5 काम, जिनसे बिना पूजा-पाठ के
भी शनि होते हैं प्रसन्न
शनि न्याय के देवता यानी दण्डाधिकारी माने जाते हैं। न्याय का नाता धर्म पालन
से है। क्योंकि अच्छे-बुरे कर्म न्याय का आधार होते हैं। मान्यता है कि शनि भी जगत
के प्राणियों पर पाप-पुण्य कर्मों के आधार पर ही कृपा भी करते हैं व दण्डित भी।
शनि का यह न्याय शास्त्रों के मुताबिक शनि की ढैय्या, साढ़े साती या महादशा के दौरान सौभाग्य, सफलता या नाकामी और दरिद्रता के रूप में दिखाई देता
है।
दरअसल, शनि भक्ति जीवन में
अच्छे कार्यों व सोच को अपनाने का सबक ही देती है। सद्कर्म व अच्छे विचार ही धर्म
पालन के लिए अहम है। इसलिए शास्त्रों में शनि की प्रसन्नता के लिए धार्मिक
कर्मकांड के अलावा बोल, व्यवहार और कर्म से
जुड़ी ऐसी बातें भी कारगर बताई गई है, जिनको शनिदेव की बिना पाठ-पूजा के व्यावहारिक जीवन में अपनाना भी आसान है।
यहां तक कि नास्तिक यानी ईश्वर भक्ति से दूर रहने वाले इंसान पर भी इन बातों के
कारण शनि कृपा कर सफल व सौभाग्यशाली बना देते हैं।
सेवा - मान्यता है कि शनिदेव जरावस्था या बुढ़ापे के स्वामी है। इसलिए हमेशा
माता-पिता या बड़ों का सम्मान व सेवा करने वाले पर शनि की अपार कृपा होती है। इसके
विपरीत वृद्ध माता-पिता या बुजुर्गों को दु:खी या उपेक्षित करने वाला शनि के कोप
से बहुत पीड़ा पाता है।
दान - शनि भक्ति में दान का महत्व बताया गया है। दान उदार बनाकर घमण्ड को भी
दूर रखता है। इसलिए यथाशक्ति शनि से जुड़ी सामग्रियों या किसी भी रूप में दान धर्म
का पालन करें। अहं व विकारों से मुक्त इंसान से शनि प्रसन्न होते हैं।
परोपकार - परोपकार धर्म का अहम अंग है। दूसरों की पर दया खासतौर पर गरीब,
कमजोर को अन्न,
धन या वस्त्र दान
या शारीरिक रोग व पीड़ा को दूर करने में सहायता शनि की अपार कृपा देने वाला होता
है।
क्रोध का त्याग - शनि का स्वभाव क्रूर माना गया है। किंतु वह बुराईयों को
दण्डित करने के लिए है। इसलिए शनि कृपा पाने व कोप से बचने के लिए क्रोध जैसे
विकार से दूर रहना ही उचित माना गया है।
सहिष्णुता या सहनशीलता- शनि का स्वरूप विकराल है। वहीं शनि को कसैले या कड़वे
पदार्थ जैसे सरसों का तेल आदि भी प्रिय माना गया है। किंतु इसके पीछे भी सूत्र यही
है कि कटुता चाहे वह वचन या व्यवहार की हो, से दूर रहें व दूसरों के ऐसे ही
बोल व बर्ताव को द्वेषता में न बदलें यानी सहनशील बनें।
कामयाब और सुकूनभरी जिंदगी में धन की भूमिका अहम होती है। हर कोई अपनी काबिलियत से पैसा कमाने के लिए तरह-तरह से कोशिश करता है। किंतु कभी-कभी व्यक्ति यह पाता है कि मेहनत के मुताबिक धनलाभ उसे नहीं मिला। धर्म के नजरिए से ऐसी स्थिति तब आती है, जब व्यक्ति कुछ ऐसी बातें भूल जाता है, जो धर्म और व्यवहार की दृष्टि से बहुत अहम हैं। जानते हैं शास्त्रों में बताई गईं मनचाही दौलत पाने की अदृश्य किंतु अहम पांच बातें -
श्रीमद्भागवद् पुराण में इंसानी जिंदगी से जुड़े एक से बढ़कर एक बेहतरीन और कीमती प्रसंग हैं जो व्यक्ति को जिंदगी के हर मोड़ पर कीमती सबक देते हैं। चार पुरुषार्थों में से एक अर्थ के बारे में भी बेहद रोचक जानकारी हमें इस पुराण से मिलती है। श्रीमद्भागवद् के अर्थ प्रकरण में पांच अध्याय हैं जो यह बताते हैं कि अर्थ की प्राप्ति पांच साधनों से होती है। अर्थ की प्राप्ति के वे पांच साधन कौन से हैं आइये जानते हैं-
-माता पिता का आर्शीवाद
-गुरुकृपा
-उद्यम लगन के साथ कठिन परिश्रम
-प्रारब्ध यानि पिछले कर्मों का फल
-प्रभु कृपा
इन पांच सूत्रों से ही भक्ति, साधना और सत्य की राह पर चलकर भक्त धुव्र ने हर तरह के अर्थ (धन-दौलत, संगठन शक्ति, यश-प्रसिद्धि..) को पा लिया। चार पुरूषार्थों मे पहले धर्म है और आखिर में मोक्ष। बीच में अर्थ और काम है इस क्रम के पीछे भी रहस्य है। धर्म और मोक्ष के बीच में काम और अर्थ को रखा गया है। इसका मतलब यह है कि अर्थ और काम को धर्म और मोक्ष के अनुसार प्राप्त किया जाए। धर्म और मोक्ष ये दो पुरूषार्थ अहम है। वही अर्थ और काम कमतर है।
तो मिल जाएगा सच्चा प्रेम
समय के बदलाव के साथ प्रेम का रुप भी बदला है। आज प्रेम के हर रूप में उम्मीद, स्वार्थ, अपेक्षा झलकती है। जिससे प्रेम की गहराई नदारद होती है। इससे प्रेमी और जिससे प्रेम किया जाता है, दोनों में अहं भाव से टकराव पैदा होता है। धर्म की भाषा में कहें तो आज सच्चे प्रेम की जगह दिलों में काम, मोह, आकर्षण ज्यादा हावी रहता है। इसलिए अगर वास्तविक प्रेम चाहते हैं तो प्रेममूर्ति भगवान श्रीकृष्ण के चरित्र से प्रेम के सूत्र सीखें जा सकते हैं - गीता में श्रीकृष्ण को भगवान कहा गया है। श्री कृष्ण को विष्णु अवतार माना जाता है। विष्णु उपासना के विष्णुसहस्त्रनाम में भगवान के दो खास गुणों को बताया गया है, जो मानवीय जिंदगी के लिए भी जरूरी है। वह है अहंकार न रखने वाला और दूसरों का सम्मान करने वाला।
भगवान श्रीकृष्ण के यही दो रुप बचपन से लेकर कुरुक्षेत्र के युद्ध के मैदान तक दिखाई दिए। जहां ब्रजभूमि में श्रीकृष्ण अपनी लीलाओं से यह समझा देते हैं कि वही प्रेम सिद्ध है, जिसमें अहंकार न हो। यही कारण है कि वह गोपों के साथ खेलते हैं, हारने पर खींजते हैं, मित्रों की मनुहार करते हैं। उनका जूठा खाते हैं। ब्रज के गोपों में ऐसे क्या गुण हैं, जो भगवान उनके हाथों बिक जाते हैं? असल में वे भक्तों का मान रखते हैं, अपना नहीं। मान को छोड़कर यानी अहंकार के त्याग द्वारा श्रीकृष्ण ने ब्रज-लीला में सच्चे प्रेम का संदेश दिया। वहीं मथुरा छोडऩे के बाद उनके प्रेम का यह दूसरा रुप भी सामने आता है।
यह रुप था स्वयं का मान त्याग कर दूसरों का मान रखना। यह भगवान का स्वभाव है और बेहद प्रेम भी। भगवान के इस गुण के युद्ध मैदान में गवाह बने भीष्म पितामह। महाभारत युद्ध में श्रीकृष्ण प्रतिज्ञा लेते हैं कि वे शस्त्र धारण नहीं करेंगे। भीष्म प्रतिज्ञा करते हैं कि वे श्रीकृष्ण को शस्त्र धारण करवाएंगे। तब भगवान अपनी प्रतिज्ञा तोड़कर भक्त की प्रतिज्ञा का मान रखते हैं।
इस तरह भगवान हो या इंसान सच्चे प्रेम के लिए जरूरी अहं भाव को छोडऩा, विनम्रता को अपनाना और साथ ही सम्मान की भावना मात्र अपनों के लिए नहीं, सभी लिए। तब मन ही नहीं इंसानों में भी भगवान का सच्चा रूप दिखाई देगा।
असंभव कुछ भी नहीं
आज अगर कोई भी व्यक्ति अपने ध्यान या मन को एक जगह केन्द्रित कर ले तो किसी भी काम को करना उसके लिए मुश्किल नहीं होगा। एक बार स्वामी विवेकानंद अपने एक विदेशी दोस्त के यहां गए हुए थे। रात के समय दोनों मित्र आपस में किसी विषय पर चर्चा कर रहे थे। तभी स्वामीजी के मित्र को कहीं जाना पड़ा। अब स्वामीजी घर में अकेले थे, उन्हें एक किताब दिखाई दी और उन्होंने किताब पढऩा शुरू कर दी। कुछ देर बाद उनका दोस्त उनके सामने आकर खड़ा हो गया। परंतु स्वामीजी का ध्यान उनके दोस्त की ओर नहीं गया वे किताब पढऩे में लगे रहे। जब स्वामीजी ने किताब पूरी पढ़ ली तो उन्होंने देखा कि उनका दोस्त उनके सामने ही खड़ा था। स्वामीजी ने माफी मांगते हुए कहा कि मैं किताब पढऩे में इतना खो गया था कि तुम कब आए पता ही नहीं चला। उनका दोस्त मुस्करा दिया। दोनों फिर से चर्चा करने लगे।
इस बार स्वामीजी ने अभी-अभी जो किताब पढ़ी थी उसकी बातें बताने लगे। उनके विदेशी मित्र ने कहा आपने यह किताब पहले भी कई बार पढ़ी होगी, तभी आपको इस किताब की सारी बाते ज्यों की त्यों याद है। स्वामीजी ने कहा नहीं मैंने यह किताब अभी ही पढ़ी है। उनके दोस्त को विश्वास नहीं हुआ कि 400 पेज की किताब कोई इतनी जल्दी कैसे पढ़ सकता है? तब स्वामीजी ने कहा कि यदि हम अपना पूरा ध्यान किसी काम में लगा दे और दूसरी सारी बातें छोड़ दे तो यह संभव है कि हम 400 पेज की किताब भी थोड़े ही समय में पढ़ सकते हैं और उस किताब की सारी बातें आपको याद रहेंगी।
खुद पर करो विश्वास तो...
व्यक्ति के जीवन में परिस्थितियां कैसी भी हों पर जब मन में अटूट विश्वास और अपने आप पर भरोसा हो तो उसकी जीत निश्चित हो जाती है। और दुनिया भी उसके कदम चूमने लगती है। 1960 के ओलम्पिक खेलों में ऐसी ही एक मिसाल बनी इटली की राजधानी रोम की बीस वर्षीय विल्मा रोड़ोल्फ। जो अपने आत्मविश्वास के कारण ही विश्व की सबसे तेज धाविका बनी। विल्मा चार वर्ष की उम्र से ही डबल निमोनिया और काला बुखार के कारण पोलियोग्रस्त थी। लेकिन बचपन से उसका ही सपना रहा कि वह विश्व की सबसे तेज धाविका बनना चाहती थी।
ड़ाक्टरों ने विल्मा को कभी न दौड़ऩे की सलाह दी लेकिन विल्मा के सपने ने उसके आत्मविश्वास को इतना ऊंचा बना दिया कि उसने असंभव को भी संभव कर दिखाया। ड़ाक्टर के मना करने के बाद भी विल्मा ने अपने ब्रेस उतार दिए और 1960 के ओलम्पिक खेलों में भाग लिया और दौड़ में 126 लोगों से आगे निकल कर विश्व कीर्तिमान बनाया। विल्मा के अपने आत्मविश्वास ने उसकी अपंगता को हरा दिया और उसका मनोबल पूरी दुनिया के लिए एक मिसाल बन गया।
तो नाक पर बैठा न रहेगा गुस्सा
आज के युवाओं में भरपूर जोश, उत्साह, ऊर्जा, ज्ञान, कौशल दिखाई देता है। किंतु जैसे किसी व्यक्ति, वस्तु या व्यवस्था में गुण-दोष होते हैं। वैसे ही आधुनिक युवा पीढ़ी में कुछ दोष भी नजर आते हैं, जो उनकी कामयाबी की राह में रोड़ा बनते दिखाई देते हैं। यह दोष है- क्रोध, गुस्सा या आक्रोश।
असल में आज की चकाचौंध से भरी जीवनशैली और लचर सामाजिक व्यवस्था भी इसका अहम कारण है। जिससे युवा बहुत कम समय में ज्यादा पाने की चाहत में छोटे रास्ते अपनाता है। जिससे अधिकांश अवसरों पर असफलता हाथ लगती है या फिर लंबे समय के लिए ऐसे उपाय कारगर साबित नहीं होते। जिससे मिली कुण्ठा और निराशा के नतीजे क्रोध के रूप में सामने आते हैं। जिस पर समय रहते काबू न किया जाए तो वह व्यक्ति को गुमनामी और असफलता के अंधेरों में ही खो जाता है।
अगर कोई युवा इस कमजोरी को ताकत बनाना चाहे तो धर्म की नजर से बताए गए क्रोध पर काबू करने के उपायों को अपनाना फायदेमंद साबित हो सकता है। जानते हैं धर्म की नजर से क्रोध और उस पर नियंत्रण के उपाय - धर्म की नजर से क्रोध उन छ: विकार या दोषों में शामिल जो किसी भी व्यक्ति के पतन का कारण बन सकता है। धार्मिक मान्यताओं में इसे नरक में जाने का कारण बताया गया है। जिसका व्यावहारिक अर्थ है गंभीर दु:खों से दो-चार होना।
धर्म की नजर से क्रोध से मुक्ति का सबसे श्रेष्ठ उपाय है - मौन। जी हां, यहां मौन होने का मतलब चुप्पी साधने से नहीं है। बल्कि मौन के द्वारा बुरे विचार, कटु वाणी और बुरे आवेगो पर काबू करने से हैं। जब भी आपको किसी बात से असंतोष हो तब उस विषय को जानने, समझने, विचारने, बात करने और हल निकालने पर ध्यान लगाएं यानि अच्छे नतीजे पाने की कोशिश करें। ठीक वैसे ही जैसे मर्यादाओं में रहने वाले श्रीराम के गुस्से से समुद्र को पार करने का उपाय मिला और श्रीकृष्ण के गुस्से से अधर्म के नाश में बाधा बने भीष्म पितामह को पराजित करने का उपाय मिला।
व्यर्थ का आवेश आपको हर तरह से असंतुलित कर देता है। जिससे आपकी ऊर्जा, विचार और कर्म प्रभावित होते हैं, जो लक्ष्य से भटकाकर आपके व्यक्तित्व और चरित्र पर बुरा असर डालते हैं। बातों को सार यही है कि आवेश को रोकने के लिए समझ और समय को अहमियत दें।
अगर नाम कमाना चाहते हैं तो ...
जिंदगी में हर व्यक्ति तन, मन और धन के सुखों की कामना करता है। किंतु इनके अलावा एक और इच्छा हर व्यक्ति दिल में रखता है। वह है - ख्याति सरल शब्दों में नाम कमाना या बड़ा नाम बनाना। नाम की महिमा धर्म और लोक जीवन में खोजें तो राम का नाम धर्म-कर्म-परंपराओं में सबसे अधिक रचा-बसा है। इसलिए जानते हैं राम नाम की ख्याति में छुपे नाम बनाने और कमाने के सूत्र को - हिन्दू धर्म में भगवान श्रीराम के लिए आस्था, भक्ति इतनी गहरी है कि हर व्यक्ति के बोल, व्यवहार और आचरण में राम नाम प्रगट हो ही जाता है। सामाजिक जीवन में देखें तो राम नाम के संबोधन से बोलचाल शुरू होती है। किसी शारीरिक कष्ट में मुंह से राम निकलता है या फिर किसी अमर्यादित बोल सुनकर या दृश्य देखकर राम-राम छूट जाता है। यहां तक कि किसी की मृत्यु होने पर राम के नाम का ही सहारा लेकर मृत देह की अंतिम यात्रा निकाली जाती है।
इस सब बातों का निचोड़ निकाले तो यह पाते हैं कि राम भरोसे और मर्यादा का दूसरा नाम है। धर्म का दर्शन भी कहता है कि नामी से बड़ा नाम होता है। इस जगत का कोई भी प्राणी छोटा हो या बड़ा, देव हो या दानव नाम नहीं छुपा सकता।
नामी तो कोई बुराई से भी बन सकता है। रावण भी गुणी था, किंतु वह अपने कुछ अवगुणों से नामी बना। किंतु राम की तरह दिलो-दिमाग में स्थान बनाने, विश्वास जीतने के लिए जरूरी है गुणों से नामी बने। यह तभी संभव है जब कोई अपने चरित्र, व्यक्तित्व, व्यवहार, आचरण से समाज, रिश्तों और जीवनमूल्यों की मर्यादा और गरिमा को बनाए रखे। श्रीराम का चरित्र भी ऐसे ही आदर्शों से भरा है। यही कारण है कि राम की साकार मूरत सामने न होने पर भी मात्र राम का नाम आत्मबल व मनोबल बढ़ा देता है। इसलिए धार्मिक आस्था से कहा जाता है कि राम से भी बड़ा राम का नाम है।
क्या है विष्णु के 24 अवतारों का रहस्य?
हिन्दू धर्म ग्रंथों में अनेक देवी-देवताओं के अवतार बताए गए हैं। जिनमें विष्णु, शिव, शक्ति, गणेश आदि देवताओं ने अलग-अलग अवतारों से जगत के दु:खों का अंत किया। किंतु हम यहां मात्र भगवान विष्णु जिनको जगत का पालन करने वाले देवता माना जाता है, के 24 अवतारों के पीछे छुपे रहस्य को जानते हैं -
दरअसल अवतार का शाब्दिक अर्थ होता है ऊपर से नीचे आना या उतरना। इसी तरह धर्म का सरल शब्दों में मतलब होता है - जिंदगी को चलाने के लिए नियत की गई धर्म व्यवस्था या तंत्र।
जिसके द्वारा जगत में रहने वाले किसी भी प्राणी को नुकसान पहुंचाए बिना जीवन जीने के सूत्र बताए जाते है। किंतु जब कोई व्यक्ति या प्राणी मर्यादा, गरिमा, नियमों को तोड़कर जगत को दु:ख और कष्ट देता है। तब यही स्थिति धर्म हानि के रुप में देखी जाती है। इसी व्यवस्था की रक्षा और बुराई के नाश के लिए धार्मिक मान्यताओं के अनुसार अलग-अलग युगों में देव अवतार हुए। हिन्दू धर्म में भगवान विष्णु के अवतारों से धार्मिक आस्था जुड़ी है। इसलिए अलग-अलग काल और रूप में 24 अवतारों का महत्व बताया गया है।
वैसे भी धार्मिक आस्था से कहा जाता है कि कण-कण में भगवान बसें हैं। इस नजरिए से मानव भी देव अवतार ही है। विष्णु के 24 अवतारों का गुढ़ संदेश यही है कि स्वार्थ भावना को छोड़कर कर्म, धर्म और दायित्व का पालन करें। सनातन धर्म कहता है कि कोई व्यक्ति जन्म से पापी नहीं होता। उसके अच्छे-बुरे काम ही उसका भविष्य नियत करते हैं। इसलिए हर व्यक्ति अपने अच्छे चरित्र व व्यवहार से समाज की व्यवस्था को सुधारने और विकास करने का ही संकल्प करे। यही सूत्र छुपे हैं विष्णु के 24 अवतारों में।
क्यों वेदों की संख्या है चार?
विश्व के इतिहास में वेदों को सबसे प्राचीन धर्मग्रंथ माना जाता है। ज्ञान रूपी वेद चार प्रकार के बताए गए हैं - ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। यह धर्म, अध्यात्म, प्राणी-प्रकृति को जोडऩे वाले अद्भुत ज्ञान से भरे है। आम जन के लिए यह देव उपासना के मंत्रों के पुरातन ग्रंथ मात्र है। किंतु बहुत कम लोग यह जानते हैं कि चारों वेद मानव जिंदगी के लिए कुछ विशेष प्रयोजन पूरे करते हैं। हर वेद का मानवीय जिंदगी के लिए खास अहमियत है। यहां जानते हैं कौन-सा वेद मानवीय जिंदगी को कैसे फल देता है?
ऋग्वेद - आत्मशांति, धर्म भाव, कर्तव्य पालन, प्रेम, तप, दया, उपकार, उदारता, सेवा भाव के लिए ऋग्वेद अहम है।
यजुर्वेद - बहादुरी, पराक्रम, पुरुषार्थ, साहस, वीरता, पद, प्रतिष्ठा, विजय, आक्रमण और रक्षा की दृष्टि से यजुर्वेद महत्वपूर्ण है।
सामवेद- मनोरंजन, संगीत, साहित्य, इन्द्रिय सुख या इसका चिन्तन, शौक, संतोष, सक्रियता, कल्पना के लिए सामवेद का महत्व है।
अथर्ववेद - अन्न, धन, वैभव, सभी भौतिक सुख यानि घर, वाहन आदि सुखों के लिए अथर्ववेद अहम माना गया है।
इस तरह अध्यात्म हो या विज्ञान हर दृष्टि से हर मानव के जीवन में इच्छाएं, जरूरतें, लक्ष्य आदि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति में ही सीमित है। चार वेद इन पुरुषार्थों को पाने के लिए ज्ञान की अलग-अलग धारा है। इसलिए इनको पाने के लिए ही ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास आश्रम का महत्व बताया गया। ज्ञान रूपी इन चार शक्तियों की माता गायत्री को माना गया और चार वेद उनके पुत्र माने जाते हैं।
क्यों अमृत है गंगा जल?
गंगा नदी धर्म, आस्था, श्रद्धा और पवित्रता का साक्षात् स्वरुप है। गंगा नदी भारतीयों के विचार-व्यवहार, धर्म-कर्म और परंपराओं में हमेशा प्रवाहित होती रही है। सनातन परंपराओं में गंगाजल का उपयोग धार्मिक, मांगलिक कार्यों में पवित्रता के लिए किया जाता है। शिशु जन्म या मृत्यु के बाद के कर्मों में इसी गंगा जल से गृह शुद्धि की परंपरा है। साथ ही मृत्यु के निकट होने पर व्यक्ति को गंगा जल पिलाने और दाह संस्कार के बाद उसकी राख को गंगा के पवित्र जल में प्रवाहित करने की भी पंरपरा रही है।
धार्मिक महत्व में गंगा पापों का नाश कर मोक्ष देने वाली, मंगलकारी और सुख-समृद्धि देने वाली, कामनाओं को पूरा करने वाली देव नदी मानी गई है। किंतु गंगा मात्र धार्मिक दृष्टि से ही पवित्र नहीं है, बल्कि विज्ञान ने भी गंगा के जल को पवित्र माना है। जानते हैं गंगा के जल की पवित्रता से जुड़े विज्ञान को -गंगा जल की वैज्ञानिक खोजों ने साफ कर दिया है कि गंगा गोमुख से निकलकर मैदानों में आने तक अनेक प्राकृतिक स्थानों, वनस्पतियों से होकर प्रवाहित होती है। इसलिए गंगा जल में औषधीय गुण पाए जाते हैं। इसके साथ ही वैज्ञानिक अनुसंधानों में यह पाया गया है कि गंगाजल में कुछ ऐसे विशेष जीव होते हैं जो जल को प्रदूषित करने वाले विषाणुओं को पनपने ही नहीं देते बल्कि उनको नष्ट भी कर देते हैं। जिससे गंगा का जल लंबे समय तक खराब नहीं होता है। इस प्रकार के अनूठे गुण किसी अन्य नदी के जल में नहीं पाए गए हैं।
इस तरह गंगा जल धर्म भाव के कारण मन पर और विज्ञान की नजर से तन पर सकारात्मक प्रभाव देने वाला होने से जीवन के लिए अमृत के समान है। यही कारण है कि गंगा की धारा के साथ हर भारतीय की रग-रग में धर्म बहता चला आ रहा है।
लक्ष्य को सामने देख न करें जल्दबाजी
अगर मनुष्य चाहे तो संयम और धैर्य से समुद्र भी लांघ सकता है। लेकिन कभी कभी व्यक्ति अपनी जल्दबाजी के कारण हाथ आए हुए लक्ष्य को भी खो देता है। एक बूड़ा व्यक्ति था वह लोगों को पेड़ पर चढऩे व उतरने की कला सिखाता था जो उनको मुसीबत के समय और जंगली जानवरों से रक्षा के काम भी आती थी। एक दिन एक लड़का उस बूड़े व्यक्ति के पास आया और विनम्रता पूर्वक निवेदन करते हुए बोला कि उसे इस कला में जल्द से जल्द निपुण(परफेक्ट)होना है। बूड़े व्यक्ति ने उसे यह कला सिखाते हुए बताया कि किसी भी काम को करने के लिए धैर्य और संयम की बड़ी आवश्यकता होती है। लड़के ने बूड़े की बात को अनसुना कर दिया।
एक दिन बूड़े व्यक्ति के कहने पर वह एक ऊंचे पेड़ पर चढ़ गया। बूड़ा व्यक्ति उसे देखता रहा और उसका हौसला बढ़ाता रहा पेड़ से उतरते उतरते जब वह लड़का आखिरी डाल पर पहुंचा तब बूड़े व्यक्ति ने कहा कि बेटा जल्दी मत करना सम्भलकर कर उतरो। लड़के ने सुना और धीरे धीरे उतरने लगा। नीचे आकर लड़के ने हैरानी के साथ अपने गुरु से पूछा कि जब में पेड़ की चोटी पर था तब आप चुपचाप बैठे रहे और जब मैं आधी दूर तक उतर आया तब आपने मुझे सावधान रहने को कहा ऐसा क्यों। तब बूड़े व्यक्ति ने उस लड़के को समझाते हुए कहा कि जब तुम पेड़ के सबसे ऊपर भाग पर थे तब तुम खुद सावधान थे जैसे ही तुम अपने लक्ष्य के नजदीक पहुंचे तो जल्दबाजी करने लगे और जल्दी में तुम पेड़ से गिर जाते और तुम्हें चोट लग जाती।
कथा बताती है कि अपने निर्धारित लक्ष्य को पाने के लिए कभी भी जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए क्यों कि कई बार की गई जल्दबाजी ही लक्ष्य को पाने में परेशानी बन जाती है।
जबान पर हो लगाम नहीं तो...
अक्सर लोग गुस्से में परिस्थिति को सही तरीके से जाने बगैर अपना आपा खो देते है और उस वक्त उन्हें ये एहसास भी नहीं होता कि उनके गुस्से से लोगों पर क्या प्रभाव पड़ेगा। इसी के चलते वे अक्सर अपने बनते काम भी बिगाड़ लेते हैं।
एक दिन एक किसान अपने पड़ोसी से खूब झगड़ा और उसे खूब भला बुरा कहा। कुछ देर बाद जब उसे एहसास हुआ कि उसने बिना सोचे समझे ही अपने पड़ोसी को खरी खेटी सुना दी तो उसे पश्चाताप होने लगा और वह एक साधु के पास पहुंचा। किसान ने साधु को सारी बात बताई और कहा कि मैं प्रायश्चित करना चाहता हूं, साधु ने कुछ देर सोचा और फिर पंखों से भरी एक पोटली उसे थमा दी और कहा कि गांव के चौराहे पर इन पंखों को फैला कर आओ। किसान ने वैसा ही किया और साधु के पास लौट आया।
साधु बोले अब वापस जाओ और उन सारे पंखों को बीन कर ले आओ। किसान जब वहां पहुंचा तो देखा कि सारे पंख इधर-उधर बिखरे पड़े हैं। वह खाली हाथ वापस आ गया और साधु से बोला कि महाराज मैं इतने पंखों को बीन कर नहीं ला सकता यह काम मुश्किल ही नहीं असंभव है। तब साधु ने किसान को समझाया कि इसी तरह मुंह से निकले शब्द कभी वापस नहीं आते इसलिए मनुष्य को अपनी वाणी पर संयम रखना चाहिये क्योंकि जो मनुष्य वाणी पर संयम नहीं रखते वे अपने पतन का कारण स्वयं बनते है।
सुख ही नहीं, दु:ख भी देता है पैसा
कभी-कभी जरूरत से ज्यादा धन भी घर-परिवार में अशांति फैला देता है। धन का अपना स्वभाव है, वह सीमित मात्रा में मिलता रहे, जरूरत के काम पूरे होते रहें तो कभी परेशानी नहीं आती लेकिन जब अचानक बड़ी मात्रा में पैसा मिल जाता है तो वह परिवार में कहीं-न-कहीं लालच फैलाने का काम करता है। व्यक्ति धन संग्रह करने वाला और लालची होने लगता है यही स्वभाव उसके दु:ख का कारण बनता है।
एक गांव में एक सेठ और बढई पड़ोसी थे। सेठ बड़ा पैसे वाला था लेकिन उसे कोई संतान नहीं थी। उसके घर में केवल पत्नी और बूढ़ी मां थी। इतना धनवान होने के बाद भी उसके घर में शांति नहीं थी। वे दोनों अक्सर झगड़ते रहते थे। वहीं दूसरी ओर बढ़ई के घर में उसकी पत्नी और दो बच्चे थे, वे गरीब थे मगर बड़े प्रेम से रहते थे। एक दिन सेठानी ने सेठ को अपने पास बुलाया और बढई के घर में झांकते हुए कहा कि ये लोग गरीब हैं मगर फिर भी कितने खुश हैं।सेठ ने पत्नी से कहा कि संतोषी को झोपड़ी भी महल लगती है। सेठानी सेठ जी की बात को समझ नहीं पाई। तब सेठ ने सेठानी को समझाने के लिए एक उपाय किया।
सेठ ने अगले दिन पैसों से भरी एक पोटली बढ़ई के घर में फेंक दी। जब बढ़ई ने सेठ से पूछा कि ये पोटली तुम्हारी है तो सेठ ने साफ इंकार कर दिया। बहुत दिनों के इन्तजार के बाद बढ़ई ने सोचा कि इतने पैसों का क्या किया जाए। उसकी पत्नी का दिमाग घूमने लगा। उसने पति को समझाते हुए कहा कि इन पैसों को हम अपनी बेटियों की शादी के लिए रख लेते हैं लेकिन बढ़ई राजी न था, बस अब क्या था बढ़ई के घर में रोज झगड़े होने लगे। अब उनके मन में पहले की तरह संतोष न था। सेठ ने सेठानी से कहा कि जब इनके पास पैसे नहीं थे। तब ये लोग कितने संतोष पूर्वक रहा करते थे पैसों से भरी पोटली मिलने के बाद इनकी जिंदगी में क्लेश हो रहा है।
बस इतनी कोशिश से बदल जाती है किस्मत
हम सभी के जीवन में समस्याएं हैं। कभी-कभी हम अपनी समस्याओं को बहुत कठिन और बड़ा बना लेते हैं। इतने भाग्यवादी हो जाते हैं कि हम जिन्दगी को मुसीबत समझकर समस्याओं से भागने लगते हैं लेकिन इस दौड़ में हम ये भूल जाते हैं कि मुसीबतें भागने से खत्म नहीं होतीं, बिना उनसे जूझे ये सुलझ भी नहीं सकतीं।
एक आदमी हमेशा मुसीबतों से घिरा रहता था। उसका एक कदम ठीक होता तो दूसरा बिगड़ जाता। उसे सुधारने जाता तो तीसरा बिगड़ जाता। तीसरा सुधारने जाता तो कोई नई मुसीबत खड़ी हो जाती। कभी परिवार पर कोई संकट, तो कभी नौकरी पर। उनसे पार पाता तो कोई नई उलझन सामने आ जाती। वह बहुत परेशान हो गया। उसने सोचा कि ये मेरे साथ ही क्यों होता है। ऐसा कब तक चलता रहेगा? क्या जीवन में कभी सुख संतोष होगा? वह इतना निराश हो गया कि उसने आत्महत्या तक करने का प्रयास कर लिया पर किस्मत ने उसका वहां भी साथ नहीं दिया। वह बच गया और परिवार और इष्ट मित्रों ने उसे बहुत ताने सुनाए और उसे जिन्दगी से भागने वाला कहा सभी ने उसे धिक्कारा। उसने सोचा कि स्थान बदलने पर शायद मेरा भाग्य बदल जाएगा।
उसने एक छोटे से कस्बे को पसंद किया। वहां जाने के लिए उसने और उसके परिवार ने तैयारी कर ली। सामान लेकर उसने जैसे ही घर से बाहर कदम रखा तो देखा एक महिला सामने रास्ता रोके खड़ी है। उसने पूछा कौन हो तुम और क्या चाहती हो। महिला ने कहा तुम्हारा साथ। आदमी ने जवाब दिया लेकिन मैं तो शहर छोड़ रहा हूं। महिला ने मुस्कुरा कर कहा तो मैं भी वहां तुम्हारे साथ जाऊंगी। आदमी ने झल्लाकर उसका परिचय पूछा तो वह बोली- मैं तुम्हारी किस्मत हूं। यह सुनकर उसका दिल बैठ गया। उसने कहा जब तुम ही मेरा साथ छोडऩे को तैयार नही हो तो मैं कहीं भी जाकर क्या करुंगा?
उस आदमी ने फैसला किया कि मैं यहीं रहकर अपना भाग्य बदलूंगा। निश्चय ही उसकी मेहनत रंग लाई, जी तोड़ मेहनत से सफलता उसके कदम चुमने लगी। अब वह भी खुश था और परिवार भी उल्लास के माहौल से कष्ट भी आता तो उसका तुरंत समाधान हो जाता।
क्यों मनाया जाता है मुहर्रम?
इस्लामी यानी हिजरी वर्ष का पहला माह मुहर्रम है। हिजरी वर्ष की शुरुआत इसी माह से होती है। मुस्लिम धर्म को मानने वाले साल भर अनेक त्योहार मनाते हैं। मुस्लिम धर्म के त्योहारों के बारे में एक दिलचस्प बात यह है कि यह त्योहार चंद्र कैलेंडर एवं हिजरी पर आधारित होते हैं, न कि ग्रेगेरियन कैलेंडर पर। कोई भी मुस्लिम त्योहार ऋतुओं पर आधारित नहीं होता। मुसलमानों द्वारा मनाए जाने वाले त्योहारों में बकरीद, शब-ए-बारात, रमजान-ईद और मिलादुन्नबी, मुहर्रम प्रमुख हैं। इन त्योहारों में से एक मुहर्रम के त्योहार का बहुत महत्व है। मुहर्रम मुस्लिम केलेंडर का पहला माह होता है। इस महीने को इस्लाम धर्म के चार पवित्र महीनों में शामिल किया जाता है। खुदा के दूत हजरत मुहम्मद ने इस मास को अल्लाह का महीना कहा है। इस माह मनाया जाने वाला मोर्हरम का त्योहार माह के पहले दिन से शुरू होकर दसवें दिन तक चलता है।
मुस्लिम धर्मग्रंथ के अनुसार, हिजरा के 61 साल बाद हजरत अली (चौथे खलीफा) के निधन से उनके उत्तराधिकार को लेकर विवाद हुआ। नए मनोनीत खलीफा के गलत कार्यों एवं आचरण का हजरत इमाम हुसैन ने विरोध किया। इसी कारण मुहर्रम के महीने में एक यात्रा के दौरान हजरत इमाम हुसैन उनके परिवार के सदस्यों और अनुयायियों को उस समय के खलीफा यजीद की सेना ने घेर कर बंधक बना लिया। घेराबंदी के दौरान उनको भूखा और प्यासा रखा गया। जिससे उनमें से बहुत से लोगों की मृत्यु हो गई। अंत में मुहर्रम की 10 तारीख को हजरत इमाम हुसैन का भी सिर काट दिया गया। यह घटना इराक कर्बला नामक स्थान पर घटित हुई थी। तब से ही उनकी याद में मुहर्रम का पर्व मनाया जाता है।
मुहर्रम का पर्व मूलत: यह संदेश देता है कि अन्याय और असत्य को स्वीकार न कर जीवन में सदैव सत्य आचरण को अपनाना चाहिए। यह पर्व यह प्रेरणा देता है कि समाज में अच्छाई को बनाए रखने के लिए प्राणों की भी परवाह नहीं करनी चाहिए।
क्यों वेदमाता है गायत्री?
शास्त्रों में लिखा है कि सर्वदेवानां गायत्री सारमुच्यते जिसका मतलब है गायत्री मंत्र सभी वेदों का सार है। इस मंत्र से माता गायत्री की आराधना की जाती है। माना जाता है कि यह मंत्र ब्रह्मदेव को आकाशवाणी से प्राप्त हुआ। यही कारण है की माता गायत्री को वेदमाता कहते हैं। किंतु वेदमाता गायत्री कहने के पीछे गहरे आध्यात्मिक अर्थ हैं। जानते हैं माता गायत्री के वेदमाता होने के पीछे रहस्यों को -
असल में वेद का अर्थ है - ज्ञान। इस ज्ञान के चार भेद है - ऋक्, यजु, साम और अथर्व। ज्ञान के ये चारों रूप भी प्राणियों की चार तरह की चेतना से जुड़े हैं। इनमें ऋक् - कल्याण, यज्ञ - पौरूष, साम - क्रीड़ा और अथर्व - अर्थ भाव से संबंधित है। बचपन, युवा, गृहस्थ और संन्सासी जीवन में क्रमश: क्रीडा, अर्थ, पौरूष और कल्याण अवस्था देखी जाती है। इस संसार का हर प्राणी इन चेतनाओं के दायरे में होता है।
इस तरह वेद यानि ज्ञान एक होकर भी हर प्राणी के मन में चार रूपों में रहता है। इसलिए वेदों को भी चार भागों में बांटा गया। ब्रह्मदेव के चार मुख भी इसी ज्ञान के प्रतीक है। ज्ञान के यही चार रूप उसी चेतना शक्ति के प्रेरक है, जो सृष्टि की शुरूआत में ब्रह्मदेव ने पैदा की। इस शक्ति को ही धर्मग्रंथों में गायत्री नाम दिया गया। यही कारण है कि वेदों की माता गायत्री मानी गई और वह वेदमाता के नाम से जगतप्रसिद्ध हुई।
ये हैं गणेश के संकटनाशक 8 अवतार
सनातन धर्म में श्री गणेश मंगलकारी देवता माने गए हैं। शास्त्रों में श्री गणेश को ही परब्रह्म कहा गया है। श्री गणेश विघ्रहर्ता है। उनकी यह महिमा इस बात से सिद्ध होती है कि हिन्दू धर्म के पंचदेव जिनमें कल्याणकर्ता शिव, शक्ति, आनंददाता श्री विष्णु और ऊर्जा के स्त्रोत सूर्य की पूजा से पहले श्री गणेश की पूजा की जाती है।
लेकिन क्या आप जानते हैं कि श्री गणेश भक्तों के विघ्र विनाश और मंगल के लिए अलग-अलग 8 स्वरूपों में अवतरित हुए। जानते हैं श्री गणेश के ऐसे ही अद्भुत 8 अवतारों और उनकी भक्ति के फल को -
1 वक्रतुण्ड - श्री गणेश के इस रूप में मुड़ी हुई सूंड होती है। यह बाधाओं का नाश और विघ्र का नाश करते हैं। कलह का नाश करते हैं।
2. एकदंत - इस रूप में श्री गणेश का एक ही दांत होता है। यह लालच, अहंकार, आसक्ति और दंभ को चूर करते है। यह बुद्धिदाता होते हैं।
3. महोदरा - श्री गणेश के इस रूप में बडे उदर यानि पेट वाले होते हैं, जो सुख-समृद्धि और आनंद देते हैं। भूमि-संपत्ति संबंधी बाधा को दूर करते हैं।
4. गजानन - श्री गणेश इस रूप का अर्थ होता है हाथी जैसे मुख वाले धन, दौलत, ऐश्वर्य और कार्य दक्षता और सिद्धि देते हैं। यह शांत और पुरूषार्थी बनाते हैं।
5. लम्बोदर - श्री गणेश के इस रूप का अर्थ होता है- लम्बे पेट वाले। क्रोध व अधर्म को अंत करते हैं।
6. विकट - विपदाओं व संकट के साथ शत्रुभय दूर करते हैं। यह संकटनाशक रूप माना जाता है।
7. विघ्रराज - सभी विघ्रों का नाश करते हैं और शुभ कार्यों में आने वाली बाधाओं को दूर रखते हैं। इस रूप में गणेश कमल के फूल पर विराजित होते हैं।
8. धूम्रवर्ण - श्री गणेश इस रूप में धुएं की तरह रंगवाले होते हैं। हर धर्म और काम में सफलता देते हैं। वहीं दुष्प्रवृत्तियों का नाश करत हैं। ग्रहदोष शांति के लिए इनकी पूजा का महत्व है।
कैसे यज्ञ से पूरी होती है मनोकामना?
सनातन धर्म में प्राचीन काल से ही यज्ञ का देव उपासना और इच्छाओं की पूर्ति के लिए विशेष महत्व बताया गया है। किंतु यज्ञ से भौतिक सुखों की कामना कैसे पूरी होती है। यह जिज्ञासा का विषय है। इसलिए यहां जानते हैं यज्ञ के संबंध में कुछ अहम बातों को - यज्ञ शब्द यज् धातु से बना है। जो देवपूजा, दान और कल्याण भाव तीनों के लिए उपयोग किया जाता है। इस तरह पहले अर्थ में यज्ञ द्वारा अलग-अलग देवताओं की प्रसन्नता के लिए आहूति दी जाती है। दूसरे अर्थ में किसी खास पुण्य दिवस पर जरूरतमंद को दान या अतिथि को स्वागत-सत्कार से प्रसन्न करना भी यज्ञ है। वहीं तीसरे रूप में विश्व शांति या लोक कल्याण की भावना से हवन-पूजन भी यज्ञ कहलाता है।
इस तरह देखा जाए तो यज्ञ मात्र किसी व्यक्ति विशेष को ही नहीं बल्कि इसकी अग्रि में होम की जाने वाली तरह-तरह की प्राकृतिक और जड़ी बुटियों की हवन सामग्रियां अपनी सुगंध और गुणों से दृश्य ही नहीं अदृश्य जीवों को भी लाभ पहुंचाती हैं। जिससे विशेष कामना की पूर्ति के लिए यज्ञ करने वाले व्यक्ति विशेष के आस-पास का वातावरण स्वच्छ ही नहीं होता बल्कि सकारात्मक ऊर्जा भी पैदा करता है। यह ऊर्जा इतनी प्रभावी और पवित्र होती है कि मानव के तन, मन के दोषों का अंत कर देती है। यह शरीर को पुष्ट करने वाले रसों को पैदा करती है, वहीं विचारों की शुद्धता से व्यवहार में भी बदलाव लाती है।
धार्मिक दृष्टि से यज्ञ द्वारा जहां देव मंत्र और धार्मिक क्रियाओं से देवकृपा प्राप्त होती है। वहीं अदृश्य रूप से दूसरे प्राणियों पर परोपकार से पुण्य प्राप्त होता है। इससे कामना पूर्ति की हर बाधा मिट जाती है और सकारात्मक ऊर्जा से बना स्वस्थ तन, पवित्र विचार और मधुर व्यवहार हर व्यक्ति की भौतिक कामनाओं की पूर्ति की डगर आसान बना देते हैं।
ये है सफलता का पहला सूत्र
जो जागता है वो पाता है। जी हां, जिंदगी में जोरदार कामयाबी और चमकदार भविष्य की चाहत रखने वाले युवाओं के लिये यह सूत्र वाक्य जेहन में रखना बहुत ही फायदेमंद साबित हो सकता है।
इस संदेश का सीधा अर्थ भी यही है कि युवाओं को अधिक नहीं सोना चाहिए। व्यावहारिक दृष्टि से भी जवानी में व्यक्ति की जो कार्य क्षमता, ऊर्जा, जोश, उत्साह होता है, वह उम्र ढलने के साथ कम होता जाता है। सामान्य भाषा में भी बचपन खेलने का, युवावस्था काम का और वृद्धावस्था आराम का वक्त माना जाता है। इसलिए जरूरी है कि नींद में आने वाले सपनों को देखने के बजाय खुली आंखों से सपने संजोकर उनको पूरा करने के लिए बेहद कोशिश करें। जवानी में बाहुबल से समेटे सुख बुढ़ापे में आत्मबल देते हैं।
हर धर्म में कर्म का ही महत्व बताया गया है। हिन्दू धर्म ग्र्रंथों में बताए चार पुरूषार्थों में कर्म को ही श्रेष्ठ बताया गया है। श्रीकृष्ण का कर्मयोग भी चलते रहने की ही सीख देता है। युवाओं की पंसद श्रीकृष्ण की रासलीला भी उत्साह, आनंद और सक्रियता का संदेश है। श्री हनुमान चरित्र भी जिम्मेदारी उठाने और पूरा करने की प्रेरणा है।
इन सब धर्म रहस्यों का सार यही है कि शयन, निष्क्रियता और आलस्य को छोड़कर निरंतर चलने की मजबूत इच्छा शक्ति रखें। दूसरे अर्थों में जागते रहने यानि सजग रहने पर ही आप तमाम उतार-चढ़ाव आने के बाद भी अपने लक्ष्य तक पहुंचने में कामयाब होंगे।
सही समय पर लें सही निर्णय
मनुष्य के जीवन में कई ऐसे अवसर आते हैं जब उसे तुरंत निर्णय लेने पड़ते हैं। कई बार ऐसा भी होता है कि वह लालच में आकर गलत निर्णय ले लेता है जो परेशानी का कारण बन जाते हैं। इसलिए जब भी विपरीत समय में कोई निर्णय लेने का अवसर आए तो उसके उसके दूरगामी परिणाम के बारे में भी अवश्य सोचें।
किसी गांव में एक लालची व्यापारी रहता था। वह अपने गांव से दूर देश समुद्र की यात्रा करते हुए व्यापार करने जाता था। एक दिन उसके दोस्तों ने उससे पूछा कि क्या तुम्हें तैरना आता है? तो व्यापारी ने कहा- नहीं। दोस्तों ने कहा तुम समुद्र में यात्रा करते हो तो तैरना तो आना ही चाहिए। व्यापारी ने भी सोचा कि सभी ठीक कहते हैं। उसने सोचा क्यों न तैरना सीख लिया जाए लेकिन काम-काज में व्यस्तता के कारण उसके पास समय नहीं रहता था।
इस कारण जब वह तैरना नहीं सीख सका तो उसने अपने दोस्तों से पूछा कि अब क्या करुं? उसके दोस्तों ने उसे सुझाव दिया कि जब वह कश्ती में जाए तो अपने साथ खाली पीपे (डिब्बे) रख ले और अगर कभी तुफान में कश्ती डुबने लगे तो खाली पीपे शरीर पर बांधकर समुद्र में कूद जाए। ऐसा करने से उसकी जान बच जाएगी। व्यापारी ने ऐसा ही किया। अपनी कश्ती में खाली पीपे रख लिए। संयोग से उसी यात्रा के दौरान समुद्र में तुफान आ गया। जिन लोगों को तैरना आता था वे तो कूद गए।
कुछ ने उससे भी कहा कि खाली पीपे बांधकर कूद जाओ पर व्यापारी सोच रहा था कि अगर में खाली पीपे बांधकर समुद्र में कूद गया तो ये जो दूसरे पीपे जिनमें धन रखा है ये भी सब डूब जाएंगे। धन के लालच में व्यापारी खाली पीपे के स्थान पर धन से भरे पीपे शरीर पर बांधकर समुद्र में कूद गया। इस तरह धन के लालच में उसने अपने प्राण गवां दिए।
इन नौ शक्तियों के देवता हैं हनुमान
श्री हनुमान बल, बुद्धि और ज्ञान देने वाले देवता माने जाते हैं। श्री हनुमान की भक्ति और दर्शन कर्तव्य, समर्पण, ईश्वरीय प्रेम, स्नेह, परोपकार, वफादारी और पुरुषार्थ के लिए प्रेरित करते हैं। उनके विराट और पावन चरित्र के कारण ही उन्हें शास्त्रों में सकलगुणनिधान शब्द से पुकारा गया है।
गोस्वामी तुलसीदास ने अपनी रचना हनुमान चालीसा में श्री हनुमान को माता सीता की कृपा से आठ सिद्धियों और नवनिधि प्राप्त करने और उसको भक्तों को देने का बल प्राप्त होने के बारे में लिखा है। यही कारण है कि हनुमान की भक्ति भक्त की सभी बुराईयों और दोषों को दूर कर गुण और बल देने वाली मानी गई है।
जहां गुण और गुणी व्यक्ति होते हैं, वहां संकट भी दूर रहते हैं। ऐसा व्यक्ति व्यावहारिक रूप से हनुमान की तरह ही संकटमोचक माना जाता है। इसलिए जानते हैं कि आखिर माता सीता की कृपा से श्री हनुमान ने किन नौ निधि को पाया, जो हनुमान उपासना से भक्तों को भी मिलती है। यह निधियाँ वास्तव में शक्तियों का ही रूप है।
पद्म निधि- इससे परिवार में सुख-समृद्धि एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को प्राप्त होती रहती है।
महापद्म निधि - इसके असर से खुशहाली सात पीढियो तक बनी रहती है।
नील निधि - यह सफल कारोबार बनाती है।
मुकुंद निधि - यह भौतिक सुखों को देती है।
नन्द निधि- इसके प्रभाव से लम्बी उम्र और कामयाबी मिलती है।
मकर निधि -यह निधि शस्त्र और युद्धकला में दक्ष बनाती है।
कच्छप निधि-इस निधि के प्रभाव से दौलत और संपत्ति बनी रहती है।
शंख निधि - इससे व्यक्ति अपार धनलाभ पाता है।
खर्व निधि -इससे व्यक्ति को विरोधियों और कठिन समय पर विजय पाने की ताकत और दक्षता मिलती है।
कैसे पाएं इन्द्र सा वैभव और आनंद?
सनातन धर्म के मुताबिक इन्द्र वैदिक कालीन देवता है। शास्त्रों में भी इन्द्र को देवताओं का राजा कहा गया है। इन्द्र समस्त सुख और ऐश्वर्य का स्वामी हैं। दूसरी तरफ कुछ पुराण कथाओं में प्रसंग आते हैं कि इन्द्र देव सिंहासन की रक्षा के लिए अप्सराओं को भेजते हैं या वह स्वर्ग में अप्सराओं के नृत्य के आनंद में डूबे होते हैं। इससे इन्द्रदेव की छबि मात्र ऐश्वर्य को भोगने वाले देवता की भी मानी गई। किंतु असल में इन्द्रदेव के इन पुराण प्रसंगों में मानव जीवन के लिए कुछ प्रतीकात्मक संदेश है। इन प्रतीकों को समझकर जानते हैं आखिर क्या रहस्य है इन्द्रदेव और उनके ऐश्वर्य व आनंद में डूबे चरित्र का -
असल में इन्द्र इन्द्रियों का प्रतीक है। इन्द्रियां यानि सुनने, देखने, रस लेने, छूने, सूंघने और काम करने वाले अंग। इन इन्द्रियों का संबंध और नियंत्रण मन से होता है। इसलिए जब मन में विकार आते हैं, तो इन्द्रियों में भी दोष पैदा हो जाते हैं। यानि व्यक्ति का स्वभाव और वृत्तियां बुरी हो जाती है।
पुराण कथा में आई इन्द्र-वृत्तासुर-दधीची प्रसंग में इन्द्र इन्द्रियों का, वृत्तासुर बुरी वृत्तियों और महर्षि दधीची ज्ञानी या सिद्धआत्मा का ही प्रतीक है। सार यह है कि जब अज्ञानतावश मन की चंचलता या भटकाव से इन्द्रियों में दोष पैदा होते है। तब विकृति रूप वृत्तासुर को मारने के लिए महर्षि दधीची यानि ज्ञानी और उनकी अस्थियों का अस्त्र यानि दोष को सुधारने के ज्ञान की जरूरत होती है।
सार यह है कि इन्द्रियों के संयम से ही लंबी और सुखी जिंदगी संभव है। यह तभी संभव है जब व्यक्ति अपने मन को व्यर्थ के विषय, लालसा, शौक और बातों से दूर रखने का अभ्यास करें। धर्म की भाषा में यही इन्द्रिय निग्रह या संयम कहलाता है। ऐसा होने पर ही इन्द्र की तरह सुख और वैभव के वास्तविक आनंद को अनुभव कर पाएंगे।
कौन थे श्रीकृष्ण और अर्जुन के पूर्वज?
श्रीकृष्ण और अर्जुन ऐसे पौराणिक पात्र हैं, जिनके कारण कर्म की अहमियत को दुनिया ने जाना। श्रीकृष्ण द्वारा युद्धभूमि में निष्क्रिय हुए अर्जुन को कर्म के लिए प्रेरित करने के लिए दिए गए उपदेश भगवद्गीता के पावन ग्रंथ के रूप में जगत प्रसिद्ध है।
भगवान् कृष्ण और अर्जुन दोनों ने कर्म और आचरण से न केवल अपने वंश का गौरव बढ़ाया बल्कि वह ऊंचाई दी, जिसे युग-युगान्तर तक भुलाया नहीं जा सकता। इसलिए यहांजानते हैं श्रीकृष्ण और अर्जुन की वंशावली से जुड़ी रोचक बातें -
भगवान श्री कृष्ण और अर्जुन दोनों चन्द्रवंशी थे। समय के बदलाव के साथ भगवान श्री कृष्ण यदुवंशी बने। वहीं अर्जुन पुरुवंशी हुए। बाद में कौरव और पांडव दोनों भरतवंशी या कुरुवंशी कहलाए।
ब्रह्मा के मानस पुत्र ऋषि अत्री और सती अनसूया से चंद्र जन्मे। इसके बाद देवगुरु बृहस्पति की पत्नी तारा और चन्द्रमा के मेल से बुध पैदा हुए।
बुध और इला से ही पुत्र पुरुरवा का जन्म हुआ। इसके बाद पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी के विवाह से छ: पुत्रों का जन्म हुआ। जिनमें आयु नाम के पुत्र से नहुष और नहुष के बेटे हुए ययाति। ययाति के देवयानी और शर्मिष्ट से मिलन से क्रमश: यदु और पुरु जन्में। इसी यदु और पुरुवंश में श्री कृष्ण हुए और अर्जुन पैदा हुए। जानते है संक्षिप्त में यदुवंश और पुरु वंश की पीढ़ी दर पीढ़ी जानकारी -
यदुवंश -यदु - विदर्भ - सात्वत्त - वृशनी और अन्धक वृशनी का पर पोता वृशनी - चित्ररथ - वासुदेव- भगवान् श्री कृष्ण - प्रद्युम्न - अनिरुद्ध - वज्रनाभ
पुरु वंश- पुरु- रैभ्य- दुष्यंत- राजा भरत- दत्तक पुत्र भरद्वाज- ब्रह्तक्ष्त्र- हस्ती-अज्मीध- कुरु - शांतनु - भीष्म पितामह चित्रांगद और विचित्रवीर्य -पांडू -अर्जुन -अभिमन्यु - परीक्षित - जन्मेजय- जन्मेजय के बाद 26वी पीढ़ी में राजा क्षेमक अन्तिम राजा माने गए हैं।
नवधा भक्ति : भगवान को पाने के नौ आसान रास्ते
आज की तेज रफ्तार जिंदगी में हर किसी के पास घंटों मंदिर में बैठकर पूजन, हवन या यज्ञ करने का समय नहीं है। न ही कोई रोज तीर्थ दर्शन कर सकता है। फिर भगवान की भक्ति कैसे की जाए? क्या आपको पता है कि भक्ति के नौ तरीके होते हैं, आध्यात्म की भाषा में इसे नवधा भक्ति कहते हैं। इसमें भगवान को याद करने या उपासना करने के नौ तरीके दिए गए हैं, जिससे आप बिना मंदिर जाए, बिना पूजा-पाठ और बिना तीर्थ दर्शन के भी कर सकते हैं।
ये नौ तरीके जिन्हें नवधा भक्ति कहते हैं, इतने आसान है कि इन्हें कहीं भी, कभी भी किया जा सकता है। रामचरितमानस में भी भगवान राम ने भक्ति के ये नौ प्रकार बताए हैं। इनमें से किसी एक को ही अपनाकर हम भगवान के निकट पहुंच सकते हैं। ये नौ ही प्रयास ऐसे हैं जिनमें हमें कोई अतिरिक्त प्रयास नहीं करना है। बस केवल अपने व्यवहार में उतारना भर है, इसके बाद भगवान स्वयं ही मिल जाएंगे। जानते हैं भगवान की नौ तरह से भक्ति के नाम और व्यावहारिक अर्थ -
1. संतो का सत्संग - संत यानि सज्जन या सद्गुणी की संगति।
2. ईश्वर के कथा-प्रसंग में प्रेम - देवताओं के चरित्र और आदर्शों का स्मरण और जीवन में उतारना।
3. अहं का त्याग - अभिमान, दंभ न रखना। क्योंकि ऐसा भाव भगवान के स्मरण से दूर ले जाता है। इसलिए गुरु यानि बड़ों या सिखाने वाले व्यक्ति को सम्मान दें।
4. कपट रहित होना - दूसरों से छल न करने या धोखा न देने का भाव।
5. ईश्वर के मंत्र जप - भगवान में गहरी आस्था, जो इरादों को मजबूत बनाए रखती है।
6. इन्द्रियों का निग्रह - स्वभाव, चरित्र और कर्म को साफ रखना।
7. प्रकृति की हर रचना में ईश्वर देखना - दूसरों के प्रति संवेदना और भावना रखना। भेदभाव, ऊंच नीच से परे रहना।
8. संतोष रखना और दोष दर्शन से बचना - जो कुछ आपके पास है उसका सुख उठाएं। अपने अभाव या सुख की लालसा में दूसरों के दोष या बुराई न खोजें। इससे आपवैचारिक दोष आने से सुखी होकर भी दु:खी होते है। जबकि संतोष और सद्भाव से ईश्वर और धर्म में मन लगता है।
9. ईश्वर में विश्वास - भगवान में अटूट विश्वास रख दु:ख हो या सुख हर स्थिति में समान रहना। स्वभाव को सरल रखना यानि किसी के लिए बुरी भावना न रखना। धार्मिक दृष्टि से स्वभाव, विचार और व्यवहार में इस तरह के गुणों को लाने से न केवल ईश्वर की कृपा मिलती है बल्कि सांसारिक सुख-सुविधाओं का भी वास्तविक आनंद मिलता है।
नास्तिक भी होते है धार्मिक!
आज के युग में धर्म या धार्मिक नियम संयम की बात चलते ही कतिपय लोग धर्म, ईश्वर या किसी भी देवीय शक्ति को नकार कर स्वयं को नास्तिक बताकर अलग पहचान बनाने की कोशिश करते हैं। जबकि सच यह है कि कोई भी इंसान धर्म से परे जिंदगी नहीं बीता सकता।
धर्म का मतलब मात्र धार्मिक क्रियाकलापों नहीं है। असल में धर्म का पालन तो सत्य, अहिंसा, सेवा, भलाई, संयम, क्षमा जैसी भावनाओं को व्यावहारिक जिंदगी में उतारने पर ही है। यह धर्म के अंग भी माने जाते हैं। धर्म की रस्में, परंपराएं या उपदेश जिंदगी में दुविधा पैदा नहीं करते, बल्कि उसे सहज ही बनाते है।
इन सब भावों और संवेदनाओं का पालन धार्मिक रीति-रिवाजों से ही नहीं होता। इनका संबंध तो हर इंसान के व्यवहार और विचार से जुड़ा है। जिंदगी के हर पल हर व्यक्ति धर्म का पालन किसी न किसी रूप में कर रहा होता है।
सत्य, संयम, परोपकार से दूर झूठ, हिंसा, छल करने पर जिंदगी कलहपूर्ण और अशांत हो जाती है। इस तरह के छोटी राह से सुख खोजने के तरीकों के बजाय जिंदगी का लंबा सफर तय करने के लिए जरूरी है धैर्य और संतोष के साथ धर्म का पालन करें। तभी आप जिंदगी में सच्चा सुकून और आनंद पा सकेंगे।
मंत्र एक, जो साधे देव अनेक
मंत्र का शाब्दिक मतलब होता है मनन करना। अगर फल की दृष्टि से मंत्र का अर्थ होता है मन की पीड़ा यानि त्राण का अंत करने वाला। मंत्र शक्ति से जब दु:खों से छुटकारे के धार्मिक उपाय पर विचार किया जाता है, तब एक ही मंत्र सर्वश्रेष्ठ माना गया है। वह है - महामृत्युंजय मंत्र।
लोकजीवन में शिव के महामृत्युंजय रूप की आराधना से रोग और दु:खों के शमन का मंत्र है। किंतु शास्त्रों में इस मंत्र से कामनापूर्ति का भी महत्व बताया गया है। साथ ही यह शिव ही नहीं बल्कि अनेक देवताओं की उपासना का भी अद्भुत मंत्र है।
शास्त्रों के मुताबिक यह मंत्र 32 अक्षरों से बना है। किंतु ऊँ के जुडऩे पर मंत्र 33 अक्षरों का हो जाता है। इसलिए इसे तैंतीस अक्षरी मंत्र भी कहा जाता है। चूंकि मंत्रों में आने वाले अक्षर, शब्द, स्वर, व्यंजन, ध्वनि और बिंदु देवीय शक्तियों के ही रूप और बल के संकेत होते हैं। इसी तरह महामृत्युंजय मंत्र के 33 अक्षरों में 33 देवीय शक्तियां मानी गई है। जिससे यह मंत्र बहुत प्रभावशाली और शक्तिशाली माना जाता है।
जानते हैं इन 33 अक्षरों में हर शब्द या अक्षर में छुपे देव शक्ति को -
त्र ध्रुव वसु
यम अध्वर वसु
ब सोम वसु
कम् वरुण
य वायु
ज अग्नि
म शक्ति
हे प्रभास
सु वीरभद्र
ग शम्भु
न्धिम गिरीश
पु अजैक
ष्टि अहिर्बुध्न्य
व पिनाक
र्ध भवानी पति
नम् कापाली
उ दिकपति
र्वा स्थाणु
रु भर्ग
क धाता
मि अर्यमा
व मित्रादित्य
ब वरुणादित्य
न्ध अंशु
नात भगादित्य
मृ विवस्वान
त्यो इंद्रादित्य
मु पूषादिव्य
क्षी पर्जन्यादिव्य
य त्वष्टा
मा विष्णुऽदिव्य
मृ प्रजापतिता
त वषट
इस तरह मंत्र में 8 वसु, 11 रुद्र, 12 आदित्य 1-1 प्रजापति और वषट है।
बातों का अर्थ भी समझें...
संसार में कई महापुरुष हुए जिन्होंने दुनिया में सत्य का प्रकाश फैलाया। महापुरुषों की हर बात के पीछे एक उद्देश्य होता है। हमें उस बात पर न टिक कर उसके अर्थ को समझना चाहिए तथा उसका अनुसरण करना चाहिए।गुरुनानकजी एक बार अपने शिष्यों के साथ कहीं जा रहे थे। रास्ते में एक गांव आया। किसी ने गुरुनानकदेव से कहा कि यह गांव बदमाशों का गांव है। गुरुदेव जब वहां रुके तो वहां के लोग उन्हें प्रणाम करने आए।
गुरुनानकजी ने उन्हें आशीर्वाद दिया कि यही बस जाओ। सबको अच्छा लगा। फिर गुरुनानकजी आगे चले तो एक दूसरा गांव आया तो किसी ने बताया कि यहां के लोग बड़े सज्जन व विद्वान है। वहां के लोग भी गुरुनानक के दर्शन करने आए तो गुरुनानक ने उन्हें आशीर्वाद दिया कि उजड़ जाओ। सबको बड़ा आश्चर्य हुआ कि ये कैसा आशीर्वाद दिया गुरुजी ने। थोड़ी देर बाद उनके एक शिष्य ने गुरुनानकदेवजी से पूछा कि आपने बुरे लोगों को तो कहा कि यही बस जाओ और भले लोगों को उजडऩे का आशीर्वाद क्यों दिया? तो गुरुनानकदेव बोले- बुरे लोग जहां भी जाएँगे बुराई ही फैलाएंगे और भले लोग जहां भी जाएंगे सत्य का प्रकाश ही फैलाएंगे इसलिए मैंने उन्हें यह आशीर्वाद दिया।
जब कोई अपना भटक जाए तो.
हमारे जीवन में कई बार ऐसे अवसर आते हैं जब हमारा कोई परिचित या परिजन गलत रास्ते पर चल पड़ता है और हम भी यह सोचकर चुप रह जाते हैं कि हमें क्या करना? उस स्थिति में हम भी उसके भटकने के उतने ही बड़े दोषी होते हैं जितना वह स्वयं। क्योंकि हमारा भी यह कर्तव्य होता है कि हम उसे सही रास्ता दिखाएं।
एक पिता के दो बेटे थे। बड़ा बेटा समझदार था जबकि छोटा थोड़ा चंचल था। पिता के पास बहुत संपत्ति थी। जब दोनों बेटे बड़े हुए तो उनके स्वभाव को देखते हुए उनके पिता ने सोचा कि अब इन्में संपत्ति का बंटवारा कर देना चाहिए। छोटे बेटे के हिस्से में जो संपत्ति आई उसे वह ले जाकर शहर में ठिकाने लगा आया और एक दिन कंगाल हो गया। जो बड़ा बेटा था वह गांव में रहा और मेहनत कर अपनी सम्पत्ति को दोगुना कर लिया। एक दिन जब पिता को मालूम हुआ कि छोटा बेटा कंगाल हो गया है तो उसे वापस बुलाया कि अपने पास बहुत संपत्ति है तू वापस आ जा।
बेटा जब वापस आने लगा तो पिता ने उसके स्वागत की बड़ी तैयारी की। जब यह बात बड़े बेटे को पता चली तो उसने कहा पिताजी यह आप क्या कर रहे हैं? मैंने जीवनभर आपकी सेवा की और उसने सारा पैसा खत्म कर दिया। फिर भी आप उसे इतने सम्मान के साथ वापस बुला रहे हैं। तब पिता ने अपने बड़े बेटे से कहा- बेटा जब तू भेड़ चराने जाता है और जब कोई एक भेड़ रास्ता भटक जाती है तो तू उसे ढूंढता है और कंधे पर बैठाकर लाता है। दूसरी भेड़ों को कंधे पर नहीं उठाता क्योंकि वो तो सही रास्ते पर चल रही हैं। बस यही बात है कि वो भटक गया था आज लौट कर आ रहा है इसलिए मैं उसका स्वागत कर रहा हूं।
क्यों असरदार होते हैं बीज मंत्र?
व्यावहारिक जीवन में किसी समस्या के समाधान के लिए जब धार्मिक उपायों को अपनाया जाता है, तो उनमें मंत्र शक्ति को बहुत प्रभावी माना जाता है। मंत्र जप में भी बीज मंत्रों द्वारा देव उपासना वांछित सिद्धि या फल प्राप्त करने के लिए बहुत असरदार मानी जाती है। खासतौर पर तंत्र विज्ञान में बीज मंत्रों की बहुत अहमियत है।
यहां जानते हैं क्या होते हैं बीज मंत्र और उनके प्रभावी होने के कारण। असल में बीज मंत्र देव शक्तियों के प्रतीक है। बीज मंत्र के अक्षर उनमें छुपी शक्तियों और देवी-देवताओं के दिव्य रूप के संकेत होते हैं। जिनका गहरा अर्थ होता है। अलग-अलग बीज मंत्र सामूहिक रूप से देवीय ऊर्जा पैदा करते हैं। यही कारण है कि जब किसी देवी-देवताओं के मंत्र विशेष के साथ बीज मंत्र बोले जाते हैं तो उस मंत्र का प्रभाव बढ़ जाता है।
धार्मिक दृष्टि से बीज मंत्रों की ताकत इतनी अधिक होती है कि वह देव शक्तियों को भी वश में कर लेती है और मंत्र जप, यज्ञ के माध्यम से दिखाई देने वाले सकारात्मक परिणामा ईश्वरीय कृपा की अनुभूति करा देते हैं।
यही कारण है कि हिन्दू धर्म में गायत्री एवं महामृत्युंजय मंत्र का बीज मंत्रों के साथ जप का बहुत महत्व बताया गया है।
सरल भाषा मे जाने तो जैसे हम किसी जगह, व्यक्ति या पदार्थ की पहचान के लिए चिन्हों का उपयोग करते हैं। वैसे ही विशेष देवी-देवता के आवाहन के बीज अक्षरों या मंत्रों का उच्चारण बताया गया है। यह बीज कहलाते हैं। धार्मिक कर्मों में उपयोग किए जाने वाले कुछ विशेष बीज मंत्र इस तरह है -
क्लीं- कृष्ण का बीज।
श्रीं- लक्ष्मी का बीज
ह्रीं- माया का बीज
क्रीं- काली का बीज
ऐं- सरस्वती का बीज
ऊँ - परब्रह्म परमेश्वर की शक्ति का प्रतीक है।
अगर शांति चाहिए तो सुंदरकांड पढ़िए
सुंदरकांड श्रीरामचरितमानस का चौथा अध्याय है। यह श्रीरामचरितमानस का सबसे अधिक पढ़ा जाने वाला भाग हैं क्योंकि इसमें हनुमानजी के बल, बुद्धि, पराक्रम व शौर्य का वर्णन किया गया है। सुंदरकांड के पढऩे व सुनने से मन में एक अद्भुत ऊर्जा का संचार होता है। सुंदरकांड के हर दोहा, चौपाई व शब्द में गहन अध्यात्म छुपा है, जिससे मनुष्य जीवन की हर समस्या का सामना कर सकता है।पराक्रम, शक्ति व शौर्य के इस अध्याय का प्रथम श्लोक है- शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदं
सुंदरकांड का आरंभ जिस श्लोक से हुआ है उसका पहला शब्द ही शांति है अर्थात सुंदरकांड का आरंभ शांति के आव्हान से हुआ है। सुंदरकांड के प्रथम श्लोक कायह प्रथम शब्द यहां संकेत दे रहा है कि वर्तमान युग सुख अर्जित करने का युग है। सुख मिलना बहुत ही आसान है। पहले के समय में जो आदमी के लक्ष्य हुआ करते थे वे अब आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं जैसे- घर, बंगला, गाड़ी आदि। लेकिन मन की शांति नहीं मिल पाती। शांति प्राप्त करने का सर्वश्रेष्ठ उपाय भगवत स्मरण ही है। जब आपके मन में भगवान का वास होगा उसी समय शांति भी आपके जीवन में प्रवेश करेगी। इसके लिए आवश्यक है कि स्वयं को प्रभु को समर्पित कर दें और जब सुख व शांति दोनों जीवन में हो तो ही जीवन सुंदर होता है। यही सुंदरकांड का मुख्य उद्देश्य है।
हनुमान की पूजा से मिलती हैं ये आठ सिद्धियां
श्री हनुमान शिव के अवतार माने गए हैं। शास्त्रों के मुताबिक श्री हनुमान सर्वगुण, सिद्धि और बल के अधिपति देवता हैं। यही कारण है कि वह संकटमोचक कहलाते हैं। हर हिन्दू धर्मावलंबी विपत्तियों से रक्षा के लिए श्री हनुमान का स्मरण और उपासना जरूर करता है।
श्री हनुमान की भक्ति और प्रसन्नता के लिए सबसे लोकप्रिय स्तुति गोस्वामी तुलसीदास द्वारा बनाई गई श्री हनुमान चालीसा है। इसी चालीसा में एक चौपाई आती है। जिसमें श्री हनुमान को आठ सिद्धियों को स्वामी बताया गया है।
यह चौपाई है -
अष्टसिद्धि नव निधि के दाता।
अस बर दीन्ह जानकी माता।।
अक्सर हर हनुमान भक्त चालीसा पाठ के समय इस चौपाई का भी आस्था से पाठ करता है। लेकिन इसमें बताई गई अष्टसिद्धियों के बारे में बहुत कम ही श्रद्धालु जानकारी रखते हैं। इस चौपाई के अनुसार यह अष्टसिद्धि माता सीता के आशीर्वाद से श्री हनुमान को प्राप्त हुई और साथ ही उनको इन सिद्धियों को अपने भक्तों को देने का भी बल प्राप्त हुआ। जानते हैं इन आठ सिद्धियों के नाम और सरल अर्थ -
अणिमा - इससे बहुत ही छोटा रूप बनाया जा सकता है।
लघिमा - इस सिद्धि से छोटा, बड़ा और हल्का बना जा सकता है।
महिमा - कठिन और दुष्कर कार्यों को आसानी से पूरा करने की सिद्धि।
गरिमा - अहंकारमुक्त होने का बल।
प्राप्ति - इच्छाशक्ति से मनोवांछित फल प्राप्त करने की सिद्धि।
प्राकाम्य - कामनाओं की पूर्ति और लक्ष्य पाने की दक्षता।
वशित्व - वश में करने की सिद्धि।
ईशित्व - ईष्टसिद्धि और ऐश्वर्य सिद्धि।
इनसे मौत ने भी खाई मात
सांसारिक जीवन का अटल सत्य है कि जिसने जन्म लिया उसकी मृत्यु निश्चित है। इसी कारण धार्मिक दृष्टि से इस संसार को मृत्युलोक भी कहा गया है। किंतु इस सच के विपरीत इसी संसार में ऐसे भी देहधारी है, जो युगों के बदलाव के बाद भी हजारों वर्षों से जीवित हैं। यह बात अविश्वसनीय है और अचंभित करने वाली भी। लेकिन हिन्दू धर्मशास्त्र ऐसे ही अमर आत्माओं के अस्तित्व की पुष्टि करते हैं।
धर्म की भाषा में इन महान और अमर आत्माओं को चिरंजीवी बताया गया है। इनकी संख्या आठ होने से यह अष्ट चिरंजीवी भी कहलाते हैं। पौराणिक और शास्त्रोक्त प्रसंग सिद्ध करते हैं कि इन अष्ट चिरंजीवियों ने अपने अद्भुत तपोबल, देव भक्ति और पुरूषार्थ से अमरत्व को प्राप्त किया। इनके आगे मौत भी नतमस्तक हो गई।
जानते हैं ऐसी ही आठ कालविजयी आत्माओं के बारे में -
ऋषि मार्कण्डेय : भगवान शिव के परम भक्त। शिव उपासना और महामृत्युंजय सिद्धि से ऋषि मार्कण्डेय अल्पायु को टाल चिरंजीवी बन गए। यह युग-युगान्तर में भी अमर माने गए हैं।
वेद-व्यास : सनातन धर्म के प्राचीन चारों वेदों ऋग्वेद, अथर्ववेद, सामवेद और यजुर्वेद का सम्पादन एवं पुराणों के रचनाकार ऋषि वेदव्यास ही हैं।
परशुराम : जगत पालक भगवान विष्णु के दशावतारों में एक। जिनके द्वारा पृथ्वी से अठारह बार निरकुंश क्षत्रियों का अंत किया गया।
राजा बलि : भक्त प्रहलाद के वंशज। भगवान वामन को अपना सब कुछ दान कर महादानी के रूप में प्रसिद्ध हुए। इनकी दानशीलता से प्रसन्न होकर स्वयं भगवान विष्णु ने इनका द्वारपाल बनना स्वीकार किया।
श्री हनुमान : श्री हनुमान भगवान शिव के 11 वें अवतार माने गए हैं। बल और पुरूषार्थ देने वाला देवता किंतु भगवान श्री राम के परम सेवक और भक्त के रूप में जगत प्रसिद्ध और पूजनीय हुए।
विभीषण : लंकापति रावण के छोटे भाई जिसने रावण की अधर्मी नीतियों के विरोध में युद्ध में धर्म और सत्य के पक्षधर श्री राम का साथ दिया।
कृपाचार्य : परम तपस्वी ऋषि जो कौरवों और पाण्डवों के गुरु थे।
अश्वत्थामा : कौरवों और पाण्डवों के गुरु द्रोणाचार्य के सुपुत्र थे। जो परम तेजस्वी थे, जिनके मस्तक पर मणी जड़ी हुई थी। शास्त्रों में अश्वत्थामा को अमर बताया गया है।
अनूठे हैं शिव के 108 रूप
हिन्दू धर्म में भगवान शिव को मृत्युलोक देवता माना गया है। शिव को अनादि, अनंत, अजन्मा माना गया है यानि उनका कोई आरंभ है न अंत है। न उनका जन्म हुआ है, न वह मृत्यु को प्राप्त होते हैं। इस तरह भगवान शिव अवतार न होकर साक्षात ईश्वर हैं।
शिव की साकार यानि मूर्तिरुप और निराकार यानि अमूर्त रुप में आराधना की जाती है। शास्त्रों में भगवान शिव का चरित्र कल्याणकारी माना गया है। उनके दिव्य चरित्र और गुणों के कारण भगवान शिव अनेक रूप में पूजित हैं।
शिव के अनेक रूपों से जुड़े धर्मशास्त्र में अनेक नाम आते हैं। धार्मिक आस्था से इन शिव नामों का ध्यान मात्र ही शुभ फल देता है। शिव के इन सभी रूप और सभी नामों का स्मरण मात्र ही हर भक्त के सभी दु:ख और कष्टों को दूर कर हर इच्छा और सुख की पूर्ति करने वाला माना गया है।
यहां जानते हैं शिव के इन 108 रूपों और नाम का अर्थ -
शिव - कल्याण स्वरूप
महेश्वर - माया के अधीश्वर
शम्भू - आनंद स्वरूप वाले
पिनाकी - पिनाक धनुष धारण करने वाले
शशिशेखर - सिर पर चंद्रमा धारण करने वाले
वामदेव - अत्यंत सुंदर स्वरूप वाले
विरूपाक्ष - भौंडी आँख वाले
कपर्दी - जटाजूट धारण करने वाले
नीललोहित - नीले और लाल रंग वाले
शंकर - सबका कल्याण करने वाले
शूलपाणी - हाथ में त्रिशूल धारण करने वाले
खटवांगी - खटिया का एक पाया रखने वाले
विष्णुवल्लभ - भगवान विष्णु के अतिप्रेमी
शिपिविष्ट - सितुहा में प्रवेश करने वाले
अंबिकानाथ - भगवति के पति
श्रीकण्ठ - सुंदर कण्ठ वाले
भक्तवत्सल - भक्तों को अत्यंत स्नेह करने वाले
भव - संसार के रूप में प्रकट होने वाले
शर्व - कष्टों को नष्ट करने वाले
त्रिलोकेश - तीनों लोकों के स्वामी
शितिकण्ठ - सफेद कण्ठ वाले
शिवाप्रिय - पार्वती के प्रिय
उग्र - अत्यंत उग्र रूप वाले
कपाली - कपाल धारण करने वाले
कामारी - कामदेव के शत्रुअंधकार
सुरसूदन - अंधक दैत्य को मारने वाले
गंगाधर - गंगा जी को धारण करने वाले
ललाटाक्ष - ललाट में आँख वाले
कालकाल - काल के भी काल
कृपानिधि - करूणा की खान
भीम - भयंकर रूप वाले
परशुहस्त - हाथ में फरसा धारण करने वाले
मृगपाणी - हाथ में हिरण धारण करने वाले
जटाधर - जटा रखने वाले
कैलाशवासी - कैलाश के निवासी
कवची - कवच धारण करने वाले
कठोर - अत्यन्त मजबूत देह वाले
त्रिपुरांतक - त्रिपुरासुर को मारने वाले
वृषांक - बैल के चिह्न वाली झंडा वाले
वृषभारूढ़ - बैल की सवारी वाले
भस्मोद्धूलितविग्रह - सारे शरीर में भस्म लगाने वाले
सामप्रिय - सामगान से प्रेम करने वाले
स्वरमयी - सातों स्वरों में निवास करने वाले
त्रयीमूर्ति - वेदरूपी विग्रह करने वाले
अनीश्वर - जिसका और कोई मालिक नहीं है
सर्वज्ञ - सब कुछ जानने वाले
परमात्मा - सबका अपना आपा
सोमसूर्याग्निलोचन - चंद्र, सूर्य और अग्निरूपी आँख वाले
हवि - आहूति रूपी द्रव्य वाले
यज्ञमय - यज्ञस्वरूप वाले
सोम - उमा के सहित रूप वाले
पंचवक्त्र - पांच मुख वाले
सदाशिव - नित्य कल्याण रूप वाल
विश्वेश्वर - सारे विश्व के ईश्वर
वीरभद्र - बहादुर होते हुए भी शांत रूप वाले
गणनाथ - गणों के स्वामी
प्रजापति - प्रजाओं का पालन करने वाले
हिरण्यरेता - स्वर्ण तेज वाले
दुर्धुर्ष - किसी से नहीं दबने वाले
गिरीश - पहाड़ों के मालिक
गिरिश - कैलाश पर्वत पर सोने वाले
अनघ - पापरहित
भुजंगभूषण - साँप के आभूषण वाले
भर्ग - पापों को भूंज देने वाले
गिरिधन्वा - मेरू पर्वत को धनुष बनाने वाले
गिरिप्रिय - पर्वत प्रेमी
कृत्तिवासा - गजचर्म पहनने वाले
पुराराति - पुरों का नाश करने वाले
भगवान् - सर्वसमर्थ षड्ऐश्वर्य संपन्न
प्रमथाधिप - प्रमथगणों के अधिपति
मृत्युंजय - मृत्यु को जीतने वाले
सूक्ष्मतनु - सूक्ष्म शरीर वाले
जगद्व्यापी - जगत् में व्याप्त होकर रहने वाले
जगद्गुरू - जगत् के गुरू
व्योमकेश - आकाश रूपी बाल वाले
महासेनजनक - कार्तिकेय के पिता
चारुविक्रम - सुन्दर पराक्रम वाले
रूद्र - भक्तों के दुख देखकर रोने वाले
भूतपति - भूतप्रेत या पंचभूतों के स्वामी
स्थाणु - स्पंदन रहित कूटस्थ रूप वाले
अहिर्बुध्न्य - कुण्डलिनी को धारण करने वाले
दिगम्बर - नग्न, आकाशरूपी वस्त्र वाले
अष्टमूर्ति - आठ रूप वाले
अनेकात्मा - अनेक रूप धारण करने वाले
सात्त्विक - सत्व गुण वाले
शुद्धविग्रह - शुद्धमूर्ति वाले
शाश्वत - नित्य रहने वाले
खण्डपरशु - टूटा हुआ फरसा धारण करने वाले
अज - जन्म रहित
पाशविमोचन - बंधन से छुड़ाने वाले
मृड - सुखस्वरूप वाले
पशुपति - पशुओं के मालिक
देव - स्वयं प्रकाश रूप
महादेव - देवों के भी देव
अव्यय - खर्च होने पर भी न घटने वाले
हरि - विष्णुस्वरूप
पूषदन्तभित् - पूषा के दांत उखाड़ने वाले
अव्यग्र - कभी भी व्यथित न होने वाले
दक्षाध्वरहर - दक्ष के यज्ञ को नष्ट करने वाल
हर - पापों व तापों को हरने वाले
भगनेत्रभिद् - भग देवता की आंख फोड़ने वाले
अव्यक्त - इंद्रियों के सामने प्रकट न होने वाले
सहस्राक्ष - अनंत आँख वाले
सहस्रपाद - अनंत पैर वाले
अपवर्गप्रद - कैवल्य मोक्ष देने वाले
अनंत - देशकालवस्तुरूपी परिछेद से रहित
तारक - सबको तारने वाला
परमेश्वर - सबसे परे ईश्वर
किस युग में कैसा रहा गणेश का रूप?
हिन्दू धर्म के पांच प्रमुख देवताओं में भगवान गणेश प्रथम पूज्य हैं। हर शुभ एवं मंगल कार्य में विघ्रों से रक्षा के लिए भगवान गणेश का स्मरण किया जाता है। शास्त्रों के मुताबिक श्री गणेश आदि देवता हैं यानि हिन्दू धार्मिक मान्यताओं में बताए गए चार युगों - कृत या सतयुग, त्रेता युग, द्वापर युग और कलियुग में भगवान गणेश दु:खहर्ता और विघ्रविनाशक देवता के रुप में पूजनीय रहे हैं।
इन चार युगों में हर युग में भगवान गणेश अलग-अलग मंगल रुप में प्रगट हुए। इन अवतारों में श्री गणेश ने बुरी शक्तियों का अंत कर पीडि़त और दु:खी जगत को सुख, शांति और आनंद दिया। जानते हैं भगवान गणेश के चारों युगों के अलग-अलग रूपों के बारे में -
कृत या सतयुग में भगवान गणेश विनायक रुप में पूजे गए। विनायक रूप श्री गणेश की दस भुजाएं थी और उनका वाहन चूहा नहीं बल्कि शेर था। इस युग में भगवान गणेश ने नरान्तक और देवान्तक दानवों का अंत किया।
त्रेतायुग में भगवान गणेश मयूरेश्वर रुप में अवतरित हुए। जिनकी छ: भुजाएं थी। इस रुप में उनका वाहन मोर था। इस युग में श्री गणेश ने सिन्धु राक्षस का संहार किया।
द्वापर युग में श्री गणेश गजानन रुप लेकर सिन्धूर राक्षस दैत्य का अंत किया। गजानन रुप का शरीर लाल रंग का था। उनकी चार भुजाएं थी और उनका वाहन चूहा था।
कलियुग यानि वर्तमान युग में भगवान गणेश का धूम्रकेतु रुप में पूजा जाता है। धूम्रकेतु गणेश दो भुजा वाले हैं। उनके शरीर का रंग धुंए की तरह है। इस युग में श्री गणेश का वाहन घोड़ा माना गया है।
इस तरह होता है प्रेम का अहसास
प्रेम केवल मानव ही नहीं महसूस करता बल्कि प्रेम की अनुभूति कुदरत की हर रचना और मानवीय जिंदगी में अलग-अलग रूपों में उजागर होती है। इसलिए हर धर्म में प्रेम को ईश्वर से साक्षात्कार के लिए अहम माना गया है। व्यावहारिक नजरिए से भी प्रेम महत्वपूर्ण जीवन मूल्य है। सच, भलाई, सेवा, त्याग की तरह जिंदगी में वास्तविक सुखों को पाने के लिए प्रेम बहुत जरूरी है।
असल में प्रेम ऐसा अहसास है जिसे शब्दों में नहीं बांधा जा सकता है। क्योंकि यह कोई सोच नहीं है। अलग-अलग व्यक्ति में और उम्र के हर पड़ाव पर प्रेम का अहसास भी अलग-अलग होता है। सरल शब्दों में कहें तो यह कहा जा सकता है कि प्रेम करने वाले या प्रेम पाने वाले दोनों आत्मा में सुकून पाते हैं। यहां जानते हैं धर्म की नजर से जीवन में प्रेम किन-किन रूपों में प्रकट होता है -
लौकिक प्रेम
प्रेम का यह रूप साधारण मानव की जिंदगी में दिखाई देता है। जहां मानव का दौलत, प्रतिष्ठा, सौंदर्य, स्वाद के प्रति आसक्ति या लगाव के रूप में प्रेम दिखाई देता है। मानव हित और स्वार्थ के चलते संबंध बनाता है। इसे स्वार्थ पर आधारित प्रेम कहते हैं।
अलौकिक प्रेम
आध्यात्म में डूबकर ईश्वरीय सत्ता पर भरोसा, पूरी प्रकृति को ईश्वर की रचना मान प्रेम, ईश्वर को जेहन में रख आदर्श और मर्यादा पालन अलौकिक प्रेम कहलाता है।
मोहजन्य प्रेम
माता-पिता और संतान, पति-पत्नी या अन्य मानवीय रिश्तें में एक-दूसरे से लिए प्रेम मोहजन्य प्रेम कहलाता है।
नि:स्वार्थ प्रेम
प्रेम का यह रूप सेवा भावना में दिखाई देता है। जिसमें व्यक्ति कुछ देने के बदले लेने का भाव नहीं रखता। बिना किसी हितपूर्ति के वह समर्पण भाव से दूसरों के लिए हरसंभव मदद करता है। ऐसा प्रेम पावन-पवित्र और श्रेष्ठ माना जाता है। क्योंकि यह प्रेम करने और पाने वाले दोनों का आत्मिक सुख देता है।
मुश्किल वक्त में करें इन देवताओं का ध्यान
भारतीय ज्योतिष शास्त्रों में राहु और केतु को छायागृह यानि अदृश्य ग्रह माना गया है। इन दोनों ग्रहों के कारण जन्मकुण्डली में कालसर्प योग बनता है। माना जाता है किकालसर्प योग से जिंदगी सहज नहीं रह जाती यानि संघर्ष के हालात बनते हैं। किंतु कालसर्प योग का प्रभाव हमेशा बुरा नहीं होता, बल्कि राहु-केतु के शुभ ग्रहों के साथ बनी स्थिति में यह शुभ फल और सुख भी देता है।
अक्सर यह देखा जाता है कि कालसर्प योग को भयानक दोष बताकर उसकी शांति के लिए अधिक समय और धन खर्च करने वाले उपाय बताए जाते हैं। ऐसे तरीकों को समय या धन की कमी के चलते हर कोई अपना नहीं पाता। जिससे भय और संशय के कारण अनावश्यक चिंता और बैचेनी बनी रहती है।
ऐसी हालात में सनातन धर्म में बताया गया ज्ञान जिंदगी को सहज बना देता है। इसी कड़ी में मुसीबतों और मुश्किल घड़ी को टालने और बचाव के लिए नियमित देव उपासना का महत्व बताया गया है। यहां जानते हैं देव आराधना से ही कालसर्प दोष से बने मुश्किल वक्त को निकालने के उपाय। कालसर्प दोष शांति के लिए इन संकटमोचक देवताओं में से किसी का भी ध्यान, स्मरण नियमित जरूर करना चाहिए -
- नागों के देवता भगवान शिव की भक्ति और आराधना कालसर्प योग के दोष से मुक्ति के लिए सबसे श्रेष्ठ उपाय है।
- शिव अवतार श्री हनुमान जी राहु और केतु के कष्टों से छुटकारा दिलाते हैं। इसलिए हनुमान उपासना भी बहुत शुभदायी है।
- शिव के ही अंश बटुक भैरव की आराधना से भी इस दोष से बचाव हो सकता है।
- पुराणों में बताया गया है कि भगवान श्री कृष्ण ने कालिय नाग का मद चूर किया था। इसलिए इस दोष शांति के लिए भगवान श्री कृष्ण की आराधना भी श्रेष्ठ है।- प्रथम पूज्य शिव पुत्र श्री गणेश को विघ्रहर्ता कहा जाता है। इसलिए कालसर्प दोष से मुक्ति के लिए गणेश पूजा भी करनी चाहिए।
- कालसर्प योग बनाने वाले राहु और केतु के मंत्र का जप भी करना चाहिए।
सिर्फ शब्द नहीं उसके अर्थ को भी समझें
हमेशा असफलता का दोष किस्मत या अपने प्रयासों को देने की बजाय हमें उसके अर्थों में जाना चाहिए। कई बार लोग केवल बात को पकड़ लेते हैं लेकिन उसके अर्थ को समझते ही नहीं। कई बातें सारगर्भित होती हैं अगर आप सार पर ध्यान नहीं देंगे तो उसके भीतर छिपे संकेतों को नहीं समझ पाएंगे। बड़े-बुजुर्गों की बातें अमूमन ऐसी ही होती थीं। अगर आपको कोई बुजुर्ग या संत कोई उपदेश दे रहा है तो उसके अर्थ को समझिए, शब्दों पर ही न टिके रहें।
किसी शहर में एक नगर सेठ रहा करते थे। उनका व्यापार-व्यवसाय इतना चलता था कि दिन-रात फुरसत नहीं मिलती। उम्र हो गई, मौत का समय निकट आ गया। बिस्तर पर मरणासन्न पड़े सेठ ने अपने बेटे को बुलाया। उसे समझाने लगे। देखो बेटा अब मैं ज्यादा जिंदा रहने वाला नहीं हूं। मेरे मरने के बाद तुम्हें ही धंधा संभालना है। बेटे ने कहा पिताजी मैं अकेले कैसे इतना बड़ा व्यापार संभालूंगा। सेठ ने कहा बेटा थोड़े दिन में सब सीख जाओगे। बस दुकान पर छैया-छैया (छांव) ही जाना और छैया-छैया ही आना।
बेटे ने पिता की बात गांठ बांध ली। छैंया-छैंया ही जाना है और ऐसे ही घर लौटना है। घर से दुकान बहुत दूर थी। बेटे ने सोचा घर से दुकान और दुकान से घर जाने में बहुत समय लगेगा। ऐसे में धूप लगना तो स्वभाविक ही है। लेकिन पिताजी तो छांव में ही जाने का कह गए हैं। बेटे ने एक कारीगर को बुलाकर घर से दुकान तक एक लंबी छत तैयार कराई। जिसके नीचे वो आसानी से दुकान जा सकता था और उसे धूप भी नहीं लगती।
इस काम में बहुत पैसा खर्च हो गया। छत बनने तक दुकान भी नहीं खुली। धंधा बैठने लगा। कई दूसरे व्यापारियों का व्यवसाय चल निकला। सेठ के बेटे के पास जमा पूंजी भी खर्च हो गई और धंधे में फायदा भी नहीं रहा। गरीबी आ गई। परिवार को दाने-दाने के लिए तरसने को मजबूर होना पड़ा।
सेठ के एक पुराने दोस्त थे। उनसे लड़के की दुर्दशा नहीं देखी गई। उन्होंने लड़के से पूछा कि आखिर इतना बड़ा धंधा बंद कैसे हो गया। लड़के ने सारी बातें बता दी। छांव-छांव आने और जाने की बात भी बता दी। उस बुजुर्ग ने थोड़ी देर विचार किया और लड़के को समझाया कि तुम अपने पिता की बात का अर्थ नहीं समझे। बुजुर्ग ने लड़के को समझाया कि छांव में दुकान जाने और छांव में ही दुकान से लौटने का अर्थ है कि सूरज उगने के पहले दुकान खोल लेना और रात होने पर ही लौटना। इन दोनों समय में छांव ही होती है। लड़के को अपनी भूल का एहसास हो गया। उसने जल्दी दुकान खोलने का नियम शुरू किया। धीरे-धीरे उनका व्यवसाय फिर चल निकला।
ख़यालों में कोई और क्यों हो?
दुनिया का हर धर्म संदेश देता है कि एक-दूसरे से प्रेम करें। किंतु प्रेम करने और बढ़ाने के लिए जरूरी है, हमेशा एक-दूसरे का ख्याल और परवाह करना। धर्म की दृष्टि से ऐसा तभी संभव है जब हर व्यक्ति के मन में भलाई की भावना हो। जिसे परोपकार या परहित भी कहा गया है।
जहां हिन्दू धर्म ग्रंथ कहते है कि दूसरों की भलाई से बढ़कर कोई धर्म नहीं। वहीं मुस्लिम धर्म में भी सच्चा मुसलमान वहीं माना जाता है जो अपने पड़ौसी के दु:ख-दर्द को अपना समझे। इसी तरह ईसाई धर्म में भी कहा गया है कि वक्त आने पर दूसरों की जरूरत पूरा करने के लिए अपना पेट खाली रहे तो भी गम नहीं करना चाहिए।
धर्म दर्शन यही कहता है कि पूरा संसार ही एक घर और उसमें रहने वाले हर प्राणी परिवार सदस्य की तरह है। इसलिए जिस तरह परिवार के किसी व्यक्ति की परेशानी में हम सहयोगी बनते हैं, ठीक उसी तरह हम दुनिया में रहने वाले हर प्राणीमात्र के लिए मदद का भाव रखें। चाहे फिर वह पशु ही क्यों न हो।
हर धर्म ईश्वरीय सत्ता को स्वीकार करता है। चाहे उसे स्मरण करने के तरीके अलग-अलग हैं। हर धर्म के ईश ने अपने चरित्र और आचरण से मदद का ही पैगाम दिया। चाहे वह राम हो, पैगम्बर हो, ईसा मसीह हो या फिर नानक। सभी ने दूसरों की बिना स्वार्थ की सहायता और सेवा भाव से समाज की सोच को बदल दिया।
व्यावहारिक रुप से किसी की मदद, सहायता या परोपकार के लिए जरूरी है दूसरों को अपनी तरह समझना यानि दूसरों के लिए मन में प्रेम, दया या करूणा का भाव बहुत जरूरी है। इनके बिना संवेदना और भावना पैदा नहीं होती। परोपकार के मायने तभी है जब व्यक्ति बिना स्वार्थ और मतलब के दूसरों के दु:ख-दर्द में मदद को तैयार रहे।
परिवार, समाज हो या कार्यक्षेत्र परहित की भावना दूसरों को भी मदद या सहायता के लिए प्रेरित करती है। इस तरह आप दूसरों की मदद करते वक्त खुद की भी मदद कर रहें होते हैं। इसलिए यथासंभव दूसरों के लिए समय ही नहीं जरूरत होने पर धन से भी मदद के लिए आगे आएं। इससे जिंदगी का खजाना भी दुआओं से भर जाएगा।
जानें जगत और संसार का फर्क
आम बोलचाल में हम जगत और संसार का एक ही अर्थ में उपयोग करते हैं। लेकिन धर्म की भाषा में इन दोनों का अर्थ बदल जाता है। जानें इन दोनों शब्दों के फर्क से जुड़ी कुछ रोचक बातें - धर्म के नजरिए में जगत वह है जो जगदीश द्वारा रचा गया है। जगदीश का शाब्दिक अर्थ है - जगत का ईश यानि ईश्वर। जगत का दायरा अपार, अनदेखा, अनछुआ, अनजाना होता है। वहीं संसार वही है जो एक सामान्य इंसान अपनी नजरों से अधिकतम देख या जान पाता है।
जगत में होने वाली हर क्रिया या गतिविधि स्वार्थ से परे होती है और प्रकृति-प्राणी मात्र को सुख, सुकून ही देती है। जैसे सूर्य के उदय होने या फूलों के खिलने पर कोई शोर नहीं होता। फिर भी बेहद सुंदर और मनोरम दृश्य दिल को खुशी और उम्मीद देते हैं। अगर कुछ बुरे परिणाम दिखाई भी देते हैं तो वह कहीं न कहीं प्रकृति नियमों में इंसानी छेढ़छाड़ के कारण दिखाई देते हैं।
वहीं संसार की बात करें तो यहां होने वाली घटनाएं कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में कलह, कोलाहल का कारण बन जाती है। इससे बाहरी तौर पर दिखाई देने वाली सुख-सुविधाओं के बावजूद भी इंसान मानसिक, आत्मिक, सांसारिक कष्टों से दु:खी होता है। यहां तक कि यह जगत की व्यवस्थाओं पर भी असर डालती है। इस तरह तमाम सुखों के बीच भी संसार में रहने वाले व्यक्ति में सुकून की आस बनी रहती है।
यही कारण है कि सांसारिक कष्टों से छुटकारे के लिए धार्मिक मान्यताओं में जगदीश की उपासना का महत्व बताया गया है। संदेश है कि हम जगत का ध्यान कर जीवन बिताएं यानि छोटी सोच से नहीं बल्कि सोच का दायरा इतना बड़ा रखें कि जहां स्वार्थ और हित का भाव ही न रह जाए।
चैन से कैसे जीएं?
हर धर्मग्रंथ में जहां धर्म पालन के लिए प्रेम, सत्य, अहिंसा जैसी बातों को व्यवहार में उतारने पर जोर दिया गया है। वहीं इनसे दूर होने पर पैदा होने वाले दोष भी बताए गए हैं। यह दोष मानव जीवन के पतन का कारण बन जाते हैं।
धर्म की भाषा में यह विकार कहलाते हैं। यह छ: विकार हैं - काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर, जो षटविकार भी कहे जाते हैं। कोई मनुष्य इन दोषों से अछूता नहीं रह पाता। किंतु यहां हम उस दोष से उबरने और नियंत्रण के उपाय जानते हैं, जो हर व्यक्ति में कम या ज्यादा साफ तौर पर देखा जा सकता है। यह विकार है क्रोध या गुस्सा।
क्रोध या गुस्सा सबसे अधिक स्वभाव को बदल देता है। स्वभाव में उग्रता आपके व्यावहारिक ज़िंदगी पर सबसे ज्यादा बुरा असर डालती है। अनेक मौकों पर बनता काम बिगड़ जाता है, तो कभी संबंधों में कटुता घुल जाती है। जब क्रोध शांत होता है, तब उत्तेजना में की गई गलतियों का अहसास होता है। जिनके बारे में सोचकर अनचाही कुण्ठा और घुटन ही मिलती है।
व्यावहारिक नजरिए से क्रोध पर काबू पाना आसान है। जिसके लिए व्यक्ति को खुद से शुरूआत करनी होती है। व्यक्ति संजीदगी से यह मान ले कि गुस्सा मानसिक रोग है। यह आवेश में पैदा हुआ पागलपन है। तभी व्यक्ति स्वयं समझ जाएगा कि वह गुस्सा कर जो भी बात या व्यवहार करेगा, वह नासमझी और अपरिपक्तता के अलावा कुछ भी नहीं है।
धर्म की नजरिए से गुस्से पर काबू करने के लिए ज़िंदगी में शांति, प्रेम, दया, बड़प्पन को स्थान दें। मन में सभी के लिए अपनत्व की भावना रखें। मन में दुश्चिंता, दूसरों के लिए विरोधी भावना को छोड़ें। मन ही मन विरोधाभासी विचारों से जूझना बंद करें। यह सब अहम बातें आपके स्वभाव को शांत बनाती है। जिससे आप चैन और सुकून से ज़िंदगी बिता पाएंगे।
ध्यान से थाम लें बेचैन मन
इच्छाओं और जरूरतों को पूरा करने की आपाधापी में आज की व्यस्त दिनचर्या और जीवनशैली अनचाहे तनाव व दबाव का सबब बन चुकी है। हर व्यक्ति मानसिक बेचैनी में डूबा होता है, किंतु ऊपरी तौर पर वह सामान्य दिखाई देता है। कभी-कभी व्यग्रता इतनी बढ़ जाती है कि वह गुस्से या हिंसा के रूप में बाहर निकलती है, लेकिन बात में पछतावा देती है।
ऐसे ही मानसिक असंतुलन से निजात पाने का सबसे अच्छा उपाय है ध्यान। सरल शब्दों में ध्यान का मतलब होता है कि मन को साधना यानि मन को चिंताओं, बेचैनी और बुरे विचारों से हटाकर सकारात्मक सोच पर केन्द्रित या एकाग्र करना।विचारों की गति पर नियंत्रण और संयम से दिल-दिमाग को सुकून पहुंचाने का अभ्यास भी ध्यान है।
धर्मशास्त्रों और व्यावहारिक नजर से ध्यान का बहुत महत्व देखें तो गीता में मन के संयम से ध्यान की अहमियत बताई गई है। जिसमें लिखा गया है - वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता
जिसका मूल भाव यही है कि मन को काबू करने से ही सभी इन्द्रियां भी नियंत्रित हो जाती है, जिससे बुद्धि और विवेक को भी सही दिशा मिलती है। इस तरह मन पर वश होने पर संसार भी वश में हो सकता है। ऐसा करने के लिए ध्यान ही श्रेष्ठ उपाय है।
इस तरह अध्यात्मिक और धार्मिक की दृष्टि से ध्यान से आत्मिक लाभ मिलता है यानि यह सोई हुई शक्तियों को जगाता है और ईश्वरीय सत्ता को महसूस कराता है। वहीं व्यावहारिक जीवन के नजरिए से ध्यान मन की प्रसन्नता, एकाग्रता, मानसिक ऊर्जा और स्फूर्ति देता है। इसका फायदा यह होता है कि हम बेहतर तरीके से काम को अंजाम देते हैं। जिसके कामयाबी के रूप में सुखद नतीजे मिलते हैं। कामयाबी हर भौतिक सुख की राह आसान बनाती है।
सभी काम श्रेष्ठ हैं
स्वामी विवेकानंद ने कर्तव्य और कर्मयोग को सर्वोपरि बताया है। कोई भी काम छोटा-बडा नहीं होता, यह उनके इस व्याख्यान से पता चलता है. यदि कोई मनुष्य संसार से विरक्त होकर ईश्वरोपासना में लग जाए, तो उसे यह नहीं समझना चाहिए कि जो लोग संसार में रहकर संसार के हित के लिए कार्य करते हैं, वे ईश्वर की उपासना नहीं करते। संसार के हित में काम करना भी एक उपासना ही है। अपने-अपने स्थान पर सभी बडे हैं।
इस संबंध में मुझे एक कहानी का स्मरण आ रहा है। एक राजा था। वह संन्यासियों से सदैव पूछा करता था-संसार का त्याग कर जो संन्यास ग्रहण करता है, वह श्रेष्ठ है, या संसार में रहकर जो गृहस्थ के कर्तव्य निभाता है? नगर में एक तरुण संन्यासी आए। राजा ने उनसे भी यही प्रश्न किया। संन्यासी ने कहा, हे राजन् अपने-अपने स्थान पर दोनों ही श्रेष्ठ हैं, कोई भी कम नहीं है। राजा ने उसका प्रमाण मांगा। संन्यासी ने उत्तर दिया, हां, मैं इसे सिद्ध कर दूंगा, परंतु आपको कुछ दिन मेरे साथ मेरी तरह जीवन व्यतीत करना होगा। राजा ने संन्यासी की बात मान ली।
वे एक बडे राज्य में आ पहुंचे। राजधानी में उत्सव मनाया जा रहा था। घोषणा करने वाले ने चिल्लाकर कहा, इस देश की राजकुमारी का स्वयंवर होने वाला है। जिस राजकुमारी का स्वयंवर हो रहा था, वह संसार में अद्वितीय सुंदरी थी और उसका भावी पति ही उसके पिता के बाद उसके राज्य का उत्तराधिकारी होने वाला था। इस राजकुमारी का विचार एक अत्यंत सुंदर पुरुष से विवाह करने का था, परंतु उसे योग्य व्यक्ति मिलता ही न था।
राजकुमारी रत्नजटित सिंहासन पर बैठकर आई। उसके वाहक उसे एक राजकुमार के सामने से दूसरे के सामने ले गए। इतने ही में वहां एक दूसरा तरुण संन्यासी आ पहुंचा। वह इतना सुंदर था कि मानो सूर्यदेव ही आकाश छोडकर उतर आए हों। राजकुमारी का सिंहासन उसके समीप आया और ज्यों ही उसने संन्यासी को देखा, त्यों ही वह रुक गई और उसके गले में वरमाला डाल दी।
तरुण संन्यासी ने एकदम माला को रोक लिया और कहा, मैं संन्यासी हूं मुझे विवाह से क्या प्रयोजन? राजा ने उससे कहा, देखो, मेरी कन्या के साथ तुम्हें मेरा आधा राज्य अभी मिल जाएगा और संपूर्ण राज्य मेरी मृत्यु के बाद। लेकिन संन्यासी वह सभा छोडकर चला गया। राजकुमारी इस युवा पर इतनी मोहित हो गई कि युवा संन्यासी के पीछे-पीछे चल पडी।
दूसरे राज्य के राजा को लेकर आए संन्यासी भी पीछे-पीछे चल दिए। जंगल में जाकर संन्यासी नजरों से ओझल हो गया। हताश होकर राजकुमारी वृक्ष के नीचे बैठ गई। इतने में राजा और संन्यासी उसके पास आ गए। रात हो गई थी। उस पेड की एक डाली पर एक छोटी चिडिया, उसकी स्त्री तथा उसके तीन बच्चे रहते थे। उस चिडिया ने पेड के नीचे इन तीन लोगों को देखा और अपनी स्त्री से कहा, देखो हमारे यहां ये लोग अतिथि हैं, जाडे का मौसम है। आग जलानी चाहिए। वह एक जलती हुई लकडी का टुकडा अपनी चोंच में दबा कर लाया और उसे अतिथियों के सामने गिरा दिया। उन्होंने उसमें लकडी लगा-लगाकर आग तैयार कर ली, परंतु चिडिया को संतोष नहीं हुआ। उसने अपनी स्त्री से फिर कहा, ये लोग भूखे हैं। हमारा धर्म है कि अतिथि को भोजन कराएं। यह कहकर वह आग में कूद पडा और भुन गया। उस चिडिया की स्त्री ने मन में कहा, ये तो तीन लोग हैं, उनके भोजन के लिए केवल एक ही चिडिया पर्याप्त नहीं। पत्नी के रूप में मेरा कर्तव्य है कि अपने पति के परिश्रमों को मैं व्यर्थ न जाने दूं। वह भी आग में गिर गई और भुन गई। इसके बाद उन तीन छोटे बच्चों ने भी यही किया।
तब संन्यासी ने राजा से कहा, देखो राजन, तुम्हें अब ज्ञात हो गया है कि अपने-अपने स्थान में सब बडे हैं। यदि तुम संसार में रहना चाहते हो, तो इन चिडियों के समान रहो, दूसरों के लिए अपना जीवन दे देने को सदैव तत्पर रहो। और यदि तुम संसार छोडना चाहते हो, तो उस युवा संन्यासी के समान हो, जिसके लिए वह परम सुंदरी स्त्री और एक राज्य भी तृणवत था। अपने-अपने स्थान में सब श्रेष्ठ हैं, परंतु एक का कर्तव्य दूसरे का कर्तव्य नहीं हो सकता।
उन्नति के लिए अपनी कद्र करना सीखें
हमको श्रद्धा के साथ-साथ सत्संग के द्वारा समझना चाहिए कि शिवलिंग यह भगवान तो
है लेकिन इस भगवान में घन सुषुप्ति में चैतन्य बैठा है। तर्क करना हो और अश्रद्धा
करनी हो तो भगवान साक्षात् आ जायें तो भी दुर्योधन जैसा व्यक्ति उनमें भी अश्रद्धा
करता है।
दुर्योधन ने श्रीकृष्ण को कैद करने का आदेश दिया तो श्रीकृष्ण द्विभुजी से
चतुर्भुजी होकर आकाश में स्थित हुए लेकिन दुर्योधन कहता है कि यह तो जादूगर है।
दुर्योधन और शकुनि श्रीकृष्ण के लिए कुछ-का-कुछ बकते हैं लेकिन अर्जुन श्रीकृष्ण
से फायदा उठाता है; गीता बनी और हमलोग भी फायदा उठा रहे हैं।
श्रद्धाविहीन लोग श्रीकृष्ण के दर्शन व चतुर्भुजी नारायण के दर्शन के बाद भी
दुर्बुद्धि का परिचय देते हैं। ऐसे दुर्योधनों की कमी नहीं है समाज में। श्रद्धालु
व समझदार सज्जन तो शालग्राम, शिवलिंग और मूर्ति में श्रद्धा एवं भगवद्भाव से अपनी बुद्धि
और जीवन में चिन्मय चैतन्य को प्रकट करते हैं।
जिसके जीवन में सूझबूझ है, जिसे अपने जीवन की कद्र है वह महापुरुषों, शास्त्रों, वेदों की कद्र करेगा। शराब
व मांस का सेवन करनेवालों की मति ईश्वरप्राप्ति के योग्य नहीं रहती। ऐसे लोग स्वयं
का ही अवमूल्यन करते हैं। ‘गुरुवाणी’ में आता हैः
जे रतु1 लगै कपड़ै जामा2 होइ पलीतु3।
जो रतु पीवहि माणसा तिन किउ4 निरमलु चीतु5।
(1. रक्त 2. वस्त्र 3. अपवित्र 4. कैसे 5. शुद्ध चित्त)
भगवान राम कहते हैं : निर्मल मन जन सो मोहि पावा।
शराब और मांस निर्मल मति को मलिन कर देते हैं। आत्मसाक्षात्कार की योग्यतावाला
मनुष्य अपने को अयोग्य बनानेवाला खान-पान और चिंतन करे, अपने आत्मदेव को छोड़कर
देश-देशान्तर में ईश्वर को माने या स्वर्ग अथवा बिहिश्त की कल्पना करे यह कितनी
तुच्छ बात है! कितनी छोटी मान्यता, मति-गति है!
जिसको अपने जीवन की कद्र नहीं है वह शास्त्रों की कद्र क्या करेगा, महापुरुषों की कद्र क्या
करेगा, अपना
ही जीवन खपा देगा। यदि तुमको अपने जीवन की कद्र है, अपने जीवनदाता की, शास्त्रों की, अपने माता-पिता की कद्र
है कि कितनी मेहनत करके तुम्हें पढ़ाया, बड़ा किया तो तुम ऐसे कर्म करो जिनसे तुम्हारे सात
कुल तर जायें।
दुःख आया तो दुःखी हो गये, सुख आया तो सुखी हो गये तो तुम्हारे-हमारे में और कुत्ते
में क्या फर्क है? अरे, सुख
को सपना, दुःख
को बुलबुला, दोनों को मेहमान जान... अपने को दास क्यों बनाता है? पदोन्नति हो गयी तो हर्षित हो
गये, बदली
हो गयी तो सिकुड़ गये। इतनी लाचार जिंदगी क्यों गुजारता है? गुरु की शरण जा।
जरा-सा किसी ने डाँट दिया, तेरी खुशी गायब! जरा-सा किसी ने पुचकार दिया तो खुश! तो तू
तो जर्मन का खिलौना है और क्या है? जरा-सा नोटिस आ गया तो तेरी चिंता बढ़ गयी। जरा-सा कहीं छापा
पड़ा तो तेरी मुसीबत बढ़ गयी। जरा-सी अफसर से पहचान हो गयी तो तूने छाती फुला दी।
तू इन खिलौनों को सच मानकर क्यों उलझ रहा है? अपने आत्मा को जानने के लिए कुछ
तो आगे बढ़ भाई! जो परम मित्र, परम हितैषी है उसका अहोभाव से चिंतन कर, उसकी स्मृति कर और उसका
ज्ञान पाकर उसीमें आनंदित हो, प्रशांत हो और विश्रांति पा।
शास्त्र और गुरू का सम्मान भगवान का सम्मान है
दुनिया में एक सद्गुरु हजारों- लाखों सुपात्र शिष्यों को ज्ञानामृत और आशीष
देकर अपने जैसे तमस् का तिरोहण करने वाले सूर्य बना सकते हैं, लेकिन अनेक शिष्य मिलकर
एक सद्गुरु का स्वरूप तैयार नहीं कर सकते। लाखों-करोड़ों वर्षों की तपस्या के बाद
किसी व्यक्ति के भीतर गुरुतत्व प्रकट होता है।
गुरु एक ऐसा प्रथम दीप है जिससे असंख्य दीप प्रज्ज्वलित हो सकते हैं। धरती पर
विवेकानन्द बन जाना तो इतना कठिन नहीं है, जितना रामकृष्ण परमहंस बनकर विवेकानन्द को जन्म देना
मुश्किल कार्य है। गुरु ज्ञानीजनों की सभा में स्थान मिल जाए तो मनुष्य को अपना
सौभाग्य समझना चाहिए।
गुरु के प्रति श्रद्घा-आस्था सदा-सर्वदा बनी रहनी चाहिए। गुरु वचनों का श्रवण,
चिन्तन-मनन और उन
पर अमल करने से मनुष्य को अभीष्ट और प्रीति की प्राप्ति होती है। उसका इहलोक और
परलोक संवर जाता है। गुरु चरणों में शिष्य का स्वर्ग है।
गुरु चरणों का ध्यान, उनका पूजन, वंदन, सेवा और सत्कार करते समय मन में जितनी श्रद्घा-आस्था और
प्रेम भाव होगा उतनी ही शीघ्रता से कल्याण के कपाट खुलते जाएंगे। गुरु अपने शिष्य
को एक ऐसी सुदृष्टि प्रदान करते हैं जिससे उसकी सृष्टि बदल जाती है, ऐसी सुदिशा प्रदान करते
हैं, जिससे
उसके जीवन की दशा बदल जाती है।
गुरू सद्प्रेरणा देकर शिष्य को सुमार्ग का ऐसा राही बनाते हैं, जिससे उसे मंजिल मिल ही
जाती है। गुरु तो ज्ञानामृत बनकर बरसते हैं, उस अमृत को अपनी अंजुली में
समेटना शिष्य का काम है। गुरु जो राह दिखाए उस पर अनवरत बेखौफ चलना शिष्य का कार्य
है।
राह में अवरोध जरूर आते हैं, संशय की स्थिति भी आती है, असमंजस में इंसान न चाहते हुए भी
कई बार फंस जाता है। लेकिन जो शिष्य अपनी श्रद्घा-आस्था और विश्वास को कम नहीं
होने देते वे ही परम धम तक पहुंचने में सपफल होते हैं। शास्त्रों में गुरु के
प्रति शिष्यों को किस प्रकार सम्मान का भाव रखना चाहिए यह बताया गया है।
पुराणों में वर्णन है कि गुरु की आज्ञा ईश्वर आज्ञा के समान होती है। क्योंकि
गुरु कभी किसी व्यक्ति विशेष अथवा कारण विशेष के लिए कोई आज्ञा नहीं देते। वे समाज
के उत्थान के लिए, मानवता की भलाई के लिए, धर्म के प्रचार के लिए, दीन दुःखियों की पीड़ा हरने के
लिए, सभ्य
संस्कृति एवं सुसंस्कारों की अभिवृति के लिए, विचारों की शुद्घि के लिए,
प्राणी मात्र की
भलाई के लिए, अन्याय-अत्याचार, भ्रष्टाचार के समापन के लिए, दुर्गुण-दुर्व्यसनों से मानवमात्र को बचाने के लिए, अच्छाई को बढ़ाने के लिए
और बुराई को भगाने के लिए ही सद्आज्ञा प्रदान करते हैं।
ईश्वरीय आज्ञा भी ऐसी ही तो है। भक्ति और आराधना से तात्पर्य केवल इतना ही
नहीं है कि हम केवल हाथ में माला ही पकड़े रहें। भगवान की प्रार्थना, उपासना, स्तुति का मतलब भी इतना
ही नहीं है कि हम केवल अपने लिए और अपनों की सलामती के लिए ही कामना करते रहें,
भगवान के नाम की
माला हाथ में थामे हुए अगर केवल अपने विषय में, मालामाल होने की प्रार्थना करते
रहें तो यह अनुचित हो जाएगा और इंसान आध्यात्मिक सम्पत्ति से कंगाल हो जाएंगे।
वेदों में स्पष्ट कहा गया है कि भगवान की भक्ति का सीध सा अर्थ है उसकी
आज्ञाओं का सहर्ष पालन करना और वही ईश्वरीय आज्ञाएं इंसान को सदगुरु प्रदान करते
हैं। इसलिए गुरु आज्ञा का कभी उलंघन न करें, सत्पुरुषों की न स्वयं निन्दा
करें और न किसी के द्वारा किए जाने पर श्रवण करें, भगवान के अनेक नाम हैं और स्वरूप
हैं।
उनमें कभी भेद न करें। जैसे शिव और विष्णु, राम और कृष्ण आदि उनमें कोई
भेदभाव की दृष्टि न रखें, वैदिक विचारों की भी निन्दा अनुचित है, शास्त्रों का सम्मान करें
और गुरु ज्ञानीजनों के प्रति अगाध श्रद्घा बनाए रखें। इससे जीवन जगमगा उठता है।
सफलता चाहिए तो ये पांच चीजें कभी खोना नहीं चाहिए...
परमात्मा ने सबको समान जीवन और सामर्थ्य दिया है। फिर भी कोई अत्यधिक ज्यादा
सफल है और कोई बहुत चाहते हुए भी असफल। कोई इंसान अपनी क्षमताओं से महान बन जाता
है, कोई एक
साधारण पुरुष की तरह ही जिंदगी गुजार देता है। आखिर ये अंतर क्यों है अगर परमात्मा
ने सबको समान बनाया है। दरअसल जो महान बने हैं उन्होंने अपने जीवन में कुछ सूत्र
अपनाएं हैं। अगर कोई महानतम सफलता हासिल करना चाहता है तो उसे अपने जीवन में ये
पांच चीजें नहीं खोनी चाहिए।
आइए जानते हैं कि वो पांच चीजें कौन सी हैं जो कभी नहीं खोनी चाहिए।
(1) अपना समय व्यर्थ न खोयें।
आपका समय इतना बहुमूल्य है कि समय देकर आप दुनिया की सब चीजें प्राप्त कर सकते
हैं लेकिन दुनिया की सब चीजें न्योछावर करके भी आप बीते हुए आयुष्य का सौवाँ
हिस्सा भी वापस नहीं पा सकते। पचास-साठ साल, अस्सी साल देकर आपने जो कुछ भी
एकत्र किया, वह सब-का-सब आप दे दें, फिर भी पचास-साठ घण्टे तो क्या पाँच मिनट भी आप अपना आयुष्य
नहीं बढ़ा सकते। इसलिए अपने अमूल्य समय को व्यर्थ न गँवायें, उसका खूब-खूब सदुपयोग
करें।
जो लोग गपशप में, विषय-भोग में, कामनाओं की पूर्ति में समय को नष्ट कर देते हैं, वे लोग बड़ी गलती करते हैं। समय
को बर्बाद करनेवाला स्वयं बर्बाद हो जाता है। आप समय को जैसे हलके, मध्यम या उत्तम काम में
खर्च करते हैं तो बदला भी वैसा ही मिलता है। परम श्रेष्ठ परमात्मा के लिए समय खर्च
करते हैं तो बदले में आप परमात्ममय बन जाते हैं।
(2) स्वास्थ्य नहीं खोना चाहिए।
सुखी जीवन के लिए शरीर और मन की स्वस्थता जरूरी है। घर, गाँव, क्षेत्र और शुभाशुभ कर्म
पुनः-पुनः प्राप्त हो सकते हैं किंतु मनुष्य-शरीर पुनः-पुनः प्राप्त नहीं हो सकता।
इसलिए बुद्धिमान व्यक्ति को सदैव स्वास्थ्य की रक्षा करते हुए पुण्य का अर्जन करना
चाहिए।
शरीर जितना नीरोग, स्वच्छ व पवित्र रहेगा, उतना ही आत्मा का प्रकाश इसमें
अधिक प्रकाशित होगा। यदि दर्पण ही ठीक न होगा तो प्रतिबिम्ब कैसे दिखायी देगा! यदि
नींव ही कमजोर है तो इमारत कैसे बुलंद होगी! शास्त्रों में आता है : शरीरमाद्यं
खलु धर्मसाधनम्। शरीर धर्म का साधन है। जो आदमी शरीर को स्वस्थ रखने की कला जानता
है, वह
बार-बार बीमारी का शिकार नहीं होता है।
(3) संयम नहीं खोना चाहिए।
जिसके जीवन में संयम नहीं है वह पशु से भी गया-बीता हो जाता है। इसलिए जीवन
में संयम की बहुत आवश्यकता है। संयमहीन मानव किसी भी क्षेत्र में सफल नहीं हो पाता
और कभी प्रारब्ध से कुछ सफलता प्राप्त भी कर लेता है तो अहंकार में फूलकर अपने सर्वनाश
को निमंत्रित करता है। पशुओं के लिए चाबुक होता है परंतु मनुष्य को बुद्धि की लगाम
है। सरिता भी दो किनारों से बँधी रहती है तभी सागर तक पहुँचती है। जिसने संयम,
साधना करके अपने
अंतःकरण के ज्ञान-स्वभाव की रक्षा की वह महान हो गया।
हे भारत के जवानों! तुम भी उसी गौरव को हासिल कर सकते हो। यदि जीवन में संयम
को, सदाचार
को अपना लो एवं समर्थ सद्गुरु का सान्निध्य पा लो तो तुम भी महान-से-महान कार्य
करने में सफल हो सकते हो।
(4) सम्मान देने का गुण नहीं खोना चाहिए।
छोटे-से-छोटा और बड़े-से-बड़ा व्यक्ति भी सम्मान चाहता है। सम्मान देने में
रुपया-पैसा नहीं लगता है और सम्मान देते समय आपका हृदय भी पवित्र होता है। अगर आप
किसीसे निर्दोष प्यार करते हैं तो खुशामद से हजार गुना ज्यादा प्रभाव उस पर पड़ता
है। मान योग्य कर्म करो पर हृदय में मान की इच्छा न रखो, आप अमानी रहो, इससे आपका हृदयकमल
खिलेगा, भगवान
को पाने के योग्य होगा।
(5) अपना अच्छा स्वभाव नहीं खोना चाहिए।
जो अच्छा कार्य, अच्छा चिंतन करता है उसको अच्छी चीजें, अच्छी संगति, अच्छे विचार, अच्छी आयु मिलती है।
उसका स्वभाव अच्छा होने से मन भी अच्छा रहता है, स्वास्थ्य भी अच्छा रहता है। जो
बुरे कार्य, बुरे विचार करता है और बुराई के पीछे लगा रहता है उसको वैसे ही विचार, वैसे ही मित्र भी मिल
जाते हैं और फिर उसकी गति भी ऐसी ही हो जाती है।
समय रहते अपने विवेक को जगाकर अपना ऐसा-वैसा स्वभाव बदलकर पशुता से मनुष्यता,
मनुष्यता से
देवत्व और देवत्व से देवेश्वरत्व (परमात्म-तत्त्व) की तरफ जाने से आपका तो मंगल
होगा, आपके
कुल-खानदान में जो पैदा होनेवाले हैं उनका भी मंगल हो जायेगा। इसलिए भगवान ने कहा
है : स्वभावविजयः शौर्यम्। आप अपने स्वभाव पर विजय पाओ।
बस ये पाँच चीजें हैं - समय, स्वास्थ्य, संयम, सम्मान और स्वभाव, इनकी जो रक्षा करता है, वे उसीकी रक्षा करके उसको महान
बना देती हैं।
सम्मान पाने के लिए मर्यादा का पालन जरूरी
संसार में भगवान राम मर्यादा पुरूषोत्तम के रूप में पूजे जाते हैं। इसका कारण
यह है कि इन्होंने अपने जीवन में हर रिश्ते के साथ न्याय किया। इन्होंने कभी भी
बड़ा होने का अभिमान नहीं दिखाया। इन्होंने छोटे भाइयों को सम्मान दिया और सदैव माता-पिता के
आज्ञाकारी रहे। पत्नी की सुरक्षा के लिए रावण से लड़े और राजा के रूप में जनता को
महत्व दिया।
लेकिन जब कोई व्यक्ति अपनी मर्यादा की सीमा रेखा को तोड़कर आगे बढ़ने की कोशिश
करता है तभी विवाद और क्लेश उत्पन्न होता है। वर्तमान समय में कई ऐसी घटनाएं
सामने आ रही हैं कि बेटे ने पिता को घर से बाहर निकाल दिया। बेटे ने बाप की
संपत्ति हड़प ली। ससुर का अपनी बहू से अनैतिक संबंध है और भाई ने बहन का अपमान
किया।
जब ऐसी घटनाएं होती हैं तो मर्यादा का हनन होता है। संसार में रिश्तों की डोर
का निर्माण मर्यादा की रक्षा के लिए किया गया था। यही सामाजिक जीवन का आधार भी है। जब कोई मार्यादा का
उल्लंघन करता है तब सामाजिक व्यवस्था बिगडने लगती है और मर्यादा का उल्लंघन करने
वाला और मर्यादा का हनन होने वाला दोनों ही अपमानित होता है। जब कोई किसी के साथ
अमर्यादित व्यवहार करता है तो उसे भी अर्मायादित व्यवहार ही प्राप्त होता है।
उदाहरण के तौर पर गंगा नदी जब तक अपनी सीमा में प्रवाहित होती है उसे माता का
दर्जा प्राप्त होता है, लोग इसकी आरती उतारते हैं। लेकिन जब अपनी मर्यादा का
उल्लंघन करके तटों को तोड़कर आगे बढ़ती है तब गंगा आदरणीय नहीं रह जाती है। नाले
के जल में मिलकर गंगाजल 'गंदाजल' कहलाने लगता है।
तब आप पर ईश्वर की कृपा हो जाती है
भक्ति और आराधना से तात्पर्य केवल इतना ही नहीं है कि हम केवल हाथ में माला ही
पकड़े रहें। भगवान की प्रार्थना, उपासना, स्तुति का मतलब भी इतना ही नहीं है कि हम केवल अपने लिए और
अपनों की सलामती के लिए ही कामना करते रहें, भगवान के नाम की माला हाथ में
थामे हुए अगर केवल अपने विषय में, मालामाल होने की प्रार्थना करते रहें तो यह अनुचित हो
जाएगा।
इससे मनुष्य आध्यात्मिक सम्पत्ति से कंगाल हो जाएगा। वेदों में स्पष्ट कहा गया
है कि भगवान की भक्ति का सीधा सा अर्थ है उसकी आज्ञाओं का सहर्ष पालन करना और वही
ईश्वरीय आज्ञाएं इंसान को सदगुरु प्रदान करते हैं।
इसलिए गुरु आज्ञा का कभी उलंघन न करें, सत्पुरुषों की न स्वयं निन्दा
करें और न किसी के द्वारा किए जाने पर श्रवण करें, भगवान के अनेक नाम हैं और स्वरूप
हैं। उनमें कभी भेद न करें।
जैसे शिव और विष्णु, राम और कृष्ण आदि उनमें कोई भेदभाव की दृष्टि न रखें,
वैदिक विचारों की
भी निन्दा अनुचित है, शास्त्रों का सम्मान करें और गुरु ज्ञानी जनों के प्रति अगाध श्रद्घा बनाए
रखें। प्रेम भाव बनाए रखने से जीवन जगमगा उठता है।
ब्रह्मज्ञानी सदगुरु के द्वारा प्रदत्त सद्ज्ञान के प्रचार-प्रसार में,
उनके द्वारा
संचालित सेवा के महान कार्यों में सहयोगी बनकर जो व्यक्ति खड़ा हो जाता है,
धर्म के प्रति जो
कष्ट सहकर भी वफादारी निभाता है, उसके पुण्य के प्रताप से उसकी आने वाली सात पीढि़यां भवसागर
से पार हो जाती हैं और वह भी तर जाता है।
इसलिए धर्म के पुण्य कार्यों में भागीदार बनना, सहयोग और सेवा प्रदान करना अपने
जीवन का अंग बनाओ। गुरुचरणों में शीष नवाने वाले लोग, गुरु को मानने वाले लोग तो
दुनिया में बहुत मिल जाएंगे। किंतु गुरु की आज्ञा का पालन करने वाले तो विरले ही
होते हैं।
पर जो होते हैं उनके हृदय में स्वयं गुरु विराजमान हो जाते हैं, उन्हें ईश्वरीय असीम
शक्तियों का अहसास होने लगता है, वे सुख-दुख, मान-अपमान, हानि-लाभ, जय- पराजय, यहां तक कि गुरुकार्यों की सम्पूर्णता के लिए अपना सर्वस्व
लगाने से भी पीछे नहीं हटते। क्योंकि उन्हें गुरु का आदेश ईश्वर का संदेश प्रतीत
होने लगता है।
गुरू भक्त आरूणी
ऐसा ही एक शिष्य था जिसे गुरू का आदेश ईश्वर का आदेश लगता था। इस शिष्य का नाम
था आरुणि। एक बार गुरू ने आरूणी को आदेश दिया कि खेत में पानी लगाना है। पानी का
बहाव तेज था, जिससे खेत की मेंड़ टूट गई। आरुणि ने भरसक प्रयत्न किया पानी रोकने का।
लेकिन जैसे ही वह फावड़े से खोदकर मिट्टी लगाता, वैसे ही पानी की तीव्र धरा उसे
अपने साथ बहा ले जाती। आरुणि के लिए गुरु की आज्ञा सर्वोपरि थी, उसके महत्व को वह
भलीभांति जानता था। पानी और मिट्टी के कीचड़ में वह स्वयं मेड़ बनकर लेट गया और
लेटा ही रहा। सुबह से शाम, शाम से रात्रि और भोर होने लगी।
गुरु ने अपने अन्य शिष्यों से कहा आरुणि कहां है? सभी मौन थे, गुरु ने कहा वह तो खेत
में पानी लगाने गया था। क्या वहां से लौटकर अभी तक नहीं आया। बिना कुछ कहे सबने
जानकारी न होने की असमर्थता जताई। गुरु ने आदेश दिया चलो, मेरे साथ आरुणि अब तक खेत में
क्या कर रहा है? और जाकर देखते हैं।
वह नशारा अद्भुत था, भोर का समय और गुरु स्वयं चलकर आरुणि की खोज कर रहे हैं।
जाकर देखा आरुणि मिट्टी में धंसा हुआ है और अपनी देह से पानी के प्रवाह को रोक रहा
है। मुंह में भी मिट्टी, आंखों में भी मिट्टी, सर्दी से शरीर सुन्न हो गया।
किंतु गुरु-आज्ञा की पालना के सामने ये शारीरिक, मानसिक वेदना क्या महत्व रखती
हैं? कीचड़
में सने हुए आरुणि को आज उनके गुरु ने अपने सीने से लगा लिया और सिर पर हाथ रखकर
कहने लगे। आरुणि! मेरे प्यारे! तुम ध्न्य हो, और तुम्हारी निष्ठा, तुम्हारी श्रद्घा,
तुम्हारा प्रेम,
तुम्हारा समर्पण
भाव, तुम्हारी
सेवा, तुम्हारी
आज्ञा पालना केवल मैं नहीं ईश्वर भी देख रहे हैं, तुम्हें अवश्य ही इसका अभीष्ट फल
प्राप्त होगा।
आरुणि की आंखों में आंसू हैं, पर गुरु उन प्रेम भाव में बहने वाले मोतियों को अपने हाथों
में समेट रहे हैं और आरुणि के उपर हृदय से आशीर्वाद का अमृत बरसा रहे हैं। जो
शिष्य गुरु के आदेश का प्राणपन से पालन करता है, प्रतिकूल स्थिति में भी विपदाओं
की परवाह किए बिना, संकल्पित होकर सेवा कार्यों में लगा रहता है, उसके उपर ऐसे ही गुरु कृपा और
प्रभु की दया बनी रहती है। ऐसे अनोखे शिष्य के लिए तो गुरु स्वयं चलकर उसके पास
पहुंच जाते हैं।
ये पांच सूत्र याद रखें, सफलता हमेशा साथ
रहेगी ।
जीवन निरंतर चलने का नाम है। दुनिया की भागमभाग में हम कई चीजें छोड़ते जाते हैं। सफलता मिलती है लेकिन शांति नहीं। मन शांति चाहता है, दिमाग सफलता। दोनों में सामंजस्य हो तो जीवन सुखी और शांत होता है। आज दुनियाभर में मैनेजमेंट के सूत्र रटाए जा रहे हैं। लेकिन हमारे मन को शांति मिल सके ऐसे सूत्र सिर्फ अध्यात्म के पास हैं। आइए जानते हैं कैसे सफलता के साथ शांत और सुखी जीवन पाया जा सकता है।
1. प्रेम अनुभव करना दिल का काम है और संदेह करना दिमाग का। दोनों का अपना अपना स्थान है । तुम्हें दोनों की आवश्यकता है । तुम कितना संदेह कर सकते हो? करते रहो और जब सारे संदेह ख़त्म हो जायें और नए उत्पन्न न हों, तब वहां से श्रद्धा का आरम्भ होता है।
2. जीवन कोई बहुत गंभीर विषय नहीं है। दर्पण में देखकर और अपने आप को मुस्कान देकर अपना दिन आरम्भ करो। गाओ, नाचो और उत्सव मनाओ। उत्सव मनाने की मंशा मात्र ही तुम्हें उभारकर वर्त्तमान क्षण में ले आएगी।
3. कई लोग धन की निंदा करते हैं और उसे समाज की सभी बुराइओं के लिए दोषी ठहराते हैं । कुछ लोग तो उसे दुष्ट ही मानते हैं । केवल धन होने से अहंकार नहीं होता, उसकी उपेक्षा करने से भी होता है । कुछ लोग केवल सहानुभूति आकर्षित करने के लिए धन का त्याग करते हैं और दरिद्रता की आड़ में अहंकार को रखते हैं लेकिन प्राचीन ऋषि मुनियों ने कभी धन की निंदा नहीं की वो ये रहस्य जानते थे कि जब तुम किसी वस्तु की निंदा करते हो, तो उससे ऊपर नहीं उठ सकते वास्तव में उन्होंने धन को इश्वर की अंग समझकर उसका सम्मान किया और उसके मायाजाल से मुक्त हो गए ।
4. गलती की ओर इशारा करो तो उसका हल भी दो। यदि तुम समस्या बता दो और हल न दो, तो बात अधूरी रह गयी । यदि तत्काल ही हल नहीं ढूंढ सकते, तो मिलकर उसका उपाय ढूँढो ।
5. अपने जीवन में अभाव पर ध्यान मत दो। जो तुम्हें मिला है, उसे देखो तब, समृद्धि बढती है ।
जीवन निरंतर चलने का नाम है। दुनिया की भागमभाग में हम कई चीजें छोड़ते जाते हैं। सफलता मिलती है लेकिन शांति नहीं। मन शांति चाहता है, दिमाग सफलता। दोनों में सामंजस्य हो तो जीवन सुखी और शांत होता है। आज दुनियाभर में मैनेजमेंट के सूत्र रटाए जा रहे हैं। लेकिन हमारे मन को शांति मिल सके ऐसे सूत्र सिर्फ अध्यात्म के पास हैं। आइए जानते हैं कैसे सफलता के साथ शांत और सुखी जीवन पाया जा सकता है।
1. प्रेम अनुभव करना दिल का काम है और संदेह करना दिमाग का। दोनों का अपना अपना स्थान है । तुम्हें दोनों की आवश्यकता है । तुम कितना संदेह कर सकते हो? करते रहो और जब सारे संदेह ख़त्म हो जायें और नए उत्पन्न न हों, तब वहां से श्रद्धा का आरम्भ होता है।
2. जीवन कोई बहुत गंभीर विषय नहीं है। दर्पण में देखकर और अपने आप को मुस्कान देकर अपना दिन आरम्भ करो। गाओ, नाचो और उत्सव मनाओ। उत्सव मनाने की मंशा मात्र ही तुम्हें उभारकर वर्त्तमान क्षण में ले आएगी।
3. कई लोग धन की निंदा करते हैं और उसे समाज की सभी बुराइओं के लिए दोषी ठहराते हैं । कुछ लोग तो उसे दुष्ट ही मानते हैं । केवल धन होने से अहंकार नहीं होता, उसकी उपेक्षा करने से भी होता है । कुछ लोग केवल सहानुभूति आकर्षित करने के लिए धन का त्याग करते हैं और दरिद्रता की आड़ में अहंकार को रखते हैं लेकिन प्राचीन ऋषि मुनियों ने कभी धन की निंदा नहीं की वो ये रहस्य जानते थे कि जब तुम किसी वस्तु की निंदा करते हो, तो उससे ऊपर नहीं उठ सकते वास्तव में उन्होंने धन को इश्वर की अंग समझकर उसका सम्मान किया और उसके मायाजाल से मुक्त हो गए ।
4. गलती की ओर इशारा करो तो उसका हल भी दो। यदि तुम समस्या बता दो और हल न दो, तो बात अधूरी रह गयी । यदि तत्काल ही हल नहीं ढूंढ सकते, तो मिलकर उसका उपाय ढूँढो ।
5. अपने जीवन में अभाव पर ध्यान मत दो। जो तुम्हें मिला है, उसे देखो तब, समृद्धि बढती है ।
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK
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