किसने किया भगवान का नामकरण?
राजा दशरथ पुत्र के जन्म की खबर सुनकर बहुत खुश हुए। उन्होंने उनके पुत्र को
देखते हुए कहा जिनका नाम सुनने से ही कल्याण हो जाता है। वे प्रभु मेरे घर आए हैं।
गुरु वसिष्ट जी के पास बुलावा गया वे ब्राह्मणों को साथ लिए राजद्वार पर आए। उन्होंने
जाकर बालक को देखा जिसके गुण कहने से समाप्त नहीं होते। फिर राजा ने नन्दीमुख
श्राद्ध करके सभी को दान दिया। पूरा नगर सजाया गया।
स्त्रियां झुंड में उन्हें देखने आने लगी। राजा ने सबको भरपूर दान दिया है।
जिसने पाया है उसने भी नहीं रखा लुटा दिया। कैकयी और सुमित्रा दोनों ने भी सुंदर
पुत्रों को जन्म दिया। अवधपुरी इस तरह शोभित हा रही है जैसे मानों रात्रि सूर्य को
देखकर सकुचा गई हो। उनके जन्म के उत्सव का उल्लास इतना था। अबीर व गुलाल इतना
उड़ाया गया जिससे लगने लगा कि सूरज की रोशनी धुंधली हो गई है। महीना भर बीत गया।
इस रहस्य को कोई नहीं जानता। सूर्य अपने रथ सहित वहीं रूक गए, फिर रात कैसे होती?
इस प्रकार कुछ दिन
बीत गए। दिन और रात जाते हुए पता ही नहीं पढ़ रहे थे। तब नामकरण संस्कार का समय
जानकर राजा ने मुनि वसिष्ट को बुलाया।
मुनि की पूजा करके राजा ने कहा मुनिश्री अब आप मेरे पुत्रों का नामकरण करें।
तब मुनि जी ने कहा कि आपने जो भी नाम सोचे होंगे राजन वे सभी नाम अद्भुत होंगे।
फिर भी मैं अपनी बुद्धि के अनुसार कहूंगा। ये जो आनन्द के समुद्र और सुख की राशि
है, जिस के
एक कण से तीनों लोक सुखी होते हैं, उन का नाम राम है। जो सभी लोकों को शांति देने वाले हैं। जो
संसार का भरण पोषण करते हैं उनका नाम भरत होगा। जिनके स्मरण मात्र से सारे शत्रुओं
का नाश हो जाता है। उनका नाम शत्ऱुघ्र होगा। जो शुभ लक्षणों वाले हैं उनका नाम
लक्ष्मण होगा।
ऐसा था रामजी का बचपन
भगवान ने बहुत सी बाल लीलांए की और अपने सेवकों को अत्यंत आनन्द दिया। कुछ समय
बीतने पर चारो भाई बड़े होकर कुटुम्बियों को सुख देने लगे। तब गुरुजी ने जाकर
चूड़ाकर्म संस्कार किया। ब्राह्मणों ने फिर बहुत सी दक्षिणा पायी। जो अगोचर हैं
वही प्रभु दशरथजी के आंगन में घुम रहे हैं। भोजन करने के समय जब दशरथ उन्हें
बुलाते हैं तो वे अपने दोस्तो को छोड़कर भोजन करने नहीं आते। कौसल्या बुलाने जाती
है तब प्रभु ठुमक-ठुमक कर भागने लगते हैं। शिवजी ने जिनका अंत नहीं पाया, माता उन्हें हठपूर्वक
पकडऩे के लिए दौड़ती है। वे शरीर में धूल लपेटे हुए आये और राजा ने हंसकर उन्हें
गोद में बैठा लिया। अवसर पाकर मुंह में दही-भात लपटाए किलकारी मारते हुए इधर-उधर
भाग चले।
रामचन्द्रजी की बहुत ही सहज और सुन्दर बाललीलाओं का वर्णन रामायण में मिलता
है। कौसलपुर में रहने वाले हर एक व्यक्ति को रामजी की बाललीलांए बड़ी प्रिय लगती
है। जिस प्रकार लोग सुखी हों रामजी उसी तरह की लीला करते हैं। सुबह उठकर माता-पिता
और गुरु का को मस्तक नवाते हैं। ये तो थी रामजी की बाललीलांए अब आगे की कहानी
सुनों उस समय मारीच और सुबाहु नाम के दो राक्षसों से सभी ऋषि-मुनि बहुत डरते थे।
यज्ञ देखते ही राक्षस दौड़ पड़ते थे उपद्रव मचाते थे। जिससे मुनि दुख पाते थे।
विश्वामित्रजी के मन में चिंता छा गई कि पापी राक्षस भगवान के मारे बिना नहीं
मारेंगे। तब श्रेष्ठ मुनि के मन में विचार किया कि प्रभु ने राक्षसों को मारने के
लिए अवतार लिया है। वे ही इन राक्षसों का संहार कर सकते हैं।
विश्वामित्र ने दशरथ से क्या मांगा?
विश्वामित्रजी के मन में चिंता छाई हुई थी उन्होंने अयोध्या जाने का फैसला
किया। सरयु के जल में स्नान करके वे राजा के दरवाजे पर पहुंचे। राजा ने जब मुनि के
आने का समाचार सुना, तब वे ब्राह्मणों के समाज को साथ लेकर मिलने गए और दण्डवत करके मुनि सम्मान
करते हुए, उन्हें लाकर अपने आसन पर बैठाया। चरणों को धोकर बहुत पूजा की ओर कहा मेरे समान
धन्य आज दूसरा कोई नहीं है। राजा ने उन्हें प्रेम से भोजन करवाया फिर राजा ने
चारों पुत्रों को मुनि से मिलने के लिए बुलाया।
चारों पुत्रों ने मुनि को प्रणाम किया। विश्वामित्र रामजी की शोभा देखने में
ऐसा मग्र हो गए मानो चकोर ने चांद को देखा। तब राजा खुश होकर बोले किस कारण से
आपका शुभागमन यहां हुआ है। मैं उसे पूरा करने में देर नहीं लगाऊंगा। तब
विश्वामित्र ने कहा राजन राक्षसों के समुह मुझे बहुत सताते हैं। इसलिए मैं तुमसे
कुछ मांग ने आया हूं। छोटे भाई सहित श्री रघुनाथजी को मुझे दो। राक्षसों के मारे
जाने पर मैं सुरक्षित हो जाऊंगा।
इस अत्यंत अप्रिय वाणी को सुनकर राजा का दिल कांप उठा और उनके मुख की कांति
फिकी पड़ गई। उन्होंने कहा मुनि आप मुझ से खजाना मांग लीजिए, मैं बड़ी खुशी से अपना
सबकुछ आपको सौंप दूंगा। मेरे पुत्र अभी किशोर अवस्था में है वे कहां उन क्रुर व
डरावने राक्षसों निपट पाएंगे। तब विश्वामित्र ने दशरथ को बहुत प्रकार से समझाया और
बताया कि उन राक्षसों का नाश केवल राम के हाथों ही संभव है।
और रामजी ने किया ताड़का का वध
मुनि के बहुत समझाने राजा दशरथ मान गए। राजा ने बहुत प्रकार से आर्शीवाद देकर
पुत्रों को विश्ववामित्र के हवाले कर दिया। फिर प्रभु माता के महल में गए और उनके
चरणों में सिर नवाकर चल दिए। दोनों भाई प्रसन्न होकर चल दिए। भगवान के लाल नेत्र हैं
चौड़ी छाती और विशाल भुजाएं हैं। कमर में पीतांबर और सुन्दर तरकश कसे हुए दोनों के
हाथ में धनुष और बाण है। श्याम और गौर वर्ण के दोनों भाइयों की जोड़ी बहुत सुन्दर
लग रही है।
रास्ते में चलते हुए उन्हें ताड़का दिखाई दी। उन्हें देखते ही वह गुस्सा करके
दौड़ी। रामजी ने एक ही बाण से उसके प्राण ले लिए। तब ऋषि विश्वामित्र ने प्रसन्न
होकर उन्हें ऐसी विद्या दी जिससे भुख व प्यास न लगे शरीर में असंतुलित बल और तेज
का प्रकाश हों। तब अस्त्र-शस्त्र समर्पण करके मुनि प्रभु को अपने आश्रम में ले आये
और उन्हें बड़े प्यार से भोजन करवाया। सुबह रामजी ने विश्वामित्रजी से कहा आप जाकर
निडर होकर यज्ञ कीजिए।
पत्थर की मुर्ति कर रही थी स्पर्श का इंतजार क्योंकि...
मुनि आश्रम आने के बाद उन्होंने कहा श्री रामजी ने उनसे कहा आप निडर होकर यज्ञ
कीजिए। यह समाचार जब मारिच को मिला की रामजी विश्वामित्र के हवन की रक्षा कर रहे
हैं तो वह अपने सहायकों को लेकर वहां पहुंच गया। रामजी ने बिना फल वाला बाण उसको
मारा। जिससे वह समुद्र के पार जाकर गिरा। फिर सुबाहु ने अग्रिबाण चलाया। इधर छोटे
भाई लक्ष्मण ने राक्षसों की सेना का संहार किया।
इस तरह रामजी कुछ दिन और रहकर ब्राह्मणों को निडर कर दिया। मुनि ने रामजी से
वहां से चलने को कहा। दोनों भाई और विश्वामित्र वहां से चल पड़े। मार्ग में एक
आश्रम दिखाई दिया। वहां पशु-पक्षी कोई भी जीव जन्तु नहीं था। पत्थर की एक शिला
देखकर प्रभु ने पूछा कि मुनि श्री इस शिला की कथा सुनाईये। तब उन्होंने यह कथा
सुनाई।
गौतम मुनि की पत्नी अहिल्या शापवश पत्थर की देह धारण कि ए बड़े ही धीरज से
आपके चरणकमलों की धूलि चाहती है। इस कृपा कीजिए।रामजी के चरणों का स्पर्श पाते ही
सचमुच वह तपोमुर्ति अहिल्या प्रकट हो गई। उनका शरीर पुलकित हो गया। उनके मुंह से
शब्द नहीं निकल पा रहे थे। अहिल्या प्रभु के चरणों से लिपट गई।
रामजी को देखकर सब मोहित हो गए जब...
रामजी और लक्ष्मणजी मुनि के साथ चले। वे वहां गए, जहां जगत को पवित्र करने वाली
गंगाजी थी। महाराज गाधि के पुत्र विश्चामित्र जी ने वह सब कथा कह सुनाई। जिस तरह
गंगा पृथ्वी पर आई थी। उसके बाद ऋषियों ने स्नान किया। फिर विश्वामित्र के साथ वे
खुश होकर जनकपुरी के निकट पहुंचे।
रामजी ने जब जनकपुरी की शोभा देखी। तब वे छोटे भाई लक्ष्मण सहित बहुत खुश हुए।
नगर की सुन्दरता देखते हीं बनती थी। राजा जनक का महल बहुत सुन्दर और ऐश्वर्यमय है।
आमों के बाग सहज ही सबका ध्यान अपनी और आकर्षित करते है। विश्वामित्र राम और
लक्ष्मण सहित जनक के दरबार में पहुंचे।
राजा जनक ने उनका बहुत स्वागत किया और उनके चरणों मे झुककर उन्हें प्रणाम
किया। विश्वामित्रजी ने खुश होकर आर्शीवाद दिया। उसी समय दोनों भाई आ पहुंचे। जो
फुलवाड़ी देखने गए थे। रामजी व लक्ष्मणजी को देखकर सभी सुखी हो गई। राजा सभी को एक
सुन्दर महल में ले गए और वहां ठहराया। हर तरह के आदर-सत्कार के बाद वे अपने महल को
चले गए। उसके बाद लक्ष्मण जी ने रामजी से कहा कि भैया हम जनकपुरी देखना चाहते हैं।
रामजी की इच्छा भी कुछ ऐसी थी लेकिन वे विश्चामित्रजी से पूछने में सकुचाते
हैं। रामजी ने छोटे भाई की मन की बात समझ ली। तब रामजी ने विश्वामित्रजी से पूछा
कि लक्ष्मण नगर देखना चाहते हैं क्या मैं उन्हें नगर दिखाकर ले आऊं। तब
विश्वामित्र जी से आज्ञा लेने के बाद दोनों भाई जनकपुरी देखने के लिए निकल पड़े।
रामजी जब जनकपुरी देखने के लिए गए तब सभी जनकपुरवासी उन पर मोहित हो गए।
रामजी भी चकित हो गए क्योंकि....
दोनों भाई नगर के पूर्व की ओर गए। जहां धनुषयज्ञ के लिए भूमि बनाई गई थी। बहुत
लंबा-चौड़ा सुन्दर ढाला हुआ पक्का आंगन था। चारों और सोने के बड़े-बड़े मंच बने
थे। जिन पर राजा लोग बैठेंगे। उनके चारों और गोलाकार घेरे मे सामान्य
लोगों को बैठना था। उन्हीं के पास विशाल और सफेद रंग के मकान अनेक रंगों के
बनाये हुए हैं। जहां अपने-अपने कुल के अनुसार सब महिलाएं बैठेंगी। जनकपुरी के
छोटे-छोटे बच्चे रामजी को धनुषयज्ञ की तैयारी दिखा रहे है। सब बच्चे इसी बहाने
प्रेम के वश होकर श्रीरामजी के मनोहर अंगों को छूकर शरीर खुश हो रहे हैं। रामजी ने
सब बच्चों की प्रेम से बात की। रामजी धनुषयज्ञशाला को चकित होकर देख रहे हैं।
रात होते ही विश्वामित्रजी ने सबको आज्ञा दी। तब सब ने संध्यावंदन किया। दुसरे
दिन सुबह दोनों भाई विश्वामित्रजी की आज्ञा से बगीचे में गए। बगीचे के बीचों बीच
में सुहावना सरोवर सुशोभित है, जिसमें मणियों की सीढिय़ां विचित्र ढंग से बनी है। बगीचे की
सुंदरता देखकर रामचंद्रजी और लक्ष्मणजी बहुत खुश हुए। तभी सीताजी वहां आई। सीताजी
सरोवर पर स्नान करके प्रसन्न मन से मंदिर गई।
उन्होंने बड़े प्रेम से पूजा की और अपने योग्य सुन्दर वर मांगा। सीताजी की एक
सहेली फुलवाड़ी देखने चली गई। उसने जाकर दोनों भाइयों को देखा और बड़ी विहृल होकर
सीताजी के पास आई। सीताजी ने उसकी प्रसन्नता का कारण पूछा तो वह बोली बाग में दो
राजकुमार आए हैं। किशोर अवस्था के हैं और सब बहुत सुंदर है। यह सुनकर सीताजी अपनी
सहेली से उनके रूप का वर्णन सुनकर बोली शायद ये वही राजकुमार है जो विश्वामित्रजी
के साथ आए हैं।
जब सीताजी ने रामजी को देखा तो...
जिन्होंने अपने रूप से नगर के स्त्री पुरूषों को अपने वश में कर लिया है।
उन्हें देखना चाहिए वे देखने ही योग्य है। नारदजी ने भी रामजी के स्वरूप की सीताजी
से बहुत प्रशंसा की। हाथों के कड़े करधनी और पायजेब के शब्द सुनकर रामजी दिल में
विचारकर लक्ष्मण से कहते हैं मानों कामदेव ने दुनिया जीतने का संकल्प कर लिया। ऐसा
कहकर श्रीरामजी ने मुड़कर उस ओर देखा तो सीताजी जैसे ही उन्हें दिखाई दी तो वे
पलकें झपकाना भुल गए। सीताजी की सुन्दरता देखकर दिल में वे उनकी सराहना करते है
लेकिन मुंह से शब्द नहीं निकल रहे हैं।
रघुवंशियों का यह सहज स्वभाव है कि उनका मन कभी कुमार्ग पर पैर नहीं रखता।
रामजी के छोटे भाई से बातें कर रहे हैं और उनसे कह रहे हैं कि सीताजी उनके मन को
भा गई हैं। सीताजी पत्तियों और लताओं की ओंट में से श्रीरामजी को देख रही हैं।
सीताजी की सारी सहेलियां मोहित होकर रामजी को देख रही है। एक चतुर सहेली ने सीताजी
को कहा गिरिजाजी का ध्यान फिर कर लेना, इस समय राजकुमार को क्यों नहीं देख लेती। तब सीताजी
ने सकुचाकर अपनी खोले और रामजी की तरफ देखा तो वे क्षुब्ध रह गई।
जब सीताजी ने आंखे खोली तो...
जब सीताजी ने अपनी आंखें खोली और रामजी की ओर देखा। उनकी शोभा देखकर सीताजी
देखकर मंत्रमुग्ध हो गई। जब सहेलियों ने सीताजी को परवश देखा, तब सब भयभीत होकर कहने
लगी। बड़ी देर हो गई। कल इसी समय फिर आयेंगी, ऐसा कहकर एक सहेली हंसी। सहेली
की ऐसी बात सुनकर सीताजी सकुचा गई। उन्हें लगा देर हो गई। यह सोचकर उन्हें डर लगा।
वे रामजी की सांवली सूरत को भूलाए नहीं भूल पा रही हैं। उनकी छबि जैसे सीताजी के
मस्तिष्क से हटने का नाम ही नहीं ले रही है। उसके बाद सीताजी फिर से भवानीजी के
मंदिर गई और उनके चरणों की वन्दना करके हाथ जोड़कर बोली- हे मां पार्वती आपका ना
आदि है ना अंत है।
आपके महिमा असीम है। मां आप मेरे मनोरथ को अच्छे से जानती हैं ऐसा कहकर सीताजी
ने उनके चरण पकड़ लिए तब गिरिजाजी उन पर प्रसन्न होकर बोली- सीता हमारी बात सुनो
तुम्हारी मनोकामना पूरी होगी। जिसे तुम पति रूप में चाहती हो वही तुम्हे मिलेगा।
रामजी ने भी अपने गुरु विश्वामित्र को जाकर सबकुछ बोल दिया क्योंकि उनका स्वभाव
सरल है। वे अपने मन में कोई छल नहीं रखते। फिर दोनों भाइयों को विश्वामित्रजी ने
आर्शीवाद दिया कि तुम अपने मनोरथ में सफल हो। जानकी जी ने शतानन्दजी को बुलाया और
उन्हें तुरंत ही विश्वामित्रजी के पास भेजा। उन्होंने आकर सीताजी की बात सुनाई।
ऐसा था राम-सीता के स्वयंवर का दृश्य?
दोनो भाई रंग भूमि में आ गए हैं, यह खबर जब सब नगरवासियों को मिली। तब सभी अपने घर से
निकलकर कामकाज भुलाकर चल दिए। जब जनकजी ने देखा कि भारी भीड़ जमा हो गई है,
तब उन्होंने सब
विश्वास पात्र सेवकों को बुलवा लिया और कहा-तुम लोग तुरंत सब लोगों के पास जाओ और
सब किसी को यथायोग्य आसन दो।
उन सेवकों ने सभी को अपने-अपने यथायोग्य स्थान पर बैठाया। उसी समय राजकुमार
राम और लक्ष्मण वहां आए। वे राजाओं के समाज में ऐसे शोभित हो रहे हैं, मानो तारों के बीच दो
पूर्ण चंद्रमा हो। स्वयंवर में दूर-दूर से राजा आए हैं कुछ राक्षस भी राजाओं का
वेश बनाकर आए हैं। सभी लोग उन्हें देख रहे हैं। रानियां उन्हें अपने बच्चे के समान
देख रही हैं। उनके प्रेम का वर्णन नहीं किया जा सकता है। उन्हें देखकर सब लोग सुखी
हो रहे हैं। राजा जनक दोनों को देखकर बहुत खुश हुए और उन्होंने विश्वामित्रजी को
अपनी कथा सुनाई और मुनि को सारी रंगभूमि दिखाई। रामचन्द्रजी को देखकर सभी को
विश्वास हो गया कि धनुष यज्ञ तो वे ही जीतेंगे।
स्वयंवर शुरु हुआ सभी राजाओं ने अपने-अपने स्तर पर कोशिश की लेकिन कोई भी
शिवजी धनुष को हिला भी ना पाया। जब सभी राजा उपहास योग्य हो गए। सीताजी की आंखों
में आंसु भरे हैं। तभी रामजी अपने स्थान पर से उठे और उन्होंने सीताजी की ओर ऐसे
ताका है, जैसे
गरूड़ की तरफ सांप ताकता है। रामजी ने मन ही मन गुरु को प्रणाम किया और बड़ी
फुर्ती से धनुष को उठा लिया तो धनुष बिजली की तरह चमका और फिर आकाश मंडलाकार सा हो
गया।
सीताजी जब वरमाला लेकर रामजी के समीप पहुंची तो..
जैसे ही रामजी ने धनुष तोड़ा सारे ब्रह्माण्ड में जयजयकार की ध्वनि छा गई। सभी
लोग आपस में प्रसन्न होकर कह रहे हैं श्रीरामजी ने धनुष तोड़ दिया। सब लोग घोड़े,
हाथी, धन मणि, वस्त्र न्यौछावर कर रहे
हैं। बहुत तरह के बाजे-बज रहे हैं। युवतियां मंगलगीत गा रही है। सभी सहेलियों और
सीताजी बहुत खुश हुई। धनुष के टूट जाने पर राजा लोग निस्तेज हो गए।
रामजी को लक्ष्मणजी इस प्रकार देख रहे हैं जैसे चंद्रमा को चकोर का बच्चा देख
रहा है। शतानन्दजी ने आज्ञा दी और सीताजी रामजी के पास गई। उनके साथ में चार
सहेलियां मंगल गीत गाती हुई चल रही है। सहेलियों के बीच में सीताजी चल रही है।
सीताजी का शरीर संकोच में है, पर मन में बहुत उत्साह है। रामजी के पास जाकर सीताजी पलके
झपकाना भूल गई।
तभी एक चतुर सहेली ने सीताजी की दशा देखकर समझाकर कहा सुहावनी जयमाला पहनाओ।
यह सुनकर सीताजी ने दोनों हाथों से जयमाला उठाई लेकिन प्रेम और झिझक के कारण
उन्हें पहना नहीं पा रही हैं। सीताजी ने जयमाला रामजी के गले में पहना दी। नगर और
आकाश में बाजे बजने लगे। दुष्ट लोग उदास हो गए। देवता, किन्नर, मनुष्य, नाग आदि। जयजयकार करके आर्शीवाद
दे रहे हैं। पृथ्वी पाताल व तीनों लोकों में यह बात फैल गई कि रामजी ने धनुष तोड़
दिया और सीताजी का वरण कर लिया है।
क्या हुआ जब स्वयंवर में पहुंच गए परशुराम?
उसी मौके पर शिवजी के धनुष का टूटने की बात सुनकर उस जगह परशुरामजी भी आए।
उन्हें देखकर सब राजा सकुचा गए। परशुरामजी का भयानक वेष देखकर सब राजा डर गए
व्याकुल होकर उठ खड़े हुए। परशुरामजी हित समझकर भी सहज ही जिसकी ओर देख लेते हैं,
वह समझता है मानो मेरी
आयु पूरी हो गई। फिर जनकजी ने आकर प्रणाम किया और सीताजी ने भी उन्हें नमन किया।
परशुरामजी ने सीताजी को अर्शीवाद दिया। फिर विश्वामित्रजी आकर मिले और
उन्होंने दोनों भाइयों को उनके चरण छूने को कहा। दोनों को परशुरामजी ने आशीर्वाद
दिया। फिर सब देखकर, जानते हुए भी उन्होंने राजा जनक से पूछा कहो यह इतनी भीड़ कैसी है? उनके मन में क्रोध छा
गया।
जिस कारण सब राजा आए थे। राजा जनक ने सब बात उन्हें विस्तार से बताई। बहुत
गुस्से में आकर वे बोले- मुर्ख जनक बता धनुष किसने तोड़ा? उसे शीघ्र दिखा, नहीं तो आज जहां तक तेरा
राज्य है, वहां तक की पृथ्वी उलट दूंगा। राजा को बहुत डर लगा, जिसके कारण वे उत्तर नहीं दे पा
रहे थे। सीताजी की माताजी भी मन में पछता रही थी कि विधाता ने बनी बनाई बात बिगाड़
दी।
तब श्रीरामजी सभी को डरा हुआ देखकर बोले- शिवजी के धनुष को तोडऩे वाला आपका ही
कोई दास होगा। क्या आज्ञा है, मुझसे क्यों नहीं कहते? यह सुनकर परशुरामजी गुस्से में
बोले सेवक वह है जो सेवक का काम करे। शत्रु का काम करके तो लड़ाई ही करना चाहिए।
जिसने शिवजी का धनुष तोड़ा है वह मेरा दुश्मन है। तब लक्ष्मणजी मुस्कुराए और
परशुरामजी का अपमान करते हुए बोले- हमने आज तक बहुत से धनुष तोड़े। आपने ऐसा क्रोध
कभी नहीं किया। इसी धनुष पर इतनी ममता किस कारण से है? यह सुनकर भृगुवंश की ध्वजास्वरूप
परशुरामजी क्रोधित होकर कहने लगे।
क्यों गुस्सा आ गया परशुरामजी को?
लक्ष्मणजी की बात सुनकर परशुरामजी गुस्से से भर गए और बोले कि काल के वश में
होने के कारण तुझे कुछ भी होश नहीं है। सारे संसार में विख्यात शिवजी का यह धनुष
भी क्या सामान्य धनुष के ही समान है। लक्ष्मण जी ने हंसकर कहा सुनिए मुझे तो सारे
धनुष एक जैसे ही लगते है। पुराने धनुष को तोडऩे से क्या हानि और क्या लाभ? फिर यह तो छूते ही टूट
गया, इसमें
श्रीरामजी का कोई दोष नहीं है।
आप बिना ही कारण किस लिए गुस्सा कर रहे हैं? परशुराम जी ने उनकी ओर देखा और
बोले तू मेरे स्वभाव से शायद परिचित नहीं है। मैं बालब्रह्मचारी और बहुत क्रोधी
हूं। क्षत्रिय कुल के नाश के लिए विश्वविख्यात हूं।अपनी भुजाओं के बल से मैंने
पृथ्वी को राजा रहित कर दिया। तब यह सब सुनकर लक्ष्मण ने कोमल वाणी में कहा मुनि
तो अपने आप को बड़ा भारी योद्धा समझते हैं। फूंक से पहाड़ उड़ाना चाहते हैं।
भृगुवंशी समझकर और यज्ञोपवित देखकर तो जो कुछ आप कहते हैं उसे मैं क्रोध को रोककर
सह लेता हूं। देवता, ब्राह्मण, भगवान भक्त और गाय इन पर हमारे कुल में वीरता नहीं दिखाई जाती क्योंकि इन्हें
मारने से पाप लगता है और इनसे हार जाने पर अकीर्ति होती है। इसलिए आप मारें तो भी
आपके पैर पडऩा चाहिए। तब गुस्से से भरकर परशुरामजी ने कहा यह लड़का मुर्ख है और
अभी यह क्षण भर में काल का ग्रास हो जाएगा। तब लक्ष्मणजी ने कहा शुरवीर तो युद्ध
में कर्म करते हैं वे डींग नहीं हांकते। तब विश्वामित्र जी ने कहा यह तो बालक है
और बालकों के दोष और गुण की को साधु लोग नहीं गिनते।
परशुरामजी श्रीरामजी के हाथ में धनुष देने लगे तो...
श्रीरामजी ने कहा- मुनि गुस्सा छोडि़ए। आपके हाथ में कुठार है और मेरा यह सिर
आगे है। जिस तरह आपका क्रोध शांत हो जाए आप वही कीजिए। स्वामी और सेवक में युद्ध
कैसा? गुस्सा
त्याग दीजिए। आपका वेष देखकर ही बालक ने यह सब कह दिया इसमें उसका कोई दोष नहीं है।
आपको कुठार व बाण धारण किए देखकर वीर समझकर बालक को गुस्सा आ गया। वह आपका नाम तो
जानता नहीं था। उसने आपको पहचाना नहीं।
अपने वंश के स्वभाव के अनुसार ही उसने उत्तर दिया। अगर आप मुनि की तरह आते तो
वह आपके सामने अपना सिर झुकाता। अनजाने की भूल को क्षमा कर दीजिए। ब्राह्मण के दिल
में तो दया की भावना होनी चाहिए। हमारी और आपकी बराबरी कैसी? कहिए ना कहा चरण और कहा
मस्तक । हमारा तो एक ही गुण धनुष है और आप में पूरे नौ गुण हैं। हम तो हर तरह से
आप से हारे हैं। यह सुनकर लक्ष्मणजी ने मुस्कुराकर सिर नवाया और कहा मुनि कृपा
करने से आपका शरीर जला जाता है तो क्रोध होने पर शरीर की रक्षा विधाता ही करेंगे।
तब परशुरामजी ने कहा यह बालक हठी और मुर्ख है।
उन्होंने राम जी से कहा तू शिवजी का धनुष तोड़कर उल्टा हमें ही ज्ञान सीखाता
है।
तेरा यह भाई मुझे उल्टी-सीधी बातें बोल रहा है और तू छलिया मुझ से छल से हाथ
जोड़कर विनय करता है। तू मझे निरा ब्राह्मण ही समझता है। मेरा प्रभाव तू अभी जानता
नहीं है। तब राम जी ने कहा मेरी भूल बहुत छोटी है और आपका क्रोध बहुत अधिक पुराना
धनुष था। छूते ही टूट गया। मैं किस कारण अभिमान करूं? हम क्षत्रिय हैं युद्ध से नहीं
डरते। रामजी की रहस्यपूर्ण बात सुनकर परशुरामजी ने कहा धनुष को हाथ में लीजिए और
खींचिए, जिससे
मेरा संदेह मिट जाए। जब परशुराम धनुष देने लगा तो वह खुद ही चला गया। तब उन्होंने
श्रीरामजी का प्रभाव जाना।
तब परशुरामजी ने मांगी माफी
जब परशुरामजी ने रामजी का प्रभाव जाना तो वे हाथ जोड़कर बोले आपकी जय हो। मैं अपने एक मुंह से आपकी क्या प्रशंसा करूं? मैंने अनजाने में आपको जो भी बात कही उसके लिए मुझे माफ कीजिए। ऐसा कहकर परशुराम जी वन को चले गए। देवताओं ने नगाड़े बजाए वे रामजी के ऊपर फूल बरसाने लगे। जनकपुर के स्त्री-पुरुष सब हर्षित हो गए। सभी महिलाएं मंगलगीत गाने लगी। सीताजी का डर भी चला गया। वे वैसा ही सुख महसूस कर रही हैं जैसा चंद्रमा के उगने पर चकोर महसूस करता है।
जनकजी ने विश्वामित्र को प्रणाम किया और कहा आपकी कृपा से रामचन्द्रजी ने धनुष तोड़ा है। अब आप कहिए आप का क्या कहना है? तब विश्वामित्र जी बोले धनुष टूटते ही विवाह हो गया। अब तुम जैसा भी तुम्हारे कुल में रिवाज हो या वेदों में जो भी नियम हो वैसा करो। अयोध्या दूत भेजो जो राजा दशरथ को बुला लाए। तब राजा जनक ने उसी समय दूतों को अयोध्या भेजा।
रामजी के स्वयंवर जीतने का संदेश अयोध्या पहुंचा तो...
राजा दशरथ को अयोध्या बुलाने के बाद राजा जनक ने सभी महाजनों को बुलाया और सभी ने आकर राजा को आदरपूर्वक सिर झुकाया। राजा ने कहा आप लोग मंडप सजाकर तैयार करो। यह सुनकर सभी ने अपना काम शुरू कर दिया। सोने के केले के खंबे बनाए। रत्नो से जड़ा मंडप बनाया। बहुत ही सुन्दर बंदरवार बनाए।
उस समय जिसने उस मंडप को देखा उसे बड़े से बड़े महल भी तुच्छ लगे।उधर जनकजी का दूत राजा दशरथ के पास आयोध्या पहुंच जाता है। राजा ने उस चिठ्ठी को लेकर उसे पढऩा शुरू किया तो उनकी आंखें भर आई। भरतजी अपने दोस्तों के साथ जहां खेलते थे। वहां जैसे उन्हें ये बात पता चली वे तुरंत राजमहल लौट आए। जब राजा ने पूरा पत्र पढ़ लिया उसके बाद दूतों को कहा मेरे दोनों बच्चे कुशल से तो है ना।
जिस दिन से वे मुनि विश्वामित्र के साथ गए तब से आज ही हमें उनकी सच्ची खबर मिल रही है। तब दूतों ने कहा आपके पुत्र पूछने योग्य नहीं है वे तीनों लोकों के लिए प्रकाश के समान है। सीताजी के स्वयंवर में बहुत से योद्धा आए थे। लेकिन शिवजी के धनुष कोई भी नहीं हटा सका। धनुष टूटने की बात सुनकर परशुरामजी को क्रोध आ गया। उन्होंने बहुत प्रकार से आंखें दिखाई। लेकिन रामचन्द्रजी का बल देखकर उन्हें अपना धनुष दे दिया।
ऐसी थी श्री रामजी की बारात....
राजा ने भरतजी को बुला लिया और कहा कि जाकर घोड़े, हाथी और रथ सजाओ, जल्दी रामजी की बारात में चलो। यह सुनते ही दोनों भाई खुशी से फूले नहीं समा रहे थे। भरतजी ने घोड़े तैयार करने का आदेश दिया। सब घोड़े बहुत ही सुंदर और चंचल के हैं। वे धरती पर ऐसे पैर रखते हैं जैसे जलते हुए लोहे पर रखते हों। उन सभी की चाल हवा से भी तेज है। उन सभी घोड़ों पर भरतजी के समान अवस्था वाले सभी राजकुमार सवार हुए। वे सभी सुंदर है और सब आभुषण धारण किए हुए हैं। सभी के कमर पर भारी तरकश बंधे हुए हैं। सारथियों ने ध्वजा, पताका, मणि और आभुषणों को लगाकर रथों को बहुत विलक्षण बना दिया है। ,
रथों पर चढ़-चढ़कर बारात नगर के बाहर जुटने लगी। जो जिस काम के लिए जाता है, सभी के साथ कोई ना कोई शुभ शकुन हो रहा है। ब्राह्मण, वैश्य, मागध, सूत, भाट, और गुण गाने वाले सभी जो जिस योग्य थे, वैसी ही सवारी पर चढ़कर चले। राजा दशरथ भी उनके लिए सजाए गए रथ पर चढ़ गए। उन्होंने पहले वशिष्ठजी को पहले रथ पर चढ़ाया और फिर खुद शिव, गौरी व गणेश का ध्यान करके रथ पर चढ़े। बारात देखकर देवता प्रसन्न हुए और फूलों की वर्षा करने लगे। जब बारात जनकपुरी के करीब पहुंची ढोल-नगाड़ों की आवाज सुनकर राजा जनक हाथी रथ व पैदल यात्री लेकर बारात लेने चले।
और सोलह श्रृंगार से सज गई सीताजी
जब सारे देवताओं ने दशरथ जी का वैभव देखा तो वे दशरथजी की सराहना करने लगे। सभी नगाड़े बजाकर फूल बरसाने लगे। शिवजी ब्रह्माजी आदि टोलियां बनाकर विमानों पर चढ़े और प्रेम व उत्साह से भरकर श्री रामचंद्रजी का विवाह देखने चले। जनकपुर को देखकर देवता इतने अनुरक्त हो गए कि उन सबको अपने-अपने लोक बहुत तुच्छ लगने लगे। सभी शादी का विचित्र मण्डप आलौकिक रचनाओं को देखकर चकित हो रहे हैं।
तब शिवजी ने सब देवताओं को समझाया कि तुम लोग आश्चर्य में ये मत भूलो। धीरज से विचार तो करो कि यह सीताजी का और ब्रह्माणों के परम ईश्चर साक्षात श्री रामचंद्रजी का विवाह है। जिनका नाम लेते ही जगत में सारे की जड़ कट जाती है, ये वही श्रीसीतारामजी है। इस तरह सभी देवताओं को रामजी ने समझाया और फिर नंदीश्चर को आगे बढ़ाया।
देवताओं ने देखा कि दशरथजी मन में बड़े ही प्रसन्न हो रहे हैं। रामजी का सुंदर मुख चंद्रमा के समान है। जिस घोड़े पर रामजी विराजमान हैं वह भी इतना सुंदर लग रहा है मानो कामदेव ने ही घोड़े का रूप धारण कर लिया है। चारों और से फूलों की वर्षा होने लगी। दशरथजी अपनी मण्डली के साथ बैठे। आकाश और नगर में शोर मच रहा है।श्रीरामचंद्रजी मण्डप में आए और अघ्र्य देकर आसन पर बैठाए गए। सुंदर मंगल का साज सजाकर स्त्रियां और सहेलिया सीताजी को लेकर चली। वे सोलह श्रृंगार में बहुत सुंदर लग रही है। इस तरह सीताजी मंडप में आई और मंत्रोच्चार शुरू हो गया।
जब सीताजी मंडप में आयीं तो...
सीताजी के मंडप में आने के बाद कुलगुरू ने मंत्रजप शुरू किया गया। गौरीजी व गणेशजी की स्थापना की गई। सभी देवताओं ने प्रकट होकर पूजा ग्रहण की। सीताजी व रामजीएक-दूसरे को इस तरह देख रहे हैं। जिससे दूसरों को कुछ पता नहीं चल रहा है। चारों और से देवता फूल बरसा रहे हैं। महिलाएं मंगलगीत गा रही है। तभी जनक जी श्री रामजी के चरणों को धोने लगे। उनके चरण धोते हुए जनकजी फूले नहीं समा रहे है। जिनके स्पर्श से गौतम मुनि की स्त्री अहिल्या ने परमगति प्राप्त हुई।
दोनों कुलों के गुरू वर और कन्या की हथेलियों को मिलाकर मंत्रोच्चार करने लगे। पाणिग्रहण हुआ देखकर देवता, मनुष्य , मुनि आदि सभी आनन्द से भर गया। रामजी व सीताजी के सिर में सिंदूर भर रहे हैं। उसके बाद रामजी और जनकजी आसन पर बैठे। उन्हें देखकर दशरथजी मन ही मन आनंदित हुए। जानकीजी की छोटी बहिन उर्मिलाजी को सब सुंदरियों में शिरोमणि जानकर उनसे लक्ष्मणजी का ब्याह कर दिया गया। सीताजी की एक ओर बहन जिनका नाम श्रुतकीर्ति है जो सुंदर नेत्रोंवाली, सुन्दर व कमल के समान चेहरे वाली और वे सब गुणों की खान है उनसे शत्रुघ्र का विवाह कर दिया गया। दहेज इतना अधिक है जिसका वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता।
कुछ ऐसा था रामजी की शादी के बाद का दृश्य
सभी दूल्हा-दुल्हन एक-दूसरे को देखकर मन ही मन खुश हो रहे हैं। सभी लोग उनकी सुंदरता की सराहना कर रहे हैं। जोडिय़ां कितनी सुंदर लग रही हैं। आपस में वहां उपस्थित लोग ऐसी चर्चा कर रहे हैं। अपने सभी पुत्रों को बहुओं के साथ देखकर दशरथजी बहुत खुश हो रहे हैं। जब सभी राजकुमारों का विधि-विधान से विवाह हो गया। तब पूरा दहेज व मंडप दहेज से भर गया।
बहुत से कंबल, वस्त्र व रेशमी कपड़े दास-दासियां हाथी, घोड़े, अनेक वस्तुएं हैं जिनकी गिनती नहीं की जा सकती।दशरथजी ने सारा दहेज याचको को, जो जिसे जो अच्छा लगा उसे दे दिया। जनकजी ने हाथ जोड़कर दशरथजी से कहा आपके साथ संबंध हो जाने से अब हम सभी प्रकार से बड़े हो गए। उन्होंने दशरथजी से कहा आप हमें अपना सेवक ही समझिएगा। इन लड़कियों से कोई भी भूल हो तो इन्हें क्षमा कर दीजिएगा। रामचंद्रजी का सांवला शरीर है वे पीले रंग कि धोती पहनकर व पीली जनेऊं उन पर बहुत सुंदर लग रही है।
उनके हाथ की अंगुठी और ब्याह के सारे साज जो उन पर सजे हैं उनकी शोभा को और बड़ा रहे हैं।उनके ललाट पर तिलक बहुत सुंदर लग रहा है। पार्वतीजी रामजी को लहकौर यानी वर-वधु को एक-दूसरे को ग्रास देना सिखाती हैं व सीताजी को सरस्वतीजी सिखा रही हैं। रानिवास में सभी लोग आनंद में डूबे हुए हैं। उसके बाद वर-वधु को जनवासे ले जाया गया। नगर में हर और आनंद छाया हुआ है। सभी नगरवासी भी यही चाहते हैं कि सभी जोडिय़ा सुखी और चिरंजीवी हों।
जब बारात विदा हुई तो...
राजा दशरथजी जनकजी के स्नेह व ऐश्वर्य की हर तरह से सराहना करते हैं। प्रतिदिन उठकर दशरथजी विदा मांगते हैं। जनकजी उन्हें प्रेम से उनसे रूकने के लिए कहते हैं और उन्हें जाने नहीं देते हैं। इस तरह बहुत दिन बीत गए, मानो बाराती प्रेम की डोरी से बंध से गए। तब विश्वामित्रजी और शतानंदजी ने जाकर राजा जनक को समझाकर कहा- आप स्नेह नहीं छोड़ सकते, तो भी अब दशरथजी को आज्ञा दीजिए। तब जनकीजी ने कहा राजा दशरथ अब जाना चाहते हैं।भीतर यह खबर दो। जनकपुरी के लोगों ने सुना कि बारात जाएगी। तब वे व्याकुल होकर एक-दूसरे से पूछने लगे। जनकपुरी के सभी लोग उदास हो गए। आते समय जहां-जहां बाराती ठहरे थे। वहां बहुत प्रकार का रसोई का समान भेजा गया। दस हजार हाथी, भैस, गाय, एक लाख घोड़े आदि कई चीजे जनकजी ने असिमित मात्रा में दहेज में दी। इस प्रकार सब सामान सजाकर राजा जनक ने अयोध्यापुरी भेज दिया। बारात अब विदा होगी यह सुनकर सभी रानियां दुखी हो गई।
वे सीताजी को गले से लगाकर समझाने लगी सास, ससुर की सेवा करना। पति का रूख देखकर उनकी आज्ञा का पालन करना। आदर के साथ सभी पुत्रियों को समझाकर रानियों ने उन्हें आशीर्वाद दिया। उसी समय रामजी व उनके सारे भाई विदा करवाने के लिए जनकजी के महल पहुंचे। रानियों ने सीताजी को रामचंद्रजी को समर्पित किया और हाथ जोड़कर बार-बार कहा सीता हमें प्राणों से ज्यादा प्रिय है आप इनका ध्यान रखिएगा। राजा ने शुभ मुर्हूत निकलवाकर कन्याओं को पालकी में बैठाया।
जब हुआ बहुओं का गृहप्रवेश...
रामजी की बारात जनकपुरी से विदा होने के बाद रास्ते में कुछ सुंदर पड़ावों पर रूकी। उसके बाद बारात जब वापस अयोध्या पहुंची।
तब अयोध्यावासियों ने ढ़ोल-नगाड़ो के साथ बारात का स्वागत किया। नगर की स्त्रियां आनंदित होकर आरती करने लगी। सभी चारों राजकुमारों को देखकर कर प्रसन्न हो रहे हैं। बहुओं सहित अपने चारो पुत्रों को देखकर माताएं आनंदित हो गई। पूरे विधि-विधान से बहुओं को गृहप्रवेश करवाया गया। याचक लोगों ने जो मांगा राजा ने सभी को वही दिया। वसिष्ठजी ने जो आज्ञा दी उसी के अनुसार राजा ने सारी रस्में निभाई।राजा ने सभी ब्राह्मणों के चरण धोकर सबको स्नान करवाया।
सभी का पूजन किया उन्हें भोजन करवाया। उन्हें महल के भीतर ठहरने के लिए स्थान दिया। फिर उचित समय देखकर राजा ने सभी को विदा किया। राजा ने सभी को विदा कर रानियों से कहा बहुएं अभी बच्ची हैं, पराए घर से आई है। इनको इस तरह रखना जैसे आंखों को पलके रखती हैं। जैसे पलके नेत्रों की हर तरह से रक्षा करती हैं और उन्हें हर तरह से सुख पहुंचाती है वैसे ही इनको सुख देना। सभी राजकुमार भी थक गए हैं। इन्हें भी ले जाकर शयन करवाओ। इतना कहकर राजा विश्राम भवन में चले गए।
और राजा दशरथ ने श्रीराम के राजतिलक की घोषणा कर दी
जब से रामजी विवाह करके घर आए, तब से अयोध्या में नित नए मंगल हो रहे हैं। नगर का ऐश्चर्य कुछ कहा नहीं जा सकता। पूरी अयोध्या की जनता सुखी है।एक बार की बात है। राजा के दशरथ अपने सिहांसन पर बैठे थे। राजा ने उस समय अपने हाथ में दर्पण ले लिया। उसमें अपना मुंह देखकर मुकुट सीधा किया। उन्होंने देखा कि कानों के पास के बाल सफेद हो गए हैं। मानों बुढ़ापा उपदेश दे रहा है कि रामजी को अब युवराज पद सौंप देना चाहिए। राजा ने अपने दिल की बात वसिष्ठजी को सुनाया।
राजा ने कहा- वसिष्ठजी रामजी अब सब प्रकार से योग्य है। अब मेरे मन में एक ही अभिलाषा है। वह भी आप के ही अनुग्रह से पूरी होगी। आप अगर आज्ञा दें तो तैयारी कि जाए। मेरे जीते जीये उत्सव हो जाए। अब मेरी सारी लालसा पूर्ण हो गई है। अब मेरे मन सिर्फ यही लालसा रह गई है। वसिष्ठजी ने उनकी बात सुनकर कहा-राजन् अब आप देर मत कीजिए। राजा खुश होकर महल में आये और उन्होंने सेवकों को बुलवाया और कहा अगर पंचों को मेरा मत सही लगे तो आप लोग श्रीराम का राजतिलक करें।
इसलिए सरस्वतीजी ने मंथरा की बुद्धि फेर दी
मुनि ने वेदों के अनुसार सभी को आज्ञा दी नगर में बहुत से मंडप सजवाओ। आम, सुपारी और केले के वृक्ष नगर की गलियों में चारों और रोप दो। सारे बाजारों को तुरंत सजाने को कह दो। कुल देवता की पूजा करो और ब्राह्मणों की सेवा करो। ध्वजा, पताका, घोड़े, हाथी आदि सभी सजाओ। वसिष्ठजी ने जिसे जैसा काम बताया। उसने वैसा काम किया।
सबसे पहले जाकर रानिवास में जिन्होंने यह समाचार सुनाया, उन्होंने बहुत से आभूषण और वस्त्र पाए। रानियों ने रामजी व कौसल्याजी ने ब्राह्माणों को बुलाकर बहुत दान दिया। लेकिन देवता यह सब देखकर चिंतित हैं। इसलिए उन्होंने माता सरस्वती को बुलाकर कहा माता हम बहुत बड़ी परेशानी में है आज आप वही कीजिए। जिससे सभी का कल्याण हो।
देवताओं की विनती सुनकर सरस्वतीजी खड़ी-खड़ी पछता रही हैं। यह देखकर देवता बोले आपको ऐसा करने से किसी तरह का कोई दोष नहीं लगेगा। आप देवताओं के हित के लिए अयोध्या जाओ। मंथरा नाम की एक मंदबुद्धि दासी थी। सरस्वती माता उसकी बुद्धि फेरकर चली गई। मंथरा ने देखा कि नगर सजाया हुआ है। उसने लोगों से पूछा कि कैसा उत्सव है।
मंथरा यह देख तुरंत कैकयी के पास पहुंची क्योंकि...
मन्थरा ने देखा कि नगर सजाया हुआ है। उसने लोगों से पूछा कि कैसा उत्सव है? श्रीरामजी के राजतिलक की बात सुनते ही उसे जलन हुई। वह दुर्बद्धि वाली दासी विचार करने लगी कि किस प्रकार से यह काम रात ही रात में बिगड़ जाए। वह उदास होकर रानी कैकयी के पास गई। कैकयी ने हंसकर कहा-तू उदास क्यों है? मंथरा कुछ उत्तर नहीं देती, केवल लंबी सांस लेने लगी और रोने लगी। रानी ने डरकर उससे पूछा तू रो क्यों रही है? क्यों इतनी गहरी सांसे ले रही है।
उसने कहा आज कौसल्या पर विधाता प्रसन्न हुए हैं। तुम स्वयं जाकर शोभा क्यों नहीं देख लेती, जिसे देखकर मेरा मन घबरा रहा है। तुम्हारा बेटा परदेस में है तो क्या उसे भूल गई हो तुम। उसके बारे में क्यों नहीं सोच रही हो। उसकी बात सुनकर रानी ने कहा घरफोड़ू कहीं की। अब तुने अगर ऐसी बात कही तो मैं तेरी जीभ खींच लुंगी।
बड़ा भाई स्वामी और छोटा भाई सेवक के समान होता है। यह सूर्यवंश की सुहानी रिति ही है। यदि सचमुच कल श्रीराम का तिलक है तो जो तेरे मन को अच्छी लगे वह चीज मांग ले। वैसे भी राम मुझ पर विशेष प्रेम रखते हैं। मैं तो उनके प्रेम की परीक्षा भी कर ली है। तुझे भरत की सौगंध तु खुशी के समय ऐसी बातें क्यों कर रही है। मुझे इसका कारण बता।
इसलिए कैकयी को मंथरा की बातें सही लगने लगी
मंथरा ने कहा मुझे सीता-राम प्रिय है और राम को तुम प्रिय हो यह बात सच्ची है। यह बात पहले थी वे दिन अब बीत गए। समय बीत जाने पर मित्र भी शत्रु हो जाते हैं। तुम्हारी सौत कौशल्या तुम्हारी जड़ उखाडऩा चाहती है। तुम बहुत भोली हो राजा मन के मैले और मुंह के भोले हैं। राम की माता बहुत चतुर और गंभीर हैं। उसने मौका पाकर अपनी बात बना ली।
राजा ने भरत को तो ननिहाल भेज दिया, उसे आप बस राम की ही सलाह समझिए। कौसल्या को तो तुम सालों से बहुत खटकती हो। राजा का तुम पर विशेष प्रेम है। कौशल्या तुम्हारी सौत होने के कारण ऐसा होते नहीं देख सकती। इसीलिए वह चाहती है भरत की अनुपस्थिति में राम का राजतिलक हो। इस तरह उल्टी-सीधी बाते करके मंथरा ने कैकयी को समझा दिया।
तब कैकयी के मन में विश्वास हो गया। रानी फिर सौगंध दिलाकर पूछने लगी। तब मंथरा ने कहा क्या पूछती हो? अरे तुमने अभी भी नहीं समझा? अपने भले बुरे को तो पशु भी पहचान लेते हैं। तब कैकयी की बुद्धि कुचाल हो गई। उसने मंथरा से कहा सुन तेरी बात सच है। मेरी दाहिनी आंख रोज फड़कती है। अशुभ सपने आते हैं लेकिन मैंने यह बात तुझे नहीं बताई।
जब कैकयी जा बैठी कोप भवन में तो...
तब मंथरा ने कहा राजा के पास दो वरदान तुम्हारी धरोहर है। आज उन्हें राजा से मांगकर अपनी छाती ठंडी करो। पुत्र को राज्य और राम को वनवास दो अपनी सौत का सारा आनंद तुम ले लो। जब राजा राम की सौगंध खा ले तब वर मांगना, जिससे राजा वचन को टाल ना पाए। मंथरा ने रानी से कहा तुम कोप भवन में जाओ।
सब काम बड़ी सावधानी से करना। राजा दशरथ की बातों में मत आना। कैकयी कोप का सब साज सजाकर जा सोई। राजमहल और नगर में धूम-धाम मच रही है। सभी लोग खुश हैं। राजद्वार पर बहुत भीड़ हो रही है। राजा दशरथ जब शाम के समय कैकयी के महल में गए। तब उन्हें पता चला कि रानी कोप भवन में है।
कोप भवन का नाम सुनकर राजा सहम गए। डर के मारे उनके पांव आगे नहीं बढ़ रहे थे। राजा डरते-डरते अपनी प्यारी रानी के पास गए। उसकी दशा देखकर उन्हें बड़ा दुख हुआ। राजा ने कैकयी के पास जाकर पूछा - तुम किस लिए रूठी हुई हो। यह कहकर राजा ने कैकयी को स्पर्श किया तब कैकयी ने उनके हाथ को झटक दिया। वह राजा की तरफ इस तरह देखने लगी माने को क्रोध से भरी नागिन हो। राजा उसे समझाने लगे। वे बोले कैकयी जब तक मेरे पुत्र हैं तब तक मेरे प्राण हैं। अगर मेरे मन में थोड़ा सा भी छल हो तो मेरे प्राण चले जाएं। मुझे राम की सौगंध है। तब कैकयी ने राजा से कहा आप हमेशा कहते हैं कि कुछ मांग-मांग पर देते कुछ नहीं है। आपने दो वरदान देने को कहा था उनके मिलने में संदेह है।
तब कैकयी ने मांगे दशरथ से ये दो वचन....
राजा ने कैकयी कि बात सुनकर कहा अब मैं तुम्हारा मतलब समझा। तुमने उन वरों को रखकर फिर कभी मांगा ही नहीं और मेरा भूलने का स्वभाव होने से मुझे भी याद नहीं आया। मुझे झूठा दोष मत दो। चाहे दो के बदले चार मांग लो। रघुकुल में हमेशा यही रीति चली आई है कि प्राण भले ही चले जाए, पर वचन नहीं जाता । उस पर मैंने राम की शपथ ली है।
तब कैकयी बोली मुझे मेरी इच्छा के अनुसार एक वर तो दीजिए भरत को राजतिलक। दूसरा वर है कि राम चौदह वर्ष तक वन में निवास करें। राजा कैकयी की बात सुनकर जैसे सहम गए, उनसे कुछ कहते नहीं बना। राजा दशरथ ने अपना हाथ माथे पर रखकर दोनों आंखें बंद कर ली। राजा का ऐसा हाल देखकर कै कयी मन ही मन मे गुस्से से भर गई। कैकयी बोली क्या भरत आपके पुत्र नहीं हैं। क्या आप मुझे आप दाम देकर खरीद लाए हैं? आपको मेरा वचन सुनते ही इतना बुरा लगा तो सोच-समझकर बात क्यों नहीं करते हैं।
आपने ही वर देने को कहा था अब भले ही मत दीजिए। सच का साथ छोड़ दीजिए। राजा ने जब देखा कि कैकयी का स्वरूप बड़ा ही भयानक और कठोर है।
तब उन्होंने कहा कैकयी मैं शंकरजी को साक्षी मानकर सच कहता हूं कि मैं जरूर सुबह दूत भेज दूंगा। भरत व शत्रुघ्र दोनों तुरंत आ जाएंगे। मैं भरत का राजतिलक कर दूंगा। अब तो गुस्सा छोड़ दो । कुछ ही दिनों में भरत युवराज हो जाएंगे। अब ये क्रोध छोड़कर विचार करके कोई और दूसरा वर मांगो क्योंकि राम के बिना मेरा जीवन नहीं है।
जब रामजी दशरथ के बुलावे पर महल पहुंचे तो...
मैंने आपसे जो वर मांगा है वो मुझे दीजिए या अपयश ले लीजिए। राम साधु हैं। राम की माता भी बहुत भली हैं। मैंने सबको पहचान लिया है। सबेरा होते ही मुनिका वेष धारण कर यदि राम वन नहीं जाते हैं तो मैं अपने आप को खत्म कर लुंगी। ऐसा कहकर कैकयी खड़ी हो गई। राजा समझ गए कि कैकयी नहीं मानने वाली है। राजा व्याकुल हो गए। उनका सारा शरीर शिथिल पड़ गया।
कैकयी की बात सुनकर राजा ने यह कहा तू चाहे जो बोल या कर पर राम को वनवास भेजने की बात मत कर। मैं हाथ जोड़कर तुझसे विनती करता हूं। राजा को विलाप करते-करते सवेरा हो गया। राजद्वार पर भीड़ लग गई। वे सब सूर्य को उदय हुआ देखकर कहते हैं कि ऐसा कौन सा विशेष कारण हैं कि अवधपति दशरथ अभी तक नहीं जागे। राजा रोज ही रात के पहले ही पहर में ही जाग जाया करते हैं लेकिन आज हमें बहुत
आश्चर्य हो रहा है। जाओ जाकर राजा को जगाओ। तब सुमन्त राजमहल में गए। जहां राजा और कैकयी थे। सुमन्त ने देखा कि राजमहल में बहुत सन्नाटा है। पूछने पर कोई जवाब नहीं देता। राजा के चेहरे पर व्याकुलता है वे जमीन पर पड़े हैं।
मंत्री से डर के मारे कुछ नहीं पूछ सकते। तब कैकयी बोली। राजा को रातभर नींद नहीं आई। तुम जल्दी राम को बुलाकर लाओ। फिर कुछ पूछना। राजा का रूख जानकर सुमंतजी समझ गए कि वे रानी की किसी बात से दुखी हैं। जब सुमंतजी रामजी को बुलाने पहुचे तो वे तुरंत ही उनके साथ चल दिए। जब श्रीरामजी ने जाकर देखा कि राजा बहुत बुरी हालत में पड़े हैं। उनके ओंठ सुख रहे हैं। उनके पास ही उन्होंने गुस्से में बैठी कैकयी को देखा।
जब राम ने दशरथ के दुख का कारण पूछा तो कैकयी बोली...
रामचन्द्रजी ने ऐसा दुख कभी पहले देखा भी नहीं था और ना ही सुना था। फिर उन्होंने कुछ समय सोचा और कैकयी से पूछा माता पिताजी के दुख का कारण क्या है? तब कैकयी ने कहा तुमसे प्रेम ही तुम्हारे पिता के दुख का कारण है। जिससे उस दुख का निवारण हो वही काम करो। सारा कारण यही है कि राजा का तुम पर बहुत प्रेम है। इन्होंने मुझे दो वरदान देने को कहा था। मुझे जो कुछ अच्छा लगा, वही मैंने मांगा। मेरे वर सुनकर राजा दुखी हो गए क्योंकि वो तुम्हारा साथ नहीं छोड़ सकते।
एक तरफ तो पुत्र का प्यार और दुसरी तरफ उनकी प्रतिज्ञा। राजा धर्मसंकट में हैं। कैकयी बेधड़क बैठी ऐसी ही कड़वी बातें किए जा रही थी। रामजी मुस्कुराकर बोले माता सुनो वही पुत्र भाग्यवान है। जो अपनी माता-पिता की आज्ञा का पालन करने वाला हो। माता-पिता को संतुष्ट करने वाले पुत्र इस संसार में दुर्लभ होते हैं। भरत राज्य पाएंगे। आज विधाता सब प्रकार से मेरे अनुकूल है। यदि ऐसे काम के लिए मैं वन ना जाऊं तो मुर्खों के समाज में मेरी गिनती सबसे पहले की जाएगी।
मेरा प्रिय भाई भरत राज्य पाएंगा तो इससे ज्यादा खुशी की बात मेरे लिए और क्या हो सकती है। माता मुझे इतनी सी बात को लेकर पिताजी का इस तरह व्याकुल होना ठीक नहीं लग रहा है। महाराज तो बहुत ही धीर बुद्धि वाले हैं वो मुझसे कुछ नहीं कहते तो यह मेरा ही कुछ अपराध है। रानी कैकयी रामजी का रूख देखकर बहुत प्रसन्न हो गई। उन्हें कपटपूर्ण प्रेम दिखाकर बोली-तुम्हारी शपथ और भरत की सौगंध, इसके अलावा राजा के दुख का कोई और कारण नहीं है।
क्यों पड़ गई रानी कौशल्या धर्मसंकट में?
कैकयी दुखी हो रही है वे अपनी सखियों को दुख और शोक के कारण जवाब नहीं दे रही है। नगर में सारे स्त्री पुरूष इस तरह विलाप कर रहे हैं। सभी दुख की आग में जल रहे हैं। रामजी माता कौसल्या के पास गए। उनका मन प्रसन्न है क्योंकि रामजी को राजतिलक की बात सुनकर विषाद हुआ था कि सब भाइयों को छोड़कर बड़े भाई को ही राजतिलक क्यों किया जाता है?
अब माता कैकयी की आज्ञा पाकर और पिता की मौन सहमति से वह सोच मिट गई। रामजी ने अपने दोनों हाथ जोड़कर माता के चरणों में सिर नवाया। माता ने आशीर्वाद दिया, उसे अपने गले से लगा लिया और उन पर गहने और कपड़े न्यौछावर किए। रामजी ने इसे अपना धर्म जानकर माता से बहुत कोमल वाणी में कहा पिताजी मुझको वन का राज्य दिया है, जहां सब तरह से मेरा बड़ा काम बनने वाला है।
चौदह वर्ष वन में रहकर पिताजी के वचन को प्रमाणित करके। तेरे चरणों के दर्शन करूंगा। उस प्रसंग को देखकर वे गूंगी जैसी रह गई। उनकी दशा का वर्णन नहीं किया जा सकता। धर्म और स्नेह दोनों ने ही कौसल्याजी को बुद्धि से घेर लिया। वे सोचने लगी अगर मैं पुत्र को रख लेती हूं और भाइयों का विरोध होता है। यदि वन को जाने को कहती हूं तो बड़ी हानि होती है। इस तरह सोचकर रानी धर्म संकट में पड़ गई।
ये सुनकर तो सीताजी की पायल भी दुखी हो गई
कौसल्या ने कहा यदि पिताजी की आज्ञा हो तो माता को (पिता से) बड़ी जानकार वन को मत जाओ। यदि माता-पिता दोनों ने वन जाने को कहा हो तो वन तुम्हारे लिए सैकड़ों अयोध्या के समान है। वन के देवता तुम्हारे पिता होंगे। वन देवियां तुम्हारी माताएं होंगी। वहां के पशु पक्षी तुम्हारे चरणों के सेवक होंगे। राजा के लिए अंत में तो वनवास करना उचित ही है। केवल तुम्हारी अवस्था देखकर हृदय में दुख होता है। वन बड़ा भाग्यवान है और यह अयोध्या अभागी है जिसे तुमने त्याग दिया। यदि मैं कहूं कि मुझे भी साथ ले चलो तुम्हारे हृदय में संदेह है। ऐसा विचारकर वही उपाय करना जिसमें सबके जीते जी तुम आ मिलो। मैं बलिहारी जाती हूं। आज सबका पुण्य पूरा हो सकेगा। उसी समय समाचार सुनकर सीताजी घबरा गई। सास के पास आकर उनके चरण छूकर सीताजी उनके नजदीक बैठ गई।
सास ने मीठी वाणी से आर्शीवाद दिया। वे सीताजी को देखकर व्याकुल हो गई। सीताजी अपने पैरों के नाखून से पैर कुरैदती हैं। ऐसा करते समय पैरों की पायल छनक रही है। मानों पैरों की पायल यह विनती कर रही है। सीताजी के पैर कभी हमारा त्याग ना करें। सीताजी की आंखों से आंसु बह रहे हैं। उनकी यह दशा देखकर रामजी की माता कौशल्या बोली सुनों सीता अत्यंत ही सुकुमारी है और सास, ससुर कुटुंब सभी को प्यारी है। ये सुंदरगुण वाली प्यारी पुत्रवधु है। हमें अपने प्राणों से अधिक प्रिय हैं।
जब सीता ने जताई राम के साथ वनवास जाने की इच्छा तो...
कौशल्या माता को पता चला कि सीताजी भी रामजी के साथ वन जाना चाहती है। तब उन्होंने रामजी से कहा सीता पिता जनकजी राजाओं में शिरोमणि है। वे सुंदर गुणों वाली और शीलवाली प्यारी पुत्रवधु है। ये बहुत ही लाड़ प्यार में पाली गई है। सीता ने कभी पृथ्वी पर पैर भी नहीं रखा। वही सीता वन में राम के साथ जाना चाहती है। राम तुम ही बताओ क्या सुंदर संजीवनी बूटी कभी वन में शोभा पा सकती है? तुम हर तरह से विचारकर मुझे आज्ञा दो, मैं जानकी को वैसी ही शिक्षा दूं।
माता कहती है सीता से घर में मुझे बहुत सहारा हो गया है। रामजी माता के सामने सीताजी के बारे में कुछ कहने में सकुचाते हैं। मन में यह समझकर की यह समय ऐसा ही है। वे सीताजी से कहते हैं जो अपना ओर मेरा भला चाहती हो तो मेरा वचन मानकर घर रहो। मेरी आज्ञा का पालन होगा, सास की सेवा बन पड़ेगी। आदरपूर्वक सास ससुर की पूजा करने से बड़ा कोई धर्म नहीं है। जब-जब माता मुझे याद करेगी वे अपने आप को भूल जाएंगी। तब तुम उन्हें अपनी कोमल वाणी से कथा सुनाकर इन्हें समझाना। मेरे आज्ञा मानकर घर पर रहने से तुम्हे बिना क्लेश धर्म का फल मिल जाता है। अगर प्रेमवश जिद करोगी तो तुम दुख पाओगी। पर्वतों और गुफाओं में रहना।
जमीन पर सोना, पेड़ों की छाल में वस्त्र पहनना और कन्द मूल का भोजन करना होगा। वे भी कहां हर दिन मिल पाएगा। मनुष्यों को खाने चाले निशाचर फिरते रहते हैं। वे करोड़ों प्रकार के कपट रूप धारण कर लेते हैं। वन में भयानक पक्षी और स्त्री पुरूषों को चुराने वाले राक्षसों के झुंड के झुंड रहते हैं। वन की याद आने मात्र से धीर पुरुष भी डर जाते है। तुम वन में रहने के योग्य नहीं हो। तुम्हारे वन जाने की बात सुनकर लोग मुझे अपयश देंगे।
और तब मान गए राम-सीता को वन ले जाने के लिए
सीताजी से रामजी ने कहा तुम वन में रहने योग्य नहीं हो। तुम वन के कष्टों को सहन नहीं कर पाओगी। रामजी के मुंह से ये सारी बातें सुनकर सीताजी की सुंदर आंखों में पानी भर आया। उनसे कुछ भी कहा नहीं जा रहा है। वे यह सोचकर व्याकुल हो गई कि मेरे पवित्र स्वामी मुझे छोड़ देना चाहते हैं। सीताजी सास के पैर लगकर और हाथ जोड़कर कहने लगी। माता मेरी ढिठाई को माफ कीजिए। लेकिन मेरे मन को यही लगता है कि पति के वियोग के समान संसार में कोई दुख नहीं है। जिस बिना आत्मा के शरीर होता है वैसे ही बिना पति के स्त्री होती है। सीताजी श्रीरामजी से कहती हैं आपके साथ पक्षी और पशु ही मेरे कुटुंबी होंगे।
वन ही नगर और वृक्षों की छाल ही मेरे लिए निर्मल वस्त्र होंगे। वनदेवी और वनदेवता सास-ससुर के समान मेरी साज-संभाल करेंगे। वन में चाहे कितनी ही परेशानियां हो लेकिन वे सभी पति के वियोग से बढ़कर नहीं हैं। हर क्षण आपके पैरों के दर्शन करके मैं सभी प्रकार से आपकी सेवा करूंगी और मार्ग चलने से होने वाली सारी थकावट को दूर करूंगी। ऐसा कहकर सीताजी बहुत ही व्याकुल हो गई। वे बातों में भी वियोग को सहन नहीं कर पा रही हैं। तब रामजी ने उनकी दशा देखते हुए कहा सोच छोड़कर मेरे साथ वन को चलो। आज दुख करने का अवसर नहीं है तुरंत वनगमन की तैयारी करो।
इतना कहकर रामजी ने लक्ष्मणजी को गले लगा लिया
रामजी ने माता सीता को समझाया। फिर उन्होंने माता कौशल्या से आर्शीवाद लिया। तब माता कौशल्या ने उन्हें आर्शीवाद दिया बेटा जल्दी लौटकर प्रजा के दुख को मिटाना। जब वन जाने की सब तैयारी हो गई तब सीता ने अपनी सास से आशीर्वाद लिया। जब लक्ष्मणजी ने ये समाचार पाये तब वे व्याकुल हो गए। उनका शरीर घबराहट से कांपने लगा। उन्होंने जाकर रामजी के पैर पकड़ लिए वे कुछ कह नहीं पाए क्योंकि उन्हें ये लगा कि रामजी क्या कहेंगे। घर पर रखेंगे या साथ चलेंगे? तब रामजी ने लक्ष्मण के हाथ जोड़े और शरीर घर सभी से नाता तोड़े हुए खड़े देखा।
तब रामजी ने लक्ष्मण को समझाया कहा भरत व शत्रुघ्र घर पर नहीं है। महाराज वृद्ध है और उनके मन में मेरे लिए दुख है। ऐसी स्थिति में अगर तुम्हें मैं वन ले जाऊंगा तो अयोध्या का नाश हो जाएगा। तुम यही रहो सबके संतोष के लिए यही जरूरी है। तुम मेरी बात मानों घर जाओ यह सुनते ही लक्ष्मणजी बहुत व्याकुल हो गए। इन शीतल वचनों जैसे सुख गए। राम के चरण पकड़कर बोले मैं आपका दास हूं। आप मेरे स्वामी हैं मुझे छोड़ ही दें तो मेरा क्या वश है। आपने मुझे सीख तो बड़ी अच्छी दी है। मैं तो आपके प्यार में पला हुआ छोटा बच्चा हूं। कभी हंस भी सुमेरु पर्वत को उठा सकते हैं। आप विश्वास करें मैं आपको छोड़कर गुरु, पिता, माता किसी को भी नहीं जानता।
रामजी लक्ष्मणजी की ऐसी बातें सुनकर उन्हें गले से लगा लिया और कहा जाकर माता से विदा मांग लाओं और जल्दी वन चलो। वे हर्षित हृदय से माता सुमित्राजी के पास गए। उन्होंने जाकर अपनी माता के चरण स्पर्श किए। उनका आशीर्वाद लिया तब माता ने उन्हें उदास देखा तो पूछने लगी। जब लक्ष्मणजी ने सारी कहानी विस्तार से सुना दी। पहले तो सुमित्रा लक्ष्मणजी की बातें सुनकर सहम गई। लेकिन फिर थोड़ा धैर्य धारण करने के बाद उन्हें वन जाने की आज्ञा दे दी।
जब रामजी वनवास पर जाने लगे तो...
अब सुमित्रा से आज्ञा लेने के बाद राम लक्ष्मण और सीता तीनों ही वनगमन के लिए माता कौशल्या व दशरथजी के पास विदाई के लिए पहुंचे। रामजी मुनि का वेष बनाकर और माता-पिता को सिर नवाकर चल दिए। राजमहल से निकलकर रामजी वसिष्ठजी के दरवाजे पर जा खड़े हुए और देखा। सब लोग विरह की अग्रि में जल रहे हैं। उन्होंने प्रिय वचन कहकर सबको समझाया। फिर रामजी ने ब्राह्मणों की मंडली को बुलवाया। सभी को वर्षभर का भोजन दान में दिया। दास दासियों को बुलाकर उन्हें गुरुजी को सौंपा। इस तरह रामजी सबको समझाया और हर्षित होकर गुरुजी के चरणकमलों में सिर नवाया। फिर गणेशजी व महादेवजी को मनाकर रामजी चल दिए। रामजी के चलते ही लंका में बुरे शकुन होने लगे।
यह सब देखकर दशरथ ने सुमन्त को बुलाकर कहा- सुमन्त तुम राम से जाकर कहना कि उसके वन चले जाने से मेरे शरीर में प्राण नहीं रहे हैं। इससे अधिक बलवती और कौन सी व्यथा होगी। तुम रथ लेकर राम के साथ जाओ। दोनों राजकुमार व सीता को रथ मे चढ़ाकर वन ले जाओ। चार दिन बाद लौट आना। यदि दोनो भाई ना लौटें क्योंकि वे नियम के पक्के हैं तो सीता को विनती करके वापस ले आना। जब सीता वन को देखकर डरें तो मौका पाकर मेरी यह सीख उनसे कहना कि तुम्हारी सास और ससुर ने ऐसा संदेश भेजा है कि तुम लौट चलो वन में बहुत क्लेश है।
रामजी जब विदा होने लगे तो...
इतना कहकर राजा बेहोश हो गए। रामजी अयोध्या से विदा हो गए। राम के पीछे आयोध्यावासी चलने लगे। यह स्थिति देखकर रामजी असमंजस में पड़ गए। जब दो पहर बीत गए तब रामजी ने अपने मंत्री से कहा आप इस तरह रथ को हांकिए कि पहिए के चिन्ह पता न चलें। शंकरजी के चरणों में सिर नवाकर रामजी, लक्ष्मणजी, और सीताजी रथ पर सवार हुए। सुबह होते ही सब लोग जागे, तो बड़ा शोर मचा रामजी चले गए। रथ के पहियों के निशान न होने के कारण कोई भी उनके चिन्हों को नहीं ढूंढ पा रहा था।
सब लोग रामजी को ढ़ूंढ रहे हैं। वे लोग अपनी निंदा करते हैं और मछलियों की सराहना करते हैं। रामजी के बिना हमारे जीने को धिक्कार है। विधाता ने यदि प्यार का वियोग ही रचा तो फिर उसने मांगने पर मृत्यु क्यों नहीं दी। सभी स्त्री-पुरुष रामजी के दर्शन के लिए नियम और व्रत करने लगे। सीताजी मंत्रीसहित दोनों भाई श्रृंगवेरपुर पहुंचे। वहां गंगाजी को देखकर श्रीरामजी रथ से उतर पड़े। लक्ष्मणजी, सुमन्त और सीताजी ने भी गंगाजी को प्रणाम किया। इसके बाद सबने स्नान किया, जिससे मार्ग का सारी थकान दूर हो गई। पवित्र जल पीते ही मन प्रसन्न हो गया। जब निषादराज गुहने को यह खबरे मिली तो वे बहुत खुश हुए उन्होंने अपने भाई बंधुओं को बुला लिया।
रामजी को ऐसे देख निषादराज दुखी हो गया क्योंकि....
निषादराज ने रामजी से भेंट करके उन्हें दण्डवत प्रणाम किया। वह प्रेम से प्रभु को देखने लगा। आज में भाग्यवान पुरुषों की गिनती में आ गया हूं। अब कृपा करके पुर में पधारिए। मैं तो परिवार सहित आपका नीच सेवक हूं। इस दास की प्रतिष्ठा बढ़ाएं। जिससे सब लोग मेरे भाग्य की बढ़ाई करें। रामचंद्रजी ने कहा-तुमने जो कुछ कहा सब सत्य है। पिताजी ने मुझको आज्ञा दी है। मुझे चौदह वर्ष तक मुनियों का वेष धारण करके, वन का आहार करते हुए वन में ही बसना है।
गांव के भीतर निवास करना उचित नहीं है। रामजी, लक्ष्मणजी और सीताजी के रूप को देखकर गांव के लोग चर्चा करते हुए कहते है। वे माता-पिता कैसे हैं, जिन्होंने ऐसे बालकों को वन में भेज दिया। कोई कहता है राजा ने अच्छा किया, इसी बहाने हमें भी नेत्र लाभ हो गया। पुरवासी लोग वंदना करके अपने-अपने घर लौटे और रामजी संध्या करने पधारे। उसके बाद सीताजी, सुमन्तजी और लक्ष्मण सहित कन्द मूल फल खाकर रामजी लेट गए। भाई लक्ष्मण उनके पैर दबाने लगे। रामजी को सोते जानकर लक्ष्मणजी उठे और कोमल वाणी से सुमन्तजी को सोने के लिए कहकर वहा से कुछ दूर पर धनुष बाण से सजकर वीरासन में बैठकर जागने लगे।
निषादराज गुहने ने विश्वासपात्र पहरेदारों को बुलाकर बहुत प्रेम से जगह-जगह नियुक्त कर दिया। वह खुद कमर में तरकस बांधकर तथा धनुष पर बाण चढ़ाकर लक्ष्मणजी के पास जा बैठा। रामजी को जमीन पर सोते देख निषादराज के हृदय में विषाद हो गया। उसका शरीर पुलकित हो गया। नैत्रों से जल बहने लगा।
जब मंत्री लेकर आए दशरथ का संदेश तो...
वे सोचने लगे महाराज दशरथजी का महल तो बहुत सुंदर है। सुंदर मणियों के बने हुए वे महल जिन्हें रति के पति कामदेव ने अपने हाथों सजाकर बनाया है। जो पवित्र और बड़े ही विलक्षण व सुंदर है। जहां अनेकों वस्त्र तकिये और गद्दे हैं। वहां सीताजी और रामचंद्रजी रात को सोया करते थे। वही सीताजी और रामजी आज घास-फूस पर सो रहे हैं। ऐसी दशा में वे देखे नहीं जाते। कैकयराज की लड़की नीच बुद्धि कैकयी बड़ी ही कुटीलता की, जिसने रघुनंदन व जानकीजी को सुख के समय दुख दिया। यह सब देखकर निषादराज दुखी हो रहे हैं। तभी वहां सुमंतजी आए और उन्होंने महाराज दशरथ का संदेश रामजी को सुनाया।
सुमंतजी ने कहा- राम वही कीजिए जिससे अयोध्या अनाथ न हो। रामजी ने मंत्री को धैर्य बंधाते हुए समझाया कि आपने तो धर्म के सभी सिद्धातों को छान डाला है। राजा हरिशचंद्र ने धर्म के लिए करोड़ों कष्ट सहे थे। वेद और पुराणों में भी कहा गया है कि सत्य के समान कोई धर्म नहीं है। इस का त्याग करने से तीनों लोकों में अपयश फैल जाता है। प्रतिष्ठित पुरुष के लिए अपयश मिलना करोड़ो बार मरने के समान है। आप जाकर पिताजी के चरण पकड़कर करोड़ों नमस्कार के साथ हाथ जोड़कर विनती करिएगा कि आप मेरी किसी बात की चिंता न करें।
इसलिए केवट ने रामजी के सामने रख दी शर्त
आप भी पिताजी के समान ही मेरे हितैषी हैं। मैं हाथ जोड़कर आपसे विनती करता हूं। आपका भी सब प्रकार से वही कर्तव्य है जिसमें पिताजी हम लोगों के सोच में दुख: न पावे। सुमन्त और रामजी का यह संवाद सुनकर निषादराज कुटुंबियों सहित व्याकुल हो गया। फिर लक्ष्मणजी ने कुछ कड़वी बात कही। रामजी ने उसे बहुत ही अनुचित जानकर उनको मना किया। रामजी ने सकुचाकर अपनी सौगंध दिलाकर सुमंतजी से कहा कि आप जाकर लक्ष्मण का यह संदेश पिताजी को जाकर मत सुनाइयेगा। सुमंत ने फिर राजा का संदेश कहा कि सीता वन में आने वाली परेशानियों में नहीं रह सकेंगी। जिस तरह सीता अयोध्या को लौट आवें तुमको और रामजी को वही उपाय करना चाहिए। रामजी ने कहा सीता के मायके और ससुराल में सब सुख हैं। जब तक यह विपत्ति दूर नहीं होती तब तक वे जब जहां जी चाहे वहीं सुखी रहेंगी। जो तुम घर लौट जाओ तो सास, ससुर, गुरु, प्रियजन व कुटुंबी सबकी चिंता मिट जाएगी। पति की बात सुनकर सीताजी बोली जिस तरह चांदनी कभी चंद्रमा के बिना सुखी नहं रह सकती ठीक उसी तरह मैं प्रभु से अलग नहीं रह सकती। सुमन्तजी ने रथ को हांका और वहां से चले गए। उसके बाद रामजी गंगा के तट पर आए।
रामजी ने केवट से नाव मांगी, पर वह नाव नहीं लाया और वह कहने लगा-मैं तुम्हारा भेद जानता हूं। तुम्हारे छूते ही पत्थर की शीला सुंदर स्त्री हो गई। मेरी नाव उड़ जाएगी मैं लुट जाऊंगा। जिससे आप पार ना हो सकेंगे। मेरी रोजी मारी जाएगी। मैं तो इसी नाव से सारे परिवार का पालन पोषण करता हूं। दूसरा कोई धंधा नहीं जानता। हे प्रभु यदि आप नदी के पार जाना चाहते हों तो मुझे पहले अपने चरण धो लेने दो। मैं चरण धोकर आप लोगों को नाव पर चढ़ा लूंगा। मैं आपसे उतराई कुछ नहीं चाहता। आपको दशरथजी की सौगंध है। मैं सब सच-सच कहता हूं। लक्ष्मणजी भले ही मुझे तीर मारे लेकिन जब तक में आपके पैरों को ना पखार लूं। मैं पार नहीं उतारूंगा।
रामजी ने जब केवट से लौट जाने को कहा तो...
केवट की अटपटी बात सुनकर रामजी और सीताजी लक्ष्मण की तरफ देखकर हंसे। रामजी केवट से बोले भाई तू वही कर जिससे तेरी नाव न जाए। जल्दी पानी ला और पैर धोले। देर हो रही है पैर उतार दे। रामजी की आज्ञा पाकर वह कठौती में जल ले आया। बहुत आनंद से भगवान के चरण धोने लगा। सब देवता फूल बरसाने लगे। निषादराज और लक्ष्मणसहित सीताजी और रामचंद्रजी उतरकर गंगाजी की रेत पर खड़े हो गए। तब केवट ने उतरकर दंडवत की। रामजी को संकोच हुआ कि इसको कुछ दिया ही नहीं। तब पति को समझने वाली सीताजी ने अपनी रत्न जडि़त अंगुठी ने उतारकर केवट को दे दी। केवट से कहा नाव उतराई लो। केवट ने व्याकुल होकर उनके चरण पकड़ लिए। आज मैंने क्या नहीं पाया मेरे दोष दुख और दरिद्रता की आग आज बुझ गई है। मैंने बहुत समयतक मजदुरी की। विधाता ने आज बहुत अच्छी भरपूर मजदूर दे दी।
रामजी, लक्ष्मणजी, सीताजी, ने बहुत आग्रह किया, पर केवट कुछ नहीं लेता।करुणा के धाम भगवान श्रीरामजी ने निर्मल भक्ति का वरदान देकर उसे विदा करना चाहा पर केवट अभी विदा नहीं होना चाहता था। फिर रामजी ने स्नान करके पार्थिव पूजा की और शिवजी को सिर नवाया। सीताजी ने हाथ जोड़कर गंगाजी से कहा मेरी मनोकामना पूरी कीजिए। उसके बाद रामजी ने निषादराज से कहा तुम घर जाओ। यह सुनते ही उसका मुंह सुख गया। हाथ जोड़कर वह बोला मेरी विनती सुनिए। मैं आपके साथ रहकर रास्ता दिखाकर कुछ दिन और आपकी सेवा करना चाहता हूं। जिस वन में आप जाकर रहेंगे वहां में सुंदर कुटिया बना दूंगा। तब मुझे आप जैसी आज्ञा देंगे मैं वैसे ही करुंगा। उसके स्वाभाविक प्रेम को देखकर रामजी ने उसे साथ लिया।
जब रामजी ने यमुना में स्नान किया तो....
रामजी सीताजी व लक्ष्मण निषादराज सहित भारद्वाजजी के पास आए। वहां मुनिराज के साथ कुछ समय रूके। मुनि भारद्वाज भी उनके दर्शन पाकर धन्य हो गए। रामजी ने रात को वहीं विश्राम किया। उसके बाद सुबह होते ही प्रयागराज में स्नान करके वे रामजी सीताजी व लक्ष्मणजी और सेवक गुह के साथ चले। बड़े प्रेम से रामजी ने मुनि से कहा बताइए हम किस मार्ग से जाएं। मुनि मन से हंसकर रामजी से कह कि आपके लिए सभी मार्ग सरल है। फिर उनके साथ के लिए मुनि ने शिष्यों को बुलाया। तब मुनि ने चार ब्रह्मचारियों को साथ कर दिया। जब वे किसी गांव के पास से होकर निकलते हैं। तब स्त्री पुरुष दौड़कर उन्हें देखने लगते हैं। यमुनाजी के किनारे रहने वाले स्त्री-पुरूष दौड़कर उनके रूप को देखने लगते हैं। रामजी ने विनती करके चारों ब्रह्मचारियों को विदा किया। वे मनचाही वस्तु पाकर लौटे। यमुनाजी के पार उतरकर सब ने यमुनाजी के जल में स्नान किया। जो रामजी के शरीर के समान ही श्याम रंग का था।
यमुनाजी किनारे पर रहने वाले सभी लोग अपना अपना काम भुलकर दौड़े और लक्ष्मणजी, रामजी, सीताजी का सौन्दर्य देखकर अपने भाग्य की बढ़ाई करने लगे। उन्होंने सब कथा सब लोगों को सुनाई कि पिता की आज्ञा पाकर ये वन को चले हैं। यह सुनकर लोगों को बहुत दुख हो रहा है। उसी अवसर पर वहां एक तपस्वी आया। उसके चेहरे पर बहुत तेज था। वह वैरागी वेष में था। रामजी का प्रेमी था। अपने इष्टदेव को पहचानकर उसके नेत्रों में जलभर आया। रामजी ने भी प्रसन्न होकर उसे गले से लगा लिया। फिर उसने लक्ष्मणजी के चरणों को छुआ। माता सीता ने भी उन्हें अपना छोटा बच्चा समझकर आर्शीवाद दिया। निषादराज ने उसे प्रणाम किया। उसके बाद रामजी ने निषादराज को समझाकर घर जाने को तैयार कर लिया। रास्ते में जाते हुए दोनों भाइयों को बहुत से लोग मिले। सीताजी और लक्ष्मणजी सहित रघुनाथजी जब किसी गांव के पास जा निकलते है।
सभी गांव वाले भगवान को दोष दे रहे हैं क्योंकि...
रामजी सीताजी व लक्ष्मणजी जहां से भी गुजरते हैं वहां सभी लोग उन पर मोहित हो जाते हैं। सीताजी के पास आकर गंाव की महिलाएं कहती हैं तुम्हारे साथ यह सुंदर पुरुष कौन है? वह मन ही मन मुस्कुराई। सीताजी उनको देखकर जमीन की तरफ देखती हैं। वे दोंनो ओर के संकोच से सकुचा रही हैं। ये तो सहजस्वभाव वाले सुंदर और गौरे मेरे देवर लक्ष्मण है। फिर सीताजी ने अपने सुंदर नेत्रों से रामजी की ओर इशारा करते हुए कहा कि ये मेरे पति हैं। वे बहुत प्रेम से सीताजी के पैरों पकड़कर बहुत आशीर्वाद देती हैं। उन्होंने सीताजी से कहा जब आप वापस लौटें तो इसी रास्ते से लौटे। हमें अपनी दासी मानकर दर्शन दें।
उसी समय रामजी का रुख जानकर लक्ष्मणजी ने लोगों से रास्ता पूछा। यह सुनते ही वहां मौजुद सभी स्त्री-पुरुष दुखी हो गए। उनके शरीर पुलकित हो गए और नेत्रों में जल भर आया। उनका आनंद मिट गया। मन उदास हो गए। लेकिन इसे कर्म की गति समझकर सभी ने धैर्य धारण किया। तब लक्ष्मणजी और जानकीजी सहित रामजी वहां से चले और सब लोगों से बात कर उन्हें वहां से लौटाया। लौटते हुए सभी स्त्री-पुरुष बहुत निराश है। वे एक-दूसरे से कह रहे हैं कि परमात्मा निष्ठुर है इसीलिए उन्होंने समुद्र को खारा बनाया और चांद की सुंदरता पर दाग दे दिए और इन राजकुमारों को वन भेजा। जब विधाता ने इन्हें वन में भेजा तो उन्होंने व्यर्थ ही भोग-विलास बनाए।
तो इसलिए सीताजी को जंगल के सारे दुख भी सुख लगने लगे
रामजी चित्रकुट में आ बसे हैं, यह समाचार सुन-सुनकर बहुत से मुनि आए। रघुकुल के चंद्रमा रामजी ने दण्डवत प्रणाम किया। मुनिगण रामजी को हृदय से लगा लेते हैं और सफल होने के लिए आशीर्वाद लेते हैं। रामजी ने यथायोग्य सम्मान करके मुनि मण्डली को विदा किया। यह समाचार जब कोल-भीलों ने पाया तो वे ऐसे हर्षित हुए मानों नवों निधियां घर पर आ गई। वे दोनों में कंद, मूल, फल भरभरकर चले। उनमें से दोनों भाइयों को पहले देख चुके थे। उनसे दूसरे लोग रास्ते में जाते हुए पूछते हैं कि क्या उन्होंने रामजी की सुंदरता के दर्शन किए। भेंट आगे रखकर वे लोग जोहर करते हैं। वे मुग्ध हुए जहां के तहां मानो चित्रलिखे से खड़े हैं।
उनके शरीर पुलकित हैं और नेत्रों में प्रेमाश्रुओं के जल की बाढ़ आ रही है। रामजी ने उन सबको प्रेम में मग्र जाना और प्रिय वचन कहकर सबका सम्मान किया। जहां-जहां आपने अपने चरण रखे हैं वे पृथ्वी, वन, मार्ग पहाड़ धन्य है, वे वन में विचरने वाले पक्षी और पशु धन्य हैं जो आपको देखकर सफल जन्म हो गए। हम सब भी अपने परिवार सहित धन्य हैं। आपने बड़ी अच्छी जगह विचार कर निवास किया है।
यहां सभी ऋतुओं में आप सुखी रहिएगा। हम लोग सभी जंगली जानवरों से बचाकर आपकी सेवा करेगी। हम आपको शिकार खिलवाएंगे और तालाब आदि जलाशय को दिखावेंगे। हम आपके सेवक हैं। इसलिए हमें आज्ञा देने में संकोच कीजिएगा। रामजी को केवल प्रेम प्यारा है जिसको जानना है वो जान ले। फिर उनको विदा किया। वे सिर नवाकर चले प्रभु के गुण कहते सुनते घर आए।
इस प्रकार देवता मुनियों को सुख देने वाले भाई वन में निवास करने लगे। रामजी सीताजी अयोध्यपुरी कुटुंब के लोग और घर की याद भुलकर बहुत सुखी रहती है। रामजी का प्रेम उन्हें ऐसा लगता है जैसे दिन में चकवी। उन्हें अपने पिया की पर्णकुटी अवध के महल से ज्यादा प्रिय लगता है। मृग और पक्षी कुटुंबियों के समान लगते हैं। स्वामी के साथ कुश और पत्तों की सेज भी सैकड़ों कामदेवों के समान सुख देने वाली है।
क्या हुआ जब मंत्री ने रामजी के न लौटने की खबर सुनी?
जब-जब रामजी आयोध्या को याद करते हैं। तब उनकी आंखों में आंसु आ जाते हैं। फिर वे इस को बुरा समय समझकर धीरज धारण कर लेते हैं। रामजी को दुखी देखकर सीताजी व लक्ष्मणजी भी व्याकुल हो जाते हैं। जैसे किसी मनुष्य की परछाही उस मनुष्य के समान ही कोशिश करती है। रामजी उन दोनों को दुखी देखकर पवित्र कथाएं सुनाने लगे।
रामचंद्रजी को पहुंचाकर जब निषादराज लौटा, तब आकर उसने रथ को मंत्री सहित देखा। निषाद को अकेले आए हुए देख मंत्री सुमन्त व्याकुल होकर धरती पर गिर पड़े। तब निषादराज बोले सुमंतजी आप विषाद को छोडि़ए। आप पंडित और परमार्थक को जानने वाले हैं। ऐसा कहकर समझाते हुए निषाद ने जबर्दस्ती सुमंत को रथ पर बैठाया। जो कोई राम लक्ष्मण या जानकी का नाम ले लेता घोड़े हिकर-हिकरकर उसकी और प्यार से देखने लगते हैं। मंत्री और घोड़ों की यह दशा देखकर निषादराज भी विषाद में डूब गए।
जानिए, स्वर्ग में जाने के लिए क्या करना पड़ता है?
हिन्दू संस्कृति के अनुसार यह माना जाता है कि मौत के बाद मनुष्य को अपने कर्मों के अनुसार स्वर्ग और नर्क में भेजे जाने का विधान है। शुभ काम करने वाले को स्वर्ग मिलता है और बुराक काम करने वालों को नर्क में जाना पड़ता है। लेकिन किन लोगों को स्वर्ग में जाना पड़ता है और किन्हें नर्क में इस बात का सपष्ट उल्लेख हमारे धर्म ग्रंथों में मिलता है।
एक श्लोक के अनुसार
तेषां में वैष ब्रह्मलोको येषां, तपो ब्रह्मचर्य येषु सत्यं प्रतिष्ठितम् ।
जिनमें तप ब्रह्मचर्य है, सत्य प्रतिष्ठित है, उन्हें ब्रह्मलोक मिलता है । जिनमें न तो कुटिलता है और न मिथ्या आचरण है और न कपट है, उन्हीं को विशुद्ध ब्रह्मलोक मिलता है। गरुड़ पुराण के अनुसार
- सच, तपस्या, क्षमा, दान और वेदशास्त्रों के स्वाध्याय द्वारा धर्म का अनुष्ठान करते हैं। वे स्वर्ग में जाते हैं।
- कुआं, बावड़ी, तालाब, प्याऊ, आश्रम व देवमंदिर बनाने वाले।
- होम, जप, स्नान, और देवताओं के पूजप में सदैव लोग रहते हैं। ऐसे लोग स्वर्ग में जाते हैं।
- ऐसे लोग जो शत्रुओं के दोष भी कभी नहीं कहते है बल्कि उनके गुणों का ही वर्णन करते हैं।
- जो लोग मन और इन्द्रियों के नियमन में लगे रहते हैं। शोक भय व क्रोध से रहित।
- जो प्राणिमात्र पर दया करते हैं। जिन पर सब विश्वास करते हैं।
- एकांत स्थान पर किसी को देखकर जो कामवासना मन में नहीं लाता।
- गृह, अन्न, और रस आदि को जो स्वयं उत्पन्न कर दान करते हैं।
- ऐसे लोग जो सोने का, गाय का , अन्न व वस्त्र का दान देते हैं।
- जो परधन का लालच नहीं रखते हैं।
- धर्म से प्राप्त धन का उपयोग कर जीविका चलाते हैं। वे स्वर्ग को प्राप्त करते हैं।
जब रामजी को विदा करके मंत्री वापस अयोध्या लौटे तो....
सुमंतजी आयोध्या जाने से पहले यह सोच रहे हैं।जब दौड़कर अयोध्या के लोग पूछेगें तब में दिल पर वज्र रखकर सबको उत्तर दूंगा। जब दीन-दुखी सब माताएं पूछेंगी तब मैं उन्हें क्या कहूंगा। जो भी पूछेगा मुझे उसे उत्तर देना होगा। अब मुझे यही दुख लेना है। जब दुख से दीन महाराज, जिनका जीवन रामजी के दर्शन के अधीन है वे मुझसे पूछेंगे तो मैं क्या कहूंगा।
नगर में प्रवेश करने में मंत्री ऐसे घबरा रहे हैं मानो गुरू, ब्राह्मण, या गाय को मारकर आए हों। अंधेरा होने पर उन्होंने अयोध्या नगरी में प्रवेश किया और रथ को दरवाजे पर खड़ा करके वे महल में घुसे। जिन-जिन लोगों ने यह समाचार सुन पाया, वे सभी रथ देखने राजद्वार पर आए। रथ को पहचानकर और घोड़ों को व्याकुल देखकर उनके शरीर गले जा रहे हैं। नगर में स्त्री-पुरूष कै से व्याकुल हैं। जैसे जल के घटने पर मछलियां। जब सभी रानियां पूछती हैं तो सुमन्त को कुछ उत्तर नहीं आता, वो चुप हो जाते हैं। न कानों से सुनाई पड़ता है। उनके दिल में रामजी से बिछडऩे की बहुत तीव्र वेदना है।
जब राम वनवास न लौटे तो दशरथ का क्या हाल हुआ?
जब वे राजा के पास पहुंचते हैं तो देखते हैं उनकी दशा ऐसी है मानो सम्पाति पंखों के जल जाने पर गिर पड़ा हो। राजा राम-राम कहते हैं फिर हे राम, हे लक्ष्मण, हे जानकी कहते हैं। मंत्री ने आते ही उन्हें प्रणाम किया। सुनते ही राजा व्याकुल होकर उठे और बोले-सुमंत कहो कहां राम हैं?
राजा ने सुमन्त को गले से लगा लिया। उनकी आंखों में आंसु थे। उन्होंने पूछा वे वन को चले गए। श्रीराम की कुशल कहो। बताओ श्रीराम, लक्ष्मण, और जानकी कहां हैं? श्रीराम जानकी और लक्ष्मण जहां है मुझे भी वहां पहुंचा दो। नहीं तो मैं सत्य भाव से कहता हूं मेरे प्राण चलना ही चाहते हैं। राजा यही बात बार-बार मंत्री से बोलते हैं। मंत्री धीरज धरकर कहा महाराज आप पंडित और ज्ञानी हैं।
आप शुरवीर और धैर्यवान हैं। जन्म-मरण, सुख-दुख के भोग लाभ व हानि काल और कर्म के अधीन होते हैं। मुर्ख लोग ही दुख मे रहते हैं पर धीर पुरुष अपने मन में दोनों को समान समझते हैं। आप विवेक विचारकर धीरज धरिए और शोक का परित्याग कीजिए।
और राजा दशरथ ने प्राण त्याग दिए
रामजी के बारे में पूछने पर सुमंत ने वन की सारी बातें बताई। उन्होंने कहा है कि पिताजी को जाकर मेरा संदेश देना उनसे कहना कि चिंता न करें। वसिष्ठजी को मेरा प्रणाम कहना। भरत के आने पर उनको मेरा संदेश कहना कि राजा का पद पा जाने पर नीति न छोड़ देना। सब माताओं का समान जानकर उनकी सेवा करना। माता-पिता सभी को ऐसे रखना कि कोई मेरे बारे में न सोचे। लक्ष्मणजी ने कुछ कठोर वचन कहे। लेकिन रामजी ने मुझे कसम दिलाई कि लक्ष्मण का लड़कपन वहां न कहना। सुमंत की बातें सुनकर राजा जमीन पर गिर पड़े। सब रानियां विलाप करने लगी। उस विपत्ति का कै से वर्णन कीजिए। राजा के रावले शोर सुनकर अयोध्या में कोहराम मच गया। राजा के प्राण कण्ठ में आ गए। कौसल्या जी ने बहुत दुखी देखकर अपने हृदय में जान लिया कि अब सूर्यकुल का सूर्य का अस्त हो चला।
तब रामजी की माता कौसल्या धीरज धरकर समय के अनुकूल वचन बोली। उन्होंने राजा दशरथ से कहा आप धीरज रखिए। नहीं तो सारा परिवार डूब जाएगा। कौसल्या की बात सुनकर राजा ने आंखें खोली और विलाप करने लगे। इस तरह बहुत दिन बीत गए। राम-राम कहकर, फिर राम कहकर, उनका शरीर विरह की आग में जलता रहा और उन्होंने ने अपना देह त्याग दिया। सब रानियां शोक के मारे व्याकुल होकर रो रही है। उसके बाद वसिष्ठजी ने तेल एक बड़े पात्र में भरवाकर राजा का शरीर उसमें रखवा दिया। फिर दुतों को बुलवाकर उनसे ऐसा कहा तुम लोग जल्दी दौड़कर भरत के पास जाओ। लेकिन राजा की मौत का समाचार किसी से मत कहना।
क्यों लगने लगी भरत को अपनी मां ही दुश्मन?
जब से अयोध्या में अनर्थ प्रारंभ हुआ, तभी से भरतजी को अपशकुन होने लगे। वे रात को भयंकर सपने देखते थे। जागने पर करोड़ों तरह की बुरी-बुरी कल्पनाएं किया करते थे। वे प्रतिदिन ब्राह्मणों को भोजन कराकर दान देते थे। अनेकों विधियों से रूद्राभिषेक करते थे। भरतजी इस प्रकार मन में चिंता कर रहे थे कि दूत आ पहुंचे। जब उन तक अयोध्या पहुंचने का संदेश पहुंचा तो वे मन में ऐसा सोचते थे कि उड़कर पहुंच जाएं। एक-एक - पल बरसों की तरह बीत रहा था। नगर में प्रवेश करते समय अनेक अपशकुन होने लगे। रामजी के वियोगरूपी बुरे रोग से सताए हुए पशु और पक्षी देखे नहीं जाते। नगर के लोग मिलते हैं पर कुछ बोलते नहीं है। बाजार और रास्ते देखे नहीं जाते। अपने बेटों की खबर वह आरती सजाकर आनंद में भरकर उठ दौड़ी और दरवाजे पर भरत और शत्रुघ्र को महल में ले आई। एक कैकयी ही इस तरह हर्षित दिखती है।
भरतजी ने सबकी कुशल सुनाई। कैकयी ने भरत के कान में मन को घायल करने वाली बात कही। उसने कहा मैंने सारी बात बना ली थी। बेचारी मंथरा सहायक हुई। विधाता ने बीच में जरा सा काम बिगाड़ दिया। वह यह कि राजा देवलोक पधार गए। भरत ये सुनते ही दुख के कारण बेहाल हो गए। फिर धीरज-धरकर वे संभल उठे। रामजी का वन जाना सुनकर भरतजी को पिता का मरण भूल गया। पुत्र को व्याकुल देखकर कैकयी समझाने लगी। मानों जले पर नमक लगा रही हों। कैकयी ने कहा जीवनकाल में ही जन्म लेने के संपूर्ण फल पा लिए और अंत में वे इंद्रलोक चले गए। राजकुमार भरतजी यह सुनकर बहुत ही सहम गए। उन्होंने कहा यदि तेरी ऐसी ही अत्यंत बुरी रूचि थी तो तूने जन्मते ही मुझे मार क्यों नहीं डाला? तूने पेड़ को काटकर पत्ते को सींचा है।
राजा ने तेरा विश्वास कैसे कर लिया? विधाता ने मरने के समय उनकी बुद्धि हर ली थी। उसे देखकर लक्ष्मण के छोटे भाई शत्रुघ्रजी गुस्से से भर गए। मानो जलती हुई आग को घी की आहूति मिल गई। जब उन्हें पता चला कि ये सारी आग मंथरा की लगाई हुई है तो उन्होंने जोर से मंथरा की कुबड़ पर एक लात जमा दी। वह चिल्लाती हुई गिर पड़ी। उसका कुबड़ टूट गया, दांत टूट गए, मुह से खून बहने लगा। कराहती हुई वह बोली मैंने क्या बिगाड़ा है? जो भला करता बुरा फल पाया। उसकी बात सुनकर शत्रुघ्रजी उसके बाल पकड़कर उसे घसीटने लगे।
शोक में डूबे भरत ने क्या पूछा माता कौशल्या से?
कौशल्या जी मेले वस्त्र पहने हुए हैं चेहरे का रंग बदला हुआ है। व्याकुल हो रही हैं। दुख के मारे उनका शरीर सुख गया है। भरत को देखते ही माता कौशल्या दौड़ पड़ी पर चक्कर आ जाने पर वे मुच्र्छित होकर गिर पड़ी। यह देखते ही भरतजी बहुत व्याकुल हो गए। शरीर की सुध भुलाकर चरणों में गिर पड़े। फिर बोले माता सीताजी और मेरे दोनों भाई राम-लक्ष्मण कहां हैं? कैकयी जगत में क्यों जन्मी? अगर जन्मी तो बांझ ही क्यों न हुई।
तीनों लोको में मेरे जैसा अभागा कौन है जिसे उसके जैसी मां मिली। जिसने पूरे कुल को कलंकित किया। पिताजी स्वर्ग में है और भैया राम और लक्ष्मण वन में हैं और इसका कारण मैं हूं। भरतजी के कोमल वचन सुनकर कौशल्या ने उन्हें गले लगा लिया। वो कहने लगी तुम अब धीरज करो। बुरा समय सुनकर शोक मत करो। पिताजी की आज्ञा से राम ने घर त्याग दिया। लेकिन उनके मन में गुस्सा नहीं था न आसक्ति। यह सुनकर कि वे वन जा रहे हैं लक्ष्मण भी उनके साथ चल दिए।
क्या हुआ दशरथ के दाह संस्कार के बाद?
कौशल्याजी की बातों को सुनकर भरतसहित सारा रनिवास व्याकुल होकर विलाप करने लगा। राजमहल मानों शोक का निवास बन गया। भरत शत्रुघ्र दोनों भाई विलाप करने लगे। माता कौशल्या ने उनको गले लगा लिया। भरतजी ने भी सब माताओं को पुराण और वेदों की सुंदर कथा कहकर समझाया। माता कौशल्याजी भरतजी के सच्चे और सरल वचनों को सुनकर कहने लगी तुम तो राम के प्यारे हो रामजी तुम्हें अपने प्राणों से अधिक प्यार करते हैं। ऐसा कहकर माता कौसल्या ने भरत को गले से लगा लिया। तब वासुदेव और वसिष्ठजी आए। उन्होंने सब मंत्रियों और महाजनों को बुलवाया। फिर भरत को उपदेश दिए। वेदों में बताई हुई विधि से राजा की देह को स्नान कराया गया। भरतजी ने सब माताओं को चरण पकड़कर रखा। इस तरह दाह क्रिया की गई। विधिपूर्वक स्नान करके तिलांजली दी।
फिर वेद, समृति और पुराण सबक मत निश्चय करके उसके अनुसार भरत ने पिता का दस दिनों का कृत्य किया। वसिष्ठजी ने जहां जैसी आज्ञा दी। भरतजी ने वहां वैसा ही किया। अनेक प्रकार की चीजों का दान किया। उसके बाद मुनि ने भरत को धर्मउपदेश दिए और कहा सब विधाता के हाथ है। ऐसा विचारकर किसे दोष दिया जाए? और व्यर्थ किस पर क्रोध किया जाए? मन में विचार करो राजा दशरथ सोच करने के योग्य नहीं हैं। राजा सब प्रकार से बड़भागी थे। उनके लिए विषाद करना व्यर्थ है। यह सुनकर और समझकर सोच त्याग दो। राजा ने राजपद तुमको दिया है। तुम्हे पिता के वचन को सच करना चाहिए। जिन्होंने वचन के लिए ही श्रीरामचंद्रजी को त्याग दिया और रामविरह की अग्रि में अपने शरीर की आहुति दे दी। राजा को वचन प्रिय थे प्राण प्रिय नहीं थे। तुम राजा की आज्ञा का पालन करो इसी में सभी की भलाई है।
क्या हुआ जब भरत ने राजतिलक से इंकार कर दिया?
तुम राजा की आज्ञा का पालन करो इसी में सभी की भलाई है।परशुरामजी ने पिता की आज्ञा रखी और माता को मार डाला। सब लोक इस बात के साक्षी हैं। राजा ययाति ने पुत्र ने पिता को अपनी जवानी दे दी। तुम राजा की बात सच करो। शोक त्याग दो और प्रजा का पालन करो। ऐसा करने से स्वर्ग में राजा संतोष पाएंगे। इस बात को सुनकर रामजी और जानकी सुखी हो जाएंगी। मंत्री हाथ जोड़कर कहने लगे गुरूजी की आज्ञा का पालन जरूर करो। कौसल्याजी भी धीरज धरकर कह रही है। उसका आदर करना चाहिए। भरतजी ने सबकी बात सुनी और कहा मेरा कल्याण तो रामजी की चाकरी में है। मैं राजतिलक कैसे करवा सकता हूं। मुझे आज्ञा दीजिए, मैं रामजी के पास जाऊं। सभी से आज्ञा प्राप्त करने के बाद भरत ने सभी माताओं के दुख को समझते हुए । उनके लिए पालकी सजाने को कहा। सबसे पहले वसिष्ठजी और उनकी पत्नी अग्रिहोत्र का सामान लेकर रथ पर सवार हुए। नगर के सभी लोगों का रथ सजाकर चित्रकुट चल पड़े। विश्वासपात्र सेवकों को नगरसौंपकर सबको आदरपूर्वक रवाना किया।
उसके बाद माता से आज्ञा लेकर दोनों भाई रथ पर सवार होकर चल दिए। क्या कारण जब निषादराज के ये पता चला तो वे भी वहां पहुंचे। निषादराज ने अपना नाम बताकर मुनि वसिष्ठ को दूर से प्रणाम किया। वसिष्ठजी ने भरतजी को कहा यह श्रीराम का मित्र है। इतना सुनते ही भरतजी ने रथ त्याग दिया। रामजी के सखा निषादराज से मिलकर भरतजी ने उनकी कुशल पूछी। उसके मन में संकोच, प्रेम और आनंद इतना बढ़ गया कि वह खड़ा-खड़ा भरतजी को टक-टकी लगाए देखता रहा।
क्या हुआ जब भरत मिले निषादराज से?
भरतजी ने गुह को बहुत प्रेम से गले लगा लिया। इसमें कोई आश्चर्य नहीं है, युग युगांतर से यही रीति चली आ रही है। रामसखा निषादराज से प्रेम के साथ मिलकर भरतजी ने कुशल, मंगल पूछी। भरतजी का प्रेम देखकर निषाद उस समय विदेह हो गया। उसके मन में संकोच, प्रेम और आनंद इतना बढ़ गया कि वह खड़ा-खड़ा टकटकी लगाए। भरतजी को देखता रहा। फिर धीरज धरकर भरतजी के चरणों की वंदना करके प्रेम के साथ हाथ जोड़कर विनती करने लगा। इस प्रकार भरतजी ने सब सेना को साथ में लिए हुए। जगत को पवित्र करने वाली गंगाजी के दर्शन किए। मानों उन्हें रामजी मिल गए हो। आपकी रज सबको सुख देनेवाली सेवक के लिए तो कामधेनु ही हैं। मैं हाथ जोड़कर यही वरदान मांगता हूं। सीतारामजी के चरणों में मेरा स्वाभाविक प्रेम हो। प्रेम कुछ थोड़ा नहीं है। जिससे उनका शरीर शिथिल हो रहा है। भरतजी सखा से पूछते हैं कि मुझे वह स्थान दिखलाओं और नेत्र और मन की जलन कुछ ठंडी करो। जहां सीताजी, रामजी और लक्ष्मण रात को सोए थे।
ऐसा कहते ही उनके नेत्रों के जल भर आया। भरतजी के वचन सुनकर निषाद को बड़ा विषाद हुआ। वह तुरंत ही उन्हें वहां ले गया। भरतजी ने दो-चार स्वर्ण विन्दु देखे तो उनको सीताजी के समान समझकर सिर पर रख लिया। उनके नेत्र जल से भरे हैं। उसके बाद भरतजी चित्रकूट की ओर चल पड़े। न तो उनके पैरों में जूते हैं न सिर पर छाया हैं। उनका प्रेम, नियम, व्रत और धर्म निष्कपट है। वे सखा निषादराज से लक्ष्मणजी ,रामचंद्रजी और सीताजी की बातें पूछते हैं, और वह कोमल वाणी से कहता है। भरतजी की यह दशा देखकर देवता फूल बरसाने लगे। रास्ते में उन्हें देखने वाले सभी लोग तरह-तरह की बातें कर रहे हैं।
जब हुआ राम और भरत मिलाप तो कैसा था दृश्य?
अब भरत और निषादराज तेजी से चित्रकूट की ओर बढऩे लगे। आश्रम में प्रवेश करते ही भरतजी का दुख और दाह मिट गया। रामजी के सिर पर जटा है। कमर मे मुनियों का वस्त्र बांधे हैं और उसी में तरकस कसे हैं। हाथ में बाण और कंधे पर धनुष है। वेदी पर मुनि तथा साधुओं का समुदाय बैठा है। सीताजी रहित रामजी बैठे हैं। छोटे भाई शत्रुघ्र और सखा निषादराज सहित भरतजी का मन प्रेम में मग्र हो रहा है। खुशी, शोक, सुख-दुख आदि सब भूल गए। रक्षा कीजिए ऐसा कहकर वे पृथ्वी पर दण्ड की तरह गिर पड़े।
प्रेमभरे वचनों से लक्ष्मणजी ने पहचान लिया और मन में जान लिया कि भरतजी प्रणाम कर रहे हैं। लक्ष्मणजी ने प्रेमसहित पृथ्वी पर मस्तक नवाकर कहा- रामजी भरतजी प्रणाम कर रहे हैं। यह सुनते ही रामजी प्रेम में अधीर होकर उठे। भरतजी और रामजी का मिलने का ढ़ंग देखकर देवता भयभीत हो गए। फिर रामजी प्रेम के साथ शत्रुघ्र से मिलकर तब केवट से मिलें। प्रणाम करते हुए लक्ष्मणजी से भरतजी बहुत ही प्रेम से मिले। तब लक्ष्मणजी छोटेभाई शत्रुघ्न से मिले। फिर उन्होंने निषादराज को दिल से लगा लिया। फि र भरत-शत्रुघ्र दोनों भाइयों ने मुनि को प्रणाम किया। सीताजी ने मन ही मन आर्शीवाद दिया क्योंकि वे स्नेह में मग्र हैं, उन्हें देह की सुध बुध नहीं है। रामजी ने सब को दुखी जाना और जिस भाव से मिलने का अभिलाषी था। उन्होंने लक्ष्मणजी सहित सबके संताप को दूर किया।
उसके बाद रामजी सबसे पहले कैकयी से मिले। उन्होंने सबको समझा-बुझाकर संतोष कराया। फिर दोनों भाइयों ने ब्राह्मणों की स्त्रियों सहित जो भरतजी के साथ आई थी और साथ ही गुरूमाता की वंदना की। दोनों भाई पैर पकड़कर सुमित्राजी की गोद में जा चिपटे। मानों किसी बहुत दरिद्र की सम्पति से भेंट हो गई। फिर दोनों भाई कौसल्या के चरणों में गिर पड़े।
भरत नहीं समझ पा रहे हैं कि राम को कैसे मनाएं क्योंकि....
उसके बाद वसष्ठि जी ने उचित मौका देखकर रामचंद्रजी से कहा पहले भरत की विनती आदर पूर्वक सुन लीजिए। फिर उस पर विचार कीजिए। तब साधुमत लोकमत राजनीति और वेदों का निचोड़ निकालकर कुछ निर्णय कीजिए। पहले भरत की विनती आदरपूर्वक सुन लीजिए, फिर उस पर विचार कीजिए। भरतजी गुरू का स्नेह देखकर रामचंद्रजी के हृदय में विशेष आनन्द हुआ।भरत ने कहा रामजी गुरू की आज्ञा के अनुकूल आपको सौगंध और पिताजी के चरणों की दुहाई। उसके बाद भरतजी का रुख अपनाकर गुरू और स्वामी को अपने अनुकूल समझकर सारा बोझ अपने ही ऊपर समझकर भरतजी कुछ नहीं कह सकते। वे विचार करने लगे। शरीर से पुलकित होकर वे सभा में खड़े हो गए। कमल के समान आंखों में प्रेमअश्रुओं की बाढ़ आ गई। मेरा कहना तो मुनिनाथ ही निभा सकते हैं?
इससे ज्यादा मैं क्या कहूं? अपने स्वामी का स्वभाव में जानता हूं। वे अपराधी पर भी कभी क्रोध नहीं करते। मुझ पर तो उनकी विशेष कृपा और स्नेह है। बचपन से ही मैंने उनका साथ नहीं छोड़ा और उन्होंने मेरे मन को कभी नहीं तोड़ा। मेरे हारने पर भी खेल में प्रभु मुझे जिता देते थे। मैंने प्रेम और संकोच के कारण कभी उनके सामने मुंह नहीं खोला। प्रेम के प्यार से मेरे नेत्र आजतक प्रभु के दर्शन से तृप्त नहीं हुए। विधाता मेरा दुलार न सह सका। उसने मुझे कैकयी जैसी माता दी। यह कहना मुझे शोभा नहीं देता है।
मैं अपने दिल में सब ओर खोजकर हार चूका हूं। मैं ही सारे अनर्थों का मूल हूं। यह सुन और समझकर मैंने सब दुख सहा है। अब यहां आकर मैने सब आंखों से देख लिया। मैं अपनी माता का पुत्र हूं यही मेरे लिए सबसे बड़ा दुख हूं। तब वसिष्ठजी ने भरत से कहा तुम व्यर्थ ग्लानि करते रहो। जीव गति को ईश्वर के अधीन जानो। मेरे मत में तीनों काल और तीनों लोकों में सब पुण्यात्मा तुम से नीचे हैं। देवगणों सहित देवराज इन्द्र भयभीत होकर सोचने लगे कि अब बना बनाया काम बिगडऩा ही चाहता है। कुछ उपाय करते नहीं बनता। तब वे सब मन ही मन रामजी की शरण में गए।
भरत जी ने कुछ इस तरह की रामजी से अयोध्या लौटने की विनती....
फिर वे विचारकर आपस में कहने लगे कि श्री रघुनाथजी तो भक्ति के वश में है अंबरीश और दुर्वासा की घटना याद करके तो देवता और इंद्र बिल्कुल निराश हो गए। पहले देवताओं ने बहुत समय तक दुख सहे। तब भक्त प्रहलाद ने नृसिंह भगवान को प्रकट किया था। सब देवता सिर धुनकर कहते हैं कि अब देवताओं का काम भरतजी के हाथ है। रामजी अपने श्रेष्ठ सेवकों की सेवा को मानते हैं अपने गुण और शील से रामजी को वश में करने वाले भरतजी का ही सब लोग अपने मन में स्मरण करो।
देवताओं का मत सुनकर देवगुरु बृहस्पतिजी ने कहा अच्छा विचार किया है आप लोगों ने। तुम्हारे बड़े भाग्य हैं। भरतजी के चरणों का प्रेम जगत में समस्त शुभ मंगलों का मूल है। श्रीरामजी के सेवक की सेवा से भी जीवन सफल हो जाता है। भरतजी रामजी से कहते हैं कि आपने हर तरह से मुझे अनुग्रहित किया है। आप मेरी एक विनती सुनकर, फिर जैसा उचित हो वैसा ही करें। राजतिलक की सब सामग्री सजाकर लाई गई। भरत ने कहा छोटे भाई शत्रुघ्र समेत मुझे वन में भेज दीजिए और सबको सनाथ कीजिए। नहीं तो किसी तरह भी।
लक्ष्मण और शत्रुघ्न दोनों भाइयों को लौटा दीजिए और मैं आपके साथ चलूं। हम तीनों भाई वन चले और आप श्रीसीताजी सहित लौट जाइए। जिस प्रकार से प्रभु का मन प्रसन्न हो, वही कीजिए। भरतजी की बात सुनकर सारे देवता साधु-साधु कहकर सराहना करने लगे। संकोची रामजी चुप ही रह गए। उनकी मौन स्थिति देखकर सब संकोच में पड़ गए। यह सुनकर सकुचाकर पृथ्वी पर मस्तक नवाकर वे श्रेष्ठ दूत हाथ जोड़कर बोले-स्वामी आपका आदर के साथ पूछना यही कुशल का कारण हो गया।
तब राजा जनक को कुछ नहीं सुझ रहा था क्योंकि...
राजा जनकजी तक जब तक यह समाचार पहुंचा कि भरत राम को लेने वन गए हैं तो उन्हें को कुछ सुझ न पड़ा। राजा विद्वानों और मंत्रियों के समाज से पूछा कि विचार करके बताइए। तब राजा ने धीरज धर हृदय में विचारकर चार चतुर गुप्तचर अयोध्या भेजे। दूतों ने आकर राजा जनकजी की सभा में भरतजी करनी का अपनी बुद्धि के अनुसार वर्णन किया। उसे सुनकर गुरु, कुटुंबी, मंत्री, और राजा सभी सोच और स्नेह से बहुत व्याकुल हो गए। फिर जनकजी ने धीरज धरकर और भरतजी की बड़ाई करके अच्छे योद्धाओं को बुलाया। घर, नगर और देश में रक्षकों को रखकर घोड़े, हाथी, रथ, आदि बहुत सी सवारियां सजवाई। जनक जी अयोध्या पहुंचे।
कैकयी मन ही मन ग्लानि से गली जाती है। इस तरह वह दिन भी बीत गया। रामजी के गुणसमुहों को कहते-कहते सब लोग प्रेम से भर गए। सभी रामजी के दर्शन करने के लिए लालायित है। जनकजी इस प्रकार चले आ रहे हैं। रामजी ने सभी के साथ आदर पूर्वक मिले। उसके बाद दोनों ने वहां बैठे मुनियों के पैर छूए। उसके बाद रामजी सभी को अपने भाइयों समेत आश्रम लेकर गए। दोनों ओर के राज समाज के लोग शोक से व्याकुल हो गए। सभी दशरथजी के गुणों के बारे में चर्चा करते हुए शोक के समुद्र में डुबकी लगा रहे हैँ।
स्त्री-पुरुष सभी शोक पूर्ण थे। जनक जी और रामजी दोनों ओर के समाज ने दूसरे दिन सबेरे स्नान किया और सब बड़ के वृक्ष के नीचे जा बैठे। सबके मन उदास हैं। तब रघुनाथजी ने विश्वामित्रजी से कहा कल सभी बिना जल पिए ही रह गए थे। तब विश्वामित्रजी ने कहा आप ठीक ही कह रहे हैं। उनका रूख देखकर जनक जी ने कहा यहां अन्न खाना उचित नहीं है। उसके बाद सब लोगों के लिए वनवासी लोग फल-फूल ले आए।
फैसला करते समय ये याद रखें तो हर काम में मिलेगी सफलता
जानउं सदा भरत कुलदीपा। बार-बार मोहि कहेउ महीपा कसे कनकु मनि पारिखि पाएं।
पुरुष परिखिअहिं समयं सुभाएं। अनुचित आजु कहब अस मोरा।
सोक सनेहं सयानप थोरा। सुनि सुरसरि सम पावनि बानी।
भई सनेह बिकल सब रानी। सोना कसौटी पर कसे जाने पर रत्न पारखी।
सोना कसौटी पर कसे जाने पर रत्न पारखी के मिलने पर और वैसे ही किसी भी इंसान की पहचान परीक्षा के समय पर ही होती है। बात एकदम सही भी है क्योंकि प्यार और दुख में अच्छे-अच्छे लोग भी अपना सयानापन या विवेक भूल जाते हैं। तुलसीदासजी ने बहुत ही सुंदर बात कही है कि असली टैलेंट की या धैर्य की परीक्षा हमेशा विपरीत समय में ही होती है क्योंकि कहा जाता है कि प्रतिभा के प्रसुन हमेशा विपरीत परिस्थितयों में ही खिलते है। जो इंसान परिस्थितियों की दुहाई देकर हार नहीं मानता है।
कठोर परिस्थितयों में भी धैर्य के साथ निर्णय लेता है वही अपने लक्ष्य तक पहुंच पाता है। यहां कौसल्या जी भरत जी के शील, गुण आदि की प्रशंसा करते हुए कह रही हैं कि ये भरतजी की परीक्षा का समय है उन्हें धैर्य से काम लेना चाहिए। तुलसी लिखते हैं कि कौसल्याजी सीताजी की मां से दुख भरे हृदय से कहती है। राम-लक्ष्मण और सीता वन में जाएं। इसका परिणाम तो अच्छा ही होगा, बुरा नहीं। मुझे तो भरत की चिंता है। ईश्वर के अनुग्रह और आपके आर्शीवाद से मेरे पुत्र और बहुए गंगा के समान पवित्र है। मैं राम की कसम खाकर सत्य भाव से कहती हूं। भरत के शील, गुण, नम्रता, बड़प्पन, भाईपन बहुत ज्यादा है। उनके अच्छेपन का वर्णन करने में सरस्वतीजी की बुद्धि भी हिचकती है। सीप से कहीं समुद्र उलीचे जा सकते हैं। लेकिन यह समय भरत की परीक्षा का समय है। यह सुनकर सभी रानिया दुखी हो गई। कौसल्याजी ने फिर धीरकर कहा सुनिए जनकजी की प्रिया आपको कौन उपदेश दे सकता है। लेकिन आप मौका पाकर राजा को अपनी ओर से जहां तक संभव हो सके। समझाकर कहिएगा कि लक्ष्मण को घर रख लिया जाए और भरत वन को जाएं। यदि यह राय राजा के मन में जंच जाए।
अच्छी तरह से सोचकर यह काम करें। मुझे भरत की अत्याधिक सोच है। भरत के मन में बहुत प्रेम है। कौसल्याजी का ऐसा व्यवहार देखकर सारा रानिवास चौंक गया। सुमित्राजी ने यह देखकर कहा कि रात बीत गई है। कौसल्याजी के प्रेम को देखकर और उनकी बातें सुनकर जनकजी की प्रिय पत्नी ने उनके पवित्र चरण पकड़ लिए और कहा आप राजा दशरथजी की रानी और रामजी की मां हैं। इसीलिए आपकी ऐसी नम्रता होना तो उचित ही है।
कैकयी की यह बात सुनकर राजा स्वर्गवासी हो गए...
रावण के वध के लिए रामजी के रूप में श्रीविष्णु भगवान ने जन्म लिया। रामजी और रावण के जन्म की पूरी कथा सुनने के बाद युधिष्ठिर ने कहा आप अब मुझे रामजी के वन जाने की कथा सुनाएं। अपने पुत्रों के जन्म से राजा दशरथ को बहुत प्रसन्नता हुई। तब मार्केण्डेय मुनि युधिष्ठिर को आगे की कथा सुनाने लगे। अपने पुत्रों के जन्म से राजा दशरथ को बहुत प्रसन्नता हुई। राम जब युवा हुए तो दशरथ ने सोचा कि अब अपना राज्य उन्हें राम को सौंप देना चाहिए। इस विषय में उन्होंने अपने मंत्रियों और पुरोहितों से सलाह ली।
सभी की सहमति से राजतिलक की तैयारियां होने लगी। पूरी अयोध्या में खुशी की लहर दौड़ गई। मन्थरा ने जब यह बात सुनी तो वह कैकयी एकान्त में अपने पति राजा दशरथ के पास गई। प्रेम जताती हुई हंस-हंसकर मधुर शब्दों में बोली। आप बड़े सत्यवादी हैं, पहले जो मुझे एक वर देने को कहा था उसे दीजिए। राजा ने कहा लो अभी देता हूं। तुम्हारी जो इच्छा हो मांग लो। कैकयी ने राजा को वचनबद्ध करके कहा आपने राम के लिए जो राज्यभिषेक का समान तैयार कराया है। उससे भरत का अभिषेक किया जाए और राम वन में चले जाएं।
कैकयी की यह अप्रिय बात सुनकर राजा को बड़ा द़ुख हुआ, वे मुंह से कुछ भी न बोल सकें। राम को जब यह मालूम हुआ कि पिताजी कैकयी को वरदान देकर मेरा वनवास स्वीकार कर चुके हैं। उनके सत्य की रक्षा के लिए वे स्वयं वन की ओर चल दिए। लक्ष्मण भी हाथ में धनुष लिए भाई के पीछे हो लिए तथा सीता ने भी राम का साथ दिया। राम के वन चले जाने पर राजा दशरथ ने शरीर त्याग दिया। कैकयी ने भरत को बुलवाया और कहा- राजा स्वर्गवासी हो गए।
इसलिए काट दिए लक्ष्मण ने शूर्पणखा के नाक कान
कैकयी ने भरत को बुलवाया कहा- राजा स्वर्गवासी हो गए । राम-लक्ष्मण वन में है अब यह विशाल सम्राज्य निष्कंठक हो गया है। तुम इसे ग्रहण करो। भरत बड़े धर्मात्मा थे। वे माता की बात सुनकर बोले कुलघातिनी- धन के लालच में तूने कितनी क्रुरता का काम किया है। पति की हत्या की और इस वंश का नाश कर डाला। मेरे माथे पर कलंक का टीका लगा दिया। यह कहकर वे फूट-फूटकर रोने लगे। उन्होंने सारी प्रजा के निकट अपनी सफाई दी। इस षडयंत्र में मेरा बिल्कुल हाथ नहीं है। फिर वे रामजी को लौटाने की इच्छा से कौसल्या, सुमित्रा, और कैकयी को आगे करके वन चले गए। चित्रकूट पर्वत पर जाकर भरत ने लक्ष्मणसहित राम को धनुष हाथ में लिए तपस्वी वेष में देखा। भरत के अनुनय-विनय करने पर भी रामजी लौटने को राजी न हुए। पिता की आज्ञा का पालन करना था। इसलिए उन्होंने भरत को समझा-बुझाकर वापस कर दिया। भरतजी अयोध्या में न जाकर नंदीग्राम में रहने में लगे। राम ने सोचा यदि यहां रहूंगा तो नगर और प्रांत के लोग बराबर आते जाते रहेंगे। इसलिए वे शरभंग मुनि के आश्रम के पास घने जंगल में चले गए। शरभंग ने उनका आदर सत्कार किया। वहां से पास ही जनस्थान नामक वन का एक भाग था। जहां खर राक्षस रहता था। शूर्पणखा के कारण राम का उसके साथ वैर हो गया। रामचंद्रजी ने वहां के तपस्वियों की रक्षा के लिए चौदह हजार राक्षसों का संहार किया।
महाबलवान खर और दूषण का वध करके राम ने पूरे जंगल को निर्भय बना दिया। शूर्पणखा के नाक और होंठ काट लिए गए थे। इसी के कारण ये सारा विवाद हुआ। बाद में दुख के कारण शूर्पणखा लंका में गई। दुख से व्याकुल होकर रावण के चरणों में गिर पड़ी। उसके मुख पर अब भी लहू के दाग बने हुए थे जो सूख गए थे। अपनी बहिन को इस विकृत दशा में देखकर रावण क्रोध से विह्ल हो उठा और दांत कटकटाता हुआ सिंहासन से कूद पड़ा।
ऐसे तैयार किया रावण ने मारीच को हिरण बनने के लिए
शूर्पणखा ने जाकर रावण को सारी बात बताई। रावण ने उसे संत्वना दी। उसके बाद रावण ने महासागर पार किया, फिर ऊपर ही ऊपर गोकर्ण तीर्थ में पहुंचा। वहां आकर रावण अपने भूतपूर्व मंत्री मारिच से मिला। जो रामचंद्रजी के ही डर से वहां छिपा तपस्या कर रहा था। रावण को आया देखकर उसने उनका सत्कार किया। उसके बाद उसने कहा मुझसे यदि आपका कोई कठिन से कठिन कार्य भी होने वाला हो तो उसे नि:संकोच बताएं। राक्षसराज ऐसी क्या आवश्यकता आ पड़ी जो आपको मेरे पास आना पड़ा।
तब रावण गुस्से से भरा हुआ था उसने बताया की राम व लक्ष्मण ने शूपर्णखा के नाक-कान काट दिए। मारीच ने कहा- रावण श्रीरामचंद्रजी के पास जाने से तुम्हारा कोई लाभ नहीं है। मैं उनका पराक्रम जानता हूं। भला इस जगत में ऐसा कौन है। जो उनके बाणों के वेग को सह पाए। उसकी बात सुनकर रावण का गुस्सा सांतवे आसमान पर था। उसने मारीच को डांटते हुए कहा तू मेरी बात नहीं मानेगा तो निश्चय ही तुझे अभी मौत के घाट उतार दूंगा। मारीच ने मन ही मन सोचा- यदि मृत्यु निश्चित है तो श्रेष्ठ पुरुष के ही हाथ से मरना अच्छा होगा।
फिर उसने पूछा अच्छा बताओं मुझे तुम्हारी क्या सहायता करनी होगी। रावण ने कहा तुम एक सुंदर हिरण का रूप बनाओ। जिसके सिंग रत्नमय प्रतीत हो। शरीर भी चित्र-विचित्र रत्नों वाला ही प्रतीत हो। ऐसा रूप बनाओं की सीता मोहित हो जाए। अगर वो मोहित हो गई तो जरूर वो राम को तुम्हें पकडऩे भेजेगी। मैं उसे हरकर ले जाऊं गा और रामचंद्र अपनी प्यारी स्त्री के वियोग में बेसुध होकर अपनी जान दे देंगे।
क्या किया रामजी ने जब सीताजी को कौए ने मारी चोंच?
सुबह स्नान करके भरतजी, ब्राह्मण, राजा जनक, और सारा समाज आ जुटा। आज सबको विदा करने के लिए एक अच्छा दिन है। रामचंद्रजी ने गुरू वसिष्ठजी, राजा जनकजी, भरतजी और सारी सभा की ओर देखा व सोचा , किन्तु फिर सकुचा गए। रामजी भरतजी से बोले तुम्हारी, मेरी, परिवार की, घर की सारी चिंता गुरु वसिष्ठजी और महाराज जनकजी को है।
हमारे सिर पर जब गुरुजी, मुनि विश्वामित्र, और मिथलापति जनकजी है। तब हमें और तुम्हें स्वप्र में भी क्लेश नहीं हो सकता है। सभी लोग प्रेम को देखकर वैराग्य और विवेकसहित तन, मन, वचन से उस प्रेम में मग्र हो गए। रामजी ने भरतजी को समझाया और शत्रुघ्र को गले लगा लिया। उसके बाद रामजी की आज्ञा लेकर लक्ष्मणजी से भेंट करके चल दिए।
सभी के चले जाने के बाद रामजी, लक्ष्मणजी बड़ की छाया में बैठकर अपने प्रियजनों के वियोग में दुखी हो रहे हैं। भरतजी ने अयोध्या पहुंचकर। शुभ मुर्हूत में चरणपादुकाओं को निर्विघ्रतापूर्वक सिंहासन पर विराजित कराया। फिर रामजी की माता कौसल्याजी और गुरुजी के चरणों में सिर नवाकर और प्रभु की चरणपादुकाओं की आज्ञा पाकर धर्म की धुरी धारण भरतजी ने नन्दिग्राम में पर्णकुटी बनाकर उसी में निवास किया। प्रभु श्रीराम और सीताजी शरीर पर जटाजुट और शरीर पर मुनियों के वस्त्र धारण कर, ऋषियों के समान धर्म का पालन करने लगे।
गहने -कपड़े आदि त्यागकर जिस अयोध्या के राज्य को देवराज इन्द्र सिहाते थे। दशरथजी की सम्पति सुनकर कुबेर भी लजाते थे। उसी अयोध्यापुरी को छोड़कर राम सीता व लक्ष्मण निवास कर रहे हैं। नंदीग्राम में रहते हुए भरतजी का शरीर दिन पर दिन दुबला हुआ जा रहा था। एक बार की बात है देवराज इंद्र का मुर्ख पुत्र जयन्त कौए का रूप धरकर श्री रघुनाथजी का बल देखना चाहता है। कौआ सीताजी के चरणों में चोंच मारकर भागा। जब खुन बहने लगा और रामजी ने उनके पैर से खुन बहता देखा तो उन्होंने उस पर बाण चलाया। कौआ भागा तो उसे तीनों लोकों में कहीं भी स्थान नहीं मिला। रामजी ने उसे एक आंख से काना करके छोड़ दिया।
क्यों काट दिए लक्ष्मण ने शुर्पणखा के नाक-कान?
एक बार की बात है शूर्पणखा नाम की रावण की एक बहिन थी, जो नागिन के समान भायानक और दुष्ट हृदय की थी। एक बार वह पंचवटी गई। दोनों राजकुमारों को देखकर वह काम से पीडि़त हो गई। वह सुंदर रूप धरकर प्रभु के पास जाकर बहुत मुस्कुराकर रामजी से बोली- न तो तुम्हारे समान कोई पुरुष है, न मेरे समान कोई स्त्री मैंने तीनों लोकों में खोजा। लेकिन तुम्हारे समान मुझे कोई नहीं मिला। मेरे योग्य पुरुष जगतभर में नहीं है। अब तुमको देखकर मेरा मन ठहरा है। सीताजी की ओर देखकर रामचंद्रजी ने यह बात कही कि मेरा छोटा भाई कुमार है। तब वह लक्ष्मणजी के पास गयी। लक्ष्मणजी उसे शत्रु की बहन समझकर।
प्रभु के पास जाकर बहुत मुस्कुराकर बोले- मैं तो रामजी का दास हूं। मैं पराधीन हूं, कोसलपुर के राजा हैं वे जो कु छ करें, उन्हें सब फबता है। वह लौटकर फिर रामजी के पास आई। प्रभु ने फिर उसे लक्ष्मणजी के पास भेज दिया। लक्ष्मणजी ने कहा तुम्हे वही वरेगा जो लज्जा को त्याग देगा। तब वह गुस्से में रामजी के पास गई और उसने अपना भयंकर रूप दिखाया।
सीताजी को भयभीत देखकर रघुनाथजी ने लक्ष्मण की ओर इशारा देकर कहा। लक्ष्मणजी ने बड़ी फुर्ती से उसके नाक-कान काट दिए। मानो उसके हाथ रावण को चुनौती दी हो। बिना नाक-कान के वह विकराल हो गई। वह विलाप करती हुई खर-दूषण के पास गई। बोली हे भाई तुम्हारे पौरूष को धित्कार है। उसने शुर्पणखा से कारण पूछा और जब उसने पूरी बात बताई तब उसने सब सुनकर राक्षसों की सेना तैयार की। राक्षस के समुह झुंडों में दौड़े।
शूर्पणखा ने गुस्से में रावण को फटकारा और कही ये नीति की बात....
जब रामजी को पता चला की राक्षसों की भयानक सेना उन पर हमला करने आ रही है। तब रामजी ने लक्ष्मणजी से कहा तुम सीता को कंदराओं में लेकर चले जाओ। सावधान रहना। उसके बाद रामजी ने धनुष चढ़ाया। तभी राक्षसों की भयानक सेना वहां आ पहुंची। उन्होंने रामजी को चारों ओर से घेर लिया। प्रभु श्रीरामजी को देखकर राक्षसों की सेना चकित रह गई। वे उन बाण नहीं छोड़ सके । मंत्री को बुलाकर खर-दूषण ने कहा- यह राजकुमार कोई मनुष्यों का भूषण हैं। जितने भी लोक हैं वहा मैंने ऐसी सुंदरता कहीं नहीं देखी। इन्होंने हमारी बहिन को कुरूप कर दिया लेकिन ये अनुपम पुरुष वध करने के योग्य नहीं है। उसकी बात सुनते ही रामजी बोले हम क्षत्रिय हैं। वन में शिकार करते हैं और तुम्हारे सरीखे दुष्ट पशुओं को तो ढंूढते ही फिरते हैं। हम बलवान शत्रु को देखकर नहीं डरते। एक बार तो हम काल से भी लड़ सकते हैं। हम मनुष्य है लेकिन दैत्य कुल से मुनियों की रक्षा करने वाले हैं। दूतों ने लौटकर तुरंत सब बाते कहीं, जिन्हें सुनकर खर-दूषण का दिल जल उठा। उसने आक्रमण की आज्ञा दी। सभी राक्षस रामजी पर अस्त्र-शस्त्र बरसाने लगे। जब रामजी ने तीव्र बाणों की वर्षा की तो सभी मैदान छोड़कर भाग गए। योद्धा पृथ्वी पर गिर पड़ते हैं, फिर भिड़ते हैं। एक बड़ा कौतुक हुआ जिससे शत्रुओं की सेना एक-दूसरे को रामरूप देखने लगी और आपस में युद्ध कर लड़ मरी।
सब यही राम है इसे मारो कहकर एक-दूसरे को मार रहे हैं। इस तरह खर-दूषण की पूरी सेना साफ हो गई। देवता हर्षित होकर फूल बरसाते हैं, आकाश में नगाड़े बज रहे हैं। जब रामजी ने राक्षसों को जीत लिया तब सभी देवता प्रकट हो गए। खर-दूषण के हारने के बाद शूर्पणखा ने जाकर रावण को भड़काया। वह बड़ा गुस्सा करके रावण से बोली- तू शराब पी लेता है और दिन रात सोता रहता है। तुझे खबर नहीं है कि शत्रु तेरे सिर पर खड़ा है? नीति के बिना राज्य और धर्म के बिना प्राप्त धन,बिना विद्या पढऩे से परिणाम में श्रम ही हाथ लगता है। विषयों के संग से सन्यासी, सलाह से राजा, मान से ज्ञान, मदिरापान से लज्जा, नम्रता बिना प्रीति और अहंकार से गुणवान शीघ्र ही नष्ट हो जाता है।
क्यों किया रावण ने सीताजी का हरण?
शूर्पणखा की बात सुनते ही रावण गुस्सा हो गया। उसने शूर्पणखा की बांह पकड़कर उसे उठाया और समझाया। उसने कहा- अपनी बात तो बता, किसने तेरे नाक कान काट दिए। तब वह बोली अयोध्या के राजा दशरथ के पुत्र, जो पुरुषों में सिंह के समान हैं, वन में शिकार खेलने आए हैं। उन्हीं के छोटे भाई ने मेरे नाक-कान काट डाले। मैं तेरी बहन हूं यह सुनकर वे हंसने लगे। मेरी पुकार सुनकर खर-दूषण ने उनसे युद्ध किया।
उन्होंने उसका व त्रिशरा का वध कर दिया। खर-दूषण और त्रिशरा के वध की बात सुनकर रावण को गुस्सा आ गया। उसने शूर्पणखा को समझाकर बहुत प्रकार से अपने बल का बखान किया। उसे रात भर नींद नहीं आई। तभी रावण ने मन ही मन सीता हरण का संकल्प किया। वह सुबह रथ पर चढ़कर अकेला ही मारीच के पास पहुंचा। जब मारीच ने पूछा कि आप इतने गुस्से में क्यों है? तब रावण ने मारीच को सारी कहानी सुनाई। तब मारीच ने कहा हे राजन वे तो स्वयं ही चराचर ईश्वर हैं। उन्हीं के मारने से मरना और उनके जीने से जीना होता है।
यही राजकुमार विश्वामित्र के यज्ञ में उनकी रक्षा के लिए गए थे। उनसे बैर लेने में भलाई नहीं है। जिसने ताड़का और सुबाहु को मारकर शिवजी के धनुष को तोड़ दिया और खर, दूषण और त्रिशरा का वध कर डाला। ऐसा प्रचण्ड बली भी कहीं मनुष्य हो सकता है? जब मारीच ने रावण को ऐसा कहा तो उसने मारीच को फटकारा।
जब मारीच ने दोनों प्रकार से अपना मरण देखा तो उसने श्रीरामजी के हाथों मुक्ति पाना ही ठीक समझा। अपने मन में ऐसा निश्चय कर वह रावण के साथ चल दिया। उसने हिरण का रूप धरा। रावण जब उस जंगल के पास पहुंचा। तब मारीच कपटमृग बन गया। वह बहुत ही विचित्र था। सीताजी उसका परमसुंदर रूप देखकर उस पर मोहित हो गई।
ऐसे किया रावण ने सीता का हरण...
सीताजी रामजी से बोली वह हिरण बहुत सुंदर है। आप मुझे उसकी मृग चर्म ला दीजिए। तब रामजी ने सीताजी की प्रसन्नता के लिए धनुष धारण किया। लक्ष्मण से कहा-लक्ष्मण मैं शिकार के लिए जा रहा हूं। तुम अपनी भाभी की रक्षा करना।
उसके बाद रामजी हिरण के पीछे गए। मायरूपी हिरण दौड़ता व छल करता हुआ। कभी इधर तो कभी उधर जाने लगा। ऐसे कपट करते हुए वह रामजी को बहुत दूर ले गया। जब रामजी ने उसे तीर मारा तो वह गिर पड़ा और अपने असली रूप में आ गया। उसने उस अवस्था में पहले लक्ष्मण का नाम लिया व फिर रामजी का स्मरण किया। मारीच को मारकर राम तुरंत लौट पड़े। इधर सीताजी ने मरते समय मारीच की ''हा लक्ष्मण'' की आवाज सुनी तो वे व्याकुल हो उठी। उन्होंने लक्ष्मण से कहा तुम शीघ्र ही जाओ, तुम्हारे भैया संकट में है।
लक्ष्मणजी ने हंसकर कहा- माता सुनो उनमें सारी सृष्टि का विलय हो जाता है। वे श्रीरामजी क्या सभी स्वप्र में भी संकट में पड़ सकते हैं? लेकिन जब बहुत समझाने के बाद भी सीताजी नहीं मानी। उन्होंने कुछ चुभने वाली बातें लक्ष्मणजी को सुनाई तो मजबूरी में लक्ष्मणजी रामजी को खोजने के लिए निकल पड़े। इधर रावण मौका देखकर सन्यासी के रूप में सीताजी के पास आया। रावण ने सीताजी के समीप आया और अनेकों तरह की कहानी सुनाकर सीताजी को भय, प्रेम व राजनीति दिखलाई। जब सीता उसकी बातों में न आई तो रावण ने अपना असली रूप दिखलाया। गुस्से से भरकर उसने सीताजी को जबरदस्ती रथ पर बैठा लिया।
रावण सीताहरण के समय हो गया घायल क्योंकि....
सीताजी विलाप कर रही थी। हां लक्ष्मण तुम्हारा दोष नहीं है। मैंने जो क्रोध किया उसी का फल पाया है। प्रभु को मेरी यह विपत्ति कौन सुनाएगा। यज्ञ के अन्न को गधा खाना चाहता है। सीताजी का भारी विलाप सुनकर जड़-चेतन सभी दुखी हो गए। गिद्धराज जटायु ने विलाप करती हुई सीताजी की दुखभरी वाणी सुनकर उन्हें पहचान लिया। उसने यह देखकर कहा सीते पुत्री डर मत। मैं इस राक्षस का नाश कर दूंगा। वह पक्षी क्रोध में भरकर रावण की ओर दौड़ा। वह बोला अरे दुष्ट खड़ा क्यों नहीं रहता? निडर होकर चल दिया।
मुझे तूने नहीं जाना? उसे यमराज की तरह अपनी ओर आते देख वह समझ गया कि यह गिद्धराज जटायु है। वह रावण से बोला रावण मेरी सीख सुन जानकीजी को छोड़कर कुशलपूर्वक अपने घर चला जा। अगर तूने ऐसा नहीं किया तो तुझे प्रभु श्रीराम अपने गुस्से से भस्म कर देंगे। जब रावण नहीं माना तो तब जटायु ने रावण के बाल पकड़कर उसे रथ से नीचे उतार लिया। रावण पृथ्वी पर गिर पड़ा। उसने चोंच मार-मारकर रावण को घायल कर दिया। तब रावण ने गुस्से में आकर कटार निकाली और जटायु के दोनों पंख काट दिए।
क्रमश:...
जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK
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