रोज करें आसान शिव स्तुति, दूर होंगी मुश्किलें
कामचोरी या काम टालनेवालों के लिए बड़े काम का है यह खास सबक
इन बातों से जुड़े आध्यात्मिक व जीवन प्रबंधन के नजरिए से काम के आगाज व सफलता पाने के 6 गुर –
इस्लाम के मानने वाले मुहर्रम माह की दस तारीख को शहीदों की याद के रूप में तथा इस्लाम के प्रति अपने समर्पण को दर्शाते हैं और साथ ही यह दुआ भी करते हैं कि रब उन्हें भी नेकी, समर्पण व कुर्बानी के जज्बे से सराबोर रखे। जंग को हराम समझे जाने वाले इस माह को शहरूल्लाह व शहरूल अम्बिया भी कहा जाता है।
24 नवंबर को नींद से जागेंगे भगवान विष्णु, शुरु होंगे मांगलिक कार्य
धर्म ग्रंथों के अनुसार भाद्रपद मास (भादौ) की शुक्ल एकादशी को भगवान विष्णु ने दैत्य शंखासुर को मारा था। शंखासुर बहुत पराक्रमी दैत्य था। इस वजह से लंबे समय तक भगवान विष्णु का युद्ध उससे चलता रहा। अंतत: घमासन युद्ध के बाद शंखासुर मारा गया। इस युद्ध से भगवान विष्णु बहुत अधिक थक गए।
कर्बला व कुरुक्षेत्र की जंग के ये खास सबक बनाते हैं फौलाद सा मजबूत
पिता पितामहाश्चान्ये अपुत्रा ये च गोत्रिण:।
इसके बाद आंवले के वृक्ष के तने में निम्न मंत्र से सूत्रवेष्टन करें-
इसके बाद कर्पूर या घृतपूर्व दीप से आंवले के वृक्ष की आरती करें तथा निम्न मंत्र से उसकी प्रदक्षिणा करें -
इसके बाद आंवले के वृक्ष के नीचे ही ब्राह्मणों को भोजन भी कराना चाहिए और अन्त में स्वयं भी आंवले के वृक्ष के नीचे बैठकर भोजन करना चाहिए। एक पका हुआ कुम्हड़ा (कद्दू) लेकर उसके अंदर रत्न, सुवर्ण, रजत या रुपया आदि रखकर निम्न संकल्प करें-
जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
हिन्दूग्रंथ रामचरितमानस के मुताबिक जब शिव भक्ति के घमण्ड में चूर
काकभुशुण्डि गुरु का उपहास करने पर भगवान शंकर के शाप से अजगर बने। तब गुरु ने ही
अपने शिष्य को शाप से मुक्त कराने के लिए शिव की स्तुति में रुद्राष्टक की रचना
की। गुरु के तप व शिव भक्ति के प्रभाव से यह शिव स्तुति बड़ी ही शुभ व मंगलकारी
शक्तियों से सराबोर मानी जाती है। साथ ही मन से सारी परेशानियों की वजह अहंकार को
दूर कर विनम्र बनाती है।
शिव की इस स्तुति से भी भक्त का मन भक्ति के भाव और आनंद में इस तरह उतर जाता
है कि हर रोज व्यावहारिक जीवन में मिली नकारात्मक ऊर्जा, तनाव, द्वेष, ईर्ष्या और अहं को दूर कर देता
है।
सरल शब्दों में यह पाठ इसलिए किसी भी दिन रुद्राष्टक का पाठ धर्म और व्यवहार
के नजरिए से शुभ फल ही देता है।
यह स्तुति सरल, सरस और भक्तिमय होने से शिव व शिव भक्तों को बहुत प्रिय भी है। धार्मिक नजरिए
से शिव पूजन के बाद इस स्तुति के पाठ से शिव शीघ्र प्रसन्न होते हैं। जानिए यह शिव
स्तुति-
नमामीशमीशान निर्वाण रूपं, विभुं व्यापकं ब्रह्म वेदः स्वरूपम् ।
अजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं, चिदाकाश माकाशवासं भजेऽहम् ॥
निराकार मोंकार मूलं तुरीयं, गिराज्ञान गोतीतमीशं गिरीशम् ।
करालं महाकाल कालं कृपालुं, गुणागार संसार पारं नतोऽहम् ॥
तुषाराद्रि संकाश गौरं गभीरं, मनोभूत कोटि प्रभा श्री शरीरम् ।
स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारू गंगा, लसद्भाल बालेन्दु कण्ठे भुजंगा॥
चलत्कुण्डलं शुभ्र नेत्रं विशालं, प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालुम् ।
मृगाधीश चर्माम्बरं मुण्डमालं, प्रिय शंकरं सर्वनाथं भजामि ॥
प्रचण्डं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं, अखण्डं अजं भानु कोटि प्रकाशम् ।
त्रय:शूल निर्मूलनं शूलपाणिं, भजे अहं भवानीपतिं भाव गम्यम्॥
कलातीत-कल्याण-कल्पांतकारी, सदा सज्जनानन्द दातापुरारी।
चिदानन्द सन्दोह मोहापहारी, प्रसीद-प्रसीद प्रभो मन्माथारी॥
न यावद् उमानाथ पादारविन्दं, भजंतीह लोके परे वा नाराणम्।
न तावत्सुखं शांति संताप नाशं, प्रसीद प्रभो सर्वभुताधिवासम् ॥
न जानामि योगं जपं नैव पूजा, न तोऽहम् सदा सर्वदा शम्भू तुभ्यम् ।
जरा जन्म दु:खौद्य तातप्यमानं, प्रभो पाहि आपन्नमामीश शम्भो ॥
रूद्राष्टक इदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये,
ये पठंति नरा भक्त्या तेषां शम्भु प्रसीदति ॥
कामचोरी या काम टालनेवालों के लिए बड़े काम का है यह खास सबक
शांत, सुखी, संपन्न व सफल जीवन का एक अहम सूत्र है - वक्त की कद्र करना यानी जीवन से जुड़े अहम लक्ष्यों को बिना वक्त गंवाए सही सोच, योजना व चेष्टा के साथ पाते चले जाना। शास्त्रों के मुताबिक भी मन, वचन और काम से जुड़ी किसी भी तरह की चूक, उदासीनता या आलस्य, दरिद्रता, असफलता व अनचाहे दु:ख की वजह बनती है।
आलसीपन या कामचोरी में डूबे व्यक्ति को समय का मोल समझाने व जीवन को सफल बनाने के लिए संत कबीरदास ने बहुत ही सीधी नसीहत देकर चेताया है। लिखा गया है कि -
पाव पलक की सुधि नहीं, करै काल का साज।
काल अचानक मारसी, ज्यों तीतर को बाज॥
मतलब यही है कि ज़िंदगी और वक्त अनिश्चितताओं से भरा है। इनमें पल भर में क्या हो जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता है। इसलिए किसी भी काम को टालने या अगले दिन करने की सोच या आदत बड़े नुकसान या पछतावे का कारण बन सकती है। क्योंकि मृत्यु भी अटल सत्य है, जो सांसों को अचानक वैसे ही थाम देती है, जैसे बाज, तीतर पर अचानक वार कर उसे ले उड़ता है।
संत कबीर का दर्शन यही है कि जीवन में कर्म, परिश्रम व पुरुषार्थ को महत्व दें व पल-पल का सदुपयोग करें। साथ ही जाने-अनजाने हुए अच्छे-बुरे कामों का मंथन करते रहें।
शरद पूर्णिमा के चांद में होती हैं लक्ष्मी कृपा करने वाली ये 2 खास बातें!
धन और पुण्य का गहरा संबंध है। धनवान बनने का सकारात्मक पक्ष विद्या, शील व कुल के रूप में सामने आता है। वहीं, धनहीन होने पर ये तीनों गुण नष्ट हो सकते हैं। धर्मशास्त्र भी पिछले जन्म के सद्कर्म वर्तमान में धन पाने की वजह बताते हैं और ऐसा धन ही पुण्य कर्मों की प्रेरणा भी।
इस तरह जीवन में सारे कर्म-धर्म और कलाओं में दक्षता के पीछे धन की भूमिका अहम होती है। जीवन में धन की इसी अहमियत को जानते हुए धर्मशास्त्रों में अच्छे कर्म से धन संचय के उद्देश्य से कुछ खास घडिय़ों पर विशेष देव उपासना की अहमियत बताई गई है। इसी कड़ी में शरद पूर्णिमा पर चंद्रदर्शन व देवी लक्ष्मी की उपासना का महत्व है।
असल में देवी लक्ष्मी धन का देवीय स्वरूप ही है। धार्मिक नजरिए से भी देवी लक्ष्मी की उपासना दरिद्रता का नाश कर वैभव संपन्न बनाती है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि शरद पूर्णिमा पर के पूर्ण कलाओं वाले चंद्रमा में मौजूद 2 खास बातें किसी भी इंसान को लक्ष्मी की अपार कृपा का पात्र बना सकती हैं? ये दो बातें शास्त्रों में अच्छे कर्मों से धन संचय के लक्ष्य को भी सार्थक करती है। जानिए शरद पूर्णिमा के चांद की ये 2 खास बातें -
लक्ष्मी कृपा देने वाले शरद पूर्णिमा के चंद्रमा की दो खासियत है - रोशनी और शीतलता। रोशनी यानी प्रकाश ज्ञान स्वरूप माना जाता है। संकेत है कि व्यावहारिक जीवन में ज्यादा से ज्यादा ज्ञान अर्जन ही दक्ष, कुशल व माहिर बनाता है, यानी ज्ञान, गुणी बनने के साथ धनी बनने की राह आसान बनाता है।
दूधिया रोशनी के साथ चंद्रमा की एक ओर विशेषता - शीतलता, यानी ठंडक यही संकेत करती है कि स्वभाव से शांत, वाणी से मधुर बने व व्यवहार में विनम्रता को अपनाए। प्रतीकात्कात्मक रूप से लक्ष्मी का आनंद स्वरूप भगवान विष्णु का संग भी इस बात की ओर इशारा है। क्योंकि शांत, सरल, सौम्य, सात्विक और सहज रहने से न केवल तन व मन भी निरोगी और ऊर्जावान रहता है बल्कि चंद्रमा की शीतलता की तरह दूसरों को भी प्रेम, सेवा, परोपकार व दया के रूप में बेहद राहत दी जा सकती है। ये गुण ही जीवन में सफल और वैभवशाली बनने के सूत्र हैं।
शरद पूर्णिमा की चांदनी पर नजर डालकर इन दो बातो को संकल्प के साथ जीवन में उतार लिया जाए तो धन ही नहीं तमाम सांसारिक सुखों को पाना भी बेहद आसान हो सकता है।
श्रीहनुमान की बताई इस बात से सीखें बेहतरीन लीडरशीप व मैनेजमेंट
सफल हो या असफल इंसान, दोनों को अपने वजूद को बनाए रखने के लिये जद्दोजहद करना ही होती है। मसलन, परिवार को खुशहाल बनाने से लेकर कार्यक्षेत्र में आगे बढऩे के दौरान संघर्ष का यह सिलसिला चलता ही रहता है। यानी यह कई तरीकों व रूप में उजागर होता है।
खासतौर पर परिवार के मुखिया के रूप में जिम्मेदारियों को उठाना हो या कार्यक्षेत्र में ऊंचे पद पर बैठकर प्रबंधन का दायित्व पूरा करना हो, दोनों ही स्थितियों में प्रशासनिक कुशलता अहम होती है। सभी के साथ समन्वय और संतुलन बनाने की यह बात मौखिक रूप से तो बड़ी आसान लगती है, किंतु व्यावहारिक रूप उतना ही कठिन भी होती है।
इसी मुश्किल काम को आसान बनाने का सूत्र हिन्दू धर्मग्रंथ वाल्मीकि रामायण में श्रीहनुमान द्वारा सुग्रीव को बताया गया। इसे राजा या शासन करने वाला कोई भी व्यक्ति अपनाएं तो गृहस्थी या कार्यक्षेत्र में सफलता पा सकता है। वाल्मीकि रामायण के मुताबिक श्रीराम-लक्ष्मण को देखकर सुग्रीव के मन में पैदा भय-संशय को दूर करने के लिय श्रीहनुमान द्वारा यह बात कही गई -
बुद्धिविज्ञानसम्पन्न इङ्गितै: सर्वमाचर:।
नह्यबुद्धिं गतो राजा सर्वभूतानि शास्ति हि।।
सरल शब्दों में संदेश है कि राजा बुद्धि और बल के बूते ही पूरी प्रजा पर सफलतापूर्वक शासन कर सकता है। इसके लिये बहुत जरूरी है कि बुद्धि और विवेक के उपयोग से दूसरों के भाव, स्वभाव और व्यवहार को समझें और उसके मुताबिक निर्णय लेकर काम करें।
यही बात गृहस्थी और कार्यक्षेत्र में समान रूप से लागू होती है। घर में पारिवारिक सदस्यों के स्वभाव, गुणों, आदतों और कार्यक्षेत्र में अधीनस्थों के कार्य, प्रकृति, गुण और व्यवहार की निरपेक्ष भाव से परख कर सफलता और लक्ष्य को हासिल करें और कुशल प्रबंधक बन अधीनस्थों के साथ स्वयं भी तरक्की की राह पर आगे बढें। मोटे तौर पर कहें तो सभी को साथ लेकर चलना ही बेहतरीन लीडरशीप व प्रबंधन का सूत्र है।
सुबह बोलें यह चमत्कारी मंत्र ! अनजाने भी न होंगे गलत काम व नुकसान
बुराई का किसी भी रूप में संग मन में बुरे भाव ही पैदा करता है। ये भाव काम या इच्छाओं के रूप में सामने आते हैं। हिन्दू धर्म ग्रंथों में बताए गए चार युगों में से कलियुग में भी पाप व बुरे कर्मों के बढऩे व उनसे कर्म, विचार और जीवन पर बुरा असर होने के बारे में लिखा गया है।
आज के दौर में भी उठते-बैठते इंसानी कर्म व विचारों में स्वार्थ, ईर्ष्या, कामनाएं, क्रोध जैसे अनेक स्वाभाविक दोष हावी दिखाई देते हैं। इससे जाने-अनजाने अनेक तरह के पाप होते हैं, जो आखिरकार दु:ख व कलह पैदा करते हैं।
मन, वचन, कर्मों से हुए पाप कर्मों से बचने या प्रायश्चित के लिये हिन्दू धर्मग्रंथ महाभारत में एक मंत्र विशेष बताया गया है, जो कलियुग के बुरे प्रभाव से बचाकर बुद्धि को पवित्र करने वाला माना गया है। खासतौर पर सुबह या जब भी मन में कोई बुरे विचार आए तो सचेत होकर इस मंत्र का स्मरण कर गलत काम या नुकसान की ओर बढऩे वाले कदमों को रोका जा सकता है। जानिए यह चमत्कारी मंत्र –
लिखा गया है कि कर्कोटक नाग, नल-दमयन्ती और ऋतुपर्ण का नाम लेने से कलियुग का प्रभाव नहीं होता। इसलिए श्रद्धा-भाव से पाठ-पूजा के वक्त इस मंत्र द्वारा इनका नाम स्मरण करें –
कर्कोटस्य नागस्य दमयन्त्या नलस्य च।
ऋतुपर्णस्य राजर्षे: कीर्तनं कलिनाशनम्।।
करवा चौथ, अमर प्रेम का प्रतीक है ये पर्व
हिंदू धर्म में अनेक ऐसे त्योहार आते हैं जो हमें रिश्तों की गहराइयों तथा उसके अर्थ से परिचित करवाते हैं। करवा चौथ भी उन्हीं त्योहारों में से एक है। यह पर्व प्रतिवर्ष कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को मनाया जाता है। इस बार यह पर्व 2 नवंबर, शुक्रवार को है। यह त्योहार पति-पत्नी के अमर प्रेम तथा पत्नी का अपने पति के प्रति समर्पण का प्रतीक है।
वास्तव में करवा चौथ का त्योहार भारतीय संस्कृति के उस पवित्र बंधन का प्रतीक है जो पति-पत्नी के बीच होता है। भारतीय संस्कृति में पति को परमेश्वर की संज्ञा दी गई है। करवा चौथ का व्रत रख पत्नी अपने पति के प्रति यही भाव प्रदर्शित करती है। स्त्रियां श्रृंगार करके ईश्वर के समक्ष दिनभर के व्रत के बाद यह प्रण भी लेती हैं कि वे मन, वचन एवं कर्म से पति के प्रति पूर्ण समर्पण की भावना रखेंगी।
हिंदू धर्म में पुरातन काल से करवा चौथ का व्रत रखने की परंपरा चली आ रही है। इस व्रत में विवाहित स्त्रियों दिनभर निराहार तथा निर्जला (बिना पानी पीए) रहना पड़ता है। इसके बावजूद विवाहित महिलाओं को इस व्रत का खासतौर पर इंतजार रहता है। यही इस पर्व की विशेषता है।
यह मंत्र, 5 चीजों का दान व हनुमान पूजा उपाय दूर करे मंगलदोष
हिन्दू धर्मशास्त्रों के मुताबिक शिव के अंश व भूमिपुत्र मंगल देव की उपासना खासतौर पर संतान, धन व कर्ज से जुड़ी परेशानियों को दूर करने में बड़ी ही शुभ व मंगलकारी होती है। ज्योतिष शास्त्रों के मुताबिक भी सूर्य के बाद मंगल ग्रह की उपासना का बड़ा ही महत्व है। मंगल ग्रह को तेजस्वी और क्रूर ग्रह माना जाता है। परंतु शिव अंश होने से मंगल उपासना छोटे पूजा उपायों से भी जल्द फल देने वाली मानी गई है।
खासतौर पर दान व मंत्र उपायों के अलावा शिव के ही अवतार श्रीहनुमान भक्ति के कुछ आसान उपाय भी मंगल ग्रह के अनिष्ट प्रभावों को दूर करते हैं। जानिए ऐसे ही असरदार उपाय -
- मंगल ग्रह की अशुभता को दूर करने में इन 5 चीजों का दान जरूर करें -
- गेहूं या मसूर की दाल।
- लाल वस्त्र।
- लाल कनेर के फूल तांबे के बर्तन।
- लाल रंग का बैल।
- मंगलवार का व्रत रखें और इस 6 अक्षरी खास मंत्र की कम से कम 9 माला का मंगलवार को जप करें -
"ऊँ हां हंसः खं खः"
- श्रीरामभक्त को मंगलदोष नहीं सताता। इसलिए रामस्तुति व राम मंत्र बोलें।
- रामभक्त श्रीहनुमान को सवा पाव या सवा किलो लड्डू का प्रसाद मंगलवार को चढ़ाएं।
- श्रीहनुमान चालीसा पढ़ें और बांटे।
- पूजा करते हुए श्रीहनुमान को लाल लंगोट चढ़ाएं।
ऐसी स्त्री के साथ घर बसानेवाला पुरुष जरूर होता है सफल!
शास्त्रों के मुताबिक स्त्री-पुरुष दोनों के लिए ही जीवन यात्रा के चार पड़ावों में एक गृहस्थाश्रम यानी गृहस्थ जीवन अहम होता है। इसी अहमियत को शिव-शक्ति, प्रकृति-पुरुष या अर्द्धनारीश्वर के रूप में स्त्री-पुरुष को एक दूसरे की शक्ति या पर्याय बताकर उजागर भी किया गया है।
सांसारिक जीवन में, खासतौर पर गृहस्थ जीवन में स्त्री-पुरुष के लिए एक-दूसरे के लिए यही भावनाएं कायम रखना सुखी गृहस्थी का सूत्र है। चूंकि गृहस्थी की हर जिम्मेदारी में स्त्री भी भागीदार होती है। इसलिए स्त्री की काबिलियत और कमजोरी पुरुष के जीवन की भी दिशा नियत करने वाली होती है।
इस नजरिए से भी भविष्यपुराण में सुखी गृहस्थ जीवन के लिए पुरुष का कुछ खास लक्षणों वाली स्त्री के साथ विवाह करना जरूरी बताया गया है, जो केवल स्त्री ही नहीं बल्कि पुरूष की भी शक्ति बन उसे सिद्धि, समृद्धि और ख्याति दिलाने वाले साबित होते हैं। जानिए यह खास खूबी –
भविष्य पुराण में लिखा गया है कि -
लक्षणेभ्य: प्रशस्तं तु स्त्रीणां सद्वृत्तमुच्यते।
सद्वृत्तयुक्ता या स्त्री सा प्रशस्ता न च लक्षणै:।।
इस श्लोक में साफ संदेश है कि स्त्री के लक्षण, यानी सौंदर्य या रंग-रूप की तुलना में उसका सदाचार यानी अच्छा आचरण श्रेष्ठ है। अगर स्त्री के आचरण मर्यादित और गरिमामय नहीं है तो ऐसी स्त्री का खूबसूरत होना भी व्यर्थ या अपयश देने वाला होता है।
इस तरह स्वभाव व व्यवहार में मर्यादा को होना स्त्री की शक्ति बताया गया है, जिसका संग पाकर पुरुष को भी भरपूर मान-सम्मान, यश व सफलता मिलती है।
जिससे प्रेम करो उसके प्रति समर्पित हो जाओ
जब तक विकार है, विश्राम संभव ही नहीं। अविकार की भूमिका विश्राम का स्वरूप या कहें कि विश्राम की पहचान है। प्रेम ही इस भवसागर से पार उतारने वाला एकमात्र उपाय है। प्रेमी बैरागी होता है, जिससे आप प्रेम करते हैं, उस पर न्यौछावर हो जाते हैं। त्याग और वैराग्य सिखाना नहीं पड़ता। प्रेम की उपलब्धि ही वैराग्य है। जिन लोगों ने प्रेम किया है, उन्हें वैराग्य लाना नहीं पड़ा।
जिन लोगों ने केवल ज्ञान की चर्चा की, उनको वैराग्य ग्रहण करना पड़ा, त्यागी होना पड़ा, वैराग्य के सोपान चढ़ने पड़े। कभी गिरे, कभी चढ़े लेकिन पहुंच गए। जैसे जब कृष्ण ब्रज से गए तो क्या ब्रजांगनाएं घर छोड़कर चली गईं। क्या गोप भागे? नहीं, वे सब वहीं रहे। वही गायें, वही बछड़े, वही गोशालाएं, वही खेत, वही घर, सब वहीं थे लेकिन वे सभी परम वैराग्य को उपलब्ध हो गए। प्रेम में वैराग्य निर्माण करने की शक्ति है।
भक्ति का अर्थ है जिसको तुम प्रेम करते हो उसके इच्छानुकूल रहो, यही भक्ति है। अपना सब कुछ भूल कर सिर्फ साध्य के लिए ही समर्पित होना भक्ति है। सच्ची भक्ति व्यक्ति और ईश्वर को इस तरह एक दूसरे में समाहित कर देती है कि आपमें ईश्वर की छाया दिखाई देने लगती है। ये भक्ति का ही असर था कि मीरा ने हंसते-हंसते सब कुछ सह लिया। सच्चा भक्त ईश्वर में सबको और सबमें ईश्वर को देखता है।
प्रभु भक्ति करनी हो तो मीरा की तरह करो या प्रभु से प्रेम करना हो तो ब्रज गोपिका की तरह करो। मीरा की ईश्वर भक्ति सबसे श्रेष्ठ है। उस काल के भक्त कवियों नरसिंह मेहता, ज्ञानदेव, नामदेव, कबीर, तुलसी व मीरा में संवादों का आदान-प्रदान होता रहता था। राजस्थान को रंग रंगीले राजस्थान की संज्ञा सर्वप्रथम मीराबाई ने ही दी थी। किसी भी भक्त के लिए मीरा के भजन बहुत महत्वपूर्ण हो सकते हैं। भक्ति में गायन का अपना अलग मनोविज्ञान है। यदि गम में भी मीरा के भक्ति गीत गाये जाए तो दर्द कम हो जाता है।
श्रीहनुमानचालीसा के पहले दोहे में हैं काम की सफलता के ये उपाय
गोस्वामी तुलसीदास ने हनुमान चालीसा की शुरुआत दो दोहों और गुरु के स्मरण से की है। लिखा है कि-
श्री गुरु चरण सरोज रज, निज मनु मुकुरु सुधारि।
बरनऊँ रघुबर बिमल जसु जो दायकु फल चारि।।
बुद्धिहीन तनु जानिक सुमिरौ पवन कुमार।
बल, बुद्धि, विद्या देहु मोहि हरहु क्लेश विकार।।
शाब्दिक अर्थ है - श्री गुरु के चरण कमलों की रज से अपने मन रूपी दर्पण को साफ कर मैं श्री रघुनाथ के उस पावन यश का वर्णन करता हूं, जो चारों फलों यानी धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को देने वाला है।
तुलसीदासजी ने दोहे की शुरुआत पहले गुरु को स्मरण कर की है। दरअसल, व्यावहारिक तौर पर धूल से दर्पण साफ नहीं होता, बल्कि दर्पण से धूल साफ होती है। किंतु तुलसीदासजी की इस बात में भी जीवन को साधने के गहरे सूत्र हैं। खासतौर पर काम हो या दिन बेहतर शुरुआत से सफलता तक का सफर तय करने के खास गुर इस पहले दोहे में उजागर हैं।
इस दोहे में संकेत है कि जिस तरह हम दर्पण देखकर खुद के सौंदर्य को बेहतर ढंग से व्यवस्थित कर बाहर जाते हैं। ठीक उसी तरह से जीवन से जुड़े हर काम या मकसद की शुरुआत के लिए मन का साफ, मजबूत और संतुलित होना अहम है। इसके लिये सच व ज्ञान से जुडऩे की अहमियत है, जिनकी यहां गुरु के रूप वंदना और आवाहन कर अहमियत बताई गई है।
इसी तरह दोहे में श्री हनुमान के लिए रघुवर शब्द उपयोग किया है। जिसका अर्थ है श्रीराम, राम के भाई या रघुवंश के सदस्य। जिज्ञासा की बात यह है कि जब हनुमान रघुवंशी नहीं थे तो उनके लिए यह शब्द क्यों प्रयोग किया गया?
तुलसीदासजी के मुताबिक इस जिज्ञासा का हल यही मिलता है श्रीहनुमान को माता सीता ने अपना पुत्र माना था, जो सुंदरकाण्ड की इन पंक्तियों से उजागर होता है - हैं सुत कपि सब तुम्हहिं समाना।
सीता माता ने कहा - हे पुत्र, सभी वानर तुम्हारे जैसे होंगे।
यह प्रसंग सीता खोज के दौरान श्री हनुमान के अशोक वाटिका पहुंचने के वक्त का है। इसी कारण रामचरित मानस में भी राम और सीता के पहले हनुमान को रघुवंशी मान वंदना की गई।
इन बातों से जुड़े आध्यात्मिक व जीवन प्रबंधन के नजरिए से काम के आगाज व सफलता पाने के 6 गुर –
इन सब बातों में अध्यात्म से जुड़े जीवन प्रबंधन के यही सूत्र है कि किसी लक्ष्य या काम को पाने की शुरुआत अपनी योग्यता ही नहीं बल्कि खुद की कमजोरियों को भी पहचान कर करें, जो बार-बार अभ्यास व गौर करने पर सामने आ जाती है। यही नहीं गुरु की शरण के लिए जरूरी नीचे लिखी 6 बातें भगवान की तरह काम से भी जोड़कर देखें तो फिर जीवन की सफलता तय है –
- ईश्वर को पाने में मददगार हर जरिया और विषय की समझ विकसित करें।
- जो भी विषय या वस्तु भगवान को पाने में अड़चने बने, उसे छोड़ देना।
- ईश्वर मेरे रक्षक है, यह पक्का भरोसा रखें।
- हमेशा भगवान से रक्षा की प्रार्थना करते रहें।
- किसी भी तरह एक ही मकसद रखें कि भगवान प्रसन्न हों।
- अपनी कमजोरी, अभाव को भगवान के सामने उजागर करना।
श्रीहनुमानचालीसा पढ़ने का असर इन 4 अहम जरूरतों को जल्द करता है पूरा
श्रीहनुमान चालीसा में छिपे जीवन सूत्रों को जानने की कड़ी में चालीसा की शुरुआत में आया दूसरा दोहा न केवल हनुमान चालीसा पाठ से मिलने वाले ऐसे 4 नतीजों या यूं कहें चालीसा पढऩे के प्रभाव से पूरी होने वाली इच्छाओं को उजागर करता है, जो बेहतर शुरुआत के बाद काम और जीवन को बेहतर अंजाम तक पहुंचाने में निर्णायक होती है। जानिए दूसरे दोहे से जुड़ा जीवन प्रबंधन सूत्र व 4 इच्छाएं लिखा गया है कि -
बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरौ पवनकुमार।
बलबुद्धि विद्या देहु मोहिं, हरहु क्लेश विकार।।
अर्थ है कि हे पवनपुत्र, मैं स्वयं को बुद्धिहीन जानकर आपको याद कर रहा हूं। आप मुझे बल-बुद्धि और विद्या देकर मेरे सभी कलह, संताप व दोषों का अंत कर दें। इस दोहे में गोस्वामी तुलसीदास द्वारा स्वयं को बुद्धिहीन व तन से भी कमजोर बताकर सफल भक्ति के साथ ही कामयाब जीवन से जुड़े गहरे अर्थ भी उजागर किए हैं।
दरअसल, भक्ति हो या जीवन, दोनों की सफलता के लिए 3 बातें अहम होती है - पहला भरोसा, दूसरा समर्पण और तीसरा सक्रियता। चूंकि हर इंसान देह के साथ बुद्धि का भी स्वामी होता है।
किंतु भक्ति के रास्ते चलने पर ईश्वर पर भरोसा, शरणागति या स्वयं को ईश्वर के सामने दीन मानना और ईश्वर नाम में अडिग भाव से रमना जरूरी है। इसके लिए बुद्धि से तर्क नहीं बल्कि हृदय के भाव सर्वोपरि और अहम होते हैं। इसी भाव से तुलसीदासजी ने खुद को बुद्धिहीन और तनु यानी तन से कमजोर यानी तन या देहबल के अहंकार से परे पुकारा है।
इन तीन सूत्रों को व्यावहारिक जीवन से जोड़े तो आज के दौर में भी सुख, शांति और कलहमुक्त जीवन के लिए जरूरी है कि बुद्धि का उपयोग ऐसा हो कि वह भरोसेमंद बनाए, विद्या में ठहराव न आए और बलवान होने पर निष्ठा, समर्पण और विनम्रता कायम रहे। इस तरह हनुमान चालीसा के जरिए हनुमान का स्मरण बल, बुद्धि, विद्या रूपी तीन सुख और शक्तियों के बूते दु:ख देने वाले और मकसद से भटकाने वाले कलह, काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह और मत्सर से दूर रख शांति के रूप में चौथी इच्छा भी पूरी करेगा।
श्रीहनुमानचालीसा की पहली चौपाई में है पद-प्रतिष्ठा पाने के ये 3 खास सूत्र
गोस्वामी तुलसीदास ने हनुमान चालीसा के दोहों के साथ ही चौपाईयों के जरिए भी जीवन जीने के बेजोड़ सूत्र प्रकट किए हैं। गौर करें पहली चौपाई के संकेतों पर, लिखा है कि –
जय हनुमान ज्ञान गुन सागर।
जय कपीस तिहुं लोक उजागर।।
अर्थ है ज्ञान और गुण के सागर श्री हनुमान की जय हो। आपकी ख्याति से तीनो लोक यानी स्वर्ग, भू और पाताल प्रकाशित हैं। हे कपीश्वर, आपकी जय हो। इस चौपाई में छिपे 3 ऐसे सूत्र जिससे खूब पद-प्रतिष्ठा बटोरी जा सकती है-
गोस्वामी तुलसीदास ने चौपाईयों की शुरुआत में पवनसुत के सबसे प्यारे नाम श्रीहनुमान लेकर उनकी जयकार की है। क्योंकि इस नाम के साथ जुड़े किस्से से ही हनुमान के शक्ति संपन्न, ज्ञानी और गुणी बनने के रहस्य भी छिपे हैं और ज्ञान, बल और गुणों का महत्व भी।
दरअसल, मासूम पवनसुत ने लाल दमकते सूर्य को फल समझ मुंह में भर लिया, नतीजतन सूर्य के अभाव से जगत की रक्षा के लिए इंद्रदेव के व्रज्र का प्रहार से पवनसुत बेहोश होकर भूमि पर गिरे और हनु यानी ठोड़ी टूटने से हनुमान नाम से पुकारे गए। सारे देवताओं ने भी श्री हनुमान को अनेक शक्तियों का वरदान दिया।
बाद में यही सूर्यदेव से शिक्षा के लिए श्री हनुमान ने जो कारनामा किया, वह भी अद्भुत और हर सांसारिक जीव के लिए भी किर्ती और हर हृदय पर राज करने का सूत्र उजागर करता है।
दरअसल, सूर्यदेव से शिक्षा पाने के लिए श्रीहनुमान ने उनके रथ के समान गति में और सामने की ओर चलते रहने का वचन दिया। ऐसे दुर्लभ और विलक्षण कोशिशों से श्रीहनुमान से सूर्यदेव से ज्ञान पाया और जगत को भी ज्ञान की अहमियत बताई।
यही कारण है कि श्रीहनुमान को पहली चौपाई में ज्ञान और गुण का सागर पुकार हनुमान चालीसा रूपी ज्ञान के सागर में भी डुबकी लगाने की प्रेरणा और राह बताई है। संकेत यह भी है कि ज्ञानी को बुराईयों और बुरे आचरण से दूरी बनाए रखना चाहिए। ठीक वैसे ही जिस तरह अतुलित शक्ति व ज्ञान से ही श्री हनुमान ने भी श्रीराम से लेकर वानरों के हृदय में बसे और उनके संकटमोचक भी बने।
दीप लगाने के ये 3 फायदे जानकर आप भी करेंगे घर का कोना-कोना रोशन
घोर अंधकार से भरी रात में जीवन को खुशहाली व शांति रूपी उजाले से रोशन करने के संकल्प व चाहत से दीप उत्सव दीपावली पर श्री, वैभव, ऐश्वर्य और तमाम संसारिक सुखों की अधिष्ठात्री मां लक्ष्मी का स्मरण किया जाता है। इस उत्सव की सबसे बड़ी खासियत है - रोशनी। क्योंकि इस पर्व पर तन, मन व आत्मा को भी रोशन करने के महत्व से दीपों की जोत जलाई जाती है। इसलिए यह प्रकाशोत्सव भी कहा जाता है।
दरअसल, शास्त्र व परंपराओं के मुताबिक जीवन के लिए अर्थ यानी धन व भोग्य वस्तुओं की बहुत अहमियत बताई गई है। खासतौर पर धन को लक्ष्मी स्वरूप माना गया है। यही वजह है कि अक्सर लक्ष्मी के पीछे दुनिया भागती दिखाई देती है। चूंकि लक्ष्मी का स्वभाव चंचल माना जाता है, इसलिए लक्ष्मी कहां जाना और रहना चाहती है? अगर यह जान लें तो संभवत: धन ही नहीं इच्छा पूर्ति व सुख-शांति की कवायद में चल रही दौड़-भाग कम या खत्म भी हो सकती है। क्योंकि फिर लक्ष्मी आप से कभी मुंह न मोड़ेगी।
इस पर्व की अंदर और बाहरी जीवन को रोशनी से सराबोर करने वाली दीपज्योति परंपरा में इस जिज्ञासा का हल मिलता है। दीप जलाने के पीछे धर्म के नजरिए से लक्ष्मी की जल्द प्रसन्नता के अलावा वैज्ञानिक महत्व के साथ 3 अलग-अलग पहलू जुड़े हैं। इन वजहों व फायदों को जानकर हर व्यक्ति घर का कोना-कोना रोशन करना नहीं चूकेंगे।
पहली वजह व फायदा धर्म व पौराणिक महत्व की नजरिए से जानें तो यह दिन समुद्र मंथन से लक्ष्मी के प्राकट्य का है। मान्यता है कि कार्तिक अमावस्या की अर्द्धरात्रि के वक्त देवी लक्ष्मी सदाचारी गृहस्थों के निवास पर भ्रमण करती है। यही वजह है कि घर को साफ-सुथरा व पवित्र कर दीप लगाने से लक्ष्मी शीघ्र प्रसन्न ही नहीं होती, बल्कि उस स्थान को स्थायी वास बना लेती है।
इसी तरह धर्म पालन के नजरिए से दूसरी वजह या फायद यही है कि यह उत्सव अंधकार से उजाले की ओर बढऩे का सूत्र सिखाता है। यहां इशारा काम, क्रोध, मोह, मद, दंभ, कपट, छल रूपी अंधकार की ओर है। जिनसे अलग होने पर ही किसी इंसान को जीवन में रोशनी और खूबसूरत रंगों में नजर आ सकते हैं। ज्ञान, प्रेम, स्नेह, सद्भाव, भाईचारे, मेलजोल की भावना ही ये रंग और रोशनी हैं। ऐसा उजाला ही रिश्तों और सफलता से नजदीकियां बनाए रखता है।
वहीं दीप लगाने की तीसरे वजह या फायदा विज्ञान व व्यवहारिक नजरिए से यही उजागर होता है कि मौसम के बदलाव यानी बारिश के मौसम में नमी से बने अस्वच्छ वातावरण, वायु, व इनसे पैदा हुए रोग-रोगाणु, गंदगी, जो अलक्ष्मी का ही रूप है, को दूर करने के लिए ठंड के मौसम की शुरुआत में दीपों की ऊष्मा, ऊर्जा व रोशनी बड़ी फायदेमंद और कारगर होती है. साथ ही सुख-सेहत व शांति रूपी शुभ लक्ष्मी को बुलावा भी।
अंधकार पर प्रकाश की जीत का पर्व दीपावली 13 को
कार्तिक मास की अमावस्या को दीपावली का पर्व मनाया जाता है। दीपावली का त्योहार भारतीय सभ्यता, संस्कृति का एक सर्व प्रमुख त्योहार है। दीपावली का पर्व मनाए जाने के पीछे कई कथाएं व किवदंतियां प्रचलित हैं लेकिन इन सबके पीछे का सार एक ही है जो बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक है।
दीपावली वास्तव में एक त्योहार नहीं है बल्कि यह त्योहारों का समूह है। दीपावली का पर्व 5 दिनों तक मनाया जाता है। सबसे पहले कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी को धनतेरस (इस बार 11 नवंबर, रविवार) का पर्व मनाया जाता है। इस दिन भगवान धन्वंतरि का पूजन किया जाता है। अगले दिन यमराज के निमित्त नरक चतुर्दशी (12 नवंबर, सोमवार) का व्रत व पूजन किया जाता है। इसके दूसरे दिन दीपावली (13 नवंबर, मंगलवार) मनाई जाती है। कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा के दिन गोवर्धन पूजा (14 नवंबर, बुधवार) की जाती है वहां द्वितीया को भाई दूज (15 नवंबर, गुरुवार) का पर्व मनाया जाता है।
पुरातन काल से ही हिंदू धर्मावलंवी दीपावली का त्योहार हर्षोल्लास से मनाते आ रहे हैं। अमावस्या के गहन अंधकार के विरुद्ध नन्हें दीपकों के प्रकाश का संघर्ष रूपी संदेश देना ही इस त्योहार का मूल उद्देश्य है। यहां अंधकार का अर्थ मन के भीतर के नकारात्मक भावों से हैं वहीं दीपक उसी मन मे छिपे बैठे सकारात्मक भावों का प्रतीक है। दीपावली पर्व को अगर भारतीय संस्कृति की अस्मिता का प्रतीक कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी।
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दीप महोत्सव यानी दीपावली 'तमसो मा ज्योर्तिगमय' यानी ईश्वर से अज्ञानता के अंधकार से दूर कर ज्ञान के उजाले की ओर ले चलने की कामना से सराबोर है।
इसमें दरिद्रता से दूरी व संपन्नता से नजदीकियों की चाहत भी जुड़ी है। चूंकि सांसारिक जीवन में समृद्धि व सफलता के लिए धन की चाहत से कोई अछूता नहीं होता। इसलिए धर्म और कर्म दोनों ही तरीकों से वैभव की देवी माता लक्ष्मी को पूजने की अहमियत बताया गया है।
वहीं, धर्मग्रंथ महाभारत में भी धन संपन्नता या लक्ष्मी का साया सिर पर बनाए रखने की ऐसी ही चाहत पूरी करने के लिए व्यावहारिक जीवन में कर्म व स्वभाव से जुड़ी कुछ गलत आदतों से पूरी तरह से किनारा कर लेने की ओर साफ इशारा किया गया है। इन बुरी आदतों के कारण लक्ष्मी की प्रसन्नता मुश्किल बताई गई है।
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महाभारत में लिखा है कि -
षड् दोषा: पुरुषेणेह हातव्या भूतिमिच्छता।
निद्रा तन्द्रा भयं क्रोध आलस्यं दीर्घसूत्रता।।
इस श्लोक मे कर्म, स्वभाव व व्यवहार से जुड़ी इन छ: आदतों को यथासंभव छोड़ने की सीख है -
नींद - अधिक सोना समय को खोना माना जाता है, साथ ही यह दरिद्रता का कारण बनता है। इसलिए नींद भी संयमित, नियमित और वक्त के मुताबिक हो यानी वक्त और कर्म को अहमियत देने वाला धन पाने का पात्र बनता है।
तन्द्रा - तन्द्रा यानी ऊंघना निष्क्रियता की पहचान है। यह कर्म और कामयाबी में सबसे बड़ी बाधा है। कर्महीनता से लक्ष्मी तक पहुंच संभव नहीं।
डर - भय व्यक्ति के आत्मविश्वास को कम करता है, जिसके बिना सफलता संभव नहीं। निर्भय व पावन चरित्र लक्ष्मी की प्रसन्नता का एक कारण है।
क्रोध - क्रोध व्यक्ति के स्वभाव, गुणों और चरित्र पर बुरा असर डालता है। यह दोष सभी पापों का मूल है, जिससे लक्ष्मी दूर रहती है।
आलस्य - आलस्य मकसद को पूरा करने में सबसे बड़ी अड़चन है। संकल्पों को पूरा करने के लिए जरूरी है आलस्य को दूर ही रखें। यह अलक्ष्मी का रूप है।
दीर्घसूत्रता - जल्दी हो जाने वाले काम में ज्यादा देर लगाना, टालमटोल या विलंब करना।
ये 5 दुर्लभ व बेशकीमती संपत्तियां पाने के मौके हैं दीपावली के 5 दिन
दीपावली पर्व खासतौर पर धन स्वरूपा देवी लक्ष्मी की साधना का पर्व है। इसमें अमावस्या के अंधकार को चीरती दीपों की जोत से निकली रोशनी की किरणें इशारा करती हैं कि जीवन में असफलता के अंधकार से बाहर आना तभी संभव है जब दीपज्योति की तरह चरित्र व व्यक्तित्व की चमक चारों ओर बिखरें। जानिए यह कैसे मुमकिन है?
दरअसल, ज़िंदगी को खुशहाल व चरित्र को उजला बनाने के नजरिए से दीपावली के पांच दिन यानी, धनतेरस से भाई-दूज की परंपराएं ज़िंदगी के लिए अहम 5 अनमोल संपत्तियां या दौलत जुटाने का मौका देती हैं। कौन-सी और किस रूप में मिलती है ये बेशकीमती दौलत? जानिए-
दीपावली महापर्व का पहला दिन यानी, धनतेरस - भगवान धनवन्तरि की पूजा द्वारा निरोगी जीवन
रूपी धन की कामना की जाती है। इसमें अच्छी सेहत के लिए संयम व अनुशासन का संदेश है। यानी बेहतर व सफल ज़िंदगी के लिए स्वास्थ्य को अनमोल संपत्ति भी माना गया है।
दूसरे दिन नरक या रूप चतुर्दशी की परंपराओं में सौंदर्य रूपी दौलत की अहमियत है, जिसमें समृद्ध जीवन के लिए तन ही नहीं बल्कि मन व व्यवहार की भी सुंदरता व पावनता कायम रखने का संदेश है।
तीसरे दिन यानी दीपावली पर लक्ष्मी व कुबेर के साथ श्रीगणेश, मां सरस्वती पूजा सुखी व शांत जीवन के लिए धन के साथ ज्ञान, विवेक व बुद्धि रूपी दौलत की अहमियत उजागर करती है।
चौथे दिन यानी गोवर्धन पूजा द्वारा गोधन के साथ जुड़ा प्रतीकात्मक संदेश श्रीकृष्ण का स्मरण कर सफल जीवन के लिए कर्म व पुरुषार्थ के साथ कुदरत और अन्य प्राणियों की अहमियत बताई गई
है।
पांचवे दिन, यम द्वितीया या भाई-दूज रिश्तों की दौलत को सहेजने का संदेश है। इसमें भाई-बहन के पवित्र रिश्तों को सामने रख हर संबंध में सच्चाई, पावनता, संस्कार और मर्यादा द्वारा कलहमुक्त जीवन बिताने का सूत्र है।
दीपावली के पांच दिनों से जुड़ी धन रूपी इस शक्ति साधना का संदेश जीवन में उतार लें तो महालक्ष्मी की कृपा ताउम्र बनी रहना संभव है।
साईं की इन 5 बातों से जल्द साकार हो जाते हैं सफलता के सपने
धर्म व आध्यात्मिक नजरिए से गुरु कृपा ही मन, वचन व कर्म में देवीय गुणों को जगाकर ईश्वर से मिलन की शक्ति भी देती है। यही वजह है कि गुरु को साक्षात् ईश्वर का दर्जा दिया गया है। क्योंकि गुरु ही ज्ञान, बुद्धि और विवेक के जरिए शरण में आए हर शरणागत को गुण और शक्तियों से पहचान कराते हैं, जिनके जरिए ही बेहतर, सफल व आदर्श जीवन बनाना संभव होता है।
साईं बाबा ऐसे ही जगतगुरु के रूप में पूजनीय है। हिन्दू धर्म साईं बाबा उन गुरु दत्तात्रेय का अवतार माने जाते हैं, जिन्होंने कुदरत की हर रचना में गुरु के दर्शन किए और 24 गुरुओं से शिक्षा ग्रहण की, जिनमें प्राणी, वनस्पति शामिल थे। ऐसे ही महायोगी और महागुरु स्वरूप साईं बाबा ने जीवन में सफलता, यश, पद, प्रतिष्ठा पाने के कई ऐसे बेजोड़ सूत्र उजागर किए हैं, जो धर्म पालन के नजरिए से भी अहम माने गए हैं। जानिए जीवन की सफलता के सपनों को साकार करने वाले ये नायाब सूत्र –
प्रेम - साईं बाबा ने सुखी जीवन के लिए प्रेम भावना को सबसे अहम माना। यही वजह है कि धर्म, छोटे-बड़े, ऊंच-नीच की भावना से परे रहकर बोल, काम और व्यवहार में प्रेम को जगह देने की सीख दी। क्योंकि प्रेम ही विश्वास की बुनियाद है, जो मन ही नहीं, व्यक्तियों को भी जोड़कर रखता है।
संयम व संतोष - साईं के श्रद्धा-सबूरी के अहम सूत्रों में संयम और समर्पण का सूत्र छुपा है, जो जीवन की सफलता के लिए बहुत जरूरी है। धर्मशास्त्र भी धर्म पालन के लिए इंद्रिय संयम का महत्व बताते हैं। साईं के इन सूत्रों में संकेत हैं हर काम में श्रद्धा या समर्पण और धैर्य के साथ शक्ति व ऊर्जा का उपयोग कर सफलता की राह आसान बनाई जा सकती है।
भगवान के लिए प्रेम व विश्वास - सबका मालिक एक का सूत्र ईश्वर की एकात्मता का ही संदेश ही नहीं देता बल्कि इसमें धर्म के बंधनों से दूर होकर मानवीय भावनाओं व रिश्तों को सबसे ज्यादा तवज्जो देने की सीख है। इस बात में सफलता के लिए काम के साथ ईश्वर भक्ति और शक्ति पर विश्वास रखने का सबक व प्रेरणा है।
भलाई व दया - साईं चरित्र में मानवता का भाव धर्म की राह पर चलने के लिए अहम दया व परोपकार की सीख देता है। सीख है कि किसी भी तरह से छोटे या कमजोर की उपेक्षा नहीं बल्कि प्रेम के साथ सहायता और मदद के लिए तैयार रहें। इस तरह साईं द्वारा संवेदना भी सफलता का एक सूत्र बताया गया है।
दूसरों का सम्मान - गुरु शब्द का एक अर्थ बड़ा भी होता है। जगतगुरु साईं बाबा ने भी बड़ा बनने का ऐसा ही अहम सूत्र सिखाया। साईं ने अहं को छोड़ खासतौर पर ईश्वर, गुरु और उम्र में बड़े लोगों के साथ ही सभी के लिए सम्मान और विश्वास का भाव रखने की सीख दी। इसके द्वारा कोई इंसान स्वयं भी मान, प्रतिष्ठा, कृपा व सहायता पाकर ऊंचा पद व मनचाही सफलता पा सकता है।
गोवत्वद्वादशी शनिवार को, करें गाय व बछड़े का पूजन
कार्तिक मास के कृष्णपक्ष की द्वादशी तिथि गोवत्वद्वादशी के नाम से जानी जाती है। इस बार यह 10 नवंबर, शनिवार को है। इस व्रत में भक्तिपूर्वक गाय का पूजन किया जाता है।
व्रतविधान- यह व्रत प्रदोषव्यापिनी तिथि में किया जाता है। यदि वह दो दिन हो या न हो तो वत्सपूजा व्रतश्चैव कर्तव्यौ प्रथमेहनि के अनुसार पहले दिन व्रत करना चाहिए। इस दिन किसी पवित्र सरोवर या नदी में अथवा घर पर विधिपूर्वक स्नान करके व्रत का संकल्प करना चाहिए। इस व्रत में एक समय भोजन किया जा सकता है परंतु भोजन में गाय के दूध या उससे बने पदार्थ तथा तेल में पके पदार्थ नहीं खाने चाहिए। शाम को बछड़े सहित गाय का गंध, फूल, चावल, दीप, उड़द के बड़े व फूल मालाओं द्वारा निम्नलिखित मंत्र से पूजन करें-
माता रुद्राणां दुहिता वसूनां स्वसादित्यानाममृतस्य नाभि:।
प्र नु वोचं चिकितुषे जनाय मा गामनागामदितिं वधिष्ट नमो नम: स्वाहा।।
(ऋक्. 8/101/15)
इस प्रकार पूजन कर गाय को हरी घास खिलाएं तथा निम्न मंत्र से उसके चरणों में अध्र्य दें-
क्षीरोदार्णवसम्भूते सुरासुरनमस्कृते।
सर्वदेवमये मातर्गृहाणाघ्र्यं नमोस्तु ते।।
इसके बाद निम्न मंत्र से भक्तिपूर्वक गाय को प्रणाम करना चाहिए-
सर्वदेवमये देवि सर्वदेवैरलंकृते।
मातर्ममाभिलषितं सफलं कुरु नन्दिनि।।
इस दिन तवे पर पकाया हुआ भोजन नहीं करना चाहिए और ब्रह्मचर्यपूर्वक पृथ्वी पर शयन करना चाहिए। इस व्रत के प्रभाव से व्रती सभी सुखों को भोगते हुए अंत में गाय के जितने रोएं हैं उतने वर्षों तक गोलोक में वास करता है। ऐसा धर्म शास्त्रों में लिखा है।
लक्ष्मी ने भगवान विष्णु को ही क्यों चुना पति रूप में?
दीपावली पर माता लक्ष्मी की पूजा की जाती है जिससे कि वे प्रसन्न हों तथा हम पर कृपा बनाए रखें। हर कोई लक्ष्मी (अर्थ) की चाह रखता है लेकिन लक्ष्मी उसी का वरण करती है जो परिश्रमी के साथ ही पुरुषार्थी भी हो। इस तथ्य के पीछे एक सुंदर कथा है-
दैत्यों व देवताओं ने जब समुद्र मंथन किया तो उसमें से 14 रत्न निकले। उनमें लक्ष्मी भी थीं। जैसे ही लक्ष्मी समुद्र में से निकली सभी देवता उन्हें पाने के लिए लालायित हो उठे। सबसे पहले लक्ष्मी ने निगाह डाली तो साधु-संत बैठे हुए थे। वो खड़े हुए और बोले - हमारे पास आ जाओ। लक्ष्मी बोलीं- तुम हो तो भले लोग लेकिन तुमको सात्विक अहंकार होता है कि हम दुनिया से थोड़े ऊपर उठे हैं, भगवान के अधिक निकट हैं तो तुम्हारे पास तो नहीं आऊंगी। अहंकारी मुझे बिल्कुल पसंद नहीं हैं।
देवता बोले- इंद्र के नेतृत्व में हमारी हो जाओ। लक्ष्मी ने कहा- तुम्हारी तो नहीं होऊंगी। तुम देवता बनते हो पुण्य से और पुण्य से कभी लक्ष्मी नहीं मिला करती। लक्ष्मी की एक ही पसंद है पुरुषार्थ और परिश्रम। फिर लक्ष्मी ने देखा एक ऐसा है जो मेरी तरफ देख ही नहीं रहा है बाकी सब लाइन लगाकर खड़े हैं तो उनके पास गई। लक्ष्मी ने जाकर देखा तो भगवान विष्णु लेटे हुए थे। लक्ष्मी ने पैर पकड़े, चरण हिलाए। विष्णु बोले क्या बात है? वह बोलीं मैं आपको वरना चाहती हूं। विष्णु ने कहा-स्वागत है।
लक्ष्मी जानती थीं कि यही मेरी रक्षा करेंगे। तब से लक्ष्मी-नारायण एक हो गए। भगवान विष्णु सृष्टि के पालनकर्ता है तो परिश्रमी भी हैं व पुरूषार्थी भी। इसलिए कहा गया है कि अगर लक्ष्मी का वरण करना है तो परिश्रमी के साथ पुरूषार्थी भी बनो, तो ही लक्ष्मी की प्राप्ति होती है।
कमल के फूल पर ही क्यों बैठती हैं माता लक्ष्मी?
महालक्ष्मी के चित्रों और प्रतिमाओं में उन्हें कमल के पुष्प पर विराजित दर्शाया गया है। इसके पीछे धार्मिक कारण तो है साथ ही कमल के पुष्प पर विराजित लक्ष्मी जीवन प्रबंधन का महत्वपूर्ण संदेश भी देती हैं।
महालक्ष्मी धन की देवी हैं। धन के संबंध में कहा जाता है कि इसका नशा सबसे अधिक दुष्प्रभाव देने वाला होता है। धन मोह-माया में डालने वाला है और जब धन किसी व्यक्ति पर हावी हो जाता है तो अधिकांश परिस्थितियों में वह व्यक्ति बुराई के रास्ते पर चल देता है। इसके जाल में फंसने वाले व्यक्ति का पतन होना निश्चित है।
वहीं कमल का फूल अपनी सुंदरता, निर्मलता और गुणों के लिए जाना जाता है। कमल कीचड़ में ही खिलता है परंतु वह उस की गंदगी से परे है, उस पर गंदगी हावी नहीं हो पाती। कमल पर विराजित लक्ष्मी यही संदेश देती हैं कि वे उसी व्यक्ति पर कृपा बरसाती हैं जो कीचड़ जैसे बुरे समाज में भी कमल की तरह निष्पाप रहे और खुद पर बुराइयों को हावी ना होने दें।
जिस व्यक्ति के पास अधिक धन है उसे कमल के फूल की तरह अधार्मिक कृत्यों से दूरी बनाए रखना चाहिए। साथ ही कमल पर स्वयं लक्ष्मी के विराजित होने के बाद भी उसे घमंड नहीं होता, वह सहज ही रहता है। इसी तरह धनवान व्यक्ति को भी सहज रखना चाहिए। जिससे उस पर लक्ष्मी सदैव प्रसन्न रहे।
जानिए, माता लक्ष्मी कब, कैसे और क्यों प्रकट हुईं?
माता लक्ष्मी सारे संसार का संचालन करती हैं। विष्णुप्रिया माता लक्ष्मी के प्राकट्य की कई कथाएं हमारे धर्मग्रंथों में मिलती है। ऐसी ही एक कथा इस प्रकार है-
एक बार भगवान शंकर के अंशावतार महर्षि दुर्वासा कहीं जा रहे थे। तभी उन्होंने एक कन्या के हाथ में पारिजात के पुष्पों की एक सुंदर माला देखी। महर्षि ने उस कन्या से वह माला मांगी। कन्या से आदर भाव से वह माला महर्षि को दे दी। महर्षि ने वह माला देवराज इंद्र को दे दी। इंद्र ने उसे लेकर ऐरावत के मस्तक पर डाल दिया। ऐरावत ने वह माला पृथ्वी पर फेंक दी। यह देख महर्षि दुर्वासा बहुत क्रोधित हुए।
उन्होंने इंद्र को श्राप दिया कि तुम्हारे अधिकार में जितनी भी धन-सम्पत्ति है वह नष्ट हो जाएगी। दुर्वासा के शापनुसार तीनों लोकों की लक्ष्मी नष्ट हो गई। तब दानवों ने मौका पाकर स्वर्ग पर अधिकार कर लिया। तब सभी देवता भगवान विष्णु के पास गए। भगवान विष्णु ने देवताओं को दानवों के साथ मिलकर समुद्र मंथन करने को कहा। भगवान का आदेश पाकर देवताओं ने दानवों के साथ समुद्र मंथन किया। तब उसमें से कामधेनु, वारुणीदेवी, कल्पवृक्ष और अप्सराएं प्रकट हुईं।
इसके बाद चंद्रमा निकले। इस प्रकार अन्य रत्न भी निकले। सबसे अंत में भगवती लक्ष्मीदेवी प्रकट हुईं। सभी देवताओं ने मिलकर माता लक्ष्मी की स्तुति की जिससे प्रसन्न होकर उन्होंने देवताओं को पुन: स्वर्ग प्राप्ति का वरदान दिया। तत्पश्चात मां लक्ष्मी भगवान विष्णु के चरणों में समर्पित हो गई। ये ही माता लक्ष्मी भगवान विष्णु के राम अवतार में सीता और श्रीकृष्ण अवतार में रुक्मिणी रूप में अवतरित हुईं।
धनतेरस को, जानिए क्यों करते हैं इस दिन दीपदान
इस बार धनतेरस का पर्व 11 नवंबर, रविवार को है। धनतेरस पर भगवान यमराज के निमित्त दीपदान किया जाता है। ऐसी मान्यता है कि जो धनतेरस के दिन दीपदान करता है उसे अकाल मृत्यु का भय नहीं सताता। इस मान्यता के पीछे पुराणों में वर्णित एक कथा है, जो इस प्रकार है-
एक समय यमराज ने अपने दूतों से पूछा कि क्या कभी तुम्हें प्राणियों के प्राण का हरण करते समय किसी पर दयाभाव भी आया है, तो वे संकोच में पड़कर बोले- नहीं महाराज! यमराज ने उनसे दोबारा पूछा तो उन्होंने संकोच छोड़कर बताया कि एक बार एक ऐसी घटना घटी थी, जिससे हमारा हृदय कांप उठा था। हेम नामक राजा की पत्नी ने जब एक पुत्र को जन्म दिया तो ज्योतिषियों ने नक्षत्र गणना करके बताया कि यह बालक जब भी विवाह करेगा, उसके चार दिन बाद ही मर जाएगा।
यह जानकर उस राजा ने बालक को यमुना तट की एक गुफा में ब्रह्मïचारी के रूप में रखकर बड़ा किया। एक दिन जब महाराजा हंस की युवा बेटी यमुना तट पर घूम रही थी तो उस ब्रह्मïचारी युवक ने मोहित होकर उससे गंधर्व विवाह कर लिया। चौथा दिन पूरा होते ही वह राजकुमार मर गया। अपने पति की मृत्यु देखकर उसकी पत्नी बिलख-बिलखकर रोने लगी। उस नवविवाहिता का करुण विलाप सुनकर हमारा हृदय भी कांप उठा। उस राजकुमार के प्राण हरण करते समय हमारे आंसू नहीं रुक रहे थे।
तभी एक यमदूत ने पूछा -क्या अकाल मृत्यु से बचने का कोई उपाय नहीं है? यमराज बोले- हां एक उपाय है। अकाल मृत्यु से छुटकारा पाने के लिए व्यक्ति को धनतेरस के दिन पूजन और दीपदान विधिपूर्वक करना चाहिए। जहां यह पूजन होता है, वहां अकाल मृत्यु का भय नहीं सताता। कहते हैं कि तभी से धनतेरस के दिन यमराज के पूजन के पश्चात दीपदान करने की परंपरा प्रचलित हुई।
दीपावली: लक्ष्मी पूजन में बहुत जरुरी हैं ये 7 चीजें, न भूलें इन्हें
इस बार 13 नवंबर, मंगलवार को दीपावली का पर्व है। इस दिन धन की देवी मां लक्ष्मी की पूजा की जाती है। इस पूजा में कुछ वस्तुओं का होना बहुत जरुरी माना जाता है क्योंकि ये वस्तुएं मां लक्ष्मी को अति प्रसन्न हैं। इन चीजों में घर में सुख-समृद्धि आती है और जीवन में सफलता मिलती है। इनमें से प्रमुख 7 चीजें इस प्रकार हैं-
वंदनवार- आम या पीपल के नए कोमल पत्तों की माला को वंदनवार कहा जाता है। इसे दीपावली के दिन पूर्वी द्वार पर बांधा जाता है। यह इस बात का प्रतीक है कि देवगण इन पत्तों की भीनी-भीनी सुगंध से आकर्षित होकर घर में प्रवेश करते हैं। ऐसी मान्यता है कि दीपावली की वंदनवार पूरे 31 दिनों तक बंधी रखने से घर-परिवार में एकता व शांति बनी रहती हैं।
स्वास्तिक- लोक जीवन में प्रत्येक अनुष्ठïन के पूर्व दीवार पर स्वास्तिक का चिह्नï बनाया जाता है। उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम इन चारों दिशाओं को दर्शाती स्वास्तिक की चार भुजाएं, ब्रह्मïचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास आश्रमों का प्रतीक मानी गई हैं। यह चिह्नï केसर, हल्दी, या सिंदूर से बनाया जाता है।
कौड़ी- लक्ष्मी पूजन की सजी थाली में कौड़ी रखने की प्राचीन परंपरा है, क्योंकि यह धन और श्री का पर्याय है। कौड़ी को तिजौरी में रखने से लक्ष्मी की कृपा सदा बनी रहती है।
बताशे या गुड़- ये भी ज्योति पर्व के मांगलिक चिह्नï हैं। लक्ष्मी-पूजन के बाद गुड़- बताशे का दान करने से धन में वृद्धि होती है।
ईख- लक्ष्मी की एक सवारी हाथी भी है और हाथी की प्रिय खाद्य सामग्री ईख यानी गन्ना है। दीपावली के दिन पूजन में ईख शामिल करने से ऐरावत प्रसन्न रहते हैं और उनकी शक्ति व वाणी की मिठास घर में बनी रहती है।
ज्वार का पोखरा- दीपावली के दिन ज्वार का पोखरा घर में रखने से धन में वृद्धि होती है तथा वर्ष भर किसी भी तरह के अनाज की कमी नहीं आती। लक्ष्मी के पूजन के समय ज्वार के पोखरे की पूजा करने से घर में हीरे-मोती का आगमन होता है।
रंगोली- लक्ष्मी पूजन के स्थान तथा प्रवेश द्वार व आंगन में रंगों के संयोजन के द्वारा धार्मिक चिह्नï कमल, स्वास्तिक कलश, फूलपत्ती आदि अंकित कर रंगोली बनाई जाती है। कहते हैं कि लक्ष्मीजी रंगोली की ओर जल्दी आकर्षित होती हैं।
लक्ष्मी कृपा के लिए घर में हर रोज ये काम करना न चू्कें !
घर-परिवार के सौंदर्य का पैमाना बाहरी रंग-रोगन या बनावट से नहीं बल्कि सुख-शांति है। सुख-शांति के लिए अहम है सही बंदोबस्त या व्यवस्था। ऐसे प्रबंधन में परिजनों के काम, व्यवहार में सच्चाई के साथ कर्तव्य व मर्यादा का पालन जरूरी है। इनमें खोट आते ही सुख-चैन छिन जाता है व शांति भी भंग हो जाती है। नतीजतन घर में रहते भी जीवन नारकीय महसूस होने लगता है। यह भी कहा जाता है कि लक्ष्मी रुठ गई।
हिन्दू धर्मग्रंथों में मां लक्ष्मी की कृपा व जीवन को ऐसी उथल-पुथल या अशांति से दूर रखने के लिए घर में ऐसे छोटे-छोटे धार्मिक कामों को नियमित या विशेष घडिय़ों में करना जरूरी बताया गया है, जो सकारात्मक ऊर्जा देने के साथ घर के माहौल में सुख-शांति व मेल-जोल बनाए रखते हैं। कौन-से है ये धार्मिक कर्म जानिए –
शास्त्रों में लिखा गया है कि - न विप्रपादोदककमर्दमानि न वेदशास्त्रप्रतिगर्जितानि। स्वाहास्वधस्वस्तिविवर्जितानि श्मशानतुल्यानि गृहाणि तानि।।
सरल शब्दों में अर्थ है कि जिस घर में ब्राह्मणों का सेवा-सम्मान न हो, वेद-शास्त्रों का अध्ययन व स्मरण न हो, या स्वाहा, स्वधा और स्वस्ति के स्वर न गूंजे ऐसा घर श्मसान की तरह होता है।
व्यावहारिक नजरिए से इस श्लोक में साफ संकेत है कि घर में किए जाने वाले धर्म-कर्म ईश्वर में आस्था को मजबूत रख मनोबल व आत्मविश्वास ऊंचा रख निर्भय व निश्चिंत रखने के साथ परिवार को जोड़ते हैं। इसके लिए धार्मिक दृष्टि से ब्रह्म अंश माने गए ब्राह्मण या फिर विद्वान व गुणी लोगों का सम्मान, दान, सेवा, धर्म से जुड़ी ज्ञान की चर्चा, देव महिमा या स्मरण से जुड़ी स्तुतियों व मंत्रों का नित्य पाठ, स्वाहा, स्वधा या पितरों के निमित्त हवन, धूप, दीप, श्राद्ध, स्वस्ति यानी यज्ञ-हवन, पितृपूजा कर्म व विवाह, संस्कारों से जुड़े मंगल कार्यों को करने का महत्व बताया गया है।
घर-परिवार में इन 2 बातों के बिना पैसा भी खो देता है चमक !
धार्मिक और व्यावहारिक रूप से भी यह बात साबित होती है कि धर्म से जुड़कर ही अर्थ और काम संयमित रहते हैं, जिससे जीवन रहते सुख और उसके बाद मोक्ष मिलता है। इसलिए इसे गृहस्थ धर्म भी कहा गया है। यही वजह है कि शास्त्रों में बताए आश्रम-व्यवस्था रूपी जीवन के चार चरणों में गृहस्थाश्रम को बाकी तीन आश्रमों का मूल बताते हुए सबसे श्रेष्ठ बताया गया है।
यह तो हुई जीवन को गृहस्थ धर्म के पालन से साधने की बात, किंतु गृहस्थी की नींव को मजबूत बनाए रखने के लिए किस तरह धर्म से जीवन को जोडऩा चाहिए? इस संबंध में शास्त्रों में गृहस्थी में मुखिया से लेकर परिवार के हर सदस्यों के लिए खासतौर पर दो बातों को कर्म, व्यवहार और स्वभाव में स्थान देना अहम माना है। अन्यथा इनके बिना पैसा और उससे जुटाई सुख-सुविधाएं भी बेमानी हो जाती है -
प्रेम - जी हां, प्रेम के बिना धर्म पालन मुश्किल है। चूंकि प्रेम का मूल है सत्य, इसलिए गृहस्थी में परिजनों के काम, बोल और कर्म में सच्चाई एक-दूसरे के बीच अटूट प्रेम और विश्वास बनाए रखती है।
सहयोग - शास्त्रों के नजरिए से सहयोग या सहकार में भी परोपकार, प्रेम, दया, क्षमा के भाव मौजूद होते हैं। परिवार में सुख-शांति रखने के लिए भी सदस्यों में आपसी सहयोग, मेलजोल और तालमेल अहम है। जिनको कायम रखने के लिए प्रेम और उससे पैदा क्षमा का भाव होना बेहद जरूरी है। क्योंकि क्षमा मन को द्वेष से परे रख अपनेपन, दया, करुणा, संवेदना और भावनाओं से जोड़े रखती है।
ऐसे लगाएं एक दीपक, नहीं सताएगा अकाल मृत्यु का डर
स्कंद पुराण के अनुसार कार्तिक मास के कृष्णपक्ष की त्रयोदशी यानी धनरतेरस (इस बार 11 नवंबर, रविवार) के प्रदोषकाल में यमराज के निमित्त दीप और नैवेद्य समर्पित करने पर अकाल मृत्यु का भय नहीं रहता। यमदीप दान प्रदोषकाल यानी शाम के समय करना चाहिए। इसकी विधि इस प्रकार है-
विधि
मिट्टी का एक बड़ा दीपक लें और उसे स्वच्छ जल से धो लें। इसके बाद साफ रुई लेकर दो लंबी बत्तियां बना लें। उन्हें दीपक में एक-दूसरे पर आड़ी इस प्रकार रखें कि दीपक के बाहर बत्तियों के चार मुहं दिखाई दें। अब उसे तिल के तेल से भर दें और साथ ही उसमें कुछ काले तिल भी डाल दें।
इस प्रकार तैयार किए गए दीपक का रोली, चावल एवं फूल से पूजन करें। उसके बाद घर के मुख्य दरवाजे के बाहर थोड़ी सी खील अथवा गेहूं की एक ढेरी बनाएं और नीचे लिखे मंत्र को बोलते हुए दक्षिण दिशा की ओर मुख करके यह दीपक उस पर रख दें-
मृत्युना पाशदण्डाभ्यां कालेन च मया सह।
त्रयोदश्यां दीपदनात् सूर्यज: प्रीयतामिति।।
इसके बाद हाथ में फूल लेकर नीचे लिखा मंत्र बोलते हुए यमदेव को दक्षिण दिशा में नमस्कार करें-
ऊँ यमदेवाय नम:। नमस्कारं समर्पयामि।।
अब यह फूल दीपक के समीप छोड़ दें और हाथ में एक बताशा लें तथा नीचे लिखा मंत्र बोलते हुए उसे भी दीपक के पास रख दें-
ऊँ यमदेवाय नम:। नैवेद्यं निवेदयामि।।
अब हाथ में थोड़ा सा जल लेकर आचमन के निमित्त नीचे लिखा मंत्र बोलते हुए दीपक के समीप छोड़ दें-
ऊँ यमदेवाय नम:। आचमनार्थे जलं समर्पयामि।
अब पुन: यमदेव को ऊँ यमदेवाय नम: कहते हुए दक्षिण दिशा में नमस्कार करें।
इस तरह दीपदान करने से यमराज प्रसन्न होते हैं और अकाल मृत्यु का भय नहीं रहता।
धनतेरस जानिए जल्द धनवान बनने के खास सूत्र
धनतेरस, धन की उपासना की भी घड़ी है, जो द्रव्य लक्ष्मी ही नहीं बल्कि सेहत रूपी धन साधना का भी संदेश है। खासतौर पर धन अर्जन व अच्छी सेहत की कामना से इस दिन धन के देवता कुबेर, स्वास्थ्य के देवता धनवन्तरि व धन, संपत्ति, व्यवसाय की पूजा की जाती है।
दरअसल, सनातन परंपरा में धन को लक्ष्मी स्वरूप माना गया है। इसलिए इससे जुड़ा संकेत यही है कि लक्ष्मी की भांति ही धन का स्वभाव भी चंचल होता है। यानी, वह चलता रहता है। इस तरह धन गतिशील, ऊर्जावान रहने की प्रेरणा देता है।
लिहाजा धनवान बनने की चाहत है तो इस शुभ दिन हम देव पूजा के साथ ही यह ठान ले कि धन अर्जन से जुड़े लक्ष्य को पाने के लिए हमेशा जीवन में सक्रियता, ऊर्जा व गति बनाए रखेंगे।
इस संकल्प को पूरा करने के लिए निरोगी होना भी अहम है। शास्त्रों के मुताबिक जीवनशैली में परिश्रम और अनुशासन को महत्व देकर स्वास्थ्य रूपी धन व पुरुषार्थ के जरिए आसानी से दीर्घायु और धनवान बन तनावमुक्त हो तमाम सांसारिक सुखों को पाया जा सकता है।
"पहला सुख निरोगी काया, दूसरा सुख घर में माया" 2 मंत्र पूरी करेंगे ये चाहत
"जान है तो जहान है" या "पहला सुख निरोगी काया, तो दूसरा सुख घर में माया।" ऐसे व्यावहारिक ज्ञान को अपनाने या यूं कहें कि सुखों को बटोरने के लिए दीपावली महोत्सव का आरंभ
धनतेरस के साथ होता है। 11 नवम्बर को ऐसी ही शुभ घड़ी है।
धार्मिक नजरिए से यह शुभ योग खासतौर पर आयुर्वेद के जनक भगवान धनवन्तरि का समुद्र मंथन से प्रकटोत्सव माना जाता है। माना जाता है कि इस दिन भगवान विष्णु के अंशावतार व देवताओं के वैद्य भगवान धनवन्तरि की पूजा उपासना निरोगी जीवन द्वारा इंसान को मन व धन से भी सबल बनाए रखती है।
अच्छी सेहत के साथ धनी बने रहने की कामना से ही धनतेरस पर आयुर्वेद के दाता भगवान धनवन्तरि की पूजा कुछ विशेष मंत्रों से करना बड़ा ही शुभ माना गया है। जानिए ऐसे ही 2 खास मंत्र व पूजा का सरल तरीका -
- सवेरे स्नान के बाद भगवान् धन्वन्तरि की मूर्ति या तस्वीर की पूजा की शुरुआत भगवान गणेश की पंचोपचार पूजा से करें। जिसमें गंध, अक्षत, फूल, दूर्वा आदि शामिल हो।
- पश्चात् पहले हाथ में पुष्प और अक्षत लेकर "ऊं धन्वन्तरिदेवाय नम:" या नीचे लिखा श्लोक बोलकर भगवान धनवन्तरि का ध्यान करें -
देवान् कृशानसुरसंघनिपीडिताङ्गा
दृष्ट्वा दयालुरमृतं विपरीतुकाम:।
पाथोधिमन्थनविधौ प्रकटोऽभवद्यो
धन्वन्तरि: स भगवानवतात् सदा न:॥
- भगवान धन्वन्तरि को अक्षत-पुष्प चढ़ाकर पंचामृत शुद्ध जल से स्नान कराएं। इसके बाद क्रमश: सुगंधित इत्र, वस्त्र, गंध, चन्दन, अक्षत, फूल, फल, पान पर सुपारी, इलायची, लौंग, दक्षिणा में कुछ रुपए या सिक्के चढ़ाकर मिठाई का भोग लगाएं।
- नीचे लिखे मंत्र से भगवान धनवन्तरि का मंत्र जप यथाशक्ति निरोगी जीवन की कामना से करें -
ऊँ धन्वन्तरये नम:
- पूजा व मंत्र जप के बाद धूप, दीप, कर्पूर आरती कर क्षमा व प्रार्थना पूर्वक नमस्कार करें, आरती की ज्योति व प्रसाद ग्रहण करें।
इस तरह धनी बनने की चाह पूरी करने के साथ ही शास्त्रों में धनतेरस पर भगवान धनवन्तरि की पूजा के आखिर में ऐसी मंत्र स्तुति से प्रार्थना का महत्व बताया गया है, जो छोटे रोगों के अलावा गंभीर या लंबी बीमारियों से ग्रस्त लोगों को भी स्वस्थ्य करने वाली मानी गई है। जानिए यह खास मंत्र –
आस्था व भक्ति से धनवन्तिर की पूजा या दर्शन के बाद भगवान धन्वन्तरि से पूजा या जीवन में हुए दोषों के लिए क्षमा मांगते हुए निरोगी जीवन की कामना के साथ यह मंत्र स्तुति बोलें। जानकारी न होने पर किसी ब्राह्मण से पूजा-पाठ कराएं व दान-दक्षिणा दें -
अथोदधेर्मथ्यमानात् काश्यपैरमृतार्थिभि:।
उदतिष्ठन्महाराज पुरुष: परमाद् भुत:॥
दीर्घपीवरदोर्दण्ड: कम्ब्रुग्रीवोऽरुणेक्षण:।
श्यामलस्तरुण: स्रग्वी सर्वाभरणभूषित:॥
पीतवासा महोरस्क: सुमृष्टमणिकुण्डल:।
स्निग्धकुंञ्चितकेशान्त: सुभग: सिंहविक्रम:॥
अमृतापूर्णकलशं विभ्रद् वलयभूषित:।
स वै भगवत: साक्षाद्विष्णोरंशांशसमम्भव:॥
दीपावली मनाने का एक कारण ये भी है
कार्तिक मास की अमावस्या को दीपावली का पर्व मनाया जाता है। इस बार यह पर्व 13 नवंबर, मंगलवार को है। मान्यता के अनुसार भगवान श्रीराम रावण-वध के बाद इसी दिनअयोध्या वापस लौटे थे। इसी खुशी में अयोध्यावासियों ने दीपक जलाएं थे। तभी से यह पर्व मनाया जा रहा है। दीपावली पर्व मनाने के पीछे और भी कई कथाएं और मान्यताएं हैं। उन्हीं में से एक कथा यह भी है-
पुरातन काल में महिषासुर नामक एक महाभयंकर दैत्य हुआ। ब्रह्मा , विष्णु और शिव से वरदान पाकर दैत्यराज महिषासुर तीनों लोकों में आतंक मचाने लगा। इससे दु:खी देवता और मानव त्रिदेवों के पास पहुंचे, तो शिव के सुझाव से देवी-पार्वती, लक्ष्मी और सरस्वती से शक्तियां प्राप्त कर शक्ति स्वरूपा काली का जन्म हुआ। महादेवी और महिषासुर में नौ रातों तक भयंकर संग्राम चला। इसमें महिषासुर का अंत हुआ। इसके बाद भी देवी-क्रोध शांत नहीं हुआ और रौद्र रूप में नृत्य करने लगी। तब भगवान शिव ने कहा कि दीप जलाकर, मंगल गीतों से देवी की आराधना करो। तब से दीप-पर्व मनाने की परंपरा का प्रारंभ हुआ।
नरक चतुर्दशी : इस आसान विधि से करें यमराज की पूजा
कार्तिक मास के कृष्ण चतुर्दशी को नरक चतुर्दशी, यम चतुर्दशी व रूप चतुर्दशी भी कहते हैं। इस बार यह 12 नवंबर, सोमवार को है। इस दिन यमराज की पूजा व व्रत का विधान है।
पूजन विधि
इस दिन शरीर पर तिल के तेल की मालिश करके सूर्योदय के पूर्व स्नान करने का विधान है। स्नान के दौरान अपामार्ग (एक प्रकार का पौधा) को शरीर पर स्पर्श करना चाहिए। अपामार्ग को निम्न मंत्र पढ़कर मस्तक पर घुमाना चाहिए- सितालोष्ठसमायुक्तं सकण्टकदलान्वितम्।
हर पापमपामार्ग भ्राम्यमाण: पुन: पुन:।।
स्नान करने के बाद शुद्ध वस्त्र पहनकर, तिलक लगाकर दक्षिण दिशा की ओर मुख करके निम्न मंत्रों से प्रत्येक नाम से तिलयुक्त तीन-तीन जलांजलि देनी चाहिए। यह यम-तर्पण कहलाता है। इससे वर्ष भर के पाप नष्ट हो जाते हैं-
ऊँ यमाय नम:, ऊँ धर्मराजाय नम:, ऊँ मृत्यवे नम:, ऊँ अन्तकाय नम:, ऊँ वैवस्वताय नम:, ऊँ कालाय नम:, ऊँ सर्वभूतक्षयाय नम:, ऊँ औदुम्बराय नम:, ऊँ दध्राय नम:, ऊँ नीलाय नम:, ऊँ परमेष्ठिने नम:, ऊँ वृकोदराय नम:, ऊँ चित्राय नम:, ऊँ चित्रगुप्ताय नम:।
इस प्रकार तर्पण कर्म सभी पुरुषों को करना चाहिए, चाहे उनके माता-पिता गुजर चुके हों या जीवित हों। फिर देवताओं का पूजन करके सायंकाल यमराज को दीपदान करने का विधान है।
दीपक जलाने का कार्य त्रयोदशी से शुरू करके अमावस्या तक करना चाहिए। इस दिन भगवान श्रीकृष्ण का पूजन करने का भी विधान बताया गया है क्योंकि इसी दिन उन्होंने नरकासुर का वध किया था। इस दिन जो भी व्यक्ति विधिपूर्वक भगवान श्रीकृष्ण का पूजन करता है, उसके मन के सारे पाप दूर हो जाते हैं और अंत में उसे बैकुंठ में जगह मिलती है।
जीवन का गूढ़ रहस्य दिवाली के पटाखों में
दीपक की बाती को जलने के लिये उसे तेल में डूबे होना चाहिये, और साथ ही तेल के बाहर भी रहना चाहिये। यदि बाती तेल में पूरी डूब जाये तो वह प्रकाश नहीं दे सकती। जीवन भी दीपक की बाती के समान है, तुम्हें संसार में रहते हुए भी उसके ऊपर निष्प्रभावित रहना होता है। अगर तुम पदार्थ जगत में डूबे हुए हो, तो जीवन में आनन्द और ज्ञान नहीं ला पाओगे। संसार में रहते हुए भी, सांसारिक माया के ऊपर उठकर हम आनन्द और ज्ञान के ज्योति प्रकाश बन सकते हैं।
इस प्रकार से ज्ञान के प्रकाश के प्रकट होने का उत्सव ही दिवाली है। दीपावली बुराई पर अच्छाई का, अन्धकार पर प्रकाश का और अज्ञान पर ज्ञान के विजय का त्योहार है। इस दिन घरों में करी जाने वाली रोशनी न केवल सजावट के लिये होती है, बल्कि वह जीवन के गहरे सत्य को भी अभिव्यक्त करती है। हरेक दिल में प्रेम और ज्ञान की लौ को प्रज्जवलित करें और सभी के चेहरों पर सच्ची मुस्कान लायें।
प्रत्येक मनुष्य में कुछ सद्गुण होते हैं। आपके द्वारा प्रज्ज्वलित प्रत्येक दीपक इसी का प्रतीक है। कुछ में धैर्य होता है, कुछ में प्रेम, शक्ति, उदारता, अन्य में लोगों को साथ मिलाकर चलने की क्षमता होती है। जीवन का एक और गूढ़ रहस्य दिवाली के पटाखों के फूटने में है। जीवन में कई बार आप पटाखों के समान अपनी दबी हुई भावनाओं, कुंठाओं और क्रोध के कारण अति ज्वलनशील रहते हैं – बस फूटने के लिये तैयार।
अपने राग- द्वेष, घृणा आदि को दबाकर फटने की उस स्थिति तक पहुँच जाते कि अब फूटे कि तब। पटाखे फोड़ने की प्रथा हमारे पूर्वजों द्वारा, लोगों की दबी हुई भावनाओं से मुक्ति पाने का एक सुन्दर मनोवैज्ञानिक उपाय है। जब आप बाहर विस्फोट देखते हैं तो आपके अंदर भी वैसी ही कुछ अनुभूति होती है।
दीपावली की मिठाइयों और उपहारों के आदान प्रदान के पीछे भी एक मनोवैज्ञानिक पहलू है। पुरानी गलतफ़हमी की कड़वाहट को छोड़कर सम्बन्धों को मधुर बनाते चलो। सेवा भाव के बिना हर उत्सव अधूरा है। परमात्मा ने जो कुछ भी हमें दिया है उस प्रसाद को हमें सबके साथ बाँटना है। क्योंकि जितना बाटेंगे उतनी ही उसकी कृपा और बरसती है। सही मायने में यही दीपावली का उत्सव है। उत्सव का और एक अर्थ है - अपने मतभेदों को मिटाकर अद्वैत आत्मा की ज्योति से अपने सच्चिदानन्द स्वरूप में विश्राम करना। दिव्य समाज की स्थापना के लिये हर दिल में ज्ञान व आनन्द की ज्योत जलानी होगी। वह तभी सम्भव है यदि सब एक साथ मिलकर ज्ञान का उत्सव मनायें।
अधिकतर उत्सव में हम अपनी सजगता या एकाग्रता खोने लगते हैं। उत्सव में सजगता बनाए रखने के लिये, हमारे ऋषियों नें प्रत्येक उत्सव को पावन बनाकर पूजा विधियों के साथ जोड़ दिया। इसलिये दिवाली भी पूजा का समय है। दिवाली का आध्यात्मिक पहलू उत्सव में गहरायी लाता है। जो अज्ञानी हैं हैं उनके लिये वर्ष में एक बार ही दिवाली आती है, किंतु जो ज्ञानी हैं उनके लिये प्रत्येक दिन, प्रतिक्षण दिवाली है। इस दिवाली को ज्ञान के साथ मनायें और मानवता की सेवा करने का संकल्प लें।
गोवर्धन पूजा, जानिए क्यों जरुरी है ये पर्व
कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा यानी दिवाली के दूसरे दिन गोवर्धन पूजा की जाती है। इस बार गोवर्धन पूजा का पर्व 14 नवंबर, बुधवार को है। आईए जानते हैं गोवर्धन पूजा का माहात्म्य-
हमारे कृषि प्रधान देश में गोवर्धन पूजा जैसे प्रेरणाप्रद पर्व की अत्यंत आवश्यकता है। इसके पीछे एक महान संदेश पृथ्वी और गाय दोनों की उन्नति तथा विकास की ओर ध्यान देना और उनके संवर्धन के लिए सदा प्रयत्नशील होना छिपा है। अन्नकूट का महोत्सव भी गोवर्धन पूजा के दिन कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को ही मनाया जाता है। यह ब्रजवासियों का मुख्य त्योहार है।
अन्नकूट या गोवर्धन पूजा का पर्व यूं तो अति प्राचीनकाल से मनाया जाता रहा है, लेकिन आज जो विधान मौजूद है वह भगवान श्रीकृष्ण के इस धरा पर अवतरित होने के बाद द्वापर युग से आरंभ हुआ है। उस समय जहां वर्षा के देवता इंद्र की ही उस दिन पूजा की जाती थी, वहीं अब गोवर्धन पूजा भी प्रचलन में आ गई है। धर्मग्रंथों में इस दिन इंद्र, वरुण, अग्नि आदि देवताओं की पूजा करने का उल्लेख मिलता है। उल्लेखनीय है कि ये पूजन पशुधन व अन्न आदि के भंडार के लिए किया जाता है।
बालखिल्य ऋषि का कहना है कि अन्नकूट और गोवर्धन उत्सव श्रीविष्णु भगवान की प्रसन्नता के लिए मनाना चाहिए। इन पर्वों से गौओं का कल्याण होता है, पुत्र, पौत्रादि संततियां प्राप्त होती हैं, ऐश्वर्य और सुख प्राप्त होता है। कार्तिक के महीने में जो कुछ भी जप, होम, अर्चन किया जाता है, इन सबकी फलप्राप्ति हेतु गोवर्धन पूजन अवश्य करना चाहिए।
भगवान श्रीकृष्ण ने की थी सबसे पहले गोवर्धन पूजा, जानिए कथा
कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा (इस बार 14 नवंबर, बुधवार) के दिन पर्वतराज गोवर्धन की पूजा की जाती है। इसकी कथा इस प्रकार है-
एक समय की बात है भगवान श्रीकृष्ण अपने सखाओं, गोप-ग्वालों के साथ गाएं चराते हुए गोवर्धन पर्वत की तराई में जा पहुंचे। वहां उन्होंने देखा कि नाच-गाकर खुशियां मना रही हैं। जब श्रीकृष्ण ने इसका कारण पूछा तो गोपियों ने कहा कि आज मेघ व देवों के स्वामी इंद्र का पूजन होगा। पूजन से प्रसन्न होकर वे वर्षा करते हैं, जिससे अन्न पैदा होता है तथा ब्रजवासियों का भरण-पोषण होता है। तब श्रीकृष्ण बोले- इंद्र में क्या शक्ति है? उससे अधिक शक्तिशाली तो हमारा गोवर्धन पर्वत है। इसी के कारण वर्षा होती है।
हमें इंद्र से भी बलवान गोवर्धन की ही पूजा करना चाहिए। तब सभी श्रीकृष्ण की बात मानकर गोवर्धन की पूजा करने लगे। यह बात जाकर नारद ने इंद्र को बता दी। यह सुनकर इंद्र को बहुत क्रोध आया। इंद्र ने मेघों को आज्ञा दी कि वे गोकुल में जाकर प्रलय का-सा दृश्य उत्पन्न कर दें। मेघ ब्रज-भूमि पर जाकर मूसलधार बरसने लगे। इससे भयभीत होकर सभी गोप-ग्वाले श्रीकृष्ण की शरण में गए और रक्षा की प्रार्थना करने लगे।गोप-गोपियों की पुकार सुनकर श्रीकृष्ण बोले- तुम सब गोवर्धन-पर्वत की शरण में चलो।
वह सब की रक्षा करेंगे। सब गोप-ग्वाले पशुधन सहित गोवर्धन की तराई में आ गए। श्रीकृष्ण ने गोवर्धन को अपनी कनिष्ठिका अंगुली पर उठाकर छाते सा तान दिया। गोप-ग्वाले सात दिन तक उसी की छाया में रहकर अतिवृष्टि से बच गए। सुदर्शन-चक्र के प्रभाव से ब्रजवासियों पर एक जल की एक बूंद भी नहीं पड़ी यह चमत्कार देखकर ब्रह्मजी द्वारा श्रीकृष्णावतार की बात जान कर इंद्र देव अपनी मूर्खता पर पश्चाताप करते हुए कृष्ण से क्षमा-याचना करने लगे। श्रीकृष्ण ने सातवें दिन गोवर्धन को नीचे रखा और ब्रजवासियों से कहा कि अब तुम प्रतिवर्ष गोवर्धन-पूजा कर अन्नकूट का पर्व मनाया करो। तभी से यह पर्व के रूप में प्रचलित है।
भाई दूज: करें यमुना स्नान, मिलेगी नरक से मुक्ति
कार्तिक शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को भाई दूज का पर्व मनाया जाता है। यह पर्व भाई-बहन के पवित्र प्रेम का प्रतीक है। इस बार यह पर्व 15 नवंबर, गुरुवार को है। इसका महत्व इस प्रकार है-
धर्म ग्रंथों के अनुसार कार्तिक शुक्ल द्वितीया के दिन ही यमुना ने अपने भाई यम को अपने घर बुलाकर सत्कार करके भोजन कराया था, इसीलिए इस त्योहार को यम द्वितीया के नाम से भी जाना जाता है। तब यमराज ने प्रसन्न होकर उसे यह वर दिया था कि जो व्यक्ति इसदिन यमुना में स्नान करके यम का पूजन करेगा, मृत्यु के पश्चात उसे यमलोक में नहीं जाना पड़ेगा। उल्लेखनीय है कि सूर्य की पुत्री यमुना समस्त कष्टों का निवारण करने वाली देवी स्वरूपा है। उसका सगा भाई मृत्यु का देवता यमराज है।
यम द्वितीया के दिन मथुरा में विश्राम घाट पर स्नान करने और यमुना के किनारे स्नान करके वहीं यमुना और यमराज की पूजा करने का बड़ा माहात्म्य माना जाता है। इस दिन बहन भाई की पूजा कर उसकी दीर्घायु तथा अपने सुहाग की रक्षा के लिए हाथ जोड़कर यमराज से प्रार्थना करती है। स्कंद पुराण में लिखा हुआ है कि इस दिन यमराज को तृप्त और प्रसन्न करने से पूजन करने वालों को मनोवांछित फल मिलता है। धन-धान्य, यश एवं दीर्घायु की प्राप्ति होती है।
भाई दूज: भाई की उम्र बढ़ानी है तो आज करें यमराज से प्रार्थना
भाई-दूज का पर्व कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया को मनाया जाता है। इस बार यह पर्व 15 नवंबर, गुरुवार को है। इस दिन यमराज का पूजन किया जाता है। पूजन विधि इस प्रकार है-
पूजन विधि
इस दिन यमुना में स्नान करके यमुना तथा यमराज के पूजन का विशेष विधान है। इसके अलावा भाई-बहन के घर आकर उसके हाथ का बना भोजन करता है और बहन अपने भाई की पूजा करती है। विवाहिता बहनें अपने भाइयों को अपने घर ससुराल में आमंत्रित करती हैं, जबकि अविवाहिता बहनें अपने पिता के घर पर ही भाइयों को भोजन कराती हैं। जिनकी बहन नहीं होती, वे जिसे मुंहबोली बहन बनाते हैं, उसको इसी विधि से सत्कार करना चाहिए।
इसके पश्चात बहन-भाई दोनों मिलकर यम, चित्रगुप्त और यम के दूतों का पूजन करें तथा सबको अध्र्य दें। बहन भाई की आयु-वृद्धि के लिए यम की प्रतिमा का पूजन करें। प्रार्थना करें कि मार्कण्डेय, हनुमान, बलि, परशुराम, व्यास, विभीषण, कृपाचार्य तथा द्रोणाचार्य इन आठ चिरंजीवियों की तरह मेरे भाई को भी चिरंजीवी कर दें। इस दिन गोधन कूटने की भी प्रथा है। गोबर से बनी मनुष्याकृति बनाकर उसकी छाती पर ईंट रखी जाती है और उस पर स्त्रियां मूसल से प्रहार करती हुई उसे तोड़ती हैं, कथा सुनती हैं।
इसके पश्चात भाई को भोजन कराती हैं। मिष्ठान खाने के बाद भाई यथाशक्ति बहन को भेंट देता है। जिसमें स्वर्ग, आभूषण, वस्त्र आदि प्रमुखता से दिए जाते हैं। लोगों में ऐसा विश्वास भी प्रचलित है कि इस दिन बहन अपने हाथ से भाई को भोजन कराए तो उसकी उम्र बढ़ती है और उसके जीवन के कष्ट दूर होते हैं।
मंदिर जाने या पूजा का वक्त नहीं तो घर या ऑफिस में बोलें यह खास शिव मंत्र
शास्त्रों के मुताबिक शिव भक्ति संकल्प और इच्छाशक्ति को मजबूत करने वाली होती है। शिव का मतलब परमानंद भी है, वहीं उनका स्वरूप सौम्य व सरल। इसलिए धार्मिक आस्था है कि अगर शुद्ध व सरल भावों के साथ किसी भी हालात में शिव स्मरण किया जाए तो न केवल फल मनचाहा व जल्द मिलता है, बल्कि हर मजबूरी, परेशानी या कलह का अंत तय हो जाता है।
शिव स्मरण से जीवन से सारी मानसिक, आर्थिक या शारीरिक दु:ख व परेशानियों से छुटकारा पाने के लिए यहां बताया जा रहा पुराणोक्त शिव मंत्र बहुत ही असरदार माना गया है। यथासंभव इस मंत्र का ध्यान शिवलिंग की कम से कम जल या बिल्वपत्र अर्पित कर करें। किंतु इस मंत्र की खासियत यह है कि बिना बाहरी पूजा सामग्रियों के चढ़ावे के भी यह बहुत ही मंगलकारी है। क्योंकि इसके द्वारा हर भक्त मन, प्राण, इन्द्रियों और कर्म को ही पूजा सामग्री के रूप में शिव को समर्पित करता है। इसलिए बिना शिवालय जाए या किसी मजबूरी में भी इस मंत्र मात्र से घर या कार्यालय में अद्भुत भक्ति आशुतोष शिव को जल्द प्रसन्न करती है। जानिए यह अनूठा पौराणिक शिव मंत्र व अर्थ –
पुष्पाणि सन्तु तव देव ममेन्द्रियाणि।
धूपोगरुर्वपुरिदं हृदयं प्रदीप:।।
प्राणा हवीषि करणानि तवाक्षताश्च।
पूजाफलं व्रततु साम्प्रतमेष जीव:।।
सरल शब्दों में मतलब है - हे महादेव, आपकी पूजा के लिए मेरी इन्द्रियां फूल बन जाएं। मेरा शरीर सुगन्धित धूप और अगरु बन जाए। मेरा हृदय दीप हो जाए, मेरी जीवनशक्ति यानी प्राण हविष और सारी कर्मेन्द्रियां अक्षत बन जाएं। इस तरह मैं आपकी उपासना करता हुआ पूजा का फल प्राप्त करूं।
इन बातों को ध्यान रखें तो दया करने से दु:ख नहीं बल्कि सफलता मिलेगी!
अक्सर बेकाबू लालसा या इच्छाएं अशांत और असफल जिंदगी की वजह बनती है। शास्त्रों के नजरिए से ऐसे भटकाव से परे रहने का बेहतर सूत्र या शक्ति दया भाव है। चूंकि व्यावहारिक जीवन में अक्सर आगे बढऩे की होड़ में दया भाव को परे रख स्वार्थसिद्धि ही लक्ष्य मान लिया जाता है। जबकि यहां बताई जा रही धर्मशास्त्रों की बात पर गौर करें तो अहं और क टुता से दूर रहकर भी दया या रहम को भी सफलता का ऊंचा मुकाम पाने का अहम जरिया बनाया जा सकता है। दया या रहम से सुख-शांति पाने के लिए सबसे पहले दया का स्वरूप व परिभाषा को जेहन में उतारना जरूरी है। जानिए पुराणों में क्या बताई है दया की परिभाषा व कैसे यह बन सकती है सफलता का मजबूत जरिया-
अपरे बन्धुवरों वा मित्रे द्वेष्टरि वा सदा।
आत्मवद्वर्तनं यत् स्यात् सा दया परिकीर्तिता।।
इस श्लोक के मुताबिक दया का अर्थ है अपने-पराये, मित्र और शत्रु से अपनी तरह व्यवहार करना और दूसरों का हर दु:ख मिटाने की कामना रखना है।
व्यावहारिक जीवन के नजरिए से दया के इस स्वरूप में ही दया को बड़ी सफलता का जरिया बनाने के संकेत भी छुपे हैं। दरअसल, दया का मूल प्रेम है और प्रेम का सत्य। हृदय में प्रेम क्षमा भाव को जन्म देता है और क्षमा ही इंसान को दया भाव से जोड़ती है।
इस तरह दया से जुड़े प्रेम, सत्य, क्षमा के ये भाव अपने-परायों का विश्वास जीतकर यशस्वी और सफलतम बनाने की डगर बेहद आसान बना देते हैं। क्योंकि दयालु इंसान सारी दुनिया के लिए अपनापन रखता है। जिससे वह कर्तव्य और जिम्मेदारियों को उठाने के लिए संकल्पित रहता है और ऐसी संकल्प शक्ति ही लक्ष्य भेदन में सफल बनाती है।
तरक्की पाना आसान बना देते हैं साईं के ये 4 उपाय
हिन्दू धर्म के नजरिए से ईश्वर के त्रिगुण स्वरूप ब्रह्मदेव की रचना, भगवान विष्णु की पालन और देवों के देव महेश की बुराइयों की संहार शक्तियां साईं चरित्र में भी उजागर होती हैं। दरअसल, ब्रह्मदेव की ज्ञान शक्ति से रचना या बनाने का भाव, विष्णु की सत्व शक्ति यानी शांति से पालन और शिव का वैराग्य से सुख पाने के गुण साईं बाबा के ज्ञानी, त्यागी व शांत चरित्र में भी मिलते है।
यही वजह है कि साईं बाबा द्वारा बताई 4 अहम बातें व्यावहारिक जीवन में हर व्यक्ति को धर्म और मानवीयता से जोड़ जीने व आगे बढ़ने की राह बताती है। इसलिए साईं भक्ति में इन चार बातों से जीवन में जुडऩे की मुरादें मांगना भी अहम माना गया है। जानिए साईं की बताई ऐसी 4 खास बातें जो तरक्की व कामयाबी में बेहद निर्णायक होती हैं –
बुराई से बचें - साईं बाबा ने सुख-शांति से जीवन बिताने के लिए हमेशा तन की मलिनता, मन के बुरे भाव, कर्म में आलस्य या धन के लिए गलत तरीके अपनाना जैसी हर तरह की बुराईयों से दूर रहने पर जोर दिया।
अहं से दूरी- साईं बाबा ने विनम्रता व उदारता को सुखद जीवन का अहम सूत्र माना, जिसके लिए अहं के भाव के मन में स्थान ने देने का संदेश दिया।
धन के साथ बुद्धि का उपयोग - साईं ने यह भी सिखाया कि ईश्वर से धन की कामना बुरी नही, किंतु उसके साथ बुद्धि की कामना भी जरूर करें, ताकि धन का संग पाकर मन व जीवन में भटकाव न आए। बल्कि परोपकार में धन का उपयोग हो।
न्यायप्रिय बोल - साईं बाबा ने इस खास सूत्र द्वारा वचन की पवित्रता से सफलता की राह बताई। साईं ने सिखाया कि सत्य और न्यायप्रिय बोल की ही सार्थकता है। अन्यथा बुरे, अप्रिय या अन्याय से भरे शब्दों का कोलाहल जीवन को अशांत कर देता है।
छठ पूजा 19 कों, करें भगवान सूर्य का पूजन
कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को भगवान सूर्य की पूजा की जाती है इसे छठ पूजा, डाला छठ व सूर्य षष्टी व्रत भी कहते हैं। इस बार यह व्रत 19 नवंबर, सोमवार को है।
वैसे तो यह त्योहार संपूर्ण भारत वर्ष में मनाया जाता है लेकिन बिहार और उत्तरप्रदेश के पूर्वी क्षेत्रों में यह पर्व बड़ी श्रद्धा और उल्लास के साथ मनाया जाता है। लोगों को इस पर्व का बड़ी बेसब्री से इंतजार रहता है। मूलत: यह भगवान सूर्य देव की पूजा-आराधना का पर्व है। सूर्य अर्थात् रोशनी, जीवन एवं ऊष्मा के प्रतीक छठ के रूप में उन्हीं की पूजा-आराधना की जाती है।
धर्म शास्त्रों में यह पर्व सुख-शांति, समृद्धि का वरदान तथा मनोवांछित फल देने वाला बताया गया है। बहुत ही साफ-सफाई और निष्ठां के साथ इसे पूरा किया जाता है। इस पर्व को मनाने की परंपरा सदियों से चली आ रही है। बिहार का तो यह सबसे बड़ा पर्व माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि जबसे सृष्टि बनी, तभी से सूर्य वरदान के रूप में हमारे सामने हैं और तभी से उनका पूजन होता आ रहा है।
छठ पूजा: संतान को लंबी उम्र प्रदान करती हैं षष्ठी देवी
कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को सूर्य षष्ठी व्रत किया जाता है। इस पर्व को डाला या छठ व छठ पूजन भी कहा जाता है। इस दिन भगवान सूर्य व षष्ठी देवी की पूजा की जाती है। इस बार यह व्रत 19 नवंबर, सोमवार को है।
धर्म शास्त्रों के अनुसार षष्ठी देवी प्रमुख मातृ शक्तियों का ही अंश स्वरूप है। ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृतिखण्ड के अनुसार परमात्मा ने सृष्टि की रचना के लिए स्वयं के शरीर को दो भागों में विभक्त कर लिया। दक्षिण भाग से पुरुष तथा वाम भाग से स्त्री(प्रकृति) का जन्म हुआ। यहां प्रकृति शब्द की व्याख्या इस प्रकार की गई है- प्र अर्थात सत्वगुण, कृ अर्थात रजोगुण व ति अर्थात तमोगुण।
त्रिगुणात्मस्वरूपा या सर्वशक्तिसमन्विता।
प्रधानसृष्टिकरणे प्रकृतिस्तेन कथ्यते।।
(ब्रह्मवैवर्तपुराण, प्रकृतिखंड 1/6)
उपर्युक्त पुराण के अनुसार सृष्टि की अधिष्ठात्री ये ही प्रकृतिदेवी स्वयं को पांच भागों में विभक्त करती है- दुर्गा, राधा, लक्ष्मी, सरस्वती और सावित्री। ये पांच देवियां पूर्णतम प्रकृति कहलाती हैं।
मार्कण्डेयपुराण के अनुसार- स्त्रिय: समस्ता: सकला जगत्सु। प्रकृति के एक प्रधान अंश को देवसेना कहते हैं जो सबसे श्रेष्ठ मातृका मानी जाती है। ये समस्त लोकों के बालकों की रक्षिका देवी हैं। प्रकृति का छठा अंश होने के कारण इन देवी को ही षष्ठी देवी कहा गया है।
षष्ठांशा प्रकृतेर्या च सा च षष्ठी प्रकीर्तिता।
बालकाधिष्ठातृदेवी विष्णुमाया च बालदा।।
आयु:प्रदा च बालानां धात्री रक्षणकारिणी।
सततं शिशुपाश्र्वस्था योगेन सिद्धियोगिनी।।
(ब्रह्मवैवर्तपुराण, प्रकृतिखण्ड 43/4, 6)
यह षष्ठी देवी नवजात शिशुओं की रक्षा करती हैं तथा उन्हें आरोग्य व दीर्घायु प्रदान करती हैं। इन षष्ठी देवी का पूजन ही कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को किया जाता है।
इस्लामी नव वर्ष , जानें किस धर्म में कब मनाया जाता है नया साल
दुनिया के विभिन्न धर्मों में नया साल एक उत्सव की अलग-अलग समय पर विभिन्न परंपराओं के साथ मनाया जाता है। किसी धर्म में नाच-गाकर नए साल का स्वागत किया जाता है तो कहीं पूजा-पाठ व ईश्वर की आराधना कर। इस्लाम धर्म में नए साल की शुरुआत खुदा की इबादत से की जाती है।
इस्लामी कैलेंडर के अनुसार मोहर्रम महीने की पहली तारीख को मुस्लिम समाज का नया साल हिजरी शुरू होता है। इस्लामी या हिजरी कैलेंडर चंद्र आधारित है, जो न सिर्फ मुस्लिम देशों में इस्तेमाल होता है, बल्कि दुनियाभर के मुस्लिम भी इस्लामिक धार्मिक पर्वों को मनाने का सही समय जानने के लिए इसी का इस्तेमाल करते हैं। इस बार इस्लामिक नव वर्ष हिजरी सन् 1434 का प्रारंभ 16 नवंबर, शुक्रवार से हो रहा है। आगे की स्लाइड्स में जानिए किन-किन धर्मों में नव वर्ष कब मनाए जाने की परंपरा है।
हिंदू नव वर्ष
हिंदू नव वर्ष का प्रारंभ चैत्र मास की शुक्ल प्रतिपदा से माना जाता है। इसे हिंदू नव संवत्सर या नव संवत कहते हैं। ऐसी मान्यता है कि भगवान ब्रह्मा ने इसी दिन से सृष्टि की रचना प्रारंभ की थी। इसी दिन से विक्रम संवत के नए साल का आरंभ भी होता है। अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार यह तिथि अप्रैल में आती है। इसे गुड़ी पड़वा, उगादि आदि नामों से भारत के अनेक क्षेत्रों में मनाया जाता है।
ईसाई नव वर्ष
ईसाई समाज १ जनवरी को नव वर्ष मनाता है। करीब ४००० वर्ष पहले बेबीलोन में नया वर्ष २१ मार्च को मनाया जाता था जो कि वसंत के आगमन की तिथि भी मानी जाती थी। तब रोम के तानाशाह जूलियस सीजर ने ईसा पूर्व ४५वें वर्ष में जूलियन कैलेंडर की स्थापना की, उस समय विश्व में पहली बार १ जनवरी को नए वर्ष का उत्सव मनाया गया। तब से आज तक ईसाई धर्म के लोग इसी दिन नया साल मनाते हैं। यह सबसे ज्यादा प्रचलित नव वर्ष है।
सिंधी नव वर्ष
सिंधी नव वर्ष चेटीचंड उत्सव से शुरू होता है, जो चैत्र शुक्ल द्वितीया को मनाया जाता है। सिंधी मान्यताओं के अनुसार इस दिन भगवान झूलेलाल का जन्म हुआ था जो वरुणदेव के अवतार थे।
सिक्ख नव वर्ष
पंजाब में नया साल वैशाखी पर्व के रूप में मनाया जाता है। जो अप्रैल में आती है। सिक्ख नानकशाही कैलेंडर के अनुसार होला मोहल्ला (होली के दूसरे दिन) नया साल होता है।
जैन नव वर्ष
जैन नववर्ष दीपावली से अगले दिन होता है। भगवान महावीर स्वामी की मोक्ष प्राप्ति के अगले दिन यह शुरू होता है। इसे वीर निर्वाण संवत कहते हैं।
पारसी नव वर्ष
पारसी धर्म का नया वर्ष नवरोज के रूप में मनाया जाता है। आमतौर पर 19 अगस्त को नवरोज का उत्सव पारसी लोग मनाते हैं। लगभग 3000 वर्ष पूर्व शाह जमशेदजी ने पारसी धर्म में नवरोज मनाने की शुरुआत की। नव अर्थात् नया और रोज यानि दिन।
मानवता के पक्षधर थे गुरु गोविंदसिंह, पुण्यतिथि 18 को
गुरु गोविंद सिंह सिक्खों के दसवें व अंतिम गुरु थे। 18 नवंबर, रविवार को इनकी पुण्यतिथि है। गुरु गोविंद सिंह जी का मूल नाम गोविंद राय था। गुरु गोविंद सिंह के जन्म के समय देश पर मुग़लों का शासन था। इसी दौरान गुरु तेगबहादुर की धर्मपत्नी गुजरी देवी ने एक सुंदर बालक को जन्म दिया, जो गुरु गोविंद सिंह के नाम से विख्यात हुआ।
पूरे नगर में बालक के जन्म पर उत्सव मनाया गया। बचपन में सभी लोग गोविंद जी को बाला प्रीतम कहकर बुलाते थे। उनके मामा उन्हें भगवान की कृपा मानकर गोविंद कहते थे। बार-बार गोविंद कहने से बाला प्रीतम का नाम गोविंद राय पड़ गया। गुरु गोविंद सिंह को सैन्य जीवन के प्रति लगाव अपने दादा गुरु हरगोविंद सिंह से मिला था और उन्हें बौद्धिक संपदा भी उत्तराधिकार में मिली थी।
वह अनेक भाषाओं जैसे फारसी, अरबी, संस्कृत और अपनी मातृभाषा पंजाबी का ज्ञान था। उन्होंने सिक्ख कानून को सूत्रबद्ध किया, काव्य रचना की और सिक्ख ग्रंथ दसम ग्रंथ (दसवां खंड) लिखकर प्रसिद्धि पाई। उन्होंने देश, धर्म और स्वतंत्रता की रक्षा के लिए सिक्खों को संगठित कर सैनिक परिवेश में ढाला। खिलौनों से खेलने की उम्र में गुरु गोविंद सिंह कटार और धनुष-बाण से खेलना पसंद करते थे।
जानिए घर या कार्यक्षेत्र में अनबन दूर करने का 1 सटीक तरीका
व्यावहारिक जीवन के नजरिए से जिस मानसिकता पर धार्मिकता और आध्यात्मिकता टिकी रहती है, उनमें आपसी मानवीय संबंध एक अहम भूमिका अदा करते हैं। किंतु आज भागदौड़ भरे जीवन में अक्सर परिवार या कार्यक्षेत्र मे आपसी संबंधों में अहं, अपेक्षा या तनाव के चलते मनमुटाव व अलगाव देखा जाता है। धर्म के नजरिए से संबंधों में कटुता या अलगाव की टीस मानव स्वभाव में एक गुण की कमी से होती है। जानिए कौन सी है वह खूबी, जिसे अक्सर इंसान नजरअंदाज कर नुकसान या असफलता का सामना करता है और कैसे इसके जरिए कहीं भी मनमुटाव से बच सकता है।
यह खास खूबी है - क्षमा या माफ करना। कैसे क्षमा भाव को आसानी से जीवन में उतार शांत और शक्ति संपन्न बन रहें? जानिए - धर्म के नजरिए से क्षमा एक तपस्या है और क्षमा करने वाला सही मायनों में वीर होता है। क्योंकि क्षमा भाव धर्म पालन का जरिया ही नहीं, बल्कि उसे स्थापित करने वाला भी माना गया है। इसलिए यह स्त्री-पुरुष सभी के लिए गहनों की तरह शोभा बढ़ाने वाला भी है।
लिखा गया है कि -
क्षान्ति तुल्यं तपो नास्ति यानी क्षमा जैसा तप नहीं।
दरअसल, सच्चाई और प्रेम का अभाव क्षमा में बाधक बनता है। इसलिए जरूरी है अपने मन में दूसरों के लिए दुर्भावना, शिकायत और कटुता को बिल्कुल जगह न दें। मन का सदुपयोग जीवन के अहम लक्ष्यों तक पहुंचने के लिए किया जाना चाहिये। संबंधों को विनम्रता और क्षमाशीलता द्वारा सहज, सरल और सुगम बनाए रखना चाहिए। इस तरह के अभ्यास से मन स्वस्थ होगा और स्वस्थ मन पर नियंत्रण आसान होगा। इसके उलट अगर हमारे मन में संशय, घृणा और कटुता बनी रहेगी तो मन अस्वस्थ रहेगा और उस पर काबू बहुत कठिन होगा, इसलिए क्षमा करना सीखें।
'ब्रह्ममुहूर्त' में जागने के ये फायदे जानकर छोड़ देंगे देर तक सोना
शास्त्रों में देव उपासना व साधना से जीवन में अच्छे बदलाव व नतीजे पाने लिए एक खास वक्त में जागना बहुत ही शुभ व पवित्र माना जाता है। यह विशेष घड़ी है- ब्रह्ममुहूर्त। किंतु आज के दौर की व्यस्त जीवनशैली खासतौर पर युवाओं को इस खास वक्त का लाभ उठाने से दूर कर रही है।
दरअसल, ब्रह्ममुहूर्त धर्म, अध्यात्म ही नहीं व्यावहारिक नजरिए से भी फायदेमंद है। अगर कोई भी इंसान जीवन में अच्छे बदलाव लाना चाहता है तो यहां बताए जा रहे ब्रह्ममुहूर्त के धार्मिक, पौराणिक व व्यावहारिक पहलुओं और लाभ को जानकर हर रोज इस शुभ घड़ी में जागना शुरू करें तो बेहतर नतीजे मिलेंगे। जानिए ब्रह्ममुहूर्त का सही वक्त व खास फायदे –
धार्मिक महत्व - व्यावहारिक रूप से यह समय सुबह सूर्योदय से पहले चार या पांच बजे के बीच माना जाता है। किंतु शास्त्रों में साफ बताया गया है कि रात के आखिरी प्रहर का तीसरा हिस्सा या चार घड़ी तड़के ही ब्रह्ममुहूर्त होता है।
मान्यता है कि इस वक्त जागकर इष्ट या भगवान की पूजा, ध्यान और पवित्र कर्म करना बहुत शुभ होता है। क्योंकि इस समय ज्ञान, विवेक, शांति, ताजगी, निरोग और सुंदर शरीर, सुख और ऊर्जा के रूप में ईश्वर कृपा बरसाते हैं। भगवान के स्मरण के बाद दही, घी, आईना, सफेद सरसों, बैल, फूलमाला के दर्शन भी इस काल में बहुत पुण्य देते हैं।
पौराणिक महत्व - वाल्मीकि रामायण के मुताबिक माता सीता को ढूंढते हुए श्रीहनुमान ब्रह्ममुहूर्त में ही अशोक वाटिका पहुंचे। जहां उन्होंने वेद व यज्ञ के ज्ञाताओं के मंत्र उच्चारण की आवाज सुनी।
व्यावहारिक महत्व - व्यावहारिक रूप से अच्छी सेहत, ताजगी और ऊर्जा पाने के लिए ब्रह्ममुहूर्त बेहतर समय है। क्योंकि रात की नींद के बाद पिछले दिन की शारीरिक और मानसिक थकान उतर जाने पर दिमाग शांत और स्थिर रहता है। वातावरण और हवा भी स्वच्छ होती है। ऐसे में देव उपासना, ध्यान, योग, पूजा तन, मन और बुद्धि को पुष्ट करते हैं।
इस तरह युवा पीढ़ी शौक-मौज या आलस्य के कारण देर तक सोने के बजाय इस खास वक्त का फायदा उठाकर बेहतर सेहत, सुख, शांति और नतीजों को पा सकती है।
विनायकी चतुर्थी , जानिए कैसे करें व्रत व पूजन
भगवान गणेश सभी दु:खों को हरने वाले हैं। इनकी कृपा से असंभव कार्य भी संभव हो जाते हैं। भगवान गणेश को प्रसन्न करने के लिए प्रत्येक शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को व्रत किया जाता है, इसे विनायकी चतुर्थी व्रत कहते हैं। इस बार यह व्रत 17 नवंबर, शनिवार को है। विनायकी चतुर्थी का व्रत इस प्रकार करें-
- सुबह जल्दी उठकर स्नान आदि काम जल्दी ही निपटा लें।
- दोपहर के समय अपने सामथ्र्य के अनुसार सोने, चांदी, तांबे, पीतल या मिट्टी से बनी भगवान गणेश की प्रतिमा स्थापित करें।
- संकल्प मंत्र के बाद श्रीगणेश की षोड़शोपचार पूजन-आरती करें। गणेशजी की मूर्ति पर सिंदूर चढ़ाएं। गणेश मंत्र (ऊँ गं गणपतयै नम:) बोलते हुए 21 दूर्वा दल चढ़ाएं।
- गुड़ या बूंदी के 21 लड्डूओं का भोग लगाएं। इनमें से 5 लड्डू मूर्ति के पास रख दें तथा 5 ब्राह्मण को दान कर दें शेष लड्डू प्रसाद के रूप में बांट दें।
- पूजा में भगवान श्री गणेश स्त्रोत, अथर्वशीर्ष, संकटनाशक स्त्रोत आदि का पाठ करें।
-ब्राह्मण भोजन कराएं और उन्हें दक्षिणा प्रदान करने के पश्चात् संध्या के समय स्वयं भोजन ग्रहण करें। संभव हो तो उपवास करें।
व्रत का आस्था और श्रद्धा से पालन करने पर भगवान श्रीगणेश की कृपा से मनोरथ पूरे होते हैं और जीवन में निरंतर सफलता प्राप्त होती है।
छठ पूजा: जीवन में मिठास घोलता है ये उत्सव
छठ व्रत दीपावली के छह दिन बाद आरंभ होता है। इसकी शुरुआत 'खरना' से आरंभ होती है। खरना यानी व्रत की शुरुआत का पहला दिन। उस दिन व्रती स्नान-ध्यान कर शाम को गुड़ की खीर-रोटी का प्रसाद खाकर उस दिन का खरना पूरा करता है। ऐसी मान्यता है कि गुड़ की खीर खाने से जीवन और काया में सुख-समृद्धि के अंश जुड़ जाते हैं। अत: इस प्रसाद को लोग मांगकर भी प्राप्त करते हैं, अथवा व्रती अपने आसपास के घरों में स्वयं बांटने के लिए जाते हैं ताकि जीवन के सुख की मिठास सिर्फ अपने घर में ही नहीं समाज में भी घुल मिल जाए।
खरना के बाद दूसरे दिन से 24 घंटे का उपवास आरंभ होता है। दिन को व्रत रखने के बाद शाम को नदी अथवा सरोवरों के किनारे सूर्यास्त के साथ व्रती जल में खड़ा होकर स्थान के बाद सूर्य को अध्र्य देते हैं। ऐसी मान्यता है कि व्रती के कपड़े धोने से बहुत पुण्य प्राप्त होता है। ऐसे में लोग न सिर्फ व्रती के कपड़े धोकर पुण्य कमाते हैं बल्कि सिर पर घर से नदी किनारे तक प्रसाद से भरी टोकरी या थाल को उठाकर ले जाने पर भी पुण्य के भागी बन जाते हैं। पूजा-अर्चना के समय घी के दीपक जलाए जाते हैं। नदी के जल में दीपों की पंक्तियां सज जाती हैं।
शाम का अध्र्य देने के पश्चात व्रती सूर्यास्त के बाद ही घर लौटते हैं। कई व्रती विशेष अनुष्ठान कोसी भरना करते हैं। इस विशेष अनुष्ठान में प्रसाद के बीच गन्नों के घेरे में दीप जलाकर और छठ पर्व के लोक गीत गाकर सूर्य भगवान की पूजा की जाती है। यह देर रात तक चलता रहता है।
क्या आप जानते हैं सीता व द्रोपदी ने भी की थी छठ पूजा
छठ पूजा उत्तर प्रदेश तथा बिहार का सबसे प्रमुख त्योहार है। इस बार यह त्योहार 19 नवंबर, सोमवार को है। इस त्योहार को मनाने के पीछे कई पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं। उन्हीं में से कुछ कथाएं इस प्रकार हैं-
मान्यता के अनुसार भगवान राम के वनवास से लौटने पर राम और सीता ने कार्तिक शुक्ल षष्ठी के दिन उपवास रखकर भगवान सूर्य की आराधना की और सप्तमी के दिन व्रत पूर्ण किया। पवित्र सरयू के तट पर राम-सीता के इस अनुष्ठान से प्रसन्न होकर भगवान सूर्य देव ने उन्हें आशीर्वाद दिया था।
एक अन्य मान्यता के अनुसार जब पांडव अपना सारा राजपाट जुएं में हारकर जंगल-जंगल भटक रहे थे, तब इस दुर्दशा से छुटकारा पाने के लिए द्रौपदी ने सूर्यदेव की आराधना के लिए छठ व्रत किया। इस व्रत को करने के बाद पांडवों को अपना खोया हुआ वैभव पुन: प्राप्त हो गया था।
श्रीमद्देवी भागवत पुराण के अनुसार- स्वायम्भुव मनु के पुत्र राजा प्रियव्रत को अधिक समय बीत जाने के बाद भी कोई संतान उत्पन्न नहीं हुई। तदुपरांत महर्षि कश्यप ने पुत्रेष्टिï यज्ञ कराकर उनकी पत्नी को चरू (प्रसाद) दिया, जिससे गर्भ तो ठहर गया, किंतु मृत पुत्र उत्पन्न हुआ। प्रियवत उस मृत बालक को लेकर श्मशान गए। पुत्र वियोग में प्रियवत ने भी प्राण त्यागने का प्रयास किया। ठीक उसी समय मणि के समान विमान पर षष्ठी देवी वहां आ पहुंची। मृत बालक को भूमि पर रखकर राजा ने उस देवी को प्रणाम किया और पूछा- हे सुव्रते! आप कौन हैं?
देवी ने आगे कहा- तुम मेरा पूजन करो और अन्य लोगों से भी कराओ। इस प्रकार कहकर देवी षष्ठी ने उस बालक को उठा लिया और खेल-खेल में उस बालक को जीवित कर दिया। राजा ने उसी दिन घर जाकर बड़े उत्साह से नियमानुसार षष्ठी देवी की पूजा संपन्न की। चूंकि यह पूजा कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को की गई थी, अत: इस विधि को षष्ठी देवी/छठ देवी का व्रत होने लगा।
छठ पूजा: इस सूर्य उपासना से पूरी होगी हर मनोकामना
कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की छठ को सूर्य षष्टी व्रत किया जाता है। इसे छठ पूजा भी कहते हैं। इस बार यह पूजा 19 नवंबर, सोमवार को है। इस दिन भगवान सूर्य की पूजा का विधान है। हिंदू धर्म में सूर्य को साक्षात भगवान माना गया है क्योंकि वे नित्य प्रति हमें दर्शन देते हैं और उन्हीं के प्रकाश से हमें जीवनदायिनी शक्ति प्राप्त होती है। धर्म शास्त्रों के अनुसार नित्य प्रति सूर्य की उपासना करने से सभी मनोकामनाएं पूरी होती है। प्रतिदिन सूर्य की पूजा इस प्रकार करें-
- प्रात:काल स्नान कर भगवान सूर्य को जल से अध्र्य दें तथा प्रणाम करें तथा नीचे लिखे शिव प्रोक्त सूर्याष्टक का नित्य पाठ करें-
आदिदेव नमस्तुभ्यं प्रसीद मम भास्कर।
दिवाकर नमस्तुभ्यं प्रभाकर मनोस्तु ते।।
सप्ताश्चरथमारूढं प्रचण्डं कश्यपात्ममज्म।
श्वेतपद्मधरं देवं तं सूर्यं प्रणमाम्यहम्।।
लोहितं रथमारूढं सर्वलोकपितामहम्।
महापापहरं देवं तं सूर्यं प्रणमाम्यम्।।
त्रैगुण्यं च महाशूरं ब्रह्मविष्णुमहेश्वरम्।
महापापहरं देवं तं सूर्यं प्रणमाम्यम्।।
बृंहितं तेज:पुजं च वायु माकाशमेव च।
प्रभुं च सर्वलोकानां तं सूर्यं प्रणमाम्यहम्।।
बन्धूकपुष्पसंकाशं हारकुण्डलभूषितम्।
एकचक्रधरं देवं तं सूर्यं प्रणमाम्यहम्।।
तं सूर्यं जगत्कर्तारं महातेज: प्रदीपनम्।
महापापहरं देवं तं सूर्यं प्रणमाम्यहम्।।
तं सूर्य जगतां नाथं ज्ञानविज्ञानमोक्षदम्।
महापापहरं देवं तं सूर्यं प्रणामाम्यहम्।।
इस प्रकार सूर्य की उपासना करने से मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है।
सूर्य षष्ठी व्रत: जानिए, छठ पूजा की रोचक कथा और महत्व
छठ पूजा उत्तर भारत का सबसे बड़ा त्योहार है। इस बार यह त्योहार 19 नवंबर, सोमवार को है। इस पूजा के पीछे कई किवदंतियां जुड़ी हुई हैं। उन्हीं में से इस प्रकार है-
बहुत समय पहले शर्याति नामक एक राजा थे। उनकी अनेक स्त्रियां थी लेकिन उनकी एकमात्र संतान सुकन्या नामक पुत्री थी। राजा को अपनी पुत्री बहुत प्रिय थी। एक बार राजा शर्याति जंगल में शिकार खेलने गए। उनके साथ सुकन्या भी गईं। जंगल में च्यवन ऋषि तपस्या कर रहे थे। ऋषि तपस्या में इतने लीन थे कि उनके शरीर पर दीमक लग गई थी। बांबी से उनकी आंखें जुगनू की तरह चमक रही थीं।
सुकन्या ने कौतुहलवश उन बांबी के दोनों छिद्रों में जहां ऋषि की आंखें थी, तिनके डाल दिए। जिससे मुनि की आंखें फूट गईं। क्रोधित होकर च्यवनऋषि ने श्राप दिया जिससे शर्याति के सैनिकों का मल-मूत्र निकलना बंद हो गया। जिसके कारण सैनिक दर्द से तपडऩे लगे। जब यह बात राजा शर्याति को मालूम हुई तो वह सुकन्या को लेकर च्यवनमुनि के पास क्षमा मांगने पहुंचे। राजा ने अपनी पुत्री के अपराध को देखते हुए उसे ऋषि को ही समर्पित कर दिया।
सुकन्या ऋषि च्यवन के पास रहकर ही उनकी सेवा करने लगी। एक दिन कार्तिक मास में सुकन्या जल लाने के लिए पुष्करिणी के समीप गई। वहां उसे एक नागकन्या मिली। नागकन्या ने सुकन्या को कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को सूर्य की उपासना एवं व्रत करने को कहा। सुकन्या ने पूरी निष्ठा से छठ का व्रत किया जिसके प्रभाव से च्यवन मुनि की आंखों की ज्योति पुन: लौट आई।
उसूलों पर कायम रहना सीखाता है मुहर्रम का पाक महीना
इस्लाम में रमजान की ही तरह मुहर्रम का महीना भी खुदा की इबादत के लिए बहुत खास माना जाता है। इस्लामी कैलंडर यानी हिजरी संवत में मुहर्रम के महीने से ही साल की शुरुआत होती है। इस बार मुहर्रम माह की शुरुआत 16 नवंबर, शुक्रवार से हो चुकी है।
मुस्लिम धर्मावलंबी इस महीने की दस तारीख को हजरत मोहम्मद साहब के नवासे (हजरत फातिमा के बेटे) इमाम हुसैन और उनके साथ शहीद हुए 71 लोगों को कुर्बानी को याद करते हैं। इमाम हुसैन अपने उसूलों के लिए शहीद हुए थे। मुहर्रम का आयोजन उस शहादत की भावना को जगाए रखने का एक माध्यम है। मुहर्रम नेकी और कुर्बानी का पैगाम देता है। इस्लाम धर्मावलंबी इस महीने में अल्लाह की इबादत में खुद को समर्पित करते हैं।
इस महीने में कोई मनोरंजक कार्यक्रम और विवाह आदि भी मुस्लिम समाज में नहीं होते। मोहर्रम इस माह की दस तारीख (इस बार 25 नवंबर, रविवार) को मनाया जाता है, क्योंकि यही दिन शहादत का है। इस्लाम मानने वाले विभिन्न समुदायअलग-अलग तरीकों से इमाम हुसैन की शहादत को याद करते हैं। कुछ समुदायताजियों के माध्यम से उन्हें याद करते हैं और इस दिन एक जुलूस के रूप में इकट्ठे हो कर कर्बला तक जाते हैं। कुछ समुदाय रात भर जाग कर नफ्ली नमाज पढ़ कर अपने दिलों को उनकी याद से रोशन करते हैं।
मुहर्रम: रोजे भी रखते हैं इस पवित्र महीने में
इस्लाम में मुहर्रम का माह खुदा की इबादत व इमाम हुसैन की शहादत को याद करने का है। मुस्लिम धर्मावलंबी इस माह की नौ व दस तारीख को रोजे भी रखते हैं। धार्मिक मान्यता के अनुसार इन दिनों में रोजा रखने से बीते समय के सभी गुनाहों से छुटकारा मिलता है।
इस्लाम के मानने वाले मुहर्रम माह की दस तारीख को शहीदों की याद के रूप में तथा इस्लाम के प्रति अपने समर्पण को दर्शाते हैं और साथ ही यह दुआ भी करते हैं कि रब उन्हें भी नेकी, समर्पण व कुर्बानी के जज्बे से सराबोर रखे। जंग को हराम समझे जाने वाले इस माह को शहरूल्लाह व शहरूल अम्बिया भी कहा जाता है।
फारूक-ए-आजम के दौर से इस माह को हिजरी साल का पहला महीना मुकर्रर किया गया है। इस माह में अल्लाह तआला ने इन्सानियत को वजूद बख्शा है। इस्लामी ग्रंथों के अनुसार चार माह जिलकअदा, जिलहिज्जा, मुहर्रम व रजब को हुरमत वाले महीने कहा जाता है।
24 नवंबर को नींद से जागेंगे भगवान विष्णु, शुरु होंगे मांगलिक कार्य
कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को देवप्रबोधिनी एकादशी को भगवान विष्णु नींद से जागते हैं, ऐसा धर्म ग्रंथों में लिखा है। इस दिन भगवान विष्णु की पूजा का विशेष महत्व है। इसी दिन से मांगलिक कार्यों की शुरुआत भी होती है। इस बार देवप्रबोधिनी एकादशी का पर्व 24 नवंबर, शनिवार को है। इसकी कथा इस प्रकार है
धर्म ग्रंथों के अनुसार भाद्रपद मास (भादौ) की शुक्ल एकादशी को भगवान विष्णु ने दैत्य शंखासुर को मारा था। शंखासुर बहुत पराक्रमी दैत्य था। इस वजह से लंबे समय तक भगवान विष्णु का युद्ध उससे चलता रहा। अंतत: घमासन युद्ध के बाद शंखासुर मारा गया। इस युद्ध से भगवान विष्णु बहुत अधिक थक गए।
तब वे थकावट दूर करने के लिए क्षीरसागर में आकर सो गए। वे वहां चार महिनों तक सोते रहे और कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी को जागे। तब सभी देवी-देवताओं द्वारा भगवान विष्णु का पूजन किया गया। इसी वजह से कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की इस एकादशी को देवप्रबोधिनी एकादशी कहा जाता है। इस दिन व्रत-उपवास करने का विधान है।
कर्बला व कुरुक्षेत्र की जंग के ये खास सबक बनाते हैं फौलाद सा मजबूत
मुहर्रम, इस्लाम धर्म कैलेण्डर का पहला महीना होता है। खासतौर पर इस महीने की 10वीं तारीख इस्लाम धर्म परंपराओं में बड़ी ही अहम है। इस दिन मुहर्रम (ताजिया) की रस्मों के जरिए धर्म और सच्चाई के लिए कर्बला की जंग में प्राण न्यौछावर करने वाले हजरत इमाम हुसैन को याद किया जाता है।
'कत्ल की रात' (24 नवंबर) मुहर्रम के दौरान हजरत की शहादत को याद करने की घड़ी होती है। इस बार इस दिन के साथ हिन्दू धर्म परंपराओं के मुताबिक जगतपालक भगवान विष्णु के जागरण यानी देवउठनी एकादशी की भी घड़ी है। ऐसे संयोग में कर्बला का धर्मयुद्ध भगवान विष्णु के ही अवतार भगवान श्रीकृष्ण द्वारा कुरुक्षेत्र में मैदान में लड़े गए धर्मयुद्ध में निभाई गई भूमिका और सबक को भी याद दिलाता है।
वैसे युद्ध मानवता और शांति के नजरिए से बेमानी माने जाते है। किंतु धर्म इतिहास उजागर करता है कि कुरुक्षेत्र और कर्बला की जंग के महानायकों ने कर्म के साथ जीने तो धर्म रक्षा के लिए मर मिटने के जो सूत्र सिखाए वह हमेशा सारी दुनिया को इंसानियत व अमन के साथ रहकर जीवन को सफल बनाने का जज्बा देते हैं। जानिए इन 2 धर्म युद्धों में शरीर, मन और विचारों को फौलाद बनाने वाले कौन से खास सबक उजागर हुए -
इस्लामिक मान्यताओं के मुताबिक मुहर्रम के दिन कर्बला के मैदान में इमाम हुसैन व परिजनों द्वारा इंसानियत के लिए दी गई शहादत को याद किया जाता है। माना जाता है कि यजीद की सेना इतनी ताकतवर थी कि बाकी दुनिया की सारी सेना के मिल जाने पर भी उसकी ताकत का भी मुकाबला न कर पाए। किंतु यह जानते हुए भी इमाम हुसैन ने धर्म निभाते हुए मानवता का गला घोंट रहे यजीद के जुल्मों से आहत लोगों व धर्म की रक्षा के लिये ही छोटे-से दल-बल के साथ कर्बला की ओर कूच किया। जहां कर्बला के मैदान में यजीद द्वारा उपयोग की गई तमाम शक्ति व प्रलोभनों के आगे न झुकते हुए सिर्फ अल्लाह की रहमत के लिए इंसानियत व नेकदिली की राह पर ही अडिग रहकर शहादत दे दी।
गोपाष्टमी, सौभाग्य बढ़ाने के लिए करें गायों का पूजन
कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को गोपाष्टमी महोत्सव मनाया जाता है। इस बार यह पर्व 21 नवंबर, बुधवार को है। मान्यता के अनुसार कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा से लेकर सप्तमी तक भगवान श्रीकृष्ण ने गोवर्धनपर्वत धारण किया था। आठवें दिन इंद्र अहंकाररहित श्रीकृष्ण की शरण में आए तथा क्षमायाचना की। तभी से कार्तिक शुक्ल अष्टमी को गोपाष्टमी का उत्सव मनाया जा रहा है।
ऐसे मनाएं महोत्सव
प्रात:काल उठकर गौओं को स्नान कराएं। गंध-पुष्पादि से गायों का पूजन करें तथा ग्वालों को उपहार आदि देकर उनका भी पूजन करें। गायों को सजाएं तथा उन्हें गो ग्रास देकर उनकी परिक्रमा करें और थोड़ी दूर तक उनके साथ जाएं। शाम को जब गाएं चलकर वापस आए तो उनका पंचोपचार पूजन करके कुछ खाने को दें। इस प्रकार पूजन करने के बाद गौधन के चरणों की मिट्टी को मस्तक पर लगाएं। ऐसा करने से सौभाग्य की वृद्धि होती है।
आंवला नवमी: करना है लक्ष्मी को प्रसन्न तो ऐसे पूजें आंवला वृक्ष को
कार्तिकमास के शुक्ल पक्ष की नवमी को अक्षयनवमी व आंवला नवमी कहते हैं। इस दिन स्नान, पूजन, तर्पण तथा अन्नदान करने से हर मनोकामना पूरी होती है। इस बार यह व्रत 22 नवंबर, गुरुवार (पंचांग भेद के कारण कुछ स्थानों पर 21 नवंबर, बुधवार को भी नवमी तिथि मानी गई है) को है। अक्षयनवमी के दिन आंवले के वृक्ष की पूजा करने का विधान है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार आंवले का वृक्ष भगवान विष्णु को अतिप्रिय है क्योंकि मान्यता के अनुसार आंवले के वृक्ष में लक्ष्मी का वास माना गया है।
व्रत विधान
सुबह स्नान कर दाहिने हाथ में जल, चावल, फूल आदि लेकर निम्न प्रकार से व्रत का संकल्प करें-
अद्येत्यादि अमुकगोत्रोमुक (अपना गोत्र बोलें) ममाखिलपापक्षयपूर्वकधर्मार्थकाममोक्षसिद्धिद्वारा श्रीविष्णुप्रीत्यर्थं धात्रीमूले विष्णुपूजनं धात्रीपूजनं च करिष्ये।
ऐसा संकल्प कर आंवले के वृक्ष के नीचे पूर्व दिशा की ओर मुख करके ऊँ धात्र्यै नम: मंत्र से आवाहनादि षोडशोपचार पूजन करके निम्नलिखित मंत्रों से आंवले के वृक्ष की जड़ में दूध की धारा गिराते हुए पितरों का तर्पण करें-
पिता पितामहाश्चान्ये अपुत्रा ये च गोत्रिण:।
ते पिबन्तु मया दत्तं धात्रीमूलेक्षयं पय:।।
आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं देवर्षिपितृमानवा:।
ते पिवन्तु मया दत्तं धात्रीमूलेक्षयं पय:।।
इसके बाद आंवले के वृक्ष के तने में निम्न मंत्र से सूत्रवेष्टन करें-
दामोदरनिवासायै धात्र्यै देव्यै नमो नम:।
सूत्रेणानेन बध्नामि धात्रि देवि नमोस्तु ते।।
इसके बाद कर्पूर या घृतपूर्व दीप से आंवले के वृक्ष की आरती करें तथा निम्न मंत्र से उसकी प्रदक्षिणा करें -
यानि कानि च पापानि जन्मान्तरकृतानि च।
तानि सर्वाणि नश्यन्तु प्रदक्षिणपदे पदे।।
इसके बाद आंवले के वृक्ष के नीचे ही ब्राह्मणों को भोजन भी कराना चाहिए और अन्त में स्वयं भी आंवले के वृक्ष के नीचे बैठकर भोजन करना चाहिए। एक पका हुआ कुम्हड़ा (कद्दू) लेकर उसके अंदर रत्न, सुवर्ण, रजत या रुपया आदि रखकर निम्न संकल्प करें-
ममाखिलपापक्षयपूर्वक सुख सौभाग्यादीनामुक्तरोत्तराभिवृद्धये कूष्माण्डदानमहं करिष्ये।
इसके बाद योग्य ब्राह्मण को तिलक करके दक्षिणासहित कुम्हड़ा दे दें और यह प्रार्थना करें-
कूष्णाण्डं बहुबीजाढयं ब्रह्णा निर्मितं पुरा।
दास्यामि विष्णवे तुभ्यं पितृणां तारणाय च।।
पितरों के शीतनिवारण के लिए यथाशक्ति कंबल आदि ऊनी कपड़े भी योग्य ब्राह्मण को देना चाहिए।
घर में आंवले का वृक्ष न हो तो किसी बगीचे आदि में आंवले के वृक्ष के समीप जाकर पूजा, दानादि करने की भी परंपरा है अथवा गमले में आंवले का पौधा रोपित कर घर में यह कार्य सम्पन्न कर लेना चाहिए।
जानिए, भगवान विष्णु ने शिवजी को क्यों चढ़ाई अपनी आँख
कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी (इस बार 27 नवंबर ) को यानी वैकुण्ठ चतुर्दशी के दिन भगवान विष्णु व शिव की पूजा करने का विधान है। पुराणों में इस व्रत से जुड़ी एक कथा भी है जो इस प्रकार है-
एक बार भगवान विष्णु शिवजी का पूजन करने के लिए काशी आए। यहां मणिकार्णिका घाट पर स्नान करके उन्होंने एक हजार स्वर्ण कमल फूलों से भगवान शिव की पूजा का संकल्प लिया। अभिषेक के बाद जब भगवान विष्णु पूजन करने लगे तो शिवजी ने उनकी भक्ति की परीक्षा लेने के लिए एक कमल का फूल कम कर दिया।
भगवान विष्णु को अपने संकल्प की पूर्ति के लिए एक हजार कमल के फूल चढ़ाने थे। एक पुष्प की कमी देखकर उन्होंने सोचा कि मेरी आंखें ही कमल के समान हैं इसलिए मुझे कमलनयन और पुण्डरीकाक्ष कहा जाता है। एक कमल के फूल के स्थान पर मैं अपनी आँख ही चढ़ा देता हूं। ऐसा सोचकर भगवान विष्णु जैसे ही अपनी आँख भगवान शिव को चढ़ाने के लिए तैयार हुए, वैसे ही शिवजी प्रकट होकर बोले- हे विष्णु। तुम्हारे समान संसार में कोई दूसरा मेरा भक्त नहीं है।
आज की यह कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी अब से बैंकुठ चतुर्दशी के नाम से जानी जाएगी। इस दिन व्रत पूर्वक जो पहले आपका और बाद में मेरा पूजन करेगा और बैकुंठ लोक की प्राप्ति होगी। तब प्रसन्न होकर शिवजी ने भगवान विष्णु को सुदर्शन चक्र भी प्रदान किया और कहा कि यह चक्र राक्षसों का विनाश करने वाला होगा। तीनों लोकों में इसकी बराबरी करने वाला कोई अस्त्र नहीं होगा।
बैकुंठ चतुर्दशी: इस आसान विधि से करें पूजन व व्रत
कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को बैकुंठ चतुर्दशी कहते हैं। इस दिन बैकुंठाधिपति भगवान
विष्णु की पूजा का विधान है। इस बार यह पर्व 27 नवंबर, को है।
ऐसी मान्यता है कि चातुर्मास के दौरान भगवान विष्णु सृष्टि का भार भगवान शंकर को सौंप देते हैं। इन चार मासों में सृष्टि का संचालन शिव ही करते हैं। चार मास सोने के बाद देवउठनी एकादशी के दिन भगवान विष्णु जागते हैं और बैकुंठ चतुर्दशी के दिन भगवान शंकर सृष्टि का भार पुन: भगवान विष्णु को सौंपते हैं। इस दिन पूजन व व्रत इस प्रकार करना चाहिए-
व्रत विधि
इस दिन सुबह स्नानादि से निवृत्त होकर दिनभर व्रत रखना चाहिए और रात में भगवान विष्णु की कमल के फूलों से पूजा करना चाहिए, इसके बाद भगवान शंकर की भी पूजा अनिवार्य रूप से करनी चाहिए-
विना यो हरिपूजां तु कुर्याद् रुद्रस्य चार्चनम्।
वृथा तस्य भवेत्पूजा सत्यमेतद्वचो मम।।
रात समाप्ति के बाद दूसरे दिन यानी कार्तिक पूर्णिमा पर शिवजी का पुन: पूजन कर ब्राह्मणों को भोजन कराकर स्वयं भोजन करना चाहिए। बैकुंठ चतुर्दशी का यह व्रत शैवों व वैष्णवों की पारस्परिक एकता और भगवान विष्णु तथा शिव के ऐक्य का प्रतीक है।
गुरुनानक जयंती, मानवता का संदेश देता है प्रकाश पर्व
कार्तिक मास की पूर्णिमा पर सिक्ख धर्मावलंबियों द्वारा प्रकाश पर्व मनाया जाता है। प्रकाश पर्व सिक्ख धर्म के संस्थापक गुरुनानक देव की जयंती के उपलक्ष्य में मनाया जाता है। इस बार गुरुनानक जयंती 29 नवंबर, बुधवार को है।
मान्यता के अनुसार गुरुनानक देव का जन्म अप्रैल सन् 1469 में लाहौर के पास तलवंडी में हुआ। इनका परिवार कृषि आदि कार्य से संबंधित था। गुरुनानक का जहां जन्म हुआ था वह स्थान उन्हीं के नाम पर अब ननकाना के नाम से जाना जाता है। ननकाना अब पाकिस्तान में है। नानकदेवजी बचपन से प्रखर बुद्धि थे। प्रारंभ से ही इनके चेहरे पर अद्भुत तेज दिखाई देता था। नानकजी का विवाह 16 वर्ष की उम्र में हुआ।
इनके दो पुत्र हुए। चूंकि नानकदेव का मन धर्म और अध्यात्म की ओर था अत: वे पत्नी और बच्चों को ससुराल में छोड़कर धर्म के मार्ग पर निकल गए। गुरुनानकजी ने अपने पूरे जीवन में सामाजिक कुरीतियों का पुरजोर विरोध किया। समाज में एकरूपता लाने के लिए अपना पूरा जीवन अर्पित कर दिया। इन्होंने यही संदेश दिया कि ईश्वर एक है और हमें उसी की आराधना करनी चाहिए।
गुरुनानकजी ने भारत सहित अनेक देशों की यात्राएं की। वे मानवीय और धार्मिक एकता के उपदेशों और शिक्षाओं का प्रचार-प्रसार कर रहे थे। ऐसा माना जाता है कि गुरुनानक देव ने 1539 देह का त्याग किया।
कब और कितना संतोष करना होता है सही? जानिए गीता का नजरिया
आज के भौतिक युग में जब कोई व्यक्ति जीवन में मिली सुख-सुविधाओं से संतुष्ट
होने या दूसरों से संतोष करने की बात करे तो कई लोग ऐसी सोच को उस व्यक्ति की
कमजोरी या फिर व्यावहारिक समझ की कमी के तौर पर देखते हैं। हालांकि कई नाकाबिल लोग
संतोषी होने की आड़ लेकर अयोग्यता को छुपाने की कवायद करते हैं। ऐसे लोगों के लिए
संतोषी होने की मानसिकता तरक्की की राह में रोड़ा भी बनती है। किंतु काबिल व गुणी
व्यक्ति द्वारा संतुष्टि की बात कर्महीनता के मकसद से कतई नहीं बल्कि सुखी,
सफल व सबल बनने की
सोच से अपनाई जाती है। आखिर इंसान के लिए संतोष करने की कब और कितनी अहमियत है?
यह हिन्दू धर्मगंथ
श्रीमद्भगवद्गीता में बेहतर तरीके से उजागर है।
असल में, ज़िंदगी में जब एक कमी पूरी होती हैं तो दूसरा अभाव महसूस होने लगता है। यह
सिलसिला ताउम्र चलता है, जिसकी वजह से ही कई सुख-सुविधाओं के बीच रहते हुए भी इंसान
कमियों के बारे में सोचकर छोटे-बड़े दु:खों से घिरा रहता है। यह हालात तब और गंभीर
हो सकते हैं, जब दूसरों के सुखों के कारण अपने सुख कमतर महसूस होने लगे।
इंसान को ऐसी ही परेशानियो से दूर रख लंबे और सुखी जीवन के लिए गीता में संतोष
करने से जुड़े बहुत ही अच्छे और सरल सूत्र बताए गए हैं, जो छोटे-बड़े हर इंसान को दु:खों
से दूरी बनाने में मदद करते हैं। इन सूत्रों को विचारों में उतारकर व्यवहार में
लाया जाय तो इंसान हमेशा सुखी रह सकता है। धर्मगंथ श्रीमद्भगवद्गीता में बताया गया
है कि - संतुष्ट: सततम् जिसका मतलब है हमेशा संतुष्ट रहें।
इसी तरह दूसरे श्लोक के मुताबिक - संतुष्टो येन केनश्चित् यानी जिस तरह से भी रहना पड़े संतोष के साथ रहें। हर
कष्ट, कमी
या बुरे हालात में संतुष्ट रहें।
निचोड़ है कि संतोष ही सबसे बड़ा सुख है व असंतोष गहरा दु:ख। चूंकि दूसरों की
तरक्की या सुख भी इंसान के दु:ख, असंतोष या ईर्ष्या की वजह होते हैं। इसलिए ऐसी प्रवृत्ति और
स्वभाव से छुटकारा पाने का सबसे अच्छा उपाय संतोष ही है। संतोषी स्वभाव बनाने के
लिए भी यह अभ्यास जरूरी है कि दूसरों की खुशियो और सुखों पर प्रसन्न हों। साथ ही
किसी के दु:ख या अभाव में सहानुभूति व करुणा के भाव रख विचार करना भी स्वयं को
मिले सुखों का महत्व महसूस कराता है और ईश्वर की कृपा भी। संतोष और ईश्वर कृपा का यह भाव ही सुखी व प्रसन्न जीवन के साथ लंबी उम्र का
कारण बनता है।
जानिए गुरु की किन 3 खास शक्तियों से चेला कर देता है कमाल !
हिन्दू धर्मशास्त्र उजागर करते हैं कि कलियुग में पाप कर्मों का बोलबाला होगा।
आज के दौर में व्यक्ति से लेकर समाज में फैली अशांति और कलह इस बात को साबित भी
करती है। इनसे बचने के लिए धर्म के नजरिए से गुणों और अच्छे कामों को जीवन में
अपनाना ही बेहतर उपाय है। अक्सर साधारण इंसान के लिए अच्छाइयों के सबक बोलने में
आसान, किंतु
मन, बोल और
व्यवहार में उतारने में मुश्किल हो जाते हैं। किंतु धर्म के नजरिए से ऐसा करना या
मुश्किल से मुश्किल लक्ष्यों को पाना तब बड़ा ही आसानी से मुमकिन हो जाता है,
जब गुरु का
आशीर्वाद मिल जाए।
शास्त्रों में गुरु की महिमा और स्थान सबसे ऊपर व शक्तिशाली बताया गया है।
अच्छे गुरु से जुडऩा ही सबसे बड़ा सौभाग्य माना जाता है। इसी कड़ी में हिन्दू
धर्मग्रंथ वाल्मीकि रामायण में सुग्रीव द्वारा वानर दलों को सीता खोज के लिए दिए
मार्गदर्शन के प्रसंग में गुरु चरित्र में समाई ऐसी 3 शक्तियों की ओर संकेत किया गया
है, जिनके
प्रभाव से कोई भी शिष्य भी बड़ी ही ताकतवर व सिद्ध बन जाता है।
आज अगर कोई साधारण इंसान अगर धार्मिक या आध्यात्मिक गुरु की शरण लेकर ज़िंदगी
में शांति और सुख लाना चाहता है तो श्रद्धा के साथ ही गुरु की 3 खास खूबियों पर भी गौर
करें और अपनाकर सफलता पाए -
वाल्मीकि रामायण में लिखा गया है -
वन्दितव्यास्तत: सिद्धास्तपसा वीतकल्मषा:।
प्रष्टव्या चापि सीताया: प्रवृत्तिर्विनान्वितै:।
मतबल है निष्पाप, सिद्ध व तपस्वियों को नमन कर विनम्रता से सीता का पता पूछना। व्यावहारिक नजरिए
से इस बात में श्रेष्ठ गुरुओं की तीन शक्तियां सामने आती है। पहली वह पापरहित हो,
दूसरा स्थापित
यानी कामयाब व अनुभवी हो, तीसरी तपस्वी यानी संकल्पित और संयमित हो। ऐसे गुरु के अधीन
ही शिष्य भी लक्ष्य पाने का सारा ज्ञान पाकर और सारी जिज्ञासाओं को शांत कर
सफलताओं को पा सकता है। ठीक सीता की सफलतापूर्वक खोज और लंकाविजय की तरह।
इन 4 कामों
से जानिए क्या है मूर्खता व बुद्धिमानी में बड़ा फर्क !
आज आगे निकलने की होड़ में अक्सर आपसी संबंधों में तनाव भी पैदा होते है। बात
बढऩे पर किसी न किसी रूप से एक-दूसरे को कमतर दिखाने की चेष्टा शुरू होती है। चाहे
फिर वह घर, कुटुंब हो या कार्यक्षेत्र हो, इस कवायद में अक्सर सभी स्वयं को बेहतर साबित करने के लिए
दूसरों के लिए सीधे या पीठ पीछे 'मूर्ख' शब्द का इस्तेमाल भी करते हैं, जो किसी भी व्यक्ति को दिमागी
रूप से कमजोर या आहत करने का आसान उपाय है।
इन वजहों से रिश्तों में प्रेम, विश्वास और सहयोग की भावना कम होती जाती है। किंतु
हिन्दू धर्मशास्त्रों में मूर्ख या बुद्धिमान होने की कसौटी बताई गई है। इन पैमानो
पर स्वयं को परखकर कोई भी व्यक्ति दूसरों को मूर्ख
कहने के पहले स्वयं की पहचान कर
सकता है कि वह बुद्धिमान है या मूर्ख ।
शास्त्रों के मुताबिक विचार और व्यवहार के आधार पर संसार में चार तरह के
व्यक्ति बताए गए हैं। जानिए किस स्वभाव, व्यवहार व काम से इनकी पहचान उजागर होती है कि कोई
मूर्ख है या फिर बुद्धिमान -
- पहली तरह के लोग वह होते हैं, जो स्वार्थ या हित पूर्ति से दूर, त्याग भावना से दूसरों की मदद कर
काम बनाते हैं। इन्हें सज्जन, सत्पुरूष या बुद्धिजीवी कहा जाता है।
- दूसरी तरह के लोग साधारण मानव होते हैं, जो अपने हित को साधकर साथ ही
दूसरों के काम में भी मदद करते हैं।
- तीसरी तरह के लोग ऐसे होते हैं, जिनको राक्षस वृत्ति या दुष्ट स्वभाव का माना जाता
है, जो
अपने स्वार्थ के लिए दूसरों को भी गंभीर नुकसान पहुंचाते हैं।
- किंतु चौथी तरह के लोग स्वयं और दूसरों के लिए गहरे दु:ख का कारण बन सकते हैं।
क्योंकि ऐसे लोग बिना अपने स्वार्थ के ही बिना सोचे-समझे दूसरों के हित का नाश
करते हैं। जिनको धर्म के नजरिए से मूर्ख या विचारशून्य कहा है।
यहां अंतिम श्रेणी के व्यक्ति के बारे में शास्त्रों में खासतौर पर लिखा गया
है कि मूर्ख विचारहीन होता है। वह अज्ञानी होने पर भी स्वयं को सिद्ध, पंडित मान अभिमान करें।
इससे सही या गलत का फर्क न समझ पाने से वह अपनी जिम्मेदारियों को लेकर मनमाने
फैसले करता है। ऐसे लोग सम्मान के पात्र न होकर खुद ठोकरे खाकर दूसरों को भी
भटकाते हैं। धार्मिक नजरिए से इनको 84 लाख योनियों में घूमकर अलग-अलग नीच गति में दण्ड
भोगना पड़ता है।
जानिए सफलता के लिए जरूरी 5 खास बातें !
ज़िंदगी में अच्छे नतीजों के लिये जरूरी है - बेहतर कोशिशों के साथ असफलताओं
से सबक लेकर कमियों को दूर करना व दोषों में सुधार करना। किंतु इंसान का स्वभाव
होता है कि वह सुखों की आस लगाए रहता है, किंतु दु:खों की वजह बनने वाली अपनी कमजोरियों के बारे में सोचने से बचता है।
सोच की कमी दोष स्वीकार नहीं करने देती और मनचाहे मकसद पाने में बाधाएं पैदा
होती है। शास्त्रों में इंसान को दोष और बुराईयों से बचकर ऐसे ही सुख पाने के लिये
कुछ सीख दी गई है। इनको व्यावहारिक जीवन में अपनाना किसी भी व्यक्ति के लिए अच्छे
नतीजे देने वाली साबित होती है। जानिए सफलता के लिए अहम ये 5 बातें –
मनुस्मृति में लिखा गया है कि -
अहिंसा सत्यमस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:।
एतं सामासिकं धर्मं चातुर्वर्ण्येब्रवीन्मनु:।।
सरल शब्दों में समझें तो जीवन में बुरे समय और परिणामों से बचने के लिए इन
पांच बातों को मन, वचन, कर्म से जोडऩा चाहिए-
हिंसा से बचें - शरीर पर चोट करना ही नहीं बुरे बोल या विचार भी हिंसा होते
हैं, जो जीवन को अशांत कर गलत नतीजे
देते हैं।
सच बोलें - सच्चे बोल और व्यवहार से इंसान विश्वास और सम्मान पाता है।
चोरी से बचें - पैसा ही नहीं किसी के
जीवन, मान-सम्मान, विचार से जुड़े विषय या वस्तुओं पर लाभ के लिए
अधिकार या अपहरण भी धर्म के नजरिए से चोरी है, जो दु:खों की वजह बनती है।
स्वच्छता रखें - साफ-सुथरा मन व शरीर शांत, सुखी व स्वस्थ जीवन के लिए जरूरी है। इसलिए मनोबल व सेहत को फायदा पहुंचाने
वाले विषयों व चीजों को अपनाना न चूकें।
संयम रखें - इंद्रिय संयम सरल शब्दों में कहें तो शौक-मौज, विलासिता से भरे जीवन के आकर्षण में तन और मन को
भटकाने से अंतत: जीवन रोग, दु:ख और पीड़ाओं से घिर
जाता है। इसलिए मन और शरीर की इच्छाओं को काबू में रखें।
टारगेट से भी ज्यादा सक्सेस पाने के 4 सूत्र हैं श्रीहनुमान के ये 4
अद्भुत काम
आज कई युवाओं की संघर्ष भरी ज़िंदगी की एक बड़ी वजह लक्ष्य का अभाव भी है।
इससे तमाम कोशिशों के बाद भी कई मौकों पर वह नाकामी का सामना करते हैं। हालांकि
लक्ष्य न साधने या एकाग्रता भंग होने का कारण कभी-कभी बुरा वक्त व हालात भी होते
हैं। लेकिन बुरे वक्त के थपेड़ों से जूझकर जो मकसद को पा ले, ऐसा चरित्र ही दुनिया में प्रेरणा बन जाता है।
हिन्दू धर्म शास्त्रों में रुद्रावतार श्रीहनुमान का चरित्र शक्ति, ऊर्जा, बल के सही उपयोग और मजबूत इरादों से लक्ष्य भेदने के सूत्र ही सिखाता है।
जानिए रामायण में श्रीहनुमान से जुड़े 4
अद्भुत प्रसंगों के जरिए लक्ष्य बनाने व उस तक पहुंचने के 4 ऐसे ही अहम सूत्र -
रावण द्वारा सीताहरण के बाद श्रीहनुमान ने माता सीता की खोज में लंका पहुंचते
तक कई मुश्किलों का सामना किया। लेकिन इस दौरान अपने लक्ष्य को लेकर वह इतने दृढ़
थे कि उसको पाने के लिए उन्होंने बुद्धि, बल और साहस से सारी मुसीबतों को मात दी।
जानिए इस दौरान आए 4 प्रसंगो से क्या सिखाते
हैं श्रीहनुमान -
मैनाक पर्वत - दरअसल, मैनाक पर्वत कर्मशील को
विश्राम के लालच का प्रतीक है, ऐसा भाव लक्ष्य की ओर
बढ़ते हुए कहीं न कहीं आता है। श्रीहनुमान द्वारा इसे ठुकराकर कर आगे बढऩा यही
संदेश देता है कि लक्ष्य को पाना है तो हमेशा गतिशील रहें।
सुरसा- सुरसा उन रुकावटों व उतार-चढ़ाव का प्रतीक है, जो लक्ष्य पाने में अड़चनें डालते हैं। किंतु
श्रीहनुमान ने अपने आकार को बढ़ा-छोटा कर यही संदेश दिया कि हालात के मुताबिक ढल
कर लक्ष्य से ध्यान न हटाएं।
सिंहिका - मकसद को पाने के लिए ऐसा वक्त भी आता जब इंसान के मन में दूसरों की
सफलता से द्वेष या ईर्ष्या के भाव पैदा होते हैं, जिससे लक्ष्य पाना मुश्किल हो सकता है। सिंहिका ऐसे ही बुरे भावों की प्रतीक
है, जिसे मात देकर श्रीहनुमान ने यही
सिखाया कि मकसद को पाने के लिए ऐसी सोच से दूर हो जाना चाहिए।
लंका और लंकिनी - लंका और उसकी रक्षक लंकिनी असल में खूबसूरती, मोह और आसक्ति का रूप है, जिसके कारण कोई भी संत और तपस्वी भी लक्ष्य से भटक
सकता है। किंतु श्री हनुमान लंकिनी को मारकर और लंका के सौंदर्य से प्रभावित हुए
बगैर सीता की खोज कर ही दम लिया। साथ ही लंका में आग लगाकर यह सबक भी दिया कि
लक्ष्य को पाने के लिए प्रलोभन,
मोह, आकर्षण से दूर रहना ही हितकर होता है।
इस सूत्र से घर या ऑफिस का माहौल बनाएं बेहतर व काम भी आसान
घर हो या कार्यक्षेत्र मुश्किल काम या हालात को आसान और अनुकूल बनाना तभी संभव
है जब व्यवहार, विचार और स्वभाव में कुछ
जरूरी बदलाव लाए जाए। इंसान स्वभाविक तौर पर सुख, सुविधा और अच्छा व्यवहार चाहता है और बुरे समय या बातों से बचना पसंद करता है।
किंतु कई बार दूसरों के लिए इन बातों के विपरीत व्यवहार कर गुजरता है।
दरअसल, साधारण व्यक्ति के लिए
धर्म पर बात करना तो सरल है, लेकिन धर्म को जीवन में
उतारना या व्यवहार में अपनाना उतना ही मुश्किल। धर्मशास्त्रों में बताए कुछ अहम
सूत्र हर व्यक्ति को धर्म से जोड़कर व्यावहारिक जीवन को भी सुखी और शांत बनाते
हैं। जानते हैं क्या कहते हैं ये सूत्र? लिखा गया है कि -
असता धर्मकामेन विशुद्धं कर्म दुष्करम्।
सता तु धर्मकामेन सुकरं कर्म दुष्करम्।।
सरल मतलब है धर्म की कामना करने वाले
इंसान का आचरण अगर बुरा है तो उसके लिए पवित्र काम करना कठिन है। किंतु अगर उसका
आचरण पवित्र है तो उसके लिए मुश्किल काम भी आसान हो जाते हैं।
व्यावहारिक मतलब यही है कि जो व्यक्ति अपनी खुशियों और कामयाबी के साथ दूसरों
से भी प्रेम, सहयोग और सम्मान चाहता
है तो पहले वह स्वयं अपने बोल, व्यवहार व सोच में सुधार
लाए। वह कटु बोल, दूसरों के अपमान या
उपेक्षा, ईर्ष्या जैसे बुरे भावों को छोड़
दे। इन बदलावों से दूसरों का भरपूर प्रेम, सम्मान, मदद और भरोसा मिलेगा।
जानिए, कर्ण महाभारत के युद्ध में क्यों मारा गया?
वैशम्पायनजी कहते हैं युधिष्ठिर के इस प्रकार पूछने पर नारद मुनि कर्ण को जिस
तरह शाप प्राप्त हुआ था। वह सारी कथा सुनाई। वे बोले यह देवताओं की गुप्त बात है
लेकिन मैं तुम्हे बता रहा हूं। वह समय सब देवताओं ने विचार किया कि कौन सा ऐसा
उपाय हो जिससे सारा क्षत्रिय समाज शस्त्रों के आघात से पवित्र हो स्वर्ग सिधारे।
यह सोचकर उन्होंने सूर्य द्वारा कुमारी कुन्ती के गर्भ से एक तेजस्वी बालक उत्पन्न
कराया। वही कर्ण हुआ। उसने आचार्य द्रोण से धनुर्वेद का अभ्यास किया। वह बचपन से
ही श्रीकृष्ण व अर्जुन की मित्रता से जला करता था। आपके ऊपर प्रजा का अनुराग जानकर
वह चिंता से जलता रहता था। इसीलिए उसने बाल्यकाल में ही राजा दुर्योधन से मित्रता
कर ली। धनंजय का धनुर्विद्या में अधिक पराक्रम देखकर एक दिन कर्ण ने द्रोणाचार्य
से एकान्त में कहा- गुरुदेव मैं ब्रह्मास्त्र चलाने और लौटाने की विद्या जानना
चाहता हूं।
द्रोणाचार्य उसकी दुष्टता से भी वे अपरिचित नहीं थे। इसीलिए उसकी प्रार्थना
सुनकर उन्होंने कहा कर्ण शास्त्रोंक्त विधि के अनुसार ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करने
वाला क्षत्रिय ही इसे सीखने का अधिकारी होता है। उनके ऐसा कहने पर कर्ण ने उनसे
कहा ठीक है गुरुजी। फिर वह उनकी आज्ञा
लेकर वहां से चला गया। वहां से चलते-चलते वह महेन्द्रपर्वत पर पहुंचा और परशुरामजी
को ब्राह्मण के रूप में अपना परिचय दिया।
इस तरह उसने परशुरामजी को अपना गुरु बना लिया। वह उनके आश्रम में रहने लगा। एक
दिन सभी मुनि अग्रिहोत्र में लगे हुए थे। तब कर्ण वहां घुम रहे थे उसने अंजाने में
हिंसक पशु समझकर उसे मार डाला। उसने अपने अज्ञानवश किए गए इस कर्म को ब्राह्मण को
बताया। जिस ब्राह्मण की वह गाय थी वह यह जानकर गुस्से में आ गया और उसने कर्ण को
शाप दे दिया कि अन्त समय में पृथ्वी तेरे रथ के पहिए को निगल लेगी। उस समय जब तू
घबराया होगा उसी अवस्था में शत्रु तेरा सिर काट देगा।
इस तरह जीएं तो जीवन में सुख और शांति रहेगी
आज का दौर खूब धन कमाने और जी-तोड़ मेहनत का है। लोग डेढ़ सौ फीसदी मेहनत कर
रहे हैं धन कमाने में। सुख-सुविधा के बेहतरीन साधन जुटा रहे हैं लेकिन फिर भी इन
सब में एक बात चूक रही है, वह है हमारे भीतर की
शांति। हम अक्सर सारी सफलताओं के बाद भी खुद को अधूरा ही पाते हैं।
आखिर ऐसा क्यों है कि ढेर सारी सुविधाओं, सुखों के बावजूद भी ये अधूरापन हमें अंदर ही अंदर तोड़ता है। वास्तव में इसका
कारण यह है कि हम जो भी प्रयास कर रहे हैं वो हमारे खुद के सुख के लिए है। हमारे
जीने का दायरा खुद तक ही सीमित रह गया है। जबकि भीतरी शांति खुद के सुख से नहीं, दूसरों के प्रेम से होती है। हम दूसरों के लिए नहीं
जीते, सारी भागदौड़ खुद के लिए होती
है।
कोशिश की जाए कि कम से कम कुछ काम तो दूसरों के लिए किए जाएं। जब हम किसी
जरुरतमंद की मदद करते हैं तो एक अलग ही तरह की संतुष्टि का भाव हमारे भीतर जागता
है, यही संतुष्टि हमें शांति के
रास्ते पर ले जाती है। रहीम ने अपने एक दोहे में इस बात को समेटा है कि अच्छे लोग
दूसरों के लिए जीते हैं।
तरुवर फल नहिं खात है, सरवर पियहि न पान।
कहि रहीम पर काज हित, संपति सँचहि सुजान॥
अर्थ - वृक्ष कभी अपने फल खुद नहीं खाता, नदी कभी खुद अपना पानी नहीं पीती। ये दूसरों के लिए ही हर काम करते हैं। ऐसे
ही समझदार और सज्जन लोग दूसरों की मदद के लिए सम्पत्ति का संचय करते हैं।
जानिए, कौन से लोग होते है
अच्छे, कौन होते हैं झूठे
हमने दुनियाभर में कई लोगों को देखा है जो बातें कुछ करते हैं और वास्तव में
होते कुछ और ही हैं। ऐसे लोगों को तरह-तरह के नामों से पुकारा जाता है। वास्तव में
हमारे धर्मग्रंथों में भी इस तरह के चरित्र वाले लोगों के लिए कई बातें कही गई
हैं।
हिंदू धर्म में सबसे पवित्र और व्यवहारिक ज्ञान का भंडार माने जाने वाले ग्रंथ
गीता में भी इस तरह के लोगों का उल्लेख किया गया है। भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से
कहा है कि ऐसे लोग जो ऊपर से आत्म नियंत्रण का अभिनय करते हैं और मन ही मन उन्हीं
विषयों के बारे में सोचते रहते हैं,
ऐसे लोगों
को मिथ्याचारी कहते हैं।
जो मनुष्य इंद्रियों को पूरी तरह से वश में करके उनसे मोह रहित हो जाए, अनासक्त हो जाए, वो मनुष्य ही सबसे श्रेष्ठ होता है।
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते।। गीता अध्याय 3, श्लोक 6
अर्थ - जो मूर्ख मनुष्य समस्त इंद्रियों को ऊपर से हठपूर्वक रोक कर मन से
उन्हीं इंद्रियों के विषयों का चिंतन करता है, ऐसा मनुष्य मिथ्याचारी कहलाता है।
कठोर व्यवहार से स्त्री को वश में करना - स्त्री से रिश्ता मां, बहन, पत्नी, बेटी किसी भी रूप में हो, प्रेम और स्नेह के साथ निभाने पर ही सुख देता है। किंतु स्त्री को कमतर मानकर, बुरी मानसिकता या भोग का साधन समझ बुरे व्यवहार से अधिकार या वश में करने की कोशिश अंतत: मान-प्रतिष्ठा को धूमिल ही नहीं करती, बल्कि जीवन को दु:खों से भर सकती है।
29 नवंबर से 28 दिसंबर तक करें शंख की पूजा, पूरी होगी हर कामना
शास्त्रों के अनुसार श्रीकृष्ण का स्वरूप कहे जाने वाले माह मार्गशीर्ष (अगहन)
का प्रारंभ 29 नवंबर, गुरुवार से हो रहा है। यह महीना 28 दिसंबर, शुक्रवार तक रहेगा। धर्म ग्रंथों के अनुसार इस महीने
में शंख की पूजा का विशेष महत्व है। साधारण शंख को श्रीकृष्ण के पंचजन्य शंख के
समान समझकर उसका पूजन करने से सभी मनोवांछित फल प्राप्त हो जाते हैं।
शंख पूजा का महत्व
सभी वैदिक कार्यों में शंख का विशेष स्थान है। शंख का जल सभी को पवित्र करने
वाला माना गया है, इसी वजह से आरती के बाद श्रद्धालुओं पर शंख से जल छिड़का जाता है। साथ ही शंख
को लक्ष्मी का भी प्रतीक माना जाता है, इसकी पूजा महालक्ष्मी को प्रसन्न करने वाली होती है।
इसी वजह से जो व्यक्ति नियमित रूप से शंख की पूजा करता है उसके घर में कभी धन अभाव
नहीं रहता। ऐसा माना जाता है समुद्र मंथन के समय शंख भी प्रकट हुआ था। विष्णु
पुराण में बताया गया है कि देवी महालक्ष्मी समुद्र की पुत्री है और शंख को लक्ष्मी
का भाई माना गया है। इन्हीं कारणों से शंख की पूजा भक्तों को सभी सुख देने वाली गई
है।
पंचजन्य पूजन मंत्र
पंचजन्य की पूजा भी भगवान श्रीहरि की आराधना के समान ही पुण्य देने वाली मानी
गई है। विधि-विधान से इस माह शंख की पूजा की जानी चाहिए। जिस प्रकार सभी
देवी-देवताओं की पूजा की जाती है, वैसे ही शंख का भी पूजन करें। अर्चना करते समय इस मंत्र का
जप करें-
त्वं पुरा सागरोत्पन्न विष्णुना विधृत: करे।
निर्मित: सर्वदेवैश्च पाञ्चजन्य नमोऽस्तु ते।
तव नादेन जीमूता वित्रसन्ति सुरासुरा:।
शशांकायुतदीप्ताभ पाञ्चजन्य नमोऽस्तु ते॥
जानिए अगहन मास क्यों है खास, क्या करें- क्या नहीं
अगहन यानी मार्गशीर्ष का माह भगवान श्रीकृष्ण के भक्तों लिए सर्वश्रेष्ठ माह
माना गया है। इस माह में कान्हा की भक्ति करने पर उनकी कृपा अवश्य ही प्राप्त होती
है। इस बार अगहन महीने की शुरुआत 29 नवंबर, गुरुवार से हो चुकी है जो 28 दिसंबर, शुक्रवार तक रहेगा।
शास्त्रों में अगहन (मार्गशीर्ष)
अगहन माह के संबंध में बताया गया है कि इस पूरे महीने में जीरे का सेवन नहीं
करना चाहिए। शास्त्रों के अनुसार मार्गशीर्ष में अन्न का दान करना सर्वश्रेष्ठ
पुण्य कर्म माना गया है। ऐसा करने पर हमारे सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। साथ ही सभी
कामनाएं पूर्ण हो जाती हैं। इस माह में नियमपूर्वक रहने से अच्छा स्वास्थ्य तो
मिलता ही है, साथ में धार्मिक लाभ भी मिलता है।
क्या फल मिलता है इस माह में नदी स्नान से?
यदि मार्गशीर्ष मास में कोई श्रद्धालु कम से कम तीन दिन तक ब्रह्म मुहूर्त में
किसी पवित्र नदी में स्नान करें तो उसे सभी सुख प्राप्त होते हैं। शास्त्रों के
अनुसार स्नान करने के बाद इष्टï देवताओं का ध्यान करना चाहिए। फिर विधिपूर्वक गायत्री मंत्र
का जप करें। स्त्रियों के लिए यह स्नान उनके पति की लंबी उम्र और अच्छा स्वास्थ्य
देने वाला है। इस माह में भगवान गणेश का पूजन भी किया जाता है।
जानिए अगहन मास को मार्गशीर्ष भी क्यों कहते हैं
हिंदू वर्ष का नवा महीना अगहन के नाम से जाना जाता है। इसे मार्गशीर्ष भी कहते
हैं। इस बार यह महीना 29 नवंबर से शुरु हो चुका
है जो 28 दिसंबर तक रहेगा। अगहन मास को
मार्गशीर्ष कहने के पीछे भी कई तर्क हैं। भगवान श्रीकृष्ण की अनेक स्वरूपों में व
अनेक नामों से पूजा की जाती है। इन्हीं स्वरूपों में से एक मार्गशीर्ष भी
श्रीकृष्ण का ही एक रूप है।
मार्गशीर्ष मास को मार्गशीर्ष ही क्यों कहा जाता है? इस संबंध में शास्त्रों में कहा गया है कि इस माह का
संबंध मृगशिरा नक्षत्र से है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार 27 नक्षत्र बताए गए हैं। इन्हीं 27 नक्षत्रों में से एक है मृगशिरा नक्षत्र। इस माह की
पूर्णिमा मृगशिरा नक्षत्र से युक्त होती है। इसी वजह से इस मास को मार्गशीर्ष मास
कहा गया है।
इस माह को मगसर, अगहन या अग्रहायण मास भी
कहा जाता है। भागवत के अनुसार श्रीकृष्ण ने कहा है मासानां मार्गशीर्षोऽहम्
अर्थात् सभी महिनों में मार्गशीर्ष श्रीकृष्ण का ही स्वरूप है। मार्गशीर्ष मास में
श्रद्धा और भक्ति से प्राप्त पुण्य के बल पर हमें सभी सुखों की प्राप्ति होती है।
इस माह में नदी स्नान और दान-पुण्य का विशेष महत्व है।
श्रीकृष्ण के बाल्यकाल में जब गोपियां उन्हें प्राप्त करना ध्यान लगा रही थी
तब श्रीकृष्ण ने मार्गशीर्ष मास की महत्ता बताई थी। उन्होंने कहा था कि मार्गशीर्ष
माह में यमुना स्नान से मैं सहज ही सभी को प्राप्त हो जाऊंगा। तभी से इस माह में
नदी स्नान का खास महत्व माना गया है।
इस विधि से करें गणेश चतुर्थी व्रत, पूरी होगी हर मनोकामना
हिंदू महीने की प्रत्येक कृष्ण पक्ष की चंद्रोदयव्यापिनी चतुर्थी तिथि को
भगवान श्रीगणेश के लिए जो व्रत किया जाता है उसे गणेश चतुर्थी व्रत कहते हैं। जो
भी यह व्रत करता है, भगवान श्रीगणेश उसकी हर इच्छा पूरी करते हैं। इस बार गणेश चतुर्थी व्रत 2 दिसंबर, रविवार को है। यह व्रत
इस विधि से करें-
- सुबह जल्दी उठकर स्नान आदि नित्यकर्म से शीघ्र निवृत्त हों।
- शाम के समय अपने सामथ्र्य के अनुसार सोने, चांदी, तांबे, पीतल या मिट्टी से बनी भगवान
गणेश की प्रतिमा स्थापित करें।
- संकल्प मंत्र के बाद श्रीगणेश की षोड़शोपचार पूजन-आरती करें। गणेशजी की मूर्ति
पर सिंदूर चढ़ाएं। गणेश मंत्र (ऊँ गं गणपतयै नम:) बोलते हुए 21 दूर्वा दल चढ़ाएं।
- गुड़ या बूंदी के 21 लड्डूओं का भोग लगाएं। इनमें से 5 लड्डू मूर्ति के पास ही रखें और
5 ब्राह्मण
को दान कर दें। शेष लड्डू प्रसाद के रूप में बांट दें।
- पूजा में भगवान श्री गणेश स्त्रोत, अथर्वशीर्ष, संकटनाशक स्त्रोत आदि का पाठ करें।
- चंद्रमा के उदय होने पर पंचोपचार पूजा करें व अध्र्य दें तत्पश्चात भोजन
करें।
व्रत का आस्था और श्रद्धा से पालन करने पर श्री गणेश की कृपा से मनोरथ पूरे
होते हैं और जीवन में निरंतर सफलता प्राप्त होती है।
काल भैरवाष्टमी 6 को, दुष्टों
को दंड देते हैं भगवान कालभैरव
मार्गशीर्ष मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को काल भैरवाष्टमी कहते हैं। इस दिन
भगवान काल भैरव की पूजा की जाती है। धर्म शास्त्रों के अनुसार इसी दिन भगवान काल
भैरव का अवतरण हुआ था। इस बार काल भैरवाष्टमी का पर्व 6 दिसंबर, गुरुवार को है।
शास्त्रों के अनुसार भगवान शिव के दो स्वरूप बताए गए हैं। एक स्वरूप में
महादेव अपने भक्तों को अभय देने वाले विश्वेश्वरस्वरूप हैं वहीं दूसरे स्वरूप में
भगवान शिव दुष्टों को दंड देने वाले कालभैरव स्वरूप में विद्यमान हैं। शिवजी का
विश्वेश्वरस्वरूप अत्यंत ही सौम्य और शांत हैं यह भक्तों को सुख, शांति और समृद्धि प्रदान
करता है।
वहीं भैरवस्वरूप रौद्र रूप वाले हैं, इनका रूप भयानक और विकराल होता है। इनकी पूजा करने
वाले भक्तों को किसी भी प्रकार डर कभी परेशान नहीं करता। कलयुग में काल के भय से
बचने के लिए कालभैरव की आराधना सबसे अच्छा उपाय है। कालभैरव को शिवजी का ही रूप
माना गया है। कालभैरव की पूजा करने वाले व्यक्ति को किसी भी प्रकार का डर नहीं
सताता है।
खबरदार! तरक्की या फायदे के लिए अपनाएं ये 5 तरीके करते हैं बर्बाद
बुरे वक्त से बाहर निकल तरक्की की चाहत और कोशिश हर इंसान के लिए मुनासिब है,
मगर आज के दौर में
भौतिक सुखों की चकाचौंध से इंसान के मन पर हावी स्वार्थ बहुत कम वक्त में ज्यादा
पाने की लालसा भी पैदा करता है, जिसके चलते आगे बढऩे के लिए कुछ गलत सोच व तरीकों को अपनाना
भी चतुराई या बुद्धिमत्ता का पैमाना मान लिया जाता है।
वहीं, धर्म शास्त्रों के नजरिए से तरक्की के लिए पलभर के लिए भी गलत उपाय अपनाने
वाला व्यक्ति आखिर में औंधे मुंह गिरता है यानी पतन की गर्त में चला जाता है। इससे
उबरने के लिए उम्र और समय भी कम पड़ सकता है। ऐसे बुरे वक्त से बचने के लिए खासतौर
शास्त्रों में ही ऐसे 5 काम या तरीके उजागर हैं, जिनको तरक्की, स्वार्थ या क्षणिक सुख
और लाभ के लिए कभी न अपनाएं तो बेहतर है।
मित्र से धोखा - अपने फायदे के लिए दोस्त से छल-कपट करना मित्रता को शत्रुता
में बदलने का कारण बनता है। साथ ही बदनामी और अपयश का कारण भी।
पाप से धर्म - धर्म के नाम पर कर्म, व्यवहार, बोल, वेशभूषा द्वारा ऊपरी दिखावा कर धार्मिक आस्था को ठेस
पहुंचाना या गुमराह कर लाभ लेना पाप माना गया है, जो आखिरकार जीवन के लिए संकट का कारण भी बन सकता है।
दूसरों को दु:खी कर धन कमाना - अपने सुखों के लिए दूसरों के साथ छल, कपट, बेईमानी या अन्य किसी गलत तरीकों
को अपनाकर धन बंटोरना, धार्मिक नजरिए से न केवल
पाप है, बल्कि व्यावहारिक रूप से भी इसके
घातक नतीजे विरोध और शत्रुता, कलह भरे जीवन के रूप में
सामने आते हैं।
बिना मेहनत के विद्या अर्जन - कुशलता और कामयाबी के लिए संपूर्ण विद्या, व ज्ञान अहम होता है, जो समर्पण, परिश्रम के बिना असंभव
है। किंतु तरक्की के लिए धन या किसी अन्य अनुचित तरीकों से शिक्षा या कौशलता का
प्रमाण पत्र बिना मेहनत के पाना लंबे समय के लिए मान-सम्मान और तरक्की के लिए घातक
ही साबित होता है।
कठोर व्यवहार से स्त्री को वश में करना - स्त्री से रिश्ता मां, बहन, पत्नी, बेटी किसी भी रूप में हो, प्रेम और स्नेह के साथ निभाने पर ही सुख देता है। किंतु स्त्री को कमतर मानकर, बुरी मानसिकता या भोग का साधन समझ बुरे व्यवहार से अधिकार या वश में करने की कोशिश अंतत: मान-प्रतिष्ठा को धूमिल ही नहीं करती, बल्कि जीवन को दु:खों से भर सकती है।
शिव के भैरव अवतार से सीखें ये बातें
मार्गशीर्ष मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को काल भैरवाष्टमी कहते हैं। इस दिन
भगवान काल भैरव की पूजा की जाती है। धर्म शास्त्रों के अनुसार इसी दिन भगवान काल
भैरव का अवतरण हुआ था। इस बार काल भैरवाष्टमी का पर्व 6 दिसंबर, गुरुवार को है।
शिव के अवतार श्री कालभैरव अपने भक्तों पर तुरंत प्रसन्न हो जाते हैं। साथ ही
इनकी आराधना करने पर हमारे कई बुरे गुण स्वत: ही समाप्त हो जाते हैं। आदर्श और
उच्च जीवन व्यतीत करने के लिए कालभैरव से भी शिक्षा ली जा सकती हैं। जीवन प्रबंधन
से जुड़े कई संदेश श्री भैरव देते हैं-
भैरव को भगवान शंकर का पूर्ण रूप माना गया है। भगवान शंकर के इस अवतार से हमें
अवगुणों को त्यागना सीखना चाहिए। भैरव के बारे में प्रचलित है कि ये अति क्रोधी,
तामसिक गुणों वाले
तथा मदिरा के सेवन करने वाले हैं। इस अवतार का मूल उद्देश्य है कि मनुष्य अपने
सारे अवगुण जैसे- मदिरापान, तामसिक भोजन, क्रोधी स्वभाव आदि भैरव को समर्पित कर पूर्णत:
धर्ममय आचरण करें। भैरव अवतार हमें यह भी शिक्षा मिलती है कि हर कार्य सोच-विचार
कर करना ही ठीक रहता है। बिना विचारे कार्य करने से पद व प्रतिष्ठा धूमिल होती है।
कालभैरव ने ही काटा था ब्रह्मा का पांचवा सिर
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दिसंबर, गुरुवार को काल
भैरवाष्टमी का पर्व है। धर्म शास्त्रों के अनुसार भगवान शिव के अवतार भैरव ने ही
ब्रह्मा का पांचवा सिर काटा था। जहां वह सिर गिरा वह स्थान काशी में कपाल मोचन
तीर्थ के नाम से विख्यात है। जो प्राणी इस तीर्थ का स्मरण करता है, उसके इस जन्म एवं पर
जन्म के पाप नष्ट हो जाते हैं। यहां आकर सविधि स्नानपूर्वक पितरों एवं देवताओं का
तर्पण करके मानव ब्रह्महत्या के पाप से मुक्त हो जाता है।
कपाल मोचन तीर्थ के समीप ही भक्तों के सुखदायक भगवान भैरव स्थित हैं। सज्जनों
के प्रिय भैरव का प्रादुर्भाव मार्गशीर्ष की कृष्णाष्टमी को हुआ था। उसी दिन को
उपवासपूर्वक जो प्राणी कालभैरव के समीप जागरण करता है, वह संपूर्ण महापापों से
मुक्ति प्राप्त कर लेता है।
यदि कोई व्यक्ति भगवान विश्वेश्वर का भक्त होते हुए भी कालभैरव का भक्त नहीं
है, तो उसे बड़े-बड़े दु:ख
भोगने पड़ते हैं। यह बात काशी में विशेष रूप से चरितार्थ होती है। काशीवासियों के
लिए भैरव की भक्ति अनिवार्य बताई गई है।
जानिए, कौन हैं कालभैरव, कैसा है इनका स्वरूप
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दिसंबर, गुरुवार को काल
भैरवाष्टमी का पर्व है। भैरव शब्द का अर्थ ही होता है- भीषण, भयानक, डरावना। भैरव को शिव के
द्वारा उत्पन्न हुआ या शिवपुत्र माना जाता है। भगवान शिव के आठ विभिन्न रूपों में
से भैरव एक है। वह भगवान शिव का प्रमुख योद्धा है। भैरव के आठ स्वरूप पाए जाते
हैं। जिनमे प्रमुखत: काला और गोरा भैरव अतिप्रसिद्ध हैं।
रुद्रमाला से सुशोभित, जिनकी आंखों में से आग की लपटें निकलती हैं, जिनके हाथ में कपाल है, जो अति उग्र हैं, ऐसे कालभैरव को मैं वंदन
करता हूं।- भगवान कालभैरव की इस वंदनात्मक प्रार्थना से ही उनके भयंकर एवं उग्ररूप
का परिचय हमें मिलता है। कालभैरव की उत्पत्ति की कथा शिवपुराण में इस तरह प्राप्त
होती है-
एक बार मेरु पर्वत के सुदूर शिखर पर ब्रह्मा विराजमान थे, तब सब देव और ऋषिगण
उत्तम तत्व के बारे में जानने के लिए उनके पास गए। तब ब्रह्मा ने कहा वे स्वयं ही
उत्तम तत्व हैं यानि कि सर्वश्रेष्ठ और सर्वोच्च हैं। किंतु भगवान विष्णु इस बात से
सहमत नहीं थे। उन्होंने कहा कि वे ही समस्त सृष्टि से सर्जक और परमपुरुष परमात्मा
हैं। तभी उनके बीच एक महान ज्योति प्रकट हुई। उस ज्योति के मंडल में उन्होंने
पुरुष का एक आकार देखा।
तब तीन नेत्र वाले महान पुरुष शिवस्वरूप में दिखाई दिए। उनके हाथ में त्रिशूल
था, सर्प और चंद्र के अलंकार
धारण किए हुए थे। तब ब्रह्मा ने अहंकार से कहा कि आप पहले मेरे ही ललाट से
रुद्ररूप में प्रकट हुए हैं। उनके इस अनावश्यक अहंकार को देखकर भगवान शिव अत्यंत
क्रोधित हो गए और उस क्रोध से भैरव नामक पुरुष को उत्पन्न किया। यह भैरव बड़े तेज
से प्रज्जवलित हो उठा और साक्षात काल की भांति दिखने लगा।
इसलिए वह कालराज से प्रसिद्ध हुआ और भयंकर होने से भैरव कहलाने लगा। काल भी
उनसे भयभीत होगा इसलिए वह कालभैरव कहलाने लगे। दुष्ट आत्माओं का नाश करने वाला यह
आमर्दक भी कहा गया। काशी नगरी का अधिपति भी उन्हें बनाया गया। उनके इस भयंकर रूप
को देखकर बह्मा और विष्णु शिव की आराधना करने लगे और गर्वरहित हो गए।
भैरवाष्टमी पर इस विधि से करें भगवान भैरव का पूजन
6
दिसंबर, गुरुवार को काल भैरवाष्टमी
है, शास्त्रों के अनुसार इस
दिन शिवजी ने कालभैरव के रूप में अवतार लिया था। महादेव का यह रूप सभी पापों से
मुक्त करने वाला है। कालभैरवाष्टमी के दिन इनकी विधि-विधान से पूजा करने पर भक्तों
को सभी सुखों की प्राप्ति होती है। इस पर्व की व्रत की विधि इस प्रकार है-
- काल
भैरवाष्टमी (इस बार 6
दिसंबर, गुरुवार) के दिन ब्रह्म
मुहूर्त में उठें।
- स्नान
आदि कर्म से निवृत्त होकर व्रत का संकल्प करें।
- किसी
भैरव मंदिर जाएं।
- मंदिर
जाकर भैरव महाराज की विधिवत पूजा-अर्चना करें।
- साथ
ही उनके वाहन की भी पूजा करें।
- साथ
ही ऊँ भैरवाय नम: मंत्र से षोडशोपचारपूर्वक पूजन करना चाहिए।
- भैरवजी
का वाहन कुत्ता है, अत:
इस दिन कुत्तों को मिठाई खिलाएं।
- दिन
में एक समय फलाहार करें।
इस प्रकार भगवान कालभैरव का पूजन करने से हर मनोकामना पूरी होती है।
इस सूत्र से घर या ऑफिस का माहौल बनाएं बेहतर व काम भी आसान
घर हो या कार्यक्षेत्र मुश्किल काम या हालात को आसान और अनुकूल बनाना तभी संभव
है जब व्यवहार, विचार और स्वभाव में कुछ जरूरी बदलाव लाए जाए। इंसान स्वभाविक तौर पर सुख,
सुविधा और अच्छा
व्यवहार चाहता है और बुरे समय या बातों से बचना पसंद करता है। किंतु कई बार दूसरों
के लिए इन बातों के विपरीत व्यवहार कर गुजरता है।
दरअसल, साधारण व्यक्ति के लिए धर्म पर बात करना तो सरल है, लेकिन धर्म को जीवन में उतारना
या व्यवहार में अपनाना उतना ही मुश्किल। धर्मशास्त्रों में बताए कुछ अहम सूत्र हर
व्यक्ति को धर्म से जोड़कर व्यावहारिक जीवन को भी सुखी और शांत बनाते हैं। जानते
हैं क्या कहते हैं ये सूत्र? लिखा गया है कि -
असता धर्मकामेन विशुद्धं कर्म दुष्करम्।
सता तु धर्मकामेन सुकरं कर्म दुष्करम्।।
सरल मतलब है धर्म की कामना करने वाले
इंसान का आचरण अगर बुरा है तो उसके लिए पवित्र काम करना कठिन है। किंतु अगर उसका
आचरण पवित्र है तो उसके लिए मुश्किल काम भी आसान हो जाते हैं।
व्यावहारिक मतलब यही है कि जो व्यक्ति अपनी खुशियों और कामयाबी के साथ दूसरों
से भी प्रेम, सहयोग और सम्मान चाहता है तो पहले वह स्वयं अपने बोल, व्यवहार व सोच में सुधार लाए। वह
कटु बोल, दूसरों
के अपमान या उपेक्षा, ईर्ष्या जैसे बुरे भावों को छोड़ दे। इन बदलावों से दूसरों का भरपूर प्रेम,
सम्मान, मदद और भरोसा मिलेगा।
जानिए, श्रीहनुमान भक्ति से होते हैं कैसे व कौन से करिश्माई प्रभाव?
गोस्वामी तुलसीदास द्वारा लिखी श्रीहनुमान चालीसा की हर चौपाई संकटमोचक
श्रीहनुमान की शक्तियों के साथ और उनकी भक्ति के करिश्माई नतीजों की भी महिमा
उजागर करती है। इसी तरह संत तुलसीदास के द्वारा ही लिखे धर्मग्रंथ
रामचरितामानस में उजागर श्रीहनुमान के
दिव्य चरित्र, गुण और अतुलनीय शक्तियां ही युग-युगान्तर से धर्मावलंबियों के मन में
श्रीहनुमान भक्ति के लिए श्रद्धा, भक्ति और विश्वास जगातीं हैं। यह भरोसा ही सारे शोक,
संताप व रोग दूर
करने में भी असरदार होता है।
दरअसल, हनुमान चरित्र भक्ति और शक्ति का बेजोड़ संगम माना गया है। कैसे हनुमान की
भक्ति और शक्ति का शुभ प्रभाव सांसारिक व्यक्ति को स्वस्थ और पीड़ामुक्त जिंदगी
देने वाला होता है? इसका जवाब भी श्रीहनुमान चरित्र और गुणों में मिल जाता है। जानिए, श्रीहनुमान भक्ति के
प्रभाव से कैसे व कौन से करिश्माई बदलाव होते हैं –
शास्त्रों के मुताबिक श्रीहनुमान जितेन्द्रिय और प्रजापत्य ब्रह्मचारी है।
श्रीहनुमान का यह बेजोड़ गुण ही सांसारिक प्राणी के लिए हमेशा रोग और दु:ख से
मुक्त रहने का श्रेष्ठ सूत्र माना गया है। इस दिव्य गुण के कारण ही श्री हनुमान
भक्ति और उपासना के नियमों में पवित्रता, मर्यादा और संयम का पालन अहम माना गया है।
श्रीहनुमान के इन गुणों और भक्ति के नियम किसी भी इंसान को इंद्रिय संयम के
संकल्प से जोड़ते हैं। इंद्रिय संयम द्वारा इंसान बुरे संग, गलत खान-पान, कुविचार, बुरे व्यवहार के साथ
बुरा बोलने, सुनने और देखने से दूर रहता है।
वहीं, दूसरी ओर केवल शरीर द्वारा ही नहीं बल्कि मन और विचारों के द्वारा ब्रह्मचर्य
व्रत सरल शब्दों में संयम के पालन से सद्भभाव, सद्गुणों व अच्छी प्रवृत्तियों
के जीवन में उतरने से जीवनशैली व दिनचर्या अनुशासित होती है। निरोग रहने के लिए
यही बातें अहम होती है। जब इंसान तन और मन से स्वस्थ व दोष रहित होता है तो जाहिर
है वह शारीरिक, मानसिक व व्यावहारिक जीवन के कष्टों से मुक्त रहता है।
यही वजह है कि निरोगी, सुखी और शांत जीवन के लिए हनुमान का स्मरण रख संयम और
अनुशासन को जीवन में अपनाना बहुत ही शुभ है।
दिसंबर में होता दुनिया की तबाही का दिन तो पहले होनी थी ये घटनाएं!
गणित व खगोल विज्ञान की अद्भुत जानकार दुनिया की पुरानी सभ्यताओं में एक
अमेरिका की माया सभ्यता की मान्यताओं व कालगणना के मुताबिक साल 2012 के माह दिसंबर में
दुनिया की तबाही की आखिरी घड़ी है। इस वक्त के नजदीक आने के साथ दुनिया खत्म होने
के दिन और तबाही की वजहों को लेकर कई दावे और अनुमान सामने आते रहे हैं। इनमें
किसी ग्रह के पृथ्वी के टकराने, कभी सूर्य की ऊर्जा व किरणों से पैदा सौर तूफान, जल प्रलय के दावे भी
प्रमुख हैं। पिछले कुछ सालों में देश-दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में भारी बारीश,
भूकंप व तूफान
जैसी कुदरती घटनाओं से हुई तबाही ऐसी बातों को और बल देती है कि क्या वाकई इस
साल माया
सभ्यता की भविष्यवाणी के मुताबिक 21 दिसंबर 2012 को दुनिया का विनाश हो जाएगा?
इन दावों का पुख्ता आधार खोजने की कोशिश करें तो खासतौर पर रहने, जीने यहां तक कि मृत्यु
को भी सुधारने के सबक से भरे हिन्दू धर्मग्रंथों में लिखे प्रलय के संकेतों के आगे
दिसंबर 2012 में कयामत के दिन का दावा कमजोर साबित होता है।
इस संबंध में हिन्दू धर्मग्रंथ श्रीमद्भागवद् महापुराण में लिखी प्रलय के
दौरान होने वाली घटनाएं व बनने वाले हालातों को जान आप स्वयं भी अंदाजा लगा सकते
हैं कि विनाश के सारे दावों में कितना सच है? जानिए कि अगर दिसंबर में ही
कयामत का दिन तो पहले कौन सी घटनाएं घटतीं –
प्रलय का वक्त करीब होने पर सौ साल तक बारिश नहीं होती। अन्न और पानी न होने
से अकाल पड़ जाता है। सूर्य की भीषण गर्मी समुद्र, प्राणियों और पृथ्वी का रस सोख लेती है। इसे ही प्रतीक रूप में संकषर्ण भगवान
के मुंह से निकलने वाली आग की लपटें बताया गया है। यह आग हवा के कारण आकाश से लेकर
पाताल तक फैलती हैं। इस प्रचण्ड ताप और गर्मी से पृथ्वी सहित पूरा ब्रह्माण्ड ही
दहकने लगता है। इसके बाद गर्म हवा कई सालों तक चलती है। पूरे आसमान में धुंआ और
धूल छा जाते हैं। इसके बाद बने बादल आकाश में मण्डराते हुए फट पड़ते हैं। कई सालों
तक भारी बारिश होती है। इससे ब्रह्माण्ड में समाया सारा संसार जल में डूब जाता है।
इस तरह पृथ्वी के गुण, गंध जल में मिल जाते हैं
और पृथ्वी तबाह हो जाती है और अंत में जल में ही मिलकर जल रूप हो जाती है। इस तरह
जल, पृथ्वी सहित पंचभूत तत्व जो इस
जगत का कारण माने गए हैं एक-दूसरे में समा जाते हैं और मात्र प्रकृति ही शेष रह
जाती है।
ज्यादा व्यस्त रहते हैं तो इन 9
खास तरीकों
से भी कर सकते हैं भक्ति
आज तेज रफ्तार की जिंदगी में शांति के लिए भौतिक सुख-सुविधा जैसे घर, भोजन,
वस्त्र को
ही अक्सर अहम मान लिया जाता है। किंतु यह सभी पाने के बाद भी कई लोग मानसिक सुकून
के लिए बेचैन देखे जाते हैं।
आधुनिक जिंदगी की इस समस्या का एक हल धर्मग्रंथों में भी मिलता है। धर्म के
नजरिए से किसी व्यक्ति के पास दौलत और सुख-सुविधा हो, बड़ा कुनबा हो, सामाजिक रुतबा हो, वह स्वयं गुणी और
बुद्धिमान हो, वह दूसरों की भलाई भी
करता हो, लेकिन अगर वह भगवान के स्मरण या
भक्ति से दूर है तो कभी भी वास्तविक खुशी नहीं पाएगा। फिर चाहे ऊपरी तौर पर वह
कितना ही खुश या सहज दिखाई दे।
धर्मग्रंथों में सांसारिक व्यक्ति को अंदर और बाहरी दोनों ही तरह से शांति और
सुख देने वाला ईश्वर की भक्ति का ऐसा ही उपाय बताया गया है - नवधा भक्ति। असल में, यह धार्मिक
और व्यावहारिक रूप से प्रकृति हर कण में बसे भगवान की अनूठी और अद्भुत भक्ति के नौ
तरीके हैं। जानिए भगवान की भक्ति के 9 खास तरीके और व्यावहारिक अर्थ –
1. संतो
का सत्संग - संत यानी सज्जन या सद्गुणी की संगति।
2. ईश्वर
के कथा-प्रसंग में प्रेम - देवताओं के चरित्र और आदर्शों को स्मरण और जीवन में
उतारना।
3. अहं
का त्याग - अभिमान, दंभ
न रखना। क्योंकि ऐसा भाव भगवान के स्मरण से दूर ले जाता है।
4. कपटरहित
होना - दूसरों से छल न करने या धोखा न देने का भाव।
5. ईश्वर
के मंत्र जप - मंत्र जप का भाव असल में भगवान में गहरी आस्था ही है, जो इरादों को मजबूत बनाए
रखती है।
6. इन्द्रियों
का निग्रह - स्वभाव, चरित्र
और कर्म को साफ-सुथरा बनाए रखना।
7. प्रकृति
की हर रचना में ईश्वर देखना - दूसरों के प्रति संवेदना और भावना रखना। भेदभाव, ऊंच-नीच से परे रहना।
8. संतोष
रखना और दोष दर्शन से बचना - जो कुछ आपके पास है उसका सुख उठाएं। अपने अभाव या सुख
की लालसा में दूसरों के दोष या बुराई न खोजें। इससे आप मन में वैचारिक दोष से सुखी
होकर भी दु:ख मिलता है। जबकि संतोषी और सद्भाव से ईश्वर और धर्म में मन लगता है।
9. ईश्वर
में विश्वास - भगवान में अटूट विश्वास रख दु:ख हो या सुख हर स्थिति में समान रहना।
स्वभाव को सरल रखना यानी किसी के लिए बुरी भावना न रख विनम्र रहना।
धार्मिक नजरिए से स्वभाव, विचार और व्यवहार में इस तरह के गुणों को लाने से न केवल
ईश्वर की कृपा मिलती है बल्कि सांसारिक सुख-सुविधाओं का वास्तविक आनंद भी मिलता
है।
सरलता से जानिए सफल जीवन के महामंत्र 'कर्मयोग सिद्धांत' के खास पहलू
ज़िंदगी में कर्म यानी काम ही खुशियां और कामयाबी पाने का सबसे बेहतर उपाय है।
किंतु ऐसा काम ही वास्तविक और लंबा सुख देता है, जो निस्वार्थ भावना से किया जाए,
क्योंकि ऐसा करने
से अपेक्षा और आसक्ति न होने से मन में कलह पैदा नहीं होता।
सुख और सफल जीवन में कर्म की इसी अहमियत को भगवान श्रीकृष्ण ने पवित्र ग्रंथ
श्रीमद्भगवदगीता में कर्मयोग के सिद्धांत के जरिए उजागर किया। असल में, यह ऐसा महामंत्र है,
जिससे हर इंसान
दु:ख और परेशानियों से दूर रहकर जिंदगी को कामयाब बना सकता है।
अक्सर धर्म और अध्यात्म से दूर इंसान जीवन में कई मौकों पर सुख व आनंद पाने के
लिए भगवान श्रीकृष्ण की कई लीलाओं को सामने रख स्वार्थ पूरे करने से नहीं चूकता,
किंतु सफलता के
सूत्र कर्मयोग सिद्धांत की गहराई को समझने से दूर भागता है। यहां सरल शब्दों में
जानिए भगवान श्रीकृष्ण के इसी कर्मयोग सिद्धांत के कुछ खास पहलू, जिससे इसे कोई भी आसानी
से समझकर अपना सकता है।
असल में, सांसारिक जीवन के नजरिए से युद्ध की तरह संघर्ष से भरे जीवन में हर इंसान के
सामने ऐसी बुरी स्थितियां भी आती है, जब मानसिक दशा अर्जुन की तरह हो जाती है। इंसान कई
मौकों पर हथियार डाल कर्म से परे भी हो जाता है।
ऐसी ही स्थिति में कर्मयोग औषधी का काम कर ऊर्जावान बनाता है। यह सिखाता है कि
कर्म करो और फल की आसक्ति को छोड़ो। किंतु इस संबंध में तीन अलग-अलग स्वभाव के
इंसान जिनको रज, तम और सत गुणी माना जाता है तीन तर्क देते हैं -
- तमोगुणी का विचार होता है जब फल या नतीजे छोडऩा ही है तो कर्म क्यों करें?
- रजोगुणी सोचता है काम कर उससे मिलने वाले फल का लाभ व हक मेरा हो।
- जबकि सतोगुणी सोचता है कि काम करें किंतु फल या नतीजों पर अपना अधिकार न
समझें।
इन तीन विचारों में सत्वगुणी का नजरिया ही कर्म योग माना जाता है। क्योंकि ऐसे
इंसान की सोच होती है कि वह ऐसा काम करें, जिसमें स्वार्थ पूर्ति या उनके नतीजों के लाभ पाने
की आसक्ति या भाव न हो। यही नहीं इसी सोच में तमोगुणी के काम से बचने और रजोगुणी
के फल पर अधिकार की सोच दूर रहती है। यही स्थिति निष्काम कर्म के लिये प्रेरित
करती है, जिससे
इंसान हर स्थिति में सुख और सफलता प्राप्त करता चला जाता है।
इन खूबियों के बिना धनी होने पर भी खुश नहीं रहेंगे!
धन, इंसान
के कई दोष या कमियां छुपा सकता है। खासतौर पर भौतिक सुख-सुविधाओं से भरे आज के दौर
में धनवान होना व्यावहारिक जीवन में कई तरह से फायदेमंद साबित होता है। धन का
प्रभाव दूसरों से पहले पहले इंसान के स्वयं के मन-मस्तिष्क पर पड़ता है। इसके चलते
इंसान के मनोभाव, व्यवहार और विचार में बदलाव आता है।
यह बदलाव सकारात्मक रूप से सुख, किंतु नकारात्मक रूप में दु:ख की वजह बन सकता है। इस
तरह समझा जाए तो धन सुख, यश, सम्मान और ऊंचा कद तो दे सकता है, किंतु यह भी साफ है कि हर स्थिति
में यह सुख का कारण नहीं होता।
यही वजह है कि शास्त्रों में सांसारिक जीवन को केवल धन बटोरने की सोच से न
जीने के स्थान पर कुछ ऐसी बातों को मन, व्यवहार और कर्म से जोडऩे की अहमियत बताई गई है,
जिनसे हर हाल में
इंसान को दूसरों से मान-सम्मान, सुख, प्रतिष्ठा, प्रेम और सहयोग मिलता है। यहां तक कि इन बातों के लिए धनवान
होना भी जरूरी नहीं बल्कि धन के अभाव में भी यह बातें खुशहाल बनाती है।
जानिए कौन-से हैं ये गुण जिसके आगे धन या धनवान का रुतबा भी बेदम साबित होता
है। शास्त्रों के मुताबिक ये बातें या गुण देवीय संपत्ति हैं -
निडरता, पराक्रम, विवेक, धैर्य-संयम, ज्ञान, परोपकार, विनम्रता, प्रेम, दया, न्याय,
परिश्रम, अहिंसा का भाव ऐसे देवीय
गुण हैं, जिनसे
मिलने वाले सुखों के आगे हर भौतिक सुख कमतर या बेमानी हो जातें हैं। इसलिए धन से
अधिक इन गुणों को अर्जित करने का प्रयास जरूर करना चाहिए।
कितनी भी कोशिश कर लो, ये सात चीजें किसी से नहीं छुपतीं
आजकल अधिकतर लोग अपनी व्यक्तिगत बातों को छिपा कर रखने की कोशिश करते हैं। कई
बातों को लोग दबा भी जाते हैं। अपनी जानकारियों के गोपनीय रखना अच्छी बात है लेकिन
कई बातें ऐसी भी होती हैं जिन्हें छुपाना लगभग नामुमकिन होता है।
हमारे दार्शनिकों ने ऐसी कई बातों की ओर इशारा किया है जिन्हें राज रखना लगभग
असंभव है। रहीम ने इस बात को लेकर एक सटीक दोहा लिखा है..
खैर, खून,
खाँसी, खुसी, बैर, प्रीति, मदपान।
रहिमन दाबे न दबै, जानत सकल जहान॥
सात बातें ऐसी हैं जो किसी की लाख कोशिशों के बावजूद भी गुप्त नहीं रह सकती।
ये सात बातें हैं खैर मतलब सेहत, खून मतलब कत्ल, खांसी, खुशी, बैर यानी दुश्मनी, प्रीति यानी प्रेम और मदपान मतलब
शराब का नशा। इन बातों को आप भले ही अपनी बातों में जाहिर ना करें, कभी इनके बारे में बात
ना करें लेकिन ये अचानक जाहिर हो जाती हैं। हमारी बॉडी लैंग्वेज, हावभाव, व्यवहार और हमारे
तौर-तरीकों से ये बातें अपने आप दुनिया को पता चल जाती हैं।
उत्पन्ना एकादशी : जानिए इस व्रत का महत्व व विधि
मार्गशीर्ष मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी को उत्पन्ना एकादशी का व्रत किया जाता
है। इस बार 9 दिसंबर, रविवार को यह व्रत है। यह व्रत भगवान श्रीकृष्ण के
निमित्त किया जाता है। इसकी विधि इस प्रकार है-
मार्गशीर्ष कृष्ण एकादशी के एक दिन पहले यानी दशमी तिथि (8 दिसंबर, शनिवार) को शाम का भोजन करने के बाद अच्छी प्रकार से दातुन करें ताकि अन्न का
अंश मुँह में रह न जाए। रात के समय भोजन न करें, न अधिक बोलें। एकादशी के दिन सुबह 4
बजे उठकर सबसे पहले व्रत का संकल्प करें। इसके पश्चात शौच आदि से निवृत्त होकर
शुद्ध जल से स्नान करें।
इसके पश्चात धूप, दीप, नैवेद्य आदि सोलह चीजों से भगवान श्रीकृष्ण का पूजन
करें और रात को दीपदान करें। रात में सोए नहीं। सारी रात भजन-कीर्तन आदि करना
चाहिए। जो कुछ पहले जाने-अनजाने में पाप हो गए हों, उनकी क्षमा माँगनी चाहिए। सुबह पुन: भगवान श्रीकृष्ण की पूजा करें व योग्य
ब्राह्मणों को भोजन कराकर यथा संभव दान देने के पश्चात ही स्वयं भोजन करना चाहिए।
धर्म शास्त्रों के अनुसार इस व्रत का फल हजारों यज्ञों से भी अधिक है। रात्रि
को भोजन करने वाले को उपवास का आधा फल मिलता है जबकि निर्जल व्रत रखने वाले का
माहात्म्य तो देवता भी वर्णन नहीं कर सकते।
उत्पन्ना एकादशी: क्या आप जाते हैं इस व्रत की ये रोचक कथा
मार्गशीर्ष यानी अगहन मास भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति का मास है। इस मास में
श्रीकृष्ण की विशेष पूजा अर्चना का काफी महत्व है। इस मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी
को उत्पन्ना एकादशी कहा जाता है। इस दिन भगवान श्रीकृष्ण की पूजा का विधान है। इस
बार यह एकादशी 9 दिसंबर, रविवार को है। इस एकादशी के संबंध में शास्त्रों एक कथा बताई है, जो इस प्रकार है-
सतयुग में मार्गशीर्ष कृष्ण एकादशी तिथि को मुर नामक राक्षस का वध किया गया
था। मुर राक्षस परम बुद्धिमान व महाबली था। उसने देवताओं को स्वर्ग लोक से निकाल
कर अधिकार कर लिया था। तब सभी देवता इंद्र सहित भगवान शिव के पास मदद मांगने
पहुंचे। शिवजी ने उन्हें विष्णु के पास भेज दिया।
भगवान विष्णु ने देवताओं की मदद के लिए अपने शरीर से एक परम रूपवती स्त्री
उत्पन्न की, जिसने मुर नामक राक्षस का वध किया। इससे प्रसन्न भगवान विष्णु ने उस स्त्री का
नाम उत्पन्ना रखा और कहा जो आज के दिन उत्पन्ना एकादशी का व्रत करेगा उन्हें सभी
सिद्धियां प्राप्त होगी और सभी कामनाएं पूर्ण होंगी।
मंगल प्रदोष 11 को, इस
आसान विधि से करें ये व्रत
11 दिसंबर, मंगलवार को भौम (मंगल) प्रदोष व्रत है। इस दिन त्रयोदशी व मंगलवार का संयोग
होता है। यह तिथि व वार दोनों ही भगवान शंकर को विशेष प्रिय हैं। सूतजी के अनुसार
मंगल प्रदोष व्रत करने से ऋणों व रोगों से मुक्ति मिल जाती है साथ ही सुख-समृद्धि
भी प्राप्त होती है। मंगल प्रदोष व्रत के पालन के लिए शास्त्रोक्त विधान इस प्रकार
है। किसी विद्वान ब्राह्मण से यह कार्य कराना श्रेष्ठ होता है-
- प्रदोष व्रत में बिना जल पीए व्रत रखना होता है। सुबह स्नान करके भगवान शंकर,
पार्वती और नंदी
को पंचामृत व गंगाजल से स्नान कराकर बेल पत्र, गंध, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, फल, पान, सुपारी, लौंग, इलायची भगवान को चढ़ाएं।
- शाम के समय पुन: स्नान करके इसी तरह शिवजी की पूजा करें। शिवजी का षोडशोपचार पूजा
करें। जिसमें भगवान शिव की सोलह सामग्री से पूजा करें।
- भगवान शिव को घी और शक्कर मिले जौ के सत्तू का भोग लगाएं।
- आठ दीपक आठ दिशाओं में जलाएं। आठ बार दीपक रखते समय प्रणाम करें। शिव आरती
करें। शिव स्त्रोत, मंत्र जप करें ।
- रात्रि में जागरण करें।
इस प्रकार समस्त मनोरथ पूर्ति और कष्टों से मुक्ति के लिए व्रती को प्रदोष
व्रत के धार्मिक विधान का नियम और संयम से पालन करना चाहिए।
जल्द सफलता व यश चाहें तो ऐसे लोगों की मदद लेने में न करें देर
ज़िंदगी में सफलता पाने की कवायद हो या बुरे वक्त से संघर्ष, समस्याओं से छुटकारा
पाना हो या भावनात्मक सहयोग की जरूरत हो, हर हालात में इंसान की संगत बड़ी निर्णायक साबित
होती है। अच्छी संगत इंसान को गलत दिशा में भटकने से बचाती है, वहीं बुरे लोगों के साथ
रहने से सोच और व्यवहार में पैदा हुए दोष नाकामी की वजह बन जाते हैं।
अच्छे लोगों का साथ किस तरह से बुरे वक्त को पलट सफलता, सहयोग और सुख लाता है, इस बात की अहमियत हिन्दू
धर्मशास्त्र वाल्मीकि रामायण से अच्छी तरह समझा जा सकती है। असल में, रामायण का हर प्रसंग
जीवन को अनुशासित करने का बेहतरीन सूत्र है।
वाल्मीकि रामायण के ही एक प्रसंग के मुताबिक रावण द्वारा सीताहरण के बाद जब
श्रीराम-लक्ष्मण का सीता की खोज के दौरान कबन्ध नामक राक्षस से सामना हुआ तो उसने
दोनों भाइयों को जो उपाय सुझाया वह व्यावहारिक जीवन में बुरे वक्त से बेहतर ढंग से
निपटने की प्रेरणा देता है। जानिए कबन्ध द्वारा राम-लक्ष्मण को सीता खोज में सफलता
पाने का कौन सा रास्ता बताया। वाल्मीकि रामायण में लिखा है कि -
गच्छ शीघ्रमितो वीर सुग्रीवं तं महाबलम्।
वयस्यं तं कुरु क्षिप्रमितो गत्वाद्य राघव।।
इस श्लोक में कबन्ध द्वारा राम-लक्ष्मण से महाबली सुग्रीव के पास जाकर तुरंत
ही उनसे मित्रता का सुझाव दिया गया। क्योंकि सुग्रीव भी पराक्रमी, बुद्धिमान, निडर, कार्य कुशल, विनम्र और धैर्यवान
थे।
इस श्लोक में छुपा सूत्र यही है कि व्यावहारिक जीवन में बुरे वक्त या आगे बढऩे
के लिए गुणी व बलवान का साथ फायदेमंद साबित होता है। इसका मतलब यह नहीं कि स्वार्थ
के वशीभूत हो मित्रता की जाए बल्कि गुणी और बलवान की ताकत बुरे वक्त से गुजर रहे
इंसान की कमजोर हुई शक्ति और गुणों के लिए सहारा बन जाती है, जिससे बड़ी से बड़ी
समस्या और बाधाओं से निपटना आसान हो जाता है। ठीक राम की लंका विजय की तरह।
यही सूत्र भक्ति और अध्यात्म क्षेत्र में अपनाएं तो देव शक्तियों की साधना
आपकी मन की शक्तियां को भी जाग्रत कर देती है। इससे हर दु:खों को मात देना संभव हो
जाता है। रामायण का यह बेहतरीन सूत्र जीवन के हर क्षेत्र में अपनाया जा सकता है।
सुख और तरक्की के लिए विवेक का सी उपयोग कर नि:स्वार्थ भाव, विश्वास और आत्मसम्मान
रख शक्ति संपन्न से हाथ मिलाना सूझबूझ भरा फैसला साबित हो सकता है।
इस 1 बात
की बांध लें गांठ तो बढ़ेगा मान, ज्ञान व धन
इंसान के मन-मस्तिष्क में हर पल जल्द से जल्द आगे बढऩे, सुख पाने के साधन बंटोरने या आने
वाले कल को सुरक्षित रखने जैसे तमाम विचारों की कवायद चलती रहती है। इस बात को सरल
शब्दों में समझें तो हर व्यक्ति सुखी व सफल जीवन चाहता है, जो अशांति और दु:खों से दूर हो।
मगर इंसान की सुख की यह चाहत हमेशा सफल नहीं होती। क्योंकि समय का उतार-चढ़ाव
ऐसा संभव नहीं होने देता। किंतु शास्त्रों में समय के साथ तालमेल बनाकर सुख-दु:ख
दोनों ही स्थितियों में संतुलन बनाने के लिये कुछ ऐसे सूत्र बताए गए हैं, जिनसे इंसान की सुखों को
पाने के लिये जरूरी गुण और योग्यताओं को पाना संभव हो जाता है।
शास्त्रों के मुताबिक तीन बातें इंसान के सुखों की वजह बनती हैं। पहला ज्ञान,
दूसरा श्री या
सुख-समृद्धि व ऐश्वर्य और तीसरा - मान-सम्मान। इन तीन बातों को हासिल करने के लिये
ही एक ही सूत्र कारगर और असरदार माना गया है। जिसे कोई भी इंसान अपनाए तो वह ज्ञान,
धन और और सम्मान
का अधिकारी बन सकता है। जानिए धर्म के नजरिए से यह खास सूत्र व उसका व्यावहारिक
पहलू –
यह सूत्र है - तप। इसका व्यावहारिक अर्थ में उतारें तो श्रम या मेहनत ही वह
उपाय है, जो
सफलता की ओर ले जाता है। क्योंकि अगर कोई इंसान आगे बढऩे के लिये मेहनत करने की
ठान ले तो वह सच्चाई और ईमानदारी की भावना
से भी लबरेज हो जाता है।
सरल शब्दों में कहें तो वह संकल्पित हो जाता है। बस, यही दृढ संकल्प मनचाहे लक्ष्य तक
पहुंचना आसान बना देता है।
इस तरह लक्ष्य पाने की कोशिश या सफलता इंसान को भरपूर ज्ञान, धन, ऐश्वर्य और मान-सम्मान
दिलाती है। सरल शब्दों में कहें तो मेहनत ही वह सूत्र है जो इंसान को विद्वान,
धनवान और
प्रतिष्ठित बना सकती है।
21 दिसंबर को महाविनाश के दावे का सच इन खास बातों से भी परखें!
गणित व खगोल विज्ञान की अद्भुत जानकार दुनिया की पुरानी सभ्यताओं में एक
अमेरिका की माया सभ्यता की मान्यताओं व कालगणना के मुताबिक साल 2012 के माह दिसंबर में
दुनिया की तबाही की आखिरी घड़ी है। इस वक्त के नजदीक आने के साथ दुनिया खत्म होने
के दिन और तबाही की वजहों को लेकर कई दावे और अनुमान सामने आते रहे हैं। इनमें
किसी ग्रह के पृथ्वी के टकराने, कभी सूर्य की ऊर्जा व किरणों से पैदा सौर तूफान व जल प्रलय
के दावे भी प्रमुख हैं। पिछले कुछ सालों में देश-दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में
भारी बारिश, भूकंप व तूफान जैसी कुदरती घटनाओं से हुई तबाही ऐसी बातों को और बल देती हैं
कि क्या वाकई इस साल माया सभ्यता की भविष्यवाणी के मुताबिक 21 दिसंबर 2012 को दुनिया का विनाश हो
जाएगा?
इन दावों का पुख्ता आधार खोजने की कोशिश करें तो खासतौर पर रहने, जीने यहां तक कि मृत्यु
को भी सुधारने के सबक से भरे हिन्दू धर्मग्रंथों में लिखे प्रलय के संकेतों के आगे
दिसंबर 2012 में कयामत के दिन का दावा कमजोर साबित होता है।
इस संबंध में हिन्दू धर्मग्रंथ श्रीमद्भागवद् महापुराण में लिखी प्रलय के
दौरान होने वाली घटनाएं व बनने वाले हालातों को जान आप स्वयं भी अंदाजा लगा सकते
हैं कि विनाश के सारे दावों में कितना सच है? जानिए कि अगर दिसंबर में ही कयामत
का दिन होता तो पहले कौन सी घटनाएं घटतीं –
प्रलय का वक्त करीब होने पर सौ साल तक बारिश नहीं होती। अन्न और पानी न होने
से अकाल पड़ जाता है। सूर्य की भीषण गर्मी समुद्र, प्राणियों और पृथ्वी का रस सोख
लेती है। इसे ही प्रतीक रूप में संकषर्ण भगवान के मुंह से निकलने वाली आग की लपटें
बताया गया है। यह आग हवा के कारण आकाश से लेकर पाताल तक फैलती हैं। इस प्रचण्ड ताप
और गर्मी से पृथ्वी सहित पूरा ब्रह्माण्ड ही दहकने लगता है। इसके बाद गर्म हवा कई
सालों तक चलती है। पूरे आसमान में धुंआ और धूल छा जाते हैं। इसके बाद बने बादल
आकाश में मण्डराते हुए फट पड़ते हैं। कई सालों तक भारी बारिश होती है। इससे
ब्रह्माण्ड में समाया सारा संसार जल में डूब जाता है। इस तरह पृथ्वी के गुण,
गंध जल में मिल
जाते हैं और पृथ्वी तबाह हो जाती है और अंत में जल में ही मिलकर जल रूप हो जाती
है। इस तरह जल, पृथ्वी सहित पंचभूत तत्व जो इस जगत का कारण माने गए हैं एक-दूसरे में समा जाते
हैं और मात्र प्रकृति ही शेष रह जाती है।
संशखचक्र सकिरीट कुण्डल सपीत वस्त्र सरसी रुहेश्र्णम।
भगवान विष्णु जी की मानस पूजा :
हिन्दू धर्म के मुताबिक भगवान विष्णु जगत के पालन करने वाले देवता है।
शास्त्रों में उनका स्वरूप सौम्य बताया गया है। यानी भगवान विष्णु सात्विक
शक्तियों के स्वामी भी हैं। यही वजह है कि सांसारिक नजरिए से भगवान विष्णु की उपासना सुख, आनंद, प्रेम, शांति के साथ बल देने
वाली मानी जाती है। धार्मिक परंपराओं में विष्णु पूजा की तरह-तरह से विधि-विधान और
पूजा सामग्रियों द्वारा बताई गई है। किंतु यहां बताई जा रही भगवान विष्णु की एक
ऐसी पूजा जिसमें न किसी पूजा सामग्री की जरूरत होती है, न ही किसी प्रतिमा की।
विष्णु की यह पूजा मन के भावों से की जाती है, जिसे मानस पूजा भी कहते हैं।
खासतौर पर एकादशी तिथि पर मानस पूजा का फल पूजा सामग्रियों से की गई पूजा से भी
शुभ और अधिक माना गया है। इस पूजा में कोई भी व्यक्ति मन के भावों से जितनी चाहे
उतनी मात्रा और बेहतर पूजा सामग्रियां भगवान विष्णु को अर्पित कर सकता है। बस भाव
ही अहम होते हैं।
जानिए ऐसी ही विष्णु मानस पूजा की विधि –
सुबह स्नान कर घर के देवालय में भगवान विष्णु इस मंत्र से ध्यान करें -
संशखचक्र सकिरीट कुण्डल सपीत वस्त्र सरसी रुहेश्र्णम।
सहार वक्षस्थल कौस्तुभस्त्रियं नमामि विष्णु शिरसा चतुर्भुजम।।
इसके बाद मन ही मन इन 16 पूजा मंत्रों से विष्णु की मानस पूजा करें -
ऊँ पादयो: पाद्यं समर्पयामि नारायणाय नम:।
ऊँ हस्तयो: अर्घ्य समर्पयामि नारायणाय नम:।
ऊँ आचमनीयं समर्पयामि नारायणाय नम:।
ऊँ गन्धं समर्पयामि नारायणाय नम:।
ऊँ पुष्पं समर्पयामि नारायणाय नम:।
ऊँ पुष्पमाला समर्पयामि नारायणाय नम:।
ऊँ धूप समर्पयामि नारायणाय नम:।
ऊँ दीपं दर्शयामि नारायणाय नम:।
ऊँ नैवेद्यं निवेदयामि नारायणाय नम:।
ऊँ आचमनीयं समर्पयामि नारायणाय नम:।
ऊँ ऋतुफलम् समर्पयामि नारायणाय नम:।
ऊँ पुनराचमनीय समर्पयामि नारायणाय नम:।
ऊँ पूगीफलं समर्पयामि नारायणाय नम:।
ऊँ आरार्तिक्यं समर्पयामि नारायणाय नम:।
ऊँ पुष्पाञ्जलि समर्पयामि नारायणाय नम:।
अंत में ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय इस मंत्र का जप करें।
भगवान की अनमोल देन इन 3 बातों की करें कद्र ! नहीं होंगे नाकाम
इंसान जीवन में सुख-सुविधाओं से जीने के लिये कई चीजों को संभालने में बहुत ही
ध्यान देता है। उसका मन उन चीजों से इतना गहरा जुड़ जाता है कि उनका थोड़ा भी
नुकसान उसको परेशान कर देता है। किंतु वह सांसारिक जीवन से जुड़ी ऐसी बातों कद्र
नहीं करता, जो ईश्वर कृपा के बिना संभव नहीं। इन पर अगर हर इंसान सोच विचार करे तो दु:खों
से हमेशा बचा रह सकता है।
शास्त्रों के मुताबिक इंसान को ईश्वर कृपा से ही तीन अनमोल बातें मिलती है।
इसकी अहमियत हर इंसान को समझना चाहिए। अगली तस्वीर पर क्लिक कर जानिए ये तीन बाते-
मनुष्य जन्म - शास्त्रों के मुताबिक भगवान की कृपा और पुण्य कर्म ही मनुष्य
जन्म की वजह होती हैं। इसलिए सुखी जीवन के लिये अच्छे काम, सोच और व्यवहार को ही अपनाना
चाहिए।
सद्गुरु का साथ - सांसारिक जीवन में गुरु कृपा बहुत ही निर्णायक सबित होती है।
एक अच्छे गुरु की कृपा इंसान को जमीन से उठाकर ऊंचाइयों पर पहुंचा सकती है। जीवन
के हर कठिन हालात गुरु कृपा और सीख से आसान बन जाते हैं।
मोक्ष या जन्म-मरण के बंधन से छुटकारे की चाह - इस कामना से इंसान बुरे कामों
से दूर होकर संयम, नियम और अनुशासन से जीवन गुजारता है। यह इच्छा ईश्वर शक्ति और प्रेरणा से ही
जागने वाली मानी गई है।
जानिए जवानी में कौन सा खास काम बुढ़ापे में देगा बड़ा फायदा!
परिवार और रिश्ते अटूट विश्वास, प्रेम और भावनाओं के बंधन होते हैं। किंतु अगर
रिश्तों की यह डोर किसी भी कारण से टूटती है, तो मन को चोट पहुंचाती है। यही
वजह है कि हर इंसान घर-परिवार में मेलजोल, स्नेह, सहयोग व खुशहाली के लिए भरसक कोशिश करता है। इसके
लिए सबसे सही वक्त युवावस्था यानी जवानी माना जाता है।
हिन्दू धर्मशास्त्रों में एक ऐसी ही बात की ओर इशारा किया गया है जो
व्यावहारिक रूप से कड़वा सच नजर आती है, किंतु हर इंसान को जीवन में इस बात का छोटे या बड़े
रूप में सामना करना पड़ सकता है। इसलिए यह बात जानकर हर युवा सकारात्मक भाव से खुद
के साथ परिवार के अच्छे भविष्य के लिए इस काम को करने की हर संभव कोशिश करे। सरल
शब्दों में कहें तो जानिए जवानी में जरूरी वह काम, जिससे बुढ़ापा भी सुखद हो जाता
है -
असल में, आज के दौर में कई युवा ऐसे भी देखे जाते हैं, जो भरपूर सुख-सुविधाओं के बीच
रहते धनार्जन के महत्व को गंभीरता से समझ नहीं पाते। वहीं दूसरी ओर आजीविका के
अभाव में भी कई युवा निराशा में टूटकर धर्नाजन को लेकर उदासीन होने लगते हैं।
शास्त्रों में युवा रहते हुए धन कमाने का फायदा उजागर करते हुए लिखा गया है कि -
यावत् वित्तो पार्जन शक्त: तावत् निजपरिवारो रक्त:।
तदनु जरया जर्जरदेहे वार्तां कोपि न पृच्छति गेहे।।
इसका सरल शब्दों में मतलब है कि इंसान में जब तक धन कमाने की क्षमता होती है,
परिजनों का स्नेह
और प्रेम बना रहता है। किंतु जब इंसान उम्रदराज होने लगता है यानी बुढ़ापे की ओर
बढ़ता है, तब धन अर्जन में सशक्त न होने से अपनों से ही
किसी न किसी रूप में उपेक्षित या तिरस्कृत होने लगता है।
यह सच्चाई हर इंसान के जीवन से जुड़ी है, किंतु जवानी में ही कर्म व धन के
सही प्रबंधन के जरिए इस इस कटु सत्य को मीठे अनुभवों में भी बदलना संभव है।
खर मास 16 से, भगवान
श्रीकृष्ण को प्रिय है यह महीना
इस खास वजह से भी सच दबाए नहीं दबता
मंगल प्रदोष: ये है इस व्रत की अनोखी कथा, आप भी जानिए
हिंदू धर्म शास्त्रों में अनेक व्रतों का उल्लेख है जिसे करने से भगवान शिव
अपने भक्तों का कल्याण करते हैं। ऐसा ही एक व्रत है प्रदोष। यह व्रत प्रत्येक मास
की दोनों पक्षों की त्रयोदशी तिथि को किया जाता है। इस बार प्रदोष व्रत 11 दिसंबर, मंगलवार को है। मंगलवार
के दिन प्रदोष व्रत होने से इस व्रत मंगल प्रदोष या भौम प्रदोष भी कहते हैं। इस
व्रत की कथा इस प्रकार है-
व्रत कथा
एक नगर में एक वृद्धा रहती थी। उसका एक ही पुत्र था। वृद्धा की हनुमानजी पर
गहरी आस्था थी। वह प्रत्येक मंगलवार को नियमपूर्वक व्रत रखकर हनुमानजी की आराधना
करती थी। एक बार हनुमानजी ने उसकी श्रद्धा की परीक्षा लेने की सोची। हनुमानजी साधु
वेश धारण कर वृद्धा के घर गए और पुकारने लगे- है कोई हनुमान भक्त जो हमारी इच्छा
पूर्ण करे? पुकार सुन वृद्धा बाहर आई और बोली- आज्ञा महाराज। साधु वेशधारी हनुमान बोले-
मैं भूखा हूं, भोजन करूंगा। तू थोड़ी जमीन लीप दे। वृद्धा दुविधा में पड़ गई। अंतत: हाथ
जोड़कर बोली-महाराज। लीपने और मिट्टी खोदने के अतिरिक्त आप कोई दूसरी आज्ञा दें,
मैं अवश्य पूर्ण
करूंगी।
साधु ने तीन बार प्रतिज्ञा कराने के बाद कहा- तू अपने बेटे को बुला। मैं उसकी
पीठ पर आग जलाकर भोजन बनाऊंगा। यह सुनकर वृद्धा घबरा गई परंतु वह प्रतिज्ञाबद्ध
थी। उसने अपने पुत्र को बुलाकर साधु के सुपुर्द कर दिया। साधुवेषधारी हनुमानजी ने
वृद्धा के हाथों से ही उसके पुत्र को पेट के बल लिटवाया और उसकी पीठ पर आग जलवाई।
आग जलाकर दु:खी मन से वृद्धा अपने घर में चली गई । इधर भोजन बनाकर साधु ने वृद्धा
को बुलाकर कहा- तुम अपने पुत्र को पुकारो ताकि वह भी आकर भोग लगा ले।
इस पर वृद्धा बोली-उसका नाम लेकर मुझे और कष्ट न पहुंचाओ लेकिन जब साधु नहीं
माने तो वृद्धा ने अपने पुत्र को आवाज लगाई। अपने पुत्र को जीवित देख वृद्धा को
सुखद आश्चर्य हुआ और वह साधु के चरणों मे गिर पड़ी। हनुमानजी अपने वास्तविक रूप
में प्रकट हुए और वृद्धा को भक्ति का आशीर्वाद दिया। सूतजी के अनुसार मंगल प्रदोष
व्रत से शंकर (हनुमान भी शंकर के ही अवतार हैं) और पार्वतीजी इसी तरह भक्तों को
साक्षात दर्शन देकर कृतार्थ करते हैं।
भगवान सूर्य संपूर्ण ज्योतिष शास्त्र के अधिपति हैं। सूर्य का मेष आदि 12 राशियों पर जब संक्रमण
(संचार) होता है, तब संवत्सर बनता है जो एक वर्ष कहलाता है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार वर्ष में
दो बार जब सूर्य, गुरु की राशि धनु व मीन में संक्रमण करता है उस समय को खर, मल व पुरुषोत्तम मास
कहते हैं। इस दौरान कोई भी शुभ कार्य नहीं किया जाता।
इस बार खर मास का प्रारंभ 16 दिसंबर, 2012 रविवार से हो रहा है, जो 14 जनवरी, 2013 सोमवार को समाप्त होगा।
इस मास की मलमास की दृष्टि से जितनी निंदा है, पुरुषोत्तम मास की दृष्टि से
उससे कहीं श्रेष्ठ महिमा भी है।
भगवान पुरुषोत्तम ने इस मास को अपना नाम देकर कहा है कि अब मैं इस मास का
स्वामी हो गया हूं और इसके नाम से सारा जगत पवित्र होगा तथा मेरी सादृश्यता को
प्राप्त करके यह मास अन्य सब मासों का अधिपति होगा। यह जगतपूज्य और जगत का वंदनीय
होगा और यह पूजा करने वाले सब लोगों के दारिद्रय का नाश करने वाला होगा।
अहमेवास्य संजात: स्वामी च मधुसूदन:। एतन्नान्मा जगत्सर्वं पवित्रं च
भविष्यति।।
मत्सादृश्यमुपागम्य मासानामधिपो भवेत्। जगत्पूज्यो जगद्वन्द्यो मासोयं तु
भविष्यति।।
पूजकानां सर्वेषां दु:खदारिद्रयखण्डन:।।
खर मास: भगवान पुरुषोत्तम की भक्ति करें इस महीने में
खर (मल) मास का प्रारंभ इस बार 16 दिसंबर, रविवार से हो रहा है। धर्मग्रंथों के अनुसार मल मास
को भगवान पुरुषोत्तम ने अपना नाम दिया है इसलिए इस मास को पुरुषोत्तम मास मास भी
कहते हैं। इस मास में भगवान की आराधना करने का विशेष महत्व है।
धर्मग्रंथों के अनुसार इस मास में प्रात:काल सूर्योदय पूर्व उठकर शौच, स्नान, संध्या आदि अपने-अपने
अधिकार के अनुसार नित्यकर्म करके भगवान का स्मरण करना चाहिए और पुरुषोत्तम मास के
नियम ग्रहण करने चाहिए। पुरुषोत्तम मास में श्रीमद्भागवत का पाठ करना महान
पुण्यदायक है। इस मास में तीर्थों, घरों व मंदिरों में जगह-जगह भगवान की कथा होनी चाहिए। भगवान
का विशेष रूप से पूजन होना चाहिए और भगवान की कृपा से देश तथा विश्व का मंगल हो
एवं गो-ब्राह्मण तथा धर्म की रक्षा हो, इसके लिए व्रत-निमयादि का आचरण करते हुए दान,
पुण्य और भगवान का
पूजन करना चाहिए। पुरुषोत्तम मास के संबंध में धर्मग्रंथों में वर्णित है -
येनाहमर्चितो भक्त्या मासेस्मिन् पुरुषोत्तमे।
धनपुत्रसुखं भुकत्वा पश्चाद् गोलोकवासभाक्।।
अर्थात- पुरुषोत्तम मास में नियम से रहकर भगवान की विधिपूर्वक पूजा करने से
भगवान अत्यंत प्रसन्न होते हैं और भक्तिपूर्वक उन भगवान की पूजा करने वाला यहां सब
प्रकार के सुख भोगकर मृत्यु के बाद भगवान के दिव्य गोलोक में निवास करता है।
भगवान ने खर मास को क्यों दिया अपना नाम, जानिए
इस बार खर (मल) मास का प्रारंभ 16 दिसंबर, रविवार से होगा जो 14 जनवरी 2013, सोमवार तक रहेगा। हिंदू
धर्मशास्त्रों में खर मास को बहुत ही पूजनीय बताया गया है। मल मास को पुरुषोत्तम
मास भी कहा जाता है। खर मास को पुरुषोत्तम मास क्यों कहा जाता है इसके संबंध में
हमारे शास्त्रों में एक कथा का वर्णन है जो इस प्रकार है-
प्राचीन काल में जब सर्वप्रथम खर मास की उत्पत्ति हुई तो वह स्वामीरहित मलमास
देव-पितर आदि की पूजा तथा मंगल कार्यों के लिए वर्जित माना गया। इसी कारण सभी ओर
उसकी निंदा होने लगी। निंदा से दु:खी होकर मल मास भगवान विष्णु के पास वैकुण्ठ लोक
में पहुंचा और अपनी पीड़ा बताई। तब भगवान विष्णु मल मास को लेकर गोलोक गए।
वहां भगवान श्रीकृष्ण मोरपंख का मुकुट व वैजयंती माला धारण कर स्वर्णजडि़त आसन
पर बैठे थे। भगवान विष्णु ने मल मास को श्रीकृष्ण के चरणों में नतमस्तक करवाया व
कहा कि यह मल मास वेद-शास्त्र के अनुसार पुण्य कर्मों के लिए अयोग्य माना गया है
इसीलिए सभी इसकी निंदा करते हैं। तब श्रीकृष्ण ने कहा कि अब से कोई भी मलमास की
निंदा नहीं करेगा क्योंकि अब से मैं इसे अपना नाम देता हूं।
यह जगत में पुरुषोत्तम मास के नाम से विख्यात होगा। मैं इस मास का स्वामी बन
गया हूं। जिस परमधाम गोलोक को पाने के लिए ऋषि तपस्या करते हैं वही दुर्लभ पद
पुरुषोत्तम मास में स्नान, पूजन, अनुष्ठान व दान करने वाले को सरलता से प्राप्त हो जाएंगे।
इस प्रकार मल मास पुरुषोत्तम मास के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
ये 6 कायदे
पुरुषों को देते हैं फायदे व सफलता !
गृहस्थ जीवन में अगर पुरुष कर्महीन हो जाए तो उसके निजी जीवन के साथ पूरा
परिवार भी कलह और मुश्किलों से घिर सकता है। गृहस्थ जीवन की सफलता पुरुष के स्त्री
के साथ बेहतर तालमेल से ही मुमकिन है। पुरुष के लिए पुरुषार्थ शब्द का एक पहलू पर
गौर करें तो इससे जुड़े 'पुरुष' और 'अर्थ' शब्दों का सार भी यही है कि पुरुष का हित अर्थपूर्ण काम
करने में है। यानी पुरुष ऐसे काम व व्यवहार करे, जो दायित्वों को पूरा करने के
साथ अर्थ प्राप्ति यानी आजीविका के लिए भी बेहतर हो।
दरअसल, काम से दूरी या अभाव ही शरीर, मन और कर्म से जुड़े दोष पैदा करता है। इनकी वजह से मन व
जीवन में भय, चिंता और अशांति प्रवेश करती है। इनसे बचकर जीवन गुजारने के लिए धर्मशास्त्रों
में पुरुषों को कुछ खास सूत्र अपनाने की सीख दी गई है। पौराणिक मान्यता है कि ये
बातें स्वयं जगत रचना करने वाले भगवान ब्रह्मदेव ने उजागर कीं। सरल शब्दों में कहें
तो पुरुषों के लिए बताए ये कायदे जिंदगीभर फायदे देने वाले सिद्ध होते हैं। जानिए
ये खास बातें-
लिखा गया है कि -
यो धर्मशीलो जितमानरोषो विद्याविनीतो न परोपतापी।
स्वदारतुष्ट: परदारवर्जितो न तस्य लोके भवमस्ति किंचित्।।
न तथा शशी न सलिलं न चन्दनं नैव शीतलच्छाया।
प्रह्लादयति पुरुषं यथा हिता मधुरभाषिणी वाणी।।
धर्मशास्त्र की इस बात के मुताबिक पुरुष इन बातों को अपनाकर सफल व निश्चिंत
होकर जीवन गुजार सकता है -
- सम्मान मिलने और गुस्सा आने पर खुद को काबू में रखें।
- विनम्र रहें, ज्यादा से ज्यादा ज्ञान और विद्या बटोरे।
- दूसरों को दु:ख देने या परेशान करने से बचें।
- अपने जीवनसाथी यानी स्त्री के प्रति सम्मान और समर्पण का भाव रखें।
- परायी स्त्री का त्याग करें।
- धर्म का पालन करे। जैसे सत्य, परोपकार, दया, भक्ति आदि भाव चरित्र और स्वभाव में बनाए रखे। साथ ही बताया
गया है कि पुरुष को परिजनों, इष्टमित्रों या किसी सज्जन द्वारा भलाई और हित के भाव से
बोले मीठे बोल इतनी शांति, प्रसन्नता और सुकून देते हैं कि जिनके आगे चन्द्रमा,
जल, चन्दन और छाया की ठंडक
भी कमतर होती है।
इन बातों में छुपे संयम और धर्म पालन के संकेत पुरुष के अलावा कोई भी इंसान
जीवन में उतारे तो सुखी और सफल जीवन बिता सकता है।
ये 5 सटीक
उपाय देते हैं कमाल की तरक्की !
हर इंसान के स्वभाव व व्यवहार में गुण व दोष होते हैं। अक्सर परिवार, कार्यक्षेत्र या फिर
समाज में उठते-बैठते यही खामियां या ताकत एक-दूसरे की ज़िंदगी के लिए अच्छी या
बुरी साबित होती हैं। किंतु जो इंसान अपने दोषों को नजरअंदाज कर दूसरों की कमियां
ढूंढने की कवायद में लगा रहता है, वह आखिरकार इन बुराइयों के जाल में ही जीवन को उलझाकर
कुण्ठा या निराशा का शिकार होता है। यानी ज़िंदगी में आगे बढ़ने के राह से भटक
जाता है।
ऐसी स्थिति किसी भी इंसान को विवेकहीन बनाती है यानी सही-गलत की समझ से दूर कर
सकती है। जीवन को ऐसी नकारात्मकता दशा से बचाने या बाहर आने के लिए धर्मग्रंथों
में लिखी सीधी और साफ बातों पर गौर करें, तो पल में जीवन की सारी मुश्किलों व आगे बढ़ने का हल
मिल सकता है। जानिए, तरक्की के लिए 5 खास बातें –
गरुड पुराण में लिखा गया है कि -
सद्भिरासीत सततं सद्भि: कुर्वीत संगतिम्।
सद्भिर्विवाद मैत्रीं च नासद्भि: किंचिदाचरेत्।।
पण्डितैश्च विनीतैश्च धर्मज्ञै: सत्यवादिभि:।
बन्धनस्थोपि तिष्ठेच्च न तु राज्ये खलै: सह।।
इस श्लोक में व्यावहारिक जीवन में साधने व तरक्की के लिए कुछ बेहतरीन सूत्र प्रकट
किए गए हैं, जो हर इंसान के भ्रम व संशय को दूर कर देते हैं-
- हमेशा सज्जनों यानी गुणी, ज्ञानी, दक्ष व सरल स्वभाव के इंसानों की संगति में रहें।
- दोस्ती व विवाद भी करें तो सज्जनों से, क्योंकि उसमें भी ज्ञान की बातों
से कई बातों के हल सामने आते हैं।
- दुर्जन यानी कुटिल, व्यसनी दुर्गणी व बुरे स्वभाव के व्यक्ति के साथ न मित्रता
करें न शत्रुता।
- पण्डित यानी दक्ष, विनम्र, धर्म में आस्थावान, मन, वचन व कर्म से सच्चे इंसान हो तो उसके साथ बंधन में भी रहना
अनुचित नहीं होगा, क्योंकि ऐसा संग यश, लक्ष्मी यानी धन, सफलता व तरक्की देने वाला साबित होगा।
- वहीं दुष्ट स्वभाव के व्यक्ति के साथ शाही व आलीशान जीवन भी मिले तो उनको छोड़
देना चाहिए। क्योंकि आखिरकार वे अपयश, दु:ख या कलह का कारण बनते हैं।
आसपास ही होते हैं ये 3 तरह के दगाबाज लोग! रहें
सावधान
जीवन में तरक्की और सफलता की डगर पर आगे बढ़ने के लिए अच्छे-बुरे लोगों का
फर्क जान-समझना भी बेहद अहम होता है।
धर्मग्रथों में भी सत्य-असत्य, धर्म-अधर्म और न्याय-अन्याय के बीच युद्ध से जुड़े कई
प्रसंग व्यावहारिक नजरिए से ऐसे ही सूत्र उजागर कर लक्ष्य को पाना आसान बनाते हैं।
असल में संगति भी आगे बढ़ने या पिछड़ने की वजह बनती है। खासतौर पर आज के
प्रतियोगी और रफ्तारभरे माहौल में अपने फायदे के लिए स्वार्थ या द्वेष मन पर हावी
रहता है। ऐसे में आसपास ही मौजूद सही व गलत लोगो के बीच फर्क जान तालमेल न बैठा
पाना बड़े नुकसान का कारण बन सकता है।
अच्छे-बुरे की पहचान वैसे तो काम करने के तरीके, बोल और बर्ताव की छोटी-छोटी
बातों से उजागर हो जाती है। किंतु शास्त्रों में 3 ऐसी पहचान उजागर की गई है,
जो किसी व्यक्ति
की गलत सोच या बुरी नियत को बता देती हैं। इनको समझकर सतर्क रहना उलझनों से बच
सकता है।जानिए हैं ये 3 बुराईयां –
शास्त्रों में लिखा गया है कि -
मित्रद्रोही कृतघ्रश्च यश्च विश्वासघातक:।
ते नरा नरकं यान्ति यावच्चचन्द्रदिवाकरौ।।
इस श्लोक के मुताबिक ये 3 तरह के लोग भरोसेमंद नहीं होते व अपनों के साथ छल-कपट करने
से भी नहीं चूकते, इनसे सावधान रहना बेहद जरूरी होता है -
मित्रद्रोही - सच्चा मित्र नि:स्वार्थ होकर हर बुरे वक्त से भी बाहर ले आता है,
किंतु जो व्यक्ति
कठिन हालात में भी बार-बार साथ या संग छोड दे। ऐसा इंसान मित्रद्रोही व दुर्जन ही
कहलाता है।
कृतघ्र - किसी के द्वारा मुश्किल वक्त में किसी भी तरह से की गई मदद, उपकार या सहायता या उस
व्यक्ति को ही भुला दे, कृतघ्र व दुर्जनता की पहचान है। ऐसे लोगों पर भरोसा निराशा
व दुख ही देता है।
विश्वासघाती - विश्वास व प्रेम का अटूट संबंध है, किंतु जो इंसान स्वार्थ, जलन या थोड़े से फायदे
के लिए परिजन, मित्र या निकटतम व्यक्तियों का विश्वास वचन, कर्म या व्यवहार द्वारा तोड़ता
है, विश्वासघाती
ही नहीं बल्कि दुर्जन की श्रेणी में गिना जाता है।
धर्म और व्यवहार दोनों नजरिए से ऐसी 3 बुराईयों वाले इंसान की संगति उसके साथ स्वयं की
दुर्गति का कारण बन सकती है।
शिव, शम्भु
व शंकर नामों के इन शुभ प्रभावों से आप भी होंगे अनजान!
पुराणों में शिव महिमा उजागर करती है कि काल पर शिव का नियंत्रण है, न कि शिव काल के वश में,
इसलिए शिव महाकाल
भी पुकारे जाते हैं। ऐसे शिव स्वरूप में लीन रहकर ही काल पर विजय पाना भी संभव है।
सांसारिक जीवन के नजरिए से शिव व काल के संबंधों से जुड़ा गूढ़ संकेत यही है
कि काल यानी वक्त की कद्र करते हुए उसके साथ बेहतर तालमेल व गठजोड़ ही जीवन व
मृत्यु दोनों ही स्थिति में सुखद है। इसके लिए शिव भाव में रम जाना ही अहम है।
शिव भाव से जुडऩे के लिए वेदों में आए शिव
के अलावा अन्य दो नामों शम्भु व शंकर के मायनों को भी समझना जरूरी है। जानिए एक ही
देवता होने पर भी इन 3 नामों के खास अर्थ व जीवन पर होने वाले शुभ प्रभाव –
वेदों के मुताबिक शम्भु मोक्ष और शांति देने वाले हैं। वहीं शंकर शमन करने
वाले और शिव मंगल और कल्याण कर्ता। इस तरह शम्भु नाम यही भाव उजागर करता है कि
सुकून के लिए अच्छी भावनाओं व कामों को ही अपनाए। इनसे मन भय व तन रोगों से दूर
रहेगा और मनचाहे लक्ष्य को पाना संभव होगा।
शंकर का मतलब है- शमन करने वाला। यह नाम स्मरण यही भाव जगाता है कि मन को
हमेशा शांत, संयमित व संकल्पित रखें, ठीक शंकर के योगी स्वरूप की तरह। संकल्पों से मन को जगाए
रखने से ही सारे कलहों का शमन यानी शांति होती रहेगी। इससे सफलता का रास्ता भी साफ
दिखाई देगा।
शंभु व शंकर के साथ शिव नाम का अर्थ और भाव है - मंगल या कल्याणकारी। इसके
पीछे कर्म, भाव व व्यवहार में
पावनता का संदेश है। जिसके लिए जीवन में हर तरह से पवित्रता, आनन्द, ज्ञान, मंङ्गल, कुशल व क्षेम को अपनाएं, ताकि अपने साथ दूसरों का
भी शुभ हो। शिव नाम के साथ जब मंङ्गल भावों से जुड़ते हैं, तो मन की अनेक बाधाएं, विकार, कामनाएं और विकल्प नष्ट
हो जाते हैं।
इस तरह शिव, शंभु हो या शंकर, तीनों ही नाम हमेशा जीवन में सुंदरता, सफलता और महामंङ्गल ही लाने वाले हैं।
करुणानिधानः केवल सीता ही राम को इस नाम से पुकारती थी
मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को भगवान श्री राम और माता सीता का विवाह
हुआ था। इसलिए इस तिथि को विवाह पंचमी के नाम से जाना जाता है। राम विवाह का जो
प्रसंग तुलसीदास जी ने रामचरित मानस में वर्णित किया है उससे ज्ञात होता है कि
भगवान श्रीराम और सीता जी विवाह से पहले जनकपुर के पुष्प वाटिका में मिल चुके थे।
जनकपुर वर्तमान में नेपाल में स्थित है।
भगवान श्री राम और गुरू विशिष्ठ की आज्ञा से पूजा हेतु वाटिका से फूल लाने गये
थे। माता सीता भी उस समय वाटिका में मौजूद थीं। जब राम और सीता ने एक दूसरे को
देखा तो एक दूसरे के प्रति मोहित हो गये। सीता ने उसी क्षण राम को पति रूप में
स्वीकार कर लिया। सीता इस बात से चिंतित थीं कि पिता द्वारा रखी गयी शिव धनुष भंग
की शर्त को किसी और ने पूरा कर दिया तो राम उन्हें पति रूप में नहीं प्राप्त
होंगे। अपने मन की चिंता को दूर करने के लिए सीता अपनी अराध्य देवी मां पार्वती की
शरण में गयी।
तुलसीदास जी ने लिखा है कि सीता की मनोदशा को समझकर माता पार्वती उन्हें
समझाती हैं कि राम साक्षत परमेश्वर हैं। यह सब की मनोदशा को समझते हैं। भगवान श्री
राम ने ही शिव को मुझ से विवाह के लिए प्रेरित कर मेरी तपस्या को सफल किया इसलिए
तुम भी मन से चिंता निकाल दो। राम ही तुम्हें पति रूप में प्राप्त होंगे। तुलसीदास
जी ने इस संदर्भ को इस प्रकार दोहे में स्पष्ट किया है।
'करूणानिधान सुजान सीलु सनेहु जानत रावरो।' पार्वती ने सीता को समझाया कि
श्रीराम करूणानिधान और शीलवान और सर्वज्ञ हैं। वह सब जानते हैं। ऊपर से मेरा
आशीर्वाद है कि 'पूजहि मन कामना तुम्हारी' 'सो बरू मिलिहि जाहिं मनु राचा'। पार्वती जी कहती हैं कि तुमने
मन में जिसे बिठाकर पूजा की है वही सहज, सुन्दर, सांवरा वर तुम्हें प्राप्त होगा।
पार्वती जी द्वारा कहे गये शब्दों को ध्यान में रखकर सीता ने तय किया कि वह
श्री राम को करूणानिधान के नाम से ही पुकारेंगी। मां सीता प्रभु श्री राम को इसी
नाम से बुलाती थीं। कथा है कि सीता की ख़बर लेने के लिए जब हनुमान जी लंका जाने
लगे तब श्री राम ने हनुमान को अपने पास बुलाकर कहा कि मेरी मुद्रिका सीता को देना
इससे वह तुम्हें मेरा दूत मान लेगी।
तब हनुमान ने शंका जताई कि अगर इससे भी न मानी सीता माता तो क्या करूं। इस पर
श्री राम ने हनुमान जी से कहा कि सीता मुझे करूणानिधान के नाम से बुलाती है,
यह बात सिर्फ मुझे
मालूम हैं। यह बात तुम सीता को कहना की आपके करूणानिधान ने यह मुद्रिका दी है तो
सीता पूर्ण विश्वास कर लेगी और तुम्हें मेरा दूत मान लेगी।
इस स्तुति से सीता ने श्रीराम को पति रूप में पाया
भगवान राम व सीता का विवाह मार्गशीर्ष माह की शुक्ल पक्ष की पंचमी को हुआ। इस बार यह तिथि 17 दिसंबर, सोमवार को है। तुलसीदासजी की रामचरितमानस के अनुसार स्वयंवर से एक दिन पूर्व सीता जब माता पार्वती की पूजा के लिए जा रही थी तभी उपवन में उन्हें श्रीराम के दर्शन हो गए थे। प्रभु श्रीराम की मनमोहिनी छबि देखकर सीता ने माता पार्वती से उन्हें ही पति रूप में प्राप्त करने के लिए प्रार्थना की थी जो इस प्रकार है-
जय जय गिरिबरराज किसोरी। जय महेस मुख चंद चकोरी॥
जय गजबदन षडानन माता। जगत जननि दामिनि दुति गाता॥
नहिं तब आदि मध्य अवसाना। अमित प्रभाउ बेदु नहिं जाना॥
भव भव बिभव पराभव कारिनि। बिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि॥
सेवत तोहि सुलभ फल चारी। बरदायनी पुरारि पिआरी॥
देबि पूजि पद कमल तुम्हारे। सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे॥
मोर मनोरथु जानहु नीकें। बसहु सदा उर पुर सबही कें॥
अर्थ - हे श्रेष्ठ पर्वतों के राजा हिमालय की पुत्री पार्वती! आपकी जय हो, जय हो, हे महादेवजी के मुख रूपी चंद्रमा की (ओर टकटकी लगाकर और छ: मुखवाले स्वामी कार्तिकेयजी की माता! हे जगजननी! हे बिजली की-सी कांतियुत शरीर वाली! आपकी जय हो। आपका न आदि है, न मध्य है और न अंत है। आपके असीम प्रभाव को वेद भी नहीं जानते। आप संसार को उत्पन्न, पालन और नाश करने वाली हैं। विश्व को मोहित करने वाली और स्वतंत्र रूप से विहार करने वाली हैं। हे (भतों को मुंहमांगा) वर देने वाली! हे त्रिपुर के शत्रु शिवजी की प्रिय पत्नी! आपकी सेवा करने से चारों फल सुलभ हो जाते हैं। हे देवी! आपके चरण कमलों की पूजा करके देवता, मनुष्य और मुनि सभी सुखी हो जाते हैं। मेरे मनोरथ को आप भली भांति जानती हैं योंकि आप सदा सबके हृदय रूपी नगरी में निवास करती हैं।
राधा कृष्णा का युगल रूप हैं बांके बिहारी
मार्गशीर्ष मास की पंचमी तिथि को बिहारी जी के प्रकट होने के कारण इस दिन को
बिहारी पंचमी के नाम से भी जाना जाता है। बांके बिहारी के प्रकट होने के संदर्भ
में कथा है कि संगीत सम्राट तानसेन के गुरू स्वामी हरिदास जी भगवान श्री कृष्ण के
अनन्य भक्त थे। इन्होंने अपने संगीत को भगवान को समर्पित कर दिया था। वृंदावन में
स्थित श्री कृष्ण की रासस्थली निधिवन में बैठकर भगवान को अपने संगीत से रिझाया
करते थे।
भगवान की भक्त में डूबकर हरिदास जी जब भी गाने बैठते तो प्रभु में ही लीन हो
जाते। इनकी भक्ति और गायन से रिझकर भगवान श्री कृष्ण इनके सामने आ जाते। हरिदास जी
मंत्रमुग्ध होकर श्री कृष्ण को लार करने लगते। एक दिन इनके एक शिष्य ने कहा कि आप
अकेले ही श्री कृष्ण का दर्शन लाभ पाते हैं, हमें भी सांवरे सलोने का दर्शन
करवाएं।
इसके बाद हरिदास जी श्री कृष्ण भक्ति में डूबकर भजन गाने लगे। राधा कृष्ण की
युगल जोड़ी प्रकट हुई और अचानक हरिदास के स्वर में बदल गये और गाने लगे 'भाई री सहज जोरी प्रकट
भई, जुरंग
की गौर स्याम घन दामिनी जैसे। प्रथम है हुती अब हूं आगे हूं रहि है न टरि है
तैसे।। अंग अंग की उजकाई सुघराई चतुराई सुंदरता ऐसे। श्री हरिदास के स्वामी श्यामा
पुंज बिहारी सम वैसे वैसे।।'
हरिदास जी ने कृष्ण से कहा कि प्रभु मैं तो संत हूं। आपको लंगोट पहना दूंगा
लेकिन माता को नित्य आभूषण कहां से लाकर दूंगा। भक्त की बात सुनकर श्री कृष्ण
मुस्कुराए और राधा कृष्ण की युगल जोड़ी एकाकार होकर एक विग्रह रूप में प्रकट हुई।
हरिदास जी ने इस विग्रह को बांके बिहारी नाम दिया।
बांके बिहारी मंदिर में इसी विग्रह के दर्शन होते हैं। बांके बिहारी के विग्रह
में राधा कृष्ण दोनों ही समाये हुए हैं अतः इनके दर्शन से एक साथ राधा कृष्ण के
दर्शन का लाभ मिलता है। मान्यता है कि यह विग्रह साक्षात श्री कृष्ण की
प्रतिमूर्ति हैं। जो भी श्री कृष्ण के इस विग्रह का दर्शन करता है उसकी मनोकामन
पूरी होती है। भगवान श्री कृष्ण अपने भक्त के कष्टों को दूर कर देते हैं।
विनायकी चतुर्थी इस आसान विधि से करें व्रत व पूजन
भगवान गणेश सभी दु:खों को हरने वाले हैं। इनकी कृपा से असंभव कार्य भी संभव हो
जाते हैं। भगवान गणेश को प्रसन्न करने के लिए प्रत्येक शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को
व्रत किया जाता है, इसे विनायकी चतुर्थी व्रत कहते हैं। इस बार यह व्रत 16 दिसंबर, रविवार को है। विनायकी चतुर्थी
का व्रत इस प्रकार करें-
- सुबह जल्दी उठकर स्नान आदि काम जल्दी ही निपटा लें।
- दोपहर के समय अपने सामथ्र्य के अनुसार सोने, चांदी, तांबे, पीतल या मिट्टी से बनी भगवान
गणेश की प्रतिमा स्थापित करें।
- संकल्प मंत्र के बाद श्रीगणेश की षोड़शोपचार पूजन-आरती करें। गणेशजी की मूर्ति
पर सिंदूर चढ़ाएं। गणेश मंत्र (ऊँ गं गणपतयै नम:) बोलते हुए 21 दूर्वा दल चढ़ाएं।
- गुड़ या बूंदी के 21 लड्डूओं का भोग लगाएं। इनमें से 5 लड्डू मूर्ति के पास रख दें तथा
5 ब्राह्मण
को दान कर दें शेष लड्डू प्रसाद के रूप में बांट दें।
- पूजा में भगवान श्री गणेश स्त्रोत, अथर्वशीर्ष, संकटनाशक स्त्रोत आदि का पाठ करें।
-ब्राह्मण भोजन कराएं और उन्हें दक्षिणा प्रदान करने के पश्चात् संध्या के समय
स्वयं भोजन ग्रहण करें। संभव हो तो उपवास करें।
व्रत का आस्था और श्रद्धा से पालन करने पर भगवान श्रीगणेश की कृपा से मनोरथ
पूरे होते हैं और जीवन में निरंतर सफलता प्राप्त होती है।
खर मास: इन बातों का रखें ध्यान, क्या करें-क्या नहीं
खर(मल) मास का प्रारंभ 16 दिसंबर, रविवार से हो चुका है। खर मास के संबंध में हमारे
धर्मग्रंथों में अनेक नियम बताए गए हैं। महर्षि वाल्मीकि ने खर मास के नियमों के
संबंध में कहा है कि इस मास में गेहूं, चावल, सफेद धान, मूंग, जौ, तिल, मटर, बथुआ, शहतूत, सामक, ककड़ी, केला, घी, कटहल, आम, हर्रे, पीपल, जीरा, सौंठ, इमली, सुपारी, आंवला, सेंधा नमक आदि भोजन पदार्थों का सेवन करना चाहिए।
इसके अतिरिक्त मांस, शहद, चावल का मांड, चौलाई, उरद, प्याज, लहसुन, नागरमोथा, छत्री, गाजर, मूली, राई, नशे की चीजें, दाल, तिल का तेल और दूषित अन्न का त्याग करना चाहिए। तांबे के
बर्तन में गाय का दूध, चमड़े में रखा हुआ पानी और केवल अपने लिए ही पकाया हुआ अन्न
दूषित माना गया है। अतएव इनका भी त्याग करना चाहिए।
पुरुषोत्तम मास में जमीन पर सोना, पत्तल पर भोजन करना, शाम को एक वक्त खाना, रजस्वला स्त्री से दूर
रहना और धर्मभ्रष्ट संस्कारहीन लोगों से संपर्क नहीं रखना चाहिए। किसी प्राणी से
द्रोह नहीं करना चाहिए। परस्त्री का भूल करके भी सेवन नहीं करना चाहिए। देवता,
वेद, ब्राह्मण, गुरु, गाय, साधु-सन्यांसी, स्त्री और बड़े लोगों की
निंदा नहीं करनी चाहिए।
मार्गशीर्ष मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी के दिन संपूर्ण हुई थी श्रीरामचरितमानस
मार्गशीर्ष मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी (इस बार 17 दिसंबर, सोमवार) को भगवान श्रीराम का
विवाह सीता से हुआ ये तो सर्वविदित है लेकिन यह बात कम ही लोग जानते हैं कि इसी
दिन गोस्वामी तुलसीदासजी ने रामचरितमानस संपूर्ण की थी।
रामचरितमानस के अनुसार संवत 1631 को रामनवमी के दिन वैसा ही योग था जैसा त्रेतायुग
में रामजन्म के समय था। उस दिन प्रात:काल तुलसीदासजी ने श्रीरामचरितमानस की रचना
प्रारंभ की। दो वर्ष, सात महीने व छब्बीस दिन में ग्रंथ की समाप्ति हुई। संवत 1633 के मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष
में रामविवाह के दिन इस ग्रंथ के सातों कांड पूर्ण हुए और भारतीय संस्कृति को
श्रीरामचरितमानस के रूप में अमूल्य निधि प्राप्त हुई। इस ग्रंथ में रामलला के जीवन
का जितना सुंदर वर्णन किया गया है उतना अन्य किसी ग्रंथ में पढऩे को नहीं मिलता।
यही कारण है कि श्रीरामचरितमानस को सनातन धर्म में विशेष स्थान प्राप्त है।
रामचरित मानस में कई ऐसी चौपाई भी तुलसीदास ने लिखी है जो विभिन्न परेशानियों के
समय मनुष्य को सही रास्ता दिखाती है तथा उनका उचित निराकरण भी करती हैं।
खर मास में करें इस मंत्र का जप, प्रसन्न होंगे भगवान विष्णु
खर (मल) मास का प्रारंभ 16 दिसंबर, रविवार से हो चुका है जो 14 जनवरी 2013 तक रहेगा। खर मास की महिमा का वर्णन अनेक धर्मग्रंथों में लिखा है। इस मास
में अनेक नियमों का पालन भी किया जाता है तथा ईश्वर की आराधना की जाती है। धर्म
ग्रंथों में ऐसे कई श्लोक भी वर्णित है जिनका जप यदि खर मास में किया जाए तो
अतुल्य पुण्य की प्राप्ति होती है। प्राचीन काल में श्रीकौण्डिन्य ऋषि ने यह मंत्र
बताया था। मंत्र जप किस प्रकार करें इसका वर्णन इस प्रकार है-
कौण्डिन्येन पुरा प्रोक्तमिमं मंत्र पुन: पुन:।
जपन्मासं नयेद् भक्त्या पुरुषोत्तममाप्नुयात्।।
ध्यायेन्नवघनश्यामं द्विभुजं मुरलीधरम्।
लसत्पीतपटं रम्यं सराधं पुरुषोत्तम्।।
अर्थात मंत्र जपते समय नवीन मेघश्याम दोभुजधारी बांसुरी बजाते हुए पीले वस्त्र
पहने हुए श्रीराधिकाजी के सहित श्रीपुरुषोत्तम भगवान का ध्यान करना चाहिए।
मंत्र
गोवद्र्धनधरं वन्दे गोपालं गोपरूपिणम्।
गोकुलोत्सवमीशानं गोविन्दं गोपिकाप्रियम्।।
इस मंत्र का एक महीने तक भक्तिपूर्वक बार-बार जप करने से पुरुषोत्तम भगवान की
प्राप्ति होती है, ऐसा धर्मग्रंथों में
लिखा है।
गीता जयंती 23 को, जानिए क्यों मनाते हैं ये उत्सव
विश्व के किसी भी धर्म या संप्रदाय में किसी भी ग्रंथ की जयंती नहीं मनाई
जाती। हिंदू धर्म में भी सिर्फ गीता जयंती मनाने की परंपरा पुरातन काल से चली आ
रही है क्योंकि अन्य ग्रंथ किसी मनुष्य द्वारा लिखे या संकलित किए गए हैं जबकि
गीता का जन्म स्वयं श्रीभगवान के श्रीमुख से हुआ है-
या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनि:सृता।।
श्रीगीताजी का जन्म धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में मार्गशीर्ष मास में शुक्लपक्ष
की एकादशी (इस बार 23 दिसंबर, रविवार) को हुआ था। यह तिथि मोक्षदा एकादशी के नाम
से विख्यात है। गीता एक सार्वभौम ग्रंथ है। यह किसी काल, धर्म,
संप्रदाय
या जाति विशेष के लिए नहीं अपितु संपूर्ण मानव जाति के लिए हैं। इसे स्वयं
श्रीभगवान ने अर्जुन को निमित्त बनाकर कहा है इसलिए इस ग्रंथ में कहीं भी
श्रीकृष्ण उवाच शब्द नहीं आया है बल्कि श्रीभगवानुवाच का प्रयोग किया गया है।
इसके छोटे-छोटे अठारह अध्यायों में इतना सत्य, ज्ञान व गंभीर उपदेश भरे हैं जो मनुष्यमात्र को नीची से नीची दशा से उठाकर
देवताओं के स्थान पर बैठाने की शक्ति रखते हैं।
बार-बार हो रहे हैं नाकाम! परखें, कहीं इस आदत के शिकार तो नहीं
कई लोग स्वभाव के चलते, अपनी कमियों पर पर्दे डालने के लिए या फिर फायदे के लिए
दूसरों की बुराई या कमियां ढूंढने की कवायद में लगे रहते हैं। यानी किसी भी तरह से
पैदा द्वेषता या स्वार्थ पूरे न होना भी निंदा यानी बुराई की वजह होती ती है।
शास्त्रों में इसे परदोष दर्शन पुकारा गया है। ऐसी आदत व्यावहारिक जीवन के
लिये बाधक मानी गई है। क्योंकि निंदा, बुराई या दोष दर्शन लत बनकर सोच, व्यवहार और काम को
बिगाड़ते हैं। धर्म के नजरिए से इससे किसी भी व्यक्ति या काम के लिए समर्पण का
अभाव हो जाता है।
श्रीमद्भभागवत में भी दूसरों की बुराई न करने पर जोर दिया गया है। इन बातों का
निचोड़ यही है कि दूसरों की निंदा जीवन पर बुरा असर ही नहीं डालती बल्कि दुर्गति
की बड़ी वजह बन सकती है। किस तरह इसका शिकार होकर इंसान जीवन के हर मोर्चे पर मात
खाता है, जानिए-
- किसी की बुराई से खुद की श्रेष्ठता का अहं भाव पैदा होता है। अहंकार पतन का
बड़ा कारण माना गया है।
- दूसरों में कमी, बुराई पर सोचते रहने, सुनने या देखने पर हमारा साफ मन में भी बुरी भावनाओं का घर
बन जाता है। इनसे कहीं न कहीं हमारे बोल,
व्यवहार में भी
बुरे बदलाव आते हैं।
- धर्म शास्त्रों के मुताबिक अगर कोई बुरा है या बुरे काम करता है, तो बार-बार उसके बारे
में बोलने, सुनने या देखने वाला भी उस बुराई या
पाप का भागी बन जाता है।
- बुराई से दूसरों को सीधे दु:ख पहुंचाया जाता है, जो व्यावहारिक तौर पर भी आपके
लिए असहयोग, द्वेष के रूप में कलह लाता है। दु:ख देना धर्म शास्त्रों में पाप भी माना गया
है
- बार-बार खामियां ढूंढने से किसी के प्रति मन में प्रेम का अभाव और नफरत घर
करने लगती है। जिससे अंतत: दोष देखने वाले की ही हानि होती है।
दोष दर्शन की आदत इंसान के मन-मस्तिष्क पर इस तरह हावी हो जाती है, कि वह खूबियों में भी
दोष निकालकर अपयश और असम्मान का भागी बन जाता है। इनसे बचने के लिए इंसान अनेक
बुरे रास्तों को अपनाकर अपनी ही दुर्गति का कारण बनता है
गीता को भगवद्गीता क्यों कहते हैं?
हिंदू पंचांग के अनुसार मार्गशीर्ष मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को गीता जयंती
का पर्व मनाया जाता है। इस बार ये पर्व 23 दिसंबर, रविवार को है। एक-दूसरे के प्राणों के प्यासे कौरवों
और पांडवों के बीच महाभारत शुरू होने से पहले योगिराज भगवान श्रीकृष्ण ने अठारह
अक्षौहिणी सेना के बीच मोह में फंसे और कर्म से विमुख अर्जुन को गीता का उपदेश
दिया था।
श्रीकृष्ण ने अर्जुन को छंद रूप में यानी गाकर उपदेश दिया, इसलिए इसे गीता कहते
हैं। चूंकि उपदेश देने वाले स्वयं भगवान थे, अत: इस ग्रंथ का नाम भगवद्गीता
पड़ा। भगवद्गीता में कई विद्याओं का उल्लेख आया है, जिनमें चार प्रमुख हैं - अभय
विद्या, साम्य
विद्या, ईश्वर
विद्या और ब्रह्म विद्या। माना गया है कि अभय विद्या मृत्यु के भय को दूर करती है।
साम्य विद्या राग-द्वेष से छुटकारा दिलाकर जीव में समत्व भाव पैदा करती है।
ईश्वर विद्या के प्रभाव से साधक अहं और गर्व के विकार से बचता है। ब्रह्म विद्या
से अंतरात्मा में ब्रह्मा भाव को जागता है। गीता माहात्म्य पर श्रीकृष्ण ने पद्म
पुराण में कहा है कि भवबंधन से मुक्ति के लिए गीता अकेले ही पर्याप्त ग्रंथ है।
गीता का उद्देश्य ईश्वर का ज्ञान होना माना गया है।
गीता जयंती: कर्म करने की शिक्षा देती है गीता
हिंदू पंचांग के अनुसार मार्गशीर्ष मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को गीता जयंती का पर्व मनाया जाता है। इस बार ये पर्व 23 दिसंबर, रविवार को है। महाभारत के अनुसार जब कौरवों व पांडवों में युद्ध प्रारंभ होने वाला था। तब अर्जुन ने कौरवों के साथ भीष्म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य आदि श्रेष्ठ महानुभावों को देखकर तथा उनके प्रति स्नेह होने पर युद्ध करने से इंकार कर दिया था। तब भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश दिया था जिसे सुन अर्जुन ने न सिर्फ महाभारत युद्ध में भाग लिया अपितु उसे निर्णायक स्थिति तक पहुंचाया।
गीता को आज भी हिंदू धर्म में बड़ा ही पवित्र ग्रंथ माना जाता है। गीता के माध्यम से ही श्रीकृष्ण ने संसार को धर्मानुसार कर्म करने की प्रेरणा दी। वास्तव में यह उपदेश भगवान श्रीकृष्ण कलयुग के मापदंड को ध्यान में रखते हुए ही दिया है। कुछ लोग गीता को वैराग्य का ग्रंथ समझते हैं जबकि गीता के उपदेश में जिस वैराग्य का वर्णन किया गया है वह एक कर्मयोगी का है। कर्म भी ऐसा हो जिसमें फल की इच्छा न हो अर्थात निष्काम कर्म।
गीता में यह कहा गया है कि निष्काम काम से अपने धर्म का पालन करना ही निष्कामयोग है। इसका सीधा का अर्थ है कि आप जो भी कार्य करें, पूरी तरह मन लगाकर तन्मयता से करें। फल की इच्छा न करें। अगर फल की अभिलाषा से कोई कार्य करेंगे तो वह सकाम कर्म कहलाएगा। गीता का उपदेश कर्मविहिन वैराग्य या निराशा से युक्त भक्ति में डूबना नहीं सीखाता वह तो सदैव निष्काम कर्म करने की प्रेरणा देता है।
इस खास वजह से भी सच दबाए नहीं दबता
हर रिश्ता विश्वास की मजबूत नींव पर खड़ा रहता है। किसी भी तरह से भरोसा कमजोर
होते ही पारिवारिक और सामाजिक रिश्तों के साथ जिंदगी में भी उतार-चढ़ाव आने लगते
हैं।
शास्त्रों में रिश्तों में विश्वास को कायम रखने के लिए ही जिस सूत्र को जीवन
में उतारने, अपनाने के लिए सबसे जरूरी माना गया है। वह सूत्र चरित्र, व्यक्तित्व, व्यवहार और विचार को
इतना पावन बना देता है कि इंसान को शक्ति और आत्मविश्वास से भर हमेशा निर्भय रखता
है। ऐसे सूत्र व इंसान के आगे कोई भी झूठ या पाखंड टिक नहीं पाता। शास्त्रों में
बताया यह बेजोड़ सूत्र है - सत्य।
शास्त्रों के मुताबिक सत्य ही भगवान है। इसलिए आचरण, विचार, वाणी, कर्म, संकल्प सभी में सत्य का होना
ईश्वर का जप ही है। फिर इंसान अगर देव उपासना के धार्मिक कर्मकाण्डों से चूक भी
जाए तो भी वह भगवान का कृपा पात्र बना रहता है। यही सत्य भक्त और भगवान के संबंधों
में भी विश्वास की बड़ी अहमियत उजागर करता है। जानिए सच की वह शक्ति, जिसके आगे कोई भी झूठ
उजागर होने से नहीं बचता -
हिन्दू धर्मग्रंथ श्रीमद्भगवद्गीता में भी सत्य की अहमियत व ताकत बताते हुए
लिखा गया है कि -
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत:।
सरल अर्थ है कि असत्य नाशवान होता है, बल्कि सत्य का कभी नाश नहीं होता, उसमें कोई बदलाव नहीं
होता है। किंतु इसके उलट इंसान सांसारिक जीवन में नष्ट होने वाली चीजों या विषयों से
मोह करता है, किंतु सत्य जैसे न खत्म होने वाले अमरत्व के
सूत्र अपनाने में काफी सोच-विचार और तर्क करता है। जबकि सत्य को संकल्प के
साथ अपनाने की कोशिश करें तो वह इंसान की ताकत बन जीवन में शांति व सुख लाकर
प्रतिष्ठा और यश का कारण बनता है।
मोक्षदा एकादशी 23 को, मोक्ष चाहिए तो जरुर करें ये व्रत
मार्गशीर्ष (अगहन) मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को मोक्षदा एकादशी का व्रत
किया जाता है। इस बार 23 दिसंबर, रविवार को यह व्रत है। धर्म ग्रंथों के अनुसार इसी तिथि को
भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता का ज्ञान दिया था, जो मोक्ष प्रदान करता है। इसी
कारण इस एकादशी को मोक्षदा एकादशी कहते हैं। इसकी विधि इस प्रकार है-
मोक्षदा एकादशी (23 दिसंबर, रविवार) के दिन सुबह ब्रह्म मुहूर्त में उठकर सबसे पहले
व्रत का संकल्प करें। इसके पश्चात शौच आदि से निवृत्त होकर शुद्ध जल से स्नान
करें। इसके पश्चात धूप, दीप, नैवेद्य आदि सोलह चीजों से भगवान श्रीकृष्ण का पूजन करें और
रात को दीपदान करें। रात में सोए नहीं। सारी रात भजन-कीर्तन आदि करना चाहिए।
जो कुछ पहले जाने-अनजाने में पाप हो गए हों, उनकी क्षमा माँगनी चाहिए। सुबह
पुन: भगवान श्रीकृष्ण की पूजा करें व योग्य ब्राह्मणों को भोजन कराकर यथा संभव दान
देने के पश्चात ही स्वयं भोजन करें। धर्म शास्त्रों के अनुसार इस व्रत का फल
हजारों यज्ञों से भी अधिक है। रात्रि को भोजन करने वाले को उपवास का आधा फल मिलता
है जबकि निर्जल व्रत रखने वाले का माहात्म्य तो देवता भी वर्णन नहीं कर सकते।
नए साल में ये 5 काम देंगे जबर्दस्त सफलता
अक्सर हर इंसान स्वभाविक तौर पर सुखों की आस लगाए रहता है, किंतु दु:खों की वजह बन
रही अपनी कमजोरियों को नजरअंदाज करता है। खुद के दोषों को न पहचानना या स्वीकार न
करना मनचाहे सुख पाने में अड़चने पैदा करती है। इसलिए शुभ और बेहतर नतीजों के लिये
जरूरी है - बेहतर कोशिशें और असफलताओं से सबक लेकर कमियों में सुधार करना।
नया साल भी गुजरे साल में मिली असफलताओं व बुरे परिणामों को पीछे छोड़ नई
शुरुआत व सफलता के लिए आगे कदम बढ़ाने का मौका है। इस वक्त को भुनाने के लिए
शास्त्रों में उजागर दोष और बुराइयों से बचाकर सुख बटोरने के 5 खास सबक व्यावहारिक तौर
पर अपनाना किसी भी व्यक्ति के लिए बेहद कारगर व मनचाहे नतीजे देने वाले साबित हो
सकते हैं। मनुस्मृति में लिखा गया है कि -
अहिंसा सत्यमस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:।
एतं सामासिकं धर्मं चातुर्वण्येवीन्मनु:।।
सरल शब्दों में समझें तो जीवन में बुरे समय और परिणामों से बचने के लिये इन
पांच बातों को मन, वचन, कर्म
से जोडऩा चाहिए -
हिंसा से बचें - बुरे शब्द या विचार भी शरीर पर आघात की तरह ही हिंसा होते हैं,
जो जीवन को अशांत
कर बुरे परिणाम देते हैं।
सच बोलें - सच्चे बोल और व्यवहार से इंसान भरोसा और सम्मान पाता है।
चोरी से बचें - धन ही नहीं किसी के
जीवन, मान-सम्मान,
विचार से जुड़े
विषय या वस्तुओं पर लाभ के लिए अधिकार या अपहरण भी धर्म के नजरिए से चोरी है,
जो दु:खों का कारण
बनती है।
स्वच्छता रखें - मन व शरीर में पवित्रता शांत, सुखी व स्वस्थ्य जीवन के लिए
जरूरी है।
संयम रखें - इंद्रिय संयम सरल शब्दों में कहें तो शौक-मौज, विलासिता से भरे जीवन के
आकर्षण में तन और मन को भटकाने से आखिरकार जीवन रोग, दु:ख और पीड़ाओं से घिर जाता है।
इसलिए मन और शरीर की इच्छाओं को काबू में रखें।
इन 9 भक्तों
से सीखें भगवान की कृपा पाने के 9 बेजोड़ उपाय
ईश्वरीय सत्ता को मानने वाले हर धर्मावलंबी के लिए ईश्वर से जुडऩे के लिए
ज्ञान और कर्म के अलावा एक ओर आसान उपाय बताया गया है। यह तरीका है - भक्ति। भक्ति
का मार्ग न केवल ज्ञान और कर्म की तुलना में आसान माना गया है, बल्कि भक्ति के जो रूप
बताए गए हैं, वह व्यावहारिक जीवन में अपनाना हर उस इंसान के लिए संभव है, जो देव कृपा से जीवन में
सुख और शांति की कामना रखता है।
हिन्दू धर्मग्रंथ श्रीमद्भगदगीता में लिखी बात भक्ति के 9 रूप उजागर करती है -
श्रवणं कीर्तनं विष्णों: स्मरणं पादसेवनम्।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्य्रमात्मनिवेदनम्।।
इसमें भगवान की भक्ति के 9 रूप श्रवण यानी सुनकर, कीर्तन, स्मरण, चरणसेवा, पूजन-अर्चन, वन्दना, दास भाव, सखा भाव और समर्पण भाव
को बहुत ही शुभ बताया गया है।
यही नहीं भक्ति के इन 9 रास्तों से जिन भक्तों ने भगवान की कृपा पाई, उनके नाम भी धर्मग्रंथों
में मिलते हैं। जानिए उन 9 विलक्षण और महान भक्तों
के नाम उनके द्वारा अपनाए भक्ति के 9 अद्भुत तरीके -
श्रवण - राजा परीक्षित
कीर्तन - श्रीशुकदेवजी
स्मरण - भक्त प्रह्लाद
चरण सेवा - देवी लक्ष्मी
पूजन-अर्चन - राजा पृथु
वन्दना - अक्रूरजी
दास - श्रीहनुमान
सखा या मित्र भाव - अर्जुन
समर्पण - राजा बलि
इन रोचक आंकड़ों से जानिए कितना गुजरा व कितना बाकी है कलियुग
जब-जब धर्म की हानि होती है, ईश्वर अवतार लेकर अधर्म का अंत करते हैं। हिन्दू धर्म में
इस संदेश के साथ अलग-अलग युगों में जगत को दु:ख और भय से मुक्त करने वाले ईश्वर के
कई अवतारों के पौराणिक प्रसंग हैं। दरअसल, इनमें सच्चाई और अच्छे कामों को अपनाने के भी कई सबक
हैं। साथ ही इनके जरिए युग के बदलाव के साथ प्राणियों के कर्म, विचार व व्यवहार में
अधर्म और पापकर्मों के बढ़ने के भी संकेत दिए गए हैं।
इसी कड़ी में सतयुग, त्रेता, द्वापर के बाद कलियुग के लिए बताया गया है कि इसमें अधर्म
का ज्यादा बोलबाला होगा, जिसके अंत के लिए भगवान विष्णु का कल्कि रूप में दसवां
अवतार होगा। रामचरितमानस में भी कलियुग में फैलने वाले अधर्म का वर्णन मिलता है।
आज के दौर में भी व्यावहारिक जीवन में आचरण, विचार और वचनों में दिखाई दे रहे
सत्य, संवेदना,
दया या परोपकार
जैसे भावों के अभाव से आहत मन कई अवसरों पर कलियुग के अंत और कल्कि अवतार से जुड़ी
जिज्ञासा को और बढ़ाता है।
हिन्दू धर्मग्रंथ भविष्य पुराण में अलग-अलग युगों की गणना व अवधि बताई गई है।
इस आधार पर जानिए कि कलियुग की अवधि कितनी लंबी या बाकी है? इससे यह भी साफ हो जाएगा कि
बार-बार दुनिया खत्म होने का अंदेशा कितना सही है –
पुराण के मुताबिक मानव का एक वर्ष देवताओं के एक अहोरात्र यानी दिन-रात के
बराबर है। जिसमें उत्तरायण दिन व दक्षिणायन रात मानी जाती है। दरअसल, एक सूर्य संक्रान्ति से दूसरी सूर्य संक्रान्ति की
अवधि सौर मास कहलाती है। मानव गणना के ऐसे 12 सौर मासों का 1 सौर वर्ष ही देवताओं का
एक अहोरात्र होता है। ऐसे ही 30 अहोरात्र, देवताओं के एक माह और 12 मास एक दिव्य वर्ष कहलाता है।
देवताओं के इन दिव्य वर्षो के आधार पर चार युगों की मानव सौर वर्षों में अवधि
इस तरह है -
सतयुग 4800 (दिव्य वर्ष) 17,28,000 (सौर वर्ष)
त्रेतायुग 3600 (दिव्य वर्ष) 12,96,100 (सौर वर्ष)
द्वापरयुग 2400 (दिव्य वर्ष) 8,64,000 (सौर वर्ष)
कलियुग 1200 (दिव्य वर्ष) 4,32,000 (सौर वर्ष)
इस तरह सभी दिव्य वर्ष मिलाकर 12000
दिव्य वर्ष
देवताओं का एक युग या महायुग कहलाता है, जो चार युगों के सौर वर्षों के योग 43,200,000 वर्षों के बराबर होता है। खासतौर पर, कलियुग की बात करें तो पौराणिक व ऐतिहासिक तथ्यों पर गौर करने पर पता चलता है
कि 4,32,000 साल लंबे कलियुग को शुरू
हुए तकरीबन 6000 वर्ष ही गुजरे हैं।
जिससे अनुमान लगाया जा सकता है कि अभी कलियुग और कितना बाकी है व निकट भविष्य में
प्रलय होने की बातों में कितनी सच्चाई है।
जानिए किस वक्त धन से जुड़ा काम करने से बचें
ज़िंदगी में कई मौकों पर इंसान यह सोचने पर मजबूर हो जाता है कि क्या सही है
और क्या गलत है? खासतौर पर ऐसे हालात का
सामना तब करता है जब जाने अनजाने अपने गलत बोल, बर्ताव या कामों की वजह से अपयश या निंदा का पात्र बनता है। ऐसे हालात कहीं न
कहीं मनोबल पर बुरा असर डालते हैं।
ऐसी मानसिक दशा उसे भलाई और अच्छाई से भी दूर ले जा सकती है, जो कि धर्मशास्त्रों के नजरिए से अच्छी बात नहीं है।
शास्त्रों के मुताबिक ऐसे हालात के लिए
इंसान की छोटी-सी भूल भी वजह हो सकती है। वह है - सही वक्त की पहचान। अगर शब्द, व्यवहार और काम का सही वक्त और सोच के साथ तालमेल न
बैठाया जाए तो अच्छी बातें या काम भी बेकार हो जाते हैं। इनमें खासतौर पर पैसों से
जुड़े कामों को लेकर सावधानी भी अहम बताई गई है।
इसी कड़ी में वक्त, सोच व कर्म में सही
तालमेल बनाने के लिये ही हिन्दू धर्मग्रंथ महाभारत में कुछ खास बातों का जिक्र
किया गया है, जिनको अगर व्यावहारिक
जीवन में अपना लें तो मुश्किलों से दो-चार न होकर सुखी, शांत व खुशहाल जीवन गुजारना आसान हो जाता है। जानिए
क्या हैं ये बातें?
लिखा गया है कि -
न संरम्भेणारभते त्रिवर्गमाकारित: शंसति तत्वमेव।
न मित्रार्थे रोचयते विवादं नापूतित: कुप्यति चाप्यमूढ:।।
न योभ्यसूयत्यनुकम्पते च न दुर्बल: प्रातिभाव्यं करोति।
नात्याह किंचित्क्षमते विवादं सर्वत्र ताद्दग् लभते प्रशंसाम्।।
इन श्लोकों में सीख दी गई है कि नीचे लिखी 9
बातों को अपनाने वाला इंसान हर जगह मान-सम्मान व प्रशंसा का पात्र बन जाता है -
- जो व्यक्ति आवेश या
जल्दबाजी में हो तो धर्म व अर्थ से जुड़े कामों के साथ किसी भी तरह के काम की
शुरुआत कतई न करें।
- पूछने पर व्यावहारिक व
सच्ची यानी यथार्थ बात ही बताएं।
- मित्र की भलाई के लिये
झगड़ा पसंद न करें।
- मान-सम्मान न मिले तो
क्रोधित या कुंठित न हों।
- हमेशा सही और गलत की
पहचान यानी विवेक कायम रखें।
- दूसरों में दुर्गण, दोष या कमी न देखें।
- दयालु हों।
- कमजोर होने या अभाव में
दूसरों की ताकत के बूते गलत काम न करे या न ऐसे लोगों व काम करने वालों की मदद
करें।
- बढ़-चढ़कर बातें न करें
और विवाद को सहन कर लें।
प्रभु यीशु के जन्म का उत्सव है क्रिसमस
क्रिसमस ईसाई धर्म का सबसे बड़ा त्योहार है। यह पर्व प्रभु यीशु के जन्म उत्सव
के रूप में 25 से 31 दिसंबर तक मनाया जाता है, जो 24 दिसंबर की मध्यरात्रि से ही आरंभ हो जाता है। क्रिसमस शब्द
का जन्म क्राईस्टेस माइसे अथवा क्राइस्टस् मास शब्द से हुआ माना जाता है।
24 दिसंबर की रात से ही नवयुवकों की टोली जिन्हें कैरल्स कहा जाता है, यीशु मसीह के जन्म से
संबंधित गीतों को प्रत्येक मसीही के घर में जाकर गाते हैं। इसी रात को गिरिजाघरों
में प्रभु यीशु के जन्म से संबंधित झांकियां भी सजाई जाती है। इस अवसर पर ईसाई
धर्मावलंबी बड़ी संख्या में गिरजाघरों में एकत्रित होकर एक-दूसरे को प्रभु के जन्म
की बधाई देते हैं। 25 दिसंबर की सुबह गिरजाघरों में विशेष आराधना होती है, जिसे क्रिसमस सर्विस कहा जाता
है। इस आराधना में ईसाई धर्मगुरु यीशु के जीवन से संबंधित प्रवचन कहते हैं। आराधना
के बाद सभी लोग एक-दूसरे को क्रिसमस की बधाई देते हैं।
मंगल प्रदोष: इस व्रत से प्रसन्न होते हैं भगवान शंकर
25 दिसंबर, मंगलवार को भौम (मंगल) प्रदोष व्रत है। इस दिन त्रयोदशी व मंगलवार का संयोग
होता है। यह तिथि व वार दोनों ही भगवान शंकर को विशेष प्रिय हैं। सूतजी के अनुसार
मंगल प्रदोष व्रत करने से ऋणों व रोगों से मुक्ति मिल जाती है साथ ही सुख-समृद्धि
भी प्राप्त होती है। मंगल प्रदोष व्रत के पालन के लिए शास्त्रोक्त विधान इस प्रकार
है। किसी विद्वान ब्राह्मण से यह कार्य कराना श्रेष्ठ होता है-
- प्रदोष व्रत में बिना जल पीए व्रत रखना होता है। सुबह स्नान करके भगवान शंकर,
पार्वती और नंदी
को पंचामृत व गंगाजल से स्नान कराकर बेल पत्र, गंध, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, फल, पान, सुपारी, लौंग, इलायची भगवान को चढ़ाएं।
- शाम के समय पुन: स्नान करके इसी तरह शिवजी की पूजा करें। शिवजी का षोडशोपचार पूजा
करें। जिसमें भगवान शिव की सोलह सामग्री से पूजा करें।
- भगवान शिव को घी और शक्कर मिले जौ के सत्तू का भोग लगाएं।
- आठ दीपक आठ दिशाओं में जलाएं। आठ बार दीपक रखते समय प्रणाम करें। शिव आरती
करें। शिव स्त्रोत, मंत्र जप करें ।
- रात्रि में जागरण करें।
इस प्रकार समस्त मनोरथ पूर्ति और कष्टों से मुक्ति के लिए व्रती को प्रदोष
व्रत के धार्मिक विधान का नियम और संयम से पालन करना चाहिए।
लक्ष्मी कृपा के इन 5 उपायों से शुरू करें नया साल, जेब में होगा माल ही माल
काबिल इंसान, बुरे वक्त या असफलता को सफलता व बेहतर वक्त की ओर आने की शुरुआत के तौर पर भी
देखता है। क्योंकि वह बुरे वक्त में कमियों पर गौर करता है, सुधार करता है और आगे बढ़ने की
कवायद में लग जाता है।
इस तरह किसी भी रूप में जद्दोजहद व्यक्तित्व को निखारने व आत्मविश्वास को
बढ़ाने वाली भी साबित होती है। आर्थिक परेशानियां भी ऐसा ही संघर्ष का दौर होता
है। इसमें व्यक्ति परिवार में रोग, बाधा, घटना, व्यवसाय में घाटा या आजीविका पर किसी भी रूप में आए संकट से
धन के अभाव से जूझता है। कर्तव्यों और
जिम्मेदारियों को पूरा करना मुश्किल हो जाता है।
अगर आप तमाम काबिलियत व कोशिशों के बाद भी धन हानि, ज्यादा खर्च, या आर्थिक परेशानियों से
जूझ रहें हैं और इससे बाहर निकलना चाहते हैं तो शास्त्रों में लक्ष्मी की
प्रसन्नता के कई उपाय बताए गए है। इनमें से खासतौर पर ये ५ उपाय सुबह उठने से लेकर
रात तक अपनाना मां लक्ष्मी की अपार कृपा देने वाले माने गए हैं। जानिए खुशहाली के
ये उपाय -
- सुबह जागें तो सबसे पहले हथेलियों और हाथों की लकीरों को देखें। शास्त्रों में
लिखा है कि 'कराग्रे वसते लक्ष्मी' यानी हाथ अगले भाग में माता लक्ष्मी का वास माना गया
है।
- मां तुलसी को लक्ष्मी का स्वरूप माना गया है। तुलसी में देवपूजा या पवित्र जल
चढ़ाएं। तुलसी में अपवित्र जल न डालें और शाम और रात के वक्त तुलसी के पत्ते न
तोडें।
- किसी तीर्थ या पवित्र जलाशय पर जाकर अर्घ्य दें। पवित्रता में मां लक्ष्मी का
वास माना गया है। इसलिए माना जाता है कि तीर्थस्थान पर जाने मात्र से भी माता
लक्ष्मी की कृपा होती है।
- शाम के वक्त घर के प्रवेश द्वार व तुलसी के पौधे के करीब गाय के घी का दीप
जलाएं। शाम का वक्त मां लक्ष्मी का भ्रमण काल भी माना जाता है। वहीं तुलसी और गाय
पवित्र व लक्ष्मी स्वरूपा मानी गई है।
- सुबह और शाम होने से पहले घर में आंगन में पानी छिडक़ें। अशोक के पेड़ में जल
चढ़ाएं व उसका पत्ता गंगाजल में धोकर देवालय में रखें और किसी भी लक्ष्मी मंत्र से
माता लक्ष्मी का ध्यान कर भरपूर सुख-समृद्धि की कामना करें।
बहुत कम लोग जानते हैं भगवान श्रीकृष्ण जी की गीता से जुड़ी ये खास बातें
विश्व के किसी भी धर्म या संप्रदाय के किसी भी ग्रंथ का जन्मदिन नहीं मनाया
जाता। जयंती सिर्फ श्रीमद्भगवत गीता की मनाई जाती है क्योंकि अन्य ग्रंथ किसी
मनुष्य द्वारा लिखे या संकलित किए गए हैं, जबकि गीता का जन्म भगवान श्रीकृष्ण के श्रीमुख से
हुआ है। जानिए गीता से जुड़ी ऐसी ही कुछ खास बातें...
या स्वयं पद्मनाभस्य मुख पद्माद्विनि: सृता।।
गीता का जन्म कुरुक्षेत्र में मार्गशीर्ष मास में शुक्ल पक्ष की एकादशी को
भगवान श्रीकृष्ण के श्रीमुख से हुआ। मोक्षदा एकादशी के नाम से विख्यात यह तिथि इस
बार 23
दिसंबर को थी। गीता किसी देश, काल, धर्म, संप्रदाय या जाति विशेष के लिए न होकर संपूर्ण मानव जाति के
लिए है। इसे स्वयं श्रीकृष्ण ने अर्जुन को निमित्त बनाकर कहा है। जिस प्रकार गाय
के दूध को बछड़े के बाद सभी धर्म, संप्रदाय के लोग पान करते हैं। इसे दुहने वाले गोपाल
श्रीकृष्ण हैं, अर्जुन रूपी बछड़े के पीने से निकलने वाला महान् अमृतसदृश दूध ही गीतामृत है।
गीता वेदों और उपनिषदों का सार है। लोक-परलोक में मंगलमय मार्ग दिखाने वाला,
कर्म, ज्ञान और भक्ति तीनों
मार्गों द्वारा मनुष्य को परम श्रेय के साधन का उपदेश देने वाला, ऊंचे ज्ञान, विमल भक्ति, उज्जवल कर्म, यम, नियम, त्रिविध तप, अहिंसा, सत्य और दया के उपदेश
देने वाला ग्रंथ है। इसके छोटे-छोटे 18 अध्यायों में इतना ज्ञान, इतने ऊंचे गंभीर सात्विक उपदेश
हैं, जो
व्यक्ति को नीची दशा से उठाकर देवताओं के स्थान में बैठा देने की शक्ति रखते हैं।
गीता का लक्ष्य मनुष्य को कर्तव्य का बोध कराना है।
दुनिया के किसी भी धर्म-दर्शन में पूर्वजन्म या पुनर्जन्म की स्पष्ट व्याख्या
नहीं मिलती। सिर्फ हिंदू सनातन धर्म-दर्शन में ही पूर्व और पुनर्जन्म पर चर्चा की
गई है। व्यावहारिक रूप में देखें तो सिर्फ हमारी व्यवस्था में ही हम एक ही जन्म
में तीन जन्मों की चर्चा करते हैं। इसके पीछे हमारे ऋषि-मुनियों द्वारा प्रतिपादित
सत्कर्म की शिक्षा ही है। श्रीकृष्ण ने गीता में आत्मा के अजर-अमर होने और निष्काम
फल की शिक्षा दी है।
फलित ज्योतिष में जातक की कुंडली के लग्न से वर्तमान जन्म, नवम् भाव से पिछले जन्म
व पंचम् भाव से अगले जन्म का फलित जाना जाता है। कुंडली में ग्रहों की स्थितियां
और दशाएं पिछले जन्म में संचित कर्मों के आधार पर प्रारब्ध के रूप में मिलती हैं।
प्रारब्ध के आधार पर ही वर्तमान जन्म में उत्थान या पतन होता है। ईश्वर ने 84 लाख योनियों में
सिर्फ मनुष्य को ही यह विशेषाधिकार दिया
है कि वह वर्तमान जन्म में सत्कर्म कर प्रारब्ध में मिले दुष्कर्मों के प्रभाव को
कम करे व आने वाले जन्म को व्यवस्थित करे।
श्रीकृष्ण-अर्जुन के संवाद के 18 अध्याय अर्जुन विषाद योग, सांख्य योग, कर्म योग, ज्ञान-कर्म-संन्यास योग,
कर्म-संन्यास योग,
आत्म-संयम योग,
ज्ञान-विज्ञान योग,
अक्षर ब्रह्म योग,
विद्याराजगुह्य
योग, विभूति
योग, विश्व
रूप-दर्शन योग, भक्ति योग, क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग, गुणत्रय विभाग योग, पुरुषोत्तम योग, देवासुर संपद्विभाग योग, श्रद्धात्रय विभाग योग
और मोक्ष संन्यास योग में बांटे गए हैं।
इन अध्यायों के पढऩे या सुनने से ही पूर्वजन्मों के पापों से मुक्ति पाने के
प्रसंग पद्मपुराण में वर्णित हैं। अत: मनुष्य को अंतिम समय में गीता सुनाई जाती
है।
गीता हमें जीवन जीने की कला सिखाती है। इस श्लोक से ही इसे अच्छी तरह समझा जा
सकता है। 'सुख-दु:खे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ। ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं
पापमवाप्स्यसि।' भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- हे अर्जुन! जो भक्ति प्रेमपूर्वक, उत्साह सहित परम रहस्य
युक्त गीता को निष्काम भाव से प्रेमपूर्वक मेरे भक्तों को पढ़ाएगा या इसका प्रचार
करेगा, वह
निश्चित ही मुझे ही प्राप्त करेगा। न तो उससे बढ़कर मेरा अतिशय प्रिय कार्य करने
वाला मनुष्यों में कोई है और न उससे बढ़कर मेरा अत्यंत प्यारा पृथ्वी पर दूसरा कोई
होगा। हे अर्जुन! जो पुरुष इस धर्ममय गीताशास्त्र को पढ़ेगा उसके द्वारा मैं
ज्ञानयज्ञ से पूजित होऊंगा।
हम बड़े भाग्यवान हैं कि इस संसार के घोर अंधकार से भरे घने मार्ग में गीता के
रूप में प्रकाश दिखाने वाला यह धर्मदीप प्राप्त हुआ है। अत: हमारा भी यह
धर्म-कर्तव्य है कि हम इसके लाभ को मनुष्य मात्र तक पहुंचाने का सतत् प्रयास करें।
इसी वजह से गीता जयंती का महापर्व मनाया जाता है। गीता जयंती पर जनता-जनार्दन
में गीता प्रचार के साथ ही श्रीगीता के अध्ययन, गीता की शिक्षा को जीवन में
उतारने की स्थाई योजना बनानी चाहिए।
इसके लिए निम्न कार्य किए जाने चाहिए-
1. श्रीमद्भगवत गीता का पूजन।
2. गीता वक्ता भगवान् श्रीकृष्ण, उसके श्रोता नरस्वरूप भक्त प्रवर अर्जुन तथा उसे महाभारत
में ग्रंथित करने वाले भगवान् वेदव्यास का पूजन।
3. गीता का यथा साध्य व्यक्तिगत और सामूहिक परायण।
4. गीता तत्व को समझाने तथा उसके
प्रचार-प्रसार के लिए सभाओं, प्रवचन और गोष्ठियों का आयोजन।
5. विद्यालयों और महाविद्यालयों में गीता पाठ, उस पर व्याख्यान का आयोजन।
6. गीता ज्ञान संबंधी परीक्षा का
आयोजन और उसमें उत्तीर्ण छात्र-छात्राओं को पुरस्कार वितरण।
7. मंदिर, देवस्थान आदि में श्रीमद्गीता
कथा का आयोजन।
8. गीताजी की शोभायात्रा निकालना
आदि।
27 को दुर्लभ योग: ये 3 दत्तात्रेय मंत्र हर इच्छा करेंगे पूरी
हिन्दू धर्म मान्यताओं में त्रिदेव यानी ब्रह्मा, विष्णु व महेश का स्वरूप माने गए
भगवान दत्तात्रेय का स्मरण मात्र ही सफल व सुखी सुखी बनाने वाला माना गया है।
भगवान दत्तात्रेय महायोगी व महागुरु के रूप में भी पूजनीय है। दत्तात्रेय चरित्र
ज्ञान के बूते अहंकार को गलाकर खुशहाल जीवन जीने के सबक भी देता है। इसमें भगवान
दत्तात्रेय द्वारा 24 गुरु बनाया जाना, जिनमें मनुष्य, प्राणी, प्रकृति सभी शामिल थे, इस बात को खासतौर पर व्यावहारिक
रूप से अपनाने की राह भी बताता है।
धार्मिक नजरिए से तो भगवान दत्तात्रेय की पूजा ज्ञान व मोक्ष, तो व्यावहारिक नजरिए से
ज्ञान, बुद्धि,
बल के साथ शत्रु
बाधा दूर कर हर काम में सफलता और मनचाहे सुखद परिणामों को देने वाली भी मानी गई
है।
भगवान दत्तात्रेय का जन्म मार्गशीर्ष या अगहन माह की चतुर्दशी को प्रदोष काल
यानी शाम के वक्त ही माना गया है। इस दिन दत्त जयंती मनाई जाती है। शिव की तरह
भगवान दत्तात्रेय भी भक्त की पुकार पर शीघ्र प्रसन्न होकर किसी भी रूप में उसकी
कामनापूर्ति या संकटनाश करते हैं। इसलिए आप भी गुरुवार व दत्त जयंती की शाम के साथ
बताए जा रहे 3 विशेष मंत्रों व सरल पूजा विधि से भगवान दत्तात्रेय की पूजा कर हर कामनासिद्धि
कर सकते हैं –
गुरुवार की शाम दत्त मंदिर बें भगवान दत्तात्रेय की प्रतिमा या दत्तात्रेय की
तस्वीर पर सफेद चंदन और सुगंधित सफेल फूल चढ़ाकर फल या मिठाई का भोग लगाएं। गुग्गल
धूप लगाएं और नीचे लिखे 3 विशेष मंत्रों से भगवान दत्तात्रेय का स्मरण करें या
यथाशक्ति मंत्र जप कर घी के दीप से आरती कर सफलता की कामना करें -
1. दत्तविद्याठ्य लक्ष्मीशं दत्तस्वात्म स्वरूपिणे।
गुणनिर्गुण रूपाय दत्तात्रेय नमोस्तुते।।
2. ॐ द्रां दत्तात्रेयाय स्वाहा।
3. ॐ महानाथाय नमः।
पूजा व मंत्र जप के बाद आरती करें और सफलता और कामनापूर्ति की प्रार्थना करें।
जानिए भगवान दत्तात्रेय ने सांप, अजगर सहित 24 गुरुओं से क्या सीखा!
शास्त्रों के मुताबिक ईश्वर का ज्ञान स्वरूप व शक्ति गुरु के रूप में पूजनीय
है। गुरु से मिला ज्ञान, शिक्षा, सत्य, प्रेरणा व शक्ति ही
पूर्ण व कुशल बनाती है। इसलिए गुरु सेवा, भक्ति या स्मरण मात्र से जागा बुद्धि और विवेक जीवन
की तमाम परेशानियों से उबारने वाला भी होता है।
हिन्दू धर्म परंपराओं में गुरु व परब्रह्म के विलक्षण स्वरूप में त्याग,
तप, ज्ञान व प्रेम की
साक्षात् मूर्ति भगवान दत्तात्रेय को माना जाता है। खासतौर भगवान दत्तात्रेय का 24
गुरुओं से सबक
सीखने का पौराणिक प्रसंग जीवन में गुरु की अहमियत को रोचक तरीके से उजागर करता है।
क्योंकि ये 24 गुरुओं मात्र इंसान ही नहीं बल्कि पशु, पक्षी व कीट-पतंगे भी शामिल हैं।
जानिए भगवान दत्तात्रेय के 24 गुरु व उनसे किसने क्या सबक लिया –
1. पृथ्वी- सहनशीलता व परोपकार की भावना।
2. कबूतर – कबूतर का जोड़ा जाल में फंसे अपने बच्चों को देखकर मोहवश खुद भी जाल में जा
फंसता है। सबक लिया कि किसी से भी ज्यादा स्नेह दुःख की वजह होता है।
3. समुद्र- जीवन के उतार-चढ़ाव में खुश व संजीदा रहें।
4. पतंगा- जिस तरह पतंगा आग की तरफ आकर्षित हो जल जाता है। उसी तरह रूप-रंग
के आकर्षण व मोह में न उलझें।
5. हाथी - आसक्ति से बचना।
6. छत्ते से शहद निकालने वाला – कुछ भी इकट्ठा करके न
रखें, ऐसा
करना नुकसान की वजह बन सकता है।
7. हिरण - उछल-कूद, संगीत, मौज-मस्ती में न खोएं।
8. मछली - स्वाद के वशीभूत न रहें यानी
इंद्रिय संयम।
9. पिंगला वेश्या - पिंगला नाम की वैश्या
से सबक लिया कि केवल पैसों की आस में न जीएं। क्योंकि पैसा पाने के लिए वह पुरुष
की राह में दुखी हुई व उम्मीद छोड़ने पर चैन से नींद ली।
10. कुरर पक्षी - चीजों को पास में रखने
की सोच छोड़ना। यानी अकिंचन होना।
11. बालक - चिंतामुक्त व प्रसन्न रहना।
12. कुमारी कन्या – अकेला रह काम करना या आगे बढ़ना। धान कूटते हुए इस कन्या की चूड़ियां आवाज कर
रही थी। बाहर मेहमान बैठे होने से उसने चूड़ियां तोड़ दोनों हाथों में बस एक-एक
चूड़ी रखी और बिना शोर के धान कूट लिया।
13. शरकृत या तीर बनाने वाला - अभ्यास और वैराग्य से मन को वश में करना।
14. सांप – एकाकी जीवन, एक ही जगह न बसें।
15. मकड़ी – भगवान भी माय जाल रचते हैं और उसे मिटा देते हैं।
16. भृंगी कीड़ा –अच्छी हो या बुरी, जहां जैसी सोच में मन लगाएंगे मन वैसा ही हो जाता है।
17. सूर्य – जिस तरह एक ही होने पर भी अलग-अलग माध्यमों में सूरज अलग-अलग दिखाई देता है।
आत्मा भी एक है पर कई रूपों में दिखाई देती है।
18. वायु – अच्छी बुरी जगह पर जाने के बाद
वायु का मूल रूप स्वच्छता ही है। उसी तरह
अच्छे-बुरों के साथ करने पर भी अपनी अच्छाइयों को कायम रखें।
19. आकाश – हर देश काल स्थिति में लगाव से दूर रहे।
20. जल – पवित्र
रहना।
21. अग्नि – हर टेढ़ी-मेढ़े हालातों में ढल जाएं। जैसे अलग-अलग तरह की लकड़ियों के बीच आग
एक जैसी लगती नजर आती है।
22. चन्द्रमा – आत्मा लाभ-हानि से परे है। वैसे ही जैसे कला के घटन-बढ़ने से चंद्रमा की चमक व
शीतलता वही रहती है।
23. भौंरा या मधुमक्खी - भौरें से
सीखा कि जहां भी सार्थक बात सीखने को मिले न छोड़ें।
24. अजगर – संतोष, जो मिल जाए उसे स्वीकार कर लेना।
नित्य काशी में स्नान करते हैं भगवान दत्तात्रेय
दत्तात्रेय ऋषि अत्रि और देवी अनुसूया के पुत्र हैं। ब्रह्माण्ड पुराण की कथा
के अनुसार देवी अनुसूया के पतिव्रत से प्रसन्न होकर त्रिदेव यानी ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश ने उनके
घर पुत्र रूप में जन्म लेने का वरदान दिया। इस वरदान के फलस्वरूप ब्रह्मा चन्द्रमा
रूप में, शिव
जी ऋषि दुर्वासा के रूप में तथा भगवान विष्णु दत्तात्रेय के रूप में अवतरित हुए।
श्रीमद्भागवत में भी इस कथा का उल्लेख मिलता है।
चन्द्रमा एवं ऋषि दुर्वासा ने तपस्या पर जाने से पूर्व अपना तेज और बल
दत्तात्रेय को प्रदान कर दिया। इसके कारण दत्तात्रेय में ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश एकाकार
हो गये। पुराण के अनुसार भगवान दत्तात्रेय जीवन-मरण के चक्र से मुक्त हैं और आज भी
योगबल से संसार में भ्रमण करते हैं। मान्यता है कि दत्तात्रेय प्रतिदिन प्रातः
काशी में गंगा-स्नान करते हैं। कोल्हापुर में नित्य जप और माहुरीपुरमें भिक्षा
ग्रहण करते हैं। सह्याद्रि की कन्दराओं में यह विश्राम किया करते हैं। इसी मान्यता
के कारण काशी स्थिति मणिकर्णिकाघाट की दत्तपादु को इनके भक्त पूजनीय स्थान मानते
हैं।
तन्त्र शास्त्रके मूल ग्रन्थ रुद्रयामल के हिमवत् खण्ड में इस बात का उल्लेख
किया गया है कि दत्तात्रेय भगवान सच्चे मन से ध्यान करने मात्र से भक्तों के कष्ट
दूर करते हैं। इसलिए इन्हें स्मृतिगामी भी कहा जाता है। इनके विषय में मान्यता है
कि यह प्रातः काल में ब्रह्मा रूप में रहते हैं। दोपहर में विष्णु रूप में तथा शाम
के समय शिव रूप में विराजते हैं।
भगवान दत्तात्रेय की तस्वीरों में उनके साथ एक गाय और चार कुत्ते दिखाये जाते
हैं। मान्यता है कि जब यह अनुसूया के घर अवतरित हुए तब धरती ने गाय एवं वेदों ने
कुत्ते का स्वरूप धारण कर लिया और अपने संरक्षण के लिए दत्तात्रेय के साथ रहने
लगे।
गीता का यह सटीक उपाय साल 2013 को बना देगा यादगार
इच्छाओं और जरूरतों को पूरा करने की आपाधापी में आज की व्यस्त दिनचर्या और तेज
जीवनशैली अनचाहे तनाव व दबाव का कारण बनती है। सतही तौर पर सामान्य दिखाई देने
वाले कई लोग भीतरी तौर पर मानसिक बेचैनी में इतने डूबे होते हैं कि कई मौकों पर
उनकी व्यग्रता गुस्से व हिंसा के रूप में बाहर निकलती है, लेकिन बाद में पछतावा भी देती
है।
हिन्दू धर्मशास्त्र श्रीमद्भगवदगीता में बताए एक सटीक उपाय से नया साल बेहतर
और यादगार बनाया जा सकता है। जानिए क्या है यह खास उपाय –
मानसिक असंतुलन से बचने का यह उपाय
है- ध्यान। सरल शब्दों में ध्यान का मतलब होता है कि मन को साधना यानी मन को
चिंताओं, बेचैनी
और बुरे विचारों से हटाकर सकारात्मक सोच पर केन्द्रित या एकाग्र करना। विचारों की
गति पर नियंत्रण और संयम से दिल-दिमाग को
सुकून पहुंचाने का अभ्यास भी ध्यान है।
हिन्दू धर्मशास्त्र श्रीमद्भगवदगीता में मन के संयम से सुख-सुकून पाने के लिए
ही ध्यान की अहमियत बताई गई है। जिसमें लिखा गया है -
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता
इसमें व्यावहारिक जीवन के लिए संकेत यही है कि मन को काबू करने से ही सभी
इन्द्रियां भी नियंत्रित हो जाती है, जिससे बुद्धि और विवेक को भी सही दिशा मिलती है। इस
तरह मन पर वश होने पर दुनिया भी वश में हो सकता है। ऐसा करने के लिए ध्यान ही
श्रेष्ठ उपाय है।
इस तरह अध्यात्मिक और धार्मिक की दृष्टि से ध्यान से आत्मिक लाभ मिलता है यानी
यह सोई हुई शक्तियों को जगाता है और ईश्वरीय सत्ता को महसूस कराता है। वहीं
व्यावहारिक जीवन के नजरिए से ध्यान मन की प्रसन्नता, एकाग्रता, मानसिक ऊर्जा और स्फूर्ति देता
है। इसका फायदा यह होता है कि हम बेहतर तरीके से काम को अंजाम देते हैं। जिसके
कामयाबी के रूप में सुखद नतीजे मिलते हैं। कामयाबी हर भौतिक सुख की राह आसान बनाती
है।
जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK
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