योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा प्रवर्तित लुप्त साम्य योग
हिन्दू धर्म शास्त्रों के अनुसार जब जब धर्म का पराभव होता है तब तब धर्म स्थापना हेतु भगवान का आगमन होता है। श्रीमद् भागवद्गीता में भगवान कृष्ण अर्जुन से कहते हैं:-
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे॥
गोस्वामी तुलसीदासजी रामचरित मानस में लिखते हैं:-
जब जब होई धरम कै हानी। बाढ़हिं असुर अधम अभिमानी॥
तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा। हरहिं कृपानिधि सान की पीरा॥
भगवान श्रीकृष्ण पूर्ण पुरुषोत्तम एवम सोलह कलाधारी के रूप में विख्यात हैं। पुराणों, श्रीमद् भागवत, ब्रह्म, ब्रह्मवैवर्त, विष्णु, पदम, भविष्य पुराण तथा गर्गसंहिता आदि में भगवान कृष्ण के दिव्यतम तथा अद्भुत चरित्र का विस्तार से वर्णन किया है। मेरे विचार से भगवान कृष्ण सोलह कलाओं के अवतार और पूर्ण पुरुषोत्तम इसलिए कहलाते हैं, क्योंकि उन्होंने अपने चरित्र द्वारा सुखमय जीवन जीने हेतु साम्य योग का प्रवर्तन किया। श्रीकृष्ण द्वारा प्रवर्तित लुप्त साम्य योग धर्म, अर्थ और काम का संयोजन करता हैं।
प्राय: हिन्दुत्व को धर्म की अपेक्षा जीवन संचालन का एक विशेष मार्ग अथवा दर्शन माना जाता है प्राचीन ऋषियों ने जीवन की प्रकृति और उसके सुनियोजित संचालन का गहन अध्ययन करके यह निष्कर्ष निकाला था कि मानव के लिए उसकी आस्था से कर्म अधिक महत्वपूर्ण है। उनके अनुसार मानव जीवन का संचालन अंध आस्था की अपेक्षा सम्यक् कर्म, उत्तम आचार और तर्क संगत विचारों पर आधारित होना चाहिए। इस दर्शन के अनुसार मानव कार्यकलापों अर्थात् कर्मों को निम्लिखित तीन वर्गों में विभाजित किया गया था:-
(1) धर्म (सदाचार) यह व्यक्ति के अधिकार तथा नैतिक, धार्मिक और आध्यात्मिकर् कत्तव्यों का विवेचन करता है।
(2) अर्थ (धन)-यह विद्या, कला, व्यवसाय, समाजसेवा, राजनीतिक, भूमि, धन-सम्पत्ति आदि की प्राप्ति और वृध्दि से सम्बध्द है।
(3) काम (प्रेम) आत्मा और मन द्वारा पांच कर्मेन्द्रियों (त्वचा, कान, नेत्र, जिव्हा और नसिका) से सुख प्राप्ति की कामना को काम कहते हैं। मन सदैव सुख की खोज में संलग्न रहता है। मन का संबंध आत्मा से होता है। अत: आत्मा भी प्रेम और आनंद की इच्छुक होती है। धर्म, अर्थ और काम की उपलब्धि के लिए व्यक्ति को चाहिए कि जिस समय जिस अवलम्बन की आवश्यकता हो, उस समय उसे उसी की प्रधानता देनी चाहिए। इन तीनों में काम से अर्थ का अधिक महत्व है और अर्थ से धर्म का अधिक महत्व है।
त्रिवर्ग (धर्म, अर्थ, काम) की सुनियोजित प्राप्ति हेतु जो लोग प्रयत्न करते हैं, उन्हें जीवन में सफलता, सुख, शांति और आनंद की प्राप्ति होती है। इन तीनों की प्राप्ति सुनियोजित विधि से इस प्रकार होनी चाहिए कि एक उपलब्धि दूसरी उपलब्धि की प्राप्ति में बाधक न हो। यदि तीनों उपलब्धियों की प्राप्ति न संभव हो तो दो को ही प्राप्त करना चाहिए, और यदि दो की भी प्राप्ति न होती हो तो केवल एक की प्राप्ति का प्रयत्न करना चाहिए। किन्तु कोई कर्म अथवा साधना जो किसी एक उपलब्धि की प्राप्ति में सहायक हो, परन्तु शेष दो अथवा एक उपलब्धि के बलिदान पर आधारित हो नहीं करना चाहिए। साम्य योग धर्म, अर्थ और काम के आदर्श समन्वय का योग है। साम्य योग एक सुनियोजित पध्दति से योग कर्म और योग, कर्म और भोग का संगम प्रस्तुत करता है। जो व्यक्ति इस त्रिवेणी में श्रध्दापूर्वक स्नान करता है, वह मोक्ष को प्राप्त करता है।
प्राणी (मनुष्य) के शोकाकुल तथा दु:खी होने के कारण मनुष्य के आध्यात्मिक पक्ष को उभारकर उसे संसार के शोक एवं दु:ख से परे सम्यक् (स्थिर प्रज्ञ) की सुखद स्थिति में पहुंचा देना ही योग का मुख्य लक्ष्य है। योग में सांसारिक मनुष्यों के शोक एवं दु:खों के चार वास्तविक कारण बताए गए हैं। योगियों द्वारा इनका विभाजन मनुष्योंका, उनके जीवन का, आचरण का तथा उनके कार्यों का सूक्ष्म अध्ययन करने के पश्चात किया गया है। ये चार कारण निम्नांकित है:-
1. वास्तविकता का ज्ञान न होना (सम्यक् ज्ञान का अभाव), 2. अहं,3. अभीष्ट तथा अन्अभीष्ट (आकर्षण एवं विकर्षण),4. भय।
साम्य ज्ञान न होने से अहं पैदा होता है तथा अहं से राग और विराग उत्पन्न होते हैं, जिससे असंयमित लोभ तथा इच्छाएं जागृत होती है। असंयमित इच्छा से असंयमित क्रोध उत्पन्न होता है तथा यह क्रोध ही भय एवं अन्य विकारों का जनक है। भय के विभिन्न रूप हो सकते हैं, असुरक्षा, असंयमित रोग भय, अकेलेपन का बोध, संगति भय, कुछ खोने का भय, आलोचना का भय, तथा मृत्यु का भय। भगवद्गीता में यह कहा गया है कि असंयमित इन्द्रियों, मन तथा बुध्दि से ही असंयमित इच्छाएं उत्पन्न होती है और ये असंयमित इच्छाएं सत्य के प्रकाश को ओझल कर देती है, और आत्म प्रकाश के प्रस्फुटन में बाधक हो जाती है। अत: मनुष्य को सबसे प्रथम इन्द्रियों को संयमित कर इच्छाओं का दमन करना चाहिए, जो प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से परमात्मा का ज्ञान प्राप्त करने में बाधक होती है।
इन्द्रियां शरीर पर शासन करती हैं और इन्द्रियों के भी ऊपर होती है आत्मा। इसलिए मनुष्य को यह समझकर कि आत्मा बुध्दि से भी ऊपर है तर्क द्वारा अपने मन को संयमित कर दुर्दमनीय इच्छाओं का उन्मूलन करना चाहिए। पूर्ण पुरुषोत्तम कृष्ण परम सम्यक् ज्ञानी और हिन्दुत्व के चतुर्वर्ग (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) सिध्दांत के पूर्ण पालक थे। परम सम्यक् ज्ञानी श्रीकृष्ण ने अपने जीवन में हिन्दुत्व के चतुर्वर्ग सिध्दांत का पूर्णतया पालन किया और काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, योग, भोग, राग, द्वेष, यम, (अहिंसा सत्य, आस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह), नियम (शौच, संतोष, तापस, स्वाध्याय, ईश्वर, प्राणिधन), ज्ञान, ध्यान, धर्म व कर्म का परम संयोजन और नियमन किया। इस प्रकार उन्होंने मानव जीवन को सुखमय बनाने हेतु साम्य योग का प्रवर्तन किया। वे अहम, राग-द्वेष, भय, यश-कीर्ति, छदम् और इन्द्रजालिक आदर्शों से परे थे। इसलिए ही वे पूर्ण पुरुषोत्तम और भगवान कहलाते हैं। वे वास्तव में साम्य योग धर्म के स्थापक हैं।
विश्वगुरु श्रीधर कृत लुप्त श्रीकृष्ण साम्य योग विद्या
ऊँ ह्रीं विष्णुअंशाय विद्महे। योगेश्वराय धीमही। तन्नो कृष्णा: प्रचोदयात्॥ 1॥
ऊँ ह्रीं भूर्भुव: स्व:। तत्कृष्णा युर्वरेण्यं भर्गो सम्यक्स्य धीमही। धियो यो न: प्रचोदयात्॥ 2॥
भावार्थ :- हम विष्णु अवतार श्रीकृष्ण को आत्मसात करना चाहते हैं। इसलिए योगेश्वर श्रीकृष्ण का ध्यान करते हैं।
वे श्रीकृष्ण हमें शुभ कर्मों में प्रवृत्त करें॥ 1॥
हम तीनों लोकों को प्रकाशित करने वाले परब्रह्म के कृष्ण स्वरूप तेज का वरण (ध्यान) करते हैं। वे हमारी बुध्दि को शुभ कर्मों से प्रेरित करें॥ 2॥?
टिप्पणी :- उपर्युक्त दोनों मंत्र श्रीकृष्ण गायत्री मंत्र हैं। परित्राणक साधुनां विनाशक च दुष्टानाम सम्यक् कृष्णा: प्रचोदयात्। साम्य योग विद्या प्रवर्तक सम्यक् कृष्णा: प्रचोदयात॥ 3॥
काम-क्रोध-लोभ-मोह-मद-मत्सर-योग-भोग-संयोजक सम्यक् कृष्णा: प्रचोदयात्। राग-द्वेष-यम-नियम-ज्ञान-ध्यान-धर्म-कर्म संयोजक सम्यक् कृष्णा: प्रचोदयात्॥ 4॥
सम्यक्, ज्ञानी, सम्यक् योगी, सम्यक् भोगी, सम्यक् कृष्णा: प्रचोदयात्। साम्य धर्म प्रवर्तक सम्यक् योगेश्वर कृष्णा: प्रचोदयात् ॥ 5॥
य एवं वेद स सुखी सम्यक् जीवन कला दर्शी भवतु। स शोकं तरति, स सर्व सुखं वंदति इत्योपनिषद्॥ 6॥
भावार्थ:- सानों के रक्षक और दुर्जनों का विनाशक सम्यक्, कृष्ण हमें शुभ कर्मों में प्रवृत्त करें। साम्य-योग विद्या के प्रवर्तक सम्यक् कृष्ण हमें शुभ कर्मों में प्रवृत्त करें॥ 3॥
काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, योग, भोग के परम संयोजक सम्यक् कृष्ण हमें साम्य कर्मों से प्रेरित करें। राग, द्वेष, यम, नियम, ज्ञान, ध्यान, धर्म, कर्म के परम संयोजक सम्यक् कृष्ण हमें साम्य कर्मों में प्रेरित करें॥ 4॥
सम्यक् ज्ञानी, सम्यक् योगी, सम्यक् भोगी सम्यक् कृष्ण हमें साम्य कर्मों से प्रेरित करें। साम्य धर्म प्रवर्तक सम्यक् योगेश्वर कृष्ण हमें साम्य योग में प्रेरित करें॥ 5॥
जो इस योग को आत्मसात करता है, उसे सुखमय जीवन जीने की कला आती है। उसके जीवन में सुख की आवृत्ति होती है और दुख की निवृत्ति है। यह अविद्यानाशनी ब्रह्मविद्या है॥ 6॥
फलश्रुति इदम योगविद्या जप्तवा कृष्ण गायत्र्या: शत सहस्त्राणि जप्तानि भवन्ति। स ब्रह्मज्ञानी भवतु। स ब्रह्मयोगी भवतु। स सर्व वेद परायण पुण्य लभते। स सर्वेषु तीर्थेषु दर्शी भवतु। स ऐश्वर्यवानभवतु, स सर्वत्र विजयी भवति। स विद्यावान भवति, स वाग्मी भवति। स मेधावान भवति, स वैश्रवणोपमो भवति। य यशोवान भवति, स पुत्र कलत्रवान भवति ॥ 7॥
धर्मार्थकाममोक्षं च विंदति। सहस्त्रावर्तनात् यं यं काममधीते तम तमनेन साधयेत्। सत्योमों, सत्योमों सत्यम् य एवं वेद इत्यपरनिषद्॥ 8॥
॥ ऊँ शांति: शांति: शांति:॥
भावार्थ:- इस योगविद्या के पारायण से कृष्ण गायत्री मंत्र के सौ हजार जप का फल प्राप्त होता है। वह ब्रह्मज्ञानी हो जाता है। वह ब्रह्मयोगी हो जाता है। वह सब वेदों के पारायण का पुण्य प्राप्त करता है। वह सब तीर्थों के दर्शन का पुण्य लाभ पाता है। वह ऐश्वर्यवान होता है। वह सर्वत्र विजयी होता है। वह विद्वान, वक्ता व मेधावान हो जाता है। वह कुबेर के समान हो जाता है। वह यशवान, पुत्रवान व पत्निवानहोता है॥ 7॥
उसे धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति होती है। एक हजार बार इसके पारायण से साधक की सब कामनाएं पूर्ण होती है, यह सत्य है, सत्य है, सत्य है। इस प्रकार यह अविद्यानासिनी ब्रह्मविद्या है॥ 8॥
जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK
हिन्दू धर्म शास्त्रों के अनुसार जब जब धर्म का पराभव होता है तब तब धर्म स्थापना हेतु भगवान का आगमन होता है। श्रीमद् भागवद्गीता में भगवान कृष्ण अर्जुन से कहते हैं:-
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे॥
गोस्वामी तुलसीदासजी रामचरित मानस में लिखते हैं:-
जब जब होई धरम कै हानी। बाढ़हिं असुर अधम अभिमानी॥
तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा। हरहिं कृपानिधि सान की पीरा॥
भगवान श्रीकृष्ण पूर्ण पुरुषोत्तम एवम सोलह कलाधारी के रूप में विख्यात हैं। पुराणों, श्रीमद् भागवत, ब्रह्म, ब्रह्मवैवर्त, विष्णु, पदम, भविष्य पुराण तथा गर्गसंहिता आदि में भगवान कृष्ण के दिव्यतम तथा अद्भुत चरित्र का विस्तार से वर्णन किया है। मेरे विचार से भगवान कृष्ण सोलह कलाओं के अवतार और पूर्ण पुरुषोत्तम इसलिए कहलाते हैं, क्योंकि उन्होंने अपने चरित्र द्वारा सुखमय जीवन जीने हेतु साम्य योग का प्रवर्तन किया। श्रीकृष्ण द्वारा प्रवर्तित लुप्त साम्य योग धर्म, अर्थ और काम का संयोजन करता हैं।
प्राय: हिन्दुत्व को धर्म की अपेक्षा जीवन संचालन का एक विशेष मार्ग अथवा दर्शन माना जाता है प्राचीन ऋषियों ने जीवन की प्रकृति और उसके सुनियोजित संचालन का गहन अध्ययन करके यह निष्कर्ष निकाला था कि मानव के लिए उसकी आस्था से कर्म अधिक महत्वपूर्ण है। उनके अनुसार मानव जीवन का संचालन अंध आस्था की अपेक्षा सम्यक् कर्म, उत्तम आचार और तर्क संगत विचारों पर आधारित होना चाहिए। इस दर्शन के अनुसार मानव कार्यकलापों अर्थात् कर्मों को निम्लिखित तीन वर्गों में विभाजित किया गया था:-
(1) धर्म (सदाचार) यह व्यक्ति के अधिकार तथा नैतिक, धार्मिक और आध्यात्मिकर् कत्तव्यों का विवेचन करता है।
(2) अर्थ (धन)-यह विद्या, कला, व्यवसाय, समाजसेवा, राजनीतिक, भूमि, धन-सम्पत्ति आदि की प्राप्ति और वृध्दि से सम्बध्द है।
(3) काम (प्रेम) आत्मा और मन द्वारा पांच कर्मेन्द्रियों (त्वचा, कान, नेत्र, जिव्हा और नसिका) से सुख प्राप्ति की कामना को काम कहते हैं। मन सदैव सुख की खोज में संलग्न रहता है। मन का संबंध आत्मा से होता है। अत: आत्मा भी प्रेम और आनंद की इच्छुक होती है। धर्म, अर्थ और काम की उपलब्धि के लिए व्यक्ति को चाहिए कि जिस समय जिस अवलम्बन की आवश्यकता हो, उस समय उसे उसी की प्रधानता देनी चाहिए। इन तीनों में काम से अर्थ का अधिक महत्व है और अर्थ से धर्म का अधिक महत्व है।
त्रिवर्ग (धर्म, अर्थ, काम) की सुनियोजित प्राप्ति हेतु जो लोग प्रयत्न करते हैं, उन्हें जीवन में सफलता, सुख, शांति और आनंद की प्राप्ति होती है। इन तीनों की प्राप्ति सुनियोजित विधि से इस प्रकार होनी चाहिए कि एक उपलब्धि दूसरी उपलब्धि की प्राप्ति में बाधक न हो। यदि तीनों उपलब्धियों की प्राप्ति न संभव हो तो दो को ही प्राप्त करना चाहिए, और यदि दो की भी प्राप्ति न होती हो तो केवल एक की प्राप्ति का प्रयत्न करना चाहिए। किन्तु कोई कर्म अथवा साधना जो किसी एक उपलब्धि की प्राप्ति में सहायक हो, परन्तु शेष दो अथवा एक उपलब्धि के बलिदान पर आधारित हो नहीं करना चाहिए। साम्य योग धर्म, अर्थ और काम के आदर्श समन्वय का योग है। साम्य योग एक सुनियोजित पध्दति से योग कर्म और योग, कर्म और भोग का संगम प्रस्तुत करता है। जो व्यक्ति इस त्रिवेणी में श्रध्दापूर्वक स्नान करता है, वह मोक्ष को प्राप्त करता है।
प्राणी (मनुष्य) के शोकाकुल तथा दु:खी होने के कारण मनुष्य के आध्यात्मिक पक्ष को उभारकर उसे संसार के शोक एवं दु:ख से परे सम्यक् (स्थिर प्रज्ञ) की सुखद स्थिति में पहुंचा देना ही योग का मुख्य लक्ष्य है। योग में सांसारिक मनुष्यों के शोक एवं दु:खों के चार वास्तविक कारण बताए गए हैं। योगियों द्वारा इनका विभाजन मनुष्योंका, उनके जीवन का, आचरण का तथा उनके कार्यों का सूक्ष्म अध्ययन करने के पश्चात किया गया है। ये चार कारण निम्नांकित है:-
1. वास्तविकता का ज्ञान न होना (सम्यक् ज्ञान का अभाव), 2. अहं,3. अभीष्ट तथा अन्अभीष्ट (आकर्षण एवं विकर्षण),4. भय।
साम्य ज्ञान न होने से अहं पैदा होता है तथा अहं से राग और विराग उत्पन्न होते हैं, जिससे असंयमित लोभ तथा इच्छाएं जागृत होती है। असंयमित इच्छा से असंयमित क्रोध उत्पन्न होता है तथा यह क्रोध ही भय एवं अन्य विकारों का जनक है। भय के विभिन्न रूप हो सकते हैं, असुरक्षा, असंयमित रोग भय, अकेलेपन का बोध, संगति भय, कुछ खोने का भय, आलोचना का भय, तथा मृत्यु का भय। भगवद्गीता में यह कहा गया है कि असंयमित इन्द्रियों, मन तथा बुध्दि से ही असंयमित इच्छाएं उत्पन्न होती है और ये असंयमित इच्छाएं सत्य के प्रकाश को ओझल कर देती है, और आत्म प्रकाश के प्रस्फुटन में बाधक हो जाती है। अत: मनुष्य को सबसे प्रथम इन्द्रियों को संयमित कर इच्छाओं का दमन करना चाहिए, जो प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से परमात्मा का ज्ञान प्राप्त करने में बाधक होती है।
इन्द्रियां शरीर पर शासन करती हैं और इन्द्रियों के भी ऊपर होती है आत्मा। इसलिए मनुष्य को यह समझकर कि आत्मा बुध्दि से भी ऊपर है तर्क द्वारा अपने मन को संयमित कर दुर्दमनीय इच्छाओं का उन्मूलन करना चाहिए। पूर्ण पुरुषोत्तम कृष्ण परम सम्यक् ज्ञानी और हिन्दुत्व के चतुर्वर्ग (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) सिध्दांत के पूर्ण पालक थे। परम सम्यक् ज्ञानी श्रीकृष्ण ने अपने जीवन में हिन्दुत्व के चतुर्वर्ग सिध्दांत का पूर्णतया पालन किया और काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, योग, भोग, राग, द्वेष, यम, (अहिंसा सत्य, आस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह), नियम (शौच, संतोष, तापस, स्वाध्याय, ईश्वर, प्राणिधन), ज्ञान, ध्यान, धर्म व कर्म का परम संयोजन और नियमन किया। इस प्रकार उन्होंने मानव जीवन को सुखमय बनाने हेतु साम्य योग का प्रवर्तन किया। वे अहम, राग-द्वेष, भय, यश-कीर्ति, छदम् और इन्द्रजालिक आदर्शों से परे थे। इसलिए ही वे पूर्ण पुरुषोत्तम और भगवान कहलाते हैं। वे वास्तव में साम्य योग धर्म के स्थापक हैं।
विश्वगुरु श्रीधर कृत लुप्त श्रीकृष्ण साम्य योग विद्या
ऊँ ह्रीं विष्णुअंशाय विद्महे। योगेश्वराय धीमही। तन्नो कृष्णा: प्रचोदयात्॥ 1॥
ऊँ ह्रीं भूर्भुव: स्व:। तत्कृष्णा युर्वरेण्यं भर्गो सम्यक्स्य धीमही। धियो यो न: प्रचोदयात्॥ 2॥
भावार्थ :- हम विष्णु अवतार श्रीकृष्ण को आत्मसात करना चाहते हैं। इसलिए योगेश्वर श्रीकृष्ण का ध्यान करते हैं।
वे श्रीकृष्ण हमें शुभ कर्मों में प्रवृत्त करें॥ 1॥
हम तीनों लोकों को प्रकाशित करने वाले परब्रह्म के कृष्ण स्वरूप तेज का वरण (ध्यान) करते हैं। वे हमारी बुध्दि को शुभ कर्मों से प्रेरित करें॥ 2॥?
टिप्पणी :- उपर्युक्त दोनों मंत्र श्रीकृष्ण गायत्री मंत्र हैं। परित्राणक साधुनां विनाशक च दुष्टानाम सम्यक् कृष्णा: प्रचोदयात्। साम्य योग विद्या प्रवर्तक सम्यक् कृष्णा: प्रचोदयात॥ 3॥
काम-क्रोध-लोभ-मोह-मद-मत्सर-योग-भोग-संयोजक सम्यक् कृष्णा: प्रचोदयात्। राग-द्वेष-यम-नियम-ज्ञान-ध्यान-धर्म-कर्म संयोजक सम्यक् कृष्णा: प्रचोदयात्॥ 4॥
सम्यक्, ज्ञानी, सम्यक् योगी, सम्यक् भोगी, सम्यक् कृष्णा: प्रचोदयात्। साम्य धर्म प्रवर्तक सम्यक् योगेश्वर कृष्णा: प्रचोदयात् ॥ 5॥
य एवं वेद स सुखी सम्यक् जीवन कला दर्शी भवतु। स शोकं तरति, स सर्व सुखं वंदति इत्योपनिषद्॥ 6॥
भावार्थ:- सानों के रक्षक और दुर्जनों का विनाशक सम्यक्, कृष्ण हमें शुभ कर्मों में प्रवृत्त करें। साम्य-योग विद्या के प्रवर्तक सम्यक् कृष्ण हमें शुभ कर्मों में प्रवृत्त करें॥ 3॥
काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, योग, भोग के परम संयोजक सम्यक् कृष्ण हमें साम्य कर्मों से प्रेरित करें। राग, द्वेष, यम, नियम, ज्ञान, ध्यान, धर्म, कर्म के परम संयोजक सम्यक् कृष्ण हमें साम्य कर्मों में प्रेरित करें॥ 4॥
सम्यक् ज्ञानी, सम्यक् योगी, सम्यक् भोगी सम्यक् कृष्ण हमें साम्य कर्मों से प्रेरित करें। साम्य धर्म प्रवर्तक सम्यक् योगेश्वर कृष्ण हमें साम्य योग में प्रेरित करें॥ 5॥
जो इस योग को आत्मसात करता है, उसे सुखमय जीवन जीने की कला आती है। उसके जीवन में सुख की आवृत्ति होती है और दुख की निवृत्ति है। यह अविद्यानाशनी ब्रह्मविद्या है॥ 6॥
फलश्रुति इदम योगविद्या जप्तवा कृष्ण गायत्र्या: शत सहस्त्राणि जप्तानि भवन्ति। स ब्रह्मज्ञानी भवतु। स ब्रह्मयोगी भवतु। स सर्व वेद परायण पुण्य लभते। स सर्वेषु तीर्थेषु दर्शी भवतु। स ऐश्वर्यवानभवतु, स सर्वत्र विजयी भवति। स विद्यावान भवति, स वाग्मी भवति। स मेधावान भवति, स वैश्रवणोपमो भवति। य यशोवान भवति, स पुत्र कलत्रवान भवति ॥ 7॥
धर्मार्थकाममोक्षं च विंदति। सहस्त्रावर्तनात् यं यं काममधीते तम तमनेन साधयेत्। सत्योमों, सत्योमों सत्यम् य एवं वेद इत्यपरनिषद्॥ 8॥
॥ ऊँ शांति: शांति: शांति:॥
भावार्थ:- इस योगविद्या के पारायण से कृष्ण गायत्री मंत्र के सौ हजार जप का फल प्राप्त होता है। वह ब्रह्मज्ञानी हो जाता है। वह ब्रह्मयोगी हो जाता है। वह सब वेदों के पारायण का पुण्य प्राप्त करता है। वह सब तीर्थों के दर्शन का पुण्य लाभ पाता है। वह ऐश्वर्यवान होता है। वह सर्वत्र विजयी होता है। वह विद्वान, वक्ता व मेधावान हो जाता है। वह कुबेर के समान हो जाता है। वह यशवान, पुत्रवान व पत्निवानहोता है॥ 7॥
उसे धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति होती है। एक हजार बार इसके पारायण से साधक की सब कामनाएं पूर्ण होती है, यह सत्य है, सत्य है, सत्य है। इस प्रकार यह अविद्यानासिनी ब्रह्मविद्या है॥ 8॥
जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK
No comments:
Post a Comment