Wednesday, January 11, 2012

Swami Vikekananda (स्वामी विवेकानंद)

स्वामी विवेकानंद
स्वामी विवेकानन्द (१२ जनवरी,१८६३- ४ जुलाई,१९०२) वेदान्त के विख्यात और प्रभावशाली आध्यात्मिक गुरु थे। उनका वास्तविक नाम नरेन्द्र नाथ दत्त था। उन्होंने अमेरिका स्थित शिकागो में सन् १८९३ में आयोजित विश्व धर्म महासम्मेलन में सनातन धर्म का प्रतिनिधित्व किया था। भारत का वेदान्त अमेरिका और यूरोप के हर एक देश में स्वामी विवेकानन्द की वक्तृता के कारण ही पहुँचा। उन्होंने रामकृष्ण मिशन की स्थापना की थी जो आज भी अपना काम कर रहा है। वे रामकृष्ण परमहंस के सुयोग्य शिष्य थे।

जीवनवृत्त
विवेकानन्दजी का जन्म १२ जनवरी सन्‌ १८६३ को हुआ। उनका घर का नाम नरेन्द्र था। उनके पिताश्री विश्वनाथ दत्त पाश्चात्य सभ्यता में विश्वास रखते थे। वे अपने पुत्र नरेन्द्र को भी अँग्रेजी पढ़ाकर पाश्चात्य सभ्यता के ढ़ंग पर ही चलाना चाहते थे। नरेन्द्र की बुद्धि बचपन से बड़ी तीव्र थी और परमात्मा को पाने की लालसा भी प्रबल थी। इस हेतु वे पहले 'ब्रह्म समाज' में गये किन्तु वहाँ उनके चित्त को सन्तोष नहीं हुआ। वे वेदान्त और योग को पश्चिम सन्स्क्रुति मे प्रचलित करने के लिए महत्वपुर्ण योगदान दिया है।
श्री विश्वनाथ दत्त की मृत्यु हो गई। घर का भार नरेन्द्र पर आ पड़ा। घर की दशा बहुत खराब थी। अत्यन्त गरीबी में भी नरेन्द्र बड़े अतिथि-सेवी थे। स्वयं भूखे रहकर अतिथि को भोजन कराते, स्वयं बाहर वर्षा में रात भर भीगते-ठिठुरते पड़े रहते और अतिथि को अपने बिस्तर पर सुला देते।

स्वामी विवेकानन्द अपना जीवन अपने गुरुदेव स्वामी रामकृष्ण परमहंस को समर्पित कर चुके थे। गुरुदेव के शरीर-त्याग के दिनों में अपने घर और कुटुम्ब की नाजुक हालत की परवाह किये बिना, स्वयं के भोजन की परवाह किये बिना वे गुरु-सेवा में सतत संलग्न रहे। गुरुदेव का शरीर अत्यन्त रुग्ण हो गया था।

निष्ठा
एक बार किसी ने गुरुदेव की सेवा में घृणा और लापरवाही दिखायी तथा घृणा से नाक-भौं सिकोड़ीं। यह देखकर विवेकानन्द को गुस्सा आ गया। उस गुरु भाई को पाठ पढ़ाते और गुरुदेव की प्रत्येक वस्तु के प्रति प्रेम दर्शाते हुए उनके बिस्तर के पास रक्त, कफ आदि से भरी थूकदानी उठाकर फेंकते थे। गुरु के प्रति ऐसी अनन्य भक्ति और निष्ठा के प्रताप से ही वे अपने गुरु के शरीर और उनके दिव्यतम आदर्शों की उत्तम सेवा कर सके। गुरुदेव को वे समझ सके, स्वयं के अस्तित्व को गुरुदेव के स्वरूप में विलीन कर सके। समग्र विश्व में भारत के अमूल्य आध्यात्मिक खजाने की महक फैला सके। उनके इस महान व्यक्तित्व की नींव में थी ऐसी गुरुभक्ति, गुरुसेवा और गुरु के प्रति अनन्य निष्ठा!

यात्राएँ
२५ वर्ष की अवस्था में नरेन्द्र ने गेरुआ वस्त्र धारण कर लिये। तत्पश्चात् उन्होंने पैदल ही पूरे भारतवर्ष की यात्रा की। सन्‌ १८९३ में शिकागो (अमेरिका) में विश्व धर्म परिषद् हो रही थी। स्वामी विवेकानन्दजी उसमें भारत के प्रतिनिधि के रूप में पहुँचे। योरोप-अमेरिका के लोग उस समय पराधीन भारतवासियों को बहुत हीन दृष्टि से देखते थे। वहाँ लोगों ने बहुत प्रयत्न किया कि स्वामी विवेकानन्द को सर्वधर्म परिषद् में बोलने का समय ही न मिले। एक अमेरिकन प्रोफेसर के प्रयास से उन्हें थोड़ा समय मिला किन्तु उनके विचार सुनकर सभी विद्वान चकित हो गये। फिर तो अमेरिका में उनका अत्यधिक स्वागत हुआ। वहाँ इनके भक्तों का एक बड़ा समुदाय हो गया। तीन वर्ष तक वे अमेरिका में रहे और वहाँ के लोगों को भारतीय तत्वज्ञान की अद्भुत ज्योति प्रदान करते रहे। उनकी वक्तृत्व-शैली तथा ज्ञान को देखते हुए वहाँ के मीडिया ने उन्हें साइक्लॉनिक हिन्दू का नाम दिया। [2] "आध्यात्म-विद्या और भारतीय दर्शन के बिना विश्व अनाथ हो जाएगा" यह स्वामी विवेकानन्दजी का दृढ़ विश्वास था। अमेरिका में उन्होंने रामकृष्ण मिशन की अनेक शाखाएँ स्थापित कीं। अनेक अमेरिकन विद्वानों ने उनका शिष्यत्व ग्रहण किया। ४ जुलाई सन्‌ १९०२ को उन्होंने देह-त्याग किया। वे सदा अपने को गरीबों का सेवक कहते थे। भारत के गौरव को देश-देशान्तरों में उज्ज्वल करने का उन्होंने सदा प्रयत्न किया। जब भी वो कहीं जाते थे तो लोग उनसे बहुत खुश होते थे।

संदेश

सिंह की शूरता, फूल की कोमलता के साथ कर्म
मैं चाहता हूं कि मेरे सब बच्चे, मैं जितना उन्नत बन सकता था, उससे सौ गुना उन्नत बनें। तुम लोगों में से प्रत्येक को महान शक्तिशाली बनना होगा- अवश्य बनना होगा। आज्ञा-पालन, ध्येय के प्रति अनुराग तथा ध्येय को कार्यरूप में परिणत करने के लिए सदा प्रस्तुत रहना। इन तीनों के रहने पर कोई भी तुम्हें अपने मार्ग से विचलित नहीं कर सकता।

मन का विकास करो और उसका संयम करो, उसके बाद जहां इच्छा हो, वहां इसका प्रयोग करो। इससे अतिशीघ्र फल प्राप्ति होगी। यह है यथार्थ आत्मोन्नति का उपाय। एकाग्रता सीखो और जिस ओर इच्छा हो, उसका प्रयोग करो। ऐसा करने पर तुम्हें कुछ खोना नहीं पड़ेगा। जो समस्त को प्राप्त करता है, वह अंश को भी प्राप्त कर सकता है।

हे सखे, तुम क्यों रो रहे हो? सब शक्ति तो तुम्ही में है। हे भगवन, अपना ऐश्वर्यमय स्वरूप विकसित करो। ये तीनों लोक तुम्हारे पैरों के नीचे हैं। जड़ की कोई शक्ति नहीं, प्रबल शक्ति आत्मा की है। हे विद्वान! डरो मत। तुम्हारा नाश नहीं है, संसार-सागर से पार उतरने का उपाय है।

बड़े-बड़े दिग्गज बह जाएंगे। छोटे-मोटे की तो बात ही क्या है! तुम लोग कमर कसकर कार्य में जुट जाओ, हुंकार मात्र से हम दुनिया को पलट देंगे। अभी तो केवल प्रारंभ ही है। किसी के साथ विवाद न कर हिल-मिलकर अग्रसर हो। भय किस बात का? किसका भय? वज्र जैसा हृदय बनाकर कार्य में जुट जाओ।

किसी बात से तुम उत्साहहीन न हो। जब तक ईश्वर की कृपा हमारे ऊपर है, कौन इस पृथ्वी पर हमारी उपेक्षा कर सकता है? यदि तुम अपनी अंतिम सांस भी ले रहे हो, तो भी न डरना। सिंह की शूरता और पुष्प की कोमलता के साथ काम करते रहो। वीरता से आगे बढ़ो। एक दिन या एक साल में सिद्धि की आशा न रखो।

उच्चतम आदर्श पर दृढ़ रहो। स्थिर रहो। स्वार्थपरता और ईष्र्या से बचो। आज्ञा-पालन करो। सत्य, मनुष्य-जाति और अपने देश के पक्ष पर सदा के लिए अटल रहो..और तुम संसार को हिला दोगे। याद रखो, व्यक्ति और उसका जीवन ही शक्ति का स्रोत है, इसके सिवाय अन्य कुछ भी नहीं। शक्तिमान, उठो और सामथ्र्यशाली बनो। कर्म, निरंतर कर्म। संघर्ष, निरंतर संघर्ष! पवित्र और निस्वार्थी बनने की कोशिश करो। सारा धर्म इसी में है।

बच्चो, धर्म का रहस्य आचरण से जाना जा सकता है, व्यर्थ के मतवादों से नहीं। सच्चा बनना तथा सच्चा बर्ताव करना, इसमें ही समग्र धर्म निहित है। जो केवल प्रभु-प्रभु की रट लगाता है, वह नहीं, किंतु जो उस परमपिता की इच्छानुसार कार्य करता है, वही धार्मिक है। कभी तुमको संसार का थोड़ा-बहुत धक्का भी खाना पड़े, तो विचलित न होना। मुहूर्त भर में वह दूर हो जाएगा और सारी स्थिति पुन: ठीक हो जाएगी।

पवित्रता, दृढ़ता और उद्यम- ये तीनों गुण मैं एक साथ चाहता हूं। पवित्रता, धैर्य और प्रयत्न के द्वारा सारी बाधाएं दूर हो जाती हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि सभी महान कार्य धीरे-धीरे होते हैं। साहसी होकर काम करो। धीरज और स्थिरता से काम करना- यही एक मार्ग है। आगे बढ़ो और याद रखो धीरज, साहस, पवित्रता और अनवरत कर्म। जब तक तुम पवित्र होकर अपने उद्देश्य पर डटे रहोगे, तब तक तुम कभी निष्फल नहीं होगे।

बच्चो, जब तक तुम लोगों को भगवान और गुरु में, भक्ति और सत्य में विश्वास रहेगा, तब तक कोई भी तुम्हें नुकसान नहीं पहुंचा सकता। किंतु इनमें से एक के भी नष्ट हो जाने पर परिणाम विपत्तिजनक है। महाशक्ति का तुममें संचार होगा। बिल्कुल भी भयभीत मत होना। पवित्र बनो, विश्वासी बनो, और आज्ञापालक बनो।ना पाखंडी और कायर बने सबको प्रसन्न रखो। पवित्रता और शक्ति के साथ अपने आदर्श पर दृढ़ रहो और फिर तुम्हारे सामने कैसी भी बाधाएं क्यों न हों, कुछ समय बाद संसार तुमको मानेगा ही। हर काम को तीन अवस्थाओं से गुजरना होता है- उपहास, विरोध और स्वीकृति। जो मनुष्य अपने समय से आगे विचार करता है, लोग उसे गलत समझते ही हैं। इसलिए विरोध और अत्याचार हम सहर्ष स्वीकार करते हैं। पर मुझे दृढ़ और पवित्र होना चाहिए और भगवान में अपरिमित विश्वास रखना चाहिए, तब ये सब लुप्त हो जाएंगे।

न संख्या-शक्ति, न धन, न पांडित्य, न वाक्चातुर्य, कुछ भी नहीं, बल्कि पवित्रता, शुद्ध जीवन, एक शब्द में अनुभूति, आत्म-साक्षात्कार को विजय मिलेगी! प्रत्येक देश में सिंह जैसी शक्तिमान दस-बारह आत्माएं होने दो, जिन्होंने अपने बंधन तोड़ डाले हैं, जिन्होंने अनंत का स्पर्श कर लिया है, जिनका चित्त ब्रह्म अनुसंधान में लीन है, जो न धन की चिंता करते हैं, न बल की, न नाम की और ये व्यक्ति ही संसार को हिला डालने के लिए काफी होंगे। मेरी दृढ़ धारणा है कि तुममें वह शक्ति विद्यमान है, जो संसार को हिला सकती है। साहसी शब्दों और उससे अधिक साहसी कर्मो की हमें आवश्यकता है। उठो! उठो! संसार दुख से जल रहा है। क्या तुम सो सकते हो?

तुमने बहुत बहादुरी की है। शाबाश! हिचकने वाले पीछे रह जाएंगे और तुम कूद कर सबके आगे पहुंच जाओगे। जो अपने उद्धार में लगे हुए हैं, वे न तो अपना उद्धार कर सकेंगे और न दूसरों का। कुछ लोग ऐसे हैं, जो दूसरों की त्रुटियां देखने तैयार बैठे हैं, पर कार्य करने के समय उनका पता नहीं चलता है। जुट जाओ, अपनी शक्ति के अनुसार आगे बढ़ो। डर किस बात का है? नहीं है, नहीं है, कहने से सांप का जहर भी नहीं रहता है। खूब, शाबाश! छान डालो, सारी दुनिया को छान डालो!

आओ, मनुष्य बनो। कूपमंडूकता छोड़ो और बाहर दृष्टि डालो। देखो, अन्य देश किस तरह आगे बढ़ रहे हैं। क्या तुम्हें मनुष्य से प्रेम है? यदि हां, तो आओ, हम लोग उच्चता और उन्नति के मार्ग पर प्रयत्नशील हों। पीछे मुड़कर मत देखो। उठो, जागो और लक्ष्य की प्राप्ति तक मत रुको!

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK

No comments:

Post a Comment