जो जिम्मेदारी मिले उसे निभाओ, सवाल मत करो....
अधिकतर लोगों के साथ यह समस्या है कि उन्हें कोई भी जिम्मेदारी दी जाए, वे कुछ न कुछ शिकायत करते ही रहते हैं। जीवन में अध्यात्म हो या व्यवसाय हर जगह तप जरूरी है। जब तक हम अपनी जिम्मेदारियों को नहीं निभाते, सफलता कभी नहीं मिल सकती। अध्यात्म में भी सफलता का यही एक मार्ग है। प्रकृति या यूं कहें परमात्मा ने आपको जो काम दिया है उसे इमानदारी से बिना किसी शिकायत के पूरा करते चलें, आपको भगवान खुद ब खुद मिल जाएगा।
यह कथा कर्तव्य और परमात्मा के संबंध को बताती है। बहुत पुरानी बात है, एक राज्य में जोरदार बारिश के कारण नदी में बाढ़ आ गई। सारा नगर बाढ़ की चपेट में आ गया। लोग जान बचाकर ऊंचे स्थानों की ओर भागे। बहुत से लोगों की जान गई। राज्य का राजा परेशान हो उठा। एक पहाड़ी से उसने नगर का नजारा देखा। सारा नगर पानी में डूब चुका था। राजा ने अपने मंत्रियों से बचाव कार्य पर चर्चा की। पंडितों को बुलाया गया। किसी भी तरह से बाढ़ का पानी नगर से निकाला जाए, बस सबको यही चिंता थी। राजा ने सिद्ध संतों से पूछा क्या कोई ऐसी विधि है जो नदी को उल्टा बहा सके, जिससे बाढ़ का पानी निकल जाए। पंडितों ने कहा ऐसी कोई विधि नहीं है। तभी वहां एक वेश्या आई, उसने राजा से कहा वह नदी को उल्टी बहा सकती है। राजा को हंसी आ गई। मंत्रियों और ब्राह्मणों ने उसे दुत्कार दिया, जहां बड़े-बड़े सिद्ध पुरुष हार मान गए, वहां तू क्या है। पापिनी, तू तो अपवित्र है, समाज पर कलंक है।
वेश्या ने राजा से कहा मुझे एक बार अवसर तो दें। राजा ने सोचा जहां इतने लोग कोशिशें कर रहे हैं, यह भी कर तो बुराई ही क्या है। राजा ने उसे आज्ञा दे दी। वेश्या ने आंखें बंद कर थोड़ी देर कुछ बुदबुदाया। वह ध्यान की स्थिति में ही बैठी रही, तभी अचानक चमत्कार हो गया। नदी का बहाव उलटी दिशा में लौटने लगा और देखते ही देखते, सारा पानी बह गया। संकट टल गया। राजा ने उस वेश्या के पैर पकड़ लिए। उससे पूछा ऐसी सिद्धि तुझमें कहां से आई? वेश्या ने कहा यह मेरी गुरु की शिक्षा का असर है। जिस महिला ने मुझे इस निंदित कार्य में धकेला था, उसने मुझे एक शिक्षा दी थी कि शायद भगवान ने तुझे इसी कार्य के लिए बनाया है। तू कभी अपनी किस्मत को मत कोसना। जो भी जिम्मेदारी हो उसे हमेशा पूरे मन से निभाना। और मैंने यही किया। मैंने कभी भगवान से शिकायत नहीं की, न ही किस्मत को कोसा। मेरा कर्तव्य ही मेरी तपस्या बन गया और मैंने आज भगवान से उस तपस्या का फल मांग लिया।
नाम भी होता है बहुत काम का..
शब्दों से हमारा परिचय बहुत ही व्यवहारिक रहता है और हम इन्हें बोलचाल का साधन ही मानते हैं। शब्दों को केवल भाषा और व्याकरण से जोडऩे की भूल न करें। सूफी संतों ने भक्ति के क्षेत्र में शब्दों को नाम से जोड़ा है। नाम की बड़ी महिमा रही है। नाम यानी उस परमसत्ता का जो भी नाम आप दे दें इसे अध्यात्म में पूंजी माना गया है।
नानक कह गए हैं-
नानक नामु न वीसरै छूटै सबदु कमाइ
यानी नाम को भी भूलें ना, हमेशा शब्द की कमाई करते रहें, क्योंकि जिस दिन इस शरीर का मकसद पूरा होगा उस दिन यह केवल नाम कमाई से ही होगा।जिन्हें ध्यान में उतरना हो, परमात्मा पाने की ललक हो वे मन को विचारों से मुक्त करने के लिए नाम या शब्द से मन को जोड़ दें। नाम जप जितना अंदर उतरता है, गहरा होता जाता है तब मनुष्य उस शब्द की ध्वनि में सारंगी जैसा मधुर स्वर सुन सकेगा। हम बाहर से कोई संगीत, स्वर, तर्ज सुनकर ही थिरक उठते हैं रोमांचित हो जाते हैं तो कल्पना करिए ऐसा मधुर स्वर जब भीतर से सुनाई देने लगेगा तब साधक को जो तरंग उठेगी उसी का नाम आनंद होगा।
नानक ने इसी के लिए कहा है
घटि घटि वाजै किंगुरी अनदिनु सबदि सुभाइ
यह सारंगी की आवाज जब हमारे भीतर से आने लगेगी तो हमें यही सुरीला स्वर दूसरों के भीतर भी सुनाई देने लगेगा। हरेक के भीतर वही धुन। यहीं से अनुभूति होगी च्च्सिया राम मय सब जग जानीज्ज् के भाव की।
फिर नानक लिखते हैं
विरले कउ सोझी पई गुरमुखि मनु समझाइ
जो इस आवाज को सुनते हैं उन्हें नानक गुरुमुख कहते हैं और ये वो लोग होते हैं जो मनु समझाए की क्रिया करते रहते हैं। सीधी बात यह है कि जो अपने मन को समझा लेते हैं वे गुरुमुख होते हैं। वे इस कला को जानते हैं कि कैसे मन से शब्द या नाम को जोड़कर परमात्मा से मिलने की तैयारी की जाए।
जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK
अधिकतर लोगों के साथ यह समस्या है कि उन्हें कोई भी जिम्मेदारी दी जाए, वे कुछ न कुछ शिकायत करते ही रहते हैं। जीवन में अध्यात्म हो या व्यवसाय हर जगह तप जरूरी है। जब तक हम अपनी जिम्मेदारियों को नहीं निभाते, सफलता कभी नहीं मिल सकती। अध्यात्म में भी सफलता का यही एक मार्ग है। प्रकृति या यूं कहें परमात्मा ने आपको जो काम दिया है उसे इमानदारी से बिना किसी शिकायत के पूरा करते चलें, आपको भगवान खुद ब खुद मिल जाएगा।
यह कथा कर्तव्य और परमात्मा के संबंध को बताती है। बहुत पुरानी बात है, एक राज्य में जोरदार बारिश के कारण नदी में बाढ़ आ गई। सारा नगर बाढ़ की चपेट में आ गया। लोग जान बचाकर ऊंचे स्थानों की ओर भागे। बहुत से लोगों की जान गई। राज्य का राजा परेशान हो उठा। एक पहाड़ी से उसने नगर का नजारा देखा। सारा नगर पानी में डूब चुका था। राजा ने अपने मंत्रियों से बचाव कार्य पर चर्चा की। पंडितों को बुलाया गया। किसी भी तरह से बाढ़ का पानी नगर से निकाला जाए, बस सबको यही चिंता थी। राजा ने सिद्ध संतों से पूछा क्या कोई ऐसी विधि है जो नदी को उल्टा बहा सके, जिससे बाढ़ का पानी निकल जाए। पंडितों ने कहा ऐसी कोई विधि नहीं है। तभी वहां एक वेश्या आई, उसने राजा से कहा वह नदी को उल्टी बहा सकती है। राजा को हंसी आ गई। मंत्रियों और ब्राह्मणों ने उसे दुत्कार दिया, जहां बड़े-बड़े सिद्ध पुरुष हार मान गए, वहां तू क्या है। पापिनी, तू तो अपवित्र है, समाज पर कलंक है।
वेश्या ने राजा से कहा मुझे एक बार अवसर तो दें। राजा ने सोचा जहां इतने लोग कोशिशें कर रहे हैं, यह भी कर तो बुराई ही क्या है। राजा ने उसे आज्ञा दे दी। वेश्या ने आंखें बंद कर थोड़ी देर कुछ बुदबुदाया। वह ध्यान की स्थिति में ही बैठी रही, तभी अचानक चमत्कार हो गया। नदी का बहाव उलटी दिशा में लौटने लगा और देखते ही देखते, सारा पानी बह गया। संकट टल गया। राजा ने उस वेश्या के पैर पकड़ लिए। उससे पूछा ऐसी सिद्धि तुझमें कहां से आई? वेश्या ने कहा यह मेरी गुरु की शिक्षा का असर है। जिस महिला ने मुझे इस निंदित कार्य में धकेला था, उसने मुझे एक शिक्षा दी थी कि शायद भगवान ने तुझे इसी कार्य के लिए बनाया है। तू कभी अपनी किस्मत को मत कोसना। जो भी जिम्मेदारी हो उसे हमेशा पूरे मन से निभाना। और मैंने यही किया। मैंने कभी भगवान से शिकायत नहीं की, न ही किस्मत को कोसा। मेरा कर्तव्य ही मेरी तपस्या बन गया और मैंने आज भगवान से उस तपस्या का फल मांग लिया।
नाम भी होता है बहुत काम का..
शब्दों से हमारा परिचय बहुत ही व्यवहारिक रहता है और हम इन्हें बोलचाल का साधन ही मानते हैं। शब्दों को केवल भाषा और व्याकरण से जोडऩे की भूल न करें। सूफी संतों ने भक्ति के क्षेत्र में शब्दों को नाम से जोड़ा है। नाम की बड़ी महिमा रही है। नाम यानी उस परमसत्ता का जो भी नाम आप दे दें इसे अध्यात्म में पूंजी माना गया है।
नानक कह गए हैं-
नानक नामु न वीसरै छूटै सबदु कमाइ
यानी नाम को भी भूलें ना, हमेशा शब्द की कमाई करते रहें, क्योंकि जिस दिन इस शरीर का मकसद पूरा होगा उस दिन यह केवल नाम कमाई से ही होगा।जिन्हें ध्यान में उतरना हो, परमात्मा पाने की ललक हो वे मन को विचारों से मुक्त करने के लिए नाम या शब्द से मन को जोड़ दें। नाम जप जितना अंदर उतरता है, गहरा होता जाता है तब मनुष्य उस शब्द की ध्वनि में सारंगी जैसा मधुर स्वर सुन सकेगा। हम बाहर से कोई संगीत, स्वर, तर्ज सुनकर ही थिरक उठते हैं रोमांचित हो जाते हैं तो कल्पना करिए ऐसा मधुर स्वर जब भीतर से सुनाई देने लगेगा तब साधक को जो तरंग उठेगी उसी का नाम आनंद होगा।
नानक ने इसी के लिए कहा है
घटि घटि वाजै किंगुरी अनदिनु सबदि सुभाइ
यह सारंगी की आवाज जब हमारे भीतर से आने लगेगी तो हमें यही सुरीला स्वर दूसरों के भीतर भी सुनाई देने लगेगा। हरेक के भीतर वही धुन। यहीं से अनुभूति होगी च्च्सिया राम मय सब जग जानीज्ज् के भाव की।
फिर नानक लिखते हैं
विरले कउ सोझी पई गुरमुखि मनु समझाइ
जो इस आवाज को सुनते हैं उन्हें नानक गुरुमुख कहते हैं और ये वो लोग होते हैं जो मनु समझाए की क्रिया करते रहते हैं। सीधी बात यह है कि जो अपने मन को समझा लेते हैं वे गुरुमुख होते हैं। वे इस कला को जानते हैं कि कैसे मन से शब्द या नाम को जोड़कर परमात्मा से मिलने की तैयारी की जाए।
जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK
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