भूमिका
आग अर्थात् अग्नि के बार में सभी जानते हैं, इसका महत्त्व भी सभी समझते हैं। शास्त्रों के अनुसार अग्नि सात प्रकार की है, तो कुछ जगह अग्नि की सात जिह्वा मानी गई है। वेदों में अग्नि के अनेकों नाम हैं, किन्तु योग-शास्त्र के अनुसार अग्नि के नाम- क्रोधाग्नि, कामाग्नि, ज्ठराग्नि आदि। योग-शास्त्र के अनुसार सभी अग्नियों में कामाग्नि की भूमिका महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि जब यह कामाग्नि ऊर्ध्वगामी हो जाती है, तो यह ज्ञानाग्नि में बदल जाती है। जब यह हमारे नाभि-स्थल में स्थित मणिपुर-चक्र में पूर्ण रूप से जाग्रत हो जाती है और आज्ञा-चक्र की तरफ अग्रसर होती है, तो यही कुण्डलिनी-शक्ति होती है। इसी को कुण्डलिनी जागरण भी कहते है।
(ज्ठराग्नि > क्रोधाग्नि > कामाग्नि > ज्ञानाग्नि > कुण्डलिनी शक्ति > पराशक्ति > परब्रह्म)
या
(ज्ठराग्नि > क्रोधाग्नि > कामाग्नि > ज्ञानाग्नि > कुण्डलिनी शक्ति > नादब्रह्म > ज्योति ब्रह्म)
कामाग्नि का ही पवित्र रूप प्रेमाग्नि है। यह प्रेम, प्यार या इश्क जब किसी विपरीत लिंगी के प्रति होता है, तो प्रारम्भ में वह प्रेमाग्नि के रूप में होता है और बाद में यह पवित्र-प्रेम कामाग्नि में बदल जाता है। जब यह इश्क या प्रेम परमात्मा के प्रति होता है, तो यह प्रेमाग्नि बाद में ज्ञानाग्नि में बदल जाती है। इसलिये कहा गया है कि –
ये इश्क नहीं आसाँ, इक आग का दरिया है।
डूब के नहीं, तैर के उस पार निकलना है।।
आगे कहा गया है कि –
इश्क ने गालिब हमको निकम्मा कर दिया।
वरना हम भी थे आदमी काम के॥
हम परमात्मा के प्रेम में कितने पागल है या परमात्मा के प्रति हमारे हृदय में कितनी प्रेमाग्नि प्रज्वलित है। इसी आधार पर हमें परमात्मा की प्राप्ति होती है। शास्त्रों में भक्ति मार्ग को श्रेष्ठ बताया गया है, इसी भक्ति के दो पुत्र कहे गये है– ज्ञान और वैराग्य। जहाँ कलयुग में भक्ति के हजारों उपासक हुऐ हैं, वहाँ ज्ञान और वैराग्य के बहुत कम उपासक हुये हैं। भक्ति की पूर्णता ज्ञान और वैराग्य के बिना असम्भव है। सही मायने में भक्ति, ज्ञान और वैराग्य एक दूसरे के पूरक है। भक्ति उपासकों में जहाँ भक्ति कि प्रधानता दिखाई देती है, वहीं इनके अन्दर ज्ञान और वैराग्य अप्रत्यक्ष रूप से विद्यमान रहते है। इसी प्रकार ज्ञान और वैराग्य के उपासकों में जहाँ ज्ञान और वैराग्य की प्रधानता दिखाई देती है, वहीं इनके अन्दर भक्ति अप्रत्यक्ष रूप से विद्यमान रहती है।
भक्ति, ज्ञान और वैराग्य कि परिभाषायें यों तो अनेकों ही उपासकों ने की हैं। किन्तु इन परिभाषाओं में से जो श्रेष्ठ हैं, वह परिभाषा हम सभी साधकों को समझाने की कोशिश करेंगे-
भक्ति(नवधा-भक्ति)
श्रवणं कीर्तनं विष्णों स्मरणं पाद सेवनम्।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यम् आत्म निवेदनम्॥
प्रथम भगति संतन्ह कर संगा। दूसरि रति मम कथा प्रसंगा।
गुर पद पंकज सेवा तिसरि भगति अमान।
चौथि भगति मम गुन गन करई कपट तजि गान॥
मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा। पंचम भजन सो बेद प्रकासा॥
छठ दम सील बिरति बहु करमा। निरत निरंतर सज्जन धरमा॥
सातवँ सम मोहि मय जग देखा। मोतें संत अधिक करि लेखा॥
आठवँ जथालाभ संतोषा। सपनेहुँ नहिं देखई परदोषा॥
नवम सरल सब सन छलहीना। मम भरोस हियँ हरष न दीना॥
ज्ञान
शुभेच्छा अर्थात् विवेक वैराग्यकी स्थिति।
विचारणा अर्थात् श्रवण मनन की अवस्था।
मनुमानसा अर्थात् पंचभूतात्मक देह अनित्य और आत्मा नित्य-शुद्ध-बुद्ध है।
सत्त्वापत्ति अर्थात् ‘अहं स्मि’ मैं ब्रह्म हूँ, इस धारणा को दृढ़ करना।
असंसक्ति अर्थात् नाना विधि सिद्धियों की ओर से अनासक्ति।
पदार्थाभाविनी- ‘अहं ब्रह्मास्मि’ भी तो एक अहंवृत्ति ही है, अतः इसका भी लय होना।
तिर्यगा अर्थात् आत्मस्वरूप से न उठना।
वैराग्य
मन लोभी, मन लालची, मन चंचल, मन चौर।
मन के मत चलिये नहीं, पलक पलक मन और॥
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते॥
संत चरन पंकज अति प्रेमा। मन क्रम बचन भजन दृढ़ नेमा॥
गुरू पितु मातु बंधु पति देवा। सब मोहि कहँ जानै दृढ़ सेवा॥
मम गुन गावत पुलक सरीरा। गदग द गिरा नयन बह नीरा॥
काम आदि मद दंभ न जाकें। तात निरंतर बस मैं ताकें॥
बचन कर्म मन मोरि गति भजनु करहिं निःकाम।
तिन्ह के हृदय कमल महुँ कर-उँ सदा बिश्राम॥
कलयुग के अन्दर भक्ति तो सभी करते हैं, किन्तु ज्ञान और वैराग्य ना के बराबर है। कोई भी साधक कितनी ही भक्ति कर ले, लेकिन जब तक उस के अन्दर वैराग्य नहीं होगा तब तक उसे ज्ञान की प्राप्ति असम्भव है, और बिना ज्ञान की प्राप्ति के परमात्मा की प्राप्ति असम्भव है। इसलिये हमें भक्ति और वैराग्य का सहारा ले कर ज्ञान को पाना होगा। तभी परमात्मा की प्राप्ति है। किसी भी चीज के पाने हेतु हमारे मन में लगन की जरूरत है। किसी भी काम को हम जितनी लगन से करेंगे, उसका प्रभाव वैसा ही होगा और जिस काम को हम बे-मन से करेंगे उसका प्रभाव वैसा ही होगा। इसलिये हमें अपने अन्दर ज्ञान की आग पैदा करनी होगी।
जब तक हमारे अन्दर ज्ञान की ज्योति प्रकट नहीं होगी, तब तक हमें सही-गलत और अच्छे-बुरे का ज्ञान नहीं होगा। आज का साधक दिन रात भक्ति में, पूजा-पाठ में लगा हुआ है, किन्तु उसके मन में, उसके विचारों में और उसकी अपनी खुद की सोच में रत्ती भर भी बदलाव नहीं आया है। जैसे की हम अपने बच्चों को कहते हैं, कि तुम ज्यादा से ज्यादा शिक्षा को प्राप्त करो, जिससे कि तुम्हारा भविष्य उज्ज्वल हो। लेकिन बच्चों के मन में शिक्षा के प्रति लगन होनी आवश्यक है। जब तक बच्चे का मन पढ़ाई में नहीं लगेगा, वह अपनी शिक्षा पूरी नहीं कर सकता। उसी प्रकार ज्ञान रूपी शिक्षा पाने के लिये साधक के हृदय में परमात्मा के प्रति लगन अर्थात् आग पैदा होनी चाहिये। जब ये लगन रूपी आग लगती है, तो सब कुछ जला कर स्वाहा कर देती है।
साधक के अन्दर परमात्मा को पाने के लिये जितनी तेजी से प्रेमाग्नि प्रज्वलित होगी, उतनी ही जल्दी साधक को परमात्मा की प्राप्ति होगी। जब यह अग्नि हमारे अन्दर पूरी तरह से धधक उठेगी, तो हमारे पूर्व जन्म और इस जन्म के सभी पाप-ताप जल कर खाक हों जायेंगे। मृत्यु उपरान्त शरीर के खाक होने पर राख बनती है, किन्तु जीते जी तमाम पाप और ताप के खाक होने पर परमात्मा रूपी ज्ञान की ज्योति प्रकट होती है।
सनातन धर्म के अनुसार पुरूष, प्रकृति और जीव कि उत्पत्ति एक साथ मानी गई है। सनातन धर्म के अनुसार ये तीनों एक दूसरे के पूरक हैं। पुरूष को परमात्मा, प्रकृति को शक्ति और जीव को 84 लाख योनियों में बाँटा गया है। अनादि काल से ही समय के प्रवाह के अनुसार अनेकों ही सन्तों एवं महापुरूषों का जन्म हुआ।
जिन्होनें पुरूष, प्रकृति और जीव कि अलग-अलग परिभाषायें अपने-अपने समय के अनुसार अपने भक्तों या आम व्यक्तियों को समझाई। इसी प्रकार धीरे-धीरे अध्यात्मिक क्षेत्र दो भागों में बट कर रह गया। एक द्वैत-वाद और दूसरा अद्वैत-वाद्। इन दोनों में भी अनेकों ही शाखाओं ने जन्म लिया, जैसे की साँख्य-योग, ज्ञान-योग, राज-योग, हठ-योग, भक्ति-योग एवं लय-योग आदि। धीरे-धीरे समय का चक्र चलता गया और विभिन्न शाखाओं को मानने वालों ने धीरे-धीरे अपना अलग मत, पंथ या धर्म बना लिया।
हमारी कोशिश एक बार फिर से सभी धर्मों को इकट्ठा करने की है। पहली बार यह कोशिश सिख गुरूओं ने की थी, “गुरू ग्रंथ साहब” की रचना करके। “गुरू ग्रंथ साहब” में सभी मतो एवं सभी धर्मों के महापुरूषों के पवित्र शब्दों को इकट्ठा करके लिखा गया। किन्तु बाद में कारण जो भी रहा हो, लेकिन आज के समय में “गुरू ग्रंथ साहब” पर सिखों का एकाधिकार है। शायद इसका एक मूल कारण “गुरू ग्रंथ साहब” का गुरमुखी भाषा में लिखा होना हो सकता है।
परमात्मा और धर्म तो एक दूसरे से बंधे हुऐ हैं और यह दोनों नित-नये हैं। चाहे हम नानक की बात करें या कबीर की, महावीर की या महात्मा-बुद्ध की, कहने का तात्पर्य यह है कि जितने भी पूर्ण-सन्त हुऐ उनकी अपनी भाषा और अपने शब्द थे। चाहे वो सन्त किसी भी जाति या धर्म से सम्बन्ध रखता हो, किन्तु फिर भी उसने उस परमात्मा कि व्याख्या या बड़ाई करते वक्त अपनी भाषा और अपने शब्दों का हमेशा इस्तेमाल किया। चाहे समाज के ठेकेदारों नें इन संतो को पत्थर मारे या सत्-गुरू अर्जुन देव जी जैसे पूर्ण ब्रह्म-ज्ञानी महा-पुरूष को गरम तवे पर क्यों न बिठा दिया, किन्तु ये महा-पुरूष हमेशा ही कठिन से कठिन सजा को हंसते हुऐ सह गये और हमेशा ही नित-नये परमात्मा को अपनी भाषा और अपने शब्दों में परिभाषित करते गये। पूर्ण-सन्त का काम आँखों देखी कहने का है।
सच्चा सन्त जो भी परमात्मा की लीला अपने ह्रदय में देखता है, और उसी को अपने शब्दों में बोलता है, न कि पढ़कर या इधर-उधर से सुने हुऐ शब्दों को। सन्त के अपने शब्द अपने लिऐ होते है, किन्तु कभी-कभी कुछ खास भक्तों के उद्धार के लिऐ परमात्मा की आज्ञा अनुसार वे सन्त उन शब्दों को आम व्यक्ति पर प्रकट करता है। जिन भक्तों के लिऐ या यों कहें कि जिन खास शिष्यों के लिऐ वे शब्द होते हैं, वे शिष्य तो उन शब्दों को समझ कर अपनी मंजिल अर्थात् परमात्मा को पा लेते है, किन्तु जिन व्यक्तियों के लिऐ वे शब्द नहीं होते, वे उन्हें नहीं समझ पाते और उस पूर्ण-सन्त में हजारों कमियाँ निकालते हैं।
अनादि-काल से आज तक जितने भी महापुरुष हुऐ हैं, उनकी तो दृष्टि मात्र से पापी से पापी व्यक्ति भी मुक्ति को प्राप्त कर लेता था, किन्तु आज के समय में ऐसे सन्त ना के बराबर हैं, और जो थोड़े-बहुत हैं, वे शिष्य की योग्यता के अनुसार उसके ऊपर दृष्टि-पात करते हैं। किन्तु जो अयोग्य शिष्य होते हैं, वे या तो अपने भाग्य को कोसते है या भाग्य के भरोसे बैठे रहते हैं। कोई भी शिष्य गुरू के अयोग्य कहने पर एकलव्य बनने की कोशिश नहीं करता। यदि कोई भी साधक एकलव्य की तरह दृढ़-निश्चय कर ले तो वह अर्जुन से भी अधिक सर्व-श्रेष्ठ धनुर्धर बन सकता है। किन्तु आज का साधक अपने अन्दर इतना उलझ गया है, या यों कहें कि अपने आपको हीन भावना से इतना अधिक ग्रस्त पाता है कि वह स्वयं में कुछ भी करने को तैयार नहीं है।
आज का साधक हमेशा ही ऐसे गुरू-रूपी कंधे की खोज में लगा रहता है, जिसके ऊपर बन्दूक रख कर निशाना साध सके, और जब किसी पूर्ण-गुरू की प्राप्ति नहीं होती तो साधक गुरूओं के ऊपर या अपने भाग्य के ऊपर आरोप-प्रत्यारोप करता है। किन्तु स्वयं हिम्मत करके आगे बढ़ने कि कोशिश कोई नहीं करता। कहा गया है कि- जिन खोजा तिन पाईयाँ ॥ लेकिन आज का साधक बिना खोजे ही उस परमात्मा को पाना चाहता है।
हमारी कोशिश ऐसे ही साधकों को उस परमात्मा को खोजने पर मजबूर करने की है। जो साधक कहते है, कि हमें कोई बताने वाला या समझाने वाला नहीं है, हमें कोई सत्य का मार्ग दिखाने वाला नहीं है। हमारी कोशिश ऐसे ही अंधेरे में भटकने वाले साधकों को रास्ता अर्थात् प्रकाश दिखाने की है। हम सभी धर्मों एवं जाति के साधकों के लिये अति सहज आध्यात्मिक मार्ग दिखाने की कोशिश करेंगे, जिसके द्वारा सभी साधक परमात्मा के दिव्य-स्वरूप और उसके अनहद-नाम को देख व सुन सकें।
हम सभी धर्मों एवं जातियों व उनके महापुरुषों को कोटी-कोटी नमन् करके उनसे अपने और आप सभी के लिये यही प्रार्थना करते हैं कि वह हम सब को सत-धर्म का मार्ग दिखलाऐं और हमारे हृदय में प्रकाश करे एवं हम सभी के मानसिक, वाचिक तथा समस्त पापों का नाश करे। हम सब उन पूर्ण-महापुरुषों कि तरह उस परमपिता-परमात्मा का साक्षात्कार कर सके तथा पूर्ण ब्रह्म-ज्ञान को प्राप्त करें।
हमारा उद्देश्य है कि एक ऐसे धर्म-स्तंभ की स्थापना की जाऐं, जहाँ पर किसी भी मत, पंथ, धर्म या जाति का व्यक्ति अपने-अपने धर्मानुसार पूजा-पाठ आदि कर सके। जहाँ पर किसी भी जाति या धर्म का एकाधिकार ना हो। उद्देश्य यह है कि एक ही छत के नीचे और पवित्र सर्व-धर्म-स्तंभ के सम्मुख वेद-शास्त्रों के मन्त्र, कुराण की आयतें, गुरू ग्रंथ साहब की बाणी, बाईबल की प्रार्थना, कबीर के शब्द, बौद्ध-मन्त्र और जिन-वाणी आदि का एक साथ उच्चारण हो और सभी धर्मों की पवित्र-ज्योति को इस सर्व-धर्म-स्तंभ में स्थापित किया जाये। जिससे कि किसी भी धर्म या जाति का व्यक्ति किसी भी प्रकार से अपने साधारण से साधारण यम-नियमों का पालन करके उस परमात्मा की स्तुति करके आसानी से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्राप्त कर सके।
हमारी सत-धर्म पर चलने की इस कोशिश मे आप सभी भक्त-जन हमारी मदद करेंगे ऐसा हमारा विश्वास है।
जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK
BAHUT PASAND AAYA AUR HAMAARE BHAKTI GYAN ME VRIDDHI HUI, KARPAYA KARKE AISE KOI UPAYEN BATAYEN, JISE HAM APNE GRIHASTH JEEVAN ME APNAKAR DHANYA DHANYA HO SAKEN,
ReplyDeleteBAHUT BAHUT DHANYAVAAD AAPKO, JO HAMARE ANDAR BHAKTI KI JYOT JALAANE KI KOSHISH KAR RAHEN...
Deepak Bharatiya @ हार्दिक धन्यवाद..स्नेह बनाये रखे...
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