Tuesday, May 24, 2016

जीने की राह (Jeene Ki Rah 5)

योग करें और आहत होने से बचें
बच्चे स्कूल से आते हैं तो स्कूल की कुछ जानकारी देते हैं। कुछ शिकायतें होती हैं, कुछ बहाने। समझदार माता-पिता बहाने और शिकायतों में फर्क समझते हैं। इस वक्त बच्चों की शिकायतों पर लापरवाही नहीं दिखानी चाहिए। आमतौर पर एक शिकायत हल्के में ली जाती है और वह होती है बुलीके बारे में। बुली शब्द उन बच्चों के लिए उपयोग में लाया जाता है, जो स्कूल में सहपाठी के साथ मारपीट करते हैं। बुली बच्चे अपने आप में एक मानसिक समस्या है। इन्हें काबू न किया जाए तो उनकी यह हिंसा आगे जाकर विकृत रूप ले लेगी। यह मानसिकता हमें वयस्क लोगों में भी मिलेगी। अब वे सीधे शारीरिक आक्रमण न कर सकें तो मानसिक करेंगे।

ऐसी हरकत करेंगे, ऐसी बातें बोलेंगे जो हिंसा जैसी होगी और यदि आप जरा भी संवेदनशील हैं तो निश्चित ही आहत हो जाएंगे, लेकिन अब आप बड़े हो गए हैं तो किसी से शिकायत तो कर नहीं सकते। ऐसे लोग घर आकर अन्य सदस्यों पर खींझ निकालते हैं। घर वाले जानने का प्रयास करते हैं कि आप बाहर से आते हैं तो बड़े बेचैन, परेशान रहते हैं और कुछ बताते भी नहीं। इसका एक इलाज आप ही के पास है। जब हम बाहर की दुनिया में उतरते हैं तो कुछ लोग बुली बच्चे की तरह हमें परेशान करेंगे। ऐसे समय यदि उन्हें समझा सकें तो बहुत अच्छा, नहीं तो स्वयं को समझाएं। अपने आप में इतनी गहराई में उतर जाएं कि उनकी हिंसा हमें आहत न कर सके। अपने आपको शांत बना लें। योग इसके लिए कवच है, इसलिए चौबीस घंटे में कुछ समय योग जरूर कीजिए। घर से निकलते समय शांत रहें और आते वक्त बहुत प्रसन्न होकर घर लौटें। अपनी कोई परेशानी परिवार के सदस्यों पर न थोपें। योग इन सब बातों के लिए आपको तैयार करेगा।

हालात कैसे भी हों, शिष्टाचार न छोड़ें
समस्याओं को निपटाने के जितने भी तरीके हैं उनमें एक है शिष्टाचार। यह एक ऐसी जीवनशैली है जो कई बातों को मिलाकर बन जाती है। हमें लगता है कि शिष्टाचार उन्हीं से निभाया जाए, जो परिचित हों। थोड़ा उनसे भी निभाया जाए, जो अंजान हों, लेकिन उनसे भी निभाया जाए, जो प्रतिस्पर्द्धी हों। यहां तक कि शत्रुता होने पर भी निभाया जाए। व्यक्तित्व में शालीनता, सौम्यता, मधुरता, क्षमा मांगने की वृत्ति, मेहमाननवाजी का भाव, चेहरे पर मुस्कान, बात कहने का विनम्र सलीका ऐसी अनेक बातें मिलकर शिष्टाचार बनती हैं। शिष्टाचार से समस्या कैसे निपटती है? किष्किंधा कांड के उदाहरण से समझते हैं। लक्ष्मणजी आवेश में थे तो लगा कि युद्ध होकर रहेगा। हनुमानजी ने उन्हें शांत किया और कहा कि सीताजी की खोज में वानर भेजे गए हैं।

पवन तनय सब कथा सुनाई। जेहि बिधि गए दूत समुदाई।।तब पवनसुत हनुमान ने सब दिशाओं में दूत भेजने का हाल सुनाया। लक्ष्मणजी को तो लगा कि मैं व्यर्थ ही क्रोध कर रहा था। यह तो पहले ही सब काम कर चुके हैं। तब हनुमानजी शिष्टाचार की प्रस्तुति करते हैं। अपने राजा को लेकर लक्ष्मणजी के साथ श्रीराम के पास आते हैं तो तुलसीदासजी ने लिखा, ‘हरषि चले सुग्रीव तब अंगदादि कपि साथ। रामानुज आगे करि आए जहं रघुनाथ।।तब अंगद आदि वानरों को साथ लेकर और लक्ष्मणजी को आगे करके (अर्थात उनके पीछे-पीछे) सुग्रीव हर्षित होकर चले और रघुनाथजी के पास आए। श्रीराम ने दूर से ही देखा कि लक्ष्मणजी अागे-आगे और बाकी सब पीछे हैं तो समझ गए कि काम हो गया। इस पूरे प्रकरण में हनुमानजी की जो भूमिका थी वह हमारे लिए बहुत बड़ी शिक्षा है कि शिष्टाचार मत छोड़िए। हालात कैसे भी हों शिष्टाचार की शैली आपकी मदद करेगी।

नदियों को बचाइए, जीवन बचेगा
नदी में स्नान करना केवल जलक्रीड़ा ही नहीं है। भारत में तो नदी के साथ धर्म जुड़ा है। यहां नदियों में डुबकी लगाना केवल जलक्रीड़ा नहीं है। इससे पुण्य का बड़ा मामला जुड़ जाता है। उज्जैन में सिंहस्थ के दौरान करोड़ों लोग शिप्रा में डुबकी लगाने को आतुर हैं। एक माह तक यह जल-पूजा चलेगी। इस दौरान सब मिलकर छोटी-छोटी आहूति दें। वह ऐसे कि शिप्रा में इस संकल्प के साथ डुबकी लगाएंं कि देश की प्रत्येक नदी को प्रदूषण मुक्त रखेंगे। यह किसी एक सरकार या व्यवस्था का काम नहीं होगा। केवल गंगाजी का ही उदाहरण लें। गंगा भारत के लिए मां के समान है। यह देश के आधे अरब लोगों को रोजी-रोटी देती है। आस्था का केंद्र तो है ही, लेकिन इतना बड़ा रोजगार इससे जुड़ा है तो छोटा-मोटा हर नदी से जुड़ेगा।

अध्यात्म की दृष्टि से देखें तो जल की डुबकी वह भी किसी तीर्थ में, किसी पावन अवसर पर जीवन प्रदान करेगी। इसलिए जब सिंहस्थ के अवसर पर शिप्रा स्नान की तैयारी की जाए तो मन ही मन यह संकल्प भी लें कि हम नदी को गंदा नहीं करेंगे। सामान्य रूप से श्रद्धालु संकल्प लेते हैं कि हम नदियों को गंदा नहीं करेंगे, बल्कि साफ करेंगे। यदि इनमें से एक संकल्प पूरा कर लें कि हम नदियों को गंदा नहीं करेंगे तो साफ करने का काम तो नदी खुद ही कर लेगी। जिस शिप्रा में करोड़ों लोग डुबकी लगाएंगे उस शिप्रा के अस्तित्व और अस्थायी अस्तित्व की कहानी किसी से नहीं छुपी है। धर्म के इस मेले में विचार किया जाए कि यदि आप सचमुच धार्मिक हैं, श्रद्धालु हैं और मनुष्य हैं तो जल की प्रत्येक बूंद जहां से भी आ रही हो चाहे वह नदी हो, तालाब हो, बरसता पानी हो या धरती में समाई धाराएं हों, उसका मान करें। आपका सच्चा धार्मिक होना यहीं साबित होगा। नदियों को बचाइए, जीवन बचेगा।

गलती हो तो सुग्रीव जैसी क्षमा मांगें
गलती करने वाले भक्त कभी-कभी प्रयास करते हैं कि भगवान को याद दिला दें कि आपको लग रहा है कि हम सब ठीक-ठाक ही करते रहेंगे, पर ऐसा होता नहीं है। जब गलती कर जाते हैं तो गलती के तर्क भी भगवान के सामने देते हैं। हम अपनी गलती दूसरे के सिर पर थोपने में बहुत दक्ष है। किष्किंधा कांड के प्रसंग में सब लौटकर रामजी के पास आते हैं। जैसे ही रामजी से सामना होता है, सुग्रीव को लगता है मैं इनका काम भूलने की गलती कर चुका हूं, अब स्पष्टीकरण कैसे दिया जाए। देखिए, किस ढंग से सुग्रीव स्पष्टीकरण दे रहे हैं।

सुग्रीव के इस स्पष्टीकरण को तुलसीदासजी ने सुंदरता से व्यक्त किया है, ‘नाई चरन सिरु कह कर जोरी। नाथ मोहि कछु नाहिन खोरी।। अतिसय प्रबल देव तव माया। छूटई राम करहु जौं दाया।।

श्री रघुनाथजी के चरणों में सिर नवाकर हाथ जोड़कर सुग्रीव ने कहा- हे नाथ, मुझे कुछ भी दोष नहीं है। हे देव, आपकी माया अत्यंत ही प्रबल है। आप जब दया करते हैं, तभी यह छूटती है। इस तरह सुग्रीव ने दो बातें कही- एक तो मैंने जो गलती की उसका कारण माया है। दूसरी बात यह है कि यह माया आपकी है। भूल जरूर आपके प्रति की पर कहीं न कहीं इसमें आपकी भी भूमिका है। माया का सीधा-सा अर्थ है जादू। सुग्रीव कह रहे हैं यह सब आपकी जादूगरी है। आप जादू कर रहे हैं, हमको लगता है यह संसार हमारा है। आप जादू करते हैं, हमको लगता है यह मकान हमारा है। थोड़ी देर बाद आप जादू से वह मकान हटा देते हैं। धन, पद के साथ भी आपका ही जादू चलता है। अब भगवान इस पूरे वार्तालाप को किस ढंग से सुग्रीव के साथ करेंगे यह हमारे लिए भी बड़ा सबक है। हम लोग संसार में रहकर भगवान के प्रति कोई न कोई गलती जरूर करेंगे। जब यह गलती करेंगे तब उसका उत्तर कैसे दिया जाए यह हमें आज सुग्रीव से सीखना है।

तन-मन की शुद्धि का महापर्व
सफाई रखना मनुष्य का स्वभाव है और होना भी चाहिए। कहते हैं, जो लोग गंदगी में रहते हैं वे दुर्भाग्य को आमंत्रित करते हैं। शुद्धता में सौभाग्य है। हमारे देश में सफाई का जो राष्ट्रीय अभियान लिया गया है उसे केवल स्थान की, शरीर की सफाई से न जोड़ा जाए। उज्जैन में कुंभ मेले के मौके पर आयोजित शुद्धता के कुछ नए अर्थ समझे जा सकते हैं। वैसे तो जब मेला लगता है तो गंदगी की संभावना बढ़ जाती है, लेकिन इस मेले में जो लोग आ रहे हैं उनकी दो श्रेणियां की जा सकती है- एक साधु-संत और दूसरे श्रद्धालु। क्यों लोग साधु-संतों के दर्शन करना चाहते हैं, उनका सत्संग करना चाहते हैं, उनकी कृपा प्राप्त करना चाहते हैं? इसके पीछे जितने भी कारण हैं उसमें से एक बड़ा है तन और मन की शुद्धि।

यहां आने पर शोर भी मिलेगा, लेकिन ये साधु लोग दिल का इक तारा इस तरह से बजा रहे हैं कि यदि इसकी आवाज कोई ठीक से सुन ले तो उसके तन-मन के तार कुछ झंकृत हो जाएंगे। शुद्धता की जो मांग है, सफाई की आकांक्षा है उसे और गति मिल जाएगी। उजले तन वाले लोग भी यहां मन का मैल धो सकते हैं। दस पर्व स्नान होने जा रहे हैं। पर्व स्नान की और कुंभ के अवसर पर लगाई गई डुबकी केवल जल में कूदना नहीं है। इस समय जल की पवित्र तरंगें आपके मन को धोएंगी, अंतरतम तक की गहराइयों तक पहुंचेंगी। यहीं आपको महसूस होगा कि जिस शुद्धता के लिए आप जीवन में कई प्रयास कर चुके हैं वो प्रयास यहां सरलता से पूरा होगा। इसलिए जब कुंभ के मेले में आएं तो इस प्रयास को इसी रूप में लें। जो लोग चूक जाएंगे वे अपने जीवन में शुद्धता का अवसर चूक जाएंगे। समय निकालकर कुंभ में जाएं और वहां तन-मन दोनों को शुद्ध करने के अभियान में जुट जाएं। लौटने के बाद यही आपके काम आएगा।

वैभव के बीच विराग है कुंभ मेला
पुराने लोग कहा करते थे कि जो लोग बाहर की दुनिया की मिट्‌टी फांकते हैं वो मन में फिर नहीं झांकते। इसका यह मतलब नहीं कि कंकर, पत्थर, मिट्‌टी खाई जाए। इसका सीधा-सा मतलब है जीवन केवल बाहर पर टिक जाए। हमारा जन्म संसार में हुआ है। हम घर-परिवार बसाते हैं, लेकिन उसमें इतना डूब जाते हैं कि जीवन का दूसरा पक्ष देख ही नहीं पाते। फिर हम भूल ही जाते हैं कि एक दुनिया ऐसी भी है, जिसमें मनुष्य अपने भीतर झांक सकता है। जीवन की यात्रा में कदम-कदम पर होनी और अनहोनी बिछी रहती है। आतंकी जमीनी सुरंग में बारूद बिछाकर हत्याएं करते हैं। जीवनपथ पर ऐेसे कितने ही विस्फोटक बिछे हैं और अमृत के झरने भी हैं। विस्फोट जीवन को हिला देता है।

अमृत का झरना फूट जाए तो जीवन को सजा देता है। केवल बाहर की दुनिया में जिएंगे तो यह होनी-अनहोनी परेशान कर देगी, लेकिन थोड़ा भीतर उतरेंगे तो बाहर की अनहोनी का सामना करने के लिए हमारे पास ताकत, हिम्मत होगी। भीतर उतरते ही महसूस हो जाता है कि एक दिन इस दुनिया को छोड़कर जाना है। कहने का मतलब यह नहीं है कि दुनिया में कुछ बसाया न जाए, जो बसाया उसका भोग न किया जाए। किंतु हमेशा ध्यान रखें कि यह सब बहुत समय नहीं रहेगा। साथ में जो जाएगा उसे यदि महसूस करना है तो किसी धार्मिक मेले में जाकर साधु-संतों की जीवनशैली देखनी चाहिए। वैभव है, पर विराग भी है। विलास है फिर भी तपस्या है। ऐसा अद्‌भुत योग इस समय उज्जैन के कुंभ मेले में प्राप्त है। इसको समझने के लिए योग-ध्यान से गुजरना पड़ेगा। अनेक कैम्पों में योग-ध्यान की व्यवस्था की गई है। मौका न चूकें। पहुंच जाएं उज्जैन और अपने मानसिक चिंतन को अपने कृत्य में उतारने के लिए इस कुंभ मेले में हो रही गतिविधियों से जीवन को जोड़ें।

मन की धूल साफ करता है कुंभ
ये प्रकृति पंच तत्वों से बनी है- पृथ्वी, अग्नि, वायु, जल और आकाश। इनका संतुलन बिगड़ा कि हम अस्वस्थ और अशांत हो जाते हैं। इसी पंच तत्व का एक रूप है धूल। धूल कपड़े से साफ की जा सकती है, उसका भीतर आना रोका जा सकता है, लेकिन दुर्गुणों की धूल सबसे ज्यादा जमती है मन पर। इसीलिए शास्त्रों ने मन को दर्पण कहा है। इस दर्पण पर दुर्गुणों की धूल जमती है, तो वह किसी और साधन से साफ नहीं होती। कोई कहता है गुरु कृपा से साफ होती है। कोई कहता है मेडिटेशन से साफ होती है। इसका एक अवसर कुुंभ में आया है। इसमें मन पर जमी धूल साफ करने के अनेक मौके नज़र आते हैं। यह बात अलग है कि यहां ऐसे भी कई दृश्य हैं, जहां धूल वापस व अधिक जम सकती है।

मनुष्य का मन उससे दो काम कराता है- एक तो संसार में इधर-उधर भगाता है। दूसरा वर्ग ऐसा भी है जो जगत से भाग रहा है। दोनों का मन यहां ठहर सकता है। यहां अनेक मौके हैं जो आपको यह चिंतन दे जाएंगे कि जिंदगी की दौड़ में भीतर रुका कैसे जाता है। भरी धूप में खुले बदन एक साधु आंख बंद करके बैठा है। कब तक आप इसे पाखंड समझेंगे? सिंहस्थ यानी धर्म का तटबंध। यहां बहुत कुछ ऐसा लाकर रोका गया है, जो बिखरे-बिखरे रूप में और कहीं मिलने पर आप उसे प्राप्त नहीं कर सकते। यहां सब इकट्‌ठा है तो श्रेष्ठ चुनना आसान है। एक आर्थिक शूचिता आप चाहें तो देख सकते हैं। मेरा यह शब्द प्रयोग इसलिए कि मेला घूमने वालों के मन में सबसे ज्यादा प्रश्न यही उठ रहा है कि साधुओं के पास यदि इतना धन है तो फिर हमसे तप-त्याग की बात क्यों की जाती है? लेकिन संतों की आर्थिक शूचिता समझने के लिए इस मेले में आइए, समझिए और अगर समझ जाएं तो वापस लौटकर अपना सांसारिक जीवन इसी संकेत से चलाइए।

हमारे प्रयास और उसकी कृपा हो
दुर्गुणों से नादान या विद्वान कोई नहीं बच पाया। श्रीराम के सामने सुग्रीव जब उनका दिया काम भूलने का स्पष्टीकरण दे रहे थे कि तो उन्होंने काम, क्रोध और लोभ तीनों से बचने का सरल-सा उपाय प्रस्तुत किया। गोस्वामी तुलसीदासजी ने लिखा है,‘बिषय बस्य सुर नर मुनि स्वामी। मैं पावंर पसु कपि अति कामी।। नारि नयन सर जाहि न लागा। घोर क्रोध तम निसि जो जागा।।हे स्वामी! देवता, मनुष्य और मुनि सभी विषयों के वश में हैं। फिर मैं तो पामर पशु और उसमें भी अत्यंत कामी बंदर हूं। स्त्री का नयन-बाण जिसे नहीं लगा, जो भयंकर क्रोधरूपी अंधेरी रात में भी जागता रहता है (क्रोधांध नहीं होता)। लोभ पांस जेहिं गर न बंधाया। सो नर तुम्ह समान रघुराया।। यह गुन साधन तें नहिं होई। तुम्हरी कृपां पाव कोइ कोई।।

और लोभ की फांसी से जिसने अपना गला नहीं बंधाया, हे रघुनाथजी! वह मनुष्य आप ही के समान है। ये गुण साधन से नहीं, आपकी कृपा से ही कोई-कोई इन्हें पाते हैं। तब श्रीराम ने कहा, ‘अगर ऐसा है तो कोई साधन करो, तप-तपस्या करो, अनुशासन बांध लो। सुग्रीव कहते हैं, ‘केवल तप, अनुशासन से इन दुर्गुणों से दूर रहा जाए ऐसा संभव नहीं हो पाता।अब श्रीराम चौंक गए और कहा, ‘करना तो आपको ही पड़ेगा।सुग्रीव कहते हैं, ‘इनसे कोई बच सकेगा ऐसा तो कोई आपके ही जैसा होगा।सुग्रीव बहुत अच्छी बात कहते हैं कि साधनों के कारण दुर्गुणों से नहीं बच सकते। इतनी क्षमता हममें नहीं है। वही दुर्गुणों से बच सकता है, जिस पर आपकी कृपा हो जाए। कृपा शब्द से सुग्रीव ने हमें संकेत दिया है कि प्रयास करिए, अनुशासित जीवन जियें, लेकिन परमात्मा की कृपा बनी रहे ऐसा भाव सदैव रखें। हमारे प्रयासों में उसकी कृपा मिल जाए तो फिर हम जो चाहते हैं वह हो सकता है।

सिंहस्थ में भीड़ का आत्मानुशासन
भीड़ अगर कुटिल आदमी के साथ आ जाए तो हिंसा कर सकती है, अपराध कर सकती है। किसी समझदार के नेतृत्व में आ जाए तो सृजन और सेवा का बहुत बड़ा काम कर सकती है। इन दिनों सिंहस्थ मेले में जहां देखो वहां भीड़ नजर आती है, लेकिन स्वअनुशासित, एक अज्ञात लक्ष्य की ओर चलती हुई। आश्चर्य होता है इतने नरमुंड हैं, लेकिन फिर भी शांत! इसके पीछे है धर्म, अध्यात्म। कहीं न कहीं गुरुकृपा भी काम कर रही है। संतों का अपना प्रभामंडल इस भीड़ को नियंत्रित किए हुए है। अजीब-अजीब से दृश्य सामने आते हैं। मैं कहीं पढ़ रहा था और उस पढ़े हुए पर एक संन्यासी की टिप्पणी याद आ रही थी। अपने नए ब्रह्मचारियों को लेकर साधु-संत भी चिंतित हैं। वक्त बदला, नई पीढ़ी का आचरण नए ढंग का हुआ और धर्म के क्षेत्र में साधु-संत और उनके अखाड़े भी इससे प्रभावित हुए।

पुराने संन्यासी नए ब्रह्मचारियों पर टिप्पणी करते हुए कहते हैं यदि एक लड़का हो तो समझिए वह एक है। दो हो जाएं तो समझ लीजिए वे आधे हैं। तीन हो जाएं तो समझिए उससे भी कम हैं, लेकिन चार अगर कहीं हो जाएं तो फिर समझ लो एक भी नहीं है। उनका कहना है कि आजकल जब ब्रह्मचारियों की संख्या बढ़ रही है तो संन्यास का लक्ष्य थोड़ा दाएं-बाएं हो रहा है। साधु समाज के वरिष्ठ संन्यासी, अखाड़ा परिषद के वरिष्ठ अधिकारी नई पीढ़ी के साधु-संतों को देखकर चिंतित होते हैं। कुछ लोग तो मानकर चलते हैं कि यह एक ऐसा आवरण है कि यदि इसमें घुस जाओ तो इसके बाद हर वह काम किया जा सकता है, जिससे सम्मान भी मिल जाए और गलत हो तो पहचान भी न हो। किंतु इस चिंता के निदान भी मिल जाते हैं। यही तो अजीबोगरीब दृश्य सिंहस्थ को और आकर्षक बना देता है।

दूसरे को सुखी करना सबसे बड़ा दान
एक-दूसरे को सताना इनसान की फितरत है। वैसे तो किसी को भी दुख पहुंचाना धर्म और अध्यात्म की दृष्टि से पाप ही है। किसी को सुख पहुंचाना सबसे बड़ा दान है, लेकिन मनुष्य की प्रवृत्ति ऐसी हो जाती है कि मुझे सुख मिले और दूसरे को दुख मिल जाए। कई बार तो दूसरों को दुख देने में ही हमें सुख मिलने लगता है। फिर हम अपने आसपास तनावपूर्ण वातावरण बना लेते हैं। यह तो तय है कि दूसरों को दुख पहुंचाकर आप क्षणिक सुख उठा लें, लेकिन लंबे समय में यह हमारे लिए दुख का कारण बन सकता है। चलिए, आज उन तीन स्तरों को देखें जहां एक-दूसरे से आदमी पीड़ित होता है। पहला स्तर है शरीर का। कई लोगों को शारीरिक रूप से दूसरों को परेशान करने में ही रुचि होती है।

इसकी शुरुआत किसी को धक्का देने से लेकर किसी को कुटिल दृष्टि से देखने से भी हो सकती है। कुछ लोग जो और अधिक कुटिल या समर्थ होते हैं वे शरीर से आगे मन तक पहुंच जाते हैं। शरीर में प्रभाव काम करता है तो मन तक भावनाएं काम करती हैं। भावनाओं के माध्यम से आप किसी के मन को आहत कर सकते हैं। तीसरा स्तर है हृदय तक जाना। जब हम किसी के हृदय तक पहुंच जाएं और वहां जाकर आहत करें तो समझ लीजिए आप ऐसा गुनाह कर रहे हैं, जिसकी एक दिन आप भारी कीमत चुकाएंगे। हृदय वह स्थान है जहां सबके लिए प्रेमपूर्ण आमंत्रण है। इसलिए यदि सताने की थोड़ी-सी भी वृत्ति आपके भीतर हो तो ध्यान रखिए इसे शरीर पर ही समाप्त कर दें, मन और हृदय तक न ले जाएं। यदि आपको कोई सता रहा हो तो आप अपनी ऊर्जा उसे सताने में न लगाकर नज़रअंदाज करें। इसका सबसे अच्छा तरीका है यह मान लेना कि इसके गलत का हिसाब करने वाला कोई है और उसको उसकी कीमत चुकानी पड़ेगी।

अव्यवस्था है मूल स्वभाव की परीक्षा
बात-बात पर क्रोध करने वालों की बात छोड़ दें, क्योंकि ये लोग इसे जीवनशैली मानते हैं। वे जिंदगी में क्रोधित बने रहते हैं, बल्कि जब शांत रहते हैं तो परेशान होने लगते हैं। किंतु जब शांत-संयमी लोग क्रोधित होते हैं तब उन्हें और हमें भी कारण ढूंढ़ने चाहिए। एक बड़ा कारण है अव्यवस्था। अच्छे-अच्छे शांत-संयमित लोग भी अव्यवस्थाओं के कारण धैर्य खो बैठते हैं। मैं उज्जैन सिंहस्थ क्षेत्र में कल्पवास कर रहा हूं। चूंकि हनुमतधाम से जुड़ा हुआ हूं इसलिए व्यावहारिक व्यवस्थाओं से मेरा सामना हो रहा है। सिंहस्थ मेले में शासन, प्रशासन, साधु और समाज चारों अपने-अपने ढंग से जुड़े हैं। चारों जब एक धरातल पर आ जाएं तो एक-दूसरे से सहयोग भी करते हैं और असहयोग भी शुरू हो जाता है। खासतौर पर जब अव्यवस्था होती हैं । जब क्रोध माथे नाचता है तो पता ही नहीं लगता कि यह व्यक्ति साधु है या राजनेता है, सामान्य व्यक्ति है या असामान्य।

अव्यवस्थाओं में कुछ लोग खुद को समझा लेते हैं कि सिंहस्थ में धर्म के स्वरूप का दर्शन करने आए हैं तो अभाव का भी आनंद लें। किंतु कुछ लोग अव्यवस्था पर टिक जाते हैं। फिर शुरू होता है चिड़चिड़ापन। मैं कई ऐसे लोगों से मिल रहा हूं जो अव्यवस्थाओं से विचलित हैं। मैं उनसे और स्वयं से भी आग्रह कर रहा हूं कि कुछ समय की अव्यवस्था से अपने मूल स्वभाव में क्रोध न उतारें। अपने सांसारिक संबंधों को खंडित न करें। भगवान जब अपने भक्त की परीक्षा लेता है तो उसके जीवन में विपरीत लाने के लिए कुछ लोग भेजता है जो आपको उकसाते हैं। आप चूक गए तो नुकसान आपका है, इसलिए सिंहस्थ में से यह आनंद भी उठाएं कि जब भी शिप्रा में डुबकी लगाएं, अपना क्रोध बहा दें, क्योंकि व्यवस्था होकर अव्यवस्था स्थायी नहीं रहती। स्थायी रहेगा हमारा स्वभाव। उसे बचाना चाहिए।

मन नियंत्रण में हो तब काम करें
प्रसन्न रहना मनुष्य का मूल स्वभाव होना चाहिए, लेकिन हम देखते हैं कि लोग अकारण उदासी ओढ़ लेते हैं। जब हमारी पसंद का काम न हो या मनमर्जी का परिणाम न मिले, तब भी हम अपनी प्रसन्नता न खोएं। श्रीराम विपरीत परिस्थितियों में भी आंतरिक प्रसन्नता खोते नहीं थे। भीतर की खुशी बचाए रखने के लिए हमें दूसरों के प्रति उदार होना पड़ेगा, क्योंकि हमारे जीवन में अनेक लोग आते हैं; जोे हमारे अनुकूल व्यवहार न करें तब हमें पीड़ा होती है। सुग्रीव भगवान का काम भूलने के बाद हनुमानजी के समझाने पर वानरों को सीताजी की खोज में भेजते हैं और जब आकर श्रीराम से अपनी गलती स्वीकार करते हैं तो श्रीराम तुरंत हंसते हुए कहते हैं, ‘चलो, जो हो गया सो हो गया, अब आगे बढ़ो।

तुलसीदासजी ने पंक्तियां लिखी हैं, ‘तब रघुपति बोले मुसुकाई। तुम्ह प्रिय मोहि भरत जिमि भाई।। अब सोइ जतनु करहु मन लाई। जेहि बिधि सीता कै सुधि पाई।।तब श्रीरघुपतिजी मुस्कराकर बोले, ‘हे भाई, तुम मुझे भरत के समान प्यारे हो। अब मन लगाकर वही उपाय करो, जिस उपाय से सीता की खबर मिले।पूरे घटनाक्रम पर श्रीराम को रोष भी आया था पर अब हंसकर वे ये बता रहे हैं कि मेरा गुस्सा भी तुम्हारे भले के लिए था। ध्यान रखें क्रोध करने में कोई दिक्कत नहीं है पर भीतर नियंत्रण नहीं खोना चाहिए। वे मन लगाने का कहकर सुग्रीव से कह रहे हैं कि यह मन ही है जो मनुष्य को भटका देता है। ऐसी जगह ले जाकर पटकता है, जहां सही रास्ता ढूंढ़ना मुश्किल हो जाता है। इससे संदेश मिलता है कि कोई भी काम करें तन्मय होकर, ईमानदारी से करें। मन लगाकर कहने का एक और अर्थ है कि मन आपके नियंत्रण में हो तब काम करें। अगर मन के नियंत्रण में आप हैं तो मानकर चलिए आप गलत रास्ता पकड़ लेंगे जो सुग्रीव ने पकड़ा था।

सिंहस्थ में जो सही है, वह लेकर जाएं
भगवान की लीलाओं में से एक है सिंहस्थ मेला। इस मेले में सबसे ज्यादा चौंकाने वाली बात यह होती है कि जिससे मिलो वह एक सवाल छोड़ जाता है। श्रद्धालुओं को देखो तो लगता है यह बावरापन है या आस्था। संदेह शुरू हो गया। व्यवस्थापकों से मिलो तो लगता है अधिकारियों ने ईमानदारी से काम किया या बेईमानी से। सबसे ज्यादा माया तो साधु-संतों के दर्शन में दिखती है। बैरागियों को देखो तो लगता है सारा मोह तो आसपास है। निर्मोहियों को देखें तो उनके विवाद देखकर आश्चर्य होता है। फिर गहराई में जाओ तो लगता है कि इन्होंने एकांत में मुक्ति के लिए तपस्या की होगी। समूह में आने पर इनका संकल्प होगा कि हमारी मुक्ति के भाव से सबको आनंद मिले।

यहीं से साधु अच्छे लगने लगते हैं, क्योंकि साधुता का मतलब ही है परहित का चिंतन, परहित का जीवन। इसीलिए हम मेले में आएं तो खोजबीन से ज्यादा जो मिल रहा है उसे सहजता से लें, क्योंकि यह मेला नहीं महादेह है। ऐसा लगता है कि बहुत बड़ी देह है, जिसमें कई इंसान समा गए। गीता में जो विराट रूप श्रीकृष्ण ने दिखाया वही यहां दिखता है। इसीलिए जब इस मेले में आएं तो सबसे पहले जीवन ढूंढ़ें, क्योंकि यहां से जाने के बाद जीवन ही आपके काम आएगा। अगर बहुत अधिक संदेह करेंगे, साधु-संतों की खिल्ली उड़ाएंगे, अधिकारियों की आलोचना करेंगे और अपनी सुविधाएं देखेंगे तो मेले से वह ले जाना चूक जाएंगे, जिसके लिए मेला लगा है। आपकी आस्था और यहां की व्यवस्था, आपकी श्रद्धा और यहां की सुविधाएं, आपकी दृष्टि और बाबा का सच इनके सबके अंतर का नाम ही मेला है। इसलिए जो सही है वो यहां से लेकर जाइए। बहुत खोजबीन न करें, क्योंकि जीवन अभी बहुत कुछ ढूंढ़ रहा है और वह इस मेले में मिल सकता है।

सिंहस्थ के कोलाहल में शांति
शांति की तलाश में सभी लोग रहते हैं। उन्हें लगता है कि शांति वहां मिलेगी जब आप थोड़े अकेले हो जाएंगे या जब सफल हो जाएंगे, लेकिन ऐसा होता नहीं है। एक प्रयोग और करिएगा। शोर में भी शांति तलाशी जा सकती है। उज्जैन के सिंहस्थ मेले में आप ऐसा कर सकते हैं। खूब शोर-शराबा है, लेकिन एक जगह आप शांति प्राप्त कर सकते हैं। यह अवसर चूक न जाएं। सिंहस्थ में आने वाला शिप्रा-स्नान अवश्य करता है। डुबकी लगाकर तुरंत चल न दें। मौका मिले तो घाट की किसी सीढ़ी पर बैठ जाएं और नदी की जलधारा को देखें और अंतरमन से उस बहाव को जोड़ें। आपको लगेगा जैसे आपका मन बह रहा है और आप देख रहे हैं। योगियों ने कहा है कि दूर हटकर मन को देखने से उसे काबू किया जा सकता है।

विचारों का प्रवाह लेकर मन दौड़ रहा है। आप दूर खड़े उसे देख रहे हैं। आप शांत होने लगेंगे। ऐसा अवसर आने पर तुरंत मन से दूर खड़े होने का आपको अभ्यास हो जाएगा। अन्यथा मन आपको घसीटकर अशांति में ले जाता है। मेले में खूब घूमें, लेकिन साधु-संतों के पंडालों में जितना जाएंगे कहीं न कहीं आप उनके वैभव में उलझ जाएंगे। यहां कई निगाहें ऐसी भी हैं जो आपको देख रही होंगी और आपको दिखा भी देंगी, जो आपने जीवनभर नहीं देखा होगा। यही मेले का संतत्व है। इसलिए एक भाग हुआ कि आप साधुओं से मिल लें और दूसरा भाग हुआ स्नान। साधुओं से जीवनशैली का परिचय होता है, लेकिन स्नान करने से आपका परिचय स्वयं से हो सकता है और आप अपने मन को नियंत्रित करने की कला सीख सकते हैं, क्योंकि मन को जान-पहचान से लेना-देना नहीं है। वह अनजानी राह और चाह पर तुरंत निकल पड़ता है। उसे जाता हुआ देखना ही शांति प्राप्त करना है।

विचार शब्दों का खेल न बन जाएं
सिंहस्थ का पूरा मेला लेन-देन का मामला बन गया है। लोग श्रद्धा देकर आशीर्वाद ले रहे हैं और कहीं आशीर्वाद देकर श्रद्धा खरीदी जा रही है। श्रद्धा के नीचे जब हर बात का सौदा हो रहा हो तो विचार भी सौदे की वस्तु बन जाते हैं। किसी भी बात के आगे महा लगा दो तो वह बड़ी प्रदर्शित होने लगती है, लेकिन जो पहले से ही महान हो उसके आगे महा लगाओ तो फिर जिम्मेदारी बढ़ जाती है। कुंभ को महाकुंभ कहेंगे तो कहने वालों की जिम्मेदारी बढ़ जाती है। फिर जब इसके साथ विचार जुड़ा हो तो ये आयोजन मात्र नहीं होना चाहिए। इसमें सचमुच एक भविष्य छुपा होना चाहिए, लेकिन हमारे यहां विद्वान जब शब्दों का खेल खेलने लग जाते हैं तब फिर विचार हथियार बन जाते हैं।

जिन्होंने राजनीति का खेल खेला हो वे कोई भी खेल आसानी से खेल सकते हैं। विचार खेल की नहीं, जीवन की बात है। इस कुंभ में वह देखने को मिला, जो पिछले कुंभ में नहीं था। भगवा वस्त्र संत के लिए और संत नेता के लिए कवच बन गए। इसलिए अच्छी नीयत से किए जा रहे काम भी संदेह की भेंट चढ़ गए। धार्मिक दृश्य यह है कि विचारों का कुंभ इसलिए आयोजित हो कि इसमें भारत का वास्तविक भविष्य छुपा हुआ है, लेकिन आध्यात्मिक अर्थ यह है कि विचारों का सैलाब अशांति लाता है। इसलिए एक कुंभ ऐसा भी हो, जो विचार-शून्य हो। योग कहता है विचार-शून्य स्थिति ही परमात्मा तक पहुंचाती है और विचारों की अधिकता परमात्मा को शोध और संदेह का विषय बना देती है। विचार करने वाले लोग भूल जाते हैं कि परमात्मा जिज्ञासा का विषय हो सकता है, संदेह और चर्चा का कम। जिन्हें शांति की खोज करनी हो वो इस महाकुंभ में विचार-शून्य होने का प्रयास करें। विचारों का स्वागत हो, लेकिन इस खतरे से सावधान रहें कि विचार शब्दों का खेल न बन जाएं। लोगों का शोषण करने से नहीं चूकते। इसे आध्यात्मिक दृष्टि से देखें तो परमात्मा का विधान यह है कि आप जितना दूसरों को देंगे भगवान उससे अधिक आपको लौटाएगा।
  
नेतृत्व करें तो भेदभाव मिटाना होगा
नेतृत्व करने का मतलब समझा जाता है कि अच्छा पद, अधिक अधिकार, धन और प्रतिष्ठा मिलेगी। किंतु नेतृत्व करने वालों को अधीनस्थों को आश्वासन देना पड़ता है कि वे उनके नेतृत्व में सुरक्षित हैं और जरूरत के वक्त उचित मार्गदर्शन भी देंगे। केवल निर्देश देने वाला व्यक्ति ही नेतृत्व नहीं कर रहा है। किष्किंधा कांड में वानर सीताजी की खोज में जाने को तैयार थे। यही से श्रीराम के नेतृत्व की शुरुआत हो रही थी। वे जानते थे कि जिस दिन यह खबर मिलेगी कि सीता कहां है, उस दिन आक्रमण करना ही पड़ेगा। श्रीराम ने प्रत्येक वानर का आत्मविश्वास जगाया। यह उनकी अनूठी कला थी।

तुलसीदासजी ने लिखा,
अस कपि एक न सेना माहीं। राम कुसल जेहि पूछी नाहीं।।
 यह कछु नहिं प्रभु कइ अधिकाई। बिस्वरूप ब्यापक रघुराई।।

सेना में एक भी वानर ऐसा नहीं था, जिससे श्रीरामजी ने कुशल न पूछी हो। प्रभु के लिए यह कोई बड़ी बात नहीं है, क्योंकि श्रीरघुनाथजी विश्वरूप तथा सर्वव्यापक हैं। व्यावहारिक रूप से यह असंभव दिखता है, पर प्रतीकात्मक रूप से श्रीराम ने प्रत्येक वानर से उसकी कुशल पूछी थी। इसका मतलब है कि यदि आप नेतृत्व कर रहे हों तो आपके साथ काम करने वाले को लगना चाहिए कि आप उसमें निजी रुचि ले रहे हैं। आप उसके बहुत निकट हैं। श्रीराम सबके साथ हैं ऐसा आभास उन्होंने करा दिया था। किसी को भी यह महसूस नहीं होता था कि उनका लीडर उनसे बहुत दूर है, क्योंकि जिसे भी नेतृत्व करना है उसे अपनापन स्थापित करना पड़ेगा और भेदभाव मिटाना पड़ेगा। आज लोग निज स्वार्थ के लिए नेतृत्व करते हैं और अपने ही लोगों का शोषण करने से नहीं चूकते। इसे आध्यात्मिक दृष्टि से देखें तो परमात्मा का विधान यह है कि आप जितना दूसरों को देंगे भगवान उससे अधिक आपको लौटाएगा।


दुर्गुण हमारे भीतर बैठे भूत-पिशाच
भूत-प्रेत में मनुष्य की सहज रुचि होती है। उनके बारे में जानने के चक्कर में लोग कथाएं पढ़ते हैं, फिल्में देखते हैं और कुछ लोग श्मशान भी पहुंच जाते हैं। इन दिनों उज्जैन कुंभ के दौरान कई उत्साही लोग लगातार उन तिथियों की प्रतीक्षा करते हैं जब अघोरी लोग श्मशान में तपस्या करते हैं। महाकाल की भूमि श्मशान साधना के लिए सिद्ध मानी गई है। नाथ परंपरा, तांत्रिक साधना वाले लोग श्मशान पहुंचते हैं। श्मशान ही इनका घर है। दूसरे लोग तमाशा देखने जाते हैं। डरते भी हैं और देखना भी चाहते हैं। विज्ञान और टेक्नोलॉजी के युग में यदि आप इसमें समय नष्ट नहीं करना चाहते हैं तो इतना मान लें कि हमारे दुर्गुण ही भूत और पिशाच हैं। हमारे भीतर गलत काम करने की इच्छा हो तो वह प्रेतवृत्ति है। इन्हें या तो आप अपने आत्मविश्वास से मिटाइए या आपके पास मदद के लिए कोई परमशक्ति होनी चाहिए।


गोस्वामी तुलसीदासजी ने श्री हनुमान चालीसा में भूत-पिशाच निकट नहीं आवै। महावीर जब नाम सुनावैंपंक्ति लिखी है। इस 24वीं पंक्ति में तुलसीदासजी ने आश्वस्त किया है कि यदि भूत-पिशाच होते भी हैं तो आप बाहर वाले भूत-पिशाच के चक्कर में क्यों पड़े हैं? यह देह श्मशान की तरह है, जिसमें कई भूत-पिशाच बैठे हैं। पहले इनका निपटारा कर लें। इसलिए कुंभ में आने वाले सबको साधना देखने के लिए श्मशान जाने की जरूरत नहीं है। आपको जिन दुर्गुणों से मुक्ति पानी है, उसके लिए आप किसी भी संत के कैंप में जा सकते हैं। नदी किनारे बैठकर विचार कर सकते हैं और जो पॉजिटिविटी इस समय इस धरती से निकल रही है, उसे सांस में भरकर अपने सांसारिक जीवन में ले जाएं तो इस जीवन में न तो कभी कोई भूत आएगा, न पिशाच आएगा। बस, सद्‌गुण रह जाएंगे और सद्‌गुण प्राप्त होने से बड़ी तपस्या क्या होगी?

कुंभ की विदाई के पहले लाभ उठाएं
भारी गर्मी में कई दृश्य ऐसे दिख जाएंगे जो आपके कलेजे को ठंडक पहुंचाएंगे। कुंभ ऐसी ही विलक्षण विशेषताओं के दृश्य हमें दिखा रहा है। हवा-पानी से भारी तबाही हुई और कई लोगों को लगा कि सिंहस्थ समाप्त हो गया है। उसके बाद दुनियाभर से लोग पहुंचे हैं कुंभ मेले का आनंद लेने। यह केवल मेला नहीं है। निराश लोगों को यहां कई सहारे मिलेंगे। जिनके जीवन में अंधेरी रात है, उन्हें यहां कई सितारे मिलेंगे। जो पहुंच गए वे तो सौभाग्यशाली हैं परंतु जो नहीं पहुंच पाए वे दुर्भाग्यशाली हैं ऐसा भी नहीं है। वे इस कुंभ को पढ़ें, सुनें और देखें जरूर। यहां संसार की बगिया का उसूल देखने को मिलेगा।

भगवान ने दुनिया को बगीचे के रूप में बनाया है, जहां फूल भी हैं और कांटे भी। इसी कुंभ के मेले में शारीरिक तकलीफ है तो मानसिक शांति भी है। सिर के ऊपर गर्मी नाच रही है, कलेजा ठंडक में डूबा हुआ है। दुनिया को देने वाले लोग यहां मांगते नज़र आएंगे। रोजमर्रा की दुनिया में रीति-रिवाज पर धर्म की जो मोहर लगती है और उससे पाप-पुण्य की जो परिभाषा तय होती है, वे सारे पाप-पुण्य आपको नए-नए रूप में यहां मिलेंगे। अपनी जिंदगी के कई खोए दस्तावेज यहां ढूंढ़ सकते है। ऐसे अनेक साधु-संत मिल जाएंगे त्याग करते हुए, जो यह बताते हैं कि भोग में भी तपस्या हो सकती है।

लगता है कि पूरी व्यवस्था की डोर किन्हीं अदृश्य हाथों में है। आप उसे बाबा महाकाल भी कह सकते हैं और मां शिप्रा भी पुकार सकते हैं। इस मेले में आने के बाद आपकी तन, मन, धन की थकानें दूर होंगी। तन और मन की थकान तो समझ में आती है, पर धन की भी एक थकान है। उसे कमाते हुए यदि आप थक गए तो उस धन का सदुपयोग यहां आकर करें, वह उत्साह में बदल जाएगा। कुंभ अब विदाई के क्षणों में है। सबकुछ सिमट जाए इसके पहले,जो लूटना चाहिए वह लूट लीजिए।

विश्राम के दौरान मिलता है भगवान
सिंहस्थ में महीनेभर बहुत सारे लोग साथ रहे। महीनेभर में कई संसार एक साथ समा गए थे। एक बात शास्त्रों में लिखी है और साधु-संत भी कहते हैं कि दुनिया पाना हो तो दौड़ लगानी पड़ती है पर दुनिया बनाने वाले को हासिल करना हो तो थोड़ा-सा विश्राम करना पड़ता है। मैं एक माह से अधिक हनुमतधाम में ठहरा था। हनुमतधाम के निर्माण के समय मैंने संकल्प लिया था कि पूरे मेले की अवधि में इस कैंप से बाहर नहीं जाऊंगा। यदि कदम बाहर निकलेंगे तो सिर्फ शिप्रा स्नान के लिए या किसी गुरु की आज्ञा का पालन करने के लिए। पूरे बत्तीस दिन मेरा लगभग क्षेत्र संन्यास जैसा रहा। जो अनुभूति मुझे हुई उसे लाखों-करोड़ों में बांटना चाहिए। सही है कि भगवान विश्राम करने पर ही मिलता है।

वर्षों बाद मैं किसी एक जगह इतना रुका। उज्जैन की रज-रज और कण-कण में मोक्ष उतरा था। ऐसा लगा था जैसे महाकाल पूरे वायुमंडल में समा गए हों और शिप्रा मैया सभी को प्रेम से भिगो रही हैं। आने वालों की पॉजिटिव एनर्जी, साधु-संतों की सदाशयता सबकुछ अनूठा था, लेकिन इसका आनंद मिला एक जगह रुकने पर। इसलिए चौबीस घंटे में से कुछ समय हम भी ऐसा निकालें जब हम खुद को रोक सकें। थोड़ी देर रुकने के बाद तेज चलने की ताकत तो मिलती ही है, उस परम शक्ति का अनुभव भी अद्‌भुत ढंग से होता है। मेले से सबक लिया जाए कि हम जब यहां से विदा हों तो आंतरिक रूप से अपने से जुड़ें और कुछ समय ऐसा रुकें कि ईश्वर की निकटता का अहसास होने लगे, क्योंकि ईश्वर अनुभूति का दूसरा नाम है।

आदेश में भी विनम्रता का भाव हो
दूसरों से काम लेना हो तो तीन तरीके अपनाए जा सकते हैं। ये किष्किंधा कांड में सुग्रीव ने बड़े अच्छे ढंग से पूरे किए थे। सीताजी की खोज में वानरों को भेजने के उनके आदेश में तीन स्तर थे- सबसे पहले समझाया, फिर निवेदन किया और फिर डराया। तुलसीदासजी ने लिखा- ठाढ़े जहं तहं आयसु पाई, कह सुग्रीव सबहि समुझाई। राम काजु अरु मोर निहोरा, बानर जूथ जाहु चहुं ओरा।। जनकसुता कहुं खोजहु जाई, मास दिवस महं आएहु भाई। अवधि मेटि जो बिनु सुधि पाए, आवइ बनिहि सो मोहि मराएं।। अर्थात यह श्रीरामजी का काम है और मेरा अनुरोध है तुम चारों ओर जाकर जानकीजी की खोज करो। महीनेभर में वापस आ जाना। जो इस अवधि में बिना पता लगाए लौटेगा, उसे मैं मृत्युदंड दूंगा।


किसी से काम लेना हो तो हमें यह कला आनी चाहिए कि सामने वाले को उस काम के बारे में ठीक से समझा सकें। फिर वानरों से निवेदन किया। हमारे आदेश में भी निवेदन का भाव होना चाहिए। नई पीढ़ी के बच्चे खूब परिश्रम करते हैं परंतु बहुत ज्यादा आदेश की भाषा सुनने को तैयार नहीं होते। वे पूरा आदर-भाव चाहते हैं। सुग्रीव ने यही किया, पहले समझाया, फिर निवेदन किया। लेकिन केवल समझाने या निवेदन करने से भी काम नहीं चलता। सख्ती और अनुशासन भी जरूरी है। फिर सुग्रीव ने सबको धमकाया। इस पूरे प्रसंग से हमें भी समझ जाना चाहिए कि किसी से काम लेना हो तो पहले उसे ठीक से समझाएं, आदेश में विनम्रता का भाव रखें, लेकिन इतनी संभावना जरूर छोड़ें कि यदि काम नहीं होता है तो अनुशासनहीनता बर्दाश्त नहीं की जाएगी। किस सुंदर ढंग से इसे सुग्रीव ने पूरा किया, क्योंकि वहां श्रीराम मौजूद थे। श्रीराम की मौजूदगी मतलब शांति, अपनापन, प्रेम, अनुशासन। इन्हीं के साथ इस तरह के निर्णय लिए जाएं।

अपने भीतर उतरें, बलशाली हो जाएंगे
जीवन में जब कभी भी विपरीत परिस्थिति आए तो जरूर सोचिएगा कि विपरीत परिस्थिति सूर्यास्त जैसी हैं। क्योंकि सूर्यास्त का एक अर्थ यह होता है कि जिस समय आप सूर्य को डूबता देख रहे होते हैं, उस समय वह कहीं उग भी रहा होता है। इसलिए जब हालात खराब हो तो ठीक होने की संभावना बनी रहती है। जब लगे कि चीजें बिगड़ गई हैं तो थोड़ा एकांत साधिए। अपने आस-पास के लोगों से एक दूरी बना लीजिए। इसका यह मतलब नहीं है कि आप उदासी में डूब जाएं। इस दूरी को अलगाव जैसा न बनाएं।

अलगाव का मतलब लोगों से कट जाना और दूरी का मतलब है एक गरिमामय व्यवहार रखते हुए अपने आपको एकांत में लाकर स्वयं को स्थितियों का मूल्यांकन करने का मौका देना। जब हालात विपरीत हों तो लोगों की टिका-टिप्पणियां परेशान करने लगती हैं। थोड़े से एकांत में रहेंगे तो तटस्थ होकर सोच सकेंगे कि इसमें कितनी गलती आपकी है और कितनी दूसरों की। एकांत में बहुत सारे विचार चिंतन में न हों।
तब जो एकांत घटने लगेगा वह आपको उस गहराई में ले जाएगा, जहां समाधान होता है; जहां एक भरोसा होता है कि आज भले ही चीजें अनुकूल नहीं हैं पर कल सफलता जरूर मिलेगी। सच तो यह है कि जब हम एकांत में होते हैं तो बाहर की चीजें प्रभावित नहीं करतीं, इसलिए अपने आंतरिक, मनोवैज्ञानिक, स्थितियों या स्वभाव को नापने के लिए एकांत बहुत जरूरी है।

जैसे ही आप गहरे उतरते हैं, अत्यधिक बलवान हो जाते हैं। भीतर कोई कहता है चाहे जो हो जाए, निपट लेंगे। इसलिए विपरीत परिस्थिति में एकांत साधने के लिए कुछ समय ध्यान को दीजिए। अपना मूल्य आप ही को निर्धारित करना है। कमजोर बनकर अपनी कीमत न गिराएं। थोड़ा सा ध्यान करें, समझ में आ जाएगा कि आप दुनिया के बहुत मूल्यवान व्यक्ति हैं।


जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है.... मनीष

Wednesday, May 18, 2016

जीवन दर्शन (Jeevan Darshan)

जब एक दुखी मां की पूरी हुई आस
अमेरिका  के सैनफ्रांसिस्को में रहने वाली एनी स्वयं को बड़ा भाग्यवान मानती थी। आर्थिक स्थिति सुदृढ़ थी और स्नेह करने वाला पति था। एक प्यारे बच्चे की वह मां भी थी। अचानक एक दिन बच्चे को बुखार आया और लाख प्रयासों के बावजूद उसे बचाया नहीं जा सका। एनी पूरी तरह टूट गई। एक दिन उसकी एक मित्र उससे मिलने आई।

उसने एनी से कहा- एनी! तुम्हारा दुख-दर्द बस दूर हुआ समझो। हिंदुस्तान से एक योगी यहां आया है। वह तुम्हारे दुख को अवश्य दूर कर देगा। तुम उसके पास चलो। एनी तैयार हो गई। स्वामीजी से मिलकर उनके व्यक्तित्व से एनी बहुत प्रभावित हुई। उसकी मित्र ने स्वामीजी को उसके पुत्र की मृत्यु के विषय में बताया। एनी दुखी होकर स्वामीजी से बोली- स्वामीजी!

मैं क्या करूं जिससे मुझे शांति मिलेस्वामीजी ने कहा- मां! शांति का तो मेरे पास भंडार भरा हैकिंतु तुम्हें उसकी कीमत चुकानी होगी। एनी बोली- मुझे मेरा बेटा चाहिएस्वामीजी! आप मुझसे जो कीमत चाहेंले लीजिए। स्वामीजी ने हंसकर कहा- मुझे सोना-चांदी या हीरे-जवाहरात के रूप में कीमत नहीं चाहिए।

तुम्हें इंसानियत का सिक्का’ देना पड़ेगा। एनी ने स्वीकृति दी। तब स्वामीजी उसे एक निर्धन बस्ती में ले गए और एक अनाथ हब्शी बालक का हाथ पकड़कर बोले- यह रहा तेरा बेटातू इसे जितना स्नेह करेगीउतना ही सुख पाएगी। स्वामीजी के वचन सुन एनी का गोरी जाति का अहंकार नष्ट हो गया और मातृत्व जाग उठा। उसने हब्शी बालक को हृदय से अपना लिया। वस्तुत: अनाथअसहाय को अपनाकर उसी में आनंद-धन पाने वाला न केवल सुकून पाता हैबल्कि दूसरों के लिए प्रेरणा का स्रोत भी बनता है।

मातृभक्त को जन्नत में मिली जगह
एक समय हजरत मूसा को अहंकार हो गया था। एक दिन उन्होंने खुदा से पूछा- परवरदिगार! जन्नत में मेरे पास कौन महापुरुष होगाखुदा ने कहा- मूसा! तेरे पड़ोस में एक बढ़ई रहता है। वही जन्नत में भी तेरा पड़ोसी होगा। मूसा हैरान रह गए। टूटी-फूटी झोपड़ी में रहने वाले इस बढ़ई को खुदा को याद करते हुए कभी नहीं देखा।

वह तो पेड़ के नीचे बैठकर दिनभर काम करता रहता है। वह मेरी बराबरी में कैसे बैठेगामूसा परेशान हो गए। फिर उन्होंने बढ़ई से मिलने की ठानी। मूसा जब बढ़ई से मिलने पहुंचे तो वह घर जाने की तैयारी में था। मूसा को देखते ही वह बोला- पैगंबर साहब! मैं आपकी सेवा में थोड़ी देर में हाजिर होता हूं। इसके लिए मुझे माफ कीजिएगा।

यह कहते हुए वह अपनी झोपड़ी में चला गया और काफी देर तक वापस नहीं लौटा। बढ़ई को ज्यादा देर लगते देख मूसा ने उसकी झोपड़ी के दरवाजे में से देखा कि वह क्या कर रहा हैवे देखकर हैरान रह गए। बढ़ई अपनी बूढ़ी मां को रूई के फाहे से दूध पिला रहा था। हड्डियों का ढांचा रह गई मां लेटी हुई थी और अपने पुत्र को वात्सल्य भाव से देख रही थी।

दूध पिलाने के बाद वह मां को अच्छी तरह चादर ओढ़ाकर उसके पैर दबाने लगा। तब मां ने उसे आशीर्वाद देते हुए कहा- बेटा! मेरी दुआ है कि खुदा तुझे खूब सुख दे और जन्नत में तुझे हजरत मूसा जैसा स्थान मिले। वृद्धा की बात सुनकर हजरत मूसा को खुदा के वचन याद आ गए।

वे झोपड़ी में गए। बढ़ई ने उनसे देरी के लिए माफी मांगीतो वे उसे गले लगाकर बोले- भाई! तेरी बंदगी महान है। खुदा जिससे खुश होउस राह का पता तुझे मालूम है। वस्तुत: माता-पिता की सेवा हजारों धर्म-कर्म से बढ़कर पुण्य का सृजन करती है।

आत्मविश्वास से निकला जीत का रास्ता
किसी  राजा के घर पुत्र का जन्म हुआ। राजा-रानी ने ज्योतिषियों से बच्चे का भविष्य पूछा। उन्होंने बताया कि कुमार बहुत भाग्यशाली है। अपनी वीरता से वह कई राज्यों को जीतेगा। पांच शस्त्रों को चलाने में सिद्धहस्त होगा और अनेक उपलब्धियां हासिल करेगा।

राजा-रानी ने उसका नाम पंचायुध कुमार रखा। जब पंचायुध सोलह वर्ष का हुआतो राजा ने उसे गांधार देश के एक प्रसिद्ध आचार्य से अस्त्र-शस्त्र संचालन की कला सीखने भेजा। शीघ्र ही उसने यह कला सीख ली। जब आचार्य की अंतिम परीक्षा में वह खरा सिद्ध हो गयातो उन्होंने आशीर्वाद देकर उसे उसके गृह राज्य रवाना कर दिया। मार्ग में पड़ने वाले भयावह जंगल में जब वह प्रवेश करने वाला थातो किसी ग्रामीण ने उसे जंगल में रहने वाले यक्ष के विषय में बताकर उस मार्ग से जाने से मना कियाकिंतु पंचायुध निर्भीक था। जंगल में उसका सामना यक्ष से हुआ।

यक्ष ने उसे अपना आहार बनाना चाहाकिंतु पंचायुध ने विष बुझे तीर यक्ष पर चलाए। हालांकियक्ष पर उनका कोई असर नहीं हुआ। पंचायुध ने भयभीत न होते हुए इस बार तलवार से यक्ष पर जोरदार प्रहार किएकिंतु यक्ष अप्रभावित रहा। फिर पंचायुध ने अपनी सबल मुट्ठी के प्रहार से यक्ष को पराजित करना चाहाकिंतु असफल रहा। उसकी निर्भीकता और वीरता देख यक्ष ने उससे पूछा- तुझे मृत्यु से भय नहीं लगता?’ पंचायुध बोला- जन्म लेने पर मरना तो तय हैकिंतु इस डर से मैं अपना पुरुष-कर्म क्यों छोड़ूं?’ यक्ष ने वीर पंचायुध को छोड़ दिया और स्वयं भी उस जंगल से चला गया। वस्तुत: आत्मविश्वास अकूत साहस पैदा करता हैजो अनेक बार असफलता को सफलता में परिणत कर देता है।

सज्जनता ने ईश्वरीय कोप से बचाया
यहूदियों  के आदिपुरुष बाबा अभराम जितने कर्मठ थेउतने ही बड़े भक्त भी थे। उनकी पत्नी सारा भी मेहनती थी। वे झोपड़ी में रहते और जानवर चराकर अपनी आजीविका चलाते थे।

अभराम की भक्ति से प्रसन्न हो एक बार भगवान स्वयं उसके घर आए। अभराम ने देखा कि उसकी झोपड़ी के सामने तीन लोग खड़े हैं। उनमें से एक का तेजस्वी मुख देखकर वह समझ गया कि ये स्वयं भगवान हैं। उसने चरण स्पर्श कर झोपड़ी में चलने का आग्रह किया। भगवान बोले- 'अभराम! तेरी भक्ति देखकर तुझे दर्शन दिए बगैर जाने का मन नहीं हुआलेकिन मैं रुकूंगा नहीं।

किंतु अभराम और सारा के स्नेहपूर्ण आग्रह ने भगवान को रुककर उनके घर भोजन करने के लिए विवश कर दिया। भोजन के बाद भगवान बोले- 'सोदोम और गोमोरा शहर के निवासियों के पाप का घड़ा भर चुका है। मैं इन दोनों शहरों को भस्म कर दूंगा। सुनते ही अभराम ने कहा- 'प्रभु! वहां के सभी लोग तो पापी नहीं होंगे। पचास तो भले होंगे। यह न्यायोचित नहीं होगा।

भगवान बोले- 'उन पचास की खातिर मैं दोनों शहरों को बख्श दूंगा। अभराम ने फिर कहा- 'यदि पचास से पांच कम होतो भी क्या आप दोनों शहरों को जला देंगेभगवान ने पैंतालीस भले लोगों के लिए दोनों शहरों को नष्ट न करने का आश्वासन दिया। अभराम ने निरंतर आग्रह करते हुए मात्र दस भले लोग होने पर भी दोनों शहरों का विनाश न करने का वादा भगवान से लिया। इस प्रकार दोनों शहरों को उसने भगवान के कोप से बचा लिया। इस प्रतीकात्मक कथा का संदेश यह है कि जहां सत्य और न्याय के लिए चंद लोग भी मुकाबला करने की तैयारी रखते होंवहां सर्वनाश की  स्थिति कभी नहीं बनती।

सेवाभावना ने जीता शनि का मन
उज्जैन  के राजा विक्रमादित्य गरीबों और लाचारों की मदद के लिए हमेशा तत्पर रहते थे। प्रजाहितैषी राजा की प्रशंसा चारों ओर होती थी। शनिदेव ने जब विक्रमादित्य की प्रशंसा सुनी तो उनकी परीक्षा लेने का विचार आया।

शनि ने विक्रमादित्य से जाकर कहा- राजन! मैं कौन हूंजानते हो?’ राजा बोले- भाई! मैं जानकर क्या करूंगाकोई काम होतो बताओजान की बाजी लगाकर भी करूंगा।’ शनि ने राजा के जवाब से अपमानित महसूस करते हुए धमकी दी- तुझे स्वयं पर घमंड हो गया है। जब मैं तुझे अपार कष्ट दूंगातब तू मुझे पहचानेगा।

इसके बाद शनि के प्रकोप से विक्रमादित्य राज्यहीन हो गए और जंगल में एकांतवास करने लगे। शनि ने वहां जाकर देखा कि विक्रमादित्य तो अब भी खुश हैंक्योंकि अब वे राजकाज के तनाव से दूर लोगों की मदद करने के लिए और अधिक स्वतंत्र थे। यह देख शनि ने एक डाकू का रूप धारण कर उनके हाथ-पैर काट दिए। राजा पर दया कर एक वृद्ध तेली उन्हें अपने घर ले आया और उनकी सेवा की।

राजा ने उससे कहा- बाबा! यदि आप मुझे कोल्हू पर बिठाएंगेतो मैं बैल का ध्यान रखकर आपका कुछ काम अवश्य हल्का कर दूंगा।’ तेली के मना करने पर भी राजा नहीं माना और बैल हांकने का काम संभाल लिया। शनि ने अब भी राजा को आनंदमग्न पाया। कारण पूछने पर वे बोले- हाथ-पैर न कटतेतो इस दयालु तेली का स्नेह कैसे मिलताराजपाट और शरीर तो आने-जाने हैंमहत्वपूर्ण है प्राणियों की सेवा करना।’ विक्रमादित्य की सेवाभावना को समझ शनि ने उन्हें पूर्ववत स्वस्थ कर राजपाट लौटा दिया। वस्तुत: जिन लोगों के जीवन का उद्देश्य सेवा’ होता हैउन्हें कोई ताकत डिगा नहीं पाती।

शिष्य हुआ मोह-माया से मुक्त 
स्वामी  सहजानंद के शिष्य थे - सौराष्ट्र के मनसुख भाई। वे व्यापारी थे। उन्होंने व्यापार से खूब धन कमाया। फिर एक आलीशान हवेली बनवाई। वे चाहते थे कि गुरु सहजानंद के चरण वहां पड़ें। स्वामीजी को निमंत्रित करने वे काशी आए और उनसे निवेदन किया- आपके आशीर्वाद से मैंने एक विशाल हवेली का निर्माण करवाया है।

मैं चाहता हूं कि आपकी चरण-रज वहां पड़ जाए। मैं आपको निमंत्रित करने यहां आया हूं।’ स्वामीजी समझ गए कि मनसुख का मन मोह-माया में जकड़ा हुआ है। वे बोले - मनसुख! थोड़े दिन तुम रुक जाओ। कथा पूर्ण कर तुम्हारे साथ सौराष्ट्र चलूंगा।’ दस दिन की कथा में स्वामीजी ने त्याग और वैराग्य की ऐसी गंगा बहाई कि करोड़पतियों ने अपनी सारी संपत्ति दान कर दी। यह देख मनसुख भाई के मन से भी वैभव निकल गया और हृदय में हरि का वास हो गया। इसी बीच स्वामीजी के पास सौराष्ट्र से एक पत्र आयाजिसमें मनसुख भाई की हवेली के जलकर राख हो जाने की सूचना थी। 

उन्होंने पत्र मनसुख भाई को न देते हुए उनसे पूछा - इतने दिनों से तुम त्याग-वैराग्य में मन लगाते हुए अपनी हवेली में श्रीहरि की मूर्ति स्थापित करना चाहते थे। क्या वह हवेली तुम्हारे अंतर में खड़ी हुई और श्रीहरि के चरण उसमें पड़े?’ मनसुख भाई बोले - आपकी कृपा से अंतर की हवेली में श्रीहरि बस गए और त्रैलोक्य का सुख प्राप्त हो गया।’ यह सुनकर स्वामीजी ने उन्हें सौराष्ट्र की हवेली के जल जाने की सूचना दीकिंतु मनसुख अविचलित रहा। वस्तुत: अंतरात्मा में भोग के स्थान पर त्याग-भाव को स्थान देने पर सांसारिक माया-मोह आकर्षित नहीं कर पाते और मनुष्य प्रत्येक स्थिति में आनंदित रहता है।

अयोग्य को नियुक्त कर राजा पछताया 
काशी में ब्रह्मदत्त का राज्य था। उसके राज्य में एक पद अर्धकारक’ का था। अर्धकारक’ विभिन्न वस्तुओं का मूल्य निर्धारण करता था। हाथीघोड़ेसोनाचांदीहीरेमोतीमकानदुकान आदि सभी का मूल्य निश्चित कर वस्तु के मालिक को उचित मूल्य दिलवाना उसका काम था। उस समय इस पद पर सुषेण था। 

वस्तुओं के सही मूल्य दिलवाना वह अपना नैतिक दायित्व मानता था। किंतु राजा उसे पसंद नहीं करता था। उसे लगता था कि ईमानदारी से मूल्य निर्धारण होने पर राज्य के खजाने का अधिक पैसा वस्तु मालिकों के पास जाता है। अत: उसने सुषेण को हटाकर विक्रांत नामक एक व्यक्ति को अर्धकारक बना दिया। विक्रांत बुद्धिहीन होने के साथ राजा का चापलूस भी था।

वह चीजों के दाम घटाकर लगाताजिससे राजा खुश हो जाता। एक बार एक व्यापारी उत्तम नस्ल के पांच सौ घोड़े बेचने के लिए लाया। राजा ने अर्धकारक से घोड़ों का दाम लगवाया। उसने मात्र एक तंडुल नालिका’ मूल्य तय किया। व्यापारी ने अपना घाटा होते देख पुराने अर्धकारक से जाकर शिकायत की। उसने व्यापारी को एक योजना बताईजिसके अनुसार अगले दिन व्यापारी ने विक्रांत को रिश्वत देकर एक तुंडल नालिका’ का मोल राजा के समक्ष बताने को कहा।

जब राजा ने उससे पांच सौ घोड़ों की कीमत बताने को कहातो उसने एक तंडुल नालिका’ कहते हुए उसका मोल बताया- भीतर-बाहर सारी वाराणसी।’ राजा स्तब्ध रह गया। फिर उसने विक्रांत को हटाकर पुन: सुषेण को अर्धकारक बनाया। वस्तुत: अयोग्य व्यक्ति संपूर्ण व्यवस्था का अहित करता है। इसलिए पद के कर्तव्यों की पूर्ति में सक्षम व्यक्ति को ही नियुक्ति देनी चाहिए।

गुलामी के खिलाफ नायक का संघर्ष
वर्ष1804 में विलियम लाइड गैरिसन का जन्म बाल्टीमोर में हुआ था। निर्धन परिवार के गैरिसन ने आरंभ में छोटे-मोटे काम किए। पढऩे-लिखने का शौक थाअत: अखबारों में लिखने लगे। अनेक पत्रों में संपादन का कार्य किया। उन्होंने महसूस किया कि अमेरिका के दक्षिणी राज्यों में गुलामी-प्रथा चरम पर हैअत: इसका विरोध दक्षिण के ही किसी नगर से आरंभ करना चाहिए।

उन्होंने बोस्टन से 'लिबरेटर पत्र निकालना शुरू किया। दक्षिण के अनेक राज्यों ने 'लिबरेटर पर प्रतिबंध लगा दिया। गैरिसन को धमकी भरे पत्र मिलतेकिंतु वे निर्भीक बने रहते। बोस्टन के एक तहखाने में वे अपना हैंडप्रेस चलाते थे। अंतत: 'लिबरेटर का संदेश लाखों लोगों द्वारा पढ़ा व समझा गया और उसकी स्थापना केनौ वर्ष के भीतर अमेरिका के अनेक शहरों में लगभग दो हजार गुलामी विरोधी मंडल गठित हुए।

दो लाख महिला-पुरुष उनके सदस्य बने। यह गैरिसन के दासता विरोधी अभियान की ही ताकत थी कि अफ्रीका में अनुपयोगी व कमजोर गुलामों को भेजने की सरकारी चाल नाकामयाब हुई। सन १८३५ में गुलामी विरोधी मंडल की एक सभा में गैरिसन के धारदार भाषण ने सत्ताधीशों की नींव हिला दी। उन्हें जेल में बंद कर दिया गयाकिंतु ऐसा करने से लोगों की सहानुभूति व रुचि उनमें और बढ़ गई। अब गैरिसन के साथ लाखों लोग थे।

अंतत: जब अब्राहम लिंकन अमेरिका के राष्ट्रपति बनेतब गुलामी-प्रथा को कानूनन समाप्त कर दिया गया। वस्तुत: जनकल्याण के कठिनतम लक्ष्य को पूर्ण करने के लिए असीम धैर्य और साहस की आवश्यकता होती है।

एक राजा ने दूसरे को महान माना
मगध  नरेश कुमारसेन न्यायपूर्वक राज्य करते थे। उन्हें धर्म से शासन करते देख उनके मंत्रीगण भी धर्मानुसार ही मुकदमों का फैसला करते। कुमारसेन ने सोचा कि सभी मुझे गुणवान मानते हैं और मेरा अनुसरण कर धर्मानुकूल आचरण करते हैंकिंतु कोई न कोई दुगरुण तो मुझमें अवश्य होगा।

मुझे उस दुगरुण की खोज करनी चाहिएताकि मैं उसे भी दूर कर सकूं। पहले राजा ने महल में सभी से स्वयं के दुगरुण के विषय में पूछताछ कीकिंतु सभी ने उसकी प्रशंसा की। अब राजा अपने राज्य की सीमा तक गया। उसी दौरान सौराष्ट्र नरेश मल्लसेन के रथ से उसका आमना-सामना एक संकरे मार्ग पर हुआ। मल्लसेन भी प्रजाहितैषी राजा था और अपने दोष खोजने ही निकला था।

दोनों के सारथियों ने एक-दूसरे को रथ पीछे हटाने को कहाकिंतु दोनों में से कोई नहीं माना। मगध नरेश के सारथी ने कहा कि जिस राजा की उम्र कम होगीवह रथ पीछे कर लेकिंतु दोनों समान आयु वाले थे। दोनों तीन सौ योजन राज्य के स्वामी थे। दोनों की सेनासंपत्तिकुलजातिगोत्रकीर्ति समान थे। फिर अचानक मगध नरेश के सारथी ने पूछा- तुम्हारे राजा का सदाचार कैसा है?’ सौराष्ट्र नरेश का सारथी बोला- कठोर के साथ कठोरताकोमल के साथ कोमलता।’ तब मगध नरेश के सारथी ने कहा- किंतु मेरे राजा क्रोध को अक्रोध सेबुरे को भलाई से और झूठ को सत्य से जीतते हैं।

अत: तुम्हें ऐसे सदाचारी राजा के लिए मार्ग छोड़ देना चाहिए।’ सौराष्ट्र नरेश को अपने अवगुण समझ में आ गए। उन्होंने मगध नरेश को प्रणाम कर रथ पीछे हटा लिया। वस्तुत: असत् शक्तियों का सत् शक्तियों से मुकाबला व्यक्ति की नैतिकता को बड़ा बनाता हैजिससे वह प्रतिष्ठा का शीर्ष हासिल करता है।

अमीर ने स्वावलंबन से जीता मुकदमा 
दो  भाइयों में जमीन को लेकर विवाद हो गया। मामला अदालत में पहुंचा। उन भाइयों में एक लखपति था और दूसरा निर्धन। यह स्थिति देखकर न्यायाधीश हैरान हुआ। उसने अमीर भाई से पूछा- तुम दोनों भाइयों की आर्थिक स्थिति में इतना अंतर क्यों?’ उसने उत्तर दिया- सात वर्ष पूर्व जब हमारे पिता की मृत्यु हुईतो उनकी संपत्ति में से हम दोनों को दस-दस लाख मिले।’ न्यायाधीश को अचरज हुआ। उन्होंने पूछा- तुम्हारे भाई ने सात वर्षो में दस लाख कैसे खर्च कर दिए?’ अमीर भाई ने जवाब दिया- पैसा हाथ में आते ही मेरे भाई को अहंकार आ गया। 

उसने विलासिता पर पैसा पानी की तरह बहाना शुरू कर  दिया। हर काम नौकरों से कराने लगा। स्वयं कुछ भी नहीं करता। इस आलस्यअहंकार और लापरवाही का नतीजा यह हुआ कि नौकर भी मनमानी करने लगे। जहां एक रुपए का खर्च होतावे सौ बताते। यह दाने-दाने को मोहताज हो गया।’ न्यायाधीश ने पूछा- तुम्हारी अमीरी कैसे बनी रही?’ वह बोला- संपत्ति मिलने के बावजूद मैंने परिश्रम करना नहीं छोड़ा। नौकर मेरे पास भी थेकिंतु मैं उन पर निर्भर नहीं हुआ। मैं उनके सहयोग से काम करता रहा। 

प्रत्येक कार्य में मेरी सक्रिय भागीदारी देखकर नौकरों की हिम्मत ही नहीं हुई कि मुझसे झूठ बोलें। यदि मैं इसकी तरह दूसरों पर निर्भर हो जातातो इसके जैसी ही दुर्दशा मेरी भी हो गई होती। अब जब इसके पास कौड़ी न बचीयह मेरी जमीन धोखे से हड़पना चाहता है।’ न्यायाधीश ने अन्य गवाहों से अमीर भाई की बातों की सत्यता जानकर उसके पक्ष में फैसला सुना दिया। सार यह है कि दूसरों के भरोसे रहकर जीवन में उन्नति नहीं की जा सकती। उसके लिए आत्मनिर्भरता अनिवार्य शर्त है। 

होली पर कामदेव का आत्म बलिदान
एक पौराणिक कथा के अनुसार देवी सती दक्ष प्रजापति की बेटी थीं। सती जब युवा हुईंतो उन्होंने अपने पिता दक्ष की इच्छा के विरुद्ध भगवान शिव से विवाह की इच्छा व्यक्त की। पिता के समझाने के बावजूद अंतत: दोनों का विवाह हुआ। इस बात से दुखी दक्ष ने अपनी बेटी से संबंध तोड़ लिए।

कुछ समय बाद दक्ष ने एक विशाल यज्ञ का आयोजन कियाजिसमें सती और उनके पति शिव को आमंत्रित नहीं किया। फिर भी सती ने वहां जाने की इच्छा व्यक्त की। शिवजी ने उन्हें जाने से मना किया। किंतु सती अपने पिता के घर पहुंची और वहां दक्ष के द्वारा अपमानित हुईं। दक्ष ने शिव के लिए भी अपशब्द कहेजिसे सती सहन नहीं कर पाईं और स्वयं को अग्नि में भस्म कर लिया। भगवान शिव को जब पता चला तो वे बहुत क्रोधित हुए। उन्होंने दक्ष का सिर काट दिया।

फिर जब उनका क्रोध शांत हुआतो वे गहन ध्यान में चले गए। उधर सती ने पार्वती के रूप में पुनर्जन्म लिया और भगवान शिव को वर रूप में प्राप्त करने के लिए कड़ी तपस्या की। जब वे शिव का किसी भी तरीके से ध्यान भंग नहीं कर पाईंतो उन्होंने कामदेव से मदद का आग्रह किया। कामदेव ने अपने प्राणों की परवाह न करते हुए शिव पर काम-बाण चलाया।

शिव का ध्यान भंग हुआ तो उन्होंने कामदेव को भस्म कर दिया। बाद में क्रोध शांत होने पर शिव को अपनी भूल का अहसास हुआ और उन्होंने कामदेव को अदृश्य रूप में अमरता का वरदान दिया। कहा जाता है कि वह होली का ही दिन थाजब कामदेव ने सभी के भले के लिए स्वयं का बलिदान किया। सार यह है कि किसी अच्छे कार्य के लिए आत्मबलिदान हेतु तत्पर रहना चाहिएक्योंकि तभी कल्याण व्यापक रूप में घटता है।

आखिर पापक ने नाम नहीं बदला
तक्षशिला में एक विद्वान आचार्य का गुरुकुल था। उनके हजारों शिष्यों में से एक था- पापक। उसे अपना नाम पसंद नहीं था। हालांकि वह नाम के विपरीत बहुत भला और बुद्धिमान था। एक दिन उसने आचार्य के समक्ष अपने मन की बात रखी- आचार्य! मेरा नाम अशुभ है। कृपा कर मुझे दूसरा नाम दीजिए।

आचार्य बोले - वत्स! नाम तो बुलाने भर को है। उससे कोई अर्थ-सिद्धि तो होती नहीं। इसलिए नाम परिवर्तन औचित्यहीन होगा।’ आचार्य के समझाने के बावजूद पापक नाम बदलने के प्रति आग्रही बना रहा। तब आचार्य बोले- तुम पूरे राज्य में घूमकर कोई शुभ नाम खोजकर लाओ। मैं तुम्हारा नाम वही रख दूंगा।’ पापक घूमते हुए एक गांव में पहुंचा।

वहां जीवक’ नाम के किसी व्यक्ति की शवयात्रा निकल रही थी। उसने कहा- क्या जीवक भी मर सकता है?’ यह सुनकर किसी ने उसे समझाया- जीवक भी मरता है और अजीवकभी। नाम तो पुकारने भर को होता है।’ थोड़ा आगे जाने पर उसे धनपाली’ नामक दासी को उसका मालिक मारते हुए दिखा। धनपाली नाम होने के बावजूद उसकी निर्धनता देखकर पापक सोच में पड़ गया।

कुछ देर बाद उसने पंथक’ नाम के व्यक्ति को राह भटक जाने के कारण परेशान देखा। उसे लगा कि पंथक होकर यह रास्ता भूल गयाधनपाली लक्ष्मी का प्रतीक होकर भी निर्धन ही रही और जीवकअमर न होकर मृत्यु को प्राप्त हुआ - ये सब बातें संकेत करती हैं कि नाम से कुछ नहीं होता। अत: मुझे अपना नाम बदलने की कोई जरूरत नहीं। उसने आचार्य से फिर कभी नाम-परिवर्तन का आग्रह नहीं किया। वस्तुत: नाम व्यक्ति की पहचान का प्रतीक भर हैअत: नाम नहींकर्म सिद्धि पर ध्यान देना चाहिए।

गांधीजी के सेवाभावी देशभक्त
दक्षिण अफ्रीका में ब्रिटिश सरकार द्वारा लागू अनेक जनविरोधी कानूनों का अहिंसक विरोध कर उन्हें निरस्त कराने में मिली सफलता के बाद गांधीजी भारत लौटने की तैयारी कर रहे थे। उनके एक सहयोगी ने प्रश्न किया- बापूजी! हम भारत में कहां रहेंगे?’ गांधीजी ने उत्तर दिया- जहां हमें अनुकूल लगेगा हम वहीं रहेंगे।

एक अन्य सहयोगी ने पूछा- हम राष्ट्र-सेवा का क्या काम करेंगे?’ गांधीजी बोले- हम खेती करेंगेसूत कातेंगेआसपास की गंदगी साफ करेंगे और ईश्वर की प्रार्थना कर वातावरण को पवित्र बनाएंगे।’ तीसरे साथी ने कहा- आपने हमें बताया कि भारत में आप काठियावाड़ी पगड़ीधोती पहनेंगे और हमसे भी आपकी यही अपेक्षा है।

इस पहनावे को देखकर लोग हमें किस योग्य समझेंगे?’ चौथे ने समस्या उठाई- भारत की गुलामी दूर करने के लिए वहां की जनता आपसे योद्धा मांगेगी। तब आप उनके समक्ष किसे रखेंगे?’ गांधीजी का उत्तर था- तब मैं अपने उन योद्धाओं को प्रस्तुत करूंगाजिन्होंने देश-सेवा के लिए कष्ट भोगकर जेल को महल समझा है और अपना जीवन देश को समर्पित करने का व्रत लिया है। जो स्वयं भूखे रहकर अन्यों को अपना कौर देंगेजो देश के लिए बलिदान होने को तत्पर होंगे।
अपनी सारी पूंजी मैं देश के लिए न्यौछावर कर दूंगाकिंतु यह भी देखूंगा कि देश में इतनी पूंजी और कितनी है?’

इतिहास गवाह है कि आजादी के लिए गांधीजी के साथ इस दुर्लभ पूंजी को लाखों देशभक्तों ने देश को सौंपा। देश को गुलामी से मुक्त कराने वाले ऐसे राष्ट्रभक्तों की आवश्यकता दम तोड़ती नैतिकता को थामकर उच्च नीतिगत मूल्यों की पुनस्र्थापना के लिए आज भी है। ऐसे ही लोग देश को तरक्की की सही राह पर ले जा सकते हैं।

अहंकारी को मिला सही ज्ञान
एक दिन ईसा मसीह से एक अहंकारी विद्वान मिलने आया। उसने कठिन प्रश्न पूछकर ईसा को निरुत्तर करने का विचार किया और बोला- 'यदि मुझ जैसे ज्ञानी को दिव्य जीवन पाना होतो किस प्रकार की साधना करनी चाहिएईसा ने उसके अहंकार को पहचानकर कहा- 'इस विषय में शास्त्र क्या कहते हैंबताइएतो मैं जानूं कि आपने उन्हें कितना पढ़ा और समझा है?

वह सगर्व बोला- 'शास्त्रों में लिखा है कि परमेश्वर को पूर्ण निष्ठा से भजो और अपने पड़ोसी से प्रेम करो। ईसा ने कहा- 'उचित ही लिखा है। ज्ञानी बोला- 'पड़ोसी की क्या परिभाषा हैउत्तरस्वरूप ईसा ने उसे यह कथा सुनाई- 'एक व्यक्ति कहीं जा रहा था। रास्ते में उसे डाकुओं ने लूट लिया और घायल अवस्था में सड़क पर छोड़ दिया। कुछ देर बाद एक पादरी उधर से निकला।

उसने उसे देखकर सोचा कि यदि इसकी मदद करने रुकातो मेरे प्रवचन का समय निकल जाएगा। उसके बाद एक महाजन वहां आया। उसने यह सोचकर घायल की सहायता नहीं की कि कौन पुलिस के पचड़े में पड़ेउसके बाद एक मोची वहां से गुजरा। उसने घायल का सिर अपनी गोद में लियापानी पिलाया और उसके घावों पर पट्टी बांधी।

उसे पास ही स्थित एक भोजनालय पर ले गया और उसके मालिक  को कुछ रुपए देकर उससे निवेदन किया कि वह उसे भोजन करा दे और उपचार की व्यवस्था कर दे। इस प्रकार घायल व्यक्ति की जान बच गई। यह कहानी सुनाकर ईसा ने ज्ञानी से पूछा- 'बताओतीनों में से कौन सच्चा पड़ोसी हैउसने कहा- 'जिसने दया की। तब ईसा मसीह बोले- 'तो मेरे भाई! उसी की तरह जीवन बिताओ। इस तरह ज्ञानी ने ईसा मसीह से जीवन की सही दिशा प्राप्त की।

महावीर ने बताए चक्रवर्ती के मायने
महावीर स्वामी निरंतर भ्रमण करते और रात को किसी एकांत स्थान पर ध्यानमग्न हो जाते थे। उन दिनों पुष्य नामक एक ज्योतिषी की ख्याति चारों ओर फैली हुई थी। एक दिन पुष्य गंगा किनारे भ्रमण कर रहा था। वहां उसने देखा कि रेत पर किसी के चरण-चिह्न् हैं।

अपने ज्ञान के आधार पर उसने अनुमान लगाया कि ये चिह्न् किसी चक्रवर्ती के हैं। लेकिन चक्रवर्ती के चिह्न् के साथ उसकी सेना के चिह्न् न देखकर वह भ्रमित हुआक्योंकि चक्रवर्ती एकाकी नहीं हो सकता। अत: सत्य को जानने के लिए वह उन चिह्नें का अनुसरण करते हुए महावीर तक पहुंचा। वे ध्यानमग्न थे।

उन्हें देखकर पुष्य ने सोचा कि यह तो साधारण व्यक्ति है। महावीर की ध्यान मुद्रा खुलने पर पुष्य ने पूछा- भंते! आप अकेले कैसे हैं?’ महावीर बोले- मेरा संपूर्ण परिवार मेरे साथ है। अहिंसा मेरी मां हैनिर्विकल्प ध्यान मेरा पिता हैअनासक्ति मेरी बहन हैब्रह्मचर्य मेरा भाई हैशांति मेरी भार्या और सत्य मेरा मित्र है। विवेक मेरा पुत्र और क्षमा मेरी पुत्री है।

पुष्य ने अपनी उलझन महावीर को बताते हुए कहा- आपके शारीरिक चिह्न् चक्रवर्ती के हैंकिंतु आपकी स्थिति साधारण व्यक्ति की है। चक्रवर्ती के आगे चक्र चलता हैउसके पास धर्म-रत्न होता है। आपके पास यह सब कहां है?’ पुष्य की बात सुनकर महावीर ने शंका समाधान किया- धर्म चक्र मेरे आगे सदा चलता है।

मेरा आचार छत्र रत्न हैजो संपूर्ण मानव-जाति को संरक्षण दे रहा है। मेरी नि:स्वार्थ भावना धर्म-रत्न है। अब तुम्हीं बताओ कि क्या मैं चक्रवर्ती नहीं हूं।’ पुष्य की उलझन दूर हो गई। वस्तुत: धर्मानुकूल आचरण व्यक्ति को आदर्श बना देता है। समाज की श्रद्धा का वह केंद्र होता है और कभी एकाकी नहीं होता।

माता-पिता की सेवा सर्वोपरि
अबुल हसन खिरकानी मुस्लिम संत थे। उनके एक भाई थे। दोनों मिलकर अपनी वृद्ध और बीमार मां की सेवा करते थे। पिता अर्सा पहले गुजर गए थे। दोनों भाइयों के बीच बहुत स्नेह था और दोनों ने कार्य-विभाजन इस प्रकार किया था कि जब एक भाई मस्जिद में नमाज पढऩे जातातो दूसरा उस समय मां के पास रहकर उसकी सेवा करता।

फिर पहले के आने पर वह मां की देखभाल करता और दूसरा मस्जिद जाता। मां भी अपने पुत्रों से बेहद प्रसन्न थी। एक बार अबुल हसन के भाई की बारी मां की सेवा करने की थीकिंतु उसका मन मस्जिद जाकर नमाज पढऩे का था। इसलिए उसने अबुल हसन से मां का ध्यान रखने को कहा।

अबुल ने भाई की बात मान ली और भाई को भेज दिया। जब अबुल हसन का भाई मस्जिद में नमाज पढ़ रहा थातो उसे ऐसा लगा कि खुदा उसके कानों में कह रहे हैं- 'मैंने तेरे भाई को जन्नत अदा की है और उसके कारण तेरे गुनाह माफ कर दिए हैं।

अबुल का भाई हैरान रह गया कि अल्लाह की नमाज को अधिक महत्व देने के बावजूद जन्नत अबुल को मिल रही है। उसने खुदा से पूछा- 'मैंने आपकी प्रार्थना को मां की सेवा से भी ऊपर रखातो मेरे कारण भाई का भला होना चाहिएन कि उसके कारण मेरा। यह अन्याय क्यों?

तब खुदा ने कहा- 'तू मेरी इबादत करता हैजबकि तेरा भाई मां की सेवा करता हैजिसकी मां को बहुत जरूरत है। इसलिए वह तुझसे अधिक पुण्यवान है। खुदा की बात सुनकर उसे अपनी भूल का अहसास हुआ।

वस्तुत: व्यक्ति का सर्वप्रथम दायित्व जन्म देकर पालन-पोषण करने वाले माता-पिता की देखरेख का होता है। यही सच्चा ईश-पूजन हैक्योंकि माता-पिता प्रत्यक्ष रूप में भगवान होते हैं।

बदल गई उनके जीवन की दिशा
सरगोधा जिले के खुशाबनगर में दीवान मदनगोपाल रहते थे। कई हवेलियों के मालिक मदनगोपाल को शराब का बेहद शौक था। विलायती ह्विस्की की पेटियां उनके घर में भरी रहतीं। गर्मियों के दिन थे।

मदनगोपाल सुगंधित ठंडे कमरे में विश्राम कर रहे थे। ऐसी तपती दोपहरी में अचानक एक तेजस्वी संन्यासी दीवान साहब के कमरे में प्रविष्ट हुआ। चौकीदार की हिम्मत उसे रोकने की नहीं हुई। दीवान साहब हाथ जोड़कर बोले- आसन ग्रहण कर आज्ञा कीजिएमहाराज!’ संन्यासी ने कहा- आपसे एक वचन लेने आया हूं। देंगे?’ दीवान साहब बोले-यदि मेरे पास उस वचन को निभाने की क्षमता होगीतो अवश्य दूंगा।’ संन्यासी ने कहा- आपकी सबसे प्रिय वस्तु शराब मुझे दान कर दीजिए।

मदनगोपाल पहले तो हिचकेकिंतु वचनपूर्ण करना था। इसलिए नौकरों को ह्विस्की की पेटियां लाने को कहा। नौकर जैसे ही पेटियां लेकर आएसंन्यासी ने सारी बोतलें फोड़ दीं। फिर संन्यासी यह कहते हुए चला गया- मैं आदेश देता हूं कि भविष्य में कभी सुरापान न करें।’ मदनगोपाल के पूछने पर नौकरों ने बताया कि एक पेटी बचा ली हैरात के लिए।

मदनगोपाल ने अपने हाथों से उस पेटी में रखी बोतलें भी फोड़ दीं और आजीवन शराब को छुआ तक नहीं। फिर वृंदावन पहुंचकर बाबा प्रेमानंद से दीक्षा ली। उन्होंने मदनगोपाल को श्रीगौरांग महाप्रभु की भक्ति में लीन कर दिया। मदनगोपाल के जीवन की दिशा ही बदल गई। श्रीकृष्ण-प्रेम में पगे मदनगोपाल ने निमाईचंद’ नाम से एक उत्कृष्ट उर्दू पुस्तक लिखकर श्रीकृष्ण-भक्ति का संदेश लोगों तक पहुंचाया। वस्तुत: सत्प्रेरणा ग्रहण करने पर जीवन सार्थक हो जाता है। अत: जीवन में ऐसे अवसर का लाभ अवश्य उठाना चाहिए।

राजा को भूल का अहसास हुआ
एक राजा मृगों केशिकार का आदी था। वह अपनी राजधानी के सभी प्रमुख लोगों को प्रतिदिन इकट्ठा करवाता और शिकार करने जाता। लोग परेशान हो गएक्योंकि रोज राजा केसाथ जाने से उनके काम का हर्जा होता। लोगों ने विचार किया कि हमें ऐसा कोई उपाय करना चाहिएजिससे सारे मृग एक ही स्थान पर एकत्रित कर दिए जाएं। तब हमें रोज राजा के साथ वन में नहीं जाना पड़ेगा। उन्होंने ऐसा ही किया।

राजा ने उद्यान में जाकर मृगों को देखा। उनमें दो सुनहरे मृगों को उसने अभयदान दियाक्योंकि वे उस मृग-समूह केनेता थे। उस दिन से राजा का रसोइया रोज उद्यान में पहुंच जाता और एक मृग को मार लाता। यह देखकर दोनों नेताओं ने तय किया कि प्रतिदिन एक मृग स्वयं जाकर अपना बलिदान दे दे। जिसकी बारी आतीवह वधस्थल पर पहुंच जाता। एक दिन एक गर्भिणी हिरणी की बारी आई। उसने पहले स्वर्ण-मृग से निवेदन किया- स्वामी! मैं गर्भिणी हूं। मैं जाऊंगीतो मेरे साथ जीव-हत्या भी होगी। अत: मेरे स्थान पर किसी अन्य को भेज दें।

स्वर्ण-मृग ने उसका निवेदन अस्वीकार कर दिया। तब हिरणी ने दूसरे स्वर्ण-मृग से यही प्रार्थना दोहराई। वह भला थाइसलिए हिरणी केस्थान पर स्वयं वध-स्थल पर चला गया। चूंकि ये दोनों स्वर्ण-मृग अभयदान प्राप्त थेइसलिए रसोइये ने यह जानकारी राजा को दी। राजा ने स्वर्ण मृग से स्वयं को मृत्यु हेतु प्रस्तुत करने का कारण पूछातो उसने गर्भिणी हिरणी की बात बताई। राजा ने उस हिरणी को अभयदान दिया। स्वर्ण-मृग ने अब शेष मृगों के लिए भी अभयदान की प्रार्थना की। राजा को भूल का अहसास हुआ और उसने सभी मृगों का जीवन बख्श दिया। वस्तुत: दूसरों के लिए त्याग करने वाला ही महान होता है।

राजकुमारी ने बुद्धिमान को चुना वर
शिवगढ़ के राजा वीरसिंह की एकमात्र पुत्री रूपाली विवाह योग्य हुई तो उसकेविवाह केकई प्रस्ताव आएकिंतु रूपाली ने उन्हें स्वीकार नहीं किया। वह किसी बुद्धिमान युवक से विवाह करना चाहती थीइसलिए उसने कहा कि वह उसी से विवाह करेगी जो उसकेतीन सवालों  केउत्तर दे देगा।

राजकुमारी के सवालों के जवाब अनेक युवकों ने दिएकिंतु कोई उसे संतुष्ट नहीं कर पाया। एक दिन गुरुकुल में पढ़ाने वाले एक युवक ने दरबार में आकर उन प्रश्नों केउत्तर देने की इच्छा व्यक्त की। राजकुमारी ने प्रश्न पूछा- संसार में कौन सबसे गरीब और कौन सबसे अमीर है’? युवक बोला - दुर्बल मन वाला सबसे गरीब और स्वावलंबी व साहसी सबसे अमीर है

दूसरा प्रश्न था- संसार में सबसे अज्ञानी और सबसे बुद्धिमान कौन है’? युवक ने कहा- स्वयं को ज्ञानवान समझकर कुछ भी सीखने की इच्छा न रखने वाला अज्ञानी और सदैव स्वयं को अज्ञानी समझकर सीखने को तत्पर ज्ञानी है। तीसरा प्रश्न था- संसार में पहली सुबह और अंतिम शाम कब होगी’? युवक बोला- पूर्व दिशा में एक बहुत ऊंचा पहाड़ थाजिसने सूर्य को ढंक रखा था।

एक चिड़िया ने अपनी चोंच से पहाड़ की चोटी से मिट्टी का एक कण उठायातब सूर्य की प्रथम किरण उस कण से खाली हुए स्थान से संसार में आई। वह संसार की पहली सुबह थी और संसार की अंतिम शाम तब होगीजब चिड़िया पूर्व केपहाड़ से मिट्टी का एक-एक कण ले जाकर पश्चिम में भी वैसा ही पहाड़ बना देगी। राजा व राजकुमारी युवक केउत्तर से बहुत प्रभावित हुए और राजकुमारी का विवाह उस युवक से कर दिया गया। कथा का सार यह है कि धनबल से बुद्धिबल सदैव श्रेष्ठ होता है। 

मां ने संन्यासी बनने की आज्ञा दी
बालक  शंकर अपने माता-पिता की इकलौती संतान था। शंकर था भी बड़ा आज्ञाकारी व गुणी। उसे देव-दर्शन का बड़ा चाव था। जब मां मंदिर जातींतो शंकर का मन खिल उठता। एक दिन शंकर ने मां के समक्ष संन्यासी बनने की इच्छा व्यक्त की। मां बिल्कुल राजी नहीं हुई। उन्होंने कहा- तू मेरा एक ही पुत्र है। मेरे बुढ़ापे का सहारा है।

तुझे मैं कहीं नहीं जाने दूंगी।’ शंकर ने मां को समझाने की बहुत कोशिश कीकिंतु वे नहीं मानीं। एक दिन मां और शंकर नदी पर नहाने गए। शंकर जैसे ही पानी के भीतर पहुंचाएक मगर ने उसका पैर पकड़ लिया। शंकर की चीख सुनकर मां पहुंचीकिंतु मगर से मुकाबला कैसे करेमां ने घबराकर मदद के लिए लोगों को बुलाया। लोग आतेइसके पहले ही शंकर ने मां से कहा- मां! मैं मर रहा हूं। कम से कम मुझे मरते वक्त तो संन्यासी बन जाने दो। मैं संन्यासी होकर मरना चाहता हूं।’ मां भीतर तक सिहर गईं। एक ओर पुत्र की अंतिम इच्छा और दूसरी ओर उसकी ममता। वह क्या करे?

आखिर मन कड़ा कर मां ने संन्यासी होने की अनुमति दे दी। उसी समय संयोग से शंकर का पैर मगर के मुंह से छूट गया और वह पानी से बाहर निकल आया। मां उसे सकुशल देखकर खुशी के मारे रो दीकिंतु पुत्र की खुशी का कारण दूसरा था। उसे संन्यासी बनने की अनुमति जो मिल गई थी। यही शंकर आगे चलकर आदिशंकराचार्य बनेजिन्होंने संपूर्ण भारतवर्ष में धर्म और ज्ञान की ऐसी गंगा बहाईजो आज तक प्रवाहित हो रही है और जीवन के महत्वपूर्ण अवसरों पर हमारा उचित मार्गदर्शन करती है। सार यह है कि महान संकल्प दृढ़ इच्छाशक्ति से पूर्ण होते हैं। मन की मजबूती हर अवरोध को पार कर लक्ष्य प्राप्ति कराती है।

लालच की अति ने संकट में डाला
एक नगर में चार गरीब मित्र रहते थे। चारों ने तय किया कि किसी और नगर में जाकर काम खोजें। चारों नगर छोड़कर चल दिए। चलते-चलते थक गए तो वे एक वृक्ष के नीचे बैठ गए। सामने कुटिया में एक संत रहते थे। संत ने उनकी परेशानी का कारण पूछा। जिसे सुनकर संत ने कहा- मैं तुम्हें चार दीपक देता हूं। तुम एक-एक दीपक अपने हाथ में लेकर जाओ। जहां पहला दीपक गिरेतुम वहीं खुदाई करना। वहां तुम्हें धन मिल जाएगा।

उसे लेकर तुम लोग लौट आना।’ दीपक लेकर चारों चल दिए। थोड़ी दूर जाने पर एक मित्र के हाथ का दीपक गिर गया। चारों ने रुककर वहां खोदातो वहां तांबे की खान निकली। जिसके हाथ से वहां दीपक गिरा थाउसने खुश होकर अपने मित्रों से कहा- हम तांबा बांट लेंगे’ किंतु तीनों को लालच आ गया। वे आगे बढ़ गए। आगे जाने पर दूसरे के हाथ से दीपक गिरा।

वहां खुदाई करने पर चांदी की खदान निकली। दूसरे ने दोनों को वहीं रुकने को कहाकिंतु उन दोनों का लोभ और बढ़ गया। कुछ दूर जाने पर तीसरे के हाथ से दीपक गिरा। वहां सोने की खदान निकली। अब उसने चौथे को अपनी यात्रा समाप्त करने को कहाकिंतु चौथा लालच में आगे बढ़ा। उसे मार्ग में एक आदमी मिलाजिसके मस्तक पर एक चक्र घूम रहा था। वह खून से सराबोर हो रहा था। जब उसने उस आदमी से इसका कारण पूछातो वह चक्र उछलकर उसके मस्तक पर आ गया।

वह आदमी बोला- तुम्हारी तरह धनवान बनने के लालच में यह चक्र किसी दूसरे लोभी के माथे से उतरकर मुझे लगा था। अब किसी अन्य लोभी के आने तक तुम यह कष्ट भुगतोगे।’ लालच की अति ने उसे कष्ट में डाल दिया। वस्तुत: जरूरत से अधिक का लोभ व्यक्ति को नाश की ओर ले जाता है।

सावधान रहकर हिरण ने बचाई जान
किसी जंगल में हिरण बहुतायत में रहते थे। उनकी अच्छी तादाद देखकर एक शिकारी प्राय: उस जंगल में आता और एक फलदार वृक्ष पर मचान बांधकर बैठ जाता।

जब हिरण फल खाने उस वृक्ष के नीचे आतेतो वह हिरण का शिकार कर उनका मांस बेचकर अपनी गृहस्थी चलाता था। हिरणों केसमूह के एक हिरण ने जब अपने साथियों की कम होती संख्या पर गौर कियातो वह समझ गया कि कोई शिकारी उनका शिकार कर रहा है।

उसने अपने शेष साथियों को जंगल में सावधान रहने की सलाह दीकिंतु किसी ने उसकी चेतावनी पर विशेष ध्यान नहीं दिया। एक दिन वह हिरण अपने एक साथी हिरण केसाथ फल खाने निकलातो सावधानी से इधर-उधर देखते हुए चला। चलते-चलते जब दोनों उस फलदार वृक्ष के पास पहुंचेतो उस हिरण ने अपने मित्र को कहा कि कई बार ऐसे घने फलदार वृक्षों केपत्तों व फलों की ओट से छिपाकर शिकारी मचान बांधते हैंइसलिए हमें इस वृक्ष केनीचे नहीं जाना चाहिए।

मित्र उसकी बात मानकर रुक गया। उधर वृक्ष पर बैठे शिकारी ने जब दोनों हिरणों को वृक्ष केनीचे नहीं आते देखातो उन्हें लुभाने केलिए ओट में छिपकर फल उन दोनों की ओर फेंकना शुरू किया। चतुर हिरण समझ गया कि पेड़ पर शिकारी है। किंतु उसका मित्र इतने फल गिरते देख उनके लोभ में वृक्ष केनीचे चला गया और तब शिकारी ने उसे अपना शिकार बना लिया।

चतुर हिरण ने वहां से भागकर अपनी जान बचा ली। कहानी का निहितार्थ यह है कि सुविधा से अधिक ध्यान सजगता पर होना चाहिएक्योंकि अनेक बार सुविधा छल का प्रतिरूप होती है। इसलिए सुविधा केउपभोग केपूर्व उसकी सूक्ष्म पड़ताल करनी चाहिए।

दूसरों का दुख देख महावीर संन्यासी हुए
महावीर स्वामी जब संन्यासी नहीं हुए थेतब की बात है। वे महल के वैभव में रहते थे और निर्धनों व असहायों की दुनिया से पूर्णत: अपरिचित थे। एक दिन उन्हें भ्रमण की इच्छा हुई। जब उनकी इच्छा के बारे में पिता राजा सिद्धार्थ को ज्ञात हुआतो उन्होंने एक सेवक को महावीर के साथ कर दिया।

महावीर घूमने निकले। मार्ग में एक हवेली आईजो अत्यंत भव्य थी। अचानक उन्हें किसी के रोने की आवाज सुनाई पड़ीजो हवेली के भीतर से आ रही थी। उसे सुनकर महावीर का दिल दुख से भर गया। उन्होंने सेवक से कहा- यह कौन रो रहा हैहवेली में जाकर पता लगाओ।’ सेवक हवेली के अंदर गया और थोड़ी देर में लौटकर उसने बताया- एक आदमी दूसरे आदमी को पीट रहा है और पिटने वाला रो रहा है।

महावीर ने पीटने का कारण पूछातो वह बोला- मारने वाला मालिक है और पिटने वाला दास।’ महावीर ने पूछा- अच्छा! समाज में ऐसा भी होता है कि कोई मालिक होता है और उसे किसी को मारने का अधिकार भी होता है?’ सेवक ने उत्तर दिया- राजकुमार! मालिक चाहे तो गुलाम को बेच भी सकता है।’ यह सुनते ही महावीर यह सोचकर दुखी हो गए कि यह कैसा समाज हैजहां व्यक्ति मालिक और गुलाम में विभाजित है। जबकि इंसान तो सभी बराबर हैं।

हमें ऐसे समाज का निर्माण करना चाहिएजहां सभी समान हों। ईश्वर ने तो सभी को बराबर बनाया है। इस घटना के बाद महल के वैभव-विलास में महावीर की तनिक भी रुचि नहीं रही और अंतत: एक दिन वे इसे त्याग कर कठोर साधना की राह पर चल दिए। वस्तुत: स्वतंत्र आत्मा दूसरे की स्वतंत्रता को भी उतना ही महत्व देती हैजितना अपनी स्वतंत्रता को। 

जब गांधीजी ने स्वयं को दंड दिया 
महात्मा  गांधी दक्षिण अफ्रीका में थे। उन्होंने वहां की ब्रिटिश सरकार के खिलाफ अहिंसक युद्ध छेड़ रखा था। गांधीजी ने वहां फीनिक्स आश्रम की स्थापना की थीजहां रहकर वे आंदोलन का संचालन करते थे। उनके साथ जो लोग थेवे गांधीजी के सादगीपूर्ण तरीकेसे जीवन-यापन के सिद्धांतों का पालन करते थे।

एक दिन एक युवक गांधीजी के पास आया और उनके आश्रम में रहने की इच्छा व्यक्त की। उसे वहां के नियमों की जानकारी दी गई। उसने नियमों का पालन करने पर सहमति जताई। नियमों में से एक था - एक माह तक बिना नमक का भोजन करना। युवक ने उस नियम का पालन करने का प्रण लिया। गांधीजी ने उसे आश्रम में रहने की अनुमति दे दी। कुछ समय तक युवक ने उत्साह से नियमों का पालन कियाकिंतु फिर उसका मन नमकरहित भोजन से ऊब गया। 

उसने डरबन से मसालेदार स्वादिष्ट भोज्य पदार्थ मंगवाए और स्वयं तो खाया हीआश्रम के अन्य मित्रों को भी खिलाया। बाद में उनमें से एक ने गांधीजी को यह बात बता दी। गांधीजी ने आश्रम के सभी सदस्यों को बुलाकर पूछा- क्या तुम लोगों ने वह स्वादिष्ट भोजन किया?’ सभी ने इंकार किया। यह सुनते ही गांधीजी ने अपने दोनों गालों पर जोरों से थप्पड़ मारना शुरू कर दिया और बोले- मुझसे सच्चई छिपाने में कसूर तुम्हारा नहींमेरा ही हैक्योंकि शायद अभी तक मैंने पूर्णसत्य का गुण प्राप्त नहीं किया है। 

इसलिए सत्य मुझसे दूर भागता है।’ गांधीजी को निरंतर स्वयं को सजा देते देख उन सभी को अपनी भूल का अहसास हुआ और उन्होंने गांधीजी से क्षमायाचना की। सत्य के आग्रही को समाज के नैतिक सुधार के लिए कीमत चुकानी पड़ती है। वस्तुत: सत्संकल्प सत्समाज का निर्माता होता है।

नौरोजी का आत्मनिर्भरता का पाठ
दादाभाई  नौरोजी को किसी मुकदमे केसिलसिले में लंदन जाना था। संयोग से बाल गंगाधर तिलक को भी वहां कुछ काम था। सोदोनों ने साथ ही जाने का कार्यक्रम बनाया। जब नौरोजी व तिलक लंदन पहुंचेतो उन्होंने देखा कि लंदन में ठहरने का खर्च अधिक था।

कम खर्च केउद्देश्य से दोनों ने शहर से दूर एक गांव में ठहरने का निश्चय किया। तिलक और नौरोजी गांव पहुंचे और भोजन कर सो गए। अधिक थकान की वजह से सुबह तिलक की नींद नहीं खुली। दादाभाई नौरोजी चूंकि जल्दी उठने केआदी थेइसलिए थकान केबावजूद वे उठ गए। प्रात:कालीन कार्य निपटाकर नौरोजी ने अपने जूतों पर पॉलिश की। फिर उन्हें ख्याल आया कि तिलक केभी जूते पॉलिश कर दें।

वे तिलक केकमरे में गए और जैसे ही उनकेजूते उठाएतिलक की आंखें खुल गईं। उन्होंने दादाभाई केहाथों में अपने जूते देखेतो वे समझ गए कि वे पॉलिश करने जा रहे हैं। उन्होंने अपने जूते दादाभाई से मांगेतो वे बोले- जब हम दोनों भाई समान हैंतो जैसा मेरा जूतावैसा आपका। आपके जूते पॉलिश कर दूंगातो छोटा नहीं हो जाऊंगा।

तिलक ने कहा- नौकर नहीं आया क्याजो आप तकलीफ कर रहे हैं?’ तब दादाभाई ने तिलक को समझाया- यह गांव हैयहां हर ओर नौकर ही नौकर हैं। नौकरों की यहां कोई कमी नहीं है। किंतु जब सभी लोग अपना काम स्वयं करते हैंतो हमें भी अपना काम खुद करना चाहिए।’ दादाभाई नौरोजी की यह बात तिलक ने सदा केलिए गांठ बांध ली। सार यह है कि दूसरों पर निर्भर रहने से आत्मनिर्भर होना अच्छा है। अपना काम स्वयं करने से आत्मविश्वास बढ़ता है। काम मनपसंद होता है और समय की बचत भी होती है।

राजा रघु ने किया वचन का पालन
त्रेता युग में सम्राट रघु की बड़ी प्रतिष्ठा थी। दान’ उनकी दिनचर्या का अहम हिस्सा था। उनकी यह ख्याति त्रिलोक में फैल गई थी। एक दिन राजा रघु दरबार में बैठे थे कि दरबान ने किसी ऋषिकुमार के आने की सूचना दी।

राजा रघु ने उन्हें दरबार में सादर ले आने का आदेश दिया। ऋषिकुमार जब दरबार में आएतो राजा रघु ने उनका यथोचित सत्कार कर आसन दिया और आने का कारण पूछा। ऋषिकुमार ने अपना परिचय देते हुए कहा- मेरा नाम कौत्स है राजन्!

मैंने आपके दान की बहुत ख्याति सुनी है। मैं आपसे कुछ दान चाहता थाकिंतु बाहर मैंने सुना कि आपने यज्ञ में अपना समग्र वैभव दान कर दिया है। अब मैं आपसे क्या अपेक्षा कर सकता हूं?’ रघु बोले- नहींविप्रवर! अपना प्रयोजन बताइएमैं उसे किसी भी तरह पूर्ण करूंगा।

कौत्स ने कहा- मेरे गुरु मुझसे दक्षिणा नहीं ले रहे थे। मेरे बार-बार आग्रह करने पर क्रोध में आकर उन्होंने मुझसे चौदह लाख स्वर्ण मुद्राएं मांग लींजो कि मेरे लिए असंभव है। मैं यह रकम आपसे पाने की आशा में आया थाक्योंकि गुरु की आज्ञा का पालन करना चाहता हूं।

उसकी बात सुनकर रघु बोले- कोई ब्राह्म्ण मेरे यहां से खाली हाथ जाएयह मेरे जीवन को धिक्कार है।’ उन्होंने तत्काल कुबेर लोक पर आक्रमण की योजना बनाई और सेना तैयार कर ली। तभी उनके  कोषाध्यक्ष ने आकर सूचना दी कि रात्रि में देवलोक से स्वर्ण-वृष्टि हुईक्योंकि देवतागण रघु की दानशीलता से परम प्रसन्न थे। इस स्वर्ण-वृष्टि से पूरा राजकोष फिर से भर गया है। तब राजा रघु ने ऋषिकुमार कौत्स को उनका वांछित दान दिया। वस्तुत: अपनी बात पर अडिग रहने वाला व्यक्ति समाज में स्वयं के प्रति अखंड विश्वास अर्जित करता है।

बुद्धिमान मंत्री ने राजा को सुधारा
वाराणसी का राजा ब्रह्मदत्त शंकालु प्रवृत्ति का था। एक बार उसे अपने पुत्र पर ही संदेह हो गया कि वह उसकेविरुद्ध षड्यंत्र रच रहा है। उसने पुत्र को उसकी पत्नी सहित राज्य से निकाल दिया। पिता के इस कटु व्यवहार से आहत पुत्र के स्वभाव में भी कठोरता आ गई। वह दूसरे राज्य में जाकर रहने लगा। अब वह अपनी पत्नी को भी स्नेह नहीं करता और उसके साथ रूखा व्यवहार करता था।

कुछ समय बाद राजा ब्रह्मदत्त का निधन हो गया। उसकी रानी ने राज्य संभालने केलिए अपने पुत्र को वापस बुलाया। वापस अपने राज्य लौटते समय दोनों केपास चावल की एक पोटली थीकिंतु पति ने अकेले ही चावल खा लिए और पत्नी भूखी रही। जब वह राजा बनातब भी उसने अपनी पत्नी को जीवनयापन केसीमित साधन दिए।

दरबार में एक बुद्धिमान मंत्री था उसने रानी की दशा सुधारने की ठानी। उसने सभी केसामने सत्य उजागर करने की योजना रखी। रानी मान गई। अगली सुबह जब दरबार लगातो मंत्री ने रानी से पूछा- रानीजी! आप बहुत कठोर हृदय हैं। आप कभी अनाथोंगरीबों व वृद्धों को कोई दान नहीं देतींजबकि खजाना तो भरा है।

रानी बोली- मंत्रीवर! मुझे महाराज की ओर से कुछ नहीं मिलता। फिर दान कहां से दूंउन्होंने तो रास्ते में आते वक्त भी मुझे भूखा रख स्वयं भोजन किया। मैं तो केवल नाम की रानी हूं।’ रानी की बात सुनकर राजा को अपने व्यवहार पर लज्जा आई। तभी मंत्री ने रानी को सलाह दी- फिर उनकेसाथ रहने से क्या फायदा?

आप अपने मायकेचली जाइए।’ जैसे ही रानी जाने को तत्पर हुईंराजा ने भरे दरबार में उनसे क्षमा मांगी। वस्तुत: अनेक बार कुमार्गगामी को सुधारने केलिए युक्ति का सहारा लेना उचित होता है।

मृत्यु शैया पर बुद्ध ने सुभद्र को दी शिक्षा
गौतम बुद्ध ने जिस दिन से संन्यास ग्रहण कियाउसी दिन से स्वयं को संपूर्ण समाज के कल्याण हेतु समर्पित कर दिया था। संन्यास पथ पर निरंतर चलते हुए उन्हें गया में निरंजना नदी के किनारे ज्ञान की प्राप्ति हुई। उनके पवित्र जीवन उद्देश्य को लाखों लोगों ने उनका शिष्यत्व ग्रहण कर अपनाया और अपना सब कुछ जनलाभार्थ अर्पित कर दिया।

जब बुद्ध का अंतकाल निकट आयातो वे कुछ अस्वस्थ हो चले थे। इस कारण लोगों से भेंट करना उन्होंने बंद कर दिया था। उनके शिष्य चौबीस घंटे उनकी परिचर्या करते और किसी भी बाहरी व्यक्ति को उनसे नहीं मिलने देते थे। उन सभी को बुद्ध के स्वास्थ्य की बहुत चिंता थी। ऐसे समय एक दिन सुभद्र वहां आए और बुद्ध के शिष्यों से आग्रह किया कि बुद्ध से मुझे मिलने दिया जाएक्योंकि उनसे भावी परिस्थितियों के विषय में आवश्यक चर्चा करनी है।

शिष्यों ने बुद्ध की अस्वस्थता बताकर सुभद्र को अंदर जाने से रोक दिया। बुद्ध ने जब यह चर्चा सुनीतो उन्होंने सुभद्र को अंदर बुलाया और अपने परम शिष्य आनंद से कहा- मैं भले ही अस्वस्थ हूंकिंतु लोकमंगल की भावना से मेरे पास आए सुभद्र से न मिलूंतो अपना जीवन सार्थक कैसे कर पाऊंगा?’ सुभद्र बुद्ध की ऐसी श्रेष्ठ भावना देखकर श्रद्धा से अभिभूत हो गए।

बुद्ध ने उनकी सभी शंकाओं का समाधान किया। बुद्ध से हुई इस भावपूर्ण भेंट से सुभद्र इतना प्रभावित हुए कि अपना सर्वस्व त्यागकर भिक्षु बन गए और बौद्ध धर्म के प्रचार में भरपूर योगदान दिया। बुद्ध केअंतिम शिष्य सुभद्र ही थे। वस्तुत: यदि जीवन में लोकमंगल की भावना को जिएं तो सामाजिक कल्याण सही अर्थो में साकार हो उठता है।
वीर बालक ने पाया वीरोचित सम्मान
वीर बालक ने पाया वीरोचित सम्मान बंगाल के शासक नवाब सरफराज खां बिहार दौरे पर थे। जब वे राजधानी मुर्शिदाबाद की ओर लौटने लगे तो उनके सेनापति अलीवर्दी खां ने पूरी सेना के साथ भागीरथी नदी के किनारे पर आकर पड़ाव डाला। वह नवाब को खत्म कर तख्त छीनने के इरादे से आया था।

जब सरफराज खां अपने काफिले के साथ गिरिया के मैदान में पहुंचेतो भागीरथी के उस पार अपनी सेना और सेनापति को देखकर चकित हुए। फिर उन्हें अलीवर्दी खां की गद्दारी के बारे में मालूम हुआ। उन्होंने पराजय निश्चित जानने के बाद भी वीरों की भांति युद्ध किया और मारे गए। उनके विश्वस्त विजयसिंह को जब उनकी शहादत के बारे में पता चला तो वह अलीवर्दी खां से भिड़ गया। जोरदार लड़ाई के बाद विजयसिंह भी शहीद हो गया। अब शेष बचा था उसका नौ वर्षीय पुत्र जालिमसिंह।

वह अपनी छोटी-सी तलवार हवा में तानकर पिता के शव के चारों ओर घूमने लगा ताकि शत्रु मृत देह को हाथ न लगा सकें। शत्रु सैनिकों ने उसे चारों ओर से घेर लिया। किंतु अलीवर्दी खां ने उसकी निर्भीकता देख सैनिकों से कहा- खबरदार! इस सिंह-पुत्र को कोई हाथ भी मत लगाना। कल यही हमारी फौज में सितारा बनकर चमकेगा।’ तत्पश्चात अलीवर्दी खां की आज्ञा से एक मुस्लिम सैनिक ने जालिमसिंह को आदरसहित शिविर में छोड़ा।

फिर हिंदू सैनिकों की सहायता से भागीरथी के किनारे पर उसके पिता का विधानपूर्वक अंतिम संस्कार किया गया। जालिमसिंह को अलीवर्दी खां ने अपनी अमानत’ घोषित किया और उसके पालन-पोषण की उचित व्यवस्था की। वस्तुत: साहस शत्रु के बीच भी सम्मान पाता है। इसलिए प्रतिकूल परिस्थितियों में भी साहस रूपी चित्त की दृढ़ता रखनी चाहिए।

आम आदमी बने रहे शास्त्रीजी
बात उन दिनों की हैजब भारत में आजादी पाने के लिए पुरजोर प्रयास किए जा रहे थे। गर्म दल अपने तरीके से और नर्म दल अपनी शैली में कर्मरत था।

उद्देश्य दोनों का एक ही था - आजादी। इस दौर में स्वतंत्रता-संग्राम सेनानियों के लिए जेल जाना किसी तीर्थयात्रा से कम नहीं होता था। ये लोग खुशी-खुशी जेल जाते और ब्रिटिश सरकार केअत्याचारों को बिना उफ् किए झेलते जाते। लालबहादुर शास्त्री भी इसी सिलसिले में जेल में बंद थे।

हालांकि उनके साथ अत्याचारपूर्ण व्यवहार नहीं होता थाक्योंकि वे विशिष्ट राजनीतिक कैदी थे। उन्हें सामान्य कैदियों केसाथ नहीं रखा गया था। उन्हें एक अलग कमरा दिया गया थाजहां उनके दैनंदिन उपयोग की सारी वस्तुएं थीं।

शास्त्रीजी को कुछ विशिष्ट सुविधाएं भी दी गई थींजिनमें से एक यह थी कि उन्हें अन्य कैदियों को दिया जाने वाला खाना न देते हुए अलग से स्वादिष्ट भोजन बनाकर परोसा जाता था। शास्त्रीजी को यह बात मालूम हुईतो उन्होंने प्रतिदिन वह भोजन साधारण कैदियों में बांटना शुरू कर दिया। वे स्वयं उन कैदियों का सामान्य भोजन करते थे। जब यह बात जेलर को ज्ञात हुईतो उसने शास्त्रीजी से इसका कारण जानना चाहा।

शास्त्रीजी ने अत्यंत सहजता से कहा- भाई! मैं नहीं चाहता कि यहां का स्वादिष्ट भोजन करकेमेरी आदत खराब हो जाएइसलिए वह खाना मैं इन कैदी भाइयों को दे देता हूं और उनका खाना स्वयं खा लेता हूं। आखिर मैं एक आम इंसान हूं और वैसा ही बना रहना चाहता हूं।’ जेलर शास्त्रीजी की बात सुनकर उनके प्रति श्रद्धावनत हो गया। विशिष्टजन होने के बावजूद साधारणता में प्रसन्न रहने वाले लोग ही सच्चे अर्थो में महान होते हैं। उनका अनुसरण प्रत्येक युग में प्रासंगिक है।

दीवान की चतुराई से मिला न्याय
सिखों के शासनकाल में एक सूबा था मुलतान। वहां के दीवान थे सावनमल। वे अत्यंत न्यायप्रिय थे। अत: मामलों का न्यायोचित निराकरण होता था और प्रजा उनसे संतुष्ट बनी रहती थी। एक बार दीवान साहब के पास एक विधवा महिला आई और उसने बताया कि पति के न रहने पर उसके रिश्तेदारों ने उसकी जमीन व कुएं पर जबरन अधिकार कर लिया है और उसे निरंतर प्रताड़ित कर रहे हैं।

उसकी समस्या सुनकर दीवान साहब बोले- बहन! मैं कल सुबह तुम्हारे कुएं पर स्नान करूंगा और तभी सारे मामले की छानबीन करूंगा। तुमने मेरी अदालत में शिकायत की हैबस यह किसी को मालूम मत होने देना।’ दूसरे दिन दीवान साहब ने उस महिला के कुएं पर स्नान किया और फिर उसके रिश्तेदारों को बुलाकर कहा- इस कुएं में मेरी सोने की अंगूठी गिर गई है।

मैं अपने नौकरों से उसकी खोजबीन कराता हूं। मिल गई तो ठीक अन्यथा उसका मूल्य पंद्रह हजार रुपए तुम्हें देना पड़ेगा।’ यह सुनते ही उस महिला के रिश्तेदार घबरा गए। उन लोगों ने कहा- माईबाप! यह कुआं हमारा नहीं हैहमारी रिश्तेदार एक विधवा महिला का है।’ तब दीवान साहब ने महिला को बुलाकर पूछा- क्या यह कुआं तुम्हारा है?’ महिला ने सहमति जताई। तब दीवान साहब ने अगला प्रश्न किया- क्या ये तुम्हारे रिश्तेदार हैं?’ उसके रिश्तेदार बोले- यह कुआं और यह सारी खेती-बाड़ी इन्हीं की है।

हम तो इनके कारिंदों के तौर पर यहां काम करते हैं।’ तब दीवान साहब बोले- ठीक है।’ दीवान साहब के समक्ष की गई स्वीकारोक्ति के बाद उस महिला के रिश्तेदारों ने कुएं व जमीन का कब्जा छोड़ दिया। वस्तुत: प्रतिद्वंद्वी को पराजित करने के लिए चतुराई की जरूरत होती है।

बापू ने दी मितव्ययिता की सलाह
नोआखाली में गांधीजी की पदयात्रा चल रही थी। जब गांधीजी पदयात्रा करते हुए देवीपुर ग्राम पहुंचेतो वहां उनका भव्य स्वागत किया गया। पूरे गांव में ध्वजातोरण व पताकाओं से सजावट की गई थी। यह देखकर गांधीजी को बहुत पीड़ा हुईक्योंकि गुलाम भारत की दयनीय दशा के चलते उन्हें यह अपव्यय लगा। उस समय मौन में होने के कारण वे कुछ नहीं बोले। जब शाम को उनका मौन समाप्त हुआतो उन्होंने वहां के मुख्य कार्यकर्ता से प्रश्न किया- 'आप ये सारी वस्तुएं कैसे लाएकार्यकर्ता बोला- 'बापू! आप यहां कब आतेजो हमें आपके सत्कार का सौभाग्य मिलताइसलिए हम सभी ने आठ-आठ आने देकर तीन सौ रुपए एकत्रित किए और उनसे ये सारी वस्तुएं लाए।गांधीजी ने दुखी होकर कहा - 'मेरे भाई! ये फूल और उनकी सज्जा थोड़ी देर में मुरझा जाएगी। अपना देश गुलामी की ज्वाला में जल रहा है। लोग भूखे मर रहे हैंउनके पास कपड़ा और मकान नहीं हैं।

यदि फूल-मालाओं के स्थान पर सूत के हार सजातेतो मुझे कष्ट नहीं होताक्योंकि सूत बाद में कपड़ा बन जाता। आपने विलायती मिल का रेशमी कपड़ा व रिबन सजावट में उपयोग कियाजो देश के साथ छल है। यदि आप मेरे प्रति सच्चा स्नेह व आदर रखते हैंतो यह सब न करें। मेरा सत्कार जरूरी नहीं हैजरूरी है देश की आजादी।गांव वालों ने अपनी भूल स्वीकारी और गांधीजी के दिखाए मार्ग पर चलने का संकल्प लिया। गांधीजी की कही हुई बात आज भी प्रासंगिक हैक्योंकि वर्तमान में भी नेताओं व अन्य विशिष्ट व्यक्तियों के सत्कार पर काफी अनावश्यक व्यय होता है। यदि इस धन को देश के विकास पर लगाएंतो दिन दूनीरात चौगुनी उन्नति संभव है।

जीवनहंता पराजित हुआ जीवनदाता से
गौतम बुद्ध उन दिनों संन्यासी नहीं हुए थे। उनका नाम सिद्धार्थ था। एक राजकुमार के रूप में सिद्धार्थ तनिक भी अहंकारी नहीं थे। वे सभी से स्नेहपूर्वक मिलतेबातचीत करते। जहां किसी को कष्ट में देखतेतत्काल सहायता हेतु तत्पर हो जाते। सिद्धार्थ का चचेरा भाई था - देवदत्त।

सिद्धार्थ जितने दयालु और करुणावान थेदेवदत्त उतना ही दुष्ट था। एक दिन दोनों भ्रमण कर रहे थे। देवदत्त के  पास धनुष था। अचानक उसे एक पक्षी दिखाई दिया। उसने तत्काल तीर चला दिया। पक्षी घायल होकर सिद्धार्थ की गोद में आ गिरा। सिद्धार्थ ने पक्षी को अपने हाथों में उठाकर पानी पिलाया। उसके  घाव पर मरहम लगाया। फिर उसे स्नेह से सहलाने लगे। पक्षी उनके  स्नेह व सेवा से स्वस्थ हो गया। तभी देवदत्त ने सिद्धार्थ के  पास आकर नाराजगी से कहा- यह पक्षी मेरा शिकार है। इसे मुझे दे दो।’ देवदत्त की दुष्टता को देखकर सिद्धार्थ पक्षी देने के  लिए राजी नहीं हुए।

देवदत्त ने न्यायालय में उनकी शिकायत की। सिद्धार्थ ने न्यायाधीश से निवेदन किया कि मैंने पक्षी के  प्राण बचाएइसलिए वह मेरा हैजबकि देवदत्त का तर्क था कि पक्षी पर निशाना मैंने साधाइसलिए वह मुझे मिलना चाहिए। न्यायाधीश ने निर्णय दिया कि जो व्यक्ति किसी का जीवन बचाता हैवही उस प्राणी का सच्च अधिकारी होता हैन कि वह जो उसके  जीवन को समाप्त करने का अपराधी होता हैइसलिए यह पक्षी सिद्धार्थ का है। मारने वाले से बचाने वाला बड़ा होता हैक्योंकि जीवन लेना आसान है और जीवन देना अत्यंत कठिन। वस्तुत: मानवीयता का भी यही तकाजा है और मनुष्य को अपनी इस सबसे महत्वपूर्ण पहचान को सुरक्षित रखना चाहिए।

संत रैदास के लिए कर्म ही पूजा थी
संत रैदास की उत्कृष्ट भक्ति जग विख्यात है। वे अपना कार्य करते हुए ईश-स्मरण करते रहते थे। उन्होंने कभी अपना काम छोड़कर ईश्वर को नहीं भजा। उनके लिए उनका काम ही भगवान की पूजा थी। अनेक लोग उनकी भक्ति का यह स्वरूप देखकर उनका उपहास भी उड़ाते थेकिंतु रैदास लगन से अपने काम में जुटे रहते।

उनके लिए काम और प्रभु-भजन एक ही सिक्के के दो पहलू थे। एक दिन उनके घर कोई साधु आया। संयोग से उस दिन सोमवती अमावस्या थी। रैदास ने साधु का यथोचित सत्कार किया। फिर उससे बात करते हुए अपने काम में लग गए। साधु ने शुभ दिन का हवाला देते हुए उनसे गंगा स्नान का आग्रह किया। रैदास ने काम खत्म कर चलने को कहा।

साधु मान गयाकिंतु रैदास का काम जल्दी समाप्त नहीं हुआ। उन्हें साधु को प्रतीक्षा कराना उचित नहीं लगा। अत: उन्होंने साधु से कहा- महात्माजी! मेरे भाग्य में शायद गंगा स्नान नहीं हैइसलिए आप मेरे पैसे भी ले जाकर गंगाजी को चढ़ा दीजिएगा।’ साधु ने उनसे पैसे लिए और गंगा स्नान करने के लिए चला गया। गंगा स्नान के बाद साधु ने सूर्य को अघ्र्य दिया और फिर गंगा में खड़े होकर रैदास का नाम लेकर उनके पैसे चढ़ाए।

साधु को विस्मय हुआ जब उसे ऐसी अनुभूति हुई मानो गंगा मां ने दोनों हाथ बाहर निकालकर संत रैदास की भेंट स्वीकार की। उसने वापस लौटकर रैदास को यह बात बताईतो उन्होंने विनम्र भाव से कहा- संभवत: यह मेरे कर्तव्य-पालन का प्रतिफल होगा। गंगा मां को मैं यहीं से नमन करता हूं।’ सार यह है कि कर्तव्य-पालन में ही सच्ची भगवद्भक्ति निहित हैन कि धार्मिक आडंबरों में। ईश्वर को कर्मशीलता प्रिय है।

बुद्धिमान की सलाह से मिला फायदा
किसी गांव में एक निर्धन ब्राह्मण अपने वृद्ध पितानेत्रहीन मां और पत्नी के साथ रहता था। ब्राह्मण लोगों के घरों में पूजा-पाठ कराकर अपना जीवन-यापन करता था। ईमानदार होने के कारण वह किसी से अधिक पैसे नहीं लेता था।

ब्राह्मण देवी का बड़ा भक्त था। एक दिन देवी ने उस पर प्रसन्न होकर उसे दर्शन दिए और कहा- तू कोई एक वरदान मांग ले।’ ब्राह्मण बोला- मां! आप कुछ देर रुको। मैं घर के लोगों से सलाह लेकर आता हूं।’ देवी मान गईं। ब्राह्मण ने जब घर के लोगों को वरदान की बात बताईतो पिता बोले- तू देवी से यह वर मांग कि हम संपन्न हो जाएं। तभी मां ने कहा- नहींतू देवी से मांग कि मेरी मां की आंखें ठीक हो जाएं।

पत्नी ने कहा- मेरी गोद अब तक सूनी है। आप अपने लिए पुत्र मांग लीजिए।’ ब्राह्मण बड़ी परेशानी में पड़ गया। उसने तीनों को समझाने की बहुत कोशिश कीकिंतु कोई भी अपनी मांग से समझौते के लिए तैयार नहीं था। ब्राह्मण यह सोचकर देवी के मंदिर की ओर चला कि मैं देवी से क्षमा मांगकर कोई वर ही नहीं मांगूंगा।

तभी मंदिर के बाहर ब्राह्मण की भेंट गांव के बुद्धिमान सरपंच से हुई। ब्राह्मण का उदास मुख देखकर उसने कारण पूछातो उसने सारी बात कह सुनाई। तब सरपंच ने कहा- तुम परेशान मत होओ। तुम देवी से यह वर मांगना कि मैं चाहता हूं कि मेरी मां अपने पोते को सोने के कटोरे में दूध पीता देखे।’ ब्राह्मण ने यही किया। देवी ने उसे तथास्तु’ कहा और इस प्रकार ब्राह्मण धनवान भी हो गयाउसकी मां की नेत्र ज्योति भी लौट आई और उसके यहां पुत्र-जन्म भी हो गया। सार यह है कि संकट में बुद्धिमान लोगों की राय लेने से किस्मत के बंद द्वार खुल जाते हैं।

सर्वशक्तिमान है ईश्वर
अवध के नवाब आसफुद्दौला दयालु थे। दो फकीरों ने भी उनकी दानशीलता के विषय में सुन रखा था। दोनों यह गाते हुए भिक्षा मांगते थे- सबका मालिक है वह मौला। सबके दुख हरेगा मौला।’ एक दिन एक फकीर ने दूसरे से कहा- हमें इस तरह मांगते हुए बरसों बीत गएकिंतु हमारे कष्ट दूर नहीं हुए। अब मैं नवाब आसफुद्दौला से मांगूंगा।’ और उसने आसफुद्दौला के द्वार पर जाकर आवाज लगाई - जिसे न दे मौलाउसे दे आसफुद्दौला।

नवाब यह सुनकर बड़े खुश हुए और फकीर के लिए दो खरबूज भिजवाए। फकीर को नवाब साहब से काफी उम्मीद थीकिंतु मात्र खरबूज देख वह दुखी हो गया। फिर एक दुकान पर चिलम पीने के लिए तंबाकू मांगी। पैसे नहीं थेइसलिए दुकान के कर्मचारी को खरबूज देकर तंबाकू ले ली। दुकान का मालिक आया और जब उसने खरबूज देखकर उनके बारे में पूछा तो कर्मचारी ने फकीर के बारे में बताया।

मालिक बोला- तुझे तंबाकू मुफ्त में दे देनी थी।’ तभी दूसरा फकीर वहां पहुंचा। दुकानदार ने उसे वे खरबूज दे दिए। फकीर ने अपनी झोपड़ी में पहुंचकर जैसे ही उन्हें काटाखरबूजों के अंदर से हीरे-जवाहरात निकलेजिससे वह अमीर हो गया। उधर पहला फकीर सात दिन बाद फिर नवाब साहब के द्वार पर पहुंचा और आवाज लगाई।

नवाब यह सोचकर नाराज हुए कि कुछ दिन पहले ही इसे इतने हीरे-जवाहरात दिएफिर भी यह संतुष्ट न हुआ। जब उन्होंने फकीर को बुलाकर खरबूजों के बारे में पूछातो उसने उन्हें देकर तंबाकू खरीदने की घटना सुना दी। तब नवाब दुखी होकर बोले- मुझे अपनी दानशीलता पर घमंड हो गया था। वास्तव में देने वाला तो खुदा ही है।’ वस्तुत: ईश्वर ही सर्वशक्तिमान है।

पहलवान का घमंड चूर-चूर हो गया
एक पहलवान कुश्ती लड़ता और हमेशा जीतता था। किंतु उसके पिता का विचार था कि उसे अपने परिवार की खेती-बाड़ी में भी हाथ बंटाना चाहिए। कुछ समय बाद गांव से कुश्तियों का चलन समाप्त हो गया। अब पहलवान की कमाई बंद हो गई। उसने किसी और स्थान पर जाकर पहलवानी से पैसा कमाने का विचार किया।

पिता ने खेती करने का बहुत आग्रह कियाकिंतु उसने एक न सुनी और यात्रा पर रवाना हो गया। चलते हुए वह नदी किनारे पहुंचा और मल्लाह से नाव में निशुल्क बैठाने का आग्रह किया। मल्लाह नहीं मानातो उसे पीट दिया। उस समय तो मल्लाह ने पहलवान को बैठा लियाकिंतु बीच रास्ते में आकर बोला- नाव खतरे में है। तुम बीच पानी में खड़े इस खंभे पर चढ़कर नाव का रस्सा पकड़ लोतो नाव डूबेगी नहीं।

पहलवान ने ऐसा ही किया। खंभे पर चढ़ते ही मल्लाह ने उसके हाथ से रस्सा खींचकर नाव आगे बढ़ा दी। पहलवान दो-तीन दिन भूखा-प्यासा खंभे पर बैठा रहा। जैसे-तैसे किनारे पहुंचा। उसे जोरों की प्यास लगी थी। उसने देखा कि कुएं पर भीड़ है। यहां भी उसने बल-प्रयोग कर पहले पानी पीना चाहातो लोगों की भीड़ ने उसे पीट दिया। फिर वह एक काफिले में रक्षक के बतौर शामिल हो गया।

पहलवान ने अपनी शक्ति के बल पर सभी को आश्वस्त कर भोजन मांगाक्योंकि वह कई दिनों से भूखा था। जब उसे खाना दियातो उसने इतना खा लिया किगहरी नींद में सो गया। काफिले वाले उसे वहीं छोड़कर चले गए। सुबह नींद खुलने पर पहलवान ने स्वयं को अकेला पाया। अब वह समझ गया था कि उसका घमंड बेकार था और पिता सही थे। वह वापस अपने गांव लौट गया। वस्तुत: अहंकार का परिणाम सदैव बुरा ही होता है।

मैरी दीदी ने दिखाया बड़प्पन
ब्रिटिश राज में भारत में किसी स्थान पर मैरी नाम की एक मृदुभाषी और सेवाभावी नर्स थी। किंतु कुछ अतिवादी लोग मैरी केरोमन कैथोलिक होने केकारण उससे घृणा करते थे। वे उसे राह पर चलते हुए परेशान करते। कोई पत्थर मारतातो कोई फब्ती कसताकिंतु मैरी इस ओर कभी ध्यान नहीं देती और अपने सेवा-कार्य में लगी रहती।

एक दिन मैरी अस्पताल जा रही थीतभी एक युवक ने उसे अपशब्द कहते हुए एक बड़ा-सा पत्थर उसकेऊपर फेंका। पत्थर मैरी केसिर पर लगा। सिर फट गया और रक्त से मैरी केकपड़े भीग गए। किंतु मैरी चुपचाप अस्पताल चली गई। कुछ ही दिनों बाद उस नगर में स्थित कोयले की खान में विस्फोट हो गया।

विस्फोट में घायल मजदूरों को जब अस्पताल लाया गयातो मैरी ने उनकी बहुत सेवा की। इनमें से कई वे थेजो मैरी का अपमान करते थे। अब वे मैरी का सेवाभाव देखकर नतमस्तक थे। इन्हीं में वह युवक भी थाजिसने मैरी को पत्थर मारा था। आखिर एक दिन युवक मैरी केसामने रो दिया। जब मैरी ने कारण पूछातो वह बोला- शायद आप मुझे नहीं जानतींदीदीमैं वही हूंजिसने आप पर पत्थर फेंका था।

मैरी ने स्नेह भरे शब्दों में कहा- मेरे भाई! जब तुम्हें यहां लाया गया थाउसी समय मैंने तुम्हें पहचान लिया था।’ युवक ने आश्चर्य से पूछा- फिर आपने मैरी इतनी सेवा क्यों की?’ मैरी उसकेसिर पर हाथ फेरते हुए बोली- क्योंकि मैं तुममें अपना भाई देखती हूं।’ युवक मैरी का जवाब सुनकर उसके पैरों में झुक गया और सदा के लिए उसका भाई बन गया। वस्तुत: क्षमा से मनुष्य केभीतर का राक्षस समाप्त हो जाता है और फिर जो मनुष्य सामने आता हैवह एकदम खरा होता है।

जिंदगी हारकर जीता विश्वास
जब मानव-श्रम पर मशीनों को वरीयता दी जाने लगीतो लाखों लोग बेरोजगार हो गए। यूरोप में मशीनी युग आरंभ हुआतो मिलों से मजदूरों की छंटनी कर दी गई। अनेक स्थानों पर मिल-मालिकों व मजदूरों के बीच झड़प हुईमारपीट भी हुईकिंतु फायदा कुछ न हुआ। एक दिन विलियम कार्टराइट नामक एक मिल मालिक की मिल पर आधी रात के समय कुछ बेरोजगार मजदूरों ने धावा बोला।

दोनों पक्षों में जमकर मारपीट हुई। अंतत: मजदूरों को भागना पड़ा। इन्हीं में से एक युवक था - बूथ। उन्नीस साल का यह नवयुवक टांग टूटने के कारण भाग नहीं सका और पहरेदारों द्वारा पकड़ लिया गया। उसे अस्पताल में भर्ती करा दिया गया। इलाज के दौरान उसके पास हमेशा एक पादरी बैठा रहता था। मिल-मालिक को लगता था कि बूथ पादरी को अपने अन्य हमलावर मित्रों के नाम बता देगा।

बूथ भी पादरी के वहां बैठे रहने का कारण जानता थाकिंतु उसने एक दिन भी पादरी से बात नहीं की। जब बूथ को लगा कि अब वह नहीं बचेगातब उसने पादरी को अपने पास बुलाया। पादरी ने स्नेह से उसके सिर पर हाथ फेरकर पूछा - क्या कहना चाहते हो बेटा?’ बूथ बोला - यदि कोई आपसे अपना रहस्य बांटेतो आप उसे गुप्त रख सकते हैं?’ पादरी ने खुश होकर कहा - हांबिलकुल।

विश्वासघात तो बहुत बड़ा पाप है।’ तब बूथ का चेहरा शांति व प्रसन्नता से चमक उठा। वह बोला - मैं भी यही मानता हूं और इसी बात का पालन करते हुए शांति से बिना किसी को कुछ बताए मर रहा हूं।’ यह कहकर बूथ ने अंतिम सांस ली और पादरी उसे हक्का-बक्का सा देखता रह गया। त्याग और परिश्रम की देन विश्वास होता है। इसलिए विश्वासभाजन बनकर विश्वास भंजन नहीं करना चाहिए।

भगवान कृष्ण ने सेवा का आदर्श पेश किया
एक बार युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ का आयोजन किया। दूर-दूर से आम व खास को आमंत्रित किया। चूंकि यज्ञ बड़े पैमाने पर हो रहा थाइसलिए काम भी अधिक था। युधिष्ठिर ने सोचा कि यदि यज्ञ से संबंधित समस्त कार्यो को विभिन्न व्यक्तियों के मध्य विभाजित कर दिया जाएतो आयोजन सुचारु रूप से संपन्न होगा और किसी प्रकार की कोई कमी नहीं रहेगी।

उन्होंने स्वयं कुछ काम अपने हाथ में रखकर शेष कामों को चारों भाइयोंपत्नी-द्रौपदीमाता-कुंती और अन्य सहयोगियों के बीच बांट दिया। जब सारा कार्य-विभाजन हो गयातब भगवान श्रीकृष्ण वहां आए। उन्होंने युधिष्ठिर से कहा - आपने सभी लोगों को कुछ न कुछ काम दिया है। मुझे भी कोई काम दीजिए। मैं यूं हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठ सकता।’ युधिष्ठिर सहित सभी पांडव श्रीकृष्ण के प्रति अत्यंत श्रद्धा-भाव रखते थेइसलिए युधिष्ठिर ने उनसे आग्रह किया - आपके लिए हमारे पास कोई काम नहीं है।

बसआप तो बैठे-बैठे देखिए कि सभी लोग ठीक ढंग से काम कर रहे हैं या नहीं?’ श्रीकृष्ण तत्क्षण बोले - मैं बेकार तो रह नहीं सकता। कोई काम तो मेरे लायक अवश्य होगा।’ युधिष्ठिर ने हंसकर कहा - मेरे पास तो आपके लिए कोई काम नहीं है। यदि आपको कुछ करना ही हैतो आप स्वयं अपना काम तलाश लीजिए।’ श्रीकृष्ण बोले - तो ठीक हैमैंने अपना काम खोज लिया।

युधिष्ठिर ने पूछा - क्या काम खोजा?’ श्रीकृष्ण ने कहा - मैं सभी की जूठी पत्तलें उठाऊंगा और सफाई करूंगा।’ यह सुनकर युधिष्ठिर हैरान रह गए। फिर उन्होंने श्रीकृष्ण को रोकाकिंतु उन्होंने इस सेवा-कार्य को किया और असीम सुख पाया। सेवा परम आदर्श है। यह दूसरों के प्रति आचरित वह सद्भाव हैजो लोककल्याण को साकार करता है।

यम से पाया अपना इच्छित ज्ञान
ऋषि उद्दालक ने विश्वजीत यज्ञ किया। यज्ञोपरांत दान देने की परंपरा है। उद्दालक ने ऋत्विजों को गायें दान में दीं और जिसने जो भी मांगाउन्होंने वह दिया। उनके पास पुत्र नचिकेता भी बैठा हुआ था।

उसने देखा कि दान में वे वृद्ध गायें भी दी जा रही थींजिन्होंने दूध देना बंद कर दिया था। नचिकेता समझ नहीं पाया कि सर्वस्व दान में व्यर्थ हो चुकी वस्तुएं क्यों सम्मिलित की गईंउसने पिता से पूछा - जिन गायों की अब कोई उपयोगिता शेष नहीं रहीउन्हें दान में देने से क्या फायदा?’ पिता ने उत्तर दिया - सर्वस्व दान में सब कुछ शामिल है।’ नचिकेता ने पुन: प्रश्न किया - फिर तो मैं भी दान की वस्तु हूं। मुझे आप किसे देंगे?’ पिता ने नचिकेता के प्रश्न पर चिढ़कर कहा - मैं तुझे यम को देता हूं।’ नचिकेता पिता की आज्ञा का पालन करते हुए यम के घर जा पहुंचा।

उस समय यमराज प्रवास पर थे। जब वे आएतो छोटे से लड़के की उच्च भावना देख प्रसन्न हुए और उन्होंने नचिकेता से वर मांगने को कहा। नचिकेता बोला - मृत्यु के विषय में मेरी जिज्ञासा का आप समाधान कीजिए। मृत्यु के बाद जीवन है या नहींकृपा कर बताइए।’ यम ने कहा - यह मांगने योग्य वर नहीं है। कुछ और मांग लो।’ किंतु नचिकेता अपनी बात पर अटल रहा। उसका कहना था कि जीवन-मृत्यु के विषय में आपसे बेहतर ज्ञान कोई और नहीं दे सकता।

यम ने नचिकेता को समझाया कि ज्ञानी न जन्मता हैन मरता है। वह नित्यअजन्मा और शाश्वत है। उन्होंने नचिकेता को जो ज्ञान दियावह कठोपनिषद के माध्यम से बाद में गीता में अर्जुन को दिया। सच्चा ज्ञान-पिपासु लाख संकटों के बाद भी ज्ञान प्राप्त करके ही रहता है। ज्ञान आत्मोन्नति का सर्वोत्कृष्ट साधन है।

मन को बड़ा बनाकर पाई मित्रता
काफी समय पहले की बात है। किसी नगर में दो मित्र रहते थे। नाम थे- विजय और मोहन। व्यापार भी दोनों मिलकर करते थे। दोनों के परिवारों के मध्य काफी स्नेह था। दुर्भाग्य से व्यापार के संबंध में किसी बात को लेकर दोनों में विवाद हो गया। मोहन ने आपे से बाहर होते हुए कहा- गधे के बच्चे! तेरी अक्ल क्या घास चरने चली गई थीजो मेरी बात नहीं समझ पा रहा है?’ विजय भी गर्म होते हुए बोला- तूने मेरे पिता को गाली दी।
ठहर अभी मजा चखाता हूं।’ उसने कटार से मोहन पर वार किया। मोहन की कलाई पर गहरा घाव हो गया। तभी दोनों के घर के लोगों ने आकर दोनों को अलग किया। मोहन का घाव कुछ दिनों में अच्छा हो गया। उसने सोचा कि विजय है तो मित्र। बस तैश में आकर यह सब कर दिया। वह विजय से मिलने पहुंचाकिंतु विजय का मन साफ नहीं था। इसलिए वह कतराकर निकल गया।

विजय ने अपना व्यापार भी पृथक कर लियाकिंतु मोहन अपने मित्र को नहीं भूल पाया। आखिर एक दिन उसने विजय के घर जाकर कहा- देखो भाईमेरा घाव अच्छा हो गया। अब तुम भी अपना मन साफ कर लो।’ विजय बोला- हथियार का घाव भर जाता हैकिंतु बात का घाव कभी नहीं भरता।

मोहन ने भीगे कंठ से कहा- मैं सच्चे दिल से तुमसे क्षमा मांग रहा हूं।’ मोहन के आंसू और स्नेहिल वाणी ने विजय का गुस्सा जीत लिया और दोनों ने परिपक्व मित्रता की शुरूआत की। सच तो यह है किघाव हथियार का हो या बात कावह असाध्य भीतर के जहर से बनता है। यदि मन को उदात्त बनाकर सभी बैर-भाव भुला दिया जाएंतो आत्मिक सुख की सहज उपलब्धि होती है।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है.... मनीष