Wednesday, May 22, 2013

Spiritual Gyan1 (आध्यात्मिक ज्ञान )



इन बातों को जो समझ ले वो असफल नहीं हो सकता...
शरणागति अधीनता नहीं है। शरणागति क्या है? यह जानना कि सब जगह सभी कुछ ईश्वर का है - "मैं" नियंत्रण में नहीं हूँ इस अनुभूति के साथ साथ ही विश्राम आता है, निश्चिन्तता आती है। शरणागति से भय क्या है; तुम्हें लगता है तुम कुछ खो दोगे? मैं कहता हूँ, तुम्हें इस लोक में और परलोक में भी मिलेगा ही।

एक सपना अपने लिए देखो और एक सपना जगत के लिए। और अगर दोनों एक ही हो तो वह सबसे उत्तम है! पर अगर ऐसा नहीं है तो भी कोई बात नहीं। बस इतना ध्यान रखो की दोनों में प्रतिरोध न हो।

जब सभी द्वार बंद हो जाएँ और जाने के लिए कोई स्थान न हो, तब भीतर जाओ। हर संकट एक अवसर है जिसका आरम्भ तुम हो।

हर घटना में जीवन तुम्हें छोड़ने की कला सिखाता है। जब तुम्हें छोडना आ जाएगा तो तुम आनंद से भर जाओगे और जब तुम आनंदमय हो जाओगे तो तुम्हें और दिया जाएगा।

जब शब्द तुम्हारी बुद्धि को छूते हैं तो ऐसा लगता है कि तुम सब जानते हो। तुम एक वाक्य जानते हो पर यदि बुद्धि से जानते हो तो दस वाक्य कहोगे। पर जब शब्द दिल को छूते हैं, तो एक विस्मय होता है, कुछ प्रस्फुटित होता है; एक लहर या फव्वारा उठता है और तब शब्दों की आवश्यकता नहीं रहती।

उलझन का अर्थ है कि तुमने एक रास्ता चुना पर दूसरे रास्ते पर अधिक आनंद दीखता है| तुम कोई भी चुनो, लगता है दूसरा अधिक आनंदमय होगा। आनंद किसी और से अधिक नहीं होगा| तुम स्वयं ही आनंद के स्रोत हो।


जैसी होगी भावना वैसा ही फल मिलेगा
आप भगवान का स्मरण करोगे तो भगवान आपका स्मरण करेंगे क्योंकि वे चैतन्य स्वरूप हैं। आप पैसों काबँगले का स्मरण करोगे तो जड़ पैसों कोजड़ बँगले को तो पता नहीं है कि आप उनका स्मरण कर रहे हो। आप गाड़ी का स्मरण करोगे तो वह अपने-आप नहीं मिलेगी लेकिन भगवान का स्मरण करोगे तो वे स्वयं आकर मिलेंगे।

शबरी ने भगवान का स्मरण किया तो वे पूछते-पूछते शबरी के द्वार पर आ गये। भावग्राही जनार्दनः... मीरा ने स्मरण किया तो जहर अमृत हो गया। वह हृदयेश्वर आपके भाव के अनुसार किसी भी रूप में कहीं भी मिलने में सक्षम हैअगर सोऽहंस्वरूप में मिलना चाहो तो सोऽहंस्वरूप में भी अपना अनुभव कराने में समर्थ है। केवल अपनी बुद्धि में उसके प्रति भाव होना चाहिए।

देवी-देवता कामूर्ति का आदर-पूजनमाता-पिता अथवा गुरु का आदर-पूजन यह हमारी बुद्धि में भगवद्भाव कोभगवद्ज्ञान कोभगवद्रस को प्रकट करने का मार्ग है। भाव की बड़ी भारी महिमा है। मान लोएक सुपारी है। एक का उसे खाने का भाव हैदूसरे का उससे कमाने का भाव हैतीसरे का उसे पूजने का भाव है।

तो फायदा ज्यादा किसने लियाखाने वाले नेकमाने वाले ने कि पूजने वाले नेसुपारी तो जड़ हैप्रकृति की चीज हैउसमें भगवद्बुद्धि करने से भगवद्भाव पैदा होता है और खाने की भावना करते हैं तो तुच्छ लाभ होता है। बेचकर कमाने की भावना करते हैं तो ज्यादा लाभ होता है लेकिन उसमें गणेशजी का भाव करके पूजा करते हैं तो और ज्यादा लाभ होता है।

सुपारी तो वही-की-वही है परंतु खाना है तो भोगकमाना है तो लोभ और पूज्यभावभगवद्भाव है तो भगवद्रस देके भगवान के समीप कर देगी। अब सुपारी को खा के मजा लोबेच के मजा लो या उसका पूजन करके मजा लो तुम्हारी मर्जी। खाके मजा लिया तो भोगीबेच कर मजा लिया तो लोभी और सुपारी में गणपति-बुद्धि की तो आप उपासक हो गयेभक्त हो गये और सुपारी का तत्त्व जान के अपना तत्त्व और सुपारी का तत्त्व एकमेव अद्वितीयं’ कर दिया तो हो गये ब्रह्म!

ऐसे ही अगर आप गुरु से संसारी फायदा लेते हैं तो यह भोग बुद्धि हुई लेकिन गुरु चिन्मय हैंदिव्य हैंब्रह्मस्वरूप हैंज्ञानस्वरूप हैंतारणहार हैंव्यापक हैंसबके अंतरात्माभूतात्म स्वरूप हैंप्राणि मात्र के हितैषी हैंसुहृद हैं- ऐसा अहोभाव करते हैं और उनके वचनों में विश्वास करते हैंउनके अनुसार चलते हैं तो कितना फायदा होता है!

आप सुपारी में गणपति का भाव करो तो आपके अपने भाव के अनुसार अंतःकरण की वृत्ति बनेगी लेकिन गुरु के प्रति भगवद्भावब्रह्मभावअहोभाव करोगे तो गुरुदेव के अंतःकरण से भी आपके उद्धार के लिए शुभ संकल्प कीविशेष कृपा की वर्षा होने लगेगीउनके द्वारा ऊँचा सत्संग मिलेगाआनंद-आनंद हो जायेगा। सुपारी वही-की-वही लेकिन नजरिया बदलने से लाभ बदल जाता है। गुरु वही-के-वही लेकिन नजरिया बदलने से लाभ बदल जाता है। कर्मों में भी अलग-अलग भाव अलग-अलग फल देते हैं।

जहाँ राग सेद्वेष से सोचा जाता हैवहाँ कर्म बंधन कारक हो जाता है। जहाँ करने का राग मिटाने के लिए सबकी भलाई केहित के भाव से सोचा और किया जाता हैवहाँ कर्म बंधन से छुड़ाने वाला हो जाता है। जैसे कोई दुष्ट हैधर्म कासंस्कृति कामानवता का हनन कर-करके अपना कर्म बंधन बढ़ाने वाले दुष्कर्म में लिप्त है और न्यायाधीश उसकी भलाई के भाव से उसे फाँसी देता है तो न्यायाधीश को पुण्य होता है।

हे प्रभुजी! अब इस शरीर में यह सुधरेगा नहींइसलिए मैं इसे फाँसी दे दूँ यह आपकी सेवा है’- इस भाव से अगर न्यायाधीश फाँसी देता है तो उसका अंतःकरण ऊँचा हो जायेगा लेकिन यह फलाने पक्ष का हैअपने पक्ष का नहीं है... इसलिए फाँसी दे दो’ - ऐसा भाव है तो फिर न्यायाधीश का फाँसी देना अथवा सजा देना बंधन हो जायेगा।

आपके कर्मों में हित की भावना हैसमता है तो आपके कर्म आपको बंधनों से मुक्त करते जाएंगे। अगर स्वार्थअधिकार और सत्ता पाने की या द्वेष की भावना है तो आपके कर्म आपको बाँधते जाएंगे। अपने शुद्ध कर्म से किसी को लाभ मिलता है तो संसार की आसक्ति मिटती हैदूसरे की भलाई काहृदय की उदारता का आनंद आता है लेकिन दूसरे का हक छीना तो संसार की आसक्ति और कर्मबंधन बढ़ता है।

आप जैसा देते हैंवैसा ही आपको वापस मिल जाता है। आप जो भी दोजिसे भी दो भगवद्भाव सेप्रेम से और श्रद्धा से दो। हर कार्य को ईश्वर का कार्य समझकर प्रेम से करोसब में परमेश्वर के दर्शन करो तो आपका हर कार्य भगवान का भजन हो जायेगा।

इसलिएशुभ अवसर पर बनाते हैं स्वास्तिक चिन्ह
एक दूसरे को काटती हुई दो रेखाओं और आगे चल कर उनके चारों सिरों के दांई ओर मुड़ जाने वाले चिह्न को स्वस्तिवाचन का प्रतीक माना जाता है। स्वास्तिक अति प्राचीन पुण्यप्रतीक हैजिसमें गूढ़ अर्थ और गंभीर रहस्य छुपे हैं।

स्वस्तिक जिस मंत्र के प्रतीक रूप में चित्रित किया जाता हैवह यजुर्वेद से लिया गया है। स्वस्ति न इंद्रो वृद्धश्रवा भाग से शुरु होने वाले मंत्र के प्रतीक स्वस्तिक की पूर्व दिशा में वृद्धश्रवा इंद्रदक्षिण में बृहस्पति इंद्रपश्चिम में पूषा-विश्ववेदा इंद्र तथा उत्तर दिशा में अरिष्टनेमि इंद्र स्थित हैं।

तंत्रालोक में आचार्य अभिनव गुप्त ने स्वस्तिक का अर्थ करते हुए लिखा है कि नादब्रह्म से अक्षर तथा वर्णमाला बनीमातृका की उत्पत्ति हुई। नाद से ही वाणी के चारों रूप पश्यंतीमध्यमा तथा वैखरी उत्पन्न हुई। फिर उनके भी स्थूल तथा सूक्ष्मदो भाग बने। इस प्रकार नाद सृष्टि से छह रूप हो गए।

इन्हीं छह रूपों मेंपंक्तियों में स्वस्तिक का रहस्य छिपा है। अतः स्वस्तिक को समूचे नादब्रह्म तथा सृष्टि का प्रतीक एवं पर्याय माना जा सकता है। स्वस्तिक की यह आकृति दो प्रकार की हो सकती है। प्रथम स्वस्तिकजिसमें रेखाएं आगे की ओर इंगित करती हुई दांई ओर मुड़ती हैं।  इसे स्वस्तिक कहते हैं। यही शुभ चिह्व हैजो हमारी प्रगति की ओर संकेत करता है। दूसरी आकृति में रेखाएं पीछे की ओर संकेत करती हुई बाईं ओर मुड़ती हैं। इसे वामावर्त स्वस्तिक कहते हैं। भारतीय संस्कृति में इसे अशुभ माना जाता है।

भारतीय दर्शन के अनुसार स्वस्तिक की चार रेखाओं को चार वेदचार पुरूषार्थचार आश्रमचार लोक तथा चार देवों अर्थात् ब्रह्माविष्णुमहेश तथा गणेश से तुलना की गई हैं। जैन धर्म में स्वस्तिक उनके सातवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ के प्रतीक चिन्ह के रूप में लोकप्रिय है। जैन अनुयायी स्वस्तिक की चार भुजाओं को संभावित पुनर्जन्मों के स्थल स्थानों के रूप में मानते हैं। ये स्थल हैं-वनस्पति या प्राणिजगतपृथ्वीजीवात्मा एवं नरक। बौद्ध मठों में भी स्वस्तिक का अंकन मिलता है।

जार्ज वुड्रोफ ने बौद्धों के धर्मचक्र कोयूनानी क्रास को तथा स्वस्तिक को सूर्य का प्रतीक माना है। इस संदर्भ में प्रो. मैक्समूलर का एक पत्र बड़ा उपयोगी एवं प्रासंगिक है। उन्होंने डॉ. श्लोमन को लिखे पत्र में बड़े युक्ति पूर्ण ढंग से स्पष्ट किया है कि इटली के हर कोन मेंमिलानरोमपॉम्पियाहंगरीयूनानचीन आदि हर देश नगर में स्वस्तिक पाया जाता है।

मैक्समूलर के अनुसार ईसाई धर्म में भी स्वस्तिक को मान्यता है और वहां वह गतिशील सूर्य का प्रतीक है। कुछ विद्वानों के अनुसार क्रास और स्वस्तिक के आध्यात्मिक और दार्शनिक अर्थ संकेत समान महत्व रखते हैं। ऋग्वेद की ऋचा में स्वस्तिक को सूर्य का प्रतीक माना गया है और उसकी चार भुजाओं को चार दिशाओं की उपमा दी गई है। सिद्धान्तसार ग्रन्थ में उसे विश्व ब्रह्माण्ड का प्रतीक चित्र माना गया है।

उसके मध्य भाग को विष्णु की कमल नाभि और रेखाओं को ब्रह्माजी के चार मुखचार हाथ और चार वेदों के रूप में निरूपित किया गया है। अन्य ग्रन्थों में चार युगचार वर्णचार आश्रम एवं धर्मअर्थकाम और मोक्ष के चार प्रतिफल प्राप्त करने वाली सामाजिक व्यवस्था एवं वैयक्तिक आस्था को जीवन्त रखने वाले संकेतों को स्वस्तिक में ओत-प्रोत बताया गया है। इस चिह्न की मीमांसा करते हुए स्वस्तिक शब्द का अर्थ (सु-अच्छाअस्ति-सत्ताक-कर्ता) अच्छा या मंगल करने वाला भी किया गया है। स्वस्तिक अर्थात कुशल एवं कल्याण। कल्याण शब्द का उपयोग तमाम प्रश्नों के एक उत्तर में किया जाता है।

शायद इसलिए भी यह चिह्न मानव जीवन में इतना महत्वपूर्ण स्थान रखता है। संस्कृत में सु-अस धातु से स्वस्तिक शब्द बनता है। सु अर्थात् सुन्दरश्रेयस्करअस् अर्थात् उपस्थितिअस्तित्व। जिसमें सौन्दर्य एवं श्रेयस का समावेश होवह स्वस्तिक है। मांगलिक कार्यों में इसका उपयोग किया जाता है। मांगलिक कार्यों में इसका निर्माण करने के लिए सिन्दूररोली या कुंकुम लाल रंग का ही प्रयोग होता है। लाल रंग प्रेमरोमांच व साहस को दर्शाता है।

यह रंग लोगों के शारीरिक व मानसिक स्तर को शीघ्र प्रभावित करता है। यह रंग शक्तिशाली व मौलिक है। यह रंग मंगल ग्रह का है जो स्वयं ही साहसपराक्रमबल व शक्ति का प्रतीक है। यह सजीवता का प्रतीक है और हमारे शरीर में व्याप्त होकर प्राण शक्ति का पोषक है। मूलतः यह रंग ऊर्जाशक्तिस्फूर्ति एवं महत्त्वाकांक्षा का प्रतीक है। शरीर में लाल रंग की कमी से अनेक रोग उत्पन्न हो जाते हैं।

लाल रंग से ही केसरियागुलाबीमैहरुन और अन्य रंग बनाए जाते हैं। इन सब तथ्यों से प्रमाणित होता है कि स्वस्तिक लाल रंग से ही अंकित किया जाना चाहिए या बनाना चाहिए। पुराणों में स्वस्तिक को विष्णु का सुदर्शन चक्र माना गया है। उसमें शक्तिप्रगतिप्रेरणा और शोभा का समन्वय है। इन्हीं के समन्वय से यह जीवन और संसार समृद्ध बनता है।

चार मंत्र जो हमेशा काम आते हैं
एक बुद्धिमान व्यक्ति के पास चार तकनीक होती है जो कि आंतरिक और बाह्य दोनो ही है- सामदानभेद और दंड। दुनिया के लोगों से व्यवहार के लिये बुद्घिमतापूर्ण जीवन जीन के लियेपहली तकनीक साम है जिसका अर्थ है शांति और समझदारी भरा मार्ग।

जब यह तकनीक काम ना करें तो आप दूसरी तकनीक पर जाये जिसे दान कहते हैंजिसका अर्थ है इसे होने देनाक्षमा कर देनास्थान देना। यदि लोग आपकी उदारता को नही पहचान पाते हैं तो तीसरी तकनीक भेद काम में आती है। इसका अर्थ है तुलना करनादूरी उत्पन्न करना।

यदि कोई व्यक्ति आपसे उलझता है तो पहले आप उस से बात करें। यदि इससे बात ना बने तो प्रेम से उनकी उपेक्षा कर दें। उन्हें स्वयं को ही समझने का अवसर दें। आपकी उदारता और उपेक्षा उनको उनकी गलती का अनुभव करवा देगी। लेकिन यदि वे उस पर ध्यान ना दें तो उनसे भेद कर लें और उनसे दूरी बना लें।

यदि वहां पर दो व्यक्ति है तो आप उनमें एक के थोड़ा निकट हो जायें। ऐसा करने से दूसरा व्यक्ति उसको अनुभव करने लगेगा और उसे अपनी गलती का अनुभव हो जायेगा। यदि अब भी कोई बात नही बनी तो अंतिम हैडंडा। यही चारों तरीके आप अपने स्वयं के साथ भी अपनायें।

आंतरिक जीवन के लिये यह उसी तरह एक के बाद एक नही है। साम- समानता बनाना। यदि सुखद क्षण आ रहें हैं तो उनको देखें। यदि दुःखद क्षण आ रहें हैं तो उनको भी देखें। अपने में समानता रखे। दान का अर्थ है छोड़ देना। उनको छोड़ देना जो आपको विघ्नता दे रहें हैं।

वे विचार जो आपको समानता जैसे राजसी सिंहासन पर आसीन नही होने दे रहे उनको छोड़ देना। इसका अर्थ है वे बातें जो आपके मन को दुःख पहुंचाने वाली बातेंसमस्यायें और परेशान करने वाली बातों को समर्पित कर देना। मन कहता है, ‘‘यह आपने अच्छा किया।" तो आप उपर उछलने लगते हैं और जब मन कहता है, ‘‘यह आपने गलत काम किया।‘‘ तो आप नीचे बैठ जाते हैं।

नकारात्मक कार्य आपको पीड़ा देते है लेकिन ये नकारात्मकता हमेशा नही रहती है। अच्छे कार्य आपको सुखद अनुभव देते हैं लेकिन कुछ समय बाद वे गायब हो जाते हैं। हर कार्य और उसका फल समाप्त हो जाता है। ये हमेशा नही रहने वाला। दान का अर्थ है देना। इसमें क्षमा भी सम्मिलित है।

जब आपका मन इधर उधर भागे तो उसे भागने दो। इसे पकड़ कर मत बैठो। इसके पीछे जाओ और इसे वापस लाओ। ऐसा मत कहो, ‘‘मैं अपने मन से परेशान हो गया हूंथक गया हूं। इसमें ईर्ष्या और ऐसा करना गलत है। ‘‘अपने मन से घृणा मत करो। अपने मन को क्षमा कर दो।

ऐसा कहे, ‘‘अज्ञानता से मेरा मन इन मूर्ख विषयों के पीछे भागता है। ‘‘तब आपका अपने मन से झगड़ा समाप्त हो जायेगा। अब हम भेद का जाने- तुलना करनाउपयोगी से अनुपयोगी की तुलना करना। ये शरीर एकदम खोल और खाली है।

जब आप अपने शरीर को देखते हैं तो कभी सुखद तरंगे और कभी दुःखद स्पंदन उठने लगते हैं। जैसे ही उन्हें आप देखते है तो वे समाप्त हो जाते हैं। आपके कण कण से ऊर्जा उठने लगती है। जब आप इसे देखते है तो समानता से बहने लगती है। यह एक संतुलन बना देती है। और आपको अनुभव होता है कि आप ये शरीर या स्पंदन नही है।

परिवार में रहते हुए भी बना जा सकता है साधु
खुद को दिलासा देने के लिए कहें अथवा अफसोस जताने के लिए लेकिन बहुत से लोग ऐसे मिल जाएंगे जो कहेंगे कि हम घर परिवार वाले लोग हैं सब कुछ छोड़कर साधु तो नहीं बन सकते। जबकिसच यह है कि साधु बनने के लिए परिवार और दुनिया से विमुख होने की जरूरत नहीं है। साधु तो घर परिवार में रहते हुएपारिवारिक जिम्मेदारियों को निभाते हुए भी बना जा सकता है।

साधु का मतलब वन में निवास करने वाला नहीं हैसाधु का अर्थ है साधना करने वाला। साधना है तात्पर्य है मनवाणीइन्द्रिय भोगकाम और क्रोध को अपने वश में रखना न कि इनके वश में हो जाना। जिनका मन घर परिवार में रहते हुए भी नियंत्रण में हैकाम और क्रोध से दूषित नहीं है वह सांसारिक जीवन में कहीं भी रहे साधु कहलाने योग्य है।

नारद पुराण में एक प्रसंग है कि ब्रह्मा जी ने आठ मानस पुत्रों को जन्म दिया। इनमें नारद मुनि भी एक थे। ब्रह्मा जी के सात पुत्रों ने विवाह करके गृहस्थ जीवन बिताना स्वीकार कर लिया। लेकिन नारद मुनि ने गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने से मना कर दिया। ब्रह्मा जी को इस बात से बड़ा क्रोध हुआ और नारद जी को शाप दे दिया। अगर गृहस्थ जीवन पाप होता और वैराग्य पुण्य तो ब्रह्मा जी नारद को नहीं अन्य सात पुत्रों को शाप देते। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

वास्तव में गृहस्थ जीवन में रहते हुए साधु बने रहना सबसे कठिन तपस्या है। सांसारिक जीवन का त्याग करके कर्म से मुक्त होने का प्रयास करना पाप है। यही कारण है कि प्राचीन काल के कई सिद ऋषि मुनियों ने विवाह किया। ईश्वर मनुष्य को वैवाहिक जीवन और गृहस्थी का महत्व समझाना चाहता है न कि गृहस्थी से भागने की बात सीखाता है। अगर वह ऐसा चाहता तो हर देवी देवता अलग होतेसभी अविवाहित होते।

लेकिन ऐसा नहीं है शिव-पार्वतीविष्णु लक्ष्मीराम-सीताकृष्ण-रूक्मिणी सभी युगल हैंयही बताने के लिए कि संसार त्यागने के लिए नहीं है। गीता में भगवान ने कहा कि जीव कर्म बंधन में बंध हुआ है और उसे बार-बार कर्म में बंधकर आवागमन में उलझना है।

जो व्यक्ति ईश्वर के इस विधान को समझकर कर्म करता हुए साधु बना रहता है वास्तव में वही परमगति और मुक्ति का भागी होता है। परिवार और कर्तव्य का त्याग करने वाला नहीं। जो कर्तव्य से भागने का प्रयास करता है वह बार-बार आवागमन के चक्र में घूमता रहता है।

दूसरों के दुख से अपना दुख ज्यादा बेहतर
एक कहावत है 'राजा दुखीप्रजा दुखी सुखिया का दुःख दुना।कहने का अर्थ यह है कि संसार में जिसे देखो वह अपने को दुःखी ही कहेगा। राजा का अपना दुःख हैप्रजा का अपना और जिसे आप सुखी माने बैठें हैं उससे पूछ कर देंखेंगे तो वह भी अपने दुःखों की पोटरी खोलकर अपनी व्यथा गाने लगेगा।

लेकिन अगर आपके पास यह विकल्प हो कि आप अपना दुःख किसी और को देकर दूसरे का दुःख खुद स्वीकार कर लें तब आप कहेंगे कि अपना ही दुःख भला है। इस संदर्भ में एक कथा है कि किसी गांव में एक फकीर आये। उनकी विशेषता यह थी कि वे किसी की भी समस्या दूर कर देते थे।

उनकी इस विशेषता के बारे जिसे भी पता चलावह उनके पास दौड़ा आया। अच्छी खासी भीड़ जमा हो गई और लोग जल्दी से जल्दी अपनी समस्या फकीर को बताने की जुगत भिड़ाने लगे। नतीजा यह हुआ कि हर कोई बोलने लगा। कोलाहल मच गया। फकीर ने सभी को चुप होने के लिए कहा। सभी लोग चुप हो गये तब फकीर ने कहामैं सबकी समस्या दूर कर दूंगा। आप सब लोग एक-एक कागज पर अपनी समस्या लिखकर लाएं और मुझे दे दें।

कुछ ही देर में कागजों का ढेर लग गया। फकीर ने कागजों को एक टोकरी में रखा और उसे सबके बीच में रख दिया। एक आदमी की तरफ इशारा करके फकीर मे कहायहां से शुरू करके सब बारी-बारी से आएंगे और एक-एक कागज उठा लें। ध्यान रहे किसी को अपना कागज नहीं उठाना है। लोग एक-एक कर आए कागज उठा-उठा कर अपनी-अपनी जगह बैठ गए। फकीर ने कहाअब इस कागज में लिखी किसी दूसरे की समस्या पढ़ो। अगर चाहो तो मैं तुम्हारी समस्या दूर कर दूंगा पर उसके बदले कागज पर लिखी समस्या तुम्हारी हो जाएगी।

तुम्हें लगता है कि तुम्हारी समस्या बड़ी है तो उसे दूर करवाकर कागज पर लिखी दूसरे की छोटी-सी समस्या अपना लो। चाहो तो आपस में कागज बदल लो। जब तय कर लो कि अपनी समस्या के बदले कौन सी समस्या लोगे तो मेरे पास आ जाना।

लोगों ने जब अपने पास कागज पर लिखी समस्या पढी तो वे घबरा गए। लोग एक दूसरे से कागज बदल-बदल कर पढ़ रहे थे। हर बार उन्हें लगता कि उनकी समस्या तो जैसी है वैसी हैपर इस नई समस्या का सामना नहीं कर पाएंगे। कुछ देर में हर किसी को समझ आ गया कि उनकी समस्या जैसी भी है उनके अपने जीवन का हिस्सा है और वे उसी का सामना कर सकते हैं। एक-एक कर के लोग चुपचाप वहाँ से चले गये।

इन 10 लोगों से रहें दूर! फटाफट मिलेगी सफलता
हर मजहब जिंदगी को सुखीशांतअनुशासित और संयम से जीने की राह बताता है। किंतु व्यावहारिक तौर पर अक्सर नजर आता है कि कई लोगों की कामनाओं में धर्म मौजूद रहता हैलेकिन कर्मों पर अधर्म का साया। यहां तक कि ये लोग दूसरों को धर्म की बातें अपनाने की नसीहत देने से नहीं चूकतेपर खुद प्रेमसच्चाईभलाई या अच्छाई के सबक सीखने या सुनने में रुचि नहीं लेते। कुछ ऐसे भी लोग होते हैं जो मजबूरी या मतलब की वजह से सही बातों को नजरअंदाज करते हैं।

सीधे शब्दों में कहें तो ऐसे लोगों से धर्म की बात करना कलहअशांति या विवाद की वजह बन मेहनत व सफलता के सपनों पर पानी भी फेरने वाली हो सकती हैं। खासतौर वे लोग जो स्वभाव व आदतों से ही बुरे होते हैं।

हिन्दू धर्मग्रंथ महाभारत में गलत स्वभाव व आदतों से किसी न किसी तरह से घिरे ऐसे ही 10 धर्म विरोधी लोगों से दूर रहने या संगत न करने की सीख दी गई है। जानिए कौन है ये दस लोग -
नशेड़ी - नशा बुद्धि और विवेक पर हावी हो जाता है। यानी नशेड़ी अच्छाई या बुराई के फर्क की समझ खो देता है। ऐसे व्यक्ति या उसका संग कई तरह से दु:ख व परेशानियों से घिरना तय कर देता है।

पागल - अपना हो या पराया मानसिक रूप से असंतुलित व्यक्ति से नजदीक होने पर असावधानी शारीरिकमानसिक व आर्थिक नुकसान का कारण बन सुख-सफलता में देरी या अड़चन बन सकती है।

क्रोधी - धर्म के नजरिए से क्रोध सारे पापों की जड़ माना गया है। व्यावहारिक तौर पर आवेश गुस्सा बनते कामों को बिगाड़ उपेक्षतिरस्कार और असहयोग की वजन बनता है।

लापरवाह - निष्ठालगन व समर्पण न रखे वाला व्यक्ति निश्चित रूप से असफलता का कारण बनता है।

भूखा - पेट की भूख भी इंसान के बुरे काम करने पर मजबूर करती है। ऐसे में वक्त व हालात की वजह से भूखा इंसान भी गलत कदम उठाकर जान माल का नुकसान पहुंचा सफलता के रास्ते में रोड़ा बन सकता है।

कामी - हर तरह से सुख-सुविधाओं का भोगने की चाहत रखने वाले व्यक्ति का साथ आखिरकार चरित्रव्यक्तित्व व कामयाबी को न केवल दागदार बना सकता है बल्कि तमाम उम्र अपयश की वजन बन सकता है।

भयभीत - किसी भी तरह से डरा हुआ इंसान या तो गलत बात का सामना करने से बचता है या सही बात का नजरअंदाज करता हैजो आखिरकार उसको साथ दूसरों के दु:ख की भी वजन बन सकता है।

थका हुआ - व्यावहारिक तौर पर ज्यादा थका हुआ इंसान किसी खास लक्ष्य को पूरा करने में कमजोरी साबित होता है।

जल्दबाजी करने वाला - जल्दबाजी से व्यक्ति योजना के मुताबिक धैर्यसंयमअनुशासन और एकाग्रता कायम नहीं रख पाता। इससे किसी भी लक्ष्य को पाने की कोशिश असफलता की वजह बनती है।

लालची या लोभी - धर्म के नजरिए से लोभ ऐसा दोष है मनविचार और व्यवहार को बिगाड़ देता है। ज़िंदगी में किसी भी तरह के लक्ष्य को पाने में सफलता के नजरिए से ऐसे लोग भरोसेमंद नहीं होते।

व्यावहारिक तौर पर ऐसे लोग मजबूरीस्वार्थ या स्वाभाविक दोषों के कारण अच्छाई को नकारते हैं।

जहां सौंदर्य देखेंवहां उसकी पूजा करें
जब हम शब्दों की शुद्धता को अनुभव करते है तो हम जीवन की गहराई को अनुभव करते हैं और जीवन जीना आरंभ कर देते हैं। हम सुबह से रात तक शब्दों को ही जीते हैं। हम इनके पीछे के उद्देश्यों को खोजने में और उद्देश्यता को खोजने में सारे उद्देश्य भूल जाते हैं। यह इतना गंभीर हो जाता है कि हम अपनी रातों की नींद ही खो बैठते हैं।

हम रात भर उन शब्दों के कारण परेशान हो जाते हैं। बहुत से लोग रात को सोते समय भी बोलते हैं। यहां पर शब्दों से आराम नही मिल पाता। शब्द ही सभी प्रकार की चिंताओं की जड़ है। बिना शब्दों के तो आप चिंतित ही नही हो सकते। आपकी मित्रता शब्दों की ही देन है। कोई कहता है, ‘‘ओहआप कितने महान हैआप कितने सुंदर हैआप कितने दयालु हैंमैंने अपने जीवन में आप जैसा व्यक्ति नही देखा। मैं पूरे जीवन आप जैसे व्यक्ति को खोज रहा था।"

अचानक आप में प्रेम जागृत हो जाता है। और जब कोई व्यक्ति हमसे गलत शब्दों में बात करता है तो हम दुखी हो जाते हैं। लेकिन वे तो शब्द मात्र है। जीवन बहुत ही सतही हो जाता हैजब हम जीवन को शब्दों पर जीते हैं। जो कुछ भी जीवन में महत्वपूर्ण हैसार युक्त है वह तो शब्दों में व्यक्त ही नही किया जा सकता।

प्रेम का अनुभवसही कृतज्ञता शब्दों में व्यक्त नही हो सकता। वास्तविक सौंदर्य और सच्ची मित्रता में शब्द नही होते। क्या हम उस व्यक्ति के साथ जिस से हम प्रेम करते हैकुछ देर मौन में बैठे हैंक्या आपको याद आता है कि आप किसी के साथ बैठकर चुपचाप कार चला रहे होया सूर्यास्त को देख कर या सौंदर्य को देख करपहाड़ो को देखकर चुप रहे होनहीहम अपना मुंह खोल देते हैं।

हम बातें करना आरंभ कर देते है और जो सौंदर्य है उसको समाप्त कर देते हैं। हम पिकनिक मनाने जाये और वहां पर सौंदर्य देख कर भी बातें करते रहें। कार चला रहे हों तब देखो हम कितनी बाते करते हैं। उस में चार व्यक्ति होते हैं और दो प्रकार की बातचीत चल रही होती है। कभी कभार सभी बातें करने लगते हैं।

कोई एक दूसरे को समझ ही नही रहा होता है। हम अपने मन को शोर से भर लेते हैं। जितना क्रोध अंदर होता है उतना ही कठोर संगीत बाहर हम चलाते हैं क्योंकि ऐसा करना हमे राहत देता है। जितनी शुद्ध हमारी चेतना होती हैजितने हम तनावमुक्त होते है उतना ही हम संगीत के प्रति संवेदनशील होते हैं।

आपकी उपस्थिति ही बता देती है कि आप क्या है। एक महान संत प्रेम पर अपना प्रवचन दे देगा और आपको वह अनुभव ही नही होगा। यदि आप वहीं पर हो और प्रेम में हो तो आपको सब पता चलेगा। अपने भीतर बैठेध्यान करेकुछ देर मौन में रहें और अनुभव करें कि आप प्रेम में है। आप जिस तत्व के बने है उसे प्रेम कहते हैं।

शब्दों के परे ही प्रेम है। सहज रहेंअबोध रहें और आप देखेंगे कि प्रेम की शक्ति से सारे काम स्वतः ही हो जाते हैं। आप जहां भी सौंदर्य देखेवहां ही उसकी पूजा करें और सबकुछ उसी को समर्पित कर दें। यदि हम सौंदर्य को समर्पित नही करते हैं तो हम उसे अपने पास रखना चाहते हैं। जो कुछ भी हम समर्पित करना चाहते हैं उसे अपने पास रखना भी नही चाहते। हम उसे अपने पास रख ही नही सकते।

हर सौंदर्य से बड़ा सौंदर्य हैईश्वर। जब आप सौंदर्य की उपासना करते है तो उसे अपने पास रखने का भाव अपने आप ही समाप्त हो जाता है। हम मौन में वार्तालाप कर सकते हैं। हम ह्दय से भी वार्तालाप कर सकते हैं। भीतर के मौन से हम पक्षियों का गीत और उनके मध्य के समय को सुन सकते हैं। यह एकदम पूर्ण और संगीत भरा हैं। यह रचना की अनुपम घटना है।

एक पक्षी एक लय में बिना ढोलक और बीट्स के गा सकता है। हमें उसके गाने के लिये इतना धैर्य और समय की आवश्यकता नही है। दिव्य संगीत हमारे शरीर में सदैव ही चल रहा है। हम उसके प्रति सजग नही है। हम अपने भीतर के उस मौन से दूर रहकर हमारे जीवन के उस सौंदर्य से भी दूर रह रहे हैं।

हर व्यक्ति एक तरफ खड़ा होकर महज 10 मिनट तक आकाश की ओर देखे। तारों की ओर देखे। गुलाब की ओर देखे। ऐसा मत कहो, ‘‘यह गुलाब खूबसूरत हैयह गुलाब या वह गुलाब ज्यादा बड़ा है। ‘‘ये है बस इतना ही! यही बहुत कुछ है जीवन में। जब हमें पता चलेगा की शब्द अपूर्ण है तब हम जीवन की गहराई को समझ सकेंगें। हम अपने जीवन की गहराई में बढ़ जाएंगे।

तब ईश्वर से सीधी बात होने लगती है
प्रेम के बिना मानव जीवन का कोई अर्थ नहीं होता। प्रेम और भक्ति में जब समर्पण की भावना जुड़ जाती है तब एक शक्ति का निर्माण होता है। जीवन के लिए संजीवनी है प्रेम। क्योंकि प्रेम परमात्मा की एक अनुपम देन है। मनुष्य को परमात्मा ने अनेक प्रकार की विशिष्टताओं से युक्त बनाया है।

उसमें सबसे बड़ी विशिष्टता यह डाली है कि मनुष्य किसी को भी प्रेम करके अपना बना सकता है। सच पूछिए तो प्रेम के माध्यम से हिंसक जन्तुओं पर काबू पाने की घटनाएं तो देखी ही जाती हैं किंतु पत्थर से भी परमात्मा को प्रकट कर लेने के अनेक उदाहरण इतिहास में मौजूद हैं।

प्रेम भरा व्यवहार हमें लोगों से जोड़ता है। जबकि नफरत करने से अपने सगे भी दुश्मन की तरह पेश आने लगते हैं। इसलिए प्रेम को सबसे सुन्दर हथियार बताया गया हैजिसके द्वारा सबको आसानी से अपने वश में किया जा सकता है।

इसलिए रात को जब हम सोने जा रहे हैं तब मन ही-मन ईश्वर को याद करें और जो भी बात हमारे मन में होउसे अपनी आत्मा की आवाज में उनसे प्रेम पूर्वक कह डालें। इससे हमारा ईश्वर के साथ सीधा वार्तालाप करने का मार्ग खुल जाता है।

ईश्वर तो पहले से ही जानते हैंलेकिन उनके सामने प्रेम से हृदय खोल देने से हम स्वयं को उनके प्रति ग्रहणशील बनाते हैं। कभी ऐसा भी प्रतीत होता है कि दिन और महीने गुजरते जा रहे हैं और ईश्वर हमें हमारे प्रेम का कोई प्रत्युत्तर नहीं दे रहे हैंतब भी हम निराश न हों।

हम हार मान लेते हैं और कहने लगते हैं कि अरेक्या फायदा हैईश्वर हमारी सुनते ही नहीं। वास्तव में ईश्वर हमारी हर बात सुनता हैं और समय आने पर वह हमारी सहायता भी करता करता है।

हम जीवन के किसी भी चरण में निराशा या हार को स्वीकार न करके अपनी प्रेम की साधना को हर हाल में जारी रखें। जब कभी हमारे हृदय में प्रेम का आनंद प्राप्त नहीं हो पाता है तब भी हमें सोचना चाहिए कि कोई बात नहीं है प्रभुमैं हार नहीं मानने वाला हूं।

मैं आप से प्रेम करना नहीं छोड़ूंगा। क्योंकि जिस ईश्वर से हम प्रेम करते हैं वह हमारे मौन का या कभी-कभार कहे गए कठोर शब्दों का गलत अर्थ निकालकर हमसे मुंह नहीं मोड़ेगा। कारण कि हम ईश्वर के प्रेम भरे सांचे में ढाले गए हैं। हम वास्तव में उनसे प्रेम करें।

जरूरत नहीं हो तब जरूरत जगाकर दो
आत्मज्ञान एक ऐसी ऊँचाई है कि वहाँ यह नहीं सोचा जाता कि सामनेवाले को इसकी जरूरत है या नहीं। वह इतना दिव्य अमृत है कि सामने वाले को जरूरत हो तो भी दो और जरूरत न हो तो उसमें जरूरत जगाकर भी दोताकि उसका परम कल्याण हो। समाज को आत्मज्ञान की जरूरत नहीं है ऐसा कहना सही नहीं है। मनुष्यमात्र को ही नहीं प्राणिमात्र को सुख की जरूरत है।

वास्तव में जिन चीजों की इतनी जरूरत नहीं हैउन चीजों में समाज बहा चला जा रहा है। बहते हुए समाज को देखकर ऋषियों का हृदय करुणा से भर आया। ऐसे महापुरुष हुए जिन्होंने महसूस किया: वास्तव में समाज को ज्ञान की जरूरत तो है लेकिन वह नहीं समझता तो उसे समझाना पड़ेगा।

माँ देखती है कि बच्चा ठीक से भोजन नहीं कर रहा हैऐसी-वैसी बाजारू चीजें खा रहा है तो सच्ची माँ चिंतित होती है। वह बच्चे को घर का भोजन मिले ऐसा प्रयास करती है। सौतेली माँ कहेगी: अगर बच्चे को जरूरत नहीं है तो मैं क्या करूँ वह माँगेगा तो दूँगी।

हमारे ऋषि समाज की सौतेली माँ नहीं हैं। वे मनुष्य-जाति के सच्चे माता-पिता हैं। ऋषि के प्रसाद को ग्रहण करने कासुनने का समय लोगों के पास नहीं होफिर भी ऋषि लोग चाहते हैं कि किसी भी बहाने लोग आत्मज्ञान सुनने आ जायें। आत्मज्ञान कितना दिव्य हैउसका क्या मूल्य है यह तो तुम आध्यात्मिक इतिहास देखो तो पता चलेगा।

बड़े-बड़े सम्राटों ने राजपाट छोड़करसिर में खाक डालकरहाथ में काँसा (भिक्षापात्र) लेकर आत्मज्ञानी गुरुओं को रिझाया है। सम्राट तो क्या होते हैंयहाँ अवतार-भगवान राम जैसे महान आत्मा भी गुरुओं का बड़ा आदर करते हैं!

प्रातःकाल उठि कै रघुनाथा।
मातु पिता गुरु नावहिं माथा॥ (श्री रामचरित. बा.कां. : 204.4)

भगवान राम सुबह-सुबह गुरु के आश्रम में पहुँच जाते थे और गुरुजी समाधि में होते तो हाथ जोड़कर दूर ही खड़े रह जाते। जब वे समाधि से उठते तब साष्टांग दण्डवत् प्रणाम करते थे। कौनजिनका नाम जपकर लोग तर जाते हैं वे भगवान राम! श्रीराम जानते थे कि आध्यात्मिक विद्या का क्या महत्त्व है! श्रीकृष्ण भी गुरु सांदीपनि की सेवा में रहे थे।

गुरुभाइयों के साथ जंगल में लकड़ियाँ काटने जाते थे। विद्याध्ययन समाप्त होने पर श्रीकृष्ण ने गुरु के चरणों में प्रार्थना की: गुरुदेव ! आज्ञा करो। श्रीचरणों में क्या गुरुदक्षिणा दूँक्या सेवा करूँ ?
गुरुदेव बोले:मुझे तो कोई आवश्यकता नहीं है। गुरुदेव ! आपको तो कोई आवश्यकता नहीं है लेकिन मुझे सेवा करने की आवश्यकता है। मेरा कर्तव्य है ।

अच्छातो अपनी माँ से पूछउसे क्या चाहिए श्रीकृष्ण ने गुरुपत्नी से पूछा: माँ ! मैं आपकी क्या सेवा करूँगुरुपत्नी ने कहा: कृष्ण! तू हमारा सबसे समर्थ विद्यार्थी है। मेरा बेटा यमलोक चला गया हैवह मुझे ला दे। श्रीकृष्ण ने नियति की मर्यादा को तोड़कर यमपुरी से गुरुपुत्र को लाकर माँ की गोद में रख दिया।

गीता युद्ध के मैदान में कही गयी है। तब समय का बड़ा अभाव था। कुछ भी अनावश्यक बात करने का समय नहीं था। भगवान ने जो कहा है वह बिल्कुल संक्षेप में और साररूप है। दोनों सेनाओं के बीच रथ खड़ा हैऐसे मौके पर भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं:

तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः॥

उस ज्ञान को तू तत्त्वदर्शी ज्ञानियों के पास जाकर समझउनको भलीभाँति दण्डवत् प्रणाम करने सेउनकी सेवा करने से और कपट छोड़कर सरलतापूर्वक प्रश्न करने से वे परमात्म-तत्त्व को भलीभाँति जाननेवाले ज्ञानी महात्मा तुझे उस तत्त्वज्ञान का उपदेश करेंगे। (गीता: 4.34)

जो श्रीकृष्ण के सान्निध्य में रहता है उस अर्जुन को भी श्रीकृष्ण ज्ञानियों से आत्मज्ञान पाने की सलाह दे रहे हैं। इससे आत्मज्ञान की महिमा का पता चलता है। यह आत्मज्ञान मनुष्य-मनुष्य के बीच की दूरी मिटाता हैभय और शोकईर्ष्या और उद्वेग की आग से तपे हुए समाज को सुख और शांतिस्नेह और सहानुभूतिसाहस और उत्साह जैसे दिव्य गुण देते हुए हृदय के अज्ञान-अंधकार को मिटाकर जीव को अपने ब्रह्मस्वभाव में जगा देता है। जिस-जिस व्यक्ति नेसमाज नेराष्ट्र ने तत्त्वज्ञान की उपेक्षा कीतत्त्वज्ञान से विपरीत आचरण किया उसका विनाश हुआपतन हुआ। घूसपलायनवादआतंकवाद और कायरता जैसे दुर्गुण उस समाज में फैले।

आपस्तम्ब धर्मसूत्र (1.22.2) में आता हैः

आत्मलाभात् परं लाभं न विद्यते ।
आत्मलाभ से बढ़कर कोई लाभ नहीं है ।

मंद और म्लान जगत को तेजस्वी और कांतिमान आत्मसंयम और आत्मज्ञान के साधन से ही किया जा सकता है।

विटामिन्स भी जानलेवा हो सकते हैं
बुराई का स्वयं कोई अस्तित्व नहीं होता। भगवद्गीता में कहा गया है:‘‘अच्छाई का कभी नाश नहीं होगाबुराई का कोई अस्तित्व हो नही सकता। ‘‘ बुराई का स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता हैयह केवल दिखाई देती है। वैसे भी इसका अस्तित्व वास्तविक न होकर संबंधित है। जिस तरह अंधकार का कोई अस्तित्व नहीं है ये कोई अलग तत्व नहीं है केवल प्रकाश का अभाव ही अंधकार है।

इसी तरह बुराई भी बस अच्छाई का अभाव है इसके आलावा पुराणों के अनुसार असुरों का अंत में भगवान में विलय हो गयारावण का अंत में राम में विलय हो गया। यह सोच बुराई की दुविधा को हटाकर ईश्वर की सार्वभौमिकता का अनुभव करवाती है। अधिकतर धर्मों में यह दृष्टिकोण है कि ईश्वर सर्वव्यापीसर्व़ज्ञानी और सर्व शक्तिमान है।

अगर ईश्वर सर्वव्यापी है तो बुराई के लिए ईश्वर से परे कोई स्थान ही नहीं है। यदि आप बुराई को एक अलग अस्तित्व की पहचान देते हैं तो आपको ईश्वर की सर्वव्यापकता के अस्तित्व को छोड़ देना होगा। यदि बुराई कोई अन्य शक्ति है जो इस सार्वभौमिकता से बाहर है या ईश्वर को चुनौती देती है तो ईश्वर सर्वशक्तिमान नहीं है। यदि वह सर्वव्यापी नहीं है और सर्वशक्तिमान नहीं है तो वह सर्वग्य भी नहीं है।

यदि बुराई का कोई स्वतंत्र अस्तित्व है तो ईश्वर अपने उन सभी ईश्वरीय गुणों को खो देते है जो ईश्वर में होने चाहिए। वेदांत कहते है कि बुराई का ईश्वर से बाहर कोई अस्तित्व नहीं हो सकता क्योंकि ईश्वर ही वह तत्व है जो इस ब्रह्मांड का कारण है। उदाहरण के रुप में एक मकड़ी अपनी लार से जाल बुनती है। एक मकड़ीजाल का कारणजाल से पृथक नहीं हैठीक उसी प्रकार ब्रह्म इस ब्रह्मांड से अलग नहीं है।

इस्लाम मानता है कि सब कुछ ईश्वर का हैलेकिन वह ब्रह्मांड का कारण ईश्वर नहीं मानता। इस मूलभूत दार्शनिक अंतर का अर्थ है इस्लाम के अनुसार सैद्धांतिक रूप से शैतान का अस्तित्व ईश्वर से बाहर हो सकता है। लेकिन यदि ईश्वर इस ब्रह्मांड का कारण नहीं होता तो वेदांत कहते कि ईश्वर में सर्वव्यापीसर्वशक्तिमान और सर्वज्ञान होने की आवश्यक योग्यता संभव ही नहीं है।

वेदांत बुराई के स्वतंत्र अस्तित्व को खारिज करते हैं और यह कहते हैं कि यह दर्शन संबंधी विचार मात्र हैं। उदाहरण के लिए विष को खराब माना जाता हैलेकिन यह कुछ स्थितियों में अच्छा माना जाता हैः बहुत सी जीवन रक्षक औषधियों में विष होता है। उसी तरह ही विटामिन्स अच्छे हो सकते हैजीवन रक्षक भी हो सकते हैं लेकिन अधिक मात्रा में लेने से जानलेवा हो सकते हैं।

इसीलिए अच्छाई और बुराई केवल संबंधित हैं। सभी कुछ एक आभास है बुराई भी। प्रचूर मात्रा में सकारात्मक उर्जा आपमें उत्पन्न हो जाए तो आप सभी प्रकार की बुराई से बाहर निकल कर सत्य का अद्वैत के रुप में दर्शन कर सकते है। सूफी संतो को ये सिद्धांत लोगों को समझाने के लिए बड़ी कठिन परीक्षा से गुज़रना पड़ा।

अद्वैत दर्शन फिजि़क्स के क्वांटम सिद्धांत से मिलता-जुलता है। दोनों प्रणालियों में मूलभूत धारणा एक ही हैसमस्त ब्रह्मांड एक ही तत्व से बना है। इस समझ से केवल एक वैज्ञानिक ही वेदांत की असली दिव्य धारणा को समझ सकता है। वेदांत कहता है कि ईश्वर ऊर्जा और विवेक है और विश्वजो कि भौतिक हैउसी ऊर्जा का हिस्सा है।

एक वैज्ञानिक यह भी जानता है कि वास्तव में अच्छाई और बुराई का कोई अस्तित्व ही नहीं है। सभी एक दूसरे से जुड़े है। चाहे पारा या शीशा जैसा कोई विषैला पदार्थ हो या विटामिन जैसा अच्छा पदार्थ वैज्ञानिक उसके लिए कोई नैतिक पूर्व धारणा नहीं बनाता हैं।

वह उनको वैसा ही स्वीकार करता है और समझता है कि उनका कहां और कैसा प्रयोग है। प्रयोग ही किसी वस्तु को अच्छा या बुरा बनाती है। इसीलिए वेदांत की सोच बुराई और दिव्यता दोनों में वैज्ञानिक सोच है।

आत्मा को कमजोर करता है भय
शरीर के बिना कुछ आनंद लिए जा सकते हैं। जैसे समझेंएक विचारक है। तो विचारक का जो आनंद हैवह शरीर के बिना भी उपलब्ध हो जाता है। क्योंकि विचार का शरीर से कोई संबंध नहीं है। तो अगर एक विचारक की आत्मा भटक जाएशरीर न मिलेतो उस आत्मा को शरीर लेने की कोई तीव्रता नहीं होतीक्योंकि विचार का आंनद तब भी लिया जा सकता है।

लेकिन समझो कि एक भोजन करने में रस लेने वाला आदमी हैवह शरीर के बिना भोजन का रस नहीं ले सकता है। उसके प्राण छटपटाने लगते हैं कि वह कैसे शरीर में प्रवेश कर जाए। और जब उसके योग्य गर्भ नही मिलता हैतब वह कमजोर आत्मा -कमजोर आत्मा से मतलब है ऐसी आत्माजो अपने शरीर का मालिक नहीं है-उस शरीर में वह प्रवेश कर सकता हैकिसी कमजोर आत्मा की भय की स्थिति में।

और ध्यान रहेभय का एक बहुत गहरा अर्थ है। भय का अर्थ है जो सिकोड़ दे। जब आप भयभीत होते हैंतो आप सिकुड़ जाते हैं। जब आप प्रफुल्लित होते हैंतो आप फैल जाते हैं। जब कोई व्यक्ति भयभीत होता हैतो उसकी आत्मा सिकुड़ जाती है और उसके शरीर में बहुत जगह छूट जाती हैजहां कोई दूसरी आत्मा प्रवेश कर सकती है।

एक नहींबहुत आत्माएं भी एकदम से प्रवेश कर सकती हैं। इसलिए भय की स्थिति में कोई आत्मा किसी शरीर में जाती है। और ऐसा करने का कुल कारण इतना होता है कि उसके जो रस हैंवह शरीर से बंधे हैं। इसलिए वह दूसरे के शरीर में प्रवेश करके रस लेने की कोशिश करती है। इसकी पूरी संभावना हैइसके पूरे तथ्य हैंइसकी पूरी वास्तविकता है।

इसका यह मतलब हुआ कि एक तो भयभीत व्यक्ति हमेशा खतरे में है। जो भयभीत हैउसे खतरा हो सकता है। क्योंकि वह सिकुड़ी हुई हालत में होता है। वह अपने मकान मेंअपने घर के एक कमरे में रहता हैबाकी कमरे उसके खाली पड़े रहते हैं। बाकी कमरों में दूसरे लोग मेहमान बन सकते हैं। कभी-कभी श्रेष्ठ आत्माएं भी शरीर में प्रवेश करती हैंकभी-कभी।

लेकिन उनका प्रवेश दूसरे कारणों से होता है। कुछ कृत्य हैं करूणा केजो शरीर के बिना नहीं किये जा सकते। जैसे समझेंएक घर में आग लगी है और कोई उस घर को आग से बचाने नहीं जा रहा है। भीड़ बाहर घिरी खड़ी हैलेकिन किसी की हिम्मत नहीं होती है कि आग में बढ़ जाए। और तब अचानक एक आदमी बढ़ जाता है। और वह आदमी बाद में बताता है कि मुझे समझ में नहीं आया कि मैं किस ताकत के प्रभाव में बढ़ गया।

मेरी तो हिम्मत न थी। और वह बढ़ जाता हैऔर आग बुझाने लगता हैऔर आग बुझा लेता हैऔर किसी को बचाकर बाहर निकाल लाता है। वह आदमी खुद कहता है कि ऐसा लगता है कि मेरे हाथ की बात नहीं है यहकिसी और ने मुझसे करवा लिया है। ऐसी किसी घड़ी में जहां कि किसी शुभ कार्य के लिए आदमी हिम्मत नहीं जुटा पाता होकोई श्रेष्ठ आत्मा भी प्रवेश कर सकती है। लेकिन ये घटनाएं कम होती हैं। 

सुख प्राप्ति के लिए त्याग जरूरी
एक बार की बात हैभक्त श्रेष्ठ प्रह्लाद जी अपने कुछ मंत्रियों के साथ प्रजा की सही स्थिति जानने के लिएउनके दुख-दर्दों को समझने के लिए राज्य में भ्रमण कर रहे थे। घूमते-घूमते वह कावेरी नदी के तट पर पहुंचे। एकाएक उनकी दृष्टि एक ऐसे व्यक्ति पर पड़ीजिसका सारा शरीर धूल-धूसरित तथा भोगी मनुष्यों की तरह हृष्ट-पुष्ट था।

उसे देखकर कोई सोच भी नहीं सकता था कि यह कोई ऋषि मुनि या अवधूत है। किंतु भक्तराज प्रह्लाद की दृष्टि से यह बात छिपी न रही। उन्होंने पहचान लिया कि वे मुनि दत्तोत्रय हैं। मुनि के निकट जाकर प्रह्लाद जी ने उनके बारे में जानने की इच्छा से प्रश्न किया कि भगवान! आपका शरीर विद्वानचतुर तथा समर्थ है।

ऐसी अवस्था में आप सारे संसार को कर्म करते हुए देखकर भी समभाव से पड़े हुए हैंइसका क्या कारण हैयदि हमारे सुनने योग्य हो तो अपने बारे में हमें अवश्य बतलाइये। मुनि दत्तात्रेय जी ने कहा- दैत्यराज! मैंने अपने अनुभव से जैसा भीजो कुछ जाना हैउसके अनुसार मैं आपके प्रश्नों का उत्तर देता हूं। तृष्णा एक ऐसी वस्तु हैजो इच्छानुसार भोगों के प्राप्त होने पर भी पूरी नहीं होती।

उसी के कारण मनुष्य को जन्म मृत्यु के चक्कर में भटकना पड़ता है। तृष्णा ने मुझसे न जाने कितने कर्म करवाये और उनके कारण न जाने कितनी योनियों में मुझे डाला। कर्मों के कारण अनेक योनियों में भटकते हुए मुझे प्रभु कृपा से मनुष्य योनि मिली है। यह मनुष्य योनि स्वर्गमोक्षतिर्यग्योनि तथा इस मानव देह की प्राप्ति का भी द्वार है।

इस शरीर को पाकर मनुष्य पुण्य करे तो स्वर्गपाप करे तो पशु-पक्षी आदि की योनियों तथा पाप और पुण्य दोनों से अलग होकर निष्काम कर्म करे तो मोक्ष को प्राप्त कर सकता है।परंतु मैं इस संसार में देखता हूं कि सारे लोग कर्म तो करते हैं सुख की प्राप्ति के लिएदु:खों से छुटकारा पाने के लिएपरंतु उसका फल उल्टा ही होता है और वे दु:खों में पड़ जाते हैं। इसीलिए मैं कर्मों से उपरत हो गया हूं।

मनुष्य की आत्मा ही सुखस्वरूप है। मनुष्य का शरीर ही उसके प्रकाशित होने का स्थान हैऔर उसके सारे कर्मों से निवृत्त हो जाता है। छुटकारा पा जाता है और यही मोक्ष है। इसलिए संसार के सभी भोगों को मन का विलास समझ कर वह अपने प्रारब्ध को भोगता हुआ पड़ा रहता है।

मनुष्य अपने सच्चे परमार्थयानी वास्तविक स्वरूप कोजो कि अपना ही स्वरूप हैभूलकर इस संसार को सत्य मानता हुआ अत्यंत भयंकर और विचित्र जन्म-मरण के चक्र में भटकता रहता है। जैसे अज्ञानी मनुष्य जल में उत्पन्न तिनके और सेवार से ढके हुए जल को जल न समझकरजल के लिए मृगतृष्णा की भांति दौड़ता हैवैसे ही अपनी आत्मा से भिन्न वस्तु में सुख समझने वाला पुरुष आत्मा को छोडक़र विषयों की ओर दौड़ता है।

यह शरीर तो प्रारब्ध के अधीन है। कर्मों के द्वारा जो अपने लिए सुख पाना और दुःखों को मिटाना चाहता है। वह कभी अपने कार्य में सफल नहीं हो सकता। उसके बार-बार किये हुए सारे कर्म व्यर्थ हो जाते हैं। मनुष्य सदा शारीरिकमानसिक आदि दुःखों से परेशान ही रहता है। यह मरणशील मनुष्य यदि बड़े श्रम और कष्टों से कुछ धन और भोग प्राप्त भी कर लिया तो उससे क्या होने वाला है।

लोभी और इंद्रियों के वश में रहने वाले धनियों का दुख तो मैं देखता ही रहता हूं। भय के मारे उन्हें नींद नहीं आती। सब पर उनका संदेह बना रहता है। इसलिए बुद्घिमान पुरुष को चाहिए कि जिसके कारण शोकमोहभयक्रोधराग आदि का शिकार होना पड़ता हैउन सबको त्याग देक्योंकि त्याग से ही सुख प्राप्त होता है।

मधुमक्खी जैसे मधु इकट्ठा करती हैवैसे ही लोग बड़े कष्टों से धन का संचय करते हैंपरंतु कोई उस धनराशि के स्वामी को मारकर उससे धन छीन लेता है। इससे मैंने यह शिक्षा ग्रहण की कि विषय भोगों से विरक्त ही रहना चाहिए।

सत्य की खोज करने वाले मनुष्य को चाहिए कि मन के नाना प्रकार के संकल्प-विकल्पों को आत्मानुभूति में स्वाह कर देआत्मा में स्वाहा कर दें और इस प्रकार आत्म-स्वरूप में स्थित होकर सांसारिक भोगों से निष्क्रिय एवं उपरत हो जाय। तब वह स्वत: ही सुख स्वरूप हो जायेगा।

प्रह्लाद जी मुनि दत्तात्रेय से धर्म के इन गूढ़ रहस्यों को समझ कर बड़े प्रेम से मुनि की पूजा की और उनसे विदा लेकर बड़ी प्रसन्नता से अपनी राजधानी के लिए प्रस्थान किया। 

झूठी स्वतंत्रता का अहसास कराता है धन
धन स्वामित्व और स्वतंत्रता का भाव देता है। किसी चीज़ का स्वामित्व का अर्थ है कि उसके अस्तित्व पर सम्पूर्ण नियंत्रण। जब आप कोई जमीन का टुकड़ा खरीदते हैं तो आप सोचते हैं कि आप उसके मालिक हैं जबकि उस जमीन का अस्तित्व उसके मालिक के मृत्यु के उपरांत भी रहता है। आप किसी चीज के मालिक कैसे हो सकते हैं जो आपके मृत्यु के उपरांत की रहेगी?

धन यह भी कल्पना देता है कि आप शक्तिशाली और स्वतंत्र हैं और इस तथ्य को सोचने में अंधे हो जाते हैं कि आप पारस्परिक निर्भरता की दुनिया में रहते हैं। आप सोचते हैं कि आप धन से किसी के भी मालिक बन सकते हैंऔर किसी की सेवा के लिए उसका मूल्य लगा सकते हैं। हम कृषकचालकरसोइये और हमारे आसपास के कई लोगों की सेवा पर निर्भर हैं। एक विशेषज्ञ सर्जन भी किसी की सहायता के बिना स्वयं शल्य क्रिया (आपरेशन) नहीं कर सकता।

वह भी दूसरे पर निर्भर है। सिर्फ कुछ रूपये देकर आप इस सच्चाई पर ध्यान नहीं देते कि आप उन पर निर्भर हैं। कृतज्ञ होने के बजाय आप सोचते हैं कि आपने उन पर उपकार किया है। अगर आप धनी लोगों के घमंडी होने का कारण देखें तो आप पायेंगे कि यह धन द्वारा पाई गई स्वतंत्रता का भाव है। दूसरी तरफ निर्भरता की सजगता व्यक्ति को नम्र बना देती है।

स्वतंत्रता का ये झूठा भाव मनुष्य से उसकी विनम्रता का मूल गुण छीन लेता है। मानवीय मूल्य इय स्तर पर नष्ट हो गये हैं कि हम लोगों की योग्यता उनकी वित्तीय सामर्थ्य के साथ आंकते हैं। क्या धन से सचमुच किसी व्यक्ति का मूल्य दर्शाया जा सकता हैअक्सर आप लोगों को लखपति या करोड़पति कहते हैं। इस तरह से किसी व्यक्ति को नाम देनाउसकी प्रशंसा नहीं है।

आप मानवीय जीवन का कोई मूल्य नहीं लगा सकते। संपत्ति को कौशलयोग्यताविरासत से या भ्रष्ट तरीकों से प्राप्त किया जा सकता है। संपत्ति कमाने के साधन के अनुसार उसके परिणाम मिलते हैं। भ्रष्टाचार का लक्ष्य शांति और सुख है। फिर भी अगर तरीका भ्रष्ट हो तो शांति और सुख भ्रामक हो जाते हैं।

एक तरफ कुछ लोग धन को समाज की बुराईयों का कारण मानते हैं। कुछ लोग इसे ही बुराई मानते हैं। जिस तरह धन का होना घमंड का कारण बन सकता है वैसे ही धन का तिरस्कार करना भी घमंड पैदा करता है। कई लोग जो धन को त्याग देते हैं वे दूसरों का ध्यान आकर्षित करने के लिए और सहानुभूति पाने के लिये अपनी निर्धनता पर गर्व करते हैं। परन्तु प्राचीन साधुओं ने धन की कभी निंदा नहीं की।

उन्होंने उसे ईश्वर का अंश मानकर उसका सम्मान किया और उसके भ्रम के मायाजाल की पकड़ से परे हो गये। वे जानते थे कि यदि हम किसी बात का तिरस्कार करते हैं या उससे घृणा करते हैंतो उससे कभी भी परे नहीं हो सकते। उन्होंने धन का सम्मान भगवान नारायण की पत्नी देवी लक्ष्मी के रूप में किया।

अज्ञान की स्थिति में लोग यह भूल जाते हैं कि इस ब्रम्हाण्ड में सबसे विश्वसनीय चीज/वस्तु हमारा भीतर का स्वयं है और वे धन को सुरक्षा का स्रोत मानकर उस पर विश्वास करना प्रारंभ कर देते हैं। जब लोगों मे अपनी योग्यतासमाज की अच्छाई या ईश्वर के प्रति श्रद्धा कम हो जाती है तो वे असुरक्षा के गहरे भाव से पीड़ित हो जाते हैं। यह आज की प्रमुख समस्या है।

इसकी वजह से केवल धन की प्राप्ति ही सुरक्षा प्रदान करने का जरिया प्रतीत होती है। वे उस पर विश्वास करते हैं जो निश्चित नहीं है और अंत में वे निराश हो जाते हैं। अनिश्चिता के कारण स्थिरता की तृष्णा उत्पन्न होती है। संसार परिवर्तनशील है और आत्मा परिवर्तित नहीं होती है। हमें जो बदलता नहीं उस पर विश्वास करना होगा और परिवर्तन को स्वीकार करना होगा।

यह वैसे है जैसे कि वास्तविक को अवास्तविक और अवास्तविक को वास्तविक समझना। वास्तव में सारे दुःख अवास्तविक होते हैं। एक ज्ञानी व्यक्ति जानता है कि प्रसन्नता वास्तविक है क्योकि वह आपका मूल स्वभाव है। अप्रसन्नता अवास्तविक होती है क्योंकि वह आपकी स्मरण शक्ति की देन होती है।

जब आप सब कुछ को एक सपने कि तरह देखने लगते हैं तो आप अपने प्राकृतिक स्वभाव में रहने लगते हैं जो प्रेमआनंद और शांति है। फिर हम यह समझ जाते हैं कि धन इतना महत्वपूर्ण नहीं है। मानवीय मूल्यअपनापनप्रेम और सेवा अधिक महत्वपूर्ण है।
  
ताकि देवता हमारे शरीर में सदैव मुस्काराते रहें
कहते हैं कि देवता स्वर्ग में रहते हैं और दानव पाताल में। ये दोनों ही स्थान कहीं और नहीं हमारे शरीर में मौजूद हैं। इसलिए देवता और दानव दोनों ही हमारे शरीर में रहते हैं। हमारे शरीर के अंदर हर पल देवताओं और दानवों के बीच संघर्ष चल रहा है। दोनों ही हमारे शरीर और मन पर अपना कब्जा बनाये रखने का प्रयास करते हैं।

जब हम मन में उठने वाले बुरे विचारों को नकार देते हैं तो देवता जीत जाते हैं। लेकिनजब बुराईयों को स्वीकार कर लेते हैं तब देवता पराजित हो जाते हैं। समाज को सुधारने के लिए देवता कभी भी आसमान से उतरकर नहीं आते हैं और न दानव धरती फाड़कर किसी का धन छीननेमुस्कुराते चेहरों को मौत की नींद सुलाने नहीं आता है।

हमारे बीच रहने वाले जो लोग मनावता की भलाई के लिए काम करते हैंगरीबोंदुखियों और कमज़ोरों की सहायता करते हैं उस मनुष्य के शरीर में दानव सहमा हुआ बैठा रहता है और देवता प्रसन्न होकर विराजमान रहते हैं। सामान्य मनुष्य जो देवता और दानव के युद्घ के बीच उलझे रहते हैं अर्थात् अच्छाई और बुराई के बीच फंसे रहते हैं वह इन्हें ही भगवान मानकर रामकृष्णबुद्धमहावीर तथा अन्य नामों से पूजा करते हैं।

रावणकंशहिरण्यकश्यपुहिरण्याक्ष भी मनुष्य रूप में थे। लेकिन इनके गुण और स्वभाव मानवता के विपरीत थे इसलिए यह दानव और असुर कहलाते हैं। हर युग में देवताओं ने अर्थात सद्गुणों ने दानवों अर्थात् दुर्गुणों को पाराजित किया है। हम सभी को प्रकृति के इस नियम का पालन करना चाहिए और अपने अंदर बैठे दानव को सद्गुणों से पराजित करना चाहिए ताकि हमारे शरीर में देवता सदैव मुस्कुराते रहें। 

तुम कामना करते हो पर हारना नहीं चाहते
वह व्यक्ति जो स्वस्थनिर्भारनिर्बोझताजायुवाकुंआरा अनुभव करता हैवही समझ पाएगा कि संतोष क्या है। अन्यथा तो तुम कभी न समझ पाओगे कि संतोष क्या होता है-यह केवल एक शब्द बना रहेगा।

संतोष का अर्थ हैः जो कुछ है सुंदर हैयह अनुभूति कि जो कुछ भी है श्रेष्ठतम हैइससे बेहतर संभव नहीं। एक गहन स्वीकार की अनुभूति है संतोषसंपूर्ण अस्तित्व जैसा है उस के प्रति हां’ कहने की अनुभूति है संतोष।

साधारणतया मन कहता है, ‘कुछ भी ठीक नहीं है।’ साधारणतया मन खोजता ही रहता है शिकायतें- यह गलत हैवह गलत है।’ साधारणतया मन इनकार करता है: वह ’ कहने वाला होता हैवह नहीं’ सरलता से कह देता है। मन के लिए हां’ कहना बड़ा कठिन हैक्योंकि जब तुम हां’ कहते होतो मन ठहर जाता हैतब मन की कोई जरुरत नहीं होती।

क्या तुमने ध्यान दिया है इस बात परजब तुम नहीं’ कहते होतो मन आगे और आगे सोच सकता हैक्योंकि नहीं’ पर अंत नहीं होता। नहीं के आगे कोई पूर्ण-विराम नहीं हैवह तो एक शुरुआत है। 'नहींएक शुरुआत है; 'हांअंत है।

जब तुम 'हांकहते होतो एक पूर्ण विराम आ जाता हैअब मन के पास सोचने के लिए कुछ नहीं रहताबड़बड़ाने-कुनमुनाने के लिएखीझने के लिएशिकायत करने के लिए कुछ नहीं रहता- कुछ भी नहीं रहता। जब तुम 'हांकहते होतो मन ठहर जाता हैऔर मन का वह ठहरना ही संतोष है।

संतोष कोई सांत्वना नहीं है- यह स्मरण रहे। मैंने बहुत से लोग देखे हैं जो सोचते हैं कि वे संतुष्ट हैंक्योंकि वे तसल्ली दे रहे हैं स्वयं को। नहींसंतोष सांत्वना नहीं हैसांत्वना एक खोटा सिक्का है। जब तुम सांत्वना देते हो स्वयं कोतो तुम संतुष्ट नहीं होते।

वस्तुतः भीतर बहुत गहरा असंतोष होता है। लेकिन यह समझ कर कि असंतोष चिंता निर्मित करता हैयह समझ कर कि असंतोष परेशानी खड़ी करता हैयह समझ कर कि असंतोष से कुछ हल तो होता नहीं-बौद्धिक रूप से तुमने समझा-बुझा लिया होता है अपने को कि यह कोई ढंग नहीं है।

तो तुमने एक झूठा संतोष ओढ़ लिया होता है स्वयं परतुम कहते रहते हो, ‘मैं संतुष्ट हूं। मैं सिंहासनो के पीछे नहीं भागतामैं धन के लिए नहीं लालायित होतामैं किसी बात की आकांक्षा नहीं करता।’ लेकिन तुम आकांक्षा करते हो। अन्यथा यह आकांक्षा न करने की बात कहां से आती?

तुम कामना करते होतुम आकांक्षा करते होलेकिन तुमने जान लिया है कि करीब-करीब असंभव ही है पहुंच पानातो तुम चालाकी करते होतुम होशियारी करते हो। तुम स्वयं से कहते हो, ‘असंभव है पहुंच पाना।’ भीतर तुम जानते होः असंभव है पहुंच पानालेकिन तुम हारना नहीं चाहतेतुम नपुंसक नहीं अनुभव करना चाहतेतुम दीन-हीन नहीं अनुभव करना चाहतेतो तुम कहते हो, ‘मैं चाहता ही नहीं।

तुमने सुनी होगी एक बहुत सुंदर कहानी। एक लोमड़ी एक बगीचे में जाती है। वह ऊपर देखती हैः अंगूरों के सुंदर गुच्छे लटक रहे हैं। वह कूदती हैलेकिन उसकी छलांग पर्याप्त नहीं है। वह पहुंच नहीं पाती। वह बहुत कोशिश करती हैलेकिन वह पहुंच नहीं पाती।

फिर वह चारों ओर देखती है कि किसी ने उसकी हार देखी तो नहीं। फिर वह अकड़ कर चल पड़ती है। एक नन्हा खरगोश जो झाड़ी में छिपा हुआ था बाहर आता है और पूछता है, ‘मौसीक्या हुआ?’ उसने देख लिया कि लोमड़ी हार गईवह पहुंच नहीं पाई। लेकिन लोमड़ी कहती हैकुछ नहीं अंगूर खट्टे हैं। 

जहां प्रेम हैवहां परमात्मा है
मनुष्य रूप में जन्म लेकर यदि तुम्हारे वश का कुछ नहीं है तो प्रेम का रास्ता अपना सकते हो। क्योंकि प्रेम से ही ध्यानयोगसाधना इत्यादि संभव हो सकता हैजो परमात्मा से जुडऩे का सबसे सरल उपाय है। स्वभाव से सरल हो जाओ। मन में मत पैदा होने दो कुंठाएं। जैसे तुम अपने आप को प्रेम करते होवैसे ही प्रेम परमात्मा से भी करो । परमात्मा को अपना ही अंश समझो। प्रेम से ही भक्ति होती है। क्योंकि प्रेम में पूर्ण समर्पण की भावना होती हैउसमें स्वार्थ नहीं होता।

जहां प्रेम होता हैवहां त्याग की भावना होती है। जहां अहंकार होता हैवहां प्रेम की भावना नहीं होती। प्रेम में लोभ की भावना नहीं होती। जिसके अंदर प्रेम का भाव हैवही भक्ति कर सकता है। प्रेम सेपरमात्मा सेजुडऩा ही भक्ति है। परमात्मा को पाने का सबसे सरल उपाय प्रेम पूर्वक समर्पित हो सच्चे भक्त बन जाओ।

प्रत्येक घटना को परमात्मा की इच्छा मान स्वीकारते जाओ। उसे परमात्मा की मर्जी समझ स्वीकारते जाओ। स्वीकार करने का भाव अपने अंदर ले आओ। परमात्मा जैसा चाहता है उसे स्वीकार करना सीखोमत करो विवादमत करो शिकायतमत करो क्रोधमत हो नाराज।

परमात्मा से आत्मा का जुड़ाव न होने के कारण मनुष्य के अंदर स्थित आत्मा अचेत हो गई है और मन आत्मा पर हावी हो गया है। मन में कई तरह के विकार आ गये हैंजिससे चेतन शक्ति क्षीण हो गई है। अचेत पड़ी आत्मा को सचेत करना होगा। क्योंकि आत्मा तो परमात्मा का अंश है। आत्मा को सचेत करने के लिए परमात्मा से जुडऩे का प्रयास करना होगा।

हमें अपने अंदर परमात्मा के गुणों को विकसित करना होगा। इसके लिए सदाचारी बनोअपने अंदर सद्भाव लाओ। अपने दिल से नफरत को निकाल दो और संसार में प्रेम की ज्योति जला दो। बिना जप तप कियेपरमात्मा को पाने का सबसे सरल उपाय है कि परमात्मा से प्रेम करो। प्रभु के भक्त हो जाओ। जैसे तुम अपने आपसे जुड़े हो वैसे ही परमात्मा से जुड़ जाओ।

परमात्मा का भजन ही तुम्हें इस संसार से पार उतारेगा। परमात्मा का सुमिरन ही तारेगा। दो अक्षर प्रभु के नाम का प्रेम से स्मरण करने से ही परमात्मा का दर्शन संभव है। क्रोध की लाल आंखें कुछ न कर सकेगी। मोह-लोभ से भरे तुम्हारे कर्म व्यर्थ हो जाएंगे। मन में द्वेष के विचार पतन की ओर ले जाएंगे। तुम्हारे प्रेम भरे वचन स्वर्ग की ओर मोड़ देंगे। तुम्हें बतानासमझानामेरा कर्तव्य हैमेरे बताए हुए को समझना तुम्हारा कर्तव्य है।

मैंने प्रभु से जुड़ने की युक्ति बताकर अपने दायित्व को पूरा किया है। उस युक्ति को समझकर उसे अमल में लाते हुए तुम अपने दायित्व को पूरा करो। यह जीवन कर्म करने के लिए मिला है। जिनको अपने जीवन से प्रेम हैवे कर्म कर रहे हैं। बिना प्रेम के कुछ भी संभव नहीं होता। परमात्मा का नाम ही प्रेम है। इसलिए जहां प्रेम हैवहां परमात्मा है।
  
बैंक में जमा पूंजी बढ़ाने के समान है सेवा
भगवान आपसे कुछ नहीं चाहता। जब आप कुछ भी करते हैं सिर्फ उसका आनंद प्राप्त करने के लिए और उसमें से कुछ भी नहीं चाहतेवही सेवा है। सेवा से आपको तत्काल संतोष और दीर्घकालिक आनंद प्राप्त होता है।

अपने भीतर भगवान को देखना ध्यान है और आपके बाजू के व्यक्ति में भगवान को देखना सेवा है। अक्सर लोगों में भय होता है कि दूसरे लोग उनका शोषण करेंगे यदि वह सेवा करेंगे। सनकी होये बिना सजग और बुद्धिमान रहें।  सेवा से योग्यता आती है और ध्यान के गहन में जाने में सहायता मिलती है और ध्यान से आपकी मुस्कुराहट वापस आ जाती है।

सेवा और आध्यात्मिक अभ्यास साथ में चलते हैं। जितना आप ध्यान के गहन में जाएंगे उतनी ही दूसरों के साथ बांटने की इच्छा में वृद्धि होगी। जितनी आप दूसरों की सेवा करेंगे उतने ही गुण आप प्राप्त करेंगें। कई लोग सेवा इसलिये करते हैं क्योंकि उससे उन्हें लाभ प्राप्त होता है। जब लोग खुश होते हैं तो उन्हें लगता है कि अतीत में निश्चित ही उन्होंने सेवा की होगी।

इसके विपरीत यदि आप खुश नहीं हैं तो फिर सेवा करें इससे आपकी चेतना का विस्तार होगा और आप खुशी का अनुभव करेंगें। जितना आप बांटेंगे उतनी ही शक्ति और प्रचुरता की बौछार आप पर होगी। यह बैंक में जमा पूंजी को बढ़ाने के समान है। जितना आप अपने आपसे खुल जाते हैं उनता ही आप भगवान को अपने में प्रवेश करने का स्थान प्रदान करते हैं।

किसी उद्देश्य के लिये सेवा
जब आप सेवा को अपने जीवन की सबसे बड़ी प्राथमिकता बना लेते है तो फिर भय समाप्त हो जाता है। मन और अधिक केंद्रित हो जाता है। कृत्य को उद्देश्य मिलने लगता है और दीर्घकालीन आनंद की प्राप्ति होती है। जब आप सेवा करते हैं तब आप में स्वाभाविकता और मानवीय मूल्य निखरने लगता हैं और आपको भय और उदास मुक्त समाज निर्मित करने में सहायता प्राप्त होती है।

युवाओं के लिये आध्यात्म उनकी बांटने की क्षमता में निखार लाता है और उनके आत्मविश्वास को बढ़ाता है। यदि आपकी दूसरों की मदद और सेवा करने की इच्छा है तो आपको चिंता करने की जरूरत नहीं क्योंकि दिव्यता आपका अच्छे से ध्यान रखेगी। पैसों की बहुत चिंता न करें। प्रेम और आभार से परिपूर्ण रहें। प्रेम में रहकर अपने भीतर के भय से निकलें।

बांटने का आनंद
उदासी का सबसे बड़ा और प्रभावी प्रतिकारक सेवा होती है। जिस दिन भी आप निराशाजनक और मंद महसूस कर रहे हों उस दिन अपने घर से निकलें और लोगों से पूछें, 'मैं आपके लिये क्या कर सकता हूँ।जो आप सेवा करेंगे उससे आपका जीवन के प्रति दृष्टिकोण बदलेगा और आपके भीतर एक आनंद की लहर आएगी क्योंकि आपने किसी के जीवन को मुस्कुराने का मौका दिया है।

जब आप प्रश्न करते है, ' मैं ही क्योंया 'मेरे बारे में क्याइससे आपको उदासी और निराशा मिलेगी। इसके आलावा कुछ श्वास अभ्यास जैसे सुदर्शन क्रिया करें और प्रतिदिन कुछ मिनटों के लिये मौन धारण करें। इससे आपके मन और शरीर को ऊर्जा मिलेगी और शक्ति में वृद्धि होगी।

दो किस्म के आनंद होते हैं। पहला आनंद पाने का होता है। जैसे एक बालक कहता है, 'यदि मुझे कुछ मिलेगातो मैं खुश हो जाऊंगा। यदि मुझे खिलौना मिलेगा तो मैं खुश हो जाऊंगा।आप अधिकांश समय इसी में फंसे रहते हैं और इससे परे नहीं जाना चाहते। वास्तविक आनंद भीतर से आता है और वह सिर्फ बांटने में है।

अपनी तरफ ध्यान खींचने का प्रयास भी एक रोग है
हम प्रेम लिए आतुर होते हैं। तुम्हें पता नहीं होगा कि क्योंक्योंकि प्रेम के बिना ध्यान नहीं मिलता। प्रेम की तलाश वस्तुतः ध्यान की तलाश है। कोई तुम पर ध्यान देतो तुम्हारे भीतर जीवन का फूल खिलता हैबढ़ता है। कोई ध्यान न देकुम्हला जाता है। इसलिए प्रेम की प्यास कि कोई प्रेम करेवस्तुतः प्रेम की नहीं है।

कोई ध्यान देकोई तुम्हारी तरफ देखेकोई तुम्हारी तरफ देख कर प्रसन्न होआनंदित होतो तुम बढ़ते हो। मगर कभी-कभी यह रुग्ण रूप ले लेता है। रुग्ण रूप हर चीज के होते हैं। प्रेम की खोज तो स्वस्थ हैलेकिन कोई आदमी फिर यह भी कोशिश करता है कि किसी भी तरह ध्यान मिलेतो खतरा हो जाता है।

तुम अगर जोर से रोओ-चिल्लाओतो लोगों का ध्यान तुम्हारी तरफ आएगा। बच्चा सीख जाता हैमां अगर उसे ठीक से प्रेम नहीं करती। जिस बच्चे को मां ठीक से प्रेम करती हैवह रोताचीखताचिल्लाता नहीं है। लेकिन जिसकी मां ठीक से प्रेम नहीं करतीबच्चा ज्यादा रोताचीखताचिल्लाता है। क्योंकि अब वह एक तरकीब सीख रहा है कि जब वह चिल्लाता हैतो मां ध्यान देती हैसामान पटक देता हैतो मां ध्यान देती हैकोई चीज तोड़ देता हैतो मां ध्यान देती है।

कभी आपने ख्याल किया कि आपके घर में मेहमान आ जाएंतो बच्चे ज्यादा चीजें पटकते हैंज्यादा उपद्रव मचाते हैंवे मेहमानों का ध्यान खींच रहे हैं। वैसे शांत बैठे थे। और आप चाहते हैं कि जब मेहमान आएं तब वे शांत रहें। वे कैसे शांत रहेंघर में और लोग आए होंउनका ध्यान...और मेहमान आपसे ही बातें कर रहे हैं और बच्चे की तरफ कोई ध्यान नहीं दे रहे हैंतो बच्चा पच्चीस उपद्रव करेगा ताकि आप ध्यान दोमेहमान भी ध्यान दें।

अनजाने चल रहा है। लेकिन ध्यान बढ़ोत्तरी का हिस्सा है। वह बढ़ेगाजितना ज्यादा ध्यान दिया जाएगा। फिर लोग बीमार हो जाते हैं। जैसे एक राजनीतिज्ञ हैवह भी और कुछ नहीं मांग रहा है। पद पर हो कर मिलेगा क्या उसकोहजार तरह की गालियां मिलेंगीहजार तरह का अपमान मिलेगाहजार तरह की निंदा मिलेगीऔर कुछ मिलने वाला नहीं है।

लेकिन एक बात हैकि जब वह पद पर होगाकुर्सी पर होगातो ध्यान मिलेगाचारों तरफ से लोग देखेंगे। पद की खोज ध्यान की खोज हैलेकिन रुग्ण। क्योंकि यह जो ध्यान हैइस तरह मांगनाजबर्दस्ती मांगना हैहिंसात्मक है। जैसे बच्चा चीज तोड़ कर ध्यान मांग रहा हैऐसे ही राजनीतिज्ञ भी हिंसात्मक हो कर ध्यान मांग रहा है।

इसलिए आप देखेंअगर कभी किसी मुल्क में युद्ध हो जाएतो युद्ध के समय में जो मुल्क का बड़ा नेता हैवह महानेता हो जाता है। क्योंकि युद्ध के समय में जितना ध्यान आपको नेता पर देना पड़ता हैशांति के समय में नहीं देना पड़ता है। इसलिए राजनीतिशास्त्र कहता है कि अगर किसी को महान नेता होना है तो पद पर होते वक्त युद्ध होना ही चाहिए। नहीं तो नहीं होता।

हिंदुस्तान-पाकिस्तान का युद्ध हो गया बांग्लादेश को लेकर इंदिरा को आप कहने लगे कि महाकाली है। वह आपने कभी नहीं कहा होता। नेता खो जाते हैंअगर युद्ध उनके जीवन में न घटे। और अगर युद्ध में वे हार जाएंतो फिर ध्यान उनको बिल्कुल नहीं मिलता। अगर युद्ध में जीत जाएंतो फिर पूरा ध्यान मिलता है। इसलिए नेता बड़ी कोशिश में होता है कि किसी तरह जीत का सेहरा उसके सिर बंध जाएताकि सारा मुल्कसारी दुनिया उस पर ध्यान दे।

महसूस करो खुद में ईश्वर की झलक मिलेगी
सारे दुःखसारी तकलीफें यदि सदा-सदा के लिए मिटानी हैं तो दर्दशामक गोलियों (पेनकिलर्स) से नहीं मिटेंगीउसके लिए किन्हीं ऐसे महापुरुष के पास जाना होगा जो अपने निजस्वरूप, ‘सोऽहम्’ स्वभाव में स्वयं टिके हुए हों और दूसरों को टिकाने का सामर्थ्य रखते हों।

अपने सोऽहम्’ स्वरूप में टिकने की साधना मोक्ष की साधना हैदुःखों की आत्यंतिक निवृत्ति और परमानंदप्राप्ति की साधना हैईश्वरप्राप्ति की साधना है। श्वास अंदर जाता है उसमें मिला दो सोऽऽऽ’ और बाहर आता है उसमें मिला दो हम्’ और भावना करो: जिसकी सत्ता से आँख देखती हैवह चैतन्य मैं हूँ। जिसकी सत्ता से हाथ उठते हैंवह चैतन्य मैं हूँ। मरने के बाद भी जो रहता हैवह मैं हूँ।

मैं शांत आत्मा हूँचैतन्य आत्मा हूँसुखस्वरूप हूँअमर हूँईश्वर का अविभाज्य अंश हूँ। जिस सोऽहम्’ स्वभाव में गोता लगाकर मेरे गुरुजी शांतआनंदित और समर्थ हुएउसी में गोता लगाकर मैं शांतात्मा हो रहा हूँ। मैं अपने गुरुस्वभाव सेगुरुदेव से मिल रहा हूँ। सोऽहम्चैतन्योऽहम्शाश्वतोऽहम्इष्टसन्तानोऽहम्सोऽहम्... अब हम दुर्जनों से दबेंगे नहीं।

सद्गुरु और परमात्मा को दूर नहीं मानेंगेपराया नहीं मानेंगे। सोऽहम्...’ यह मोक्ष की कुंजी है; ‘मास्टर की’ है मोक्ष कीदुःखों को भगाने की। रोगों को मिटाने में भी यह आनंदरस काम देगा। रात्रि को सावधानी से सोऽहम्’ जपते-जपते सो जाएं। सुबह जगें तो जो श्वास चल रहा है उसमें सोऽहम्’ को देखें। श्वास अंदर जाता है तो सोऽऽऽ’, बाहर आता है तो हम्...। इस प्रकार जप सदा चलता ही रहता हैकेवल हम भूल गये। अभ्यास करो तो यह भूल हटे। चौबीसों घंटे यह जीव अजपा जप’ करता रहता है। उसको यह पता चल जाय तो निहाल हो जाय।

मानसिक जप सतत चलने लगा तो प्रो. तीर्थराम में से स्वामी रामतीर्थ हो गये। सबसे उत्तमसभी लोग कर सकें ऐसी सरल साधना है- मंत्रजपभगवन्नाम-जप। जपते-जपते ऐसी आदत पड़ जाय कि होंठ हिलें नहींजीभ चले नहींफिर भी हृदय में जप चलता रहे। मंत्र के अर्थ में मन गमन करता रहे। जप करते-करते उसके अर्थ में ध्यान लगे और मन को स्वाद आ जाय तो फिर उसमें मन लगता रहेगा व परमात्मा तो अपना आत्मा होकर चमचम चमकेगा।

ईश्वर की तरफ से देर नहीं है। हँसते-खेलते ईश्वर का आनंदईश्वर का माधुर्य और ईश्वर की प्रेरणा मिलेगी। पैसा कमाना मना नहीं हैऔषध खाना मना नहीं हैहास्य करना मना नहीं है। मैं तो कहता हूँ विषाद करना भी मना नहीं हैदुःखी होना मना नहीं है लेकिन दुःख को योग बना दो। विषाद को योग बना दो।

चिपको मत... किसी चीज में चिपको मत। धन में चिपको मतवह रहेगा नहीं। काम मेंक्रोध मेंप्रशंसा मेंनिंदा में चिपको नहीं। ये सब आने-जानेवाले हैंतुम सदा रहनेवाले हो। शरीर में चिपको नहींयह बूढ़ा होनेवाला हैमरनेवाला है। तुम अमर हो इस प्रकार का दृढ़ ज्ञान रखो तो तुम्हारे लिए संसार आनंदवन बन जायेगासुखालय हो जायेगा।

वे मनुष्य धनभागी हैं जो आत्मारामी संत-महापुरुषों के सान्निध्य में जाकर सत्संग-श्रवण करके इस प्रकार की जीवनोपयोगी कुंजियां पा लेते हैं और उनका अभ्यास करके अपने जीवन को रसमय बना लेते हैं। इससे उनके जीवन में लौकिक उन्नति तो होती ही हैसाथ-साथ आध्यात्मिक उन्नति भी होती है। वे देर-सवेर अपने साक्षीस्वरूप परब्रह्म-परमात्मा का साक्षात्कार कर लेते हैंअपने सोऽहम्’ स्वभाव में जग जाते हैं।

ब्रह्मांड को समझे बिना आत्मा का पता नहीं लगा सकते
वाणी के चार स्तर होते हैं - परापश्यन्तिमध्यमाऔर वैखरी। मनुष्य केवल चौथे स्तर में बोलते हैं। जो भाषा में हम बात करते हैं वह वैखरी है। यह वाणी का सबसे स्थूल रूप है। वैखरी से सूक्ष्ममध्यमा है। कुछ कहने से पहले उसका विचार हमारा मन सोच लेता है। जब आप उस स्तर को पकड़ लेते हैं तो वह मध्यमा है। पश्यन्ति संज्ञानात्मक है।

शब्द बोलने की कोई ज़रूरत नहीं है। परा वह अनकहाअप्रकट ज्ञान है जो इन सबके परे है। पूरा ब्रह्मांड गोलाकार है। उसका न ही कभी आदि हुआ और न ही कभी उसका अंत होगा। वह अनादि और अनंत है अगर ऐसा है तब ब्रह्मा – रचयिता का क्या काम हैकहते हैं कि हर युग में बहुत सारे ब्रह्माविष्णु और महेश हैं।

समय और स्थान में यह होता चला आ रहा है। तो इस सृष्टि का स्रोत क्या हैज्ञान आकाश से परे है। ज्ञान पांच तत्वों से भी परे है। जिन्हें वेद समझा गया वे वैखरी नहीं हैं। उनकी अनुभूति आकाश से परे है। उसके विस्तार में सभी दिव्य स्पंदन समाहित हैं जो कि सर्वव्यापी है। आकाश क्या हैआकाश को व्योम या व्याप्ति वर्णित किया जाता है – जिसका मतलब है जो सर्वव्यापी और सब में समाया हुआ है। आकाश से परे क्या हैआकाश से परे के बारे में सोचना अकल्पनीय है।

सब कुछ आकाश में निहित हैसभी चार तत्व आकाश में ही हैं। सबसे स्थूल है पृथ्वी और फिर जलअग्निवायु और आकाश। वायु अग्नि से अधिक सूक्ष्म है। आकाश सूक्ष्मतम है। वह क्या है जो कि आकाश से भी परे हैवह है मनबुद्धिअहंकार और महत तत्त्व। यही तत्त्व ज्ञान है- ब्रह्मांड के सिद्धांत को जानना। जब तक आप ब्रह्मांड के सिद्धांत को नहीं जानेंगे तब तक आत्मा का भी पता नहीं लगा सकते हैं।

जब आप आकाश से परे जाते हैं तो यह एक अनुभूति का क्षेत्र है। यह पूरा क्षेत्र आकाश से परे शुरू होता है। हमारे प्राचीन ऋषियों ने पदार्थ और उसके गुण के बीच रिश्ते के बारे में बात की है। एक बहुत ही दिलचस्प बहस चल रही है – क्या हम पदार्थ के गुणों को उससे अलग कर सकते हैंयह पूरा दर्शन बहुत दिलचस्प है और इसका निष्कर्ष यह निकला की आप पदार्थ की गुणों को पदार्थ से अलग नहीं कर सकते हैं।

क्या चीनी की मिठास को चीनी से अलग किया जा सकता हैक्या वह तब भी चीनी कहलाएगीक्या गर्मी और प्रकाश को आग से अलग किया जा सकता हैऐसा होने पर क्या उसे आग कहा जाएगापदार्थ के गुण कहाँ से आते हैंपहले क्या आता है – गुण या पदार्थइस तरह के कई सवाल हैं। आप अधिक सूक्ष्म जाकर परम व्योम में पहुँच जाते हैं।

सभी देवी – देवता उसी स्थान में रहते हैं। ब्रह्मांड के सिद्धांतों को समझे बिनापरम व्योम को जाने बिना वैदिक भजन और मंत्र को जानने का क्या प्रयोजन हैउस आकाश के गुण को स्वरूप कहते हैं। स्वरूप वह चेतना है जो स्वरूप से स्फुट होता है - स्वरित - जिससे रचना बहती है और नाम एवं रूप के साथ प्रकट होती है – जिसे साकार कहते हैं। सृष्टि के लाखों जीव स्वरूप से प्रकट हुए।

आकाश के अलावा चार तत्वों में समय समय पर खलबली आती है अगर सहारे के लिए आप उन पर निर्भर हो जाते हैंतो वे आपको हिलाकर आकाश तत्व की ओर तुम्हें वापस ले जाएंगे। 

आत्मविश्वासी इंसान के इशारे पर नाचती हैं सभी शक्तियां
आत्मविश्वास’ यानी अपने-आप पर विश्वास। जीवन में सफलता पाने के लिए आत्मविश्वास का होना अति आवश्यक है। आत्मविश्वास ही सभी सफलताओं की कुंजी है। जिस व्यक्ति के जीवन में यह सद्गुण नहीं है वह बलवान होते हुए भी कायर सिद्ध होता हैपढ़ा-लिखा होते हुए भी अनपढ़ सिद्ध होता है।

आत्मविश्वास की कमी होनास्वयं पुरुषार्थ न करके दूसरे के भरोसे अपना कार्य छोड़ना- यह अपने साथ अपनी आत्मिक शक्तियों का अनादर करना है। ऐसा व्यक्ति जीवन में असफल रहता है। जो अपने को दीन-हीनअभागा न मानकर अजन्मा आत्माअमर चैतन्य मानता हैउसको दृढ़ विश्वास हो जाता है कि ईश्वर व ईश्वरीय शक्तियों का पुंज उसके साथ है।

आत्मविश्वास मनुष्य की बिखरी हुई शक्तियों को संगठित करके उसे दिशा प्रदान करता है। आत्मविश्वास से मनुष्य की शारीरिकमानसिक व बौद्धिक शक्तियों का मात्र विकास ही नहीं होता बल्कि ये सम्पूर्ण शक्तियां उसके इशारे पर नाचती हैं।

आत्मविश्वास सुदृढ़ करने के लिए प्रतिदिन शुभ संकल्प व शुभ कर्म करने चाहिए तथा सदैव अपने लक्ष्य पर ध्यान केन्द्रित रखना चाहिए। जितनी ईमानदारी व लगन के साथ हम इस ओर अग्रसर होंगेउतनी ही शीघ्रता से आत्मविश्वास बढ़ेगा। फिर कैसी भी विकट परिस्थिति आने पर हम डगमगायेंगे नहीं बल्कि धैर्यपूर्वक अपना मार्ग खोज लेंगे।

फिर भी यदि कोई ऐसी परिस्थिति आ जाय जो हमें हमारे लक्ष्य से दूर ले जाने की कोशिश करे तो परमात्म-चिंतन करके, ‘’ का दीर्घ उच्चारण करते हुए हमें ईश्वर की शरण चले जाना चाहिए। इससे आत्मबल बढ़ेगाखोया हुआ मनोबल फिर से जागृत होगा। सभी महान विभूतियों एवं संत-महापुरुषों की सफलता व महानता का रहस्य आत्मविश्वासआत्मबलसदाचार में ही निहित रहा है। उनके जीवन में चाहे कितनी भी प्रतिकूल व कठिन परिस्थितियां आयीं वे घबराये नहींआत्मविश्वास व निर्भयता के साथ उनका सामना किया और महान हो गये।

शिवाजी ने आत्मविश्वास के बल पर ही 16 वर्ष की उम्र में तोरणा का किला जीत लिया था। पूज्यपाद लीलाशाहजी महाराज ने 20 वर्ष की उम्र में ही ईश्वर की अनुभूति कर ली। महाराष्ट्र के संत ज्ञानेश्वर महाराज झुंड-के-झुंड विरोधियों के बीच किशोर अवस्था से ही डटे रहे। दुबले-पतले महात्मा गांधी ने आत्मविश्वास के बल पर ही कुटिल अंग्रेजों से लोहा लिया और अंग्रेजो! भारत छोड़ो’ का नारा लगाकर अंग्रेज शासकों को भारत छोड़के भागने पर मजबूर कर दिया।

अतः कैसी भी विषम परिस्थिति आने पर घबरायें नहीं बल्कि आत्मविश्वास जगाकर आत्मबलसाहसउद्यमबुद्धि व धैर्य पूर्वक उसका सामना करें और अपने लक्ष्य को पाने का संकल्प दृढ़ रखें।

लक्ष्य न ओझल होने पायेकदम मिलाकर चल।
सफलता तेरे चरण चूमेगीआज नहीं तो कल॥

ये आठ गुण अगर आ जाएं तो बदल जाएगी आपकी जिंदगी
अगर आपको अपना व्यक्तित्व निखारना हैअपना प्रभाव विकसित करना है तो जीवन में आठ सद्गुण ले आइये। ये आठ सद्गुण और नौंवी आरोग्यप्रद स्थलबस्ति’  आपके प्रभाव में चार चाँद लगायेंगे। कितना भी साधारण आदमी होतुच्छ हो तो भी वह बड़ा प्रभावशाली हो जायेगा।

(1) कला प्रभावोत्पादक मानवीय व्यवहार।
पशु जैसा व्यवहार नहींकूड-कपटबेईमानी नहींमानी जैसा व्यवहार नहींमनुष्य को शोभा दे ऐसा व्यवहार करें। कर्मों की गति गहन हैइसलिए ऐसे कर्म करो जिससे भगवान की प्रीति जगे।

(2) दूसरों के महत्त्व को भी स्वीकार करें।
दूसरों के अंदर भी गुण हैं। अपने द्वारा उनका विकास हो तो अच्छा हैनहीं तो उनका अंदर से मंगल चाहें। डाँटें तो भी मंगल की भावना से।

(3) आनंदित रहेंप्रसन्न रहेंमित्र-भावना से सम्पन्न रहें।
आनंदित और प्रसन्न रहने के लिए बैठे-बैठे या लेटे-लेटे दोनों नथुनों से खूब श्वास लेंपेट भर लेंफिर अशांतिखिन्नता और रोग के कण बाहर निकल रहे हैं।’ - ऐसी भावना करते हुए मुँह से छोड़ें। इससे निरोगता भी बढ़ेगी और प्रसन्नता भी बढ़ेगी। रोज सुबह 10 से 12 बार ऐसा कर लें।

(4) आत्मसंयम।
जो नहीं खाना चाहिएजो नहीं करना चाहिएबस उससे अपने को बचायें तो जो करना चाहिए वह अपने-आप होने लगेगा।

(5) अपना उद्देश्य निश्चित करें कि मुझे अपने आत्मा-परमात्मा को पाना है।
जिसको पाना सहज हैअभागा मनअभागी बुध्दि तू उधर क्यों नहीं चलती! जिसको पाये बिना दुर्भाग्य का अंत नहीं होता और जिसको पाने से कोई कमी नहीं रहतीतू उसको पा ले न!’ - ऐसा अपने मन को समझायें।

(6) दूसरों के लिए हित की भावना और अपने लिए मितव्यय।
अपने लिए ज्यादा ऐश नहीं। अपने लिए ज्यादा खर्च न करें और लोगों के हित का व्यवहार करें। हितमित और प्रिय वाणी आपके हृदय को उन्नत बना देगी।

(7) संतुलित मनोरंजन।
मनोरंजन होविनोद हो लेकिन वह भी संतुलित होनियंत्रित हो। मनोरंजन की सीमा हो।

(8) आत्मसाक्षात्कार के लिए अमिट उत्साह।
जब तक परमात्मा का साक्षात्कार नहीं हुआतब तक आत्मा-परमात्मा को पाने का उत्साह बना रहे। अभी क्यों नहीं हो रहा हैकैसे पाऊँ प्रभु को ?’ इस तरह उत्साह से लगे रहें।

ये आठ सद्गुण अपने हृदय में भर लें तो आपका प्रभाव खूब ही हो जायेगा। जिसके जीवन में ये सद्गुण आ गये वह तो धन्य हो गयाउसका कुटुम्ब भी धन्य हो गया और उससे मिलनेवाले भी धनभागी हो जाते हैं। ये आठ सद्गुण आ गये तो आपको तो ईश्वर मिल जायेंगेसाथ ही आपके पदचिह्नों पर हजारों-लाखों लोग चलेंगे। और इन सद्गुणों को साकार करने में स्थलबस्तिजो आपको दीक्षा के समय सिखायी जाती हैवह चार चाँद लगायेगी । आरोग्य और प्रभावशाली व्यक्तित्व मेंनिर्विकारिता में और ईश्वर प्राप्ति में बेजोड़ सहयोग देगी ।

भगवान को पसंद हैं ज्ञानी लोग
सत्संग में रुचि होनाज्ञान मेंकर्मशीलता में रुचि होनाकर्मयोगी होनाज्ञान योगी होना ये धन हैं जीवन के। धर्मवीर-ज्ञानवीर शूरवीर- दानवीर होनायह सब धन हैं। इन धनों को उत्पन्न करने वाली शक्ति का नाम ज्ञान है।

भगवान कृष्ण गीता में कहते हैंसंसार में यद्यपि सभी उत्तम हैंपरन्तु मेरे लिए सबसे उत्तम मेरा ही रूप हैमेरे स्वरूप के अनुसार जो ज्ञान से युक्त हैउसके अन्तर में मैं ही उतरा हूं। जो भी श्रद्घा युक्त होकर नाम जपने के लिए समय निकालता है वह उत्तम है परन्तु ज्ञानी मेरा ही स्वरूप है। कृष्ण जगद्गुरु हैंपरमात्मा के लिए समय निकालने वालाश्रद्घा से भजन करने वाला उत्तम हैलेकिन ज्ञानी तो साक्षात् ब्रह्म का स्वरूप है।

भगवान कहते हैंज्ञानी मेरे ही स्वरूप वाला हो जाता है। भगवान को ज्ञान वाला व्यक्ति प्रिय है। ज्ञानी व्यक्तियों का जीवन खुशबु की तरह आज भी महक रहा हैयद्यपि उनका शरीर नहीं है दुनिया मेंअद्भुत लोग थे वह।

महान-पुरुष किसी एक देशजातिवर्ग के नही हैंउनको सीमाओं में कैद नहीं किया जा सकता। कैद किया तो उनकी सुगन्धसुगन्ध नहीं। वह सारी दुनिया की सम्पति हैंदायरे में बांधने के लिए नहीं है। दूसरों के दरवाजे को ठकठकाने की आदत मत डालोखुद परिश्रम करना सीखो। तुम्हारा खजाना तुम्हारे भीतर है।

कन्फयूशियस ने कहासागर तट पर बिखरी अनेक शिलाओं में एक तुम होअपने अन्दर वह चमक पैदा करो। जो हीरे में हुआ करती है। जिन्होंने महानपुरूषों के ज्ञान-धन को सुरक्षित रखा और आज वह ज्ञान मानव-मात्र की सम्पत्ति बन गया। मीरा गाती रहीपुरन्दरदास गाते रहे। पुरन्दरदास ने कहा मिट्टी का घड़ामिट्टी का तनमगर पकने पर वह घड़ा मिट्टी नहीं रह जातामिट्टी से बने इन्सान तू भी परमात्मा के प्यार में अपने को पकाफिर तू मिट्टी का नहीं रह जाएगा। उन्होंने परमात्मा की सम्पदा बार-बार लुटाई जो मनुष्य-मात्रा की सम्पत्ति बन गई।

गुरु ज्ञानी-परमात्मा की बगिया के खिले हुए सुन्दर फूल हैं। दुनिया में ठीकरे इक्ट्ठे करने वाले लोग बहुत हैं परन्तु ज्ञान को संचित करने वाले लोग भाग्यशाली होते हैं। ऐसे संचय करने वाले लोग दुनिया में बहुत कम होते हैंकोई-कोई ही ऐसा साज बनता है। जिसके अन्दर यह संगीत पूफटता हैवह कोई विरला ही होता है। इसलिए निवेदन करना चाहता हूं- चेहरा मत लटकाओउत्साह को मार मत दोकर्मठता को छोड़ मत देना।

दूसरों को गिरा कर कोई आगे नहीं बढ़ताखुद उठो दूसरों को उठाओ। धन-बल से इतने समर्थ बन जाओ कि खुद भी उठो और दूसरों को भी आगे बढ़ाओ। ऐसे लोगों के साथ प्रकृति की शक्तियां भी जुट जाती हैं। लाचार होकर दूसरे की मदद की उम्मीद न करें। कुछ लोग ऐसे हैं जो यहां भी बैठे आनन्द लेते हैं परमात्मा का।

ज्ञानी परमात्मा को पसन्द है और ज्ञानियों के कारण यह धरती शोभायमान है। शिलाओं पर बैठकर मन्त्र लिखेशिक्षाएं लिखीं। आने वाले समय में कोई भी पढ़ेगाउसका कल्याण होगा। सम्राट अशोक के समय पत्थर पर कीमती शिक्षाएं लिखी गईं। उनका प्रयास रहा कि ज्ञान के पुष्प अपनी खुशबु के साथ मानव जाति के लिए महकते रहें।

मगर ध्यान रखें समाचार पत्र पढ़ते ही बासी हो जाता हैहम कहते हैं कि यह हम पढ़ चुके हैं। व्यक्ति के हृदय में अपना नाम लिखने की कोशिश कर दीजिएवह नाम सदा के लिए अमर हो जाएगा। हृदय में लिखने के लिए यह साधरण कलम काम नहीं आती। भगवान कृष्ण ने कहाजिन्होंने अपने जीवन को ज्ञान की दिशा में लगा दिया वह मेरे बहुत प्यारे हैं। ज्ञानियों को उन्होंने बहुत प्रिय माना। ज्ञानी किसी न किसी ढंग से समाज का कल्याण कर जाते हैं।

संसार ऐसा विचित्र है कि आंख बन्द होते ही सब पराया हो जाता है। गुरु के सामने अपने आपको मिटाकर आओ तो समझ जाओगे कि तुम कौन होकेंचुल उतारने के बाद सर्प एकदम नया हो जाता हैऐसे ही जब तक आप अपनी केंचुल उतार कर नहीं फेंकेंगेजैसी दुनिया दिखाई देनी चाहिए वैसी नहीं दिखाई देगीधुंधलापन रहेगा। इसलिए गुरु अपने नजदीक रहने वाले शिष्य का नाम बदल देते हैं। गुरु चाहता है अन्दर से निखार आए और ज्ञान की धरा अन्दर से प्रकट हो और शिष्य में विशेषता आनी शुरू हो जाए।

दुनिया में सबसे बड़ा दान ज्ञान का दान है लेकिन ज्ञान सही होना चाहिएरटा हुआ नहीं। करना है तो समाज का कल्याण करोपरमात्मा का नाम याद करो। सुधारक बन कर खड़े हो गए तो समाज के लांछन का जहर पीना पड़ेगा। मूल्यवान चीज को लोग समझ नहीं पातेउसके लिए षड्यंत्र रचे जाते हैं।

जीसस को सूली पर चढ़ाया गया। परमात्मा को ज्ञानी पसन्द हैंज्ञानी मानवता की शोभा हैं। बच्चों को ज्ञान की दिशा में लेकर जाओ। जो इस दिशा में आएं उनका सम्मान करो। जो मनुष्य को प्रेम मेंएकता में बांधेनफफरत न करेसबके हित की कामना करना ही ज्ञान है। भगवान कहते हैंज्ञानी को मैं अपना ही स्वरूप मानता हूं।

तब आपका हर रिश्ता मजबूत रहेगा
सम्बन्धों को निभाया जाता हैउनमें आपको केवल देना होता है। जितना आपसे संभव है आप दूसरे को उतना देते हैं और फिर उनसे कुछ वापस पाने की प्रतीक्षा करते हैं। आपकी यह मांग संबंधों को अधिक समय तक टिकने नहीं देती। मांग और आरोप रिश्तों को बिगाड़ देते हैं।

इसलिए आपको उनकी प्रशंसा करना आना चाहिए। उनकी गलतियां निकालकर उनपर आरोप लगाने की बजाय परिस्थिति को सुधारना चाहिए। दूसरे को ऊपर उठाने के लिए आप प्रतिबद्ध रहेंतभी आप किसी के लिए भी लायक बन जाएंगे।

जब आप जानबूझ के दूसरों को चोट नहीं पहुंचाएंगे तो आपको सब अपनाएंगे। यह पहला पॉइंट है। दूसरा पॉइंट है कि आप खुद को बदलने के लिए और अपने को सुधारने के लिए तैयार रहें जिसके लिए आपको अपनी आलोचना सुनने का धैर्य होना चाहिए।

तीसरा पॉइंट है कि दूसरे की दृष्टिकोण को जानिएउनकी पीड़ा को समझिए। उनके शब्दों या कृत्यों को नज़रअंदाज़ करके उस व्यक्ति को जानिये। आठ-दस घंटे काम करने के बाद जब कोई थका हुआ वापस घर आता है या जब एक व्यापारी शेयर बाज़ार में हुए घाटे से परेशान होकर घर लौटता है तो वह घर में आराम और शान्ति चाहता है।

अपने साथी की परिस्थिति को समझकर उन्हें अपनी भावनाकुंठा या क्रोध आदि को व्यक्त करने की स्वतन्त्रता दीजिए। जैसे एक दाई प्रसूति में मदद करती है वैसे ही ऐसे समय में जीवनसाथी उनकी मदद करें। कोई प्रसव पीड़ा में हो और उनसे कहें कि आप शिशु को बाहर मत आने दोअंदर ही रहने दो तो वह क्या करेगा?

कितनी देर शिशु को अंदर रख पाएगा– आखिर तो वो बाहर निकलेगा ही। ऐसे ही पति या पत्नी को तनाव से खाली होने का अवसर दीजिएवो क्यों दुखी या परेशान है – उसको समझने का प्रयास करें तो आपके रिश्ते मधुर होंगे। परन्तु यदि आप यह अपेक्षा रखते हैं कि आपके साथी आपसे कभी कुछ न कहे चौबीस घंटेसप्ताह के सातों दिनसाल के 365 दिन वह मधुर व्यवहार रखें और आप हमेशा उनके दोष देखेंताने मारें कि तुम ऐसे होतुम वैसे हो तो वह बेचारे क्या करेंगे?

तो उनको लगेगा कि वह बिलकुल अकेले हैंउनको कोई सहारा नहीं देता। फिर वह जीवन में आगे कैसे बढ़ेंगेसफल कैसे होगे वह निराश हो जाएंगे। व्यक्ति वो महान है जिसमें दूसरों को स्वीकारधैर्यपूर्वक सहनेव निभाने की ज़्यादा से ज़्यादा क्षमता हो। यदि यह स्वीकृति केवल दस प्रतिशत है तो आप दुःखी और परेशान रहेंगे।

यदि यह स्वीकृति शून्य प्रतिशत है तो जीवन में आप उन्नति कर ही नहीं पाएंगे – इसलिए बुद्धिमत्ता इसी में है कि अपने धैर्य को शून्य से शत प्रतिशत तक बढ़ने दें। एक और बात है कि संबंधों में थोड़ी छूट दे दें। संबंधों की मजबूती बीच के कंटीले राहों को स्वीकार करने की क्षमता में है।

ऐसी परिस्थिति को आप कैसे भली भांति संभालते हैं इसी से आप की कुशलता बढ़ती है। ये सद्गुण उन कंटीले राहों के दौरान ही प्रकट होते हैं। ऐसे समय को अपने धैर्यसमझदारीविचारशीलताऔर स्वीकृति के गुण लाने का अवसर समझें। दूसरे व्यक्ति से बदलने की अपेक्षा रखने की बजाय अपना श्रेष्ठ चरित्र प्रदर्शन करिये।
  
वैराग्य से सब सुख आसानी से मिल जाता है
वैराग्य का आना स्वाभाविक है। उम्र बढ़ने के साथतुम्हारा मन स्वतः ही छोटी-छोटी बातों में नहीं अटकता है। जैसे बचपन में तुम्हें लौलीपॉप से लगाव थापर वह लगाव स्कूल या कॉलेज आने पर स्वतः ही छूट गया।

बड़े होने पर भी दोस्त तो रहते हैं पर उनके साथ उतना मोह नहीं रहता। ऐसे ही माँ और बच्चों के साथ होता है। उनके प्रति मोह स्वाभाविक रूप से कम होने लगता है। यदि वैराग्य नहीं आता तो दुःख आता है।

आप दुःख के कुचक्र में फंसकर सोचते हैं कि मैंने तो अपने बच्चों के लिए इतना कियाउतना किया और देखो ये लोग बदले में क्या कर रहे हैं।’ आपने क्या कियाकेवल अपनी जिम्मेदारियों को ही पूरा किया जो कि आपको वैसे भी करना ही था। पर उनके लिए कोई बंधन नहीं है- वे कोई भी भावना रख सकते हैं।

आप बच्चों से उनकी भावनाओं को ज़बरदस्ती व्यक्त नहीं करवा सकते। भावनाएं दिल में स्वतः ही उठती हैं। वह पूछ कर नहीं आती हैं। पर यदि आप ज्ञान में रहते हैं तो नकारात्मक भावनाएं नाममात्र के लिए ही रहती हैं। और सकारात्मक भावना प्रेम के रूप में रहती हैंराग के रूप में नहीं।

लोग समझते हैं कि ज्ञानी व्यक्ति में कोई भावना नहीं होती– ऐसा नहीं है। सद्भाव या संतत्व की भावनाएं रहेंगी। भगवद्गीता में श्री कृष्ण ने कहा है जो मुझ मेंपरमात्मा में स्थितप्रज्ञ नहीं हैवह मनुष्य बुद्धि विहीन और भाव विहीन है। और बिना बुद्धि और भावना के शान्ति और सुख पाना संभव नहीं है।

राग और द्वेष को प्रेम में परिवर्तित करना ही वैराग्य है। शंकराचार्य जी ने भी कहा है कि कस्य सुखं न करोति विरागः’ - संसार में ऐसा कोई भी सुख नहीं है जो वैराग्य से प्राप्त न हो सके।

ऐसा सच नहीं है कि वैराग्य के लिए जंगल में जाना होगा। वैराग्य का गलत अर्थ समझा गया है। वैराग्य में आनंद और प्रसन्नता है। जैसे कमल का फूल पानी में भी रहकर गीला नहीं होता ऐसे ही संसार में रहते हुए भी उससे मुक्त या निर्लिप्त रहना वैराग्य है।

चिड़िया आपके सर के ऊपर से उड़े उतना ठीक है पर उसको अपने सर के ऊपर घोंसला नहीं बनाने देना है। संन्यास है स्वयं में स्थित होना। जो किसी भी घटना से विचलित नहीं होता वह सन्यासी है।

संन्यास मायने शत प्रतिशत वैराग्यशत-प्रतिशत आनंद और साथ ही कोई मांग भी नहीं। वानप्रस्थ के बाद चौथे आश्रम में स्वतः ही संन्यास का आना अच्छा है। संन्यास की स्थिति में मन बहुत तृप्त रहता है और इस प्रकार के भाव आते हैं - कोई मेरा नहीं है’ या कोई मुझसे अलग नहीं है’ या सब मेरे अपने हैं’ या यह शरीर भी मेरा नहीं है।

मन में पूर्ण परमानंद रहता है। कपड़े त्यागनाजंगल में जाना सन्यास नहीं है। आपका सच्चा स्वरुप परमानंद है। परन्तु इस परमानन्द की मौज लेने के लिए आप है’ से हूँ’ में आ जाते हैं. आप जब कहते हैं कि मैं शान्ति में हूँ’, ‘मैं आनंद में हूँ’ तो बाद में मैं दुखी हूँ’ का भी भाव आएगा।

पर मैं ही तो हूँ’ वैराग्य है। आप कहीं भी रहते हुए वैराग्य में रह सकते हैं। वैराग्य में प्रत्येक परिस्थिति का स्वागत होता है। केंद्रित होने से ऊर्जा या चमक आती है। जबकि परमानंद का सुख भोगने से जड़ता आती है. वैराग्य के साथ परमानंद तो रहता ही है।

जैसे अगर फ्रीज़र आइस्क्रीम से भरा हुआ है तो आप उसके लिए चिंता नहीं करते– ऐसे ही वैराग्य अभाव की भावना को समाप्त करता है। राग है अपूर्णता या कुछ कमी है’ की भावना और वैराग्य है बहुत कुछ मिला है’ की भावना। जब बहुत कुछ है’ की भावना होती है तो स्वतः ही वैराग्य आ जाता है। और जहाँ वैराग्य है वहाँ कुछ मांगने से पहले ही बहुत कुछ मिल जाता है।

धार्मिक व्यक्ति वह है जिसका मन ठहरा हुआ है
मन की दो अवस्थाएं हैएक दौड़ता हुआ मनएक ठहरा हुआ मन। दौड़ता हुआ मननिरंतर ही जहां होता हैवहां नहीं होता। ऐसा समझें कि दौड़ता हुआ मन कहीं भी नहीं होता। दौड़ता हुआ मन सदा ही भविष्य में होता है। आज में नहीं होताअभी नहीं होतायहां नहीं होता।

कलआगे कहीं औरकल्पना मेंसपने मेंकहीं दूर भविष्य में होता है। और भविष्य का कोई अस्तित्व नहीं है। अस्तित्व है वर्तमान काअभी काइसी क्षण का। जब मैं कहता हूं इसी क्षण काइतना कहने में भी वह क्षण वर्तमान का जा चुका। इतनी भी देर हुईतो हम वर्तमान के क्षण को चूक जाते हैं।

जानने में जितना समय लगता हैउतने में भी वर्तमान जा चुका होता है। एक क्षण हमारे हाथ में है अस्तित्व कालेकिन मन सदा वासना मेंभविष्य में होता है। भविष्य का कोई अस्तित्व नहीं। इसलिए दौड़ता हुआ मन कहीं होता नहीं होता। जहां हो सकता हैवहां होता नहींऔर जहां हो ही नहीं सकतावहां होता है।

वर्तमान में हो सकता थालेकिन वर्तमान में दौड़ता हुआ मन नहीं होता। आप वर्तमान में दौड़ नहीं सकतेजगह नहीं हैस्पेस नहीं है। दौड़ने के लिए भविष्य का विस्तार चाहिए। वासना के लिए अनंत विस्तार चाहिए। वर्तमान का क्षण बहुत छोटा है। उस छोटे-से क्षण में आपकी वासना न समा सकेगी। यह जो दौड़ता हुआ मन हैयह दौड़ता ही रहता है। कहीं भी ठहरने का इसे उपाय नहीं है।

जहां ठहर सकता हैवर्तमान मेंवहां ठहरता नहीं। और भविष्य तो है नहीं। वहां सिर्फ दौड़ सकता है। ठहरने की वहां कोई सुविधा नहीं है। यह दौड़ता हुआ मन ही हमारी बीमारी हैरोग है। अगर अधार्मिक आदमी की हम कोई परिभाषा करना चाहेंतो वह परिभाषा ऐसी नहीं हो सकती है कि वह आदमीजो ईश्वर को न मानता हो। क्योंकि ऐसे बहुत- से व्यक्ति हुए हैंजो ईश्वर को नहीं मानते और धार्मिक हैं।

महावीर हैंबुद्ध हैंवे ईश्वर को नहीं मानते हैंपर परम धार्मिक हैं। उनकी आस्तिकता में रत्तीभर भी संदेह नहीं। और अगर बुद्ध और महावीर की धार्मिकता में संदेह होगातो इस पृथ्वी पर फिर कोई भी आदमी धार्मिक नहीं हो सकता। अधार्मिक आदमी उसे नहीं कह सकते हैंजो ईश्वर को न मानता हो। अधार्मिक आदमी उसे भी नहीं कह सकतेजो वेद को न मानता होबाइबिल को न मानता होकुरान को न मानता हो।

अधार्मिक आदमी केवल उसे कह सकते हैं कि जिसके पास केवल दौड़ता हुआ मन हैठहरे हुए मन का जिसे कोई अनुभव नहीं। फिर वह कुछ भी मानता हो- ईश्वर को मानता होआत्मा को मानता होवेद कोकुरान कोबाइबिल को मानता हो-अगर दौड़ता हुआ मन हैतो वह आदमी धार्मिक नहीं है।

और फिर चाहे वह कुछ भी न मानता होलेकिन अगर ठहरा हुआ मन हैतो वह आदमी धार्मिक है। क्योंकि मन जहां ठहरता हैवहीं तत्क्षण उस परम सत्ता से संबंध जुड़ जाता है। हम उसे क्या नाम देते हैंयह गौण बात है। कोई उसे ईश्वर कहेयह उसकी मर्जी। और कोई उसे आत्मा कहेयह भी उसकी मर्जी।

और कोई भी नाम न देना चाहेयह भी उसकी मर्जी। और कोई उसके संबंध में चुप रह जाएयह भी उसकी मर्जी। कोई उसे शून्य कहेकोई उसे मिट जाना कहेकोई उसे पूरा हो जाना कहेयह उसकी मर्जी की बात है। लेकिन जहां मन ठहरावहीं आदमी धार्मिक हो जाता है। 


गुरू मां और ईश्वर पिता की तरह है
भगवान शिव गुरु गीता में गुरु ज्ञान को महत्वपूर्ण बताते हुए मां पार्वती से कहते हैं मानव जीवन में जब विकट स्थिति आ जाए, हर सगा-सम्बन्धी साथ छोड़ेगा, परमात्मा भी दूर है- वह दिखाई नहीं देगा, मगर मेरा प्रतिनिधि गुरु कभी अपने शिष्य का साथ नहीं छोड़ेगा। इसलिए गुरु के प्रति अतिशय प्रेम बनाए रखिए। दुनिया के सारे रिश्ते एक सद्गुरु में देखना। सारे संसार के प्रेम को एक सदगुरु में देखना। क्योंकि गुरु आत्मस्वरूप है सब धर्मों का है।

उसे अपने सामने महसूस करो, जो हमारे हर संकट में साथ है, जो हमें आशीर्वाद देता है और जो गुरुओं का भी परम गुरु है जो पिताओं का भी परमपिता है, जो माताओं की भी परममाता है, सांसारिक माता-पिता तो एक न एक दिन इंसान को छोड़कर, सब बंधन तोड़कर चले जाना हैं। लेकिन जो हर देश में हर वेश में, हर काल में, हरहाल में साथ देता है, उसके साथ हमारा नाता जोड़ने वाला परम का स्वरूप सद्गुरु होता है।

विश्वविख्यात गुरुभक्त रबिया बसरी ने भी गुरु महत्व के विषय में यही गाया ' हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर। अर्थात् किसी व्यक्ति से यदि हरि रूठ जाएं, तो पूरा संसार उसके विपरीत गति करने लगता है, उससे उसकी किस्मत रूठ जाती है। उसी समय यदि उस अभागे को सद्गुरु की दीक्षा की प्राप्ति हो जाए तथा सद्गुरु उस पर अपनी कृपा बनाए रखें तो पुनः हरि को मनाने का मार्ग मिल जाता है। अर्थात् सद्गुरु का सहारा उसे तार देता है।

परन्तु यदि किसी का गुरु ही उससे रूठ जाए तब मनुष्य के पास कोई सहारा नहीं बचता, वह व्यक्ति बिना पतवार के दिशाहीन नाव की तरह हो जाता है, जिसका कोई भविष्य नहीं होता। इसलिए खजाना हाथ से निकल भी जाए तो भी चाबी संभाले रखना, यही चाबी फिर से दरवाजा खोलेगी। कभी गुरु से दूर नहीं होना, गुरु ठुकरा भी दे, नाराज भी हो जाए तो भी उसके प्रति अपनी निष्ठा बनाए रखना।

दुनिया का पिता भी समझाने के लिए बच्चे को डांटता है। पिता जब डांटकर गुस्से से बच्चे को कमरे में बन्द कर देता है, तो मां की ममता रह नहीं पाती और ताला खोल कर बच्चे के प्रति प्यार दिखाती है और पिता भी मां के माध्यम से ही बच्चे को खाना वगैरह खिला देता है। मगर खुद उपरी तौर पर गुस्सा दिखाता है ताकि बच्चा अपनी गलती सुधर सके। जब पिता डांटता है तो मां बच्चे को समझाती है कि पिता ने भले के लिए ही डांटा है।

मां जब प्यार से बच्चे को समझाती है तो उसके अज्ञान के कपाट बन्द हो जाते हैं और ज्ञान के द्वार खुलते हैं जिससे बच्चा सन्मार्ग पर चलने लगता है। भगवान सुधरने के लिए कठोर होकर दुःख के ताले में जब इंसान को बन्द कर देता है, ताला खोल कर मां की तरह प्यार करने का काम गुरु ही किया करता है। दुनिया के, हर रिश्ते से ऊपर है वह, मगर सारे रिश्ते जहां आकर जुड़ते हैं वह भगवान है। गुरु और शिष्य जब मिलते हैं तो खुश होते हैं भगवान।

गुरु चोट भी लगाएगा, प्यार भी करेगा और कहेगा, ‘मुझे मान या मत मान, जिसे मानने की जरूरत है उसे जरूर मान। भगवान शिव ने गुरु को बहुत महत्व दिया। भगवान शिव कहते हैं, हे पार्वती! ब्रह्मा-विष्णु-शिव का स्वरूप है गुरु। गुरु के तीन नेत्र नहीं-फिर भी वह शिव है?                                                                                       

चार मुख नहीं फिर भी वह ब्रह्मा है, उसकी चार भुजा नहीं फिर भी वह विष्णु है। ऐसे ब्रह्मा-विष्णु-महेश का स्वरूप है गुरु। गुरु की कही बातों पर विश्वास करके आगे बढें। जब इन्सान अपने 'मैं' को पूजवाने की कोशिश करेगा, वह इंसान हो गया और जो परम को पूजवाने की बात करे, वह प्रतिनिधि है परमात्मा का, वह गुरू है।


आत्मा की चाहत है विश्राम
क्या ध्यान हमारे लिए कुछ नयी सी अनोखी सी बात है? बिलकुल नहीं। ऐसा इसलिए है क्योंकि जन्म लेने से कुछ महीने पहले आप ध्यान में ही थे। आप माँ के गर्भ में थे; कुछ नहीं कर रहे थे, आपको अपना खाना भी नहीं चबाना होता था। वह सीधे पेट में पहुंच रहा था, और आप प्रसन्नता से एक द्रव में तैर रहे थे, पलटियां खाते हुए, लात मारते हुए, कभी यहाँ और कभी वहाँ, लेकिन ज़्यादातर समय आप सिर्फ प्रसन्नता से तैर रहे थे, ये ध्यान है।

आप कुछ नहीं करते, सब कुछ तुम्हारे लिए किया जाता है। तो ये हर इन्सान की प्रकृति है, हर आत्मा की प्यास उस स्थिति में रहने की होती है जहाँ वो पूर्ण रूप से विश्राम में हो। पता है आप विश्राम क्यों चाहते हो? क्योंकि एक समय आप उस विश्राम में रह चुके हो, इसलिए फिर उस विश्राम की चाह प्राकृतिक है जिसका आप कभी एक समय में अनुभव कर चुके हो। ध्यान पूर्ण विश्राम है।

इसलिए वापस उस स्थिति में जाना जिसका स्वाद आप इस दुनिया की अफरा तफरी में आने से पहले ही चख चुके हो, एकदम प्राकृतिक है क्योंकि इस ब्रह्माण्ड में सब कुछ चक्रीय है, सब कुछ वापस अपने मूल की ओर जाना चाहता है ओर ये संसार की प्रकृति है। सब कुछ एक चक्र के जैसे चलता है, वापस जाता है सिवाय प्लास्टिक के अगर आप उसको ठीक से इस्तेमाल नहीं करते हो तो।

देखो जब पतझड़ का मौसम आता है तो पत्तियां झड़ जाती हैं और वापस धरती में, मिट्टी में मिल जाती हैं। प्रकृति का अपना एक तरीका है उन्हें वापस यहाँ भेजने का। प्रकृति की अपनी एक प्रवृत्ति है उन सबको पुनः चक्रीय करने की। जो भी रोज़-रोज़ इकठ्ठा करते हैं जैसे कि विचार, संस्करण आदि।

उन से छुटकारा पाना और फिर अपनी असली स्थिति में आना, उसी स्थिति में जिस में हम इस ग्रह में आये थे, ये ध्यान है। शांति जो हमारा असली स्वरुप है उसमें वापस जाना ध्यान है, पूर्ण ख़ुशी और आनंद ही ध्यान है।

एक ऐसी ख़ुशी जिसमें से उत्तेजना निकल जाए वो ध्यान है, बिना फिक्र का रोमांच ध्यान है। बिना नफरत या किसी और नकारात्मक सोच का प्यार ध्यान है, ध्यान आत्मा के लिए भोजन जैसा है। खाने की भूख नैसर्गिक है ना। जब आप भूखे होते हो तब आपको उसी वक़्त कुछ खाने को चाहिए, आप प्यासे हो तो पीने को पानी चाहिए। उसी तरह आत्मा को ध्यान की तड़प उठती है और ये सब की फितरत है।

इसलिए ही मैं कहता हूँ की इस धरती पर ऐसा कोई भी नहीं जो अन्वेषक ना हो, खोजी ना हो, बस उनको पता नहीं है, वो इस बात को पहचानते नहीं हैं। वो खाना वहाँ ढूँढ़ते हैं जहाँ वो उपलब्ध नहीं, बस यही समस्या है। ये ऐसा ही है कि आपको अपनी कार में गैस भरवानी हो और आप किराने की दुकान पर जाओ, और वहाँ जाकर दुकान के इर्द गिर्द बस घूमते ही रहो और कहते रहो कि मुझे अपनी कार में गैस भरवानी है।

लेकिन ऐसा करने से होगा कुछ भी नहीं क्योंकि आपको गैस भरवाने के लिए पेट्रोल स्टेशन ही जाना होगा। इसलिए सही दिशा ढूँढने की ज़रूरत है और वही तो अभी हम कर रहे हैं। ध्यान करने के कौन से रास्ते और तरीके हैं, जिनसे हम अपने अन्दर पूर्ण विश्राम का अनुभव कर सकते हैं। ध्यान करते समय मन शांत हो जाता है पर कई साधक मन से आगे नहीं जा पाते। जबकि जरूरी है कि मन से आगे जाने का प्रयत्न हो।

इसका उपाय है कि सिर्फ अपने लिए कुछ प्रयत्न मत कीजिये। सब कुछ स्वाभाविक रूप से होने दीजिए। यदि आप मालिश कराने के लिए जाते हैं, तो आप क्या करते हैं? आप बस मालिश वाले को आपका ख्याल रखने देते हैं। मालिश करने वाला अपना काम करता है और आप कुछ नहीं करते| उसी प्रकार, ध्यान में भी, सृष्टि को आपका ख्याल रखने दीजिए; आपकी आत्मा को सब करने दीजिए।

आपका अत्यंत प्रयत्न करना ही सबसे बड़ी रूकावट है। आप बस विश्राम करें और आप स्वयं ही संवेदनशील हो जायेंगे। आपकी खुश रहने की कोशिश ही खुशी में एक बड़ी रुकावट है। प्रयत्न सांसारिक दुनिया का शब्द है। यदि आप प्रयत्न नहीं करेंगे, तो आप धन नहीं कमा सकते, पढ़ नहीं सकते, परीक्षा में अच्छे अंक नहीं ला सकते। आप उपाधि नहीं पा सकते यदि आप प्रयत्न नहीं करें। इस लिए, हर सांसारिक कार्य या वस्तु के लिए आपको प्रयत्न करना है।

घर बनाने के लिए प्रयत्न करना है। बस बैठे-बैठे सोचने से घर नहीं बनेगा। पर कुछ अध्यात्मिक पाने के लिए एकदम विपरीत प्रक्रिया की आवश्यकता है; कोई प्रयत्न नहीं। कुछ क्षण बस बैठने की और कुछ भी ना करने की। मुझे पता है, आप कहोगे कुछ भी न करना तो बहुत कठिन है। मौन रहना कठिन है। पर यह अपने आप हो जाता है कुछ दिन यहाँ या वहां, और आप देखोगे यह कितना आसान है, सहज है


नजरिया बदलिये, हर चीज में ईश्वर दिखेगा
जैसे आकाश ने सबको घेरा हुआ है, जैसे जीवन की ऊर्जा सभी में व्याप्त है, वैसे ही कण- कण, चाहे पदार्थ का हो, चाहे चेतना का, परमात्मा की ही अभिव्यक्ति है। कृष्ण इस सूत्र में अर्जुन से कह रह हैं कि मेरे अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। पहले इस मौलिक धारणा को समझ लें, फिर हम सूत्र को समझें। जैसा हम देखते हैं, तो सभी चीजें अलग-अलग मालूम पडती हैं। कोई एक ऐसा तत्व दिखाई नहीं पड़ता, जो सभी को जोड़ता हो।

जब हम देखते हैं, तो माला के गुरिए ही दिखाई पड़ते हैं। वह माला के भीतर जो पिरोया हुआ सूत का धागा है, जो उन सबकी एकता है, वह हमारी आंखों से ओझल रह जाता है। जब भी हम देखते हैं, तो हमें खंड दिखाई पड़ते हैं, लेकिन अखंड का कोई अनुभव नहीं होता। यह अखंड का जब तक अनुभव न हो, तब तक परमात्मा की कोई प्रतीति भी नहीं है।

इसीलिए हम कहते हैं कि परमात्मा को मानते हैं, मंदिर में श्रद्धा के फूल भी चढ़ाते हैं, मस्जिद में उसका स्मरण भी करते हैं, गिरजाघर में उसकी स्तुति भी गाते हैं। लेकिन फिर भी वह परमात्मा, जिसके चरणों में हम सिर झुकाते हैं, हमारे ह्नदय के भीतर प्रवेश नहीं कर पाता है।

आश्चर्य की बात कि हम जिस अखंड की खोज में मंदिर और मस्जिद और गुरुद्वारे में जाते हैं, हमारा मंदिर, हमारा मस्जिद, हमारा गुरुद्वारा भी हमें खंड-खंड करने में सहयोगी होते हैं। हम मंदिर और मस्जिद के बीच भी एक को नहीं देख पाते हैं। हिंदू और मुसलमान और ईसाई के पूजागृहों में भी हमें फासले की दीवारें और शत्रुता की आड़े दिखाई पड़ती हैं। मंदिर भी अलग-अलग हैं, तो यह पूरा जीवन तो कैसे एक होगा?

मंदिर अलग नहीं हैं, लेकिन हमारे देखने का ढंग केवल खंड को ही देख पाता है, अखंड को नहीं देख पाता है। तो हम जहां भी अपनी दृष्टि ले जाते हैं, वहां ही हमें टुकड़े दिखाई पड़ते हैं। वह समग्र, जो सभी को घेरे हुए है, हमें दिखाई नहीं पड़ता है।

अर्जुन की भी तकलीफ वही है। उसे भी अखंड का कोई अनुभव नहीं हो रहा है। उसे दिखाई पड़ता है, मैं हूं। उसे दिखाई पड़ता है, मेरे मित्र हैं, प्रियजन हैं शत्रु हैं। उसे दिखाई पड़ता है; सिर्फ एक, जो सभी के भीतर छिपा हुआ है, वह भर दिखाई नहीं पड़ता है। इसलिए कृष्ण और अर्जुन के बीच जो चर्चा है, वह दो दृष्टियों के बीच है।

अर्जुन खंडित दृष्टि का प्रतीक है और कृष्ण अखंडित दृष्टि के। कृष्ण समग्र की, दि होल, वह जो पूरा है, उसकी बात कर रहे हैं और अर्जुन टुकड़ों की बात कर रहा है। शायद इसीलिए दोनों के बीच बात तो हो रही है, लेकिन कोई हल नहीं हो पा रहा है। उन दोनों का जीवन को देखने का ढंग ही भिन्न है। इस सूत्र में कृष्ण अर्जुन को एक-एक बात गिना रहे हैं कि मैं कहां- कहां हूं। इतना ही कहना काफी होता कि मैं सब जगह हूं।

इतना ही कहना काफी होता कि सभी कुछ मैं ही हूं। लेकिन यह बात अर्जुन को स्पष्ट न हो पाएगी। अर्जुन को खंड-खंड में ही गिनाना पड़ेगा कि कहां-कहां मैं हूं। शायद उसे खंड-खंड में यह एक की झलक मिल जाए, तो खंड खो जाएं और अखंड की प्रतीति हो सके। इसलिए कृष्ण कहते हैं, हे अर्जुन, निश्चय करने की शक्ति एवं तत्वज्ञान और अमूढ़ता । ये तीन शब्द बहुत कीमती हैं। निश्चय करने की शक्ति!

जैसा हमारे पास मन है, अगर हम ठीक से समझें, तो हम कह सकते हैं, मन है अनिश्चय करने की शक्ति। मन का सारा काम ही भीतर यह है कि वह हमें निश्चित न होने दे। मन जो भी करता है, अनिश्चय में ही करता है। कोई भी कदम उठाता है, तो भी पूरा मन कभी कोई कदम नहीं उठाता। एक हिस्सा मन का विरोध करता ही रहता है।


मूर्ति के पैर पकड़ कर बैठना ईश्वर की शरण नहीं
संसार माया जाल है। इस जाल में उलझक जीव जन्म जन्मांतर तक भटकता रहता है। हो सकता है कि आपने भी अब तक करोड़ों जन्म लिये हों और अगर इस जन्म में माया के बंधन से प्रयास नहीं किया तो आगे भी करोड़ों योनियों में भटकना पड़ेगा। इन्हीं स्थितियों से निकलने के लिए भगवान श्री कृष्ण ने कहा है

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया। 
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते॥
  
यह अलौकिक अर्थात् अति अद्भुत त्रिगुणमयी मेरी माया बड़ी दुस्तर है परंतु जो पुरुष केवल मुझको ही निरंतर भजते हैं, वे इस माया का उल्लंघन कर जाते हैं अर्थात् संसार से तर जाते हैं।

यह जो माया है बड़ी दुस्तर है, इसको तरना बड़ा कठिन है। असम्भव नहीं कठिन है। यह तीन गुणवाली है। तामसी आदमी अपना बिगाड़ करके भी दूसरे का बड़ा बिगाड़ करने में खुश होगा। आलस्य, निद्रा, शराब-कबाब में, कलह में वह मजा लेगा- वह माया के तामसी गुण में बंधा है।

राजसी आदमी भोग में, संग्रह में- माया के रजोगुण में बंधा है। मरनेवाले शरीर की सुख-सम्पत्ति और मान-प्रतिष्ठा में अपना जीवन खपा देता है नासमझ! सात्त्विक आदमी होम-हवन, यज्ञ-याग किया, दान-पुण्य यह-वह... अच्छा काम किया और लोग बोल रहे हैं: अच्छे हैं, नेक हैं, आहा...बोले : अच्छा है, अपना घर है, बेटे वेल-सेट हैं, बेटी का विवाह करा दिया, भगवान की दया है मुझ पर...वह सात्त्विक व्यक्ति इन्हीं में बँधा है, फँसा है। यह माया का गुण है।

कोई स्वर्ग और बिहिश्त का सपना लेकर बैठा है: बस... संतुष्ट हूँ।वह माया के सत्त्वगुण अंश में फँसा है। तो यह माया है, इससे तरना दुस्तर है लेकिन जो भगवान की शरण आता है वह तर जाता है। 

भगवान ने भी कहाः मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते। 

अब एकनाथजी महाराज कहते हैं कि ‘‘मेरे विट्ठल! मेरे प्रभु!! तुम्हारी शरण क्या है? क्या मैं हिमालय में चला जाऊँ - यह तुम्हारी शरण है? या गुफा में समाधि लगाऊँ तो तुम्हारी शरण है? अथवा पंढरपुर में तुम्हारी आरती-पूजा करता रहूँ - यह तुम्हारी शरण है? आप ही बताओ आपकी शरण क्या है?’’ भगवान की शरण जाना चाहिए, गुरु की शरण जाना चाहिए... शरणतो नाम सुन लिया।

चित्रकारों ने कल्पना करके भगवान का जो चित्र बनाया और उस चित्र पर से चित्र लेकर जो फोटो छपे और हमारे घर आये, क्या उस फोटो के पैर पकड़ के बैठना भगवान की शरण है? अथवा उस फोटो को देखकर किसी ने पत्थर में से भगवान का श्रीविग्रह बनाया, उनको हम प्रणाम तो करते हैं, पूजा भी करें अच्छा है तो क्या उस जयपुर से लाये हुए श्रीविग्रह के, जिसमें प्राण-प्रतिष्ठा कर दी, उसके पैर पकड़ के बैठना भगवान की शरण है?

भगवान की किसी धातु से अथवा पत्थर से बनी हुई मूर्ति अथवा यरूसलेम में रखे हुए उस पत्थर को पकड़ के आलिंगन करके बैठना खुदा की शरण है क्या, भगवान की शरण है क्या? अगर मूर्ति के पैर पकड़ के बैठना या श्रीविग्रह के पैर पकड़ के बैठना ही भगवान की शरण है तो पकड़ ले पैर, छुट्टी हो जाय, कल्याण हो जाय।

संत एकनाथजी महाराज एकांत में अंतर्यामी ईश्वर से वार्ता, ईश्वर-चिंतन, ईश्वर-पुकार करते-करते शांत हो गये तो उन संत को मानो उस सच्चिदानंद ने, उस परमेश्वर ने, उस गुरुतत्त्व ने, जिसमें उनकी स्थिति हुई, यह स्फुरना दिया कि एक संकल्प उठता है और दूसरा उठने को है, इसके बीच की जो संकल्परहित स्थिति है, वह सच्चिदानंद है।

उस सच्चिदानंद में विश्रांति करना ईश्वर की शरण है। सुख और दुःख चले जाते हैं फिर भी जो नहीं जाता, उसमें स्थिति करना - यह ईश्वर की शरण है। अनुकूलता में हर्ष होता है और प्रतिकूलता में शोक होता है। हर्ष-शोक, राग और द्वेष मति के धर्म होते हैं।

वह मति बदल जाती है, हर्ष-शोक बदल जाते हैं फिर भी हर्ष-शोक के समय उनको जो देखता है, हर्ष-शोक का जो साक्षी है उस परमात्मा में स्थिति करना - यह ईश्वर की शरण है। मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते। जैसे मछुआरा चारों तरफ जाल डालता है तो मछलियाँ देर-सवेर पकड़ी जाती हैं लेकिन जो मछली मछुआरे के पैरों में घूमती है, उसको मछुआरे का जाल नहीं पकड़ता है। ऐसे ही जो सच्चिदानंद के इर्द-गिर्द अपने चित्त को ले जाता है, वह इस माया के जाल से छूट जाता है।


तब रास्ते का पत्थर भी मंजिल की सीढ़ी बन जाता है
जैसे दिन को सजाता है सूर्य और रात को सजाता है चांद, वैसे ही मानव जीवन को सौन्दर्य से युक्त करने का काम सद्गुरु करते हैं। किंतु यह अनुपम उपलब्धि केवल सद्गुरु बनाने से प्राप्त नहीं होती है, बल्कि सद्गुरु के चरणों का दास बन जाने के बाद ही मानव जीवन शोभायमान होता है।

संसार में चाहे कोई कितना ही बड़ा ज्ञानी हो अथवा ध्यानी, सिद्घ, संत हो या कोई महान विज्ञानी, चिकित्सक हो या शिक्षक, कोई उद्योगी हो या व्यवसायी जब तक उसे सद्गुरु प्राप्त नहीं होते तब तक उसका जीवन गरिमा से युक्त नहीं होता।

प्रातःकाल पूर्व दिशा में लालिमा लिए उदित होने वाला सूर्य समस्त ब्रह्माण्ड की आंख बनकर प्रकट होता है। सबको प्रकाशित करता है लेकिन यह बाहर की आंख है, बाहर का प्रकाश है, जिससे इंसान के बाहर की ओर खुले हुए चर्म चक्षुओं को लाभ प्राप्त होता है। जिससे संसार का सौन्दर्य दिखता है और मनुष्य इस असार की ओर आकर्षित हो जाता है।

संसार सागर में अंधेरे और उजाले दोनों हैं। यह जरूरी नहीं कि जो आप अपने इन बाहर खुले हुए नेत्रों से देख रहे हैं, जो दृश्य साफ-साफ दिखाई दे रहा है वह सत्य का ही उजाला हो। उस चमकते हुए उजाले की परत के पीछे छिपा हुआ घना अंधकार भी हो सकता है। इस मानव देह में एक तीसरा ज्ञान चक्षु भी होता है, जिसके द्वारा अंधेरों और उजालों का अन्तर समझ आता है। जिसके द्वारा संसार नहीं संसार को बनाने वाला, लाखों-करोड़ों प्रकाशित सूर्य भी जिसकी बराबरी नहीं कर सकते, ऐसा जो ज्योति स्वरूप है, जो कण-कण में बसा हुआ है, सर्वव्यापक है, वह महान करतार दिखाई देता है।

लेकिन वह अन्तर्चक्षु तभी खुलता है जब गुरुकृपा होती है, वैसे तो गुरु सबके ऊपर ही अनवरत अपनी कृपा बरसाते हैं, लेकिन जो गुरु कृपा पाने के योग्य होता है, गुरु महिमा के महत्व को भलीभांति समझता है, उसका ही यह दिव्य नेत्र उद्भाषित होता है। क्योंकि इस दिव्य चक्षु के खुलने से शिष्य के जीवन में प्रभात का उदय होता है। सद्गुरु शिष्य को बाहर से नहीं अन्दर से जोड़ते हैं।

क्योंकि अन्दर ही वह उजाला मौजूद है, जिसमें जीवन की चमक है, जीवन की गरिमा है, जिसके लिए हमें यह अनमोल शरीर प्राप्त हुआ है। अन्दर के प्रकाश से ही बाहर की वास्तविकता समझ आती है। दुनिया के रिश्ते-नातों की सच्चाई का पता तभी चलता है, जब सद्गुरु के ज्ञान का अमृत मिल जाए। नीर और क्षीर का भेद तभी पता चलता है जब गुरुकृपा से अंदर का प्राणी जाग जाए।

गुरुशरण प्राप्त किए बिना इंसान बहुत सारी चोटों का शिकार हो जाता है। जाने-अनजाने में गुनाहगार बन जाता है। दर-दर की ठोकरें खाता है, वैसे ठोकरें जीवन में सबक सिखाने के लिए लगती हैं, लेकिन गुरु कृपा के बिना इंसान बार-बार ठोकर खाता है, बार-बार गुनाह करता है, बार-बार धोखे का शिकार होता है। पर जब गुरुकृपा से ज्ञान चक्षु खुल जाता है, तब शिष्य राह में ठोकर बनकर पड़े हुए पत्थर को भी अपनी मंजिल की सीढ़ी बना लेता है।


प्रेम का उद्देश्य आनंद प्राप्ति
भगवद्गीता में एक कहानी है। जब भगवान कृष्ण को भोजन परोसा जा रहा था, वे खड़े हुये और बोले, ‘‘नही, मुझे जाना है।‘‘ गोपियों ने उन्हें समझाने की कोशिस की। ‘‘पहले अपना भोजन तो करलो, ‘‘उन्होने विनती की। लेकिन वे बोले, ‘‘नही। मेरा एक भक्त मुश्किल में है और मुझे पुकार रहा है।

मुझे उसके लिये जाना होगा। ‘‘ऐसा कहकर वे तेजी से दौड़ पड़े लेकिन दरवाजे से ही वापस आ गये। ‘‘क्या हुआ‘‘ गोपियों ने पूछा। कृष्ण ने जवाब दिया, ‘‘पहले तो उसने सोचा कि मैं ही एक सहायक हूं और मुझे पुकारने लगा। लेकिन बाद में उसने सोचा कि कुछ और भी हैं जो उसकी मदद कर सकते है। इसलिए मैं इंतजार कर सकता हूं।‘‘

यह कहानी बताती है प्रार्थना की तीव्रता के बारे में। एक प्रार्थना का जन्म तब होता है जब आप पूर्णरुप से निसहाय अनुभव करते हो या पूर्ण रुप से कृतज्ञ हो। तीसरे तरह की प्रार्थना भी होती है जब आप पूर्ण विवेक में हो। तब आपको यह पता चलता है कि चेतना की गुणवत्ता अपनी सभी सीमाओं के परे चली गई है और बहुत ऊपर उठ गई है, उसकी दिशा पूर्णरुप से बदल गयी है जो कि पूर्णता देने वाली है, संपूर्ण ज्ञान से भरपूर है और पूरे विवेक और प्रेम से ओत-प्रोत हैं।

प्रायः लोग कहते हैं, ‘‘हृदय से प्रार्थना करो।‘‘ इससे काम नही चलने वाला जब आप बैचेनी में हो, इच्छा से भरे हुऐ हो और बिखरे हुये हो। आपको अपने अस्तित्व से प्रार्थना करनी होगी, दूसरे चक्र से। जब पूर्ण कृतज्ञ हो तब आप हृदय से प्रार्थना करो, लेकिन जब आप दयनीयता की स्थिति में हो तब आप हृदय से प्रार्थना नही कर सकते।

एक बार जब आप यह कहते हो, ‘‘ठीक है, मैनें सबकुछ छोड़ दिया, ‘‘तब आपकी प्रार्थना की तीव्रता पूर्ण हो जाती है। इसी तरह से इच्छा के ज्वर से बाहर निकला जा सकता है। आप अपने अस्तित्व से प्रार्थना करें। ये ही आपको सशक्त बनाती है, क्योंकि दिव्यता कमजोर के लिये बनी है।

इसीलिये उसे दीनबंधुकहते हैं। दीन का अर्थ है कमजोर, दयनीय, शक्तिहीन और निसहाय और बंधु का अर्थ है मित्र। इसीलिये आप प्रार्थना करते हैं, ‘‘अब मेरे पास कोई रास्ता नही है और मैं तनाव छोड़ देता हूं। मुझे सहायता की आवश्यकता है। ‘‘तभी आपके चारों ओर परिवर्तन होने लगते हैं।

प्रायः लोग पूछते हैं, ‘‘हम इतने सारे देवी देवताओं से प्रार्थना क्यों करते हैं? ‘‘दिव्यता (परमात्मा) एक ही है, लेकिन अनेक नामों से पुकारा जाता है। बस यही कारण है कि यही परमात्मा को भिन्न-भिन्न नामों, रुप, और रंगों से जगाया जाता है।

ईश्वर सबके हृदय में है, सब जगह है, आपके चारों ओर है और आपमें भी है। वह जानता है कि आपके लिये सबसे उत्तम क्या है और आपको जो सबसे अच्छा लगता है वही आपको देता है। प्रार्थना का अर्थ है दिल की गहराइयों से पुकारना। एक बच्चा रोता है तो कैसे रोता है? बच्चे अपनी मां के लिये पूरे शरीर से रोता है। उसके शरीर का एक एक कण और दिल का एक एक कोना कुछ मांगता है। पुकारना, पूरे दिल से पुकारना ही प्रार्थना है। जब हम अपने हृदय से कुछ करते है तो यही प्रार्थना होती है।

प्रार्थना की उच्च अवस्था ही ध्यान है। प्रार्थना का अर्थ है मांगना, ध्यान का अर्थ है सुनना। प्रार्थना आप कहते हैं, ‘‘मुझे ये दो, वो दो।‘‘ निर्देष देते हो, मांग करते हो। ध्यान में आप कहते हैं, ‘‘मै यहां पर हूं सुनने के लिये, जो कुछ भी आप बताना चाहते हैं मुझे बताएं।"

जब प्रार्थना अपने शिखर की ओर जाती है तब वह ध्यान हो जाता है। मौन प्रार्थना से बेहतर है। प्रायः प्रार्थना किसी भाषा में होती है-जर्मन, हिंदी, स्पेनिश, इंग्लिश। वास्तव में, इन सबका एक ही अर्थ है। लेकिन मौन इससे एक कदम आगे है, यह एक कदम भाषा की सीमा से परे हैं जिसे पूरा ब्रह्मांड समझता है। प्रकृति इसी से ही प्रदर्शित होती है।

प्रार्थना शब्द शक्ति है जो आपको हृदय के मौन की ओर ले जाती है। शब्द का उद्देश्य मौन का सृजन करना है। कर्म का उद्देश्य है गहन विश्राम प्राप्त करना। गहन विश्राम का उद्देश्य है आपको पूर्ण करना। पूर्णता में ही आपको प्रसन्नता, आनंद की प्राप्ति होती है। प्रेम का उद्देश्य आनंद को अपने भीतर जन्म लेने देना है।


अद्भुत संत जिनके आगे सब फीके
जो एक बार समग्र श्रद्धा और संकल्प और समर्पण से यात्रा शुरू करता है-भटकता नहीं, रास्ता मिल ही जाता है। ऐसे रास्तों पर उतारने वाले का नाम संतपुरुष, सद्गुरु है। कबीर दास ऐसे ही संत और सद‍्गुरू हैं।

इनका रास्ता बड़ा सीधा और साफ है। बहुत कम लोगों का रास्ता इतना सीधा-साफ होता है। टेढ़ी-मेढ़ी बातें कबीर को पसंद नहीं। इसलिए उनके रास्ते का नाम है: सहज योग। इतना सरल है कि भोलाभाला बच्चा भी चल जाए। पंडित न चल पाएगा। तथाकथित ज्ञान न चल पाएगा। निर्दोष चित्त होगा, कोरा कागज होगा तो चल पाएगा।

कबीर के संबंध में पहली बात समझ लेनी जरूरी है। यहां पांडित्य का कोई अर्थ नहीं है। कबीर खुद भी पंडित नहीं हैं। कहा है कबीर ने: मसि कागद छूयौ नहीं, कलम नहीं गही हाथ’-कागज-कलम से उनकी कोई पहचान नहीं है।

लिखालिखी की है नहीं, देखादेखी बात’-कहा है कबीर ने। देखा है, वही कहा है। जो चखा है, वही कहा है। उधार नहीं है। कबीर के वचन अनूठे हैं; जूठे जरा भी नहीं। और कबीर जैसा जगमगाता तारा मुश्किल से मिलता है।

संतों में कबीर के मुकाबले कोई और नहीं। सभी संत प्यारे और सुंदर हैं। सभी संत अदभुत हैं; मगर कबीर अदभुतों में भी अदभुत हैं, बेजोड़ हैं। कबीर की सब से बड़ी अद्वितीयता तो यही है कि जरा भी उधार नहीं है।

अपने ही स्वानुभव से कहा है। इसलिए रास्ता सीधा-साफ है; सुथरा है। और चूंकि कबीर पंडित नहीं हैं, इसलिए सिद्धांतों में उलझने का कोई उपाय भी नहीं था। बड़े-बड़े शब्दों का उपयोग कबीर नहीं करते। छोटे-छोटे शब्द हैं जो सभी की समझ में आ सकें।

लेकिन उन छोटे-छोटे शब्दों से ऐसा मंदिर चुना है कबीर ने, कि ताजमहल फीका है। जो एक बार कबीर के प्रेम में पड़ गया, फिर उसे कोई संत न जंचेगा। और अगर जंचेगा भी तो इसलिए कि कबीर की ही भनक सुनाई पड़ेगी। कबीर को जिसने पहचाना, फिर वह शक्ल भूलेगी नहीं। हजारों संत हुए हैं, लेकिन वे सब ऐसे लगते हैं, जैसे कबीर के प्रतिबिंब। कबीर ऐसे लगते हैं, जैसे मूल।

उन्होंने भी जान कर ही कहा है, औरों ने भी जानकर ही कहा है-लेकिन कबीर के कहने का अंदाजे बयां, कहने का ढंग, कहने की मस्ती बड़ी बेजोड़ है। ऐसा अभय और ऐसा साहस और ऐसा बगावती स्वर, किसी और का नहीं है।


जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK





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