Actual knowledge(वास्तविक ज्ञान )
कनखल के समीप गंगा किनारे महर्षि भारद्वाज और महर्षि रैभ्य के आश्रम थे। दोनों में मित्रता थी। रैभ्य और उनके दोनों पुत्र परम विद्वान् थे तथा लोक में सम्मानित भी। भारद्वाज तपस्वी थे, किन्तु अध्ययन में रूचि न थी। भारद्वाज के पुत्र यवक्रीत भी पिता की भांति अध्ययन से दूर रहे। जब उन्होनें रैभ्य और उनके पुत्रों की ख्याति देखि, तो वैदिक ज्ञान प्राप्त करने की कामना से उन्होनें उग्र तप प्रारंभ कर दिया। देवराज इन्द्र जब उपस्थित होकर कथूर तप का कारण पूछा, तो यवक्रित ने कहा - गुरु के मुख से वेदों की सम्पूर्ण शिक्षा शीघ्रता से नहीं पाई जा सकती। अतः कठोर तप से शास्त्र ज्ञान पाना चाहता हूं। इंद्र ने सलाह दी, यह उलटा मार्ग है, आप योग्य गुरु के सान्निध्य में अध्ययन कर शास्त्र ज्ञान प्राप्त करें। इंद्र चले गए, किन्तु यवक्रित ने भी तप जारी रखा। एक दिन इंद्र वृद्ध ब्राह्मण के वेश में उस स्थान पहुंचे, जहां से यवक्रित गंगा में स्नान के लिए उतरते थे। यवक्रित जब स्नान कर लौटे, तो देखा वृद्ध ब्राह्मण मुट्ठी भर-भरकर गंगा में रेत डाल रहा है।
यवक्रित ने कारण पूछा तो वृद्ध ब्राह्मण ने उत्तर दिया - लोगों को यहां गंगा के उस पार जाने में असुविधा होती है, अतः मैं इस रेत से नदी पर सेतु निर्माण कर रहा हूं। यवक्रित ने कहा - भगवन! इस महाप्रवाह को बालूरेत बांधना असंभव है। आप निष्फल प्रयत्न कर रहे है। तब वृद्ध ब्राह्मण ने यवक्रित से कहा - ठीक उसी तरह तुम उग्र तप से गुरु के बगैर वैदिक ज्ञान प्राप्त करना चाहते हो। तत्काल यवक्रित ने ब्राह्मण को पहचान लिया। यवक्रित ने इंद्र से क्षमा मांगी और स्वीकारा कि गुरु के बगैर ज्ञान असंभव है। विशेषकर यदि उसमे हठ और अंहकार है, तब तो वह सम्भव हो ही नहीं सकता। विद्या के लिए गुरु कि कृपा और निरन्तर अध्ययन अनिवार्य है। यदि कोई हठ कर स्वयं ही विद्या प्राप्त करने का प्रयास करे तो उसके प्रयास निष्फल होने का खतरा बना रहता है। अतः गुरु कृपा की अनदेखी नहीं करनी चाहिए।
केवल, और केवल गुरु का ही कार्य है कि वह शिष्य को उचित ज्ञान प्रदान करें। शास्त्रों में जप-तप-भजन-ध्यान-धारणा, सब का विवेचन आया है, लेकिन अन्ततः निष्कर्ष यही निकलता है कि गुरु के श्रीमुख से प्राप्त ज्ञान ही वास्तविक ज्ञान होता है और उसी ज्ञान से भौतिक जीवन में तथा आध्यात्मिक जीवन में सिद्धि प्राप्त हो सकती है। केवल गुरु ही शिष्य के नेत्रों में ज्ञान की शलाका से अज्ञान का अन्धकार दूर कर सकते है। पुस्तकें तो लाखों है, चार वेद, छः वेदान्त, अठारह पुराण, १०८ उपनिषद् तथा हजारों मिमांसाएं हैं लेकिन सदगुरू के श्रीमुख से निकला हुआ एक वचन ही सब से भारी है।
ब्रह्मानन्दं परम सुखदम
सदगुरू को यही शब्द बोलकर नमस्कार किया जाता है। इस गुरु प्रणाम में गुरुदेव को पूर्ण आनंद और परम सुख प्रदान करने वाला कहा जाता है, क्योंकि गुरु रुपी भगवान् अथवा गुरुदेव में अधिष्ठित शिव अपनी क्रिया शक्ति द्वारा अर्थात दीक्षा द्वारा शिष्य के चक्षुओं के आगे फैले विकारों का, दोषों का नाश करते हैं, जिससे उसका पशुत्व दूर होकर शिष्यत्व आ सके - और जब वह शिष्यत्व शिष्य में समा जाता है, तभी वह अपना मार्ग समझ सकता है, उसके दिव्य ज्ञान रूपी चक्षु खुल जाते हैं।
जिस प्रकार सूर्य की रश्मियों से ही चन्द्रमा में प्रकाश है और वह प्रकाशवान दिखाई देता है ... जबकि यह दृश्य प्रत्यक्षतः स्पष्ट दिखाई नहीं देता है कि सूर्य का प्रकाश चन्द्रमा पर और अन्य तारा मंडल पर पड़ रहा है और वे उसी से जगमगा रहे है ... यह सब अदृश्य रूप से होता है और यह बात ध्रुव सत्य है ... ठीक ऐसा ही शिष्य का जीवन भी होता है। गुरु के श्रीमुख से प्राप्त ज्ञान द्वारा ही वह प्रकाशवान अर्थात ज्ञानवान, शास्त्र ज्ञाता हो सकता है। इसके लिए सदगुरू रुपी प्रकाशपुंज आवश्यक है जो अपनी रश्मियों का एक छोटा सा भाग देकर उसे प्रकाशवान बनाते है। केवल शास्त्रों के पठन से ज्ञान प्राप्त नहीं होता है।
कौशल
नये साल की शुरुआत पॉजिटिव थिंकिग के साथ
सक्सेस केवल मेहनत से नहीं मिलती, इसके लिए पॉजिटिव नजरिया भी होना चाहिए। कई लोग थोड़ी सी परेशानियों से घबरा जाते हैं, जब संकट आता है तो यह मानकर की सारी मेहनत बेकार गई, वे निराश होकर बैठ जाते हैं। सफलता उन्हें मिलती है जो कभी निराश नहीं होते, परेशानी और मुसीबत में भी अपने लिए कुछ पॉजिटिव ही तलाशते हैं। जो चुनौतियों स्वीकार करते हैं और उन चुनौतियों को पूरा करने में पूरे मन से लग जाते हैं, सफलता उन्हें जल्दी मिल जाती है।
एक बार नारद मुनि धरती पर घूमते हुए एक जंगल में पहुंचे। वहां उन्होंने एक अजीब नजारा देखा एक साधु एक पैर पर खड़ा होकर तपस्या कर रहा है, दूसरी ओर एक ग्वाला पेड़ के नीचे बैठकर बांसुरी बजा रहा है। नारद को देखकर दोनों उनके पास आ गए। साधु ने नारदजी से कहा भगवन आप तो सारे लोकों में घूमते हैं, क्या आप मेरा एक काम करेंगे? नारदजी ने कहा बताओ, साधु ने कहा मैं कई सालों से तपस्या कर रहा हूं क्या आप भगवान विष्णु से पूछकर बता सकते हैं कि मुझे मोक्ष कब मिलेगा? नारद ने कहा ठीक मैं अभी पूछकर आता हूं। तभी ग्वाले ने भी उनसे कहा अब आप जा ही रहे हैं तो मेरे बारे में भी पूछ लेना कि मुझे कब मोक्ष मिलेगा। नारदजी अंतध्र्यान हो गए।
थोड़ी देर बाद लौटे उन्होंने साधु से कहा मैंने नारायण से पूछा है, तुम्हें चालीस जन्मों के बाद ही मोक्ष मिल जाएगा। साधु निराश होकर बैठ गए। सारी तपस्या बेकार गई। बरसों बीत गए और कई सदियां और लग जाएंगी अभी। ग्वाले ने पूछा मुझे कब मोक्ष मिलेगा। नारद जी बोले अभी तुम्हें तीन सौ बार और जन्म लेना पड़ेगा। ग्वाला झूमने लगा, मेरे इतने ही जन्म और होंगे, मैं इतने समय तक और भजन कर सकूंगा, इस लोक के सुख भोग फिर भगवान मुझे अपनी सेवा में बुला लेंगे। नारद ने देखा तभी एक दिव्य वाहन वैकुंठधाम से आया, भगवान विष्णु के दूतों ने ग्वाले को उस विमान में बिठाया और अपने साथ ले।
खुद पहचाने अपने हुनर को
हर इंसान के अन्दर कोई न कोई खूबी जरूर होती है जिसे अगर वह सही जगह पर इस्तेमाल करे तो उसका जीवन सफल बन सकता है लेकिन इसके लिए सबसे ज्यादा जरूरी है खुद के उस हुनर को पहचानना।
एक बार की बात है। एक बाप अपने तीन बेटों में संपत्ति बांटना चाहता था लेकिन वह समझ नहीं पा रहा था कि तीनों में से किस बेटे को अपनी जायदाद दे। तीनों जुड़वा थे उम्र से भी तय नहीं किया जा सकता है। उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था। तो उसने फकीर से सलाह ली। फकीर ने उसे एक तरीका बताया । उसने बेटों से कहा मैं तीर्थ यात्रा पर जा रहा हूं और बेटों को उसने कुछ बीज दिए और कहा कि इन बीजों को सम्हाल कर रखना। उसके बाद उनके पिता तीर्थ पर चले गए उसके बाद लम्बे समय के बाद लौटे। वे एक-एक कर तीनों के घर गए। पहले बेटे के घर पहुंचे। पहले बेटे से उन्होंने पूछा बेटा मैंने जो तुम्हे बीज दिए थे उसका तुमने क्या किया? उसने कहा पिताजी कौन से बीज मुझे तो याद ही नही। पिता ने उसे कुछ भी नहीं कहा। उसके बाद पिता ने अपने दूसरे बेटे के घर जाकर भी यही प्रश्र किया। उसने अपनी तिजोरी की चाबी पिता को दे दी और कहा मैंने आपकी अमानत को तिजोरी में सम्हाल कर रखा है। पिता को फिर निराशा हुई। अब वे तीसरे बेटे के पास गए और वही प्रश्र दोहराया। उसने कहा पिताजी आप को मेरे साथ कहीं चलना होगा। दोनों थोड़ी दूर चले और सामने एक बगीचा था। पुत्र ने कहा पिताजी ये रहे आपके बीज। पिता का दिल खुशी से झुम उठा और उसने खुश होकर अपनी सारी जायदाद अपने तीसरे बेटे के नाम कर दी। परमात्मा ने हर किसी को हुनर दिया है, सभी को समान शरीर दिया है और संभावनाएं भी। पर फर्क सिर्फ इस बात से पड़ता है कि आप किसी मौके में या अपने आप में कितनी संभावनाऐ देखते है और आप मौका हो या शरीर कितनी बेहतर तरीके से उसका उपयोग करते हैं। पिता ने अपने तीनों बेटों को समान बीज दिए थे पर तीनों ने उसका अपने ढंग से उपयोग किया। वैसे ही परमात्मा ने हम सभी को जीवन और अपने स्तर की संभावनाएं दी हैं। बस सब कुछ इसी पर टिका है कि हम उसका उपयोग कैसे करते हैं किस्मत स्वभाव कामयाबी सबको जलन छुरी गुण अच्छा सक्सेस दान जिदंगी निर्मल मन समर्पण मुसीबत सीख परिवर्तन इकठ्ठा
कोई भी काम मुश्किल नहीं अगर...
इंसान अगर मन में ठान ले तो वह एवरेस्ट की ऊंचाई को भी छू सकता है लेकिन आज का युवा एक छोटी सी नाकामयाबी से अपनी हार मान लेता है। आज अगर वह अपने मन को पक्का कर अपनी मंजिल के बारे में सोचे तो उसकी जीत निश्चित हो जाती है।
हेनरी दूरविंग अपने समय के एक प्रसिद्ध हॉलीवुड स्टार थे। अपनी एक्टिंग के जरिए उन्होंने हॉलीवुड में धूम मचा रखी थी वे अपने करियर में इतने व्यस्त थे कि उनके पास न अपने लिए फुरसत थी न परिवार के लिए । हेनरी दिन रात मेहनत करते रहते और अपने किरदारों को बड़ी अच्छे तरीके से निभाते। लेकिन धीरे धीरे उनकी तबियत खराब होने लगी और बीमार रहने लगे। हेनरी की तबियत दिनों दिन बिगड़ रही थी लेकिन उनका अभिनय प्रेम कम नहीं हुआ डॉक्टरों ने उन्हें आराम करने की सलाह दी। लेकिन हेनरी नहीं माने उन्हें तो बस एक्टिंग की धुन सवार थी और अच्छे से अच्छा रोल करने के लिए हमेशा तैयार रहते। एक बार डॉक्टरों ने हेनरी को चेतावनी देते हुए कहा कि उन्हें अपनी एक्टिंग बन्द कर देनी चाहिए और आगे कोई अभिनय न करे नहीं तो उनकी जान को खतरा हो सकता है।
अगले ही दिन हेनरी ने एक अविस्मरणीय अभिनय किया जिसे लोग आज भी याद करते है। कथा का सार बताता है कि अगर मन की शक्ति मजबूत हो तो इंसान कुछ भी कर सकता है। अगर मन में ठान ले तो मंजिल जरूर मिलती है।
क्या देखा है आने वाला कल...?
काम टालने की आदत, या कल कर लेंगे का भाव हमें केवल आलसी ही बनाता है। हकीकत यही है कि जो कुछ किया जाए वह आज ही हो। भविष्य में क्या होने वाला है किसी ने नहीं जाना। कोई भी बात कल पर टालने से पहले यह सोच लें कि क्या वाकई कल वही होगा जैसा आप चाह रहे हैं। तरक्की आज का सारा काम आज ही पूरा करने में है न कि कल पर टालने में।
महाभारत युद्ध के बाद हस्तिनापुर पर पांडवों का राज हो गया था। राजा युधिष्ठिर कुशलता से प्रजा का पालन कर रहे थे, चारों भाई भी उनकी खूब मदद करते थे। राजा युधिष्ठिर ने रोजाना सुबह प्रजा के जरूरतमंदों और ब्राह्मणों को दान देने का समय तय कर रखा था। एक दिन युधिष्ठिर रोज की तरह दान देकर निवृत्त हुए और सभा की ओर जाने लगे। तभी एक गरीब व्यक्ति दान के लिए आ खड़ा हुआ। उसने युधिष्ठिर से याचना की, युधिष्ठिर ने विनम्रता से हाथ जोड़कर याचक से कहा भैया अभी दान का समय खत्म हो गया, आप कल आइए, आपको मनचाही वस्तु दान की जाएगी। गरीब जाने लगा, तभी भीम जोर-जोर से ताल ठोंककर जय हो, धर्मराज युधिष्ठिर की जय हो, चिल्लाने लगे। युधिष्ठिर की समझ में नहीं आया। उन्होंने प्रेमवश भीम से पूछा भैया ऐसे क्यों चिल्ला रहे हो। भीम ने कहा भ्राताश्री आपने तो काल को जीत लिया है। आपकी जीत की खुशी में जयकारे लगा रहा हूं। युधिष्ठिर की समझ में नहीं आया तो उन्होंने पूछा मैंने कैसे काल को जीत लिया, काल तो सर्वथा अजेंय है। भीम ने कहा आपने उस गरीब को कल बुलाया है, यानी आप जानते हैं कि कल वो गरीब रहेगा, आप भी राजा ही रहेंगे। वो भी जीवित रहेगा और आप भी। युधिष्ठिर को तत्काल अपनी गलती समझ आ गई। उसने उस गरीब को बुलवाया और मनचाहा दान दिया। उसके बाद युधिष्ठिर ने नियम बना लिया कि जो भी काम आज किया जा सकता है उसे कल पर नहीं टालेंगे क्योंकि कल क्या होगा किसी को नहीं पता।
ताकि आप का नाम हो रोशन
आजकल माता पिता की एक मूल समस्या है कि उनके बच्चे का जीवन बेहतर कैसे बनाया जाए वे चाहते है कि उनके बच्चों को जीवन में कोई कमी न रहे इसलिए वे हमेशा उनके लिए सुख सुविधाऐं जुटाते रहते हैं लेकिन फिर भी इन्ही सुविधाओं के चलते वे उन्हें वे संस्कार देना भूल जाते है जो उनके बच्चों के जीवन के लिए सबसे ज्यादा जरूरी होते है। इसलिए देख जाता है कि ऐसे बच्चे अपने पतन का कारण खुद बनते हैं
महाभारत में 100 कौरवों का जन्म और पालन राजमहल में सुख सुविधाओं के बीच हुआ लेकिन दुर्योधन हो या उसके बाकी 99 भाई उनमें से कोई भी संस्कारवान नहीं था। सभी अय्याश और लालची थे वे इतने बुरे थे कि अपने ही भाई पाण्डवों के खिलाफ उन्होंने ने कई षडय़ंत्र रचे इसके विपरीत पाड़वों जन्म जंगल में हुआ उनके बचपन का एक बड़ा समय उन्होंने जंगल में काटा उन्हैं कोई सुख सुविधाऐं नहीं मिली लेकिन फिर भी पांचों भाई ज्ञानी धर्म का पालन करने वाले विनम्र स्वभाव एवं नीतियों को मानने वाले थे इसके पीछे कारण बस इतना था कि उनकी माता कुन्ती ने सुविधाओं की जगह उनके संस्कारों पर अधिक ध्यान दिया।
बड़ा बनना है तो माफ करना सीखो
दुनिया में सबसे बड़ा दान होता है क्षमादान कहते हैं कि यह एक ऐसा दान है जिसके आगे बड़े से बड़ा आदमी भी झुक जाता है। किसी कि गलती पर उसे माफ कर भूल जाना ही आपके बड़प्पन को बताता है।
महात्मा बुद्ध उपदेश दे रहे थे- क्रोध एक प्रकार की अग्नि है, जिसमें उसे धारण करने वाला स्वयं ही जलता है। उस अग्नि से वह दूसरे को जलाने से पूर्व स्वयं ही बहुत कुछ जल जाता है।बुद्ध का उपदेश एक अत्यंक क्रोधी व्यक्ति भी सुन रहा था। उसे क्रोध के विरुद्ध बुद्ध का यह उपदेश तनिक भी अच्छा नहीं लग रहा था। इसलिए वह खड़ा होकर कहने लगा- अरे पाखंडी। तू बड़ी-बड़ी बातें करता है। इन पर अमल करके भी बता। लोगों के व्यवहार के विरुद्ध बाते बताते शर्म नहीं आती?उसकी बातें सुनकर भी बुद्ध शांत रहे। यह देखकर वह और अधिक गुस्से से भर उठा। उसने उनके पास आकर उनके मुंह पर थूक दिया।बुद्ध ने अपना चेहरा पोंछा और उससे पूछा- तुम्हें और क्या कहना है? वह बोला- मैं कुछ कह रहा हूं। बुद्ध ने कहा- हां, तुम्हारा इस प्रकार का व्यवहार तुम्हारी घृणा को प्रकट कर रहा है। वह व्यक्ति और अपशब्द कहते हुए वहां से चला गया।
अगले दिन बुद्ध दूसरे गांव में चले गए। अब तक उस व्यक्ति का क्रोध शांत हो चुका था और उसे पश्चाताप हो रहा था। वह बुद्ध को खोजते हुए उस गांव में आया और उनके पैरों में गिरते हुए बोला- मुझे मॉफ कीजिए मैंने कल आपके साथ बहुत बुरा व्यवहार किया। बुद्ध ने उससे पूछा- क्या हुआ? कौन हो तुम? क्रोधी चौंककर बोला आप भूल गए? मैं वहीं दुष्ट हूं, जिसने कल आप पर थूका था। बुद्ध ने हंसकर कहा- कल को तो मैं कल ही छोड़ आया हूं। हर बड़ी बात या घटना को याद रखा जाएगा तो जीवन और भविष्य दोनों ही ठहर जाएंगे।यह प्रसंग शिक्षा देता है कि हमें धरती की तरह क्षमाशील होना चाहिए। इससे सारा संसार हमारी महानता को स्वीकार कर खुद-ब-खुद हमारे कदमों में झुक जाएगा।
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती
जो लोग जीतने की इच्छा को मन में बैठाकर लगातार कोशिश करते हैं उन्हें एक न एक दिन जीत जरूर मिलती है वास्तव में लगातार कोशिश करना ही सफ लता की कुंजी है। और जो असफलता से हार कर निराश हो जाते हैं उनसे सफलता कोसों दूर रहती है।
कर्म पुराण की एक कथा के अनुसार मध्य भारत के किसी प्रांत के एक राजा ने इस बार पूरी तैयारी से शत्रु सेना पर हमला किया। घमासान युद्ध हुआ। राजा और उसके सैनिक बहुत ही वीरता से लड़े, किंतु सातवीं बार भी हार गए। राजा को अपने प्राणों के लाले पड़ गए। वह अपनी जान बचाकर भागा। भागते-भागते घने जंगल में पहुंच गया और एक स्थान पर बैठकर सोचने लगा कि सात बार हार चुकने के बाद अब तो शत्रु से अपना राज्य फिर से प्राप्त करने की कोई आशा ही नहीं रह गई है। अब मैं इसी जंगल में रहकर एकांत जीवन बिताऊंगा। जीवन में अब क्या शेष रह गया है।इन्हीं निराशाजनक विचारों में खोया राजा थकान के मारे सो गया।
जब काफी देर बाद उसकी नींद खुली, तो सामने देखा कि उसकी तलवार पर एक मकड़ी जालाबना रही है। वह ध्यान से यह दृश्य देखने लगा। मकड़ी बार-बार गिरती और फिर से जाला बनाती हुई तलवार पर चढऩे लगती है। इस तरह वह दस बार गिरी और दसों बार पुन: जाल बनाने में जुट गई। तभी वहां एक संत आए और राजा की निराशा जानकर बोले देखों राजन। मकड़ी जैसा छोटा सा जीव भी बार-बार हारकर निराश नहीं होता। युद्ध हारने को हार नहीं कहते बल्कि हिम्मत हारने को हार कहते हैं।तुम फिर से प्रयास करों। अपने सैनिकों को इकठ्ठा कर, उनमें नया जोश भरकर युद्ध करो, देखना, इस बार जीत तुम्हारी होगी। राजा ने वैसा ही किया और इस बार वह जीत गया।
कथा का सार यह है कि असफलता पर निराश होकर बैठ जाने की जगह पर लगातार कोशिश करनी चाहिए। इससे एक दिन अवश्य ही सफ लता मिलती है। इसलिए कहते हैं कि कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।
अगर फर्ज को निभाओगे मन से...
आज के समय में यह एक आम समस्या है कि जब भी किसी व्यक्ति को कोई काम या जिम्मेदारी दी जाती है तो वे कुछ न कुछ शिकायत करते ही रहते हैं। जीवन में किसी भी काम को पूरा करने के लिए लगन के साथ साथ समर्पण भाव का होना बड़ा जरूरी है। अगर व्यक्ति बिना शिकायत अपनी जिम्मेदारी को निभाए तो निश्चित ही अच्छे परिणाम सामने होंगे। और ईश्वर भी ऐसे लोगों का साथ जरूर देते हैं।
बहुत पुरानी बात है, एक राज्य में जोरदार बारिश के कारण नदी में बाढ़ आ गई। सारा नगर बाढ़ की चपेट में आ गया। लोग जान बचाकर ऊंचे स्थानों की ओर भागे। बहुत से लोगों की जान गई। राज्य का राजा परेशान हो उठा। एक पहाड़ी से उसने नगर का नजारा देखा। सारा नगर पानी में डूब चुका था। राजा ने अपने मंत्रियों से बचाव कार्य पर चर्चा की। पंडितों को बुलाया गया। किसी भी तरह से बाढ़ का पानी नगर से निकाला जाए, बस सबको यही चिंता थी। राजा ने सिद्ध संतों से पूछा क्या कोई ऐसी विधि है जो नदी को उल्टा बहा सके, जिससे बाढ़ का पानी निकल जाए। पंडितों ने कहा ऐसी कोई विधि नहीं है।
तभी वहां एक वेश्या आई, उसने राजा से कहा वह नदी को उल्टी बहा सकती है। राजा को हंसी आ गई। मंत्रियों और ब्राह्मणों ने उसे दुत्कार दिया, जहां बड़े-बड़े सिद्ध पुरुष हार मान गए, वहां तू क्या है।वेश्या ने राजा से कहा मुझे एक बार अवसर तो दें। राजा ने सोचा जहां इतने लोग कोशिशें कर रहे हैं, यह भी कर तो बुराई ही क्या है। राजा ने उसे आज्ञा दे दी। वेश्या ने आंखें बंद कर थोड़ी देर कुछ बुदबुदाया। वह ध्यान की स्थिति में ही बैठी रही, तभी अचानक चमत्कार हो गया। नदी का बहाव उलटी दिशा में लौटने लगा और देखते ही देखते, सारा पानी बह गया। संकट टल गया। राजा ने उस वेश्या के पैर पकड़ लिए। उससे पूछा ऐसी सिद्धि तुझमें कहां से आई? वेश्या ने कहा यह मेरी गुरु की शिक्षा का असर है। जिस महिला ने मुझे इस निंदित कार्य में धकेला था, उसने मुझे एक शिक्षा दी थी कि शायद भगवान ने तुझे इसी कार्य के लिए बनाया है। तू कभी अपनी किस्मत को मत कोसना। जो भी जिम्मेदारी हो उसे हमेशा पूरे मन से निभाना। और मैंने यही किया। मैंने कभी भगवान से शिकायत नहीं की, न ही किस्मत को कोसा। मेरा कर्तव्य ही मेरी तपस्या बन गया और मैंने आज भगवान से उस तपस्या का फल मांग लिया।
किस्मत ही तय करती है आपके कर्म
कर्मवादी लोग कहते हैं भाग्य कुछ नहीं होता, भाग्यवादी लोग कहते हैं किस्मत में लिखा ही होता है, कर्म कुछ भी करते रहो। भाग्यवादी और कर्मवादी लोगों की यह बहस कभी खत्म नहीं हो सकती। लेकिन यह भी सत्य है कि भाग्य और कर्म दोनों के बीच एक रिश्ता जरूर है। कर्म से भाग्य बनता है या भाग्य से कर्म करते हैं लेकिन दोनों के बीच कोई खास रिश्ता जरूर होता है।
भाग्य और कर्म के बीच के इस रिश्ते को समझने के लिए यह कथा बहुत ही अच्छा उदाहरण हो सकती है। कहते हैं एक बार ऋषि नारद भगवान विष्णु के पास गए। उन्होंने शिकायती लहजे में भगवान से कहा पृथ्वी पर अब आपका प्रभाव कम हो रहा है। धर्म पर चलने वालों को कोई अच्छा फल नहीं मिल रहा, जो पाप कर रहे हैं उनका भला हो रहा है। भगवान ने कहा नहीं, ऐसा नहीं है, जो भी हो रहा है, सब नियती के मुताबिक ही हो रहा है। नारद नहीं माने। उन्होंने कहा मैं तो देखकर आ रहा हूं, पापियों को अच्छा फल मिल रहा है और भला करने वाले, धर्म के रास्ते पर चलने वाले लोगों को बुरा फल मिल रहा है। भगवान ने कहा कोई ऐसी घटना बताओ। नारद ने कहा अभी मैं एक जंगल से आ रहा हूं, वहां एक गाय दलदल में फंसी हुई थी। कोई उसे बचाने वाला नहीं था।तभी एक चोर उधर से गुजरा, गाय को फंसा हुआ देखकर भी नहीं रुका, उलटे उस पर पैर रखकर दलदल लांघकर निकल गया। आगे जाकर उसे सोने की मोहरों से भरी एक थैली मिल गई। थोड़ी देर बाद वहां से एक वृद्ध साधु गुजरा। उसने उस गाय को बचाने की पूरी कोशिश की। पूरे शरीर का जोर लगाकर उस गाय को बचा लिया लेकिन मैंने देखा कि गाय को दलदल से निकालने के बाद वह साधु आगे गया तो एक गड्ढे में गिर गया। भगवान बताइए यह कौन सा न्याय है।
भगवान मुस्कुराए, फिर बोले नारद यह सही ही हुआ। जो चोर गाय पर पैर रखकर भाग गया था, उसकी किस्मत में तो एक खजाना था लेकिन उसके इस पाप के कारण उसे केवल कुछ मोहरे ही मिलीं।वहीं उस साधु को गड्ढे में इसलिए गिरना पड़ा क्योंकि उसके भाग्य में मृत्यु लिखी थी लेकिन गाय के बचाने के कारण उसके पुण्य बढ़ गए और उसे मृत्यु एक छोटी सी चोट में बदल गई। इंसान के कर्म से उसका भाग्य तय होता है। अब नारद संतुष्ट थे।
स्वभाव से होता है इंसान बड़ा
इंसान के बडे छोटे होने में उसके स्वभाव का बड़ा हाथ होता है। विनम्रशील व्यक्ति भले ही पद में छोटा या गरीब हो फिर भी वह अपने नम्र स्वभाव से अपने बडप्पन का परिचय दे देता है। एक बार महात्मा एक नगर में पधारे। राजा के मंत्री ने राजा से कहा कि हमारे नगर में परम ज्ञानी संत पधारे है हमें चलकर उनका स्वागत करना चाहिए। लेकिन राजा के मन सत्ता का घंमड था वह मंत्री से बोला कि मैं राजा हूं और सभी मुझसे मिलने आते हैं बुद्ध को अगर मुझसे मिलना है तो वे खुद यहां आएगें मंत्री राजा को समझाते हुए बोला संत पुरुष जनता के लिए श्रद्धा के पात्र होते हैं इसलिए वह राजा से भी ऊपर होते हैं। अत: उनका आदर सम्मान करना हमारा फर्ज है। राजा ने कहा कि मैं जनता का गुलाम नहीं हूं मैं वही करूगा जो मुझे अच्छा लगेगा। तब मंत्री ने राजा को अपना इस्तीफा देते हुए कहा कि आपमें बडप्पन नहीं है मैं आपकी सेवा नहीं कर सकता। राजा ने मंत्री से कहा कि मै राजा हूं और राजा बडा होता हैं अपने बडप्पन के कारण ही मैं बुद्ध से मिलने नहीं जा रहा हूं। मंत्री बोला आप अपने घंमड को अपना बडप्पन मत समझिए महात्मा बुद्ध भी सम्राट शुद्धोधन के बेटे थे लेकिन धर्म की रक्षा के लिए उन्होने राज्य त्याग कर भिक्षु बनना स्वीकार किया। इतना सुनकर राजा को अपनी गलती का एहसास हुआ और वह तुरंत राजगणों के साथ महात्मा बुद्ध का स्वागत करने पहुंचा।कथा का अर्थ है कि विनम्रता ही इंसान को बड़ा और महान बनाती है। जो व्यक्ति पद और माया का घमंड करता है वह कभी सम्मान नहीं
पाता।
खुद पहचाने अपने हुनर को
हर इंसान के अन्दर कोई न कोई खूबी जरूर होती है जिसे अगर वह सही जगह पर इस्तेमाल करे तो उसका जीवन सफल बन सकता है लेकिन इसके लिए सबसे ज्यादा जरूरी है खुद के उस हुनर को पहचानना।
एक बार की बात है। एक बाप अपने तीन बेटों में संपत्ति बांटना चाहता था लेकिन वह समझ नहीं पा रहा था कि तीनों में से किस बेटे को अपनी जायदाद दे। तीनों जुड़वा थे उम्र से भी तय नहीं किया जा सकता है। उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था। तो उसने फकीर से सलाह ली। फकीर ने उसे एक तरीका बताया । उसने बेटों से कहा मैं तीर्थ यात्रा पर जा रहा हूं और बेटों को उसने कुछ बीज दिए और कहा कि इन बीजों को सम्हाल कर रखना। उसके बाद उनके पिता तीर्थ पर चले गए उसके बाद लम्बे समय के बाद लौटे। वे एक-एक कर तीनों के घर गए। पहले बेटेे के घर पहुंचे। पहले बेटे से उन्होंने पूछा बेटा मैंने जो तुम्हे बीज दिए थे उसका तुमने क्या किया? उसने कहा पिताजी कौन से बीज मुझे तो याद ही नही। पिता ने उसे कुछ भी नहीं कहा। उसके बाद पिता ने अपने दूसरे बेटे के घर जाकर भी यही प्रश्र किया। उसने अपनी तिजोरी की चाबी पिता को दे दी और कहा मैंने आपकी अमानत को तिजोरी में सम्हाल कर रखा है। पिता को फिर निराशा हुई। अब वे तीसरे बेटे के पास गए और वही प्रश्र दोहराया। उसने कहा पिताजी आप को मेरे साथ कहीं चलना होगा। दोनों थोड़ी दूर चले और सामने एक बगीचा था। पुत्र ने कहा पिताजी ये रहे आपके बीज। पिता का दिल खुशी से झुम उठा और उसने खुश होकर अपनी सारी जायदाद अपने तीसरे बेटे के नाम कर दी। परमात्मा ने हर किसी को हुनर दिया है, सभी को समान शरीर दिया है और संभावनाएं भी। पर फर्क सिर्फ इस बात से पड़ता है कि आप किसी मौके में या अपने आप में कितनी संभावनाऐ देखते है और आप मौका हो या शरीर कितनी बेहतर तरीके से उसका उपयोग करते हैं। पिता ने अपने तीनों बेटों को समान बीज दिए थे पर तीनों ने उसका अपने ढंग से उपयोग किया। वैसे ही परमात्मा ने हम सभी को जीवन और अपने स्तर की संभावनाएं दी हैं। बस सब कुछ इसी पर टिका है कि हम उसका उपयोग कैसे करते हैं किस्मत स्वभाव कामयाबी सबको जलन छुरी गुण अच्छा सक्सेस दान जिदंगी निर्मल मन समर्पण मुसीबत सीख परिवर्तन इकठ्ठा
जो बुरा होता है वो अच्छा भी होता है
हम में से अधिकांश लोग सिर्फ अपने अवगुण या दूसरों के अवगुणों को देखने या गिनाने में लगें रहते हैं, इसलिए हमारा ध्यान किसी की अच्छाई पर जाता ही नहीं। क्योंकि हमें तो बुराई देखने की आदत हो चुकी है। हम हर जगह बुराई ढुंढने में इतने मशगुल हैं, कि किसी के बुरे पहलु में हम अच्छाई ढूंढने की सोच भी नहीं पाते जबकि यह बात हम सब जानते हैं कि हर बुराई के पीछे कोई ना कोई अच्छाई छुपी होती है।
एक गांव में किसान रहता था। उस गांव में उसे पानी भरने अपने घर से बहुत दूर जाना पड़ता था। उसके पास पानी लेकर आने के लिए दो बाल्टियां थीं। उनमें से एक बाल्टी में छेद था। किसान रोज उस कुएं से पानी भरकर जब तक अपने घर तक लाता था। वह पानी सिर्फ डेढ़ बाल्टी रह जाता था, क्योंकि छेद वाली बाल्टी का पानी आधा ही रह जाता था। अब वो बाल्टी जिसमें कोई छेद नहीं था। उसे धीरे-धीरे घमंड आने लगा। वह उस छेद वाली बाल्टी से बोली तुम में छेद है। तुम किसी काम की नहीं मालिक बेचारा तुम्हे जब तक भरकर घर लेकर आता है, तुम्हारा आधा पानी खाली हो जाता है। यह सुनकर वह बाल्टी दुखी हो जाती उसे दूसरी बाल्टी रोज ताना मारती थी। एक दिन उस बाल्टी ने दुखी होकर अपने मालिक से कहा: मालिक आप मुझसे यदि परेशान हो गये हैं तो मेरे इन छेदों को बंद क्यों नहीं कर देते या फि र आप मुझे छोड़कर नई बाल्टी क्यों नहीं खरीद लेते तो किसान मुस्कुराते हुए बोला तुम इतनी दुखी क्यों हो तुम जानती हो कि तुम्हे मैं जिस रास्ते से भरकर यहां तक लाता हूं। उस रास्ते के एक ओर हरियाली है वहां कई छोटे-छोटे सुन्दर पौधे उग आए हैं। दूसरी ओर जहां से बिना छेद वाली बाल्टी को लेकर निकलता हूं। वहां हरियाली नहीं है सिर्फ सूखा है तो अगर वो बिना छेद वाली बाल्टी मेरे घर के सदस्यों की प्यास बुझा रही हो तो तुम भी तो कई नन्हे पौधों को जीवनदान दे रही हो बाल्टी यह सुनकर खुश हो गई उसे अपनी अहमियत का एहसास हो गया।
कल की चाह में न बिगाड़े अपना आज
अक्सर लोग भविष्य के चक्कर में अपने आज के जीवन को भुला देते हैं।कुछ लोग ऐसे होते हैं जो अतीत को ही सोचते रहते हैं, और उनका आज हाथ से छूट जाता है। और कुछ ऐसे लोग होते जो भविष्य के खयालों में ही खोए रहते हैं और कभी अपने वर्तमान की परवाह नहीं करते और आज में जीना भूल जाते हैं। अधिकतर लोगों का जीवन बीते दिनों की यादें या भविष्य की कल्पनाओं में बीत जाता है। लेकिन वे इससे कुछ हासिल नहीं कर पाते। लेकिन सच तो यह है कि अतीत और भविष्य दोनों हमारे नियंत्रण से बाहर हैं। सच तो केवल आज है जिसमें हम जी रहे हैं।
तीन दोस्त एक साथ लम्बी यात्रा पर गए। वे एक रेगिस्तान से भी गुजरे। रेगिस्तान बहुत लम्बा था, रास्ते में आंधी आ गई। वे तीनों रास्ता भटक गए। उनका सारा सामान खो गया। उनके पास केवल रोटी का एक टुकड़ा और एक छोटी सी बोतल में पानी जो कि जैसे-तैसे बच गया था। उसमें तीनों की पूर्ति नही हो सकती थी। उन्होंने सोचा, बजाय इसके हम तीनों इसको खाएं और तीनों ही मर जाएं, इससे अच्छा है हम में से एक इसे खा ले और मंजिल तक पहुंच जाए। उन तीनों में विवाद हो गया कि कौन इसे खाए? कोई फैसला नहीं हो सका। तो तीनों ने यह सोचा कि हम सो जाएं और रात में हम तीनों में से जो सबसे अच्छा सपना देखेगा वह सुबह रोटी-पानी का हकदार होगा वो तीनों सो गए।
फिर सुबह उठे, उनमें से एक ने कहा मैंने बहुत अच्छा सपना देखा, मैंने देखा सपने में परमात्मा खड़ा है और उसने मुझसे कहा कि तेरा अतीत पवित्र है और आज तक के तेरे इस पवित्र जीवन के कारण तू रोटी-पानी ग्रहण करने का अधिकारी है। फि र दूसरे दोस्त ने कहा मेरे सपने में आकाश वाणी हुई, मैंने एक चमकीला प्रकाश देखा। आकाशवाणी से आवाज आई कि तेरा भविष्य उज्जवल है, तू ही भोजन का अधिकारी है। आने वाले दिनो में तू जगत का कल्याण करेगा। दोनो मित्रों ने तीसरे से पूछा तुमने क्या देखा तो वह बोला मुझे न तो कोई आवाज सुनाई दी न कोई परमात्मा दिखाई दिया मुझे तो मेरे भीतर से आवाज आई। तू उठ और रोटी- पानी ग्रहण कर ले इसलिए मैं तो खा भी चुका हूं।
ज्ञान से बड़ी कोई विद्या नहीं
एक बार मगध के राजा चित्रांगद वन विहार के लिए निकले। साथ में कुछ बेहद करीबी मंत्री और दरबारी भी थे। वे घूमते हुए काफी दूर निकल गए। एक जगह सुंदर सरोवर के किनारे किसी महात्मा की कुटिया दिखाई दी। वह जगह राजा को बहुत पसंद आई हालांकि वह उसे दूर से ही देखकर निकल गए। राजा ने सोचा कि महात्मा अभावग्रस्त होंगे, इसलिए उनकी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए कुछ धन भिजवा दिया। महात्मा ने वह धनराशि लौटा दी।
कुछ दिनों बाद और अधिक धन भेजा गया, पर सब लौटा दी गई। तब राजा स्वयं गए और उन्होंने महात्मा से पूछा, 'आपने हमारी भेंट स्वीकार क्यों नहीं की? महात्मा हंसते हुए बोले, 'मेरी अपनी जरूरत के लिए मेरे पास पर्याप्त धन है। राजा ने कुटिया में इधर-उधर देखा, केवल एक तुंबा, एक आसन एवं ओढऩे का एक वस्त्र था, यहां तक कि धन रखने के लिए कोई अलमारी आदि भी नहीं थी। राजा ने फिर कहा, 'मुझे तो कुछ दिखाई नहीं देता। महात्मा ने राजा को पास बुलाकर उनके कान में कहा, 'मैं रसायनी विद्या जानता हूं। किसी भी धातु से सोना बना सकता हूं। अब राजा बेचैन हो गए, उनकी नींद उड़ गई। धन-दौलत के आकांक्षी राजा ने किसी तरह रात काटी और सुबह होते ही महात्मा के पास पहुंचकर बोले, 'महाराज! मुझे वह विद्या सिखा दीजिए, ताकि मैं राज्य का कल्याण कर सकूं। महात्मा ने कहा, 'ठीक है पर इसके लिए तुम्हें समय देना होगा। वर्ष भर प्रतिदिन मेरे पास आना होगा। मैं जो कहूं उसे ध्यान से सुनना होगा। साल पूरा होते ही विद्या सिखा दूंगा।राजा रोज आने लगे। महात्मा के साथ रहने का प्रभाव जल्दी ही दिखने लगा। एक वर्ष में राजा की सोच पूरी तरह बदल गई। महात्मा ने एक दिन पूछा, 'वह विद्या सीखोगे?राजा ने कहा, 'गुरुदेव! अब तो मैं स्वयं रसायन बन गया। अब किसी नश्वर विद्या को सीखकर क्या
अपने फर्ज से मुंह न मोडें कभी
दु:ख क्यों आते हैं, सुख कैसे मिलते हैं? ये सवाल हर इंसान के लिए पहेली है। कई बार अच्छा काम करते-करते भी परिणाम बुरा हो जाता है, कई बार हमारे साथ बुरा होने पर भी परिणाम सुखद होता है। हम परिणाम कैसा चाहते हैं, ये हमारे ऊपर ही निर्भर होता है। अगर सच से न हटें, अपना नैतिक पतन न होने दें तो रिजल्ट कभी हमारे खिलाफ नहीं होगा।
महाभारत की एक कहानी हमें नैतिक बल का सबक सिखाती है। अगर हम अपने धर्म पर, कर्तव्य और सत्य पर टिके रहें तो शाप भी वरदान बन जाता है।
बात पांडवों के वनवास की है। जुए में हारने के बाद पांडवों को बारह वर्ष का वनवास और एक साल का अज्ञातवास गुजारना था। वनवास के दौरान अर्जुन ने दानवों से युद्ध में देवताओं की मदद की। इंद्र उन्हें पांच साल के लिए स्वर्ग ले गए। वहां अर्जुन ने सभी तरह के अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा हासिल की। गंधर्वों से नृत्य-संगीत की शिक्षा ली। अर्जुन का प्रभाव और रूप देखकर स्वर्ग की प्रमुख अप्सरा उर्वशी उस पर मोहित हो गई। स्वर्ग के स्वच्छंद रिश्तों और परंपरा का लोभ दिखाकर उर्वशी ने अर्जुन को रिझाने की कोशिश की। लेकिन उर्वशी अर्जुन के पिता इंद्र की सहचरी भी थी, सो अप्सरा होने के बावजूद भी अर्जुन उर्वशी को माता ही मानते थे। अर्जुन ने उर्वशी का प्रस्ताव ठुकरा दिया। खुद का नैतिक पतन नहीं होने दिया लेकिन उर्वशी इससे क्रोधित हो गई।
उर्वशी ने अर्जुन से कहा तुम स्वर्ग के नियमों से परिचित नहीं हो। तुम मेरे प्रस्ताव पर नपुंसकों की तरह ही बात कर रहे हो, सो अब से तुम नपुंसक हो जाओ। उर्वशी शाप देकर चली गई। जब इंद्र को इस बात का पता चला तो अर्जुन के धर्म पालन से वे प्रसन्न हो गए। उन्होंने उर्वशी से शाप वापस लेने को कहा तो उर्वशी ने कहा शाप वापस नहीं हो सकता लेकिन मैं इसे सीमित कर सकती हूं। उर्वशी ने शाप सीमित कर दिया कि अर्जुन जब चाहेंगे तभी यह शाप प्रभाव दिखाएगा और केवल एक वर्ष तक ही उसे नपुंसक होना पड़ेगा। यह शाप अर्जुन के लिए वरदान जैसा हो गया। अज्ञात वास के दौरान अर्जुन ने विराट नरेश के महल में किन्नर वृहन्नलला बनकर एक साल का समय गुजारा, जिससे उसे कोई पहचान ही नहीं सका।
आपकी इच्छा ही आपको कामयाब बनाऐगी
आदमी की सफलता उसकी इच्छा पर निर्भर करती है। अगर इंसान के मन में अपने मकसद के प्रति गहरी इच्छा है तो उसे अपने लक्ष को पाने में कामयाबी जरूर मिलती है। नेपोलियन हिल ने भी कहा है कि इंसान का दिमाग जिन चीजों को सोच सकता है या जिन चीजों पर यकी न कर सकता उन्हें हासिल भी कर सकता है।एक लड़के ने सुकरात से सफलता का राज पूछा सुकरात ने उसे दूसरे दिन सुबह नदी के किनारे मिलने के लिए कहा।
दूसरे दिन वह लड़का सुकरात से मिलने नदी पर पहुंचा तब सुकरात उस लड़के को नदी की ओर ले गए जब पानी उसकी गर्दन तक पहुंच गया तब अचानक सुकरात ने उसकी गर्दन पानी में डुबो दी लड़का छटपटाने लगा पर सुकरात ने उसे पकड़े रखा उस लडके का शरीर जब नीला पडऩे लगा तब सुकरात ने उसे पानी से निकाल लिया पानी से बाहर निकलते ही लडके ने गहरी सांस ली सुकरात ने उससे पूछा कि जब तुम पानी में थे तब तुम्हें किस चीज की जरूरत सबसे ज्यादा महसूस हुई युवक ने कहा हवा की । सुकरात ने कहा सफलता का यही रहस्य है। जब तुम्हें सफलता हासिल करने की वैसी ही तीव्र इच्छा होगी जैसे कि पानी के अन्दर हवा के लिए हो रही थी तब तुम्हें सफलता मिल जाएगी।किसी भी उपलब्धि को पाने के लिए पहली सीढ़ी होती है गहरी इच्छा जिस तरह आग की छोटी लपटें अधिक गर्मी नहीं दे सकती वैसे ही कमजोर इच्छा बड़े नतीजे नहीं दे सकती।
इमोशंस से नहीं होता कोई कमजोर
भावनाएं इंसान की कमजोरी होती है लेकिन कभी-कभी यही इमोशंस या भावनाए इंसान की कमजोरी नहीं उसकी ताकत बन जाती है और उसे नया इतिहास लिखने का उत्साह देती हैं। भावनाओं को अपनी कमजोरी या ताकत बनाना आपके हाथ में है और अपना भविष्य बनाना भी।
एक दिन जब महर्षि वाल्मीकि गंगा नदी में स्नान करने के लिए जा रहे थे। तब उन्होने क्रौंच के एक जोड़े को आकाश में उड़ते हुए और एक दुसरे का चुंबन करते समय देखा। महर्षि उन्हे देखकर खुश हो रहे थे लेकिन इतनी देर में एक तीर गुजरा औश्र जोड़े में से एक पक्षी मारा गया। वह जमीन पर गिर गया। तब जोड़े का दुसरा पक्षी विलाप करने लगा। वह अपने साथी के शव के चारों और मंडराने लगा। यह दृश्य देखकर कवि के मन में वेदना और करुणा उमड़ी कि उन्होंने हत्यारे शिकारी से कहा। हे निषाद तु दुष्ट है। तुझमे बिल्कुल भी दया का भाव नहीं है। तेरा हत्यारा हाथ प्रेम देखकर भी नहीं रुका। मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगम: शाश्वती: समा:, यक्रौञचमिथुनादैमवथी: काममोहितम्तभी कवि ने अपने मन में सोचा यह क्या? यह मैं क्या कह गया? इस ढंग से तो मैं इसके पहले तो मैं कभी नहीं बोला था और तब एक देववाणी सुनायी दी। डरो मत यह कविता है जो तुम्हारे मुख से निकल रही है। संसार के कल्याण के लिए राम चरित्र काव्य लिखो। इस प्रकार राम की प्रथम कविता जन्म हुआ।
खुद पर विश्वास करोगे तो सफल बनोगे
खुद पर विश्वास करोगे तो सफल बनोगे अक्सर ऐसा होता है कि आदमी अपने सपने को पूरा करने के लिए अपने भाग्य पर ही निर्भर रहता है उसे खुद पर भरोसा ही नहीं होता, उसे ये मालूम ही नहीं होता कि सही तरीके से कोशिश करने पर उसे सफलता जरूर मिलेगी
प्रभु यीशु के अनेक शिष्य थे। यीशु उन्हें नित्य ही धर्मोपदेश देते थे। कई बार वे उनके साथ घूमने भी जाया करते थे और इसी दौरान घटने वाली स्थितियों के माध्यम से वे उन्हें जीवनोपयोगी शिक्षा देते थे। एक बार यीशु अपने शिष्यों के साथ तिनेरियस झील पार कर रहे थे। शाम का शांत वातावरण था। ठंडी-ठंडी हवा चल रही थी। ऐसे सुहाने मौसम में यीशु नाव के पिछले हिस्से में आराम कर रहे थे। शिष्य अपनी सामान्य चर्चा में मशगूल थे। नाव गंतव्य की ओर धीरे-धीरे बढ़ रही थी। एकाएक मौसम ने पलटी खाई। आसमान पर घने बादल छा गए और तेज हवाएं चलने लगीं।नाव हिचकोले खाने लगी और उसमे पानी भरने लगा। यीशु को छोड़कर सभी शिष्य भयभीत हो गए, मगर उन्होंने इसे प्रकट नहीं किया। वे लोग इस घटना में कुछ रहस्य की आशा रख शांत बने रहे, किंतु ज्यों-ज्यों डूबने का खतरा बढ़ता दिखने लगा, उन्होंने यीशु को जगाते हुए कहा- प्रभु! हम डूब रहे हैं। क्या आपको इसकी चिंता नहीं है। यीशु जागे और सहज भाव से वायु और झील को डांटते हुए बोले शांत हो जाओ, थम जाओ। उनके ऐसा कहते ही वायु मंद हो गई और जल का ज्वार थम गया। सभी शिष्य खुश होकर तालियां बजाने लगे। तब यीशु ने मुस्कुराकर कहा-''तुम लोग इस तरह डरते क्यों हो? क्या तुम्हें अब तक विश्वास नहीं है? विश्वास करना सीखो।
विश्वास के साथ जीवन में एक प्रशांति उपलब्ध होती है और अलौकिक शक्ति का विकास होता है। विश्वास रखने वाला मन निर्भय होता है और उसके संकल्प का सम्मान प्रकृति की शक्तियां भी करती हैं।सभी शिष्य यीशु से सहमत हुए और भविष्य में ऐसे ही दृढ़ विश्वास पथ पर चलने का संकल्प लिया।वस्तुत: यह विश्वास ही उस श्रद्धा को जन्म देता है, जो अखूट आत्मिक बल की सृजनकर्ता होती है और इस बल से संपन्न व्यक्ति को वह दृढ़ता प्राप्त होती है, जिससे उसके मार्ग में आनेवाली हर बाधा पराजित हो जाती है और सफलता के द्वार खुल जाते हैं
क्या करें क्या न करें कैसी मुश्किल...
पुरानी फिल्म का एक गीत है, कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना...। यह गीत हमारे जीवन के साथ भी जुड़ा हुआ है। हम जब भी कुछ काम करते हैं, आसपास के लोग तरह-तरह की बात करते हैं। कुछ लोग हमारे काम की तारिफ करते हैं, तो कुछ बुराई। हमेशा ऐसा ही होता है क्योंकि लोगों का काम है कहना।
पुराने समय की बात है। एक पिता अपने पुत्र के साथ गांव में रहते थे। वे एक दिन शहर से गधा खरीदकर अपने घर लौट रहे थे, रास्ता लंबा था। वे तीनों पिता-पुत्र और वह गधा पैदल ही आ रहे थे। तभी किसी ने कहा कि गधा लेकर आए हो तो पैदल क्यों चल रहे हो? गधे पर बैठकर जाओं। पिता-पुत्र को यह बात ठीक लगी। वे दोनों गधे पर बैठ गए। कुछ दूर चलने के बाद फिर किसी राहगीर ने कहा कि कितने निर्दयी पिता-पुत्र हैं, बेचारे गधे पर दोनों बैठ गए। यह सुनकर पिता ने पुत्र को गधे पर बैठा दिया और खुद पैदल चलने लगा।फिर कुछ दूर चलने के बाद किसी ने कहा कि कैसा पुत्र है? पिता तो पैदल चल रहा है और खुद गधे पर आराम से बैठा है। यह सुनकर पुत्र उतर गया और पिता को गधे पर बैठा दिया, पुत्र पैदल चलने लगा। फिर कुछ दूर चलने के बाद किसी व्यक्ति ने कहा कि कैसा बाप है खुद तो आराम से बैठा है और पुत्र तो पैदल चल रहा है। इसी तरह जो भी उन्हें कुछ बोलता वे पिता-पुत्र वैसा ही करते और जैसे-तैसे घर पहुंच गए।
हमारे जीवन में भी कई बार ऐसा ही होता है। हम दूसरों की बात सुनकर कार्य शैली बदलते हैं, काम बदल लेते हैं लेकिन लोगों बोलना बंद नहीं करते। बेहतर है कि हम अपनी सोच-समझ के अनुसार कार्य करें।
फिर इससे आपको कोई नहीं बचा सकता...
किसी भी चीज की जरूरत से ज्यादा चाहत हमेशा इंसान को मुसीबत में डालती है। लालच ने कभी किसी को सुख नहीं दिया। जरुरत से ज्यादा किसी भी चीज की चाहत इंसान के पतन का कारण बन जाती है। अगर मन में लालच बैठ जाए तो फिर उसे कोई नहीं बचा सकता। लालच भारी नुकसान करता है।
सुमित और अमित दो बहुत गहरे दोस्त थे। दोनो का ख्वाब था अमीर बनने का कालेज खत्म होने के बाद दोनों को कोई ठीक ठाक नौकरी नहीं मिली कोई रास्ता नहीं मिला तो उन्होने चोरी करना शुरु कर दिया। क्योंकि चोरी के अलावा कोई रास्ता भी नहीं था सपने ही इतने बड़े थे कि छोटा - मोटा वेतन उनके सपनों को पूरा नहीं कर सकता था। चोरी का रास्ता ही एक ऐसा रास्ता था जिससे दोनो बहुत जल्दी अपने सारे सपने को पूरा कर सकते इसलिए दोनों को इस काम को करने में आनंद आने लगा। दोनों रात के अंधेरे में अपने घर से निकलते और अपने आसपास के क्षेत्र के बड़े घरों में जाकर हाथ साफ करते। रात में दोनों चुपचाप अपने घर चले जाते। सुबह जाकर सारा सामान चोर बाजार में बेच आते। धीरे- धीरे उनकी आदत बन गई उनके मन का डर खत्म होने लगा और लालच बढऩे लगा। एक दिन दोनों एक बड़े ज्वेलरी शो रुम में चोरी करने घुसे। इतने बड़े शो-रुम में अथाह ज्वेलरी देखकर दोनों का दिमाग काम नहीं कर रहा था। तभी सुमित की नजर एक कांच की पेटी में रखे एक बड़े हीरे पर गई। हीरे की झिलमिलाहट ऐसी थी कि लालच में उसे कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। वह तुरंत उस बक्से के पास पहुंचा लेकिन जब उसने उसे खोलने का प्रयास किया तो दुकान में लगी। घंटियां गुंज उठी ।
अमित जोर से चिल्लाया भाग सुमित नहीं तो पकड़े जाएंगे, लेकिन सुमित के मन में तो लालच इतना घर कर गया था कि वह उस हीरे के मोह को छोड़ नहीं पा रहा था। तभी अमित ने एक बार फिर आवाज लगाई तों उसने कहा तुझे जाना हो तो तू जा मैं इस हीरे को छोड़कर नहीं जा सकता। फिर से सुमित पेटी खोलने के प्रयास में जुट गया। तभी दूकान का मालिक पुलिस को लेकर वहां पहुच गया। सुमित रंगे हाथों पकड़ा गया। जब उसकी आंखों से लालच का परदा उठा तो उसे समझ आया कि उसके लालच ने उसे कहां फंसा दिया है। अपने सच्चे दोस्त की बात ना मानने का और अपने अंधे लालच ने उसे सलाखों के पीछे पहुंचा दिया है।
सबसे बड़ी भूख है इच्छा
आमतौर पर देख गया है कि इंसान की इच्छाऐं कभी पूरी नहीं होती एक इच्छा पूरी होने के बाद दूसरी को पूरा करने का सपना देखने लगता है। मनुष्य की प्रकृति ही ऐसी है लेकिन इस सब में वो ये भूल जाता है कि वह अपनी इच्छाओं के जितना अधीन होगा अपने कर्मों से उतना ही गरीब हो जाता है।
उक सन्यासी के पास कुछ रुपये थे उसने सबसे कहा कि वह वे रुपये सबसे गरीब आदमी को देगा बहुत सारे गरीब लोगों ने उसे घेर लिया सन्यासी अपनी कुटिया में चला गया तभी उस रास्ते से राजा की सवारी निकली सन्यासी अपनी कुटिया से बाहर आया और उसने रुपये राजा के ऊपर फेंक दिए ये सब देख वहां खड़े लोगों ने आश्चर्य के साथ सन्यासी से पूछा कि आपने तो कहा था कि ये पैसे आप सबसे गरीब आदमी को देंगे तब सन्यासी ने कहा कि मैंने ये रुपये इसस राजा को इसलिए दिए हैं राजा होते हुए भी इसकी इच्छाऐं अभी भी अधूरी हैं इसे जितना मिला है उसमें इसे संतोष नहीं है इसे तो अभी ओर राज पाट चाहिए इसलिए तेरी नजरों में सबसे बड़ा गरीब यही है जो मनुष्य इच्छाओं के अधीन होता है और जिसकी धन की भूख कभी खत्म नहीं होती वही सबसे बड़ा गरीब होता है।और जब हम इन इच्छाओं और उम्मीदों के घेरे से बाहर निकल जाते हैं तब दुख अपने आप दूर हो जाते हैं।
परोपकार में बड़ा सुख है
आज का समय दिखवों पर ही टिका है आधुनिक समय में ऐसे लोग कम ही मिलते हैं जो दूसरों के दुख से दुखी और सुख में खुश होते है लेकिन जो वास्तव में ऐसा करते हैं वे ही सही मायने में इंसान कहलाने के लायक होते हैं।
कलकत्ता के सुप्रसिद्ध विद्वान विश्वनाथ तर्कभूषण बड़े दयालु थे। गरीबों की मदद करना और लोक कल्याण में जुटे रहना उनका स्वभाव था। इसी वजह से वे लोगों के बीच प्रसिद्ध थे। एक बार तर्कभूषण गंभीर रूप से बीमार हो गए। बड़े-बड़े डॉक्टर आए, पर तर्कभूषणजी को ठीक नहीं कर पाए। फिर एक दिन उनके घरवाले उन्हें दिखाने किसी दूसरे शहर में लेकर आए। वहां के डॅाक्टर ने तर्कभूषणजी की जांच की और दवाई बताकर कहा कि रोगी को एक बूंद भी पानी नहीं दें। पानी देते ही उनकी हालत और खराब हो जाएगी।लंबे समय तक बीमार होने के कारण तर्कभूषणजी के सेवा के सारे काम रुक गए तब उन्हें एक उपाय सूझा एक दिन घरवालों से कहा कि उन्हें जोर से प्यास लगी है। पानी दिया नहीं जा सकता था इसलिए वे घर के लोगों से बोले - मैंने ग्रंथों में पढ़ा है और स्वयं भी दूसरों को उपदेश दिया है कि समस्त प्राणियों में एक ही आत्मा है। आज मुझे इसका प्रत्यक्ष अनुभव करना है। ब्राह्मणों को यहां बुलाओ और उन्हें मेरे सामने शरबत, तरबूज का रस तथा हरे नारियल का पानी पिलाओ। घर के लोगों ने तत्काल यह व्यवस्था कर दी। जब ब्राह्मण शरबत और नारियल का पानी पी रहे थे, तब तर्कभूषणजी को यह अनुभव हुआ जैसे वे स्वयं पी रहे हों। वास्तव में तर्कभूषणजी को इस सेवा से बड़ी तृप्ति मिली और वे स्वस्थ हो गए।
सार यह है कि दूसरों की खुशी में खुश और दुख में दुखी होने वाला देवत्व को हासिल कर लेता है, क्योंकि यह मानवता का लक्षण है।
दुख में भी ढूंढ सकते है खुशियों को
व्यक्ति के जीवन में सुख-दु:ख, धूप-छांव की तरह आते रहते हैं। इस ब्रह्माण्ड में शायद ही कोई ऐसा विरला हो जो पूर्णरूप से अपने आप को सुखी कह सकता हो। कहने का मतलब यही है कि सुख-दु:ख मनुष्य जीवन के अभिन्य अंग बन चुके हैं। लेकिन कई ऐसे व्यक्ति भी होते हैं जो दु:ख में भी सुख को खोज लेते हैं। बस अपने अंतर्मन में आशावादी दृष्टिकोण रखना चाहिए, जीवन में दु:खों के आने के बाद भी दिल दु:खी नहीं रहेगा।
एक व्यापारी को व्यापार में एक लाख का घाटा हुआ। वह इसी चिन्ता में दिन-रात बेचैन रहने लगा। उसकी पत्नी समझदार थी। वह अपने पति को दिन-रात समझाती कि आपको एक लाख का घाटा नहीं बल्कि फायदा ही हुआ है। लेकिन व्यापारी अपने दु:ख से परेशान हो उसकी कोई बात नहीं सुनता था। तब व्यापारी की पत्नी को एक उपाय सूझा। वह अपने पति को लेकर एक संत के पास गई।
संत ने उस आदमी से उसकी तकलीफ को पूछा तो उसने दु:खी मन से सब कह सुनाया। जब संत ने उसकी पूरी बात सुन ली तब उन्होंने उसकी पत्नी से भी यही प्रश्र किया। पर व्यापारी की पत्नी ने ऐसी किसी भी अनहोनी से इनकार कर दिया। अब संत भी आश्चर्यचकित रह गए। उन्होंने व्यापारी की पत्नी से सब बात ठीक-ठीक बताने को कहा। व्यापारी की पत्नी ने संयत होते हुए कहा कि महाराज दरअसल मेरे पति को व्यापार में दो लाख के फायदे का अनुमान था पर कुल फयदा हुआ एक लाख रुपये का। इसलिए ये दु:खी हैं जबकि इन्होंने यह तो सोचा ही नहीं कि जहां पूरे दो लाख का नुकसान हो सकता था वहीं एक लाख का फायदा तो हुआ।
व्यापारी की पत्नी की बात सुनकर संत बड़े प्रसन्न हुये और उन्होंने व्यापारी से कहा कि जो दु:ख में भी सुख को खोज लेने की बुद्धि रखते हैं वे कभी दिल छोटा नहीं करते। उन्हें कठिन से कठिन दु:ख-तकलीफ भी कमजोर नहीं कर सकती।संत की बातें सुनकर व्यापारी को ढ़ांढस बंधा, साथ ही उसे अपनी पत्नी की बुद्धि पर भी गर्व महसूस हुआ।
कहानी का तात्पर्य यही है कि जो लोग दु:ख में भी सुख या प्रसन्न होने का अवसर ढ़ूढ़ लेते हैं, वे कभी जीवन में दु:ख का रोना नहीं रोया करते। अत: हमें दु:ख में भी घबराने की बजाय उसमें अपने लिए सकारात्मकता को खोजना चाहिए क्योंकि तभी हम खुशी से रह सकते हैं।
आपके शब्द किसी का दिल दुखा सकते है
हम कई बार अनजाने में ही कोई भी बात मुंह से निकाल देते हैं। बिना सोचे-समझें बोली गई कई बातें हमारा जीवन बदल देती हैं। कई बार थोड़ा सा गुस्सा या अनजाने में किया गया मजाक भी भारी पड़ सकता है। इसी कारण से विद्वानों ने कहा है कि हमेशा तौलों फिर बोलो। कई बार जरा सी बातें भी इतना तूल पकड़ती है कि उसका परिणाम आपकी जिंदगी की दिशा बदल देता है।
श्रीमद् भागवत पुराण में एक कथा इसी बात की ओर संकेत करती है। वृषपर्वा दैत्यों के राजा थे, उनके गुरु थे शुक्राचार्य। वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा और शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी दोनों सखी थीं लेकिन शर्मिष्ठा को राजा की पुत्री होने का अभिमान भी बहुत था। दोनों साथ-साथ रहती थीं, घूमती, खेलती थीं। एक दिन शर्मिष्ठा और देवयानी नदी में नहा रही थीं, तभी देवयानी ने नदी से निकलकर कपड़े पहने, उसने गलती से शर्मिष्ठा के कपड़े पहन लिए। शर्मिष्ठा से यह देखा न गया और उसने अपनी दूसरी सहेलियों से कहा कि देखो, इस देवयानी की औकात, राजकुमारी के कपड़े पहनने की कोशिश कर रही है। इसका पिता दासों की तरह मेरे पिता के गुणगान किया करता है और यह मेरे कपड़ों पर अधिकार जमा रही है।देवयानी और शर्मिष्ठा में इस बात को लेकर झगड़ा हो गया। देवयानी ने सारी बात अपने पिता शुक्राचार्य को सुनाई और कहा कि अब हम इस राजा के राज में नहीं रहेंगे। शुक्राचार्य ने वृषपर्वा को सारी बात बताई और राज्य छोड़कर जाने का फैसला भी सुना दिया। चूंकि शुक्राचार्य मृत संजीवनी विद्या के एकमात्र जानकार थे और वे देवताओं से मारे गए दैत्यों को जीवित कर देते थे, उनके जाने से वृषपर्वा को बहुत नुकसान होता सो उसने शुक्राचार्य के पैर पकड़ लिए। शुक्राचार्य ने कहा तुम मेरी बेटी को प्रसन्न कर दो तो ही मैं यहां रह सकता हूं। वृषपर्वा ने देवयानी के भी पैर पकड़ लिए, देवयानी ने कहा तुम्हारी पुत्री ने मेरे पिता को दास को कहा है इसलिए अब उसे मेरी दासी बनकर रहना होगा।
वृषपर्वा ने उसकी बात मान ली और अपनी बेटी राजकुमारी शर्मिष्ठा को देवयानी की दासी बना दिया। उसके बाद पूरे जीवन शर्मिष्ठा को देवयानी की दासी बनकर ही रहना पड़ा। एक क्षण के गुस्से ने शर्मिष्ठा का पूरा जीवन बदल दिया।
मुसीबत में भी निभाएं उनका साथ
हिन्दू धर्म में शादी एक बड़ा पवित्र रिश्ता माना जाता है लेकिन आज अगर हम देखें तो यह रिश्ता भी परिस्थितियों पर ही टिका रह गया है आधुनिक युग में शादी का रिश्ता भी कन्डिशन अप्लाई वाली लाईन को सार्थक कर रहा है लेकिन सही मायनों में मुसीबत में साथ देने वाला ही आपका सच्चा साथी होता प्रतिकूल परिस्थितियों में अकेले छोड़ देना और अच्छे समय में आपका सबसे अच्छा साथी होने का दावा करने वाले लोगों पर भरोसा करना सबसे बड़ी भूल होती है। आपके सच्चे जीवन साथी की पहचान मुसीबत में ही होती है।अगर हम शास्त्रों की बात करें तो सत्यवान और सावित्री की कहानी इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है
सावित्री जब देश भ्रमण पर निकली तो उन्हें जंगल में रह रहे सत्यवान से प्रेम हो गया उन्होंने अपने पिता से कहा कि वह उन्हीं से शादी करेगी जब दोनों पिता पुत्री इस बात पर चर्चा कर रहे थे तभी नारद मुनि ने वहां आकर कि सत्यवान की उर्म अब केवल एक ही वर्ष की बची है लेकिन सब कुछ जानने के बाद भी सावित्री ने सत्यवान से शादी की क्यों कि वह सत्यवान से प्रेम करती थी जब सत्यवान का काल नजदीक आया उस दिन भी वह पूरे समय सत्यवान के साथ रही और आखिरी में परिणाम यही हुआ कि वह अपने पत्नीव्रत के बल पर यमराज से अपने पति के प्राणें को वापस ले आई।
कहानी का सार यही है कि परि स्थितियों को जानने के बाद भी जो आपका साथ दे वही सच्चे अर्थों में आपका जीवन साथी बनने के लायक होता है।
अपने ईगो को रखें पीछे तो जिदंगी होगी आसान
आधुनिक युग में मैं(अहम) का चलन कुछ ज्यादा ही चरम पर है विशेषकर युवा पीढ़ी इस मैं पर ज्यादा ही विश्वास करने लगी है आज का युवा सोचता है कि जो कुछ है केवल वही है उससे अच्छा कोई नहीं आज आदमी का ईगो इतना सर चढ़कर बोलने लगा है कि कोई भी किसी को अपने से बेहतर देखना पसंद नहीं करता चाहे वह दोस्त हो, रिश्तेदार हो या कोई बिजनेस पार्टनर या फिर कोई भी अपना ही क्यों न हों। आज तेजी से टूटते हुऐ पारिवारिक रिश्तों का एक कारण अहम भवना भी है।
एक बढ़ई बड़ी ही सुन्दर वस्तुएं बनाया करता था वे वस्तुएं इतनी सुन्दर लगती थी कि मानो स्वयं भगवान ने उन्हैं बनाया हो। एक दिन एक राजा ने बढ़ई को अपने पास बुलाकर पूछा कि तुम्हारी कला में तो जैसे कोई माया छुपी हुई है तुम इतनी सुन्दर चीजें कैसे बना लेते हो। तब बढ़ई बोला महाराज माया वाया कुछ नहीं बस एक छोटी सी बात है मैं जो भी बनाता हूं उसे बनाते समय अपने मैं यानि अहम को मिटा देता हूं अपने मन को शान्त रखता हूं उस चीज से होने वाले फयदे नुकसान और कमाई सब भूल जाता हूं इस काम से मिलने वाली प्रसिद्धि के बारे में भी नहीं सोचता मैं अपने आप को पूरी तरह से अपनी कला को समर्पित कर देता हूं और फिर जो भी बनता है वह आप सब को अलौकिक लगता है।
इसी प्रकार अगर हम अपने जीवन में अहम को मार दें तो जीवन जीने में और ज्यादा आनंद आता है।
सीखो जिदंगी से हर पल
मनुष्य का पूरा जीवन एक पाठशाला है यहां हर वक्त किसी न किसी पहलु पर हमें कुछ न कुछ सीखने को जरूर मिलता है जिदंगी का हर क्षण हमें कुछ न कुछ सीख जरूर देता है।
स्वामी रामतीर्थ जापान की यात्रा पर थे। जिस जहाज से वह जा रहे थे, उसमें नब्बे वर्ष के एक बुजुर्ग भी थे। स्वामी जी ने देखा कि वह एक पुस्तक खोल कर चीनी भाषा सीख रहे हैं। वह बार-बार पढ़ते और लिखते जाते थे। स्वामी जी सोचने लगे कि यह इस उम्र में चीनी सीख कर क्या करेंगे।
एक दिन स्वामी जी ने उनसे पूछ ही लिया, 'क्षमा करना। आप तो काफी वृद्ध और कमजोर हो गए हैं। इस उम्र में यह कठिन भाषा कब तक सीख पाएंगे। अगर सीख भी लेंगे तो उसका उपयोग कब और कैसे करेंगे।यह सुन कर उस वृद्ध ने पहले तो स्वामी जी को घूरा, फिर पूछा, 'आपकी उम्र कितनी है? स्वामी जी ने कहा, 'तीस वर्ष।बुजुर्ग मुस्कराए और बोले, 'मुझे अफसोस है कि इस उम्र में आप यात्रा के दौरान अपना कीमती समय बेकार कर रहे हैं। मैं आप लोगों की तरह नहीं सोचता। मैं जब तक जिंदा रहूंगा तब तक कुछ न कुछ सीखता रहूंगा। सीखने की कोई उम्र नहीं होती। यह नहीं सोचूंगा कि कब तक जिंदा रहूंगा, क्योंकि मृत्यु उम्र को नहीं देखती वह तो कभी भी आ सकती है। आपकी बात से आपकी सोच का पता चलता है। शायद इसी सोच के कारण आप का देश पिछड़ा है।
स्वामी जी ने उससे माफी मांगते हुए कहा, 'आप ठीक कहते हैं। मैं जापान कुछ सीखने जा रहा था, लेकिन जीवन का बहुमूल्य पहला पाठ तो आप ने रास्ते में ही, एक क्षण में मुझे सिखा दिया।
कद्र करें सबकी भावनाओं की
दुनिया हसीन हैं यही सच है क्योंकि दुनिया में कुछ भी बुरा नहीं है सिर्फ हमारे नजरिये के अलावा। हमारी सोच हमारा किसी भी चीज के लिए नकारात्मक नजरिया ही किसी को भी बुरा या अच्छा बना देता है। लोग कहते है किसी की परवाह मत करो। ओरों की परवाह करने में कुछ नही रखा क्योंकि आपकी परवाह किसने की, लेकिन जब दिल से आप सभी के भावना की परवाह करेगें और दुसरों के रुख में अपने प्रति सकारात्मक परिवर्तन देखेंगे।
एक छोटी सी बच्ची रेस्टोरेन्ट में गई। उसने टेबल पर बैठने के बाद वहां के वेटर को डरते हुए इशारा किया और पूछा अंकल एक पेस्ट्री की कितने की है। वेटर ने कहा 40 रुपए की। वह बच्ची उसके पास जो सिक्के थे, उन्हें गिनने लगी। वेटर को थोड़ा गुस्सा आया, उसने कहा जल्दी बोलो क्या चाहिए?वह कुछ सोचने लगी ओर थोड़ी देर बाद बोली अंकल इससे कम वाली नहीं है क्या? उसने कहा है लेकिन वो थोड़ी छोटी है। लड़की बोली कोई बात नहीं वही ला दीजिये। वेटर ने उसकी टेबल पर लाकर पेस्ट्री की प्लेट रखी।लड़की ने अपनी पेस्ट्री खाई। पैसे दिए और चली गई। वेटर ने जब उसकी प्लेट उठाई तो उसने वह देखा वह बात उसके मन को छू गई। वहां दस रुपए टीप के रखे थे। उस छोटी सी बच्ची ने संवेदनशीलता दिखाई। उसने खुद से पहले दूसरे के बारे में सोचा। उसकी ये बात वेटर के दिल को छू गई। उस बच्ची ने हमेशा के लिए उसके मन पर एक छाप छोड़ दी। दूसरों का ख्याल रखना यह दिखाता है कि आप उनकी कितनी परवाह करते हैं। कोई दूसरो की भावनाओं की कितनी परवाह करता है। उसी से उसकी इंसानीयत और संवेदनशीलता का पता चलता है।
बुराई खुद भाग जाएगी अगर...
इंसान को अगर खुद को बेहतर बनाना है और अपनी किसी बुराई को छोडऩा है तो उसे इस बात की शुरूवात खुद से ही करनी होगी क्यों कि किसी और के भरोसे आप अपनी किसी बुराई को नहीं छोड़ सकते। बस जरूरत है तो केवल दृढ़ विश्वास की ।
एक बार भूदान आंदोलन के प्रणेता विनोबा भावे के पास एक शराबी युवक आया और हाथ जोड़कर कहने लगा कि गुरूजी मैं बहुत परेशान हूं । यह शराब मेरा पीछा ही नहीं छोड़ती। आप कुछ उपाए बताइए जिससे मुझे पीने की इस आदत से मुक्ति मिल सके। विनोबाजी ने कुद देर तक सोचा और फिर बोले- अच्छा बेटा तुम कल मेरे पास आना, किंतु मुझे बाहर से ही आवाज देकर बुलाना, मैं आ जाऊंगा। युवक खुश होकर चला गया। अगले दिन वह फिर आया और विनोबाजी के कहे अनुसार उसने बाहर से ही उन्हें आवाज लगाई। तभी भीतर से विनोबाजी बोले- बेटा। मैं बाहर नहीं आ सकता। युवक ने इसका कारण पूछा, तो विनोबाजी ने कहा- यह खंबा मुझे पकड़े हुए है, मैं बाहर कैसे आऊं। ऐसी अजीब सी बात सुनकर युवक ने भीतर झांका, तो विनोबाजी स्वयं ही खंबे को पकड़े हुए थे। वह बोला- गुरुजी। खंबे को तो आप खुद ही पकड़े हुए हैं। जब आप इसे छोडेंगे, तभी तो खंबे से अलग होंगे न। युवक की बात सुनकर विनोबाजी ने कहा- यही तो मैं तुम्हें समझाना चाहता था कि शराब छूट सकती है, किंतु तुम ही उसे छोडऩा नहीं चाहते। जब तुम शराब छोड़ दोगे तो शराब भी तुम्हें छोड़ देगी। उस दिन के बाद से उस युवक ने शराब को हाथ भी नहीं लगाया। वास्तव में दृढ़ निश्चय या इच्छाशक्ति, संकल्प से बुरी आदत को भी छोड़ा जा सकता है।
यदि व्यक्ति खुद अपनी बुरी आदतों से मुक्ति पाना चाहे और इसके लिए मन मजबूत कर संकल्प हो जाए, तो दुनिया की कोई ताकत उसे अच्छा बनने से नहीं रोक सकती।
संकल्प शक्ति बढ़ाने के प्रयोग
संकल्प और समर्पण। अगर अर्थ की दृष्टि से देखा जाए, तो दोनों ही विरोधाभासीबातें हैं। या तो आप संकल्प कर सकते हैं, या फिर समर्पण। जैसे युद्ध में सामने वाले ने हथियार छोड दिए, तो समझो कि समर्पण हो गया। जब तक लड रहे थे, तो संकल्प से लड रहे थे। लेकिन जब संकल्प हारा, तो समर्पण किया। लेकिन अध्यात्म में संकल्प और समर्पण साथ-साथ चलते हैं। संकल्प करें और ईश्वर से कहें कि वह मेरे संकल्प को पूरा करे।
संकल्प की शक्ति का बीज सब में होता है, लेकिन अगर आप बीज को मिट्टी में न डालो, उसको खाद, पानी न दो, तो वह फूटेगा ही नहीं। बडे-बडे संकल्प मत करो कि मोक्ष पाएंगे, ब्रह्मज्ञान पाएंगे, समाधि पाएंगे। छोटे-छोटे संकल्प लो। जैसे एक प्रेमी और प्रेमिका एक बगीचे में बैठे थे। प्रेमिका ने प्रेमी से कहा तुम मेरे लिए क्या कर सकते हो? प्रेमी बोला, तुम्ही बताओ, चांद लाऊं, तारे लाऊं। तो प्रेमिका बोली, इतनी बडी बात मत करो, तुम इतना ही बोल दो कि गोभी का फूल लाऊंगा, तू रोटी पकाएगी, मैं खाऊंगा। व्यावहारिक बात करो।
छोटे-छोटे कदम उठाओ, तो हजारों मील की यात्रा पूरी हो जाती है। यह मत कहो कि हजारों मील चलना है, पर मुझ में शक्ति नहीं। घबराओ मत, हजारों मील नहीं, तो एक कदम तो चल सकते हो। एक-एक कदम ही चलो। संकल्प की शक्ति का विकास करने के लिए छोटे-छोटे प्रयोग करें, जैसे हम अन्न नहीं खाएंगे। 24घंटे तो बहुत लंबा है, तुम छोटा समय लो। घडी देखो और संकल्प करो कि अगले आधे घंटे तक मैं मौन रहूंगा। अगर आधा घंटा तुम मौन रह गए, तो समझ लो कि उतनी शक्ति संकल्प की बढ गई। फिर इसी तरह धीरे-धीरे बढाते रहो। संकल्प की शक्ति को विकसित करने के लिए छोटे-छोटे उपाय करो। जैसे आप सुबह नहीं उठ पाते हैं, तब रात को सोने से पहले अलार्म भर दो, फिर प्रार्थना भी करो-प्रभु! सुबह पांच बजे उठा देना। घडी अलार्म बजाना भूल सकती है, पर तुम्हारे अंदर का अलार्म ठीक समय पर बज जाएगा। आप संकल्प-शक्ति का उपयोग सही तरीके से कर नहीं रहे हैं। तुम कहते हो कि सुबह उठूं और तुम्हारा मैं कहता है कि आज सो जाता हूं, कल उठ जाऊंगा। संकल्प में दृढता होनी चाहिए।
समझें अपने बच्चों के हुनर को
बच्चों में छिपी प्रतिभा को पहचान कर उसे प्रोत्साहित करना चाहिए यदि शुरूआत में उनसे कुछ गलतियां हो भी जाए, तो उसे अनदेखा कर उन्हें प्रेरित करना चाहिए। ताकि वे लगातार बेहतर से बेहतर की ओर बढ़ें।
बात उन दिनों की है जब भारत गुलाम था। ग्वालियर के विक्टोरिया स्कूल की छठी कक्षा में एक छात्र पढ़ता था। वह पढऩे में जितना होशियार था, खेलों में भी उतना ही निपुण था। स्कूल में वह स्टूडेण्टस के साथ-साथ टीचर्स का भी प्रिय था। उसके स्कूल के प्रिंसीपल अत्यंत क्रोधी स्वभाव के थे। सारा स्कूल उनसे डरता था किंतु वे प्रतिभा के कुशल पारखी थे। हालांकि इसे वे कभी दिखाते नहीं करते थे।एक दिन वह छात्र स्कूल के मैदान में हॉकी खेल रहा था। अचानक गलती से उसकी गेंद पास ही एक अंग्रेज अफ सर के बंगले पर जा लगी और खिड़की के शीशे चटक गए। अफसर गुस्से में आग बबुला हो गया। उसने उस छात्र को तो भला-बुरा कहा ही, प्रिंसीपल के पास उसकी शिकायत करने भी आया। प्रिंसीपल ने उसकी बात सुनी और पता लगवाया कि वह छात्र कौन है, जिसने यह काम किया है। जब वह छात्र प्रिंसीपल के सामने आया तो डर के मारे उसका बुरा हाल था किंतु प्रिंसीपल उसे देखकर मुस्कुराए और फि र एक हॉकी व गेंद गिफ्ट में देकर उसकी पीठ थपथपाई। उन्होंने उसे और मेहनत कर इस खेल में अपना भविष्य बनाने का प्रोत्साहन दिया।जानते हैं कि यह छात्र कौन था? वह था भारतीय हॉकी टीम का कप्तान रूपसिंह, जो भारतीय हॉकी जगत के प्रकाश स्तंभों में से एक बन बच्चों में छिपी प्रतिभा को पहचान कर उसे प्रोत्साहित करना चाहिए।
न भूलें अपनी हदों को वरना...
पश्चिम के प्रभाव से आज हमारे समाज में हर व्यक्ति आजादी से जीने की चाह रखता है लेकिन इस आजादी की चाह में कई लोग अपनी मर्यादाएं लाघ रहे हैं और नतीजा हम देख ही रहे है कि आज रिश्तों में न प्रेम बचा है न मान सम्मान।लेकिन इंसान ये भूल जाता है कि मर्यादाओं को लांघने का नतीजा हमेशा खराब परिणाम देता है।
महाभारत में द्रोपदी का विवाह पांच पाण्डवों से होने के बाद ये आशंका सबके मन में जागी कि द्रोपदी किसके साथ रहेगी तब पाचों पाण्डवों ने मिलकर ये निर्णय लिया कि हर भाई के साथ एक एक साल तक रहेगी और उस दौरान कोई भाई हस्तक्षेप नहीं करेगा और जो इन मर्यादाओं का उल्लंघन करेगा उसे वनवास भोगना पड़ेगा।
एक बार एक डाकू एक ब्राह्मण की गायें चुराकर ले जा रहा था तब ब्राह्मण ने अर्जुन से न्याय की मांग की और कहा कि उस डाकू से मेरी गायों को वापस दिलाओ तभी अर्जुन को याद आया कि उसके धनुष बाण उस कमरे में रखे हुए हैं जहां द्रोपदी युधिष्ठिर के साथ थी अर्जुन बडे असमंजस में थे फिर भी उन्हें ब्राह्मण की सहायता करनी थी इसलिए वे अपना धनुष बाण लेने के लिए वहां पहुंच गए। हांलाकि अर्जुन ने एक अच्छे काम के लिए अपनी तर्यादा लांघी लेकिन तर्यादा लांघने के लिए उन्हें वनवास भोगना पड़ा।
नहीं बदल सकता स्वभाव और चरित्र
कई बार ऐसा होता है कि लोग अपने काम और रहन-सहन से हटकर वेश बना लेते हैं, अपनी पहचान छुपा लेते हैं लेकिन कपड़े और आभूषणों से कभी आपका स्वभाव और चरित्र नहीं बदल सकता। न ही आपका धर्म प्रभावित हो सकता है। वह तो आपके व्यवहार में है और जब भी वक्त आता है आपका धर्म, स्वभाव और चरित्र कपड़ों के आवरण से बाहर आकर हकीकत बता देता है।
महाभारत की एक छोटी सी कथा है। पांडव वन में वेश बदलकर रह रहे थे। वे ब्राह्मण के रूप में रह रहे थे। एक दिन मार्ग में उन्हें कुछ ब्राह्मण मिले। वे द्रुपद राजा की पुत्री द्रौपदी के स्वयंवर में जा रहे हैं। पाण्डव भी उनके साथ चल पड़े। स्वयंवर में एक धनुष को झुकाकर बाण से लक्ष्य भेद करना था। वहां आए सभी राजा लक्ष्य भेद करना तो दूर धनुष को ही झुका नहीं सके। अंतत: अर्जुन ने उसमें भाग लिया। अर्जुन ने धनुष भी झुका लिया और लक्ष्य को भी भेद दिया। शर्त के अनुसार द्रौपदी का स्वयंवर अर्जुन के साथ हो गया। पाण्डव द्रौपदी को साथ ले कर कुटिया में आ गए। द्रुपद को यह सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ। वह अपनी पुत्री का विवाह अर्जुन जैसे वीर युवक के साथ करना चाहता था। द्रुपद ने पाण्डवों की वास्तविकता पता लगाने का एक उपाय किया। एक दिन राजभवन में भोज का आयोजन रखा। उसमें पाण्डवों को द्रौपदी और कुंती के साथ बुलाया गया। उन्होंने राजमहल को कई वस्तुओं से सजाया।
एक कक्ष में फल फूल, आसन, गाय, रस्सियां और बीज जैसी किसानों के उपयोग की सामग्री रखवाई। एक अन्य कक्ष में युद्ध में काम आने वाली सामग्री रखी गई। इस तरह सुसज्जित राजमहल में पाण्डवों को भोज कराया गया। भोजन के बाद सभी अपनी पसंद की वस्तुएं आदि देखने लगे। ब्राह्मण वेशधारी पाण्डव सबसे पहले उसी कक्ष में गए जहां अस्त्र-शस्त्र रखे थे। राजा द्रुपद उनकी सभी क्रियाओं को बड़ी सूक्ष्मता से देख रहे थे। वे समझ गए कि ये पांचों ब्राह्मण नहीं हैं। जरूर ये क्षत्रिय ही हैं। अवसर मिलते ही उन्होंने युधिष्ठिर से बात की और पूछ ही लिया सच बताएं आप ब्राह्मण हैं या क्षत्रिय। आपने ब्राह्मण के समान वस्त्र जरूर पहन रखे हैं पर आप हैं क्षत्रिय। युधिष्ठिर हमेशा सच बोलते थे। उन्होंने स्वीकार कर लिया कि वे सचमुच क्षत्रिय ही हैं और स्वयंवर की शर्त पूरी करने वाला व्यक्ति और कोई नहीं स्वयं अर्जुन ही है। यह जानकर द्रुपद खुश हो गया। वह जो चाहता था वही हुआ।
सोचें समझें तब कुछ बोलें...
हम कई बार अनजाने में ही कोई भी बात मुंह से निकाल देते हैं। बिना सोचे-समझें बोली गई कई बातें हमारा जीवन बदल देती हैं। कई बार थोड़ा सा गुस्सा या अनजाने में किया गया मजाक भी भारी पड़ सकता है। इसी कारण से विद्वानों ने कहा है कि हमेशा तौलों फिर बोलो। कई बार जरा सी बातें भी इतना तूल पकड़ती है कि उसका परिणाम आपकी जिंदगी की दिशा बदल देता है।
श्रीमद् भागवत पुराण में एक कथा इसी बात की ओर संकेत करती है। वृषपर्वा दैत्यों के राजा थे, उनके गुरु थे शुक्राचार्य। वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा और शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी दोनों सखी थीं लेकिन शर्मिष्ठा को राजा की पुत्री होने का अभिमान भी बहुत था। दोनों साथ-साथ रहती थीं, घूमती, खेलती थीं। एक दिन शर्मिष्ठा और देवयानी नदी में नहा रही थीं, तभी देवयानी ने नदी से निकलकर कपड़े पहने, उसने गलती से शर्मिष्ठा के कपड़े पहन लिए। शर्मिष्ठा से यह देखा न गया और उसने अपनी दूसरी सहेलियों से कहा कि देखो, इस देवयानी की औकात, राजकुमारी के कपड़े पहनने की कोशिश कर रही है। इसका पिता दासों की तरह मेरे पिता के गुणगान किया करता है और यह मेरे कपड़ों पर अधिकार जमा रही है।
देवयानी और शर्मिष्ठा में इस बात को लेकर झगड़ा हो गया। देवयानी ने सारी बात अपने पिता शुक्राचार्य को सुनाई और कहा कि अब हम इस राजा के राज में नहीं रहेंगे। शुक्राचार्य ने वृषपर्वा को सारी बात बताई और राज्य छोड़कर जाने का फैसला भी सुना दिया। चूंकि शुक्राचार्य मृत संजीवनी विद्या के एकमात्र जानकार थे और वे देवताओं से मारे गए दैत्यों को जीवित कर देते थे, उनके जाने से वृषपर्वा को बहुत नुकसान होता सो उसने शुक्राचार्य के पैर पकड़ लिए। शुक्राचार्य ने कहा तुम मेरी बेटी को प्रसन्न कर दो तो ही मैं यहां रह सकता हूं। वृषपर्वा ने देवयानी के भी पैर पकड़ लिए, देवयानी ने कहा तुम्हारी पुत्री ने मेरे पिता को दास को कहा है इसलिए अब उसे मेरी दासी बनकर रहना होगा।
वृषपर्वा ने उसकी बात मान ली और अपनी बेटी राजकुमारी शर्मिष्ठा को देवयानी की दासी बना दिया। उसके बाद पूरे जीवन शर्मिष्ठा को देवयानी की दासी बनकर ही रहना पड़ा। एक क्षण के गुस्से ने शर्मिष्ठा का पूरा जीवन बदल दिया।
जो है वो भी नहीं रहता अगर...
स्वार्थी लोग दूसरो का अच्छा या बुरा सोचे बिना आगे बढऩे की सोचते हैं। लालची आदमी हमेशा और अधिक पाने की चाह रखता हैं। जरुरतें पूरी की जा सकती है, लेकिन लालच नही, क्योंकि लालच मन का कैंसर है।
एक राजा का नियम था कि वह रोज अपने द्वार पर सबसे पहले आने वाले को मनचाहा दान देता था। एक दिन उसके राज्य के लालची किसान को जब यह बात पता चली तो उसने सोचा कि कल तो में राजा के दरवाजे सबसे पहले जाकर उस से ऐसा कुछ मांगूगा कि मैं मालामाल हो जाऊं। उसने ऐसा ही किया अगले दिन वह सुबह राजा के दरवाजे पर पहुंच गया। राजा ने बोला मांग लो क्या मांगना चाहते हो? उसने कहा राजा जी आप मुझे नहीं दे पाएंगे। राजा समझ गया कि ये बहुत लालची किस्म का इंसान है। जो भी मांगेगा इसके लालच में इसे कम ही लगेगा। राजा ने कहा तुम कौन हो तो वो बोला मैं एक किसान हूं। राजा ने कहा तो चलो तुम दौड़ लगाओ और सूरज डुबने के पहले तुम जहां तक बिना रूके दौड़ते जाओगे वहां से तुम्हे शुरुआत की जगह तक सूरज ढलने से पहले पंहुचना है। उस जगह तक की जमीन तुम्हारी। किसान खुश हो गया। उसने सोचा राजा कितना बेवकूफ है। इसे इतना भी समझ नहीं आता कि ऐसे तो इसकी सारी भूमि का स्वामी मैं बन जाऊंगा। अब किसान ने दौडऩा शुरु किया। ज्यादा से ज्यादा जमीन पाने के लिए वह किसान दूसरे दिन सूरज निकलने से पहले ही निकल पड़ा। वह काफी तेजी से दौडऩे लगा। वह ज्यादा से ज्यादा जमीन हासिल करना चाहता था। थकने के बावजुद वह सारी दोपहर दौड़ता रहा। क्योंकि वह जिन्दगी में दौलत कमाने के उस मौके को गवाना नहीं चाहता था।दिन ढलते वक्त उसे शर्त याद आयी कि उसे सूरज डूबने के पहले उसे शुरुआत की जगह पहुंचना है। अपनी लालच की वजह से वह उस जगह से काफी दूर निकल चुका था। सूरज के डूबते-डूबते वह शुरूआत की जगह से काफी दूर था। सूरज डूबने का वक्त ज्यो-ज्यो पास आ रहा था। वह बुरी तरह से हांफने लगा, फिर भी वह बर्दाश्त से अधिक तेज भागने लगा। नतीजा यह हुआ कि सूरज डूबते- डूबते वह शुरुआत वाली जगह पर पहुंचा तो गया, पर उसका दम निकल गया और वह मर गया। उसको दफना दिया गया। उसे दफन करने के लिए जमीन के बस एक छोटे से टूकड़े की ही जरुरत पड़ी। इस कहानी में एक काफी सच्चाई और एक सबक छिपा है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता किसान अमीर था, या गरीब। किसी भी लालची व्यक्ति का ऐसा ही हश्र होता है।
मुस्कुराहट से बनती हैं जिंदगी
जीवन के आनंद को, जीवन के रस को और जीवन के गीतों को, जो प्राप्त नहीं कर पाते, वे कहते हैं जीवन बुरा है, जीवन अर्थहीन है। अपनी असफलता को छुपाकर और रो कर कोई भी अपने जीवन को सुखी नहीं बनाया जा सकता। हारे हुए लोग अपने आप को दोष न देकर जीवन को ही दोष देते हैं। जिनकी जिन्दगी में मुस्कुराहट नहीं होती वे कभी अपने जीवन को पूर्णता के साथ नहीं जी पाते। इसलिए जिन्दगी के हर पल को मुस्कुराहट के साथ स्वीकार कीजिए। तभी जिन्दगी को आनंद के साथ जी पाएंगे।
तीन बहुत गहरे दोस्त थे। तीनों बहुत खुश मिजाज और जिन्दगी को खुलकर जीने में यकीन रखते थे। जहां भी वे जाते वहां खुशी और हंसी की लहर फैल जाती। उन तीनों से जो भी मिलता, उसे वे इस तरह मिलते की मिलने वाले के मन में खुशी की लहर दौड़ जाती। अक्सर लोग उनसे पूछते कि आप इतना खुश कैसे रह लेते हैं। उन्होने कहा जीवन में हंसी का भाव स्वीकार कर लेते हैं। तो जीवन अपने आप ही खुशियों से भर जाता है। जो जीवन को रोते हुए स्वीकार करेगा तो उसका जीवन से कोई संबंध नहीं हो सकता। भगवान को भी रोते हुए लोग पसंद नहीं है, भगवान के दिए इस जीवन को जो हंसी-खुशी अपनाता है, भगवान उसे ही मिलते हैं। मुस्कुराहट ही किसी के जीवन को सफल बना सकती है क्योंकि इंसान हो या भगवान हर कोई मुस्कुराते हुए चेहरों को पसंद करता है। मुस्कुराहट ही वह मार्ग है जिससे परमात्मा को प्राप्त किया जा सकता है। समय बीतता गया तीनों बूढ़े हो गए । उन तीनों में से एक दिन एक की मृत्यु हो गई। लोगों ने सोचा अब तो ये रोएंगे जरुर, अब तो दुखी होंगे जरुर, आज तो हम उनकी आंखों मे आंसू देख लेंगे। उनकी पहचान के सारे लोग इकठ्ठे हो गए, लेकिन वो दोनो हंसते हुए अपने मरे हुए दोस्त को लेकर बाहर निकले और उन्होने गांव के लोगों से कहा कि आओ और देखो, कितना अद्भुत आदमी था। लोगों ने देखा जो उस आदमी की लाश पड़ी है लेकिन उसके होंठ मुस्कुरा रहे हैं। वह आदमी जो मर गया है वह हंसते हुए ही मर गया। वह अपने मित्रो को कह गया कि मैं मर जाऊं तो एक कृपा करना, मेरी लाश को स्नान मत करवाना और नए कपड़े भी मत पहनाना । दोनो दोस्तों ने उसकी अंतिम इच्छा का पालन किया। अब सारे परिचित लोग उसकी लाश को लेकर शमशान पहुंचे। वहां जैसे ही उसकी चिता को आग दी गई। आग लग गई ,लोग उदास खड़े हैं लेकिन फिर एकदम धीरे-धीरे भीड़ में हंसी छुटने लगी, लोग हंसने लगे। हंसी फैलती चली गई,जैसे ही लाश में आग लगी, लोगों को पता चला कि वह आदमी अपने कपड़ो के भीतर पटाखे और फुलझड़ी छिपा मर गया है। कपड़े से उसने भीतर पटाखे फुलझड़ी छिपा का मर गया है। लोग हंसने लगे और वे कहने लगे कि अद्भुत था। वह आदमी वह मरा हंसता हुआ, जीया हंसता हुआ और मरने के बाद भी लोग हंसते ही विदा दें इसकी व्यवस्था, इसका आयोजन कर गया। उन सभी लोगों को पता चल गया था कि हंसते हुए जीया जा सकता है। हंसते हुए मरा भी जा सकता है। मरने के बाद भी हंसी की संभावना पैदा की जा सकती है।
मन चंगा तो कठौती में गंगा
कहते हैं मन में श्रद्धा हो तो अपने भीतर ही भगवान के दर्शन किये जा सकते है। फिर न तो आपको मंदिर जाने की जरूरत है न मस्जिद और न ही किसी तीर्थ यात्रा पर।श्रद्धा और विश्वास के साथ प्रभु के प्रति समर्पण भाव से ही ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है।
संत रैदास जूते गांठने का काम किया करते थे। जिस रास्ते पर रैदास बैठा करते थे वहां से कई ब्राह्मण गंगा स्नान के लिए जाते थे। किसी विशेष पर्व के समय एक पंडित ने रैदास से गंगा स्नान को चलने के लिए कहा तब रैदास जूते गांठते हुए बोले कि पंडि़त जी मेरे पास समय नहीं है। जब पंडि़त पैसे देने लगा तो रैदास बोले कि पंडि़त जी आप मुझे पैसे मत दीजिए पर मेरा एक काम कर दीजिए, फिर अपनी जेब में से चार सुपारी निकालते हुए कहा कि ये सुपारियां मेरी ओर से गंगा मइया को दे देना।
पंडित जी ने स्नान के बाद सोचा कि बड़े-बड़े संतों के लिए गंगा मइया को फुरसत नहीं और ये रैदास कितना घमंड़ी है फिर भी रैदास का सच जानने के पंडि़त जी ने गंगा में सुपारी ड़ालते हुए कहा कि रैदास ने आपके लिए भेजी हैं। जैसे ही पंडितजी वापस आने लगे तभी गंगा मां प्रकट हुईं और पंडित को एक कंगन देते हुए कहा कि यह कंगन मेरी ओर से रैदास को दे देना। हीरे जड़े कंगन को देख कर पंडित के मन में लालच आ गया और उसने कंगन को अपने पास ही रख लिया।
कुछ समय बाद पंडित ने वह कंगन राजा को भेंट में दे दिया। रानी ने जब उस कंगन को देखा तो प्रसन्न होकर दूसरे कंगन की मांग करने लगीं। राजा ने पंडित को बुलाकर दूसरा कंगन लाने को कहा। पंडित घबरा गया क्योंकि उसने रैदास के लिए दिया गया कंगन खुद रख लिया था और उपहार के लालच में राजा को भेंट कर दिया था। वह रैदास के पास पहुंचा। रैदास ने जब पंडित को मुसीबत में देखा तो दया आ गयी। तब रैदास ने अपनी कठौती (पत्थर का बर्तन जिसमें पानी भरा जाता है) में जल भर कर भक्ति के साथ मां गंगा का आवाहन किया। गंगा मइया प्रसन्न होकर कठौती में प्रकट हुईं और रैदास की विनती पर उसे दूसरा कंगन भी भेंट किया। रैदास ने कंगन पंडित को देते हुए राजा को दे आने के लिए कहा। रैदास ने पंडित को समझाया कि भक्ति के लिए स्नान, तीर्थ और पूजापाठ का प्रदर्शन करने की जरूरत नहीं होती, अगर आपका मन साफ हो तो भगवान आप पर यूं ही प्रसन्न रहता है। आप उसे अपने भीतर ही महसूस कर सकते हैं
सबका अपना एक स्वभाव होता है
परमात्मा ने सभी जीवों को अपना अलग-अलग स्वभाव दिया है। सभी प्राणी उसी स्वभाव के अनुसार जीवन जीते हैं। जैसे बिच्छु का स्वभाव होता है डंक मारना। ऐसी ही एक कथा है: एक ज्ञानी और तपस्वी संत थे। दूसरों के दुख दूर करने में उन्हें परम आनंद प्राप्त होता था। एक बार वे सरोवर के किनारे ध्यान में बैठे हुए थे। तभी उन्होंने देखा एक बिच्छु पानी में डूब रहा है। वे तुरंत ही उसे बचाने के लिए दौड़ पड़े। उन्होंने जैसे ही बिच्छु को पानी से निकालने के लिए उठाया उसने स्वामीजी को डंक मारना शुरू कर दिया और वह संत
के हाथों से छुटकर पुन: पानी में गिर गया। स्वामीजी ने फिर कोशिश परंतु वे जैसे ही उसे उठाते बिच्छु डंक मारने लगता। ऐसा बहुत देर तक चलता रहा, परंतु संत ने भी हार नहीं मानी और अंतत: उन्होंने बिच्छु के प्राण बचा लिए और उसे पानी से बाहर निकाल लिया। वहीं एक अन्य व्यक्ति इस पूरी घटना को ध्यान से देख रहा था। जब संत सरोवर से बाहर आए तब उस व्यक्ति ने पूछा- स्वामीजी मैंने देखा आपने किस तरह जहरीले बिच्छु के प्राण बचाए। बिच्छु को बचाने के लिए अपने प्राण खतरे में डाल दिए। जब वह बार-बार डंक मार रहा था तो फिर आपने उसे क्यों बचाया? इस प्रश्न को सुनकर स्वामीजी मुस्काए और फिर बोले- बिच्छु का स्वभाव है डंक मारना और मनुष्य का स्वभाव है दूसरों की मदद करना। जब बिच्छु नासमझ जीव होते हुए भी अपना डंक मारने का स्वभाव अंत समय तक नहीं छोड़ रहा है तो मैं मनुष्य होते हुए दूसरों की मदद करने का मेरा स्वभाव कैसे छोड़ देता। बिच्छु के डंक मारने से मुझे असनीय पीड़ा हो रही है परंतु उसकी जान बचाकर मुझे जो परम आनंद प्राप्त हुआ उससे मैं बहुत खुश हूं।
अधिकारों का करें सही उपयोग
अक्सर हम देखते हैं कि बड़े पदों पर आसीन लोगों को कुछ विशेष अधिकार मिल जाते हैं जिनका उपयोग और दुरुपयोग दौनों ही उनके हाथों में होता है कभी कभी ऐसे लोग अपने अधिकारों का गलत फायदा उठाते हैं और उनके नीचे के लोग डर के मारे कुछ बोल भी नहीं पाते लेकिन यदि कोई बड़ा आदमी अपने अधिकारों का प्रयोग सही ढंग से लोगो की भलाई के लिए करें तो वह सभी की नजरों में सम्मानीय हो जाता है। भारतीय चिकित्सक चरक के जीवन का यह किस्सा इसी बात को बताता है।
चरक कई रोंगों के सटीक इलाज में माहिर थे वे हमेशा कोई न कोई शोध करते ही रहते थे और खुद ही अपनी दवाईयां भी बनाया करते और बीमांरियों का इलाज करते। राजा की ओर से उन्हें यह छूट थी कि वे अपने इस काम के लिए किसी भी खेत या बाग से जड़ी बूटी आदि ले सकते थे। एक दिन वे अपने शिष्यों के साथ औषधियों की तलाश में जंगल में जा रहे थे अचानक उन्हें एक खेत में कुछ जड़ी बूटी दिखाई दी उनके शिष्यों ने जब उन्हें तोडऩा चाहा तो चरक ने कहा कि पहले खेत के मालिक से पूछ लो तब उनके शिष्यों ने उन्हें मिली राजाज्ञा का हवाला दिया तो वे बोले कि राजाज्ञा के बाद भी खेत स्वामी की आज्ञा लेना बहुत जरूरी है यह नैतिकता का तकाजा है कि हमें कभी अपने अधिकारों का गलत फायदा नहीं उठाना चाहिए।
अहम हो भी तो किसका...?
व्यक्ति के जीवन में एक समय ऐसा भी आता है जब वह सभी तरह की सुख-सुविधाओं से परिपूर्ण और वैभव-विलासिताओं से अपने आप को घिरा पाता है।
तब यदि उसे अपना बीता हुआ कल या संघर्ष याद रहता है तो वह अपना जीवन, सादा जीवन-उच्च विचार की तर्ज पर ही बिताता है पर अकसर देखा गया है कि वैभव या अधिक सुख व्यक्ति में अहम पैदा कर देता है।
एक वैज्ञानिक था। उसने अपने पूरे जीवन को एक अहम खोज के लिए समर्पित कर दिया था। उसकी खोज थी अपनी ही शक्ल और हाव-भाव का एक और निर्जीव प्राणी बनाना।
एक दिन उसका यह आविष्कार भी पूरा हो गया। लेकिन दैव-योग से उसे यह आभास हुआ कि वह अब ज्यादा दिनों तक जिंदा नहीं रह सकता।
लेकिन वह मरना नहीं चाहता था। उसने अपनी शक्ल के दस पुतले बनाये और निश्चित दिन वह उनके साथ मिलकर खड़ा हो गया। यमदूत आये और एक ही चेहरे के ग्यारह लोगों को देखकर असमंझज में पड़ गये। काफी देर रुकने के बाद वे वापस चले गए और धर्मदेव को सब बातें कह सुनाई।
सब बातें सुनकर धर्मराज खुद वहां आये और आते ही सब माजरा समझ गए। उन्होंने कहा- यद्यपि सभी पुतले काफी बढिय़ा और एक जैसे हैं पर लगता है जैसे कहीं कोई कमी रह गई हो।
इतना सुनते ही वह वैज्ञानिक सामने आ गया और अहंकार में भर कर बोला कि बताईए कहां और किस पुतले में कमी रह गई है। धर्मराज ने तुरंत उसे अपने पाश में जकड़ते हुए कहा कि इसी में कमी रह गई थी जो आज पूरी हो गई।
कहानी का सार यही है कि पद, वैभव, विलासिता और
सुख की अधिकता के कारण व्यक्ति को अपना कल यानि मृत्यु नहीं भूलना चाहिए। खासकर अहं को तो अपने जीवन से हटा ही देना चाहिए। आखिर अहम हो भी तो किसका ?
अपने जीवनसाथी की कमजोरी को महसूस करें
ज्यादातर दाम्पत्य संबंधों में खटास तभी आती है जब पति-पत्नी एक-दूसरे की परेशानियों को नहीं समझ पाते। दोनों एक दूसरे को नजर अंदाज करने लगते हैं। ऐसे में स्थिति बिगड़ती है और फिर रिश्ता टूटने तक की नौबत आ जाती है।
अगर दाम्पत्य को जीवनभर खुशहाली भरा रखना है तो इसके लिए एक-दूसरे की परिस्थिति, परेशानी और मनोदशा को समझना, उसे महसूस करना बहुत जरूरी है। महाभारत का यह प्रसंग इस ओर इशारा करता है।
धृतराष्ट्र जन्म से अंधे थे। जब वे जवान हुए तो उनकी दादी सत्यवती और भीष्म को उनकी शादी की चिंता सताने लगी। भीष्म हस्तिापुर से काफी दूर गंधार देश गए, जहां की राजकुमारी गांधारी काफी सुंदर थीं। गांधारी के पिता ने भीष्म को यह कहकर रिश्ते के लिए मनाकर दिया कि वे एक अंधे राजकुमार से अपनी बेटी की शादी नहीं कर सकते। यह बात गांधारी तक पहुंची। गांधारी ने इस बात को बहुत गहराई से लिया, उसने सोचा कि धृतराष्ट्र को अंधे होने के कारण कितना अपमानित होना पड़ रहा है। लेकिन कोई उनकी परेशानी को समझ नहीं सकता। उसने धृतराष्ट्र से ही विवाह करने की ठान ली। गांधारी ने धृतराष्ट्र की परेशानी को महसूस करने के लिए अपनी आंखों पर कपड़े की मोटी पट्टी बांध ली। जो तमाम उम्र बंधी रही।
समय के साथ अपनी सोच भी बदलें
समय के साथ-साथ हमारी सोच में परिवर्तन भी आवश्यक है क्योंकि जीवन का हर पल हमारे लिए कुछ नया लेकर आता है। ऐसे में पुराने विचारों के सहारे हम हमारे जीवन को सार्थक कर पाने में प्राय: असफल ही होंगे। सफल होने के लिए हमें अपनी सोच में कुछ परिवर्तन लाना जरुरी हैं। जब भी हम किसी कार्य में असफल हों इस बात पर विचार अवश्य करें कि इस असफलता का कारण क्या है और इसमें नया क्या किया जा सकता है जिससे कि हमें सफलता मिले।
एक व्यापारी अपने गांव से शहर में जाकर टोपी बेचने का धंधा करता था। वर्षों से उसका एक क्रम था कि वह जब जाता तो रास्ते में एक पेड़ के नीचे भोजन करके कुछ देर विश्राम करता । उस पेड़ पर बहुत सारे बंदर थे वो उसके झोले में से टोपियां निकाल लेते और खेलते थे। व्यापारी जानता था कि बंदर नकलची होते हैं तो वह अपने सिर की टोपी निकालकर फेंकता और इसी तरह बंदर भी अपनी टोपियां निकालकर फेंक देते थे। व्यापारी उन्हें समेटता और चला जाता। यह क्रम सालों तक चलता रहा।
जब व्यापारी बूढ़ा हो गया और उसने उसके बेटे से कहा कि यह धंधा अब तुझे करना है। व्यापारी ने बंदर वाली बात उसे बताई और उपाय भी बताया कि किस तरह बंदरों के सामने अपनी टोपी फेंकना और वे भी टोपी फेंक देंगे। तो पहली बार जब व्यापारी का बेटा गया तो वैसा ही हुआ बंदरों ने उसके झोले से टोपी निकाली और खेलने लगे तो व्यापारी के बेटे ने अपनी टोपी फेंक दी। इस बार बंदरों ने अपनी टोपी नहीं फेंकी बल्कि व्यापारी के बेटे की भी टोपी उठाकर चल दिए।
व्यापारी के बेटे ने अपने पिता की सोच का ही अनुसरण किया जबकि उसे कोई युक्ति सोचनी थी।
प्रेम की पहचान तो ऐसे ही होती है
कहते हैं प्रेम की पहचान के लिए कोई शब्द और साक्ष्य की जरूरत नहीं होती। प्रेम आंखों से ही झलक जाता है। पति-पत्नी हो या प्रेमी-प्रेमिका, वे प्रेम की भावनाओं को आंखों से ही समझ जाते हैं। विद्वान कहते हैं कि वो रिश्ता प्रेम का हो ही नहीं सकता, जिसमें भावनाओं को शब्दों से बताया जाए। प्रेम तो वह होता है जिसमें बिना कुछ बोले और बिना कुछ सुनें हम अपनों की बात समझ जाएं।
पुराणों में नल-दयमंती की प्रेम कहानी ऐसी ही है। दयमंती एक सुंदर राजकुमारी थी। उसके राज्य से बहुत दूर किसी दूसरे राज्य में नल नाम का राजा था। नल बहुत पराक्रमी और सुंदर था। नल के राज उद्यान में दो हंस थे। उन्होंने नल को दयमंती की सुंदरता के बारे में बताया और उससे आग्रह किया कि वो दयमंती को अपनी रानी बना ले। दोनों हंसों ने दयमंती को भी जाकर नल की सुंदरता और वीरता का बखान कर दिया। दयमंती ने नल को मन ही मन अपना पति मान लिया। नल ने भी दयमंती को अपना मान लिया। दोनों में संदेशों का आदान-प्रदान होने लगा। कुछ समय के बाद दयमंती का स्वयंवर रखा गया। जिसमें न केवल धरती के राजा, बल्कि देवता भी आ गए। नल भी स्वयंवर में जा रहा था। देवताओं ने उसे रोककर कहा कि वो स्वयंवर में न जाए।
उन्हें यह बात पहले से पता थी कि दयमंती नल को ही चुनेगी। सभी देवताओं ने भी नल का रूप धर लिया। स्वयंवर में एक साथ कई नल खड़े थे। सभी परेशान थे कि असली नल कौन होगा। लेकिन दयमंती जरा भी विचलित नहीं हुई, उसने आंखों से ही असली नल को पहचान लिया। सारे देवताओं ने भी उनका अभिवादन किया। इस तरह आंखों में झलकते भावों से ही दयमंती ने असली नल को पहचानकर अपना जीवनसाथी चुन लिया।
समस्याओं से घबराएं नहीं, सामना करें
जीवन में कई ऐसे अवसर आते हैं जब एक साथ कई समस्याएं जीवन को मुश्किल कर देती है। ऐसे समय में हम मुश्किलों से भागने की कोशिश करते हैं। हम जीतना भागते हैं मुश्किलें उतना हमारे पीछे भागती हैं। अगर हम उस मुश्किल हालात में मुसीबतों का डंटकर सामना करें तो एक समय ऐसा आता है जब मुश्किल खुद-ब-खुद आसान हो जाती है।
एक बार एक स्वस्थ आदमी पागलखाना देखने के लिए गया। वहां उसने एक पागल को देखा जो बहुत मोटा-तगड़ा था। उसने सोचा इसे परेशान करता हूं तो उसने जो पागल था उसके पेट पर एक अंगुली रख दी। ऐसा करने से पागल भड़क गया और जो निरिक्षण करने गया था उस आदमी के पीछे दौड़ा लगा दी। इस घटना से वह आदमी एकदम डर गया क्योंकि पागल लगातार उसके पीछे दौड़ता हुआ आ रहा था। दौड़ते-दौड़ते हुए वह आदमी एक पहाड़ी पर चढ़ गया। पहाड़ी के आगे खाई थी। अब उस आदमी को लगा कि एक कदम आगे बढ़ा तो खाई में गिर जाऊंगा और यहीं खड़ा रहा तो यह पागल मुझे छोड़ेगा नहीं। डर के मारे उसने आंखे बंद कर ली। तब तक पागल उसके पास आ गया था और जैसे ही पागल ने हाथ उठाया तो ये डर के मारे नीचे बैठ गया। पागल ने एक अंगुली ली और उसके आदमी के पेट पर रखी और उल्टे पैर भाग गया।
दूसरों के कहने पर न जाएं, अपनी अक्ल लगाएं
कई बार ऐसा होता है कि हम दूसरों के कहने पर ही हर काम कर लेते हैं और अपनी बुद्धि का उपयोग ही नहीं करते। और जब तक बात हमारे समझ में आती है बहुत देर हो चुकी होती है। जबकि होना यह चाहिए कि दुसरों की बात को पहले हम अपनी कसौटी पर कसे और फिर निर्णय लें कि हमें क्या करना चाहिए और क्या नहीं? ऐसा करने से हम कभी धोखा नहीं खाएंगे और न ही कभी नुकसान उठाना पड़ेगा।
एक आदमी मछली बेचने का व्यापार करता था। उसकी एक दुकान थी जिस पर बोर्ड लगा था और उस बोर्ड पर लिखा था- फ्रेश फीश सोल्ड हियर। एक दिन उसके यहां एक मित्र आया वो बोला- जब तुम फ्रेश फीश ही बेचते हो तो लिखने की क्या आवश्यकता है। तब उसने मछली बेचने वाले ने बोर्ड पर से फ्रेश हटा दिया।
थोड़े दिन बाद कोई दूसरा मित्र मिलने वाला आया वह बोला- तुम मछली यहां ही बेचते हो या और कहीं भी बेचते हो? तो वह बोला- सिर्फ यही बेचता हूं। तो वह मित्र बोला- तो इसमें लिखने की क्या आवश्यकता है। तो दुकानदार ने हियर भी हटा दिया। अब बचा सिर्फ फीश सोल्ड।
एक दिन और कोई परिचित आया वह बोला- सोल्ड लिखा है तो बेचते ही हो फ्री तो देते नहीं हो तो इसे भी हटाओ। अब बोर्ड पर लिखा रह गया सिर्फ फिश। कुछ दिनों बाद फिर कोई आया तो उसने कहा बदबू के कारण दूर-दूर तक पता चलता है कि यहां मछली बिकती है तो यह लिखने की क्या जरुरत है। उसने फिश भी मिटा दी।
और फिर एक दिन किसी ने कहा कि जब कुछ लिखा ही नहीं है तो बोर्ड भी हटा दो। तो इस तरह उस दुकान पर लगा बोर्ड हट गया।
सच कड़वा होता है लेकिन इसे स्वीकार करें
यह व्यक्ति का स्वभाव होता है कि वह प्रकृति के नियमों को जानता तो है लेकिन फिर भी उसे पूरे मन से स्वीकार नहीं करता। मृत्यु एक सच है, सभी को एक दिन मरना है लेकिन हर आदमी यह सोचता है कि वह अभी नहीं मर सकता। हम अगर प्रकृति के नियमों को जानते हैं तो उसे स्वीकार भी करना चाहिए।
मौत से कोई बच नहीं सकता यह सच है लेकिन मौत किसकी और कब आएगी यह प्रकृति तय करती है। हमारी जान किसके कारण बची हुई है, यह कोई नहीं जानता, इसलिए कभी सबसे कमजोर का साथ भी मुसीबत के वक्त नहीं छोडऩा चाहिए। बहुत पुरानी बात है, कुछ गांववाले अपने गांव से दूसरे गांव जा रहे थे। बीच में जंगल पड़ता था। गांव वालों की टोली में एक वृद्ध और चार युवक थे। अचानक जोर से बारिश होने लगी और बिजली कड़कने लगी।
सभी एक घने पेड़ के नीचे खड़े हो गए। जोरदार बिजली कड़कने लगी। बिजली गिरती लेकिन उस पेड़ के पास आकर लौट जाती, जिसके नीचे सभी खड़े थे। बूढ़े आदमी ने इस बात पर गौर किया और सबको बताया। सभी डर गए। बूढ़े ने कहा मुझे लगता है हममें से किसी की मौत इस घड़ी, इस बिजली से होने वाली है लेकिन जिनकी जिंदगी बाकी है, उनके कारण बिजली बार-बार पेड़ तक आकर लौट रही है। बूढ़े की बात सुन सभी घबरा गए। कोई कहने लगा मेरे बीवी बच्चे अकेले हैं, कोई कुंवारा था, किसी के बूढ़े मां-बाप थे। बात बूढ़े पर ही आ गई, युवकों ने कहा तुमहारी उम्र है मरने की, तुमने दुनिया भी देख ली है।
तुम्हारी ही मौत आई है। बात बिगड़ते देख, बूढ़े ने एक उपाय बताया, उसने कहा लडऩे से कुछ नहीं होगा। हमें मौत को स्वीकार करना चाहिए। हम बारी-बारी सामने वाले पेड़ के नीचे खड़े हो जाते हैं। जिसकी मौत आई होगी, उस पर बिजली गिर जाएगी। सभी डरे लेकिन कोई रास्ता भी नहीं था। अंतत: सभी मान गए। एक-एक करके पहले चारों युवक सामने वाले पेड़ के नीचे जाकर खड़े हुए लेकिन बिजली आकर लौट जाती।
चारों की जान में जान आ गई। सभी ने भगवान का शुक्रिया अदा किया कि उनकी मौत नहीं आई। अब बारी बूढ़े की थी। सभी ने उसे भारी मन से विदा किया। बूढ़ा इसे प्रकृति का निर्णय मानकर सामने वाले पेड़ के नीचे खड़ा हो गया। आसमान की तरफ देखकर बिजली का इंतजार करने लगा। तभी अचानक बिजली गिरी लेकिन उस पेड़ पर जिसके नीचे चारों युवक खड़े थे। बूढ़े ने देखा बिजली से पेड़ टूट गया और चारों युवक उसके नीचे दबकर मर गए।
मत सोचो नेगेटिव... होगा सब अच्छा
सभी की जिन्दगी में उतार चढ़ाव आते हैं। कदम-कदम पर मुश्किलें आती हैं। हम सब जानते हैं, मुश्किलों की सबसे बुरी आदत ये ही की वे बिना बुलाए आ जाती है और उससे भी बुरी हमारी आदत नेगेटीव सोचने की। कई बार छोटी सी मुसीबत या परेशानी को हम इतनी बड़ी मान लेते हैं कि परिस्थिति का सामना करने से पहले ही हम हार मान बैठते हैं। ऐसे में जिन्दगी एक बोझ सी बन जाती है और बेमकसद हो जाती है। हम अपने आप को दुनिया का सबसे परेशान और बदकिस्मत व्यक्ति मान लेते हैं। ऐसे में खुद को तो तनावग्रस्त कर ही लेते हैं साथ ही हमसे जुड़े लोगों की जिन्दगी को भी तनाव से भर देते हैं।
एक बच्चे से उसके माता पिता बहुत प्यार करते थे। जैसे की सभी के माता-पिता करते हैं लेकिन उसकी कहानी कुछ अलग थी। उसके पेरेन्टस का प्यार सामान्य नहीं था। असामान्य था क्योंकि वो चाहते थे कि उनके बच्चे को इस बुरी दुनिया का सामना ना करना पड़े। वो चाहते थे कि वह बड़ा होकर बहुत बड़ी शख्सियत बने।इसीलिए उन्होंने अपने बच्चे को बाहरी माहौल से दूर रखा। उसे बाहर के बच्चों के साथ खेलने नहीं देते। बाहर के लोगों से बात नहीं करने देते। किसी रिश्तेदार से उसे मिलने भी नहीं देते। स्कूल भेजने की बजाय घर पर ही उसकी पढ़ाई की व्यवस्था कर दी। अब उस बच्चे की उम्र बड़ी तो माता-पिता दोनों ने सोचा कि अब हमारा बेटा अठारह साल का हो गया है। अब हमारा सपना पूरा होने का समय आ गया है। उन्होंने उसका एडमिशन एक बड़े मेडिकल कालेज में करवा दिया।
अब वह पहली बार कालेज गया उसने अपने आप को बाहरी माहौल में बड़ा असहज महसूस किया। वह दो दिनों में ही बाहरी दुनिया और उसके लोगों से परेशान हो गया। नतीजा ये हुआ कि उसने अपने माता-पिता से कहा कि वो उसे आकर यहां से ले जाए वरना वह होस्टल की बिल्डिंग से कूद कर अपनी जान दे देगा। माता-पिता घबरा गए और उसे घर ले आए।दरअसल उस लड़के को बाहर की दुनिया और आजादी रास नहीं आ रही थी क्योंकि वह तो कैद में रहने का आदी हो चुका था। उसे अपने फैसले खुद लेने की आदत नहीं थी। वह बाहरी दुनिया का तनाव बर्दाश्त नहीं कर पा रहा था। उसके माता- पिता को आज अपनी भूल का एहसास हुआ लेकिन अब वक्त गुजर चुका था।
अगर हमारा नजरिया नकारात्मक होगा तो हमारी जिन्दगी सीमाओं में कैद हो जाएगी। हो सकता है सकारात्मक नजरिया विकसित करने के लिए हमें थोड़ी मुसीबतों का सामना करना पड़े और बदलाव के कारण अनिश्चितता महसूस हो लेकिन ये निश्चित है कि जब हम हर परिस्थिति को सकारात्मक ढंग से लेने के आदी हो जाएंगे तो एक दिन हम सफल जरुर होंगे।
जब न समझे कोई आपकी तकलीफ को
जब आपकी किसी तकलीफ को कोई समझ ना पाएं तो ये ना सोंचे की आपको कोई नहीं समझता क्योंकि आपकी तकलीफ या परेशानी को सिर्फ वही समझ सकता है जो खुद कभी उस परेशानी से गुजरा हो क्योंकि किसी की तकलीफ को कोई भी तभी समझ सकता है जब उसने भी उन विषम परिस्थितियों का सामना किया हो।
एक कुत्ता बेचने वाला था उसने कई कुत्तों को पाला ताकि वह उन्हे बेचकर अच्छा पैसा कमा सके । धीरे-धीरे कुत्तो की संख्या बढऩे लगी। बढ़ते - बढ़ते इतनी बढ़ गई की उसे उन्हे सम्भालना मुश्किल होने लगा। अब वह परेशान होने लगा उसे लगने लगा कि कोई भी उसके कुत्तों को बस खरीद ले। इसके लिए उसने कुत्तों की सेल लगा दी। उसके पास एक छोटा सा लड़का आया। उसने कहा अंकल मुझे एक कुत्ता चाहिए, लेकिन मेरे पास सिर्फ पचास रुपए ही हैं। क्या आप मुझे इतने पैसों में एक कुत्ता दे पाएंगे। उस बच्चे की मासूम शक्ल देखकर उस आदमी को उस पर प्यार आ गया। वह बोला हां जो तुम्हे पसंद आएगा में तुम्हे वो कुत्ता देने को तैयार हूं। उस बच्चे ने कहां तो ठीक है आप जो मुझे सफेद रंग का कुत्ता सामने वाले पपी हाउस में मुझे यहां से दिखाई दे रहा दिजिए। वह बोला ठीक है वह आदमी उस कुत्ते को लेने के लिए जाता है तभी दूसरी तरफ एक कुत्ता लुढ़कता हुआ आता है और उसके पैर में आकर गिर जाता है। वह बच्चा दो मिनट तक खड़ा कुछ सोचता रहता है और अपनं पैरों में पड़े उस कुत्ते को उठाकर दूकानदार से कहता है, अंकल मुझे यही कुत्ता चाहिये। वह आदमी उस बच्चे से कहता है कि बेटा तुम इस कुत्ते को मत खरीदा। इसके पैर पूरी तरह से बेकार है, इससे ना तुम ठीक से खेल पाओगे और ना ये तुम्हारे साथ तब वो बच्चा अपने पेंट को उपर चढा़ते हुए। बोलता है अंकल यही पपी मेरा सबसे अच्छा दोस्त बन सकता है। क्योंकि ये मेरी तकलीफ को अच्छे से समझ सकता है और मैं इसकी। जब वो आदमी उस बच्चे के पैरों की तरफ देखता है तो उसके नकली पैरों को देखकर चुप हो जाता है और उसे वही कुत्ता सौंप देता है।
क्योंकि मौके बार बार नहीं आते
सामान्यत: सभी को जीवन में सफलता और सुख के लिए कई मौके मिलते हैं। कुछ लोग सही अवसर को पहचान कर उससे लाभ प्राप्त कर लेते हैं। वहीं कुछ लोग मूर्खतावश सही मौके को समझ नहीं पाते और सफलता, सुख-समृद्धि से मुंह मोड़ लेते हैं।
एक लड़का था, नाम था उसका सुखीराम। वह बहुत परेशान और दुखी था। सुखीराम के पास कोई खुश होने की कोई वजह नहीं थी। वह शिवजी का भक्त था। उसने भगवान की भक्ति से अपनी किस्मत बदलने की सोचा। अब वह दिन-रात भगवान की भक्ति में डूबा रहता। कुछ ही समय में परमात्मा उसकी श्रद्धा से प्रसन्न हो गए और उसके समक्ष प्रकट हो गए।
भगवान को अपने सामने देखकर सुखीराम ने अपने दुखी जीवन की कहानी सुनाना शुरू कर दी। वह विनती करने लगा कि उसे सभी सुख और ऐश्वर्य के साथ-साथ सुंदर और गुणवान पत्नी भी मिल जाए। इस पर शिवजी ने उसे अपनी किस्मत बदलने के लिए तीन मौके देने की बात कही। शिवजी ने कहा कि कल तुम्हारे घर के सामने से तीन गाय निकलेगी। किसी भी एक गाय की पूंछ पकड़ कर उसके पीछे-पीछे चले जाना तुम्हें सभी सुख प्राप्त हो जाएंगे। ऐसा वर पाकर सुखीराम खुश होकर अपने घर लौट आया। वह सुबह उठकर अपने घर के बाहर गाय के निकलने की प्रतिक्षा करने लगा। थोड़ी ही देर में एक सुंदर सुजसज्जित गाय निकली, उसे देखकर सुखीराम सोचने लगा कि दो गाय और आना है, शायद अगली गाय और ज्यादा धन, वैभव और सुख-समृद्धि देने वाली हो। इतना सोचते-सोचते वह पहली गाय उसके सामने से निकल गई। दूसरी गाय आई, वह बहुत ही गंदगी लिए हुए थी, उसके पूरे शरीर पर गोबर लगा हुआ था। उसे देखकर सुखीराम सोचने लगा इतनी गंदी गाय के पीछे कैसे जा सकता हूं? और वह तीसरी गाय का इंतजार करने लगा। तीसरी गाय आई तो उसकी पूंछ ही नहीं थी। सुखीराम सिर पकड़कर बैठ गया और अपनी किस्मत को कोसने लगा।
कहानी का सारंश यही है कि सही मौका मिलते ही उसका लाभ उठाने में ही समझदारी है, अन्य अवसरों की प्रतिक्षा करने से अच्छा है जो भी मौका मिला है उसका फायदा उठा लेना चाहिए।
तरक्की चाहिए तो खुद को बदलो
* सच कड़वा होता है लेकिन इसे स्वीकार करें
* अपने जीवनसाथी की कमजोरी को महसूस करें
हमारे समाज में पुराने ढररे पर चलना आज भी अनेक मामलों में सही माना जाता है चाहे वह शादी हो या कोई प्रथा इन बातों पर आज भी हमारा समाज रूढि़वादियों से घिरा है। लेकिन ये जरूरी नहीं कि उस का वह नियम या कायदा समय के अनुसार हो इसलिए हमें समय के साथ अपने आप को बदल लेना चाहिए
गौतम बुद्ध के जीवन से जुड़ा एक पंसग यही संदेश देता है। बुद्ध उस समय वैशाली में थे वे नित्य धर्मोपदेश देते थे और उनके शिष्य भी उनके उपदेशों का प्रचार करते एक दिन उनके शिष्यों का समूह यही काम कर रहा था कि रास्ते में उन्हें भूख से तड़पता हुआ आदमी दिखाई दिया उनके एक शिष्य ने कहा कि तुम भगवान बुद्ध की शरण में आआ और उनके उनके उपदेश सुनो तुमको शांति मिलेगी भिखारी भूख के मारे उठ नहीं पा रहा था जब महात्मा बुद्ध को इस बारे में पता चला तो वे उसी समय उस भिखारी से मिलने आए और उसे भरपेट खाना खिलाया फिर अपने शिष्य से बोले कि इस वक्त भरपेट खाना ही इसकी जरुरत है और उपदेश भी क्योंकि भूखे आदमी को धर्म समझ नहीं आएगा। हमें समय को ध्यान में रखकर ही सारा काम करना चाहिए।
चाह रखने वाले अपनी राह खुद बनाते हैं
किसी का भला करने या मदद करने के लिए के हमें चाहत की जरूरत होती है बहुत से लोग पैसे की कमी या अपनी क्षमता का रोना रोते रहते हैं लेकिन सही मायनों में अअर देखा जाए तो सच्ची लगन और भावना रास्ता अपने आप बना देती है।
एक छात्र डॉक्टरी की पढ़ाई कर रहा था वह जरूरतमंदों की हमेशा मदद करता। एक दिन उसे रास्ते में एक बच्चा मिला जिसके साथ कोई नहीं था उसने पुलिस को खबर कर उस बच्चे को अनाथालय में छोड़ दिया लेकिन वह उस बच्चे से लगातार मिलने के लिए अनाथालय जाता उसने वहां देखा कि उस अनाथालय में बच्चों की देखरेख और पढ़ाई की व्यवस्था तो अच्छी है पर वहां के स्टाफ में आपस में प्रेम भाव नहीं है जिसे बच्चे खुश रह सकें। उस छात्र ने अपनी पढ़ाई खत्म होने के बाद एक आन्दोलन चलाया कि जिन लोगों की गृहस्थी छाटी है वे अनाथ बच्चों को गोद लें और उनका पालन पोषण करें उसकी इस कोशिश में कई लोगों ने उसका साथ दिया
और अनाथ बच्चों को मां बाप का साथ मिलने लगा वह छात्र नोबेल पुरूस्कार विजेता पैस्टोला था जिन्होंने अपना पूरा जीवन अनाथ बच्चों के लिए समर्पित कर दिया उनका ये काम लोगो के लिए मिसाल बन गया उनके इस काम यही पता चलता है कि जहां चाह होती है वहां राह अपने आप बन जाती है।
समय किसी के लिए नहीं रुकता
अंहकार की अति के चलते स्वयं के आगे किसी को कुछ न समझना और यह मानना कि आपके बिना कुछ नहीं हो सकता की सोच लोगों में हावी होती जा रही है। लेकिन आज सच्चाई कुछ और ही बोलती है आज के समय में किसी के बगैर किसी का काम नहीं रुकता। इसलिए आज आदमी को जरुरत है कि वह अपने आप को इतना महत्वपूर्ण बना ले कि लोग हमारे न होने पर हमारी जरूरत को महसूस करें।
एक गांव में झगड़ालु औरत रहती थी उसके कड़वे स्वभाव की वजह से कोई भी उससे बात करना पसंद नहीं करता था उसका एक ही साथी था और वह था उसका मुर्गा। मुर्गा रोज सवेरे बांग देता और गांव में रोजमर्रा का काम शुरु हो जाता। गांववालों की उपेक्षा के कारण एक दिन उसने गांव छोडऩे का फैसला किया गांव छोडऩे से पहले उसने गांव वालों को कहा कि मैं गांव छोड़ के जा रही हूं अब तुम लोग हमेशा मुसीबत में रहोगे क्योंकि मेरे मुर्गे की बांग से गांव में सवेरा होता है और अब ये गांव हमेशा के लिए अधेंरे में डूब जाएगा। दूसरे गांव पहुंचकर जब अगले दिन वह सोकर उठी तो सवेरा हो चुका था और उसका मुर्गा बांग देने की बजाए जंगल में कहीं चला गया उसे बड़ा आश्चर्य हुआ कि बिना उसके मुर्गे के बांग दिए सवेरा कैसे हो गया तब एक बुजुर्ग ने उस औरत को समझाया कि सूरज के उगने पर मुर्गे बांग देते हैं न कि उनके बांग देने पर सूरज उगता है ये प्रकृ ति का नियम है जो किसी के लिए नहीं बदल सकता।
क्रमश:...
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