Thursday, May 9, 2013

Jeene Ki Rah1 (जीने की राह )



स्त्री की पवित्रता ही उसकी निधि है
पुरुषों से स्त्रियों के मामले में जब भी बात की जाए तो उनका जवाब होता है कि स्त्रियां सुरक्षित तो हो सकती हैं पर स्वरक्षित नहीं। पुरुष सुरक्षित और स्वरक्षित दोनों हो सकता है।

वह मानकर चलता है कि हम अपनी सुरक्षा स्वयं कर सकते हैं और इसीलिए स्त्रियों से श्रेष्ठ हैं। यह सही है कि अपनी रक्षा के मामले में कहीं न कहीं स्त्री पुरुष के मुकाबले दोयम हो जाती है। लेकिन अध्यात्म के पास उसका उत्तर है। चिंतक दादा धर्माधिकारी कहा करते थे- स्त्री के जीवन में जिस दिन ब्रह्मचर्य की प्रतिष्ठा होगी, उस दिन वह अपने शरीर को अपनी दौलत नहीं मानेगी।

उसका रूप उसका भाग्य नहीं होगा। स्त्री की पवित्रता ही उसकी निधि है, क्योंकि मातृत्व जैसी अद्भुत घटना केवल स्त्री के साथ घटती है। मां होने का यही अर्थ नहीं है कि संतान को जन्म दें। मां होने का भाव किसी भी रिश्ते में आ सकता है। यह भाव स्त्री को अत्यधिक ऊंचाई प्रदान करेगा।

उसका नैतिक तेज केवल इस भाव से इतना बढ़ जाता है कि बुरे से बुरा आदमी भी ऐसी मां के सामने बुराई छोड़कर अच्छाई के रास्ते पर आ जाएगा। जिस किसी में मातृत्व का भाव जागता है उसके आसपास ऐसी किरणों निकलने लगती हैं कि जो भी उसमें आएगा, उसके भीतर संतान जैसा समर्पण होने लगेगा। कहते हैं कि गांधीजी और कस्तूरबा का रिश्ता पति-पत्नी का होने के बाद भी मातृत्व के भाव से ओत-प्रोत हो गया था। बुढ़ापे में देखा जाता है कि कई स्त्रियां अपने पतियों की देखभाल मां के सदृश्य करने लगती हैं। मातृत्व एक सात्विक अधिकार होता है, जिसके लिए नमन का भाव जाग ही जाता है।

गलत करने से हर हाल में बचें
किया हुआ कभी व्यर्थ नहीं जाता, बल्कि हमारा किया हुआ किसी न किसी रूप में हमारे सामने आता जरूर है। अच्छा, अच्छे के रूप में और बुरा, बुरे के रूप में। कबीरदासजी एक किस्सा सुनाया करते थे-चोर चोराई टूंबरी, गाडै़ पानी मांहि। वह गाड़ै तो ऊछलै, करनी छानी नांहि।।

किसी चोर ने तुमड़ी (लौकी के आकार की एक सब्जी) चुराई। वह उसे छिपाने के लिए पानी में गाडऩे लगा, परंतु वह तुमड़ी को गाड़ता तो वह पानी से उछलकर ऊपर आ जाती थी, क्योंकि उसने जो करनी की थी, वह छिपाए नहीं छिपती थी।

जैसे कोई बहुत अच्छा वक्ता हो, लेकिन उसका आचरण दूषित हो तो बहुत दिनों तक शब्दों का पाखंड चल नहीं पाएगा। इसलिए गलत काम करते समय यह मानकर चलना चाहिए कि एक न एक दिन वे हमारे सामने किसी न किसी रूप में लौटेंगे जरूर। ऐसा कहते हैं कि जहां गलत होता है वहां से भगवान चला जाता है।

और जहां हम सही करते हैं वहां ईश्वर चुंबक की तरह खिंचा चला आता है। हमारे गलत कर्मों में उसकी अनुपस्थिति सुनिश्चित है। कबीरदासजी इसी बात को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं- कबीर करनी आपनी, कबहुं न निष्फल जाए। सात समुद्र आड़ा पड़ै, मिलै अगाऊ आय।।

अपनी की हुई करनी या शुभ और अशुभ कर्मों का आचरण कभी भी निष्फल नहीं जाता। चाहे उसके रोक में सात समुद्र ही क्यों न पड़ते हों, परंतु उसका फल समय आने पर अवश्य ही मिलता है। इसलिए गलत गलत है और सही सही है। गलत करने से हर हाल में बचा जाए। सही कर पाएं या न कर पाएं, पर गलत कभी न करें।

मति सही रखता है ईश्वर स्मरण
यह सवाल कई बार उठाया जाता है कि जब सब कुछ परिश्रम, पढ़ाई-लिखाई, धन कमाना आदि हमें ही करना है तो फिर ईश्वर इसमें क्या करेगा? क्या जरूरत है जिंदगी में भगवान की। खासतौर पर नई पीढ़ी के मन में यह बात जरूर उठती है।

यह सही भी है कि सब कुछ हमें ही करना है। धन कमाने में भी हमारा ही पुरुषार्थ काम आएगा। लेकिन ईश्वर की भूमिका शुरू होती है, जब हम इसे भोगते हैं; खर्च करते हैं। हमारी मति सही रखने में हमें हमसे ज्यादा किसी एक परमशक्ति की जरूरत पड़ती है। पाने के लिए की गई मेहनत की तुलना में पा लेने पर उसे संभालने और सदुपयोग करने में अधिक योग्यता व कुशलता की जरूरत होती है।

अच्छे-अच्छे सही वक्त पर गलत निर्णय ले जाते हैं। शुरुआत से लेकर मंजिल तक जो निरापद रहे वे पहुंचकर फिसलते, पतित होते देखे जाते हैं। महाभारत का एक उदाहरण है। पांडवों को श्रीकृष्ण ने प्रेरित किया था कि इंद्रप्रस्थ निर्माण के बाद और विस्तार करो। राजसूय यज्ञ पांडवों द्वारा किया गया। सारा श्रम, पराक्रम उन्हीं का था। वे संसार के सबसे सशक्त राजा बन चुके थे और इसी समय शकुनि ने जुआ खेलने का प्रस्ताव दे दिया। स्वयं के द्वारा कमाए हुए ऐश्वर्य को भोगते समय पांडव भगवान को विस्मृत कर गए। उस परम शक्ति को भूल गए, जो भोगने की सही अक्ल देती है। जुए में दांव में बीस तरीके से उन्होंने अपनी संपत्ति खोई थी। ये बीस तरीके महाभारत से जानने लायक हैं। जिनमें मनुष्य सद्कर्मो से कमाई हुई संपत्ति को दुष्कर्मो से बर्बाद करता है। ईश्वर को याद रखने से हमें कोई हानि नहीं होती, बल्कि वह हमें कुछ देता ही है।

लोगों के योगदान को न नकारें
जीवन में चीजों का महत्व उनके जाने के बाद ही पता चलता है। दरअसल मनुष्य स्वयं को जब बहुत बड़ा मानने लगता है, तब अपने आसपास की कीमती वस्तुओं को भी तुच्छ समझने लगता है। रावण के जीवन से विभीषण चल दिए थे। रावण को लग रहा था मैंने विभीषण को त्याग दिया। लेकिन वास्तविकता यह थी कि विभीषण ने ही छोड़ दिया था रावण को।

सुंदरकांड में तुलसीदासजी ने इस दृश्य पर लिखा है- रावण जबहिं विभीषन त्यागा। भयउ बिभव बिनु तबहिं अभागा।। चलेउ हरषि रघुनायक पाहीं। करत मनोरथ बहु मन माहीं।। रावण ने जिस क्षण विभीषण को त्यागा, उसी क्षण वह अभागा वैभव, ऐश्वर्य से हीन हो गया। विभीषण हर्षित होकर मन में अनेक मनोरथ करते हुए श्रीरघुनाथजी के पास चले। यहां रावण को तुलसीदासजी अभागा लिख रहे हैं। लिखा है, भयउ बिभव बिनु तबहिं अभागा..। यानी ऐश्वर्यहीन हो गया।

रावण भूल गया था कि उसके ऐश्वर्य में विभीषण की तपपूर्ण स्थिति भी काम कर रही थी। अन्य लोगों के महत्वपूर्ण योगदान को जीवन में नकारना नहीं चाहिए। इधर विभीषण लंका से जाते समय हर्षित थे। भाई ने अपमानित किया था, पर ईश्वर से मिलने की संभावना ने उन्हें खुश कर दिया था। कुछ लोग पाकर खो देते हैं और कुछ खोकर भी पा लेते हैं।

यहां एक शब्द आया है मनोरथ। आज विभीषण के मनोरथ पूरे हो रहे थे। ऐसा होना ही था, क्योंकि उनके जीवन में हनुमान आ चुके थे और बजरंगबली के लिए हनुमानचालीसा में लिखा है-और मनोरथ जो कोई लावै, सोई अमित जीवन फल पावै। हनुमानजी ने विभीषण के मनोरथ पूरे कर दिए थे

अपने मन के क्षेत्र को समझें
जिस तरह से हम अपने बाहरी दायित्वों के लिए बंटे हुए हैं, उसी तरह उसकी व्यवस्था अपने भीतर भी जमानी पड़ेगी। हम कार्यस्थल, घर-परिवार और नितांत निजी जीवन में अपने-अपने स्तर पर सक्रिय रहते हैं। कभी खुश, तो ज्यादातर परेशान ही रहते हैं।

हमारी परेशानी का कारण है हमारी भीतरी तैयारी न होना। हमारा व्यक्तित्व तीन भागों में बंटा है शरीर, मन और आत्मा। जब हम कार्यस्थल पर हों, समाज में रहें तो ज्यादातर प्रतिशत सक्रिय शरीर रहेगा। परिश्रम यहां के केंद्र में रहेगा।

शरीर का पूरा उपयोग और स्वास्थ्य की परीक्षा यहां होती रहती है। फिर घर में आते ही मन के क्षेत्र को समझें। घर का वातावरण भावुकता के स्तर पर समझना और जीना होगा। कार्यस्थल की आपाधापी, लाभ-हानि को घर के शांत वातावरण में लाने से माहौल को खराब होते देर नहीं लगती और मन को शांति की स्थिति ज्यादा रास आती भी नहीं है।

मन का स्वभाव है तेजी से भागना। शरीर से घर में रहते हुए भी मन बाहर ले भागता है। लोग घर में जीवनसाथी, परिवार के सदस्यों, बच्चों के साथ रहते हुए भी भीतर से दूसरी दुनिया, अन्य लोगों में भटकने चले जाते हैं। एक जगह टिकना इसके स्वभाव के विपरीत है। फिर मन को गलत काम करना पसंद भी है। इसलिए घर के अच्छे भले वातावरण में भी भीतरी अपवित्रता ले आता है। यदि मन पर काम किया जाए तो घर में भले ही कम समय रहें, पर जितना भी रहेंगे प्रेमपूर्ण होकर रहने की संभावना बढ़ जाएगी। इसके बाद प्रवेश किया जाए आत्मा के तल पर। यहां निजी जीवन समझ में आएगा। शरीर और मन में उलझे हुए लोग जीवनभर आत्मा तक पहुंच ही नहीं पाते हैं।

जिंदगी को थोड़ा थमकर जिएं
पढ़ने की आदत छूट जाने के खतरे अब सामने आने लगे हैं। नई पीढ़ी तो पूरी तरह फैंटेसी में जीने की तैयारी के साथ है। पहले पढ़ते समय चित्त को गहराई तक स्पर्श किया जाता था। किताबों के अक्षर आंखों से उतरकर भीतर दिल की गहराई तक जाते थे।

पाठक दौड़ने-चलने की जगह बहता था। यह एक भीतरी बहाव है। पढ़े गए शब्दों से बने दृश्य जीवन से जुड़ जाते थे। लगता था, शब्दों से निर्मित हर दृश्य हमारे ही जीवन की किसी घटना की ओर इशारा कर रहा हो। ऐसे शब्द बाद में याद आने पर स्मृतियों का बोझ नहीं बनते थे।

अब पढ़ने-लिखने की शैली ही बदल गई। यह जल्दी का दौर है। आंखों की भी मांग हो गई कि दृश्य सामने से जल्दी से भागें। दिल तक पहुंचने वाले मामले ही खत्म हो गए। क्योंमें जीने वाली पीढ़ी ने सारे उत्तर स्क्रीन पर ढूंढ़ने शुरू कर दिए। फटाफट जानकारी तो मिल जाती है पर ज्ञान के लिए एक तयशुदा चाल ही काम आती है।

पर्याप्त समय लिए बिना बात बनती नहीं। ज्ञान अर्जन की प्रक्रिया में थोड़ी देर बैठना और रुकना भी पड़ता है। और रुकने के लिए तो आज कोई भी तैयार नहीं है। जल्दी और शॉर्टकट की फिलॉसफी ने आधुनिक इंसान को अधीर बना दिया है।

ज्ञान अर्जित करने के क्षेत्र में भी यही अधीरता देखी जाती है। फिर भी थोड़ा समय बच्चों को शास्त्रों के पाठन से गुजारा जाना चाहिए। इनकी कथाओं के दृश्य जब पढ़े जाएंगे तो जीवन के दृश्यों से जुड़ेंगे। जिंदगी को कुछ परिस्थितियों में रुककर, थमकर ही जिया जा सकता है। हर बार हर जगह तेजी से बात नहीं बनेगी। कंप्यूटर, मोबाइल की दौड़ यहां काम नहीं आती है।

पालकों का ही अनुकरण करते हैं बच्चे
चारों तरफ चुनौतियां हैं। एक से निपटो, उससे पहले दूसरी तैयार रहती है। संसार, संपत्ति, स्वास्थ्य की समस्याओं का निदान तो फिर भी मनुष्य ढूंढ़ लेता है। यहां समाधान न भी मिले तो सहनशक्ति से काम चल जाता है, पर संतान के मामले में आई चुनौती अच्छे-अच्छों को तोड़ जाती है।

छोटे परिवारों की भीड़ होती जा रही है, ऐसे में पालक संतानों पर कुछ ज्यादा ही फोकस्ड हैं। परवरिश पालकों की तरह न होकर मैनेजरों की तरह हो रही है। बच्चों से घर के माहौल को लेकर पूछो तो कहेंगे कि एक क्लास रूम से निकलकर दूसरे में आ गए। जब जिस बड़े को मौका मिल रहा है, वही हमारी खोपड़ी में कुछ न कुछ भरने की तैयारी में है। ऐसे में चिढ़कर इस नई पीढ़ी ने भराव लेना ही बंद कर दिया है, उनकी जिद्दी छवि का निर्माण यहीं से हुआ है।

हर समय, हर मौके पर लंबा लेक्चर देने लग जाना उपयोगी होने की बजाय नकारात्मक प्रभाव दिखाने लग जाता है।आज बच्चों के भीतर दिमाग के रास्ते से नहीं जाया जा सकता। वह वहां पहले से ही ओवर लोडेड है। रास्ता बचा है दिल का। दिल का रास्ता इतना संकरा है कि वहां से ईगो वाले लोग नहीं गुजर सकते। अहंकार त्यागकर ही दिलों की राहों से गुजरना पड़ता है, क्योंकि प्रेम की भाषा सभी के हृदय का द्वार खटखटाती है। माता-पिता शब्दों की जगह आचरण से बोलना शुरू करें और आचरण बोलता है अभ्यास से। पति-पत्नी को संतानों के लिए संयुक्त रूप से योग-ध्यान का अभ्यास करना होगा। तब बात जुबां की जगह दिल से हो पाएगी।

कर्मकांड में छिपे जीवन को खोजें
पूजा-पाठ खासतौर पर कर्मकांड की इन दिनों खिल्ली भी उड़ाई जाती है। घर में बुजुर्गों को पूजा-पाठ, दान आदि करते देखकर बच्चे विज्ञान और तर्क के झोंकों से उन्हें उड़ाने का भी खूब प्रयास करते हैं। नई पीढ़ी हर बात में तर्क, विज्ञान और व्यावहारिकता देखती है, ऐसा होना भी चाहिए।

लेकिन केवल इन्हीं के आधार पर कोई बात खारिज करना या स्वीकार करना भी पूरी तरह से ठीक नहीं माना जा सकता। अगर ढूंढऩा ही है तो इनमें जीवन ढूंढें। ऋषि-मुनियों, फकीरों ने सारा ताना-बाना जीवन को केंद्र में रखकर ही बुना है। ज्यादा विश्लेषण में कहीं आपका जीवन न खो जाए, वरना हममें और जानवरों में फर्क क्या रह जाएगा।

ऊपर वाले ने वो सारे कृत्य पशुओं को भी दिए हैं, जो मनुष्य करता है। आहार, निद्रा और संतान उत्पत्ति की क्रियाओं से इंसान और जानवर दोनों ही समान रूप से गुज़रते हैं। जन्म और मृत्यु के मामले में तो दोनों को एक जैसा ही बख्शा है। फिर फर्क कहां है? केवल जीवन जीने के तरीके में अंतर है।

पशु इस विशेषता से वंचित है और मनुष्य में यह संभावना कूट-कूटकर भरी है। कई मामलों में मनुष्य व पशु की वास्तविकता एक जैसी है। पर फर्क हो जाता है संभावना का। इसलिए पूजा-पाठ में, सत्संग में जो जीवन छुपा है उसे जरूर उठाएं, स्पर्श करें, खोजें, बाकी चीजें छोड़ दें।

पर यदि समूचे को नकारा जाए तो जीवन भी हाथ से चला जाएगा। मनुष्यता को प्राप्त इस अद्भुत संभावना को नज़रअंदाज करने से लगता है जैसे कि कुछ लोग जानवरों की तरह जी रहे हैं। जरा सावधान हो जाएं।

परमात्मा को अनुभूति से जोड़ा जाए
भगवान  कहां मिलता है, यह खोज बड़ी पुरानी है। फिर विज्ञान के युग में तो ऐसा भी सवाल उठता है कि भगवान हैं भी या नहीं। रामसुख दासजी कहा करते थे- ईश्वर अनेक रूपों में व्यापक है, अचल है, ठोस है, सर्वत्र ठसाठस भरे हुए हैं, परंतु यह शरीर बिलकुल पोल है।

एक तरह से खोखला है और इसमें हमने तरह-तरह की गूंज भर रखी है। हमें वहम होता है कि इतना मान मिल गया, इतना आदर मिल गया, इतना भोग मिल गया, इतना सुख मिल गया। वास्तव में मिला कुछ नहीं है। केवल वहम है, धोखा है, गूंज है, कुछ नहीं रहेगा। क्या यह शरीर रहने वाला है? अनुकूलता रहने वाली है? सुख रहने वाला है? मान रहने वाला है? बड़ाई रहने वाली है? यह सब तात्कालिक हैं, क्षणिक हैं।

संसार नाम ही बहने वाले का है। जो निरंतर बहता रहे, उसका नाम संसार है। यह हरदम बदलता ही रहता है - गच्छतीति जगत्। कभी एक क्षण भी स्थिर नहीं रहता। परंतु परमात्मा एक क्षण भी कहीं जाते नहीं, जाएं कहां? कोई खाली जगह हो तो जाएं। जहां जाएं, वहां पहले से ही परमात्मा भरे हुए हैं। भगवान सबके हैं और सबमें हैं, पर मनुष्य उनसे विमुख हो गया है। संसार रात-दिन नष्ट होता जा रहा है, फिर भी वह उसको अपना मानता है और समझता है कि मुझे संसार मिल गया। भगवान कभी बिछुड़ते ही नहीं। इसलिए परमात्मा को अनुभूति से जोड़ा जाए। जो चीज हमारे पास सदैव से है उसको बहुत अधिक ढूंढ़ना भी नहीं, बस महसूस करना है। यह पूरे जीवन का भराव बन जाएगा।

परमात्मा को अनुभूति से जोड़ा जाए
भगवान  कहां मिलता है, यह खोज बड़ी पुरानी है। फिर विज्ञान के युग में तो ऐसा भी सवाल उठता है कि भगवान हैं भी या नहीं। रामसुख दासजी कहा करते थे- ईश्वर अनेक रूपों में व्यापक है, अचल है, ठोस है, सर्वत्र ठसाठस भरे हुए हैं, परंतु यह शरीर बिलकुल पोल है।

एक तरह से खोखला है और इसमें हमने तरह-तरह की गूंज भर रखी है। हमें वहम होता है कि इतना मान मिल गया, इतना आदर मिल गया, इतना भोग मिल गया, इतना सुख मिल गया। वास्तव में मिला कुछ नहीं है। केवल वहम है, धोखा है, गूंज है, कुछ नहीं रहेगा। क्या यह शरीर रहने वाला है? अनुकूलता रहने वाली है? सुख रहने वाला है? मान रहने वाला है? बड़ाई रहने वाली है? यह सब तात्कालिक हैं, क्षणिक हैं।

संसार नाम ही बहने वाले का है। जो निरंतर बहता रहे, उसका नाम संसार है। यह हरदम बदलता ही रहता है - गच्छतीति जगत्। कभी एक क्षण भी स्थिर नहीं रहता। परंतु परमात्मा एक क्षण भी कहीं जाते नहीं, जाएं कहां? कोई खाली जगह हो तो जाएं। जहां जाएं, वहां पहले से ही परमात्मा भरे हुए हैं। भगवान सबके हैं और सबमें हैं, पर मनुष्य उनसे विमुख हो गया है। संसार रात-दिन नष्ट होता जा रहा है, फिर भी वह उसको अपना मानता है और समझता है कि मुझे संसार मिल गया। भगवान कभी बिछुड़ते ही नहीं। इसलिए परमात्मा को अनुभूति से जोड़ा जाए। जो चीज हमारे पास सदैव से है उसको बहुत अधिक ढूंढ़ना भी नहीं, बस महसूस करना है। यह पूरे जीवन का भराव बन जाएगा।

आचरण में हों श्रीराम की विशेषताएं
भारत की संस्कृति में चरणों का बहुत महत्व है। हमने इन्हें शरीर का अंग ही नहीं माना है, मनुष्य के पैर को उसके आचरण से जोड़कर रखा गया है। इसलिए भारत में पैर छूने की परंपरा का बड़ा मान है।

विभीषण जब रावण को छोड़कर श्रीराम की ओर चले तो रामजी के चरणों को सात रूपों में मन ही मन याद किया था। गहराई से देखा जाए, तो ये सात रूप चरित्र से जुड़े हुए हैं। सुख, मोक्ष, पवित्रता, हृदय, परिश्रम, कल्याण और प्रेम की ओर हमारे चरण चलना चाहिए, ऐसा संकेत विभीषण के चिंतन में आया है। देखिहउं जाइ चरन जलजाता। अरुन मृदुल सेवक सुखदाता।। जे पद परसि तरी रिषनारी। दंडक कानन पावनकारी।।

वे सोचते थे, मैं जाकर भगवान के कोमल और लाल वर्ण के सुंदर चरणकमलों के दर्शन करूंगा, जो सेवकों को सुख देने वाले हैं। जिन चरणों का स्पर्श पाकर ऋषि पत्नी अहिल्या तर गईं और जो दंडकवन को पवित्र करने वाले हैं। जे पद जनकसुतां उर लाए। कपट कुरंग संग धर धाए।। हर उर सर सरोज पद जेई। अहोभाग्य मैं देखिहउं तेई।। जिन चरणों को जानकीजी ने हृदय में धारण कर रखा है, जो कपट मृग के साथ पृथ्वी पर दौड़े थे और जो चरणकमल साक्षात शिवजी के हृदयरूपी सरोवर में विराजते हैं, मेरा अहोभाग्य है कि उन्हीं को आज मैं देखूंगा। जिन चरणों की पादुकाओं में भरतजी ने अपना मन लगा रखा है, आज मैं उन्हीं चरणों को इन नेत्रों से देखूंगा। चरण का अर्थ है आचरण। हमें भी अपने आचरण में श्रीराम जैसी ये सातों विशेषताएं उतारनी चाहिए।

मन को परमात्मा के रंग में रंग लें
रंग  में रंग जाना केवल कहावत नहीं है, इसमें जीवन का एक बहुत बड़ा सिद्धांत समाया है। होली रंगों का त्योहार है। इसका मतलब केवल यह न लिया जाए कि एक-दूसरे को रंग पोतना है। यह एक व्यवहार है, जो वर्षो से चला आ रहा है। अब त्योहार खेल बन गया है।

खेल में गंदगी भी आ गई है, क्योंकि लोगों ने रंगों को केवल शरीर से जोड़ लिया है। हमारे फकीरों ने रंगों का बड़ा सुंदर आध्यात्मिक उपयोग बताया है। परमपिता परमेश्वर के रंग में अपने जीवन की चुनरी को रंगना भक्ति कहलाता है। होली का त्योहार एक बाहरी कृत्य है। इसमें शरीर की प्रधानता है। किसी दिन आंतरिक कृत्यों से भी गुजरा जाए, क्योंकि जीवन छोटे-छोटे कर्मो से भी चलता है। एकांत में गलत होने की संभावना अच्छे-अच्छों से हो जाती है।

अकेले में खुद को सही ढंग से बचाना कठिन हो जाता है। निर्जन में बड़े-बड़े महात्मा अपने आचरण से भटक गए। ऊपर वाले के रंग में अगर स्वयं को रंगना है, तो होली भीतर खेलनी होगी। बाहर रंगीन होना आसान है, लेकिन एक आयोजन भीतर भी करिए, जहां किसी दूसरे की दृष्टि हम पर न पड़े और हम अपने मन और हृदय को उस परमात्मा के रंग में रंग लें। उसके रंग का नाम है भक्ति का रंग, प्रेम का रंग। जहां की होली आत्मा की अभिव्यक्ति हो, शरीर की हरकत नहीं रहेगी। यहां भीगकर भी सूखे रहेंगे और सूखे रहते हुए भी तर-ब-तर हो सकेंगे। इस होली पर जल बचाने के लिए यह भाव भी बड़ा काम आएगा।

बच्चों को अनुशासन में रखना जरूरी
वैसे तो इंसान को दो तरह का आचरण नहीं करना चाहिए, लेकिन माता-पिता बनने के बाद उन्हें दोहरे आचरण से गुजरना पड़ सकता है। जो संतान के लालन-पालन के मामले में बाहर से कठोर रहेंगे, वे बच्चों के सुखद भविष्य का निर्माण करेंगे।

ऐसे में हो सकता है कि बच्चे अपने पालकों के प्रति शिकायत करते मिलें। संतान की युवा उम्र लालन-पालन की नीतियों के प्रति शिकायतपूर्ण रहती है, यह सहज ही है। जिन बच्चों ने अपने माता-पिता का कठोर अनुशासन देखा है, वे जब बड़े होते हैं तो उन्हें समाज में तालमेल बैठाने में दिक्कत नहीं होती।

इसलिए माता-पिता को यह ध्यान देना होगा कि जब हम बच्चों को समय दें, तो उसमें अनुशासन पूरा रखें और जब उन्हें ऊर्जा दें तो कठोरता पूरी रखें। इन दोनों की सतह के नीचे आत्मीयता और प्रेम बना रहेगा। लेकिन माता-पिता की अधिक उदारता बच्चों को उन्मुक्त ही बनाएगी। उन्मुक्तता एक ऐसी स्वतंत्रता है, जो भविष्य में बच्चों को गुलाम बना देगी।

बच्चों के मुंह से ये सुनने की इच्छा अधिक न रखें कि माता-पिता के रूप में आप बहुत अच्छे हैं, क्योंकि वे किसी लालच में आकर भी यह संबोधन कर सकते हैं। जब वे प्रेमपूर्ण होकर आपका आलिंगन करें तो कहीं आप उसमें बह न जाएं। इस गलबहियां के पीछे उनके भविष्य पर दृष्टि जरूर रखें। अपनी सख्ती को कहीं कम न होने दें। आप भले ही माता-पिता हैं, लेकिन अपना काम निकालने में बच्चे भी कम चतुर नहीं होते। यह चतुरता उनके भविष्य के लिए नुकसानदायक हो सकती है।

कभी स्वयं को भी समर्पित कर दें
मनुष्य की कई कमजोरियों में से एक कमजोरी समर्पण को भी माना गया है। कहते हैं कि यदि आप सरेंडर हो गए, इसका मतलब आप पराजित हो गए। इस समय तो जब चारों ओर विजय के लिए दौड़ लग रही हो, कौन पराजित होना चाहेगा।

आइए, समर्पण के भाव को थोड़ा-सा अध्यात्म से जोड़कर देखें। धर्म की दुनिया में इसको ताकत माना गया है। खासतौर पर यह समर्पण जब परमशक्ति के प्रति हो, तो उसकी शक्ति हममें बहने लगती है। समर्पण में एक स्थानांतरण आरंभ हो जाता है। इसका व्यावहारिक उपयोग भी किया जा सकता है।

प्रतिस्पर्धा के इस दौर में जब हम अत्यधिक क्रियाशील होते हैं, तो लोगों की नजर में रहते हैं। जब हम किसी भी मौके पर झुकना नहीं चाहते, तब हम लोगों की निगाह में भी अधिक रहेंगे। हर बात की हम प्रतिक्रिया करना चाहते हैं। हमारी प्रतिक्रियाएं हमारी ऊर्जा नष्ट कर रही होती हैं। इसलिए कभी-कभी कुछ स्थितियों में स्वयं को समर्पित कर देना चाहिए। यह एक अच्छा विकल्प है।

आपको समर्पित देखकर आपके प्रतिद्वंद्वी आपकी ओर से थोड़े लापरवाह हो सकते हैं। इस दौरान आपको भी समय मिल जाता है कि आप पुन: अपने आप को सक्षम बनाने की तैयारी कर लें। समर्पण एक तरह की प्रतीक्षा बन जाता है। जिनसे आपका मुकाबला हो रहा है, वे या तो आपके प्रति लापरवाह हो जाते हैं या फिर स्वयं के प्रति आश्वस्त। उनके इसी आश्वासन के पीछे आप इस समर्पण के साथ अपनी नई तैयारी कर सकते हैं।

जरूरी है भीतर से स्थिर होना
शतरंज के खेल के बारे में जानने वाले समझ सकते हैं कि इस खेल में जितना भी दिमाग लड़ाया जाता है, वह सब नियमों के तहत होता है। सब कुछ निश्चित होने के बावजूद हार-जीत अनिश्चित है। लेकिन अब शतरंज का खेल भी पुराना हो गया है। इस भागती-दौड़ती जिंदगी में किसी भी चाल का सही निश्चित प्रत्युत्तर नहीं है।

हमने इसी धरती पर देखा है कि लोगों ने पुण्य से स्वर्ग और पाप से नर्क मिलने की अवधारणा पर आधारित लंबा जीवन जिया। यह बात आज भी कही जाती है, लेकिन आज की पीढ़ी इसे स्वीकार नहीं करती। जरूरी नहीं कि पुण्य करने से स्वर्ग मिल जाए। नर्क के कष्ट आवश्यक नहीं कि मरने के बाद ही भोगे जाएं।

लोग जीते जी भी नारकीय जीते हैं। अब जीवन राजमार्ग या रेल की पटरी की तरह नहीं है। कभी पहाड़ पर चढऩा है, कभी जल की गहराइयों को छूना है, तो कभी आसमान में उडऩा भी है। जमाने भर की प्रबंधन शिक्षा के बाद भी दौड़ और उसके नतीजे अस्थिर हैं। स्थिर होने का अर्थ ही रुकना मान लिया गया है।

जबकि स्थिर होना है भीतर से। योग के अलावा स्थिर होने के लिए एक प्रयोग नींद के साथ भी किया जा सकता है। नींद में हमारी सारी इंद्रियां और गतिविधियां शिथिल होती हैं, फिर भी हम कहीं न कहीं रहते हैं।

पैर की धूल और बालों का तेल शयन की क्रिया को प्रभावित करता है। यानी कोई है जो उस समय आनंद ले रहा होता है। बस इसी व्यक्तित्व को जागृति में भी पकड़े रखना है, तब हम भीतर से स्थिर होने का मतलब समझ जाएंगे।

अपने भीतर अच्छाइयों को उतारें
आप कैसे हैं इस बात का निर्णय आपकी संगति से लगाया जा सकता है। जिन लोगों के साथ हमारा उठना-बैठना है, वे धीरे-धीरे हमारे व्यक्तित्व में उतर जाते हैं। इसलिए किससे बोल रहे हैं उतना ही महत्वपूर्ण है क्या सुन रहे हैं।

इसलिए अत्यधिक सावधान रहा जाए कि दो घड़ी भी किसके साथ बिताई जा रही है। भुवंगम बास न बेधई, चंदन दोष न लाय। सब अंग तो विष सों भरा, अमृत कहां समाय।। सर्प चंदन के वृक्ष पर लिपटे रहते हैं, परंतु चंदन की सुगंध उसके तन में नहीं समाती, तो इसमें चंदन का कोई दोष नहीं है, क्योंकि सर्प का संपूर्ण शरीर ही विष से भरा हुआ है।

ऐसे में उसमें अमृत रूपी सुगंध कैसे प्रवेश करे। इसी प्रकार सत्संगति में जाते रहने पर भी यदि किसी का सुधार नहीं हुआ, तो वह उसके अंदर के विषैले दोषों का कारण है, उसमें पाप भरा है। इस उदाहरण के जरिये कबीरदासजी का कथन था कि हमें चंदन की तलाश करते रहनी चाहिए।

इसका मतलब है जिस किसी से हम मिलें, उसके सद्गुणों की सुगंध अपने भीतर उतारें। इसके लिए हमें एक आध्यात्मिक प्रक्रिया से गुजरना होगा। वह है अपने को भीतर से अपने ही अहंकार से खाली रखना। हमारी रिक्तता सद्गुणों के लिए आमंत्रण बन जाएगी। जब हम खाली होंगे, तभी तो कुछ भर पाएंगे।

आज मनुष्य भीतर से इतना अहंकारयुक्त है कि वह कुछ अच्छा लेना ही नहीं चाहता, उसे ही ग्रहण करता है, जो उसके अहंकार को पोषित करे। अहंकार से भरे हुए हम अच्छाइयों को उतार ही नहीं पाएंगे। इसलिए निरहंकारी होने की तैयारी की जाए।

जैसे विचार वैसा व्यक्तित्व
सोने के ठीक पहले और उठते ही जो विचार हमारे मन में होते हैं, वे हमारा दिनभर का व्यक्तित्व बनाते हैं। इसलिए इन दोनों समय कलह, शिकायत और चिड़चिड़ापन बिलकुल न रखें। देखा गया है कि बहुत सारे लोग दिनभर थकने के बाद शाम को कुंठा और क्रोध में सो जाते हैं। रात की दुखी कल्पनाएं सुबह को भी भारी बना देती हैं।

ये दोनों समय इंद्रियां एक अलग भूमिका में रहती हैं। इस समय हम अपने व्यक्तित्व पर सरलता से नियंत्रण पा सकते हैं। हम चूकते भी सबसे ज्यादा इन्हीं दो मौकों पर हैं, जबकि शयन का समय हमारे भीतर के सारे आंदोलनों को निरस्त कर एक ऐसी प्यास पैदा कर सकता है, जिसमें तृप्ति ही तृप्ति होगी।

वे सारी लपटें जिनमें हम दिनभर झुलसते हैं शयन में शीतल हो सकती हैं, लेकिन मनुष्य वहां भी करवटें बदल-बदलकर अपने भीतर एक नए मनुष्य के जन्म की संभावना खत्म कर देता है। नींद के समय इस बात की पूरी गुंजाइश है कि हम एक नया व्यक्तित्व जो हमारे भीतर होता है, निर्मित कर सकते हैं और सुबह की शुरुआत उसी ताजगीपूर्ण व्यक्तित्व से की जा सकती है।

लेकिन देखा गया है कि आदमी दिनभर अपने को इतना झोंक लेता है कि उसके भीतर का प्रसन्न व्यक्ति रात तक मृत हो जाता है। अगर कोई लक्ष्य रह जाता है, तो भोग और उसके बाद उसके प्राण निकल जाते हैं। शव का शयन कराने के बाद किसी जीवित से मुलाकात कैसे हो सकती है? इसलिए दोनों समय अत्यधिक सावधान रहें। जब सो रहे हों तब और जब उठ रहे हों, उस शुभ काल में।

स्वयं को खोजने की यात्रा जारी रहे
इस समय दुनिया जानने के साधन पहले से अधिक हो गए हैं। जानकारी के मामले में तो लोगों को अजीर्ण-सा होता जा रहा है। हर मनुष्य विशेषज्ञ की तरह बात करता है। भले ही विषय की गंभीरता न मालूम हो। इस सबके बावजूद पूरे जीवन एक बहुत बड़ी बात अज्ञात ही रह जाती है और वह है हम यानी आत्मा, उसका मालिक यानी परमात्मा। ये दोनों आज भी अज्ञात हैं।

कंप्यूटर के पास इनकी जानकारी है, ज्ञान नहीं है। शास्त्रों के पास ज्ञान है और अनुभूति नहीं है। यह अज्ञात अनुभूति का विषय है। हम क्या हैं, यह हम कई स्थितियों से तय करते हैं। जैसे-धन आने पर हम अपने आपको बड़ा मान लेते हैं। अब विचार करें यदि धन आने से हम बड़े हुए तो वास्तव में बड़ा कौन है- हम या धन? क्योंकि उसके आने पर ही हमने अपने आपको परिवर्तित माना है। यानी जिनके पास धन नहीं है, वे छोटे हो गए।

ऐसा ही शिक्षा, प्रतिष्ठा, पद के साथ होता है, जबकि ये सब आने और जाने वाली वस्तुएं हैं। ये आती और जाती हैं और हम वैसे के वैसे ही रहते हैं। सच तो यह है कि हम हैं इसीलिए ये वस्तुएं सार्थक होती है, लेकिन इनको व्यक्तित्व से जोड़ लेना बहुत बड़ा भ्रम होगा। मिली हुई चीज से अपने महत्व को न जोड़ा जाए। हमारा महत्व परमात्मा की कृति है और ये सब चीजें हमारा कर्म है। हमारी कर्म में आसक्ति होनी चाहिए। उसका परिणाम हमारे महत्व को प्रभावित नहीं करना चाहिए। इसलिए जीवन में स्वयं को खोजने की यात्रा जारी रहनी चाहिए। इसका अगला पड़ाव स्वयं को बनाने वाले की खोज पर पूरा होगा।

केवल बोलने के लिए ही न बोलें
केवल   बोलने के लिए कभी न बोलें। बोला इसलिए जाए कि शब्द साकार हो सकें। दूसरों के लिए उपयोगी रहें और हमारी ऊर्जा को पीने वाले न बन जाएं। इन दिनों हर हाथ में चिपके हुए मोबाइल ने लोगों की वाक्-वृत्ति को बढ़ा दिया है, जिससे शब्द-शक्ति पर सीधा असर पड़ रहा है।

इसका अंदाजा अभी भले ही न लगे, लेकिन कुछ बीमारियां शब्द-क्षय से प्रवेश करेंगी। अध्यात्म कहता है संसार में ऐसा कोई अक्षर नहीं है, जो मंत्र न हो। जैसे- ऐसी कोई जड़ी-बूटी नहीं है, जो दवा न बन सके और ऐसा कोई मनुष्य नहीं है, जो परमात्मा में परिवर्तित न हो पाए। फिर भी चूक पर चूक किए जाते हैं। अभी हम बात कर रहे हैं शब्दों की।

किस बात को, किस तरीके से, किन शब्दों में कहा जाए इसे साधना की तरह लिया जाना चाहिए, क्योंकि आपके शब्द आपके शत्रु और मित्र दोनों बन सकते हैं। शब्दों का विसर्जन इस तरह करें कि उनसे दूसरों का हित तथा आपका कल्याण हो, क्योंकि जीवन की गहरी अनुभूतियां शब्द के पीछे के अर्थ से मिली हैं।

केवल शब्द के उच्चरण से प्राप्त नहीं हुईं। कुछ शब्द कहने के लिए होते हैं और कुछ अपने साथ एक समझ लेकर चलते हैं। कुछ शब्द केवल बातचीत की भेंट चढ़ते हैं। कुछ की हत्या बहस में हो जाती है। कुछ अनर्गल के फंदे पर झूलते रहते हैं। दरअसल, बाहर फेंके गए शब्द यदि अर्थ के साथ नहीं आए हैं, तो वे आपके पूरे व्यक्तित्व के लिए नुकसानदायक होंगे। हृदय और जीभ इस मामले में एकसाथ रहें, तब शब्द मंत्र की तरह आकार लेंगे ही।

हृदय से सुनें एक-दूसरे की बात
जीवन में दुर्घटनाएं दो बड़े कारणों से होती हैं - गति और दृष्टि। लेकिन दोनों के दोषी हम हैं। दूसरों की अनियंत्रित गति और उनका दृष्टि-दोष भी हमें क्षतिग्रस्त कर सकता है। हां, हमारी गति यदि नियंत्रित है और दृष्टि से सावधान हैं तो दुर्घटना से बचने की संभावना जरूर बढ़ सकती है, लेकिन पूरी तरह से मुक्त नहीं हो सकते। टक्कर तो लगनी ही है।

पति-पत्नी के संबंध इस मामले में कभी-कभी अंधे हो जाते हैं, वे रोज टकराते हैं। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि अंधे से अंधा टकरा रहा है। कुछ विषयों में तो उन्हें मालूम रहता है कि कल ही टकराकर हम गड्ढे में गिरे थे, लेकिन फिर वही और वैसी ही टक्कर एक-दूसरे को देते चले जाते हैं। आज के समय में बाहर की आंख से तो इस रिश्ते में दुर्घटनाएं रोकना कठिन है।

एक अंतरदृष्टि की जरूरत है, जिसे दिल की आंख कहा गया है। हृदय की रोशनी में यह अंधापन जा सकता है। पति-पत्नी के रिश्ते में सबसे पहली टक्कर बहस से शुरू होती है। इसी बहस से निकलती है आहत करने वाली टिप्पणी। दोनों के बीच इतनी अधिक कहा-सुनी हो जाती है कि जो अनकहा सुना जाना चाहिए, वह कानों तक पहुंच ही नहीं पाता। इसे हृदय से ही सुनना पड़ेगा।

असली समस्या को पहचाने बिना बहस अनर्गल विषयों पर उलझती चली जाती है। वाणी टकराते-टकराते व्यक्तित्व टकराने लगता है। वाहन में तो फिर भी एक ब्रेक होता है, पर जब मनुष्य टकराता है तो सारी यांत्रिकी अहंकार में बदलकर विस्फोट की स्थिति तक ला देती है।

शरणागत का त्याग पापमय है
हर व्यक्ति दूरदर्शी होता है। मूर्ख से मूर्ख भी अपनी मूर्खताओं में एक भविष्य लेकर चलते हैं। कुछ लोगों की दूरदर्शिता परिष्कृत होती है और कुछ की विकृत, पर होती जरूर है। गौरतलब है कि आपके भीतर एक आप ही की आवाज गूंज रही है।

उसके मामले में अनसुना रहना मनुष्य का स्वभाव बन जाता है, लेकिन यदि अभ्यास करें तो आप उस आवाज को जरूर सुन सकेंगे। दूरदर्शिता के लिए आवाज बड़ी मदद करती है। सुंदरकांड का प्रसंग है कि जब सुग्रीव की राय के विपरीत श्रीराम ने विभीषण को शरण दी तो उस समय सबसे अधिक प्रसन्न हनुमानजी हुए।

एक बात तो यह थी कि वे स्वयं विभीषण को निमंत्रण देकर आए थे और दूसरी बात यह रही कि भौतिक दुनिया में हम बहुत कुछ ऐसा निवेश करते हैं, जिन्हें मनुष्य का संबंध भी कहते हैं, लेकिन अध्यात्म की दुनिया में भी अच्छे मनुष्य को जोड़ना अच्छे भविष्य के निर्माण की प्रक्रिया माना जाता है। सत्संग के पीछे एक भावना यह भी रहती है।

हनुमानजी चाहते थे, विभीषण श्रीराम से जुड़ जाएं। उनकी इसी दूरदर्शिता में रावण की मृत्यु छिपी थी। सुनि प्रभु बचन हरष हनुमाना। सरनागत बच्छल भगवाना।। प्रभु के वचन सुनकर हनुमानजी हर्षित हुए और मन ही मन कहने लगे कि भगवान कैसे शरणागत वत्सल यानी शरण में आए हुए पर पिता के समान प्रेम करने वाले हैं। श्रीरामजी बोले- जो मनुष्य अपने अहित का अनुमान करके शरण में आए हुए का त्याग कर देते हैं, वे पामर हैं, पापमय हैं; उन्हें देखने में भी हानि है, पाप लगता है।

बुराइयों को प्रसन्नतापूर्वक दूर करें
चूंकि भौतिक जीवन वस्तु केंद्रित होता है, इसलिए हम वस्तुओं के प्रति अतिरिक्त रूप से मोहित, आकर्षित, समर्पित और व्यवस्थित होने लगते हैं। वस्तुओं का अतिआग्रह धीरे-धीरे हमें इस भूलभुलैया में डाल देता है कि हम वस्तु और मनुष्य का भेद करना ही भूल जाते हैं। फिर हम लोगों को भी वस्तुओं की तरह इस्तेमाल करने लग जाते हैं।

वस्तुओं का सदुपयोग करने की इच्छाएं धीरे-धीरे मनुष्य के उपयोग की बुराई में बदल जाती हैं। हमारा मन दुखी हो, तो हम दुख मिटाने के लिए अपने साथियों को वस्तु की तरह देखने लगते हैं। इसीलिए कुछ लोगों के लिए कुछ लोग नशा बन जाते हैं। गुबार निकालने का अड्डा हो जाते हैं। वे लोग ऐसे समय हमें बहुत पसंद आते हैं, जो अच्छे श्रोता हों या आपकी हां में हां मिलाते हों।

अपनी भड़ास निकालने के लिए हम उन्हें साधन की तरह इस्तेमाल करने लग जाते हैं। घर-परिवार में आपस में संबंध इस कारण भी बिगड़ने लगते हैं कि आप अपना अच्छा और बुरा व्यवहार भी वस्तु की तरह करते हैं। एक प्रयोग करें, अपने प्रिय लोगों की सूची बनाएं। भले ही संख्या कम हो, पर हमेशा ध्यान रखें कि इन लोगों से वस्तु की तरह व्यवहार न करेंगे। हर हालत में हम इनके भीतर के प्राणों पर टिकेंगे। इनकी अच्छाइयां और बुराइयां हमारे लिए स्वीकार का विषय होंगी। इनकी बुराइयों से हम विचलित न होकर उन्हें दूर करने में प्रसन्नतापूर्वक सक्रिय रहेंगे, तभी हमारे संबंध खंडित और विवादित होने से बच सकेंगे।

सफलता के लिए साधन आप ही हैं
जब भी हम नए कालखंड में प्रवेश करें, हमारा निर्भय होना आवश्यक है, क्योंकि भविष्य का भय हरेक को सताता है। हिंदू कैलेंडर आज से नया साल मना रहा है। इसमें नया क्या है? दरअसल जब हम अपने आपको नया बनाएंगे, तब काल की नवीनता हमें समझ में आएगी।

हमारे नए होने की तैयारी नहीं है तो कैलेंडर का पन्ना बदलेगा, लेकिन हमारे लिए समय वैसा का वैसा ही रहेगा। हमने इसे सूर्योदय से जोड़ा है। आधीरात तक धूमधड़ाका करके नए दौर का स्वागत करना थोड़ा मुमकिन कम है, क्योंकि बीती रात हम बहुत थक चुके होते हैं। नवसंवत्सर का रात से कोई लेना-देना नहीं है। सूर्योदय के साथ स्वयं का उदय करना है। जो गलत हम कर गए, उसका विश्लेषण सूर्य के प्रकाश में करना है।

यह तो संयोग से तिथि की बात है, अन्यथा हर सुबह जब हम उठते हैं तो हमारे लिए विकल्प होता है कि हम आज से आने वाले समय में से श्रेष्ठ लें या निकृष्ट लें। प्रात:काल स्वयं को बिल्कुल धोखा न दें। हर हालत में अपने आपको अतिरिक्त रूप से तरोताजा रखें और सोचें कि आने वाले २४ घंटे में हमारी ताजगी हमको बेहतर से बेहतर विकल्प देकर जाएगी।

अपनी स्थिति के जिम्मेदार हम स्वयं हैं, यह उठने के बाद पहली ही सांस से तय कर लें। नवसंवत्सर का एक बड़ा संदेश यह भी है कि यदि नए समय में आपको सफलता प्राप्त करनी है तो इसका एकमात्र साधन आप हैं। आपके अलावा आपको और कोई सफल नहीं कर पाएगा। बस, यही नवविचार बीत गए को धो देगा और आने वाले समय से हमको जोड़ देगा।

सद्व्यवहार के बिना मनुष्य अधूरा है
आपके साथ जीवन में जुड़े हुए कुछ लोग कुछ बातों में आपसे लेने के हकदार हैं, जैसे-संतान। आप माता-पिता बने, तो संतान अपने आप आपसे लेने की हकदार होगी। बदले में आपको भविष्य में क्या मिलेगा, यह सोच ही व्यर्थ है। फिर इस इन्वेस्टमेंट में तो आजकल सबसे ज्यादा खतरे हैं।

कई लोग मुझसे पूछते हैं, खासतौर पर नई पीढ़ी के बच्चे कि ये प्रेयर होती क्या है और हमारे पास चूंकि समय कम है, तो हम इसे कैसे करें? फिर कुछ लोगों की प्रार्थना याद करने में रुचि भी नहीं होती। कुछ लोग प्रार्थना के शब्दों में उलझ जाते हैं। कुछ का मानना है कि प्रार्थना में अत्यधिक समर्पण का भाव होता है और समर्पण की रिस्क आजकल कोई लेता नहीं।

अत: मेरा उन सबसे यह कहना है कि प्रार्थना का एक अर्थ सद्व्यवहार है। हर हाल में सद्व्यवहार रहे - मित्र से भी और शत्रु से भी। सद्व्यवहार एक ऐसा आचरण है, जिसके साथ शत्रुता निभाई जा सकती है। महात्मा गांधी इसका उदाहरण रहे हैं। अंग्रेजों के साथ सद्व्यवहार में गांधीजी हर दिन नई परिभाषा गढ़ते थे। सद्व्यवहार के बिना मनुष्य अधूरा है। हमें भय के कारण सद्व्यवहार नहीं करना है। दरअसल, सद्व्यवहार के पीछे प्रेम चलना चाहिए। यहीं से दिखावा खत्म होगा और स्वभाव शुरू हो जाएगा।

अपने घर-परिवार में निकटतम सदस्य से भी अत्यधिक सद्व्यवहार करें। ये न मान लें कि घर का मामला है। एक-दूसरे के काम में मदद करना सद्व्यवहार है। करके देखिए, प्रार्थना अपने आप होती जाएगी।

प्रकाश रिश्तों को पवित्र बना देगा
कुछ लोगों की पूरी जिंदगी बीत जाती है और वे यह रहस्य समझ नहीं पाते कि उनके जीवन में कुछ लोगों से उनके रिश्ते क्यों बने। कई बार उद्दंड संतानों को लेकर माता-पिता सोचते हैं कि ये हमारे घर में ही क्यों पैदा हुए।

पति-पत्नी मन ही मन अनेक बार विचार करते हैं कि इस धरती पर क्या मेरे लिए और कोई नहीं बना था। कुछ लोग जल्दी ही अहसास कर लेते हैं कि ऐसा क्यों हुआ और फिर आगे की जिंदगी बीत जाती है। रिश्तों को देखने के लिए रोशनी चाहिए, वरना अंधेरे में जो-जो चीजें खो जाती हैं, उनमें से एक रिश्ते भी होते हैं। गहरी भावनाओं वाले लोग भी रिश्तों के मामले में उथला व्यवहार कर जाते हैं।

अभी भी भारत के कई घरों में और विदेश में भी सायंकाल प्रकाश करने की परंपरा है। कुछ लोग लाइट जलाकर रात्रि पूर्व संध्या की विदाई पर यह काम करते हैं तो कुछ लोग देवस्थान पर दीपक जलाते हैं। संध्या की दीप-बत्ती करना क्या केवल एक धार्मिक घटना है।

दरअसल, इसके पीछे ऋषि-मुनियों का एक गहरा मनोविज्ञान है। वे जानते थे कि घर-परिवारों में थके-मांदे लोग रात्रि के अंधकार में एक छत के नीचे होंगे, तो उन्हें एक-दूसरे की देह देखने के लिए ही रोशनी नहीं चाहिए बल्कि रिश्तों को ठीक से समझने के लिए भी प्रकाश चाहिए। अपने घरों में जब दीपक जलाएं तो दो-तीन मिनट उसकी रोशनी में आंखें गड़ाकर जरूर देखें तथा अपने निकटतम और दूरस्थ संबंध वालों की छवि को इस प्रकार से जरूर गुजारें। ये प्रकाश रिश्तों को पवित्र और प्रिय बना देगा।

सहानुभूति और क्षमा की घुठ्ठी
घर-परिवार में रहते हुए कई बार अपने ही सदस्यों का आचरण हमारे साथ ऐसा हो जाता है जैसे वे आक्रमण कर रहे हों। घरों में किए गए युद्ध, चूंकि नियमित रूप से घोषित नहीं होते, इसलिए भले ही युद्ध जैसे न लगें, पर शीतयुद्ध चलते ही रहते हैं। अपनी विजय की कामना और दूसरे को पराजित करने की इच्छा को अहंकार हवा देता ही रहता है।

इसलिए परिवार में सहानुभूति और क्षमा इन दोनों की घुट्टी रोज पीते रहनी चाहिए। हम घर में रहते हैं, जंगल में नहीं। जंगल में जानवर पर जब कोई प्रहार करता है तो वहां तीन काम होते हैं - या तो जानवर दुबककर जंगल में कहीं भागेगा या पलटकर वार करेगा। तीसरी स्थिति होती है उसकी मौत। लेकिन हमें परिवार में एक ऐसा नैतिक धरातल तैयार करना चाहिए, जहां खड़े होकर हम सहानुभूति और क्षमा के प्रयोग कर सकें।

श्रीरामजी ने सुंदरकांड में स्पष्ट  घोषणा की है - निर्मल मन जन सो सुभाऊ। मोहि कपट छल छिद्र न भावा। भेद लेन पठवा दससीसा। तबहुं न कछु भय हानि कपीस। जो मनुष्य निर्मल मन का होता है, वही मुझे पाता है। मुझे कपट और छल-छिद्र नहीं सुहाते।

यदि उसे रावण ने भेद लेने को भेजा है, तब भी हे सुग्रीव! अपने को कुछ भी भय या हानि नहीं है। ईश्वर को निर्मल मन बहुत पसंद है। विभीषण के आने पर श्रीराम ने यही घोषणा की थी। हनुमानजी ने भी विभीषण का चयन उनके निर्मल मन के कारण किया था। खासतौर पर अपने घरों में हमें निर्मल मन के साथ ही सांस लेनी चाहिए।

समय चुराकर अपनों को समय दीजिए
कभी आपने बीज में से अंकुर को फूटते हुए देखा है। इसके चित्र देखे जा सकते हैं या थोड़ा धर्य व साधना रखें तो प्रकृति में यह दृश्य नजर आ जाएंगे।

बीज जब अंकुरित होता है तो वह फूटता है और अपने भीतर के जीवन को बाहर फेंकता है। ये बड़ी प्यारी घटना है। हमारे भीतर प्रेम, अहिंसा, प्रार्थना, विनम्रता इन गुणों को हमें बाहर वैसे ही फेंकना चाहिए, जैसे बीज फूटता है। फिर आज के समय में तो बल का बड़ा महत्व है। कोई भी काम ढीला-ढाला पसंद नहीं किया जाता है। इसलिए सद्गुण भी बाहर फूटने चाहिए।

तीन काम करने के मामले में तो बिल्कुल बीज की तरह हो जाएं - सेवा करने में, समय देने में और बात को सुनने में। आपके व्यक्तित्व का पूरी तरह अंकुरण होना चाहिए। आज अपनों से अपनों को एक बड़ी शिकायत है - समय नहीं दिया जाता। पूरी ताकत लगाएं कि आपके 24 घंटे में से कुछ समय उनका जरूर रहे, जो उस कालखंड के हकदार हैं।

समय चुराकर अपनों को समय दीजिए। दूसरी बात, समय का सही उपयोग है सेवा करना। जब भी मौका लगे सेवा की वृत्ति अवश्य अंकुरित होनी चाहिए और तीसरी बात - सुनने में बहुत उदार रहें। लोग भरे बैठे हैं बोलने के लिए, आप खाली हो जाएं सुनने के लिए। किसी का अहंकार गलाने में धर्यपूर्वक श्रवण भी बड़ा काम आता है। प्रकृति का उसूल है, आप जहां देते हैं, वह वहीं नहीं लौटाती। बीज के अंकुरण का फल मिलेगा जरूर, पर हो सकता है किसी और डाल पर लगे, लेकिन फल सुनिश्चित है।

अपने अंत समय हम अपने साथ रहें
जीवनभर कमाने के बाद ज्यादातर लोग यह नहीं समझ पाते कि उनकी असली कमाई क्या रही। आपने स्वयं को कमाया या नहीं, क्योंकि इस यात्रा में गंवाया तो बहुत जाता है। मनुष्य क्या अर्जित करके गया यह उसकी शवयात्रा से भी जाना जा सकता है। वैसे अब तो शवयात्राएं भी प्रायोजित हो गई हैं।

जाने वाले के पीछे रह गए लोग यदि प्रतिष्ठित हैं तो कई लोग उन्हें मुंह दिखाई के लिए ही आते हैं, उन्हें मरने वाले से कोई लेना-देना नहीं होता। सारी तैयारी यह रखी जाए कि अपने अंत समय में हम अपने साथ जरूर रहें। बाकी सब यहीं रह जाएगा। हमारा होना हमारे साथ रहे यही हमारी अंतिम समय की कमाई होगी।

हम अपना जीवन तीन तल पर बिताते हैं- शरीर, भाव और आत्मा। शरीर के तल पर विचार सक्रिय रहते हैं। इसे भाव में बदलना चाहिए। क्रम भी यही रखें, शरीर के बाद भावना और फिर आत्मा। पशु में पहले भाव का तल है। विचार का तल उनका लुप्त है और आत्मा की स्थिति वहां प्रसुप्त है।

मनुष्य के मामले में तीन तल की यात्रा रहेगी ही। विचारशील व्यक्ति जीवन में श्रेष्ठ के चुनाव के समय चूकेगा नहीं। वह समझ सकेगा कि उसकी यात्रा के कौन-से पड़ाव पर वह है।

जब शरीर साथ छोड़ता है तब वह भावना के तल का सदुपयोग कर सकेगा। और जब शरीर तथा भावना की पूर्णता होगी, जीवन समापन का अवसर आएगा, तब वह आत्मा के तल पर टिकना सीख चुका होगा। इस तल से गुजरना सबको है, पर जो होश से गुजरेगा, वह जीवन के समापन पर मृत्यु को कमा लेगा।

हर समस्या का समाधान होता है
जब भी जीवन में कोई बड़ी समस्या आए, थोड़ा खुद से हटकर दूसरों की ओर देखें। दूसरों के दुख निहारेंगे तो खुद की समस्याओं से निपटना आसान हो जाएगा। जब परेशानी आती है तो मनुष्य का मनोविज्ञान है कि वह अपने आपको अकेला महसूस करने लगता है।

ऐसा संकट केवल उसी पर आया है और वह इससे जूझने में अकेला पड़ जाएगा। यह भय, निराशा आदमी को और उलझा देते हैं। जब आप परेशानियों से घिरे हों तो दूसरों की मदद करने के लिए आगे आएं। दूसरों की सहायता करने की वृत्ति आपको अपनी समस्या के केंद्र से हटने में मदद करेगी।

आपके भीतर एक हिम्मत है, प्रेम है उसका बहाव गति पकड़ेगा। अपने आपको नदी की तरह गति दें, तालाब की तरह रुक न जाएं। नदी की गति में कई मुकाम होते हैं, पता नहीं कहां कहां समाधान हो। रुक जाने से जीवन में और भारीपन आएगा। इस संसार में कौन ऐसा होगा, जिसके जीवन में समस्या नहीं आई होगी। इस मामले में सब एक से बढ़कर एक होंगे।

जब हम दूसरों के लिए निदान बनेंगे, तब कहीं न कहीं हम अपना समाधान भी तैयार कर रहे होंगे। हम जितना दूसरों के लिए इस मामले में मूल्यवान बनेंगे, उसी समय स्वयं के लिए भी कीमती हो जाएंगे। इसलिए पहली बात तो यह कि समस्या के आने पर अपनी स्वाभाविकता न छोड़ें। दूसरी बात यह करें कि अन्य लोगों की मदद की वृत्ति बढ़ा लें। तब हम मिल-जुलकर समस्या निपटाने की स्थिति में रहेंगे। दुनिया की कोई ऐसी समस्या नहीं है, जो अपने साथ समाधान न लाती हो।

विजय के लिए जरूरी तत्व है धैर्य
दौड़-भाग भरे जीवन में जब थकान आती है तो ऊर्जा प्राप्त करने के तरीके भी सिखाए जाते हैं। हमारे ऋषि-मुनियों ने ऊर्जा प्राप्त करने का एक सुंदर तरीका बताया है और वह है शांत रहना। शांत रहने के लिए सहनशील होने का अभ्यास किया जाए तथा सहनशील बनने के लिए 24 घंटे में से थोड़ा समय भजन को दिया जाए।

भजन करना एक ऐसी क्रिया है, जिसमें आप अपने से बड़ी हस्ती से वार्तालाप करते हैं। उनके गुणगान करते हुए उनको याद दिलाते हैं कि वे हमारे ऊपर कृपा करें। हमें सहनशील बनने में मदद करें। आज के समय में अपनी ऊर्जा का एक बड़ा भाग हम दूसरों से संघर्ष करने में खर्च कर देते हैं। दूसरों का खंडन करना और अपने मत का मंडन करना भी एक तरह की बेचैनी है।

ध्यान रखें कि जब भी अपनी बात कहने का अवसर मिले शांतिपूर्वक ढंग से कही जाए। हम जो कह रहे हैं, उसके पीछे जो सिद्धांत है और उस सिद्धांत का जो उद्देश्य है वह शुरू से स्पष्ट करके चलें। यदि आपका श्रोता आक्रामक है, अशांत है तो चुप हो जाने में अपनी हार न मानें। सहनशीलता से आपका सिद्धांत, मत और मजबूत होगा। धैर्य विजय के लिए जरूरी तत्व है। इससे आप निर्विकार होंगे।

निर्विकार होने का अर्थ है पराजय में अवसाद में नहीं डूबेंगे और विजय में अहंकार नहीं पालेंगे। अपने भीतर सहनशीलता को संकल्प और साधना से तैयार करना पड़ता है। इस समय हर बात की कोचिंग होती है, अपने बच्चों को जीवन की कोचिंग जरूर कराएं। सहनशीलता उसका प्रमुख द्वार है।

वीर लोगों के वीर महावीर
वीरता क्या होती है इस पर लोगों की अलग-अलग राय है। आज युद्ध के मैदान बदल गए हैं इसलिए भी वीरता को परिभाषित करना कठिन हो जाता है। अपराधी भी अपने आप को वीर मानते हैं, भले ही उन्होंने गलत को जीता हो।

इतिहास में कई वीर ऐसे भी हुए जो जीतकर भी हार गए और कुछ जो हारते हुए दिखे, पर बहुत बड़ी जीत दर्ज कर गए। सुंदरकांड में रावण के आदेश से हनुमानजी की पूंछ में आग लगाई जाती है। अग्नि को देखकर राक्षसों को भ्रम हुआ कि हनुमान पराजित हुए। बाद में समझ में आया कि वह पराजय रावण की थी। विभीषण हनुमानजी के कृत्य को देखकर समझ गए थे कि हनुमान की शक्ति का स्रोत श्रीराम हैं और मुझे वहीं चलना चाहिए।

उन्हें शरण में आता देख सुग्रीव की राय पर श्रीराम ने टिप्पणी की थी- जग महुं सखा निसाचर जेते। लछिमनु हनइ निमिष महुं तेते।। जौं सभीत आवा सरनाईं। रखिहउं ताहि प्रान की नाईं।। हे सखे! जगत में जितने भी राक्षस हैं, लक्ष्मण क्षणभर में उन सबको मार सकते हैं और यदि विभीषण भयभीत होकर मेरी शरण आए हैं तो मैं उसे प्राणों की तरह रखूंगा।

श्रीराम ने कहा था- सुग्रीव यदि विभीषण रावण के पक्ष में आए हैं तो भी हमें डर नहीं है, लक्ष्मण इन सबको निपटा सकते हैं। लक्ष्मण की वीरता में 14 वर्ष का ब्रह्मचर्य और निद्रा त्याग भी बसा हुआ था। तप वीरता का गहना है। लक्ष्मण जैसा तप हमें भगवान महावीर स्वामी में भी दिखता है। इसलिए ही वीर लोगों को महावीर कहा गया है। इन्होंने स्वयं पर विजय प्राप्त की है।

सहमति, सहानुभूति, सहयोग व सलाह
जो लोग मेलजोल में पारंगत होते हैं, वे श्रोता भी बहुत अच्छे होते हैं। हनुमानजी की विशेषताओं में से एक है कि वे बहुत अच्छे श्रोता हैं। आज हनुमान जयंती पर हम उनसे सीख सकते हैं कि किसी को सुनते समय चार बातों का आधार रखें। सहमति, सहानुभूति, सहयोग और सलाह को ध्यान में रखकर हनुमानजी सबकी बात सुनते थे। उनका व्यवहार या उत्तर इन्हीं चार आधार पर रहता था। कुछ लोग जब हमसे चर्चा करते हैं तो वे चाहते हैं, उनके शब्दों के प्रति हमारा सहमति का भाव रहे।

वे अपनी बात के विरोध में कुछ नहीं सुनना चाहते। वे अपनी बात की पुष्टि आप से चाहते हैं। फैसले वे ले चुके होते हैं, पर आप से सहमति की प्रतिक्रिया चाहते हैं। दूसरी स्थिति होती है, वे आपसे सहानुभूति चाहते हैं। वे अपने अधूरे आत्मविश्वास को आपको सुनाते हुए पूरा करना चाहते हैं। तीसरी स्थिति होती है, जब सुनते हुए हमें उन्हें सहयोग का आश्वासन देना है।

अपनी हेकड़ी के कारण वे सहयोग की पहल हमसे चाहते हैं। चौथी स्थिति होती है जिसमें सचमुच हमसे सलाह मांगी जाती है। वे चाहते हैं उन्हें सही सलाह मिल जाए, ताकि वे उसका पालन कर सकें। हनुमानजी चारों स्थिति में आदर्श नजर आते हैं। उन्होंने जीवन की सारी विपरीत संभावनाओं में अपना विकास किया है। यदि वे किसी से सहमत हुए तो तर्क के आधार पर। उन्होंने किसी से सहानुभूति रखी तो परिस्थिति का सही विश्लेषण करके। सहयोग दिया तो उसकी क्षमता देखकर और सलाह दी तो सदैव सही दी।

दांपत्य में जरूरी है पारदर्शिता
अपने जीवनसाथी के नहीं दिख रहे जीवन की जानकारी रखने में कोई बुराई नहीं है। आज जो जोड़े बन रहे हैं, वे अत्यधिक पर्सनल लाइफ का क्लेम करते हैं। तलाक के मामलों में ऐसे मसले सामने आए हैं, जिनमें जीवनसाथी ने एक-दूसरे से उनके आने-जाने का समय, रहने के स्थानों की जानकारी ली तो विवाद हो गया।

दोनों ने इसे अपने व्यक्तिगत जीवन में हस्तक्षेप माना। जबकि इस रिश्ते की महत्वपूर्ण बात है इसका पारदर्शी होना। पारदर्शिता का यह अर्थ नहीं कि पति-पत्नी एक-दूसरे में रुचि ही न लें। एक-दूसरे में रुचि न लेने से एक अनजानी उदासीनता जन्म लेती है। परस्त्री गमन, परपुरुष गमन की घटनाएं यहीं से शुरू होती हैं। बड़ी से बड़ी गलती करने के बाद भी ये दोनों स्वयं को सही ठहराने की बीमारी पाल लेते हैं।

फिर पति-पत्नी के रूप में स्त्री-पुरुष एक बार गुनाह स्वीकार कर लेंगे, पर गलती स्वीकार नहीं करेंगे। खालीपन के मौके इस रिश्ते से दूर ही रखे जाएं। इसका भराव है एक-दूसरे में रुचि लेना। एकांगी रहकर अपूर्णता की जिस स्थिति का सामना स्त्री-पुरुष करते हैं, उसे भरने में दांपत्य जीवन वरदान की तरह है। आपके जीवनसाथी के जीवन के एक हिस्से में क्या घट रहा है, इसके प्रति कभी भी उदासीन न रहें।

अगर वो न बताए तो स्नेह से उगलवा लें और यदि स्वयं ही बताए तो तसल्ली से सुनें। भारतीय संस्कृति में विवाह के बाद दोनों को एक माना है, फिर अलग-अलग यात्राएं क्यों? ऐसी यात्राओं का अंत या तो तनाव के अड्डे पर होता है या कानून की अदालतों में।

देने का सुख जीते जी उठाएं
उपलब्धि के लिए लगातार सक्रिय रहने वाले लोग जब सफल होते हैं तो वे यह निर्णय नहीं कर पाते कि अपनी उपलब्धि का क्या करें? उपलब्धि उबलती है। समय रहते उपयोग न करें तो भाप बनकर उड़ जाएगी और गलत तरीके से उपयोग करें तो हम झुलस भी सकते हैं।

लोग अपनी ही उपलब्धियों के साथ एक अनिर्णय की स्थिति बना लेते हैं। परमशक्ति कहती है- ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रता:। संपूर्ण प्राणियों के हित में जिनकी रति है, ऐसे मनुष्य मुझे प्राप्त होते हैं। कुल मिलाकर हमारी उपलब्धि के केंद्र में केवल हम ही न रहें। जैसे ही हम इसे परहित से जोड़ते हैं हमारा व्यक्तित्व ही बदल जाएगा।

हम जो भी काम करेंगे, उसमें उत्साह बना रहेगा। इसलिए अपनी उपलब्धि को परहित से जोड़ने के निर्णय में बिल्कुल विलंब न करें। वरना हमारी उपलब्धि हमारे लिए कब्र बन जाएगी। लोगों को उनकी ही उपलब्धि की चिता पर जलते देखा गया है। आप जितना बांटेंगे, उतना अधिक सुरक्षित होंगे। सांसारिक दृष्टि से देखने पर लगता है कि यदि उपलब्धि को बांटा तो कम हो जाएगी।

दुनिया की दृष्टि में यह गणित गलत नहीं है, बंटेगा तो घटेगा। लेकिन जब हम आध्यात्मिक कोण से सोचेंगे, तब बांटने पर क्या बढ़ेगा यह समझ में आ जाएगा। यहां देने से और बढ़ता है, क्योंकि ऐसा करने से अनचाहे ही आपकी पात्रता बढ़ती जाती है। इसलिए मिली हुई वस्तुओं से दूसरों का हित करें। आपके पास जो भी है, वह किसके क्या काम आ सकता है, इस पर लगातार दृष्टि रखें। देने का सुख जीते जी भोगें।

खुश रहिए, दूसरों को खुश रखिए
अधिकांश लोग अपने जीवन में दो तरह से खुशी उतारते हैं। एक वर्ग उनका है जो भीतर प्रसन्न हैं पर बाहर प्रकट नहीं होने देते। दूसरे वे हैं, जो बाहर खुश नजर आते हैं पर भीतर खुशी के मामले में खोखले होते हैं। तीसरा समुदाय वह है जो भीतर के अपने दुख को बाहर फेंकते हैं।

खुद तो दुखी हैं ही पर दूसरों को दुखी रखने में उनकी विशेष रुचि हो जाती है। हमें चौथा मार्ग अपनाना चाहिए, स्वयं तो भीतर प्रसन्न रहें ही और उसे बाहर भी लुटाएं। देने का, लुटाने का स्वाद खुद ग्रहण करने से भी अधिक दिव्य एवं सरस होता है। यदि हम जान चुके हैं कि आनंद क्या होता है तो उसे दूसरों को भी उपलब्ध कराएं। खुद जान लेना सरल होता है, पर दूसरे में उसे उतारना कठिन।

अपनी ज्योति से दूसरों की ज्योति जलाई जाए। स्वयं को उजाले का अधिकारी मानने वाला औरों की जिंदगी में अंधेरा सहन नहीं करता। लेकिन कई बार जब हम भीतर से प्रसन्न होते हैं या किसी उपलब्धि से भरे रहते हैं, तब दूसरों में दिलचस्पी नहीं लेते, बल्कि अन्य से स्वयं को जोड़ना व्यवधान मानते हैं।

यदि आप जान गए हैं कि आप कौन हैं और आपकी खुशी कहां से आती है तो यहीं रुक न जाएं। अपने ही ऊपर व्यस्त न रह जाएं। थोड़ा-सा विशाल हों, प्रसन्नता को दूसरों में प्रसूत करें। दूसरे से स्वयं की खुशी को जोड़ना झंझट न मानें। आनंद बांटने से बढ़ता है। इसमें हाथ जितने खुले रखेंगे, हृदय उतना ही भरा-पूरा रहेगा। संकुचित होकर खुशी भी घुटन महसूस करती है। इसलिए खुश रहिए, खुश रखिए।

एक शो की तरह है जीवन
जीवन में शुभ और अशुभ दोनों हो सकते हैं और इनके होने का समय तय नहीं होता। इसलिए कब अच्छा होगा, कब बुरा इसकी फिक्र छोड़ देनी चाहिए। परमात्मा ने जन्म देकर हमारे सामने हमारी जिंदगी का प्रदर्शन कर दिया है। पूरा जीवन एक शो की तरह है।

जब हम फिल्म या नाटक देखने थियेटर में जाते हैं, वहां हम केवल दर्शक बनकर रहें तो ज्यादा आनंद उठा पाएंगे। सुंदरकांड में विभीषण की आगमन सूचना पर दो अलग-अलग राय बन गई थी। सुग्रीव उसे बंदी बनाने के पक्ष में थे और श्रीराम शरणागति देने के। विभीषण के आगमन में हानि और लाभ दोनों की संभावना थी।

श्रीराम ने इस अवसर पर जो निर्णय लिया उसमें एक शब्द उन्होंने बहुत अच्छा कहा- उभय भांति तेहि आनहु हंसि कह कृपानिकेतन। जय कृपाल कहि कपि चले अंगद हनू समेत।। कृपा के धाम श्रीरामजी ने हंसकर कहा- दोनों ही स्थितियों में उसे ले आओ। तब अंगद और हनुमानसहित सुग्रीवजी कृपालु श्रीरामजी की जय होकहते हुए चले।। श्रीराम ने कहा था ‘‘उभय भांति’’दोनों ही स्थितियों में उसे ले आओ।

यहां उभय भांति का अर्थ है अच्छी हो या बुरी दोनों ही स्थिति में मुझे परिणाम स्वीकार है। जब हम जीवन को शो की भांति देखेंगे, तब ही ऐसा कहा जा सकता है। इसे ही लीला कहा गया है। स्थितियों को तो आना ही है। सामना  हमें करना ही है। खुद को जोड़े रखते हुए भी पृथक रहने में ही शांति है और सामना करने की शक्ति है। इस स्वीकार्य में ही जय छिपी है। इसलिए सबने चलते हुए श्रीराम की जय बोली।

दूसरों पर प्रभाव और प्रसन्नता छोड़ें
मीठी वाणी बोलिए, जब ऐसा कहा जाता है तो इसका संबंध केवल कंठ से नहीं है। मीठी वाणी का मतलब आपके शब्द और दूसरे के श्रवण से भी जुड़ा है। लोग क्या सुनना चाहते हैं, इसकी फिक्र भले ही न करें, पर कैसा सुनना चाहते हैं, इसकी सावधानी जरूर रखें। दूसरों पर प्रभाव और प्रसन्नता दोनों छोड़ें। शब्द में अर्थ, तर्क, सिद्धांत, धार, बारीकी ही न हो, उनमें प्रेम जरूर रहे।

प्रेम से श्रंगार करने के बाद ही शब्द को बाहर निकालें। प्रश्न पूछे जाने पर हमारे उत्तर की शुरुआत पॉजिटिव एप्रोच से रहे। भले ही हम दुख और परेशानी में हों, पर इसे सीधे व्यक्त न करें। प्रतिकूल या दुखद स्थिति को दूसरों के समक्ष अभिव्यक्त करने से उस स्थिति को ही बल मिलता है। आरंभ की पंक्तियां धर्य के साथ व्यक्त की जाएं। एक सकाम दुनिया में अकारण और सकारण सबसे ज्यादा पूछा जाता है कि आप कैसे हैं? आपके पास पूरी संभावना है कि आप लिजलिजे ढंग से उत्तर दें या उत्साह के साथ।

अच्छा हूं, ठीक है, सब बढ़िया है, दया है ऊपर वाले की, उत्तर की शुरुआत इसके आसपास से की जाए। लेकिन यह औपचारिकता न रहे। उत्साह का उजागर भीतर से भी हो। आंखों पर चश्मा होता है, सही देखने के लिए या बाहर की बाधाओं से बचने के लिए, ऐसे ही जीभ पर चश्मा लगाएं। फर्क यह है कि आंख का चश्मा बाहर होता है और जीभ का भीतर हृदय में। हृदय में उच्चरित शब्द बेकार किसी को नसीहत नहीं दे रहे होंगे और व्यर्थ अपना रोना नहीं रो रहे होंगे, ये प्रेमपूर्ण होंगे।

कभी-कभी थोड़ा विश्राम भी लें
जीत   की कामना रखना अच्छी बात है। जीत की जिद आपके आत्मविश्वास को बढ़ाएगी। सफलता का हठ हमारे लिए प्रेरणा बन जाता है। पर इस जिद के खतरों से भी परिचित रहें। जब हम जीत के लिए संघर्ष कर रहे हों तब बीच-बीच में विश्राम जरूर लेते चलें।

जूझने की अति एक आंतरिक थकान पैदा कर जाती है। यह थकान धीमा जहर बनकर सबसे पहले शरीर पर अपना असर डालती है और शरीर का कष्ट मनुष्य को खुद ही भुगतना पड़ता है। इसलिए अपनी जीत से थोड़ी-सी दूरी और थोड़ा समय निकालते रहें।

कभी-कभी दौड़ से हटकर बैठ भी जाएं, ऐसा विश्राम उत्साह को बढ़ा ही देगा। एक लंबी और जटिल यात्रा केवल जिद के भरोसे पूरी नहीं हो सकती। तनिक-सा दूर जाने का भाव बनाएं। थोड़ा विश्राम करेंगे तो पुरानी बातों की विस्मृति आसान हो जाएगी।

मुर्दे उखाड़कर देखे नहीं जाते। चिता की भस्म बहा देनी पड़ती है। कुछ चीजें छोड़नी ही पड़ती हैं, इसलिए दूर हटें, अपनी गुप्त शक्तियों का अहसास करें। इस दूरी में फिर उसी जिद पर पहुंच जाएं दुगुने उत्साह से। इस दूर जाने को ठीक से समझें, इसे भागना न कहें। जैसे भगवान से कोई दूर नहीं जा सकता।

बांटने में जीवन का असली सुख
इकट्ठा करना सांसारिक जीवन का कायदा है। समेटते-समेटते हम चीजों को पकड़ना ही शुरू कर देते हैं। हम भूल ही जाते हैं कि समेटी हुई वस्तुएं बांटी भी जानी चाहिए। हम सब दुनिया में आए नहीं हैं एक परमशक्ति द्वारा भेजे गए हैं। हम उसकी मर्जी का नतीजा हैं। बांटना उस परमशक्ति का सिद्धांत है। हम इस बात को समझ सकें इसीलिए वह अवतार लेता है। अवतारों को समझने के लिए शास्त्र रचे गए हैं।

शास्त्र पढ़ते समय एक प्रयोग करें। केवल ज्ञान अर्जन और जानकारी हासिल करने के लिए इन्हें न पढ़ें। जिन शास्त्रों में अवतारों द्वारा कहे गए संवाद आए हैं उन्हें हमारे लिए कहे गए बोल समझें। यूं मान लें कि इस अवतार ने हमसे सीधी बात-चीत की है। परमात्मा हमसे क्या चाहता है यह शास्त्रों में व्यक्त है। हमने जो अपने सांसारिक लक्ष्य गढ़े हों उन्हें भी भगवान की इच्छा और आज्ञा मानकर पूरा करने में जुटें तो परिश्रम के अर्थ ही बदल जाएंगे।

ऐसे में शरीर के श्रम के साथ-साथ आत्मा का विकास भी होता है। हम उस सृष्टा की इच्छा पूरी करने के लिए कटिबद्ध हैं इसलिए न अहंकार में डूबेंगे और न ही अवसाद में गिरेंगे। हम जो भी अर्जित करेंगे उसे बांटने के लिए प्रसन्नता से तैयार रहेंगे। दुनिया का गणित है कि बांटने से कम होता है पर दुनिया बनाने वाले का समीकरण कहता है बांटने से बढ़ेगा। बस इसी में जीवन मिलेगा। बांटते रहें जब तक उस जैसे न हो जाएं जो सारी दुनिया को रोज बांट रहा है।

साधनों की पवित्रता आवश्यक
इस समय हर व्यक्ति अपने लक्ष्य को पाने के लिए इस तरह से बेताब है कि वह साधनों की चिंता नहीं करता। इसीलिए हम किसके साथ उठ-बैठ रहे हैं और उसका असर हमारे व्यक्तित्व पर क्या होगा, लोग यह भूल बैठे हैं। सफलता और कीर्ति में अंतर है। नास्ति कीर्तिसमं धनम्। कीर्ति के समान अन्य धन नहीं है। शास्त्रों में ऐसा व्यर्थ ही नहीं लिखा है। धन कमाने वाले लोग इस बात की फिक्र नहीं करते कि उन्हें यश मिल रहा है या अपयश।

आजकल बड़े हल्के में लोग कह देते हैं थोड़ी बदनामी हो जाएगी तो क्या हुआ माल तो हाथ आएगा, लेकिन याद रखना चाहिए कि कार्य ऐसे हों, जिससे कीर्ति भी बढ़े। शुद्ध धन पाप को समाप्त करता है, दुर्गति को नष्ट करता है, आपत्ति को चीर देता है, पुण्य का संचय कराता है, ऐश्वर्य को बढ़ाता है, निरोगिता को पुष्ट करता है, प्रीति को प्रेरणा देता है, यश का जन्म करता है और स्वर्ग जैसा सुख प्रदान करता है।

धन की खोज जीवन में जरूरी है, लेकिन उसका सही रास्ता उससे भी ज्यादा आवश्यक बनाए रखिए। लोग चाहते हैं शोहरत मिले, पर बदनामी न हो। इसलिए दिखावे पर उतर आते हैं। ऊपर सज्जनता और गलत आचरण को छिपाकर  दुनिया को तो छला जा सकता है, लेकिन स्वयं को कब तक धोखे में रखेंगे। दुराचरण से अर्जित दौलत न सिर्फ आपको प्रभावित करेगी, बल्कि आपसे जुड़े परिवार के सदस्यों को भी हानि में डाल देगी। इसलिए धन आए, पर धवल कीर्ति के साथ रहे।

परमात्मा को पाने से मन को तृप्ति
मन की मांग अथाह होती है। छोटी-छोटी बातों से वो तृप्त नहीं होता। उसे खूब चाहिए और उसी में वह लगा रहता है। इसीलिए साधु-संतों ने कहा है जब इसकी मांग इतनी अधिक है, तो इसकी पूर्ति भी किसी अनूठी बात से की जानी चाहिए और वह है परमात्मा। मन परमात्मा को पाने पर ही तृप्त होगा।

ऐसी ही तृप्ति सुंदरकांड में विभीषणजी को प्राप्त हुई थी। जब उन्हें भगवान के सामने लाया गया, तो उनके मनोभाव पर तुलसीदासजी ने इस तरह से टिप्पणी की - सादर तेहि आगे करि बानर। चले जहां रघुपति करुनाकर।। दूरिहि ते देखे द्वौ भ्राता। नयनानंद दान के दाता।। विभीषणजी को आदरसहित आगे करके वानर फिर वहां चले, जहां करुणा की खान श्रीरघुनाथजी थे।

नेत्रों को आनंद का दान देने वाले दोनों भाइयों को विभीषणजी ने दूर ही से देखा। बहुरि राम छबिधाम बिलोकी। रहेउ ठटुकि एकटक पल रोकी।। भुज प्रलंब कंजारुन लोचन। स्यामल गात प्रनत भय मोचन।। फिर शोभा के धाम श्रीरामजी को देखकर वे पलक मारना रोककर ठिठककर एकटक देखते ही रह गए। भगवान की विशाल भुजाएं हैं, लाल कमल के समान नेत्र हैं और शरणागत के भय का नाश करने वाला सांवला शरीर है। जब कभी भी किसी देव स्थान में अपने ईष्ट के दर्शन करें तो थोड़ा स्तब्ध हो जाएं। छवि को लेकर एकटक रहें। उस समय आपको लगेगा कि आपका मन सचमुच तृप्त हुआ है। धन, पद, भोग ये इसके लिए छोटे सौदे हैं। ये चीजें इसे जितना दो, यह अतृप्त ही रहेगा। तृप्ति को विभीषण जैसी स्थिति में लाएं।

ध्यान से आकांक्षा भी पूरी होगी
हर आदमी जो होता है उससे अधिक होने की आकांक्षा में लगा रहता है। एक हमारा अस्तित्व होता है और दूसरी हमारी आकांक्षा होती है। जब हम कर्मकांड पर टिकते हैं, तो हम आकांक्षा वाले रास्ते पर होते हैं, ये भी सही है कि बिना आकांक्षा के कोई जी नहीं सकता। आकांक्षा का संबंध परिणाम से होता है। कुछ लोग अच्छे परिणामों के लिए आकांक्षा पालते हैं, तो कुछ बुरे परिणामों के लिए। क्रोध, हिंसा, काम ये सब परिणाम हैं।

ये आकांक्षा के रास्ते से आए हुए परिणाम हैं। अब हमारा प्रयास होता है कि ऐसे बुरे परिणामों को मिटाएं और यहीं से हिसाब गड़बड़ा जाता है। परिणाम मिटाने से काम नहीं चलेगा। ये परिणाम जहां से आ रहे हैं, हमें वहां जाना होगा। केवल आकांक्षा पर काम करना, अधूरा कृत्य होगा। हमें अपने अस्तित्व पर लौटना पड़ेगा।

अस्तित्व पर लौटने के लिए खुद के भीतर उतरना होता है। खुद से जुड़ने के लिए केवल पूजा काम नहीं आएगी। यहां से जीवन में ध्यान की भूमिका शुरू होती है। जब हम ध्यान के माध्यम से स्वयं के अस्तित्व पर आते हैं, तब हमारी आकांक्षाएं भी अलग रूप ले लेती है। भारतीय भाषा में दो शब्द हैं - भिक्षु और भिखारी। केवल आकांक्षा पालने वाले लोग भिखारी की तरह हैं।

वो दुनिया में अपने परिणाम के लिए सबसे कुछ न कुछ मांगते ही रहेंगे। मांगता भिक्षु भी है, लेकिन इस स्थिति में एक गरिमा होती है। भिक्षा और भीख का फर्क अस्तित्व और आकांक्षा का अंतर है। संसार में रहते हुए ध्यान से जुड़ेंगे, तो हम अपनी आकांक्षाओं को पूरा भी करेंगे और अशांत भी नहीं होंगे।


भगवान तभी प्रकट होते हैं जब भक्ति के साथ विश्वास भी हो
23 मई को वैशाख शुक्ल चतुर्दशी तिथि है। इसे नृसिंह चतुर्दशी के नाम भी जाना जाता है क्योंकि भगवान विष्णु ने इसी तिथि में नृसिंह अवतार लेकर भक्त प्रह्लाद की रक्षा की थी। भगवान नृसिंह की कथा में तीन प्रतीक हैं।

ये प्रतीक तीन प्रवृत्तियों से जुड़े हैं हिरण्यकशिपु अहंकार से भरी बुराई का प्रतीक है, प्रह्लाद विश्वास और भक्ति का प्रतीक है, भगवान नृसिंह भक्त के प्रति प्रेम के प्रतीक हैं। सवाल यह है कि हम अपने आपको किस दिशा में ले जाना चाहते हैं? यदि अहंकार और बुराई की ओर ले जाएंगे तो निश्चित ही अंत बुरा है।

नृसिंह अवतार की प्रेरणा है कि विश्वास और भक्ति को जीवन में उतारना होगा। प्रह्लाद से होते हुए आस्था व विश्वास का रास्ता भगवान तक जाता है। देवर्षि नारद के संसर्ग से प्रह्लाद के जीवन में भक्ति और प्रेम का जन्म हुआ। पुराणों में वर्णित कथाओं के अनुसार भक्त प्रहलाद की रक्षा करने के लिए विष्णु ने नृसिंह रूप में अवतार लिया था।

हिरण्यकशिपु ने अपने पुत्र प्रहलाद का मन भक्ति से हटाने के लिए कई प्रयास किए, परन्तु वह सफल नहीं हो सका। एक बार उसने अपनी बहन होलिका की सहायता से उसे अग्नि में जलाने के प्रयास किया, परन्तु उसे मायूसी ही हाथ लगी।

आखिर उसने प्रहलाद को तलवार से मारने का प्रयास किया, तब भगवान नृसिंह खम्भे से प्रकट हुए और हिरण्यकशिपु को अपने जांघों पर लेते हुए उसके सीने को अपने नाखूनों से फाड़ दिया और अपने भक्त की रक्षा की।

भक्तों के अनुसार इस दिन यदि कोई व्रत रखते हुए श्रद्धा और भक्तिपूर्वक भगवान नृसिंह की सेवा पूजा करता है तो वह पापों से मुक्त होकर प्रभु के परमधाम को प्राप्त करता है। प्रह्लाह की कथा प्रभु के प्रति अपार विश्वास की कथा है।

इस कथा का सार तत्व है कि ईश्वर की भक्ति के साथ विश्वास भी हो तब भगवान की कृपा अवश्य प्राप्त होती है। लेकिन आमतौर पर हम लोग संकट की घड़ी में भगवान को पुकारते तो हैं लेकिन मन में विश्वास का अभाव होता है, यानी मन में संदेह बना रहता है कि भगवान सहायता करेंगे इसलिए ईश्वरीय कृपा की अनुभूति नहीं हो पाती है।


जब नृसिंह भगवान करने लगे दुनिया का अंत
भगवान विष्णु समय-समय पर धर्म और भक्तों की रक्षा के लिए अवतार लेते रहे हैं। शास्त्रों में इनके दशवतार बताये गये हैं। इनमें एक अवतार है नृसिंह अवतार, यह अवतार भगवान ने वैशाख शुक्ल चतुर्थी तिथि को धारण किया था।

यह अवतार भगवान ने भक्त प्रह्लाद की रक्षा के लिए धारण किया। इस अवतार में नृसिंह रूप में भगवान विष्णु ने हिरण्यकशिपु का वध किया। हिरण्यकशिपु का वध करने के बाद नृसिंह भगवान क्रोध से भर उठे। अपने भयंकर रूप से नृसिंह भगवान संसार का अंत करने के लिए तत्पर हो रहे थे।

इससे तीनों लोक भयभीत हो रहा था। सृष्टि की रक्षा के लिए जब देवतागण भगवान शिव के पास पहुंचे। शिव ने अपने अंश से उत्पन्न वीरभद्र से कहा कि नृसिंह क्रोध में भरकर संसार को नष्ट करने की कोशिश कर रहे हैं। उन्हें उनके वास्तविक स्वरूप का ज्ञान कराओ और उनसे निवेदन करो कि वह ऐसा न करें।

अगर निवेदन से बात नहीं बने तो शक्ति का प्रयोग करके शांत करो। वीरभद्र नृसिंह के पास पहुंचे और पहले विनित भाव से शांत करने की कोशिश करने लगे। लेकिन जब नृसिंह नहीं माने तब वीरभद्र ने शरभ रूप धारण लिया। शरभ उपनिषद् में उल्लेख है कि नृसिंह को वश में करने के लिए वीरभद्र गरूड़, सिंह और मनुष्य का मिश्रित रूप धारण करके प्रकट हुए और शरभ कहलाये।

शरभ ने नृसिंह को अपने पंजे से उठा लिया और चोंच से वार करने लगा। शरभ के वार से आहत होकर नृसिंह ने अपना शरीर त्यागने का निर्णय लिया और शिव से निवेदन किया कि इनके चर्म को शिव अपने आसन के रूप में स्वीकार करें। इसके बाद नृसिंह भगवान विष्णु के तेज में मिल गये और शिव ने इनके चर्म को अपना आसन बना लिया।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK


3 comments:

  1. mujhe ye site itne din kyun nahi mili ? sahab apka tah-e-dil se shukriya itni behtarin jankari dene ke liye , apko mere mathe ka salam guruvar

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  2. Sameer ji @ हार्दिक धन्यवाद..स्नेह बनाये रखे...

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  3. आपकी टिप्पणियाँ बहुमूल्य हैं यहां आकार आपके भाव प्रकट करने का बहुत बहुत आभार ....

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