विश्ववंद्य महाबाहु परशुराम
भृगुश्रेष्ठमहर्षि जमदग्निद्वारा संपन्न पुत्रेष्टि-यज्ञसे प्रसन्न देवराज इंद्र के वरदान स्वरूप पत्नी रेणुका के गर्भ से वैशाख शुक्ल तृतीया को विश्ववंद्यमहाबाहुपरशुराम का जन्म हुआ। वे भगवान् विष्णु के आवेशावतारथे।
पितामह भृगुद्वारा संपन्न नामकरण-संस्कार के अनन्तर राम, किंतु जमदग्निका पुत्र होने के कारण जामदग्न्य और शिवजी द्वारा प्रदत्त परशु धारण किए रहने के कारण परशुराम कहलाए। आरंभिक शिक्षा महर्षि विश्वामित्र एवं ऋचीकके आश्रम में प्राप्त होने के साथ ही महर्षि ऋचीकसे सारंग नामक दिव्य वैष्णव धनुष और ब्रह्मर्षि कश्यपजीसे विधिवत् अविनाशी वैष्णव-मंत्र प्राप्त हुआ।
तदनंतर कैलाश गिरिश्रृंगस्थित भगवान् शंकर के आश्रम में विद्या प्राप्त कर विशिष्ट दिव्यास्त्र विद्युदभि नामक परशु प्राप्त किया। शिवजी से उन्हें श्रीकृष्ण का त्रैलोक्यविजय कवच, स्तवराज स्तोत्र एवं मंत्र कल्पतरूभी प्राप्त हुए। चक्रतीर्थमें किए कठिन तप से प्रसन्न हो भगवान् विष्णु ने उन्हें त्रेतामें रामावतार होने पर तेजोहरणके उपरांत कल्पान्तपर्यंततपस्यारतभूलोक पर रहने का वर दिया।
श्रीमद्भागवत में दृष्टांत है कि गंधर्वराजचित्ररथको अप्सराओं के साथ विहार करता देख हवन हेतु गंगा-तट पर जल लेने गई माता रेणुका आसक्त हो गई। तब हवन-काल व्यतीत हो जाने से क्रुद्ध मुनि जमदग्निने पत्नी के आर्यमर्यादाविरोधी आचरण एवं मानसिक व्यभिचारवशपुत्रों को माता का वध करने की आज्ञा दी।
अन्य भाइयों द्वारा साहस न कर पाने पर पिता के तपोबलसे प्रभावित परशुराम ने उनकी आज्ञानुसार माता का शिरोच्छेदनएवं समस्त भाइयों का वध कर डाला, और प्रसन्न जमदग्निद्वारा वर मांगने का आग्रह किए जाने पर सभी के पुनर्जीवित होने एवं उनके द्वारा वध किए जाने संबंधी स्मृति नष्ट हो जाने का ही वर मांगा।
कथानक है कि हैहयवंशाधिपतिकार्त्तवीर्यअर्जुन [सहस्त्रार्जुन] ने घोर तप द्वारा भगवान् दत्तात्रेयको प्रसन्न कर एक सहस्त्र भुजाएं तथा युद्ध में किसी से परास्त न होने का वर पाया था। संयोगवश वन में आखेट करते वह जमदग्निमुनि के आश्रम जा पहुंचा और देवराज इंद्र द्वारा उन्हें प्रदत्त कपिला कामधेनु की मदद से हुए समस्त सैन्यदलके अद्भुत आतिथ्य सत्कार पर लोभवशजमदग्निकी अवज्ञा करते हुए कामधेनु को बलपूर्वक छीनकर ले गया।
कुपित परशुरामजीने फरसे के प्रहार से उसकी समस्त भुजाएं काट डालीं व सिर को धड से पृथक कर दिया। तब सहस्त्रार्जुनके दस हजार पुत्रों ने प्रतिशोधवशपरशुराम की अनुपस्थिति में ध्यानस्थ जमदग्निका वध कर डाला। रेणुका पति की चिताग्निमें प्रविष्ट हो सती हो गई। क्षुब्ध परशुरामजीने प्रतिशोधवशमहिष्मतीनगरी पर अधिकार कर लिया, हैहयोंके रुधिर से स्थलंतपंचक क्षेत्र में पांच सरोवर भर दिए और पिता का श्राद्ध सहस्त्रार्जुनके पुत्रों के रक्त से किया।
उन्होंने अश्वमेघमहायज्ञ कर सप्तद्वीपयुक्तपृथ्वी महर्षि कश्यप को दान कर दी और इंद्र के समक्ष शस्त्र त्यागकर सागर द्वारा उच्छिष्ट भूभाग [महेंद्रा] पर आश्रम बनाकर रहने लगे। उन्होंने त्रेतायुगमें रामावतार के समय शिवजी का धनुष भंग होने पर आकाश-मार्ग द्वारा मिथिलापुरीपहुंच कर प्रथम तो स्वयं को विश्व-विदित क्षत्रियकुलद्रोहीबताते हुए बहुत भाँति तिन्हआँख दिखाए और क्रोधान्ध हो सुनहु राम जेहिशिवधनुतोरा। सहसबाहुसम सो रिपु मोरा॥तक कह डाला। फिर, वैष्णवी शक्ति का हरण होने पर संशय मिटते ही वैष्णव धनुष श्रीराम को सौंप दिया और क्षमा-याचना कर अनुचित बहुत कहेउअज्ञाता।क्षमहुक्षमामंदिरदोउ भ्राता॥तपस्या के निमित्त वन-गमन कर गए- कह जय जय जय रघुकुलकेतू।भृगुपतिगये वनहिंतप हेतू॥।वाल्मीकीय रामायण में दशरथनंदनश्रीराम ने जमदग्निकुमारपरशुराम का पूजन किया, और परशुराम ने श्रीरामचंद्रजीकी परिक्रमा कर आश्रम की ओर प्रस्थान किया।
उन्होंने श्रीराम से उनके भक्तों का सतत् सान्निध्य एवं चरणारविंदोंके प्रति सुदृढ भक्ति की ही याचना की। वे शस्त्रविद्याके महान् गुरु थे। उन्होंने भीष्म, द्रोण व कर्ण को शस्त्रविद्याप्रदान की थी। ब्रह्मावैवर्तपुराण में कथानक है कि कैलाश स्थित भगवान् शंकर के अन्त:पुर में प्रवेश करते समय गणेशजीद्वारा रोके जाने पर बलपूर्वक प्रवेश का प्रयास किया। तब गणपति ने उन्हें स्तम्भित कर अपनी सूँड में लपेटकर समस्त लोकों में भ्रमण कराते हुए गोलोकमें भगवान् श्रीकृष्ण का दर्शन कराके भूतल पर पटक दिया। चेतनावस्थामें आने पर कुपित परशुरामजीद्वारा किए गए फरसे के प्रहार से गणेशजीका एक दाँत टूट गया, जिससे एकदंतकहलाए। उन्होंने एकादश छन्दयुक्तशिव पंचत्वारिंशनाम स्तोत्रम्भी लिखा। इच्छित फल-प्रदाता परशुराम गायत्री है-ॐ जामदग्न्याय्विद्महेमहावीराय्धीमहि,तन्नोपरशुराम: प्रचोदयात्।वे पुरुषों के लिए आजीवन एक पत्नी-व्रत के पक्षधर थे। उन्होंने अत्रि-पत्नी अनसूया,अगस्त्य-पत्नी लोपामुद्राव प्रिय शिष्य अकृतवणके सहयोग से नारी-जागृति-अभियान का विराट संचालन भी किया। अवशेष कार्यो में कल्कि अवतार होने पर उनका गुरुपदग्रहण कर शस्त्रविद्याप्रदान करना शेष है।
शस्त्र और शास्त्र के महारथी परशुराम
हमहितुम्हहिसरिबरिकस नाथा/ कहहुन कहां चरन कहंमाथा / राम मात्र लघु नाम हमारा / परसुसहित बड नाम तोहारा..।मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम जिनका सादर नमन करते हों, उन शस्त्रधारी और शास्त्रज्ञ भगवान परशुराम की महिमा का वर्णन शब्दों की सीमा में संभव नहीं। वे योग, वेद और नीति में निष्णात थे, तंत्रकर्मतथा ब्रह्मास्त्र समेत विभिन्न दिव्यास्त्रों के संचालन में भी पारंगत थे, यानी जीवन और अध्यात्म की हर विधा के महारथी।
विष्णु के छठे अवतार परशुराम पशुपति का तप कर परशु धारी बने और उन्होंने शस्त्र का प्रयोग कुप्रवृत्तियोंका दमन करने के लिए किया। कुछ लोग कहते हैं, परशुराम ने जाति विशेष का सदैव विरोध किया, लेकिन यह तार्किक सत्य नहीं। तथ्य तो यह है कि संहार और निर्माण, दोनों में कुशल परशुराम जाति नहीं, अपितु अवगुण विरोधी थे। गोस्वामी तुलसीदास के शब्दों में जो खल दंड करहुंनहिंतोरा/भ्रष्ट होय श्रुति मारगमोरा की परंपरा का ही उन्होंने भलीभांति पालन किया। परशुराम ने ऋषियों के सम्मान की पुनस्र्थापना के लिए शस्त्र उठाए। उनका उद्देश्य जाति विशेष का विनाश करना नहीं था। यदि ऐसा होता, तो वे केवल हैहयवंश को समूल नष्ट न करते। जनक, दशरथ आदि राजाओं का उन्होंने समुचित सम्मान किया। सीता स्वयंवर में श्रीराम की वास्तविकता जानने के बाद प्रभु का अभिनंदन किया, तो कौरव-सभा में कृष्ण का समर्थन करने में भी परशुराम ने संकोच नहीं किया। कर्ण को श्राप उन्होंने इसलिए नहीं दिया कि कुंतीपुत्रकिसी विशिष्ट जाति से संबंध रखते हैं, वरन् असत्य वाचन करने के दंड स्वरूप कर्ण को सारी विद्या विस्मृत हो जाने का श्राप दिया था। कौशल्यापुत्र राम और देवकीनंदनकृष्ण से अगाध स्नेह रखने वाले परशुराम ने गंगापुत्र देवव्रत (भीष्म पितामह) को न सिर्फ युद्धकला में प्रशिक्षित किया, बल्कि यह कहकर आशीष भी दी कि संसार में किसी गुरु को ऐसा शिष्य पुन:कभी प्राप्त न होगा!
पौराणिक मान्यता के अनुसार अक्षय तृतीया को ही त्रेतायुग का प्रारंभ हुआ था। इसी दिन, यानी वैशाख शुक्ल तृतीया को सरस्वती नदी के तट पर निवास करने वाले ऋषि जमदग्नितथा माता रेणुका के घर प्रदोषकालमें जन्मे थे परशुराम।
परशुराम के क्रोध की चर्चा बार-बार होती है, लेकिन आक्रोश के कारणों की खोज बहुत कम हुई है। परशुराम ने प्रतिकार स्वरूप हैहयवंशके कार्तवीर्यअर्जुन की वंश-बेल का 21बार विनाश किया था, क्योंकि कामधेनु गाय का हरण करने के लिए अर्जुनपुत्रोंने ऋषि जमदग्निकी हत्या कर दी थी। भगवान दत्तात्रेयकी कृपा से हजार भुजाएं प्राप्त करने वाला कार्तवीर्यअर्जुन दंभ से लबालब भरा था। उसके लिए विप्रवधजैसे खेल था, जिसका दंड परशुराम ने उसे दिया। ग्रंथों में यह भी वर्णित है कि सहस्त्रबाहुने परशुराम के कुल का 21बार अपमान किया था। परशुराम के लिए पिता की हत्या का समाचार प्रलयातीतथा। उनके लिए ऋषि जमदग्निकेवल पिता ही नहीं, ईश्वर भी थे। इतिहास प्रमाण है कि परशुराम ने गंधर्वो के राजा चित्ररथपर आकर्षित हुई मां रेणुका का पिता का आदेश मिलने पर वध कर दिया था। जमदग्निने पितृ आज्ञा का विरोध कर रहे पुत्रों रुक्मवान,सुखेण,वसु तथा विश्वानसको जड होने का श्राप दिया, लेकिन बाद में परशुराम के अनुरोध पर उन्होंने दयावशपत्नी और पुत्रों को पुनर्जीवित कर दिया।
पशुपति भक्त परशुराम ने श्रीराम पर भी क्रोध इसलिए व्यक्त किया, क्योंकि अयोध्या नरेश ने शिव धनुष तोड दिया था। वाल्मीकि रामायण के बालकांडमें संदर्भ है कि भगवान परशुराम ने वैष्णव धनुष पर शर-संधान करने के लिए श्रीराम को कहा। जब वे इसमें सफल हुए, तब परशुराम ने भी समझ लिया कि विष्णु ने श्रीरामस्वरूपधारण किया है।
परशुराम के क्रोध का सामना तो गणपति को भी करना पडा था। मंगलमूर्तिने परशुराम को शिव दर्शन से रोक लिया था, रुष्ट परशुराम ने उन पर परशु प्रहार किया, जिससे गणेश का एक दांत नष्ट हो गया और वे एकदंतकहलाए।
अश्वत्थामा,हनुमान और विभीषण की भांति प्रभुस्वरूपपरशुराम के संबंध में भी यह बात मानी जाती है कि वे चिरजीवी हैं। श्रीमद्भागवत महापुराणमें वर्णित है, अश्वत्थामा बलिव्र्यासोहनूमांश्चविभीषण:/कृप: परशुरामश्चसप्तैतेचिरजीविन:।
ऐसे समय में, जब शास्त्र की महिमा को पुन:मान्यता दिलाने की आवश्यकता है और शस्त्र का निरर्थक प्रयोग बढ चला है, भगवान परशुराम से प्रेरणा लेकर संतुलन बनाने की आवश्यकता है, ताकि मानव मात्र का कल्याण हो सके और मानवता त्राहि-त्राहि न करे।
ज्ञान और स्वाभिमान के संवाहक परशुराम
शक्ति-संघर्ष का परिणाम अक्सर सुखद नहीं होता। इस तरह समाज की दो धाराओं में द्वंद्व की स्थितियां उत्पन्न हो जाती हैं, लेकिन क्षत्रिय के लिए उपयुक्त कर्म और ब्राह्मणोचितज्ञान में संतुलन के अनुपम उदाहरण परशुराम का सत्तासीन राजा कार्तवीर्यअर्जुन से संघर्ष आवश्यक ही कहा जाएगा। इसके परिणामस्वरूप समाज में विचलन की स्थिति समाप्त हो गई। राजा को शक्ति का दंभ था और ऋषि को ज्ञान पर स्वाभिमान तथा संघर्ष के औचित्य का भान।
हैहयवंशके कार्तवीर्यअर्जुन की वंश-बेल 21बार नष्ट करने के पीछे यूं तो परशुराम का प्रतिकार ही प्रमुख था, किंतु ऐसा कर उन्होंने यह बात जरूर स्थापित कर दी कि ज्ञान और तप का सम्मान सबको करना होगा, क्योंकि ये भारतीय संस्कृति के आधार-बिंदु हैं।
इतिहास में वर्णित है कि कार्तवीर्यअर्जुन के पुत्रों ने बलपूर्वक कामधेनु गाय प्राप्त करने के लिए ऋषि जमदग्निका वध कर दिया था। कार्तवीर्यको भगवान दत्तात्रेयकी कृपा से हजार भुजाओं का वरदान मिल गया था। दंभ से भरपूर कार्तवीर्यअर्जुन विप्र समाज को हेय समझता था। ब्राह्मणों, विद्वत्जनोंऔर ऋषियों को तिरष्कृतकरना और उनका वध कर देना उसके लिए जैसे कोई खेल था। परशुराम ने इसी का दंड राजा को दिया।
ग्रंथों में वर्णित है कि सहस्रबाहुकार्तवीर्यअर्जुन ने भृगुकुल का 21बार मान-हरण किया और प्रतिकार स्वरूप परशुधारीऋषि ने उसके वंश का 21बार संहार भी किया। वैसे, प्रतिशोध का कारण केवल अपमान नहीं था, अर्जुन पुत्रों ने परशुराम के पिता का वध कर दिया, तो ऋषि क्रोधाग्नि से घिर गए। पिता को वे ईश्वर से भी बडा मानते थे। गंधर्व नरेश चित्ररथके प्रति आकृष्ट हुईं मां रेणुका का भी परशुराम ने इसीलिए वध किया था, क्योंकि पिता की ऐसी इच्छा थी। फिर पिता से माता को पुनर्जीवित करने का आशीर्वाद भी मांगा।
मान्यता है कि वैशाख शुक्ल तृतीया (अक्षय तृतीया) को ही त्रेतायुग की शुरुआत हुई थी। यही अवसर था, जब सरस्वती नदी के तट पर बसने वाले ऋषि जमदग्नितथा उनकी पत्नी रेणुका के घर प्रदोषकालमें योग, वेद और नीति में पारंगत, तंत्रकर्मके साधक, ब्रह्मास्त्र समेत विभिन्न दिव्यास्त्रों के संचालक परशुराम का जन्म हुआ था।
परशुराम साधारण ऋषि नहीं। पौैराणिक ग्रंथों में बताया गया है कि वे विष्णु के छठे अवतार थे। उन्होंने पशुपति शंकर की निरंतर साधना की। आशीर्वाद स्वरूप शिव ने उन्हें अपना परशु दिया और उसे धारण करने के कारण ही ऋषि को परशुराम, यानी परशु युक्त राम कहा गया। मानव जीवन के सूक्ष्म दर्शन का ज्ञान और आध्यात्मिक उच्चताके शिखर पर स्थापना..यह संतुलन परशुराम ही कर सकते थे, तभी तो मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम भी कहते हैं, हमहि तुम्हहिसरिबरिकस नाथा/ कहहुन कहां चरन कहंमाथा / राम मात्र लघु नाम हमारा / परसुसहित बड नाम तोहारा..।जिन्हें प्रभु नमन करते हों, उनकी महानता के बारे में कहना ही क्या?
परशुराम और कार्तवीर्यमें संघर्ष के कारण भारतीय ज्ञान और मीमांसा के प्रति लोगों की आस्था तो बढी, लेकिन कहीं न कहीं दो वर्गो और जातियों में कटुता में भी वृद्धि हुई थी। इसी संदर्भ में श्रीराम की परशुराम से निकटता प्रशंसनीय है, क्योंकि उन्होंने ज्ञान प्रसार और समाज-रक्षा के लिए अस्त्रों के संचालन का दायित्व पुन:अलग-अलग जातियों में जाने देने के लिए परशुराम को प्रेरित किया।
कुप्रवृत्तियोंका दमन करने के लिए शस्त्र का प्रयोग करने वाले परशुराम संहार और निर्माण, दोनों में कुशल थे। उन्होंने जाति का नहीं, अवगुण का ही सदैव विरोध किया। जो खल दंड करहुंनहिंतोरा / भ्रष्ट होय श्रुति मारगमोरा (रामचरित मानस, तुलसीदास) की लीक पर चलते हुए ज्ञान और स्वाभिमान के संवाहक संत परशुराम ने ऋषियों के सम्मान की रक्षा की। उन्होंने जातिगत विद्वेष को स्थान कभी नहीं दिया। जनक, दशरथ आदि राजाओं का समुचित सम्मान करने वाले परशुराम ने सीता स्वयंवर में श्रीराम की वास्तविकता जानने के बाद प्रभु के प्रति समर्पण भी किया था।
श्रीमद्भागवत महापुराणमें बताया गया है, अश्वत्थामा बलिव्र्यासोहनूमांश्चविभीषण: / कृप:परशुरामश्चसप्तैतेचिरजीविन:।स्पष्ट है कि परशुराम चिरजीवी हैं। अश्वत्थामा,हनुमान और विभीषण की भांति प्रभुस्वरूपपरशुराम के संबंध में भी यह बात मानी जाती है। आज जबकि शास्त्रगतज्ञान, सांस्कृतिक उच्चताकी स्थापना पुन:आवश्यक हो चुकी है, तब भगवान परशुराम से प्रेरणा लेनी ही होगी।
जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK
nice yaar........... good, keep it up my all best wishes are with you.........
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