यहां खोजें अपनी अशांति और गुस्से के कारणों को...
कभी तसल्ली से बैठकर इस बात की सूची बनाइए कि आपको किन बातों पर गुस्सा आता है
और किन बातों से आप अशांत हो जाते हैं। सूची बनने के बाद फिर विश्लेषण करिए कि
इनमें से कितनी बातों का कारण आप हैं और कितनी बातों में दूसरे जिम्मेदार हैं।
यह काम निष्पक्षता से किया जाए, क्योंकि हमारी आदत होती है कि हम अपने क्रोध और
अशांति का कारण सदैव दूसरे में देखते हैं। थोड़ी देर के लिए आया हुआ क्रोध हमारी
ऊर्जा का नुकसान कर जाता है। हम उस ऊर्जा को खो देते हैं, जो किसी और उपयोगी काम में खर्च
की जा सकती है।
कई स्थितियां ऐसी होती हैं, जब क्रोध आता है, लेकिन हम उसे व्यक्त नहीं कर पाते और नई बीमारी शुरू
हो जाती है। अब क्रोध भीतर ही भीतर बहने लगता है। भारत के ऋषि-मुनियों ने हर औरत
के भीतर आधा आदमी और हर आदमी के भीतर आधी औरत का बड़ा सुंदर सिद्धांत दिया है।
सद्गुण और दुगरुण भीतर ही भीतर इसी वृत्ति से अपने परिणाम देते हैं। आज हम
क्रोध की बात कर रहे हैं। क्रोध जब पुरुष भाव से जुड़ता है तो वह प्रकट हो जाता है
और स्त्री भाव से जुड़कर कुढ़न में बदल जाता है। कुढ़न ईष्र्या के आसपास की स्थिति
है। स्त्री भाव से जुड़कर क्रोध जलन, दाह, रश्क में बदल जाता है। पुरुष भाव से जुड़कर क्रोध आगबबूला
मुद्रा में आ जाता है।
वह अपनी अप्रसन्नता को भी आक्रमण से प्रस्तुत करने लगता है। उसका क्रोध
झल्लाहट, बौखलाहट
और हिंसा में भी उतर सकता है। जब तक क्रोध के कारण दूसरों में ढूंढ़े जाएंगे,
तब तक स्त्री हो
या पुरुष दोनों भाव से जुड़कर नुकसान ही पहुंचाएंगे। इसलिए कारण अपने में ढूंढ़िए
और अपने आप से जुड़िए।
इस कारण भी युवा पीढ़ी झेल रही है डिप्रेशन...
इस समय जितनी शिक्षा बढ़ी है, उतनी ही अधीरता भी बढ़ रही है। पढ़े-लिखे लोग अपने लक्ष्य
प्राप्ति के लिए इस कदर अधीर होते जा रहे हैं कि जरा-सी रुकावट या देरी उन्हें
डिप्रेशन की ओर ले जाती है। जो थोड़े हिम्मत वाले हैं, वे अपने आप को डिप्रेशन से तो
बचा लेते हैं, लेकिन चिड़चिड़े हो जाते हैं।
कुल मिलाकर शिक्षा ने आदमी को बुद्धिमान बनाया, पर बेताब भी बना दिया। हर
पढ़े-लिखे आदमी को यह बात जरूर समझनी चाहिए कि कुछ बातें होकर ही रहती हैं। जीवन
के प्रवाह में कुछ ऐसा होता ही है, जो घट जाता है।
आप चाहें या न चाहें। उस समय शिक्षा को समझ का काम करना चाहिए। प्रिय लोगों की
मृत्यु, बिछड़ना,
अचानक नुकसान हो
जाना, दुर्घटनाएं
इत्यादि पर आपका सीधा वश नहीं चलता। ऐसे वक्त पढ़े-लिखे होने का अर्थ है हिम्मत न
हारें। जैसे निरोगी काया एक सुख है, वैसे ही समझ देने वाली शिक्षा भी अपने आप में बहुत
बड़ा सुख है।
अत: यह उपलब्धि हमारे लिए काम की होनी चाहिए। दो वक्त की रोटी को पढ़ाई-लिखाई तो
जुटा ही देगी लेकिन शरीर और मन के स्वास्थ्य के अलावा एक और स्वास्थ्य होता है,
जिसे नैतिक
स्वास्थ्य कहते हैं। इसकी अनुभूति शिक्षा कराती है। नैतिक रूप से निरोगी व्यक्ति
दूसरों के प्रति प्रेम, सेवा, परोपकार, उदारता और मधुरता का व्यवहार करता है।
दरअसल शिक्षा एक समझ की तरह बननी चाहिए, जो मनुष्य के शरीर और आत्मा के
संयोग को समझा सके, क्योंकि मनुष्य पूरी दुनिया में आत्मा और शरीर का अद्भुत संयोग है और इस
अनुभूति को शिक्षा परिपक्व कर देती है।
इसके बिना आपके जीवन में शांति संभव नहीं है...
योग न तो फैशन है, न धंधा। थोड़ा अफसोस होता है, लेकिन यह सही है कि इन दिनों योग
के साथ ये दोनों बातें जुड़ गई हैं। योग को उपलब्ध होने का अर्थ है शांति को
प्राप्त होना और शांति जिस भी कीमत पर मिले, जरूर हासिल करें।
विज्ञान के युग में भौतिक साधनों की कोई कमी नहीं है। लेकिन शांति विज्ञान का
विषय नहीं है और जो लोग जीवन में योग लाना चाहें, उन्हें मन को नियंत्रित करना आना
चाहिए।
फकीरों ने कहा है कि मन को नियंत्रित किए बिना किसी के जीवन में योग या शांति
नहीं आ सकती। करोड़ों में ही कोई ऐसा होगा, जिसे मन को नियंत्रित किए बिना
शांति मिल जाएगी।
लेकिन यह अपवाद है। कोई पहुंचा हुआ फकीर ही इस स्थिति में मिलेगा। सामान्य
व्यवस्था यह है कि मन को काबू में किया जाए। मस्तिष्क के तीन विभाग हैं - अवचेतन
मन, चेतन
मन और अचेतन मन। ये आत्मा से अलग हैं।रहा सवाल शरीर का तो उसकी रचना कोशिकाओं से
हुई है। चिकित्सा विज्ञान के लोग जानते हैं कि एक सूक्ष्म कोशिका कितनी बड़ी जटिल
रचना होती है।
ऐसा कहा गया है कि एक वर्ग इंच में 11 लाख 77 हजार 500 कोशिकाएं देखी गई हैं। एक कोशिका नष्ट होने पर अपने
सारे आनुवंशिक गुण दूसरी में दे जाती है। विज्ञान के लिए भी ये बड़ी अजीब घटना है।
इसलिए मनुष्य के भीतर झांकना केवल शरीर के स्तर पर भी विज्ञान के लिए लगातार
शोध का विषय है। ऐसे में मन तो और सूक्ष्म हो जाता है, लेकिन सांस के माध्यम से आप मन
को पकड़ सकेंगे। शरीर का इलाज तो चिकित्सक पर छोड़ दें, लेकिन कम से कम साधक तो हुआ जा
सकता है, ताकि
मन का इलाज तो कर ही लें।
अशांति का एक कारण है गुस्सा, इसे ऐसे काबू करें...
आजकल गुस्सा तो लोगों की नाक पर बैठा है। ऐसा इसलिए कहा जाता है क्योंकि नाक
शरीर का वह अंग है जिसका संबंध सांस से है और सांस मन को भोजन प्रदान करती है। यह
एकमात्र क्रिया है, जिसका संबंध परमात्मा के हाथ में है।
इसीलिए नाक पर बैठा गुस्सा फौरन भीतर जाता है और क्रोध वह विष है, जो शरीर में तुरंत फैल
जाता है। हमें अपने जीवन में जिन-जिन बातों को गंभीरता से लेना चाहिए, उनमें से एक क्रोध है।
एक बड़ा खतरा भविष्य के लिए दिख रहा है कि इस समय बच्चे बुरी तरह गुस्सैल हो उठे
हैं।
मैं पिछले दिनों अलग-अलग सामाजिक और आर्थिक स्तर के लगभग 15 परिवारों के संपर्क में
आया। इनमें से 12 परिवार के लोगों की दिक्कत यह थी कि उनके घर के छोटे बच्चे, जो 5 साल से 14 साल के हैं, बहुत अधिक गुस्सा करने
लगे हैं।
क्रोध के कारण हमारे हार्मोस में एक विषैला तत्व पैदा हो जाता है। हम अपने ही
द्वारा, अपने
ही भीतर एक चिता तैयार कर लेते हैं और उसकी अग्नि में न सिर्फ खुद, बल्कि अन्य लोगों को भी
झुलसाने लगते हैं। कम से कम बड़े तो इस बात को समझ लें कि हर क्रोध के मूल में
अहंकार होता है।
अहंकार अपने ही प्रति एक तरह का अज्ञान माना जाता है। इसके पीछे यह हठ होता है
कि हर व्यक्ति हमारी बात माने। जिन्हें अपने क्रोध पर नियंत्रण पाना हो, वे निरहंकारी होने का
प्रयास करें। निरहंकारी वही हो पाएगा, जिसने अहंकार को जाना है। जैसे ही आप अपने अहंकार से
परिचित होते हैं, यह विसर्जित होने लगता है और यहीं से क्रोध नियंत्रण में आ जाता है। अगर बड़ों
का क्रोध नियंत्रण में है तो वे बच्चों को भी इससे मुक्ति दिला पाएंगे।
शांति से जीना है तो ये तीन बातें कभी ना भूलें....
परमात्मा ने हमारे जीवन प्रबंधन को बहुत ही व्यवस्थित तरीके से जमाकर हमें
दिया है, लेकिन
हम उसे समझ नहीं पाते और बिना समझे उसका उपयोग करने लगते हैं, जो बाद में दुरुपयोग में
बदल जाता है। इन छोटी-छोटी बातों को गहराई से समझ लें तो बहुत काम आएंगी।
जिसे भी शांतिपूर्ण जीवन जीना है तो उसे शरीर, मन और आत्मा तीनों को कभी नहीं
भूलना चाहिए। इंद्रियों को आत्मा का औजार कहा गया है। परमात्मा ने यह औजार हमें
देकर आत्मा की आवश्यकताएं पूरी करने के अवसर दिए।
इंद्रियों का संबंध उपभोग से जोड़ा गया है और सामान्य रूप से भोगों की आलोचना
की जाती है। साधारण लोग इसका अर्थ ये ले लेते हैं कि इंद्रियों के कारण पतन होता
है, इसलिए
इनका दमन किया जाए। शास्त्रों में शब्द आया है इंद्रिय-निग्रह।
इसका अर्थ दमन करना नहीं है, इनकी दिशाओं को मोड़कर इनका सदुपयोग करना है। नियंत्रित
इंद्रियां सबसे अच्छी दोस्त होंगी और अनियंत्रित इंद्रियों से बड़ा कोई दुश्मन
नहीं होता। जो लोग अपनी इंद्रियों से परिचित रहेंगे, वे स्वयं का और दूसरों का भी
पूरा व्यक्तित्व ही देखेंगे। अभी इंद्रियों के दुरुपयोग के कारण हम न तो स्वयं को
जान पाते हैं और न ही दूसरों को, इसी कारण अशांत रहते हैं।
इंद्रियां हमें मनुष्य से मनुष्य में भेद करा देती हैं। अपना-पराया, भोग-विलास के झंझट यही
से शुरू होते हैं। अध्यात्म कहता है, इंद्रियों के प्रति जागरूकता आते ही हम उस समग्र के
प्रति विसर्जित होने लगते हैं, जिसे परमात्मा कहा गया है। इसलिए थोड़ा समय बाहर की दुनिया
से हटकर भीतर की दुनिया में उतरकर इंद्रियों के प्रति होश जगाने में लगाएं।
अशांति से बचने के लिए यह संतुलन जरूरी है..
मनुष्य शरीर और आत्मा दोनों से बना है, लेकिन इस सिद्धांत को व्यावहारिक
रूप से समझना होगा। जीवन में जो भी क्रिया करें, दोनों को समझकर करें। केवल शरीर
पर टिककर करेंगे तो जीवन भौतिकता में ही डूब जाएगा और केवल आत्मा से जोड़कर करेंगे
तो अजीब-सी उदासी जीवन में होगी।
न बाहर से कटना है और न बाहर से पूरी तरह जुड़ना है। दोनों का संतुलन रखिए।
जैन संत तरुणसागरजी दो घटनाएं शरीर से जुड़ी सुनाते हैं।महावीर स्वामी पेड़ के नीचे
ध्यानमग्न बैठे थे। पेड़ पर आम लटक रहे थे। बच्चों ने आम तोड़ने के लिए पत्थर
फेंके। कुछ पत्थर आम को लगे और एक महावीर स्वामी को लगा। बच्चों ने कहा - प्रभु!
हमें क्षमा करें, हमारे कारण आपको कष्ट हुआ है। प्रभु बोले - नहीं, मुझे कोई कष्ट नहीं हुआ। बच्चों
ने पूछा - तो फिर आपकी आंखों में आंसू क्यों?
महावीर ने कहा - पेड़ को तुमने पत्थर मारा तो इसने तुम्हें मीठे फल दिए,
पर मुझे पत्थर
मारा तो मैं तुम्हें कुछ नहीं दे सका, इसलिए मैं दुखी हूं। यहां शरीर का महत्व बताया गया
है।आखिर इस शरीर पर किसका अधिकार है? माता-पिता कहते हैं - संतान मेरी है। पत्नी कहती है -
मैं अपने माता-पिता को छोड़कर आई हूं, इसलिए इस पर मेरा अधिकार है। मृत्यु होने पर शरीर को
श्मशान ले जाते हैं तो श्मशान कहता है - इस पर अब मेरा अधिकार है। चिता की अग्नि
कहती है - यह तो मेरा भोजन है।
अब आप ही विचार करें कि इस शरीर पर आखिर किसका अधिकार है? इसलिए शरीर और आत्मा को
जोड़कर, समझकर
जिएंगे तो शरीर का सदुपयोग कर पाएंगे और आत्मा का भी आनंद ले पाएंगे।
हमारे भीतर की अशांति का एक कारण ये भी है...
फिजूलखर्ची एक बुराई है, लेकिन ज्यादातर मौकों पर हम इसे भोग, अय्याशी से जोड़ लेते हैं।
फिजूलखर्ची के पीछे बारीकी से नजर डालें तो अहंकार नजर आएगा। अहं को प्रदर्शन से
तृप्ति मिलती है। अहं की पूर्ति के लिए कई बार बुराइयों से रिश्ता भी जोड़ना पड़ता
है।
अहंकारी लोग बाहर से भले ही गंभीरता का आवरण ओढ़ लें, लेकिन भीतर से वे उथलेपन और
छिछोरेपन से भरे रहते हैं। जब कभी समुद्र तट पर जाने का मौका मिले, तो देखिएगा लहरें आती
हैं, जाती
हैं और यदि चट्टानों से टकराती हैं तो पत्थर वहीं रहते हैं, लहरें उन्हें भिगोकर लौट जाती
हैं।
हमारे भीतर हमारे आवेगों की लहरें हमें ऐसे ही टक्कर देती हैं। इन आवेगों,
आवेशों के प्रति
अडिग रहने का अभ्यास करना होगा, क्योंकि अहंकार यदि लंबे समय टिकने की तैयारी में आ जाए तो
वह नए-नए तरीके ढूंढ़ेगा।
स्वयं को महत्व मिले अथवा स्वेच्छाचारिता के प्रति अति आग्रह, ये सब फिर सामान्य
जीवनशैली बन जाती है। ईसा मसीह ने कहा है- मैं उन्हें धन्य कहूंगा, जो अंतिम हैं। आज के
भौतिक युग में यह टिप्पणी कौन स्वीकारेगा, जब नंबर वन होने की होड़ लगी है। ईसा मसीह ने इसी
में आगे जोड़ा है कि ईश्वर के राज्य में वही प्रथम होंगे, जो अंतिम हैं और जो प्रथम होने
की दौड़ में रहेंगे, वे अभागे रहेंगे।
यहां अंतिम होने का संबंध लक्ष्य और सफलता से नहीं है। जीसस ने विनम्रता,
निरहंकारिता को
शब्द दिया है ‘अंतिम’। आपके प्रयास व परिणाम प्रथम हों, अग्रणी रहें, पर आप भीतर से अंतिम हों यानी
विनम्र, निरहंकारी
रहें। वरना अहं अकारण ही जीवन के आनंद को खा जाता है।
अशांति दूर करने का सबसे सटीक रास्ता ये है...
अधिकांश मनुष्य चाहते हैं कि उनके भीतर प्रसन्नता, कर्तव्य और पवित्रता बनी रहे। कई
लोग ईमानदार प्रयास करते भी हैं, फिर भी दुगरुणों के झोंके अचानक भीतर प्रवेश कर जाते हैं।
पता नहीं कौन-सा झरोखा खुला रह जाता है कि सारे प्रयासों के बाद भी मन में मलिनता
आ ही जाती है।
हमारे भीतर विपरीत विचारों की टकराहट चलती ही रहती है। जिस समय जो विचार जीत
जाते हैं, मनुष्य का वैसा ही आचरण हो जाता है। यदि हम अपनी आत्मा में सात्विकता की
वृद्धि करना चाहें तो हमें इस टकराहट को लेकर सावधान रहना होगा।
‘ऋषि-मुनि’ में मुनि उनके लिए कहा गया है, जिनके भीतर मौन घटित हो जाता है। मुनि हर वह मनुष्य हो सकता
है जो भीतर से मौन साध ले। जो लोग लगातार ध्यान की क्रिया से गुजरेंगे, उनके भीतर मौन का जन्म
होगा। मेडिटेशन का ‘बाय-प्रोडक्ट’ मौन है। आपको अपने ही भीतर मौन का अनुभव होने लगेगा। विचारों की टकराहट बंद हो
जाएगी।
विचार सांस से प्रवेश करते हैं और हमें सांस के प्रति 24 घंटे में कुछ समय अतिरिक्त रूप
से सजग रहना होगा। जिन बातों से विचार जन्म लेते हैं, वे बातें हमारे चाहने पर ही
होंगी। जैसे ही मौन घटित होता है, मनुष्य के चेहरे पर असाधारण शांति, प्रसन्नता, संतोष और तेज प्रकट होने
लगता है।
फिर वह जो भी करता है, पुण्यमय होता है। करुणा, दया, उदारता, मैत्री और आत्मीयता उसका सहज
व्यवहार हो जाता है। उसकी क्रिया में अपने आप तप, साधना, स्वाध्याय, सत्संग घटित होने लगता
है। ये मौन के परिणाम हैं। 24 घंटे में कुछ समय भीतर से बिल्कुल खामोश हो जाएं।
शांति चाहिए तो खुद पर भी एक ये एहसान जरूर करें...
जीवन में वे अवसर ढूंढ़े जाने चाहिए, जब हम अपना उपकार कर सकें। अशांति से मुक्ति चाहने
वालों को स्वयं पर एक उपकार करना होगा। हमारे भीतर कुछ दैवीय गुण होते हैं। उन्हें
जाग्रत करने से शांति प्राप्त करना सरल है। इन दिनों अनेक लोगों के जीवन में तीन
बातें बहुत परेशान करती हैं।
जीभ पर नियंत्रण नहीं होना पहली परेशानी है। हमारा अधिकांश समय इसी में उलझा
रहता है। दूसरी बड़ी झंझट है क्रोध। बाहर से हम इसे नियंत्रित कर लेते हैं तो भीतर
से यह कई बीमारियों को जन्म दे जाता है।
तीसरी दिक्कत है अपवित्र-अवांछित विचार, जो हमारे भीतर चलते ही रहते हैं।
विचारों के प्रवाह में हमारी शांति बह जाती है। ये तीनों ही गुलामी के लक्षण हैं।
इन पर पार पाने की औषधि का नाम है आत्म-संयम।
इसे समझ लें कि शरीर और आत्मा अलग हैं। यह बोध ही आत्म-संयम को हमारे जीवन में
ले आएगा। मैं शरीर नहीं आत्मा हूं, लगातार इसका चिंतन करना होगा। हमारी अशांति बसी ही इसी में
है कि हमने जीवन के केंद्र में शरीर और उसके सुखों को रख छोड़ा है।
अपने ‘मैं’ को
विसर्जित करने में ही सुख और शांति है। शरीर जन्म लेता है तो मृत्यु भी होती है और
इन दोनों में दुख है। इसीलिए हम जीवनभर दुख आने से डरते हैं और सुख की चाहत में
भटकते हैं।
जैसे और जितने हम आत्मा से परिचित होते जाएंगे, हम समझने लगेंगे कि आत्मा का न
जन्म है, न
मृत्यु। इस बोध के बाद हमारे जीवन में वही सब होगा जो हो रहा है, लेकिन हम अशांति से दूर
होंगे क्योंकि हम द्रष्टा भाव से चीजों को लेंगे। हम ही कर रहे हैं और हम ही अलग
हटकर देख रहे हैं। फिर किस बात का दुख?
तो दर्द और अशांति में भी पाया जा सकता है आनंद
हर बीमारी का कोई न कोई इलाज है। जो बीमारी लाइलाज मानी गई, उसका इलाज अध्यात्म के
पास है। और वह है सहनशक्ति। सहनशक्ति आती है सद्गुणों के संग्रहण से। थोड़ी-सी
अक्ल से काम लिया जाए, तो हम अपनी बीमारी से अध्यात्म के मार्ग पर जा सकेंगे।
लोगों ने अपनी व्याधि से भगवान ढूंढ़ लिए। पीड़ा से भी आनंद का मार्ग ढूंढ़ा जा
सकता है। नर्क से भी स्वर्ग प्राप्त हो सकता है। भारत में तो भूख से लोगों ने
आत्मा स्पर्श कर ली।
जहां मेडिकल साइंस की सीमा समाप्त हो जाए, वह हाथ ऊंचे कर दे, वहां से तपश्चर्या और
उपवास मददगार साबित होंगे। इन दोनों की शुरुआत शरीर से होती है और समापन आत्मा पर
होता है। हम जब जीवित होते हैं,
तो हमारे पास दो
तरह की रोशनी होती है। एक शरीर का प्रकाश है और
दूसरी आत्मा की ज्योति है। सामान्य तौर पर हम इन दोनों में फर्क नहीं कर पाते। बल्कि यूं कहें कि पहचान नहीं पाते।
जब हम उपवास और तपश्चर्या से शरीर को सुखाते हैं, उसके दोष दूर कर गुण पकड़ते हैं,
तब उसका प्रकाश कम
होने लगता है। यह प्रकाश जितना मद्धम होगा, उतनी ही दूसरी ज्योति हमें
ज्यादा दिखेगी। उस आत्मा की ज्योति का सहारा लें उस समय और वहीं से बीमारी के
प्रति एक सहनशक्ति जागेगी। हमको लगने लगेगा कि हमारे भीतर कुछ ऐसा है, जो शरीर से हटकर है। वही
हमारी असली ताकत है। इसके लिए सतत अभ्यास करते रहें। अच्छे विचार लगातार इकट्ठा
करें। इन्हें बीज मानकर बीजांकुर का कोई मौका न चूकें। सद्गुण हमें शरीर के प्रकाश से गुजारकर आत्मा की ज्योति तक
ले जाने में सेतु साबित होंगे।
जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK
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