मन की शांति चाहिए तो कुछ ऐसे करें कोशिश
शांति किसे मिलती है। तीन गुण जिसमें हो, प्रकृति से निकटता, मौन और ध्यान। ये तीन गुण व्यक्ति को भीतरी शांति प्रदान करते हैं। भगवान शिव में ये तीनों ही गुण मौजूद हैं। इसलिए रामचरितमानस में तुलसीदास जी ने उनकी तुलना खुद शांत रस से की है।
शिव के चेहरे पर शांति के ये ही मुख्य कारण हैं। वे हमेशा प्रकृति के निकट रहते हैं। उन्हें इसीलिए प्रकृति का देवता भी कहा जाता है। शिव भीतर और बाहर दोनों ओर से शांत हैं क्योंकि मौन और ध्यान दोनों उनके प्रमुख गुण हैं।
हम जब भी समय पाएं, थोड़ा मौन और ध्यान की ओर जाएं। प्रकृति के निकट जाकर बैठने का प्रयास करें। उसके संकेतों पर ध्यान दें। थोड़ी देर आंखें मूंदकर बैठें। बस शांति स्वत: आपके भीतर प्रवाहित होने लगेगी।
भगवान शिव की दिनचर्या में ये बातें शामिल हैं। वे सुबह शाम समाधि में रहते हैं। भ्रमण करते हैं। कैलाश पर्वत उनका निवास है। हम भी ध्यान और मौन की ओर जाने का प्रयास करेंगे तो जिस शांति की तलाश में हम लाखों खर्च कर देते हैं वो सहज ही मिल सकेगी।
लाख सुविधाओं और साधनों के बाद भी मन अशांत ही रहता है। इसका एक कारण है कि हम प्रकृति से दूर हो गए हैं। शहरों में फैल रहे बेतरतीब कांक्रीट के जंगलों के कारण प्रकृति का दायरा सिमटता जा रहा है।
हम प्रकृति के स्पर्श से दूर हैं। प्रकृति में ही परमात्मा का वास है। इसलिए जब भी हम किसी पहाड़ी तलहटी या किसी बहती नदी के किनारे खड़े होते हैं तो हमें परमात्मा की मौजूदगी का एहसास होता है। परमात्मा प्रकृति में ही बसता है। कोशिश करें कि थोड़ा समय प्रकृति के निकट रहने के लिए निकालें। आप खुद को भीतर से शांत पांएगे। थोड़ा मौन साधिए, थोड़ा ध्यान में उतरिए, बस शांति खुद आपके भीतर प्रवेश कर जाएगी।
कैसे मिल सकती है अशांत मन को शांति?
रामायण के सुंदरकांड में एक दृश्य है। हनुमान सीता की खोज में लंका पहुंचे हैं। अशोकवाटिका में जिस पेड़ के नीचे सीता बैठी हैं, उसी की एक शाख पर हनुमान भी बैठे हैं। रावण सीता को धमकाकर जाता है और सीता राम के वियोग में दु:खी बैठी हैं। वे अशांत हैं, उनके मन में आत्महत्या करने जैसे विचार चल रहे हैं।
हनुमानजी अशोक वाटिका में वृक्ष पर बैठकर सोच रहे थे कि कैसे सीता को शांत किया जाए। उन्होंने सीताजी के सामने रामनाम की अंगूठी गिरा दी। सीताजी ने हर्षित होकर उठकर उसे हाथ में ले लिया। यूं तो सीताजी बहुत दुखी थीं, लेकिन हनुमानजी की उपस्थिति ने उनके भीतर हर्ष पैदा कर दिया।
इसके बाद अंगूठी को देखा और खुशी के साथ-साथ विषाद भी हो गया। अंगूठी को पहचानकर सीताजी आश्चर्यचकित होकर उसे देखने लगीं और हर्ष तथा विषाद से अकुला उठीं। हनुमानजी भीतर से इतने सहज और सरल हैं, बाहर उसका प्रभाव पड़ता ही है।
सीताजी इसलिए हर्षित थीं क्योंकि हनुमानजी आ गए थे, लेकिन लंका का जो वातावरण था, उसके कारण विषाद जाता भी नहीं था। यह संसार लंका की तरह है। हमारे जीवन में हनुमानजी की उपस्थिति विपरीत वातावरण में भी प्रसन्नता का कारण बन जाएगी। आगे तुलसीदासजी ने लिखा है - सीता मन बिचार कर नाना। मधुर बचन बोलेउ हनुमाना।। सीताजी मन में विचार कर रही थीं। इसी समय हनुमानजी मधुर वचन बोले। मीठे बोल सभी को शांति और प्रसन्नता देते हैं। वाणी की कर्कशता परमात्मा को पसंद नहीं।
आपकी उपस्थिति वातावरण को जिस प्रकार से प्रभावित करती है, आप अपना आकलन उस प्रकार से कर लें, क्योंकि हम अपने भीतर को ही बाहर विस्तारित करते हैं। हम मानें या न मानें, लेकिन हमारे भीतर की हलचल या हमारे भीतर का स्थिर रहना बाहर को प्रभावित करेगा।
अगर तलाशना है शांति तो इस जगह तलाशें...
कई बार हम शांति की तलाश में दुनिया भर में भटकते फिरते हैं। कभी मंदिर तो कभी योगा क्लास, या फिर कभी पहाड़ों पर। फिर भी अशांति हमारे दिमाग से निकल नहीं पाती। पुराने विद्वानों ने एक बड़ी गहरी बात कही है। जो चीज दुनिया में कहीं नहीं मिल सकती हो, संभव है खुद के भीतर खोजने से मिल जाए।
अक्सर हम शांति की खोज में बाहर भागते हैं। थोड़ा भीतर जाएं। अपने भीतर उतरने की कोशिश करें। फिर शांति पाने के लिए आपको इधर-उधर नहीं दौडऩा पड़ेगा।
हम अक्सर खुद की बजाय दूसरों के काम में ज्यादा शांति महसूस करते हैं। गौतम बुद्ध अपने शिष्यों को एक कथा सुनाते हैं। एक साधु को सपना आया कि एक नदी के पुल पर एक सैनिक खड़ा है, वो जहां खड़ा है वहां एक खजाना गड़ा है। ये सपना कई दिनों तक आता रहा। साधु परेशान हो गया। वो उस नदी और पुल की खोज में निकल पड़ा।
बहुत दिनों तक भटकता रहा। आखिरकार महीनों की तलाश पूरी हुई और साधु को वो नदी, पुल और सैनिक मिल ही गए। सब वैसा ही था जैसा रोज सपने में दिखता था। साधु उत्साहित होकर पुल पर चढ़ा और सैनिक से बोला अरे, मूर्ख तेरे पैरों के नीचे खजाना गड़ा है। तूझे पता नहीं।
सैनिक ने पूछा तो साधु ने सपने वाली बात बता दी। सैनिक ने जवाब दिया महाराज मुझे भी बहुत दिनों से सपना आ रहा है कि एक गांव में, एक झोपड़ी में, एक साधु बैठा है, उसकी धुनी के नीचे खजाना गड़ा है। सैनिक ने सपने आने वाले जिस साधु का हुलिया और नाम बताया वो साधु वो ही था।
उसे तत्काल बात समझ में आ गई कि हर आदमी को दूसरे के जीवन में ज्यादा सुख और शांति दिखाई देती है। अपने जीवन में कम। अगर अपने भीतर तलाशेंगे तो सुख और शांति दोनों जल्दी ही मिल जाएंगे।
ये तीन चीजें हमारे व्यक्तित्व को बना सकती हैं सौम्य और शांत
भगवान कृष्ण का पूरा जीवन लोक हितों के कामों में गुजरा, शांति का एक पल नहीं था उनके जीवन में। लेकिन फिर भी उनके चेहरे पर हमेशा एक स्थायी शांत भाव रहता था। मुस्कुराहट कभी उनके चेहरे से नहीं हटती थी।
ऐसा क्यों? कि इतने कामों और जिम्मेदारियों के बाद भी कृष्ण हमेशा तनाव मुक्त दिखाई देते हैं। उनके बचपन में चलते हैं। आज हमारी संतानें अशांत दिखती है लेकिन कृष्ण के बचपन पर इतने राक्षसों के आक्रमण के बाद भी उसमें शांति दिखाई दे रही है।
उनके जीवन में तीन चीजें ऐसी हैं जो आज हमारे बच्चों के जीवन में भी होनी चाहिए। हमें भी अब इनसे जुडऩा चाहिए। अगर शांति को जीवन में स्थायी भाव बनाना चाहते हैं तो जीवन को ऐसे संभालें जैसे कृष्ण ने संभाला है। उनके बचपन में तीन बातें बहुत अनुकरणीय हैं। पहला प्रकृति से निकटता। कृष्ण ने अपने बचपन का अधिकांश भाग बृज मंडल के जंगलों और यमुना के किनारे गुजारा। प्रकृति का शांत भाव उनके व्यक्तित्व में उतर गया। वे इससे गहरे से जुड़े थे, इसलिए अतिसंवेदनशील भी थे। दूसरों की भावनाओं को तत्काल समझ जाते थे।
दूसरा संगीत से जुड़ाव। बांसुरी कृष्ण का ही पर्याय बन गई। संगीत की स्वरलहरियां हमारे व्यक्तित्व को विकसित करने के लिए आवश्यक हैं। अपने बच्चों को भी संगीत से जोड़ें। शास्त्रीय तानें मन को भीतर तक साफ कर देती हैं।
तीसरा माखन-मिश्री। यानी स्वस्थ्य आहार। मन आपका तभी स्वस्थ्य होगा जब आपका आहार अच्छा हो। माखन मिश्री के जरिए कृष्ण का संकेत अच्छे आहार की ओर है। अगर बचपन में इससे वंचित रहे हैं तो अब इन तीन चीजों को जीवन में उतारने का प्रयास करें। फिर आपको शांति की तलाश में भटकना नहीं पड़ेगा।
आपकी जीत को हार में बदल सकती है थोड़ी सी अशांति...
महाभारत युद्ध में भीष्म बाणों की शैया पर लेट चुके थे। कौरव सेना का सेनापति आचार्य द्रौण को नियुक्त किया गया। द्रौण भगवान परशुराम के शिष्य थे। युद्ध में उन्हें सिवाय परशुराम और अर्जुन के कोई हरा नहीं सकता था। युद्ध में उन्होंने कई हजार सैनिकों को मार दिया। चक्रव्यूह की रचना की, जिसमें अर्जुन का पुत्र अभिमन्यु मारा गया।
द्रौण को मारना बहुत मुश्किल होता जा रहा था। सक्षम होने के बाद भी अर्जुन द्रौण को नहीं रोक पा रहे थे। पांडवों के शिविर में खलबली मची हुई थी क्योंकि द्रौणचार्य पर किसी प्रकार की रणनीति या कूट नीति काम नहीं कर पा रही थी। उनके व्यक्तित्व की खास बात यह थी कि वे हर परिस्थिति में बहुत शांत दिखाई देते थे।
उनके चेहरे पर कभी कोई और भाव नहीं दिखता। जिससे उन्हें हराना बहुत मुश्किल हो रहा था। कृष्ण ने सुझाया कि आचार्य द्रौण को विचलित किए बगैर उन्हें मारना असंभव है। क्योंकि वे हड़बड़ाते नहीं है इसलिए उनसे कोई गलती नहीं होती। तब उन्होंने भीम को आदेश दिया कि कौरव सेना में शामिल अश्वत्थामा नाम के हाथी को मारकर घोषणा कर दो कि अश्वत्थामा मारा गया। अश्वत्थामा द्रौणाचार्य का एकलौता पुत्र था। जब ये घोषणा की गई तो द्रौणाचार्य एकदम विचलित हो गए। अश्वत्थामा उन्हें प्राणों से ज्यादा प्रिय था। वे युद्ध छोड़कर रणभूमि में ध्यान लगाने बैठ गए। तभी पांडवों के सेनापति धृष्ठघुम्र ने उन्हें मार दिया।
द्रौणाचार्य का पुत्र के प्रति मोह उनकी मौत का कारण बन गया। मोह के कारण उनके मन की शांति भंग हुई और वे रणभूमि में ही ध्यान लगाने बैठ गए। जिस स्थायी शांत भाव के कारण उन्हें जितना मुश्किल लग रहा था। वो थोड़े से मोह के कारण भंग हो गया।
हमारे मन की शांति के चार शत्रु हैं काम, क्रोध, मोह और लोभ। ये चारों बातें मन को हमेशा अशांत करती हैं। अशांत मन कभी सफलता की ओर नहीं बढऩे देता है, यह अक्सर व्यक्ति को पीछे खींचता है। अकर्मण्यता का भाव लाता है। अगर मन को शांत रखना है तो किसी भी प्रकार के काम, क्रोध, मोह या लोभ को अपने पास फटकने ना दें। ये आपके मन में नहीं होंगे तो सफलता न केवल स्थायी होगी बल्कि दुश्मन आपको कभी हरा भी नहीं सकेंगे।
अगर मन में शांति हो, तो पाए जा सकते हैं असंभव लक्ष्य भी
कई बार हम लक्ष्य के करीब होते हुए भी चूक जाते हैं। जीतने की घड़ी में थोड़ी सी हड़बड़ाहट जीत को हार में बदल देती है। जब मंजिल के नजदीक हों तो सबसे ज्यादा जरूरी होती है एकाग्रता। एकाग्रता का सीधा संबंध होता है मन से। मन जितना ज्यादा शांत रहेगा, प्रयास उतने अच्छे रहेंगे। परिणाम भी मनोनुकुल मिलेंगे।
भागवत में सत्यवान और सावित्री की कथा देखिए। सावित्री ने सत्यवान से विवाह किया था। वो शादी के पहले ही जानती थी कि सत्यवान की आयु सिर्फ एक साल ही और बची है। फिर भी उसे विश्वास था कि वो अपने प्रयासों से सत्यवान को बचा सकती है। विवाह के एक साल बाद वो दिन भी आ गया, जिस दिन सत्यवान की मृत्यु होनी थी।
सावित्री ने बिना घबराए, बिना डरे और बिना किसी हड़बड़ाहट के अपने प्रयास शुरू किए। उसने चार-पांच दिन पहले से ही उपवास और प्रार्थनाएं शुरू कर दी। अपने हावभाव या व्यवहार से भी किसी पर यह जाहिर नहीं होने दिया कि वो सत्यवान की मृत्यु के बारे में जानती है।
जिस दिन यमराज सत्यवान के प्राण हरने आए, सावित्री ने उन्हें रोक लिया। उसकी गोद में सिर रखकर सत्यवान सो रहा था और यमराज ने प्राण हर लिए। लेकिन फिर भी वह घबराई नहीं, उसने यमराज की स्तुति शुरू कर दी। जिससे प्रसन्न होकर यमराज उसे वरदान देने लगे।
अपने ससुर का खोया राज्य, उनकी आंखें मांगने के बाद सावित्री ने खुद के लिए सौ पुत्रों का वरदान मांग लिया। यमराज ने बिना सोचे उसे वो वरदान भी दे दिया। नतीजा सावित्री ने यमराज को अपनी बातों में उलझाकर सत्यवान के प्राण बचा लिए क्योंकि सत्यवान के बिना सौ पुत्रों की प्राप्ति संभव नहीं थी।
ये था सावित्री की एकाग्रता और आत्म विश्वास का कमाल। अगर उसका मन थोड़ा भी विचलित होता, वो थोड़ा भी घबरा जाती, डर जाती तो फिर अपने पति के प्राण नहीं बचा पाती।
वाकई अगर शांति से रहना चाहते हैं तो यह प्रयास करें
जो लोग ये शिकायत करते हैं कि उन्हें कहीं भी सुकून नहीं मिलता, वे गलत हैं। असली कारण यह है कि वे लोग सुकून या शांति की तलाश में हैं ही नहीं। वे चाहते हैं कि वे भीड़ से घीरे रहें, परेशानियों को खुद निमंत्रित करने की आदत भी उनकी ही होती है। जो लोग वाकई शांति की तलाश में हैं, वे भीड़ में भी एकांत खोज सकते हैं।
अगर हम वास्तविक शांति चाहते हैं तो हमें भीतर की ओर यात्रा करनी होगी। अपने अंदर मौजूद शांति को जगाना पड़ेगा, अपने मन को एकाग्र करना होगा। जब तक मन बाहर भटकेगा, शांति भीतर नहीं उतरेगी। मन एक जगह बैठ गया, वहीं से शांति की यात्रा शुरू हो जाएगी। हम भरी बाजार में भी एकांत का आभास पा सकते हैं, लेकिन समस्याओं और चिंताओं को औढऩे की हमारी आदत के कारण हम ऐसा कर नहीं पाते।
आज स्वामी विवेकानंद के जीवन के एक प्रसंग की ओर चलते हैं। विवेकानंद का वास्तविक नाम नरेंद्र था। वे बचपन से मेधावी रहे, ऐसा कहते हैं कि उनके साथ कोई दैवीय शक्ति भी थी। मन इतना एकाग्र था कि एक बार कोई चीज पढ़ ली या देख ली, तो फिर उसे अक्षरश: याद रखते थे।
कई लोग उनकी इस प्रतिभा के कायल थे। एक बार वे अपने एक विदेशी मित्र से मिलने गए। जिस कमरे में वे बैठे थे, वहां कुछ किताबें भी रखी थीं। स्वामी जी के मित्र को कुछ काम आ गया और वो थोड़ी देर के लिए बाहर चले गए। खाली समय देख विवेकानंद ने वहां पड़ी एक किताब उठा ली। वह किताब उन्होंने जीवन में पहले कभी नहीं पड़ी थी।
मित्र काम निपटाकर लौटा, तक तक उन्होंने किताब पूरी पढ़ ली। मित्र ने उन्हें परखने के लिए पूछा क्या वाकई पूरी किताब पढ़ ली है। विवेकानंद बोले हां, काफी अच्छी किताब है। उन्होंने उसकी व्याख्या प्रारंभ की। यह तक बता दिया कि किस पृष्ठ पर क्या लिखा है, कहां प्रूफ की गलती रह गई।
मित्र ने उनसे पूछा कि इतनी जल्दी किताब को पढ़कर याद कैसे रख लिया, जबकि वो तो अभी तक उसे पढऩे के लिए अपना मानस तक नहीं बना सका। वो अपने आप को एकाग्रचित्त करना चाहता है लेकिन ऐसा कर नहीं पा रहा।
विवेकानंद ने जवाब दिया कि मैं हमेशा अपने भीतर रहने का प्रयास करता हूं, अपने मन पर किसी चिंता या समस्या को हावी नहीं होने देता। जहां चाहता हूं वहीं शांति का आभास होता है। मन पर नियंत्रण कर लिया तो फिर कर भी शांति को खोजने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी।
मन की शांति के लिए ऐसी बातों से दूर रहना चाहिए
दुर्योधन और रावण के व्यक्तित्व में सबसे बड़ी दो कमजोरियां थीं। पहली अहंकार और दूसरी क्रोध। दोनों ही पात्रों ने इन दो अवगुणों के कारण ना केवल प्राण गवाएं बल्कि पूरे परिवार के लिए संहारक भी सिद्ध हुए। अहंकार और क्रोध को नियंत्रित नहीं किया इसलिए इनका मन हमेशा अशांत रहा।
रावण को ये घमंड था कि मैंने देवताओं को हराया है, शिव को प्रसन्न कर लिया है। इस बात का अहंकार इतना बढ़ गया कि वो अपने विरुद्ध कुछ भी सुनने को तैयार नहीं होता। इससे क्रोध को बढ़ावा मिला। सत्य बोलने वाले, अच्छी सलाह देने वाले उसे अपने शत्रु लगने लगे। विभीषण हो या माल्यवंत जिसने भी उसे राम से संधिकर सीता को लौटा देने की बात कही, उसे निकाल दिया। क्योंकि उसके अहंकार और क्रोध ने उसके पूरे व्यक्तित्व पर अधिकार जमा लिया था।
ठीक यही दुर्योधन के साथ भी घटा। उसे अहंकार था अपने पिता के राजा होने और उनके बाद हस्तिनापुर के राजसिंहासन पर खुद के नैसर्गिक अधिकार का। जब युधिष्ठिर सहित पांचों पांडव वन से राजमहल आ गए तो उसे अपने राजपाठ पर संकट नजर आने लगा। युधिष्ठिर आयु और गुण दोनों में ही दुर्योधन से श्रेष्ठ था। यहीं से क्रोध उपजा। इस क्रोध ने उसे कभी शांत मन से सोचने नहीं दिया।
शायद रावण और दुर्योधन दोनों ही अगर अहंकार और क्रोध को एक ओर रख कर सोचते तो इतने भीषण युद्ध कभी हुए ही नहीं होते। मैं होने का भाव क्रोध पैदा करता है और क्रोध अपने साथ अशांति लेकर आता है।
अक्सर हम भी अपनी सफलता के घमंड में चूर क्रोध की चादर ओढ़ लेते हैं। बस यहीं से अशांति शुरू होती है। हजारों तरह की सुख सुविधाओं बावजूद भी मन एक अनजान डर से भयभीत रहता है। अगर मन की शांति चाहिए तो अहंकार और क्रोध दोनों को अपने व्यक्तित्व से अलग करने का प्रयास करें।
क्रमश:...
जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK
No comments:
Post a Comment