शक्ति तभी पूजनीय हो सकता है जब उसमें एक ये गुण भी हो...
महाभारत का एक प्रसंग है। पांडवों को जुए में हार जाने के बाद बारह साल का वनवास भोगना था। सभी पांचों भाई और द्रौपदी घने जंगलों में भटक रहे थे। वे कैलाश पर्वत के तलीय जंगलों में थे। उस समय यक्षों के राजा कुबेर का निवास भी कैलाश पर्वत पर ही था।
कुबेर के नगर में एक सरोवर था जिसमें बहुत सुगंधीत कमल के फूल थे। द्रौपदी को उन फूलों की महक आई तो उसने भीम से कहा कि उसे वे कमल के फूल चाहिए। भीम द्रौपदी के लिए फूल लाने चल दिए। रास्ते में एक घना जंगल था।
भीम ने देखा एक बंदर रास्ते पर पूंछ डाले सो रहा है। किसी जीव को लांघकर गुजर जाना मर्यादा के विरुद्ध था। सो, भीम ने बंदर से कहा अपनी पूंछ हटा लो। मुझे यहां से गुजरना है। बंदर ने नहीं सुना, भीम को क्रोध आ गया। उसने कहा तुम जानते हो मैं महाबली भीम हूं। बंदर ने कहा इतने शक्तिशाली हो तो तुम खुद ही मेरी पूंछ रास्ते से हटा दो और गुजर जाओ।
भीम ने बहुत कोशिश की लेकिन पूंछ टस से मस नहीं हुई। हार मानकर बैठ गया और वानर से प्रार्थना करने लगा। तब वानर ने अपना असली रूप दिखाया। वे स्वयं पवनपुत्र हनुमान थे। उन्होंने भीम को समझाया कि तुम्हें कभी भी अपनी शक्ति पर इस तरह घंमड नहीं करना चाहिए।
प्रकृति ने हमें शक्ति दी है, तो हमारी जिम्मेदारी भी बड़ी है। हमें शक्ति के मद में सभ्यता और विनम्रता को नहीं त्यागना चाहिए।
अपनी शक्ति के नशे में अंधे हो जाना आम बात है। ऐसे लोग बिरले ही होते हैं जो जितने शक्तिशाली होते हैं उतने ही विनम्र भी। शक्ति और विनम्रता ऐसे गुण हैं जो विपरीत स्वभाव के होते हैं लेकिन अगर ये एक ही स्थान पर आ जाएं तो व्यक्ति महान हो जाता है।
शक्ति का सही उपयोग कैसे किया जाए, सीखिए भगवान राम से...
रामायण में चलते हैं। भगवान राम ने अपने तीनों भाइयों के साथ गुरु वशिष्ठ से सारी शिक्षा ली। वे राजकुमार तो थे ही, धनुर्विद्या के भी निपुण योद्धा थे। शक्ति भी थी और सामथ्र्य भी। पूरे राजसी ठाठ से जीवन गुजर रहा था। तभी एक दिन ऋषि विश्वामित्र आ पहुंचे। उन्होंने दशरथ से राम और लक्ष्मण मांग लिए।
रावण की राक्षस सेना का आतंक बढ़ रहा था और वे ऋषियों के हवन-यज्ञों को बंद करा रहे थे। राक्षसों के संहार के लिए विश्वामित्र ने राम और लक्ष्मण को चुना। दशरथ पहले डरे लेकिन फिर गुरुओं की बात को मानकर राम-लक्ष्मण को उनके साथ भेज दिया।
राम शक्तिशाली राक्षसों का मारकर ऋषियों को भयमुक्त कर दिया। यहां राम का काम पूरा हो चुका था लेकिन उन्होंने ऋषि विश्वामित्र का साथ ततकाल नहीं छोड़ा। उनके साथ जंगल-जंगल और कई नगरों में घूमते रहे। राम का कहना था कि और भी कहीं कोई राक्षस ब्राह्मणों, ऋषियों, निर्बलों या गौओं का नष्ट कर रहे हों या उनके कार्यों में बाधा डाल रहे हों तो मैं उनका नाश करने के लिए तैयार हूं।
शक्ति है तो उसका पहला उपयोग निर्बलों की सहायता, समाज की सेवा और विश्व के उत्थान में लगाना चाहता हूं। इस पूरे अभियान में राम ने कई राक्षसों को मार गिराया। विश्वामित्र ने राम को प्रसन्न होकर कई दिव्यास्त्र भी दिए, जो बाद में रावण से युद्ध में काम आए।
शक्ति का सबसे श्रेष्ठ उपयोग जनहित में ही हो सकता है। परमात्मा अगर शक्ति देता है तो वो सिर्फ उसका उपहार नहीं होती। वो एक जिम्मेदारी भी है। हमें धन, बल, बुद्धि या विद्या कोई भी शक्ति मिले तो उसका उपयोग सबसे पहले लोक हित में किया जाना चाहिए। तभी वो सफल और सुफल होगी।
कहा जाता है जिसे अपने सामथ्र्य का उपयोग करना आ गया, वो सारा संसार जीत सकता है। शक्तिशाली होना कोई उपलब्धि नहीं है, लेकिन अपनी शक्ति का सदुपयोग बहुत बड़ी उपलब्धि है। अगर अपनी शक्ति का, सामथ्र्य का सम्मान चाहते हैं तो दूसरों के लिए जीने की आदत डालनी होगी। मुश्किल में पड़े लोगों की सहायता से ही ताकत को सलाम मिलता है।
अगर आप में प्रतिभा है तो ऐसे प्रदर्शित करने से बचें...
वाल्मीकि रामायण में प्रसंग है। भगवान श्री राम की वानर सेना समुद्र के किनारे पर आ खड़ी थी। बड़ा सवाल था इतनी बड़ी सेना के साथ समुद्र कैसे लांघा जाए। सुग्रीव, विभीषण, जामवंत आदि मंत्रियों ने भगवान को अलग-अलग सुझाव दिए। भगवान को विभीषण का प्रस्ताव पसंद आया।
विभीषण ने भगवान से कहा कि आप समुद्र को रास्ता देने के लिए प्रार्थना करें। ये आपके पूर्वज ही हैं। आपके पूर्वज महाराज सगर के 60 हजार पुत्रों द्वारा खोदा गया है। इसलिए इसे सागर कहा जाता है। भगवान ने विभीषण की बात मानी। सागर से प्रार्थना करने के लिए तप शुरू किया।
लक्ष्मण इस निर्णय से खुश नहीं थे। उनका मानना था कि समुद्र जड़ है, इससे प्रार्थना करने का लाभ नहीं है। लक्ष्मण का अनुमान ठीक भी निकला। तीन दिन तक उपवास और तप के बाद भी सागर ने कोई उत्तर नहीं दिया तो भगवान राम को भी क्रोध आ गया।
उन्होंने धनुष पर बाण का संधान कर सागर में छोड़ा। बाण से निकली अग्नि से सारे जंतु जलने लगे। समुद्र तत्काल राम की शरण में आया। क्षमा मांगी। राम ने समुद्र लांघने का उपाय पूछा तो समुद्र ने बताया कि आपकी सेना में नल और नील दोनों वानर विश्वकर्मा के पुत्र हैं। इनमें समुद्र पर सेतु बांधने की नैसर्गिक प्रतिभा है। क्योंकि विश्वकर्मा देवताओं के शिल्पी हैं।
राम ने नल-नील को बुलवाया। उनसे पूछा कि आप दोनों के पास यह प्रतिभा और शक्ति थी तो पहले क्यों नहीं बताया। तीन दिन तक तप नहीं करना पड़ता। नल और नील ने जो जवाब दिया उसे सुन राम भी प्रसन्न हो गए। उन्होंने कहा कि भगवान हमारे भीतर शक्ति है लेकिन जब तक हमसे कहा ना जाए हम उसका प्रदर्शन कैसे कर सकते हैं। ये तो शक्ति का अपमान है।
हमारे इस गुण के बारे में तो महाराज सुग्रीव को भी पता है लेकिन उन्होंने भी आज्ञा नहीं दी तो हम कैसे अपनी शक्ति का बिना किसी कारण प्रदर्शन कर सकते हैं।
ये बात आज के युवाओं के लिए बहुत बड़ा सबक है, अक्सर हम अपनी शक्ति और प्रतिभा का प्रदर्शन वहां भी कर देते हैं जहां आवश्यकता नहीं होती। अपनी शक्ति को वहीं दिखाएं जहां बहुत आवश्यक हो और आपके अलावा कोई विकल्प ना हो। अन्यथा आपकी शक्ति और प्रतिभा दोनों बेकार होंगी।
शक्ति का ऐसा उपयोग आपको भी डाल सकता है मुश्किलों में...
महाभारत की शुरुआत में कर्ण के जन्म की कथा आती है। कर्ण की मां कुंती राजकुमारी थीं। एक दिन उनके राजमहल में महर्षि दुर्वासा आए। दुर्वासा अपने क्रोध और शापों के कारण बहुत चर्चित थे। हर राजा उन्हें प्रसन्न करने के लिए हर संभव प्रयास करता था।
कुंतीराज ने भी दुर्वासा को अपना अतिथि बनाया। उनकी सेवा में कोई कमी ना रहे इसलिए उन्होंने उनके आतिथ्य की सारी जिम्मेदारी बेटी कुंती को सौंप दी। कुंती ने भी पूरे समर्पण के साथ महर्षि दुर्वासा की सेवा की।
कई दिनों तक सेवा का पूरा सिलसिला चलता रहा। दुर्वासा ने कुंती की कई कठिन परीक्षाएं भी लीं जिससे कि कुंती उन्हें अप्रसन्न कर सके लेकिन कुंती ने धैर्य नहीं खोया। वो महर्षि की हर परीक्षा में सफल रही। दुर्वासा उससे बहुत प्रसन्न हुए। जाते-जाते उसे एक ऐसा मंत्र दे गए, जिसके उच्चारण से जिस देवता को बुलाया जाए, वो उपस्थित हो जाता है।
कुंती को एकाएक इस पर भरोसा नहीं हुआ। उसने इस मंत्र के सत्य को जानने के लिए सूर्य का आवाहन कर लिया। तत्काल सूर्य देवता प्रकट हो गए। कुंती से वरदान मांगने को कहा तो कुंती ने कहा मुझे कुछ नहीं चाहिए। सूर्य देवता ने उसे एक पुत्र दे दिया। विवाह के पहले पुत्र होना सामाजिक दृष्टि से अनुचित था इस कारण कुंती ने उस पुत्र को गंगा नदी में प्रवाहित कर दिया। जो बड़ा होकर कर्ण कहालाया।
अगर हमें कोई शक्ति मिले तो उसका उपयोग सिर्फ आवश्यकता पडऩे पर ही किया जाए। अनावश्यक शक्ति प्रयोग कई बार हमारे लिए ही घातक हो सकता है। जहां बहुत आवश्यक हो, वहीं इसका उपयोग किया जाए तो शक्ति और हमारा दोनों का सम्मान बढ़ता है। कई लोग अपने पद, पैसे या शारीरिक क्षमताओं का अनावश्यक उपयोग करते हैं, जिसके परिणाम भी उन्हें भुगतने पड़ते हैं।
ऐसे हासिल हुई ताकत आपके लिए मुसीबत भी बन सकती है
किस्सा महाभारत का है। परशुराम ने सारी पृथ्यी कश्यप ऋषि को दान कर दी। वे अपने सारे अस्त्र-शस्त्र भी ब्राह्मणों को दान कर रहे थे। कई ब्राह्मण उनसे शक्तियां मांगने पहुंच रहे थे। द्रौणाचार्य ने भी उनसे कुछ शस्त्र लिए। तभी कर्ण को भी ये बात पता चली। वो ब्राह्मण नहीं था लेकिन परशुराम जैसे योद्धा से शस्त्र लेने का अवसर वो गंवाना नहीं चाहता था।
कर्ण को एक युक्ति सूझी, उसने ब्राह्मण का वेश बनाकर परशुराम से भेंट की। उस समय तक परशुराम अपने सारे शस्त्र दान कर चुके थे। फिर भी कर्ण की सीखने की इच्छा को देखते हुए, उन्होंने उसे अपना शिष्य बना लिया। कई दिव्यास्त्रों का ज्ञान भी दिया।
एक दिन दोनों गुरु-शिष्य जंगल से गुजर रहे थे। परशुराम को थकान महसूस हुई। उन्होंने कर्ण से कहा कि वे आराम करना चाहते हैं। कर्ण एक घने पेड़ के नीचे बैठ गया और परशुराम उसकी गोद में सिर रखकर सो गए। कर्ण उन्हें हवा करने लगा। तभी कहीं से एक बड़ा कीड़ा आया और उसने कर्ण की जांघ पर डंक मारना शुरू कर दिया।
कर्ण को दर्द हुआ लेकिन गुरु की नींद खुल गई तो उसके सेवा कर्म में बाधा होगी, यह सोच कर वह चुपचाप डंक की मार सहता रहा। कीड़े ने बार-बार डंक मारकर कर्ण की जांघ को बुरी तरह घायल कर दिया। उसकी जांघ से खून बहने लगा, खून की छोटी सी धारा परशुराम को लगी तो वे जाग गए। उन्होंने कीड़े को हटाया, फिर कर्ण से पूछा कि तुमने उस कीड़े को हटाया क्यों नहीं।
उसने कहा मैं थोड़ा भी हिलता तो आपकी नींद खुल जाती, मेरा सेवा धर्म टूट जाता। ये अपराध होता। परशुराम ने तत्काल समझ लिया। उन्होंने कहा इतनी सहनशक्ति किसी ब्राह्मण में नहीं हो सकती। तुम जरूर कोई क्षत्रिय हो। कर्ण ने अपनी गलती मान ली। परशुराम ने उसे शाप दिया कि जब उसे इन दिव्यास्त्रों की सबसे ज्यादा जरूरत होगी, वो इसके प्रयोग की विधि भूल जाएगा। ऐसा हुआ भी, जब महाभारत युद्ध में कर्ण और अर्जुन के बीच निर्णायक युद्ध चल रहा था, तब कर्ण कोई दिव्यास्त्र नहीं चला सका, सभी के संधान की विधि वो भूल गया।
झूठ के सहारे पाई गई, सफलता या शक्ति आपको क्षणिक सुख तो दे सकती है लेकिन स्थायी सफलता नहीं। झूठ बोल कर अगर कुछ हासिल कर भी लिया जाए तो वो चीज ज्यादा समय तक आपके पास टिक नहीं सकती।
जब लक्ष्य के लिए निकलें तो अपनी शक्ति को इस तरह मजबूत करें
महाभारत का युद्ध शुरू होने वाला था। कुरुक्षेत्र में कौरव और पांडव दोनों की सेनाएं पहुंच गई थीं। युद्ध के पहले वाली रात हर योद्धा पर भारी थी। सभी सुबह होने का इंतजार कर रहे थे। कोई वीर अपनी तलवार को धार दे रहा था, कोई बाणों को तीखा बनाने में जुटा था।
हर कोई उस घड़ी के इंतजार में था जब युद्ध शुरू होना था। भगवान कृष्ण और अर्जुन भी अपने-अपने शिविरों के बाहर टहल रहे थे। युद्ध का रोमांच तो था कि चिंता की लकीरें भी थीं। दोनों पक्षों की सेना में भारी अंतर था। कौरवों की सेना पांडव सेना से कहीं ज्यादा थी।
अर्जुन भी चिंता में था। वह कृष्ण के पास पहुंचा। अर्जुन ने कृष्ण से युद्ध को लेकर बातें कीं। कृष्ण उसकी मन:स्थिति को समझ गए। उन्होंने अर्जुन से कहा कि हे पार्थ तुम चिंता छोड़ो और शक्ति यानी देवी का ध्यान करो। तुम्हें इस समय अपनी शक्ति को केंद्रित रखना चाहिए।
कृष्ण ने अर्जुन को चिंता छोड़ ध्यान करने की सलाह दी। अपने भीतर मौजूद शक्ति और सामथ्र्य को एकत्रकर उसी पर टिकने का सुझाव दिया। अर्जुन ने ध्यान लगाया। उसे शक्ति के दर्शन हुए। मन से दुविधा और चिंता मिट गई।
कृष्ण संदेश दे रहे हैं कि जब भी आप लक्ष्य के निकट हों, युद्ध के मुहाने पर खड़े हों तो चिंता की बजाय चिंतन और ध्यान पर अपना मन केंद्रित करना चाहिए। लक्ष्य के पहले मन में आई चिंता आपको पराजय की ओर मोड़ सकती है। शक्ति कम भी हो तो उसे एकत्रकर पूरे मनोयोग से जुट जाएं।
ये शक्ति ही आपकी विजय के लिए पर्याप्त होगी। अगर हम हमारी पूरी शक्ति के साथ प्रयास नहीं करेंगे तो संभव है कि हम किसी भी अवसर को अपने पक्ष में नहीं कर पाएंगे।
जीतना है तो अपने भीतर रखें ऐसा भरोसा
शक्ति पर विश्वास बहुत जरूरी होता है। रामचरित मानस का प्रसंग है। भगवान राम के साथ वानर सेना समुद्र किनारे तक पहुंच गई थी। समुद्र को पार करने पर विचार किया जा रहा था। उसी समय लंका में भी भावी युद्ध को लेकर चर्चाएं चल रही थीं। रावण ने अपने मंत्रियों से राय मांगी तो सारे मंत्रियों ने यह कह दिया कि जब देवताओं और दानवों को जीतने में कोई श्रम नहीं किया तो मनुष्य और वानरों से क्या डरना?
विभीषण ने रावण को बहुत समझाया कि राम से संधि कर ले। सीता को आदर सहित फिर राम को लौटा दिया जाए तो राक्षस कुल बच सकता है। रावण विभीषण की इस बात पर गुस्सा हुआ और उसे लात मारकर अपने राज्य से निकाल दिया। विभीषण ने राम की शरण ली।
जब विभीषण राम के पास जाने के लिए वायुमार्ग से पहुचे तो वानर सेना में खलबली मच गई। सुग्रीव ने राम को सुझाव दिया कि ये राक्षस है और ऊपर से रावण का छोटा भाई भी। इसे बंदी बना लेना चाहिए। हो सकता है यह हमारी सेना का भेद लेने आया हो।
राम ने सुग्रीव को जवाब दिया कि हमें हमारे बल और सामथ्र्य पर पूरा भरोसा है। विभीषण शरण लेने आया है इसलिए उसे बंदी नहीं बनाना चाहिए। अगर वो भेद लेने भी आया है तो भी कोई संकट नहीं है। उसके हमारी सेना के भेद जान लेने से हम पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। हमारा बल तो कम होगा नहीं। दुनिया में जितने भी राक्षस है उन सब को अकेले लक्ष्मण ही क्षणभर में खत्म कर सकते हैं। हमें विभीषण से डरना नहीं चाहिए। उससे बात करनी चाहिए।
अक्सर लोग अपनी ही शक्ति को लेकर आशंकित होते हैं। हम जब अपने आप पर, अपने समर्थ होने पर शंका करने लगते हैं तो यहां से हमारी पराजय की शुरुआत हो जाती है। विजय हमेशा विश्वास से हासिल होती है। अगर हम खुद में विश्वास नहीं रखेंगे तो कभी जीत नहीं पाएंगे। छोटी-छोटी समस्याओं से डरते रहेंगे।
जानिए, अधूरा ज्ञान आपके लिए कितना खतरनाक हो सकता है
बिना ज्ञान के शक्ति का कोई उपयोग नहीं होता है। ऐसी शक्ति किसी काम की नहीं जिसे उपयोग करने का पूरा ज्ञान ही हमारे पास नहीं हो। वो चाहे शारीरिक शक्ति हो या मानसिक हो, हर तरह की शक्ति के लिए उसके उपयोग का ज्ञान होना आवश्यक है।
महाभारत युद्ध के बाद का प्रसंग है। दुर्योधन ने मृत्यु से पहले अश्वत्थामा को कौरव सेना का आखिरी सेनापति नियुक्त किया। उसने पांडवों के पांच पुत्रों, धृष्टधुम्र, शिखंडी सहित कई योद्धाओं को अकेले ही मार दिया। इसके बाद भी उसका गुस्सा शांत नहीं हुआ। अर्जुन भी उसके वध का प्रण कर घूम रहा था। दोनों में भयंकर युद्ध हुआ।
दोनों के गुरु द्रौणाचार्य थे। सभी शस्त्रों के संधान में दोनों ही कुशल थे। युद्ध भयानक होता जा रहा था। अश्वत्थामा ने अर्जुन पर ब्रह्मास्त्र चला दिया। जवाब में अर्जुन ने भी अश्वत्थामा पर ब्रह्मास्त्र छोड़ा। दोनों अस्त्रों से पूरी धरती और मानव जाति का विनाश हो जाता।
ये देखकर वेद व्यास बीच में आए और उन्होंने दोनों ब्रह्मास्त्रों को रोक दिया। अर्जुन और अश्वत्थामा दोनों को ही उन्होंने बहुत समझाया। दोनों को अपने-अपने अस्त्र वापस लेने को कहा, अर्जुन ने व्यासजी का कहा मानकर तुरंत अपना ब्रह्मास्त्र वापस ले लिया लेकिन अश्वत्थामा ने नहीं लिया। वेद व्यास ने जब उससे पूछा कि तुमने अपना अस्त्र वापस क्यों नहीं लिया, तो उसने जवाब दिया कि मुझे ब्रह्मास्त्र को वापस बुलाने की विद्या का ज्ञान नहीं है।
वेद व्यास बहुत क्रोधित हुए और कहा कि तुम्हें जिस विद्या का पूरा ज्ञान नहीं है उसका उपयोग ही क्यों किया। ये पूरी सृष्टि के लिए खतरा है। ऐसा कहकर उसे शाप भी दिया।
यह प्रसंग बताता है कि विद्या कोई भी हो, हमें उसका संपूर्ण ज्ञान होना चाहिए। अगर हम विद्या हासिल करने में थोड़ी भी चूक करते हैं तो हमें इसके घातक परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं।
कितनी भी शक्ति मिल जाए कभी इन बातों को ना भूलें
आज राम कथा में चलते हैं। प्रसंग है राम को वनवास हो गया है, दशरथ ने देह त्याग दी है, भरत के सामने अयोध्या का राजपाठ संभालने का दबाव है। सारे मंत्री, गुरु वशिष्ठ और अन्य सलाहकार भरत को समझा रहे हैं। भरत राजा बनने को तैयार नहीं है, उनका मानना है कि अगर उन्होंने राजा बनना स्वीकार किया तो राम वनवास का दोषी उन्हें ही माना जाएगा। राम उनके बड़े भाई हैं और उन्हें ही राजा होना चाहिए।
वे राम को मनाने सारी सेना और पूरे कुटुंब को लेकर चित्रकूट तक गए। राम ने लौटना स्वीकार नहीं किया। अयोध्यावासियों, गुरु और अपने परिवार के सामने भरत को अयोध्या का राजा बनने का आदेश दिया। भरत के पास सारे कारण मौजूद थे राजा बनने के। सभी चाहते थे कि राम की गैरमौजूदगी में भरत ही राजपाट संभालें लेकिन भरत ने सबकी अपेक्षा के विपरीत जाकर राम की चरण पादुकाएं ले लीं।
अयोध्या लौटे तो सारा राज दरबार अयोध्या के बाहर नंदीग्राम के एक आश्रम में ले आए। सिंहासन पर राम की चरण पादुकाएं रखीं और 14 साल तक अयोध्या का राज काज राम के प्रतिनिधि के रूप में देखा। उनके मन में कभी सिंहासन पर बैठने की इच्छा नहीं जागी।
भरत के पास सारी शक्ति और सामथ्र्य मौजूद था लेकिन फिर भी कभी उन्होंने अपनी शक्ति का दुरुपयोग नहीं किया। यही कारण था कि भरत को रामकथा का सबसे निर्दोष, निश्चल और निष्ठावान पात्र माना गया।
ये भरत की सफलता का सूत्र था। शिक्षा यह है कि हमें भले ही कोई भी शक्ति या सामथ्र्य मिल जाए, हमें कभी अपनी योग्यता और अधिकारों की सीमा को नहीं लांघना चाहिए। जैसे ही हम अपनी सीमाएं लांघने लगते हैं, हमारे पतन का सिलसिला भी शुरू हो जाता है।
अपनी शक्ति को पहचानें, कई काम आसान हो जाएंगे
कई लोग अपनी शक्ति को नहीं पहचान पाते। वे क्या कर सकते हैं, वे खुद नहीं जानते। ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है जो खुद किसी कमजोरी को पकड़े रहते हैं लेकिन सोचते हैं कि कमजोरी ने उन्हें जकड़ रखा है।
हम अपनी शक्ति से चाहें तो किसी भी परेशानी से खुद ही मुक्ति पा सकते हैं। जरूरत सिर्फ दृढ़ इच्छाशक्ति की है। लेकिन अक्सर हम मात खा जाते हैं। परेशानियां तो दूर की बात है, कई बार हम अपनी आदतों से ही पीछा नहीं छुड़वा पाते।
किस्सा महान विनोबा भावे का है। वे अक्सर लोगों को अच्छी सलाह देते थे। परेशान लोगों की मदद किया करते थे। उन्हें संत माना जाता था। वे अपने व्यवहार से संत थे। एक दिन एक नौजवान उनके पास पहुंचा। वह बहुत परेशान था। संत विनोबा भावे ने उससे पूछा कि परेशानी का कारण क्या है?
युवक ने बताया कि वह खुद की शराबखोरी से परेशान है। रोजाना शराब पीता है। उसका तो बुरा हो ही रहा है, उसके कारण परिवार भी परेशान है। वो शराब छोडऩा चाहता है लेकिन शराब की लत उसे छोड़ नहीं रही है। वो कितनी भी कोशिश करे, उसके कदम अपनेआप शराब खाने की ओर मुड़ जाते हैं।
विनोबा भावे ने उसकी बातें गौर से सुनीं। उन्होंने युवक से कहा कि वो कल आकर फिर मिले। अगले दिन युवक फिर घर पहुंचा। वे भीतर थे। युवक ने आवाज लगाई। कोई जवाब नहीं मिला। कुछ ही पलों में विनोबा भावे के चिल्लाने की आवाज आई। वे चिल्ला रहे थे छोड़ दो मुझे, छोड़ दो। युवक उनकी मदद करने भीतर की ओर दौड़ा।
उसने देखा विनोबा भावे एक खंभा पकड़कर खड़े हैं और चिल्ला रहे हैं। युवक बोला खंभे ने आपको नहीं, आपने खंभे को पकड़ रखा है। जब तक आप उसे नहीं छोडेंगे, वो नहीं छूटेगा। विनोबा बोले बस ऐसे ही तुमने शराब को पकड़ रखा है, शराब ने तुम्हें नहीं। तुम मन से कोशिश करोगे तो ये छूट जाएगी। युवक को बात समझ में आ गई।
विनोबा ने कहा ये शक्ति तुम में है कि तुम किसी को पकड़ या छोड़ सकते हो। शराब तो निर्जीव है, वो तुम्हें कैसे पकड़ सकती है। अपनी शक्ति को पहचानो और उसे अच्छे काम में लगाओ।
इस एक गुण से आपकी शक्ति की भी हो सकती है पूजा
महाभारत का एक प्रसंग है। पांडवों को जुए में हार जाने के बाद बारह साल का वनवास भोगना था। सभी पांचों भाई और द्रौपदी घने जंगलों में भटक रहे थे। वे कैलाश पर्वत के तलीय जंगलों में थे। उस समय यक्षों के राजा कुबेर का निवास भी कैलाश पर्वत पर ही था।
कुबेर के नगर में एक सरोवर था जिसमें बहुत सुगंधीत कमल के फूल थे। द्रौपदी को उन फूलों की महक आई तो उसने भीम से कहा कि उसे वे कमल के फूल चाहिए। भीम द्रौपदी के लिए फूल लाने चल दिए। रास्ते में एक घना जंगल था।
भीम ने देखा एक बंदर रास्ते पर पूंछ डाले सो रहा है। किसी जीव को लांघकर गुजर जाना मर्यादा के विरुद्ध था। सो, भीम ने बंदर से कहा अपनी पूंछ हटा लो। मुझे यहां से गुजरना है। बंदर ने नहीं सुना, भीम को क्रोध आ गया। उसने कहा तुम जानते हो मैं महाबली भीम हूं। बंदर ने कहा इतने शक्तिशाली हो तो तुम खुद ही मेरी पूंछ रास्ते से हटा दो और गुजर जाओ।
भीम ने बहुत कोशिश की लेकिन पूंछ टस से मस नहीं हुई। हार मानकर बैठ गया और वानर से प्रार्थना करने लगा। तब वानर ने अपना असली रूप दिखाया। वे स्वयं पवनपुत्र हनुमान थे। उन्होंने भीम को समझाया कि तुम्हें कभी भी अपनी शक्ति पर इस तरह घंमड नहीं करना चाहिए।
प्रकृति ने हमें शक्ति दी है, तो हमारी जिम्मेदारी भी बड़ी है। हमें शक्ति के मद में सभ्यता और विनम्रता को नहीं त्यागना चाहिए।
अपनी शक्ति के नशे में अंधे हो जाना आम बात है। ऐसे लोग बिरले ही होते हैं जो जितने शक्तिशाली होते हैं उतने ही विनम्र भी। शक्ति और विनम्रता ऐसे गुण हैं जो विपरीत स्वभाव के होते हैं लेकिन अगर ये एक ही स्थान पर आ जाएं तो व्यक्ति महान हो जाता है।
जानिए अपनी शक्ति का सही उपयोग कब और कैसे किया जाए?
रामायण में चलते हैं। भगवान राम ने अपने तीनों भाइयों के साथ गुरु वशिष्ठ से सारी शिक्षा ली। वे राजकुमार तो थे ही, धनुर्विद्या के भी निपुण योद्धा थे। शक्ति भी थी और सामर्थ्य भी। पूरे राजसी ठाठ से जीवन गुजर रहा था। तभी एक दिन ऋषि विश्वामित्र आ पहुंचे। उन्होंने दशरथ से राम और लक्ष्मण मांग लिए।
रावण की राक्षस सेना का आतंक बढ़ रहा था और वे ऋषियों के हवन-यज्ञों को बंद करा रहे थे। राक्षसों के संहार के लिए विश्वामित्र ने राम और लक्ष्मण को चुना। दशरथ पहले डरे लेकिन फिर गुरुओं की बात को मानकर राम-लक्ष्मण को उनके साथ भेज दिया।
राम शक्तिशाली राक्षसों का मारकर ऋषियों को भयमुक्त कर दिया। यहां राम का काम पूरा हो चुका था लेकिन उन्होंने ऋषि विश्वामित्र का साथ ततकाल नहीं छोड़ा। उनके साथ जंगल-जंगल और कई नगरों में घूमते रहे। राम का कहना था कि और भी कहीं कोई राक्षस ब्राह्मणों, ऋषियों, निर्बलों या गौओं का नष्ट कर रहे हों या उनके कार्यों में बाधा डाल रहे हों तो मैं उनका नाश करने के लिए तैयार हूं।
शक्ति है तो उसका पहला उपयोग निर्बलों की सहायता, समाज की सेवा और विश्व के उत्थान में लगाना चाहता हूं। इस पूरे अभियान में राम ने कई राक्षसों को मार गिराया। विश्वामित्र ने राम को प्रसन्न होकर कई दिव्यास्त्र भी दिए, जो बाद में रावण से युद्ध में काम आए।
शक्ति का सबसे श्रेष्ठ उपयोग जनहित में ही हो सकता है। परमात्मा अगर शक्ति देता है तो वो सिर्फ उसका उपहार नहीं होती। वो एक जिम्मेदारी भी है। हमें धन, बल, बुद्धि या विद्या कोई भी शक्ति मिले तो उसका उपयोग सबसे पहले लोक हित में किया जाना चाहिए। तभी वो सफल और सुफल होगी।
कहा जाता है जिसे अपने सामथ्र्य का उपयोग करना आ गया, वो सारा संसार जीत सकता है। शक्तिशाली होना कोई उपलब्धि नहीं है, लेकिन अपनी शक्ति का सदुपयोग बहुत बड़ी उपलब्धि है। अगर अपनी शक्ति का, सामथ्र्य का सम्मान चाहते हैं तो दूसरों के लिए जीने की आदत डालनी होगी। मुश्किल में पड़े लोगों की सहायता से ही ताकत को सलाम मिलता है।
क्रमश:...
जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK
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