Sunday, January 2, 2011

Definition of Religion (धर्म की परिभाषा)

धर्म
दुनिया भर के विभिन्न पंथों, संप्रदायों ने धर्म को अलग-अलग शब्दों में परिभाषित किया है। फिर भी विभिन्न पंथों, संप्रदायों और विद्वानों के मुताबिक धर्म की सर्वमान्य परिभाषा तैयार की गई है। विभिन्न शब्दकोश में दिए अर्थ के अनुसार \'धर्म\' शब्द का अर्थ है - किसी वस्तु या व्यक्ति में सदा रहने वाली उसकी मूल वृत्ति, प्रकृति, स्वभाव, मूल गुण। एक अन्य शब्दकोश के अनुसार धर्म का अर्थ है - ईश्वर के प्रति मनुष्य का कर्तव्य। स्पष्टत: यह शब्द संस्कृत की \'धृ\' धातु से बना है, जिसका तात्पर्य है धारण करना, आलंबन देना, पालन करना।

विद्वानों का मत है कि धर्म वह है जो हमें आदर्श जीवन जीने की कला और मार्ग बताता है। केवल पूजा-पाठ या कर्मकांड ही धर्म नहीं है। धर्म मानव जीवन को एक दिशा देता है। विभिन्न पंथों, मतों और संप्रदायों द्वारा जो नियम, मनुष्य को अच्छे जीवन यापन, जिसमें सबके लिए प्रेम, करूणा, अहिंसा, क्षमा और अपनत्व का भाव हो, ऐसे सभी नियम धर्म के तहत माने गए हैं। दुनिया के सभी प्रमुख धर्मों का सार लगभग एक ही है। सभी धर्म करूणा, दया, प्रेम, अहिंसा, कर्म, सत्य और अपरिग्रह जैसे नियमों से ही जुड़े हैं। धर्म वह है जो हमारे जीवन में आदर्श अनुशासन लाता है। आदर्श अनुशासन वह जिसमें व्यक्ति की विचारधारा और जीवनशैली सकारात्मक हो जाती है। जब तक किसी भी व्यक्ति की सोच सकारात्मक नहीं होगी, धर्म उसे प्राप्त नहीं हो सकता है।

ईश्वर एक तो धर्म भी एक
विभिन्न धर्म शास्त्रों ने, विद्वानों ने धर्म को अपनी विचारधारा के अनुसार परिभाषित किया है। किसी ने दया, करूणा और प्रेम को धर्म बताया है तो किसी ने अहिंसा को लेकिन वेदों और पुराणों ने धर्म को विस्तार पूर्वक समझाया है। वेदों के मुताबिक धर्म में उत्तम आचरण के निश्चित और व्यवहारिक नियम हैं।

1. ''आ प्रा रजांसि दिव्यानि पार्थिवा श्लोकं देव: कृणुते स्वाय धर्मणे। (ऋग्वेद - 4.5.3.3)
''धर्मणा मित्रावरुणा विपश्चिता व्रता रक्षेते असुरस्य मायया। (ऋग्वेद - 5.63.7)
यहाँ पर 'धर्म का अर्थ निश्चित नियम (व्यवस्था या सिद्धांत) या आचार नियम है।

2. अभयं सत्वसशुद्धिज्ञार्नयोगव्यवस्थिति:। दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाधायायस्तप आर्जवम्।।
अहिंसा सत्यमक्रोधत्याग: शांतिर पैशुनम्। दया भूतष्य लोलुप्तवं मार्दवं ह्रीरचापलम्।।

3. तेज: क्षमा धृति: शौचमद्रोहो नातिमानिता। भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत।। (गीता : 16/1, 2, 3)
यानि भय रहित मन की निर्मलता, दृढ़ मानसिकता, स्वार्थरहित दान, इंद्रियों पर नियंत्रण, देवता और गुरुजनों की पूजा, यश जैसे उत्तम कार्य, वेद शास्त्रों का अभ्यास, भगवान के नाम और गुणों का कीर्तन, स्वधर्म पालन के लिए कष्ट सहना, सरल, व्यक्तित्व, मन, वाणी तथा शरीर से किसी को कष्ट न देना, सच्ची और प्रिय वाणी, किसी भी स्थिति में क्रोध न करना, अभिमान का त्याग, मन पर नियंत्रण, निंदा न करना, सबके प्रति दया, कोमलता, समाज और शास्त्रों के अनुरूप-आचरण, तेज, क्षमा, धैर्य, पवित्रता, शत्रुभाव नहीं रखना - यह सब धर्म सम्मत गुण व्यक्तित्व को देवता बना देते हैं।धर्म का मर्म और उसकी व्यापकता को स्पष्ट करते हुए गंगापुत्र भीष्म कहते हैं -

4. सर्वत्र विहितो धर्म: स्वग्र्य: सत्यफलं तप:।बहुद्वारस्य धर्मस्य नेहास्ति विफला क्रिया।। (महाभारत शांतिपर्व - 174/2)
यानि धर्म अदृश्य फल देने वाला होता है। जब हम धर्ममय आचरण करते हैं, तो चाहे हमें उसका फल तत्काल दिखाई नहीं दे, किंतु समय आने पर उसका प्रभाव सामने आता है। सत्य को जानने (तप) का फल, मरण के पूर्व (ज्ञान रूप में) मिलता है। जब हम धर्म आचरण करते हैं तो कठिनाइयों का सामना भी करना पड़ता है।किंतु ये कठिनाइयाँ हमारे ज्ञान और समझ को बढ़ाती हैं। धर्म के कई द्वार हैं। जिनसे वह अपनी अभिव्यक्ति करता है। धर्ममय आचरण करने पर धर्म का स्वरूप हमें समझ में आने लगता है, तब हम अपने कर्मों को ध्यान से देखते हैं और अधर्म से बचते हैं। धर्म की कोई भी क्रिया विफल नहीं होती, धर्म का कोई भी अनुष्ठान व्यर्थ नहीं जाता। महाभारत के इस उपदेश पर हमेशा विश्वास करना चाहिए और सदैव धर्म का आचरण करना चाहिए।

5. यस्मिंस्तु सर्वे स्यरसंनिविष्टा धर्मो यत: स्यात् तदुपरक्रमेता।
द्वेष्यो भवत्यर्थपरो हि लोके कामत्मता खल्वपि न प्रशस्ता।। (वाल्मीकि रामायण 2/21/58)
यानि जिस कर्म में धर्म आदि पुरुषार्थ शामिल न हो उसको नहीं करना चाहिए। जिससे धर्म की सिद्धि होती हो, वही कार्य करें। जो केवल धन कमाने के लिए कार्य करता है, वह संसार में सबके द्वेष का पात्र बन जाता है। धर्म विरुद्ध कार्य करना प्रशंसा नहीं निंदा की बात है।

वास्तविक और पूर्ण धर्म तो वह है जो
जीवन में जो व्यवहार और कर्म अपनाने योग्य है या धारण करने लायक है वही धर्म है। धर्म मनुष्य को उचित-अनुचित का अंतर समझाता है। कैसे कर्म करना उचित है और किस प्रकार के कर्म करना अनुचित है गलत है। इस बात का ज्ञान हमें धर्म से प्राप्त होता है। जन्म के समय प्रत्येक मनुष्य पशु के समान ही होता है। कुछ समझदार होने पर धर्म के मार्ग पर चलकर ही मनुष्य सच्चा मनुष्य बतना है। लोगों में यह गलत मान्यता है कि किसी विशेष प्रकार के रीति-निवाज, पूजा-पाठ, कर्मकांड और वेश-भूषा अपनाना ही धर्म की पहचान हे। वास्तविक, सच्चा और पूर्ण धर्म तो वह जो संसार के सभी मनुष्यों पर समान रूप से लागू होता है। इसीलिए धर्म को सर्वव्यापी और सर्वकालिक माना गया है। जिसे लोग हिंदू धर्म, मुस्लिम धर्म, ईसाई धर्म, सिक्ख धर्म, पारसी धर्म, यहूदी धर्म आदि नामों से जानते हैं। ये सभी ईश्वर तक पहुंचने के अलग-अलग मार्ग या तरीके हैं। हिंदू, इस्लाम, सिक्ख, ईसाई आदि को धर्म की बजाए संप्रदाय कहना अधिक उचित है और तर्कसंगत है। पूर्ण धर्म तो वही हो सकता है जो सभी मनुष्यों को उचित आचरण और व्यवहार सिखाता है। धर्म ही मनुष्य को जीवन जीने की कला (आर्ट ऑफ लिविंग) सिखाता है। धर्म ही यह बताया है कि जीवन का उद्देश्य क्या? धर्म ही सिखाता है कि मनुष्य का आचरण कैसा होना चाहिए? ध्र्मा ही यह सिखाता है कि सच्चा और उत्तम मनुष्य कैसा होना चाहिए। धर्म ही यह सिखाता है कि मनुष्य का पूर्ण विकास कैसे हो सकता है? धर्म ही मनुष्य की शक्ति है धर्म ही मनुष्य सच्चा शिक्षक। धर्म के बिना मनुष्य अधूरा है।

संतों, महापुरुषों एवं विद्वानों के द्वारा दी गई परिभाषाएं
धर्म मनुष्य के चिन्तन और जीवन का सबसे उच्च स्तर है। विद्वानों ने अपने-अपने विश्लेषण और अध्ययन के आधार पर धर्म को शब्दों में बांधा है। पौराणिक काल से आधुनिक काल तक हर काल में धर्म के मर्म को समझने का प्रयास किया गया है।
विभिन्न विद्वानों के मुताबिक धर्म :-

धर्म अनुभूति की वस्तु है। वह मुख की बात मतवाद अथवा युक्तिमूलक कल्पना मात्र नहीं है। आत्मा की ब्रह्मस्वरूपता को जान लेना, तद्रुप हो जाना- उसका साक्षात्कार करना, यही धर्म है- वह केवल सुनने या मान लेने की चीज नहीं है। समस्त मन-प्राण का विश्वास की वस्तु के साथ एक हो जाना - यही धर्म है।
(7-8 स्वामी विवेकानंद साहित्य, संचयन पृष्ठ : 107, 121)

किसी वस्तु की विधायक आंतरिक वृत्ति को उसका धर्म कहते हैं। प्रत्येक पदार्थ का व्यक्तित्व जिस वृत्ति पर निर्भर है, वही उस पदार्थ का धर्म है।
(डॉ. राजबली पाण्डेय, हिंदू धर्मकोश पृष्ठ : 339)

वैशेशिक दर्शन ने धर्म की बड़ी सुंदर वैज्ञानिक परिभाषा दी है :
\'\'यतोऽभ्युदयानि: श्रयेसिद्धि स धर्म:।
अर्थात् धर्म वह है जिससे इस जीवन का विकास और अगले जीवन(जन्म) का सुधार हो।
\'\'वेद स्मृति: सदाचार स्तस्य च प्रियमात्मन:।
एतच्चतुर्विध प्राहू: साक्षाद्रर्मस्य लक्षणम्।।
(मनु स्मृति 2.12)

आधुनिक प्रवचनकार एवं सुप्रसिद्ध संत मानस मर्मज्ञ मोरारी बापू के अनुसार बड़ी सरल व सहज भाषा में धर्म का स्वरूप बताते हुए कहा है -जीवन का लक्ष्य है ईश्वर को पाना। धर्म वह मार्ग है जो ईश्वर तक पहुंचाता है। भारतीय सनातन परंपरा में धर्म का सर्वमान्य भाव है- जिस कर्म से सबका कल्याण हो, वह धर्म है अर्थात् हमारे वे कार्य जिनसे समस्त सृष्टि का भला होता है, वह हमारा धर्म है। दूसरे शब्दों में धर्म में रहकर हम संपूर्ण सृष्टि के मंगल की कामना करते हैं। धर्म के माध्यम से हम उस ईश्वर तक पहुंचते हैं। जो सबका मंगल करते हैं और अमंगल को दूर करते हैं।

विश्व विख्यात वैज्ञानिक आइंसटाइन के अनुसार धर्म
संसार में ज्ञान और विश्वास दो वस्तुएं हैं। ज्ञान को विज्ञान और विश्वास को धर्म कहेंगे। इस युग में लोगों की मान्यता है कि ज्ञान बड़ा है, क्योंकि यह क्रमबद्ध है, स्कूलों में इसी का शिक्षण होता है। किंतु यह मानव जीवन के उद्देश्य को बहुत देर तक प्रयोग करके भी शायद ही बता सकें, जबकि विश्वास में तार्किक चिंतन और क्रमबद्ध ज्ञान (राशनल नॉलेज) दोनों ही आधार हैं, जो हमारा संबंध सीधे परम अवस्था या अपने मूलभूत उद्देश्य से जोड़ देते हैं।

जीयो और जीने दो...
सनातन धर्म को यदि एक पंक्ति में कहना हो तो यही कहा जाएगा - जियो और जीने दो।
भारतीय सनातन परपंरा की यही विशेषता भारत को विश्व गुरु बनाती है। धर्म का यही भाव आगे चलकर विभिन्न स्वरूपों में ढलता गया और धर्माचरण के विधान बनते गए, किंतुयुग-युगांतरों में भी सनातन धर्म का शाश्वत भाव अपरिवर्तित रहा जोकि यह है :

सर्वे भवंतु सुखिन:सर्वे संतु निरामयाः
सर्वे भद्राणि पश्यंतु मा कश्चिद्दु:ख भागभवेत।

सबके भले की कामना करने वाला दुनिया का एक मात्र धर्म सनातन धर्म ही है। वैदिक युग में (ऋग्वेद 10/90/16) यज्ञ को धर्म कहा गया है। यज्ञ का विधान संपूर्ण सृष्टि के कल्याण के लिए किया गया। वेदों के मंत्र हमें सिखाते हैं कि विश्व का कल्याण कैसे हो। वैदिक काल के बाद उपनिषद्काल में (कठोपनिषद् 1/2/14) कहा गया कि शास्त्रीय अनुष्ठान धर्म है। यानि वेदों में जो कहा गया है, वही धर्म है। मनुस्मृति (2/12)कहती है कि वेद, धर्मशास्त्र, सदाचार और आत्मसंतुष्टि धर्म के साक्षात लक्षण हैं। यानि वेद और शास्त्रों की वाणी का पालन करना, ऐसा आचरण करना जिससे किसी को कोई नुकसान या दु:ख न पहुँचे और ऐसे कार्य करना जिससे अपनी आत्मा को संतोष मिले वे सभी कार्य धर्ममय हैं।

वेदों में निहित जीवन जीने की कला -
हम वेद शास्त्रों का अध्ययन करें तो हमें जीवन जीने का वह सर्वोत्तम तरीका, जिसे राजमार्ग भी कह सकते हैं मिल जाएगा।जो इस संसार को सुखी, समृद्ध, प्रेममय और ईश्वर मय बनाता है, किंतु आवश्यकता इस बात की है कि धर्म शास्त्रों में निहित उस अनुभव सिद्ध, प्रामाणिक एवं उच्चतर ज्ञान को गहराई से समझें और समझने के साथ-साथ जीवन में अपनाएं।क्योंकि पढऩे कीअपेक्षा समझना, समझने की अपेक्षा उस पर गहन चिंतन करना और चिंतन करने से भी उसे आचरण में उतारना अधिक महत्वपूर्ण है।

आचरण में उतारे बिना धर्म का ज्ञान भी निष्प्राण या बेजान बनकर रह जाता है। धर्म जब जीवन में उतरता है, तभी समाज उसका पालन करता है। धर्ममय जीवन ही सफलता एवं विजय श्री का वरण करता है। यथा : 'यतोधर्मस्ततोजय:। (महाभारतभीष्मपर्व)
अर्थात जहां धर्म है वहीं विजय है। धर्म ही विजय के मार्ग की ओर ले जाता है। जबकि अधर्म हमें पराजय एवं पतन की ओर ढकेलता है। धर्म की सामर्थ्य एवं महत्ता का प्रतिपादन करते हुए स्वयं भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं : यदायदाहि....युगेयुगे (गीता४/७-८) अर्थात् जब-जब धर्म की हानि होगी और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं प्रकट होता हूं। सज्जन मनुष्यों को दु:खों से मुक्त करने तथा दुष्टों का विनाश करने के लिए और धर्म की स्थापना करने के लिए मैं युग-युग में प्रकट होता हूं। धर्म जीवन जीने की कला है और इस कला को हम धर्म शास्त्रों से सीख सकते हैं। धर्म शास्त्रों में बहुत ही सहजता से जीवन के मूल्यों को धर्म के आचरण में शामिल कर दिया गया है। यही कारण है कि भारतीय धर्मशास्त्र केवल पूजा और श्रद्धा के लिए ही नहीं हैं अपितु उनका अध्ययन भी हमें सदैव करना चाहिए। ऋषि-मुनियों के हजारों वर्षों के कठोर तप एवं प्रयोग अनुसंधानो पर आधारित इन अनुभवसिद्ध धर्मशास्त्रों की सार्थकता भी है जब इनमें निहित गूढ़ ज्ञान को समझा एवं अपनाया जाए।

धर्म की प्रसिद्ध किताबों में धर्म के मायने
श्रीमद्भागवत : यह महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित है।इस ग्रंथ में 18 हजार श्लोक हैं।इस में भक्ति,वेदांत और योग कावि शदविवेचन सरल कथाओं के माध्यम से किया गया है।भक्ति मार्ग का यह प्रधान ग्रंथ है।श्रीमद्भागवत में धर्म को आचरण में लाने की शिक्षा देने की प्रेरणा देते हुए स्वयं भगवान कृष्ण कहते हैं मैं ही धर्म का उपदेश कहूँ।उपदेश के अनुसार स्वयं उसका आचरण करने वाला हूँ तथा उसका अनुष्ठान करने वालों का अनुमोदन करने वाला हूँ।मेरे आचरण से मनुष्य जाति को प्रेरणा मिले, इसलिए मैं स्वयं धर्म का आचरण करता हूँ।

महाभारत : यह ग्रंथ भी महर्षि वेदव्यास द्वारा लिखित है। एक लाख श्लोकों से बने हुए इस धर्म ग्रंथ में सनातन धर्म के आचार, दर्शन और इतिहास का समावेश है।इसे पंचम वेद भी कहा जाता है।महाभारत के संदर्भ में यह कथन प्रचलित है- 'यन्न भारते तन्न भारते, यानि जो महाभारत मे नहीं वह भारत में कहीं भी नहीं मिलेगा।धर्म को कैसे आचरण में लाएं यह शिक्षा हमें महाभारत से मिलती है।महाभारत के कथा प्रसंगों में जगह-जगह धर्ममय आचरण के उपदेश दिए गए हैं।धर्म का मर्म और उसकी व्यापकता पितामह भीष्मबताते हैं कि -

सर्वत्र विहितो धर्म: स्वग्र्य: सत्य फलं तप:। ,
बहादुरस्य धर्म स्यने हास्ति विफला क्रिया। (महाभारत शांतिपर्व 174/2)

यानि धर्म अदृश्य फल देने वाला होता है।जब हम धर्ममय आचरण करते हैं तो चाहे हमें उसका फल तत्काल न दिखाई दे किंतु समय आने पर उसका प्रभाव सामने आता ही है।सत्य (तप) को जानने का फल मृत्यु के पूर्व ही (ज्ञानकेरूपमें) मिलता है।

वाल्मीकि रामायण: - यह धर्मग्रंथ आदि कवि वाल्मीकि द्वारा रचित है। 24 हजार श्लोकों से निबद्ध इस ग्रंथ में भगवान राम के चरित्र का चित्रण हुआ है।वाल्मीकि रामायण की महत्वपूर्ण व्यवस्था इस का व्यापक सौंदर्य है।वाल्मीकि रामायण में भगवान श्री राम को धर्म का साक्षात विग्रह कहा गया है।श्री राम कभी धर्म को नहीं छोड़ते और धर्म उनसे कभी अलग नहीं होता है।श्री राम के अनुसार संसार में धर्म ही सर्वश्रेष्ठ है।धर्म में ही सत्य की प्रतिष्ठा है धर्म का पालन करने वाले को माता-पिता, ब्राह्मण एवं गुरु के वचनों का पालन करना चाहिए।यथा:यस्मिस्तु सर्वेस्वरसं निविष्टा धर्मों, यत: स्यात्तदुपक्रमेत।द्रेष्यो भवत्यर्थ परोहिलोके कामात्मता खल्व पिन प्रशस्ता।

यानि जिस कर्म में धर्म आदि पुरुषार्थों का समावेश नहीं, उसको नहीं करना चाहिए।जिस से धर्म की सिद्धि होती हो वहीं कार्य करें।जो केवल धन कमाने के लिए कार्य करता है, वह संसार में सबके द्वेष का पात्र बन जाता है।धर्म विरुद्ध कार्य करना घोर निंदनीय है।श्रीराम, जीवन का मूल उद्देश्य धर्म का पालन- केवल इस जन्म के लिए ही नहीं अपितु भविष्य के लिए भी आवश्यक मानते हैं।वन गमन से पूर्व वे माता कौशल्या से कहते हैं - यह जीवन अधिक समय तक रहने वाला नहीं है, इसके लिए मैं आज अधर्म पूर्वक इस तुच्छ पृथ्वी का राज्य लेना नहीं चाहता।इसी तरह उनकी पत्नी सीता भी धर्म के पालन को ही आवश्यक मानती है।
धर्मादर्थ: प्रभवतिधर्मात्प्रभवतेसुखम्।धर्मेणलभतेसर्वधर्मसारमिदंजगत्। (वाल्मीकिरामायण 3/9/30)

यानि धर्म से अर्थ प्राप्त होता है, धर्म से सुख मिलता है,और धर्म से ही मनुष्य सर्वस्व प्राप्त कर लेता है।इस संसार में धर्म ही सार है।देवी सीता ने यह उपदेश उस समय दिया जब वे वन में मुनि वेश धारण करनेके बावजूद शस्त्र साथ में रखना चाहते थे।वाल्मीकि रामायण में देवी सीता के माध्यम से पुत्रीधर्म, पत्नीधर्म और माताधर्म मुखरित हुआ।यही कारण है कि सीताजी भारतीय नारी का आदर्श स्वरूप हैं।सत्य,धैर्य,सदाचार,दया,तप आदि कौ वाल्मीकि रामायण में धर्म के अंग बताया गया है।

विज्ञान की कसोटी पर धर्म

धर्म और विज्ञान दोनों आवश्यक - विज्ञान और अध्यात्म दोनों ही एकांगी रहने पर अधूरे हैं। इन दोनों महाशक्तियों के समन्वय से ही वह व्यवस्था बन पड़ती है जो बिजली के ऋणात्मक औ रधनात्मक आवेश युक्त तारों के मिलान पर करेंट प्रवाह चलने के समकक्ष अपनी क्षमता और प्रामाणिकता का परिचय प्रस्तुत करती है। अकेला विज्ञान या अकेला अध्यात्म मनुष्य के स्थाई कल्याण का मार्ग प्रशस्त नहीं कर सकता है। विज्ञान ने मनुष्य को शक्ति और सुविधा के अनेकानेक साधन तो प्रदान कर दिए हैं किंतु उनके सदुपयोग के विषय में कहने समझाने में वह पूर्णत: असमर्थ एवं अयोग्य है।

सच्चा मार्गदर्शक - शक्ति और साधन संसाधनों के सर्वोत्तम उपयोग के विषय में एक मात्र आध्यात्म ही मार्गदर्शक की भूमिका निभा सकता है, और यह तभी संभव है जब विज्ञानवादी एवं आध्यात्म वादी दो विरोधी खेमों में बटने की बजाए मिलन की सहयोग समन्वय की अहमियत समझें और मानव जाति के उज्जवल भविष्य के निर्माण में अपनी अनिवार्य एवं अहं भूमिका निभाएँ। हम जानते हैं कि विज्ञान (भौतिक विज्ञान) पदार्थ के विषय में खोजबीन करता है, और अध्यात्म चेतना के विषय में। दोनों का महत्व, उपयोगिता एवं उपलब्धियाँ अपने-अपने स्थान पर अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।

धर्म हमारे लिए

धर्म जीवन को कठिन नहीं, बल्कि सरल बनाने के लिए है। अगर हम धर्म के नियमों का पालन करेंगे तो कई परेशानियां अपनेआप ही समाप्त हो जाएंगी। विद्वानों का मत है कि जीवन में ऐसा कोई क्षण नहीं होता जिसमें धर्म आवश्यक न हो। केवल भगवान को मानना, पूजापाठ, कर्मकांड या व्रत-उपवास ही धर्म नहीं है। धर्म के जो दस अंग हैं उन्हें जीवन में उतारना धर्म है। जब हम इन दस अंगों को जीवन में उपयोग करते हैं तो धर्म खुद ही हमारे जीवन में चला आता है। सबके लिए साधारण रूप से व्यवहार करने के कुछ नियम होते हैं। सत्य, कर्म, अहिंसा, अपरिग्रह, सेवा, संतोष, संयम, श्रद्धा आदि सामान्यत: धर्म अंग हैं। ये सबके लिए व्यवहारिक और लाभदायक हैं। अमूमन इन सारे शब्दों से बचते हुए कई लोग जीवन को अधिक सरल बनाने की कोशिश में जुटे रहते हैं लेकिन इनके अभाव में जीवन में दो तरह के सुख कभी नहीं आ पाते पहला शांति और दूसरा आनंद। मनुष्य सारे जीवन में इन्हीं दो चीजों की खोज में लगा रहता है लेकिन धर्म के पथ से अलग हो जाने के कारण इन तक पहुंच नहीं पाता। धर्म इन्हीं तक पहुंचने का मार्ग है।

धर्म जीवन को कठिन नहीं, बल्कि सरल बनाने के लिए है
धर्म जीवन को कठिन नहीं, बल्कि सरल बनाने के लिए है। अगर हम धर्म के नियमों का पालन करेंगे तो कई परेशानियां अपनेआप ही समाप्त हो जाएंगी। विद्वानों का मत है कि जीवन में ऐसा कोई क्षण नहीं होता जिसमें धर्म आवश्यक न हो। केवल भगवान को मानना, पूजापाठ, कर्मकांड या व्रत-उपवास ही धर्म नहीं है। धर्म के जो दस अंग हैं उन्हें जीवन में उतारना धर्म है। जब हम इन दस अंगों को जीवन में उपयोग करते हैं तो धर्म खुद ही हमारे जीवन में चला आता है। सबके लिए साधारण रूप से व्यवहार करने के कुछ नियम होते हैं। सत्य, कर्म, अहिंसा, अपरिग्रह, सेवा, संतोष, संयम, श्रद्धा आदि सामान्यत: धर्म अंग हैं। ये सबके लिए व्यवहारिक और लाभदायक हैं। अमूमन इन सारे शब्दों से बचते हुए कई लोग जीवन को अधिक सरल बनाने की कोशिश में जुटे रहते हैं लेकिन इनके अभाव में जीवन में दो तरह के सुख कभी नहीं आ पाते पहला शांति और दूसरा आनंद। मनुष्य सारे जीवन में इन्हीं दो चीजों की खोज में लगा रहता है लेकिन धर्म के पथ से अलग हो जाने के कारण इन तक पहुंच नहीं पाता। धर्म इन्हीं तक पहुंचने का मार्ग है।

एक वैज्ञानिक की नजर से
एक मशहूर वैज्ञानिक एच. केशेलिंग ने अपनी पुस्तक'साइंस एंड रिलीजनमें यह भविष्यवाणी की है कि अगली शताब्दीं में धर्म को विज्ञान का और विज्ञान को धर्म का अविच्छिन अंग मान लिया जाएगा। अस्तु विज्ञान का धर्म के साथ समन्वय से ही उसकी उभयपक्षीय प्रगति का संतुलित आधार बन सकेगा। प्रो. ए.एस. एडिंमटन ने कहा है: अब विज्ञान इस निर्णय पर पहुँचा है कि इस समस्त सृष्टि को कोई अज्ञात शक्ति संचालित कर रही है।अब विज्ञान का जड़ पदार्थों से लगाव समाप्त होने लगा है। चेतना, मन, आत्मा का अस्तित्व माना जाने लगा है। चेतन सत्ता ही जड़ जगत की उत्पत्ति का मूल कारण है।

अध्यात्मकी नजर से- पं. श्रीरामशर्मा'आचार्य इन दोनों ही महा शक्तियों को महत्वपूर्ण बताते हुए इनके समन्वय पर बल देते हैं। उनका कहना हैं कि इस विश्व ब्रह्मांड में दो शक्ति, सत्ताएँ आच्छादित हैं। एक जड़तो दूसरी चेतना है। इन्हीं को प्रकृति और पुरुष भी कहते हैंऔर स्थूल और सूक्ष्म भी। इन दोनों का पृथक-पृथक अस्तित्व एवं महत्व भी है। पर सुयोग तभी बनता है जब वे एक दूसरे की सहायक बनकर संयुक्त शक्ति के रूप में विकसित होती हैं, और अपने चमत्कार दिखाती हैं।

तो यह धर्म दुनिया पर छा जाएगा
जैसे-जैसे शिक्षा का स्तर बढ़ रहा है, धर्म के विषय में समझ व्यापक और परिपक्व होती जा रही है। आज का आधुनिक और प्रगतिशील मनुष्य धर्म के विषय में वैज्ञानिक मस्तिष्क और खुले दिल से सोचने लगा है। अब आधुनिक इंसान को धर्म के नाम पर गुमराह नहीं किया जा सकेगा। धर्म के नाम पर लूट-खसोट वहीं है, जहां अभी भी अशिक्षा का प्रभाव है। धर्म कोई भी हो उसके पीछे कोई वैज्ञानिक सोच अवश्य रहती है, अगर धर्म के आधुनिक रूप को दुनियाभर में फैलाना है तो शिक्षा का स्तर बढ़ाना होगा, सोच का दायरा विस्तृत करना होगा। अब युवा धर्म के वैज्ञानिक स्वरूप के पीछे आ रहे हैं। पिछला समय ऐसा रहा है जब धर्म और विज्ञान को अलग-अलग माना गया। अलग ही नहीं माना गया बल्कि, दोनों को एक दूसरे से विरोधी समझा जाता था। आज विज्ञान और अध्यात्म दोनों ही क्षेत्रों के शीर्षस्थ विद्वान यह एक मत से स्वीकार कर रहे हैं कि अब विज्ञान और अध्यात्म के मिलन का उपयुक्त समय आ चुका है। अब धर्म को वैज्ञानिक स्वरूप में ढलना होगा। उसे अपने आप को विज्ञान की कसौटी पर कसना होगा। तभी आज का बुद्धिप्रधान व तर्कशील इंसान इस नए धर्म को पूरे आग्रह के साथ मन से स्वीकार कर सकेगा। समय की मांग को देखते हुए धर्म तो बदलने को तैयार है ही अब विज्ञान को भी अपनी कमान अध्यात्म जैसे सच्चे मार्गदर्शक के हाथों में सौंप देना चाहिए।

धर्म हमारे लिए...
धर्म जीवन को कठिन नहीं, बल्कि सरल बनाने के लिए है। अगर हम धर्म के नियमों का पालन करेंगे तो कई परेशानियां अपनेआप ही समाप्त हो जाएंगी। विद्वानों का मत है कि जीवन में ऐसा कोई क्षण नहीं होता जिसमें धर्म आवश्यक न हो। केवल भगवान को मानना, पूजापाठ, कर्मकांड या व्रत-उपवास ही धर्म नहीं है। धर्म के जो दस अंग हैं उन्हें जीवन में उतारना धर्म है। जब हम इन दस अंगों को जीवन में उपयोग करते हैं तो धर्म खुद ही हमारे जीवन में चला आता है। सबके लिए साधारण रूप से व्यवहार करने के कुछ नियम होते हैं। सत्य, कर्म, अहिंसा, अपरिग्रह, सेवा, संतोष, संयम, श्रद्धा आदि सामान्यत: धर्म अंग हैं। ये सबके लिए व्यवहारिक और लाभदायक हैं। अमूमन इन सारे शब्दों से बचते हुए कई लोग जीवन को अधिक सरल बनाने की कोशिश में जुटे रहते हैं लेकिन इनके अभाव में जीवन में दो तरह के सुख कभी नहीं आ पाते पहला शांति और दूसरा आनंद। मनुष्य सारे जीवन में इन्हीं दो चीजों की खोज में लगा रहता है लेकिन धर्म के पथ से अलग हो जाने के कारण इन तक पहुंच नहीं पाता। धर्म इन्हीं तक पहुंचने का मार्ग है।

इन श्रेष्ठ गुणों से बनता है धर्म
भिन्न-भिन्न मत, पंथ एवं संप्रदायों में धर्म के विभिन्न लक्षण एवं अंगों का उल्लेख किया गया है। यहां हम उन लक्षणों एवं अंगों पर प्रकाश डालेंगे जो सर्वमान्य, शाश्वत एवं अनुभवसिद्ध है।

धर्माचार्य मनु ने दस पदार्थों के धारण को धर्म कहा है:
1. धैर्य: धन संपत्ति, यश एवं वैभव आदि का नाश होने पर धीरज बनाए रखना तथा कोई कष्ट, कठिनाई या रूकावट आने पर निराश न होना।

2. क्षमा: दूसरों के दुव्र्यवहार और अपराध को लेना तथा क्रोश न करते हुए बदले की भावना न रखना ही क्षमा है।

3. दम: मन की स्वच्छंदता को रोकना। बुराइयों के वातावरण में तथा कुसंगति में भी अपने आप को पवित्र बनाए रखना एवं मन को मनमानी करने से रोकना ही दम है।

4. अस्तेय: अपरिग्रह- किसी अन्य की वस्तु या अमानत को पाने की चाह न रखना। अन्याय से किसी के धन, संपत्ति और अधिकार का हरण न करना ही अस्तेय है।

5. शौच: शरीर को बाहर और भीतर से पूर्णत: पवित्र रखना, आहार और विहार में पूरी शुद्धता एवं पवित्रता का ध्यान रखना।

6. इंद्रिय निग्रह: पांचों इंद्रियों को सांसारिक विषय वासनाओं एवं सुख-भोगों में डूबने, प्रवृत्त होने या आसक्त होने से रोकना ही इंद्रिय निगह है।

7. धी: भलीभांति समझना। शास्त्रों के गूढ़-गंभीर अर्थ को समझना आत्मनिष्ठ बुद्धि को प्राप्त करना। प्रतिपक्ष के संशय को दूर करना।

8. विद्या: आत्मा-परमात्मा विषयक ज्ञान, जीवन के रहस्य और उद्देश्य को समझना। जीवन जीते की सच्ची कला ही विद्या है।

9. सत्य: मन, कर्म, वचन से पूर्णत: सत्य का आचरण करना। अवास्तविक, परिवर्तित एवं बदले हुए रूप में किसी, बात, घटना या प्रसंग का वर्णन करना या बोलना ही सत्याचरण है।

10. आक्रोश: दुव्र्यवहार एवं दुराचार के लिए किसी को माफ करने पर भी यदि उसका व्यवहार न बदले तब भी क्रोध न करना। अपनी इच्छा और योजना में बाधा पहुंचाने वाले पर भी क्रोध न करना। हर स्थिति में क्रोध का शमन करने का हर संभव प्रयास करना।

वास्तविक और पूर्ण धर्म तो वह है जो
जीवन में जो व्यवहार और कर्म अपनाने योग्य है या धारण करने लायक है वही धर्म है। धर्म मनुष्य को उचित-अनुचित का अंतर समझाता है। कैसे कर्म करना उचित है और किस प्रकार के कर्म करना अनुचित है गलत है। इस बात का ज्ञान हमें धर्म से प्राप्त होता है। जन्म के समय प्रत्येक मनुष्य पशु के समान ही होता है। कुछ समझदार होने पर धर्म के मार्ग पर चलकर ही मनुष्य सच्चा मनुष्य बतना है। लोगों में यह गलत मान्यता है कि किसी विशेष प्रकार के रीति-निवाज, पूजा-पाठ, कर्मकांड और वेश-भूषा अपनाना ही धर्म की पहचान हे। वास्तविक, सच्चा और पूर्ण धर्म तो वह जो संसार के सभी मनुष्यों पर समान रूप से लागू होता है। इसीलिए धर्म को सर्वव्यापी और सर्वकालिक माना गया है। जिसे लोग हिंदू धर्म, मुस्लिम धर्म, ईसाई धर्म, सिक्ख धर्म, पारसी धर्म, यहूदी धर्म आदि नामों से जानते हैं। ये सभी ईश्वर तक पहुंचने के अलग-अलग मार्ग या तरीके हैं। हिंदू, इस्लाम, सिक्ख, ईसाई आदि को धर्म की बजाए संप्रदाय कहना अधिक उचित है और तर्कसंगत है। पूर्ण धर्म तो वही हो सकता है जो सभी मनुष्यों को उचित आचरण और व्यवहार सिखाता है। धर्म ही मनुष्य को जीवन जीने की कला (आर्ट ऑफ लिविंग) सिखाता है। धर्म ही यह बताया है कि जीवन का उद्देश्य क्या? धर्म ही सिखाता है कि मनुष्य का आचरण कैास होना चाहिए? ध्र्मा ही यह सिखाता है कि सच्चा और उत्तम मनुष्य कैसा होना चाहिए। धर्म ही यह सिखाता है कि मनुष्य का पूर्ण विकास कैसे हो सकता है? धर्म ही मनुष्य की शक्ति है धर्म ही मनुष्य सच्चा शिक्षक। धर्म के बिना मनुष्य अधूरा है।

सुख और आनंद तो हो किन्तु शांति के साथ
धर्म जीवन को कठिन नहीं, बल्कि सरल बनाने के लिए है। अगर हम धर्म के नियमों का पालन करेंगे तो कई परेशानियां अपनेआप ही समाप्त हो जाएंगी। विद्वानों का मत है कि जीवन में ऐसा कोई क्षण नहीं होता जिसमें धर्म आवश्यक न हो। केवल भगवान को मानना, पूजापाठ, कर्मकांड या व्रत-उपवास ही धर्म नहीं है। धर्म के जो दस अंग हैं उन्हें जीवन में उतारना धर्म है। जब हम इन दस अंगों को जीवन में उपयोग करते हैं तो धर्म खुद ही हमारे जीवन में चला आता है। सबके लिए साधारण रूप से व्यवहार करने के कुछ नियम होते हैं। सत्य, कर्म, अहिंसा, अपरिग्रह, सेवा, संतोष, संयम, श्रद्धा आदि सामान्यत: धर्म अंग हैं। ये सबके लिए व्यवहारिक और लाभदायक हैं। अमूमन इन सारे शब्दों से बचते हुए कई लोग जीवन को अधिक सरल बनाने की कोशिश में जुटे रहते हैं लेकिन इनके अभाव में जीवन में दो तरह के सुख कभी नहीं आ पाते पहला शांति और दूसरा आनंद। मनुष्य सारे जीवन में इन्हीं दो चीजों की खोज में लगा रहता है लेकिन धर्म के पथ से अलग हो जाने के कारण इन तक पहुंच नहीं पाता। धर्म इन्हीं तक पहुंचने का मार्ग है।

धर्म: कहने की नहीं करने की बात
धर्म के क्षेत्र में आज अनेक पुस्तकें आसानी से उपलब्ध हैं। इतना ही नहीं अब तो आप अपनी मन पसंद भाषा में भी दुनिया की कोई पुस्तक पढ़ सकते हैं। महत्वपूर्ण और गौर करने की बात यह है कि धर्म की इतनी किताबें, इतनी बातें,व्याख्यान प्रवचन सब होने के बावजूद आज व्यवहार में धर्म का आचरण नदारद क्यों है? श्रीमदभागवत महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित एक ऐसी ही सुन्दर पुस्तक है। इसमे 18 हजार श्लोक हैं। जिसमें धर्म,भक्ति, वेदांत और योग का विस्तार के साथ वर्णन सरल कथाओं की सहायता से किया गया है। भक्ति मार्ग की यह प्रमुख पुस्तक है। श्रीमद्भागवत में धर्म को आचरण में लाने की शिक्षा एवं प्रेरणा देते हुए स्वयं भगवान कृष्ण कहते हैं: मैं ही धर्म का उपदेशक हूं। उपदेश के अनुसार स्वयं उसका आचरण करने वाला हूं तथा उसका अनुष्ठान करने वालों का अनुमोदन करने वाला हूं। मेरे आचरण से मनुष्य जाति को प्रेरणा मिले, इसलिए मैं स्वयं धर्म का आचरण करता हूं। श्रीकृष्ण द्वारा कही गई यह बात बड़ी महत्वपूर्ण एवं आंखे खोलने वाली है। स्वयं ईश्वर का पूर्ण अवतार होकर भी इतनी सहज अभिव्यक्ति देना हमारे मन में श्रद्धा की गंगा बहा देता है। भगवान कृष्ण के इस कथन में दूसरी महत्वपूर्ण बात यह हे कि किसी को दी गई प्रेरणा या समझाइस तभी प्रभाव डालती है जब प्रेरणा देने वाला सबसे पहले स्वयं भी उसका पालन करे। आज समाज में कथा,प्रवचन एवं उपदेशों की भरमार है। इन कथा प्रवचनों का वास्तविकता में व्यावहारिक धरातल पर कितना असर हो रहा हे यह आप और हम देख ही रहे हैं।जब तक उपदेश देने वाला स्वयं वैसा व्यवहार नहीं करता सुनने वाले पर उसका कोई स्थाई प्रभाव नहीं पड़ सकता है ।

सत्य का फल मृत्यु के पूर्व ही
महाभारत महर्षि वेदव्यास द्वारा लिखी गई एक बड़ी अदभुत और सुन्दर पुस्तक है। एक लाख श्लोकों से बने हुए इस धर्मग्रंथ में सनातन धर्म के आचार, दर्शन और इतिहास का बहुत ही रौचक और पे्ररणादायक वर्णन है। इसे पंचम वेद भी कहा जाता है। महाभारत के विषय में यह कहा जाता हे कि - 'यन्न भारते तन्न भारते यानि जो महाभारत मे नहीं वह भारत में कहीं भी नहीं मिलेगा। धर्म को कैसे आचरण में लाएं यह शिक्षा हमें महाभारत से मिलती है। महाभारत के कथा प्रसंगों में जगह-जगह धर्ममय आचरण के उपदेश दिए गए हैं। धर्म का मर्म और उसकी व्यापकता बताते हुए पितामह भीष्म कहते हैं कि- सर्वत्र विहितो धर्म: स्वर्ग सत्यफलं तप:। बहादुरस्य धर्मस्य नेहास्ति विफला क्रिया। (महाभारत शांति पर्व 174/2)
यहां पितामह भीष्म के कहने का मतलब यह हे कि धर्म अदृश्य फल देने वाला होता है जो हमें दीखता भले ही न हो किन्तु होता बहुत महत्वपूर्ण है। जब हम धर्ममय आचरण करते हैं तो चाहे हमें उसका फल तत्काल न दिखाई दे किंतु समय आने पर उसका प्रभाव सामने आता ही है। सत्य (तप) को जानने का फल मृत्यु के पूर्व ही (ज्ञान के रूप में) मिलता है।

धर्म: क्या कहते हैं श्रीराम-सीता?
प्रथम कवि के रूप में विख्यात महर्षि वाल्मिकी द्वारा मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम (सातवें अवतार) के महान चरित्र का बडा़ ही सुन्दर और मन को मोहित करने वाला वर्णन हुआ है। यह पुस्तक ' वाल्मिकि रामायण के नाम से मशहूर है। विश्व को सदाचार और मर्यादा का पाठ पढ़ाने वाली श्रीराम कथा मनुष्य जाति के लिए आदर्श संविधान के समान है। वाल्मिकी रामायण में (3/37/13) भगवान श्रीराम को धर्म की जीवंत प्रतिमा कहा गया है। श्रीराम कभी धर्म को नहीं छोड़ते और धर्म उनसे कभी अलग नहीं होता है। (युद्ध कांड 28/19) श्रीराम के अनुसार संसार में धर्म ही सर्वश्रेष्ठ है। धर्म में ही सत्य की प्रतिष्ठा है। धर्म का पालन करने वाले को माता-पिता, ब्राह्मण एवं गुरु के वचनों का पालन अवश्य करना चाहिए।यथा: यस्मिस्तु सर्वे स्वरसंनिविष्टा धर्मो, यत: स्यात् तदुपक्रमेत। द्रेष्यो भवत्यर्थपरो हि लोके, कामात्मता खल्वपि न प्रशस्ता।

कहने का मतलब यह हे कि जिस कर्म में धर्म आदि पुरुषार्थों का समावेश नहीं, उसको नहीं करना चाहिए। जिससे धर्म की सिद्धि होती हो वहीं कार्य करें। जो केवल धन कमाने के लिए कार्य करता है, वह संसार में सबके द्वेष का पात्र बन जाता है। यानि उससे, उसके अपने ही जलने लगते हैं। धर्म विरूद्ध कार्य करना घोर निंदनीय है।श्रीराम धर्म का पालन केवल इस जन्म के लिए ही नहीं अपितु भविष्य के लिए भी आवश्यक मानते हैं। वन गमन से पूर्व वे माता कौशल्या से कहते हैं कि यह शारीरिक जीवन अनंत समय तक रहने वाला नहीं है। इसके लिए मैं आज अधर्म पूर्वक इस तुच्छ पृथ्वी का राज्य लेना नहीं चाहता। इसी तरह देवी सीता भी (श्रीराम की धर्मपत्नी) भी धर्म के पालन का ही आवश्यक मानती हुऐ कहती हैं- धर्मादर्थ: प्रभवति धर्मात् प्रभवते सुखम्। धर्मेण लभते सर्व धर्मसारमिदं जगत्।। (वाल्मिकी रामायण 3/9/30)

देवी सीता के कहने का मतलब यह हे कि धर्म से अर्थ प्राप्त होता है और धर्म से ही सुख मिलता है। और धर्म से ही मनुष्य सर्वस्व प्राप्त कर लेता है। इस संसार में धर्म ही सार है। यह बात देवी सीता ने उस समय कही जब श्रीराम वन में मुनिवेश धारण करने के बावजूद शस्त्र साथ में रखना चाहते थे। वाल्मिकी रामायण में देवी सीता के माध्यम से पुत्री धर्म, पत्नी धर्म और माता धर्म मुखरित हुआ है। यही कारण है कि देवी सीता भारतीय नारी का आदर्श स्वरूप हैं।

वे आठ जिनसे मृत्यु भी डरती है
कहावत है कि मृत्यु के सामने किसी का भी बस नहीं चलता है। किन्तु हर नियम और सिंद्धात के साथ ही कोई न कोई अपवाद भी जुड़ा होता है। अपवाद की इस सर्व व्यापकता से मोत भी नहीं बच पाई है। आज यदि किसी से यह कहा जाए कि इस पृथ्वी पर कोई एसा भी है जो कि हजारों वर्षों से जिंदा है। वो कोई एक नहीं बल्कि पूरे आठ हैं। उन अद्भुत महाप्राणधारी अमर आत्माओं को अष्ट चिरंजीवी के नाम से जाना एवं पहचाना जाता है। यह सुनकर सहसा ही किसी को विश्वास नहीं होगा। किन्तु जो कहा जा रहा है वह पूर्णत: प्रामाणिक तथा शास्त्रसम्मत होने के साथ ही पूरी तरह विज्ञान सम्मत भी है। लीजिये रहस्य से पर्दा उठाते हुए उनके नाम कालक्रम के अनुसार ही क्रमश: प्रस्तुत हैं-

१. मार्कण्डेय : ये अति प्राचीन मुनि हैं जिनका कल्पों में भी अंत संभव नहीं है।

२. वेद-व्यास : ये ब्रह्मऋषि हैं इन्होंने ही चारों वेदों का सम्पादन एवं पुराणों का लेखन कार्य किया।

३. परशुराम : ईश्वर के चौबीस अवतारों में से एक, जो पृथ्वी को अठारह बार क्षत्रिय विहीन करने के लिये प्रसिद्ध हैं।

४. राजा बलि : अपना सर्वस्व भगवान वामन को दान कर महादानी के रूप में विख्यात हुए। इनकी भक्ति से प्रसन्न होकर स्वयं भगवान विष्णु इनके द्वारपाल बने।

५. हनुमान : भगवान शिव के ११ वें रूदा्रवतार, भगवान श्री राम के परम भक्त के रूप में प्रसिद्ध।

६. विभीषण : लंका के राजा रावण के अनुज जिन्होंने राम-रावण युद्ध में धर्म का पक्ष लेते हुए श्री राम का
साथ दिया।

७. कृपाचार्य : महाभारत कालीन एक आचार्य जो कौरवों और पाण्डवों के गुरु थे।

८. अश्वत्थामा : ये कौरवों और पाण्डवों के प्रसिद्ध आचार्य द्रोणाचार्य के सुपुत्र थे। इनके मस्तक पर मणी जड़ी हुई थी।

विज्ञान आया अध्यात्म की शरण में
हम जानते हैं कि विज्ञान पदार्थ के विषय में खोजबीन करता है और अध्यात्म चेतना के विषय में। दोनों का महत्व, उपयोगिता एवं उपलब्धियां अपने-अपने स्थान पर अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। विश्व के एक सुविख्यात वैज्ञानिक ने भविष्यवाणी की है कि अगली शताब्दी में धर्म को विज्ञान का और विज्ञान को धर्म का अभिन्न अंग और सहयोगी मान लिया जाएगा। विज्ञान और धर्म के समन्वय यानि कि मिलन से ही मानवीय प्रगति का संतुलित आधार बन सकेगा।

आज हम देखते हैं कि विज्ञान की विभिन्न शाखाओं में निष्णात मूर्धन्य वैज्ञानिक भी भारतीय अध्यात्म के क्षेत्र में वर्णित ऋषि-सिद्धियों का आधार खोजने में लग गए हैं। प्रयास के अनुरूप सफलता भी मिल रही है। तथा आध्यात्मिक शक्तियों को विज्ञान सम्मत माना जाने लगा है। अब विज्ञान इस निर्णय पर पहुंचा है कि इस समस्त सृष्टि को कोई अज्ञात शक्ति संचालित कर रही है। अब विज्ञान का जड़ पदार्थों से लगाव समाप्त होने लगा है। चेतना, मन, आत्मा का अस्तित्व माना जाने लगा है। चेतन सत्ता ही जड़ जगत की उत्पत्ति का मूल कारण है।

एक दुनिया एक धर्म जो है सबके लिये
सबके लिए साधारण रूप से व्यवहार करने के कुछ नियम होते हैं। सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह, सेवा, संतोष, मन-इंद्रिय संयम, ईश्वर में श्रद्धा आदि धर्म के सामान्य नियम हैं। ये सबके लिए व्यवहारिक एवं नित्य मंङ्गलमय हैं। श्रीमद्भागवत में प्रह्लाद से देवर्षि नारद ने धर्मोपदेश करते हुए तीस ऐसे धर्म के अंग बताए हैं जो दुनिया के सभी इंसानों पर समान रूप से लागू होते हैं-

सत्य, दया, तपस्या, पवित्रता, कष्ट-सहिष्णुता, उचित-अनुचित का विचार, मन का संयम, इंद्रियों का सयंम, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, त्याग, स्वाध्याय, सरलता, संतोष, समदर्शिता, सेवा, धीरे-धीरे सांसारिक भोगवृत्ति का त्याग, मनुष्य के सुख-प्राप्ति के प्रयत्न उलटा ही फल देते हैं-यह विचार, मौन, आत्मचिंतन, प्राणियों में अन्नादि का यथायोग्य विभाजन तथा उनमें विशेषकर मनुष्यों में अपने आराध्य को देखना, महापुरुषों की परमगति भगवान के रूप, गुण, लीला, महात्म्य का श्रवण, भगवन्नाम गुण लीला का कीर्तन, भगवान का स्मरण, भगवत्सेवा, पूजा-यज्ञादि, भगवान को नमस्कार करना, भगवान के प्रति दास्यभाव, सरव्य भाव, भगवान को आत्मसमर्पण।

इन तीस लक्षणों या अगों से बने हुए धर्म को सार्वजनिक धर्म कहा जा सकता है। इनके पालन से सर्वात्मा भगवान अवश्य ही संतुष्ट होते हैं।

कौन देखता है ?
पूरी भीड़ में बस वही अंधा नहीं है। अगर किसी से यही बात पूछी जाए कि कौन देखता है? तो सुनने वाले को प्रश्रकर्ता पर आश्चर्य ही होगा। लोगों का मानना यही है कि हर वो इंसान जिसकी आखें ठीक-ठाक हैं, वो देखता है या देख सकता है। फर्क सिर्फ बाहर और भीतर का है। सांसारिक लोग बाहरी आखों और उनसे दिखने वाली चीजों को ही सच मानते हैं। किन्तु अध्यात्म क्षेत्र के साधकों, संतों और योगियों के देखने का नजरिया बड़ा गहरा होता है। ऐसे ही पहुंचे हुए संत महात्माओं ने कुछ शर्तें रखी हैं जिन्हैं पूरा करना वे अनिवार्य मानते हैं। जो इन शर्तों को पूरा नहीं करता वह आखें होते हुए भी अंधा ही है। ये शर्तें कुछ इस तरह हैं:-

मातृवत्परदारांश्च परद्रव्याणि लोष्ठवत,
आत्मवत्सर्वभूतानि य: पश्यति स पश्यति।

परायी स्त्री को जो माता के समान, पराये धन को मिट्टी के ढेले के समान तथा सब प्राणियों को अपने समान देखता है,वास्तव में वही देखता है।

दुनिया के सारे धर्म हैं, गायत्री में.....
जो धर्म प्रेम, मानवता और भाईचारे का संदेश देने के लिए बना था आज उसी के नाम पर हिंसा और कटुता बढ़ाई जा रही है। इसलिये आज एक ऐसे विश्व धर्म की आवश्यकता महसूस की जा रही है, जो दिलों को जोडऩे वाला हो। हर धर्म में ऐसी बातें और प्रार्थनाएं हैं जो सभी धर्मों को रिप्रजेंट करती हैं। हिन्दुओं में गायत्री मंत्र के रूप में ऐसी ही प्रार्थना है, जो हर धर्म का सार है। तो आइये देखें:-

हिन्दू - ईश्वर प्राणाधार, दु:खनाशक तथा सुख स्वरूप है। हम प्रेरक देव के उत्तम तेज का ध्यान करें। जो हमारी बुद्धि को सन्मार्ग पर बढ़ाने के लिए पवित्र प्रेरणा दें।

ईसाई - हे पिता, हमें परीक्षा में न डाल, परन्तु बुराई से बचा क्योंकि राज्य, पराक्रम तथा महिमा सदा तेरी ही है।

इस्लाम - हे अल्लाह, हम तेरी ही वन्दना करते तथा तुझी से सहायता चाहते हैं। हमें सीधा मार्ग दिखा, उन लोगों का मार्ग, जो तेरे

कृपापात्र बने, न कि उनका, जो तेरे कोपभाजन बने तथा पथभ्रष्ट हुए।

सिख - ओंकार (ईश्वर) एक है। उसका नाम सत्य है वह सृष्टिकर्ता, समर्थ पुरुष, निर्भय, र्निवैर, जन्मरहित तथा स्वयंभू है । वह गुरु की कृपा से जाना जाता है।

यहूदी - हे जेहोवा (परमेश्वर) अपने धर्म के मार्ग में मेरा पथ-प्रदर्शन कर, मेरे आगे अपने सीधे मार्ग को दिखा।

शिंतो - हे परमेश्वर, हमारे नेत्र भले ही अभद्र वस्तु देखें परन्तु हमारे हृदय में अभद्र भाव उत्पन्न न हों । हमारे कान चाहे अपवित्र
बातें सुनें, तो भी हमारे में अभद्र बातों का अनुभव न हो।

पारसी - वह परमगुरु (अहुरमज्द-परमेश्वर) अपने ऋत तथा सत्य के भंडार के कारण, राजा के समान महान् है। ईश्वर के नाम पर किये गये परोपकारों से मनुष्य प्रभु प्रेम का पात्र बनता है।

दाओ (ताओ) - दाओ (ब्रह्म) चिन्तन तथा पकड़ से परे है। केवल उसी के अनुसार आचरण ही धर्म है।

जैन - अर्हन्तों को नमस्कार, सिद्धों को नमस्कार, आचार्यों को नमस्कार, उपाध्यायों को नमस्कार तथा सब साधुओं को नमस्कार ।

बौद्ध धर्म - मैं बुद्ध की शरण में जाता हूँ, मैं धर्म की शरण में जाता हूँ, मैं संघ की शरण में जाता हूँ।

कनफ्यूशस - दूसरों के प्रति वैसा व्यवहार न करो, जैसा कि तुम उनसे अपने प्रति नहीं चाहते।

बहाई - हे मेरे ईश्वर, मैं साक्षी देता हूँ कि तुझे पहचानने तथा तेरी ही पूजा करने के लिए तूने मुझे उत्पन्न किया है। तेरे अतिरिक्त अन्य कोई परमात्मा नहीं है। तू ही है भयानक संकटों से तारनहार तथा स्व निर्भर।

रूप बदलने से नहीं बदलता स्वभाव
धृष्टद्युम्र की बात सुनकर राजा को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होने उनका परिचय प्राप्त करने के लिए अपने पुरोहित के पास भेज दिया। युधिष्ठिर की आज्ञा से भीम ने उनके पुरोहित का बड़ा आदर सत्कार किया। युधिष्ठिर ने कहा पुरोहित से कहा द्रुपद से कहिएगा कि उन्हे पछताने की आवश्कता नहीं है। इस विवाह के द्वारा उनकी चिरकालीन अभिलाषा पूर्ण हो सकती है। जिस समय युधिष्ठिर यह कह रहे थे। तभी उन्हे दरबार से बुलावा आया। राजा द्रुपद ने पांडवों की परिक्षा लेने के उद्देश्य से उनको महल बुलवाया।उन्होंने तीन अलग-अलग कमरों को भिन्न प्रकार की वस्तुओं से सजवाया। उन्होंने पहले पांडवों को अच्छे से भोजन करवाया उनकी खुब अच्छे से आवभगत की।

उन्हें यथोचित सम्मान दिया। उसके बाद द्रुपद उन्हें महल दिखाने ले गये। उन्होनें जो तीन कमरें सजवाए थे। उसमें पहला कमरा रत्न और आभुषणों से सजा था। दूसरा कमरा फल, फूल व रस्सियों से सजा था। तीसरा कमरा हथियारों से सजाया गया था। तीनों कमरों में से पाण्डवों ने सबसे पहले शस्त्रों से सजे कमरे में प्रवेश किया और वहां रखे हथियारों को देखने लगे। यह देख द्रुपद समझ गए कि ये लोग वैश्य या शुद्र नहीं बल्कि क्षत्रीय हैं।जब उन्हे मन में यह विश्वास हो गया तो उन्होने युधिष्ठिर को अलग बुलाकर कहा कहीं आप लोग देवता तो नहीं जो मेरी पुत्री से विवाह करने के लिए आए हैं। तब धर्मराज युधिष्ठिर ने कहा आपकी अभिलाषा पूर्ण हुई राजेन्द्र में पाण्डु पुत्र युधिष्ठिर हूं और वे चारों मेरे भाई हैं।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK

2 comments:

  1. बहुत ही बढ़िया ॥ ज्ञानवर्धन हुआ

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    1. आपका हार्दिक धन्यवाद.

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