Tuesday, January 11, 2011

Jeene Ki Rah(जीने की राह)

जीने की राह
ईश्वर से कुछ मांगना हो तो ईश्वर को ही मांग लेना, लेन-देन के इस युग में आध्यात्मिक जगत में भी यह सवाल उठता है कि परमात्मा यदि मिल जाए तो उससे क्या मांगा जाए? इस वक्त हर आदमी किसी-न-किसी से कुछ मांग रहा है। माता-पिता संतानों से सम्मान मांग रहे हैं, संतान माता-पिता से ध्यान मांग रहे हैं, पति मांग रहा है कि पत्नी मेरे हिसाब से चले, पत्नी की मांग है कि मेरा सोचा होता रहे। मालिक नौकर से अधिकतम परिणाम मांग रहा है, काम करने वाले अधिक वेतन चाह रहे हैं। सब जगह मांग है। ऐसे में लोगों ने तैयारी कर ली है कि कभी भगवान हाथ लग जाए तो उससे भी मांग का सौदा किया जाएगा।
गुरुनानक देव ने एक जगह कहा है कि मालिक मिले तो मालिक से मालिक को ही मांगना। इससे कम का सौदा मत करना क्योंकि उससे दुनिया मांगोगे तो वह दे भी देगा। मालिक देते-देते थकता नहीं, पर हम लेते-लेते थक जाएंगे। जो लोग लंबी-लंबी अरदासें करके मांगते हैं, उन्हें परमात्मा बार-बार जन्म दे देता है और हम देह के चक्कर से छुटकारा नहीं पा पाते। जितना देह से हटेंगे उतना ही शांति के निकट पहुंच जाएंगे। हमें मनुष्य शरीर उसने दिया ही इसलिए है कि हम इसकी सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि प्राप्त कर लें और वो है एक दिन उससे सामना हो जाना। कई कथाओं में वर्णन है कि भगवान जिनको मिला, उनसे पूछता है- बोलो क्या दूं! और भगत यहीं चूक जाते हैं। बड़ी उपलब्धि हो तो सौदा भी बड़ा करें। परमात्मा से परमात्मा को ही मांग लें।

ऐसी वाणी बोलिए...
स्वामी जी ने अपनी सफलता का कारण बताते हुए कहा था, मैंने तय किया है कि किसी भी व्यक्ति के बारे में बुरा नहीं बोलूंगा और जितना भी बोलूंगा, वह उस व्यक्ति की अच्छाइयों के बारे में ही होगा। वाणी के इसी संयम को अध्यात्म में वाचिक तप कहा जाता है अर्थात अपनी वाणी पर कठोर वचनों को न आने देने का प्रयास। श्रीमद्भगवद्गीता में तीन प्रकार के तप गिनाए गए हैं- शारीरिक तप, वाचिक तप और मानसिक तप।
वाचिक तप के बारे में उल्लेख है, उद्वेग उत्पन्न न करने वाला वाक्य बोलना, प्रिय, हितकारक और सत्य वचन बोलना और स्वाध्याय करना वाणी का तप कहलाता है।
हमारे जीवन में वाणी के महत्व को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। इसको वश में करने से व्यक्ति बहुत ऊंचा उठता है। इसके विपरीत अनियंत्रित वाणी वाले व्यक्ति को अमूमन जीवन में सफलता नहीं मिल पाती। जब व्यक्ति अपनी वाणी से किसी को ठेस नहीं लगाता और सदैव मीठा बोलता है, उसके इष्ट-मित्रों का दायरा अधिक होता है और लोगों के सहयोग व समर्थन के कारण वह अधिक शक्तिशाली बनकर उभरता है। इसके विपरीत कटु वचन बोलने वाला जीवन में अकेला पडता चला जाता है। सामाजिक प्राणी होने के नाते मनुष्य के लिए वाचिक तप का अत्यंत महत्व है।
गीता में कर्म के तीन साधन बताए गए हैं, जिनमें एक साधन वाणी भी है। ऋग्वेद के एक मंत्र का आशय है कि जिस प्रकार छलनी में छानकर सत्तू को साफ करते हैं, वैसे ही जो लोग मन, बुद्धि अथवा ज्ञान की छलनी से छान कर वाणी का प्रयोग करते हैं, वे हित की बातों को समझते हैं अथवा शब्द और अर्थ के संबंध ज्ञान को जानते हैं। जो बुद्धि से शुद्ध कर के वचन बोलते हैं, वे अपने हित को भी समझते हैं और जिस को बात बता रहे हैं, उसके हित को भी समझते हैं। सोच-समझकर शब्दों का उच्चारण या बोलने में ही, कहने और सुनने वाले का हित-भाव छिपा हुआ है। वाणी में आध्यात्मिक और भौतिक दोनों प्रकार के ऐश्वर्य निहित रहते हैं।
मधुरता से कही गई बात हर प्रकार से कल्याणकारी होती है। परंतु वही बात कठोर व कटु शब्दों में बोली जाए, तो एक बडे अनर्थ का कारण बन जाती है। आज के समय में, जब कठोर वाणी के कारण रोड रेजजैसे अनेक अपराध बढ रहे हैं, ऐसे समय में वाणी का संयम बहुत ही जरूरी है। आज के आपाधापी के समय में यदि हम सदा मधुर, सार्थक और चमत्कारपूर्ण वचन नहीं बोल सकते, तो कम से कम वाणी में संयम का हमारा प्रयास अवश्य होना चाहिए।
महात्मा विदुर ने कहा है कि कटु वचन रूपी बाण मुख से निकल कर दूसरों के मर्मस्थलोंको घायल कर देते हैं, जिसके कारण घायल व्यक्ति दिन-रात दुखी रहता है। उनका परामर्श है कि ऐसे कटु वाग्बाणोंका त्याग करने में अपना और औरों का भला होता है। बाणों से हुआ घाव भर जाता है, कुल्हाडे से काटा गया वृक्ष फिर उग जाता है, लेकिन वाणी से कटु वचन कहकर किए गए घाव कभी नहीं भरते। इसलिए जो मनुष्य कठोर वचन बोलता है, वह सिर्फ अपने बारे में सोचता है, दूसरों के बारे में नहीं। स्वार्थी नहीं, बल्कि परमार्थी बनने के लिए आपको कठोर वचनों को छोडना ही पडेगा।
मनुस्मृति में मनुष्य के जीवन के लिए जरूरी दस बातें बताई गई हैं, जिनमें पहली जो चार बातें हैं, वे बोलने के संबंध में ही हैं। जिनमें कहा गया है कि हम कठोर न बोलें। कोई भी बात मधुरता से, मृदुलतासे और अपनी वाणी में अपने हृदय का रस घोल कर कहनी चाहिए। कठोर वाणी का तो पूरी तरह परित्याग करना चाहिए। वह मनुष्यों में सबसे अधिक अभागा है, जो कठोर शब्दों द्वारा लोगों के मर्मस्थलोंको विदीर्ण करता है।
हमारे मनीषियोंने बार-बार कहा है कि जो व्यक्ति दूसरों के प्रति कडे शब्दों का व्यवहार करता है और पर-निंदा करता है, वह ऐसा पापाचरणकरता हुआ शीघ्र ही विपत्तियों में फंस जाता है। इसलिए न तो किसी को अपशब्द कहे, न दूसरों का अपमान करें और न दुष्ट लोगों की संगति करें। रूखी, कठोर व दूसरों को पीडा पहुंचाने वाली वाणी का त्याग होना चाहिए, क्योंकि मनुष्य की वृद्धि और विनाश उसकी जिज्जाके अधीन होते हैं। मनुष्य का मान-अपमान, उसका आदर-अनादर, उसकी प्रतिष्ठा-अप्रतिष्ठा सब उसकी जिज्जाके वशीभूत होते हैं। वाक-कुशलता बुद्धिमान का एक प्रशंसनीय लक्षण होता है। विदुर ने लक्ष्मी व यश दिलाने वाले सात लक्षण बताए हैं, जिनमें एक मधुर वाणी भी है। जिस मनुष्य में यह गुण होता है, वह अपने विरोधियों और शत्रुओं को भी मित्र बना लेता है। कटु वचन नासूर की तरह प्रेम को खा जाते हैं।
गोस्वामी तुलसीदास ने कहा है, रोष न रसना खोलिए, बरुखोलियतलवार.सुनत मधुर परिनामहित, बोलियवचन विचार.। अर्थात भले ही तुम तलवार खोलो, परंतु रोष में आकर अपनी जिज्जामत खोलो। जो बात सुनने में मधुर हो और परिणाम में हितकारी हो, ऐसे ही वचन विचारपूर्वक कहने चाहिए। वाणी का उचित प्रयोग ही सुखकारी होता है। जिन लोगों के मुख पर प्रसन्नता होगी, हृदय में दया होगी, वाणी में मधुरता होगी, कत्र्ताव्यमें परोपकार होगा, वे सभी के लिए वंदनीय होते हैं।
मीठे वचनों का सुख लाभकारी है। हमें यह प्रयास करना चाहिए कि हमारा जीवन ज्ञान, निर्मलता, शक्ति व शुभ वाणी से अलंकृत हो। हम जिज्जापर संयम साध लें।

समझदारी आ जाए तो भीतर की यात्रा सार्थक
यह अत्यधिक बाहर रहने का युग है। सारी दौड़ बाहर की तरफ है। अपने भीतर मुड़ने को मनुष्य या तो समय की बर्बादी मानता है या मूर्खता। यदि समझदारी आ जाए तो भीतर की यात्रा भी सार्थक है और बाहर की दौड़ भी व्यर्थ नहीं है। बाहर के कुछ तयशुदा काम हैं नाम, दाम को पाना और बढ़ाते जाना।
इसके लिए हालात से लड़ना और अपने हक, हित में बदलना। इसे पुरुषार्थ का नाम दिया गया है। लेकिन जीवन में कुछ ऐसा अज्ञात भी होता है जो नहीं बदल पाता, इसे ही भाग्य कहा गया है। चाहने पर जो न मिले और न चाहते भी मिल जाए इन्हीं शब्दों में भाग्य की परिभाषा ढूंढ़ी गई है। सारे बाहरी परिश्रम के बाद भी यह अज्ञात अपना काम कर जाता है और आदमी फिर तनावग्रस्त, निराश होता है। चलिए, इसी कारण भीतर की यात्रा का फायदा समझ लें।
भीतर जाते ही हमारा वह अज्ञात, परमात्मा-परमशक्ति से जुड़ जाता है। प्रकृति के हर निर्णय पर हम उसके हस्ताक्षर देखने लगते हैं। जीसस ने कहा है- मैं हूं ना और यहीं से भीतर वह आश्वासन मिल जाता है कि नाम-दाम कम हो या ज्यादा। खूब आबाद हो जाएं या बर्बाद, जब तक तू है फिर क्या फिक्र।
इसके बाद मनुष्य समझ जाता है असली आनंद भीतर है। ऐसे लोगों को स्वर्ग में रखो या नर्क में वे मजा स्वर्ग का ही लेंगे। झोपड़ी में हो या महल में रहें, उनकी मस्ती कायम ही रहेगी। ऐसे लोग बाहर के हालात से भीतर प्रभावित नहीं होंगे। सुख-दुख की परिभाष बदल जाएगी।

अभिमानी लोगों को अच्छी संगत नहीं मिल पाती
भक्त और भगवान के बीच अहंकार सबसे बड़ी बाधा है। दुनियादारी में भी अहंकार उतना ही घातक है। जिनके जीवन में अभिमान है, उन्हें अच्छे लोगों की संगत नहीं मिल पाती। आज वैसे भी भले लोगों का अभाव है। उस पर अहंकार की बागड़ यदि बना ली जाए तो अच्छे लोगों के प्रवेश की उम्मीद और कम हो जाती है।
महावीर स्वामी से जुड़ी एक घटना है। एक दिन एक राजा उनसे मिलने आया। चूंकि राजा था, इसलिए भेंट में कोई महंगी वस्तु देना चाहता था। वह हीरे जड़ा हार लेकर पहुंचा और जैसे ही महावीर को भेंट किया, उन्होंने कहा- गिरा दे। बात तो राजा ने मान ली, पर चौंक गया। दूसरे दिन महंगा गुलदस्ता लेकर गया। महावीर ने फिर कहा- कोने में पटक दो।
राजा ने पटक तो दिया, पर परेशान होता रहा। अपने मंत्री से सलाह ली कि यह क्या मामला है। मंत्री समझदार था। उसने कहा- आप अगली बार खाली हाथ जाना कुछ भी भेंट मत ले जाना। अगले दिन राजा महावीर के सामने था। सोच रहा था देखें आज महावीर क्या गिराने को कहते हैं।
जैसे ही दोनों की निगाह मिली। महावीर ने कहा - आज स्वयं को गिरा दो। चूंकि वाणी महावीर की थी तो राजा के कलेजे में सीधी उतरकर गहरे जाकर बैठ गई। उसे समझ में आ गया कि जिस दिन हम संत या भगवंत के सामने खुद गिर गए उस दिन समझिए अहंकार गल गया। अहंकार को गिराने के जितने तरीके हैं, उनमें से एक तरीका यह भी है,
जरा मुस्कराइए..

कुछ काम स्वयं को करने होते हैं और कुछ कराने
अपने दायित्व सदैव दूसरों पर थोपे और सौंपे नहीं जा सकते। लेकिन कुछ काम ऐसे भी होते हैं जो खुद भी करने पड़ते हैं और दूसरों से भी कराने पड़ते हैं। कभी-कभी तो खुद करना आसान होता है और दूसरों से काम लेना कठिन हो जाता है। हिंदू धर्म में अवतारों ने कई उदाहरण ऐसे दिए हैं, जिनमें उन्होंने कुछ काम दूसरों से लिए हैं और कुछ खुद ही किए हैं।
यह इस बात पर निर्भर करता है कि काम किस स्तर का है और परिणाम कितने महत्वपूर्ण होंगे। एक बार विष्णुजी ने नारद मुनि को सत्य-व्रत के बारे में समझाया था और कहा था- इसका प्रचार संसार में जाकर करो। बाद में भगवान ने निर्णय लिया कि मैं स्वयं भी जाऊं। शतानंद नामक ब्रामण के सामने भगवान ने वृद्ध ब्रामण का वेष धरा और वार्तालाप किया।
ऐसा सत्यनारायण व्रत कथा में आता है। भगवान ने सोचा : जो कुछ मैंने नारदजी को समझाया है क्या वैसा नारदजी संसार में लोगों को समझा सकेंगे? यह भगवान की कार्यशैली है कि वे हर कार्य करने में अत्यधिक सावधानी रखते हैं। भगवान सत्य-व्रत की गुणवत्ता से कोई समझौता नहीं करना चाहते थे।
शत-प्रतिशत परिणाम पाने के लिए भगवान ने स्वयं की भूमिका को सक्रिय भी रखा और इस बात की चिंता नहीं की कि नारद अन्यथा ले लेंगे। प्रबंधन का एक नियम है किसी व्यवस्था में शीर्ष व्यक्ति सदैव अच्छे बनने के चक्कर में असफल बॉस साबित हो जाते हैं। कभी-कभी सख्त और अप्रिय निर्णय भी लेने ही पड़ते हैं।

बालक हनुमान ने संशय में सूर्य को निगल लिया
गोस्वामी तुलसीदासजी ने हनुमानचालीसा में कुछ प्रयोग किए हैं। हनुमानजी की बचपन की बात लिखकर उनसे सीधे बातें की गई हैं। अठारहवीं चौपाई में लिखा है- जुग सहस्र जोजन पर भानू। लील्यो ताहि मधुर फल जानू।। दो हजार योजन दूर सूर्य जो चमक रहा था, उसको आपने मधुर फल समझकर लील (निगल) लिया था।
इस प्रसंग में एक बाल मनोविज्ञान है। बच्चों की मनोवृत्ति होती है कि यदि हम उन्हें पैसे दें तो वे पैसे नहीं लेंगे। वे तो आसमान पर दिखने वाला चंदा मामा मांगेंगे। सूर्य हनुमानजी के गुरु बने थे। हनुमानजी आगे-आगे चले थे और पीछे सूर्य का रथ चल रहा था, तब हनुमानजी ने ज्ञान प्राप्त किया था।
सूर्य को निगलने की घटना बाल्यकाल में जिज्ञासा और हठीलेपन से ज्ञान प्राप्त करने की घटना है। हनुमानजी को संशय हुआ था कि यह क्या है? संशय दूर करने गए और सूर्य को लपक लिया। हनुमानजी यह संकेत कर रहे हैं कि संशय होना कोई बुरी बात नहीं है। फिर बच्चों में वैसे भी संशय बहुत होता है।
हम जब बच्चों को मंदिर लेकर जाते हैं तो हम तो भगवान के आगे माथा टिकाते हैं, लेकिन जब हम बच्चे से कहते हैं तो वह लिहाज में भले ही माथा टिका ले, परंतु वह मन ही मन प्रश्न करता है कि यह मंदिर-मूर्ति क्या है? यहां मस्तक क्यों झुकाएं? इस तरह की बातें उनके मन में संशय पैदा कर जाती है। संशय में यदि सद्भाव है तो वह फलदायक है, वरना नुकसानदायक। बच्चों को अवसर दिया जाए कि वे अपने संदेह का निराकरण कर सकें।

भगवान से हमें दूर कर देती है निंदा की आदत
दूसरे की निंदा और अपनी प्रशंसा बड़ी प्रिय लगती है। विज्ञान और टेक्नोलॉजी के युग में एनालिसिस की आड़ में आलोचना और निंदा की आदत कब जन्म ले लेती है पता नहीं लगता। आलोचना और निंदा में बारीक-सा फर्क है।
निंदा का अर्थ है अपने अहंकार का दूसरे के अहंकार से टकराना, जबकि आलोचना का मकसद होता है कहीं न कहीं सत्य को ढूंढ़ना। निंदा के पीछे शत्रुता छिपी है और आलोचना मैत्री को साथ लेकर चलती है। निंदा में मिटाने का भाव है, आलोचना में जगाने की इच्छा होती है।
निंदा का नुकसान रानी कैकयी ने उठाया था। रामजी के राजतिलक के पूर्व एक ही रात में कैकयी के सामने मंथरा ने जो वार्तालाप आरंभ किया था, उसका आरंभ निंदा स्तुति से ही हुआ था। अपनी निंदा वृत्ति को उसने कैकयी में भी प्रवेश करा दिया था। कैकयी के जीवन में निंदा आते ही राम दूर चले गए। निंदा की आदत भगवान को हमसे दूर कर देती है।
निंदावृत्ति ने पूरे विश्व के धार्मिक दृश्य को आहत किया है। अनेक धार्मिक गुरु और उनके असंख्य अनुयायी एक-दूसरे के प्रति निंदा भाव रखने के कारण धर्मक्षेत्र को कुरुक्षेत्र बनाते गए। धर्म शास्त्र अपने शब्दों से पहचाने गए हैं, निंदा के खेल में शब्दों की बड़ी भूमिका होती है। लेकिन अध्यात्म थोड़ा धर्म से गहरा मामला है। यह शब्द से परे है। धर्म व्यक्त है, अध्यात्म अनुभूति है। हम और हमारा धर्म श्रेष्ठ, बाकी सब निकृष्ट है यह निंदावृत्ति की ही देन है।

अनुराग के साथ जप करने से जीवन में रस मिलेगा
भारतीय संस्कृति में एक प्यारा शब्द है अनुराग। इसका सही उपयोग करने पर आध्यात्मिक जीवन और खिल उठता है। मंत्र का जप यदि अनुराग से करेंगे तो परिणाम आनंदमय होगा। क्रोध के साथ किया हुआ जप रस नहीं देगा। हमारा माला जपने का नियम हो तो इतनी माला रोज जपें यह आवश्यक नहीं है। आवश्यक यह है कि जितनी देर आप जप करें, अनुराग से करें। कई लोग संकल्प लेते हैं कि लाखों रुपए कमा लें, फिर सब छोड़ देंगे। इससे अच्छा है कि संकल्प ऐसा लें कि ५क्-६क् साल तक कमाएंगे, फिर सब छोड़ देंगे। तो अनुराग के साथ जप करने से रस मिलेगा। जप में परमात्मा के नाम की स्मृति है।
जब एक छोटे बच्चे को वर्णमाला सिखाई जाती है तो रंगीन चित्रों का उपयोग किया जाता है। यही क्रम साधना में भी होता है। भगवान की ओर मन को आकृष्ट करने के लिए जप एक साधन है। यदि आरंभ से ही लोगों को भागवत तत्व का उपदेश दे दिया जाए तो वे ऊब सकते हैं। साधना के प्रारंभ में दो बातें होती हैं- एक तो यह कि साधक को जो वस्तुएं स्वभाव से प्रिय हैं, उनका समावेश साधना में किया जाए। जैसे-जैसे उसकी रुचि बढ़ती जाएगी, उसका बहुरंगी आकर्षण समाप्त हो जाएगा। साधना की पद्धति विस्तार को समेटने की प्रक्रिया है। जैसे रामायण की पंक्तियों को संगीत और गायन के साथ प्रस्तुत करते हैं तो इसके पीछे उद्देश्य यही होता है। जप हमारी साधना में हमारी रुचि को बढ़ाता है। बस, इसे अनुराग के साथ किया जाए।

भीतरी साधुता यानी चित्त में सरलता और सहजता
साधु-संतों के मामले में भारत की धरती बड़ी समृद्ध रही है। लेकिन जहां लोग इस धरती पर संतों से लाभ उठाते आए हैं, वहां हानि भी कम नहीं हुई है। संत के सुरक्षित वेष में गलत लोगों ने खूब फायदे उठाए और उठा रहे हैं। रावण ने सीताजी का अपहरण साधु वेश में ही किया था।
जैन संत श्री चन्द्रप्रभजी कहते हैं- चार तरह के लोग होते हैं : एक तो वे जिन्होंने सिंह की तरह संन्यास लिया है और उसी तरह पालन भी किया है। दूसरे वे हैं, जिन्होंने सियार की तरह संन्यास लिया और सिंह की तरह पालन किया।
तीसरे वे हैं, जो सिंह की तरह संन्यास लेते हैं लेकिन पालन सियार की तरह करते हैं और चौथे वो हैं जो सियार की तरह संन्यास लेते हैं और सियार की तरह ही पालन करते हैं। संत का वेष इन लोगों के लिए आजीविका का साधनभर होता है।
ऐसी प्रकृति के लोग खूब खाएंगे-पिएंगे, चिलम-मस्ती करेंगे, भांग पीएंगे। भला जो चीज गृहस्थ के लिए भी निषिद्ध है, उसे संत लोग किस हक से उपयोग कर रहे हैं? साधुता का निवास कोरे वेष बनाने में नहीं अपितु त्याग और सच्चरित्रता में है।
यहां हमें यह बात समझना चाहिए कि दूसरे की साधुता से ही मतलब न रखें। हमारे भीतर भी एक संतत्व होता है जिसे जीवित करना पड़ता है। भीतरी साधुता का अर्थ है चित्त में समता, सरलता, सहजता और सौम्यता। भगवान महावीर ने साधुता के लक्षण इन्हें ही बताए हैं। यदि ये हमारे भीतर हैं तो हम गृहस्थी में रहें या वन में साधुता अपने आप जीवन में उतरेगी।

तन और मन दोनों को वश में करने से मिलेगा लाभ
हर कोई चाहता है कि उसे कर्म के परिणाम मिलें और वह भी लाभ की शक्ल में। जो लोग कर्म और उसके परिणाम के प्रति बहुत आग्रहशील हैं, उन्हें अपने तन और मन की गति को संतुलित और नियंत्रित करना पड़ेगा। मन से ही तन प्रभावित होता है। जब मन किसी विषय से आकर्षित होकर सक्रिय होता है, तो यह तन भी चलायमान हो जाता है।
इसलिए सदैव मन को वश में करना चाहिए। यदि तन और मन दोनों को वश में कर लिया जाए तो संयम-साधना का परिणाम-लाभ सुमेरू पर्वत के समान पाया जा सकता है। मन को साधने के लिए यूं तो अनेक तरीके हैं, लेकिन तीन तरीके थोड़े आसान हैं-पहला सत्संग किया जाए। इससे मन को शुभ समय मिलता है।
दूसरा गुरु कृपा हो जाए। गुरु मंत्र की ताकत मन को नियंत्रित करने में मददगार होती है और तीसरा है, थोड़ा योग किया जाए। मन के लिए कहा गया है -पहिले यह मन काग था, करता जीवन घात। अब तो मन हंसा भया, मोती चुनि-चुनि खात।। पहले अज्ञान दशा में यह मन कौवे की भांति था।
इसका खान-पान, बोल-चाल आदि सब अशुभ था। यह हिंसक था,जीवों को घात करता था, परंतु अब सत्संगति तथा सद्गुरु के ज्ञानोपदेश से मन हंस की भांति हो गया है। अत: विवेकी भाव से दुगरुणों को छोड़कर सद्गुण-ज्ञान रूपी मोतियों को ही चुनकर खाता है। इसलिए मन पर काम किया जाए। मन का भोजन है सांस। जितनी गहरी सांस लेंगे और उसे अपनी चेतना से जोड़ेंगे उतना मन नियंत्रित होता जाएगा।

सोने और चांदी की सुरंग है हमारी यह दुनिया
भय और भरोसा, आध्यात्मिक क्षेत्र में इन दोनों में विरोधाभास है। हम जब व्यावहारिक जीवन में जीते हैं तो भय आना स्वाभाविक है। पर मात्मा पर भरोसा जितना दृढ़ होगा, भय से मुक्ति उतनी ही सरलता से हो सकेगी। संसार में भय की शुरुआत दूसरे के चिंतन से होती है। कोई दूसरा हमें परेशान न करे, हमारा धन न छीन ले, कुल मिलाकर जब तक दूसरा है तब तक भय है।
हां, दूसरे के प्रति यदि प्रेम है तो फिर भय से छुटकारा हो सकता है। पिछले दिनों चिली नामक राष्ट्र में अताकामा खदान में 33 श्रमिक 70 दिन बाद जीवित बच गए थे। 700 फीट सोने और तांबे की इस खदान में जब वे लोग मौत का भय देख रहे थे, तब जो कुछ उनके साथ गुजरी वह हर आदमी के साथ रोज गुजरती है, देखने के लिए आध्यात्मिक दृष्टि चाहिए।
खदान से निकलने के बाद कुछ श्रमिकों ने बड़ी सुंदर टिप्पणी की। उनका कहना था उन दिनों हम भगवान और शैतान दोनों के साथ थे। जब शैतान हावी होता तो लगता अब नहीं बचेंगे। चारों तरफ भय ही भय नजर आता था। लेकिन जब भगवान छा जाते थे तब जीवन भरोसे का होने लगता था।
ये दुनिया भी सोने-चांदी की सुरंग ही है। हम सब उन श्रमिकों की तरह इसमें फंसे हुए हैं। यूं तो वे श्रमिक जीवनभर भगवान से कुछ न कुछ मांगते ही होंगे पर उन ७क् दिनों में उनकी मांग प्रार्थना बन गई थी क्योंकि भरोसा पूरी तरह जागा हुआ था। हम इस संसार की सुरंग में भगवान से खूब मांगते हैं, प्रयास करें अपनी मांग को उसी प्रकार प्रार्थना में बदल दें।

हनुमानजी ने ही किया था मोह का सागर पार
सफलता प्राप्त हो जाए और अशांति भी बनी रहे तो कारण ढूंढ़ना चाहिए इसका एक कारण मोह भी हो सकता है। चलिए श्री हनुमानचालीसा की उन्नीसवीं चौपाई की चर्चा करें। प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं। जलधि लांघि गए अचरज नाहीं।। आपने रामनाम अंकित मुद्रिका को मुंह में रखा और सौ योजन विस्तृत समुद्र को लांघ गए। आपकी अपार महिमा को देखते हुए इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है।
सीताजी को ढूंढ़ने हनुमानजी समुद्र लांघकर लंका गए। यहां समुद्र मोह का प्रतीक है। मोह की वृत्ति को पार करना बड़ी चुनौती है। ये पंक्तियां सीता शोध के पूर्व समुद्र तट पर बैठे वानरों के दृश्य की ओर संकेत करती हैं। सीताजी भक्ति का प्रतीक हैं। जब हमारी भक्ति का अपहरण हो जाए तो हमें उसे पुन: प्राप्त करने के लिए मोह का सागर पार कर लंका जाना होगा।
भक्ति (सीता) का अपहरण क्यों हो गया था, विचार करें। रावण के कहने पर मारीच ने स्वर्ण मृग का वेश बनाया था। सीताजी इस स्वर्ण मृग पर मोहित हो गई थीं। स्वर्ण मृग क्या है? लोभ है, मोह है। जाते समय लक्ष्मणजी ने लक्ष्मण रेखा खींच दी थी।
लक्ष्मण यानी साक्षात वैराग्य। रावण (भोग) वेश बदलकर आया। भक्ति का अपहरण रावण कैसे करता है। जब हमारी भक्ति मोह में पड़ जाती है, तब भोग वेश बदलकर आता है। जब भोग हमें आमंत्रित करे तो हमें वैराग्य की रेखा खींचनी चाहिए। हनुमानजी के अलावा मोह का सागर कोई पार नहीं कर सका। इसलिए श्री हनुमानचालीसा का आश्रय लेना चाहिए।

घर-परिवार में संवेदना का अभाव बड़ी समस्या
हमारे पारिवारिक जीवन में आने वाली समस्याओं में एक बड़ी समस्या है संवेदनाओं का अभाव। जिसके चलते घर के सदस्यों का व्यवहार एक-दूसरे के प्रति रूखा-सूखा हो गया है। लगता है जैसे किसी मॉल के काउंटर पर लेन-देन हो रहा है या किसी कॉपरेरेट ऑफिस के केबिन में मीटिंग हो रही है या पेढ़ी पर ब्याज-बट्टे का हिसाब चल रहा है।
पिछले दिनों एक खबर सुनी कि गर्भस्थ बालक की मुस्कान थ्री-डी स्केनिंग में फोटो के रूप में प्राप्त हुई है। चिकित्सा विज्ञान के जानकारों का कहना है कि यह गर्भस्थ शिशु की संवेदना का मामला है। एक बात तो यह समझने वाली है कि इसमें मुस्कान संवेदना की प्रतिनिधि क्रिया है। अध्यात्म कहता है जैसे-जैसे समझ बढ़ेगी, हम छोटे हो जाएंगे और जितने छोटे होंगे उतने ही विराट के प्रकट होने की संभावना बढ़ जाएगी।
बल्कि छोटे होते-होते जितना खो जाएंगे, उसके बाद फिर उसे पा जाएंगे जिसका नाम परमात्मा है। वह बच्च गर्भ में मुस्कराकर यही संदेश दे रहा है कि मैं भीतर जिसके भरोसे मुस्करा रहा हूं हम बाहर भी उसी के भरोसे प्रसन्न रह सकते हैं। यह एक तरह की बायो फीडबेक क्रिया है। जैसे मंदिरों में गुंबद इसलिए बनाए गए कि ऊँकार का गुंजन कई गुना होकर हम तक लौट आए।
इसी प्रकार भीतर की मुस्कान बाहर और बाहर की स्थितियां भीतर को बायो फीडबेक प्रक्रिया से व्यक्तित्व को शांत बनाने में काम आएंगी और शांति जिस भी कीमत पर मिले हासिल कर लेना चाहिए। उस गर्भस्थ शिशु का यही संदेश है।

जितना आत्मा के निकट जाएंगे द्विज होते जाएंगे
यूं मृत्यु के पूर्व के जीवन के आरंभ को ही हम जन्म मानते हैं, लेकिन इस एक जन्म में भी अन्य जन्म की संभावना है। भारतीय संस्कृति में एक शब्द है द्विज। इसका अर्थ है ब्राह्मण। लेकिन द्विज का एक और अर्थ है, दूसरा जन्म। यहीं द्विज का स्वरूप सामने आता है। लेकिन वास्तव में हम द्विज तब बनेंगे, जब हमारा दूसरा जन्म होगा। हमारे दो जन्म हैं। एक शरीर के आधार पर, दूसरा आत्मा के आधार का।
शरीर का जन्म माता-पिता ने दिया है। आत्मा के आधार का जन्म हमें स्वयं लेना होगा। बस उसी क्षण हम द्विज होंगे और द्विज परमात्मा की पसंद है। ब्राह्मण का अर्थ है जिसकी चर्या भगवान के संविधान के अनुसार हो। भगवान आज भी अपने भक्तों से कह रहे हैं याचक न बनो।
संसार के सामने हाथ फैलाना हो तो धार्मिक कार्य, जनहित या विपत्ति निवारण के लिए ही फैलाओ। भगवान का यह संदेश देने के लिए जीवन में गुरु का प्रवेश होता है। सद्गुरु स्वयं सत्य स्वरूप हैं और सत्य का रहस्य बताने वाले हैं। सत्य की निकटता का पहला चरण गुरु-कृपा है। सद्गुरु हमें समझाते हैं कि मन, शरीर, बुद्धि सबको आत्मनिर्भर होना ही पड़ता है।
यदि ऐसा हो जाता है तो फिर आवश्यकता ही नहीं कि कोई दूसरा सत्य बताए या सिद्ध करे। फिर सत्य स्वयं मन, वचन, कर्म से प्रकट होने लगता है। मुक्ति या श्रेष्ठ आत्मा अनुभव द्विज यानी ब्रज के आचरण में उतरकर प्राप्त किया जा सकता है। इसलिए जितना अपनी आत्मा के निकट जाएंगे, उतना ही हम द्विज होते जाएंगे।

जप और साधना में तो हमें मिटना ही पड़ता है
फकीरों ने कहा है कि स्वयं को मिटाए बिना परमात्मा नहीं मिलता। स्वयं को मिटाने का अर्थ है अपने अहंकार को गला देना। इसके लिए एक सरल प्रक्रिया है जप करना। जप की यह विशेषता है कि नाम की बार-बार आवृत्ति होने पर रस बना रहता है।
जप में, प्रार्थना में दरअसल स्वयं को मिटाना होगा। मिटे बिना न तो सही प्रार्थना हो सकती है और न ही जप। यदि प्रार्थना करते-करते हम पिघले न, जप करते-करते हम स्वयं को न खो दें तो फिर ये प्रार्थना, हमारी अक्ल का हिसाब ही मानी जाएगी। फिर प्रार्थना एक गणित होगी, एक धंधा होगी।
एक चर्च में एक पादरी प्रवचन दे रहे थे। सामने एक बुढ़िया बैठी थी। पादरी जब भी ईश्वर का नाम लेते, वह आमीन-आमीन कहती। आमीन, ओम का ही रूपांतरण है। लेकिन जब पादरी शैतान का नाम लेते तब भी बुढ़िया कहती-आमीन। पादरी को बड़ी हैरानी हुई।
प्रवचन के बाद वे बुढ़िया के पास गए और बोले- समझ में नहीं आता कि ईश्वर का नाम लेते समय तो आमीन कहना ठीक है, पर आप शैतान के नाम पर भी आमीन कह रही हैं। बुढ़िया ने कहा- यह मेरा अंतिम समय है, किसी से भी बुरा क्यों बनें।
क्या मालूम संसार से जाने के बाद किसके पास जाना पड़े? पता नहीं भगवान के हाथ लगें या शैतान के। इसे कहेंगे गणित। यह पूजा नहीं है। दोनों को राजी रखना क्या ठीक है? दरअसल यह बुद्धि का हिसाब है। यह मिटना नहीं है, यह मोलभाव है। जप एवं साधना ऐसे नहीं हो सकती, इसमें मिटना ही पड़ेगा।

बुजुर्ग हमारे व्यक्तित्वरूपी वृक्ष के बीज हैं
ईश्वर से जुड़ने का सबसे सरल माध्यम है पूजा। कर्मकांड में जब भावना अपना महत्व बढ़ाने लगे तो वह पूजा का सही स्वरूप है। पूजा से चार बातें मिलती हैं- अनुशासन, परिश्रम, धर्य और दूरदर्शिता। इसीलिए सभी धर्मो ने पूजा की एक निश्चित ड्रिल बनाई है। कब, क्या, कितना करना है इसमें एक अनुशासन छिपा है।
सबसे पहले सूर्य को अध्र्य दिया जाता है जो धार्मिक कर्मकांड के साथ ही प्रकृति के तेज को प्रतिदिन अपने भीतर आमंत्रित करने की क्रिया है। तुलसी को प्रतिदिन जल चढ़ाया जाए, क्योंकि तुलसी में शांति के तत्व बसे हैं। गाय को गोग्रास देने का अर्थ है एक निश्छल आत्मा को अपने भीतर उतारना। गाय जैसी शुद्ध आत्मा और किसी पशु की नहीं है।
पंचदेव माने गए हैं- गणोशजी, सूर्य, दुर्गाजी, विष्णुजी, शंकरजी। देवपूजा का अर्थ है अपने पुरुषार्थ के साथ किसी और परमशक्ति पर भरोसा करना जो बिल्कुल भी अनुचित नहीं है। नित्य पूजा का अगला क्रम है किसी न किसी ग्रंथ का पाठ प्रतिदिन किया जाए। शुभ साहित्य के शब्द आपके चिंतन को सकारात्मक और सृजनशील बनाएंगे। इसके बाद जीवित माता-पिता, वृद्धजन तथा दिवंगत पितृजनों को प्रतिदिन प्रणाम करने का अर्थ है अपने भीतर की ऊर्जा को ऊपर उठाना। बड़े-बूढ़े हमारे इस व्यक्तित्वरूपी वृक्ष के बीज हैं और कोई भी पेड़ कभी बीज से बड़ा नहीं होता। नित्य पूजा का यह अनुशासन, परिश्रम हमारे भीतर उस धर्य और दूरदर्शिता को बढ़ाता है जिसकी जरूरत आज हर क्षेत्र में है।

मौन के वृक्ष पर हमेशा लगते हैं शांति के फल
यदि आप शांति की तलाश में हैं तो अपनी दोस्ती मौन से भी कर ली जाए। पुरानी कहावत है मौन के वृक्ष पर शांति के फल लगते हैं। मौन और चुप्पी में फर्क है। चुप्पी बाहर होती है, मौन भीतर घटता है। चुप्पी यानी म्यूटनेस जो एक मजबूरी है। लेकिन मौन यानी साइलेंस जो एक मस्ती है।
इन दोनों ही बातों का संबंध शब्दों से है। दोनों ही स्थितियों में हम अपने शब्द बचाते हैं, लेकिन फर्क यह है कि चुप्पी में बचाए हुए शब्द भीतर ही भीतर खर्च कर दिए जाते हैं। चुप्पी को यूं भी समझा जा सकता है कि पति-पत्नी में खटपट हो तो अकसर बातचीत बंद हो जाती है। भीतर ही भीतर एक-दूसरे से सवाल खड़े किए जाते हैं और उत्तर भी दे दिए जाते हैं।
यह चुप्पी है। इसमें शब्दों ने बेचैनी को जन्म दे दिया, अशांति को पैदा कर दिया। दबाए गए ये शब्द बीमारी बनकर उभरते हैं। इससे तो अच्छा है शब्दों को बाहर निकाल ही दिया जाए। मौन यानी खामोश हो जाना। मौन से बचाए हुए शब्द समय आने पर पूरे प्रभाव और आकर्षण के साथ व्यक्त होते हैं।
आज के व्यावसायिक युग में शब्दों का बड़ा खेल है। आप अपनी बात दूसरों तक कितनी ताकत से पहुंचाते हैं, यह सब शब्दों पर टिका है। कुछ लोग तो सही होते हुए भी शब्दों के अभाव, कमजोरी में गलत साबित हो जाते हैं।
कोई आपको क्यों सुनेगा यदि आपके पास सुनाने लायक प्रभावी शब्द नहीं होंगे। इसलिए यदि शब्द प्रभावी बनाना हैं तो जीवन में मौन घटित करना होगा। चुप्पी चेहरे का रौब है और मौन मन की मुस्कान। जीवन में मौन उतारने का एक और तरीका है जरा मुस्कराइए..।

कठिन काम को आसान बनाती है दृढ़ इच्छाशक्ति
यह अथक परिश्रम और दुर्लभ कार्य करने का समय है। हनुमान भक्तों के लिए श्री हनुमानचालीसा की बीसवीं चौपाई बड़ी उपयोगी है। दुर्गम काज जगत के जेते। सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते।। हे हनुमानजी! संसार में जितने कठिन कार्य हैं, वे सब आपकी कृपा से सरल हो जाते हैं।
इस चौपाई में यह अनुग्रह शब्द बड़ा अनूठा है। ग्रह का अर्थ है पकड़ना, अनु का मतलब बाद में। संसार के जितने भी दुर्गम काज हैं, वे आपके अनुग्रह से पूरे हो जाते हैं। अनुग्रह में भक्त और भगवान के बीच की वार्ता छुपी हुई है। श्रीराम से अपनी पहली भेंट में हनुमानजी ने कहा था कि आप दोनों भाई मेरे कंधे पर बैठ जाइए।
दोनों भाई बैठ गए थे। जैसे ही हनुमानजी खड़े हुए तो श्रीराम व लक्ष्मण गिरने लगे, तत्काल उन्होंने हनुमानजी का मस्तक पकड़ लिया। हनुमानजी ने श्रीराम से कहा- दुनिया आपको पकड़ने के लिए दौड़ती है, आज आपने मुझे पकड़ कर रखा है।
जिसको आप पकड़ते हैं, फिर उसको छोड़ते नहीं हैं। तुलसीदासजी ने हनुमानजी से दुर्गमकाज को सुगम बनाने के लिए जिस अनुग्रह की मांग की है उस अनुग्रह का आज के समय में नाम है इच्छाशक्ति। हनुमानजी अपने भक्तों को दृढ़ इच्छाशक्ति का प्रसाद देते हैं।
सदैव सभी परिस्थितियों को अपने पक्ष में मानकर चलना भी एक तरह का आत्मविश्वास है, दृढ़ इच्छाशक्ति है। अच्छे प्रबंधकों की यह मान्यता रहती है कि जिन्दगी हालात से नहीं फैसलों से बदली जाती है। सफलता का कोई शॉर्टकट नहीं होता।

समृद्धि से परिचय का अवसर है दीवाली
आने वाले कुछ दिन धन, संपत्ति, वैभव अर्जित करने के दिन होंगे। दीपोत्सव का काल मनुष्य को समृद्धि से परिचित कराने का अवसर होता है। अब जितने भी उत्सव आएंगे, वे हमें सिखाएंगे कि लक्ष्य जितने चुनौतीपूर्ण हों, उतने ही यथार्थ और संभावना वाले भी रहें। तार्किक लक्ष्य गढ़ें और आशावाद में विश्वसनीयता लाएं।
विश्वास का तंत्र भी मजबूत किया जाए। अधिकांश अवसरों पर हम भावनाओं पर टिकते हैं, विश्वास पर नहीं, तो जिसे प्रेरित करना है उसके विश्वास की गहराई को जानें। दीपावली के पूजन में हमारी ईमानदारी और परिश्रम ही गुरु के रूप में आएगा।
सत्य तो यह है कि गुरु चले जाते हैं, गुरु के शब्द रह जाते हैं और फिर एक दिन शब्द भी चले जाते हैं तथा एक शून्य रह जाता है, जहां से धन के सत्य का जन्म होता है। लक्ष्मी पूजन का अर्थ है भगवान का सहारा प्राप्त किया जाए। इसका मतलब अकर्मण्यता नहीं, निष्कामता है।
जिस क्षण कार्य में निष्कामता और भाव में भगवान का भरोसा आया कि मनुष्य का व्यक्तित्व चुंबक की भांति हो जाता है। जिसकी ओर परमात्मा की संपूर्ण शक्तियां खिंची चली आती हैं। दीपावली का पूजन सिखाता है फिलॉसफी ऑफ पावर्टी में भगवान का विश्वास नहीं है।
उनका आदेश है समृद्धि की ओर गति करें। अध्यात्म का आचार व समृद्धि के विचार में तालमेल बैठाना भी दीप पर्व का अंग है। अब जितने भी उत्सव आएंगे, वे हमें सिखाएंगे कि लक्ष्य जितने चुनौतीपूर्ण हों, उतने ही यथार्थ और संभावना वाले भी रहें।

संतुलित आहार से शुद्ध होते हैं विचार
अध्यात्म में भोजन का बड़ा महत्व है। यदि यह ठीक न हो तो शरीर बिगड़ जाता है। याद रखिए जो हम अन्न खाते हैं उसमें से एक चौथाई से मन बनता है, एक चौथाई से रक्त बनता है, एक चौथाई शुक्र में और एक चौथाई मल में जाता है। ऐसी चार प्रक्रियाएं घटती हैं।
हमें मन, रक्त और शुक्र संभालकर रखना है और मल का परित्याग करना पड़ता है। हमारे शास्त्रों में सूक्ष्म बातें बताई गई हैं। भोजन और भजन के समय साधक का प्राणबल सतेज हो जाता है और वातावरण के अणु उनके पास खिंचे चले आते हैं। इसलिए ऋषियों ने कहा है कि भोजन करते समय वातावरण शुद्ध रहे।
शास्त्र के सिद्धांत हमें अनुभूति में उतारना चाहिए। इसका एक मनोवैज्ञानिक कारण भी है। संतुलित भोजन आपको थकान से बचाएगा। यह भी ध्यान रखें कि न अधिक आहार लें और न कम। गीता में कहा है कि बहुत तपस्या वाला व्यक्ति तथा बहुत कम खाने वाला व्यक्ति भी क्रोध बहुत करता है।
यदि अधिक जागता है या अधिक सोता है, वह भी ठीक नहीं। अति से किया हुआ योग दुख देता है। इसलिए जीवन में आहार शुद्ध एवं संतुलित करें। जब गृहस्थी में आहार शुद्ध होगा तो विचार शुद्ध होंगे, व्यवहार शुद्ध होगा और जब ये दोनों शुद्ध होंगे, तब प्रेम टिकेगा और प्रेम टिकेगा तो एक-दूसरे पर विश्वास टिकेगा और जब विश्वास जमता है तो गृहस्थी स्वर्ग हो जाती है। जब गृहस्थी में आहार शुद्ध होगा तो हमारे विचार शुद्ध होंगे, व्यवहार शुद्ध होगा और जब ये दोनों शुद्ध होंगे, तब जीवन में प्रेम टिकेगा।

लक्ष्मी अर्जन करना सबसे बड़ा पुरुषार्थ
युग कोई सा-भी रहा हो, यह सही है कि धन सबकुछ नहीं होता, परंतु बहुत कुछ होता है। लक्ष्मी अर्जन करना सबसे बड़ा पुरुषार्थ है। धन कमाने में अनुचित की शुरुआत उसके तरीके में है, उसके अर्जन में नहीं है। यही एक मात्र त्योहार ऐसा है जिसका उद्देश्य सीधे-सीधे हमारे जीवन को प्रभावित करता है।
हर कर्मकांड की एक भीतरी क्रिया है और हर बाहरी विचार का एक भीतरी क्रियान्वयन है। हमारे शरीर में भीतर कुछ चक्र, बिंदु और स्थान हैं जहां से मनुष्य संचालित होता और बाहरी क्रिया करके परिणाम लेता और देता है।
हमें अपने शरीर के भीतर के इन चक्रों, बिंदुओं की जानकारी हो और इनका उपयोग करना आना चाहिए। अमावस्या में लक्ष्मी पूजन का अर्थ है अंधेरे में समृद्धि के प्रकाश को खोजना। हमारी ऊर्जा नीचे के अंधकार भरे चक्रों से ऊपर के तीन- विशुद्ध, आज्ञा और सहस्रार चक्र पर पहुंचना चाहिए।
जैसे ही ऐसा होता है प्रकाश भीतर जागता है तथा अपने निर्णय, बाहरी कर्म आपको लाभ पहुंचाते हैं और उस लाभ का आप जीवन में सही आनंद उठा सकते हैं। धन के साथ शांति भी जब मिल जाए तो सही दीपावली है। इसलिए पहले भीतर के दीए की लौ की दिशा सही चक्रों पर रखें तो बाहर का लक्ष्मी पूजन सध जाएगा। धन कमाने में अनुचित की शुरुआत उसके तरीके में है, उसके अर्जन में नहीं है। धन के साथ शांति भी जब मिल जाए तो सही दीपावली है।

दिवाली की धूम के बाद अब थोड़ा थम जाएं
पिछले दिनों लोगों का समय भारी व्यस्तता में बीता। कुछ लोग कमाने में जुटे रहे, तो कुछ कमाया हुआ ठिकाने लगाने में। अब जिनके पास खूब धन आ गया, यदि वो भी अशांत होंगे और जिनका गया वो भी शांत नहीं होंगे तो बेकार रही सारी मारा-मारी। जरा इस पर ध्यान दीजिए, बचाया क्या हमने? हमारी बचत सुख के साथ शांति होनी चाहिए।
जब हमारे भीतर मानसिक असंतुलन और उत्तेजना आती है तो व्यक्तित्व में अधीरता आ जाती है। अधिक अधीरता हृदय को संकीर्ण करती है। इसलिए खूब मेहनत के बाद अब थोड़ा थम जाएं, शांत हो जाएं। इसके लिए एक तरीका अपनाएं, जो होना था वह हो गया, जो हो रहा है वह भी होता रहेगा, बस खुद को बीच में से हटा लें। मैंने किया, मैं कर दूंगा यहीं से अशांति शुरू होती है।
हमारा ‘मैं’ ही हमसे भिड़ जाता है। एक कुत्ता पानी में झांक रहा था। अपनी ही परछाई दिखी तो भौंकने लगा। वह डरा भी और गुस्से में भी आया। पानी में अपनी ही परछाई पर कूद गया। बस, परछाई गायब हो गई। इसी तरह हम भी अपनी ही छाया से झगड़ रहे हैं। एक बार भीतर कूद जाएंगे, तो परछाई मिट जाएगी और हम ही रह जाएंगे।
परछाई शब्द हमारी छाया के लिए कहा जाता है। लेकिन इसमें ‘पर’ शब्द आया है यानी दूसरे की छाया। यानी अपनी ही परछाई दूसरे के होने का भान कराती है और हम उससे उलझ जाते हैं। खुद से लड़ते रहो, हाथ कुछ नहीं लगेगा। दिवाली की धूम के बाद आइए इस शून्य का अभ्यास करें।

हनुमान रूपी चौकीदार को जीवन में बनाए रखें
जीवन में दुगरुण आसानी से प्रवेश कर जाते हैं। हम कितने ही ताले लगा लें या चौकीदार बैठा लें दुगरुणों के आक्रमण करने पर स्वयं की रक्षा करना मुश्किल हो जाता है। हनुमानचालीसा की २१वीं चौपाई हमें हनुमानजी के नए रूप से परिचित करा रही है। राम दुआरे तुम रखवारे। होत न आज्ञा बिनु पैसारे।।
आप रामद्वार के द्वारपाल हैं, आप रक्षा करते हैं रामद्वार की। आपकी आज्ञा के बिना कोई कैसे प्रवेश कर सकता है। इसका सीधा सा अर्थ है आपकी कृपा के बिना भगवान श्रीराम की कृपा प्राप्त नहीं हो सकती। इस चौपाई की आजकल लोग नई परिभाषा कर रहे हैं।
बिनु पैसारे यानी बिना पैसे दिए कोई नहीं जा सकता, क्योंकि आजकल हर काम के लिए पैसे देना पड़ते हैं, लेकिन वास्तविक अर्थ ऐसा नहीं है। अपने हृदय के हम स्वयं द्वारपाल हैं। हम काम, लोभ, मोह को प्रवेश देते हैं तो क्या हम सच्चे द्वारपाल हैं? क्या हम सत्य, विवेक, शांति, परोपकार, अहिंसा जैसे गुणों को प्रवेश देते हैं? इन सद्गुणों को प्रवेश देते समय हम रिश्वतखोर हो जाते हैं।
इसलिए संकेत दिया कि हमें किस प्रकार का द्वारपाल बनना चाहिए। सद्गुण स्वाभिमानी होते हैं, उन्हें बुला-बुलाकर आग्रहपूर्वक प्रवेश कराना होगा। हनुमानजी की कृपा हो जाए तो हमारा प्रवेश-प्रबंधन सफलतापूर्वक निपटेगा और द्वारपाल सजगता, बल, विवेक तथा आग्रह के साथ सही परिणाम देगा। तो चलिए दुगरुणों के आक्रमण के समय हनुमान रूपी चौकीदार को जीवन में बनाए रखें।

शांति रूपी ताले की चाबी का नाम ही योग है
पिछले दिनों धूमधाम के साथ शोर-शराबा भी था। लेकिन अब हमें भीतर हमेशा खामोशी बनाए रखनी चाहिए और इसके लिए योग से गुजरना बड़ा उपयोगी है।
इंटरनेट के युग में लोगों की योग के प्रति जानकारी तो खूब बढ़ी, पर समझ घटती गई। योग जानने से अधिक जीने का विषय है। अधिकांश लोग शरीर के स्वास्थ्य को लेकर योग को व्यायाम मानते हुए आसन लगाकर बैठ जाते हैं। यह योग का अर्धसत्य है, इसका पूर्ण सत्य है मेडिटेशन यानी ध्यान। ध्यान के पीछे भी लोग बिना समझे बावरे हुए जा रहे हैं।
ध्यान करें यह तो ठीक है लेकिन उससे भी अधिक जरूरी है ध्यान रखें। सुख मिलने पर या नहीं मिलने पर भी जिस शांति की खोज में हम हैं उस शांति रूपी ताले की चाबी का नाम योग ही है। जिस योग से शांति प्राप्त हो सकती है उसमें बिना समझे उतरने के कारण ही और अशांति हाथ लग रही है। संक्षेप में यह अष्टांग योग का मामला है। योग के आठ चरण हैं- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि।
अब यदि कोई चाहे कि जीवन में सीधे ध्यान घट जाए तो यह कैसे संभव होगा। इसके पहले छह चरणों से गुजरना होगा। इसीलिए पहले प्राणायाम साधा जाए फिर ध्यान सिद्ध होगा। जीवन में ध्यान उतरते ही अशांति को वैसे ही जाना होता है जैसे प्रकाश आने पर अंधकार का निर्गम तय है। हम रोज योग करें, लेकिन यदि न कर सकें तो एक काम अवश्य करें यह भी योग का ही हिस्सा है- जरा मुस्कराइए..।

परिवार का प्रत्येक सदस्य प्रेम की डोर से जुड़ा रहे
दांपत्य में सबसे बड़ी उपलब्धि है श्रेष्ठ संतान। जिन लोगों ने ऐसी संतति उपलब्ध की है चलिए उनके जीवन में झाकें। कथा है मनु-शतरूपा ने तपस्या की, तब भगवान ने प्रकट होकर कहा - मांगो! दंपती बोले- अगले जन्म में हमारे यहां आपके जैसा बेटा हो। भगवान बोले - तथास्तु! फिर कहा - मैं तो एक ही हूं, मेरे जैसा बेटा कैसे हो सकता है।
मुझे ही आना पड़ेगा और सूर्यवंश में आऊंगा। वह गृहस्थी दिव्य है जिसमें परमात्मा स्वयं जन्म लेने को आतुर हो जाएं। हम अपने परिवार में परमात्मा को उतार लें यह हमारे जीवन का उद्देश्य होना चाहिए। दांपत्य में जितना प्रेम बढ़ाएंगे परमात्मा के उतरने की संभावना उतनी ही बढ़ जाएगी। एक युवक विवाह करके लौट रहा था।
नाव में बैठा था कि जोर से तूफान आया। नववधू कांपने लगी, डर गई। लेकिन युवक निश्चिंत बैठा था। पत्नी ने कहा-आप बड़े बेफिक्र बैठे हैं। तूफान ऐसा भयंकर है, नाव पलटने वाली है, आपको जरा भी डर नहीं लग रहा? वह युवक कुछ बोला नहीं, उसने म्यान में से तलवार निकाली और अपनी पत्नी के गले के पास लगा दी।
पत्नी हंसने लगी। पति ने पूछा कि तुम्हें डर नहीं लगा? नववधू ने कहा कि जब तलवार तुम्हारे हाथ में है तो डर कैसा? युवक ने कहा- यह तूफान भी हमारे भगवान के हाथ में है। यह तलवार गर्दन के बिल्कुल करीब है, लेकिन परमात्मा के हाथ में है तूफान तो फिर क्या डरना। जब प्रेम जाग जाए तो फिर कुछ डर नहीं लगता।

संसार में हर जगह बेहद जरूरी है संतुलन
‘अति’ हमेशा नुकसानदायक है। यह नियम अच्छी और बुरी दोनों आदतों पर लागू होता है। ऋषि-मुनियों ने भी अति को वर्जित बताया है। बुद्ध ने एक शब्द दिया था मंझम मग्न यानी मध्यम मार्ग। जीवन का यह संतुलन उन्हें एक दिन वह सब दिला गया जिसके लिए उन्होंने तपस्या की थी।
अपनी बोध प्राप्ति की अवस्था में उनसे एक प्रश्न पूछा गया था जिसका उन्होंने बड़ा सुंदर उत्तर दिया था। किसी का प्रश्न था - अब आपको क्या मिला? क्या वह प्राप्त हो गया जिसके लिए आपके सारे प्रयास थे? बुद्ध ने कहा - नया कुछ नहीं मिला, जो कुछ मेरे पास पहले से था, उसका ज्ञान हो गया। वह दौलत अपने ही भीतर थी हम बाहर ढूंढ़ रहे थे।
हम दो भूलें कर जाते हैं या तो बिल्कुल बाहर संसार पर टिक जाते हैं या एकदम भीतर उतर जाते हैं। ये अति हमारे लिए हमारे अध्यात्म की दुश्मन बन जाती है। आचार्य श्रीराम शर्मा ने संसार में संतुलन से चलने के लिए एक अच्छा उदाहरण बताया है - दुनिया में ऐसे चलो जैसे पानी में हाथी चलता है।
हाथी जानता है पानी में जल्दबाजी करूंगा तो कीचड़ या गड्ढे में गिर सकता हूं। लिहाजा आगे और पीछे के पैर रखने में वह गजब का संतुलन बनाता है। बस, ऐसा ही संतुलन हमें बाहर और भीतर की यात्रा में रखना होगा। जैसे ही हम संतुलन में आते हैं हमारी अंतर दृष्टि स्पष्ट हो जाती है और हम स्वयं को पहचान जाते हैं। स्वयं को जानते ही परमात्मा दिख जाता है।

धनवान होना है तो अपने चित्त को स्थिर रखें
कई लोग अमीर नहीं हो पाते हैं और जब वे समृद्ध लोगों को देखते हैं तो उन्हें विचार आता है कि हम ऐसे क्यों नहीं हो सकते? यदि इनकी गरीबी मिट सकती है तो हमारी क्यों नहीं? संसार में इस एक प्रश्न ने अनेक लोगों को धनवान बना दिया। धनवान होने की तैयारी में पहला काम यह करें कि अपने चित्त को स्थिर बनाएं।
यह तय है कि जिसका चित्त दुखी है वह परमात्मा को नहीं जान पाएगा। जैसे तेज हवा किसी जलाशय पर पड़ रहे चंद्रमा के प्रतिबिंब को हिला देती है, वैसे ही व्याकुलता मनुष्य के मन को हिलाकर परमात्मा का प्रतिबिंब मिटाती रहती है। ऋषि-मुनियों ने कहा है कि अपने आप को दीन-हीन मत समझो।
तुम्हारे पास श्रम की महान पूंजी है। पूरी ईमानदारी, सद्व्यवहार और मनोयोग से अपना कार्य करो। धन प्राप्ति का यह एक सरल मार्ग है। जिन्हें धन उपलब्ध हो वे इसे सेवा से जरूर जोड़ें। सेवा के माध्यम से धन पूरे संसार में बांटना चाहिए। यदि हमें समृद्धि मिले तो हमारा प्रयास हो यह सबको मिले। यही परहित और समाजसेवा का भाव होगा।
यदि हमने सेवा के मोती को संसार में बिखेरा तो योग्य लोग उसे अवश्य चुन लेंगे।कबीर लहरि समुद्र की, मोती बिखरे आय। बगुला परख न जानई, हंसा चुनि-चुनि खाय।। कबीर कहते हैं-समुद्र में लहर उठती है तो मोती किनारे पर आकर बिखर जाते हैं। बगुला तो उनकी परख नहीं जानता, परन्तु हंस मोतियों से चुन-चुनकर खाता है। इसलिए समाज में धन के माध्यम से सेवा बांटी जाए।

अपने भक्तों के सुखों की रक्षा करते हैं हनुमानजी
संसार में सुख सभी चाहते हैं, पर सुख-दुख को एक साथ ही समझना होगा। चलिए श्री हनुमानचालीसा की 22वीं चौपाई से गुजरें। तुलसीदासजी ने लिखा है - सब सुख लहै तुम्हारी सरना। तुम रच्छक काहू को डर ना।। आपकी शरण में आए भक्त को सारे सुख प्राप्त हो जाते हैं और सारे भय (दैहिक, दैविक) दूर हो जाते हैं।
इस चौपाई से हमें सुख और दुख को समझने की नई व्याख्या मिलती है। कुछ लोगों को यह गलतफहमी होती है कि सुख और दुख एक नहीं हैं। दुख मैं का दूसरा नाम है और मैं आत्मा से अलग है। साधक का मैं यदि हावी है तो वह परमात्मा तक नहीं पहुंचने देगा। संत दादू की पंक्तियां हैं - मेरे आगे मैं खड़ा थाते रहा लुकाई। दादू परगट पीव है, जे यह आपा जाई।।
परमात्मा तो हमारे सामने खड़े हैं, हम ही अपने मैं की आड़ बनाकर खड़े हो गए हैं। इसलिए वह दिखता नहीं है। यह मैं का आपा हमको हटाना होगा। सुख का सही स्वरूप क्या है यह अनुभव श्री हनुमानचालीसा कराती है। हनुमानजी अपने भक्तों के सुखों की रक्षा करते हैं।
हर आदमी की कामना है उसे सुख मिले और मिला हुआ सुख सुरक्षित भी रहे। श्री हनुमान के भक्तों को यह बहुत बड़ा आश्वासन है। दूसरों को बेफिक्र रखना हनुमानजी की कला है। आजकल ऐसे प्रबंधकों को पसंद किया जाता है जो रचनात्मकता के ज्वालामुखी पर बैठकर पूरे माहौल को बेफिक्र रखते हैं। यही हनुमंत का स्ट्रेस मैनेजमेंट है। और जो लोग इसका पालन करना चाहते हैं उनके लिए हनुमानजी प्रेरणास्रोत हैं।

हमारे भीतर विश्राम से जागेंगे आज परमात्मा
भक्ति के मार्ग में कहा जाता है थोड़ा विश्राम कर लें, इसका अर्थ ठीक से समझ लें। संसार में कुछ पाना हो तो भागना पड़ेगा। वह संसार का गणित है और परमात्मा के जगत में कुछ पाना हो तो ठहरना पड़ेगा। उल्टा है, यात्राएं विपरीत हैं। रामकृष्ण परमहंस कहा करते थे जगत में प्रतियोगिता है, परमात्मा में कोई प्रतियोगिता नहीं है।
अगर किसी दूसरे ने परमात्मा को पा लिया तो परमात्मा कम नहीं हो जाएंगे। लेकिन संसार में अगर किसी ने पद पा लिया तो पद नहीं बचेगा, इसलिए वहां दौड़ है। परमात्मा को पाने में कोई शोषण नहीं है। संसार में बिना शोषण कोई उपाय नहीं है। संसार में श्रम मार्ग है और परमात्मा में विश्राम। संयोग से आज देव उठनी एकादशी है। हमारे भीतर भी परमात्मा आज विश्राम से जागेंगे।
यह हिंदुओं की कल्पना है। विष्णुजी जाग गए यानी हमारी सक्रियता को अब नया रूप दें। विश्राम की दशा देखकर लोगों को लगेगा यह आलस्य है। इसलिए संसार ने संन्यासी को सदा आलसी समझा है। जो कुछ भी नहीं कर रहा है, संसार उसका मूल्य भी नहीं देता। पूरब ने इस रहस्य को समझा कि एक और जगत भी है जहां बिना कुछ किए पाने की संभावना है।
हमारे भीतर परमात्मा पहले से है। परमात्मा कोई अलग से उपलब्धि नहीं है। परमात्मा हमारा होना है, हमारे होने का ढंग है। पापी में भी उतना ही परमात्मा है जितना पुण्यात्मा में। लेकिन फर्क क्या है? पुण्यात्मा बैठा है और पापी कोशिश कर रहा है। बुरा आदमी उतना ही परमात्मा है जितना भला आदमी।

दिव्य अनुभूतियां कर देती हैं आत्मविश्वास प्रबल
चमत्कार कई बार अंधविश्वास को बढ़ाते हैं, लेकिन दिव्य अनुभूतियां आत्मविश्वास को प्रबल कर देती हैं। 14 नवंबर की रात मैंने चार आध्यात्मिक स्थितियों से सीधा साक्षात्कार किया। मध्यप्रदेश के रतलाम से भागवत की पूर्णाहुति कर मैं भीलवाड़ा के लिए निकला था।
नीमच के निकट हाईवे पर रात 9:30 बजे मेरी गाड़ी ट्रैक्टर ट्रॉली से सीधे टकराई। गाड़ी में ड्राइवर, सहायक और मैं हम तीन लोग थे। चलते समय मैं आगे बैठा था, लेकिन दुर्घटना के आधे घंटे पहले ही पीछे की सीट पर आ गया। आंख बंद कर गुरुमंत्र की अंतिम माला जप रहा था और उसके बाद पीछे की सीट पर सोने की तैयारी थी। गाड़ी के ब्रेक की तेज आवाज से मेरी आंख खुली, देखा हमारी कार ट्रॉली से टकरा रही थी, धमाका हुआ और मैं गाड़ी के बाहर फिका गया।
गाड़ी के आगे के भाग को देखकर हमारा जीवित रहना आश्चर्यजनक था। दुर्घटना के बाद अंधेरे में मुझे एक मंदिर दिखा था। दिव्यतम पक्ष सुबह घटा, जब अगले दिन घटनास्थल पर जाकर मैंने देखा तो वहां एक मंदिर था जिसमें हनुमानजी विराजे थे। इसे अब क्या कहेंगे..? कौन सी शक्ति है जो मुझे आगे से पीछे की सीट पर बैठाती है, मंत्र का जप सोने नहीं देता, कौन है जो गाड़ी से बाहर ले आता है और उस समय मेरे एक हाथ में माला तथा दूसरे में मोबाइल सुरक्षित रहता है। माला से मैं परमात्मा से जुड़ा रहा तथा मोबाइल से संसार से संपर्क कर लिया मदद के लिए। घटना निजी है पर वर्णन इसलिए है कि सब अपने-अपने हिस्से का भगवान और भरोसा इसमें से उठा लें।

बड़ी अजब पहेली हैं पति, पत्नी, पड़ोसी और मित्र
चार लोगों को समझना मुश्किल है - पति, पत्नी, पड़ोसी व मित्र। पत्नी को समझाएंगे तो वो कहेगी- रहने दो, हम सब जानते हैं और पति तो पत्नी को मानकर ही चलता है कि मेरे सामने इसकी अक्ल दो कौड़ी की है। ऐसे ही सारी दुनिया आपका आदर करेगी पर पड़ोसी नहीं और मित्रों मतलब भाई-बहन।
इनमें इनका दोष नहीं है, जो बहुत निकट रहते हैं वे समझने में असफल हो जाते हैं। समझने में थोड़ी दूरी की जरूरत है। इसीलिए हमारे यहां द्वैत का सिद्धांत प्रतिपादित किया गया है। यदि आप व्यासगादी के बिल्कुल निकट बैठ जाएं तो बोलने वाले को ठीक से नहीं देख पाएंगे और यदि बहुत दूर बैठे तो भी यही समस्या रहेगी।
एक निश्चित दूरी जरूरी है। कभी किसी मंदिर में जाएं तो वहां की प्रतिमा देख भाव उमड़ पड़ते हैं, नेत्रों में आंसू आ जाते हैं, पर यदि पुजारी को देखें तो वह कभी रोते हुए नहीं दिखेगा। नित्य निकटता से यह भाव चला जाता है। इस दूरी के लिए अभ्यास बनाए रखना जरूरी है और यह अभ्यास आता है जीवन की गहराई से, क्योंकि हम जब निकटता से देखते हैं तो किसी के भी भीतर एक पक्ष को देख पाते हैं।
वह अनदेखा रह जाता है जो उसके गहरे में होता है। यदि हम अपने भीतर की गहराई को नापना सीख गए तो दूसरे के भीतर उतरना कठिन नहीं होगा। सतह पर किसी को जानकर गलतफहमियों का जन्म होता है और गहराई हमेशा प्रेम को प्रकट करती है। इसके लिए एक प्रयोग और किया जा सकता है हर हाल में जरा मुस्कराइए..।

परमात्मा को चूकेंगे तो दुगरुण प्रवेश कर जाएंगे
मनुष्य की प्रवृत्तियों के नीचे की सतह पर विकार पाए जाते हैं। इन्हें मानसिक विष कहा गया है। काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह और मत्सर। इनमें से एक भी यदि सक्रिय हो जाए तो पूरे शरीर को दूषित कर जाता है। ये बुद्धि को तमो गुणी बना देते हैं। यहीं से जीवन में सद्गुणों और दुगरुणों का संघर्ष आरंभ होता है। मनुष्य सद्गुणों से जुड़े रहने के सारे प्रयास करता है, फिर भी चूक जाता है।
कहां से और कैसे सद्गुण जीवन में आए..? इस सवाल का सीधा-सरल जवाब गुरुनानक देव ने दिया है। एक स्थान पर उनके शब्द हैं- नानक निरगुणि गुणु करे, गुणुवंतिआ गुणु दे। परमात्मा के अलावा और कोई हमें गुण प्रदान नहीं कर सकता, वही है जो गुणहीनों को गुणवान बना सकता है। तथा जो पहले से गुणवान हैं उन्हें और अधिक गुण भी यही परमात्मा ही दे सकेगा।
स्वामी अवधेशानंद गिरि कहा करते हैं इसलिए ईश्वर से जुड़े रहने के अवसर जीवन में अधिक से अधिक बनाए रखे जाएं। जितना परमात्मा को चूकेंगे उतना ही दुगरुणों को प्रवेश का मौका देंगे। जीवन में हम अधिकांश मौकों पर खाली बर्तन की तरह हैं। अध्यात्म इस बर्तन को पात्र कहता है।
पात्र हम हैं, परंतु खाली। जैसे ही परमात्मा की ओर मुड़े, उसकी ओर चले, वह अपनी कृपा से इस पात्र को भर देगा। यह रुख तब होता है जब श्रद्धा आती है। श्रद्धा आई तो शिष्यत्व आया, इसी शब्द का एक अर्थ है सिक्ख होना। परमात्मा आपमें आया तो गुण लाएगा ही, दुगरुण अपने आप जाएंगे।

स्तरहीन कार्यक्रम बिगाड़ रहे हैं हमारे विचार
संसार को देखने के लिए हमारी आंख बड़ी ही महत्वपूर्ण है लेकिन उससे ज्यादा जरूरी है यह जानना कि क्या देखा जाए, कब और कितना देखा जाए। जो लोग सबकुछ करते हुए भी शांत रहना चाहते हों, वे अपने देखने के प्रति सावधान रहें।
आखों से देखे गए दृश्य अंतरपटल पर अंकित हो जाते हैं और फिर वे भीतर आ रहे विचारों से जुड़ते हैं तथा ये दोनों मिलकर मनुष्य को बेचैन और चिढ़चिढ़ी गतिविधि से जोड़ देते हैं। आज सबसे ज्यादा देखी जाने वाली वस्तु, दृश्य और पात्र है टेलीविजन। अब तो घरों में लोग एक-दूसरे सदस्य के साथ उतनी देर नहीं बैठते, जितनी देर टीवी के सामने बैठते हैं।
इसका खतरनाक पक्ष यह है कि जो भी दिखाया जा रहा वही देखा जा रहा है, कार्यक्रम के घटिया और स्तरीय होने की कोई चिंता नहीं है। बस, देखना है। सुना है दो रियलिटी शो का समय देर रात कर दिया गया है, ताकि बच्चे न देख सकें। देर रात की आड़ बच्चों से इन शो को बचा लेगी? नींद आने के ठीक पहले जो हमारा अंतिम विचार और दृश्य होता है उससे दिनभर हमारी जीवन शैली, व्यवहार, विचार तय होता है।
भागवत में कथा है 80 वर्ष के बूढ़े अजामिल ने एक वेश्या को जलक्रीड़ा करते देखा था और आचरण से भ्रष्ट हो गया था। इसलिए क्या देखा जाए इसका संबंध बड़े, बूढ़े और बच्चेतीनों के लिए एक जैसा है। इसलिए कम से कम टीवी के मामले में परिवार में अतिरिक्त सावधानी रखी जाए, खासतौर पर सोते समय।

सत्य जीवन में हो तो संपूर्ण व्यक्तित्व होगा तेजोमय
प्रभावशाली व्यक्तित्व सभी चाहते हैं। सद्गुणों का अपना तेज होता है। सत्य जैसा सद्गुण जीवन में हो तो पूरा व्यक्तित्व तेजोमय हो जाएगा। श्री हनुमानचालीसा की 23वीं चौपाई में लिखा है- आपन तेज सम्हारो आपै। तीनों लोक हांक ते कापै।। अपने तेज (शक्ति, पराक्रम, प्रभाव, पौरुष और बल) के वेग को आप स्वयं ही धारण कर सकते हैं। अन्य कोई समर्थ नहीं है।
आपन तेज सम्हारो हापै का अर्थ है, उस परमात्मा की सत्ता को ही सत्य मानना और शेष सब मिथ्या है। परमात्मा के साथ जुड़े ऐसे सत्य को भी थोड़ा जान लें। श्रीरामचरितमानस में सत्य के कई प्रयोग हुए हैं। अयोध्याकांड में तो सत्य की ही दुहाई चली है। यहां मानस में विरोधाभास आ जाता है।
परहित सत्य है कि धर्म सत्य है? सत्य के दो महत्वपूर्ण प्रयोग हुए हैं। श्रीकृष्णावतार के प्रसंग में वसुदेवजी ने कंस को वचन दिया कि वे अपना आठवां पुत्र सौंप देंगे। लेकिन भविष्य में वसुदेव ने वचन नहीं निभाया, आठवें पुत्र को टोकरी में रखकर नंदजी के पास गोकुल छोड़ आए थे।
वसुदेवजी के सामने समस्या यह थी कि सत्य को बचाएं या भगवान को। तो उन्होंने भगवान को बचाया, सत्य को ठुकरा दिया। ऐसी ही स्थिति दशरथ के सामने आई थी। सत्य बचाएं या भगवान। उन्होंने सत्य को बचाया, भगवान को छोड़ दिया था, लेकिन प्राण त्याग दिए थे। जीवन में सत्य को बचाने के लिए प्राण त्यागने जैसी तेजस्विता चाहिए। इसलिए हनुमानभक्त सत्य को जीवन में जरूर उतारें।

जगत व जगदीश के आनंद के लिए सत्य को पकड़ रखें
एक सवाल सभी के मन में आता है कि आखिर परमात्मा कब और कैसे मिलता है? क्या किसी को मिला भी है? लोग समझते हैं भगवान को पाने के भी तरीके होंगे और हैं भी। इनमें से एक तरीका है जीवन में सत्य को लाया जाए, तभी भगवान की कृपा की अनुभूति होगी।
इर्श्वर जब किसी पर कृपा करते हैं तो ऐसी कि जैसे कोई मां अपने हाथों में छोटे बच्चे को लेकर चलती है। भक्त को अपना जीवन प्रबंधन उसके हाथ में सौंप देना चाहिए। भगवान का स्पष्ट मत है- ‘तुम जमाने की राह से आए वरना, सीधा रास्ता था दिल का।’ भगवान तक पहुंचने के लिए हमको बहुत अधिक सांसारिक कार्य करने की जरूरत नहीं है।
उन्हें अवसर दीजिए कि वे हमारे जीवन में उतरें। भक्त भगवान को नहीं खोजता, वह इतना अधिक समर्पित हो जाता है कि फिर भगवान ही भक्त को खोजते हैं। यही भक्ति का स्वरूप है। सत्संग इसीलिए होते हैं कि भक्त उसमें बैठकर ऐसा संकल्प लेते हैं, जिसमें यह भाव होता है कि अब सब कुछ आपको सौंप दिया है।
जिस क्षण हम सब कुछ परमात्मा को सौंप देते हैं, उस क्षण जीवन में सत्य आता है, क्योंकि भक्त का अपना कोई कृत्य नहीं होता। भगवान ही उसका कृत्य करते हैं। भगवान यदि कृत्य करते हैं, तो वह कृत्य कभी असत्य नहीं हो सकता, पाखंड नहीं हो सकता। इसलिए भक्ति करते समय संसार के कार्यो को न छोड़ें, लेकिन सत्य को पकड़े रखें। फिर जगत व जगदीश का आनंद प्राप्त होता रहेगा।

अपने परिवार के लिए भी थोड़ा समय निकालिए
परिवार के प्रति लापरवाही रखते हुए अपने व्यावसायिक क्षेत्र में जो भी सफलताएं अर्जित की जाएंगी, वे खोखली साबित होंगी। आज भी कई लोग यह मानते हैं कि दुनिया जीतने में परिवार एक बाधा है। इसीलिए जिन्होंने दुनिया मुट्ठी में कर ली, उनके पैरों तले से परिवार खिसक गया।
पहला काम यह करें कि सप्ताह में या माह में एक बार सिर्फ अपने परिवार के लिए कुछ तयशुदा समय निकालिए। समय का बंटवारा भी परिवार के सदस्यों के बीच पूरे समय प्रबंधन के साथ किया जाए। जो लोग आज थोड़े भी सफल हैं, उनके पास सुख, सुविधा तो पर्याप्त होती है लेकिन वे एक बात में कंगाल होते हैं कि अपनों के लिए समय नहीं।
बाप-बेटे, मां-बेटी, पति-पत्नी के संबंध तो हैं लेकिन आज संपर्क नहीं है। एक ही परिवार के लोग मिलना तो दूर, बातें भी नहीं कर पा रहे हैं और जिनके बीच बातें हो भी रही हैं उनमें या तो आक्रोश है या अनिच्छा या असहमति। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि परिवार के लिए समय साधा जाए। जिनके जीवन में अध्यात्म होगा, उनके लिए ऐसा समय प्रबंधन भी आनंद का विषय होगा। जब आप परिवार को समय दे रहे हों, उस समय प्रेम से सराबोर रहिए।
एक के भीतर का प्रेम साथ मौजूद परिवार के अन्य लोगों के भीतर अपनी महक जगाता ही है, प्रेम परिवार में छोटी-छोटी शिकायतों के स्पेस को भी खत्म कर देता है। तो इतना जरूर करें कि पूरे प्रबंधन के साथ परिवार को पर्याप्त समय दें।

कार्य और परिणाम के बीच धैर्य का होना जरूरी है
यदि चाहत में कोई बाधा आ जाए तो छोटे बच्चे अधीर हो जाते हैं। इसी प्रकार सांसारिक कार्यो में बड़े लोग भी उतावलेपन से ग्रस्त दिखते हैं। परिणाम पाने की अधीरता बड़े-बड़ों में बालक्रीड़ा की तरह देखी जाती है। कार्य और परिणाम के बीच धैर्य जरूरी है। कुछ लोग अपने अतिउत्साह और उतावलेपन में भी फर्क नहीं कर पाते हैं।
काम शुरू किया और नतीजा मिल जाना चाहिए, यदि ऐसा न हो तो वे या तो उदास हो जाते हैं या काम को अधूरा छोड़ दूसरे में लग जाते हैं। इससे लगता है ऐसे लोगों का लड़कपन तो चला गया, पर बुद्धि का बालपन बना रहा।
पुराने वक्त में गुरुकुल में विद्यार्थियों को दो काम जरूर करने पड़ते थे - पहला काम था गाय चराना तथा दूसरा लकड़ी काटना या बीनना। इन कार्यो के पीछे धर्य का मनोविज्ञान था। बाद में शिक्षा संस्थानों में लायब्रेरी ने यही काम किया। धीरज के साथ बैठना सिखाया।
अब तो पुस्तकालय की शांति कंप्यूटर, लेपटॉप पी गए। पर अब भौतिक युग में प्रतिस्पर्धा बढ़ रही है। लिहाजा देरी को खतरनाक माना गया है और ऐसे में हम अधीरता नामक बीमारी पाल लेते हैं। चौबीस घंटे में कुछ समय आंख बंद करके बैठने का प्रयोग किया जाए।
जैसे ही हमारी आंख पर हमारी पलक थोड़ी देर तक गिरी रहती है, भीतर की दृष्टि अपना काम करने लगती है। अंतर्यात्रा का आमंत्रण इसे ही कहते हैं, यहीं से व्यक्तित्व में धैर्य आता है। बाहरी सक्रियता में धैर्य जुड़ जाए तो सफलता परेशान नहीं करेगी और असफलता उदासी नहीं लाएगी।


मन को श्रीराम से बांधने वाला ही सच्च भक्त

विभीषण जब पहली बार श्रीराम से मिले थे तो वार्तालाप में विभीषण ने ज्ञान, वैराग्य की चर्चा की थी और राम कृपा पर बड़ी दार्शनिक टिप्पणी कर डाली थी। श्रीराम को लगा था विभीषणजी को कहीं वैसा ही वैराग्य न जाग जाए जैसा प्रथम मिलन में सुग्रीव को जागा था। सुग्रीव ने कहा था - सुख संपति परिवार बड़ाई। सब परिहरि करिहउँ सेवकाई।।
ए सब राम भगति के बाधक। कहहिं संत तव पद् अवराधक।। सुख, संपत्ति, परिवार और बड़ाई सबको त्याग कर मैं आपकी सेवा ही करूंगा। क्योंकि आपके चरणों की आराधना करने वाले संत कहते हैं कि ये सब (सुख-संपत्ति आदि) रामभक्ति के विरोधी हैं। सुग्रीव ने श्रीराम भक्ति में परिवार को बाधक बताया था।
एकदम बैरागी हो गए थे सुग्रीव। लेकिन जैसे ही उन्हें राजकाज मिला, वे सब भूल गए थे। भक्तों के अस्थायी वैराग्य के मामले में सुग्रीव से ठोकर खाकर श्रीराम अनुभवी हो चुके थे। इसलिए विभीषण को अधिक बोलता देख श्रीराम ने कहा - जननी जनक बंधु सुत दारा। तनु धनु भवन सुहृद परिवारा।। सब कै ममता ताग बटोरी। मम पद मनहि बांध बरि डोरी।।
माता-पिता, भाई, पुत्र, स्त्री, शरीर, धन, घर, मित्र और परिवार इन सबके ममत्वरूपी धागों को बटोरकर और उन सबकी एक डोरी बटकर उसके द्वारा जो अपने मन को मेरे चरणों में बांध देता है यानी सारे सांसारिक संबंधों का केंद्र मुझे बना लेता है, उसे सच्चीभगवद्प्राप्ति होती है। श्रीराम का स्पष्ट चिंतन है कि मेरे लिए इन दस बातों को छोड़ना जरूरी नहीं है।

यदि सत्य जीवन में है तो वह सभी को साध लेगा
जीवन में ईश्वर को लाने के लिए सदगुणों का साथ बहुत जरूरी है। कहते हैं यदि सत्य नाम का एकमात्र सद्गुण जीवन में है तो वह बाकी सबको साध लेगा, लेकिन जीवन में सत्य उतारना और उसका पालन करना कभी-कभी बड़ा कठिन हो जाता है।
सत्य को भी कोई सहारा चाहिए टिकने के लिए। इसीलिए भारतीय संस्कृति में सत्य के साथ परमात्मा को जोड़ दिया गया है, क्योंकि परमात्मा का अर्थ है सत्, चित्त और आनंद। सत् यानी अस्तित्व (एक्जिस्टेंस) और सत्य के मायने होते हैं-ट्रुथ। यूं तो ऊपर से ये दोनों एक ही दिखते हैं, परंतु गहराई में भिन्नता है। संसार में अनेक प्रसंग ऐसे होते हैं जो सत्य होते हैं परंतु सत् नहीं और कुछ घटनाएं ऐसी होती हैं जो सत् होती हैं परंतु सत्य नहीं।
जैसे शिक्षा में गणित विषय सत्य है, परंतु सत् नहीं है। सपने सत् हैं परंतु सत्य नहीं। लेकिन परमात्मा सत् भी होता है, सत्य भी होता है, वह दोनों है। यदि दोनों को अपनाना है तो न तो गणित काम आएगा, न कोई कला, न कोई सपना। दोनों को अपनाने के लिए स्वयं को पाना होगा।
ईश्वर से जोड़ता है सत्। सत्यव्रत के प्रति श्रद्धा जगाएं, पर ध्यान रहे वह श्रद्धा तामसिक न हो। गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है : श्रद्धा तीन प्रकार की होती है- सात्विक, राजसी व तामसी। श्रद्धा का अर्थ है सत्य और ईश्वर पर श्रद्धा की जाए। श्रत् सत्यम धा धारणो। सत्य का धारण श्रद्धा से होता है और जैसे ही मन में सत्य आता है, साहस लाता है, हृदय में प्रसन्नता होती है। परिणाम में सफलता मिल जाती है।

हनुमानजी को याद करने से भाग जाते हैं भूत-पिशाच
भूत-पिशाच होते हैं या नहीं, यह आज भी अविश्वास और विश्वास का विषय है। लेकिन जो भक्ति कर रहे हों उन्हें प्रभु भरोसे इन बातों से दूर रहना चाहिए। फिर हनुमान भक्त तो निर्भय होना ही चाहिए। श्रीहनुमानचालीसा की चौबीसवीं चौपाई में तुलसीदासजी ने लिखा है- भूत पिशाच निकट नहिं आवै।
महाबीर जब नाम सुनावै।। हे महावीर! आपका नाम लेने मात्र से भूत-पिशाच समीप नहीं आ सकते। यह श्री हनुमानचालीसा की सर्वाधिक लोकप्रिय पंक्ति है। संतों का कहना है कि श्रीहनुमानचालीसा तुलसीदासजी ने 15 वर्ष की आयु में लिखी थी।
उस समय वे काशी में विद्वान शेषसनातनजी के यहां भृत्य शिष्य थे, यानी सेवक का काम करते थे और अध्ययन भी करते थे। एक बार साथ पढ़ रहे शिष्यों ने बालक तुलसीदासजी को श्मशान की बातें कर डराया था। हनुमानजी को याद करते-करते वे अपने कमरे की ओर जा रहे थे।
जैसे ही वे अपनी कोठरी में गए उन्हें लगा कि साक्षात भूत कोठरी में बैठा है। उनके मुंह से शब्द निकले - भूत पिशाच निकट नहीं आवै, महाबीर जब नाम सुनावै- इतनी तेज हवा चल रही थी, लेकिन उन्होंने देखा कि उनका दीपक बुझ नहीं रहा है।
अवश्य कोई कृपा या चमत्कार है। बस, उन्होंने सरकंडे की कलम उठाई तथा उनके हाथ से पहला साहित्य रचा गया और भारतीय संस्कृति धन्य हो गई। भूत, पिशाच का एक अर्थ है दुगरुण। इसीलिए हनुमानजी को याद करने से दुगरुण रूपी ये भूत दूर ही रहते हैं।

हमारे सारे किए धरे पर पानी फेर देता है कुसंग
परिवारों में रिश्तेदारों की जगह मित्रों ने ले ली है। इसलिए रिश्तेदारों को चाहिए कि आपस में वे मित्रों-सा व्यवहार करें और सारे व्यवहारों तथा संबंधों में परमात्मा को जरूर रखें। हर रिश्ता सत्संग हो, कुसंग न हो। कहीं ऐसा तो नहीं कि आपकी संगति आपके मित्र, आपके परिवार को हानि पहुंचा रही हो।
रामकथा का एक पात्र वानर राज बालि इस मामले में चूक गया। उसने रावण को मित्र बनाया था और सुग्रीव ने श्रीराम को। श्रीराम ने सुग्रीव के गले में माला डालकर बालि को यह अवसर दिया था कि वह स्थिति को समझ ले किंतु बालि अहंकार में चूक गया।
परमात्मा हमारे जीवन में प्रवेश कर रहे हैं इसके वे स्वयं संकेत देते हैं परंतु यदि बालि की तरह हम मद में डूबे हुए हों तो भगवान के संकेतों को पढ़ नहीं पाते। सुग्रीव कमजोर था, पर उसने भगवान को प्राप्त कर लिया। बालि शक्तिशाली था, पर वह शक्ति का उपयोग भगवान के लिए नहीं कर पाया।
शक्ति को प्राप्त करना ही जरूरी नहीं है। जीवन में जब शक्ति का आविर्भाव हो तो प्रेम से उसे बांटें वरना शक्ति बोझ बन जाएगी, फिर शक्ति से समस्या ही उठेगी। बालि के साथ यही हुआ था। सुग्रीव में कई कमजोरियों के होने के बाद भी मित्रता करने और रिश्ते निभाने की खूबी थी।
इसलिए सिंहासन से च्युत हो जाने पर भी मित्रों से विहीन नहीं होते हैं, उस कठिन परिस्थिति में भी हनुमानजी जैसे मित्र और मंत्री उनके साथ थे। इसलिए अपने संग के प्रति अत्यधिक सावधान रहें। कुसंग सारे किए-धरे पर पानी फेर देता है।

सदा सत्य तो बोलें लेकिन वह अप्रिय न हो
सत्य बोलना बड़ा कठिन होता है, पर असंभव नहीं। इसके लिए एक काम करिए थोड़ा सुख छोड़ना पड़ेगा, साधन कम करना पड़ेंगे। यदि इतना कर लें तो सत्य बोला जा सकता है। सत्य बोलें किंतु यह याद रखें कि अप्रिय सत्य न बोलें। लोग कहते हैं हम सत्य बोलते हैं तो लोगों को कटु लगता है।
प्रिय सत्य कभी कटु नहीं हो सकता। अमृत, अमृत है वह विष नहीं हो सकता है। यदि कभी सत्य बोलते हुए अप्रिय होना पड़े तो मौन हो जाएं। मौन में वह ताकत है जो सारी बात बोल देती है। शब्द को थोड़ा बचाएं। यदि शब्द को बचाएंगे तो अपने आप को सत्य के अधिक निकट पाएंगे।
कई लोग सत्य बोलने की आड़ में निंदा पर उतर आते हैं। उनका मानना है हम तो हमेशा सत्य बोलते हैं। लेकिन ध्यान रहे कभी किसी की निंदा न की जाए, कभी किसी से ईष्र्या न की जाए। यदि ऐसा भाव कभी मन में उठे तो मन को समझाएं।
यदि हम निंदा न करें, ईष्र्या न करें और इन बातों को अपने जीवन में उतारें तो हम अपने आपको बहुत हल्का पाएंगे, मानसिक रूप से बहुत संतुष्ट पाएंगे। सत्य तथा निंदा वृत्ति को ठीक से न समझा जाए तो अहंकार आसानी से प्रवेश कर जाता है।
यह जीवनशैली बन जाती है। अत: अहंकार से भी सावधान रहें। यह बहुत सूक्ष्म दुगरुण है। पता ही नहीं चलता, कब जीवन में आ जाता है। अहंकार का नाश कभी-कभी साधन और साधना से भी नहीं हो सकता। तब यह परमात्मा की कृपा से विसर्जित होता है। उसकी कृपा पाने की चेष्टा की जाए।

मंदिर के बाहर जूतों के साथ शब्द भी उतार दें
जीवन में शब्दों का बड़ा महत्व है। इसके जमा खर्च को लेकर जो सावधान रहेगा, उसे शांति और अशांति का अर्थ आसानी से समझ में आ जाएगा। पदार्थ को जानना है तो शब्द का उपयोग करना पड़ेगा। विज्ञान बिना शब्द के नहीं जाना जाता।
यदि सारे पुस्तकालय जल जाएं, शास्त्र नष्ट हो जाएं तो विज्ञान भी नष्ट हो जाएगा, लेकिन अध्यात्म, धर्म नष्ट नहीं होगा। क्योंकि धर्म का शास्त्रों से कोई सीधा संबंध नहीं है। यदि शास्त्र जल जाएं तो न्यूटन, आइंस्टीन जैसे वैज्ञानिक पैदा करने में हजारों साल लग जाएंगे, लेकिन कृष्ण, राम, बुद्ध, महावीर, गांधी, विवेकानंद शास्त्रों के जलने के बाद भी आज अभी पैदा हो सकते हैं।
धर्म परंपरा नहीं है, विज्ञान परंपरा है। विज्ञान शिक्षा है, अध्यात्म शिक्षा नहीं है जीवन है। इसलिए पदार्थ को जानना है तो शब्द समझने होंगे, उनका उपयोग समझना होगा। यदि परमात्मा को जानना है तो शून्य साधें। वहां खामोश ही जाना है। यदि बोलते हुए गए तो शब्दों से भरे रहे होंगे। हम मंदिर में जाते हैं तो बिल्कुल भरे हुए होते हैं।
बाहर का शोरगुल, खुद के भीतर का शोरगुल, मंदिर में तो मौन और सन्नाटा होना चाहिए। मंदिर के बाहर जहां हम जूते उतारते हैं, वहीं हमें शब्द भी उतार देने चाहिए। जैसे हमारे जूते गंदे हैं, वैसे ही हम शब्दों को भी गंदा कर चुके हैं। इसलिए इन्हें परमात्मा से मिलते समय बाहर छोड़ दो। शब्द जितने साधक हैं उतने ही बाधक भी हैं। एक-एक शब्द से जुड़े रहे तो बोलते समय अनर्गल नहीं बोलेंगे।

स्वयं को रिचार्ज करने की श्रेष्ठ प्रक्रिया है जप
इस समय बड़े से बड़ा आदमी भी कोई न कोई रोग पाले है। श्री हनुमान चालीसा की २५वीं चौपाई में बाबा हनुमंतलालजी का एक नया रूप सामने आता है। नासै रोग हरै सब पीरा। जपत निरंतर हनुमत बीरा।। हे हनुमानजी! निरंतर आपका नाम जपने से रोगों का नाश हो जाता है और पीड़ा दूर हो जाती है। हनुमानजी रोग भी हरते हैं और पीड़ा भी दूर करते हैं। कभी-कभी रोग चला जाता है लेकिन पीड़ा रह जाती है।
तुलसीदासजी ने रोग और पीड़ा दो अलग-अलग शब्द लिखे हैं। रोग मनुष्य के शरीर को प्रभावित करता है, पीड़ा उसे हृदय तक विचलित करती है। आज के समय में जिसे अवसाद (डिप्रेशन) कहते हैं, वह रोग और पीड़ा का मिश्रण है। हनुमानजी केवल बीमारी का इलाज नहीं करते, वे डिप्रेशन भी दूर भगाते हैं।
अध्यात्म कहता है अवसाद वहां से शुरू होता है, जब जो है उसका सदुपयोग नहीं किया जाए तथा जो नहीं है उसे पाने की तीव्र आकांक्षा की जाए। श्री हनुमान चालीसा में इन दोनों स्थितियों से निपटने के साधन बताए हैं और वह है जपत निरंतर। परमात्मा का जप स्वयं को रिचार्ज करने की श्रेष्ठ प्रक्रिया है।
जपत निरंतर हनुमत बीरा। इस चौपाई में व्यक्त निरंतर शब्द जीवन प्रबंधन में बहुत उपयोगी हैं। इसका अर्थ है सदैव सक्रिय रहना, ऊर्जावान रहना और इस युग में हाईटेक होने के लिए निरंतरता बहुत जरूरी है। स्वास्थ्य की दृष्टि से देखें तो जो लोग निरंतर हैं, नियमित हैं, वे रोग से मुक्त होंगे और उनकी पीड़ा भी दूर होगी।

सही मार्केटिंग हो जाए तो लोग मौत से भी प्यार करेंगे
यह जीवन बहुत थोड़ा है। किसी ने कहा भी है- न जाने किस गली में जिंदगी की शाम हो जाए। यहां मौत की लंबी लाइन लगी है। वह तो हमारी बारी नहीं आई है इस कारण हम जिंदा हैं, वरना यह जिंदगी भी एक भ्रम है। एक आदमी कहीं जा रहा था और गिर गया। लोगों ने उसे देखा, वह मर गया था। कुछ लोग बोले- अरे यह तो मर गया।
तभी वहां से एक फकीर निकला, उसने कहा- वह तो गिरा जमी पर, लोग कहते हैं मर गया। मरा नहीं है, यह बेचारा सफर में था, आज अपने घर गया। जन्म और मृत्यु दोनों भ्रामक शब्द हैं। व्यवहार में इनका गंभीरता से उपयोग होता है। जैसे सूर्य का उदय और अस्त व्यवहार में दिखता है। यदि कोई सूर्य से पूछे तो वह कहेगा - मैं तो सदैव से हूं।
न उदय हुआ हूं, न अस्त। भारत में उदय हूं तो अमेरिका में अस्त। यह भ्रम है। इसी तरह जीवन और मृत्यु व्यवहार में तो सच लगते हैं, पर हैं भ्रम। जीव केवल शरीर को छोड़ता है, फिर उसकी मृत्यु कैसी? जब बाली का निधन हुआ तो भगवान ने उसकी पत्नी तारा को यही समझाया था।
जीव मरता है तो व्यवहार में हम रोते हैं उसकी मृत्यु पर। उस समय वह कहीं और जन्म ले रहा होता है और वहां लोग खुशी मना रहे होते हैं। हमारी भारतीय परंपरा में महापुरुषों ने मृत्यु को मंगलमय माना है। सही तरीके से मृत्यु का विज्ञापन करें तो उससे भी मिलने की इच्छा होगी। यदि मौत की सही मार्केटिंग हो जाए तो लोग मौत से प्यार करने लगेंगे। मौत का सामना करने का आसान तरीका है जरा मुस्कराइए..।

चरण छूने का अर्थ है बिना बोले ही बहुत कुछ कहना
जीवन यात्रा में जिसने अपने भीतर की यात्रा नहीं की, उसकी यात्रा अधूरी रहेगी। स्वयं का ज्ञान होना इस यात्रा का अंतिम पड़ाव है। हम अपने जीवन को अंतरमुखी बनाकर भगवत चर्चा से जोड़ते रहें। श्वेतकेतु की एक कथा है। गुरु से ज्ञान प्राप्त कर जब वह घर आया तो उसके पिता ने पूछा - तुमने सब जान लिया? उसने कहा - हां। पिता ने कहा - जिसे जानने पर कुछ भी जानना शेष नहीं रह जाता, वह जाना कि नहीं? श्वेतकेतु निरुत्तर हो गया। वह गुरु के पास लौटा।
गुरु ने उसे जंगल में भेजा और कहा- गाय चराओ। ध्यान रखना तुम्हें गाय जैसा जीवन बिताना है, बिना कुछ सोचे, सब करते रहना। श्वेतकेतु गाय चराने गया। उसने देखा कि गाय सब काम करती हैं, पर मौन रहती हैं। गुरु ने कहा था - तुम सब करना पर दो काम मत करना - सोचना और बोलना। भूख लगे तो भोजन करना, प्यास लगे तो पानी पीना, मगर भीतर शब्द को निर्मित मत होने देना।
वर्षो तक श्वेतकेतु वही करता रहा। जब लौटा तो गुरु ने दूर से ही देखकर कहा - अब यहां आने की जरूरत नहीं। तूने उसे जान लिया जिसे जानने के बाद और कुछ जानने की जरूरत नहीं रह जाती। यही अपने भीतर जाना कहलाता है। उसने गुरु के चरण छुए। भारत ने प्रणाम की कला को खोजा है। विदेशों में चरण छूने जैसी कोई बात नहीं है। पश्चिम के लोग समझ नहीं पाते चरण छूने का राज क्या है? वह बिना बोले कुछ कहना है, धन्यवाद देना है। प्रणाम में झुकते ही भीतर की यात्रा शुरू हो जाती है।

विश्वास और आस्था का फर्क समझना होगा
रिश्ते बनते हैं विश्वास से, रिश्ते निभाए जाते हैं आस्था से। विश्वास और आस्था में फर्क समझ में आ जाए तो जीवन में कई निर्णय गलत होने से बच जाते हैं।
शादी हो जाती है इसलिए पति-पत्नी को विश्वास होता है कि हम एक-दूसरे के लिए हैं, यह एक बौद्धिक घटना है। अब विश्वास को रूपांतरित करना होगा, इसमें देर की तो यह विश्वास मरी हुई चीज की तरह हो जाता है। विश्वास के रूपांतरण का अगला परिणाम है आस्था। विश्वास एक सामाजिक घटना है। जिस घर में, खानदान में हम पैदा होते हैं वहां से हमें विश्वास मिलता है, वह हमारे गहरे में उतर भी जाता है। हमारा हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई होना विश्वास की घटना है। इसमें आस्था हो जरूरी नहीं, क्योंकि आस्था रग-रग में बसने जैसी है।
विश्वास हमें दूसरों से प्राप्त होता है और आस्था स्वयं अर्जित की जाती है। जब हम आस्था से भरे होते हैं, तब हमारे निर्णय कभी गलत नहीं होंगे। नीयत हमेशा साफ रहेगी। आस्था को अपने भीतर तैयार करने के लिए अभ्यास की आवश्यकता पड़ेगी। यह रूपांतरण कठिन और सरल दोनों होगा। एक और दृष्टि से समझ सकते हैं - प्रेम का व्यावहारिक रूप विश्वास है तथा आत्मिक रूप आस्था है। जितने अधिक हम प्रेमपूर्ण होते जाएंगे उतना अधिक आस्थावान होना आसान होगा।
आज के भौतिक जीवन में हम अपने व्यावसायिक क्षेत्र में आस्थावान रहकर सफलता के साथ शांति प्राप्त कर सकेंगे। विश्वास भी हमें सफलता दिलाता है, लेकिन अशांत भी बना सकता है।

समाज को बदलना है तो पहले खुद बदलें
नए युग और नए समाज को जन्म देने की चाह आज विश्व के हर कोने में प्रबल है। कहा जा सकता है कि समग्र मानवता नई जीवन दृष्टि और जीवन मूल्यों के जन्म की प्रसव पीड़ा को अनुभव कर रही है। आदमियत का इतिहास एक नए निर्माण मोड़ पर खड़ा है और इस कारण यह जानना जरूरी है कि भावी के लिए जिस स्वर्ग की कल्पना में हम खोए हैं, उसे पूरा करना कैसे संभव है।
समाज की क्रांति के संबंध में सोचते समय व्यक्ति को बांध देने की भूल सहज ही हो सकती है और होती है। यह भूल स्वाभाविक लगती है और इस कारण खतरनाक भी अधिक है। समाज वस्तु की तरह नहीं है कि उसे बाहर से एक बार ही में समग्ररूपेण बदला जा सके। उसकी आत्मा उसके व्यक्तियों में है। व्यक्ति ही अंतत: समाज का प्राण है। इस कारण समाज की जीवन नीति में कोई भी आमूल परिवर्तन व्यक्ति से ही प्रारंभ हो सकता है।
समाज का तात्विक परिवर्तन बाह्य क्रांति से संभव नहीं हो सकता, पर समाज के शारीरिक (बाह्य) और आत्मिक (आंतरिक) परिवर्तन का अर्थ क्या है? मेरी दृष्टि में बाह्य परिस्थितियों के परिवर्तन द्वारा मानव हृदय में परिवर्तन की आस्था शारीरिक क्रांति की आस्था है तथा मानव हृदय की क्रांति द्वारा समाज की स्थितियों में परिवर्तन का विश्वास आत्मिक क्रांति का विश्वास है।
इस कारण क्रांति का पहला कदम होगा आज की विचार पद्धति में आमूल परिवर्तन। ‘पर-दोष-दर्शन’ को नहीं ‘स्व-दोष-दर्शन’ को अपनी विचार पद्धति का आधार बनाना होगा। क्या दोषों को खोजने बाहर जाने की जरूरत है? प्रत्येक व्यक्ति यदि अपने दोषों को मिटाने की महाक्रांति में संलग्न हो जाए तो जीवन में पड़ोसी के दोषों को देखने का अवकाश उसे मुश्किल से ही मिल सकता है। हमारा शत्रु बाहर नहीं है वह तो प्रत्येक के भीतर है।
हम सब समाज के बीज हैं। हम जैसे होते हैं, समाज भी वैसा ही होता है। समाज को बदलना है तो बीज को बदलना होगा, क्योंकि बीज को बदले बिना वृक्ष को बदलना कब संभव हुआ है? जो कुछ मैं दूसरों में नापसंद करता हूं उसे मुझे आज से ही छोड़ देने का व्रत लेना होगा। मुझे मेरी कल्पना के आदर्श मानव को स्वयं में ही उतारकर समाज के समक्ष रखना होगा। मैं ही पुराने की कब्र और नवीन का जन्मदाता बनूंगा। यह बोध क्रांति संभव हो सके, इस हेतु प्रत्येक में जाग्रति होना जरूरी है।
मुझसे पूछा जाता है कि हम क्या करें? मैं अपना जवाब बच्चों की एक कहानी से शुरू करता हूं। दस बच्चे नदी पार खेलने गए थे। वे जब तैरकर इस पार लौटे तो कोई उनमें से रह तो नहीं गया है यह जानने को उन्होंने अपनी गिनती की। पर हर बार गिनती में एक बच्चा कम हो जाता था, क्योंकि प्रत्येक अपने को छोड़कर गिनती करता था। यह कहानी आज अत्यंत बोधपूर्ण है। गिनती में बुनियादी भूल हो रही है।
समाज में चोर कौन है? बेईमान कौन है? यह पूछा तो रोज जाता है, पर पता कभी नहीं चलता है। इसका कारण क्या है? इसका कारण है कि प्रत्येक अपने को छोड़कर गणना कर रहा है। चोर पकड़ना है, बेईमान को पकड़ना है तो गिनती अपने से शुरू करनी होगी। मैं इस महावाक्य को ही समाज क्रांति का सिद्धांत सूत्र मानता हूं। समाज क्रांति संगठन नहीं साधना का कार्य है। समाज और मैं अलग नहीं। दुनिया को बदलने का एक ही तरीका है कि जो बदलाव तुम जगत में लाना चाहते हो, उसका प्रारंभ अपने से करो।

स्वस्थ निद्रा परमात्मा से मिलने में सहायक है
बहुत कामकाज करते हुए हम लोगों ने जो कुछ पाया है उससे ज्यादा खोया भी है। एक चीज कई लोगों ने व्यस्तता के दौर में खो दी है वह है नींद। स्वस्थ निद्रा न सिर्फ शरीर को स्वस्थ करती है बल्कि आपको परमात्मा से मिलने में मदद भी करती है। यदि आप रात को आने वाली नींद से संतुष्ट नहीं हैं तो एक प्रयोग करिए।
शवासन में लेट जाएं, धरती पर पीठ सीधी रहे, दोनों पैरों में थोड़ा गैप हो, हथेलियां आकाश की ओर हों और मृतवत लेटे रहें। योगियों ने इसे योगनिद्रा कहा है। इसमें मुद्रा तो शवासन की रहेगी, लेकिन क्रिया थोड़ी बदल जाएगी। अपने मन को बाहर से निर्देश दिए जाएंगे। यह विश्राम की एक अद्भुत पद्धति है। इस समय अर्धचेतन मन आपके निर्देशों को आसानी से ग्रहण कर लेगा। अब अपनी मानसिक चेतना को शरीर के बाहरी अंगों पर घुमाना शुरू करें। सबसे पहले पैरों की अंगुलियों, घुटनों, जंघाओं, पेट, छाती, भुजाओं, कंठ के बीच आज्ञा चक्र पर और सहस्रार तक अपनी चेतना को घुमाएं।
हर अंग से जब आप चेतना घुमा रहे हों तो चिंतन करिए कि वह अंग शिथिल हो गया। यही योग निद्रा है। धीरे-धीरे जिस चेतना को आप भीतर ले गए उसे सामान्य करते हुए बाहर लाएं। मन शांत हो ही चुका है। ध्यान दें कि आपका शरीर धरती पर लेटा हुआ है, पुन: चेतना को सिर से पैर तक घुमा लें। आंखों को धीरे-धीरे खोलें, ताजगी को महसूस करें और जिस किसी से भी नजर मिलाएं, बस एक काम जरूर करिए जरा मुस्कराइए..

मन, कर्म, वचन से की जाए तभी होगी प्रार्थना पूरी
मनुष्य पता नहीं यह कहां से सीख गया कि सोचता कुछ है, बोलता कुछ है तथा करता कुछ और है। यह भगवान ने उसे नहीं सिखाया। मन, कर्म, वचन में एकता आते ही पूरा व्यक्तित्व निखर आता है। चलिए श्री हनुमानचालीसा की 26वीं चौपाई से समझें।
संकट तें हनुमान छुड़ावै। मन क्रम वचन ध्यान जो लावै।। हे हनुमानजी! यदि कोई मन, कर्म और वाणी द्वारा आपका ध्यान करे तो आप उसे सारे संकटों से छुटकारा दिला देते हैं। यह पंक्ति प्रार्थना की परिभाषा है। प्रार्थना तभी पूरी होती है जब मन, कर्म, वचन से हृदय में प्रार्थना उतारी जाए। नहीं तो हम प्रार्थना कर रहे हैं और मन हमारा कहीं और है, कर्म कहीं और लगा है, वचन कहीं और चल रहे हैं तो यह प्रार्थना नहीं होगी।
प्रार्थना का मतलब इन तीनों का हृदय में एक साथ आ जाना है। हमारे चिंतन में, चर्या में और चर्चा में समानता होनी चाहिए। हमारी वाणी में, व्यवहार में और विचार में एकरूपता होनी चाहिए। तब जो प्रार्थना हम करेंगे वह सच्ची प्रार्थना होगी और ऐसी प्रार्थना करने वाले कभी भी संकट में नहीं पड़ते। प्रार्थना का एक उदाहरण देखिए। जब हनुमानजी लंका से सीताजी की खोज के बाद उनका संदेश लेकर रामजी के पास लौटे, तब उन्होंने सीताजी की विरह-कथा श्रीराम को सुनाई थी। सीताजी का दुख सुनकर, सुख के धाम प्रभु के कमल नेत्रों में जल भर आया। हनुमानजी की प्रार्थना ने परमात्मा को पिघला दिया। जो परमात्मा को पिघला दे वही सच्ची प्रार्थना है।

मृत्यु के बाद पता चलता है यह शरीर महज पोशाक है
मृत्यु किसी के भी घर-परिवार में हो आदमी शोक में डूब ही जाता है, लेकिन एक अभ्यास हमें लगातार करना चाहिए। मृत्यु के बारे में कुछ नया दृष्टिकोण रखा जाए। मृत्यु हमको पाप से बचा लेती है। सोचिए यदि दुनिया में मृत्यु नहीं होती तो कितने पाप बढ़ जाते। रावण और कंस की यदि मौत नहीं होती तो दुनिया में पाप की क्या स्थिति होती। बिना मृत्यु पाप से मुक्ति दुनिया में किसी विशिष्ट व्यक्ति को ही मिलती है। मृत्यु जीवन की कई घटनाओं पर पर्दा डाल देती है। यदि मनुष्य को सब याद रहने लगे कि किससे क्या संबंध था तो सारी गड़बड़ी हो जाएगी। मृत्यु का एक और फायदा है यह एक ही ढंग से चल रहे जीवन में परिवर्तन लाती है।
मृत्यु के बाद यह शरीर चला जाता है और दूसरा मिल जाता है। जब हम शरीर छोड़ते हैं, एक जगह लोग रो रहे होते हैं तो दूसरी जगह नया शरीर मिलने पर लोग खुश भी होते हैं। मृत्यु का एक और लाभ यह है कि हम स्त्रीलिंग से पुल्लिंग, पुल्लिंग से स्त्रीलिंग में बदल जाते हैं। यह परिवर्तन हुए बिना जीवन अधूरा है। स्त्री में से जब तक पुरुष नहीं, पुरुष में से जब तक स्त्री नहीं जागे जीवन अधूरा है। शंकराचार्य से जब स्त्री के बारे में पूछा गया तो वे हार गए। बाद में उन्होंने योग साधना से स्त्री का रूप लिया और उसे जाना, तब वे विजयी हुए। देह और आत्मा अलग-अलग हैं। जब मौत आती है तभी पता चलता है कि यह शरीर महज पोशाक जैसा आवरण था जो उतार दिया गया। योगी लोग शरीर को पोशाक ही मानते हैं।

प्रशंसा वह मदिरा है, जो कानों से पिलाई जाती है
आध्यात्मिक जीवन यात्रा के दो क्रम हैं, दो मार्ग हैं - एक संकल्प का, दूसरा समर्पण का। संकल्प का मार्ग ज्ञान का मार्ग है और समर्पण का मार्ग भक्ति का मार्ग है।
आध्यात्मिक जीवन के आधार तीन होते हैं - ज्ञान, भक्ति और कर्म। भौतिक जीवन यात्रा में और आध्यात्मिक जीवन में उत्थान और पतन के अलग-अलग अर्थ होते हैं। संत-महात्माओं के हिसाब से उत्थान और पतन की परिभाषा बहुत सीधी है।
परमात्मा से निकटता उत्थान है, परमात्मा से दूरी पतन है। निकटता में चार चीजें होती हैं - प्रेम, नाम, जप और शरणागति। दूरी के चार कारण होते हैं - काम, क्रोध, मद और लोभ। मनुष्य की जीवन यात्रा में उत्थान और पतन कैसे होता है, कैसे रोका जा सकता है।
एक उदाहरण है नारदजी से कामदेवता पराजित हो गए, तब काम देव ने नारदजी को प्रशंसा में उलझाकर उनका पतन करा दिया था। कामदेव तत्काल नारदजी के पैरों में गिर गए। उन्हें प्रणाम किया और एक पुष्पहार उनके गले में डाल दिया। कहा कि आप धन्य हैं। ऐसा तपस्वी मैंने नहीं देखा।
प्रणाम, पुष्प और प्रशंसा बड़े-बड़ों को डिगा देती है। अब कामदेव प्रणाम, पुष्प और प्रशंसा छोड़कर चले गए और नारद जैसे साधक के पास रह गया अहंकार। इन तीन दुगरुणों को पराजित करने के बाद भी नारद के जीवन में पतन हो गया क्योंकि उन्होंने अन्य इंद्रियों पर तो अधिकार कर लिया, पर एक इंद्रिय खुली रह गई वह है कान। दरअसल, प्रशंसा वह मदिरा है जो कानों से पिलाई जाती है, अत: सावधान रहें।

जीवन को गंगा की तरह गतिमान बनाए रखें
हमें अपने जीवन को गंगा की तरह गतिमान रखना चाहिए। कथा, सत्संग भी एक गंगा है और हमारा जीवन भी गंगा की तरह बह रहा है। क्योंकि जब जिंदगी रुक गई, धारा नहीं रही, एक बांध बन गई तो फिर हम सड़ जाते हैं।
सत्संग को नदी का स्वरूप बताया गया है। सत्संगी गंगा की तरह है। यह हमारे लिए बहुत संकेत की बात है। हमें अपने जीवन को गंगा की तरह गतिमान रखना चाहिए। हमारा जीवन चल रहा है, चलता रहता है और चलता रहेगा। लेकिन हम अपना-अपना बोझ अपने सिर पर रखे हुए बैठे हैं। इस बोझ को नीचे उतारकर रख सकते हैं, लेकिन नहीं रखते। इन बोझों को थोड़ा समझ लें। ये बोझ क्या हैं? पहली बात तो यह है कि जो बीत गया उसे हम इकट्ठा किए हुए हैं, जबकि वह बीत चुका है। वह कहीं है नहीं, सिर्फ हमारी स्मृतियों को छोड़कर। हम खोजने जाएं तो भी नहीं मिलेगा, लेकिन वह हमारी यादों में समेटा हुआ है। कल हुआ था, हो चुका। जैसे पानी में पड़ी रेखाएं बन भी नहीं पातीं और मिट जाती हैं, वैसे ही इस जीवन की सतह पर बनी हुई रेखाएं बन भी नहीं पातीं और मिट जाती हैं। अतीत का पत्थर हमने छाती पर बांध रखा है। अतीत का मतलब होता है मरा हुआ। जो बदलता है उसका नाम वर्तमान है और जो बदलता ही चला जाता है उसका नाम जीवन है। हमारी चेतना, स्मृति के पत्थरों के बीच दबा दी गई और इसीलिए हम परेशान हैं। कथा और सत्संग इन सबसे मुक्त कराने का नाम है। जो ठीक से सत्संग में प्रवेश कर जाता है उसकी चेतना से यह पत्थर हट जाता है। इसीलिए कथा, सत्संग भी एक गंगा है और हमारा जीवन भी गंगा की तरह बह रहा है। क्योंकि जब जिंदगी रुक गई, धारा नहीं रही, एक बांध बन गई तो फिर हम सड़ जाते हैं।

शरीर वह पैकेजिंग है जिसमें आत्मा बसती है
शरीर संसार से जितना जुड़ता है, उतना ही परमात्मा से भी जोड़ने के काम आता है। शरीर वह पैकेजिंग है जिसमें आत्मा बसती है। इसलिए शरीर को भी संभालकर रखना चाहिए, क्योंकि आखिर वह आत्मा का आवरण है। उसे धन्यवाद देना चाहिए कि उसने हमारी आत्मा को इतने दिन संभाला। शरीर को साधने के लिए एक बहुत अच्छा संकेत कबीरदासजी ने दिया है। साधौ यह तन साज तंबूरे का। वे कहते हैं कि हमारा शरीर एक तंबूरा है। तंबूरे में तार और एक खूंटी होती है। अधिक खींचते हैं तो तार टूट जाएगा और ढीला छोड़ेंगे तो सही सुर नहीं निकलेंगे। इसलिए व्यक्ति सावधानी से खूंटे के द्वारा तार ऐसा कसें कि न ढीला रहे, न टूटे। जब ठीक-ठाक कसेंगे तो सुर अच्छा निकलेगा। कबीर की कल्पना यह है कि इंद्रियां तार हैं और बुद्धि खूंटी है। तो न इंद्रियों को अधिक कसें और न अधिक छोड़ें। यदि तंबूरा सही होगा तो ईश्वर का राग गूंजेगा। इसलिए शरीर के मामले में जीवन को अति पर न टिकाएं। संतुलन बनाना चाहिए जिस तरह से तंबूरा बजाते समय वादक दो बातों पर ध्यान देता है। परमात्मा के लिए जब संगीत बजाया जाता है तो उसमें प्रेम भरा होता है और संसार के लिए बजाए गए संगीत में अहंकार का प्रदर्शन भी जुड़ जाता है। कबीर कहते हैं शरीर के वादन में प्रेम होना चाहिए, अहंकार नहीं। अहंकार पूरे व्यक्तित्व को बेसुरा कर देता है। सारी मधुरता प्रेम में है। शरीर का प्रेम से परिचय हुआ तो वासनाएं अपने आप गिर जाती हैं।

कर्तव्य को सेवा में बदलने के लिए अभ्यास करें
कर्तव्य पालन के समय शांत रहना एक कला है। कर्तव्य हमें दबाव में ले आता है। कर्तव्य को थोड़ा सा सेवा में बदलने का अभ्यास करते रहना चाहिए। सेवा भाव आते ही कर्तव्य के भीतर का दबाव अपने आप गलने लगता है। कर्तव्य का निर्वहन करते समय जब विपरीत घटनाएं होने लगती हैं तो आदमी और चिड़चिड़ा हो जाता है। जैसे चौकीदार चोर को देखकर कर्तव्य की आड़ में क्रोध में डूब जाता है। जिस किसी के पास अधिकार है उसके व्यवहार में र्दुव्‍यवहार आ जाना सामान्य बात है।
ऐसा इसीलिए होता है कि कर्तव्य की आड़ में थोड़ा भी विपरीत हुआ और आदमी अपना आपा खो देता है। इस विपरीत से निपटने के लिए अध्यात्म काम आता है। चूंकि हमने अपना जीवन वन-वे ट्रेफिक की तरह कर लिया है, जो हमारे अनुकूल है उसी को हम भीतर आने देते हैं। जरा प्रतिकूल हुआ कि हम अड़ जाते हैं और यहीं से चिड़चिड़ाहट, आक्रोश, आवेश शुरू हो जाता है।
इसलिए जब कर्तव्यपालन के समय कोई विपरीत स्थिति हो तो कर्तव्य की आड़ में क्रोधित न हों, आवेश में न आएं थोड़ा सा निर्विचार हो जाएं। अंदर उतरकर मौन में कुछ क्षणों के लिए उस विपरीत परिस्थिति में से भी सार्थक ढूंढें, वो भीतर मिल जाएगा। सारा तनाव, सारा आवेश भीतर जाकर घुल जाएगा और फिर जब आप बाहर आकर कर्तव्य पालन करेंगे तो बहुत बदले हुए होंगे। सारे नियम, कायदे और अनुशासन का निर्वहन करते हुए भी आप सहज तथा सरल रहेंगे।

जीवन में जो भी करें वह अद्भुत और अनूठा हो
तपस्वी वेश धारण किए हुए श्रीराम हनुमानजी को बहुत अच्छे लगते हैं। हनुमानजी को इसलिए अच्छे लगते हैं क्योंकि पहली बार इसी वेश में उन्हें श्रीराम मिले थे। राम का एक अर्थ यह भी है कि रामजी सबसे अलग हैं।
जो भी करें अद्भुत और अनूठा करें। यह आज के समय की मांग है। चलिए श्री हनुमानचालीसा की सत्ताइसवीं चौपाई में प्रवेश करें। सब पर राम तपस्वी राजा। तिन के काज सकल तुम साजा।। तपस्वी राम सारे संसार के राजा हैं। आपने ऐसे सर्वसमर्थ प्रभु के कार्यो को पूरा किया। यहां श्रीराम को राजा लिखा है, किंतु वे तो वनवास काट रहे थे। वन प्रस्थान के पूर्व श्रीराम ने अपनी माता कौशल्याजी से कहा था कि पिता दीन्ह मोहि कानन राजू अर्थात पिताजी ने मुझे जंगल का राज्य दिया है। अत: इस चौपाई में श्रीराम को राजा तथा तपस्वी कहा है। तपस्वी वेश धारण किए हुए श्रीराम, गोस्वामीजी को बहुत अच्छे लगते हैं और हनुमानजी को भी। हनुमानजी को इसलिए अच्छे लगते हैं कि पहली बार इसी वेश में उन्हें श्रीराम मिले थे। राम का एक अर्थ यह भी है कि रामजी सबसे परे हैं। सबसे अलग हैं। वेदांत की भाषा में कौन, किसके परे है। इंद्रियों से परे इंद्रियों के विषय हैं, जैसे कान हैं लेकिन कान से परे हैं उसके विषय शब्द। जीभ से परे हैं जीभ के विषय यानी स्वाद। तो इंद्रियों से परे हैं विषय। विषय से परे मन, मन से परे बुद्धि है, बुद्धि से परे है समष्टि बुद्धि यानी ईश्वर की बुद्धि। इससे परे है अव्यक्त प्रकृति, इसके परे है अव्यक्त पुरुष। और उससे परे जाएंगे तब परमात्मा मिलेगा। तुलसीदासजी कहते हैं कि उससे भी परे राम तपस्वी राजा हैं और ऐसे रामजी के काज आपने संवारे हैं, जो सबसे परे हैं। जब आप उनके काज संवार सकते हैं तो फिर हमारे क्यों नहीं?

अहंकार का भाव जब भी जागे तो मौन साध लें
अहंकार का स्वाद हमेशा दूसरे ही चखा जाते हैं। दुनिया के लोग जरा मान देते हैं तो अहंकार को तृप्ति मिलने लगती है। संसार ने जरा अपमान किया तो ठेस लग जाती है। दोनों ही स्थितियों में अहंकार दूसरों से संचालित रहता है।
अहंकार का स्वाद हमेशा दूसरे ही चखा जाते हैं। दुनिया के लोग जरा मान देते हैं तो अहंकार को तृप्ति मिलने लगती है। संसार ने जरा अपमान किया तो ठेस लग जाती है। दोनों ही स्थितियों में अहंकार दूसरों से संचालित रहता है। नारद जैसे संत ने जब काम को जीत लिया, तब वे भी अहंकार की चपेट में आ गए थे। नारदजी को लगा कि मैं काम विजयी हो गया हूं। यह खबर शंकरजी को जरूर सुनाई जाए क्योंकि वे भी काम विजेता हैं। तो वे कैलाश पर्वत पर पहुंचे। आदमी अहंकार में डूबा हो और ऊपर चढ़ने लगे तो नीचे गिरने का खतरा अधिक बढ़ जाता है। नारद को आता देख शंकरजी तत्काल खड़े हुए और उन्होंने नारदजी को बैठाया। तब नारदजी ने पूछा कि आपको समाचार मिला कि नहीं? अहंकारी व्यक्ति अपने प्रसंग की चर्चा करने के लिए इधर-उधर की जांच पड़ताल बहुत करता है। आगे कहने लगे - मैंने काम पर विजय प्राप्त कर ली है। शंकरजी बोले कि आपने यह बात मुझे सुना दी वह तो ठीक है लेकिन यह बात विष्णुजी को मत सुनाना क्योंकि आप संत हैं, लोग आपसे रामकथा सुनना चाहते हैं और आप कामकथा सुना रहे हैं। नारद ने सोचा कि ये मुझसे जलते हैं इसलिए ऐसा कह रहे हैं और नारद विष्णुजी के पास पहुंच ही गए तथा वहां उनका अहंकार मिटाया गया था। यह एक अलग कथा है। समझने की बात यह है कि अहं की भावना जब भी हमारे भीतर जागे, संसार से कटकर अपने भीतर थोड़ी देर टिक जाएं, मौन साधें वाणी व विचार दोनों से।

बदलाव को पहचानें और जीवन में ताजगी लाएं
चित्त के दर्पण पर अतीत की धूल इकट्ठा हो जाती है। रोजाना होने वाले बदलाव कोई नहीं देखता। इसलिए खासतौर पर पति-पत्नी के बीच कलह होती है। सबकुछ बदल जाता है पर दोनों के मस्तिष्क में पुरानी तस्वीर ही जिंदा रहती है।

चित्त के दर्पण पर तुरंत धूल इकट्ठा हो जाती है। यह धूल अतीत की होती है। कुछ उदाहरण तो रोज हमारे आसपास घटते हैं। एक व्यक्ति ने किसी युवती से प्रेम-विवाह किया। कोई दस साल बाद उसके एक मित्र ने पूछा - क्या बता सकते हो कि आज तुम्हारी पत्नी ने कौन से रंग की साड़ी पहनी है? दोस्त बोला - ध्यान नहीं दिया। अब दिनभर तो पत्नी सामने रहती है, घर में रहती है क्या-क्या ध्यान दें। उससे दस साल पहले जब प्रेम आरंभ हुआ था, तब जब पहली बार देखा था तब की आज तक याद है। तब से वह तस्वीर आज भी दिमाग में काम कर रही है। इतने वर्षो में वो स्त्री पत्नी के रूप में रोज बदलती गई। प्रतिदिन नई होती गई, लेकिन पति ने फिर उसे इतने ध्यान से कभी नहीं देखा, क्योंकि मस्तिष्क में तो वह दस साल पुराना चित्र फोटो प्लेट की तरह काम कर रहा है। दोस्त ने फिर पूछा कि अच्छा बताओ जब दस साल पहले तुम्हारी पत्नी को तुमने पहली बार देखा था, तब वह क्या पहने थी, याद है? मित्र बोला - वह तस्वीर तो अब भी ताजा है, क्योंकि एक बार जो दिमाग में तस्वीर बैठ गई, अब उसी से काम चला रहे हैं। रोज जो बदलाव हो रहा है वह कोई नहीं देखता। इसलिए कलह शुरू होती है। सबकुछ बदल गया है। पत्नी कहती है जो प्रेम पहले करते थे अब नहीं। उसके मस्तिष्क में भी वही पुरानी तस्वीर जिंदा है। यही बात बाप-बेटे और अन्य रिश्तों में भी होती है। बदलाव को पहचानें और जीवन में ताजगी लाएं।

अच्छे-अच्छों को कमजोर बना देता है कुसंग
हमारा पतन कैकयी की तरह तब होता है, जब हम मंथरा वृत्ति से संचालित होने लगते हैं। यह कुसंग का परिणाम है। हम अधिकांश मौकों पर अपने उत्थान की ओर अधिक ध्यान देते हैं और पतन के प्रति कम जागृत रहते हैं।

हम कितने ही सक्षम क्यों न हों, इस बात का ध्यान रखें कि उठना-बैठना, मिलना-जुलना अच्छे लोगों के साथ ही रखें। कुसंग अच्छे अच्छों को कमजोर बना देता है। इसका उदाहरण कैकयी-मंथरा प्रसंग है। जीवन मार्ग में हमारा पतन कैकयी की तरह तब होता है, जब हम मंथरा वृत्ति से संचालित होने लगते हैं। यह कुसंग का परिणाम है और यहीं हमें सावधान हो जाना चाहिए। हम लोग अधिकांश मौकों पर अपने उत्थान की ओर अधिक ध्यान देते हैं, पतन के प्रति कम जागृत रहते हैं। साधक के पतन का एक कारण कुसंग भी होता है। मंथरा को कैकयी का मन बदलने में कैसे सफलता मिली, इससे ज्यादा महत्वपूर्ण है यह जानना कि कैकयी ने ऐसी सफलता क्यों चाही? जीवन में कभी-कभी स्थितियों के अंतर को रोकना मन के बस की बात नहीं होती। सब को अपनी-अपनी स्थिति जानना चाहिए और उसमें सामंजस्य करके चलना चाहिए। मंथरा जानती थी कि वह दासी है और दासी की स्थिति में जल्दी परिवर्तन आ जाएगा। इसलिए उसने कैकयी का दिमाग खराब करने की सोची। उसने सोचा राम राजा बनेंगे तो लक्ष्मण उनके नायब होंगे और लक्ष्मण सदैव मंथरा को दंड देते हैं। यह पूरा प्रसंग बहुत मनोवैज्ञानिक आधार पर रचा गया है। मंथरा ने धीरे से कैकयी के स्वार्थ की कीच पर एक ढेला मारा और हलचल हो गई। कुसंग इसी प्रकार हमारे स्वच्छ जीवन को गंदा कर जाता है। राम की माता कुसंग की चपेट में आ गई तो हमें तो फिर और गंभीर रहना चाहिए।

क्रोध को खत्म करने का आसान उपाय
क्रोध संक्षिप्त रूप से आया हुआ पागलपन है। क्रोध में चलते हुए आदमी में और पागल आदमी में मौलिक अंतर कुछ भी नहीं है। अंतर सिर्फ लंबाई का है। पागल आदमी स्थायी पागल है, क्रोधी आदमी अस्थायी पागल है।

पहले के समय में कुछ व्यवहार के लिए कक्ष आरक्षित होते थे। अब तो सब मुक्त हैं। पहले क्रोध भी आता था तो एक कोप भवन अलग से रहता था। अनुचित का भी एक अनुशासन था। वर्तमान में हम और आप तो कोप भवन को साथ लिए ही फिरते हैं। हर एक का क्रोध बड़ा निजी होता है। कोई किसी बात पर क्रोध करता है, कोई किसी बात पर।

काम, मद और लोभ निजी नहीं होते। काम का ध्येय और केंद्र तय है, मद और लोभ की परिस्थिति तय होती है, पर क्रोध किस बात पर आए किस पर न आए पता लगाना कठिन है। इसलिए सबसे पहली बात यह कि अपने क्रोध को स्वयं पहचानें। क्रोध को समाप्त करने की एक सबसे आसान विधि है बेफिक्री। किसी चीज पर टिक जाना क्रोध का कारण बन जाता है। किसी ने हमारा अपमान किया और हम उस अपमान में टिके नहीं कि क्रोध आया।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं - क्रोध संक्षिप्त रूप से आया हुआ पागलपन है। क्रोधी व्यक्ति और पागल आदमी में मौलिक अंतर कुछ भी नहीं है। अंतर सिर्फ इतना है कि पागल आदमी स्थायी पागल है, क्रोधी अस्थायी पागल। आज हर आदमी ज्वालामुखी हुए जा रहा है। जिस व्यक्ति के मन में क्रोध भरा होता है उसके आसपास का वातावरण भी अशांत हो जाता है। हमारे घरों में अब अलग से कोप भवन नहीं होता। अब तो मुख्य द्वार से लेकर भीतर के आंगन तक हर चार दीवारी कोप भवन बन गई है। इसे मिटाना हो तो अपनों से मिलें और गैरों से मुस्कराएं।

मन को दंड देने की जगह उसका इलाज करें
जैसे अपराधियों को दंड देने से अपराध खत्म नहीं होता, बल्कि अब तो माना यह जाता है कि अपराध करना अपराध नहीं अपराध करते पकड़े जाना अपराध है। मन की भी यही स्थिति है। इसलिए जरूरी है कि मन का इलाज करें।

जीवन में हर घटना के दो दृश्य होते हैं- एक दिखता है, दूसरा नहीं। संसार का पक्ष अधिक दिखता है और अध्यात्म का पक्ष कम। जो लोग इन दोनों पक्षों में संतुलन की दृष्टि रख लेते हैं, वे सुख और शांति आसानी से प्राप्त कर लेते हैं। जैसे किसी के पास सजा देने की ताकत हो तो उसे अपमान सहने की क्षमता भी अपने भीतर रखनी चाहिए। क्रोध के साथ क्षमा, भक्ति के साथ कर्म, संयम के साथ स्वतंत्रता, प्रवृत्ति के साथ निवृत्ति इन दोनों पक्षों को जीवन में लगातार देखते रहना चाहिए। सुख भी दो भागों में बंटा है - एक आत्म-सुख, दूसरा लोक-सुख। किसी एक से काम चलाना खतरनाक है। इसलिए संतुलन की दृष्टि बनाएं। जैसे बैंकों में बैंकिंग सिखाने का एक पहला और सरल नियम होता है कि हर डेबिट कागज का कोई न कोई क्रेडिट जरूर होगा और हर क्रेडिट का भी डेबिट व्हाउचर होना ही चाहिए। जिंदगी में भी ऐसा ही जमा-खर्च चलता है। जो शांति पाना चाहते हों उन्हें मन का परिचय जीवन की दोनों परिस्थितियों से कराना होगा। जैसे मन जब लोभ पर टिके तो उसका परिचय त्याग से कराना होगा। क्रोधित मन को करुणा का स्वाद चखाते रहना चाहिए। इसीलिए संत-महात्मा मन को दंड देने की जगह उसका इलाज करते हैं। जैसे अपराधियों को दंड देने से अपराध खत्म नहीं होता, बल्कि अब तो माना यह जाता है कि अपराध करना अपराध नहीं बल्कि अपराध करते पकड़े जाना अपराध है। मन की भी यही स्थिति है। इसलिए दंड देने की जगह मन का इलाज करें।

भक्तों के मनोरथों को पूरा करते हैं हनुमानजी
तुलसीदासजी आश्वस्त कर रहे हैं कि हनुमानजी भक्तों के मनोरथ भी पूरे करते हैं, पर नियंत्रण के साथ। जीवन का असली फल है संतुलन के साथ जगत और जगदीश दोनों का आनंद उठाना। हनुमानजी इसी को पूरा करते हैं।
जीवन में अति हर बात की बुरी ही होगी। न अध्यात्म की अति करें और न ही संसार से अधिक जुड़ें। दोनों का संतुलन रखें। संतुलन बनाए रखने में हनुमानजी हमारी मदद करेंगे। श्री हनुमानचालीसा की अठाईसवीं चौपाई में एक शब्द आया है मनोरथ। पहले जरा चौपाई पर नजर डालें। इसमें मनोरथ और फल को समझें। और मनोरथ जो कोई लावै। सोई अमित जीवन फल पावै।। हे हनुमान! आपके पास कोई किसी प्रकार का भी मनोरथ (धन, संतान, यश की कामना) लेकर आता है। उसकी कामना पूरी होती है। इस चौपाई में मनोरथ शब्द बहुत सुंदर है। हमारे मन में जो भाव उठते हैं, वे बहुत तीव्रता से चलते हैं और फिर मन का रथ तो बहुत ही तीव्र चलता है। हम इस पर बैठकर अपनी कामनाओं को बहुत दूर तक ले जाते हैं। गोस्वामीजी कहते हैं ऐसे लोगों को भी आप जीवन का फल देते हैं। हम सब हैं तो संसारी अत: हमारी कामनाएं भी संसार से जुड़ी ही होंगी। कई भक्तों को लगता है हनुमानजी तो ब्रह्मचारी हैं और तुलसीदासजी संत हैं, लेकिन हम भक्त तो दुनियादारी में जी रहे हैं। अत: हमें तो अच्छा पति, पत्नी, बच्चे, कार, बंगला, धन आदि चाहिए। तो क्या हनुमानजी के फेर में पड़कर ये सब मिलेगा या नहीं? यहीं तुलसीदासजी आश्वस्त कर रहे हैं कि हनुमानजी भक्तों के मनोरथ भी पूरे करते हैं, लेकिन एक नियंत्रण के साथ। जीवन का असली फल है संतुलन के साथ जगत और जगदीश दोनों का आनंद उठाना। हनुमानजी इसी को पूरा करते हैं।

काम करने से पहले करें सामथ्र्य का आकलन
हर काम के परिणाम के पीछे अपनी शक्तिका सही आकलन करें। सामथ्र्य के अनुसार ही उसमें कूदें। योग्यता का भरपूर उपयोग हो और काम करते समय हमारी मनोभूमि सुख के साथ शांति से जुड़े रहने की तैयारी में रहे।

हम जब भी कोई काम आरंभ करते हैं इसके सांसारिक हानि-लाभ, गुण-दोष देखते हैं। प्रबंधन की भाषा में इसे इकोनॉमिक फिजिबिलिटी देखना कहा जाता है। भले ही आप सांसारिक कार्य कर रहे हों, इसकी आध्यात्मिक फिजिबिलिटी भी चेक करिए। हर काम के परिणाम के पीछे अपनी शक्ति का सही आकलन करें। सामथ्र्य के अनुसार ही उसमें कूदें। योग्यता का भरपूर उपयोग हो और काम करते समय हमारी मनोभूमि सुख के साथ शांति से जुड़े रहने की तैयारी में रहे। काम करने के लिए ही न करें, परिणाम के प्रति सतत् जागरूक रहें। सांसारिक कार्यो में जब ऐसा आध्यात्मिक दृष्टिकोण जुड़ जाता है तो सफलता के अर्थ ही बदल जाते हैं। हम जब भी कोई काम करते हैं तो मन कुछ प्रश्न खड़े करता है। एक प्रयोग करके देखें। किसी व्यक्ति, स्थिति के प्रति जब हमारे मन में कोई संदेह हो, कुछ प्रश्न उठ रहे हों तो वे सोचते समय कुछ और होते हैं और जैसे ही उन्हें हम कागज पर लिखें तो हम वैसा नहीं लिख पाते जैसा सोच रहे होते हैं। इसीलिए प्रश्न उठा तो पूरा था, लेकिन जब वो बाहर संसार में आया तो अधूरा हो गया। और हमने उत्तर भी अधूरे ढूंढ़ लिए, फिर परेशान होते हैं। इसका एक तरीका है कि जब भी कोई प्रश्न मन में उठे उसे बाहर लाने के पहले आंख बंद करके गहरे में अपनी अंतर चेतना तक ले जाएं। प्रश्न अंतर चेतना से जुड़ते ही या तो समाधान दे देंगे या इतने स्पष्ट हो जाएंगे कि जब बाहर ढूंढेंगे तो इनका अधूरा उत्तर नहीं मिलेगा।

हर गतिविधि को नदी की तरह सक्रिय रखें
हमें अपनी हर गतिविधि को नदी की तरह सक्रिय रखना चाहिए। उसका एक फायदा है कि नदी बहते-बहते नए किनारे, नई चट्टानें और नए मोड़ से गुजरती है। इससे ताजगी भी बनी रहती है और नया पाने की उम्मीद भी जिंदा रहती है।

आप जो भी काम कर रहे हों उसे अपने मानसिक संस्थानों से जोड़कर जरूर रखें। बाहरी संस्थान का मतलब हमारा कार्यक्षेत्र है तथा भीतरी संस्थानों का अर्थ है - मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार। हम दुनिया में जो भी काम करें, उसमें अपने मानसिक सिस्टम को जितना फिट कर लेंगे, उतना ताजगी के साथ काम कर पाएंगे, वरना हर छोटा-मोटा काम भी बोझ बन जाएगा। इस मामले में आप चूके और उसने सारा खेल बिगाड़ दिया। जैसे ही बाहर काम करते हुए हम दो विचारों अथवा स्थितियों से टकराते हैं, निदान पाने की जगह हम और उलझ जाते हैं। बाहर की दुनिया शरीर को तेजी से सक्रिय रखकर जीती जाती है और भीतर का संसार मन को पूरी तरह से विश्राम में रखकर जीता जाता है। हमें बाहर से अपनी हर गतिविधि को नदी की तरह सक्रिय रखना चाहिए। उसका एक फायदा है कि नदी बहते-बहते नए किनारे, नई चट्टानें और नए मोड़ से गुजरती है। ताजगी भी बनी रहती है और नया पाने की उम्मीद भी जिंदा रहती है, लेकिन बाहर से रुक गए तो बाहरी जिंदगी गंदा तालाब बन जाएगी। भीतर इसके विपरीत है। मन को तालाब की तरह रखना होगा तब वह शांत होगा। यदि वो नदी की तरह बहा तो भीतर उसमें वैसी गंदगी आ जाएगी जैसे बाहर रुके हुए तालाब में आती है। इसलिए अपने काम को भीतर और बाहर से मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार के साथ सेतु बनाकर करें और इसके लिए ब्रिज का काम करती है मुस्कान, इसलिए हर समय जरा मुस्कराइए..।

बीते समय से सबक लेने में है सच्ची समझदारी
साल बीत गया और अतीत बन गया। अतीत से कुछ सीख लिया जाए तो समझदारी है, लेकिन अतीत पर ही टिक जाना मूर्खता है। हर वर्तमान अपने अतीत के परिणाम लेकर आता है। अत: चल रहे समय में शुभ ही किया जाए।

एक सेठ अपनी पत्नी और चार वर्ष के बच्चे के साथ रहता था। पत्नी भोजन बना रही थी, बच्चा सेठ के कंधों पर चढ़कर खेल रहा था, सुखी परिवार था। उसी समय वहां से एक मुनि निकले। उन्होंने देखा, वे हंस दिए और चले गए। उस सेठ को बड़ा आश्चर्य हुआ। दूसरे दिन सेठ अपनी दुकान पर मुनीम के साथ बैठा था। तभी वहां से एक कसाई एक बकरे को लेकर निकला।
मुनीम ने देखा तो उसे दया आ गई और कीमत देकर बकरे को छुड़वा लिया। सेठ ने मुनीम से कहा - क्यों किया ऐसा? मुनीम बोला - यह बकरा कटने से बच गया। सेठ नाराज होकर बोला - ऐसे यदि पैसे लुटाओगे तो बर्बाद हो जाएंगे। उसी समय फिर वह मुनि वहां से निकले। उन्होंने देखा और हंसकर चल दिए। अबकी बार सेठ से रहा नहीं गया।
उसने मुनि से पूछा - आप क्यों हंसे? मुनि ने कहा - छोड़ दो यदि जानोगे तो हैरत में पड़ जाओगे। सेठ ने जिद की, तो मुनि ने कहा - सुनो, ये जो बच्च तुम्हारा है, जिसे तुम इतना प्यार करते हो ये पिछले जन्म में तुम्हारा पड़ोसी था और तुम्हारी पत्नी पर आसक्त था और वह जो बकरा था वह तुम्हारा पिता था। इसलिए बीते साल के वक्त को भले ही भूल जाएं पर उसके सबक को आने वाले साल में याद रखें।

मन दर्पण की तरह है इस पर अधिक न टिकें
स्मृतियों को यदि ठीक से उपयोग न किया जाए तो वे तनाव पैदा करती हैं। स्मृतियां और मन काफी जुड़े हुए रहते हैं। मन दो तरह से काम करता है : एक तो कैमरे के फोटो प्लेट की तरह। एक फोटो उस पर उतरती है और तुरंत प्लेट खराब हो जाती है, लेकिन दूसरा होता है दर्पण। दर्पण पर भी तस्वीर बनती है। जो कोई सामने आता है उसकी पूरी तस्वीर दर्पण बना देता है। जब वह व्यक्ति वहां से हट जाता है तो तस्वीर भी हट जाती है।

जो लोग केवल स्मृतियों में जीने लगते हैं वे लोग फोटो प्लेट की तरह अपने मन का उपयोग करते हैं। लेकिन जो लोग कथा और सत्संग की दुनिया में प्रवेश करते हैं, वे अपने मन का उपयोग दर्पण की तरह करना सीख जाते हैं। मन पर चीजें आती-जाती हैं, यदि हम उसे देखते हैं तो ठीक, नहीं देखते हैं तो वह स्मृति टिक जाती है। इसलिए पहले की तस्वीरों, स्मृतियों को बिदा करते रहना चाहिए अन्यथा नए के साथ न्याय नहीं हो सकेगा।

कथा और सत्संगों से यदि हम नित नई दृष्टि, जीवन के संकेत और प्रबंधन के सूत्र उठाते हैं तो हम मन का सही उपयोग कर सकेंगे। एक व्यक्ति संन्यासी के आश्रम में दीक्षित हुआ। बरसों साधना की, कुछ मिला नहीं। गुरु ने सराय में भेज दिया। दिनभर सराय वाले का काम देखा। लौटकर कहा - कहां भेज दिया आपने? गुरु ने कहा - तुम देख नहीं सके। सराय का वह आदमी दर्पण की तरह है। उस पर तस्वीर नहीं बनती, हजारों मेहमान आए और गए। मन भी एक दर्पण जैसा है। इस पर बहुत अधिक न टिकें।

जीवन की अवस्थाओं का ज्ञान कराते हैं हनुमान
बचपन की सरलता हम हनुमानजी से सीख सकते हैं। जवानी की सक्रियता उनके पराक्रम की ही कहानी है। प्रौढ़ता में जो समझ होनी चाहिए, वह भी हनुमानजी हमें सिखाएंगे। और बुढ़ापा सफल होता है पूर्ण समर्पण से।

भारतीय संस्कृति में चार की संख्या का बड़ा महत्व है। चार वर्ण, चार युग और चार अंत:करण को कई बार याद किया जाता है। तुलसीदासजी ने श्रीहनुमानचालीसा की चालीस चौपाइयों में भी चार के आंकड़े को एक जगह याद किया है। 29वीं चौपाई में वे लिखते हैं- चारों जुग परताप तुम्हारा। है परसिद्ध जगत उजियारा।। अर्थात जगत को प्रकाशित करने वाले आपके नाम का प्रताप चारों युगों (सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग) में है। श्रीहनुमान पवनसुत हैं और पवन न सिर्फ चारों युग में है, बल्कि प्रत्येक स्थान पर है। विदेश में पानी अलग मिल सकता है, धरती अलग मिल सकती है, वहां भोजन अलग मिल सकता है, किंतु हवा सारी दुनिया में एक जैसी मिलती है। पानी, अग्नि को रोका जा सकता है, लेकिन आप हवा का बंटवारा नहीं कर सकते। चारों युग का एक और अर्थ है।हमारे जीवन की भी चार अवस्थाएं हैं - बचपन, जवानी, पौढ़ता और बुढ़ापा। प्रताप का एक साधारण सा अर्थ होता है योग्यता। इन चारों उम्र में हनुमानजी योग्यता की तरह हमारे जीवन में आ सकते हैं। बचपन की सरलता हम हनुमानजी से सीख सकते हैं। जवानी की सक्रियता उनके पराक्रम की ही कहानी है। प्रौढ़ता में जो समझ होनी चाहिए, वह भी हनुमानजी हमें सिखाएंगे। और बुढ़ापा सफल होता है पूर्ण समर्पण से। हनुमानजी समर्पण के देवता हैं। इन चारों अवस्थाओं में तालमेल बिठाना है तो मुस्कान सेतु का काम करती है। इसीलिए आप किसी भी उम्र के हों जरा मुस्कराइए..।

मां की डांट-डपट बच्चे के लिए प्रेम भरा अंकुश है
भारतीय चिंतकों ने ऐसा माना है कि माता-पिता से बच्चे जितने पिटे आत्मीयता उतनी बढ़ती गई। मां के हाथ की चपाती और चांटा दोनों में गजब की ममता बसी है, यह भी कुदरत का कमाल है। यह कृत्य बच्चों के भविष्य के लिए ही होता है।

काम काफी हद तक एक जैसे ही रहते हैं फर्क होता है उसके करने की नीयत में। मोटे तौर पर देखा जाए तो कर्म के रूप में हिंसा, किसी भी किस्म की मारपीट स्वीकार्य नहीं होती लेकिन माता-पिता जब बच्चों की पिटाई करते हैं तो वह मारपीट होने के बाद भी हिंसा की श्रेणी में नहीं है। श्रीकृष्ण कथा में चर्चा आती है कि मां यशोदा ने श्रीकृष्ण की पिटाई की थी। एक मजेदार बात है कि विदेशों में बच्चों को पीटना अपराध है। भारत में कई बच्चे जो अब बड़े हो गए हैं, उन्हें अभी तक अपने माता-पिता द्वारा की गई पिटाई याद है। भारतीय चिंतकों ने ऐसा माना है कि माता-पिता से बच्चे जितने पिटे आत्मीयता उतनी बढ़ती गई। मां के हाथ की चपाती और चांटा दोनों में गजब की ममता बसी है, यह भी कुदरत का कमाल है। इसलिए विदेश में जब बच्चे बड़े होते हैं तो माता-पिता से दूर हो जाते हैं, क्योंकि उनकी निकटता के जो अवसर थे उसमें एक अवसर डांट-डपट, थप्पड़-पिटाई भी रहता है। यह कृत्य सिर्फ इसलिए होता है कि बच्चों का भविष्य बन जाए। इस हिंसा में भी प्रेम भीतर ही भीतर बहता रहता है। इसीलिए विदेश के बच्चे बड़े होकर माता-पिता से दूर चले जाते हैं क्योंकि उनके मन में कहीं न कहीं यह भाव रहता है कि जिंदगी में यदि हम कुछ नहीं कर पाए हैं तो इसके पीछे माता-पिता दोषी हैं। बच्चे जितनी स्वतंत्रता लेंगे उतने ही बर्बादी के रास्ते पर जाएंगे। डांट-डपट एक प्रेमभरा अंकुश है। अंकुश लगाने व हटाने की कला आना चाहिए।

दूसरों से जुड़ने के लिए खुद को हटाना पड़ेगा
जो हमने अपने ध्यान में बैठा रखा है वह ध्यान से नहीं जाता है। इसीलिए उलझन और बढ़ जाती है। लिहाजा जब भी हमारी भूमिका बदले हमें इस बारे में सावधान रहना चाहिए कि हमारे खयालात भी बदल जाएं।

जीवन में अपनी भूमिकाओं को समय के साथ बदलने वाले सुख और शांति का अनुभव आसानी से कर सकेंगे। यदि भूमिका आज की है तथा विचार बीते कल के हैं तो खतरा हो सकता है। बेटा शादी करके बहू घर में लाता है, बाप को पता नहीं लगता कि लड़का जवान हो गया। पहले वह माता-पिता के स्नेह में बंधा था। अब वह पत्नी के रूप में एक नई स्त्री के प्रेम में पड़ेगा, लेकिन मां अपनी पुरानी मांगों पर टिकी है। बेटा आएगा, मेरी गोद में सिर रखेगा, मुझसे ही बोलेगा खाने के लिए। लेकिन बेटा किसी और की गोद में सिर रखता है, किसी और से खाने को बोलता है। इसीलिए सास-बहू में नहीं बन पा रही है। मां अपनी पुरानी सोच में बैठी है। वह सोचती है कि बेटा वही करे जो मैं कहती आ रही हूं।

सास और बहू में नहीं बनने का मनोवैज्ञानिक कारण यह भी है कि सास पुरानी परंपराओं पर रुकी हुई है और बहू एक बहाव का नाम है। इसलिए शादी के बाद अधिकांश माएं अपने बेटों के लिए कहती हैं कि वह बदल गया है। दुनिया में यह एक उलझन है, जो पत्नी की, मां की, पिता की, मित्रों की, किसी की भी हो सकती है कि हम सब पीछे रुक जाते हैं। जो हमने अपने ध्यान में बैठा रखा है, वह ध्यान से नहीं जाता है। इसीलिए उलझन और बढ़ जाती है। लिहाजा जब भी हमारी भूमिका बदले हमें इस बारे में सावधान रहना चाहिए कि हमारे खयालात भी बदल जाएं। दूसरों से जुड़ने के लिए खुद को कहीं से हटाना पड़ता है।

वैराग्य भाव से ही वश में आ सकता है मोह
सवाल यह है कि मंथरा नियंत्रित कैसे रहे? मंथरा लोभ है और मंथरा सबसे अधिक डरती थी लक्ष्मण से। लोभ वैराग्य से ही वश में रह सकता है। मंथरा ज्ञान के संदर्भ में भेद बुद्धि है, भक्ति के संदर्भ में संशय है और क्रिया के संदर्भ में लोभ है।

कभी कर्म तारीफ पाता है तो कभी आलोचना। कर्म को पहचानने के कुछ मापदंड स्वयं बनाने होंगे। रामकथा के एक उदाहरण से समझें। कैकेयी जितनी वंदनीय थीं उतनी ही निंदनीय हो गईं। जो ईश्वर को जीव से दूर कर दे या जिसके कारण जीवन से ईश्वर दूर चला जाए, वह व्यक्ति निंदा का पात्र है। कैकेयी रामकथा में क्रिया का प्रतीक हैं। दशरथजी को कैकेयी से विशेष लगाव था यानी जो व्यक्ति क्रिया में आसक्त होता है, वह परिणाम तो बढ़िया पा लेता है पर अच्छे परिणाम पाने वाले व्यक्ति के मन में भी वैराग्य उत्पन्न नहीं होता। सफलता केवल कर्म में नहीं है, वैराग्य में है। क्रिया जिस तरह की वृत्ति से जुड़ती है, उसी संदर्भ में उसकी प्रशंसा और निंदा होती है।

कैकेयी के साथ मंथरा जुड़ी है यानी क्रिया के साथ लोभ जुड़ा है। अब क्रिया और लोभ का मिलन हो गया। पहले कैकेयी कहती थीं कि राम को राज्य मिलना चाहिए। यह क्रिया की उदारता है। लेकिन जैसे ही क्रिया लोभ में डूबी, वह राम के विरुद्ध हो गई। यही जीवन का सत्य है। हम अपने कर्म से लोकप्रिय हो जाते हैं। लेकिन जहां लोभ का सहारा लिया, हम रामराज्य यानी एक श्रेष्ठ जीवनशैली को दूर कर देते हैं। सवाल यह है कि मंथरा नियंत्रित कैसे रहे? मंथरा लोभ है और मंथरा सबसे अधिक डरती थी लक्ष्मण से। लोभ वैराग्य से ही वश में रह सकता है। मंथरा ज्ञान के संदर्भ में भेद बुद्धि है, भक्ति के संदर्भ में संशय है और क्रिया के संदर्भ में लोभ है।

परंपराओं से जुड़ाव का अर्थ दकियानूसी होना नहीं है
आजकल कोई भी व्यक्तिबंधना नहीं चाहता। यदि कोई समाज, परिवार और राष्ट्र के कायदों से बंधा हो तो लोग उसे दकियानूसी मानते हैं। लेकिन अध्यात्म तप को जीवन में इसलिए उतारता है कि सफलता आदमी को अशांत न करे।

इस दौर में उन्मुक्त जीवनशैली विकास का प्रतीक मानी जाती है। आजकल कोई बंधना नहीं चाहता। यदि कोई समाज, परिवार और राष्ट्र के कायदों से बंधा हो तो लोग उसे दकियानूसी, परंपरावादी और मूर्ख मानते हैं। लेकिन अध्यात्म ने तप और संयम को जीवन में इसलिए उतारा है कि सफलता आदमी को अशांत न करे। महावीर स्वामी एक स्थान पर बहुत सुंदर बात कहते हैं- सलिलेण ण लिप्पइ, कमलिणिपत्तं सहाव पयडिए। तह भावेण ण लिप्पइ, कसाय विसएहिं सप्पुरिसो।। भगवान महावीर का आशय है, जैसे कमलिनी का पत्र स्वभाव से जल से लिप्त नहीं होता, वैसे ही सत्पुरुष विषयों से लिप्त नहीं होता। कमल के फूल की खूबी होती है कि वह जल में रहकर भी असंग होता है। सूरज की रोशनी से खिल जाता है।

सूर्य-प्रकाश को स्वीकार करना तप का ही रूप है। जिनका व्यक्तित्व तप से खिलेगा, वे समाज में अलग ही परिणाम देंगे। पलभर का प्रमाद जीवनभर के नुकसान की इबारत लिख देता है। संयम और तप मनुष्य को उसके इरादे में भी साफ-सुथरा बना देता है। महावीर स्वामी से एक बार किसी ने पूछा कि आपके आसपास के लोग आपसे कुछ न कुछ चाहते हैं। हो सकता है कि इन्हें सबकुछ मिल भी जाए और सबको सब मिल गया तो सिद्ध क्षेत्र में रहने की जगह ही नहीं बचेगी। तब महावीर भगवान ने एक सूची बनवाई और उसमें देखा कि सबकी मांग किसी भौतिक वस्तु की थी, मुक्ति किसी ने नहीं मांगी। मुक्ति मिलती है संयम और तप से।

वह त्याग ही क्या जो अपने अहंकार के लिए किया
अहम का एक उपकेंद्र होता है दूसरों की सहायता करना। ऐसा व्यक्ति दूसरों को सुख देकर अपने अहंकार को पुष्ट करता है। अहंकारी व्यक्तिन सिर्फ अशुभ वचन बोलता है, बल्कि वह अशुभ सोचने भी लगता है।

जब भी हमसे कोई गलती हो, अपने भीतर उतरकर अपने कुछ केंद्रों को टटोला जाए। हमारे भीतर हर दुगरुण और सद्गुण का एक सेंटर पॉइंट है। जितना उसको पकड़ लेंगे, उतना दुगरुण से बाहर निकलने में सुविधा होगी। हर मनुष्य के स्वभाव के कुछ केंद्र होते ही हैं। उदाहरण के तौर पर वह केंद्र स्वार्थ भी हो सकता है, अहंकार भी हो सकता है। अहंकार के आसपास छोटे-छोटे उपकेंद्र होते हैं। अहम का एक उपकेंद्र होता है दूसरों की सहायता करना। दूसरों को सुख देकर वह अपने अहंकार को पुष्ट करता है। अहंकारी व्यक्ति न सिर्फ अशुभ बोलता है, बल्कि अशुभ सोचने भी लगता है। अहंकार वाणी पर प्रभाव जरूर डालता है। अशुभ बोलना एक अनुचित घटना है। यह मर्यादा के विपरीत है।

अमर्यादित आचरण एक बड़े दुर्भाग्य और पतन की सूचना देता है। इसलिए याद रखें, जीवन मार्ग में पतन का एक कारण अमर्यादित आचरण भी होता है। विधाता भी खूब है, अशुभ चिंतन का परिणाम तुरंत दे देता है। इसलिए हमारे यहां कहते हैं कि अशुभ चिंतन न किया जाए, अशुभ वाणी न बोली जाए। अहम और इसके कारण उत्पन्न द्वेष और ईष्र्या जैसी बातें बड़े-बड़ों को छोटा बना देती हैं। उनके पतन का कारण बन जाती हैं। इसलिए अपने केंद्रों को जानें, उनके उपकेंद्रों को भी पहचानें तथा उस पर लगातार काम करते रहें। त्याग जिस केंद्र पर होता है, उसी के आसपास अहंकार का केंद्र भी होता है। त्याग करते ही अहंकार आने की संभावना बढ़ जाती है।

साधु को चाह परमात्मा की परमात्मा को संत की
हमारे देश में कुछ वेष बड़े सुरक्षित माने जाते हैं। दुनियाभर के गलत काम करो और इस वेष की खोल में घुस जाओ। श्रीहनुमानचालीसा में तुलसीदासजी ने 30वीं चौपाई में साधु और संत का फर्क लिखा है।
उन्हें एक ही संबोधन को दो शब्दों में क्यों कहना पड़ा? वे जानते थे कि आगे आने वाले समय में ऐसा प्रश्न खड़ा होगा। साधु संत के तुम रखवारे। असुर निकंदन राम दुलारे।। आप साधु-संत की रक्षा करने वाले हैं, राक्षसों का संहार करने वाले हैं और श्रीरामजी के अतिप्रिय हैं। संत का चरित्र बहुत अद्भुत है।
तुलसीदासजी ने साधु और संत अलग-अलग लिखा है, इसका गूढ़ अर्थ है। साधु एक आचरण है, व्यवस्था है, संत व्यवहार है। साधु तैयारी है, संत पहुंचना है। साधु शैली है, संत स्वभाव है। साधु आरंभ है, संत अन्त है। साधु हर कोई हो सकता है, संत कोई-कोई होता है। साधु पूरी धरती पर पाए जाते हैं, संत केवल भारत की धरती पर पैदा होते हैं। साधु बाहर का मामला है, संत भीतर की बात है। और सबसे बड़ी बात साधु वो जो परमात्मा को चाहे और संत वो जिसे परमात्मा चाहे। यह बड़ा अंतर है, इसलिए गोस्वामीजी ने कहा कि साधु-संत के तुम रखवारे।
आज भी साधु बनने के बाद कभी-कभी संतत्व नहीं आ पाता है। एक सीमा तक पहुंचने के बाद भी साधुता कुंठित रह जाती है। लेकिन साधुता और संतत्व एक साथ आए तो फिर संन्यास आरंभ हो जाता है। जब साधुता और संतत्व परिपक्व हो जाए, तब जाकर संन्यास घटित होता है।

धर्म-अध्यात्म की राह ले जाते स्वामी विवेकानंद
हमारे देश में ऐसे महान लोग हुए हैं जो आज तक हमारी शक्ति का रक्षा कवच हैं, प्रेरणा पुंज हैं, एक भरोसा हैं। समय-समय पर समाज में जो असंतुलन स्थापित होता है उसके लिए ऐसे ही दिव्य और
महान पुरुषों की आवश्यकता होती है।
आज हम उनको याद कर रहे हैं जिन्होंने धर्म और अध्यात्म की नई और व्यावहारिक व्याख्या की थी। हम भारतीय चाहे जैसा जीवन जी लें पर धर्म हमारा मार्ग है और अध्यात्म मंजिल। लेकिन हमारा लक्ष्य कुछ और था तथा आज उपलब्धियां कुछ और हो गईं। यह एक-दूसरे से अधिक विशेषज्ञता का जमाना है। एक-दूसरे पर विश्वास का दौर नहीं। अब वैभवशाली होना ही लक्ष्य है, विवेकशील होना कमजोरी है। धर्म-नैतिकता, पूजा-अर्चना, भक्ति-साधना, ज्ञान, कर्म, उपासना के अर्थ ही बदल गए। सच्चे और भले लोग चुप होकर तन्हाई में बैठे हुए हैं।
इस अकेलेपन को भी समाज के लिए उपयोगी बनाया जा सकता है। हमारे देश में कुछ ऐसे महान लोग भी हुए हैं जिन्होंने कुछ ऐसा किया है कि वे आज तक हमारी शक्ति का रक्षा कवच हैं, प्रेरणा पुंज हैं। एक आश्वासन हैं, भरोसा हैं। समय-समय पर समाज में जो असंतुलन स्थापित होता है उसे केवल धर्म दूर नहीं कर सकता। उसके लिए ऐसे ही किसी महान पुरुष की आवश्यकता होती है जो समय और समाज को देखते हुए धर्म की व्याख्या और व्यवस्था केवल शब्दों में न करे, वरन जीवन की क्रिया द्वारा कर सके, फिर वह अवतार हो या दिव्य पुरुष, जैसे स्वामी विवेकानंद। उन्होंने भारत मां पर गर्व करना सिखाया। युवाओं को नई दिशा दी। स्वामी विवेकानंद ने हमें अध्यात्म पथ दिखाया, जिसमें भौतिकता और भक्ति दोनों का अद्भुत संतुलन नजर आता है।

मनुष्य के कर्म मात्र में हो अनासक्ति का भाव
हम जीवन में अनेक बार ऐसे निर्णय ले लेते हैं, जो कभी-कभी गलत साबित हो जाते हैं। इसलिए कोई भी काम करें, उसके मूल में आसक्तिकी जगह निष्कामता लाएं। क्रिया बुरी नहीं है, बुरी है क्रिया के पीछे की नीयत।
जीवन में कभी-कभी हम अच्छे संकल्प लेते हैं, लेकिन वे पूरे नहीं हो पाते। असफलता का कारण हम भाग्य और भगवान में देखते हैं। लेकिन जरूरी यह है कि पहले अपने ही भीतर उस कारण को खोजा जाए। एक उदाहरण से समझें। राजा दशरथ ने संकल्प लिया था कि सिंहासन पर राम को आसीन करेंगे, किंतु ऐसा हो नहीं सका। इसका कारण है दशरथ के चरित्र में वैराग्य की कमी। उनके जीवन में धर्म, सत्कर्म है, किंतु वैराग्य नहीं है। वे क्रिया के प्रति आसक्त हैं। रामराज्य की घोषणा करने के बाद, एक रात बाकी थी। दशरथ के सामने प्रश्न यह था कि वह रात किस रानी के महल में गुजारें। उनके स्वभाव में जो आसक्ति है, बस वह सामने आ गई।
वे कैकेयी के महल में गए। कैकेयी क्रिया का, कौशल्या ज्ञान और सुमित्रा उपासना की प्रतीक हैं। यदि वे कौशल्या या सुमित्रा के महल में जाते तो यह नौबत नहीं आती। दृश्य यह बना कि जब वे कैकेयी के महल में गए और कैकेयी ने वरदान मांगा, तब दशरथ के मन में वैराग्य उत्पन्न हुआ। कैकेयी के प्रति उनका जो मोह था, उसके कारण वे अपना संकल्प पूरा नहीं कर पाए। यह सभी के जीवन का सत्य है। हम रामराज्य यानी हृदय के सिंहासन पर राम को बैठाना तो चाहते हैं, लेकिन क्रिया की आसक्ति से जुड़ जाते हैं। हम जीवन में कई बार ऐसे निर्णय ले लेते हैं, जो गलत साबित हो जाते हैं। इसलिए कोई भी काम करें उसके मूल में आसक्ति की जगह निष्कामता लाएं। क्रिया बुरी नहीं है, बुरी है क्रिया के पीछे की नीयत।

जब मनुष्य भ्रमित होता है तो प्रभु राह दिखाते हैं
जब भी हम भ्रमित होते हैं तो परमात्मा हमें समझाता है और अपना विराट रूप दिखाता है। यह रूप किसी हालात या व्यक्तिके रूप में हमारे सामने आता है और हमें हालात को सही रूप में देखने की दृष्टि मिल जाती है।
गीता को लेकर एक सवाल सबके मन में रहता है कि अजरुन ने गीता के प्रारंभ में भगवान कृष्ण से जो प्रश्न किए थे क्या उन सारे प्रश्नों के उत्तर कृष्ण ने दे दिए थे? और तब ऐसा लगता है कि अजरुन का जो मुख्य प्रश्न था उसका कोई उत्तर भगवान ने नहीं दिया। मुख्य समस्या थी कि मैं युद्ध नहीं करूंगा। भगवान ने जानना चाहा कि युद्ध क्यों नहीं करोगे? तो अजरुन ने युद्ध के परिणामों का एक भयावह दृश्य प्रस्तुत किया। अजरुन ने कहा था - श्रेष्ठ योद्धा मर जाएंगे, समाज में अनाचार फैल जाएगा, सनातन व्यवस्था ध्वस्त हो जाएगी। तो क्या युद्ध करना उचित है? कृष्ण ने अजरुन को ज्ञानयोग, कर्मयोग, भक्तियोग के संदर्भ में पूछे गए प्रश्नों के उत्तर तो दिए हैं, इस प्रश्न का उत्तर कहीं नहीं मिलता कि युद्ध करोगे तो ऐसा नहीं होगा।
अजरुन की इस शंका को सुनकर भगवान कृष्ण हंस दिए। यह हंसी ही इसका उत्तर है। इसमें यह उत्तर छिपा है कि सृष्टि का रचयिता मैं हूं और चिंता तू पाल रहा है। दूसरा कारण है कि तेरी आज्ञा का पालन करने के लिए घोड़े की लगाम पकड़े हुए युद्धक्षेत्र में मैं खड़ा हूं और तू मेरे सामने भविष्य का भयावह चित्र प्रस्तुत कर रहा है। भगवान ने उसे विराट रूप दिखाया। हम भी जीवन में जब भ्रमित हो जाते हैं तो परमात्मा हमें समझाता है और तब भी समझ में न आए तो अपना विराट रूप दिखाता है। यह रूप किसी हालात की शक्ल में या व्यक्ति के रूप में हमारे सामने आता है और हमें घटना को सही रूप में देखने की दृष्टि मिल जाती है।

बहुत बड़ी योग्यता है किसी का विश्वासपात्र होना
जिस पर विश्वास करें, उसे पूरा अधिकार भी दें। श्रीराम ने सुग्रीव पर विश्वास किया और ये अधिकार दिया कि वे सीता की खोज करें। इसी विश्वास की प्रेरणा का आधार था कि सुग्रीव ने अपनी पूरी ताकत सीता की खोज करने में झोंक दी।
किसी से भी काम लेना हो तो उस पर भरोसा करना ही पड़ेगा। आज प्रबंधन के युग में कई व्यवस्थाएं विश्वास पर ही चलती हैं। किसी का विश्वसनीय होना एक बड़ी योग्यता है। श्रीराम ने सुग्रीव पर और सुग्रीव ने वानरों पर गजब का विश्वास प्रदर्शित किया था। सुग्रीव ने श्रीराम को आश्वस्त किया था कि सब प्रकार करिहउँ सेवकाई। जेहि बिधि मिलिहि जानकी आई॥ मैं सब प्रकार आपकी सेवा करूंगा, जिस भी उपाय से जानकीजी आकर आपको मिलें। श्रीराम से सुग्रीव की पहली मुलाकात में यह वार्तालाप हुआ था। श्रीराम के पास यह विकल्प था कि वे सीता की खोज जैसे महत्वपूर्ण कार्य के लिए या तो सुग्रीव से मित्रता करें या बालि से।
बालि उस समय बलशाली थे और राजा थे, किंतु श्रीराम ने मैत्री सुग्रीव से की क्योंकि बालि अहंकारी थे और अन्याय का विरोध नहीं करते थे। एक और महत्वपूर्ण पक्ष यह था कि श्रीराम और सुग्रीव की मैत्री हनुमानजी ने करवाई थी। यह श्रीराम की विशिष्ट शैली थी कि उन्होंने सहज विवेक से सुग्रीव पर विश्वास किया। जिस पर विश्वास किया जाए, उसे पूरा अधिकार भी दिया जाए। इस सिद्धांत का पालन करते हुए श्रीराम ने सुग्रीव के साथ मैत्रीधर्म का निर्वाह किया। श्रीराम ने सुग्रीव पर पूरा विश्वास कर यह अधिकार दिया कि वे सीता की खोज करें। इसी विश्वास की प्रेरणा का आधार था कि सुग्रीव ने अपनी पूरी ताकत सीता को खोजने में झोंक दी। श्रीराम ने सुग्रीव को निर्णय लेने का अधिकार दिया और सुग्रीव उस पर खरे उतरे।

सबसे प्राचीन और उन्नत है भारतीय चिंतन परंपरा
हम लोग संतों को इतना क्यों पूजते हैं। दरअसल हर फकीर के भीतर साक्षात भक्ति शरीर धारण करके खड़ी है।
जैसे यदि कृष्ण को जानना हो तो मीरा और चैतन्य जैसे संतों को सेतु बनाएं। तुलसी ने लिखकर, कबीर ने गाकर, नानक ने बोलकर, महावीर-बुद्ध ने खड़े होकर और चैतन्य तथा मीरा ने नाचकर भगवान को पाया। हर संत के जीवन में कुछ चमत्कारिक घटता है। लेकिन भक्तों को इन चमत्कारों से ज्यादा लेना-देना नहीं होना चाहिए। चमत्कार को छोड़ें, प्रेमभाव को मानें। तार्किक उलझ जाता है बुद्धि में, त्यागी उलझ जाता है देह में पर जो प्रेमी हैं, भक्त हैं, वह उलझते नहीं।
वे चमत्कार से हटकर सिर्फ फकीरों की लीला देखते हैं। भारत ने बुद्धि के शिखर को छुआ है। भारत के पास आज भी बहुत-सा ऐसा साहित्य है, जो दुनिया की किसी भाषा में अनूदित नहीं हो सकता, क्योंकि इतने बारीक शब्द दुनिया की किसी भी भाषा में नहीं हैं। हमारे पास ऐसे-ऐसे शब्द हैं, जिनका कोई सानी नहीं। हमने वेद, उपनिषद, पतंजलि, कपिल, कणाद सबको सोचा है। इतना सोचा कि सोच-सोचकर थक गए हैं। लेकिन ऐसी चिंतन परंपरा के अतिरिक्त हमारे पास अनेक संतों के रूप में समर्पित परंपरा की भी पूंजी है।

इसलिए भारत के पास हर किस्म का फकीर मौजूद है। आप अपने अनुरूप किसी से भी जुड़ सकते हैं। फकीरी से जुड़ने का एक सरल तरीका है, जरा मुस्कराइए..।

इवेंट मैनेजमेंट के पारंगत गुरु हैं हनुमानजी
इस युग में कई तरह के प्रबंधन हो गए हैं। श्री हनुमान चालीसा की 30वीं चौपाई की आधी पंक्ति में एक सुंदर संकेत है। साधु-संत के तुम रखवारे। असुर निकंदन राम दुलारे। इसमें इवेंट मैनेजमेंट का बड़ा सुंदर संदेश है। भगवान के अवतार के दो प्रमुख प्रयोजन हैं। एक साधु-संतों की रक्षा और दूसरा असुरों का संहार। श्री हनुमान इवेंट मैनेजमेंट में पारंगत हैं। इवेंट मैनेजमेंट में तीन बातें महत्वपूर्ण हैं। पहली- उद्देश्य स्पष्ट हो। दूसरी- खर्च नियंत्रित रहे और तीसरी- परिणाम सौ प्रतिशत हो। तो परपज, फंडिंग और रिजल्ट का तालमेल श्री हनुमान के लंका दहन जैसे इवेंट में दिखता है।
रामकथा का एक बड़ा इवेंट है लंका दहन। हनुमानजी का उद्देश्य साफ था कि वे रामदूत हैं। उन्होंने अपनी हर गतिविधि से लंका को यह संदेश दिया। खर्च (फंडिंग) के मामले में वे इतने नियंत्रित थे कि तेल, कपड़ा सब लंका से लिया और लंका जला दी। ये है सौ प्रतिशत स्पॉन्सरशिप। तीसरी बात थी परिणाम शत-प्रतिशत आया। हनुमानजी ने सारी लंका जला दी। जान-माल की हानि तो राक्षसों की हुई पर भविष्य में हमेशा के लिए वे सारे वानर नाम से ही भयभीत हो गए। किसी भी इवेंट की सबसे बड़ी सफलता यह है कि लोग इसे भविष्य में लंबे समय तक याद रखें। बाद में जब युद्ध के पूर्व अंगद को दूत बनाकर लंका में भेजा गया तो उन्हें देख राक्षस भयभीत हो गए थे। उन्हें अंगद में हनुमानजी ही नजर आ रहे थे।

ईश्वर की शोभा यात्रा न हुई मानो कोई धरना-प्रदर्शन हो
इस समय जब जीवन का हर पक्ष प्रदर्शन से ही महत्वपूर्ण या गैरमहत्वपूर्ण हो रहा है, उस वक्त धर्म के क्षेत्र में भी प्रदर्शन सिर चढ़कर बोल रहा है। जबकि धर्म की जान है श्रद्धा। धर्म-क्षेत्र की सारी क्रियाएं श्रद्धा से आरंभ होकर श्रद्धा पर समाप्त होनी चाहिए। कथाओं के पहले कलश यात्राएं निकल रही हैं। परमात्मा को कैसे प्राप्त करें, इसकी किसी को चिंता नहीं है। कलश यात्रा का सीधा-सा अर्थ है - गागर में सागर भर देना। कुछ मामलों में भारतीय संस्कृति अनूठी है। संक्षेप में विराट कार्य को कर लेने की कला हमारे ऋषि-मुनि पहले से जानते थे। आज हम पर प्रदर्शन का शौक चढ़ गया है। इसीलिए श्रद्धा से हटकर भक्ति दिखावे का खेल बन गई है। भक्ति के भीतर जो अंतरभाव है, वह विकृत हो गया है।
कभी-कभी तो शोभायात्राएं देखकर ऐसा लगता है कि यह धरना-प्रदर्शन है या परमात्मा की ओर जाने का अभ्यास। वैसे तो भगवान को ये दोनों पसंद हैं। परमात्मा का मानना है कि धरना हो, लेकिन अपने भीतर उतरकर बैठ जाएं यह धरना ईश्वर को प्रिय है और भगवान चाहता है कि प्रदर्शन करना हो तो अपने पाप का करो और गोपन करना हो तो पुण्य का करो। तो मूल बात यह है कि श्रद्धा बचाई जाए। श्रद्धा का उपयोग करना आना चाहिए। इसका प्रशिक्षण नहीं होता, कोई कर्मकाण्ड नहीं होता। यदि श्रद्धा है तो बिना कलश के परमात्मा मिल जाएगा और नहीं है तो हर कर्मकाण्ड बोझ बन जाएगा।

कुछ देर भीड़ से मुक्त होकर आत्ममंथन भी करें
आज का व्यक्ति दूसरों में अपना अनिष्ट देखने की आदत से मजबूर हो गया है। यह समय सभी के प्रति संदेह का दौर है। हानि की कल्पना से हर व्यक्ति भयभीत है। कोई भी काम करने से पहले भविष्य के प्रति क्षोभ, चिंता, व्याकुलता, दुख और अविश्वास सबसे पहले हमारे अंतर्मन में मंडराने लगते हैं।
ऐसा इसलिए भी होता है कि हम सब भीड़ में जीने के आदी हो गए हैं। बाहर भी और भीतर भी। पैदा होते ही हम भीड़ से घिर जाते हैं और फिर आदत-सी पड़ जाती है। आदमी शादी भी इसीलिए रचाता है कि अकेले जिंदगी नहीं कटेगी। कभी-कभी तो मात्र दो लोग हजारों की भीड़ से अधिक अशांति अपने आसपास पैदा कर लेते हैं। इस बाहर की भीड़ ने धीरे-धीरे हमारे भीतर भी अधिकार जमा लिया है।
ईमानदारी से अपने अंदर झांकें तो एक भी ऐसा कोना नजर नहीं आएगा, जहां आप एकांत में बैठ सकें। और तो और सोते समय भी यह भीड़ सांस के माध्यम से हमारे भीतर घुस जाती है। यहीं से हमारे भीतर क्रोध का जन्म होता है। हमारे द्वारा लाई गई भीड़ हमें ही बाधा पहुंचाने लगती है और फिर हम उस पर जो क्रोध करते हैं। वो हमारे व्यक्तित्व में झलकता है। इन अनचाहे मेहमानों को रवाना करने की तैयारी करने वाले लोग सही मायने में भक्त हो सकेंगे। भीड़ यदि भीतर है तो चाहे जो कर लें अशांत ही होंगे। इसलिए जब भी मौका लगे इस भीड़ से मुक्ति पाने की तैयारी रखिएगा।

नाम-जप करें ताकि ईर्ष्या हम पर हावी न हो
जीवन में आलस्य, निराशा और अहंकार ये तीनों जब एक साथ आते हैं तो आदमी के भीतर एक नई वृत्ति का जन्म होता है, जिसका नाम है ईर्ष्या। हम सबसे ऊंचे और दूसरे हमसे छोटे, यहां से अहंकार शुरू होता है।
दूसरे की प्रगति देखकर स्वयं अधिक परिश्रम न करना आलस्य है। इससे हीन भावना पैदा होती है और ईर्ष्या व्यक्तित्व पर छा जाती है। सफलता न मिले तो निराशा होना स्वाभाविक है। इसलिए ऐसी स्थितियों से बचाव का एक तरीका अध्यात्म सुझाता है और वह है निरंतर नाम-जप करना। मन में जप चलेगा तो दूसरों के प्रति बुराई, त्रुटियां देखना, अपयश की कामना करना इन सबसे बच जाएंगे। स्पर्धा अनुचित नहीं है, लेकिन इसे केवल वस्तुगत मानकर बाहर रखना चाहिए।
स्पर्धा हमारे भीतर जोश भर दे यहां तक तो ठीक है, किंतु ईर्ष्या भरे तो तत्काल नाम-जप आरंभ कर देना चाहिए। गुरुमंत्र और परमात्मा का नाम लेते रहने से शरीर के पांच तत्व सक्रिय बने रहते हैं। यह शरीर पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और आकाश से बना है। नाम सुमिरन इन पांचों को आपस में ठीक से जोड़े रखता है। जैसे धागे में फूल पिरोए गए हों। बिना नाम-जप के ये पांचों तत्व बिखरे-बिखरे रहेंगे और दुर्गुण इन पर आसानी से कब्जा कर लेंगे। इसलिए प्रतिस्पर्धा करें लेकिन ईर्ष्या न करें। स्पर्धा अपनी कमजोरियों की ओर देखने में मदद करेगी। नाम-जप करें, फिर प्रतिस्पर्धा में उतरें। तब सफलता रंग लाएगी।

तर्क का उपयोग ठीक से हो तो संवर जाएगी भक्ति
वैसे तो भक्ति श्रद्धा का विषय है, लेकिन आज का समय तर्क और विज्ञान का है। इसलिए भक्ति को थोड़ा समझकर जीवन में उतारना होगा। तर्क का उपयोग ठीक से हो जाए तो भक्ति संवर सकती है, वरना तर्क जीवनभर के लिए उलझा भी देता है। भारत में श्रेष्ठतम तार्किक पैदा हुए हैं। कभी काशी थी ही तार्किकों की।

पूरे देश का तर्क वहां जन्मा था। तर्क को काशी ने आखिरी सीमा तक पहुंचा दिया था। कहते हैं जब कोई विद्वान काशी से लौटता तो देश में उससे कोई तर्क नहीं करता था। वहां से लौटना गवाही थी विचारों के विजय की। कहावत थी जिसने काशी जीता, उसने संसार जीत लिया। घर-घर में तार्किक हुए थे। लेकिन इसी काशी में कई भक्त भी हुए। तुलसीदासजी ने श्रीरामचरितमानस जैसा भक्तिपूर्ण ग्रंथ काशी से गुजरकर ही लिखा था। तुलसी वो व्यक्ति थे, जो तर्क की गहनतम स्थिति, खोज, अन्वेषण, बारीक नजर से गुजरे थे।

इतनी समझ के बाद भी वे कई संतों की तरह नासमझ होने को तैयार हो गए, क्योंकि श्रीरामचरितमानस जैसा ग्रंथ समर्पण के साथ लिखा जा सकता है। हमारे देश में ऐसे कई विलक्षण व्यक्तित्व हुए हैं, जिनका जीवनचक्र तर्क, भक्ति का संतुलन बताता है। आज पराजय को विजय में बदलने के लिए अनेक प्रयास किए जाते हैं। संतों की नूतन भक्ति पद्धति को यदि ठीक से समझ लें तो हमें भी वह आनंद मिल सकेगा, जो अनेक फकीरों ने उठाया है।

मां के आशीर्वाद से ही हमें मिलेंगी सिद्धियां व निधियां
इस भौतिक युग में सभी चाहते हैं कि उनके पास आठ सिद्धियां और नवनिधियां हों। योग्यता और वैभव की चरम सीमा इनसे प्राप्त होती है। हनुमानचालीसा की ३१वीं चौपाई कहती है- अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता। अस बर दीन जानकी माता।। जानकी मां ने ऐसा वरदान दिया कि आपको अष्ट सिद्धि और नवनिधियां मिलीं।
सिद्धियां आठ होती हैं- अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशत्व और वशित्व। गोस्वामीजी का कहना है कि ये आठों सिद्धियां आपके पास हैं और कुबेर की जो नवनिधि हैं, वे भी आपके पास हैं। पद्म, महापद्म, शंखर, मकर, कच्छप, मुकुंद, कुंद, नील और खर्व ये नौ निधियां हैं। नवनिधि का एक आध्यात्मिक अर्थ भी है। श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवनम्, अर्चन, वंदनम्, दास्यम्, सख्यम्, आत्म-निवेदन ये नवधा भक्ति ही साधक की नवनिधि हैं। ये अष्ट सिद्धि और नवनिधि हनुमानजी को मां सीताजी ने प्रदान कर रखी हैं।
एक बात हम समझ लें कि मां के आशीर्वाद से हमें संसार की सिद्धि और निधि आसानी से मिल सकती है। इसलिए जीवन में प्रयास करें कि मां का आशीर्वाद हमेशा हमारे साथ बना रहे। हनुमानजी को श्रीराम और सीताजी का भरपूर नेह (ध्यान) मिलता है। रामजी का भी ध्यान इन पर है और जानकी का भी। कलयुग में ध्यान का हमारे जीवन में बहुत महत्व है। ध्यान के मामले में हनुमानजी बहुत सावधान हैं, इसलिए हम उनका पल्ला पकड़े रखें।

आंसू अंतर्मन को धोते हैं जो सृष्टि को दिव्य बना देता है
विशेषज्ञता और विश्लेषण के इस दौर में जब हर बात एक कसौटी से होकर गुजरती है, तब धर्म को लेकर भी खूब भ्रम पैदा हो जाता है। धर्म विषय नहीं, सीमा नहीं समस्त जीवन है। धर्म की काव्य दृष्टि है। इसलिए सिर्फ हमारे देश में कवि और ऋषि को एक जैसा माना गया है। इन्होंने काव्य को धर्म का रंग दिया है।
धर्म और राजनीति का इतना ही संबंध होना चाहिए। फकीरों ने धर्म को नया रूप दिया। भक्ति को ले जाकर कीर्तन से जोड़ा। इसीलिए हर धर्म में इबादत अलग-अलग रूप में आई है। इसके लिए किसी धर्म ने शरीर का उपयोग खड़े होकर, हाथ जोड़कर, गर्दन झुकाकर, प्रार्थना करने के लिए किया, तो किसी ने नमाज की शक्ल दी। कोई अरदास का रूप देता है।
हमारे देश ने जो कुछ खोया है उसमें से एक है पूजा-इबादत के तरीकों के पीछे का भाव। हर धर्म के महान संत सिर्फ हरिभजन के लिए आए थे। भजन का अर्थ होता है धन्यवाद। परमशक्ति से कहा जाता है तुमने ही दिया है सबकुछ। योगी तो हम हैं ही।
भक्त के भजन में, कीर्तन में रोना-गाना, हंसना तीनों एक साथ चलते हैं। रोने के भाव इतने प्रबल होते हैं कि आंसुओं के अलावा प्रकट करने का रास्ता नहीं। आंसू तो अमिट भक्ति का माध्यम हैं। इसलिए कभी अकेले में बैठकर उस दिव्य सत्ता को याद करते हुए आंखों में नमी जरूर लाएं। आंसू अंतर्मन को धो देते है जो सृष्टि को भी दिव्य बना देता है।


प्रेम को समझने के लिए जीवन में भक्ति लाएं
हम भारतीयों ने कुछ ऐसे शब्द खो दिए हैं कि जिनकी हानि में अब हम परेशान हो रहे हैं। एक शब्द है प्रेम। आजकल किसी से जब प्रेम की बात करो तो सारा वार्तालाप वासना के आसपास घूमने लगता है। प्रेम का अर्थ लेन-देन, अपेक्षा मान लिया गया है। जिन्हें प्रेम समझना हो, वे अपने जीवन में भक्ति उतारने की तैयारी करें। प्रेम और भक्ति मिला-जुला मामला है। प्रेम दो बातों से जीवन में सरलता से उतरता है नाम और समर्पण। परमात्मा का नाम मन ही मन लेते रहें और उसके प्रति समर्पण का भाव रखें। इसके लिए सत्संग करते रहें। सत्संग यानी प्रेम की चर्चा।
मीरा ने कहा था - असाधुओं की संगति में नाम होने से तो साधु संगति में बदनाम हो जाना अच्छा। एक संत हमारी तरफ आंख उठाकर देख ले तो काफी है, बजाय सारा समाज हमारी प्रशंसा करे। प्रेम प्रार्थना का प्रथम रूप है। भक्ति की शुरुआत है। प्रेम पाठशाला है परमात्मा की। इसी से सीखी जाती है प्रार्थना। पति-पत्नी बच्चों के साथ बैठकर प्रेम से ध्यान में उतरें। प्रेम में मिल्कियत नहीं होती। अभी सब गड़बड़ है। पति-पत्नी के बीच एक-दूसरे पर कब्जा है। मुझे उससे यह मिले, ऐसी अपेक्षा है। प्रेम में कब्जा कैसा? प्रेम तो दान है। जहां संसार के प्रति प्रेम असफल होता है, वहां परमात्मा के प्रति प्रेम जागता है। बच्चे को प्रेम के प्रति अभी से शिक्षा दी जानी चाहिए, क्योंकि आने वाले वक्त में उनके लिए यह बड़ा सहारा होगा।


परमात्मा की प्राप्ति में सबसे बड़ी बाधा है ‘मैं’ का भाव
हमारे आगे-पीछे क्या घटता है, इससे ज्यादा जरूरी यह है कि हमारे भीतर क्या घटता है? हम जब अपने भीतर उतरेंगे तो हमारी मुलाकात हमारे ही ‘मैं’ से होगी। परमात्मा प्राप्ति में सबसे बड़ी बाधा ‘मैं’ होती है। यह ‘मैं’ बड़े सूक्ष्म तरीके से काम करता है। गौर से देखेंगे तो पाएंगे कि ‘मैं’ का संसार ही अलग है। इस ‘मैं’ को छोड़ना पड़ेगा। यह ‘मैं’ हमें आग की लपटों में घिरा देता है। ये लपटें हैं - पहली, तृष्णा की लपट। जो मेरे पास नहीं है वह मेरे पास हो जाए। किसी भी तरह आ जाए। दूसरी, क्रोध की लपट।
जब तृष्णा में बाधा हो तो क्रोध आता है। और तीसरी लपट है लोभ की। लोभ यानी जो मुझे मिल गया, वह मेरे पास ही रहे। इसके लिए चाहे मुझे खुद नीचे गिरना पड़े या दूसरे को गिराना पड़े। दोनों के बीच क्रोध है। इन लपटों के भीतर अहंकार पैदा होता रहता है। क्रोध अहंकार का भोजन है। तृष्णा अहंकार का फैलाव है। लोभ अहंकार का पैर जमाकर खड़ा हो जाना है। ये तीनों लपटें बुझ जाएं तो अहंकार भी बुझ जाएगा। जहां अहंकार बुझा, वहां शून्य पैदा होगा और उसी शून्य में परमात्मा अवतरित होगा। इसलिए जब आप अकारण और अत्यधिक क्रोधित हो रहे हों तो अपने भीतर उतरकर ‘मैं’ को ढूंढ़िए। ‘मैं’ पकड़ में आएगा तो अहंकार पकड़ में आ जाएगा। दोनों को जैसे-जैसे गलाएंगे, क्रोध शांत होने लगेगा। इसलिए परमात्मा की यात्रा में अपने भीतर उतरकर ऐसे प्रयोग करने पड़ेंगे।

प्राणी और प्रकृति से सदैव पवित्र प्रेम बनाए रखें
संघर्ष के इस युग में जाने-अनजाने मनुष्य सख्त बनता जा रहा है। इस कारण कठोरता का आवरण धीरे-धीरे व्यवहार से स्वभाव में उतर जाता है। अध्यात्म कहता है करुणा का भाव शांति प्राप्त करने के लिए आवश्यक है। संतों ने भी कहा है - ‘करुणा मत छोड़ना।’ इसीलिए जीव दया का सिद्धांत भी बताया गया है। करुणा प्रकृति के प्रति, प्राणियों के प्रति जितनी अधिक होगी, उतनी ही सरलता से हम परमात्मा के निकट पहुंचेंगे। परमात्मा का अर्थ केवल मंदिर में बैठे भगवान से न लगाया जाए। हम किसी भी क्षेत्र में कार्यरत हों, प्राणी और प्रकृति से पवित्र प्रेम बनाए रखें।
प्रकृति का प्रेम हमारे तन को स्वस्थ रखेगा। इनको बचाए जाने का अर्थ है अपने ही तन की रक्षा। मन को साधना हो तो प्राणियों से संबंधों में पवित्रता रखी जाए। हमारे यहां दो अवतार हुए हैं और दोनों ने ही प्राणियों से अपने संबंध रखकर हमें अद्भुत संदेश दिया है। राम अवतार ने वानरों से और कृष्ण अवतार ने गायों से निकट का संबंध रखा। ये केवल कथा के पात्र नहीं हैं। इन दोनों अवतारों ने एक गहरा संदेश दिया है। वानर के तन की अगली कड़ी मनुष्य का तन है और गाय की आत्मा का अगला चरण मनुष्य की आत्मा है। अत: तन-मन को साधने के लिए वानर के रूप में हनुमानजी आदर्श बने और गाय के रूप में गौमाता प्रकृति की प्रतिनिधि बनीं। इन दोनों से जुड़ने का अर्थ है अपने भीतर शांति की स्थापना करना।

समन्वय की कला सफलता और शांति दिलाती है
अध्यात्म कहता है एकांत साधो, लेकिन अध्यात्म यह भी सिखाता है कि जब संसार में रहें तो समूह को साधें। जीवन में कई लोग ऐसे मिलेंगे, जो हमें पसंद होंगे और कुछ नापसंद। समन्वय की कला सफलता और शांति दिलाती है। हनुमानचालीसा की 32वीं चौपाई में तुलसीदासजी लिखते हैं - राम रसायन तुम्हरे पासा। सदा रहो रघुपति के दासा।। आप अनंतकाल से श्रीरामजी के दास हैं। राम नाम रूपी रसायन सदा आपके पास रहता है। इस चौपाई में हनुमानजी की दो अलग-अलग विशेषताओं की चर्चा है। एक तो उनके पास राम नाम का रसायन है और दूसरे वे रघुपति के निकट के सेवक हैं।
वृद्धावस्था और बीमारियों को दूर करने वाली औषधि को रसायन कहते हैं। जो लोग इस राम-रसायन का सेवन करते हैं, उन्हें दीर्घायु, तीव्र स्मरण शक्ति, बुद्धि बल, आरोग्य, यौवन, तेज, सुवर्ण, मधुर कंठ, सुगठित देह तथा इंद्रियों की पटुता प्राप्त होती है। रसायन शास्त्र को विज्ञान में केमेस्ट्री कहते हैं। जीवन की केमेस्ट्री के फॉर्मूले श्रीहनुमान से प्राप्त किए जा सकते हैं। एक-दूसरे से मिलने पर तत्वों के परिवर्तन का अध्ययन केमेस्ट्री है। व्यक्तियों और परिस्थितियों से घुल-मिलकर हमारे जीवन में जो भी परिवर्तन या परिणाम हों, वे अनुकूल रहें। यह जिंदगी की सबसे अच्छी केमेस्ट्री होगी। आज का दौर बदलाव का दौर है। बदले हालात का सही आकलन कर खुद में परिवर्तन कर लेने से आने वाली किसी भी परेशानी से बचा जा सकता है।

आती हुई हर सांस जन्म है तो जाती हुई मृत्यु
भविष्य के प्रति हम जितने निर्भय रहेंगे, वर्तमान को उतने ही अच्छे ढंग से साध सकेंगे। भविष्य में एक बड़ा भय होता है मृत्यु का भय। मृत्यु को ठीक से न समझने के कारण हम जीवन को भी बिगाड़ देते हैं। जैन मुनि प्रज्ञासागरजी ने बड़ी सुंदर बात कही है। जन्म और मृत्यु दोनों जुड़वां संतानें हैं। जन्म पहले पैदा होने वाला पुत्र है तो मृत्यु बाद में उत्पन्न होने वाली पुत्री। इन दोनों में कोई साठ-सत्तर वर्ष का नहीं, बल्कि पलभर का अंतर है। हमारी आती हुई हर सांस जन्म है तो जाती हुई हर सांस मृत्यु है। यही पल-पल की घटना एक दिन जीवन की अंतिम घटना बन जाती है, जिसे हम मृत्यु कहते हैं।
जिसे हम जीवन के अंतिम समय में महसूस करते हैं, उसे ज्ञानी जीवन के पल-पल में महसूस करते हुए जीते हैं। यही वजह है कि ज्ञानी की मृत्यु पर महोत्सव और अज्ञानी की मृत्यु पर मातम मनाया जाता है। हमारी मृत्यु मातम नहीं, महोत्सव बने, ऐसी भावना व साधना होनी चाहिए। जहांगीर के न्याय की बातें बड़ी मशहूर हैं। एक बार बादशाह के साले के मुंह लगे नौकर ने कोई अपराध किया। नौकर को मौत की सजा हो गई। साले ने अपनी बहन बेगम नूरजहां से कहा। नूरजहां ने बादशाह से उसे माफ करने को कहा। लेकिन बादशाह नहीं माना। बेगम ने नाराजगी प्रकट करते हुए कहा - आप मेरे लिए क्या इतना भी नहीं कर सकते? बादशाह ने उत्तर दिया - मैंने जान बेची है प्रिये, ईमान नहीं। सुनकर नूरजहां खामोश रह गईं।

जीवन में ज्ञान और भक्ति का संतुलन बनाएं
जीवन में ज्ञान, कर्म और भक्ति का संतुलन रहे तो सफलता पूर्ण मानी जाएगी। ज्ञान भरी दुपहरी है, भक्ति संध्याकाल। इसलिए प्रार्थना को संध्या कहते हैं। भक्ति के मार्ग में कृपा के सूत्र बहुमूल्य हैं। भक्त सिर्फ कह सकता है - कृपा करो। ज्ञानी कर्म का प्रत्युत्तर मांगता है। भक्त दावा नहीं कर सकता। ज्ञानी का सबसे बड़ा खतरा अहंकार है और भक्त का आलस्य। भक्ति का सारा जोड़ है कि शून्य हो जाओ। ज्ञान का सारा जोड़ है कि एक हो जाओ। परमात्मा का पता ही तब मिलता है, जब अहंकार मर जाता है। भक्ति का असली रूप साधु की संगति में प्रकट होता है, किसी शास्त्र में, किसी किताब में नहीं।
भक्ति कोई सिद्धांत नहीं है, एक जीवनचर्या है, जीने की शैली है। हमारे यहां कई फकीर ज्ञानी से भक्त तक की यात्रा में पहुंचे थे। कर्म तो हर हालत में होना ही है। इसलिए जीवन में ज्ञान और भक्ति का संतुलन बनाया जाए। ज्ञानी लोकलाज बचाकर चल सकता है। किसी को पता भी न चले और वह ज्ञान प्राप्त कर लेगा, लेकिन भक्त कैसे बचेगा? नाचेगा, गाएगा। नृत्य भक्ति की अभिव्यक्ति है। भक्ति लुप्त नहीं रह सकती। जरा-सी दूरी भी भक्त को अखरती है। इसलिए वह नर्तन करता है। ज्ञानी जब परम ज्ञान को उपलब्ध हो जाता है तो उसका ध्यान भी छूट जाता है। ध्यान की जरूरत नहीं रह जाती है, लेकिन भक्त परमभक्ति को उपलब्ध होकर भी प्रार्थना से मुक्त नहीं होता। प्रार्थना का एक सुंदर स्वरूप है जरा मुस्कराइए..।

बलवान जीवन को आईने की तरह जीता है
हर दिन यदि जीवन को गौर से देखें तो पाएंगे आक्रमण हो रहे हैं, बाहर भी और भीतर भी। संसार में प्रतिस्पर्धा के कारण हमले हैं और मनुष्य के भीतर दुगरुणों के आक्रमण। वे लोग बच जाएंगे, जो वास्तव में बलवान हैं। बलवान होने का अर्थ भी आज बदल गया है। जो सत्पुरुष है वही बलवान है। इस दौर में शरीर, धन, बुद्धि, पद, प्रतिष्ठा, संगी-साथी, परिवार और साहस का बल, जब ये सब एकसाथ मिल जाएं, तब मनुष्य संपूर्ण रूप से बलवान माना जाएगा। यह दुस्साहस करके सफलता अर्जित करने का समय है। यदि आप अपनी योग्यता को समय पर और उचित परिस्थितियों में प्रकट नहीं करेंगे तो हो सकता है संसार आपके मार्ग में व्यवधान पहुंचाए। लेकिन आधी दुनिया तो आपको शक्तिमान मानकर ही समर्पित हो जाती है और बाकी आधी दुनिया से मुकाबला आप अपने बल से कर सकेंगे।
यहां मुकाबला करने का अर्थ यह नहीं कि दूसरों को परेशान करें। बलवान होने का अर्थ है आत्मबल, दृढ़ इच्छाशक्ति, खुद को पहचानने में समर्थ होना। ऐसा बलि व्यक्ति यह जानता है कि जब जीवन में सुख आता है तो वह कहता है सुख आया है, मैं सुखी नहीं हूं। दुख आया पर मैं दुखी नहीं हूं, मैं इनसे अलग हूं। मेरी शक्ति मुझे परिस्थितियों से विलग करके रखती है। वो जीवन को आईने की तरह देखता है। जैसे सुंदर चेहरा सामने आए तो आईना खुश नहीं होता और कोई सामने न हो तो भी आईना वही रहता है। बलवान जीवन को ऐसे ही जीता है।

उठे हुए कदम की बूंद में छिपा सफलता का सागर
जीवन यात्रा की लंबाई नापना कठिन है। हर व्यक्ति अपनी एक मंजिल देखता है। मंजिल की दूरी कितनी है इसकी जानकारी रखने में बुराई नहीं है, लेकिन उसी में उलझ जाना खतरनाक है। दूरी का आंकड़ा यदि बड़ा हुआ तो हम घबरा जाएंगे। यह सूत्र भौतिक मंजिल और आध्यात्मिक लक्ष्य दोनों पर लागू होता है। संसार की उपलब्धियां भी बड़ी हैं और दूर हैं। इन्हें प्राप्त करने के लिए भी एक समान कार्य करना होगा। भगवान महावीर स्वामी ने एक जगह कहा है - जो चल पड़ा, वह पहुंच ही गया। जीवन प्रबंधन का यह अद्भुत सूत्र है।
आचार्य श्रीराम शर्मा इसी बात को बड़ी गहराई से कहते हैं - ‘हम चलने के पहले ही अपनी बैठी हुई असफलता का दोष तीन चीजों में आरोपित कर देते हैं - भाग्य, ईश्वर और दुनिया।’ जो लोग दोष को स्वयं में ढूंढ़ने में सक्षम होंगे, वे सफलता के दृश्य देख सकेंगे। किसी ने महावीर स्वामी से कहा था कि तर्क की दृष्टि से उनका यह संवाद गलत बैठता है। यह बिल्कुल जरूरी नहीं है कि जो चल पड़ा, वह पहुंच ही जाएगा। बोया हुआ बीज जरूरी नहीं है कि वृक्ष बन ही जाए। ओशो ने इसी को और आगे बढ़ा दिया कि जिसने कदम उठाया, उसे मंजिल मिलेगी ही। यदि आगे नहीं बढ़ता है तो यह उसकी मर्जी है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि वह असमर्थ है। उठे हुए कदम की बूंद में सफलता का सागर छिपा है। इसलिए कदम जरूर उठाइए। कहां, कब और कैसे पहुंचेंगे, इसकी फिक्र छोड़िए। शुरुआत तो करिए।

दुनिया का अंधेरा मिटाने का एकमात्र तरीका है प्रकाश

सबकी ऊर्जा समान नहीं होती। हरेक के भीतर उसके सदुपयोग और दुरुपयोग का अलग-अलग लेवल होता है। जो लोग अपनी ऊर्जा का सदुपयोग करना चाहते हैं, उन्हें सबसे ज्यादा दिक्कत आती है दुगरुणों से। दुगरुण तो मौका ही ढूंढ़ते हैं कि किसी की ऊर्जा तक पहुंचें और उसे सही से गलत की ओर मोड़ दें। बड़े-बड़े प्रबंधक, उच्च पद पर बैठे हुए लोग, जिनके नियंत्रण में बाहरी दुनिया की एक सफल व्यवस्था होती है, वे भी भीतर के इस संसार को जान नहीं पाते और जानने की कोशिश भी करते हैं, तो उलझ जाते हैं। सभी चाहते हैं काम, क्रोध, लोभ, ईष्र्या जैसे दुगरुण मिटा दिए जाएं। कई बार तो हम संकल्प ले लेते हैं कि आने वाली परिस्थिति में इन दुगरुणों के आने की संभावना रहेगी और हम हर हालत में इनसे निबट लेंगे, लेकिन जैसे ही घटना घटती है और हम कोई दूसरे ही व्यक्ति हो जाते हैं, सारे संकल्प धरे रह जाते हैं, दुगरुणों की विजय हो जाती है। दुगरुण एक तरह का अंधेरा है।
हम जितनी ऊर्जा इन्हें मिटाने में लगाएंगे उतने उलझते चले जाएंगे। यह बिल्कुल इस तरह होता है, जैसे अंधेरे को तलवार चलाकर काटना या मिटाना। दुनिया का अंधेरा मिटाने का एक ही तरीका है प्रकाश को जगाना। अंधेरा कभी नहीं मिटता। हां, प्रकाश जरूर जगाया जा सकता है। और जैसे ही प्रकाश आया, अंधेरे को जाना पड़ता है। प्रकाश का एक दूसरा स्वरूप है परमात्मा, ईश्वरीय शक्ति। आप इसे जो भी रूप दें, लेकिन हमसे परे एक परम शक्ति होती ही है, जैसे ही उसका आगमन जीवन में होगा, अंधेरा मिटेगा, दुगरुण हटेंगे और हमारी ऊर्जा इस बात के लिए स्वतंत्र रहेगी कि उसका हम बढ़िया से बढ़िया सदुपयोग कर सकें। फिर यह ऊर्जा हमारे भौतिक जगत की सफलता के लिए भी खूब काम आएगी। परमात्मा को जगाने के लिए एक सरल तरीका है, उसके लिए जगह खाली कर दें। यह शून्य पैदा होता है मेडिटेशन से। विचार-शून्य हो जाएं, फिर देखें, आपकी ऊर्जा क्या कमाल दिखाएगी।

हमारी भक्ति प्लास्टिक के फूलों की तरह हो गई है
भक्ति में प्रार्थना का बड़ा महत्व है। प्रार्थना विधि नहीं, उपचार है। प्रार्थना भक्ति का प्राण है। भक्ति समग्र से कम पर संतुष्ट नहीं होती। प्रेम प्रार्थना का प्राथमिक रूप है। भक्त परमात्मा को कैसे याद करता है, नानक का उदाहरण देखें। उन्होंने अजपा जप किया था। हम जो कीर्तन और नृत्य करते हैं वह नकली प्लास्टिक के फूल जैसा है। घंटों राम-राम करते रहें, अभ्यास तो हो जाएगा पर बात ताजे फूल जैसी नहीं बनती।
प्लास्टिक के फूल सच्चे फूलों से भी अधिक सुंदर लगते हैं। प्रार्थना में प्रतीक्षा का धर्य भी समाया है। भक्त भगवान की प्रतीक्षा ऐसे करता है, जैसे कहीं ऊपर चढ़कर खिड़की में से या ऊंचे स्थान से झांका जाता है। ऊंचे जाने का अर्थ है, जैसे योगियों ने सात चक्र कहे हैं- वह सीढ़ी हमारे अंदर है। पहला - मूलाधार, इसमें सिर्फ कामवासना दिखाई पड़ती है। पुरुष को स्त्री, स्त्री को पुरुष, यह सबसे नीची सीढ़ी है।
इसके ऊपर दूसरा चक्र स्वाधिष्ठान। इसमें देह के साथ थोड़ा मन भी दिखेगा। तीसरा चक्र मणिपुर, जो नाभि में है। इसमें दूसरों की आत्मा दिखेगी। फिर चौथा चक्र अनाहत है, इसमें हृदय दिखेगा। यहीं से हम कामवासना से मुक्त होंगे। विशुद्ध चक्र तक आते-आते न देह, न मन, न आत्मा, बस हल्की-सी झलक परमात्मा की, क्षणभर दिखेगी। अंत में सहस्रार, आखिरी सीढ़ी है। इस पर खड़े होकर जो देखेगा, उसे परमात्मा के अलावा कुछ नहीं दिखेगा। प्रार्थना द्वारा अपनी ऊर्जा को नीचे से ऊपर उठाने की तैयारी रखें।

लापरवाही के कारण हाथ से फिसल न जाए सफलता
सफलता का एक सिद्धांत यह है कि या तो आप हालात को अपने अनुकूल बना लें या परिस्थितियों के अनुकूल बन जाएं। दोनों ही स्थितियों में संघर्ष भले ही हो, लेकिन सफलता सरलता से मिल जाती है। श्रीहनुमानचालीसा की बत्तीसवीं चौपाई है - राम रसायन तुम्हरे पासा। सदा रहो रघुपति के दासा।। इसकी दूसरी पंक्ति में एक शब्द आया है- सदा। आइए इन शब्दों को जीवन से जोड़कर देखें। हनुमानचालीसा में जिस रसायन की चर्चा हुई है और जो हनुमानजी के पास है, इसका अर्थ है सभी परिस्थितियों के अनुकूल रहना। इस रसायन का आध्यात्मिक संदेश यह है कि हमारा रहना इस प्रकार हो कि हम संसार में रहें, संसार हममें न रहे। सदा रहो रघुपति के दासा इसमें सदा शब्द महत्वपूर्ण है।
श्रीराम ने हनुमानजी को उनकी उपयोगिता, उनके समर्पण और भक्ति के कारण सदा अपने पास रहने का गौरव दिया है। श्रीराम का मानना है कि जाने कब, कौन-सी समस्या आ जाए। इसलिए समाधान हेतु श्री आंजनेय का साथ रहना ठीक है। प्रबंधन का सूत्र है कि यदि आप समाधान का हिस्सा नहीं हैं तो फिर आप स्वयं एक समस्या हैं। हनुमानजी का यह समाधानकारी चरित्र हमें जीवन तत्वों का सही उपयोग करते हुए व्यक्तित्व विकास की प्रेरणा देता है। परमात्मा की निकटता बड़ी उपलब्धि है। यह सदा रहनी चाहिए। ऐसा न हो कि आज सफल हुए, लापरवाही के कारण कल वह सफलता जीवन से फिसल जाए।

अदभुत है हमारी संस्कृति में हाथ जोड़ने की क्रिया

जब हर क्रिया जीवन से जुड़ जाए और उसके संदेश को ठीक से समझ लें तो वह क्रिया भी पूजा हो जाएगी। भारतीय संस्कृति में हाथ जोड़कर नमस्कार करने की क्रिया बड़ी अदभुत है। दोनों हाथ जोड़ने की क्रिया प्रार्थना में भी की जाती है। दुनिया के किसी और देश में ऐसी प्रथा शायद ही होगी। इसके पीछे एक परंपरा है, बोध है। दो हाथ, मनुष्य के भीतर जो द्वंद्व है उसका प्रतीक हैं। हाथ जोड़ना निर्द्वद्व अवस्था है। हाथ जुड़ गए तो समझ लें बुद्धि-हृदय, शरीर-आत्मा, जन्म-मृत्यु, सुख-दुख, यश-अपयश, सफलता-असफलता सब संयुक्त हो गए। यह भक्त और भक्ति की स्थिति है।
हमारी संस्कृति में राम मर्यादा में रहे, महावीर शांत रहे, बुद्ध गंभीर हुए हैं। कृष्ण ने इन सबका आचरण थोड़ा-थोड़ा अपनी लीला में उतारा। इसलिए भक्तों ने जो चाहा, चुना। कोई गीता में, कोई भागवत में, कोई बालकृष्ण में कृष्ण से जुड़ता गया। इन सब हस्तियों ने अपने-अपने समय में जो शांति उपलब्ध की है, वह हमें हाथ जोड़ने से मिल सकती है। 24 घंटे में कुछ समय हाथ जोड़ने की क्रिया जरूर करें। हाथ मिलाने में कोई बुराई नहीं, पर जो शांति हाथ जोड़ने से मिलेगी वह शायद मिलाने से न मिले। एकांत में बैठे हों तो हाथ जोड़ लें, आंखें बंद कर लें और थोड़ी देर कुछ न करें। अपने आप शरीर का रक्त संचरण एक ऐसे सर्किट में आएगा कि आप स्वयं को विनम्र व शांत पाएंगे। एक काम और किया जा सकता है जुड़े हुए हाथ हों और होठों से जरा मुस्कराइए...

परमात्मा से प्रार्थना करें कि जीवन में गुरु भेज दें
गुरु क्यों बनाए जाएं? गुरु जितना ज्ञान देता है, उससे अधिक वात्सल्य देता है। वात्सल्य शब्द का अर्थ है ऐसा प्रेम जो मां का अपने बच्चे के लिए होता है। हमारे यहां शिष्य परंपरा को माना गया है। चार प्रकार के शिष्य माने जाते हैं। पहला, विद्यार्थी जो कौतूहलवश गुरु के पास आता है। दूसरे शिष्य होते हैं साधक। विद्यार्थी में बौद्धिक कौतूहल होता है। विद्यार्थियों में से जो रुक जाते हैं, वे साधक हो जाते हैं। साधक केवल सुनता ही नहीं, समझता तथा जीवन में उसका उपयोग भी करता है। साधकों में से भी 50 प्रतिशत ही गुरु के पास रुकते हैं, बाकी चले जाते हैं। यह तीसरी सीढ़ी होती है जो शिष्य कहलाते हैं। ये लोग गुरु के अनुभव को जीवन के रस में उतार लेते हैं। शिष्य सद्गुरु की पहचान भी होता है।
शिष्य का अर्थ है समर्पित हो जाएं, किसी भी प्रकार की शंका न रहे। इनमें से भी 90 प्रतिशत फिर चले जाएंगे, 10 प्रतिशत रह जाएंगे और यह चौथी पहचान होगी, जिसे कहते हैं भक्त। गुरुओं ने इस क्रम से भक्त तैयार किए। रामकृष्ण परमहंस ने विवेकानंद जैसे भक्त तैयार किए थे। एक गुरु अपना विस्तार अपने शिष्य में इसी प्रकार करता है। इसलिए हमारे भीतर की योग्यता को यदि मुखरित करना है, प्रकाशित करना है तो गुरु का स्पर्श जरूरी हो जाता है, लेकिन सावधान रहें गुरु का चयन स्वयं न करें। परमात्मा से प्रार्थना करें कि जीवन में गुरु भेज दें।

कहीं ऐसा न हो कि आपकी उपलब्धि कोई और ले भागे
अधिक धन कमाने की लालसा में ज्यादातर लोग ये भूल जाते हैं कि वे जीवन गंवा रहे हैं। कम लोग होते हैं, जो धन भी कमा लेते हैं और जिंदगी भी बचा लेते हैं। जिंदगी ऐसा फूल है जिसमें यह संभावना है कि कांटे रहते हुए भी उसे कांटों से अलग किया जा सकता है। लेकिन हम कांटों के ऊपर फूल सजा लेते हैं और इस बात की शिकायत करते रहते हैं कि जिंदगी में बड़ी चुभन है। सांसारिक उपलब्धियां यदि होश के साथ जिंदगी में मिलें तो मजा कुछ और होगा। अध्यात्म में जिसे होश कहा गया है व्यावहारिक जीवन में उसे इच्छाशक्ति का नाम दिया गया है। दृढ़ इच्छाशक्ति हो तो भौतिक उपलब्धियां मिलेंगी ही।
अब इसे आध्यात्मिक दृष्टि से देखें कि यदि होश होगा तो हम दुगरुणों से स्वयं की रक्षा कर सकेंगे और जरूरतमंद लोगों के लिए काम कर सकेंगे। सांसारिक संघर्ष की कहानी इस तरह है जैसे दुनिया के रथ के पहियों से बंधे हम घिसटते जा रहे हैं। यदि हम पहियों में लिपट गए तो पहुंच तो जाएंगे, पर घिसटते हुए। अब यदि होश में हैं तो हम रथ पर सवार हो जाएंगे। दुनिया के रथ की सवारी करना जो सीख गया, वो उपलब्धियों को जीना भी सीख जाएगा। यदि होश में न रहे और भौतिक उपलब्धियां हासिल कर लीं तो फिर चूक होने की संभावना बनी रहेगी। दुनिया का हिसाब-किताब ऐसा है कि बिल्ली, कुत्ते, बंदर और ठग मौका आने पर झपटने को तैयार हैं। कहीं ऐसा न हो कि आपकी उपलब्धि कोई और ले भागे।

हमारे शब्द निजी मौलिकता के साथ प्रकट हों
मनुष्य तीन मार्गो से ताकतवर बनता है, पर इन्हीं मार्गो से अपनी ताकत खो भी देता है। ये तीन मार्ग हैं - शरीर, शब्द और मन। आज केवल शब्द की बात करें। शब्द ताकत देते भी हैं और लेते भी हैं। व्यर्थ की बकवास ताकत गिराने का आसान मार्ग है। वाचाल होना आपको उन मौकों पर थका देगा, जहां शक्ति की जरूरत होगी। इसीलिए शब्दों के क्षरण के प्रति सावधान रहें। सामान्य रूप से माना जाता है कि शब्द जीभ और कान का मामला है। पराये शब्द हम कान से ग्रहण करते हैं और अपने शब्दों को मस्तिष्क में लाकर जीभ से विसर्जित करते हैं। एक और तीसरा माध्यम आंख होती है।
पढ़कर भी शब्द ग्रहण किए जाते हैं। जिन्हें शब्दों की ताकत समझनी हो और बचाना हो, उन्हें एक मनोवैज्ञानिक प्रयोग करना चाहिए। जब किसी की बात सुनें तो केवल कान से न सुनें। आंखों को इतना जीवंत रखें जैसे किसी के शब्द सुन ही नहीं रहे, बल्कि पढ़ रहे हैं। इसी प्रकार ऐसे बोलें जैसे शब्द पहले पढ़े गए और फिर मुंह से निकाले गए। इससे आपकी प्रतिक्रिया दूसरों के शब्द और गतिविधि से संचालित नहीं होगी। जैसे धन के लिए लोगों को दौड़ता देख हम भी दौड़ने लगते हैं और भूल जाते हैं कि हमें धन इसलिए नहीं चाहिए कि दूसरों को भी चाहिए। हमारे पास अपना निजी उत्तर होना चाहिए कि हम क्यों दौड़ रहे हैं। इसी प्रकार दूसरे बोल रहे हैं, इसीलिए हमें बोलना है, ऐसा न करें। हमारे शब्द अपनी मौलिकता के साथ प्रकट हों।

क्रोध के हावी होने से पहले खुद उस पर सवार हो जाएं

कई लोग कार्य और व्यवसाय क्षेत्र में, सहकर्मियों, अधिकारियों से बड़े अच्छे संबंध रखते हैं, लेकिन परिजनों से न तो वैसे संबंध रख पाते हैं और न ही माहौल। अच्छे बॉस अपने घर में ही खराब नेतृत्व देने वाले पाए गए। क्योंकि हम हर रिश्ते को बाहर से जीने की कोशिश करते हैं। दुनिया का स्वभाव है, वह बाहर की ओर ही खींचती है। इस खिंचाव को थोड़ा रोकें और हर रिश्ते को भीतर जीने का प्रयास करें। लेकिन भीतर के रिश्ते वृत्तियों से चलते हैं। यदि आपने अपनी किसी भी वृत्ति से ठीक संबंध बना लिया, तो बाहर व्यक्तियों से भी संबंध मधुर और प्रेमपूर्ण होंगे ही। उदाहरण लें क्रोध से हमारे संबंधों का। क्रोध ऐसी वृत्ति है, जो आवश्यक बुराई जैसी है। अपने कार्यालय या घर में यदि कोई यह कोशिश करे कि क्रोध शून्य हो जाएं, तो आप अपना, अपनी व्यवस्था का और अपने परिवार तीनों का नुकसान करेंगे।
क्रोध से हमारे रिश्ते मालिक और नौकर जैसे होने चाहिए। इसमें मालिक हमें बनना है और गुलामी क्रोध से करवाना है। अभी अधिकांश मौकों पर उल्टा हो जाता है। क्रोध हमारा मालिक है। जब उसकी इच्छा होती है, वह आता है। यदि हम मालिक होंगे, तो उसे अपनी ही इच्छा से बुलाएंगे और बिदा करेंगे। जैसे ही क्रोध पर इस तरह का नियंत्रण हुआ, हमारी भीतरी बेचैनी, उथल-पुथल खत्म होगी और बाहर हम जिस किसी से भी रिश्ते रखेंगे, उसके मायने बदल जाएंगे। आध्यात्मिक जगत में इसे कहते हैं क्रोध का ज्ञान होना। जब हमारे भीतर ज्ञान उतरता है, तो हमारा करना अपने आप होने लगता है, हमें कुछ करना नहीं पड़ता। एक कुशल सवार घोड़े को थपथपाता है, पुचकारता है और उस पर सवारी कर लेता है। इसी तरह हमें भी क्रोध पर सवारी करना है, क्रोध हम पर सवार न हो। भीतर का हमारा यह संबंध बाहर के रिश्तों को बहुत ही गरिमामय, प्रेमपूर्ण और सम्मानजनक बना देगा।

परमात्मा के प्रसाद की तरह होती है गृहस्थी

गृहस्थी परमात्मा का प्रसाद होती है। इस विचार को जितनी परिपक्वता और पवित्रता के साथ जीवन में उतारा जाएगा, परिवार उतना ही शांत व सुखी होगा। आज परिवार अशांति के केंद्र और उपद्रव के अड्डे इसलिए बन गए हैं कि हम परिवार बसा तो लेते हैं, पर यह भूल जाते हैं कि इसका आधार क्या होना चाहिए? पिछले दिनों महाराष्ट्र के अमरावती नगर में संभवत: विश्व का सबसे बड़ा सामूहिक विवाह आयोजन हुआ। बाबा रामदेव इसकी प्रेरणा में थे। 3600 जोड़ों को और हजारों की संख्या में आए उनके रिश्तेदारों को इस अवसर पर संबोधित करते हुए संन्यास परंपरा के गौरव स्वामी सत्यमित्रानंदजी ने बड़ी सुंदर बात कही थी।
उन्होंने व्यक्त किया - हमने संन्यासियों के कुंभ तो बहुत देखे, लेकिन गृहस्थों का कुंभ आज पहली बार देखा। उनका इशारा था कि जब गृहस्थी में ब्रह्मचर्य और संन्यास का समावेश हो जाए तो ऐसे दांपत्य में वैकुंठ का सुख उतरेगा ही। ब्रह्मचर्य का अर्थ है ब्रह्म की चर्या यानी एक नैतिक अनुशासन, इसी की आज परिवारों में कमी पाई जाती है। संन्यास का अर्थ है तेरे भरोसे। मतलब यह कि परिवार को जितना परमात्मा के भरोसे रखेंगे, समस्याओं के हल उतनी ही सरलता से मिल जाएंगे। भारतवासियों के पास अपने परिवार बचाने के लिए अध्यात्म की बहुत बड़ी पूंजी है। इसलिए भारतीय परिवारों में सुख की संभावना शांति के साथ दुनिया के और देशों से अधिक है। बस, इसका उपयोग करना आना चाहिए।

भविष्य का सुख छिपा है ईश्वर के भजन में

जो लोग बहुत तनाव में काम करते हैं, उनके लिए भजन बड़े उपयोगी हैं। भजन सुनना और गाना उन्हें थोड़ा आराम पहुंचाएगा। हनुमानचालीसा की 33वीं चौपाई में तुलसीदासजी ने लिखा है- तुम्हरे भजन राम को पावै। जनम जनम के दुख बिसरावै।।
आपके भजन से प्राणियों को जन्म-जन्म के दुखों से छुटकारा दिलाने वाले भगवान श्रीराम की प्राप्ति हो जाती है। यहां यह बात आती है कि हनुमानजी के भजन रामजी को अच्छे क्यों लगते हैं? वास्तव में हनुमानजी संगीत के बहुत बड़े जानकार थे। सबसे बड़ी विशेषता थी कि कौन-सा भजन कब गाया जाए, कौन-सा राग कब लगाया जाए, इसमें वे बड़े दक्ष थे। तुलसीदासजी ने इस चौपाई में भजन शब्द लिखकर एक बड़ा संदेश दिया है। हनुमानजी सेवा का प्रतीक हैं। वे सतत् सक्रिय सेवक हैं।
श्रीराम की सेना और व्यवस्था में संभवत: सर्वाधिक दायित्व हनुमानजी को ही सौंपे गए थे। इसीलिए तुलसीदासजी ने भजन शब्द का उपयोग किया है। भजन गाए भी जाते हैं, गुनगुनाए भी जाते हैं और ठीक से संगीत जुड़ जाए तो इसमें नृत्य भी हो जाता है। व्यस्तता और काम के अत्यधिक दबाव के बाद भी हनुमानजी भजन से जुड़े हुए थे। हनुमानजी की भजन करने की शैली, मस्ती यदि हम भी अपनाएं तो केवल इस जन्म के नहीं, आने वाले जन्मों के भी दुख मिटेंगे। दुख हमारी एक समस्या है और जनम-जनम का अर्थ है आने वाला नया दिन। भविष्य का सुख भजन में छिपा है।

निरंतरता का अर्थ समझने पर काम दबंगता से होगा

विपरीत परिस्थितियों में विचलित न होना, संकट के समय धर्य रखना, विपत्ति में विवेक न खोना, इन विशेषताओं को शौर्य कहा जाता है। बुराइयों के विरुद्ध प्रतिशोध शौर्य माना गया है। स्वाभिमान, धर्म और राष्ट्रहित के लिए जो कार्य किए जाएं, वह शौर्य की श्रेणी में आते हैं। इस छोटे से शब्द ‘शौर्य’ के लिए अभ्यास की आवश्यकता है। साहसी को सतत अभ्यास करना पड़ता है। निरंतर अभ्यास ही आपको शौर्यवान बनाएगा। इसीलिए जीवन में निरंतरता का बड़ा महत्व है। निरंतरता के अभ्यास के लिए हमारे साधु-संतों ने एक छोटी-सी विधि बताई है।
सूफी फकीरों ने कहा है - अल्लाह के नाम को जितनी बार लेंगे, उतना मजा बढ़ता जाएगा। साधु-संतों ने इसे ही आनंद कहा है। नाम जप की पुनरावृत्ति हमारे पूरे अस्तित्व को प्रेम से लबालब कर देती है। हर सांस जब नाम से जुड़ जाती है तो हर कृत्य शौर्यपूर्ण होता है। इसलिए जिन्हें संसार में साहसिक कार्य करना हो, उन्हें अपने भीतर निरंतर जप का अभ्यास बनाए रखना चाहिए। लेकिन ध्यान रखें, इस अभ्यास को यांत्रिक न बनाएं। इसे श्रद्धा और निष्ठा से जिया जाए। अभ्यास इस तरह से हो, जैसे हम नहीं कर रहे, वह हो रहा है। लगातार इस बात को अपने भीतर उतारें। नाम जप का काम प्रथम हो और करने वाले हम द्वितीय। जब ऐसा होने लगता है तो पूरा व्यक्तित्व शौर्यपूर्ण हो जाता है। हर काम दबंगता के साथ पूरा होगा, क्योंकि हम निरंतरता के अर्थ समझ चुके होंगे।

क्रमश:...

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK

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