी पर भी जाहिर नहीं करना चाहिए।

ये बात बनाती हैं व्यक्ति को प्रसिद्ध...
आदतें, हाव-भाव और स्वभाव ही निर्धारित करता है कि हमें घर-परिवार और समाज में कैसा स्थान मिलेगा? कुछ लोगों को घर हो या ऑफिस या मित्रों के साथ हो या रिश्तेदारों के साथ हर जगह मान-सम्मान प्राप्त होता है। वहीं कुछ लोगों को अधिकांशत: अपमान ही झेलना पड़ता है। जबकि कोई इंसान नहीं चाहता कि उसे कभी भी अपमानजनक व्यवहार सहना पड़े।

घर और समाज में आसपास के लोगों से मान-सम्मान प्राप्त हो, इसके लिए जरूरी है कि आपका व्यवहार सभी के साथ अच्छा रहे। ध्यान रखें कि किसी भी व्यक्ति के संबंध में हम जाने-अनजाने कोई अपमानजनक या कटू शब्दों का प्रयोग न करें। आचार्य चाणक्य के अनुसार फूलों की महक उसी दिशा में फैलती है जिस ओर हवा बह रही है। जबकि अच्छे इंसान की अच्छाई सभी दिशाओं में फैलती है। वह व्यक्ति हर ओर सम्मान प्राप्त करेगा, प्रसिद्ध हो जाएगा।

इंसान की अच्छाई ही उसे सभी जगह घर-परिवार, समाज, मित्रों में उचित आदर दिलाती है। जो व्यक्ति सभी के लिए अच्छा सोचता है वह कभी भी निरादर का पात्र नहीं होता। सभी की भलाई के लिए कार्य करने वाले इंसान को विशेष स्थान प्राप्त होता है। वहीं जो व्यक्ति निजी स्वार्थ के लिए दूसरों को कष्ट पहुंचाता है, राष्ट्रहित में कार्य नहीं करता, हमेशा बुराइयों के साथ ही जीवन व्यतीत करता है वह कभी भी सम्मान का पात्र हो ही नहीं सकता। अत: हमें हमारी आदतें और स्वभाव वैसा ही रखना चाहिए जिनसे किसी अन्य व्यक्ति को किसी प्रकार की असुविधा न हो।

इन सातों को नींद से जगाने की गलती कभी न करें...
जीवन को सुखी और शांत बनाए रखने के लिए शास्त्रों में कई अचूक नियम और उपाय बताए गए हैं। इन उपायों और नियमों का पालन करने वाले इंसान को कभी भी दुख का सामना नहीं करना पड़ता। वे लोग हर पल सुखी और चिंताओं से मुक्त रहते हैं।

जीवन में सफलताएं प्राप्त करने के लिए कई बातों का ध्यान रखना अनिवार्य है। इस संबंध में आचार्य चाणक्य द्वारा कई सटीक सूत्र बताए गए हैं। इन्हीं से एक सूत्र ये है सर्प, नृप अथवा राजा, शेर, डंक मारने वाले जीव, छोटे बच्चे, दूसरों के कुत्ते और मूर्ख, इन सातों को नींद से नहीं जगाना चाहिए, ये सो रहे हैं तो इन्हें इसी अवस्था में रहने देना ही लाभदायक है।

यदि किसी सोते हुए सांप को जगा दिया जाए तो वह हमें अवश्य डंसेगा। किसी राजा को जगाने पर राजा का क्रोध झेलना पड़ सकता है। यदि किसी शेर को जगा दिया तब तो निश्चित ही मृत्यु का सामना करना पड़ सकता है। किसी डंक मारने वाले जीव को जगाने पर भी मृत्यु का संकट खड़ा हो सकता है। यदि कोई छोटा बच्चा सो रहा है तो उसे जगाने पर संभालना मुश्किल होता है। दूसरों के कुत्तों को जगा दिया जाए तो वह भौंकना शुरू कर देगा, काट भी सकता है। यदि कोई मूर्ख इंसान सो रहा है तो उसे भी सोते रहने देना चाहिए क्योंकि मूर्ख व्यक्ति को समझा पाना बड़े-बड़े विद्वानों के लिए भी संभव नहीं हैं।

दूसरों के सामने खुद को कैसा बनाए रखें...
समझदार इंसान वही है जो हर परिस्थिति में सहज रहे और समस्याओं का निराकरण आसानी से निकाल लें। किसी भी प्रकार की विषम परिस्थिति को दूर करने की क्षमता जिस व्यक्ति में होती है वही समझदार होता है। जो व्यक्ति हालात और समय में छिपे संकेतों को समझ ले वहीं समझदार है।

इस प्रकार के गुण यदि किसी इंसान में नहीं है तो उसे क्या करना चाहिए? इस संबंध में आचार्य चाणक्य ने एक सटीक उपाय बताया है। चाणक्य के अनुसार जिस प्रकार यदि कोई सांप जहरीला ना हो तो भी उसे स्वयं को जहरीला ही दिखाना चाहिए। ठीक इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति समझदार या विद्वान न हो तब भी उसे दूसरों के सामने समझदार बने रहना चाहिए। इसी में भलाई है।

चाणक्य की यह बात अलग-अलग परिस्थितियों में अलग-अलग रूप से प्रभावशाली हो सकती है। यदि को शक्तिशाली नहीं है तो उसे स्वयं को कभी भी निर्बल सिद्ध नहीं होने देना चाहिए। अन्यथा शक्तिशाली लोग उस पर अपना अधिकार कर लेंगे। यदि कोई व्यक्ति दूसरों के सामने मूर्ख सिद्ध हो जाए तो उसे हमेशा ही तिरस्कार और अपमान ही झेलना पड़ेगा। ऐसे में सही उपाय यही है कि वह हमेशा ही खुद को समझदार ही दिखाए। इसके साथ ही वह अपने स्तर पर हालात और परिस्थितियों को समझने का प्रयत्न करता रहे। इस प्रकार उसे समाज में अपमान का पात्र नहीं बनना पड़ेगा और वह हमेशा ही अन्य लोगों के सामने आदरणीय बना रहेगा।

ये 3 सवाल बता देंगे आपको सफलता मिलेगी या नहीं...
किसी भी कार्य की सफलता या असफलता उसके लिए की गई योजना पर निर्भर होती है। पूर्व नियोजित ढंग से किए गए कार्य में सफलता प्राप्त होने की संभावनाएं काफी अधिक होती हैं। योजना के साथ ही व्यक्ति की दृढ़ इच्छा शक्ति भी उसे निर्धारित लक्ष्य तक पहुंचने में मदद करती है।

लक्ष्य कैसे प्राप्त किया जाए... इस संबंध में आचार्य चाणक्य ने बताया है कि किसी भी कार्य की शुरूआत से पहले हमें खुद से तीन सवाल पूछने चाहिए। ये तीन सवाल ही लक्ष्य प्राप्ति में आ रही बाधाओं को पार करने में मददगार साबित होंगे। इसके साथ ही ये कार्य की सफलता भी सुनिश्चित करेंगे। ये तीन प्रश्न हैं-

- मैं ये क्यों कर रहा हूं?

- मेरे द्वारा किए जा रहे इस कार्य के परिणाम क्या-क्या हो सकते हैं?

- मैं जो कार्य प्रारंभ करने जा रहा हूं, क्या मैं सफल हो सकूंगा?

इन तीन प्रश्नों पर गहराई से चिंतन करें। इसके बाद यदि आपको इन सवालों के संतोषजनक और सही जवाब मिल जाए, तभी कार्य को प्रारंभ करना चाहिए। यदि इन प्रश्नों के संतोषजनक जवाब नहीं मिल पा रहे हैं तो बुद्धिमानी यही है कि उस कार्य को न किया जाए। तीनों प्रश्नों के संतोषजनक जवाब मिलने के बाद आप अपने लक्ष्य की ओर बिना समय गवाएं आगे बढ़ सकते हैं। फिर लक्ष्य तक पहुंचने में किसी भी प्रकार की बाधा को पार करने में आपस अवश्य सफल पाएंगे। दृढ़ इच्छा शक्ति के बल पर आप हर कदम सफलता प्राप्त करेंगे।

व्यक्ति अकेले जन्म लेता है और अकेले ही मरता है, इसलिए ध्यान रखें ये बात
जब इस दुनिया में किसी व्यक्ति का जन्म होता है तो वह अकेले ही आता है। उसके साथ कोई और नहीं होता है। जन्म के बाद ही उसे परिवार, समाज, मित्र आदि प्राप्त होते हैं। जैसे कर्म वह करता है उसी के अनुसार जीवनभर सुख या दुख प्राप्त करते रहता है। अंत में व्यक्ति अकेले ही मर जाता है।

आचार्य चाणक्य ने जीवन से जुड़ी कई सटीक नीतियां बताई हैं। इन नीतियों में जीवन की सत्यता छिपी हुई है। जो व्यक्ति इन नीतियों को अपने व्यवहार में उतार लेता है वह निश्चित ही श्रेष्ठ व्यक्ति बन सकता है। आचार्य ने बताया है कि इस दुनिया में हमें आना अकेले ही है और जाना भी अकेले ही पड़ता है, अत: स्वर्ग या नर्क भी हमें अकेले भी भोगना है।

चाणक्य के अनुसार जन्म लेने के बाद व्यक्ति को जो घर-परिवार और वातावरण प्राप्त होता है उसी के अनुसार वह कर्म करते रहता है। यदि कोई व्यक्ति अच्छे कर्म करेगा तो उसे इनके शुभ फल प्राप्त होंगे। वहीं यदि कोई व्यक्ति बुराई के कार्यों में लिप्त रहता है तो उसे इन सभी कार्यों के भयंकर परिणाम झेलने पड़ सकते हैं। जन्म से मृत्यु तक हमें अच्छे-बुरे कर्मों के फल अवश्य ही प्राप्त हो जाते हैं।

कोई भी व्यक्ति यदि अपने निजी स्वार्थ के लिए या किसी और के लिए बुरा कार्य करता है तो यह निश्चित ही दुख देने वाली बात है। लेकिन जिन लोगों के लिए व्यक्ति अधर्म के मार्ग पर चलता है वे सभी लोग भी मृत्यु के समय उनका साथ छोड़ देते हैं। इसीलिए कभी भी किसी भी परिस्थिति में बुरे कार्यों से बचना चाहिए। हमेशा ऐसे कर्म करें जिनसे दूसरों का अहित न हो।

ऐसे स्वभाव वाली स्त्रियों का भरोसा नहीं करना चाहिए, क्योंकि...
सामान्यत: विश्वास या भरोसे पर ही हमारा जीवन चलता है। हमारे आसपास कई लोग होते हैं, जिन पर हम विश्वास करते हैं। इंसानों के साथ ही कई अन्य जीव भी हैं जिन पर हम विश्वास रखते हैं। आचार्य चाणक्य ने बताया है कि हमें किस-किस पर भरोसा नहीं करना चाहिए ताकि जीवन सुखमय बना रहे।

आचार्य चाणक्य कहते हैं-

नदीनां शस्त्रपाणीनां नखीनां श्रृंगीणां तथा।

विश्वासो नैव कर्तव्य: स्त्रीषु राजकुलेषु च।।

इस संस्कृत श्लोक का अर्थ यही है कि हमें नदियों पर कभी विश्वास नहीं करना चाहिए। शस्त्रधारियों पर भरोसा करना खतरनाक हो सकता है। जिन जानवरों के नाखुन और सींग नुकिले होते हैं उन पर विश्वास करने वाले को जान का जोखिम बन सकता है। चंचल स्वभाव की स्त्रियों पर भी विश्वास नहीं करना चाहिए। इनके साथ ही किसी राज्यकुल के व्यक्ति, शासन से संबंधित लोगों का भी भरोसा नहीं करना चाहिए।

चाणक्य कहते हैं कि जिन नदियों के पुल कच्चे हैं, जीर्ण-शीर्ण अवस्था में हैं उस नदी पर भरोसा नहीं करना चाहिए क्योंकि कोई नहीं जान सकता कि कब नदी के पानी का बहाव तेज हो जाए, उसकी दिशा बदल जाए। जिन जीवों के नाखुन और सिंग होते हैं उन पर भरोसा करना जानलेवा हो सकता है। क्योंकि ऐसे जीवों का कोई भरोसा नहीं होता कि वे कब बिगड़ जाए और नाखुन या सींगों से प्रहार कर दे। हमारे आसपास यदि कोई ऐसा व्यक्ति को जो अपने साथ हथियार रखता हो उस पर भी विश्वास नहीं करना चाहिए क्योंकि जब भी वह गुस्से या आवेश में होगा तब उस हथियार का उपयोग कर सकता है। जिन स्त्रियों का स्वभाव चंचल होता है उन पर भरोसा नहीं किया जा सकता। जिन लोगों का संबंध शासन से है उन पर विश्वास करना भी नुकसानदायक हो सकता है क्योंकि वे अपने स्वार्थ सिद्ध करने के लिए कभी भी आपको धोखा दे सकते हैं।

ऐसी लड़की यदि सुंदर हो तब भी उससे शादी नहीं करना चाहिए, क्योंकि...
विवाह या शादी को जीवन का महत्वपूर्ण संस्कार माना जाता है। सामान्यत: हर इंसान का विवाह अवश्य होता है। विवाह के बाद वर-वधु के साथ दोनों के परिवारों का जीवन बदलता है। इसी वजह से शादी किससे की जाए, इस संबंध में सावधानी अवश्य रखी जाती है।

कैसी लड़की से विवाह करना चाहिए और कैसी लड़की से नहीं, इस संबंध में आचार्य चाणक्य बताया है कि-

वरयेत् कुलजां प्राज्ञो विरूपामपि कन्यकाम्।

रूपशीलां न नीचस्य विवाह: सदृशे कुले।।

आचार्य चाणक्य कहते हैं समझदार मनुष्य वही है जो विवाह के लिए नारी की बाहरी सुंदरता न देखते हुए मन की सुंदरता देखे। यदि कोई उच्च कुल की कुरूप कन्या सुंस्कारी हो तो उससे विवाह कर लेना चाहिए। जबकि कोई सुंदर कन्या यदि संस्कारी न हो, अधार्मिक हो, नीच कुल की हो, जिसका चरित्र ठीक न हो तो उससे किसी भी परिस्थिति में विवाह नहीं करना चाहिए। विवाह हमेशा समान कुल में शुभ रहता है।

आचार्य चाणक्य के अनुसार समझदार और श्रेष्ठ मनुष्य वही है जो उच्चकुल (अच्छे स्वभाव वाली)में जन्म लेने वाली सुसंस्कारी कुरूप कन्या से विवाह कर लेता है। विवाह के बाद कन्या के गुण ही परिवार को आगे बढ़ाते हैं। जबकि सुंदर नीच कुल (बुरे स्वभाव वाली) में पैदा होने वाली कन्या विवाह के बाद परिवार को तोड़ देती है। ऐसे लड़कियों का स्वभाव व आचरण निम्न ही रहता है। जबकि धार्मिक और ईश्वर में आस्था रखने वाली संस्कारी कन्या के आचार-विचार भी शुद्ध होंगे जो एक श्रेष्ठ परिवार का निर्माण करने में सक्षम रहती है।

नीच लोगों से ऐसी चीज ले लेना चाहिए, क्योंकि...
प्रतिदिन कई लोगों से हमारा संपर्क होता है, उनमें से कुछ अच्छे चरित्र और व्यवहार वाले होते हैं तो कुछ बुरे स्वभाव वाले होते हैं। अच्छे लोगों से सीखने और लेने के लिए काफी कुछ रहता है लेकिन हम बुरे लोगों से भी अच्छी बातें ग्रहण कर सकते हैं। इस संबंध में आचार्य चाणक्य ने कहा है कि-

विषादप्यमृतं ग्राह्ममेध्यादपि कांचनम्।

नीचादप्युत्तमां विद्यां स्त्रीरत्नं दुष्कुलादपि।।

इसका अर्थ है कि विष से अमृत ले लेना चाहिए। गंदगी में यदि सोना पड़ा हुआ है तो उसे उठा लेना चाहिए। कोई नीच व्यक्ति है और उसके पास कोई उत्तम विद्या है तो उसे ग्रहण कर लेना चाहिए। यदि किसी दुष्टकुल यानि संस्कारहीन परिवार में कोई सुसंस्कारी स्त्री है तो अविवाहित युवा को उस कन्या से विवाह कर लेना चाहिए।

आचार्य चाणक्य कहते हैं यदि कहीं बुराई है तो वहां से अच्छाई ग्रहण की जा सकती है। यदि कहीं विष है और वहां अमृत भी हो तो वहां से केवल अमृत को ही स्वीकार करना चाहिए। इसी प्रकार यदि कहीं गंदगी में सोने के आभूषण या अन्य मूल्यवान वस्तु पड़ी हो तो उसे उठा लेना चाहिए। इसके अलावा यदि कोई व्यक्ति स्वभाव से नीच है, अधर्मी है लेकिन उसके पास को उत्तम विद्या है तो उससे वह विद्या प्राप्त कर लेना चाहिए।

चाणक्य के अनुसार यदि किसी परिवार के सदस्यों के संस्कार और व्यवहार अच्छा नहीं है लेकिन वहां रहने वाली स्त्री सुसंस्कारी, शिक्षित है, गुणवान है, अविवाहित है तो उससे किसी योग्य वर को विवाह कर लेना चाहिए।

पराए घर में नहीं रहना चाहिए, क्योंकि...
कष्ट, दुख, परेशानियां तो हमेशा ही बनी रहती हैं। इस प्रकार की कुछ परिस्थितियों पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं होता है तो कुछ हमारे कर्मों से ही उत्पन्न होती हैं। जाने-अनजाने हम कई ऐसे कार्य कर बैठते हैं जो कि भविष्य में किसी कष्ट का कारण बन जाते हैं। इस संबंध में आचार्य चाणक्य कहते हैं-

कष्टं च खलु मूर्खत्वं कष्टं च खलु यौवनम्।

कष्टात् कष्टतरं चैव परगेहे निवासनम्।।

इस श्लोक का अर्थ है कि पहला कष्ट है मूर्ख होना, दूसरा कष्ट है जवानी और इन दोनों से कष्टों से बढ़कर कष्ट है पराए घर में रहना।

आचार्य चाणक्य के अनुसार किसी भी व्यक्ति के लिए सबसे बड़ा दुख है मूर्ख होना। यदि कोई व्यक्ति मूर्ख है तो वह जीवन में कभी भी सुख प्राप्त नहीं कर सकता। वह जीवन में हद कदम दुख और अपमान ही झेलना पड़ता है। बुद्धि के अभाव में इंसान कभी उन्नति नहीं कर सकता। दूसरा कष्ट है जवानी। जी हां जवानी भी दुखदायी हो सकती है। क्योंकि इस दौरान व्यक्ति में अत्यधिक जोश और क्रोध होता है। कोई व्यक्ति जवानी के इस जोश को सही दिशा में लगाता है तब तो वह निर्धारित लक्ष्यों तक अवश्य ही पहुंच जाएगा। इसके विपरित यदि कोई इस जोश और क्रोध के वश होकर गलत कार्य करने लगता है तब नि:सेदह वह बड़ी परेशानियों में घिर सकता है। इन दोनों कष्टों से कहीं अधिक खतरनाक कष्ट है किसी पराए घर में रहना। यदि कोई व्यक्ति किसी पराए घर में रहता है तो उस इंसान के लिए कई प्रकार मुश्किलें सदैव बनी रहती हैं। दूसरों के घर में रहने से स्वतंत्रता पूरी तरह खत्म हो जाती है। ऐसे में इंसान अपनी मर्जी से कोई भी कार्य नि:सकोच रूप से नहीं सकता है।

ऐसे काम करेंगे तो कामयाबी हो जाएगी आपसे दूर
किसी भी कार्य में सफलता इस बात पर निर्भर होती है कि आपका प्रयास कैसा है? लक्ष्य प्राप्त करने के लिए आप किस प्रकार कार्य कर रहे हैं? जीवन में हर कदम कामयाबी चाहिए तो आचार्य चाणक्य की ये नीति अपनाना चाहिए।

आचार्य कहते हैं-

प्रभूतं कायमपि वा तन्नर: कर्तुमिच्छति।

सर्वारम्भेण तत्कार्यं सिंहादेकं प्रचक्षते।।

यदि किसी व्यक्ति को अपना लक्ष्य प्राप्त करना है तो उसे चाहिए वह पूरी शक्ति लगाकर कार्य करें। ठीक उसी तरह जैसे कोई शेर अपना शिकार करता है।

आचार्य चाणक्य कहते हैं हमें जो भी कार्य करना है वह पूरी ताकत से करना चाहिए। कार्य चाहे जितना छोटा या बड़ा हो हमें पूरी शक्ति लगाकर ही करना चाहिए। तभी हमारी कामयाबी पक्की हो जाती है। जिस प्रकार कोई शेर अपने शिकार पर पूरी शक्ति से झपटता है और शिकार को भागने का मौका नहीं देता, इसी गुण के कारण वह कभी असफल नहीं होता है। हमें सिंह की भांति ही अपने लक्ष्य की ओर झपटना चाहिए, आगे बढऩा चाहिए। कार्य में किसी प्रकार का ढीलापन हुआ तो कामयाबी आपसे दूर हो जाएगी। यही सफलता प्राप्त करने का अचूक उपाय है।

किसी भी स्त्री की सबसे बड़ी शक्ति हैं ये बातें...
स्त्री हो या पुरुष, सभी के पास कुछ गुण, कुछ शक्तियां होती हैं जिनसे वे अपने कार्य सिद्ध कर सकते हैं। वैसे तो हर व्यक्ति की अलग-अलग शक्तियां होती हैं लेकिन आचार्य चाणक्य ने बताया है कि किसी भी स्त्री की शक्ति उसकी सुंदरता, यौवन और मीठी वाणी होती है। चाणक्य कहते हैं-

बाहुवीर्यबलं राज्ञो ब्राह्मणो ब्रह्मविद् बली।

रूप-यौवन-माधुर्यं स्त्रीणां बलमनुत्तमम्।।

किसी भी राजा की शक्ति उसका स्वयं का बाहुबल है। ब्राह्मणों की ताकत उनका ज्ञान होता है। स्त्रियों की ताकत उनका सौंदर्य, यौवन और उनकी मीठी वाणी होती है।

आचार्य कहते हैं कि वैसे तो किसी भी राजा के अधीन उसकी सेना, मंत्री और अन्य राजा रहते हैं लेकिन उसका स्वयं का ताकतवर होना भी जरूरी है। यदि कोई राजा स्वयं शक्तिहीन है तो वह किसी पर राज नहीं कर सकता। राजा जितना शक्तिशाली होगा उतना ही अच्छा शासक रहता है। इसीलिए यह जरूरी है कि राजा का बाहुबल से भी शक्तिशाली हो।

किसी भी ब्राह्मण की शक्ति उसका ज्ञान है। ब्राह्मण जितना ज्ञानी होगा वह उतना ही अधिक सम्मान प्राप्त करेगा। ईश्वर और जीवन से संबंधित ज्ञान ही किसी भी ब्राह्मण की सबसे बड़ी शक्ति हो सकता है।

आचार्य चाणक्य कहते हैं किसी भी स्त्री का सौंदर्य और यौवन ही उसकी सबसे बड़ी शक्ति होती है। यदि कोई स्त्री सुंदर नहीं है लेकिन मधुर व्यवहार वाली है तब भी वह जीवन में कभी भी परेशानियों का सामना नहीं करती है। मधुर व्यवहार से ही स्त्री मान-सम्मान प्राप्त करती हैं।

ऐसी स्त्री का ध्यान रखने पर भी दुख ही मिलता है..
आचार्य चाणक्य ने तीन प्रकार के ऐसे लोग बताए हैं जिनसे किसी भी प्रकार का व्यवहार करने पर दुख ही प्राप्त है। अत: इन लोगों से हमेशा दूर रहना ही बुद्धिमानी है।

चाणक्य कहते हैं-

मूर्खाशिष्योपदेशेन दुष्टास्त्रीभरणेन च।

दु:खिते सम्प्रयोगेण पंडितोऽप्यवसीदति।।

इस श्लोक का अर्थ है कि मूर्ख शिष्य को उपदेश देने पर, किसी व्यभिचारिणी स्त्री का भरण-पोषण करने पर और दुखी व्यक्तियों के साथ किसी भी प्रकार का व्यवहार करने पर दुख ही प्राप्त होता है।

आचार्य कहते हैं कि किसी भी मूर्ख शिष्य या विद्यार्थी को शिक्षा देने का कोई लाभ नहीं है। मूर्ख शिष्य को कितना ही समझाया जाए लेकिन शिक्षक को अंत में दुख ही प्राप्त होता है। किसी कर्कशा, दुष्ट, बुरे स्वभाव वाली, व्यभिचारिणी स्त्री का भरण-पोषण करने वाले व्यक्ति को कभी भी सुख प्राप्त नहीं होता है। ऐसी स्त्रियों का चाहे जितना भी अच्छा किया जाए अंत में व्यक्ति को दुख ही भोगना पड़ता है। इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति दुखी है, विभिन्न रोगों से ग्रस्त है तो उनसे किसी भी प्रकार का व्यवहार करने वाले व्यक्ति को रोग होने की संभावनाएं रहती हैं। अत: इन तीन प्रकार के लोगों से दूर ही रहना चाहिए।

सीधा-साधा स्वभाव आपके लिए अच्छा नहीं है, क्योंकि...
जीवन में कई बार हमें हमारे स्वभाव के कारण या तो सुख प्राप्त होता है या दुख। आजकल जैसा वातावरण है उसके अनुसार जो सीधे-साधे लोग हैं उन्हें काफी परेशानियों का सामना करना पड़ता है। इस संबंध आचार्य चाणक्य कहते हैं कि-

अतिहि सरल नहिं होइये, देखहु जा बनमाहिं।

तरु सीधे छेदत तिनहिं, बांके तरु रहि जाहि।।

जिन लोगों का स्वभाव अधिक सीधा-साधा है, उन्हें ऐसे नहीं रहना चाहिए क्योंकि यह अच्छा नहीं है। वन में हम देख सकते हैं जो पेड़ सीधे होते हैं सबसे पहले काटने के लिए उन्हें ही चुना जाता है।

आचार्य चाणक्य कहते हैं कि जिन लोगों का स्वभाव जरूरत से ज्यादा सीधा, सरल और सहज होता हैं उन्हें अक्सर समाज में परेशानियों का ही सामना करना पड़ता है। चालक और चतुर लोग इनके सीधे स्वभाव का गलत फायदा उठाते हैं। ऐसे लोगों को दुर्बल ही समझा जाता है। अनावश्यक रूप से लोगों की प्रताडऩा झेलना पड़ती है। अत्यधिक सीधा स्वभाव भी मूर्खता की श्रेणी में ही आता है। अत: व्यक्ति को थोड़ा चतुर और चालक भी होना चाहिए। ताकि वह जीवन में कुछ उल्लेखनीय कार्य कर सके। इसका एक सटीक और प्रत्यक्ष उदाहरण है जंगल में लगे सीधे वृक्ष। सामान्यत: देखा जा सकता है कि जंगल में लगे सीधे वृक्ष ही सबसे काटने के लिए चुने जाते हैं। इसी प्रकार हमारे जीवन में भी जो लोग सीधे-साधे होते हैं उनसे चतुर लोग अनुचित लाभ अवश्य ही उठाते हैं।

इन 4 कामों में बेशर्म होना अच्छा है, क्योंकि...
कुछ कार्य ऐसे हैं जिन्में करने में हमें किसी भी प्रकार की शर्म नहीं करना चाहिए। वरना हानि उठानी पड़ सकती है। आचार्य चाणक्य कहते हैं कि-

संचित धन अरु धान्यं कूं, विद्या सीखत बार।

करत और व्यवहार कूं, लाल न करिय अगार।।

धन-धान्य के लेन-देन, विद्याध्ययन, भोजन, सांसारिक व्यवसाय इन चार कामों के करने में किसी भी प्रकार की लज्जा नहीं करना चाहिए।

आचार्य चाणक्य कहते हैं कि किसी व्यक्ति को धन से संबंधित कार्य में संकोच नहीं करना चाहिए। धन का जो भी लेन-देन है उसे स्पष्ट रूप से कह देना चाहिए। अन्यथा धन को लेकर वाद-विवाद होने की पूरी संभावनाएं रहती है। इसी प्रकार कभी शिक्षा के संबंध में भी लज्जा नहीं करना चाहिए। कुछ सीखना हो तो इसे बताने में शर्माना नहीं चाहिए। अन्यथा जीवन पर अज्ञानी की भांति रहना पड़ सकता है। जो व्यक्ति खाने के संबंध में संकोच करता है वह अक्सर भूखा ही रह जाता है। इसलिए भूख लगने पर संबंधित व्यक्ति खाना ले लेना चाहिए। अन्यथा भूखे रहना पड़ सकता है। इसी प्रकार यदि कोई व्यवसायी है तो उसे अपने ग्राहकों या देनदारों से शर्म नहीं करना चाहिए। धन और सामान से जुड़ी समस्त बातें साफ-साफ कर लेनी चाहिए।

कभी भी ऐसा काम मत करों, क्योंकि...
घर-परिवार और समाज में हमारा व्यवहार कैसा होना चाहिए, हमें अन्य लोगों के साथ कैसे रहना चाहिए, हमारा रिश्ता कैसा हो? इस संबंध आचार्य चाणक्य कहते हैं कि-

यत्रोदकस्तत्र वसन्ति हंसा

स्तथैव शुष्कं परिवर्जयन्ति।

न हंसतुल्येन नरेण भाव्यं

पुनस्त्यजन्त: पुनराश्रयन्त:।।

जिस स्थान पर जल रहता है हंस वही रहते हैं। हंस उस स्थान को तुरंत ही छोड़ देते हैं जहां पानी नहीं होता है। हमें हंसों के समान स्वभाव वाला नहीं होना चाहिए।

आचार्य चाणक्य कहते हैं कि हमें कभी भी अपने मित्रों और रिश्तेदारों का साथ नहीं छोडऩा चाहिए। जिस प्रकार हंस सूखे तालाब को तुरंत छोड़ देते हैं, इंसान का स्वभाव वैसा नहीं होना चाहिए। यदि तालाब में पानी न हो तो हंस उस स्थान को भी तुरंत छोड़ देते हैं जहां वे वर्षों से रह रहे हैं। बारिश के बाद तालाब में जल भरने के बाद हंस वापस उस स्थान पर आ जाते हैं। हमें इस प्रकार का स्वभाव नहीं रखना चाहिए। हमारे मित्रों और रिश्तेदारों का सुख-दुख हर परिस्थिति में साथ नहीं छोडऩा चाहिए। एक बार जिससे संबंध बनाया जाए उससे हमेशा निभाना चाहिए। हंस के समान स्वार्थी स्वभाव नहीं होना चाहिए।

सभी माता-पिता को ध्यान रखनी चाहिए ये जरुरी बातें...
बच्चों की सही परवरिश उनका जीवन सुधार सकती है। यही परवरिश में जरा सी भी लापरवाही हो तो बच्चों का जीवन गलत दिशा में जा सकता है। माता-पिता का कर्तव्य होता है कि वे बच्चों को सही शिक्षा दी जाए और उनका जीवन सुखमय बनाए। बच्चों को शिक्षा देने के संबंध में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि-

पांच वर्ष लौं लालिये,, दस लौं ताडऩ देइ।

सुतहीं सोलह वर्ष में, मित्र सरसि गनि लेइ।।

सभी माता-पिता को चाहिए कि वे पांच वर्ष की आयु तक अपने बच्चों के साथ प्रेम और दुलार करें। इसके जब पुत्र दस वर्ष का हो जाए तो और यदि वह गलत आदतों का शिकार हो रहा है तो उसे ताडऩा या दण्ड भी दिया जा सकता है। जिससे उसका भविष्य सुरक्षित रह सके। जब बच्चा सोलह वर्ष का हो जाए तो उसके साथ मित्रों के जैसा व्यवहार करना चाहिए।

आचार्य चाणक्य कहते हैं कि जब तक बच्चा पांच वर्ष का हो जाए तब तक माता-पिता को उससे बहुत प्रेम और दुलार के साथ पेश आना चाहिए। अक्सर ज्यादा लाड़-प्यार में बच्चे गलत आदतों के शिकार हो जाते हैं और प्रेम से वे नहीं समझ रहे हैं तो उन्हें सजा देकर सुधारा जा सकता है। डरा-धमकाकर बच्चों को सही राह पर लाया जा सकता है। इसके अतिरिक्त जब बच्चा सोलह वर्ष का हो जाए उसके बाद उनके साथ मित्रों की तरह व्यवहार रखना चाहिए। इस उम्र के बाद बच्चों के साथ किसी भी तरह की ताडऩा या पिटाई नहीं की जानी चाहिए। अन्यथा बच्चा घर छोड़कर भी जा सकता है। जब बच्चा घर-संसार को समझने लगे तो उससे मित्रों की तरह व्यवहार रखना श्रेष्ठ रहता है।

क्या आपको किसी भी काम में लगता है डर? तो क्या और क्यों करें...
किसी भी कार्य में सफलता के लिए जरूरी है कि आप हर कदम निडरता के साथ आगे बढ़ते रहे। लक्ष्य तक पहुंचने के लिए जरूरी है मन में किसी भी प्रकार का डर या संशय न हो। जब किसी व्यक्ति के मन में डर आता है तो वह सफलता से दूर हो जाता है।

जीवन में सभी के लिए कोई न कोई लक्ष्य अवश्य ही निर्धारित रहता है। लक्ष्य तक पहुंचने के मार्ग में कई प्रकार की बाधाएं आती हैं जो कि हमारे मन में कई प्रकार की शंका और डर की भावनाओं को जागृत कर देती है। लक्ष्य कैसे प्राप्त किया जाएं? इस प्रश्न के उत्तर में आचार्य चाणक्य ने बताया है कि यदि आप सफलता प्राप्त करना चाहते हैं, निर्धारित लक्ष्य तक पहुंचना चाहते हैं तो डर को अपने पास मत आने दीजिए। जैसे ही डर आपके पास आए उसे उसी क्षण खत्म कर दो। अन्यथा डर आपको खत्म कर देगा।

चाणक्य के अनुसार डर ही हमें कमजोर बना देता है। जिस व्यक्ति के मन में भय आ जाए वह कभी भी लक्ष्य तक पहुंच नहीं सकता है। सफलता उसी को मिलती है जो निर्भय होकर दृढ़ता के साथ अपने मार्ग पर चलता रहे। डर भावना आने पर व्यक्ति के कदम स्वत: मार्ग से हटने लगते हैं, डगमगाने लगते हैं। ऐसे में शत्रुओं या कमजोरियों द्वारा डरे हुए व्यक्ति पर आक्रमण कर दिया जाता है और वह हार जाता है। हमारी कमजोरियों को कभी भी खुद हावी नहीं होने देना चाहिए। जबकि डर कमजोरियों को बढ़ता है और मनोबल को तोड़ता है। अत: जैसे ही डर आपके पास आए आप उसे खत्म कर दीजिए।

आप ये 6 बातें हमेशा ध्यान रखें, कभी गरीब नहीं होंगे...
जीवन में सफलता और सुख वही व्यक्ति प्राप्त करता है जो हमेशा ही चिंतन और मनन करता है। जो निर्धारित लक्ष्य प्राप्त करने के लिए योजनाबद्ध तरीके से कार्य करते रहता है वहीं कुछ उल्लेखनीय कार्य कर पाता है। इस संबंध में आचार्य चाणक्य कहते हैं-

हौं केहिको का मित्र को, कौन काल अरु देश।

लाभ खर्च को मित्र को, चिंता करे हमेशा।

अभी समय कैसा है? मित्र कौन हैं? यह देश कैसा है? मेरी कमाई और खर्च क्या हैं? मैं किसके अधीन हूं? और मुझमें कितनी शक्ति है? इन छ: बातों को हमेशा ही सोचते रहना चाहिए।

आचार्य चाणक्य कहते हैं कि वही व्यक्ति समझदार और सफल है जिसे इन छ: प्रश्नों के उत्तर हमेशा मालुम रहते हो। समझदार व्यक्ति जानता है कि वर्तमान में कैसा समय चल रहा है। अभी सुख के दिन हैं या दुख के। इसी के आधार पर वह कार्य करता हैं। हमें यह भी मालुम होना चाहिए कि हमारे सच्चे मित्र कौन हैं? क्योंकि अधिकांश परिस्थितियों में मित्रों के भेष में शत्रु भी आ जाते हैं। जिनसे बचना चाहिए।

व्यक्ति को यह भी मालुम होना चाहिए कि जिस जगह वह रहता है वह कैसी हैं? वहां का वातावरण कैसा हैं? वहां का माहौल कैसा है? इन बातों के अलावा सबसे जरूरी बात हैं व्यक्ति को उसकी आय और व्यय की पूरी जानकारी होना चाहिए। व्यक्ति की आय क्या है उसी के अनुसार उसे व्यय करना चाहिए।

चाणक्य कहते हैं कि समझदार इंसान को मालुम होना चाहिए कि वह कितना योग्य है और वह क्या-क्या कुशलता के साथ कर सकता है। जिन कार्यों में हमें महारत हासिल हो वहीं कार्य हमें सफलता दिला सकते हैं। इसके साथ व्यक्ति को यह भी मालुम होना चाहिए कि उसका गुरु या स्वामी कौन हैं? और वह आपसे चाहता क्या हैं?

जिन लोगों में हों ये 6 बातें, उनसे करें प्रेम...
वैसे तो हमारे आसपास कई लोग हमेशा ही रहते हैं और उनका हमारे जीवन में काफी हस्तक्षेप भी रहता है। इन लोगों में हमारे परिवारजन, मित्र रिश्तेदार आदि शामिल होते हैं। सभी लोगों का अलग-अलग महत्व रहता है और कौन व्यक्ति हमारा कितना हितेषी है यह समय आने पर ही मालुम होता है। अपने-पराए लोगों की परख करने के लिए आचार्य चाणक्य ने कुछ खास बातें बताई हैं।

आचार्य चाणक्य कहते हैं-

आतुरे व्यसने प्राप्ते दुर्भिक्षेत्र शत्रुसंकटे।

राजद्वारे श्मशाने च यस्तिष्ठति स बांधव:।

चाणक्य के अनुसार जो व्यक्ति आपकी बीमारी में, दुख में, दुर्भिक्ष में, शत्रु द्वारा कोई संकट खड़ा करने पर, शासकीय कार्यों में, शमशान में ठीक समय पर आ जाए वही इंसान आपका सच्चा हितैषी हो सकता है।

जब कोई व्यक्ति किसी भयंकर बीमारी से ग्रस्त हो और उस जो लोग उसका साथ देते हैं वे ही उसके सच्चे हितैषी होते हैं। जब जीवन में कोई भयंकर दुख आ जाए या कोई मुकादमा, कोर्ट केस में फंस जाए तब जो इंसान गवाह के रूप में साथ देता है वही मित्र कहलाने का अधिकारी होता है। इसके अलावा मृत्यु के समय पर जो व्यक्ति उपस्थित हो जाए वही सच्चा मित्र होता है। जब किसी शासकीय कार्य में कोई अड़चन आ जाए और जो मित्र आपका साथ दे वही सच्चा इंसान है।

ये 6 हालात ऐसे हैं जहां आपका सच्चा हितैषी ही साथ दे सकता है। अत: जो इन स्थितियों में आपका साथ देता है उनसे मित्रता कभी भी नहीं तोडऩा चाहिए। सदैव उनसे स्नेह रखें।

ऐसे स्त्री और पुरुष हमेशा दुख ही देते हैं...
आचार्य चाणक्य ने तीन प्रकार के ऐसे लोग बताए हैं जिनसे किसी भी प्रकार का व्यवहार करने पर दुख ही प्राप्त है। अत: इन लोगों से हमेशा दूर रहना ही बुद्धिमानी है।

चाणक्य कहते हैं-

मूर्खाशिष्योपदेशेन दुष्टास्त्रीभरणेन च।

दु:खिते सम्प्रयोगेण पंडितोऽप्यवसीदति।।

इस श्लोक का अर्थ है कि मूर्ख शिष्य को उपदेश देने पर, किसी व्यभिचारिणी स्त्री का भरण-पोषण करने पर और दुखी व्यक्तियों के साथ किसी भी प्रकार का व्यवहार करने पर दुख ही प्राप्त होता है।

आचार्य कहते हैं कि किसी भी मूर्ख शिष्य या विद्यार्थी को शिक्षा देने का कोई लाभ नहीं है। मूर्ख शिष्य को कितना ही समझाया जाए लेकिन शिक्षक को अंत में दुख ही प्राप्त होता है। किसी कर्कशा, दुष्ट, बुरे स्वभाव वाली, व्यभिचारिणी स्त्री का भरण-पोषण करने वाले व्यक्ति को कभी भी सुख प्राप्त नहीं होता है। ऐसी स्त्रियों का चाहे जितना भी अच्छा किया जाए अंत में व्यक्ति को दुख ही भोगना पड़ता है। इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति दुखी है, विभिन्न रोगों से ग्रस्त है तो उनसे किसी भी प्रकार का व्यवहार करने वाले व्यक्ति को रोग होने की संभावनाएं रहती हैं। अत: इन तीन प्रकार के लोगों से दूर ही रहना चाहिए।

लालची लोगों के साथ अक्सर ऐसा ही होता है...
सामान्यत: ऐसा देखा जाता है कि व्यक्ति ज्यादा अच्छी वस्तु प्राप्त करने के लिए जो उसके पास है उसे छोड़कर दूसरी की ओर भागता है। इस परिस्थिति में दोनों ही वस्तुएं उसके हाथों से निकल जाती है। ऐसी परिस्थितियों के संबंध में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि-

यो ध्रुवाणि परित्यज्य अध्रुवं परिषेवते।

ध्रुवाणि तस्य नश्यन्ति अध्रुवं नष्टमेव हि।।

इस श्लोक का अर्थ है कि जो व्यक्ति निश्चित वस्तुओं को छोड़कर अनिश्चित वस्तुओं की ओर भागता है उसके हाथों से दोनों ही वस्तुएं निकल जाती है। अत: जीवन में निर्धारित लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए इस प्रकार की गलतियां हमें नहीं करना चाहिए।

आचार्य चाणक्य के अनुसार लालची लोगों के साथ अक्सर ऐसा ही होता है, अंत में वह खाली हाथ ही रह जाता है। जो वस्तुएं, सुविधाएं हमारे पास पहले से ही हैं उन्हें छोड़कर अनिश्चित सुविधाओं के पीछे भागने वाले इंसान को अंत में दुख का ही सामना करना पड़ता है। जबकि समझदारी इसी में है कि जो वस्तुएं या सुविधाएं हमारे पास हैं उन्हीं से संतोष प्राप्त करें। इसके विपरित जो सुविधाएं हमारे पास हैं वे भी नष्ट हो जाएंगी।

जब कोई मित्र या रिश्तेदार अपमान करें तो क्या होता है...
किसी भी पुरुष के जीवन में उसकी प्रेमिका या पत्नी सर्वाधिक महत्व रखती है। जब कोई व्यक्ति पूरी तरह किसी स्त्री के प्रेम में डूब जाता है तब वह उससे बिछडऩे का सोच भी नहीं सकता है। फिर भी भाग्यवश जब अलग होना पड़ता है तो उनका जीवन पूरी तरह निराशा में डूब जाता है। इसके अतिरिक्त कुछ और भी बातें हैं जो इंसान को जीते जी ही आग में जलाती हैं।

इस संबंध में आचार्य चाणक्य ने कहा है कि-

कांता-वियोग: स्वजनामानो,

ऋणस्य शेष: कुनृपस्य सेवा।

दरिद्रभावो विषमा सभा च,

विनाग्निना ते प्रदहन्ति कायम्।।

अर्थात् स्त्री या प्रेमिका का वियोग, अपने मित्रों या रिश्तेदारों से अपमान, कर्ज देने से बचा हुआ ऋण, दुष्ट राजा या मालिक की सेवा, गरीब और स्वार्थी लोगों का साथ ये बातें व्यक्ति को आग में ही जलाती हैं।

आचार्य चाणक्य के अनुसार कोई भी अच्छा इंसान अपनी पत्नी या प्रेमिका का वियोग या उससे दूर होना सहन नहीं कर पाता है। इसके अलावा कोई मित्र या रिश्तेदार अपमान कर देता है तब भी व्यक्ति को दुख का ही सामना करना पड़ता है। अपने लोगों से अपमानित होने के बाद कोई भी व्यक्ति वह समय नहीं भुला पाता है। जो लोग अत्यधिक कर्ज ले लेते हैं और चुकाने में असमर्थ रहते हैं तो उन्हें हर पल ऐसे ऋण का विचार ही असनीय पीड़ा देता है।

जो लोग कपटी और चरित्रहीन राजा या मालिक के सेवक हैं वे हमेशा ही इस बात से दुखी रहते हैं। किसी भी इंसान के लिए सबसे बड़ा दुख है गरीबी। गरीबी एक अभिशाप की तरह ही है। गरीब व्यक्ति हर पल आर्थिक तंगी के चलते जलता रहता है। इसके अलावा यदि किसी व्यक्ति के आसपास के लोग स्वार्थी स्वभाव के हैं और फिर भी उनके साथ रहना पड़ता है तो यह भी एक दुख ही है।

किसी भी नए व्यक्ति से मिलते समय ध्यान रखें ये बातें...
किसी भी व्यक्ति से मिलते समय यदि कुछ बातों पर ध्यान दें तो हम उसके विषय में काफी कुछ जान सकते हैं, समझ सकते हैं। किसी अनजान व्यक्ति से मिलते ही उसके स्वभाव और गुण-अवगुण को जानने के लिए आचार्य चाणक्य ने सटीक बात बताई है-

आचार: कुलमाख्याति देशमाख्याति भाषणम्।

सम्भ्रम: स्नेहमाख्याति वपुराख्याति भोजनम्।।

आचार्य कहते हैं कि किसी भी मनुष्य का आचरण उसके कुल या परिवार कैसा है बता देता है। व्यक्ति की बोली देश या क्षेत्र की जानकारी दे देती है। आदर भाव वाला व्यक्ति प्रेमी स्वभाव का होता है। व्यक्ति का शरीर देखकर मालुम हो जाता है कि वह कैसा भोजन करता है...

आचार्य चाणक्य के अनुसार किसी भी व्यक्ति का आचरण पर ध्यान दिया जाए तो हम जान सकते हैं कि उसका परिवार कैसा है? उसका कुल सभ्य है या असभ्य। हमारी बोलने की शैली बता देती है कि हम किस देश या क्षेत्र में रहते हैं। हर क्षेत्र या शहर के लोगों का बोलने का अंदाज अलग-अलग होता है। किसी भी व्यक्ति का व्यवहार, हाव-भाव बता देता है कि उसका स्वभाव कैसा है? ठीक ऐसे ही किसी भी मनुष्य का शरीर देखकर मालुम किया जा सकता है कि वह कैसा और कितना भोजन खाता है।

शर्मिंदा होने से बचना चाहते हैं तो ध्यान रखें ये 4 बातें...
आचार्य चाणक्य को उच्चकोटि की राजनीति और कूटनीति के लिए जाना जाता है। उन्होंने कई ऐसी अचूक नीतियां बताई हैं जिनमें जीवन का सारांश छिपा हुआ है। इन नीतियों को अपनाने वाला इंसान जीवन में हर कदम सफलता प्राप्त करता है। हमें किन लोगों के प्रति लगाव रखना चाहिए और किन लोगों से दूर रहना चाहिए। इस संबंध में आचार्य ने बताया है कि-

निद्र्धनं पुरुषं वेश्या प्रजा भग्नं नृपं त्यजेत्।

खगा वीतफलं वृक्ष भुक्तवा चाभ्यागतो गृहम्।।

इस श्लोक का अर्थ है कि यदि कोई बहुत अमीर व्यक्ति किसी वैश्या पर मोहित होकर अपना सबकुछ भी उसे दे तब भी वह उसे छोड़ सकती है। वैश्याओं का काम दूसरों का पैसा लूटना होता है। वे तब तक ही किसी पुरुष के संपर्क में रहती हैं जब तक वह आदमी धनी है। गरीब पुरुष को वैश्या तुरंत छोड़ देती है। इसी प्रकार जिस देश का राजा निर्बल है उसकी राज्य की प्रजा अपने राजा पर भरोसा नहीं करती है और उसे सम्मान नहीं देती है। यहां तक कि पक्षी भी उसी वृक्ष पर निवास करते हैं जहां उन्हें फल प्राप्त होते हैं। समाज का एक नियम यह भी है कि मेहमान अच्छा भोजन, स्वागत-सत्कार के बाद तुरंत अपने लक्ष्य की ओर आगे बढ़ जाते हैं। कहने तात्पर्य यह है कि हमें अपने आत्म सम्मान की रक्षा स्वयं करनी है और अपमान की स्थिति बने इससे पहले हमें संभल जाना चाहिए। किसी भी स्थान विशेष, व्यक्ति, वस्तु से अधिक लगाव रखना उचित नहीं है।

किसी पर नियंत्रण करना हो तो करें ये काम
वशीकरण या किसी व्यक्ति को अपने नियंत्रण में करना बहुत मुश्किल कार्य है। सभी चाहते हैं कि सभी लोग उनकी बात सुने, उनके वश में रहे लेकिन ऐसा संभव नहीं होता है। किसी भी व्यक्ति को कैसे वश में किया जाए... इस संबंध में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि...

लुब्धमर्थेन गृह्णीयात् स्तब्धमंजलिकर्मणा।

मूर्खं छन्दानुवृत्त्या च यथार्थत्वेन पण्डितम्।।

जो व्यक्ति धन का लालची है उसे पैसा देकर, घमंडी या अभिमानी व्यक्ति को हाथ जोड़कर, मूर्ख को उसकी बात मान कर और विद्वान व्यक्ति को सच से वश में किया जा सकता है।

आचार्य चाणक्य कहते हैं कि हमारे आसपास कई प्रकार के लोग हैं। कुछ धन के लोभी हैं तो कुछ घमंडी भी हैं। कुछ मूर्ख हैं तो कुछ लोग बुद्धिमान भी हैं। इन लोगों को वश में करने का सबसे सरल मार्ग है कि किसी लालची व्यक्ति को धन देकर वश में किया जा सकता है। वहीं जो लोग घमंड में चूर होते हैं उन्हें हाथ जोड़कर या उन्हें उचित मान-सम्मान देकर वश में किया जाना चाहिए। यदि किसी मूर्ख व्यक्ति को वश में करना हो तो वह व्यक्ति जैसा-जैसा बोलता हैं हमें ठीक वैसा ही करना चाहिए। झूठी प्रशंसा से मूर्ख व्यक्ति वश में हो जाता है। इसके अलावा यदि किसी विद्वान और समझदार व्यक्ति को वश में करना है तो उसके सामने केवल सच ही बोलें। वह आपके वश में हो जाएगा।

जहां मूर्ख लोग नहीं रहते, वहां रहती हैं धन की देवी महालक्ष्मी...
हमेशा से ही धन सभी की अनिवार्य आवश्यकता रहा है। मात्र धन से ही सभी सुविधाएं जुटाई जा सकती हैं। धन अभाव में काफी परेशानियों का सामना करना पड़ता है। कुछ लोग काफी मेहनत करते हैं लेकिन फिर भी वे धन की कमी से त्रस्त रहते हैं। इस संबंध आचार्य चाणक्य ने तीन मुख्य बातें बताई हैं। चाणक्य कहते हैं-

मूर्खा यत्र न पूज्यन्ते धान्यं यत्र सुसन्चितम्।

दाम्पत्ये कलहो नास्ति तत्र श्री: स्वयमागता।।

जिस देश या स्थान पर मूर्खों की पूजा नहीं होती, जहां हमेशा पर्याप्त मात्रा अन्न का भंडार रहता है, जिस घर में पति और पत्नी में झगड़े नहीं होते हैं वहां महालक्ष्मी सदैव निवास करती हैं।

आचार्य चाणक्य के अनुसार जिस घर में मूर्खों की अपेक्षा बुद्धिमान लोगों को उचित मान-सम्मान दिया जाता है, स्वागत किया जाता है वहां महालक्ष्मी सदैव निवास करती हैं। इसके अतिरिक्त जिन घरों अन्न के पर्याप्त भंडार रहते हैं, जिस घर से कोई भूखा या खाली हाथ नहीं जाता है, जहां सभी अतिथियों अच्छे से आदर सत्कार किया जाता है, जहां सात्विक भोजन किया जाता है वहां धन की देवी महालक्ष्मी स्वयं विराजमान होती है। जिस घर में पति और पत्नी सदैव प्रेम से रहते हैं, जहां लड़ाई-झगड़ा नहीं होता है वहां से महालक्ष्मी कभी नहीं जाती हैं। जिन लोगों के साथ ये तीन बातें रहती हैं उन पर महालक्ष्मी सदैव कृपा बनाए रखती हैं।

आपके लिए ये खास काम कोई दूसरा व्यक्ति करें तो ही अच्छा है...
अपनी प्रशंसा या तारीफ भला किसे अच्छी नहीं लगती। सभी चाहते हैं कि उनके कार्यों की प्रशंसा की जाए और इसीलिए वे ऐसे अच्छे कार्य ही करते हैं। इस संबंध आचार्य चाणक्य कहते हैं कि-

औरन के वर्णन किए, गुणहु हीन गुणवान।

इंदौ लघुताई लहै, निज मुख किये बखान।।

यदि दूसरे लोग किसी व्यक्ति की प्रशंसा करते हैं तो यह गुणहीन व्यक्ति को भी गुणी बना देती है। इसके विपरित यदि कोई व्यक्ति स्वयं अपने मुंह से खुद की तारिफ करता है तो देवराज इंद्र भी छोटे ही माने जाएंगे।

आचार्य चाणक्य कहते हैं कि किसी व्यक्ति को स्वयं अपनी तारिफ नहीं करना चाहिए। ऐसा करने वाला व्यक्ति उपहास का पात्र बनता है और अन्य लोग उसकी बातों को गंभीरता से नहीं लेते। स्वयं खुद की तारीफ करने वाला चाहे जितना बड़ा हो, उसको वैसा मान-सम्मान और यश प्राप्त नहीं होगा जिसका वह अधिकारी है। हमें सिर्फ अपने कर्म ऐसे करने चाहिए जिससे दूसरे लोग हमारी प्रशंसा करें। ऐसा होने पर व्यक्ति यदि कम गुणी भी होगा तब भी वह समाज में भरपूर मान-सम्मान प्राप्त कर लेगा।

गरीबी मिटाना है तो ये उपाय रोज करें...
सुख और दुख यह जीवन की अवस्थाएं बताई गई हैं। सभी लोगों के जीवन में सुख और दुख आते-जाते रहते हैं। कोई नहीं चाहता कि उनके जीवन में कभी दुख आए या गरीबी से कभी भी उनका सामना हो। इस संबंध में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि-

दरिद नाशन दान, शील दुर्गतिहिं नाशियत।

बुद्धि नाश अज्ञान, भय नाशत है भावना।।

दान से दरिद्रता या गरीबी का नाश होता है। शील या व्यवहार दुखों को दूर करता है। बुद्धि अज्ञानता को नष्ट कर देती है। हमारे विचार सभी प्रकार के भय से मुक्ति दिलाते हैं।

आचार्य चाणक्य के अनुसार यदि कोई इंसान उसकी कमाई से कुछ हिस्सा दान करता रहे तो उसे कभी भी गरीबी का सामना नहीं करना पड़ेगा। व्यक्ति जो भी कमाता है, जो भी धन प्राप्त करता है उसमें कुछ भाग हमेशा ही जरूरतमंद लोगों की मदद में लगाना चाहिए, धार्मिक कार्य करना चाहिए। ऐसा करने पर हमारे पुण्य कर्मों की वृद्धि होती है जिससे महालक्ष्मी की कृपा सदैव हम पर बनी रहती है। इंसान के जीवन में काफी दुखों के कारण से उसके बुरे स्वभाव से संबंधित ही होते हैं। अत: अच्छे गुण और नम्र व्यवहार रखने से सभी लोगों से सुख प्राप्त होता है और दुख या कष्ट हमसे दूर ही रहते हैं। जो लोग नियमित रूप से भगवान की भक्ति में लगे रहते हैं, धर्म ग्रंथ पढ़ते हैं, उनसे ज्ञान प्राप्त करते हैं वे ज्ञानी हो जाते हैं। उन लोगों की अज्ञानता नष्ट हो जाती है। साथ ही इन कार्यों से हमारे विचार भी शुद्ध होते हैं और जीवन-मृत्यु, सुख-दुख के सभी भय दूर हो जाते हैं।

जानिए किसी भी स्त्री की सबसे बड़ी ताकत क्या है?
स्त्री हो या पुरुष, सभी के पास कुछ गुण, कुछ शक्तियां होती हैं जिनसे वे अपने कार्य सिद्ध कर सकते हैं। वैसे तो हर व्यक्ति की अलग-अलग शक्तियां होती हैं लेकिन आचार्य चाणक्य ने बताया है कि किसी भी स्त्री की शक्ति उसकी सुंदरता, यौवन और मीठी वाणी होती है। चाणक्य कहते हैं-

बाहुवीर्यबलं राज्ञो ब्राह्मणो ब्रह्मविद् बली।

रूप-यौवन-माधुर्यं स्त्रीणां बलमनुत्तमम्।।

किसी भी राजा की शक्ति उसका स्वयं का बाहुबल है। ब्राह्मणों की ताकत उनका ज्ञान होता है। स्त्रियों की ताकत उनका सौंदर्य, यौवन और उनकी मीठी वाणी होती है।

आचार्य कहते हैं कि वैसे तो किसी भी राजा के अधीन उसकी सेना, मंत्री और अन्य राजा रहते हैं लेकिन उसका स्वयं का ताकतवर होना भी जरूरी है। यदि कोई राजा स्वयं शक्तिहीन है तो वह किसी पर राज नहीं कर सकता। राजा जितना शक्तिशाली होगा उतना ही अच्छा शासक रहता है। इसीलिए यह जरूरी है कि राजा का बाहुबल से भी शक्तिशाली हो।

किसी भी ब्राह्मण की शक्ति उसका ज्ञान है। ब्राह्मण जितना ज्ञानी होगा वह उतना ही अधिक सम्मान प्राप्त करेगा। ईश्वर और जीवन से संबंधित ज्ञान ही किसी भी ब्राह्मण की सबसे बड़ी शक्ति हो सकता है।

आचार्य चाणक्य कहते हैं किसी भी स्त्री का सौंदर्य और यौवन ही उसकी सबसे बड़ी शक्ति होती है। यदि कोई स्त्री सुंदर नहीं है लेकिन मधुर व्यवहार वाली है तब भी वह जीवन में कभी भी परेशानियों का सामना नहीं करती है। मधुर व्यवहार से ही स्त्री मान-सम्मान प्राप्त करती हैं।


जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है...
मनीष