Thursday, November 8, 2012

Ramayana(रामायण ) Part 3

शबरी की तरह रामजी के दर्शन करने हैं तो क्या करें?
जब रामजी वहां से चले। वे उदार शबरीजी के आश्रम में पधारे। शबरीजी ने रामचंद्रजी को देखातब मुनि मतंगजी की बात शबरी को याद आई व उसका चेहरा खिल गया। वह प्रभु को देखकर प्रेम मग्र हो गई। फिर वे हाथ जोड़कर आगे खड़ी हो गई वह बोली मैं नीच जाति की मंदबुद्धि हूं मैं नहीं जानती कि आपकी स्तुति कैसे करूं। तब श्रीरामजी ने उस पर प्रसन्न होते हुए कहा मैं तुझे नवधा भक्ति कहता हूं। तू सावधान होकर सुन और मन में धारण कर ले। जो भी ये भक्ति करता है मैं उस पर प्रसन्न हो जाता हूं।

पहली भक्ति- संतों का संग

दूसरी भक्ति- कथा प्रसंग में प्रेम

तीसरी भक्ति- अभिमान रहित होकर गुरु की सेवा।

चौथी भक्ति- गुणसमुहों का गान।

पांचवी भक्ति- मंत्र जप।

छटी भक्ति- अच्छा चरित्र।

सातवी भक्ति- संतो की भक्ति।

आठवी भक्ति- जो कुछ मिल जाए उसी में संतोष करना।

नवी भक्ति- कपटरहित बर्ताव करना।

फिर तुझमें सब प्रकार की भक्ति दृढ़ है। इन नौ प्रकार की भक्ति के कारण ही जो गतियां योगियों को भी नहीं मिल पाती हैं। वही आज तेरे लिए सुलभ हो गई हैं। ऐसी भक्ति करने के कारण ही आज तुझे मेरे दर्शन सुलभ हो गए हैं।

कैसे मिले हनुमानजी को रामजी व लक्ष्मणजी?
शबरी ने रामजी की सारी बात सुनकर कहा आप पंपा नामक सरोवर जाइएवहां आपकी सुग्रीव से मित्रता होगी। वहां से चलने के बाद रामजी व लक्ष्मणजी उस सरोवर पर पहुंचे। सरोवर के किनारें मुनियों ने आश्रम बना रखे थे। उसके बाद वे ऋष्यमूक पर्वत के निकट आ गए। वहां मंत्रियों सहित सुग्रीव रहते थे।

अतुलनीय बल के स्वामी रामचंद्रजी और लक्ष्मणजी को आते देखकर सुग्रीव बहुत भयभीत होकर बोले- हनुमान सुनो ये दोनों पुरुष बल और रूप के निधान हैं। तुम ब्रह्मचारी का रूप धारण करके जाकर देखो। अपने हृदय में उनकी याथार्थ बात जानकर मुझे इशारे से समझा देना। यदि वे बालि के भेजे हुए कोई लोग हैंतो मैं इस पर्वत को छोड़कर तुरंत भाग जाऊंगा।

तब हनुमान जी ब्रह्मचारी का रूप धारण करके रामजी व लक्ष्मणजी के पास पहुंचे। उनसे बोले आप दोनों कौन हैंजो क्षत्रिय के रूप में इस वन में घुम रहे हैं। तब रामजी ने कहा हम कौसलराज दशरथजी के पुत्र हैं। पिता का वचन मानकर वन आए हैं। हमारे नाम राम और लक्ष्मण हैंहम दोनों भाई हैं। हमारे साथ सुंदर सुकुमारी स्त्री जानकी भी थी। यहां वन में मेरी पत्नी जानकी को किसी राक्षस ने हर लिया है।

जानिएसुग्रीव को क्यों छोडऩा पड़ा अपना राज्य?
प्रभु को पहचानकर हनुमानजी उनके चरण पकड़कर पृथ्वी पर गिर पड़े। वे बोले प्रभु आपको पहचानकर बहुत हर्ष हो रहा है। इस पर्वत पर वानरराज सुग्रीव रहता हैवह आपका दास है। इस तरह सब बातें समझाकर हनुमानजी ने दोनों को पीठ पर चढ़ा लिया। जब सुग्रीव ने रामचंद्रजी को देखा तो अपने जन्म को धन्य समझा। सुग्रीव उनके चरणों में सिर नवाकर आदर पूर्वक उनसे मिले।

सुग्रीव बोले- एक बार मैं मंत्रियों के साथ बैठा हुआ था। कुछ विचार कर रहा था। तब मैंने पराए के वश में बहुत विलाप करती हुई एक स्त्री को आकाशमार्ग से जाते देखा था। हमें देखकर उन्होंने राम-राम-राम पुकारकर वस्त्र गिरा दिया था। रामजी ने उसे मांगा सुग्रीव ने तुरंत ही दे दिया। रामजी ने उस वस्त्र को प्रेम से अपना लिया। सुग्रीव ने कहा- रामजी सोच छोड़ दीजिए। मन में धीरज लाइए। मैं सब प्रकार से आपकी सेवा करूंगा। रामजी ने सुग्रीव से पूछा तुम वन मैं क्यों रहते होतब सुग्रीव ने कहा बालि और मैं दो भाई हैं। हम दोनों में बहुत प्रीति थी। एक बार वह हमारे नगर में मय दानव का मायावी पुत्र आया।

उसने आधी रात को नगर के फाटक पर आकर बालि को ललकारा। बालि शत्रु के बल को सह नहीं सका। वह दौड़ाउसे देखकर मयावी भागा। वह मायावी एक पर्वत में जा घुसा। तब बालि ने मुझे समझाकर कहा कि तुम पंद्रह दिन तक मेरी राह देखना। यदि मैं उतने दिनों में न आऊं तो जान लेना कि मैं मारा गया। मैं वहां महीने भर तक रहा वहां से रक्त की बड़ी भारी धारा निकाली। मुझे लगा कि उसने बालि को मार डाला। इसलिए मैं गुफा के द्वारा पर पत्थर लगाकर वहां से भाग आया।

ऐसे किया रावण ने सीता का हरण...
सीताजी रामजी से बोली वह हिरण बहुत सुंदर है। आप मुझे उसकी मृग चर्म ला दीजिए। तब रामजी ने सीताजी की प्रसन्नता के लिए धनुष धारण किया। लक्ष्मण से कहा-लक्ष्मण मैं शिकार के लिए जा रहा हूं। तुम अपनी भाभी की रक्षा करना।

उसके बाद रामजी हिरण के पीछे गए। मायरूपी हिरण दौड़ता व छल करता हुआ। कभी इधर तो कभी उधर जाने लगा। ऐसे कपट करते हुए वह रामजी को बहुत दूर ले गया। जब रामजी ने उसे तीर मारा तो वह गिर पड़ा और अपने असली रूप में आ गया। उसने उस अवस्था में पहले लक्ष्मण का नाम लिया व फिर रामजी का स्मरण किया। मारीच को मारकर राम तुरंत लौट पड़े। इधर सीताजी ने मरते समय मारीच की ''हा लक्ष्मण'' की आवाज सुनी तो वे व्याकुल हो उठी। उन्होंने लक्ष्मण से कहा तुम शीघ्र ही जाओतुम्हारे भैया संकट में है।

लक्ष्मणजी ने हंसकर कहा- माता सुनो उनमें सारी सृष्टि का विलय हो जाता है। वे श्रीरामजी क्या सभी स्वप्र में भी संकट में पड़ सकते हैंलेकिन जब बहुत समझाने के बाद भी सीताजी नहीं मानी। उन्होंने कुछ चुभने वाली बातें लक्ष्मणजी को सुनाई तो मजबूरी में लक्ष्मणजी रामजी को खोजने के लिए निकल पड़े। इधर रावण मौका देखकर सन्यासी के रूप में सीताजी के पास आया। रावण ने सीताजी के समीप आया और अनेकों तरह की कहानी सुनाकर सीताजी को भयप्रेम व राजनीति दिखलाई। जब सीता उसकी बातों में न आई तो रावण ने अपना असली रूप दिखलाया। गुस्से से भरकर उसने सीताजी को जबरदस्ती रथ पर बैठा लिया।

अगर दोस्त ऐसा हो तो दोस्ती तोड़ लेने में ही भलाई है...
मंत्रियों ने नगर को बिना स्वामी देखातो मुझको जर्बदस्ती राज्य दे दिया। बालि उसे मारकर घर आ गया। मुझे राजसिंहासन पर देखकर बहुत विरोध किया। उसने मुझे शत्रु के समान बहुत मारा। मेरा सर्वस्व और मेरी स्त्री को भी छिन लिया। मैं उसके भय से समस्त लोकों में बेहाल होकर फिरता रहा। वह शाप के कारण यहां नहीं आता तो भी मैं मन ही मन उससे भयभीत रहता हूं। तब रामजी ने कहा सुग्रीव सुनो में एक ही बाण से बालि को मार डालूंगा।

ब्रह्मा और रूद्र की शरण में जाने पर भी उसके प्राण नहीं बचेंगे। जिन्हें स्वभाव से ही ऐसी बुद्धि प्राप्त नहीं हैवे मुर्ख हठ करके क्यों किसी से मित्रता करते हैंमित्र का धर्म है कि वजह मित्र को बुरे मार्ग से रोककर अच्छे मार्ग पर चलावे। देने लेने में मन में शंका न रखे। अपने बल के अनुसार सदा हित करता रहे। विपत्ति के समय में तो सदा सौगुना-स्नेह रखे। वेद कहते हैं कि संत मित्र के गुण हैं ये। जो सामने तो बना-बनाकर कोमल वचन कहता है और पीठ पिछे बुराई करता है तथा मन में कुटिलता रखता है। जिसका मन सांप के सामान टेड़ा है ऐसे मित्र को तो त्यागने में ही भलाई है। मैं तुम्हारा मित्र हूं और मैं सब तरह से तुम्हारे काम आऊंगा।

वह सबसे बड़ा पापी है जो इन चारों को बुरी नजर से देखता है
सुग्रीव से बालि के बारे मे सारी बातें सुनने के बाद रामजी धनुष बाण धारण कर सुग्रीव के साथ चल दिए। उसके बाद उन्होंने सुग्रीव को बालि के पास भेजा। वह बालि के यहां पहुंचा और उसे ललकारा। बालि सुनते ही क्रोध में भरकर वेग से दौड़ा। उसकी स्त्री तारा ने उसे समझाया उसने कहा सुग्रीव जिनसे मिले हैं वे दोनों भाई तेज और बल की सीमा है।

वे कौसलाधीश दशरथजी के पुत्र राम और लक्ष्मण संग्राम में काल को भी जीत सकते हैं। बालि ने कहा सुनो रामजी तो मुझे मारेंगे तो भी मैं सनाथ हो जाऊंगा। ऐसा कहकर वह अभिमानी बालि सुग्रीव को तिनके के समान मानकर उसे मारने चला। सुग्रीव व्याकुल होकर भागा। बालि के घूंसे की चोट उसे वज्र के समान लगी।

सुग्रीव ने आकर रामजी से कहा प्रभु मैंने पहले ही कहा था। उसका शरीर वज्र के समान है। वह मुझे मार डालेगा तब रामजी ने कहा तुम दोनों का रूप बिल्कुल एक सा है मुझे तुम दोनों में कोई अंतर समझ ही नहीं आ रहा। तब रामजी ने पहचान के लिए सुग्रीव के गले मं एक माला डाल दी। फिर उसे बहुत सा बल देकर युद्ध के लिए भेजा। सुग्रीव ने बहुत से छल-बल किए। लेकिन वह डरकर सचमुच मन ही मन हार गया। तभी रामजी ने बालि को बाण मार दिया। बालि पृथ्वी पर गिर पड़ा।

प्रभु रामचंद्रजी को आगे देखकर वह फिर उठ बैठा। वह रामजी की तरफ देख कर बोला आपने धर्म की रक्षा के लिए अवतार लिया है लेकिन फिर भी व्याध की तरह मुझे मारामैं वैरी और सुग्रीव प्यारा क्योंकिस दोष में आपने मुझे मारातब रामजी ने कहा छोटे भाई की स्त्रीबहिनस्त्री और कन्या ये चारों समान हैं। इनको जो कोई बुरी नजर से देखता है उसे मारने में कोई पाप नहीं होता क्योंकि वह सबसे बड़ा पापी होता है।

क्या किया रामजी ने जब सुग्रीव भूल गया अपना वादा?
रामजी की प्रीति करके बालि ने शरीर को त्याग दिया। तारा को व्याकुल देखकर रामजी ने उसे ज्ञान दिया और उसकी माया हर ली। रामजी ने कहा पृथ्वीजलअग्रिआकाश और वायु इन तत्वों से यह अत्यंत अधम शरीर रचा गया है। वह शरीर तो प्रत्यक्ष तुम्हारे सामने सोया हुआ है। फिर तुम किसके लिए रो रही होजब तारा में ज्ञान उत्पन्न हो गया। तारा ने भगवान के चरणों की वंदना की। तब रामजी ने छोटे भाई लक्ष्मण को समझाकर कहा तुम जाकर सुग्रीव को राज्य दे दो।

लक्ष्मणजी ने तुरंत ही नगरवासियों व ब्राह्मण को बुलाकर सुग्रीव का राज्यभिषेक किया। जो सुग्रीव दिन-रात बालि के भय से व्याकुल रहता था। जिसके शरीर में बहुत से घाव हो गए थे। उस सुग्रीव को प्रभु श्रीरामजी ने राजा बना दिया। सुग्रीव का राज्यभिषेक होने के बाद रामजी एक वर्ष तक प्रवर्षण पर्वत पर रहे। एक वर्ष बीतने पर रामजी ने लक्ष्मणजी सें कहा सुग्रीव तो नगर,स्त्रीराज्य व खजाना पाकर मेरी सुध लेना भूल गया है। तुम सुग्रीव को भय दिखाकर यहां ले आओ।

इधर हनुमानजी विचार किया कि सुग्रीव ने रामजी का कार्य भुला दिया। हनुमान ने उन्हें सामदामदंडभेद चारों प्रकार की नीति कहकर उन्हें समझाया। हनुमानजी की बात सुनकर सुग्रीव को बहुत डर लगा। उसने सबको प्रिती और नीति दिखाई। लक्ष्मणजी क्रोध में भरकर अंगद के पास आए। तब अंगद ने उनसे क्षमा याचना की। जब सुग्रीव को अपनी भूल का एहसास हुआ तब उसने रामजी व लक्ष्मणजी से क्षमा याचना की।

कैसे मिला वानरों को सीताजी तक पहुंचने का रास्ता?
उनकी क्षमा स्वीकार करके रामजी बोले तुम मेरे लिए भरत के समान हो। वही करो जिससे सीता की खबर मिले। उसके बाद वहां वानरों के झुंड आ गए। रामजी ने सभी की कुशल पूछी। कोई ऐसा वानर नहीं था जिसकी कुशल श्रीरामजी ने न पूछी हो।

सुग्रीव ने वानरों से कहा तुम चारों दिशाओं में जाओ व जानकीजी को खोजो। महीनेभर में वापस आ जाना। सुग्रीव की आज्ञा से सभी वानर तुरंत जहां-तहां चल दिए। सब के बाद हनुमानजी ने सिर नवाया। कार्य का विचार करके प्रभु ने स्वयं उन्हें अपने पास बुलाया। उनके सिर को स्पर्श करते हुए अपने हाथ की अंगूठी उतारक उन्हें दी। वे हनुमानजी से बोले सीता को तुम हर तरह से मेरा बल और विरह समझाकर शीघ्र ही लौट आना। सभी वानर सीताजी को ढूंढने निकल पड़े। सीताजी को वानर कंदराओंपर्वतोंनदी व तालाबों पर खोजते हुए चले जा रहे हैं।

कहीं किसी राक्षस से भेंट हो जाती हैतो एक-एक चपत में ही उसके प्राण ले लेते हैं। कोई मुनि मिल जाता है तो उससे पता पूछ लेते हैं। इतने में ही सबको बहुत प्यास लगीजिससे सब बहुत ही व्याकुल हो गए। हनुमान जी ने मन ही मन अनुमान किया कि जल पीए बिना तो सब लोग मरना ही चाहते हैं। उन्होंने पहाड़ की चोटी पर चढ़कर चारों और देखा तो पृथ्वी के अंदर एक गुफा में उन्हें कौतुक दिखाई दिया। उन्होंने सभी को ले जाकर वह गुफा दिखाई। अंदर जाकर उन्होंने देखा गुप्फा में बहुत से कमल खिले हैं।

वहीं एक सुंदर मंदिर हैजिसमें एक तपोमूर्ति स्त्री बैठी है। सब ने उन्हें सिर नवाया और वृतांत कह सुनाया। तब उन्होंने कहा सब फल खाओ और जलपान करो। सब ने जलपान किया। उस स्त्री ने अपनी कथा सुनाई। उसके बाद कहा तुम लोग अपनी आंखे मूंद लो और गुफा छोड़कर बाहर जाओ। आंखें मूंदकर फिर जब आंखें खोली तो सब वीर देखते हैं कि वे समुद्र के किनारे खड़े हैं।

संभाले अपने अभिमान को वरना होगा ऐसा हाल
जब सारे वानर सीताजी को खोजकर थक गए। तब वे आपस में बातें करने लगे। वानरों की बातें पर्वत की कंदरा सम्पाति ने सुनी। बाहर निकलकर उसने बहुत से वानर देखे। वह बोला जगदीश्वर ने मुझे घर बैठे आहार भेज दिया। आज इन सबको खा जाऊंगा। बहुत दिन बीत गएभोजन के बिना मर रहा था। पेटभर भोजन कभी नहीं मिलता। आज विधाता ने एक ही बार में बहुत सा भोजन दे दिया। गिद्ध के वचन कानों से सुनते ही सब डर गए कि अब सचमुच ही मरना होगायह हमने जान लिया। अब उस गिद्ध को देखकर सब वानर उठ खड़े हुए।

अंगद ने मन में विचारकर कहा- अहा जटायु के समान धन्य कोई नहीं है। श्रीरामजी के कार्य के लिए शरीर छोड़कर वह परम बड़भागी भगवान के परमधाम को चला गया। यह बात सुनकर संपाती ने कहा मुझे समुद्र के किनारे ले चलोमैं जटायु को तिलांजलि दे दूं। इस सेवा के बदले मैं तुम्हारी वचन से सहायता करूंगा। जिसे तुम खोज रहे हो उसे पा जाओगे। समुद्र के तीर पर छोटे भाई जटायु की क्रिया करके सम्पाती अपनी कथा कहने लगा। सुनो हम दोनों भाई जवानी में एक बार आकाश में उड़कर सूर्य के वह जटायु तेज नहीं सह सकाइससे लौटा आया।

मैं अभिमानी था। इसलिए सूर्य के पास चला गया। अत्यंत अपार तेज से मेरे पंख जल गए। मैं बड़े जोर से चीख मारकर जमीन पर गिर पड़ा। वहा चंद्रमा नाम के एक मुनि थे। मुझे देखकर उन्हें बड़ी दया आई। उन्होंने बहुत प्रकार से मुझे ज्ञान सुनाया और मेरी देहसंबंधी अभिमान को छुड़ा दिया। उन्होंने कहा त्रेतायुग में साक्षात भगवान मनुष्यशरीर धारण करेंगे। उनकी स्त्री को राक्षसों का राजा हर ले जाएगा।

उसकी खोज में प्रभु दूत भेजेंगे। उनसे मिलने पर तू पवित्र हो जाएगा। तेरे पंख उग आएंगे चिंता न करें। उन्हें तू सीताजी को दिखा देना। मुनि की वह वाणी आज सत्य हुई। अब मेरे वचन सुनकर तुम प्रभु का कार्य करो। त्रिकूट पर्वत पर लंका बसी हुई है। वहां स्वभाव ही से निडर रावण रहता है। वहां अशोक नाम का उपवन बगीचा हैजहां सीताजी रहती है। वे सोच में मग्र बैठी हैं। मैं उन्हें देख रहा हूंतुम नहीं देख सकते क्योंकि गिद्ध हूं। गिद्ध को बहुत दूर तक का सपष्ट दिखाई देता है।

क्यों किया हनुमानजी ने समुद्र पार जाने का फैसला?
जो सौ योजन का समुद्र लांघ सकेगा और बुद्धिनिधान होगा वही श्रीरामजी का कार्य कर सकेगा। मुझे देखकर मन में धीरज धरो। देखो मैं बिना पंख के कैसा बेहाल था। पंख उगने से मैं कितना सुंदर हो गया। पापी भी जिनका स्मरण करके भवसागर तर जाते हैं। तुम उनके दूत हो कायर मत बनो। यह बात कहकर जब गिद्ध चला गयातब उन के मन में बहुत विस्मय हुआ।

सब किसी ने अपना-अपना बल प्रकट किया लेकिन समुद्र के पार जाने में सभी ने संदेह प्रकट किया। इस प्रकार कहकर गिद्ध चला गयातब उन के मन में बहुत विस्मय हुआ। सभी ने अपने-अपने बल का बखान कियापर समुद्र के पार जाने में सभी ने संदेह प्रकट किया। ऋक्षराज जाम्बवान कहने लगे-मैं अब बूढ़ा हो गया हूं। शरीर में पहले वाले बल का लेश भी नहीं रहा। अंगद ने कहा मैं तो पार चला जाऊंगा लेकिन लौटते समय के लिए हृद में कुछ संदेह है।

जाम्बवान ने कहा-तुम सब प्रकार से योग्य हो। तुम सबके नेता हो तुम्हे कैसे भेजा जाए। जाम्बवान ने हनुमान से कहा सुनो तुमने यह क्या चुप्पी साध रखी है। तुम तो पवन पुत्र हो। जगत में ऐसा कौन सा काम है जो तुम नहीं कर सकते यह सुनते ही हनुमानजी पर्वत के समान आकार के हो गए। हनुमानजी गरजते हुए बोले में इस समुद्र को लांघ सकता हूं। सहायको सहित उस रावण को मारकर त्रिकू ट पर्वत से उखाड़कर यहां ला सकता हूं। जांबवान में तुमसे पूछता हूं मुझे क्या करना चाहिए। तुम जाकर सिर्फ इतना ही काम करो कि सीताजी को देखकर लौट आओ और उनकी खबर कह दो।

क्यों निगलना चाहती थी सुरसा हनुमान को?
जाम्बवान के सुंदर वचन सुनकर हनुमानजी के दिल को बहुत भाए। वे बोले तुम लोग दुख सहकरकंद-मूल-फल खाकर मेरी राह देखना। यह कहकर हनुमान ने सबको मस्तक नवाकर चल दिए। समुद्र के तीर पर एक सुंदर पर्वत था। हनुमानजी अचानक उस पर्वत पर कूदकर रामजी का स्मरण करने लगे। जिस पर्वत पर भी कूदकर वे दूसरे पर उछले वह तुरंत ही पाताल में चला गया।

समुद्र ने उन्हें रामजी का दूत समझकर मैनाक पर्वत से कहा कि मैनाक तू इनकी थकान दूर कर दे। हनुमानजी उसे हाथ से छू दियाफिर प्रणाम करके कहा-भाई रामचंद्रजी का काम किए बिना मुझे विश्वास कहां। सभी देवताओं ने हनुमानजी को जाते हुए देखा। देवताओं ने उनकी बल व बुद्धि की परिक्षा के लिए सुरसा नामक सर्पों की माता को भेजाउसने आकर हनुमानजी से यह बात कही-आज देवताओं ने मुझे भोजन दिया है। यह बात सुनकर हनुमानजी ने कहा-श्रीरामजी का कार्य कर मैं लौट आऊं और सीताजी की खबर प्रभु को सुना दूं।

तब मैं आकर तुम्हारे मुंह में घुस जाऊंगा। मैं सच कह रहा हूं अभी मुझे जाने दो। जब किसी भी तरह से उसने हनुमानजी को नहीं जाने दिया। तब हनुमानजी ने कहा तु मुझे खा ले। उसने योजनभर का मुंह फैलाया। तब हनुमानजी ने अपने शरीर को उससे दूना बढ़ा कर लिया। उसने सोलह योजन का मुख कियातो हनुमान जी ने और अधिक विशालरूप धारण किया।

जैसे-जैसे सुरसा अपने मुख का विस्तार करती गई। हनुमानजी उसे दूना रूप दिखाते रहे। जब उसने अपना मुंह बहुत अधिक बढ़ा कर लिया। तब हनुमानजी ने बहुत ही छोटा रूप धारण कर लिया। वे उसके मुख में तुरंत घुस कर और बाहर निकल आए। उसे सिर नवाकर विदा मांगने लगे। तब वह बोली मैंने तुम्हारी बुद्धि व बल की परिक्षा ले ली है। जिसके लिए देवताओं ने मुझे भेजा था।

जानिएकैसे पहुंचे हनुमानजी लंका?
समुद्र में एक राक्षसी रहती थी। वह मायावी थी और उड़ते हुए पक्षियों को पकड़ लेती थी। आकाश में जो जीव उड़ा करते थे। वह जल में उनकी परछाई देखकर। उस परछाई को पकड़ लेती थी। जिससे वे उड़ नहीं सकते थे। इस तरह वह हमेशा आकाश में उडऩे वाले जीवों को खाया करती थी। उसने वही छल हनुमानजी के साथ भी किया। हनुमानजी ने तुरंत ही उसका कपट पहचान लिया। पवनपुत्र धीर बुद्धि वीर हनुमानजी उसको मारकर समुद्र के पार गए। वहां जाकर उन्होंने वन की शोभा देखी। मधु के लोभ से भौंरे गुजार कर रहे थे। अनेकों प्रकार के वृक्ष फल-फूल से शोभित हैं।

पक्षी और पशुओं के समूह को देखकर तो वे मन में बहुत खुश हुए। सामने एक विशाल पर्वत देखकर हनुमानजी डर त्यागकर उस पर चढ़ गए। वहां उन्होंने देखा एक विचित्र परकोटा है। उसके अंदर बहुत सुंदर-सुंदर घर हैं। चौराहेबाजार व गलियां हैं। सुंदर नगर बहुत तरह से सजा हुआ है। हाथीघोड़े खच्चरों के समुह तथा पैदल और रथों के समुह कौन गिन सकता है। वनबाग उपवनफुलवाड़ीतालाबकुएंऔर बावलियां आदि सुशोभित हैं। नगर के बहुसंख्यक रखवालों को देखकर हनुमानजी ने मन में विचार किया कि बहुत छोटा रूप धरूं और रात के समय नगर में प्रवेश करूं। हनुमानजी मच्छर के समान छोटा सा रूप धारण कर लीला करने वाले भगवान श्रीरामचंद्रजी का स्मरण करके लंका को चले।

लंकिनी नाम की एक राक्षसनी ने रावण को विनाश की यह पहचान बता दी थी कि जब तू बंदर के आने से व्याकुल हो जाएतू राक्षसों का संहार हुआ जान लेना। अयोध्यापुरी के राजा रामजी का स्मरण कर हनुमान जी ने नगर में प्रवेश किया। उन्होंने एक-एक महल की खोज की। जहां तहां असंख्य योद्धा देखे। फिर वे रावण के महल में गए। वह अत्यंत विचत्र था जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। हनुमान ने रावण को शयन करते हुए देखालेकिन महल में माता सीता नहीं दिखाई दी। फिर एक सुंदर महल दिखाई दिया। वहां भगवान का एक अलग मंदिर बना हुआ था। तब हनुमान जी ने सोचा लंका तो राक्षसों का निवास स्थान है। यहां सज्जन का निवास कहां। हनुमानजी मन में इस प्रकार सोच रहे थे तभी विभीषण जागे। उन्होंने राम नाम का स्मरण किया।

लंका में जब हनुमान ने सीता जी को देखा तो बहुत दुखी हुए क्योंकि...
ब्राह्मण का रूप धरकर हनुमान विभीषण के पास गए। विभीषण से उन्होंने अनेक तरह की बातें की। तब विभीषण ने उनसे पूछा क्या आप हरीभक्तों में से कोई

हैतब हनुमानजी ने श्रीरामचंद्रजी की सारी कथा कहकर अपना नाम बताया। सुनते ही विभीषण बहुत खुश हो गए। विभीषण ने हनुमानजी से कहा मैं यहां

बिल्कुल वैसे ही रहता हूं जैसे दांतों के बीच में बेचारी जीभ।

जब हनुमानजी ने विभीषण से सीताजी के बारे में पूछा तोविभीषण ने वह जिस तरह लंका में रहती थीउसका बखान किया। तब हनुमानजी ने कहा- मैं जानकी माता को देखना चाहता हूं। विभीषण ने सीता का पता बतायातब हनुमानजी विदा लेकर चले। फिर वही रूप धरकर वहां गएजहां अशोकवन में सीताजी रहती थी।

सीताजी को देखकर उन्होंने मन ही मन प्रणाम किया। उन्होंने देखा कि सीताजी रामजी के विरह में बहुत दुबली हो गई हैं। वे बहुत दुखी हैं और एक पेड़ के नीचे बैठी हैं। हनुमानजी पत्तों के पीछे छुपकर विचार करने लगेक्या करूं( इनका दुख कैसे दूर करूं)उसी समय बहुत सी स्त्रियां को साथ लिए सज-धजकर

रावण वहां आया। उस दुष्ट ने सीताजी को बहुत प्रकार से समझाया। उसने कहा मैं मंदोदरी आदि सभी रानियों को तुम्हारी दासी बना दूंगायह मेरा प्रण

है। तुम एक बार मेरी ओर देखो तो सही! तब सीताजी ने तिनके की आड़ करके कहने लगी। अरे दुष्ट तू समझ ले! तुझे रघुवीर के बाण की खबर नहीं है।

रावण का होगा सर्वनाशत्रिजटा ने कर दी थी भविष्यवाणी क्योंकि....
रावण बोला अगर महीनेभर में तुमने कहा न माना तो मैं इस तलवार से तुम्हे मार डालूंगा। उसके बाद रावण वहां से चला गया। राक्षसियों का समूह बहुत से बुरे रूप धरकर सीताजी को भय दिखलाने लगे। उनमें एक त्रिजटा नाम की राक्षसी थी। उसने सब को बुलाकर अपना स्वप्र सुनाया। उसने सभी से कहा तुम सीताजी की सेवा करके अपना कल्याण कर लो। सपने में मैंने देखा एक बंदर ने लंका जला दी। राक्षसों की सारी सेना मार डाली। रावण नंगा हैगधे पर सवार है।

उसका सिर मुड़ा हैबीसों भुजाएं कटी हुई हैं। इस तरह वह दक्षिण दिशा को जा रहा है व लंका का राजा विभीषण बन गया है। मैं कह सकती हूं कि यह स्वप्न सत्य होकर रहेगा। यह सुनकर वे सभी राक्षसियां डर गई और जानकी के चरणों में गिर पड़ी। इसके बाद वे सब जहां तहां चली गई। सीताजी मन में सोचने लगी एक महीना बीतने के बाद यह नीच रावण मुझे मारेगा। सीताजी हाथ जोड़कर त्रिजटा से बोली तू मेरी विपत्ति की साथी है। जल्दी कोई ऐसा उपाय कर जिससे मैं शरीर छोड़ सकूं। अब यह सब नहीं सहा जाता।

क्यों कर लिया सीताजी ने हनुमानजी की बातों पर विश्वास?
सीताजी के वचन सुनकर त्रिजटा ने चरण पकड़कर उन्हें समझाया। उसके बाद त्रिजटा वहां से चली गई। सीताजी को व्याकुल देखकर हनुमानजी ने अपने मन ही मन कुछ विचार किया और अंगूठी सीताजी के सामने डाल दी। अंगूठी को पहचानकर सीताजी को आश्चर्यचकित होकर उसे देखने लगी। उन्हें कौन जीत सकता हैऔर माया से ऐसी अंगूठी बनाई जा सकती है। जैसे कई सवाल सीताजी के मन में घूमने लगे। तभी पेड़ पर बैठे हनुमानजी कथा सुनाने लगे। सीताजी मन में अनेक तक प्रकार के विचार कर रही थी। सीताजी का दुख भाग गया।

वे कान और मन लगाकर उन्हें सुनने लगी। हनुमानजी ने सारी कथा कह सुनाई। माता सीता बोली कौन है वोजिसने कानों के लिए अमृतरूप सुंदर कथा कहीतब हनुमानजी पास चले गए उन्हें देखकर सीताजी मुंह फेरकर बैठ गई। श्रीरामजी का दूत हूं। रामजी की सच्ची कसम खाता हूं। मुझे श्रीरामजी ने यह अंगूठी पहचान के लिए दी है। हनुमानजी की पूरी बात सुनकर सीताजी के मन में विश्वास हो गया कि हनुमानजी श्रीरामजी के ही दूत हैं। यह अंगूठी मैं ही लाया हूं।

सीताजी ने पूछा नर और वानर का संग कहो कैसे हुआतब हनुमानजी ने जैसे संग हुआ वह सब कथा सुनाई। हनुमानजी की बात सुनकर सीताजी के मन में विश्वास हो गया। भगवान का सेवक जानकर हनुमानजी से उन्हें अत्यंत गाढ़ी प्रीति हो गई। तब सीताजी ने कहा अब छोटे भाई लक्ष्मणसहित रामजी की कुशल सुनाओ। हनुमान ने कहा अब धीरज धरकर रघुनाथजी का संदेश सुनिए। हनुमानजी ने सीताजी को रामजी का संदेश सुनाया। जब सीताजी के मन में पूरी तरह विश्वास हो गया तो हनुमानजी फिर छोटा रूप धारण कर लिया।

हनुमानजी के आने से क्यों मच गया लंका में हड़कंप?
सीताजी के मन में संतोष हुआ।उन्होंने श्रीरामजी के प्रिय जानकर हनुमानजी को आर्शीवाद दिया कि तुम्हे बल और शील प्राप्त हो। हनुमानजी ने सीताजी का आर्शीवाद लिया और बोले माता मुझे इन सुंदर फल वाले पेड़ों को देखकर बहुत भूख लग रही है। तब सीताजी ने कहा हनुमान सुनो बहुत से राक्षस इस वन की रखवाली करते हैं। लेकिन जब वे नहीं माने तोहनुमानजी को बुद्धि और बल में निपुण देखकर जानकीजी ने कहा- जाओ रामजी का मन ही मन ध्यान करके ये मीठे फल खाओ।

वे सीताजी का आर्शीवाद लेकर बागों में चले गए। फल खाए और पेड़ों को तोडऩे लगे। वहां जो रखवाले योद्धा थे। उनमें से कुछ को मार डाला और कुछ ने जाकर रावण को यह खबर दी कि अशोकवाटिका में एक बंदर घुस आया है जिसने वाटिका को उजाड़ डाला है। यह सुनकर रावण ने कुछ योद्धा भेजे। जिन्हें देखकर हनुमानजी ने गर्जना की। हनुमानजी ने सब राक्षसों को मार डाला।

फिर रावण ने अक्षय कुमार को भेजा। वह असंख्य योद्धाओं को साथ लेकर चला।उसे आते देखकर हनुमानजी ने ललकारा और उसे मारकर जोर से गरजे। उन्होंने सेना में से कुछ को मार डाला और कुछ को मसल डाला। इधर पुत्र के वध की खबर सुनकर रावण क्रोधित हो गया और उसने मेघनाद को भेजा। उससे कहा कि मारना नहीं उसे बांध लाना।

हनुमानजी को कैसे बना लिया मेघनाद ने बंदी?
मेघनाद जब हनुमानजी से लडऩे लगातब हनुमानजी एक घूंसा मारकर वृक्ष पर जा चढ़े। उसे क्षणभर के लिए मुच्र्छा आ गई। फिर उठकर उसने बहुत माया रची। लेकिन वह पवनपुत्र से जीत नहीं पाया। अन्त में उसने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग कियातब हनुमानजी ने मन में विचार किया कि यदि ब्रह्मास्त्र को नहीं मानता हूं तो उसकी अपार महिमा मिट जाएगी। इसलिए जब उसने हनुमानजी पर वह बाण चलाया तो वे नीचे गिर पड़े। जब उसने देखा कि हनुमानजी मूर्छित हो गए हैं। तब वह नागपाश से बांधकर उन्हें रावण के पास ले गया।

बंदर के बांधे जाने की खबर सुनकर राक्षस दौड़े और सभी सभा में आए। लंकापति रावण न हनुमान से कहा तू कौन हैकिसके बल पर तूने वन को उजाड़कर नष्ट कर डालाक्या तूने क भी मेरा नाम नहीं सुना क्यातूने किस अपराध से राक्षसों को मारातब हनुमानजी ने कहा मैं तुम्हारी प्रभुता को खूब जानता हूं। मुझे भूख लगी थीमैंने फल खाए और वानर स्वभाव के कारण वृक्ष तोड़े। कुमार्ग चलने वाले राक्षस जब मुझे मारने लगे। तब जिन्होंने मुझे माराउनको मैंने भी मारा। उस पर तुम्हारे पुत्र ने मुझको बांध लिया। मुझे अपने बांधे जाने की कुछ भी लज्जा नहीं है।

क्यों लगाई हनुमानजी ने लंका में आग?
हनुमानजी की बात सुनते ही रावण को गुस्सा आ गया। सभी राक्षस उन्हें मारने दौड़े। उसी समय विभीषण वहां पहुंचे। उन्होंने रावण से कहा कि दूत को मारना नहीं चाहिए। ये नीति के विरूद्ध है। इन्हें कोई दूसरा दंड दिया जाए तो ठीक रहेगा। यह सुनकर रावण बोला अच्छा तोबंदर को अंग-भंग कर लौटा दिया जाए। मैं सबको समझाकर कहता हूं कि बंदर की ममता पूंछ पर होती है।

अत: तेल में कपड़ा डुबोकर उसे इसकी पूंछ में बांधकर फिर आग लगा दो। जब बिना पूंछ का यह बंदर वहां जाएगातब यह मुर्ख अपने मालिक को साथ ले आएगा। जिनकी इसने बहुत बड़ाई की है। मैं भी उसकी प्रभुता तो देखूं। रावण की बात सुनकर राक्षस उनकी पूंछ में आग लगाने की तैयारी करने लगे। नगर का सारा घीतेल खत्म कर दिया।

हनुमानजी ने ऐसा खेल किया कि पूंछ बढ़ गई। नगरवासी लोग तमाशा देखने आए। सारे लोग तालियां पीट रहे थे। हनुमानजी को नगर में घुमाकर उनकी पूंछ में आग लगा दी गई। तब हनुमानजी तुरंत ही बहुत छोटे हो गए। बंधन से निकलकर सोने की अटारियों पर जा चढ़े। उन्होंने फिर अपनी देह को बढ़ा बना लिया और नगर में आग लगाने लगा।

क्या किया हनुमानजी ने लंका में आग लगाने के बाद?
उसके बाद जब सारा नगर जलने लगा तब पूंछ बुझाकर थकावट दूर करके और फिर छोटा सा रूप धारण कर हनुमानजी सीताजी के सामने जाकर हाथ जोड़कर जा खड़े हुए। उन्होंने सीताजी से कहा मुझे कोई चिन्ह दे दीजिए। जैसे रामजी ने मुझे दिया था। तब सीताजी ने चूड़ामणि उतारकर दी। हनुमानजी ने उसको हर्षपूर्वक ले लिया। सीताजी ने कहा नाथ से मेरा प्रणाम निवेदन करना और कहना मेरा भारी संकट दूर कीजिए। इंद्रपुत्र जयंत की कथा सुनाना और प्रभु को उनके बाण का प्रताप समझाना यदि महीनेभर में नाथ नहीं आए तो मुझे जीवित नहीं पाएंगे।

हनुमानजी ने सीताजी को समझाया उसके बाद वहां से चल दिए। वहां से चलते समय हनुमानजी ने भारी गर्जन किया जिसे सुनकर स्त्रियों के गर्भ गिरने लगे। समुद्र लांघकर वे इस पार आए उन्होंने वानरों को हर्षध्वनि सुनाई। हनुमानजी को देखकर सब हर्षित हो गए। सब लोग मधुवन के अंदर आ गए। अंगद की सम्मति से सबने मीठे फल खाए।

क्या हुआ जब हनुमानजी ने रामजी को सुनाया सीताजी का संदेश?
उसके बाद सभी लोग सुग्रीव के पास पहुंचे। सुग्रीव से बहुत प्रेम से मिले। सुग्रीव ने सभी की कुशल पूछी- तब हनुमान ने कहा आपके चरणों के दर्शन से सब कुशल है। श्रीरामजी की कृपा से विशेष कार्य हुआ। तभी वानर बोले सब कार्य हनुमान ने ही किया और सब वानरों के प्राण बचा लिए।

यह सुनकर सुग्रीव हनुमानजी से फिर मिले और सब वानरों समेत श्रीरामजी के पास चले। श्रीरामजी ने जब वानरों को कार्य किए हुए आते देखा तब उनके मन में विशेष खुशी हुई। रामजी ने सभी की कुशल पूछी। जांबवन ने उन्हें लंका की पूरी घटना बताई। जिसे सुनने के बाद रामचंद्रजी ने हनुमानजी को गले से लगा लिया और कहा- हनुमान तुम हमें बताओ सीता वहां किस प्रकार रहती है और अपने प्राणों की रक्षा करती है। तब हनुमानजी ने कहा-आपका नाम रात-दिन पहरा देने वाला है। वे दिन भर आंखों को अपने चरणों से लगाए रहती हैं यही ताला लगा हैफिर प्राण जाएं किस मार्ग सेचलते समय उन्होंने मुझे चूड़ामणि उतारकर दी। रामजी ने उसे लेकर हृदय से लगा लिया।

दोनों नेत्रों में जल भरकर जानकीजी ने मुझसे कु छ बाते कहीं।

उन्होंने कहा छोटे भाई सहित प्रभु के चरण पकडऩा और कहना मैं आपके चरणों की अनुरागिणी हूं। फिर स्वामी आपने मुझे किस अपराध मैं त्याग दिया। हां एक दोष में अपना मानती हूं कि आपका वियोग होते ही मेरे प्राण नहीं चले गए। इतना कहकर हनुमान बोले सीताजी की विपत्ति बहुत बड़ी है आगे मैं अगर कुछ कहूंगा तो आपको बहुत क्लेश होगा। हनुमानजी की बात सुनकर भगवान ने कहा- हे हनुमान तेरे जैसा कोई उपकारी देवतामनुष्य या मुनि कोई भी शरीरधारी नहीं हैं। मैं तेरा उपकार कैसे चुकाऊंगा। प्रभु की बात सुनकर और उनके चेहरे पर प्रसन्नता देखकर हनुमानजी भी खुश हो गए।

जब लिया रामजी ने रावण से युद्ध का फैसला तो.....
रामजी ने पूछा हनुमान बताओ रावण की सुरक्षित लंका और उसके बड़े महलों को तुमने कैसे जलायातब हनुमानजी ने रामजी की प्रसन्नता को देखते हुए बोले बंदर का बस यही बड़ा पुरुषार्थ है कि वह एक डाल से दूसरी डाल पर चला जाता है। मैंने जो समुद्र लांघकर सोने का नगर का जलाया और राक्षसों को मारकर अशोक वाटिका उजाड़ डाला। जिस पर आप प्रसन्न होंउसके लिए कुछ भी कठिन नहीं है। यह सुनकर सभी वानर कहने लगे- श्रीरामजी की जय होजय होजय हो। रामजी ने प्रसन्न होकर कहा अब विलंब किस कारण किया जाए।

वानरों को तुरंत आज्ञा दो। वानरराज सुग्रीव ने तुरंत वानरों को बुलायासेनापतियों के समूह आ गए। वानर भालुओं के झुंड अनेक रंगों के हैं और उनमें अतुलनीय बल है। सेना जब प्रस्थान करने लगी तो अनेक शकुन होने लगे। रामजी के साथ जो-जो शकुन हुए वही रावण के लिए अपशकुन होने लगे। सेना चली उसका वर्णन कौन कर सकता हैअसंख्य वानर और भालू गर्जना कर रहे हैं। नाखूनों के शस्त्र लिए सभी रीछ और वानर पर्वतों और वृक्षों को लेकर कोई आकाशमार्ग से तो कोई पृथ्वी मार्ग से चले जा रहे हैं। उनके बल से पृथ्वी डोलने लगी और समुद्र खलबला उठे। गंधर्वदेवतामुनिनागकिन्नर सब के सब मन में हर्षित हुए कि अब हमारा दुख टल गए। अनेकों करोड़ भयानक वानर योद्धा कटकटा रहे हैं। करोड़ों ही दौड़ रहे हैं। सर्पराज शेषजी भी सेना का बोझ नहीं सह सकतेवे बार-बार मोहित हो जाते हैं और कच्छप की पीठ को दांतों से पकड़ते हैं।

युद्ध की बात सुनकर मन्दोदरी ने रावण से क्या कहा?
इस तरह रामजी समुद्र तट तक पहुंचे। वहां पहुंचकर रीछ और वानर फल खाने लगे। इधर लंका में जब से हनुमानजी लंका को जलाकर गएतब से राक्षस डरे हुए रहने लगे। युद्ध की बात सुनकर और यह देखकर मंदोदरी बहुत व्याकुल हो गई। वह एकांत में हाथ जोड़कर रावण से कहने लगी- स्वामी आप श्रीरामजी का विरोध छोड़ दीजिए। जिनके दूत की करनी का विचार करते ही राक्षसों की गर्भवती स्त्रियों के गर्भ गिर जाते हैंअगर आप भला चाहते हैं तो अपने मंत्री को बुलाकर उसके साथ उनकी पत्नी को भेज दीजिए।

सीता आपको सिर्फ दुख देने के लिए आई है। रामजी के बाण सांपों के समान हैं और राक्षसों के समुह मेंढक के समान हैं। जब तक वे इन्हें निगल नहीं जाते तब तक नहीं छोड़ेंगे। रावण मंदोदरी की बात सुनकर जोर से हंसा और बोला स्त्रियों का स्वभाव सचमुच डरपोक होता है। तुम्हारा मन बहुत ही कमजोर है। यदि वानरों की सेना आएगी तो बेचारे राक्षस उसे खाकर अपना जीवन निर्वाह करेंगे। लोकपाल भी जिसके डर से कांपते हैंउसकी पत्नी होकर तुम डरती हो।ऐसा कहकर रावण ने उसे हृदय से लगा लिया और वह उसे प्यार से समझाकर सभा में चला गया।

इन चार बातों से बच कर रहें ये पहुंचा देंगी आपको नरक के रास्ते
रावण जैसे ही सभा में जाकर बैठाउसे खबर मिली की रामजी की सेना समुद्र के उस पार आ गई है। उसने मंत्रियों से पूछा कि आप लोग उचित सलाह दीजिए। तब मंत्रियों ने कहा इसमें सलाह की कौन सी बात है। आपने देवताओं और राक्षसों आसानी से जीत लिया। ऐसा कहकर सारे मंत्री रावण की स्तुति करने लगे। तब विभीषण भी वहीं थे। जब रावण ने विभीषण से पूछा तो विभीषण बोले जो इंसान सुखी रहना चाहता हो उसे परस्त्री को त्याग देना चाहिए। कामक्रोधलोभमद ये सब नरक के रास्ते हैं।

इन सबको छोड़कर रामजी की भक्ति कीजिए। राम मनुष्यों के राजा नहीं है वे समस्त लोकों के स्वामी हैं और काल के भी काल हैं। देवताओं का हित करने के लिए उन्होंने ये शरीर धारण किया है। भैया मैं आपसे हाथ जोड़कर प्रार्थना कर रहा हूं। मानमोह और मद को त्याग दीजिए और कौसलपति रामजी का भजन कीजिए। मुनि पुलस्त्यजी ने भी अपने शिष्यों से यह संदेश पहुंचवाया है। माल्यवान नाम का रावण का एक बहुत ही बुद्धिमान मंत्री था।उसने उन के वचन सुनकर बहुत सुख पाया और कहा आपके छोटे भाई विभीषण नीतिमान है।

क्यों चला गया विभीषण रावण को छोड़कर रामजी के पास?
रावण ने कहा ये दोनों मुर्ख शत्रु की महिमा का बखान कर रहे हैं। यहां कोई हैइन्हें दूर करो! तब माल्यवान तो घर लौट गया। विभीषणजी हाथ जोड़कर फिर कहने लगे। वेद ऐसा कहते हैं कि सुबुद्धि यानी अच्छी बुद्धि और कुबुद्धि यानी बुरी बुद्धि। जहां सुबुद्धि रहती है वहां सुख और समृद्धि रहती है। जहां कुबुद्धि रहती है वहां दुख रहता है। आपके दिल में उल्टी बुद्धि में आ बसी है। इसी कारण आप हित को अहित और शत्रु को मित्र मान रहे हैं। मैं चरण पकड़कर आप से भीख मांगता हूं कि आप मेरा दुलार रखिए।

श्रीरामजी को सीताजी दे दीजिएजिसमें आपका अहित न हो। तब रावण ने कहा मेरे नगर में रहकर तपस्वियों से प्रेम करता है। तब विभीषणजी ने पूरी सभा के सामने कहा कि मैं अब से रामजी की शरण में जाता हूं। जिस क्षण रावण ने विभीषण को त्यागा उसी क्षण वह ऐश्वर्यहीन हो गया। उसके बाद विभीषणजी समुद्र के इस पार रामजी के पास आ गए। तब वानरों को लगा कि विभीषणजी शत्रु के कोई खास दूत हैं।

जब वे सुग्रीव के पास आए और उन्होंने रामजी से मिलने की आज्ञा मांगी। तब सुग्रीव ने उन्हें बाहर ठहरने को कहा और रामजी के पास आए और बोले रावण का भाई आपसे मिलने आया है। तब रामजी ने सुग्रीव से पूछा हे मित्र तुम्हारी क्या इच्छा है तो सुग्रीव ने कहा महाराज राक्षसों की माया को समझना मुश्किल है। यह राक्षस न जाने यहां क्यों आया है। मुझे लगता है ये हमारा भेद लेने आया है। इसलिए मुझे लगता है कि हमें इसे यहां बांध कर रख लेना चाहिए।

जब विभीषण रामजी से पहली बार मिले तो...
तब रामजी ने कहा सुग्रीव तुमने अच्छी नीति सोची लेकिन शरणागत के भय को हर लेना मेरा प्रण है। जो मनुष्य अहित का अनुमान करके शरण में आए हुए को त्याग देते हैं वह पापी है। जिसने करोड़ों ब्राह्मणों की हत्या की होशरण में आने पर मैं उसे भी नहीं त्यागता। पापी अपने स्वभाव के कारण मेरे पास आ नहीं सकते हैं। यदि वह दुष्ट होता तो क्या वह मेरे सम्मुख आ पाता। मुझे कपट व छल नहीं सुहाते।

यदि उसे रावण ने भेद लेने भेजा है तब भी हमें उससे कुछ भी हानि या भय नहीं है। प्रभु ने हंसकर कहा दोनों ही स्थितियों में उसे ले आओ। तब अंगद और हनुमान विभीषण को आदर सहित आगे करके रामजी के पास ले आए। विभीषण ने अपनी सारी परेशानी प्रभु को सुनाई। रामजी ने विभीषण की बात सुनने के बाद उनसे पूछा बताओ दिन-रात दुष्टो के आसपास रहने पर भी अपने धर्म का पालन किस प्रकार करते हो।

विभीषण बोले प्रभु नरक में रहना अच्छा है लेकिन विधाता दुष्ट का संग कभी न दे। अब आपके चरणों का दर्शन कर कुशल से हूंजो आपने अपना सेवक जानकर मुझ पर दया की है। रामजी ने सुग्रीव और विभीषण से कहा सुनो इस गहरे समुद्र को किस प्रकार पार किया जाएअनेक जाति के जीव-जन्तु इसमें निवास करते हैं इसे पार करना कठिन है।विभीषण ने कहा सुनिए आप का एक बाण करोड़ों समुद्रों को सोखने वाला है। समुद्र तो आपके कुल में बड़े हैंवे विचारकर उपाय बतला देंगे।

क्या हुआ जब वानर सेना में घुस आए रावण के दूत?
रामजी ने कहा तुमने अच्छा उपाय बताया है। यही किया जाएयदि दैव सहायक हो। यह सलाह लक्ष्मणजी के मन को अच्छी नहीं लगी। लक्ष्मणजी ने कहा दैव का कौन भरोसा करें। आप थोड़ा गुस्सा कीजिए और समुद्र को सुखा दीजिए। यह दैव तो कायर के मन का एक आधार है। आलसी लोग ही देव-देव पुकारा करते हैं। रामजी ने लक्ष्मणजी से बोला धीरज रखो।

ऐसा कहकर छोटे भाई को समझाकर प्रभु रामजी समुद्र के समीप गए। उन्होंने पहले सिर नवाकर प्रणाम किया। फिर किनारे पर कुश बिछाकर बैठ गए। इधर जब विभीषणजी प्रभु के पास आए थेतभी रावण ने उनके पीछे दूत भेजे थे। उन दुतों ने वानर का शरीर धारण कर सारी लीलाएं देखी। फिर वे प्रेम के साथ श्रीरामजी के स्वभाव की बड़ाई करने लगे।

तब वानरो को पता चला कि ये शत्रु के दूत हैं और वे उन सबको बांधकर सुग्रीव के पास आए। सुग्रीव ने कहा सब वानरों सुनोराक्षसों के अंग भंग कर दो। सुग्रीव की बात सुनकर वानर दौड़े। दूतों को बांधकर उन्होंने सेना के चारों और घुमाया। वानर उन्हें बहुत मारने लगे। राक्षस रामजी का नाम लेकर क्षमा मांगने लगे तो लक्ष्मणजी को दया आ गई।

जब विभीषण रामजी के पास पहुंचा तभी....
इससे हंसकर उन्होंने राक्षसों को तुरंत ही छुड़वा दिया। उसके बाद वे बोले रावण के हाथ में यह संदेश देना और कहना लक्ष्मण के शब्दों को पढ़ लो। फिर उस मुर्ख की जुबानी यह मेरा उदार संदेश कहना और सीताजी को देकर उनसे मिलो नहीं तो तुम्हारा काल आ गया समझो। लक्ष्मणजी का संदेश लेकर दूत वहां से तुरंत चल दिए। दूत वहां पहुंचे तो रावण ने हंसकर पूछा-बताओ विभीषण का क्या समाचार हैमुर्ख ने राज्य करते हुए लंका को त्याग दिया। अभागा अब घुन की तरह पीसेगा।

वानरों के साथ वो भी मारा जाएगा। समुद्र उन वानरों के प्राण का रक्षक बन गया है नहीं तो अब तक तो राक्षसों ने उन्हें मार दिया होता। दूत ने कहा आपने जैसे कृपा करके पूछा हैवैसे ही क्रोध छोड़कर मेरा कहना मानिए। जब आपका छोटा भाई रामजी से जाकर मिलातब उसके पहुंचते ही श्रीरामजी का राजतिलक कर दिया। हम रावण के दूत हैंयह कानो से सुनकर वानरों ने हमें बांधकर बहुत कष्ट दिए। यहां तक कि वे हमारे नाक कान काटने लगे। श्रीरामजी की शपथ दिलाने पर कहीं उन्होंने हमको छोड़ा।

लक्ष्मण के इस संदेश से रावण डर गया क्योंकि...
रावण के पूछने पर दोनों ने रामजी की सेना के बारे में बताया। उन्होंने कहा जिसने नगर को जलाया और आपके पुत्र अक्षयकुमार को माराउसका बल तो सब वानरों में थोड़ा है। द्विविद्मयंदअंगदगद,बहुत अच्छे योद्धा है। हमने ऐसा सुना है कि अठारह पद्य तो अकेले वानरों के सेनापति हैं। उस सेना में ऐसा कोई वानर नहीं हैजो आपको रण में न जीत सके। सब के सब महान योद्धा हैं। सब वानर ही निडर हैइस तरह गरजते हैं मानो लंका निगल ही जाएंगे। आपके भाई की बातें सुनकर श्रीरामजी समुद्र से राह मांग रहे हैंउनके मन में कृपा भरी है।

दूत के ये वचन सुनते ही रावण खूब हंसा जब ऐसी बुद्धि हैतभी तो वानरों को सहायक बनाया है। जिसका विभीषण जैसा डरपोक मंत्री होउसे जगत में विजय और विभूति कहां। दुष्ट रावण के वचन सुनकर दूत का क्रोध बढ़ गया। उसने मौका देखकर पत्र निकाला और कहा श्रीरामजी के छोटे भाई लक्ष्मण ने यह पत्रिका दी है। रावण ने हंसकर उसे बाएं हाथ से लिया और मंत्री को बुलवाकर वह रावण को संदेश सुनाने लगा। पत्रिका में लिखा था अरे मूर्ख केवल बातों से ही मन को रिझाकर अपने कुल को नष्ट भ्रष्ट न कर। श्रीरामजी से विरोध करके तू विष्णुब्रह्मा और महेश की शरण जाने पर भी नहीं बचेगा। अभिमान छोड़कर श्रीरामजी का दास बन जा। यह संदेश सुनते ही रावण भयभीत हो गया।

इन चार लोगों को समझाने का कोई फायदा नहीं होता....
मगर भयभीत होने के बाद भी रावण मुस्कुराता रहा। सबको सुनाकर कहने लगा यह तपस्वी डींग हांक रहा है। यह सुनकर दूत बोला अभिमान स्वभाव को छोड़कर सब बातों को सत्य समझिए। क्रोध छोड़कर मेरी बात सुनिए। श्रीरामजी से वैर त्याग दीजिए। रामजी बहुत दयालु हैं वो आपका अपराध क्षमा कर देंगे। जानकीजी को रामजी को सौप दीजिए।

तब दुष्ट रावण ने उसको लात मारी। तब विभीषण की तरह ही चरणों में सिर नवाकर चल दिया। जहां रामजी थे। रामजी को उसने अपनी कथा सुनाई। उसने श्रीरामजी की कृपा से उसकी गति हो गई। इधर तीन दिन बीत गएलेकिन जड़ समुद्र विनय नहीं मानता। तब श्रीरामजी क्रोध से बोले बिना भय के प्रीति नहीं होती। धनुष बाण लाओमैं अग्रिबाण से समुद्र को सोख डालूं।। ममता में फंसे हुए मनुष्य को ज्ञान की कथा सुनाने काअत्यंत लोभी से वैराग्य का वर्णनक्रोधी से शम शान्ति की बात और कामी को भगवान की कथा सुनाने काकोई फल नहीं होता है। ऐसा कहकर रघुनाथजी धनुष चढ़ाया। यह बात लक्ष्मणजी के मन को बहुत अच्छा लगी।

रामजी ने रामेश्चर ज्योर्तिलिंग क्यों स्थापित की?
समुद्र ने भयभीत होकर रामजी के चरण पकड़ लिए और कहा- मेरे सब अवगुण क्षमा कीजिए। समुद्र की ऐसी बात सुनकर कृपालु श्रीरामजी ने मुस्कुराकर कहा- जिस तरह वानर सेना पार उतर जाए वह उपाय बताओ। समुद्र ने कहा नील और नल दो वानर भाई हैं। उन्होंने आशीर्वाद पाया था कि उनके स्पर्श कर लेने से भारी से भारी पहाड़ भी नदी पर तैर जाएगा। समुद्र की बात सुनकर रामजी बोले मंत्रियों को बुलाकर ऐसा कहा- अब विलंब किसलिए हो रहा है। जल्दी सेतु तैयार करोजिसमें सेना उतरे।

तब जांबवान ने नल-नील दोनों भाइयों को बुलाकर उन्हें सारी कथा सुनाई। फिर सुग्रीव ने वानरों का समुह बुला लिया और बोले आप सब लोग मेरी विनती सुनिए सब भालू और वानर एक काम कीजिए। पर्वतों के समुह को उखाड़ लाइए। तब सभी वानर बहुत ऊंचे वृक्षों और पर्वतों को उठा लाते और लाकर नल नील को दे देते है।

रामजी बोले में यहां शिवजी की स्थापना करूंगा। श्रीरामजी की बात सुनकर सुग्रीव ने बहुत सारे दूत भेजे और मुनियों को बुलवाकर शिवलिंग की स्थापना क रके विधिपूर्वक उसका पूजन किया।रामजी बोले- जो शिवद्रोह करता है और मेरा भक्त कहलाता हैवह स्वप्र में भी मुझें नहीं पाता। शंकरजी से विमुख होकर जो मेरी भक्ति चाहता हैवह नरकगामीमुर्ख और अल्पबुद्धि है। जो मनुष्य रामेश्चरजी के दर्शन करेंगेवे शरीर छोड़कर मेरे लोक को जाएंगे। जो गंगाजल लाकर इन पर चढ़ावेगावह मनुष्य मुक्ति पावेगा।

जब रावण ने ये बात सुनी तो वो मन ही मन डर गया...
नल और नील ने सेतु बांधा। श्रीरामजी कृपा से उनका यह यश हर जगह फैल गया। जो पत्थर डूबते हैं और दुसरों को डुबो देते हैंवे ही पत्थर जहाज के समान हो गए हैं। यह न तो समुद्र की महिमा है। न पत्थरों का गुण और न वानरों को ही कोइ करामात है। सारे पत्थर रामजी के प्रताप से समुद्र पर तैर गए हैं। रामजी सेतु के तट से समुद्र का विस्तार देखने लगे।

समुद्र में बहुत तरह के मगरसर्प और घडिय़ाल थे। सभी ने रामजी के दर्शन किए। रामजी की आज्ञा पाकर सेना चलने लगी। सेतुबंध पर भीड़ हो गई कुछ वानर आकाश मार्ग से उडऩे लगे और दूसरे जलचर जीवो पर चढ़चढ़कर पार जाने लगे। सभी समुद्र के पार पहुंच गए और वहां जाकर डेरा डाल दिया। सभी ने वन के मीठे फल खाए। घूमते-फिरते जहां कहीं किसी राक्षस को पाते हैं उसे घेरकर नाक कान काट देते हैं।

जिन राक्षसों के नाक कान काटे गए उन्होंने रावण को जाकर सब समाचार कहा। तब रावण दस मुखों से एक साथ बोल उठा- वननिधिनीरनिधिजलधिसिंधुवारिशतोयनिधिकंपति उदधिपयोधिनदीश को क्या सचमुच ही बांध लिया हैफिर अपनी व्याकुलता को समझकर हंसता हुआडर को भुलाकर रावण अपने महल में गया। जब मंदोदारी को यह खबर मिली तो तब उसने रावण को बहुत समझाया वह बोली संतजन ऐसी नीति कहते हैं कि बुढ़ापे में राजा को वन में चला जाना चाहिए। वहां आप उनका भजन कीजिए।

रामजी ने समुद्र पार कर लिए तब लंका में क्या हुआ?
तब रावण ने मंदोदरी को हाथ पकड़कर खींचा और बोला तूने क्यों व्यर्थ का भय पाल रखा है। सभी दिक्पालों को और काल को भी मैंने जीत रखा है। यह कहकर वह सभा में चला गया है। मंदोदरी ने मन ही मन सोचा कि काल के वश में होने के कारण उसके पति को अभिमान हो गया है। सभा में आकर रावण ने मंत्रियों से युद्ध के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा राजन इसमें क्या डरने की बात है जिस पर विचार किया जाए। सभी की बातें सुनकर रावण का पुत्र हाथ जोड़कर कहने लगा नीति के विरूद्ध कुछ भी नहीं करना चाहिए। आपके मंत्री मूर्ख हैं। इस प्रकार की बातों से कुछ नहीं होगा। एक ही बंदर था जो समुद्र लांघकर आया था।

उसे देखकर ही तुम सब लोग घबरा गए थे। जिसने खेल ही खेल में समुद्र बांध लिया और जो सेना सहित पर्वत पर उतर आया है। कहो वह मनुष्य हैजिसे कहते हो कि हम खा लेंगेमुझे कायर न समझे। मैं तो जो सच है वही कह रहा हूं। ये बात सुनने में कड़वी जरूर है लेकिन आप ही के लिए हितकारी है। नीति सुनिए पहले दूत भेजिएऔर सीताजी को देकर श्रीरामजी से प्रीति कर लीजिए। यदि वे स्त्री पाकर लौट जाएंतब तो झगड़ा न बढ़ाइए। नहीं तो युद्धभूमि में उनसे मार-काट कीजिए। रावण उसकी बातें सुनकर गुस्से से लाल हो गया बोला तेरी बुद्धि भ्रष्ट हो गई है। तुझे अभी से मन में संदेह क्यों हो रहा है। पिता की यह कठोर बात सुनकर वह अपने महल को चला गया।

बुरा समय में अच्छी सलाह भी असर नहीं करती क्योंकि...
जब बुरा समय होता है तो अच्छी सलाह भी वैसे ही असर नहीं करती जैसे मृत्यु के वश में रोगी को दवा नहीं लगती। शाम का समय जानकर रावण अपनी बीसों भुजाओं को देखता हुआ महल को चल दिया। लंका की चोटी पर एक बहुत विचित्र महल था। वहां नाच-गाना व अखाड़ा जमता था। रावण उस महल मैं जाकर बैठा। किन्नर उसके गुणों का गान करने लगे।

सुंदर अप्सराएं नृत्य कर रही थी। वह इंद्र की तरह ही भोग विलास कर रहा था। इधर रामजी बहुत भीड़ के साथ बड़े पर्वत पर उतरे। उस रमणीय शिखर पर लक्ष्मणजी ने वृक्षों के कोमल पत्ते और सुंदर फूल अपने हाथों में सजाकर बिछा दिए। उस पर सुंदर मृगछाला बिछा दी। उसी आसन पर कृपालु रामजी विराजमान हैं। वानरराज सुग्रीव ने अपना सिर रामजी की गोद में रखा हुआ है।

उनकी बांयी और धनुष तथा बांयी और तरकस है। विभीषण बोले लंका की चोटी पर एक महल है। रावण वहां नाच-गाना देख रहा है। सुनिए ताल और मृदंग बज रहे हैं। तब रामजी ने इसे रावण का अभिमान समझा और मुस्कुराकर धनुष चढ़ाया। एक ही बाण से रावण के मुकुट और मंदोदरी के कर्ण फूल गिरा दिए। लेकिन इसका भेद किसी ने न जाना।

तब रावण ने कहा- हर स्त्री के मन में रहते हैं ये आठ अवगुण....
ऐसा चमत्कार करके श्रीरामजी का बाण आकर तरकस में वापस आ घुसा। रंग में भंग देखकर रावण की सारी सभा भयभीत हो गई। न भूकम्प हुआन बहुत जोर की हवा चली। न कोई अस्त्र-शस्त्र ही नेत्रों से देखे। सभी अपने-अपने मन में सोच रहे हैं कि यह तो बहुत बड़ा अपशकुन हो गया। पूरी सभा को डरा हुआ देखकर रावण ने हंसकर ये वचन कहे- सिरों का गिरना भी जिसके लिए निरंतर शुभ होता रहा हैउसके लिए मुकुट का गिरना अपशकुन कैसाअपने-अपने घर जाकर सो जाओ (डरने की कोई बात नहीं है)। जब से कर्णफूल पृथ्वी पर गिरातब से मंदोदरी के दिल में डर बैठ गया। मंदोदरी ने रावण को बहुत समझाया। पत्नी के वचन सुनकर रावण खूब हंसा और बोला - ओह अज्ञान का महिमा बहुत बलवान है।

स्त्री के स्वभाव के बारे में सब सत्य ही कहते हैं कि उसके हृदय में आठ अवगुण सदा रहते हैं। साहसझूठचंचलतामायाडरअविवेकअपवित्रता और निर्दयता। तूने शत्रु का समग्र विराट रूप गाया और मुझे उससे डराने की कोशिश की। तेरी कृपा से मुझे यह अब समझ आया कि तू इस प्रकार मेरी ही प्रभुता का बखान कर रही है। यह सुनने के बाद मंदोदरी ने मन ही मन सोचा कि उसके पति की काल के वश मति भ्रष्ट हो गई है।

अपने दुश्मन से जब भी बात करें तो ये जरुर याद रखें
इस तरह रावण को वहां अपना मनोरंजन करते हुए सुबह हो गई। तब स्वभाव के कारण निडर और घमंड में अंध लंकापति सभा में गया। सुबह रामजी जागे और उन्होंने सब मंत्रियों को बुलाकर सलाह पूछी कि शीघ्र बताइए। अब क्या उपाय करना चाहिएतब जांबवान ने कहा- मैं अपनी बुद्धि के अनुसार सलाह देता हूं। मुझे लगता है कि हमें बलिकुमार अंगद को दूत बनाकर भेजना चाहिए।यह सलाह सबके मन को अच्छी लगी।

तब रामजी ने अंगद को बुलाकर कहा कि तुम लंका जाओ। तुम को समझाकर क्या कहूं। मैं जनता हूंतुम चतुर हो। लेकिन शत्रु से वही बातचीत करना जिससे हमारा काम हो और उसका कल्याण हो। यह सुनकर युवराज अंगद बहुत प्रसन्न हुए। अंगद ने तुरंत रामजी की आज्ञा का पालन किया वे लंका को चल दिए। लंका में प्रवेश करते हुए ही अंगद की रावण के पुत्र से मुलाकात हो गईजो वहां खेल रहा था।

बातों ही बातों में दोनों में झगड़ा हो गया। धीरे-धीरे झगड़ा बढ़ गया। दोनों ही अतुलनीय बलवान थे और फिर दोनों की युवावस्था भी थी। उसने अंगद पर लात उठाई। अंगद ने पैर पकड़कर उसे घुमाकर जमीन पर पटका। राक्षस के समुह डर कर यहां वहां भागने लगे। सब बहुत डर गए। राक्षसों ने बिना पूछे ही अंगद को रावण के दरबार की राह बता दी।

क्या हुआ,जब अंगद दूत बनकर रावण के दरबार में पहुंचा?
रामजी का स्मरण करके अंगद रावण की सभा द्वार पर गया। वह इधर-उधर देखने लगे। तुरंत ही उन्होंने एक राक्षस को भेजा और रावण को अपने आने का समाचार पहुंचवाया। ये समाचार सुनते ही रावण हंसकर बोला-बुलाकर लाओकहा का बंदर है। रावण ने एक दूत को भेजा और अंगद को बुलवाया। अंगद सभा में जैसे ही पहुंचे रावण ने कहा अरे बंदर तू कौन हैअंगद बोले तुम्हारा उत्तम कुल हैपुलत्स्य ऋषि के तुम पौत्र हो। शिवजी की और ब्रह्माजी की तुमने बहुत प्रकार से पूजा की है। उनसे वर पाए हैं। तुमने सब लोकों को जीता है। राजमद से मोहवश तुम जगतजननी सीता को हर लाए हो। रावण बोला हे रामजी मेरी रक्षा करोरक्षा करो। ऐसे पुकारने से क्या रामजी तुम्हारी रक्षा कर देंगे।

रावण ने कहा अरे बंदर के बच्चे संभलकर बोल अपना और अपने पिता का नाम बता। तब अंगद ने कहा मेरा नाम अंगद हैमैं बालि का पुत्र हूं। उनसे कभी तुम्हारी भेंट हुई थी। अंगद के वचन सुनते ही रावण सकुचा गया और बोला हां मैं जानता हूं बालि नाम का एक बंदर था। रावण बोला- अरे अंगद तू ही बालि का लड़का हैअरे कुलनाशक! तू तो अपने कुलरूपी बांस के लिए अग्रिरूप ही पैदा हुआ। तू गर्भ में ही क्यों नष्ट नहीं हो गयाअब बालि की कुशल बतावह कहां हैतब अंगद ने हंसकर कहा- दस कुछ दिन बीतने पर बालि के पास जाकरअपने मित्र को हृदय से लगाकरउसी से कुशल पूछ लेना। श्रीरामजी से विरोध करने पर जैसी कुशल होती हैवह सब तुमको सुनावेंगे। सच हैमैं तो कुल का नाश करने वाला हूं और हे रावण तुम कुल के रक्षक हो। अंधे और बेहरे भी ऐसी बात नहीं करते फिर तुम्हारा बीस नेत्र और बीस कान हैं।

मैंने देवताओं का दूत होकर कुल को डुबा दियातुम्हारी ऐसी बुद्धि ही तुम्हारा नाश करवाएगी। वानर अंगद की कठोर वाणी सुनकर रावण आंखे तिरछी करके रावण बोला मैं तुम्हारी बातें सिर्फ इसलिए सुन रहा हूं क्योंकि मैं धर्म और नीति को जानता हूं। अंगद ने कहा- तुम्हारी धर्मशीलता मैंने भी सुनी है। तुमने पराई स्त्री की चोरी की है। दूत की रक्षा की बात तो अपनी आंखों से देख ली। ऐसे धर्म के व्रत को धारण करने वाले तुम डूबकर मर क्यों नहीं जातेनाक-कान रहित बहिन को देखकर तुमने धर्म विचारकर ही तो क्षमा कर दिया था। मैं भी बड़ा भाग्यवान हूंजो मैंने तुम्हारा दर्शन पाया।

जब भी किसी से दोस्ती या दुश्मनी करें तो ये बात जरुर याद रखें
रावण ने कहा अरे मूर्ख वानर व्यर्थ बक-बक न कर। मेरी भुजाएं तो देख। तेरी सेना में बता ऐसा कौन सा युद्ध है। जो मुझसे भिड़ सकेगा। तेरा मालिक तो स्त्री के वियोग में बलहीन हो रहा है। उसका छोटा भाई उसी के दुख से दुखी उदास है। तुम और सुग्रीवदोनों तट के वृक्ष हो। मेरा छोटा भाई विभीषण वह भी बड़ा डरपोक है।

मंत्री जाम्बवन बहुत बूढ़ा है। वह अब लड़ाई में क्या चढ़ सकता हैनल-नील तो शिल्प कर्म जानते हं  लेकिन लडऩा नहीं जानते हैं। वो एक मूर्ख वानर आया उसने नगर में आग लगाकर सोचा कि उसने युद्ध जीत लिया। अंगद ने कहा- सच्ची बात कहो! क्या उस वानर ने सचमुच तुम्हारा नगर जला दियारावण का नगर एक छोटे से वानर ने जला दिया ऐसे वचन सुनकर उन्हें सत्य कौन कहेगाजिसको तुमने बहुत बड़ा योद्धा कहकर सराहा हैवह तो सुग्रीव का एक छोटा सा दौड़कर चलने वाला हरकारा है।

वह बहुत चलता हैवीर नहीं है। उसको तो हमने खबर लेने के लिए भेजा था। जब उस वानर ने प्रभु की आज्ञा जाने बिना ही तुम्हारा नगर जला दियामालूम होता है वह इसी डर से सुग्रीव के पास नहीं आया। हे रावण तुम सब सच कहते होहमारी सेना में ऐसा कोई भी नहीं है जो तुम्हें न हरा पाए। प्रीति और बैर बराबरी वाले से ही करना चाहिएनीति ऐसी ही है शेर अगर मेंढक खाएगा तो उसे कोई भला नहीं कहेगा।

ये चौदह लोग जिंदा होते हुए भी मरे हुए के समान ही हैं....
ऐसे तीखे वचन कहकर अंगद ने शत्रु का हृदय जला दिया। रावण हंसकर बोला- बंदर में यह एक बड़ा गुण है कि जो उसे पालता है उसका वह हर तरह से भला का करने का प्रयास करता है। तेरी जात स्वामी भक्त है। अंगद बोले- अरे मूर्ख श्रीरामजी कहते हैं सियार को मारने से सिंह को यश नहीं मिलता। नहीं तो मैं तेरा मुंह तोड़कर सीताजी को यहां से ले जाता। देवताओं के शत्रु मैंने तो तभी तेरा बल जान लिया जब तू अकेली अबला परायी स्त्री को उठा लाया। अगर मैं श्रीरामजी के अपमान से न डरूं तो तेरे देखते ही देखते ऐसा तमाशा करूं।

तेरे गांव को चौपट कर व सेना का संहार कर तेरी युवती स्त्रियों सहित जानकीजी को ले जाऊं। यदि ऐसा करूंतो इसमें भी मेरी ही बुराई है। वाममार्गीकामीकंजुसमूर्खअति दरिद्रबदनामबहुत बूढ़ारोगीगुस्सैलनास्तिकस्वार्थीवेदों का विरोधी दूसरों की निंदा करने वाला और पापी ये चौदह लोग जीते हुए भी मुर्दे के समान है। ऐसा सोचकर है मैं तुझे नहीं मारना चाहता।

रावण भी नहीं हटा सका अंगद का पैर क्योंकि....
रावण ने कहा अरे दुष्ट बंदर अब तू मरना ही चाहता है! इसी कारण छोटे मुंह से बड़ी बात कह रहा है। तू जिसके बल पर ये बातें मुझे बोल रहा है। उसे गुणहीन और मानहीन समझकर पिता ने वनवास दे दिया। उसे रात-दिन मेरा डर बना रहता है। जिनके बल का तुझे गर्व हैऐसे अनेकों मनुष्यों को तो राक्षस रात दिन खाया करते हैं। यह सुनकर अंगद को गुस्सा आया वह जोर से गरज कर बोला रावण गिरते-गिरते संभल कर उठा। रावण क्रोधित होकर बोला इस बंदर को पकड़कर मार डालो। तब युवराज अंगर ने कहा अरे रावण तू काल के वश में हो गया है। अंगद की बात सुनकर रावण मुस्कुराया बोला सब वीरों सुनोपैर पकड़कर बंदर को पृथ्वी पर पछाड़ दो। सारे योद्धा अंगद का पैर बारी-बारी से पकड़कर उसे वहां से हटाने का प्रयास करने लगे पर नहीं हटा पाए। जब अंगद का बल देखकर सब हार गए। तब रावण स्वयं उठा। अंगद ने रावण से कहा अरे मूर्खं मेरे चरण पकडऩे से तुम्हारा बचाव नहीं होगा। तू जाकर श्रीरामजी के चरण क्यों नहीं पकड़तायह सुनकर वह मन में बहुत सकुचा कर लौट गया। वह ऐसा तेजहीन हो गया जैसे दिन में चंद्रमा हो जाता है।

रामजी की सेना ने युद्ध शुरू किया तो...
उसके बाद रामजी ने वानर सेना के साथ लंका पर चढ़ाई कर दी। रामजी के प्रताप से वानरों के समूह राक्षसों को हरा रहे थे। राक्षसों के झुंड हारकर इधर-उधर भागने लगे। तब रावण ने अपने बड़े योद्धाओं को लडऩे भेजा। उन योद्धाओं ने त्रिशुल से मारकर सब रीछ वानरों को व्याकुल कर दिया। वानर डर कर भागने लगे।

कोई कहता है-अंगद हनुमान कहां हैंबलवान नल,नीलऔर द्विविद कहां हैं। हनुमानजी ने जब अपने दल के भयभीत होने की बात सुनी। उस समय वे बलवान पश्चिम द्वार पर थे। वहां मेघनाद युद्ध कर रहा था। वह द्वार टूटता न थाबहुत कठिनाई हो रही थी। इधर अंगद ने सुना कि हनुमान किले पर अकेले ही रह गए। बालिपुत्र वानर के खेल की तरह उछलकर किले पर चढ़ गए। युद्ध में शत्रुओं के विरूद्ध क्रोध हो किले पर चढ़ गए। कलशसहित महल को पकड़कर ढहा दिया। यह देखकर राक्षसराज रावण डर गया।

वे दोनों शत्रु सेना के बीच में कूद पड़े और अपने भारी भुजाबल से उसका मर्दन करने लगे। किसी की लात से और किसी की थप्पड़ से खबर लेते हैं। रामजी ने हंसकर धनुष चढ़ाया और तुरंत ही अग्रिबाण चलायाजिससे प्रकाश हो गयाकहीं अंधेरा नहीं रह गया। जैसे ज्ञान के उदय होने पर संदेह दूर हो जाते हैं। भालू और वानर प्रकाश पाकर श्रम और भय से रहित प्रसन्न होकर दौड़े। रात हुई जानकर वानरों की चारों टुकडिय़ा वहां आई जहां कोसलपति श्रीरामजी थे। इधर रावण ने मंत्रियों को बुलाया। उन सभी ने रावण को बताया कि वानरों ने आधी सेना का संहार कर दिया। अब शीघ्र बताओक्या विचार करना चाहिए।

जब मेघनाद ने किया रामजी से युद्ध तो...
माल्यवंत नाम का एक बहुत बूढ़ा राक्षस था। वह रावण की माता का पिता और श्रेष्ट मंत्री था। वो पवित्र नीति के वचन बोला- हे तात कुछ मेरी सीख भी सुनो। जब से तुम सीता को हर लाए होतब से इतने अपशकुन हो रहे हैं कि जो वर्णन नहीं किए जा सकते। वेद-पुराणों ने जिनका यश गाया है। उन श्रीराम से दुश्मन होकर किसी ने सुख नहीं पाया। हिरण्यकश्पि सहित हिरण्याक्ष को और बलवान मधु कैटभक्ष को जिन्होंने मारा था वे ही अवतार रूप में श्रीराम हैं। वह रावण को इस तरह बोलता हुआ वहां से उठकर चला गया। तब मेघनाद ने गुस्से से कहा सवेरे रावण की करामात देखना। मैं बहुत कुछ करूंगा थोड़ा क्या कहूंपुत्र के वचन सुनकर रावण को भरोसा आ गया। उसने प्रेम के साथ उसे गोद में बैठा लिया। विचार करते-करते ही सवेरा हो गया। वानरों ने एक बार फिर किले को घेर लिया। नगर में बहुत ही शोर मच गया। वे पहाड़ उठाकर किले पर ढहाने लगे। राक्षस जहां के तहां मारे गए। मेघनाद ने जब सुना कि वानरों ने आकर किले को घेर लिया है।

मेघनाद ने पुकार कहा समस्त लोकों में प्रसिद्ध धनुर्धर कोसलाधीश दोनों भाई कहां हैंनलनीलद्विविदसुग्रीव और अंगद हनुमान कहां हैंयह सुनकर रीछ वानर सब भाग गए। सब युद्ध की इच्छा भूल गए। सारी सेना बेहाल हो गई। हनुमानजी ने गुस्से में आकर पहाड़ उखाड़ लिया। बड़े ही क्रोध के साथ उस पहाड़ को उन्होंने मेघनाद के ऊपर फेंक दिया। मेघनाद पहाड़ को आते देख आकाश में उड़ गया। मेघनाद रामजी के पास आ गया। उसने उन पर अस्त्र-शस्त्र और हथियार चलाए। रामजी ने उसके सारे अस्त्र व्यर्थ कर दिए।

मेघनाद ने चलाया ये बाण तो लक्ष्मणजी बेहोश हो गए...
रामजी का ऐसा प्रभाव देखकर मेघनाद को बहुत आश्चर्य हुआ वह अनेकों तरह की लीलाएं करने लगा। वह ऊंचे स्थान पर चढ़कर अंगारे बरसाने लगा। उसकी माया देखकर सारे वानर सोचने लगे कि अब सबका मरण आ गया है। तब रामजी ने एक ही बाण से सारी माया काट डाली। श्रीरामजी से आज्ञा मांगकर वानर आदि हाथों में धनुष बाण लेकर लक्ष्मणजी के साथ आगे बड़े। रामचंद्रजी की जय-जयकार कर सारे वानरों ने राक्षसों पर हमला कर दिया। वानर उनकों घूंसों व लातों से मारते हैं। दांतों से काटते हैं।

लक्ष्मणजी ने एक बाण से रथ तोड़ डाला और सारथि के टुकड़े-टुकड़े कर दिए। तब मेघनाद को लगा कि उसके प्राण संकट में आ गए। मेघनाद ने वीरघातिनी शक्ति चलाई। वह लक्ष्मणजी की छाती पर लगी। शक्ति के लगने से वे बेहोश हो गए। मेघनाद डर छोड़कर उनके पास गया। मेघनाद के समान सौ करोड़ योद्धा लक्ष्मणजी को उठाने का प्रयास करने लगे। लेकिन वे सभी मिलकर भी लक्ष्मणजी को वहां से न हटा पाए। हनुमान ने उन्हें उठाया और रामजी के पास ले आए। जाम्बवान ने कहा- लंका में सुषेण वैद्य रहता हैउसे ले आने के लिए किसे भेजा जाए।

हनुमान छोटा रूप धरकर गए और सुषेण को उसके घर सहित उठा लाए। सुषेण ने हनुमानजी को ओषधि ले आने को कहा। उधर एक गुप्तचर ने रावण को इस रहस्य की खबर दी। तब रावण कालनेमि के घर आया। रावण ने उसे अपना सारा दुख बताया। कालनेमि ने सारी बात सुनी और उसने कहा तुम्हारे देखते ही देखते उसने सारा नगर जला डालाउसका रास्ता कौन रोक सकता है। उसने रावण को रामजी की भक्ति करने की सलाह दी। रावण यह सुनकर गुस्से में आ गया। तब कालनेमि ने मन ही मन विचार किया कि इस दुष्ट के हाथों मरने से अच्छा है मैं राम जी के हाथों मरूं। वह मन ही मन ऐसा सोचकर चल दिया। उसने मार्ग में माया रची उसने सुंदर तालाबमंदिर और बगीचा बनाया। हनुमानजी ने सुंदर आश्रम देखकर सोचा कि मुनि से पूछकर जल पी लूं।

क्यों मारा था,भरत ने हनुमान को तीर?
राक्षस वहां कपट वेष बनाकर आया हुआ था। वह मूर्ख अपनी माया से मायापति के दूत को मोहित करना चाहता था। हनुमानजी ने उसके पास जाकर चरण स्पर्श किए। वह श्रीरामजी के गुणों की कथा कहने लगा। वह बोला रावण और राम में युद्ध हो रहा है। रामजी जीतेंगे इसमें संदेह नहीं है। मैं यहां रहता हुआ भी सब देख रहा हूं। मुझे ज्ञानदृष्टि बहुत बड़ा बल है। हनुमानजी ने उससे जल मांगातो उसने कमंडल दे दिया। वह बोला- तालाब में स्नान करके तुरंत लौट आओ तो मैं तुम्हे दीक्षा दूंजिससे तुम ज्ञान प्राप्त हो जाएगा। तालाब में प्रवेश करते ही एक मगरी ने अकुलाकर उसी समय हनुमानजी का पैर पकड़ लिया।

हनुमानजी ने उसे मार डाला। तब वह दिव्य देह धारण करके विमान पर चढ़कर आकाश को चली। उसने कहा हे वानर मैं तुम्हारे दर्शन से पापरहित हो गई। श्रेष्ठ मुनि का शाप मिट गया। हे कपि यह मुनि नहीं हैघोर निशाचर है मेरी बात मानों मैं सच कह रही हूं। ऐसा कहकर ज्यो ही वह अप्सरा गई। इधर हनुमानजी निशाचर के पास गए। हनुमानजी ने कहा है मुनि पहले गुरु दक्षिणा ले लीजिए। उसके बाद आप मुझे मंत्र दीजिएगा। हनुमानजी ने उसके सिर को पूंछ लपेटकर उसे पछाड़ दिया। मरते समय उसने अपना राक्षसी शरीर प्रकट किया। उसने राम-राम कहकर प्राण छोड़े। उसके बाद हनुमानजी वहां से उसी पर्वत की ओर चल दिए। उन्होंने पर्वत को देखा पर औषध नहीं पहचान सके।

तब हनुमानजी ने एकदम से पर्वत को उखाड़ लिया। पर्वत लेकर हनुमानजी रात ही में आकाश मार्ग से दौड़ चले और अयोध्यापुरी के ऊपर पहुंच गए। भरतजी ने आकाश में बहुत विशाल स्वरूप देखामन ही मन उन्होंने यह अनुमान लगाया कि यह कोई राक्षस हो सकता है। यह सोचकर उन्होंने कान तक धनुष को खींचकर बिना फल का एक बाण मारा। बाण लगते ही हनुमानजी रामराम का उच्चारण करते हुए बेहोश होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। उनके मुंह से राम का नाम सुनकर भरतजी तुरंत उनके पास पहुंचे।

जब रात बीत गई और हनुमानजी नहीं आए तो...
हनुमानजी को व्याकुल देखकर गले से लगा लिया। हनुमानजी को बेहोश अवस्था में देख वे मन ही मन बोलने लगे। जिस विधाता ने मुझे श्रीरामजी से विमुख कियाउसी ने फिर यहदुख दिया। अगर मनवचन और शरीर से श्रीरामजी के चरणों में मेरा निष्कपट प्रेम हो। अगर वे मुझ पर प्रसन्न हो तो यह वानर थकावट और पीड़ा रहित हो जाए। हनुमानजी उठकर बैठ गए।

भरतजी बोले छोटे भाई लक्ष्मण और माता जानकी सहित सुखविधान श्रीरामजी की कुशल बताइए। हनुमानजी ने उन्हें सारा हाल सुनाया। भरतजी दुखी हुए और मन ही मन पछताने लगे। हनुमानजी से बोले तुमको जाने में देर होगी। तुम पर्वतसहित मेरे बाण पर चढ़ जाओ मैं तुमको वहां भेज देता हूं। भरतजी की यह बात सुनकर हनुमानजी सोचने लगे कि मेरे बोझ इनका बाण कैसे उठाएगा। भरतजी ने मन ही मन प्रार्थना कि और अपने बाण पर हनुमान को बैठाया। इस तरह भरत के बाहुबल से प्रभावित होकर मन ही मन भरत सराहना कर चले जा रहे हैं। इधर वहां लक्ष्मणजी को देखकर श्रीरामजी साधारण मनुष्यों की तरह बोले- रात बीत चुकीहनुमान नहीं आए। यह कहकर श्रीरामजी ने छोटे भाई लक्ष्मणजी को उठाकर गले लगा लिया। वे बोले तुमने मेरे लिए सारे दुख सहन किए। तुमने माता-पिता को छोड़ दिया और वन में सब कुछ सहन किया। वह प्रेम अब कहा हैंमेरे व्याकुलतापूर्ण वचन सुनकर तुम उठते क्यों नहीं? 


जब कुंभकर्ण नींद से जागा तो...
स्त्री के लिए भाई का प्यार खोकर, मैं कौन सा मुंह लेकर अवध जाऊंगा? लक्ष्मण तुम अपनी माता के एक ही पुत्र हो उसके प्राणधार हो। हर तरह से सुख देने वाला और परम हितकारी जानकर उन्होंने तुम्हे हाथ पकड़कर मुझे सौंपा था। मैं अब जाकर उन्हें उत्तर दूंगा? भाई तुम उठकर मुझे सिखाते क्यों नहीं। ऐसा बोलेते हुए श्रीराजी की आंखे छलक पड़ी। तभी हनुमानजी वहां आए वैद्य ने बूटी से लक्ष्मणजी का इलाज किया। लक्ष्मणजी उठकर बैठ गए। रामजी को चेतना में देख रामजी ने उन्हें गले से लगा लिया। जब रावण ने यह समाचार सुना तो वह चिंतित हो गया। वह व्याकुल होकर कुंभकर्ण के पास गया। उसने हर संभव प्रयास करके कुंभकर्ण को नींद से जगाया।

कुंभकर्ण ने पूछा भाई कहो तुमने मुझे क्यों जगाया है। तब रावण ने उसे अपनी परेशानी का कारण बताया रावण की यह बात सुनकर कुंभकर्ण दुखी होकर बोला तू जानकीजी को हर कर लाया है और अब कल्याण चाहता है? तूने अच्छा नहीं किया। श्रीरामजी के रूप और उनके गुणों को याद करके कुंभकर्ण एक क्षण के लिए प्रेम मग्न हो गया। फिर उसने रावण से कहा मुझे भूख लग रही है। तब रावण ने करोड़ों घड़े मदिरा और भैसें मंगवाए। भैसे खाकर और मदिरा पीकर यह वज्राघात के समान गरजा और युद्ध के मैदान में पहुंचा।

ऐसे हुआ था युद्ध में कुंभकर्ण का अंत
कुंभकर्ण को हनुमानजी ने घूंसा मारा, जिससे व्याकुल होकर वह गिर पड़ा और सिर पीटने लगा। उसने उठकर हनुमानजी को मारा वे चक्कर खाकर तुरंत ही पृथ्वी पर गिर पड़े। फिर उसने नल और नील को पृथ्वी पर पछाड़ दिया और दूसरे योद्धाओं को भी जहां तहां पटक दिया। वानरसेना वहां से भागने लगी। सब भयभीत हो गए। सुग्रीव सहित अंगद आदि भी  बेहोश हो गए।

जब कुंभकर्ण ने सुग्रीव को मरा हुआ समझा। सुग्रीव ने कुंभकर्ण के नाक कान को काट लिया। उसने सुग्रीव को पैर पकड़कर पछाड़ दिया। कुंभकर्ण ने वानर सेना को तितर-बितर कर दिया। यह सुनकर राक्षस सेना भी दौड़ी। रामचंद्रजी ने देखा कि अपनी सेना बिखर गई है तब रामजी ने लाखों बाण छोड़े। रामजी के बाणों ने कई हजार भयानक राक्षसों को काट दिया। कुंभकर्ण ने मन में विचार करने लगा कि रामजी ने क्षणभर में सेना का संहार कर दिया। फिर रामजी ने कुछ और बाण छोड़े इस तरह उन्होंने कुंभकर्ण का वध कर दिया।

ये था एक मात्र योद्धा जिसने रामजी को कर लिया था अपने वश में....
दिन का अंत होने दोनों सेनाएं लौट पड़ी। योद्धाओं को बहुत थकावट हुई। रावण के महल में मातम का माहौल था। तभी वहां मेघनाद आया उसने रावण को समझाया। उसने कहा मैं अपने मुंह से अपनी क्या बढ़ाई करूं? पिताजी मैंने अपने इष्टदेव से जो बल और रथ पाया था वह बल अब तक आपको नहीं दिखाया था। इस तरह रावण को समझाते हुए सबेरा हो गया। दोनों ओर के योद्धाओं ने अपनी-अपनी विजय के लिए युद्ध आरंभ किया। मेघनाद अपने रथ पर चढ़कर आकाश को चला। वानर सेना में भय छा गया।

आकाश में दसों दिशाओं में बाण छा गए। उसने लक्ष्मण, सुग्रीव और विभीषण आदि को बाण से मारकर उनके शरीर को छलनी कर दिया। फिर वह रामजी से लडऩे लगा। वह जो बाण छोड़ता है, वह सांप होकर लगते हैं। रामजी भी नागपाश के वश में हो गए। मेघनाद ने पूरी सेना को व्याकुल कर दिया। तभी जाम्बवान ने बोला अरे मूर्ख मैं तुझे अभी बताता हूं। यह सुनकर मेघनाथ क्रोधित हो गया।

जाम्बावन ने मेघनाद की छाती पर त्रिशुल दे मारा। वह गिर पड़ा।  वरदान के प्रताप से वह मारे नहीं मरता  तब जाम्बवान ने उसका पैर पकड़कर लंका पर फेंक दिया। नारदजी ने गरुडज़ी को रामजी के पास भेजा वे सभी सांपों के समूहों को खा गए। रामजी नागपाश से मुक्त हुए। इधर मेघनाद की मूच्र्छा छूटी।

जब लक्ष्मणजी को लगा मेघनाद को हराना है मुश्किल तो...
पिता को देखकर उसे बहुत शर्म आई। उसने मन ही मन सोचा कि मुझे अजेय यज्ञ करना चाहिए। लेकिन यह बात विभीषण को पता चली। उन्होंने रामजी को यह बात बताई। रामजी ने सोचा अगर यह यज्ञ सिद्ध हो गया  तो मेघनाद को जीतना कठिन हो जाएगा। उन्होंने अंगद आदि वानरों के साथ लक्ष्मण को यज्ञ विध्वंस करने भेजा। वानरों ने जाकर देखा कि वह बैठा हुआ खून और भैसें की आहूति दे रहा है। वानरों ने पूरा यज्ञ विध्वंस कर दिया। फिर भी जब नहीं उठा तब वे उसकी प्रशंसा करने लगे। इतने पर भी वह न उठा उन्होंने जाकर उसके बाल पकड़े और लातों से उसे मारा। उसे मारकर वे भागने लगे। वह  त्रिशूल लेकर दौड़ा, वानर भागे और वहां आ गए

जहां लक्ष्मणजी खड़े थे। हनुमानजी और अंगद गुस्से में आकर उसकी तरफ दौड़े। तब उसने छाती में त्रिशूल मारकर दोनों को गिरा दिया। उसके बाद मेघनाद ने लक्ष्मणजी पर त्रिशूल छोड़ा। लक्ष्मणजी ने बाण चलाकर उस त्रिशूल के दो टूकड़े कर दिए। अंगद उसे मारने लगे लेकिन उसे चोट न लगी। मेघनाद मारे नहीं मरता, यह देखकर लक्ष्मणजी ने भयानक बाण छोड़े। वज्र के समान बाणों को आते देखकर वह अंर्तध्यान हो गया। शत्रु को पराजित न होता देखकर वानर डर गए। तब लक्ष्मणजी ने मन ही मन सोचा कि इस पापी का अंत कर देने में ही सबकी भलाई है। लक्ष्मणजी ने एक प्रभावशाली बाण छोड़ा और मेघनाद के जीवन का अंत कर दिया।

रामजी ने कैसे लड़ा बिना रथ के युद्ध?
मेघनाद की मौत पर पूरी लंका में शोक छा गया। उसकी पत्नियां विलाप करने लगी। रावण ने उनको ज्ञान का उपदेश दिया। वह स्वयं तो नीच है, पर उसकी कथा शुभ और पवित्र है। दूसरों को उपदेश देने में तो बहुत लोग निपुण होते हैं। ऐसे लोग अधिक नहीं हैं जो उपदेश के अनुसार आचरण भी करें।  उस समय अपशकुन होने लगे। अपनी भुजाओं के बल का बड़ा गर्व होने से रावण उन्हें गिनता नहीं है। राक्षसों की अपार सेना चली। रावण युद्ध के मैदान में पहुंचा। रामजी के पास न रथ है न तन रक्षा करने वाले कवच।

रावण का ऊंचा सुंदर रथ देखकर सभी भयभीत होने लगे। तब रामजी बोले युद्ध जीतने के लिए और शौर्य और धैर्य का रथ चाहिए। जिसके पास धर्ममय रथ होता है उसे जीतने के लिए कहीं कोई शत्रु है ही नहीं। रामजी की ये बात सुनकर हर्षित होकर विभीषण बोले प्रभु आपने इसी बहाने मुझे बहुत बड़ा उपदेश दिया है। उधर से रावण ललकार रहा है और इधर से अंगद और हनुमान। दोनों और के योद्धा रण मतवाले हो रहे हैं।

रामायण के युद्ध में जब लक्ष्मणजी का सामना रावण से हुआ तो...
वे एक-दूसरे को मारते हैं काटते हैं पकड़ते हैं, पछाड़ते हैं। राक्षसों के सिर तोड़कर उन्हीं सिरों से दूसरे राक्षसों को मारते हैं। राक्षस योद्धाओं को भालू पृथ्वी में गाड़ देते हैं। ऊपर से बहुत सी बालू डाल देते हैं।  रावण गुस्से में आकर दौड़ा। वानर हुंकार करते हुए उसके सामने चले। उन्होंने हाथों में वृक्ष, पत्थर और पहाड़ लेकर रावण पर एक साथ डाले। लेकिन ये सभी उसके वज्रतुल्य शरीर पर लगते ही तुरंत टुकड़े-टुकड़े होकर फूट जाते हैं। उसे बहुत गुस्सा आया। वानर योद्धाओं को चिटियों की तरह मसलने लगा। पूरी रामजी की सेना में अफरा-तफरी मच गई। लक्ष्मणजी वहां आए और रावण से बोले अरे दुष्ट वानरों और भालूओं को क्या मार रहा है? मुझे देख मैं तेरा काल हूं। रावण ने कहा मेरे पुत्र को मारने वाले मैं तुझे ही ढूंढ रहा था।

ऐसा कहकर उसने भयंकर बाण छोड़े। लक्ष्मणजी ने सबके सैकड़ों टुकड़े कर डाले। फिर उन्होंने अपने बाणों से प्रहार किया और रथ को तोड़कर सारथि को मार डाला। उन्होंने रावण पर कई सौ बाणों से हमला किया। वह बेहोश हो गया लेकिन कुछ समय बाद उसने उठकर वह शक्ति चलाई जो उसे ब्रह्माजी ने दी थी। ब्रह्माजी की दी हुई शक्ति लक्ष्मणजी की ठीक छाती में लगी। वीर लक्ष्मणजी व्याकुल होकर गिर पड़े। रावण लक्ष्मणजी को वहां से उठाने का प्रयास करने लगा।

हनुमानजी से युद्ध के बाद रावण क्यों नहीं लौटा?
यह देखकर हनुमानजी कठोर वचन बोलते हुए दौड़े। हनुमानजी के आते ही रावण ने उन पर बहुत भयंकर घूंसे से प्रहार किया। हनुमानजी संभल गए और क्रोध में रावण को एक घूंसा मारा वह गिर पड़ा। हनुमानजी बोले धित्कार है मुझ पर अगर जो तू अब भी जीवित रह गया। ऐसा कहकर और लक्ष्मणजी को उठाकर हनुमानजी रामजी के पास ले आए। यह देखकर रावण को आश्चर्य हुआ। रामजी ने धीरे से लक्ष्मणजी के कानों में कहा लक्ष्मण तुम काल के भक्षक और देवताओं के रक्षक हो।

ये बात सुनते ही लक्ष्मणजी फिर धनुष बाण लेकर दौड़े और बहुत शीघ्रता से शत्रु के सामने पहुंचे। वहां रावण मूच्र्छा से जागकर कुछ यज्ञ करने लगा। यहां विभीषणजी को यह खबर मिली और उसने तुरंत जाकर रामजी को सुनार्र्ई। रावण एक यज्ञ कर रहा है। उसके सिद्ध होने पर वह अभागा सहज ही नहीं मरेगा। तुरंत वानर योद्धाओं को भेजिए जो यज्ञ विध्वंस करें। जिससे रावण युद्ध में आए। सुबह होते ही हनुमान और अंगद आदि सब दौड़े। वे सभी लंका पर जा चढ़े और रावण के महल में जा घुसे।

ज्यो ही उसको यज्ञ करते देखा, त्यो ही सब वानरों को बहुत गुस्सा आया। वे सभी वहां जाकर बोले अरे निर्लज रणभूमि से घर भाग आया और यहां आकर बगुले का सा ध्यान लगाकर बैठा है। ऐसा कहकर अंगद ने लात मारी। जब उसने आंखें नहीं खोली तो वानर क्रोध करके स्त्रियों को बाल पकड़कर घर से बाहर ले आए। वे रावण को पुकारने लगी। तब रावण काल के सामान क्रोधित हो उठा और वानरों को पैर पकड़कर पटकने लगा। इसी बीच वानरों ने यज्ञ विध्वंस कर डाला। यज्ञ विध्वंस करके वे सभी वानर रामजी के पास लौट आए। रावण क्रोधित होकर जब वापस युद्धभूमि जाने लगा तो गिद्ध आकर उसके सिर पर बैठने लगे।

आप भी जान लीजिए रामजी ने रावण से कही ये नीति की बात ..
रावण युद्ध के मैदान में पहुंचा। वह बहुत क्रोधित था। वह बोला- अरे तपस्वी सुनो तुमने युद्ध में जिन लोगों को जीता है। मैं उनके समान नहीं हूं। मेरा नाम रावण हैं। तुमने खर, दूषण और विराध को मारा तुमने कुंभकर्ण और मेघनाद को भी मारा। अगर तुम रण से भाग न गए तो आज ही मैं तुम से सारा वैर निकालुंगा।  रावण के दुर्वचन सुनकर और उसे काल के वश में जानकर श्रीरामजी ने हंसकर यह बात ही- तुम्हारी सारी प्रभुता, जैसा तुम कहते हो, बिल्कु ल सच है। अब व्यर्थ बकवास न करो पुरुषार्थ दिखाओ।

व्यर्थ बकवास करके अपने सुंदर यश करो। क्षमा करना मैं तुम्हे नीति सुनाता हूं। संसार में तीन तरह के पुरुष होते हैं आम, कटहलऔर गुलाब के समान। एक आम में फल और फूल दोनों लगते हैं। दूसरे कटहल में केवल फल ही लगते हैं। गुलाब जिसमें केवल फूल ही लगते हैं। इसी तरह पुरूष भी एक वो होते हैं जो कहते हैं और करते भी हैं दूसरे वो जो कहते हैं और करते नहीं और तीसरे जो करते हैं पर कहते नहीं। श्रीरामजी की बात सुनकर रावण खूब हंसा और बोला मुझे ज्ञान सिखाते हो? उस समय वैर करते तो नहीं डरे अब प्राण प्यारे लग रहे हैं।

क्या आप जानते हैं, विभीषण और रावण में क्यों हुआ भयंकर युद्ध?
रामजी को गुस्सा आया और धनुष को कान तक तानकर रामचंद्रजी ने भयंकर बाण छोड़े। रावण दस त्रिशूल लाया और श्रीरामजी के चारों घोड़े मारकर पृथ्वी पर गिरा दिए। घोड़ों को उठाकर रामजी ने गुस्सा करके धनुष खींचकर बाण छोड़े। रणभूमि में रावण ने गुस्सा किया और बाण बरसाकर रामजी के रथ को ढक दिया।  रावण ने प्रचण्ड शक्ति छोड़ी। वह विभीषण के सामने ऐसी चली जैसा काल का दण्ड हो। बहुत भयानक शक्ति को अपनी तरफ आते हुए देख रामजी ने विभीषण को पीछे कर लिया और वह शक्ति अपने ऊपर ले ली।

शक्ति लगने से रामजी बेहोश हो गए। रामजी को कष्ट पाता हुआ देखकर विभीषण बहुत गुस्सा हुए और हाथ में गदा लेकर दौड़े। विभीषण ने गुस्से में आकर गदा मारी। चोट लगते ही रावण पृथ्वी पर गिर पड़ा।  उसके दसों मुंह से रक्त बहने लगा। वह अपने को फिर संभालकर गुस्से से भरा हुआ दौड़ा। दोनों योद्धा भीड़ गए और मल्ल युद्ध करने लगे। विभीषण को बहुत थका देखकर हनुमानजी पर्वत धारण किए हुए दौड़े। उन्होंने उस पर्वत से रावण के रथ, घोड़े और सारथि का संहार कर डाला और उसके सीने पर लात मारी।

जब त्रिजटा ने सीताजी को युद्ध की पूरी कहानी सुनाई तो....
रावण ने माया रची तो रामजी ने उसकी माया काट डाली। देवताओं ने रामजी की स्तुति की। यह देखकर रावण आकाश की तरफ दौड़ा सारे देवता हाहाकार करते हुए भागे। मेरे आगे से कहां जा सकोगे। देवताओं को व्याकुल देखकर अंगद दौड़े और रावण का पैर पकड़कर उसे जमीन पर गिरा दिया। पृथ्वी पर गिराकर लात मारकर अंगद रामजी के पास चले गए। उधर उसी रात त्रिजटा ने सीताजी के पास जाकर उन्हें पूरी कहानी सुनाई। उसकी बात सुनकर सीताजी को बहुत डर लगा। उनका मुंह उदास हो गया।

श्रीरामजी को याद कर सीताजी विलाप करने लगी। तब त्रिजटा ने कहा सुनो राजकु मारी देवताओं का शत्रु रावण हृदय में बाण लगते ही मर जाएगा। यह बात सुनकर सीताजी के मन में बहुत खुशी हुई। ऐसा कहकर और सीताजी को समझाकर त्रिजटा घर चली गई। सीताजी व्याकुल हैं इसलिए रात और चंद्रमा से बहुत प्रकार से निंदा कर रही हैं। इधर आधी रात को रावण जगा और अपने सारथि पर रूठकर कहने लगा- अरे मूर्ख उठ तूने मुझे रण भूमि से अलग कर दिया। धिक्कार है, धिक्कार है। सारथि ने रावण के पैर पकड़कर उसे कई तरह से समझाया। सवेरा होते ही रावण रथ पर चढ़कर फिर युद्ध भूमि पहुंचा। रावण के आने की बात सुनकर वानरों की सेना में बहुत खलबली मच गई।

विभीषण ने कब बताया रामजी को रावण की मौत का राज?
वहां वानरों को प्रबल देखकर रावण ने विचार किया और वह अंर्तध्यान हो गया। उसने माया रची योगिनियां एक हाथ में तलवार और दूसरे हाथ में मनुष्य की खोपड़ी लेकर नाचने लगी। वे पकड़ो और मारों ऐसा बोलकर मुंह फैलाकर खाने को दौड़ती हैं। वानर भागकर जहां भी जाते हैं वहां आग जलती देखते हैं। वानर-भालू व्याकुल हो गए फिर रावण पर बालू बरसाने लगे। रावण ने फिर से एक माया रची। उसने कई सारे हनुमानजी प्रकट किए, जो पत्थर लेकर दौड़े।

उन्होंने चारों ओर से दल बनाकर रामजी को जाकर घेर लिया। वे पूंछ उठाकर कटकटाते हुए पुकारने लगे। मारो, पकड़ों कहीं जाने न पाए।रामजी ने उसकी माया को नष्ट कर दिया। श्रीरामजी ने बाणों के समूह छोड़े, जिनसे रावण के हाथ और सिर पृथ्वी पर कटकटकर गिर रहे हैं। जब रावण और अधिक विकराल हो गया। तब विभीषण ने आकर रामजी से कहा रावण के नाभिकुंड में अमृत का निवास है। रामजी ने विकराल रूप लेकर हाथ में बाण लिए। चारों और अपशकुन होने लगे।

क्या हुआ रावण के मरने के बाद लंका का हाल?
मूर्तियां रोने लगी, आकाश से वज्रपात होने लगे, बहुत तेज हवाएं चलने लगी, पृथ्वी हिलने लगी, बाल, रक्त और धूल की वर्षा होने लगी। रामजी ने कई बाण छोड़े। एक बाण ने रावण की नाभि के अमृतकुंड को सोख लिया। रावण के गिरते ही पृथ्वी हिल गई।

समुद्र, नदियां और दिशाएं क्षुब्ध हो गई। रावण का तेज रामजी में समा गया। चारों और रामजी की जय-जयकार होने लगी। रामजी के सिर पर जटाओं का मुकुट है। जिसमें बीच में फूल शोभा दे रहा है। उनके शरीर पर रक्त की छोटी-छोटी बूंदे बहुत सुंदर लग रही हैं। इधर पति के मृत शरीर को देखकर मंदोदरी बेहोश हो गई। अपने पति की दशा देखकर वह रोने लगी। रावण की ऐसी स्थिति देखकर विभीषण का भी मन भारी हो गया।

रामजी ने लक्ष्मणजी से कहा-विभीषण को जाकर धैर्य बंधाओ। उन्होंने विभीषण को समझाया कि सब शोक त्यागकर रावण की अंत्येष्टी क्रिया करो। विभीषण ने विधि-पूर्वक अंत्येष्टी क्रिया की। सब क्रिया-कर्म करने के बाद विभीषण ने आकर सिर नवाया। तब रामजी के छोटे भाई लक्ष्मणजी को बुलाया और बोले सब लोग मिलकर विभीषण का राजतिलक करो। रामजी विभीषण से बोले- पिताजी को दिए वचन के कारण में नगर में नहीं आ सकता हूं लेकिन अपने ही समान छोटे भाई को भेज रहा हूं।

युद्ध के बाद रामजी ने हनुमान को क्या संदेश लेकर सीताजी के पास भेजा?
सभी लोगों ने रामजी की आज्ञा का पालन किया। राजतिलक की सारी व्यवस्था की। आदर के साथ विभीषण को सिंहासन पर बैठाकर राजतिलक किया और स्तुति की। विभीषण ने राज्य पाया। रामजी ने कहा इसके कारण ही तुम्हारा यश तीनों लोकों में बना रहेगा। फिर प्रभु ने हनुमानजी को बुला लिया। भगवान ने कहा - तुम लंका जाओ। जानकीजी को सब समाचार सुनाओ और उसका कुशल समाचार लेकर तुम चले आओ। तब हनुमानजी नगर में आए। यह सुनकर राक्षस-राक्षसी दौड़े। उन्होंने हनुमानजी की पूजा की।

हनुमानजी ने सीताजी को दूर से प्रणाम किया। जानकीजी ने उन्हें पहचान लिया कि यह वही रामजी का दूत है।  सीताजी ने बोला- कहो प्रभु का क्या संदेश है। वे कुशल से तो हैं ना। भैया लक्ष्मण कैसे हैं? हनुमानजी ने कहा रामजी सब प्रकार से कुशल है। उन्होंने संग्राम में दस सिरवाले रावण को जीत लिया है। विभीषण ने राज्य प्राप्त कर लिया है। हनुमानजी से यह समाचार सुनकर सीताजी ने कहा अब तुम कुछ ऐसा उपाय करो कि मैं जल्द ही प्रभु का दर्शन करूं। हनुमानजी ने सीताजी का कुशल समाचार रामजी को सुनाया। रामजी ने संदेश सुनकर अंगद और विभीषण से कहा जाओ और सीताजी को ले आओ। वे सब तुरंत ही वहां गए जहां सीताजी थी। सब राक्षसियां उनकी नम्रता सेवा कर रही थी।

क्यों ली रामजी ने सीताजी की अग्रिपरीक्षा?
उसके बाद सीताजी को राक्षसियों ने गहने पहनाए। एक सुंदर पालकी सजाकर विदा किया। चारों और हाथी घोड़ों और रक्षकों के साथ सीताजी की पालकी वहां से चलने को तैयार हुई। रीछ-वानर सभी दर्शन करने के लिए आए। तब रक्षक उन पर क्रोध करके दौड़े। रामजी ने कहा मेरी मानो सीताजी को पैदल ले आओ ताकि रीछ और वानर अपनी माता के दर्शन कर सकें। उसके बाद रामजी ने सीताजी को अग्रिपरीक्षा देने को कहा। रामजी की ऐसी बात सुनकर राक्षसियां विषाद करने लगी।

सीताजी ने लक्ष्मणजी से कहा हे लक्ष्मण आप मेरे धर्म आचरण में सहायक बनो और तुरंत आग तैयार करो। सीताजी की विरह, विवेक और धर्ममयी वाणी सुनकर लक्ष्मणजी के  नेत्रों में आंसु भर आए। वे दोनों हाथ जोड़े खड़े रहे। वे रामजी को कुछ कह भी नहीं सकते। रामजी को स्मरण करके सीताजी ने अग्रि में प्रवेश किया। तब अग्रि ने शरीर धारण कर श्रीरामजी को वैसे ही समर्पित किया जैसे क्षीरसागर ने विष्णुभगवान को लक्ष्मी समर्पित की थी।

जब अग्रि परीक्षा के बाद रामजी और सीताजी विमान में बैठे तो....
रामजी ने सब पर दया की। फिर वे कोमल वचन बोले- भाइयों तुम्हारे बल से मैंने रावण को मारा और फिर विभीषण का राजतिलक किया। अब तुम सब अपने-अपने घर जाओ। मेरा स्मरण करते रहना और किसी से डरना नहीं। ये बात सुनते ही सब वानर रामजी के सामने हाथ जोड़कर बोले- आपकी बातें सुनकर आपसे मोह होता है। आप तीनों लोकों के ईश्वर हैं। वानरराज सुग्रीव, नील, ऋक्षराज, जाम्बावान, अंगद, नल और हनुमान विभीषण सहित जो बलवान वानर सेनापति हैं। वे कुछ कह नहीं सकते हैं। सभी की आंखों में प्रेम के आंसु हैं।  उनका प्रेम देखकर सबको विमान पर चढ़ा दिया। उत्तर दिशा की ओर विमान चलाया।

विमान में एक ऊंचा सिहासन है जिस पर रामजी और सीताजी बैठे हैं। बहुत सुख देने वाली हवा चल रही है। सबके मन प्रसन्न हो रहे हैं। रामजी ने सीताजी से कहा सीते देखो लक्ष्मण ने यहां मेघनाद को मारा था। हनुमान और अंगद के मारे हुए ये भारी-भारी निशाचर रणभूमि में पड़े हैं। देवताओं को दुख देने वाले कुंभकर्ण और रावण दोनों भाई यहां मारे गए। मैंने यहां पुल बांधा और शिवजी कि स्थापना की। विमान जल्द ही वहां पहुंच गया जहां दंडकवन था। जहां ऋषि-मुनि रहते थे। उन सभी से आशीर्वाद लेकर रामजी चित्रकूट आए। श्रीरामजी ने सीताजी से कहा पापों का हरण करने वाली यमुना के दर्शन करो। फिर तीर्थराज प्रयाग को देखो, जिसके दर्शन से ही करोड़ों जन्म के पाप क्षीण हो जाते हैं। फिर पवित्र त्रिवेणी का दर्शन करो। यूं कहकर रामजी ने सीताजी सहित अवधपुरी को प्रणाम किया।

रामजी के अयोध्या लौटने में एक दिन बाकि था और......
अवधपुरी पहुंचकर हनुमानजी को समझाकर रामजी ने कहा तुम ब्रह्माचारी का रूप धरकर अवधपुरी को जाओ। भरत को हमारी कुशल सुनाना और उनका समाचार लेकर चले आना। पवनपुत्र हनुमान तुरंत ही चल दिए। रामजी भारद्वाजजी के पास गए। मुनि ने उनकी अनेकों प्रकार से पूजा की और स्तुति की और फिर आर्शीवाद दिया। रामजी विमान पर चढ़कर फिर चले। सीताजी ने गंगाजी की पूजा की। भगवान जैसे गंगा तट पर पहुंचे। निषादराज गुह प्रेम में विहल होकर दौड़ा। सुख से परिपूर्ण होकर वह प्रभु के समीप आया।

जानकीजी सहित प्रभु को देखकर वह पृथ्वी पर गिर पड़ा, उसे शरीर की सुध ना रही। भगवान ने उसे उठाया और गले से लगा लिया। श्रीरामजी के आयोध्या लौटने में एक ही दिन बाकि रह गया था। नगर के लोग बहुत आतुर हो रहे हैं। इतने में ही शुभ शकुन होने लगे। सबके मन प्रसन्न हो गए। नगर भी चारों ओर से रमणीक हो गया। भरतजी की दाहिनी आंख और दाहिनी भुजा फड़क रही है।

इसे शुभ शकुन जानकर वे मन ही मन बहुत खुश हुए। लेकिन अगले ही पल सोचने लगे रामजी अब तक क्यों नहीं आए कहीं वे मुझ से नाराज तो नहीं हैं। श्रीरामजी की विरह में भरतजी डूब रहे थे। तभी हनुमानजी वहां पहुंचे। हनुमानजी ने भरतजी को संदेश सुनाया कि रामजी शत्रु को रण में जीतकर लक्ष्मणजी सहित आ रहे हैं। भरतजी ने पूछा तुम कौन हो कहां से आए हो? तब हनुमानजी ने कहा मैं पवन पुत्र हूं। जाति से वानर हूं मेरा नाम हनुमान है। यह सुनकर भरतजी हनुमानजी से गले मिले।

जब रामजी वनवास के बाद अयोध्या लौटे तो...
भरतजी ने हनुमानजी से कहा देखो मेरे सारे दुखों का अंत हो ही गया। आज मुझे प्यारे रामजी मिल ही गए। भरतजी ने बार-बार कुशल पूछी। हे! भाई सुनो तुम्हे क्या दूं। इस संदेश के समान जगत में कुछ भी नहीं है, मैंने यह विचार किया मैं तुमसे किसी प्रकार से भी ऋणी नहीं हो सकता अब मुझे रामजी के  समाचार सुनाओ। जब भरतजी ने आज्ञा दी तब हनुमानजी ने भरतजी का आर्शीवाद लिया और रामजी की सारी गुण गाथा सुनाई। उसके बाद भरतजी भी हर्षित होकर अयोध्यापुरी आ गए।

यह खबर सुनते ही सभी माताएं दौड़-पड़ी भरतजी ने रामजी के कुशल पूर्वक होने का समाचार सुनाया। नगरवासियों ने जब ये समाचार सुना तो पूरे नगर में हर्ष की लहर दौड़ पड़ी। फिर रामजी के स्वागत के लिए सभी नगरवासी तैयारियां करने लगे। रामजी वानरों को विमान से अवधपुरी दिखा रहे हैं। रामजी का विमान अवधपुरी की धरती पर उतरा।

विमान से उतरकर प्रभु ने पुष्पक विमान से कहा कि तुम अब कुबेर के पास जाओ। श्रीरामजी की प्रेरणा से वह चला गया। भरतजी सभी लोगों के साथ आए। रामजी वियोग में उनका शरीर दुबला हो रहा है। रामजी ने जैसे ही सब मुनियों को देखा तो उन्होंने अपने धनुष-बाण पृथ्वी पर रखे और छोटे भाई लक्ष्मणसहित दौड़कर गुरुजी  के चरण पकड़ लिए। रामजी  को सभी मुनियों ने आशिर्वाद दिया। भरतजी पृथ्वी पर पड़े हैं। उठाए नहीं उठते। रामजी ने उन्हें उठाकर गले से लगा लिया।

रामजी का राजतिलक हुआ तो...
रामजी के अवध आगमन पर नगर में चारों ओर आनंद छा गया। रामजी, लक्ष्मणजी व सीताजी ने सभी गुरुओं और माताओं का आशिर्वाद लिया। रामजी को देखकर मुनि वसिष्ठजी का मन भर गया। उन्होंने तुरंत ही दिव्य सिंहासन मंगवाया। रामजी और सीताजी का राज तिलक किया गया। पहले मुनि वसिष्ठ ने तिलक किया। फिर पुत्र को राजसिंहासन पर देख अन्य माताएं भी तिलक करने लगी। उन्होंने ब्राह्मणों को अनेक प्रकार से दान दिया। देवताओं ने नगाड़े बजाए। सारे वानर आनंद में मग्र हैं।

उन्हें पता ही नहीं चला और छ: महीने बीत गए। स्वप्र में भी घर की सुध न रही। रामजी ने सभी को बुलाया। सभी ने आदर सहित सिर नवाया। बड़े ही प्रेम से श्रीरामजी ने उनको अपने पास बैठाया। सभी से कहा तुम लोगों ने मेरी बहुत सेवा की है। मैं अपने मुंह से तुम्हारी किस तरह बड़ाई करूं । मेरे हित के लिए तुम लोगों ने हर तरह के सुख त्याग दिए। तुम सब मुझे बहुत प्रिय हो। अब सब लोग घर जाओ। रामजी के वचन सुनकर सभी प्रेममग्र हो गए।

इसीलिए कहा जाता है राजा हो तो श्रीराम जैसा
श्रीरामजी ने उन्हें अनेकों प्रकार के उपदेश दिए। प्रभु के सम्मुख वे कुछ कह नहीं सकते। बार-बार प्रभु के चरणों को देखते हैं। रामजी ने अनेकों रंगों के अनुपम गहने मंगवाए। सबसे पहले भरतजी ने अपने हाथ से संवारकर सुग्रीव को वस्त्रआभुषण पहनाए। जांबवान और नील आदि सबको रामजी ने वस्त्र और आभुषण दिए। वे सभी उन्हें धारण कर चल दिए।

अंगद भी रामजी को सिर नवाकर नेत्रों में जल भरकर और हाथ जोड़कर चल दिए। भरतजी शत्रुघ्नजी और लक्ष्मणजी सहित उनको पहुंचाने चले। आदर के साथ सब वानरों को पहुंचाकर भाइयों सहित भरतजी लौट आए। उसके बाद रामजी ने निषादराज को बुला लिया और उसे आभुषण और वस्त्र प्रसाद आदि देकर विदा किया कहा तुम मेरे मित्र हो भाई हो। अयोध्या में सदा आते-जाते रहना। यह वचन सुनते ही उसे बहुत सुख का अनुभव हुआ।

रामचंद्रजी के प्रतिष्ठित होने पर तीनों लोक हर्षित हो गए, उनके सारे शोक जाते रहे। कोई किसी से वैर नहीं करता। सब लोग अपने-अपने वर्ण और आश्रम के अनुसार वेद मार्ग पर चलते हैं और सुख पाते हैं। उन्हें न किसी बात का भय है, न शोक है और नहीं कोई रोग सताता है। राम-राज्य मैं किसी को किसी तरह का संताप नहीं है। सभी अपने-अपने धर्म का पालन करते हैं। धर्म और अपने चारों चरणों (सत्य, शौच, दया और दान)से जगत परिपूर्ण हो रहा है। स्वप्र में भी कोई पाप नहीं है। पुरुष और स्त्री सभी रामभक्ति परायण हैं।

इसलिए देवताओं को चंदन चढ़ाया जाता है
सनकादि मुनि ब्रह्मलोक चले गए। तब भाइयों ने रामजी के चरणों में सिर नवाया। सब भाई प्रभु से पूछते सकुचाते हैं। सब हनुमानजी की ओर देख रहे हैं। हनुमानजी हाथ जोड़कर बोले- भगवान सुनिए भरतजी कुछ पूछना चाहते हैं। तब हनुमानजी ने कहा प्रभु सुनिए भरतजी कुछ कहना चाहते हैँ। रामजी ने कहा हनुमान तुम मेरा स्वभाव जानते ही हो। भरत के और मेरे बीच में कभी भी कोई अंतर भेद है? प्रभु के वचन सुनकर भरतजी ने उनके चरण पकड़ लिए कहा शरणागतों के दुख हरने वाले सुनिए।

न तो मुझे कुछ संदेह है और न स्वप्र में शोक और मोह यह केवल आप की कृपा का फल है। मैं आपका सेवक हूं। हे प्रभु आप मुझे संत और असंत में भेद अलग-अलग करके मुझको समझाकर कहिए। संतो के गुण असंख्य हैं, जो वेद और पुराणों में प्रसिद्ध है। संत और असंतो की करनी ऐसी है जैसे कुल्हाड़ी और चंदन का आचरण होता है। कुल्हाड़ी चंदन को काटती है। लेकिन चंदन अपना गुण देकर उसे सुगंध से सुवासित कर देता है। इसीलिए चंदन देवताओं के सिर पर चढ़ता है। और कुल्हाड़ी के मुख को यह दण्ड मिलता है कि उसको आग में जलाकर फिर घन से पीटता हैं। संत के विषयों में लम्पट लिप्त नहीं होते हैं। उन्हें पराया देखकर दुख और सुख देखकर सुख होता है। उन्हें पराया दुख देखकर दुख और सुख देखकर सुख होता है। वे समता रखते हैं। उनके मन कोई उनका शत्रु नहीं है, वे मद से रहित और वैराग्यवान होते हैं और लोभ क्रोध हर्ष और भय का त्याग किए हुए रहते हैं।

ऐसे लोगों को कभी दोस्त नहीं बनाना चाहिए...
उनका मन बहुत ही कोमल होता है। वे दीनों पर दया करते हैं। मन, वचन और कर्म से मेरी निष्कपट भक्ति करते हैं। सबको सम्मान देते हैं, पर स्वयं मान रहित होते हैं। उनको कोई कामना नहीं होती। ये सब लक्षण जिसके हृदय में बसते हों, उसको सदा सच्चा संत जानना। जो शम, दम, नियम और नीति से कभी विचलित नहीं होते और मुख से कभी कठोर वचन नहीं बोलते वही संत होते हैं।

अब असंतो का स्वभाव सुनो कभी भूलकर भी उनकी संगति नहीं करनी चाहिए। उनका संग सदा दुख देने वाला होता है। दुष्टों के हृदय में बहुत अधिक संताप रहता है। वे पराई सम्पति देखकर सदा जलते रहते हैं।  ऐसे लोग जहां कही दूसरे की निंदा सुन पाते हैं, वहां ऐसे हर्षित होते हैं मानो रास्ते में पड़ा खजाना मिल गया हो। वे काम, क्रोध, मद और लोभ के परायण निर्दयी, कपटी, कुटील और पापों के घर होते हैं। वे बिना ही कारण  हर किसी से वैर किया करते हैं। जो भलाई करता है। उसके साथ भी बुराई करते हैं।

शिवजी ने कब और किससे सुनी रामायण?
रामजी की कथा सुनकर गरूडज़ी को रामजी के चरणों में विश्वास उत्पन्न हो गया। शिवजी ने पार्वतीजी से कहा है उमा मैं वह सब आदरसहित कहूंगा। तुम मन लगाकर सुनो मैंने जिस तरह ये जन्म-मृत्यु से छुड़वाने वाली यह कथा तुम्हे सुनाई। अब तुम यह प्रसंग सुनो। पहले तुम्हारा अवतार दक्ष के घर में हुआ था। तब तुम्हारा नाम सती था।। दक्ष के यज्ञ में तुम्हारा अपमान हुआ तब तुमने क्रोध से अपने प्राण त्याग दिए और फिर मेरे सेवकों ने यज्ञ विध्वंस कर डाला। वह सारा प्रसंग तो तुम जानती ही हो।

तब मेरे मन में बड़ा सोच हुआ और मैं तुम्हारे वियोग से दुखी हो गया। मैं विरक्तभाव से सुंदर वन, पर्वत, नदी और तालाबों का दृश्य देखता फिरता था। सुमेरु पर्वत की उत्तर दिशा में, और भी दूर एक बहुत ही सुंदर नील पर्वत है। उसके सुंदर स्वर्णमय शिखर हैं मैं वहां पहुंचा। चार सुंदर शिखर मेरे मन को बहुत ही अच्छे लगे। उन शिखरों में एक-एक पर बरगद, पीपल पाकर और आम के बहुत विशाल पेड़ हैं। पर्वत के ऊपर बहुत सुंदर तालाब सुशोभित है। जिसकी मणियों की सिढिय़ां देखकर मन मोहित हो जाता है। उसका जल शीतल और निर्मल मीठा है।

उसमें रंग बिरंगे बहुत से क ल खिले हुए हैं। उस सुंदर पर्वत पर वही पक्षी यानी काकाभशुण्डी बसता है। उसका नाश कल्प के अन्त में भी नहीं होता। आम की छाया में मानसिक पूजा करता है। बरगद के नीचे हरि की कथाओं के प्रसंग करता है। वहां अनेकों पक्षी आते और कथा सुनते हैं। वहां मैंने हंस का शरीर धारण किया। कुछ समय के लिए वहां निवास किया और रामजी के गुणों को सुनकर आदर सहित वहां लौट आया।

जिनमें ये चार गुण हैं, उन्हें राज की बात बताने में संकोच नहीं करना चाहिए
काकभशुण्डी ने मुझे वह सब कथा कही जो मैंने तुमसे कही। सारी रामकथा सुनकर पक्षिराज गरुडज़ी मन में बहुत उत्साहित हो गए। उनका शरीर ऐसा पुलकित हो गया, उनके नेत्रों में जल भर आया और वे मन में बहुत हर्षित हुए। सुंदर बुद्धिवाले, सुशील, पवित्र कथा के प्रेमी और हरि के सेवक श्रोता को पाकर सज्जन बहुत गोपनीय रहस्य को भी प्रकट कर देते हैं।

काकभशुण्डी ने फिर कहा पक्षिराज आपको न मोह या माया ही है। आपने तो मुझ पर दया की है। हे पक्षियों के स्वामी आपने अपना मोह कहा है तो इसमें मुझे कोई आश्चर्य नहीं है।  संसार में ऐसा कौन है जिसे मोह नहीं हुआ है। इस संसार में कौन ज्ञानी, तपस्वी, शूरवीर, कवि, विद्वान और गुणों के धाम हैं। जिसकी लोभ ने विडम्बना न की हो। लक्ष्मी के मद किसको टेढ़ा और प्रभुता ने किसको बहरा नहीं कर दिया? ऐसा कौन है, जिसे मृगनयनी युवती के नेत्र बाण न लगे हो। ऐसा कोई नहीं है जिसे मद ने अधूरा छोड़ा हो। मनोरथ कीड़ा है, शरीर लकड़ी है। ऐसा धैर्यवान कौन है, जिसके शरीर में ये कीड़ा न लगा हो? पुत्र की, धन की और लोकप्रतिष्ठा की इन तीनों प्रबल इच्छाओं ने किसकी बुद्धि को मलिन नहीं कर दिया।

ये वेदों की नीति है, सफल होना है तो इसे जरूर याद रखें
काकभुशुण्डीजी हर्षित हुए और उन्होंने गरुड़ से कहा मुझे अपने बहुत जन्मों की याद आ गई। मैं अपनी कथा तुम्हे विस्तार से कहता हूं। आदर सहित मन लगाकर सुनिए। अनेक जप, तप, शम, दम, व्रत, दान, वैराग्य, विवेक, योग विज्ञान आदि सबका फल श्रीरघुनाथजी के चरणों में प्रेम होना है। इसके बिना कोई कल्याण नहीं पा सकता। मैंने इसी शरीर से श्रीरामजी की भक्ति प्राप्त की है।

वेदों मे मानी हुई ऐसी नीति है और सज्जन भी कहते हैं कि अपना परम हित जानकर अत्यंत नीच से भी प्रेम करना चाहिए। जैसे रेशम के कीड़े से रेशम मिलता है इसलिए इससे सुंदर रेशमी वस्त्र बनते हैं। इसी से उस परम अपवित्र कीड़े को लोग प्राणों के समान पालते हैं। जीव के लिए सच्चा स्वार्थ यही है कि मन, वचन, और कर्म से रामजी के चरणों में प्रेम हो। वही शरीर पवित्र और सुंदर है जिस का शरीर को पाकर रामजी का भजन किया जाए।

तुलसीदासजी कह गए हैं ऐसा कलियुग आएगा कि स्त्रियां....
काकभशुण्डीजी गरूडज़ी से बोले अनेकों जन्मों में मैंने अनेकों प्रकार के योग, जप, तप, यज्ञ व दान किए। जगत में ऐसी कौन सी योनी है जिसमें मैंने जन्म न लिया हो। मैंने सब कर्म करके देख लिए पर में इस जन्म की तरह कभी सुखी नहीं हुआ। अब मैं अपने पहले जन्म का चरित्र कहता हूं।

जिन्हें सुनाकर प्रभु चरणों में प्रीति उत्पन्न होती है, जिससे सब क्लेश मिट जाते हैं। पूर्व के एक कल्प में पापों का मूल कलियुग था। जिसमें पुरुष और स्त्री सभी अधर्मपरायण और वेद विरोधी थी। उस कलियुग मैं अयोध्यापुरी में जाकर शूद्र का शरीर पाकर जन्मा। मैं मन वचन और कर्म से शिवजी का सेवक और दूसरे देवताओं की निंदा करने वाला अभिमानी था। मैं धन के मद से मतवाला बहुत उग्रबुद्धिवाला था। मेरे हृदय में बहुत भारी दम्भ था। मैं

रघुनाथजी की राजधानी में रहता था। मैंने उस समय उसकी महिमा  कुछ भी नहीं जानी। अब मैंने अवध का प्रभाव जाना। कलियुग में पापों ने सब धर्मों को ग्रस लिया, सदग्रंथ लुप्त हो गए। वेद, शास्त्र और पुराणों ने ऐसा गया है कि किसी भी जन्म में जो कोई भी अयोध्या में बस जाता है, वह अवश्य ही श्रीरामजी परायण हो जाएगा। अवध का प्रभाव जीव तभी जानता है, जब हाथ में धनुष धारण करने वाले श्रीरामजी उसके हृदय में निवास करते हैं। सभी लोग मोह के वश हो गए, शुभकर्मों का लोभ ने हड़प लिया। जो दूसरे का धन हरण कर ले, वही बुद्धिमान है। जो दंभ करता है। जो झूठ बोलता है और हंसी दिल्लगी करना जानता है। कलियुग गुणवान कहा जाता है।

जो आचारहीन और वेदमार्ग को छोड़े हुए है, कलियुग में वही ज्ञानी और वैराग्यवान है। जिसके बड़े-बड़े नाखून और लंबी जटाएं हैं वही प्रसिद्ध तपस्वी है। जो अमंगल वेष और अमंगल भूषण धारण करते हैं और सब कुछ खा लेते हैं वे ही योगी हैं, वे ही सिद्ध है। जिनके आचरण दूसरों का अपकार करने वाले हैं उन्ही का बड़ा गौरव होता है और वे ही सम्मान के योग्य होते हैं। जो मन, वचन और कर्म से झूठ बोलने वाले हैं वे ही कलियुग के वक्ता माने जाते हैं। सभी मनुष्य स्त्रियों के विशेष वश में हैं और स्त्रियां उन्हें बंदर की तरह नचाती है। स्त्रियां गुणों के धाम सुंदर पति को छोड़कर परपुरुष का सेवन करती हैं। सुहागिन स्त्रियां तो आभूषणोंसे रहित होती हैं पर विधवाएं नित नए श्रृंगार करती हैं।

ये इशारे बता देंगे....आ गया है घोर कलियुग
कलियुग में सब लोग वर्णसंकर और मर्यादाहीन हो गए हैं। वे पाप करते हैं और दुख, भय, रोग, शोक और वियोग पाते हैं। वेदसम्मत तथा वैराग्य और ज्ञान से युक्त जो हरीभक्ति मार्ग है, मोहवश मनुष्य उस पर नहीं चलते और अनेकों नए-नए पथों की कल्पना करते हैं। सन्यासी बहुत धन लगाकर घर सजाते हैं। उनमें वैराग्य नहीं रहा, उसे विषयों ने हर लिया। तपस्वी धनवान हो गए और गृहस्थ दरिद्र। कुलवती और सती स्त्री को पुरुष घर से निकाल देते हैं। अच्छी चाल को छोड़कर घर में दासी को ला रखते हैं। पुत्र अपने माता-पिता को तभी तक मानते हैं, जब तक उन्हें पत्नी का मुंह नहीं दिखाई पड़ा। जब से सुसराल प्यारा लगने लगा, तब से कुटुम्बी शत्रुरूप हो गए।

राजा लोग पाप परायण हो गए। उनमें धर्म नहीं रहा। वे प्रजा को नित्य ही दण्ड देकर उसकी विडम्बना किया करते हैं।

इस तरह कलियुग का विस्तार से वर्णन करने के बाद काकभशुण्डी ने अपने कई जन्मों की कथा गरुडज़ी को सुनाई। उन्होंने वह कथा भी सुनाई जिसके कारण उन्हें कौए का जन्म मिला। शिवजी कहते हैं। हे भवानी भशुण्डी की बात सुनकर गरुडज़ी हर्षित होकर कोमल वाणी से बोले-आपके प्रसाद से मेरे हृदय में अब संदेह, शोक, भ्रम, कुछ भी नहीं रह गया। काकाभशुण्डी कहते हैं गरुडऱाज ज्ञान कहने में कठिन, साधने में कठिन है। यह ज्ञान हो भी जाए तो फिर अनेकों विघ्न हैं। ज्ञान का माग तलवार की धार के समान है। इस मार्ग से गिरते देर नहीं लगती।

जिसमें ये गुण नहीं हो उसे कभी दोस्त नहीं बनाना चाहिए...
दोस्ती शब्द से एक पवित्र रिश्ते का एहसास होता है अगर आप दोस्ती के वास्तविक अर्थ से अवगत है और अपनी दोस्ती को पूरे विश्वास,निष्ठा व वफादारी से निभाने की क्षमता रखते हैं। साथ ही दोस्त भी विश्वास करने लायक हो तब ही आपको दोस्ती के लिए अपने हाथ बढ़ाने चाहिए। रामचरित मानस के किष्किन्धाकाण्ड में तुलसीदासजी ने बताया है कि एक मित्र में क्या गुण होने चाहिए और किन लोगों को दोस्त नहीं बनाना चाहिए.....

देत लेत मन संक न धरई। बल अनुमान सदा हित करई। बिपति काल कर सतगुन नेहा। श्रुति कह संत मित्र गुन एहा।

यानी देने लेने में जो शंका न रखे। अपने बल के अनुसार सदा हित करता रहे। विपत्ति के समय में तो सदा सौ-गुना स्नेह करे। वेद कहते हैं संत मित्र के यही गुण हैं।

आगे कह मृदु बचन बनाई। पांछे अनहित मन कुटिलाई। जाकर चित अहि गति सम भाई। अस कुमित्र परिहरेहिं भलाई।

जो सामने कोमल वचन कहे और पीठ पीछे बुराई करे। जो मन में कुटिलता रखे और जिसका मन सांप के समान टेड़ा है। ऐसे कुमित्र को त्यागने में ही भलाई है।


जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK

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