सफलता कैसे हो सकती है स्थायी, सीखें कृष्ण से
भगवान कृष्ण जिन्हें अधिकतर लोग माया-मोह से रहित मानते हैं। भयंकर युद्धों के बाद भी कभी अशांत नहीं हुए। उन्होंने कभी अपने हिस्से का संघर्ष किसी दूसरों से नहीं करवाया। कभी किसी को सफलता के लिए अनुचित मार्ग नहीं दिखलाया।
महाभारत के भीषण युद्ध को अकेले कृष्ण पांडवों के लिए एक दिन में जीतने में सक्षम होने पर भी युद्ध पांडवों से ही करवाया, उन्होंने सिर्फ मार्गदर्शन ही किया। वे चाहते तो पांडवों की ओर से कोई सैनिक नहीं मारा जाता और युद्ध जीता जा सकता था।
इसका कारण यह था कि अगर कृष्ण युद्ध जीत कर युधिष्ठिर को राजा बना देते तो पांडव कभी उस सफलता का मूल्य नहीं समझ पाते। सफलता स्थायी और संतुष्टिप्रद तभी होती जब वे खुद संघर्ष करके इसे हासिल करते।
कभी-कभी बहुत कामयाबी मिलने के बाद भी हमारा मन संतुष्ट नहीं होता। सफलता हमें खुशी नहीं देती। ऐसा क्यों होता है कि हम जितने सफल होते हैं, उतना ही मन अशांत हो जाता है। इन सब के पीछे कुछ कारण हैं जो हमारी सफलता के भाव को प्रभावित करते हैं।
सफलता के साथ शांति और संतुष्टि ये दो भाव होना जरूरी है। अगर हम अशांत और असंतुष्ट हैं तो इसका सीधा अर्थ यह है कि हमने सफलता के लिए कोई शार्टकट अपनाया है। शार्टकट से मिली सफलता अस्थायी होती है। और यही भाव हमारे मन को अशांत करता है।
स्थायी सफलता का रास्ता कभी छोटा नहीं होता, आसान नहीं होता लेकिन इस रास्ते से चलकर जब लक्ष्य तक पहुंचा जाता है तो वह स्थायी आनंद देता है। लोग अक्सर अपनी दौड़ में दूसरों को भूल जाते हैं, कौन आपके पैरों से ठोकर खाकर गिरा, किसने आपकी सहायता की, ऊंचाई पर जाकर सब विस्मृत हो जाता है।
सफलता उसे मिलती है जिसके भीतर यह योग्यता हो...
रामचरित मानस का पांचवा अध्याय सुंदरकांड सफलता और शांति सबसे बड़ा उदाहरण है। वानरों के सामने एक असंभव सी दिखने वाली चुनौती थी। सौ योजन यानी करीब 400 किमी लंबा समुद्र लांघकर लंका पहुंचने की। जब वानरों के दल में समुद्र लांघने के बात आई तो सबसे पहले जामवंत ने असमर्थता जाहिर की। फिर अंगद ने कहा मैं जा तो सकता हूं लेकिन समुद्र पार करके फिर लौट पाऊंगा इसमें संदेह है। अंगद ने खुद की क्षमता और प्रतिभा पर संदेह जताया। ये आत्म विश्वास की कमी का संकेत है।
जामवंत ने हनुमान को इसके लिए प्रेरित किया। हनुमान को अपनी शक्तियों की याद आई और उन्होंने अपने शरीर को पहाड़ जैसा बड़ा बना लिया। आत्म विश्वास से भरकर बोले की अभी एक ही छलांग में समुद्र लांघकर, लंका उजाड़ देता हूं और रावण सहित सारे राक्षसों को मारकर सीता को ले आता हूं।
अपनी शक्ति पर इतना विश्वास था हनुमान को। जामवंत ने कहा नहीं आप सिर्फ सीमा मैया का पता लगाकर लौट आइए। हमारा यही काम है। फिर प्रभु राम खुद रावण का संहार करेंगे।
हनुमान ने एक ही उड़ान में समुद्र को लांघ लिया। रास्ते में सुरसा और सिंहिका ने रोका भी लेकिन उनका आत्म विश्वास नहीं डोला।
जब हम किसी काम पर निकलते हैं तो अक्सर मन विचारों से भरा होता है। आशंकाएं, कुशंकाएं और भय भी पीछे-पीछे चलते हैं। हम अधिकतर मौकों पर अपनी सफलता को लेकर आश्वस्त नहीं होते। जैसे ही परिस्थिति बदलती है हमारा विचार बदल जाता है।
ये काम में असफलता की निशानी है। अगर आप इन स्थितियों से गुजरते हैं तो साफ है कि आप में आत्म विश्वास की कमी है। सफलता के लिए सबसे जरूरी है आत्म विश्वास। जब तक हम खुद पर ही भरोसा नहीं करेंगे, हमारे प्रयास कभी सौ फीसदी नहीं होंगे।
सफलता के रास्ते में जब भी समस्या आए तो इस नजरिए से करें समाधान...
भगवान कृष्ण ने अपने मामा कंस का वध किया। मथुरा का शासन फिर अपने नाना को सौंपा। बचपन में ही एक बड़े अत्याचारी को मार दिया। भगवान शिक्षा ग्रहण करने अवंतिका नगरी (वर्तमान में मध्य प्रदेश के उज्जैन) में आ गए। गुरु सांदीपनि से 64 कलाओं की शिक्षा लेने के बाद मथुरा लौटे। उनके लौटने के बाद से ही कंस के ससुर जरासंघ ने अपने दामाद की मौत का बदला लेने के लिए मथुरा पर आक्रमण किया।
17 बार हमले किए, हर बार भगवान उसकी सेना को मारकर उसे अकेला छोड़ देते। बलराम हर बार कृष्ण से सवाल करते की जरासंघ को क्यों नहीं मारते। एक ही बार में विजय मिल जाएगी। जरासंघ को मारने से ऐसी सफलता मिलेगी कि फिर कोई दानव या राक्षस मथुरा पर हमले की नहीं सोचेगा। लेकिन कृष्ण ने नहीं माना। उन्होंने जरासंघ को मारने की बजाय अपनी राजधानी मथुरा को छोड़ द्वारिका में बसने का मन बना लिया। सब कृष्ण के इस निर्णय से हैरान थे।
कृष्ण ने जो जवाब दिया वो हमारे लिए बहुत उपयोगी है। कृष्ण ने सबसे कहा कि जरासंघ को मारना कोई बहुत बड़ी बात नहीं है। लेकिन उसे जिंदा रखने में यह लाभ है कि वो हर बार दूर-दूर से अपने राक्षस मित्रों को युद्ध लिए बुलाकर लाता है और उन राक्ष्रसों को यहां मार देते हैं। इससे समाज का ही कल्याण हो रहा है। अगर जरासंघ को मार दिया तो उसके सारे मित्र बच जाएंगे जो धरती पर यहां-वहां फैलकर अनाचार बढ़ाएंगे। सफलता जरासंघ को मारने में नहीं है, सफलता हर बार उसके साथ आने वाले नए राक्षसों को मारने में है। जिससे लोक कल्याण हो रहा है। अगर ये राक्षस बच गए तो पूरी धरती को त्रास देंगे।
हम भी कई बार एक समस्या से घबराकर उसे जड़ से मिटाने की सोच लेते हैं लेकिन अक्सर उस समस्या के साथ पैदा हो रही दूसरी समस्याओं को अनदेखा कर देते हैं जो बाद में कभी-कभी हमारे लिए ज्यादा दु:खदायी हो जाती है। दूसरी शिक्षा इस प्रसंग से यह मिलती है कि हमेशा सफलता का आकलन खुद के हित को देख कर नहीं करना चाहिए। सफलता वो ही श्रेष्ठ होती है जिससे बड़े जनसमुदाय को लाभ पहुंचे।
इस सोच से काम करेंगे तो हार भी जीत में बदल जाएगी
वाल्मीकि रामायण और रामचरितमानस, दोनों रामकथाओं में बहुत स्थानों पर अंतर मिलता है। कथानक कुछ भी हो लेकिन दोनों ही में जीवन के उच्च आदर्शों के उदाहरण मिलते हैं। वाल्मीकि रामायण के सुंदर कांड में एक बहुत प्रेरक प्रसंग है। हनुमान लंका में सीता को खोज रहे हैं। रावण सहित सभी लंकावासियों के भवनों, अन्य राजकीय भवनों और लंका की गलियों, रास्तों पर सीता को खोज लेने के बाद भी जब हनुमान को कोई सफलता नहीं मिली तो वे थोड़े हताश हो गए।
हनुमान ने सीता को कभी देखा भी नहीं था लेकिन वे सीता के गुणों को जानते थे। वैसे गुण वाली कोई स्त्री उन्हें लंका में नहीं दिखाई दी। अपनी असफलता ने उनमें खीज भर दी। वे कई तरह की बातें सोचने लगे। उनके मन में विचार आया कि अगर खाली हाथ लौट जाऊंगा तो वानरों के प्राण तो संकट में पड़ेंगे ही। प्रभु राम भी सीता के वियोग में प्राण त्याग देंगे, उनके साथ लक्ष्मण और भरत भी।
बिना अपने स्वामियों के अयोध्यावासी भी जी नहीं पाएंगे। बहुत से प्राणों पर संकट छा जाएगा। क्यों ना एक बार फिर से खोज शुरू की जाए। ये विचार मन में आते ही हनुमान फिर ऊर्जा से भर गए। उन्होंने अब तक कि अपनी लंका यात्रा की मन ही मन समीक्षा की और फिर नई योजना के साथ खोज शुरू की। हनुमान ने सोचा अभी तक ऐसे स्थानों पर सीता को ढूंढ़ा है जहां राक्षस निवास करते हैं। अब ऐसी जगह खोजना चाहिए जो वीरान हो या जहां आम राक्षसों का प्रवेश वर्जित हो।
ये विचार आते ही उन्होंने सारे राजकीय उद्यानों और राजमहल के आसपास सीता की खोज शुरू कर दी। अंत में सफलता मिली और हनुमान ने सीता को अशोक वाटिका में खोज लिया। हनुमान के एक विचार ने उनकी असफलता को सफलता में बदल दिया।
अक्सर हमारे साथ भी ऐसा होता है। किसी भी काम की शुरुआत में थोड़ी सी असफलता हमें विचलित कर देती है। हम शुरुआती हार को ही स्थायी मानकर बैठ जाते हैं। फिर से कोशिश ना करने की आदत न सिर्फ अशांति पैदा करती है बल्कि हमारी प्रतिभा को भी खत्म करती है।
सफलता को हमेशा स्थायी रखना है तो ये जरूर करें
रामकथा एक मात्र ऐसा विषय है जिस पर दुनियाभर में कई कथाएं मिलती हैं। करीब 125 तरह से रामकथा लिखी गई है, ऐसा माना जाता है। एक राम कथा में छोटा सा प्रसंग मिलता है। राम ने रावण को मार कर लंका का राज्य विभीषण को दे दिया। जब राम अयोध्या लौट रहे थे तो मार्ग में हनुमान ने राम से कहा कि उनकी माता अंजनि राम के दर्शन करना चाहती हैं।
राम ने उस स्थान पर गए जहां हनुमान की माता अंजनि निवास करती थीं। अंजनि माता ने राम की पूजा की। अपने पुत्र पर हमेशा कृपा बनाए रखने की प्रार्थना की। तब राम ने अंजनि माता से कहा हे माता आपके पुत्र के कारण ही संसार में मेरा इतना यश है। रावण को मारना हनुमान के बिना संभव ही नहीं था। सीता की खोज भी हनुमान ने की, लंका भी हनुमान ने जलाई, रावण के कई वीर योद्धाओं को हनुमान ने ही मारा।
हनुमान तो मेरा अभिन्न अंग है। राम के बिना हनुमान, हनुमान के बिना राम अधूरे हैं। ये सुन न केवल अंजनि माता की आंखें भर आईं, बल्कि हनुमान ने भी भगवान राम के चरण पकड़ लिए। राम के इस भाव को देख हनुमान की भक्ति और प्रबल हो गई। साथ ही जितने वानर और रीछ राम के साथ थे वे सब राम के इस सहज भाव को देखकर अभिभूत हो गए।
ये प्रसंग देखने में भले ही बहुत साधारण लगे लेकिन इसके पीछे का संदेश सफलता के लिए टीम भावना को बढ़ाने वाला है। राम अवतारी पुरुष घोषित थे। सभी वानर और सेना के अन्य लोग राम में दैविय शक्ति निहीत मानते थे। रावण वध के समय और रावण वध के बाद देवताओं ने राम की जो स्तुति और अभिनंदन किया, उसके बाद रावण वध और लंका विजय का कारण मात्र भगवान राम को सभी ने स्वीकार कर लिया था।
ऐसे में राम ने अपने सहयोगी को सारा श्रेय देकर यह साबित किया कि यह अकेले उनकी जीत नहीं है। सेना का भी इसमें संपूर्ण योगदान है। इससे वानरों में राम के प्रति श्रद्धा तो बढ़ी ही उनके प्रति निष्ठा भी अगाध हो गई। अपनी सफलता टीम के साथ बांटें, इससे ना सिर्फ टीम का हौंसला बढ़ेगा, बल्कि आपके प्रति भी टीम में निष्ठा भाव बढ़ेगा।
जब भी कोई सफलता मिले, सबसे पहले यह करें
सीता की खोज करते-करते राम और लक्ष्मण पहले हनुमान से मिले। हनुमान ने उनकी मुलाकात सुग्रीव से कराई। सुग्रीव को उसके बड़े भाई बाली ने अपने राज्य से निकाल दिया था। उसकी पत्नी रोमा को भी अपने पास ही रख लिया था।
राम ने सुग्रीव को मदद का भरोसा दिलाया। राम ने अपना वादा निभाया। राम ने बाली को मार कर किष्किंधा का राजा सुग्रीव को बना दिया। सुग्रीव को बरसों बाद राज्य और स्त्री का संग मिला। वो पूरी तरह राज्य को भोगने और स्त्री सुख में लग गया। तब वर्षा ऋतु भी शुरू हो चुकी थी। भगवान राम और लक्ष्मण एक पर्वत पर गुफाओं में निवास कर रहे थे।
वर्षा ऋतु निकल गई। आसमान साफ हो गया। राम को इंतजार था कि सुग्रीव आएंगे और सीता की खोज शुरू हो जाएगी। लेकिन सुग्रीव पूरी तरह से राग-रंग में डूबे हुए थे। उन्हें यह याद भी नहीं रहा कि भगवान राम से किया वादा पूरा करना है।
जब बहुत दिन बीत गए तो राम ने लक्ष्मण को सुग्रीव के पास भेजा। लक्ष्मण ने सुग्रीव पर क्रोध किया तब उन्हें अहसास हुआ कि विलासिता में आकर उससे कितना बड़ा अपराध हो गया है। सुग्रीव को अपने वचन भूलने और विलासिता में भटकने के लिए सबसे सामने शर्मिंदा होना पड़ा, माफी भी मांगनी पड़ी।
इसके बाद सीता की खोज शुरू की गई। यह प्रसंग सिखाता है कि थोड़ी सी सफलता के बाद अगर हम कहीं ठहर जाते हैं तो मार्ग से भटकने का डर हमेशा ही रहता है। कभी भी छोटी-छोटी सफलताओं को अपने ऊपर हावी ना होने दें। अगर हम छोटी या प्रारंभिक सफलताओं में उलझकर रह जाएंगे तो कभी बड़े लक्ष्यों को हासिल नहीं कर पाएंगे।
सफलता का नशा अक्सर परमात्मा से दूर कर देता है। जिस भगवान के भरोसे हमें वो कामयाबी मिली है, उसके नशे में कामयाबी दिलाने वाले को ही भूला दिया जाता है। क्षणिक सफलता परमात्मा तक पहुंचने की सीढ़ी हो सकती है, कभी लक्ष्य नहीं हो सकती। जब भी कोई सफलता मिले तो सबसे पहले परमात्मा के और निकट पहुंचने के प्रयास किए जाने चाहिए, सफलता के जश्र में उसे भूलना नहीं चाहिए।
सफलता सिर्फ जीतने में ही नहीं होती, कभी-कभी हारना भी पड़ता है
कई बार हम बाहरी सफलताएं हम पर हावी हो जाती हैं। कुछ सफलताएं पाने के बाद ऐसा भी महसूस होता है कि हमने अपना कुछ खो दिया है। सिर्फ भौतिक सफलताओं और संसाधनों पर टिकने वालों के साथ ऐसा ही होता है। हमें अपने भीतर की सफलता, यानी शांति और संतुष्टि के लिए भी सोचना चाहिए। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि हम हार कर भी संतुष्टि महसूस करते हैं।
भगवान कृष्ण के जीवन को देखिए। श्रेष्ठ अवतार और सर्वशक्तिमान होते हुए भी उन पर रणछोड़ होने का आक्षेप लगा। जो अवतार अपने एक चक्र से पूरी सेना के विनाश की शक्ति रखता हो, वो आखिर क्यों युद्ध का मैदान छोड़कर भागेगा। जरासंघ के सामने भी कृष्ण ने मैदान छोड़ा।
बलराम हर बार कृष्ण पर नाराज होते कि यादव वंश में आजतक कोई कायर नहीं हुआ, जो मैदान छोड़कर भाग जाए। युद्ध के लिए घर से सजधज कर निकले और युद्ध भूमि में आते ही पीठ दिखाकर भाग जाए।
कृष्ण बलराम के इस उलाहना को अक्सर हंस कर टाल जाते थे। वे कहते दाऊ हर बार जरूरी नहीं कि युद्ध जीता ही जाए। युद्ध का परिणाम सिर्फ जीतने या हारने तक सीमित नहीं होता है। इसका परिणाम तो इसके बाद की स्थिति पर निर्भर है। एक युद्ध में हजारों सैनिक मारे जाते हैं। उनसे जुड़े लाखों परिजन असहाय और दु:खी होते हैं। अगर सैनिकों की बलि चढ़ाकर जीत हासिल कर भी ली तो उसका लाभ ही क्या।
मैदान से भागने पर युद्ध टल जाता है, हजारों-लाखों जानें बच जाती हैं। अगर इसके लिए कोई आरोप या आक्षेप लगता है तो यह कोई घाटे का सौदा नही है। मैदान से भागने पर युद्ध टल जाता है, यह मेरे लिए शांति और संतुष्टि दोनों की बात है कि मेरे भागने से हजारों सैनिकों की जानें बच गई।
रावण से सीखें, सफलता और शक्ति मिले तो क्या-क्या नहीं करें....
आइए आज रावण से कुछ सीखते हैं। लोग अक्सर अपनी सफलता के नशे में क्या-क्या कर जाते हैं, जिसका परिणाम उन्हें भुगतना पड़ता है। रावण के साथ भी ऐसा ही कुछ होता था। उसकी गलतियां हमें सिखाती हैं कि अगर सफलता और शक्ति दोनों हमारे पास हो तो फिर हमें कैसे व्यवहार से बचना चाहिए।
रावण ने युवा होते ही अपने भाइयों के साथ कठोर तप किया। ब्रह्मा को प्रसन्न किया। मनुष्य को छोड़ किसी के भी द्वारा नहीं मारा जाऊं ये वरदान मांग लिया, अमृत भी मिल गया। अब रावण अविजीत था। किसी से भी हार नहीं सकता था। शक्ति का साथ मिला तो देवताओं पर आक्रमण कर दिया। सारे दानवों, यज्ञों, गंधर्वों को भी हरा दिया।
सारे देवता रावण के अधीन हो गए। अपनी जीत और शक्ति को देख रावण इतना अभिमानी हो गया कि वह पृथ्वी पर सिर्फ युद्ध करने के लिए ही घूमने लगा। जो भी देवता, दानव या अन्य शक्तिशाली प्राणी मिलता, वो उससे युद्ध करने की मांग करता। उसे ये एहसास होने लगा कि पूरी सृष्टि में शायद मुझसे ज्यादा कोई शक्तिशाली नहीं है।
उसे किसी ने वानरों के राजा बालि के के बारे में बताया जिसके पास अपार बल था। रावण बालि से युद्ध करने चल दिया। बालि इतना शक्तिशाली था कि वो रोज सुबह चार महासागरों की परिक्रमा करता था और उनके तट पर ही संध्या-पूजन करता था। रावण जब बालि के पास पहुंचा तो वह समुद्र किनारे खड़े होकर सूर्य को अघ्र्य दे रहा था।
रावण जैसे ही उसे मारने पहुंचा तो बालि ने उसे अपनी बाजू के लिए दबा लिया। रावण जैसे शक्तिशाली योद्धा को बाजू में दबाकर उसने चार समुद्रों की परिक्रमा की। जब उसे छोड़ा तो रावण को बहुत शर्मिंदगी हुई। उसने बालि से युद्ध करने की बजाय दोस्ती कर ली।
सफलता का अपना आनंद होता है लेकिन इसे कभी भी नशा ना बनने दें। सफलता का नशा अहंकार पैदा करता है, अहंकार से अज्ञान आता है, अज्ञान में व्यक्ति ऐसे कर्म करता है जो उसकी प्रतिष्ठा को धूमिल कर सकते हैं। रावण से सीखें कि अगर शक्ति, सामथ्र्य मिले तो कभी भी उसे अपने ऊपर इस कदर भी हावी ना होने दें कि हमारी शक्ति खुद हमारे ही अपमान का कारण बन जाए।
बिना मूल्य चुकाए कोई सफलता या लक्ष्य हासिल नहीं किया जा सकता
सफलता उसे मिलती है, जो अपने कर्म और कर्तव्य के लिए ईमानदार है। जो, महत्वपूर्ण जिम्मेदारी हाथ में होते हुए भी दुनियादारी में उलझकर अपने कर्तव्यों की ओर से नजरें मोड़ लेता है, उसे असफलता ही मिलती है। भले ही हमारे पास सामथ्र्य हो, शक्ति हो लेकिन फिर भी उसका उपभोग और आनंद हमें नहीं मिल पाता।
महाभारत में चलते हैं। धृतराष्ट्र जन्म से अंधे थे। हस्तिनापुर का राजा बनने का पहला अधिकार उनका था लेकिन अंधा होने के कारण उनके छोटे भाई पांडु को राजा बनाया गया। पांडु को एक ऋषि का शाप मिला जिससे उन्हें राजमहल छोड़कर जंगल में जाना पड़ा। नतीजतन धृतराष्ट्र को उनके प्रतिनिधि के रूप में बैठाया गया।
पांडु की असमय मृत्यु के कारण धृतराष्ट्र ही स्थायी राजा हो गए। इसके बाद ही उनका पतन शुरू हो गया। उनके राजा बनते ही सारे पुत्र अनियंत्रित हो गए। कुछ समय तक धृतराष्ट्र ने अच्छे से शासन चलाया भी लेकिन फिर वो पुत्र मोह में फंस गया। दुर्योधन के लिए उनका प्रेम इतना बढ़ गया कि वो राजा होते हुए भी खुद कोई निर्णय नहीं ले पाते थे।
इसका परिणाम हुआ महाभारत युद्ध। अगर धृतराष्ट्र अपने पुत्र के मोह में नहीं फंसते तो शायद इतिहास में उनका नाम कुछ अलग अर्थों में लिया जाता। सिर्फ उनके मोह और पुत्र प्रेम के कारण आज वे एक नायक नहीं, बल्कि महाभारत युद्ध के मूल कारण के रूप में जाने जाते हैं।
कहने का अर्थ यही है कि हर सफलता कुछ त्याग और निष्ठा मांगती है। लक्ष्य जितना बड़ा हो, उसका मूल्य भी उतना अधिक होता है। अगर हम मूल्य नहीं चुका पाते हैं तो वो सफलता भी हमारे लिए नहीं होती, भले ही फिर हम शिखर पर ही क्यों ना हों। उसका श्रेय नहीं ले सकते, हां उसका अपयश जरूर भुगतना पड़ता है।
आखिर क्यों हम अक्सर बड़े लक्ष्य तक नहीं पहुंच पाते?
सफलता कभी एकमुश्त नहीं मिलती, ये पड़ाव दर पड़ाव पार किया जाने वाला सफर है। अक्सर ऐसा होता है कि हम पड़ावों पर ही जीत के उत्सव में डूब जाते हैं, मंजिलें तो मिल ही नहीं पाती। छोटी-छोटी कामयाबियों का जश्न मनाना तो जरूरी है लेकिन इसके उत्साह में असली लक्ष्य को ना भूला जाए। अक्सर लोग यहीं मात खा जाते हैं।
हमें अपना लक्ष्य तय करते समय ही यह भी तय कर लेना चाहिए कि हमारा मूल उद्देश्य क्या है और इसमें कितने पड़ाव आएंगे। अगर हम किसी छोटी सी सफलता या असफलता में उलझकर रह गए तो फिर बड़े लक्ष्य तक जाना कठिन हो जाएगा।
महाभारत युद्ध में चलते हैं। कौरव और पांडव दोनों सेनाओं के व्यवहार में अंतर देखिए। कौरवों के नायक यानी दुर्योधन, दु:शासन, कर्ण जैसे योद्धा और पांडव सेना से डेढ़ गुनी सेना होने के बाद भी वे हार गए। धर्म-अधर्म तो एक बड़ा कारण दोनों सेनाओं के बीच था ही लेकिन उससे भी बड़ा कारण था दोनों के बीच लक्ष्य को लेकर अंतर। कौरव सिर्फ पांडवों को नुकसान पहुंचाने के उद्देश्य से लड़ रहे थे।
जब भी पांडव सेना से कोई योद्धा मारा जाता, कौरव उत्सव का माहौल बना देते, जिसमें कई गलतियां उनसे होती थीं। अभिमन्यु को मारकर तो कौरवों के सारे योद्धाओं ने उसके शव के इर्दगिर्द ही उत्सव मनाना शुरू कर दिया।
वहीं पांडवों ने कौरव सेना के बड़े योद्धाओं को मारकर कभी उत्सव नहीं मनाया। वे उसे युद्ध जीत का सिर्फ एक पड़ाव मानते रहे। भीष्म, द्रौण, कर्ण, शाल्व, दु:शासन और शकुनी जैसे योद्धाओं को मारकर भी पांडवों के शिविर में कभी उत्सव नहीं मना।
उनका लक्ष्य युद्ध जीतना था, उन्होंने उसी पर अपना ध्यान टिकाए रखा। कभी भी क्षणिक सफलता के बहाव में खुद को बहने नहीं दिया।
श्रीकृष्ण से सीखें आपको कैसे मिलेगी हर कदम कामयाबी...
भगवान कृष्ण जिन्हें अधिकतर लोग माया-मोह से रहित मानते हैं। भयंकर युद्धों के बाद भी कभी अशांत नहीं हुए। उन्होंने कभी अपने हिस्से का संघर्ष किसी दूसरों से नहीं करवाया। कभी किसी को सफलता के लिए अनुचित मार्ग नहीं दिखलाया।
महाभारत के भीषण युद्ध को अकेले कृष्ण पांडवों के लिए एक दिन में जीतने में सक्षम होने पर भी युद्ध पांडवों से ही करवाया, उन्होंने सिर्फ मार्गदर्शन ही किया। वे चाहते तो पांडवों की ओर से कोई सैनिक नहीं मारा जाता और युद्ध जीता जा सकता था।
इसका कारण यह था कि अगर कृष्ण युद्ध जीत कर युधिष्ठिर को राजा बना देते तो पांडव कभी उस सफलता का मूल्य नहीं समझ पाते। सफलता स्थायी और संतुष्टिप्रद तभी होती जब वे खुद संघर्ष करके इसे हासिल करते।कभी-कभी बहुत कामयाबी मिलने के बाद भी हमारा मन संतुष्ट नहीं होता। सफलता हमें खुशी नहीं देती। ऐसा क्यों होता है कि हम जितने सफल होते हैं, उतना ही मन अशांत हो जाता है। इन सब के पीछे कुछ कारण हैं जो हमारी सफलता के भाव को प्रभावित करते हैं।
सफलता के साथ शांति और संतुष्टि ये दो भाव होना जरूरी है। अगर हम अशांत और असंतुष्ट हैं तो इसका सीधा अर्थ यह है कि हमने सफलता के लिए कोई शार्टकट अपनाया है। शार्टकट से मिली सफलता अस्थायी होती है। और यही भाव हमारे मन को अशांत करता है।स्थायी सफलता का रास्ता कभी छोटा नहीं होता, आसान नहीं होता लेकिन इस रास्ते से चलकर जब लक्ष्य तक पहुंचा जाता है तो वह स्थायी आनंद देता है। लोग अक्सर अपनी दौड़ में दूसरों को भूल जाते हैं, कौन आपके पैरों से ठोकर खाकर गिरा, किसने आपकी सहायता की, ऊंचाई पर जाकर सब विस्मृत हो जाता है।
सफलता मिलते ही सबसे पहले करना चाहिए ये काम...
सीता की खोज करते-करते राम और लक्ष्मण पहले हनुमान से मिले। हनुमान ने उनकी मुलाकात सुग्रीव से कराई। सुग्रीव को उसके बड़े भाई बाली ने अपने राज्य से निकाल दिया था। उसकी पत्नी रोमा को भी अपने पास ही रख लिया था।
राम ने सुग्रीव को मदद का भरोसा दिलाया। राम ने अपना वादा निभाया। राम ने बाली को मार कर किष्किंधा का राजा सुग्रीव को बना दिया। सुग्रीव को बरसों बाद राज्य और स्त्री का संग मिला। वो पूरी तरह राज्य को भोगने और स्त्री सुख में लग गया। तब वर्षा ऋतु भी शुरू हो चुकी थी। भगवान राम और लक्ष्मण एक पर्वत पर गुफाओं में निवास कर रहे थे।
वर्षा ऋतु निकल गई। आसमान साफ हो गया। राम को इंतजार था कि सुग्रीव आएंगे और सीता की खोज शुरू हो जाएगी। लेकिन सुग्रीव पूरी तरह से राग-रंग में डूबे हुए थे। उन्हें यह याद भी नहीं रहा कि भगवान राम से किया वादा पूरा करना है।
जब बहुत दिन बीत गए तो राम ने लक्ष्मण को सुग्रीव के पास भेजा। लक्ष्मण ने सुग्रीव पर क्रोध किया तब उन्हें अहसास हुआ कि विलासिता में आकर उससे कितना बड़ा अपराध हो गया है। सुग्रीव को अपने वचन भूलने और विलासिता में भटकने के लिए सबसे सामने शर्मिंदा होना पड़ा, माफी भी मांगनी पड़ी।
इसके बाद सीता की खोज शुरू की गई। यह प्रसंग सिखाता है कि थोड़ी सी सफलता के बाद अगर हम कहीं ठहर जाते हैं तो मार्ग से भटकने का डर हमेशा ही रहता है। कभी भी छोटी-छोटी सफलताओं को अपने ऊपर हावी ना होने दें। अगर हम छोटी या प्रारंभिक सफलताओं में उलझकर रह जाएंगे तो कभी बड़े लक्ष्यों को हासिल नहीं कर पाएंगे।
सफलता का नशा अक्सर परमात्मा से दूर कर देता है। जिस भगवान के भरोसे हमें वो कामयाबी मिली है, उसके नशे में कामयाबी दिलाने वाले को ही भूला दिया जाता है। क्षणिक सफलता परमात्मा तक पहुंचने की सीढ़ी हो सकती है, कभी लक्ष्य नहीं हो सकती। जब भी कोई सफलता मिले तो सबसे पहले परमात्मा के और निकट पहुंचने के प्रयास किए जाने चाहिए, सफलता के जश्र में उसे भूलना नहीं चाहिए।
ये बात आपकी हार को भी जीत में बदल सकती है...
वाल्मीकि रामायण और रामचरितमानस, दोनों रामकथाओं में बहुत स्थानों पर अंतर मिलता है। कथानक कुछ भी हो लेकिन दोनों ही में जीवन के उच्च आदर्शों के उदाहरण मिलते हैं। वाल्मीकि रामायण के सुंदर कांड में एक बहुत प्रेरक प्रसंग है। हनुमान लंका में सीता को खोज रहे हैं। रावण सहित सभी लंकावासियों के भवनों, अन्य राजकीय भवनों और लंका की गलियों, रास्तों पर सीता को खोज लेने के बाद भी जब हनुमान को कोई सफलता नहीं मिली तो वे थोड़े हताश हो गए।
हनुमान ने सीता को कभी देखा भी नहीं था लेकिन वे सीता के गुणों को जानते थे। वैसे गुण वाली कोई स्त्री उन्हें लंका में नहीं दिखाई दी। अपनी असफलता ने उनमें खीज भर दी। वे कई तरह की बातें सोचने लगे। उनके मन में विचार आया कि अगर खाली हाथ लौट जाऊंगा तो वानरों के प्राण तो संकट में पड़ेंगे ही। प्रभु राम भी सीता के वियोग में प्राण त्याग देंगे, उनके साथ लक्ष्मण और भरत भी।
बिना अपने स्वामियों के अयोध्यावासी भी जी नहीं पाएंगे। बहुत से प्राणों पर संकट छा जाएगा। क्यों ना एक बार फिर से खोज शुरू की जाए। ये विचार मन में आते ही हनुमान फिर ऊर्जा से भर गए। उन्होंने अब तक कि अपनी लंका यात्रा की मन ही मन समीक्षा की और फिर नई योजना के साथ खोज शुरू की। हनुमान ने सोचा अभी तक ऐसे स्थानों पर सीता को ढूंढ़ा है जहां राक्षस निवास करते हैं। अब ऐसी जगह खोजना चाहिए जो वीरान हो या जहां आम राक्षसों का प्रवेश वर्जित हो।
ये विचार आते ही उन्होंने सारे राजकीय उद्यानों और राजमहल के आसपास सीता की खोज शुरू कर दी। अंत में सफलता मिली और हनुमान ने सीता को अशोक वाटिका में खोज लिया। हनुमान के एक विचार ने उनकी असफलता को सफलता में बदल दिया।
अक्सर हमारे साथ भी ऐसा होता है। किसी भी काम की शुरुआत में थोड़ी सी असफलता हमें विचलित कर देती है। हम शुरुआती हार को ही स्थायी मानकर बैठ जाते हैं। फिर से कोशिश ना करने की आदत न सिर्फ अशांति पैदा करती है बल्कि हमारी प्रतिभा को भी खत्म करती है।
क्रमश:...
जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK
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