Thursday, October 21, 2010

What are the Vedas, Puranas and Upanishads?

क्या हैं वेद, पुराण और उपनिषद?

युवाओं के लिए धार्मिक ग्रंथ यानी वेद, पुराण, उपनिषद आदि एक अबूझ पहेली जैसे हैं। ये ग्रंथ क्यों हैं और किस लिए बनाए गए हैं, यह अधिकतर युवाओं की समझ से बाहर है। इन ग्रंथों की पारंपरिक शैली और कठिन भाषा के कारण इन्हें समझना और ज्यादा मुश्किल हो गया है। पुराणों में अधिकांश कहानियां प्रतीकात्मक हैं। अभी तक कई लोगों को यह भी पता नहीं है कि इन किताबों में है क्या? वेद, पुराण और उपनिषदों में आखिर ऐसा क्या है जो पढ़ने लायक है और इन किताबों को पढ़कर क्या सीखा, समझा जा सकता है? इनमें पढ़ने लायक क्या है?

आइए हम आपको इन ग्रंथों से परिचित कराते हैं:-
वेद - वेद चार हैं, ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद। इन्हें दुनिया की सबसे पुरानी पुस्तकें माना गया है। नासा ने भी इसकी प्रामाणिकता स्वीकार की है। ये चारों वेद एक ही वेद के चार भाग हैं, जिन्हें वेद व्यास ने संपादित किया है। ऋग्वेद में सृष्टि की परिस्थितियों, देवताओं आदि की स्थितियों के बारे में विवरण है। सामवेद ऋग्वेद का ही गेय रूप है, इसके सारे श्लोक गेय यानी संगीतमय या गीतमय हैं। यजुर्वेद - यजुर्वेद में यज्ञ संबंधी श्लोक हैं, यज्ञों की विधियां और उससे देवताओं को प्रसन्न करने संबंधी विधियां हैं। अथर्ववेद - इस वेद में परा शक्तियों यानी पारलौकिक शक्तियों के श्लोक हैं।
उपनिषद - उपनिषद को यह नाम इसलिए मिला है क्योंकि ये वेदों के ही हिस्से हैं। वेदों से ही प्रेरित इन उपनिषदों की रचना वेदव्यास के ही चार शिष्यों ने की है। मूलत: ़108 उपनिषद माने जाते हैं। उपनिषद का अंग्रेजी में अर्थ है कॉलोनी। जैसे शहर के ही किसी एक हिस्से को कॉलोनी कहते हैं, वैसे ही उपनिषदों को भी वेदों का ही हिस्सा माना जाता है। वेदों के ही श्लोकों को कथानक के रूप में उपनिषदों में लिया जाता है।
पुराण - पुराण पिछले युगों सतयुग, त्रेता और द्वापर युग की कथाओं का विवरण हैं। इनकी भी रचना वेद व्यास और उनके समकालीन ऋषियों द्वारा की गई है। ये मूलत: पौराणिक पात्रों की कथाओं के ग्रंथ हैं। पुराणों की संख्या 18 मानी गई है। कालांतर में कई ग्रंथ बढ़ गए हैं।

ऐसे पाएं मोक्ष सिखाते हैं वेद

वेद मानव जीवन की प्रगति के प्रमाण तो हैं ही, मोक्ष का मार्ग बताने वाले ग्रंथ भी हैं।तीनों प्रमुख वेद (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद) मुक्ति के तीन मार्ग बताते हैं।उनके मंत्रों में भक्ति, कर्म और ज्ञान की बातें हैं। भारतीय मनीषियों का मानना है कि जीवन में मुक्ति यानी मोक्ष के लिए केवल तीन ही मार्ग हैं कर्म, उपासना और ज्ञान। ये तीनों मार्ग ही आदमी को मोक्ष की ओर ले जाते हैं। मोक्ष का मतलब स्वर्ग-नर्क से नहीं है, यह तो उस अवस्था का नाम है जब मनुष्य कर्मों के बंधन से मुक्त होकर जन्म के फेर से छूट जाता है। तीन वेद, इन तीन मार्गों के प्रतीक हैं। ऋग्वेद में ज्ञान, यजुर्वेद में कर्म (कर्मकांड) और सामवेद उपासना का ग्रंथ है। तीनों ही मार्ग मोक्ष की ओर जाते हैं। ऐसा माना जाता है कि वेदों में एक लाख मंत्र हैं, उनमें से करीब अस्सी हजार कर्मकांड के, सोलह हजार उपासना के और शेष चार हजार मंत्र ज्ञान से जुड़े हैं। विद्वान मानते हैं कि ज्ञान ही मोक्ष का सबसे श्रेष्ठ मार्ग है। इन वेदों की शाखाओं के विलुप्त होने से ही मंत्र कम रह गए और अब ये काफी संक्षिप्त रूप में हमारे सामने हैं। अब ये एक लाख मंत्र उपलब्ध नहीं है। इन वेदों के सहायक ग्रंथों में इनके प्रमाण मिलते हैं। चौथेवेद, अथर्ववेद में सभी अपराशक्तियों (आलौकिक शक्तियों) के प्रमाण हैं, जैसे जादू, चमात्कार, आयुर्वेद और यज्ञ।

जैसे चाहें वैसे देखें वेदों को

चार वेद : चार ग्रंथ, चार पुरुषार्थ, चार देव, चार तत्व
वेद केवल धर्म की किताबें भर नहीं है। इनके पीछे छिपा दर्शन बहुत गहरा और जीवन के अर्थों को समेटे हुए है। ये केवल मंत्रों से भरे ग्रंथ नहीं हैं। संपूर्ण मानव जीवन का सार इनमें है।
मानव जीवन में चार प्रमुख पुरुषार्थ हैं अर्थ, काम, धर्म और मोक्ष। चारों वेद इन चार पुरुषार्थों का प्रतीक हैं। इन चार वेदों के चार प्रमुख देवता हैं अग्रि, वायु, सूर्य और सोम (चंद्र)। ऋग्वेद के देवता अग्रि को माना जाता है, यजुर्वेद के देवता पवन यानी वायु, सामवेद के देवता सूर्य और अथर्ववेद के देवता सोम माने गए हैं। ये चारों देवता और चारों वेद इन चार पुरुषार्थों के प्रतीक हैं।
ऋग्वेद : चार पुरुषार्थों में पहला अर्थ है, शास्त्रों का मानना है कि गृहस्थ का सबसे पहला धर्म है, जीवनयापन के लिए आवश्यक साधन जुटाए। ऋग्वेद अर्थ का ग्रंथ है जिसमें जीवन के लिए आवश्यक अनुशासन और ज्ञान की बातें हैं। अर्थ के लिए श्रम की जरूरी है और श्रम के लिए ऊर्जा यानी शक्ति। अग्रि ऊर्जा और शक्ति के प्रतीक हैं, इसलिए ऋग्वेद के प्रमुख देवता माने गए हैं। अर्थ के लिए परिश्रम करना होता है लेकिन यह परिश्रम भी अनुशासन के तहत हो, अधर्म के मार्ग से प्राप्त किया गया अर्थ पुरुषार्थ नहीं है।
यजुर्वेद : यजुर्वेद काम का ग्रंथ है, यहां काम का अर्थ केवल विषय भोग से नहीं है। काम में कर्म, कामनाएं और मन तीनों शामिल है। यह कर्मकांड प्रमुख वेद है। इसमें यज्ञ का महत्व है, जो कर्म का प्रतीक भी है। यजुर्वेद के प्रमुख देवता वायु को माना गया है। वायु मन का प्रतीक है, मन वायु की तरह ही तेज चलता है और अस्थिर है। कर्म में श्रेष्ठता के लिए मन को साधना जरूरी है। मन को साधने से ही उसमें कामनाओं का लोप होता है। मन सद्कर्मों और शक्ति, धर्म के संचय में लगता है। कामनाओं का लोप होने के बाद ही हम किसी भी कार्य को एकाग्रता से कम सकते हैं।
सामवेद : साम वेद उपासना का वेद है, धर्म का ग्रंथ है। धर्म के लिए भक्ति यानी उपासना का होना आवश्यक है। जब अर्थ और काम दोनों का साध लिया जाए यानी सांस्कृतिक और धार्मिक अनुशासन से इन्हें जीवन में उतारा जाए तब धर्म का प्रवेश होता है, जीवन में भक्ति आती है। भक्ति और ज्ञान प्रकाश के प्रतीक हैं, इसलिए सामवेद के देवता सूर्य माने गए हैं। जीवन में ज्ञान और भक्ति का बहुत महत्व है। इनको साधने से ही धर्म आता है।
अथर्ववेद : यह ग्रंथ परमशक्तियों या पराशक्तियों का है। जब अर्थ, काम और धर्म तीनों जीवन में उतरते हैं तब मोक्ष का मार्ग खुलता है। मोक्ष कर्म और जन्म के फेर से मुक्ति है, यह मुक्ति ज्ञान से आती है, इसे ब्रह्म ज्ञान कहते हैं। अथर्ववेद ऐसे ही ज्ञान का वेद है। मुक्ति का ज्ञान हमें सारे संकटों से राहत देता है, यानी शीतलता देता है। इसलिए इस ग्रंथ के देवता चंद्र यानी सोम माने गए हैं, जो शीतलता देते हैं।

वेदों का अध्ययन क्यों जरूरी

आजकल की शिक्षा पद्धति विद्यार्थियों को शिक्षित जरूर बना सकती है परंतु जीवन का वास्तविक ज्ञान नहीं दे सकती। इसी वजह से हम कई बार जीवन में हताश और निराश हो जाते हैं। जबकि वेदों में जीवन की हर समस्या के समाधान मौजूद हैं। जिनका ज्ञान होने के बाद मनुष्य को जीवनभर कोई परेशानी या निराशा नहीं हो सकती है। सुख-दुख की वास्तविक परिभाषा का ज्ञान वेदों के अध्ययन के बाद ही प्राप्त हो सकता है। वेदों में चारों फल धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष संबंधी सभी सूत्र मौजूद हैं। अत: वेदों के अध्ययन से मनुष्य को हर क्षेत्र में उन्नति और सुख की प्राप्ति स्वत: ही हो जाती है। साथ ही वेदों को पढऩे का धार्मिक महत्व भी है। वेदों को पढऩे से जो पुण्य प्राप्त होता है वह अक्षय होता है और हमारे कई जन्मों के पापों के फल को नष्ट कर देने वाला होता है। इन कारणों से वेदों के अध्ययन को अनिवार्य बताया गया है।

वेद : दुनिया की सबसे पुरानी किताबें

वेद दुनिया के सबसे प्राचीन ग्रंथ हैं। इन चार वेदों में जीवन के गूढ़ रहस्य छिपे हैं। ये मूलत: विचारों के ग्रंथ हैं, इस कारण इन्हें सारी संस्कृति विशेष रूप से आर्य संस्कृति के प्रारंभिक ग्रंथ माना गया है। वेद ज्ञान का भंडार हैं, विज्ञान हो या खगोल शास्त्र, यज्ञ विधि या देवताओं की स्तुति सभी चार वेदों (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद) में है।

वेद का शाब्दिक अर्थ है ज्ञान या जानना। वेदों को पूरे विश्व में सबसे पुराने ग्रंथों के रूप में मान्यता मिल चुकी है। वेदों को श्रुति भी कहा जाता है, श्रुति यानी सुनकर लिखा गया। माना जाताहै कि ऋषि-मुनियों ने इन ग्रंथों को खुद ब्रह्मा से सुन कर लिखा था। वेदों की ऋचाओं (मंत्रों) में कई प्रयोग और सूत्र हैं। खगोल, विज्ञान, आयुर्वेद, तकनीकी हर क्षेत्र के लिए विभिन्न मंत्र हैं। नासा ने भी वेदों में छिपे ज्ञान को प्रामाणिक माना है। उपनिषदों का रचनाकाल करीब 4000 साल पुराना है, इस आधार पर यह माना जाता है कि वेदों का रचनाकाल 5000 हजार वर्ष से भी पूर्व का है।

ऋग्वेद : ऋग्वेद सबसे पहला वेद है। इसमें धरती की भौगोलिक स्थिति, देवताओं के आवाहन के मंत्र हैं। इस वेद में 1028 ऋचाएँ (मंत्र) और 10 मंडल (अध्याय) हैं।
यजुर्वेद : यजुर्वेद में यज्ञ की विधियाँ और यज्ञों में प्रयोग किए जाने वाले मंत्र हैं। इस वेद की दो शाखाएँ हैं शुक्ल और कृष्ण। 40 अध्यायों में 1975 मंत्र हैं।
सामवेद : इस वेद में ऋग्वेद की ऋचाओं (मंत्रों) का संगीतमय रूप है। इसमें मूलत: संगीत की उपासना है। इसमें 1875 मंत्र हैं।
अथर्ववेद :इस वेद में रहस्यमय विद्याओं के मंत्र हैं, जैसे जादू, चमत्कार, आयुर्वेद आदि। यह वेद सबसे बड़ाहै, इसमें 20 अध्यायों में 5687 मंत्र हैं।
पहले एक ही थे वेदः
ऐसा प्रचलित है कि पहले वेद चार भागों में नहीं थे। ये एक ही थे। विद्वानों का मानना है कि महाभारत काल के बाद श्रीकृष्णद्वैपायन व्यास (वेदव्यास) ने इन्हें चार भागों में बाँटा। उनके चार शिष्य जो अपने समय के महान संत हुए, पैल, वैश्यंपायन, जैमिनि और सुमंतु ने उनसे इनकी शिक्षा पाई थी। इसके बाद इन चार वेदों ही चलन हुआ। कई विद्वानों का यह भी मानना है कि वेद ब्रह्मा की मानसपुत्री गायत्री से उत्पन्न हुए हैं। गायत्री ही इन वेदों की रचनाकार भी मानी गई हैं

उपनिषदः वेदों का मस्तक
संस्कृत साहित्य में उपनिषद नाम के ग्रंथों (पुस्तकों) का बड़ा ही महत्वपूर्ण दर्जा है। उपनिषदों में समाए हुए बहुमूल्य व उपयोगी ज्ञान के कारण ही इन्हें वेदों का सार या वेदों का मस्तक भी कहा जाता है। अध्यात्म के विषय में सर्वोच्च स्तर का सर्वश्रेष्ठ ज्ञान प्राप्त करने का एक मात्र प्रामाणिक साधन उपनिषद ग्रंथ हैं।उपनिषदों के रचनाकाल के विषय में एक से अधिक मत प्रचलित हैं। वैदिक साहित्य के प्रकाण्ड विद्वान एवं ज्योतिष गणित के जानकार लोकमान्य तिलक ने उपनिषदों के रचनाकाल के विषय में उल्लेख किया है। तिलक ने अपनी सुप्रसिद्ध पुस्तक गीता रहस्य (पृष्ठ 552) में उपनिषदों का रचनाकाल 1500 से 2000 वर्ष ई.पू. अर्थात् आज से 3510 से 4010 साल पहले के आसपास माना है। जबकि संस्कृत साहित्य के अन्य उद्भट विद्वानों एवं इतिहासकारों का मानना है कि इन महानतम व दुर्लभ पुस्तकों को चार हजार वर्षों से भी बहुत पूर्व लिखा गया था। विद्वानों ने अपनी बात की सच्चाई के प्रमाण में ऐतिहासिक तथ्य भी प्रस्तुत किए हैं। जो कि काफी पुख्ता हैं। अत: निष्कर्ष के रूप में हमें यही कहना चाहिए कि हजारों वर्ष पूर्व लिखे गए उपनिषद ग्रंथ अद्भुत एवं अमूल्य ज्ञान के अथाह भंडार हैं।

गूढ़ तत्व का रहस्य उजागर

220 से ज्यादा लिखे जा चुके हैं उपनिषद्ज्ञान का सर्वोच्च सार ही उपनिषदों के नाम से जाना जाता है और दुनियाभर में विख्यात है। उपनिषदों को वैदिक साहित्य का शीर्ष कहा जाता है। जिससे इनकी महत्ता एवं मूल्य का पता चलता है।प्राचीन काल से ही औपनिषद् ज्ञान बहुत बड़ा महत्व था। उच्च स्तर के विद्वान ही इन आध्यत्मिक ग्रंथों को गहराई से ग्रहण कर पाते थे। वैदिक काल से ही उपनिषदों के स्वाध्याय की परंपरा प्रचलित हुई है। कुछ उपनिषद् तो वेदों के विशेष अंश अर्थात् सार रूप हैं। कुछ उपनिषद् ब्राह्मण ग्रंथों और अरण्य ग्रंथों के अंतर्गत हैं। कुछ उपनिषद् ग्रंथ ऐसे भी हैं, जिनपर उस समय की परिस्थितियों एवं मान्यताओं का प्रभाव देखा जा सकता है। चाहे अत्यंत प्राचीन हों या कुछ समय बाद के, सभी उपनिषदों में आत्मज्ञान अथवा अध्यात्म ज्ञान या सर्वोच्च ज्ञान का ही भंडार भरा है। सभी उपनिषदों का जन्म किसी न किसी गूढ़ तत्व या रहस्य को उजागर करने के लिये ही हुआ है।उपनिषदों की संख्या के विषय में अलग-अलग मत हैं। मुक्तिकोपनिषद में उपनिषदों की संख्या 108 बताई गई है तथा सभी के नाम भी दिए गए हैं। इसके अतिरिक्त 'आडियार लाइब्रेरी मद्रास' से भी उपनिषदों का एक संग्रह प्रकाशित हुआ है। उस संग्रह में लगभग 179 उपनिषदों का प्रकाशन हो चुका है। गुजरात प्रिंटिंग प्रेस बंबई से मुद्रित उपनिषद वाक्य महाकोश में 223 उपनिषदों के नाम दिए गए हैं। अत: हम कह सकते हैं कि अब तक लगभग 220 उपनिषद् प्राप्त हो चुके हैं। भारत पर अनेक बार विदेशी आक्रमण हुए हैं। कुछ आक्रमणकारियों ने भारतीय संस्कृति की धरोहर इन अमूल्य पुस्तकों एवं भवनों को भी नष्ट करने का प्रयास किया। किंतु सौभाग्य से आज भी अपार साहित्य उपलब्ध है। उपनिषद ऐसी ही अमूल्य पुस्तकें हैं।

नचिकेता के सवालों का इसमें है जवाब

108 उपनिषदों में कठोपनिषद् अत्यंत प्रसिद्ध है। यह उपनिषद्कृष्ण यजुर्वेद की कठ-शाखा के अंतर्गत आता है। इसी कारण इसका नाम कठोपनिष खा गया है। इस उपनिष द्में ईश्वर के स्वरूप यानि परमात्मा के रहस्यमय तत्व का अति महत्वपूर्ण उपयोगी एवं विशद वर्णन किया गया है। ब्राह्मण ऋषि के पुत्र नचिकेता और मृत्यु के देवता यम के मध्य ईश्वर संबंधी गूढ़ ज्ञान पर जो विस्तृत संवाद हुआ उसे ही बड़े सुंदर और प्रेरणास्पद रूप में कठोपनिषद में प्रस्तुत किया गया है। अन्य उपनिषदों की तरह ही इस उपनिषद में भी 3 प्रमुख क्षेत्रों में शोध अनुसंधान किया गया है:
1. सत्य के क्षेत्र में अनुसंधान
2. आत्मा के विषय में अनुसंधान
3. ब्रह्म (ईश्वर) के विषय में अनुसंधान

कठोपनिषद में ब्रह्म (ईश्वर)-
कठोपनिषद कहता है कि ईश्वर या परमात्मा एक शक्ति है। जिसका बुद्धि के द्वारा चिंतन नहीं किया जा सकता। ईश्वर एक ही समय में साकार भी है निराकार भी, सूक्ष्म भी है और विराट महान भी है। ईश्वर यानि परमेश्वर अपने परमधाम में विराजमान रहते हुए भी उसी समय भक्त की पुकार सुनकर उसके समीप भी हो सकते हैं। वे परमात्मा (भगवान) सदा-सर्वदा सभी जगह उपस्थित रहते हैं। वे ऐसे सर्वव्यापी हैं कि एक ही समय पर बैठे हुए भी हैं, चल भी रहे हैं, चिर निद्रा में सो भी रहे हैं और निरंतर जागते हुए क्रियाएं भी कर रहे हैं। वेस भी जगह, सभी रूपों में सदैव उपस्थित हैं। साकार के साधक भक्त के लिए साकार भी है और निराकारवादी के लिए आकाररहित, ज्योतिस्वरूप भी वे ही हं। अनंत-अनंत ब्रह्मांडों के स्वामी एवं संचालक होने पर भी उन्हें अपने अनंतऐश्वर्य का जरा सा भी अभिमान नहीं है।

किसे मिलते हैं भगवान -
यह उपनिषद कहता है परमेश्वर ऐसे लोगों को नहीं मिलते, जो शास्त्रों को पढ़-सुनकर लच्छेदार भाषा में परमेश्वर का वर्णन करते हैं। परमात्मा उन्हें भी नहीं मिलते, जो अपनी बुद्धि और ज्ञान के अभिमान में रहते हैं और तर्क-वितर्क एवं वाद-विवाद करके अपने अहंकार की तृप्ती करते है भगवान तो उस सच्चे भक्त को ही मिलते हैं जो उन्हें पाने के लिए व्याकुल बैचेन रहता है तथा जिसे हर प्राणी में भगवान नहीं नजर आते है उसे ही भगवान की कृपा या प्रेम मिलता है। जो अपनी बुद्धि एवं योग्यता पर भरोसा न करके भगवान की ही दया और कृपा की प्रतिक्षा करता है ऐसे सच्चे प्रेमी भक्त को ही परमेश्वर मिलते हैं एवं अपना समझते हैं


जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK

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