Thursday, October 30, 2014

Sikhism (सिक्ख धर्म)

ऐसे जन्मा सिक्ख धर्म
अर्थ एंव स्वरूप एवं इतिहासशब्दकोश में दिए दिए अर्थ के अनुसार सिक्ख शब्द का अर्थ है- शिष्य, चेला, गुरुनानक के पंथ का अनुयायी, नानकदेव के अनुयायियों का एक वर्ग (जैस- सिक्ख समूह) सिक्ख धर्म भी जैन धर्म के अनुसार हिंदू धर्म के समीपस्थ धर्मों में से से एक है, अर्थात् हिंदू धर्म से समानता या एकरूपता रखने वाला है। वास्तविकता में सिक्ख धर्म गुरुओं पर आधारित धर्म है। इस धर्म के प्रणेता गुरुनानक देव हैं गुरुनानक देव सिख धर्म के प्रथम गुरु अवतार हुए है। सिक्ख धर्म में बहुदेवता वाद की मान्यता नहीं है।

अकाल पुरुष सिक्ख धर्म केवल एक अकाल पुरुष को मानता है। यह 'एक ईश्वर तथा गुरुद्वारों पर आधारित धर्म है। इस धर्म में गुरु महिमा मुख्य पूज्यनीय व दर्शनीय मानी गई है। गुरु के माध्यम ही हम अकाल पुरुष तक पहुंचते है। गुरुनानक देव जी ने अकाल पुरुष का जैसा स्वरूप प्रस्तुत किया है। उसके अनुसार - अकाल पुरुष एक है, उस जैसा कोई नहीं है। वह सबमें एक समान रूप से एकरस रूप में बसा हुआ है। उस अकाल पुरुष का नाम अटल है।

सृष्टि निर्मातावह अकाल पुरुष ही संसार की हर छोटी और बड़ी वस्तु को बनाने वाला है। वह अकाल पुरुष ही सब कुछ बनाता है तथा बनाई हुई हर एक चीज में उसका वास भी रहता है। अर्थात् वह हर कण-कण में अदृश्य रूप से निवास करता है। वह सर्वशक्तिमान है। तथा उसे किसी का डर नहीं है। उसका किसी के साथ विरोध, मनमुटाव एवं शत्रुता नहीं है।

कालजयी उस अकाल पुरुष का अस्तित्व समय के बंधन से मुक्त है। भूतकाल, वर्तमान काल एवं भविष्य काल जैसा काल विभाजन उसके लिए कोई मायने नहीं रखता। बचपन, यौवन, बुढ़ापा और मृत्यु का उसपर कोई प्रभाव नहीं होता । उस अकाल पुरुष को विभिन्न योनियों में भटकने की आवश्यकता नहीं है अर्थात् वह अजन्मा (जन्म-मरण से परे)है। उसको किसी ने नहीं बनाया। न उसे किसी ने जन्म दिया, वह स्वयं प्रकाशित है। ऐसा प्रभु गुरु की कृपा से ही मिलता है।

सिक्ख धर्म के संस्थापक: गुरु नानकदेवसिक्ख धर्म के प्रवर्तक आदि गुरुनानकदेव है। इनका समय सन् 1469 से 1538 रहा। इन्होंने अपने प्रारंभिक जीवन में खेती, दुकानदारी, व्यापार व भंडारण आदि सभी कार्य किए। जैसे-जैसे धर्म एवं भक्ति भाव में उनका मन रमने लगा। वे धार्मिक यात्राओं पर जाने लगे। उन्होंने ग्रह त्यागकर विश्वभ्रमण किया।

गुरुनानक देव का जन्म 15 अप्रैल 1469 को पंजाब के शेखपुरा जिले के तलवंडी में हुआ था। इनके पिता का नाम कल्याणदास (कालू महता) था तथा माता का नाम तृप्ताजी था। नानक बचपन से ही शांत एवं तेज बुद्धि के थे। उन्होंने हिंदी के साथ संस्कृत और फारसी भी पढ़ी। उन्हें छोटी उम्र में भी भगवान के प्रति लगन लग गई। गुरुनानक ही सिक्ख धर्म के प्रणेता व आधार है। प्रमुख रचना जपुजीगुरुनानक की प्रसिद्ध रचना का नाम जपुजी है। जिस प्रकार मुस्लिम कुरान पर, हिंदू गीता और भागवत पर, पारसी गाथा पर, तथा बौद्ध धम्मपद पर श्रद्धा रखते हैं, उसी प्रकार सिख धर्म अनुयायी 'जपुजी पर श्रद्धा करते हैं। गुरुग्रंथ साहब का आरंभ जपुजी से होता है। सिक्ख धर्म के पहले गुरुनानक देवजी के सारे उपदेशों का सार इस लघु गंरथ में समाया है। सिक्ख धर्मानुयायी प्रतिदिन जपुजी का पाठ करते हैं।

सिक्ख धर्म के प्रमुख ग्रंथगुरुनानक देव के वचनों को, पहले पहल, गुरु अंगद देव ने 'गुरुमुखी लिपि में लिखा। तभी से यह लिपि प्रचलन में आई है। सिक्खों के मुख्य धर्म 'ग्रंथ साहिब का संकलन और संपादन सन् 1604 ई. में पांचवें गुरु अर्जुनदेव ने किया। इस ग्रंथ में आदि के पांच गुरु और नवें गुरु तेगबहादुर जी के वचन और पद संग्रहित हैं। सिक्ख धर्म के दसवें गुरु, गुरु गोविंद सिंह जी साहित्य के बहुत बड़े विद्वान, कवियों के प्रबल सहायक एवं संरक्षक तथा स्वयं भी हिंदी के अच्छे कवि थे। उनकी सभी रचनाओं को सिक्ख, 'दशम ग्रंथ के नाम से पुकारते हैं। गुरु गोविंदसिंह जी के मन में हिंदू धर्म एवं देवी देवताओं के प्रति भी गहरी श्रद्धा थी। उन्होंने 'रामायण ग्रंथ की रचना भी की जो कुछ ही समय पूर्व 'गोविंद-रामायण के नाम प्रकाशित हुई।

सिक्ख धर्म का प्रभाव क्षेत्र एवं अनुयायी सिक्ख धर्म मुख्य रूप से भारतीय धर्म है। इसका जन्म एवं प्रवर्तन भारत में ही हुआ है। सिक्ख धर्म के सर्वाधिक अनुयायी भारत में ही पाए जाते हैं। विश्वभर में लगभग 3 करोड़ अनुयायी हैं। भारत के अलावा यह धर्म आस्ट्रेलिया, उत्तरी अमेरिका, दक्षिण-पूर्वी एशिया, युनाइटेड किंग्डम एवं यूरोप में सिक्ख धर्म के अनुयायी है।

भगवान सत्य स्वरूप हैं अर्थात् 'सत् श्री अकाल'
गुरुनानक देव का आध्यात्मिक जीवननानकदेव की दृष्टि में सारा संसार एक पवित्र स्थान है। वे इस पवित्र संसार में रहने वाले सभी निवासियों को एक समान दर्जा दिया करते थे। उनके अनुसार जो सत्य से प्रेम करता है। वही पवित्र है। भगवान स्वयं भी सत्य स्वरूप हैं अर्थात् 'सत् श्री अकाल'। सत्य और शुभ आचरण से अपने आप को पवित्र बनाकर कोई भी भगवान तक पहुंच सकता है। नानकदेव अनावश्यक आडंबर और भाव रहित कर्मकांड को व्यर्थ मानते थे।

व्यापक लोकप्रियताहिंदू और मुसलमान दोनों ही वर्गों के लोग नानकदेव जी को समान रूप से चाहते एवं सम्मान देते थे। दोनों वर्गों के लोग उन्हें प्यार करते एवं संत मानते थे। मुस्लिमों से नानकदेव ने कहा कि दया को मस्जिद जानों उसमें सच्चाई का फर्श बिछाओ, न्याय और ईमानदारी को कुरान जानों, नम्रता को सुन्नत जानो, सौजन्य को रोजा मानों तभी तुम सच्चे मुसलमान कहलाने के लायक हो पाओगे। इतना ही नहीं नानक देव जी ने पांच वक्त की नमाज का वास्तविक अर्थ मुसलमानों को समझाते हुए कहा कि पहली नमाज सच्चाई है, दूसरी इंसाफ, तीसरी दया, चौथी नेक नियती और पांचवीं ईश्वर (अल्लाह) की पूजा (इबादत) है।

धर्म का मर्महिंदूओं को भी धर्म का मर्म (सच्चाई) समझाते हुए नानक देव ने कहा कि मैंने चारों वेद पढ़े हैं, अड़सठ तीर्थों का स्नान किया है। वनों में जंगलों में रहा हूं। सातों ऊपरी व नीचे की दुनिया का ध्यान मनन किया है। तब मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि वही अपने धर्म के प्रति सच्चा है जो भगवान से डरता है, बुरे काम नहीं करता, नेक काम करता है। गुरु नानक ने भेदभाव भुलाकर ईमानदारी, नेकनियती, वफादारी एवं समर्पण भाव से काम करने की शिक्षा दी। गुरुनानक का दार्शनिक सिद्धांत वेदों पर आधारित था। वे एक ओंकार, अकालपुरुष और प्रकृति को सत्य मानते थे। उन्होंने अहंकार को पाप की जड़ माना है। गुरु नानक ने कहा है कि मन कागज है, हमारे कर्म स्याही है। पुण्य और पाप इस पर लिखे लेख है, हमें मन के कागज पर लिखे पुण्य के लेख को बढ़ाना और पाप वाले लेख को मिटाना है।

यह सिखाता है सिक्ख धर्म
सिक्ख धर्म: मान्यताएं एवं सिद्धांतसिक्ख धर्म गुरु परंपरा पर आधारित धर्म है। जिसके पहले महान् गुरु आदि गुरु नानक देव जी हुए हैं। सिक्ख धर्म में दस अवतारी गुरु माने गए हैं। दश गुरुओं की सूची-
१. आदि गुरु नानकदेव जी
2. गुरु अंगददेव जी
3. गुरु अमरदास जी
4. गुरु रामदास जी
5. गुरु अर्जुनदेवी जी
6. गुरु हरगोविंद जी
7. गुरु हरिराय जी
8. गुरु हरिकृष्ण जी
9. गुरु तेगबहादुर जी
10. गुरु गोविंदसिंह जी स्थाई गुरु सिक्ख धर्म में गुरु नानक देव से लेकर गुरु गोविंदसिंह जी तक 10 गुरु हुए हैं। प्रत्येक गुरु अन्त समय में अपने योग्य उत्तराधिकारी को अपना पद सौंप कर उसे सिक्ख पंथ का अगला गुरु घोषित कर दिया करते थे।

गुरु गोविंदसिंह जब स्वर्गवासी होने लगे, तब उन्होंने 'गुरु-ग्रंथ साहिब को ही सिक्ख पंथ का स्थायी गुरु घोषित कर दिया और समस्त सिक्ख अनुयायियों को आज्ञा दे दी कि आगे से कोई व्यक्ति गुरु नहीं होगा।सिक्ख किसको कहते हैं?
१. जो केवल एक अकालपुरुष को मानता हैं, वह सिक्ख है।
२. जो दस गुरु साहिबान (गुरुनानक देव से गुरु गोविंद सिंह तक) और गुरु ग्रंथ साहब वाणी व शिक्षा के अनुसार जीवन व्यतीत करता है, वह सिक्ख है।
३. जो दशम पिता के प्रदान किए खंडे बांटे का अमृत पान करता है, वह सिक्ख है।
४. जो पांचककार केश, कंघा, कड़ा, कछिहरा और कृपाण इन पांचों को धारण करता है, वह सिक्ख है।सिक्खों के लिए वर्जित कार्य

सिक्ख धर्म चार बुराइयों से सिक्खों को दूर करने का उपदेश देता है-
१. केशों को अपमानित करना।
२. तंबाकु सेवन करना।
३. मुसलमानों द्वारा कुंठा (हलाल) मांस खाना।
४. पराई स्त्री या पराए पुरुष का संग करना।

सिक्ख धर्म: उपासना पद्धतियां एवं प्रथाएं
नित्य नियम : सिक्ख धर्म में मान्यता है कि नितनेम का रोज पाठ करना चाहिए। ये पाठ हैं- जपु, जाप और दस सवैये। इन वाणियों का पाठ प्रात: काल करना चाहिए।सोदर रहिरास: सूर्यास्त के बाद पढ़े।सोहिला: ये वाणी रात को सोते समय पढ़े।ओम्: ये पारब्रह्म वाचक शब्द है। गुरुग्रंथ साहब में ओम् के पूर्व 1 अंक का प्रयोग किया गया है इससे तात्पर्य यह है कि वह अस्तित्व जो एक है जिसके समान दूसरा कोई नहीं है।

जपु: ''आदि सचु जुगादि सचुहै भी सचु नानक होसी भी सचु।''ये गुरुमत का मूलमंत्र है। इसमें गुरुनानक देव ने परमात्मा के शाब्दिक संकल्प को प्रस्तुत किया है।सोहिला: सोहिला वाणी का नाम है। इस वाणी का पाठ सिक्ख मतानुसार रात को सोते समय किया जाता है। सोहिला का शाब्दिक अर्थ है- यश। अर्थात् वाणी से परमात्मा का यशोगान किया जाना।

अरदास: सिक्ख धर्म में अरदास का बड़ा महत्व है। अरदास का नियम है कि गुरु सिक्ख जब भी वाणी का पाठ करें, प्रवचन करें, सबसे पहले ईश्वर के चरणों में समर्पण भाव से प्रार्थना करें कि सुख शांति का व्यवहार बना रहे, एवं परमेश्वर प्रार्थी के सिर पर अपना हाथ रखे। मनुष्यों का कर्तव्य है कि वह कोई भी व्यवधान हो, यात्रा हो या शुभ कार्य करना हो, या कोई मंगल कार्य करना हो तो पहले अरदास (प्रार्थना) करें, तब आरंभ करें। परमात्मा अरदास करने वालों की प्रार्थना पूरी करते हैं।

अकाल तख्त: सिक्ख धर्म में पांच अकाल तख्त हैं। जिनको पूजा जाता है तथा जिन पर बैठकर सिक्खों को आदेश, करमान, सजा, न्यायिक आदेश दिए जाते हैं जो इस प्रकार हैं -
1. श्री अकाल तख्त साहब, अमृतसर (पंजाब)
2. श्री हरमंदिर साहब, पटना (बिहार)
3. श्री केसगढ़ साहिब, आनंदपुर (पंजाब)
4. श्री दमदमा साहिब, तलवंडी (पंजाब)
5. श्री हजूर साहब, नांदेड़ (महाराष्ट्र)ये पांचों तख्त सिक्खों के ऐतिहासिक तख्त हैं, जिनकी बड़ी मान्यता है।

फतह- जब कभी दो सिक्ख व्यक्ति आपस में मिलते हैं तो फतह बुलवाते हैं। जो कि इस प्रकार है- ''वाहे गुरुजी का खालसा, वाहे गुरुजी की फतह जयकार- सिक्ख धर्म में जयकार भी होती है। जो इस प्रकार है - ''बोले सो निहाल सत् श्री अकाल । सिक्ख सैनिक युद्धों के समय भी यही जयकारा बोलते हैं।मत्था टेकना- सिक्ख जब गुरुद्वारे आता है तो गुरुग्रंथ साहब को मत्था टेकता है, सिर झुकाता है। मस्तक झुकाने का अर्थ यह है कि हम गुरुग्रंथ साहब का हुक्म मानेंगे।

एक परिवार- सिक्ख धर्म कहता है कि सभी सिक्ख एक परिवार है। खालसा पंथ ही हमारा सांझा परिवार है। गुरु गोविंद सिंह पिता व साहब कौरजी माता है।वाहे गुरु: परमात्मा के भिन्न-भिन्न नामों - ईश्वर, खुदा, यीशू, भगवान आदि के समान ही सिक्ख धर्म में परमात्मा को वाहे गुरु (अकाल पुरुष) के नाम से पुकारा जाता है।केश: सिक्ख धर्म में केशों का बहुत महत्व है। सिक्खों का विश्वास है कि केश गुरु की निशानी है। केश सच्चे सिक्ख की पहचान है।

गुरुद्वारा: वाहेगुरु (परमात्मा) का गुणगान करने को सिक्ख लोग गुरुद्वारे जाते हैं। हिंदूओं के मंदिर और मुस्लिमों की मस्जिद के समान ही सिक्खों का सामुहिक धर्म स्थल गुरुद्वारा कहलाता है। गुरुद्वारे में 'गुरुग्रंथ साहिब को मूर्ति के स्थान पर अत्यंत आदर एवं सम्मान के साथ रखा जाता है। सिक्ख धर्म में अनुशासन की बड़ी महत्ता है। गुरु तख्त के आदेश का पालन व सजा काटना, सिक्ख अपना धर्म समझते हैं। सिक्खों का बड़े से बड़ा आदमी भी तख्त के आदेश का पालन करके गंदे जूते एवं झूठे बर्तन साफ करता है।

सिक्ख धर्म के प्रमुख उपदेश
सिक्ख धर्म के प्रमुख उपदेशसिक्ख धर्म में जिन 10 गुरुओं को मान्यता प्राप्त है, उनके द्वारा दी गई शिक्षाएं एवं उपदेशों में से प्रमुख इस प्रकार है:

1. मनुष्य स्वयं कर्म रूपी बीज बोता है तथा स्वयं ही फल खाता है।
2. जो दुष्ट कर्म हैं वो पेट के कीड़े बनते हैं। शुभ कर्म शुभ गुणों के रूप में परिवर्तित होते हैं।
3. जो परमात्मा को नहीं भजते वे आवागमन (जन्म-मृत्यु) के चक्र में पड़े रहते हैं।
4. जो तीर्थ ईश्वर की आज्ञानुसार है, उसमें स्नान करना चाहिए।
5. महात्माओं के सत्संग से जन्म -मरण की जंजीर टूटती है। सत्संग और भजन कभी भी नहीं भूलना चाहिए। 6. अहंकार से सदा दूर रहना चाहिए।
7. अपने को छोटा मानकर चलना चाहिए। किसी को दु:ख नहीं देना चाहिए।
8. जैसे मछली जाल में फंसकर पकड़ी जाती है, उसी प्रकार मनुष्य भी लोभ के जाल में फंसता है।
9. परमात्मा ही मनुष्यों को शक्ति एवं महत्व प्रदान करता है।
10. जब ज्ञान नेत्रों से प्रभु के दर्शन होते हैं। तो जन्म-जन्म के मेल (पाप) कट जाते हैं।
11. फिरत-फिरत में हारियों, फिरियो तब शरणाई। नानक की प्रभु विनती, अपनी भक्ति लाई।।
अर्थात् हे परमात्मा मैं अनेक जन्मों में फिरता-फिरता हार गया अन्त में थककर तोरी शरण आया हूं। मेरी प्रार्थना है अब तेरी भक्ति छोड़कर कहीं न जाऊं।
12. प्रभु प्राप्ति के मार्ग में सुख भोग, रोग के समान है और दु:ख प्रभु कृपा के समान। सुख में प्रभु की याद नहीं आती, दुख में ही भगवान याद आते हैं।
13. सत्संग मनुष्य का अहंकार मिटा देता है।
14. यदि कोई मनुष्य धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चाहता है तो गुरुमुखों की सेवा करें।
15. यदि कोई मनुष्य जन्म-मरण के चक्कर से मुक्त होना चाहता है तो संतों के चरणों में जाएं।
16. हे जीव। सुंदर राम की याद कर तुझे उसने सुंदर बनाकर दिखाया।
17. जब तक मन में झूठ, निंदा, लोभ लालच, दूर नहीं होते शांति नहीं मिलेगी।
18. गुरुभक्ति और सत्य बोलने से वैकुण्ठ की प्राप्ति होती है।
19. जिसने व्यापक प्रभु को पहचान लिया वो ही सतगुरु है।
20. सतगुरु सिक्ख की रक्षा करता है, सेवक पर कृपा करता है।
21. गुरु दर्शन कल देने वाला है, गुरु चरण छूने से पवित्रता प्राप्त होती है।
22. अभिमानी नकर को प्राप्त होता है।
23. संत की निंदा करने वाला ऐसे तड़पता है जैसे बिना जल के मछली।
24. सत्संग में प्रभु प्यार के अनमोल मोती है।
25. कंगाल के लिए प्रभुनाम धन तथा निराश्रित के लिए सहारे के समान है।

सिक्ख मत और हिंदुत्वसिक्ख धर्म और हिंदुत्व, ये दो नहीं, एक ही धर्म है। हिंदुत्व का यह स्वभाव है कि उस पर जब जैसी विपत्ति आती है। तब वह वैसा ही रूप अपने भीतर से प्रकट करता है। इस्लामी हमलों से बचने के लिए अथवा उसका माकूल जवाब देने के लिए ही हिंदूत्व ने इस्लाम के अखाड़े में अपना जो रूप प्रकट किया, वही सिक्ख या खालसा धर्म है। सिक्ख गुरुओं ने हिंदू धर्म की रक्षा और सेवा के लिए अपनी गरदनें कटाई। अपने जीवन का बलिदान दिया तथा उन्होंने अपना जो सैनिक संगठन खड़ा किया, उसका लक्ष्य भी हिंदू धर्म को जीवित एवं जागरूक रखना था। इसी कारण सिक्ख सारे भारत वर्ष में हिंदूओं के प्रिय है।

गुरु नानक की जिंदगी का यह सच नहीं होगा आपको पता
पंजाब की भूमि वीर योद्धाओं के शौर्य गाथाओं और मानवता के लिए सर्वस्व त्याग देने वाले लोगों की कहानियों से भरी है। इसी प्रांत में सिख धर्म का उदय हुआ और यह देश- दुनिया तक फैला। इन कहानियों के स्वर्णभंडार से हम आपके लिए कुछ ऐसी कहानियां लेकर आए हैं जो सिख धर्म गुरुओं से संबंधित है। पेश है गुरु नानक के जीवन की कुछ बातें-

नानक एक असाधारण रूप से विकसित शक्तियों वाले बालक थे। बारह वर्ष की आयु में उनका विवाह बटाला के मूलचंद चोना की बेटी सुलखनी से हो गया। नानक की उम्र उन्नीस साल की थी, जब उनकी पत्नी उनके साथ रहने आ गई। कुछ समय के लिए तो वह उनका ध्यान अपनी तरफ करने में कामयाब हो गई और उसने दो पुत्रों को जन्म दिया, श्रीचंद को वर्ष 1494 में और लखमीदास को तीन साल बाद। उनकी शायद कोई बेटी या बेटियां भी हुईं, जो बचपन में ही मर गईं।

उसके बाद नानक का मन पुन: आध्यात्मिक समस्याओं की ओर मुड़ गया और फिर वे दर-दर भटकते साधुओं का साथ खोजने लगे। उनके पिता ने उन्हें अपने पशुओं की देखभाल करने में लगाने और उनके लिए व्यवसाय-धंधा खोलने की बड़ी कोशिश की, लेकिन कुछ भी काम न आया। उनकी बहन उन्हें अपने घर सुल्तानपुर ले आई और अपने पति के प्रभाव से उनकी नौकरी बतौर खजांची नवाब दौलत खान लोदी के यहां लगवा दी, जो कि दिल्ली के सुल्तान के कोई दूर के रिश्तेदार थे। यद्यपि नानक ने बेमन से ही यह नौकरी करना स्वीकार किया, लेकिन अपना फर्ज उन्होंने बाकायदा भली-भांति निभाया और अपने मालिकों का दिल जीत लिया।

सुल्तानपुर में एक मुस्लिम भांड मरदाना नानक के साथ हो लिया और दोनों मिलकर शहर में सबद गाने का आयोजन करने लगे। जन्मसाखी में सुल्तानपुर में बिताए उनके जीवन का ब्यौरा है, हर रात वे गुरुबानी गाते थे, जो भी आता, वे उसे भोजन कराते, सूर्योदय से सवा घंटे पहले उठ वे नदी में नहाने जाते और दिन निकलने तक दरबार में जाकर अपने काम में जुट जाते।नदी पर सुबह-सुबह ऐसे ही एक स्नान के दौरान, नानक को अपना प्रथम रहस्यवादी अनुभव हुआ। जन्मसाखी में इसे ईश्वर के साथ आध्यात्मिक संवाद कहा गया है। ईश्वर ने उन्हें पीने के लिए अमृत का भरा प्याला दिया और धर्मोपदेश देने का जिम्मा सौंपते हुए कहा नानक, मैं तुम्हारे साथ हूं। तुम्हारे जरिए मेरा नाम बढ़ेगा। जो भी तुम्हारा अनुसरण करेगा, मैं उसकी रक्षा करूंगा। प्रार्थना करने के लिए दुनिया में जाओ और लोगों को प्रार्थना का ढंग सिखाओ। दुनिया के ढंग देखकर घबराना नहीं। अपने जीवन को नाम की स्तुति में, दान, स्नान, सेवा और सिमरन में समर्पित कर दो। नानक, मैं तुम्हें अपना वायदा देता हूं। इसे अपने जीवन का लक्ष्य बन जाने दो।

रहस्यमय वाणी ने फिर कहा नानक, जिसे तुम आशीष दोगे, वह मेरे द्वारा आशीषा जाएगा, जिस पर तुम अनुग्रह करोगे, वह मेरा अनुग्रह प्राप्त करेगा। मैं परमात्मा हूं, परम- सर्जक। तुम गुरु हो, परमात्मा के परम गुरु। कहते हैं नानक को ईश्वर ने अपने हाथों से दिव्य सिरोपा दिया। नानक तीन दिन और तीन रातों तक गुम रहे और यह समझ लिया गया था कि वे नदी में डूब गए। वे चौथे दिन पुन: प्रकट हुए। जन्मसाखी में इस नाटकीय वापसी का वर्णन इस प्रकार है लोग बोले, मित्रों, ये नदी में खो गए थे, कहां से पुन: प्रकट हुए हैं? नानक घर लौटे और जो भी उनके पास था, सब लोगों में बांट दिया। उनके तन पर केवल उनकी लंगोटी बची थी, बाकी कुछ नहीं। उनके गिर्द भीड़ जुटनी शुरू हो गई। खान भी आया और पूछने लगा, नानक, तुमको हुआ क्या है? नानक मूक बने रहे। जवाब लोगों ने दिया, यह नदी में रहा है और इसका दिमाग खराब हो गया है। खान बोला, मित्रो, यह तो बड़ी परेशानी की बात है, और दुखी होकर वापस चला गया।

नानक फकीरों के साथ जा मिले। उनके साथ भाट मरदाना भी गया। एक दिन बीत गया। अगले दिन वे उठे और बोले, कोई हिंदू नहीं है, न ही कोई मुसलमान। इसके बाद तो जब भी बोलते, यही करते, कोई न हिंदू है, न ही कोई मुसलमान है। यह घटना संभवत: सन् 1499 में घटी, जब नानक अपनी उम्र के तीसवें वर्ष में थे। यह उनके जीवन के प्रथम अध्याय को चिह्न्ति करता है-सच की खोज हो चुकी थी, वे दुनिया को इसकी घोषणा करने के लिए तैयार हो चुके थे।

अन्याय के खिलाफ लडऩा भी धर्म है....
मुगल शासनकाल में लोगों को कई तरह के कष्ट देकर परेशान किया जा रहा था। उस समय धर्म-परिवर्तन के लिए सनातन धर्मियों पर अत्याचार चरम सीमा पर पहुंच गए थे। ऐसे समय में साहस और एकता के प्रतीक गुरुनानक ने लोगों का मनोबल बढ़ाया। उन्होंने अन्याय का डटकर विरोध ही नहीं किया बल्कि आक्रमणकारियों और शासकों की निंदा भी की। इसी विरोध के कारण बाबर ने उन्हें बंदी बनाया लेकिन वे अपने संकल्प पर अडिग रहे। राम नाम का जप करना और लोगों को सही रास्ता दिखाना ही उनके जीवन का उद्देश्य था।

राम सुमिर, राम सुमिर .........
गुरु नानकदेव का उपदेश इसी बात पर केंद्रित है कि मानव जीवन परमात्मा की भक्ति के लिए मिला है। यह संसार, मान-सम्मान और प्रतिष्ठा सब झूठे हैं। मतलब यह कि इन सांसारिक उपलब्धियों से परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती। ये सब चीजें तो मौत छीन लेगी। इसीलिए वे गाते थे- राम सुमिर, राम सुमिर, एही तरो काज है॥ माया कौ संग त्याग, हरिजूकी सरन लाग।

और गुरु अर्जुनदेव का दुश्मन हो गया जहांगीर
मुगलकाल का सबसे अच्छा बादशाह अकबर जिसे भारतीयों ने बहुत सम्मान दिया। अकबर बहुत रहम दिल और धर्म के मार्ग पर चलने वाला बादशाह था परंतु उसी का पुत्र जहांगीर अपने पिता से पूरी तरह विपरित स्वभाव वाला था। इसी वजह से बादशाह अकबर और गुरु अर्जुनदेवजी के बहुत अच्छे संबंध होने के बाद भी जहांगीर गुरुदेव को शत्रु मानता था।

बादशाह अकबर की मृत्यु के बाद उसका उत्तराधिकारी जहांगीर बादशाह की गद्दी पर बैठा। जहांगीर कट्टर पंथी था और अपने धर्म के अतिरिक्त किसी और धर्म को बिल्कुल सम्मान नहीं देता था। इसी के चलते गुरु अर्जुनदेव को अपना शत्रु समझने वाले लोगों ने बादशाह जहांगीर को उनके खिलाफ भड़काने का कार्य शुरू कर दिया। भड़काने वाले लोगों में गुरुजी के बड़े भाई पृथीचंद भी शामिल थे। जहांगीर अब अर्जुनदेवजी के खिलाफ पूरी तरह भड़क चुका था। जहांगीर की तुजुक जहांगीरी में इस बात की पुष्टि होती है कि गुरुदेव के खिलाफ उसमें कितना क्रोध भरा था। सिक्ख धर्म की तेजी से बढ़ती लोकप्रियता से जहांगीर का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच गया और उसने गुरुदेव को लाहौर बुलवा लिया।

गुरुदेव समझ गए थे कि अब जहांगीर कुछ भी कर सकता है फिर भी वे लाहौर पहुंच गए। जहांगीर लाहौर से कहीं और निकल गया था परंतु जाते-जाते चंदूशाह को हुक्म दिया कि गुरु अर्जुनदेव को मार दिया जाए। चंदूशाह भी गुरुदेव से बहुत नफरत करता था इसी वजह से उसने गुरुजी को कई यातनाएं दी। इन कष्टों के झेलने पर भी गुरुदेव ने किसी से कोई शिकायत नहीं की और फिर संवत १६६३ में ज्येष्ठ सुदी के दूसरे दिन धर्म और इंसानियत की रक्षा करते-करते देह त्याग दी।

शांत और गंभीर थे गुरु अर्जुनदेवजी
ब्रह्मज्ञानी, परम विद्वान, शहीदों के सरताज गुरु अर्जुनदेवजी का जन्म गोइंदवाल साहिब में 15 अप्रैल 1563 को हुआ। उनके पिता का नाम गुरु रामदास एवं माता का नाम बीवी भानीजी था। गुरु अर्जुनदेवजी का विवाह 1579 ईस्वी में हुआ। उनके पुत्र का नाम हरगोविंदसिंह था।

वैसे तो गुरुदेव का पूरा जीवन ही लोगों की भलाई करने में व्यतीत हुआ परंतु इसके अलावा भी उन्होंने कई ऐसे कार्य किए जो आज भी एक मिसाल है। उन्होंने ग्रंथ साहिब का संकलन किया। ग्रंथ साहिब पढ़कर बादशाह अकबर बहुत प्रसन्न हुआ था।

गुरुदेव शांत स्वभाव और गंभीर व्यक्तित्व वाले थे। मानव कल्याण उनके जीवन का ध्येय था। वे हमेशा प्राणियों की सेवा करना और धर्म के मार्ग पर चलने की प्रेरणा सभी को दिया करते थे। उनकी वजह से सिक्ख धर्म बहुत लोकप्रिय हुआ जिसे देखकर बादशाह जहांगीर उनसे ईष्र्या करने लगा। जहांगीर की ईष्र्या इतनी बढ़ गई कि उसने गुरुदेव को मारने का षडय़ंत्र रच डाला और गुरुजी को कई यातनाएं दी। गुरुदेव उन यातयाओं को झेलते रहे परंतु किसी से कोई बैर भाव मन में नहीं लाए और देह त्याग दी।

गुरु अर्जुन देव जी द्वारा रचित वाणी ने संतप्त मानवता को शांति का संदेश दिया। सुखमनी साहिब उनकी अमर-वाणी है। सिक्ख धर्म को मानने वाले लोग रोज सुखमनी साहिब का पाठ कर शांति प्राप्त करते हैं। सुखमनी साहिब चौबीस अष्टपदी हैं। सुखमनी साहिब राग गाउडी और सूत्रात्मक शैली की रचना है। इसमें साधना, नाम-सुमिरन तथा उसके प्रभावों, सेवा और त्याग, मानसिक दु:ख-सुख एवं मुक्ति की उन अवस्थाओं का उल्लेख किया गया है। सरल ब्रजभाषा एवं शैली से जुड़ी गुरु अर्जुनदेवजी यह रचना पूजनीय है।

सिक्खों के पांचवें गुरु अर्जुनदेवजी
सिक्ख धर्म के पांचवें गुरु हुए श्री अर्जुनदेवजी। जिन्होंने सिक्ख धर्म को एक नए शिखर तक पहुंचाया। सिक्ख धर्म की आस्था, श्रद्धा और भक्ति का केंद्र पवित्र श्रीगुरु ग्रंथ साहिब का संकलन किया, स्वर्ण मंदिर की नींव रखी और सभी सिक्खों से अपनी कमाई का दसवां हिस्सा निकाल कर धर्म के नाम लगाने की बात कही। इन्हीं कार्यों की वजह से सिक्ख धर्म के इतिहास में गुरु अर्जुन देवजी का स्थान सबसे अलग और सबसे खास है। सिक्खों के प्रति समर्पण की वजह से ही इन्हें पांचवें नानक के रूप में देखा जाता है।

कौन हैं सिक्ख धर्म के पंच प्यारे...?
मुगल शासनकाल में जब बादशाह औरंगजेब का आतंक बढ़ता ही जा रहा था। उस समय गुरु गोविंद सिंह ने बैसाखी पर्व पर आनंदपुर साहिब के विशाल मैदान में सिक्ख समुदाय को आमंत्रित किया। मैदान में बड़ा सा पंडाल लगाया गया। जहां गुरुजी के लिए एक तख्त बिछाया गया और तख्त के पीछे एक तम्बू लगाया गया। जब मैदान में बड़ी संख्या में सिक्ख समाज एकत्रित हो गया तब गुरु गोविंदसिंह के दायें हाथ में नंगी तलवार चमक रही थी।

गोविंदसिंह नंगी तलवार लिए मंच पर पहुंचे और उन्होंने ऐलान किया- मुझे एक आदमी का सिर चाहिए। क्या आप में से कोई अपना सिर दे सकता है? यह सुनते ही वहां मौजूद सभी सिक्ख हतप्रभ रह गए। परंतु उस भीड़ से लाहौर निवासी दयाराम खड़ा हुआ और बोला- आप मेरा सिर ले सकते हैं। गुरुदेव उसे पास ही बनाए गए तम्बू में ले गए। कुछ देर बाद तम्बू से खून की धारा निकलती दिखाई दी। तंबू से निकलते खून को देखकर पंडाल में सन्नाटा छा गया।

गुरु गोविंदसिंह तंबू से बाहर आए, नंगी तलवार से ताजा खून टपक रहा था। उन्होंने फिर ऐलान किया- मुझे एक और सिर चाहिए। मेरी तलवार अभी प्यासी है। इस बार सहारनपुर के जटवाडा गांव का युवक धर्मदास खड़ा हुआ। गुरुदेव उसे भी तम्बू में ले गए। फिर थोड़ी देर खून की धारा बाहर निकलने लगी। बाहर आकर गोविंदसिंह ने अपनी तलवार की प्यास बुझाने के लिए एक और व्यक्ति के सिर की मांग की। इस बार जगन्नाथ पुरी के हिम्मत राय खड़े हो गए।

गुरुजी उन्हें भी तम्बू में ले गए और फिर से तंबू से खून धारा बाहर आने लगी। गुरुदेव फिर बाहर आए और एक और सिर की मांग की तब द्वारका निवासी मोहकम चंद सामने आ गए। इसी तरह पांचवी बार फिर गुरुदेव द्वारा सिर मांगने पर बीदर निवासी साहिब चंद सिर देने के लिए आगे आये। मैदान में इतने सिक्खों के होने के बाद भी वहां सन्नाटा पसर गया, सभी एक-दूसरे का मुंह देख रहे थे। किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा था। तभी तंबू से गुरु गोविंदसिंह केसरिया बाना पहने पांच सिक्ख नौजवानों के साथ बाहर आए। पांचों नौजवान वहीं थे जिनके सिर काटने के लिए गोविंदसिंह तंबू में ले गए थे। गुरुदेव और पांचों नौजवान मंच पर आए, गुरुदेव तख्त पर बैठ गए। पांचों नौजवानों ने कहां गुरुदेव हमारे सिर काटने के लिए हमें तंबू में नहीं ले गए थे बल्कि वह हमारी परीक्षा थी। तब गुरुदेव ने वहां उपस्थित सिक्खों से कहा आज से ये पांचों मेरे पंच प्यारे हैं। इनकी निष्ठा और समर्पण से खालसा पंथ का जन्म हुआ है।

मानवता के पक्षधर थे गुरु गोविंद सिंह
गुरु गोविंद सिंह सिक्खों के दसवें व अंतिम गुरु थे। गुरु गोविंद सिंह जी का मूल नाम गोविंद राय था। गुरु गोविंद सिंह के जन्म के समय देश पर मुग़लों का शासन था। इसी दौरान गुरु तेगबहादुर की धर्मपत्नी गुजरी देवी ने एक सुंदर बालक को जन्म दिया, जो गुरु गोविंद सिंह के नाम से विख्यात हुआ। पूरे नगर में बालक के जन्म पर उत्सव मनाया गया। बचपन में सभी लोग गोविंद जी को बाला प्रीतम कहकर बुलाते थे। उनके मामा उन्हें भगवान की कृपा मानकर गोविंद कहते थे। बार-बार गोविंद कहने से बाला प्रीतम का नाम गोविंद राय पड़ गया।

गुरु गोविंद सिंह को सैन्य जीवन के प्रति लगाव अपने दादा गुरु हरगोविंद सिंह से मिला था और उन्हें बौद्धिक संपदा भी उत्तराधिकार में मिली थी। वह अनेक भाषाओं जैसे फारसी, अरबी, संस्कृत और अपनी मातृभाषा पंजाबी का ज्ञान था। उन्होंने सिक्ख क़ानून को मजबूत किया, काव्य रचना की और सिक्ख ग्रंथ दसम ग्रंथ (दसवां खंड) लिखा। उन्होंने देश, धर्म और स्वतंत्रता की रक्षा के लिए सिक्खों को संगठित कर सैनिक परिवेश में ढाला। खिलौनों से खेलने की उम्र में गुरु गोविंद सिंह कटार और धनुष-बाण से खेलना पसंद करते थे।

9 वर्ष की उम्र में गुरु बने गोविंद सिंह
जब औरंगजेब ने गुरु तेगबहादुर का कत्ल करवा दिया तो उनकी शहादत के बाद उनकी गद्दी पर गुरु गोविंद सिंह को बैठाया गया। उस समय उनकी उम्र मात्र 9 वर्ष थी। गुरु की गरिमा बनाये रखने के लिए उन्होंने अपना ज्ञान बढ़ाया और संस्कृत, फारसी, पंजाबी और अरबी भाषाएँ सीखीं। गुरु गोविंद सिंह ने धनुष- बाण, तलवार, भाला आदि चलाने की कला भी सीखी। उन्होंने सिक्खों को अपने धर्म, जन्मभूमि और स्वयं अपनी रक्षा करने के लिए संकल्पबद्ध किया और उन्हें मानवता का पाठ पढ़ाया।

पंच प्यारे भी गुरु गोविंद सिंह की ही देन है। केशगढ़साहिब में आयोजित सभा में गुरु गोविंद सिंह ने ही पहली बार पंच प्यारों को अमृत छकाया था।इस घटना को देश के इतिहास में बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है, क्योंकि उस समय देश में धर्म, जाति जैसी चीजों का बहुत ज्यादा बोलबाला था। इस सभा में मौजूद सभी लोगों ने न सिर्फ सिख धर्म को अपनाया, बल्कि सभी ने अपने नाम के आगे सिंह भी लगाया। गुरु गोविंद सिंह भी पहले गोविंद राय थे। इस सभा के बाद ही वे गुरु गोविंद सिंह कहलाए। तभी से यह दिन खालसा पंथ की स्थापना के उपलक्ष्य में बैसाखी के तौर पर मनाया जाता है।

गुरु गोविंद सिंह की देन है पंच प्यारे
गुरु तेग बहादुर सिंह जी की हत्या के बाद उनके बेटे गुरु गोविंद सिंह दसवें गुरु कहलाए। इन्होंने लोगों में बलिदान देने और संघर्ष की भावना बढ़ाने के लिए 3 मार्च, 1699 को वैशाख के दिन केशगढ़ साहिब के पास आनंदपुर में एक सभा बुलाई। इस सभा में हजारों लोग इकट्ठा हुए। गुरु गोविंद सिंह ने यहां पर लोगों के मन में साहस पैदा करने के लिए लोगों से जोश और हिम्मत की बातें कीं। उन्होंने लोगों से कहा कि जो लोग इस कार्य के लिए अपना जीवन बलिदान करने के लिए तैयार हैं, वे ही आगे आएं।

इस सभा में गुरु गोविंद जी अपने हाथ में एक तलवार लेकर आए थे। उनके बार-बार आह्वान करने पर भीड़ में से एक जवान लड़का बाहर आया। गुरु जी उसे अपने साथ तंबू के अंदर ले गए और खून से सनी तलवार लेकर बाहर आए। उन्होंने लोगों से कहा कि जो बलिदान के लिए तैयार है, वह आगे आए। एक लड़का फिर आगे बढ़ा। गुरु उसे भी अंदर ले गए और खून से सनी तलवार के साथ बाहर आए। उन्होंने ऐसा पांच बार किया।
आखिर में वे उन पांचों को लेकर बाहर आए। उन्होंने सफेद पगड़ी और केसरिया रंग के कपड़े पहने हुए थे। यही पांच युवक उस दिन से पंच प्यारे कहलाए। इन पंच प्यारों को गुरु जी ने अमृत (अमृत यानि पवित्र जल जो सिख धर्म धारण करने के लिए लिया जाता है) चखाया। इसके बाद इसे बाकी सभी लोगों को भी पिलाया गया। इस सभा में मौजूद हर धर्म के अनुयायी ने अमृत चखा और खालसा पंथ का सदस्य बन गया।

सिख धर्म का चमत्कारिक सबद
इस भागदोड़ भरी जिंदगी में इंसान एक धर्म को ही ठीक प्रकार से नहीं जान पाता है। जबकि हर धर्म में ऐसी कई बातें हैं जो हमारे लिये बडी़ मददगार शाबित हो सकती हैं। कोई पूजा-अनुष्ठान, मंत्र-तंत्र या टोने-टोटके ऐसे होते हैं जो कठिन से कठिन समस्या को आश्चर्यजनक रूप से बहुत सीघ्र ही दूर कर देते हैं। सिक्ख धर्म में सबद के रूप में कुछ ऐसे मंत्र हैं जिनका नियम पूर्वक जप करने से वर्षों पुरानी बीमारी भी हमैशा के लिये दूर हो जाती है। किसी भी प्रकार के रोग को दूर करने के लिए निम्नलिखित सबद का 41 दिन तक नित्य 108 बार जप करना चाहिए:-

सेवी सतिगुरु आपणा हरि सिमरी दिन सभी रैणि।
आपु तिआगि सरणि पवां मुखि बोली मिठड़े वैण।
जनम जनम का विछुडि़आ हरि मेलहु सजणु सैण।
जो जीअ हरि ते विछुड़े से सुखि न वसनि भैण।
हरि पिर बिनु चैन न पाईए खोजि डिठे सभि गैण।
आप कामणै विछुडी दोसु न काहू देण।
करि किरपा प्रभ राखि लेहु होरू नाही करण करेण।
हरि तुध विणु खाकू रूलणा कहीए किथै वैण।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है....
मनीष

Monday, October 27, 2014

Jainism ( जैन धर्म)

ऐसे जन्मा जैन धर्म
जैन शब्द का अर्थजैन शब्द 'जिन' से बना है। जिसका अर्थ है वह पुरुष जिसने समस्त मानवीय वासनाओं (भोग प्रवृत्तियों) पर विजय प्राप्त कर ली है। अर्थात् जिसने अपने मन को जीत लिया हो तथा सांसारिक इच्छाओं पर नियंत्रण कर लिया हो। तीर्थंकर इन्हीं गुणों से पूर्ण थे, अत: इनके द्वारा चलाया गया धर्म जैन धर्म कहलाया।

जैन धर्म का प्रारंभ एवं इतिहास जैन धर्म के अनुयायियों (मानने वाले) की मान्यता है कि उनका धर्म अनादि (अनंत समय पहले का) और सनातन है। सामान्यत: लोगों में यह मान्यता है कि जैन पंथ का मूल उन प्राचीन पंरपराओं में रहा होगा, जो आर्यों के आगमन से पूर्व इस देश में प्रचलित थीं। किंतु यदि आर्यों के आगमन के बाद से भी देखें तो ऋषभदेव और अरिष्टनेमि को लेकर जैन धर्म की परंपरा वेदों तक पहुंचती है। महाभारत के युद्ध के समय, इस संप्रदाय के प्रमुख नेमिनाथ थे, जो जैन धर्म में एक तीर्थंकर हैं। ई.पू. आठवीं सदी में 23वें तीर्थंकर पाश्र्वनाथ हुए, जिनका जन्म काशी में हुआ था। काशी के पास ही 11वें तीर्थंकर श्रेयांसनाथ का जन्म हुआ था। इन्हीं के नाम पर सारनाथ का नाम प्रचलित है। जैन धर्म में श्रमण- संप्रदाय का पहला संगठन पाश्र्वनाथ ने किया था। ये श्रमण वैदिक परंपरा के विरुद्ध थे। महावीर तथा बुद्ध के काल में ये श्रमण कुछ बौद्ध तथा कुछ जैन हो गए। इन दोनों ने अलग-अलग अपनी शाखाएं बना ली। भगवान महावीरजैन धर्म के 24वें तीर्थंकर महावीर वर्धमान हुए, जिनका जन्म ई.पू. 599 में हुआ था। 72 वर्ष की आयु में देहत्याग किया।

महावीर स्वामी ने शरीर छोडऩे से पूर्व जैन धर्म की नींव काफी मजबूत कर दी थी। अहिंसा को उन्होंने जैन धर्म में अच्छी तरह स्थापित कर दिया था। सांसारिकता पर विजयी होने के कारण वे जिन (जयी) कहलाये। उन्हीं के समय से इस संप्रदाय का नाम जैन हो गया। अशोक के अभिलेखों से यह पता चलता है कि उसके समय में मगध में जैन धर्म का प्रचार था। लगभग इसी समय, मठों में बसने वाले जैन मुनियों में यह मतभेद शुरू हुआ कि तीर्थंकरों की मूर्तियां कपड़े पहनाकर रखी जाए या नग्न अवस्था में। इस बात पर भी मतभेद था कि जैन मुनियों को वस्त्र पहनना चाहिए या नहीं। आगे चलकर यह मतभेद और भी बढ़ गया। ईसा की पहली सदी में आकर जैन-मतावलंबी (जैन धर्म को मानने वाले) मुनि दो दलों में बंट गए। एक दल श्वेतांबर कहलाया जिसके साधू सफेद वस्त्र (कपड़े) पहनते थे, और दूसरा दल दिगंबर कहलाया जिसके साधु नग्न (बिना कपड़े के) ही रहते थे।

जैन धर्म का प्रचार-प्रसार ईसा की पहली शताब्दीं में क लिंग के राजा खारावेल ने जैन धर्म स्वीकार किया। ईसा की आरंभिक सदियों में उत्तर में मथुरा और दक्षिण में मैसूर जैन धर्म के बहुत बड़े केंद्र थे। पांचवीं से बारहवीं शताब्दीं तक दक्षिण के गंग, कदम्बु, चालुक्य और राष्ट्रकूट राजवंशों ने जैन धर्म के प्रचार -प्रसार में बहुत सहयोग एवं सहायता प्रदान की। इन राजाओं के यहां अनेक जैन कवियों को आश्रय एवं सहायता प्राप्त होती थी। ग्याहरवीं सदी के आसपास चालुक्य वंश के राजा सिद्धराज और उनके पुत्र कुमारपाल ने जैन धर्म को राजधर्म बना दिया तथा गुजरात में उसका व्यापक प्रचार-प्रसार किया। हिंदी के प्रचलन से पूर्व अपभ्रंश भाषा का प्रयोग होता था। अपभ्रंश भाषा के कवि, लेखक एवं विद्वान हेमचंद्र इसी समय के थे। हेमचंद्र कुमार पाल के दरबार में ही थे। सामान्यत: जैन मतावलंबी शांतिप्रिय स्वभाव के होते थे। इसी कारण मुगल शासन काल में इन पर अधिक अत्याचार नहीं होते थे। उस समय के साहित्य एवं अन्य विवरणों से प्राप्त जानकारियों के अनुसार अकबर ने जैन अनुयाइयों की थोड़ी बहुत मदद भी की थी। मगर धीरे-धीरे जैनियों के मठ टूटने एवं बिखरने लगे। जैन धर्म मूलत: भारतीय धर्म है। भारत के अतिरिक्त पूर्वी अफ्रीका में भी जैन धर्म के अनुयायी रहते हैं।

यह सिखाता है जैन धर्म
जैन धर्म का सारमनुष्य को सदैव सत्कर्म करना चाहिए। जीवन का हर क्षण आत्मज्ञान (कैवल्य) की प्राप्ति में लगाना चाहिए। सत्य, प्रेम, अहिंसा, दया, करुणा, परोपकार, एवं सेवा जैसे उच्च सात्विक गुणों को अवश्य ही जीवन में अपनाना चाहिए। भोग-विलास से दूर रहकर प्रत्येक कर्म पवित्र एवं सात्विक ही करना चाहिए। नैतिक जीवन अपनाकर ही मनुष्य इस माया (जन्म-मरण का चक्र) के बंधन से मुक्त हो सकता है।

जैन धर्म की प्रमुख मान्यताएं एवं सिद्धांतजैन धर्म के धार्मिक उपदेश मूलत: नैतिक मूल्यों पर आधारित है। इन उपदेशों में अधिकतर पाश्र्वनाथ और महावीर की शिक्षाएं हैं। पाश्र्वनाथजी के अनुसार चार महाव्रत है- 1. अङ्क्षहसा, 2. सत्य, 3. अस्तेय और 4. अपरिग्रह। चौबीसवें तीर्थंकर वर्धमान महावीर इन महाव्रतों में ब्रह्मचर्य को भी जोड़ा। इस प्रकार जैन धर्म के पांच महाव्रत हो गए हैं। जैन धर्म में भिक्षुओं के लिए इन पांच महाव्रतों का पालन करना अत्यंत आवश्यक है। अहिंसावास्तव में जैन धर्म का मूल आधार अहिंसा ही है। मन वचन और कर्म से किसी को दु:ख या कष्ट न पहुंचाना ही अहिंसा है। जीवधारियों को इंद्रियों की संख्या के आधार पर वर्गीकृत किया गया है। जिनकी इंद्रियां जितनी कम विकसित हैं, उनको शरीर त्याग में उतना ही कम कष्ट होता है। इसलिए एक इंद्रिय जीवों जैसे: वनस्पति, कंद, फूल-फल आदि को ही जैनधर्मी ग्रहण करते हैं। जैन धर्म में आचार-विचार का बड़ा ध्यान रखा जाता है। छोटे से छोटे व्यवहार के लिए भी धार्मिक एवं नैतिक नियमों का विधान किया गया है।

जैन धर्म की मान्यताएं जैन धर्म की मान्यताओं के अनुसार विश्व सदैव से है, सदैव रहा है और सदैव बना रहेगा। जैन धर्म के अनुसार यह विश्व दो अंतिम, सनातन और स्वतंत्र पदार्थों में विभक्त है, वे हैं- 1. जीव और 2. अजीव। इन पदार्थों में एक जड़ है और दूसरा चेतन। जैन धर्म में अजीव के पांच प्रकार बताए गए हैं।

1. पुद्गल (प्रकृति)
2. धर्म (गति)
3. अधर्म (अगति अथवा लय)
4. आकाश (देश)
5. काल (समय)

जैन धर्म की मान्यताओं के अनुसार संपूर्ण जीवधारी आत्मा तथा प्रकृति के सूक्ष्म मिश्रण से बने हैं। उनमें संबंध जोडऩे वाली कड़ी कर्म है। कर्म सिद्धांतकर्म के आठ प्रकार और अगणित उप प्रकार हैं। कर्म के फल से जुड़े होने के कारण ही आत्मा को अनेक शरीर धारण करने पड़ते हैं, और इसी कारण आत्मा जन्म-मरण के बंधन में फंस जाता है। जैन धर्म में पाश्र्वनाथ के उपदेश को चातुर्याम सम्वर-संवाद कहते थे। ये चातुर्याम संवाद थे।

1. हिंसा का त्याग
2. असत्य का त्याग
3. स्तेय का त्याग
4. परिग्रह का त्याग।

महत्वपूर्ण बात यह है कि पाश्र्वनाथ के पूर्व, अहिंसा केवल तपस्वियों के आचरण में सम्मिलित थी, किंतु पाश्र्वनाथ मुनि ने अहिंसा को सत्य, अस्तेय और अपरिग्रह के साथ जोड़कर सभी के लिए व्यवहारिक बना दिया।

जैन धर्म का दर्शन एवं स्वरूप
जैन धर्म और दर्शन का उद्देश्य है आत्मा को प्रकृति के मिश्रण से मुक्त कर उसको कै वल्य (पूर्णत: मुक्त एवं पवित्र) की स्थिति में पहुंचाना। इस कैवल्य की अवस्था में कर्म के बंधन टूट जाते हैं और आत्मा अपने को प्रकृति के बंधनों से मुक्त करने में समर्थ हो जाता है। इसी अवस्था को मोक्ष भी कहा जाता है। मोक्ष की इस अवस्था में समस्त दु:ख, भय, अभाव एवं कष्ट समाप्त हो जाते हैं और आत्मा स्थायी और अटूट परमानंद की अवस्था में पहुंच जाता है। मोक्ष के संबंध में जैन धर्म की यह मान्यता वैदिक मान्यता से भिन्न है। वेदांत के अनुसार मोक्ष की अवस्था में आत्मा का ब्रह्म के साथ पूर्णत: मिलन हो जाता है और आत्मा का पृथक कोई अस्तित्व नहीं बचता।

जबकि जैन धर्म एवं दर्शन के अनुसार कै वल्य या मोक्ष की अवस्था में भी आत्मा का अपना निजी अस्तित्व एवं स्वरूप बना रहता है। जैन दर्शन के अनुसार आत्मा स्वभावत: निर्मल और प्रज्ञ है। प्रकृति के संपर्क के कारण ही आत्मा अज्ञानता, माया और कर्म के बंधन में पड़ जाता है। कैवल्य ज्ञानकैवल्य की प्राप्ति के लिए केवल ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है। इसके उपाय हैं- 1. सम्यक् दर्शन (तीर्थंकरों में पूर्ण श्रद्धा), 2. सम्यक् चारित्र्य (पूर्ण नैतिक आचरण और सम्यक् ज्ञान (शास्त्रों का पूर्ण ज्ञान): जैन धर्म बिना किसी बाहरी सहायता के स्वयं अपने पुरुषार्थ द्वारा ही आत्म कल्याण प्राप्त करने का मार्ग बतलाता है। जैन धर्म एवं दर्शन ने भारतीय धर्म एवं दर्शन को भी कई प्रकार से प्रभावित किया। आचार-शास्त्र में नैतिक आचरण, विशेषकर अहिंसा को इससे नया बल मिला। जैन-दर्शन 'आस्रव के सिद्धांत में विश्वास करता है, जिसका अर्थ यह है कि कर्म के संस्कार, क्षण-क्षण प्रवाहित हो रहा है। कर्म के इन संस्कारों का प्रभाव जीव पर क्षण-क्षण पड़ता जा रहा है। संस्कारों के इस प्रभाव से बचने का यही उपाय है कि मनुष्य चित्त-तृत्तियों का निरोध (रोकथाम) करें, मन को विवेक के द्वारा काबू में लाए। योन की समाधि का अवलंबन और तपश्चर्या में लीन रहना भी जैन दर्शन की मान्यता है।

आत्म ज्ञान प्राप्ति का मार्ग कैवल्य प्राप्ति की साधना के लिए जैन धर्म एवं दर्शन में, सात सोपानों (सीढिय़ों) का उल्लेख किया गया है। ये सात सोपान ही जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष नामक सात तत्व है। जीव आत्मा है। अजीव वह ठोस द्रव्य (शरीर) है, जिसमें आत्मा निवास करती है। जीवन और अजीव का मिलन ही संसार है। अतएव मोक्ष साधना का मार्ग यह है कि जीव (आत्मा) को अजीव (पदार्थ) से पृथक कर दिया जाए। आत्मा और परमात्मा के बीच की माया की दीवार को गिराकर की कै वल्य या मोक्ष की स्थिति प्राप्त की जा सकती है। किंतु जीव-अजीव से बंधा कैसे है? इसका उत्तर 'आस्रव है। विभिन्न कर्मों के करने से जो संस्कार प्रकट होते हैं, उसी के कारण जीव अजीव से बंध जाता है। अतएव इस बंधन को नष्ट करने का उपाय यह है कि जीव कर्मों से क्षरित (उत्पन्न) होने वाले संस्कारों से अलिप्त (पृथक) रहने का प्रयत्न करें। यह प्रक्रिया 'संवर कहलाती है। पर इनता प्रयास ही पर्याप्त नहीं है। आत्मा को तो पूर्व जन्मों के संस्कार भी घेरे रहते हैं, एवं प्रभावित करते हैं। इन पूर्व जन्मों के संस्कारों से मुक्त हाने या छूटने की साधना का नाम 'निर्जरा' है। जीवन रूपी नोका में छेद है। जिनसे उसमें पानी भरता जा रहा है। छेदों को बंद करना ही 'संवर' साधना है और जीवन रूपी नाव में पहले से ही जो पानी (पूर्व जन्मों के संस्कार) भरा हुआ है, उसे उलीचने का नाम निर्जरा है। संवर और निर्जरा के द्वारा जिसने अपने को 'आस्रवो' (संस्कारों) से मुक्त कर लिया वही मोक्ष का अधिकारी है।

मोक्ष की साधनाजैन दर्शनों में मोक्ष (कैवल्य) की साधना केवल सन्यासी ही कर सकते हैं। इन सन्यासियों को जैन धर्म में पांच कोटियों (श्रेणियों) में बांटा गया है। जिनका समन्वित नाम पंच परमेष्ठी है। ये पंच परमेष्ठी हैं: अर्हत्, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु। साधुओं को उपदेश देने वाले उपाध्याय और आचार्य कहलाते हैं। सिद्ध वह है जिसने शरीर छोड़कर मोक्ष प्राप्त कर लिया है और अर्हत् तीर्थंकरों को कहते हैं। अर्हत् तो चौबीस ही हुए हैं, किंतु सिद्ध कोई भी जीव हो सकता है, जिसकी सांसारिक विषय वासनाएं, भोग-विलास की लिप्साएं छूट गई हैं। जो सुख-दुख से ऊपर उठ गया, जिसकी इंद्रियां वशीभूत है वह सिद्ध है। सिद्ध की कोटि परमात्मा की कोटि है। वैदिक दर्शन एवं जैन दर्शन में यह भेद है कि वैदिक धर्म में परमात्मा का मात्र एक ही माना गया है, जबकि जैन धर्म के अनुसार जो भी व्यक्ति सिद्ध हो गया, वह स्वयं परमात्मा है।

जैन धर्म की प्रमुख शाखाएं

जैन धर्म की प्रमुख शाखाएंजैन धर्म की दो प्रमुख शाखाएं हैं। पहली शाखा है दिगंबर और दूसरी शाखा श्वेतांबर कहलाती है। दिगंबर:'दिगंबर' का अर्थ है दिक् (दिशा) है अंबर (वस्त्र) जिसका अर्थ है नग्न। अपरिग्रह और त्याग का यह चरम उदाहरण है। दिगंबर स्वरूप के पीछे का दर्शन संपूर्ण त्याग है। संपूर्ण त्याग अर्थात् किसी भी प्रकार का संग्रह, यहां तक कि शरीर के वस्त्रों का भी त्याग। जैनियों की दिगंबर शाखा की मान्यता है कि स्त्रियों को मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता क्योंकि वे वस्त्र का पूर्णत: त्याग नहीं कर सकती। दिगंबरों के तीर्थंकरों की मूर्तियां पूर्णत: नग्न होती है। दिगंबर शाखा के अनुयायी श्वेतांबरों द्वारा मानित अंग साहित्य को भी प्रमाणिक नहीं मानते। श्वेतांबरश्वेतांबर का अर्थ है 'श्वेत (वस्त्र) है आवरण जिसका। श्वेतांबर शाखा के अनुयायी वस्त्रों के पूर्ण त्याग अर्थात् नग्नता को अधिक महत्वपूर्ण नहीं मानते। श्वेतांबरों द्वारा स्थापित मूर्तियां नग्न नहीं होती बल्कि वे कच्छ धारण करती है। जैन धर्म में एक तीसरी उपशाखा सुधारवादी स्थानकवासियों की है, जो मूर्ति पूजा की विरोधी है। यह शाखा आदिम सरल स्वच्छ व्यवहार तथा सादगी की समर्थक है। इन्हीं की एक शाखा तेरह पंथियों की है जो इनसे उग्र सुधारक है।

जैन धर्म में तीर्थंकर

जैन धर्म में उन 'जिनों' एवं महात्माओं को तीर्थंकर कहा गया है, जिन्होंने असंख्य जीवों को इस संसार से तार (उद्धार करना) दिया है। तीर्थ कहते हैं घाट को, किनारे को। धर्म तीर्थ को प्रवर्तन करने वाले 'तीर्थंकर' कहे जाते हैं। जो इस प्रकार है:

1. श्री ऋषभ देव
2. श्री अजितनाथ
3. श्री संभवनाथ
4. श्री अभिनंदन
5. श्री सुमतिनाथ
6. श्री पदमप्रभु
7. श्री सुपाश्र्वनाथ
8. श्री चंद्रप्रभ
9. श्री पुष्पदंत
10. श्री शीतलनाथ
11. श्री श्रेयांसनाथ
12. श्री वासुपूज्य
13. श्री विमलनाथ
14. श्री अनंतनाथ
15. श्री धर्मनाथ
16. श्री शांतिनाथ
17. श्री कुन्थुनाथ
18. श्री अरहनाथ
19. श्री मल्लीनाथ
20. श्री मुनि सुव्रत
21. श्री निमिनाथ
22. श्री अरिष्टनेमि
23. श्री पाश्र्वनाथ
24. श्री महावीर स्वामी

हमारे कर्मों का फल: सुख-दुख

मानवता की रक्षा के लिए भारतीय इतिहास में कई बार दिव्य शक्तियों का अवतरण हुआ है। समाज में जब-जब अधर्म, पाप, अनाचार, बुराइयां, कुरुतियों ने पैर पसारे हैं तब-तब इन दिव्य शक्तियों ने मानवता को इनसे बचाया है। करीब 600 ईसा पूर्व ऐसे ही एक समय आया जब चारो ओर पाप, अधर्म और बुराइयां व्याप्त हो गई। लोगों के मन से दया, करुणा की भावनाएं क्षीण होने लगी तभी जन्म हुआ भगवान महावीर का।

महावीर स्वामी का संक्षिप्त परिचय
 त्याग एवं तपस्या की मूर्ति महावीर का जन्म चैत्र मास में शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी को वैशाली नगर (बिहार) के एक राज परिवार में हुआ। इनके पिता सिद्धार्थ एवं माता त्रिशाला थी। बालक का नाम रखा गया वद्र्धमान। ऐसा कहा जाता हैं कि जब वर्धमान के जन्म के समय उनकी माता त्रिशाला को 14 अद्भूत स्वप्न आए, जिससे माता को आभास हो गया था कि यह संतान कोई दिव्य शक्ति है।

वद्र्धमान का प्रारंभिक जीवन पूर्णतया राजसी था। फिर भी उनकी रूचि इन सुख-सुविधाओं में नहीं थी। उनका मन तो जीवन-मृत्यु क्यों, सुख-दुख क्यों जैसे रहस्यों की खोज में लगा रहता था। इसी अरूचि और जीवन के रहस्यों को खोजने के लिए वे 30 वर्ष की आयु में वन को प्रस्थान कर गए। वन में उन्होंने 12 वर्षों तक कठोर तपस्या की। तब उन्हें केवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई और इसके बाद ही वद्र्धमान भगवान महावीर कहलाए। भगवान महावीर सत्य, अङ्क्षहसा, अपरिहर्य, क्षमा, दया, करुणा, ब्रह्मचर्य जैसे गुणों की साक्षात मूर्ति ही थे। महावीर स्वामी को जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर माना गया है। उन्होंने हिंसा, पशुबलि पर रोक लगवाई, जाति-पांति के भेदभाव को दूर किया। पावापुरी में कार्तिक मास की कृष्ण अमावस्या पर भगवान महावीर ने 72 वर्ष की आयु निर्वाण प्राप्त किया।

महावीर स्वामी के लाइफ मैनेजमेंट के सूत्र:
मानव जीवन को सरल और महान बनाने के लिए महावीर स्वामी ने कई अमूल्य शिक्षाएं दी हैं। जिनमें सत्य को अपनाना, अहिंसा, अपरिहर्य, क्षमा, दया, करुणा, ब्रह्मचर्य, अधर्म को त्यागना शामिल है। उन्होंने त्याग, संयम, प्रेम, करुणा, शील, सदाचार का पवित्र संदेश फैलाया। भगवान महावीर ने चतुर्विध संघ की स्थापना की। महावीर स्वामी की शिक्षाएं:

सत्य: सत्य ही सच्चा तत्व है। वह बुद्धिमान प्राणी है जो सत्य को अपनाता है। सत्य का साथ देने से ही मनुष्य मृत्यु को तैरकर पार कर जाता है।

अहिंसा: संसार में जो भी जीव निवास करते हैं उनकी हिंसा नहीं और ऐसा होने से रोकना ही अहिंसा है। सभी प्राणियों पर दया का भाव रखना और उनकी रक्षा करना।

अपरिग्रह: जो मनुष्य सांसारिक भौतिक वस्तुओं का संग्रह करता है और दूसरों को भी संग्रह की प्रेरणा देता है वह सदैव दुखों में फंसा रहता है। उसे कभी दुखों से छुटकारा नहीं मिल सकता।

ब्रह्मचर्य: ब्रह्मचर्य ही तपस्या का सर्वोत्तम मार्ग है। जो मनुष्य ब्रह्मचर्य का पालन कठोरता से करते हैं, स्त्रियों के वश में नहीं हैं उन्हें मोक्ष अवश्य प्राप्त होता है। ब्रह्मचर्य ही नियम, ज्ञान, दर्शन, चारित्र,
संयम और विनय की जड़ है।

क्षमा: क्षमा के संबंध में महावीर कहते हैं 'संसार के सभी प्राणियों से मेरी मैत्री है वैर किसी से नहीं है। मैं हृदय से धर्म का आचरण करता हूं। मैं सभी प्राणियों से जाने-अनजाने में किए अपराधों के लिए क्षमा मांगता हूं और उसी तरह सभी जीवों से मेरे प्रति जो अपराध हो गए हैं उनके लिए मैं उन्हें क्षमा प्रदान करता हूं।

अस्तेय: जो पराई वस्तुओं पर बुरी नजर रखता हैं वह कभी सुख प्राप्त नहीं कर सकता। अत: दूसरों की वस्तुओं पर नजर नहीं रखनी चाहिए।

दया: जिसके हृदय में दया नहीं उसे मनुष्य का जीवन व्यर्थ हैं। हमें सभी प्राणियों के दयाभाव रखना चाहिए। आप अहिंसा का पालन करना चाहते हैं तो आपके मन में दया होनी चाहिए।

छुआछूत: सभी मनुष्य एक समान है। कोई बड़ा-छोटा और छूत-अछूत नहीं हैं। सभी के अंदर एक ही परमात्मा निवास करता है। सभी आत्मा एक सी ही है।

हिताहार और मिताहार: खाना स्वाद के लिए नहीं, अपितु स्वास्थ्य के लिए होना चाहिए। खाना उतना ही खाए जितना जीवित रहने के लिए पर्याप्त हो। खान-पान में अनियमितता हमारे स्वास्थ्य के खिलवाड़ है जिससे हम रोगी हो सकते हैं।

कर्म की महिमा और सुख-दुख
पुरानी सर्वविदित कहावत है जैसी करनी, वैसी भरनी। वही बात भगवान महावीर ने कही है। कोई बहुत कम मेहनत पर भी अत्यधिक सफलता प्राप्त करता है तो कोई काफी मेहनत करने के बाद भी असफलता ही पाता है। भारतीय संस्कृति में यह सभी पूर्व में किए गए कर्मों पर ही आधारित हैं। भगवान महावीर ने मनुष्य के जीवन में सुख-दुख क्यों? इस रहस्य की खोज की और तप के बल पर उन्हें यह ज्ञान हुआ कि हम खुद ही सुख और दुख का कारण है। अन्य कोई हमें सुखी या दुखी कर ही नहीं सकता। फिर भी कोई हमारा बुरा कर रहा है, वे उस व्यक्ति के बुरे कर्म हैं। परंतु उसकी सफलता हमारे बुरे कर्मों का फल ही है।

कौन हैं भगवान ऋषभदेव ?
जैन धर्म का जन्म भारत में और विस्तार पूरी दुनिया में हुआ। वृषभनाथ को ही जैन ऋ षभदेव कहते हैं। इन्हीं से जैन धर्म या श्रमण परम्परा का प्रारम्भ माना जाता है। यह जैनियों के प्रथम तीर्थंकर हैं। इनसे पूर्व जो मनु हुए हैं वही जैनियों के कुलकर हैं। कुलकरों की क्रमश: 'कुल' परम्परा के सातवें कुलकर नाभिराज और उनकी पत्नी मरुदेवी से ऋषभ देव का जन्म चैत्र कृष्ण-9 को अयोध्या में हुआ। ऋ षभदेव स्वयंभू मनु से पाँचवीं पीढ़ी में इस क्रम में हुए- स्वयंभू मनु, प्रियव्रत, अग्नीघ्र, नाभि और फि र ऋषभ। कुलकर नाभिराज से ही इक्क्षवाकू कुल की शुरुआत मानी जाती है। जब ऋषभदेव मां के गर्भ में थे तब उनकी मां ने चौदह (या सौलह) शुभ चीजों का सपना देखा था। उन्होंने देखा कि एक सुंदर सफेद बैल उनके मुँह में प्रवेश कर गया है।

एक विशालकाय हाथी जिसके चार दाँत हैं,एक शेर,कमल पर बैठीं देवी लक्ष्मी,फूलों की माला,पूर्णिमा का चाँद,सुनहरा कलश,कमल के फूलों से भरा तालाब,दूध का समुद्र,देवताओं का अंतरिक्ष यान,जवाहरात का ढेर,धुआं रहित आग,लहराता झंडा और सूर्य। इस स्वप्र के बारे में जब विद्वान ज्योतिषियों और तत्वज्ञानियों को पता चला तो उन्होंने इनके विश्वविख्यात होने की घोषणा की।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है...
मनीष

Friday, October 17, 2014

Parampara (परम्परा)

जानिए आपके प्रिय देवी-देवता की कितनी परिक्रमा करें?
भगवान की भक्ति में एक महत्वपूर्ण क्रिया है प्रतिमा की परिक्रमा। वैसे तो भक्तों द्वारा सामान्यत: सभी देवी-देवताओं की एक ही परिक्रमा की जाती है परंतु शास्त्रों के अनुसार अलग-अलग देवी-देवताओं के लिए परिक्रमा की अलग संख्या निर्धारित की गई है।
ज्योतिषाचार्य पं. मनीष के अनुसार आरती और पूजा-अर्चना आदि के बाद भगवान की मूर्ति के आसपास सकारात्मक ऊर्जा एकत्रित हो जाती है, इस ऊर्जा को ग्रहण करने के लिए परिक्रमा की जाती है। पं.मनीष के अनुसार सभी देवी-देवताओं की परिक्रमा की अलग-अलग संख्या है।

किस देवी-देवता की कितनी परिक्रमा:

- शिवजी की आधी परिक्रमा की जाती है।

- देवी मां की तीन परिक्रमा की जानी चाहिए।

- भगवान विष्णुजी एवं उनके सभी अवतारों की चार परिक्रमा करनी चाहिए।

- श्रीगणेशजी और हनुमानजी की तीन परिक्रमा करने का विधान है।

परिक्रमा के संबंध में नियम:

पं. मनीष के अनुसार परिक्रमा शुरु करने के पश्चात बीच में रुकना नहीं चाहिए। साथ परिक्रमा वहीं खत्म करें जहां से शुरु की गई थी। ध्यान रखें कि परिक्रमा बीच में रोकने से वह पूर्ण नही मानी जाती। परिक्रमा के दौरान किसी से बातचीत कतई ना करें। जिस देवता की परिक्रमा कर रहे हैं, उनका ही ध्यान करें। इस प्रकार परिक्रमा करने से पूर्ण लाभ की प्राप्ती होती है।

क्या आप जानते हैं नवरात्रि में क्यों जलाते हैं अखंड ज्योत?
चैत्र तथा आश्विन दोनों नवरात्रि में माता दुर्गा के समक्ष नौ दिन तक अखंड ज्योत जलाई जाती है। यह अखंड ज्योत माता के प्रति आपकी अखंड आस्था का प्रतीक स्वरूप होती है। यह अखंड ज्योत इसलिए भी जलाई जाती है कि जिस प्रकार विपरीत परिस्थितियों में भी छोटा का दीपक अपनी लौ से अंधेरे को दूर भगाता रहाता है उसी प्रकार हम भी माता की आस्था का सहारा लेकर अपने जीवन के अंधकार को दूर कर सकते हैं। मान्यता के अनुसार मंत्र महोदधि(मंत्रों की शास्त्र पुस्तिका) के अनुसार दीपक या अग्नि के समक्ष किए गए जप का साधक को हजार गुना फल प्राप्त हो है। कहा जाता है

दीपम घृत युतम दक्षे, तेल युत: च वामत:।

अर्थात - घी युक्त ज्योति देवी के दाहिनी ओर तथा तेल युक्त ज्योति देवी के बाई ओर रखनी चाहिए। अखंड ज्योत पूरे नौ दिनों तक अखंड रहनी चाहिए। इसके लिए एक छोटे दीपक का प्रयोग करें। जब अखंड ज्योत में घी डालना हो, बत्ती ठीक करनी हो तो या गुल झाडऩा हो तो छोटा दीपक अखंड दीपक की लौ से जलाकर अलग रख लें। यदि अखंड दीपक को ठीक करते हुए ज्योत बुझ जाती है तो छोटे दीपक की लौ से अखंड ज्योत पुन: जलाई जा सकती है छोटे दीपक की लौ को घी में डूबोकर ही बुझाएं।

हनुमान चालीसा का पाठ क्यों करें?
कलयुग में हनुमानजी की भक्ति सबसे सरल और जल्द ही फल प्रदान करने वाली मानी गई है। श्रीराम के अनन्य भक्त श्री हनुमान अपने भक्तों और धर्म के मार्ग पर चलने वाले लोगों की हर कदम मदद करते हैं। सीता माता के दिए वरदान के प्रभाव से वे अमर हैं और किसी ना किसी रूप में अपने भक्तों के साथ रहते हैं।

हनुमानजी को मनाने के लिए सबसे सरल उपाय है हनुमान चालीसा का नित्य पाठ। हनुमानजी की यह स्तुति का सबसे सरल और सुरीली है। इसके पाठ से भक्त को असीम आनंद की प्राप्ति होती है। तुलसीदास द्वारा रचित हनुमान चालीसा बहुत प्रभावकारी है। इसकी सभी चौपाइयां मंत्र ही हैं। जिनके निरंतर जप से ये सिद्ध हो जाती है और पवनपुत्र हनुमानजी की कृपा प्राप्त हो जाती है।

यदि आप मानसिक अशांति झेल रहे हैं, कार्य की अधिकता से मन अस्थिर बना हुआ है, घर-परिवार की कोई समस्यां सता रही है तो ऐसे में सभी ज्ञानी विद्वानों द्वारा हनुमान चालीसा के पाठ की सलाह दी जाती है। इसके पाठ से चमत्कारिक फल प्राप्त होता है, इसमें को शंका या संदेह नहीं है। यह बात लोगों ने साक्षात् अनुभव की होगी की हनुमान चालीसा के पाठ से मन को शांति और कई समस्याओं के हल स्वत: ही प्राप्त हो जाते हैं। साथ ही हनुमान चालीसा का पाठ करने के लिए कोई विशेष समय निर्धारित नहीं किया गया है। भक्त कभी भी शुद्ध मन से हनुमान चालीसा का पाठ कर सकता है।

काफी लोग गले या हाथ पर क्यों बांधते हैं ये खास चीज?
कई लोग गले में काले रंग के धागे में किसी धातु या लाल-काले कपड़ा का टुकड़ा पहनते हैं। यही
ताविज कहलाता है। वहीं कुछ लोग इसे हाथ पर भी बांधते हैं। सामान्यत: सभी छोटे बच्चों को तो
अनिवार्य रूप से ताविज बांधा जाता है। कई लोग ताविज बांधने को अंधविश्वास मानते हैं तो कुछ
लोग इसे शुभ मानते हैं। इसके स्वास्थ्य संबंधी कई फायदे भी होते हैं।

ताविज या ताविज जैसी चीजे बांधने या रखने की परंपरा लगभग हर धर्म में मानी गई है। यह प्राचीनकालीन प्रथा है। जिसे आज भी अधिकांश लोग मानते हैं। ताविज बांधने से बुरी नजर नहीं लगती है। वहीं कई लोग मंत्रों से सिद्ध किए ताविज धारण करते हैं। मंत्रों की शक्ति से सभी भलीभांति परिचत हैं। किसी सिद्ध संत या महात्मा द्वारा अपनी मंत्र शक्ति से ताविज बनाकर दिए जाते हैं। यह ताविज बीमारियों से निजात पाने के लिए बनवाए जाते हैं। साथ ही ऐसी मान्यता भी है कि इन ताविजों के माध्यम से व्यक्ति का बुरा समय दूर हो जाता है और धन संबंधी परेशानियों से निजात मिलती है।

ताविज में एक काला धागा होता है। इस धागे में किसी कपड़े में या धातु की छोटी सी डिबिया होती है। इस कपड़े या डिबिया में कोई मंत्र लिखा भोज पत्र, भभूती, सिंदूर के साथ कई लोग इसमें तांत्रिक वस्तुएं भी रखते हैं।

मान्यता है कि ताविज के प्रभाव से वातावरण में मौजूद नकारात्मक शक्तियां हमें प्रभावित नहीं कर पाती। साथ ही ताविज का धागा हमें दूसरों की बुरी नजर से बचाता है। ताविज का मंत्र लिखा भोज पत्र या भगवान की भभूति या सिंदूर आदि मंत्रों के बल सिद्ध किए होते हैं जो धारण करने वाले व्यक्ति के लिए शुभ रहते हैं। इसके शुभ प्रभावों से व्यक्ति सभी प्रकार दुखों से मुक्त हो जाता है, ऐसी मान्यताएं प्रचलित हैं।

याद रखें, इन पांच देवी-देवताओं की पूजा रोज करनी चाहिए...
हमारी सभी मनोकामनाओं को पूरा करने की शक्ति केवल भगवान के पास ही है। कई बार कड़ी मेहनत के बाद भी किसी-किसी को उचित प्रतिफल प्राप्त नहीं हो पाता है। ऐसे में धन संबंधी परेशानियों का सामना करना पड़ता है और घर-परिवार में तनाव बढ़ता जाता है। शास्त्रों के अनुसार इस प्रकार की समस्याओं से निजात पाने के लिए कई प्रकार की परंपराएं बनाई गई हैं। इन्हीं परंपराओं में से एक है प्रतिदिन प्रात: काल पंच देवी-देवताओं की पूजा करना।

वेद-पुराण के अनुसार पांच प्रमुख देवी-देवता बताए गए हैं। किसी भी कार्य की सिद्धि और पूर्णता के लिए इन पांचों देवताओं का पूजन किया जाना अनिवार्य है। इनकी पूजा के कार्य में आने वाली सभी बाधाएं स्वत: समाप्त हो जाती हैं और सफलता प्राप्त होती है। इन पंच देवी-देवताओं में शामिल हैं- प्रथम पूज्य श्रीगणेश, भगवान श्री विष्णु, महादेव, सूर्यदेव और देवी मां। इन पांचों की नित्य पूजा करने वाले व्यक्ति को जीवन में कभी भी परेशानियों का सामना नहीं करना पड़ता है। ऐसे लोग हर परिस्थिति में समभाव ही रहते हैं। इन पर किसी भी दुख और दर्द का प्रभाव नहीं हो पाता।

इन पांचों देवताओं को हमारे शरीर से ही जोड़ा गया है। मानव का शरीर पंच तत्वों से बना है। ये पंच तत्व हैं- जल, वायु, पृथ्वी, अग्नि, आकाश। ये ही पांच तत्व इन पंच देवों के प्रतीक माने गए हैं। व्यक्ति के शरीर निर्माण में सर्वप्रथम जल की आवश्यकता होती है, यही जल तत्व का प्रतिनिधित्व करते हैं प्रथम पूज्य श्रीगणेश। इसके बाद वायु तत्व के प्रतिनिधि हैं भगवान श्रीहरि। वायु के बाद आवश्यकता होती है पृथ्वी तत्व की, इसकी पूर्ति करते हैं भगवान शिव। अग्नि तत्व का प्रतिनिधित्व करती हैं देवी मां। अंत में आकाश तत्व की पूर्ति करते हैं सूर्य देव। इस प्रकार व्यक्ति यदि इन पंच देवों की पूजा करता है तो व्यक्ति के सभी दुख और दर्द नष्ट हो जाते हैं।

किस मनोकामना के लिए कौन से भगवान को पूजना चाहिए?
हमारी सभी आवश्यकताओं और मनोकामनाओं को पूर्ण करने के लिए भगवान की भक्ति से अच्छा कोई और उपाय नहीं है। कहा जाता है कि सच्चे से भगवान से प्रार्थना की जाए तो सभी मनोकामनाएं अवश्य ही पूर्ण हो जाती हैं। वैसे तो सभी देवी-देवता हमारी सभी इच्छाएं पूर्ण करने में समर्थ माने गए हैं लेकिन शास्त्रों के अनुसार अलग-अलग मनोकामनाओं के लिए अलग-अलग देवी-देवताओं को पूजने का विधान भी बताया गया है।

शादी या विवाहित जीवन से जुड़ी समस्याओं के निराकरण के लिए शिव-पार्वती, लक्ष्मी-विष्णु, सीता-राम, राधा-कृष्ण, श्रीगणेश की पूजा करनी चाहिए।

धन संबंधी समस्याओं के लिए देवी महालक्ष्मी, कुबेर देव, भगवान विष्णु से प्रार्थना करनी चाहिए।
पूरी मेहनत के बाद भी यदि आपको कार्यों में असफलता मिलती है तो किसी भी कार्य की शुरूआत श्रीगणेश के पूजन के साथ ही करें।

यदि आपको किसी प्रकार का भय या भूत-प्रेत आदि का डर सताता है तो पवनपुत्र श्री हनुमान का ध्यान करें।

पति-पत्नी बिछड़ गए हैं और काफी प्रयत्नों के बाद भी वापस मिलने का योग नहीं बन पा रहा हो तो ऐसे में श्रीराम भक्त बजरंग बली की पूजा करें। सीता और राम का मिलन भी हनुमानजी द्वारा ही कराया गया, अत: इनकी पूजा से विवाहित जीवन की सभी समस्याएं भी दूर हो जाती हैं।

पढ़ाई से संबंधित परेशानियों को दूर करने के लिए मां सरस्वति का ध्यान करें एवं बल, बुद्धि, विद्या के दाता हनुमानजी और श्रीगणेश का पूजन करें।

यदि किसी गरीब व्यक्ति की वजह से कोई परेशानी हो रही हो तो शनिदेव, राहु और केतु की वस्तुओं का दान करें, उनकी पूजा करें।

भूमि संबंधी परेशानियों को दूर करने के लिए मंगलदेव को पूजें।

विवाह में विलंब हो रहा हो तो ज्योतिष के अनुसार विवाह के कारक ग्रह ब्रहस्पति बताए गए हैं अत: इनकी पूजा करनी चाहिए।

केवल ऐसे शिवलिंग की पूजा हो सकती है अन्य मूर्तियों की नहीं, क्योंकि...
शिवजी का पूजन लिगं रूप में ही सबसे ज्यादा फलदायक माना गया है। महादेव का मूर्तिपूजन भी श्रेष्ठ है लेकिन लिंग पूजन सर्वश्रेष्ठ है। सामान्यत: सभी देवी-देवताओं की मूर्तियां कहीं से टूट जाने पर उनकी प्रतिमाओं को खंडित माना जाता है लेकिन शिवलिंग किसी भी परिस्थिति में खंडित नहीं माना जाता है। जबकि अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियां यदि खंडित हो जाती हैं तो उनकी पूजा करना शास्त्रों द्वारा निषेध किया गया है।

शास्त्रों के अनुसार शिवजी का प्रतीक शिवलिंग कहीं से टूट जाने पर भी खंडित नहीं माना जाता। जबकि अन्य देवी-देवताओं की प्रतिमा खंडित होने पर उनका पूजन निषेध किया गया है। जबकि शिवलिंग कहीं से टूट जाने पर भी पवित्र और पूजनीय माना गया है। ऐसा इसलिए है कि भगवान शिव ब्रह्मरूप होने के कारण निष्कल अर्थात निराकार कहे गए हैं। भोलेनाथ का कोई रूप नहीं है उनका कोई आकार नहीं है वे निराकार हैं। महादेव का ना तो आदि है और ना ही अंत। लिंग को शिवजी का निराकार रूप ही माना जाता है। केवल शिव ही निराकार लिंग के रूप में पूजे जाते है। इस रूप में समस्त ब्रह्मांड का पूजन हो जाता है क्योंकि वे ही समस्त जगत के मूल कारण माने गए हैं। शिवलिंग बहुत ज्यादा टूट जाने पर भी पूजनीय है। अत: हर परिस्थिति में शिवलिंग का पूजन सभी मनोकामनाओं को पूरा करने वाला जाता है। शास्त्रों के अनुसार शिवलिंग का पूजन किसी भी दिशा से किया जा सकता है लेकिन पूजन करते वक्त भक्त का मुंह उत्तर दिशा की ओर हो तो वह सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।

शनि की साढ़ेसाती और ढैय्या में काले कपड़े का दान क्यों करते हैं?
शनि एक ऐसा ग्रह या देवता है जिसके कुप्रभाव से सभी भली भांति परिचित हैं। शनि देव को प्रसन्न करने के लिए सामान्यत: सभी कई प्रकार के प्रयत्न करते हैं। मूल रूप से ऐसा माना जाता है शनिवार के लिए शनिदेव को तेल चढ़ाने से वे प्रसन्न होते हैं। इसके अलावा ज्योतिष में कई और उपाय भी बताए गए हैं शनि को मनाने के। शनि को प्रसन्न करने के लिए काले कपड़ों का दान भी किया जाता है।

ज्योतिष के अनुसार शनि को न्याय का देवता माना जाता है। जाने-अनजाने में हमारे द्वारा किए गए सभी पापों का फल शनि देव हमें अवश्य देते हैं, इसमें कोई संदेह नहीं है। बुरे कर्मों का फल शनि द्वारा साढ़े साती और ढैय्या में दिया जाता है। जिसके प्रभाव से व्यक्ति को कई दुख और कष्ट भोगने पड़ते हैं। इन कष्टों और दुखों के प्रभाव को कम करने के लिए शनि देव की पूजा की करने के साथ ही कई प्रकार के दान करने होते हैं।

शनि को प्रसन्न करने के लिए काले कपड़ों का दान किसी जरूरतमंद गरीब व्यक्ति को किया जाता है। शनि श्याम वर्ण हैं और उन्हें काला रंग अति प्रिय है। उनका वेश भी काला ही है। उन्हें काले रंग की हर वस्तु विशेष प्रिय है। अत: उनके निमित्त काले वस्त्रों का दान किया जाता है। शनि देव गरीब लोगों का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसलिए किसी गरीब व्यक्ति को ही काले कपड़ों का दान दिया जाता है।

ऐसे हनुमानजी की पूजा करने से बन जाते हैं भाग्यशाली, क्योंकि...
प्राचीन काल से ही हर युग में हनुमानजी की पूजा-भक्ति करने वाले भक्तों की मनोकामनाएं अवश्य पूर्ण होती रही हैं। शास्त्रों के अनुसार तीन युग बीत चुके हैं सतयुग, त्रेता युग और द्वापर युग। अभी कलयुग चल रहा है। ग्रंथों में ऐसा बताया गया है कि कलयुग में मात्र भगवान का नाम लेने से ही व्यक्ति के कई जन्मों के पाप स्वत: नष्ट हो जाते हैं। इसी वजह से सामान्य पूजा से भी देवी-देवता प्रसन्न हो जाते हैं।

शीघ्र कृपा करने वाले देवी-देवताओं में हनुमानजी प्रमुख देव माने गए हैं। जिस भक्त से बजरंगबली प्रसन्न हो जाते हैं उन्हें सभी सुख-संपत्ति और सुविधाएं प्रदान करते हैं। हनुमानजी की कई प्रकार की प्रतिमाएं और फोटो उपलब्ध हैं। शास्त्रों के अनुसार सभी प्रतिमाओं और फोटो की पूजा का अलग-अलग महत्व बताया गया है। जिस प्रकार के फोटो की पूजा हम करते हैं वैसे ही फल हमें प्राप्त होते हैं।

यदि किसी व्यक्ति को धन या पैसों से जुड़ी समस्याओं से निजात पाना है, दुर्भाग्य को दूर करना है तो हनुमानजी के ऐसे फोटो की पूजा करनी चाहिए जिसमें वे स्वयं श्रीराम, लक्ष्मण और सीता माता की आराधना कर रहे हैं। पवनपुत्र के भक्ति भाव वाली प्रतिमा या फोटो की पूजा करने से उनकी कृपा तो प्राप्त होती है साथ ही श्रीराम, लक्ष्मण और माता सीता की कृपा भी प्राप्त होती है। इन देवी-देवताओं की प्रसन्नता के बाद दुर्भाग्य भी सौभाग्य में परिवर्तित हो जाता है।

हनुमानजी को सिंदूर का चोला चढ़ाते हैं, क्योंकि...
श्रीराम के परमभक्त हनुमानजी आज सभी श्रद्धालुओं की आस्था के केंद्र हैं। हनुमानजी को माता सीता द्वारा अमरता का वरदान प्राप्त है। ऐसा कहा जाता है कि जहां भी सुंदरकांड का पाठ विधि-विधान से किया जाता है वहां श्री हनुमान अवश्य पधारते हैं। वे जल्द ही अपने भक्तों की सभी परेशानियों का हरण कर लेते हैं। जब भक्त की परेशानियों दूर हो जाती है तब कई श्रद्धालु हनुमानजी को सिंदूर का चोला चढ़वाते हैं।

हनुमानजी को सिंदूर का चोला चढ़ाने की परंपरा काफी प्राचीन समय से चली आ रही है। इस प्रथा के पीछे धार्मिक मान्यता यह है कि पवन पुत्र को सिंदूर अर्पित करने से वे अति प्रसन्न होते हैं। इस संबंध में एक कथा प्रचलित है कि एक दिन हनुमानजी ने माता सीता को मांग में सिंदूर लगाते देखा। हनुमानजी ने माता सीता से पूछा कि वे मांग में सिंदूर क्यों लगाती हैं? इस पर देवी जानकी ने बताया कि इससे मेरे स्वामी श्रीराम की उम्र और सौभाग्य बढ़ता है। यह सुनकर हनुमानजी ने सोचा कि यदि इतने सिंदूर से श्रीराम की उम्र और सौभाग्य बढ़ता है ता मैं पूरे शरीर पर सिंदूर लगाऊंगा तो श्रीराम हमेशा के अमर हो जाएंगे और इनकी कृपा सदैव मुझ पर बनी रहेगी। इस विचार के बाद हनुमानजी अपने पूरे शरीर पर सिंदूर लगाने लगे।

हनुमानजी की प्रतिमा को सिंदूर का चोला चढ़ाने के पीछे वैज्ञानिक कारण भी है। हनुमानजी को सिंदूर लगाने से प्रतिमा का संरक्षण होता है। इससे प्रतिमा किसी प्रकार से खंडित नहीं होती और लंबे समय तक सुरक्षित रहती है। साथ ही चोला चढ़ाने से प्रतिमा की सुंदरता बढ़ती है, हनुमानजी का प्रतिबिंब साफ-साफ दिखाई देता है। जिससे भक्तों की आस्था और अधिक बढ़ती है तथा हनुमानजी का ध्यान लगाने में किसी भी श्रद्धालु को परेशानी नहीं होती।

1 रुपया ही सही पर, आपकी हर जेब में होने चाहिए पैसे, क्योंकि...
हर युग में धन को भगवान की तरह पूजा जाता है और इसके अभाव में जीवन का सुख प्राप्त नहीं किया जा सकता। आजकल बढ़ती भौतिक सुख-सुविधाओं को जुटाने के लिए अधिकांश लोग दिन-रात मेहनत करते हैं लेकिन सारी कोशिशें असफल हो जाती हैं। बहुत कम लोग ऐसे हैं जिनके पास सुख-सुविधाएं उपलब्ध हैं। पैसों से जुड़ी विपरित परिस्थितियों से निपटने के लिए प्राचीन काल से ही कुछ उपाय बताए गए हैं। इन्हीं उपायों में से एक है धन को आकर्षित करना।

धन की देवी महालक्ष्मी की कृपा जिस व्यक्ति पर रहती है वही धनवान हो सकता है अन्यथा लाख कोशिशों के बाद भी पैसा प्राप्त नहीं किया जा सकता। ऐसा माना जाता है कि पैसा ही पैसों को खिंचता है। जिन लोगों के पास बहुत पैसा है उन्हीं के पास और धन आता है जबकि जो लोग गरीब हैं उन्हें दो वक्त की रोटी भी बड़ी मुश्किल से प्राप्त हो पाती है।

किसी भी प्रकार की पैसों की तंगी से निपटने के लिए जरूरी है कि पैसों को अपनी ओर आकर्षित किया जाए ताकि आपके पास पैसा स्वयं चलकर आए। इसके जरूरी है कि आपकी हर जेब में पैसे होने चाहिए। यदि आप ज्यादा पैसा रखने में अक्षम हैं तो कम से कम जितना हो सके उतना पैसा अवश्य अपनी सभी जेबों में रखें। कोई भी जेब खाली नहीं होनी चाहिए। खाली जेब होना दरिद्रता को दर्शाता है और व्यक्ति पर इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। यदि सभी जेबों में पैसा होगा तो आपसे भी पैसा आकर्षित होगा और आपको धन संबंधी कार्यों में सफलता प्राप्त होने लगेगी। संभव है कि आपके पास पैसा आने में कम या ज्यादा समय लगे लेकिन सभी जेबों में पैसा रखना शुभ शकुन माना जाता है।

खाना खड़े होकर नहीं बल्कि बैठकर खाना चाहिए, क्योंकि...
जीने के लिए सबसे अधिक जरूरी क्रियाओं में से एक है खाना। खाना ही हमारे शरीर को जीने की शक्ति प्रदान करता है। समय के साथ-साथ हमारी दिनचर्या में कई बड़े-बड़े परिवर्तन आ गए हैं। हमारी सभी क्रियाएं और उनका तरीका बदल गया है। आधुनिकता की दौड़ में हमारा खाना खाने का तरीका भी पूरी तरह प्रभावित हुआ है। आज अधिकांश लोग खाना डायनिंग टेबल पर बैठकर खाते हैं। जबकि पुराने समय में जमीन पर आसन लगाकर खाना खाने की परंपरा थी। प्राचीन काल से ही बैठकर खाना खाने की परंपरा चली आ रही है, इसके कई लाभ हैं।

डायनिंग टेबल पर बैठकर खाने से कई स्वास्थ्य संबंधी परेशानियां स्वत: ही हमें घेर लेती हैं परंतु जो लोग जमीन पर बैठकर पारंपरिक तरीके से खाने खाते हैं उनसे कई छोटी-छोटी बीमारियां दूर ही रहती है।

जमीन पर बैठकर खाना खाने के लाभ
जमीन पर बैठकर खाना खाते समय हम एक विशेष योगासन की अवस्था में बैठते हैं, जिसे सुखासन कहा जाता है। सुखासन पद्मासन का एक रूप है। सुखासन से स्वास्थ्य संबंधी वे सभी लाभ प्राप्त होते हैं जो पद्मासन से प्राप्त होते हैं।

बैठकर खाना खाने से हम अच्छे से खाना खा सकते हैं। इस आसन से मन की एकाग्रता बढ़ती है। सुखासन से पूरे शरीर में रक्त-संचार समान रूप से होने लगता है। जिससे शरीर अधिक ऊर्जावान हो जाता है। इस आसन से मानसिक तनाव कम होता है और मन में सकारात्मक विचारों का प्रभाव बढ़ता है। इससे हमारी छाती और पैर मजबूत बनते हैं। सुखासन वीर्य रक्षा में भी मदद करता है। इस तरह खाना खाने से मोटापा, अपच, कब्ज, एसीडीटी आदि पेट संबंधी बीमारियों में भी राहत मिलती है। आज की भागती-दौड़ती जिंदगी ने हमारे स्वास्थ्य के संबंध में सोचने का समय तक छीन लिया है। ऐसे में जमीन पर सुखासन अवस्था में बैठकर खाने से वे कई स्वास्थ्य संबंधी लाभ प्राप्त कर शरीर को ऊर्जावान और स्फूर्तिवान बना सकते हैं।

ऐसे समय पर पीछे से कोई आवाज लगा दे तो क्या करना चाहिए...
काफी लोगों के साथ अक्सर ऐसा होता है कि वे घर से किसी खास कार्य के लिए निकल रहे होते हैं और ठीक उसी पीछे से कोई आवाज लगा देता है। ऐसे में व्यक्ति को थोड़ी रुक जाना चाहिए फिर अपने कार्य की ओर निकलना चाहिए। ऐसी प्राचीन मान्यता है।

पुराने समय से ही हमारे दैनिक जीवन से जुड़ी कई प्रकार की पंरपराएं प्रचलित हैं, जिनका आज भी कई लोग पालन करते हैं। वहीं कुछ लोग इन परंपराओं को अंधविश्वास का नाम देते हैं। जबकि घर से वृद्धजन इन्हें गहराई से लेते हैं और सभी को इन परंपराओं का निर्वाह करने की बात भी कहते हैं। इस प्रकार प्रथाएं शकुन और अपशकुन की मान्यताओं पर आधारित हैं। शकुन यानि शुभ संकेत और अपशकुन यानि बुरा संकेत।

यदि कोई व्यक्ति किसी खास कार्य के लिए निकल रहा है और उसे पीछे से आवाज लगा दी जाए तो इसे अपशकुन माना जाता है। इस संबंध में ऐसा माना जाता है कि किसी को पीछे से आवाज लगाना या टोंकना अशुभ है। ऐसा होने का यही मतलब लगाया जाता है कि व्यक्ति जिस खास कार्य के लिए जा रहा है उसके पूर्ण होने में बाधाएं आ सकती हैं। यह एक संकेत के समान ही है। यदि किसी व्यक्ति के साथ ऐसा होता है तो उसे घर पर थोड़ी रुककर निकलना चाहिए।

गांधर्व विवाह की प्रथा: राजा दुष्यंत और शकुंतला ने किया था ऐसा विवाह...
शास्त्रों के अनुसार मनुष्य जीवन के सोलह प्रमुख संस्कार बताए गए हैं, जिनमें से सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्कार है विवाह। विवाह आठ प्रकार के बताए गए हैं। इनमें से चार विवाह श्रेष्ठ माने गए हैं और अन्य चार प्रकार के विवाह अनैतिक माने गए हैं। इनमें चार श्रेष्ठ विवाह हैं देव विवाह, ब्रह्म विवाह, आणु विवाह और प्राजन्य विवाह। चार अनैतिक विवाह के प्रकार गांधर्व विवाह, राक्षस विवाह, असुर विवाह और पिशाच विवाह। ऐसे विवाह को सभ्य समाज में कोई मान्यता नहीं दी गई है।

सभी विवाह की अलग-अलग रीतियां हैं। इनमें गांधर्व विवाह काफी चर्चित विवाह का प्रकार है। गांधर्व विवाह किसे कहते हैं? इस संबंध में वेद व्यास द्वारा रचित महाभारत में एक प्रसंग बताया गया है।

प्रसंग है राजा दुष्यंत और शकुंतला का। राजा दुष्यंत उस भारत वर्ष के राजा थे। एक दिन जब वे शिकार पर गए तब वन में ऋषि कण्व के आश्रम पहुंचे। आश्रम में शकुंतला नाम की कन्या थीं जिस कण्व ऋषि ने पुत्री माना था। शकुंतला की सुंदरता देखकर राजा दुष्यंत इतने अधिक मोहित हो गए कि वे उसी क्षण विवाह करने की बात कही। इसके बाद शकुंतला ने भी राजा की बात मान ली। इसके बाद विवाह संबंधी रीति-रिवाज के बिना ही गांधर्व विधि से राजा दुष्यंत ने शकुंतला का पाणिग्रहण कर लिया। इस विवाह से शकुंतला को भरत नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ जो कि आगे चलकर भारत का राजा बना। इसी के नाम पर हमारे देश का नाम भारत रखा गया है।

घर में भगवान को चढ़ाए हुए फूल-प्रसाद का दो-तीन दिन बाद क्या करें?
देवी-देवताओं पूजा के संबंध में कई महत्वपूर्ण नियम बताए गए हैं। इन नियमों का पालन करना सभी श्रद्धालुओं के लिए अनिवार्य माना गया है। विधिवत पूजन के साथ ही भक्त को देवी-देवताओं की कृपा तुरंत प्राप्त हो जाती है और मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। मंदिर हो या घर भगवान को प्रसन्न करने के लिए फूल-प्रसादी चढ़ाई जाती है।

घर में भगवान को फूल-फल आदि चढ़ाए जाते हैं, ये चीजें दो-तीन बाद खराब हो जाती हैं अत: ऐसे समय पर इनका क्या करना चाहिए? इस संबंध में कुछ नियम बताए गए हैं। सामान्यत: भगवान को चढ़ाए गए फूल जब मुरझा जाए तो उन्हें उतारकर बहती नदी के प्रवाहित कर दिया जाता है जो कि अनुचित है। विद्वानों के अनुसार जल को दूषित करना पाप माना जाता है। ऐसे में इन हार-फूल को भगवान की प्रतिमा से उतारकर अपने माथे लगाना चाहिए, इसके बाद इन्हें किसी ऐसे स्थान पर डाल देना चाहिए जहां ये किसी के पैरों में आए और इन फूलों का अपमान न हो। हार-फूल आदि को किसी पेड़ की जड़ों में डाला जा सकता है जिससे इनका उपयोग खाद के रूप हो जाए और उस पेड़ को लाभ प्राप्त हो। भगवान को अर्पित की गई सभी वस्तुएं पवित्र हो जाती हैं और किसी भी प्रकार इनका अपमान किया जाना, सीधे-सीधे भगवान का ही अनादर करने के समान है। प्रसाद आदि अधिक समय तक नहीं रखना चाहिए, इसे अन्य भक्तों में वितरित कर देना चाहिए। फिर भी यदि प्रसाद बच जाता है तो इसे किसी गाय या कुत्ते को खिला देना चाहिए।

रुकिए, गलत दिन किया ये काम तो बढ़ेगी गरीबी, क्योंकि...
गरीबी एक अभिशाप की तरह ही है। कोई व्यक्ति नहीं चाहता कि वह गरीबी का सामना करें। धन अभाव में जीवन किसी नर्क के समान ही होता है। यदि कोई व्यक्ति पूरी ईमानदारी से अपने कर्तव्यों का पालन कर रहा है फिर भी उसे प्रतिफल के रूप में उचित धन प्राप्त नहीं हो पा रहा है तो वह कई प्रकार के धार्मिक उपाय भी करता है। इन्हीं उपायों में से एक है पीपल के वृक्ष की पूजा करना, उसकी परिक्रमा करना।

शास्त्रों के अनुसार पीपल का वृक्ष पवित्र एवं पूजनीय माना गया है। ऐसा वर्णित है कि इसमें कई देवी-देवताओं का वास रहता है। इसी वजह से इसकी पूजा करने वाले भक्तों को सभी सुख-सुविधाएं प्राप्त हो जाती हैं। ध्यान रखने वाली बात यह है कि पीपल की पूजा और परिक्रमा कब की जानी चाहिए, इस संबंध में कई नियम बताए गए हैं।

ज्योतिषाचार्य पं. शर्मा के अनुसार पीपल की परिक्रमा करने और स्पर्श के लिए केवल शनिवार निर्धारित किया गया है। शेष दिनों में पीपल को स्पर्श तक नहीं करना चाहिए। शनिवार के अतिरिक्त पीपल में दरिद्रता का वास रहता है अत: जो भी व्यक्ति ऐसे समय में इस वृक्ष को स्पर्श करता है उसे दरिद्रता का सामना करना पड़ सकता है। ऐसा माना गया है कि शनिवार के दिन पीपल में लक्ष्मी-नारायण का वास रहता है और इस दिन पीपल की परिक्रमा करने पर भक्त को उनका आशीर्वाद प्राप्त होता है। इसके साथ ही ज्योतिष शास्त्र के अनुसार शनि संबंधी दोषों के निवारण के लिए भी शनिवार के दिन ही पीपल की सात परिक्रमा करने पर शनि दोषों का प्रभाव कम होता है। इसके साथ कई अन्य दोषों के समाधान के लिए भी पीपल की पूजा की जाती है। पीपल को जल किसी भी दिन अर्पित किया जा सकता है। इस संबंध में कोई प्रतिबंध नहीं है।

अचानक घर में भगवान की मूर्ति या फोटो टूट जाए तो क्या करना चाहिए?
भगवान, ईश्वर या परमात्मा एक ऐसी शक्ति है जिसकी आराधना सभी करते हैं। मनुष्य जीवन की तमाम परेशानियों को खत्म करने की क्षमता भगवान के पास ही है। देवी-देवताओं को प्रसन्न करने के लिए काफी लोग मंदिर जाते हैं, इष्टदेव के दर्शन करते हैं। जो लोग मंदिर नहीं जा पाते हैं उनमें अधिकांश लोग घर पर भी पूजा-अर्चना करते हैं।

अधिकांश लोगों के घरों में छोटा सा मंदिर होता है जिसमें अलग-अलग देवी-देवताओं की मूर्तियां या फोटो रखे होते हैं। शास्त्रों के अनुसार मूर्तियां बहुत संवेदनशील मानी गई हैं। अत: इनकी पूजा आदि धर्म कर्म में काफी सावधानी रखनी चाहिए। प्रतिमाओं और चित्रों के संबंध में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि ये कहीं से भी खंडित नहीं होना चाहिए। खंडित मूर्ति या फोटो की पूजा अशुभ मानी जाती है।

कभी-कभी परिवार के सदस्यों की लापरवाही या अन्य किसी कारण के चलते भगवान की मूर्ति टूट जाती है या फोटो फट जाते हैं, खराब हो जाते हैं। विद्वानों के अनुसार ऐसा होना अपशकुन माना जाता है। यदि ऐसा होता है तो इष्टदेव से जाने-अनजाने हुई भूल के लिए क्षमा याचना करना चाहिए। हनुमान चालिसा का पाठ करना चाहिए। इसके साथ ही टूटी मूर्ति या खराब फोटो को उस समय किसी ऐसे स्थान पर रख देना चाहिए जहां उन पर किसी की पैर न लगे। इस प्रकार की मूर्ति या फोटो को घर में या पूजन स्थान में नहीं रखना चाहिए।

खाने के तुरंत बाद नहीं करना चाहिए ये काम, क्योंकि...
सुखी जीवन के लिए जरूरी है व्यक्ति पूर्ण रूप से स्वस्थ रहे, निरोगी रहे। यदि किसी इंसान के पास काफी धन है, सभी सुविधाएं हैं लेकिन यदि वह शारीरिक रूप से स्वस्थ नहीं है तो उसका जीवन सुखी नहीं हो सकता है। अच्छे स्वास्थ्य के लिए पर्याप्त भोजन सही समय लेना अतिआवश्यक है। भोजन की महत्ता को देखते हुए शास्त्रों में कुछ बहुत खास नियम बताए गए हैं जिनका पालन किया जाना अनिवार्य है।

वेद-पुराण और विद्वानों के अनुसार भोजन के समय ध्यान रखना चाहिए कि हम किसी अन्य व्यक्ति को अपना जूठा खाना न दें। यदि किसी व्यक्ति को स्वास्थ्य संबंधी कोई परेशानी है तो उसका जूठा भोजन नहीं करना चाहिए। इसके साथ ही ध्यान रखें कि यदि कोई व्यक्ति भोजन कर रहा हो तो हमें उसके साथ बीच में खाना नहीं खाना चाहिए। ये बात शिष्टाचार से नियमों के विरुद्ध है।

भोजन इतना ही खाना चाहिए जितना हमारे स्वास्थ्य के लिए लाभदायक रहे। न तो ज्यादा भोजन करें और ना ही कम। जरूरत से कम या अधिक भोजन करने पर पेट संबंधी बीमारियां होने की संभावनाएं रहती हैं। अधिक भोजन से आलस्य बढ़ता है। कम भोजन से हमारे शरीर को पर्याप्त ऊर्जा प्राप्त नहीं हो पाती है। खाना वहीं खाएं जो आपके स्वास्थ्य को लाभ पहुंचाता है।

इस संबंध में सबसे जरूरी बात यह है कि भोजन करने के तुरंत बाद व्यक्ति को बिना मुंह और हाथ साफ किए कहीं इधर-उधर जाना नहीं चाहिए। जूठे मुंह और हाथों से घर में घुमना अशुभ माना जाता है। घर में खाने के बाद ऐसा करते हैं तो इससे हमारे हाथों में लगी जूठन कहीं गिर सकती है, जो कि घर को अपवित्र बनाती है। इस प्रकार की अपवित्रता का अशुभ प्रभाव घर में रहने वाले सभी सदस्यों पर पड़ता है। इसीलिए ध्यान रखें कि भोजन के तुरंत बाद सबसे पहले शुद्ध पानी से हाथ और मुंह अच्छे साफ कर लेना चाहिए।

खास बात आजकल बाजार में कुछ न कुछ खाने-पीने का चलन काफी बढ़ गया है, ऐसे में कुछ लोग ऐसी खाने के बाद हाथ-मुंह साफ नहीं करते हैं। शास्त्रों के अनुसार यह अनुचित है। कुछ भी खाने के बाद हमें हाथ-मुंह अच्छे पानी से अवश्य साफ करना चाहिए। जूठे मुंह-हाथ लिए इधर-उधर घुमना नहीं चाहिए। ऐसा करने पर कई स्वास्थ्य संबंधी परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है।

ये 10 काम कभी ना करें क्योंकि ये हैं महापाप...
जब से सृष्टि की रचना हुई है तभी पाप और पुण्य की अवधारणाएं चली आ रही हैं। पाप औ पुण्य के आधार पर ही व्यक्ति का प्रारब्ध या भाग्य बनता है। शास्त्रों के अनुसार कर्मों के फल व्यक्ति को अवश्य ही प्राप्त होते हैं। जो व्यक्ति जैसे काम करता है उसे वैसे ही फल प्राप्त होते हैं। अत: व्यक्ति यदि अच्छा भविष्य चाहता है तो उसे शास्त्रों के अनुसार बताए गए इन पाप कर्मों से दूर रहना चाहिए-

- दूसरों का धन हड़पना या हड़पने  की इच्छा: किसी भी स्थिति में अन्य लोगों के धन को धोखे से हड़प लेना पाप है।

- यदि आपका मन किसी गलत कार्य को करने से मना कर रहा है, फिर आप करते हैं तो यह पाप है। ये कर्म निषिद्ध कर्म (मन जिन्हें करने से मना करें) माने गए हैं।

- जो लोग सिर्फ सुंदर देह को ही सबकुछ मानते हैं, किसी के अच्छे व्यवहार और धार्मिक आचरण को महत्व नहीं देते हैं तो यह भी पाप है।

- किसी भी व्यक्ति से कठोर वचन बोलना पाप माना गया है।

- झूठ बोलना या सच को छुपाना भी पाप है।

- दूसरों की बुराई या निंदा करना भी पाप है।

- बकवास करना (बिना कारण बोलते रहना) भी पाप है।

- किसी भी स्थिति में चोरी करना पाप ही है।

- तन, मन, कर्म से किसी को दु:ख देना, किसी को आहत करना, किसी के कार्य बिगाडऩा पाप है।

- यदि कोई स्त्री पति के अतिरिक्त किसी पर पुरुष से शारीरिक संबंध रखती है तो यह महापाप है। ठीक इसी प्रकार कोई पुरुष पत्नी के अतिरिक्त किसी अन्य स्त्री से शारीरिक संबंध रखता है तो यह महापाप है।

इन पाप कर्मों को करने वाला व्यक्ति नर्क की यातनाएं भोगता है। ऐसा शास्त्रों में वर्णित है।

कभी आपके घर आए कोई भिखारी तो क्या करें?
सभी धर्मों में गरीबों की मदद करना हमारा कर्तव्य बताया गया है। जो भी व्यक्ति दान करने में समर्थ है उसे हमेशा जरूरतमंदों को सहयोग करना चाहिए। इसी वजह से अधिकांश घरों के लोग घर आए भिखारी को कभी खाली हाथ नहीं जाने देते।

हिंदु धर्म में भिखारी को भी नारायण ही माना गया है। इन्हें दरिद्र नारायण कहा जाता है। शास्त्रों अनुसार भगवान हमारी समय-समय पर परीक्षा लेते हैं। पुराने समय में भी कई ऐसे प्रसंग मिलते हैं जहां भगवान भिक्षुक बनकर भक्त की परीक्षा लेने पहुंचे। भगवान हमेशा ही भक्तों की श्रद्धा को परखने के लिए नए वेश धारण करते हैं। कहा जाता है कि भगवान कब, कहां, किस रूप में आपके सामने आ जाए, यह समझना आम मनुष्य की बुद्धि से परे ही है। इसे समझ पाना अति मुश्किल है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए प्राचीन ऋषिमुनियों ने यह नियम बनाया कि आपके घर में कोई भिक्षुक आए उसे कभी खाली हाथ न जाने दें। ऐसा हो सकता है कि स्वयं भगवान ही आपकी परीक्षा लेने आए हो।

मानवता के नाते भी किसी भी जरूरतमंद व्यक्ति की मदद करना सभी का धर्म है। यदि कोई धन अर्जित करने में असमर्थ है या शारीरिक रूप से अक्षम है तो उसकी मदद करना सभी परम कर्तव्य है। हमारी मदद से उसके घर के सदस्यों को खाना मिलता है। शास्त्रों के अनुसार ऐसे जरूरतमंदों की दुआओं का अच्छा प्रभाव बताया गया है। गरीबों की दुआएं हमें बुरे समय से बचाती है। साथ ही हमारे पुण्यों में बढ़ोतरी करती है जिसके प्रभाव से हमारे कई रुके हुए कार्य पूर्ण हो जाते हैं। घर के सदस्यों पर यदि को विपदा आने वाली हो तो वह भी इन दुआओं से टल जाती है। इन्हीं कारणों के चलते कभी भी भिखारी को खाली हाथ नहीं जाने देना चाहिए।

घर में हर रोज 2 बार जरुर करें ये 1 काम, क्योंकि...
किसी भी परिवार की सुख और समृद्धि इस बात पर निर्भर करती है कि घर का वातावरण कैसा है? यदि घर में पवित्रता और स्वच्छता नहीं होगी तो वहां रहने वाले लोगों को कई प्रकार की परेशानियों का सामना करना पड़ता है।

यदि घर में कचरा और गंदगी रहेगी तो परिवार के सदस्यों को कई प्रकार के रोगों का सामना करना पड़ सकता है। अत: घर को सुबह और शाम दोनों समय अच्छी तरह साफ किया जाना चाहिए। किसी कोने में भी धूल या मिट्टी नहीं होना चाहिए। ये तो है एक सामान्य सी बात लेकिन घर की साफ-सफाई का संबंध परिवार की आर्थिक स्थिति से भी है। जिस घर में स्वच्छता नहीं होती है वहां दरिद्रता पैर पसार लेती है।

शास्त्रों के अनुसार धन संबंधी सफलता और सुख के लिए जरूरी है कि महालक्ष्मी की कृपा प्राप्त की जाए। यदि किसी व्यक्ति के कार्यों या व्यवहार से महालक्ष्मी प्रसन्न नहीं है तो उसे पैसों की तंगी झेलना पड़ती है और उसके जीवन में दुख बने रहते हैं। महालक्ष्मी को प्रसन्न रखने के लिए सबसे जरूरी बात है कि आपका घर एकदम साफ और स्वच्छ हो। क्योंकि साफ एवं पवित्र स्थान पर महालक्ष्मी निवास करती है। गंदगी में दरिद्रता का वास होता है। अत: घर साफ रखें। प्रतिदिन सुबह और शाम को घर की सफाई करें।

घर की गंदगी वास्तुदोष उत्पन्न करती है। इस वजह से परिवार के सदस्यों को कई प्रकार के नकारात्मक विचारों का सामना करना पडता है। वास्तु दोष नेगेटिव एनर्जी को बढ़ाते हैं जबकि साफ-सफाई पॉजीटिव एनर्जी को बढ़ाती है।

कभी भी दरवाजे की ओर पैर करके मत सोना, क्योंकि...
अच्छे और स्वस्थ जीवन के लिए जरूरी है चैन की नींद। नींद का संबंध न केवल हमारे स्वास्थ्य है बल्कि इसका प्रभाव घर की आर्थिक और धार्मिक स्थिति पर भी पड़ता है। इस महत्वपूर्ण कार्य के लिए शास्त्रों में कई प्रकार के नियम बताए गए हैं। इन नियमों का पालन करना अतिअनिवार्य है अन्यथा कोई भयंकर परिणाम तक झेलना पड़ सकता है।

गलत दिशा में सोना कई प्रकार से अशुभ है। पूर्व में जीवनमंत्र पर बताया गया है कि हमें दक्षिण या पूर्व दिशा की ओर सिर रखकर सोना चाहिए। इस संबंध में धार्मिक, वैज्ञानिक प्रभाव भी बताए गए हैं। इसके साथ ही एक बात और ध्यान रखना चाहिए कि सोते समय हमारे पैर दरवाजे के सामने न हो। ऐसे सोना शास्त्रों के अनुसार अच्छा नहीं माना जाता है।

विद्वानों के अनुसार दरवाजे की ओर पैर करके सोना मृत्यु का सूचक माना जाता है। किसी व्यक्ति की मृत्यु के बाद उसके मृत शरीर को इसी अवस्था में रखा जाता है। अत: इस प्रकार जीवित व्यक्ति नहीं सोना चाहिए। दरवाजे की ओर पैर रखकर केवल मृत शरीर को रखा जाता है। जीवित के लिए यह स्थिति अत्यधिक हानिकारक है। इसलिए इस अवस्था में न सोएं।

ऐसे सोने पर घर के वातावरण में नकारात्मक शक्तियों का प्रभाव बढऩे लगता है। जिससे परिवार के सदस्यों को मानसिक तनाव का सामना करना पड़ता है। आर्थिक कार्यों में भी नुकसान की संभावनाएं निर्मित होती हैं।

भगवान की पूजा में दीपक बुझ जाए तो समझना चाहिए कि...
आरती के संबंध में कई नियम बताए गए हैं। शास्त्रों के अनुसार आरती करते समय दीपक का बुझना अपशकुन माना जाता है। इसी वजह से इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता है कि पूजा आदि कर्म जब तक पूर्ण ना हो जाए दीपक जलता रहना चाहिए। यदि किसी भी कारण से दीपक बुझ जाता है तो ऐसा माना जाता है कि जिस मनोकामना के लिए पूजा की जा रही है उसमें अवश्य ही कोई बाधा उत्पन्न हो सकती है।

शास्त्रों में भगवान को प्रसन्न करने के लिए कई मार्ग बताए गए हैं। यह अलग-अलग विधियां भगवान की प्रसन्नता दिलाती है जिससे हमारी सभी मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं। ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए सबसे अधिक प्रचलित उपाय है भगवान की आरती।

आरती करते समय यदि दीपक बुझ जाता है तो भगवान से क्षमा याचना करते हुए पुन: दीपक जलाकर आरती करना चाहिए। साथ ही जिस कार्य के लिए पूजा की जा रही है उस कार्य को करते समय पूरी सावधानी रखनी चाहिए। अन्यथा सफलता प्राप्त करना काफी मुश्किल हो सकता है। आरती के लिए दीपक तैयार करते समय ध्यान रखें की दीपक में पर्याप्त तेल या घी भरा जाए। दीपक की बत्ती जो कि रुई की बनाई जाती है वह भी अच्छे से बनाना चाहिए। साथ ही पूजा-अर्चना करते समय उस क्षेत्र में पंखा या कूलर आदि भी नहीं चलाना चाहिए जिसकी हवा से दीपक बुझ सकता है। पूजन कार्य में साफ-सफाई का विशेष ध्यान रखें। भगवान की आराधना से पहले खुद को अच्छे पवित्र कर लेना चाहिए।

जानिए कौन-कौन से काम करने से दूर होती हैं महालक्ष्मी...
पैसा, धन, रुपए आज सभी की सबसे पहली जरूरत बन गया है। इसके लिए कई प्रकार के जतन किए जाते हैं। फिर भी कई लोगों के साथ काफी ऐसा होता है कि अत्यधिक मेहनत के बाद भी पर्याप्त पैसा नहीं मिल पाता। कुछ लोगों की आय तो बहुत अच्छी होती है लेकिन बचत नहीं हो पाती। ज्योतिष के अनुसार ऐसा होने के पीछे कई कारण मौजूद हैं।

धन की प्राप्ति और बचत के लिए जरूरी है कि आप देवी महालक्ष्मी की कृपा रहे। महालक्ष्मी की कृपा के बिना कोई भी व्यक्ति धन के संबंध में संतुष्ट हो ही नहीं सकता। धर्म शास्त्रों के अनुसार महालक्ष्मी उन्हीं लोगों से प्रसन्न होती हैं जो निम्न कर्मों से दूर रहते हैं-

सूर्योदय के बाद सोना, सूर्यास्त के समय सोना, दिन में सोने वाले लोगों से मां लक्ष्मी अप्रसन्न रहती हैं।

रात में दही तथा दिन में दूध का सेवन करने से लक्ष्मी का नाश होता है।

जिस घर में या प्रतिष्ठान में गंदगी या बदबू रहती है वहां महालक्ष्मी का निवास नहीं होता है।

किसी भी दिन विशेषकर गुरुवार को ज्यादा ऊंची आवाज में बोलने या लडऩे से पैसा समाप्त होता है।

जिस घर में पति-पत्नी में झगड़ा होता हो वहां महालक्ष्मी कृपा नहीं करती हैं।

जिस घर में रात के समय झूठे बरतन रहते हो वहां देवी लक्ष्मी नहीं रहती हैं।

इन बातों का ध्यान रखने पर धन की देवी महालक्ष्मी सदैव आपके घर पर निवास करेंगी और   पैसा से जुड़ी समस्याएं आपसे दूर ही रहेंगी।

घर में छिड़काव करें इस चमत्कारी चीज का, क्योंकि...
हिंदू धर्म में गाय को पवित्र और पूजनीय माना गया है। शास्त्रों में गौ को माता का दर्जा दिया गया है। साथ ही गाय की पूजा को सभी मनोकामनाएं पूर्ण करने वाली बताया गया है। वास्तु के अनुसार गौमूत्र से घर के सभी वास्तु दोष समाप्त हो जाते हैं और परेशानियां दूर हो जाती हैं।

वैसे तो गाय की पूजा से ही हमारे कई जन्मों के पाप स्वत: ही नष्ट हो जाते हैं लेकिन गौमूत्र का काफी महत्व बताया गया है। शास्त्रों के अनुसार गाय में तेतीस करोड़ देवी-देवताओं का वास होता है इसी वजह से गौ को पूजनीय और पवित्र माना गया है। गाय से मिलने वाली हर चीज का धार्मिक महत्व है। गौमूत्र को आयुर्वेद और धर्म में काफी गुणकारी बताया गया है।

आयुर्वेद के अनुसार गौमूत्र का कई बीमारियों में दवा के रूप में उपयोग किया जाता है। वहीं धर्म के अनुसार इससे घर की पवित्रता बनी रहती है। यदि हमारे घर में किसी प्रकार का कोई वास्तु दोष हो तो प्रतिदिन घर में गौमूत्र का छिड़कने से वे सभी दोष दूर हो जाते हैं। घर में सुख-शांति बनी रहती है। परिवार के सदस्यों में परस्पर प्रेम बढ़ता है और वातावरण भी सूक्ष्म कीटाणुओं से मुक्त हो जाता है।

घर के वातावरण में मौजूद कई प्रकार के हानिकारक सूक्ष्म कीटाणु गौमूत्र के प्रभाव से नष्ट हो जाते हैं। इससे परिवार के सदस्यों को स्वास्थ्य संबंधी लाभ प्राप्त होता है। जिस घर में प्रतिदिन गौमूत्र का छिड़का जाता है वहां सभी देवी-देवताओं की कृपा बरसती है। जिससे वहां कभी धन या धान्य की किसी प्रकार की कोई कमी नहीं रहती।

ऐसे समय में घर में पूजा न करें, क्योंकि...
हम सुखी और खुशहाल जिंदगी के लिए सभी भगवान, परमात्मा, परमेश्वर, देवी-देवताओं का पूजन करते हैं। भगवान का पूजन मंदिरों में भी किया जाता है और घरों में भी। शास्त्रों के अनुसार घर में भगवान प्रतिमा रखने के संबंध में कई जरूरी सावधानियां बताई गई हैं। इनका पालन करने पर निश्चित ही हमारे सुख, वैभव, यश, धन में वृद्धि होती है।

यदि घर में रखी भगवान की प्रतिमा की प्राण-प्रतिष्ठा की गई है तो ऐसी मूर्तियों में सूतक लगता है। अत: यदि परिवार में किसी भी तरह का सूतक लगता है (जैसे परिवार के किसी सदस्य की मृत्यु के बाद का समय) तो इन मूर्तियों की पूजा परिवार के किसी भी सदस्य को नहीं करना चाहिए बल्कि किसी ब्राह्मण, बहन या बेटी से ही पूजन कराना चाहिए।

जिस मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा नहीं की गई हैं, उन मूर्तियों में सूतक नहीं लगता। प्राण-प्रतिष्ठा नहीं होने की दशा में भगवान की मूर्तियां घर के सदस्य की तरह ही होती हैं। घर के मंदिर भगवान की जो मूर्ति रखी गई है उनकी फोटो अपने साथ रखना चाहिए। घर से बाहर रहने पर उस फोटो के दर्शन करने चाहिए। घर में भगवान की खंडित प्रतिमा कतई ना रखें।

सिर्फ सीधे हाथ से करना चाहिए ये खास काम, क्योंकि...
शास्त्रों के अनुसार सभी समस्याओं का एक सटिक समाधान है दान करना। दान से ही व्यक्ति के पुराने अशुभ कर्मों का प्रभाव समाप्त होता है और पुण्य में वृद्धि होती है। समस्याएं या परेशानियां या धन अभाव ये सभी पिछले कर्मों के आधार पर प्राप्त होते हैं। इस प्रकार के बुरे प्रभावों का नष्ट करता है दान।

दान के संबंध में सबसे महत्वपूर्ण नियम यह है कि दान हमेशा सीधे हाथ से ही किया जाना चाहिए। ऐसी मान्यता है कि सीधे हाथ से किए गए दान से परमात्मा तुरंत ही प्रसन्न होते हैं और दानी की मनोकामनाओं को पूरा करते हैं। शास्त्रों के अनुसार भगवान के लिए किए जाने वाले सभी पूजा कर्म सीधे हाथ से ही किए जाना चाहिए।

दान करने से हमारे मोह और अहम का नाश होता है। दान से हमारे मन का विषय वस्तु के लिए मोह खत्म होता है। यदि किसी व्यक्ति के पास बहुत सारा धन है तब भी जब तक धन के प्रति मोह का त्याग नहीं करेगा तब तक वह दान नहीं कर सकता। इसी प्रकार दान से अहम भी दूर होता है। इसके साथ ही दान से मन को शांति भी मिलती है।

सभी धार्मिक कार्य में सीधे हाथ का विशेष महत्व है क्योंकि धर्म शास्त्रों के अनुसार ऐसा माना जाता है कि हमारे शरीर का बायां भाग स्त्रियों का प्रतिनिधित्व करता है और दायां भाग पुरुषों का। इस बात की पुष्टि शिवजी के अद्र्धनारीश्वर स्वरूप से की जा सकती है। शिवजी के इस रूप में दाएं भाग में स्वयं शिवजी और बाएं भाग में माता पार्वती को दर्शाया जाता है। धर्म से संबंधित सभी कार्य पुरुषों से कराए जाने की मान्यताएं प्राचीन काल से चली आ रही है। दान सीधे हाथ से करना चाहिए इस बात के लिए एक और तर्क यह है कि हम पवित्र कार्य के लिए सदैव सीधे हाथ का ही उपयोग करते हैं। इसी वजह से बाएं हाथ का धार्मिक कार्यों में उपयोग नहीं किया जाता। 

ऐसे लोगों के घर कभी नहीं जाना चाहिए, क्योंकि...
सुख और शांतिपूर्ण जीवन के लिए शास्त्रों में कई मार्ग बताए गए हैं। कुछ ऐसे नियम भी बनाए हैं जिनका पालन पर व्यक्ति को समाज में मान-सम्मान के साथ ही सभी सुख-सुविधाएं भी प्राप्त हो जाती हैं। समाज और घर-परिवार में अक्सर एक-दूसरे के घर जाने का काम पड़ता है। ऐसे में हमें किन लोगों के घर नहीं जाना चाहिए, इस संबंध में गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्रीरामचरित मानस में नियम बताया गया है-

जदपि मित्र प्रभु पितु गुर गेहा। जाइअ बिनु बोलेहं न संदेहा॥
तदपि बिरोध मान जहं कोई  । तहां गएं कल्यानु न होई ॥
-श्रीरामचरितमानस १/६२/

इसका सामान्य अर्थ यही है कि यद्यपि इसमें संदेह नहीं कि मित्र, स्वामी, पिता और गुरु के घर बिना बुलाए भी जाना चाहिए लेकिन जहां कोई विरोध मानता हो या आपका सम्मान न करता हो, उसके घर जाने से कल्याण नहीं होता।

श्रीरामचरित मानस में शिवजी माता उमा को संबोधित करते हुए बताते हैं कि कभी भी ऐसे लोगों के घर नहीं जाना चाहिए जो तुमसे विरोध या द्वेष भाव रखता हो। फिर चाहे वह पिता, गुरु, स्वामी या मित्र का ही घर क्यों न हो। इसका कारण यह है कि वहां जाने से अपमान के सिवाय कुछ और प्राप्त नहीं होता। कोई भी व्यक्ति अपमान पसंद नहीं करता। अत: अपमान से बचना हो तो ऐसे लोगों के घर नहीं जाना चाहिए।

शिवलिंग पर नहीं चढ़ाना चाहिए शंख से जल, क्योंकि...
पूजन कार्य में शंख का उपयोग महत्वपूर्ण माना गया है। वैसे तो लगभग सभी देवी-देवताओं को शंख से जल चढ़ाने का विधान है लेकिन शिवलिंग पर शंख से जल चढ़ाना वर्जित किया गया है। शंख से शिवजी को जल क्यों अर्पित नहीं करते हैं? इस संबंध में शिवपुराण में एक कथा बताई गई है।

शिवपुराण के अनुसार शंखचूड नाम का महापराक्रमी दैत्य हुआ। शंखचूड दैत्यराम दंभ का पुत्र था। दैत्यराज दंभ को जब बहुत समय तक कोई संतान उत्पन्न नहीं हुई तब उसने भगवान विष्णु के लिए कठिन तपस्या की। तप से प्रसन्न होकर विष्णु प्रकट हुए। विष्णुजी ने वर मांगने के लिए कहा तब दंभ ने तीनों लोको के लिए अजेय एक महापराक्रमी पुत्र का वर मांगा। श्रीहरि तथास्तु बोलकर अंतध्र्यान हो गए। तब दंभ के यहां एक पुत्र का जन्म हुआ जिसका नाम शंखचूड़ पड़ा। शंखचुड ने पुष्कर में ब्रह्माजी के निमित्त घोर तपस्या की और उन्हें प्रसन्न कर लिया। ब्रह्मा ने वर मांगने के लिए कहा तब शंखचूड ने वर मांगा कि वो देवताओं के लिए अजेय हो जाए। ब्रह्माजी ने तथास्तु बोला और उसे श्रीकृष्णकवच दिया। साथ ही ब्रह्मा ने शंखचूड को धर्मध्वज की कन्या तुलसी से विवाह करने की आज्ञा दी।  फिर वे अंतध्र्यान हो गए।

ब्रह्मा की आज्ञा से तुलसी और शंखचूड का विवाह हो गया। ब्रह्मा और विष्णु के वरदान के मद में चूर दैत्यराज शंखचूड ने तीनों लोकों पर स्वामित्व स्थापित कर लिया। देवताओं ने त्रस्त होकर विष्णु से मदद मांगी परंतु उन्होंने खुद दंभ को ऐसे पुत्र का वरदान दिया था अत: उन्होंने शिव से प्रार्थना की। तब शिव ने देवताओं के दुख दूर करने का निश्चय किया और वे चल दिए। परंतु श्रीकृष्ण कवच और तुलसी के पातिव्रत धर्म की वजह से शिवजी भी उसका वध करने में सफल नहीं हो पा रहे थे तब विष्णु से ब्राह्मण रूप बनाकर दैत्यराज से उसका श्रीकृष्णकवच दान में ले लिया। इसके बाद शंखचूड़ का रूप धारण कर तुलसी के शील का हरण कर लिया। अब शिव ने शंखचूड़ को अपने त्रिशुल से भस्म कर दिया और उसकी हड्डियों से शंख का जन्म हुआ। चूंकि शंखचूड़ विष्णु भक्त था अत: लक्ष्मी-विष्णु को शंख का जल अति प्रिय है और सभी देवताओं को शंख से जल चढ़ाने का विधान है। परंतु शिव ने चूंकि उसका वध किया था अत: शंख का जल शिव को निषेध बताया गया है। इसी वजह से शिवजी को शंख से जल नहीं चढ़ाया जाता है।

हर शाम लाइट जलाने के साथ ही करना चाहिए ये काम भी, क्योंकि...
इष्टदेव या देवी-देवता का नाम जपने मात्र से भी हमें पुण्य की प्राप्ति होती है। वैसे तो सुबह-सुबह का समय भगवान की आराधना के लिए श्रेष्ठ माना गया है लेकिन शाम के समय भी पूजन का विशेष महत्व है। शाम को धर्म लाभ अर्जित करने के लिए कुछ नियम बताए गए हैं।

शाम के समय अंधेरा होने से थोड़ी पहले हमें घर में रोशनी कर लेना चाहिए। रोशनी होने के बाद परिवार के सदस्यों को अपने इष्टदेव के मंत्र का जप करना चाहिए या भगवान का नाम लेना चाहिए। इस समय आंख बंद रखनी चाहिए। इसप्रकार प्रतिदिन किया जाना चाहिए।

सामान्यत: अधिकांश लोग प्रतिदिन शाम को इस प्रकार भगवान को याद अवश्य करते हैं। यह काफी पुराने समय से चली आ रही परंपरा है। इस पंरपरा के निर्वाह से कई धार्मिक और सकारात्मक परिणाम प्राप्त होते हैं। ऐसा माना जाता है शाम के समय भी धन की देवी महालक्ष्मी सहित सभी देवी-देवता पृथ्वी का भ्रमण करते हैं और इस समय यदि उनका नाम लिया जाए वे अतिप्रसन्न होते हैं और भक्त की मनोकामनएं पूर्ण करते हैं।

घर के वातावरण में फैली नकारात्मक ऊर्जा को नष्ट करने के लिए यह परंपरा काफी कारगर है। शाम को रोशनी होते ही भगवान का नाम लेने से सकारात्मक ऊर्जा को अधिक बल मिलता है और अंधेरे में शक्तिशाली रहने वाली नेगेटिव एनर्जी समाप्त हो जाती है।

जब किसी की शवयात्रा दिखे तो क्या करना चाहिए?
जीवन का अंतिम अटल सत्य है मृत्यु। भागवत गीता में श्रीकृष्ण ने बताया है कि जीवन के इस अटल सत्य को कोई टाल नहीं सकता है। जिस व्यक्ति का जन्म हुआ है वह अवश्य ही एक दिन मृत्यु को प्राप्त होगा। अमर केवल आत्मा होती है जो शरीर बदलती है। जिस प्रकार हम कपड़े बदलते हैं ठीक उसी प्रकार आत्मा अलग-अलग शरीर धारण करती है और निश्चित समय के लिए। इसके बाद पूर्व निर्धारित समय पर आत्मा शरीर छोड़ देती है। किसी भी व्यक्ति की मृत्यु के बाद हिंदू धर्म के अनुसार मृत शरीर का दहन किया जाता है।

किसी भी इंसान की मृत्यु के बाद शवयात्रा निकाली जाती है और इस संबंध में भी शास्त्रों में कई नियम बताए गए हैं। जिन्हें अपनाने से धर्म लाभ तो प्राप्त होता है साथ ही इससे मृत आत्मा को शांति भी मिलती है। यदि हम कहीं जा रहे हैं और रास्ते में शवयात्रा दिखाई दे तो उस समय थोड़ी देर ठहर जाना चाहिए।

ऐसा माना जाता है कि यदि शवयात्रा निकलती दिखाई देती है तो कुछ देर ठहरकर परमात्मा से मृत आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना अवश्य करनी चाहिए। मृतक को प्रणाम करके आगे बढऩा चाहिए।

ज्योतिष शास्त्र में शवयात्रा के संबंध में बताया गया है कि यदि आप किसी जरूरी कार्य के लिए जा रहे हैं और रास्ते में कोई शवयात्रा दिख जाए तो इसका मतलब है कि आपको इच्छित कार्य में सफलता मिलेगी। आपके सोचे हुए कार्य पूर्ण हो जाएंगे और परेशानियां दूर हो जाएंगी।

जूते-चप्पल चोरी होना या गुम होना बहुत अच्छी बात है, क्योंकि...
हम ऐसा कभी भी नहीं चाहते हैं कि हमारी कोई चीज चोरी या गुम हो जाए। किसी भी प्रकार की चोरी को अशुभ माना जाता है लेकिन ज्योतिष के अनुसार जूते-चप्पल चोरी होना शुभ माना गया है। और अगर शनिवार के दिन ऐसा होता है तो इससे शनि के दोषों में राहत मिलती है।

वैसे तो चोरी होना आपके धन की हानि को दर्शाता है लेकिन जूते-चप्पल की चोरी को शुभ माना जाता है। खासतौर पर यदि शनिवार के दिन चमड़े के जूते चोरी होते हैं तो इसे बहुत अच्छा समझना चाहिए। जो लोग जूते-चप्पल चोरी होने के ज्योतिषीय लाभ जानते हैं वे शनि मंदिरों में जूते-चप्पल स्वयं छोड़ आते हैं।

आखिर शनिवार को जूते चोरी हो जाने से क्या लाभ होता है? ऐसा क्यों माना जाता है कि चमड़े के जूते चोरी हो जाएं तो सारी परेशानी उसके साथ चली जाती हैं? वास्तव में यह मान्यता ज्योतिषीय आधार पर प्रचलित है। ज्योतिष शास्त्र में शनि को क्रूर और कठोर ग्रह माना गया है। शनि जब किसी व्यक्ति को विपरित फल देता है तो उससे कड़ी मेहनत करवाता है और नाम मात्र का प्रतिफल प्रदान करता है। जिन लोगों की कुंडली में साढ़ेसाती या ढैय्या हो, या जिसकी राशि में शनि अच्छे स्थान पर न हो, उन्हें कई परेशानियों का सामना करना पड़ता है। शनिवार शनि का दिन माना जाता है। हमारे शरीर के अंग भी ग्रहों से प्रभावित होते हैं। त्वचा (चमड़ी) और पैरों में शनि का वास माना गया है। पैर और त्वचा से संबंधित चीजें शनि के निमित्त दान की जाए तो कई शुभ फल प्राप्त होते हैं और पैर तथा त्वचा से संबंधित बीमारियों में भी राहत मिलती है।

हमारी त्वचा और पैर का कारक ग्रह शनि है। अत: चमड़े के जूते अगर शनिवार को चोरी होते हैं तो मानना चाहिए कि हमारी परेशानी कम हो जाएगी। शनि अब ज्यादा परेशान नहीं करेगा। शनिवार को शनि मंदिरों में जूते भी छोडऩे से शनि के कष्ट कम हो जाते हैं।

जब आपको रास्ते में कहीं हाथी दिखे तो क्या करना चाहिए?
शास्त्रों के अनुसार किसी भी कार्य की शुरूआत भगवान श्रीगणेश के नाम के साथ की जाना चाहिए। गणपति के पूजन के बाद कार्य बिना किसी परेशानी के पूर्ण हो जाता है। गणेशजी के दर्शन मात्र से ही हमारे कई जन्मों के पाप स्वत: ही नष्ट हो जाते हैं और पुण्य में बढ़ोतरी हो जाती है। कई बार रास्ते में हमें गणेशजी का प्रतीक हाथी दिखाई देता है तो जानिए ऐसे समय हमें क्या करना चाहिए...

जब हम किसी खास कार्य के लिए कहीं जा रहे हों और रास्ते में हाथी दिख जाए तो इसे बहुत शुभ माना जाता है। हिंदू धर्म में प्रचलित शकुन-अपशकुन में हाथी का दिखना शुभ शकुन बताया गया है।

प्राचीन काल से शकुन-अपशकुन की कई मान्यताएं प्रचलित हैं। ऐसी कई परंपराओं का चलन हैं जिन्हें आज भी काफी लोग मानते हैं। शकुन-अपशकुन को कुछ लोग अंधविश्वास भी मानते हैं लेकिन ऋषि-मुनियों द्वारा इनका काफी गहरा महत्व बताया गया है। अक्सर हमारे आसपास कुछ छोटी-छोटी असामान्य या सामान्य घटनाएं घटित होती हैं। इन्हीं घटनाओं में सफलता और असफलता के इशारे छिपे होते हैं जिन्हें समझना होता है। हाथी का दिखना भी एक शुभ संकेत है।

किसी महत्वपूर्ण कार्य के लिए जाते समय हाथी दिखाई दे तो समझ लेना चाहिए कि आपको जरूरी कार्यों में सफलता प्राप्त होगी और दिन अच्छा बितेगा। गजराज के दिखने पर भगवान श्रीगणेश का ध्यान करते हुए गणेश मंत्रों का उच्चारण करना चाहिए। इससे गणपति की साक्षात् पूजा हो जाती है। इस प्रकार के पूजन से व्यक्ति के कई कष्टों और पापों का नाश हो जाता है। धार्मिक मान्यता है कि हाथी का सीधा संबंध प्रथम पूज्य भगवान श्रीगणेश से है। गणपति का मुख हाथी के जैसा ही है, इसी वजह से गजराज यानि हाथी को भी पूजनीय और पवित्र माना जाता है।

दूल्हा-दूल्हन को हल्दी क्यों लगाते हैं...
शास्त्रों के अनुसार मनुष्य जीवन के 16 महत्वपूर्ण संस्कार बताए गए हैं। इन संस्कारों का निर्वहन करना सभी इंसानों के लिए अतिआवश्यक है। इन्हीं संस्कारों में से एक है विवाह संस्कार। पुराने समय में विवाह में अपनाए जाने वाली प्राचीन परम्पराओं , रीति-रिवाजों आदि का पालन आज भी किया जाता है । कुछ नियम और परंपराएं वर और वधू दोनों के लिए समान रूप से लागू होती हैं। ऐसी ही एक परंपरा है दूल्हा-दुल्हन को हल्दी लगाना।

वर और वधू को हल्दी क्यों लगाई जाती है इसके पीछे धार्मिक और स्वास्थ्य संबंधी कारण बताए गए हैं। शास्त्रों के अनुसार हल्दी का उपयोग सभी प्रकार के पूजन-कार्य में आवश्यक रूप से किया जाता है। इसके बिना कई प्रकार के पूजन कर्म पूर्ण नहीं माने जाते हैं। इसी वजह से पूजन सामग्री में हल्दी का महत्वपूर्ण स्थान है। हल्दी की पवित्रता के कारण ही वर-वधु के शरीर पर इसका लेप लगाया जाता है ताकि विवाह से पूर्व ये दोनों भी शास्त्रों के अनुसार पूरी तरह पवित्र हो सके।

हल्दी एक औषधि भी है। इससे उपयोग से कई प्रकार की बीमारियों का त्वरित इलाज हो जाता है। त्वचा संबंधी रोगों के लिए हल्दी सर्वश्रेष्ठ उपाय है। विवाह पूर्व वर-वधु के शरीर पर हल्दी का लेप लगाया जाता है ताकि यदि इन्हें कोई त्वचा संबंधी रोग हो या इंफेक्शन हो या अन्य कोई बीमारी हो तो उसका उपचार हो सके। हल्दी लगाने से त्वचा पर जमी हुई धूल आदि भी शत-प्रतिशत साफ हो जाती है। जिससे त्वचा में चमक बढ़ जाती है। चेहरे का आकर्षण बढ़ जाता है। इन सभी कारणों के चलते अनिवार्य रूप से आज भी दूल्हा-दुल्हन को विवाह से पूर्व हल्दी अवश्य लगाई जाती है।

बैठे-बैठे पैर नहीं हिलाना चाहिए, क्योंकि...
प्राचीन समय से ही कुछ परंपराएं एवं नियम बनाए गए हैं जिनका पालन करना हमारी सेहत और आर्थिक स्थिति दोनों के लिए ही फायदेमंद रहता है। सभी परंपराओं के पीछे धार्मिक और वैज्ञानिक महत्व हैं। प्रतिदिन हम कई छोटे-बड़े सामान्य कार्य करते हैं जिनमें से कुछ कर्म वर्जित किए गए हैं, जिनका संबंध हमारी सुख-समृद्धि से होता है।

अक्सर घर के वृद्धजनों द्वारा मना किया जाता है कि बैठे-बैठे पैर नहीं हिलाना चाहिए। वैसे तो यह सामान्य सी बात है लेकिन इसके पीछे धार्मिक कारण है। स्वभाव और आदतों का प्रभाव हमारे भाग्य पर भी पड़ता है। शास्त्रों के अनुसार यदि कोई व्यक्ति पूजन कर्म या अन्य किसी धार्मिक कार्य में बैठा है तो उसे पैर नहीं हिलाना चाहिए। ऐसा करने पर पूजन कर्म का पूरा पुण्य नहीं मिल पाता है।

अधिकांश लोगों की आदत होती है कि वे जब कहीं बैठे होते हैं तो पैर हिलाते रहते हैं। इस संबंध में शास्त्रों के जानकार के अनुसार पैर हिलाने से धन का नाश होता है। धन की देवी महालक्ष्मी की कृपा प्राप्त नहीं होती है। शास्त्रों में इसे अशुभ कर्म माना गया है। स्वास्थ्य की दृष्टि से भी यह आदत हानिकारक है। बैठे-बैठे पैर हिलाने से जोड़ों के दर्द की समस्या हो सकती है। पैरों की नसों पर विपरित प्रभाव पड़ता है। पैरों में दर्द हो सकता है। इसका बुरा प्रभाव हृदय पर भी पड़ सकता है। इन कारणों के चलते इस आदत का त्याग करना चाहिए।

यदि किसी पूजन कार्य में या शाम के समय बैठे-बैठे पैर हिलाते हैं तो महालक्ष्मी की कृपा प्राप्त नहीं होती है। धन संबंधी कार्यों में विलंब होता है। पैसों की तंगी बढ़ती है। वेद-पुराण के अनुसार शाम के समय धन की देवी महालक्ष्मी पृथ्वी भ्रमण पर रहती हैं, ऐसे में यदि कोई व्यक्ति बैठे-बैठे पैर हिलाता है तो देवी उससे नाराज हो जाती हैं। लक्ष्मी की नाराजगी के बाद धन से जुड़ी परेशानियां झेलना पड़ती हैं। अत: बैठते समय इस बात का ध्यान रखें।

इस खास कपड़े को पहनकर ही पूजा करनी चाहिए, क्योंकि...
हिंदू धर्म में किसी भी प्रकार की पूजा-अर्चना के वक्त श्रद्धालुओं को धोती पहनना अनिवार्य किया गया है। वैसे आजकल धोती पहनने का चलन बहुत कम हो गया है और यह ब्राह्मणों तक ही सीमित रह गया है।

आधुनिक फैशन के इस दौर में पूजा कार्य में भी बहुत ही कम भक्त धोती पहनते हैं। प्राचीनकाल में धोती पहने बिना पूजादि कर्मकांड पूर्ण नहीं माने जाते थे। इसी वजह से धोती का पवित्र माना जाता है। धोती पहनने की अनिवार्यता के पीछे वैज्ञानिक महत्व भी है।

पूजा-अर्चना जैसे कार्यों में काफी देर तक एक विशेष अवस्था में श्रद्धालु को बैठे रहना पड़ता है, उस दशा में धोती से अच्छा कोई और परिधान नहीं हो सकता है। आजकल लोग जींस, पेंट आदि पहनकर ही पूजा कार्य करते हैं जिससे बैठने-उठने में कई परेशानियों का सामना करना पड़ता है। शरीर के रोमछिद्रों से हमें शुद्ध प्राणवायु मिलती है। तंग कपड़े न सिर्फ इसमें बाधा डालते हैं बल्कि रक्तप्रवाह पर भी बुरा असर डालते हैं। इसलिए स्वास्थ्य की दृष्टिï से भी धोती लाभदायक है। धोती बारिक सूती कपड़े से बनी होती है जो हवादार और सुविधाजनक होती है।

मालदार बनना है तो इन पांचों को खिलाते रहे खाना, क्योंकि...
जीवन से हर समस्या का समाधान शास्त्रों में बताया गया है। एक उपाय तो ये है कि हम अपनी मेहनत से और स्वयं की समझदारी इन समस्याओं को दूर करने का प्रयास करें और दूसरा उपाय है धार्मिक कार्य करें। हमें प्राप्त होने वाले सुख-दुख हमारे कर्मों का प्रतिफल ही है। पुण्य कर्म किए जाए तो दुख का समय जल्दी निकल जाता है।

शास्त्रों के अनुसार गाय, पक्षी, कुत्ता, चींटियां और मछली से हमारे जीवन की सभी समस्याएं दूर हो सकती हैं। यदि कोई व्यक्ति नियमित रूप से गाय को रोटी खिलाएं तो उसके ज्योतिषीय ग्रह दोष नष्ट हो जाते हैं। गाय को पूज्य और पवित्र माना जाता है, इसी वजह से इसकी सेवा करने वाले व्यक्ति को सभी सुख प्राप्त हो जाते हैं। इसी प्रकार पक्षियों को दाना डालने पर  आर्थिक मामलों में लाभ प्राप्त होता है। व्यवसाय करने वाले लोगों को विशेष रूप से प्रतिदिन पक्षियों को दाना अवश्य डालना चाहिए।

यदि कोई व्यक्ति दुश्मनों से परेशान हैं और उनका भय हमेशा ही सताता रहता है तो कुत्ते को रोटी खिलाना चाहिए। नियमित रूप से जो कुत्ते को रोटी खिलाते हैं उन्हें दुश्मनों का भय नहीं सताता है। कर्ज से परेशान से लोग चींटियों को शक्कर और आटे डालें। ऐसा करने पर कर्ज की समाप्ति जल्दी हो जाती है।

जिन लोगों की पुरानी संपत्ति उनके हाथ से निकल गई है या कई मूल्यवान वस्तु खो गई है तो ऐसे लोग यदि प्रतिदिन मछली को आटे की गोलियां खिलाते हैं तो उन्हें लाभ प्राप्त होता है। मछलियों को आटे की गोलियां देने पर पुरानी संपत्ति पुन: प्राप्त होने के योग बनते हैं।

इन पांचों को जो भी व्यक्ति खाना खिलाते हैं उनके सभी दुख-दर्द दूर हो जाते हैं और अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है।

इन दो बड़े देवताओं के दर्शन पीछे से नहीं करना चाहिए, क्योंकि
शास्त्रों के अनुसार देवी-देवताओं के दर्शन मात्र से हमारे सभी पाप अक्षय पुण्य में बदल जाते हैं। इस बात के महत्व को देखते हुए ऋषि-मुनियों द्वारा कई नियम बनाए गए हैं। वैसे तो सभी देवी-देवताओं के दर्शन कहीं से भी कर सकते हैं लेकिन श्रीगणेश और भगवान विष्णु की पीठ के दर्शन नहीं करना चाहिए।

गणेशजी और भगवान विष्णु दोनों ही देवों के दर्शन पीछे से नहीं करना चाहिए। ऐसा करने पर पुण्य की प्राप्ति नहीं होती है। ये दोनों ही देव सभी सुखों को देने वाले माने गए हैं। अपने भक्तों के सभी दुखों को दूर करते हैं और उनकी शत्रुओं से रक्षा करते हैं। इनके नित्य दर्शन से हमारा मन शांत रहता है और सभी कार्य सफल होते हैं।

गणेशजी को रिद्धि-सिद्धि का दाता माना गया है। इनकी पीठ के दर्शन करना वर्जित किया गया है। गणेशजी के शरीर पर जीवन और ब्रह्मांड से जुड़े अंग निवास करते हैं। गणेशजी की सूंड पर धर्म विद्यमान है तो कानों पर ऋचाएं, दाएं हाथ में वर, बाएं हाथ में अन्न, पेट में समृद्धि, नाभी में ब्रह्मांड, आंखों में लक्ष्य, पैरों में सातों लोक और मस्तक में ब्रह्मलोक विद्यमान है। गणेशजी के सामने से दर्शन करने पर उपरोक्त सभी सुख-शांति और समृद्धि प्राप्त हो जाती है। ऐसा माना जाता है इनकी पीठ पर दरिद्रता का निवास होता है। गणेशजी की पीठ के दर्शन करने वाला व्यक्ति यदि बहुत धनवान भी हो तो उसके घर पर दरिद्रता का प्रभाव बढ़ जाता है। इसी वजह से इनकी पीठ नहीं देखना चाहिए। जाने-अनजाने पीठ देख ले तो श्री गणेश से क्षमा याचना कर उनका पूजन करें। तब बुरा प्रभाव नष्ट होगा।

भगवान विष्णु की पीठ पर अधर्म का वास माना जाता है। शास्त्रों में लिखा है जो व्यक्ति इनकी पीठ के दर्शन करता है उसके पुण्य खत्म होते जाते हैं और अधर्म बढ़ता जाता है। इन्हीं कारणों से श्री गणेश और विष्णु की पीठ के दर्शन नहीं करने चाहिए।


ऐसे बर्तन में बनाना चाहिए खाना, क्योंकि...
आज इंसान जितना आधुनिक हो रहा है उतना ही वह सुख सुविधाओं का आदि होता जा रहा है। यही वजह है कि हमें आज कई नई-नई बीमारियों का सामना करना पड़ रहा है। हमारी औसत उम्र भी घटती जा रही है। और ऐसा असंतुलित खानपान के कारण हो रहा है। खाने-पीने की चीजों में लापरवाही बरते जाने से व्यक्ति के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। यदि नियमित रूप से सब्जियों और दालों में मौजूद पोषक तत्व हमारे शरीर को प्राप्त होते रहे तो कई स्वास्थ्य संबंधी लाभ प्राप्त हो सकते हैं।

कम समय में खाना पकाने के लिए बाजार में कई प्रकार के आधुनिक बर्तन उपलब्ध हैं। ये खाना तो कम समय में बना देते हैं लेकिन सब्जियों और दालों के पोषक तत्वों को भी नष्ट कर देते हैं। इसी वजह से व्यक्ति का स्वास्थ्य बहुत ही संवेदनशील हो जाता है। छोटी सी बीमारी भी शरीर को बढ़ा नुकसान पहुंचा देती है। ये समस्या आधुनिक लोगों को अधिक परेशान करती है, जबकि पुराने समय में मिट्टी के बर्तनों में खाना पकाया जाता था,उनसे खाने की पौष्टिकता नष्ट नहीं होती थी। आज भी पुराने रीति-रिवाजों का पालन करने वाले और गांवों में रहने वाले लोग मिट्टी के बर्तनों का उपयोग करते हैं। वैसे तो इन बर्तनों में खाना पकाने में समय अधिक लगता है लेकिन सब्जियों और दालों के साथ ही भोजन की पौष्टिकता बरकरार रहती है।

मिट्टी के बर्तनों में पका खाना स्वादिष्ट होता है, साथ ही वह पूर्ण पौष्टिक भी होता है। ये हमें बीमारियों से लडऩे और उनकी रोकथाम करने में सहायता भी प्रदान करते हैं । आज भी ऐसे बर्तन आसानी से बाजार में मिल जाते हैं। ये सस्ते होने के साथ ही आपके स्वास्थ्य के रक्षक भी हैं। अत: ऐसे बर्तनों में खाना पकाया जाए तो स्वास्थ्य संबंधी कई लाभ प्राप्त होंगे।

हनुमानजी की पूजा में ध्यान रखें ये छोटी सी बात
हमेशा से ही हनुमानजी भक्तों की मनोकामनाएं शीघ्रता से पूर्ण करने वाले देवता माने जाते हैं। हर युग में श्रीराम के अनन्य भक्त बजरंग बली श्रद्धालुओं के दुखों को दूर करके उन्हें सुखी और समृद्धिशाली बनाते हैं। इसी कारण आज इनके भक्तों की संख्या काफी अधिक है। मंगलवार और शनिवार के दिन हनुमानजी के मंदिरों में भक्तों की भीड़ लगी रहती है। शास्त्रों के अनुसार कुछ नियम बताए गए हैं जिनका पालन हमें हनुमानजी के दर्शन करते समय और पूजन में करना चाहिए।

सभी देवी-देवताओं की तरह हनुमानजी के पूजन के बाद उनकी परिक्रमा करने की प्रथा है। इस संबंध में शास्त्रों में बताया गया है कि हनुमानजी की कितनी परिक्रमा करनी चाहिए।

प्राचीन ऋषि-मुनियों के अनुसार आरती और पूजा-अर्चना आदि के बाद भगवान की मूर्ति के आसपास सकारात्मक ऊर्जा एकत्रित हो जाती है, इस ऊर्जा को ग्रहण करने के लिए परिक्रमा की जाती है। सभी देवी-देवताओं की परिक्रमा की अलग-अलग संख्या है। श्रीराम के परम भक्त पवनपुत्र श्री हनुमानजी की तीन परिक्रमा करने का विधान है। भक्तों को इनकी तीन परिक्रमा ही करनी चाहिए। ऐसा करने पर हनुमानजी की कृपा जल्दी ही प्राप्त हो जाती है।

जन्म से मृत्यु तक ये 16 काम करना है बहुत जरूरी, क्योंकि...
शास्त्रों के अनुसार मनुष्य जीवन के लिए कुछ आवश्यक नियम बनाए गए हैं जिनका पालन करना हमारे लिए आवश्यक माना गया है। मनुष्य जीवन में हर व्यक्ति को अनिवार्य रूप से सोलह संस्कारों का पालन करना चाहिए। यह संस्कार व्यक्ति के जन्म से मृत्यु तक अलग-अलग समय पर किए जाते हैं।

प्राचीन काल से इन सोलह संस्कारों के निर्वहन की परंपरा चली आ रही है। हर संस्कार का अपना अलग महत्व है। जो व्यक्ति इन सोलह संस्कारों का निर्वहन नहीं करता है उसका जीवन अधूरा ही माना जाता है।

ये सोलह संस्कार क्या-क्या हैं -

गर्भाधान संस्कार- यह ऐसा संस्कार है जिससे हमें योग्य, गुणवान और आदर्श संतान प्राप्त होती है। शास्त्रों में मनचाही संतान प्राप्त के लिए गर्भधारण संस्कार किया जाता है। इसी संस्कार से वंश वृद्धि होती है।

पुंसवन संस्कार- गर्भस्थ शिशु के बौद्धिक और मानसिक विकास के लिए यह संस्कार किया जाता है। पुंसवन संस्कार के प्रमुख लाभ ये है कि इससे स्वस्थ, सुंदर गुणवान संतान की प्राप्ति होती है।

सीमन्तोन्नयन संस्कार- यह संस्कार गर्भ के चौथे, छठवें और आठवें महीने में किया जाता है। इस समय गर्भ में पल रहा बच्चा सीखने के काबिल हो जाता है। उसमें अच्छे गुण, स्वभाव और कर्म का ज्ञान आए, इसके लिए मां उसी प्रकार आचार-विचार, रहन-सहन और व्यवहार करती है।

जातकर्म संस्कार- बालक का जन्म होते ही इस संस्कार को करने से शिशु के कई प्रकार के दोष दूर होते हैं। इसके अंतर्गत शिशु को शहद और घी चटाया जाता है साथ ही वैदिक मंत्रों का उच्चारण किया जाता है ताकि बच्चा स्वस्थ और दीर्घायु हो।

नामकरण संस्कार- शिशु के जन्म के बाद 11वें दिन नामकरण संस्कार किया जाता है। ब्राह्मण द्वारा ज्योतिष शास्त्र के अनुसार बच्चे का नाम तय किया जाता है।

निष्क्रमण संस्कार- निष्क्रमण का अर्थ है बाहर निकालना। जन्म के चौथे महीने में यह संस्कार किया जाता है। हमारा शरीर पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश जिन्हें पंचभूत कहा जाता है, से बना है। इसलिए पिता इन देवताओं से बच्चे के कल्याण की प्रार्थना करते हैं। साथ ही कामना करते हैं कि शिशु दीर्घायु रहे और स्वस्थ रहे।

अन्नप्राशन संस्कार- यह संस्कार बच्चे के दांत निकलने के समय अर्थात 6-7 महीने की उम्र में किया जाता है। इस संस्कार के बाद बच्चे को अन्न खिलाने की शुरुआत हो जाती है।

मुंडन संस्कार- जब शिशु की आयु एक वर्ष हो जाती है तब या तीन वर्ष की आयु में या पांचवे या सातवे वर्ष की आयु में बच्चे के बाल उतारे जाते हैं जिसे मुंडन संस्कार कहा जाता है। इस संस्कार से बच्चे का सिर मजबूत होता है तथा बुद्धि तेज होती है। साथ ही शिशु के बालों में चिपके कीटाणु नष्ट होते हैं जिससे शिशु को स्वास्थ्य लाभ प्राप्त होता है।

विद्या आरंभ संस्कार- इस संस्कार के माध्यम से शिशु को उचित शिक्षा दी जाती है। शिशु को शिक्षा के प्रारंभिक स्तर से परिचित कराया जाता है।

कर्णवेध संस्कार- इसका अर्थ है- कान छेदना। परंपरा में कान और नाक छेदे जाते थे। इसके दो कारण हैं, एक- आभूषण पहनने के लिए। दूसरा- कान छेदने से एक्यूपंक्चर होता है। इससे मस्तिष्क तक जाने वाली नसों में रक्त का प्रवाह ठीक होता है। इससे श्रवण शक्ति बढ़ती है और कई रोगों की रोकथाम हो जाती है।

उपनयन या यज्ञोपवित संस्कार- उप यानी पास और नयन यानी ले जाना। गुरु के पास ले जाने का अर्थ है उपनयन संस्कार। आज भी यह परंपरा है। जनेऊ यानि यज्ञोपवित में तीन सूत्र होते हैं। ये तीन देवता- ब्रह्मा, विष्णु, महेश के प्रतीक हैं। इस संस्कार से शिशु को बल, ऊर्जा और तेज प्राप्त होता है।

वेदारंभ संस्कार: इसके अंतर्गत व्यक्ति को वेदों का ज्ञान दिया जाता है।

केशांत संस्कार- केशांत संस्कार अर्थ है केश यानी बालों का अंत करना, उन्हें समाप्त करना। विद्या अध्ययन से पूर्व भी केशांत किया जाता है। मान्यता है गर्भ से बाहर आने के बाद बालक के सिर पर माता-पिता के दिए बाल ही रहते हैं। इन्हें काटने से शुद्धि होती है। शिक्षा प्राप्ति के पहले शुद्धि जरूरी है, ताकि मस्तिष्क ठीक दिशा में काम करें। पुराने में गुरुकुल से शिक्षा प्राप्ति के बाद केशांत संस्कार किया जाता था।

समावर्तन संस्कार- समावर्तन संस्कार अर्थ है फिर से लौटना। आश्रम या गुरुकुल से शिक्षा प्राप्ति के बाद व्यक्ति को फिर से समाज में लाने के लिए यह संस्कार किया जाता था। इसका आशय है ब्रह्मचारी व्यक्ति को मनोवैज्ञानिक रूप से जीवन के संघर्षों के लिए तैयार किया जाना।

विवाह संस्कार- यह धर्म का साधन है। विवाह संस्कार सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्कार माना जाता है। इसके अंतर्गत वर और वधू दोनों साथ रहकर धर्म के पालन का संकल्प लेते हुए विवाह करते हैं। विवाह के द्वारा सृष्टि के विकास में योगदान दिया जाता है। इसी संस्कार से व्यक्ति पितृऋण से मुक्त होता है।

अंत्येष्टी संस्कार- अंत्येष्टि संस्कार इसका अर्थ है अंतिम संस्कार। शास्त्रों के अनुसार इंसान की मृत्यु यानि देह त्याग के बाद मृत शरीर अग्नि को समर्पित किया जाता है। आज भी शवयात्रा के आगे घर से अग्नि जलाकर ले जाई जाती है। इसी से चिता जलाई जाती है। आशय है विवाह के बाद व्यक्ति ने जो अग्नि घर में जलाई थी उसी से उसके अंतिम यज्ञ की अग्नि जलाई जाती है।


किसी को कुछ देने से पहले ध्यान रखें ये बातें, क्योंकि...
शास्त्रों में दान के कई नियम और तरीके बताए गए हैं। मनुस्मृति के अनुसार जो मनुष्य परिजन, सहारे की आशा रखने वाले करीबी रिश्तेदार तथा स्वयं पर आश्रित लोगों की दुख-तकलीफों को नजरअंदाज कर, दान-पुण्य करता है, वह दान जीते जी और मृत्युपरांत भी उसके लिए दुखदाई ही होता है।

दान के संबंध में कई महत्वपूर्ण नियम बताए गए हैं। -

दान देने वाला पूर्व दिशा की ओर मुख कर दान दे और लेने वाला उत्तर दिशा की ओर मुख कर ग्रहण करे, तो दानदाता की आयु में वृद्धि होती है तथा लेने वाली की आयु कम नहीं होती।

तिल, अक्षत, कुश और जल हाथ में लेकर ही दान देना चाहिए। पितरों के निमित्त दान करते समय तिल एवं देवताओं के लिए अक्षत अवश्य होना चाहिए। जल एवं कुश हर स्थिति में जरूरी है।

जिसे दान देना है, उसके पास स्वयं जाकर देना उत्तम माना गया है, अपने यहां बुलाकर दिया गया दान मध्यम तथा मांगने पर दिया गया दान अधम माना गया है।

किसी से सेवा कराने के बाद दिया गया दान निष्फल होता है।

रात के समय दान नहीं देना चाहिए, किंतु चंद्र-सूर्यग्रहण के समय, विवाह, खलिहान-यज्ञ, जन्म एवं मृतक कर्म का दान रात में भी कर सकते हैं।

दक्षिणा, विद्या, कन्या, दीपक, अन्न तथा आश्रय दान भी रात में कर सकते हैं।

गौ, सोना, चांदी, रत्न, विद्या, तिल, कन्या, हाथी, अश्व, शैया, वस्त्र, भूमि, अन्न, दूध, छत्र तथा गृह इन सोलह वस्तुओं के दान को महादान कहते हैं।

भगवान को चावल चढ़ाने से दूर होती हैं पैसों की समस्या, क्योंकि...
चावल को अक्षत भी कहा जाता है और अक्षत का अर्थ होता है जो टूटा न हो। इसका रंग सफेद होता है। पूजन में अक्षत का उपयोग अनिवार्य है। किसी भी पूजन के समय गुलाल, हल्दी, अबीर और कुंकुम अर्पित करने के बाद अक्षत चढ़ाए जाते हैं। अक्षत न हो तो पूजा पूर्ण नहीं मानी जाती।

शास्त्रों के अनुसार पूजन कर्म में चावल का काफी महत्व रहता है। देवी-देवता को तो इसे समर्पित किया ही जाता है साथ ही किसी व्यक्ति को जब तिलक लगाया जाता है तब भी अक्षत का उपयोग किया जाता है। भोजन में भी चावल का उपयोग किया जाता है।

कुंकुम, गुलाल, अबीर और हल्दी की तरह चावल में कोई विशिष्ट सुगंध नहीं होती और न ही इसका विशेष रंग होता है। अत: मन में यह जिज्ञासा उठती है कि पूजन में अक्षत का उपयोग क्यों किया जाता है?

दरअसल अक्षत पूर्णता का प्रतीक है। अर्थात यह टूटा हुआ नहीं होता है। इसलिए पूजा में अक्षत चढ़ाने का अभिप्राय यह है कि हमारा पूजन अक्षत की तरह पूर्ण हो। अन्न में श्रेष्ठ होने के कारण भगवान को चढ़ाते समय यह भाव रहता है कि जो कुछ भी अन्न हमें प्राप्त होता है वह भगवान की कृपा से ही मिलता है। अत: हमारे अंदर यह भावना भी बनी रहे। इसका सफेद रंग शांति का प्रतीक है। अत: हमारे प्रत्येक कार्य की पूर्णता ऐसी हो कि उसका फल हमें शांति प्रदान करे। इसीलिए पूजन में अक्षत एक अनिवार्य सामग्री है ताकि ये भाव हमारे अंदर हमेशा बने रहें।

पूजा में कौन सी धातु के बर्तनों का उपयोग न करें?
भगवान की पूजा में कई प्रकार के बर्तनों का भी उपयोग किया जाता है। ये बर्तन किस धातु के होने चाहिए और कौन सी धातु नहीं, इस संबंध में कई नियम बताए गए हैं। जिन धातुओं को पूजा वर्जित किया गया है उनका उपयोग पूजन कर्म में नहीं करना चाहिए। अन्यथा धर्म कर्म का पूर्ण पुण्य फल प्राप्त नहीं हो पाता है।

भगवान की पूजा एक ऐसा उपाय है जिससे जीवन की बड़ी-बड़ी समस्याएं हल हो जाती हैं। पूजा में बर्तनों का भी काफी गहरा महत्व है। शास्त्रों के अनुसार अलग-अलग धातु अलग-अलग फल देती है। इसके पीछे धार्मिक कारण के साथ ही वैज्ञानिक कारण भी है। सोना, चांदी, पीतल, तांबे की बर्तनों का उपयोग शुभ माना गया है। वहीं दूसरी ओर पूजन में लोहा और एल्युमीनियम धातु से निर्मित बर्तन वर्जित किए गए हैं।

पूजा और धार्मिक क्रियाओं में लोहा, स्टील और एल्यूमीनियम को अपवित्र धातु माना गया है। इन धातुओं की मूर्तियां भी नहीं बनाई जाती। लोहे में हवा, पानी से जंग लग जाता है। एल्यूमीनियम से भी कालिख निकलती है। पूजन में कई बार मूर्तियों को हाथों से स्नान कराया जाता है, उस समय इन मूर्तियों रगड़ा भी जाता है। ऐसे में लोहे और एल्युमिनियम से निकलने वाली जंग और कालिख का हमारी त्वचा पर बुरा प्रभाव पड़ता है। इसलिए लोहा, एल्युमीनियम को पूजा में निषेध माना गया है। पूजा में सोने, चांदी, पीतल, तांबे के बर्तनों का उपयोग करना चाहिए। इन धातुओं को रगडऩा हमारी त्वचा के लिए लाभदायक रहता है।


शनिवार को करें शनि पाताल क्रिया, पाएं शनि दोष से मुक्ति
शनि पाताल क्रिया एक ऐसा उपाय है जो हमेशा के लिए शनि दोष से मुक्ति दिला सकता है। शनि दोष से मुक्ति पाने के लिए यह एक दुर्लभ प्रयोग है। शनिवार को यह प्रयोग इस प्रकार करें-

किसी शुभ मुहूर्त में शनि देव की लोहे की प्रतिमा बनवाएं। इसके बाद इस प्रतिमा का विधिपूर्वक पूजन एवं प्राण प्रतिष्ठा करें फिर इस प्रतिमा के सामने यथा संभव नीचे लिखे मंत्र का जप करें-

ऊँ शं न देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये। शं योरभि स्त्रवन्तुन:।।

इसके बाद दशांश हवन करें और फिर ऐसे स्थान पर गड्ढा खोदें जहां से आपका फिर कभी निकलना न हो। इस गड्ढे में शनि देव की प्रतिमा को उल्टी सुला दें अर्थात शनि देव का मुख पाताल की ओर रहे। अब इस गड्ढे के ऊपर मिट्टी डालकर इसे समतल कर दें और शनि देव से प्रार्थना करें कि जीवन का हर दु:ख दूर हो जाए।

यह उपाय सच्ची श्रद्धा से किया जाए तो शनि दोषों से हमेशा के लिए छुटकारा संभव है।

मृत्यु के बाद पुत्र ही क्यों देता है मुखाग्नि?
भागवत गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने यही संदेश दिया है कि मृत्यु एक अटल सत्य है। जिसने जन्म लिया है उसे मृत्यु अवश्य प्राप्त होगी। आत्मा अमर है और वह निश्चित समय के अलग-अलग शरीर धारण करती है। जब जिस शरीर का समय पूर्ण हो जाता है आत्मा उसका त्याग कर देती है। इसे ही मृत्यु कहा जाता है। हिंदू धर्म में मृत्यु के संबंध में एक महत्वपूर्ण नियम या परंपरा यह है कि मृत शरीर को मुखाग्नि पुत्र ही देता है। यदि मृत व्यक्ति का पुत्र है तो मुखाग्नि उसे ही देना है, ऐसा विधान है।

मृतक चाहे स्त्री हो या पुरुष अंतिम क्रिया पुत्र की संपन्न करता है। इस संबंध में हमारे शास्त्रों में उल्लेख है कि पुत्र पुत नामक नर्क से बचाता है अर्थात् पुत्र के हाथों से मुखाग्नि मिलने के बाद मृतक को स्वर्ग प्राप्त होता है। इसी मान्यता के आधार पर पुत्र होना कई जन्मों के पुण्यों का फल बताया जाता है।

पुत्र माता-पिता का अंश होता है। इसी वजह से पुत्र का यह कर्तव्य है कि वह अपने माता-पिता की मृत्यु उपरांत उन्हें मुखाग्नि दे। इसे पुत्र के लिए ऋण भी कहा गया है।

घर से तुरंत साफ कर देना चाहिए मकड़ी के जाले
वैसे तो सभी जानते हैं कि घर की साफ-सफाई करने से स्वास्थ्य संबंधी लाभ प्राप्त होते हैं लेकिन साफ-सफाई का संबंध धर्म और देवी-देवताओं से भी है। जिस घर में स्वच्छता रहती है वहीं देवी-देवताओं का वास होता है। आमतौर पर घर के निचले हिस्सों की तो सफाई हो जाती है लेकिन छत या ऊपरी हिस्सों की ठीक से सफाई नहीं हो पाती। ऐसे में वहां मकड़ी द्वारा जाले बना लिए जाते हैं। घर में ये जाले होना अशुभ माना जाता है।

अक्सर वृद्धजन और विद्वान लोग कहते हैं कि घर में मकड़ी के जाले नहीं होना चाहिए। ये अशुभ होते हैं। ये अंधविश्वास नहीं है बल्कि इसके पीछे वैज्ञानिक और धार्मिक कारण मौजूद हैं। मकड़ी के जालों की संरचना कुछ ऐसी होती है कि उसमें नकारात्मक ऊर्जा एकत्रित हो जाती है। इसलिए घर के जिस भी कोने में मकड़ी के जाले होते हैं, वह कोना या हिस्सा नकारात्मक ऊर्जा से भर जाता है। इस कारण घर में कलह, बीमारियां व अन्य कई समस्याएं पैदा हो जाती हैं।

साथ ही मकड़ी के एक जाले में असंख्य सूक्ष्मजीव रहते हैं जो कि हमारे स्वास्थ्य को नुकसान पंहुचाते हैं। इसलिए कहा जाता हैं कि अगर घर में मकड़ी के जाले होते हैं तो घर की सुख-समृद्धि का नाश होने लगता है क्योंकि नकारात्मक ऊर्जा के कारण घर का माहौल इतना अशांत हो जाता है कि व्यक्ति चाहकर भी अपने काम को मन लगाकर नहीं कर पाता है। इसलिए मकड़ी के जालों को अशुभ माना जाता है।

घर में कुबेर देव की फोटो कहां लगानी चाहिए?
जीवन में धन, सुख और समृद्धि बढ़ाने के लिए धर्म शास्त्रों में कई उपाय बताए गए हैं। जिन्हें अपनाने से निश्चित ही शुभ फलों की प्राप्ति होती हैं। इन्हीं उपायों में से एक उपाय यह है कि घर में कुबेर देव की मूर्ति या फोटो अवश्य रखना चाहिए। कुबेर देव को सुख-समृद्धि और धन देने वाले देवता हैं।

शास्त्रों के अनुसार धन प्राप्ति के लिए देवी महालक्ष्मी की आराधना करनी चाहिए लेकिन इसके साथ धन के देवता कुबेर को पूजन से भी पैसा से जुड़ी तमाम समस्याएं दूर रहती हैं। कुबेर देव को देवताओं का कोषाध्यक्ष माना गया है। इसी वजह से कुबेर देव की मूर्ति या फोटो घर में लगाने से इनकी कृपा सदैव परिवार के सदस्यों पर बनी रहती है और धन से जुड़े कार्यों में सफलता प्राप्त होती है।

कुबेर देव की बड़ी महिमा बताई गई है इसी वजह से इनकी फोटो या मूर्ति घर में कहां रखें? इस संबंध विशेष सावधानी रखने आवश्यकता है। कुबेर देव का निवास उत्तर दिशा की ओर माना गया है। अत: इनका फोटो घर में उत्तर दिशा की ओर ही लगाना श्रेष्ठ रहता है। साथ ही इस बात का ध्यान रखें कि जहां इनका चित्र लगाया जाए वह स्थान पवित्र हो। वहां किसी प्रकार का पुराना सामान या कबाड़ा न हो। उस जगह की साफ-सफाई का विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए।

क्या आप जानते हैं, क्यों दिखाई क्यों नहीं देते भूत-प्रेत?
भूत-प्रेत का नाम सुनते ही अचानक ही एक भयानक आकृति हमारे दिमाग में उभरने लगती है और मन में डर समाने लगता है। हमारे दैनिक जीवन में कहीं न कहीं हम भूत-प्रेत का नाम अवश्य सुनते हैं। कुछ लोग भूतों को देखने का दावा भी करते हैं जबकि कुछ इसे कोरी अफवाह मानते हैं।

विभिन्न धर्म ग्रंथों में भी भूत-प्रेतों के बारे में बताया गया है। सवाल यह उठता है कि अगर वाकई में भूत-प्रेत होते हैं तो दिखाई क्यों नहीं देते। धर्म ग्रंथों के अनुसार जीवित मनुष्य का शरीर पांच तत्वों से मिलकर बना होता है-पृथ्वी, जल, वायु, आकाश व अग्नि। मानव शरीर में सबसे अधिक मात्रा पृथ्वी तत्व की होती है और यह तत्व ठोस होता है इसलिए मानव शरीर आसानी से दिखाई देता है।

जबकि भूत-प्रेतों का शरीर में वायु तत्व की अधिकता होती है। वायु तत्व को देखना मनुष्य के लिए संभव नहीं है क्योंकि वह गैस रूप में होता है इसलिए इसे केवल आभास किया जा सकता है देखा नहीं जा सकता। यह तभी संभव है जब किसी व्यक्ति के राक्षण गण हो या फिर उसकी कुंडली में किसी प्रकार का दोष हो। मानसिक रूप से कमजोर लोगों को भी भूत-प्रेत दिखाई देते हैं जबकि अन्य लोग इन्हें नहीं देख पाते।

जानिए क्यों और कैसे मिलते हैं ये 7 सुख
हम जीवन में हमेशा सुख की तलाश में ही भटकते रहते हैं। सुख-दुख एक ही सिक्के के दो पहलु हैं, जिनसे हमारा जीवन चलता है। शास्त्रों के अनुसार सुख सात प्रकार के बताए गए हैं। जीवन के सात सुख इस प्रकार है, साथ ही इनकी प्राप्ति कैसे होगी यह भी जानिए...

पहला सुख है निरोगी काया- यदि आपके पास बहुत धन-संपदा है परंतु शरीर स्वस्थ नहीं है तो सब व्यर्थ है। आप इन सभी सुविधाओं को भोग ही नहीं सकते हैं। निरोगी काया प्राप्त करने के लिए प्रतिदिन श्री गणेश का पूजन करें। भगवान धनवंतरि का पूजन करें। प्रतिदिन शिवलिंग पर जल चढ़ाएं और पूजा करें।

दूसरा सुख धन प्राप्ति- आज के समय में अर्थ बिना सब व्यर्थ है। इस दुनिया में बिना धन के नहीं जिया जा सकता है। अत: निरंतर धन प्राप्ति के लिए महालक्ष्मी का पूजन करें। पूर्ण धार्मिक आचरण रखें। शिवजी की प्रतिदिन विधि-विधान से पूजा करें। गरीबों को दान करें।

तीसरा सुख सर्वगुण संपन्न जीवनसाथी- अच्छा जीवन साथी आपके घर को स्वर्ग जैसा बना सकता है। हर किसी की सोच होती है कि उसे सभी गुणों वाला अच्छा जीवन साथी मिले। इस सुख की प्राप्ति के लिए शिव-पार्वती या सीता-राम या राधा-कृष्ण या लक्ष्मी-विष्णु का प्रतिदिन विधि विधान पूजन करें। प्रतिदिन मां पार्वती की आराधना करें।

चौथा सुख मान-सम्मान, यश- व्यक्ति के हर सुख-सुविधा हो परंतु मान-सम्मान, समाज में इज्जत ना हो तो वह कभी सुखी नहीं रह सकता है। उसे हर जगह अपमान मिलेगा तो उसका जीवन व्यर्थ ही है। मान-सम्मान प्राप्ति के लिए प्रतिदिन सूर्य को जल चढ़ाएं। पीपल के वृक्ष की पूजा कर जल चढ़ाएं और सात परिक्रमा प्रतिदिन करें। श्री हनुमान चालिसा का पाठ प्रतिदिन करें।

पांचवा सुख आज्ञाकारी संतान- आपके पास स्वस्थ शरीर भी है और बहुत धन भी है परंतु यदि आपकी संतान दुगुर्ण वाली है तो सारे सुख, दुख में बदल जाएंगे। आज्ञाकारी और गुणवान संतान की प्राप्ति के लिए पारद शिवलिंग का पूजन करें। सोमवार का व्रत रखें। महामृत्युंजय मंत्र का जप करें। प्रतिदिन श्री गणेश को दूर्वा चढ़ाएं।

छठा सुख शत्रु पर विजय- समाज में हमारे कई मित्र और स्नेहीजन होते हैं जो हमेशा हमारा भला ही सोचते हैं। कई बार बढ़ती ख्याति और धन के जल कर हमारे कुछ लोग हमारे शत्रु भी हो जाते हैं। इन शत्रुओं पर विजय के लिए प्रतिदिन शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने वाले परम राम भक्त श्री हनुमान चालिसा का पाठ करें। श्रीराम या श्रीकृष्ण का पूजन करें।

सातवां सुख ईश्वर की भक्ति- सातवें सुख से जीवन के सभी सुखों की सहज ही प्राप्ति हो जाती है। ईश्वर की नि:स्वार्थ भक्ति करने वाले व्यक्ति भगवान हर सुख प्रदान करते हैं। परंतु भगवान के सच्चे भक्त को इन सभी सांसारिक सुख-सुविधाओं का मोह नहीं रह जाता, वह तो बस भगवान के ध्यान में ही मग्न रहता है।

भगवान को एक हाथ से न करें प्रणाम! जानिए पूजा से जुड़ी ऐसी ही जरूरी बातें
धर्म और अध्यात्म के रास्ते सुखी जीवन की चाहत पूरी करने के लिए हर रोज देव स्मरण भी सरल उपाय माना गया है। यह देव भक्ति से कामना व कार्यसिद्धि द्वारा शक्ति व सुख संपन्न बनने का जरिया मात्र नहीं है, बल्कि सुख-समृद्धि के साथ ही शांति की चाहत भी पूरी करने वाला होता है। 

वैसे भक्ति में भावना प्रधान होती है। भावों से भरी भक्ति देव दोष से मुक्त होती है। किंतु शास्त्रों में विधि-विधान से की जाने वाली पूजा में जाने-अनजाने देव दोष से बचने के लिए कुछ खास बातों का ख्याल रखना भी जरूरी बताया गया है।
जानिए, अलग-अलग देवी-देवताओं की पूजा के दौरान किन जरूरी बातों का ध्यान रखें?

- देवताओ को फूल जिस स्थिति में वह खिलते हैं, वैसे ही अर्पित करें।

- कुश के अगले हिस्से से देवताओं पर जल न छिड़कें।

- गणेश को तुलसी, दुर्गा को दूर्वा और सूर्य को बिल्वपत्र न चढ़ाएं।

- भगवान विष्णु को धतूरा, देवी को आंकड़ा या मदार, सूर्य को तगर और शंकर को केवड़े  का फूल न चढ़ाएं।

- तांबे के पात्र में रखा चंदन अपवित्र माना जाता है।

- धोती या शरीर पर पहने वस्त्रों में रखे फूल या जल में डुबोया फूल देवताओं को अर्पित करना वर्जित माना गया है।


- देवताओं के निमित्त जलाया दीपक बुझाना नहीं चाहिए।

- एक हाथ से प्रणाम करना पुण्य नाश करने वाला माना गया है।

- शंकर की पूजा में बिल्वपत्र अधोमुख यानी उल्टा कर चढ़ाएं।

हनुमान चालीसा इस एक लाइन के चमत्कार जानेंगे तो आप भी रटेंगे इसे

त्रेता युग हो या द्वापर युग हो या कलियुग हो, हर युग में हनुमानजी असंभव काम को भी संभव कर देते हैं। जो भी व्यक्ति इनकी पूजा करता है, ध्यान करता है उसके जीवन में सभी समस्याएं निश्चित ही समाप्त हो जाती हैं। हनुमानजी को प्रसन्न को करने का सर्वाधिक लोकप्रिय उपाय है हनुमान चालीसा का पाठ। यहां जानिए हनुमान चालीसा की एक पंक्ति या लाइन के चमत्कारी प्रभाव से जुड़ी खास बातें...


हनुमान चालीसा में चालीसा दोहे होते हैं और इन दोहों की हर एक पंक्ति का चमत्कारी असर होता है। इन चालीस पंक्तियों में सबसे अधिक लोकप्रिय पंक्ति है: भूतपिशाच निकट नहीं आवे। महाबीर जब नाम सुनावे। इस पंक्ति के जप से भक्त के सभी प्रकार के डर दूर हो जाते हैं और मन को शांति मिलती है। इसके साथ ही इस पंक्ति के जप से कई अन्य लाभ भी प्राप्त होते हैं।

भूतपिशाच निकट नहीं आवे। महाबीर जब नाम सुनावे। इस पंक्ति का अर्थ इस प्रकार है- जो व्यक्ति महावीर (हनुमान) का नाम जपता है तो उसके आसपास भूत-पिशाच नहीं भटकते। मुख्य रूप से यही माना जाता है कि इस पंक्ति से भूत बाधा और बुरी नजर के दोष दूर होते हैं।

यह हनुमान चालीसा की एक लोकप्रिय पंक्ति है। लोग वर्षों से लोग इसे मंत्र के रूप में जपते हैं। बच्चों को तो विशेषकर ये पंक्तियां सिखाई जाती हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी ने ये पंक्तियां इसलिए लिखी थीं कि मनुष्य निर्भय हो जाए। आज भी जब हम इस पंक्ति को जपते हैं तो हमारे सभी प्रकार के डर दूर हो जाते हैं।

इस पंक्ति में भूत और पिशाच का अर्थ है पाश्विक वृत्तियां। पाश्विक वृत्तियों का आशय है कि सभी प्रकार के गलत विचार, हमारी अनुचित धारणाएं। दुर्गुण, बुराइयां, भूत और पिशाच की तरह मनुष्य से चिपक जाते हैं। हनुमानजी का स्मरण करने पर मनुष्य दुर्गुणों से दूर रहता है।

हनुमानजी की भक्त करने वाले व्यक्ति को श्रीराम की भी विशेष कृपा प्राप्त हो जाती है। श्रीराम अपने अनन्य भक्त हनुमानजी के भक्तों के भी दुख दूर करते हैं। ज्योतिष के अनुसार शनि देव भी हनुमानजी के भक्तों पर दुष्प्रभाव नहीं डालते हैं। इसके साथ ही हनुमानजी को शिवजी का अवतार माना जाता है अत: जो भी व्यक्ति बजरंग बली की भक्ती करता है उसे शिवजी की कृपा भी प्राप्त हो जाती है।


जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है... मनीष