Friday, June 14, 2013

Pristine Predestination (प्राचीन विधि-विधान)

















प्राचीन विधि-विधान
अनादि काल से एक ही परिपाटी चली आ रही थी, जिसमें की साधक और गुरू, चाहे वशिष्ठ हो या राम, कृष्ण हो या सांदीपन, दोनो ही गायत्री मंत्र युक्त संध्या व हवन करते थे एवं ॐकार के द्वारा ध्यान करते थे। इस तरह गायत्री संध्या से उस आदिशक्ति की उपासना पूर्ण होती थी और ॐकार के ध्यान के द्वारा परब्रहम् की उपासना सम्पूर्ण होती थी। प्राचीन महर्षियों ने पुरूष और प्रकृति की उपासना का यह विधान इतना श्रेष्ठ बनाया था, की इस विधान के करने वाले साधक को भौतिक और आध्यात्मिक दोनों ही क्षेत्रों में सम्पूर्ण सफलता मिलती थी। वह सम्पूर्ण शक्तियों का मालिक बनते हुऐ, उस परमात्मा में लीन रहता था। सम्पूर्ण सुख-समृद्धि का भोग करते हुऐ मोक्ष को प्राप्त करता था। किन्तु समय का पहिया गतिशील है। प्रकृति में समय-समय पर बदलाव होते रहे हैं, उसी के अनुसार साधक की मन और बुद्धि भी बदलती है।

कालान्तर में गायत्री-संध्या के साथ-साथ अनेकों ही महापुरूषों ने तान्त्रिक-संध्या का विधान बनाया। जहाँ गायत्री-संध्या में गायत्री-मंत्र की ही उपासना होती थी एवं गायत्री ही सबकी अधिष्ठात्री होती थी। वहीं पर तान्त्रिक-संध्या में नये-नये देवता और मंत्र जुड़ने लगे। सर्वप्रथम जहाँ पर गायत्री को इष्ट माना जाता था, वहीं पर साधकों ने बाद में अपने अलग-अलग इष्ट बनाने प्रारम्भ कर दिये। जो साधक शिव को अपना इष्ट मानने लगा, वह शिव मंत्र के द्वारा ही संध्या करने लगा। यह शिव की तान्त्रिक-संध्या कहलाई। इस सम्प्रदाय को मानने वाले साधकों ने जो अपना मत बनाया वह शैव-मत कहलाया।

भगवान शिव के उपासकों में घन्टाकर्ण नाम का एक ऐसा उपासक भी हुआ, जिसने अपने कानों में घन्टे लटका लिये। अगर उसके सामने कोई भी व्यक्ति या साधक भगवान शिव के नाम के अलावा, किसी भी दूसरे देव का नाम लेता था, तो वह अपने सिर को हिलाने लगता था। जिससे कि उसके कानों में बंधे हुऐ घन्टे बजने लगते थे और किसी दूसरे देव का नाम उसे सुनाई नहीं पड़ता था।

इसी तरह शैव-मत के बाद वैष्णव-मत सामने आया, जिसमें कि राम, कृष्ण और विष्णु की मुर्ति-रूप में सुन्दर प्रतीक बनाये जाने लगे और विष्णु के मंत्रो के द्वारा ही संध्या की जाने लगी। उसके कुछ समय बाद दस महा-विद्या सामने आई और इन महा-विद्याओं के मंत्रों के द्वारा तान्त्रिक-संध्या करने वाले साधक शाक्त कहलाये, यहीं से कलियुग का प्रारम्भ हुआ और धीरे-धीरे यह तीनों ही मत फलने-फूलने लगे। जिस तरह गायत्री-संध्या के बाद तान्त्रिक-संध्या आई, उसी तरह शक्ति मत के भी दो मत हो गये। शक्ति-मत में दस महा-विद्याओं की तान्त्रिक-संध्या करने वाले व्यक्ति दो कुलों में विभाजित हो गये। एक श्रीकुल कहलाया एवं दूसरा कालीकुल ।

यहाँ तक दोनों कुलों की उपासना करने वाले, तन्त्र के साथ-साथ ब्रहम् को भी मानने वाले थे। धीरे-धीरे ये दोनों कुल भी दो भागों में बँट गये। एक दक्षिण-मार्गी और दूसरा वाम-मार्गी। दक्षिण-मार्गी उन को कहा गया, जो कि काली-कुल के अन्तर्गत आने वाली शक्तियों की उपासना सात्विक रूप से करते थे। प्रारम्भ में दोनों कुलों के उपासक सात्विक ही थे, किन्तु बाद में जब इसके दो भेद हो गये, तो दक्षिण-मार्गी सात्विक कहलाऐ एवं वाम मार्गी तामसिक। सात्विक मार्ग में अनादि काल से ले कर आज तक बहुत कम बदलाव आया जो थोड़ा बहुत बदलाव आया, तो वह यह था कि अपने इष्ट के सामने प्रतीक रूप में घी की बजाय तेल का दिया जलाना। आज भी कुछ साधक शक्ति मार्ग में घी का दीपक जलाते है, तो कुछ सरसों के तेल का और कुछ तिलों के तेल का। दुसरा जो बदलाव आया वह वस्त्र का था।

सात्विक शक्ति उपासक अपनी इच्छा के अनुसार सफेद या लाल कपड़े का इस्तेमाल करने लगे। जबकि तामसिक साधक अधिकतर काले कपड़ो का इस्तेमाल करने लगे।कोई काली को बड़ा मानता तो कोई तारा को और कोई श्रीविद्या को। अनेकों ही शक्ति की साधना-उपासना करने वालों ने अपने-अपने ग्रन्थ लिखे और अपने-अपने इष्ट को सम्पूर्ण बताया। छोटे-बड़े का मत भेद बढ़ता चला गया। किन्तु अन्तः करण से सभी उस अनादि शक्ति को ही अपने इष्ट-रूप में मानते थे। सभी साधक यही कहते थे कि सभी महा-विद्याऐं उस आदिशक्ति का ही अंश रूप है। किन्तु अंश रूप में भी सभी भेद रखते थे। जिस प्रकार वैष्ण्व मत में राम को 14 कला अवतार एवं कृष्ण को 16 कला अवतार माना जाता है। उसी प्रकार शाक्त मत में भी यही भेद था, किन्तु धीरे-धीरे इनके अधिकार क्षेत्र बांट दिये गये।

हर महाविद्या को एक सीमित क्षेत्र में सीमित कर दिया गया। जब की वह महाविद्या अपने आप में सम्पूर्ण थी। जहाँ दुष्टों के नाश का अधिकार क्षेत्र बगलामुखी को दिया गया, वहीं धन का अधिकार क्षेत्र कमला-महाविद्या को दिया गया। काली को जो अधिकार क्षेत्र दिया गया वह शक्ति का था और तारा का अधिकार क्षेत्र ज्ञान की वृद्धि के लिये था। भुवनेश्वरी का अधिकार क्षेत्र आकस्मिक धन प्राप्ति के लिऐ होता था। वहीं मातगीं का अधिकार क्षेत्र वशीकरण, आकर्षण एवं विद्या क्षेत्र था। जहाँ शरीर के ताप को मिटाने का और तान्त्रिक द्वारा अभिचार कर्म को काटने का अधिकार क्षेत्र धूमावती के पास था। वहीं साधक की इच्छाओं की पूर्ती का अधिकार क्षेत्र छिन्नमस्ता के पास है। जहाँ मन, इच्छा अनुसार स्त्री या पुरूष की प्राप्ति का अधिकार क्षेत्र त्रिपुर-भैरवी के पास है। यह साधकों के अन्दर भय का नाश करती है। वहीं सम्पूर्ण सुख-समृद्धि एवं ऐश्वर्य प्राप्ति का अधिकार क्षेत्र श्रीविद्या राज-राजेशवरी त्रिपुर-सुन्दरी के पास है।

शक्ति उपासकों का जो दुसरा वाम मार्गी मत था, उसमें शराब को जगह दी गई। उसके बाद बलि प्रथा आई और माँस का सेवन होने लगा। इसी प्रकार इसके भी दो हिस्से हो गये, जो शराब और माँस क सेवन करते थे, उन्हे साधारण-तान्त्रिक कहा जाने लगा। लेकिन जिन्होने माँस और मदिरा के साथ-साथ मीन(मछली), मुद्रा(विशेष क्रियाँऐं), मैथुन(स्त्री का संग) आदि पाँच मकारों का सेवन करने वालों को सिद्ध-तान्त्रिक कहाँ जाने लगा। आम व्यक्ति इन सिद्ध-तान्त्रिकों से डरने लगा। किन्तु आरम्भ में चाहे वह साधारण-तान्त्रिक हो या सिद्ध-तान्त्रिक, दोनों ही अपनी-अपनी साधनाओं के द्वारा उस ब्रहम् को पाने की कोशिश करते थे। जहाँ आरम्भ में पाँच मकारों के द्वारा ज्यादा से ज्यादा ऊर्जा बनाई जाती थी और उस ऊर्जा को कुन्डलिनी जागरण में प्रयोग किया जाता था, ताकि कुन्डलिनी जागरण करके सहस्त्र-दल का भेदन किया जा सके और दसवें द्वार को खोल कर सृष्टि के रहस्यों को समझा जा सके। किन्तु धीरे-धीरे पाँच मकारों का दुर-उपयोग होने लगा और यह पाँच मकार सिर्फ स्वार्थ सिद्धि, नशा और काम वासना की पुर्ति के साधन मात्र ही रह गये। कोई माने या न माने लेकिन यदि काम भाव का सही इस्तेमाल किया जा सके तो इससे ब्रहम् की प्राप्ति सम्भव है।

इसी वक्त एक और मत सामने आया जिसमें की भैरवी साधना या भैरवी चक्र को प्राथमिकता दी गई। इस मत के साधक वैसे तो पाँचो मकारों को मानते थे, किन्तु उनका मुख्य ध्येय काम के द्वारा ब्रहम् की प्राप्ति था इसी समय में शैव-मत में से एक मत अलग हो कर बाहर आया जिसे अघोर-मत कहा जाने लगा। आघोर-मत को मानने वाले साधक नशे के रुप में गाँजे का सेवन करते थे एंव श्मशान में बैठ कर मसिक शिव या भैरव मंत्रों का जाप करते थे। प्रारम्भ में जहाँ नशा करके चेतन मन को शान्त कर दिया जाता था और अवचेतन मन के द्वारा परमात्मा के नाम का जाप किया जाता था। वहीं बाद में परमात्मा के ‘ॐ’ नाम को छोड़ कर विभिन्न मंत्रों का जाप होने लगा।धीरे-धीरे यह साधक पर-ब्रहम् को भूल कर आम व्यक्तियों को चमत्कार दिखाने की खातिर शव-साधना करने लगे। ऐसे मंत्रों का निर्माण हुआ जिन के द्वारा तुच्छ सिद्धियाँ प्राप्त करके आम जनता को चमत्कार दिखाया जा सके। आज वाम मार्गीयों का सबसे वीभत्स रूप हमारे सामने है।

आज के समय में साधारण-तान्त्रिक, सिद्ध-तान्त्रिक, भैरवी-मत को मानने वाले या अघोर आदि अधिकतर साधक उस परमात्मा को भूल ही गये है। अगर ऐसा नहीं होता तो आज जो तान्त्रिकों का विभत्स रूप हमारे सामने है, वह नहीं होता।

ब्रहम् को मानने वाला तान्त्रिक अपनी शक्तियों का कभी दुर-उपयोग नहीं करेगा।लेकिन आज अधिकतर तान्त्रिक अपनी सिद्धियों का दुर-उपयोग के अलावा और कहीं इस्तेमाल नहीं करते। प्रारम्भ का तान्त्रिक जहाँ ब्रहम् का उपासक होता था, वहीं आज का तान्त्रिक पैसे का उपासक बन गया है। कुछ सौ वर्षों पहले एक नई विद्या प्रकाश में आई। इसको मानने वाले भी अपने आप को तान्त्रिक, ओझा या गुणी कहते थे। अगर इस विद्या का सही इस्तेमाल किया जाऐ तो, आम व्यक्ति को काफी हद तक फायदा हो सकता है। किन्तु इससे ब्रहम् की प्राप्ति सम्भव नहीं है। इस विद्या को मानने वाले साबर-मंत्रों का प्रयोग करते है। इस विद्या का अपना कोई नाम नहीं है। किन्तु साबर-मंत्रों का इस्तेमाल करने वालों को ओझा या गुणी ही कहा जाता है। नाथ समप्रदाय में ‘बाबा मछन्दर नाथ’ के शिष्य ‘गुरू गोरक्ष नाथ जी’ थे।

गुरू गोरक्ष नाथ जी ने साबर-मंत्रों की रचना साधारण व्यक्तियों के लिये की। जिससे की वे साबर-मंत्रों का प्रयोग करके सुख-समृद्धि को प्राप्त कर सके। आज के समय में साबर-मंत्रों के उपर अनेकों ग्रन्थ देखने में आते है, पर इन ग्रथों के अन्दर न तो सही विधि-विधान लिखा हुआ है और न ही सम्पूर्ण मंत्र लिखें हुऐ हैं। साबर-मंत्रों में जो सिद्ध मंत्र है, वह आज भी गुरू परम्परा के अनुसार चले आ रहे हैं । अगर कोई साधक गुरू से प्राप्त साबर-मंत्र का जाप करता है, तो उसे सभी भौतिक सुखों की प्राप्ति होती है। साथ ही इन मंत्रों के द्वारा लोक-देवताओं की सिद्धि भी सम्भव है। गोरक्ष नाथ जी द्वारा रचित साबर-मंत्रों में काली, भैरव, हनुमान की सिद्धि, वीर सिद्धि, मन इच्छा अनुसार खाद्य-पदार्थ सामग्री को प्राप्त करने हेतु वेताल सिद्धि आदि है। किन्तु आज के समय में साबर-मंत्रों का भी दुर-उपयोग होने लगा है।

प्रारम्भ का तान्त्रिक केवल 10 महा विद्याओं को मानता था, किन्तु जैसे-जैसे समय बदलता चला गया वैसे-वैसे साधक 10 महा विद्याओं की कठिन साधना से बचने लगे और जो दुसरा तान्त्रिक पड़ाव आया उस में 10 महाविद्याओं कि जगह, 9 दुर्गाओं ने ली। कहने का तात्पर्य यह है कि आम व्यक्ति दस महा विद्याओं की कठिन साधनाओं को छोड़ कर नौ दुर्गाओं की साधना करने लगा और इस प्रकार नवरात्रों का प्रारम्भ हुआ। कहने को तो यह 9 दुर्गायें आदिशक्ति माता पार्वती का ही रूप है। किन्तु इनकी शक्तियाँ एवं कार्य क्षेत्र अगल-अगल है। इन्ही नौ दुर्गाओं के आधार पर नवरात्रे शुरू हुऐ, जिसमें कि तान्त्रिक साधक आदिशक्ति के नाम पर उपवास रखतें है और अपनी इच्छा अनुसार दुर्गा के किसी एक रूप की साधना करते है।

आज भी अनेकों साधक इसी नियम को मानते हुऐ साधना करते आ रहे है। किन्तु इन साधकों में भी दो मत बन गये- एक सात्विक दुसरा तामसिक। सात्विक साधक साधना पूर्ण होने पर खीर-हलवे आदि का भोग लगाते है। किन्तु तामसिक साधक साधना पूर्ण होने पर मदिरा और बकरे आदि कि बलि लगाते है। सिद्धियाँ दोनों ही साधकों को प्राप्त होती है और दोनों ही साधक अपनी इच्छा अनुसार अपनी सिद्धियों का उपयोग करते है। किन्तु जो साधक लोक-कल्याण में अपनी सिद्धि का उपयोग करता है, वह सद्गति को प्राप्त होता है। और जो साधक अपनी सिद्धि का दुर-उपयोग करता है, वह दुर्गति को प्राप्त होता है।

शैव-सम्प्रदाय को मानने वाले तान्त्रिक शिव के साथ-साथ धीरे-धीरे भैरव की उपासना करने लगे। भैरव-साधना को स्थापित करने के पीछे जो मूल कारण था, वह यह था कि साधक का तामसिक होना। क्योंकि भगवान शिव कि साधना सात्विक है। इसलिऐ शिव-संप्रदाय में जो तामसिक साधक पैदा हुऐ, उन्होंने भैरव-साधना प्रारम्भ कि और साथ ही माँस-मदिरा का सेवन प्रारम्भ कर दिया। यहीं से तान्त्रिकों में व्यभिचार उत्पन्न हो गया। क्योंकि जो साधक सात्विक से तामसिक बन गया हो, तो उस कि तामसिकता का अन्त सहज नहीं होता। धीरे-धीरे भैरव-उपासकों ने एवं नौ दुर्गा उपासकों ने अपने आप को नीचे कि तरफ गिराना प्रारम्भ कर दिया। धीरे-धीरे मूल साधनाऐं और सात्विक साधनाऐं समाप्त होने लगी और सभी जगह तामसिकता ने स्थान ग्रहण कर लिया। नौ दुर्गाओं का स्थान 64 योगनियों ने ले लिया और साथ-ही-साथ डाकनी, शाकनी की पूजा, नवदुर्गा के सात्विक और तामसिक साधकों ने प्रारम्भ कर दी। दुसरी तरफ भैरव-साधना करने वाले साधक भूत, प्रेत की सिद्धि करने लगे। इन साधकों का मुख्य ध्येय यही था कि आम व्यक्तियों को अपनी सिद्धि का चमत्कार दिखाया जा सके और चमत्कार के द्वारा अपना स्वार्थ सिद्ध किया जा सके। तान्त्रिकों का व्यभिचार बढ़ता चला गया।

तन्त्र के इस वीभत्स रूप को देख कर आम व्यक्ति सामने आया, जो शास्त्रों कि बड़ी-बड़ी सिद्धियों को तो नहीं कर सकता था। अपितु वह परमात्मा के लिये श्रद्धा और भावना से भरा हुआ था। इन आम व्यक्तियों ने छोटे-छोटे मंत्र जिनकों कि यह असानी से याद कर सकते थे, उनका जाप प्रारम्भ कर दिया। इन मंत्रो में अधिकतर साबर मंत्र थे, क्योंकि साबर मंत्र आम बोल-चाल कि भाषा में होते थे और इन्हे याद करना भी आसान होता था। कहते हैं कि श्रद्धा में शक्ति होती है और इन आम व्यक्तियों कि श्रद्धा रंग लाई और ओझा-गुणीयों का मत प्रारम्भ हो गया। ये ओझा-गुणी-साधक न तो कोई लम्बा चौड़ा विधान जानते थे और न ही कोई विशेष कर्म-कांड करते थे। यह साधक तो श्रद्धा और भावना से भरे हुऐ थे। धीरे-धीरे तन्त्र-सम्प्रदाय मिटने लगा और ओझा-गुणीयों का समप्रदाय फलने-फुलने लगा। आम व्यक्ति या जन-मानस को अत्यधिक फायदा होने लगा। अधिकतर हर छोटी-बड़ी समस्याओं का ईलाज, इन साधकों के पास होता था और ये साधक नि-स्वार्थ भाव से जन-सेवा करते थे। एक समय ऐसा भी आया जब तान्त्रिकों और इन साधकों में टकराव उत्पन्न हुआ। जिस में तान्त्रिकों कि हार हुई और इन श्रद्धा से भरे हुऐ साधकों कि जीत हुई। इस जीत से भी इस सम्प्रदाय को बल मिला और धीरे-धीरे यह सम्प्रदाय, एक छोटे से गाँव से ले कर शहरों तक फैलता चला गया।

इस सम्प्रदाय कि मुख्य पहँचान यही थी कि यह साधक सात्विक होते हुऐ भी श्रद्धा और भावना से भरे हुऐ थे। मंत्रो के नाम पर सिर्फ अपने देवता का नाम लेते थे और हर समस्या का समाधान करते थे। यह साधक लोक-देवताओं को प्रधान मानते हुऐ, निष्कपट भाव से उनकी सेवा करते थे। जहाँ तान्त्रिक अनुष्ठान करके सिद्धि को प्राप्त करते थे, वहीं यह साधक अपने लोक-देवता को स्नान आदि करा कर या सिर्फ अपने घर में ही एक अलग स्थान बना कर, अपने देवता के नाम का एक अलग दीपक(चिराग) जलाते थे। इतना भर करने से ही उन्हें उस देवता कि कृपा प्राप्त होती थी। जो साधक मन, क्रम, वचन से अधिक पवित्र होता था, उसे उतनी ही जल्दी उस देवता कि कृपा प्राप्त होती थी।

इन साधकों ने अपने लोक-देवताओं में जिनको मुख्य स्थान दिया- उन में हनुमान जी, भैरव जी, क्षेत्रपाल, कुल देवता (अपने कुल की परम्परा में जिस देवता की पूजा होती थी), ग्राम देवता(गाँव में जो प्रधान देवता होता है), नगर देवता(सम्पूर्ण नगर का श्रेष्ठ देवता, जैसे कि दिल्ली में कालका जी)। सिर्फ इतना ही नहीं, इन साधकों ने हिन्दु और मुस्लिमों का भेद भाव त्याग कर सयैद, पीर, परी आदि कि साधना भी प्रारम्भ की। प्रत्येक साधक अपनी गुरू परम्परा के अनुसार या अपनी इच्छा अनुसार देवताओं की पूजा करने लगा। इन्हीं साधकों ने कुछ समय बाद सात-माताओं की पूजा पर बल दिया और हर गाँव या नगर में, एक छोटे से मन्दिर के रूप में इन सात माताओं कि स्थापना होने लगी। साधकों के साथ-साथ आम व्यक्ति भी इन माताओं की पूजा करते लगा। आज भी होली से ठीक सात दिन बाद जो शीतला माता की पूजा होती है, वह वास्तव में सात माताओं कि पूजा होती है।

सात माताओं कि सहज पूजा के मूल में दस महाविद्याओं में से सात महाविद्याओं का रहस्य छिपा हुआ है। दस महाविद्याओं कि साधना कठिन होने कि वजह से इन्हें सात-माताओं का सुक्ष्म रूप दिया गया। दस में से सात को स्थान देने के पीछे जो रहस्य था, वह यही था कि दस महाविद्याओं में से सात महाविद्याऐं सात्विक और तामसिक दोनों है। इसलिऐ एक नई परिपाटी प्रारम्भ की ताकि सात्विक और तामसिक दोनों ही साधक अपनी इच्छा अनुसार पूजा कर सके। क्योंकि ओझा-गुणीयों में भी धीरे-धीरे तामसिकता आने लगी थी। आज भी इन सात-माताओं की पूजा सात्विक और तामसिक दोनों साधक अपने-अपने ढंग से करते है एवं हिन्दु धर्म की लगभग सभी जातियाँ इनकी पूजा करती है, चाहे वह क्षत्रिय हो या ब्राह्मण, वैश्य हो या शुद्र। इससे जो सबसे बड़ा फायदा हुआ, वह यह था कि दोनों ही तरह के साधक एक ही जगह बन्ध कर रह गये। जहाँ पुरानी परिपाटी में सात्विक-सात्विक था और तामसिक-तामसिक, वहीं इस नई परिपाटी में दोनों एक हो गये और जन-मानस को फायदा होने लगा। सात-माताओं कि स्थापना गाँव कि सीमा पर की जाती थी। इससे साधकों को दुसरा जो सबसे बड़ा फायदा था, वह यह था कि यह सात-माताऐं उस गाँव को प्रत्येक अला-बला और बिमारियों से सुरक्षा प्रदान करती थी।

इन सात-माताओं के साधकों में से कुछ साधक व्यभिचार होकर श्मशान की साधनाओं की तरफ बढ़ने लगे। श्मशान की तरफ बढ़ने वाले ये साधक, भैरव-साधकों की तरह भूत, प्रेत या शव-साधना नहीं करते थे। बल्कि ये मसान और कलवों की पूजा करने लगे। इस पूजा में यह लोग मरे हुऐ छोटे बच्चों के शव को बाहर निकालतें और उस कि सिद्धि करते, जिसे कलवा सिद्धि या मसान सिद्धि कहाँ जाता है। इन साधकों कि यह सिद्धि प्रारम्भ में लोक-कल्याण कारक थी, किन्तु कुछ समय बाद इसका भी वीभत्स रूप आम व्यक्ति को देखने को मिला। मसान आदि की सिद्धि करने वाले साधक धीरे-धीरे लोभ में फँसने लगे और जहाँ ये साधक प्रारम्भ में जन सेवा करते थे या दुष्टों का मूठ या घात चला कर नाश करते थे। वहीं बाद में ये साधक पैसा ले कर किसी के उपर भी मूठ या घात चलाने लगे जिससे कि आम जन-मानस परेशान हो उठा। ऐसे दुष्ट-साधकों से बदला लेने के लिये वीर-सिद्धि के साधक सामने आये। इसमें पाँच-वीरों की साधना को प्रधानता दी गई। इन पाँच-वीरों को एक चिराग या पाँच चिराग जला कर और सफेद रंग का कोई भी प्रसाद लगा कर सिद्ध किया जाता था। इन पाँच-वीरों में जो मुख्य स्थान मिला वह गुगाजी(जाहर वीर) को था।

गुगाजी को जाहर वीर भी कहा जाता है। जाहर वीर के झन्ड़े तले पाँच वीरों की स्थापना हुई और 52 वीरों का जन्जीरा बना। कुछ साधक 52 वीरों के जन्जीरे को, 52 डोर के नाम से भी जाना जाता है। पाँच वीरों में जाहार वीर, हनुमन्त वीर, नाहरसिहं वीर, अंघोरी वीर, भैरव वीर मुख्य थे। 52 वीरों के जन्जीरे के पाँच मालिक हैं। सात्विक और तामसिक देवताओं का यह अनुठा गठबन्धन था। इन वीरों में जहाँ जाहर वीर और हनुमन्त वीर सात्विक है, वहीं नारसिहं, भैरव वीर और अंघोरी वीर तामसिक है। इस की जो स्थापना की गई, उसमें सात्विक और तामसिक दोनों ही पूजा विधान रखे गये। इस साधना में भी श्रद्धा और भावना को प्रधान माना गया। किन्तु पाँच वीरों की साधना करने वाला साधक, अपनी इच्छा अनुसार अपनी सिद्धि का इस्तेमाल नहीं कर सकते थे।

यहाँ पर साधक या आम व्यक्ति केवल अर्जी लगा कर (प्रार्थना करके) छोड़ देता है। उस अर्जी का फैसला उन पाँच वीरों के हाथ में होता है। ये पाँच वीर साधक की अर्जी को सुनकर, उसके भाग्य, कर्म, श्रद्धा और भक्ति को देख कर ही फैसला करते है। हिन्दुओं की इस नई व्यवस्था को देख कर ही, मुस्लिम सम्प्रदाय में भी पाँच पीरों की स्थापना हुई। इन पाँच पीरों को कुछ साधक पाँच-बली भी कहते है। अस्त बली, शेरजंग, मोहम्मद वीर, मीरा साहब और कमाल-खाँ-सैयद जैसी व्यवस्था पाँच पीरों-वीरों की साधना में थी। वैसी ही परम्परा और व्यवस्था पाँच पीरों में थी जैसी कि पाँच वीरों में थी। दोनों ही मतों में श्रद्धा और भावना प्रदान थी।

आज के समय में इस परम्परा का रूप अनेकों ही जगह देखा जा सकता है। धीरे-धीरे पाँच हिन्दू वीर और पाँचों मुस्लमानी पीर इकठ्ठे पूजे जाने लगे। अधिकतर हिन्दू पाँच वीरों के साथ-साथ पाँच पीरों को भी मानने लगे। जहाँ पाँच वीर साधक और आम व्यक्ति को सुरक्षा प्रदान करते हुऐ, दुष्टों का विनाश करते थे, वहीं पाँचों पीर सुख और समृद्धि प्रदान करते थे। इसी प्रकार सिख धर्म में भी पंच प्यारे हैं।

धीरे-धीरे आवेश का प्रचलन प्रारम्भ हुआ जो साधक बदन को हिलाते अर्थात झुमते हुऐ लोगों कि समस्याओं का समाधान करने थे। ऐसे साधकों के बारे में कहा जाता है कि इस साधक के अन्दर देवता की आत्मा ने प्रवेश किया हुआ है। साधक के शरीर में किसी भी देवी या देवता की आत्मा का प्रवेश करना आवेश कहलाता है। ऐसे साधक जोर-जोर से हिलने लगते है और अपने पास आये हुऐ आम व्यक्तियों का ईलाज करते है। इस व्यवस्था में आम व्यक्ति और देवता के बीच कोई माध्यम नहीं होता अपितु आप व्यक्ति सीधे ही देवता से बात करके अपनी समस्या का समाधान पाता है।

साधना का यह प्रयोग भी आम व्यक्तियों के बीच में काफी प्रचलित है। किन्तु सही मायने में यह क्रिया तभी फलीभूत है, जब साधक गुरू के सान्निध्य में इस साधना को बार-बार करे। क्योंकि ऐसा न करने वाले साधक को अनेकों ही परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है। मान लीजिऐ किसी साधक के अन्दर देवता के आवेश की बजाऐ किसी भूत या प्रेत का आवेश आ गया और उसे देवता का आवेश मान कर वह साधक जन-कल्याण करने लगा तो सम्भव है, कि आम व्यक्ति की समस्याऐं तो दूर होने लगेगीं, किन्तु साधक और उसके परिवार को अनेकों ही परेशानियों का सामना करना पड़ेगा। आज अनेकों ही ऐसे साधक हैं, जिन में देवता का नहीं बल्कि भूत-प्रेतों का आवेश आता है।

जिसके द्वारा वह जन कल्याण करते हैं। किन्तु साधक व उसका परिवार अनेकों ही परेशनियों से घिरा रहता है। अगर कोई उनसे कहे कि आप तो साधक हो देवता कि आप के ऊपर असीम कृपा है। फिर आप या आपके परिवार में परेशानी क्यों है। तो ऐसे साधक हँसकर यही जवाब देते हैं, कि जैसी देवता की इच्छा। अगर अधिक जोर देकर उनसे पूछा जाऐ तो वह, यह कहते है, कि जिस प्रकार एक डॉक्टर अपना ईलाज़ स्वयं नहीं कर सकता उसी तरह हम स्वयं अपनी समस्या का समाधान नहीं कर सकते। जो साधक ऐसा कहते है, यह पूर्णतः मिथ्या प्रचार है।

अगर आप मन, कर्म, वचन से पवित्र हैं और पूर्णतः देवता का ही आवेश है, तो आपके घर परिवार में किसी भी प्रकार की कोई भी परेशानी नहीं होगी। जिन साधकों के घरों में यह परेशानियाँ है, वह साधक मन, कर्म, वचन से पवित्र नहीं है अथवा देवता के आवेश के स्थान पर भूत या प्रेत का आवेश है। आज का जो समय है, इसमें सबसे ज्यादा जो देखने को तन्त्र मिलता है, वह ओझा, गुणी या आवेश वाले तान्त्रिकों का अधिक है। सिद्ध तान्त्रिक तो बहुत ही कम देखने को मिलते है। अघोर-विद्या के जो भी सिद्ध तान्त्रिक थे, वह भी धीरे-धीरे समाप्त होते जा रहे है। भैरवी-साधना का तो बड़ी मुश्किल से ही कोई नाम लेवा बचा है। कोई माने या न माने किन्तु सभी साधनाऐं धीरे-धीरे समाप्त होती जा रही है।

इसके मूल में जो कारण है, वह यही है कि तान्त्रिकों का व्यभिचारी होना एवं शिष्यों की आस्था का न होना। जब तक गुरू और शिष्य दोनों के ही अन्दर श्रद्धा भाव नहीं होगा और दोनों ही ब्रहम् के प्रति समर्पित नहीं होगे, तब तक तन्त्र का उत्थान सम्भव नहीं है। प्राचीन काल में जो भी साधना की जाती थी, उसके मूल में गुरू और शिष्य का एक ही उद्देश्य होता था कि अधिक से अधिक ऊर्जा का इकट्ठा करना एव कुन्डलिनी-शक्ति को जाग्रत करते हुऐ, उस के द्वारा ब्रहम् को प्राप्त करना। ऊर्जा शक्ति को इकट्ठा करने हेतु, फिर चाहे सात्विक साधना करनी पड़े या तामसिक। साधना कोई भी क्यों न हो सभी साधनाऐं हमें ऊर्जा प्रदान करती है। अगर इस ऊर्जा का हम सही इस्तेमाल करें, तो हम पूर्ण ब्रहम् को प्राप्त कर सकते हैं। अगर हमारा उद्देश्य पवित्र है, तो फिर कोई भी शक्ति हमें उस परमात्मा से मिलने से रोक नहीं सकती।

हम सभी का कर्तव्य है कि एक बार फिर से एक नये युग की रचना हो और जितनी भी साधनाऐं लुप्त होती जा रही है, उन सबको पुनः स्थापित करें।अगर हमने समय रहते अपने आपको जागरूक नहीं बनाया तो एक दिन ऐसा आयेगा, जब हमारी सभी प्राचीन धरोहर समाप्त हो जायेगी। अगर हम ध्यान-पूर्वक अध्ययन करें तो कुछ वक्त पहले वेदों का अध्ययन सभी करते थे, किन्तु आज के समय में अधिकतर व्यक्तियों को तो चार वेदों के नाम तक भी मालूम नहीं है। कैसी विड़म्बना है कि जिन चार वेदों से यह सम्पूर्ण सृष्टि बनी है हमें उन का नाम तक याद नहीं। अगर यही हाल रहा तो एक समय ऐसा भी आयेगा, जब हम धीरे-धीरे करके सब कुछ खो चुके होगें। किन्तु कहते है कि ‘फिर पछतायेत होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत’ इसलिये हम आवाहन करते है, उन साधकों का जो सही मायने में हिन्दु धर्म कि सभ्यता को और हिन्दु धर्म के मूल तत्त्व श्रद्धा और भावना को बचाना चाहते है।

अगर हमने समय के रहते अपने आप को नहीं संभाला तो एक समय ऐसा भी आऐगा, जब हमारी हालत पश्चिमी सभ्यता से भी बुरी हो जाऐगी। पश्चिम के देशों की नकल करके हम अपने आप को महान समझ रहे है। ध्यान-पूर्वक अध्ययन करने पर पता चलता है कि आज वही पश्चिमी देश वेद-मंत्रों और गीता के ऊपर अनुसंधान (रिसर्च) कर रहे है। आर्य सभ्यता में 21 वीं सदी के अन्दर धीरे-धीरे जहाँ यह कहा जाने लगा है कि वेदों में क्या रखा है। वही पश्चिमी देशों ने वेदों का अध्ययन करके अपनी ध्यान-योग की शक्ति को इतना अधिक बढ़ा लिया है, कि जिसके बारे में हिन्दुस्तान का आम व्यक्ति सोच भी नही सकता। हिन्दुस्तान का आम व्यक्ति पश्चिमी सभ्यता की देन रेकी, लामाफैरा, क्रिश्टल-हीलिंग, फैंग-शूई, टच-थेरेपी आदि की तरफ भाग रहा है। वही पश्चिम का आम व्यक्ति हिन्दुस्तान के प्राचीन ग्रन्थों का अनुसंधान करने में लगा हुआ है। इसे हम अपना दुर्भाग्य ही कहगें कि आर्यों के पास सब कुछ होते हुऐ भी, वह पश्चिम के देशों की नकल कर रहा है। इसलिऐ हम सबको फिर से जागना होगा और जगाना होगा आम व्यक्ति को, ताकि लुप्त होती जा रही आर्य सभ्यता को समय के रहते बचाया जा सके।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK

Books of Hinduism (हिंदू धर्म के ग्रंथ)

वेद
वेद प्राचीनतम हिंदू ग्रंथ हैं। ऐसी मान्यता है वेद परमात्मा के मुख से निकले हुये वाक्य हैं। वेद शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के 'विद्' शब्द से हुई है। विद् का अर्थ है जानना या ज्ञानार्जन, इसलिये वेद को "ज्ञान का ग्रंथ कहा जा सकता है। हिंदू मान्यता के अनुसार ज्ञान शाश्वत है अर्थात् सृष्टि की रचना के पूर्व भी ज्ञान था एवं सृष्टि के विनाश के पश्चात् भी ज्ञान ही शेष रह जायेगा। चूँकि वेद ईश्वर के मुख से निकले और ब्रह्मा जी ने उन्हें सुना इसलिये वेद को श्रुति भी कहा जाता हैं। वेद संख्या में चार हैं - ऋगवेद, सामवेद, अथर्ववेद तथा यजुर्वेद। ये चारों वेद ही हिंदू धर्म के आधार स्तम्भ हैं।

श्लोक
संस्कृत की दो पंक्तियों की रचना, जिनके द्वारा किसी प्रकार का कथन किया जाता है, को श्लोक कहते हैं। प्रायः श्लोक छंद के रूप में होते हैं अर्थात् इनमें गति, यति और लय होती है। छंद के रूप में होने के कारण ये आसानी से याद हो जाते हैं। प्राचीनकाल में ज्ञान को लिपिबद्ध करके रखने की प्रथा न होने के कारण ही इस प्रकार का प्रावधान किया गया था।

स्मृति
श्रुति अर्थात् सुने हुये को स्मृत करके रखना स्मृति है। कालान्तर में ज्ञान को लिपिबद्ध करने की प्रथा के आरम्भ हो जाने पर जो कुछ सुना गया था उसे याद करके लिपिबद्ध कर दिया गया। ये लिपिबद्ध रचनाएँ स्मृति कहलाईं।

उपनिषद
आत्मज्ञान, योग, ध्यान, दर्शन आदि वेदों में निहित सिद्धांत तथा उन पर किये गये शास्त्रार्थ (सही रूप से समझने या समझाने के लिये प्रश्न एवं तर्क करना) के संग्रह को उपनिषद कहा जाता है। उपनिषद शब्द का संधिविग्रह 'उप + नि + षद' है, उप = निकट, नि = नीचे तथा षद = बैठना होता है अर्थात् शिष्यों का गुरु के निकट किसी वृक्ष के नीचे बैठ कर ज्ञान प्राप्ति तथा उस ज्ञान को समझने के लिये प्रश्न या तर्क करना। उपनिषद को वेद में निहित ज्ञान की व्याख्या है।

पुराण
वेद में निहित ज्ञान के अत्यन्त गूढ़ होने के कारण आम आदमियों के द्वारा उन्हें समझना बहुत कठिन था, इसलिये रोचक कथाओं के माध्यम से वेद के ज्ञान की जानकारी देने की प्रथा चली। इन्हीं कथाओं के संकलन को पुराण कहा जाता हैं। पौराणिक कथाओं में ज्ञान, सत्य घटनाओं तथा कल्पना का संमिश्रण होता है। पुराण ज्ञानयुक्त कहानियों का एक विशाल संग्रह होता है। पुराणों को वर्तमान युग में रचित विज्ञान कथाओं के जैसा ही समझा जा सकता है। पुराण संख्या में अठारह हैं - (1) ब्रह्मपुराण (2) पद्मपुराण (3) विष्णुपुराण (4) शिवपुराण (5) श्रीमद्भावतपुराण (6) नारदपुराण (7) मार्कण्डेयपुराण (8) अग्निपुराण (9) भविष्यपुराण (10) ब्रह्मवैवर्तपुराण (11) लिंगपुराण (12) वाराहपुराण (13) स्कन्धपुराण (14) वामनपुराण (15) कूर्मपुराण (16) मत्सयपुराण (17) गरुड़पुराण (18) ब्रह्माण्डपुराण।


जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK

Sunday, June 9, 2013

Jigyasa (जिज्ञासा)

मौन ही है शांति का सबसे आसान रास्ता
शांति चाहते हैं तो मौन सीखिए, केवल मुंह से चुप रहना ही मौन नहीं है। यह अभ्यास से आता है, हम मौन रहते नहीं, मौन हमारे भीतर घटता है। जब हम इसके सही तरीके और इसकी गंभीरता को समझ लेंगे, हमें मौन रहने की कोशिश नहीं करना पड़ेगी, यह खुद हमारे भीतर घटने लगेगा। जीवन में शांति उतरेगी।

मौन के वृक्ष पर शान्ति के फल लगते हैं। आज भी कई गुरु दीक्षा देते समय अपने शिष्यों से कहते हैं हमारे और तुम्हारे बीच मौन घटना चाहिए। इसका सीधा सा अर्थ है अपने गुरु से कम से कम बात करें। मौन तभी सम्पन्न होगा। गुरु शिष्य के बीच जितना मौन होगा शान्ति की उपलब्धि शिष्य को उतनी अधिक होगी। गौतम बुद्ध मौन पर बहुत जोर देते थे। एक दिन अपने शिष्यों के बीच एक फूल लेकर बैठ गए थे और एक भी शब्द बोलते नहीं थे। सारे शिष्य बेचैन हो गए। शिष्यों की मांग रहती है गुरु बोलें फिर हम बोलें। कई बार तो शिष्य लोग गुरु के नहीं बोलने पर गुरु का अहंकार बता देते हैं। यह मान लेते हैं कि हमारे सद्गुरु हमसे दूर हो गए। दरअसल गुरु बोलकर शब्द खर्च नहीं करते बल्कि मौन रहकर अपने शिष्य का मन पढ़ते हैं।

बुद्ध का एक शिष्य महाकश्यप जब हंसने लगा तो बुद्ध ने वह फूल उसको दे दिया और अन्य शिष्यों से कहने लगे मुझे जो कहना था मैंने इस महाकश्यप को कह दिया, अब आप लोग इसी से पूछ लो। सब महाकश्यप की ओर मुड़े तो उनका जवाब था जब उन्होंने नहीं कहा तो मैं कैसे बोलूं। सारी बात आपसी समझ की है। मौन की वाणी इसी को कहते हैं। इसे मौन का हस्तांतरण भी माना गया है। इसका यह मतलब नहीं है कि गुरु से जो ज्ञान प्राप्त हो वह मौन के नाम पर पचा लिया जाए। गुरु के मौन से शिष्य को जो बोध होता है उसे समय आने पर वाणी दी जा सकती है। पर वह वाणी तभी प्रभावशाली होगी जब गुरु और शिष्य के बीच गहरा मौन घटा हो। मौन का हस्तांतरण पति-पत्नी के बीच, बाप-बेटे, भाई-भाई के बीच बिल्कुल ऐसे ही घट सकता है और सम्बन्धों में शान्ति, गरिमा, प्रेम प्रकट होगा।

स्मृतियों को सहेजें, सही उपयोग करें
यादें यानी स्मृतियां, हर किसी के साथ जुड़ी होती हैं। कुछ अच्छी तो कुछ दु:खद। आदमी की ये आदत होती है वह या तो भूतकाल की यादों में जीता है या भविष्य की कल्पना में। स्मृतियां आवश्यक भी है, लेकिन इनका सही उपयोग हो। हम यादों में खोकर समय न गवाएं बल्कि स्मृतियों से प्रेरणा का काम लें। स्मृतियां आदमी को बना भी देती हैं और बिगाड़ भी देती हैं। कई लोग खयालों में खो कर बरबाद हो गए और अनेक लोग खयालों को सपने बनाकर उन्हें पूरे कर आबाद हो गए। बहुत सारी बातों को याद रखना स्मृति नहीं होता। जो भूलने लायक है उसे भूला दिया जाए और जो याद रखने लायक हो उसे याद रखा जाए। इस विवेक शक्ति का नाम स्मृति है। बेकार की बातों को याद रखने का अर्थ है बुद्धि पर अकारण बोझ डालना।

गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को इस दार्शनिक तथ्य से समझाया था कि ऐसे स्मृतियों के बोझ से दबी बुद्धि को फिर उन विषयों में आसक्ति हो जाती है। यहीं से बुद्धि की सामथ्यर्ता नष्ट होने लगती है। संत फकीर इस कला को जानते हैं कि साधना पथ में स्मृतियों का कैसे उपयोग किया जाए। निरंकारी संप्रदाय के संस्थापक संत बूटासिंह नहीं भूलते थे कि वे कभी अपनी आजीविका चलाने के लिए अंग्रेज सैनिकों के शरीर पर विभिन्न जानवरों और कभी-कभी स्त्रियों के चित्र-आकृति गोदा करते थे। पेशावर से लेकर कई ब्रिटिश राजधानियों में वे यही काम करते थे, लेकिन शरीर पर गोदने का काम करते-करते वे लोगों की आत्मा को भी स्पर्श कर लेते थे। हाथों से काम शरीर पर गोदना था पर वाणी से चर्चा आध्यात्मिक किया करते थे। देखते ही देखते पश्चिमी भारत में उन्हें गुरु का दर्जा प्राप्त हो गया। १९४३ में देह छोडऩे वाले ये संत स्मृतियों के सद्पयोग का उदाहरण हैं।

अब दुरुपयोग भी देख लें। आज के समय में ऐसे अनेक संत, गुरुओं के आंतरिक अनुभवों को उनके शिष्य उपभोक्ता सामग्री बनाकर पेश कर रहे हैं। आज के दौर में गुरुओं के विचारों को शिष्य-भक्तगण अध्यात्म धर्म की मंडी में बेच दें यहां तक तो ठीक है, पर अब तो गुरु स्वयं ही प्रोडक्ट बनकर अपनी ही बोलियां लगवा रहे हैं। यह स्मृतियों का दुरुपयोग है।

कदम तो बढ़ाएं, मंजिल सामने हैसबके जीवन में एक समस्या समान होती है। जीएं कैसे? हम कभी किसी को आदर्श बनाकर, उसके तरीकों को देखकर जीते हैं, फिर कुछ समय बाद हमारा आदर्श बदल जाता है। हम नया तरीका ढूंढऩे में लग जाते हैं। इसी ऊहापोह में हम वह खोते जा रहे हैं जो सबसे कीमती है, हमारा समय। सबसे अच्छी जीवनशैली कौनसी? दुनिया में रहते हुए जब हम जीने के एक ढंग से ऊब जाते हैं तो दूसरी जीवनचर्या में प्रवेश कर जाते हैं। चेंज के चक्कर में मनुष्य चकरघिन्नी हो जाता है बस। आइए जीने का एक तरीका यह भी अपनाया जा सकता है। उसे देखकर जीएं जो सबको देख रहा है। इसे सीधी भाषा में कह सकते हैं भक्त बन जाएं और अपने पुरुषार्थ, आत्म विश्वास को भगवान के भरोसे छोड़ दें। परिश्रम अपना हो परिणाम उसका रहे। इसका सीधा सा अर्थ है श्रम हम करें और फल परमात्मा पर छोड़ दें। अध्यात्म में इसे ही निष्कामता कहा गया है।

ऐसा सुनकर लोगों को लगता है कि यह तो बड़ी अकर्मण्यता हो जाएगी। भारतीय संस्कृति और हिंदू धर्म को लेकर वैसे भी लोग कहते हैं कि सब भगवान भरोसे, भाग्य भरोसे चलता है। लोग कुछ करते-धरते नहीं, परंतु धर्म ने ऐसा कभी नहीं कहा, अध्यात्म यह नहीं कहता, भगवान् ने भी यह नहीं कहा कि मेरा पूजन करने वाला अकर्मण्य बैठ जाए। भक्त का अपना कर्मयोग होता है। भक्ति जीवन में उतरते ही प्रत्येक कृत्य, हर बात के अर्थ ही बदल जाते हैं।

जैन साहित्य में महावीर स्वामी के दो वाक्य बहुत ही अद्भुत व्यक्त हुए हैं। एक बार उन्होंने कहा कि यदि आपने बिछाने के लिए दरी खोली, खोलना शुरू ही की तो समझ लो दरी खुल गई। यदि शुरु ही किया तो समझें काम पूरा हो गया। दूसरी बात कही थी यदि चल दिए तो समझ लो पहुंच गए। भगवान की यात्रा में कदम उठाना ही काफी है। उसकी ओर चरण चले कि मार्ग और मंजिल का फर्क खत्म हो जाएगा। यह है भक्त का भरोसा, इस जीवनशैली को भी अपना कर देखें। जीवन में जब भी किसी काम के लिए अपने कदम बढ़ाएं तो मन में विश्वास रखें कि मंजिल बस सामने ही है। यही विश्वास आपको दोनों दुनिया, भौतिक और आध्यात्मिक जगत में एक जैसी सफलता दिलाएगा।

होश में रहें, जीवन खिल उठेगा
केवल खुमारी में न होना ही होश में होना नहीं है। हम होश में हैं या नहीं यह पता चलता है हमारे नजरिए से। हम अपने भीतर की संभावनाओं को सकारात्मक नजरिए से देखें, विपरित परिस्थितियों में भी आंतरिक विकास के प्रति जागरूक रहें। अगर हम होश में रहेंगे तो जीवन में संभावनाएं बरकरार रहेंगी। खुद को पूरे समय होश में रखने का एक तरीका है ध्यान।

कीचड़ में कमल खिलता है यह एक सामान्य सी कहावत है और प्रकृति का सच्चा अनूठा दृश्य है। कमल तो बेजोड़ और सर्वमान्य है ही, हिन्दू देवताओं का अलंकरण और पूजा की सामग्री है। पर आज बात कीचड़ की कर लें। पहली बात तो यह कि कीचड़ को सिर्फ कीचड़ ही न समझा जाए इसमें कमल होने की संभावना छिपी हुई है। यदि नजर में परमात्मा है तो कीचड़ के भीतर छिपा कमल हम प्राप्त कर सकेंगे, अन्यथा सतही दृष्टि से तो कमल को भी हम कीचड़ बनाकर छोड़ देंगे। कीचड़ और कमल के परमात्मा के नियम को और थोड़ा खुलकर समझ लें।

आप दुनियादारी में जितने गहरे उतरते जाएंगे आपको कीचड़ के मायने समझ में आने लगेंगे। अब यदि बाहर कमल खिल सकता हो तो हमारे भीतर क्यों नहीं। हमारे शरीर के श्रेष्ठतम और सातवें चक्र सहस्त्रार का स्वरूप खिले कमल जैसा है। आपके भीतर कीचड़ में कमल खिलने का अर्थ है अब आप जो भी काम करेंगे पूरी तरह होश में करेंगे। कमल के रूप में आपका जागरण खिला है। होश का अर्थ है आप अपने ही कृत्य के दृष्टा हो गए। इस कमल खिलाने की क्रिया का नाम है ध्यान। पर ध्यान के लिए समय की झंझट है लोगों के पास।

कब करें ध्यान। इस वक्त समय के मामले में दो तरह के लोग हैं। एक वे हैं जिन्हें चौबीस घंटे भी कम पड़ रहे हैं दूसरे वे हैं जिन्हें भारी पड़ रहे हैं कि चौबीस घंटे बिताएं तो कैसे बिताएं। एक मध्य मार्ग निकाला जा सकता है। २४ घंटे होश की चिंता छोड़ें। सिर्फ पांच या दस मिनट, पूरी तरह से ध्यान में बिताएं। थोड़ी देर का मेडिटेशन पूरे चौबीस घंटे पर प्रभाव रखेगा। करके देखिए पता लग जाएगा, कीचड़ में कमल कैसे खिलता है।

शांति बाहर नहीं, भीतर खोजें
कई लोग जीवनभर खूब मेहनत करते हैं, फिर जब मन भारी होता है वे तीर्थों, पहाड़ों या हील स्टेशनों का रास्ता पकड़ते हैं। शांति की तलाश में दुनिया घूम लेते हैं लेकिन एक जगह जाना भूल जाते हैं। खुद के भीतर। जिस शांति की तलाश में दुनिया भटक रही है, वह हमारे अपने भीतर ही है। बस जरूरत है उसे पहचानने की, उसकी ओर आगे बढऩे की, खुद के भीतर झांकने की। हम अपनी सारी ऊर्जा खत्म कर देते हैं, शांति की खोज में, जबकि शांति का सबसे सीधा और आसान तरीका है भीतर की ऊर्जा का रूप बदलना। जिन्हें शान्ति की खोज करना है उन्हें अपने भीतर की ऊर्जा को जानना होगा।

हम ज्यादातर अपनी जीवन ऊर्जा का उपयोग कर ही नहीं पाते हैं। इसका सबसे अच्छा उपयोग है इसका रूपान्तरण करना। यह ऊर्जा अधिकांशत: मूलाधार चक्र पर पड़ी रहती है। इसे कल्पना के साथ सांस का प्रयोग करते हुए नीचे से ऊपर के चक्रों पर लाकर सहस्त्रार चक्र पर छोडऩा है। बिना किसी तनाव के इसको अपनी दिनचर्या में जोड़ लें और धैर्य के साथ करें। ऊर्जा जितने ऊपर के चक्रों पर है हम उतने ही पवित्र रहेंगे और हम जितने पवित्र हैं उतने ही शान्त होंगे। इसीलिए शान्ति की खोज बाहर न करके भीतर ही की जाए।पहले तो ऊर्जा को ऊपर उठाइए तथा दूसरा इसके अपव्यय को रोकें। ऊर्जा को बेकार के खर्च होने से रोकने के लिए अच्छा तरीका है मंत्रजप करें।

व्यर्थ होती ऊर्जा सार्थक हो जाएगी। जब आप ऊर्जा के रूपान्तरण में लगेंगे तो पहली बाधा बाहर से नहीं भीतर से ही आएगी और यह कार्य करेगा हमारा मन। इसलिए अपने मन पर हमेशा संदेह रखें। हम एक भूल और कर जाते हैं इस मन को हम अपना समझ लेते हैं, जबकि इसका निर्माण हमारे लिए दूसरों ने किया है। माता-पिता, मित्र, रिश्तेदार, शिक्षक आदि ने। जो हमारा बीता समय है, उसने हमारे मन को बनाया है। ये अतीत की स्मृतियां हमारे वर्तमान को आहत करती हैं, इसी कारण हमारा मन या तो अतीत से बंधा है या भविष्य से जुड़ा रहेगा। मन वर्तमान से सम्बन्ध बनाने में परहेज रखता है। मन जितना वर्तमान से जुड़ेगा, उतने ही हम शान्त रहेंगे। इसी को जागरण कहा गया है। तो जाग्रत रहें और ऊर्जा को ऊपर उठाएं, फिर संसार की कोई परिस्थिति आपको अशान्त नहीं कर सकती। इन दोनों काम में जिससे आपको मदद मिल सकती है।

सावधान, कहीं हम वस्तु तो नहीं बन रहे
भौतिकता के दौर में जो सबसे बड़ा नुकसान हुआ है, वह है मूल्यों का खोना। विलासिता के दौर में मनुष्य का स्तर भी एक वस्तु के बराबर होता जा रहा है। हमने बड़े-बड़े बाजार खड़े कर लिए लेकिन दुर्घटना यह घट गई कि इस बाजार में हमारी औकात सामान जितनी ही रह गई है। हम जीवन का आनंद तलाशने के लिए बाजार में निकले और परेशानियां खरीद लाए। अक्सर जीवन में यह कमी रह जाती है, हमें चाहिए क्या और हम क्या खरीद रहे हैं।

जरूरत की चादर और मोह की दुशाला इन दोनों में जो फर्क है उस अंतर को समझने का अब समय आ रहा है। यह पूरा सप्ताह दीपावली के पूर्व खूब खरीददारी का समय होगा। धन, वैभव, सम्पत्ति और साधन सभी अपने आकर्षक रूप में साधकों को घेरेंगे। वस्तुएं खरीदते-खरीदते कहीं हम स्वयं भी वस्तु न बन जाएं। अध्यात्म मार्ग के लोगों को ध्यान रखना होगा कि आवश्यक वस्तुएं तो बसाई जाएं लेकिन उससे मोह न पालें, क्योंकि मोह धीरे से लोभ में बदल जाएगा और लोभ भक्ति में बाधक होता है। आने वाले सात दिनों में माया अपने पूरे दबाव के साथ साधकों के जीवन में प्रवेश हेतु तैयार रहेगी।

परमहंस रामकृष्ण कहा करते थे माया को सरलता से समझना हो तो श्रीरामकथा के एक दृश्य में प्रवेश किया जाए। वनवास के समय श्रीराम आगे चलते थे मध्य में सीताजी होती थीं और उनके पीछे लक्ष्मण रहते थे। इस दृश्य पर तुलसीदासजी ने लिखा है आगे राम अनुज पुनि पाछें मुनि बर बेष बने अति काछें, उभय बीच सिय सोहति कैसे। ब्रह्म जीव बिच माया जैसेज्ज् इसका अर्थ है भगवान श्रीराम परमात्मा का रूप हैं, लक्ष्मणजी आत्मा या कहें जीवात्मा हैं और इन दोनों के बीच में माया स्वरूप में सीताजी हैं। सीताजी रामजी के चरणों की अनुगामी थीं। जहां-जहां श्रीराम पैर रखते थे वहीं-वहीं सीताजी चलती थीं और इसी कारण लक्ष्मणजी श्रीरामजी को ठीक से देख नहीं पाते थे। संयोग से कोई मोड़ आ जाए तो लक्ष्मणजी को श्रीराम दिख जाते थे। संदेश यह है कि परमात्मा और जीवात्मा के बीच जब तक माया है परमात्मा दिखेंगे नहीं। किसी मोड़ पर माया जरा सी हटी और परमात्मा के दर्शन हुए। भक्ति में ऐसे मोड़ आते ही रहते हैं। इसलिए आने वाले सात दिनों में माया तो रहेगी पर हमें मोड़ बनाए रखना है। यहीं हमारी भक्ति की परीक्षा होगी।

यह माया ही हमें परमात्मा से दूर रखती है। परमात्मा कभी अपनी माया हमारे बीच से नहीं हटाएगा। यह प्रयास तो खुद हमें करना होगा कि माया से ऊपर उठकर या दाएं-बाएं होकर हम परमात्मा को देख लें। यह एक बार का काम नहीं, इसके लिए लगातार प्रयासरत होना पड़ेगा।

अगर पाने की चाह है तो खोने से न डरें
हम दुनिया का हर सुख चाहते हैं लेकिन अगर एक भी चीज खोनी हो तो हम सहम जाते हैं, डर जाते हैं। परमात्मा ने इस संसार को रचा, तो नियम ही कुछ ऐसा बनाया कि हमें बिना मूल्य चुकाए कोई चीज मिल ही नहीं सकती है। और अगर बात खुद परमात्मा को पाने की है तो उसके लिए ऐसा मूल्य भी चुकाना पड़ेगा।

परमात्मा को पाना है तो खुद की पहचान खोनी होगी। हर इंसान को अपनी पहचान से बड़ा मोह होता है, लेकिन जब परमात्मा से मिलना हो तो फिर उसी का होकर मिलना पड़ता है।हर उपलब्ध वस्तु का अपना एक मूल्य होता है। जो लोग परमात्मा को पाना चाहते हैं उन्हें अच्छा खासा मोल चुकाने की तैयारी रखना होगी।
सच तो यह है कि ईश्वर जैसी महान हस्ती को पाने के लिए एक बड़ा मूल्य चुकाना होगा और वह है खुद ही को खो देना। कोई यह सोचे कि यह सत्ता थोड़े से धन से, सम्पत्ति से या मान देने से मिल जाएगी तो यह भ्रम होगा। खुद ही को खर्च किए बिना परमात्मा नहीं मिलेगा। अपने निज का दांव लगाना पड़ेगा, अपनी ही आहूति देना पड़ेगी।

हनुमानजी का उदाहरण लें। जब तक उनके जीवन में श्रीराम नहीं आए थे वे केसरी के बेटे के रूप में तथा सुग्रीव के सचिव के रूप में जाने जाते थे। जैसे ही श्रीराम उनके जीवन में आए हनुमानजी ने अपनी सारी पहचान समाप्त कर दी और पूरी तरह राममय हो गए। श्रीराम जितने हनुमान को मिले उतने शायद ही किसी को मिले होंगे। कारण वही था हनुमानजी ने स्वयं को पूरा खो दिया था और खुद को खोने के बाद जो मिला वह अनमोल है। हनुमानजी इसीलिए सभी धर्मों में प्रिय हैं। हर संप्रदाय का व्यक्ति वायु का उपयोग करता है और हनुमानजी वायु के देवता हैं। कोई सा भी धर्म हो उस परमसत्ता तक पहुंचने के लिए सिद्धांत सबके एक ही होंगे।

समझदार भक्त किसी भी धर्म के हों अपने सम्प्रदाय को मार्ग की तरह उपयोग करते हैं और मंजिल पर पहुंचने पर मार्ग को छोड़ देते हैं। जो नासमझ हैं वह मार्ग पर ही टिक जाते हैं। संप्रदाय एक मार्ग है। अब मार्ग या संप्रदाय का क्या दोष, वह तो लोग गलत उपयोग करते हैं इसलिए संप्रदाय शब्द बदनाम हो गया। यह तो वाहन की तरह है। हम वाहन का उपयोग करने के बाद उसको छोड़ देते हैं अपने ऊपर ढोते नहीं। यदि कोई वाहन को ढोए तो इसमें वाहन की क्या गलती। संप्रदाय भी इसी तरह है। हनुमानजी अपने चरित्र से यही बताते हैं कि उस परम सत्ता को पाने के लिए विलीन हो जाओ और ऐसी अवस्था में धर्म और संप्रदाय आड़े नहीं आएंगे। आपको वह परम सत्ता उपलब्ध हो जाएगी जिसके लिए आप संसार में आए हैं।

प्रकृति से जुड़ें, परमात्मा मिल जाएंगे
परमात्मा को अनुभव करने का सबसे बेहतर रास्ता है प्रकृति। कहते हैं प्रकृति परमात्मा की प्रतिनिधि है। नदियां, पहाड़, जंगल, वनस्पति और जीव, सभी परमात्मा के प्रतिनिधि है। भारतीय मनीषियों ने इंसान को परमात्मा से जोडऩे के लिए प्रकृति के जरिए ही प्रयास करने के तरीके इजाद किए। ये तरीके ही हमारी संस्कृति में व्रत-त्योहार और उत्सव बनकर आए हैं। इन उत्सवों के मर्म को समझें, इसके आनंद को अनुभव करेंगे तो परमात्मा खुद आपको महसूस होने लगेगा।

परमात्मा ने मनुष्य को ही यह संभावना दी है कि वह अपनी चेतना को ऊपर उठा सकता है तब देव तुल्य बन जाएगा। चेतना का स्वभाव है यदि इसे ऊपर नहीं उठाया गया तो यह नीचे प्रवाहित होगी ही और तब पतन निश्चित है। अत: मनुष्य के पास यह मौका है कि वह दोनों ओर जा सकता है श्रेष्ठ पर भी, निकृष्ट पर भी। चेतना को यदि श्रेष्ठ पर ले जाना है तो एक तरीका यह भी है कि उसे प्रकृति से जोड़ें। प्रकृति परमात्मा की प्रतिनिधि है। ये तो हमारे पर्यावरण दोष ने हमें प्रकृति से दूर किया है और इसी कारण हम परमात्मा से भी बिछड़ गए हैं।

भारतीय शास्त्रों ने कुछ त्यौहारों को अद्भुत रूप दिया है। ऐसा ही एक त्यौहार है गोवत्स द्वादशी। इस दिन गोपूजन का महत्व है। भारत जैसे कृषि प्रधान देश में गाय उसकी सच्ची प्रतिनिधि है। माना तो यहां तक गया है धरती को जो अमृत मिलता है वह गाय के दूध के रूप में मिलता है। हम जितना अधिक गाय को पूजेंगे समझ लीजिए उतना ही प्रकृति के प्रति सम्मान दर्शा रहे होंगे। यह कैसे संभव है कि कोई प्रकृति से प्रेम करे और गाय पर अत्याचार। गाय से जुडऩे का अर्थ है अपने अस्तित्व से अहंकार को मुक्त करना। हम बुद्धि और अहंकार से इतने अधिक भर गए हैं कि परमात्मा के लिए कोई स्थान रिक्त ही नहीं रहा। हिंदुओं के दो प्रमुख अवतार श्रीराम और श्रीकृष्ण ने प्रकृति के दो प्रतिनिधियों को अपनी लीला में विशेष स्थान दिया है। श्रीराम ने वानरों को तथा श्रीकृष्ण ने गायों को। मनुष्य का शरीर यदि बंदरों के शरीर का विकास है तो मनुष्य की आत्मा गाय की आत्मा का विकास है। यदि गाय की आंख में आंख डालकर आप ५ मिनट रुक जाएं तो आपका ध्यान लग जाएगा। परमात्मा की कृपा चाहिए तो प्रकृति का सम्मान करें।

बाहरी आवरण, भीतरी गुणों सा ही हो
यह दिखावे का दौर है, व्यक्ति का महत्व उसके गुणों से नहीं बल्कि उसके बाहरी आवरण से आंका जा रहा है। हम व्यक्तित्व परखते समय केवल बाहरी आवरण यानी कपड़ों और आभूषणों पर टिक जाते हैं। अच्छे कपड़े, आभूषण और सुंदर बनाव-शृंगार हो तो व्यक्तित्व आकर्षित करता लेकिन हम उसके भीतर झांकना भूल जाते हैं।

आध्यात्मिक शांति की यात्रा में पहनावा भी एक बड़ा कारण हो सकता है। हम स्वभाव से क्या हैं और हमारे ऊपर का आवरण क्या है? अगर आध्यात्मिक शांति की तलाश है तो हमें बाहर और भीतरी आवरण में समानता लानी होगी। हमारा पहनावा भी हमें भीतर तक प्रभावित और परिवर्तित कर सकता है। क्या पहना जाए इसे लेकर कई लोग दिनभर परेशान रहते हैं। यदि आध्यात्मिक दृष्टि से देखें तो बात केवल कपड़ों की नहीं की जा रही है। हम एक ऐसा आवरण पहन लेते हैं जिसमें पता नहीं लग पाता कि हम भीतर से कुछ और हैं बाहर से कुछ और हैं। सबसे अच्छा ड्रेस कोड यह है कि हम जैसे भीतर हों वैसे ही बाहर रहें। छल के वस्त्र परमात्मा को पसंद नहीं आते। वस्त्रों की योग्यता उसकी उपयोगिता में होती है। किस वस्त्र का किस समय कितना उपयोग किया जाए यह समझदारी कहलाती है। यह समय उपभोक्ता युग है। कपड़े बनाने वाले सावधान हैं कि उपभोक्ता को कैसे कपड़े चाहिए, किन्तु पहनने वाले लापरवाह हैं।

वस्त्रों के उपयोग का एक उदाहरण रामायण में अनसूया-सीता भेंट प्रसंग में आता है। श्रीराम, लक्ष्मण और सीता के साथ दंडकारण्य में ऋषि-मुनियों की राक्षसों से रक्षा के लिए पहुंचे हैं। वहां वे ऋषि दंपत्ति अत्रि-अनसूया से मिलते हैं। अनसूया वन-जीवन की आवश्यकताओं को समझते हुए सीता को ऐसे वस्त्र और आभूषण भेंट करती हैं जो कभी मैले नहीं होते और जिन्हें साफ करने की आवश्यकता नहीं होती। दिव्य बसन भूषन पहिराए। जो नित नूतन अमल सुहाए॥कह रिषिबधू सरस मृदु बानी। नारिधर्म कछु ब्याज बखानी॥ उन्हें (सीता को) ऐसे दिव्य वस्त्र और आभूषण पहनाए, जो नित्य नए निर्मल और सुहावने बने रहते हैं। प्राकृत वस्त्राभूषण में तीन दोष होते हैं। वे पुराने, मलिन और शोभाहीन हो जाते हैं। ये दिव्य वस्त्र इन दोषों से रहित थे।

अयोध्या से वनगमन से निकलते समय श्रीराम ने सीता को कहा था - अपने हार आदि आभूषण गुरुपत्नी अरुंधती को दे दो। वन में सीता क लिए जो वस्त्र-आभूषण उपयोगी थे, वही अनसूया ने उन्हें दे दिए थे।जब हम पहनावे की बात करें तो पहले भीतरी पहनावे यानी हमारे स्वभाव और गुणों को सुधारें, बाहरी आवरण स्वत: ही आकर्षित करने लगेगा।

योग्यता हमेशा रहेगी, अपना भोलापन संभाले रखें
आज के दौर में योग्यता तो कई लोगों में मिल जाती है लेकिन सहजता या कह लें भोलापन कम ही लोगों में मिलता है। आजकल भोले इंसान को बेवकूफ या बुद्धू भी कह दिया जाता है। लोग उसे हंसी का पात्र बना देते हैं। दरअसल भोलापन एक दुर्लभ गुण है, इस गुण के होने से आदमी में जो खास बात आ जाती है वह यह कि वह भेदभाव भूल जाता है, अहंकार से दूर हो जाता है। हमारे दो देवताओं में यह गुण समान है, पहले भगवान शिव और दूसरे बाबा हनुमान। दोनों परम शक्तिशाली, ज्ञानी और पराक्रमी हैं लेकिन दोनों के स्वभाव में भोलापन हैं।

हमें इस गुण को साधने का प्रयास करना चाहिए, हम सहज हो जाएंगे। शब्द ज्ञान तो बढ़ा देते हैं लेकिन ध्यान को बाधित कर देते हैं। श्रीहनुमानचालीसा दुनिया में खूब बोली जा रही ऐसी पंक्तियां है जो आपको मौन में उतार देंगी और यहीं से ध्यान, मेडिटेशन घटेगा। इसकी छठवीं चौपाई शंकर सुवन केसरी नंदन तेज प्रताप महाजग बंदन को लेकर पंडितों का अलग-अलग मत है। आईए आज शब्द तथा अनुभूति को समझा जाए। कुछ विद्वान कहते हैं शंकर सुवन का अर्थ है हनुमानजी स्वयं शंकर हैं और अन्य का मत है। वे शंकरजी के बेटे हैं। जो पुत्र मानते हैं उनके पास शिवपुराण में व्यक्त हनुमत जन्म कथा का आधार है और स्वयं शंकर हैं ऐसा मानने वाले विनय पत्रिका में प्रकाशित एक क्षेपक कथा का प्रमाण देते हैं।

दोहावली तथा आनंद रामायण के प्रसंगों की चर्चा भी की जाती है। सच तो यह है कि हनुमानजी के जन्म की सात-आठ कथाएं हैं। इस कारण भी मान्यता में भेद आना स्वाभाविक है। सुवन शब्द को पकड़कर हम शोध में तो पहुंच सकते हैं, पर भक्ति में नहीं उतर पाएंगे। शंकर सुवन पंक्ति में जो अनुभूति है मात्र शब्द शोध से खोखली हो जाएगी। हमें वहां जाना होगा जहां इनका आरंभ हुआ था। शंकर सुवन लिखते समय तुलसीदासजी का भाव था हनुमानजी को शंकरजी के भोलेपन से जोडऩा। क्योंकि इसी की अगली पंक्ति में लिखा है तेज प्रताप महा जग बंदन। तेजस्वी और प्रतापवान यदि भोलेपन से भरा हो तो वह हनुमान होता है। आज के दौर में जब भोलापन मूर्खता और सरलता बेवकूफी मान ली गई हो तब तुलसी की यह मांग बड़ी जरूरी है कि हनुमान भक्त भोलापन बचा कर रखें। योग्यता और भोलापन मणिकांचन योग है। आज के योग्य लोगों को देख भगवान से यह सवाल पूछने की इच्छा होती है प्रभु, क्या आप वह फर्मा कहीं रख कर भूल गए हो जिसमें भोले और भले लोग तैयार किए जाते थे।

अभाव में जीना सीखें, आनंद अपनेआप मिलेगा
दुनिया सुखों के पीछे दौड़ रही है। हर कोई सबकुछ पाने की होड़ में लगा है। सौ फीसदी सफलता से कम तो किसी को मंजूर ही नहीं है। हम खुद भी ऐसे हैं और बच्चों को भी इसी दौड़ में जुटा दिया है। हर सुख, सारी सुविधा और दुनियाभर का वैभव हर एक ही दिली तमन्ना हो गई है। एक चीज का अभाव भी बर्दाश्त नहीं है, थोड़ी सी असफलता हमें तोड़ देती है। लेकिन इसके बाद भी जो नहीं मिल रहा है, वो है आनंद। दरअसल यह आनंद सबकुछ पा लेने में नहीं है। कभी-कभी अभाव में जीना भी आनंद देने लगता है। अगर आपके भीतर कोई अभाव है तो उसे सद्गुणों से भरने का प्रयास करें, महत्वाकांक्षाओं को हावी न होने दें। मन चाहा मिल जाए इसके लिए तेजी से दौड़ रही है दुनिया। न मिलने का विचार तो लोगों को भीतर तक हिला देता है। संतों ने बार-बार कहा है जो है उसका उपयोग करो तथा जो नहीं है उसे सोच-सोच कर तनाव में मत आओ।

हम जो नहीं है उसे हानि मानकर जो है उसका भी लाभ नहीं उठा पाते हैं। आज अभाव की बात की जाए। संतों के पास यह कला होती है कि वे अभाव का भी आनंद उठा लेते हैं। हमारे लिए दो उदाहरण काफी है। श्रीराम वनवास में पूरी तरह से अभाव में थे। जिनका कल राजतिलक होने वाला था उन्हें चौदह वर्ष वनवास जाना पड़ा। इधर रावण के पास ऐसी सत्ता थी जिसे देख देवता भी नतमस्तक थे। एक के पास सबकुछ था फिर भी वह हार गया और दूसरे ने पूर्ण अभाव में भी दुनिया जीत ली। अभाव हमें संघर्ष के लिए प्रेरित करे, कुछ पाने के लिए प्रोत्साहित करे यहां तक तो ठीक है परन्तु हम अभाव में बेचैन हो जाते हैं और परेशान, तनाव ग्रस्त मन लेकर कुछ पाने के लिए दौड़ पड़ते हैं तब क्रोध, हिंसा, भ्रष्ट आचरण हमारे भीतर कब उतार जाते हैं पता ही नहीं चल पाता है।इसे एक और दृष्टि से देख सकते हैं।

रावण में भक्ति का अभाव था बाकी सब कुछ था उसके पास। कई लोगों के साथ ऐसा होता है। आदमी अपने अन्दर के अभाव को भरने की कोशिश भी करता है। रावण ने भक्ति के अभाव को अपने अहंकार से भरा था, आज भी कई लोग अपने अभाव को अपनी महत्वाकांक्षा विकृतियों, दुर्गुणों से भरने लगते हैं। जिन्हें भक्ति करना हो वे समझ लें पहली बात अभाव का आनंद उठाना सीखें और अभाव को भरने के लिए लक्ष्य, उद्देश्य पवित्र रखें।

शब्द संवारते हैं हमारा व्यक्तित्व
कहते हैं सृष्टि की रचना शब्द से हुई है। कोई ब्रह्मनाद इस ब्रह्मांड में गूंजा, फिर उसने रूप धरना शुरू किया। शब्दों में बड़ी शक्ति होती है, हम जब भी कुछ कहें, यह समझकर कहें कि वे हमारे बोले गए शब्द क्या प्रभाव पैदा करेंगे। शब्द हमारा व्यक्तित्व और विचार दोनों बनाते हैं, हमारे भीतर क्या गूंज रहा है, हमारा व्यक्तित्व इसी पर निर्भर करता है। जो शब्द हमारे अंदर हमेशा नाद करते रहते हैं, हम स्वयं भी वैसे ही हो जाते हैं।

जिस इंसान के मन में परमात्मा के शब्द गूंज रहे हों, उसे हर जगह केवल परमात्मा की तलाश ही होती है, किसी के मन में हमेशा भौतिक इच्छाओं की आवाज उठती रहती है, सो उसे भौतिक और दैहिक सुख की ही तलाश होती है। शरीर सद्कर्मों और मन सद्विचारों से संवरेगा। सद्विचार संवरते हैं सिमरन से, सिमरन के लिए शब्द-नाम की ताकत चाहिए। नाम महिमा के लिए गुरुनानक देव ने कहा है शब्दे धरती, शब्द अकास, शब्द-शब्द भया परगास। सगली सृस्ट शब्द के पाछे, नानक शब्द घटे घट आछे।। इस शब्द ने धरती, सूर्य, चंद्रमा सारी दुनिया पैदा की है। यही शब्द सबके भीतर अपनी धुनकारें दे रहा है। इस नाम की खोज की जाए जो सबके भीतर है। सभी संत-फकीरों ने अध्यात्म को समझाने के लिए अपने-अपने शब्द दिए हैं जो बाद में नाम-वंदना बन गए। गुरुनानक साहिब ने इसे गुरुवाणी, सच्चीवाणी, अकथ-कथ, हुकम, हरि कीर्तन कहा। ऋषि मुनियों ने इसे कभी आकाशवाणी कहा तो कभी रामधुन। चीनी गुरुओं ने ताओ, मुस्लिम फकीरों ने कलमा, बांगें आसमानी, कलामे इलाही, बताया। ईसा मसीह इसे लोगास बता गए। लेकिन फकीरों ने जो नाम शब्द बताया है इसे हम केवल ऐसे शब्दों से न जोड़ लें जो जुबान से निकलते हैं। यह नाम शब्द एहसास का मामला है।

हमारे शरीर के भीतर नाम अपनी अनुभूति रखते हैं।जब हम ध्यान करते हैं तो ये नाम या गुरुमंत्र केवल बोलने के शब्द बनकर नहीं बल्कि सुमिरन ध्यान में अपना नाद देते हैं, गूंज ध्वनि देते हैं। यह भीतरी अनुगूंज हमें गहरे ध्यान में उतारती है। कई लोगों को तो गुरुनानक साहिब के वाहे गुरु संबोधन ने भी ध्यान में उतार दिया। यह नाम जप एक पुकार बन जाता है। परमात्मा को पाने के लिए हम जब आतुर होते हैं और उस आतुरता में जो शब्द उच्चारित होते हैं वे नाम जप बन जाते हैं। शिक्षा पद्धति में विषय की पुनरावृत्ति एक विधि है, जिसे रिवीजन लर्निंग कहते हैं। ऐसे ही अध्यात्म के अभ्यास में जप लर्निंग है। निरंतरता बनाए रखिए एक दिन परमात्मा आपको उपलब्ध होगा।

मित्रता भावों से हो, शक्ति या औहदे से नहीं
अधिकतर लोग मित्रता उनसे गांठ लेते हैं जिनके पास कोई पद हो, वैभव हो या शक्ति हो। यह रिश्ता बहुत महत्वपूर्ण होता है। लोग यह भूल जाते हैं कि जिससे मित्रता कर रहे हैं, उसके गुण क्या है, अमीर हो लेकिन अहंकारी, शक्तिशाली हो लेकिन आततायी, वैभवशाली हो लेकिन भोगप्रवृत्ति का हो तो ऐसे आदमी से दोस्ती करना निरर्थक ही नहीं कभी-कभी अपने लिए भी अपमान का कारण बन सकता है। मित्रता हमेशा भाव और समर्पण देख कर रहें, तभी आपके काम ठीक होंगे। अगर सोद्देश्य मित्रता भी है तो उसमें भी इन बातों का ध्यान रखना जरूरी है। श्रीराम को सुग्रीव व साथियों से इतनी जानकारी मिल गई थी कि सीता का अपहरण हुआ है।

कोई राक्षस विमान से सीता को दक्षिण दिशा में ले गया है। मुद्दा था सीताजी की खोज। सुग्रीव ने श्रीराम को आश्वस्त किया था कि सब प्रकार करिहउँ सेवकाई। जेहि बिधि मिलिहि जानकी आई॥ ''मैं सब प्रकार आपकी सेवा करूंगा, जिस उपाय से जानकीजी आकर आपको मिले।श्रीराम से सुग्रीव की पहली ही मुलाकात में यह वार्तालाप हुआ था। श्रीराम के पास यह विकल्प था कि वे सीता शोध जैसे महत्वपूर्ण कार्य के लिए या तो सुग्रीव से मित्रता करें या बालि से। बालि उस समय बलशाली थे और राजा थे किंतु श्रीराम ने मैत्री सुग्रीव से की क्योंकि बालि अहंकारी थे और अनुचित, अन्याय के प्रति विरोध नहीं करते थे। एक और महत्वपूर्ण पक्ष यह था कि श्रीराम और सुग्रीव की मैत्री हनुमानजी ने करवाई थी। कीन्ही प्रीति कछु बीच न राखा। दोनों ने हृदय से प्रीति का कुछ भी अंतर नहीं रखा। यह श्रीराम की विशिष्ट शैली थी कि उन्होंने विवेक से सुग्रीव पर विश्वास किया।

जिस पर विश्वास किया जाए, उसे पूरा अधिकार भी दिया जाए। श्रीराम ने सुग्रीव पर पूरा विश्वास कर अधिकार दिया कि वे सीता की खोज करें। इसी विश्वास की प्रेरणा का आधार था कि सुग्रीव ने अपनी पूरी ताकत सीता शोध में झोंक दी। अपनी सेवा से उन्होंने कहा था - राम काजु अरू मोर निहोरा। बानर जूथ जाहु चहुँ ओरा।। '' हे वानरों के समूह यह श्रीराम का कार्य है और मेरा अनुरोध है तुम चारों ओर जाओ। श्रीराम ने सुग्रीव को निर्णय लेने का अधिकार दिया और सुग्रीव उस पर खरे उतरे। सीता की खोज हुई और लक्ष्य की प्राप्ति।

शिक्षा वो जो शांति दे
शिक्षा प्रणाली में गलाकाट स्पर्धा अब चिंता का राष्ट्रीय मुद्दा हो गई है। नई पीढ़ी नंबरों की दौड़ और रैंक की होड़ में लगा दी गई है। माता-पिता बिना बच्चे की मानसिक स्थिति को समझे उसे नंबरों की अंधी दौड़ में दौड़ा रहे हैं। आधुनिक शिक्षा प्रणाली से ततकलीक प्रतिभाएं तो पैदा हो रही हैं लेकिन इस पीढ़ी का भविष्य क्या होगा अब इस पर चिंतन करना जरूरी है। नई पीढ़ी अब पूरी तरह भौतिकता के पीछे है, जीवन का दर्शन बदल गया है और सबसे बड़ा नुकसान जो हुआ है वह यह कि इस पीढ़ी के भीतर एक अंशाति है। सारे सुख, विलासिता के साधनों के बावजूद इनके पास शांति नहीं है। शिक्षा के विस्तार को इस युग में खूब लाभ मिला परंतु एक हानि भी हुई कि पढ़े-लिखे लोग अशांत हो गए। आज की शिक्षा सेवा का माध्यम होना थी जो शोषण का कारण बनती गई। ये केवल शिक्षा के खतरे हैं।

देवलोकवासी आचार्य श्रीराम शर्मा कहा करते थे केवल शिक्षा ही नहीं विद्या की भी आवश्यकता है। शिक्षा केवल बाहरी जानकारी दे रही है और विद्या भीतरी अनुभूतियां कराती है। शिक्षा संस्थानों, पुस्तकों और अन्य तकनीकी माध्यमों से प्राप्त होती है किंतु विद्या का आरंभ होता है मौलिक चिंतन से। शिक्षा केवल विचार देती है और विद्या विचार को आचार से जोड़ती है। शिक्षा के लिए खूब शिक्षक मिल जाएंगे लेकिन विद्या के लिए गुरु ढूंढऩा पड़ेगा। विद्या कहती है थोड़ा संयम साधो, आज के युग में निजी आवश्यकताओं और महत्वाकांक्षाओं को संभालना ही संयम है और सद्कार्य, सद्भाव का विस्तार करना ही सेवा है। विद्या अपने साथ संयम और सेवा लाती है। किंतु केवल शिक्षा लूट और शोषण करना सिखा रही है। केवल शिक्षा ने लोगों की खोपड़ी और जेब भर दी पर निजी व्यक्तित्व को खोखला कर दिया। मात्र शिक्षा लोगों की आदतें बना देती है और विद्या स्वभाव तैयार करती है। आदतें ध्यान में बाधा हैं इसलिए शिक्षित पुरुष मेडिटेशन में मुश्किल से उतर पाता है। उसे विद्या का सहारा मिला और वह अधिक योग्य होकर ध्यान में उतर जाएगा। केवल शिक्षा खतरनाक है और केवल विद्या भी उपयोगी नहीं होगी। दोनों के संतुलन में जीवन का आनंद है। एक काम इसमें उपयोगी है जरा मुस्कुराइए....।

अहंकार से बचाती है विनम्रता
कई बार हम अपने भीतर ही घट रही घटनाओं से अनजान रहते हैं। भक्ति करते हैं, पुरुषार्थ दिखाते हैं, दान-कर्म करते हैं लेकिन कहीं न कहीं यह समझने से चूक जाते हैं कि हमारे भीतर धीरे-धीरे अहंकार पनप रहा है। अहंकार ही सफलता की राह का सबसे बड़ा रोड़ा है। हम अहंकार के चलते ही कई अवसर गवां देते हैं। अहंकार से बचने के योगियों ने, संतों ने, विद्वानों ने कई रास्ते बताए हैं लेकिन सबसे सहज और सरल रास्ता है आप विनम्र हो जाएं। विनम्रता आपको कभी अहंकारी नहीं होने देगी, आपको सहज और व्यवहार को लचीला रखेगी। विनम्रता ही एक गुण है जो आपको समर्पण सिखाएगा। भक्ति करने वालों को कभी-कभी खुद से ही यह शिकायत होने लगती है कि न चाहते हुए भी उनके भीतर अहंकार का जन्म हो जाता है।

सिक्ख सन्त हुजूर स्वामीजी ने एक जगह बड़ी सुन्दर बात कही-कोमल चित्त दयामन धारो परमारथ का खोज लगाना। परमात्मा से मिलना हो तो हृदय कोमल हो तथा दूसरों के दर्द की अनुभूति करने की लालसा हो। सन्त तो यहां तक कहते हैं यदि हमारे शत्रु पर भी दुख आए तो हमारी आंखें नम हो जाएं। नम्रता भक्ति का गहना है।

इसीलिए सन्त लोग अपने आश्रमों में साध-संगत की सेवा पर जोर देते हैं। जितनी अधिक सेवा करेंगे नम्रता उतनी अधिक बढ़ती जाएगी और नम्रता का परिणाम है अहंकार का खत्म होना। नम्रता बड़े-छोटे, ऊंच-नीच का भेद मिटा देती है। हनुमानजी के जीवन में नम्रता के दो उदाहरण आते हैं। लंका जाते समय सुरसा ने उनको खाने का प्रयास किया लेकिन वे सुरसा को माता कहकर प्रणाम करके उसके मुंह से बाहर निकल गए च्च्सत्य कहउँ मोहि जान दे माईज्ज् यहां माई का अर्थ है माता। ऐसे ही रावण के दरबार में उन्होंने रावण से बातचीत करते हुए हाथ जोड़ते हुए निवेदन किया था च्च्बिनती करउँ जोरि कर रावन, सुनहु मान तजि मोर सिखावन।।ज्ज् हनुमानजी ने कहा था रावण मैं हाथ जोड़कर तुमसे विनती कर रहा हूं तुम अभिमान छोड़कर मेरी सीख सुनो। ये दो घटनाएं बताती हैं कि हनुमानजी सक्षम थे और अपने शत्रु के सामने खड़े थे लेकिन इसके बाद भी बातचीत और क्रिया में अत्यधिक विनम्र थे। वे श्रीराम के दूत हैं और जो भगवान का सेवक है उसे नम्र होना है। हम सब भी परमात्मा के प्रतिनिधि हैं। अत: विनम्रता न छोड़ें। रावण भगवान का शत्रु है इसलिए अहंकार में डूबा है।

खुद में रहें, दूसरों में न उलझें
अक्सर लोग दुनियादारी में इतने उलझ जाते हैं कि खुद को ही भूल जाते हैं। खुद का ख्याल नहीं होना भी परेशानी देता है। लोग खुद का ध्यान नहीं रखते, दूसरे क्या कर रहे हैं, वे कहां पहुंच रहे हैं, इसी में उनकी जिंदगी गुजर जाती है। यह शरीर, आत्मा हमारी है, हम जब भी कोई काम करें तो उसमें खुद को रखें। ये दुनिया ऊपर वाले का ख्वाब है, परमात्मा की माया है। भगवान जब सपने देखता है तो दुनिया का निर्माण हो जाता है। यह एक सूफी खयाल है। इसी तरह जब हम दुनिया में रहें और यदि हमें यह बात समझ में आ जाए कि है तो परमात्मा का सपना फिर भी सच है और हम इस सच का हिस्सा हैं। इसीलिए इस्लाम में, सूफी परम्परा में एक प्रयोग किया गया है कि जो भी काम हम करें उसमें अच्छी तरह खयाल रखें कि हम हैं। अपना होना न भूल जाएं। चाहे पैदल चल रहे हों, कपड़े बदल रहे हों, स्नान कर रहे हों या खाना खा रहे हों। अपने होने को न भूलें। होता यह है कि हम भूल जाते हैं। हम हैं इसका खयाल जाते ही हम दूसरे चक्करों में उलझ जाते हैं।

जब हम रात को सपना देखते हैं तो सपने में जो घट रहा होता है उससे हम जुड़ जाते हैं। कभी-कभी तो परेशान हो जाते हैं, चौंककर नीन्द खुल जाती है, परन्तु दिनभर जागते हुए हमें हम हैं इस बात का खयाल रहे तो रात को सपने में हम जुड़ेंगे नहीं और सपना सपना ही रहेगा जबकि हम सपने में धोखा खा जाते हैं। सपना यथार्थ लगने लगता है।शाहशुजा करमानी ऊंचे दर्जे के फकीर थे। वे ४० साल नहीं सोए। उनके बारे में कहते हैं नीन्द जब उन्हें परेशान करती तो आंखों में नमक का सुरमा लगा लेते। एक दिन ४० साल बाद जब सोए तो सपने में अल्लाह के दीदार हो गए। शाहशुजा ने कहा अर्से से आपको ढूंढ रहा था जागते हुए और अब आप मिले हो तो ख्वाब में। अल्लाह ने जवाब दिया यह तेरे जागने का ही नतीजा है। इसके बाद शाहशुजा आमतौर पर इसलिए नीन्द निकाला करते थे कि नीन्द में अल्लाह के दर्शन हो जाएंगे। अपने सपनों के सद्उपयोग का यह उदाहरण है। यदि हमें होश है कि हम हैं तो हम सपने को यथार्थ नहीं मानेंगे। और यह दुनिया का जो यथार्थ है इसे सपना समझ कर जी लेंगे। इसी में जिन्दगी का अमन और खैरियत है।

भक्ति और योग अलग नहीं, एक ही हैं

भक्ति और योग को लेकर एक गलतफहमी है कि दोनों अलग हैं, इन्हें एक साथ साधा नहीं जा सकता। लेकिन सच यह है कि दोनों एक ही हैं। भक्ति आनंद देती है और योग साधक बनाता है। इसी को भक्ति योग कहते हैं। भक्ति आपको परमात्मा से जोड़ती है, योग इस जुड़ाव को स्थायी करता है। कोई कब योगी बनता है इस द्वन्द में लम्बे समय से दुनिया उलझी है। ऊपर से देखने में भक्त और योगी अलग-अलग नजर आ सकते हैं। जो भक्ति करने में लगे हैं उन्हें योग शुद्ध कर्मकाण्ड लगता है। वे योगियों को अलग श्रेणी में मानते हैं।

परन्तु भक्ति-योग एक ही है। इसके श्रेष्ठ उदाहरण हैं हनुमानजी। योग के आठों अंग हनुमानजी महाराज की हर क्रिया, आचरण, व्यवहार, स्वभाव में दिखते हैं। योगी के भीतर भक्त कैसे बसे आइए इनसे सीखें।सीताजी की खोज में वानर निकल चुके थे। हनुमानजी को चुप बैठा देख जाम्बवन्त ने पूछा था कहइ रीछपति सुनु हनुमाना, का चुप साध रहा बलवाना रीछपति जाम्बवन्त ने कहा हे बलवान हनुमान यह क्या चुप्पी साध रखी है। उस समय हनुमान योग की गहरी मुद्रा में थे। जब वे बोले तो उन्होंने समुद्र को लांघने पर टिप्पणी की। च्च्सिंहनाद करि बारहि बारा, लीलहिं नाघउं जलनिधि खाराज्ज् उन्होंने सिंहनाद करके कहा इस खारे समुद्र को मैं खेल-खेल में लांघ सकता हूं। ऐसा उन्होंने कर भी दिया था।यह समुद्र ही मन है। मन के सागर को लांघना ही योग है, ध्यान है।

सामान्यत: ऐसा माना जाता है योग अभ्यास का विषय है इसीलिए इसे योगाभ्यास कहा गया है। लेकिन कुछ सन्तों का मत है कि बहुत गहराई में जाएं तो योग अभ्यास का नहीं समर्पण का मार्ग है। कई साधनों में से अभ्यास एक साधन हो सकता है लेकिन समर्पण की स्थिति आने पर योग सहज हो जाएगा। इसीलिए योग के आठ अंग में से दूसरे अंग नियम के पांचवे भाग को ईश्वर प्रणिधान कहा गया है। इसका अर्थ है ईश्वर के प्रति समर्पण। यह महत्वपूर्ण साधन है। हनुमानजी भक्ति में समर्पण का प्रतीक हैं। इसलिए भक्ति के योग को हनुमानजी के माध्यम से समझा जाए और अभ्यास तथा समर्पण के साथ योग किया जाए।

सुख को गुजर जाने दें, पकड़कर न बैठें

सुख आता है तो हम उसे लपक कर थामने की कोशिश करते हैं, उसे पूरी तरह अपना मानकर बैठ जाते हैं। और जब वह सुख जाने लगता है तो फिर शोर मचाते हैं। ये मानव स्वभाव है, हम सुख के आने पर इतना खुश नहीं होते जितना उसके जाने से निराश हो जाते हैं। दरअसल सुख के आने या जाने में कोई समस्या नहीं है, समस्या तो सुख को हमेशा कसकर पकड़ रखने के हमारे स्वभाव में है। जीवन में जब सुख आए तो दूर से देखकर एक निश्चित फासला बनाकर उसे गुजरने दें। आइने के बहुत पास आ जाएं तो छवि अस्पष्ट हो जाती है। एक दूरी जरूरी है। सुख के साथ बहुत खुशी से उछलकूद न करें। मंद शीतल हवा की तरह उसे भी गुजर जाने दें। जिस दिन हम सुख में इस तरह से सफल हो गए फिर आप पाएंगे एक दिन दुख में भी इसी तरह प्रसन्न हो सकेंगे। झंझट शुरू होता है यह मेरा है मानने से। न सुख, न दुख दोनों ही मेरे नहीं है ऐसा भाव पैदा करें। दोनों बाहर के मामले हैं भीतर न उतारें इन्हें।

जैन धर्म में महावीर स्वामी ने कहा है आत्मा के शुद्ध स्वरूप परकीय भावों को जानने वाला ऐसा ज्ञानी कौन होगा जो यह कहेगा यह मेरा है। यहां दो बातें आई हैं। एक अपनी आत्मा को जानने और दूसरा यह कहने की कि यह मेरा है। मेरा है यह मानते ही हम आए हुए सुख को पकड़ लेते हैं और भीतर उतार लेते हैं। मैं सुखी हूं इस खयाल में ही दुख का बीज छुपा होता है। सुख, दुख सिक्के के दो पहलू हैं। एक के साथ दूसरा लगा ही रहेगा। आत्मा को जानते ही और यह मेरा है ऐसा न कहने पर ही साक्षी भाव आरंभ होने लगता है। जैसे दूसरों के सुख-दुख के प्रति हम साक्षी रहते हैं, दर्शक होते हैं वैसे अपने खुद के सुख के प्रति भी ऐसे ही साक्षी हो जाइए।

ज्ञान को बांधें नहीं, जीवन का साधन बनाएं

अधिकतर लोग ज्ञान के नाम पर केवल मोटी-मोटी किताबें पढ़ लेते हैं, उससे मिली जानकारी को अपने दिमाग तक ही सीमित रखते हैं लेकिन इस ज्ञान को जीवन में उतारना भूल जाते हैं। बस चूक यहीं होती है। सच तो यह है कि जानकारियां ज्ञान में तभी तब्दील हो पाती हैं जब उसे जीवन में उतारा जाए। शिक्षा के इस युग में पढऩे लिखने के दौर में जानकारियों का बड़ा महत्व हो जाता है, लेकिन जब आध्यात्मिक यात्रा आरंभ करें तो केवल जानकारियों पर ही न टिक जाएं। सभी धर्मों के शास्त्र भरपूर जानकारी समेटे हैं। हमारी कोशिश भी यही रहती है कि आंकड़ों की तरह उनसे जानकारियां हांसिल कर लें। जबकि शास्त्रोक्त जानकारियां सिर्फ मोड़ हैं अंतिम पड़ाव नहीं। इनमें संकेत है सबकुछ नहीं है। ये साधन हैं साध्य नहीं। ये मात्र इशारे हैं ईश्वर नहीं हैं। इसलिए अपने धार्मिक इतिहासों से केवल सूचना ही नहीं समझ लेने की क्रिया जारी रखी जाए।धर्मशास्त्रों से जानकारियों लेकर केवल शारीरिक ज्ञान बढ़ाया तो हाथ कुछ नहीं लगेगा, तैयारी जीने की करना होगी।

कुरआन मजीद अद्भुत पुस्तक है। इसके पृष्ठों पर केवल अल्लाह की इबारत और तारीफ ही नहीं, सृष्टि (कायनात) को लेकर कई जानकारियां हैं, भटके हुए लोगों के किस्से भी हैं, जंग और जिहाद के तौर तरीके हैं, समाज कैसे चले इसके नियम कायदे हैं, फैसले कैसे हों और फत्वे क्यों दिए जाएं इस पर भी दबे छुपे या साफ-साफ इशारे हैं। लेकिन कई पंक्तियां कमाल की हैं जो मुहम्मद की ध्यानावस्था में उन पर उतरी हैं। कुरआन में एक जगह पढऩे में आता है जब तुम पढ़ते हो तो रोओ। ये करूणा में जीने के लिए कहे गए अमृत कण हैं। कुरआन के शब्दों में केवल जानकारियों पर टिके लोगों ने शब्दों को जहरीले तीर बना लिया इसीलिए ऐसे अमृत बिन्दु कहीं खोते चले गए। केवल जानकारियां जीवन को बुद्धिमान तो बना सकती हैं लेकिन भक्त बनना है, सच्ची इबादत करना है तो उन जानकारियों को जीना पड़ेगा। केवल सूचनाओं पर न टिकें आगे सत्य तक जाएं।

सफलता के लिए सबसे ज्यादा जरूरी है सेहत

भागमभाग भरी दिनचर्या में सबसे ज्यादा परेशानी सेहत की है। प्रतिस्पर्धा के चलते स्वास्थ्य पर ध्यान देना लगभग भूल जाते हैं। अनियमित दिनचर्या और खानपान लगभग हर दूसरे युवा की परेशानी है। हमें सेहतमंद रहने के लिए हनुमानजी से प्रेरणा लेनी चाहिए। उनके जीवन में झांके तो सफलता और सेहत दोनों के महत्वपूर्ण सूत्र मिलते हैं। लगातार सक्रिय रहते, परिश्रम करते हुए अपनी स्वयं की देह का ध्यान रखना भी एक योग है। सधी हुई सेहत सफलता के लिए जरूरी है। श्रीहनुमान सेहत के श्रेष्ठ उदाहरण हैं।

हनुमानजी के स्वास्थ्य का राज रामायण के सुंदरकांड में लिखा है। सीताजी से मिलने के बाद जब उन्हें भूख लगी तो माताजी से निवेदन किया और सीताजी ने उनसे कहा देखी बुद्घि बल निपुन कपि कहेउ जानकीं जाहु। रघुपति चरन हृदयॅं धरि तात मधुर फल खाहु।। ''हनुमानजी को बुद्घि और बल में निपुण देखकर जानकीजी ने कहा जाओ हे तात श्री रघुनाथजी को हृदय में बसाते हुए मीठे फल खाओ और हनुमानजी ने फल खाए।इसमें संदेश यह है कि मनुष्य को फलाहारी या शाकाहारी होना चाहिए। शाकाहार शरीर को स्वस्थ्य रखता है और श्रीराम को हृदय में रखकर फल खाने का अर्थ है शुद्घ स्वच्छता से भोजन करना। शुद्घ भोजन, स्वच्छ वातावरण में अच्छे भाव से यदि किया जाए तो शरीर पर अनुकूल असर करता है और इसका परिणाम है हनुमानजी जैसी सेहत।

महाभारत के समय जब पांडव अपना वनवास काट रहे थे उस समय भीम द्रौपदी के लिए फूल लाने के उद्देश्य से वन में प्रवेश कर गए। उन्हें केले का बगीचा दिखा। भीम की गर्जना सुनकर जंगल के जानवर पशु-पक्षी डरकर इधर-उधर भाग गए। इस वन में हनुमानजी भी रहते थे। वे मार्ग में विश्राम कर रहे थे। भीमसेन ने उन्हें पहचाना नहीं और उनसे उलझ गए तथा जाने के लिए मार्ग मांगने लगे। हनुमानजी ने कहा आप चाहें तो मेरी पूंछ हटाकर जा सकते हैं। भीम को अहंकार था, जैसे ही पूंछ हटाने का प्रयास किया। पूंछ टस से मस नहीं हुई। तब भीम ने पूछा आप कौन हैं और हनुमानजी का परिचय हुआ। भीम का अहंकार जाता रहा। एक युग बीत जाने पर भी हनुमानजी उतने ही स्वस्थ्य और ताकतवर थे।

अपने अहसास में परमात्मा हो तो जीवन में आनंद है

हम पूजनपाठ करते हैं, ध्यान और योग भी लेकिन फिर भी कभी-कभी ऐसा महसूस होता है जीवन में जिस शांति और आनंद की तलाश है वह कोसों दूर है। दरअसल ऐसा है नहीं परमात्मा कभी दूर है ही नहीं, वो तो हमारे अंदर ही है। कमी तो हमारे अहसास में है जो हम उसे पहचान नहीं पाते। जिस दिन हम अपनी आत्मा में, मन में परमात्मा का एहसास जगा लेंगे, तलाश खत्म हो जाएगी। न शांति दूर होगी, न आनंद और न ही परमात्मा।ऐसा माना जाता है कि फकीरों के भीतर अपनी एक मौज होती है। वास्तविकता यह है कि ऐसी मौज सभी के भीतर होती है। इसे आनंद की अनुभूति भी कह सकते हैं और जो इसका लाभ उठाना जानते हैं वे फकीर हो जाते हैं।
गुरूनानक का ही उदाहरण लें, वे सिपाहियों को राशन बांटने का काम करते थे और इसी में उन्हें परमात्मा की झलक मिल गई थी। सामान गिनते समय एक से बारह तक की गिनती तो ठीक चली लेकिन तेरह बोलने के स्थान पर उनके मुंह से च्च्तेराज्ज् निकल गया। तेरा यानि उस मालिक का जिसे ईश्वर माना गया है। नानक के लिए इसके बाद चौदह के आगे की गिनती का कोई मतलब नहीं रह गया। यूं समझें कि उनकी पूरी जिन्दगी च्च्तेराज्ज् में अटक गई थी। उन्हें समझ में आ गया था कि परमात्मा के बाद भला कोई क्या गिनती होगी।

दरअसल गिनती तो एक उदाहरण मात्र है, मामला अहसास का है। उन्हें भीतर का वह आनंद इस घटना में पकड़ में आ गया और वे निकल पड़े थे प्रभु की राह पर। ऐसी मौज जिसके भी भीतर जाग जाती है वह अपनी राह चल पड़ता है, एक मौलिक राह। फकीर, महात्मा और सद्गुरू भी समूह का नेतृत्व करते हैं। उनके आनंद के पीछे लाखों, करोड़ों लोग चल पड़ते हैं। भीड़ तो राजनेता, समाज सेवक के पीछे भी चलती है लेकिन फर्क होता है राजनेता का अपना निज स्वार्थ होता है और पीछे चल रही भीड़ की अपनी अपेक्षाएं होती हैं। लेन-देन का धंधा, एक तरह से गोरख धंधा, लेकिन महात्मा, फकीर, गुरू को जो आनंद प्राप्त होता है उसमें वे न तो दूसरों के अहंकार की तृप्ति करते हैं और न ही वे स्वयं की आकांक्षाओं को पूर्ण करते हैं। वे खुद की मौज की लहरों से केवल दूसरों को भिगोना चाहते हैं। उनकी चाह होती है यदि हमें आनंद मिला है तो सभी को मिले।

कल्पनाओं को दबाए नहीं, उन्हें पंख दें

जब बच्चा कोई अटपटी बात करता है या कोई ऐसी कल्पना करता है जिसे हम सत्य समझने से झिझकते हैं तो बच्चे को टोक देते हैं। लगभग सभी मां-बाप अपने जीवन में एक यह भूल कर देते हैं, जिससे बच्चे का विकास और उसमें मौजूद संभावनाओं पर एक तरह का पहरा लग जाता है। बच्चों की कल्पनाओं को दबाए नहीं, उन्हें सही दिशा दें। जहां जरूरत पड़े उन्हें पूरा प्रोत्साहन दें।

महापुरुषों के बचपन में कुछ घटनाएं ऐसी हो जाती हैं कि पढ़कर, सुनकर आश्चर्य लगता है। या तो हम भ्रम से मुक्त हो जाते हैं या इन्हें पढ़कर अविश्वसनीय लगने लगता है। जब ऐसी घटना किसी धर्म गुरू से जुड़ी हुई हो तो कई बार लोग धर्म को अंधविश्वास की श्रेणी में रख देते हैं। दरअसल धर्म परिपक्व होकर अध्यात्म बनता है और अध्यात्मिक जगत में अपने लक्ष्य पर पहुंचने के दो मार्ग हैं एक है नियम कायदे का और दूसरा है बिना कायदे का। जो बहुत नियम से चलते हैं वे भी दुविधा में पड़ जाते हैं और जो दुविधा मुक्त होकर चलते हैं वे भी उलझ सकते हैं। असल में दुविधा शून्य होकर चलना पड़ता है।

अध्यात्मिक जगत की घटनाओं को अलग दृष्टि से देखना पड़ता है तब जीवन के लिए कुछ ठोस मिलता है। ईस्लाम में चर्चा आती है जिस रात मोहम्मद का जन्म हुआ था फारस के सम्राट अनुशीरवां का महल हिल गया था, मीनारें ढह गई थीं। सबकुछ अनूठा होने लगा था। ई. सन् ५७० में अब्दुल्लाह बिन-अब्दुल मुत्तलिब की पत्नी अमीनाबीबी के गर्भ से मोहम्मद पैदा हुए थे। उनके पूरे नाम का अर्थ था अब्दुल्लाह का बेटा मोहम्मद। ये जब चार साल के थे तो एक दिन बकरी चराते समय फरिश्तों ने इन्हें गोदी में उठा लिया था क्योंकि इनके जन्म के दो महिने पहले इनके पिता की मृत्यु हो गई थी। फरिश्तों ने इनका सीना चीरा, दिल में एक काला छोटा सा दाग था उसे हटा दिया और मोहम्मद को उम्दा बनाकर छोड़ दिया। घटना अजीब लगेगी लेकिन दुविधा शून्य दृष्टि से इसका आध्यात्मिक अर्थ समझें और वह यह है कि बचपन में ही फरिश्तों से बच्चों का परिचय होते रहना चाहिए। बच्चे जिस कल्पना में जीते हैं वह कल्पना उनको जिन्दगी में आगे बहुत काम आती है। फरिश्तों की ऐसी ही निकटता ने मोहम्मद को जीवन में श्रेष्ठतम ऊंचाईयां दी थीं।

जीवन एक उत्सव है, इस उत्सव में आनंद हो

भारतीय हिंदू जीवनशैली में व्रत-त्योहार-उत्सवों की भरमार है। एक त्योहार जाता है, दूसरा आता है। हम सालभर उत्सवों में डूबे रहें, खुशियों से परिपूर्ण और ऊर्जा से भरे रहें इसलिए मनीषियों ने इन उत्सवों की परंपरा को शुरू किया और इतना पुष्ट रखा है। हमें इन उत्सवों में जीना सीखना चाहिए। देखा जाए तो हम अपने पूरे जीवन को उत्सव की तरह से जी सकते हैं, क्योंकि उत्सव में ही आनंद की अनुभूति होती है। यह अनुभूति हमें ऊर्जा देगी। जीवन में जैसे-जैसे परमात्मा की अनुभूति होगी, निकटता प्राप्त होगी, हमारे भीतर एक शक्ति का प्रादुर्भाव भी होगा। हमें महसूस होगा एक ऊर्जा का संचार हमारे भीतर हो रहा है। यहीं से सावधानी रखना होगी। उस शक्ति को अपने भीतर रोक न लें। उसे बांटने की तैयारी करें। इस शक्ति को आनंद में परिवर्तित करें। जैसे नाव में यदि पानी भर जाए तो दोनों हाथों से उलीचना पड़ता है वैसे ही इस शक्ति को सब में वितरित कर दें। यदि इसे उत्सव नहीं बनाया तो यह जीवन पर बोझ बन जाएगी।

भारतीय संस्कृति में इसीलिए उत्सव की लंबी परंपरा है। गणेश उत्सव का जाना और नवरात्रि का आना अपने आप में अनूठे उत्सव-क्रम हैं। विश्राम और नृत्य दोनों के अद्भुत संदेश इनमें बसे हैं। गणेश उत्सव का अर्थ है शक्ति के साथ विवेक, धैर्य और स्थिरता का आगमन। नवरात्रि के नृत्य शक्ति को आनंद में बदलने की कला है। परमात्मा की अनुभूति से जागी हुई शक्ति जब गरबा रूप लेती है तो उस परम शक्ति से एकाकार होने की तैयारी करती है।गणेश के उत्सव हो या दुर्गा की रात्रि हो, दोनों ही शक्ति फैलाने का उपक्रम हैं। व्यावहारिक दृष्टि से देखें तो अब भक्तों का मानना है कि गणेश उत्सव पर गरबे भारी पडऩे लगे हैं। गणेश उत्सवों की गरिमा पर गरबों की तड़क-भड़क हावी हो गई है। वैसे यह बहस का नहीं आनंद का विषय है। गणेश स्थापना से जो पुरुष ऊर्जा उत्सव भाव लेती हैं, वह नवरात्रि में नारीशक्ति के रूप में जगमग हो जाती है। गणेश विसर्जन और घटस्थापना के बीच का जो मध्यकाल है उसमें अपनी शक्ति को आनंद और प्रेम में बदलने की तैयारी की जाए। इस दौरान इसे आदत और अभ्यास दोनों बना लें। ये दिन आने वाले ३६५ दिन का सहारा बनेंगे और शक्ति को उत्सव बनाने का सरल तरीका यह भी हो सकता है।

जीवन चलते रहने का नाम हैं ये नदियों से सीखें
नदियां बहती हैं, बहकर जीवन के प्रवाह की ओर इंगित करती हैं। नदियों का बहाव जीवन से गहरे से जुड़ा है। हम नदियों से प्रेरणा ले सकते हैं हमेशा कैसे चलायमान रहा जा सकता है। जब तक जीवन में हमेशा चलते रहने का भाव नहीं आएगा, हम जिंदगी के मिजाज को समझ ही नहीं पाएंगे। सामान्य रूप से यह माना जाता है कि हिन्दू धर्म का नदी से बड़ा गहरा संबंध है। सरिताओं को बड़ा सम्मान दिया गया है भारतीय संस्कृति में।
नदी का अर्थ है बहाव। नदियों ने हर धर्म को ताजगी और सुगंध प्रदान की है। नदी के दुरूपयोग और सूखने का अर्थ है मनुष्य की आध्यात्मिक वृति तथा स्थिति पर प्रहार। इतिहासकारों की मानें तो सभी प्रमुख धर्मों और सभ्यताओं की गवाह नदियां रही हैं। भारत जो कभी आर्यावर्त था, ने अपनी पूरी संस्कृति और धर्म को सिंधु-गंगा-यमुना के तट पर ही प्राणवान किया। मिस्त्र की सभ्यता नील नदी के अंचल में पनपी। चीन में हांग-हो का महत्व, पूजनीय स्थिति का है। यूनानियों ने जिसे मेसोपोटामिया के नाम से पुकारा वह क्षेत्र भी जल से घिरा है। संसार के तीन प्रसिद्ध धर्म यहूदी (सियोन), ईसाई और इस्लाम इसी जल क्षेत्र की पैदाईश हैं।

इसीलिए जल और धर्म के रिश्तों को अच्छी तरह समझकर सम्मान देना होगा। नदियों ने भूखंडों को ही नहीं जोड़ा है बल्कि मनुष्यों की धार्मिक भावना को भी एक जैसी शीतलता से भिगोया है। कोई धर्म जब-जब अपने आपको पूर्ण और अलग बताता है तो नदियां कहती हैं हमारे बहाव ने बहुत कुछ एक-दूसरे धर्म में उधार पहुंचाया है, मिलाया है और आदान-प्रदान किया है।हर बदलते वक्त में हर धर्म ने अपना-अपना श्रेष्ठ एक-दूसरे को दिया और लिया है। जो भले लोग हैं उन्होंने इसका सद्पयोग किया और जो बुरे हैं उन्होंने दुरूपयोग किया। नदी और जल से सीखा जाए शुभ को देना। किसी बहती नदी के किनारे बैठ जल पर दृष्टि गड़ा दीजिए वह बहाव आपको गहरे ध्यान में ले जाएगा। जल का प्रवाह मन के बहाव को नियन्त्रित कर देगा। इसे कहते हैं प्रकृति का चमत्कार।

जीवन में हर पल जो घट रहा है उसके भीतर दो बातें हैं एक परिणाम और दूसरा संकेत। हर घटना ये दो चीजें निश्चित होती हैं। हम जीने की उतावली में इन दोनों पर नजर डालना भूल जाते हैं। परिणाम की ओर देखने, सोचने का समय भले ही न निकालें लेकिन घटनाओं के पीछे छिपे संकेतों को पकड़ेंगे तो परिणाम अपने आप पता चल जाएगा। इससे न केवल जीवन आसान होगा बल्कि हमारे और सफलता के बीच का फासला भी स्वत: कम हो जाएगा।

समझिए, हर घटना एक संकेत है
जैसे हर घटना का एक परिणाम होता है, वैसे ही जीवन में हर घटना में एक संदेश, संकेत, शिक्षा छुपी रहती है। समझदार लोग सीख ले लेते हैं। हनुमानजी महाराज में यह समझदारी कूट-कूटकर भरी थी कि हर परिस्थिति से क्या सीखा जाए। जीवन का हर क्रम और पल कुछ न कुछ सिखा रहा है। देखिए किस समझदारी से हनुमानजी जीवन के दृश्य में से सीख को उठा लेते हैं। यह उनकी मौलिक शैली है। श्रीराम रावण का वध कर चुके थे। लंकाकांड में वे हनुमानजी को कहते हैं यह शुभ समाचार सीताजी को सुना दो। हनुमानजी के मुंह से यह शुभ समाचार सुनकर सीताजी कहती हैं हनुमान बोलों तुम्हें क्या चाहिए। वे शुभ समाचार का पारितोषिक देना चाहती थीं। जो उत्तर हनुमानजी ने दिया उसे गहराई से समझें। च्च्सुनु मातु मैं पायो अखिल जग राजु आजु न संसय। रन जीति रिपुदल बंधु जुत पस्यामि राममनामय।।ज्‍ज मां मैंने आज सारे संसार का ही राज्य पा लिया है। मैं आंखों से देख रहा हूं, रण में शत्रु को जीतकर अपने छोटे भाई लक्ष्मण के साथ निर्विकार श्रीराम को।

हनुमानजी ने श्रीराम के साथ निर्विकार शब्द जोड़ा है। वे निर्विकार श्रीराम को देखना अपने जीवन की बहुत बड़ी उपलब्धि मानते हैं। जो रावण विश्व विजेता था, उसे मारकर भी श्रीराम आवेशित नहीं थे, गर्वित नहीं थे, मदमस्त नहीं थे। वे शांत थे, निर्विकार थे। मनुष्य को छोटी-मोटी सफलता मिले तो वह अपना आपा खो बैठता है परंतु श्रीराम का यह शांत-सहज स्वरूप हनुमान को खूब भा गया। हनुमानजी महाराज हमें सिखा रहे हैं, जीवन की हर घटना से श्रेष्ठ को उठाना सीखो। विजय के इस दृश्य में उन्होंने श्रीराम की निर्विकार छवि को अपने लिए शिक्षा बनाया और अपनाया भी। इसीलिए तो निरहंकारी हनुमान श्रीराम की पसंद बन गए। जीवन में जब उपलब्धियां आएं, सफलता मिले तो अपने मूल स्वभाव यानी सहजता, सरलता, विनम्रता को न छोड़ें। इन सबसे मिलकर बनती है पवित्रता और पवित्रता को पवित्र लोग बड़े पसंद हैं।

जीवन हमेशा एक सा नहीं रहता, कभी अच्छा तो कभी बुरा समय आता रहता है। हमें एक अभ्यास अगर हो जाए तो कोई भी स्थिति हमें प्रभावित नहीं कर सकेगी। ये अभ्यास है

सीखें, परिस्थितियों में कैसे ढला जाए
परिस्थितियों में ढलने का। जैसा देशकाल हो, जो परिस्थितियां हों अगर हमने उसमें रहना सीख लिया, जीवन खोज लिया तो हमारी हर दौर में जीत निश्चित हो जाएगी। पुराणों में ऐसी कथाए भरी पड़ी हैं जो हमें इसकी सीख देती हैं। कौरवों की राजसभा में युधिष्ठिर और दुर्योधन के बीच जुआ खेला गया था। पासे दुर्योधन की ओर से शकुनी ने फेंके थे। युधिष्ठिर सबकुछ हार चुके थे। जुए में सबकुछ हार जाने के बाद युधिष्ठिर और दुर्योधन के बीच समझौता हुआ। 12 वर्ष के वनवास और एक वर्ष का अज्ञातवास भोगने के बाद राज्य वापस मिलेगा।

वनवास की अवधि तो कट गई। अब अज्ञातवास का एक वर्ष पांचों पराक्रमी पांडवों और सुंदर द्रौपदी के लिए चुनौती था। युधिष्ठिर ने अपने भाइयों से विचार-विमर्श किया था। द्वादशेमानि वर्षाणि राज्यविप्रोषिता वयम्। त्रयोदशोयं सम्प्राप्त: कृच्रछात परमदुर्वस:॥ आज बारह वर्ष बीत गए, हम लोग अपने राज्य से बाहर आकर वन में रहते हैं। अब तेरहवां वर्ष आरंभ हुआ है। इसमें बड़े कष्ट से कठिनाइयों का सामना करते हुए अत्यंत गुप्त रूप से रहना होगा। पांडव परिस्थिति में काफी की तरह घुल गए। विराट नरेश के यहां शरण ली। युधिष्ठिर राजा के यहां कंक नाम से ब्राम्हण बने तो भीम वल्लभ रसोइया। अजरुन ने वृहन्नला बन राजकुमारी उत्तरा का गुरुपद संभाला तो नकुल ने ग्रंथिक के रूप में कोचवान की जिम्मेदारी। सहदेव अरिष्ठनेमी के रूप में मवेशियों की देखभाल के लिए नियुक्त हुए तो द्रौपदी सैरंध्री बन रानी की दासी नियुक्त हुई।

पांचों पांडवों ने परिस्थिति के अनुरूप स्वयं को ढाला और पूरी तरह से वैसा ही जीवन बिताया। वे सब थे तो राजवंश से, किंतु समय आने पर देशकाल परिस्थिति में ऐसे घुल मिल गए कि नं चापिकश्विच्चरितं बुबोधतत् - ‘‘उनका यह चरित्र किसी को भी मालूम नहीं हुआ।’’ इसी कारण अपने गुप्तवास के लक्ष्य में सफल रहे। वनवास का अर्थ है तपस्वी जीवन और गुप्त रूप से रहने का अर्थ है अपनी ही भीतर उतर कर स्वयं को जानना।

परमात्मा को दिल से पुकारें, जुबान से नहीं
हम पूजा करते हैं, मंत्र पढ़ते हैं, ध्यान लगाने की कोशिश भी करते हैं लेकिन फिर भी परमात्मा तक पुकार नहीं पहुंचती। हम हमेशा यह सोचते हैं शायद कोई चूक रह गई। हम लाख कोशिश करें, फिर भी उस तक हमारी बात नहीं पहुंचती, ऐसा क्यों होता है। शायद हमारे पुकारने में ही कोई कमी है। याद रखें जब भी परमात्मा को पुकारें पूरे दिल से पुकारें, केवल जुबान से नहीं। देह और आत्मा के प्रयोग में सूफी संत अपना पूरा जीवन बिता देते हैं।

जिनका शरीर, सांस और मन पर नियंत्रण है उनका ध्यान घटना है और यह ध्यान की अवस्था उन्हें सिद्ध योगी सा बना देती है। ऐसी दिव्य स्थिति में उनसे जो कृत्य होते हैं फिर वो चमत्कार की श्रेणी में आते हैं।अबुलहसन उच्च दर्जे के मुस्लिम फकीर हुए हैं। इनके मुंह से जो अलफाज निकलते थे वो सच हो जाते थे। जिनके जीवन में ध्यान सही रूप से उतर जाए तो उनकी वाणी सिद्ध हो जाती है। एक बार हज यात्रियों को अपने ऊपर खतरा लगा। उन्होंने अबुल हसन के पास जाकर कहा कोई ऐसी दुआ बता दीजिए जिससे सफर में हमारे ऊपर कोई खतरा न रहे। फकीर ने जवाब दिया जब कोई मुसीबत हो तो अबुल हसन को याद कर लेना। कुछ को विश्वास आया कुछ ने बात हंसी में उड़ा दी। रास्ते में डाकू आ गए। एक धनवान को अबुल हसन की बात याद आ गई और उसने फकीर को याद किया। कहते हैं वह ओझल हो गया, डाकुओं को नजर नहीं आया।

डाकुओं के जाने के बाद वह फिर नजर आ गया। उसका धन बच गया। जब सबने पूछा तो उसने कहा मैंने फकीर अबुल हसन को याद कर लिया था। लोगों ने बाद में अबुल हसन से पूछा हमने खुदा को याद किया और इस धनवान ने आपको याद किया था। ये बच गया हम लुट गए ऐसा क्यों? फकीर ने जवाब दिया आप लोग खुदा को जुबान से याद करते हो और मैं दिल से बस उसी का फर्क था।दिल से इबादत ऐसे ही नहीं हो जाती है। उसके लिए शरीर, सांस और मन में एकसाथ शांति लाना पड़ती है। इसका नाम ध्यान होता है।

परमात्मा चाहिए तो माया से ऊपर उठिए
सभी परमात्मा को देखना, उसके समीप रहना और उसे महसूस करना चाहते हैं। लेकिन यह परमात्मा की ही माया है जो ऐसा होने नहीं देती। माया हमारे और परमात्मा के बीच की कड़ी है। संसार, समाज और परिवार में रहने के लिए माया का होना भी अत्यंत आवश्यक है। अगर माया नहीं होगी तो सारे मोहबंधन तत्काल कट जाएंगे। हम अपनों से अलग, हमारे कर्तव्यों से अलग हो जाएंगे। लेकिन हमेशा माया में जकड़ा भी नहीं रहा जा सकता। एक उपाय है थोड़ी देर माया से ऊपर उठने का अभ्यास कीजिए, परमात्मा का अहसास होने लगेगा।

जरूरत की चादर और मोह की दुशाला इन दोनों में जो फर्क है उस अंतर को समझने का अब समय आ रहा है। अध्यात्म मार्ग के लोगों को ध्यान रखना होगा कि आवश्यक वस्तुएं तो बसाई जाएं लेकिन उससे मोह न पालें, क्योंकि मोह धीरे से लोभ में बदल जाएगा और लोभ भक्ति में बाधक होता है। परमहंस रामकृष्ण कहा करते थे माया को सरलता से समझना हो तो श्रीरामकथा के एक दृश्य में प्रवेश किया जाए। वनवास के समय श्रीराम आगे चलते थे मध्य में सीताजी होती थीं और उनके पीछे लक्ष्मण रहते थे। इस दृश्य पर तुलसीदासजी ने लिखा है आगे राम अनुज पुनि पाछें मुनि बर बेष बने अति काछें, उभय बीच सिय सोहति कैसे। ब्रह्म जीव बिच माया जैसे इसका अर्थ है भगवान श्रीराम परमात्मा का रूप हैं, लक्ष्मणजी आत्मा या कहें जीवात्मा हैं और इन दोनों के बीच में माया स्वरूप में सीताजी हैं। सीताजी रामजी के चरणों की अनुगामी थीं। जहां-जहां श्रीराम पैर रखते थे वहीं-वहीं सीताजी चलती थीं और इसी कारण लक्ष्मणजी श्रीरामजी को ठीक से देख नहीं पाते थे।

संयोग से कोई मोड़ आ जाए तो लक्ष्मणजी को श्रीराम दिख जाते थे। संदेश यह है कि परमात्मा और जीवात्मा के बीच जब तक माया है परमात्मा दिखेंगे नहीं। किसी मोड़ पर माया जरा सी हटी और परमात्मा के दर्शन हुए। भक्ति में ऐसे मोड़ आते ही रहते हैं। इसलिए आने वाले सात दिनों में माया तो रहेगी पर हमें मोड़ बनाए रखना है। यहीं हमारी भक्ति की परीक्षा होगी।

अनुशासन और अनिवार्यता में फर्क समझें
अनुशासन के नाम पर कई लोग बेमतलब या गैर-जरूरी बातों को भी अनिवार्यता बना लेते हैं। अगर जरूरत से ज्यादा नियमों को पाला जाए तो वे भी शांति को भंग कर देते हैं। जीवन में कुछ समय खुद को अनुशासन या कहिए सांसारिक सिद्धांतों से मुक्त रखिए। आध्यात्मिक शांति के लिए यह बहुत जरूरी है कि आप पर कोई अनावश्यक दबाव न हो। मन प्रसन्न हो, दिमाग पर बोझ न रहे।

जीवन में अनुशासन हो यह बात तो समझ में आती है लेकिन जीवन में बातों की अनिवार्यता हो जाए तो फिर अशांति का जन्म होता है। अनिवार्यता का अर्थ है ऐसा होना ही चाहिए का आग्रह। आध्यात्मिक जीवन, मुक्त जीवन होता है। सारे काम मनुष्य करता है फिर भी उसे यह बोध रहता है कि मैं नहीं कर रहा। बहुत कुछ हो रहा है और उस होने से जितना हम स्वीकृत हैं उतना ही शांत होते जाएंगे। ध्यान रखें इसका अकर्मण्यता से कोई लेना-देना नहीं है। सारा मामला है सहजता का। आप सहज हुए कि मुक्त हुए। अभी हम मुक्त नहीं हैं अभी हम बंधे हुए हैं और वह भी दूसरों से बंधे हुए हैं। जैसे किसी वाहन की चाबी चालक ने लगाई और वाहन चल दिया। वाहन यह नहीं कह सकता कि मैं नहीं चलूंगा।

हमें दूसरे ने गाली दी, टक्कर मारी, अपमान किया और हम एकदम चार्ज हो गए। बिलकुल ऐसे जैसे दूसरे के चाबी लगाने की प्रतीक्षा ही कर रहे थे। कभी विचार करिए किसी ने अपशब्द कहे और हम क्रोधित या व्यथित हो गए, हमने शब्दों को लिया तभी ऐसा हुआ। क्या कभी मन में यह विचार आता है कि हम दूसरों के ऐसे शब्दों को नहीं लेंगे। अपशब्द तीर की तरह चुभते हैं। सामने वाले ने कहा और हम बेहोश हुए। फिर इस बेहोशी में हम हिंसात्मक हो जाते हैं, बेचैन हो जाते हैं, परेशान हो जाते हैं। हमारा होश में रहना भी हमारे हाथ में नहीं रहता। सीधी सी बात है हम इतने से भी अपने मालिक नहीं हैं। कोई दूसरा हम से यदि क्रोध करवा सकता है तो कुछ भी करवा सकता है। वह चापलूसी करके हमसे गलत काम करवा सकता है क्योंकि हम बेहोश हैं, यंत्रवत हैं और यदि मुक्त हैं तो फिर हम निर्णय जागकर लेंगे, होश में लेंगे और इसी होश का नाम है स्वयं के पास बैठना, स्वयं को जानना।

ज्ञान के साथ ही अपनी चैतन्यता को जागृत करें
हम जब कोई ज्ञान हासिल करते हैं तो उसी के बोझ तले दब जाते हैं। वह ज्ञान ही हमें संपूर्ण लगने लगता है। हम अपनी चेतनता पर ध्यान नहीं देते केवल उस ज्ञान के बखान में लग जाते हैं। इससे नुकसान यह होता है कि हम जीने का अपना स्वभाव खो देते हैं। जबकि ज्ञानी जिसका ज्ञान उसकी चेतनता पर हावी नहीं होता वह उस ज्ञान को अपने जीने में लगाता है और जीने के कहीं ज्यादा लुत्फ भी उठाता है।महापुरुषों की एक विशेषता होती है वे जितना जानते हैं उससे अधिक उसे जी लेते हैं। उनका ज्ञान उनकी चैतन्यता पर हावी नहीं हो पाता।

वे ज्ञान के बोझ से दबते नहीं वे चैतन्यता के बोध से हल्के रहते हैं और इसी से उनके जीवन में एक संतुलन आ जाता है। किसी भी धर्म के धर्मगुरु या महान पुरुष हुए हों उन्होंने अपने अभाव और अपनी समृद्धि को अपनी अध्यात्म की यात्रा में साधक बनाया बाधक नहीं। जिनका इस्लाम से कम परिचय है ऐसे लोग शायद ही जानते होंगे कि हजरत मोहम्मद का बचपन बहुत कष्टों में बीता था। पिता की मृत्यु जन्म से दो महिने पहले ही हो चुकी थी। उनकी उम्र जब ६ साल की थी तो उनकी मां अमीना बीबी उन्हें लेकर मदीना गईं लेकिन रास्ते में मां का देहांत हो गया। अनाथ बालक मोहम्मद किसी तरह वापस मक्का लौटे। दादा बूढ़े थे और गरीब भी। लेहाजा मोहम्मद पढ़-लिख नहीं सके । लेकिन जाते-जाते दादा ने मोहम्मद को अपने दूसरे बेटे अबू तालीब के हवाले कर दिया। चाचा ने पाला लेकिन अभाव ने मोहम्मद के भीतर गजब की समझदारी भर दी। ऐसा कहते हैं जब उनकी उम्र १३ साल थी तब व्यापार के सिलसिले में उनके चाचा उन्हें सीरिया ले गए थे। जिनसे भी मोहम्मद मिलते लोग प्रभावित हो जाते। बातों की प्रस्तुति वे इतनी प्रभावशाली करते थे कि एक ईसाई पादरी उनके भीतर की आध्यात्मिकता को देखकर दंग रह गए। आगे जाकर मोहम्मद क्या हुए ये दुनिया जानती है।

इंसान की जिंदगी में सुविधाएं होना जरूरी नहीं है। प्रतिकूलताएं भी प्रगति का करण बन सकती हैं यदि जाने हुए को जीने की कला आ जाए। सोचने से जीवन के सत्य हाथ नहीं आते। उन्हें पकड़ना हो तो जीना पड़ता है। मोहम्मद किसी भी उम्र में रहे हों उनका ज्ञान ही उनका अस्तित्व बन गया था। फूल में यदि सुगंध है तो वह और भी खुबसूरत हो जाता है बस महापुरुष हमें यही सिखाते हैं। कुरआन मोहम्मद की सुगंध का नाम है।

पहले ये समझें कि हम क्या हैं
दुनिया में ऐसे खो जाना कि फिर खुद की भी सुध नहीं रहे, ऐसा अधिकतर लोगों के साथ होता है। हम दुनिया की भागमभाग में खुद के लिए समय निकालना भूल जाते हैं। कई बार अकेले में बैठकर विचार भी करें कि हम क्या थे और अब क्या हो गए हैं। जब तक खुद को नहीं पहचानेंगे तब तक अपनी मंजिल पर नहीं पहुंच पाएंगे।

फिर खोज अगर अध्यात्मिक जीवन की हो तो यह और ज्यादा जरूरी हो जाता है।मनुष्य के मन की आदत हो जाती है कि वह उठापटक करता रहे, दौड़भाग में लगा रहे और आपाधापी में उलझ जाए। मन की सारी रुची भागने में है। इसीलिए जब हम मन के कहने पर चलते हैं तो संसार की वस्तुओं के पीछे भागते हैं। कुछ समय बाद जब संसार से ऊब जाते हैं तो भगवान की ओर भागने लगते हैं। मन के भागने की वृत्ति बनी ही रहती है।

मन का काम दौड़ाना है और वह दौड़ाता रहता है भले ही दिशा बदल जाए, जबकि अध्यात्म कहता है रुक जाओ। जब तक थोड़ा ठहरेंगे नहीं ईश्वर से मुलाकात नहीं होगी। सुग्रीव ने श्रीराम से वादा किया था कि बाली का वध हो जाने के बाद तथा मेरे राजा बनने के बाद मैं सीताजी की खोज के लिए वानर भेजूंगा लेकिन वह यह काम भूल गया। तब हनुमानजी ने सुग्रीव को समझाया था कि आप थोड़ा भीतर उतर कर चिंतन करें। पहले आप राज्य पाने के लिए दौड़ रहे थे और अब आप उसी वृत्ति के कारण भगवान का काम नहीं करके डर रहे हैं।

आपका मन कुल मिलाकर आपाधापी में है। दुनिया में यदि पाना है तो दौड़ना पड़ेगा और दुनिया बनाने वाले को यदि पाना है तो हो सकता है दौड़ते हुए उसे खो ही दें। दोनों के समीकरण अलग हैं। दौड़े तो ही संसार मिलेगा और अध्यात्म में दौड़े तो शायद ईश्वर को खो देंगे। इसलिए थोड़ा रुकना सीखें। रुकने का अर्थ है आप जैसे हैं वैसे ही परमात्मा को समर्पित हो जाएं। यह सोचना कि पहले साधु बन जाएं और फिर भगवान के पास जाएं तो हो सकता है हम भटक जाएंगे। सबसे पहले जैसे हो वैसे ही रुक जाओ। सुग्रीव को यह बात समझ में आई और वे दोबारा श्रीराम तक पहुंचे। हम जैसे हैं उसे जानने के लिए ध्यान, मेडिटेशन एक सही क्रिया है। सुग्रीव के जीवन में हनुमान की उपस्थिति का अर्थ ही मेडिटेशन था।

जीवन के लिए जरूरी है दु:ख भी
दु:ख को आता देखकर विचलित होना मानव स्वभाव है। सभी जीवन में केवल सुख ही सुख चाहते हैं। कोई भी दु:ख की कल्पना नहीं करना चाहता है। लेकिन सच यह है कि जैसे खाने का स्वाद मीठे और तीखे दोनों को मिलाकर ही पूरा होता है वैसे ही जीवन का मजा सुख और दु:ख दोनों के साथ ही मिलता है।सुख और दुख जीवन में एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। सिक्का उछलेगा भी, गिरेगा भी और चित या पट में हमारा सुख-दुख प्रदर्शित होगा। नानक दुखिया सब संसार इसका अर्थ यह नहीं है कि नानक कह रहे हैं कि सारा संसार दुखी है। दरअसल नानक कह रहे हैं दुख सांसारिक जीवन का अनिवार्य पहलू है। यह बहुत बारीक बात है। सभी दुखी हैं ऐसा नहीं कह सकते पर दुख आएगा ही नहीं यह भी नहीं कहा जा सकता। महापुरुषों ने इसके भी रास्ते बताए हैं कि दुख से मुक्त कैसे हुआ जा सकता है।

महावीर ने कहा है भाव विरक्ति दुख मुक्ति का एक सरल तरीका है। भावे विरत्तो मणुओ, विसोगो, एएण दुक्खोह परम्परेण इस सूत्र में महावीर स्वामी ने कहा है-भाव विरक्त पुरुष संसार में रहकर भी अनेक दुखों में लिप्त नहीं होता। भाव विरक्त का सीधा सा अर्थ है हर हाल में मस्ती। हमसे ही संबंधित जो घट रहा है उसे हम ही देखने लगें। इस साक्षी भाव में शुरुआत होती है भाव विरक्ति की। इसका सीधा सा अर्थ है काम सारे करना, छोड़ना कुछ भी नहीं है लेकिन संतुलन बनाए रखना है। हम क्रिया तो योग की करते हैं लेकिन इरादा भोग का होता है और फिर उलझ जाते हैं। जिसके भीतर भाव विरक्ति आ जाती है वह यह कभी नहीं सोचता कि सारी स्थितियां मेरे कारण बन रही है और मेरे करने से ही सबकुछ हो रहा है। आसक्त व्यक्ति ऐसा मानता है और अशांत हो जाता है। इसलिए जो लोग शांति की खोज में हैं वे साक्षी भाव का अर्थ समझें और उसके माध्यम से अपने व्यक्तित्व में भाव विरक्ति उतारें। चूंकि भाव विरक्त स्थिति को विचार प्रभावित करते हैं इसलिए विचारों का नियंत्रण करते रहना चाहिए। विचार नियंत्रित रहने की स्थिति का नाम ध्यान है।

अंदर की माला से ध्यान करने पर होगी अद्भुत अनुभूति
ध्यान के लिए हम इतना ही कर सकते हैं कि अपने को शिथिल करें, दौड़ धूप से थोड़ी देर के लिए रुक जाएं, घड़ी भर को चैबीस घंटे में सब आपाधापी छोड़ दें। ध्यान के संबंध में एक बात खयाल से पकड़ लेना, खूब गहरे पकड़ लेना-यह तुम्हारी चाहत से नहीं होता है।

यह इतनी बड़ी बात है कि तुम्हारी चाहत से नहीं होती है। यह तो कभी-कभी, अनायास, किसी शांत क्षण में हो जाती है। तो हम करें क्या? ध्यान के लिए हम करें क्या? यही शायद तुमने पूछना चाहा है कि ध्यान क्या है? कैसे करें?

ध्यान के लिए हम इतना ही कर सकते हैं कि अपने को शिथिल करें, दौड़धूप से थोड़ी देर के लिए रुक जाएं, घड़ी भर को चैबीस घंटे में सब आपा धापी छोड़ दें। लेकर तकिया निकल गए, लेट गए लान पर, टिक गए वृक्ष के साथ, आंखें बंद कर ली; पहुंच गए नदी तट पर, लेट गए रेत में, सुनने लगे नदी की कलकल। मंदिर-मस्जिद जाने को मैं कह ही नहीं रहा हूं, क्योंकि पत्थरों में कहां ध्यान! तुम जीवंत प्रकृति को खोजो।

इसलिए बुद्ध ने अपने शिष्यों को कहा, जंगल चले जाओ। वहां प्रकृति नाचती चारों तरफ। चैबीस घंटे वहां रहोगे, कितनी देर तक बचोगे, कभी न कभी-तुम्हारे बावजूद-किसी क्षण में अनायास प्रकृति तुम्हें पकड़ लेगी। एक क्षण को संस्पर्श हो जाए, एक क्षण को द्वार खुल जाए, एक क्षण को पर्दा हट जाए, तो ध्यान का पहला अनुभव हुआ।

और पहले अनुभव के बाद फिर अनुभव आसान हो जाते हैं। आसान इसलिए हो जाते हैं कि तब तुम्हें एक बात समझ में आ जाती है कि सीधे-सीधे ध्यान को पाने का कोई उपाय नहीं है, परोक्ष मार्ग है। तुम शिथिल रहो, आहिस्ता से चलो, आपाधापी छोड़ो, एक घंटे के लिए कम से कम चैबीस घंटे में लीन हो जाओ प्रकृति में, संगीत सुनो, कि पक्षियों के गीत सुनो; कुछ न हो करने को, आंख बंद कर लो, अपनी सांस सुनो।

बुद्ध ने तो इस पर बहुत जोर दिया। अपनी सांस को ही देखते रहो-आयी, गयी, आयी, गयी-इसकी माला बना लो, इससे बेहतर कोई माला नहीं है। हाथ में माला लेकर फेरोगे, वह तो बहुत जड़ माला है। यहां जीवित श्वास चल रही है, श्वास की माला फेरी जा रही है-श्वास भीतर आयी, बाहर गयी, श्वास भीतर आयी, बाहर गयी-यह जो भीतर चक्र चल रहा है, मंडल श्वास का, इसको ही देखते रहो।

शांत, मौन भाव से इस पर ही टकटकी बांधे रहो और तुम हैरान हो जाओगे, किसी बहुमूल्य मुहूर्त में कभी ताल बैठ जाता है, अचानक सब एक हो जाता है, तुम मिट गए, संसार मिट गया। पहले-पहले तो क्षणभर को ऐसी झलकें आएंगी, खो जाएंगी। जब खो जाएं तो फिर उनकी तीव्रता से आकांक्षा मत करना, अन्यथा वे कभी न आएंगी।

जब खो जाएं, तो कहना ठीक; अब जब फिर दुबारा आएंगी, फिर भोगेंगे। मगर उनके आने के लिए द्वार-दरवाजे खुले रखना। ऐसा ही समझो कि सूरज बाहर निकला है, तुम अपने कमरे में दरवाजा बंद किए बैठे हो, रोशनी भीतर नहीं आती। अब सूरज को कोई गट्ठर में बांधकर भीतर लाने का उपाय भी तो नहीं है!

सूरज की किरणों को कोई गाय-बैल जैसा हांककर भीतर लाने का उपाय भी तो नहीं है! क्या करोगे? दरवाजा खोल दो, सूरज की किरणें अपने से भीतर आ जाती हैं। कभी-कभी रात होगी और नहीं आएंगी, क्योंकि सूरज नहीं है। कभी-कभी दिन होगा और आएंगी, क्योंकि सूरज है।

कभी-कभी दिन भी होगा और बादल घिरे होंगे और नहीं आएंगी, क्योंकि सूरज बादलों में ढंका है। मगर कभी-कभी मौके मिलेंगे जब दिन है, बादल भी नहीं हैं, सूरज प्रकट है, तो किरणें भीतर आएंगी। तुम ज्यादा से ज्यादा बाधा न दो, बस इतना ही काफी है।

कैसे बढ़ें तनाव-मुक्त जीवन की ओर जानिए
एक बार मुल्ला नसीरुद्दीन के साथ दुर्घटना हुई और वे अस्पताल में थे। शरीर के  हरेक अंग की कोई न कोई हड्डी टूटी थी। उनके सारे चेहरे पर पट्टियाँ बँधी हुई थीं। केवल उनकी ऑंखें दिख रही थीं।उनके एक मित्र उन्हें मिलने आए और उनसे पूछा,"कैसे हो, मुल्ला?"उन्होंने कहा," मैं ठीक हूँ सिवाय इसके कि जब मैं हँसता हूँ तो दर्द होता है।" तब उनके मित्र ने उनसे पुछा,"भला, इस हालत में आप हँस कैसे सकते हैं?" मुल्ला ने जवाब दिया,"अगर मैं अब न हँसु तो मैं ज़िन्दगी में कभी हँस नहीं पाउँगा। "

जानिए वो क्या सूत्र हैं जो आपको दे सकते हैं तनाव मुक्त जीवन...
ये अविरत उत्साह सम्पूर्ण स्वास्थ्य में रहने का आयाम है। संस्कृत में स्वास्थ्य के लिए शब्द है 'स्वस्ति' माने प्रबुद्ध व्यक्ति, जो स्व में स्थित है। स्व में बने रहने की पहली निशानी है उत्साह - जो हँस कर ये कह सके कि, " आज कोई काम नहीं बना।ये कह सकने के लिए तुम्हें ऐसी मानसिक स्थिति चाहिए जो कि तनाव-मुक्त और दबाव--सिद्ध हो।

जब तुम टेंशन में होते हो, तब तुम्हारो भौहें चढ़ जातीं हैं। जब तुम इस तरह त्योरी चढाते हो, तब तुम चेहरे की  72 नसें और माँस-पेश्यियाँ उपयोग में लाते हो। लेकिन जब तुम मुस्कुराते हो तब उन में से केवल 4 का उपयोग करते हो। अधिक कार्य का अर्थ है अधिक तनाव। तनाव तुम्हारी मुस्कान को भी गायब कर देता है। तुम्हारी बॉडी लेंग्वेज तुम्हारी मानसिक स्थिति और शारीरिक तंत्र की उर्जा का संकेत दे देती है।

हम एक उर्जा के बादल में संपुटित हैं, जिसे चेतना कहते हैं। ये एक मोम बत्ती और बाती जैसा है। जब तुम मोम बत्ती पर माचिस की तीली लगाते हो, तो बाती पर ज्योत प्रकट होती है। मोम बत्ती में भी वही हाईड्रोकार्बन है। लेकिन जब उसे प्रज्वलित किया जाता है, तब ज्योति केवल उसकी चोटी पर टिमटिमाती है। इसी तरह हमारा शरीर मोम बत्ती की बाती की तरह है और इसके आसपास जो है वह चेतना है, जो हमें जीवित रखती है। तो हमें अपने मन और आत्मा का ध्यान रखना है।

हमारे अस्तित्व के 7 स्तर हैं  - शरीर, श्वास, मन, बुद्धि, स्मृति, अहम् और आत्मा। मन तुम्हारी चेतना में विचार और अनुभूति की समझ है जो निरंतर बदलते रहते हैं। आत्मा हमारी अवस्था और अस्तित्व का सूक्ष्मतम पहलू है।  और मन और शरीर को जो जोडती है वह हमारी साँस है। सब कुछ बदलता रहता है, हमारा शरीर बदलाव से गुज़रता है, वैसे ही मन, बुद्धि, समझ, धारणाएँ, स्मृति, अहम् भी। लेकिन ऐसा कुछ है  तुम्हारे भीतर जो नहीं बदलता। और उसे आत्मा कहते हैं, जो कि सब बदलावों का सन्दर्भ बिंदु है। जब तक तुम इस सूक्ष्मतम पहलू से नाता नहीं जोड़ोगे, आयुर्वेद की प्राचीन पद्धति के अनुसार तुम एक स्वस्थ व्यक्ति नहीं  माने जाओगे

स्वास्थ्य की दूसरी निशानी है, सचेतता, सतर्क और जागरूक रहना। मन की 2 स्थितियां होतीं हैं। एक तो शरीर  और मन साथ में। और दूसरा शरीर और मन भिन्न दिशाओं की ओर देखते हुए। कभी जब तुम तनाव में हो, तब भी तुम सतर्क रहते हो, लेकिन ये ठीक नहीं है। तुम सतर्क और साथ ही तनाव-मुक्त भी होने चाहिए, इसी को ज्ञानोदय कहते हैं।

भावनात्मक अस्थिरता तनाव होने के कारणों में से एक है। हरेक भावना के लिए हमारी श्वास में एक विशेष लय है| धीमे और लंबे श्वास आनंद और उग्र श्वास तनाव का संकेत देते हैं। जिस तरह से एक शिशु श्वास लेता है वह एक वयस्क के श्वास लेने के तरीके से भिन्न है। यह तनाव ही है जो एक वयस्क की श्वसन पद्धति को भिन्न बनाती है। हम अपना आधा स्वास्थ्य संपत्ति कमाने में खर्च कर देते हैं और फिर हम वह संपत्ति स्वास्थ्य को वापिस सुधारने में खर्च कर देते हैं। यह किफायती नहीं है। 

अगर कोई छोटी-मोटी असफलता आ जाए तो फ़िक्र मत करना, तो क्या हुआ? हरेक असफलता एक नई सफलता की ओर बड़ा कदम है। अपना उत्साह बढ़ाओ। अगर तुम में कुशलता है तो तुम किसी भी परिस्थिति में व्यंग को डाल कर उसे पूरी तरह से बदल सकते हो। तनाव - युक्त होना टालो। पशु जब गीले हो जाते हैं या धुल में खेलते हैं, तो बाहर आ कर वे क्या करते हैं? वे अपना सारा शरीर झकझोरते हैं और अपने आप से सब कुछ बाहर निकाल फेंकते हैं। लेकिन हम मनुष्य सारा  कुछ, सारा तनाव  पकड़ के रखते हैं। किसी कुत्ते, पिल्ले या बिल्ली को देख कर हमें सब कुछ झकझोरना आना चाहिए।जब तुम ऑफिस में आते हो, तो घर को झकझोर दो। जब तुम घर वापिस जाओ, अपनी पीठ से ऑफिस को झकझोर दो।

तनाव से मुक्त होने और हमारी उर्जा को पुनः प्राप्त करने के लिए, प्रकृति ने एक अन्तर्निहित व्यवस्था बनाई है, जो है निद्रा। किसी हद तक, निद्रा तुम्हारी थकान मिटाती है।  लेकिन प्रायः शरीर प्रणाली में तनाव रह जाता है। उस प्रकार के तनावों को काबू में रखने के लिए प्राणायाम और ध्यान के तरीके हैं। ये तनाव और थकान से मुक्ति देते हैं, क्षमता बढ़ाते हैं, तुम्हारे तंत्रिका तंत्र  और मन को  मज़बूत बनाते हैं। ध्यान केन्द्रीकरण नहीं है। ये एक गहरा विश्राम है और जीवन को एक अधिक विशाल दृष्टि से देखना है, जिस के 3 स्वर्णिम नियम हैं - मुझे कुछ नहीं चाहिए, मैं कुछ नहीं करता हूँ और मैं कुछ नहीं हूँ।

अपने अंदर इस गुण को विकसित कीजिए हमेशा संतुष्ट रहेंगे
सौंदर्य की कई अभिव्यक्ति है। कृतज्ञता सौंदर्य की एक ऐसी अभिव्यक्ति है। जब आपको अभाव का अनुभव न हो, तब आप कृतज्ञता में होते हैं। आप कृतज्ञता के साथ अभाव को अनुभव नही कर सकते। ये दोनो एक ही समय एक साथ नही हो सकते। शायद, आपने दोनो को एक साथ अनुभव किया हो, लेकिन एक ही समय में नही। जब आप कृतज्ञता अनुभव करते हो तो आप पूर्ण होते हो।

जब आप अभाव अनुभव करते हो, असंतोष का उद्भव होने लगता है। जब आप असंतोष करते हैं तो नकारात्मकता बढ़ने लगती है। जिनके पास यह ज्ञान नही है, वे इस असंतुष्टि से बाहर नही निकल सकते, वे जीवन भर असंतुष्ट रहते हैं। वे आज किसी का अभाव अनुभव करते हैं तो दूसरे दिन किसी और वस्तु का अभाव अनुभव करते हैं। इसका कोई अंत नही है।

ये आपकी प्रकृति बन जाती है। और इसी से इच्छाओं का जन्म होता है और जब इच्छाओं का जन्म होता है तो मस्तिष्क स्पष्ट तरह से नही सोच सकता केन्द्रीत नही हो सकता, सही तरह से काम नही कर सकता; और आप स्वाभाविक रुप से सब कुछ खोने लगते हैं।

इसीलिए ज़ीज़स ने कहा, ‘‘जिनके पास है, उन्हें और दिया जाएगा; और वे जिनके पास नही है; उनसे वह भी ले लिया जायेगा जो उनके पास है।‘‘यदि आप कृतज्ञ है तो संपन्नता आती है। और जब आप शिकायत करते हैं या असंतुष्ट होते है, तो थोड़ी सी भी शांति, प्रसन्नता या प्रेम जिसके साथ आप इस दुनिया में आये हो, वह भी समाप्त हो जाएगा। यह प्रकृति का नियम है।

इससे यह समझ में आता है कि भारत में दादी मां को यह कहने की आदत थी, ‘‘सब कुछ है। ‘‘यदि कोई वस्तु पूर्णता से कम है, तो कभी नही कहना चाहिये, ‘‘ये खाली है, हमारे पास ये नही है। ‘‘वे कहेंगे, ‘‘ये हमारे पास बहुत है। ‘‘जब आप अपने मन में पूर्ण अनुभव करते हैं; आपकी चेतना में प्रचुरता बढ़ने लगती है, और फिर प्रचुरता बढ़ती है।

ऐसा अनुभव करना ही सब कुछ नही है, यह एक दिशा है जिसमें आप बढ़ते हैं। जो कुछ भी होता है, वह बढ़ता है। आप एक बीज उगाते है और वह बढ़ता है; वह प्रचुर हो जाता है। यदि अभावग्रस्तता का बीज है तो अभावग्रस्तता बढ़ने लगती है।

अपनी आंखे खोलो और देखो आपको क्या दिया गया है! जब आपको इसका ज्ञान होता है और जब आप यह जान जाते हैं कि आपको क्या दिया गया है, आप कृतज्ञ हो जाते हैं। और कृतज्ञता में सब कुछ बढ़ने लगता है। जीवन विकसित होता है।

साम्यवाद क्यों असफल रहा? ये उनकी नीति थी जो कहती थी - जिनके पास नही है, उन्हें सब कुछ दो। इस प्रकार उनको जिनके पास नही था, दिया गया। और फिर क्या हुआ? वे और गरीब से गरीब होते गये, और भौतिक दुनिया में ऐसा होने लगा, क्योंकि विश्व चेतना में अभावग्रस्तता बढ़ने लगी।

‘‘लोग गरीब है, लोग गरीब हैंऐसा विचार विश्व चेतना में फैल गया - ये बीज वहां से उगा। बिना ज्ञान के, बिना बुद्घिमता के, कोई विकास नही होता; और यहां तक की जीवन में जो भी सौंदर्य होता है, वह भी भद्दा हो जाता है।

कृतज्ञता ज्ञान के साथ आती है। जान लो कि आप को प्रेम दिया जा रहा है। दिव्यता आपको प्रेम करती है तभी तो ये सारा ब्रह्मांड आपके लिये बनाया गया है। प्रकृति ने जो कुछ भी आपको दिया है उसके प्रति कृतज्ञ हो जाओ।


ऐसा विश्वास रखो कि पूरी रचना आपसे प्रेम करती है। जब आप के जीवन में ऐसा विश्वास आ जाता है तो जीवनपूर्ण हो जाता है। और इसी विश्वास में ज्ञान है, खुलापन है, प्रसन्नता है, सौंदर्य है। ये सब दिव्य गुण है।


जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है....MMK