मशहूर होने के लिए अपनाएं ये दो तरीके
मशहूर होने के लिए यह जरूरी नहीं है कि आप किसी बड़ी सफलता, उपलब्धि, पद या शक्ति को पाएं। आज के दौर में धन, पद और प्रतिष्ठा तो कोई व्यक्ति गलत तरीकों से भी पा सकता है। लेकिन धर्म की नजर से यश और कीर्ति वास्तविक सुख और आनंद तभी देती है, जब वह सही आचरण, अच्छे कर्मों और भलाई से पाई जाए।
व्यावहारिक जीवन में अच्छे आचरण, कर्म और भलाई के भाव तभी संभव है। जबकि मन संवेदनाओं से भरा हो। किंतु मन में भावनाओं को स्थान तभी मिलता है, जब मन को काबू में रखा जाए।
हिन्दू धर्म ग्रंथ श्रीमद्भवत गीता में मन को ही वश में रखने के दो सूत्र बताए गए हैं। इनमें पहला है - वैराग्य और दूसरा है - अभ्यास। जानते हैं इनका व्यावहरिक नजरिए से अर्थ -
वैराग्य का शाब्दिक मतलब है - राग यानि मोह से छूटना। तन, मन और सामजिक दोषों से अलग रहते हुए सादा, संतोषी और शांतिपूर्ण जिंदगी बिताना वैराग्य का वास्तविक अर्थ है। इस बात का यह मतलब कतई नहीं है कि परिवार, समाज से कट कर एकाकी जीवन जीएं। बल्कि सही मायनों में वैराग्य वही सफल माना जाता है जो संसार में रह कर ही राग-द्वेष को मात देकर पाया जाए। इसके लिए सादा जीवन और उच्च विचार का सूत्र ही बेहतर उपाय है।
दूसरा सूत्र है - अभ्यास यानि बुराईयों और बुरे विचारों से दूर रहने का अभ्यास । जिसके लिए योग साधनाओं को श्रेष्ठ माना गया है। ऐसा अभ्यास बुरी आदत और भावनाओं से बचने का सबसे अच्छा तरीका है। इससे मन की चंचलता खत्म होती है और वह एकाग्र होता है। शास्त्रों में मन को संयमित रखने के सरल तरीकों में खासतौर पर ध्यान, जप, भगवत नाम का स्मरण व त्राटक बहुत प्रभावी माना गया है।
इस तरह इन दो तरीकों को अपनाकर पाई संयमित और व्यवस्थित जिंदगी किसी व्यक्ति के लिए वरदान साबित होती है। ऐसा जीवन न केवल व्यक्तिगत उपलब्धि देने वाला होता है, बल्कि दूसरों के लिए भी आदर्श और प्रेरणा बन जाता है।
श्री हनुमान की सीख है छोड़े अभिमान
हिन्दू धर्म शास्त्रों के मुताबिक श्री हनुमान रुद्र अवतार है। वहीं हिन्दू धर्म को मानने वाले हर व्यक्ति के लिए हर संकट और संघर्ष में भरोसे और ताकत का नाम ही हनुमान है। यही श्रद्धा और आस्था ही श्री हनुमान को सबसे लोकप्रिय देवता बनाती है।
शास्त्रों में श्री हनुमान को बल, बुद्धि, विद्या, ज्ञान, समर्पण, भक्ति, त्याग, समर्पण की मूर्ति बताया गया है। वह ऐसे देवता के रुप में पूजनीय है, जो अतुलनीय गुण, बल के स्वामी हैं।
शास्त्रों में श्री हनुमान के जीवन के अनेक प्रसंगों में उनके उडऩे, छोटा या बड़ा होने जैसी तरह-तरह की सिद्धियों का स्वामी बताया गया है। बचपन में सूर्य को निगलना, सीता की खोज में समुद्र पार करना या मूर्छित लक्ष्मण के लिए संजीवनी बूटी लाना जैसे प्रसंग में जहां हनुमान के उडऩे की महिमा बताई गई। वहीं लंका जाने में बाधा बनी राक्षसी के मुंह में प्रवेश करने और बाहर आने व लंका प्रवेश में छोटा-बड़ा रूप करने की सिद्धि बताई गई। असल में हनुमान के इन गुणों और सिद्धियों में जीवन से जुड़े व्यावहारिक संदेश है। श्री हनुमान चरित्र और स्वरूप के सभी गुणों, सिद्धियों और शक्तियों में एक विशेषता समान रुप से झलकती है। वह है - अभिमान या अहंकार रहित होना।
असल में श्री हनुमान की उडऩे की शक्ति भी यही संकेत करती है कि जिस तरह उड़ान के लिए कम वजन और संतुलन जरूरी है, ठीक उसी तरह जिंदगी में ऊपर उठने यानि आगे बढऩे और लक्ष्य तक पहुंचने के लिए मन के भावों को सरल, सहज और संतुलित बनाना जरूरी है। यह तभी संभव है जब रंग, रूप, धन, बल के अहंकार को बोल, व्यवहार और विचार से बाहर निकाल दें। क्योंकि एक समय बाद ऐसे घमंड और दंभ के भार में व्यक्ति स्वयं दब जाता है। वहीं दूसरों के लिए भी यह बोझ सहन करना मुश्किल होता है।
वहीं श्री हनुमान का छोटा या बड़ा होना भी यही संकेत करता है कि आप स्वभाव में विनम्र बनें। आपका व्यवहार सरल हो। यहां भी अभिमान से दूर रहने का ही सबक है। जब तक अहं दिल-दिमाग में रहेगा। वह आपके दु:ख और अलगाव का कारण ही रहेगा। इसलिए हालात के मुताबिक स्वयं को ढालें।
हनुमान चरित्र की यही सीख आपको नाकामयाबी से दूर रख सफलता के आकाश में उड़ान भरने के काबिल बनाएगी। किंतु जरूरी है इनको हनुमान की तरह अपनाने और लक्ष्य के प्रति समर्पित होने की।
क्यों शिव कहलाते हैं नीलकंठ?
हिन्दू धर्म के पांच प्रमुख देवताओं का प्रधान भगवान शिव को माना जाता है। इसलिए शिव को महादेव भी पुकारा जाता है। ऐसे ही अनेक नाम शिव की महिमा से जुड़े हैं। शिव के इन नामों में से ही एक कल्याणकारी नाम है - नीलकंठ।
इस नाम का न केवल पौराणिक महत्व है, बल्कि यह व्यावहारिक जीवन के लिए भी कुछ संदेश देता है। इस नाम से जुड़ी पौराणिक कथा के मुताबिक देव-दानव द्वारा किए गए समुद्र मंथन से निकले हलाहल यानि जहर का असर देव-दानव सहित पूरा जगत सहन नहीं कर पाया। तब सभी ने भगवान शंकर से प्रार्थना की। भगवान शंकर ने पूरे जगत की रक्षा और कल्याण के लिए उस जहर को पीना स्वीकार किया। विष पीकर शंकर नीलकंठ कहलाए।
धार्मिक मान्यता है कि भगवान शंकर ने समुद्र मंथन से निकले विष का पान हिन्दू पंचांग के सावन माह में ही किया था और विष पीने से हुई दाह की शांति के लिए समुद्र मंथन से ही निकले चंद्रमा को अपने सिर पर धारण किया।
व्यावहारिक रुप से देखें तो भगवान शंकर द्वारा विष पीकर कंठ में रखना और उससे हुई दाह के शमन के लिए गंगा और चंद्रमा को अपनी जटाओं और सिर पर धारण करना इस बात का संदेश है कि मानव को अपनी वाणी और भाषा पर संयम रखना चाहिए। खास तौर पर कटु वचन से बचना चाहिए, जो कंठ से ही बाहर आते हैं। किंतु कटु वचन पर संयम तभी हो सकता है, जब व्यक्ति मन को काबू में रखने के साथ ही बुद्धि और ज्ञान का सही उपयोग करे। शंकर की जटाओं में बैठी गंगा ज्ञान की सूचक है और चंद्रमा मन और विवेक का।
गंगा और चंद्रमा को भगवान शंकर ने उसी जगह पर रखा है, जहां मानव का भी विचार केन्द्र यानि मस्तिष्क होता है।
गायत्री मंत्र से मिलती हैं ये 24 देव शक्तियां
धर्म ग्रंथों में इष्टसिद्धि से शक्ति, कामयाबी और इच्छापूर्ति का महत्व बताया गया है। इष्टसिद्धि को सरल शब्दों में समझना चाहें तो इसका मतलब होता है कि व्यक्ति जिस देव शक्ति के लिए श्रद्धा और आस्था मन में बना लेता है, तब उसी के मुताबिक उस देवता से जुड़ी सभी शक्तियां, प्रभाव और वस्तुएं संबंधित को मिलने लगती है। साथ ही वह देव उपासना का वास्तविक लाभ पाता है।
इष्टसिद्धि की कड़ी में गायत्री का ध्यान भी बहुत अहम माना जाता है। खासतौर पर तंत्र शास्त्रों में गायत्री साधना में गायत्री मंत्र के 24 अक्षरों से 24 देव शक्तियों को पाने का फल बताया गया है।
असल में गायत्री मंत्र के हर अक्षर का एक देवता है यानि हर अक्षर देव शक्ति बीज है। इस तरह गायत्री मंत्र के 24 अक्षरों में 24 देव शक्तियों का आवाहन हो जाता है। इष्टसिद्धि के नजरिए से मात्र एक मंत्र से ही 24 देवताओं का इष्ट और उनसे जुड़ी शक्ति प्राप्त होना बहुत महत्व रखती है। ऐसी इष्टसिद्धि से जिंदगी में किसी भी तरह की भय, परेशानी, बाधा या संकटों का सामना नहीं करना पड़ता।
जानते हैं ऐसे महाशक्तिशाली मंत्र के 24 अक्षरों के 24 देवताओं के नाम -
- श्री गणेश
- नृसिंह
- विष्णु
- शिव
- कृष्ण
- राधा
- लक्ष्मी
- अग्रि
- इन्द्र
- सरस्वती
- दुर्गा
- हनुमान
- पृथ्वी
- सूर्य
- राम
- सीता
- चन्द्रमा
- यम
- ब्रह्मा
- वरुण
- नारायण
- हयग्रीव
- हंस
- तुलसी
धार्मिक दृष्टि से देव शक्तियां जाग्रत होती है। इसलिए इष्ट रूप में गायत्री और गायत्री मंत्र के स्मरण से ही इन 24 देवताओं के अधीन शक्तियां और पदार्थ भी उपासक को प्राप्त होते हैं। जिससे वह सांसारिक और भौतिक शक्तियों से पूर्ण हो जाता है।
क्यों अग्रि को माना जाता है देवता?
हिन्दू धर्म में अग्नि यानि आग को देवता माना जाता है। धार्मिक दृष्टि से अग्रि को भूलोक में सूर्य का रूप माना गया है। जहां ऋग्वेद का पहला शब्द अग्रि बताया गया है। वहीं श्रीमद्भागवत में भी विराट पुरूष के मुंह से अग्रि के जन्म के बारे में लिखा गया है। जिसके मुताबिक मुंह से पैदा होने के कारण वह वाणी का नियंत्रक देवता भी है।
अग्रि को आग्रेय दिशा यानि पूर्व और दक्षिण दिशा का स्वामी भी माना गया है। व्यावहारिक नजरिए से मानव जीवन से जुड़े अनेक कार्य अग्रि की मौजूदगी के बिना शुभ नहीं माने जाते। शास्त्रों में इंसानी जि़दगी में अग्रि की अहमियत को ही बताते हुए अग्रि के अनेक रूप बताए गए हैं। जानते हैं अग्रि के ऐसे ही रूप -
- जठराग्नि - यह प्राणियों के शरीर में मौजूद होती है।
- बडावाग्नि - सागर में लगने वाली आग होती है।
- दावाग्नि - जंगल लगने वाली आग
- विद्युत - मेघ या बादलों के बीच पैदा बिजली भी आग का ही रूप है।
- आहावनीय (ब्राह्म) - यज्ञ के दौरान मंत्र शक्ति से पैदा होती है।
- गार्हस्थ्य (गार्हपत्य)- शादी के बाद कुल में प्रतिष्ठित होती है।
- दक्षिणाग्नि - यह मंडप के दक्षिण भाग में प्रतिष्ठित होती है।
- कृव्यादाग्नि - दाह संस्कार में पैदा होने वाली अग्रि
अग्रि के इन रूपों से अग्रि की उपयोगिता साबित होती है। अग्रि का स्वभाव ऊष्णा यानि गर्म होता है। इसमें दहन शक्ति यानि जलाने की ताकत होती है। शास्त्रों के मुताबिक अग्नि को देवता मानने का कारण यही है कि यह प्रकाशित करती यानि ज्ञान प्रदायिनी है। साथ ही यह पुष्टि, शक्ति, यश व अन्न देने वाली है।
शास्त्रों में अग्रिदेव का स्वरुप बताया गया है। जिसके मुताबिक उनके सात हाथ, चार सींग, सात जीभ, दो सिर और तीन पैर हैं। दाहिनी ओर स्वाहा तथा बाईं ओर स्वधादेवी रहती हैं। इनका वाहन मेष यानि बकरा है।
क्यों शिव कहलाते हैं रुद्र?
भगवान शिव के अनगिनत रूप हैं। क्योंकि सारी प्रकृति को ही शिव स्वरूप माना गया है। इन रूपों में ही एक है रुद्र। रुद्र का शाब्दिक अर्थ होता है - रुत यानि दु:खों को अंत करने वाला। यही कारण है कि शिव को दु:खों को नाश करने वाले देवता के रुप में पूजा जाता है। व्यावहारिक जीवन में कोई दु:खों को तभी भोगता है, जब तन, मन या कर्म किसी न किसी रूप में अपवित्र होते हैं। शिव के रुद्र रूप की आराधना का महत्व यही है कि इससे व्यक्ति का चित्त पवित्र रहता है और वह ऐसे कर्म और विचारों से दूर होता है, जो मन में बुरे भाव पैदा करे। शास्त्रों के मुताबिक शिव ग्यारह अलग-अलग रुद्र रूपों में दु:खों का नाश करते हैं। यह ग्यारह रूप एकादश रुद्र के नाम से जाने जाते हैं। जानते हैं ऐसे ही ग्यारह रूद्र रूपों को - - शम्भू - शास्त्रों के मुताबिक यह रुद्र रूप साक्षात ब्रह्म है। इस रूप में ही वह जगत की रचना, पालन और संहार करते हैं। - पिनाकी - ज्ञान शक्ति रुपी चारों वेदों के के स्वरुप माने जाने वाले पिनाकी रुद्र दु:खों का अंत करते हैं। - गिरीश - कैलाशवासी होने से रुद्र का तीसरा रुप गिरीश कहलाता है। इस रुप में रुद्र सुख और आनंद देने वाले माने गए हैं। - स्थाणु - समाधि, तप और आत्मलीन होने से रुद्र का चौथा अवतार स्थाणु कहलाता है। इस रुप में पार्वती रूप शक्ति बाएं भाग में विराजित होती है। - भर्ग - भगवान रुद्र का यह रुप बहुत तेजोमयी है। इस रुप में रुद्र हर भय और पीड़ा का नाश करने वाले होते हैं। - भव - रुद्र का भव रुप ज्ञान बल, योग बल और भगवत प्रेम के रुप में सुख देने वाला माना जाता है। - सदाशिव - रुद्र का यह स्वरुप निराकार ब्रह्म का साकार रूप माना जाता है। जो सभी वैभव, सुख और आनंद देने वाला माना जाता है। - शिव - यह रुद्र रूप अंतहीन सुख देने वाला यानि कल्याण करने वाला माना जाता है। मोक्ष प्राप्ति के लिए शिव आराधना महत्वपूर्ण मानी जाती है। - हर - इस रुप में नाग धारण करने वाले रुद्र शारीरिक, मानसिक और सांसारिक दु:खों को हर लेते हैं। नाग रूपी काल पर इन का नियंत्रण होता है।- शर्व - काल को भी काबू में रखने वाला यह रुद्र रूप शर्व कहलाता है। - कपाली - कपाल रखने के कारण रुद्र का यह रूप कपाली कहलाता है। इस रुप में ही दक्ष का दंभ नष्ट किया। किंतु प्राणीमात्र के लिए रुद्र का यही रूप समस्त सुख देने वाला माना जाता है।
ऐसा होता है रामराज्य
त्रेतायुग में मयार्दापुरुषोत्तम भगवान श्रीराम द्वारा आदर्श शासन स्थापित किया गया। वह आज भी रामराज्य नाम से राम की तरह ही लोकप्रिय है। यह शासन व्यवस्था सुखी जीवन का प्रतीक बन गई। व्यावहारिक जीवन में परिवार, समाज या राज्य में सुख और सुविधाओं से भरी व्यवस्था के लिए आज भी इसी रामराज्य का उदाहरण दिया जाता है।
साधारण रूप से जिस रामराज्य को मात्र सुख-सुविधाओं का पर्याय माना जाता है। असल में वह मात्र सुविधाओं के नजरिए से ही नहीं बल्कि उसमें रहने वाले नागरिकों के पवित्र आचरण, व्यवहार और विचार और मर्यादाओं के पालन के कारण भी श्रेष्ठ शासन व्यवस्था का प्रतीक है।
जानते हैं शास्त्रों में बताए गए रामराज्य से जुड़ी कुछ खास विशेषताओं को-
गोस्वामी तुलसीदास ने स्वयं रामचरित मानस में कहा है -
दैहिक दैविक भौतिक तापा। राम राज नहहिं काहुहि ब्यापा।।
- इस चौपाई के मुताबिक राम राज्य में शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक और सांसारिक तीनों ही दु:ख नहीं थे।
- राम राज्य में रहने वाला हर नागरिक उत्तम चरित्र का था।
- सभी नागरिक आत्म अनुशासित थे, वह शास्त्रो व वेदों के नियमों का पालन करते थे। जिनसे वह निरोग, भय, शोक और रोग से मुक्त होते थे।
- सभी नागरिक दोष और विकारों से मुक्त थे यानि वह काम, क्रोध, मद से दूर थे।
- नागरिकों का एक-दूसरे के प्रति ईष्र्या या शत्रु भाव नहीं था। इसलिए सभी को एक-दूसरे से अपार प्रेम था।
- सभी नागरिक विद्वान, शिक्षित, कार्य कुशल, गुणी और बुद्धिमान थे।
- सभी धर्म और धार्मिक कर्मों में लीन और निस्वार्थ भाव से भरे थे।
- रामराज्य में सभी नागरिकों के परोपकारी होने से सभी मन और आत्मा के स्तर पर शांत ही नहीं बल्कि व्यावहारिक जीवन में भी शांति और सुकून से रहते थे।
- रामराज्य में कोई भी गरीब नहीं था। रामराज्य में कोई मुद्रा भी नहीं थी। माना जाता है कि सभी जरूरत की चीजों का बिना कीमत के लेन-देन होता था। अपनी जरूरत के मुताबिक कोई भी वस्तु ले सकता था। इसलिए बंटोरने की प्रवृत्ति रामराज्य में नहीं थी।
- धार्मिक मान्यता है कि पर्वतों ने अपने सभी मणि आदि और सागर ने रत्न, मोती रामराज्य के लिए दे दिये। इसलिए वहां के नागरिक शौक-मौज के जीवन की लालसा नहीं रखते थे। बल्कि कर्तव्य परायण और संतोषी थे।
क्यों मर्यादापुरुषोत्तम है श्रीराम?
भारतीय संस्कृति में भगवान राम जन-जन के दिलों में बसते हैं। इसके पीछे मात्र धार्मिक कारण ही नहीं है, बल्कि श्रीराम चरित्र से जुड़े वह आदर्श हैं, जो मानव अवतार लेकर स्थापित किए गए। सीधे शब्दों में श्रीराम मर्यादित जीवन और आचरण से ही मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाए। लेकिन ऐसे ऊंचे पद तक पहुंचने के लिए श्रीराम ने किस तरह के जीवनमूल्य स्थापित किए? जानते हैं कुछ ऐसी ही बातें -
धार्मिक दृष्टि से श्रीराम भगवान विष्णु का सातवां अवतार हैं। भगवान का इंसान रूप में यह अवतार मानव को समाज में रहने के सूत्र सिखाता है। असल में भगवान श्रीराम ने इंसानी जिंदगी से जुड़ी हर तरह की मर्यादाओं और मूल्यों को स्थापित किया।
श्रीराम ने अयोध्या के राजकुमार से राजा बनने तक अपने व्यवहार और आचरण से स्वयं मर्यादाओं का पालन किया। एक आम इंसान परिवार और समाज के बीच रहकर कैसे बोल, व्यवहार और आचरण को अपनाकर जीवन का सफर पूरा करे, यह सभी सूत्र श्रीराम के बचपन से लेकर सरयू में प्रवेश करने तक के जीवन में छुपे हैं।
धार्मिक और आध्यात्मिक नजरिए से भी श्रीराम के जीवन को देखें तो पाते हैं कि श्रीराम ने त्याग, तप, प्रेम, सत्य, कर्तव्य, समर्पण के गुणों और लीलाओं से ईश्वर तक पहुंचने की राह और मर्यादाओं को भी बताया।
अयोध्या के राजा बनने के बाद मर्यादा, न्याय और धर्म से भरी ऐसी शासन व्यवस्था स्थापित की, जिसकी आर्थिक, सामजिक और राजनीतिक मर्यादाओं ने हर नागरिक को सुखी, आनंद और समृद्ध कर दिया। श्रीराम का मर्यादाओं से भरा ऐसा शासन तंत्र आज भी युगों के बदलाव के बाद भी रामराज्य के रूप में प्रसिद्ध है।
इस तरह मर्यादामूर्ति श्रीराम ने व्यक्तिगत ही नहीं राजा के रूप में भी मर्यादाओं का हर स्थिति में पालन कर इंसान और भगवान दोनों ही रूप में यश, कीर्ति और सम्मान को पाया।
इन 5 संकल्पों के साथ हो नए साल का आग़ाज
नववर्ष का आगाज़ नए संकल्पों के साथ करना आने वाले कल को बेहतर बना सकता है। किंतु ऐसे कौन से संकल्प हो सकते हैं, जो साल-दर-साल जिंदग़ी को बेहतर बनाए। साथ ही इन संकल्पों की पूर्ति व्यक्तिगत रुप से ही फायदेमंद न हो, बल्कि उनका लाभ दूसरों को भी मिले।
धर्म के नजरिए से पांच बातें इंसानी जिंदग़ी को बेहतर बनाती है। इसलिए इन बातों को पांच तरह की संपत्ति भी माना गया है। इन संपत्तियों को पाने का संकल्प लेना ही किसी भी व्यक्ति को ताउम्र खुशियां देगा। जानते हैं कौन-सी है ये पांच संपत्तियां -
1.स्वास्थ्य
2.धन
3.विद्या
4.चतुरता
5.सहयोग
नए साल का पहला संकल्प स्वास्थ्य -निरोगी शरीर।
सुखी जीवन के लिए सबसे जरूरी है निरोगी शरीर। कमजोर, रोगी, बदसूरत शरीर आपकी खुशियों और कामयाबी में रोड़ा बन जाता है। धर्म के नजरिए से जरूरी है कि आप इन्द्रिय संयम रखें। सरल शब्दों में जीवनशैली और दिनचर्या को नियमित और अनुशासित रखें। व्यर्थ के शौक या मौज की मानसिकता शारीरिक और मानसिक ऊर्जा को नष्ट करती है।
इस तरह शक्ति का दुरुपयोग और समय गंवाना शरीर और मन को रोगी बना सकता है। इसलिए नए साल के लिए ऐसी बातों और आचरण से बचने और अच्छे स्वास्थ्य का संकल्प लें। तभी आप व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में अच्छे नतीजे पाएंगे।
मशहूर होने के लिए अपनाएं ये दो तरीके
मशहूर होने के लिए यह जरूरी नहीं है कि आप किसी बड़ी सफलता, उपलब्धि, पद या शक्ति को पाएं। आज के दौर में धन, पद और प्रतिष्ठा तो कोई व्यक्ति गलत तरीकों से भी पा सकता है। लेकिन धर्म की नजर से यश और कीर्ति वास्तविक सुख और आनंद तभी देती है, जब वह सही आचरण, अच्छे कर्मों और भलाई से पाई जाए।
व्यावहारिक जीवन में अच्छे आचरण, कर्म और भलाई के भाव तभी संभव है। जबकि मन संवेदनाओं से भरा हो। किंतु मन में भावनाओं को स्थान तभी मिलता है, जब मन को काबू में रखा जाए।
हिन्दू धर्म ग्रंथ श्रीमद्भवत गीता में मन को ही वश में रखने के दो सूत्र बताए गए हैं। इनमें पहला है - वैराग्य और दूसरा है - अभ्यास। जानते हैं इनका व्यावहरिक नजरिए से अर्थ -
वैराग्य का शाब्दिक मतलब है - राग यानि मोह से छूटना। तन, मन और सामजिक दोषों से अलग रहते हुए सादा, संतोषी और शांतिपूर्ण जिंदगी बिताना वैराग्य का वास्तविक अर्थ है। इस बात का यह मतलब कतई नहीं है कि परिवार, समाज से कट कर एकाकी जीवन जीएं। बल्कि सही मायनों में वैराग्य वही सफल माना जाता है जो संसार में रह कर ही राग-द्वेष को मात देकर पाया जाए। इसके लिए सादा जीवन और उच्च विचार का सूत्र ही बेहतर उपाय है।
दूसरा सूत्र है - अभ्यास यानि बुराईयों और बुरे विचारों से दूर रहने का अभ्यास । जिसके लिए योग साधनाओं को श्रेष्ठ माना गया है। ऐसा अभ्यास बुरी आदत और भावनाओं से बचने का सबसे अच्छा तरीका है। इससे मन की चंचलता खत्म होती है और वह एकाग्र होता है। शास्त्रों में मन को संयमित रखने के सरल तरीकों में खासतौर पर ध्यान, जप, भगवत नाम का स्मरण व त्राटक बहुत प्रभावी माना गया है।
इस तरह इन दो तरीकों को अपनाकर पाई संयमित और व्यवस्थित जिंदगी किसी व्यक्ति के लिए वरदान साबित होती है। ऐसा जीवन न केवल व्यक्तिगत उपलब्धि देने वाला होता है, बल्कि दूसरों के लिए भी आदर्श और प्रेरणा बन जाता है।
नए साल का दूसरा संकल्प - कमाना है पैसा
नववर्ष के संकल्पों की कड़ी में दूसरा महत्वपूर्ण संकल्प लें - धन पाने यानि पैसा कमाने का। पहले संकल्प-अच्छे स्वास्थ्य की तरह ही धन कमाने का संकल्प भी सुखी जीवन के लिए महत्वपूर्ण है। क्योंकि धन हर व्यक्ति की ज़िंदगी के लिए बहुत जरूरी है। चाहे वह अमीर हो या गरीब। धन की अहमियत को नकारा नहीं जा सकता। इसलिए जानते हैं नववर्ष क्यों ले धन पाने का संकल्प? -
धर्म के नजरिए से धन जीवन के चार पुरुषार्थो में एक है। शास्त्रों में भी आनंद स्वरूप भगवान विष्णु की पत्नी महालक्ष्मी को ऐश्वर्य और वैभव की देवी बताया गया है। प्रतीक रूप में संकेत है कि वैभव, ऐश्वर्य के साथ आनंद और सुख का अटूट रिश्ता है।
व्यावहारिक रूप से भी खुशहाल जिंदग़ी के लिए धन को अहम माना गया है। जरूरतों और जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिए धन की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। धन पाने के लिए जरूरी है कर्म या परिश्रम की मानसिकता बनाना। निष्क्रिय व आलस्य से भरा जीवन मात्र दरिद्रता लाता है, जो दु:खों का कारण बनता है। वहीं मिले धन का भी वास्तविक आनंद तभी प्राप्त होता है, जब वह ईमान और अच्छे कामों से कमाया जाए।
अगर कोई व्यक्ति धन के अभाव में उपेक्षा भरे जीवन से दूर होना चाहता है, तो वह नए वर्ष में मेहनत और कर्मठता के साथ आवश्यकताओं की पूर्ति और कर्तव्यों को पूरा करने के लिए पैसा कमाने का सुखद संकल्प लें।
नववर्ष का तीसरा संकल्प - बनना है होनहार
नववर्ष पर लिए जाने वाले पांच संकल्पों में अच्छे स्वास्थ्य और धन प्राप्ति के अलावा तीसरा संकल्प भी हर इंसान की सफल ज़िंदगी में निर्णायक होता है। यह संकल्प है - विद्या यानि हर तरह से ज्ञान और दक्षता को प्राप्त करना।
व्यावहारिक रूप से विद्या पाने का मतलब मात्र किताबी ज्ञान नहीं। बल्कि तन, मन, विचार और व्यवहार से संपूर्णता को पाना है। असल में विद्या बुद्धि, चरित्र और व्यक्तित्व का विकास करती है। यह व्यक्ति को दूरदर्शी, बुद्धिमान, विवेकवान बनाकर जीवन से जुड़े अहम फैसले लेने में मददगार साबित होती है। इस तरह अच्छे स्वास्थ्य और धन के साथ विद्या का भी ज़िंदगी में अहम योगदान होता है।
धर्म की दृष्टि से विद्या से विनय, विनय से पात्रता, पात्रता से धन, धन से धर्म और सुख प्राप्त होते हैं। सार है कि विद्या व्यक्ति को गुणी, अहंकाररहित और विनम्र बना देती है, जिनसे व्यक्ति धर्म और कर्म के माध्यम से सभी सुख प्राप्त करने लायक बनता है।
नववर्ष में ध्यान रहे कि विफलता से बचने के लिए विद्या और ज्ञान को ही ढाल बनाएं। इसलिए बच्चों से लेकर बुजूर्गहर कोई यह प्रण करें कि किसी न किसी रूप में अध्ययन व स्वाध्याय को दिनचर्या का और लोक व्यवहार को जीवनशैली का अंग बनाना है।
नववर्ष का चौथा संकल्प- चतुर बन देगें निराशा को मात
नववर्ष के पांच संकल्प में पहला निरोगी जीवन, दूसरा धन संपन्नता और तीसरा विद्या से होनहार बनना हर किसी के जीवन को नई ऊंचाई देगा। किंतु इन तीन संकल्पों की पूर्ति में चौथा संकल्प असरदार भूमिका निभाता है। यह व्यावहारिक जीवन के लिए भी बहुत जरूरी है।
यह चौथा संकल्प है- चतुराई सरल शब्दों में होशियार बनना। व्यावहारिक रूप से इसका मतलब बुद्धि के सदुपयोग से सकारात्मक नतीजे पाने से है। हालांकि यह गुण या कला स्वाभाविक रूप से हर व्यक्ति में मौजूद होती है, लेकिन इसका विकास व्यावहारिक ज्ञान के द्वारा ही संभव है। चतुर या होशियार बनने के लिए जरूरी है हर बात और विषय पर गंभीरता, खुले दिमाग और बारीकी से विचार करें। ऐसा अभ्यास सही या गलत का त्वरित निर्णय करना आसान बना देगा, जो आपकी कामयाबी के लिए कारगर साबित होता है।
अनेक मौकों पर देखा जाता है कि कम पढ़ा-लिखा व्यक्ति भी सही फैसले लेकर सफलता पा लेता है, वहीं ज्ञानी व्यक्ति व्यावहारिक ज्ञान के अभाव में मात खा जाता है। यह सभी चतुराई के रूप में बुद्धि के सही और समय पर उपयोग की समझ का नतीजा होता है।
धर्म का नजरिया जानें तो बुद्धि के छ: गुण बताए गए हैं- शुश्रुषा, श्रवण, ग्रहण, धारण, चिंतन, उहापोह, अर्थ विज्ञान और तत्वज्ञान। सार है कि बुद्धिमान बनने के लिए ज्ञान को जीवन में उतारना जरूरी है, जो सेवा से, सुनकर, समझकर, विचारकर, अपनाकर ही संभव है।
इस तरह नववर्ष में प्रण करें कि शिक्षा के साथ व्यावहारिक जीवन में भी भागीदारी करेंगें।
तो अव्वल बना देगा यह आख़री वादा
नए साल के पांच रिजोल्यूशन यानि संकल्प - पहला निरोगी काया, दूसरा अर्थ प्राप्ति या धन कमाना, तीसरा बुद्धि का विकास या विद्यावान होना और चौथा चातुर्य बल प्राप्ति या आधुनिक भाषा में प्रेक्टिकल बनना, इन चारों के मायने तभी है, जब पांचवा संकल्प लेकर उसे पूरी इच्छाशक्ति के साथ पूरा करने का प्रयास किया जाए।
संकल्पों की अंतिम और पांचवी कड़ी है - सहयोग की भावना। सहयोग यानि मदद और मदद में छुपा है परोपकार और भलाई का भाव। वैसे सहयोग का मतलब दूसरों की ही नहीं खुद की मदद से भी होता है।
जब व्यक्ति मदद की शुरूआत खुद से करें तो उसका फायदा दूसरों तक भी पहुंचता है। सरल शब्दों में अपनी कमियों, दोषों और कमजोरियों को पहचान उनमें पूरी सच्चाई और अनुशासन से सुधार करें। तभी आप दूसरों की सच्चे ह्रदय से मदद के लिए तैयार कर पाएंगे।
वहीं सहयोग के परोपकार और भलाई के रूप की बात करें तो यह धार्मिक ही नहीं व्यावहारिक रूप से भी आपकी शक्ति बन जाता है। धर्म के नजरिए से परोपकार को सज्जन लोगों की लत बताया गया है। दूसरों के लिए ज़िंदगी बिताना ही वास्तविक जीवन है। पुराणों में भी भगवान विष्णु के दस अवतार बताए गए हैं। ये अवतार भी परोपकार और भलाई की ही प्रेरणा देते हैं।
व्यावहारिक रूप से भी जो व्यक्ति विनम्र, मधुभाषी, खुशमिजाज, उदार, दयालु, सेवाभावना और अहं से दूर रहकर दूसरों की मदद को तैयार रहता है, तो अन्य लोग भी उस व्यक्ति के वशीभूत हो जाते हैं।ऐसे व्यक्ति की भी हर कोई किसी भी वक्त मदद को तैयार रहता है। वह हर स्थिति में स्नेह, यश और सम्मान का हकदार बन जाता है। ऐसे लोग जहां भी पहुंचते हैं, वहां पर उनके दोस्त, मददगार और प्रेमी बन जाते हैं।
इस तरह सहयोग के संकल्प के साथ नए साल में उस राह पर चलने की शुरूआत करें, जिस पर चलकर आपकी ईश्वर, प्रेम, शांति, स्वास्थ्य, ख्याति, सम्मान, यश और दौलत तक पहुंच आसान होगी। यह संकल्प निश्चित रूप से आपको पारिवारिक, सामाजिक और इंसानियत के पैमानों पर अव्वल बना देगा।
तो सारे ख़्वाब बन जाते हैं हक़ीकत
अक्सर यह देखा जाता है कि कईं लोग दूसरों की कामयाबी, उपलब्धि या सफलता को देख, सुन या जानकर उसकी प्रशंसा में बहुत रुचि लेकर लंबा समय निकाल सकते हैं। यही सिलसिला नई खबरों के साथ आगे चलता रहता है। किंतु इसके विपरीत अपवादों को छोड़कर सोचें तो वही लोग स्वयं कामयाब होने के लिए इतना विचार और समय खर्च नहीं करते हैं।
दरअसल अधिकांश लोग सोई आंखों के सपनों में तो बहुत देर तक स्थिर रहते हैं। किंतु जागती आंखों के सपने उनकी जिंदग़ी से नदारद होते हैं या उन पर सतही रूप से विचार कर छोड़ देते हैं। जबकि सफल ज़िंदगी के लिए सबसे जरूरी है आप जागकर ख्वाब संजोए और उनको पूरा करने के लिए कमर कस लें, तो ऐसे ख्वाब भी हकीकत बन जाएंगे।
धर्म शास्त्रों बताई गई बातें भी यही संकेत करती है। जिनके मुताबिक परिश्रम, हिम्मत, धीरज, बुद्धि, ताकत और वीरता इन छ: गुणों वाले किसी भी व्यक्ति का भाग्य भी मददगार बन जाता है। इन छ: गुणों से व्यक्ति किसी भी ख्वाब व्यावहारिक अर्थों में लक्ष्य को पा सकता है।इसलिए यहां जानते हैं किस तरह अपने ख्वाबों को हकीकत में बदलें -
- सबसे पहले लक्ष्य बनाएं। बिना लक्ष्य के हाथ-पैर मारना समय और ऊर्जा गंवाने के साथ मनोबल को भी कमजोर करते हैं।
- मकसद को अपनी ताकत, क्षमताओं के मुताबिक तय करना भी बहुत जरूरी हे। यह सही है कि कुछ भी असंभव नहीं किंतु इस इस जोश के साथ व्यावहारिक हालातों का भी ध्यान रहे।
- तयशुदा लक्ष्य को पाने के लिए सबसे पहले अपनी कमजोरियों और दोषो को दूर करने की शुरूआत करें। इसके साथ ही अपने ज्ञान, कला, हुनर से जुड़ी ताकत को भी बढ़ाते रहें।
- हर उस गुणी, ज्ञानी, कामयाब और कुशल शख्स से जरूरी सलाह या मार्गदर्शन लेना न भूलें, जो आपके द्वारा निर्धारित लक्ष्य को पाने में पहले कामयाब हुआ है।
- लक्ष्य प्राप्ति में समय और योजनाबद्ध काम बहुत अहम है। बेतरतीब तैयारी आपको विचलित कर मकसद से भटका सकती है।
- अपने लक्ष्य तक पहुंचने में स्वभाव, व्यवहार और भाषा में मिठास और विनम्रता बनाए रखें।
क्यों रुद्राक्ष है शिव का रूप?
हिन्दू धर्म में शिव को कल्याणकारी देवता माना गया है। शास्त्रों में बताया गया शिव का हर रूप, लीला, चरित्र और उनसे जुड़े हरे पुराण प्रसंग जगत के लिए सुखदायी हैं। शिव ने प्रसन्न होने पर जहां अपने भक्तों को ऊंचा पद देकर पूजनीय बना दिया, वहीं दुर्जनता और दुर्गणों के नाश के लिए पुकारने पर किसी भक्त को निराश भी नहीं किया।
जगत को सुखी करने वाली शिव की ऐसे ही महिमा पुराणों में बताई गई है। जिसमें शिव के नेत्रों से निकले आंसू भी जगत के कष्ट और पीड़ाओं को हरने वाले साबित हुए। हम सभी जानते हैं कि शिव भक्ति के लिए किए जाने वाले उपायों में प्राकृतिक सामग्रियों का बहुत महत्व है। इनमें ही एक है-रुद्राक्ष। इसी रुद्राक्ष की उत्पत्ति और उसके पीड़ा हरने वाले प्रभाव को शास्त्रों में बताया गया है।
पौराणिक मान्यता में रुद्राक्ष को शिव का ही अंश माना जाता है। शिव पुराण में लिखा है कि लंबे समय तक किए कठोर तप और साधना के बाद महायोगी शिव के नेत्र खुलने पर उनसे निकली आंसूओं की बूंदे जमीन पर गिरीं। माना जाता है कि इन आंसूओं की बूंदों से ही रूद्राक्ष के पेड़ पैदा हुए।
चूंकि महादेव का कल्याणकारी रूप सदाशिव है, तो संहारक रूप रुद्र माना जाता है। रुद्र का मतलब है - दु:ख का अंत करने वाला। इस तरह रुद्राक्ष शब्द का अर्थ भी यही है कि शिव के नेत्रों से निकला कष्टों को दूर करने वाला।
यही कारण है कि धार्मिक नजरिए से रुद्राक्ष पहनना पाप, चिंता, कष्ट, दु:ख और संकट का अंत करने वाला माना जाता है। किंतु शास्त्रों के मुताबिक रुद्राक्ष का असर और प्रभाव उसके रूप, रंग, आकार नियत करते हैं। जानते हैं रुद्राक्ष धारण करने से जुड़ी कुछ अहम बातें -
- रुद्राक्ष चार रंग के होते हैं।
- सफेद, लाल, पीला और काला। शिव भक्तों व भौतिक सुखों और जनम-मरण से मुक्ति की चाह रखने वाले को रुद्राक्ष धारण करना ही चाहिए। वर्ण के मुताबिक भी रूद्राक्ष पहनने के नियम हैं।
- रुद्राक्ष का आकार जितना छोटा होता है, वह उतना ही असरदार माना गया है। वैसे सभी रुद्राक्ष ही पापों को नष्ट कर शिवकृपा देने वाले होते हैं।
- सही आकार, ठोस, चिकना और सुंदर रूद्राक्ष ही पहनें।
- जिस रुद्रा में प्राकृतिक रुप से छेद होता है, पहनना श्रेष्ठ होता है।
- तमाम सुखों और अच्छे भाग्य के लिए बेर के आकार का रुद्राक्ष श्रेष्ठ होता है।
- अनिष्ट शांति के लिए आंवले के आकार का रुद्राक्ष पहनें।
- इच्छाओं की पूर्ति के लिए कम से कम आकार वाला रुद्राक्ष पहनें।
- खण्डित, कीड़ा लगा, दाग लगा, बिना गोल आकार का या उस पर उभरे हुए दाने न हो, ऐसा रुद्राक्ष न पहने।
- पुराणो में रंग, रुप, आकार के आधार पर एक से लेकर चौदह मुखी रुद्राक्ष का महत्व बताया गया है। जिनको धारण करने से अलग-अलग फल प्राप्त होते हैं।
इस सुख का कोई अंत नहीं ..
आम इंसान जिंदगी में अनेक तरह के सुख की कामना करता है। जिनमें स्वास्थ्य, धन, संतान, घर आदि। इन सुखों के लिए वह दिन-रात तन, मन से भरसक कोशिश करता है। इस मेहनत का फल भी उसे सुख की प्राप्ति के रूप में मिलते हैं। वहीं वह कई मौकों पर नाकाम भी होता है, जिससे दु:ख और निराशा मिलती है। किंतु जब सुख पाकर भी व्यक्ति बेचैन और परेशान दिखाई दे तो यह सवाल बनता है कि आखिर ऐसा कौन-सा सुख है, जिसको पाकर कोई व्यक्ति किसी ओर सुख की चाह ही न करे?
इस बात का जवाब छुपा है धर्मशास्त्रों में। जिनके मुताबिक जगत के सारे सुखों से भी बड़ा सुख है - भगवत या इष्ट साधना। माना जाता है कि दुनिया के हर सुख मिल जाए और भगवान और धर्म से व्यक्ति दूर हो जाए तो सभी सुख व्यर्थ हैं। इसके विपरीत सभी सुखों से वंचित रहने पर भी भगवत प्रेम प्राप्त हो जाए तो वह व्यक्ति सबसे धनी होता है।
धर्मशास्त्रों में अनेक ऐसे भक्तों के उदाहरण हैं, जिन्होंने भगवत कृपा की वह दौलत पाई, जिसने जगत को भौतिक सुखों से दूर ऐसी अंतहीन खुशी पाने की राह बताई, जिस पर चलना हर किसी के बस में है। इनमें श्रीकृष्ण के परम मित्र सुदामा और भगवान राम के भक्त श्री हनुमान प्रमुख है। लोक जीवन में कृष्णभक्त मीरा और चैतन्य महाप्रभु ने सारे भौतिक सुखों को भक्ति के आगे बौना साबित किया।
धर्मग्रंथों में श्री हनुमान द्वारा माता सीता द्वारा मोती की माला देने पर उनकों चबाकर तोड़ अपने इष्ट को ढूंढने का प्रसंग है। जिसको साबित करने के लिए हनुमान के खुशी-खुशी सीने को चीरकर राम-सीता की छबि बताना भी भगवत भक्ति का बेजोड़ उदाहरण है। वहीं शास्त्रों के परम ज्ञाता सुदामा को श्रीकृष्ण के प्रति अपार प्रेम से आध्यात्मिक नजरिए से भगवत कृपा पाने वाला सबसे वैभवशाली चरित्र माना जाता है। लोक जीवन में मीरा ने बेमिसाल भक्ति से कृष्ण को पाया तो चैतन्य महाप्रभु भक्ति में ऐसे डूबे कि माना जाता है कि वह भगवान की मूर्ति में ही समा गए।
सार यह है कि अगर वास्तविक सुख और आनंद चाहें तो व्यावहारिक जीवन में धर्म और ईश्वर से भी जुड़े। क्योंकि जब व्यक्ति भगवान को स्मरण करता है तो वह सारे दु:ख, तनावों, चिंताओं, कष्टों से परे हो गहरी मानसिक शांति और स्थिरता पाता है, जो नया आत्मविश्वास पैदा करती है। लेकिन इसकी शर्त यही है कि भगवान को आजमाने के लिए याद न करें, बल्कि श्रद्धा और विश्वास से स्मरण करें। तभी वह खुशी मिलेगी, जो हमेशा कायम रहेगी।
नाम और दाम देगा ऐसा काम
कामयाब जिंदग़ी का हिसाब-किताब लगाने पर अंत में यह बात ही सामने आती है कि व्यक्ति का काम ही उसकी पहचान बनता है। इसलिए सुनहरे कल के सपने रखने वाली आज के दौर की युवा पीढ़ी नाकामयाबी को बुरी किस्मत का बहाना बनाकर नजरअंदान न करे। बल्कि अच्छे काम और मेहनत का सूत्र थामकर आगे बढ़ती रहे। इससे मिली कार्य कुशलता ही बेहतर कल बनाने में मददगार साबित होगी।
भगवान श्रीकृष्ण ने भी युगों पहले कर्म के इसी सूत्र को बताकर युद्ध में अर्जुन को श्रीमद्भगवद् गीता का उपदेश दिया। जिसे निष्काम कर्मयोग के नाम से जाना जाता है। श्रीकृष्ण के कर्मयोग का सरल अर्थ यही है कि कार्य को पूरी निष्ठा, ईमानदारी और बिना स्वार्थ से करना यानि कर्म करना हर व्यक्ति का धर्म है। किंतु कर्म करने में आसक्ति न हो। सरल शब्दों में कार्य के अच्छे नतीजों में श्रेय की आस न रख और बुरे परिणामों में दु:खों में न डूबकर आगे बढ़ चले।
भगवान श्रीकृष्ण द्वारा श्रीमद्भागवद् में बताया यही ज्ञान हर कार्य क्षेत्र के व्यक्ति को सफलता प्राप्ति के गुर सिखाता है। भगवान श्रीकृष्ण ने धार्मिक कर्म व जीवनोपयोगी काम के बीच का अन्तर दूर किया। इसीलिए भगवान श्रीकृष्ण के कर्मयोग सिद्धांत हर काल में प्रासंगिक है।
व्यावहारिक रूप से भी कार्य से ही कोई व्यक्ति कुशल बनता है। यह दक्षता ही उसे परिवार, समाज या कार्यक्षेत्र में कामयाबी, प्रतिष्ठा और धन लाभ देती है।
कभी न भूलें ये पांच बातें, नहीं तो..
आज धर्म या शास्त्रों की बातों को सुनने या पढऩे के अनेक साधन मौजूद हैं। लेकिन अक्सर यह देखा जाता है कि धर्म को मानने वाले धर्म की अच्छी बातों को सुन और समझ लेते हैं, किंतु जब उनको अपनाने का समय आता है, तो कहीं न कहीं अपने हित, स्वार्थ या अन्य कारण से नजरअंदाज कर देते हैं। यहीं नहीं सुख पाने की लालसा या चाहत कईं बार इतनी हावी हो जाती है कि व्यक्ति धर्म और ईमान ही भूल जाता है। सवाल यही बनता है कि इंसान ऐसा क्या करें कि धर्म और सुख दोनों का लाभ ताउम्र मिलता रहे? जानते हैं कुछ ऐसी ही जरूरी पांच बातें -
असल में धर्म इंसान को संयम और अनुशासन से रहना और जीना सिखाता है। जिससे व्यक्ति विशेष के साथ-साथ उसके आस-पास रहने वाले अन्य लोग भी सुख से जीवन बीता सके। किंतु सुख पाने की राह में कुछ ऐसी बातें जरूर ध्यान रखें जिनको भूलना आपको दु:खों की गहरी खाई में गिरा सकती है -
नास्तिकता - नास्तिक होना यानि धर्म और ईश्वर में अविश्वास करना। वहीं आध्यात्मिक या व्यावहारिक अर्थों में खुद पर भरोसा न करना भी नास्तिकता ही है। इस तरह धर्म या ईश्वर में अविश्वास आपको अशांत रखेगा और खुद पर भरोसा न करना मनोबल कमजोर कर देगा।
निर्दयता - दया को धर्म की जड़ कहा गया है। दूसरों के प्रति संवेदना और भावनाहीन होना ही निर्दयता है। यह अंतत: आपकी गहरी पीड़ा का कारण बनता है।
कृतघ्रता - ज़िंदगी में किसी के द्वारा भी किसी भी रूप में की गई सहायता, मदद या सेवा को भूला देना कृतघ्रता है। ऐसा स्वभाव न केवल आपको अप्रिय, अविश्वासी बनाता है, बल्कि उपेक्षा का कारण भी बनता है।
दीर्घद्वेषी - किसी के प्रति ईर्ष्या भाव से या जाने-अनजाने आपके साथ हुए गलत व्यवहार को याद रख मन में दुर्भाव या हानि पहुंचाने की भावना रखना ही दीर्घद्वेषी कहलाता है। यह भाव सबसे ज्यादा स्वयं के दु:ख का कारण बनता है।
अधर्मजन्य संतति - हर धर्म में वंश वृद्धि और धर्म पालन के नजरिए से संतान प्राप्ति हेतु स्त्री-पुरूष के रिश्तों की मर्यादा और गरिमा बताई गई है। किंतु उन सीमाओं से बाहर गलत संबंध बनाना या संतान प्राप्ति व्यक्तिगत जीवन को दागदार, अशांत और कलहपूर्ण बनाती है।
धर्म की नजर से इन पांच बातों से बचकर ही जीवन को दु:ख रूपी नरक से बचाकर सुख रूपी स्वर्ग को पा सकते हैं।
इन तीन स्थानों पर होते हैं भगवान
हिन्दू धर्म शास्त्रों में बताई गईं अनेक देवी-देवताओं के अवतार और उनकी लीलाएं लोकप्रिय हैं। रामलीला, कृष्ण लीला भक्तों के मन-मस्तिष्क की गहराईयों में बसी है। धर्म के नजरिए से जहां यह सभी लीलाएं भगवान के स्वरूप, शक्ति और भक्तों के कल्याण से जुड़ी हैं।
व्यावहारिक रूप से भगवान के अवतार और लीलाएं दूसरों के लिए जीने और कुछ करने की सीख देती है।
शास्त्रों के मुताबिक भगवान अपनी लीलाओं से भक्तों को तीन तरह सुख और आनंद देते हैं। जानते हैं भगवान की लीलाओं के इन तीन रूपों को -
अक्षर लीला - इस लीला में भगवान अपनी संपूर्ण शक्तियों के साथ बीज रूप में मौजूद होते हैं। यही कारण है बीज मंत्र बहुत असरदार और शक्तिशाली माने जाते हैं।
नित्य लीला - साकेत या गोलोकधाम में भक्तों, अनुयायियों के साथ पूर्ण स्वरूप, शक्ति व वैभव के साथ की जाने वाली भगवान की लीला नित्य लीला है।
व्यावहारिक लीला - यह लोक लीला भी कहलाती है। धराधाम यानि भूलोक में होने वाली लीला व्यावहारिक लीला है। जैसे राम, कृष्ण अवतार।
अगर चाहें शांत और सुखी जीवन तो..
हर व्यक्ति सुख की इच्छा ही नहीं रखता, बल्कि उसके साथ शांति भी चाहता है। जीवन में शांति न होने पर बड़े से बड़े सुख में भी व्यक्ति अभावग्रस्त महसूस करता है।सुकून भरे इंसानी जीवन के सूत्र हर धर्म में बताए गए हैं। किंतु सनातन धर्म में परंपराओं के माध्यम से बताए गए रहने और जीने के सलीके खुशी के साथ मन में गहरी शांति भी देते हैं। जानते हैं ऐसी ही कुछ बातें -
1. ईश्वर सर्वशक्तिमान है। इसलिए हर हालात में भगवान पर विश्वास रखें।
2. यह कभी न भूलें कि शरीर की मृत्यु तय है। जीवन अस्थाई है। इससे अहं का भाव दूर रहेगा और प्रेम जीवन में उतरेगा।
3. दूसरों में अपना रुप देखें। तभी वास्तविक प्रेम व मेलजोल से जीवन गुजारना संभव होगा।
4. दूसरों के दोष न देखकर स्वयं के दुर्गुणों को पहचान उसे दूर करें।
5. पवित्रता, ईमानदारी के साथ सादा जीवन बिताते हुए नियत लक्ष्य पाना ही जीवन की सार्थकता और उपयोगिता है।
6. निजी हित और स्वार्थ को भूलकर परोपकार और दूसरों की भलाई की कोशिश करना।
7. सभी सुख-वैभव और भोग विलास में आसक्ति न रखना।
8. माता-पिता, गुरु, बुजूर्गों, विद्वान, संत, महापुरुषों, ब्राह्मणों एवं आचार्यों की सेवा एवं सम्मान करना।
9. गाय, गंगा, गीता, गायत्री, गणेश, वेद और रामायण की पवित्रता का सम्मान करना।
10. शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए व्रत, उपवास, तप और योग को अपनाएं।
11. सत्य, दया, अहिंसा, प्रेम, सेवा, त्याग के भाव जीवन में उतारना ही सनातन धर्म की पहचान है।
सधी जीवनशैली चाहें, तो अपनाएं गीता के ये सूत्र
हर तरह, हर प्रकार से विकास के इस दौर में विश्वास कम होता जा रहा है। विश्वास स्वयं पर भी और दूसरों पर भी। व्यक्ति किसी भी क्षेत्र का हो उसके जीवन में तीन स्थितियां होंगी हीं। निजी जीवन, पारिवारिक जीवन और व्यावसायिक जीवन। इस समय जीवन का क्रम इस प्रकार बन गया है। पहले आदमी व्यावसायिक जीवन में रहता है, फिर समय बचने पर वह परिवार साधता है और अंत में निजी जीवन पर काम करता है। इसमें उम्र बीत जाती है। कुछ लोगों को तो 50-60 साल में याद आता है कि कुछ भी साधा जाए, तब तक देर हो जाती है।
इस क्रम में सुख, सुविधा, सफलता भले ही मिल जाएं पर अशांति बनी रहेगी।
आईए, जीवन का क्रम बदलें। गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को इसी क्रम के बारे में समझाया था। पहले निजी जीवन (यानी आध्यात्मिक जीवन), फिर पारिवारिक जीवन और फिर व्यावसायिक जीवन साधें। जो लोग इस क्रम को साधेंगे उन्हें अपने व्यावसायिक क्षेत्र में पूरी सफलता तो मिलेगी ही लेकिन शांति के साथ। चूंकि वे निजी जीवन से परिपक्व होकर और पारिवारिक जीवन से तृप्त होकर व्यावसायिक रूप में आ रहे होंगे, इसलिए हर काम में उनकी मस्ती, परिश्रम, ईमानदारी और योग्यता अलग ही होगी।
महाभारत युद्ध के आरंभ में अर्जुन ने निराश होकर पलायन की बात कही थी। तब श्रीकृष्ण ने सबसे पहले गीता सुनाई। गीता का संदेश निजी जीवन पर काम करने जैसा है। फिर उन्होंने अर्जुन को परिवार से जोड़ा था। उसके बाद व्यावसायिक जीवन यानी युद्ध में उतारा था और अर्जुन विजय के सूत्रधार बने थे।
निजी जीवन - प्रतिदिन थोडा योग-प्राणायाम, ध्यान करें। हर संस्था में ध्यान का एक 5-10 मिनट का डिमॉन्स्ट्रेशन होना चाहिए। 10-15 मिनट इस पर 24 घण्टे में दें। ध्यान की कुछ सरलतम विधियां हैं, उन्हें अपना लें। कुछ विधियां तो कार्यालय में बैठकर भी की जा सकती हैं, कार में यात्रा करते हुए भी।
पारिवारिक जीवन - जितना ध्यान प्राणायाम के निकट होंगे, उतने प्रेम से सराबोर होंगे। परिवार प्रेम, धैर्य और समझ से चलता है।
अभी ज्यादातर वरिष्ठ और जिम्मेदार लोग जब कार्यस्थल पर अपना काम आरंभ करते हैं तो 90 प्रतिशत उनके घर से ही फोन आता है, वे स्वयं कम करते हैं।
एक प्रयोग करें, कार्य शुरू करने के पूर्व स्वयं घर फोन लगाकर पूछ लें और बता दें हम काम शुरू कर रहे हैं, सब ठीक है ना? यह रिवर्स रिसपॉन्स धीरे-धीरे एक दिन पॉजीटिव परिणाम देगा ही।
व्यावसायिक जीवन - जब पिछले दो जीवन क्रम से निकल कर व्यक्ति यहां पहुंचता है तो तीन काम करन स्वत: सीख जाता है।
इस क्षेत्र में तीन बातें करना होती है -
1. व्यवहार : स्वयं से पिता जैसा, अपने अधीनस्थ माँ जैसा और अपने वरिष्ठ से परमात्मा जैसा मान-भरोसा, समर्पण रखते हुए व्यवहार करें। पिता में एक दबाव है जो स्वयं पर काम आता है। माँ में सदाशयता, हितकारी वृत्ति होती ही है और परमात्मा के प्रति समर्पण अपने वरिष्ठ या संस्था के प्रति हमारी लॉयल्टी को बनाएगा।
2. वाणी : योग और परिवार से गुजरा व्यक्ति विनम्र, संतुलित और उद्देश्यपूर्ण ही बोलेगा। उपहास, व्यंग्यात्मक और अपशब्द, लंबे समय में साथियों को आपसे दूर करेंगे तथा समूची संस्था में उदासी का वातावरण भर देंगे।
3. विचार : ध्यान (मेडिटेशन) मन के नियन्त्रण का नाम है। मन का भोजन विचार है। नियन्त्रित मन, विचारों का बोझ कम लेगा, इसका फायदा यह होता है कि आदमी थकता कम है, उसका समय प्रबंधन सधता है तथा निर्णयों के प्रति भ्रम दूर हो जाता है।
अत: धीरे-धीरे इस जीवनक्रम को अपनाया जाए जिसका लाभ व्यक्तियों से गुजरकर पूरे संस्थान को मिलता है।
गृहस्थी को अशांत करें ये चार कारण
आदर्श जिंदगी सहज, सरल और शांत होती है। ऐसा ही जीवन पाने या बनाने की कल्पना और कोशिश हर कोई करता है। प्रयास यही होता है कि निजी और पारिवारिक जीवन में दु:ख, संताप, बाधाओं और शत्रुओं से दूर रहे। किंतु चूंकि धर्म की नजर से जीवन में कर्म तो व्यक्ति के हाथ में होते हैं, किंतु उनके नतीजे कोई स्वयं नियत नहीं कर सकता है।
यही कारण है कि गृहस्थ जीवन में कुछ ऐसी अप्रिय स्थितियों का भी सामना कर पड़ सकता है, जो अनसोची होती हैं। धर्म के नजरिए में कुछ ऐसी ही बातें बताई गई हैं, जो न चाहकर भी किसी व्यक्ति के लिए शत्रु के समान होती है। इनसे बचने का उपाय भी यही है कि व्यक्ति सुख-दु:ख में समान भाव से रहने और संतुलन बनाने का अभ्यास करें और तैयार रहे मजबूती के साथ दु:खों से दो-चार होकर उसे मात देने के लिए।
जानते हैं गृहस्थ जीवन में शत्रु समान मुश्किलें पैदा करने वाली ऐसी ही चार बातों को -
कर्जदार पिता - पिता पालक होते हैं। धार्मिक दृष्टि से वह भगवान विष्णु का रूप होता है। किंतु व्यावहारिक जीवन में परिवार की सुख-सुविधाओं और परवरिश के लिए पिता द्वारा लिया कर्ज पुत्र के लिए ऐसा बोझ बन जाता है कि उनके रहते या बाद भी पुत्र और परिवार के अन्य सदस्यों का जीवन बेहाल हो सकता है। कभी-कभी पिता की कुसंगति भी इसका कारण होती है।
व्याभिचारिणी स्त्री - धार्मिक दृष्टि से स्त्री का पद सबसे ऊंचा माना गया है। सृष्टि की कल्पना भी स्त्री के बिना संभव नहीं। शास्त्रों में बताया गया है कि कलियुग में किसी स्त्री का गलत आचरण संतान के जीवन पर बुरा असर डालता है। क्योंकि गलत संस्कार संतान के जीवन में कलह और बाधा बन जाते हैं।
सुंदर स्त्री - लज्जा और सौंदर्य स्त्री का प्राकृतिक आभूषण है। लेकिन शास्त्रों में भी सौंदर्य से अप्सराओं द्वारा ऋषि-मुनियों के तप भंग करने का वर्णन मिलता है। चूंकि संसार को सत्व, तम और राजसी गुणों से भरा बताया गया है। इसलिए स्त्री के सौंदर्य से प्रभावित होकर पैदा हुए किसी अन्य के बुरी दृष्टि, विचार, व्यवहार अनचाहे शत्रुता पैदा कर सकते हैं।
अशिक्षित पुत्र - विद्या को जीवन और चरित्र विकास के लिए अहम माना गया है। किंतु अगर पुत्र अशिक्षित और अनपढ़ रहे, तो उसके जीवन के साथ ही पारिवारिक जीवन भी अशांत और कलहपूर्ण हो सकता है।
इन चार शत्रुओं पर विजय पाने का मंत्र भी यही है कि जीवन में मजबूत इरादे, इच्छाशक्ति, विश्वास और उम्मीदों के साथ स्वयं के साथ परिवार को भी बांधे रखें। जहां तक संभव हो ज्ञान, संस्कारों, जीवन मूल्यों और धर्म से नाता जोड़े रखें।
बिगड़ी बना दे शनि के ये दस नाम
शास्त्रों में शनि को न्याय का देवता बताया गया है। धार्मिक मान्यता है कि वह न्याय करने के साथ दण्ड भी देते हैं। यहीं नहीं शास्त्रों में शनि की वक्रदृष्टि से अनेक देवी-देवताओं के आहत होने का भी वर्णन है। इन कार्यों और रूपों से ही शनि क्रू र देवता माने जाते हैं।
शास्त्रों के मुताबिक शनि सूर्य पुत्र हैं। किंतु माँ के अपमान के कारण उनका अपने पिता सूर्य से बैर हुआ। माता के अपमान न सहन कर पाने से शनि ने शिव की तपस्या कर सूर्य की भांति ही शक्तिशाली और नौ ग्रहों में श्रेष्ठ स्थान पाने का वर प्राप्त किया।
असल में शनिदेव की क्रूर छबि का मतलब यह नहीं है कि वह कष्ट, पीड़ा और दु:खों को देने वाले ही देवता है। बल्कि सत्य यह है कि शनिदेव बुरे कर्मों का ही दण्ड देते हैं। चूंकि हर व्यक्ति जाने-अनजाने मन, वचन और कर्म से कोई न कोई पाप कर्म कर देता है। इसलिए वह शनि के कोप का भागी भी बनता है।
शनिदेव बुरे कामों के लिए सजा भी देते हैं तो अच्छे कामों से प्रसन्न भी होते हैं। यही कारण है कि शनि को किस्मत चमकाने वाला देवता भी कहा जाता है। ज्योतिष शास्त्रों में शनि के शुभ होने पर अपार सुख, समृद्धि देता है, वहीं भाग्य विधाता भी बन जाता है।
शास्त्रों में शनि के चरित्र, स्वरूप बताते ऐसे ही दस नामों का वर्णन है। जिनका स्मरण, ध्यान करने से ही सभी संकट, पीड़ा, भय, बाधा और दु:खों का नाश हो जाता है। जानते हैं शनि के वह दस कल्याणकारी नाम -
- कोणस्थ
- पिंगल
- बभ्रु
- कृष्ण
- रौद्रान्तक
- यम
- सौरि
- शनैश्चर
- मन्द
- पिप्पलाश्रय
अगर जवानी में किए ऐसे काम तो..
वर्तमान में हर शख्स खासतौर पर युवा पीढ़ी में सुख-सुविधा के आधुनिक साजो-सामान का गहरा प्रभाव है। इससे किसी सही लक्ष्य को साधने में रूचि लेने के बजाय अति महत्वाकांक्षा अनेक युवाओं को भटका रही है। वह कईं मौकों पर छोटे रास्तों से अस्थाई सुख देने वाली वस्तुओं या साधनों को पा भी लेते हैं। किंतु कुछ समय के बाद वास्तविक सुख से दूर यह ऐशो-आराम खत्म होने पर बेचैनी या निराशा फिर से सामने खड़ी होती है।
सवाल यही उठता है कि आज का युवा ऐसा क्या करे कि उसे स्थाई सुख भी मिले और आने वाला कल चिंता और अनिश्चितता से दूर हो? जवाब मिलता है धर्म सूत्रों में -
धर्म शिक्षाओं में कहा गया है कि युवाओं को भौतिक सुखों को प्राप्त करने की कोशिश तो करना चाहिए, लेकिन उनके पीछे बेतहाशा दौड़ न लगाए। धर्म की दृष्टि से ऐसा करने का सबसे बेहतर तरीका है - दूसरों को सुख देने के बारे में विचार करें। इससे मन में पैदा होने वाली सुख पाने की लालसा या चाहत कम होती है। भौतिक सुख-सुविधाओं के प्रति आकर्षण मिटाने का यही सटीक उपाय है।
शास्त्रों में जवानी को ऐसा समय बताया गया है, जो ऊर्जा से भरपूर होता है। जिसने इस ऊर्जा को सही दिशा में खर्च करने की आदत और अभ्यास कर लिया, तो उसका शेष जीवन खासतौर पर बुढ़ापा सुकूनभरा गुज़र जाएगा। यह समय न केवल स्वयं के शारीरिक, मानसिक और वैचारिक बल को बढ़ाने का होता है, बल्कि अपनी शक्ति से दूसरों की सेवा और मदद से यश, सम्मान, आत्मबल और बेहतर कल बनाने का भी होता है।
इस तरह व्यावहारिक जीवन की यह बात सही साबित होती है कि अपने लिये तो सभी जीते हैं, लेकिन वास्तविक जीवन दूसरों के लिए जीना ही है। इससे मिलने वाला प्रतिफल ही जीवन के अंतिम पड़ाव यानि बुढापे में भी अपनों और परायों को भी आपके नजदीक रखेगा। स्थायी सुख और शांति चाहें तो जरूर ऐसी आदत पर गौर करें।
क्यों इतने शुभ फल देते हैं हीरे-मोती?
आज सुखी और तनाव रहित जीवन के लिए आत्म अनुशासन और संयम बहुत जरूरी है। किंतु अनियमित दिनचर्या या जीवनशैली के कारण समय और काम के बीच असंतुलन अनेक मुश्किलें पैदा करते है। जिनसे निज़ात पाने के लिए व्यावहारिक उपाय तो जरूरी है, लेकिन शास्त्रों में इस समस्या के लिए रत्न और नग पहनना भी बहुत शुभ माना गया है।
विज्ञान भी इन नगीनों और रत्नों के सकारात्मक ऊर्जा देने वाले तथ्यों की पुष्टि करता है। धर्मशास्त्रों में इन रत्नों के पैदा होने व प्रभावशाली होने के पीछे एक कथा है।
प्राचीन समय में बलासुर नामक शक्तिशाली दैत्य था। उससे देवता भी पराजित हो गए। तब उस दैत्य के अंत के लिए देवताओं ने यज्ञ में बली के लिए उस दैत्य से निवेदन किया। तब बलासुर ने यज्ञ जैसे शुभ कार्य के लिए अपनी देह दान की। इस तह यज्ञ बली से बलासुर का अंत हुआ।
यज्ञ जैसे पवित्र कार्य, देवताओं के हित के लिए अपना शरीर त्याग करने के कारण बलासुर का तामसी शरीर भी पवित्र व सत्वगुणी हो गया। यहीं नहीं उसकी देह का हर अंग रत्नों के बीज में बदल गया।
इस तरह बलासुर के उपकार के कारण जब देवताओं ने उसकी देह को आकाशमार्ग से ले जाना चाहा तो वायु और वेग से उसका शरीर टुकडे-टुकड़े होकर समुद्र, नदी, पर्वत, जंगल में गिरकर रत्नों की खान में बदल गए। साथ ही वह स्थान भी उन रत्नों के नाम से ही प्रसिद्ध हुए।
इन रत्नों को हीरा, मोती, स्फटिक, मूंगा, माणिक्य, पुलक, मुक्तामणि जैसे नामों से पुकारा गया। इस तरह रत्नों के पैदा होने के साथ परोपकार, देव कल्याण की भावना और सत्वगुणों के जुड़े होने से सभी नग या रत्न सुख, आनंद, ऐश्वर्य देने वाले और पीड़ानाशक होते हैं।
सूर्य से ऐसे बनी पूरी सृष्टि
हर धर्म में संसार की रचना के अलग-अलग सिद्धांत हैं। वहीं हिन्दू धर्म में जगत की रचना को लेकर भी अलग-अलग धार्मिक मान्यताएं हैं। इसी क्रम में भविष्य पुराण में जगत की रचना भास्कर यानि सूर्यदेव से होने का वर्णन मिलता है। जानते हैं सृष्टि रचना से जुड़ी इन रोचक बातों को -
हिन्दू धर्म में सूर्य को प्रत्यक्ष देवता माना गया है। शास्त्रों में अद्भुत तेज, गति और ऊर्जा की वजह से वह ज्ञान, शक्ति और बुद्धि के देवता भी माने जाते हैं। यही सूर्यदेव जगत की रचना के कारण है।
शास्त्रों के मुताबिक इस सृष्टि से पहले सभी ओर अंधकार था। भगवान भास्कर ने सबसे पहले जल पैदा किया। जिसमें वीर्यरूप शक्ति को मिलाया। जिससे बने तेजोमयी सोने के अण्डे के बीच से ब्रह्मदेव पैदा हुए।
- ब्रह्मदेव ने सबसे पहले आकाश फिर वायु, अग्रि, जल और पृथ्वी तत्वों की रचना की।
- इसके बाद काल को नियत करने वाले संवत्सर, दिन, मास और ऋतुओं की रचना की।
- काम, क्रोध, धर्म और अधर्म और प्राणि जगत को बनाया। उनमें सुख-दु:ख आदि भावों को भरा।
- ब्रहजी ने मुंह से ब्राह्मण, भुजाओं से क्षत्रिय, जंघा से वैश्य और चरणों से शूद्रों को पैदा किया।
- ब्रह्माजी के चार मुखों से चार वेद उत्पन्न हुए। जिसे शौनक ऋषि ने ग्रहण किया।- ब्रह्माजी के ऊपरी पांचवे मुख से 18 पुराण, स्मृति शास्त्र उत्पन्न हुए।
- इसके बाद ब्रह्माजी ने अपने शरीर के दो हिस्से कर दाएं हिस्से से पुरुष और बांए हिस्से से स्त्री बनाई और उसमें विराट पुरुष पैदा किया।
- इस विराट पुरुष ने घोर तप कर 10 ऋषियों को पैदा किया, जो प्रजापति कहलाए। ये हैं - नारद, भृगु, वसिष्ठ, प्रचेता, पुलह, क्रतु, पुलस्त्य, अत्रि, अंगिरा और मरीचि।
- इसके बाद देवता, ऋषि, दैत्य, पिशाच, गन्धर्व, अप्सरा, पितर, मनुष्य, नाग, सर्प और उनके निवास बनाए।
- इसके अलावा विद्युत, बादल, वज्र, इन्द्रधनुष, धूमकेतु, उल्का, नक्षत्र, मछली, वराह, पक्षी, हाथी, घोड़े, मृग, कृमि, कीट, पतंगे सहित अनेक छोटे-बड़े जीवों का जन्म हुआ।
मंगलकारी है मंगल देव ये 21 नाम
हिन्दू धर्म प्रकृति हो या प्राणी जगत हर जगह ईश्वर के स्वरूप के दर्शन करता है। ईश्वर के विराट स्वरूप और सर्वव्यापकता के कारण ही हिन्दू धर्म में अनेक देवी-देवता पूजनीय हैं। इसी क्रम में आकाशीय ग्रह, नक्षत्रों की भी देव रूप में उपासना की जाती है।
शास्त्रों में बताया गया है कि ब्रह्मांड में स्थित नवग्रह मानवीय जीवन पर अपना अलग-अलग प्रभाव छोड़ते हैं। जिनके अच्छे या बुरे नतीजे भी मिलते हैं। इन नवग्रहों में एक है मंगल। मंगल को नवग्रहों का सेनापति भी माना गया है।
अलग-अलग पौराणिक मान्यताओं में मंगल का जन्म भगवान शिव के रक्त, आंसू या तेज से माना गया है। वहीं मंगल का पालन-पोषण पृथ्वी द्वारा किया गया। यही कारण है कि मंगल को भूमिपुत्र भी कहा जाता है। शिव की कृपा से ही मंगल ग्रह के रूप में आकाश में स्थित हुआ।
ज्योतिष विज्ञान के मुताबिक मंगल क्रूर ग्रह है, किंतु इसका शुभ प्रभाव व्यक्ति का साहस, पराक्रम, ताकत और उदारता को नियत करता है। व्यावहारिक जीवन में विवाह, संतान सुख, यश, कर्ज और रोगों से मुक्ति भी मंगल ग्रह के शुभ प्रभाव से मिलती है। किंतु मंगल दोष होने पर खून, नेत्र और गले की बीमारियां भी होती है। जीवनसाथी के जीवन पर संकट आता है। वैवाहिक समस्याएं पैदा होती है।
भूमि पुत्र होने से मंगल भूमि और भार्या या पत्नी का रक्षक होता है। जिससे इसका नाम भौम हुआ। मंगल को अंगारक, कुजा के नाम से भी जाना जाता है। यह वृष्टि का देवता भी माना जाता है। वहीं मंगल कठिन हालात और संघर्ष में साहस और जूझने की ताकत देने वाला ग्रह भी है।
शास्त्रों में मंगल के ऐसे ही मंगलकारी और कल्याणकारी स्वरूप और स्वभाव को उज़ागर करते 21 नाम बताए गए हैं। जिनका ध्यान जगत के लिए संकटमोचक और मंगलकारी बताया गया है -
- मंगल
- भूमिपुत्र
- ऋणहर्ता
- धनप्रदा
- स्थिरासन
- महाकाय
- सर्वकामार्थ साधक
- लोहित
- लोहिताक्ष
- सामगानंकृपाकर
- धरात्मज
- कुजा
- भूमिजा
- भूमिनंदन
- अंगारक
- भौम
- यम
- सर्वरोगहारक
- वृष्टिकर्ता
- पापहर्ता
- सर्वकामफलदाता
तो सामने दिखाई देंगे भगवान
हमारे आस-पास धर्म से दूर ऐसे लोग भी होते हैं, जो अपने अधर्म और अकर्मण्यता से जुड़े जीवन पर पर्दे डालने के लिए ईश्वर की शक्ति को नकारने के लिए यह कहकर प्रपंच करते देखे जाते हैं कि भगवान तो दिखाई ही नहीं देता। इसलिए उनके लिए किए जाने वाले सारी धार्मिक क्रियाएं या साधना व्यर्थ है। जबकि धर्म की नजर से भगवान से मिलना बहुत आसान है। क्या है यह आसान उपाय जानते हैं -
असल में हमारे दिमाग में उन व्यक्तियों, नाम या चीज़ों की छबि बन जाती है, जिनके बारे में हम सोच-विचारते हैं। इस दौरान हमें उसके रंग, रूप, अच्छाई, बुराई, स्वभाव, व्यवहार की तस्वीर भी दिलो-दिमाग में छा जाती है। उसी के मुताबिक हमारी बातें या व्यवहार होता है।
ठीक इसी तरह जब व्यक्ति शौक-मौज की बातों के बारे में सोचता है, तो मन उनके वशीभूत होकर लालसा या लोलुपता पैदा करता है।
यही बात या यूं कहें कि फार्मूला लागू होता है भगवान से जुडऩे, मिलने या साक्षात्कार के लिए। जिस तरह किसी वस्तु या शौक को पूरा करने के बारे में सोचकर व्यक्ति उसी को पाने के विचारों में खो जाता है। वैसे ही भगवान के बारे में सोचने पर कोई भी भक्त या व्यक्ति ईश्वर की शक्ति या सत्ता को महसूस कर सकता है।
कलयुग या आज के दौर में भगवान में खोने का ही सबसे आसान तरीका बताया गया है - भगवान का नाम स्मरण। धार्मिक दृष्टि से भगवान का नाम किसी भी हालात में, किसी भी रूप में हर कोई ले सकता है। खाते, पीते, चलते-फिरते, पवित्र या अपवित्र स्थिति में नाम, ध्यान, जप, स्मरण, चिन्तन से भगवान प्रसन्न होते हैं।
इस तरह भगवान के नाम से व्यावहारिक रूप से भी मन बुरे कामों, विचारों या भोग करने की लालसा से दूर रहेगा। मन, शरीर स्वस्थ होने से बची सकारात्मक ऊर्जा आपकी उन्नति और विकास में मददगार बनेगी।
मौत निकट हो तो क्यों जरूरी है भगवान का नाम?
लगभग हर धर्म में यह नियम है कि किसी मरते हुए व्यक्ति के पास बैठकर या किसी की मौत के बाद भगवान का नाम लिया जाता है। हिंदु धर्म भी कहता है कि मरते समय भगवान का नाम ही जुबान पर होना चाहिए। विचारों में भी भगवान का ही रूप हो, तो ही मोक्ष मिलता है। क्या भगवान का नाम लिए बगैर मोक्ष नहीं मिल सकता? वास्तव में यह बात कई लोगों के लिए जिज्ञासा का विषय है।
धार्मिक सूत्रों और संहिताओं में इसकी अलग-अलग तरह से व्याख्या की गई है। कई विद्वानों ने भी इसकी अलग-अलग व्याख्या की है। उपनिषदों में भी इस बारे में काफी लिखा गया है। इस सवाल का सबसे सरल और जल्दी समझ में आने वाला उत्तर प्रश्नोपनिषद में मिलता है। यह उपनिषद मूलत: सृष्टि की रचना, मनुष्य की रचना से जुड़े सवालों से बना है, इस कारण इसका नाम प्रश्नोपनिषद पड़ा। इसमें पिप्पलाद ऋषि जो भगवान शिव के अवतार माने गए हैं, से उनके शिष्यों ने छह सवाल किए हैं। इन्हीं छह सवालों का उत्तर यह उपनिषद है।
इस उपनिषद में उल्लेख है कि मनुष्य जीवन सहित जीव की 84 लाख योनियां होती हैं। मरते समय हमारे मन में जो भी भाव हो, जिस चीज का खयाल हो, अगले जन्म में हमें वो ही रूप मिलता है क्योंकि शरीर तो खत्म हो जाता है लेकिन आत्मा में वह विचार रह जाता है। आत्मा जैसा विचार करती है वैसा ही रूप भी धारण कर लेती है। इसी कारण अगर हमें मोक्ष की तलाश है तो हर समय हमारे मन में खयाल भगवान का ही होना चाहिए। इससे मरने के बाद शरीर पुनर्जन्म के बंधन से मुक्त होकर सीधे भगवान में लीन हो जाता है।
इन गुणों से भगवान कहलाते हैं भगवान
कभी आपने सोचा है भगवान को आखिर भगवान ही क्यों कहा जाता है? भगवान शब्द का अर्थ क्या होता है? क्यों कहते हैं कि हर इंसान में भगवान बनने की संभावना होती है? ऐसे सभी प्रश्नों का उत्तर आप ढूंढ़ते होंगे, लेकिन यह जवाब बहुत कम लोग जानते हैं। वास्तव में भगवान कोई व्यक्ति नहीं है बल्कि कुछ गुणों की सम्पन्नता के कारण उनकी उपाधि है।
अगर मनुष्य इन गुणों से युक्त हो जाए तो उसे भी भगवान की उपाधि मिल सकती है लेकिन एक साथ एक ही व्यक्ति में इतने गुण होना बहुत मुश्किल या यूं कहें लगभग असंभव है। दरअसल भगवान शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है भग और वान। भग उन सभी गुणों का मिश्रित नाम है तथा इनके धारण के करने के कारण वे भगवान कहलाते हैं, जैसे बलवान, धनवान, शक्तिवान आदि शब्द हैं। भग शब्द छ: चीजों का मिश्रित रूप है या ऐसा मान लें कि पैकेज है।
ये छ: चीजें हैं श्री, शौर्य, वैभव, कीर्ति, ज्ञान और वैराग्य। इन छ: गुणों के पैकेज को भग कहते हैं और जिसके पास यह होता है उसे भगवान। कहते हैं साधारण मनुष्यों में इन छ: गुणों का मिलना लगभग असंभव है इसलिए भगवान नहीं बन सकते लेकिन जब भी कोई व्यक्ति इन सभी गुणों को अपने भीतर समाहित कर लेगा वह भगवान हो जाएगा।
तिल-गुड़ में छुपे हैं जीवन के ये राज
हिन्दू धर्म में मकर संक्रांति सूर्य की आराधना का पर्व है। इस दिन से सूर्य की दिशा एवं गति बदलती है । यह पर्व हिन्दू पंचाग के पौष-माघ माह में आता है, जो ऋतु परिवर्तन का माह होता है । इस पर्व पर स्नान, दान की पंरपरा के साथ तिल-गुड़ के दान और सेवन का विशेष महत्व है। इस परंपरा के पीछे में व्यावहारिक और वैज्ञानिक महत्व के साथ खासतौर पर धर्म के भी कुछ राज है। क्या हैं ये रहस्य जानते हैं -
सबसे पहले इसके व्यावहारिक महत्व पर विचार करें तो यह पाते हैं कि चूंकि पौष व माघ मास हेमंत और शिशिर ऋतुएं का होता है। इन ऋतुओं में सर्दी की अधिकता होती है। इस माह में तिल की फसल आती है। तिल में शरीर को गर्माहट, ऊर्जा देने वाली और चिकनाहट का गुण होता है। इन गुणों के कारण ही इसका सेवन किया जाता है, जो शीत ऋतु के मौसम के अनुकूल होता है। इस दिन बनने वाले अलग-अलग तरह की तिल की मिठाइयों के साथ गुड़ का उपयोग किया जाता है। क्योंकि गुड़ खून को बढ़ाने वाला और इसकी मिठास में ऊर्जा देने के गुण होते हैं। इसलिए तिल-गुड़ से बनी मिठाईयां खाने से शरीर पुष्ट, सुंदर व स्वस्थ रहता है।
धर्म के नजरिए से तिल-गुड़ के ये गुण प्रेम का संदेश देते हैं, जो धर्म पालन का सबसे अहम गुण माना जाता है। संक्राति पर्व पर तिल-गुड का महत्व यह दृष्टि देता है कि तिल-गुड़ की तरह हम पारिवारिक, सामाजिक संबंधों में ऐसा अच्छा तालमेल बनाए जिससे संबंधों में मिठास पैदा हो। तिल गुड की मिठास का मात्र जीभ तक सीमित न होकर उस मिठास को वाणी और दिल तक ले जाएं। तिल के स्नेहक गुण लो और मधुर बोलो।
जिस तरह तिल दिल को स्वस्थ रखता है और गुड की मिठास शरीर को ऊर्जा देती है। उसी तरह जिसका तन स्वस्थ, वाणी मीठी और दिल साफ होता है, उसमें ही सच्ची प्रीत होती है, स्वयं के प्रति, समाज के प्रति और ईश्वर के प्रति। ऐसा व्यक्ति ही सभी तरह के कलह को दूर कर मानव जाति और समाज की उन्नति का नायक बनता है। इस पर्व पर तिल-गुड़ की अहमियत का यही मूल भाव है।
सूर्य ही हैं साक्षात शिव
मकर संक्राति सूर्य की आराधना का विशेष दिन है। हिन्दू धर्म के पंचदेवों में सूर्य ही ऐसे देव हैं, जिनके दर्शन साक्षात किए जा सकते हैं। किंतु सूर्य व अन्य चार देवता एक ही ईश्वर के अलग-अलग स्वरुप भी माने गए हैं। शास्त्रों में बताई गई बातें भी इस बात की पुष्टि करती है। इसी कड़ी में सूर्य को भी कल्याणकारी शिव का ही स्वरूप बताया गया है। सूर्य भी पूरे जगत की प्राण शक्ति और ऊर्जा का स्त्रोत है। जानते हैं सूर्य किस तरह शिव का ही रूप हैं?
शिव पुराण की वायवीय संहिता में लिखा है कि भगवान शिव ने स्वयं देवी को अपना सूर्य स्वरुप दिखाया। यह स्वरूप सभी ऐश्वर्य और गुणों से सम्पन्न, तेजोमय, सबसे श्रेष्ठ और शक्तियों, मूर्तियों, अंगों, ग्रहों और देवताओं से घिरा है। उसका आधा भाग नारी के रूप में था।
ऐसे अनूठे रूप को देखकर देवताओं ने जान लिया कि सूर्यदेव सहित जगत की सभी रचना शिव रूप ही हैं। इतना जानकर सभी ने सूर्य को अर्घ्य दिया। अघ्र्य देते वक्त सभी ने शिव रूप सूर्य के स्वरूप की महिमा गाई। जिसके मुताबिक वह सिंदूरी रंग, सोने की तरह दमकते गहनों से सुसज्जित, कमल जैसे नेत्रों वाले, ब्रह्मा, इन्द्र और नारायण के कारण हैं। ऐसे ही सूर्य रूप गणों सहित शांत शिव को नमस्का है।
साथ ही यह लिखा गया है कि जो सच्चे मन से सूर्य में शिव रूप का पूजन कर सुबह, दोपहर और शाम को अर्घ्य देता है, नमस्कार करता है, मंत्र जप करता है। उसके भक्त के लिए दुनिया की हर चीज सहज ही मिल जाती है। वह किसी भी अभाव से दु:खी नहीं होता। इसलिए हर रोज प्रात: शिव रूप सूर्य की उपासना करना चाहिए।
कौन होता है भगवान को प्यारा?
देव शक्तियों से जीवन में सुख पाने के लिए हर धर्म में अलग-अलग देव रूपों की उपासना के विधि-विधान या तरीके अपनाए जाते हैं। इन धार्मिक परंपराओं से गहरी आस्था और श्रद्धा भी जुड़ी होती है। ईश्वर पर यही भरोसा ही मनचाहे नतीजों के रूप में सामने भी आता है। किंतु क्या कभी आपने सोचा है कि भक्त तो अपने मनचाहे देवता को चुनकर उपासना करता है, किंतु भगवान किस भक्त को चाहता, चुनता है और उस पर प्रसन्न होता है?
हिन्दू धर्म शास्त्रों में इसी जिज्ञासा का जवाब मिलता है। महाभारत के शान्ति पर्व में बताई गई अहम बातें साफ करती है कि भगवान मात्र धार्मिक क्रियाओं या विधियों से ही प्रसन्न नहीं होते है, बल्कि भगवान ऐसे भक्त को पाने के लिए स्वयं आतुर होते हैं, जिसका मन और विचार बेहद पवित्र होते हैं।
मन और विचारों की पवित्रता का अर्थ यही बताया गया है कि -
- व्यक्ति का मन इतना गहरा और बड़ा हो कि दूसरे के कटु बोल सुनकर भी बदले में कुछ न कहे।
- किसी के द्वारा बड़ी हानि या नुकसान पहुंचाने पर भी मन में बैर भाव यानि बदले की भावना न रहे। इसका सरल अर्थ यही है कि नुकसान या हानि चाहे शरीर, धन, मन या मान-सम्मान किसी भी रूप में हो, व्यक्ति के मन में फिर भी किसी की बुराई का भाव न रहे।
- वह व्यक्ति मानसिक रूप से इतना मजबूत हो कि अपमान, चोट या अपशब्द मिलने पर भी किसी को भी हमेशा माफ कर दे।
सरल शब्दों में इन बातों का व्यावहारिक रूप यही है कि भगवान को वहीं व्यक्ति प्यारा होता है, जिसका धर्म-कर्म पर विश्वास के साथ-साथ दिल, दिमाग, स्वभाव व व्यवहार भी साफ हो, न कि वह, जो धार्मिक क्रियाओं से तो जुड़ा हो, किंतु उसका व्यवहार, स्वभाव या मन बुराईयों से भरा हो।
जीवन में शांति लाए ये दमदार सूत्र
सुख और चैन को पाने की कवायद में जिंदगी भर हर व्यक्ति दिन-रात एक कर देता है। किंतु मानव स्वभाव यह भी होता है कि वह सुख-सुकून तो चाहता है, लेकिन खुद उन बातों को साथ लेकर जीता है, जो जीवन से सुख-चैन छिन लेते हैं। कई अवसरों पर हालात यह होते हैं कि वह दूसरों को भी सुकून से रहने के नुस्खें बताता हुआ देखा जाता है। लेकिन वही तरीके खुद अपनाने में चूक करता रहता है।
प्रश्र यह है कि आख़िर इंसान ऐसा क्या करे कि अशांत व बेचैन मन और जीवन में सुकून बना रहे? इसका उत्तरधर्मशास्त्रों में बताई गई कुछ बेहद सरल बातें हैं, जो व्यावहारिक रूप से कठिन और मात्र शिक्षाप्रद लगती है, किंतु इच्छाशक्ति इनको सरल बना देती हैं -
- किसी व्यक्ति के मन को किसी भी रूप से चोट न पहुंचाए।
- किसी को कटु या कठोर वाणी न बोले यानि शब्द बाण न छोड़ें।
- सबसे अहम बात सत्य या सच बोलने का हरसंभव प्रयास करें। यह व्यक्ति को शांत, संतुलित और निश्चिंत रखने का अचूक उपाय है।
- क्रोध यानि गुस्से पर काबू रखें। दूसरों के आप पर क्रोध करने पर भी शांत रहकर बात या व्यवहार करें।
- दूसरों की निंदा या बुराई करने या सुनने से बचें। अपनी निंदा होने पर उसमें से सकारात्मक बातें ग्रहण करें।
- सुख हो या दु:ख दोनों स्थितियों में समान भाव से रहें। ऐसा करना व्यर्थ की चिंता और बेचैनी को दूर रखेगा।
- खुद को दूसरों से श्रेष्ठ समझ अहं भाव से दूर रहें यानि किसी को कमतर साबित करने की व्यर्थ चेष्टा न करें।
- ऐसी अशुभ बातें न करें जो किसी अवसर विशेष पर दूसरों को गहरा दु:ख, चिंता और अवसाद से भर दे।
- मौन रहने का अभ्यास करें यानि गैर जरूरी बातों या प्रतिक्रिया में अपशब्दों के इस्तेमाल से बचें।
- सहनशील बने। इसके लिए पहले जरूरी है बदले की भावना का त्याग, जो तभी संभव है जब किसी के बुरा करने पर भी क्षमा भाव रख जाए या अभ्यास किया जाए।
ये पांच दु:ख हर लेते हैं हनुमान
श्री हनुमान के स्वरूप, चरित्र, आचरण की महिमा ऐसी है कि उनका मात्र नाम ही मनोबल और आत्मविश्वास से भर देता है। रुद्र अवतार होने से हनुमान का स्मरण दु:खों का अंत करने वाला भी माना गया है।
श्री हनुमान के ऐसे ही अतुलनीय चरित्र, गुणों और विशेषताओं को श्री राम के परमभक्त गोस्वामी तुलसीदास ने श्री हनुमान चालीसा में उतारा है। श्री हनुमान चालीसा का पाठ हनुमान भक्ति का सबसे श्रेष्ट, सरल उपाय है, बल्कि धर्म की दृष्टि से बताए गए पांच दु:खों का नाश करने वाला भी माना गया है।
श्री हनुमान चालीसा की शुरूआत में ही पंक्तियां आती है कि -
बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरौं पवन कुमार।
बल बुद्धि, विद्या देहु मोहिं, हरहु कलेस बिकार।।
इस दोहे में बल, बुद्धि और विद्या द्वारा क्लेशों को हरने के लिए हनुमान से विनती की गई है। यहां जिन क्लेशों का अंत करने के लिए प्रार्थना की गई है, वह पांच कारण है - अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश। जानते हैं इन पांच दु:खों के अर्थ और व्यावहारिक रूप।
अविद्या - विद्या या ज्ञान का अभाव। विद्या व्यक्ति के चरित्र, आचरण और व्यक्तित्व विकास के लिए अहम है। व्यावहारिक रूप से भी किसी विषय पर जानकारी का अभाव असुविधा, परेशानी और कष्टों का कारण बन जाता है। इसलिए विद्या के बिना जीवन दु:खों का कारण माना गया है।
अस्मिता - स्वयं के सम्मान, प्रतिष्ठा के लिए भी व्यक्ति अनेक पर मौकों अहं भाव के कारण दूसरों का जाने-अनजाने उपेक्षा या अपमान कर देता है। जिससे बदले में मिली असहयोग, घृणा भी व्यक्ति के गहरे दु:ख का कारण बन सकती है।
राग - किसी व्यक्ति, वस्तु या विषय से आसक्ति से उनसे जुड़ी कमियां, दोष या बुराईयों को व्यक्ति नहीं देख पाता। जिससे मिले अपयश, असम्मान विरोध भी कलह पैदा करता है।
द्वेष - किसी के प्रति ईर्ष्या या बैर भाव का होना। यह भी कलह का ही रूप है, जो हमेशा ही व्यक्ति को बेचैन और अशांत रखता है।
अभिनिवेश - मौत या काल का भय। मन पर संयम की कमी और इच्छाओं पर काबू न होना जीवन के प्रति आसक्ति पैदा करता है। यही भाव मौत के अटल सत्य को स्वीकारने नहीं देता है और मृत्यु को लेकर चिंता या भय का कारण बनता है।
व्यावहारिक रूप से इन पांच दु:खों से मुक्ति या बचाव बुद्धि, विद्या या बल से ही संभव है। धार्मिक दृष्टि से हनुमान उपासना से प्राप्त होने वाले बुद्धि और विवेक खासतौर पर इन पांच तरह के कलह दूर रखते हैं।
हर देह में बसे हैं शिव के ये आठ रूप
हिन्दू धर्म मान्यताओं में प्रकृति भगवान शिव का स्वरूप है। शास्त्रों में शिव की शक्ति और हर जगह मौजूदगी की महिमा में मान्यता है कि जगत का हर कार्य शिव के आदेश पर ही सभी देवता करते हैं।
शास्त्रों के मुताबिक महादेव देह और जगत में आठ रूपों में समाए हैं। शिव के इन आठ रूपों या मूर्तियों में जगत वैसे ही समाया है, जैसे किसी माला के धागे में मोती पिरोये जाते हैं। ये आठ मूर्तियां हैं -
शर्व, भव, रुद्र, उग्र, भीम, पशुपति, ईशान और महादेव। इन आठ मूर्तियों द्वारा क्रम से भूमि, जल, अग्रि, वायु, क्षेत्रज्ञ, सूर्य और चन्द्रमा नियंत्रित होते हैं। जानते हैं इन मूर्तियों के स्वरूप को -
शर्व - पूरे जगत को धारण करने वाली पृथ्वीमयी मूर्ति के स्वामी शर्व है। इसलिए इस शिव की शार्वी प्रतिमा भी कहते हैं।
भव - जल से युक्त मूर्ति पूरे जगत की प्राणशक्ति और जीवन देने वाली है। इसके स्वामी भव है। इसलिए इसे भावी भी कहते हैं।
रुद्र - यह शिव की अत्यंत ओजस्वी मूर्ति है, जो पूरे जगत के अंदर-बाहर फैली समस्त गतिविधियों में स्थित है। इसके स्वामी रूद्र है। इसलिए यह रौद्री नाम से भी जानी जाती है।
उग्र - वायु रूप में शिव जगत को गति देते हैं और पालन-पोषण भी करते हैं। इसके स्वामी उग्र है। इसलिए यह मूर्ति औग्री के नाम से भी प्रसिद्ध है।
भीम - शिव की आकाशरूपी मूर्ति है, जो जगत को राहत देने वाली, बुरे और तामसी गुणों का नाश करने वाली मानी जाती है। इसके स्वामी भीम है। यह भैमी नाम से प्रसिद्ध है।
पशुपति - यह सभी आंखों में बसी होकर सभी आत्माओं की नियंत्रक है। यह पशु यानि दुर्जन वृत्तियों का नाश और उनसे मुक्त करने वाली होती है। इसलिए इसे पशुपति भी कहा जाता है।
ईशान - यह सूर्य रूप में आकाश में चलते हुए जगत को प्रकाशित करती है। यह मूर्ति ईशान कहलाती है।
महादेव - चन्द्र रूप में शिव की यह साक्षात मूर्ति मानी गई है। चन्द्र किरणों को अमृत के समान माना गया है। चन्द्र रूप में शिव की यह मूर्ति महादेव के रूप में प्रसिद्ध है। इस मूर्ति का रूप अन्य से व्यापक है।
इन आठ मूर्तियों के ऐसे व्यापक और दिव्य स्वरूप के कारण ही पूरे जगत को शिव रूप माना गया है। इसलिए शिव की पूजा प्रकृति की पूजा और पालन पोषण ही होता है। इसलिए सभी की भलाई, मदद या उपकार करना ही शिव की वास्तविक पूजा है। इसी कारण यह धार्मिक मान्यता है कि जगत के सुखी होने पर ही शिव भी प्रसन्न होते हैं। वहीं किसी देहधारी या प्राणी को कष्ट दिया जाना भी शिव का अपमान माना गया है।
ये हैं श्री गणेश की 32 मंगलमूर्तियां
श्री गणेश बुद्धि और विद्या के देवता है। जीवन को विघ्र और बाधा रहित बनाने के लिए श्री गणेश उपासना बहुत शुभ मानी जाती है। इसलिए हिन्दू धर्म के हर मंगल कार्य में सबसे पहले भगवान गणेश की उपासना की परंपरा है।माना जाता है कि श्री गणेश स्मरण से मिली बुद्धि और विवेक से ही व्यक्ति अपार सुख, धन और लंबी आयु प्राप्त करता है।
धर्मशास्त्रों में भगवान श्री गणेश के मंगलमय चरित्र, गुण, स्वरुपों और अवतारों का वर्णन है। भगवान को आदिदेव मानकर परब्रह्म का ही एक रूप माना जाता है। यही कारण है कि अलग-अलग युगों में श्री गणेश के अलग-अलग अवतारों ने जगत के शोक और संकट का नाश किया। इसी कड़ी में शास्त्रों में बताए गए है भगवान श्री गणेश के 32 मंगलकारी स्वरूप -
श्री बाल गणपति - छ: भुजाओं और लाल रंग का शरीर
श्री तरुण गणपति - आठ भुजाओं वाला रक्तवर्ण शरीर
श्री भक्त गणपति - चार भुजाओं वाला सफेद रंग का शरीर
श्री वीर गणपति - दस भुजाओं वाला रक्तवर्ण शरीर
श्री शक्ति गणपति - चार भुजाओं वाला सिंदूरी रंग का शरीर
श्री द्विज गणपति - चार भुजाधारी शुभ्रवर्ण शरीर
श्री सिद्धि गणपति - छ: भुजाधारी पिंगल वर्ण शरीर
श्री विघ्न गणपति - दस भुजाधारी सुनहरी शरीर
श्री उच्चिष्ठ गणपति - चार भुजाधारी नीले रंग का शरीर
श्री हेरम्भ गणपति - आठ भुजाधारी गौर वर्ण शरीर
श्री उद्ध गणपति - छ: भुजाधारी कनक यानि सोने के रंग का शरीर
श्री क्षिप्र गणपति - छ: भुजाधारी रक्तवर्ण शरीर
श्री लक्ष्मी गणपति - आठ भुजाधारी गौर वर्ण शरीर
श्री विजय गणपति - चार भुजाधारी रक्त वर्ण शरीर
श्री महागणपति - आठ भुजाधारी रक्त वर्ण शरीर
श्री नृत्त गणपति - छ: भुजाधारी रक्त वर्ण शरीर
श्री एकाक्षर गणपति - चार भुजाधारी रक्तवर्ण शरीर
श्री हरिद्रा गणपति - छ: भुजाधारी पीले रंग का शरीर
श्री त्र्यैक्ष गणपति - सुनहरे शरीर, तीन नेत्रों वाले चार भुजाधारी
श्री वर गणपति - छ: भुजाधारी रक्तवर्ण शरीर
श्री ढुण्डि गणपति - चार भुजाधारी रक्तवर्णी शरीर
श्री क्षिप्र प्रसाद गणपति - छ: भुजाधारी रक्ववर्णी, त्रिनेत्र धारी
श्री ऋण मोचन गणपति - चार भुजाधारी लालवस्त्र धारी
श्री एकदन्त गणपति - छ: भुजाधारी श्याम वर्ण शरीरधारी
श्री सृष्टि गणपति - चार भुजाधारी, मूषक पर सवार रक्तवर्णी शरीरधारी
श्री द्विमुख गणपति - पीले वर्ण के चार भुजाधारी और दो मुख वाले
श्री उद्दण्ड गणपति - बारह भुजाधारी रक्तवर्णी शरीर वाले, हाथ में कुमुदनी और अमृत का पात्र होता है।
श्री दुर्गा गणपति - आठ भुजाधारी रक्तवर्णी और लाल वस्त्र पहने हुए।
श्री त्रिमुख गणपति - तीन मुख वाले, छ: भुजाधारी, रक्तवर्ण शरीरधारी
श्री योग गणपति - योगमुद्रा में विराजित, नीले वस्त्र पहने, चार भुजाधारी
श्री सिंह गणपति - श्वेत वर्णी आठ भुजाधारी, सिंह के मुख और हाथी की सूंड वाले
श्री संकष्ट हरण गणपति - चार भुजाधारी, रक्तवर्णी शरीर, हीरा जडि़त मुकूट पहने।
ये हैं विघ्रहर्ता के चार अचूक अस्त्र-शस्त्र
हिन्दू धर्म में पंचदेवों में भगवान श्री गणेश संकटनाशक और चिंताहरण देवता माने जाते हैं। शास्त्रों के मुताबिक भगवान श्री गणेश को गजानन बनाकर विघ्रविनाशक होने का वरदान उनके ही पिता महादेव ने दिया।
भगवान श्री गणेश इस रूप में विघ्रहर्ता के नाम से पूजनीय है। शास्त्रों के मुताबिक चार भुजाधारी श्री गणेश इस रूप में दु:ख, संकट का अंत करने के लिए चार भुजाओं से चार अस्त्र-शस्त्रों का इस्तेमाल करते हैं।
यह चार अस्त्र-शस्त्र है - पाश, अंकुश, वदरहस्त और अभय हस्त।
प्रतीक रूप में पाश - राग या आसक्त करने वाला और अंकुश - क्रोध का संकेत करता है। ऊपरी तौर पर इनका अर्थ असहमति पैदा करता है, लेकिन इनका छुपा अर्थ यह है कि पाश के द्वारा भगवान श्री गणेश मन, विचार और कर्म के स्तर पर पैदा होने वाली बुराईयों और उससे बने दुर्भाग्य को अपनी और आसक्त या खींचकर क्रोध रूपी अंकुश से उनका नाश करते हैं।
इसी तरह श्री गणेश का वरद हस्त भक्तों के मनोरथ पूरे करता है और अभय हस्त से भक्तों को हर भय, चिंता से छुटकारा और बचाव करता है।
यह चमत्कारिक अक्षर है साक्षात ईश्वर
सनातन धर्म में ऊँ को एक अक्षर रूप ईश्वर माना गया है। ऊँकार को प्रणव भी कहा जाता है।
इस बात की पुष्टि शास्त्र भी करते हैं। श्रीमद्भगवगीता में भगवान श्रीकृष्ण ने ऊँ को स्वयं का स्वरूप बताया है। उन्होंने कहा है कि वेदों और वाणियों में मैं ही प्रणव हूं।
उपनिषद में भी प्रणव यानि ऊँ में अ, उ और म, इन तीन मात्राओं और मात्रा के बिना व्यक्त न होने वाला ईश्वर बताया गया है। इस तरह पूरे जगत में दिखाई देने वाली जड़-चेतन के अलावा सभी रचना भी ईश्वर रूप है। यह स्वरूप ही ऊँकार रूप में प्रकट होता है।
इस तरह प्रणव यानि ऊँ का मंत्र रूप जप भगवान का ही स्मरण और आवाहन है। शास्त्रों में ऊँकार को ही सभी मंत्रों का जन्मदाता बताया गया है। गायत्री मंत्र और वेदों की उत्पत्ति भी ऊँकार से ही हुई।
यही कारण है कि ऊँकार मंत्र का जप व साधना सभी सांसारिक और आध्यात्मिक सुख देने वाली मानी गई है। वहीं इष्टसिद्धि में आस्था रखने वालों के लिए ऊँकार मंत्र का जप व स्मरण इष्ट कृपा देने वाला माना गया है।
महामंत्र है भगवान का यह नाम
एक ही ईश्वर के अलग-अलग धर्मों में अनेक नाम है। सनातन धर्म में भी ईश्वर के गुण, स्वरूप और दिव्य शक्तियों के आधार पर तीन रूप माने गए हैं। यह तीन रूप त्रिदेव यानि ब्रह्मा, विष्णु और महेश कहलाते हैं।
इनमें भगवान विष्णु को जगत का पालन माना गया है। श्री विष्णु को आनंद स्वरूप यानि सुख देने वाले देवता के रूप में पूजा जाता है। उनके इसी गुण के कारण वह हरि नाम से भी प्रसिद्ध है।
शास्त्रों के मुताबिक भगवान विष्णु के हरि नाम का शाब्दिक मतलब हरण करने या चुरा लेने वाला होता है। कहा गया है कि हरि: हरति पापानि। जिससे यह स्पष्ट है कि हरि पाप या दु:ख हरने वाले देवता है। सरल शब्दों में हरि अज्ञान और उससे पैदा होने वाले कलह को हरते या दूर कर देते हैं।
हरि नाम को लेकर एक रोचक बात भी बताई गई है। जिसके मुताबिक हरि को ऐश्वर्य और भोग हरने वाला भी माना है। चूंकि भौतिक सुख, वैभव और वासनाएं व्यक्ति को भगवान और भक्ति से दूर करती है। ऐसे में हरि नाम स्मरण से भक्त इन सुखों से दूर हो प्रेम, भक्ति और अंत में भगवान से जुड़ जाता है।
यही कारण है कि हरि नाम को धार्मिक और व्यावहारिक रूप से सुख और शांति का महामंत्र माना गया है।
इन 3 बातों के बिना अधूरी है भक्ति
धार्मिकता की बात होने पर भक्त और भगवान की चर्चा जरूर होती है। साधारण रूप से भक्ति का अर्थ भगवान की मूर्ति के सामने या निराकार रूप से जुड़े धार्मिक विधि-विधान को पूरा करना माना जाता है। ऐसा कर बहुत से लोग स्वयं को बड़भागी भी मानते हैं, किंतु धर्म की दृष्टि से भक्ति के गहरे अर्थ हैं।
दरअसल भक्ति का मूल भाव है - भावनाओं की चरम स्थिति और भगवान के अनेक स्वरूपों के प्रति गहरा प्रेम। लेकिन व्यावहारिक रूप से ऐसी भक्ति कुछ खास लोगों के जीवन में उतरती है। जिसकी पहचान भी शास्त्रों में बताई गई है। जानते हैं ऐसी भक्ति के हृदय में संकेत कैसे मिलते हैं -
- जब किसी दु:खी व्यक्ति को देखकर मन में दया या करूणा जागे।
- किसी भूखे को देखकर भोजन देने का मन करे।
- किसी बुरे या गलत राह पर भटके व्यक्ति का हित या उसे सही दिशा में लाने के लिए मदद या सहायता की चाहत हो।
इस तरह साफ है कि वास्तविक भक्ति भगवान के मंत्र जप, भजन और आरती करना ही नहीं है, बल्कि सच्चे भक्त की पहचान कमजोर, दु:खी लोगों की मदद और सेवा करना ही होती है।
सुख के संकेत हैं ऐसे दु:ख
जब कोई व्यक्ति दु:ख और संकट से बेहाल हो जाता है, तब बिगड़ी मनोदशा में वह भगवान को भी जिम्मेदार ठहराता या कभी-कभी कोसता भी है। किंतु हिंदु धर्मशास्त्रों में बताई बातें ऐसी हालात को सुख और भगवत्कृपा का संकेत मानती है। जानते हैं सुखों को पाने के पहले कैसे-कैसे दु:खों का सामना करना पड़ता है -
श्रीमद्भागवत में जिस भगवान की कृपा होने वाली हो वह धनहीन यानि गरीब होने लगता है, परिजनों से उपेक्षा मिलती है और अलगाव होने लगता है, धन के लिए की गई मेहनत बेकार हो जाती है। इस तरह बार-बार नाकामी से दु:खी और विरक्त मनोदशा में ही वह व्यक्ति भगवान के स्मरण और शरण में जाता है। जिससे वह वास्तविक सुख और चैन पाता है।
ऐसी हालात से गुजरने पर सामान्य व्यक्ति भगवान और भक्ति को कठिन मान बेचैन और अशांत रहता है। जिससे दु:ख में भगवान के सुमिरन और सुख में उनको भूलने की बात सत्य प्रतीत होती है। किंतु श्रीमद्भागवत में बताई बात साफ इशारा करती है कि विपरीत और बुरे हालात में भी व्यक्ति को किसी भी तरह हिम्मन न हारकर हकीकत को भगवान का विधान और घटित होने वाला हित मान स्वीकार करना चाहिए। वहीं सुख में भी भगवान में ध्यान और स्मरण जरूर करना चाहिए।
इन दो तरीकों से दूर करें चिंता
व्यावहारिक जीवन में तरह-तरह की परेशानियां चिन्ताएं पैदा करती है। किंतु जब यह दिल-दिमाग पर हावी हो जाए तो व्यक्ति को मानसिक रूप से अस्थिर, असंतुलित और उसके मनोबल को भी कमजोर करती है। ऐसी स्थिति में छोटी-छोटी तकलीफें भी बहुत गंभीर दिखाई देती है। लगातार बुरे विचारों के चलते रहने से मन के साथ शरीर भी कमजोर हो जाता है। धर्म के नजरिए से यह स्थिति नैराश्य या निराशा कहलाती है।
चूंकि ऐसे हालात बुद्धि, मन और आध्यात्मिक बल को नुकसान पहुंचाते हैं। इसलिए इससे निकलने के लिए इससे जुड़ी व्यावहारिक समस्या को दूर करने के साथ उस हल के लिए भी नीचे लिखीं दो बातें अपनाना बहुत जरूरी है -
मनोबल कमजोर न हो - निराशा से घिरा व्यक्ति कईं बार भाग्यवादी बन कर्म से दूर हो जाता है। जिससे मिली नाकामी उसका मनोबल गिराती है। इसलिए जरूरी है मन को किसी ऐसे काम में लगाएं, जो आपकी रूचि का होने के साथ आत्मविश्वास को बढ़ाने वाला हो। दिमाग में अच्छे और सुकून देने वाले विचारों को जगह दें। इन छोटी-छोटी बातों से मनोबल के साथ दिमाग की निर्णय क्षमता भी बढ़ती है।
चिंता से भयभीत न हों - चिंता तरह-तरह के डर और असुरक्षा के भाव पैदा करती है। इसलिए जरूरी है शोक, खेद, काल्पनिक और नकारात्मक सोच से यथासंभव बचें। इनके स्थान पर सकारात्मक और व्यावहारिक विचारों को अपनाएं। चिंता के कारणों को एक-एक कर सुलझायें। अगर चिंता खुद के गलत कामों से जुड़ी है, तो उसे स्वीकार कर अपराध बोध से बचें।
इन दो तरीकों से ही उत्साह, प्रेम, शांति, विश्वास के साथ मन और बुद्धि बल पाकर निराशा के दौर से बाहर आना संभव होगा।
कामयाबी चाहें तो चुने ऐसी राह
शास्त्रों में भावनाओं के स्तर पर इंसान के छ: दुश्मन बताए गए हैं - काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह और मत्सर। इनमें से मत्सर या ईर्ष्या का आज के प्रतियोगिता के दौर में हर व्यक्ति सामना करता है। असल में ईर्ष्या, जलन या डाह ऐसी आग माना गया है, जिससे व्यक्ति खुद ही जलता है।
अध्यात्मिक नजरिया है कि मन से जो विचार पैदा होता है, वही फिर से मन में जाकर अच्छे या बुरे नतीजे देता है। यही बात ईर्ष्या पर भी लागू होती है। जिसक बुरा असर व्यक्ति के चाल-चलन पर भी पड़ता है।
धर्म और अध्यात्म में इससे बचकर कामयाबी के उपाय यही बताए गए हैं कि
- अपनी काबिलियत और हालात को याद रख मेहनत और पुरूषार्थ का भाव रखें।
- हमेशा आगे बढऩे की सोच रखें।
- दूसरों के लिए प्रेम, सम्मान और दया का भाव रखे जिससे दूसरों से बदले में आप भी वैसा ही व्यवहार पाएंगे।
- किसी के रहन-सहन, पहनावे या खानपान से ईर्ष्या करने के स्थान पर खुद की क्षमताओं पर भरोसा रख उन्नति और प्रगति के बारे में सोचें।
हनुमान से सीखें भक्ति के ये 4 सूत्र
हिन्दू धर्म में श्री हनुमान अद्वितीय और विलक्षण गुणों वाले देवता माने गए हैं। श्री हनुमान चरित्र सभी गुणों से संपन्न है। हनुमान श्रेष्ठ भक्त ही नहीं बल्कि वह भक्ति के आदर्श है। इसलिए शास्त्रों में बताए गए भक्ति के चार सूत्रों के श्री हनुमान गुरु माने गए हैं। यह चार सूत्र हैं - कर्म, उपासना, ज्ञान और शरणागति। इन चारों सूत्रों के साथ साधना व भक्ति के कारण ही हनुमान अद्भुत और चमत्कारिक देवता हैं।
यही कारण है कि श्री हनुमान की उपासना आध्यात्मिक और व्यावहारिक जीवन के लक्ष्यों तक पहुंचने की दृष्टि से श्रेष्ठ मानी जाती है। आध्यात्मिक नजरिए से भक्ति के इन चार रास्तों में से किसी एक या सभी को चुनकर कोई भी भक्त अपने इष्ट की कृपा पा सकता है।
शास्त्रों में यह भी साफ बताया गया है कि भक्ति की इन चार राहों को चुनने के लिए किस तरह की क्षमता होना जरूरी है? जिसे जानकर कोई भी भक्त भक्ति के सुख और आनंद की गहराई में डूब सकता है।
ज्ञानमार्ग - विद्या, विचार और बौद्धिक रुप से सक्षम भक्त के लिए भक्ति का यह मार्ग श्रेष्ठ है।
उपासना - भावना के स्तर पर सबल भक्त के लिए उपासना की राह श्रेष्ठ मानी जाती है।
कर्म - पुरुषार्थ, परिश्रम के स्तर पर दृढ़ और मजबूत भक्त के लिए कर्म या कर्मकाण्ड की राह भक्ति के लिए श्रेष्ठ है।
शरणागति - अगर कोई भक्त अन्य तीन रास्तों को अपनाने में असहज, असक्षम महसूस करता है, तो भक्ति का यह रास्ता सर्वश्रेष्ठ है। जिसके मुताबिक समर्पण और शरणागत होकर भगवान की कृपा पाई जा सकती है।
इन चार में से तीन सूत्रों में साधना मुख्य है, वहीं चौथे सूत्र में भगवत्कृपा मुख्य हो जाती है। श्री हनुमान ने चारों को ही साधकर भक्त और भगवान के रिश्तों को पावन और श्रेष्ठ बना दिया। इसलिए हनुमान की प्रसन्नता के लिए राम और राम की कृपा के लिए हनुमान भक्ति को लेकर लोक जीवन में गहरी आस्था है।
एक गहरा राज, जो कायम रखे राज और राजा
आज सुख के लिए ताने-बाने बुनता आदमी अनचाहे ही ऊंचे पद, हितपूर्ति या धन पाने की दौड़ में शामिल हो जाता है। इस कवायद में खुद या किसी बुरे व्यक्ति की संगत में वह धर्म, ईमान और नैतिकता को पीछे छोड़ देता है, उसे अंदाजा भी नहीं होता। किंतु इनसे मिले विपरीत नतीजों के जाल में जब वह खुद भी उलझने लगता है। तब उसका अशांत जीवन उसे बीते समय में किए दुष्कर्मों की याद दिलाता है।
हिन्दू धर्म शास्त्र में बताई गई राजधर्म की एक सीख ऊंचे पद पर बैठे या चाह रखने वाले लोगों को ऐसी ही हालात से बचने के लिए कारगर साबित हो सकती है। क्या है यह खास राज? जानते हैं -
शास्त्रों के मुताबिक अगर राजा यश, स्वर्ग और धन की चाहत रखता है तो उसे बुद्धिमान, कुशल, योग्य, समर्पित और काम की गहराई को समझने वाले व्यक्तियों को ही राज्य के कामों और व्यवस्था बनाने में नियुक्त करना चाहिए। अगर राजा गुणों और ज्ञान को अनदेखा कर विद्वान और अयोग्य व्यक्तियों में अन्तर न समझ कर कांच को मणि और मणि को कांच समझने जैसी सोच रखता है, तो ऐसे राजा की सेवा करने, मदद करने या उसके प्रति निष्ठा रखने वाले दूर हो जाते हैं।
व्यावहारिक रूप से यह बात परिवार, कार्यक्षेत्र या शासन व्यवस्था के लिए भी सार्थक है। तीनों ही व्यवस्थाओं में योग्य, कुशल, गुणवान, निष्ठावान व्यक्तियों को जिम्मेदारियां सौंपने से बेहतर, सटीक और त्वरित नतीजों को पाना आसान हो जाता है। यहीं नहीं परिवार, कार्यालय या सत्ता से जुड़े व्यक्तियों के लिए यह स्थिति प्रेरणादायक और उत्साह बढ़ाने वाली होती है।
इस तरह राजधर्म से जुड़ा यह राज जानना, समझना और अपनाना अंत में सम्मान, सुख के साथ आर्थिक खुशहाली देता है।
क्यों चमत्कारी है आंकड़े के गणेश?
हिन्दू धर्म में भगवान गणेश को अनेक रूप में पूजा जाता है। उनका हर रूप मन को मोह लेता है। इनमें से ही एक है - सफेद आंकड़े के गणेश। इन्हें श्वेतार्क गणपति भी कहते हैं। धार्मिक और लोक मान्यताओं में धन, सुख-सौभाग्य समृद्धि ऐश्वर्य और प्रसन्नता के लिए आंकड़े के गणेश की मूर्ति पूजा शुभ फल देने वाली मानी जाती है। जानते हैं आंकड़े की जड़ से जुड़ी भगवान गणेश की भक्ति की जन आस्था के पीछे के कारणों को -
दरअसल आंकड़े के गणेश आक के पौधे की जड़ में बनी प्राकृतिक बनावट है। इसे लोक भाषा में आंकड़े के नाम से जाना जाता है। इस पौधे की एक दुर्लभ जाति सफेद आंकड़ा होती है। जिसमें सफेद पत्ते और फूल पाए जाते हैं।
इसी सफेद आंकड़े की जड़ की बाहरी परत को कुछ दिनों तक पानी में भिगोने के बाद निकाला जाता है। तब सफेद आंकड़े की इस जड़ में भगवान गणेश के शरीर की बनावट दिखाई देती है।
हर जड़ में भगवान गणेश की सूंड जैसा आकार तो जरुर मिलता है। इसके अलावा इस जड़ के तने में भगवान गणेश का भारी शरीर, आस-पास की शाखाओं में भुजाओं और सूंड जैसी दिखाई देती है। जड़ की कुछ शाखाएं बैठे हुए गणेश की मूर्ति जैसी भी दिखाई देती है।
सनातन धर्म में वैदिक काल से ही प्रकृति की पूजा का महत्व बताया गया है। यही कारण रहा है कि धार्मिक परंपराओं में अनेक पेड़-पौधों की देव रुप में पूजा की जाती है। इनमें पीपल, आंवला, वट वृक्ष प्रमुख हैं। इसी तरह शिव के वास के कारण बिल्वपत्र पूजनीय है, ठीक उसी प्रकार आंकड़े का पौधा भगवान गणेश के निवास करने की धार्मिक आस्था के कारण पूजनीय है। आंकड़े की जड़ में दिखाई देने वाली श्री गणेश की आकृति इस आस्था को ओर गहरा करती है।
वैसे भी हिन्दू धर्म के सबसे लोकप्रिय ग्रंथ रामचरित मानस में भगवान के स्वरूप और भक्ति के संबंध में एक बहुत ही गहरी बात बताई गई है, जो आंकड़े के गणेश पूजा की आस्था को बल देती है। यह है -
जाकी रही भावना जैसी। प्रभु मूरत देखी तिन जैसी।।
भक्ति भाव का सरल मतलब भी होता है कि किसी लक्ष्य को पाने की कोशिश में पूरी तरह डूब जाना। इस प्रकार भक्ति संकल्प का ही दूसरा रूप है। जहां संकल्प होता है, सुख और सफलता संभव है। आंकड़े के गणेश की पूजा से जुड़ी भक्ति और आस्था भक्त के मन में संकल्प शक्ति और आत्म विश्वास जगाती है। इसी से प्रेरित भक्त अंत में सफलता, धन और समृद्धि पा जाता है। संभवत: यही कारण आंकड़े के गणेश को सुख-समृद्धि के देवता के रूप में पूजित करता है।
तो न भ्रष्ट होगा राजा, न प्रजा
26 जनवरी पर हिन्दुस्तान का गणतंत्र दिवस मनाया जाता है। सरल शब्दों में समझें तो यह वह दिन था जब आजाद हिन्दुस्तान के नागरिकों के लिए जीयो और जीने दो की मूल भावना से भरी ऐसी व्यवस्था लागू की गई, जिससे हर व्यक्ति देश, समाज, परिवार और व्यक्तिगत स्तर पर जिम्मेदार और कर्तव्यपरायण बन अपने स्वाभाविक अधिकारों के साथ जीवन बिता सके।
आजादी और जनतंत्र या गणतंत्र के लागू होने के लगभग छ: दशक में हिन्दुस्तान ने हर क्षेत्र में बुलंदियों, उपलब्धियों को पाया। लेकिन इतने गौरवशाली इतिहास के बावजूद इसी देश की जनता आज शासन में फैले भ्रष्ट और खामियों से भरी अव्यवस्थाओं से पीडि़त दिखाई देती है। भ्रष्ट आचरण, बेईमानी, अनैतिकता शासन तंत्र का हिस्सा बन चुकी है। जिनका जिम्मेदार एक-दूसरे को बताकर शासन में ऊंचे पदों पर बैठा व्यक्ति भी पल्ला झाड़ लेता है। ऐसे भ्रष्ट माहौल में यही सवाल उठता है कि आखिर कौन है असल जिम्मेदार ऐसी बुरी व्यवस्थाओं का? और कैसे इनसे बचकर बन सकता है सुखी समाज और राष्ट्र?
ऐसी समस्याओं का हल और सवालों का जवाब देते हैं - धर्मशास्त्र। खासतौर पर सनातन धर्म में बताया गया राजधर्म राजा के कर्तव्यों को बताता है। जिसका सच्चाई से पालन ही प्रजा के सुख-दु:ख नियत करते हैं। ये बातें आज की शासन व्यवस्था और सरकार के लिए भी अहम सबक है -
दुष्ट को दंड देना - शांत और तनावरहित राज्य और शासन के लिए सबसे अहम है - दण्ड देना। धर्म कहता है दुष्ट यानि बुरे कामों, आचरण और विचारों से दूसरों को कष्ट या असुविधा पैदा करने वाले व्यक्ति को दण्ड जरूर देना चाहिए। जिससे उसके साथ ही दूसरों तक भी दुराचरण न करने का संदेश जाए।
स्वजनों की पूजा करना - स्वजन यानि परिवार ही नहीं बल्कि सारी प्रजा के साथ सद्भाव और आत्मीयता का व्यवहार। उनकी स्वाभाविक और व्यावहारिक कमियों, असुविधाओं को दूर करने के साथ उनके गुण, प्रतिभा को निखारने में हरसंभव मदद करना एक राजा का परम कर्तव्य है।
न्याय से कोष बढ़ाना - किसी भी राज्य की मजबूत अर्थव्यवस्था उसकी ताकत होती है। लेकिन राजा के लिए यह जरूरी है यह आर्थिक प्रगति न्याय पर आधारित हो यानि खजाने में आया धन जनता के शोषण या निरंकुशता से इकट्ठा न करें, बल्कि धन ऐसा हो जो राज्य और प्रजा को प्रगति और उन्नति का कारण बने।
पक्षपात न करना - राज्य में रहने वाले किसी भी व्यक्ति के साथ जाति, वर्ण, धर्म या धन के आधार पर ऊँच-नीच का व्यवहार न हो। हर व्यक्ति को समान रूप से खान-पान, रहन-सहन या जीवन से जुड़ी सारी सुख-सुविधाओं का हक मिले। राजा के प्रजा के साथ मधुर संबंधों के लिए यह अहम बात है।
राष्ट्र की रक्षा करना - किसी भी राजा का सबसे बड़ा राजधर्म होता है कि वह राष्ट्र की बाहरी और आंतरिक खतरों से रक्षा करे। न कि मात्र शासन की बागडोर मिलने पर सुख-सुविधाओं में डूबकर स्वयं का हित साधे।
सार यही है कि सिंहासन पर बैठा राजा राज्य और प्रजा के सुख के लिए अपने प्राण भी देने पड़ें तो पीछे न रहे। साथ ही वह न नाइंसाफ करे, न अपने सामने किसी के साथ अन्याय होता देखे। ऐसा संकल्प ही राजा के साथ प्रजा के आचरण को भी पावन रखेगा।
कौन होते हैं नास्तिक और आस्तिक?
कई लोग जो मंदिर नहीं जाते, भगवान को नहीं मानते, पूजा नहीं करते, उन्हें नास्तिक कहा जाता है। जो मंदिर जाते हैं, पूजा-पाठ करते हैं उन्हें उन्हें आस्तिक कहा जाता है। वास्तव में आस्तिक और नास्तिक होने का पैमाना केवल भगवान, मंदिर और पूजापाठ नहीं है।
वास्तव में नास्तिक और आस्तिक में बहुत बड़ा फर्क है और ये सीधे भगवान से ही नहीं जुड़े हैं, भगवान से अलग भी इन शब्दों के अर्थ हैं। केवल भगवान को मानने या नहीं मानने वाले को हम आस्तिक और नास्तिक नहीं कह सकते। इन शब्दों को समझने के लिए पहले इनके अर्थ को ठीक से समझना पड़ेगा। दरअसल नास्तिक और आस्तिक दोनों शब्द हमारे व्यवहार, स्वभाव और चरित्र से जुड़े हुए हैं।
आस्तिक शब्द संस्कृत के शब्द अस्ति से बना है जिसका अर्थ है ''है''। ऐसे ही नास्तिक शब्द संस्कृत के ही नास्ति से बना है जिसका मतलब है ''नहीं है''। आस्तिक का एक अर्थ आशावादी होना भी है, जो हर चीज में सकारात्मक दृष्टिकोण रखता है। जो यह मानता है कि भगवान का अस्तित्व है, मूर्तियों में नहीं तो इंसान में ही सही। जो नास्तिक होते हैं वे भगवान के अस्तित्व पूरी तरह से भगवान के अस्तित्व को नकारता हो। निराशावादी हो। हर बात में निराशावादी विचार रखता हो। जो भगवान को नहीं पूजता हो लेकिन गरीबों की सहायता करता हो, देश से, समाज सेए परिवार से प्रेम रखता है और उनके प्रति अपनी जिम्मेदारी भी निभाता है तो ऐसा आदमी नास्तिक नहीं हो सकता। नास्तिक तो वो होते हैं जो भगवान के साथ दुनिया में बाकी किसी के भी अस्तित्व को स्वीकार न करे।
तो समझ लो, हो गया है सच्चा प्रेम
धर्म की बात हो या व्यावहारिक जीवन प्रेम अनेक रूपों में रिश्तों को जोड़ता है। भक्त -भगवान हो या माता-पिता-संतान सभी आध्यात्मिक व इंसानी संबंधों में प्रेम की भूमिका अहम होती है। किंतु आज के दौर में सुखों की चाहत और सुविधाओं के कारण प्रेम का अर्थ - स्वार्थ, आकर्षण, वासना और इच्छापूर्ति के भावों से जुड़ता दिखाई देता है। जिनसे स्त्री-पुरूष, माता-पिता, भाई-बहन या करीबी रिश्तों में खटास भी देखी जाती है। वहीं भक्ति में दिखावा व नाम पाने की सोच से धर्म और आध्यात्म से जुड़कर भी व्यक्ति अशांत और नाखुश रहता है।
इन बातों का कारण है सतही और बनावटी प्रेम। जबकि धर्म के नजरिए से सच्चे प्रेम और उसकी गहराई का खास मतलब बताया गया है। अगर आप भी भगवान की भक्ति या इंसानी रिश्तों में यहां बताए जा रहे भावों को महसूस करते हैं,तो समझ लें आप भी सच्चे प्रेम में डूबे हैं। आखिर क्या है सच्चा प्रेम?समझते हैं
- प्रेम करने या देने के पीछे मूल भाव है - खुशी।
- धर्म के नजरिए से इसका मतलब है, हर वह उपाय या काम जिससे भगवान या इष्ट प्रसन्न होवे किया जाए।
- भगवान की खुशी के लिए हर दु:ख को सहना या किसी बड़े सुख को खुशी से छोड़ देना।
- ऐसे प्रेम के बदले कुछ पाने की चाहत न रखी जाए।
- भगवान से प्रेम में ऐसा समर्पण का भाव हो कि अधिकार का भाव रखा ही न जाए।
- भगवान से किसी भी अपेक्षा या उम्मीद से परे होकर मात्र प्रेम की चाहत रखी जाए।
ठीक यही बातें इंसानी रिश्तों और संबंधों में प्रेम के लिए लागू होती है। जिनको जीवन में उतार लें तो अंतहीन रिश्तों और सच्चे प्रेम का सुख असंभव नहीं है।
इन चार बातों से खुश रहते हैं भगवान और इंसान
साधारण तौर पर हम परिवार या समाज में उठते-बैठते किसी न किसी बात को लेकर पारिवारिक सदस्यों या समाजजनों के स्नेह भरे उलाहने या शिकायत सुनते हैं। तब मन में ऐसा विचार आता है कि ऐसा क्या करें कि कामकाजी और व्यवहारिक जीवन में संतुलन बना रहे?
इसी तरह भगवान की पूजा या उपासना की जानकारी न होने पर भी विचार आता है कि किन उपायों से भगवान की जल्द कृपा और प्रसन्नता पाए? जिसके लिए अनेक पूजा सामग्री या धार्मिक उपायों के बारे में सोचा जाता है।
यहां धर्म शास्त्रों की ऐसी चार बातें बताई जा रही है, जिनसे भगवान और इंसान दोनों न केवल जल्दी प्रसन्न होते हैं, बल्कि दोनों को लंबे समय तक खुश रखा जा सकता है। जानते हैं यह चार बातें -
सही चिन्तन - अगर कोई व्यक्ति शरीर, परिवार और धन के सदुपयोग के बारे में सही सोच रखता है, तो वह दूसरों की प्रेरणा बनकर परिवार, समाज का भरपूर प्रेम व सम्मान पाता है। वहीं धार्मिक नजरिए से ऐसे पवित्र विचारों, धर्म और कर्तव्य की समझ रखने वाला इंसान भगवान को भी पंसद होता है।
स्मृति - स्मृति यानि याद रखना। अगर कोई व्यक्ति सही और पवित्र विचारों के साथ अपनों को हर अवसर पर याद रखता है, तो वह दूसरों को खुशी ही नहीं देता, बल्कि बदले में दूसरों के स्नेह का पात्र भी बनता है। इसी तरह भगवान का सदा स्मरण और ध्यान धार्मिक दृष्टि से व्यक्ति को चरित्रवान बनाकर ईश्वर की प्रसन्नता और कृपा देता है।
प्रियता - इसका सरल अर्थ है कि अपनापन। अच्छी सोच, अपनों को याद रखने के अलावा अपनापन जहां इंसानी रिश्तों की मजबूती में अहम होता है। वहीं भक्ति के नजरिए से श्रद्धा और आस्था के रूप में प्रियता या अपनत्व भगवान को शीघ्र प्रसन्न करने वाले माने जाते है।
आचरण - धार्मिक दृष्टि से माना जाता है कि पवित्र सोच, स्मृति और अपनत्व की भावना के मुताबिक ही इंसान का आचरण भी पवित्र हो तो भगवान बेहद प्रसन्न होते हैं। यही बात इंसानी रिश्तों के लिए भी सटीक बैठती है। विचार, व्यवहार, अपनत्व और आचरण से साफ छबि का व्यक्ति सभी का विश्वासपात्र और पसंदीदा होता है।
क्यों भगवान हैं श्रीकृष्ण?
हिन्दू धर्म में श्रीकृष्ण को भगवान विष्णु का आठवां अवतार माना गया है। विष्णुपुराण में भगवान के छ: गुण ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, वैराग्य तथा मोक्ष बताए गए हैं। भगवान श्रीकृष्ण के जीवन, चरित्र और लीलाओं में भी अंनत बल, अनन्त यश, अनन्त ऐश्वर्य, अनन्त श्री, अनन्त ज्ञान और अनन्त वैराग्य प्रकट होता है। श्रीमद्भगवद् गीता में भी श्रीकृष्ण को भगवान कहा गया है।
श्रीमद्भगवद्गीता हिंदू धर्म का पवित्र ग्रंथ है। जीवन, व्यक्तित्व और चरित्र के विकास के लिए गीता के उपदेश अमूल्य है। भगवान श्रीकृष्ण के जीवन की सबसे बड़ी खासियत है - कर्म की निरंतरता। उन्होंने स्वयं अपने आचरण से हमेशा कर्म और दूसरों का कल्याण करने का संदेश दिया। इसीलिए विष्णु के दस अवतारों में से केवल कृष्ण को ही जगद्गुरु कहा गया है।
व्यावहारिक जीवन में भी कर्म ही अंतत: सफलता का कारण बनता है, जो किसी भी व्यक्ति को कामयाब और ताकतवर बनाता है। ऐसा व्यक्ति ही समाज में भगवान की छबि रखता है।
श्रीकृष्ण का जीवन भी कर्म से सफलता की प्रेरणा देता है। इसलिए आज भी समाज के हर वर्ग और जाति के लोगों के लिए वे गुरु, सखा, बालक या प्रियतम हैं और श्रीकृष्ण भगवान के रूप में पूजित हैं।
सिद्धि व शक्ति दाता हैं सूर्य के ये 21 नाम
सूर्य हिन्दू धर्म के पंचदेवों में प्रमुख देवता है। सूर्य को प्रत्यक्ष देवता भी माना जाता है। पूरे जगत की प्राणशक्ति होने से वह जगतपिता भी कहलाते हैं। पौराणिक मान्यताओं में सूर्य को महर्षि कश्यप और अदिति का पुत्र माना गया है। उनकी माता के नाम से ही वह आदित्य भी कहलाते हैं।
शास्त्रों के मुताबिक सूर्यदेव के पुत्र शनि और यम व पुत्री यमुना भी प्रमुख पूजनीय देवी-देवता हैं। इसी तरह संकटमोचक देवता श्री हनुमान के गुरु भी सूर्यदेव ही हैं। यही कारण है कि सूर्य देव की उपासना शक्ति, सिद्धि, स्वास्थ्य, यश, ऐश्वर्य और सौंदर्य देने वाली मानी जाती है।
सूर्य के स्मरण के लिए ही शास्त्रों में ऐसे 21 नामों को बताया गया है, जिनका ध्यान मात्र ही अपार वैभव, आयु, स्वास्थ्य, शक्ति, सिद्धि, और सम्मान देने वाला माना गया है। धार्मिक मान्यता हैं कि स्वयं सूर्यदेव ने इन इक्कीस नामों को जगतकल्याण के लिए उजागर किया। यह इक्कीस नाम स्तवराज के नाम से भी जाने जाते हैं। इनका जप सूर्यदेव के हजार नामों के स्मरण के समान है।
धार्मिक दृष्टि से सूर्य की प्रसन्नता और अनुकूलता के लिए इन इक्कीस नामों का सुबह और शाम स्मरण करने का महत्व बताया गया है। जानते हैं ये इक्कीस नाम -
- भास्कर
- रवि
- लोक साक्षी
- लोक प्रकाशक
- तपन
- तापन
- शुचि पावन
- लोक चक्षु
- श्रीमान
- त्रिलोकेश
- कर्ता
- गृहेश्वर
- हर्ता
- ब्रह्मा
- गभस्तिहस्त (जिनके किरण रूपी हाथ हैं)
- तमिस्त्रहा (अंधेरे का नाश करने वाले)
- सप्ताश्ववाहन (सात घोड़े के वाहन पर बैठने वाले)
- विकर्तन (संकट को हरने या नाश करने वाले)
- विवस्वान (तेजरूप)
- मार्तंड (जो अंड में लंबे समय तक रहे)
- सर्वदेवनमस्कृत
यह है श्री गणेश का शुभ और अनूठा रूप
हर धार्मिक कर्म, पूजा, उपासना या शुभ और मंगल कार्यों में स्वस्तिक का चिन्ह बनाया जाता है। लोक भाषा में यह मंगल का प्रतीक है। लेकिन यहां जानते हैं कि वास्तव में शुभ कार्यों में स्वस्तिक बनाने का क्या कारण है -
दरअसल धार्मिक नजरिए से स्वस्तिक भगवान श्री गणेश का साकार रूप है। इसमें बाएं भाग में गं बीजमंत्र होता है, जो भगवान श्री गणेश का स्थान माना जाता है। इसकी आकृति में चार बिन्दियां भी बनाई जाती है। जिसमें गौरी, पृथ्वी, कूर्म यानि कछुआ और अनन्त देवताओं का वास माना जाता है।
स्वस्तिक के भगवान गणेश का रुप होने का प्रमाण दुनिया के सबसे पुराने ग्रंथ माने जाने वाले वेदों में आए शांति पाठ से भी होती है, जो हर हिन्दू धार्मिक रीति-रिवाजों में बोला जाता है। यह मंत्र है -
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवा: स्वस्ति न: पूषा विश्ववेदा:
स्वस्तिनस्ता रक्षो अरिष्टनेमि: स्वस्ति नो बृहस्पर्तिदधातु
इस मंत्र में चार बार स्वस्ति शब्द आता है। जिसका मतलब होता है कि इसमें भी चार बार मंगल और शुभ की कामना से श्री गणेश का ध्यान और आवाहन किया गया है।
इसमें व्यावहारिक जीवन का पक्ष खोजें तो पाते हैं कि जहां शुभ, मंगल और कल्याण का भाव होता है, वहीं स्वस्तिक का वास होता है सरल शब्दों में जहां परिवार, समाज या रिश्तों में प्यार, सुख, श्री, उमंग, उल्लास, सद्भाव, सुंदरता और विश्वास का भाव हो। वहीं सुख और सौभाग्य होता है। इसे ही जीवन पर श्री गणेश की कृपा माना जाता है यानि श्री गणेश वहीं बसते हैं। इसलिए श्री गणेश को मंगलकारी देवता माना गया है।
श्रीकृष्ण के इन गुणों से सीखें सरताज बनना
हिन्दू धर्म में श्रीकृष्ण को भगवान विष्णु का आठवां अवतार माना गया है। विष्णुपुराण में भगवान के छ: गुण ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, वैराग्य तथा मोक्ष बताए गए हैं। भगवान श्रीकृष्ण के जीवन, चरित्र और लीलाओं में भी अंनत बल, अनन्त यश, अनन्त ऐश्वर्य, अनन्त श्री, अनन्त ज्ञान और अनन्त वैराग्य प्रकट होता है। श्रीमद्भगवद् गीता में भी श्रीकृष्ण को भगवान कहा गया है।
श्रीमद्भगवद्गीता हिंदू धर्म का पवित्र ग्रंथ है। जीवन, व्यक्तित्व और चरित्र के विकास के लिए गीता के उपदेश अमूल्य है। भगवान श्रीकृष्ण के जीवन की सबसे बड़ी खासियत है - कर्म की निरंतरता। उन्होंने स्वयं अपने आचरण से हमेशा कर्म और दूसरों का कल्याण करने का संदेश दिया। इसीलिए विष्णु के दस अवतारों में से केवल कृष्ण को ही जगद्गुरु कहा गया है।व्यावहारिक जीवन में भी कर्म ही अंतत: सफलता का कारण बनता है, जो किसी भी व्यक्ति को कामयाब और ताकतवर बनाता है। ऐसा व्यक्ति ही समाज में भगवान की छबि रखता है।
श्रीकृष्ण का जीवन भी कर्म से सफलता की प्रेरणा देता है। इसलिए आज भी समाज के हर वर्ग और जाति के लोगों के लिए वे गुरु, सखा, बालक या प्रियतम हैं और श्रीकृष्ण भगवान के रूप में पूजित हैं।
बस, इतना कर लें! मिल जाएगी शांति
भारतीय धर्म की सबसे बड़ी खासियत है कि वह पुरानी, परंपरागत जड़-मान्यताओं और कट्टरपंथी ढकोसलों से मुक्त होने की इजाजत देता है। देशकाल परिस्थिति के अनुसार बदलाव करते हुए धर्म को पाला जाए, यह स्वीकृति और सुविधा धर्म देता है। अच्छा सोचें, अच्छा बोलें और अच्छा करें, सफल और सुखमय जीवन के लिए ये तीन सूत्र हैं। धर्म सिखाता है इन्हें कैसे किया जाए।
धर्म जानने के बाद एक सवाल यह भी खड़ा होता है कि अध्यात्म क्या है? यदि सीधे-सीधे समझा जाए तो धर्म शरीर है अध्यात्म आत्मा है। धर्म व्यवहार है तो अध्यात्म स्वभाव। धर्म एक क्रिया है और अध्यात्म उसका परिणाम। धर्म यदि पिता का प्यार है तो अध्यात्म मां की ममता।
असल में अध्यात्म का शाश्वत और स्वाभाविक स्वरूप ही समस्याओं और परेशानियों की उलझनों से थके-मांदे इंसान को नई ताजगी और स्फूर्ति दे सकता है। लेकिन आज के मशीनी युग में इंसान अध्यात्म से जुडऩे के गहन उपायों को अपनाने के बजाय कुछ सरल तरीकों से सुख और शांति की चाहत रखता है। इसलिए जानते हैं अध्यात्म का सुख पाने के कुछ स्वाभाविक और आसान उपाय -
- स्वस्थ रहने का हर उपाय करें।
- स्वयं भी प्रसन्न रहें और दूसरे को भी खुश करने का प्रयत्न करें।
- नित्य अपने ईश्वर से अच्छे विचार और कर्म के लिए प्रेरित करने हेतु प्रार्थना करें।
- अपना कर्तव्य कुशलता से पूरा करें और दूसरों की मदद के लिए तैयार रहें।
- कठिन परिस्थिति में ईश्वर को यादकर आत्मविश्वास और संयम बनाए रखें।
- प्रत्येक प्राणी को ईश्वर का अंश समझकर व्यवहार करें।
- कुदरत के नियमों का सम्मान करें।
बेहतर शुरूआत का यही है सही वक्त
शास्त्रों में धार्मिक कर्मों खासतौर पर देव उपासना व साधना के शुभ फल पाने के लिए ब्रह्ममुहूर्त का विशेष महत्व बताया जाता है। इसे सबसे शुभ व पवित्र समय भी माना जाता है। किंतु आज के दौर की व्यस्त जीवनशैली खासतौर पर युवाओं को इस खास वक्त का लाभ उठाने से दूर कर रही है।
ब्रह्ममुहूर्त धर्म, अध्यात्म ही नहीं व्यावहारिक नजरिए से भी फायदेमंद माना गया है। इसलिए जानते हैं ब्रह्ममुहूर्त के धार्मिक, पौराणिक व व्यावहारिक पहलूओं को -
धार्मिक महत्व - व्यावहारिक रूप से यह समय सुबह सूर्योदय से पहले चार या पांच बजे के बीच माना जाता है। किंतु शास्त्रों में साफ बताया गया है कि रात के आखिरी प्रहर का तीसरा हिस्सा या चार घड़ी तड़के ही ब्रह्ममुहूर्त होता है।
मान्यता है कि इस वक्त जागकर इष्ट या भगवान की पूजा, ध्यान और पवित्र कर्म करना बहुत शुभ होता है। क्योंकि इस समय ज्ञान, विवेक, शांति, ताजगी, निरोग और सुंदर शरीर, सुख और ऊर्जा के रूप में ईश्वर कृपा बरसाते हैं। भगवान के स्मरण के बाद दही, घी, आईना, सफेद सरसों, बैल, फूलमाला के दर्शन भी इस काल में बहुत पुण्य देते हैं।
पौराणिक महत्व - वाल्मीकि रामायण के मुताबिक माता सीता को ढूंढते हुए श्री हनुमान ब्रह्ममुहूर्त में ही अशोक वाटिका पहुंचे। जहां उन्होंने वेद व यज्ञ के ज्ञाताओं के मंत्र उच्चारण की आवाज सुनी।
व्यावहारिक महत्व - व्यावहारिक रूप से अच्छी सेहत, ताजगी और ऊर्जा पाने के लिए ब्रह्ममुहूर्त बेहतर समय है। क्योंकि रात की नींद के बाद पिछले दिन की शारीरिक और मानसिक थकान उतर जाने पर दिमाग शांत और स्थिर रहता है। वातावरण और हवा भी स्वच्छ होती है। ऐसे में देव उपासना, ध्यान, योग, पूजा तन, मन और बुद्धि को पुष्ट करते हैं।
इस तरह युवा पीढ़ी शौक-मौज या आलस्य के कारण देर तक सोने के बजाय इस खास वक्त का फायदा उठाकर बेहतर सेहत, सुख, शांति और नतीजों को पा सकती है।
नाम रोशन करती हैं ये 16 खूबियां
यश, कीर्ति, ख्याति या नाम पाने की ख्वाहिश छोटा-बड़ा, अमीर-गरीब हर व्यक्ति करता है। जिसे पाने के लिए वह अपने हालात और शक्ति के मुताबिक अलग-अलग रास्ते या तरीके भी अपनाता है। कुछ लोगों का फलसफा बदनामी से भी नाम कमाने का होता है। किंतु सांसारिक जीवन में नाम वही मायने रखता है, जो सद्गुणों और अच्छे कामों से कमाकर जीते-जी नहीं बल्कि मरकर भी व्यक्ति को लोगों के दिलों और यादों में जिंदा रखे।
हिन्दू धर्मशास्त्रों में ऐसे ही नामी किरदारों में भगवान श्रीराम प्रसिद्ध हैं। जिन्होंने जन-जन का भरोसा और विश्वास अपने आचरण और असाधारण गुणों से पाया। उनकी चरित्र की खास खूबियों से ही वह न केवल लोकनायक बने, बल्कि युगान्तर में भी भगवान के रूप में पूजित हुए।
वाल्मीकि रामायण में भगवान श्रीराम की ऐसे ही सोलह गुण बताए गए हैं, जो आज भी लीडरशीप के अहम सूत्र हैं ( जानते इन गुणों को आज के संदर्भ में अर्थों के साथ -
- गुणवान (ज्ञानी व हुनरमंद)
- वीर्यवान (स्वस्थ्य, संयमी और हष्ट-पुष्ट)
- धर्मज्ञ (धर्म के साथ प्रेम, सेवा और मदद करने वाला)
- कृतज्ञ (विनम्रता और अपनत्व से भरा)
- सत्य (बोलने वाला ईमानदार)
- दृढ़प्रतिज्ञ (मजबूत हौंसले)
- सदाचारी (अच्छा व्यवहार, विचार)
- सभी प्राणियों का रक्षक (मददगार)
- विद्वान (बुद्धिमान और विवेक शील)
- सामथ्र्यशाली (सभी का भरोसा, समर्थन पाने वाला)
- प्रियदर्शन (खूबसूरत)
- मन पर अधिकार रखने वाला (धैर्यवान व व्यसन से मुक्त)
- क्रोध जीतने वाला (शांत और सहज)
- कांतिमान (अच्छा व्यक्तित्व)
- किसी की (निंदा न करने वाला सकारात्मक)
- युद्ध में जिसके क्रोधित होने पर देवता भी डरें (जागरूक, जोशीला, गलत बातों का विरोधी)
क्यों शिवलिंग के सामने बैठता है नंदी?
हम अनेक बार शिव मंदिर जाते हैं। वहां जाकर हम भक्ति भाव और धार्मिक विधि-विधान से शिव पूजा भी करते हैं। शिव मंदिर में शिव परिवार के साथ उनके वाहन सहित दर्शन होते हैं। लेकिन क्या कभी हम धर्म भाव से दूर होकर यह सोचते हैं कि शिव मंदिर में विराजित यह मूर्तियां व्यावहारिक जीवन की दृष्टि से क्या संदेश देती है? डालते हैं इसी पर एक नजर -
शिव मंदिर में जाते ही सबसे पहले हमें शिव के वाहन नंदी के दर्शन होते हैं। नंदी के बारे में यह भी माना जाता है कि यह पुरुषार्थ का प्रतीक है। किंतु हर विषय और वस्तु का संबंध आखिरकार पुरुषार्थ से ही जुड़ता है, तो फिर शिवलिंग के सामने बैठे नंदी में पुरुषार्थ के नजरिए से क्या अनोखी बात है? शिव मंदिर में नंदी की विशेषता होती है कि उसका मुख शिवलिंग की ओर होता है। अब सवाल यह बनता है कि नंदी शिवलिंग की ओर ही मुख करके क्यों बैठा होता है? जानते हैं नंदी की इसी मुद्रा का व्यावहारिक जीवन के नजरिए से महत्व -
नंदी का संदेश है कि जिस तरह वह भगवान शिव का वाहन है। ठीक उसी तरह हमारा शरीर आत्मा का वाहन है। जैसे नंदी की नजर शिव की ओर होती है, उसी तरह हमारी नजर भी आत्मा की ओर हो।
इस बात का सरल अर्थ यही है कि हर व्यक्ति को अपने मानसिक, व्यावहारिक और वाणी के गुण-दोषों की परख करते रहना चाहिए। मन में हमेशा मंगल और कल्याण करने वाले देवता शिव की भांति दूसरों के हित, परोपकार और भलाई का भाव रखना चाहिए।
नंदी का इशारा यही होता है कि शरीर का ध्यान आत्मा की ओर होने पर ही हर व्यक्ति चरित्र, आचरण और व्यवहार से पवित्र हो सकता है। इसे ही आम भाषा में मन का साफ होना कहते हैं। जिससे शरीर भी स्वस्थ होता है और शरीर के निरोग रहने पर ही मन भी शांत, स्थिर और दृढ़ संकल्प से भरा होता है। इस प्रकार संतुलित शरीर और मन ही हर कार्य और लक्ष्य में सफलता के करीब ले जाता है।
इस तरह अब जब भी मंदिर में जाएं शिव के साथ नंदी की पूजा कर शिव के कल्याण भाव को मन में रखकर वापस आएं। इसी को शिवतत्व को जीवन में उतारना कहा जाता है।
क्रमश:...
manish ji,
ReplyDeleteअभिभूत इतना हुआ कि मन के उदगार व्यक्त करने के लिए शब्द चयन नहीं कर सक रहा हुँ. .
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तिवारी जी @ आपका हार्दिक धन्यवाद आपकी टिप्पणि बहुमूल्य हैं..
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