संवेदनाओं का सम्मान करें, काम के परिणाम उम्मीद से बेहतर होंगे
व्यवसायिक जगत में सबसे ज्यादा पतन हुआ है प्रेम का। हम इतने संवेदना हीन हो चुके हैं कि सगे-संबंधियों से भी किसी लाभ की आशा में ही बात करते हैं। रिश्ते अब प्रेम से नहीं, बैंक बैलेंस और सोशल स्टेटस देखकर तय किए जा रहे हैं। ऐसे में कार्यस्थल पर अगर प्रेम ना हो तो आश्चर्य नहीं है।
कारपोरेट भाषा में इसे प्रोफेशनल एटीट्यूड कहा जाता है। जहां सहयोगी से सिर्फ काम का ही रिश्ता होता है। इस रिश्ते में अगर प्रेम का अंकुरण कर दिया जाए तो संभव है कि काम का परिणाम उम्मीद से ज्यादा बेहतर आ सकता है। कई कंपनियां अपने कर्मचारियों को सुविधाओं की बारिश में भिगो रही है लेकिन फिर भी परिणाम दाएं-बाएं ही आ रहा है। सुविधाओं के साथ अगर आपसी संबंधों में प्रेम भी बढ़ा लिया जाए तो फिर दफ्तर का काम सिर्फ नौकरी नहीं रह जाता, वो कर्मचारी का अपना काम हो जाता है।
आपके साथ जो भी काम कर रहा है, वो इंसान ही है। संवेदनाएं उसके स्वभाव में भी होंगी। आपको सिर्फ उन संवेदनाओं का सम्मान ही तो करना है। प्रेम अपनेआप उपज जाएगा।
राम और कृष्ण दोनों ही अवतार इस कला में माहिर थे। अपने सहयोगी के साथ प्रेम से कैसे रहा जाए। हमारे द्वारा पूछा गया एक छोटा सा सवाल भी उसका दिल जीत सकता है। रामचरित मानस के एक प्रसंग में चलते हैं। लंका पर कूच करने के लिए वानरों की सेना तैयार है। सहयोग का वचन सिर्फ सुग्रीव ने दिया था। वानरसेना सुग्रीव की आज्ञा से आयी थी। ये उनके लिए एक नौकरी की तरह ही था। लेकिन जब वानर सेना राम के सामने खड़ी हुई तो यहां तुलसीदासजी ने लिखा है अस कपि एक न सेना माहीं, राम कुसल जेहीं पूछी नाहीं।।
अर्थ है कि सेना में एक भी वानर नहीं था जिसकी राम ने व्यक्तिगत रूप से कुशल ना पूछी हो। राम ने इतनी बड़ी वानर सेना में एक-एक वानर से उसका हालचाल पूछा। यहीं से वानरों में राम के प्रति आस्था जागी। ऐसे राजा कम ही होते हैं जो अपने अदने से कर्मचारी से कभी उसका हालचाल पूछते हों। राम के इसी गुण ने वानरों में इस युद्ध के लिए व्यक्तिगत लड़ाई का भाव भर दिया।
प्रेम नहीं है तो फिर सारी भावनाएं बेअसर हैं
प्रेम हो तो विश्वास जागता है। प्रेम नहीं हो तो रिश्तों में दूसरा कोई भाव अपना असर नहीं दिखाएगा। अगर मामला निजी संबंधों का हो तो उसमें अधिक सावधानी रखना होती है। हमारे सबसे करीबी संबंधों में जीवनसाथी सबसे ऊपर होता है। इस रिश्ते की बुनियाद ही प्रेम है। प्रेम हो यह अच्छा है, लेकिन प्रेम को भी नयापन चाहिए। एक सी अभिव्यक्ति और व्यवहार बोरियत पैदा करता है, रिश्ते में ऊबाउपन आ जाता है।
पति-पत्नी के संबंधों में जरूरी है एक दूसरे से जीवंत संवाद होना। इस रिश्ते में एकांत की आवश्यकता होती है। आधुनिक दंपत्तियों की समस्या होती है कि जब वे दोनों एकांत में होते हैं तो बातचीत में कोई तीसरा ही होता है। यह हमेशा याद रखें कि अगर आप अपने दाम्पत्य में प्रेम को जीवित रखना चाहते हैं तो कोशिश करें कि जब भी एकांत में हों तो बातचीत का मुद्दा भी आप दोनों ही रहें। कोई तीसरा व्यक्ति आपकी बातों का विषय ना हो। इससे दो फायदे होते हैं एक तो अपने साथी को समझने का अवसर मिलता है, दूसरा विवाद की संभावना नहीं रहती।
जरूरी नहीं है कि पति-पत्नी एकांत में हों तो कोई गंभीर मुद्दा ही चर्चा में रहे। हल्की-फुल्की बातचीत और हंसी-मजाक भी होते रहना चाहिए। भागवत के एक प्रसंग में चलते हैं। यहां भगवान कृष्ण का दाम्पत्य चल रहा है। एक दिन रुक्मिणीजी ने भगवान से पूछा कि आपने मुझ से विवाह क्यों किया? रुक्मिणीजी सुंदर थीं, धनाढ्य परिवार से थीं। कृष्ण ने समझ लिया कि उनमें इस बात का अहंकार आ गया है। उन्होंने भी जवाब दिया कि सही है देवी, मैं कहां आपके लायक था। सारा जीवन दौड़ते-भागते निकल रहा है। चारों ओर से शत्रुओं से घिरा हूं। जब से पैदा हुआ हूं, कोई ना कोई बिना किसी कारण मुझसे युद्ध करने चला आता है। मैं कहां आपके लायक था बड़ी मुश्किल से राज्य और परिवार को चला रहा हूं। आपका अहसान है कि आपने मुझसे विवाह कर लिया। रुक्मिणी जी शर्म से पानी-पानी हो गईं। माफी मांगने लगीं। तब भगवान ने कहा नहीं देवी, माफी की जरूरत नहीं है, मैं तो सिर्फ हास्य विनोद के लिए ऐसा कह रहा था।
भगवान कहते हैं अपनी पत्नी से दाम्पत्य में हास्य-विनोद करते रहने चाहिए यह भागवत में श्लोक लिखा है। देखिए भागवत दाम्पत्य के छोटी-छोटी बातों पर प्रकाश डालता है तो भागवत में यह श्लोक इसीलिए आया कि उनका कहना है कि दाम्पत्य में पत्नी-पत्नी के बीच हंसी-मजाक भी होते रहना चाहिए। हमेशा गंभीर न हो जाएं क्योंकि भगवान जानते थे कि दाम्पत्य में अनेक निर्णय, अनके स्थितियां ऐसी आती हैं कि अकारण तनाव आ जाता है।। तो अब आपका तनाव दूर करने कौन आएगा खुद ही को करना है और दोनों के बीच का करना है और आपसी समझ से होगा। भगवान कहते हैं हास्य-विनोद बनाए रखिए। कभी-कभी एक दूसरे को हंसाने का प्रयास करिए। और यह बात तो समझ लो आप कि दाम्पत्य तो हम को खुद ही चलाना है।
परिवार में प्रेम का प्रवेश चाहते हैं तो जीवन में पारदर्शिता हो
परिवार में प्रेम की डोर घर की महिला के हाथ में होती है। वो ही सारे रिश्तों और उनसे जुड़ी जिम्मेदारियों को ठीक से निभा सकती है। परिवार की महिला अगर थोड़ी भी लापरवाह हुई तो परिवार का बिगाड़ निश्चित हो जाता है। परिवार में
भागवत हमें इसके बारे में भी गंभीरता से समझाती है। एक प्रसंग है द्रोपदी भगवान कृष्ण की रानी सत्यभामा को समझा रही हैं कि महिला परिवार को प्रेम से कैसे चला सकती हैं। द्रोपदी कह रही है कि जो समझदार, परिपक्व और सुघढ़ गृहिणी होती है वो एक काम यह करे कि अपने परिवार के रिश्तों की पूरी जानकारी रखे। एक भी रिष्ता चूक गए तो वह रिश्ता अपमानित हो सकता है। प्रत्येक रिश्ते की जानकारी रखिए जो पुरूखों से चले आ रहे हैं।
यदि आपके यहां कोई पोंछा लगाने वाली बाई भी हो और उसकी तीन पीढ़ी बाद यदि कोई आ जाए तो आप गौरव महसूस करना कि हां तेरा-हमारा कोई रिश्ता है। द्रौपदी कहती है कि मैं अपने पांडव परिवार के एक-एक रिश्ते से परिचित हूं। सबसे पहले मैंने इसका अध्ययन किया।
आप देखिए पांच हजार साल पहले चेतावनी दी जा रही है। अभी भी ऐसा होता है कभी घर में पुरूष का निधन हो जाए तो मालूम ही नहीं रहता कि कितनी बीमे की पालिसी और कहां इनवेस्टमेंट किया। स्त्रियों को पुरूष अपना काम बताने में आज भी षर्म करते हैं या फिर पता नही किस हीनता की अनुभूति करते हैं।
परिवार में प्रेम कायम रखना हो तो अपने जीवन में पारदर्शिता लाइए। अहंकार या अज्ञान के कारण कोई भी बात रहस्य ना रखें। परिवार के लोग एक दूसरे से दुराव-छुपाव रखने लगें तो प्रेम का अंत होना तय है। प्रेम को कायम रखने के लिए हमारे पारिवारिक जीवन में खुलापन होना जरूरी है। परिवार के साथ बैठकर अपनी बातें साझा करें, इससे प्रेम तो बढ़ेगा ही, साथ ही कई समस्याओं का निराकरण भी स्वत: ही हो जाएगा।
अपने-पराए की पहचान हो तो दुश्मनों में खोजे जा सकते है दोस्त
व्यवसायिक प्रतिस्पर्धा में अक्सर लोग यह नहीं जान पाते हैं कि कौन अपना है और कौन पराया। कई बार हितैषियों का त्याग हो जाता है और दुश्मन गले लगा लिए जाते हैं। जो लोग ये मानते हैं कि व्यवसायिक रिश्ते एक तय समय सीमा तक ही गर्माहट भरे होते हैं, वे शायद गलत हैं।
व्यवसायिक रिश्तों में भी अगर अपने पराए की पहचान हो, उस रिश्ते को थोड़ा प्रेम और विश्वास से सींचा जाए तो वो भी निजी रिश्तों की तरह लंबे समय टिका रह सकता है।
आज की परिणाम केंद्रीत व्यवस्था में ऐसा करना मुश्किल है लेकिन अगर थोड़ा समझदारी से काम लिया जाए तो आप अपने प्रतिस्पर्धी के खेमों से भी अपने लोग चुन सकते हैं। आवश्यकता अपने अनुभव और प्रतिभा से ऐसे लोगों को पहचानने और फिर अपने व्यवहार से उनका विश्वास जीतने की।
सुंदर कांड के एक बहुत ही रोचक प्रसंग में चलते हैं। देखिए हनुमान एक बड़े अभियान पर निकले हैं। लंका में सीता की खोज करनी है। समुद्र लांघकर, कई राक्षसों का सामना करते हुए पहुंचे हैं। हम भी जब व्यवसाय में कूदते हैं तो वो भी समुद्र लांघने जैसा ही है लेकिन हम थोड़े प्रयासों में ही थक जाते हैं, बुद्धि विचलित होने लगती है। हनुमानजी सीखा रहे हैं कैसे अपनी बुद्धि को अगर स्थिर कर लिया जाए तो दुश्मनों के शिविर में भी अपने लोग तैयार किए जा सकते हैं।
सीता को खोजते-खोजते हनुमान विभीषण के घर तक पहुंच गए। उन्होंने कुछ चिन्हों से ही जान लिया कि यहां जो व्यक्ति रहता है वो राम के काम आ सकता है। विभीषण से मित्रता की। उसे भरोसा दिलाया कि राम अपनी शरण में आने वाले को पूरे स्नेह से रखते हैं। हनुमान ने विभीषण को अपनी प्रेमभरी भाषा में एक मौन निमंत्रण दे दिया। राम की शरण में आने का। विभीषण जो अभी तक लंका में उपेक्षित से थे, उन्होंने भी ये मौका ताड़ लिया।
एक रिश्ता बन गया। प्रेम उपजा , विश्वास दृढ़ हुआ और विभीषण ने लंका छोड़कर राम की शरण ली। राम ने भी हनुमान के विश्वास को पूरी तरह रखा, विभीषण से मिलते ही उसका राजतिलक कर दिया। मित्र बना लिया।
प्रेम का रिश्ता मन से हो, देह से नहीं
कहते हैं प्रेम जब जीवन में प्रवेश करता है तो दुनिया ज्यादा अच्छी लगने लगती है। प्रेम नजर और नजरियो दोनों ही बदल देता है। नजरिया बदले तब तक तो ठीक है लेकिन अगर प्रेम में नजर बदल दे, तो यह संकेत है कि भविष्य में यही प्रेम विषय वासना बनकर रह जाएगा और हमारे जीवन में कोई बड़ा संकट खड़ा करेगा।
ऐसा पारिवारिक और व्यवसायिक जीवन में कम होता है लेकिन निजी जीवन में अक्सर यह घटना घटती है।
सावधान रहें, निजी जीवन में प्रेम जब उतरता है तो खूब तनकर चलने वाले व्यक्ति को भी घुटनों पर ला देता है। अगर निजी जीवन में प्रेम देह से जुड़ जाए तो फिर इसे हवस बनने में देर नहीं लगती। तब तो व्यक्ति का नैतिक पतन तय समझिए।
हमारा एकांत पवित्र होना चाहिए। हालांकि कई बड़े-बड़े लोग इस प्रयास में असफल ही रहे हैं। प्रेम को मन में स्थान दें, तन में नहीं।
युवाओं के साथ सबसे बड़ी समस्या यही है कि उनका प्रेम दैहिक अधिक होता है। जब प्रेम की मर्यादाएं तोड़ी जाती हैं तो परिणाम बुरे ही होंगे। प्रेम में अपनी मर्यादाएं बनाएं रखें, विश्वास भी हमेशा कायम रहे। तभी प्रेम, प्रेम बना रहता है। भागवत की एक कथा में चलते हैं। शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी का विवाह राजा ययाति से हुआ था। देवयानी ने अपने एक वरदान में ये मांग रखा था कि दानवों की राजकुमारी शर्मिष्ठा हमेशा उसके साथ दासी भाव में रहे। शर्मिष्ठा भी देवयानी के साथ जहां वो जाती साथ ही जाती थी।
विवाह के बाद देवयानी के साथ शर्मिष्ठा ययाति के राजमहल में आ गई। ययाति और देवयानी का वैवाहिक जीवन सुखमय बीत रहा था। दोनों में प्रेम बहुत था। एक बार जब देवयानी गर्भवती हुई, राजा ययाति की निगाह शर्मिष्ठा पर पड़ गई। शर्मिष्ठा भी ययाति से प्रेम करने लगी थी। दोनों में संबंध बने। मर्यादाएं टूूट गईं, रिश्तों में विश्वासघात हो गया। प्रेम मन से देह में उतरा, वासना सिर पर हावी हो गई।
देवयानी को पता चला तो वह ययाति को छोड़कर अपने पिता शुक्राचार्य के पास आ गई। शुक्राचार्य ने ययाति को शाप दे दिया। बड़ा भारी शाप, युवावस्था में वृद्ध होने का शाप। देखिए पल भर को प्रेम की मर्यादाएं टूटी, प्रेम वासना में बदला और जीवन नर्क हो गया।
हमारे निजी जीवन में जब तक पवित्रता नहीं आएगी, हमेशा अपने एकांत को शुद्ध बनाइए। यह याद रखें, एकांत में होने पर भी हम अकेले नहीं होते हैं। परमात्मा तो वहां होता ही है।
परिवार में रहें, लेकिन पति-पत्नी खुद को भी दें एकांत
हमारा परिवार कितना ही बड़ा क्यों ना हो, कितने ही सदस्य क्यों ना रहें, फिर भी हर व्यक्ति का अपना एक निजी जीवन होता है। उसे निजी ही रहने दें। अक्सर सामूहिक परिवारों में सदस्यों की निजता कहीं अनदेखी हो जाती है। हम भूल जाते हैं कि परिवार में होते हुए भी हर सदस्य का अपना निजी जीवन भी है।
अगर तीन भाइयों का परिवार है, तो तीनों का अपना-अपना दाम्पत्य भी है। कुछ समय उन्हें अपने दाम्पत्य के लिए भी निकालना चाहिए। अक्सर बड़े परिवारों में बिखराव होता ही इसी बात पर है कि पति-पत्नी की निजता वहां गौण हो जाती है।
परिवार अगर सामूहिक हो, अनुशासन प्रिय हो तो एक अनुशासन यह भी होना चाहिए कि हर सदस्य को अपने दाम्पत्य के लिए समय मिले। जिस परिवार में परंपराओं के चलते खुलापन कम हो जाता है वहां परिवार तो एक दिखता है लेकिन उसमें दाम्पत्य में एक अनचाहा सा तनाव होता है।
एक बार फिर पांडवों के दाम्पत्य में चलते हैं। द्रौपदी पांच भाइयों की पत्नी थी। कितना नाजुक रिश्ता होगा वो, विचार कीजिए। पांचों भाइयों के साथ रहती थी लेकिन कभी द्रौपदी को लेकर पांचों भाइयों में तनाव जैसी कोई बात नहीं हुई। आखिर उनके दाम्पत्य में क्या था ऐसा। वहां देह नहीं, मन केंद्र में था। पांचों भाई समान रूप से प्रेम करते थे द्रौपदी को। द्रौपदी भी पांचों से समान रिश्ता रखती थीं।
नियम बनाया गया। एक साल तक एक ही भाई द्रौपदी के साथ रहेगा। दूसरा उनकी निजता भंग नहीं करेगा। अगर किसी ने गलती से भी ऐसा किया तो दंड भी रखा गया था। एक साल का वनवास। पांचों को समान अवसर मिलता था द्रौपदी के साथ रहने का। कोई ईष्र्या नहीं, कोई प्रतिस्पर्धा नहीं। परिवार ऐसे ही चलते हैं। यहां सिर्फ प्रेम और स्नेह जरूरी नहीं। कभी-कभी त्याग की भावना भी रखनी पड़ती है।
परिवार में बंधन प्रेम का हो, आजादी विचारों की
परिवार केवल इसलिए एकजुट ना रहे कि उसे समाज का डर या परंपराओं का बंधन निभाना है। परिवार प्रेम की डोर से बंधे होने चाहिए। जो परिवार समाज या परंपराओं के दबाव में बंधे रहते हैं, उनमें बाहरी एकजुटता तो दिखाई देती है लेकिन भीतर से हृदयों में प्रेम नहीं होता।
यदि परिवारों में सदस्य एक-दूसरे के लिए जीने की तैयारी करना चाहते हों, सहजीवन को प्रेमपूर्ण बनाना चाहते हों तो उन्हें अपने अहंकार को नियंत्रित करना होगा। अहंकार की जड़ 'मैं में होती है। परिवारों में जब तक 'मैं रहेगा, लोग एक-दूसरे के नहीं हो पाएंगे। मैं इतने बारीक तरीके से अपने रूप बदलता है कि पता लगाना मुश्किल हो जाता है।
अक्सर परिवार के सदस्य एक-दुसरे पर अपनी पसंद को थोपना चाहते हैं। बड़े अपने सारे काम, सारी सोच, सारे नियम कायदे छोटों पर थोप देते हैं। पत्नियां पतियों की पसंद से जीती हैं। बच्चे मां-बाप के अधीन हो जाते हैं। परिवार में अनुशासन ठीक है लेकिन अगर वह अनुशासन बंधन बन जाए तो मन के रिश्ते टूटने लगते हैं।
मैं परिवार की शांति में बहुत बड़ी अड़चन है। बड़े-बूढ़ों ने इसीलिए सिखाया है कि मैं खत्म करने का आसान तरीका है, जीवन को परमात्मा के हवाले करो। गृहस्थी के केंद्र में ईश्वर को रखो। इससे मैं को गलने में सुविधा होगी। गृहस्थी को आश्रम कहा गया है, लेकिन मैं के प्रवेश होते ही इसे श्मशान बनने में देर नहीं लगती।
रामायण में चलते हैं। देखिए लक्ष्मण को राम की सेवा प्रिय है। वो सोते-जागते हर पल राम की सेवा में लीन है लेकिन उनका ही छोटा भाई शत्रुघ्र भरत की परछाई है। शत्रुघ्न का पूरा जीवन भरत की सेवा में गुजरा। लक्ष्मण ने कभी अपनी पसंद शत्रुघ्न पर नहीं थोपी की तुम भी राम की ही सेवा में रहो। जब रघुवंश पर राम के वनवास का वज्रपात हुआ तो संभव था कि लक्ष्मण क्रोध में शत्रुघ्न को भरत से अलग कर देते लेकिन ऐसा नहीं हुआ। परिवार की मर्यादा के लिए लक्ष्मण भी उतने ही कटिबद्ध थे जितने राम। परिवार में निजी हित उतने मायने नहीं रखते जितने परिवार के हित। जिस दिन हम यह बात समझ लेंगे हमारा परिवार भी रघुवंश हो जाएगा।
काम में दबाव तनाव ही देगा, प्रेम भरे एक प्रयास से बन सकती है बात
कभी-कभी हमारे व्यवसायिक जीवन में कुछ चुनौतियां ऐसी खड़ी हो जाती हैं, जिनका हल निकालना ना केवल मुश्किल होता है, बल्कि कई बार सहयोगियों को तैयार करना भी लगभग नामुमकिन हो जाता है। आज का दौर पसंद का काम करने का है। हर कर्मचारी अपने स्वभाव और प्रतिभा के अनुसार ही काम करना चाहता है। किसी को भी थोड़ा स्वभाव के विपरित काम दिया कि विरोध और असंतोष का सिलसिला शुरू होने में समय नहीं लगता।
प्रेम भरे एक प्रयास से इस तरह की परिस्थितियों को संभाला जा सकता है। जितना तनाव और दबाव बढ़ाया जाएगा, उतना ही कर्मचारी काम को लेकर असंतुष्ट होता जाएगा। व्यवसायिक दुनिया में हर समय, हर एक को खुश रखना संभव नहीं होता है। जब कर्मचारी किसी काम से पीछे हटता है तो अफसर दबाव बनाना शुरू करते हैं। दबाव के साथ तनाव आता है, तनाव अशांति को जन्म देता है। इस पूरी प्रक्रिया का असर दिखता है परिणामों पर। ऐसी परिस्थितियां प्रबंधन संभाल रहे लोगों के लिए चुनौती होती है।
यहां अगर थोड़ी सी समझदारी से काम लिया जाए तो शायद परिस्थितियों को आसानी से संभाला जा सकता है, साथ ही परिणाम भी बेहतर हो सकते हैं। कारपोरेट जगत में पदों को गौणकर एक साथ काम करने की परंपरा चल पड़ी है। इसके अपने परिणाम है। कर्मचारी कौन सा काम करेंगे और कौन सा नहीं, कई बार कंपनी खुद तय कर देती है। हर एक को उसकी प्रतिभा और इच्छा के मुताबिक काम सौंप दिया जाता है।
अगर कोई काम ऐसा हो जो कोई ना करना चाहता हो, ते उसे कैसे करावाएं। अगर टीम लीडर, प्रबंधक या जो भी बॉस हो उस काम की परंपरा को शुरू कर दे, तो फिर उसे कोई भी कर्मचारी आसानी से कर देगा। जरूरत है एक प्रेमभरी शुरुआत की।
भगवान कृष्ण से सीखिए हर काम को महान बनाने की कला। भागवत के एक प्रसंग में चलते हैं। इंद्रप्रस्थ में युधिष्ठिर का राजसूय यज्ञ था। दुनिया के तमाम राजाओं को बुलाया गया। भगवान कृष्ण ने सबको उनकी प्रतिभा और रूचि के अनुसार काम सौंप दिए। भीम को रसोई, अर्जुन को राजकीय व्यवस्था, नकुल सहदेव को भी अतिथियों की व्यवस्था, दुर्योधन को कोषागार। सिर्फ दो काम शेष रह गए। अतिथियों के पैर धोना, जूठन की थालियां उठाना। किसे सौंपते, सभी राजपुत्र थे, सभी इसे दासों का काम समझते थे। भगवान कृष्ण ने अपने हिस्से में ये ही दो काम लिए। भगवान ने ऐसे काम लिए, सभी सोचकर हैरान रह गए। दुनिया को चलाने वाले भगवान श्रीकृष्ण ने दासों वाले काम लिए। भगवान ने संदेश दिया, कोई काम छोटा नहीं होता। सिर्फ उसे करने के पीछे का भाव उच्च होना चाहिए।
इसके बाद ऐसा कहते हैं कि हर कोई ये ही काम करना चाहता था। बस यही मैनेजमेंट का तरीका है। जो काम हेय समझा जाए, उसे टीम लीडर शुरू कर दे तो असंतोष रहेगा ही नहीं। हां लेकिन उसके पीछे प्रेम का भाव होना चाहिए। अगर यही काम अहंकार या क्रोध में किया जाए तो यह करने वाले को हंसी का पात्र बना देगा, कर्मचारियों को आपसे और ज्यादा दूर कर देगा।
पति-पत्नी के रिश्ते में नएपन की ताजगी हो, तो कायम रहेगा प्रेम
प्रेम व्यक्ति के जीवन में जब आता है तब उसे बहुत धीरे-धीरे एहसास होता है लेकिन जब जाता है तो अपने पीछे एक खालीपन छोड़ जाता है। आज का दौर ना केवल रिश्तों को सावधानी से सहेजने का है, बल्कि रिश्तों में कुछ नयापन लाने का भी है। कैसे रिश्तों में हमेशा ताजगी रहे, नयापन रहे सीखते हैं भागवत से।
भगवान श्रीकृष्ण के दाम्पत्य में चलते हैं। 16108 रानियों के पति भगवान कृष्ण के सबसे ज्यादा प्रसंग केवल दो ही रानियों के संग के हैं। पहली रुक्मिणी और दूसरी सत्यभामा। अगर गौर से देखा जाए तो इन दोनों पत्नियों के साथ कृष्ण के सबसे ज्यादा किस्से हैं। इसका कारण था कि इन दोनों रानियों ने कभी अपने रिश्तों में एकरसता नहीं आने दी। रुक्मिणी द्वारिका में राजकाज और प्रजापालन में श्रीकृष्ण के साथ हाथ बंटाती थीं, तो कभी हास्य-विनोद से उनके साथ नितांत निजी क्षण भी बिताती थीं।
वहीं सत्यभामा कई बार श्रीकृष्ण के साथ ही युद्ध या तीर्थ पर निकल जाती थीं। शेष रानियों का अधिकांश जीवन द्वारिका के महलों में ही गुजर गया। सत्यभामा श्रीकृष्ण को लेकर बहुत ही संवेदनशील रहती थी, वो आक्रामक स्वभाव की थी, इसलिए कई बार युद्धों में श्रीकृष्ण के साथ चल देती थीं।
आज के युवा दंपत्तियों में एक इसी बात की कमी है। वे साथ तो रहते हैं लेकिन दांपत्य में एकरसता आ गई है। नयापन कुछ भी नहीं रहता। वे पति-पत्नी ही सबसे ज्यादा सुखी रहते हैं जो ना केवल एक-दूसरे को अपना एकांत देते हैं बल्कि कभी-कभी एक-दूसरे की जिम्मेदारियों को भी उठाते हैं।
पति-पत्नी सिर्फ सहचर ना रहें, जीवन में सहभागी भी बनें। एक-दूसरे के कामों में हाथ बंटाएं, अपने साथी को लक्ष्य तक पहुंचने में मदद करें, कभी ये भी देखने का प्रयास करें कि आपका साथी किस स्थिति में संघर्ष कर रहा है। पति-पत्नी जब सहचर से, जीवन के सहभागी बन जाते हैं, तो रिश्ते में रोज एक नयापन दिखाई देता है।
हनुमानजी से सीखिए, कैसे करें अपने-पराए की पहचान
व्यवसायिक प्रतिस्पर्धा में अक्सर लोग यह नहीं जान पाते हैं कि कौन अपना है और कौन पराया। कई बार हितैषियों का त्याग हो जाता है और दुश्मन गले लगा लिए जाते हैं। जो लोग ये मानते हैं कि व्यवसायिक रिश्ते एक तय समय सीमा तक ही गर्माहट भरे होते हैं, वे शायद गलत हैं।
व्यवसायिक रिश्तों में भी अगर अपने पराए की पहचान हो, उस रिश्ते को थोड़ा प्रेम और विश्वास से सींचा जाए तो वो भी निजी रिश्तों की तरह लंबे समय टिका रह सकता है।
आज की परिणाम केंद्रीत व्यवस्था में ऐसा करना मुश्किल है लेकिन अगर थोड़ा समझदारी से काम लिया जाए तो आप अपने प्रतिस्पर्धी के खेमों से भी अपने लोग चुन सकते हैं। आवश्यकता अपने अनुभव और प्रतिभा से ऐसे लोगों को पहचानने और फिर अपने व्यवहार से उनका विश्वास जीतने की।
सुंदर कांड के एक बहुत ही रोचक प्रसंग में चलते हैं। देखिए हनुमान एक बड़े अभियान पर निकले हैं। लंका में सीता की खोज करनी है। समुद्र लांघकर, कई राक्षसों का सामना करते हुए पहुंचे हैं। हम भी जब व्यवसाय में कूदते हैं तो वो भी समुद्र लांघने जैसा ही है लेकिन हम थोड़े प्रयासों में ही थक जाते हैं, बुद्धि विचलित होने लगती है। हनुमानजी सीखा रहे हैं कैसे अपनी बुद्धि को अगर स्थिर कर लिया जाए तो दुश्मनों के शिविर में भी अपने लोग तैयार किए जा सकते हैं।
सीता को खोजते-खोजते हनुमान विभीषण के घर तक पहुंच गए। उन्होंने कुछ चिन्हों से ही जान लिया कि यहां जो व्यक्ति रहता है वो राम के काम आ सकता है। विभीषण से मित्रता की। उसे भरोसा दिलाया कि राम अपनी शरण में आने वाले को पूरे स्नेह से रखते हैं। हनुमान ने विभीषण को अपनी प्रेमभरी भाषा में एक मौन निमंत्रण दे दिया। राम की शरण में आने का। विभीषण जो अभी तक लंका में उपेक्षित से थे, उन्होंने भी ये मौका ताड़ लिया।
एक रिश्ता बन गया। प्रेम उपजा , विश्वास दृढ़ हुआ और विभीषण ने लंका छोड़कर राम की शरण ली। राम ने भी हनुमान के विश्वास को पूरी तरह रखा, विभीषण से मिलते ही उसका राजतिलक कर दिया। मित्र बना लिया।
ऐसे पहचाना जा सकता है सच्चा प्यार...
महाभारत में एक प्रेम कथा आती है। ये कहानी है राजा नल और उनकी पत्नी दयमंती की। ये कथा हमें बताती है कि प्रेम को किसी शब्द और भाषा की आवश्यकता नहीं है। प्रेम को केवल नजरों की भाषा से भी पढ़ा जा सकता है।
महाभारत में राजा नल और दयमंती की कहानी कुछ इस तरह है। नल निषध राज्य का राजा था। वहीं विदर्भ राज भीमक की बेटी थी दयमंती। जो लोग इन दोनों राज्यों की यात्रा करते वे नल के सामने दयमंती के रूप और गुणों की प्रशंसा करते और दयमंती के सामने राजा नल की वीरता और सुंदरता का वर्णन करते। दोनों ही एक-दूसरे को बिना देखे, बिना मिले ही प्रेम करने लगे। एक दिन राजा नल को दयमंती का पत्र मिला। दयमंती ने उन्हें अपने स्वयंवर में आने का निमंत्रण दिया। यह भी संदेश दिया कि वो नल को ही वरेंगी।
सारे देवता भी दयमंती के रूप सौंदर्य से प्रभावित थे। जब नल विदर्भ राज्य के लिए जा रहे थे तो सारे देवताओं ने उन्हें रास्ते में ही रोक लिया। देवताओं ने नल को तरह-तरह के प्रलोभन दिए और स्वयंवर में ना जाने का अनुरोध किया ताकि वे दयमंती से विवाह कर सकें। नल नहीं माने। सारे देवताओं ने एक उपाय किया, सभी नल का रूप बनाकर विदर्भ पहुंच गए। स्वयंवर में नल जैसे कई चेहरे दिखने लगे। दयमंती ने भी हैरान थी। असली नल को कैसे पहचाने। वो वरमाला लेकर आगे बढ़ी, उसने सिर्फ स्वयंवर में आए सभी नलों की आंखों में झांकना शुरू किया।
असली नल की आंखों में अपने लिए प्रेम के भाव पहचान लिए। देवताओं ने नल का रूप तो बना लिया था लेकिन दयमंती के लिए जैसा प्रेम नल की आंखों में था वैसा भाव किसी के पास नहीं था। दयमंती ने असली नल को वरमाला पहना दी। सारे देवताओं ने भी उनके इस प्रेम की प्रशंसा की।
कथा समझाती है कि चेहरे और भाषा से कुछ नहीं होता। अगर प्रेम सच्चा है तो वो आंखों से ही झलक जाएगा। उसे प्रदर्शित करने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। प्रेम की भाषा मौन में ज्यादा तेज होती है।
जानिए, प्रेम आपके व्यक्तित्व पर क्या प्रभाव डाल सकता है ...
कहा जाता है कि आदमी में कुछ भी परिवर्तन करना बहुत मुश्किल होता है। जैसे-जैसे उम्र बढ़ती जाती है, व्यक्तित्व की गिली मिट्टी सूखकर सख्त होती जाती है। एक उम्र तक पहुंचने के बाद किसी में कुछ बदलना बहुत मुश्किल होता है। फिर इंसान सिर्फ खुद के दम पर ही कोई बड़ा परिवर्तन अपने भीतर ला सकता है।
अगर अपने दम पर कोई कुछ परिवर्तन ला सकता है तो वह है प्रेम। प्रेम की शक्ति कुछ भी बदल सकती है। हमारे अवतारों ने, संतों-महात्माओं ने, विद्वानों ने प्रेम पर ही सबसे ज्यादा जोर दिया है। केवल हिंदू धर्म ही नहीं, मुस्लिम, सिख, इसाई, बौद्ध हर धर्म का एक ही संदेश है कि निष्काम प्रेम जीवन में होना ही चाहिए। इसमें बड़ी शक्ति है। यह जीवन की दिशा बदल सकता है। परमात्मा के निकट जाने का एक सबसे आसान रास्ता है प्रेम।
फकीरों की सोहबत में क्या मिलता है यह तो तय नहीं हो पाता है लेकिन कुछ चाहने की चाहत जरूर खत्म हो जाती है। सूफियाना अन्दाज में रहने वाले लोग दूसरों से उम्मीद छोड़ देते हैं। अपेक्षा रहित जीवन में प्रेम आसानी से जागता है। प्रेम में दूसरों को स्वयं अपने जैसा बनाने की मीठी ताकत होती है। प्रेम की प्रतिनिधि है फकीरी। अहमद खिजरविया नाम के फकीर बहुत अच्छे लेखक भी थे। रहते तो फौजियों के लिबास में थे लेकिन पूरी तरह प्रेम से लबालब थे।
एक दफा उनके घर चोर ने सेंध लगा दी। चोर काफी देर तक ढूंढता रहा कुछ माल हाथ नहीं लगा। घर तो प्रेम से भरा था अहमद का मन भी पूरी तरह से प्रेम निमग्न था। चोर को वापस जाता देख उन्होंने रोका। कहा हम तुम्हे मोहब्बत तो दे ही सकते हैं बाकी तो घर खाली है। बैठो और बस एक काम करो सारी रात इबादत करो। फकीर जानते थे कि जिन्दगी का केन्द्र यदि ढूंढना हो तो प्रेम के अलावा और कुछ नहीं हो सकता।
जिनके जीवन के केन्द्र में प्रेम है ऊपर वाला उनकी परीधि पर दरबान बनकर खड़े रहने को तैयार होगा। दुनिया में जिन शब्दों का जमकर दुरुपयोग हुआ है उनमें से एक है प्रेम। इसके बहुत गलत मायने निकाले हैं लोगों ने। आइए देखें प्रेम कैसा आचरण करवाता है, यहीं हमें सही अर्थ पता चलेगा। चोर ने सारी रात इबादत की। सुबह किसी अमीर भक्त ने फकीर अहमद खिजरविया को कुछ दीनारें भेजी। फकीर ने दीनारे चोर को दी और कहा यह है तुम्हारी इबादत के एवज में कुबुल करो। चोर प्रेम की पकड़ में था।
आंखों में आंसू आ गए और बोला, मैं उस खुदा को भूले बैठा था जो एक रात की इबादत में इतना दे देता है। चोर ने दीनारे नहीं ली और कह गया यहां प्रेम और पैसा दोनों मिले, पर अब प्रेम हासिल हो गया तो बाकी खुद ब खुद आ जाएगा। जिन्दगी में जब प्रेम का प्रवेश रुक जाता तो अशांति को आने की जगह मिल ही जाती है।
अपने प्रेम को कैसे बनाया जा सकता हैं अजर-अमर
महाभारत का युद्ध खत्म हो गया था। युधिष्ठिर ने हस्तिनापुर की राजगादी संभाल ली थी। सब कुछ सामान्य हो रहा था। एक दिन वो घड़ी भी आई जो कोई पांडव नहीं चाहता था। भगवान कृष्ण द्वारिका लौट रहे थे। सारे पांडव दु:खी थे। कृष्ण उन्हें अपना शरीर का हिस्सा ही लगते थे, जिसके अलग होने के भाव से ही वे कांप जाते थे। लेकिन कृष्ण को तो जान ही था।
पांचों भाई और उनका परिवार कृष्ण को नगर की सीमा तक विदा करने आया। सब की आंखों में आंसू थे। कोई भी कृष्ण को जाने नहीं देना चाहता था। भगवान भी एक-एक कर अपने सभी स्नेहीजनों से मिल रहे थे। सबसे मिलकर उन्हें कुछ ना कुछ उपहार देकर कृष्ण ने विदा ली। अंत में वे पांडवों की माता और अपनी बुआ कुंती से मिले।
भगवान ने कुंती से कहा कि बुआ आपने आज तक अपने लिए मुझसे कुछ नहीं मांगा। आज कुछ मांग लीजिए। मैं आपको कुछ देना चाहता हूं। कुंती की आंखों में आंसू आ गए। उन्होंने रोते हुए कहा कि हे कृष्ण अगर कुछ देना ही चाहते हो तो मुझे दु:ख दे दो। मैं बहुत सारा दु:ख चाहती हूं। कृष्ण आश्चर्य में पड़ गए।
कृष्ण ने पूछा कि ऐसा क्यों बुआ, तुम्हें दु:ख ही क्यों चाहिए। कुंती ने जवाब दिया कि जब जीवन में दु:ख रहता है तो तुम्हारा स्मरण भी रहता है। हर घड़ी तुम याद आते हो। सुख में तो यदा-कदा ही तुम्हारी याद आती है। तुम याद आओगे तो में तुम्हारी पूजा और प्रार्थना भी कर सकूंगी।
प्रसंग छोटा सा है लेकिन इसके पीछे संदेश बहुत गहरा है। अक्सर हम भगवान को सिर्फ दु:ख और परेशानी में ही याद करते हैं। जैसे ही परिस्थितियां हमारे अनुकूल होती हैं, हम भगवान को भूला देते हैं। जीवन में अगर प्रेम का संचार करना है तो उसमें प्रार्थना की उपस्थिति अनिवार्य है। प्रेम में प्रार्थना का भाव शामिल हो जाए तो वह प्रेम अखंड और अजर हो जाता है।
हम प्रेम के किसी भी रिश्ते में बंधे हों, वहां परमात्मा की प्रार्थना के बिना भावनाओं में प्रभाव उत्पन्न करना संभव नहीं है। इसलिए परमात्मा की प्रार्थना और अपने भीतरी प्रेम को एक कीजिए। जब दोनों एक हो जाएंगे तो हर रिश्ते में प्रेम की मधुर महक को आप महसूस कर सकेंगे।
ऐसे प्रेम का कोई अर्थ नहीं होता जिसमें ये बातें नहीं हों....
महाभारत में दुर्योधन जब पैदा हुआ तो उसके जन्म के साथ ही कई अशुभ घटनाएं घटने लगीं। सारे अपशकुन इस ओर इशारा कर रहे थे कि किसी दुरात्मा ने जन्म लिया है। विदुर ने एक राय दी कि इस बच्चे को तत्काल मार देना चाहिए। यह कुल का नाश कर सकता है। अभी मार दिया तो थोड़े ही दिन में इसके दु:ख को भुलाया भी जा सकता है लेकिन अगर यह बालक बड़ा हो गया तो पूरे कुल का नाश कर देगा। तब जो दु:ख होगा वह भुलाया नहीं जा सकेगा।
धृतराष्ट्र ने विदुर की बात से सहमत होने के बाद भी वह बात मानी नहीं। पुत्रमोह में उसने दुर्योधन को अतिप्रेम से पाला। उसकी सारी गलत मांगों की पूर्ति की जाती रही। धृतराष्ट्र पुत्र प्रेम में विवेक की सीमा से आगे चले गए। इतना प्रेम उड़ेल दिया कि दुर्योधन मनमौजी हो गया।
पिता की बातें मानना भी उसकी खुद की मर्जी का काम था। उसे जो बात अपने हित की लगती वही मानता। शेष सारी बातों को वो हवा में उड़ाने लगा। पिता उसके लिए सिर्फ राजगादी संभालने वाले प्रतिनिधि जैसे हो गए। पिता के प्रति प्रेम रहा ही नहीं। क्योंकि खुद धृतराष्ट्र के प्रेम में संस्कार नहीं थे। सिर्फ मोह था।
माता-पिता का एक मनोविज्ञान होता है सभी माता-पिता एक समय बाद बच्चों से प्रेम मांगने लगते हैं। प्रेम कभी मांगकर नहीं मिलता है और जो प्रेम मांगकर मिले उसका कोई मूल्य नहीं होता।
एक बात और समझ लें कि यदि माता-पिता बच्चों से प्रेम करें तो वह बड़ा स्वाभाविक है, सहज है, बड़ा प्राकृतिक है, क्योंकि ऐसा होना चाहिए। नदी जैसे नीचे की ओर बहती है, ऐसा माता-पिता का प्रेम है। लेकिन बच्चे का प्रेम माता-पिता के प्रति बड़ी अस्वाभाविक घटना है। ये बिल्कुल ऐसा है जैसे पानी को ऊपर चढ़ाना। कई मां-बाप यह सोचते हैं कि हमने बच्चे को जीवनभर प्रेम दिया और जब अवसर आया तो वह हमें प्रेम नहीं दे रहा, वह लौटा नहीं रहा।
इसमें एक सवाल तो यह है कि क्या उन्होंने अपने मां-बाप को प्रेम दिया था? यदि आप अपने माता-पिता को प्रेम, स्नेह और सम्मान नहीं दे पाए तो आपके बच्चे आपको कैसे दे सकेंगे? इसलिए हमारे यहां सभी प्राचीन संस्कृतियां माता-पिता के लिए प्रेम की के स्थान पर आदर की स्थापना भी करती हैं। इसे सिखाना होता है, इसके संस्कार डालने होते हैं, इसके लिए एक पूरी संस्कृति का वातावरण बनाना होता है।
जब बच्चा पैदा होता है तो वह इतना निर्दोष होता है, इतना प्यारा होता है कि कोई भी उसको स्नेह करेगा, तो माता-पिता की तो बात ही अलग है। जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होने लगता है, हमारा प्रेम सूखने लगता है। हम कठोर हो जाते हैं। बच्चा बड़ा होता है, अपने पैरों पर खड़ा होता है तब हमारे और बच्चे के बीच एक खाई बन जाती है। अब बच्चे का भी अहंकार बन चुका है वह भी संघर्ष करेगा, वह भी प्रतिकार करेगा, उसको भी जिद है, उसका भी हठ है। इसलिए प्रेम का सौदा न करें इसे सहज बहने दें।
इस तरह हमेशा कायम रह सकता है पति-पत्नी का प्रेम
प्रेम व्यक्ति के जीवन में जब आता है तब उसे बहुत धीरे-धीरे एहसास होता है लेकिन जब जाता है तो अपने पीछे एक खालीपन छोड़ जाता है। आज का दौर ना केवल रिश्तों को सावधानी से सहेजने का है, बल्कि रिश्तों में कुछ नयापन लाने का भी है। कैसे रिश्तों में हमेशा ताजगी रहे, नयापन रहे सीखते हैं भागवत से।
भगवान श्रीकृष्ण के दाम्पत्य में चलते हैं। 16108 रानियों के पति भगवान कृष्ण के सबसे ज्यादा प्रसंग केवल दो ही रानियों के संग के हैं। पहली रुक्मिणी और दूसरी सत्यभामा। अगर गौर से देखा जाए तो इन दोनों पत्नियों के साथ कृष्ण के सबसे ज्यादा किस्से हैं। इसका कारण था कि इन दोनों रानियों ने कभी अपने रिश्तों में एकरसता नहीं आने दी। रुक्मिणी द्वारिका में राजकाज और प्रजापालन में श्रीकृष्ण के साथ हाथ बंटाती थीं, तो कभी हास्य-विनोद से उनके साथ नितांत निजी क्षण भी बिताती थीं।
वहीं सत्यभामा कई बार श्रीकृष्ण के साथ ही युद्ध या तीर्थ पर निकल जाती थीं। शेष रानियों का अधिकांश जीवन द्वारिका के महलों में ही गुजर गया। सत्यभामा श्रीकृष्ण को लेकर बहुत ही संवेदनशील रहती थी, वो आक्रामक स्वभाव की थी, इसलिए कई बार युद्धों में श्रीकृष्ण के साथ चल देती थीं।
आज के युवा दंपत्तियों में एक इसी बात की कमी है। वे साथ तो रहते हैं लेकिन दांपत्य में एकरसता आ गई है। नयापन कुछ भी नहीं रहता। वे पति-पत्नी ही सबसे ज्यादा सुखी रहते हैं जो ना केवल एक-दूसरे को अपना एकांत देते हैं बल्कि कभी-कभी एक-दूसरे की जिम्मेदारियों को भी उठाते हैं।
पति-पत्नी सिर्फ सहचर ना रहें, जीवन में सहभागी भी बनें। एक-दूसरे के कामों में हाथ बंटाएं, अपने साथी को लक्ष्य तक पहुंचने में मदद करें, कभी ये भी देखने का प्रयास करें कि आपका साथी किस स्थिति में संघर्ष कर रहा है। पति-पत्नी जब सहचर से, जीवन के सहभागी बन जाते हैं, तो रिश्ते में रोज एक नयापन दिखाई देता है।
प्रेम का मार्ग
जे कृष्णमूर्ति कहते थे कि मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं कि मेरा किसी से प्रेम हो गया है। मैं कहता हूं, सोचकर कहो, तो वे चिंतित हो जाते हैं। वे कहते हैं कि मैं सोचता हूं कि मुझे प्रेम हो गया है। हुआ या नहीं, यह तो पक्का नहीं, लेकिन विचार आता है कि मुझे प्रेम हो गया है।
क्या प्रेम का विचार आवश्यक है? तुम्हारे पैर में कांटा गड़ता है, तो तुम्हें बोध होता है कि पैर में पीड़ा हो रही है। तुम ऐसा तो नहीं कहते कि मैं सोचता हूं कि शायद पैर में पीड़ा हो रही है। कांटा सोच-विचार को छेद देता है। उसके आर-पार निकल जाता है। जब तुम आनंदित होते हो, तो क्या तुम सोचते हो कि तुम आनंदित हो रहे हो या सिर्फ आनंदित होते हो? कोई प्रियजन चल बसे, तो क्या तुम श्मशान पर सोचते हो कि तुम दुखी हो रहे हो। सोचते हो, तो शायद दिखावा होगा। दूसरों को दिखाने के लिए हंसना भी पड़ता है, दुखी भी होना पड़ता है, लेकिन तब तुम्हारे भीतर कुछ नहीं हो रहा होता।
प्रेम सोच-विचार वाला नहीं होता। यह तो भाव का प्रेम है। जब भाव से तुम्हें कोई बात पकड़ लेती है, तो समझो तुम्हें वह जड़ों से पकड़ लेती है। विचार तो वृक्षों में लगे पत्तों की भांति है, जबकि भाव वृक्षों के नीचे छिपी जड़ों की तरह। छोटा सा बच्चा भी जनमते ही भाव में समर्थ होता है, विचार में समर्थ नहीं होता। विचार तो बाद का प्रशिक्षण है। उसे सीखना पड़ता है- स्कूल, कॉलेज, यूनिवर्सिटी, संसार, अनुभव से, लेकिन बच्चा भाव तो पहले ही क्षण से करता है। अभी-अभी पैदा हुए बच्चे को देखो, वह भाव से आंदोलित होता है। अगर तुम प्रसन्न हो, आनंद से तुमने उसे छुआ है, तो वह भी पुलकित होता है। अगर तुम उपेक्षा से भरे हो और तुम्हारे स्पर्श में प्रेम की ऊष्मा नहीं है, तो वह तुम्हारे हाथ से अलग हट जाना चाहता है। अभी उसके पास सोच-विचार नहीं है। अभी मस्तिष्क के तंतु तो निर्मित होने हैं। अभी तो ज्ञान, स्मृति बनेंगे, तब वह जानेगा कि कौन अपना है, कौन पराया। अभी वह अपना-पराया नहीं जानता। अभी तो जो भाव के निकट है, वह उसका अपना है, जो भाव के निकट नहीं है वह पराया है। फिर तो जो अपना है, उसके प्रति भाव दिखाएगा। इसीलिए तो छोटे बच्चे में निर्दोषता का अनुभव होता है।
प्रेम भाव का होता है। उसे महसूस करने के लिए मैं लोगों से कहता हूं- थोड़ा हृदय को जगाओ। कभी आकाश में घूमते हुए बादलों को देखो। उन्हें देखकर नाचो भी, जैसे मोर नाचता है। पक्षी गीत-गाते हैं, तो उनके सुर में सुर मिलाओ। वृक्ष में फूल खिलते हैं, तो तुम भी प्रफुल्लित हो जाओ। चारों तरफ जो विराट फैला है, उसके हाथ अनेक-अनेक रूपों में तुम्हारे करीब आए हैं- कभी फूल, कभी सूरज की किरण, कभी पानी, कभी लहर बनकर। इस विराट से थोड़ा भाव का नाता जोड़ो। बैठे सोचते मत रहो। इंद्रधनुष आकाश में खिले, तो तुम यह मत सोचो कि इसकी फिजिक्स क्या है। यह मत सोचो कि जैसे प्रकाश प्रिज्म से गुजरकर सात रंगों में टूट जाता है, इसी तरह किरणें पानी के कणों से गुजरकर सात रंगों में टूट गई हैं। इस पांडित्य के कारण तुम भाव से वंचित रह जाओगे। इंद्रधनुष का सौंदर्य खो जाएगा, हाथ में फिजिक्स की किताब रह जाएगी। आकाश की तरह अपने अंदर भी इंद्रधनुष खिलने दो। अपनी जिंदगी में उसके रंग उतरने दो।
विचार का प्रेम सौदा ही बना रहता है, क्योंकि विचार चालाक है। विचार यानी गणित। विचार यानी तर्क। विचार के कारण तुम निर्दोष हो ही नहीं पाते। वहीं भाव निर्दोष होता है। विचार के कारण तुम अपनी सहजता, सरलता और समर्पण का अनुभव नहीं कर पाते, क्योंकि विचार कहता है कि सजग रहो। सावधान, कोई धोखा न दे जाए। विचार भले ही तुम्हें धोखों से बचा ले, लेकिन अंतत: धोखा दे जाता है। भाव के साथ तुम्हें शायद कुछ खोना पड़े, लेकिन भाव पा लिया तो सब कुछ पा लिया।
एक आदमी सपना देखता रहा है कि उसने बड़ी हत्याएं की हैं, चोरियां की हैं, और वह परेशान है कि उनसे छुटकारा कैसे मिलेगा। वह कैसे अच्छे कर्म कर पाएगा। तभी तुम जाते हो और उसे जगा देते हो। आंख खुलते ही उसका सपना टूट जाता है। उसे कर्म नहीं बदलने पड़ते, बस सपना टूट जाए। फिर वह खुद ही हंसने लगता है कि मैं भी क्या सोच रहा था। मैं सोच रहा था कि इससे छुटकारा कैसे मिलेगा और सपना टूटते ही छुटकारा मिल गया।
विचार तुम्हारे स्वप्न हैं। कर्म तो विचार के भीतर घटित हो रहे हैं। विचार टूट जाए, तो तुम जाग गए। तुम्हारे पूर्व जन्म भी दु:स्वप्न ही हैं, उन्हें बदलने का सवाल ही नहीं। बस जागते ही परिवर्तन आ जाता है। जिन विचारों से झंझावात और ऊहापोह मचा है, बस उसे शांत कर लो। इन्हें शांत करने के दो उपाय हैं। एक ढंग ध्यान है। दूसरा मार्ग प्रेम का है। तुम इतने प्रेम से भर जाओ कि तुम्हारे जीवन की सारी ऊर्जा प्रेम बन जाए। जो ऊर्जा भावना बन रही थी, विचार बन रही थी, तरंगें बन रही थी, वह खिंच आए और प्रेम में नियोजित हो जाए। ध्यान का रास्ता सूखा है, तो प्रेम का रास्ता हरा-भरा है। उस पर पक्षी गीत गाते हैं, मोर भी नाचते हैं। उस पर गीत भी है, नृत्य भी। उस पर तुम्हें कृष्ण मिलेंगे बांसुरी बजाते। उस पर तुम्हें चैतन्य मिलेंगे गीत गाते, उस पर तुम्हें मीरा मिलेंगी-नाचती-गाती।
क्रमश:...
जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK
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