मैं वह हूं जो आप हैं
आदि शंकराचार्य शिष्यों के साथ नर्मदा नदी तट पर स्नान के लिए जा रहे थे। शिष्य उनके लिए मार्ग साफ करते चल रहे थे। इस दौरान एक पथिक वहां से गुजरा। शिष्यों ने उससे कहा-मार्ग छोड दें। स्वामी जी यहां से गुजरेंगे। शिष्यों के बार-बार आग्रह करने के बावजूद पथिक रास्ते से नहीं हटा। इतने में आदि शंकराचार्य भी वहां आ गए। उन्होंने उस पथिक से पूछा कि आप कौन हैं? पथिक ने अत्यंत धैर्य से उत्तर दिया-मैं वह हूं, जो आप हैं।
पथिक के इस कथन को सुनकर शंकराचार्य कुछ क्षण के लिए शांत खडे रहे और फिर झुक कर पथिक के चरणों को स्पर्श कर लिया। उन्होंने कहा-आज आपने मुझे जीवन का वास्तविक ज्ञान दे दिया। मैं आपको अपना गुरु स्वीकार करता हूं।
वह पथिक निम्न कुल का था। शंकराचार्य आजीवन उसे अपना गुरु मानते रहे। पथिक के कथन की उन्होंने दार्शनिक व्याख्या की, जिससे अद्वैत दर्शन का निर्माण हुआ। मानवतावादी चिंतन के लिए अद्वैत दर्शन एक आध्यात्मिक प्रेरणा है। सब एक हैं। कोई दूसरा नहीं है। इसका कारण है सर्वव्यापी ईश्वर और आत्म तत्व का ब्रह्म तत्व का अंश होना।
जब सृष्टि का नियामक एकमेव ब्रह्म है, तो फिर कोई किसी अन्य से पृथक क्यों? सब में वही आत्म तत्व है, जो सभी में है। उपनिषद में ऋषि कहते हैं कि अपने को जान, उसे जान, मुझे जान, और ईश्वर को जान। स्वयं से साक्षात्कार करने की स्थिति व्यक्ति को अमरत्व के दर्शन कराती है। जो आपमें है, उसमें है और हम में भी। छान्दोग्यउपनिषद में ऋषि कहते हैं कि सब कुछ ब्रह्म ही है। मनुष्य उसी से उत्पन्न हुआ है।
तैत्तिरीय उपनिषद में ऋषि ब्रह्म को आनंद का प्रतीक मानते हुए कहते हैं कि जिसने सृष्टि बनाई है, वह सबमेंहै और सब उसमें है। यह विचार भी अद्वैत दर्शन को पुष्ट करते हैं। साथ ही, ब्रह्म में आनंद की उपस्थिति उसके कल्याण रूप का प्रतीक है। ऋषि कहते हैं कि आनंद से ब्रह्म है, आनंद में ही ब्रह्म है, आनंद से ही ब्रह्म जीव पैदा होते हैं, आनंद से ही वे जीवित रहते हैं, आनंद में ही फिर समा जाते हैं।
भारतीय दर्शन में विभेद को मान्यता नहीं दी गई है। समरूपता,समरसता और एकाग्रता आत्मा के लक्षण हैं। उसे स्वीकार करते हुए कहा गया है कि एक ही ईश्वर सब प्राणियों के भीतर विराजमान है। वह सबको गति और ऊर्जा प्रदान करता है। सबके भीतर वही समाया है। वह सभी कर्मो का स्वामी है। वह साक्षी भी है, ज्ञाता भी है और न्यायाधीश भी। ईश्वर निर्गुण और अनंत है।
साधक की इच्छा होती है कि वह जीवन-जगत के रहस्यों को समझें। इसके लिए वह परमपिता परमेश्वर की निकटता चाहता है, क्योंकि उसकी निकटता का अनुभव मात्र ही अनेक रहस्यों को अनावृत्त कर देता है।
ईश्वर को जानने से सारे संशय दूर हो जाते हैं और जीव के मोह भाव नष्ट हो जाते हैं। कोई गैर नहीं होता, किसी से बैर नहीं होता। सब अपने होते हैं और व्यक्ति अद्वैत की स्थिति प्राप्त कर लेता है।
जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK
बेहतरीन पोस्ट .बधाई !
ReplyDelete'मैं' छूटा, 'मै-पन' भी छूटा
ReplyDeleteछूटा सब अपनापन भी.
खो गए स्नेह- सत्कार- घृणा,
खोया ये दीपक - आरती भी.
दूजे पर तो नाम भूल गया
रही शेष ..'हूँ' ...की स्मृति.
तीजे पर वह भी गयी
खो गयी सारी ...विकृति...
चौथे पर लिंग भेद खो गया
अहं - इदं का भेद भी गया.
जो अब है केवल 'वह' है.
यह प्रतिरूप उसी 'वह' का है.
पांचवे पर यह 'है' भी गया.
बचा रहा अब केवल - 'वह'.
परन्तु 'वह' कौन वह?
लिंग भेद से परे एक ज्योति.
जहा अहं-इदं-त्वम् का लोप.
केवलं - केवलं - इदं केवलं.
जो है - 'त्वं स्त्री', 'त्वं पूमां'..
ना स्त्री, और ना पूमान.
'अर्द्ध- नारीश्वरम' केवलम
सत्यम केवलं शक्ति केवलं,
शिवं केवलं, ....शुभं केवलं
मिटा छठे पर शिव-शक्ति युग्म
वह अलिंगी अर्द्धनारीश्वरम भी.
अब बचा है केवल- आनन्दम ...
मधुरं - मधुरं - आनन्दम....
सातवे पर यह 'आनंद' भी मिटा
अब केवलं केवलं 'महाशून्यम'
'महाशून्यम' .. .'महाशून्यम'.
अबतक तो था 'अस्ति' को जाना,
जाना अब अंतिम 'नास्ति' भी .
लौटा कैसे? मै नहीं जानता
लौटी तंद्रा, मै तो मंदिर में था.
था माँ के दरबार में.शंख - घंटा -
घडियाल - जयकारा की नाद में, ..
सामने दीपक -धूप जल रहा था
मै तो दुर्गा सप्तसती पढ़ रहा था..