Friday, August 27, 2010

Nitya Pooja(नित्य-पूजा)

नित्य-पूजा
मंत्र का अर्थ इस प्रकार है कि-जिसका मनन करने से संसार का यथार्थ स्वरूप विदित हो, भव-बन्धनों से मुक्ति मिले और जो सफलता के मार्ग पर अग्रसर करे उसे ‘मन्त्र’ कहते हैं। इसी प्रकार ‘जप’ का अर्थ है- ‘ज’ का अर्थ है, जन्म का रुक जाना और ‘प’ का अर्थ है, पाप का नाश होना। इसीलिए पाप को मिटाने वाले और पुनर्जन्म प्रक्रिया रोकने वाले को ‘जप’ कहा जाता है। मन्त्र शक्ति ही देवमाता- कामधेनु है, परावाक् देवी है, विश्व-रूपिणी है, देवताओं की जननी है। देवता मन्त्रात्मक ही हैं। यही विज्ञान है। इस कामधेनु रूपी वाक्-शक्ति से हम जीवित हैं। इसके कारण ही हम बोलते और जानते हैं। मन्त्र-विद्या के महान सामर्थ्य को यदि ठीक तरह समझा जा सके और उसका समुचित प्रयोग किया जा सके तो यह आध्यात्मिक प्रयास, किसी भी भौतिक उन्नति के प्रयास से कम महत्वपूर्ण और कम लाभदायक सिद्ध नहीं हो सकता। मन्त्र की शक्ति का विकास जप से होता है।

मन्त्रों की रचना विशिष्ट पद्धति से मन्त्र-शक्ति के विशेषज्ञ अनुभवी महात्माओं द्वारा की हुई होती है। उनका अर्थ गहन होता है और मन्त्र-शास्त्र के नियमों के अनुसार ही अक्षर जोड़कर मन्त्र बनाये जाते हैं और ये मन्त्र परम्परा जप के कारण से सिद्ध और अमोघ फलदायक होते हैं। ऐसे मन्त्रों को साम्प्रदायिक रीति से ग्रहण करके विशेष पद्धति से उनका जप करना होता है। पुस्तकों से मन्त्रों को पढ़ लेने मात्र से कोई विशेष लाभ नहीं होता। कुछ साधक पुस्तकों में से कोई भी मन्त्र पढ़कर कुछ दिन उसका जाप करते हैं और कुछ लाभ ना होता देखकर उसे छोड़ देते हैं और इसी तरह नये-नये मन्त्र जपते रहते हैं और फायदा ना मिलने पर निराश होते हैं। कुछ साधक कई मन्त्र एक साथ ही जपते हैं, पर इससे भी उन्हे कोई लाभ नहीं होता। कुछ साधक माला जपने को मन्त्र जाप समझते हैं और माला को यन्त्रवत् घुमाकर यह समझते हैं कि हमने हजरों या लाखों की सँख्या में जाप कर लिया, पर इतने जाप का प्रभाव पुछिये तो वह नहीं के बराबर होता है।

मन्त्र जाप में माला का महत्त्व अधिक नहीं होता। स्मरण दिलाना और जाप सँख्या का मालूम होना, ये ही दो काम ही माला के हैं। माला स्वयं में पवित्र होती है। इसलिए साधक इसे धारण भी करते हैं। कुछ साधक माला को सम्प्रदाय का चिन्ह और पाप-नाश का साधन भी मानते हैं।

मन्त्र जाप का अधिकार दीक्षा-विधि से ही प्राप्त होता है, यह वैदिक नियम है। इसलिये किसी योग्य गुरू से ही मन्त्र की दीक्षा लेकर ही जाप करना चाहिये। शैव-वैष्णवादि सम्प्रदायों में अनादि-काल से ही दीक्षा-विधि चली आ रही है। बहुत से व्यक्ति दीक्षा लेने को सही नहीं मानते, पर यह उनकी भूल है। कुछ साधकों कि तो यह हालत होती है कि वह मन्त्र तो किसी अन्य देवता का जपते हैं और ध्यान किसी अन्य देवता का करते हैं। इससे सिद्धि कैसे मिलेगी? यद्यपि भगवान तो एक ही है, तो भी उनके अभिव्यक्त रूप तो अलग-अलग हैं।

अपनी अभिरुचि के अनुसार, परन्तु शास्त्र-विधि को छोड़े बिना किसी भी मार्ग का अवलम्बन करने से हमें शीघ्र फल की प्राप्ति होती है। इसलिऐ मन्त्र-दीक्षा, विधि-विधान से ही लेनी चाहिये। मन्त्र-दीक्षा के लिये शुभ-समय, पवित्र-स्थान और चित्त में उत्साह होने की बड़ी आवश्यकता है। मन्त्र-दीक्षा लेने के पश्चात मन्त्र-जाप को प्रतिदिन एक निश्चित संख्या में अवश्य जपें।

महर्षि-पातञ्जलि ने अपने योग-सूत्रों में मन्त्र-सिद्धि को माना है, और यह कहा है कि इष्ट-मन्त्र के जाप से इष्ट-देव के दर्शन सम्भव होते हैं। प्रणव(ॐ) मुख्य मन्त्र है और उसके अर्थ की भावना करते हुऐ उसका जाप करने से सिद्धि प्राप्त होती है, यह महर्षि-पातञ्जलि बतलाते हैं।

प्रणव-जाप का महत्व भगवान-मनु ने भी बतलाया है। कारण, प्रणव वेदों का मूल हैं। श्रुति में भी प्रणव की महिमा गायी गयी है। प्रणव के बाद गायत्री-मन्त्र का महत्व है। यह वैदिक मन्त्र है और सभी ने इसकी महिमा बतलाई है। यह मन्त्र सब सिद्धियों को देने वाला है, और द्विज-जातिमात्र को इसका अधिकार है।

इसके बाद विभिन्न मन्त्र आते हैं और इन्हीं का आजकल विशेष प्रचार-प्रसार है। कारण, इनका उच्चारण सुगम है और इनका अर्थ भी जल्दी समझ में आ जाता है। नियम-आदि भी कोई विशेष नहीं हैं। किन्तु इन मन्त्रो का जाप करने वाले ही बता सकते है कि उन्हे किताना फायदा मिला है। मन्त्र चाहे वैदिक हो, पौराणिक हो या तान्त्रिक हो, बिना नियम के किसी भी मन्त्र का कोई फायदा नहीं है। जो साधक निष्काम-भक्ति एवं मोक्ष-प्राप्ति को अपना लक्ष्य मानते है, उन के लिऐ कोई विशेष नियम नहीं है, परन्तु जो साधक सकाम भक्ति, भौतिक सुखों कि प्राप्ति एवं सिद्धि प्राप्ति हेतु मंत्र-साधना करना चहाते हैं या करते हैं, उनके लिऐ नियम बहुत आवश्यक है।

मन्त्र-जाप में नियमों का अर्थ ये नहीं है कि आप हठ-योग के कठिन आसनों एवं मुद्राओं का प्रयोग करे। हमने अपने सालो के अनुभव में यह पाया कि साधक थोड़े से साधारण नियम और सबसे जरूरी- मन्त्रों का लयबद्ध होना, इसके द्वारा साधक बहुत कम समय में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है। हमने अनेकों साधकों को ये प्रयोग करवाये, जिससे उन्हे बहुत ही ज्यादा लाभ हुआ। पहले जो वो अपने तरीके से साधना करते थे, और उस साधना से अनेकों साधकों को अनेकों प्रकार कि मानसिक और शारीरिक परेशानियों का सामना करना पड़ रहा था। जहाँ वह लम्बे-चोड़े विधानों में उलझ हुऐ थे, वहीं हमारे द्वारा बताऐ हुऐ नियमों से उनकी तमाम परेशानी हमेशा-हमेशा के लिऐ समाप्त हो गई। सभी साधकों के हितों का ख्याल रखते हुऐ, पहली बार हम उन सभी नियमों और तरीकों को लिख रहे है, जो आज तक न तो कहीं लिखे गऐ और न ही कोई भी गुरू अपने शिष्यों को बताना चाहता है। हम अपने सभी साधकों के लिये सबसे सरल कुछ विधान लिख रहें हैं। आप अपनी सुविधा के अनुसार उनका चुनाव कर सकते है।

पहला विधान-
1 पद्मासन या सुखासन में बैठें।
2 अपने दायें हाथ को घी का दीपक एवं जल का पात्र (लोटा) रखें।
3 गुरू मन्त्र का 5 बार जाप करें।
4 गणेश मंत्र का 5 बार जाप करें।
5 गायत्री मंत्र का 28/108 बार जाप करें।
6 अपने इष्ट के मंत्र का आवश्यकता अनुसार जाप करें।
7 अपने इष्ट देव की आरती करें।
8 क्षमा प्रार्थना एवं शान्ति पाठ करें।

दूसरा विधान-
1 पद्मासन या सुखासन में बैठें।
2 अपने दायें हाथ को घी का दीपक एवं जल का पात्र (लोटा) रखें।
3 गुरू मन्त्र का 5 बार जाप करें।
4 गणेश मंत्र का 5 बार जाप करें।
5 रक्षा मंत्र का 11 बार जाप करें।
6 नवग्रह मंत्र का 3 बार जाप करें।
7 गायत्री मंत्र का 28/108 बार जाप करें।
8 अपने इष्ट के मंत्र का आवश्यकता अनुसार जाप करें।
9 अपने इष्ट देव की आरती करें।
10 क्षमा प्रार्थना स्तुति एवं शान्ति पाठ करें।

तीसरा विधान-
1 पद्मासन या सुखासन में बैठें।
2 अपने दायें हाथ को घी का दीपक एवं जल का पात्र (लोटा) रखें।
3 आचमन और संकल्प करें।
4 गुरू मन्त्र का 5 बार जाप करें।
5 श्री संकटनाशन गणेशस्तोत्रम् का 1 बार पाठ करें।
6 श्रीबटुक भैरव अष्टोत्तरशत नामावलिः का 1 बार पाठ करें।
7 नवग्रह स्तोत्र का पाठ करें।
8 गायत्री मंत्र का 108 बार जाप करें।
9 अपने इष्ट के मंत्र का आवश्यकता अनुसार जाप करें।
10अपने इष्ट देव की आरती करे एवं पुष्पाँजलि करें।
11 क्षमा प्रार्थना स्तुति एवं शान्ति पाठ करें।

पूजा से संबधित विभिन्न मन्त्र
आचमन मंत्र
निम्न मंत्र का जाप करके तीन बार जल पीये एवं हाथ धो ले।
॥शन्नो देवीर अभिष्टय आपो भवन्तु पीतये। शंयोरभि स्त्रवन्तु नः॥

संकल्प-मन्त्र
हाथ में जल लेकर निम्न मन्त्र को पढ़कर संकल्प करें।
ॐ विष्णुर्विष्णुविर्ष्णुः ॐ तत्सत् अद्यैतस्य विष्णोराज्ञया जगत् सृष्टि कर्मणि प्रवर्तमानस्य ब्रह्मणो द्वितीय परार्द्वे श्रीश्वेत वाराह कल्पे वैवस्वत मन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे तत् प्रथम चरने जम्बूद्वीपे भारतवर्षे भरतखण्डे अमुक क्षेत्रे अमुक स्थाने बौद्धावतारे अमुक नाम संवत्सरे उत्तरायणे/दक्षिणायने अमुक ॠतौ अमुक मासे अमुक पक्षे अमुक तिथौ अमुक वासरे अमुक गौत्रे अमुक नाम शर्मा/वर्मा/गुप्तोऽहं धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष प्राप्ति अर्थे अमुक देव (अपने इष्ट देव या जिस देव की पूजा करनी हो उसके नाम का उच्चारण करें।) पूजनम् करिष्ये।
संकल्प मंत्र को पढ़कर हाथ का जल भूमि पर छोड़ दे।
ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॥ गुरू मन्त्र ॥ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ
ॐ श्री गुरूवे नमः ॥
या
ॐ गुरूर्ब्रह्मा गुरूर्विष्णु गुरूदेवो महेश्वरः।
गुरूर्साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरूवे नमः॥

ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॥ श्रीगणेश मन्त्र ॥ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ
ॐ श्री गणेशाय नमः ॥
या
ॐ गणानाम् त्वा गणपतिम् हवामहे प्रियाणाम्।
त्वा प्रियपतिम् हवामहे निधीनाम् त्वा निधिपतिम् हवामहे वसोमम्।
आहम जानि गर्ब्भधम् त्वम् अजासि गर्ब्भधम्॥
या
ॐ नमो गणेभ्यो गणपतिभ्यश्य वो नमो नमो व्रातेभ्यो व्रातपतिभ्यश्च वो नमो नमो गृत्सेभ्यो गृत्सपतिभ्यश्य
वो नमो नमो विरूपेभ्यो विश्वरूपेभ्यश्च वो नमः॥

ॐ ॐ ॐ ॥ श्री संकटनाशन गणेशस्तोत्रम् ॥ ॐ ॐ ॐ

प्रणम्य शिरसा देवं गौरीपुत्रं विनायकम्।
भक्तावासं स्मरेन्नित्यं आयुष्कामार्थ सिद्धये॥१॥
प्रथमं वक्रतुण्डं च एकदन्तं द्वितीयकम्।
तृतीयं कृष्ण-पिंगलाक्षं गजवक्त्रं चतुर्थकम्॥२॥
लम्बोदरं पंचमं च षष्ठं विकटमेव च।
सप्तमं विघ्नराजेन्द्रं धूम्रवर्णं तथाष्टमम्॥३॥
नवमं भालचन्द्रं च दशमं तु विनायकम्।
एकादशं गणपतिं द्वादशं तु गजाननम्॥४॥

ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॥ रक्षा मन्त्र ॥ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ
ॐ खं ब्रह्म नमः॥
या
ॐ ॐ ॐ ॥ श्रीबटुक भैरवाष्टोत्तर शतनामवलिः ॥ ॐ ॐ ॐ

ॐ ह्रीं भैरवो भूतनाथाशच भूतात्मा भूतभावन।
क्षेत्रज्ञः क्षेत्रपालश्च क्षेत्रदः क्षत्रियो विराट्॥१॥
श्मशान वासी मांसाशी खर्पराशी स्मरांतकः।
रक्तपः पानपः सिद्धः सिद्धिदः सिद्धिसेवित॥२॥
कंकालः कालशमनः कलाकाष्टातनु कविः।
त्रिनेत्रो बहुनेत्रश्च तथा पिंगल-लोचनः॥३॥
शूलपाणिः खङ्गपाणिः कंकाली धूम्रलोचनः।
अभीरूर भैरवीनाथो भूतपो योगिनीपतिः॥४॥
धनदो अधनहारी च धनवान् प्रतिभानवान्।
नागहारो नागपाशो व्योमकेशः कपालभृत्॥५॥
कालः कपालमाली च कमनीयः कलानिधिः।
त्रिलोचनो ज्वलन्नेत्रः त्रिशिखी च त्रिलोचनः॥६॥
त्रिनेत्र तनयो डिम्भशान्तः शान्तजनप्रियः।
बटुको बहुवेशश्च खट्वांगो वरधारकः॥७॥
भूताध्यक्षः पशुपतिः भिक्षुकः परिचारकः।
धूर्तो दिगम्बरः शूरो हरिणः पांडुलोचनः॥८॥
प्रशांतः शांतिदः शुद्धः शंकर-प्रियबांधवः।
अष्टमूर्तिः निधीशश्च ज्ञान-चक्षुः तपोमयः॥९॥
अष्टाधारः षडाधारः सर्पयुक्तः शिखिसखः।
भूधरो भुधराधीशो भूपतिर भूधरात्मजः॥१०॥
कंकालधारी मुण्डी च नागयज्ञोपवीतवान्।
जृम्भणो मोहनः स्तम्भी मारणः क्षोभणः तथा॥११॥
शुद्धनीलांजन प्रख्यो दैत्यहा मुण्डभूषितः।
बलिभुग् बलिभुङ्नाथो बालो अबालपराक्रमः॥१२॥
सर्वापित्तारणो दुर्गे दुष्टभूत-निषेवितः।
कामी कलानिधि कान्तः कामिनी वशकृद् वशी॥१३॥
जगद् रक्षा करो अनन्तो माया मंत्र औषधीमयः।
सर्वसिद्धिप्रदो वैद्यः प्रभविष्णुः करोतु शम्॥१४॥
ॐ ॐ ॐ ॥ इति श्री बटुकभैरवाष्टोत्तरशतनामं समाप्तम् ॥ ॐ ॐ ॐ

ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॥ नवग्रह मन्त्र ॥ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ
ॐ ब्रह्मा मुरारिः त्रिपुरान्तकारी भानुः शशी भूमि-सुतो बुधश्च।
गुरूश्च शुक्रः शनि राहु केतवेः सर्वे ग्रहाः शान्तिः करा भवन्तु॥
ॐ सुर्यः शौर्यमथेन्दुर उच्च पदवीं सं मंगलः सद् बुद्धिं च बुधो
गुरूश्च गुरूतां शुक्रः सुखं शं शनिः राहुः बाहुबलं करोतु सततं
केतुः कुलस्यः उन्नतिं नित्यं प्रीतिकरा भवन्तु
मम ते सर्वे अनुकूला ग्रहाः॥

ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॥ नवग्रहस्तोत्रम् ॥ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ

जपा कुसुम संकाशं काश्यपेयं महद्युतिम्।
तमोऽरिं सर्वपापघ्नं प्रणतोऽस्मि दिवाकरम् ॥१॥
दधि शंख तुषाराभं क्षीरोदार्णव संभवम्।
नमामि शशिनं सोमं शम्भोः मुकुट भूषणम्॥२॥
धरणी गर्भ संभूतं विद्युत्कान्ति समप्रभम्।
कुमारं शक्ति हस्तं च मंगलं प्रणमाम्यहम्॥३॥
प्रियंगु कलि काश्यामं रूपेणा प्रतिमं बुधम्।
सौम्यं सौम्य गुणोपेतं तं बुधं प्रणमाम्यहम्॥४॥
देवानां च ऋषीणां च गुरुं काञ्चन संनिभम्।
बुद्धिभूतं त्रिलोकेशं तं नमामि बृहस्पतिम्॥५॥
हिम कुन्द मृणालाभं दैत्यानां परमं गुरुम्।
सर्व शास्त्र प्रवक्तारं भार्गवं प्रणमाम्यहम्॥६॥
नीलांजन समाभासं रविपुत्रं यमाग्रजम्।
छाया मार्तण्ड संभूतं तं नमामि शनैश्चरम्॥७॥
अर्ध कायं महावीर्यं चन्द्र आदित्य विमर्दनम्।
सिंहिका गर्भ संभूतं तं राहुं प्रणमाम्यहम्॥८॥
पलाश पुष्प संकाशं तारका ग्रह मस्तकम्।
रौद्रं रौद्रात्मकं घोरं तं केतुं प्रणमाम्यहम्॥९॥
इति व्यास मुखोद् गीतं यः पठेत् सुसमाहितः।
दिवा वा यदि वा रात्रौ विघ्न शान्तिर भविष्यति॥१०॥
नर नारी नृपाणां च भवेद् दुःस्वप्न नाशनम्।
ऐश्वर्यं अतुलं तेषाम् आरोग्यं पुष्टि वर्धनम्॥११॥
गृह नक्षत्रजाः पीडाः तस्कराग्नि समुद् भवाः।
ताः सर्वाः प्रशमं यान्ति व्यासो ब्रू तेन संशयः॥१२॥
ॐ ॐ ॐ ॥ इति श्रीव्यास विरचितं नवग्रहस्तोत्रं संपूर्णम् ॥ ॐ ॐ ॐ


ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॥ गायत्री मंत्र ॥ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ
ॐ भुर्भुवः स्वः तत् सवितुर वरेण्यम्
भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात्॥

ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॥ क्षमा-प्रार्थना ॥ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ
मन्त्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं सुरेश्वरम्।
यत् पूजितं मया देव परिपूर्णं तदस्तु मे॥

ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॥ शान्तिः पाठ ॥ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ
ॐ द्यौः शान्तिः अन्तरिक्षं शान्तिः पृथिवी शान्तिः आपः शान्तिः ओषधयः शान्तिः। वनस्पतय: शान्तिः विश्वेदेवाः शान्तिः ब्रह्म शान्तिः सर्वं शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधि॥
यतो यतः समीहसे ततो नो अभयम् कुरू।
शम् नः कुरू प्रजाभ्यो अभयम् नः पशुभ्यः॥
--------------------- ॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ ------------------------------------------- ॥ सुशान्तिर्भवतु ॥ ---------------------

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK

Thursday, August 26, 2010

My Guru

गुरु पूर्णिमा संदेश
आत्मस्वरुप का ज्ञान पाने के अपने कर्त्तव्य की याद दिलाने वाला, मन को दैवी गुणों से विभूषित करनेवाला, सदगुरु के प्रेम और ज्ञान की गंगा में बारंबार डुबकी लगाने हेतु प्रोत्साहन देनेवाला जो पर्व है - वही है 'गुरु पूर्णिमा' ।
भगवान वेदव्यास ने वेदों का संकलन किया, १८ पुराणों और उपपुराणों की रचना की। ऋषियों के बिखरे अनुभवों को समाजभोग्य बना कर व्यवस्थित किया। पंचम वेद 'महाभारत' की रचना इसी पूर्णिमा के दिन पूर्ण की और विश्व के सुप्रसिद्ध आर्ष ग्रंथ ब्रह्मसूत्र का लेखन इसी दिन आरंभ किया। तब देवताओं ने वेदव्यासजी का पूजन किया। तभी से व्यासपूर्णिमा मनायी जा रही है। इस दिन जो शिष्य ब्रह्मवेत्ता सदगुरु के श्रीचरणों में पहुँचकर संयम-श्रद्धा-भक्ति से उनका पूजन करता है उसे वर्षभर के पर्व मनाने का फल मिलता है।और पूनम (पूर्णिमा) तो तुम मनाते हो लेकिन गुरुपूनम तुम्हें मनाती है कि भैया! संसार में बहुत भटके, बहुत अटके और बहुत लटके। जहाँ गये वहाँ धोखा ही खाया, अपने को ही सताया। अब जरा अपने आत्मा में आराम पाओ।

हरिहर आदिक जगत में पूज्य देव जो कोय ।
सदगुरु की पूजा किये सबकी पूजा होय ॥

कितने ही कर्म करो, कितनी ही उपासनाएँ करो, कितने ही व्रत और अनुष्ठान करो, कितना ही धन इकट्ठा कर लो और् कितना ही दुनिया का राज्य भोग लो लेकिन जब तक सदगुरु के दिल का राज्य तुम्हारे दिल तक नहीं पहुँचता, सदगुरुओं के दिल के खजाने तुम्हारे दिल तक नही उँडेले जाते, जब तक तुम्हारा दिल सदगुरुओं के दिल को झेलने के काबिल नहीं बनता, तब तक सब कर्म, उपासनाएँ, पूजाएँ अधुरी रह जाती हैं। देवी-देवताओं की पूजा के बाद भी कोई पूजा शेष रह जाती है किंतु सदगुरु की पूजा के बाद कोई पूजा नहीं बचती।

सदगुरु अंतःकरण के अंधकार को दूर करते हैं। आत्मज्ञान के युक्तियाँ बताते हैं गुरु प्रत्येक शिष्य के अंतःकरण में निवास करते हैं। वे जगमगाती ज्योति के समान हैं जो शिष्य की बुझी हुई हृदय-ज्योति को प्रकटाते हैं। गुरु मेघ की तरह ज्ञानवर्षा करके शिष्य को ज्ञानवृष्टि में नहलाते रहते हैं। गुरु ऐसे वैद्य हैं जो भवरोग को दूर करते हैं। गुरु वे माली हैं जो जीवनरूपी वाटिका को सुरभित करते हैं। गुरु अभेद का रहस्य बताकर भेद में अभेद का दर्शन करने की कला बताते हैं। इस दुःखरुप संसार में गुरुकृपा ही एक ऐसा अमूल्य खजाना है जो मनुष्य को आवागमन के कालचक्र से मुक्ति दिलाता है।जीवन में संपत्ति, स्वास्थ्य, सत्ता, पिता, पुत्र, भाई, मित्र अथवा जीवनसाथी से भी ज्यादा आवश्यकता सदगुरु की है। सदगुरु शिष्य को नयी दिशा देते हैं, साधना का मार्ग बताते हैं और ज्ञान की प्राप्ति कराते हैं।सच्चे सदगुरु शिष्य की सुषुप्त शक्तियों को जाग्रत करते हैं, योग की शिक्षा देते हैं, ज्ञान की मस्ती देते हैं, भक्ति की सरिता में अवगाहन कराते हैं और कर्म में निष्कामता सिखाते हैं। इस नश्वर शरीर में अशरीरी आत्मा का ज्ञान कराकर जीते-जी मुक्ति दिलाते हैं।

सदगुरु जिसे मिल जाय सो ही धन्य है जन मन्य है।
सुरसिद्ध उसको पूजते ता सम न कोऊ अन्य है॥
अधिकारी हो गुरुदेव से उपदेश जो नर पाय है।
भोला तरे संसार से नहीं गर्भ में फिर आय है॥

गुरुपूनम जैसे पर्व हमें सूचित करते हैं कि हमारी बुद्धि और तर्क जहाँ तक जाते हैं उन्हें जाने दो। यदि तर्क और बुद्धि के द्वारा तुम्हें भीतर का रस महसूस न हो तो प्रेम के पुष्प के द्वारा किसी ऐसे अलख के औलिया से पास पहुँच जाओ जो तुम्हारे हृदय में छिपे हुए प्रभुरस के द्वार को पलभर में खोल दें।मैं कई बार कहता हुँ कि पैसा कमाने के लिए पैसा चाहिए, शांति चाहिए, प्रेम पाने के लिए प्रेम चाहिए। जब ऐसे महापुरुषों के पास हम निःस्वार्थ, निःसंदेह, तर्करहित होकर केवल प्रेम के पुष्प लेकर पहुँचते हैं, श्रद्धा के दो आँसू लेकर पहुँचते हैं तो बदले में हृदय के द्वार खुलने का अनुभव हो जाता है। जिसे केवल गुरुभक्त जान सकता है औरों को क्या पता इस बात का ?

गुरु-नाम उच्चारण करने पर गुरुभक्त का रोम-रोम पुलकित हो उठता है चिंताएँ काफूर हो जाती हैं, जप-तप-योग से जो नही मिल पाता वह गुरु के लिए प्रेम की एक तरंग से गुरुभक्त को मिल जाता है, इसे निगुरे नहीं समझ सकते.....

आत्मज्ञानी, आत्म-साक्षात्कारी महापुरुष को जिसने गुरु के रुप में स्वीकार कर लिया हो उसके सौभाग्य का क्या वर्णन किया जाय ? गुरु के बिना तो ज्ञान पाना असंभव ही है। कहते हैं :

ईश कृपा बिन गुरु नहीं, गुरु बिना नहीं ज्ञान ।
ज्ञान बिना आत्मा नहीं, गावहिं वेद पुरान ॥

बस, ऐसे गुरुओं में हमारी श्रद्धा हो जाय । श्रद्धावान ही ज्ञान पाता है। गीता में भी आता हैः

श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः ।

अर्थात् जितेन्द्रिय, तत्पर हुआ श्रद्धावान पुरुष ज्ञान को प्राप्त होता है।
ऐसा कौन-सा मनुष्य है जो संयम और श्रद्धा के द्वारा भवसागर से पार न हो सके ? उसे ज्ञान की प्राप्ति न हो ? परमात्म-पद में स्थिति न हो?

जिसकी श्रद्धा नष्ट हुई, समझो उसका सब कुछ नष्ट हो गया। इसलिए ऐसे व्यक्तियों से बचें, ऐसे वातावरण से बचें जहाँ हमारी श्र्द्धा और संयम घटने लगे। जहाँ अपने धर्म के प्रति, महापुरुषों के प्रति हमारी श्रद्धा डगमगाये ऐसे वातावरण और परिस्थितियों से अपने को बचाओ।

शिष्यों का अनुपम पर्व
साधक के लिये गुरुपूर्णिमा व्रत और तपस्या का दिन है। उस दिन साधक को चाहिये कि उपवास करे या दूध, फल अथवा अल्पाहार ले, गुरु के द्वार जाकर गुरुदर्शन, गुरुसेवा और गुरु-सत्सन्ग का श्रवण करे। उस दिन गुरुपूजा की पूजा करने से वर्षभर की पूर्णिमाओं के दिन किये हुए सत्कर्मों के पुण्यों का फल मिलता है।
गुरु अपने शिष्य से और कुछ नही चाहते। वे तो कहते हैं:

तू मुझे अपना उर आँगन दे दे, मैं अमृत की वर्षा कर दूँ ।

तुम गुरु को अपना उर-आँगन दे दो। अपनी मान्यताओं और अहं को हृदय से निकालकर गुरु से चरणों में अर्पण कर दो। गुरु उसी हृदय में सत्य-स्वरूप प्रभु का रस छलका देंगे। गुरु के द्वार पर अहं लेकर जानेवाला व्यक्ति गुरु के ज्ञान को पचा नही सकता, हरि के प्रेमरस को चख नहीं सकता।अपने संकल्प के अनुसार गुरु को मन चलाओ लेकिन गुरु के संकल्प में अपना संकल्प मिला दो तो बेडा़ पार हो जायेगा।

नम्र भाव से, कपटरहित हृदय से गुरु से द्वार जानेवाला कुछ-न-कुछ पाता ही है।

तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ॥

'उस ज्ञान को तू तत्त्वदर्शी ज्ञानियों के पास जाकर समझ, उनको भलीभाँति दण्डवत्-प्रणाम करने से, उनकी सेवा करने से और कपट छोड़कर सरलतापूर्वक प्रश्न करने से वे परमात्म-तत्व को भलीभाँति जाननेवाले ज्ञानी महात्मा तुझे उस तत्त्वज्ञान का उपदेश करेंगे।' (गीताः ४.३४)

जो शिष्य सदगुरु का पावन सान्निध्य पाकर आदर व श्रद्धा से सत्संग सुनता है, सत्संग-रस का पान करता है, उस शिष्य का प्रभाव अलौकिक होता है।'श्रीयोगवाशिष्ठ महारामायण' में भी शिष्य से गुणों के विषय में श्री वशिष्ठजी महाराज करते हैः "जिस शिष्य को गुरु के वचनों में श्रद्धा, विश्वास और सदभावना होती है उसका कल्याण अति शीघ्र होता है।"शिष्य को चाहिये के गुरु, इष्ट, आत्मा और मंत्र इन चारों में ऐक्य देखे। श्रद्धा रखकर दृढ़ता से आगे बढे़। संत रैदास ने भी कहा हैः

हरि गुरु साध समान चित्त, नित आगम तत मूल।
इन बिच अंतर जिन परौ, करवत सहन कबूल ॥

'समस्त शास्त्रों का सदैव यही मूल उपदेश है कि भगवान, गुरु और संत इन तीनों का चित्त एक समान (ब्रह्मनिष्ठ) होता है। उनके बीच कभी अंतर न समझें, ऐसी दृढ़ अद्वैत दृष्टि रखें फिर चाहे आरे से इस शरीर कट जाने का दंड भी क्यों न सहन करना पडे़ ?
अहं और मन को गुरु से चरणों में समर्पित करके, शरीर को गुरु की सेवा में लगाकर गुरुपूर्णिमा के इस शुभ पर्व पर शिष्य को एक संकल्प अवश्य करना चाहियेः 'इन्द्रिय-विषयों के लघु सुखों में, बंधनकर्ता तुच्छ सुखों में बह जानेवाले अपने जीवन को बचाकर मैं अपनी बुद्धि को गुरुचिंतन में, ब्रह्मचिंतन में स्थिर करूँगा।'

बुद्धि का उपयोग बुद्धिदाता को जानने के लिए ही करें। आजकल के विद्यार्थी बडे़-बडे़ प्रमाणपत्रों के पीछे पड़ते हैं लेकिन प्राचीन काल में विद्यार्थी संयम-सदाचार का व्रत-नियम पाल कर वर्षों तक गुरु के सान्निध्य में रहकर बहुमुखी विद्या उपार्जित करते थे। भगवान श्रीराम वर्षों तक गुरुवर वशिष्ठजी के आश्रम में रहे थे। वर्त्तमान का विद्यार्थी अपनी पहचान बडी़-बडी़ डिग्रियों से देता है जबकि पहले के शिष्यों में पहचान की महत्ता वह किसका शिष्य है इससे होती थी। आजकल तो संसार का कचरा खोपडी़ में भरने की आदत हो गयी है। यह कचरा ही मान्यताएँ, कृत्रिमता तथा राग-द्वेषादि बढा़ता है और अंत में ये मान्यताएँ ही दुःख में बढा़वा करती हैं। अतः साधक को चाहिये कि वह सदैव जागृत रहकर सत्पुरुषों के सत्संग सेम् ज्ञानी के सान्निध्य में रहकर परम तत्त्व परमात्मा को पाने का परम पुरुषार्थ करता रहे।

संसार आँख और कान द्वारा अंदर घुसता है। जैसा सुनोगे वैसे बनोगे तथा वैसे ही संस्कार बनेंगे। जैसा देखोगे वैसा स्वभाव बनेगा। जो साधक सदैव आत्म-साक्षात्कारी महापुरुष का ही दर्शन व सत्संग-श्रवण करता है उसके हृदय में बसा हुआ महापुरुषत्व भी देर-सवेर जागृत हो जाता है।महारानी मदालसा ने अपने बच्चों में ब्रह्मज्ञान के संस्कार भर दिये थे। छः में से पाँच बच्चों को छोटी उम्र में ही ब्रह्मज्ञान हो गया था। ब्रह्मज्ञान हो गया था। ब्रह्मज्ञान का सत्संग काम, क्रोध, लोभ, राग, द्वेष, आसक्ति और दूसरी सब बेवकूफियाँ छुडाता है, कार्य करने की क्षमता बढाता है, बुद्धि सूक्ष्म बनाता है तथा भगवद्ज्ञान में स्थिर करता है। ज्ञानवान के शिष्य के समान अन्य कोई सुखी नहीं है और वासनाग्रस्त मनुष्य के समान अन्य कोई दुःखी नहीं है। इसलिये साधक को गुरुपूनम के दिन गुरु के द्वार जाकर, सावधानीपूर्वक सेवा करके, सत्संग का अमृतपान करके अपना भाग्य बनाना चाहिए।

राग-द्वेष छोडकर गुरु की गरिमा को पाने का पर्व माने गुरुपूर्णिमा तपस्या का भी द्योतक है। ग्रीष्म के तापमान से ही खट्टा आम मीठा होता है। अनाज की परिपक्वता भी सूर्य की गर्मी से होती है। ग्रीष्म की गर्मी ही वर्षा का कारण बनती है। इसप्रकार संपूर्ण सृष्टि के मूल में तपस्या निहित है। अतः साधक को भी जीवन में तितिक्षा, तपस्या को महत्व देना चाहिए। सत्य, संयम और सदाचार के तप से अपनी आंतर चेतना खिल उठती है जबकि सुख-सुविधा का भोग करनेवाला साधक अंदर से खोखला हो जाता है। व्रत-नियम से इन्द्रियाँ तपती हैं तो अंतःकरण निर्मल बनता है और मेनेजर अमन बनता है। परिस्थिति, मन तथा प्रकृति बदलती रहे फिर भी अबदल रहनेवाला अपना जो ज्योतिस्वरुप है उसे जानने के लिए तपस्या करो। जीवन मेँ से गलतियों को चुन-चुनकर निकालो, की हुई गलती को फिर से न दुहराओ। दिल में बैठे हुए दिलबर के दर्शन न करना यह बडे-में-बडी गलती है। गुरुपूर्णिमा का व्रत इसी गलती को सुधारने का व्रत है।

शिष्य की श्रद्धा और गुरु की कृपा के मिलन से ही मोक्ष का द्वार खुलता है। अगर सदगुरु को रिझाना चाहते हो तो आज के दिन-गुरुपूनम के दिन उनको एक दक्षिणा जरूर देनी चाहिए।चातुर्मास का आरम्भ भी आज से ही होता है। इस चातुर्मास को तपस्या का समय बनाओ। पुण्याई जमा करो। आज तुम मन-ही-मन संकल्प करो। आज की पूनम से चार मास तक परमात्मा के नाम का जप-अनुष्ठान करूँगा.... प्रतिदिन त्रिबंधयुक्त 10 प्राणायाम करुँगा। (इसकी विधि आश्रम से प्रकाशित ‘ईश्वर की ओर’ पुस्तक के पृष्ठ नं. 55 पर दी गयी है।).... शुक्लपक्ष की सभी व कृष्णपक्ष की सावन से कार्तिक माह के मध्य तक की चार एकादशी का व्रत करूँगा.... एक समय भोजन करूँगा, रात्रि को सोने के पहले 10 मिनट ‘हरिः ॐ...’ का गुंजन करुँगा.... किसी आत्मज्ञानपरक ग्रंथ (श्रीयोगवाशिष्ठ आदि) का स्वाध्याय करूँगा.... चार पूनम को मौन रहूँगा.... अथवा महीने में दो दिन या आठ दिन मौन रहूँगा.... कार्य करते समय पहले अपने से पूछूँगा कि कार्य करनेवाला कौन है और इसका आखिरी परिणाम क्या है ? कार्य करने के बाद भी कर्त्ता-धर्त्ता सब ईश्वर ही है, सारा कार्य ईश्वर की सत्ता से ही होता है - ऐसा स्मरण करूँगा। यही संकल्प-दान आपकी दक्षिणा हो जायेगी।

इस पूनम पर चातुर्मास के लिए आप अपनी क्षमता के अनुसार कोई संकल्प अवश्य करो।
आप कर तो बहुत सकते हो आपमेँ ईश्वर का अथाह बल छुपा है किंतु पुरानी आदत है कि ‘हमसे नही होगा, हमारे में दम नहीं है। इस विचार को त्याग दो। आप जो चाहो वह कर सकते हो। आज के दिन आप एक संकल्प को पूरा करने के लिए तत्पर हो जाओ तो प्रकृति के वक्षःस्थल में छुपा हुआ तमाम भंडार, योग्यताओं का खजाना तुम्हारे आगे खुलता जायेगा। तुम्हें अदभुत शौर्य, पौरुष और सफलताओं की प्राप्ति होगी।तुम्हारे रुपये-पैसे, फल-फूल आदि की मुझे आवश्यकता नहीं है किंतु तुम्हारा और तुम्हारे द्वारा किसी का कल्याण होता है तो बस, मुझे दक्षिणा मिल जाती है, मेरा स्वागत हो जाता है।ब्रह्मवेत्ता सदगुरुओं का स्वागत तो यही है कि उनकी आज्ञा में रहें। वे जैसा चाहते हैं उस ढंग से अपना जीवन-मरण के चक्र को तोडकर फेंक दें और मुक्ति का अनुभव कर लें।

सत् शिष्य के लक्षण
सतशिष्य के लक्षण बताते हुए कहा गया हैः
अमानमत्सरो दक्षो निर्ममो दृढसौहृदः । असत्वरोर्थजिज्ञासुः अनसूयुः अमोघवाक ॥
‘सतशिष्य मान और मत्सर से रहित, अपने कार्य में दक्ष, ममतारहित गुरु में दृढ प्रीति करनेवाला, निश्चल चित्तवाला, परमार्थ का जिज्ञासु तथा ईर्ष्यारहित और सत्यवादी होता है।‘इस प्रकार के नौ-गुणों से जो सत शिष्य सुसज्जित होता है वह सदगुरु के थोडे-से उपदेश मात्र से आत्म-साक्षात्कार करके जीवन्मुक्त पद में आरुढ हो जाता है।

ब्रह्मवेत्ता महापुरुष का सान्निध्य साधक के लिए नितांत आवश्यक है। साधक को उनका सान्निध्य मिल जाय तो भी उसमें यदि इन नौ-गुणों का अभाव है तो साधक को ऐहिक लाभ तो जरूर होता है, किंतु आत्म-साक्षात्कार के लाभ से वह वंचित रह जाता है।
अमानित्व, ईर्ष्या का अभाव तथा मत्सर का अभाव - इन सदगुणों के समावेश से साधक तमाम दोषों से बच जाता है तथा साधक का तन और मन आत्मविश्रांति पाने के काबिल हो जाता है।

सतशिष्यों का यहाँ स्वभाव होता हैः वे आप अमानी रहते हैं और दूसरों को मान देते हैं। जैसे, भगवान राम स्वयं अमानी रहकर दूसरों को मान देते थे।साधक को क्या करना चाहिए ? वह अपनी बराबरी के लोगों को देखकर ईर्ष्या न करें, न अपने से छोटों को देखकर अहंकार करे और न ही अपने से बडों के सामने कुंठित हो, वरन सबको गुरु का कृपापात्र समझकर, सबसे आदरपूर्ण व्यवहार करें, प्रेमपूर्ण व्यवहार करें ऐसा करने से साधक धीरे-धीरे मान, मत्सर और ईर्ष्यासहित होने लगता है। खुद को मान मिले ऐसी इच्छा रखने पर मान नहीं मिलता है तो दुःख होता है और मान मिलता है तब सुखाभास होता है तथा नश्वर मान की इच्छा और बढती है । इस प्रकार मान की इच्छा को गुलाम बनाती है जबकि मान की इच्छा से रहित होने से मनुष्य स्वतंत्र बनता है। इसलिए साधक को हमेशा मानरहित बनने की कोशिश करनी चाहिये। जैसे, मछली जाल में फँसती है तब छ्टपटाती है, ऐसे ही जब साधक प्रशंसकों के बीच में आये तब उसका मन छ्टपटाना चाहिये। जैसे, लुटेरों के बीच आ जाने पर सज्जन आदमी जल्दी से वहाँ से खिसकने की कोशिश करता है ऐसे ही साधक को प्रशंसकों प्रलोभनों और विषयों से बचने की कोशिश करनी चाहिए।

जो तमोगुणी व्यक्ति होता है वह चाहता है कि ‘मुझे सब मान दें और मेरे पैरों तले सारी दुनिया रहे।‘ जो रजोगुणी व्यक्ति होता है वह कहता है कि ‘हम दूसरों को मान देंगे तो वे भी हमें मान देंगे।‘ ये दोनों प्रकार के लोग प्रत्यक्ष या परोक्षरूप से अपना मान बढाने की ही कोशिश करते हैं। मान पाने के लिये वे सम्बंधों के तंतु जोडते ही रहते हैं और इससे इतने बहिर्मुख हो जाते हैं कि जिससे सम्बंध जोडना चाहिये उस अंतर्यामी परमेश्वर के लिये उनको फुर्सत ही नही मिलती और आखिर में अपमानित होकर जगत से चले जाते हैं इअसा न हो इसलिये साधक को हमेशा याद रखना चाहिये कि चाहे कितना भी मान मिल जाय लेकिन मिलता तो है इस नश्वर शरीर को ही और शरीर को अंत में जलाना ही है तो फिर उसके लिए क्यों परेशान होना ?
संतों ने ठीक ही कहा हैः

मान पुडी़ है जहर की, खाये सो मर जाये ।
चाह उसी की राखता, वह भी अति दुःख पाय॥

एक बार बुद्ध के चरणों में एक अपरिचित युवक आ गिरा और दंडवत् प्रणाम करने लगा।
बुद्धः "अरे अरे, यह क्या कर रहे हो ? तुम क्या चाहते हो? मैं तो तुम्हें जानता तक नहीं।"
युवकः "भन्ते! खडे़ रहकर तो बहुत देख चुका। आज तक अपने पैरों पर खडा़ होता रहा इसलिये अहंकार भी साथ में खडा़ ही रहा और सिवाय दुःख के कुछ नहीं मिला। अतः आज मैं आपके श्रीचरणों में लेटकर विश्रांति पाना चाहता हूँ।"
अपने भिक्षुकों की ओर देखकर बुद्ध बोलेः "तुम सब रोज मुझे गुरु मानकर प्रणाम करते हो लेकिन कोई अपना अहं न मिटा पाया और यह अनजान युवक आज पहली बार आते ही एक संत के नाते मेरे सामने झुकते-झुकते अपने अहं को मिटाते हुए, बाहर की आकृति का अवलंबन लेते हुए अंदर निराकार की शान्ति में डूब रहा है।"इस घटना का यही आशय समझना है कि सच्चे संतों की शरण में जाकर साधक को अपना अहंकार विसर्जित कर देना चाहिये। ऐसा नहीं कि रास्ते जाते जहाँ-तहाँ आप लंबे लेट जायें।
अमानमत्सरो दक्षो....

साधक को चाहिये कि वह अपने कार्य में दक्ष हो। अपना कार्य क्या है? अपना कार्य है कि प्रकृति के गुण-दोष से बचकर आत्मा में जगना और इस कार्य में दक्ष रहना अर्थात डटे रहना, लगे रहना। उस निमित्त जो भी सेवाकार्य करना पडे़ उसमें दक्ष रहो। लापरवाही, उपेक्षा या बेवकूफी से कार्य में विफल नहीं होना चाहिये, दक्ष रहना चाहिये। जैसे, ग्राहक कितना भी दाम कम करने को कहे, फिर भी लोभी व्यापारी दलील करते हुए अधिक-से-अधिक मुनाफा कमाने की कोशिश करता है, ऐसे ही ईश्वर-प्राप्ति के मार्ग में चलते हुए कितनी ही प्रतिकूल परिस्थितियाँ आ जायें, फिर भी साधक को अपने परम लक्ष्य में डटे रहना चाहिये। सुख आये या दुःख, मान हो या अपमान, सबको देखते जाओ.... मन से विचारों को, प्राणों की गति को देखने की कला में दक्ष हो जाओ।
नौकरी कर रहे हो तो उसमें पूरे उत्साह से लग जाओ, विद्यार्थी हो तो उमंग के साथ पढो़, लेकिन व्यावहारिक दक्षता के साथ-साथ आध्यात्मिक दक्षता भी जीवन में होनी चाहिए। साधक को सदैव आत्मज्ञान की ओर आगे बढना चाहिए। कार्यों को इतना नही बढाना चाहिये कि आत्मचिंतन का समय ही न मिले। सम्बंधोम् को इतना नहीं बढाना चाहिए कि जिसकी सत्ता से सम्बंध जोडे जाते हैं उसी का पता न चले।

एकनाथ जी महाराज ने कहा हैः 'रात्रि के पहले प्रहर और आखिरी प्रहर में आत्मचिंतन करना चाहिये। कार्य के प्रारंभ में और अंत में आत्मविचार करना चाहिये।' जीवन में इच्छा उठी और पूरी हो जाय तब जो अपने-आपसे ही प्रश्न करे किः 'आखिर इच्छापूर्ति से क्या मिलता है?' वह है दक्ष। ऐसा करने से वह इच्छानिवृत्ति के उच्च सिंहासन पर आसीन होनेवाले दक्ष महापुरुष की नाईं निर्वासनिक नारायण में प्रतिष्ठित हो जायेगा।

अगला सदगुण है। ममतारहित होना। देह में अहंता और देह के सम्बंधियों में ममता रखता है, उतना ही उसके परिवार वाले उसको दुःख के दिन दिखा देते हैं। अतः साधक को देह और देह के सम्बंधों से ममतारहित बनना चाहिये।आगे बात आती है- गुरु में दृढ़ प्रीति करने की। मनुष्य क्या करता है? वास्तविक प्रेमरस को समझे बिना संसार के नश्वर पदार्थों में प्रेम का रस चखने जाता है और अंत में हताशा, निराशा तथा पश्चाताप की खाई में गिर पडता है। इतने से भी छुटकारा नहीं मिलता। चौरासी लाख जन्मों की यातनाएँ सहने के लिये उसे बाध्य होना पडता है। शुद्ध प्रेम तो उसे कहते हैं जो भगवान और गुरु से किया जाता है। उनमें दृढ प्रीति करने वाला साधक आध्यात्मिकता के शिखर पर शीघ्र ही पहुँच जाता है। जितना अधिक प्रेम, उतना अधिक समर्पण और जितना अधिक समर्पण, उतना ही अधिक लाभ।

कबीर जी ने कहा हैः

प्रेम न खेतों उपजे, प्रेम न हाट बिकाय।
राजा चहो प्रजा चहो, शीश दिये ले जाये॥

शरीर की आसक्ति और अहंता जितनी मिटती जाती है, उतना ही स्वभाव प्रेमपूर्ण बनता जाता है। इसीलिए छोटा-सा बच्चा, जो निर्दोष होता है, हमें बहुत प्यारा लगता है क्योंकि उसमें देहासक्ति नहीं होती। अतः शरीर की अहंता और आसक्ति नहीं होती। अतः शरीर की अहंता और आसक्ति छोड़कर गुरु में, प्रभु में दृढ़ प्रीति करने से अंतःकरण शुद्ध होता है। 'विचारसागर' ग्रन्थ में भी आता हैः 'गुरु में दृढ़ प्रीति करने से मन का मैल तो दूर होता ही है, साथ ही उनका उपदेश भी शीघ्र असर करने लगता है, जिससे मनुष्य की अविद्या और अज्ञान भी शीघ्र नष्ट हो जाता है।'इस प्रकार गुरु में जितनी-जितनी निष्ठा बढ़ती जाती है, जितना-जितना सत्संग पचता जाता है, उतना-उतना ही चित्त निर्मल व निश्चिंत होता जाता है।इस प्रकार परमार्थ पाने की जिज्ञासा बढ़ती जाती है, जीवन में पवित्रता, सात्विक्ता, सच्चाई आदि गुण प्रकट होते जाते हैं और साधक ईर्ष्यारहित हो जाता है।

जिस साधक का जीवन सत्य से युक्त, मान, मत्सर, ममता और ईर्ष्या से रहित होता है, जो गुरु में दृढ़ प्रीतिवाला, कार्य में दक्ष तथा निश्चल चित्त होता है, परमार्थ का जिज्ञासु होता है - ऐसा नौ-गुणों से सुसज्ज साधक शीघ्र ही गुरुकृपा का अधिकारी होकर जीवन्मुक्ति के विलक्षण आनन्द का अनुभव कर लेता है अर्थात परमात्म-साक्षात्कार कर लेता है।

गुरुपूजन का पर्व
गुरुपूर्णिमा अर्थात् गुरु के पूजन का पर्व ।
गुरुपूर्णिमा के दिन छत्रपति शिवाजी भी अपने गुरु का विधि-विधान से पूजन करते थे।किन्तु आज सब लोग अगर गुरु को नहलाने लग जायें, तिलक करने लग जायें, हार पहनाने लग जायें तो यह संभव नहीं है। लेकिन षोडशोपचार की पूजा से भी अधिक फल देने वाली मानस पूजा करने से तो भाई ! स्वयं गुरु भी नही रोक सकते। मानस पूजा का अधिकार तो सबके पास है।

"गुरुपूर्णिमा के पावन पर्व पर मन-ही-मन हम अपने गुरुदेव की पूजा करते हैं.... मन-ही-मन गुरुदेव को कलश भर-भरकर गंगाजल से स्नान कराते हैं.... मन-ही-मन उनके श्रीचरणों को पखारते हैं.... परब्रह्म परमात्मस्वरूप श्रीसद्गुरुदेव को वस्त्र पहनाते हैं.... सुगंधित चंदन का तिलक करते है.... सुगंधित गुलाब और मोगरे की माला पहनाते हैं.... मनभावन सात्विक प्रसाद का भोग लगाते हैं.... मन-ही-मन धूप-दीप से गुरु की आरती करते हैं...."

इस प्रकार हर शिष्य मन-ही-मन अपने दिव्य भावों के अनुसार अपने सद्गुरुदेव का पूजन करके गुरुपूर्णिमा का पावन पर्व मना सकता है। करोडों जन्मों के माता-पिता, मित्र-सम्बंधी जो न से सके, सद्गुरुदेव वह हँसते-हँसते दे डा़लते हैं।'हे गुरुपूर्णिमा ! हे व्यासपूर्णिमा ! तु कृपा करना.... गुरुदेव के साथ मेरी श्रद्धा की डोर कभी टूटने न पाये.... मैं प्रार्थना करता हूँ गुरुवर ! आपके श्रीचरणों में मेरी श्रद्धा बनी रहे, जब तक है जिन्दगी.....

वह भक्त ही क्या जो तुमसे मिलने की दुआ न करे ?
भूल प्रभु को जिंदा रहूँ कभी ये खुदा न करे ।

हे गुरुवर !
लगाया जो रंग भक्ति का, उसे छूटने न देना ।
गुरु तेरी याद का दामन, कभी छूटने न देना ॥
हर साँस में तुम और तुम्हारा नाम रहे ।
प्रीति की यह डोरी, कभी टूटने न देना ॥
श्रद्धा की यह डोरी, कभी टूटने न देना ।
बढ़ते रहे कदम सदा तेरे ही इशारे पर ॥
गुरुदेव ! तेरी कृपा का सहारा छूटने न देना।
सच्चे बनें और तरक्की करें हम,
नसीबा हमारी अब रूठने न देना।
देती है धोखा और भुलाती है दुनिया,
भक्ति को अब हमसे लुटने न देना ॥
प्रेम का यह रंग हमें रहे सदा याद,
दूर होकर तुमसे यह कभी घटने न देना।
बडी़ मुश्किल से भरकर रखी है करुणा तुम्हारी....
बडी़ मुश्किल से थामकर रखी है श्रद्धा-भक्ति तुम्हारी....
कृपा का यह पात्र कभी फूटने न देना ॥
लगाया जो रंग भक्ति का उसे छूटने न देना ।
प्रभुप्रीति की यह डोर कभी छूटने न देना ॥

आज गुरुपूर्णिमा के पावन पर्व पर हे गुरुदेव ! आपके श्रीचरणों में अनंत कोटि प्रणाम.... आप जिस पद में विश्रांति पा रहे हैं, हम भी उसी पद में विशांति पाने के काबिल हो जायें.... अब आत्मा-परमात्मा से जुदाई की घड़ियाँ ज्यादा न रहें.... ईश्वर करे कि ईश्वर में हमारी प्रीति हो जाय.... प्रभु करे कि प्रभु के नाते गुरु-शिष्य का सम्बंध बना रहे...'

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK

Yantra(यन्त्र)

यंत्र
आर्य सभ्यता में वेदों के मंत्र, शास्त्रों-श्रुतियों के मन्त्र एवं सर्व शक्तिमान ॐकार अपना एक अलग स्थान रखते है एवं मन्त्रों की शक्ति को प्रकट करते है। जिस प्रकार मंत्र और तंत्र में ऊर्जा शक्ति कार्य करती है, उसी प्रकार यंत्र भी ऊर्जा शक्ति का ही एक रूप है। जिस प्रकार पश्चिम सभ्यता में क्रिश्टल एवं फ़ैंगशुई द्वारा बनाई गई विभिन्न वस्तुओं में ऊर्जा होती है एवं उन वस्तुओं को यदि घर में रख लिया जाये तो वे आप के घर की ॠणात्मक (नेगेटिव) ऊर्जा को धनात्मक (पोजीटिव) ऊर्जा में बदल देते हैं। उसी प्रकार यन्त्र भी कार्य करते है। यदि सही तरीके से यन्त्र का निर्माण किया जाये और उसे अपने घर या कार्य क्षेत्र में स्थापित किया जाये, तो वह वहाँ की ॠणात्मक (नेगेटिव) ऊर्जा को धनात्मक (पोजीटिव) ऊर्जा में बदल देगा। आम व्यक्ति के मन में यह धारणा होती है कि यन्त्र के साथ किसी भी प्रकार की यदि गलती हो गई तो वह आप को नुक्सान देगा या आप का बुरा करेगा, किन्तु ऐसा नहीं है। किसी भी यन्त्र को धूप या दीपक आदि जलाना सिर्फ़ श्रद्धा का ही प्रतीक है। इसलिऐ यन्त्रों से किसी भी प्रकार डरने की या घबराने की आवश्यकता नहीं है। यन्त्र किसी भी प्रकार से आपको नुक्सान नहीं देते। यह सिर्फ़ आपकी सोच है, कि यंत्रों से किसी भी प्रकार का नुक्सान होता है। अन्तर केवल हमारी समझ का है, फ़ैन्गशुई आदि में जिस प्रकार वस्तुओं के अन्दर या प्रतीक चिन्हों के अन्दर, जैसे कि मेंढ़क, ड्रैगन आदि रखना तो पसन्द करते है, किन्तु यन्त्र को रखने से डरते है।

धीरे-धीरे हम पश्चिमी सभ्यता के गुलाम बनते जा रहे है और अपनी मूल सभ्यता को छोड़ते जा रहे है। किन्तु इस के मूल में भी जो कारण दिखाई पड़ता है, वह यह है कि हिन्दू धर्म के अन्दर आम व्यक्ति को यन्त्रों की सही जानकारी का न होना। अगर हमें यन्त्रों की सही जानकारी है या हम किसी के भी सही मार्ग निर्देशन में यदि अपने घर के अन्दर यन्त्र की स्थापना करें, तो वह पश्चिमी सभ्यता के यन्त्रों कि तुलना में अधिक लाभ पहुँचायेगा। आवश्यकता है सही राह दिखाने वाले की। किन्तु धीरे-धीरे सही राह दिखाने वाले ही समाप्त होते जा रहे है। यदि हम विधान से तैयार किये हुऐ यन्त्र को अपने घर में स्थापित करे तो ऐसा सम्भव नहीं है कि हमें हमारे उद्देश्य कि प्राप्ति न हो। ध्यान-पूर्वक अध्ययन करने पर हमें पता चलता है कि चाहे वह यन्त्र हो या फ़ैंग-शुई आदि द्वारा निर्मित कोई वस्तु। सभी के मूल में मन्त्र शक्ति एवं विधि-विधान ही है। बिना विधि-विधान एवं मन्त्र के किसी भी यन्त्र या वस्तु के अन्दर ऊर्जा शक्ति इकट्ठी नहीं हो सकती। जो व्यक्ति यह कहते है कि फ़ैंगशुई आदि वस्तुओं के अन्दर कल्पना शक्ति होती है, तो यह भ्रम मात्र है। अगर कोई व्यक्ति अपनी कल्पना शक्ति के द्वारा किसी भी वस्तु के अन्दर ऊर्जा इकट्ठी करता है, तो वह बहुत कम समय के लिऐ होती है। किन्तु यदि मन्त्र-विधान से किसी भी वस्तु के अन्दर ऊर्जा शक्ति इकट्ठी की जाये तो वह लम्बें समय तक या यों कहें कि सालों तक कार्य करती है। आज के समय में जो आम व्यक्ति का ध्यान या विश्वास यन्त्रों के ऊपर से हट गया है, उस के मूल में यही कारण है कि सही विधि-विधान के बिना यन्त्र को तैयार करना।

पश्चिमी देशों के साधक जो भी वस्तु तैयार करते है या किसी भी वस्तु के अन्दर ऊर्जा इकट्ठी करते है उसके मूल में मन्त्र और विधान ही काम करता है। यह व्यक्ति जिस भी वस्तु को तैयार करते है, सर्व-प्रथम उसको बना कर अनेकों पिरामिडों के बीच में रखते है और 11 या 21 दिनों तक उस वस्तु को पिरामिडों के बीच रखे रहनें देते है और साथ ही वहाँ पर अपने नियम के अनुसार प्रार्थना करते रहते है। तब जाकर उस वस्तु के अन्दर ऊर्जा इकट्ठी होती है। उसी प्रकार हिन्दू धर्म में भी यन्त्र को बना कर 11,21 दिनों तक पूजा-अनुष्ठान करके यन्त्र के अन्दर ऊर्जा इकट्ठी करते है। जो व्यक्ति ऐसा विधान नहीं करते द्वारा निर्मित किसी भी प्रकार की कोई भी वस्तु या कोई भी यन्त्र काम नहीं करते। क्योकि बिना विधि-विधान के किसी भी वस्तु या किसी भी यन्त्र के अन्दर ऊर्जा शक्ति एकत्रित नहीं होती। आज अनेकों ही व्यक्ति अनेकों प्रतीक चिन्ह और यन्त्र आदि बेच रहे हैं। किन्तु वह प्रतीक या यन्त्र विधि-विधान से तैयार है या नहीं, किसी को कुछ भी नहीं मालूम। आम व्यक्ति अपना पैसा और समय बचाने के लिये प्रतीक चिन्हों व यन्त्रों को खरीद कर अपने घर लाता है और फ़ायदा न होने पर दुकानदार को या उस सामान को बुरा कहता है या फ़िर अपने भाग्य को कोसता है। सही मायने में अपका भाग्य खराब नहीं है, बल्कि आपकी सोच खराब है। क्योंकि समय और पैसा बचाने के लिये एक प्रतीक या यन्त्र आप बाजार से खरीद लाये। ऊर्जा शक्ति बिकाऊ नहीं है, यह किसी बाजार में नहीं बिकती। अगर आप सही मायने में ऊर्जा शक्ति प्राप्त करना चाहते है, तो अपने सामने ही प्रतीक-चिन्ह या यन्त्र तैयार करवायें या स्वयं करें।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK

Wednesday, August 25, 2010

Sagun Nirgun(सगुण निरगुण)

सगुण निरगुण
जब से यह सृष्टि बनी है और उस के पश्चात जब जीव उत्पन्न हुआ उसके मन में हमेशा ही यह प्रश्न गूँजते रहे की मैं कौन हूँ? यह प्रकृति क्या है और उसको बनाने वाला पुरूष कौन है। अर्थात् उन ज्ञानी पुरूषों के हृदय में जिन्होंने कि सम्पूर्णता को प्राप्त नहीं किया है, अपितु सम्पूर्णता की तरफ अग्रसर है। उनके हृदय में हमेशा ही जीव, प्रकृति एवं पुरुष के प्रति जिज्ञासाएँ उत्पन्न होती रहती है। जीव अर्थात् व्यक्ति, प्रकृति(माया) अर्थात् यह सम्पूर्ण ब्रहमांड। पुरूष का अर्थ है- वह परमपिता परमात्मा। विशेषतः जो व्यक्ति, जीव का अर्थ इंसान को लेते है, वे गलत है। सही मायने में जीव का अर्थ आत्मा है। इस आत्मा को ही पँचतत्त्वों में बँधे होने के कारण शास्त्रों में जीव कहा गया है। सबसे पहले हमें यह समझना होगा की जीव, प्रकृति और पुरूष अनादि है। इनका कभी भी एक दूसरे में विलय नहीं होता। जैसा की अनेकों जगह कहा जाता है, कि महाप्रलय में जीव और प्रकृति का लय, परमात्मा में हो जाता है। ऐसा नहीं है, अगर हम ध्यान पूर्वक शास्त्रों का अध्ययन करें तो पता चलेगा की महाप्रलय के वक्त स्वयं मनु-महाराज ने एक विशाल नाव में सभी जीवों को बिठाया एवं उस नाव को मत्स्य रूपी उस परमात्मा के रूप ने ही अथाह सागर की लहरों के बीच खिंचा अर्थात् चलाया।

अगर यह मान लिया जाये की महाप्रलय में जीव और सृष्टि का लय परमात्मा में हो जाता है, तो यह कहानी मिथ्या साबित होती है। लेकिन यह कहानी मिथ्या नहीं हैं। बल्कि मिथ्या यह है कि महाप्रलय में जीव और प्रकृति का लय, परमात्मा में हो जाता है। इतना अवश्य है कि महाप्रलय में सभी जीव राजा मनु की नाव में विराजमान थे, एवं सम्पूर्ण धरा पानी की गोद में समा गई थी। महाप्रलय का जो भी समय होता है। तब तक यह सभी जीव उस नाव में विराजमान होते है। उस के पश्चात् जब महाप्रलय का वक्त समाप्त होता है और कुछ धरा सूख जाती है, तो एक जीव का देह रूप में जन्म होता है, जिसे की कच्छप या कछुआ कहा गया है। क्योंकि यह ही ऐसा जीव है जो पानी और धरा दोनो पर ही रह सकता है। उस के उपरान्त ज्यों-ज्यों धरा सूखती गई या यों कहे की धरा कुछ दल-दली रह गई, उस वक्त एक ओर जीव का जन्म हुआ जिसे की वराह(सुअर) कहा गया। क्योंकि वराह ही इस दल-दली भूमि पर निवास कर सकता है। उस के उपरान्त जब धरा ओर अधिक सूखने लगी तो एक ओर जीव अश्व का जन्म हुआ। उस के उपरान्त ज्यों-ज्यों धरा हरियाली होती चली गई, तो धीरे-धीरे करके अनेकों ही जीवों ने इस धरा पर जन्म लिया। सब से बाद में इंसान का जन्म हुआ। आज के वक्त में जो हम मत्स्य, कच्छप, वराह, अश्व, वानर आदि को ईश्वरावतार मानते है। इसके पीछे कारण है, कि महाप्रलय से लेकर और उसके उपरान्त एक-एक करके उस परमात्मा ने जिन जीवों को इस धरा पर उतारा और उन जीवों ने मानव को धरा पर रहने में मदद की। इस लिऐ हिन्दू-धर्म में इन सभी की पूजा की जाती है।

सृष्टि की उत्पत्ति के उपरान्त जब मानव का जन्म हुआ। तो प्रश्न वहीं का वहीं था। जीव, प्रकृति और पुरूष। इस को समझने के लिऐ इन्सान भटकता रहा। अन्त में उसे ज्ञान की प्राप्ति हुई, और उस पूर्णता को प्राप्त हुआ, जिस के द्वारा उस का जन्म हुआ था। साधक के मन में हमेशा ही अनेकों प्रश्न उठते रहते है। जैसे की वह परमात्मा सगुण है, या निर्गुण। साकार है, या निराकार। सगुण और निर्गुण में वह परमात्मा सगुण भी है और निर्गुण भी है। अनेकों साधक सगुण से अर्थ यह लगाते हैं, कि उस परमात्मा का कोई रंग रूप भी है। लेकिन यह मिथ्या है। सगुण का अर्थ यह है, कि जिसमें सभी सुंदर गुणों का समावेश हो, उस परमात्मा के अन्दर सभी गुण मौजूद है। निर्गुण का अर्थ- जिस में कोई बुरे गुण न हो। चूँकि यह सम्पूर्ण सृष्टि एवं 84 लाख जीव उस परमात्मा ने बनाये हैं। इससे हमें पता चलता है, कि वह परमात्मा सर्वगुण संपन्न अर्थात् सगुण है। इस के उपरान्त साकार का अर्थ है कि- उस का अपना एक रंग रूप होना और निराकार का अर्थ है जिस का कि कोई रंग रूप न हो। इस प्रकार हम ध्यान-पूर्वक देखें तो हमे पता चलता है, कि वह परमात्मा निराकार है। क्योंकि उसका अपना कोई भी रंग और रूप नहीं है। वह केवल ज्ञानियों के हृदय में ज्योति स्वरूप होकर भासता है। इस तरह ध्यान-पूर्वक मनन करने पर हमे पता चलता है कि वह परमात्मा निराकार है।

लेकिन जो साधक कोई भी या किसी भी प्रकार की मूर्ति रूप में पूजा करता है। वह असल में उस परमात्मा की पूजा न करके देव विशेष की पूजा करता है। अनेकों शास्त्रों में अनेकों जगह स्पष्ट रूप से लिखा हुआ है कि- जो साधक जिस देव विशेष की पूजा करेगा, वह मृत्यु उपरान्त उसी लोक या मंडल में प्रवेश पाने का अधिकारी है। लेकिन वह उस परमात्मा तक उस देव के द्वारा नहीं पहुँच सकता। उस परमात्मा तक पहुँचने के लिए आवश्यकता है, सही मार्ग निर्देशन की। गीता के अन्दर भी भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि जो जिस देव की पूजा करेगा, वह उसी लोक में जायेगा। जो मुझ अर्थात् उस परमात्मा तत्त्व को भजेगा, वह मुझे अर्थात् उस परमात्मा को प्राप्त होगा। अनेकों ही साधक इस बात का गलत अर्थ निकालते हुऐ, श्रीकृष्ण के स्वरूप एवं उनके नाम का जाप करते हैं। लेकिन हमें ध्यान-पूर्वक इस बात को समझना होगा कि भगवान श्रीकृष्ण जी ने अपने उपदेश में यह कदापि नहीं कहा, कि मुझ कृष्ण का भजन करो। बल्कि उन्होंने यह कहा है कि मेरे अन्दर जो परमात्मा तत्त्व है उसका भजन करो। लेकिन अनेकों साधक उस परमात्मा तत्त्व को छोड़कर कृष्ण नाम के दीवाने हैं। हमें फिर से यह समझना होगा, कि चाहे हम राम जपें या कृष्ण नाम का जाप करे हम सहस्त्र मंडल से आगे इन नामों के द्वारा नहीं जा सकते। इसलिए गीता में भगवान श्रीकृष्ण जी ने कहा है, कि मंत्रों में महामंत्र ‘गायत्री’ मैं हूँ। और अक्षरों में अक्षर ‘ॐकार’ मैं हूँ।

इसलिए हम सभी का कर्त्तव्य बनता है, कि अनादि काल से जो परम्परा चली आ रही है। उस का पालन करें अर्थात् गायत्री मंत्र युक्त संध्या करें। एवं ॐकार के द्वारा जितना भी सम्भव हो सके ज्यादा-से-ज्यादा समय उस परमात्मा के ध्यान में लगाये। अनादि काल से ही प्रत्येक धर्म के ऊपर प्रतीकों का प्रभाव रहा हैं। अगर हम हिन्दू-धर्म की बात करें तो प्रारम्भ में प्रतीक रूप ॐ और स्वास्तिक थे। ॐकार सर्वव्यापक परमात्मा का प्रतीक था, तो स्वास्तिक सुख समृद्धि का प्रतीक था। राज दरबार से लेकर एक झोंपड़े तक में यह प्रतीक विद्यमान रहते थे। जहाँ पर इन प्रतीकों को स्थापित किया जाता था, उसे पूजा-स्थल कहते थे। उस के उपरान्त धीरे-धीरे मूर्ति रुप में अनेकों प्रतीक बनने लगे। प्रारम्भ में लिंग रुप में एवं उस के बाद चतुर्भुजी विष्णु रुप में प्रतीक सामने आये। उस के बाद अनेकों ही देवी-देवताओं के प्रतीक भी बनने लगे। प्रारम्भ में इन प्रतीकों को ॐकार की तरह ही सर्वव्यापक परमात्मा का स्वरुप मानते हुऐ पूजा होती थी। किन्तु बाद में लिंग रुप को मानने वाले शैव और चतुर्भुजी विष्णु को प्रतीक रूप में मानने वाले वैष्णव कहलाये। उसके कुछ समय बाद ही एक नया मत सामने आया। जिसने कि योनी से लेकर सुन्दर स्त्री तक के प्रतीक बनाये। यह सभी प्रतीक रूप थे। इन प्रतीकों को मानने वाले शाक्त कहलाये। शाक्त शक्ति के उपासक थे। इसलिए इन्होंने शक्ति का प्रतीक, स्त्री को माना और उसका प्रतीक बनाया। उसके बाद तो धीरे-धीरे करके अनेकों ही मत बनते चले गये। कलियुग प्रारम्भ होने के बाद इन सभी मतों में इतना अधिक द्वेष पैदा हो गया था, कि आम आदमी की समझ से बाहर था। प्रत्येक मत अपने आप को सर्वोतम एवं शक्तिशाली मानता था। किन्तु उसके बाद धीरे-धीरे उस ॐकार को मानने वाले अनेकों ही संत पैदा हुऐ। किन्तु प्रतीकों से कोई भी संत या कोई भी साधु बच नहीं पाया। उन्होंने पुराने प्रतीक नहीं माने, तो नये प्रतीक बना डालें। अगर हम ध्यान-पूर्वक अध्ययन करें, तो हमे पता चलेगा की कोई भी धर्म या मत प्रतीकों से बच नहीं पाया।

अगर हम 2500 साल पहले बने जैन या बौद्ध-धर्म की बात करें, जो कि प्रारम्भ में निराकार-परमात्मा को मानने वाले थे, वे सभी बाद में प्रतीकों को बनाने और मानने लगे। अगर कहा जाये की जैन और बौद्ध-धर्म दोनों नास्तिक हैं, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। क्योंकि ये दोनों ही धर्म 24 तीर्थंकरों एवं महात्मा बुद्ध को परमात्मा मानते है। लेकिन यह उस परमात्मा को नहीं मानते, जिसने की 24 तीर्थंकरों एवं महात्मा बुद्ध को पैदा किया। उस के उपरान्त ईसाई धर्म आया। जिसमें की ईसाईयों के पवित्र ग्रंथ बाईबल में ईसा-मसीह ने अपने आप को खुदा का बेटा बतलाया है। ईसा-मसीह ने अपने सम्पूर्ण जीवन काल में हमेशा परमात्मा और उस के नाम का प्रचार किया और कहा कि मैं तो उस परमात्मा का बेटा हूँ। मुझे उस परमात्मा ने ही तुम्हें लेने के लिऐ भेजा है। मैं तुम सबको उस परमात्मा तक ले कर जाऊँगा। ईसा-मसीह ने जिस निराकार-परमात्मा की सेवा की, एवं उसका प्रचार किया। ईसा-मसीह की मृत्यु के उपरान्त ईसाईयों ने जिस क्रूस के ऊपर ईसा-मसीह को लटकाया गया था। उसी को अपना प्रतीक बना लिया। ईसा-मसीह के जीवन काल में कहीं भी कोई भी प्रतीक नहीं था। लेकिन उनके जाने के उपरान्त अनेकों गिरजाघर (चर्च) बनने लगें एवं प्रतीक रूप में प्रत्येक गिरजाघर (चर्च) के अन्दर ईसा-मसीह, मरियम एवं क्रास की स्थापना कर दी गई। ईसाई धर्म के पश्चात मुस्लिम धर्म आया, मुस्लिम धर्म में हजरत मोहम्मद साहब के जीवन काल तक कोई भी प्रतीक नहीं था। किन्तु उन के बाद अनेकों ही प्रतीक बन गये। मुस्लिम धर्म में जो सब से बड़ा प्रतीक हैं, वह मक्का है। किन्तु आज भी मुस्लिम धर्म के दो मत है – शिया और सुन्नी। शिया सिर्फ खुदा को मानते है, जबकि सुन्नी खुदा के साथ-साथ मज़ार आदि को भी मानते है। लेकिन फिर भी दोनों ही मत प्रतीक रूप में तो मक्का को मानते ही हैं।

लगभग 500 साल पहले बाबा नानक का जन्म हुआ। उनके बारे में कहा जाता है, कि एक बार वे मक्का गये और मक्का की तरफ पाँव करके लेट गये। जब किसी ने उनसे कहा की आप के पाँव खुदा की तरफ है। आप हटा लीजिए। तो बाबा नानक ने कहा कि जिस तरफ खुदा नहीं है, तू उस तरफ मेरे पाँव कर दे। जब उस मौलवी ने बाबा नानक के पाँव उठाये, तो बताते है, कि जिस तरफ भी पाँव होते चले गये, उसी तरफ मक्का भी घूमता चला गया। ऐसे महापुरूष ‘बाबा नानक’ ने अपने जीवन काल में सभी प्रतीकों का खंड़न किया एवं उस निराकार परमात्मा की बन्दगी की। किन्तु नौ गुरूओं तक तो निराकार की बन्दगी होती रही। परन्तु जैसे ही दसवें गुरू गुरूगोविन्द सिहँ जी महाराज आये, और जब उन्होंने महसूस किया की मुस्लिम अत्याचारी राजाओं से अध्यात्म के बल पर जीता नहीं जा सकता, तो उन्होंने स्वयं ‘चण्डी साधना’ की एवं पाँच बकरों की बली दे कर पाँच प्यारे बनाये। बाद में उन्होंने भी प्रतीक रूप में गुरू ‘ग्रंथ-साहिब’ की स्थापना की। बाबा नानक से लेकर 9वें गुरू तक जहाँ निराकार की बन्दगी थी, वहीं दसवें गुरू के समय से गुरू ‘ग्रंथ-साहिब’ को ही निराकार परमात्मा का प्रतीक माना गया। साथ ही पाँच ककारों को भी प्रतीक रूप में ग्रहण करने का आदेश 10वें गुरू ने सभी सिखों को दिया। इसके साथ ही दसवें गुरू ने यह भी ने यह भी हुक्म दिया कि आज के बाद न तो कोई ‘देह-धारी गुरू’ होगा और न ही उसका कोई ‘शिष्य’। बल्कि गुरू ‘ग्रंथ-साहिब’ ही सब के ‘गुरू’ होगें व हम सब ही इसके सिख कहलायेंगे।

श्रीगुरू गोबिंद सिहँ जी ने ‘श्री गुरू ग्रंथ-साहिब जी’ के पावन स्वरूप को संमुख रखते हुए फरमाया-
पूजा अकाल की, परचा शब्द का, दीदार खालसे का।
श्रीगुरू गोबिंद सिहँ जी ने ‘श्री गुरू ग्रंथ-साहिब जी’ को गुरतागद्दी बख्शी व आदेश दिया-

आगिआ भई अकाल की, तबै चलायो पंथ।
सभ सिक्खन को हुकम है, गुरू मानीओ ग्रंथ॥
गुरू ग्रंथ जी मानयो, प्रगट गुरां की देह।
जो प्रभ को मिलि बोच है, खोज शब्द में लेह॥

गुरू ग्रंथ-साहिब को न मानने वाला पूरा सिख नहीं हो सकता। अब हम अगर ध्यानपूर्वक इन सभी धर्मों को देखें तो सब के अपने-अपने नियम है। सिख मत में जहाँ बीड़ी-सिगरेट पीना बन्द बताया गया है। वहीं मुस्लिम धर्म में शराब पर पाबन्दी है। जैन धर्म में माँस के ऊपर प्रतिबंध है। तो इस तरह अगर हम इन बातों को समझे तो हमें पता चलता है, कि सभी धर्मों ने किसी एक चीज पर विशेष-प्रतिबंध लगाई है। इसके उलट, वहीं वस्तु दूसरे धर्म में इस्तेमाल होती है। तो हमें सोचना होगा, समझना होगा कि क्या सही है, या क्या गलत। लगभग 150 सौ साल पहले एक नया मत जिसे की राधा-स्वामी कहते है, प्रकाश में आया। जब 10वें गुरू ने ‘देहधारी-गुरूओं’ के ऊपर प्रतिबन्ध लगा दिया था, तो राधा-स्वामी ने 10 वें गुरु के हुक्म का निरादर क्यों किया। इतिहास गवाह है कि- कोई भी मत वह चाहे कितना भी बड़ा क्यों न हो। उसके नियम ज्यादा समय तक टिक नही सकते। क्योंकि जो नियम किसी व्यक्ति विशेष ने बनाये हैं। वह समय के चक्र से बंधे हुऐ हैं। इसलिऐ वह व्यक्ति विशेष अपने समय को ध्यान में रख कर जो नियम बनाता है। वह अधिक समय तक टिक नहीं पाते। क्योंकि समय का पहिया गतिशील है। सभी धर्मों में कुछ थोड़े से साधकों को अगर छोड़ दिया जाये तो बाकी सभी अपने-अपने नियमों का खंडन करते जा रहे है। जिस तरह 500 साल पहले बाबा नानक ने जनेऊ और मुर्तिपूजा का खंडन किया था। उसी तरह आज के समय में सिख केश कटवा रहें है तथा चोरी-छिपे बीड़ी-सिगरेट का सेवन भी कर रहे हैं। ऐसे ही मुस्लिम सम्प्रदाय में भी शराब का सेवन होने लगा है। तथा जैन धर्म में भी माँस का सेवन होता है। अगर ध्यान-पुर्वक हम अपने शास्त्रों, अपने समाज एवं अपने चरित्र का अध्ययन करें तो हमें स्वतः ही पता चल जायेगा, कि हम सभी के अन्दर कितना बदलाव आ गया है।

हमें ध्यान-पूर्वक अपने चेतन मन को योग निन्द्रा में पहुँचाना होगा और उसके उपरान्त अवचेतन मन के निर्देशन में अपने कर्म करने होगे। हम यही कहेंगे की हम चाहें किसी भी मत को क्यों न मानते हो। किन्तु हमारा लक्ष्य वह मत नहीं अपितु परमात्मा है। आप को जो भी मत अच्छा लगे, आप उसी मत में रह कर भी उस परमात्मा को प्राप्त कर सकते है। सभी मत नियम भेद से अलग-अलग हैं। किन्तु सब की मंजिल एक है। अगर हमारा ध्येय उस परमात्मा को पाने का है, तो हम किसी भी मत के अन्दर जो पूजा विधान है, उसके द्वारा हम उस परमात्मा को प्राप्त कर सकते हैं। हमें किसी भी मत के सिर्फ़ पूजा विधान मात्र की आवश्यकता है, न कि उसके प्रतीकों एवं नियमों की। क्योंकि वह परमात्मा तो प्रतीकों एवं नियमों से परे निराकार है। कोई भी प्रतीक और नियम उस परमात्मा को बाँध नहीं सकता। थोड़े बहुत जो नियम है, जैसे की सूर्योदय से पहले उठना एवं समय पर संध्या या पाठ आदि करना। ये सिर्फ इसलिऐ है, कि व्यक्ति के अन्दर आलस न आये और वह अनुशासन हीन न बने। अगर हम यह समझे की सभी नियम आवश्यक हैं, तो यह सही नहीं है। अगर यह सही होता तो आज जैन धर्म के अन्दर श्वेताम्बरी, पिताम्बरी और दिगम्बरी आदि अलग-अलग मत न होते। क्योंकि जैन धर्म को स्थापित करने वाले भगवान महावीर तो एक ही थे। अगर यह मान लिया जाये कि भगवान महावीर या उससे पहले जिस किसी ने भी जैन धर्म की स्थापना की, उसने सिर्फ एक मत बनाया होगा। किन्तु आज तीन-तीन मत है। इस प्रकार सिखों में भी 10 वें गुरू ने एक मत बनाया होगा। किन्तु आज अनेकों मत है। जैसे आज नीली पगड़ी वाले अलग हैं, पीली पगड़ी वाले अलग, और बाकी सब अलग। इस तरह सभी धर्मों का यही हाल है। इसलिऐ हमें उस परमात्मा के नाम एवं उस नाम को जपने में अनुशासन की आवश्यकता है। हम को धर्म एवं मतों के चक्रव्युह को छोड़ कर उस परमात्मा के ‘निज-नाम’ का ही जाप करना चाहिये। परमात्मा के ‘निज-नाम’ को सभी धर्मों एवं मतों ने स्वीकार किया है। फिर क्यों हम सभी परमात्मा के ‘निज-नाम’ को छोड़ कर धर्म-जाल के चक्रव्युह में फंसे हुऐ है। आज तक न तो कोई ऐसा धर्म बना है, न ही कोई ऐसा मत बना है, और न ही कोई ऐसा सिद्ध महापुरूष पैदा हुआ है, जिसने उस परमात्मा के ‘निज-नाम’ को स्वीकार न किया हो। सभी ने उस परमात्मा के ‘निज-नाम’ का जाप किया है और उसके द्वारा ही उस परमात्मा का साक्षात्कार किया है। इसलिए हम सभी को परमात्मा के उस ‘निज-नाम’ का जाप करना होगा, तभी वह परमात्मा हमें प्राप्त होगा, और हम उस परमात्मा रूपी अथाह-सागर की लहरों को आंनद ले सकेगें।


जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
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Shakti(शक्ति)

शक्ति
जीव, प्रकृति एवं ईश्वर ये तीनों अनादि काल से हैं। जीव ने सर्व प्रथम स्वयं को समझा, उसके पश्चात् उसने अपने पैदा करने वाले को जानने की कोशिश की। शुद्र जीव एक साधक बन गया। साधक से गुरू और गुरू से महा-गुरू बन गया और उसने प्रकृति व ईश्वर के सभी रहस्यों को जाना। सभी रहस्यों को जानकर उसने उन्हें लिपि-बद्ध किया। जब उसने रहस्यों को जाना तो पाया कि प्रकृति अर्थात् शक्ति तथा ईश्वर अर्थात् पुरुष ही मेरे को बनाने व चलाने वाले है। उसने दोनों की आराधना कि और दोनों की साधना के तमाम तरिकों को जाना। उसने पाया कि दोनों प्रकृति-पुरूष कि साधना एक साथ भी कि जा सकती है, तथा अलग-अलग भी कि जा सकती है। इस प्रकार धीरे-धीरे दोनों ही तरिकों से पूजा की जानें लगी। 51 पीठों के बनने से पूर्व शक्ति की उपासना निराकार भाव में होती थी। अनेकों ही साधकों ने शक्ति की उपासना निराकार भाव में की है। राजा दक्ष द्वारा निराकार शक्ति की पूजा करना और उनके घर में सती रुपी शक्ति का जन्म लेना। राजा हिमाचल का शक्ति की उपासना करना और उनके घर में पार्वती नामक शक्ति के रुप में जन्म लेना। मतंग मुनि का तप करना और पुत्री रुप में मातंगी नामक शक्ति का पुत्री रुप में जन्म होना। कात्यायन मुनि का जाप करना और उनके घर में भी कात्यायिनी नामक शक्ति का पुत्री रुप में जन्म लेना।

ध्यान देने वाली बात यह है कि सती, पार्वती, मातंगी और कात्यायिनी एक ही शक्ति का रुप है। किन्तु नाम भेद से अलग-अलग है। कात्यायन मुनि की पुत्री होने की वजह से वह शक्ति कात्यायिनी कहलाई, मतंग मुनि कि पुत्री होने के कारण वह मातंगी कहलाई। ये सब आदि-शक्ति का ही अंश रुप है। किसी भी शक्ति का नाम चाहें जो भी हो, उसके मूल में एक ही शक्ति समाई हुई है। जिसे आप प्रकृति, माया, आदि-शक्ति, परमेश्वरी, शिवा, चण्डी, दुर्गा जो भी चाहें नाम दे सकते है। सही मायने में वह प्रकृति ही है। प्रकृति ही तन्त्र की कुल देवी है। प्रधानतः अधिकतर महर्षियों ने इसे शिवा कहा है। शिवा का अर्थ है- सब का कल्याण करने वाली शक्ति। सम्पूर्ण प्रकृति में जो भी कीट-पतंगे से ले कर उंचे-उंचे पर्वतों तक का निर्माण हुआ है, एवं चाँद-तारे और सूर्य पैदा हुऐ हैं। वह प्रकृति ही इन सब के द्वारा हमारा कल्याण करती है। प्रकृति के मूल में भी शब्द की शक्ति छुपी हुई है। यह शब्द ही हमें परमात्मा तक पहुँचाता है और यह शब्द ही शक्ति का साक्षात्कार कराता है।

अगर आप शब्द का ब्रह्म भाव से जाप करेगें, तो आप को ब्रह्म की प्राप्ति के साथ-साथ उस परमेश्वर की सम्पूर्ण शक्ति की भी प्राप्ति होगी। अगर आवश्यकता है, तो केवल भाव और श्रद्धा की। आपका जैसा भाव और जैसी श्रद्धा होगी आपको उसी के अनुसार फल की प्राप्ति होगी। शब्द के मूल में भी आपका भाव और आपकी श्रद्धा ही काम करेगी। शब्द सर्वोपरि है। शब्द सर्व-शक्तिमान है। शब्द सर्व-व्यापक है।

किन्तु जैसे एक अच्छे बीज के लिऐ उपजाऊ भूमि का होना जरूरी है, उसी प्रकार शब्द के लिऐ मन और बुद्धि का निर्मल होना आवश्यक है। जब तक आपका मन और बुद्धि पवित्र नहीं होंगी, तब तक शब्द चाहे कितना ही शक्तिशाली क्यों न हो, उसकी शक्ति का चमत्कार आप को प्रत्यक्ष रूप से दिखलाई नहीं देगा। जिस प्रकार एक अच्छे बीज को धरती में बोने के लिऐ, एक योग्य किसान एवं उपजाऊ भूमि कि आवश्यकता होती है। उसी प्रकार योग्य किसान के रूप में श्रेष्ठ गुरू, बीज रूप में ॐकार रूपी श्रेष्ठ शब्द एवं उपजाऊ भूमि के रूप में योग्य शिष्य की आवश्यकता है। जब तक ये तीनों कसोटी पर खरे नहीं उतरेंगे, तब तक खेत के अन्दर एक अच्छी फसल की पैदावार नहीं हो सकती। मुस्लिम सम्प्रदाय में मोहम्मद-साहब ने कहा है, कि तुम अल्लाह का ज़िक्र दिल से करो और खूब कसरत करो। कहने का अर्थ यही है, की जिस प्रकार एक पहलवान अपने जिस्म को मजबूत बनाने के लिऐ कसरत करता है। उसी प्रकार आप भी उस परमात्मा के नाम का लगातार जाप करो। जब तक आप के जाप में एकाग्रता नहीं होगी तब तक आपको सिद्धि की प्राप्ति नहीं होगी। उस परमात्मा की बंदगी इतनी करो की लोग तुम्हें पागल समझने लग जाऐं। जिस प्रकार मंजनू, लैला का दीवाना था। उस प्रकार तुम भी उस परमात्मा के दीवाने बन जाओ। दीवानगी की हद को पार करके ही तुम उस शक्ति से साक्षात्कार कर सकोगे।

हम जो भी मंत्र या शब्द जपते है, उसका हमारे जीवन पर और वातावरण पर पूर्ण प्रभाव पड़ता है। जिस भी शब्द का जाप किया जायेगा, उस शब्द से हमारे चारों तरफ सूक्ष्म-तंरगे बनने लगती है। मंत्र जप से उत्पन्न होने वाली सूक्ष्म-तरंगे, ब्रह्माण्ड में प्रवाहित ऊर्जा प्रवाह को खीच कर लाती है। जिस प्रकार तलाब में पत्थर फैंकने पर लहरें उठती है और धीरे-धीरे तालाब के किनारे तक पहुँचती है। उसी प्रकार मंत्र जप में भी चुम्बकिय विचार तरंगे पैदा होती है। यह ब्रह्माण्ड भी एक तालाब की तरह ही है, पर इस की आकृति गोल है। इसलिऐ इसका अन्तिम किनारा वही स्थान होता है जहाँ से ये ध्वनी-तरंगे पैदा होती है। इस तरह शब्द से पैदा होने वाली ऊर्जा-तरंगे धीरे-धीरे बढ़ती चली जाती है और ब्रह्माण्ड की परिक्रमा करके, जप-कर्ता के पास शब्द भेदी बाण की तरह लौट आती हैं। जाप के द्वारा इन तरंगों का प्रभाव हमारी कुन्डलिनी शक्ति पर पड़ता है।

ज्यों-ज्यों हमारी कुन्डलिनी शक्ति पर शब्द की तरंगों का आघात होता चला जायेगा, कुन्डलिनी शक्ति जाग्रत होनी प्रारम्भ हो जायेगी। ज्यों-ज्यों हमारी कुन्डलिनी शक्ति जाग्रत होती चली जायेगी, वैसे-वैसे शब्द शक्ति प्रकट होती चली जायेगी। शब्द की शक्ति को आप चाहे जो भी नाम दे, यह आपकी इच्छा पर निर्भर करता है। रामकृष्ण-परमहंस ने उस शक्ति को काली कहा, वामखेपा ने उसे तारा कहा। नाम चाहे जो भी हो, मायने में तो वह उस परमेश्वर कि शक्ति ही है। अनेकों ही संत ऐसे हुऐ है जिन्होंने उस शक्ति को न मान कर सीधे ही उस ब्रह्म की सेवा की, ऐसे ब्रह्म-ज्ञानियों को जिस शक्ति की प्राप्ति होती है, उसे वह नाद-शक्ति कहते है। जहाँ, शक्ति की अलग से उपासना करने पर, वह शक्ति शब्द भेद से साकार रूप में या यों कहें की स्त्री रूप में प्रकट होती है, वहीं वह शक्ति ब्रह्म-ज्ञानियों के हृदय में नाद रूप में प्रकट होती है। कहने का तात्पर्य यही है कि जो व्यक्ति या जो साधक प्रतीकों से बँधा हुआ है, तो वहाँ पर वह शक्ति प्रतीक रूप में प्रकट होगी। लेकिन जो साधक प्रतीकों से नहीं बंधा हुआ, वहाँ पर वह शक्ति शब्द के रूप में ही प्रकट होती हैं।

हम सब को शक्ति कि उपासना अवश्य करनी चाहिये, क्योंकि जिस प्रकार बिना शक्ति के शिव, शव के समान है उसी प्रकार हम भी बिना शक्ति के शव के समान है। जिस साधक कि जैसी भावना हो, उसी के अनुसार उस शक्ति की उपासना करनी चाहिये। लेकिन यदि साधक शक्ति के रूप में अपनी कुल-देवी या फिर गुरू द्वारा दिये गये शक्ति मंत्र की साधना करता है, तो बहुत जल्द उसका शक्ति से साक्षात्कार होता है, एवं जीवन सभी सुखों से परि-पूर्ण होता है। क्योंकि माना गया है कि शक्ति अपने साधकों का ख्याल एक माँ की तरह रखती है। जैसे एक माँ अपने अबोध बच्चे का पूरा ध्यान रखती हैं, उसी प्रकार शक्ति भी अपने साधकों का पूरा ख्याल रखती हैं और साधक को कभी स्वप्न में दुःख नहीं होता। साधक को जरूरत है तो एक अबोध बच्चा बन कर उस आदि-शक्ति को पुकारने की।

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Tuesday, August 24, 2010

Japa Yoga(जप योग)

जप योग
जप का अर्थ है - ‘ज’ का अर्थ है जन्म का रूक जाना। ‘प’ का अर्थ है पाप का नाश होना। इसीलिए पाप को मिटाने वाले और पुनर्जन्म प्रक्रिया रोकने वाले को जप कहा गया है।“गीता मे श्री कृष्ण जी ने कहा है कि- यज्ञों में जप-यज्ञ मैं हूँ।”

शब्द की शक्ति के बारे में भारद्वाज-गायत्री-व्याख्यान नामक ग्रंथ में कहा गया है कि- समस्त यज्ञों में जप यज्ञ अधिक श्रेष्ठ है। अन्य यज्ञों में तो हिंसा होती है, किन्तु जप यज्ञ हिंसा से नहीं होता। जितने भी कर्म, यज्ञ, दान तप है, वे समस्त जप की 16वीं कला के समान भी नहीं होते। जप द्वारा स्तुति किये गये देवता प्रसन्न हो कर बड़े-बड़े भोगों को तथा अक्षय शक्ति को प्रदान करते है। जप करने वाले द्विज को दूर से देखते ही राक्षस, बेताल, भूत, प्रेत, पिशाच आदि भय से भयभीत होकर भाग जाते है। इस कारण समस्त पुण्य साधनों में जप सर्व-श्रेष्ठ है। इस प्रकार जान कर साधक को सर्वथा जप-परायण होना चाहिये।

किसी भी शब्द के जाप का प्रभाव आपके ऊपर अवश्य आयेगा। अगर आप सात्त्विक-मन्त्र का जाप करते है, तो धीरे-धीरे आपके बुरे विचार, भाव, स्वभाव घटने लगते है और सत्य, प्रेम, न्याय, इमानदारी, सन्तोष, शान्ति, पवित्रता, नम्रता, संयम, सेवा, दया और उदारता जैसे सद्गुण बढ़ने लगते है। इसके विपरीत अगर आप तामसिक-मन्त्र का जाप करते है तो आपका स्वभाव भी उस मन्त्र के अनुसार ही तामसिक हो जाऐगा। आप ने अधिकतर देखा होगा की, काली और भैरव के मन्त्रों का जाप करने वाले या इनकी उपासना करने वाले साधकों के अंदर क्रोध अधिक होता है। तामसिक मन्त्रों के जाप के प्रभाव से, इन साधकों का स्वभाव उग्र हो जाता है। हजारों में से कोई एक रामकृष्ण-परमहंस जैसा बन पाता है। जो कि काली की उपासना करने के उपरान्त भी शान्त चित्त होता है। काली की साधना के समय अगर आप के अन्दर मातृ-भाव है, तो आप का स्वभाव अवश्य ही शान्त होगा। प्रत्येक मंत्र का वही प्रभाव होगा जैसा की आपके मन का भाव होगा। अगर आपके मन में दास-भाव है, तो शब्द की शक्ति मालिक के रूप में प्रकट होगी, अगर आपके मन में प्रेम भाव है, तो वह शक्ति प्रेमी के रूप में प्रकट होगी, अगर आपके मन में सुदामा की तरह सखा भाव है, तो वह शब्द शक्ति एक मित्र की तरह आप के ऊपर कृपा करेगी।

जाप एवं आयु
शब्द के जाप के द्वारा आयु की वृद्धि के लाभों की वैज्ञानिक व्याख्या भी विद्वानों ने की है। 24 घंटे में प्रत्येक स्वस्थ व्यक्ति 21,600 साँस लेता है अर्थात् 1 मिन्ट में 15 बार, एक स्वस्थ व्यक्ति साँस लेता है। यदि किसी तरह इन साँसों की संख्या को कम किया जा सके तो आयु वृद्धि सुनिश्चित है। जिन व्यक्तियों को कोई भी बीमारी है, खासकर जिन को उच्च रक्तदाब (हाई ब्लड़प्रेशर) है। ऐसे व्यक्ति 1 मिन्ट में 15 से अधिक साँस लेते है। जिससे उनकी आयु का क्षय होता है, अर्थात् आयु कम होती है। इसके अलावा जो व्यक्ति अधिक क्रोध करते है, या जिन में अत्यधिक कामुक्ता है या जो अत्यधिक सम्भोग करते है, उनकी भी आयु कम होने लगती है। क्योंकि क्रोध के वक्त एवं सम्भोग के वक्त, एक स्वस्थ व्यक्ति 15 से अधिक साँस लेता है। इसलिऐ अगर आप अपने क्रोध और कामवासना पर काबू रखते है, तो आप अपनी आयु को बढ़ा सकते है। आयु को बढ़ाने में प्राणायाम – योग की ऐसी सशक्त क्रिया है, जिसके द्वारा साँसों पर काबू पाया जा सकता है।

जाप से भी ऐसा ही होता है। अगर आप ध्यान-पूर्वक जाप करेंगे, तो देखेगें की जाप के दौरान आपके साँसों की संख्या एक मिनट में 15 के स्थान पर 7 या 8 रह गई है। यदि आप एक घन्टा प्रतिदिन जाप करते है, तो लगभग 500 साँसो की वृद्धि आपकी आयु में हो जाती है। इस तरह यदि आप प्रतिदिन एक घन्टा जाप करें, तो आपकी आयु में कई सालों की वृद्धि हो सकती है। जाप के द्वारा ही आप का ध्यान लगता है। जप के वक्त शब्द-शक्ति प्रकट होती है। जिससे आपकी धारणा परिपक्व होती है। धारणा के परिपक्व होने पर ही समाधी की प्राप्ति सम्भव हो सकेगी।

जप के लिये जिन चीजों की मूल आवश्यकता है वह है– साधक के पहनने के वस्त्र, साधक का आसन, साधक का पूजा स्थल एवं साधक की माला। साधक जिस भी विद्या क्षेत्र से दीक्षित हो उसी के अनुसार साधक के वस्त्र, आसन एवं माला हो। साधक का साधना स्थल स्वच्छ एवं पवित्र हो। साधना स्थल में साधक शुद्ध घी का दीपक एवं धूप या अगरबती जलाऐं। गुरू की आज्ञा अनुसार अपने इष्ट का आवाहान, ध्यान, जप, समर्पण व विसर्जन करें, क्योंकि शास्त्रों के अनुसार बिना पंचांग पूजा के सिद्धि सम्भव नहीं है। शास्त्रों में आवाहान, ध्यान, जप, समर्पण व विसर्जन को ही पंचांग पूजा कहा गया है। इसलिये हर साधक को पंचांग पूजा अनिवार्य रूप से करनी चाहिये। सही मायने में पंचांग पूजा ही पंच तत्त्व की पूजा है। शास्त्रों में पंचोपचार व षोड़शोपचार पूजा का विधान भी है। अधिकतर साधक पंचोपचार व षोड़शोपचार पूजा को ही जानतें हैं। बहुत ही कम साधक पंचांग पूजा को जानते हैं, किन्तु जो साधक पंचांग पूजा को जानते हैं, सिद्धि उनसे कभी भी दूर नहीं रह सकती। पंचांग पूजा का अर्थ है– 1 अपने इष्ट का आवाहन करना, 2 अपने इष्ट का ध्यान करना, 3 अपने इष्ट के मूल मंत्र का यथा शक्ति जाप करना, 4 आपने जो भी जाप किया है, उस जाप को इष्ट के चरणों में समर्पित करना, 5 अपने इष्ट का विसर्जन करना। किन्तु गायत्री का आवाहन और विसर्जन नहीं होता क्योकि गायत्री-तंत्र के अनुसार- गायत्री ही जीव-आत्मा है और जीव-आत्मा हम स्वयं हैं। इसलिये जीव अपनी आत्मा का आवाहन और विसर्जन नहीं कर सकता।


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Laya Yoga(लय-योग)

लय-योग
सदाशिवोक्तानि सपादलक्ष- लयावधानानि वसन्ति लोके। योग-तारावली॥

अर्थात् भगवान सदाशिवजी ने एक लाख पचीस हजार प्रकार का लय-योग बताया है। परन्तु योगी-गण साधारणतः चार प्रकार के लय योग का अभ्यास करते हैं। वे इस प्रकार हैं- शाम्भवी-मुद्रा से ध्यान लगाना, खेचरी-मुद्रा से अमृत-पान करना, भ्रामरी-मुद्रा से नाद को सुनना और योनि-मुद्रा से आनन्द भोग करना। इन चार प्रकार के उपायों द्वारा लय योग की सिद्धि करते है। इन चार प्रकार के लय-योगों का और भी सहज-कौशल सिद्ध-योगियों ने प्रकट किया है। उन्होंने लय-योग के अन्दर नादानुसन्धान, आत्म-ज्योति-दर्शन और कुण्डलिनि-जागरण- इन्हीं तीन प्रकार की प्रक्रियाओं को श्रेष्ठ और सुख-साध्य बतलाया है। इनमें कुण्डलिनि- जागरण कुछ कठिन है। क्रिया-विशेष का अवलम्बन कर मूलाधार को सिकोड़ कर जागती हुई कुण्डलिनि-शक्ति को ऊपर उठाया जाता है। यह विषय किसी योग्य गुरू से ही सीखना चाहिये। लय-योग में नादानुसन्धान और आत्म-ज्योति-दर्शन का काम बहुत सीधा तथा आराम से होने वाला है। अगर साधक का मस्तिष्क कमजोर हो तथा उसे आँखों की बीमारी हो तो उसे आत्म-ज्योति-दर्शन का अभ्यास नहीं करना चाहिये। नाद-साधन ही सबसे सरल और सुगम मार्ग है। कृष्ण्द्वैपायनादि-ॠषि नव-चक्र में लय-योग का साधन करके यम-दण्ड को तोड़कर ब्रह्म-लोक में जा पहुँचे थे। धीरे-धीरे लय-योग की साधना के द्वारा मन अति शीघ्र लय हो जाता है। लय-योग की साधना विशेष उच्चस्तर की साधना है। इसके आविष्कर्ता परम योगी जगत्-गुरू भगवान-शिव हैं। जप-योग से सौ-गुना फलदायक ध्यान-योग है और ध्यान-योग से सौ-गुना फलदायक लय-योग है। अतः जपादि की अपेक्षा सबको किसी भी प्रकार के लय-योग की साधना करनी चाहिये।

नादानुसन्धान- साधक को यम- नियम से शुद्ध होकर योग-साधना के स्थान पर उत्तर दिशा की ओर मुँह करके आसन लगाकर बैठ जाना चाहिये। जिन्हें निर्वाण-मुक्ति की इच्छा हो उन्हें उत्तर दिशा की ओर मुँह करके बैठना चाहिये; परन्तु जिन्हें सांसारिक उन्नति की इच्छा हो, उनके लिये तो पूर्व दिशा की ओर मुँह करके बैठना ही उचित है। जिसे जिस आसन का अभ्यास हो, उसे वही आसन लगाकर मस्तक, गर्दन, पीठ और उदर को बराबर सीधा रखकर, अपने शरीर को सीधा करके बैठ जाना चाहिये। तत्पश्चात् नाभि-मण्डल में दृष्टि जमाकर कुछ देर तक ध्यान लगाना चाहिये। इस भाव से नाभि के ऊपर दृष्टि और मन लगाकर बैठने से कुछ दिन बाद मन स्थिर हो जायगा। मन स्थिर करने का ऐसा सरल उपाय दूसरा ओर नहीं है।

उपर्युक्त विधि से मन स्थिर करते समय यदि थोड़ी-थोड़ी वायु भी धारण की जाय तो नाद-ध्वनि बहुत ही जल्द सुनाई पड़ती है। पहले झींगुर की झन्-झनाहट जैसा या भृंग़ी जैसा झिं-झिं शब्द सुनायी देगा। उसके बाद क्रमशः साधना करते-करते एक के बाद एक बंशी की तान, बादल की गर्जन, झाँझ की झंकार, भँवरें की गुंजार, घण्टा, घड़ियाल, तुरही, करताल, मृंदग़ प्रभृति नाना प्रकार के बाजों के शब्द सुनाई पड़ेंगे। ऐसे ही रोज अभ्यास करते हुए नाना प्रकार की ध्वनियॉ सुनाई देती हैं। ऐसी ध्वनि सुनते-सुनते कभी शरीर रोमांचित हो जाता है; कभी किसी प्रकार का शब्द सुनने से सिर चक्कर खाने लगता है; कभी कण्ठ कूप जल से पूर्ण हो जाता है।

लेकिन साधक को किसी ओर ध्यान न देकर अपनी साधना करते रहना चाहिये। मधु पीने वाला भौंरा जैसे पहले मधु की सुगन्ध से आकृष्ट होता है, किन्तु मधु पीते समय मधु के स्वाद में इतना डूब जाता है कि उस समय उसका सुगन्ध की ओर तनिक भी ध्यान नहीं रहता, वैसे ही साधक को भी नाद की ध्वनि से मोहित न होकर शब्द सुनते-सुनते चित्त को लय कर देना चाहिये।

आत्म-ज्योति दर्शन– नादानुसन्धान का अभ्यास करने पर हृदय के अंदर से अभूत-पूर्व शब्द और उससे द्रुत प्रति-शब्द कान में सुनाई देगा। उस समय साधक को आँखें बंद करके अनाहत-चक्र में स्थित बाणलिग़ के रूप में दीप-शिखा की भाँति ज्योति का ध्यान करना चाहिये। ऐसे ही ध्यान लगाते-लगाते अनाहत-पदमस्थ प्रतिध्वनि के भीतर ज्योतिः दर्शन होगा। उस दीप-कलिका के आकार में ज्योतिर्मय-ब्रह्म में साधक का मन संयुक्त होकर ब्रह्म-रूपी विष्णु के परम-पद में लीन हो जायेगा। उस समय शब्द बन्द हो जायेगा तथा मन आत्म-तत्त्व में डूब जायेगा। साधक सर्व-व्याधि से मुक्त होकर तेजो-युक्त हो अतुल-आनन्द का उपभोग करेगा। उस समय का वह भाव अनिर्वचनीय है, अवर्णनीय है, अलेखनीय है। नित्य-नियमित रूप से इसी तरह नाभि-स्थान में वायु धारण करने से प्राण-वायु अग्नि-स्थान में गमन करती है उस समय अपान- वायु द्वारा शरीरस्थ अग्नि क्रमशः उद्दीप्त हो उठती है। इस क्रिया से और एक विशेष लाभ होता है। जिसकी पाचन-शक्ति कम हो गयी है, कोई चीज बिलकुल ही हज़म नहीं होती, वह अगर इस क्रिया को ठीक विधि से करे तो थोड़े दिन बाद उसके शरीर का समुचित शोधन होकर पाचन-शक्ति बढ़ जायेंगी और कोष्ठ भी स्वच्छ होता जायेगा।

इस नाद- ध्वनि की साधना करते-करते अन्त में जो ॐकार ध्वनि सुनने में आती है। वह ध्वनि जब तक साधक जीवन धारण करता है, तब तक कभी बन्द नहीं होती। सदा-सर्वदा सर्वावस्था में अर्थात् जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति में नादध्वनि चलती ही रहती है, और इस प्रकार चित्-वृतियों का हमेशा-हमेशा के लिऐ पर-ब्रह्म में लय हो जाता है। सभी वासनायें समाप्त हो जाती हैं और साधक स्वयं ब्रह्म स्वरूप बन जाता है। यही लय-योग है।

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Monday, August 23, 2010

Omkar Shadna (ॐकार-साधना)

ॐकार-साधना
ॐकार-साधना ‘नाद-योग’ की उच्चस्तरीय साधना है। आरम्भिक अभ्यासी को प्रकृति प्रवाह से उत्पन्न विविध स्तर की आहत-परिचित ध्वनियाँ सूक्ष्म कणेंन्द्रियों से सुनाई पड़ती हैं। इनके सहारे मन को ‘वशवर्ती’ बनाने तथा ‘प्रकृति-क्षेत्र’ में चल रही हलचलों को जानने तथा उन्हें मोड़ने-मरोड़ने की सामर्थ्य मिलती है, आगे चलकर अनाहत क्षेत्र आ जाता है। स्वयंभू-ध्वनि प्रवाह जिसे परब्रह्म का अनुभव में आ सकने वाला स्वरूप कह सकते है। यदि किसी के सघन सम्पर्क में आ सके तो उसे अध्यात्म क्षेत्र का सिद्ध पुरूष भी कह सकते है।

भगवान का सर्वश्रेष्ठ नाम ‘ओउम्’ है। यह स्वयं-भू है। जिसकी ध्वनि ‘नाभि-देश’ से आरम्भ होकर ‘कण्ठमूल’ और ‘मुखाग्र’ तक चली जाती है। यह ‘ओउम्’ साढ़े तीन अक्षरों का विनिर्मित है-1 ओ, 2 उ, 3 म् – ओं के उच्चारण में अर्धबिन्दु लगा है, इसे चन्द्रबिन्दु अथवा अर्धमात्रा भी कहते है। उसे आधा-अक्षर माना गया है, इस प्रकार साढ़े तीन अक्षर का मन्त्रराज ‘ओउम्’ कहलाता है। इसका उच्चाण कंठ, होठ, मुख, जिह्वा से होता है, पर इसका बीज कुण्डलिनी में सन्निहित है। जब ध्वनि और प्राण दोनों मिल जाते हैं। तव उसका समग्र प्रभाव उत्पन्न होता है।

स्वामी विवेकानन्द ने ‘ओउम्’ शब्द को समस्त नाम तथा रूपांतरो की एक जननी (मदर ऑफ नेम्स एण्ड फार्मस) कहा है। भारतीय मनीषियों ने इसे प्रणव-ध्वनि, उद्-गीथ, स्टोफ, आदि-नाम, अनाहत्-ब्रह्म-नाद आदि अनेकों नामों से पुकारा है।

माण्डूक्योपनिषद् में उल्लेख है कि ‘ओउम्’ अर्थात् प्रणव ही पूर्ण अविनाशी परमात्मा है, जो जड़ और चेतन में तथा सृष्टि के कण-कण में संव्याप्त है। सर्वत्र वह नाद रूप में गुंजायमान है। योग-शास्त्र का लक्ष्य- साधक को इसी ब्रह्माण्ड-व्यापी मूल सत्ता से जोड़ना है। नाद योग-शास्त्रों की अनेका-अनेक साधना-विधियों में से सर्व-प्रमुख धारा है। कुण्डलिनी साधना के प्राण-प्रयोग में इसी का आश्रय लिया जाता है। माण्डूक्योपनिषद् में लिखा है- ‘ओउम्’ वह अक्षर है जिसमे सम्पूर्ण भूत, वर्तमान तथा भविष्यत् ‘ओंकार’ का छोटा सा व्याख्यान है। सभी शक्तियाँ, ॠद्धियाँ और सिद्धियाँ ‘ओंकार’ में भरी हुई है।

स्थूल, सूक्ष्म और कारण- जो कुछ भी दृश्य-अदृश्य है, उसका संचालन ‘ॐकार’ की स्फुरणा से ही हो रहा है। यह जो उनका अभिव्यक्त अंश और उससे अतीत भी जो कुछ है, वह सब मिलकर ही परब्रह्म-परमात्मा का समग्र रूप है, पूर्ण-ब्रह्म की प्राप्ति के लिये। अतएव उनकी नाद-शक्ति का परिचय प्राप्त करना आवश्यक है। जिसके पास ‘ओउम्’ है, उसके पास अनंत दैवी-शक्तियाँ है। बल है, बुद्धि है, जीवन है। इन्द्रियों का संयम है। भगवान् श्री कृष्ण ने ‘ओउम्’ की महिमा का वर्णन करते हुए गीता के आठवें-अध्याय में लिखा है- जो साधक मन और इन्द्रियों को वश में कर ‘ओउम्’ अक्षर-ब्रह्म का जप करता है, वह ब्रह्म का स्मरण करता हुआ इस भौतिक देह को त्याग कर परम पद को प्राप्त होता है। इस पद को प्राप्त करने के उपरान्त जीवात्मा जन्म-मरण के बन्धन से मुक्त हो जाता है। ‘अ’ से विराट् अग्नि और विश्व का ज्ञान, ‘उ’ से हिरण्यगर्भ वायु और तेजस का बोध, ‘म्’ से ईश्वर आदित्य और प्रज्ञा का परिज्ञान होता है। यह परमात्मा के पवित्र नाम ‘ॐ’ में विद्यमान है। हमें परमात्मा के इस वैदिक-नाम ‘ओउम्’ का नित्य जप करना और नाद योग द्वारा आत्मानुसंधान करना चाहिए। कारण- स्थूल, सूक्ष्म और कारण जो कुछ भी दृश्य-अदृश्य है, उसका संचालन ‘ओंकार’ की ही स्फुरणा से हो रहा है। यही ‘प्रणव’ का अर्थ भी है।

नाद साधना में भी इसी ‘प्रणव’ का गुंजन सुनने से प्रगति क्षिप्र होती है। आगे चलकर, जब अन्तरिक्ष में प्रवाहमान दिव्य ध्वनियाँ सुनी जाने लगती हैं, तब उनके नौ मण्डलों को पार करते हुए दशम मण्डल में पहुँचा जाता है, जहाँ सर्वोत्तम अनाहद नाद ‘ओउम्’ ही सतत सुनाई पड़ता है। नाद साधना की यही चरम परिणति है। इस तल तक पहुँचने वाले साधक सृष्टि के उद्गम केन्द्र तक पहुँच जाते हैं और विश्व-वैभव का अभीष्ट, सत्प्रयोजनों के लिए उपयोग करने में समर्थ होते हैं। नाद-सिद्धि साधक इन्द्रियातीत क्षमताओं के अधिपति देव-मानव कहे जाते रहे हैं। अन्तर्नाद की भी सर्वोत्तम अभिव्यक्ति ‘प्रणव’ ही है। चैतन्य-ऊर्जा कुण्डलिनी के जागरण में ‘प्रणव’ की प्रमुख भूमिका रहती है। इसीलिए ‘कुण्डलिनी-साधना’ को ‘प्रणव-विद्या’ भी कहा गया है। इस प्रकार ‘प्रणव’ समस्त आध्यात्मिक साधनाओं का सर्वश्रेष्ठ अवलम्बन है।

ओमकार और कुन्डलिनी
‘कुण्डलिनी-साधना’ को ‘प्रणव-विद्या’ भी कहा गया है। उसके जागरण में जहाँ अन्यान्य विधि-विधानों का प्रयोग होता है, वहाँ उस सन्दर्भ में प्रणव-तत्त्व’ को प्रायः प्रमुखता ही दी जाती है। ‘कुण्डलिनी-जागरण’ प्रयोग ‘गायत्री-महाविद्या’ के अन्तर्गत ही आता है। ‘पंचमुखी-गायत्री’ में ‘पंचकोशों’ की साधना ‘पंचाग्नि-विद्या’ कही जाती है, यही गायत्री के पाँच-मुख हैं। गायत्री की ‘प्राण-साधना’ का नाम ‘सावित्री-विद्या’ है, सावित्री ही कुण्डलिनी है। गायत्री मंत्र में, गायत्री-साधना में प्राण-तत्त्व का अविच्छिन्न समावेश है।

योग कुण्डलयुपनिषद् के अनुसार – कुण्डलिनी ‘प्रणव’ रूप है। ‘महा-कुण्डलिनी’ को ‘परब्रह्म-स्वरूपिणी’ कहा गया है। यह शब्द ब्रह्मम्य है। एक ‘ओउम्’ से अनेक अक्षरों की आकृतियाँ उत्पन्न हुई हैं। कुण्डलिनी का आकार सर्पिणी जैसा बताया गया है। वह कुंडली-मारे सोती हुई पड़ी है और पूँछ को अपने मुँह में दबाये हुए है। इस आकृति को घसीटकर बनाने से ‘ओउम्’ शब्द बन जाता है। अस्तु, प्राण और उच्चारण सहित समर्थ ‘प्रणव’ को ‘कुण्डलिनी’ कहा गया है और उसी सजीव ‘ओउम्’ के उच्चारण का पूरा फल बताया गया है, जिसमें कुण्डलिनी जागृति शक्ति का समन्वय हुआ है। बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिए कि वह उस सोयी हुई अपनी आत्म-शक्ति को चैतन्य करे, गतिशील करे। मूलाधार से स्फूर्ति तरंग उठकर भूमध्य में दिव्य नाद की अनुभूति (श्रवण) कराने लगे, तभी समझना चाहिए कि कुण्डलिनी शक्ति जागृत-संचालित हो गई है।

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Maan Shakti (मनःशक्ति)

मनःशक्ति
पाँच तत्त्वों से बने हुऐ हमारे इस शरीर को माया ने पूरी तरह से अपने कब्जे में ले रखा है। आज तक अनेकों ॠषि, महर्षियों ने हमे अनेकों बार ब्रह्म-ज्ञान का उपदेश दिया किन्तु हम कहाँ पहुँचे? जब तक हम किसी संत के समीप होते है, तो उतनी ही देर के लिऐ हमारा चेतन मन शान्त होता है और अवचेतन मन जाग्रत हो जाता है। हम जो भी ग्रहण करते हैं या सुनते हैं, एक तरह से वे सब का हमारे अवचेतन मन में चला जाता है। हमारे अवचेतन मन में ही हमारे सभी जन्मों का लेखा-जोखा छिपा हुआ है। जब तक हमारा अवचेतन मन जाग्रत होता है, तब तक हम पाप और पुण्य, धर्म और अधर्म, ज्ञान और अज्ञान, विद्या और अविद्या के प्रति जागरूक रहते है। सन्त जो भी बोलता है, तब अवचेतन मन उसे ग्रहण कर लेता है और फैसला करता है, कि इन में से कौन-कौन सी बात मैने पहले सुनी हुई है और कौन सी बात नहीं सुनी हुई। क्योंकि जो बाते अवचेतन मन ने पहले भी ग्रहण की हुई है, वह उन बातों को छोड़ देता है, क्योंकि वे बातें तो पहले से ही अवचेतन मन के अन्दर छिपी हुई है। जो नई बातें है, उन को अवचेतन मन अपने अन्दर ग्रहण कर लेता है। यह सभी कुछ अवचेतन मन करता है, किन्तु इन्सान समझाता है कि मैने किया, सभी फैसले अवचेतन मन के होते है, किन्तु इन्सान का अहंकार अपनी मैं, अर्थात् अपने चेतन-मन पर केंद्रित होता है। जो नई बातें होती है, उनके बारे में व्यक्ति सोचता है कि, मैं घर जा कर आज से यह काम करूँगा या नहीं करूँगा। किन्तु जैसे ही साधक संत को छोड़ कर अपने घर पहुँचता है, तो वहाँ के वातावरण में जो अशुद्धियाँ होती है उस की वजह से अवचेतन-मन सो जाता है और चेतन-मन फिर से जाग्रत हो जाता है।

वातावरण की इन्हीं अशुद्धियों को दूर करने के लिऐ, अनादि काल से आर्य-सभ्यता में हवन करने का विधान है। जब अवचेतन-मन निष्कृय हो जाता है, तो चेतन-मन माया के चक्र में उलझ कर अपना काम करने लगता है, और जैसा की आप सभी ने देखा, सुना या पढ़ा होगा की फिर चेतन-मन जो की सन्त के पास बिलकुल निष्क्रिय था, वह सक्रिय हो कर संत की निंदा करने लगता है। उस के बाद चेतन-मन को संत कि जो-जो बातें पसन्द आती है, उनको वह ग्रहण करता है, किन्तु शेष बातों के बारे में कहता है कि ‘संतो का काम तो है ही बेकार की बातें करना’, इन के पास तो समय ही समय है, ये जो भी चाहे नियमों का पालन कर सकते हैं। लेकिन आम आदमी के पास समय कहाँ है जो इतनी मेहनत और नियमों का पालन कर सके। चेतन-मन से जैसे भी बन पड़ता है, वह अपनी तरफ से संत की निंदा करने में कोई कसर नहीं छोड़ता। हमें ध्यानपूर्वक चेतन और अवचेतन-मन को समझना पड़ेगा।

हम जितना भी मौखिक रूप से काम करते है। यह सभी काम चेतन-मन करता है। हम सभी अगर ध्यान पूर्वक अपने चरित्र को देखें तो हमे महसूस होगा की हमारा अवेचतन-मन कैसे काम करता है। मान लीजियें कि हमारे घर पर कोई मेहमान आ जाऐं तो हम उसका पूरी तरह से सत्कार करेंगे। इसके पीछे हमारा अवचेतन-मन है, क्योंकि हमारे अवचेतन-मन मे ही सभी संस्कार विद्यमान है। इसी तरह अगर किसी को सम्मोहित कर दिया जाये तो वह व्यक्ति आपकी हर बात मानने को बाध्य होगा, क्योंकि सम्मोहन से उसका चेतन-मन गहरी निंद्रा में चला गया है। किन्तु अवचेतन-मन हमेशा क्रियाशील रहता है। अगर सम्मोहन के द्वारा सम्मोहित व्यक्ति को किसी गलत काम के लिऐ निर्देश दिया जाऐं, जो की अवचेतन-मन में संस्कारों के खिलाफ हो। जैसे की सम्मोहित व्यक्ति को अगर कहा जाऐं की तुम संपूर्ण रूप से निर्वस्त्र हो जाओ, तो ऐसा सुनते ही सम्मोहित व्यक्ति का सम्मोहन टूट जाऐगा और वह जाग जाऐगा। इस तरह हम ध्यान्पूर्वक अपने चेतन और अवचेतन-मन को समझ सकते हैं। इसको योगियों ने जागना कहा है, कि तुम हमेशा अपने अवचेतन-मन की तरफ ध्यान दो और अपने संस्कारो के अनुरूप ही कार्य करो। जो व्यक्ति योग निन्द्रा के द्वारा अपने चेतन-मन को निष्क्रिय कर देता है और हमेशा अवचेतन-मन के अनुसार ही संस्कार युक्त कार्य करता है, ऐसा व्यक्ति ही पूर्ण योगी कहलाता है। जिसने योग के द्वारा माया को जीत लिया और चेतन-मन को अवचेतन-मन में पूर्ण रूप से विलीन कर लिया।

हम कितना ही पढ़ ले, जान ले, समझ ले किन्तु जब तक हमें संपूर्णता प्राप्त नहीं हो जाती, हम अधूरे है और तब तक जिज्ञासायें जन्म लेती रहेंगी। हर साधक के अंदर के उसके अपने पूर्व-जन्म के संस्कारों के अनुसार ही जिज्ञासायें जन्म लेती है। अनेकों बार समझाने और समझने के बाद भी साधकों के मन में एक प्रश्न पैदा होता है, कि क्या हम सिर्फ नाम के द्वारा ही उस परमात्मा को पा सकते है या नहीं? अगर कोई भी व्यक्ति परमात्मा के किसी भी नाम का जाप करे तो वह उस मंडल तक ही पहुँच पायेगा, जिस मंडल तक उस नाम की सीमा रेखा है। मान लीजिये आप राम, कृष्ण, नारायण, हरि आदि शब्दों को इस्तेमाल करते हैं, तो आप सिर्फ सहस्त्रदल तक ही पहुँच पाओगे, क्योंकि सहस्त्रदल, त्रिलोकी नाथ नारायण का स्थान है। इसलिऐ अगर आप नारायण या उस के किसी भी प्रायवाची शब्द का जाप करते है, तो हम वहीं तक पहुँच पायेगें। इसी तरह हर मंडल का देव व उस का मंत्र भी अलग है। लेकिन ऐसा नहीं है की हम सीधे ही आखिरी मंडल का जाप करके उस परमात्मा को पा सकते है। जिस तरह एक छोटा बच्चा स्कूल जाता है, और स्वर-व्यंजन पढ़ते हुऐ प्रथम कक्षा से अपनी शिक्षा प्रारम्भ करता है। उसी तरह योगियों की प्रथम कक्षा मणिपुर मंडल (मणिपुर चक्र) है। जो कि हमारी नाभि में स्थित है, कुछ दिव्य महापुरूष त्रिकुटी पर ध्यान लगाना बताते हैं, कि यहीं से अपनी ध्यान-साधना प्रारम्भ करो। कुछ व्यक्ति विशेषों का यह वहम है, की हम त्रिकुटी में ध्यान लगा कर जल्द से जल्द उस परमात्मा को प्राप्त कर लेगें, लेकिन ऐसा नहीं है।

आप नाभि से प्रारम्भ करे या चाहें तो त्रिकुटी से। दोनो में समय और मेहनत एक ही लगेगी। अनेकों ही साधक त्रिकुटी में ध्यान लगा कर प्रकाश को देखने व शब्द को सुनने की कोशिश करते हैं, लेकिन ध्यान से देखा जाऐ तो जिन साधकों को त्रिकुटी में प्रकाश एंव दिव्य ध्वनी सुनाई पड़ती है। जैसे ही त्रिकुटी प्रकाशवान होगी वैसे ही नीचे के सभी मंडल भी प्रकाशवान होगें। इसलिऐ अनेकों महापुरूषों ने नया-विधान बनाया जिसमे की न तो अधिक समय लगता है और ना ही अधिक मेहनत की आवश्यकता है, क्योंकि अगर आप नाभि से प्रारम्भ करते हुऐ त्रिकुटी तक पहुँचते हैं तो एक-एक मंडल को जाग्रत करने में अधिक समय लगेगा। इसी तरह अगर हम त्रिकुटी में ध्यान लगाते है, तो भी हमे समय अधिक लगेगा। लेकिन इस नये-विधान के अनुसार अगर साधना की जाये तो नाभि से ले के त्रिकुटी तक के सभी मंडल शीघ्र ही क्रियाशील हो जाऐंगे। क्योंकि परमात्मा का निज नाम ॐ है। इसलिऐ हमें ॐ के ‘अ’, ‘उ’, ‘म’ को ले कर यह साधना करनी होगी। जो साधक इस साधना को करना चाहे, वह पद्मासन या सिद्धासन में बैठ कर, (अगर कोई साधक ये आसन न लगा सके तो सुखासन में बैठ कर) मेरूदंड को सीधा रखते हुऐ नाभी के अन्दर ‘अ’ हृदय के अन्दर ‘उ’ और त्रिकुटी में ‘म’ का ध्यान करते हुए दीर्घ स्वर में ॐ का जाप करें। जहाँ तक सम्भव हो सके श्वांस को गहरा लेते हुऐ ॐ का जाप व ध्यान करें। साथ ही साथ नाभि के अन्दर पीले रंग का, हृदय में हरे रंग का एवं त्रिकुटी में सफेद रंग का ध्यान करें। ऐसा करके साधक थोडे ही समय में नाभि से ले के त्रिकुटी तक के सभी मंडलों को प्रकाशवान बना सकता है। जब त्रिकुटी में प्रकाश व दिव्य-ध्वनी सुनाई देने लगे तो उस के बाद की साधना किसी योग्य-गुरू के निर्देशन में करें क्योंकि त्रिकुटी से आगे का रास्ता मुश्किल ही नहीं अपितु खतरनाक भी है। इसलिऐ साधना करते हुऐ आलस्य न करे और जहाँ तक कोशिश हो सके, एक दिन के लिऐ भी साधना का त्याग न करें। अगर हम बिना नागा किये प्रतिदिन एक ही समय पर साधना करेंगे, तो उस परमात्मा को प्राप्त कर लेना मुश्किल नहीं है।

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Friday, August 20, 2010

Dhayan Yoga(ध्यान-योग)

ध्यान-योग
ध्यान तीन प्रकार का है- 1 स्थूल-ध्यान 2 ज्योतिर्ध्यान और 3 सूक्ष्म-ध्यान। स्थूल-ध्यान वह कहा जाता है जिसमें मूर्तिमान् अभीष्ट देवता का अथवा गुरू का चिन्तन किया जाय। जिस ध्यान में तेजोमय ब्रह्म वा प्रकृति की भावना की जाय उसको ज्योतिर्ध्यान कहते हैं और जिसमें बिन्दुमय ब्रह्म एवं कुल-कुण्डलिनी शक्ति का दर्शन लाभ हो उसको सूक्ष्म ध्यान कहते हैं।

स्थूल ध्यान- स्थूल चीजो के ध्यान को स्थूल ध्यान कहते है।

प्रथम-ध्यान-
साधक अपने नेत्र बन्द करके हृदय में ऐसा ध्यान करे कि एक अति उत्तम अमृत सागर बह रहा है। समुद्र के बीच एक रत्नमय द्वीप है, वह द्वीप रत्नमयी बालुका वाला होने से चारों और शोभा दे रहा है। इस रत्न द्वीप के चारों ओर कदम्ब के वृक्ष अपूर्व शोभा पा रहे है। नाना प्रकार के पुष्प चारों ओर खिले हुऐ हैं। इन सब पुष्पों की सुगन्ध में सब दिशाएँ सुगन्ध से व्याप्त हो रही हैं।

साधक मन में इस प्रकार चिन्तन करे कि इस कानन के मध्य भाग में मनोहर कल्पवृक्ष विद्यमान है, उसकी चार शाखाएँ हैं, वे चारों शाखाएँ चतुर्वेदमयी हैं और वे शाखाएँ तत्काल उत्पन्न हुए पुष्पों और फलों से भरी हुई हैं। उन शाखाओं पर भ्रमर गुंजन करते हुए मँडरा रहे हैं और कोकिलाएँ उन पर बैठी कुहू-कुहू कर मन को मोह रही है। फिर साधक इस प्रकार चिन्तन करे कि इस कल्पवृक्ष के नीचे एक रत्न मण्डप परम शोभा पा रहा है। उस मंडप के बीच में मनोहर सिंहासन रखा हुआ है। उसी सिंहासन पर आपका इष्ट देव विराजमान हैं। इस प्रकार का ध्यान करने पर स्थूल-ध्यान की सिद्धि होती है।

द्वितीय-ध्यान-
हमारे हृदय के मध्य अनाहत नाम का चोथा चक्र विद्यमान है। इस के 12 पत्ते है, यह ॐकार का स्थान है। इस के 12पत्तों पर पूर्व दिशा से क्रमशः – चपलता, नाश, कपट, तर्क, पश्चाताअप, आशा-निराशा, चिन्ता, इच्छा, समता, दम्भ, विकल्प, विवेक और अहंकार विद्यमान रहते है। अनाहत चक्र के मण्डप में ॐ बना हुआ है। साधक ऐसा चिन्तन करे कि इस स्थान पर सुमनोहर नाद-बिन्दूमय एक पीठ विराजमान है और उसी स्थल पर भगवान शिव विराजमान है, उनकी दो भुजाऐं है, तीन नेत्र है और वे शुक्ल वस्त्रों में सुशोभित है। उनके शरीर पर शुभ्र चंदन लगा है, कण्ठ में श्वेत वर्ण के प्रसिद्ध पुष्पों कि माला है। उनके वामपार्श्व में रक्तवर्णा शक्ति शोभा दे रही है। इस प्रकार शिव का ध्यान करने पर स्थूल-ध्यान सिद्ध होता है।

तृतीया-ध्यान-
विश्वसारतंत्र में लिखा है कि – मस्तक में जो शुभ्र-वर्ण का कमल है, योगी प्रभात-काल में उस पदम् में गुरू का ध्यान करते है कि वह शांत, त्रिनेत्र, द्विभुज है और वह वर एवं अभय मुद्रा धारण किये हुये है। इस प्रकार यह ध्यान, गुरू का स्थूल ध्यान है।

कंकालमालिनी तन्त्र में लिखा है कि- साधक ऐसा ध्यान करे कि जिस सहस्त्र-दल कमल में प्रदीप्त अन्तरात्मा अधिष्ठित है, उसके ऊपर नाद-बिन्दु के मध्य में एक उज्ज्वल सिंहासन विद्यमान है, उसी सिंहासन पर अपने इष्ट देव विराज रहे हैं, वे वीरासन में बैठे है, उनका शरीर चाँदी के पर्वत के सदृश श्वेत है, वे नाना प्रकार के आभूषणों से विभूषित हैं और शुभ्र माला, पुष्प और वस्त्र धारण कर रहे हैं, उनके हाथों में वर और अभय मुद्रा हैं, उनके वाम अंग में शक्ति विराजमान है। इष्ट देव करुणा दृष्टि से चारों ओर देख रहे हैं, उनकी प्रियतमा शक्ति दाहिने हाथ से उनके मनोहर शरीर का स्पर्श कर रही हैं। शक्ति के वाम कर में रक्त-पद्म है और वे रक्तवर्ण के आभूषणों से विभूषित हैं, इस प्रकार ज्ञान-समायुक्त इष्ट का नाम-स्मरण पूर्वक ध्यान करे।

ज्योतिर्ध्यानः-
मूलाधार और लिंगमूल के मध्यगत स्थान में कुण्डलिनी सार्पाकार में विद्यमान हैं। इस स्थान में जीवात्मा दीप-शिखा के समान अवस्थित है। इस स्थान पर ज्योति रूप ब्रह्म का ध्यान करे।

एक ओर प्रकार का तेजो-ध्यान है कि भृकुटि के मध्य में और मन के ऊर्ध्व-भाग में जो ॐकार रूपी ज्योति विद्यमान है, उस ज्योति का ध्यान करें। इस ध्यान से योग-सिद्धि और आत्म-प्रत्यक्षता शक्ति उत्पन्न होती है। इसको तेजो-ध्यान या ज्योतिर्ध्यान कहते हैं।

सूक्ष्म ध्यानः-
पूर्व जन्म के पुण्य उदय होने पर साधक की कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत होती है। यह शक्ति जाग्रत होकर आत्मा के साथ मिलकर नेत्ररन्ध्र-मार्ग से निकलकर उर्ध्व-भागस्थ अर्थात् ब्रह्मरन्ध्र की तरफ जाती है और जब यह राजमार्ग नामक स्थान से गुजरती है तो उस समय यह अति सूक्ष्म और चंचल होती है। इस कारण ध्यान-योग में कुण्डलिनी को देखना कठिन होता है। साधक शाम्भवी-मुद्रा का अनुष्ठान करता हुआ, कुण्डलिनी का ध्यान करे, इस प्रकार के ध्यान को सूक्ष्म-ध्यान कहते हैं। इस दुर्लभ ध्यान-योग द्वारा- आत्मा का साक्षात्कार होता है और ध्यान सिद्धि की प्राप्ति होती है।

शाम्भवी-मुद्राः-
शाम्भवी मुद्रा का वर्णन आरम्भ करते हुए प्रथम उसका महत्व प्रकट किया है कि यह मुद्रा परम गोपनीय है। यह कुलवधु के समान है, और वेदादि के सर्व सुलभ होने के कारण इसे गणिका के समान बताकर शाम्भवी-मुद्रा की श्रेष्ठता ही व्यक्त की गई है। शरीर में जो मूलाधारादि षट्चक्र है उनमें से जो अभीष्ट हो, उस चक्र में लक्ष्य बनाकर अन्तःकरण की वृत्ति और विषयों वाली दृष्टि जो निमेष-उन्मेष से रहित हो ऐसी यह मुद्रा ॠग्वेदादि और योग-दर्शनादि में छिपी हैं। इससे शुभ की प्रत्यक्षता प्राप्त होती है, इसलिए इसका नाम शाम्भवी-मुद्रा हुआ।

ॐ त्वमसि आदि महाकाव्यों से जीवात्मा परमात्मा के अभेद रूप लक्ष्य में मन और प्राण का लय होने पर निश्चल दृष्टि खुली रह कर भी बाहर के विषयों को देख नहीं पाती, क्योंकि मन का लय होने पर इन्द्रियाँ अपने विषयों को ग्रहण नहीं कर सकती। इस प्रकार ब्रह्म में लय को प्राप्त हुए मन और प्राण जब इस अवस्था में पहुँच जाते हैं, तब शाम्भवी-मुद्रा होती है। भृकुटी के मध्य में दृष्टि को स्थिर करके एकाग्रचित्त हो कर परमात्मा रूपी ज्योति का दर्शन करे, अर्थात् साधक शाम्भवी-मुद्रा में अपनी आँखो को न तो बिल्कुल बन्द रखे और न ही पूर्ण रूप से खुली रखे, साधक कि आँखो की अवस्था ऐसी होनी चाहिये कि आँखें बन्द हो कर भी थोड़ी सी खुली रहे, जैसे कि अधिकतर व्यक्तियों की आँखें सोते वक्त भी खुली रहती है। इस तरह आँखो की अवस्था होनी चाहिये। ऐसी अवस्था में बैठ कर दोनों भौंहों के मध्य परमात्मा का ध्यान करे। इस को ही शाम्भवी-मुद्रा कहते हैं।

यह मुद्रा सब तन्त्रों में गोपनीय बतायी है। जो व्यक्ति इस शाम्भवी-मुद्रा को जानता है वह आदिनाथ है, वह स्वयं नारायण स्वरूप और सृष्टिकर्ता ब्रह्मा स्वरूप है। जिनको यह शाम्भवी-मुद्रा आती है वे निःसन्देह मूर्तिमान् ब्रह्म स्वरूप है। इस बात को योग-प्रवर्तक शिव जी ने तीन बार सत्य कहकर निरूपण किया है। इसी मुद्रा के अनुष्ठान से तेजो ध्यान सिद्ध होता है। इसी उद्देश्य से इसका वर्णन यहाँ किया गया है। इस शाम्भवी-मुद्रा, जैसा अन्य सरल योग सरल योग दूसरा नहीं है। इसे गुरूद्वारा प्राप्त करने की जरूरत है।

शाम्भवी- मुद्रा करके प्रथम आत्म-साक्षात्कार करे और फिर बिन्दुमय-ब्रह्म का साक्षात्कार करता हुआ मन को बिन्दु में लगा दे। तत्पश्चात् मस्तक में विद्यमान ब्रह्म-लोकमय आकाश के मध्य में आत्मा को ले जावें और जीवात्मा में आकाश को लय करे तथा परमात्मा में जीवात्मा को लय करे, इससे साधक सदा आनन्दमय एवं समाधिस्थ हो जाता है। शाम्भवी-मुद्रा का प्रयोग और आत्मा में दीप्तिमान-ज्योति का ध्यान करना चाहिए और यह प्रयत्न करना चाहिए कि वह ज्योति, बिन्दु-ब्रह्म के रूप में दिखाई दे रही है। फिर ऐसा भी ध्यान करे कि हमारी आत्मा ही आकाश के मध्य में विद्यमान है। ऐसा भी ध्यान करे कि आत्मा आकाश में चारों ओर लिपटी है और वहाँ सर्वत्र आत्मा ही है और वह परमात्मा में लीन हो रही है। ध्यानबिन्दू -उपनिषद् के प्रारम्भ में ही कहा है कि- यदि पर्वत के समान अनेक योजन विस्तीर्ण पाप भी हों तो भी वे ध्यान योग से नष्ट हो जाते हैं, अन्य किसी प्रकार से भी नष्ट नहीं होते।


जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK

Ancient Law(प्राचीन विधि-विधान)

प्राचीन विधि-विधान
अनादि काल से एक ही परिपाटी चली आ रही थी, जिसमें की साधक और गुरू, चाहे वशिष्ठ हो या राम, कृष्ण हो या सांदीपन, दोनो ही गायत्री मंत्र युक्त संध्या व हवन करते थे एवं ॐकार के द्वारा ध्यान करते थे। इस तरह गायत्री संध्या से उस आदिशक्ति की उपासना पूर्ण होती थी और ॐकार के ध्यान के द्वारा परब्रहम् की उपासना सम्पूर्ण होती थी। प्राचीन महर्षियों ने पुरूष और प्रकृति की उपासना का यह विधान इतना श्रेष्ठ बनाया था, की इस विधान के करने वाले साधक को भौतिक और आध्यात्मिक दोनों ही क्षेत्रों में सम्पूर्ण सफलता मिलती थी। वह सम्पूर्ण शक्तियों का मालिक बनते हुऐ, उस परमात्मा में लीन रहता था। सम्पूर्ण सुख-समृद्धि का भोग करते हुऐ मोक्ष को प्राप्त करता था। किन्तु समय का पहिया गतिशील है। प्रकृति में समय-समय पर बदलाव होते रहे हैं, उसी के अनुसार साधक की मन और बुद्धि भी बदलती है।

कालान्तर में गायत्री-संध्या के साथ-साथ अनेकों ही महापुरूषों ने तान्त्रिक-संध्या का विधान बनाया। कालान्तर में गायत्री-संध्या के साथ-साथ अनेकों ही महापुरूषों ने तान्त्रिक-संध्या का विधान बनाया। जहाँ गायत्री-संध्या में गायत्री-मंत्र की ही उपासना होती थी एवं गायत्री ही सबकी अधिष्ठात्री होती थी। वहीं पर तान्त्रिक-संध्या में नये-नये देवता और मंत्र जुड़ने लगे। सर्वप्रथम जहाँ पर गायत्री को इष्ट माना जाता था, वहीं पर साधकों ने बाद में अपने अलग-अलग इष्ट बनाने प्रारम्भ कर दिये। जो साधक शिव को अपना इष्ट मानने लगा, वह शिव मंत्र के द्वारा ही संध्या करने लगा। यह शिव की तान्त्रिक-संध्या कहलाई। इस सम्प्रदाय को मानने वाले साधकों ने जो अपना मत बनाया वह शैव-मत कहलाया। भगवान शिव के उपासकों में घन्टाकर्ण नाम का एक ऐसा उपासक भी हुआ, जिसने अपने कानों में घन्टे लटका लिये। अगर उसके सामने कोई भी व्यक्ति या साधक भगवान शिव के नाम के अलावा, किसी भी दूसरे देव का नाम लेता था, तो वह अपने सिर को हिलाने लगता था। जिससे कि उसके कानों में बंधे हुऐ घन्टे बजने लगते थे और किसी दूसरे देव का नाम उसे सुनाई नहीं पड़ता था।

इसी तरह शैव-मत के बाद वैष्णव-मत सामने आया, जिसमें कि राम, कृष्ण और विष्णु की मुर्ति-रूप में सुन्दर प्रतीक बनाये जाने लगे और विष्णु के मंत्रो के द्वारा ही संध्या की जाने लगी। उसके कुछ समय बाद दस महा-विद्या सामने आई और इन महा-विद्याओं के मंत्रों के द्वारा तान्त्रिक-संध्या करने वाले साधक शाक्त कहलाये, यहीं से कलियुग का प्रारम्भ हुआ और धीरे-धीरे यह तीनों ही मत फलने-फूलने लगे। जिस तरह गायत्री-संध्या के बाद तान्त्रिक-संध्या आई, उसी तरह शक्ति मत के भी दो मत हो गये। शक्ति-मत में दस महा-विद्याओं की तान्त्रिक-संध्या करने वाले व्यक्ति दो कुलों में विभाजित हो गये। एक श्रीकुल कहलाया एवं दूसरा कालीकुल । यहाँ तक दोनों कुलों की उपासना करने वाले, तन्त्र के साथ-साथ ब्रहम् को भी मानने वाले थे। धीरे-धीरे ये दोनों कुल भी दो भागों में बँट गये। एक दक्षिण-मार्गी और दूसरा वाम-मार्गी। दक्षिण-मार्गी उन को कहा गया, जो कि काली-कुल के अन्तर्गत आने वाली शक्तियों की उपासना सात्विक रूप से करते थे। प्रारम्भ में दोनों कुलों के उपासक सात्विक ही थे, किन्तु बाद में जब इसके दो भेद हो गये, तो दक्षिण-मार्गी सात्विक कहलाऐ एवं वाम मार्गी तामसिक। सात्विक मार्ग में अनादि काल से ले कर आज तक बहुत कम बदलाव आया जो थोड़ा बहुत बदलाव आया, तो वह यह था कि अपने इष्ट के सामने प्रतीक रूप में घी की बजाय तेल का दिया जलाना। आज भी कुछ साधक शक्ति मार्ग में घी का दीपक जलाते है, तो कुछ सरसों के तेल का और कुछ तिलों के तेल का। दुसरा जो बदलाव आया वह वस्त्र का था।

सात्विक शक्ति उपासक अपनी इच्छा के अनुसार सफेद या लाल कपड़े का इस्तेमाल करने लगे। जबकि तामसिक साधक अधिकतर काले कपड़ो का इस्तेमाल करने लगे।कोई काली को बड़ा मानता तो कोई तारा को और कोई श्रीविद्या को। अनेकों ही शक्ति की साधना-उपासना करने वालों ने अपने-अपने ग्रन्थ लिखे और अपने-अपने इष्ट को सम्पूर्ण बताया। छोटे-बड़े का मत भेद बढ़ता चला गया। किन्तु अन्तः करण से सभी उस अनादि शक्ति को ही अपने इष्ट-रूप में मानते थे। सभी साधक यही कहते थे कि सभी महा-विद्याऐं उस आदिशक्ति का ही अंश रूप है। किन्तु अंश रूप में भी सभी भेद रखते थे। जिस प्रकार वैष्ण्व मत में राम को 14 कला अवतार एवं कृष्ण को 16 कला अवतार माना जाता है। उसी प्रकार शाक्त मत में भी यही भेद था, किन्तु धीरे-धीरे इनके अधिकार क्षेत्र बांट दिये गये। हर महाविद्या को एक सीमित क्षेत्र में सीमित कर दिया गया। जब की वह महाविद्या अपने आप में सम्पूर्ण थी। जहाँ दुष्टों के नाश का अधिकार क्षेत्र बगलामुखी को दिया गया, वहीं धन का अधिकार क्षेत्र कमला-महाविद्या को दिया गया। काली को जो अधिकार क्षेत्र दिया गया वह शक्ति का था और तारा का अधिकार क्षेत्र ज्ञान की वृद्धि के लिये था। भुवनेश्वरी का अधिकार क्षेत्र आकस्मिक धन प्राप्ति के लिऐ होता था। वहीं मातगीं का अधिकार क्षेत्र वशीकरण, आकर्षण एवं विद्या क्षेत्र था। जहाँ शरीर के ताप को मिटाने का और तान्त्रिक द्वारा अभिचार कर्म को काटने का अधिकार क्षेत्र धूमावती के पास था। वहीं साधक की इच्छाओं की पूर्ती का अधिकार क्षेत्र छिन्नमस्ता के पास है। जहाँ मन, इच्छा अनुसार स्त्री या पुरूष की प्राप्ति का अधिकार क्षेत्र त्रिपुर-भैरवी के पास है। यह साधकों के अन्दर भय का नाश करती है। वहीं सम्पूर्ण सुख-समृद्धि एवं ऐश्वर्य प्राप्ति का अधिकार क्षेत्र श्रीविद्या राज-राजेशवरी त्रिपुर-सुन्दरी के पास है।

शक्ति उपासकों का जो दुसरा वाम मार्गी मत था, उसमें शराब को जगह दी गई। उसके बाद बलि प्रथा आई और माँस का सेवन होने लगा। इसी प्रकार इसके भी दो हिस्से हो गये, जो शराब और माँस क सेवन करते थे, उन्हे साधारण-तान्त्रिक कहा जाने लगा। लेकिन जिन्होने माँस और मदिरा के साथ-साथ मीन(मछली), मुद्रा(विशेष क्रियाँऐं), मैथुन(स्त्री का संग) आदि पाँच मकारों का सेवन करने वालों को सिद्ध-तान्त्रिक कहाँ जाने लगा। आम व्यक्ति इन सिद्ध-तान्त्रिकों से डरने लगा। किन्तु आरम्भ में चाहे वह साधारण-तान्त्रिक हो या सिद्ध-तान्त्रिक, दोनों ही अपनी-अपनी साधनाओं के द्वारा उस ब्रहम् को पाने की कोशिश करते थे। जहाँ आरम्भ में पाँच मकारों के द्वारा ज्यादा से ज्यादा ऊर्जा बनाई जाती थी और उस ऊर्जा को कुन्डलिनी जागरण में प्रयोग किया जाता था, ताकि कुन्डलिनी जागरण करके सहस्त्र-दल का भेदन किया जा सके और दसवें द्वार को खोल कर सृष्टि के रहस्यों को समझा जा सके। किन्तु धीरे-धीरे पाँच मकारों का दुर-उपयोग होने लगा और यह पाँच मकार सिर्फ स्वार्थ सिद्धि, नशा और काम वासना की पुर्ति के साधन मात्र ही रह गये।

कोई माने या न माने लेकिन यदि काम भाव का सही इस्तेमाल किया जा सके तो इससे ब्रहम् की प्राप्ति सम्भव है।इसी वक्त एक और मत सामने आया जिसमें की भैरवी साधना या भैरवी चक्र को प्राथमिकता दी गई। इस मत के साधक वैसे तो पाँचो मकारों को मानते थे, किन्तु उनका मुख्य ध्येय काम के द्वारा ब्रहम् की प्राप्ति था इसी समय में शैव-मत में से एक मत अलग हो कर बाहर आया जिसे अघोर-मत कहा जाने लगा। आघोर-मत को मानने वाले साधक नशे के रुप में गाँजे का सेवन करते थे एंव श्मशान में बैठ कर तामसिक शिव या भैरव मंत्रों का जाप करते थे। प्रारम्भ में जहाँ नशा करके चेतन मन को शान्त कर दिया जाता था और अवचेतन मन के द्वारा परमात्मा के नाम का जाप किया जाता था। वहीं बाद में परमात्मा के ‘ॐ’ नाम को छोड़ कर विभिन्न मंत्रों का जाप होने लगा। धीरे-धीरे यह साधक पर-ब्रहम् को भूल कर आम व्यक्तियों को चमत्कार दिखाने की खातिर शव-साधना करने लगे। ऐसे मंत्रों का निर्माण हुआ जिन के द्वारा तुच्छ सिद्धियाँ प्राप्त करके आम जनता को चमत्कार दिखाया जा सके। आज वाम मार्गीयों का सबसे वीभत्स रूप हमारे सामने है। आज के समय में साधारण-तान्त्रिक, सिद्ध-तान्त्रिक, भैरवी-मत को मानने वाले या अघोर आदि अधिकतर साधक उस परमात्मा को भूल ही गये है। अगर ऐसा नहीं होता तो आज जो तान्त्रिकों का विभत्स रूप हमारे सामने है, वह नहीं होता।

ब्रहम् को मानने वाला तान्त्रिक अपनी शक्तियों का कभी दुर-उपयोग नहीं करेगा।लेकिन आज अधिकतर तान्त्रिक अपनी सिद्धियों का दुर-उपयोग के अलावा और कहीं इस्तेमाल नहीं करते। प्रारम्भ का तान्त्रिक जहाँ ब्रहम् का उपासक होता था, वहीं आज का तान्त्रिक पैसे का उपासक बन गया है। कुछ सौ वर्षों पहले एक नई विद्या प्रकाश में आई। इसको मानने वाले भी अपने आप को तान्त्रिक, ओझा या गुणी कहते थे। अगर इस विद्या का सही इस्तेमाल किया जाऐ तो, आम व्यक्ति को काफी हद तक फायदा हो सकता है। किन्तु इससे ब्रहम् की प्राप्ति सम्भव नहीं है। इस विद्या को मानने वाले साबर-मंत्रों का प्रयोग करते है। इस विद्या का अपना कोई नाम नहीं है। किन्तु साबर-मंत्रों का इस्तेमाल करने वालों को ओझा या गुणी ही कहा जाता है। नाथ समप्रदाय में ‘बाबा मछन्दर नाथ’ के शिष्य ‘गुरू गोरक्ष नाथ जी’ थे। गुरू गोरक्ष नाथ जी ने साबर-मंत्रों की रचना साधारण व्यक्तियों के लिये की। जिससे की वे साबर-मंत्रों का प्रयोग करके सुख-समृद्धि को प्राप्त कर सके। आज के समय में साबर-मंत्रों के उपर अनेकों ग्रन्थ देखने में आते है, पर इन ग्रथों के अन्दर न तो सही विधि-विधान लिखा हुआ है और न ही सम्पूर्ण मंत्र लिखें हुऐ हैं। साबर-मंत्रों में जो सिद्ध मंत्र है, वह आज भी गुरू परम्परा के अनुसार चले आ रहे हैं । अगर कोई साधक गुरू से प्राप्त साबर-मंत्र का जाप करता है, तो उसे सभी भौतिक सुखों की प्राप्ति होती है। साथ ही इन मंत्रों के द्वारा लोक-देवताओं की सिद्धि भी सम्भव है। गोरक्ष नाथ जी द्वारा रचित साबर-मंत्रों में काली, भैरव, हनुमान की सिद्धि, वीर सिद्धि, मन इच्छा अनुसार खाद्य-पदार्थ सामग्री को प्राप्त करने हेतु वेताल सिद्धि आदि है। किन्तु आज के समय में साबर-मंत्रों का भी दुर-उपयोग होने लगा है।

प्रारम्भ का तान्त्रिक केवल 10 महा विद्याओं को मानता था, किन्तु जैसे-जैसे समय बदलता चला गया वैसे-वैसे साधक 10 महा विद्याओं की कठिन साधना से बचने लगे और जो दुसरा तान्त्रिक पड़ाव आया उस में 10 महाविद्याओं कि जगह, 9 दुर्गाओं ने ली। कहने का तात्पर्य यह है कि आम व्यक्ति दस महा विद्याओं की कठिन साधनाओं को छोड़ कर नौ दुर्गाओं की साधना करने लगा और इस प्रकार नवरात्रों का प्रारम्भ हुआ। कहने को तो यह 9 दुर्गायें आदिशक्ति माता पार्वती का ही रूप है। किन्तु इनकी शक्तियाँ एवं कार्य क्षेत्र अगल-अगल है। इन्ही नौ दुर्गाओं के आधार पर नवरात्रे शुरू हुऐ, जिसमें कि तान्त्रिक साधक आदिशक्ति के नाम पर उपवास रखतें है और अपनी इच्छा अनुसार दुर्गा के किसी एक रूप की साधना करते है। आज भी अनेकों साधक इसी नियम को मानते हुऐ साधना करते आ रहे है। किन्तु इन साधकों में भी दो मत बन गये- एक सात्विक दुसरा तामसिक। सात्विक साधक साधना पूर्ण होने पर खीर-हलवे आदि का भोग लगाते है। किन्तु तामसिक साधक साधना पूर्ण होने पर मदिरा और बकरे आदि कि बलि लगाते है। सिद्धियाँ दोनों ही साधकों को प्राप्त होती है और दोनों ही साधक अपनी इच्छा अनुसार अपनी सिद्धियों का उपयोग करते है। किन्तु जो साधक लोक-कल्याण में अपनी सिद्धि का उपयोग करता है, वह सद्गति को प्राप्त होता है। और जो साधक अपनी सिद्धि का दुर-उपयोग करता है, वह दुर्गति को प्राप्त होता है।

शैव-सम्प्रदाय को मानने वाले तान्त्रिक शिव के साथ-साथ धीरे-धीरे भैरव की उपासना करने लगे। भैरव-साधना को स्थापित करने के पीछे जो मूल कारण था, वह यह था कि साधक का तामसिक होना। क्योंकि भगवान शिव कि साधना सात्विक है। इसलिऐ शिव-संप्रदाय में जो तामसिक साधक पैदा हुऐ, उन्होंने भैरव-साधना प्रारम्भ कि और साथ ही माँस-मदिरा का सेवन प्रारम्भ कर दिया। यहीं से तान्त्रिकों में व्यभिचार उत्पन्न हो गया। क्योंकि जो साधक सात्विक से तामसिक बन गया हो, तो उस कि तामसिकता का अन्त सहज नहीं होता। धीरे-धीरे भैरव-उपासकों ने एवं नौ दुर्गा उपासकों ने अपने आप को नीचे कि तरफ गिराना प्रारम्भ कर दिया। धीरे-धीरे मूल साधनाऐं और सात्विक साधनाऐं समाप्त होने लगी और सभी जगह तामसिकता ने स्थान ग्रहण कर लिया। नौ दुर्गाओं का स्थान 64 योगनियों ने ले लिया और साथ-ही-साथ डाकनी, शाकनी की पूजा, नवदुर्गा के सात्विक और तामसिक साधकों ने प्रारम्भ कर दी। दुसरी तरफ भैरव-साधना करने वाले साधक भूत, प्रेत की सिद्धि करने लगे। इन साधकों का मुख्य ध्येय यही था कि आम व्यक्तियों को अपनी सिद्धि का चमत्कार दिखाया जा सके और चमत्कार के द्वारा अपना स्वार्थ सिद्ध किया जा सके। तान्त्रिकों का व्यभिचार बढ़ता चला गया।

तन्त्र के इस वीभत्स रूप को देख कर आम व्यक्ति सामने आया, जो शास्त्रों कि बड़ी-बड़ी सिद्धियों को तो नहीं कर सकता था। अपितु वह परमात्मा के लिये श्रद्धा और भावना से भरा हुआ था। इन आम व्यक्तियों ने छोटे-छोटे मंत्र जिनकों कि यह असानी से याद कर सकते थे, उनका जाप प्रारम्भ कर दिया। इन मंत्रो में अधिकतर साबर मंत्र थे, क्योंकि साबर मंत्र आम बोल-चाल कि भाषा में होते थे और इन्हे याद करना भी आसान होता था। कहते हैं कि श्रद्धा में शक्ति होती है और इन आम व्यक्तियों कि श्रद्धा रंग लाई और ओझा-गुणीयों का मत प्रारम्भ हो गया। ये ओझा-गुणी-साधक न तो कोई लम्बा चौड़ा विधान जानते थे और न ही कोई विशेष कर्म-कांड करते थे। यह साधक तो श्रद्धा और भावना से भरे हुऐ थे। धीरे-धीरे तन्त्र-सम्प्रदाय मिटने लगा और ओझा-गुणीयों का समप्रदाय फलने-फुलने लगा। आम व्यक्ति या जन-मानस को अत्यधिक फायदा होने लगा। अधिकतर हर छोटी-बड़ी समस्याओं का ईलाज, इन साधकों के पास होता था और ये साधक नि-स्वार्थ भाव से जन-सेवा करते थे। एक समय ऐसा भी आया जब तान्त्रिकों और इन साधकों में टकराव उत्पन्न हुआ। जिस में तान्त्रिकों कि हार हुई और इन श्रद्धा से भरे हुऐ साधकों कि जीत हुई। इस जीत से भी इस सम्प्रदाय को बल मिला और धीरे-धीरे यह सम्प्रदाय, एक छोटे से गाँव से ले कर शहरों तक फैलता चला गया।

इस सम्प्रदाय कि मुख्य पहँचान यही थी कि यह साधक सात्विक होते हुऐ भी श्रद्धा और भावना से भरे हुऐ थे। मंत्रो के नाम पर सिर्फ अपने देवता का नाम लेते थे और हर समस्या का समाधान करते थे। यह साधक लोक-देवताओं को प्रधान मानते हुऐ, निष्कपट भाव से उनकी सेवा करते थे। जहाँ तान्त्रिक अनुष्ठान करके सिद्धि को प्राप्त करते थे, वहीं यह साधक अपने लोक-देवता को स्नान आदि करा कर या सिर्फ अपने घर में ही एक अलग स्थान बना कर, अपने देवता के नाम का एक अलग दीपक(चिराग) जलाते थे। इतना भर करने से ही उन्हें उस देवता कि कृपा प्राप्त होती थी। जो साधक मन, क्रम, वचन से अधिक पवित्र होता था, उसे उतनी ही जल्दी उस देवता कि कृपा प्राप्त होती थी। इन साधकों ने अपने लोक-देवताओं में जिनको मुख्य स्थान दिया- उन में हनुमान जी, भैरव जी, क्षेत्रपाल, कुल देवता (अपने कुल की परम्परा में जिस देवता की पूजा होती थी), ग्राम देवता(गाँव में जो प्रधान देवता होता है), नगर देवता(सम्पूर्ण नगर का श्रेष्ठ देवता, जैसे कि दिल्ली में कालका जी)। सिर्फ इतना ही नहीं, इन साधकों ने हिन्दु और मुस्लिमों का भेद भाव त्याग कर सयैद, पीर, परी आदि कि साधना भी प्रारम्भ की। प्रत्येक साधक अपनी गुरू परम्परा के अनुसार या अपनी इच्छा अनुसार देवताओं की पूजा करने लगा। इन्हीं साधकों ने कुछ समय बाद सात-माताओं की पूजा पर बल दिया और हर गाँव या नगर में, एक छोटे से मन्दिर के रूप में इन सात माताओं कि स्थापना होने लगी। साधकों के साथ-साथ आम व्यक्ति भी इन माताओं की पूजा करते लगा। आज भी होली से ठीक सात दिन बाद जो शीतला माता की पूजा होती है, वह वास्तव में सात माताओं कि पूजा होती है।

सात माताओं कि सहज पूजा के मूल में दस महाविद्याओं में से सात महाविद्याओं का रहस्य छिपा हुआ है। दस महाविद्याओं कि साधना कठिन होने कि वजह से इन्हें सात-माताओं का सुक्ष्म रूप दिया गया। दस में से सात को स्थान देने के पीछे जो रहस्य था, वह यही था कि दस महाविद्याओं में से सात महाविद्याऐं सात्विक और तामसिक दोनों है। इसलिऐ एक नई परिपाटी प्रारम्भ की ताकि सात्विक और तामसिक दोनों ही साधक अपनी इच्छा अनुसार पूजा कर सके। क्योंकि ओझा-गुणीयों में भी धीरे-धीरे तामसिकता आने लगी थी। आज भी इन सात-माताओं की पूजा सात्विक और तामसिक दोनों साधक अपने-अपने ढंग से करते है एवं हिन्दु धर्म की लगभग सभी जातियाँ इनकी पूजा करती है, चाहे वह क्षत्रिय हो या ब्राह्मण, वैश्य हो या शुद्र। इससे जो सबसे बड़ा फायदा हुआ, वह यह था कि दोनों ही तरह के साधक एक ही जगह बन्ध कर रह गये। जहाँ पुरानी परिपाटी में सात्विक-सात्विक था और तामसिक-तामसिक, वहीं इस नई परिपाटी में दोनों एक हो गये और जन-मानस को फायदा होने लगा। सात-माताओं कि स्थापना गाँव कि सीमा पर की जाती थी। इससे साधकों को दुसरा जो सबसे बड़ा फायदा था, वह यह था कि यह सात-माताऐं उस गाँव को प्रत्येक अला-बला और बिमारियों से सुरक्षा प्रदान करती थी।

इन सात-माताओं के साधकों में से कुछ साधक व्यभिचार होकर श्मशान की साधनाओं की तरफ बढ़ने लगे। श्मशान की तरफ बढ़ने वाले ये साधक, भैरव-साधकों की तरह भूत, प्रेत या शव-साधना नहीं करते थे। बल्कि ये मसान और कलवों की पूजा करने लगे। इस पूजा में यह लोग मरे हुऐ छोटे बच्चों के शव को बाहर निकालतें और उस कि सिद्धि करते, जिसे कलवा सिद्धि या मसान सिद्धि कहाँ जाता है। इन साधकों कि यह सिद्धि प्रारम्भ में लोक-कल्याण कारक थी, किन्तु कुछ समय बाद इसका भी वीभत्स रूप आम व्यक्ति को देखने को मिला। मसान आदि की सिद्धि करने वाले साधक धीरे-धीरे लोभ में फँसने लगे और जहाँ ये साधक प्रारम्भ में जन सेवा करते थे या दुष्टों का मूठ या घात चला कर नाश करते थे। वहीं बाद में ये साधक पैसा ले कर किसी के उपर भी मूठ या घात चलाने लगे जिससे कि आम जन-मानस परेशान हो उठा। ऐसे दुष्ट-साधकों से बदला लेने के लिये वीर-सिद्धि के साधक सामने आये। इसमें पाँच-वीरों की साधना को प्रधानता दी गई। इन पाँच-वीरों को एक चिराग या पाँच चिराग जला कर और सफेद रंग का कोई भी प्रसाद लगा कर सिद्ध किया जाता था। इन पाँच-वीरों में जो मुख्य स्थान मिला वह गुगाजी(जाहर वीर) को था। गुगाजी को जाहर वीर भी कहा जाता है। जाहर वीर के झन्ड़े तले पाँच वीरों की स्थापना हुई और 52 वीरों का जन्जीरा बना। कुछ साधक 52 वीरों के जन्जीरे को, 52 डोर के नाम से भी जाना जाता है। पाँच वीरों में जाहार वीर, हनुमन्त वीर, नाहरसिहं वीर, अंघोरी वीर, भैरव वीर मुख्य थे। 52 वीरों के जन्जीरे के पाँच मालिक हैं। सात्विक और तामसिक देवताओं का यह अनुठा गठबन्धन था। इन वीरों में जहाँ जाहर वीर और हनुमन्त वीर सात्विक है, वहीं नारसिहं, भैरव वीर और अंघोरी वीर तामसिक है। इस की जो स्थापना की गई, उसमें सात्विक और तामसिक दोनों ही पूजा विधान रखे गये। इस साधना में भी श्रद्धा और भावना को प्रधान माना गया। किन्तु पाँच वीरों की साधना करने वाला साधक, अपनी इच्छा अनुसार अपनी सिद्धि का इस्तेमाल नहीं कर सकते थे।

यहाँ पर साधक या आम व्यक्ति केवल अर्जी लगा कर (प्रार्थना करके) छोड़ देता है। उस अर्जी का फैसला उन पाँच वीरों के हाथ में होता है। ये पाँच वीर साधक की अर्जी को सुनकर, उसके भाग्य, कर्म, श्रद्धा और भक्ति को देख कर ही फैसला करते है। हिन्दुओं की इस नई व्यवस्था को देख कर ही, मुस्लिम सम्प्रदाय में भी पाँच पीरों की स्थापना हुई। इन पाँच पीरों को कुछ साधक पाँच-बली भी कहते है। अस्त बली, शेरजंग, मोहम्मद वीर, मीरा साहब और कमाल-खाँ-सैयद जैसी व्यवस्था पाँच पीरों-वीरों की साधना में थी। वैसी ही परम्परा और व्यवस्था पाँच पीरों में थी जैसी कि पाँच वीरों में थी। दोनों ही मतों में श्रद्धा और भावना प्रदान थी। आज के समय में इस परम्परा का रूप अनेकों ही जगह देखा जा सकता है। धीरे-धीरे पाँच हिन्दू वीर और पाँचों मुस्लमानी पीर इकठ्ठे पूजे जाने लगे। अधिकतर हिन्दू पाँच वीरों के साथ-साथ पाँच पीरों को भी मानने लगे। जहाँ पाँच वीर साधक और आम व्यक्ति को सुरक्षा प्रदान करते हुऐ, दुष्टों का विनाश करते थे, वहीं पाँचों पीर सुख और समृद्धि प्रदान करते थे। इसी प्रकार सिख धर्म में भी पंच प्यारे हैं।

धीरे-धीरे आवेश का प्रचलन प्रारम्भ हुआ जो साधक बदन को हिलाते अर्थात झुमते हुऐ लोगों कि समस्याओं का समाधान करने थे। ऐसे साधकों के बारे में कहा जाता है कि इस साधक के अन्दर देवता की आत्मा ने प्रवेश किया हुआ है। साधक के शरीर में किसी भी देवी या देवता की आत्मा का प्रवेश करना आवेश कहलाता है। ऐसे साधक जोर-जोर से हिलने लगते है और अपने पास आये हुऐ आम व्यक्तियों का ईलाज करते है। इस व्यवस्था में आम व्यक्ति और देवता के बीच कोई माध्यम नहीं होता अपितु आप व्यक्ति सीधे ही देवता से बात करके अपनी समस्या का समाधान पाता है।

साधना का यह प्रयोग भी आम व्यक्तियों के बीच में काफी प्रचलित है। किन्तु सही मायने में यह क्रिया तभी फलीभूत है, जब साधक गुरू के सान्निध्य में इस साधना को बार-बार करे। क्योंकि ऐसा न करने वाले साधक को अनेकों ही परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है। मान लीजिऐ किसी साधक के अन्दर देवता के आवेश की बजाऐ किसी भूत या प्रेत का आवेश आ गया और उसे देवता का आवेश मान कर वह साधक जन-कल्याण करने लगा तो सम्भव है, कि आम व्यक्ति की समस्याऐं तो दूर होने लगेगीं, किन्तु साधक और उसके परिवार को अनेकों ही परेशानियों का सामना करना पड़ेगा। आज अनेकों ही ऐसे साधक हैं, जिन में देवता का नहीं बल्कि भूत-प्रेतों का आवेश आता है।

जिसके द्वारा वह जन कल्याण करते हैं। किन्तु साधक व उसका परिवार अनेकों ही परेशनियों से घिरा रहता है। अगर कोई उनसे कहे कि आप तो साधक हो देवता कि आप के ऊपर असीम कृपा है। फिर आप या आपके परिवार में परेशानी क्यों है। तो ऐसे साधक हँसकर यही जवाब देते हैं, कि जैसी देवता की इच्छा। अगर अधिक जोर देकर उनसे पूछा जाऐ तो वह, यह कहते है, कि जिस प्रकार एक डॉक्टर अपना ईलाज़ स्वयं नहीं कर सकता उसी तरह हम स्वयं अपनी समस्या का समाधान नहीं कर सकते। जो साधक ऐसा कहते है, यह पूर्णतः मिथ्या प्रचार है। अगर आप मन, कर्म, वचन से पवित्र हैं और पूर्णतः देवता का ही आवेश है, तो आपके घर परिवार में किसी भी प्रकार की कोई भी परेशानी नहीं होगी। जिन साधकों के घरों में यह परेशानियाँ है, वह साधक मन, कर्म, वचन से पवित्र नहीं है अथवा देवता के आवेश के स्थान पर भूत या प्रेत का आवेश है। आज का जो समय है, इसमें सबसे ज्यादा जो देखने को तन्त्र मिलता है, वह ओझा, गुणी या आवेश वाले तान्त्रिकों का अधिक है। सिद्ध तान्त्रिक तो बहुत ही कम देखने को मिलते है। अघोर-विद्या के जो भी सिद्ध तान्त्रिक थे, वह भी धीरे-धीरे समाप्त होते जा रहे है। भैरवी-साधना का तो बड़ी मुश्किल से ही कोई नाम लेवा बचा है। कोई माने या न माने किन्तु सभी साधनाऐं धीरे-धीरे समाप्त होती जा रही है।

इसके मूल में जो कारण है, वह यही है कि तान्त्रिकों का व्यभिचारी होना एवं शिष्यों की आस्था का न होना। जब तक गुरू और शिष्य दोनों के ही अन्दर श्रद्धा भाव नहीं होगा और दोनों ही ब्रहम् के प्रति समर्पित नहीं होगे, तब तक तन्त्र का उत्थान सम्भव नहीं है। प्राचीन काल में जो भी साधना की जाती थी, उसके मूल में गुरू और शिष्य का एक ही उद्देश्य होता था कि अधिक से अधिक ऊर्जा का इकट्ठा करना एव कुन्डलिनी-शक्ति को जाग्रत करते हुऐ, उस के द्वारा ब्रहम् को प्राप्त करना। ऊर्जा शक्ति को इकट्ठा करने हेतु, फिर चाहे सात्विक साधना करनी पड़े या तामसिक। साधना कोई भी क्यों न हो सभी साधनाऐं हमें ऊर्जा प्रदान करती है। अगर इस ऊर्जा का हम सही इस्तेमाल करें, तो हम पूर्ण ब्रहम् को प्राप्त कर सकते हैं। अगर हमारा उद्देश्य पवित्र है, तो फिर कोई भी शक्ति हमें उस परमात्मा से मिलने से रोक नहीं सकती।

हम सभी का कर्तव्य है कि एक बार फिर से एक नये युग की रचना हो और जितनी भी साधनाऐं लुप्त होती जा रही है, उन सबको पुनः स्थापित करें।अगर हमने समय रहते अपने आपको जागरूक नहीं बनाया तो एक दिन ऐसा आयेगा, जब हमारी सभी प्राचीन धरोहर समाप्त हो जायेगी। अगर हम ध्यान-पूर्वक अध्ययन करें तो कुछ वक्त पहले वेदों का अध्ययन सभी करते थे, किन्तु आज के समय में अधिकतर व्यक्तियों को तो चार वेदों के नाम तक भी मालूम नहीं है। कैसी विड़म्बना है कि जिन चार वेदों से यह सम्पूर्ण सृष्टि बनी है हमें उन का नाम तक याद नहीं। अगर यही हाल रहा तो एक समय ऐसा भी आयेगा, जब हम धीरे-धीरे करके सब कुछ खो चुके होगें। किन्तु कहते है कि ‘फिर पछतायेत होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत’ इसलिये हम आवाहन करते है, उन साधकों का जो सही मायने में हिन्दु धर्म कि सभ्यता को और हिन्दु धर्म के मूल तत्त्व श्रद्धा और भावना को बचाना चाहते है।

अगर हमने समय के रहते अपने आप को नहीं संभाला तो एक समय ऐसा भी आऐगा, जब हमारी हालत पश्चिमी सभ्यता से भी बुरी हो जाऐगी। पश्चिम के देशों की नकल करके हम अपने आप को महान समझ रहे है। ध्यान-पूर्वक अध्ययन करने पर पता चलता है कि आज वही पश्चिमी देश वेद-मंत्रों और गीता के ऊपर अनुसंधान (रिसर्च) कर रहे है। आर्य सभ्यता में 21 वीं सदी के अन्दर धीरे-धीरे जहाँ यह कहा जाने लगा है कि वेदों में क्या रखा है। वही पश्चिमी देशों ने वेदों का अध्ययन करके अपनी ध्यान-योग की शक्ति को इतना अधिक बढ़ा लिया है, कि जिसके बारे में हिन्दुस्तान का आम व्यक्ति सोच भी नही सकता। हिन्दुस्तान का आम व्यक्ति पश्चिमी सभ्यता की देन रेकी, लामाफैरा, क्रिश्टल-हीलिंग, फैंग-शूई, टच-थेरेपी आदि की तरफ भाग रहा है। वही पश्चिम का आम व्यक्ति हिन्दुस्तान के प्राचीन ग्रन्थों का अनुसंधान करने में लगा हुआ है। इसे हम अपना दुर्भाग्य ही कहगें कि आर्यों के पास सब कुछ होते हुऐ भी, वह पश्चिम के देशों की नकल कर रहा है। इसलिऐ हम सबको फिर से जागना होगा और जगाना होगा आम व्यक्ति को, ताकि लुप्त होती जा रही आर्य सभ्यता को समय के रहते बचाया जा सके।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK