रात में लड़कियों को अकेले बाहर क्यों न जाने दे?
सामान्यत: ऐसी मान्यता है कि रात के समय किसी लड़की को अकेले घर से बाहर नहीं भेजना चाहिए। पुराने समय में इस बात का सख्ती से पालन कराया जाता था। साथ ही अमावस की रात को तो खासतौर पर लड़की को अकेले घर से बाहर निकलना मना किया जाता था।
ऐसा माना जाता है कि अमावस की रात को नकारात्मक शक्तियां अधिक सक्रिय रहती हैं जो कि लड़कियों को बहुत ही जल्द अपने प्रभाव में ले लेती हैं। यहां नकारात्मक शक्ति से अभिप्राय है कि आसुरी प्रवृत्तियां। अमावस की रात बुरी शक्तियां अपने पूरे बल में होती हैं। इन शक्तियों को लड़कियां पूरी तरह प्रभावित करती हैं। जिससे वे उन्हें अपने प्रभाव में लेने की कोशिश करती हैं। इन शक्तियों के प्रभाव में आने के बाद लड़कियों का मानसिक स्तर व्यवस्थित नहीं रह पाता और उनके पागल होने का खतरा बढ़ जाता है।
विज्ञान के अनुसार अमावस और हमारे शरीर का गहरा संबंध है। अमावस का संबंध चंद्रमा से है। हमारे शरीर में 70 प्रतिशत पानी है जिसे चंद्रमा सीधे-सीधे प्रभावित करता है। ज्योतिष में चंद्र को मन का देवता माना गया है। अमावस के दिन चंद्र दिखाई नहीं ऐसे में जो लोग अति भावुक होते हैं उन पर इस बात का सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है।
लड़कियां मन से बहुत ही भावुक होती है। जब चंद्र नहीं दिखाई देता तो ऐसे में हमारे शरीर के पानी में हलचल अधिक बढ़ जाती है। जो व्यक्ति नकारात्मक सोच वाला होता है उसे नकारात्मक शक्ति अपने प्रभाव में ले लेती है। इन्हीं कारणों से अमावस की रात को लड़कियों को अकेले बाहर जाने के लिए मना किया जाता था।
चंद्रमा हमारे शरीर के जल को किस प्रकार प्रभावित करता है इस बात का प्रमाण है समुद्र का ज्वारभाटा। पूर्णिमा और अमावस के दिन ही समुद्र में सबसे अधिक हलचल दिखाई देती है क्योंकि चंद्रमा जल को शत-प्रतिशत प्रभावित करता है।
ऐसा क्यों... घर को भी बचाएं बुरी नजर से
जब भी हम घर बनाते हैं तो इस बात का ध्यान रखते हैं कि यह सुंदर और आकर्षक बने। घर की सुंदरता बढ़ाने के लिए तरह-तरह की डिजाइन्स और आकर्षक रंगों का इस्तेमाल किया जाता है। जब घर सभी की आंखों को लुभाने वाला हो जाता है तब हमें इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि घर की सुंदरता को किसी की बुरी नजर न लगे।
जिस प्रकार किसी सुंदर बच्चे को या किसी सुंदर लड़की को बुरी नजर लग जाती है ठीक उसी तरह घर की इमारत या बिल्डिंग को भी बुरी नजर प्रभावित कर देती है। यदि किसी घर को बुरी नजर लग जाए तो वहां रहने वाले सदस्यों पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। उस परिवार के सदस्यों आर्थिक हानि हो सकती है, किसी के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ सकता है। उस घर में अशांति बढ़ जाती है।
इन बुरे प्रभावों से बचने के लिए घर को भी बुरी नजर से बचाया जाता है। नकारात्मक प्रभाव को दूर करने के लिए काला रंग सबसे अधिक कारगर सिद्ध होता है। इसी वजह से अधिकांश घरों पर काली मटकी लगाई जाती है।
काली मटकी लगाने के संबंध में ऐसी मान्यता है कि इसे लगाने से किसी की बुरी नजर आपके घर पर नहीं लगेगी। घर पर बुरी नजर लगने का मतलब घर में कुछ अमंगल हो सकता है, घर के किसी सदस्य के साथ कुछ अनहोनी हो सकती है। वहीं बुरी संभावनाओं से बचने के लिए घरों के बाहर काली मटकी लगाई जाती है।
बुरी नजर या ईष्र्या की भावना के साथ जब कोई आपके घर की ओर देखता है तो उस वक्त यह मटकी उस नजर को, उसके बुरे प्रभाव को अपनी ओर आकर्षित कर लेती है। जिससे आपके घर पर होने वाला बुरा प्रभाव वहीं समाप्त हो जाता है।
घर को बुरी नजर से बचाने के लिए तरह-तरह उपाय किए जाते हैं।
31 दिसंबर को पार्टी क्यों?
31 दिसंबर... साल का आखिरी दिन... इंग्लिश कैलेंडर का अंतिम दिन... इस दिन दुनिया भर के लोग पार्टी करते हैं। पूरे उत्साह और उमंग के साथ इस दिन को एक त्यौहार की तरह मनाया जाता है। पटाखें छोड़े जाते हैं, मिठाइयां बनाई जाती है, खूब डांस और मस्ती के साथ बीते वर्ष को विदा किया जाता है और नए साल का स्वागत किया जाता है।
वर्ष के अंतिम दिन 31 दिसंबर को किसी उत्सव की तरह मनाने के पीछे कोई धार्मिक मान्यता नहीं है। फिर भी दुनियाभर के लोग यह दिन एक साथ किसी त्यौहार की ही तरह मनाते हैं। इसके पीछे यही कारण है कि बीते वर्ष के सभी दुख-दर्द को अंतिम दिन भुलाकर साल को खुशी-खुशी अलविदा कह दिया जाता है। साथ ही नए साल का स्वागत पूरे जोश और उत्साह के साथ किया जाता है ताकि हमारा पूरा वर्ष इसी तरह हर्षोल्लास से बीते और दुख-दर्द हमसे दूर ही रहे। ऐसा माना जाता है कि साल का पहला दिन जैसा होता है ठीक उसी तरह हमारा पूरा साल बीतता है। इसी वजह से नए साल में सभी खुश रहते हैं और दुख-दर्द की बातों को भुला देते हैं। 31 दिसंबर को पार्टी की जाती है जहां कुछ नए दोस्त मिलते हैं तो पुराने दोस्तों से सभी पुराने लड़ाई-झगड़े, वाद-विवाद, मतभेद समाप्त हो जाते है। मित्रता का रिश्ता और मजबूत बनता है। पूरे साल जिन मित्रों या परिवार के सदस्यों से ठीक से मिलना नहीं हुआ हो वे सभी इस दिन साथ-साथ रहते हैं।
सुंदरकांड क्यों है जरूरी?
किसी भी भगवान की भक्ति के कई उपाय बताए गए हैं। अलग-अलग स्तुतियां, आरतियां, मंत्र आदि से भगवान को प्रसन्न किया जाता है। जिससे भगवान श्रद्धालुओं की मनोकामनाएं पूर्ण करते हैं। आज के युग में हनुमानजी बहुत जल्द प्रसन्न होने वाले भगवान हैं। बजरंग बली को प्रसन्न करने के लिए हनुमान चालिसा का पाठ किया जाता है। वहीं सुंदरकांड का पाठ भी सबसे अच्छा उपाय है हनुमानजी की कृपा प्राप्ति का।
सुंदरकांड गोस्वामी तुलसीदास द्वारा लिखी गई रामचरितमानस के सात कांडों में से एक हैं। रामचरितमानस के सभी कांड भगवान की भक्ति के लिए सर्वोत्तम हैं परंतु सुंदरकांड का महत्व अत्यधिक बताया गया है। ऐसा माना जाता है कि किसी भी प्रकार की परेशानी हो, कोई काम नहीं बन रहा हो, आत्मविश्वास की कमी हो या कोई और समस्या कई ज्योतिषी और संत भी लोगों को ऐसी स्थिति में सुंदरकांड का पाठ करने की सलाह देते हैं।
रामचरितमानस के सभी कांड में केवल सुंदरकांड का ही पाठ क्यों किया जाता है?
वास्तव में रामचरितमानस के सुंदरकांड की कथा सबसे अलग है। संपूर्ण रामचरितमानस भगवान राम के गुणों और उनकी पुरुषार्थ से भरे हैं। सुंदरकांड एकमात्र ऐसा अध्याय है जो भक्त की विजय को दर्शाता है। मनोवैज्ञानिक नजरिए से देखा जाए तो यह आत्मविश्वास और इच्छाशक्ति बढ़ाने वाला कांड है। हनुमान जो कि जाति से वानर थे, वे समुद्र को लांघकर लंका पहुंच गए और वहां सीता की खोज की। लंका को जलाया और सीता का संदेश लेकर लौट आए। यह एक आम आदमी की जीत का कांड है, जो अपनी इच्छाशक्ति के बल पर इतना बड़ा चमत्कार कर सकता है। इसमें जीवन में सफलता के महत्वपूर्ण सूत्र भी हैं। इसलिए पूरी रामायण में सुंदरकांड को सबसे श्रेष्ठ माना जाता है क्योंकि यह व्यक्ति में आत्मविश्वास बढ़ाता है।
विष्णु हैं सर्वश्रेष्ठ, क्योंकि...
हिंदु धर्म शास्त्रों के अनुसार इस संपूर्ण सृष्टि का पालन-पोषण और संचालन तीन देव ब्रह्मा, विष्णु और महेश (शिव) करते हैं। तीनों ही देव सर्वशक्तिमान और परम पूज्यनीय हैं। इनके देवों के नाम लेने मात्र से ही हमारे कई जन्मों के पाप स्वत: ही नष्ट हो जाते हैं। इनकी पूजा सभी मनोकामनाएं पूर्ण करने वाली होती है।
कई युगों पहले सभी ऋषिमुनियों के मन में तीनों देवताओं को लेकर एक जिज्ञासा जागी। इन तीनों देवताओं की इस संपूर्ण सृष्टि के संचालन में महत्वपूर्ण भूमिका है परंतु इन तीनों में भी सर्वश्रेष्ठ देव कौन हैं? इस प्रश्न का उत्तर खोजने के लिए सभी ऋषिमुनियों ने महर्षि भृगु से निवेदन किया। महर्षि भृगु परम तपस्वी और तीनों देवों के प्रिय थे। इन तीनों देवताओं में सर्वश्रेष्ठ कौन है? यह जानने के लिए वे सबसे पहले भगवान ब्रह्मा के पास बिना आज्ञा लिए ही पहुंच गए। इस तरह अचानक आए महर्षि भृगु को देख ब्रह्मा क्रोधित हो गए। इसके बाद महर्षि भृगु इसी तरह शिवजी के सम्मुख जा पहुंचे और वहां भी उन्हें शिवजी द्वारा अपमानित होना पड़ा। अब भृगु भी क्रोधित हो गए और इसी क्रोध में वे भगवान विष्णु के सम्मुख जा पहुंचे। उस समय भगवान विष्णु शेषनाग पर सो रहे थे। महर्षि भृगु के आने का उन्हें ध्यान ही नहीं रहा और वे महर्षि के सम्मान में खड़े नहीं हुए। अतिक्रोधित स्वभाव वाले भृगु ने इसे अपना अपमान समझा और क्रोध से विष्णु की छाती पर लात मार दी। इस प्रकार जगाए जाने पर भी विष्णु ने धैर्य रखा और तुरंत ही महर्षि भृगु के सम्मान में खड़े होकर उन्हें प्रणाम किया। भगवान विष्णु ने विनयपूर्वक कहा कि मेरा शरीर वज्र के समान कठोर है, अत: आपके पैर पर चोट तो नहीं लगी? औरे उन्होंने महर्षि के पैर पकड़ लिए और सहलाने लगे। विष्णु की इस महानता से महर्षि भृगु अति प्रसन्न हुए। भगवान विष्णु के इस धैर्य और सम्मान के भाव से प्रसन्न महर्षि ने उन्हें तीनों देवों में सर्वश्रेष्ठ घोषित किया।
क्रिसमस पर गिफ्ट जरूर दें क्योंकि...
क्रिसमस डे, प्रभु ईशु का जन्म दिवस, इस दिन के प्रति सभी धर्म के लोगों में गहरी आस्था है। 25 दिसंबर को ही ईसा मसीह अवतरित हुए थे। इस दिन को पूरे उत्साह और उमंग के साथ मनाया जाता है। साथ ही क्रिसमस डे पर आपस में सभी लोगों को गिफ्ट लेने-देने की परंपरा है।
क्रिसमस डे बिना गिफ्ट्स के मनाया ही नहीं जा सकता, बिना उपहार के यह त्यौहार अधूरा ही है। इस दिन गिफ्ट्स देने की परंपरा प्रभु जीसस के जन्म से ही शुरू हुई है। ऐसा माना जाता है जब प्रभु ईशु ने जन्म के की खबर न्यूबिया व अरब के शासक मेलक्यांर, टारसस के राजा गॅसपर और इथीयोपिया के सम्राट बलथासर को मिली, तो वे सभी येरूशलम जोसेफ और मदर मैरी के घर पहुंचे। प्रभु ईशु को देखकर सभी बड़े प्रसन्न हुए और प्रार्थना करने लगे। सभी शासक प्रभु जीसस के लिए अपने साथ सोने के खजाने और बहुत से उपहार लेकर आए थे। यह सभी बहुमूल्य उपहार उन्होंने जीसस के चरणों में अर्पित कर दिए। बस तभी से इस दिन सभी लोग एक-दूसरे को उपहार देते हैं।
सुबह जल्दी उठें, क्योंकि...
24 घंटे का एक दिन और इस एक दिन में हम कई कार्य करते हैं। पूरे दिन के कार्य के बाद रात तक सभी थकान महसूस करते हैं। इस थकान का हमारे स्वास्थ्य पर सीधा प्रभाव पड़ता है। अच्छे स्वास्थ्य के लिए सही समय पर सोना और सही पर उठना बहुत जरूरी है। नींद से भी अधिक स्वास्थ्य लाभ प्राप्त हो इसलिए रात को जल्दी सोना और सुबह सूर्योदय से पहले उठने की बात कही जाती है।
पुराने समय से ही सुबह जल्दी उठने की परंपरा है। ऋषि मुनि और विद्वानों के अनुसार ब्रह्म मुहूर्त में उठने का विशेष महत्व बताया गया है। रात्रि के अंतिम प्रहर को ब्रह्म मुहूर्त कहते हैं। उनके अनुसार यह समय नींद से उठने के लिए सर्वश्रेष्ठ है। ऐसा माना जाता है जल्दी उठने से सौंदर्य, बल, विद्या, बुद्धि और स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है।
जल्दी उठने पीछे धार्मिक और वैज्ञानिक दोनों लाभ प्राप्त होते हैं। सुबह-सुबह का वातावरण हमारे स्वास्थ्य के लिए बहुत लाभदायक होता है। दिन में वाहनों से निकलने वाला धुआं वातावरण को प्रदूषित कर देता है जबकि सुबह यह वायु प्रदूषण भी नहीं होता और न ही ध्वनि प्रदूषण। यह हमारे शरीर और मन दोनों को फायदा पहुंचाने वाला है।
आयुर्वेद के अनुसार ब्रह्म मुहूर्त में उठकर टहलने से शरीर में अद्भूत शक्ति का संचार होता है। यही कारण है कि इस समय बहने वाली वायु अमृत के समान माना गया है। इसके अलावा यह समय अध्ययन के लिए भी सर्वोत्तम बताया गया है क्योंकि रात को आराम करने के बाद सुबह जब हम उठते हैं तो शरीर तथा मस्तिष्क में भी स्फूर्ति व ताजगी बनी रहती है। सभी धार्मिक कार्य ब्रह्म मुहूर्त में करने पर विशेष धर्म लाभ प्राप्त होता है। इसी वजह से प्रात: काल की आरती आदि पूजन कर्म को सबसे अधिक महत्वपूर्ण माना गया है।
जूते-चप्पल चोरी हुए तो शनि होगा खुश, क्योंकि...
ऐसे तो चोरी होना आपके धन की हानि दर्शाता है लेकिन कई बार चोरी को शुभ भी माना जाता है। खासतौर पर अगर शनिवार को चमड़े के जूते चोरी हो जाएं तो उसे बहुत शुभ माना जाता है।
कई लोग शनि मंदिरों में जूते छोड़ भी देते हैं, इसे शुभ माना जाता है। आखिर शनिवार को जूते चोरी हो जाने से क्या लाभ होता है? क्यों ऐसा माना जाता है कि चमड़े के जूते चोरी हो जाएं तो सारी परेशानी उसके साथ चली जाती हैं?
वास्तव में यह मान्यता ज्योतिषीय आधार पर प्रचलित है। ज्योतिष शास्त्र में शनि को क्रूर और कठोर न्यायप्रिय ग्रह माना गया है। शनि जब किसी के विपरित होता है तो उस व्यक्ति को जी-तोड़ मेहनत के बाद भी फल थोड़ा ही मिलता है।
जिसकी कुंडली में साढ़े साती, ढैया हो, या जिसकी राशि में शनि अच्छे स्थान पर न हो, उसे यह खास परेशानी होती है। शनिवार शनि का दिन माना जाता है। हमारे शरीर के अंग भी ग्रहों से प्रभावित होते हैं।
त्वचा (चमड़ी) और पैर में शनि का वास माना जाता है, इनसे संबंधित चीजें शनि के लिए दान की जाती हैं और इनकी बीमारियां भी शनि से संबंधित होती हैं। चमड़ा और पैर दोनों ही शनि से प्रभावित होते हैं, इस कारण चमड़े के जूते अगर शनिवार को चोरी हो जाएं तो मानना चाहिए कि हमारी परेशानी कम होने जा रही हैं। शनि अब ज्यादा परेशान नहीं करेगा। कई लोग इसी कारण से शनिवार को शनि मंदिरों में जूते भी छोड़कर आते हैं ताकि शनि उनके कष्ट कम कर दें।
मंदिर जाने से पहले ध्यान रखें यह बातें...
मंदिर या देवालय सभी की आस्था का केंद्र होते हैं। इसी वजह से यहां किसी भी मंदिर में प्रवेश करने के लिए शास्त्रों द्वारा कुछ नियम बताए गए हैं। सभी श्रद्धालुओं के लिए इन नियमों का पालन करना अनिवार्य है। मंदिर जाने से पहले कुछ छोटी-छोटी किंतु महत्वपूर्ण बातें ध्यान रखने योग्य हैं-
- यदि आपने कोई नशा जैसे शराब, सिगरेट, ड्रग्स इत्यादि ले रखा है तो मंदिर में प्रवेश कतई ना करें। यह भगवान के प्रति असम्मान का भाव दिखाता है।
- मंदिर जाने के लिए हमारा तन और मन पूरी तरह स्वच्छ होना चाहिए।
- मंदिर में अपने साथ कोई हथियार ना ले जाएं।
- मंदिर में प्रवेश से पूर्व सबसे पहले अपने जूते-चप्पल इत्यादि बाहर ही निकाल दें, साथ ही मौजे भी। कुछ लोग मौजे सहित ही मंदिर में प्रवेश कर जाते हैं। उससे उनके मौजे की बदबू से मंदिरों का वातावरण प्रदुषित होता है, और अन्य श्रद्धालुओं को परेशानी होती है अत: मौजे भी बाहर ही निकाल देना चाहिए। इससे मंदिर की पवित्रता और सफाई बनी रहेगी।
- जूते उतारने के पश्चात अपने हाथ-पैर अच्छे से धो लें। ताकि आपके हाथ-पैर पूर्णरूप से साफ और स्वच्छ हो जाए।
- मंदिर में किसी भी परिस्थिति में अपने पैर भगवान की ओर करके ना बैठे। यह असम्मान की भावना व्यक्त करता है।
- चूंकि मंदिर के फर्श पर श्रद्धालु भगवान के सामने मत्था टेंकते हैं, कुछ श्रद्धालु दण्डवत प्रणाम करते हैं। अत: फर्श को बिल्कुल गंदा ना करें।
- भगवान की परिक्रमा घड़ी की सुई जिस दिशा में घुमती है उसी के अनुसार करें।
- मंदिर में भगवान की ओर पीठ करके न बैठें।
अकेले खाना न खाएं, क्योंकि...
अच्छे स्वास्थ्य और सुखी जीवन के लिए सही भोजन बहुत जरूरी है। साथ ही भोजन किस प्रकार करना चाहिए, इस बात का भी हमारे स्वास्थ्य पर सीधा प्रभाव पड़ता है। खाने के संबंध में ऐसी मान्यता है कि परिवार के सभी सदस्यों को एक साथ भोजन करना चाहिए।
अधिकांश बड़े-बुजूर्ग अक्सर यही बात कहते हैं कि खाना सभी को एक साथ बैठकर खाना चाहिए। इससे घर के सदस्यों में प्रेम बढ़ता है और रिश्ते मजबूत बनते हैं। यदि हम पुराने समय से आज की तुलना करें तो यही बात सामने आती है कि आज अधिकांश घरों में लड़ाइयां बढ़ रही हैं। परिवार के सदस्यों में परस्पर प्रेम की कमी आ गई है और अपनापन घट रहा है। जबकि पुराने समय में परिवार के सभी सदस्यों में अटूट प्रेम रहता था और सभी एक-दूसरे का पूरा-पूरा ध्यान रखते थे। इसकी वजह यही है कि उस समय दिन में कम से कम दो बार पूरा परिवार साथ बैठता था और सभी साथ खाना खाता थे। उस समय सभी जीवन की कई परेशानियों का हल निकाल लेते थे। जबकि आज समय अभाव के कारण घर के सभी सदस्य पर्याप्त समय नहीं निकाल पाते। ऐसे में सदस्यों का आपस में संपर्क काफी कम हो जाता है। धीरे-धीरे इसी वजह से परिवार में कलह आदि की बात सामने आने लगती है। इन्हीं कारणों से सभी विद्वान और वृद्धजन यही बात कहते हैं कि पूरे परिवार को एक साथ खाना चाहिए। ताकि सभी सदस्यों का आपस में संपर्क हमेशा बना रहे और प्रेम में किसी भी प्रकार की कोई न आ सके।
सभी के साथ खाना खाने से हम अच्छे से भोजन कर पाते हैं, जबकि अकेले में कई बार ठीक से भोजन नहीं हो पाता। यह स्वास्थ्य के लिए भी हानिकारक है। साथ ही पूरा परिवार एक साथ खाना खाएगा तो सभी का खाने का समय भी निश्चित रहेगा। इससे परिवार के सभी सदस्यों की सेहत भी अच्छी रहती है।
शवयात्रा में क्यों जाते हैं?
जीवन का अंतिम सच है मृत्यु। भागवत में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि आत्मा नश्वर है और शरीर नष्ट होने वाला है। जिस प्रकार हम कपड़े बदलते हैं उसी प्रकार आत्मा शरीर बदलती है। शरीर का अंत मृत्यु के साथ ही हो जाता है और मृत शरीर को पंचतत्व में विलीन करने के लिए शमशान पर ले जाते हैं। इस यात्रा को शवयात्रा कहा जाता है।
शवयात्रा में मृत व्यक्ति के रिश्तेदार, घर-परिवार के सदस्य, मित्र और समाज के अन्य लोग मौजूद रहते हैं। शवयात्रा को अंतिम यात्रा भी कहा जाता है। शव यात्रा का अर्थ है शव की यात्रा। इस यात्रा में मृत व्यक्ति से जुड़े हुए सभी लोग उसे देखने के लिए शामिल होते हैं। सभी जानते हैं कि शवयात्रा में दिखाई देने वाला मृत शरीर फिर बाद में हमेशा के लिए पंचतत्व में विलिन हो जाएगा।
मरने वाले व्यक्ति ने जीवनभर जिन लोगों के साथ समय बिताया और जिनके साथ सुख-दुख देखे, सभी के साथ उसकी यादें जुड़ी होती हैं। शवयात्रा में शामिल होने का भाव यही है कि मृत व्यक्ति को अंतिम बार देखना और उसे श्रद्धांजलि अर्पित करना। ताकि मृत व्यक्ति की आत्मा को शांति मिल सके।
शास्त्रों के अनुसार शवयात्रा में जाना पवित्र कर्म माना गया है। इस यात्रा में शामिल होने वाले हर व्यक्ति को अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है। इस पुण्य के प्रभाव से सभी के कई जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं।
शवयात्रा में शामिल होने पर यह ज्ञान भी हो जाता है कि सभी के जीवन का अंत ऐसा ही होना है। मृत्यु का भय सभी को रहता है और कोई मरना नहीं चाहता, ऐसे में इस यात्रा में शामिल होने वाले लोगों के मन से मृत्यु का भय समाप्त हो जाता है। इसका मनोवैज्ञानिक प्रभाव भी पड़ता है। व्यक्ति को जीवन का मूल्य समझ आता है और वह इसे खुश होकर जीता है। क्योंकि उसे मालूम है एक दिन उसके शरीर का भी अंत इसी प्रकार होना है।
दान करें लेकिन सीधे हाथ से, क्योंकि...
सभी धर्मों में दान मुख्य अंग माना गया है। शास्त्रों के अनुसार दान करना पुण्य कर्म है और इससे ईश्वर की कृपा प्राप्त होती है। दान के महत्व को ध्यान में रखते हुए इस संबंध में कई नियम बनाए गए हैं। ताकि दान करने वाले को अधिक से अधिक धर्म लाभ प्राप्त हो सके।
दान करने के संबंध में सबसे महत्वपूर्ण नियम यह है कि दान हमेशा सीधे हाथ से ही किया जाना चाहिए। ऐसी मान्यता है कि सीधे हाथ से किए गए दान से परमात्मा तुरंत ही प्रसन्न होते हैं और दानी की मनोकामनाओं को पूरा करते हैं। शास्त्रों के अनुसार भगवान के लिए किए जाने वाले सभी पूजा कर्म सीधे हाथ से ही किए जाना चाहिए।
दान करने से हमारे मोह और अहम का त्याग होता है। दान से हमारे मन का मोह दूर होता है। यदि किसी व्यक्ति के पास बहुत सारा धन है तब भी जब तक धन के प्रति मोह का त्याग नहीं करेगा तब तक वह दान नहीं कर सकता। इसी प्रकार दान से अहम भी हमसे दूर होता है। इसी के साथ ही दान से मन को शांति भी मिलती है।
सीधे हाथ का सभी धार्मिक कार्य में विशेष महत्व है क्योंकि धर्म शास्त्रों के अनुसार ऐसा माना जाता है कि हमारे शरीर का बायां भाग स्त्रियों का प्रतिनिधित्व करता है और दायां भाग पुरुषों का। इस बात की पुष्टि शिवजी के अर्द्धनारीश्वर स्वरूप से की जा सकती है। शिवजी के इस रूप में दाएं भाग में स्वयं शिवजी और बाएं भाग में माता पार्वती को दर्शाया जाता है। धर्म से संबंधित सभी कार्य पुरुषों से कराए जाने की बात हमेशा से ही कही जाती रही है। दान सीधे हाथ से करना चाहिए इस बात के लिए एक और तर्क यह है कि हम पवित्र कार्य के लिए सदैव सीधे हाथ का ही उपयोग करते हैं। इसी वजह से बाया हाथ धार्मिक कार्यों में उपयोग नहीं किया जाता।
पति-पत्नी एक साथ पूजा क्यों करें?
हमारे जीवन के सभी 16 संस्कारों में सबसे अधिक महत्वपूर्ण संस्कार है विवाह। विवाह के बाद पति-पत्नी दोनों का ही जीवन बदल जाता है। दोनों के ही अलग-अलग कर्तव्य और दायित्व रहते हैं। पति-पत्नी के मुख्य कर्तव्य में से एक है कि सभी पूजन कार्य दोनों एक साथ ही करेंगे। पति या पत्नी अकेले पूजा-अर्चना करते हैं तो उसका अधिक महत्व नहीं माना गया है। शास्त्रों के अनुसार पति-पत्नी एक साथ पूजादि कर्म करते हैं तो उसका पुण्य कई जन्मों तक साथ रहता है और पुराने पापों का नाश होता है।
विवाह के बाद पति-पत्नी को एक-दूसरे का पूरक माना गया है। सभी धार्मिक कार्यों में दोनों का एक साथ होना अनिवार्य है। पत्नी के बिना पति को अधूरा ही माना जाता है। दोनों को एक साथ ही भगवान के निमित्त सभी कार्य करने चाहिए।
पत्नी को पति अद्र्धांगिनी कहा जाता है, इसका मतलब यही है कि पत्नी के बिना पति अधूरा है। पति के हर कार्य में पत्नी हिस्सेदार होती है। शास्त्रों में इसी वजह सभी पूजा कर्म दोनों के लिए एक साथ करने का नियम बनाया गया है।
दोनों एक साथ पूजादि कर्म करते हैं तो इससे पति-पत्नी को पुण्य तो मिलता है साथ ही परस्पर प्रेम भी बढ़ता है। स्त्री को पुरुष की शक्ति माना जाता है इसी वजह से सभी देवी-देवताओं के नाम के पहले उनकी शक्ति का नाम लिया जाता है जैसे सीताराम, राधाकृष्ण। इसी वजह से पत्नी के बिना पति का कोई भी धार्मिक कर्म अधूरा ही माना जाता है।
चंद्र ग्रहण होता है क्योंकि...
चंद्रमा की सुंदरता सभी को पलभर में ही मोह लेती है। चंद्र की असीम सुंदरता को वर्ष में कई बार ग्रहण लगता है। वैसे तो विज्ञान के अनुसार चंद्र ग्रहण क्यों होता है? यह अधिकांश लोग जानते हैं परंतु हिंदू शास्त्रों के अनुसार चंद्र ग्रहण क्यों होता है? इस संबंध में एक प्रसंग है।
चंद्रमा को एक देवता माना गया है। प्राचीन काल में एक ऋषि हुए जिनका नाम है गौतम ऋषि। गौतम ऋषि परम तपस्वी थे और अधिकांश समय भगवान की साधना में ही लीन रहते थे। उनकी पत्नी थी अहिल्या। अहिल्या अतिसुंदर स्त्री थी। अहिल्या की सुंदरता देखकर देवराज इंद्र अति मोहित हो गए।
गौतम ऋषि ब्रह्म मुहूर्त में उठकर नदी स्नान के लिए जाते थे। इस बात का लाभ उठाने के लिए इंद्र ने चंद्रमा को आदेश दिया कि वह ब्रह्म मुहूर्त से पहले ही छुप जाए। ताकि गौतम ऋषि को ऐसा आभास हो कि सुबह हो गई है और वह स्नान के लिए नदी की ओर चले जाए। देवराज के इंद्र के आदेशानुसार चंद्र ब्रह्म मुहूर्त से पहले ही छुप गया। गौतम ऋषि नींद से जागे और नदी स्नान के लिए चले गए। ऋषि के जाने के बाद देवराज इंद्र गौतम ऋषि का वेश बनाकर अहिल्या के सम्मुख जा पहुंचे।
गौतम ऋषि परम तपस्वी और दिव्य दृष्टि के ज्ञात थे। वे जल्द ही देवराज इंद्र की योजना जान गए। इससे ऋषि अति क्रोधित हो गए। क्रोध स्वरूप उन्होंने इंद्र और अहिल्या को श्राप दे दिया। इंद्र की पापभरी योजना में चंद्रमा ने भी सहयोग किया था इसलिए गौतम ऋषि ने चंद्रमा को श्राप दिया कि चंद्र ने ब्रह्मा द्वारा निर्धारित नियमों का पालन नहीं किया और देवराज इंद्र को बुरे कर्म में सहयोग किया है इसलिए चंद्र को राहू ग्रसेगा। तभी से चंद्रमा को भी ग्रहण लगने लगा।
हनुमानजी अमर हैं क्योंकि...
हिंदू धर्म शास्त्रों के अनुसार भगवान शिव के अवतार श्री हनुमानजी को अमर माना जाता है। हनुमानजी पवनदेव के पुत्र बताए गए हैं। हनुमान भगवान विष्णु के अवतार श्रीराम के परम भक्त हैं, इनकी सेवा में बजरंग बली सदैव तत्पर रहते हैं।
श्रीरामचरित मानस के अनुसार हनुमानजी श्रीराम के भक्तों की सभी मनोकामनाएं पूरी करते हैं। हनुमानजी चिरंजीवी माने गए हैं। इस संबंध में रामायण में एक प्रसंग आता है। जब श्रीराम वानर सेना सहित सीता को खोजने निकले तब हनुमानजी माता सीता की खोज में समुद्र पार कर लंका जा पहुंचे। जब बजरंग बली ने माता सीता को रावण की अशोक वाटिका में देखा, तब रामभक्त हनुमान ने देवी जानकी को श्रीराम की मुद्रिका दी। श्रीराम के वियोग में बेहाल सीता ने श्रीराम की मुद्रिका देखी तब उन्हें यह विश्वास हो गया कि प्रभु उन्हें जल्द ही दैत्यराज रावण की कैद से मुक्त कराएंगे और रावण को उसके किए पाप की सजा मिलेगी। इस सुखद अहसास से प्रसन्न होकर माता सीता ने हनुमान को अमरता का वरदान दिया। तभी से हनुमानजी चिरंजीवी हैं।
हनुमानजी चिरंजीवी हैं इसी वजह से वे भक्तों की मनोकामनाओं को तुरंत भी पूरा करते हैं। कलयुग में इनकी भक्ति से कई जन्मों के पाप स्वत: ही नष्ट हो जाते हैं।
टाई क्यों बांधते हैं?
आजकल गले में टाई बांधने का काफी क्रेज बढ़ गया है। ऐसा माना जाता है कि टाई बांधने से हमारा व्यक्तित्व निखरता है। हमारी ओर देखने वाले लोगों का नजरिया बदल जाता है। इसका काफी सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। लड़के हो या लड़कियां सभी में टाई को लेकर काफी उत्साह देखा जाता है। आखिर टाई क्यों बांधते हैं?
हालांकि टाई बांधने का चलन भारतीय नहीं है। जब अंग्रेज भारत आए तभी से यह हिंदुस्तान में प्रचलित हो गई। टाई से व्यक्तित्व तो आकर्षक बनता है साथ ही इससे हमारा मनोबल भी ऊंचा रहता है। टाई बांधने पर क्रॉस की तरह हो जाती है। क्रॉस धनात्मक ऊर्जा को संग्रहित करता है और नकारात्मक ऊर्जा को निष्क्रीय करता है। इससे हमारे शरीर को वातावरण से पॉजीटिव एनर्जी प्राप्त होती है, आत्मविश्वास बढ़ता है। टाई गले पर बांधी जाती है जिससे हमारी रीढ़ की हड्डी पर भी दबाव पड़ता है। यह दबाव एक्यूप्रेशर का काम करता है। इससे जल्दी थकान नहीं होती और शरीर में स्फूर्ति बनी रहती है।
यंत्रों की पूजा क्यों करते हैं?
देवी-देवताओं को मनाने के लिए एवं उनकी कृपा प्राप्ति के लिए सभी कई प्रकार के जतन करते हैं। कई पूजन कर्म किए जाते हैं। पूजा-अर्चना ही हमें भगवान से सीधे जोड़ देती है। इस कार्य में यंत्रों की भी मदद ली जाती है। पूजा में हम देवी-देवताओं की मूर्तियों के अलावा विभिन्न तरह के यंत्र भी रखते हैं। आमतौर पर तांबे की चौकोर प्लेट पर त्रिकोण या अधिक कोणों की आकृतियों में बने यंत्र आखिर हैं क्या?
यंत्र का मतलब होता है एक विशेष उपकरण। किसी खास काम में मदद करने वाले उपकरण को यंत्र कहा जाता है। यंत्र हमें अपने काम में मदद करते हैं। पूजा में उपयोग किए जाने वाले यंत्रों का भी यही कार्य है।
शास्त्रों में कहा गया है कि साधना में यंत्रों का उपयोग करने से उत्तम फल मिलता है, क्योंकि यंत्रों में देवताओं का निवास है।
बिंदु, त्रिकोण, अष्टकोण, दशारयुग्म, चतुर्दशार, अष्टïदल, षोडशदल, वृत्तत्रय तथा भूपुरत्रय यहीं पर देवता का स्वरूप है। ऐसा माना जाता है कि इस जगत का स्वेच्छा से निर्माण करने के लिए परमशक्ति उत्पन्न हुई और उससे सर्वप्रथम श्रीयंत्र प्रकट हुआ। यंत्र ज्यामितीय आकृतियों में बनाए जाते हैं, अर्थात त्रिकोण,अष्टकोण आदि में। यंत्र को बनाकर उन्हें मंत्रों से सिद्ध किया जाता है, उन्हें ऊर्जावान बनाया जाता है। सिद्ध यंत्र ही हमारी साधना की सफलता में मदद करते हैं। शास्त्रों के अनुसार यंत्रों में देवीताओं का निवास माना गया है। इसी वजह से पूजा आदि कर्मों में यंत्रों का उपयोग किया जाता है।
घर में कबाड़ या पुराना सामान न रखें, क्योंकि
हमारे घर के बढ़े-बुजूर्ग हमेशा कहते हैं कि घर में पुराना सामाना, कबाड़ा नहीं रखना चाहिए और घर को एकदम साफ और व्यस्थित रखना चाहिए। इस बात के पीछे कई धार्मिक और मनोवैज्ञानिक कारण हैं।
घर में कबाड़ा रखने से गंदगी बनी रहती है। क्योंकि जहां पुराना सामान रखा रहता है वहां ठीक से साफ-सफाई नहीं हो पाती और वहां मकड़ी जाले बना लेती है धूल-मिट्टी फैल जाती है। इस वजह से वहां दरिद्रता का निवास हो जाता है और लक्ष्मी ऐसे स्थान को छोड़कर चली जाती है। महालक्ष्मी ऐसे स्थान पर ही निवास करती हैं जहां पूरी साफ-सफाई और स्वच्छता बनी रहती है। इसके विपरित परिस्थितियों में दरिद्रता का निवास हो जाता है। जिससे परिवार को कई प्रकार की आर्थिक हानि उठाना पड़ सकती है। घर की आय नहीं बढ़ती और सदस्यों को कई परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है।
वास्तु शास्त्र के अनुसार भी घर में पुराना सामान रखना अशुभ माना गया है। इससे परिवार के सभी सदस्यों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है और उनके विचार भी नेगेटिव बनते जाते हैं। वास्तु के अनुसार भी घर को पूरी तरह साफ रखना चाहिए। इससे घर की आय में बढ़ोतरी होती है और सदस्यों का मन प्रसन्न रहता है।
कबाड़ा रखने से फैली गंदगी हमारे स्वास्थ्य के लिए भी हानिकारक है। इससे हमें कई बीमारियां हो सकती है। इन सभी कारणों से घर के बड़े-बुजूर्ग भी घर को साफ रखने की बात कहते हैं।
भोजन बैठकर ही क्यों करें...?
जीने के लिए सबसे अधिक जरूरी क्रियाओं में से एक है खाना। खाना ही हमारे शरीर को जीने की शक्ति प्रदान करता है। हम सभी कम से कम दिन में दो बार खाना खाते हैं। हर व्यक्ति का खाना खाने का अलग तरीका होता है। अधिकांश लोग जमीन पर बैठकर ही खाना खाते हैं तो कुछ लोग डायनिंग टेबल पर बैठकर खाते हैं।
समय के साथ-साथ कई लोगों के खाना हमारी दिनचर्या में कई बड़े-बड़े परिवर्तन आ गए हैं। हमारी सभी क्रियाएं और उनका तरीका बदल गया है। आधुनिकता की दौड़ में हमारा खाना खाने का तरीका भी पूरी तरह प्रभावित हुआ है। आज अधिकांश लोग खाना डायनिंग टेबल पर बैठकर खाते हैं। जबकि पुराने समय में जमीन पर आसन लगाकर खाना खाने की परंपरा थी। आज भी बड़ी संख्या में लोग बैठकर ही खाना खाते हैं।
डायनिंग टेबल पर बैठकर खाने से कई स्वास्थ्य संबंधी परेशानियां स्वत: ही हमें घेर लेती हैं परंतु जो लोग जमीन पर बैठकर पारंपरिक तरीके से खाने खाते हैं उनसे कई छोटी-छोटी बीमारियां दूर ही रहती है।
जमीन पर बैठकर खाना खाते समय हम एक विशेष योगासन की अवस्था में बैठते हैं, जिसे सुखासन कहा जाता है। सुखासन से स्वास्थ्य संबंधी वे सभी लाभ प्राप्त होते हैं जो पद्मासन से प्राप्त होते हैं। बैठकर खाना खाने से हम अच्छे से खाना खा सकते हैं। इस आसन से मन की एकाग्रता बढ़ती है। सुखासन से पूरे शरीर में रक्त-संचार समान रूप से होने लगता है। जिससे शरीर अधिक ऊर्जावान हो जाता है। इस आसन से मानसिक तनाव कम होता है और मन में सकारात्मक विचारों का प्रभाव बढ़ता है। इससे हमारी छाती और पैर मजबूत बनते हैं। सुखासन वीर्य रक्षा में भी मदद करता है। इस तरह खाना खाने से मोटापा, अपच, कब्ज, एसीडीटी आदि पेट संबंधी बीमारियों में भी राहत मिलती है। सुखासन अवस्था में बैठकर खाने से वे कई स्वास्थ्य संबंधी लाभ प्राप्त कर शरीर को ऊर्जावान और स्फूर्तिवान बना सकते हैं।
दान क्यों करें?
चेरिटी का अर्थ है दान। दान करना हर धर्म में सबसे अधिक पुण्य कर्म माना गया है। पुराने समय से ही सभी लोग धर्म-कर्म आदि कार्यों में दान को भी शामिल करत हैं। हिंदू धर्म में कई ऐसे महान व्यक्ति हुए हैं जिनकी पहचान ही परम दानी के रूप में होती है, इन महान व्यक्तियों में महाभारत के कर्ण का नाम सर्वोपरि है। ऐसी मान्यता है कि योग्य व्यक्ति को दिए गए दान से हमारा भाग्य बदलता है। किसी भी पूजन कर्म के बाद दान करने की परंपरा इसी वजह से शुरू की गई है कि इससे हमारी पूजा का शुभ फल शीघ्र ही प्राप्त होता है। साथ ही गरीबों की दुआओं से दान करने वाले का बुरा समय टल जाता है।
दान की महिमा को भारतीय सभ्यता में बड़े ही धार्मिक रूप में स्वीकार किया गया है। दान को मुक्ति और स्वर्ग की प्राप्ति का एक माध्यम माना गया है। दान के विषय में शास्त्र कहते हैं कि सही व्यक्ति को दिया गया दान ही शुभ होता है। प्राचीन काल में ब्राह्मण को ही दान के लिए उपयुक्त माना जाता था क्योंकि ब्राह्मण संपूर्ण समाज को शिक्षित करता था तथा धर्ममय आचरण करता था। ऐसी स्थिति में उनके जीवनयापन का भार समाज के ऊपर हुआ करता था। सद्पात्र को दान के रूप में कुछ प्रदान कर समाज स्वयं को सम्मानित मानता था।
यदि किसी ने आपके द्वारा दिया गया दान को आदर पूर्वक स्वीकार कर लिया तो आपको उसे धन्यवाद तो देना ही चाहिए। इससे आपके जीवन की कई विषम परिस्थितियां दूर होती हैं। दान की परंपरा समाज में फैली असमानता को दूर करने के लिए प्रारंभ की गई है। यदि कोई व्यक्ति गरीब है और वह अपने परिवार का भरण-पोषण नहीं कर पा रहा है तो ऐसे व्यक्ति को यदि कोई धनी व्यक्ति कुछ दान करता है तो उसे इसका शुभ परिणाम अवश्य ही प्राप्त होता है। इसी वजह से दान करना पुण्य कर्मों में शामिल है और सभी पूजन-कार्य के बाद दान करने की परंपरा है।
रविवार- क्यों पूजें भगवान भास्कर को?
रविवार यानि रवि का दिन। रवि या भास्कर सूर्य को कहते हैं। हिंदी पंचांग के अनुसार रविवार सप्ताह का पहला दिन माना जाता है क्योंकि यह सौर मंडल राजा सूर्य का दिन है। जबकि इंग्लिश कैलेंडर के अनुसार रविवार को सप्ताह का अंतिम दिन माना जाता है। शास्त्रों के अनुसार इस दिन सूर्य की पूजा करने का विधान बताया गया है।
सूर्य को देवता माना जाता है, इनकी पूजा के लिए कई विधियां भी बताई गई है। सूर्य देव को प्रतिदिन जल अर्पित करने पर हमारी सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती है। साथ ही आंखों की रोशनी बढ़ती है और त्वचा में तेज पैदा होता है। समाज में मान-सम्मान की प्राप्ति होती है, यश मिलता है।
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार सूर्य को यश और मान-सम्मान का कारक ग्रह माना जाता है। किसी भी व्यक्ति की कुंडली में उच्च का सूर्य होने पर वह प्रतिष्ठित और तेजस्वी होता है। ऐसे व्यक्ति को समाज में सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। वहीं इसके विपरित नीच का या अशुभ फल देने वाला सूर्य होने पर व्यक्ति को कई कलंक झेलने पड़ सकते हैं। आंखों या त्वचा से संबंधित रोग हो सकते हैं। इनसे बचने के लिए प्रतिदिन सूर्य को जल अर्पित करना चाहिए एवं रविवार के लिए सूर्य के निमित्त विशेष पूजा-अर्चना करनी चाहिए। साथ ही इस दिन सूर्य से संबंधित वस्तुओं का दान करने की परंपरा है। सूर्य से संबंधित वस्तुएं जैसे पीले वस्त्र या अन्य पीले रंग की खाद्य सामग्री का दान किसी जरूरत मंद व्यक्ति को किया जाता है।
यदि आप सुंदर हैं, तो काजल का टीका लगाएं...
किसी भी सुंदर चेहरे की ओर सभी का ध्यान तुरंत ही चले जाता है, चेहरे की सुंदरता सभी को मोहित कर देती है। इसी वजह से प्राचीन काल से ही लड़कियां और छोटे बच्चों को चेहरे पर काजल का काला टीका लगाया जाता है। यह काला टीका उन्हें बुरी नजर से बचाता है।
अक्सर यह सुनने में आता है कि सुंदर लड़कियों और छोटे बच्चों को नजर लग जाती है। इसी वजह से छोटे-छोटे बच्चों और सुंदर लड़कियों को चेहरे पर कहीं ना कहीं काला टीका लगा होता है। काजल का टीका लगाने की परंपरा के पीछे यही वजह है कि सुंदरता की ओर सभी जल्दी ही आकर्षित हो जाते हैं और कुछ लोग सुंदर चेहरे को एकटक देखते रहते हैं। कई लोगों की नजरें बुरी भावनाओं वाली होती हैं। जिससे लड़कियों और बच्चों की सेहत पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
काजल का काला टीका लगाने से एकटक देखने वाले लोगों की नजर काले रंग की बिंदी पर टीक जाती है। जिससे उनकी नजर का बुरा प्रभाव नष्ट हो जाता है। काला रंग सुंदरता और बुरी नजरों के बीच दीवार का काम करता है। बुरी नजरों का प्रभाव काजल के काले टीके से निष्क्रीय हो जाता है।
क्यों जरूरी है घर में बगीचा?
अधिकांश घरों में थोड़ी जगह फूलों के लिए भी निकाली जाती है। कई घरों में छोटे-छोटे बगीचे बनाए जाते हैं तो कहीं-कहीं गमलों में फूलों के पौधे लगाए जाते हैं। रंग-बिरंगे फूलों की महक से हमारा घर का वातावरण हमेशा सुखद अहसास देने वाला बना रहता है। पुराने समय से ही घर के बाहर बगीचा रखने की परंपरा है। धर्म ग्रंथों में कई प्रसंग मिलते हैं जहां वाटिकाओं का उल्लेख किया गया है।
घर के बाहर बगीचे रखने के पीछे धार्मिक कारण तो है साथ ही इसका हमारी मानसिक स्थिति पर भी शुभ प्रभाव पड़ता है। इसका धार्मिक कारण यही है कि फूल भगवान को चढ़ाएं जाते हैं। जब भी पूजा-अर्चना आदि कार्य होते हैं तो हमेशा हमें ताजे फूल बगीचे से मिल जाते हैं। इस प्रकार के घरों पर दैवी-देवताओं की भी विशेष कृपा होती हैं क्योंकि पुष्प से सभी भगवान तुरंत ही प्रसन्न हो जाते हैं।
फूलों की सुंगध से हमारे घर का वातावरण महकता रहता है जिससे मन को शांति मिलती है। दिमाग में हमेशा सकारात्मक विचार आते हैं। नकारात्मक शक्तियों का प्रभाव घर की ओर से नष्ट हो जाता है।
फूल हमें अच्छा जीवन जीने की भी प्रेरणा देते हैं। फूलों का जीवन कम अवधि का होता है परंतु फिर भी वे जब तक मुरझा नहीं जाते तब तक वातावरण में सुगंध फैलाते रहते हैं। इसी प्रकार हमें भी समाज में ऐसा ही स्वभाव रखना चाहिए जिससे हमारे आसपास लोगों को सुख की प्राप्ति हो सके। वास्तु शास्त्र के अनुसार भी घर में बगीचा होना अनिवार्य बताया गया है। घर के बाहर की वाटिका घर के कई वास्तु दोषों को समाप्त कर देती है।
पूजा के बाद धागा जरूर बंधवाएं...
हिंदू धर्म में पूजन कर्म के दौरान पंडित हाथ में लाल धागा जरूर बांधते हैं। इस रक्षासूत्र या मौली कहा जाता है। इसके क्रिया के बिना पूजा-अर्चना संपन्न नहीं मानी जाती है।
हिंदू धर्म में कई रीति-रिवाज तथा मान्यताएं हैं। इन रीति-रिवाजों तथा मान्यताओं का सिर्फ धार्मिक ही नहीं वैज्ञानिक पक्ष भी है। जो वर्तमान समय में भी एकदम सटीक बैठता है।
हिंदू धर्म में प्रत्येक धार्मिक पूजा-पाठ, यज्ञ, हवन में पंडित हमारे दाएं हाथ में मौली (एक धार्मिक धागा) बांधी जाती है। शास्त्रों का ऐसा मत है कि मौलि बांधने से त्रिदेव- ब्रह्मा, विष्णु व महेश तथा तीनों देवियों- लक्ष्मी, पार्वती व सरस्वती की कृपा प्राप्त होती है। ब्रह्मा की कृपा से कीर्ति, विष्णु से बल मिलता है और शिव दुर्गुणों का विनाश करते हैं। इसी प्रकार लक्ष्मी से धन, दुर्गा से शक्ति एवं सरस्वती की कृपा से बुद्धि प्राप्त होती है।
शरीर विज्ञान की दृष्टि से अगर देखा जाए तो मौलि बांधना उत्तम स्वास्थ्य भी प्रदान करती है। चूंकि मौलि बांधने से त्रिदोष- वात, पित्त तथा कफ को नियंत्रित करता है। मौलि का शाब्दिक अर्थ है सबसे ऊपर, जिसका तात्पर्य सिर से भी है। शंकर भगवान के सिर पर चंद्रमा विराजमान है इसीलिए उन्हें चंद्रमौलि भी कहा जाता है। मौलि बांधने की प्रथा तब से चली आ रही है जब दानवीर राजा बलि की अमरता के लिए वामन भगवान ने उनकी कलाई पर रक्षा सूत्र बांधा था।
किसी के मरने के बाद पगड़ी रस्म क्यों की जाती है?
मृत्यु एक अटल सत्य है, जो भी व्यक्ति जन्म लेता है उसे एक दिन संसार को छोड़कर जाना ही है। जाने वाले तो चला जाता है परंतु उसके पीछे उसके परिवार को दुख का सामना करना पड़ता है। घर के मुखिया की मृत्यु होने के पश्चात बड़े पुत्र को पगड़ी बांधी जाती है, जिसे हिंदू धर्म में पगड़ी रस्म कहा जाता है।
पगड़ी रस्म की परंपरा काफी पुराने समय से चली आ रही है। इस प्रथा के संबंध में सभी समाजों में अलग-अलग व्यवस्था रखी गई है परंतु घर के सदस्य की मृत्यु के पश्चात पगड़ी रस्म अवश्य की जाती है। इस रस्म के पीछे सामाजिक कारण है। ऐसी मान्यता है कि घर के मुखिया के मरने के बाद की जवाबदारी बड़े पुत्र को ही संभालना होती है। अत: उस पुत्र को पगड़ी बांधने का यही आशय है कि अब वही घर का मुखिया है और उसे ही परिवार के सभी सदस्यों का पालन-पोषण करना है, उनके सुख-दुख का ध्यान रखना है। साथ ही परिवार के सभी फैसले उसे लेने होते हैं। सभी खुश रहे इस का बात का ध्यान भी पगड़ी जिसे बांधी जाती है उसी को रखना होता है।
इस रस्म के संबंध में सभी जातियों और समाजों में अलग-अलग रीति-रिवाज होते हैं परंतु मूल भाव यही होता है कि मरने वाले व्यक्ति की जो भी जवाबदारियां होती हैं वे सभी उस व्यक्ति को संभालना होती है जिसे पगड़ी बांधी जाती है।
गुरुवार को साईं बाबा के दर्शन करें...
साईं बाबा एक ऐसे फकीर हैं जिन्हें हर धर्म के लोग बड़ी श्रद्धा से पूजते हैं। सभी जाति और धर्म इनके प्रति पूर्ण विश्वास रखते हैं। इनकी आराधना किसी भी विशेष मुहूर्त या वार को किया जा सकती है परंतु गुरुवार को इनकी पूजा का विशेष महत्व माना गया है।
गुरुवार को इनकी आराधना का इतना महत्व क्यों हैं? इस संबंध में यही तथ्य है कि गुरुवार गुरु का दिन माना जाता है। सभी धर्मों में गुरु का खास स्थान माना जाता है, गुरु ही हमें आदर्श जीवन जीने के सूत्र बताता है। गुरु ही सही राह पर चलने की प्रेरणा देता है। साईं बाबा ने हमेशा सभी को आदर्श और उच्च जीवन जीने की प्रेरणा दी है। इसी वजह से इन्हें बड़ी संख्या श्रद्धालु अपना गुरु मानते हैं। साथ ही ऐसा माना जाता है कि इनकी आराधना से जल्द ही हमारी मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती है। साईं के मंदिर में सभी धर्मों के लोगों के लिए समभाव रखा जाता है। गुरुवार गुरु का दिन होने की वजह से साईं बाबा को गुरु मानने वाले सभी भक्त इस दिन बाबा के मंदिर जाते हैं।
साईं बाबा के मंत्र सबका मालिक एक यही बताता है कि परमात्मा एक है और वही हम सभी का पालन-पोषण करता है। इसी मंत्र की वजह से वे सर्वधर्म के लोगों के लिए भगवान और गुरु के समान ही हैं।
मंदिर जाएं तो घंटी जरूर बजाएं
मंदिरों से हमेशा घंटी की आवाज आती रहती है। सामान्यत: सभी श्रद्धालु मंदिरों में लगी घंटी अवश्य बजाते हैं। घंटी की आवाज हमें ईश्वर की अनुभूति तो कराती है साथ ही हमारे स्वास्थ्य के लिए भी फायदेमंद है। घंटी आवाज से जो कंपन होता है उससे हमारे शरीर पर भी सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। घंटी की आवाज से हमारा दिमाग बुरे विचारों से हट जाता है और विचार शुद्ध बनते हैं।
पुरातन काल से ही मंदिरों में घंटियां से लगाई जाती हैं। ऐसी मान्यता है कि जिस मंदिर से घंटी बजने की आवाज नियमित आती है, उसे जागृत देव मंदिर कहते हैं। उल्लेखनीय है कि सुबह-शाम मंदिरों में जब पूजा-आरती की जाती है तो छोटी घंटियों, घंटों के अलाव घडिय़ाल भी बजाए जाते हैं। इन्हें विशेष ताल और गति से बजाया जाता है। ऐसा माना जाता है कि घंटी बजाने से मंदिर में प्राण प्रतिष्ठित मूर्ति के देवता भी चैतन्य हो जाते हैं, जिससे उनकी पूजा प्रभावशाली तथा शीघ्र फल देने वाली होती है।
पुराणों के अनुसार मंदिर में घंटी बजाने से हमारे कई पाप नष्ट हो जाते हैं। जब सृष्टि का प्रारंभ हुआ तब जो नाद (आवाज) था, वहीं स्वर घंटी की आवाज से निकलती है। यही नाद ओंकार के उच्चारण से भी जाग्रत होता है। घंटे को काल का प्रतीक भी माना गया है। धर्म शास्त्रियों के अनुसार जब प्रलय काल आएगा तब भी इसी प्रकार का नाद प्रकट होगा।
मंदिरों में घंटी बजाने का वैज्ञानिक कारण भी है। जब घंटी बजाई जाती है तो उससे वातावरण में कंपन उत्पन्न होता है जो वायुमंडल के कारण काफी दूर तक जाता है। इस कंपन की सीमा में आने वाले जीवाणु, विषाणु आदि सुक्ष्म जीव नष्ट हो जाते हैं तथा मंदिर का तथा उसके आस-पास का वातावरण शुद्ध बना रहता है। साथ ही इस कंपन का हमारे शरीर पर भी सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। घंटी की आवाज से हमारा दिमाग बुरे विचारों से हट जाता है और विचार शुद्ध बनते हैं। नकारात्मक सोच खत्म होती है। इसी वजह से हम जब भी मंदिर जाए तो मंदिर की घंटी जरूर बजानी चाहिए।
गर्भवती स्त्री धर्म ग्रंथ क्यों पढ़ें?
वैसे तो सभी को हर परिस्थिति में धर्म शास्त्रों का अध्ययन करना ही चाहिए। जीवन जुड़े रहस्यों को समझने के लिए ग्रंथों का अध्ययन की सर्वश्रेष्ठ उपाय है। प्राचीन काल से ही सभी विद्वानों द्वारा इनके अध्ययन की सलाह दी जाती रही है। विशेषकर गर्भवती स्त्रियों को अवश्य ही कहा जाता है कि वे धर्म से जुड़े ग्रंथों को पढ़ें।
गर्भवती स्त्रियों को शास्त्र पढऩे की सलाह दी जाती है क्योंकि यह उनके गर्भ में पल शिशु के ज्ञान को बढ़ाता है। विज्ञान के अनुसार गर्भ में पल रहा शिशु भी सोचता-समझता और सभी आवाजों को सुनता भी है। इसीलिए नवजात शिशु में सुसंस्कार का विकास हो इस उद्देश्य से गर्भवती महिला को धर्म ग्रंथ पढऩा चाहिए।
मां के गर्भ में शिशु बाहर हो रही सभी घटनाओं और आवाजों को मां के ही कान और दिमाग से भलीभांति समझता है। इसका सबसे अच्छा उदाहरण महाभारत में देखने को मिलता है। महाभारत में पांडव पुत्र अर्जुन जब उनकी पत्नी सुभद्रा को युद्ध में चक्रव्यूह भेदने का रहस्य सुना रहा रहे थे, तब सुभद्रा के गर्भ में पल रहा शिशु अभिमन्यु यह सब बातें ध्यान से सुन रहा था। जब अर्जुन चक्रव्यूह भेदने की आधी नीति बता चुके थे, उस समय सुभद्रा को नींद आ गई। जिससे अभिमन्यु चक्रव्यूह को भेदने का रहस्य तो जान गया परंतु चक्रव्यूह से वापस लौटने का रहस्य नहीं सुन सका क्योंकि उसकी मां सुभद्रा सो गई थी। यही वजह महाभारत युद्ध में द्रोणाचार्य द्वारा रचित चक्रव्यूह में अभिमन्यु के वध का कारण बनी।
इसी घटना से सिद्ध होता है कि यदि गर्भवती स्त्रियां अपनी संतान को सुसंस्कारी और गुणवान बनाना चाहती है तो उन्हें धर्म ग्रंथ पढऩे चाहिए और अच्छे बातें ही सोचना चाहिए।
गर्भवती महिला जैसे विचार, जैसा खाना खाएगी, जैसा स्वभाव रखेगी, जो भी देखेगी-सुनेगी वैसे से ही सभी गुण उसकी संतान में आ जाते हैं।
संत-फकीरों के पैर क्यों छूते हैं?
कई धर्मों में संत और फकीरों की पैर छूने की परंपरा है। संतों का सभी लोग बहुत सम्मान करत हैं। काफी लोग संत-महात्माओं की पूजा भी करते हैं। इनके पैर छूने के पीछे धार्मिक कारण भी है और वैज्ञानिक कारण भी।
ऐसा माना जाता है कि संत-महात्माओं ध्यान और पूजा-अर्चना आदि कर्मों से दैवीय शक्तियों की कृपा प्राप्त कर लेते हैं। जिससे उनके आसपास सकारात्मक ऊर्जा का अलग ही घेरा बन जाता है। जिसे हम ओरा मंडल भी कहते हैं। इस घेरे के संपर्क में आते ही अन्य लोगों पर भी उसका प्रभाव पड़ता है। लोगों के विचार सकारात्मक हो जाते है और इन्हें दैवीय शक्तियों का आभास होने लगता है।
संतों के पैर छूना हमारा उनके प्रति सम्मान दर्शाता है कि हम उनका आदर करते हैं और भगवान के समान मानते हैं। जब हम किसी सच्चे संत-महात्मा के समक्ष झुकते हैं और वे आशिर्वाद देते समय हमारे सिर पर हाथ रखते हैं, बस यही संपर्क हमारे शरीर में एक नई ऊर्जा का संचार कर देता है। संत-महात्मा की आलौकिक शक्तियां उनके हाथों से हमारे सिर के रास्ते पूरे शरीर में पहुंच जाती है। इसी वजह से इनके संपर्क में आने के बाद लोगों के विचार बदल जाते हैं और इनके मार्गदर्शन से हमारे सभी कार्य भी सफल होते हैं। बुरा समय टल जाता है और शुभ समय की शुरूआत होती है। इन्हीं आलौकिक शक्तियां की प्राप्ति के लिए संत-महात्मा के पैर छूने की परंपरा शुरू की गई।
किसी भी मंदिर में कैसे बैठें?
वैसे तो हिंदू धर्म के अनुसार ईश्वर कण-कण में विराजमान हैं, हर जीव में परमात्मा निवास करते हैं। ईश्वर की साक्षात् अनुभूति के लिए मंदिर या देवालय बनाए गए हैं। वहीं हमारे घरों में भी भगवान के लिए अलग स्थान रखा जाता है। जहां देवी-देवताओं की प्रतिमाएं या चित्र रखे जाते हैं। जब भी श्रद्धालु कोई मनोकामना लेकर देवालयों में जाते हैं तो वहां कुछ समय बैठते अवश्य है। मंदिर में कैसे बैठना चाहिए इस संबंध में भी विद्वानों द्वारा कुछ बातें बताई गई हैं।
ऐसा माना जाता है कि मंदिरों में ईश्वर साक्षात् रूप में विराजित होते हैं। किसी भी मंदिर में भगवान के होने की अनुभूति प्राप्त की जा सकती है। भगवान की प्रतिमा या उनके चित्र को देखकर हमारा मन शांत हो जाता है और हमें सुख प्राप्त होता है। मंदिर में भगवान का ध्यान लगाने के लिए बैठते समय ध्यान रखना चाहिए कि हमारी पीठ भगवान की ओर न हो। इसे शुभ नहीं माना जाता है। मंदिर में कई दैवीय शक्तियां का वास होता है और वहां सकारात्मक ऊर्जा हमेशा सक्रीय रहती है। यह शक्ति या ऊर्जा देवालय में आने वाले हर व्यक्ति के लिए होती है। यह हम पर ही निर्भर करता है कि हम वह शक्ति कितनी ग्रहण कर पाते हैं। इन सभी शक्तियों का केंद्र भगवान की प्रतिमा ही होती है जहां से यह सभी सकारात्मक ऊर्जा संचारित होती रहती है। ऐसे में यदि हम भगवान की प्रतिमा की ओर पीठ करके बैठ जाते हैं तो यह शक्ति हमें प्राप्त नहीं हो पाती। इस ऊर्जा को ग्रहण करने के लिए हमारा मुख भी भगवान की ओर होना आवश्यक है।
भगवान की ओर पीठ करके नहीं बैठना चाहिए इसका धार्मिक कारण भी है। ईश्वर को पीठ दिखाने का अर्थ है उनका निरादर। भगवान की ओर पीठ करके बैठने से भगवान का अपमान माना जाता है। इसी वजह से ऋषिमुनियों और विद्वानों द्वारा बताया गया है कि हमारा मुख भगवान के सामने होना चाहिए, पीठ नहीं।
क्यों मनाते हैं गीता जयंती?
विश्व के किसी भी धर्म या संप्रदाय में किसी भी ग्रंथ की जयंती नहीं मनाई जाती। हिंदू धर्म में भी सिर्फ गीता जयंती मनाने की परंपरा पुरातन काल से चली आ रही है क्योंकि अन्य ग्रंथ किसी मनुष्य द्वारा लिखे या संकलित किए गए हैं जबकि गीता का जन्म स्वयं श्रीभगवान के श्रीमुख से हुआ है-
या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनि:सृता।।
श्रीगीताजी का जन्म धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में मार्गशीर्ष मास में शुक्लपक्ष की एकादशी को हुआ था। यह तिथि मोक्षदा एकादशी के नाम से विख्यात है। गीता एक सार्वभौम ग्रंथ है। यह किसी काल, धर्म, संप्रदाय या जाति विशेष के लिए नहीं अपितु संपूर्ण मानव जाति के लिए हैं। इसे स्वयं श्रीभगवान ने अर्जुन को निमित्त बनाकर कहा है। इसलिए इस ग्रंथ में कहीं भी श्रीकृष्ण उवाच शब्द नहीं आया है बल्कि श्रीभगवानुवाच का प्रयोग किया गया है।इसके छोटे-छोटे अठारह अध्यायों में इतना सत्य, ज्ञान व गंभीर उपदेश भरे हैं जो मनुष्यमात्र को नीची से नीची दशा से उठाक देवताओं के स्थान पर बैठाने की शक्ति रखते हैं।
मंदिर के शिखरों पर कलश क्यों?
मंदिर या देवालय जहां हमें भगवान की साक्षात् अनुभूति होती है। मंदिरों में जाने पर सभी श्रद्धालुओं को आत्मीय शांति प्राप्त होती है। इसकी वजह यह है कि हिंदूओं के मंदिर विशेष शैली में बनाए जाते हैं और इन देवालयों के शिखर पर कलश स्थापित किया जाता है।
मंदिरों के शिखर पर कलश स्थापित करने के लिए धार्मिक महत्व है। ऐसा माना जाता है कि कलश में ब्रह्मा, विष्णु व महेश की शक्तियों का निवास होता है। कलश के संबंध में एक और तथ्य है कि सीताजी की उत्पत्ति कलश से ही मानी जाती है। इसी वजह से कलश में तीनों देवों से मातृ शक्तियां भी कलश में निवास करती है। समुद्र मंथन के समय प्राप्त अमृत भी कलश में ही था। प्राचीन मंदिरों या तस्वीरों में भी भगवती लक्ष्मी को दो हाथियों द्वारा कलश जल से स्नान कराते हुए चित्रित किया गया है।
यही कारण है कि कलश को हिंदू धर्म में शुभ और पवित्रता का प्रतीक माना गया है। मंदिरों के शिखर पर कलश लगाने से उस स्थान पर त्रिदेव तथा मातृशक्तियों की विशेष कृपा बरसती है। इसी वजह से वहां आने वाले सभी श्रद्धालुओं की मनोकामनाएं पूर्ण होती है।
मंदिर के क्षेत्र में हमेशा सकारात्मक ऊर्जा प्रवाहित रहती है, कलश इस ऊर्जा के लिए एंटिना का कार्य करता है। कलश इस ऊर्जा को संग्रहित करके मंदिर में संचारित कर देता है जिससे उस क्षेत्र में आने वाले सभी जीवों पर उसका दैवीय प्रभाव पड़ता है। कलश नेगेटिव एनर्जी को दूर करता है। इसी वजह से मंदिर क्षेत्र में श्रद्धालुओं के दिमाग से नकारात्मक विचार निकल जाते हैं और उनके विचार शुद्ध तथा सकारात्मक बनते हैं।
घर में टूटे-फूटे बर्तन न रखें, क्योंकि...
आपके घर में बर्तन बता देते हैं कि आप किस स्तर का जीवन यापन कर रहे हैं। इसी वजह से आजकल डिजाइनर बर्तनों का क्रेज बढ़ रहा है। इसी क्रेज के चलते कई घरों में पुराने या टूटे-फूटे बर्तन में संभालकर अलग रख दिए जाते हैं, जो कि अशुभ माना जाता है। इससे घर में दरिद्रता बढ़ती है और कई तरह की हानि उठाना पड़ती है।
हमेशा से ही इस बात पर जोर दिया जाता है कि घरों में टूटे-फूटे बर्तन नहीं रखने चाहिए, ना ही कभी ऐसे बर्तनों में भोजन करना चाहिए। इस संबंध में धार्मिक तथ्य यह है कि ऐसा करने से ईश्वर की कृपा प्राप्त नहीं होती। जो व्यक्ति टूटे-फूटे बर्तनों में भोजन करता है उससे लक्ष्मी रूठ जाती है और उसके घर में दरिद्रता पैर पसार लेती है। ऐसा होने पर कई प्रकार के आर्थिक संकटों का सामना करना पड़ता है।
टूटे-फूटे बर्तनों को वास्तुशास्त्र द्वारा भी अशुभ माना गया है। जिस घर में ऐसे बर्तन रखे जाते हैं वहां वास्तुदोष रहता है। ऐसे में वास्तुदोष दूर करने के लिए बहुत से अन्य उपाय करने के बाद भी यह दोष दूर नहीं होता है। इससे घर में नकारात्मक ऊर्जा सक्रीय हो जाती है। घर से सभी टूटे-फूटे, बेकार बर्तनों को दूर कर देना चाहिए। इससे वास्तु दोष समाप्त होता है और घर में सब अच्छा होने लगता है।
बेकार बर्तन में भोजन करने से हमारे विचार नकारात्मक बनते हैं। जैसे बर्तनों में हम खाना खाते हैं हमारा स्वभाव भी वैसा ही बन जाता है। इसी वजह से अच्छे और साफ बर्तनों में भोजन करें। इससे आपके विचार भी शुद्ध होंगे और सकारात्मक ऊर्जा का शुभ प्रभाव आप पर पड़ेगा।
कल का काम आज ही क्यों करें?
आज जहां हर व्यक्ति उन्नति के शिखर को प्राप्त करना चाहता है, सफल होना चाहता है, एक ऊंचा मुकाम हासिल करना चाहता है, इसके लिए उसे कड़ी प्रतिस्पर्धा का भी सामना करना पड़ता है। इस प्रतियोगिता से निपटने के लिए कड़ी मेहनत करना होती है। जो भी लोग महान और बड़े हुए हैं उन सभी में एक बात अवश्य रहती है, वे सभी समय की कद्र करते हैं।
किसी भी ऊंचे लक्ष्य पर पहुंचने वाले लोगों की सफलता के पीछे कबीर दासजी का एक दोहा मूल मंत्र की तरह है-
कल करे सो आज कर,
आज करे सो अब।
पल में प्रलय होएगी,
बहुरी करेगा कब।
सामान्यत: यह दोहा सभी महान लोगों की जीवन में शामिल होता है। दोहे का अर्थ यही है कि कल का कार्य हमें तुरंत ही कर लेना चाहिए, क्योंकि पलभर के बाद क्या होगा कोई नहीं जानता। सफलता के लिए यह आवश्यक है कि बिना समय गवाएं लक्ष्य प्राप्ति के लिए कार्य कर लेना चाहिए। आज के युग में जहां हर व्यक्ति आगे बढऩा चाहते हैं, ऐसे में पलभर की देरी में ही कोई और आपसे आगे निकल जाएगा। इसी वजह से यदि आप अपने शिखर को प्राप्त करना चाहते हैं तो कोई भी कार्य कल पर नहीं टालना चाहिए। यदि किसी भी कार्य को कल पर टाला जाता है तो इसका निश्चित ही बुरा प्रभाव भुगतना पड़ सकता है।
लड़कियां बिंदी क्यों लगाती हैं?
लड़कियों के माथे पर चमकती बिंदी उनकी सुंदरता में चार चांद लगा देती है। बिंदी स्त्रियों के श्रंगार में महत्वपूर्ण स्थान रखती है। यह उनके 16 श्रंगार में से एक है। बिंदी का महत्व केवल सौंदर्य बढ़ाने वाले श्रंगार तक ही सीमित नहीं है। इसके अन्य लाभ भी हैं।
किसी भी लड़की के माथे पर चम-चम चमकती बिंदी किसी का भी मन बड़ी आसानी से मोह लेती है। कोई भी इसके आकर्षण से बच नहीं पाता। लड़कियां इसका उपयोग सुंदरता बढ़ाने के उद्देश्य से करती हैं और विवाहित महिलाओं के लिए यह सुहाग की निशानी मानी जाती है। हिंदू धर्म में शादी के बाद हर स्त्री को माथे पर लाल बिंदी लगाना आवश्यक परंपरा माना गया है।
बिंदी का संबंध हमारे मन से भी जुड़ा हुआ है। योग शास्त्र के अनुसार जहां बिंदी लगाई जाती है वहीं आज्ञा चक्र स्थित होता है। यह चक्र हमारे मन को नियंत्रित करता है। हम जब भी ध्यान लगाते हैं तब हमारा ध्यान यहीं केंद्रित होता है। यह स्थान काफी महत्वपूर्ण माना गया है। मन को एकाग्र करने के लिए इसी चक्र पर दबाव दिया जाता है। लड़कियां बिंदी इसी स्थान पर लगाती है।
बिंदी लगाने की परंपरा आज्ञा चक्र पर दबाव बनाने के लिए प्रारंभ की गई ताकि मन एकाग्र रहे। महिलाओं का मन अति चंचल होता है, अत: उनके मन को नियंत्रित और स्थिर रखने के लिए यह बिंदी बहुत कारगर उपाय है। इससे उनका मन शांत और एकाग्र रहता है।
पहले सीधा पैर ही बाहर क्यों रखें...?
अक्सर घर के बड़े-बुजूर्ग घर निकलते वक्त सीधा पैर पहले बाहर रखने की बात कहते हैं। ऐसा माना है इससे हमारा दिन शुभ होता है और कार्य सफल होते हैं।
जब भी हम घर से किसी खास कार्य को लक्ष्य बनाकर निकलते हैं उस वक्त सीधा पैर पहले बाहर रखने से निश्चित ही आपको कार्यों में सफलता प्राप्त होती है। यह परंपरा काफी पुरानी है जिसे हमारे घर के बुजूर्ग समय-समय पर बताते रहते हैं। इस प्रथा के पीछे मनोवैज्ञानिक और धार्मिक कारण दोनों ही हैं।
धर्म शास्त्रों के अनुसार सीधा पैर पहले बाहर रखना शुभ माना जाता है। सभी धर्मों में दाएं अंग को खास महत्व दिया गया है। सीधे हाथ से किए जाने वाले शुभ कार्य ही देवी-देवताओं द्वारा मान्य किए जाते हैं। देवी-देवताओं की कृपा के बिना कोई भी व्यक्ति किसी भी कार्य में सफलता प्राप्त नहीं कर सकता। इसी कारण सभी पूजन कार्य सीधे हाथ से ही किए जाते हैं। जब भी घर से बाहर जाते हैं तो सीधा पैर ही पहले बाहर रखते हैं ताकि कार्य की ओर पहला कदम शुभ रहेगा तो सफलता अवश्य प्राप्त होगी।
इस परंपरा के पीछे एक तथ्य और है कि इसका हम पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ता है। सीधा पैर पहले बाहर रखने से हमें सकारात्मक ऊर्जा प्राप्त होती है और मन प्रसन्न रहता है। इस बात का हम पर दिनभर प्रभाव रहता है। बाएं पैर को पहले बाहर निकालने पर हमारे विचार नकारात्मक बनते हैं।
यज्ञ क्यों किए जाते हैं?
हिंदू धर्म में हर मांगलिक कर्म के दौरान यज्ञ करने की परंपरा है साथ ही विभिन्न मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए यज्ञ किए जाते हैं। प्राचीन काल से ही यज्ञ द्वारा विभिन्न इच्छाओं की पूर्ति के लिए यज्ञ आदि किए जाते रहे हैं।
सतयुग में राजा दशरथ द्वारा यज्ञ किया गया जिसके फलस्वरूप राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न उन्हें पुत्र रूप में प्राप्त हुए। श्रीराम द्वारा अश्वमेघ यज्ञ किया गया था, इसी प्रकार द्वापर युग में श्रीकृष्ण की सलाह पर पांडवों ने भी यज्ञ किए।
यज्ञ मनोकामनाएं को पूरी करते हैं साथ ही इससे वातावरण भी शुद्ध और पवित्र होता है। यज्ञ एक महत्वपूर्ण विज्ञान है। इसमें जिन वृक्षों की लकड़ियां उपयोग में लाई जाती हैं, उनमें विशेष प्रकार के गुण होते हैं। किस प्रयोग के लिए किस प्रकार की सामग्री डाली जाती है, इसका भी विज्ञान है। उन वस्तुओं के सम्मिश्रण से एक विशेष गुण तैयार होता है, जो जलने पर वायुमंडल में विशिष्टï प्रभाव पैदा करता है। वेद मंत्रों के उच्चारण की शक्ति से उस प्रभाव में ओर अधिक वृद्धि होती है। फलस्वरूप जो व्यक्ति उस यज्ञ में शामिल होते हैं उन पर तथा निकटवर्ती वायुमंडल पर उसका बड़ा प्रभाव पड़ता है।
आमतौर माना जाता है कि आग से वायुमंडल की आक्सीजन खर्च होती है और कार्बन गैस बढ़ती है। हवन यज्ञ में खर्च होने वाली आक्सीजन की पूर्ति तो इसके बाद उत्पन्न होने वाली दस वनस्पतियों वृक्षों से ही हो जाती है। वैज्ञानिक अभी तक कृत्रिम वर्षा कराने में सफल नहीं हुए हैं लेकिन यज्ञ द्वारा वर्षा के प्रयोग सफल होते हैं। व्यापक सुख-समृद्धि, वर्षा, आरोग्य, शांति के लिए बड़े यज्ञों की आवश्यकता पड़ती है लेकिन छोटे हवन भी अपनी सीमा और मर्यादा के भीतर हमें लाभान्वित करते हैं।
अग्नि है ईश्वर का मुख
धर्म शास्त्र के अनुसार अग्नि ईश्वर का मुख है। इसमें जो कुछ खिलाया जाता है, वास्तव में ब्रह्मïभोज है। यज्ञ के मुख में आहुति डालना, परमात्मा को भोजन कराना है।
किसी की मृत्यु के बाद गरुड़ पुराण क्यों सुनी जाती है?
हिंदू शास्त्रों के अनुसार जन्म-मृत्यु एक ऐसा चक्र है जो अनवरत चलता रहता है। जीवन के मृत्यु तो आएगी ही। जन्म से मृत्यु तक हमें कई कार्य करने होते हैं। प्राचीन ऋषि-मुनियों और विद्वानों ने कई परंपराएं बनाई गई हैं जिनका पालन करना काफी हद तक अनिवार्य बताया गया है। हमारे जीवन के साथ-साथ मृत्यु के बाद की भी हमसे जुड़ी कुछ परंपराएं होती हैं जिनका पालन हमारे परिवार वालों को करना पड़ता है। इन्हीं परंपराओं में से एक है घर के किसी सदस्य की मृत्यु के बाद गरुड़ पुराण सुनी जाती है। किसी पंडित से से गरुड़ पुराण पढ़वाई जाती है और घर के सभी सदस्य इसका श्रवण करते हैं।
परिवार के किसी भी सदस्य की मृत्यु के बाद घर में गरुड़ पुराण सुनने की प्रथा है। इसका सभी के यहां अनिवार्य रूप पालन किया जाता है। गरुड़ पुराण में जन्म-मृत्यु से जुड़े सभी सवालों के जवाब हैं। जिन्हें जानना सभी के लिए आवश्यक है। इसी वजह से मृत्यु के पश्चात सभी को गरुड़ पुराण का ज्ञान दिया जाता है ताकि सभी जीवित लोग जीवन में अच्छा कार्य करें। सभी जानते हैं कि जो जैसा करता है उसे उसका वैसा ही फल मिलता है। यही बात गरुड़ पुराण में बताई गई है।
ऐसी मान्यता है कि गरुड़ पुराण के श्रवण से मरने वाले व्यक्ति की आत्मा को शांति मिलती है क्योंकि गरुड़ पुराण पगड़ी आदि रस्मों के दिन तक पढ़ी जाती है। शास्त्रों के अनुसार पगड़ी रस्म तक मरने वाले की आत्मा उसी के घर में निवास करती है और वह भी यह पुराण सुनती है। गरुड़ पुराण श्रवण का धार्मिक महत्व यही है कि मृत व्यक्ति की आत्मा को शांति मिले और उसे मोक्ष मिल सके।
गरुड़ पुराण के अनुसार हमारे कर्मों का फल हमें हमारे जीवन में तो मिलता ही है परंतु मरने के बाद भी कार्यों का अच्छा-बुरा फल मिलता है। इसी वजह से इस ज्ञान को प्राप्त करने के लिए घर के किसी सदस्य की मृत्यु के बाद का अवसर निर्धारित किया गया ताकि उस समय हम जन्म-मृत्यु से जुड़े सभी सत्य जान सके और मृत्यु वश बिछडऩे वाले सदस्य का दुख कम हो सके।
घर आए भिखारी को खाली हाथ न जाने दें
सभी धर्मों में गरीबों की मदद करना हमारा कर्तव्य बताया गया है। जो भी व्यक्ति दान करने में समर्थ है उसे हमेशा जरूरतमंदों को सहयोग करना चाहिए। इसी वजह से अधिकांश घरों के लोग घर आए भिखारी को कभी खाली हाथ नहीं जाने देते।
हिंदु धर्म में भिखारी को नारायण ही माना गया है। इन्हें दरिद्र नारायण दिया गया है। शास्त्रों अनुसार भगवान हमारी समय-समय पर परीक्षा लेते हैं। पुराने समय में भी कई ऐसे प्रसंग मिलते हैं जहां भगवान भिक्षुक बनकर भक्त की परीक्षा लेने पहुंचे। भगवान हमेशा ही भक्तों की श्रद्धा को परखने के लिए नए वेश धारण करते हैं। कहा जाता है कि भगवान कब, कहां, किस रूप में आपके सामने आ जाए, यह समझना आम मनुष्य की बुद्धि से परे ही है। इसे समझ पाना अति मुश्किल है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए प्राचीन ऋषिमुनियों ने यह नियम बनाया कि आपके घर में कोई भिक्षुक आए उसे कभी खाली हाथ न जाने दें। ऐसा हो सकता है कि स्वयं भगवान ही आपकी परीक्षा लेने आए हो।
मानवता के नाते भी किसी भी जरूरतमंद व्यक्ति की मदद करना सभी का धर्म है। यदि कोई धन अर्जित करने में असमर्थ है या शारीरिक रूप से अक्षम है तो उसकी मदद करना सभी परम कर्तव्य है। हमारी मदद से उसके घर के सदस्यों को खाना मिलता है। शास्त्रों के अनुसार ऐसे जरूरतमंदों की दुआओं का अच्छा प्रभाव बताया गया है। गरीबों की दुआएं हमें बुरे समय से बचाती है। साथ ही हमारे पुण्यों में बढ़ोतरी करती है जिसके प्रभाव से हमारे कई रुके हुए कार्य पूर्ण हो जाते हैं। घर के सदस्यों पर यदि को विपदा आने वाली हो तो वह भी इन दुआओं से टल जाती है। इन्हीं कारणों के चलते कभी भी भिखारी को खाली हाथ नहीं जाने देना चाहिए।
शनिवार को व्रत क्यों करते हैं?
सप्ताह के सातों का दिन अपना अलग महत्व रखते हैं। हिंदु धर्म के शास्त्रों के अनुसार सभी अलग-अलग देवी-देवताओं की आराधना के लिए निर्धारित किए गए हैं। श्रद्धालु को जिस देवी या देवता का भक्त होता है उसे उनसे संबंधित दिन विशेष पूजा-अर्चना, व्रत-उपवास करने होते हैं। इसी तरह जो भी व्यक्ति शनि देव को प्रसन्न करना चाहता है वह शनिवार का व्रत करता है।
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार शनि देव एक क्रूर ग्रह माना गया है। साथ ही शनि को न्यायधीश का पद प्राप्त है। शनि देव ही हमारे कर्मों के अनुसार हमें शुभ या अशुभ फल प्रदान करते हैं। हमारे अच्छे कार्यों के लिए अच्छे फल तथा गलत कार्यों के लिए शनि देव दंड देते हैं। जाने-अनजाने किए गए गलत कार्यों के बुरे फल ही प्राप्त होते हैं। कई लोगों की कुंडली में शनि अशुभ फल देने वाला होता है। इस वजह से व्यक्ति को कई परेशानियों का सामना करना पड़ता है। शनि के प्रभाव से विवाह में देरी होती है, धन हानि होती है, समाज में अपमान झेलना पड़ सकता है, चोरी का झूठा आरोप लग सकता है, शारीरिक बीमारी हो सकती है। इन दुष्प्रभावों से बचने के लिए शनि देव की कृपा प्राप्त करना सबसे अधिक जरूरी है।
शनि को प्रसन्न करने के लिए कई उपाय बताए गए हैं। इन्हीं उपायों में से एक है शनिवार का व्रत। शनिवार शनि देव का दिन माना जाता है। इस दिन शनि के निमित्त जो भी धार्मिक कार्य किए जाते हैं उनका हमें काफी अच्छा फल प्राप्त होता है। इस दिन व्रत करने से शनि देव प्रसन्न होते हैं तथा भक्त को शुभाषीष प्रदान करते हैं। रुके हुए कार्य बन जाते हैं, सभी विपरित परिस्थितियों में हमें राहत प्राप्त होती है। शनिवार को निराहार रह कर शनि की आराधना की जाती है। कई भक्त इस दिन केवल फलाहार करते हैं।
सूर्य की प्रतिमा के चरणों के दर्शन न करें, क्योंकि...
देवी-देवताओं के दर्शन मात्र से ही हमारे कई जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं और अक्ष्य पुण्य प्राप्त होता है। भगवान की प्रतीक प्रतिमाओं के दर्शन से हमारे सभी दुख-दर्द और क्लेश स्वत: ही समाप्त हो जाते हैं। सभी देवी-देवताओं की पूजा के संबंध में अलग-अलग नियम बनाए गए हैं।
सभी पंचदेवों में प्रमुख देव हैं सूर्य। सूर्य की पूजा सभी मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाली होती है। सूर्य देव की पूजा के संबंध में एक महत्वपूर्ण नियम है बताया गया है कि भगवान सूर्य के पैरों के दर्शन नहीं करना चाहिए। इस संबंध में शास्त्रों में एक कथा बताई गई है। कथा के अनुसार सूर्य देव का विवाह प्रजापति दक्ष की पुत्री संज्ञा से हुआ। सूर्य का रूप परम तेजस्वी था, जिसे देख पाना सामान्य आंखों के लिए संभव नहीं था। इसी वजह से संज्ञा उनके तेज का सामना नहीं कर पाती थी। कुछ समय बाद देवी संज्ञा के गर्भ से तीन संतानों का जन्म हुआ। यह तीन संतान मनु, यम और यमुना के नाम से प्रसिद्ध हैं। देवी संज्ञा के लिए सूर्य देव का तेज सहन कर पाना मुश्किल होता जा रहा था। इसी वजह से संज्ञा ने अपनी छाया को पति सूर्य की सेवा में लगा दिया और खुद वहां से चली गई। कुछ समय बाद जब सूर्य को आभास हुआ कि उनके साथ संज्ञा की छाया रह रही है तब उन्होंने संज्ञा को तुरंत ही बुलवा लिया। इस तरह छोड़कर जाने का कारण पूछने पर संज्ञा ने सूर्य के तेज से हो रही परेशानी बता दी। देवी संज्ञा की बात को समझते हुए उन्होंने देवताओं के शिल्पकार विश्वकर्मा से निवेदन किया कि वे उनके तेज को किसी भी प्रकार से सामान्य कर दे। विश्वकर्मा ने अपनी शिल्प विद्या से एक चाक बनाया और सूर्य को उस पर चढ़ा दिया। उस चाक के प्रभाव से सूर्य का तेज सामान्य हो गया। विश्वकर्मा ने सूर्य के संपूर्ण शरीर का तेज तो कम दिया परंतु उनके पैरों का तेज कम नहीं कर सके और पैरों का तेज अब भी असहनीय बना हुआ है। इसी वजह सूर्य के चरणों का दर्शन वर्जित कर दिया गया। ऐसा माना जाता है कि सूर्य के चरणों के दर्शन से दरिद्रता प्राप्त होती है और पाप की वृद्धि होती है पुण्य कम होते हैं।
गर्भवती स्त्रियां सावधान, ग्रहण न देखें! क्योंकि...
4 जनवरी 2010 को साल का पहला सूर्य ग्रहण पड़ रहा है। हिंदु धर्म के अनुसार ग्रहण काल के संबंध में कई कार्यों पर पूरी तरह मना किया गया है। इन्हीं वर्जित कार्यों में से एक है गर्भवती स्त्रियों का घर से बाहर निकलना।
सभी विद्वानों और विज्ञान के अनुसार किसी भी गर्भवती स्त्री को घर से बाहर न निकलने की सलाह दी जाती है। ग्रहण काल के दौरान सूर्य से निकलने वाली किरणें हम पर हर परिस्थिति में बुरा ही प्रभाव डालती हैं। इन किरणों से बचना सभी के लिए जरूरी है, खासकर गर्भवती स्त्रियों के लिए। विज्ञान के अनुसार यह किरणें गर्भ में पल रहे शिशु के लिए बहुत अधिक खतरनाक है।
साथ ही तंत्र-मंत्र और टोने-टोटके के जानकारों का ऐसा मानना है कि इस काल में बुरी शक्तियां अत्यधिक बलशाली हो जाती है। यहां बुरी शक्तियां से आशय बुरी आत्माओं से है। यह शक्तियां गर्भ में पल रहे बच्चों के लिए तथा गर्भवती स्त्रियों के लिए भी अशुभ है। स्त्रियों के बाहर निकलने पर यह बुरी आत्माएं उन पर प्रभाव डालने का प्रयास करती हैं। जो कि नि:सदेह काफी खतरनाक होता है। इसी वजह से गर्भवती स्त्रियों को ग्रहण काल के दौरान घर के अंदर रहने की सलाह दी जाती है। ग्रहण के समय वातावरण में नकारात्मक ऊर्जा सक्रिय रहती है जो कि कमजोर लोगों पर बुरा प्रभाव डालती है। गर्भवस्था के दौरान स्त्री का शरीर बहुत कमजोर हो जाता है। ऐसे में स्त्रियों इन बुरे प्रभावों से बचने के लिए घर में ही रहना जरूरी है। यदि ग्रहण के दौरान बाहर निकलना भी पड़े तो ध्यान रखें कि किसी भी परिस्थिति में सूर्य को न देखें और पूरी सावधानी रखें।
ग्रहण के समय मंदिर बंद क्यों रहते हैं?
ग्रहण काल में मंदिर या सभी देव स्थानों के पट बंद कर दिए जाते हैं। जब तक ग्रहण रहता है मंदिर में किसी भी व्यक्ति को भगवान के दर्शन प्राप्त नहीं होते। ऐसा क्यों होता है कि ग्रहण के पूरे समय तक मंदिर बंद ही रहते हैं?
ग्रहण को अशुद्ध माना जाता है तथा इस अवधि में पडऩे वाली छाया सभी को अपवित्र कर देती है। हिंदु धर्म में ऐसी मान्यता है कि ग्रहण काल से सूतक लग जाता है और जब तक ग्रहण रहता सूतक समाप्त नहीं होता। इस सूतक में देवी-देवताओं के दर्शन करने पर पाप की बढ़ोतरी होती है और पुण्य घटता है। इसी वजह से इस ग्रहण के समय देवी-देवताओं के दर्शन वर्जित किए गए हैं।
ग्रहण के बाद सभी देवस्थानों का शुद्धिकरण किया जाता है, मंदिरों में अच्छे से साफ-सफाई की जाती है, पूरे मंदिर परिसर को पवित्र किया जाता है, इसके बाद ही मंदिर के पट श्रद्धालुओं के खोले जाते हैं।
ग्रहण के बाद नहाना क्यों जरूरी है?
सूर्य ग्रहण या चंद्र ग्रहण की परिस्थितियों में नहाना अतिआवश्यक माना गया है। हिंदु धर्म के अनुसार ग्रहण काल में हमारा शरीर अपवित्र हो जाता है। अत: ग्रहण समाप्ति के बाद हमारे शरीर पुन: पवित्र करने के लिए नहाना जरूरी है।
सूर्य ग्रहण का समय ऐसा होता है जब सूर्य की किरणें सीधे हम तक नहीं पहुंचती। सूर्य ग्रहण के दौरान सूर्य पूरा नहीं दिखाई देता लेकिन जो भी भाग दिखाई देता उससे निकलने वाली किरणें बहुत ही घातक होती है। इन किरणों के प्रभाव से वातावरण में कई प्रकार की नकारात्मक ऊर्जा सक्रिय हो जाती है। इस दौरान वातावरण में कई ऐसे कीटाणु भी पैदा हो जाते हैं जो हमारे शरीर को नुकसान पहुंचा सकते हैं। इन कीटाणुओं के प्रभाव से हमें कई बीमारियां हो सकती हैं। सामान्य आंखों से न दिखाई देने वाले यह कीटाणु हमारे शरीर पर भी चिपक जाते हैं। इन विषेले कीटाणुओं को नष्ट करने के लिए ग्रहण काल के बाद नहाने की सलाह दी जाती है।
धर्म के अनुसार भी ग्रहण के बाद हमारा शरीर भी अशुद्ध हो जाता है। ग्रहण के बाद जब हम नहा न लें तब तक कोई पुण्य कर्म नहीं कर सकते हैं। इसी वजह से ग्रहण काल के बाद नहाना अतिआवश्यक है।
किस महीने में क्या न खाए?, क्या न करें?
जीने के लिए खाना जितना जरूरी है, उतना ही अच्छे स्वास्थ्य के लिए कुछ खाने की चीजों से दूरी बनाए रखना जरूरी है। साथ ही हमेशा निरोगी और स्वस्थ रहने के लिए प्रतिदिन योग का अभ्यास करना चाहिए। योग शास्त्र में 12 महीनों के लिए कुछ ऐसी खाने की चीजे बताई गई हैं, जिन्हें अलग-अलग माह में नहीं खाना चाहिए। हमारा खान-पान ही हमारे शरीर को पूरी तरह तंदुस्त रखता है। अच्छे भोजन से हमारी कार्यक्षमता सही बनी रहती है, जल्दी थकान नहीं होती और साथ ही कई छोटी-छोटी बीमारियां हमेशा ही हमसे दूर रहती है।
पुराने समय में एक कहावत कही गई है- चौते गुड़, वैशाखे तेल, जेठ के पंथ, अषाढ़े बेल।
सावन साग, भादो मही, क्वार करेला, कार्तिक दही।
अगहन जीरा, पूसै धना, माघै मिसरी, फागुन चना।
जो कोई इतने परिहरै, ता घर बैद पैर नहिं धरै।
किस माह में क्या न खाएं या क्या न करें?
माह: क्या न खाएं या क्या न करें
जनवरी-फरवरी: मिस्री
फरवरी-मार्च: चना
मार्च-अप्रैल: गुड़
अप्रैल-मई: तेल
मई-जून: इस माह में गर्मी का अत्यधिक प्रकोप रहता है अत: ज्यादा घुमना-फिरना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है।
जून-जुलाई: हरी सब्जियों को अच्छे साफ करके खाएं।
जुलाई-अगस्त: सत्तू, हरी सब्जियां अच्छे साफ की हुई होना चाहिए।
अगस्त-सितंबर: छाछ, दही का कम से कम सेवन करें।
सितंबर-अक्टूबर: करेला
अक्टूबर-नवंबर: छाछ, दही
नवंबर: दिसंबर: जीरा
दिसंबर-जनवरी: धनिया
ग्रहण: क्यों डालते हैं खाने में तुलसी के पत्ते?
हिंदु धर्म के अनुसार सूर्य ग्रहण के दौरान सभी खाद्य पदार्थ और पानी आदि में तुलसी की पत्तियां डालना अनिवार्य बताया गया है। ग्रहण में तुलसी के पत्ते खाने में डालने से धार्मिक और वैज्ञानिक दोनों की फायदे प्राप्त होते हैं।
तुलसी एक ऐसा पौधा है जो धर्म और आयुर्वेद में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। इसकी पत्तियों में कई औषधीय गुण होते हैं जो कि हमारे स्वास्थ्य के लिए बहुत फायदेमंद है। इसी वजह से तुलसी के पत्ते का नियमित सेवन करने की सलाह दी है। साथ ही तुलसी पवित्रता का भी प्रतीक है। ऐसा माना जाता है ग्रहण काल में भोजन की सामग्री आदि अपवित्र हो जाती है। अत: भोजन को ग्रहण की अपवित्रता से बचाने के लिए पवित्रता की प्रतीक तुलसी को खाने में डाल दिया जाता है।
ग्रहण के समय खाने में कई विषेले कीटाणु आदि पैदा हो जाते हैं, इन कीटाणुओं के बुरे प्रभाव को खत्म करने के लिए तुलसी के पत्ते सक्षम होते हैं। औषधीय गुण वाली तुलसी हमारे स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव डालने वाले कीटाणु को नष्ट कर देती है और खाने को खराब होने बचा लेती है।
ग्रहण काल में पूजा-पाठ नहीं करें, क्योंकि...
सूर्य ग्रहण के समय पूजा-पाठ आदि धर्म-कर्म वर्जित किए गए हैं। हिंदु धर्म शास्त्रों में ग्रहण को अपवित्र माना जाता है। इस दौरान किए गए धार्मिक कर्मकांड देवी-देवताओं द्वारा मान्य नहीं किए जाते।
ग्रहण काल के दौरान पूजा-पाठ न क्योंकि यह समय सभी धार्मिक कार्यों के वर्जित किया गया है। शास्त्रों के अनुसार ग्रहण के समय सूतक लग जाता है और सूतक में धार्मिक कर्म नहीं किए जाते हैं। सूतक के संबंध में बताया गया है कि सूर्य ग्रहण जिस समय होने वाला है उस निश्चित समय के 12 घंटे पूर्व से ही सूतक लग जाता है अत: इस पूरी अवधि में भगवान के निमित्त कोई पूजन-अर्चन नहीं किया जाता। इस दौरान सिर्फ मंत्रों का मानसिक जप किया जा सकता है या किसी धर्म ग्रंथ को पढऩे का विशेष महत्व बताया गया है। इस दौरान किए गए मंत्र जप का अक्षय पुण्य प्राप्त होता है। मानसिक जप से आशय है कि मंत्र का जप मन ही मन किया जाता है। मंत्रों की आवाज किसी अन्य व्यक्ति को सुनाई नहीं देती है। इस दौरान सिर्फ भगवान का ध्यान करके मंत्रों का मन में जप करना शुभ माना गया है।
ऐसा क्यों, सूर्य ग्रहण में खान न खाएं?
सूर्य ग्रहण एक खगोलिय घटना है। यह विज्ञान की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण समय होता है जब सूर्य और पृथ्वी के बीच चंद्र आता है, इसी परिस्थिति में सूर्य ग्रहण होता है। इस दौरान कई सावधानियां रखी जाती है। धर्म और विज्ञान दोनों ही के अनुसार ग्रहण के समय में सावधानी बरतने की सलाह दी जाती हैं।
हमारे घर के बड़े-बुजुर्ग ग्रहण काल में विशेष तौर खाना न खाने की बात कहते हैं। यह बहुत ही महत्वपूर्ण बात है इसकी अनदेखी करने पर कई बुरे प्रभाव देखने को मिलते हैं। धर्म के अनुसार भी ग्रहण काल के दौरान खाना न खाने का नियम बनाया गया है, इस नियम को तोडऩा अशुभ माना जाता है। सूर्य हमारे शरीर को पूरी तरह प्रभावित करता है लेकिन ग्रहण के समय सूर्य की किरणें हम तक नहीं पहुंचती हैं। इसका हमारे शरीर पर बुरा प्रभाव पड़ता है। इस समय वातावरण में भी कई नकारात्मक किरणें संचारित हो जाती है, ऐसे में भोजन करने पर इन किरणों का नकारात्मक प्रभाव खाने पर पड़ता है। इस प्रभाव की वजह से हमें पेट संबंधी कई बीमारियां हो सकती है। साथ ही इस दौरान भोजन में भी कई विषेले कीटाणु पनप जाते हैं, यह हमें बीमार कर सकते हैं। इसी वजह से ग्रहण काल में भोजन नहीं करना चाहिए।
पहली रोटी गाय को खिलाएं, क्योंकि...
गाय हिंदु धर्म में पवित्र और पूजनीय मानी गई है। शास्त्रों के अनुसार गौसेवा के पुण्य का प्रभाव कई जन्मों तक बना रहता है। इसीलिए गाय की सेवा करने की बात कही जाती है।
पुराने समय से ही गौसेवा को धर्म के साथ ही जोड़ा गया है। गौसेवा भी धर्म का ही अंग है। गाय को हमारी माता बताया गया है। ऐसा माना जाता है कि गाय में हमारे सभी देवी-देवता निवास करते हैं। इसी वजह से मात्र गाय की सेवा से ही भगवान प्रसन्न हो जाते हैं।
भगवान श्रीकृष्ण के साथ ही गौमाता की भी पूजा की जाती है। भागवत में श्रीकृष्ण ने भी इंद्र पूजा बंद करवाकर गौमाता की पूजा प्रारंभ करवाई है। इसी बात से स्पष्ट होता है कि गाय की सेवा कितना पुण्य का अर्जित करवाती है। गाय के धार्मिक महत्व को ध्यान में रखते हुए कई घरों में यह परंपरा होती है कि जब भी खाना बनता है पहली रोटी गाय को खिलाई जाती है। यह पुण्य कर्म बिल्कुल वैसा ही जैसे भगवान को भोग लगाना। गाय को पहली रोटी खिला देने से सभी देवी-देवताओं को भोग लग जाता है।
सभी जीवों के भोजन का ध्यान रखना भी हमारा ही कर्तव्य बताया गया है। इसी वजह से यह परंपरा शुरू की गई है। पुराने समय में गाय को घास खिलाई जाती थी लेकिन आज परिस्थितियां बदल चुकी है। जंगलों कटाई करके वहां हमारे रहने के लिए शहर बसा दिए गए हैं। जिससे गौमाता के लिए घास आसानी से उपलब्ध नहीं हो पाती है और आम आदमी के लिए गाय के लिए हरी घास लेकर आना काफी मुश्किल कार्य हो गया है। इसी कारण के चलते गाय को रोटी खिलाई जाने लगी है।
शुभ काम, शुभ समय में ही करें, अन्यथा...
ऐसा कहा जाता है कि हर कार्य के लिए समय भगवान द्वारा पूर्व निश्चित किया होता है। जब भी, जो भी होना है, वह अपने निर्धारित समय पर ही होता है। फिर भी हम अपनी ओर से यह कोशिश करते हैं सभी मांगलिक कर्म या शुभ कार्य शुभ चौघडिय़ा में ही किए जाए।
हम हर शुभ कार्य की सफलता के लिए कई सावधानियां रखते हैं। इन्हीं सावधानियों में से एक है शुभ समय का ध्यान रखना। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार दिन में अलग-अलग चौघडिय़ें होते हैं। इनमें शुभ फल देने वाले और अशुभ फल देने वाले दोनों ही शामिल है। ज्योतिष के जानकारों के अनुसार अशुभ चौघडिय़े में शुरू किए गए कार्य बड़ी समस्याओं के साथ पूरे होते हैं अथवा अधूरे ही रह जाते हैं। जबकि शुभ मुहूर्त (चौघडिय़ा) में शुरू किए गए कार्य बिना किसी विघ्न या बाधा के पूर्ण हो जाते हैं और इसका शुभ फल भी प्राप्त होता है। शुभ मुहूर्त में शुरू किए गए कार्य हमें अच्छे फल प्रदान करते हैं साथ ही इसका हमारे परिवार और सभी संबंधित व्यक्तियों पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
शुभ चौघडिय़ों में ग्रह स्थिति कुछ इस प्रकार रहती है जो कि हमारे मांगलिक कार्य को पूर्ण करने में सहयोग प्रदान करती है। इसके अलावा इन मूहूर्त में प्रारंभ कार्यों को दैवीय शक्तियों की कृपा भी प्राप्त होती है। इसी वजह से शुभ कार्य को शुभ मुहूर्त में किया जाता है। ताकि हमारा कार्य बिना किसी बाधा के संपंन हो और जीवनभर इसका शुभ फल हमें प्राप्त हो सके।
कब करें घर की साफ-सफाई?
हर व्यक्ति चाहता है कि उसका घर साफ और स्वच्छ रहे। घर में किसी भी प्रकार की गंदगी, धूल-मिट्टी न हो। घर का वातावरण मन को शांति देने वाला होना चाहिए। जब भी हम कार्य की अधिकता से थकान महसूस करते हैं तो घर आते ही हमारा मन शांत हो जाता है। ऐसे में बहुत जरूरी होता है कि घर की सही साफ-सफाई की जाए। इस संबंध में विद्वानों ने बताया है कि घर की सफाई सुबह करनी चाहिए, रात के समय यह कार्य शुभ नहीं माना जाता।
रोज ही अपने घर की साफ-सफाई की जाती है, झाड़ू-पौछा किया जाता है। सामान्यत: सभी के घरों में सुबह-सुबह ही नहाने से पूर्व ही साफ-सफाई का कार्य कर लिया जाता है। धर्म शास्त्रों के अनुसार शाम या रात्रि के समय घर की साफ-सफाई निषेध की गई है। इसकी वजह यह है कि घर के कचरे में बीमारी फैलाने वाले कीटाणु रहते हैं जो सफाई के समय हमारे शरीर पर चिपक जाते हैं, यह कीटाणु स्वास्थ्य के हानिकारक होते हैं। सुबह सफाई करने के बाद घर के सभी सदस्य नहा लेते हैं जिससे शरीर पर लगे बीमारी के कीटाणु साफ हो जाते हैं और उन कीटाणुओं से बीमार होने की संभावना समाप्त हो जाती है। परंतु यदि रात्रि के समय सफाई करेंगे तो वह सारे कीटाणु घर के सदस्यों के शरीर पर चिपक जाएंगे। रात्रि के समय सभी सदस्य नहाते भी नहीं है ऐसे में उन कीटाणुओं से हमारे स्वास्थ्य को खतरा रहता है। तो उस खतरे से हमें बचाने के लिए रात्रि के समय साफ-सफाई निषेध की गई है।
भगवान की कितनी प्रतिमाएं रखें घर में?
सभी के घरों में भगवान के लिए भी यथाशक्ति अलग घर या मंदिर अवश्य होता है। मंदिर में अपने इष्ट देव की मूर्ति, तस्वीर, पूजा का अन्य सामान रखा जाता है। परंतु शास्त्रों में भगवान की मूर्तियों की संख्या के संबंध में कुछ विशेष बातें बताई गई हैं जैसे-
- घर के मंदिर में श्री गणेश की 3 प्रतिमाएं नहीं होना चाहिए।
- मंदिर में दो शिवलिंग नहीं होना चाहिए तथा शिवलिंग अंगूठे के आकार का होना चाहिए।
- देवी या माताजी की 3 प्रतिमाएं नहीं रखें।
- सूर्य देव की 2 प्रतिमा नहीं रखना चाहिए।
- मंदिर में पूजा के उपयोग हेतु शंख भी रखा जाता है। शंख की संख्या भी 2 नहीं होना चाहिए।
- कुछ लोग घर के मंदिर में विभिन्न यंत्र, चक्र आदि भी रखते हैं। जैसे गोमती चक्र, लक्ष्मी यंत्र, रुद्र यंत्र इत्यादि। गोमती चक्र अधिकांश लोगों के मंदिर में रखा जाता है। गोमती चक्र की संख्या भी 2 नहीं होना चाहिए।
स्वस्तिक कब और क्यों बनाया जाता है?
स्वस्तिक हिंदु धर्म का पवित्र और पूजनीय चिन्ह है। इसे श्री गणेश का प्रतीक चिन्ह माना जाता है। शिव के वरदान स्वरूप हर मांगलिक और शुभ कार्य पर सबसे पहले श्रीगणेश का पूजन किया जाता है। इसी वजह से किसी भी प्रकार का कोई भी मांगलिक कार्य, शुभ कर्म या विवाह आदि धर्म कर्म में स्वतिस्क बनाना अनिवार्य है।
स्वस्तिक बनाने से हमारे कार्य निर्विघ्न पूर्ण हो जाते हैं। किसी भी धार्मिक कार्यक्रम में या सामान्यत: किसी भी पूजा-अर्चना में हम दीवार, थाली या जमीन पर स्वस्तिक का निशान बनाकर स्वस्ति वाचन करते हैं। किसी भी पूजन कार्य का शुभारंभ बिना स्वस्तिक के नहीं किया जा सकता। चूंकि शास्त्रों के अनुसार श्री गणेश प्रथम पूजनीय हैं, अत: स्वस्तिक का पूजन करने का अर्थ यही है कि हम श्रीगणेश का पूजन कर उनसे विनती करते हैं कि हमारा पूजन कार्य सफल हो।
साथ ही स्वस्तिक धनात्मक ऊर्जा का भी प्रतीक है, इसे बनाने से हमारे आसपास से नकारात्मक ऊर्जा दूर हो जाती है। स्वस्तिक का चिन्ह वास्तु के अनुसार भी कार्य करता है, इसे घर के बाहर भी बनाया जाता है जिससे स्वस्तिक के प्रभाव से हमारे घर पर किसी की बुरी नजर नहीं लगती और घर में सकारात्मक वातावरण बना रहता है।
कब और क्यों न पहनें नई ड्रेस?
सामान्यत: किसी भी उत्सव या कार्यक्रम पर हम नई ड्रेस पहनते हैं। ऐसा कोई अवसर यदि शनिवार को आ रहा हो तो उस दिन नई ड्रेस न पहनें। शनिवार ज्योतिष शास्त्र के अनुसार सबसे अधिक क्रूर और अशुभ समझे जाने वाले ग्रह शनि का दिन है।
शनिवार के दिन कोई नया कार्य न प्रारंभ करने पर भी जोर दिया जाता है। मान्यता है कि इस कार्य प्रारंभ करने पर वह कार्य बड़ी परेशानियों के साथ पूरा होता है तथा उस कार्य में सफलता मिलना बहुत कठिन हो जाता है। इस दिन कहीं बाहर यात्रा पर जाना भी वर्जित किया गया है।
शनि गरीबों और न्याय का प्रतिनिधित्व करता है। वहीं राहु और केतु को शनि के अधिन माना गया है। यदि किसी व्यक्ति की कुंडली में शनि अशुभ स्थान पर है तो शनि सहित राहु-केतु भी उसके जीवन में कई परेशानियां खड़ी कर देते हैं।
शनि अशुभ होने पर शनिवार को नई ड्रेस पहनने पर शनि का बुरा प्रभाव और अधिक बढ़ जाता है।
पूजा में कौन से बर्तन का उपयोग न करें?
भगवान की पूजा एक ऐसा उपाय है जिससे जीवन की बड़ी-बड़ी समस्याएं हल हो जाती हैं। इसी वजह से पूजनकर्म के संबंध में कई सावधानियां और विधियां बताई गई हैं। शास्त्रों में भगवान की पूजा में प्रयुक्त होने वाले बर्तनों के संबंध में भी कई नियम बताए गए हैं।
भारतीय पूजा पद्धति में धातुओं के बर्तन का बड़ा महत्व है। हर तरह की धातु अलग फल देती है और उसका अलग वैज्ञानिक कारण भी है। सोना, चांदी, पीतल, तांबा सभी धातुओं का अपना-अपना महत्व होता है। पूजा पद्धति में लोहा और एल्युमीनियम को वर्जित माना गया है।
लोहा, स्टील और एल्यूमीनियम को अपवित्र धातु माना गया है तथा पूजा और धार्मिक क्रियाकलापों में इन धातुओं के बर्तनों के उपयोग की मनाही की गई है। इन धातुओं की मूर्तियां भी नहीं बनाई जाती। लोहे में हवा पानी से जंग लगता है। एल्यूमीनियम से भी कालिख निकलती है। इसलिए इन्हें अपवित्र कहा गया है। जंग आदि शरीर में जाने पर घातक बीमारियों को जन्म देते हैं। इसलिए लोहा, एल्युमीनियम और स्टील को पूजा में निषेध माना गया है। पूजा में सोने, चांदी, पीतल, तांबे के बर्तनों का उपयोग करना चाहिए।
शनिवार को तेल न खरीदे, क्योंकि...
शनिदेव की आराधना का दिन है शनिवार। इस शनिदेव के अशुभ फल को शांत करने एवं शुभ फल को बनाए रखने के लिए विभिन्न पूजन आदि कर्म किए जाते हैं। साथ ही इस दिन के लिए कई नियम भी बनाए गए हैं जिससे शनिदेव का बुरा प्रभाव हम पर न पड़े। इन्हीं नियमों में से एक है कि शनिवार के दिन घर में तेल खरीदकर नहीं लाना चाहिए।
शनि को न्यायधिश माना गया है। इसी वजह से यह काफी कठोर ग्रह है। इसकी क्रूरता से सभी भलीभांति परिचित हैं। इसी वजह से सभी का प्रयत्न रहता है कि शनि देव किसी भी प्रकार से रुष्ट ना हो। शनि गलत कार्य करने वालों को मॉफ नहीं करता। जिसका जैसा कार्य होगा उसे शनि वैसा ही फल प्रदान करता है। ज्योतिष के अनुसार शनि के कोप से बचने के लिए ऐसे कई कार्य मना किए गए हैं जो शनिवार के दिन हमें नहीं करने चाहिए। इन्हीं कार्यों में से एक कार्य यह वर्जित है कि शनिवार को घर में तेल लेकर नहीं आना चाहिए। क्योंकि तेल शनि को अतिप्रिय है और शनिवार को तेल का दान किया जाना चाहिए। इस दिन तेल घर लेकर आने से शनि का बुरा प्रभाव हम पर पड़ता है। यदि घर के किसी सदस्य पर शनि की अशुभ दृष्टि हो तो उसके लिए यह और भी अधिक बुरा फल देने वाला सिद्ध होगा। इन बुरे प्रभावों से बचने के लिए शनिवार के दिन घर में तेल लेकर न आए बल्कि तेल का दान करें और शनि देव को तेल अर्पित करें।
पूजा-अर्चना की खास ड्रेस होती है, क्योंकि...
हिंदू धर्म में किसी भी प्रकार की पूजा-अर्चना के वक्त श्रद्धालुओं को धोती पहनना अनिवार्य किया गया है। वैसे आजकल धोती पहनने का चलन बहुत कम हो गया है।
आधुनिक फैशन के इस दौर में पूजा कार्य में भी बहुत ही कम भक्त धोती पहनते हैं। प्राचीनकाल में धोती पहने बने पूजादि कर्मकांड पूर्ण नहीं माने जाते थे। धोती पहनने की अनिवार्यता के पीछे वैज्ञानिक महत्व भी है।
पूजा-अर्चना जैसे कार्यों में काफी देर तक एक विशेष अवस्था में श्रद्धालु को बैठे रहना पड़ता है, उस दशा में धोती से अच्छा कोई और पहनावा नहीं है। आजकल लोग जींस, पेंट आदि पहनकर ही पूजा कार्य करते हैं जिससे बैठने-उठने में कई परेशानियों का सामना करना पड़ता है। शरीर के रोमछिद्रों से हमें शुद्ध प्राणवायु मिलती है। तंग कपड़े न सिर्फ इसमें बाधा डालते हैं बल्कि रक्तप्रवाह पर भी बुरा असर डालते हैं। इसलिए स्वास्थ्य की दृष्टि से भी धोती लाभदायक है। धोती बारिक सूती कपड़े से बनी होती है जो हवादार और सुविधाजनक होती है।
सूर्य पुत्र शनि काले क्यों हैं?
सभी देवी-देवताओं में सूर्य का रूप परम तेजस्वी है। सूर्य की पूजा करने से भक्तों का रूप भी उनके जैसा ही तेजस्वी और गौर वर्ण हो जाता है। सूर्य देव सभी को तेज प्रदान करते हैं परंतु उनके पुत्र शनि का रूप श्याम वर्ण बताया गया है।
सूर्य पुत्र होने के बाद भी शनि का रंग काला है, इस संबंध में शास्त्रों में कथा बताई गई है। इस कथा के अनुसार सूर्य देव का विवाह प्रजापति दक्ष की पुत्री संज्ञा से हुआ। सूर्य का रूप परम तेजस्वी था, जिसे देख पाना सामान्य आंखों के लिए संभव नहीं था। इसी वजह से संज्ञा उनके तेज का सामना नहीं कर पाती थी। कुछ समय बाद देवी संज्ञा के गर्भ से तीन संतानों का जन्म हुआ। यह तीन संतान मनु, यम और यमुना के नाम से प्रसिद्ध हैं। देवी संज्ञा के लिए सूर्य देव का तेज सहन कर पाना मुश्किल होता जा रहा था। इसी वजह से संज्ञा ने अपनी छाया को पति सूर्य की सेवा में लगा दिया और खुद वहां से चली गई। कुछ समय पश्चात संज्ञा की छाया के गर्भ से ही शनि देव का जन्म हुआ। क्योंकि छाया का स्वरूप काला ही होता है इसी वजह से शनि भी श्याम वर्ण हुए।
कैसे तिलक कब और क्यों लगाते हैं?
तिलक हिंदू संस्कृति में एक पहचान चिन्ह का काम करता है। तिलक केवल धार्मिक मान्यता नहीं है बल्कि कई वैज्ञानिक कारण भी हैं इसके पीछे। तिलक केवल एक तरह से नहीं लगाया जाता। हिंदू धर्म में जितने संतों के मत हैं, जितने पंथ है, संप्रदाय हैं उन सबके अपने अलग-अलग तिलक होते हैं। आइए जानते हैं कितनी तरह के होते हैं तिलक। सनातन धर्म में शैव, शाक्त, वैष्णव और अन्य मतों के अलग-अलग तिलक होते हैं।
शैव- शैव परंपरा में ललाट पर चंदन की आड़ी रेखा या त्रिपुंड लगाया जाता है।
शाक्त- शाक्त सिंदूर का तिलक लगाते हैं। सिंदूर उग्रता का प्रतीक है। यह साधक की शक्ति या तेज बढ़ाने में सहायक माना जाता है।
वैष्णव- वैष्णव परंपरा में चौंसठ प्रकार के तिलक बताए गए हैं। इनमें प्रमुख हैं-
लालश्री तिलक-इसमें आसपास चंदन की व बीच में कुंकुम या हल्दी की खड़ी रेखा बनी होती है।
विष्णुस्वामी तिलक- यह तिलक माथे पर दो चौड़ी खड़ी रेखाओं से बनता है। यह तिलक संकरा होते हुए भोहों के बीच तक आता है।
रामानंद तिलक- विष्णुस्वामी तिलक के बीच में कुंकुम से खड़ी रेखा देने से रामानंदी तिलक बनता है।
श्यामश्री तिलक- इसे कृष्ण उपासक वैष्णव लगाते हैं। इसमें आसपास गोपीचंदन की तथा बीच में काले रंग की मोटी खड़ी रेखा होती है।
अन्य तिलक- गाणपत्य, तांत्रिक, कापालिक आदि के भिन्न तिलक होते हैं। साधु व संन्यासी भस्म का तिलक लगाते हैं।
तुलसी क्यों और कहां लगाएं?
अधिकांश हिंदू घरों में तुलसी का पौधा अवश्य ही होता है। तुलसी घर के आंगन में लगाने की प्रथा हजारों साल पुरानी है। तुलसी को दैवी का रूप माना जाता है। साथ ही मान्यता है कि तुलसी का पौधा घर में होने से घर वालों को बुरी नजर प्रभावित नहीं कर पाती और अन्य बुराइयां भी घर और घरवालों से दूर ही रहती है।
तुलसी का धार्मिक महत्व तो है ही लेकिन विज्ञान के दृष्टिकोण से तुलसी एक औषधि है। आयुर्वेद में तुलसी को संजीवनी बुटि के समान माना जाता है। तुलसी में कई ऐसे गुण होते हैं जो बड़ी-बड़ी जटिल बीमारियों को दूर करने और उनकी रोकथाम करने में सहायक है। तुलसी का पौधा घर में रहने से उसकी सुगंध वातावरण को पवित्र बनाती है और हवा में मौजूद बीमारी के बैक्टेरिया आदि को नष्ट कर देती है। तुलसी की सुंगध हमें श्वास संबंधी कई रोगों से बचाती है। साथ ही तुलसी की एक पत्ती रोज सेवन करने से हमें कभी बुखार नहीं आएगा और इस तरह के सभी रोग हमसे सदा दूर रहते हैं। तुलसी की पत्ती खाने से हमारे शरीर की रोगप्रतिरोधक क्षमता काफी बढ़ जाती है।
मकर संक्रांति पर पतंग क्यों उड़ाते हैं?
भारत में अनेक त्योहार मनाए जाते हैं। उन त्योहारों से जुड़ी अनेक मान्यताएं व परंपराएं भी प्रचलित है। उन परंपराओं के पीछे अनेक कारण भी हैं जो कहीं न कहीं हमारे लिए उपयोगी भी है।मकर संक्रांति भी हमारे देश के प्रमुख त्योहारों में से एक है। यह त्योहार संपूर्ण भारत में अनेक नामों व तरीकों से मनाया जाता है।
अनेक स्थानों पर इस त्योहार पर पतंग उड़ाने की परंपरा प्रचलित है। लोग दिन भर अपनी छतों पर पतंग उड़ाकर इस उत्सव का मजा लेते हैं। अनेक स्थानों पर विशेष रूप से पतंग उड़ाने की प्रतियोगिताएं भी आयोजित की जाती हैं।मकर संक्रांति पर्व पर पतंग उड़ाने के पीछे कोई धार्मिक कारण नहीं अपितु मनोवैज्ञानिक पक्ष है।
पौष मास की सर्दी के कारण हमारा शरीर कई बीमारियों से ग्रसित हो जाता है जिसका हमें पता ही नहीं चलता। इस मौसम में त्वचा भी रुखी हो जाती है। जब सूर्य उत्तरायण होता है तब इसकी किरणें हमारे शरीर के लिए औषधि का काम करती है। पतंग उड़ाते समय हमारा शरीर सीधे सूर्य की किरणों के संपर्क में आ जाता है जिससे अनेक शारीरिक रोग स्वत: ही नष्ट हो जाते हैं।
मकर संक्रांति पर पतंग क्यों उड़ाते हैं?
भारत में अनेक त्योहार मनाए जाते हैं। उन त्योहारों से जुड़ी अनेक मान्यताएं व परंपराएं भी प्रचलित है। उन परंपराओं के पीछे अनेक कारण भी हैं जो कहीं न कहीं हमारे लिए उपयोगी भी है।मकर संक्रांति भी हमारे देश के प्रमुख त्योहारों में से एक है। यह त्योहार संपूर्ण भारत में अनेक नामों व तरीकों से मनाया जाता है।
अनेक स्थानों पर इस त्योहार पर पतंग उड़ाने की परंपरा प्रचलित है। लोग दिन भर अपनी छतों पर पतंग उड़ाकर इस उत्सव का मजा लेते हैं। अनेक स्थानों पर विशेष रूप से पतंग उड़ाने की प्रतियोगिताएं भी आयोजित की जाती हैं।मकर संक्रांति पर्व पर पतंग उड़ाने के पीछे कोई धार्मिक कारण नहीं अपितु मनोवैज्ञानिक पक्ष है।
पौष मास की सर्दी के कारण हमारा शरीर कई बीमारियों से ग्रसित हो जाता है जिसका हमें पता ही नहीं चलता। इस मौसम में त्वचा भी रुखी हो जाती है। जब सूर्य उत्तरायण होता है तब इसकी किरणें हमारे शरीर के लिए औषधि का काम करती है। पतंग उड़ाते समय हमारा शरीर सीधे सूर्य की किरणों के संपर्क में आ जाता है जिससे अनेक शारीरिक रोग स्वत: ही नष्ट हो जाते हैं।
मकर संक्रांति बोले तो... खिचड़ी, तिल-गुड़ और पतंग
मकर संक्रांति का पर्व हर वर्ष 14 या 15 जनवरी को मनाया जाता है। इस दिन को धार्मिक कार्यों के लिए बहुत पवित्र और शुभ फलदायी माना गया है। इस दिन किए जाने वाले कर्म और खान-पान के संबंध में कई परंपराएं चली आ रही है। इन प्रथाओं का आज भी पालन किया जाता है। मकर संक्रांति में पर सभी तिल-गुड़ और खिचड़ी अवश्य ही खाते हैं साथ ही देशभर में कई स्थानों पर पतंग उड़ाई जाती है।
ज्योतिष के अनुसार मकर संक्रांति का पर्व तब मनाया जाता है जब सूर्य मकर राशि में प्रवेश करता है। संक्रांति का अर्थ है सूर्य का राशि परिवर्तन करना। इसी वजह से इसे मकर संक्रांति कहा जाता है। इस दिन तिल-गुड़ से बने व्यंजन खाए जाते हैं।
मकर संक्रांति पर तिल-गुड़ खाते हैं क्योंकि इसका हमारे स्वास्थ्य को काफी फायदा मिलता है। तिल और गुड़ का स्वभाव गर्मी देने वाला होता है। मकर संक्रांति बताती है कि अब शीत ऋतु के जाने का समय आ गया है और अब दिन बड़े तथा रात छोटी होना शुरू होने वाली है। ऐसे में तिल-गुड़ खाने से हमारा शरीर जाती हुई ठंड के प्रभाव को कम करता है। इससे मौसम बदलते वक्त होने वाली वात-पित्त और कफ की बीमारियों से निजात मिलती है। अन्यथा अधिकांश लोगों को मौसम परिवर्तन के समय छोटी-छोटी बीमारियां अवश्य ही परेशान करती हैं।
तिल और गुड़ हमारा पेट साफ रखने में काफी कारगर उपाय है। इसी वजह से कई लोग खाने के बाद गुड़ अवश्य खाते हैं। जब भी मौसम परिवर्तन होता है तो एकदम हमारा शरीर उसके अनुकूल नहीं हो पाता, फलस्वरूप में हमें पेट संबंधी या कफ संबंधी बीमारियां हो जाती हैं। इसी से बचने के लिए मकर संक्रांति पर तिल-गुड़ का अधिक से अधिक खाते हैं।
संक्रांति पर पतंग उड़ाने का फायदा यही है कि इससे हमारे शरीर को कुछ समय सूर्य की धूप का लाभ मिल सके। धूप में पतंग उड़ाने से सन बाथ से प्राप्त होने वाले सभी लाभ हमारे शरीर को मिल जाते हैं। इस दिन मौसम परिवर्तन शुरू हो जाता है। ठंड कम होती है और गर्मी बढऩे लगती है। ऐसे में धूप में पतंग उड़ाने से हमारा शरीर इस मौसम में आसानी से ढल जाता है।
33 करोड़ देवी-देवता क्यों और कैसे?
सामान्यत: कहा जाता है कि हिंदुओं के 33 करोड़ देवी-देवता हैं। इतने देवी-देवता कैसे? यह प्रश्न कई बार अधिकांश लोगों के मन में उठता है। शास्त्रों के अनुसार देवताओं की संख्या 33 कोटि बताई गई हैं। इन्हीं 33 कोटियों की गणना 33 करोड़ देवी-देवताओं के रूप में की जाती है। इन 33 कोटियों में आठ वसु, ग्यारह रुद्र, बारह आदित्य, इंद्र और प्रजापति शामिल है। इन्हीं देवताओं को 33 करोड़ देवी-देवता माना गया है।
कुछ विद्वानों ने अंतिम दो देवताओं में इंद्र और प्रजापति के स्थान पर दो अश्विनीकुमारों को भी मान्यता दी है। श्रीमद् भागवत में भी अश्विनीकुमारों को ही अंतिम दो देवता माना गया है। इस तरह हिंदू देवी-देवताओं में तैंतीस करोड़ नहीं, केवल तैंतीस ही प्रमुख देवता हैं। कोटि शब्द के दो अर्थ हैं, पहला करोड़ और दूसरा प्रकार या तरह के। इस तरह तैंतीस कोटि को जो कि मूलत: तैंतीस तरह के देव-देवता हैं, उन्हें ही तैंतीस करोड़ माना गया है।
भगवान को अगरबत्ती क्यों और कब लगाएं?
हर समस्या के निवारण के लिए सभी देवी-देवताओं की पूजा करते हैं। पूजन-अर्चन के लिए विभिन्न विधियां बताई गई हैं। इन्हीं विधियों का एक महत्वपूर्ण अंग है भगवान को अगरबत्ती लगाना। अधिकांश लोग रोजाना विधि-विधान से भगवान की पूजा भले ना करें परंतु ईश्वर के सामने अगरबत्ती अवश्य लगाते हैं। भगवान को अगरबत्ती लगाना भी एक सामान्य व कम समय की पूजा ही है। अगरबत्ती लगाने का धार्मिक महत्व यही है कि ईश्वर को याद करना और उनकी आराधना करना परंतु इसका कुछ और महत्व भी है। अगरबत्ती का सुगंधित धुआं घर के वातावरण को भी महका देता है। पुराने समय में अगरबत्ती कई औषधियां को मिलाकर बनाई जाती थी। अगरबत्ती जलाने पर जो धुआं होता है वह उन औषधियों के गुण लिए होता है, जिससे घर में फैले सूक्ष्म कीटाणु धुएं के प्रभाव से नष्ट हो जाए या घर से बाहर निकल जाए, ताकि वे कीटाणु हमारे स्वास्थ्य को प्रभावित ना कर सके।
शव को जलाया जाता है, क्योंकि
सनातन धर्म में किसी की मृत्यु के उपरांत उसके शव को जलाने का विधान है। पूर्ण विधि-विधान से शव का अंतिम संस्कार किया जाता है। शास्त्रों के अनुसार मृत व्यक्ति के शरीर का जब तक क्रियाकर्म नहीं किया जाता तब उस उस व्यक्ति की आत्मा को शांति नहीं मिलती। मृत व्यक्ति की आत्मा भटकती रहती है। इसी वजह से किसी ब्राह्मण द्वारा विधि-विधान के साथ मंत्रों बोलते हुए अंतिम संस्कार करवाया जाता है। सही अंतिम संस्कार होने के बाद मृत व्यक्ति की आत्मा इस शरीर के बंधन और इससे जुड़े रिश्ते-नातों से मुक्त हो जाती है। इसी वजह से शव को जलाया जाता है। हमारे जीवन के 16 महत्वपूर्ण संस्कार बताए गए हैं। अंतिम संस्कार इन्हीं में से एक संस्कार है।
शरीर से प्राण निकलने के पश्चात बहुत जल्द ही मानव शरीर सडऩे लगता है, शरीर में कीड़े पडऩा शुरू हो जाते हैं और शरीर से दुर्गंध आना भी शुरू हो जाती है। जो कि हमारे स्वास्थ्य की दृष्टि से बहुत अधिक हानिकारक है। इसी वजह से मृत शरीर को जल्द से जल्द जलाने की प्रथा लागू की गई है। परंतु शव को जलाया ही क्यों जाता है? इस संबंध में धर्म शास्त्र के अनुसार जलाने से मृत शरीर से उत्पन्न होने वाले सभी संक्रामक कीटाणु, दुर्गंध आदि शत-प्रतिशत नष्ट हो जाते हैं। साथ ही जलाने से ऐसा भी माना जाता है कि पंचभूतों (अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी, आकाश) से बना शरीर उसी में विलीन हो जाता है।
गौमाता को कैसे और क्यों करें प्रसन्न?
हिंदू धर्म में गौमाता, धेनु, गाय की पवित्रता और महत्व को माना गया है। गाय की सेवा करने से हमारे सभी मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती है, सभी प्रकार के सुख मिलते हैं। गाय की पूजा की जाना चाहिए लेकिन यह कम ही लोग जानते हैं गाय को प्रसन्न कैसे किया जाए?
यदि गाय हमारी सेवा से प्रसन्न हो जाती है तो हमारे सभी बिगड़े काम बन जाते हैं और परेशानियां दूर हो जाती हैं। गौमाता की विधिवत पूजा के साथ ही हमें उसे सहलाना चाहिए। गाय की पीठ, मुंह पर हाथ फेरने से गाय अतिप्रसन्न होती है। गाय को घास खिलानी चाहिए। गाय की ऐसी सेवा से वह खुश हो जाती है और हमें आशीर्वाद देती है। इसके प्रभाव से हमारा बुरा समय टल जाता है और परेशानियां दूर हो जाती है। यह सभी जानते हैं कि जिस घर में गाय रहती है उस घर में कभी धन-धान्य कोई कमी नहीं रहती है। इस बात से स्पष्ट है कि गाय की प्रसन्नता हमारी सभी मनोकामनाएं पूर्ण कर देती है। गाय की पवित्रता इसी बात से स्पष्ट होती है कि भागवत में श्रीकृष्ण ने भी गौमाता को पूजनीय बताया है।
कैसी मूर्ति की पूजा न करें...
ईश्वर की भक्ति में भगवान की मूर्ति का अत्यधिक महत्व है। प्रभु की मूर्ति देखते ही भक्त के मन में श्रद्धा और भक्ति के भाव स्वत: ही उत्पन्न हो जाते हैं। शास्त्रों के अनुसार भगवान की प्रतिमा पूर्ण होना चाहिए कहीं से खंडित होने पर प्रतिमा पूजा योग्य नहीं मानी गई है।
हमेशा पूजन आदि कर्म करते समय यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि मूर्ति किसी भी प्रकार से खंडित या टूटी हुई न हो, खंडित मूर्ति की पूजा को अपशकुन माना गया है। प्रतिमा की पूजा करते समय भक्त का पूर्ण ध्यान भगवान और उनके स्वरूप की ओर ही होता है। अत: ऐसे में यदि प्रतिमा खंडित होगी तो भक्त का सारा ध्यान उस मूर्ति के उस खंडित हिस्से पर चले जाएगा और वह पूजा में मन नहीं लगा सकेगा। जब पूजा में मन नहीं लगेगा तो व्यक्ति की भगवान की ठीक से भक्ति नहीं कर सकेगा और वह अपने आराध्य देव से दूर होता जाएगा। इसी बात को समझते हुए प्राचीन काल से ही ऋषि-मुनियों ने खंडित मूर्ति की पूजा को अपशकुन बताते हुए उसकी पूजा निष्फल ठहराई गई है।
कमल का फूल कब और क्यों चढ़ाएं?
सभी देवी-देवताओं को पुष्प विशेष रूप से चढ़ाए जाते हैं। पुष्प अर्पित किए बिना कोई भी पूजा पूर्ण नहीं मानी जाती है। वैसे तो लगभग सभी प्रकार के पुष्प भगवान को चढ़ाए जाते हैं, परंतु पुष्पों में कमल का विशेष स्थान है। कमल का फूल सभी देवी-देवताओं को अतिप्रिय है। कमल की सुंदरता की महिमा इसी बात से सिद्ध होती है कि भगवान के नेत्रों की तुलना कमल के फूल से की जाती है।
कमल का फूल का भगवान को विशेष प्रिय क्यों हैं? इसके कई कारण है जैसे: कमल पवित्रता का प्रतीक है, इसकी सुंदरता और सुगंध सभी का मन मोहने वाली होती है। साथ ही कमल यह संदेश देता है कि हमें कैसे जीना चाहिए? कमल कीचड़ में उगता है और उससे ही पोषण लेता है, लेकिन हमेशा कीचड़ से अलग ही रहता है। कमल का फूल पूर्ण विकास दर्शाता है। सांसारिक और आध्यात्मिक जीवन किस प्रकार जिया जाए इसका सरल तरीका बताता है। संसाररूपी कीचड़ में रहते हुए भी हमें किस तरह रहना चाहिए यह शिक्षा हम कमल से ले सकते हैं।
कमल की आठ पंखुडिय़ां मनुष्य के अलग-अलग 8 गुणों की प्रतीक हैं, ये गुण हैं दया, शांति, पवित्रता, मंगल, निस्पृहता, सरलता, ईर्ष्या का अभाव और उदारता। इसका आशय यही है कि मनुष्य जब इन गुणों को अपना लेता है तब वह भी ईश्वर को कमल के फूल के समान प्रिय हो जाता है। साथ ही कमल में औषधीय गुण भी विद्यमान हैं। इसके बीजों से मखाने बनाए जाते हैं जो कि कई बीमारियों की रोकथाम हेतु उपयोग किए जाते हैं।
यहां दुर्योधन को पूजने की है परंपरा...
द्वापर युग श्रीकृष्ण का युग माना जाता है। इस युग में कई महान और तेजस्वी लोगों ने जन्म लिया। जिनकी आज भी पूजा की जाती है। इन पूजनीय लोगों में श्रीकृष्ण सहित माता यशोदा, राधा, नंद बाबा, पांडव, भीष्म आदि शामिल है। सामान्यत: दैवीय शक्तियों और अच्छाई के प्रतीक लोगों को पूजा जाता है लेकिन कुछ ऐसे क्षेत्र हैं जहां बुराई के प्रतीक दुर्योधन को पूजा जाता है।
महाभारत युद्ध के खलनायक श्रीकृष्ण द्रोही दुर्योधन को सामान्यत: बुराई का प्रतीक माना जाता है। क्योंकि दुर्योधन ने जीवन भर अहं और ईष्र्या के वश में होकर हमेशा अधर्म का साथ दिया। परंतु कुछ लोगों की आस्था का केंद्र है दुर्योधन। वे दुर्योधन को भगवान के समान मानते हैं और उसकी पूजा करते हैं। उन लोगों के लिए सभी देवताओं के पहले दुर्योधन की प्रमुख देवता है।केरल के एक जिले कोल्लम दुर्योधन के भक्त हैं जो सभी देवताओं से पहले दुर्योधन की पूजा करते हैं। उसके बाद वहां श्रीगणेश आदि देवताओं को पूजा जाता है।एक अन्य स्थान है जहां दुर्योधन आराध्य देव है। यह स्थान उत्तराखंड में स्थित है। वहां एक क्षेत्र है हर की दून, जहां के गांव वाले दुर्योधन की पूजा करते हैं। उन लोगों का मानना है कि दुर्योधन ही उनकी सारी मुसीबतों और इच्छाओं की पूर्ति करते हैं।उत्तरांचल के कुछ गांव ऐसे हैं जहां पांडवों का नाम लेना तक अनुचित समझा जाता है और दुर्योधन को भगवान माना जाता है।
घर में कैसे फूल न लगाएं?
घर की सीमा में आने वाली हर एक वस्तु हमारे जीवन को प्रभावित करती है। इसके कई नकारात्मक व सकारात्मक प्रभाव भी होते हैं। घर की खूबसूरती बढ़ाने और वातावरण को सकारात्मक बनाए रखने के लिए फूल लगाने की परंपरा हैं। फूलों से घर के सदस्यों को खुशी और शांति महसूस होती है लेकिन पुष्प कैसे लगाने चाहिए इस संबंध में कई नियम बताए गए हैं। फूलों का वास्तु से भी गहरा संबंध है।
घर में फूल लगाने के संबंध में अक्सर कहा जाता है कि कांटेदार पौधे जैसे कैक्टस आदि को घर में नहीं लगाना चाहिए क्योंकि कांटे नेगेटिव एनर्जी को सक्रीय कर देते हैं। साथ इन्हें अशुभ भी माना जाता है। घर में हमेशा खुश्बूदार और सुंदर फूलों के पौधे ही लगाना चाहिए। इससे हमारा मन प्रसन्न रहता है। साथ ही इन्हें शुभ भी माना जाता है। घर में बोनसाई पौधे भी नहीं रखने चाहिए। ये पौधे सुंदर जरूर होते हैं परंतु यह हमारे विकास रोकते हैं। घर या कार्यस्थल की सकारात्मक ऊर्जा को बढ़ाने के लिए ताजा फूल आवश्यक है। फूलों के गुलदस्ते ताजगी व सौभाग्य की वृद्धि करते हैं। मुरझाए फूल व पत्तियां नकारात्मक ऊर्जा उत्पन्न करती हैं। प्लास्टिक या रेशम के फूल भी घर में सजा सकते हैं किंतु इनकी साफ-सफाई समय पर होती रहनी चाहिए। शयन कक्ष में पौधे नहीं लगाने चाहिएं। डाइनिंग व ड्रॉइंग रूम में गमले रखे जा सकते हैं। यदि किसी दीवार में पीपल उग आए तो उसे पूजा करके हटाते हुए गमले में लगा देना चाहिए। पीपल को बृहस्पति गृह का कारक माना जाता है।
महिलाएं मांग में सिंदूर क्यों लगाती हैं?
भारतीय वैदिक परंपरा खासतौर पर हिंदू समाज में शादी के बाद महिलाओं को मांग में सिंदूर भरना आवश्यक हो जाता है। आधुनिक दौर में अब सिंदूर की जगह कुंकु और अन्य चीजों ने ले ली है। सवाल यह उठता है कि आखिर सिंदूर ही क्यों लगाया जाता है। दरअसल इसके पीछे एक बड़ा वैज्ञानिक कारण है। यह मामला पूरी तरह स्वास्थ्य से जुड़ा है। सिर के उस स्थान पर जहां मांग भरी जाने की परंपरा है, मस्तिष्क की एक महत्वपूर्ण ग्रंथी होती है, जिसे ब्रह्मरंध्र कहते हैं। यह अत्यंत संवेदनशील भी होती है। यह मांग के स्थान यानी कपाल के अंत से लेकर सिर के मध्य तक होती है। सिंदूर इसलिए लगाया जाता है क्योंकि इसमें पारा नाम की धातु होती है। पारा ब्रह्मरंध्र के लिए औषधि का काम करता है। महिलाओं को तनाव से दूर रखता है और मस्तिष्क हमेशा चैतन्य अवस्था में रखता है। विवाह के बाद ही मांग इसलिए भरी जाती है क्योंकि विवाह के बाद जब गृहस्थी का दबाव महिला पर आता है तो उसे तनाव, चिंता और अनिद्रा जैसी बीमारिया आमतौर पर घेर लेती हैं। पारा एकमात्र ऐसी धातु है जो तरल रूप में रहती है। यह मष्तिष्क के लिए लाभकारी है, इस कारण सिंदूर मांग में भरा जाता है।
शनिवार को कौन सी धातु न खरीदें?
शनिवार शनिदेव का दिन है। इस दिन किए जाने वाले कार्य के संबंध में विशेष रूप से कई नियम बनाए गए हैं। क्योंकि शनि को न्यायधिश माना गया है। यह काफी कठोर ग्रह है। इसकी क्रूरता से सभी भलीभांति परिचित हैं। इसी वजह से सभी का प्रयत्न रहता है कि शनि देव किसी भी प्रकार से रुष्ट ना हो।
शनि को क्रूर ग्रह माना जाता है और यह किसी भी दशा में गलत कार्य करने वालों को मॉफ नहीं करता। जिसका जैसा कार्य होगा उसे शनि वैसा ही फल प्रदान करता है।
बुजूर्गों और विद्वानों द्वारा शनि के कोप से बचने के लिए ऐसे कई कार्य मना किए गए हैं जो शनिवार के दिन हमें नहीं करने चाहिए। इन्हीं कार्यों में से एक कार्य यह वर्जित है कि शनिवार को घर में नया लोहा लेकर नहीं आना चाहिए।
इस बात विशेष ध्यान रखना चाहिए कि शनिवार को किसी प्रकार की लोहा की कोई नई वस्तु घर में न लेकर आए। लोहा की वस्तु या जिसके निर्माण में लोहा का उपयोग होता है जैसे: बिल्डिंग मटेरियल में उपयोग होने वाला सरिया, मोटर बाइक, कार, कम्प्यूटर आदि वस्तुएं जिनमें लोहा का प्रयोग होता है।
वे सभी शनिवार को घर नहीं लेकर आना चाहिए। लोहा शनि की धातु है और शनिवार को लोहा लेकर आने से हमारे घर पर शनि का प्रभाव बढ़ता है।
यदि घर के किसी सदस्य पर शनि की अशुभ दृष्टि हो तो उसके लिए यह बुरा फल देने वाला सिद्ध होगा। ऐसे उस सदस्य को कई प्रकार की असफलताएं तथा मानसिक तनाव का सामना करना पड़ सकता है। इसी वजह से शनिवार को घर में लोहा के कोई भी नई वस्तु लेकर आना शुभ नहीं माना जाता।
मंदिर की परिक्रमा करने से क्या होता है?
मंदिर या घर पर पूजा के समय हम भगवान की परिक्रमा जरूर करते हैं। कभी सोचा है आखिर क्यों हम भगवान की परिक्रमा करते हैं? इससे लाभ क्या होता है और भगवान की कितनी परिक्रमा करनी चाहिए?
दरअसल भगवान की परिक्रमा का धार्मिक महत्व तो है ही, विद्वानों का मत है भगवान की परिक्रमा से अक्षय पुण्य मिलता है, सुरक्षा प्राप्त होती है और पापों का नाश होता है। परिक्रमा करने का व्यवहारिक और वैज्ञानिक पक्ष वास्तु और वातावरण में फैली सकारात्मक ऊर्जा से जुड़ा है।
मंदिर में भगवान की प्रतिमा के चारों ओर सकारात्मक ऊर्जा का घेरा होता है, यह मंत्रों के उच्चरण, शंख, घंटाल आदि की ध्वनियों से निर्मित होता है। हम भगवान की प्रतिमा की परिक्रमा इसलिए करते हैं कि हम भी थोड़ी देर के लिए इस सकारात्मक ऊर्जा के बीच रहें और यह हम पर अपना असर डाले।
इसका एक महत्व यह भी है कि भगवान में ही सारी सृष्टि समाई है, उनसे ही सब उत्पन्न हुए हैं, हम उनकी परिक्रमा लगाकर यह मान सकते हैं कि हमने सारी सृष्टि की परिक्रमा कर ली है।
पैर किसके, क्यों और कब छुएं?
सामान्यत: अधिकांश लोग घर के बड़े-बुजूर्ग, संत-महात्मा, वृद्ध आदि के पैर अवश्य छुते हैं। पैर छुने की परंपरा काफी पुराने समय से चली आ रही है। इस परंपरा के पीछे कई कारण मौजूद हैं। शास्त्रों के अनुसार ऐसा माना जाता है कि बड़े लोगों के पैर छुने से हमारे पुण्य में बढ़ोतरी होती है। साथ ही उनके आशीर्वाद स्वरूप हमारा दुर्भाग्य दूर होता है और मन को शांति मिलती है।
पैर छुना या प्रणाम करना, केवल एक परंपरा या बंधन नहीं है। यह एक विज्ञान है जो हमारे शारीरिक, मानसिक और वैचारिक विकास से जुड़ा है। पैर छुने से केवल बड़ों का आशीर्वाद ही नहीं मिलता बल्कि अनजाने ही कई बातें हमारे अंदर उतर जाती है। पैर छुने का सबसे बड़ा फायदा शारीरिक कसरत होती है, तीन तरह से पैर छुए जाते हैं। पहले झुककर पैर छुना, दूसरा घुटने के बल बैठकर तथा तीसरा साष्टांग प्रणाम। झुककर पैर छुने से कमर और रीढ़ की हड्डी को आराम मिलता है। दूसरी विधि में हमारे सारे जोड़ों को मोड़ा जाता है, जिससे उनमें होने वाले स्ट्रेस से राहत मिलती है, तीसरी विधि में सारे जोड़ थोड़ी देर के लिए तन जाते हैं, इससे भी स्ट्रेस दूर होता है। इसके अलावा झुकने से सिर में रक्त प्रवाह बढ़ता है, जो स्वास्थ्य और आंखों के लिए लाभप्रद होता है। प्रणाम करने का तीसरा सबसे बड़ा फायदा यह है कि इससे हमारा अहंकार कम होता है। किसी के पैर छुना यानी उसके प्रति समर्पण भाव जगाना, जब मन में समर्पण का भाव आता है तो अहंकार स्वत: ही खत्म होता है। इसलिए बड़ों को प्रणाम करने की परंपरा को नियम और संस्कार का रूप दे दिया गया।
किसी भी कार्य की शुरूआत के पहले हमें घर के बड़े-बुजूर्ग, माता-पिता के चरण स्पर्श अवश्य करने चाहिए। इससे कार्य में सफलता प्राप्त होने की संभावना काफी हद तक बढ़ जाती है हमारा मनोबल बढ़ता है।पैर किसके, क्यों और कब छुएं?
सामान्यत: हम सभी घर के बड़े-बुजूर्ग, संत-महात्मा, वृद्ध आदि के पैर अवश्य छुते हैं। पैर छुने की परंपरा काफी पुराने समय से चली आ रही है। इस परंपरा के पीछे कई कारण मौजूद हैं। शास्त्रों के अनुसार ऐसा माना जाता है कि बड़े लोगों के पैर छुने से हमारे पुण्य में बढ़ोतरी होती है। साथ ही उनके आशीर्वाद स्वरूप हमारा दुर्भाग्य दूर होता है और मन को शांति मिलती है।
पैर छुना या प्रणाम करना, केवल एक परंपरा या बंधन नहीं है। यह एक विज्ञान है जो हमारे शारीरिक, मानसिक और वैचारिक विकास से जुड़ा है। पैर छुने से केवल बड़ों का आशीर्वाद ही नहीं मिलता बल्कि अनजाने ही कई बातें हमारे अंदर उतर जाती है। पैर छुने का सबसे बड़ा फायदा शारीरिक कसरत होती है, तीन तरह से पैर छुए जाते हैं। पहले झुककर पैर छुना, दूसरा घुटने के बल बैठकर तथा तीसरा साष्टांग प्रणाम। झुककर पैर छुने से कमर और रीढ़ की हड्डी को आराम मिलता है। दूसरी विधि में हमारे सारे जोड़ों को मोड़ा जाता है, जिससे उनमें होने वाले स्ट्रेस से राहत मिलती है, तीसरी विधि में सारे जोड़ थोड़ी देर के लिए तन जाते हैं, इससे भी स्ट्रेस दूर होता है। इसके अलावा झुकने से सिर में रक्त प्रवाह बढ़ता है, जो स्वास्थ्य और आंखों के लिए लाभप्रद होता है। प्रणाम करने का तीसरा सबसे बड़ा फायदा यह है कि इससे हमारा अहंकार कम होता है। किसी के पैर छुना यानी उसके प्रति समर्पण भाव जगाना, जब मन में समर्पण का भाव आता है तो अहंकार स्वत: ही खत्म होता है। इसलिए बड़ों को प्रणाम करने की परंपरा को नियम और संस्कार का रूप दे दिया गया।
किसी भी कार्य की शुरूआत के पहले हमें घर के बड़े-बुजूर्ग, माता-पिता के चरण स्पर्श अवश्य करने चाहिए। इससे कार्य में सफलता प्राप्त होने की संभावना काफी हद तक बढ़ जाती है हमारा मनोबल बढ़ता है।
सुबह उठते ही सबसे पहले क्या और क्यों देखें?
प्रतिदिन सुबह-सुबह हमारा एक प्रश्न होता है कि हमारा दिन कैसा रहेगा? दिन को अच्छा बनाने के लिए सभी कुछ न कुछ धर्म कर्म अवश्य ही करते हैं। सभी चाहते हैं कि उनका नया दिन शुभ रहे, खुशियां देने वाला हो, दुख दूर करने वाला हो और सफलताएं दिलाने वाला हो। शास्त्रों के अनुसार एक सटिक उपाय बताया गया है जिससे हमारा पूरा दिन श्रेष्ठ बनता है और सभी दुख-क्लेश दूर होते हैं।
सुबह उठते ही सबसे पहले क्या करना चाहिए कि हमारा पूरा दिन अच्छा रहे और घर-परिवार में सुख-शांति बनी रहे? कई लोग भगवान के दर्शन करते हैं तो कुछ अपने घर के सदस्यों का चेहरा देखते हैं लेकिन बिस्तर छोडऩे से पहले हमें हमारे हाथों के दर्शन करने चाहिए। कुछ लोग सोचते हैं कि हाथों के दर्शन से होगा? तो इस प्रश्न का उत्तर यह है कि धर्म ग्रंथों और ऋषि-मुनियों के अनुसार ऐसा माना जाता है कि हमारे हाथों की हथेलियों में दैवीय शक्तियां निवास करती हैं।
इसी वजह से हमें सुबह उठते ही सबसे पहले अपने हाथों की हथेलियों के दर्शन करने चाहिए। दोनों हाथों को मिलाकर उसके दर्शन करके ही बिस्तर छोडऩा चाहिए।
हमारे हाथ के आगे के हिस्से में (अंगुलियों की ओर) लक्ष्मी, मध्य भाग में सरस्वती और नीचले भाग में नारायण यानी विष्णु का वास होता है। प्रात: हाथों के दर्शन से ही तीनों दिव्य शक्तियों के दर्शन का पुण्य मिलता है। सुबह हथेलियों का दर्शन करने के पीछे यही संदेश है कि हम परमात्मा से अपने कर्मों में पवित्रता और शक्ति की कामना करते हैं। संसार का सारा वैभव, शिक्षा, पराक्रम हमें हाथों के जरिए ही मिलता है। इसलिए हाथों में लक्ष्मी, सरस्वती और विष्णु तीनों का वास माना गया है।
घर में आइना कहां और क्यों न लगाएं?
यदि आपके बेड में रूम में आइना लगा है तो तुरंत हटा दे या रात को सोते समय उस पर पर्दा अवश्य डालें।
सामान्यत: आइना सभी घरों में रहता ही है। आइने के बिना अच्छे से सजने-संवरने की कल्पना भी नहीं की जा सकती। दिन में कई बार हम खुद को आइने में देखते हैं। इसी वजह आइना ऐसी जगह लगाया जाता है जहां से हम आसानी से खुद को देख सके।
आइना कहां लगाना चाहिए और कहां नहीं इस संबंध में विद्वानों और वास्तुशास्त्रियों द्वारा कई महत्वपूर्ण बिंदू बताए गए हैं। दर्पण के संबंध में एक सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि बेड रूम में आइना लगाना अशुभ है। ऐसा माना जाता है कि इससे पति-पत्नी को कई स्वास्थ्य संबंधी परेशानियां झेलनी पड़ती है। यदि पति-पत्नी रात को सोते समय आइने में देखते हैं तो इसका उनकी सेहत पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। यह वास्तु दोष ही है। इससे आपके आर्थिक पक्ष पर बुरा प्रभाव पड़ता है। साथ ही पति-पत्नी दोनों को दिनभर थकान महसूस होती है, आलस्य बना रहता है। इसी वजह से वास्तु के अनुसार बेड रूम में आइना न लगाने की सलाह दी जाती है या आइना ऐसी जगह लगाएं जहां से पति-पत्नी रात को सोते समय आइने में न देख सके।
व्रत-उपवास से क्या होता है? और क्यों?
आज अधिकांश लोग अत्यधिक वजन से परेशान है। असंतुलित खान-पान और अनियमित दिनचर्या के परिणामस्वरूप शरीर में फेट (वसा) बढऩे लगता है, जिससे मोटापा की बीमारी हो जाती है। इसका हमारे स्वास्थ्य पर काफी बुरा प्रभाव पड़ता है। इसी तरह की कई बीमारियों से बचने के लिए व्रत-उपवास काफी कारगर उपाय है साथ ही इससे धर्म लाभ भी प्राप्त होता है।
व्रत का अर्थ है संकल्प या दृढ़ निश्चय तथा उपवास का अर्थ ईश्वर या इष्टदेव के समीप बैठना भारतीय संस्कृति में व्रत तथा उपवास का इतना अधिक महत्व है कि हर दिन कोई न कोई उपवास या व्रत होता ही है। सभी धर्मों में व्रत उपवास की आवश्यकता बताई गई है। इसलिए हर व्यक्ति अपने धर्म परंपरा के अनुसार उपवास या व्रत करता ही है। वास्तव में व्रत उपवास का संबंध हमारे शारीरिक एवं मानसिक शुद्धिकरण से है। इससे हमारा शरीर स्वस्थ रहता है। व्रत कई प्रकार के होते हैं जैसे नित्य, नैमित्तिक, काम्य व्रत।
नित्य व्रत भगवन को प्रसन्न करने के लिए निरंतर किया जाता है।
नैमित्तिक व्रत किसी निमित्त के लिए किया जाता है।
काम्य: किसी कामना से किया व्रत काम्य व्रत है।
व्रत के स्वास्थ्य लाभ: व्रत उपवास से शरीर स्वस्थ रहता है। निराहार रहने, एक समय भोजन लेने अथवा केवल फलाहार से पाचनतंत्र को आराम मिलता है। इससे कब्ज, गैस, एसिडीटी अजीर्ण, अरूचि, सिरदर्द, बुखार, मोटापा जैसे कई रोगों का नाश होता है। आध्यत्मिक शक्ति बढ़ती है। ज्ञान, विचार, पवित्रता बुद्धि का विकास होता है। इसी कारण उपवास व्रत को पूजा पद्धति को शामिल किया गया है।
व्रत किसे नहीं करना चाहिए- सन्यासी, बालक, रोगी, गर्भवती स्त्री, वृद्धों को उपवास करने पर छूट प्राप्त है।
व्रत के नियम है: जिस दिन उपवास या व्रत हो उस दिन इन नियमों का पालन करना चाहिए:
- किसी प्रकार की हिंसा न करें।
- दिन में न सोएं।
- बार-बार पानी न पिएं।
- झूठ न बोलें। किसी की बुराई न करें।
- व्यसन न करें।
- भ्रष्टाचार न करने का संकल्प लें।
- व्यभिचार न करें।
- किसी भी प्रकार का अधार्मिक कृत्य न करें अन्यथा व्रत का पूर्ण पुण्य लाभ प्राप्त नहीं हो पाता है।
ताली कब और क्यों बजाते हैं?
सामान्यत: हम किसी भी मंदिर में आरती के समय सभी को ताली बजाते देखते हैं और हम खुद भी ताली बजाना शुरू कर देते हैं। ऐसे कई मौके होते हैं जहां ताली बजाई जाती है। किसी समारोह में, स्कूल में, घर में आदि स्थानों पर जब भी कोई खुशी और उत्साह वाली बात होती है हम उसका ताली बजाकर अभिवादन करते हैं लेकिन ताली बजाते क्यों हैं?
काफी पुराने समय से ही ताली बजाने का प्रचलन है। भगवान की स्तुति, भक्ति, आरती आदि धर्म-कर्म के समय ताली बजाई जाती है। ताली बजाना एक व्यायाम ही है, ताली बजाने से हमारे पूरे शरीर में खिंचाव होता है, शरीर की मांसपेशियां एक्टिव हो जाती है। जोर-जोर से ताली बजाने से कुछ ही देर में पसीना आना शुरू हो जाता है और पूरे शरीर में एक उत्तेजना पैदा हो जाती है। हमारी हथेलियों में शरीर के अन्य अंगों की नसों के बिंदू होते हैं, जिन्हें एक्यूप्रेशर पाइंट कहते हैं। ताली बजाने से इन बिंदुओं पर दबाव पड़ता है और संबंधित अंगों में रक्त संचार बढ़ता है। जिससे वे बेहतर काम करने लगते हैं। एक्यूप्रेशर पद्धति में ताली बजाना बहुत अधिक लाभदायक माना गया है। इन्हीं कारणों से ताली बजाना हमारे स्वास्थ्य के बहुत लाभदायक है।
भगवान के फोटो कहां और क्यों न लगाएं?
हमारी धार्मिक मान्यताओं में एक यह भी है कि अपने शयनकक्ष यानी बेडरूम में भगवान की कोई प्रतिमा या तस्वीर नहीं लगाई जाती। केवल स्त्री के गर्भवती होने पर बालगोपाल की तस्वीर लगाने की छूट दी गई है। आखिर क्यों भगवान की तस्वीर अपने शयनकक्ष में नहीं लगाई जा सकती है? इन तस्वीरों से ऐसा क्या प्रभाव होता है कि इन्हें लगाने की मनाही की गई है?
वास्तव में यह हमारी मानसिकता को प्रभावित कर सकता है। इस कारण भगवान की तस्वीरों को मंदिर में ही लगाने को कहा गया है, बेडरूम में नहीं। चूंकि बेडरूम हमारी नितांत निजी जिंदगी का हिस्सा है जहां हम हमारे जीवनसाथी के साथ वक्त बिताते हैं। बेडरूम से ही हमारी सेक्स लाइफ भी जुड़ी होती है। अगर यहां भगवान की तस्वीर लगाई जाए तो हमारे मनोभावों में परिवर्तन आने की आशंका रहती है। यह भी संभव है कि हमारे भीतर वैराग्य जैसे भाव जाग जाएं और हम हमारे दाम्पत्य से विमुख हो जाएं। इससे हमारी सेक्स लाइफ भी प्रभावित हो सकती है और गृहस्थी में अशांति उत्पन्न हो सकती है। इस कारण भगवान की तस्वीरों को मंदिर में ही रखने की सलाह दी जाती है।
जब स्त्री गर्भवती होते है तो गर्भ में पल रहे बच्चे में अच्छे संस्कारों के लिए बेडरूम में बाल गोपाल की तस्वीर लगाई जाती है। ताकि उसे देखकर गर्भवती महिला के मन में अच्छे विचार आएं और वह किसी भी दुर्भावना, चिंता या परेशानी से दूर रहे। मां की अच्छी मानसिकता का असर बच्चे के विकास पर पड़ता है।
शिवजी भस्म क्यों रमाते हैं?
हिंदू धर्म में शिवजी की बड़ी महिमा हैं। शिवजी का न आदि है ना ही अंत। शास्त्रों में शिवजी के स्वरूप के संबंध कई महत्वपूर्ण बातें बताई गई हैं। इनका स्वरूप सभी देवी-देवताओं से बिल्कुल भिन्न है। जहां सभी देवी-देवता दिव्य आभूषण और वस्त्रादि धारण करते हैं वहीं शिवजी ऐसा कुछ भी धारण नहीं करते, वे शरीर पर भस्म रमाते हैं, उनके आभूषण भी विचित्र हैं।
शिवजी शरीर पर भस्म क्यों रमाते हैं? इस संबंध में धार्मिक मान्यता यह है कि शिव को मृत्यु का स्वामी माना गया है और शिवजी शव के जलने के बाद बची भस्म को अपने शरीर पर धारण करते हैं। इस प्रकार शिवजी भस्म लगाकर हमें यह संदेश देते हैं कि यह हमारा यह शरीर नश्वर है और एक दिन इसी भस्म की तरह मिट्टी में विलिन हो जाएगा। अत: हमें इस नश्वर शरीर पर गर्व नहीं करना चाहिए। कोई व्यक्ति कितना भी सुंदर क्यों न हो, मृत्यु के बाद उसका शरीर इसी तरह भस्म बन जाएगा। अत: हमें किसी भी प्रकार का घमंड नहीं करना चाहिए।
इस संबंध में एक अन्य तर्क भी है कि शिवजी कैलाश पर्वत पर निवास करते हैं, जहां का वातावरण अत्यंत ही ठंडा है और भस्म शरीर का आवरण का काम करती हैं। यह वस्त्रों की तरह ही उपयोगी होती है। भस्म बारिक लेकिन कठोर होती है जो हमारे शरीर की त्वचा के उन रोम छिद्रों को भर देती है जिससे सर्दी या गर्मी महसूस नहीं होती हैं। शिवजी का रहन-सहन सन्यासियों सा है। सन्यास का यही अर्थ है कि संसार से अलग प्रकृति के सानिध्य में रहना। संसारी चीजों को छोड़कर प्राकृतिक साधनों का उपयोग करना। ये भस्म उन्हीं प्राकृतिक साधनों में शामिल है।
कौन सा ग्रंथ घर में नहीं रखते और क्यों?
ग्रंथ, धर्म शास्त्र बताते हैं कि हमें कैसा जीवन जीना चाहिए, हमारे विचार कैसे होने चाहिए, हमारे कर्तव्य और अधिकार क्या हैं, ऐसे ही कई प्रश्नों के उत्तर ग्रंथों में मिल जाते हैं। इसी वजह से सभी के लिए ग्रंथों का अध्ययन करने की सलाह दी जाती है। जीवन की कैसी भी परेशानियां हो, शास्त्रों में उनका हल दिया हुआ।
अधिकांश हिंदू परिवारों में धर्म ग्रंथ के नाम पर रामचरितमानस या फिर श्रीमद् भागवत पुराण ही मिलता है। महाभारत जिसे पांचवां वेद माना जाता है, इसे घरों में नहीं रखा जाता। बड़े-बुजुर्गों से पूछे तो जवाब मिलता है कि महाभारत घर में रखने से घर का माहौल अशांत होता है, भाइयों में झगड़े होते हैं। क्या वाकई ऐसा है? अगर यह मिथक है तो फिर हकीकत क्या है, क्यों रामायण को घर में स्थान दिया जाता है लेकिन महाभारत को नहीं।
वास्तव में महाभारत रिश्तों का ग्रंथ है। परिवारिक, सामाजिक और व्यक्तिगत रिश्तों का ग्रंथ। इस ग्रंथ में कई ऐसी बातें हैं जो सामान्य बुद्धि वाला इंसान नहीं समझ सकता। पांच भाइयों के पांच अलग-अलग पिता से लेकर एक ही महिला के पांच पति तक। सारे रिश्ते इतने बारिक बुने गए हैं कि आम आदमी जो इसकी गंभीरता और पवित्रता को नहीं समझ सकता। वह इसे व्याभिचार मान लेता है और इसी से समाज में रिश्तों का पतन हो सकता है। इसलिए भारतीय मनीषियों ने महाभारत को घर में रखने से मनाही की है क्योंकि हर व्यक्ति इस ग्रंथ में बताए गए रिश्तों की पवित्रता को समझ नहीं सकता।
इसमें जो धर्म का महत्व बताया गया है वह भी सामान्य बुद्धि से नहीं समझा जा सकता, इसके लिए गहन अध्ययन और फिर गंभीर चिंतन की आवश्यकता होती है।
क्रमश:...
इसी तरह कल्याण का कार्य करते रहें, ईश्वर की कृपा आप पर सदैव बनी रहे.....
ReplyDeleteआपकी टिप्पणि बहुमूल्य हैं,अपने भाव प्रकट करने का बहुत बहुत आभार.
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