समाधि Choiceless awareness।
यह बताना जरूरी नहीं कि कब कहाँ कैसे यह अनुभव हुआ। मगर समाधि निश्चय ही एक विरल घटना है। हमें नींद का पता है, हमें यह भी पता है कि कई बार आँख खुली होती है। दृश्य भी होता है तो भी देखना नहीं होता ! आवाज़ें आती हैं सुनना नहीं होता। जब मन में कोई याद नहीं होती तो अतीत नहीं होता। जब भीतर कोई योजना या विचार नहीं होता तो भविष्य नहीं होता। जब कोई शब्द, राग, विराग, विकार नहीं होता, सिर्फ़ एक कोरापन होता है, खालीपन-तो यह हुई Choiceless awareness। जे. कृष्णमूर्ति ने अपनी बात यहीं तक कही है मगर समाधि के बारे में रामकृष्ण परमहंस कहते हैं-नमक से बनी एक गुड़िया को अगर समुद्र में छोड़ दिया जाय और कहा जाय कि लौटकर आना और गहराई के बारे में बताना, तो न वह कभी लौटेगी और न समाधि के अनुभव के बारे में कभी किसी को कुछ ज्ञात होगा।
जो भी हो, दक्षिणेश्वर में यह विचार मन में कभी आया कि कभी विवेकानन्द पर कुछ लिखा जा सकता है। सब लेखक किन्हीं अंशों तक चित्त की एकाग्रता को जानते हैं। असल में रचना होती ही तब है जब एकाग्रता केन्द्रीभूत होकर इतनी-प्रगाढ़ हो गई होती है कि स्वयं अपना होना भी याद नहीं रहता। इसलिए भीतर-ही-भीतर यह प्रतीक्षा फलती रही कि कभी-न-कभी जिन्दगी में एक अवधि ऐसी आयेगी जब इस युवा संन्यासी पर कुछ लिखना बन पायेगा। सबकुछ चलता रहा। समय के हिसाब से आयु सरकती रही, मगर विवेकानन्द पर लम्बी रचना लिखने की घड़ी नहीं आयी।
एक दिन सुबह-सुबह वासु भट्टाचार्य द्वार पर आ गये। शायद उन्होंने परमहंस रामकृष्ण पर बनाया वह वृत्तचित्र या तो दूरदर्शन पर देख लिया था या फिर उन्हें किसी ने वृत्तचित्र के बारे में बताया था। बड़ी देर तक उनसे विवेकानन्द जी के विषय में बातें होती रहीं, जिनसे निष्कर्ष यह निकला कि कहानी को नाटक और फ़िल्म-निर्माण विधि को ध्यान में रखकर लिखा जाये।
विवेकानन्द का व्यक्तित्व बहुआयामी है। वे साधक, चिन्तक, योगी, परिव्राजक, वेदान्ती सभी कुछ एक साथ हैं। वे शंकर से प्रेरित होते हुए भी शंकर जैसे नहीं। शंकर का ‘अद्वैत’ भी ठीक से समझा तभी जा सकता है जब द्वैत समझ में आ जाये। द्वैत का मतलब दूसरेपन की समझ या भाव। यानी एक ओर आप और दूसरी ओर कोई और। तो यह दूसरी ओर वाला अगर न रहे तो द्वैत गिर जाय। मगर दूसरा दूसरा लग ही तब सकता है जब आप में ‘मैं पन’ हो, लेकिन यदि किसी तरह ‘मैं पन’ न रहे, तिरोहित हो जाये तो दूसरा वहाँ कहाँ ठहरेगा ? क्योंकि दूसरा, दूसरा है ही इसलिए कि आपको अपने होने का एहसास है। तो अद्वैत की स्थापना में दूसरा तो ग़ायब होती ही है, आप भी नहीं रहते। यह एहसास, कहते हैं, सबसे पहले जनक को हुआ था। कोई भी दृश्य निरर्थक है अगर देखने वाला न हो। कोई भी देखनेवाला बेमानी है अगर दृश्य न हो। याकि दृश्य दृश्य कहलायेगा ही तब जब द्रष्टा हो। इसलिए जनक ने कहा-जो दिखाई दे रहा है और उसे जो देख रहा है दोनों के बीच जो संबंध है वह स्वप्न है और जागे हुए आदमी के लिए उतनी ही बेमानी है जितनी कि मुर्दें के लिए लोरी।
मगर विवेकाननेद का वेदान्त प्रत्येक जीव को ब्रह्य मानता हुआ भी, मानव विमुख नहीं। वह मानव-देह मन्दिर में प्रतिष्ठित मानव-आत्मा को ही एकमात्र पूजा की इकाई मानता है। उनके लिए सेवा ही सबसे बड़ा कर्म है। ग़रीब और दुखी लोग ही मुक्ति की ओर ले जाने वाले मार्गचिह्व हैं। विवेकानन्द का एक वाक्य मूल्यवान है। वे जब कहते हैं, ‘मैं उसी को महात्मा कहता हूँ जिसका हृदय गरीबों के लिए रोता है, अन्यथा वह दुरात्मा है’ तो एकाएक यह सत्य हर रचनाकार को सोचने के लिए विवश करता है कि आखिर इस तमाम सारी समृद्धि, भागदौड़ या ज्ञान का अर्थ क्या है ?
हम जिसे विकास कहते हैं क्या वह सही विकास है ? हम सब दोहरी जिन्दगी जीते हैं। एक संसार वह है जो हमें मिला है-स्वयं सृष्टि। इसी के समानान्तर एक और दुनिया है जो आदमी ने बनाई है-पंख और पहियों और तारों पर भागती, भोग के लिए उकसाती, परिचय को निर्वैयक्तिक करती, एक आयामवाले लोगों को जन्म देती, खाली और खोखली। सच है कि जिन्दगी आज जितनी सुविधापरक और रंगीन है पहले कभी नहीं थी, मगर इसी के साथ यह भी सच है कि आज आदमी जितना बेचारा और गम़गीन है पहले कभी नहीं था। कदाचर सहज और लड़ाई पहले से भी बहुत ज्यादा भोली मगर खूँख़्वार हो गई है। पूर्व हो या पश्चिम दुख लगातार बढ़ रहा है। कितने उपदेशक आये-गये, क्रान्तियाँ हुई लेकिन आदमी जहाँ था वहीं सड़ रहा है। ऐसे वक्त में विवेकानन्द जैसे संन्यासी, कर्मयोगी, बहुत अधिक प्रासंगिक हो जाते हैं।
असल में यह कृति एक तरह की रूपरेखा है। इसका प्रारूप कुछ ऐसा है जो पाठकों से एक विशिष्ट मनोभूमि की अपेक्षा करता है। इसके रचना शिल्प में एक अच्छी फिल्म के सूत्र निहित हैं। यह कृति लिखी भी इसी उद्देश्य से गयी थी।
मनीष
जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK
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