Tuesday, January 17, 2012

Kartawya (कर्तव्य)

अपना फर्ज कुछ इस तरह से निभाएं...
हम अक्सर इस उलझन में रहते हैं कि हमारा कर्तव्य क्या है। जो किताबी बातें हैं वो कर्तव्य है या जिन परिस्थितियों से हम गुजर रहे हैं, उसमें हमारी भूमिका कर्तव्य है। अधिकतर बार ऐसा होता है कि यह समझने में ही सारा वक्त गुजर जाता है कि हम करें क्या।क्या करें, क्या न करे, क्या सही है और क्या गलत है, किस कार्य को करने से धर्म की, नैतिकता की और इंसानियत की मयार्दा का उल्लंघन होता है। यह जानने में कई बार बेहद कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है क्योंकि कई बार अपने लाभ या भलाई को ध्यान में रखकर किया गया कार्य धर्म की नजरों में गलत या अनैतिक साबित होता जाता है।

वो कार्य जिसमें स्वयं की और दूसरों की सच्ची भलाई हो वही व्यक्ति का कर्तव्य या फर्ज है। कर्तव्य हर व्यक्ति का उसकी उम्र, स्थिति क्षमता के अनुसार अलग-अलग हो सकता है। कोई एक कार्य पूरी तरह से ऐसा नहीं है जो हर समय हर किसी के लिये कर्तव्य हो। विद्यार्थी के लिये पढ़ाई-लिखाई, किसान के लिये खेती तो सैनिक के लिये सीमाओं की रक्षा करना ही उसका पहला कर्तव्य है। इन तीनों का कर्तव्य अलग होकर भी धर्म है।

आइए भगवान कृष्ण के जीवन में देखते हैं कर्तव्य के सही अर्थ को। वे सर्वशक्तिमान थे, सर्व ज्ञाता थे। उन्होंने धरती पर कहीं भी हो रहे अनैतिक कार्य, अत्याचार और भ्रष्टाचार को मिटाना अपना कर्तव्य समझा। वे इसके लिए समर्थ भी थे। राक्षसों का वध, द्वारिका और इंद्रप्रस्थ जैसे नगरों की स्थापना, महाभारत युद्ध, नरकासुर से लेकर जरासंघ तक असुरों का वध, ऐसे सारे मुश्किल भरे काम श्रीकृष्ण ही कर सकते थे। वे इसके लिए सक्षम भी थे। इसलिए उन्होंने इसकी जिम्मेदारी भी ली।

हमारा भी पहला कर्तव्य है कि हम अपनी क्षमताओं के अनुसार जिम्मेदारी से अपना काम करें। जहां हम लोक हित में आवाज उठा सकते हैं वहां आगे भी आएं।

जानिए कैसा परिवार ज्यादा सुखी और समृद्ध होता है
वही परिवार सुखी और समृद्ध हो सकता है जिसका हर सदस्य अपना कर्तव्य पूरी ईमानदारी से निभाता है। यह भी संभव है कि परिवार का कोई सदस्य अपने हिस्से की जिम्मेदारी न निभा पाए ऐसे में दूसरों को धैर्य और उदारता से काम लेना चाहिए। परिवार की खुशहाली के लिए हक पाने के लिए लडऩे की बजाय अपने कर्तव्य को निभाने में ही ध्यान रखना चाहिए।
कर्तव्य और अधिकार में से व्यक्ति को पहले किसे चुनना चाहिए इसका बेहतरीन उदाहरण देखना हो तो हमें रामचरितमानस में चलना चाहिए। परिवार के हर सदस्य के लिए अपना कर्तव्य पहले और अधिकार बाद में है, यह बात रामायण के प्रसंग से बहुत बेहतर तरीके से समझी जा सकती है।

राम का जीवन आज हजारों वर्षों बाद भी लोगों के लिये प्रेरणा और प्रोत्साहन का जरिया बना हुआ है। वही परिवार लम्बे समय तक सुख-समृद्धि के साथ फल-फूल सकता है जिसके सदस्यों के बीच अधिकारों व सुविधाओं की छीना-झपटी होने की बजाय कर्तव्यों को पूरा करने का समर्पण भाव होता है। घर-परिवार में माता-पिता या बड़ों के प्रति क्या कर्तव्य होता है।

दशरथ के बाद राजा की कुर्सी मिलने का जायज अधिकार राम के पास था। लेकिन राजतिलक होने की बजाय एकाएक 14 वर्षों के लिये वन में रहने की आज्ञा पाकर भी राम के चेहरे पर शिकन तक नहीं आई। वन जाने की आज्ञा पाकर राम ने उसे अपना प्रमुख कर्तव्य माना। पिता की आज्ञा को ही अपना अहम् फर्ज मानकर राम ने कुछ इस तरह का जवाब दिया-

''आयसु पालि जनम फलु पाई। ऐहउँ बेगिहिं होउ रजाई।। ''

राम अपने पिता दशरथ से कहते हैं कि आपकी आज्ञा पालन करके मैं अपने इस मनुष्य जन्म का फल पाकर जल्दी ही लौट आउंगा। इसलिये आप बड़ी कृपा करके मुझे वन जाने की आज्ञा दीजिये।

जब कई जिम्मेदारियां हों तो कैसे करें कर्तव्य का पालन?
कई बार हम परेशान रहते हैं कि हमारा कर्तव्य क्या है। अगर हम एक साथ कई भूमिकाओं में हों तो यह सवाल ज्यादा कचोटता है। हम अक्सर अनिर्णय की स्थिति में रहते हैं कि कौन सी जिम्मेदारी पहले निभाएं, कौन सा काम बाद में करें।

ये कशमकश कई बार चिंता का कारण बन जाती है। हर व्यक्ति एक साथ कई जिम्मेदारियां उठाता है। एक पुत्र, एक पिता, एक पति, एक भाई, एक कर्मचारी, एक मित्र और एक नागरिक। एक ही व्यक्ति के कई रूप होते हैं।कर्तव्य हर भूमिका में महत्वपूर्ण ही होता है लेकिन जब एक साथ कई चुनौतियां आ जाती हैं तो फिर हमें उनमें से एक को चुनना पड़ता है। तब यह संकट खड़ा होता है कि किसे चुनें, किसे छोड़ें।

भगवान कृष्ण के जीवन से सीखिए, कैसे अपने सारे कर्तव्यों को पूरा किया जाए। उनमें से कैसे प्राथमिकताएं तय की जाएं। कृष्ण का लगभग पूरा जीवन यात्राओं, युद्धों और व्यवस्थाओं में ही बीता। 16108 पत्नियां, हर पत्नी से 10 बच्चे, द्वारिका का राज्य और देश-समाज का रचनात्मक निर्माण। श्रीकृष्ण ने अपने कर्तव्यों को अलग-अलग बांट रखा था। वे जब द्वारिका में रहते तो प्रजा के लिए ज्यादा समय देते। उनकी समस्याएं सुलझाते। फिर समय निकालते थे परिवार के लिए। पत्नियों से संवाद, बच्चों की शिक्षा और पालन-पोषण की व्यवस्था।

जब वे किसी युद्ध या राजनीतिक कारणों से द्वारिका से जाते तो परिवार की बागडोर होती थी रुक्मिणी के हाथ में और राज्य की बलराम के हाथ में। कृष्ण ने अपने सारे कर्तव्यों में देश और समाज को सबसे ऊपर स्थान दिया। जब भी समाज या देश के लिए कोई काम होता वे सारे काम छोड़कर चल देते।कृष्ण ने संदेश दिया है कि जीवन में अपनी जिम्मेदारियों को बांट कर रखें। देश और समाज सबसे पहले हों, फिर अपना परिवार। परिवार सुरक्षित तभी रहेगा जब समाज और देश सुरक्षित रहेंगे।

अगर आप टीम लीडर है तो यह है आपका पहला कर्तव्य...
अगर आप किसी कारपोरेट जगत के टीम लीडर हैं तो आप जिम्मेदारियों से दबे ही होंगे। अक्सर टीम लीडर्स गलत फैसलों के शिकार हो जाते हैं, भीतरी राजनीति और प्रतिस्पर्धा में कई बार टीम लीडर पिछड़ भी जाते हैं। टीम लीडा का पहला कर्तव्य है कि वो अपना ज्ञान संपूर्ण करे। अधूरा ज्ञान आत्मघाती भी होता है। ज्ञान नहीं होगा तो हम टीम का नेतृत्व कुशलता से नहीं कर पाएंगे।
कारपोरेट संस्थानों में लीडरशिप के लिए बड़े-बड़े पैकेज पर लोग रखे जा रहे हैं। कई टीम लीडर ऐसे होते हैं जिनकी नींव ही खोखली होती है, वे अगर भाग्य से कोई चीज हासिल भी कर लेते हैं तो उसे अपनी अज्ञानता से खो देते हैं।

असली लीडर वह होता है जिसके पास ज्ञान भी हो, ऐसा व्यक्ति न केवल संस्था का भला करता है बल्कि उसके सानिध्य में कई और लीडर पैदा हो सकते हैं। आइए इस बात को समझें। महाभारत युद्ध के असली लीडर श्रीकृष्ण ही थे। उन्होंने अपने ज्ञान का परिचय गीता सुनाकर दिया था। आरंभ में ही साबित किया कि बिना ज्ञान के लीडर नहीं बना जा सकता।उन्होंने बताया उनका ज्ञान गीता का ज्ञान है, संपूर्ण जीवन के लिए खरा ज्ञान। पूरे युद्ध की योजना, क्रियान्वयन और परिणाम में गीता ही अपनाई गई। अजरुन को निमित्त बनाकर श्रीकृष्ण ने पूरे मानव समाज के कल्याण के लिए पंक्तियां कही थीं। गीता में यह व्यक्त हुआ है कि कैसी भी परिस्थिति आए, उसका केवल सदुपयोग करना है।

18 अध्यायों में श्रीकृष्ण ने जीवन के हर क्षेत्र में उपयोगी सिद्धांतों की व्याख्या की है। युद्ध के मैदान से गीता ने एक महत्वपूर्ण सिद्धान्त दिया निष्काम कर्मयोग का। निष्कामता यदि है तो सफल होने पर अहंकार नहीं आएगा और असफल होने पर अवसाद, डिप्रेशन नहीं होगा। निष्कामता का अर्थ है कर्म करते समय कर्ताभाव का अभाव। जिस क्रिया में मै शून्य हो वह निष्कामता है। महाभारत के कुल 18 अध्याय (पर्व) हैं। इनमें भी अनेक उपपर्व हैं। ऐसे ही एक उपपर्व भीष्म पर्व के अंतर्गत 13वें अध्याय से 42वें अध्याय तक गीता का वर्णन है। संपूर्ण महाभारत में गीता की अपनी अलग-अलग चमक है। इसी प्रकार जीवन में, व्यक्तित्व में ‘ज्ञान’ का अपना अलग-अलग महत्व है। श्रीकृष्ण ने पांडवों की हर संकट से रक्षा की और अपने ज्ञान के बूते पर सत्य की विजय के पक्ष में अपनी भूमिका निभाई।

कौरवों के पक्ष में एक से बढ़कर एक यौद्घा और पराक्रमी थे जिनमें भीष्म तो सर्वश्रेष्ठ थे ही। चाहे कर्ण हो या द्रौण सबके सब इस बात के प्रति नतमस्तक थे कि कृष्ण के ज्ञान के आगे वे कुछ भी नहीं हैं। युद्घ में शस्त्र न उठाने का तो निर्णय कृष्ण ले ही चुके थे, अत: वीरता प्रदर्शन का तो कोई अवसर था ही नहीं। ऐसे में कृष्ण का सारा पराक्रम उनके ज्ञान पर ही आधारित था और सबने उनके इसी बुद्घि-कौशल का लोहा माना। गीता उसी का प्रमाण है।

एक सही निर्णय आपको भी बना सकता है विश्व विख्यात
क्या संभव है कि हम कर्म के बिना इस दुनिया में रह पाएं। हमें कुछ तो करना ही पड़ेगा। जीवन के लिए सांस लेना भी एक कर्म ही है। हम कर्म करने के लिए बाध्य हैं लेकिन प्रकृति ने हमें अपने कर्म को चुनने की स्वतंत्रता दी है।

हम कौन सा काम चुनते हैं यह हम पर ही निर्भर करता है। प्रकृति सिर्फ हमारे निर्णय पर प्रतिक्रिया देती है, और वह प्रतिक्रिया हमारे कर्म के परिणाम के रूप में सामने आती है। यहीं से शुरू होती है हमारे कर्तव्यों की बात। हमारा पहला कर्तव्य क्या है। कर्म का चयन हमारा पहला कर्तव्य है। हम जब भी अपने लिए कोई मार्ग चुनें तो सिर्फ खुद को ध्यान में रखकर नहीं। वरन हमसे प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से जुड़े हर व्यक्ति के बारे में अच्छे से विचार कर के ही चुने।कर्म का परिणाम ज्यादा-से-ज्यादा लोगों के हित में हो, इसका ध्यान रखा जाना चाहिए। जो काम सिर्फ खुद के लिए किए जाते हैं वे पशुवत कर्म माने गए हैं क्योंकि अपने लिए तो सिर्फ जानवर ही जीते हैं। अगर हम मनुष्य हैं, तो उसमें हमारा मनुष्यत्व छलकना चाहिए।

रामायण में भरत का चरित्र यह सिखाता है। राम को वनवास हो गया और राज्य भरत को मिला। राम की भी आज्ञा थी और पिता दशरथ की भी कि भरत अयोध्या के राजा बनकर राज्य चलाएं लेकिन भरत ने ऐसा नहीं किया। उन्होंने इस बात पर गहराई से विचार किया कि भले ही अयोध्या का राजा बनना उनके लिए धर्म सम्मत है लेकिन इसके दूरगामी परिणाम क्या होंगे। उन्होंने राजा बनना स्वीकार नहीं किया। अपने उस कर्तव्य को महत्व दिया जो उनका राम के प्रति था।वे राज्य लौटाने के लिए राम को खोजने वन में गए। पूरे समाज और खुद राम की आज्ञा होने के बाद भी वे अपने कर्तव्य से नहीं डिगे। इसी कारण आज भी भरत को धर्मात्मा भरत कहा जाता है। सिर्फ कर्तव्य के चयन से ही भरत ने पूरे विश्व में ख्याति अर्जित की।

काम का बेहतर परिणाम पाना हो तो सख्ती भी जरूरी है
अक्सर लोग पूरे काम के बावजूद भी अधूरे परिणाम मिलने की शिकायत करते हैं। आज के दौर में एक के ऊपर एक अधिकारियों और कर्मचारियों का पूरा ढेर खड़ा कर दिया जाता है। इस संस्कृति का सबसे बड़ा नुकसान यह है कि हर आदमी अपने कर्तव्यों का बोझ अपने अधिनस्थ पर लाद देता है। नतीजा परिणाम वैसे नहीं मिलते जिसकी उम्मीद की जाती है।

काम के बेहतर परिणाम के लिए कभी खुद के प्रति, अधिनस्थों के प्रति भी सख्त होना पड़ता है। तब हमें ऐसे परिणाम मिलते हैं जिसकी आशा हम करते हैं। अगर कर्तव्यों का हस्तांतरण होता है तो यह मानकर चलें कि कार्य का परिणाम भी कुछ प्रतिशत कम होगा ही।अपने दायित्व सदैव दूसरों पर थोपे और सौंपे नहीं जा सकते। लेकिन कुछ काम ऐसे भी होते हैं जो खुद भी करना पड़ते हैं और दूसरों से भी कराना पड़ते हैं। कभी-कभी तो खुद करना आसान होता है और दूसरों से काम लेना कठिन हो जाता है। हिन्दू धर्म में अवतारों ने कई उदाहरण ऐसे दिए हैं जिसमें उन्होंने कुछ काम दूसरों से लिए हैं और कुछ खुद ही किए हैं।

यह इस बात पर निर्भर करता है कि काम किस स्तर का है और परिणाम कितने महत्वपूर्ण होंगे। एक बार विष्णुजी ने नारद मुनि को सत्य-व्रत के बारे में समझाया था और कहा था इसका प्रचार संसार में जाकर करो। बाद में भगवान ने निर्णय लिया कि मैं स्वयं भी जाऊं। शतानंद नामक ब्राह्मण के सामने भगवान ने वृद्ध ब्राह्मण का वेष धरा और वार्तालाप किया। ऐसा सत्यनारायण व्रत कथा में आता है।भगवान ने सोचा जो कुछ मैंने नारदजी को समझाया है क्या वैसा नारदजी संसार में लोगों को समझा सकेंगे? यह भगवान की कार्यशैली है कि वे हर कार्य करने में अत्यधिक सावधानी रखते हैं। कुछ कार्य स्वयं ही करना चाहिए। अपने सहायकों और साथियों पर आधारित रहने की एक सीमा रेखा तय करना होगी। इसका सीधा असर गुणवत्ता पर पड़ता है।

भगवान सत्य-व्रत की गुणवत्ता से कोई समझौता नहीं करना चाहते थे। शत-प्रतिशत परिणाम पाने के लिए भगवान ने स्वयं की भूमिका को सक्रिय भी रखा और इस बात की चिंता नहीं पाली कि नारद अन्यथा ले लेंगे। प्रबंधन का एक नियम है किसी व्यवस्था में शीर्ष व्यक्ति सदैव अच्छे बनने के चक्कर में असफल बॉस साबित हो जाते हैं। जो नेतृत्व सफलता तक पहुंचता है वह अपने सहायकों, साथियों में सदैव लोकप्रिय रहे यह आवश्यक नहीं है। सख्त और अप्रिय निर्णय भी लेना ही पड़ते हैं।

धर्म का सही अर्थ है अपने कर्तव्य को ईमानदारी से निभाना...
यह आदमी का स्वभाव है कि वह अधिकारों के लिए जितना जागरूक होता है, कर्तव्यों के प्रति उतना ही उदासीन। कर्तव्य के लिए आमतौर पर लोगों के मन में टालने की प्रवृत्ति होती है। कर्तव्य को टालने का अर्थ है, धर्म से कट जाना क्योंकि कर्तव्य का ही एक नाम धर्म है। सीधे तौर पर कह सकते हैं कर्तव्य ही धर्म है। कर्तव्यों से बचकर धर्म या अध्यात्म के रास्ते पर नहीं चला जा सकता है, अध्यात्म की पहली मांग ही है कि कर्तव्यों की पूर्ति हो।

पहले समझें कि कर्तव्य क्या है? ऐसे सारे काम जो हमारे धर्म के पालन के लिए जरूरी हैं वे कर्तव्य हैं। हम किसी के पुत्र है, पुत्र का धर्म या कर्तव्य है माता-पिता की सेवा। हम इस देश के नागरिक है, नागरिक धर्म है देश की रक्षा और उन्नति, इसमें सहयोग करना ही हमारा धर्म भी है और कर्तव्य भी। आधुनिक और वैज्ञानिक युग में भी लोग अंधविश्वासों में डूबे हुए हैं। पूजा-पाठ, देव दर्शन जैसे कार्यों को ही धर्म मान लिया जाता है। जबकि धर्म शब्द की मूल जड़ों में जाकर देखें तो पता चलेगा कि कर्तव्य को ही धर्म कहा गया है।

अपने फर्ज को हर हाल में पूरी निष्ठा के साथ पूरा करना ही व्यक्ति के लिये सच्चा धर्म है। यह सच है कि भक्ति के मार्ग पर चलकर भी आत्मज्ञान और ईश्वर प्राप्ति का लाभ उठाया जा सकता है, लेकिन सामने उपस्थित कर्तव्य को पूरा करने के बाद ही भक्ति या भजन-कीर्तन को उचित माना जा सकता है। इतना ही नहीं एक सच्चा कर्म योगी तो कर्तव्यों को ही प्रभु भक्ति बना लेता है। भक्ति से पहले फर्ज की वरीयता की घोषणा स्वयं भगवान राम भी करते हैं।

रामायण के एक प्रसंग को देखिए, रावण को मारने के बाद श्रीराम फिर अयोध्या लौट आए हैं। उनका राजतिलक किया हुआ। राम अयोध्या के राजा बन गए। इस राजतिलक में भगवान राम के सभी मित्र शामिल हुए। निषाद राज जो कि आदिवासियों के राजा थे, वो भी आए थे। उनके मन में भगवान राम के प्रति बहुत श्रद्धा थी। वे चाहते थे कि हमेशा अयोध्या में रहकर भगवान राम की सेवा करें। जब निषादराज ने अपनी यह इच्छा भगवान राम को बताई तो श्रीराम ने उन्हें समझाया। उन्होंने निषादराज से कहा कि मेरी शरण में रहकर, मेरी सेवा करने से तुम्हें उतना पुण्य नहीं मिलेगा जितना कि अपनी प्रजा की सेवा करते हुए मेरी भक्ति करने से मिलेगा। तुम्हारा पहला कर्तव्य प्रजा पालन का है क्योंकि तुम एक राजा हो। अगर तुम अपने कर्तव्य से हट गए तो मेरी भक्ति और सेवा का भी कोई फल नहीं मिलेगा।

क्रमश:...


जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK

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