Thursday, November 8, 2012

Ramayana(रामायण ) Part 1

क्या है रामचरित मानस के सात कांड में?
हम आपको बताने जा रहे हैं कि रामायण के किस कांड में राम के जीवन की कौन सी घटना का वर्णन है।
रामचरितमानस की में कुल सात अध्याय यानी कांड हैं।

1.बालकांड- इसमें रामचरितमानस मानस की भूमिका, राम के जन्म के पूर्व घटनाक्रम, राम और उनके भाइयों का जन्म, ताड़का वध, राम विवाह का प्रसंग आदि।
2. अयोध्या कांड- राम का वैवाहिक जीवन, राम को अयोध्या का युवराज बनाने की घोषणा, राम को वनवास, राम का सीता लक्ष्मण सहित वन में जाना, दशरथ की मौत, राम-भरत मिलन आदि।
3. अरण्य कांड- राम का वन में संतों से मिलना, चित्रकुट से पंचवटी तक सफर, शुर्पनखा का अपमान, सीता हरण।
4.किष्किंधा कांड- राम लक्ष्मण का सीता को खोजना, राम व सुग्रीव की मैत्री, बालि का वध, वानरों के द्वारा सीता की खोज।
5. सुन्दर कांड- हनुमान का समुद्र लांघना, विभीषण से मुलाकात, अशोक वाटिका में माता सीता से भेंट, रावण के पुत्रों से हनुमान वाटिका में हनुमान का युद्ध हनुमान का वापस लौटना, हनुमान द्वारा राम को सीता का संदेश सुनाना, लंका पर चढ़ाई की तैयारी, वानरसेना का समुद्र तक पहुंचना, राम का समुद्र से रास्ता मांगना।
6. लंका कांड- नील द्वारा समुद्र पर सेतु बनाना, वानर सेना का समुद्र पार कर लंका पहुंचना, अंगद को शांति दूत बनाकर रावण की सभा में भेजना, राम व रावण की सेना में युद्ध, रावण व कुंभकरण द्वारा रावण का वध।
7. उत्तर कांड- राम का सीता लक्ष्मण सहित अयोध्या लौटना, अयोध्या में राम का राजतिलक, अयोध्या में रामराज्य, आदि घटनाओं का वर्णन।

यह देखकर माता सती का मन संदेह से भर गया...
गोस्वामी तुलसीदासजी की सबसे श्रेष्ठ रचना रामचरितमानस की शुरुआत श्री गणेश वंदना से होती है। रामचरितमानस का पहला कांड बालकांड है। बालकांड में श्री रामजी के जीवन की कहानी माघ स्नान से शुरू होती है। जब सूर्य मकर राशि में जाता है। तब सब लोग तीर्थराज प्रयाग आते हैं। इसी प्रकार एक बार याज्ञवल्क्य और भारद्वाज दोनों ही माघ स्नान के लिए पहुंचे। दोनों की भेंट हुई। भारद्वाज मुनि ने याज्ञवल्क्य जी से श्री रामजी की कथा सुनाने की प्रार्थना की। तब याज्ञवल्क्य जी ने कहा मन लगाकर सुनो मैं श्री राम जी की कथा सुनाता हूं।

एक बार की बात है। शिवजी त्रैतायुग में अगस्त्य ऋषि के पास गए। उनके साथ सतीजी भी थी। ऋषि ने उन्हें सम्पूर्ण जगत जानकर उनका पूजन किया। उन्होंने मुनि श्री से रामकथा सुनाने का निवेदन किया। अगस्त्य ऋषि ने उन्हे रामकथा सुनाई। श्री रघुनाथ जी की कथा कहते-सुनते शिव जी कुछ दिनों तक वहां रहे। फिर वहां से विदा मांगकर। शिवजी दक्षकुमारी सतीजी के साथ घर को चले। शिव जी यह सोचते हुए जा रहे थे कि भगवान के दर्शन मुझे किस प्रकार हों? प्रभु ने गुप्तरुप से अवतार लिया है मेरे जाने से सब लोग जान जाएंगे। शंकर जी के मन में इस बात को लेकर बड़ी खलबली थी। लेकिन सती जी ये नहीं जानती थी।

शिव जी के मन में डर था लेकिन उनके नेत्र दर्शन को ललचा रहे थे। रावण ने अपनी मृत्यु मनुष्य के हाथ से मांगी थी। ब्रह्माजी के वचनों को प्रभु सत्य करना चाहते हैं मैं उनके पास नहीं जाता हूं तो बड़ा पछतावा रह जाएगा। इस प्रकार महादेव जी चिन्ता के वश में हो गए। उसी समय नीच रावण ने जाकर मारिच को साथ लिया और वह तुरंत कपटमृग बन गया। मुर्ख रावण ने कपट से सीता जी को हर लिया। मृग को मारकर लक्ष्मण सहित श्री हरि आश्रम आये उसे खाली देखकर उनकी आंखों में आंसु भर आए। विरह में व्याकुल दोनों भाई सीता को खोजते हुए फिर रहे हैं। शिव जी ने उसी अवसर पर श्रीराम को देखा तो उन्हें बहुत आनंद हुआ लेकिन अवसर ठीक ना जानकर उन्होने परिचय नहीं दिया।शिव जी बार-बार राम को देख कर प्रसन्न हो रहे थे और सतीजी के साथ चले जा रहे थे।

सतीजी ने उनकी यह दशा देखी तो उन्हें बड़ा संदेह हुआ कि शिवजी ने एक राजपुत्र को सच्चिदानंद कहकर प्रणाम किया और उनकी शोभा देखकर उन पर मुग्ध हो गए। उन्हे संदेह हुआ की जो सर्वव्यापक, अगोचर, इच्छारहित और भेदरहित है, और जिसे वेद भी नहीं जानते क्या वह देह धारण कर सकता है ? उन्होंने सोचा कि जो भगवान विष्णु स्वयं शिव के समान है वे क्या एक अज्ञानी की तरह स्त्री को खोजेंगे। यह सोचकर माता सती के मन में अपार संदेह उठ खड़े हुए

क्यों सती बन गई सीता?
सतीजी का संदेह देखते हुए। शिवजी सब कुछ समझ गये। उन्हें समझाने लगे की देखो सती जिनकी कथा अगस्त्य जैसे महान ऋषि ने हमें सुनाई है। ज्ञानी, मुनि, योगी सभी जिनका ध्यान करते हैं तुम उन पर संदेह कर रही हो। शिवजी ने उन्हें बहुत बार समझाया फिर भी सती नहीं मानी तो शिव जी बोले अगर तुम्हारे मन में संदेह हो तो जाकर परीक्षा क्यों नहीं ले लेती?

जब तक तुम लौटकर आओगी। मैं तुम्हें यहीं पेड़ के नीचे बैठा हुआ मिलूंगा।इधर शिवजी ने मन ही मन यह सोचा कि इसमें सती का कल्याण नहीं है। शिवजी इतना सोचकर ध्यान मग्र हो गए। सती श्री राम की परीक्षा लेने के लिए उस मार्ग पर सीता का रूप धारण कर आगे-आगे चलने लगी। जिस पर राम जा रहे थे। माता सती के बनावटी वेष को देखकर लक्ष्मण आश्चर्य चकित हो गए। वे बहुत गंभीर हो गए लेकिन कुछ ना बोल सके। राम के सामने सती अपने आप को छुपाने का प्रयास करने लगीं। प्रभु ने हाथ जोड़कर सती को अपना परिचय देकर प्रणाम किया और पूछा कि हे देवी आप अकेली इस वन में क्यों घूम रही हैं, भगवान वृषकेतु शिव कहां हैं?

राम की रहस्यमय बाते सुनकर सती घबरा गई और शिवजी के पास लौटने लगी। शिवजी के पास जाते समय उन्हें चिंता सताने लगी कि मैंने शिवजी की बात नहीं मानी। राम के विष्णु का अवतार होने पर संदेह किया। राम ने जान लिया की सती दुखी हैं। राम ने उस समय अपना कुछ प्रभाव प्रकट कर उन्हें दिखलाया। सती को उस समय सीता, राम व लक्ष्मण अपने आगे चलते हुए दिखाई दिए। वे जिधर भी देखती उन्हें राम ही दिखाई देने लगे।

उन्होंने सभी देवताओं को राम की सेवा करते हुए देखा। यह सब देखकर माता सती अपनी सुध खो दी। उन्होंने अपनी आंखें बंद कर ली। जब आंखें खोली तो कुछ भी नहीं था। सती ने सीता का वेश धारण किया यह जानकर शिव बहुत दुखी हुए। तब शंकर जी ने यह निश्चय कर लिया कि सती के शरीर से मेरी भेंट नहीं हो सकती। शिव का रुख देखकर सतीजी को अपनी गलती का एहसास हुआ। शिवजी ने सती को चिंतित देखकर। उन्हें कुछ अच्छी कहानियां सुनाई। जब दोनों कैलाश पर्वत पर पहुंचे

तो शिव ने समाधि लगा ली। माता सती कैलास पर रहने लगी। सती का एक-एक दिन युग के समान बीतने लगे। शिव ने सत्तासी हजार साल बाद अपनी समाधि खोली।

और सती ने दे दी खुद की आहूति
शिवजी ने सत्तासी हजार साल पूरे होने के बाद अपनी समाधी खोली। शिवजी समाधी से उठकर राम नाम का जप करने लगे। सती समझ गई कि शिवजी समाधी से जाग गए हैं। उसके बाद उन्होंने शिवजी को प्रणाम किया। सती शिव के सामने आसन लगाकर बैठ गई। शिवजी सती को कहानियां सुनाने लगे। इधर दक्ष प्रजापति बनाए गए। दक्ष को इतना बड़ा अधिकार पाकर अभिमान आ गया। एक बार दक्ष ने बड़े यज्ञ का आयोजन किया। उन्होंने ब्रहा्र, विष्णु, और महेश को छोड़कर सभी देवताओं और ऋषियों को आमंत्रित किया। सभी देवता अपनी पत्नीयों सहित विमान सजाकर दक्ष के यहां जा रहे थे।

सती ने देखा कि कई सुन्दर विमान आकाश में जा रहे हैं। सती ने पूछा तब शिव ने उन्हें बतलाया की उनके पिता के घर यज्ञ हो रहा है। पिता के घर यज्ञ की बात सुनकर सती ने वहां जाने की आज्ञा शिव जी से मांगी। तब शिवजी ने निमंत्रण ना दिए जाने की बात कही। लेकिन सती बोलने लगी की मेरे पिता के घर पर इतना बड़ा उत्सव है। अगर आप आज्ञा दें तो मैं भी देखना चाहती हूं। तब शिव ने बोला कि एक बार ब्रहा्र की सभा में आपके पिता अप्रसन्न क्या हुए? उसी कारण वे अभी भी हमारा अपमान करते हैं और उन्होंने तुम्हे भी भुला दिया।

इस बात में संदेह नहीं हैं कि मित्र, स्वामी, पिता और गुरु के घर बिना बुलाए भी जा सकते हैं। लेकिन आपका वहां जाना हमें उचित नहीं लगता। शिवजी ने उन्हे बहुत समझाया लेकिन सती नहीं रूकी। सती जब अपने पिता के घर पहुंची तो पिता ने उनकी कुशलता के समाचार नहीं पूछे। सिर्फ उनकी माता ने ही उनकी कुशलता का समाचार लिया। सती ने जब यज्ञ में शिव का भाग ना देखा तो उन्हें बहुत दुख हुआ। शिवजी का अपमान उनसे देखा नहीं गया और उन्होंने योगाग्रि में अपना शरीर भस्म कर डाला।

नारद ने की थी भविष्यवाणी, कैसा होगा पार्वती का पति?
जब सती के खुद को योगाग्रि में भस्म कर लेने का समाचार शिवजी के पास पहुंचा। तब शिवजी ने वीरभद्र को भेजा। उन्होंने वहां जाकर यज्ञ विध्वंस कर डाला और सब देवताओं को यथोचित फल दिया। सती ने मरते समय शिव से यह वर मांगा कि हर जन्म मे आप ही मेरे पति हों। इसी कारण उन्होंने हिमाचल के घर जाकर पार्वती का जन्म लिया। जब से पार्वती हिमाचल के घर में जन्म तब से उनके घर में सुख और सम्पतियां छा गई। पार्वती जी के आने से पर्वत शोभायमान हो गया। जब नारद जी ने ये सब समाचार सुने तो वे हिमाचल पहुंचे। वहां पहुंचकर वे हिमाचल से मिले और हंसकर बोले तुम्हारी कन्या गुणों की खान है। यह स्वभाव से ही सुन्दर, सुशील और शांत है। यह कन्या सुलक्षणों से सम्पन्न है। यह अपने पति को प्यारी होगी। अब इसमें जो दो चार अवगुण है वे भी सुन लो। गुणहीन, मानहीन, माता-पिता विहीन, उदासीन, लापरवाह। इसका पति नंगा, योगी, जटाधारी और सांपों को गले में धारण करने वाला होगा।

यह बात सुनकर पार्वती के माता-पिता चिंतित हो गए। उन्होंने देवर्षि से इसका उपाय पूछा। तब नारद जी बोले जो दोष मैंने बताए मेरे अनुमान से वे सभी शिव में है। अगर शिवजी के साथ विवाह हो जाए तो ये दोष गुण के समान ही हो जाएंगे। यदि तुम्हारी कन्या तप करे तो शिवजी ही इसकी किस्मत बदल सकते हैं। तब यह सुनकर पार्वतीजी की मां विचलित हो गई। उन्होंने पार्वती के पिता से कहा आप अनुकूल घर में ही अपनी पुत्री का विवाह किजिएगा क्योंकि पार्वती मुझे प्राणों से अधिक प्रिय है। पार्वती को देखकर मैंना का गला भर आया। पार्वती ने अपनी मां से कहा मां मुझे एक ब्राहा्रण ने सपने में कहा है कि जो नारदजी ने कहा है तु उसे सत्य समझकर जाकर तप कर। यह तप तेरे लिए दुखों का नाश करने वाला है। उसके बाद माता-पिता को बड़ी खुशी से समझाकर पार्वती तप करने गई।

तब पार्वती का तप देखकर आकाशवाणी हुई कि...
तब उनका यह फैसला सुनकर उनके माता-पिता विचलित हो गए। उन्होंने अपने माता-पिता को समझाया और उनसे आज्ञा लेकर तप करने गई। उनके सभी रिश्तेदार चिंतित हो गए। तब वेदशिरा मुनि ने आकर सबको समझाया। पार्वती वन में जाकर तप करने लगी। तप में पार्वती का ऐसा मन लगा कि वे अपने शरीर की सुध भूल गई। उन्होंने कई वर्ष फल, कंद व मुल खाकर बिताए। कुछ दिन सिर्फ हवा का ही भोजन किया। लगभग तीन हजार साल तक सिर्फ पेड़ से गिरे बिलपत्र ही खाए। फिर सुखे पत्ते भी छोड़ दिए इसीलिए उनका नाम अर्पणा भी पड़ा। पार्वतीजी का कठिन तप देखकर एक दिन आकाशवाणी हुई।

पार्वती तेरी मनोकामना पूरी होगी। अब तु कठिन तप का त्याग कर दे। तुझे शिव मिलेंगे। जब तेरे पिता तुझे बुलाने आये तो घर चली जाना। आकाश से ब्रहा् जी की वाणी सुनकर सती खुश हो गई और घर को लौट चली। जब सती ने जाकर शरीर त्याग दिया।तब से शिवजी के मन में वैराग्य हो गया था। वे रामजी का नाम जपने लगे और राम की कहानियां सुनाने लगे।

शिव का तप देखकर भगवान श्रीराम प्रकट हुए। उन्होंने शिवजी से कहा की आपके जैसा कठिन व्रत कौन निभा सकता है। रामजी ने शिवजी को समझाया और पार्वती का जन्म सुनाया। पार्वती की कथा सुनाने के बाद रामजी ने शिवजी से कहा कि आप से मेरी विनती है कि आप पार्वती से विवाह कर लें। इस प्रकार शिव से बात करके रामजी अंर्तध्यान हो गए। उसी समय सप्तर्षि शिवजी के पास आये। शिवजी ने उनसे कहा की आप लोग पार्वती के पास जाकर उनके प्रेम की परीक्षा लीजिए।

जब सप्तर्षि पार्वती की परीक्षा लेने गए तो...
सप्तर्षि ने पार्वती से जाकर पूछा तुम किस के लिए इतना कठिन तप कर रही हो। तब पार्वती ने सकुचाते हुए कहा आप लोग मेरी मुर्खता को सुनकर हंसेंगें। मैं शिव को अपना पति बनाना चाहती हूं। पार्वती की बात सुनकर सभी ऋषि हंसने लगे और बोले की तुमने उस नारद का उपदेश सुनकर शिव को अपना पति माना है जो सब कुछ चौपट कर देता है। उनकी बातों पर विश्वास करके तुम ऐसा पति चाहती हो जो स्वभाव से ही उदासीन, गुणहीन निर्लज्ज, बुरे वेषवाला , बिना घर बार वाला , नंगा और शरीर पर नागों को धारण करने वाला है।ऐसे वर के मिलने से कहो तुम्हे क्या सुख मिलेगा।

अब हमारा कहा मानो हमने तुम्हारे लिए बहुत अच्छा वर चुना है। हमने तुम्हारे लिए जो वर चुना है वह लक्ष्मी का स्वामी और वैकुंठपुरी का रहने वाला है। तब पार्वती उनकी बात सुनकर बोली कहा है कि मेरा हठ भी पर्वत के ही समान मजबूत है। मैं अपना यह जन्म शिव के लिए हार चुकी हूं। मेरी तो करोड़ जन्मों तक यही जिद रहेगी। पार्वती की यह बात सुनकर सभी ऋषि बोले आप माया हैं और शिव भगवान है। आप दोनों समस्त जगत के माता-पिता है। यह कहकर सप्तर्षि पार्वती को प्रणाम करके वहां से चले गए।

क्यों कर दिया शिवजी ने कामदेव को भस्म?
पार्वती की परीक्षा लेने के बाद सप्तर्षि भगवान शंकर के पास आए और उन्होंने पार्वती से हुई बातचीत शिवजी को सुनाई। शिवजी सारी बात सुनकर बहुत खुश हुए। बातें सुनने के बाद वे फिर से शिवजी श्रीरामजी के ध्यान में मग्र हो गए। उसके बाद एक बार की बात है कि तारका नाम का एक असुर हुआ उसने सभी देवताओं को हराकर तीनों लोकों को जीत लिया। वह अमर था। इसीलिए देवता उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकते थे। आखिर सभी देवता उसके आतंक से परेशान होकर ब्रह्मजी के पास पहुंचे। तब ब्रह्मजी ने देवताओं को बताया कि इस असुर का संहार सिर्फ शिव पुत्र के द्वारा ही हो सकता है। तब सभी देवता चिंतित हो गए क्योंकि सती के देह त्याग के बाद से शिव समाधि में बैठे थे। तब ब्रहा्रजी बोले कि सती ने देह त्याग के बाद हिमाचल के यहां जन्म लिया है।

उन्होंने पार्वती के रूप में शिव को पाने के लिए बहुत तप किया लेकिन वे तो समाधि लगाकर बैठे हैं। इसलिए आप लोग जाकर कामदेव को शिवजी के पास भेजो ताकि उनके मन में काम का भाव उत्पन्न हो। इसके अलावा कोई उपाय नहीं है। देवताओं ने जब कामदेव को जाकर सारी बात बताई। तब कामदेव फूलों का धनुष लेकर निकल पड़े। उनके प्रभाव से सभी पशु-पक्षी काम के बस में हो गए। लेकिन जब कामदेव शिव के पास पहुंचे तो वे डर गए। उन्होंने शिव को मनाने के लिए बसंत को भेजा लेकिन शिव की समाधि नहीं टूटी। जब कामदेव सारी कोशिश कर हार गए। तब उन्होंने शिव पर काम के पांच बाण चलाए। क्रोध के कारण शिव का तीसरा नेत्र खुल गया और जैसे ही उन्होंने कामदेव को देखा तो वे जलकर भस्म हो गए।

क्या हुआ, जब कामदेव की पत्नी पहुंची शिव के पास?
शिव के क्रोध से जब कामदेव भस्म हो गए। तब पूरे संसार में हाहाकार मच गया। देवता और दैत्य डर गए। योगी निष्कंटक हो गए। कामदेव की पत्नी रति अपने पति की दशा सुनकर बेहोश हो गई। वह रोती हुई शिवजी के पास पहुंची। रोती और विलाप करती हुई शिव से कामदेव के लिए प्रार्थना करने लगी। तब रति को देखकर शिव को दया आ गई।

शिवजी ने कहा तुम्हारे पति का नाम अनंग होगा। वह बिना शरीर के ही रहेगा। अब वह अगला जन्म विष्णु अवतार कृष्ण के पुत्र के रूप में लेगा। उसका नाम प्रद्युम्र होगा। शिवजी की बात सुनकर रति वहां से चली गई। उसके बाद सभी देवताओं ने जब देखा कि कामदेव को शिव ने भस्म कर दिया है तो सभी देवता उन्हें मनाने के लिए उनके पास पह़ुंचे। उनसे प्रार्थना कि और बोले हे!शिव हम सभी देवताओं के मन में आपके विवाह को लेकर बहुत उत्साह है। हम सभी अपनी आंखों से आपको विवाह के बंधन में बंधते देखना चाहते हैं

शिवरात्रि: ऐसा अद्भुत दृश्य था शिव की बारात का
ब्रह्माजी के लग्र पढ़कर सुनाने के बाद देवताओं का सारा समाज प्रसन्न हो गया। आकाश से फूल बरसने लगे। शिवजी विवाह के श्रृंगार करने लगे। जटाओं का मुकुट बनाया और सांपों से उसे सजाया। सांपों के कुंडल पहनें और शरीर पर भभूति लगायी। एक हाथ में त्रिशुल और दुसरे में डमरू है। वे बैल पर चढ़कर चले बाजे बज रहे हैं। सभी देवता अपने-अपने वाहनों पर सवार होकर बारात में शामिल हुए।

तब विष्णु भगवान ने सब दिक्पालों को बुलाकर हंस कर कहा - सब लोग अलग-अलग चलो। हम लोगों की यह बारात वर के योग्य नहीं है।शिवजी उनकी बात सुनकर मुस्कुराते हैं उनका व्यंग्य भी उन्हें बुरा नहीं लगता। शिवजी ने श्रृंगी को भेजकर अपने सभी गणों को बुलवाया। शिवजी का आदेश समझकर सब चले आए। किसी की आंखें नहीं हैं। किसी का मुख नहीं है किसी के कई हाथ -पैर हैं। बारात में प्रेतों और पिशाचों की भी जमात है।सब कुछ अदूभुत है जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता है।

यह बारात है या यमराज की सेना?
जैसा दुल्हा अब वैसी ही बारात बन गई। उस समय हिमाचल द्वारा बनवाया गया शादी का मण्डप भी अद्भुत था। जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता है। हिमाचल ने अपनी पुत्री की शादी में सभी नदियों, वनों और तालाबों को बुलाया था। सभी अपने इच्छा के अनुसार मनुष्य का शरीर धारण करके विवाह में शामिल हुए। हिमाचल ने अपना पूरा घर सजवा रखा था। साथ ही सारा नगर दुल्हन की तरह सजाया गया था। जिस नगर में साक्षात जगदम्बा ने अवतार लिया हो उसका वर्णन करना बहुत ही कठीन है।

बारात नगर के निकट आई।यह खबर सुनकर पूरे नगर में चहल-पहल मच गई। अगवानी करने वाले सभी लोग बारात की अगवानी करने पहुंचे। देवताओं के समाज को देखकर भगवान विष्णु बहुत प्रसन्न हुए
लेकिन जब सभी ने शिव की बारात को आते देखा तो वे भाग गए। जब वे सभी लोग भागते हुए घर को पहुंचें। उन्हें देखकर पार्वती के माता-पिता घबरा गए। जब उन्होंने पूछा क्या हुआ? तब उन लोगों ने कहा क्या कहें यह बारात है या यमराज की सेना? दुल्हा पागल है और बैल पर सवार है।

दुल्हे को देख सारी महिलाएं डर गई क्योंकि?
अब शिवजी की बारात पार्वती के यहां आ पहुंची। चारों तरफ खुशी का माहौल था। पार्वती की माता आरती की थाली लेकर आयी। सभी महिलाएं मंगलगीत गा रही थी। जैसे ही उन्होंने दुल्हे को देखा सभी महिलाएं डर गई। वे सभी डर के कारण वह से भागकर घर में आ गई। शिवजी का जहां जनवासा था। वे वहां चले गए। यह देखकर पार्वती की मां को बहुत दुख हुआ।

उन्होंने पार्वती को अपने पास बुलाया और उन्हें गोद में बैठा लिया। उनसे कहने लगी विधाता ने तुमको कितना सुन्दर रुप दिया है।उस मुर्ख ने तुम्हारे दुल्हे को बावला कैसे बना दिया। जो फल कल्पवृक्ष में लगाना चाहिए वो बबुल में क्यों लगाया? मैं तुम्हें लेकर समुद्र में कुद जाऊंगी। चाहे इससे संसार में हमारी बदनामी हो लेकिन मैं इस बावले से तुम्हारा विवाह नहीं करूंगी। मैंना को देखकर सभी महिलाएं व्याकुल हो गई। वे कहने लगी मैंने नारद का क्या बिगाड़ा था। जिनके कहने पर तुमने इस बावले के लिए तप किया।

नारद को ना तो किसी का मोह है ना माया। इसलिए वो एक मां के दर्द को क्या जाने? अपनी मां को परेशान देखकर पार्वती बोली जो मेरे भाग्य में ऐसे पति लिखें है तो उसमें किसी का क्या दोष। इधर यह बात मालुम होते ही हिमाचल सप्तऋषि के साथ घर पहुंचे। तब परिस्थिति को समझते हुए नारद जी ने सभी को पार्वती के पूर्व जन्म की कहानी सुनाई। उन्होंने सभी को बताया की माता पार्वती साक्षात जगदम्बा का रूप है। तब नारद की बात सुनकर मैंना के मन को शांति हुई। उसके बाद विवाह की सभी रस्में निभाना फिर से शुरू की गई।

ऐसा था पार्वती की बिदाई का दृश्य...
जब पार्वती की बिदाई का समय आया। तब उनकी माता व्याकुल हो गई। उनकी परेशानी समझकर शिव ने अपनी सास को बहुत समझाया। फिर पार्वती की माता ने उनसे कहा शिवजी के चरणों की हमेशा पूजा करना औरतों का यही धर्म है। इस तरह पार्वती को समझाते हुए उसकी आंखों में आंसु आ गए। उन्होंने पार्वती को गले लगा लिया। इस तरह सबसे मिलकर पार्वती ससुराल चली। सभी ने उन्हें योग्य आर्शीवाद दिया।

इस तरह शिव व पार्वती सभी से विदा लेकर कैलाश को चल दिए। सभी देवताओं ने फूलों की वर्षा की और आकाश में नगाड़े बजने लगे। उसके बाद शिवजी कैलाश पर्वत पर पहुंचे और सभी देवता अपने-अपने लोक चलें। शिव-पार्वती हर तरह का सुख भोगते हुए कैलाश पर रहने लगे। समय बीतता गया तब उनके पुत्र कार्तिकेय का जन्म हुआ। जिसने तारकासुर का वध किया। शिवजी के चरित्र का वर्णन करने के बाद भारद्वाज जी बहुत खुश हुए।शिवजी के समान रामजी की भक्ति करने वाला कौन है। जिन्होंने बिना ही पाप के सती जैसी स्त्री का त्याग कर दिया। ऐसा करके उन्होंने राम के प्रति अपनी भक्ति दिखा दी।

तब दोनों भाइयों ने शाप के कारण राक्षस का जन्म लिया
शिवजी की कथा सुनने के बाद याज्ञवल्क्य ने भारद्वाज मुनि को कहा कि मैं अब आपको श्रीराम जी की कथा सुनाता हूं। एक दिन शिवजी की पत्नी पार्वती उनके पास पहुंची। शिवजी ने उनकी पत्नी को आदर से अपनी बांयी ओर बैठने के लिए आसन दिया। जैसे ही वे शिवजी के पास बैठी उन्हें पिछले जन्म की कथा याद आ गई। तब पार्वती जी ने शिव जी से कहा मैं आपके चरणों की दासी हूं।

मैं आप से रामजी की कथा सुनना चाहती हूं। पार्वती द्वारा बहुत विनती करने पर शिवजी उन्हें रामजी की कहानी सुनाने लगे। पार्वती से उन्होंने कहा सुनों पार्वती में तुम्हें रामजी की वही कहानी सुनाता हूं। जो काकभुशुण्डि ने पक्षियों के राजा गरुडज़ी को सुनाई थी। जितनी मेरी समझ में है मैं तुम्हे उतनी कहानी सुनाती हूं। जब धर्म की हानि होती है और राक्षस बढ़ जाते हैं।

वे लोगों पर बहुत अत्याचार करते हैं तब देवता अवतार लेते हैं। मैं उनके एक-दो जन्मों का वर्णन करता हूं। भगवान विष्णु के दो जय और विजय नाम के दो द्वारपाल थे। उन दोनों भाइयों ने ब्राह्मण के शाप से राक्षस के रूप में जन्म लिया। एक का नाम था हिरण्यकश्यपु और दूसरा हिरण्याक्ष। वे युद्ध में विजय पाने वाले विश्वविख्यात थे। इनमें से एक को भगवान ने वराह अवतार लेकर मारा, दूसरे का नरसिंह रूप लेकर वध किया।

राक्षस की पत्नी ने दे दिया भगवान विष्णु को शाप...
उन दोनों ने ही रावण और कुंभकर्ण के रूप में जन्म लिया।ब्राह्मण के शाप के कारण उन दोनों ने राक्षस के रूप में तीन जन्म लिए थे। वहां एक जन्म में कश्यप और अदिति भगवान के माता-पिता हुए। जो अगले जन्म में दशरथ और कौशल्या के नाम से प्रसिद्ध हुए।

एक कल्प में सभी देवताओं के जलंधर राक्षस से युद्ध हार जाने से दुखी होकर शिवजी ने उससे बहुत युद्ध किया लेकिन वह राक्षस नहीं मरा। उस राक्षस की पत्नी सती थी। भगवान ने धोखे से उसका स्त्रीव्रत भंग कर देवताओं का काम किया। जब उसे यह बात मालूम हुई की उसके साथ धोखा हुआ है तो उसने गुस्से में भगवान को शाप दिया और भगवान ने उसके शाप को स्वीकार किया।

उसी राक्षस ने रावण के रूप में जन्म लिया। सभी कवियों ने भगवान के अवतारों के बारे में कई प्रकार का वर्णन किया है। एक बार नारद ने भगवान विष्णु को शाप दिया जिसके कारण उनका अवतार हुआ। यह बात सुनकर पार्वती जी बहुत आश्चर्य चकित हुई। तब महादेवजी ने उनसे कहा इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है रामजी जैसा चाहते हैं उसी समय वैसा होने लगता है।

कामदेव ने कैसे की नारदजी की तपस्या भंग?
हिमाचल पर्वत में एक गुफा थी। उसके पास गंगा बहती थी। वह गुफा नारदजी को बहुत अच्छी लगी। दक्ष प्रजापति के शाप के कारण वे वैसे तो एक जगह अधिक समय तक नहीं रह सकते थे। लेकिन भगवान को याद करने के कारण उनका ध्यान लग गया।

मन की गति स्वाभाविक होने के कारण उनकी समाधी लग गई।नारद मुनि की स्थिति देखकर देवराज इन्द्र डर गया। उसने कामदेव को बुलाकर आदर सत्कार किया। कहा मेरे लिए तुम नारद की समाधी को भंग कर दो क्योंकि उस समय इन्द्र के मन में यह डर था कि वह नारद मुझ से मेरा इन्द्रलोक छिनना चाहते हैं। अब कामदेव उस आश्रम की तरफ निकल पड़े।जब कामदेव उस आश्रम में गए, तब उसने अपनी माया से वहां वसन्त का मौसम ला दिया। काम को भड़काने वाली हवाएं चलाई।

रम्भा आदि अप्सराएं जो सभी कामकला में निपुण थी। वे गाने लगी। लेकिन कामदेव की कोई भी कला नारदजी पर असर नहीं कर सकी। तब कामदेव को अपने सर्वनाश की चिंता सताने लगी। इसलिए कामदेव नारदजी से क्षमा मांगने लगे।

नारद मुनि को क्यों हो गया अभिमान?
कामदेव की कोई कला नारदमुनि पर असर नहीं कर सकी। अप्सराओं की सुन्दरता भी नारदजी को रिझा नहीं पाई। नारदजी को कामदेव के इतना करने पर भी गुस्सा नहीं आया। कामदेव को उनकी भूल का अहसास हुआ तब उन्होंने नारदजी से माफी मांगी। उसके बाद इन्द्र की सभा में जाकर कामदेव ने इन्द्र को सारी बात बताई। सभी ने कामदेव की बात सुनकर नारदजी के सामने सिर नवाया।

तब नारदजी शिवजी के पास गए। उनके मन में इस बात का घमंड हो गया कि उन्होंने कामदेव को जीत लिया। तब शिवजी से जाकर उन्होंने कहा जिस तरह ये जो सारी बात आपने मुझे सुनाई। उस तरह शिवजी को कभी मत सुनाना। शिवजी ने यह शिक्षा नारदजी को उनके भले के लिए ही दी लेकिन उन्हें शिवजी की यह बात अच्छी नहीं लगी। एक बार नारदजी घुमते हुए विष्णु भगवान के लोक पहुंचे। विष्णु जी ने बड़े ही आदर से उन्हें आसन पर बिठाया। नारदजी ने शिवजी के मना करने के बाद भी विष्णु जी को अपने साथ घटित हुई सारी कथा सुनाई।

तब भगवान समझ गए कि नारदजी के मन में घमंड का अंकुर पैदा हो गया है। भगवान ने सोचा मुझे इनके मन से ये अंकुर तुरंत उखाड़ फेंकना चाहिए। तब विष्णुजी ने अपनी माया से एक नगर रचा। वह नगर विष्णु भगवान के नगर से ज्यादा सुन्दर था। उस नगर में कई सुन्दर पुरुष और स्त्रियां रहते थे। उस नगर का वैभव इन्द्र की नगरी की तरह था। उस नगर में एक रूपवती कन्या थी।जिसके रूप को देखकर लक्ष्मी जी भी मोहित हो जाए। वह राजकुमारी सब गुणों की खान थी। उसके स्वयंवर के लिए दूर-दूर से कई राजकुमार आए हुए थे। नारदजी जी उस समय नगर में गये।

नारदजी अपना वैराग्य भूल गए क्योंकि...
उस नगर का ऐश्वर्य अद्भुत था। वहां विश्वमोहिनी नाम की एक कन्या थी। जिसके रूप को देखकर लक्ष्मीजी भी मोहित हो जाए। वह राजकुमारी स्वंयवर करना चाहती थी। इसलिए वहां अगणित राजा आए हुए थे। तभी नारदजी भ्रमण करते हुए उस नगर में पहुंचे। वहां के राजा से बात की। राजा ने राजकुमारी को लाकर नारद को दिखाया और पूछा कि नारद मुनि आप इस कन्या के गुण व दोष बताएं।

उसके रूप को देखकर नारद मुनि अपना वैराग्य भूल गए। बड़ी देर तक उसकी तरफ देखते रहे। उसके लक्षण देखकर उन्हें बहुत खुशी हुई। वे मन ही मन खुद से कहने लगे कि जो इसे ब्याहेगा वह अमर हो जाएगा। रणभूमि में उसे कोई जीत न सकेगा। यह कन्या जिससे भी शादी करेगी सब चर-अचर जीव उसकी सेवा करेंगे। राजा से यह कहकर कि आपकी लड़की सुलक्षणा है नारदजी वहां से चल दिए। लेकिन उनके मन की चिंता यह थी कि मैं जाकर सोच-समझकर कुछ ऐसा करूं जिससे ये कन्या मुझसे ही शादी करे। इस समय तो सबसे पहले मुझे सुन्दर रूप की आवश्यकता है। तब नारदजी ने सोचा कि क्यों ना मैं भगवान से विनती करके सुन्दरता मांगू क्योंकि इस समय सिर्फ वही मेरी मदद कर सकते हैं।

विवाह के लिए नारदजी भी पहुंच गए स्वयंवर में...
नारदजी को मन में अपने आप से मोह हो रहा था क्योंकि...नारदजी उस सुन्दरी के रूप को देखकर मोहित हो गए। नारदजी ने सोचा कि उन्हें उस कन्या के स्वयंवर को जीत कर उसका वर बनना है तो इसके लिए उन्हे रूपवान बनना होगा। यह सोचकर नारदजी भगवान विष्णु के पास पहुंचे। वे विष्णु भगवान से विनती करने लगे उन्होंने विष्णु भगवान को सारी कहानी सुनाई। कहानी सुनाने के बाद वे विष्णुजी से बोले आप अपना सौन्दर्य मुझे दे दीजिए।

तब भगवान विष्णु नारदजी से बोले की मैं वही करूंगा जो आपके लिए कल्याणकारी होगा। मैंने तुम्हारा हित करने की ठान ली है। अब नारदजी को अपने रूप का अभिमान हो गया। वहीं शिवजी के दो गण बैठे थे। वे दोनों गण ब्राह्मण का वेष बनाकर घुमते थे। वे बहुत मनमौजी थे। ब्राह्मण का स्वरूप होने के कारण कोई उन्हें पहचान नहीं पाते थे। वे दोनों नारदजी पर व्यंग्य करने लगे।

वे कहने लगे भगवान ने इन्हे अच्छी सुन्दरता दी है। इनकी सुन्दरता देखकर वह कन्या रीझ जाएगी। नारदजी को मन में अपने आप से मोह हो रहा था क्योंकि उनका मन दूसरों के हाथ में था। मुनि उनकी अटपटी बातें सुन रहे थे। जब वह कन्या स्वयंवर के लिए तो नारदजी का वह रूप जो केवल उसी ने देखा उसे देखकर उस कन्या को बहुत गुस्सा आया। वह राजकुमारी अपने हाथों में वरमाला लेकर चल रही थी। वह सभी राजाओं को देखते हुए वहां घुमने लगी। नारदजी बार-बार उचकते और छटपटाते।

तब नारदजी ने भगवान विष्णु को शाप दे दिया...
जब उस कन्या ने नारदजी को देखा तो उसे गुस्सा आ गया। नारदजी का वह स्वरूप केवल उस कन्या ने ही देखा। मोह के कारण मुनि की बुद्धि नष्ट हो गर्यी थी। जब शिव के गणों ने उन्हें मुस्कुराकर कहा नारदजी जरा अपना मुंह तो दर्पण में देखिए। ऐसा कहकर वे दोनों डर कर भाग गए।

नारदजी ने जल में अपना मुंह देखा। अपना रूप देखकर उनका गुस्सा बहुत बढ़ गया। उन्होंने शिवजी के उन दोनों गणों को शाप दिया कि जाओ तुम दोनों जाकर राक्षस हो जाओ। इतना कहने के बाद नारदजी ने फिर जल में देखा, तो उन्हें अपना असली रूप प्राप्त हो गया।इतना होने के बाद भी उन्हें संतोष नहीं हुआ। उनके होठ फड़क रहे थे उनका मन गुस्से से भरा था। वे मन ही मन सोचते हुए जा रहे थे।

मैं जाकर या तो शाप दूंगा या अपने प्राण दे दूंगा उन्होंने मेरा मजाक बनाया है। उन्होंने सारे संसार में मेरी हंसी उड़वाई है। उन्हें भगवान विष्णु बीच रास्ते में ही मिल गए। साथ में लक्ष्मीजी ओर वही राजकुमारी थी। तब नारदजी का गुस्सा और ज्यादा बढ़ गया। तब नारदजी भगवान विष्णु से कहा कि जिस शरीर को धारण करके तुमने मुझे ठगा है ठीक उसी तुम भी वही शरीर धारण करो, यही मेरा शाप है।

तब नारदजी को हुआ अपनी गलती का एहसास...
नारद जी ने भगवान विष्णु से कहा तुम सबको ठग कर निडर हो गए हो। इसी के कारण तुम्हारे मन में हमेशा उत्साह रहता है। अब तक तुम्हे किसी ने ठीक नहीं किया है। इसलिए जाओ जिस शरीर को धारण करके तुमने मुझे ठगा है। तुम भी वही शरीर धारण करो यह मेरा शाप है।

तुमने मेरा रूप बंदर सा बना दिया था। इससे बंदर ही तुम्हारी सहायता करेंगे। जिस स्त्री को चाहता था। उससे मेरा वियोग कराकर तुम खुश हो रहे हो इसलिए तुम भी स्त्री के वियोग में दुखी होओगे। नारदजी का शाप सुनकर भगवान विष्णु मुस्कुराने लगे। जब भगवान ने अपनी माया को हटा लिया। तब वहां ना लक्ष्मी रह गई न राजकु मारी। यह देखकर नारदजी ने भगवान विष्णु के चरण पकड़ लिए।

कहने लगे हे भगवान मेरा शाप झूठ हो जाए। आप मुझे क्षमा कर दीजिए। भगवान विष्णु मुस्कुराए और उन्होंने हर तरह से नारदजी को समझाने का प्रयास किया। जब शिव के दोनों गणों ने देखा कि नारदजी का गुस्सा शांत हो गया है तो वे उनके पास पहुंचे। वे बोले नारदजी हमने जो अपराध किया है। उसका दंड हमने पा लिया है। आप हम दोनों का शाप दूर करने की कृपा कीजिए।

तब नारदजी बोले तुम दोनों राक्षस तो बनोगे लेकिन तुम्हे तेज व बल की प्राप्ति होगी। तुम अपने बल से विश्व जीत जाओगे। तब भगवान विष्णु मनुष्य शरीर धारण करेंगे। तब युद्ध में भगवान विष्णु के हाथों ही तुम्हारी मृत्यु होगी। वे दोनों समय पाकर राक्षस हुए। उन दोनों के उद्धार के लिए भगवान विष्णु ने अवतार लिया था। इस तरह भगवान ने हर कल्प में अनेकों जन्म लिए। कहते हैं जब-जब भगवान ने जन्म लिया। तब-तब मनुष्यों ने उनके बारे में काव्यों की रचना करके उनकी कथाओं का गान किया है।

कैसे जन्म हुआ मनुष्य जाति का?
नारदजी की कथा समाप्त होने के बाद याज्ञवल्क्य जी भारद्वाज मुनि से बोले कि शंकर जी की बात सुनकर पार्वती जी मुस्कुराई। फिर शिवजी पार्वती जी को भगवान के अवतार की दूसरी कहानी सुनाने लगे। मनु और शतरूपा जिनसे मनुष्यो की उत्पति हुई दोनों आचरण में बहुत अच्छे थे। राजा उत्तानपाद उनके पुत्र थे। जिनके पुत्र ध्रुव थे। उनके छोटे लड़के का नाम प्रियवृत था। देवहूति उनकी पुत्री थी।

जो कदम मुनि की पत्नी बनी। उन्होंने आदिदेव कपिल मुनि को जन्म दिया। राजा मनु ने बहुत समय तक राज्य किया। उसके बाद उम्र ढलने के साथ उन्होंने सन्यास लेने का मन बना लिया। वे सारा राज्य जबरदस्ती अपने पुत्रों को देकर वे वन चले गए।चलते-चलत वे गोमती के किनारे जा पहुंचे। जहां बहुत से सुन्दर तीर्थ थे। मुनियों ने आदरपूर्वक सभी तीर्थ उनको करा दिए।

उनका शरीर दुर्बल हो गया था। वे मुनियों जैसे ही वस्त्र धारण करते थे। दोनों राजा और रानी साग फल और कन्द का आहार करते थे। इस प्रकार जल का आहार करते छ: हजार वर्ष बीत गए। ऐसे उन्होंने कई वर्षो तक तपस्या की। दस हजार वर्षो तक केवल वायु के आधार पर जीवित रहे और उन्होंने इन्हें अनेक प्रकार से ललचाया और कहा कुछ वर मांगो। लेकिन वे बिना डिगे तप करते रहे।

तब राजा अपना रास्ता भटक गया...
शिवजी ने कहा पार्वती अब तुम भगवान के अवतार लेने की एक और कथा सुनो। एक बहु्त मशहूर देश कैकय था। वहां सत्यकेतु नाम का एक राजा रहता था। वह बहुत धार्मिक, तेजस्वी, प्रतापी और बलवान था। उनके राज्य का उत्तराधिकारी जो उनका बड़ा लड़का था। उसका नाम प्रतापभानु था। दूसरे पुत्र का नाम अरिमर्दन था। जिसकी भुजाओं में बहुत बल था।

दोनों भाइयों में बहुत प्रेम था।राजा ने अपने बड़े पुत्र को राज्य सौंप दिया। वह अच्छे से अपने प्रजा का पालन करने लगा। वेदों में राजा के जो भी धर्म बनाए गए है। उसके अनुसार वह प्रजा का पालन करने लगा। उसने बहुत सी बावड़ी और कुएं खुदवाए। वह राजा बुद्धिमान और ज्ञानी था। एक बार वह राजा एक अच्छे घोड़े पर सवार होकर, शिकार का सब समान सजाकर विन्ध्याचल घने जंगल में गया और वहां उसने बहुत से सुन्दर हिरन मारे। राजा ने वन घूमते सुअर को देखा। मानों राहु वन में आ छूपा हो। उसका शरीर बहुत बड़ा था। तभी राजा के घोड़े्र के आने की आवाज सुनकर वह घुर्राने लगा।

उस सुअर को देखकर राजा घोड़े को चाबुक लगाकर तेजी से चला और उसने सूअर को ललकारा कि अब तू नहीं बच सकता। घोड़े को आता देखकर सूअर हवा के वेग से भागने लगा। राजा ने तुरंत ही बाण को धनुष पर चढ़ाया। सूअर बाण को देखते ही धरती में दुबक गया। वह सूअर दौड़ता हुआ घने जंगल में चला गया। राजा को बहुत धैर्यवान देखकर सूअर भागकर गुफा में जा घुसा। उस गुफा में राजा को जाना कठिन लगा तो उसने वापस लौटने का फैसला किया लेकिन वह रास्ता भटक गया।

राजा का दुश्मन उसे आश्रम ले गया क्योंकि...
राजा वन में घुमते हुए अपना रास्ता भटक गया। वह भुख-प्यास के कारण बेहाल था। उसे घने जंगल में एक आश्रम दिखाई दिया। वहां मुनि का वेष बनाये एक राजा रहता था। जिसका देश प्रतापभानु ने छीन लिया था और जो सेना छोड़कर युद्ध से भाग गया था। इससे वह न तो घर गया और अभिमानी होने के कारण राजा प्रतापभानु से ही नहीं मिला। गुस्से के कारण वह युं ही गरीबों की तरह दिन बीताने लगा। राजा उसी के पास गया। उसने तुरंत पहचान लिया कि यह प्रतापभानु है। राजा प्यासा होने के कारण उसे पहचान ना सका।

सुन्दर वेष देखकर राजा ने उसे महामुनि समझा और घोड़े से उतरकर नमस्कार किया। राजा को प्यासा देखकर उसने सरोवर दिखला दिया। राजा ने घोड़े सहित उसमें स्नान और जलपान किया। सारी थकावट मिट गई। तब तपस्वी उसे अपने आश्रम में ले गया और सूर्यास्त का समय जानकर उसने आसन दिया। फिर वह तपस्वी राजा से बोला तुम कौन हो? सुन्दर युवक होकर, जीवन की परवाह किए बिना वन में अकेले क्यों फिर रहे हो? तुम्हारे चक्रवर्ती राजा जैसे लक्षण देखकर मुझे बहुत दया आ गई। तब राजा बोला प्रतापभानु नाम का एक राजा है, मैं उसका मंत्री हूं। शिकार के लिए घुमते हुए मैं अपना रास्ता भटक गया हूं। बहुत भाग्य से मुझे आपके आश्रम का रास्ता मिला है।इससे जान पड़ता है कि कुछ भला होने वाला है। तब मुनि ने कहा अंधेरा हो गया है आपका शहर यहां से सत्तर योजन की दूरी पर है। इसलिए आप रात को यहीं विश्राम करें और सुबह होते ही चले जाएं।

जो होना होता है वही होता है
वह राजा उसे साधु समझकर उससे आदर के साथ मिलता है। वह उसे कहता है कि मैं राजा प्रतापभानु का मंत्री हूं। मैं जंगल में शिकार करने आया था लेकिन अपना रास्ता भटक गया हूं। वह साधु का वेष धारण किए हुए राजा का दुश्मन उसे पहचान जाता है। वह शत्रु राजा प्रतापभानु से कहता है कि अंधेरा हो गया है आप आज रात यही रुक जाए। बहुत अच्छा ऐसा कहकर और घोड़े को पेड़ से बांधकर राजा बैठ गया। राजा ने उसको नहीं पहचाना, पर वह राजा को पहचान गया था।

राजा के मन में तो कोई छल नहीं था लेकिन तपस्वी के मन में कपट था। राजा ने उससे पूछा आप कौन है वो तपस्वी बोला हमारा नाम भिखारी है क्योंकि हम निर्धन और अनिकेत है। राजा ने कहा जो आपके जैसे अभिमान रहित लोग होते हैं वे अपने स्वरूप को हमेशा छुपाए रखते हैं। इसी कारण तो आप लोगों को संत और वेद कहकर पुकारते है। आप जैसे गरीबों और बेघर लोगों को देखकर तो शिव को भी संदेह हो जाता है। आप जो हों सो हों मैं आपको प्रणाम करता हूं।

तपस्वी बोलता है राजा अभी तक ना तो मुझसे कोई मिला है और ना मैं किसी से मिला हूं क्योंकि इस संसार में जो प्रतिष्ठारूपी अग्रि है मेरे अनुसार वह तप रूपी वन को भस्म कर देती है। इसी कारण मैं जगत से छिपकर रहता हूं। तपस्वी कहता है मेरा नाम एकतनु है। तपस्वी से इस तरह की बातें सुनकर राजा उस पर विश्वास कर लेता है। उससे प्रभावित होकर पूछता है आपके नाम का अर्थ क्या है। तब वह कहता है जब सृष्टी की उत्पति हुई तभी मेरी भी हुई।

ये कैसा वरदान मिला राजा को?
अब वह तपस्वी राजा को अपनी पुरानी कहानी कहने लगा। कर्म, धर्म आदि की कहानियां कहकर अपने ज्ञान का बखान करने लगा। राजा सुनकर उस तपस्वी के वश में हो गया और तब वह उसे अपना नाम बताने लगा। तपस्वी ने कहा राजन् मैं तुम को जानता हूं। तुमने कपट किया, वह मुझे अच्छा लगा। तुम्हारी चतुराई से मुझे बड़ा प्रेम हो गया है। तुम्हारा नाम प्रतापभानु है, महाराज सत्यकेतु तुम्हारे पिता थे। गुरू की कृपा से मैं सब जानता हूं। तुम्हारे स्वभाव के सीधेपन व प्रेम से मेरे मन में तुम्हारे ऊपर बड़ी ममता उत्पन्न हो गयी है, इसीलिए मैं तुम्हारे पूछने पर अपनी कहानी सुनाता हूं। अब मैं प्रसन्न हूं तुम इसमें अपने मन में कोई संशय मत रखना। तब राजा ने कहा- मुनि सिर्फ आपके दर्शन से ही धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष मेरी मुठ्ठी में आ गए तो भी आपको खुश देखकर यह वर मांगना चाहता हूं कि मेरा शरीर वृद्धवस्था मृत्यु और दुख से रहित हो जाए और मुझे युद्ध में कोई ना जीत पाए। तब तपस्वी ने कहा राजन ऐसा ही हो पर एक बात कठिन है उसे भी सुन लो। केवल ब्राह्मण कुल को छोड़कर काल भी तुम्हारे चरणों में सिर झुकाएगा एवमस्तु। कपटी मुनि फिर बोला- तुम मेरे मिलने की या राह भूल जाने की बात किसी से कह दोगे, तो हमारा दोष नहीं। अगर यह बात किसी और के कान में पड़ गई तो तुम्हारा नाश हो जाएगा।

क्या किया राजा ने शाप से बचने के लिए?
जब राजा तपस्वी की बात सुनकर भयभीत हो गया। तब उस कपटी तपस्वी ने राजा से कहा तुम्हारे पास शाप से बचने का एक उपाय जरूर है। वह यह की मेरा जाना तो तुम्हारे नगर में हो नहीं सकता। जब से पैदा हुआ हूं, तब से आजतक मैं किसी के घर नहीं गया।

अगर मैं नहीं जाता हूं तो तुम्हारा काम बिगड़ जाएगा। आज मैं बड़ा असमंजस में हूं। तब राजा ने कहा मुनि श्री आप मेरी मदद कीजिए। ऐसा कहकर राजा ने मुनि के चरण पकड़ लिए और कहा कि अब आप मुझ पर कृपा कीजिए क्योंकि आप ही मेरी मदद कर सकते है। तब वह तपस्वी बोला मैं तुम्हारा काम जरूर करूंगा। तुम मन वाणी और शरीर से मेरे भक्त हो लेकिन तुम्हे ये बात गुप्त रखनी होगी। रोज नए एक लाख ब्राह्मणों को कुटुम्ब सहित निमंत्रित करना।

मैं रोज भोजन बना दिया करूंगा। इस तरह थोड़ी सी मेहनत से ही सारे ब्राह्मण तुम्हारे पक्ष में आ जाएंगे। मैं एक और बात बता देता हूं मैं तुम्हारे यहां रूप बदलकर रहूंगा। मैं तुम्हारे पुरोहित का रूप धरकर तुम्हारा काम सिद्ध करूंगा। उसके बाद राजा उस तपस्वी की बात मानकर सो गया। राजा थका हुआ तो था ही उसे नींद आ गई लेकिन वह कपटी कैसे सोता उसे तो बहुत चिंता हो रही थी। उसी समय वहां कालकेतु नाम का राक्षस आया। जिसने सुअर बनकर राजा को भटकाया था। वह राक्षस तपस्वी का मित्र था। इसलिए तपस्वी उसे देखकर खुश हो गया।

शत्रु को कभी कमजोर नहीं समझना चाहिए
राजा प्रतापभानु ने कालकेतु के अति शक्तिशाली सौ पुत्रों और दस भाइयों को युद्ध में मार डाला था। राजा से अपने पुत्रों और भाइयों की हत्या का बदला लेने के लिए पाखंडी तपस्वी के साथ मिलकर यह पूरा षडय़ंत्र रचा। प्रतापभानु तपस्वी और कालकेतु की योजना समझ नहीं सका और उनके जाल में फंस गया। कालकेतु ने ही राजा को सुअर बनकर वन में भटकाया था। इसी राक्षस की वजह से प्रतापभानु रास्ता भूल बैठा।

तपस्वी और राक्षस कालकेतु ने मिलकर योजना बनाई और सोचा कि तेजस्वी शत्रु अकेला भी हो तो उसे कमजोर नहीं समझना चाहिए। शत्रु से हमेशा सावधान रहना चाहिए। जिस प्रकार राहु का केवल सिरमात्र बचा था और वह आज भी सूर्य और चंद्र को दुख देता है। उसी प्रकार प्रतापभानु को भी छोटा या कमजोर नहीं समझना चाहिए।

राक्षस ने तपस्वी से कहा कि हे राजन। आपने इतना प्रतापभानु को बुरी तरह अपने जाल में फंसा लिया है जैसे विधाता ने ही हमारा रोग बिना दवा के ठीक कर दिया। दोनों ने योजना बनाई कि प्रतापभानु को कुल सहित नष्ट करके चौथे दिन फिर मिलेंगे। इस प्रकार षडय़ंत्र रचकर मायावी राक्षस कालकेतु वहां से चला गया।
उन्होंने माया के प्रभाव से प्रतापभानु को नींद में घोड़े सहित पलभर में महल पहुंचा दिया। राजा को रानी के पास सुला दिया और घोड़ों को घुड़साल में पहुंचा दिया।

और ब्राह्मणों ने राजा को राक्षस बनने का दे दिया श्राप
कपटी तपस्वी ने पूर्व निर्धारित योजना के अनुसार प्रतापभानु के पुरोहित को उठा ले गया और माया से उसकी बुद्धि भ्रम में डाल दी। अब तपस्वी पुरोहित का रूप बना लिया। सुबह जब राजा ने खुद को राजमहल में देखा तो उसने तपस्वी का उपकार माना।

राजा प्रतापभानु चुपचाप फिर से वन में चला गया और कुछ समय पर पुन: नगर में लौट आया ताकि किसी को शंका न हो। राजा के सकुशल लौट आने पर नगर में काफी खुशियां मनाई गईं। उसी समय पुरोहित के वेश में वह तपस्वी राजा ने मिला और राजा ने उसे पहचान लिया।

राजा ने तपस्वी गुरु की आज्ञा पाकर एक लाख ब्राह्मणों को कुटुंब सहित निमंत्रण दे दिया। पुरोहित ने माया से वेदों के अनुसार भोजन बनाया। भोजन में अनेक प्रकार के पशुओं का मांस भी पकाया जिसमें कपटी तपस्वी ने ब्राह्मणों का मांस मिला दिया। प्रतापभानु इस कपट को समझ नहीं सका।

निमंत्रण पाकर सभी ब्राह्मण वहां आ पहुंचे। राजा ने भोजन परोसना शुरू किया उसी समय मायावी राक्षस कालकेतु ने आकाशवाणी की और बता दिया कि इस भोजन में ब्राह्मणों का मांस मिला हुआ है। यह सुनते ही सभी ब्राह्मण क्रोधित हो गए और राजा प्रतापभानु को श्राप दे दिया कि वह पूरे परिवार सहित राक्षस बन जाएगा।

वही होता है जो होना है
राजा ने कोई अपराध नहीं किया है। कुछ समय बाद फिर यह आकाशवाणी सुनकर सब ब्राह्मण चकित हो गए। तब राजा वहां गया, जहां भोजन बना था। उसने देखा तो न तो वहां रसोइयां था और ना ही भोजन।
उसने आकर ब्राह्मणों को सब बात बताई।वह व्याकुल होकर जमीन पर गिर पड़ा। यहां राजा का दोष नहीं है फिर भी जो होना होता है वही होता है। ऐसा कहकर सब ब्राह्मण चले गए। नगरवासियों को जब यह समाचार मिला तो वे चिन्ता करने और विधाता को दोष देने लगे। जिसने हंस बनाते-बनाते राजा को कौआ बना दिया। पुरोहित उसके घर पहुंचाकर असुर ने कपटी तपस्वी को खबर दी।

उसने जहां-तहां पत्र भेजे, जिससे सब राजा सेना सजा-सजाकर दौड़े। उन्होंने डंका बजाकर नगर को घेर लिया। रोज लड़ाईयां होने लगी। सत्यकेतु के कुल में कोई नहीं बचा। ब्राह्मणों का शाप झूठा कैसे हो सकता था। राजा के जितने भी दुश्मन थे वे सभी उसके राज्य पर विजय प्राप्त कर अपने-अपने राज्य चले गए। विधाता जब जिसके विपरीत होते हैं तब उसके लिए धुल सुमेरु पर्वत के समान , पिता यम के समान और रस्सी सांप के समान हो जाती है।

तब कुंभकरण ने वरदान में मांगी छ:महीने की नींद
राजा प्रतापभानु ने ही रावण नामक राक्षस के रूप में जन्म लिया। उसके दस सिर और बीस भुजाएं थीं। वह बहुत शुरवीर था। अरिमर्दन नाम का उस राजा का छोटा भाई था जिसने कुंभकर्ण के रूप में जन्म लिया। उसका जो मंत्री धर्मरुचि था वह रावण का सौतेला भाई हुआ। उसका नाम विभीषण था। वह विष्णु भगवान का बहुत बड़ा भक्त था। जो राजा के पुत्र और सेवक थे उन सभी ने राक्षस के रूप में जन्म लिया।
वे सभी बहुत ही भयानक और सभी को दुख पहुंचाने वाले साबित हुए। वे पुलत्सय ऋषि के कुल में उत्पन्न हुए। तीनों भाइयों ने अनेक प्रकार की बड़ी ही कठिन तपस्या की, जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। तप देखकर ब्रह्मजी उनके सामने प्रकट हुए और बोले मैं प्रसन्न हूं वर मांगो। रावण ने उनसे वर मांगा कि वानर और मनुष्य इन दो जातियों को छोड़कर हम और किसी के मारे ना मरे।

शिवजी कहते हैं कि मैंने और ब्रह्म ने मिलकर उसे वर दिया कि ऐसा ही हो, तुमने बड़ा तप किया है। फिर ब्रह्मजी कुंभकर्ण के पास गए । उसे देखकर उन्हें मन ही मन बड़ा आश्चर्य हुआ। जो यह दुष्ट रोज भोजन करेगा तो सारा संसार ही उजाड़ हो जाएगा। सरस्वती ने ब्रह्मा की प्रेरणा से उसकी बुद्धि फेर दी उसने छ: महीने की नींद मांगी फिर ब्रह्मजी विभीषण के पास गए और बोले वर मांगो। उसने भगवान के चरण में निर्मल प्रेम मांगा। उनको वर देकर ब्रह्मजी वहां से चले गए।

ऐसे जीती रावण ने लंका...
मय नाम का एक राक्षस था। मय दानव की मन्दोदरी नाम की एक कन्या थी। मन्दोदरी बहुत सुन्दर और स्त्रियों में शिरोमणि थी। उससे शादी करके रावण प्रसन्न था। फिर उसने विवाह कर दिया क्योंकि उसे पता था कि यह राक्षसों का राजा होगा। उसके बाद रावण ने अपने दोनों छोटे भाइयों का भी विवाह कर दिया। समुद्र के बीच में त्रिकूट नाम का एक बड़ा भारी किला था। मय दानव ने उसको फिर से सजा दिया। उसमें मणियों से जड़े हुए सोने के अनगिनत महल थे।

जैसे नागकुल की पाताल में भोगावतीपुरी है और इन्द्र के रहने की अमरावती पुरी है उनसे भी अधिक सुन्दर वह दुर्ग था। वही दुर्ग संसार में लंका नाम से प्रसिद्ध हुआ। उसे चारों और से समुद्र की बहुत गहरी खाई घेरे हुए है। भगवान की प्रेरणा से जिस कल्प जो राक्षसों का राजा होता है वही शूर, प्रतापी अतुलित बलवान अपनी सेना सहित उस पुरी में बसता है।

वहां बड़े-बड़े योद्धा राक्षस रहते थे। देवताओं ने उन सबको युद्ध में मार डाला। अब इन्द्र प्रेरणा से वहां कुबेर के एक करोड़ रक्षक रहते हैं। रावण को कहीं ऐसी खबर मिली तब उसने सेना सजाकर किले को जा घेरा। उसे बड़े विकट योद्धा और उसकी बड़ी सेना को देखकर यक्ष वहां से भाग गए। तब रावण ने घूम फिरकर सारा नगर देखा, उसकी चिन्ता मिट गयी। रावण ने उस नगर को अपनी राजधानी बनाया। योग्यता के अनुसार रावण ने सभी राक्षसों को लंका में घर बांट दिए। एक बार उसने कुबेर से युद्ध करके पुष्पक विमान भी जीत लिया।

जानिए रावण से जुड़ी कुछ रोचक बातें...
पौराणिक पात्रों में रावण एक ऐसा पात्र है जिसे जो हमारे जीवन से जुड़ा हुआ है। कोई भी ऐसा व्यक्ति जो थोड़ा क्रूर या क्रोधी स्वभाव का हो, उसकी तुलना हम रावण से कर देते हैं। रावण जितना दुष्ट था, उसमें उतनी खुबियां भी थीं, शायद इसीलिए कई बुराइयों के बाद भी रावण को महाविद्वान और प्रकांड पंडित माना जाता था। रावण से जुड़ी कई रोचक बातें हैं, जो आम कहानियों में सुनने को नहीं मिलती। विभिन्न ग्रंथों में रावण को लेकर कई बातें लिखी गई हैं। फिर भी रावण से जुड़ी कुछ रोचक बातें हैं, जो कई लोगों को अभी भी नहीं पता है।

आइए हम चर्चा करते हैं ऐसी ही कुछ बातों की।
- वाल्मीकि रामायण के मुताबिक सभी योद्धाओं के रथ में अच्छी नस्ल के घोड़े होते थे लेकिन रावण के रथ में गधे हुआ करते थे। वे बहुत तेजी से चलते थे।

- रावण संगीत का बहुत बड़ा जानकार था, सरस्वती के हाथ में जो वीणा है उसका अविष्कार भी रावण ने किया था।

- रावण ज्योतिषी तो था ही तंत्र, मंत्र और आयुर्वेद का भी विशेषज्ञ था।

- रावण ने शिव से युद्ध में हारकर उन्हें अपना गुरु बनाया था।

- बालि ने रावण को अपनी बाजू में दबा कर चार समुद्रों की परिक्रमा की थी।

- रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास लिखते हैं कि रावण के दरबार में सारे देवता और दिग्पाल हाथ जोड़कर खड़े रहते थे।

- रावण के महल में जो अशोक वाटिका थी उसमें अशोक के एक लाख से ज्यादा वृक्ष थे। इस वाटिका में सिवाय रावण के किसी अन्य पुरुष को जाने की अनुमति नहीं थी।

- रावण जब पाताल के राजा बलि से युद्ध करने पहुंचा तो बलि के महल में खेल रहे बच्चों ने ही उसे पकड़कर अस्तबल में घोड़ों के साथ बांध दिया था।

- रावण जब भी युद्ध करने निकलता तो खुद बहुत आगे चलता था और बाकी सेना पीछे होती थी। उसने कई युद्ध तो अकेले ही जीते थे।

- रावण ने यमपुरी जाकर यमराज को भी युद्ध में हरा दिया था और नर्क की सजा भुगत रही जीवात्माओं को मुक्त कराकर अपनी सेना में शामिल किया था।

वहां भगवान खुद चले आते हैं जहां...
रावण और उसके भाइयों ने पुरी पृथ्वी पर तांडव मचा रखा था पराये धन और परायी स्त्री पर मन चलाने वाले, दुष्ट, चोर और जुआरी बहुत बढ़ गए। लोग माता-पिता और देवताओं को नहीं मानते थे। साधुओं से सेवा करवाते थे। जिनके ऐसे आचरण हैं, उन सब प्राणियों को राक्षस ही समझना चाहिए। यह सब देखकर पृथ्वी व्याकुल हो गई। वह सोचने लगी कि पर्वतों नदियों और समुद्रों का बोझ मुझे इतना भारी नहीं पड़ता जितना भारी मुझे ये पापी लगते हैं। पृथ्वी देख रही है कि सबकुछ धर्म के विपरित हो रहा है पर रावण से भयभीत हुई वह कुछ बोल नहीं रही है। उसका दिल सोच- विचारकर, गौ का रूप धारण कर धरती वहां गयी, जहां सब देवता और मुनि थे।

पृथ्वी ने रोककर उनको अपना दुख सुनाया, पर किसी से कुछ काम ना बना। तब देवता, मुनि और गंधर्व सब मिलकर ब्रह्मजी के लोक को गए। भय और शोक से व्याकुल बेचारी पृथ्वी भी गौका शरीर धारण किए हुए थे। ब्रह्मजी सब जान गए । उन्होंने मन में अनुमान किया कि इसमें मेरा कुछ भी वश नहीं चलेगा। इसलिए ब्रह्मजी ने कहा धरती मन में धीरज रखो। हरि के चरणों का स्मरण करो। प्रभु अपने दासों की पीड़ा को जानते हैं।

ये तुम्हारी कठिन विपत्ति का नाश करेंगे। सब देवता बैठकर विचार करने लगे कि प्रभु को कहां ढूंढे। कोई वैकुण्ठपुरी जाने को कहता था और कोई कहता था कि वही प्रभु क्षीर समुद्र में निवास करते हैं। जिसके दिल में जैसी भक्ति और प्रीति होती है। प्रभु वहां सदा उसी रीति से प्रकट होते हैं। पार्वती उस समय में भी वहां उपस्थित था। मैं तो यह जानता हूं कि भगवान सब जगह समान रूप से व्यापक हैं। प्रेम से वे प्रकट हो जाते हैं। प्रभु तो हर जगह है।

क्यों बन गए सारे देवता वानर?
सभी देवताओं की पूकार सुनकर आकाशवाणी हुई डरो मत। तुम्हारे लिए मैं मनुष्य का रूप धारण कर लूंगा। कश्यप और अदिति ने बड़ा भारी तप किया। मैं पहले ही उनको वर दे चुका हूं।वे ही दशरथ और कौशल्या के रूप में मनुष्यों के राजा होकर प्रकट हुए। उन्हीं के घर जाकर मैं राम के घर में अवतार लूंगा। आप सभी निर्भय हो जाओ।

आकाश की बात को कान से सुनकर देवता तुरंत लौट आए। ब्रह्मजी ने पृथ्वी को समझाया। तब उसका डर खत्म हो गया।देवताओ को यही सिखाकर कि वानरों का शरीर धारण करके आप लोग पृथ्वी पर जाकर भगवान के चरणों की सेवा करो, ब्रह्मजी अपने लोक को चले गए। सब देवता अपने-अपने लोक को गए। सभी के मन को शांति मिली। ब्रह्मजी ने जो कुछ आज्ञा दी, उससे देवता बहुत खुश हुए और उन्होंने देर नहीं की।

पृथ्वी पर उन्होंने वानर का शरीर धारण किया। उनमें बहुत बल था। वे सभी भगवान के आने की राह देखने लगे। वे जंगलों में जहां तहां अपनी-अपनी सुन्दर सेना बनाकर भरपूर छा गए। अवध में रघुकुलशिरोमणि दशरथ नाम के राजा हुए, जिनका नाम वेदों में विख्यात है। वे बहुत ज्ञानी थे। उनकी कौसल्या आदि प्रिय रानियां सभी पवित्र आचरण वाली थी वे पति के अनुकूल थी और श्री हरि के प्रति उनका प्रेम बहुत दृढ़ था।

क्रमश:...

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK

No comments:

Post a Comment