Wednesday, December 23, 2015

Jeene Ki Rah12 (जीने की राह)

बीमारी से उबरने की सही राह
सभी को जीवन में कभी न कभी बीमार होना पड़ता है। बड़ी नहीं तो छोटी-मोटी बीमारी हरेक से चिपक गई है। जब बीमार पड़ें तो थोड़ा-सा विचार कीजिएगा कि हमारे साथ पांच बातें जुड़ जाती हैं- एक, हमारा शरीर। पहला ध्यान उसी पर जाता है, क्योंकि शुरुआत वहीं से होना है। कुछ लोग केवल इसी पर टिक जाते हैं और यहीं से इलाज करते रहते हैं। दो, फिर हमारा ध्यान डॉक्टर की ओर जाता है। यदि वह योग्य मिल जाए तो हम भाग्यशाली हैं। वरना शरीर और बीमारी के साथ-साथ हम डॉक्टर से भी उलझने लगते हैं। तीन, दवा। डॉक्टर अच्छा मिल जाए, लेकिन दवा काम न करे या दवा लेने का हमारा ढंग उल्टा-सीधा हो तो भी प्रभाव उल्टा पड़ेगा। चार, हमारे केयर टेकर। बीमारी के दौरान हमारी देखभाल करने वाले लोग ठीक न हों तो भी बीमारी में उल्टा असर पड़ता है। पांच, भविष्य का डर। कल क्या होगा, कौन सेवा करेगा, धन की व्यवस्था कहां से आएगी? ठीक होंगे या नहीं यह संदेह बना रहता है।

इन पांच बातों का मिला-जुला नाम है बीमारी। ज्यादातर लोग इन्हीं में उलझ जाते हैं, लेकिन जो धर्म और अध्यात्म में रुचि रखते हों, उन्हें इससे आगे बढ़कर छठी बात पर गौर करना चाहिए और वह है अपनी आत्मा पर टिकें। शरीर हम जान चुके हैं। अब हमें शरीर से मन को गुजारते हुए आत्मा तक पहुंचना चाहिए। यानी यह महसूस करना कि शरीर अलग है और मन अलग है। इस अभ्यास के अध्यात्म में अपने-अपने ढंग हैं। जितना आत्मा पर टिककर यह महसूस करेंगे उतना ही ये पांच बातें आपको कम परेशान करेंगी। संभव है स्वस्थ होने में ही मदद मिल जाए, क्योंकि आत्मा पर टिकते ही आत्मविश्वास जाग जाता है। जितना आत्मविश्वास अधिक होगा ये पांचों बातें उतनी ही अनुकूल होती जाएंगी।

श्रेष्ठ लेकर ही यहां से जाएं
ऋषि-मुनि कहते आए हैं हैं कि हम परमात्मा का अंश हैं और हमें एक दिन उसी में मिलना है। तो क्यों न अपने भीतर उसके विराट आनंद का समावेश करें। यह आदर्श वाक्य सभी को समझ में नहीं आता। खासतौर पर नई पीढ़ी के बच्चे आत्मा-परमात्मा की बातों से घबराने लगते हैं। एक वर्ग विज्ञान के आधार पर इसको खारिज कर देता है। कुछ लोग इस बात को सुनकर अपने भीतर उतरते हैं और भगवान को ढूंढ़ने लगते हैं। निराश हो जाते हैं तो कहा जाता है कि ये सब बकवास है। फिर भी लोग आस्थावान होते हैं। मूर्ति पूजा में, मंदिर जाने में, कर्मकांड में लग जाते हैं, लेकिन शांत नहीं हो पाते। दोनों पक्ष ध्यान रखें, यदि आप यह मान लें कि वह परमशक्ति प्रकृति के रूप में बिखरी हुई है और हमारे भीतर वही बसा है तो हमें शांत होने में सुविधा होगी।

विज्ञान की दृष्टि से विचार किया जा सकता है कि बीमारी में हमारे शरीर से खून की कुछ बूंदे निकाली जाती हैं और उन बूंदों से पूरे शरीर में होने वाले परिवर्तन-दोष की जानकारी मिल जाती है। अगर रक्त की एक बूंद में हमारा पूरा शरीर समाया है तो फिर हम भी उस परमात्मा की एक बूंद की तरह हैं और वह विराट हममें समाया है। एक बूंद में यदि पूरे की जानकारी हो सकती है तो एक मनुष्य में पूरा परमात्मा क्यों प्राप्त नहीं हो सकता। विज्ञान भी इससे सहमत है। इसी विज्ञान के आधार पर हमें यह मानना चाहिए कि हमारे भीतर वह सबकुछ है, जिसे परमशक्ति या परमात्मा कहते हैं। जब इतनी बड़ी संभावना हमारे भीतर है, फिर हम छोटी-छोटी बातों से निराश क्यों हो जाते हैं, इसलिए इस भाव को सदैव बनाए रखिए कि हम श्रेष्ठ लेकर आए हैं, श्रेष्ठ लेकर जीना है, क्योंकि जाते समय श्रेष्ठ ही साथ जाएगा। बाकी सारा संसार यहीं छूट जाना है।

परेशानियों में ईश्वर का सहारा
जरूरी नहीं कि कमजोर व्यक्ति को ही सहारा चाहिए। सक्षम और समर्थ व्यक्ति भी सहारा चाहता है। जीवन में कुछ घटनाएं ऐसी होती हैं जहां अगर सहारा मिल जाए तो योग्यता को बल मिल जाता है। किष्किंधा कांड में श्रीराम भगवान के सहारे का क्या महत्व है इसे अपने ढंग से लक्ष्मणजी को समझा रहे हैं। तुलसीदासजी ने बड़ी ही सुंदर चौपाई लिखी, ‘सुखी मीन जे नीर अगाधा। जिमि हरि सरन न एकउ बाधा। फूलें कमल सोह सर कैसा। निर्गुन ब्रह्म सगुन भएं जैसा।। जो मछलियां अथाह जल में हैं वे सुखी हैं। जैसे श्रीहरि की शरण में चले जाने पर एक भी बाधा नहीं रहती। कमलों के फूलने से तालाब ऐसी शोभा दे रहा है, जैसे निर्गुण ब्रह्म सगुण होने पर शोभित होता है। मछली जब गहरे जल में होती है, तब वह अपने आप को सुरक्षित समझती है।

परमात्मा की कृपा का जल ऐसा ही होता है। इस कृपा के सागर में जो डूब गया उसे संसार सागर में परेशानी कम उठानी पड़ेगी। आज भी भक्ति करने के दो तरीके हैं- निराकार और साकार। कुछ लोग मानते हैं परमात्मा का कोई आकार नहीं है और वे उसी ढंग से उस तक पहुंचते हैं। अधिकांश परमात्मा को साकार मानते हैं। चाहे वह किसी मूर्ति में हो, अवतार में हो या किसी देव पुरुष में। तुलसीदासजी को रामजी का साकार रूप खासतौर पर वनवासी और तपस्वी रूप बहुत भाता था, इसीलिए वे कहते हैं, ‘ये वही रामजी हैं, जिनको वेद ने भी गाया, वहां वे निर्गुण हैं लेकिन यहां अपने भक्तों के लिए सगुण हो गए हैं, बिल्कुल अपने जैसे। मनुष्य को जब परमात्मा इस रूप में मिलता है तो वह बहुत बड़ा सहारा बन जाता है। परमात्मा अवतार लेकर हमें बताता ही है कि मैं सगुण रूप में तुम्हारा सहारा बनूंगा। इस कृपा के सागर में अपने आप को सुरक्षित समझो।

नए रिश्तों में पूरी सच्चाई रखें
पहले अधिकतर लोग जिस नगर में पढ़ते थे उसी में नौकरी कर लेते थे या अपने पारिवारिक व्यवसाय से जुड़ जाते थे। यदि नौकरी या व्यवसाय के लिए बाहर निकलते तो अपने मूल स्थान पर लौटकर जरूर आते थे। जिस जगह बचपन बीता हो उस जगह से लोगों को बड़ा लगाव हुआ करता था। फिर लोग नौकरी-धंधे के लिए अपने शहर से बाहर निकलने लगे। एक जगह रहकर जिस ढंग से रिश्तेदारी निभाई जाती थी अब वैसा नहीं रहा। कई लोग तो ऐसे नगर में पहुंच जाते हैं जहां उनकी जाति-बिरादरी, रिश्तेदारी के लोग होते ही नहीं। यहां से शुरू होती है नई रिश्तेदारी। पुराने रिश्तेदारों को यह अखरता है कि ये दूर जाकर हमें भूल गए, लेकिन बदलते जीवन में अगर नए लोग आएं तो पुराने लोगों को आपत्ति नहीं होनी चाहिए। रिश्तेदारी का सीधा मतलब था कि संकट के समय एक-दूसरे के काम आना।

अब जब लोग इतनी दूर निकल गए कि वहां दूर-दूर तक अपने ही लोग नज़र न आएं तो फिर उन्हें अपना बनाना ही पड़ेगा जो कभी पराए रहे हों, इसीलिए कोई टाउनशिप में रहता है, कोई बहुमंजिला इमारत में रहता है और एक नया ही परिवार तैयार हो जाता है। ऐसे में बड़े संतुलन के साथ पुराने रिश्तों को भुलाया भी न जाए और जो पुराने रिश्ते निभा रहे हैं उन्हें नए रिश्तों का भी मान रखना चाहिए। जब भी रिश्ते बनाने जाएं तब बाहरी सावधानियां तो रखें ही, पर अपने भीतर अपने मन को इस बात के लिए नियंत्रण में रखिए कि वह संदेह न करे। बाहर जो लोग हैं उनके प्रति गलत आचरण में न उतरें, क्योंकि यह मन का स्वभाव होता है। वह संदेह, शिकायत करता है और अनुचित जरूर सोचता है। संबंध बनाने में पहले स्वीकृति लाएं, सहमत हों और व्यवहार में सच्चाई रखें। नए संबंध भी वही आनंद देंगे, जो पुराने रिश्ते दे रहे हैं।

ध्यान के जरिये मिटाएं अकेलापन
कुछ स्थितियों में अकेलापन सबसे बड़ी समस्या बन जाता है। यह समस्या किसी भी उम्र में आ सकती है। कई बार जवानी में आ जाती है। कोई धोखा हो जाए, मनपसंद काम न हो तो अकेलापन घेर लेता है। विवाह के पश्चात नए जोड़ों में भी अकेलेपन का दर्द उतर आता है। लंबी गृहस्थी जीने के बाद पति-पत्नी को इसकी शिकायत हो सकती है, लेकिन सबसे बुरी स्थिति तब होती है जब जीवनसाथी चला जाए। यह अकेलापन दुनिया में सबसे ज्यादा तोड़ने वाला होता है। खासतौर पर यदि बुढ़ापे में पति हो या पत्नी, उसके लिए जीवन बोझ लगने लगता है। इससे मनुष्य इतना तंग आ जाता है कि उसे लगता है कि बस अब मृत्यु आ जाए। यह मृत्यु का अनचाहा आमंत्रण होता है। यह अकेलापन जिस तरह से तोड़ता है, उस टूटन का इलाज स्वयं निकालना पड़ेगा।

जिस किसी को संसार में इस स्थिति का सामना करना पड़े, उसे दो मार्ग से इस पर विचार करना होगा। एक है सांसारिक, दूसरा आध्यात्मिक। सांसारिक मार्ग यह है कि किसी गतिविधि से जुड़ जाएं, लोगों में उठने-बैठने लगें और शरीर को पूरी तरह से स्वस्थ रखकर कहीं न कहीं खुद को जोड़े रखें, लेकिन बुढ़ापे में यह सब भी हमेशा संभव नहीं होता। ऐसे में दूसरा मार्ग है आध्यात्मिक। इसमें आपको बाहर गतिविधि नहीं करनी है। यदि आप ध्यान (मेडिटेशन) के लिए तैयार हैं, तो आप इसका अभ्यास और बढ़ाइए। जितनी यात्रा भीतर करेंगे उतना ही बाहर का अकेलापन मिटेगा। ध्यान वह अवसर होता है जब आप स्वयं से जुड़ जाते हैं। उदासी मिटाने का इससे अच्छा तरीका नहीं है कि इतना योगाभ्यास किया जाए कि शरीर भी सध जाए और मन से गुजरकर हम आत्मा तक पहुंच जाएं।

जिंदगी के केंद्र में हो जीवनसाथी
कहते हैं परिवार के केंद्र में परमात्मा होना चाहिए और परिधि पर संसार रख देना चाहिए। जैसे परिवार के केंद्र में परमात्मा होना चाहिए ऐसे ही मनुष्य को जीवन के केंद्र मेें कुछ रिश्ते रखने पड़ते हैं। हमें जो रिश्ते निभाने हैं उनमें माता-पिता, जीवनसाथी और हमारे बच्चे होते हैं। माता-पिता से सेवा के संबंध हों, जीवनसाथी के प्रति समर्पण का भाव हो और बच्चों को भरपूर सहयोग दीजिए, लेकिन केंद्र में जीवनसाथी होना चाहिए। समझदार माता-पिता और सुलझे हुए बच्चे भी यही चाहते हैं। माता-पिता जानते हैं कि उनकी आयु अधिक नहीं है। बच्चे भी पढ़-लिखकर अपनी दुनिया में उतर जाएंगे। फिर आप और आपका जीवनसाथी रह जाएंगे। केंद्र में यदि जीवनसाथी है तो जीवन काटना कठिन नहीं होगा। इन रिश्तों को निभाते हुए कभी-कभी मनुष्य भूल जाता है।

पति-पत्नी के बीच जो तनाव और झगड़े होते हैं उसका एक बड़ा कारण यही है कि दायित्व का बंटवारा करते समय परिपक्वता और प्रेम नहीं रखा जाता। किसी-किसी घर में तो तीनों पीढ़ी एक साथ होती है। जिन माता-पिता ने योग्य बनाया, अब उनका अधिकार है और हमारा कर्तव्य है कि हम उनकी भरपूर सेवा करें। फिर बच्चों को भी इस योग्य बनाना है कि एक दिन वे हमारी सेवा कर सकें। जब माता-पिता और बच्चों से आप मुक्त हो जाएं तो सारा ध्यान जीवनसाथी पर लगाएं। आने वाले वक्त में दोनों को अधिकांश समय अकेले रहना है। यदि उन्होंने अपना वक्त प्रेमपूर्ण नहीं बिताया तो एक नया तनाव और उलझन पैदा हो जाएगी, इसलिए प्रयास किया जाए कि माता-पिता की सेवा हो, जीवनसाथी केंद्र में हो समर्पण के साथ और बच्चों को भरपूर सहयोग दें, तब गृहस्थी अपने नए अर्थ लेकर हमारे जीवन से जुड़ेगी।

छोटी-छोटी बातों से तनाव मुक्ति
इस समय सभी के जीवन में तनाव बहुत है और समय बहुत कम। मनुष्य ने जिन-जिन चीजों को इकट्‌ठा करना शुरू किया (धन, पद, नाम आदि, साथ में तनाव भी आता गया। कोई योग के शिविर, कोर्स करता है, कोई सत्संग करता है, कुछ लोग डॉक्टर के पास पहुंच जाते हैं। सब अपने-अपने ढंग से तनावमुक्त होना चाहते हैं। फिर भी हाथ लगता है बढ़ा हुआ तनाव। ऐसे में दिनभर की जीवनचर्या में आने वाले अवसरों को छोटे-छोटे योग से जोड़ लें। मेरा संपर्क ऐसे अनेक लोगों से है, जो कहते हैं सब कर सकते हैं पर समय नहीं है। उन्हें मेरा सुझाव है कि कितना ही व्यस्त व्यक्ति हो, वह छह काम तो अवश्य करता है- सोना, उठना, खाना, पीना, बोलना और सुनना। इन्हें योग से जोड़ लिया जाए।

सोने का एक विशेष ढंग, एक अनुशासन है। सोते समय कुछ खास क्रियाएं की जाएं, खासतौर पर श्री हनुमानचालीसा से मेडिटेशन करके सोया जाए। उठते समय भी यही क्रिया दोहराई जा सकती है। अचानक बिस्तर से कभी न उठें। दो या तीन मिनट के लिए अपने आप को शून्य करें। पानी पीते समय प्रत्येक घूंट के साथ महसूस करें कि यह पानी आपकी सांस में घुल गया और जो भी आपका मंत्र हो उसको पढ़ते हुए पानी पी लें। यही काम भोजन के साथ किया जा सकता है। बोलते समय जागरूक रहें कि जो शब्द आप बोल रहे हैं वे कंठ से नहीं, नाभि से बोल रहे हैं। सुनते समय जब शब्द कान में आएं तो उन्हें पकड़कर हृदय तक लाएं। ये छोटी-छोटी बातें आपको तनावमुक्त करेंगी। यह अभ्यास जितना बढ़ेगा, आप बिना अधिक समय दिए खुद को तनावमुक्त पाएंगे। 

संतों के पास पाप मुक्ति की दृष्टि
किष्किंधा कांड के एक प्रसंग में श्रीराम लक्ष्मण को पाप की परिभाषा बताते हैं। इसे तुलसीदासजी ने ऐसे लिखा है, ‘गुंजत मधुकर मुखर अनूपा। सुंदर खग रव नाना रूपा।। चक्रबाक मन दुख निसि पेखी। जिमि दुर्जन पर संपति देखी।।भौंरों की अनूठी गूंज सुनाई दे रही है तथा कई प्रकार के सुंदर पक्षी कलरव कर रहे हैं। रात देखकर चकवा वैसे ही दुखी है जैसे दूसरे की संपत्ति देखकर दुष्ट दुखी होता है। दूसरे की संपत्ति को देखकर दुष्ट को जैसा लगता है, वह एक तरह का पाप है। कई बार हमें लगता है कि जो कुछ दूसरों के पास है वह हमारे पास भी हो। इसमें बुराई नहीं है। बुराई उसे पाने के अनुचित प्रयास में है। जो मिला है उसमें संतोष करिए, जो दूसरे को मिला है उसमें प्रसन्न हो जाएं। ईर्ष्या आए, लोभ आए पर छीनने की वृत्ति आए तो पाप है।

फिर श्रीराम कहते हैं- चातक रटत तृषा अति ओही। जिमि सुख लहइ न संकरद्रोही। सरदातप निसि ससि अपहरई। संत दरस जिमि पातक टरई।।प्यास के कारण पपीहा व्याकुल है। जैसे शंकरजी का द्रोही सुख नहीं पाता। सुख प्राप्त करने के लिए जो खीज, चिढ़, जो बेचैनी प्राप्त होती है वह भी एक तरह का पाप है। अंत में शरद ऋतु के चंद्रमा की शीतलता को संतों से जोड़ते हुए कहते हैं,‘शरद-ऋतु के ताप को चंद्रमा हर लेता है, जैसे संतों के दर्शन से पाप दूर हो जाते हैं। संत एक ऐसी दृष्टि दे देते हैं, जिससे हम जान जाते हैं कि भीतर से हमें कुछ और ही होना है। इसलिए यह गलतफहमी मिटा ली जाए कि संत के पास या तीर्थ में जाने से पाप मिट जाएंगे। वहां पाप मिटाने की दृष्टि दे दी जाती है। जब भी अवसर मिले, किसी तीर्थ में, किसी संत के पास जाकर वह दृष्टि प्राप्त करें, जो हमें पाप से मुक्त होने को प्रेरित करेगी।

अनिर्णय में जीएं, ऊर्जा प्राप्त करें
लगभग सभी के जीवन में कई बार ऐसे अवसर आते हैं कि सारी आशाएं ध्वस्त हो जाती हैं। बहुत अच्छे ढंग से योजना बनाई जाती है, पूरी ताकत उसमें झोंक दी जाती है, योग्य लोग जुड़ जाते हैं फिर भी लक्ष्य हासिल नहीं होता। शत-प्रतिशत प्रयास करने के बाद भी सफलता न मिले तो लोग भारी निराशा में चले जाते हैं। जब खुद से भरोसा उठने लगे, सारी आशाएं ध्वस्त हो जाएं तो कुछ आध्यात्मिक गतिविधियां करिए। भले ही वह एक दिन हो, पांच-दस घंटे हों। फैसला लेना बंद कर दें। कोई निर्णय मत लीजिए, बिल्कुल रुक जाएं। जो हो रहा है, उसे होने दीजिए। जो हम चाह रहे हैं और जो हो रहा है इसका फर्क नहीं समझा गया तो फिर अपने ऊपर भरोसा लौटकर आना मुश्किल है।

यह मूल्यांकन बिल्कुल बंद कर दें कि असफलता क्यों आई। जितना मूल्यांकन करेंगे उतना ही आप अशांत होते जाएंगे। आपकी आलोचना हो रही है, होने दीजिए। असफलता के बाद आर्थिक दबाव आया तो थोड़ी देर उसे भी घटने दीजिए। इसका यह मतलब नहीं है कि इस स्थिति को लंबे समय टिकाना है और चलाना है। उदाहरण के तौर पर आपको असफलता मिली और एक महीने में आपको उससे पार पाना है तो आप हफ्ते में एक दिन अभ्यास कीजिए। एक मंत्र बना लीजिए कि जो हो रहा है, अभी एक दिन के लिए होने देते हैं। उस एक दिन में जैसे ही आपकी वृत्ति इससे जुड़ेगी, अगले दिन आप अधिक ऊर्जा और स्पष्टता से काम कर सकेंगे, क्योंकि उलझन से बाहर आकर ही चीजों को सुलझाया जा सकता है। इस आध्यात्मिक अभ्यास के लिए ध्यान यानी मेडिटेशन ही काम आएगा। वही इस विचार को परिपक्व करेगा कि होने दीजिए जो हो रहा है, इसलिए जीवन में ध्यान को समय जरूर दिया जाए।

विचारों की भीड़ से मुक्ति पाइए
कुछ लोगों के लिए कहा जाता है कि उनकी खोपड़ी बहुत तेज चलती है। यानी उनके दिमाग में एक ही समय में कई लोग, कई स्थितियां होती हैं। कहीं आप भी तो उनमें से एक नहीं हैं? क्योंकि जब हमारे मन-मस्तिष्क में लोगों की भीड़ इकट्‌ठी हो जाती है, तो एक दिन हम अपना ही मूल स्वरूप भूल जाते हैं। कभी-कभी तो सोते समय भी बाहर के ये लोग हमारे भीतर प्रवेश कर जाते हैं। इस भीड़ से बचने के दो तरीके हैं। पहला तो यह कि बहुत सख्ती से सोच लिया जाए कि किसी को भी मन-मस्तिष्क में प्रवेश नहीं देंगे। थोड़ा आसान दूसरा तरीका यह है कि यदि लोग प्रवेश कर ही चुके हैं और हम उन्हें रोक नहीं पा रहे हैं तो उनके साथ जुड़ न जाएं।

दूर खड़े होकर उनको आता-जाता देखें। स्थितियां हो या व्यक्ति, आएंगे विचारों के माध्यम से ही। जैसे ही इनसे अलग हटेंगे तो इन्हें रोकना भी सरल हो जाएगा। जब भीड़ में धक्का-मुक्की हो जाए, कोई गिर जाए तो उस गिरे हुए को उठाने में किसी की रुचि नहीं होती। सब या तो भागना चाहते हैं या अपने को बचाना चाहते हैं। हमारा मूल व्यक्तित्व कहीं दब जाता है। इसलिए कभी-कभी जान भी नहीं पाते कि हम किन बातों से परेशान और दुखी हैं? हमारे भीतर दूसरों के दुख व परेशानियां ही इतनी प्रवेश कर चुकी होती हैं कि हम उन्हीं में उलझकर रह जाते हैं, इसलिए जैसे कठपुतली के खेल में हर पात्र डोरी से जुड़ा होता है, उसी तरह लोगों व स्थितियों से जितने भी हमारे संबंध हैं, सब डोर की तरह हैं। डोर काट दीजिए, संबंध टूट जाएंगे। बात सिर्फ विचारों की हो रही है। मतलब यह नहीं है कि अपने लोगों के बारे में भी सोचना छोड़ दें, लेकिन थोड़ा अंतर रखिएगा। फिर आप वही सोचेंगे और उन्हीं लोगों को अपने भीतर लाएंगे जो आपके अपने हैं, जो जरूरी हैं।

ऊर्जा के अपने परम स्रोत से जुड़ें
यह रहस्यमय सवाल कई बार मुझसे पूछा गया है और लोगों ने खुद से भी पूछा है कि हम कहां से आए हैं, शरीर में आने के पहले कहां थे और इसके बाद कहां जाएंगे? एक वर्ग साइंस के हवाले से कहता है कि माता-पिता के योगदान से पैदा हुए और शरीर की क्रियाएं समाप्त होंगी तो मर गए। इसमें सोचना क्या? परंतु एक वर्ग ऐसा भी है, जो जीवन को अध्यात्म की दृष्टि से देखता है। उसके मन में ये प्रश्न कभी न कभी जरूर आते हैं। यदि इसका उत्तर ठीक से मिल जाए तो आने और जाने के बीच में जो जीवन होता है उसका असली आनंद मिल सकेगा। यदि इसे ठीक से नहीं समझा तो जिसे हम जी रहे हैं, उसका भी दुरुपयोग कर जाएंगे। शास्त्रों ऋषि-मुनियों ने इशारा किया है कि हमारा स्रोत, हमारे जन्म का कारण कुल-मिलाकर ऊर्जा है।

यह एक ऐसी शक्ति है, जिसका कोई रूप नहीं, कोई आकार नहीं। इस ऊर्जा के मुद्‌दे पर धर्म और विज्ञान एक हो जाते हैं। यही ऊर्जा माता-पिता के वीर्य और रज के कण के रूप में हमारे जीवन को तैयार करती है। यह ऊर्जा कभी समाप्त नहीं होती, सतत बह रही है। जब हमें यह होश जाए कि हम आए हैं तो उस ऊर्जा से और जाएंगे भी उसी ऊर्जा से तो फिर जीवन का जो बीच का समय है उसको उस ऊर्जा से जोड़ने का प्रयास किया जाए, जो इस ब्रह्मांड में बह रही है। इस ऊर्जा के जिस हिस्से से हम पैदा हुए, वह हमारे रोम-रोम में बह रही है। जैसे ही एकांत में उतरकर हम शरीर की सारी एकाग्रता एक स्थान पर ले आते हैं, वैसे ही उस परम तत्व से जुड़ जाते हैं। श्री हनुमानचालीसा की एक-एक चौपाई सांस के साथ भीतर उतारें और बाहर ले जाएं। जीवन का आनंद बढ़ जाएगा। यह वही विधि है, जिससे हम उस ऊर्जा से जुड़ते हैं जो हमारा स्रोत है।

सरलता में ही सफलता व शांति
हम मूल रूप से आध्यात्मिक प्राणी हैं और अस्थायी रूप से मानव हैं। आजकल सभी से यह उम्मीद होती है कि वे व्यवहार में सरल हों, साफ-सुथरे हों, पारदर्शी हों। जब हम अपने आपको सरल बनाने के लिए प्रयास करते हैं तो सबसे पहले यही संदेह उठता है कि लोग हमारी सरलता का दुरुपयोग न कर लें। चिंता न करें, क्योंकि यदि आप सरल हैं तो आसपास ऐसी ऊर्जा पैदा हो जाएगी, जो आपकी रक्षा करेगी और दूसरों को आपके प्रति बदलेगी। भरोसा कीजिए कि हम मनुष्य हैं, लेकिन हमारे भीतर दिव्यात्मा का अंश है। सबसे बड़ी उपलब्धि होगी हम खूब शांत हो जाएंगे, क्योंकि सरल व्यक्ति किसी से भी जुड़ने में खुद को सहज महसूस करता है। प्रकृति में सरलता होती है। जब कोई फूल खिलता है तो वह दूसरे फूल से अपने सौंदर्य की तुलना नहीं करता। सुंदर, असुंदर का यह भेद मनुष्य लाता है, उसकी कुटिलता लाती है।

हम भी इसी तरह इतने सरल हो जाएं कि जब जो करें, होने दें। कोई तुलना न करें। पशुओं में एक सरलता होती है। प्रकृति में जितने तत्व हैं वे सब अपने ही ढंग से सरल होकर अपना काम कर रहे हैं। वायु बह रही है। सूर्य अपने प्रकाश के लिए कोई आग्रह नहीं करता। जल अपनी सहजता में है, पृथ्वी अपना काम कर रही है तो आकाश कोई अतिरिक्त भेदभाव नहीं रखता। जब हमारे भीतर ये पांच तत्व हैं तो हम फिर क्यों चक्कर में पड़ें। पूरी सरलता के साथ सुबह से रात तक करते रहिए। जो-जो भी आपकी मदद कर रहे हैं उससे भी अधिक सहयोग आपको मिलने लगेगा और आप कम परिश्रम में अधिक और ऐसी सफलता अर्जित करेंगे, जो आपके लिए खूब शांति लेकर आएगी। तब आपको अपने सरल होने पर गर्व भी होगा और खुशी भी।

हमारा आचरण संयमित, सहज हो
जीवन में सबसे बड़ी सफलता तो तब है, जिसमें जो मिले उसमें आंतरिक शांति भंग न हो। श्रीराम व लक्ष्मण ऐसे ही व्यक्तित्व थे जो संकटों से घिरने के बाद भी शांत और सहज थे। किष्किंधा कांड में उनकी आपसी बातचीत संदेश बनती जा रही थी। छोटे भाई को समझाते हुए श्रीराम टिप्पणी करते हैं, ‘देखि इंदु चकोर समुदाई। चितवहिं जिमि हरिजन हरि पाई।। मसक दंस बीते हिम त्रासा। जिमि द्विज द्रोह किएं कुल नासा।। चकोरों के समुदाय चंद्रमा को देखकर इस प्रकार टकटकी लगाए हैं जैसे भगवद भक्त भगवान को पाकर उनके (निर्निमेष नेत्रों से) दर्शन करते हैं। मच्छर और डास जाड़े से इस प्रकार नष्ट हो गए जैसे ब्राह्मण के साथ वैर करने से कुल का नाश हो जाता है। यहां इशारा यह है कि क्या देखा जाए? देखने के मामले में हम लोग अत्यधिक लापरवाह होते जा रहे हैं।

जो दृश्य आंखों से देखे जाते हैं वेे अवचेतन मन पर असर करते हैं। इन्हें विचार और आचरण में उतरने में देर नहीं लगाते। पहले तो फिर भी जो दिख रहा था वह संयमित होता था। आज बहुत कम ढंका हुआ और मर्यादित होता है। इस खुले वातावरण में सारी सुरक्षा अपने ही नेत्रों से हमें ही करनी है। ब्राह्मण से द्वेष लेने संबंधी श्रीराम के इस संवाद को कई लोग ठीक ढंग से नहीं ले पाते। यहां जाति नहीं आचरण की ओर इशारा है। जिनका आचरण ब्रह्म से जुड़ा हो वह ब्राह्मण होना चाहिए और ऐसा व्यक्ति सबके लिए हितकारी है, उससे वैर न लिया जाए। हमें भी ऐसा ही व्यक्तित्व अपनाना चाहिए, इसलिए अवश्य आचरण में कुछ न कुछ अनुशासन उतारें। यह अनुशासन हमको श्रीराम जैसा संयमित-सहज और लक्ष्मणजी जैसा संयमित बना देगा। आने वाले कुछ दिन हम इन्हीं छोटी-छोटी क्रियाओं पर चर्चा करेंगे।

दैनिक क्रियाओं में योग एेसे जोड़ें
हमारे पास मनुष्य का शरीर तो है, लेकिन ज्यादातर लोग यह नहीं जान पाते कि इसका उपयोग अनुशासन के साथ करना चाहिए। पिछले दिनों इसी स्तंभ में मैंने चर्चा की थी कि हम शरीर, मन और आत्मा तीनों से बने हैं और तीनों के अनुशासन के लिए योग अवश्य किया जाए। यदि योग के लिए समय नहीं है तो दिनचर्या में छोटी-छोटी बातों को शामिल कर लिया जाए। इस बारे में बहुत सारे लोगों ने हमसे संपर्क किया है। चलिए इस पर बात करें। आने वाले दिनों में सोना, उठना, खाना, पीना, बोलना और सुनना इन छह कामों को कुछ ऐसी क्रियाओं से जोड़ दें जो योग का परिणाम दे देंगी। जब हम सोने जाएं तो इस बात का ध्यान रखें कि हमें शरीर को इस तरह से सुलाना है कि हमारा मन भी कंपन बंद कर दे और पूरी शांति के साथ सो जाए।

मन की सक्रिय रहने की आदत बिगड़ जाती है तो वह नींद में भी सक्रिय रहता है। जिसे साउंड स्लिप कहते हैं उसमें बाधा है मन। हमें लगता है कि जीवन में कुछ घटनाएं ऐसी घट गईं, जो सोने नहीं दे रहीं। यदि ठीक से सो लिए तो उठना भी ठीक से हो जाएगा। सोने से पहले छोटी सी क्रिया करें। अपने शयन कक्ष में एकदम सीधे खड़े हो जाएं। पंजे चिपके रहें, घुटने चिपके रहें, हाथ छाती पर जोड़ लें, आंखें बंद कर लें और पूरे शरीर को एक कर दें। आप पाएंगे कि आपका शरीर हल्का-हल्का हिल रहा है। यह कंपन मन के कंपन से जुड़ा हुआ है। सारा ध्यान नाभि पर या मेरूदंड के निचले हिस्से पर लगा लें और दो-तीन मिनट तक यही करें। हफ्ते-दस दिन में कंपन कम होगा तथा धीरे-धीरे आप शरीर और मन को अनुमति देंगे कि वे शैया तक जा सकें। अभी इतना किया जाए। धीरे-धीरे बात फिर आगे बढ़ाएंगे, क्योंकि जो ठीक से सो लिया वह अच्छे से जरूर उठेगा।

नींद को लेकर अनुशासन अपनाएं
नींद ऐसी क्रिया है जो अधिक आए तो भी बीमारी और कम आए तो भी अस्वस्थ होने के लक्षण दे जाती है। इसलिए नींद को लेकर अनुशासन जरूरी है। जैसे ही शयन कक्ष में जाएं, शरीर को एक कर भीतर से कम्पन मिटाया जाए। शरीर बाहर से हिल रहा है तो उसे कैसे रोका जाए? जब हम हाथ जोड़कर खड़े रहेंगे, पंजे नीचे से जुड़े रहेंगे तो शरीर पेंडुलम की तरह हल्का-हल्का हिलेगा। यही इस बात का प्रमाण है कि दिनभर हमारे आंतरिक व्यक्तित्व ने इतना वाइब्रेशन किया। कम्पन को मिटाकर ही शैया पर बैठें। लेटने के पहले या तो पलंग पर या किसी अन्य स्थान पर कमर सीधी करके बैठ जाएं। कुछ समय कमर सीधी करके बैठें और सारा ध्यान दोनों भौहों के बीच लगा लें।

वैसे तो जितना अधिक किया जाए लाभकारी है, लेकिन यहां अभी तीन चरण। पहले चरण में शरीर को सीधा करके कम्पन मिटा लिया। दूसरे चरण में कमर सीधी रख बैठ जाएं और सारा ध्यान दोनों भौहों के बीच लगा लें। जैसे ही ध्यान दोनों भौहों के बीच आए, सवाल यह खड़ा होगा कि क्या सोचा जाए? कोई भी एकदम से विचारशून्य नहीं हो सकता। जितना प्रयास करेंगे, विचारों के आक्रमण उतने ही बढ़ जाएंगे, इसलिए बहुत अधिक प्रयास न करें। परमात्मा के जिस भी स्वरूप में रुचि हो और नहीं तो माता-पिता या गुरु का एक चित्र, उनकी आकृति दोनों भौहों के बीच में लाएं और सिर्फ उसे देखें। जितनी गहराई से उसे देखेंगे उतने ही तेजी से विचार रुकेंगे। यह दूसरा चरण आपको सोने के लिए तैयार कर रहा है। ध्यान रखिएगा, जीवन में सोना एक ऐसी क्रिया है कि बहादुर से बहादुर, संयमित से संयमित व्यक्ति को भी इससे गुजरना होता है। जिस क्रिया का सम्मान करना है उसे ठीक से किया जाए। 


हर सांस के साथ शुभ भीतर जाए
हमारी नींद में सबसे बड़ी बाधा हम ही बन जाते हैं। बाहर के शोर व स्थितियों पर हमारा अधिक वश नहीं है, पर हम भीतर की बाधा तो दूर कर ही सकते हैं। दो चरण नींद के पहले के हम पूरे कर चुके हैं। अब तीसरा चरण समझते हैं। जब भी लेटें, सीधे कभी न लेटें। बाईं करवट लेकर बाएं कंधे से टिकते हुए लेट जाएं और कुछ क्षण ऐसे ही लेटे रहें। यदि विचार रुक न रहे हों तो फिर विचार कोई शुभ हो। एक शुभ विचार यह लिया जा सकता है कि आज दिनभर में कौन-सा अच्छा काम किया? बस, उसे सोचते हुए करवट बदलकर पीठ के बल लेट जाएं। तीसरे चरण के दूसरे हिस्से में पीठ के बल लेटकर गहरी सांस लेते हुए महसूस करें कि शरीर के एक-एक अंग में सांस पहुंचा रहे हैं।

उस समय सांस के साथ कोई भी मंत्र, कोई भी शुभ वाक्य जरूर लीजिए। श्री हनुमान चालीसा का पाठ भी कर सकते हैं। कई लोग प्रश्न करते हैं कि क्या शैया पर श्री हनुमान चालीसा पढ़ी जाए? मंत्र तो शुद्धि के साथ ही पढ़ा जाता है। श्रेष्ठ तो यही है कि वह पूजा स्थल या तप स्थल पर पढ़ी जाए, लेकिन यदि शयन के पूर्व मानसिक स्मरण करें तो भी पाप तो नहीं लगेगा, थोड़ी शुद्धि अवश्य होती रहेगी। ध्यान रखिएगा, यह एक यौगिक क्रिया है। इसे पूजा-पाठ की तरह न करें तो शुद्धि अपने आप उतरेगी। इस समय संयम की आवश्यकता होती है। शयन के समय यही संयम शुद्धि बन जाएगा और यही शुद्धि आपको ठीक से सुलाएगी। नींद आने तक इस क्रिया को जारी रखिए। यदि सांस के साथ शुभ शब्द भीतर गए और निद्रा में बदल गए तो यही योग निद्रा हो जाएगी। ये सारी क्रियाएं उन लोगों के लिए हैं, जिनके पास समय कम है और जो योग से गंभीरता से नहीं जुड़ पा रहे हों।

उठने के पहले करें शैया स्नान
जिस प्रकार कमीज का पहला बटन गलत लग जाए तो नीचे के सारे बटन गलत ही होंगे और उस वस्त्र का स्वरूप बिगड़ जाएगा। ऐसे ही यदि सुबह ठीक से नहीं उठे तो समझ लीजिए दिन को अस्त-व्यस्त करने की तैयारी कर ली है। यदि सुबह उठने की क्रिया पर ध्यान दें तो ज्यादातर लोग शर्मिंदगी महसूस करेंगे। स्वयं से स्वस्थ और प्रसन्न होकर उठने वाले लोग धीरे-धीरे खत्म हो रहे हैं। रात को देर से सोने के कारण सुबह जल्दी उठना मुश्किल ही है। सबसे अच्छा है कि सूर्योदय के एक घंटा पहले उठ जाएं। ऐसा न भी कर सकें तो जब भी उठें मस्ती यानी आंतरिक प्रसन्नता के साथ उठें। कुछ लोग नींद खुलने के बहुत देर बाद तक निर्णय नहीं ले पाते कि उठा जाए। जब भी उठें तो सीधे बिल्कुल न उठें।

बिस्तर छोड़ने से पहले शरीर को पीठ के बल बिल्कुल सीधा लेटाते हुए शैया स्नान करा दें। यह स्नान होगा सांसों से। गहरी सांस इस तरह से लीजिए जैसे सांस ली और वायु का जल आपके मस्तिष्क, होठ, कंठ, छाती, पेट, जांघ, घुटने से होकर पंजों से बाहर निकल गया। दो-तीन बार ऊपर से नीचे तक और उसके बाद क्रिया को उलटी कर लें। अब जब सांस लें तो नीचे से लें और ऊपर की ओर छोड़ें। इस वायु को जल की तरह मानकर भीतर ही भीतर प्रत्येक अंग को धो लें। कुछ अलग से नहीं करना है। बस पलंग छोड़ने के पहले यह मानसिक क्रिया करना है। कुछ ही दिनों में आप एक अलग किस्म की ताज़गी महसूस करेंगे। हो सकता है शुरू में आपको अटपटा लगे, लेकिन करिएगा जरूर। पहला चरण ठीक से करने के बाद बाईं करवट मुड़ जाएं। थोड़ी देर बाएं कंधे पर वजन रखकर शरीर को छोड़ें उसके बाद ही पलंग से उतरें। कैसे उतरें और आगे क्या करें, हमारी चर्चा चलती रहेगी।

जागने पर धरती से ऊर्जा ग्रहण करें
इस दौर में मनुष्य के पास सबकुछ है, लेकिन एक मामले में आदमी कंगाल होता जा रहा है और वह है वक्त। धनाढ्य से धनाढ्य आदमी भी समय के मामले में दरिद्र हो गया। आप खूब परिश्रम करके सफलता प्राप्त कर लें और यदि अशांत रहें तो समझो इसके पीछे समय का दुरुपयोग काम कर रहा है। योग करने को कहें तो पूछा जाता है कि कैसे करें? इसीलिए सोचा कि जीवन मेें छोटी-छोटी बातों से योग जोड़ा जाए। सोने के तरीकों और शैया स्नान पर हम चर्चा कर ही चुके हैं। श्रीराम प्रकृति से जोड़कर लक्ष्मण को जीवन का बड़ा सुंदर संदेश देते हैं और वह संदेश आज हमारे उठने की क्रिया के दूसरे चरण पर लागू हो रहा है। ध्यान रखिएगा कभी भी सीधे पीठ के बल न उठें।

जब भी उठना हो या लेटना हो, बाईं करवट लेटें, थोड़ी देर रुकें और फिर दोनों पैर पृथ्वी पर रख दें। तुलसीदासजी ने भूमि को लेकर यहां एक चौपाई कही है। भूमि जीव संकुल रहे गए सरद रितु पाइ। सदगुर मिलें जाहिं जिमि संसय भ्रम समुदाइ।।वर्षाऋतु के कारण पृथ्वी पर जो जीव भर गए थे, वे शरद ऋतु को पाकर वैसे ही नष्ट हो गए जैसे सद्‌गुरु के मिल जाने पर संदेह और भ्रम के समूह नष्ट हो जाते हैं। इसमें वे कहते हैं गुरु भ्रम और संदेह नष्ट कर देता है। अब हमेें अपने दिन की शुरुआत करनी है। बिना भ्रम, संदेह के जो लोग दिनभर के काम में उतरेंगे उनके लिए सफलता के मतलब ही बदल जाएंगे। जैसे ही धरती पर पैर रखें, थोड़ी देर ऐसे ही बैठे रहें। अब आपको पृथ्वी से मिलने वाली ऊर्जा प्राप्त करनी है। इस ऊर्जा को कैसे ग्रहण करें, इस पर विचार करेंगे कल और फिर चलेंगे एक नए दिन की शुरुआत के लिए।

सांस के साथ प्राण तत्व ग्रहण करें
हमारी संस्कृति ने प्रकृति के साथ मनुष्य के संबंधों की बड़ी सुंदर व्याख्या की है। ऋषि-मुनियों ने पंचतत्वों को सुंदर प्रतीक बनाकर हमसे जोड़ा है। पृथ्वी को मां माना गया है। हमारी चर्चा चल रही है उठने के क्रम में। प्रात:काल जब उठें तो इस क्रिया को तीन चरण में पूरी करना है। उठने का पहला चरण था पीठ के बल लेटे हुए शैया स्नान करना। फिर पलंग पर बैठे-बैठे पृथ्वी से दिन का पहला स्पर्श करना। कल्पना करें कि हम मां की गोद में उतर रहे हैं। जैसे बच्चा मांग की गोद में अपने आपको सुरक्षित मानता है, ऐसा ही भाव पृथ्वी के प्रति पैदा कीजिए। इस भाव के साथ सांस खींचते हुए ऐसा महसूस कीजिए कि आपके पंजों से एक ऊर्जा भीतर आ रही है।

गहरी और धीमी सांस के साथ विचार करें कि पृथ्वी से पंजे, घुटने, घुटने से जांघ, पेट, छाती, कंठ, मस्तक और फिर ऊर्जा को ऊपर निकाल दिया। इस क्रिया में बहुत कुछ प्राणतत्व हमारे शरीर में रुक जाएगा। 5-6 बार यह क्रिया कर महसूस करें कि पृथ्वी जो श्रेष्ठ अपने बच्चों को दे रही है वह इस समय आप ले रहे हैं। आपने मां से सबकुछ अच्छा-अच्छा ले लिया। अब आपके पास पूरी तरह से वह ऊर्जा है जो संसार की सबसे श्रेष्ठ ऊर्जा है। कहा जाता है कि किसी भी बच्चे के लिए ऊर्जा का सबसे बड़ा स्रोत उसकी मां, उसका आलिंगन, उसका आंचल होता है। हमने धरती मां का स्पर्श किया। सांस के माध्यम से ऊर्जा को अपने भीतर ले लिया और अब तैयार हैं इस दुनिया में उतरने के लिए। दूसरा चरण पूरा हुआ। अब हम दैनिक क्रिया के लिए वॉश रूम में जाएंगे। यह होगा तीसरा चरण। अभी आप दो चरणों का आनंद लीजिए। अपने आपको तैयार करिए। अब हम प्रवेश करेंगे तीसरे चरण में। तब तक जरा मुस्कुराइए।


उठते ही शांति के साथ नाता जोड़ लें
कोई मनुष्य कितना ही एकांतप्रिय हो, संसार में रहते हुए दूसरों के साथ बोलना पड़ता है। उठना-बैठना पड़ता है। हम योग का एक ऐसा चरण जी रहे हैं, जिसको उठना कहते हैं। पहले चरण में हमने शैया स्नान किया। फिर धरती से ऊर्जा ले ली।और अब तीसरे चरण में चल रहे हैं वॉशरूम की ओर। इसमें आप दिन की पहली मुलाकात खुद से कीजिए। फिर तो दिनभर कई लोगों से मिलना है। स्वयं से मुलाकात होगी आईने के माध्यम से। ब्रश करने के पहले या बाद में या ब्रश करते हुए अपनी ही आंख मेें आंख डालकर आईने में देखिए। अचानक पाएंगे कि देखने वाला कोई और है तथा आप कोई और। बस यह वह अनुभूति है, जो मनुष्य को समाधि में मिलती है, क्योंकि वास्तविकता यही है।

अपनी आंखों में गहराई से देखेंगे तो जो अनुभूति होगी वह प्रात:काल की सबसे पहली दिव्य अनुभूति होगी और आप उस ऊर्जा से भर जाएंगे कि आप कोई और हैं। फिर जो भी घटनाएं, जो भी स्थितियां दिनभर आपके साथ घटेंगी, आप उन्हें दूर खड़े होकर देख सकेंगे। यह साक्षीभाव आपके भीतर शांति लाएगा। अब दिनभर जो भी काम करना है उसमें अशांति के कई झोंके आएंगे। आप अपने आप को दर्पण देखकर तैयार कर लीजिए और जब दर्पण से हटें तो एक बार मुस्कुराइएगा जरूर। दूसरों को देखकर मुस्कुराना हमारी व्यावसायिकता है, मजबूरी है, लेकिन जैसे ही खुद को देखकर मुस्कराएंगे, फिर अपने लोगों से मुस्कराने में शर्म खत्म हो जाएगी, हिचकिचाहट मिट जाएगी। जो दूसरों के साथ-साथ अपनों से मुस्कुराता है, भगवान आशीर्वाद के रूप में उसको अतिरिक्त रूप से शांति देता है। उठने की क्रिया में योग के ये तीन चरण पूरे करने से हमको बड़ी आसानी से शांति मिल जाएगी।


यज्ञ कुंड में आहुति जैसा हो भोजन
कहावत है जितना गुड़ उतनी मिठास। किंतु संभव है बिना मीठा डाले मिठाई का स्वाद आ जाए। इसे योग कहते हैं। जीवन के जितने हिस्से में योग का समावेश होगा, उतना हिस्सा अवश्य मीठा होगा, स्वादपूर्ण होगा। हम छह छोटी-छोटी क्रियाओं से योग को जोड़ रहे हैं- सोना, उठना, खाना, पीना, बोलना और सुनना। हमने सोने को समझा, उठने को जाना। इसके बाद तैयार होकर हमें घर छोड़ना होता है।

आप किसी भी धर्म से जुड़े हों, घर से निकलने से पहले एक बार घर के देवस्थान पर जरूर जाएं, फिर वह किसी भी रूप में क्यों न हो। यह ऊर्जा का केंद्र होता है। अब हम बात करें भोजन की। यह तीन भागों में बंटा है- दोपहर का भोजन यानी लंच, फिर डिनर यानी रात का भोजन और बीच में एक-दो बार नाश्ता। इसे चार भागों में बांट लें। दोपहर का भोजन और उसके पहले का नाश्ता, शाम का नाश्ता और रात का भोजन। एक बार का नाश्ता और भोजन दिन के पहले हिस्से में। दूसरी बार का नाश्ता और भोजन दिन के दूसरे हिस्से में। अब दिन दो भाग में बंट गया है और चार बार हमें भोजन से गुजरना है। पहली बात, शांत रहना चाहें तो शाकाहारी 

भोजन अधिक कीजिए। ऐसा नहीं है कि शाकाहारी लोग अशांत और क्रोधित नहीं होते पर शाकाहार शांत होने और क्रोध मिटाने में मददगार है। अब जब भी नाश्ता या भोजन करने बैठें, सोचें कि पेट यज्ञ कुंड है और उसमें हमें आहुति देनी है। प्रत्येक ग्रास उतनी ही सजगता से लें, जितनी सजगता कामकाज में एक-एक पैसा कमाने को लेकर रहती है। पेट में डाला जा रहा अन्न बेशकीमती धन है। सावधान रहें कि यह गलत तरीके से खर्च न हो जाए। पहले इस मानसिकता से जुड़िए। कल फिर भोजन के साथ योग कैसे हो सकता है, इस पर विचार करेंगे।

भोजन करते समय शांत रहे मन
भूल जाना मनुष्य का स्वभाव है, लेकिन यह मत भूलिए कि भूल जब गलती हो जाए और उसके गलत परिणाम जीवन पर पड़ें तो उसे कैसे सुधारा जाए। किष्किंधा कांड में श्रीराम ने बालि को मारकर सुग्रीव को किष्किंधा का राजा बना दिया। सुग्रीव ने श्रीराम को वचन दिया था कि मैं सीताजी की खोज में वानर भेजूंगा। राजपाट पाकर सुग्रीव रामजी का काम भूल गए। रामजी को छोटे भाई लक्ष्मण से कहते हैं- सुग्रीवहुं सुधि मोरि बिसारी। पावा राज कोस पुर नारी।श्रीराम ने आपत्ति ली कि सुग्रीव मेरा काम भूल गया है। सही बात जब आप भूल जाएं तो ईश्वर नाराज होता है। इन दिनों एक भूल हम कर रहे हैं, और वह है भोजन की भूल। भोजन आरंभ करें तो एक-एक ग्रास को मंत्र की तरह भीतर उतारें।

मस्तिष्क का काम है विचारों से आकृति बनाना। कोई विचार आया तो मस्तिष्क उसको डिजाइन कर देता है। इधर अन्न व उधर से आकृतियां भीतर आ रही हैं। आंतों को अन्न पचाना है और मस्तिष्क आकृतियों में उलझा है, तो तालमेल बिगड़ेगा ही। भोजन के रूप में आप विष भर रहे हैं। ऋषि-मुनियों ने कहा है अन्न से मन बनता है। यहां मन का मतलब व्यक्तित्व से है। व्यक्तित्व बनने की जगह भीतर एक घालमेल शुरू हो गया। यदि प्रत्येक ग्रास के साथ शांत नहीं हैं, एकाग्र नहीं हैं तो फिर आप आकृतियां यानी संसार खा रहे हैं और अन्न का जो शुभ परिणाम शांति में होना चाहिए, वह नहीं होता। भोजन वह अवसर हो सकता है जब आप मेडिटेशन कर शांति उपलब्ध कर सकते हैं और हम उस अवसर को गंवा देते हैं। हमारा सारा जोर है हर हालत में शांत रहना। खूब काम कीजिए पर शांत रहिए और भोजन का ऐसा ही उपयोग करना है। चलिए, कल फिर बात करेंगे कि भोजन से शांति कैसे प्राप्त की जाए।

अन्न को योग का माध्यम बनाएं
अनुशासन अपनाया तो परिणाम में शांति मिलकर रहेगी। भोजन को लेकर हम चर्चा कर चुके हैं कि यह शाकाहारी हो। यह भी महत्वपूर्ण है कि किसके हाथ का बना हुआ है? कहां किया जा रहा है? और चौथी बात भारतीय संस्कृति में भोजन कैसे भोग बन जाता है। परमात्मा को अर्पित होने के बाद भोजन भोग बनता है। यह बहुत सुंदर फिलॉसाफी है। सही है कि आपने भगवान की किसी मूर्ति को खाते नहीं देखा होगा, लेकिन यह मनोवैज्ञानिक कृत्य है कि आप भोजन परमात्मा को अर्पित करके भोग मान लेते हैं, प्रसाद मान लेते हैं और फिर ग्रहण करते हैं। इसका सीधा मतलब है कि अब संसार की आकृतियां भोजन के साथ समाप्त हुईं और परमात्मा की आकृति अन्न के साथ उतरना आरंभ हो गई। इसे ही भोग कहेंगे। जब भोजन करने बैठें तो सिर्फ दो काम कीजिए।

पहला, वर्तमान में टिक जाइए यानी भोजन की थाली से बिल्कुल बाहर न जाएं। दूसरा, जब अन्न अंदर जा रहा हो तब शून्य हों। शून्यता को भरने के लिए कोई मंत्र, भगवान का कोई नाम जपते रहें। अन्न का प्रत्येक कण मंत्र से जुड़ गया। भोजन की इस क्रिया को जितनी देर करेंगे, धीरे-धीरे आपको परिणाम में शांति मिलने लगेगी। इसके लिए अलग से कुछ नहीं करना है। बस, जो किया जा रहा है उसे व्यवस्थित करना है। इसे अन्न योग कहेंगे। खूब व्यस्तता हो तो भी बस पांच-दस मिनट ऐसे ही भोजन कीजिए। आप अन्न के साथ-साथ अपने शरीर का भी मान बढ़ाएंगे। अन्न का हर कण योग का माध्यम बन जाएगा। हम सब कहीं न कहीं शांति की तलाश में हैं। सोते हुए, उठते हुए और अब भोजन करते हुए हमने शांति प्राप्त की। चलिए, कल इस पर भी विचार करेंगे कि खाने के बाद जो पीना होता है वह हमें योग से कैसे जोड़ सकता है।


जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है.....मनीष

Friday, December 18, 2015

क्रोध ( Krodha)

गुस्से पर काबू चाहिए तो कभी खुद के लिए भी निकालें समय
इस दुनिया में अगर आग से भी तेज कुछ है तो वो है क्रोध। गुस्सा हमें नहीं, हमारे व्यक्तित्व को जलाता है। एक क्षण के आवेग में आदमी वो कर जाता है, जिसके बाद सिर्फ पछतावे के अलावा कुछ नहीं बचता। क्रोध एक क्षण में हावी होता है और दूसरे पल ही खत्म भी हो जाता है लेकिन कभी-कभी क्षणभर का गुस्सा भी सारी जिंदगी पर भारी पड़ जाता है।

आज के दौर में युवाओं के व्यक्तित्व में जो सबसे बड़ी कमी देखी जा रही है वो है सहनशीलता की। कोई भी जरा सा अपमान, थोड़ी सी असफलता, क्षणिक विपरीत परिस्थितियों से ही अपना आपा खो देता है। कई तो जान तक ले या दे देते हैं।

आखिर ऐसा क्या किया जाए कि अपने व्यवहार और व्यक्तित्व में सहनशीलता और गंभीरता आ जाए। निजी जीवन में व्यक्ति कई मामलों में अपनेआप से ही लड़ता दिखाई देता है। हमारे भीतर ही एक युद्ध चल रहा है। कुछ बुराइयां हैं जिन्हें हम लाख दबाने की कोशिश करते हैं लेकिन समय-असमय वे भीतर ही भीतर अपना सिर उठा ही लेती हैं।

आइए इसके समाधान पर चलते हैं। दरअसल ये हमारे व्यक्तित्व की कमजोरी और समझ की कमी के कारण हो रहा है। आज हम दुनियाभर से संपर्क में हैं, सोशल नेटवर्किंग पर भी पूरा ध्यान दे रहे हैं। हर एक मित्र से हर पल पूरे संपर्क में हैं लेकिन एक खास व्यक्तित्व जिसके पास भी हमें थोड़ी देर बैठना चाहिए, उसी के लिए समय नहीं निकाल पाते हैं। वो व्यक्तित्व है आप खुद। हम अपने ही पास रहना भूल जाते हैं। खुद के लिए थोड़ा भी समय नहीं है।

हमारे सारे पौराणिक पात्रों ने खुद के व्यक्तित्व पर खूब ध्यान दिया है। इसी कारण वे महान हुए। भगवान कृष्ण की दिनचर्या में चलते हैं। भगवान सुबह ब्रह्म मूहुर्त में जागते हैं। सुबह उठते ही वे सीधे बिस्तर से नहीं उतरते, बल्कि वहीं सुखासन लगाकर थोड़ी देर ध्यान करते। भगवान कहते हैं नींद से जागा इंसान अपने आप में नहीं होता, वो दूसरी ही दुनिया में होता है। नींद से जागते ही थोड़ी देर ध्यान लगाइए।

आप खुद में स्थिर होंगे। इससे व्यक्तित्व में गंभीरता आएगी, आप खुद के नियंत्रण में होंगे। इसी समय अपने पूरे दिन की प्लानिंग भी कर लें। आज क्या-क्या करना है। फिर स्नान के बाद भगवान संध्या पूजन करते हैं। ये परमशक्ति से जुडऩे का साधन है। ये आपको आत्म विश्वास भी देगा और आपके व्यक्तित्व में सौम्यता भी लाएगा। इससे आप अपने भीतर के क्रोध को नियंत्रित कर सकेंगे।

रिश्तों में एक पल की चूक भी दे सकती है भीषण परिणाम
परिवार में क्रोध का प्रवेश अहंकार के साथ होता है। पहले व्यक्ति में अहंकार आता है, पीछे से गुस्सा भी दबे कदमों से आता है। जब क्रोध और अहंकार परिवार में आते हैं तो परिणाम सिर्फ विघटन होता है। परिवारों के बिखरने का कारण कोई भी हो, उसके मूल में ये ही दो कारण होते हैं। हम जब भी घर में प्रवेश करते हैं तो अदृश्य रूप में कई तरह की बातें हमारे साथ प्रवेश करती हैं।

बाहरी बातों को अपने घर में ना लाएं। कई लोग अपने साथ दफ्तर घर तक ले आते हैं। कुछ लोग सिर्फ बाहरी तनाव तो कुछ व्यवसायिक सफलता का नशा लेकर घर में घुसते हैं। होना यह चाहिए कि हम सिर्फ खुद को लेकर ही आएं, बाहरी चीजें घर के बाहर ही छोड़ दें। परिवार में प्रेम आधार हो, ना कि संपत्ति। कई परिवार आज सिर्फ इस कारण जुड़े हुए हैं क्योंकि उनका आधार पुरखों की जायदाद है। भौतिक चीजें परिवार की डोर नहीं हो सकती। अगर साधनों से परिवार को बांधने की कोशिश करेंगे तो फिर सदस्यों में क्रोध को फूटने से कोई रोक नहीं सकता।

क्रोध का एक क्षण परिवार को बिखेर सकता है। परिवार में रिश्तों की मर्यादा और सम्मान जरूरी है। एक पल भी इसे खोया तो परिणाम भीषण हो सकता है। हंसी-मजाक में भी रिश्तों की मर्यादा ना लांघें। महाभारत का युद्ध एक क्षण के लिए भूली गई रिश्तों की मर्यादा का ही परिणाम था। इंद्रप्रस्थ में द्रौपदी ने देवर दुर्योधन को पानी में गिर जाने पर मजाक-मजाक में अंधे का बेटा अंधा कहा था। रिश्ते की मर्यादा टूटी। दुर्योधन क्रोध से आगबगुला हुआ। बदला लेने पर ऊतारू हुआ। परिणाम द्रौपदी का चीरहरण, पांडवों को वनवास, कुरूक्षेत्र में महाभारत का युद्ध। करोड़ों जानों की बलि।

परिवार में रहें तो रिश्तों का सम्मान करें। अहंकार, क्रोध, ईष्र्या इन बातों को घर में प्रवेश ही ना दें। तभी परिवार सुखी और समृद्ध होगा।

हर वक्त क्रोध, दबाव भी बिगाड़ सकता है परिणाम को..
कारपोरेट युग का सबसे बड़ा नुकसान यह हुआ कि आदमी सिर्फ रिजल्ट ओरिएंटेड हो गया है। परिणाम अपेक्षा के अनुरूप ना मिले, काम वक्त पर नहीं हुआ, बस यहीं से क्रोध हमारे काम में प्रवेश कर जाता है। हमेशा याद रहे बेहतर परिणाम बिना दबाव के किए काम में आता है। काम में दबाव हो लेकिन हमेशा याद रखें कि दबाव प्रेम का हो, उस दबाव में क्रोध शामिल ना रहे।

आजकल देखा जा रहा है कि दफ्तरों में काम का इतना दबाव बना दिया जाता है कि कर्मचारी नैराश्य में डूबने लगते हैं। हमारी जीवनचर्या में होना यह चाहिए कि हम अपने कार्य स्थल पर सबसे ज्यादा ठंडे दिमाग से काम करें। कारण यहां हमें उन लोगों का नेतृत्व करना होता है जिनसे हमारा सीधा कोई रिश्ता नहीं होता। परिवार में अनुशासन की आवश्यकता होती है। लेकिन लोग उल्टा जीवन जीते हैं। परिवार में अत्यधिक नरम रूख रखते हैं। परिणाम, परिवार का अनुशासन टूटने लगता है। और ऑफिस में पहुंचते ही बरसना शुरू कर देते हैं। कई बार तो हम बिना सोचे समझे किसी पर भी गुस्सा हो जाते हैं।

परिणाम कर्मचारी हमारे खिलाफ हो जाते हैं। कई लोग सिर्फ खुद पर ही भरोसा करते हैं। किसी और को नहीं सुनते। कोई हमें सलाह दे, हमें पसंद नहीं। याद रखें, छोटा कर्मचारी भी कोई बड़ी हितकारी सलाह दे सकता है। रावण को देखिए, वो किसी की नहीं सुनता था। सिर्फ खुद के निर्णय ही उसके लिए सर्वोपरि होते थे। विभीषण, माल्यवंत, शुक जैसे कितनों ने ही उसे समझाया कि राम से संधि कर लें लेकिन रावण को जो भी सलाह देता उसे वह निकाल देता या फिर जान से मार देता।

कभी अपने हितैषियों की नहीं सुनी। हम सिर्फ अहंकार में आकर क्रोध के वश में ना रहें। प्रेम से काम लें, सबकी सुनें, अच्छी सलाह को तवज्जों दें, तो फिर दफ्तर भी घर जैसा ही होगा।

जानिए, एक क्रोध आपको कितनी तरह की हानि पहुंचाता है
चलिए आज समझते हैं कि क्रोध आपकी कितनी निजी हानि करता है। कई लोगों का स्वभाव होता है बात बात पर उत्तेजित हो जाना। मर्यादाएं भूल जाना। किसी पर भी फूट पडऩा। ऐसे लोग अक्सर सिर्फ नुकसान ही उठाते हैं। खुद के स्वास्थ्य का भी, संबंधों का भी और छवि का भी। हमेशा ध्यान रखें अपनी छवि का।

लोग अक्सर अपनी छवि को लेकर लापरवाह होते हैं। हम जब भी परिवार में, समाज में होते हैं तो भूल जाते हैं कि हमारी इमेज क्या है और हम कैसा व्यवहार कर रहे हैं। निजी जीवन में तो और भी ज्यादा असावधान होते हैं। अच्छे-अच्छे लोगों का निजी जीवन संधाड़ मार रहा है।

अगर आप बार-बार गुस्सा करते हैं तो सबसे पहले जो चीज खोते हैं वह है आपके संबंध। क्रोध की आग सबसे पहले संबंधों को जलाती है। पुश्तों से चले आ रहे संबंध भी क्षणिक क्रोध की बलि चढ़ते देखे गए हैं। दूसरी चीज हमारे अपनों की हमारे प्रति निष्ठा। रिश्तों में दरार आए तो निष्ठा सबसे पहले दरकती है। फिर जाता है हमारा सम्मान।

अगर आप बार बार किसी पर क्रोध करते हैं तो आप उसकी नजर में अपना सम्मान भी गंवाते जा रहे हैं। इसके बाद बारी आती है अपनी विश्वसनीयता की। हम पर से लोगों का विश्वास उठता जाता है। फिर स्वभाव और स्वास्थ्य। कहने को लोग हमारे साथ दिखते हैं, लेकिन वास्तव में वे होते नहीं है।

समाधान में चलते हैं। हमेशा चेहरे पर मुस्कुराहट रखें। कोई भी बात हो, गहराई से उस पर सोचिए सिर्फ क्षणिक आवेग में अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त ना करें। सही समय का इंतजार करें। कृष्ण से सीखिए अपने स्वभाव में कैसे रहें। उन्होंने कभी भी क्षणिक आवेग में कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। हमेशा परिस्थिति को गंभीरता से देखते थे। शिशुपाल अपमान करता रहा लेकिन वे सही वक्त का इंतजार करते रहे। वक्त आने पर ही उन्होंने शिशुपाल को मारा।

अपनी दिनचर्या में मेडिटेशन को और चेहरे पर मुस्कुराहट को स्थान दें। ये दोनों चीजें आपके व्यक्तित्व में बड़ा परिवर्तन ला सकती हैं। कभी भी किसी भी स्थिति से निपटने के लिए आपको तैयार रखेगी।

परिवार के फैसलों में निजी हित को दूर रखें, बिखराव नहीं होगा
अक्सर लोग पारिवारिक जिम्मेदारियों को निभाने में एक बड़ी चूक कर जाते हैं। कुछ निर्णय ऐसे होते हैं जो परिवार के हित में होते हैं लेकिन कभी-कभी वे ही निर्णय निजी तौर पर हमें हानिकारक लगते हैं। बस यहीं से पारिवारिक जीवन में क्रोध शुरू हो जाता है। परिवार की जिम्मेदारियों पर निजी भावनाएं हावी हो जाती है और व्यक्ति कभी-कभी अपनों से ही विद्रोह कर बैठता है।

ऐसे समय में परिवार के मुखिया या बड़ों को चाहिए कि वे परिस्थितियों को बिगडऩे से रोकें। निर्णयों में परिवार को पहले देखेंए निजी हितों को बाद में। अपने से छोटों को समझाएं कि परिवार का कोई भी निर्णय निजी नहीं होता। जब तक हम परिवार के निर्णयों में निजी हित खोजते रहेंगे, वे फैसले हमें कचोटते ही रहेंगे।

एक कटु फैसला भी परिवार के टूटने का कारण बन सकता है। परिवार कोई एक आदमी नहीं चला सकता। परिवार पीढिय़ों से मिलकर बनता है, अक्सर यही होता है कि दो पीढिय़ों की विचारधारा कभी एक जैसी नहीं होती। बड़े जो फैसला करते हैं, उसके अनुशासन को छोटे अपने विररीत मानते हैं। बस यहीं से टकराव शुरू होता है। परिवार को संभालना भी हमारी जिम्मेदारी है।

अगर घर के बड़े स्थिति नहीं संभाल पाएं तो फिर दूसरी पीढ़ी के नेतृत्वकर्ताओं को अपने बड़ों के समर्थन में आना चाहिए। तभी परिवार बिखराव से बच सकता है। रामायण के प्रसंग में चलते हैं। राम को वनवास हो गया। सारे बड़े शोकमग्र हो गए। परिवार में भारी मतभेद हो गया। दशरथ अलग पड़ गए, कैकयी को भलाबुरा कहा जाने लगा। कौशल्या राम के साथ वन में जाने को तैयार हो गईं।

लक्ष्मण मरने-मारने पर ऊतारू हो गए। ये एक ऐसी घड़ी थी, जब पूरा रघुवंश बिखर सकता था। परिवार में फूट हो जाती। लेकिन ऐसी घड़ी में राम आगे आए। परिस्थितियों को अपने हाथों में लिया। लक्ष्मण को समझाया, सभी बड़ों को दिलासा दिया। वनवास के निर्णय पर खुद को शोक नहीं है, भरोसा दिलाया। हमेशा परिवार में लिए गए निर्णय में परिवार को हित पहले देखें। कोशिश करें, परिवार ना बिखरे। क्योंकि परिवार से बढ़कर कोई दूसरी सम्पदा नहीं होती।

व्यवसाय और परिवार दो जीवन हैं, इन्हें अलग-अलग ही जीएं
आप काम कोई भी करते हों, लेकिन उसे घर से बाहर ही रखें। जो लोग काम का तनाव घर ले आते हैं, वे अपने रिश्तों को बाजार में आने का निमंत्रण देते हैं। कई लोगों के साथ अक्सर एक बात होती है। दफ्तर के काम में जो गड़बड़ी होती है, उसका गुस्सा घरवाले झेलते हैं, घरेलू रिश्तों के तनाव में ऑफिस के सहयोगी दबाए जाते हैं। हम हमेशा दोहरी जिंदगी जीते हैं। घर में कामकाजी और कामकाज में घरेलू।

क्रोध को समाप्त करना है तो अपने दोनों जीवनों को अलग कर लें। ये मान लें आपकी दो जिंदगियां हैं। एक दफ्तर में, दूसरी घर। और दोनों ही आपको अलग-अलग जीनी है। एक साथ जीने का प्रयास करेंगे तो दोनों ही का रस और आनंद खराब करेंगे। कई लोग इसे एक नामुमकिन सा काम मानते हैं लेकिन जब आप इसका अभ्यास करेंगे तो यह अपने आप आपके स्वभाव में उतर जाएगा।

हम अक्सर असफलताओं से डरने लगते हैं। नतीजा हमारी सोच ज्यादा-से-ज्यादा काम करने और दूसरों से भी ज्यादा काम कराने की हो जाती है। थोड़ा भी लाभ कम हुआ तो कर्मचारियों की शामत आ जाती है। हमारे हर काम में क्रोध झलकने लगता है। हम अवसाद जैसी स्थिति में आ जाते हैं।

आइए, महाभारत के इंद्रप्रस्थ चलते हैं। सम्राट युधिष्ठिर के राज्य में। देखिए कितनी सुंदर व्यवस्था है। पांच भाई, राज्य चला रहे हैं। पांचों एक पत्नी से बंधे हैं। लेकिन ना राज्य के लिए विवाद है, ना ही स्त्री के लिए।

दरअसल धर्म के ज्ञाता युधिष्ठिर ने अपने राजकीय जीवन और पारिवारिक जीवन दोनों की व्यवस्था ऐसी की है कि इनका आपस में टकराव नहीं होता। राज्य और परिवार दोनों ही मामलों में कोई भी भाई असंतुष्ट नहीं है। युधिष्ठिर ने राज्य के कामों की देखभाल भी भाइयों को सौंप रखी थी। लेकिन वहां राज्य की बातें दरबार में ही होती थीं। जब पांचों भाई परिवार के रूप में साथ बैठते तो फिर धर्म, ज्ञान जैसे विषयों पर चर्चा होती। राजकाज की बातों को वहां प्रवेश नहीं दिया जाता।

काम के साथ क्रोध का हो संगम तो विनाश तय समझिए
परिवार से चार चीजें हमेशा दूर रखें, काम, क्रोध, मद और लोभ। ये चार विकार जहां भी एकजुट हुए हैं, वहां विनाश किया है। इन चारों में से एक दो भी अगर परिवार में प्रवेश पा जाएं, तो दिलों के रिश्ते टूटकर बिखरने में देर नहीं लगती। परिवार वो ही सुखी है जहां ज्ञान, धर्म, कर्म और गुणों का आवास हो। जब भी परिवार में बैठेंं, हमेशा याद रखें, चर्चा इन्हीं बिंदुओं पर हो।

जब तक परिवार में ज्ञान, धर्म, गुण और कर्म का आधार होगा, यह अविचलित खड़ा रहेगा और कितनी भी विपरित परिस्थितियों से भी भिड़ जाएगा। लेकिन चार अवगुणों में से एक दो ने भी प्रवेश कर लिया तो फिर सब खत्म होने में देर नहीं लगेगी।

परिवार में काम का प्रवेश पहले होता है, दाम्पत्य शुरू होते ही काम का संचार रिश्तों में होता है। अगर यह सिर पर हावी हो जाए तो क्रोध के आने में देर नहीं होगी। जिन पति-पत्नियों का रिश्ता काम पर ही टिका हो, उनका दाम्पत्य कभी शांत और आनंददायक नहीं होगा। काम का सबसे बड़ा मित्र है क्रोध। जैसे ही काम असंतोष की दहलीज पर आता है, तो क्रोध में बदल जाता है। पति, पत्नी की बात नहीं मानें तो पत्नी गुस्सा करती है, कामातुर पति पत्नी की हर मांग मानने पर मजबूर हो जाता है।

रामायण के अयोध्या कांड के इस घटनाक्रम को देखें। काम और क्रोध ने मिलकर कैसे रघुवंश को बिखराव की चौखट पर लाकर पटक दिया। दशरथ ने राम को युवराज घोषित किया। कैकयी क्रोधित हुई। दशरथ की सबसे प्रिय रानी थी कैकयी, सबसे सुंदर। राजा उसे किसी परिस्थिति में दु:खी नहीं देख सकते थे। कोपभवन में उसे सिंगार विहीन देखा तो दशरथ भीतर से कांप गए। क्योंकि वे कैकयी के प्रति कामासक्त थे। कैकयी के साथ क्रोध रघुवंश में प्रवेश कर गया, दशरथ के साथ काम का आगमन हुआ। फिर जो हुआ वो सब जानते हैं। राम 14 वर्ष के लिए वनवास पर गए।

परिवार में क्रोध और काम इन दोनों को प्रवेश ना दें। परमात्मा के हाथ में परिवार सौंप दें। अपनी मर्यादाएं स्वयं तय करें। तभी परिवार सुरक्षित रहेगा।

क्या करें अगर गुस्सा आपका स्वभाव बनता जा रहा है?
अक्सर बाहरी दुनिया में किया गया अभिनय जैसा व्यवहार हमारे स्वभाव में उतरने लगता है। लोग दुनिया के सामने कुछ और होते हैं और अपने भीतर कुछ और। कई बार बाहरी दुनिया का तनाव हमारे भीतर तक उतर आता है। हमारा मूल स्वभाव कहीं खो जाता है। हम अपनेआप में नहीं रहते।

कई लोग गुस्से का अभिनय करते हैं, दफ्रतर में, मित्रों में या सहयोगियोयं में लेकिन वो गुस्सा कब खुद उनका स्वभाव बन जाता है वे समझ नहीं पाते। समय गुजरने के साथ ही व्यवहार बदलने लगता है। हमेशा प्रयास करें कि दुनियादारी की बातों में आपका अपना स्वभाव कहीं छूट ना जाए। आप जैसे हैं, अपनेआप को वैसा ही कैसे रखें, इस बात को समझने के लिए थोड़ा ध्यान में उतरना होगा।

हम कभी-कभी क्रोध करते हैं लेकिन क्रोध हमारा मूल स्वभाव नहीं है। क्या किया जाए कि बाहरी अभिनय हमारे भीतरी स्वभाव पर हावी ना हो। क्रोध पहले व्यवहार में आता है फिर हमारा स्वभाव बन जाता है। क्रोध स्वभाव में आया तो सबसे पहले वो हमारी सोच को खत्म करता है, फिर संवेदनाओं को मारता है। संवेदनाहीन मानव पशुवत हो जाता है।

आइए, इस क्रोध को अपने स्वभाव में उतरने से कैसे रोका जाए, इस पर चर्चा करते हैं। बाहरी दुनिया को बाहर ही रहने दें। बाहरी दुनिया और भीतरी संसार के बीच थोड़ा अंतर होना चाहिए। ये अंतर लाने का सबसे सरल तरीका है, ध्यान। थोड़ा मेडिटेशन रोज करें। अपने परिवार के साथ समय बिताएं। थोड़ा समय खुद के लिए निकालें। एकांत में बैठें। किसी मंदिर या प्राकृतिक स्थान के निकट बैठें।

श्रीकृष्ण को देखिए, संसार भर के काम किए लेकिन खुद के लिए समय निकालते हैं। गोकुल या वृंदावन में जब रहे, थोड़ा समय खुद को जरूर देते। अकेले वन में या यमुना किनारे बैठकर बांसुरी बजाते हैं। संगीत हमारी संवेदनाओं को सिंचता है। ध्यान उन्हें दृढ़ बनाता है। एकांत उन्हें नवजीवन देता है। हम जब खुद को समय देंगे, खुद पर ध्यान देंगे तो फिर संसार का बाहरी आवरण, बाहर ही रहेगा। आप भीतर से वो ही रहेंगे जो आप हैं।

अगर गुस्सा हावी हो तो उसे कैसे बनाया जाए अपने लिए प्रेरणा?
हमारे मन का कोई भी भाव हो, उसके कई रूप और कई उपयोग हो सकते हैं। कोशिश करें अपने मन के भावों को दबाने के बजाय उनका रूख मोड़ दिया जाए। थोड़े से प्रयास से हम अपने जीवन की दिशा बदल सकते हैं। हमारे भीतर जो भाव सबसे ज्यादा आते हैं, उनमें क्रोध अव्वल है। अपने क्रोध को पालना सीखिए, उसे दिशा दीजिए, फिर आपके काम में धार भी होगी और काम में सफलता भी ज्यादा मिलेगी।

जो लोग छोटी-छोटी बातों पर उबल पड़ते हैं, वे सिर्फ खुद का नुकसान करते हैं। क्रोध को उसी समय प्रकट ना करें, उसे संभालें। जब क्रोध आए तो उसे दबाए नहीं, उसका रूख मोड़ दें। आप अपने भीतर किसी भी भाव को दबाएं, वो थोड़े दिन में कुंठा का रूप ले लेगा। कुंठा हमें भीतर से काटती है, कचोटती है लेकिन आगे नहीं बढऩे देती है।

क्रोध को कैसे पाला जाए, कैसे उसका रूख मोड़ा जाए ये भगवान कृष्ण सिखाते हैं। भगवान ने अपने क्रोध को किस तरह अपनी प्रेरणा बनाया। प्रसंग है जब भगवान कृष्ण ने अपने मामा कंस को मार दिया, अपने नाना को फिर राजपाठ सौंप दिया। जरासंघ कंस का ससुर था, वो कृष्ण से कंस की मौत का बदला लेना चाहता था। उसने मथुरा पर हमला किया। बलराम सहित भगवान के अन्य सहयोगी काफी क्रोधित हो गए और उन्होंने जरासंघ से युद्ध करने का निर्णय लिया।

भगवान कृष्ण ने अपने क्रोध को संभाला, उन्होंने बलराम और मथुरावासियों को समझाया कि जरासंघ को तो कभी भी मारा जा सकता है, मैं उसे मार भी दूंगा लेकिन अभी जरूरी है सबकी सुरक्षा। उन्होंने अपने क्रोध को रचनात्मक मोड़ दे दिया और मथुरा को छोड़ गए दूसरी सुंदर नगरी बसा ली, जिसका नाम था द्वारिका। कृष्ण के निर्णय से दुखी सारे मथुरावासियों को बाद में समझ आया कि अगर युद्ध किया जाता तो हजारों लोग मारे जाते। बहुत खून बहता और जरासंघ अगर मारा भी जाता तो बाद में कोई और राक्षस मथुरा पर आक्रमण कर देता। हिंसा नहीं रुकती।

जब भी आप पर किसी परिस्थिति में क्रोध हावी हो तो उस परिस्थिति के विकल्प पर विचार करें। तत्काल क्रोध प्रकट करने या क्रोध के अधीन होकर कोई कदम उठाने से दूरगामी परिणाम ऐसे हो सकते हैं जिस पर हमें पछताना पड़े।


क्रोध को कैसे जीता जाय
जैसे अपने शत्रु पर विजय प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक है कि हम उसकी शक्ति का पहले अन्दाजा लगा लें, और यह समझ लें कि उसकी शक्ति का उद्गम क्या है, वैसे ही हमें यह समझ लेना चाहिये क्रोध पैदा क्यों होता है। इतना समझ लेने के बाद, क्रोध को पचा लेने की शक्ति मनुष्य प्राप्त कर सकता है।

ध्यायतो विषयान्पुँसः संगस्तेषूपायते,
संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोभिजायते॥
(गीता अध्याय 2 श्लोक 62)

उक्त पंक्तियों में क्रोध की उत्पत्ति पर प्रकाश डाला गया है। मनुष्य की इन्द्रियों के विषय हैं- सौंदर्य, स्वाद, मधुर शब्द, कोमल स्पर्श आदि। मनुष्य सुन्दर वस्तुओं को देखने, अच्छे-अच्छे भोजन और रसों का स्वाद लेने, संगीत के जैसे कर्ण प्रिय स्वरों को सुनने आदि की चिंता करता है। यह तो स्वाभाविक ही है किन्तु खतरा यह है कि उनके संबंध में सोचते वह इतना आदी हो जाता है कि वह उनके पाने की इच्छा करने लगता है। उनके बिना वह रह नहीं सकता, बस यही क्रोध का कारण है, क्योंकि उन सब चीजों की प्राप्ति अपने वश की बात नहीं है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि क्रोध का सबसे बड़ा कारण है किसी से अत्यधिक इच्छा करना। आप अपने मित्र, पुत्र या पत्नी से इसीलिए नाराज होते हैं कि उसने आपकी इच्छानुसार कार्य नहीं किया। इच्छा करना बुरी चीज नहीं है, किन्तु जब हम किसी के ऊपर आवश्यकता से अधिक आशाएं बाँध लेते हैं और अपनी स्वार्थ सिद्धि का आधार समझ बैठते हैं, तभी क्रोध को मानो न्योता दे देते हैं। कोई व्यक्ति हमारी या आपकी इच्छाओं का पालन, मशीन की तरह नहीं कर सकता है। उसकी भी इच्छाएं हैं, जब पहले उसकी इच्छाएं पूरी हो जाएगी तभी वह आपकी तरफ ध्यान देगा। इसलिए क्रोध के विजय के मार्ग में सबसे क्षीण पहला कदम यह होगा कि हमें किसी से अंधाधुन्ध आशाएं नहीं करनी चाहिये। किन्तु यह केवल रक्षात्मक कार्य हैं। क्रोध पर पूरी तरह विजय प्राप्त करने के लिए किसी से कुछ कार्य सिद्धि की अभिलाषा करने के स्थान पर, यदि हम यह सोचना बल्कि करना आरम्भ कर दें कि हमें अपने मित्रों और प्रेमियों की सेवा करनी है। इस प्रकार की मनोवृत्ति उत्पन्न हो जाने पर क्रोध की कोई गुंजाइश न रहेगी।

अपनी ओर से तो क्रोध पैदा न होने देने का प्रबन्ध मनुष्य उपर्युक्त विधि से चाहे कर ले किन्तु उस स्थिति में क्या होगा जब दूसरे हमारा अपमान करते हैं, या हमें हानि पहुँचाते हैं। मनुष्य सामाजिक प्राणी है, और हमारे आस-पास के जितने आदमी होते हैं वे प्रायः स्वार्थी ही होते हैं। जब एक की हानि होगी तभी दूसरे का लाभ होगा। ऐसी दशा में हानि पहुँचाने वाले के प्रति क्रोध कैसे न होने दिया जाय। इस सम्बन्ध में हमें उदारवृत्ति का अनुगमन करना चाहिए। जब संसार स्वार्थमय है और इसका प्रत्येक व्यक्ति दूसरे से कुछ लेकर या छीन कर ही अपनी स्वार्थ लिप्सा पूरी करता है, तो उस पर क्रोधित होने का कोई कारण नहीं है। दुनिया के इस रवैये को समझ लेने के बाद क्रोध न आना चाहिए। अपना कर्त्तव्य यही है कि हम अपनी हानि को पूरी करें और उससे हमेशा बचते रहें।

लाभ-हानि के क्षेत्र के बाहर भी कुछ काम ऐसे होते हैं जिनसे दूसरे लोग हमें व्यर्थ में हानि पहुँचाते हैं या कभी-कभी ऐसा हो जाता है कि अनजाने में दूसरों के द्वारा कुछ काम ऐसे हो जाते हैं जिसके कारण हमें क्रोध हो सकता है, जैसे कि आपकी पत्नी या पुत्र से असावधानी के कारण आपका गिलास या कलम टूट जाय। कभी-कभी कोई ऐसे नौकर मिल जाते हैं कि आप कहते हैं कि बाजार से आम ले आओ, वह ले आता है नींबू। इसी तरह मान लीजिये किसी ने आपके बच्चे को मार दिया, आपको क्रोध आ जाता है। इस प्रकार के छोटे-छोटे कारणों से क्रोध आता है। ऐसी स्थिति में क्या करना चाहिए। महात्मा गाँधी ने बताया है कि जब क्रोध आये तो हमें उस समय कोई काम ही न करना चाहिए। क्रोध की दशा स्थायी नहीं होती। थोड़ी देर तक ही मनुष्य हिताहित ज्ञान शून्य हो सकता है, बाद में विचार शक्ति काम करने लगती है और मनुष्य का क्रोध कम हो जाता है।

करीब-करीब इसी सिद्धान्त का अनुसरण अब्राहम लिंकन ने भी अनेक अवसरों पर किया था। एक बार उसकी सेना के एक बड़े उच्च पदाधिकारी ने उसके बताये गये युद्ध सम्बन्धी अनुशासन को नहीं माना, फलतः बड़ी हानि उठानी पड़ी। यह सुनकर उसे बड़ा क्रोध आया। उसने उस पदाधिकारी के नाम एक कड़ा पत्र लिखा, किन्तु लिखने में विचार शक्ति से काम लेना पड़ता है। परिणाम यह हुआ कि उसका क्रोध ठंडा हो गया और वह पत्र भेजा नहीं गया। मनोवैज्ञानिकों का कथन है कि मानसिक आवेग में लिखना उसकी तीव्रता को कम कर देता है।

इसी प्रकार हमारे देश में प्रचलित एक किंवदंती भी है जिसमें बताया गया है कि क्रोध की दवा क्या है? एक मनुष्य को बहुत क्रोध आता था, एक वैध से उसने इसकी दवा पूछी। वैद्य ने खाली पानी एक बोतल में भर कर उसे दे दिया और कहा कि जब क्रोध आये तो यह दवा मुँह में भर लो और भरे रहो, थोड़ी देर में तुम्हारा क्रोध कम हो जायेगा। तात्पर्य यह कि जब क्रोध आ जाय तो अपने को रोक कर किसी काम में लग जाने पर क्रोध कम हो जाता है।

मनुष्य जो कुछ दूसरों का अपराध कर बैठते हैं, वह उनके स्वभाव की निर्बलता है, यह सोचने और इस पर ध्यान देने से क्रोध बिल्कुल आता ही नहीं। अगर मनुष्य यह समझ ले कि अपराधी अज्ञान में अपराध करता है, तो क्रोध आये ही नहीं। महान् पुरुषों ने इसी तत्व को हृदयंगम करके ही क्रोध पर विजय प्राप्त की है। ईसा मसीह को जिन लोगों ने उन्हें सूली पर चढ़ाया, उन पर क्रोध करने की अपेक्षा, उनकी अज्ञानता के प्रति उन्हें दया थी। कृष्ण को जब बहेलिए ने अज्ञान वश बाण से बेध दिया तो अपने हत्यारे को देख कर वे केवल मुस्कराये थे और बोले कि इसमें तुम्हारा क्या दोष, यह तो होनहार ही था।

संसार प्रसिद्ध वैज्ञानिक सर आइजक न्यूटन ने जीवन भर किसी विषय पर बड़े परिश्रम से खोज की थी। उन गवेषणाओं पर टीका-टिप्पणी करके उसने तमाम कागजात एक मेज पर रखे थे। एक दिन वह अपनी अध्ययनशाला में बैठे पढ़ रहे थे कि उसका कुत्ता डायमंड एकदम उचका और जलते हुए लैम्प को गिरा दिया। पलभर में सारे मूल्यवान कागज जलकर भस्म हो गये। जीवन भर का परिश्रम कुत्ते ने नष्ट कर दिया पर न्यूटन शान्त रहे। क्रोध पर उसकी विजय बेमिसाल विजय थी, उसका हृदय भारी था, उसने कुत्ते के सर पर हाथ फेरते हुए उसने कहा- डायमंड, डायमंड, तुम क्या जानो, तुमने क्या कर डाला।उसकी जगह पर शायद कोई दूसरा होता तो क्रोध में अंधा होकर कुत्ते को गोली ही मार देता। इन महान व्यक्तियों ने क्रोध पर इसीलिए विजय पाई थी कि वे अपराधी का अपराध को कारण न मानकर, उसकी अज्ञानता को कारण मानते थे। गाँधी जी कहा करते थे- अपराध से घृणा करो अपराधी से नहीं।

क्रोधकी उत्पत्ति संकीर्ण हृदय में होती है। जिसके विचार इतने संकुचित हैं कि वह अपने दृष्टिकोण को छोड़ कर दूसरों के विचारों के प्रति आदर नहीं रखता, वह पग-पग पर क्रोध करता चलता है। इसी तरह रूढ़िवादिता भी क्रोध की जड़ है। किसी धर्म के प्रति किसी रीति या परम्परा के प्रति आस्था रखना बुरी बात नहीं है, पर किसी अपने से भिन्न विचारों के प्रति, घृणा करना बुरी बात है। बहुत से वृद्ध, नौजवानों से इसीलिए क्रोधित हो जाते हैं कि नये ढंग से कपड़े पहनते हैं, पुराने रीति-रिवाजों को नहीं मानते। यह ठीक है कि बहुत सी बातें आधुनिक जीवन प्रणाली में बुरी भी हैं, पर हमें यह न भूल जाना चाहिए कि समय बदला करता है, जिस संस्कृति के आप पक्षपाती हैं, किसी समय में वह भी इसी तरह नयी रही होगी। मनुष्य को हमेशा प्रगतिशील होना चाहिए। परिवर्तनों और नवीन व्यवस्थाओं से घृणा या क्रोध करके कोई लाभ नहीं होता है। समय बदलता ही है, इस पर ध्यान रखने से क्रोध नहीं आ सकता।

क्रोध पर विजय प्राप्त करने का सबसे उत्तम उपाय है, अपने में न्याय की प्रवृत्ति का पैदा कर लेना। मनुष्य के अनेक कार्य उनमें से किसी की हानि या अपकार या अपराध कर डालने वाले काम उसके खुद के द्वारा नहीं होते। कभी-2 परिस्थितियाँ ऐसी आ जाती हैं कि मनुष्य ऐसे काम करने को मजबूर हो जाता है। ऐसे कामों में आत्म-हत्या, चोरी, व्यभिचार, डाका और कत्ल जैसे जघन्य अपराध भी शामिल हैं। यद्यपि यह ठीक है कि कुछ ऐसे मनुष्य भी हैं जो जान बूझ कर ऐसे अपराध करते हैं परन्तु उनकी संख्या अधिक नहीं है। अधिकतर मनुष्य ऐसे गुरु अपराध भावावेश या परिस्थितियों के कारण कर डालते हैं।

अब मनोवैज्ञानिक खोजों के आधार पर यह बात सिद्ध भी हो गई है। इसलिए जेलखानों में अपराधियों की मानसिक स्थिति को समझना और उनका सुधार करना राज्य का एक कर्त्तव्य बन गया है। इसी सत्य का पालन हम अपने व्यक्तिगत जीवन में कर सकते हैं यदि किसी मित्र, सम्बन्धी या पास पड़ोसी ने अपमान या अपकार भी कर डाला हो, तो हमें उसके प्रति न्याय करना चाहिए और वह न्याय कैसे हो? यदि हम अपने को अपराधी की परिस्थितियों में रख दें और सोचें कि उन अमुक परिस्थितियों में हम क्या करते? तो यह समझ में आ जायगा कि हमारा भी काम शायद वैसा ही होता जैसा कि अपराधी कर चुका है। बस यह विचार आते ही अपराधी के प्रति क्रोध न आकर इसमें सहानुभूति पैदा हो जाती है और क्षमा भाव जाग्रत हो उठता है।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है.....मनीष

Tuesday, December 8, 2015

ब्रह्म और तन्त्र (Bharma and Tantra)

ब्रह्म और तन्त्र
ब्रह्म-ज्ञान और तन्त्र का साथ अनादि काल से रहा है। सही मायने में यह दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। लेकिन कलियुग में ब्रह्म-ज्ञान और तन्त्र को अलग-अलग कर दिया गया है। कलयुग में तन्त्र का इतना वीभत्स स्वरूप आम व्यक्ति को दिखाया गया कि वह तन्त्र और तान्त्रिक के नाम मात्र से डरने लगा। तन्त्र का वह काला पन्ना जो की दुश्मनों के लिऐ या दुष्टों के सर्वनाश के लिऐ तान्त्रिक इस्तेमाल करते थे, कलियुग में धन के लोभी उसी काले तन्त्र को आम व्यक्ति पर इस्तेमाल करने लगे। विधि के विधान का निरादर करने वाले इन लोभी तांत्रिकों का इतना भयावह अन्त होता है, कि इनकी मृत्यु के उपरान्त इनका कोई नाम लेवा तक नहीं बचता। किन्तु जो सतपुरूष होते है, वह तन्त्र का सही इस्तेमाल करते हुऐ या उचित प्रयोग करते हुऐ उसके द्वारा ब्रह्म को प्राप्त होते है और ऐसे तांत्रिक ब्रह्म-ज्ञानियों का नाम इतिहास में सुनहरे अक्षरों में लिखा जाता है। अगर हम ध्यान-पुर्वक इतिहास का अध्ययन करे तो हमें पता चलेगा की अनुचित प्रयोग करने वालों और उचित प्रयोग करने वालों का कैसा अन्त हुआ।

अगर बात करे त्रेता-युग की तो रावण, कुम्भकर्ण, मेघनाथ तीनो ही तंत्र के ज्ञाता थे एवं तीनों ही उस ब्रह्म को समझने और जानने वाले थे। कोई माने या न माने लेकिन सही मायने में ये तीनों महान विद्वान पंडित थे। लेकिन तन्त्र का अनुचित प्रयोग करने के कारण ही ये असमय मृत्यु को प्राप्त हुऐ। लेकिन रावण को मारने के कारण ही जो ब्रह्म-हत्या का दोष भगवान राम पर लगा, उसके प्रायश्चित स्वरूप उन्होने अश्वमेध यज्ञ करवाया। लेकिन आज अनेकों मूढ़-मति रावण, मेघनाथ और कुम्भकर्ण के पुतले जलाते है। सोचिये इन का क्या होगा। भगवान राम ने तो रावण को मार कर अश्वमेध यज्ञ करके अपना प्रायश्चित पूरा किया, किन्तु कलयुग में रावण का पुतला जलाने वाले, जो की कोई भी प्रायश्चित नही करते, इनका क्या परिणाम होगा। यह तो विधि ही जानती है, कि तन के पाप से बड़ा मन का पाप होता है। जिस रावण ने जो गुनाह किया था। उसकी सजा विधि के अनुसार उसे प्राप्त हुई, लेकिन आज हम काल्पनिक रूप में पुतले बना कर जलाते है।

जिसका की हमें कोई अधिकार नहीं है। कोई भी धर्म या कोई भी मत गुनहगार को उसके किये हुऐ गुनाह की सजा एक बार देता है, न की बार-बार। जबकि हम तो रावण को जला कर हर साल गुनाह करते है, तो क्या हम इसकी सजा से बच पायेंगे। हमारे अन्दर जो मन, बुद्धि और आत्मा है। उसका हम सही इस्तेमाल ही नहीं करते। अगर हम मन बुद्धि और आत्मा का सही प्रयोग करें तो हम से कभी भी जाने-अनजाने, तन या मन का गुनाह नहीं होगा। तंत्र का प्रयोग करके जो गुनाह रावण ने किया। विधि ने समय के अनुसार उसको सजा दी। लेकिन रावण को जला कर जो गुनाह हम साल कर रहें है। सोचिये विधि उसकी कितनी भयावह सजा हमें देगी। हमारे कहने का तात्पर्य यही है, कि अगर कोई भी व्यक्ति तंत्र का दुर-उपयोग करता है, तो वह विधि के विधान से बच नहीं सकता। समय अनुसार उसको सजा अवश्य मिलेगी।

अब हम द्वापर युग कि बात करते हैं। द्वापर युग में कंस, तन्त्र का सम्राट बना और उसी तन्त्र के बल पर उसने अपनी मृत्यु को टालना चाहा। जब उसे ज्ञात हुआ की, देवकी का 8वाँ पुत्र उसकी मृत्यु का कारण बनेगा तो उस ने तन्त्र का दुरुपयोग प्रारम्भ कर दिया। अपने तन्त्र के प्रयोग से कंस ने भगवान श्रीकृष्ण जी को मारने की भरसक कोशिश की, किन्तु होता वही है जो विधि के विधान में लिखा है। भगवान श्रीकृष्ण जी की ब्रह्म-विद्या के सामने कंस की तन्त्र विद्या हार गई और वह मृत्यु को प्राप्त हुआ। भगवान श्रीकृष्ण जी भी स्वयं एक सिद्ध तांत्रिक थे। अनेकों ही व्यक्ति इस बात को नहीं मानते। हम जो भी समझते हैं, इस सब के पीछे हमारी चेतना हमारी श्रद्धा, हमारा विश्वास और हमारी आत्म-ज्योती काम करती है।

आज जितने भी धर्म-ग्रन्थ हमारे पास है। वह सभी दो से तीन हजार वर्ष तक के है। जब भगवान राम या भगवान श्रीकृष्ण जी का जन्म हुआ उस वक्त का प्रमाणिक ग्रन्थ कोई भी नहीं है। समय के अनुसार जिस कि मन बुद्धि ने जो कहा उसने अपने समय के अनुसार फेर बदल कर दिया। ग्रन्थों का अध्ययन करने के लिऐ हमें मन और श्रद्धा की नहीं, बल्कि विवेक-बुद्धि की आवश्यकता है। जब तक हम ग्रन्थों पर आँखें मूदँ कर विश्वास करते जायेंगे, तब तक हमें कुछ भी प्राप्त नहीं होगा। हमें आवश्यकता है, कि हम अपनी बुद्धि को हंस के समान बनाये, जो की पानी मिश्रित दूध में से, सिर्फ दूध को पी ले और पानी छोड़े दे। जब हमारी बुद्धि हंस के समान हो जायेगी और उसके पश्चात ग्रन्थों का अध्ययन करेंगे तो हमें पता चलेगा की भगवान श्रीकृष्ण जी एक सिद्ध तांत्रिक थे।

सबसे बड़ा उदाहरण भगवान श्रीकृष्ण जी द्वारा की गई रास लीला थी। इसी का बिगड़ा हुआ रूप भैरवी-साधना या भैरवी-चक्र है। भगवान श्रीकृष्ण जी द्वारा की गई लीला को सिर्फ लीला मात्र मानने से ब्रह्म की प्राप्ति नहीं होगी, बल्कि उस लीला के पीछे जो सार तत्त्व व सिद्धि का रहस्य छिपा हुआ है, उसे समझना होगा। जैसे कि भगवान श्रीकृष्ण जी द्वारा इन्द्र की पूजा को रोकना एवं गोवर्धन पूजा करवाने के पीछे जो सार तत्त्व था, वह यही था कि देवताओं की प्रार्थना करने से हमें कुछ भी प्राप्त नहीं होगा अपितु गोवर्धन पर्वत के ऊपर जो दुर्लभ जड़ी-बुटियाँ एवं पशुओं के लिऐ चारा है, उसके प्रति अपनी श्रद्धा को व्यक्त करना चाहिऐ। प्रत्येक व्यक्ति का यह कर्तव्य है, कि हमें जहाँ से जो भी मिले, तो देने वाले के प्रति, हमें आदर भाव रखना चाहिऐ।

भगवान श्रीकृष्ण जी गोवर्धन की तरफ सकेंत करते हुऐ, हम सब को यही समझाने का प्रयास कर रहें है। उस समय में भी उन्होने गोकुल वासियों को यही समझाया, की जिस गोर्वधन पर्वत से तुम्हारी दैनिक आवश्यक्ताऐं पूरी होती है, उसके प्रति अपना आदर प्रकट करो। लेकिन आज अनेकों ही व्यक्ति उस पुरानी परम्परा को न समझ कर, गोवर्धन की पूजा एवं परिक्रमा करते है और यही समझते हैं कि इस प्रकार हमें वैकुंठ या मोक्ष की प्राप्ति हो जायेगी। किसी के प्रति आदर भाव या श्रद्धा रखना अलग बात है और मोक्ष की प्राप्ति अलग बात है। तुम चाहें जितनी परिक्रमा कर लो और चाहे जितनी पत्थर पूजा। तुम्हारा मन करे तो 56 भोग लगा लो, किन्तु इससे ब्रह्म-ज्ञान या मोक्ष की प्राप्ति नहीं होगी।

इसलिऐ भगवान श्रीकृष्ण जी ने भी गीता में कहा है, कि जो मुझ परमात्मा तत्त्व को (बल्कि मुझ कृष्ण को नहीं) पूजेगा, उसे ही परमात्मा की प्राप्ति होगी। हमें तन्त्र और ब्रह्म में भेद समझना होगा। गीता के अन्दर जो उद्-घोष है या यूँ कहे की सम्पूर्ण गीता ब्रह्म-ज्ञान है, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण जी के अलावा अनेकों ही और भी तान्त्रिक हुऐ, जिनमें बर्बरीक का नाम भी इतिहास में सुनहरे अक्षरों में लिखा है। बर्बरीक- माँ कामाख्या देवी का परम उपासक एवं सिद्ध तान्त्रिक था। उसके पास ऐसे बाण थे, की वह चाहता तो एक बाण चला कर ही सम्पूर्ण कौरव सेना को समाप्त कर सकता था, किन्तु विधि के विधान के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण जी ने उसे ऐसा करने से मना किया और कलियुग में वही ‘बर्बरीक’- ‘खाटू श्याम बाबा’ के नाम से जाना जाता है। इसी प्रकार कलियुग में भी अनेकों ही सिद्ध तान्त्रिक पैदा हुऐ जो कि ब्रह्म को मानने वाले थे, जैसे की 9 नाथ 84 सिद्ध। लगभग 2,500 वर्ष पूर्व माहात्मा बुद्ध हुऐ, जो की एक सिद्ध तान्त्रिक के साथ-साथ ब्रह्म-ज्ञानी भी थे। बौद्ध धर्म की दो शाखाऐं बनी, एक महायान और दूसरी हीनयान। बौद्ध धर्म में नील-तारा तन्त्र की देवी है। अनेकों ही बौद्ध भिक्षु आज भी माहात्मा बुद्ध के साथ-साथ तन्त्र की देवी नील-तारा की उपासना करते है। माहात्मा बुद्ध के समय में ही जैन धर्म प्रकाश में आया। आज भी हजारों जैनी, जैन धर्म में स्थित तन्त्र की देवी पद्मावती, चक्रेश्वरी एवं क्षेत्रपाल देवता की पूजा करते है। जैन धर्म में स्वप्न सिद्धि के लिऐ या भूत, भविष्य, वर्तमान जानने के लिऐ, जैन धर्म में स्थित तन्त्र की देवी चक्रेश्वरी देवी की साधना होती है।

हिन्दु धर्म में भी तन्त्र और ब्रह्म की एकता कलियुग में अनेकों जगह देखने को मिलती है, उदाहरण स्वरूप 9 नाथ और 84 सिद्ध। अनेकों ही हिन्दू आज भी अपनें घरों में नौ नाथों में से बाबा गोरख नाथ जी को पूजते है। बाबा गोरख नाथ जी की कथा सबसे अलग है। आज तक जितने भी सिद्ध हुऐ है, उन सभी में गोरख नाथ जी अजुणी है। बाबा गोरक्ष नाथ जी एक सिद्ध तान्त्रिक होते हुऐ पूर्ण ब्रह्म-ज्ञानी एवं 36 मंडलों के रहस्यों के जानकार थे। आज भी बाबा गोरक्ष नाथ जी जीवित है। क्योंकि उन्होने अपनी देह का त्याग नहीं किया। आज तक संसार में 6 चिरंजीवी हुऐ है, किन्तु यह 6 चिरंजीवियों की जो गणना है। यह द्वापर युग तक की है, किन्तु कलयुग में बाबा गोरख नाथ जी भी चिरंजीवी है। लगभग 500 साल पूर्व सिखों के 10 वें गुरु – गुरु गोविन्द सिहं जी ने चण्डी साधना की और तान्त्रिक सिद्धि प्राप्त की और एक बार फ़िर से ब्रह्म और तन्त्र की एकता स्थापित हुई। इसी प्रकार रामकृष्ण-परमहंस भी सिद्ध तान्त्रिक होने के साथ-साथ पूर्ण ब्रह्म-ज्ञानी थे।

रामकृष्ण-परमहंस जी ने माता काली की सिद्धि के साथ ब्रह्म की उपासना की एवं उसे प्राप्त किया। इसी प्रकार वामाखेपा जी ने भी तारा सिद्धि के साथ-साथ ब्रह्म-ज्ञान को प्राप्त किया। लगभग 2000 वर्ष पूर्व आदि-शंकराचार्य जी का जन्म हुआ और उन्होंने ब्रह्म-ज्ञान को प्राप्त किया, किन्तु एक समय ऐसा भी आया की जब उन्होंने आदि शक्ति के श्रीविद्या रुप की सिद्धि की एवं गरीब ब्राहमण के झोपड़े में कनक-धारा स्तोत्र के द्वारा सोने के आंवलों कि बारिश हुई। आज भी यह कनक धारा स्तोत्र और श्रीविद्या का श्रीयन्त्र सम्पूर्ण जगत में विख्यात है। इस प्रकार त्रैता युग से लेकर कलियुग तक का अध्ययन करने पर हमें पता चलता है, कि तन्त्र और ब्रह्म एक दूसरे के पूरक है। ध्यान-पूर्वक समझने से हमें यह पता चलेगा कि तन्त्र की उपासना सही मायने में प्रकृति की उपासना है और ब्रह्म की उपासना या यों कहें की ‘ॐ’ या ‘सोऽहम्’ साधना उस निराकार परमात्मा की उपासना है, तो कुछ भी गलत नहीं होगा।

तन्त्र ही प्रकृति है। तन्त्र ही माया है। उस परमात्मा को जान लेना ब्रह्म-ज्ञान है और उसकी शक्तियों से हस्तगत होना ही तन्त्र है। उस परमपिता परमात्मा की शक्ति को तान्त्रिकों ने अनेकों नाम दिये है। जैसे की चण्डी, दुर्गा, आदिशक्ति, दस-महाविद्या, नौ दुर्गा, सात माता, 64 योगनी, आदि। सही मायने में एक विशेष शक्ति को जाग्रत करने के लिऐ, उस परमात्मा के उस विशेष नाम की पूजा ही तन्त्र है। तान्त्रिक अधिकतर परमात्मा के एक विशेष अंश को अपना इष्ट बना कर, उसकी सिद्धि करते है। उस इष्ट का जो अधिकार क्षेत्र होता है, उतने क्षेत्र में वह तान्त्रिक अपनी सिद्धि के द्वारा हस्तक्षेप कर सकता है। हिन्दू धर्म में उस परमात्मा के अंश रुप में 33 करोड़ देवी-देवता है। इन सभी के अपने-अपने अधिकार क्षेत्र है। जैसे कि माँ सरस्वति विद्या की देवी है। अगर कोई विद्या क्षेत्र कि सिद्धि करता है, तो उसे सभी वेद शास्त्रों का ज्ञान स्वतः ही हो जाऐगा। इस प्रकार अगर कोई लक्ष्मी अर्थात् धन क्षेत्र की सिद्धि करता है, तो उसके पास कभी भी धन की कमी नहीं होगी। काली अर्थात् शक्ति क्षेत्र की साधना करने वाला, शत्रुओं पर विजय प्राप्त करता है। शक्ति क्षेत्र की साधना करने वाले साधक के समक्ष श्त्रु टिक नहीं पाते और काल को प्राप्त हो जाते है। इसी प्रकार सभी देवी-देवताओं का अपना-अपना अधिकार क्षेत्र है। अग्नि का अपना कार्य है, जल का अपना और वायु का अपना। जहाँ ब्रह्म की प्राप्ति के लिऐ कोई समय सीमा नहीं है, कि वह हमें कब प्राप्त होगा। वहीं तान्त्रिक सिद्धियाँ समय सीमा से बंधी हुई है। ऐसी शक्तियों को प्राप्त करने के लिऐ योग्य गुरू का होना परम-आवश्यक है।

गुरू का चयन करते वक्त भी ध्यान रखा जाता है, कि गुरू ने जिस-जिस क्षेत्र की शक्तियाँ प्राप्त कर रखी है। वह आप को वही प्रदान कर सकता है या आपको उस क्षेत्र की सिद्धि करा सकता है। मान लीजिये कि किसी गुरू ने शक्ति क्षेत्र पर अधिकार प्राप्त कर रखा है। ऐसे गुरू के पास कोई ऐसा शिष्य पहुँच जाता है, जो कि विद्या क्षेत्र पर अधिकार प्राप्त करना चाहता है, तो शक्ति क्षेत्र का गुरू उस साधक को विद्या प्राप्ति हेतु साधना नहीं करा सकता। अगर ऐसा गुरू शिष्य बनाने के चक्कर में या अहंकार वश उस शिष्य को साधना कराना भी चाहे, तो भी सिद्धि सम्भव नहीं है। ऐसा गुरू शिष्य का मार्ग निर्देशन तो कर सकता है और वह जानकार है तो प्रारम्भिक पूजा भी प्रारम्भ करा सकता है, और शिष्य को विद्या क्षेत्री गुरू ढूढ़ने का रास्ता बता सकता है। लेकिन आज के समय में अनेकों ही गुरू एक अधिकार क्षेत्र के अधिकारी होते हुऐ भी, सभी क्षेत्रों के शिष्यों को दीक्षा देते है, जो की गुरू कि मर्यादा के खिलाफ है। सच्चे गुरू का कर्तव्य है, की वह शिष्य को उसी मन्त्र की दीक्षा दे, जो कि उस को अपने गुरू से प्राप्त हुआ है अथवा जिस मन्त्र से उसके गुरू ने उसको दीक्षित किया है। मान लीजिये एक शिष्य को उसके गुरू ने गायत्री मंत्र से दीक्षित किया है और उस शिष्य ने अनुष्ठान करते हुऐ, गायत्री क्षेत्र पर अधिकार प्राप्त किया है, तो वह शिष्य गुरू बन कर जिस भी शिष्य को दीक्षा देगा, तो वह दीक्षा गायत्री मंत्र के द्वारा ही दी जायेगी और आने वाला नया शिष्य अपनी गुरू की परम्परा को चलायेगा। अगर गायत्री क्षेत्र का गुरू किसी भी दूसरे क्षेत्र का मंत्र या दीक्षा किसी शिष्य को देता है और वह शिष्य उस क्षेत्र की साधना कराता है, तो उसे कभी भी सफलता नहीं मिलेगी।

हिन्दू मत के अनुसार- अनादि काल मे जब परमात्मा ने सृष्टि कि रचना की तो उस समय सृष्टि में अथाह जल राशि थी। इस जल राशि के अन्दर भगवान विष्णु कि उत्पत्ति हुई और भगवान विष्णु के नाभि कमल से ब्रह्मा जी की उत्पत्ति हुई। सच चाहे जो भी हो पर शास्त्र कहते है कि ब्रह्मा और विष्णु में द्वंद पैदा हो गया। विष्णु जी कहने लगे की मैं बड़ा हूँ और ब्रह्मा जी कहने लगे की मैं बड़ा हूँ। दोनों के द्वंद को देखकर, वह निराकार परमात्मा दोनों के मध्य ज्योति-स्तम्भ के रूप में प्रकट हुआ। परमात्मा का यह ज्योति-स्तम्भ रूप साधक को अगम लोक में पहुँचने पर दिखाई देता है। ब्रह्मा और विष्णु दोनों उस ज्योति-स्तम्भ को देख कर आश्चर्य चकित रह गये। उस ज्योति-स्तम्भ के अन्दर से ॐ-ॐ की ऐसी मधुर ध्वनी ब्रह्मा और विष्णु को सुनाई दी। ॐकार स्वरूप मानते हुऐ, ब्रह्मा और विष्णु ने उस ज्योति-स्तम्भ की स्तुति की। उस ज्योति-स्तम्भ ने ब्रह्मा और विष्णु को आदेश दिया, की आप दोनों ही ॐकार की साधना करें एवं मुझ परमात्मा को जाने। ब्रह्मा और विष्णु ने ॐकार की साधना की एवं उस परमात्मा के दिव्य रूप के दर्शन प्राप्त किये। उस परमात्मा ने ब्रह्मा जी को आदेश दिया की आप सृष्टि की रचना करें और विष्णु जी आप ब्रह्मा जी द्वारा रचित सृष्टि का पालन करें।

सर्व प्रथम ब्रह्मा जी ने तमोगुणी सृष्टि कि रचना की जिसे अविद्या-पंचक अथवा पंचपर्वा-अविद्या भी कहते है किन्तु बाद में परमेश्वर कि कृपा से ब्रह्मा जी पुनः अनासक्त भाव से सृष्टि का चिन्तन करने लगे उस समय ब्रह्मा जी द्वारा स्थावर-संज्ञक वृक्ष आदि की सृष्टि की, जिसे मुख्य-सर्ग कहते है यह पहला सर्ग है इसे देख कर तथा वह अपने लिऐ पुरूषार्थ का साधन नहीं है, यह जान कर ब्रह्मा जी ने दूसरा सर्ग प्रकट किया, जो दुख से भरा हुआ था उस का नाम है तिर्यक्स्रोता। पशु-पक्षी आदि तिर्यक्स्रोता कहलाते है। वायु की भाँति तिरछा चलने के कारण ये तिर्यक् या तिर्यक्स्रोता कहे गये है। यह सर्ग भी पुरूषार्थ-साधन की शक्ति से रहित था। यह जान कर ब्रह्मा जी ने तीसरे सात्त्विक सर्ग की उत्पत्ति की जिसे उर्ध्वस्रोता कहते है। यह देव-सर्ग के नाम से विख्यात हुआ। देव सर्ग सत्यवादी तथा अत्यन्त सुख दायक था किन्तु उसे भी पुरूषार्थ साधन की रूची एवं अधिकार से रहित मान कर ब्रह्मा जी ने परमेश्वर का चिन्तन आरम्भ किया परमेश्वर कि कृपा से रजोगुणी सृष्टि का आरम्भ हुआ जिसे अर्वाक्स्रोता कहा गया है इस सर्ग में मनुष्य का जन्म हुआ जोकि पुरूषार्थ साधन के उच्च अधिकारी हैं। ध्यान-पूर्वक अध्ययन करें तो हमें पता चलता है कि प्रारम्भ में ब्रह्मा जी ने जिस सृष्टि कि रचना की वह अमैथुनी थी। अमैथुनी सृष्टि को देख कर ब्रह्मा जी परेशान हुऐ और ब्रह्मा जी ने परमेश्वर से प्रार्थना की, कि- हे परमेश्वर मैं जो भी सृष्टि पैदा करता हूँ, उसका विनाश नहीं होता, आप मुझे ऐसी शक्ति प्रदान करे की मैं नाशवान सृष्टि पैदा कर सकूँ। परमेश्वर ने ब्रह्मा जी को गायत्री मंत्र प्रदान किया और अनुष्ठान करने को कहा। सृष्टि में सर्वप्रथम ॐ अक्षर था। उसके पश्चात गायत्री मंत्र आया, इसलिऐ गायत्री मंत्र को महामंत्र या मंत्रराज अर्थात् मंत्रों का राजा कहा जाता है।

ब्रह्मा जी ने गायत्री मंत्र की साधना की और उस परमेश्वर की शक्ति को गायत्री अर्थात् सावित्री के रूप में प्राप्त किया। उसके पश्चात मैथुनी सृष्टि की उत्पत्ति प्रारम्भ हुई। समय-समय पर सावित्री ही अनेकों सिद्धों के सामने अलग-अलग रूप में प्रकट हुई। जिस साधक ने जिस-जिस रूप में उस शक्ति को प्राप्त करने की इच्छा की उस-उस साधक को वह शक्ति उसी-उसी रूप में प्राप्त हुई। अपने ही समय के अनुसार सभी साधकों ने अपने समक्ष प्रकट हुई उस शक्ति का नामकरण कर दिया। सर्वप्रथम उसे आदिशक्ति कहा जाता था। राजा दक्ष के यहाँ जन्म लेने पर वह सती कहलाई। सती भगवान शिव की अर्धागिनी बनी। जब सती ने अपने पति शिव के निरादर किये जाने पर अपने आप को हवन में समर्पित कर दिया।

यह शिव साक्षात पर-ब्रह्म परमेश्वर है। नाशवान सृष्टि की रचना से पूर्व ब्रह्मा जी ने उस परमेश्वर की स्तुति की, कि हे परमेश्वर मैं जो यह नाशवान सृष्टि पैदा करने जा रहा हूँ, इस नाते से मैं इस सृष्टि का पिता बन गया। मैं पैदा तो कर सकता हूँ, पर विनाश नहीं। इसी प्रकार विष्णु जी भी इस सृष्टि का पालन करते हैं, तो वह भी इस का विनाश नहीं कर सकते। इसलिऐ मैं चाहता हूँ, कि आप मेरे पुत्र के रूप में जन्म ले और सृष्टि के विनाश का कार्यभार संभालें, क्योंकि हे परमेश्वर सही मायने में तो आप ही सब को पैदा करने वाले और विनाश करने वाले हैं। हम दोनों तो निमित्त मात्र है। इस प्रकार वह परमेश्वर ही रूद्र रूप बन कर पैदा हुऐ और उन्होंने सती से विवाह किया।

सती की मृत्यु का समाचार पाकर रूद्र क्रोधित हो उठे और राजा दक्ष के यज्ञ को नष्ट कर दिया और सती के शरीर को अपने कन्धें पर डाल कर ब्रह्माण्ड में विचरने लगे। जब विष्णु जी ने देखा की रूद्र के इस कार्य से सृष्टि के सभी कार्य रूक रहें है, तो उन्होंने अपने सुदर्शन चक्र के द्वारा उस सती के मृत शरीर के टुकडे-टुकडे कर दिये। उस आदिशक्ति सती के कुल 51 टुकडे हुऐ और पृथ्वी पर आ गिरे। जहाँ-जहाँ वह 51 टुकडे गिरे थे, वहीं-वहीं आज सिद्ध पीठ बने हुऐ हैं। आज हिन्दुस्तान में जो 51 पीठ हैं। ये पीठ वहीं हैं, जहाँ पर सती के शरीर के हिस्से गिरे थे। एक ही शरीर के हिस्से होने के उपरान्त भी स्थान और काल भेद से सभी के अलग-अलग नाम हैं एवं पूजा विधान अलग-अलग हैं। इसके पीछे जो मूल कारण है, वह यही है कि समय-समय पर जिस साधक ने जिस विधान से उस शरीर के उस हिस्से को आदिशक्ति का प्रतीक रूप मानते हुऐ साधना की और साधक की भावना के अनुसार ही जब वह शक्ति प्रकट हुई, तो साधक ने अपनी इच्छा अनुसार उसे एक नाम दे दिया। आज अनेकों ही साधक व साधारण भक्त जन इन पीठों में भी भेद रखते है, कि कोई पीठ छोटा है और कोई बड़ा। किन्तु पीठ या स्थान या प्रतीक कभी छोटा-बड़ा नहीं होता। इसके मूल में एक ही रहस्य शक्ति छुपी हुई है और वह है, श्रद्धा और भावना की। जिस पीठ के उपर आपकी श्रद्धा और भावना प्रगाढ़ होगी, वहीं से आप को चमत्कारिक लाभ प्राप्त होते हैं।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है.....मनीष