अर्जुन ने उत्तरा से विवाह क्यों नहीं किया?
अर्जुन की बात सुनकर राजा विराट ने कहा- पाण्डव श्रेष्ठ! मैं स्वयं तुम्हें अपनी कन्या दे रहा हूं। फिर तुम उसे अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार क्यों नहीं करते? अर्जुन ने कहा- राजन मैं बहुत समय तक आपकी क न्या को एकांत में पुत्रीभाव से देखता आया हूं। उसने भी मुझ पर पिता की तरह ही विश्वास किया। मैं नाचता था और संगीत का जानकार भी हूं। इसलिए वह मुझसे प्रेम तो बहुत करती है। सदा मुझे गुरु मानती आई है। लेकिन वह वयस्क हो गई है और उसके साथ मुझे एक वर्ष तक रहना पड़ा।
इस कारण तुम्हे या और किसी को हम पर कोई संदेह न हो। इसलिए उसे मैं अपनी पुत्रवधू के रूप में ही वरण करता हूं। ऐसा करके ही मैं शुद्ध भाव व मन को वश में रखने वाला हो सकूंगा। इससे आपकी कन्या का चरित्र भी शुद्ध समझा जाएगा। मैं निंदा और मिथ्या से डरता हूं। इसलिए उत्तरा को पुत्रवधू के ही रूप में ग्रहण करूंगा। मेरा पुत्र भी देवकुमार के समान है। वह भगवान श्रीकृष्ण का भानजा है। वह हर तरह से अस्त्रविद्या में निपुण है और तुम्हारी कन्या का पति होने के सर्वथा योग्य है।
जानिए, कैसे मिली अर्जुन को अपनी पुत्रवधू?
उसके बाद सभी ने राजकुमार उत्तर के नगर आगमन पर उनका धुम-धाम से स्वागत किया। ये सब होने के बाद तीसरे दिन पांचों पांडवों ने श्वेत वस्त्र धारण किए अपने आभुषण सहित सभाभवन में प्रवेश किया। इसके बाद राजकार्य देखने के लिए स्वयं राजा विराट वहां पधारे। जब उन्होंने पांडवों को राजासन पर बैठे देखा तो वो क्रोध से आगबबूला हो गए। उन्होंने युधिष्ठिर से कहा मैंने तुम्हे पासे जमाने के लिए नियुक्त किया था। आज तुम राजाओं की तरह सजसंवरकर सिहांसन पर कैसे बैठ गए?
राजा के मुंह पर परिहास का भाव देखकर अर्जुन ने कहा-राजन तुम्हारे सिंहासन की तो बात ही क्या ये तो इंद्र के भी आधे सिहांसन के हकदार हैं। ये स्वयं धर्मराज युधिष्ठिर हैं। तब विराट ने कहा अगर ये कुरुवंशी है इनका भाई अर्जुन कहा है भीम, नकुल, सहदेव, व द्रोपदी कहा हैं। तब अर्जुन बोले मैं ही अर्जुन हूं। आपका रसोइया बलशाली भीमसेन है। यह नकुल है जो अब तक आपके यहां घोड़ों का प्रबंध करता है। यह तो सहदेव है जो गौओं की संभाल रखता आ रहा है। यह सुंदरी जो सौरंध्री के रूप में है द्रोपदी है।
अर्जुन की बात समाप्त होने पर राजकुमार उत्तर ने भी उनका परिचय करवाया। यह सुनकर राजा विराट ने कहा-उत्तर हमें पांडवों को प्रसन्न करने का शुभ अवसर प्राप्त हुआ है। तुम्हारी राय हो तो मैं अर्जुन से कुमारी उत्तरा का ब्याह कर दूं। उत्तर बोला पाण्डव लोग सम्मान व पूजन के योग्य है हमें मौका मिला है तो इनकी सेवा जरूर करनी चाहिए। उसके बाद राजा विराट ने अर्जुन से कहा आप मेरी पुत्री उत्तरा का पाणिग्रहण करें, ये सर्वथा उसके स्वामी होने के योग्य है। विराट के ऐसा कहने पर युधिष्ठिर ने अर्जुन की ओर देखा। तब अर्जुन ने मत्स्यराज से कहा- राजन मैं आपकी कन्या को अपनी पुत्रवधू के रूप में स्वीकार करता हूं। मत्स्य और भरतवंश का यह सबंध उचित है।
क्या किया धृतराष्ट्र ने पाण्डवों का गुस्सा शांत करने के लिए?
उसके बाद पांडव उपपलव्य नाम के स्थान पर पहुंचे। इधर पांडवों के उपपलव्य तक आ जाने की खबर सुनकर धृतराष्ट्र ने संजय को सभा में बुलाकर कहा संजय लोग कहते हैं पाण्डव उपपल्वय नामक स्थान में आकर रह रहे हैं। तुम भी वहां जाकर उनकी सुध लो।
अजातशत्रु युधिष्ठिर से आदरपूर्वक मिलकर कहना-बड़े आनंद की बात है कि आप लोग अब अपने स्थान पर आ रहे हैं। उन सब लोगों से हमारी कुशल कहना और उनकी पूछना। वे वनवास के योग्य कदापि नहीं थे। फि र भी वह कष्ट उन्हें भोगना ही पड़ा। इतने पर भी उनका हम लोगों पर क्रोध नहीं है। वे वास्तव में बहुत निष्कपट और उपकार करने वाले हैं। मैंने पाण्डवों को कभी बईमानी करते नहीं देखा।
इन्होंने अपने पराक्रम से लक्ष्मी प्राप्त कर सब मेरे ही अधीन कर दी थी। सभी पांडव अजेय, वीर और साहसी हैं। उन्होंने नियमानुसार ब्रह्मचर्य का पालन किया। अत: वे अपने मन में जो भी संकल्प करेंगे, वह पूरा होकर ही रहेगा। पाण्डव श्रीकृष्ण से बहुत प्रेम रखते हैं। वे यदि संधि के लिए कुछ भी कहेंगे तो युधिष्ठिर मान लेंगे वे उनकी बात नहीं टाल सकते। संजय तुम वहां मेरी ओर से पांडवों और श्रीकृष्ण व द्रोपदी के पांच पुत्रों की भी कुशल पूछना। ऐसी बात करना जिससे भारतवंश का हित हो, परस्पर क्रोध या मनमुटाव न बढ़े तुम्हें उनसे ऐसी ही बात करनी चाहिए। राजा धृतराष्ट्र के वचन सुनकर संजय पांडवों से उपपल्वय गया।
ऐसे ललकारा पांडवों ने कौरवों को महाभारत के लिए?
संजय के पांडवों के यहां से लौटने के बाद सुबह जब दुर्योधन की सभा सजी। तब ही द्वारपाल ने दुर्योधन को जाकर सूचना दी कि संजय सभा के द्वार पर आ गए। दुर्योधन ने संजय को सभा में बुलवाया। संजय सभा में पहुंचे। उन्होने कहा कौरवगण में पांडवों के पास से आ रहा हूं।
पांडवों ने सभी को आयु के अनुसार प्रणाम किया है। संजय ने कहा वहां महाराज युधिष्ठिर की सम्मति से महात्मा अर्जुन ने जो शब्द कहे हैं दुर्योधन आप उन्हें सुन लें। उन्होंने कहा कि जो काल के गाल में जाने वाला है,मुझसे युद्ध करने की डींग हाकने वाले,उस कटुभाषी दुरात्मा कर्ण को सुनाकर कहना जिससे मंत्रियों के सहित राजा दुर्योधन उसे पूरा-पूरा सुन सके। गांडीवधारी अर्जुन युद्ध के लिए उत्सुक जान पड़ता था।
उसने आंखे लाल करके कहा- अगर दुर्योधन महाराज युधिष्ठिर का राज्य छोडऩे के लिए तैयार नहीं है तो अवश्य ही धृतराष्ट्र के पुत्रों का कोई ऐसा पापकर्म है, जिसका फल उन्हें भोगना बाकी है। साथ ही वह पांडवों के साथ युद्ध के लिए तैयार हो जाए। इससे तो पांडवों का सारा मनोरथ पूरा हो जाएगा। पांडव सभी गुणों से सम्पन्न हैं। वे बहुत दिनों से कष्ट उठाते रहने पर भी सत्य बोलते हैं और आप लोगों के कपट व्यवहार को सहन करते हैं। लेकिन जिस समय वे कौरवों पर क्रोध करेंगे तो उस समय कौरवों को युद्ध करने का जरुर पश्चाताप होगा।
क्यों कहते हैं अर्जुन और कृष्ण अर्जुन को नर और नारायण?
संजय का भाषण समाप्त होने के बाद भीष्म ने दुर्योधन से कहा- एक समय बृहस्पति, शुक्राचार्य और इंद्र आदि देवगण ब्रह्माजी के पास गए। वहां पहुंचकर सभी देवता ब्रह्माजी को घेरकर बैठ गए।
उसी समय दो प्राचीन ऋषि अपने तेज से सबके मन और तेज को हरते हुए सबको लांघकर चले गए। बृहस्पतिजी ने ब्रह्माजी से पूछा कि ये दोनों कौन हैं, जो आपकी उपासना किए बिना ही चले जा रहे हैं। तब ब्रह्माजी ने कहा ये पराक्रमी महाबली नारायण व नर ऋषि हैं। जो अपने तेज से पृथ्वी और स्वर्ग को प्रकाशित कर रहे हैं। इन्होंने अपने कर्म से संपूर्ण लोकों के आनंद को बढ़ाया है। इन्होंने अभिन्न होते हुए भी असुरों का संहार करने के लिए दो शरीर धारण किए हैं। समस्त देवता और गंधर्व इनकी पूजा करते थे।
इन्हें इस संसार में इन्द्र के सहित देवता और असुर भी नहीं जीत सकते। इनमें श्रीकृष्ण उन्हीं प्रचीन देवता नारायण व नर का रूप हैं। वस्तुत: नारायण और नर ये दो रूपों में एक ही वस्तु है। दुर्योधन जिस समय तुम शंख, चक्र व गदा धारण किए। श्रीकृष्ण को और अर्जुन को एक रथ में बैठा देखोगे तो उस समय तुम्हे मेरी बात याद आएगी। यदि तुम मेरी बात पर ध्यान नहीं दोगे तो समझ लेना कि कौरवों का अंत आ गया है। साथ ही तुम्हारा धर्म और बुद्धि भ्रष्ट हो गई है।
क्यों पांडवों से युद्ध नहीं करना चाहते थे धृतराष्ट्र?
अर्जुन का यह संदेश जब संजय ने सभी कौरवों को सुनाया, तो दुर्योधन आदि कौरव युद्ध के लिए उग्र हो गए। यह देखकर धृतराष्ट्र ने कहा एक ओर तुम सबको मिलकर समझो और दूसरी ओर अकेले भीम को। जैसे जंगल के जीव शैर से डरते हैं। वैसे ही मैं भी भीम से डरकर रातभर गर्म-गर्म सांसे लेता हुआ जागता रहता हूं। वह युद्ध करके तुम सबको मार डालेगा। उसकी याद आने पर मेरा दिल धड़कने लगता है। भीमसेन के बल को सिर्फ में ही नहीं बल्कि भीष्म, द्रोण और कृपाचार्य भी अच्छी तरह जानते हैं।
शोक तो मुझे उन लोगों के लिए है, जो पांडवों के साथ युद्ध करने पर तुले हुए हैं। विदुर ने आरम्भ में ही जो रोना रोया था, आज वही सामने आ गया। इस समय कौरवों पर विपत्ति आने वाली है। मैने ऐश्वर्य के लोभ से ही मैंने यह महापाप कर डाला था। मैं क्या करूं?और कहां जाऊं। मैं अपने सौ पुत्रों को मरते हुए देख। उनकी स्त्रियों का करुण कुंदन नहीं सुनना चाहता। युधिष्ठिर के मुंह से मैंने एक झूठी बात नहीं सुनी। अर्जुन जैसा वीर उनके पक्ष में है। रात-दिन विचार करने पर भी मुझे ऐसा कोई योद्धा दिखाई नहीं देता, जो रथयुद्ध में अर्जुन का सामना कर सके ।
दुर्योधन हार का अनुमान होने पर भी क्यों लडऩा चाहता था महाभारत?
यह सब सुनकर दुर्र्योधन ने कहा - महाराज आप डरे नहीं। हमारे विषय में कोई चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। हम काफी शक्तिमान हैं शत्रुओं को संग्राम में परास्त कर सकते हैं। जिस समय इंद्रप्रस्थ से थोड़ी ही दूरी पर वनवासी पांडवों के पास बड़ी भारी सेना के साथ श्रीकृष्ण आए थे। कैकयराज, धृष्टकेतु, धृष्टद्युम्र, और पाण्डवों के साथी अन्याय महारथी वहां शामिल हुए थे।
वे लोग कुटुम्ब सहित आपका नाश करने पर तुले हुए थे। जब यह बात मेरे कानों पर पड़ी कि श्रीकृष्ण तो युधिष्ठिर को ही राजा बनाना चाहते हैं।
ऐसी स्थिति में बताइए, हम क्या करें? उनके आगे सिर झुका दें? डरकर भाग जाएं, या प्राणों का मोह छोड़कर युद्ध में जूझे? युधिष्ठिर के साथ युद्ध करने में तो निश्चित ही हमारी पराजय होगी क्योंकि सारे राजा उन्हीं के पक्ष में हैं। मित्र लोग भी रूठे हुए हैं हमें खरी खोटी सुनाते हैं। मेरी यह बात सुनकर द्रोणाचार्य, भीष्म, कृपाचार्य ने कहा था डरो मत हम युद्ध लड़ेंगे। हममें से प्रत्येक अकेला ही सारे राजाओं को जीत सकता है। आवें तो सही हम अपने पैने बाणों से उनका सारा गर्व ठंडा कर देंगे।
महाभारत युद्ध से पहले कौरवों के लिए क्या संदेश भेजा श्रीकृष्ण ने और क्यों?
धृतराष्ट्र की युद्ध न करने की सम्मति देने के बाद दुर्योधन ने अपनी असहमति जताई। उसके बाद संजय ने श्रीकृष्ण का संदेश सुनाया- संजय बोले में बहुत सावधानी से हाथ जोड़कर श्रीकृष्ण के अंत:पुर में गया। उस स्थान में अभिमन्यु और नकुल-सहदेव भी नहीं जा सकते। वहां पहुंचने पर मैंने देखा कि श्रीकृष्ण अपने दोनों चरणों को अर्जुन की गोद में रखे हुए हैं। अर्जुन के चरण द्रोपदी व सत्यभामा की गोद में है।
उन्होंने मेरा सत्कार किया उसके बाद आराम से बैठ जाने पर मैंने हाथ जोड़कर उन्हें आपका संदेश सुनाया। इस पर अर्जुन ने श्रीकृष्ण के चरणों में प्रणाम करके उसका उत्तर देने के लिए प्रार्थना की। तब भगवान बैठ गए और बोले- संजय बुद्धिमान, धृतराष्ट्र कुरुवृद्ध भीष्म और आचार्य द्रोण से तुम हमारी ओर से यह संदेश कहना। तुम बड़ों को हमारा प्रणाम कहना और छोटो की कुशल पूछकर उन्हें यह कहना कि तुम्हारे सिर पर बड़ा संकट आ गया है, इसलिए तुम अनेक प्रकार के यज्ञों का अनुष्ठान करो, ब्राह्मणों को दान दो और स्त्री पुत्रों के साथ कुछ दिन आनंद भोग लो।
देखो, अपना चीर खींचे जाते समय द्रोपदी ने जो हे गोविन्द ऐसा कहकर मुझ द्वारकावासी को पुकारा था।उसका ऋण मेरे हृदय से दूर नहीं होता। भला जिसके साथ में हूं, उस अर्जुन से युद्ध करने की प्रार्थना! ऐसा कौन मनुष्य कर सकता है, मुझे तो ऐसी कोई रणभूमि दिखाई नहीं देती जो अर्जुन का सामना कर सके। विराटनगर में तो उसने अकेले ही कौरवों में भगदड़ मचा दी थी। वे इधर-उधर चंपत हो गए थे- यही इसका पर्याप्त प्रमाण है। बल, वीर्य, तेज अर्जुन के सिवा और किसी एक व्यक्ति में नहीं मिलते। इस प्रकार अर्जुन को उत्साहित करते हुए कृष्ण ने मेघ के समान गरजकर यह शब्द कहे थे।
कर्ण ने क्यों कर ली थी, महाभारत से पहले ही शस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा?
द्रोणाचार्य तथा अन्य सब राजा लोग भी आपके ही पास रहे, पाण्डवों को तो अपनी प्रधान सेना के सहित जाकर मैं ही मार दूंगा यह काम मेरे जिम्मे रहा। जब कर्ण इस प्रकार कह रहा था तो भीष्मजी कहने लगे-कर्ण तुम्हारी बुद्धि तो कालवश नष्ट हो गई। तुम क्या बढ़-बढ़कर बातें बना रहे हो! याद रखो, इन कौरवों की मृत्यु तो पहले तुम जैसे प्रधान वीर के मारे जाने पर ही होगी। इसलिए तुम अपनी रक्षा का प्रबंध करों। खाण्डव वन का दाह कराते समय श्रीकृष्ण के सहित अर्जुन ने जो काम किया था, उसे सुनकर ही तुम्हे अपने बंधु-बांधवों के सहित होश में आ जाना चाहिए। देखो, बाणासुर और भौमासुर का वध करने वाले श्रीकृ ष्ण अर्जुन की रक्षा करते हैं।
इस घोर संग्राम में वे तुम जैसे चुने-चुने वीरों का ही नाश करेंगे। यह सुनकर कर्ण बोला- पितामह जैसा कहते हैं, श्रीकृष्ण नि: संदेह वैसे ही हैं- बल्कि उससे भी बढ़कर हैं। लेकिन इन्होंने मेरे लिए जो कुछ कड़ी बातें कही हैं, उनका परिणाम भी ये कान खोलकर सुन लें। अब मैं अपने शस्त्र रख देता हूं। आज से मुझे पितामह रणभूमि या राजसभा में नहीं देखेंगे। बस जब आपका अंत हो जाएगा तभी पृथ्वी के सब राजा लोग मेरा प्रभाव देखेंगे। ऐसा कहकर महान धनुर्धर कर्ण सभा से उठकर अपने घर चला गया।
जब परिवार के लोग ही आपस में लड़ते हैं तो ऐसा होता है हाल....
कर्ण के सभा से चले जाने के बाद मंदमति दुर्योधन ने कहा-पितामह पांडव लोग और हम। अस्त्रविद्या, योद्धाओं के संग्रह और बल में समान ही हैं। मैं आप द्रोणाचार्य और कृपाचार्य तथा अन्य राजाओं के बल पर यह युद्ध नहीं ठान रहा हूं। पांचों पांडवों को तो मैं, कर्ण और भाई दु:शासन हम तीन ही अपने पैनें बाणों से मार डालेंगे। तब विदुर ने कहा-कोई व्यक्ति कितना ही महान न क्यों न हो? ईष्र्या और शोक उसके पास नहीं फटकना चाहिए। परिवार में लड़ाई के परिणाम हमेशा बुरे ही होते हैं।
हमारे बड़े लोग कह गए हैं किसी समय एक चिड़ीमार ने चिडिय़ों को फंसाने के लिए पृथ्वी पर जाल फैलाया। उस जाल में साथ-साथ रहने वाले दो पक्षी फंस गए। तब वे दोनों उस जाल को लेकर उड़ चले। चिड़ीमार उदास हो गया और जिधर-जिधर वे जाते, उधर-उधर ही उनके पीछे दौड़ रहा था। इतने में ही एक मुनि की उस पर दृष्टि पड़ी। मुनि ने उससे कहा अरे! व्याध मुझे तो यह बात बहुत ही विचित्र लग रही है, कि तू उड़ते पक्षियों के पीछे पृथ्वी पर भटक रहा है।
व्याध ने कहा ये दोनों पक्षी आपस में मिल गए हैं इसलिए मेरे जाल को लिए जा रहे हैं। अब जहां इनमें झगड़ा होने लगेगा। वहीं ये मेरे वश में आ जाएंगे। थोड़ी ही देर में काल के वशीभूत हुए। उन पक्षियों में झगड़ा होने लगा और वे लड़ते-लड़ते पृथ्वी पर गिर गए। बस चिड़ीमार ने चुपचाप जाल के पास जाकर दोनों को पकड़ लिया। इसी तरह जब दो कुटुंम्बियों का आपस में झगड़ा होता है तो वे शत्रुओं के चंगुल में फंस जाते हैं।
कैसे दी अर्जुन ने कौरवों को महाभारत युद्ध की चुनौती?
विदुर की बात खत्म होने के बाद धृतराष्ट्र ने कहा-दुर्योधन मैं तुमसे जो कुछ कहता हूं, उस पर ध्यान दो। तुम अनजान के समान इस समय कुर्माग को ही सुमार्ग समझ रहे हो। इसीलिए तुम पांचों पांडवों के तेज को दबाने का विचार कर रहे हो। लेकिन याद रखो, उन्हें जीतने का विचार करना अपनी जान को संकट में डालना ही है। श्रीकृष्ण अपने देह, गेह, स्त्री, कुटुंबी और राज्य को एक ओर तथा अर्जुन दूसरी ओर समझते हैं। उसके लिए वे इन सभी को त्याग सकते हैं। जहां अर्जुन रहता है, वहीं श्रीकृष्ण रहते हैं। जिस सेना में स्वयं श्रीकृष्ण रहते हैं। उसका वेग तो पृथ्वी के लिए भी असहनीय होगा। मैं भी कौरवों के ही हित की बात सोचता हूं, तुम्हें मेरी बात भी सुननी चाहिए और द्रोण, कृप, विकर्ण की बात पर भी ध्यान देना चाहिए। अत: तुम तुम पांडवों को अपने सगे भाई समझकर उन्हें आधा राज्य दे दो। दुर्योधन से ऐसा कहने के बाद धृतराष्ट्र ने संजय से कहा अब जो बात सुनानी रह गई हैं वह भी कह दो। श्रीकृष्ण के बाद अर्जुन ने तुमसे क्या कहा था? उसे सुनने के लिए मुझे बड़ा कौतूहल हो रहा है।
संजय ने कहा- श्रीकृष्ण की बात सुनकर कुंतीपुत्र अर्जुन ने उनके सामने ही कहा-संजय तुम पितामह भीष्म, महाराज धृतराष्ट्र द्रोणाचार्य, कृ पाचार्य, कर्ण, अश्वत्थामा, सोमदत, शकुनि, दु:शासन, विकर्ण और वहां उपस्थित समस्त राजाओं से मेरा यथायोग्य अभिवादन कहना। मेरी ओर से उनकी कुशल पूछना और पापात्मा दुर्योधन उसके मंत्री और वहां आए हुए सब राजाओं को श्रीकृष्ण का समाधानयुक्त संदेश सुनाकर मेरी ओर से भी इतना कहना कि महाराज युधिष्ठिर जो अपना भाग लेना चाहते हैं, वह यदि तुम नहीं दोगे तो मैं अपने तीखे तीरों से तुम्हारे घोड़े, हाथी और पैदल सेना के सहित तुम्हे यमपुरी भेज दूंगा महाराज इसके बाद मैं अर्जुन से विदा होकर और श्रीकृष्ण को प्रणाम करके उनका गौरवपूर्ण संदेश आपको सुनाने के लिए तुरंत ही यहां चला आया।
महाभारत से पहले गांधारी और धृतराष्ट्र दुर्योधन को क्या समझाना चाहते थे?
श्रीकृष्ण और अर्जुन की इन बातों का दुर्योधन ने कुछ भी आदर नहीं किया। सब लोग चुप ही रहे। फिर वहां जो देश-देशान्तर नरेश बैठे थे, वे उठकर अपने-अपने डेरों को चले गए। इस एकांत के समय धृतराष्ट्र ने संजय से पूछा तुम्हें तो दोनों पक्षों के बल का ज्ञान है, यूं भी तुम धर्म और अर्थ का रहस्य अच्छी तरह जानते हो और किसी भी बात का परिणाम तुमसे छिपा नहीं है इसलिए तुम ठीक-ठीक बताओ कि इन दोनों पक्षों में कौन सबल है और कौन निर्बल ? संजय ने कहा मैं आपको कोई भी बात बताना नहीं चाहता, क्योंकि इससे आपका दिल दुखेगा।
आप भगवान व्यास और महारानी गांधारी को भी बुला लीजिए। उन दोनों के सामने मैं आपको श्रीकृष्ण और अर्जुन का पूरा-पूरा विचार सुना दूंगा। संजय के इस तरह कहने पर गांधारी और व्यासजी को बुलाया गया और विदुरजी तुरंत ही उन्हें सभा में ले आए। तब गांधारी ने कहा महामुनि व्यासजी राजा धृतराष्ट्र तुम से प्रश्र कर रहे हैं। इनकी आज्ञा के अनुसार तुम श्रीकृष्ण और अर्जुन के विषय में जो कुछ जानते हों, वह सब ज्यों का त्यों सुना दो। तब संजय ने कहा श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनों ही बहुत सम्मानित धनुर्धर हैं। श्रीकृष्ण का चक्र का भीतर का भाग पांच हाथ चौड़ा है और वे उसका इच्छानुसार प्रयोग कर सकते हैं। नरकासुर, शंबर, कंस और शिशुपाल ये बड़े भयंकर वीर थे। भगवान कृष्ण ने इन्हें खेल ही में मार दिया। मैं सच कहता हूं एकमात्र वे काल, मृत्यु और सम्पूर्ण जगत के स्वामी है।
धृतराष्ट्र ने पूछा- संजय श्रीकृष्ण समस्त लोकों के स्वामी हैं ये तुम कैसे जानते हो ? तब संजय ने कहा आपको ज्ञान नहीं है। मेरी ज्ञान की दृष्टि कभी मंद नहीं पड़ती। जो पुरुष ज्ञानहीन है, वह श्रीकृष्ण के वास्तवीक स्वरूप को नहीं जान सकता। यह बातें सुनकर धृतराष्ट्र ने दुर्योधन से कहा संजय हमारे हितैषी और विश्वासपात्र है। इसलिए तुम इनकी बात मान लो। तब दुर्योधन ने कहा भगवान श्रीकृष्ण भले ही तीनों लोकों का संहार कर डालें, किंतु जब वे अपने को अर्जुन का सखा घोषित कर चुके हैं तो मैं उनकी शरण में नहीं जा सकता। तब धृतराष्ट्र ने गांधारी से कहा देखो तुम्हारा अभिमानी पुत्र ईष्र्या के कारण सत्पुरुषों की बात नहीं मान रहा है।गांधारी ने कहा दुर्योधन तू बड़ा ही दुष्ट बुद्धि और मुर्ख है। तू ऐश्वर्य के लोभ में फंसकर अपने बड़ो की आज्ञा का उल्लंघन कर रहा है। मालूम होता है अब तू अपने ऐश्वर्य,जीवन, पिता, सभी से हाथ धो लेगा।
जानिए, कृष्ण के कुछ ऐसे नाम और उनके अर्थ जो आपको शायद ही पता हो
व्यासजी ने धृतराष्ट्र से कहा तुम मेरी बात सुनो। तुम श्रीकृष्ण के प्यारे हो। तुम्हारा संजय जैसा दूत है। जो तुम्हे कल्याण के मार्ग पर ले जाएगा। यदि तुम संजय की बात सुनोगे तो यह तुम्हे जन्म-मरण सबके भय से मुक्ति दिलवाएगा। तुम्हे क ल्याण और स्वर्ग के मार्ग पर ले जाएगा। जो लोग कामनाओं में अंधे के समान अपने कर्मों के अनुसार बार-बार मृत्यु के मुख में जाते हैं। तब धृतराष्ट्र ने संजय से पूछा- तुम मुझे कोई निर्भय मार्ग बताओ, जिससे चलकर मैं श्रीकृष्ण को पा सकूं और मुझे परमपद पाप्त हो जाए। संजय ने कहा-अजितेन्द्रिय भगवान को प्राप्त करने के लिए इंद्रियों पर जीत जरूरी है। इन्द्रियों पर निश्चल रूप से काबू रखना इसी को विद्वान लोग ज्ञान कहते हैं।
धृतराष्ट्र ने कहा- संजय तुम एक बार फिर श्रीकृष्णचंद्र के स्वरूप वर्णन करो, जिससे कि उनके नाम और कर्मों का रहस्य जानकर मैं उन्हें प्राप्त कर सकूं। संजय ने कहा- मैंने श्रीकृष्ण के कुछ नामों की व्युत्पति सुनी है। उसमें से जितना मुझे स्मरण है। वह सुनाता हूं। श्रीकृष्ण तो वास्तव में किसी प्रमाण के विषय नहीं है। समस्त प्राणियों को अपनी माया से आवृत किए रहने और देवताओं के जन्मस्थान होने के कारण वे वासुदेव हैं। व्यापक तथा महान होने के कारण माधव है। मधु दैत्य का वध होने के कारण उसे मधुसूदन कहते हैं। कृष धातु का अर्थ सत्ता है और ण आनंद का वाचक है। इन दोनों भावों से युक्त होने के कारण यदुकुल में अवर्तीण हुए श्रीविष्णु कृष्ण कहे जाते हैं। आपका नित्य आलय और अविनाशी परमस्थान हैं, इसलिए पुण्डरीकाक्ष कहे जाते हैं। दुष्टों के दमन के कारा जनार्दन है। इनमें कभी सत्व की कमी नही होती इसलिए सातत्व हैं। उपनिषदों से प्रकाशित होने के कारण आप आर्षभ हैं। वेद ही आपके नेत्र हैं इसलिए आप वृषभक्षेण हैं। आप किसी भी उत्पन्न होने वाले प्राणी से उत्पन्न नहीं होते इसलिए अज है। उदर- इंद्रियोके स्वयं प्रकाशक और दाम -उनका दमन करने वाले होने से आप दामोदर है। हृषीक, वृतिसुख और स्वरूपसुख भी कहलाते हैं।
ईश होने से आप हृषीकेश कहलाते है। अपनी भुजाओं से पृथ्वी और आकाश को धारण करने वाले होने से आप दामोदर है। अपनी भुजाओं से पृथ्वी और आकाश को धारण करने वाले होने से आप महाबाहु हैं।आप कभी अध: क्षीण नहीं होते, इसलिए अधोक्षज है। नरो के अयन यानी आश्रय होने के कारण उन्हें नारायण कहा जाता है। जो सबसे पूर्ण और सबका आश्रय हो, उसे पुरुष कहते है। उनमें श्रेष्ठ होने से उत्पति को पुरुषोत्तम हैं। आप सत और असत सबकी उत्पति और ल के स्थान हैं तथा सर्वदा उन सबको जानते हैं, इसलिए सर्व हैं। श्रीकृ ष्ण सत्य में प्रतिष्ठित हैं और सत्य से भी सत्य है। वे पूरे विश्व में प्याप्त है इसलिए विष्णु हैं, जय करने के कारण विष्णु हैं नित्य होने के कारण अनंत हैं और गो इंद्रियो के ज्ञाता होने से गोविंद है।
इसलिए कृष्ण ने किया कौरवों के पास जाने का फैसला.....
धृतराष्ट्र बोले -संजय जो लोग अपने नेत्रों से भगवान के तेजोमय दिव्य विग्रह के दर्शन करते हैं। उन आंख वाले लोगों जैसे भाग्य की मुझे भी लालसा होती है। जिन्होंने तीनों लोकों की रचना की, जो देवता, असुर, नाग और राक्षस सभी की उत्पति करने वाले हैं। मैं उन भगवान श्रीकृष्ण की शरण में हूं।
इधर संजय के चले जाने पर राजा युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण से कहा- कृष्ण मुझे आपके अलावा कोई ऐसा नहीं दिखाई देता जो हमें आपत्ति से बाहर निकाल सके। आपके भरोसे ही हम बिल्कुल निर्भय हैं, और दुर्योधन से अपना भाग मांगना चाहते हैं। श्रीकृष्ण ने कहा- राजन मैं तो आपकी सेवा में उपस्थित ही हूं। आप जो कुछ कहना चाहें, वह कहिए। आप जो-जो आज्ञा करेंगे, वह सब मैं पूर्ण करूंगा।
युधिष्ठिर ने कहा- राजा धृतराष्ट्र और उनके पुत्र जो कुछ करना चाहते हैं, वह तो आपने सुन ही लिया। संजय ने हमसे जो कुछ कहा है वह सब उन्हीं का मत है। राजा धृतराष्ट्र को राज्य का बड़ा लोभ है। वे धर्म का कुछ भी विचार नहीं कर रहे हैं। अपने मुर्ख पुत्र के मोहपाश में फंसे होने के कारण उसी की आज्ञा बजाना चाहते हैं। हमारे साथ तो उनका बिल्कुल बनावटी बर्ताव है। जरा सोचिए तो, इससे बढ़कर दुख की क्या बात होगी कि मैं न तो माता की सेवा कर सकता हूं और न सगे संबंधियों की। वे लोग जन्म से ही निर्धन है। उन्हें उतना कष्ट नहीं जान पड़ता जितना कि लक्ष्मी पाकर सुख में पले हुए लोगों का धन का नाश होने पर होता है। महाराज युधिष्ठिर की पूरी बात सुनकर श्रीकृष्ण ने कहा मैं दोनों पक्षों के हित के लिए कौरवों की सभा में जाऊंगा और यदि वहां आपके लाभ में किसी तरह की बाधा न पहुंचाते हुए संधि करा सकूंगा तो समझूंगा मैंने बहुत पुण्य का काम कर दिया।
भीम महाभारत का युद्ध नहीं लडऩा चाहते थे क्योंकि...
भीमसेन ने कहा आप कौरवों से ही बातें करें, ताकि वे संधि करने को तैयार हो जाएं, उन्हें युद्ध की बात सुनाकर भयभीत न करें। दुर्योधन बड़ा ही असहनशील और क्रोधी है। वह मर जाएगा लेकिन अपने घुटने नहीं टेकेगा। इस समय हम कुरुवंशियों के संहार का समय आया है। इसी से काल की गति पापात्मा दुर्योधन उत्पन्न हुआ है। इसलिए आप जो कुछ कहें, मधुर और कोमल वाणी में धर्म और अर्थ हित की ही बात कहें। हम सब तो दुर्योधन के नीचे रहकर बड़ी विनम्र्रतापूर्वक उसका अनुसरण करने को भी तैयार हैं, हम नहीं चाहते कि हमारे कारण भरतवंश का नाश हो।
वैशम्पायनजी कहते हैं- राजन भीमसेन के मुख से भी किसी ने नम्रता बाते नहीं सुनी थी। इसलिए उनकी ये बातें सुनकर श्रीकृष्ण हंस पड़े। भीमसेन को उतेजित करते हुए कहने लगे तुम पहले तो धृतराष्ट्रपुत्रों को कुचलने की इच्छा मन में हमेशा रखते थे। तुमने भाइयों के बीच गदा उठाकर प्रतिज्ञा भी की। लेकिन अब मुझे लगने लगा है कि तुम इस युद्ध को जीतने से पहले ही हार गए हो।
क्यों कहा कृष्ण ने मैं बनूंगा अर्जुन का सारथि?
यह सुनकर भीमसेन ने कहा-वासुदेव मैं तो कुछ और ही कहना चाहता हूं, किंतु आप दुसरी ही बात समझ गए। मेरा बल दूसरे पुरुषों से समानता नहीं रखता।लेकिन आपने मेरे पुरुषार्थ की निंदा की है। इसलिए मुझे अपने बल का वर्णन करना ही पड़ेगा।उसके बाद भीमसेन ने अपने बल का वर्णन किया। श्रीकृष्ण ने कहा मैंने भी तुम्हारा भाव जानने के लिए प्रेम से ही ये बातें कहीं हैं।
मैं तुम्हारे प्रभाव और पराक्रम को अच्छे से जानता हूं। इसलिए तुम्हारा तिरस्कार नहीं कर सकता। अब कल धृतराष्ट्र के पास जाकर आप लोगों के बीच संधि का प्रयास करूंगा। ऐसा करने से आप लोगों का काम हो जाएगा और उन लोगों का हम पर बड़ा भारी उपकार होगा। लेकिन अगर उन्होंने अभिमानवश मेरी बात नहीं मानी तो हमें फिर युद्ध जैसा भयंकर कर्म करना ही होगा। भीमसेन इस युद्ध का सारा भार तुम्हारे ही ऊपर रहेगा या लोग तुम्हारी आज्ञा में रहेंगे। युद्ध हुआ तो मैं अर्जुन का सारथि बनूंगा। अर्जुन की भी ऐसी ही इच्छा है।
द्रोपदी भी चाहती थी महाभारत का युद्ध हो क्योंकि....
अर्जुन ने कहा श्रीकृष्ण,जो कुछ कहना था वह तो महाराज युधिष्ठिर कह चुके हैं। लेकिन आपकी बातंय सुनकर मुझे ऐसा लग रहा है कि धृतराष्ट्र के लोभ और मोह के कारण आप संधि होना सहज नहीं समझते। लेकिन यदि कोई काम ठीक रीति से किया जाता है तो सफल भी हुआ जा सकता है। इसलिए आप कुछ ऐसा करें कि शत्रुओं से संधि हो जाए।
आप जो उचित समझें और जिसमें पाण्डवों का हित हो, वही काम जल्दी आरंभ कर दीजिए। हमें आगे जो कुछ करना हो, वह भी बता दें। श्रीकृष्ण ने कहा- अर्जुन तुम जो कुछ कह रहे हो ठीक है। मैं भी वही काम करूंगा। दुर्योधन धर्म और लोक दोनों ही को तिलांजली देकर स्वेच्छाचारी हो गया है। ऐसे कर्मों से उसे पश्चाताप भी नहीं होता। उसके सलाहकार भी कुमति को बढ़ावा देने वाले हैं। नकुल ने कहा- धर्मराज ने आपसे कई बातें कहीं हैं। वे सब आपने सुन ही ली हैं।
भीमसेन ने भी संधि के लिए कहकर फिर अपना बाहुबल भी आपको सुना दिया। श्रीकृष्ण ये तो हम और आप दोनों ही जानते हैं कि वनवास और अज्ञातवास के समय हमारा विचार दूसरा था और अब दूसरा है। वन में रहते समय हमारा राज्य में अनुराग नहीं था। आप कौरवों की सभा में जाकर पहले तो संधि की ही बात करें, फिर युद्ध की धमकी दें। मुझे लगता है आपके कहने पर भीष्म और विदुर आदि दुष्ट दुर्योधन को ये बात समझा पाएंगे कि संधि कर लेना ही उसके लिए अच्छा है।
सहदेव ने कहा- महाराज ने जो बात कही है, वह तो सनातन धर्म ही है, लेकिन आप तो ऐसा प्रयत्न करें जिससे युद्ध ही हो। यदि कौरव लोग संधि करना चाहें तो भी आप उनके साथ युद्ध होने का ही रास्ता निकालें। सात्य ने कहा- महामति सहदेव ने बहु्रत ठीक कहा है इनका और मेरा कोप तो दुर्योधन का वध करके ही शांत होगा। सात्य कि के ऐसा कहते ही वहां बैठे हुए सब योद्धा भयंकर सिंहनाद करने लगे।
तभी द्रोपदी ने सहदेव और सात्य की प्रशंसा कर रोते हुए कहा- धर्मज्ञ मधुसूदन! दुर्योधन ने जिस क्रुरता से पांडवों को राजसुख से वंचित किया है वह तो आपको मालूम ही है। संजय को राजा धृतराष्ट्र ने एकांत में आपको जो अपना विचार सुनाया है वो भी आप अच्छी तरह जानते हैं। पांडव लोग दुर्योधन का रण में ही अच्छे से मुकाबला कर सकते हैं।
द्रोपदी के आंसुओं को देखकर श्रीकृष्ण ने क्या प्रतिज्ञा की?
इसके बाद द्रोपदी अपने बालों को बाएं हाथ में लिए कृष्ण के पास आई। नेत्रों में जल भरकर उनसे कहने लगी- कमलनयन श्रीकृष्ण! शत्रुओं से संधि करने की तो इच्छा है, लेकिन अपने इस सारे प्रयत्न में आप दु:शासन के हाथों से खींचे हुए इन बालों को याद रखें। अगर भीम और अर्जुन और कायर होकर आज की संधि के लिए ही उत्सुक हैं तो अपने महारथी सहित मेरे वृद्ध पिता और पुत्र कौरवों से संग्राम करेंगे। मैंने दु:शासन को अगर मरते न देखा तो मेरी छाती ठंडी कैसे होगी। इतना कहते हुए द्रोपदी का गला भर आया। तब श्रीकृष्ण ने कहा तुम शीघ्र ही कौरव की स्त्रियों को रुदन करते देखोगी। आज जिन पर तुम्हारा क्रोध है। उनकी स्त्रियां भी इसी तरह रोएंगी।
महाराज युधिष्ठिर की आज्ञा से भीम, अर्जुन और नकुल-सहदेव के सहित मैं भी ऐसा ही काम करुंगा। यदि काल के वश में पड़े धृतराष्ट्रपुत्र मेरी बात नहीं सुनेंगे तो निश्चय ही मानों की चाहे प्रलय आ जाए लेकिन मेरी कोई बात झूठी नहीं हो सकती। तुम अपने आसुंओं को रोको, मैं सच्ची प्रतिज्ञा करके कहता हूं अगर धृतराष्ट्र ने मेरी बात नहीं मानी तो तुम शीघ्र ही शत्रुओं के मारे जाने से अपने पतियों को श्री सम्पन्न देखोगी। अर्जुन ने कहा- श्रीकृष्ण इस समय सभी कुरूवंशियों के आप ही सबसे बड़े सहृदय हैं। आप दोनों ही पक्षों के संबंधी और प्रिय हैं। इसलिए पांडवों के साथ कौरवों की संधि आप ही करा सकते हैं।
श्रीकृष्ण हस्तिनापुर जाने लगे तो कौन से शकुन व अपशकुन हुए?
श्रीकृष्ण बोलते हैं, मैं वहां जाकर ऐसी बात कहूंगा, जो धर्म के अनुकूल होगी और जिनसे हमारा और कौरवों का हित होगा। उसके बाद श्रीकृष्ण हस्तिनापुर जाने की तैयारी करने लगे। उस समय उन्होंने अपने पास बैठे सात्य से कहा कि तुम मेरे शंख, चक्र, गदा, तरकस आदि सब रथ में रख दो। कृष्ण का रथ सजाया गया।
कृष्णजी ने अपने चार घोड़ों शैव्य, सुग्रीव, मेघपुष्प और बलाहक इन सभी को नहला-धुलाकर रथ में जोता। उस रथ की ध्वजा पर गरुड़ विराजमान हुए। तब उन्होंने हस्तिनापुर के लिए प्रस्थान किया। श्रीकृष्ण जब हस्तिनापुर के लिए चले तब पूर्व दिशा की ओर बहने वाली छ: नदियां और समुद्र- ये उल्टे बहने लगे। सब दिशाएं ऐसी अनिश्चित हो गई कि कुछ पता ही न लगता था। मार्ग में जहां श्रीकृष्ण चलते थे। वहां बड़ा सुखप्रद वायु चलती। शकुन भी अच्छे ही होते थे।
इस तरह वे अनेक राष्ट्रो को लांघते हुए शालियवन नामक स्थान पर पहुंचे। इधर जब दूतों के द्वारा राजा धृतराष्ट्र को पता लगा कि श्रीकृष्ण आ रहे हैं तो उन्होंने मंत्रियों और भीष्म, द्रोण, संजय और दुर्योधन से कहा-पाण्डवों के काम से हमसे मिलने के लिए श्रीकृष्ण आ रहे हैं। उनके सत्कार की तैयारी की जाए। तुम उनके स्वागत सत्कार की जमकर तैयारियां करो। रास्ते में सब प्रकार की आवश्यक सामग्री से सम्पन्न विश्राम स्थान बनाओ।
दुर्योधन श्रीकृष्ण को कैद क्यों कर लेना चाहता था?
सभी उनके स्वागत की तैयारियां पूरी करने में लग गए। दुर्योधन से सभी तैयारियां पूर्ण होने की सुचना मिलने पर धृतराष्ट्र ने विदुर से कहा श्रीकृष्ण कल सुबह हस्तिनापुर आ जाएंगे। तुम जानते हो की कृष्ण के दर्शन सैकड़ों सूर्य के दर्शन के समान है।इसलिए जितनी भी प्रजा है उन्हें श्रीकृष्ण के दर्शन करने चाहिए। विदुर ने कहा मैं श्रीकृष्ण की महिमा जानता हूं, उन्हे पांडवों से बहुत अनुराग है।
आप किसी भी तरह कृष्ण को अपनी ओर नहीं कर पाएंगे। दुर्योधन बोला- पिताजी विदुरजी ने जो कुछ कहा है ठीक ही कहा है। श्रीकृष्ण का पांडवों की प्रति बहुत प्रेम है। उन्हें उनके विपक्ष मे कोई नहीं ला सकता। इसलिए आपके सारे प्रयास व्यर्थ हैं। भीष्म बोले श्रीकृष्ण ने अपने मन में जो भी निर्णय ले लिया है। उसे आप और मैं कभी नहीं बदल सकते हैं। दुर्योधन ने कहा- पितामह जब तक मेरे शरीर में प्राण हैं तब तक मैं इस राजलक्ष्मी को पांडवों के साथ बांटकर नही भोग सकता।
मैंने विचार किया है कि मैं पाण्डवों के पक्षपाती कृष्ण को कैद कर लूं। उन्हें कैद करने से समस्त यादव और सारी पृथ्वी के साथ ही पांडव भी मेरे अधीन हो जाएंगे। यह बात सुनकर धृतराष्ट्र और उनके मंत्रियों को भयंकर झटका लगा। उन्होंने दुर्योधन से कहा-बेटा तू अपने मुंह से ऐसी बातें ना निकाल। यह सनातन धर्म के विरूद्ध है। कृष्णजी यहां दूत बनकर आ रहे हैं और दूत को कैद नहीं किया जाता है।
श्रीकृष्ण ने दुर्योधन क्यों नहीं बने दुर्योधन के मेहमान?
सुबह श्रीकृष्ण हस्तिनापुर पहुंचे। श्रीकृष्ण के सम्मान के लिए सारा नगर खूब सजाया गया था। श्रीकृष्ण ने भीड़ के बीच से राजभवन में प्रवेश किया। उन्हें लांघकर श्रीकृष्ण धृतराष्ट्र के पास पहुंचे। अतिथि सत्कार हो जाने पर धर्मज्ञ विदुरजी ने भगवान से पांडवों की कुशल पूछी। विदुरजी पांडवों के प्रेमी तथा धर्म और अर्थ में तत्पर रहने वाले हैं। कृष्णजी ने कहा पांडव लोग जो भी बात कौरवों तक पहुंचाना चाहते थे। वे सब बातें उन्होंने विदुरजी को विस्तार से सुना दी। इसके बाद दोपहरी बीत जाने पर भगवान कृष्ण अपनी बुआ कुंती के पास गए।
श्रीकृष्ण को आए देख वह उनके गले से लगकर अपने पुत्रों को याद कर रोने लगी। तब श्रीकृष्ण ने उन्हें समझाते हुए कहा आपकी पुत्रवधू द्रोपदी और सभी पांडव कुशल हैं, आप चिंता न करें। ऐसा दिलासा देकर श्रीकृष्ण दुर्योधन के महल को चले गए। श्रीकृष्ण के पहुंचते ही दुर्योधन अपने मंत्रियों सहित आसन पर खड़ा हो गया। भगवान दुर्योधन और उसके मंत्रियों से मिलकर फिर वहां एकत्रित हुए। सब राजाओं से उनकी आयु के अनुसार मिले। इसके बाद दुर्योधन ने उनसे भोजन ग्रहण करने कि प्रार्थना की। लेकिन कृष्ण ने उसका आग्रह स्वीकार नहीं किया।
तब दुर्योधन ने कहा मैं आपको अच्छी-अच्छी चीजें भेंट कर रहा हूं। आप स्वीकार क्यों नहीं कर रहे हैं? आपने तो दोनों ही पक्षों की सहायता की है। इसके अलावा आप महाराज धृतराष्ट्र के भी प्रिय है। दुर्योधन के ऐसा पूछने पर कृष्णजी ने गंभीर वाणी में कहा- ऐसा नियम है कि दूत को उद्देश्य पूर्ण होने से पहले भोजन आदि ग्रहण नहीं करना चाहिए। जब मेरा काम पूरा हो जाएगा तब ही मैं कुछ ग्रहण करूंगा। जब मेरा काम पूरा हो जाए तब तुम भी मेरा और मेरे मंत्रियों का सत्कार करना।
महाभारत से पहले श्रीकृष्ण ने ऐसे की थी युद्ध को रोकने की कोशिश...
दूसरे दिन सुबह उठकर श्रीकृष्ण ने स्नान, जप और अग्रिहोत्र से निवृत होने के बाद सूर्य का पूजन किया आभूषण आदि धारण किए। उसके बाद वे राज्यसभा में पहुंचे। धृतराष्ट्र, भीष्म आदि भी सभा में आ गए। जब सभा में सभी राजा मौन होकर बैठ गए तो श्रीकृष्ण ने महाराज धृतराष्ट्र की तरह देखते हुए बड़ी गंभीर वाणी में कहा। मेरा यहां आने का उद्देश्य यह है कि क्षत्रिय वीरों का संहार हुए बिना ही कौरव और पांडवों में संधि हो जाए। इस समय राजाओं में कुरुवंश ही सबसे श्रेष्ठ माना जाता है।
इसमें शास्त्र और सदाचार का सम्यक आदर है तथा अनेकों शुभ गुण है। राज्यवंशों की अपेक्षा कुरुवंशियों में कृपा, दया, करुणा, मृदुता, सरलता क्षमा और सत्य विशेष रूप से पाए जाते हैं। यदि कौरव गुप्त या प्रकटरूप से कोई असद्व्यवहार करते हैं तो उसे रोकना आप ही का काम है। दुर्योधनादि आपके पुत्र धर्म और अर्थ की ओर से मुंह फेरकर क्रूर पुरुषों सा आचरण करते हैं। यह भयंकर आपत्ति इस समय कौरवों पर ही आई है। यदि इसकी उपेक्षा की गईं तो यह सारी पृथ्वी चौपट कर देगी।
यदि आप अपने कुल को नाश से बचाना चाहें तो अब भी इसका निवारण किया जा सकता है। मेरे विचार से दोनों पक्षों में संधि होनी बहुत कठिन नहीं है। इस समय शांति और समझौता करवाना मेरे हाथों में है। आप अपने पुत्रों को मर्यादा में रखें में पांडवों को मैं नियम में रखूंगा। आपके पुत्रों को आपकी आज्ञा में रहना चाहिए। महाराज! आप पांडवों की रक्षा में रहकर धर्म का अनुष्ठान कीजिए।
आपको ऐसे रक्षक प्रयत्न करने पर भी नहीं मिल सकते। कौरव और पांडवों के मिल जाने से आप समस्त लोकों का आधिपत्य प्राप्त कर सकेंगे। महाराज युद्ध करने में मुझे बहुत संहार दिखाई दे रहा है। इस प्रकार दोनों पक्षों का नाश कराने में आपको क्या धर्म दिखाई देता है। आप इस लोक की रक्षा कीजिए और ऐसा कीजिए, जिसमें आपकी प्रजा का नाश न हो। यदि आप सत्वगुण धारण कर लेंगे तो सबकी रक्षा हो जाएगी।
महाभारत से पहले कृष्ण ने पांडवों के ओर से ऐसे की थी शांति की पहल....
कृष्णजी ने आगे कहा मैं अब आपको पांडवों का संदेश सुनाता हूं। महाराज!पाण्डवों ने आपको प्रणाम कहा है और आपकी प्रसन्नता चाहते हुए, यह प्रार्थना की है कि हमने अपने साथियों के सहित आपकी आज्ञा से ही इतने दिनों तक दुख भोगा है। हम बाहर वर्ष तक वन में रहे हैं और फिर तेहरवां वर्ष जनसमूह में अज्ञातरूप से रहकर बिताया है।
वनवास की शर्त होने के समय हमारा यही निश्चय था कि जब हम लौटेंगे तो आप हमारे ऊपर पिता की तरह रहेंगे। हमने उस शर्त का पूरी पालन किया है, इसलिए अब आप भी जैसा वादा था, वैसा ही निभाइए। हमें अब अपने राज्य का भाग मिल जाना चाहिए। आप धर्म और अर्थ का स्वरूप जानते हैं। इसलिए आपको हमारी रक्षा करनी चाहिए। गुरु के प्रति शिष्य का जैसा गौरवयुक्त व्यवहार होना चाहिए।
आपके साथ हमारा वैसा ही बर्ताव है। इसलिए आप भी हमारे प्रति गुरु का सा आचरण कीजिए। हम लोग यदि मार्गभ्रष्ट हो रहे हैं तो आप हमें ठीक रास्ते पर लाइए और खुद भी सन्मार्ग पर स्थित हो जाइए। इसके अलावा आपके उन पुत्रों ने सभासद् से कहलाया है कि जहां धर्मज्ञ सभासद् हों, वहां कोई अनुचित बात नहीं होनी चाहिए। यदि सभासदो के देखते हुए अधर्म से धर्म का और असत्य से सत्य का नाश हो तो उनका भी नाश हो जाता है। इस समय पांडव लोग धर्म पर दृष्टि लगाए बैठे हैं। उन्होंने धर्म के अनुसार सत्य और न्याययुक्त बात ही कही है। राजन् आप पाण्डवों को राज्य दे दीजिए- इसके सिवा आपसे और क्या कहा जा सकता है? इस सभा में जो राजालोग बैठे हैं। उन्हें कोई और बात कहनी हो तो कहें। यदि धर्म और अर्थ का विचार करके मैं सच्ची बात कहूं तो यही कहना होगा कि इन क्षत्रियों को आप मृत्यु के फंदे से छुड़ा दीजिए। ऐसा करके आप अपने पुत्रों के सहित आनन्द से भोग भोगिए।
इस समय आपने अर्थ को अनर्थ और अनर्थ को अर्थ मान रखा है। आपके पुत्रों पर लोभ ने अधिकार जमा रखा है।पाण्डव तो आपकी सेवा के लिए भी तैयार है। युद्ध करने के लिए भी तैयार हैं इन दिनों में आपको जो बात अधिक हितकर जान पड़े, उसी पर डट जाइए। जब भगवान कृष्ण ने ये सब बातें कहीं तो सभी सभासदों को रोमांच हो आया और वे चकित से हो गए। वे मन ही मन तरह से तरह से विचार करने लगे। उनके मुंह से कोई भी उत्तर नहीं निकला। सब राजाओं को इस प्रकार मौन हुआ देख सभा में उपस्थित परशुरामजी कहने लगे। तुम सब प्रकार का संदेह छोड़कर मेरी एक सत्य सुनो.
घमंड करने का यही परिणाम होता है क्योंकि...
दम्भोद्धव नाम का एक राजा था। वह महारथी सम्राट था। वह सभी ब्राह्मण और क्षत्रियों से पूछा करता था कि क्या ब्राह्मण क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रो में कोई ऐसा शस्त्रधारी है जो युद्ध में मेरे समान या मुझसे बढ़कर हो? इस तरह कहते हुए वह राजा बहुत घमंड में पूरी पृथ्वी पर घूमता था।
राजा का ऐसा घमंड देखकर एक ब्राह्मण ने बोला इस पृथ्वी पर ऐसे दो ही सत्पुरुष है जो तुम्हे पराजित कर सकते हैं। उनका नाम नर और नारायण है। वे इस समय मनुष्य लोक में आए हुए हैं। राजा को यह बात सहन नहीं हुई।
वह उसी समय बड़ी भारी सेना सजाकर नर और नारायण के पास गया। मुनियों ने राजा को देख उनका आदर सत्कार किया पूछा- कहिए हम आपका क्या काम करें? राजा ने कहा इस समय मैं आपसे युद्ध करने के लिए आया हूं। मेरी बहुत दिनों की अभिलाषा है, इसलिए इसे स्वीकार करके ही आप मेरा आतिथ्य कीजिए। नर और नारायण ने राजा को बहुत समझाया लेकिन जब वह उनकी बात नहीं समझ पाया तब भगवान नर ने एक मुट्ठी सींके लेकर कहा अच्छा तुम्हारी युद्ध की लालसा है तो शस्त्र उठा लो और अपनी सेना को तैयार करो।
युद्ध शुरू हुआ। जब सैनिकों ने बाण वर्षा आरंभ की नर ने एक सींक को अमोघ अस्त्र के रूप में बदलकर छोड़ा। जिससे सभी वीरों के आंख, नाक और कान सीकों से भरा देखकर राजा दम्भोद्धव उनके चरणों में गिर पड़ा और बोला मेरी रक्षा करो। तब दोनों मुनियों ने उसे समझाया तुम लोभ और अहंकार छोड़ दो। तुम किसी का अपमान मत करना। इसके बाद दम्भोद्धव उन दोनों मुनियों से माफी मांगकर नगर लौट आया।
दुर्योधन के मन में महाभारत को लेकर कोई डर नहीं था क्योंकि....
इस तरह उस समय नर ने वह काम किया था। इस समय के नर अर्जुन हैं। तुम अर्जुन की शरण ले लो। वे नारायण अर्जुन के सखा हैं। अर्जुन में अनगिनत गुण है। जो पहले नर और नारायण थे। वे आज अर्जुन और कृष्ण हैं। उन दोनों को ही तुम वीर समझो। यदि तुम मेरी बात मान लो। परशुरामजी की बात सुनकर महर्षि कण्व भी दुर्योधन से कहने लगे- ब्रह्मा और नर-नारायण - ये अक्षय और अविनाशी हैं।
अदिति के पुत्रों में केवल विष्णु ही सनातन ईश्वर है। जब संसार में प्रलय हो जाता है तो ये सभी पदार्थ तीनों लोकों को त्यागकर नष्ट हो जाते हैं। सृष्टि का आरंभ होने बार-बार उत्पन्न होते रहते हैं। इन सब बातों पर विचार करके धर्मराज युधिष्ठिर के साथ संधि कर लेना चाहिए। जिससे कौरव और पांडव मिलकर पृथ्वी का पालन कर पाएं। इन देवताओं की ओर तो तुम देख भी नहीं सकते। इसलिए इनसे विरोध छोड़कर संधि कर लो।
तुम्हे इन तीर्थस्वरूप श्रीकृष्ण के द्वारा अपने कुल की रक्षा की कोशिश करनी चाहिए। महर्षि कण्व की बात सुनकर दुर्योधन लंबी-लंबी सांसें लेने लगा। वह कर्ण की ओर देखकर जोर-जोर से हंसने लगा। उस दुष्ट ने कण्व के कथन पर कुछ भी ध्यान नहीं दिया और इस कहने लगा जो कुछ होने वाला है। उसमें मेरी गति होनी है, उसी के अनुसार ही ईश्चर ने मुझे रचा है वही मेरा आचरण है।
इसलिए हो गया दुर्योधन और श्रीकृष्ण में विवाद
इस तरह कौरव के सभी हितैषीयों ने उन्हें कई तरह से समझाया लेकिन दुर्योधन और अधिक क्रोधित हो गया। वह ये अप्रिय बातें सुनकर श्रीकृष्ण से बोला कृष्ण आपको अच्छी तरह से सोच समझकर बोलना चाहिए। आप तो पाण्डवों के प्रेम की दुहाई देकर उल्टी-सीधी बातें कहते हुए विशेष रूप से मुझे दोषी ठहरा रहे हैं। क्या आप हमेशा मेरी ही निंदा करते रहोगे। मैं देख रहा हूं कि आप सब अकेले ही मुझ पर सारा दोष लाद रहे हैं। मैंने तो सब विचारकर देख लिया मुझे तो खुद का कोई दोष नजर नहीं आता। हम जानते हैं कि पाण्डवों में हमारा सामना करने की शक्ति नहीं है। पाण्डव जूआ खेले और अपना राज्य हार गए, इसी कारण उन्हें वन में जाना पड़ा।
हम उनकी ऐसी बातों को सुनकर डरने वाले नहीं हैं। स्वधर्म का पालन करते हुए हम यदि युद्ध में काम ही आ गए तो स्वर्ग प्राप्त करेंगे। यह तो क्षत्रियों का प्रधान धर्म है। इस प्रकार यदि हमें युद्ध में वीरगति प्राप्त हुई तो कोई पछतावा नहीं होगा। मेरे जैसा वीर पुरुष तो धर्म की रक्षा के लिए केवल ब्राह्मणों का सम्मान करता हूं। मेरी बाल्यवस्था में अज्ञान व भय के कारण ही पाण्डवों को राज्य मिल गया। अब उन्हें फिर नहीं मिल सकता। दुर्योधन की बात सुनकर श्रीकृष्ण को गुस्सा आ गया।
उन्होंने कुछ देर विचारकर कहा- दुर्योधन तुम्हे वीर शैय्या की इच्छा है तो कुछ दिन मंत्रियों सहित धैर्य धारण करो। तुम्हे अवश्य वही मिलेगी और तुम्हारी यह कामना पूरी होगी। पर याद रखो बहुत जनसंहार होगा। देखो, पांडवों को वैभव से जल-भुनकर तुमने और शकुनि ने ही तो जुआ खेलने की खोटी सलाह की थी। जूआ तो भले आदमियों की बुद्धि को भ्रष्ट करने वाला है ही। तुमने द्रोपदी को सभा में बुलाकर खुल्लम-खुल्ला जैसी-जैसी अनुचित बातें कही थी, अपनी भाभी के साथ ऐसी कुचाल क्या कोई भी कर सकता है।
श्रीकृष्ण की बात सुनकर जब दु:शासन बीच में ही बोल पड़ा तो...
जिस समय भगवान कृष्ण ये सब बाते कह रहे थे। उस समय बीच में ही दु:शासन बीच में ही दुर्योधन से बोला आप यदि अपनी इच्छा से पांडवों के साथ संधि नहीं करेंगे तो मालूम होता है ये भीष्म, द्रोण और हमारे पिताजी आपको मुझे और कर्ण को बांधकर पांडवों के हाथ में सौंप देंगे। भाई की यह बात सुनकर दुर्योधन का क्रोध और भी बढ़ गया। वह सांप की तरह फुफकार मारता हुआ विदुर, धृतराष्ट्र, ब्राहीक, कृप, सोमदत, भीष्म, द्रोण और श्रीकृष्ण इन सभी का तिरस्कार कर वहां से चलने को तैयार हो गया।
उसे जाते देख उसके भाई, मंत्री और सब राजा लोग सभी छोड़कर चल दिए। तब पितामह भीष्म ने कहा राजकुमार दुर्योधन बड़ा पापी है। इसे राज्य का झूठा घमंड है। क्रोध और लोभ ने इसे दबा रखा है। मैं तो समझता हूं इन सब क्षत्रियों का काल आ गया है। इसी से मंत्रियों के सहित ये सब दुर्योधन का अनुसरण कर रहे हैं। भीष्म की ये बातें सुनकर कृष्ण ने कहा कौरवों में जो वयोवृद्ध है ये उन सभी की गलती है क्योंकि वे ऐश्वर्य के कारण दुर्योधन को कैद नहीं कर रहे हैं। इस विषय में मुझे जो बात जान पड़ती है वो मैं स्पष्ट कहता हूं। आपको यदि वह अनुकूल लगे तो कीजिएगा दुर्योधन को कैद करके पांडवों से संधि कर लीजिए। इससे सबका भला हो जाएगा। सारा कुरुवंश नष्ट होने से बच जाएगा।
महाभारत के युद्ध से पहले कुछ ऐसा था कुरुक्षेत्र का माहौल...
इसलिए भीष्म को केवल शिखण्डी ही मार सकता था...
मैंने मुर्ख, बहरे और अंधे दिखने वाले जो गुप्तचर द्रुपद के यहां तैनात कर रखे थे। उन्हीं ने मुझे ये सब बातें बताई। इस प्रकार यह द्रुपद का पुत्र महारथी शिखण्डी पहले स्त्री था और फिर पुरुष हो गया। अगर यह युद्ध के मैदान में मेरे सामने आया तो मैं न तो उसकी तरफ देख पाऊंगा नहीं बाण चला पाऊंगा। अगर भीष्म एक स्त्री की हत्या करेगा तो साधु जन उसकी निंदा करेंगे। भीष्म की यह बात सुनकर कुरुराज दुर्योधन कुछ देर तक विचार करता रहा। फिर उसे भीष्म की बात ही उचित जान पड़ी।
सफलता पर गर्व करना है तो पहले ये इत्मिनान कर लें...
जब तक फसल बिना बाधा के घर न आ जाए, तब तक सफलता न मानी जाए। इसीलिए कहा है - ‘घर आवै तब जान।’ यह बात हमारे कार्यो पर भी लागू होती है। कोई भी काम करें, जब तक अंजाम पर न पहुंच जाएं, यह बिल्कुल न मान लें कि हम सफल हो चुके हैं।
द्रोणाचार्य के मारे जाने के बाद अश्वत्थामा ने क्या किया?
अश्वत्थामा का अस्त्र क्यों नहीं दिखा पाया अर्जुन पर अपना असर?
जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......मनीष
अर्जुन की बात सुनकर राजा विराट ने कहा- पाण्डव श्रेष्ठ! मैं स्वयं तुम्हें अपनी कन्या दे रहा हूं। फिर तुम उसे अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार क्यों नहीं करते? अर्जुन ने कहा- राजन मैं बहुत समय तक आपकी क न्या को एकांत में पुत्रीभाव से देखता आया हूं। उसने भी मुझ पर पिता की तरह ही विश्वास किया। मैं नाचता था और संगीत का जानकार भी हूं। इसलिए वह मुझसे प्रेम तो बहुत करती है। सदा मुझे गुरु मानती आई है। लेकिन वह वयस्क हो गई है और उसके साथ मुझे एक वर्ष तक रहना पड़ा।
इस कारण तुम्हे या और किसी को हम पर कोई संदेह न हो। इसलिए उसे मैं अपनी पुत्रवधू के रूप में ही वरण करता हूं। ऐसा करके ही मैं शुद्ध भाव व मन को वश में रखने वाला हो सकूंगा। इससे आपकी कन्या का चरित्र भी शुद्ध समझा जाएगा। मैं निंदा और मिथ्या से डरता हूं। इसलिए उत्तरा को पुत्रवधू के ही रूप में ग्रहण करूंगा। मेरा पुत्र भी देवकुमार के समान है। वह भगवान श्रीकृष्ण का भानजा है। वह हर तरह से अस्त्रविद्या में निपुण है और तुम्हारी कन्या का पति होने के सर्वथा योग्य है।
जानिए, कैसे मिली अर्जुन को अपनी पुत्रवधू?
उसके बाद सभी ने राजकुमार उत्तर के नगर आगमन पर उनका धुम-धाम से स्वागत किया। ये सब होने के बाद तीसरे दिन पांचों पांडवों ने श्वेत वस्त्र धारण किए अपने आभुषण सहित सभाभवन में प्रवेश किया। इसके बाद राजकार्य देखने के लिए स्वयं राजा विराट वहां पधारे। जब उन्होंने पांडवों को राजासन पर बैठे देखा तो वो क्रोध से आगबबूला हो गए। उन्होंने युधिष्ठिर से कहा मैंने तुम्हे पासे जमाने के लिए नियुक्त किया था। आज तुम राजाओं की तरह सजसंवरकर सिहांसन पर कैसे बैठ गए?
राजा के मुंह पर परिहास का भाव देखकर अर्जुन ने कहा-राजन तुम्हारे सिंहासन की तो बात ही क्या ये तो इंद्र के भी आधे सिहांसन के हकदार हैं। ये स्वयं धर्मराज युधिष्ठिर हैं। तब विराट ने कहा अगर ये कुरुवंशी है इनका भाई अर्जुन कहा है भीम, नकुल, सहदेव, व द्रोपदी कहा हैं। तब अर्जुन बोले मैं ही अर्जुन हूं। आपका रसोइया बलशाली भीमसेन है। यह नकुल है जो अब तक आपके यहां घोड़ों का प्रबंध करता है। यह तो सहदेव है जो गौओं की संभाल रखता आ रहा है। यह सुंदरी जो सौरंध्री के रूप में है द्रोपदी है।
अर्जुन की बात समाप्त होने पर राजकुमार उत्तर ने भी उनका परिचय करवाया। यह सुनकर राजा विराट ने कहा-उत्तर हमें पांडवों को प्रसन्न करने का शुभ अवसर प्राप्त हुआ है। तुम्हारी राय हो तो मैं अर्जुन से कुमारी उत्तरा का ब्याह कर दूं। उत्तर बोला पाण्डव लोग सम्मान व पूजन के योग्य है हमें मौका मिला है तो इनकी सेवा जरूर करनी चाहिए। उसके बाद राजा विराट ने अर्जुन से कहा आप मेरी पुत्री उत्तरा का पाणिग्रहण करें, ये सर्वथा उसके स्वामी होने के योग्य है। विराट के ऐसा कहने पर युधिष्ठिर ने अर्जुन की ओर देखा। तब अर्जुन ने मत्स्यराज से कहा- राजन मैं आपकी कन्या को अपनी पुत्रवधू के रूप में स्वीकार करता हूं। मत्स्य और भरतवंश का यह सबंध उचित है।
क्या किया धृतराष्ट्र ने पाण्डवों का गुस्सा शांत करने के लिए?
उसके बाद पांडव उपपलव्य नाम के स्थान पर पहुंचे। इधर पांडवों के उपपलव्य तक आ जाने की खबर सुनकर धृतराष्ट्र ने संजय को सभा में बुलाकर कहा संजय लोग कहते हैं पाण्डव उपपल्वय नामक स्थान में आकर रह रहे हैं। तुम भी वहां जाकर उनकी सुध लो।
अजातशत्रु युधिष्ठिर से आदरपूर्वक मिलकर कहना-बड़े आनंद की बात है कि आप लोग अब अपने स्थान पर आ रहे हैं। उन सब लोगों से हमारी कुशल कहना और उनकी पूछना। वे वनवास के योग्य कदापि नहीं थे। फि र भी वह कष्ट उन्हें भोगना ही पड़ा। इतने पर भी उनका हम लोगों पर क्रोध नहीं है। वे वास्तव में बहुत निष्कपट और उपकार करने वाले हैं। मैंने पाण्डवों को कभी बईमानी करते नहीं देखा।
इन्होंने अपने पराक्रम से लक्ष्मी प्राप्त कर सब मेरे ही अधीन कर दी थी। सभी पांडव अजेय, वीर और साहसी हैं। उन्होंने नियमानुसार ब्रह्मचर्य का पालन किया। अत: वे अपने मन में जो भी संकल्प करेंगे, वह पूरा होकर ही रहेगा। पाण्डव श्रीकृष्ण से बहुत प्रेम रखते हैं। वे यदि संधि के लिए कुछ भी कहेंगे तो युधिष्ठिर मान लेंगे वे उनकी बात नहीं टाल सकते। संजय तुम वहां मेरी ओर से पांडवों और श्रीकृष्ण व द्रोपदी के पांच पुत्रों की भी कुशल पूछना। ऐसी बात करना जिससे भारतवंश का हित हो, परस्पर क्रोध या मनमुटाव न बढ़े तुम्हें उनसे ऐसी ही बात करनी चाहिए। राजा धृतराष्ट्र के वचन सुनकर संजय पांडवों से उपपल्वय गया।
ऐसे ललकारा पांडवों ने कौरवों को महाभारत के लिए?
संजय के पांडवों के यहां से लौटने के बाद सुबह जब दुर्योधन की सभा सजी। तब ही द्वारपाल ने दुर्योधन को जाकर सूचना दी कि संजय सभा के द्वार पर आ गए। दुर्योधन ने संजय को सभा में बुलवाया। संजय सभा में पहुंचे। उन्होने कहा कौरवगण में पांडवों के पास से आ रहा हूं।
पांडवों ने सभी को आयु के अनुसार प्रणाम किया है। संजय ने कहा वहां महाराज युधिष्ठिर की सम्मति से महात्मा अर्जुन ने जो शब्द कहे हैं दुर्योधन आप उन्हें सुन लें। उन्होंने कहा कि जो काल के गाल में जाने वाला है,मुझसे युद्ध करने की डींग हाकने वाले,उस कटुभाषी दुरात्मा कर्ण को सुनाकर कहना जिससे मंत्रियों के सहित राजा दुर्योधन उसे पूरा-पूरा सुन सके। गांडीवधारी अर्जुन युद्ध के लिए उत्सुक जान पड़ता था।
उसने आंखे लाल करके कहा- अगर दुर्योधन महाराज युधिष्ठिर का राज्य छोडऩे के लिए तैयार नहीं है तो अवश्य ही धृतराष्ट्र के पुत्रों का कोई ऐसा पापकर्म है, जिसका फल उन्हें भोगना बाकी है। साथ ही वह पांडवों के साथ युद्ध के लिए तैयार हो जाए। इससे तो पांडवों का सारा मनोरथ पूरा हो जाएगा। पांडव सभी गुणों से सम्पन्न हैं। वे बहुत दिनों से कष्ट उठाते रहने पर भी सत्य बोलते हैं और आप लोगों के कपट व्यवहार को सहन करते हैं। लेकिन जिस समय वे कौरवों पर क्रोध करेंगे तो उस समय कौरवों को युद्ध करने का जरुर पश्चाताप होगा।
क्यों कहते हैं अर्जुन और कृष्ण अर्जुन को नर और नारायण?
संजय का भाषण समाप्त होने के बाद भीष्म ने दुर्योधन से कहा- एक समय बृहस्पति, शुक्राचार्य और इंद्र आदि देवगण ब्रह्माजी के पास गए। वहां पहुंचकर सभी देवता ब्रह्माजी को घेरकर बैठ गए।
उसी समय दो प्राचीन ऋषि अपने तेज से सबके मन और तेज को हरते हुए सबको लांघकर चले गए। बृहस्पतिजी ने ब्रह्माजी से पूछा कि ये दोनों कौन हैं, जो आपकी उपासना किए बिना ही चले जा रहे हैं। तब ब्रह्माजी ने कहा ये पराक्रमी महाबली नारायण व नर ऋषि हैं। जो अपने तेज से पृथ्वी और स्वर्ग को प्रकाशित कर रहे हैं। इन्होंने अपने कर्म से संपूर्ण लोकों के आनंद को बढ़ाया है। इन्होंने अभिन्न होते हुए भी असुरों का संहार करने के लिए दो शरीर धारण किए हैं। समस्त देवता और गंधर्व इनकी पूजा करते थे।
इन्हें इस संसार में इन्द्र के सहित देवता और असुर भी नहीं जीत सकते। इनमें श्रीकृष्ण उन्हीं प्रचीन देवता नारायण व नर का रूप हैं। वस्तुत: नारायण और नर ये दो रूपों में एक ही वस्तु है। दुर्योधन जिस समय तुम शंख, चक्र व गदा धारण किए। श्रीकृष्ण को और अर्जुन को एक रथ में बैठा देखोगे तो उस समय तुम्हे मेरी बात याद आएगी। यदि तुम मेरी बात पर ध्यान नहीं दोगे तो समझ लेना कि कौरवों का अंत आ गया है। साथ ही तुम्हारा धर्म और बुद्धि भ्रष्ट हो गई है।
क्यों पांडवों से युद्ध नहीं करना चाहते थे धृतराष्ट्र?
अर्जुन का यह संदेश जब संजय ने सभी कौरवों को सुनाया, तो दुर्योधन आदि कौरव युद्ध के लिए उग्र हो गए। यह देखकर धृतराष्ट्र ने कहा एक ओर तुम सबको मिलकर समझो और दूसरी ओर अकेले भीम को। जैसे जंगल के जीव शैर से डरते हैं। वैसे ही मैं भी भीम से डरकर रातभर गर्म-गर्म सांसे लेता हुआ जागता रहता हूं। वह युद्ध करके तुम सबको मार डालेगा। उसकी याद आने पर मेरा दिल धड़कने लगता है। भीमसेन के बल को सिर्फ में ही नहीं बल्कि भीष्म, द्रोण और कृपाचार्य भी अच्छी तरह जानते हैं।
शोक तो मुझे उन लोगों के लिए है, जो पांडवों के साथ युद्ध करने पर तुले हुए हैं। विदुर ने आरम्भ में ही जो रोना रोया था, आज वही सामने आ गया। इस समय कौरवों पर विपत्ति आने वाली है। मैने ऐश्वर्य के लोभ से ही मैंने यह महापाप कर डाला था। मैं क्या करूं?और कहां जाऊं। मैं अपने सौ पुत्रों को मरते हुए देख। उनकी स्त्रियों का करुण कुंदन नहीं सुनना चाहता। युधिष्ठिर के मुंह से मैंने एक झूठी बात नहीं सुनी। अर्जुन जैसा वीर उनके पक्ष में है। रात-दिन विचार करने पर भी मुझे ऐसा कोई योद्धा दिखाई नहीं देता, जो रथयुद्ध में अर्जुन का सामना कर सके ।
दुर्योधन हार का अनुमान होने पर भी क्यों लडऩा चाहता था महाभारत?
यह सब सुनकर दुर्र्योधन ने कहा - महाराज आप डरे नहीं। हमारे विषय में कोई चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। हम काफी शक्तिमान हैं शत्रुओं को संग्राम में परास्त कर सकते हैं। जिस समय इंद्रप्रस्थ से थोड़ी ही दूरी पर वनवासी पांडवों के पास बड़ी भारी सेना के साथ श्रीकृष्ण आए थे। कैकयराज, धृष्टकेतु, धृष्टद्युम्र, और पाण्डवों के साथी अन्याय महारथी वहां शामिल हुए थे।
वे लोग कुटुम्ब सहित आपका नाश करने पर तुले हुए थे। जब यह बात मेरे कानों पर पड़ी कि श्रीकृष्ण तो युधिष्ठिर को ही राजा बनाना चाहते हैं।
ऐसी स्थिति में बताइए, हम क्या करें? उनके आगे सिर झुका दें? डरकर भाग जाएं, या प्राणों का मोह छोड़कर युद्ध में जूझे? युधिष्ठिर के साथ युद्ध करने में तो निश्चित ही हमारी पराजय होगी क्योंकि सारे राजा उन्हीं के पक्ष में हैं। मित्र लोग भी रूठे हुए हैं हमें खरी खोटी सुनाते हैं। मेरी यह बात सुनकर द्रोणाचार्य, भीष्म, कृपाचार्य ने कहा था डरो मत हम युद्ध लड़ेंगे। हममें से प्रत्येक अकेला ही सारे राजाओं को जीत सकता है। आवें तो सही हम अपने पैने बाणों से उनका सारा गर्व ठंडा कर देंगे।
महाभारत युद्ध से पहले कौरवों के लिए क्या संदेश भेजा श्रीकृष्ण ने और क्यों?
धृतराष्ट्र की युद्ध न करने की सम्मति देने के बाद दुर्योधन ने अपनी असहमति जताई। उसके बाद संजय ने श्रीकृष्ण का संदेश सुनाया- संजय बोले में बहुत सावधानी से हाथ जोड़कर श्रीकृष्ण के अंत:पुर में गया। उस स्थान में अभिमन्यु और नकुल-सहदेव भी नहीं जा सकते। वहां पहुंचने पर मैंने देखा कि श्रीकृष्ण अपने दोनों चरणों को अर्जुन की गोद में रखे हुए हैं। अर्जुन के चरण द्रोपदी व सत्यभामा की गोद में है।
उन्होंने मेरा सत्कार किया उसके बाद आराम से बैठ जाने पर मैंने हाथ जोड़कर उन्हें आपका संदेश सुनाया। इस पर अर्जुन ने श्रीकृष्ण के चरणों में प्रणाम करके उसका उत्तर देने के लिए प्रार्थना की। तब भगवान बैठ गए और बोले- संजय बुद्धिमान, धृतराष्ट्र कुरुवृद्ध भीष्म और आचार्य द्रोण से तुम हमारी ओर से यह संदेश कहना। तुम बड़ों को हमारा प्रणाम कहना और छोटो की कुशल पूछकर उन्हें यह कहना कि तुम्हारे सिर पर बड़ा संकट आ गया है, इसलिए तुम अनेक प्रकार के यज्ञों का अनुष्ठान करो, ब्राह्मणों को दान दो और स्त्री पुत्रों के साथ कुछ दिन आनंद भोग लो।
देखो, अपना चीर खींचे जाते समय द्रोपदी ने जो हे गोविन्द ऐसा कहकर मुझ द्वारकावासी को पुकारा था।उसका ऋण मेरे हृदय से दूर नहीं होता। भला जिसके साथ में हूं, उस अर्जुन से युद्ध करने की प्रार्थना! ऐसा कौन मनुष्य कर सकता है, मुझे तो ऐसी कोई रणभूमि दिखाई नहीं देती जो अर्जुन का सामना कर सके। विराटनगर में तो उसने अकेले ही कौरवों में भगदड़ मचा दी थी। वे इधर-उधर चंपत हो गए थे- यही इसका पर्याप्त प्रमाण है। बल, वीर्य, तेज अर्जुन के सिवा और किसी एक व्यक्ति में नहीं मिलते। इस प्रकार अर्जुन को उत्साहित करते हुए कृष्ण ने मेघ के समान गरजकर यह शब्द कहे थे।
कर्ण ने क्यों कर ली थी, महाभारत से पहले ही शस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा?
द्रोणाचार्य तथा अन्य सब राजा लोग भी आपके ही पास रहे, पाण्डवों को तो अपनी प्रधान सेना के सहित जाकर मैं ही मार दूंगा यह काम मेरे जिम्मे रहा। जब कर्ण इस प्रकार कह रहा था तो भीष्मजी कहने लगे-कर्ण तुम्हारी बुद्धि तो कालवश नष्ट हो गई। तुम क्या बढ़-बढ़कर बातें बना रहे हो! याद रखो, इन कौरवों की मृत्यु तो पहले तुम जैसे प्रधान वीर के मारे जाने पर ही होगी। इसलिए तुम अपनी रक्षा का प्रबंध करों। खाण्डव वन का दाह कराते समय श्रीकृष्ण के सहित अर्जुन ने जो काम किया था, उसे सुनकर ही तुम्हे अपने बंधु-बांधवों के सहित होश में आ जाना चाहिए। देखो, बाणासुर और भौमासुर का वध करने वाले श्रीकृ ष्ण अर्जुन की रक्षा करते हैं।
इस घोर संग्राम में वे तुम जैसे चुने-चुने वीरों का ही नाश करेंगे। यह सुनकर कर्ण बोला- पितामह जैसा कहते हैं, श्रीकृष्ण नि: संदेह वैसे ही हैं- बल्कि उससे भी बढ़कर हैं। लेकिन इन्होंने मेरे लिए जो कुछ कड़ी बातें कही हैं, उनका परिणाम भी ये कान खोलकर सुन लें। अब मैं अपने शस्त्र रख देता हूं। आज से मुझे पितामह रणभूमि या राजसभा में नहीं देखेंगे। बस जब आपका अंत हो जाएगा तभी पृथ्वी के सब राजा लोग मेरा प्रभाव देखेंगे। ऐसा कहकर महान धनुर्धर कर्ण सभा से उठकर अपने घर चला गया।
जब परिवार के लोग ही आपस में लड़ते हैं तो ऐसा होता है हाल....
कर्ण के सभा से चले जाने के बाद मंदमति दुर्योधन ने कहा-पितामह पांडव लोग और हम। अस्त्रविद्या, योद्धाओं के संग्रह और बल में समान ही हैं। मैं आप द्रोणाचार्य और कृपाचार्य तथा अन्य राजाओं के बल पर यह युद्ध नहीं ठान रहा हूं। पांचों पांडवों को तो मैं, कर्ण और भाई दु:शासन हम तीन ही अपने पैनें बाणों से मार डालेंगे। तब विदुर ने कहा-कोई व्यक्ति कितना ही महान न क्यों न हो? ईष्र्या और शोक उसके पास नहीं फटकना चाहिए। परिवार में लड़ाई के परिणाम हमेशा बुरे ही होते हैं।
हमारे बड़े लोग कह गए हैं किसी समय एक चिड़ीमार ने चिडिय़ों को फंसाने के लिए पृथ्वी पर जाल फैलाया। उस जाल में साथ-साथ रहने वाले दो पक्षी फंस गए। तब वे दोनों उस जाल को लेकर उड़ चले। चिड़ीमार उदास हो गया और जिधर-जिधर वे जाते, उधर-उधर ही उनके पीछे दौड़ रहा था। इतने में ही एक मुनि की उस पर दृष्टि पड़ी। मुनि ने उससे कहा अरे! व्याध मुझे तो यह बात बहुत ही विचित्र लग रही है, कि तू उड़ते पक्षियों के पीछे पृथ्वी पर भटक रहा है।
व्याध ने कहा ये दोनों पक्षी आपस में मिल गए हैं इसलिए मेरे जाल को लिए जा रहे हैं। अब जहां इनमें झगड़ा होने लगेगा। वहीं ये मेरे वश में आ जाएंगे। थोड़ी ही देर में काल के वशीभूत हुए। उन पक्षियों में झगड़ा होने लगा और वे लड़ते-लड़ते पृथ्वी पर गिर गए। बस चिड़ीमार ने चुपचाप जाल के पास जाकर दोनों को पकड़ लिया। इसी तरह जब दो कुटुंम्बियों का आपस में झगड़ा होता है तो वे शत्रुओं के चंगुल में फंस जाते हैं।
कैसे दी अर्जुन ने कौरवों को महाभारत युद्ध की चुनौती?
विदुर की बात खत्म होने के बाद धृतराष्ट्र ने कहा-दुर्योधन मैं तुमसे जो कुछ कहता हूं, उस पर ध्यान दो। तुम अनजान के समान इस समय कुर्माग को ही सुमार्ग समझ रहे हो। इसीलिए तुम पांचों पांडवों के तेज को दबाने का विचार कर रहे हो। लेकिन याद रखो, उन्हें जीतने का विचार करना अपनी जान को संकट में डालना ही है। श्रीकृष्ण अपने देह, गेह, स्त्री, कुटुंबी और राज्य को एक ओर तथा अर्जुन दूसरी ओर समझते हैं। उसके लिए वे इन सभी को त्याग सकते हैं। जहां अर्जुन रहता है, वहीं श्रीकृष्ण रहते हैं। जिस सेना में स्वयं श्रीकृष्ण रहते हैं। उसका वेग तो पृथ्वी के लिए भी असहनीय होगा। मैं भी कौरवों के ही हित की बात सोचता हूं, तुम्हें मेरी बात भी सुननी चाहिए और द्रोण, कृप, विकर्ण की बात पर भी ध्यान देना चाहिए। अत: तुम तुम पांडवों को अपने सगे भाई समझकर उन्हें आधा राज्य दे दो। दुर्योधन से ऐसा कहने के बाद धृतराष्ट्र ने संजय से कहा अब जो बात सुनानी रह गई हैं वह भी कह दो। श्रीकृष्ण के बाद अर्जुन ने तुमसे क्या कहा था? उसे सुनने के लिए मुझे बड़ा कौतूहल हो रहा है।
संजय ने कहा- श्रीकृष्ण की बात सुनकर कुंतीपुत्र अर्जुन ने उनके सामने ही कहा-संजय तुम पितामह भीष्म, महाराज धृतराष्ट्र द्रोणाचार्य, कृ पाचार्य, कर्ण, अश्वत्थामा, सोमदत, शकुनि, दु:शासन, विकर्ण और वहां उपस्थित समस्त राजाओं से मेरा यथायोग्य अभिवादन कहना। मेरी ओर से उनकी कुशल पूछना और पापात्मा दुर्योधन उसके मंत्री और वहां आए हुए सब राजाओं को श्रीकृष्ण का समाधानयुक्त संदेश सुनाकर मेरी ओर से भी इतना कहना कि महाराज युधिष्ठिर जो अपना भाग लेना चाहते हैं, वह यदि तुम नहीं दोगे तो मैं अपने तीखे तीरों से तुम्हारे घोड़े, हाथी और पैदल सेना के सहित तुम्हे यमपुरी भेज दूंगा महाराज इसके बाद मैं अर्जुन से विदा होकर और श्रीकृष्ण को प्रणाम करके उनका गौरवपूर्ण संदेश आपको सुनाने के लिए तुरंत ही यहां चला आया।
महाभारत से पहले गांधारी और धृतराष्ट्र दुर्योधन को क्या समझाना चाहते थे?
श्रीकृष्ण और अर्जुन की इन बातों का दुर्योधन ने कुछ भी आदर नहीं किया। सब लोग चुप ही रहे। फिर वहां जो देश-देशान्तर नरेश बैठे थे, वे उठकर अपने-अपने डेरों को चले गए। इस एकांत के समय धृतराष्ट्र ने संजय से पूछा तुम्हें तो दोनों पक्षों के बल का ज्ञान है, यूं भी तुम धर्म और अर्थ का रहस्य अच्छी तरह जानते हो और किसी भी बात का परिणाम तुमसे छिपा नहीं है इसलिए तुम ठीक-ठीक बताओ कि इन दोनों पक्षों में कौन सबल है और कौन निर्बल ? संजय ने कहा मैं आपको कोई भी बात बताना नहीं चाहता, क्योंकि इससे आपका दिल दुखेगा।
आप भगवान व्यास और महारानी गांधारी को भी बुला लीजिए। उन दोनों के सामने मैं आपको श्रीकृष्ण और अर्जुन का पूरा-पूरा विचार सुना दूंगा। संजय के इस तरह कहने पर गांधारी और व्यासजी को बुलाया गया और विदुरजी तुरंत ही उन्हें सभा में ले आए। तब गांधारी ने कहा महामुनि व्यासजी राजा धृतराष्ट्र तुम से प्रश्र कर रहे हैं। इनकी आज्ञा के अनुसार तुम श्रीकृष्ण और अर्जुन के विषय में जो कुछ जानते हों, वह सब ज्यों का त्यों सुना दो। तब संजय ने कहा श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनों ही बहुत सम्मानित धनुर्धर हैं। श्रीकृष्ण का चक्र का भीतर का भाग पांच हाथ चौड़ा है और वे उसका इच्छानुसार प्रयोग कर सकते हैं। नरकासुर, शंबर, कंस और शिशुपाल ये बड़े भयंकर वीर थे। भगवान कृष्ण ने इन्हें खेल ही में मार दिया। मैं सच कहता हूं एकमात्र वे काल, मृत्यु और सम्पूर्ण जगत के स्वामी है।
धृतराष्ट्र ने पूछा- संजय श्रीकृष्ण समस्त लोकों के स्वामी हैं ये तुम कैसे जानते हो ? तब संजय ने कहा आपको ज्ञान नहीं है। मेरी ज्ञान की दृष्टि कभी मंद नहीं पड़ती। जो पुरुष ज्ञानहीन है, वह श्रीकृष्ण के वास्तवीक स्वरूप को नहीं जान सकता। यह बातें सुनकर धृतराष्ट्र ने दुर्योधन से कहा संजय हमारे हितैषी और विश्वासपात्र है। इसलिए तुम इनकी बात मान लो। तब दुर्योधन ने कहा भगवान श्रीकृष्ण भले ही तीनों लोकों का संहार कर डालें, किंतु जब वे अपने को अर्जुन का सखा घोषित कर चुके हैं तो मैं उनकी शरण में नहीं जा सकता। तब धृतराष्ट्र ने गांधारी से कहा देखो तुम्हारा अभिमानी पुत्र ईष्र्या के कारण सत्पुरुषों की बात नहीं मान रहा है।गांधारी ने कहा दुर्योधन तू बड़ा ही दुष्ट बुद्धि और मुर्ख है। तू ऐश्वर्य के लोभ में फंसकर अपने बड़ो की आज्ञा का उल्लंघन कर रहा है। मालूम होता है अब तू अपने ऐश्वर्य,जीवन, पिता, सभी से हाथ धो लेगा।
जानिए, कृष्ण के कुछ ऐसे नाम और उनके अर्थ जो आपको शायद ही पता हो
व्यासजी ने धृतराष्ट्र से कहा तुम मेरी बात सुनो। तुम श्रीकृष्ण के प्यारे हो। तुम्हारा संजय जैसा दूत है। जो तुम्हे कल्याण के मार्ग पर ले जाएगा। यदि तुम संजय की बात सुनोगे तो यह तुम्हे जन्म-मरण सबके भय से मुक्ति दिलवाएगा। तुम्हे क ल्याण और स्वर्ग के मार्ग पर ले जाएगा। जो लोग कामनाओं में अंधे के समान अपने कर्मों के अनुसार बार-बार मृत्यु के मुख में जाते हैं। तब धृतराष्ट्र ने संजय से पूछा- तुम मुझे कोई निर्भय मार्ग बताओ, जिससे चलकर मैं श्रीकृष्ण को पा सकूं और मुझे परमपद पाप्त हो जाए। संजय ने कहा-अजितेन्द्रिय भगवान को प्राप्त करने के लिए इंद्रियों पर जीत जरूरी है। इन्द्रियों पर निश्चल रूप से काबू रखना इसी को विद्वान लोग ज्ञान कहते हैं।
धृतराष्ट्र ने कहा- संजय तुम एक बार फिर श्रीकृष्णचंद्र के स्वरूप वर्णन करो, जिससे कि उनके नाम और कर्मों का रहस्य जानकर मैं उन्हें प्राप्त कर सकूं। संजय ने कहा- मैंने श्रीकृष्ण के कुछ नामों की व्युत्पति सुनी है। उसमें से जितना मुझे स्मरण है। वह सुनाता हूं। श्रीकृष्ण तो वास्तव में किसी प्रमाण के विषय नहीं है। समस्त प्राणियों को अपनी माया से आवृत किए रहने और देवताओं के जन्मस्थान होने के कारण वे वासुदेव हैं। व्यापक तथा महान होने के कारण माधव है। मधु दैत्य का वध होने के कारण उसे मधुसूदन कहते हैं। कृष धातु का अर्थ सत्ता है और ण आनंद का वाचक है। इन दोनों भावों से युक्त होने के कारण यदुकुल में अवर्तीण हुए श्रीविष्णु कृष्ण कहे जाते हैं। आपका नित्य आलय और अविनाशी परमस्थान हैं, इसलिए पुण्डरीकाक्ष कहे जाते हैं। दुष्टों के दमन के कारा जनार्दन है। इनमें कभी सत्व की कमी नही होती इसलिए सातत्व हैं। उपनिषदों से प्रकाशित होने के कारण आप आर्षभ हैं। वेद ही आपके नेत्र हैं इसलिए आप वृषभक्षेण हैं। आप किसी भी उत्पन्न होने वाले प्राणी से उत्पन्न नहीं होते इसलिए अज है। उदर- इंद्रियोके स्वयं प्रकाशक और दाम -उनका दमन करने वाले होने से आप दामोदर है। हृषीक, वृतिसुख और स्वरूपसुख भी कहलाते हैं।
ईश होने से आप हृषीकेश कहलाते है। अपनी भुजाओं से पृथ्वी और आकाश को धारण करने वाले होने से आप दामोदर है। अपनी भुजाओं से पृथ्वी और आकाश को धारण करने वाले होने से आप महाबाहु हैं।आप कभी अध: क्षीण नहीं होते, इसलिए अधोक्षज है। नरो के अयन यानी आश्रय होने के कारण उन्हें नारायण कहा जाता है। जो सबसे पूर्ण और सबका आश्रय हो, उसे पुरुष कहते है। उनमें श्रेष्ठ होने से उत्पति को पुरुषोत्तम हैं। आप सत और असत सबकी उत्पति और ल के स्थान हैं तथा सर्वदा उन सबको जानते हैं, इसलिए सर्व हैं। श्रीकृ ष्ण सत्य में प्रतिष्ठित हैं और सत्य से भी सत्य है। वे पूरे विश्व में प्याप्त है इसलिए विष्णु हैं, जय करने के कारण विष्णु हैं नित्य होने के कारण अनंत हैं और गो इंद्रियो के ज्ञाता होने से गोविंद है।
इसलिए कृष्ण ने किया कौरवों के पास जाने का फैसला.....
धृतराष्ट्र बोले -संजय जो लोग अपने नेत्रों से भगवान के तेजोमय दिव्य विग्रह के दर्शन करते हैं। उन आंख वाले लोगों जैसे भाग्य की मुझे भी लालसा होती है। जिन्होंने तीनों लोकों की रचना की, जो देवता, असुर, नाग और राक्षस सभी की उत्पति करने वाले हैं। मैं उन भगवान श्रीकृष्ण की शरण में हूं।
इधर संजय के चले जाने पर राजा युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण से कहा- कृष्ण मुझे आपके अलावा कोई ऐसा नहीं दिखाई देता जो हमें आपत्ति से बाहर निकाल सके। आपके भरोसे ही हम बिल्कुल निर्भय हैं, और दुर्योधन से अपना भाग मांगना चाहते हैं। श्रीकृष्ण ने कहा- राजन मैं तो आपकी सेवा में उपस्थित ही हूं। आप जो कुछ कहना चाहें, वह कहिए। आप जो-जो आज्ञा करेंगे, वह सब मैं पूर्ण करूंगा।
युधिष्ठिर ने कहा- राजा धृतराष्ट्र और उनके पुत्र जो कुछ करना चाहते हैं, वह तो आपने सुन ही लिया। संजय ने हमसे जो कुछ कहा है वह सब उन्हीं का मत है। राजा धृतराष्ट्र को राज्य का बड़ा लोभ है। वे धर्म का कुछ भी विचार नहीं कर रहे हैं। अपने मुर्ख पुत्र के मोहपाश में फंसे होने के कारण उसी की आज्ञा बजाना चाहते हैं। हमारे साथ तो उनका बिल्कुल बनावटी बर्ताव है। जरा सोचिए तो, इससे बढ़कर दुख की क्या बात होगी कि मैं न तो माता की सेवा कर सकता हूं और न सगे संबंधियों की। वे लोग जन्म से ही निर्धन है। उन्हें उतना कष्ट नहीं जान पड़ता जितना कि लक्ष्मी पाकर सुख में पले हुए लोगों का धन का नाश होने पर होता है। महाराज युधिष्ठिर की पूरी बात सुनकर श्रीकृष्ण ने कहा मैं दोनों पक्षों के हित के लिए कौरवों की सभा में जाऊंगा और यदि वहां आपके लाभ में किसी तरह की बाधा न पहुंचाते हुए संधि करा सकूंगा तो समझूंगा मैंने बहुत पुण्य का काम कर दिया।
भीम महाभारत का युद्ध नहीं लडऩा चाहते थे क्योंकि...
भीमसेन ने कहा आप कौरवों से ही बातें करें, ताकि वे संधि करने को तैयार हो जाएं, उन्हें युद्ध की बात सुनाकर भयभीत न करें। दुर्योधन बड़ा ही असहनशील और क्रोधी है। वह मर जाएगा लेकिन अपने घुटने नहीं टेकेगा। इस समय हम कुरुवंशियों के संहार का समय आया है। इसी से काल की गति पापात्मा दुर्योधन उत्पन्न हुआ है। इसलिए आप जो कुछ कहें, मधुर और कोमल वाणी में धर्म और अर्थ हित की ही बात कहें। हम सब तो दुर्योधन के नीचे रहकर बड़ी विनम्र्रतापूर्वक उसका अनुसरण करने को भी तैयार हैं, हम नहीं चाहते कि हमारे कारण भरतवंश का नाश हो।
वैशम्पायनजी कहते हैं- राजन भीमसेन के मुख से भी किसी ने नम्रता बाते नहीं सुनी थी। इसलिए उनकी ये बातें सुनकर श्रीकृष्ण हंस पड़े। भीमसेन को उतेजित करते हुए कहने लगे तुम पहले तो धृतराष्ट्रपुत्रों को कुचलने की इच्छा मन में हमेशा रखते थे। तुमने भाइयों के बीच गदा उठाकर प्रतिज्ञा भी की। लेकिन अब मुझे लगने लगा है कि तुम इस युद्ध को जीतने से पहले ही हार गए हो।
क्यों कहा कृष्ण ने मैं बनूंगा अर्जुन का सारथि?
यह सुनकर भीमसेन ने कहा-वासुदेव मैं तो कुछ और ही कहना चाहता हूं, किंतु आप दुसरी ही बात समझ गए। मेरा बल दूसरे पुरुषों से समानता नहीं रखता।लेकिन आपने मेरे पुरुषार्थ की निंदा की है। इसलिए मुझे अपने बल का वर्णन करना ही पड़ेगा।उसके बाद भीमसेन ने अपने बल का वर्णन किया। श्रीकृष्ण ने कहा मैंने भी तुम्हारा भाव जानने के लिए प्रेम से ही ये बातें कहीं हैं।
मैं तुम्हारे प्रभाव और पराक्रम को अच्छे से जानता हूं। इसलिए तुम्हारा तिरस्कार नहीं कर सकता। अब कल धृतराष्ट्र के पास जाकर आप लोगों के बीच संधि का प्रयास करूंगा। ऐसा करने से आप लोगों का काम हो जाएगा और उन लोगों का हम पर बड़ा भारी उपकार होगा। लेकिन अगर उन्होंने अभिमानवश मेरी बात नहीं मानी तो हमें फिर युद्ध जैसा भयंकर कर्म करना ही होगा। भीमसेन इस युद्ध का सारा भार तुम्हारे ही ऊपर रहेगा या लोग तुम्हारी आज्ञा में रहेंगे। युद्ध हुआ तो मैं अर्जुन का सारथि बनूंगा। अर्जुन की भी ऐसी ही इच्छा है।
द्रोपदी भी चाहती थी महाभारत का युद्ध हो क्योंकि....
अर्जुन ने कहा श्रीकृष्ण,जो कुछ कहना था वह तो महाराज युधिष्ठिर कह चुके हैं। लेकिन आपकी बातंय सुनकर मुझे ऐसा लग रहा है कि धृतराष्ट्र के लोभ और मोह के कारण आप संधि होना सहज नहीं समझते। लेकिन यदि कोई काम ठीक रीति से किया जाता है तो सफल भी हुआ जा सकता है। इसलिए आप कुछ ऐसा करें कि शत्रुओं से संधि हो जाए।
आप जो उचित समझें और जिसमें पाण्डवों का हित हो, वही काम जल्दी आरंभ कर दीजिए। हमें आगे जो कुछ करना हो, वह भी बता दें। श्रीकृष्ण ने कहा- अर्जुन तुम जो कुछ कह रहे हो ठीक है। मैं भी वही काम करूंगा। दुर्योधन धर्म और लोक दोनों ही को तिलांजली देकर स्वेच्छाचारी हो गया है। ऐसे कर्मों से उसे पश्चाताप भी नहीं होता। उसके सलाहकार भी कुमति को बढ़ावा देने वाले हैं। नकुल ने कहा- धर्मराज ने आपसे कई बातें कहीं हैं। वे सब आपने सुन ही ली हैं।
भीमसेन ने भी संधि के लिए कहकर फिर अपना बाहुबल भी आपको सुना दिया। श्रीकृष्ण ये तो हम और आप दोनों ही जानते हैं कि वनवास और अज्ञातवास के समय हमारा विचार दूसरा था और अब दूसरा है। वन में रहते समय हमारा राज्य में अनुराग नहीं था। आप कौरवों की सभा में जाकर पहले तो संधि की ही बात करें, फिर युद्ध की धमकी दें। मुझे लगता है आपके कहने पर भीष्म और विदुर आदि दुष्ट दुर्योधन को ये बात समझा पाएंगे कि संधि कर लेना ही उसके लिए अच्छा है।
सहदेव ने कहा- महाराज ने जो बात कही है, वह तो सनातन धर्म ही है, लेकिन आप तो ऐसा प्रयत्न करें जिससे युद्ध ही हो। यदि कौरव लोग संधि करना चाहें तो भी आप उनके साथ युद्ध होने का ही रास्ता निकालें। सात्य ने कहा- महामति सहदेव ने बहु्रत ठीक कहा है इनका और मेरा कोप तो दुर्योधन का वध करके ही शांत होगा। सात्य कि के ऐसा कहते ही वहां बैठे हुए सब योद्धा भयंकर सिंहनाद करने लगे।
तभी द्रोपदी ने सहदेव और सात्य की प्रशंसा कर रोते हुए कहा- धर्मज्ञ मधुसूदन! दुर्योधन ने जिस क्रुरता से पांडवों को राजसुख से वंचित किया है वह तो आपको मालूम ही है। संजय को राजा धृतराष्ट्र ने एकांत में आपको जो अपना विचार सुनाया है वो भी आप अच्छी तरह जानते हैं। पांडव लोग दुर्योधन का रण में ही अच्छे से मुकाबला कर सकते हैं।
द्रोपदी के आंसुओं को देखकर श्रीकृष्ण ने क्या प्रतिज्ञा की?
इसके बाद द्रोपदी अपने बालों को बाएं हाथ में लिए कृष्ण के पास आई। नेत्रों में जल भरकर उनसे कहने लगी- कमलनयन श्रीकृष्ण! शत्रुओं से संधि करने की तो इच्छा है, लेकिन अपने इस सारे प्रयत्न में आप दु:शासन के हाथों से खींचे हुए इन बालों को याद रखें। अगर भीम और अर्जुन और कायर होकर आज की संधि के लिए ही उत्सुक हैं तो अपने महारथी सहित मेरे वृद्ध पिता और पुत्र कौरवों से संग्राम करेंगे। मैंने दु:शासन को अगर मरते न देखा तो मेरी छाती ठंडी कैसे होगी। इतना कहते हुए द्रोपदी का गला भर आया। तब श्रीकृष्ण ने कहा तुम शीघ्र ही कौरव की स्त्रियों को रुदन करते देखोगी। आज जिन पर तुम्हारा क्रोध है। उनकी स्त्रियां भी इसी तरह रोएंगी।
महाराज युधिष्ठिर की आज्ञा से भीम, अर्जुन और नकुल-सहदेव के सहित मैं भी ऐसा ही काम करुंगा। यदि काल के वश में पड़े धृतराष्ट्रपुत्र मेरी बात नहीं सुनेंगे तो निश्चय ही मानों की चाहे प्रलय आ जाए लेकिन मेरी कोई बात झूठी नहीं हो सकती। तुम अपने आसुंओं को रोको, मैं सच्ची प्रतिज्ञा करके कहता हूं अगर धृतराष्ट्र ने मेरी बात नहीं मानी तो तुम शीघ्र ही शत्रुओं के मारे जाने से अपने पतियों को श्री सम्पन्न देखोगी। अर्जुन ने कहा- श्रीकृष्ण इस समय सभी कुरूवंशियों के आप ही सबसे बड़े सहृदय हैं। आप दोनों ही पक्षों के संबंधी और प्रिय हैं। इसलिए पांडवों के साथ कौरवों की संधि आप ही करा सकते हैं।
श्रीकृष्ण हस्तिनापुर जाने लगे तो कौन से शकुन व अपशकुन हुए?
श्रीकृष्ण बोलते हैं, मैं वहां जाकर ऐसी बात कहूंगा, जो धर्म के अनुकूल होगी और जिनसे हमारा और कौरवों का हित होगा। उसके बाद श्रीकृष्ण हस्तिनापुर जाने की तैयारी करने लगे। उस समय उन्होंने अपने पास बैठे सात्य से कहा कि तुम मेरे शंख, चक्र, गदा, तरकस आदि सब रथ में रख दो। कृष्ण का रथ सजाया गया।
कृष्णजी ने अपने चार घोड़ों शैव्य, सुग्रीव, मेघपुष्प और बलाहक इन सभी को नहला-धुलाकर रथ में जोता। उस रथ की ध्वजा पर गरुड़ विराजमान हुए। तब उन्होंने हस्तिनापुर के लिए प्रस्थान किया। श्रीकृष्ण जब हस्तिनापुर के लिए चले तब पूर्व दिशा की ओर बहने वाली छ: नदियां और समुद्र- ये उल्टे बहने लगे। सब दिशाएं ऐसी अनिश्चित हो गई कि कुछ पता ही न लगता था। मार्ग में जहां श्रीकृष्ण चलते थे। वहां बड़ा सुखप्रद वायु चलती। शकुन भी अच्छे ही होते थे।
इस तरह वे अनेक राष्ट्रो को लांघते हुए शालियवन नामक स्थान पर पहुंचे। इधर जब दूतों के द्वारा राजा धृतराष्ट्र को पता लगा कि श्रीकृष्ण आ रहे हैं तो उन्होंने मंत्रियों और भीष्म, द्रोण, संजय और दुर्योधन से कहा-पाण्डवों के काम से हमसे मिलने के लिए श्रीकृष्ण आ रहे हैं। उनके सत्कार की तैयारी की जाए। तुम उनके स्वागत सत्कार की जमकर तैयारियां करो। रास्ते में सब प्रकार की आवश्यक सामग्री से सम्पन्न विश्राम स्थान बनाओ।
दुर्योधन श्रीकृष्ण को कैद क्यों कर लेना चाहता था?
सभी उनके स्वागत की तैयारियां पूरी करने में लग गए। दुर्योधन से सभी तैयारियां पूर्ण होने की सुचना मिलने पर धृतराष्ट्र ने विदुर से कहा श्रीकृष्ण कल सुबह हस्तिनापुर आ जाएंगे। तुम जानते हो की कृष्ण के दर्शन सैकड़ों सूर्य के दर्शन के समान है।इसलिए जितनी भी प्रजा है उन्हें श्रीकृष्ण के दर्शन करने चाहिए। विदुर ने कहा मैं श्रीकृष्ण की महिमा जानता हूं, उन्हे पांडवों से बहुत अनुराग है।
आप किसी भी तरह कृष्ण को अपनी ओर नहीं कर पाएंगे। दुर्योधन बोला- पिताजी विदुरजी ने जो कुछ कहा है ठीक ही कहा है। श्रीकृष्ण का पांडवों की प्रति बहुत प्रेम है। उन्हें उनके विपक्ष मे कोई नहीं ला सकता। इसलिए आपके सारे प्रयास व्यर्थ हैं। भीष्म बोले श्रीकृष्ण ने अपने मन में जो भी निर्णय ले लिया है। उसे आप और मैं कभी नहीं बदल सकते हैं। दुर्योधन ने कहा- पितामह जब तक मेरे शरीर में प्राण हैं तब तक मैं इस राजलक्ष्मी को पांडवों के साथ बांटकर नही भोग सकता।
मैंने विचार किया है कि मैं पाण्डवों के पक्षपाती कृष्ण को कैद कर लूं। उन्हें कैद करने से समस्त यादव और सारी पृथ्वी के साथ ही पांडव भी मेरे अधीन हो जाएंगे। यह बात सुनकर धृतराष्ट्र और उनके मंत्रियों को भयंकर झटका लगा। उन्होंने दुर्योधन से कहा-बेटा तू अपने मुंह से ऐसी बातें ना निकाल। यह सनातन धर्म के विरूद्ध है। कृष्णजी यहां दूत बनकर आ रहे हैं और दूत को कैद नहीं किया जाता है।
श्रीकृष्ण ने दुर्योधन क्यों नहीं बने दुर्योधन के मेहमान?
सुबह श्रीकृष्ण हस्तिनापुर पहुंचे। श्रीकृष्ण के सम्मान के लिए सारा नगर खूब सजाया गया था। श्रीकृष्ण ने भीड़ के बीच से राजभवन में प्रवेश किया। उन्हें लांघकर श्रीकृष्ण धृतराष्ट्र के पास पहुंचे। अतिथि सत्कार हो जाने पर धर्मज्ञ विदुरजी ने भगवान से पांडवों की कुशल पूछी। विदुरजी पांडवों के प्रेमी तथा धर्म और अर्थ में तत्पर रहने वाले हैं। कृष्णजी ने कहा पांडव लोग जो भी बात कौरवों तक पहुंचाना चाहते थे। वे सब बातें उन्होंने विदुरजी को विस्तार से सुना दी। इसके बाद दोपहरी बीत जाने पर भगवान कृष्ण अपनी बुआ कुंती के पास गए।
श्रीकृष्ण को आए देख वह उनके गले से लगकर अपने पुत्रों को याद कर रोने लगी। तब श्रीकृष्ण ने उन्हें समझाते हुए कहा आपकी पुत्रवधू द्रोपदी और सभी पांडव कुशल हैं, आप चिंता न करें। ऐसा दिलासा देकर श्रीकृष्ण दुर्योधन के महल को चले गए। श्रीकृष्ण के पहुंचते ही दुर्योधन अपने मंत्रियों सहित आसन पर खड़ा हो गया। भगवान दुर्योधन और उसके मंत्रियों से मिलकर फिर वहां एकत्रित हुए। सब राजाओं से उनकी आयु के अनुसार मिले। इसके बाद दुर्योधन ने उनसे भोजन ग्रहण करने कि प्रार्थना की। लेकिन कृष्ण ने उसका आग्रह स्वीकार नहीं किया।
तब दुर्योधन ने कहा मैं आपको अच्छी-अच्छी चीजें भेंट कर रहा हूं। आप स्वीकार क्यों नहीं कर रहे हैं? आपने तो दोनों ही पक्षों की सहायता की है। इसके अलावा आप महाराज धृतराष्ट्र के भी प्रिय है। दुर्योधन के ऐसा पूछने पर कृष्णजी ने गंभीर वाणी में कहा- ऐसा नियम है कि दूत को उद्देश्य पूर्ण होने से पहले भोजन आदि ग्रहण नहीं करना चाहिए। जब मेरा काम पूरा हो जाएगा तब ही मैं कुछ ग्रहण करूंगा। जब मेरा काम पूरा हो जाए तब तुम भी मेरा और मेरे मंत्रियों का सत्कार करना।
महाभारत से पहले श्रीकृष्ण ने ऐसे की थी युद्ध को रोकने की कोशिश...
दूसरे दिन सुबह उठकर श्रीकृष्ण ने स्नान, जप और अग्रिहोत्र से निवृत होने के बाद सूर्य का पूजन किया आभूषण आदि धारण किए। उसके बाद वे राज्यसभा में पहुंचे। धृतराष्ट्र, भीष्म आदि भी सभा में आ गए। जब सभा में सभी राजा मौन होकर बैठ गए तो श्रीकृष्ण ने महाराज धृतराष्ट्र की तरह देखते हुए बड़ी गंभीर वाणी में कहा। मेरा यहां आने का उद्देश्य यह है कि क्षत्रिय वीरों का संहार हुए बिना ही कौरव और पांडवों में संधि हो जाए। इस समय राजाओं में कुरुवंश ही सबसे श्रेष्ठ माना जाता है।
इसमें शास्त्र और सदाचार का सम्यक आदर है तथा अनेकों शुभ गुण है। राज्यवंशों की अपेक्षा कुरुवंशियों में कृपा, दया, करुणा, मृदुता, सरलता क्षमा और सत्य विशेष रूप से पाए जाते हैं। यदि कौरव गुप्त या प्रकटरूप से कोई असद्व्यवहार करते हैं तो उसे रोकना आप ही का काम है। दुर्योधनादि आपके पुत्र धर्म और अर्थ की ओर से मुंह फेरकर क्रूर पुरुषों सा आचरण करते हैं। यह भयंकर आपत्ति इस समय कौरवों पर ही आई है। यदि इसकी उपेक्षा की गईं तो यह सारी पृथ्वी चौपट कर देगी।
यदि आप अपने कुल को नाश से बचाना चाहें तो अब भी इसका निवारण किया जा सकता है। मेरे विचार से दोनों पक्षों में संधि होनी बहुत कठिन नहीं है। इस समय शांति और समझौता करवाना मेरे हाथों में है। आप अपने पुत्रों को मर्यादा में रखें में पांडवों को मैं नियम में रखूंगा। आपके पुत्रों को आपकी आज्ञा में रहना चाहिए। महाराज! आप पांडवों की रक्षा में रहकर धर्म का अनुष्ठान कीजिए।
आपको ऐसे रक्षक प्रयत्न करने पर भी नहीं मिल सकते। कौरव और पांडवों के मिल जाने से आप समस्त लोकों का आधिपत्य प्राप्त कर सकेंगे। महाराज युद्ध करने में मुझे बहुत संहार दिखाई दे रहा है। इस प्रकार दोनों पक्षों का नाश कराने में आपको क्या धर्म दिखाई देता है। आप इस लोक की रक्षा कीजिए और ऐसा कीजिए, जिसमें आपकी प्रजा का नाश न हो। यदि आप सत्वगुण धारण कर लेंगे तो सबकी रक्षा हो जाएगी।
महाभारत से पहले कृष्ण ने पांडवों के ओर से ऐसे की थी शांति की पहल....
कृष्णजी ने आगे कहा मैं अब आपको पांडवों का संदेश सुनाता हूं। महाराज!पाण्डवों ने आपको प्रणाम कहा है और आपकी प्रसन्नता चाहते हुए, यह प्रार्थना की है कि हमने अपने साथियों के सहित आपकी आज्ञा से ही इतने दिनों तक दुख भोगा है। हम बाहर वर्ष तक वन में रहे हैं और फिर तेहरवां वर्ष जनसमूह में अज्ञातरूप से रहकर बिताया है।
वनवास की शर्त होने के समय हमारा यही निश्चय था कि जब हम लौटेंगे तो आप हमारे ऊपर पिता की तरह रहेंगे। हमने उस शर्त का पूरी पालन किया है, इसलिए अब आप भी जैसा वादा था, वैसा ही निभाइए। हमें अब अपने राज्य का भाग मिल जाना चाहिए। आप धर्म और अर्थ का स्वरूप जानते हैं। इसलिए आपको हमारी रक्षा करनी चाहिए। गुरु के प्रति शिष्य का जैसा गौरवयुक्त व्यवहार होना चाहिए।
आपके साथ हमारा वैसा ही बर्ताव है। इसलिए आप भी हमारे प्रति गुरु का सा आचरण कीजिए। हम लोग यदि मार्गभ्रष्ट हो रहे हैं तो आप हमें ठीक रास्ते पर लाइए और खुद भी सन्मार्ग पर स्थित हो जाइए। इसके अलावा आपके उन पुत्रों ने सभासद् से कहलाया है कि जहां धर्मज्ञ सभासद् हों, वहां कोई अनुचित बात नहीं होनी चाहिए। यदि सभासदो के देखते हुए अधर्म से धर्म का और असत्य से सत्य का नाश हो तो उनका भी नाश हो जाता है। इस समय पांडव लोग धर्म पर दृष्टि लगाए बैठे हैं। उन्होंने धर्म के अनुसार सत्य और न्याययुक्त बात ही कही है। राजन् आप पाण्डवों को राज्य दे दीजिए- इसके सिवा आपसे और क्या कहा जा सकता है? इस सभा में जो राजालोग बैठे हैं। उन्हें कोई और बात कहनी हो तो कहें। यदि धर्म और अर्थ का विचार करके मैं सच्ची बात कहूं तो यही कहना होगा कि इन क्षत्रियों को आप मृत्यु के फंदे से छुड़ा दीजिए। ऐसा करके आप अपने पुत्रों के सहित आनन्द से भोग भोगिए।
इस समय आपने अर्थ को अनर्थ और अनर्थ को अर्थ मान रखा है। आपके पुत्रों पर लोभ ने अधिकार जमा रखा है।पाण्डव तो आपकी सेवा के लिए भी तैयार है। युद्ध करने के लिए भी तैयार हैं इन दिनों में आपको जो बात अधिक हितकर जान पड़े, उसी पर डट जाइए। जब भगवान कृष्ण ने ये सब बातें कहीं तो सभी सभासदों को रोमांच हो आया और वे चकित से हो गए। वे मन ही मन तरह से तरह से विचार करने लगे। उनके मुंह से कोई भी उत्तर नहीं निकला। सब राजाओं को इस प्रकार मौन हुआ देख सभा में उपस्थित परशुरामजी कहने लगे। तुम सब प्रकार का संदेह छोड़कर मेरी एक सत्य सुनो.
घमंड करने का यही परिणाम होता है क्योंकि...
दम्भोद्धव नाम का एक राजा था। वह महारथी सम्राट था। वह सभी ब्राह्मण और क्षत्रियों से पूछा करता था कि क्या ब्राह्मण क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रो में कोई ऐसा शस्त्रधारी है जो युद्ध में मेरे समान या मुझसे बढ़कर हो? इस तरह कहते हुए वह राजा बहुत घमंड में पूरी पृथ्वी पर घूमता था।
राजा का ऐसा घमंड देखकर एक ब्राह्मण ने बोला इस पृथ्वी पर ऐसे दो ही सत्पुरुष है जो तुम्हे पराजित कर सकते हैं। उनका नाम नर और नारायण है। वे इस समय मनुष्य लोक में आए हुए हैं। राजा को यह बात सहन नहीं हुई।
वह उसी समय बड़ी भारी सेना सजाकर नर और नारायण के पास गया। मुनियों ने राजा को देख उनका आदर सत्कार किया पूछा- कहिए हम आपका क्या काम करें? राजा ने कहा इस समय मैं आपसे युद्ध करने के लिए आया हूं। मेरी बहुत दिनों की अभिलाषा है, इसलिए इसे स्वीकार करके ही आप मेरा आतिथ्य कीजिए। नर और नारायण ने राजा को बहुत समझाया लेकिन जब वह उनकी बात नहीं समझ पाया तब भगवान नर ने एक मुट्ठी सींके लेकर कहा अच्छा तुम्हारी युद्ध की लालसा है तो शस्त्र उठा लो और अपनी सेना को तैयार करो।
युद्ध शुरू हुआ। जब सैनिकों ने बाण वर्षा आरंभ की नर ने एक सींक को अमोघ अस्त्र के रूप में बदलकर छोड़ा। जिससे सभी वीरों के आंख, नाक और कान सीकों से भरा देखकर राजा दम्भोद्धव उनके चरणों में गिर पड़ा और बोला मेरी रक्षा करो। तब दोनों मुनियों ने उसे समझाया तुम लोभ और अहंकार छोड़ दो। तुम किसी का अपमान मत करना। इसके बाद दम्भोद्धव उन दोनों मुनियों से माफी मांगकर नगर लौट आया।
दुर्योधन के मन में महाभारत को लेकर कोई डर नहीं था क्योंकि....
इस तरह उस समय नर ने वह काम किया था। इस समय के नर अर्जुन हैं। तुम अर्जुन की शरण ले लो। वे नारायण अर्जुन के सखा हैं। अर्जुन में अनगिनत गुण है। जो पहले नर और नारायण थे। वे आज अर्जुन और कृष्ण हैं। उन दोनों को ही तुम वीर समझो। यदि तुम मेरी बात मान लो। परशुरामजी की बात सुनकर महर्षि कण्व भी दुर्योधन से कहने लगे- ब्रह्मा और नर-नारायण - ये अक्षय और अविनाशी हैं।
अदिति के पुत्रों में केवल विष्णु ही सनातन ईश्वर है। जब संसार में प्रलय हो जाता है तो ये सभी पदार्थ तीनों लोकों को त्यागकर नष्ट हो जाते हैं। सृष्टि का आरंभ होने बार-बार उत्पन्न होते रहते हैं। इन सब बातों पर विचार करके धर्मराज युधिष्ठिर के साथ संधि कर लेना चाहिए। जिससे कौरव और पांडव मिलकर पृथ्वी का पालन कर पाएं। इन देवताओं की ओर तो तुम देख भी नहीं सकते। इसलिए इनसे विरोध छोड़कर संधि कर लो।
तुम्हे इन तीर्थस्वरूप श्रीकृष्ण के द्वारा अपने कुल की रक्षा की कोशिश करनी चाहिए। महर्षि कण्व की बात सुनकर दुर्योधन लंबी-लंबी सांसें लेने लगा। वह कर्ण की ओर देखकर जोर-जोर से हंसने लगा। उस दुष्ट ने कण्व के कथन पर कुछ भी ध्यान नहीं दिया और इस कहने लगा जो कुछ होने वाला है। उसमें मेरी गति होनी है, उसी के अनुसार ही ईश्चर ने मुझे रचा है वही मेरा आचरण है।
इसलिए हो गया दुर्योधन और श्रीकृष्ण में विवाद
इस तरह कौरव के सभी हितैषीयों ने उन्हें कई तरह से समझाया लेकिन दुर्योधन और अधिक क्रोधित हो गया। वह ये अप्रिय बातें सुनकर श्रीकृष्ण से बोला कृष्ण आपको अच्छी तरह से सोच समझकर बोलना चाहिए। आप तो पाण्डवों के प्रेम की दुहाई देकर उल्टी-सीधी बातें कहते हुए विशेष रूप से मुझे दोषी ठहरा रहे हैं। क्या आप हमेशा मेरी ही निंदा करते रहोगे। मैं देख रहा हूं कि आप सब अकेले ही मुझ पर सारा दोष लाद रहे हैं। मैंने तो सब विचारकर देख लिया मुझे तो खुद का कोई दोष नजर नहीं आता। हम जानते हैं कि पाण्डवों में हमारा सामना करने की शक्ति नहीं है। पाण्डव जूआ खेले और अपना राज्य हार गए, इसी कारण उन्हें वन में जाना पड़ा।
हम उनकी ऐसी बातों को सुनकर डरने वाले नहीं हैं। स्वधर्म का पालन करते हुए हम यदि युद्ध में काम ही आ गए तो स्वर्ग प्राप्त करेंगे। यह तो क्षत्रियों का प्रधान धर्म है। इस प्रकार यदि हमें युद्ध में वीरगति प्राप्त हुई तो कोई पछतावा नहीं होगा। मेरे जैसा वीर पुरुष तो धर्म की रक्षा के लिए केवल ब्राह्मणों का सम्मान करता हूं। मेरी बाल्यवस्था में अज्ञान व भय के कारण ही पाण्डवों को राज्य मिल गया। अब उन्हें फिर नहीं मिल सकता। दुर्योधन की बात सुनकर श्रीकृष्ण को गुस्सा आ गया।
उन्होंने कुछ देर विचारकर कहा- दुर्योधन तुम्हे वीर शैय्या की इच्छा है तो कुछ दिन मंत्रियों सहित धैर्य धारण करो। तुम्हे अवश्य वही मिलेगी और तुम्हारी यह कामना पूरी होगी। पर याद रखो बहुत जनसंहार होगा। देखो, पांडवों को वैभव से जल-भुनकर तुमने और शकुनि ने ही तो जुआ खेलने की खोटी सलाह की थी। जूआ तो भले आदमियों की बुद्धि को भ्रष्ट करने वाला है ही। तुमने द्रोपदी को सभा में बुलाकर खुल्लम-खुल्ला जैसी-जैसी अनुचित बातें कही थी, अपनी भाभी के साथ ऐसी कुचाल क्या कोई भी कर सकता है।
श्रीकृष्ण की बात सुनकर जब दु:शासन बीच में ही बोल पड़ा तो...
जिस समय भगवान कृष्ण ये सब बाते कह रहे थे। उस समय बीच में ही दु:शासन बीच में ही दुर्योधन से बोला आप यदि अपनी इच्छा से पांडवों के साथ संधि नहीं करेंगे तो मालूम होता है ये भीष्म, द्रोण और हमारे पिताजी आपको मुझे और कर्ण को बांधकर पांडवों के हाथ में सौंप देंगे। भाई की यह बात सुनकर दुर्योधन का क्रोध और भी बढ़ गया। वह सांप की तरह फुफकार मारता हुआ विदुर, धृतराष्ट्र, ब्राहीक, कृप, सोमदत, भीष्म, द्रोण और श्रीकृष्ण इन सभी का तिरस्कार कर वहां से चलने को तैयार हो गया।
उसे जाते देख उसके भाई, मंत्री और सब राजा लोग सभी छोड़कर चल दिए। तब पितामह भीष्म ने कहा राजकुमार दुर्योधन बड़ा पापी है। इसे राज्य का झूठा घमंड है। क्रोध और लोभ ने इसे दबा रखा है। मैं तो समझता हूं इन सब क्षत्रियों का काल आ गया है। इसी से मंत्रियों के सहित ये सब दुर्योधन का अनुसरण कर रहे हैं। भीष्म की ये बातें सुनकर कृष्ण ने कहा कौरवों में जो वयोवृद्ध है ये उन सभी की गलती है क्योंकि वे ऐश्वर्य के कारण दुर्योधन को कैद नहीं कर रहे हैं। इस विषय में मुझे जो बात जान पड़ती है वो मैं स्पष्ट कहता हूं। आपको यदि वह अनुकूल लगे तो कीजिएगा दुर्योधन को कैद करके पांडवों से संधि कर लीजिए। इससे सबका भला हो जाएगा। सारा कुरुवंश नष्ट होने से बच जाएगा।
दुश्मनों से जीतना है तो ये बात याद रखें
श्रीकृष्ण की यह बात सुनकर राजा धृतराष्ट्र ने विदुरजी से कहा भैया आप गांधारी को यहां बुलवा लीजिए। वही दुर्योधन को समझा सकती है। तब गांधारी सभा में आई। जब धृतराष्ट्र ने उसे पूरी बात बताई तो वह बोली महाराज इसमें आपकी ही गलती है। जब आप जानते हैं दुर्योधन गलत है। फिर भी आप आज तक अपनी मौन स्वीकृति देते आए है।
वह तो काम, क्रोध, लोभ और मोह में अंधा हो रहा है। आपने उसे बिना कुछ सोचे-समझे ही राज्य की बागडौर उसके हाथ सौंप दी। गांधारी ने दुर्योधन को सभा में बुलवाया और कहा बेटा दुर्योधन मेरी बात सुनो तुम पांडवों के साथ संधि कर लो। इससे तुम्हारा और तुम्हारी संतान दोनों का ही भविष्य सुखमय रहेगा।जिस तरह बिगड़े घोड़े उस पर सवारी करने वाले को रास्ते में ही मार देते हैं उसी तरह यदि इंद्रियों पर वश न रखा जाए तो मनुष्य का नाश हो जाता है। मन पर काबू न रखने वाले शत्रुओं को जीतने में हमेशा विफल होते हैं। यदि तुम सुखी रहना चाहते हो तो पाण्डवों को उनका न्यायोचित भाग दे दो।
श्रीकृष्ण को कैद करना चाहता था दुर्योधन क्योंकि...
गांधारी की कही इन बातों पर दुर्योधन ने कुछ ध्यान नहीं दिया। वह क्रोध में सभा छोड़कर मंत्रियों के पास चला गया। फिर दुर्योधन, कर्ण, शकुनि और दु:शासन इन चारो मिलकर यहां सलाह की कि देखो यह कृष्ण हमें कैद करना चाहता है तो क्यों न हम ही इसे पहले कैद कर लें। कृष्ण को कैद हुआ सुनकर पाण्डवों का सारा उत्साह ठंडा पड़ जाएगा। सात्यकि जो इशारे से ही दूसरों के मन की बात जान लेते थे।
वे तुरंत ही उनके भाव समझ गए। वे सभा से बाहर आकर कृतवर्मा से बोले शीघ्र ही सेना सजाओ दुर्योधन श्रीकृष्ण को कैद करने की सोच रहा है। फिर उन्होंने सभा में जाकर श्रीकृष्ण को उनका वह कुविचार कह दिया। सात्यकि ने मुस्कुराकर राजा धृतराष्ट्र और विदुर से कहा सत्पुरुषों की दृष्टि में दूत को कैद करना अधर्म है लेकिन ये मूर्ख वही करना चाहते हैं। इनका मनोरथ किसी भी तरह पूरा नहीं हो सकता।
श्रीकृष्ण को कैद करना वैसा ही है जैसे कोई बालक जलती हुई आग पर कपड़े से लपेटना चाहे। सात्यकि की यह बात सुनकर विदुरजी ने बोला महाराज लगता है आपके पुत्रों को मौत ने घेर रखा है इसीलिए वे ऐसी बातें कर रहे हैं। इसके बाद श्रीकृष्ण ने कहा महाराज अगर वे लोग मुझे कैद करने का साहस कर रहे हैं तो आप मुझे जरा आज्ञा दीजिए। फिर देखिए ये मुझे कैद करते हैं या मैं इन्हें बांध लेता हूं।
कब और क्यों करवाया था श्रीकृष्ण ने दुर्योधन को अपने असली रूप का दर्शन?
इस पर धृतराष्ट्र ने विदुर से कहा- तुम शीघ्र ही पापी दुर्योधन को ले आओ। संभव है, इस बार मैं उसके अनुयायियों सहित उसे ठीक रास्ते पर ला सकूं। विदुरजी दुर्योधन की इच्छा न होने पर भी उसे फिर सभा में ले आए। राजा धृतराष्ट्र बोले क्यों रे कुटिल दुर्योधन तू अपने पापी साथियों के साथ मिलकर एकदम पापकर्म करने पर ही उतारू हो गया है। याद रख, तुझ जैसा कुलकलंक पुरुष जो कुछ करने का विचार करेगा वह कभी पूरा नहीं होगा। इससे सत्पुरुष तेरी निंदा करेंगे।
कहते है। जिस तरह हवा की हाथ से नहीं पकड़ा जा सकता और पृथ्वी को सिर पर नहीं उठाया जा सकता, वैसे ही श्रीकृष्ण को किसी बल से नहीं बांधा जा सकता। विदुरजी ने बोले-दुर्योधन तुम मेरी बात सुनो। देखो श्रीकृष्ण को कैद करने का विचार नरकासुर ने भी किया था और श्रीकृष्ण ने उसका क्या हाल किया ये तुम जानते हो। विदुरजी की बात खत्म होने के बाद श्रीकृष्ण ने कहा-दुर्योधन तुम जो अज्ञानवश यह समझते हो कि मैं अकेला हूं।
याद रखो पांडव, वष्णि और यादव भी यहीं हैं। ऐसा कहकर श्रीकृष्ण हंसने लगे। तुरंत ही उनके सभी अंगों से बिजली-सी चमकने लगी। उनके अंगों में सभी देवता दिखाई देने लगे। उस समय श्रीकृष्ण की अनेकों भुजाएं दिखाई दे रही थी जो कई शस्त्रों से सजी हुई थी। उनके कानों से आग निकलने लगी। श्रीकृष्ण का यह रूप देखकर सभी राजा डरने लगे।
धृतराष्ट्र को कृष्ण ने क्यों दिए थे दिव्य नेत्र?
राजा धृतराष्ट्र ने कहा- श्रीकृष्ण आप सारे संसार के हितकर्ता है अत: आप हम पर कृपा कीजिए। मेरी प्रार्थना है कि इस समय मुझे दिव्य नेत्र प्राप्त हो मैं केवल आप ही के दर्शन करना चाहता हूं। फिर किसी दूसरे को देखने की मेरी इच्छा नहीं है। इस पर भगवान श्रीकृष्ण ने कहा, कुरुनंदन तुम्हारे अदृश्य रूप से दो नेत्र हो जाएं। उस समय पृथ्वी डगमगाने लगी। समुद्र में खलबली पड़ गई।श्रीकृष्ण न धृतराष्ट्र को अपने दिव्य स्वरूप का दर्शन करवाया। उसके बाद भगवान ने अपनी माया को समेट लिया।
वे ऋषियों से आज्ञा लेकर सात्यकि और कृतवर्मा के हाथ पकड़े सभा भवन से चले गए। उनके जाते ही नारद मुनि भी अंतरध्यान हो गए। श्रीकृष्ण को जाते देख सभी राजा और कौरव उनके पीछे चलने लगे। श्रीकृष्ण ने उन राजाओं की ओर कुछ भी ध्यान नहीं दिया। इतने में दारुक उनका दिव्य रथ सजाकर ले आया। भगवान रथ पर सवार हुए। उनके साथ कृतवर्मा भी चढ़ता दिखाई दिया। जब वे जाने लगे तो धृतराष्ट्र बोले मेरे पुत्रों पर मेरा बल कितना है। यह तो आप देख ही चुके हैं। मैं तो चाहता हूं कि कौरव व पांडवों के बीच संधि हो जाए।
अगर आप दुश्मनों से परेशान हैं तो यह कहानी जरूर पढ़ें
भगवान कृष्ण ने राजा धृतराष्ट्र, द्रोणाचार्य, भीष्म,विदुर, कृपाचार्य से कहा इस समय कौरवों की सभा में जो कुछ हुआ है, वह आपने प्रत्यक्ष देख लिया तथा यह बात भी आप सबके सामने ही की है। मंदबुद्धि दुर्योधन किस प्रकार तुनककर सभा से चला गया। महाराज धृतराष्ट्र भी इस विषय में अपने को असर्मथ बता रहे हैं। अब मैं आप सबसे आज्ञा चाहता हूं।
राजा युधिष्ठिर के पास जाता हूं। इस प्रकार आज्ञा लेकर जब भगवान जाने लगे तब सभी लोग कुछ दूर उनके पीछे गए। कृष्ण का रथ थोड़ी दूर पर जाकर रूका। वे कुंती से मिले। कुंती को जो कुछ हुआ वह संक्षेप में बताया। तब कुंती ने कहा मैं तुम्हे इस बात पर एक प्राचीन कहानी सुनाती हूं। उसमें विदुला और उसके पुत्र का संवाद है। विदुला एक क्षत्राणी थी। वह बहुत यशविस्नी, तेज स्वभाववाली, कुलीना, सयंमशीला और दिर्घदर्शनी थी। राजसभाओं में उसकी अच्छी ख्याति थी। शास्त्र का भी उसे अच्छा ज्ञान था। एक बार उसका पुत्र सिंधुराज से युद्ध में हार गया। वह हारकर वापस अपने राज्य पहुंचा।
वह जब अपनी मां विदुला से मिला तो उसने कहा- तू तो शत्रुओं का आनंद बढ़ाने वाला है। तुझमें जरा भी आत्माभिमान नहीं है, इसलिए क्षत्रियों में तो तू गिना ही नहीं जा सकता। तेरे अवयव और बुद्धि आदि भी मेरी नहीं है।तू अपने आत्मा का निरादर करना। तेरा नाम तो संजय है लेकिन मुझे तुझमे ऐसा कोई गुण दिखाई नहीं देता। जब तू बालक था तब तुझे एक ब्राह्मण ने देखकर कहा था जब यह बालक बहुत भारी विपत्ति में पड़ेगा और एक बार हारकर पुन: जीतेगा। राजा संजय छोटे मन का आदमी था। लेकिन मां के ऐसी बात सुनकर उसका मोह नष्ट हो गया। वह फिर से दुगनी ऊर्जा से युद्ध भूमि में गया और युद्ध जीत गया। कुंती ने कहा- जब भी कोई दुश्मनों से परेशान हो उसे यह प्रसंग सुनाना चाहिए। साथ ही इस इतिहास को सुनने से गर्भवती स्त्री निश्चित ही वीर पुत्र उत्पन्न करती है।
कैसे पता चला कर्ण को कि वह कुंती का बेटा है?
ये कहानी सुनाने के बाद कुंती ने कहा राज्य न पाने, जूए में हारने या पुत्रों का वनवास होने का दुख नहीं है। लेकिन मेरी युवती पुत्रवधु ने सभा में रोते हुए। जो दुर्योधन से कुवचन कहे थे। तुम उनकी याद पुत्रों को दिला देना। अब तुम जाओ मेरे पुत्रों की रक्षा करते रहना। जाओ तुम्हारा मार्ग निर्विघ्र हो। भगवान कृष्ण ने कुंती को प्रणाम किया और उनकी प्रदक्षिणा कर बाहर आए। कुंती ने श्रीकृष्ण को जो संदेश दिए थे।
उसे सुनकर महारथी भीष्म और द्रोण ने राजा दुर्योधन से कहा राजन कुंती ने श्रीकृष्ण से जो अर्थ और धर्म के अनुकूल बड़े ही उग्र और मार्मिक वचन तुमने सुने। अब पांडव लोग श्रीकृष्ण की सम्मति से वही करेंगे। वे आधे राज्य को लिए बिना शांति से नहीं बैठेंगे। इसलिए तुम अपने मां-बाप और हितैषियों की बात मान लो। अब संधि या युद्ध तुम्हारे हाथ ही है। यदि इस समय तुम्हे हमारी बात नहीं समझ आती तो भीमसेन का सिंहनाद सुनकर जरूर समझ आएगी। यह सुनकर राजा दुर्योधन उदास हो गया। उसने मुंह नीचा कर लिया भौहें को सिकोड़कर टेड़ी निगाह कर देखने लगा। उसे उदास देखकर भीष्म और द्रोण आपस में एक-दूसरे की ओर देखकर बात करने लगे। भीष्म ने कहा युधिष्ठिर हमेशा हमारी सेवा करने को तत्पर रहता है। वह कभी किसी से ईष्र्या नहीं करता। दुर्योधन तुम्हारे कुल राज्य और सुख सबका सफाया हो जाएगा।
इसलिए उन वीरों के साथ युद्ध करने का विचार छोड़कर तुम संधि कर लो। इधर श्रीकृष्ण जब कर्ण को रथ में बैठाकर हस्तिनापुर से बाहर आए और कर्ण से कहा- तुमने वेदवेता ब्राह्मणों की बहुत सेवा की है। लेकिन मैं तुम्हे एक गुप्त बात बताता हूं। तुमने कुंती की कन्यावस्था में उसी के गर्भ से जन्म लिया है। इसलिए धर्म अनुसार तुम पाण्डवों के भाई हो। तुम मेरे साथ चलो। पाण्डवों को भी यह मालूम हो जाना चाहिए कि तुम युधिष्ठिर से पहले उत्पन्न हुए कुंती पुत्र हो। फिर तो पांच पांडव और पांडवों का पक्ष लेने के लिए एकत्रित हुए राजा, राजपुत्र आदि सब यादव भी तुम्हारा वंदन करेंगे।
जब कर्ण को पता चली उसकी असली पहचान तो....
कर्ण ने कहा केशव! आपने प्यार और मित्रता के नाते और मेरे हित की इच्छा से जो कुछ कहा है वह ठीक है। इन सब बातों का मुझे भी पता है। जैसा आप समझते हैं, धर्मानुसार मैं पाण्डव का पुत्र हूं। कुन्ती ने कन्यावस्था में सूर्यदेव के द्वारा मुझे गर्भ धारण किया था। फिर उन्ही के कहने से त्याग दिया। उसके बाद अधिरथ सूत मुझे देखकर घर ले गए और उन्होंने बड़े प्यार से मुझे अपनी पत्नी राधा की गोद में दे दिया।
उन्होंने ही मुझे पुत्र के समान प्यार देकर पाला। उन्होंने ही मेरे जातिकर्म आदि संस्कार भी करवाए। युवावस्था में सूत जाति की स्त्रियों से मेरा विवाह करवाया था। उन स्त्रियों में मेरा हृदय प्रेमवश काफी फंस चुका है। अब उनसे मेरे बेटे पोते भी पैदा हो चुके हैं। दुर्योधन ने भी मेरे ही भरोसे शस्त्र उठाने का साहस किया है। और इसी से संग्राम में मुझे अर्जुन के साथ द्विरथयुद्ध न किया तो इससे अर्जुन और मेरी दोनों की ही अपकीर्ति होगी। केशव आप हमारे बीच हुई बातचीत को किसी को भी मत बताइगा। अगर हमारी बात युधिष्ठिर को पता चल गई तो वे कभी राज्य ग्रहण नहीं करेंगे।
कर्ण का ये जवाब सुनकर श्रीकृष्ण ने कर दी महाभारत युद्ध की घोषणा....
कर्ण की यह बात सुनकर श्रीकृष्ण मुस्कुराए और बोले- कर्ण! तो क्या तुम्हे यह राज्यप्राप्ति का उपाय भी मंजूर नहीं है। तुम मेरी दी हुई पृथ्वी का भी शासन नहीं करना चाहते। अच्छा होगा कि तुम अब यहां से जाकर भीष्म, द्रोणाचार्य और कृपाचार्य से कहना। इस समय फलों की अधिकता है। जल में स्वाद आ गया है। न ज्यादा ठंड है न गर्मी अच्छा सुखमय समय है।
आज से सातवें दिन अमावस्या होगी। उसी दिन युद्ध आरंभ करो। वहां और भी जो-जो राजा लोग आए उन्हें भी यह खबर दे देना। तुम्हारी इच्छा युद्ध करने की है तो मैं उसी का प्रबंध कर देता हूं। तब कर्ण ने कहा- आप मुझे मोह में क्यों डाल रहे हैं? यह तो पृथ्वी के संहार का समय आ गया है।भयानक अपशकुन भी हो रहे हैं और उत्पात भी हो रहा है। पाण्डवों के हाथी घोड़े ओर वाहन भी तैयार हैं। श्रीकृष्ण ने कहा- कर्ण निस्संदेह अब पृथ्वी विनाश के करीब पहुंच चुकी है। जब विनाशकाल नजदीक आ जाता है तो इंसान को अन्याय भी न्याय दिखने लगता है। तब कर्ण ने कहा अच्छा अब युद्ध में ही मिलना होगा। ऐसा कहकर गाढ़ा आलिंगन किया।
क्या हुआ जब कुंती ने कर्ण से कहा-तुम मेरे पुत्र हो?
जब श्रीकृष्ण पांडवों के पास चले गए तो विदुरजी ने कुंती के पास जाकर कुछ खिन्न से होकर कहा- तुम जानती हो मेरा मन तो हमेशा युद्ध के विरुद्ध रहता है। मैं चिल्ला-चिल्लाकर थक गया, लेकिन दुर्योधन मेरी बात को सुनता ही नहीं।
अब श्रीकृष्ण संधि के प्रयत्न में असफल होकर गए हैं। वे पांडवों को युद्ध के लिए तैयार करेंगे। यह कौरवो की अनीति सब वीरों का नाश कर डालेगी। इस बात को सोचकर मुझे न दिन में नींद आती और न रात में ही। विदुरजी की यह बात सुनकर कुंती दुख से व्याकुल हो गई। मन ही मन कहने लगी इस धन को धिक्कार है। इस से बन्धु-बांधवों का भीषण संहार होगा। इससे मेरा भय और भी बढ़ जाता है। कर्ण भी हमारा दुश्मन बना बैठा है।
वो उस दुर्बुद्धि दुर्योधन की हर उल्टी बात में उसका साथ देता है। ऐसा सोचकर कुंती गंगातट पर कर्ण के पास गई। वहां पहुँच कर कुंती ने अपने उस सत्यनिष्ट पुत्र के वेदपाठ की ध्वनि सुनी। कुंती ने जप समाप्त होते ही। कर्ण से कहा- कर्ण तुम राधा के पुत्र नहीं और सारी कहानी सुना दी। तुम्हे पांडवों के साथ मैत्री कर लेनी चाहिए।
जैसे कृष्ण और बलराम की जोड़ी है वैसे ही कर्ण और अर्जुन जोड़ी बन जाए तो तुम सब कुछ जीत सकते हो। तुम अपने भाइयों में सबसे बड़े हो खुद को सूत पुत्र मत समझो। उसी समय कर्ण को सूर्यमंडल से आती हुई एक आवाज सुनाई दी। वह आवाज पिता की आवाज के समान स्नेहपूर्ण थी। उन्होंने कहा अगर तुम वैसा ही करोगे जैसा कुंती ने कहा है तो तुम्हारा हर तरह से हित होगा।
कर्ण के कुंती से किए इस एक वादे ने महाभारत की बाजी पलट दी...
कर्ण का र्धेर्य सच्चा था। माता कुंती और पिता सूर्य के स्वयं इस प्रकार कहने पर भी उसकी बुद्धि विचलित नहीं हुई। उसने कहा- क्षत्रिये तुम्हारी इस आज्ञा को मान लेना धर्मनाश के द्वार खोल देना है। तुमने मुझे त्यागकर धर्मनाश किया है। तुम्हारे कारण ही मेरा क्षत्रियों सा संस्कार नहीं हो पाया। पहले से तो मैं पाण्डवों के भाई रूप में प्रसिद्ध हूं नहीं, युद्ध के समय यह बात खुली है। अब मैं पाण्डवों के पक्ष में हो जाता हूं तो क्षत्रिय लोग क्या कहेंगे? धृतराष्ट्र के पुत्रों ने मुझे हर तरह का ऐश्वर्य दिया है।
इसलिए इस समय मुझे जान का लालच न कर प्राणों का लोभ न करके अपना ऋण चुका देना चाहिए। मैं तुम्हारे सामने झूठी बात नहीं करूंगा। मैं तुम्हारे पांचों पुत्रों को मार सकता हूं लेकिन किसी को नहीं मारूंगा। परन्तु अर्जुन से में युद्ध करूंगा। युधिष्ठिर की सेना का वो एक मात्र योद्धा है जिससे मैं युद्ध करने की इच्छा रखता हूं। उसे मारने से ही मुझे संग्राम का सुयश मिलेगा। इस तरह में वादा करता हूं कि तुम्हारे पांच पुत्र बचे रहेंगे। अर्जुन न रहा तो वे कर्ण के सहित पांच रहेंगे और मैं मारा गया तो अर्जुन के सहित पांच रहेंगे।
महाभारत की घोषणा करने के बाद जब कृष्ण लौटे पांडवों के पास....
इधर हस्तिनापुर से कृष्णजी पांडवों के पास पहुंचे। श्रीकृष्ण ने कौरवों के साथ-जो बातें की थी। वे सब पांडवों को सुना दी। उन्होंने कहा हस्तिनापुर में जाकर मैंने कौरवों की सभा में दुर्योधन से बिल्कुल सच्ची, हितकारी और दोनों पक्षों का कल्याण करने वाली बात कहीं। लेकिन उस दुष्ट ने कुछ नहीं माना।
राजा युधिष्ठिर ने कहा श्रीकृष्ण जब दुर्योधन ने अपना कुमार्ग नहीं छोड़ा तो पितामह ने उससे क्या कहा? आचार्य द्रोण, महाराज धृतराष्ट्र, माता गांधारी सब सभा में बैठे थे या नहीं? श्रीकृष्ण ने कहा- राजन कौरवों की सभा में राजा दुर्योधन से जो बात कही गई थी। जब मैं अपनी बात खत्म कर चुका तो दुर्र्योधन हंसा। इस पर भीष्म जी ने क्रोधित होकर कहा- दुर्र्योधन इस कुल के कल्याण के लिए मैं जो बात कहता हूं तू उस पर ध्यान दे। तुझे बड़े-बुढा़े की बात पर ध्यान देना चाहिए। ऐसा करने से तू अपने को और सारी पृथ्वी को नष्ट होने से बचा लेगा। इसके बाद सभी ने उसे बहुत तरह से समझाने का प्रयत्न किया इस तरह कृष्णजी ने वहां हुई सारे घटनाक्रम का वर्णन पांडवों को सुनाया।
उसके बाद मैंने सब राजाओं को ललकारा और दुर्योधन का मुंह बंद कर दिया। मैंने दुर्योधन से कहा कि सारा राज्य तुम्हारा ही है तुम सिर्फ पांच गांव पांडवों को दे दो क्योंकि तुम्हारे पिता को पांडवों का पालन भी जरुर करना चाहिए। लेकिन अब उन पापियों के लिए मुझे दंड नीति का आश्रय लेना ही उचित जान पड़ता है। वे किसी प्रकार से समझने वाले नहीं हैं। वे सब विनाशके कारण बन चुके हैं और मौत उनके सिर पर नाच रही है।
महाभारत युद्ध में कृष्ण ने किसे बनाया पांडवों का सेनापति और क्यों?
श्रीकृष्ण का कथन सुनकर धर्मराज युधिष्ठिर ने उनके सामने ही अपने भाइयों से कहा- कौरवों की सभा में जो कुछ हुआ। वह सब तो तुमने सुन ही लिया और श्रीकृष्ण ने जो बात कही है, वह भी समझ ही ली होगी। इसलिए अब मेरी इस सेना का विभाग करो। हमारी विजय के लिए यह सात अक्षौहिणी सेना इकट्ठी हुई है। इसके ये सात सेना अध्यक्ष हैं- द्रुपद, विराट, धृष्टद्युम्र, शिखण्डी, सात्यकि, चेकितान, और भीमसेन।
ये सभी वीर अंत समय तक युद्ध करने वाले हैं। लज्जाशील और नितिमान और युद्धकुशल है। युधिष्ठिर ने कहा सहदेव यह बताओ इन सातों का भी नेता कौन हो, जो रणभूमि में भीष्मरूप अग्रि का सामना कर सके। सहदेव ने कहा- मेरे विचार से तो महाराज विराट इस पद के योग्य है। फिर नकुल ने कहा मैं तो द्रुपद को इस पद के योग्य समझता हूं। अर्जुन ने कहा मैं धृष्टद्युम्र को प्रधान सेनापति होने के योग्य समझता हूं। इसके सिवा कोई वीर दिखाई नहीं देता, जो महाव्रती भीष्मजी के सामने डट सके।
भीमसेन बोले- द्रुपदपुत्र शिखण्डी का जन्म भीष्मजी के वध के लिए ही हुआ है। इसलिए मेरे विचार से ही प्रधान सेनापति होने चाहिए। यह सुनकर राजा युधिष्ठिर ने कहा- भाइयों धर्ममूर्ति श्रीकृष्ण सारे संसार के सारासार और बलाबल को जानते हैं। अत: जिसके लिए सम्मति दें। उसी को सेनापति बनाया जाए। हमारी जय या पराजय के कारण एकमात्र ये ही हैं।
धर्मराज युधिष्ठिर की यह बात सुनकर कमलनयन भगवान कृष्ण ने अर्जुन की ओर देखते हुए कहा महाराज आपकी सेना के नेतृत्व के लिए जिन-जिन लोगों के नाम लिए गए हैं इन सभी को मैं इस पद के योग्य मानता हूं। ये सभी बड़े पराक्रमी योद्धा हैं। लेकिन मेरे विचार से धृष्टद्युम्र को ही प्रधान सेनापति बनाना उचित होगा। श्रीकृष्ण के इस प्रकार कहने पर सभी पाण्डव बड़े प्रसन्न हुए। सब सैनिक चलने के लिए दौड़-धूप करने लगे।
महाभारत के युद्ध से पहले कुछ ऐसा था कुरुक्षेत्र का माहौल...
सब सैनिक दौड़-धूप करने लगे। युद्ध के लिए तैयार हो जाओ। यह शब्द गूंजने लगे। हाथी, घोड़े और रथों का घोष होने लगा। चारो ओर शंख और दुन्दुभि की ध्वनि फैल गई। सेना के आगे-आगे भीमसेन, नकुल, सहदेव अभिमन्यु, द्रोपदी के पुत्र, धृष्टद्युम्न आदि सभी चले। राजा युधिष्ठिर माल की गाडिय़ों, बाजार के सामानों, डेरे-तम्बू और पालकी आदि सवारियों, कोशों, मशीनों, वैद्यों एवं अस्त्रचिकित्सकों को लेकर चले। धर्मराज को विदा करे पांचालकुमारी द्रोपदी और अन्य राजमहिलाएं अपने शिविर को लौट आई।
इस तरह युद्ध की व्यापक तैयारी कर पाण्डवलोग परकोटों और पहरेदारों से अपने धन-स्त्री आदि की रक्षा का प्रबंध कर गौ और सोने आदि का दान करके विशाल मणजडि़त रथों में बैठकर कुरुक्षेत्र की ओर चले। वहां पहुंचकर एक ओर से श्रीकृष्ण और दूसरी ओर से अर्जुन शंख की ध्वनि करने लगे। राजा युधिष्ठिर ने एक चौरस र्मैदान में, जहां घास और ईधन की अधिकता थी, अपनी सेना का पड़ाव डाला। श्मशान, महर्षियों के आश्रम, तीर्थ और देवमंदिरों से दूर रहकर उन्होंने पवित्र और रमणीय भूमि में अपनी सेना को ठहराया।
वहां पाण्डवों के लिए जिस प्रकार का शिविर बनवाया गया था। ठीक वैसे ही डेरे श्रीकृष्ण ने अन्य लोगों के लिए भी बनवाए। उन सभी डेरों में सैकड़ों प्रकार की भक्ष्य, भोज्य और पेय सामग्रियां थी। ईधन आदि की भी अधिकता थी। वे राजाओं के डेरे विमानों के सामन थे। उनमें कवच धारण किए, हजारों योद्धाओं के साथ युद्ध करने वाले अनेकों हाथी पर्वतों की तरह खड़े दिखाई देते थे। वैद्यलोग वेतन देकर नियुक्त किए गए थे। पाण्डवों को कुरुक्षेत्र में आया सुनकर उनसे मित्रता का भाव रखनेवाले अनेकों राजा सेना और सवारियों के साथ उनके पास आने लगे।
भीष्म ने कौरवों का सेनापति बनने के लिए रखी ये कैसी शर्त?
इधर श्रीकृष्ण के चले जाने पर राजा दुर्योधन ने कर्ण, दु:शासन और शकुनि से कहा कृष्ण अपने उददेश्य में असफल होकर ही पाण्डवों के पास गए हैं। इसलिए वे क्रोध में भरकर निश्चय ही उन्हें युद्ध के लिए उत्तेजित करेंगे। वास्तव में श्रीकृष्ण को पांडवों के साथ मेरा युद्ध होना ही अभीष्ट है। भीम और अर्जुन तो उन्ही के मत में रहने वाले हैं। वे सभी श्रीकृष्ण के इशारे पर चलने वाले हैं इसलिए युद्ध बहुत ही भयंकर होने वाला है।
अब सावधानी से युद्ध सामग्री तैयार करनी चाहिए। कुरुक्षेत्र में बहुत से डेरे डलवाओ। जिनमें काफी अवकाश रहे और शत्रु अधिकार न कर सकें। युद्ध स्थल के चारों ओर ऊंची बाड़ लगवा दो। उनमें तरह-तरह के हथियार रखवा दो। अब देरी न करके आज ही घोषणा कर दो। कल ही सेना का कूच होगा। अगले दिन सुबह राजा दुर्योधन ने अपनी ग्यारह अक्षौहिणी सेना का विभाग किया। उसने पैदल, हाथी, रथ, और घुड़सवार सेना में से उत्तम और मध्यम श्रेणियों को अलग-अलग रखा। वे सभी अनेक तरह की युद्ध सामग्रियां लिए हुए थे।
फिर सब राजाओं को साथ ले उसने भीष्म से कहा- दादाजी कितनी भी बड़ी सेना हो अगर कोई अध्यक्ष नहीं होता तो सेना युद्ध के मैदान में आकर चीटिंयों की तरह तितर-बितर हो जाती है। सेनापति शूरवीर हो तभी युद्ध जीता जा सकता है। इसीलिए आप हमारे सेनापति बने। भीष्म ने दुर्योधन का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। लेकिन साथ ही उन्होंने शर्त रख दी कि या तो पहले मैं युद्ध लड़ूंगा या कर्ण। हम दोनों में से एक ही युद्ध लड़ेगा। तब कर्ण ने प्रण लिया कि भीष्म के जीवित रहते मैं युद्ध नहीं करूंगा। इनके मरने पर ही अर्जुन के साथ मेरा युद्ध होगा।
महाभारत युद्ध में अर्जुन ने नहीं ली इस राजा की मदद क्योंकि....
उसके बाद भीष्मजी ने विधिपूर्वक सेनापति पद पर अभिषिक्त किया। इधर युधिष्ठिर ने सब भाइयों और श्रीकृष्ण को बुलाकर कहा तुम सब लोग सावधान रहो। सबसे पहले तुम्हारा युद्ध पितामह भीष्म के साथ होगा।
अब तुम मेरी सेना के सात नायक नियुक्त करो। श्रीकृष्ण ने कहा- राजन ऐसा समय आने पर आपको जैसी बात करनी चाहिए आप वैसी ही कर रहे हैं। युधिष्ठिर ने धृष्टद्युम्र को अभिषिक्त किया। इसी समय घोर युद्धसंहार को करीब आया जानकर भगवान बलरामजी, अक्रूर, गद, साम्ब, उद्धव, प्रद्युम्र, चारुदेष्ण आदि मुख्य-मुख्य यदुवंशियों को साथ लिए पांडवों के शिविर में आए। सभी ने कहा कि हमें पता है कि जीत निश्चित ही पांडवों की होगी। उसी समय राजाभीष्मक का पुत्र रुक्मी एक अक्षौहिणी सेना लेकर पाण्डवों के पास आया। उसने श्रीकृष्ण की प्रसन्नता के लिए सूर्य के समान तेजस्विनी ध्वजा लिए पाण्डवों के शिविर में प्रवेश किया।
उसने आकर पांडवों से कहा मैं तुम लोगों की सहायता के लिए आया हूं। संसार में मेरे समान पराक्रमी कोई और मनुष्य नहीं है। जिस सेना से मोर्चा लेने का भार सौपेंगे में उसे तहस-नहस कर दूंगा। तब अर्जुन ने धर्मराज को देखकर शांत स्वभाव से कहा- मैंने कुरुवंश में जन्म लिया है और हम इस युद्ध को लडऩे में सक्षम हैं। तुम अपनी इच्छा अनुसार जाना चाहो जा सकते हो। रहना चाहो तो आनंद से रह सकते हो।
दुर्योधन ने कुछ ऐसे दी थी, पांडवों को महाभारत युद्ध की चुनौती
महात्मा पाण्डवों ने तो हिरण्यवती नदी के तीर किनारे पर पड़ाव किया और कौरवों ने एक दूसरे स्थान पर शस्त्रोक्त विधि से अपनी छावनी डाली। वहां राजा दुर्योधन ने बड़े उत्साह से अपनी सेना ठहराई और भिन्न-भिन्न टुकडिय़ों के लिए अलग-अलग स्थान नियुक्त करके सब राजाओं का बड़ा सम्मान किया। फिर उन्होंने कर्ण, शकुनि और दु:शासन के साथ कुछ गुप्त परामर्श करके उलूक को बुलाकर कहा- उलूक तुम पांडवों के पास जाओ और श्रीकृष्ण के सामने ही पाण्डवों से यह संदेश कहो।
जिसके लिए वर्षों से विचार हो रहा था, वह कौरव और पांडवों का भयंकर युद्ध अब होने वाला है। अर्जुन तुमने कृष्ण और अपने भाइयों के सहित संजय से जो गर्ज-गर्जकर बड़ी शेखी की बातें कही थी, वे उसने कौरवों की सभा में सुनाई थी। अब उन्हें दिखाने का समय आ गया है। तुम तो बड़े ही धार्मिक कहे जाते हो। अब तुमने अधर्म में मन क्यों लगाया है। इसी को तो विडालव्रत कहते हैं। एक बार नारदजी ने मेरे पिताजी से इस प्रसंग में एक आख्यान कहा था। वह मैं तुम्हे सुनाता हूं। एक बार एक बिलाव शक्तिहीन हो जाने के कारण गंगाजी के तट पर उध्र्व बाहु होकर खड़ा हो गया और सब प्राणियों को अपना विश्वास दिलाने के लिए मैं धर्मचारण कर रहा हूं।
ऐसी घोषणा करने लगा। उसने भी समझा दिया कि मेरी तपस्या सफल तो हो गई। फिर बहुत दिनों बाद वहां चूहे भी आए और तपस्वी को देखकर सोचने लगे कि हमारे बहुत शत्रु हैं इसलिए हमारा मामा बनकर यह बिलाव हमसे जो बूढ़े और बच्चे हैं उनकी रक्षा किया करें। तब उन सबने बिल्ले के पास जाकर कहा आप हमारे आश्रय और रक्षक हैं। हम सब आपकी शरण में आएं है। चूहों के ऐसा कहने पर उन्हें भक्षण करने वाले बिल्ले ने कहा-मैं तप भी करूं और तुम सबकी रक्षा भी करूं - ये दोनों काम होने का तो मुझे कोई ढंग नहीं दिखाई देता। फिर भी तुम्हारा हित करने के लिए मुझे तुम्हारी बात जरूर माननी चाहिए।
लेकिन तुम्हे मेरा एक काम करना होगा। मैं कठोर नियमों का पालन करते-करते थक गया हूं। मुझे अपने में चलने-फिरने की तनिक रोज नदी के तीर तक पहुंचा दिया करो। चूहों ने बहुत अच्छा कहकर उसकी बात स्वीकार कर ली और सब बूढ़े और बच्चे उसी को सौंप दिए। फिर तो पापी बिलाव उनको खा-खाकर मोटा होने लगा। तब चूहों को समझ आया कि बिलाव तपस्वी नहीं ढोंगी है। यह जानकर सब चूहे भाग गए। इसी तरह पांडवों ने भी धर्माचारी बने होने का ढोंग रचा है। तुम यह पाखंड छोड़कर क्षात्रय धर्म का आश्रय लो।
दुर्योधन की चुनौती का पांडवों ने कैसे दिया जवाब?
दुर्योधन की चुनौती का पांडवों ने कैसे दिया जवाब?
उलूक तुम पाण्डवों के पास जाना और कृष्ण से कहना कि तुम अपनी और पांडवों की रक्षा करने के लिए अब तैयार होकर हमारे साथ युद्ध करो। तुमने माया से सभा में भयंकर रूप धारण किया था। तुमने कहा था कि पांडवों को हर कीमत पर उनका राज्य दिलवाऊंगा। सो तुम्हारा यह संदेश भी संजय ने मुझे सुना दिया। अब तुम सत्य प्रतिज्ञ होकर पाण्डवों के लिए पराक्रमपूर्वक कमर कस कर युद्ध करो। हम भी तुम्हारा पौरुष देखेंगे। संसार में अकस्मात ही तुम्हारा बड़ा यश फैल गया है। आज मुझे मालूम हुआ कि जिन लोगों ने तुम्हे सिर पर चढ़ाया हुआ है। वे वास्तव में पुरुष हैं ही नहीं।
उस बिना मूंछों के मर्द, बहुभोजी, अज्ञान की मूर्ति, मूर्ख भीमसेन से कहना कि कौरवों कि सभा में जो प्रण लिया था। उसे मिथ्या मत करना। विराट और द्रुपद से कहना कि तुम सब एकत्रित होकर मेरे सामने आओ और अपने और पांडवों के लिए मेरे साथ संग्राम करो। धृष्टद्युम्र का कहना कि जब तुम द्रोणाचार्य के सामने आओगे, तब तुम्हे मालूम होगा कि तुम्हारा हित किस बात में है। इसके बाद राजा दुर्योधन खूब हंसा और बोला उनसे बोलना वह समय आ चूका है जिसके लिए क्षत्राणी पुत्र का प्रसव करती है।
उसके बाद दुर्योधन का संदेश लेकर उलूक पांडवों के पास पहुंचा। उलूक ने जैसा दुर्योधन ने कहा था वो सारी बातें आकर पांडवों को सुनाई। वे सभी क्रोध से आगबबूला हो गए। श्रीकृष्ण ने भी सब कुछ सुनने के बाद उलूक से कहा अब तुम जाओं और दुर्योधन से मेरा संदेश कहना कि अब कल तुम रणभूमि में आ जाओ तो सब अपने आप सिद्ध हो जाएगा। कल तुम कहीं भी जाओगे तुम्हे अर्जुन का रथ ही दिखाई देगा। इस तरह सभी पाण्डवों ने बारी-बारी अपना संदेश दिया।
भीष्म ने क्यों किया स्वयंवर से राजकुमारियों का हरण?
मुझे जब यह मालूम हुआ तो मैंने तीनों कन्याओं को अपने रथ में बैठा दिया। वहां आए राजाओं को बार-बार सुना दिया गया कि महाराज शांतनु के पुत्र भीष्म कन्याओं को ले जा रहा है। आप लोग पूरा-पूरा बल लगाकर इन्हें छुड़ाने का प्रयत्न करें। तब वे सब राजा अस्त्र-शस्त्र लेकर मेरे ऊपर टूट पड़े। मैंने सको परास्त कर दिया। मेरी बाण चलाने की फूर्ती देखकर उनके मुंह पीछे फिर गए और वे मैदान छोड़कर भाग गए। इस तरह सब राजाओं को जीतकर मैं हस्तिनापुर चल दिया। वे तीनों कन्याएं माता सत्यवती को सौंप दी।
भीष्मजी से दुर्योधन ने पूछा- दादाजी शिखण्डी अगर रणक्षेत्र में बाण चढ़ाकर आपके सामने आएगा तो आप उसका वध क्यों नहीं करोगे। भीष्मजी बोले- दुर्योधन शिखण्डी को रणभूमि में अपने सामने भी जो मैं नहीं मारूंगा, उसका कारण सुनो। जब मेरे पिता शान्तनुजी स्वर्गवासी हुए तो मैंने अपनी प्रतिज्ञा का पालन करते हुए चित्रागंद से राजसिहांसन पर अभिषिकक्त हुआ। जब उसकी मृत्यु भी हो गई तो माता सत्यवती की सलाह से मैंने विचित्रवीर्य को राजा बनाया। विचित्रवीर्य की आयु बहुत छोटी थी।
इसलिए राजकार्य में उसे मेरी सहायता की अपेक्षा रहती थी। फिर मुझे किसी कुल के अनुरूप कन्या के साथ उसका विवाह करने की चिंता हुई। इसी समय मैंने सुना कि कशिराज की अम्बा, अम्बिका और अम्बालिका का नाम की तीन अनुपम रूपवती कन्याओं का स्वयंवर होने वाला है। उसमें पृथ्वी के सभी राजाओं को बुलाया गया था। मैं भी अकेला ही रथ में चढ़कर कशिराज की राजधानी में पहुंचा। वहां यह नियम किया गया था कि जो सबसे पराक्रमी होगा, उसे ये कन्याएं विवाही जाएंगी।मुझे जब यह मालूम हुआ तो मैंने तीनों कन्याओं को अपने रथ में बैठा दिया। वहां आए राजाओं को बार-बार सुना दिया गया कि महाराज शांतनु के पुत्र भीष्म कन्याओं को ले जा रहा है। आप लोग पूरा-पूरा बल लगाकर इन्हें छुड़ाने का प्रयत्न करें। तब वे सब राजा अस्त्र-शस्त्र लेकर मेरे ऊपर टूट पड़े। मैंने सको परास्त कर दिया। मेरी बाण चलाने की फूर्ती देखकर उनके मुंह पीछे फिर गए और वे मैदान छोड़कर भाग गए। इस तरह सब राजाओं को जीतकर मैं हस्तिनापुर चल दिया। वे तीनों कन्याएं माता सत्यवती को सौंप दी।
इस राजकुमारी के कारण हुआ भीष्म और परशुराम के बीच युद्ध
लेकिन अम्बा ने मुझसे कहा आप सम्पूर्ण शास्त्रों में पारंगत और धर्म के रहस्य को जानने वाले हैं। इसलिए आप मेरी बात सुने और जैसा आपको उचित लगे करें। मैं मन ही मन राजा शाल्व को वर चुकी हूं। उन्होंने भी पिताजी को प्रकट न करते हुए एकांत में मुझे पत्नी रूप में स्वीकार कर लिया है। फिर कुरुवंशी होकर आप मुझे राजधर्म को तिलांजली देकर मुझे अपने घर में क्यों रखना चाहते हैं।
तब मैंने सभी की अनुमति लेकर अम्बा को जाने दिया। अम्बा वृद्ध ब्राह्मण और क्षत्रियों के साथ लेकर राजा शाल्व के नगर में गई। उसने शाल्व के पास जाकर कहा मैं आपकी सेवा में उपस्थित हूं। यह सुनकर शाल्व ने कुछ मुस्कुराकर कहा- पहले तुम्हारा संबंध दूसरे पुरुष हो चुका है। इसलिए अब मैं तुम्हे पत्नी रूप से स्वीकार नहीं कर सकता। भीष्म तुम्हे हरकर ले गया था। इसलिए मैं तुम्हे स्वीकार नहीं करना चाहते। अम्बा ने कहा भीष्मजी मुझे मेरी प्रसन्नता से नहीं ले गए थे। मैं तो उस समय विलाप कर रही थी। वो सब राजाओं को हराकर मुझे ले गया। मैं तो निरपराध आपकी दासी हूं। आप मुझे स्वीकार कीजिए।
मैं तो आपके सिवा किसी और वर का अपने मन में चिंतन नहीं करती। इस तरह अम्बा ने बार-बार प्रार्थना की लेकिन शाल्व ने उसे स्वीकार नहीं किया। अम्बा ने मन ही मन सोचा कि ये सारी परेशानी भीष्म के कारण आई है। अब तपस्या या युद्ध के द्वारा मुझे उनसे इसका बदला लेना चाहिए। ऐसा निश्चय कर वह नगर से निकलकर तपस्वियों के आश्रम पर आई। तपस्वियों के पास पहुंचकर अम्बा ने उसे पूरी कहानी सुनाई और तपस्या करने की जिद करने लगी। तभी वहां होत्रहान जो कि अम्बा के नाना थे वे आए। उन्होंने अम्बा कि कहानी सुनी और कहा बेटी मैं तेरा नाना हूं। तू मेरी बात मान और परशुरामजी के पास जाकर अपनी परेशानी बता दे। अम्बा ने अपनी सारी कहानी परशुरामजी को सुनाई। उसकी कहानी सुनकर परशुरामजी को क्रोध आया। उन्होंने भीष्म को युद्ध के लिए ललकारा और उनमें भीषण युद्ध हुआ। परशुरामजी को भीष्म ने युद्ध में परास्त किया।
केवल शिखण्डी ही क्यों मार सकता था भीष्म को?
परशुरामजी ने अम्बा को बुलाकर उससे कहा मैं युद्ध हार गया हूं। अब तू भीष्म की शरण में चली जा इसके अलावा मुझे कोई उपाय नहीं सुझ रहा है। तब अम्बा ने कहा आपने जैसा कहा ठीक है। आपने अपने बल और उत्साह के अनुसार मेरा काम करने में कोई कसर नहीं रखी है। लेकिन आप अंत में भीष्म से जीत नहीं सके तो फिर मैं किस तरह भीष्म के पास जाऊंगी। अब मैं ऐसी जगह जाऊंगी जहां रहने से मैं खुद भीष्म का युद्ध में संहार कर सकूं। ऐसा कहकर वह कन्या भीष्म नाश के लिए तप का विचार करके वहां से चली गई। परशुरामजी सभी मुनियों के साथ महेन्द्रगिरी पर्वत चले गए। यह सारा समाचार मैंने आकर माता को सुना दिया। उन्होंने उस कन्या के समाचार लाने के लिए कुछ लोग नियुक्त कर दिए।
कुरुक्षेत्र से वह कन्या यमुना तट के एक आश्रम पर आ गई। वह छ: महीने तक निराहर रहकर यमुनाजल में तपस्या करने लगी। इसके बाद वह आठवें या दसवें महीने पानी पीकर निर्वाह करने लगी। तपस्या के प्रभाव से उसका आधे शरीर से तो अम्बा नदी हो गई और आधे शरीर से वत्स देश की राजा की कन्या के रूप में उत्पन्न हुई। वह उस जन्म में फिर तपस्या करने लगी। तपस्वियों ने घोर तप देख उसे रोका। वे अम्बा से बोले तुझे क्या चाहिए? अम्बा ने कहा मैंने सिर्फ भीष्म का नाश करने के लिए ही तपस्या की है। तभी वहां शंकरजी प्रकट हुए और उन्होंने अम्बा से वर मांगने को कहा- अम्बा ने भीष्म को हराने का वरदान मांगा। वह बोली भगवान में तो स्त्री हूं। मेरा हृदय शौर्यहीन है तो मैं फिर युद्ध में भीष्म से कैसे जीत सकूंगी? भगवान ने कहा तू अगले जन्म में द्रुपद के यहां कन्या रूप में जन्म लेगी और कुछ समय के बाद तू पुरुष हो जाएगी। इस तरह तेरे हाथों ही भीष्म का वध होगा। अम्बा ने शंकर भगवान से ऐसा वरदान पाकर अगले जन्म में शिखण्डी के रूप में जन्म लिया।
महाभारत में हुआ स्त्री का स्त्री से विवाह क्योंकि....
महाराज द्रुपद की रानी को पहले कोई पुत्र नहीं हुआ था। इसलिए द्रुपद ने संतानप्राप्ति के लिए तपस्या की और शंकर भगवान से पुत्र प्राप्ति का वर मांगा। शंकर भगवान ने उससे कहा जाओ द्रुपद अब तुम्हे पुत्र होगा। लेकिन वह स्त्री रूप में जन्म लेगा और बाद में पुरुषत्व प्राप्त कर लेगा। उसके बाद महाराज द्रुपद घर लौट आए कुछ महीनों बाद रानी ने गर्भधारण किया। उन्हें महादेवजी की बातों पर पूरा विश्वास था।
कुछ दिनों बाद उनके यहां एक सुंदर कन्या ने जन्म लिया। कन्या जब बड़ी हो गई तब रानी ने राजा द्रुपद से कहा महाराज शिवजी के वर के कारण शिखण्डी का पुरुषत्व प्राप्त करना तो तय है। इसलिए हमें समय से इसका विवाह किसी स्त्री से कर देना चाहिए। राजा द्रुपद ने दर्शाणराज की कन्या से शिखण्डी का विवाह करवा दिया। शादी के बाद दर्शाणराज की कन्या को शिखण्डी के स्त्री होने का पता चला तो उसने अपने पिताजी को संदेश पहुंचवाया। उसके पिता ने जब यह समाचार पाया तो उन्होंने द्रुपद के राज्य पर हमला बोल दिया।
जब यक्ष ने दिया इस राजकुमारी को राजकुमार बनने का वरदान तो...
यह सुनकर शिखण्डी को अपने पिता के यश की चिंता होने लगी। उसने यक्ष अनुष्ठान किया। अनुष्ठान से एक यक्ष प्रकट हुआ। उसने शिखण्डी से बोला बोलो तुम क्या चाहते हो? तो शिखण्डी ने अपनी सारी समस्या उसे बता दी। यह सुनकर यक्ष ने शिखण्डी से कहा तुम कुछ समय के लिए मेरा पुरुषत्व ले लो और मैं तुम्हारा स्त्रीत्व ले लेता हूं। इससे तुम्हारा काम हो जाएगा परन्तु कुछ समय बाद तुम्हे मेरा पुरुषत्व मुझे लौटाना होगा। इस शर्त के साथ यक्ष ने शिखण्डी को पुरुष बना दिया। शिखण्डी जब पुरुष रूप में अपनी पत्नी और उसके पिता के सामने पहुंचा तो राजकुमारी को उसके पिता फटकार लगाकर अपनी सेना सहित अपने राज्य को लौट गए।
इधर इसी बीच किसी दिन यक्षराज कुबेर ने उस यक्ष को बुलावा भेजा। जब राजा को उसके स्त्री हो जाने की बात पता लगी तो उस पर क्रोधित होकर कुबेर ने उसे हमेशा उसी रूप में रहने का शाप दिया। उसके क्षमा मांगने पर कुबेर ने कहा जब शिखण्डी का वध हो जाएगा तब तुम्हे अपना पुरुषत्व वापस मिल जाएगा। जब शिखण्डी यक्ष को उसका पुरुषत्व लौटाने गया तो उसे सारी बात पता चली।
इसलिए भीष्म को केवल शिखण्डी ही मार सकता था...
शिखण्डी इस तरह स्त्री से पुरुष बन गया। उस यक्ष की बात सुनकर शिखण्डी बहुत प्रसन्न हुआ। शिखण्डी को इस तरह पुरुष बना देख द्रुपद ने धर्नुविद्या सीखने के लिए उसे द्रोणाचार्यजी के पास भेज दिया। फिर शिखण्डी ने ही ग्रहण धारण, प्रयोग और प्रतीकार - धर्नुविद्या की इन चार विधाओं की शिक्षा प्राप्त की।
मैंने मुर्ख, बहरे और अंधे दिखने वाले जो गुप्तचर द्रुपद के यहां तैनात कर रखे थे। उन्हीं ने मुझे ये सब बातें बताई। इस प्रकार यह द्रुपद का पुत्र महारथी शिखण्डी पहले स्त्री था और फिर पुरुष हो गया। अगर यह युद्ध के मैदान में मेरे सामने आया तो मैं न तो उसकी तरफ देख पाऊंगा नहीं बाण चला पाऊंगा। अगर भीष्म एक स्त्री की हत्या करेगा तो साधु जन उसकी निंदा करेंगे। भीष्म की यह बात सुनकर कुरुराज दुर्योधन कुछ देर तक विचार करता रहा। फिर उसे भीष्म की बात ही उचित जान पड़ी।
सफलता पर गर्व करना है तो पहले ये इत्मिनान कर लें...
किसान बड़े परिश्रम से अपनी फसल उगाता है और उसका सबसे बड़ा सपना होता है फसल को काटकर अन्न के रूप में उपयोग करना। शास्त्रों में किसान की इस सफलता पर बड़ी सुंदर टिप्पणी की गई है। जब फसल बिल्कुल काटे जाने की तैयारी में होती है, तब किसान से एक चूक हो जाती है। कबीर कह गए हैं - पकी खेती देखिके, गरब किया किसान। अजहूं झोला बहुत है, घर आवै तब जान।
इन पंक्तियों में ‘अजहूं झोला’, बड़ा सुंदर शब्द आया है। झोला का अर्थ है झमेला। फसल पक चुकी है, किसान बहुत प्रसन्न है। यहीं से उसे अभिमान आ जाता है, लेकिन प्रकृति इशारा कर रही है कि फसल काटकर घर ले जाने तक बहुत सारे झमेले हैं। कई कठिनाइयां हैं।
जब तक फसल बिना बाधा के घर न आ जाए, तब तक सफलता न मानी जाए। इसीलिए कहा है - ‘घर आवै तब जान।’ यह बात हमारे कार्यो पर भी लागू होती है। कोई भी काम करें, जब तक अंजाम पर न पहुंच जाएं, यह बिल्कुल न मान लें कि हम सफल हो चुके हैं।
बाधाओं की कई शक्लें होती हैं। इसी में से एक शक्ल अभिमान तो दूसरी लापरवाही है। इसलिए कबीर ने इस ओर इशारा किया है। अब सवाल यह है कि अपनी सफलता को पूर्णरूप देने के लिए अभिमान रहित कैसे रहा जाए? इसके लिए परमपिता परमेश्वर के प्रति लगातार प्रार्थना व आभार व्यक्त करते रहें, क्योंकि जब हम प्रार्थना में डूबे हुए होते हैं तो हमारी भावनाओं में, विचारों और शब्दों में समर्पण और विनम्रता का भाव अपने आप आता है कि हे परमात्मा! आपका हाथ हमारी पीठ पर नहीं होता तो ये सफलता संभव नहीं थी।
युद्ध के मैदान में महायोद्धा अर्जुन क्यों घबराने लगे?
धृतराष्ट्र बोले-संजय धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में एकत्रित युद्ध की इच्छा वाले मेरे और पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया? संजय बोले- उस समय राजा दुर्योधन ने व्यूहरचना युक्त पांडवों की सेना को देखकर और द्रोणाचार्य के पास जाकर यह वचन कहा- आचार्य आपके बुद्धिमान शिष्य द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्र द्वारा सेना व्यूहाकार खड़ी की हुई। पाण्डुपुत्रों की इस बड़ी भारी सेना को देखिए। इस सेना में बड़े-बड़े धनुषों वाले तथा भारी यौद्धा देखिए। कौरवों के सेनापति पितामह भीष्म ने दुर्योधन के हृदय में हर्ष उत्पन्न करते हुए उच्च स्वर से सिंह के दहाड़ के समान गरजकर शंख बजाया।
यह सब देखकर अर्र्जुन श्रीकृष्ण से बोले युद्धक्षेत्र में डटे हुए युद्ध के अभिलाषा इस स्वजन समुदाय को देखकर मेरे अंग शिथिल हुए जा रहे हैं मुंह सूखा जा रहा है। ये सभी मेरे संबंधी लोग हैं मैं इन्हें कैसे मार सकता हूं। धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर हमें क्या प्रसन्नता होगी? इन लोगों को मारकर हमें पाप ही लगेगा। अपने भाइयों को मारकर हम कैसे सुखी होंगे।
कृष्ण ने आखिरी बार ऐसे की थी महाभारत युद्ध रोकने की कोशिश.....
यह सुनकर भगवान बोले तुझे इस असमय में यह मोह क्यों हो रहा है? न तो यह श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा आचरित है, न स्वर्ग को देने वाला है और न ही यश देने वाला है और न कीर्र्ति को करने वाला ही है। इसलिए अर्जुन नपुंसकता को मत प्राप्त हो, तुझमें यह उचित नहीं जान पड़ती। तेरे दिल की तुच्छ दुर्बलता त्याग कर युद्ध के लिए खड़ा हो जा। अर्जुन बोले- मैं रणभूमि में किस प्रकार भीष्मपितामह और द्रोणाचार्य के विरुद्ध लड़ूंगा। वे दोनों ही पूजनीय हैं। इसलिए इनके सामने युद्ध करना मेरे लिए थोड़ा मुश्किल है। श्रीकृष्ण से वे कहने लगे आप उस कुबुद्धि दुर्योधन को समझाते क्यों नहीं? तब श्रीकृष्ण ने दुर्योधन को कई तरह से समझाने का प्रयास किया। श्रीकृष्ण की सारी बातें सुनकर भीष्म ने दुर्योधन से कहा- अपने चाहने वाले श्रीकृष्ण ने जो तुम्हे समझाया है। वह धर्म और अर्थ के अनुकूल है। तुम उसे स्वीकार कर लो, व्यर्थ ही प्रजा का संहार मत कराओ।
अगर तुम ऐसा नहीं करोगे तो तुम्हे अपने सभी प्रियजनों से हाथ धोना पड़ेगा। इसके बाद द्रोणचार्य ने कहा- राजन श्रीकृष्ण और भीष्मजी बड़े बुद्धिमान, मेधावी, जितेन्द्रिय, अर्थनिष्ट है। उन्होंने तुम्हारे हित की बात कही है, तुम उसे मान लो और मोहवश श्रीकृष्ण का तिरस्कार मत करो। तुम प्रजा और पुत्र तथा बन्धु-बांधवों के प्राणों को संकट में मत डालो। यह बात निश्चय मानो कि जिस पक्ष में श्रीकृष्ण और अर्जुन होंगे, उसे कोई जीत नहीं सकेगा। अगर तुम अपने हितैषियों की बात नहीं मानोगे तो आगे तुम्हे पछतावा ही होगा।
ये एक ही चीज हर इंसान की सबसे बड़ी दुश्मन है....
अर्जुन बोले- कृष्णे यह मनुष्य स्वयं न चाहता हुआ भी किससे प्रेरित होकर पाप का आचरण करता है?श्रीभगवान बोले- रजोगुण से उत्पन्न हुआ यह काम ही क्रोध है, यह बहुत बड़ा पापी है, यह सबसे बड़ा दुश्मन है। जिस प्रकार धूएं व अग्रि से मैल से दर्पण ढका रहता है। जिस तरह गर्भ एक आवरण से ढका होता है। वैसे ही काम के द्वारा ज्ञान ढका रहता है। इंद्रियां, मन और बुद्धि ये सब इसके वास स्थान कहे जाते हैं। यह काम इन मन, बुद्धि और इंद्रियों के द्वारा ज्ञान और विज्ञान का नाश करने वाला है। इंद्रियों से ऊपर मन है मन से ऊपर बुद्धि है और जो बुद्धि से भी परे है वह आत्मा है। तू इस आत्मा को श्रेष्ठजान और मन को वश में करके शत्रु को मार डाल।
जानिए, कृष्ण की किस बात ने किया अर्जुन को युद्ध के लिए तैयार?
यदि आपको कर्मों की अपेक्षा ज्ञान श्रेष्ठ मान्य है तो फिर केशव! मुझे भयंकर कर्म में क्यों लगाते हैं? आप मिले हुए से वचनों से मानो मेरी बुद्धि को मोहित कर रहे हैं। इसलिए उस एक बात को निश्चित करके कहिए।
जिससे मेरा कल्याण हो जाए। श्रीकृष्ण बोले- मनुष्य किसी भी काल में क्षणमात्र भी बिना कर्म किए नहीं रहता क्योंकि सारा मनुष्यसमुदाय प्रकृतिजनित गुणों द्वारा परवश हुआ कर्म करने के लिए बाध्य किया जाता है। जो मूर्ख मनुष्य समस्त इंद्रियों को हठपूर्वक ऊपर से रोककर मन से उन इंद्रियों के विषयों का चिंतन करता रहता है, वह मिथ्याचारी कहा जाता है। जो पुरुष मन से इंद्रियों को वश में करके अनासक्त हुआ। दसों इंद्रियों द्वारा कर्मयोग का आचरण करता है वही श्रेष्ठ है। कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है। कर्म न करने से तेरा शरीर निर्वाह भी नहीं सिद्ध होगा। यज्ञ के निमित्त किए जाने वाले कर्मों से अतिरिक्त दूसरे कर्मों में लगा हुआ ही यह मनुष्य समुदाय कर्मों से बंधता है। इसलिए तू आसक्ति से रहित होकर उस यज्ञ के निमित्त ही अपना भलीभांति कर्तव्य कर्म कर। अर्जुन ये युद्ध ही तेरा कर्म है और तू निश्चिंत होकर इसे कर।
अचानक युधिष्ठिर क्यों छोड़कर जाने लगे थे युद्ध का मैदान?
वैशम्पायनजी कहते हैं राजन गीता स्वयं भगवान कमलनाथ के मुखकमल से निकली है। इसलिए इसी का अच्छी तरह स्वाध्याय करना चाहिए। अन्य बहुत से शास्त्रों का संग्रह करने से क्या लाभ है? गीता में सब शास्त्रों का समावेश हो जाता है। संजय ने कहा- तब अर्जुन ने बाण और गाण्डीव धनुष धारण किए देखकर महारथियों ने फिर सिंहनाद किया। उस समय पांडव, सोमक और उनके अनुयायी दूसरे राजालोग प्रसन्न होकर शंख बजाने लगे।
इस प्रकार दोनों ओर की सेना को युद्ध के लिए तैयार देख महाराज युधिष्ठिर अपने कवच और शस्त्रों को छोड़कर रथ से उतर पड़े और हाथ जोड़े हुए बहुत तेजी से पूर्व की ओर, जहां शत्रु की सेना खड़ी थी। पितामह भीष्म की ओर देखते हुए पैदल ही चल दिए। उन्हें इस प्रकार जाते देख अर्जुन भी रथ से कूद पड़े और सब भाइयों के साथ उनके पीछे-पीछे चल दिए। तब अर्जुन ने कहा- राजन आपका विचार क्या है? आप हमें छोड़कर पैदल ही शत्रु की सेना में क्यों जा रहे हैं। भीमसेन बोले-राजन् शत्रुपक्ष के सैनिक कवच धारण किए तैयार खड़े हैं।
ऐसी स्थिति में आप भाइयों को छोड़कर तथा कवच और शस्त्र डालकर कहा जाना चाहते हैं? नकुल ने कहा- महाराज आप हमारे बड़े भाई हैँ आपके इस प्रकार जाने से हमारे दिल में बड़ा भय हो रहा है। बताइए तो सही, आप कहां जाएंगे? सहदेव ने पूछा, इस रणस्थली में आप हमें छोड़कर इन शत्रुओं के साथ कहां जा रहे हो। भाइयों के इस प्रकार पूछने पर भी महाराज युधिष्ठिर कुछ नहीं बोले वे चुपचाप चलते ही गए। तब श्रीकृष्ण ने हंसकर कहा मैं इनका अभिप्राय समझ गया हूं। ये भीष्म, द्रोण, कृप और शल्य आदि सभी गरुजनों से आज्ञा लेकर ही शत्रुओं के साथ युद्ध करेंगे। जब श्रीकृष्ण ऐसा कह रहे थे तो कौरवों की सेना में बड़ा कोलाहल होने लगा और कुछ लोग दंग रहकर चुपचाप खड़े हो गए।
भीष्म ने दिया युधिष्ठिर को महाभारत युद्ध जीतने का वरदान क्योंकि....
दुर्योधन के सैनिकों ने राजा युधिष्ठिर को देखा तो आपस में बात करने लगे तो आपस में बात करने लगे ओहो यही कुलकलंक युधिष्ठिर है। देखो अब डरकर अपने भाइयों सहित शरण पाने की इच्छा से भीष्मजी के पास आ रहा है।
अरे इसकी पीठ पर तो अर्जुन, भीम, नकुल, सहदेव जैसे वीर हैं। फिर भी इसे भय ने कैसे दबा लिया। ऐसा कहकर फिर वे सैनिक कौरवो की प्रशंसा करने लगे और प्रसन्न होकर अपनी ध्वजाएं फहराने लगे। इस प्रकार युधिष्ठिर को धिक्कार कर वे सब वीर यह सुनने के लिए कि देखें, यह भीष्मजी से कहता है और रणबांकुरे भीमसेन तथा कृष्ण और अर्जुन इस मामले में क्या बोलते हैं और चुप हो गए।महाराज युधिष्ठिर की इस चेष्टा से दोनों ही पक्षों की सेनाएं बड़े संदेह में पड़ गई।
महाराज युधिष्ठिर शत्रुओं की सेना के बीच में होकर भीष्मजी के पास पहुंचे और दोनों हाथों से उनके चरण पकड़कर कहने लगे, अजेय पितामाह मैं आपको प्रणाम करता हूं। मुझे आपसे युद्ध करना होगा। आप मुझे आज्ञा दीलिए साथ ही आशीर्वाद देने की भी कृपा करें। भीष्म ने कहा युधिष्ठिर अगर तुम इस समय मेरे पास नहीं आते तो तुम्हारी हार के लिए तुम्हे शाप दे देता। लेकिन अब मैं तुम पर प्रसन्न हूं। तुम युद्ध करो, तुम्हारी जीत होगी, इस युद्ध में तुम्हारी पराजय नहीं हो सकेगी। इसके अलावा कुछ मांगना हो तो मांग लो।
द्रोणाचार्य ने युधिष्ठिर को क्यों बताया अपनी मौत का राज?
आपको तो कोई जीत नहीं सकता। इसलिए आप हमारा हित चाहते हैं तो बतलाइए , हम आपको युद्ध में कैसे जीत सकेंगे। तब भीष्म ने बोला संग्रामभूमि में युद्ध क रते समय मुझे जीत सके- ऐसा तो मुझे कोई दिखाई नहीं पड़ता। अन्य पुरुष तो क्या, स्वयं इंद्र की भी ऐसी शक्ति नहीं है। इसके सिवा मेरी मृत्यु का भी कोई निश्चित समय नहीं है। इसलिए तुम किसी दूसरे समय मुझसे मिलना। तब महाबाहु युधिष्ठिर द्रोणाचार्य से मिले। द्रोणाचार्य ने कहा यदि तुम युद्ध का निश्चय करके फिर मेरे पास न आते तो मैं तुम्हे पराजय के लिए शाप दे देता। लेकिन तुम्हारे इस सम्मान से मैं प्रसन्न हूं। युधिष्ठिर ने कहा मुझे आपसे युद्ध करना होगा, इसके लिए मैं आपसे आज्ञा मागता हूं।
जिससे द्रोणाचार्य बोले जब मैं क्रोध से भरकर बाणों की वर्षा करूंगा, उस समय मुझे मार सके ऐसा तो कोई शत्रु दिखाई नहीं देता हां जब मैं शस्त्र छोड़कर अचेत सा खड़ा रहूं उस समय कोई योद्धा मुझे मार सकता है। यह मैं तुमसे सच-सच कहता हूं। यह सच्ची बात तुम्हे बताता हूं। जब किसी विश्वासपात्र व्यक्ति के मुंह से मुझे कोई अत्यंत अप्रिय बात सुनाई देती है। संग्रामभूमि में अस्त्र त्याग देता हूं।
युधिष्ठिर से सीखे बिना युद्ध दुश्मन को हराने की ये कला
राजा युधिष्ठिर ने उनकी आज्ञा ली और वे आचार्य कृप के पास आए और उन्हें प्रणाम एवं प्रदक्षिणा करके कहने लगे। गुरुजी मुझे आपसे युद्ध करना होगा। इसके लिए मैं आपसे आज्ञा मांगता हूं। जिससे मुझे कोई पाप न लगे। आपकी आज्ञा होने पर मैं शत्रुओं को भी जीत सकूं गा। कृपाचार्य ने कहा युद्ध का निश्चय होने पर यदि तुम मेरे पास न आते तो मैं तुम्हे शाप दे देता।
जीत तुम्हारी होगी। तुम्हारे इस समय यहां आने से मुझे बहुत प्रसन्नता हुई। मैं रोज उठकर तुम्हारी विजयकामना करूंगा- यह मैं तुमसे ठीक-ठीक कहता हूं। कृपाचार्यजी की बात सुनकर राजा युधिष्ठिर उनकी आज्ञा लेकर मद्रराज शल्य के पास गए और उन्हें प्रणाम करके बोले आपसे आज्ञा मांगता हूं, जिससे मुझे कोई पाप न लगे तथा आपकी आज्ञा होने पर मैं शत्रुओं को भी जीत सकूंगा। शल्य ने कहा राजन् युद्ध का निश्चय कर लेने पर यदि तुम मेरे पास न आते तो मैं तुम्हारी पराजय के लिए तुम्हे शाप दे देता।
इस समय आकर तुमने मेरा सम्मान किया है। इसलिए मैं तुम पर प्रसन्न हूं। मुझे अर्थ ने अपना दास बना रखा है इसीलिए कौरवों की तरफ से युद्ध लड़ रहा हूं। इसी के कारण मुझे नपुंसक की तरह ये पूछना पड़ता है कि अपनी ओर से युद्ध कराने के सिवा तुम और क्या चाहते हो। तुम मेरे भानजे हो तुम्हारी जो इच्छा होगी पूरी होगी।
ये था एक मात्र कौरव जो महाभारत के अंत तक जीवित था
संजय कहते हैं मद्रराज शल्य से आज्ञा लेकर राजा युधिष्ठिर अपने भाइयों सहित उस विशाल वाहिनी से बाहर आ गए। इस बीच में श्रीकृष्ण कर्ण के पास गए और उससे कहा कि मैंने सुना है भीष्मजी से द्वेष होने के कारण तुम युद्ध नहीं करोगे। यदि ऐसा है तो जब तक भीष्म नहीं मारे जाते, तब तक तुम हमारीओर आ जाओ। उनके मारे जाने पर फिर तुम्हे दुर्योधन की सहायता करनी ही उचित जान पड़े तो फिर हमारे मुकाबले में आकर युद्ध करना।
कर्ण ने कहा- केशव मैं दुर्योधन का अप्रिय कभी नहीं करूंगा। आप मुझे प्राणपण से दुर्योधन हितैषी समझें। कर्ण की यह बात सुनकर श्रीकृष्ण वहां से लौट आए और पांडवों से आ मिले। इसके बाद महाराज युधिष्ठिर ने सेना के बीच में खड़े होकर उच्च स्वर से कहा- जो वीर हमारा साथ देना चाहे अपनी सहायता के लिए मैं उसका स्वागत करने को तैयार हूं। यह सुनकर युयुत्सु बहुत प्रसन्न हुआ।
उसने पाण्डवों की ओर देखकर धर्मराज युधिष्ठिर से कहा - महाराज यदि आप मेरी सेवा स्वीकार करें। युधिष्ठिर ने कहा - युयुत्सो आओ। आओ हम सब मिलकर तुम्हारे मूर्ख भाइयों से युद्ध करेंगे। महाबाहो! मैं तुम्हारा स्वागत करता हूं। तुम हमारी ओर से संग्राम करो। मालूम होता है महाराज धृतराष्ट्र का वंश तुम से ही चलेगा। फिर युयुत्सु तुम्हारे पुत्रों को छोड़कर पाण्डवों की सेना में चला गया। तब धर्मराज युधिष्ठिर ने अपने भाइयों के सहित प्रसन्नता पूर्वक पुन: कवच धारण किया। सब लोग अपने अपने रथों पर चढ़ गया।
अगर हमने उन्हें मारा तो शेष बचे पांडव हमें नष्ट कर देंगे। सब पांडवों को तो देवता भी नहीं मार सकते। इसलिए जो भी अंत में बचेगा वह हमें मार डालेगा। मैं तो चाहता हूं कि सत्य की प्रतिज्ञा करने वाले युधिष्ठिर अगर मेरे काबू में आ जाएं तो मैं उन्हें फिर से जूए में जीत लूंगा और तब उनके अनुयायी पांडव लोग भी फिर वन में चले जाएंगे। इसीलिए में धर्मराज का वध किसी भी अवस्था में नहीं करना चाहता।
जब महाभारत का युद्ध शुरू हुआ तो कुछ ऐसा था पहला दिन
धृतराष्ट्र ने पूछा इस प्रकार जब मेरे पुत्र और पाण्डवों की सेना की व्युहरचना हो गई तो उन दोनों में से किसने प्रहार किया। संजय ने कहा- राजन् तब भाइयों सहित आपका पुत्र दुर्योधन भीष्मजी को आगे रखकर सेनासहित बढ़ा। इसी प्रकार सेनाओं में घोर युद्ध होने लगा। पाण्डवों ने हमारी सेना पर आक्रमण किया और हमने उन पर धावा बोल दिया। दोनों ओर ऐसा भीषण शब्द हो रहा था कि सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते थे। दोनों और से जबरदस्त बाणों की वर्षा हो रही थी। महाराज युधिष्ठिर शल्य के सामने आए।
मद्रराज शल्य ने उनके धनुष के दो टुकड़े कर दिए। धर्मराज ने तुरंत ही दूसरा धनुष लेकर उनके धनुष के तीन टुकड़े कर दिए। राजा द्रुपद ने जयद्रथ पर आक्रमण किया। महारथी कुन्तिभोज से अवन्तिराज विन्द और अनुविन्द का संघर्ष हुआ। वे अपनी-अपनी विशाल वाहिनियों के सहित संग्राम करने लगे।
इस तरह सब एक दूसरे को मारने लगे युद्ध का दृश्य बहुत भयानक हो गया। संग्राम मर्यादाहीन होने लगा। भीष्म के सामने पड़ते ही पाण्डवों की सेना थर्रा उठी। इस दुखभरे दिन का पहला भाग बीतते-बीतते अनेकों बांकुरे वीरों का भीषण संहार हो गया। तब आपके पुत्र दुर्योधन की प्रेरणा से दुर्मुख, कृतवर्मा कृप आदि ने अभिमन्यु पर हमला कर दिया। ये देखकर पांडव पक्ष के दस महारथी बड़ी तेजी से अभिमन्यु की रक्षा के लिए दौड़े।
महाभारत के युद्ध में जब अर्जुन और भीष्म आए आमने-सामने तो.....
महाभारत का दूसरा दिन- दुर्योधन ने जब उस पाण्डवों द्वारा रचे गए दुर्भेद्य कौरवव्यूह की रचना देखी और बहुत तेजस्वी अर्जुन को उसकी रक्षा करते पाया तो द्रोणाचार्य के पास जाकर वहां उपस्थित सभी शूरवीरों से कहा- वीरों आप सब लोग कई तरह की कला में प्रवीण हैं। आप में से एक-एक वीर युद्ध में पाण्डवों को मारने की शक्ति रखता है। फिर यदि सभी महारथी एक साथ मिलकर उद्योग करें, तब तो कहना ही क्या है? उसके इस प्रकार कहने से भीष्म, द्रोण और सभी कौरव मिलकर पाण्डवों के मुकाबले में एक महान व्यूह की रचना करने लगे।
भीष्मजी बहुत बड़ी सेना साथ लेकर सबसे आगे चलें। उनके पीछे कुन्तल, दशार्ण, मगध , विदर्भ व मेकल और कर्णाप्रवण आदि देशों के वीरों को साथ लेकर महाप्रतापी द्रोणाचार्य चले। गांधार, सिन्धुसौवीर, शिबि और वसाति वीरों के साथ शकुनि द्रोणचार्य की रक्षा में नियुक्त हुए। इनके पीछे अपने सभी भाइयों के साथ दुर्योधन था। कौरवों के पितामह भीष्म ने भी सिंह की तरह दहाड़ कर ऊंचे स्वर में शंख बजाया दसरे दिन के युद्ध की शुरुआत हुई।
संजय ने कहा- जब दोनों ओर समानरूप से सेनाओं की व्यूहरचना हो गई और सब ओर सुंदर ध्वजाएं लहराने लगी। तब दुर्योधन ने युद्ध आरंभ करने की आज्ञा दी। भीष्म की मार से पांडवों का व्यूह टूट गया, सारी सेना तितर-बितर हो गई। कितने ही सवार और घोड़े मारे गए। यह देखकर अर्जुन को क्रोध आ गया।अर्जुन ने श्रीकृष्ण से कहा जनार्दन अब पितामह भीष्म के पास रथ ले चलिए। नहीं तो ये हमारी पूरी सेना को खत्म कर देंगे। अर्जुन वहां पहुंचे तो भीष्म ने उन्हें अस्सी बाण मारकर बांध दिया।
महाभारत का तीसरा दिन....पांडवों की सेना हारने लगी क्योंकि...
जब रात बीती और सबेरा हुआ तो भीष्म ने अपनी सेना को रणभ्रूमि में चलने की आज्ञा दी। वहां जाकर उन्होंने सेना का गरुड़-व्यूह रचा और उस व्यूह के अग्रभागमें चोंच के स्थान पर वे खुद ही खड़े हुए। दोनों नेत्रों की जगह द्रोणाचार्य और कृतवर्मा थे। शिरोभाग में अश्चत्थामा और कृपाचार्य खड़े हुए। इनके साथ त्रैगर्त, कैकय, और वाटधान भी थे।
मद्रक, सिंधुवीर और पंचनददेशीय वीरों के साथ भूरिश्रवा, शल, शल्य, भगदत व जयद्रथ- ये कण्ठ की जगह खड़े किए गए थे। दुर्योधन पुष्ठभाग पर खड़ा हुआ। कम्बोज, शक और शूरसेनदेशीय योद्धाओं को साथ लेकर विन्द तथा अनुविन्द उस व्यूह के पुच्छभाग में स्थित हुए। अर्जुन ने कौरव सेना की वह व्यूह रचना देखी तो धृष्टद्युम्न को साथ लेकर उन्होंने अपनी सेना का अर्धचंद्राकार व्यूह बनाया।
उसके दक्षिण शिखर पर भीमसेन सुशोभित उनके साथ अनेकों अस्त्र-शस्त्रों से सम्पन्न भिन्न-भिन्न देशों के राजा थे। भीमसेन के पीछे महारथी विराट और द्रुपद खड़े हुए। उनके बाद नील के बाद धृष्टकेतु थे। धृष्टकेतु के साथ चेदि, काशि और करूष एवं प्रभद्रकदेशीय योद्धाओं के साथ सेना के साथ धर्मराज युधिष्ठिर भी वहां ही थे। उनके बाद सात्यकि और द्रोपदी के पांच पुत्र थे। फिर अभिमन्यु और इरावान थे। इसके बाद युद्ध आरंभ हुआ। रथ से रथ और हाथी से हाथी भिड़ गए। कौरवों ने एकाग्रचित्त होकर ऐसा युद्ध किया की पांडव सेना के पैर उखड़ गए। पांडव सेना में भगदड़ मच गई।
क्या आप जानते हैं, महाभारत युद्ध में कृष्ण को क्यों उठाना पड़ा था चक्र?
भीष्म ने अपने बाणों की वर्षा तेज कर दी।सारी पांडव सेना बिखरने लगी। पांडव सेना का ऐसा हाल देखकर श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा कि तुम अगर इस तरह मोह वश धीरे-धीरे युद्ध करोगे तो अपने प्राणों से हाथ धो बैठोगे। यह सुनकर अर्जुन ने कहा केशव आप मेरा रथ पितामह के रथ के पास ले चलिए। कृष्ण रथ को हांकते हुए भीष्म के पास ले गए। अर्जुन ने अपने बाणों से भीष्म का धनुष काट दिया।
भीष्मजी फिर नया धनुष लेकर युद्ध करने लगे। यह देखकर भीष्म ने अर्जुन और श्रीकृष्ण को बाणों की वर्षा करके खूब घायल किया। भगवान श्रीकृष्ण ने जब देखा कि सब पाण्डवसेना कि सब प्रधान राजा भाग खड़े हुए हैं और अर्जुन भी युद्ध में ठंडे पढ़ रहे हैं तो तब श्रीकृष्ण नेकहा अब मैं स्वयं अपना चक्र उठाकर भीष्म और द्रोण के प्राण लूंगा और धृतराष्ट्र के सभी पुत्रों को मारकर पाण्डवों को प्रसन्न करूंगा। कौरवपक्ष के सभी राजाओं का वध करके मैं आज युधिष्ठिर को अजातशत्रु राजा बनाऊंगा।
जब कृष्ण कूद पड़े महाभारत के युद्ध में तो....
इतना कहकर कृष्ण ने घोड़ों की लगाम छोड़ दी और हाथ में सुदर्शन चक्र लेकर रथ से कूद पड़े। उसके किनारे का भाग छूरे के समान तीक्ष्ण था। भगवान कृष्ण बहुत वेग से भीष्म की ओर झपटे, उनके पैरों की धमक से पृथ्वी कांपने लगी। वे भीष्म की ओर बढ़े। वे हाथ में चक्र उठाए बहुत जोर से गरजे। उन्हें क्रोध में भरा देख कौरवों के संहार का विचार कर सभी प्राणी हाहाकार करने लगे।
उन्हें चक्र लिए अपनी ओर आते देख भीष्मजी बिल्कुल नहीं घबराए। उन्होंने कृष्ण से कहा आइए-आइए मैं आपको नमस्कार करता हूं। भगवान को आगे बढ़ते देख अर्जुन भी रथ से उतरकर उनके पीछे दौड़े और पास जाकर उन्होंने उनकी दोनों बांहे पकड़ ली। भगवान रोष मे भरे हुए थे, अर्जुन के पकडऩे पर भी वे रूक न सके। जैसे आंधी किसी वृक्ष को खींच लिए चली जाए, उसी प्रकार वे अर्जुन को घसीटते हुए आगे बढऩे लगे।अर्जुन ने जैसे -तैसे उन्हें रोका और कहा केशव आप अपना क्रोध शांत कीजिए , आप ही पांडवों के सहारे हैं। अब मैं भाइयों और पुत्रों की शपथ लेकर कहता हूं कि मैं अपने काम में ढिलाई नहीं करूंगा, प्रतिज्ञा के अनुसार ही युद्ध करूंगा। तब अर्जुन की यह प्रतिज्ञा सुनकर श्रीकृष्ण प्रसन्न हो गए।
क्यों किया था, युधिष्ठिर ने महाभारत के युद्ध के बीच में ही हार मानने का फैसला?
अर्जुन तेजी से युद्ध करने लगे उन्होंने अपने सात बाण भूरिश्रवा पर चलाएं, दुर्योधन ने तोमर शल्य ने गदा और भीष्म ने शक्ति का प्रहार किया। अर्जुन ने बाणों का जाल बिछाकर कौरव सेना के वीरों का नाश कर दिया।सभी पाण्डव योद्धा हर्षनाद करने लगे। श्रीकृष्ण ने भी हर्ष प्रकट किया। सूरज ढलने का वक्त हो गया। कौरव वीरों के शरीर अस्त्र-शस्त्रों से क्षत-विक्षत हो रहे थे। युगान्तका के समान सब ओर फैला हुआ अर्जुन का ऐन्द्र अस्त्र भी अब सबके लिए असहाय हो चुका था। इन सब बातों का विचार करे संध्याकाल उपस्थित देख भीष्म, द्रोण, दुर्योधन आदि शिविर में लौट आए। अर्जुन भी शत्रुओं पर विजय और यश पाकर भाइयों और राजाओं के साथ शिविर में लौट आए। कौरवों के सैनिक लौटते समय एक दसरे से कहने लगे। आज तो अर्जुन ने बड़ा पराक्र म कर दिखाया। संजय ने कहा- रात बीत जाने के बाद अगले दिन सुबह ही भीष्मजी बड़े क्रोध में भरकर सेना के सहित शत्रुओं के सामने आए।
उस समय द्रोणाचार्य, दुर्योधन, दुर्मर्षण, चित्रसेन, जयद्रथ तथा अनेकों दूसरे राजा लोग उनके साथ-साथ चल रहे थे। भीष्म ने सीधा अर्जुन पर धावा बोला। इस तरह युद्ध चलते रहने पर भीष्मजी की बाणों की मार खाकर पांडव सेना भय से व्याकुल हो हथियार फेंककर भाग चली। रात्रि के पहले पहर में पांडव की बैठक हुई। बहुत देर तक सोचने विचारने के बाद राजा युधिष्ठिरने भगवान श्रीकृष्ण की ओर देखकर कहा राजा भीष्म लगातार हमारी सेना का संहार कर रहे हैं। अब मेरा विचार है कि मैं वन में चला जाऊं। वहां जाने में ही अपना कल्याण दिखाई देता है। युद्ध की तो बिल्कुल इच्छा नहीं है। हमारे भाई बाणों की मार से बहुत कष्ट पा रहे हैं। केशव मैं जीवन को बहुत मुल्यवान मानता हूं और वही इस समय दुर्लभ हो रहा है। इसलिए चाहता हूं अब जिंदगी के जितने दिन बाकी हैं उनमें उत्तम धर्म का आचरण करूं। अगर आप हम लोगों को अना कृपापात्र समझते हों तो ऐस उपाय बताइए, जिससे अपना हित हो और धर्म में बाधा न आए।
जब युधिष्ठिर मन ही मन हार गए महाभारत तो...
धधकती हुई आग के समान भीष्मजी की तरफ हमारी आंख उठाकर भी देखने की हिम्मत नहीं होती। भीष्म पर विजय पाना मुझे तो असंभव सा लगता है। वे निरंतर हमारी सेना का संहार कर रहे हैं। हमारा पक्ष क्षीण हो चला है।
हमारे भाई बाणों की वर्षा से बहुत कष्ट पा रहे हैं। भातृस्नेह के ही कारण हमारे साथ ये भी राज्य से भ्रष्ट हुए, द्रोपदी ने भी कष्ट भोगा। युधिष्ठिर की करुणाभरी बात सुनकर भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें सांत्वना देते हुए कहा -धर्मराज आप विषाद न करें। आपके भाई शुरवीर हैं। आप चाहें तो मुझे भी युद्ध में लगा दें, आपके स्नेह से मैं भी युद्ध कर सकता हूं। मैं अकेले ही उन्हें मार सकता हूं।
इसमें तनिक भी संदेह नहीं हैं कि जो पाण्डवों का शत्रु है, वह मेरा भी शत्रु ही है। हम लोगों ने प्रतिज्ञा की है कि एक-दूसरे को संकट से बचाएंगे। आप आज्ञा दीजिए, आज मैं भी युद्ध करूंगा। अर्जुन ने सभी लोगों के सामने यह प्रतिज्ञा की थी कि मैं भीष्म का वध करूंगा। उसका मुझे अवश्य पूर्ण करना चाहिए। भीष्म को मारना कौन बड़ी बात हैं? अर्जुन तैयार हो जाएं तो असम्भव कार्य भी कर सकते हैं।
क्या आप जानते हैं,सिर्फ तभी संभव था भीष्म को मारना जब....
श्रीकृष्ण ने युधिष्टिर से कहा मैं जानता हूं कि भीष्म जैसे योद्धा को परास्त करना आसान नहीं है। लेकिन मुझे लगता है अब हमें खुद उनकी शरण में जाकर उनके वध का उपाय पूछना चाहिए। इस तरह सलाह करके पाण्डव और भगवान श्रीकृष्ण भीष्म के शिविर में गए। उस समय उन लोगों ने अपने अस्त्र-शस्त्र और कवच उतार दिए थे। वहां पहुंचकर पाण्डवों ने भीष्मजी के चरणों पर मस्तक रखकर प्रणाम किया और कहा कि हम आपकी शरण में हैं। पितामह आप हमें अपने वध का उपाय बताएं। यह सुनकर भीष्म ने कहा मैं सच्ची बात कहता हूं कि जब तक मैं जीवित हूं, तुम्हारी विजय किसी भी तरह नहीं हो सकती। तुम अपनी विजय के लिए मेरा वध कर दो यही जरुरी है।
युधिष्ठिर ने कहा तब आप ही वह उपाय बताए जिससे हम जीत सकें। भीष्म ने कहा- पाण्डुनंदन तुम्हारा कहना सत्य है, पर जब मैं हथियार रख दूं। उस समय तुम्हारी महारथी मुझे मार सकते हैं। जो हथियार डाल दें, गिर जाए, कवच उतार दे, मैं आपका हूं कहकर शरण में आ जाए या स्त्री हो या स्त्री के समान जिसका नाम हो उन लोगों से मैं युद्ध नहीं करता हूं। तुम्हारी सेना में शिखण्डी है जो पहले स्त्री था और बाद में पुरुष हुआ अगर अर्जुन उसे सामने कर मुझ पर बाणों की वर्षा करे तो मैं प्रहार नहीं करूंगा। श्रीकृष्ण और अर्जुन के अलावा पांडव सेना में कोई ऐसा नहीं है जो मुझे मार गिराए।
महाभारत में सिर्फ यही एक व्यक्ति था जो भीष्म को मार सकता था
भीष्म की सारी बातें सुनकर सभी पांडवों अपने शिविर में लौट आए। वहां आकर उन्होंने श्रीकृष्ण से कहा- केशव मुझे यह लगता है कि भीष्म की मृत्यु का कारण शिखण्डी ही होगा। मैं दूसरे धर्नुधार्रियों को बाणों से मारकर रोक रखूंगा।
भीष्म की सहायता के लिए किसी को न आने दूंगा और शिखण्डी उनसे युद्ध करेगा। उसके बाद दसवे दिन के युद्ध में शिखण्डी को आगे करके पांडव युद्ध के लिए निकले। सेना का व्यूह निर्माण करके शिखण्डी सबसे आगे खड़ा हुआ। उसके पिछले भाग की रक्षा के लिए द्रोपदी के पुत्र और अभिमन्यु खड़े हुए। उसके बाद युद्ध आरंभ हुआ। शिखण्डी ने भीष्मजी को बाण मारा। भीष्मजी ने उसके स्त्रीत्व का विचार करे उस पर वार नहीं किया। तब उसे अर्जुन ने कहा पितामह को केवल तुम्ही मार सकते हो। उनका वध तुम्हारे ही हाथ होना है। शिखण्डी यह बात समझ नहीं सका। शिखण्डी ने भीष्मजी के सामने आकर उनके छाती में दस बाण मारे। इस तरह उसने तीर मार मारकर पितामह को बींध दिया।
भीष्म पितामह हारने के बाद भी जीवित रहे क्योंकि.....
इधर अर्जुन ने मुस्कुराकर भीष्मजी को पच्चीस बाण मारे। उसके बाद लगातार अर्जुन बाणों की बरसात करने लगे। अर्जुन ने बाण मार-मारकर उनकी ढाल के सैंकड़ो टुकड़े कर डाले। इस प्रकार कौरवों के देखते ही देखते बाणों से छलनी होकर पितामह गिर पड़े। उनके गिरते ही तीनों लोकों में हाहाकार मच गया। महाराज! महात्मा भीष्म को उस अवस्था में देख कौरवों का दिल बैठ गया। पृथ्वी पर वज्रपात के समान आवाज आई। गिरते-गिरते उन्होंने देखा कि सूर्य तो अभी दक्षिणायन है, यह मरण उत्तम काल नहीं है।
इसलिए अपने प्राणों का त्याग नहीं किया, होश हवास ठीक रखा। उसी समय उन्हें आकाश में यह दिव्य वाणी सुनाई दी, महात्मा भीष्मजी तो संपूर्ण शास्त्रवेताओं में श्रेष्ठ है, उन्होंने इस दक्षिणायन में अपनी मृत्यु क्यों स्वीकार की? यह सुनकर पितामह ने उत्तर दिया- मैं अभी जीवित हूं।उनकी माता गंगा को जब यह बात पता लगी तो उन्होंने हंस के रूप में महर्षियों को उनके पास भेजा। उन्होंने भीष्मजी से आकर कहा
आप दक्षिणायन सूर्य में अपना शरीर न छोड़ें। तब भीष्मजी ने उनसे कहा मैं देह त्याग नहीं करूंगा। सूर्य उत्तरायण होने पर ही मैं अपने प्राण त्याग दूंगा यह निश्चित है। यह कहकर वे बाणों की शैय्या पर सोए रहे। पाण्डव विजयी हुए थे उनके दल में शंखनाद होने लगा। संजय और सोमक खुशी के मारे फूल उठे। भीमसेन ताल ठोकतें हुए सिंह के समान दहाडऩे लगे। कौरव सेना में कुछ लोग बेहोश थे और कुछ फूट-फूटकर रो रहे थे।
क्यों बनाया गया था द्रोणाचार्य को कौरवों का सेनापति?
जब रात बीती और सवेरा हुआ तो सभी पाण्डव और कौरव भीष्मजी के नजदीक पहुंचे। सभी ने वीरों की तरह बाणों पर सोए हुए भीष्मजी को प्रणाम किया। हजारों कन्याओं ने वहां आकर उनकी पूजा की। सभी श्रेणी के लोग उनके दर्शन के लिए आने लगे। बाणों के घावों से भीष्मजी का शरीर जल रहा था। भीष्मजी ने कर्ण को बुलवाया और कहा कि कर्ण तुम सूत पुत्र नहीं तुम कुंती पुत्र हो। तब कर्ण ने कहा- यह मुझे भी मालूम है। लेकिन जैसे श्रीकृष्ण पाण्डवों की रक्षा के लिए दृढ़ संकल्पित हैं। ठीक उसी तरह में अपने जीवन के अंत तक युद्ध में कौरवों का साथ दूंगा।
भीष्म ने ये बात सुनकर कहा यदि तुम्हारे मन से पांडवों के लिए वैर नहीं मिट सकता तो मैं तुम्हे उनसे युद्ध करने की आज्ञा देता हूं। भीष्मजी से युद्ध की आज्ञा प्राप्त करने के बाद कर्ण युद्ध के लिए तैयार हो गए। कर्ण और दुर्योधन के बीच आपस में बातचीत हुई और उन्होंने द्रोणाचार्य को सेनापति बनाने का निर्णय लिया। दुर्योधन ने द्रोणाचार्य से कहा कि आप वर्ण, कुल, उत्पति, विद्या, आयु और तपस्या में सबसे श्रेष्ठ हैं। आप हमारे सेनापति बन जाएंगे तो इस युद्ध में निश्चित ही हमारी जीत हो जाएंगी। तब द्रोणाचार्य ने सेनापति बनना स्वीकार किया और उनका सेनापति पद पर अभिषेक किया गया।
जानिए, युधिष्ठिर को क्यों नहीं मारना चाहता था दुर्योधन?
द्रोणाचार्य के सेनापति बनने के बाद पहले दिन का युद्ध प्रारंभ होने को था। दोनों सेना अपने-अपने व्यूह की रचना में लगी थी। तभी द्रोणाचार्य ने दुर्योधन से कहा- दुर्योधन तुमने भीष्मजी के बाद मुझे अपना सेनापति चुना है। इसीलिए मैं तुम्हे वर देना चाहता हूं। बताओ मैं तुम्हारा क्या काम करूं जो इच्छा हो वह वर मांग लो। इस पर राजा दुर्योधन ने कर्ण और दु:शासनादि से सलाह करके आचार्य से कहा- यदि आप मुझे वर देना चाहते हैं तो महारथी युधिष्ठिर को जीता हुआ पकड़कर मेरे पास ले आइए।
यह सुनकर आचार्य ने कहा तुम कुंतीनंदन युधिष्ठिर को कैद क्यों करवाना चाहते हो? तुमने उनके वध के लिए वर क्यों नहीं मांगा। पांडवों को जीतने के पश्चात फिर युधिष्ठिर को ही राज्य सौंपकर तुम अपना सौहार्द तो नहीं दिखाना चाहते। आचार्य के ऐसा कहते ही दुर्योधन बोला मैं जानता हूं आचार्य कि युधिष्ठिर के मरने पर हमारी जीत कभी नहीं हो सकती।
जानिए क्यों की अर्जुन ने अपने गुरु को हराने की प्रतिज्ञा?
द्रोणाचार्य पाण्डवों पर प्रेम रखते हैं, इसलिए उनकी प्रतिज्ञा को स्थाई बनाने के लिए उसने यह बात सेना के सभी पांडवों में घोषित करा दी। सैनिकों ने जब सुना कि आचार्य ने राजा युधिष्ठिर को कैद करने की प्रतिज्ञा की है तो वे सिंहनाद करने लगे।
अपने विश्वास पात्र गुप्तचरों से द्रोण की प्रतिज्ञा के बारे में सुनकर युधिष्ठिर ने अर्जुन से कहा आचार्य जो कुछ करना चाहते हैं वह तुमने सुना? अब किसी ऐसी नीति से काम लो, जिसमे उनका विचार सफल न हो। उन्होंने एक शर्त के साथ प्रतिज्ञा की है और उस शर्त का संबंध तुम्ही से है। तुम मेरे पास रहकर ही युद्ध करो, जिससे कि द्रोण् के द्वारा दुर्योधन की इच्छा पूरी न हो सके।
अर्जुन ने कहा जिस प्रकार में आचार्य का वध नहीं करना चाहता, उसी प्रकार आप से होने की भी मेरी इच्छा नहीं है। ऐसा करने में भले ही मुझे युद्धस्थल में अपने प्राणों से हाथ धोना पड़े। भले ही प्रलय आ जाए। स्वयं इंद्र की सहायता पाकर भी आचार्य आपको कैद नहीं कर पाएंगे। यह मेरी प्रतिज्ञा टल नहीं सकती। जहां तक मुझे स्मरण है मैंने कभी झूठ नहीं बोला, कहीं पराजय प्राप्त नहीं की और न कभी कोई प्रतिज्ञा करके ही उसे तोड़ा है।
कौरवों ने की अर्जुन को मारने की प्रतिज्ञा क्योंकि...
आचार्य द्रोण के युद्ध के मैदान में आते ही सारे पांडव महारथी उन पर टूट पड़े। बड़ा ही रोमांचकारी युद्ध छिड़ गया। द्रोण ने राजा द्रुपद को दस बाण मारे। उनका जवाब उन्होंने अनेकों बाणों से दिया। द्रोण ने भीमसेन के घोड़े मार डाले। भीम अपने शत्रु का ऐसा पराक्रम सहन नहीं कर पाए। उन्होंने अपनी गदा से उसके सब घोड़े मार डाले।
धीरे-धीरे का पांडवों का पक्ष मजबूत और कौरव पक्ष के लोग कमजोर पडऩे लगे। सूर्य अस्त हो गया अंधकार फैलने लगा।
इसलिए शत्रु, मित्र किसी का भी पता लगाना कठिन हो गया। यह देखकर द्रोणाचार्य और दुर्योधन ने अपनी सेना को युद्ध बंद करने की आज्ञा दी और अर्जुन ने भी अपनी सेना को शिविर में मोड़ा। इस प्रकार शत्रुओं के दांत खट्टे कर वे श्रीकृष्ण के साथ बड़े हर्ष से पांडव शिविर को गए। पांडवों से उस दिन इतनी बुरी हार के बार कौरव वीरों ने अर्जुन को मारने की प्रतिज्ञा की।
अभिमन्यु ने क्यों किया था चक्रव्यूह में प्रवेश?
उस दिन के युद्ध के बाद कौरव पक्ष के लोग अपनी पूरी सेना को अकेले अर्जुन से कमजोर समझने लगे। दुर्योधन ने द्रोणाचार्य से कहा आचार्य आपने जानबुझकर युधिष्ठिर को कैद नहीं किया। तब द्रोणाचार्य ने कहा पुत्र दुर्योधन सारे पाण्डवों को में युद्ध में परास्त कर सकता हूं पर अर्जुन को नहीं। अगर कल तुम अर्जुन को युद्ध करते हुए कुछ दूर ले जाओ तो मैं कल पांडव योद्धाओं में से एक श्रेष्ठ महारथी को तो जरूर मार गिराऊंगा। कल में एक ऐसे व्यूह की रचना करूंगा जिसका भेदन अर्जुन के अलावा कोई और पांडव नहीं जानता है।
द्रोणचार्य की यह बात सुनकर दुर्योधन ने कहा ठीक है आचार्य आप जैसा कहेंगे हम वैसा ही करेंगे। दूसरे दिन का युद्ध आरंभ हुआ। अर्जुन को षडयंत्र के तहत युद्धस्थल से दूर ले जाया गया। यह देखकर युधिष्ठिर ने अभिमन्यु से कहा बेटा चक्रव्युहभेदन का उपाय हम लोग बिल्कुल नहीं जानते। इसे तो तुम अर्जुन, श्रीकृष्ण और प्रद्युम्र ही तोड़ सकते हैं। पांचवां कोई भी इस काम को नहीं कर सकता। इसलिए तुम इस व्यूह को तोड़ डालो, नहीं तो युद्ध से लौटने पर अर्जुन हमलोगों को ताना देंगे। अभिमन्यु ने कहा अचार्य द्रोण की सेना भयंकर है पर मैं वर्ग की विजय के लिए अभी इस चक्रव्यूह में प्रवेश करता हूं।
अभिमन्यु चक्रव्यूह क्यों नहीं भेद पाया?
अभिमन्यु ने युधिष्ठिर से कहा आप चिंता न करें। आज मैं वह पराक्रम कर दिखाऊंगा, जिससे मेरे मामा भी प्रसन्न होंगे और पिताजी भी। मैं बालक हूं, तो भी संपूर्ण प्राणी देखेंगे कि मैं किस तरह आज अकेले ही शत्रुसेना को काल का ग्रास बनाता हूं। यदि जीते-जी इस युद्ध में मेरे सामने कोई जीवित बच जाए तो मैं अर्जुन का पुत्र नहीं और माता सुभद्रा के गर्भ से मेरा जन्म नहीं हुआ।
युधिष्ठिर ने कहा सुभद्रानंदन तुम द्रोण की सेना को तोडऩे का उत्साह दिखा रहे हो, इसलिए ऐसी वीरताभरी बातें करते हुए तुम्हारा बल हमेशा बढ़ता ही जा रहा है। धर्मराज युधिष्ठिर की बात सुनकर अभिमन्यु ने सारथि को द्रोण की सेना के पास रथ ले चलने को कहा। जब बारबार चलने की आज्ञा दी तो सारथि ने उससे कहा - आयुष्मान पाण्डवों ने आप पर बहुत बड़ा भार रख दिया है। इस पर विचार कर लीजिए। सारथि की बात सुनकर अभिमन्यु ने उससे हंसकर कहा, सूत! यह पूरी सेना मेरी सोलहवी कला के बराबर भी नहीं है।
अभिमन्यु ने शीघ्र ही उसे द्रोण की सेना ओर चलने के लिए आज्ञा दी। अभिमन्यु ने कौरवों के व्यूह में प्रवेश किया। उसने लगभग बीस ही कदम प्रवेश किया होगा कि सभी कौरव योद्धा उस पर एक साथ टूट पड़े। अभिमन्यु चक्रव्यूह भेदकर और अंदर चला गया। कौरवों ने कई बाणों से प्रहार किए अभिमन्यु से नेअकेले ही युद्ध किया। कौरव सेना तितर-बितर होने लगी सभी इधर-उधर भागने लगे।
दुर्योधन से यह नहीं देखा गया। वह अभिमन्यु की ओर बढ़ा द्रोण व अन्य योद्धाओं ने उसकी सुरक्षा की। इस घोर संग्राम में दु:सह ने नौ बाण मारकर अभिमन्यु को बींध दिया। जब अभिमन्यु चक्रव्यूह को भेद रहा था तब युधिष्ठिर, भीमसेन, सहदेव, नकुल, शिखण्डी, विराट,द्रुपद आदि ने व्यूहआकरा में संगठित होकर उसे घेर रखा था। लेकिन कई प्रमुख कौरव वीरों का संहार करने के बाद छ: कौरव महारथियों ने अभिमन्यु को घेर लिया और सभी ने सामुहिक प्रयत्न से उसका वध किया।
क्या हुआ अभिमन्यु की मृत्यु के बाद?
उस दिन का सूर्यास्त हुआ सैनिक अपनी-अपनी छावनी को जाने लगे, उसी समय अर्जुन भी अपने दिव्य रथ को लेकर शिविर की ओर गए। चलते-चलते ही वे भगवान श्रीकृष्ण से बोले केशव न जाने क्यों आज मेरा दिल धड़क रहा है। सारा शरीर शिथिल हो रहा है। ऐसा लग रहा है जैसे कोई अनिष्ट हुआ है। कृष्ण कहिए मेरे भाई राजा युधिष्ठिर अपने मंत्रियों के साथ कुशल तो होंगे ना?श्रीकृष्ण ने कहा शोक न करो, मंत्रियों सहित तुम्हारे भाई का तो कल्याण ही होगा। उसके बाद जब कृष्णजी और अर्जुन ने शिविर में
प्रवेश किया तो देखा कि पांडव व्याकुल और हतोत्साहित हो रहे हैं। शिविर में सभी के चेहरे लटके हुए हैं। आज द्रोण ने व्यूह की रचना कि थी और उस व्यूह को भेदना केवन अभिमन्यु जानता था लेकिन मैंने उसे चक्रव्यूह से बाहर निकलना नहीं सिखाया था। अर्जुन ने पांडवों से पूछा कहीं आप लोगों ने उस बालक शत्रु व्यूह में तो नहीं भेज दिया? वह सुभद्रा का दुलारा और माता कुं ती व श्रीकृष्ण का प्यारा था। अर्जुन की आंखों में आंसू थे। वो समझ चुके थे कि अभिमन्यु वीरगति को प्राप्त हो गया है। श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा मित्र इतने व्याकुल न होओ। जो युद्ध में पीठ नहीं दिखाते, उन सभी शूरवीरों को एक दिन इसी मार्ग से जाना पड़ता है। वह तो शत्रु के सामने डटे रहकर वीरों की तरह मरा है इसीलिए तुम्हे उसकी मृत्यु का शोक नहीं करना चाहिए।
अभिमन्यु की मृत्यु का बदला लेने के लिए अर्जुन ने ली थी ये प्रतिज्ञा?
अर्जुन ने अपने भाइयों से कहा अभिमन्यु की मृत्यु कैसे हुई आप लोग मुझे बताओ। तब युधिष्ठिर ने सारी बात सुनाई। युधिष्ठिर अर्जुन की बात सुनकर बेहोश हो गए। थोड़ी देर बाद जब अर्जुन को होश आया तो बोले मैं आप लोगों को सामने यह सच्ची प्रतिज्ञा करता हूं कि यदि जयद्रथ को कौरव का आश्रय छोड़कर भाग नहीं गया। हम लोगों की भगवान श्रीकृष्ण या महाराज युधिष्ठिर की शरण में नहीं आ गया तो कल उसे जरूर मार डालूंगा।
अर्जुन ने गाण्डीव धनुष की टंकार की, उसकी ध्वनि आकाश में गूंज उठी। अर्जुन की वह प्रतिज्ञा सुनकर भगवान श्रीकृष्ण ने अपना पांचजन्य शंख बजाया और कुपित हुए अर्जुन ने देवदत्त नामक शंख से शंखनाद किया। सभी पांडव सिंहनाद करने लगे। दूतों ने आकर जयद्रथ से अर्जुन की प्रतिज्ञा कह सुनाई। सुनते ही जयद्रथ शोक से विहृल हो गया। रोने-बिलखने लगा। अर्जुन से डर जाने के कारण उसने लजाते-लजाते राजाओं से कहा राजाओ! पाण्डवों की हर्ष ध्वनि सुनकर मेरा मन विचलित हो रहा है। यदि ऐसा है तो अर्जुन की प्रतिज्ञा कोई नहीं तोड़ सकता। मुझे यहां से जाने की आज्ञा दीजिए। मैं जाकर ऐसी जगह छिप जाऊंगा जहां पांडव मुझे देख नहीं सकेगे।
जब जयद्रथ अर्जुन से डर गया तो दुर्योधन ने क्या किया?
जयद्रथ भय से व्याकुल होकर विलाप करने लगे। दुर्योधन ने उन्हे विलाप करते देख कहा तुम इतने भयभीत न होओ। युद्ध में संपूर्ण क्षत्रिय वीरों के बीच में रहने पर कौन तुम्हे पा सकता है। मैं और कर्ण, चित्रसेन, शल्य, वृषसेन, पुरुमित्र आदि राजालोग अपनी-अपनी सेना के साथ तुम्हारी रक्षा के लिए चलेंगे। तुम अपने मन की चिंता दूर कर दो। सिंधुराज तुम स्वयं भी तो श्रेष्ठ महारथी हो, शुरवीर हो, पांडवों से क्यों डरते हो? मेरी सारी सेना तुम्हारी रक्षा के लिए सावधान रहेगी, तुम अपना भय निकाल दो।
मेरी सारी सेना तुम्हारी रक्षा के लिए तैयार रहेगी। दुर्योधन से ऐसा आश्वासन मिलने के बाद जयद्रथ रात को द्रोणाचार्य के पास गया। आचार्य के चरणों में प्रणाम करके उसने पूछा- भगवन् दूर का लक्ष्य या हाथ की फूर्ती में कौन बड़ा है मैं या अर्जुन। द्रोणाचार्य ने कहा- तुम्हारे और अर्जुन के हम एक ही आचार्य है इसलिए क्लेश सहने के कारण अर्जुन तुमसे बड़े धर्नुधर हैं। लेकिन तुम चिंता न करो मैं ऐसा व्यूह बनाऊंगा कि अर्जुन तुम तक नहीं पहुंच सकेंगे।
श्रीकृष्ण ने कुछ ऐसे दूर किया अभिमन्यु की मौत का दुख.....
इधर अर्जुन ने कृष्ण से कहा- भगवन अब आप सुभद्रा और उत्तरा को जाकर समझाइए। जैसे भी हो, उनका शोक दूर कीजिए। तब श्रीकृष्ण उदास होकर अर्जुन के शिविर में गए और पुत्र शोक से पीड़ित अपनी दुखिनी बहिन को समझाने लगे। उन्होंने कहा बहिन तुम और बहु उत्तरा दोनों ही शोक न करो। काल के द्वारा सब प्राणियों की एक दिन यही स्थिति होती है।
तुम्हारा पुत्र उच्च वंश से उत्पन्न, धीर, वीर और क्षत्रिय था। यह मृत्यु उसके योग्य ही हुई है। इसलिए शोक त्याग दो। देखो बड़े-बड़े संत पुरुष, तपस्या, ब्रह्मचर्य, शस्त्रज्ञा और सद्बुद्धि के द्वारा जिस गति को प्राप्त करना चाहते हैं। वही गति तुम्हारे पुत्र को भी मिली है। तुम वीरमाता, वीरपत्नी, वीरकन्या और वीर बहिन हो। तुम्हारे पुत्र को बहुत उत्तम गति प्राप्त हुई। तुम उसके लिए शोक न करो। बालक की हत्या करवाने वाले पापी जयद्रथ यदि अमरावती में जाकर छिपे तो भी अब अर्जुन के हाथ से उसे छुटकारा नहीं मिल सकता। अर्जुन ने जैसी प्रतिज्ञा की है वैसी ठीक होगी। उसे कोई पलट नहीं सकता।
तुम्हारे स्वामी जो कुछ करना चाहते हैं वह निष्फल नहीं होता। यदि मनुष्य, नाग, पिशाच आदि भी जयद्रथ की युद्ध सहायता करें तो भी वह कल जीवित नहीं रह सकता। श्रीकृष्ण की बात सुनकर सुभद्रा का पुत्रशोक उमड़ पड़ा और वह बहुत दुखी होकर विलाप करने लगी। हा पुत्र तुम्हारे बिना आज से मैं अभागिन हो गई। बेटा तुम देखने के लिए तरसती ही रह गई। आज भीमसेन के बल को धिक्कार है। अर्जुन के धनुष-धारण को वृष्णि और पांचाल वीरों के पराक्रम को भी धिक्कार है। जो ये युद्ध में जाने पर तुम्हारी रक्षा न कर सके। श्रीकृष्ण और द्रोपदी ने सुभद्रा और उत्तरा को कई तरह से समझाया।
इसीलिए कृष्ण थे अर्जुन के सबसे अच्छे दोस्त क्योंकि....
पुत्र शोक से दुखी होकर अर्जुन ने प्रतिज्ञा कर डाली है कि मैं कल जयद्रथ का वध करूंगा। भगवान कृष्ण ने कहा द्रोण की रक्षा में रहने वाले पुरुष को इंद्र भी नहीं मारे सकते। अर्जुन के लिए मैं कर्ण दुर्योधन आदि सभी महारथियों को उनके घोड़े और हाथी सहित मार डालूंगा। कल सारी दुनिया इस बात का परिचय पा जाएगी कि मैं अर्जुन का मित्र हूं। जो उनसे द्वेष रखता है जो उनके अनुकूल है, वह मेरे भी अनुकूल है। श्रीकृष्ण ने दारूक से कहा- तुम अपनी बुद्धि में इस बात का निश्चय कर लो कि अर्जुन मेरा आधा शरीर है।
सवेरा होते ही रथ सजाकर तैयार कर देना। उसमें सुदर्शन चक्र, कौमोद की रथ सजाकर तैयार कर देना। उसमें सुदर्शन चक्र, धनुष के साथ ही सभी आवश्यक सामग्री रख लेना। घोड़े जोतकर प्रतीक्षा करना ज्यो ही मेरे पांचजन्य की ध्वनि हो, बड़े वेग से मेरे पास रथ ले आना मैं आशा करता हूं- अर्जुन जिस-जिस वीर के वध का प्रयत्न करेंगे, वहां-वहां उनकी विजय जरूर होगी। दारुक ने कहा- पुरुषोत्तम आप जिसके सारथि है उसकी विजय तो निश्चित है। पराजय हो ही कैसे सकती हैं? अर्जुन की विजय के लिए आप मुझे जो कुछ करने की आज्ञा दे रहे हैं, उसे सबेरा होते ही मैं पूर्ण करूंगा।
कृष्ण ने कहा है बुद्धिमान लोगों को ऐसी बात नहीं सोचना चाहिए क्योंकि...
अर्जुन अपनी प्रतिज्ञा की रक्षा के विषय में विचार करते हुए सो गए। उन्हें चिंता करते देख भगवान कृष्ण ने उन्हें सपने में दर्शन दिए। भगवान को देखते ही अर्जुन उठे उन्हें बैठने का आसान देकर चुपचाप खड़े रहे। श्रीकृष्ण ने उनका निश्चय जानकर कहा- अर्जुन तुम खेद में किस लिए हो रहा है? बुद्धिमान पुरुष को नकारात्मक नहीं सोचना चाहिए। इससे काम बिगड़ जाता है। जो करने योग्य काम आ जाए , उसे पूरा करो। कर्म न करने वाले और जीत की दिशा में न सोचने वाले मनुष्य को शोक तो उसके लिए शत्रु का काम देता है।
भगवान के ऐसा कहने पर अर्जुन ने कहा- केशव मैंने कल अपने पुत्र के घातक जयद्रथ को मार डालने की भारी प्रतिज्ञा कर डाली है। मैं सोचता हूं कि मेरी प्रतिज्ञा तोडऩे के लिए कौरव निश्चय ही जयद्रथ को सबसे पीछे खड़ा करेंगे। सभी महारथी उसकी रक्षा करेंगे। कौरव सेना से घिरा हुआ जयद्रथ कैसे दिखाई देगा। यदि नहीं दिखा तो प्रतिज्ञा का पालन नहीं हो सकेगा। प्रतिज्ञा पूरी नहीं कर पाने पर मैं जीवन कैसे धारण करूंगा। इसलिए मेरी आशा निराशा में बदल गई है।
जयद्रथ को मारने के लिए अर्जुन को शंकरजी ने दिया था ये अस्त्र....
भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा तुम शंकरजी के पास जाओ। शंकरजी के पास पाशुपत नामक एक दिव्य सनातन अस्त्र है। जिससे उन्होंने पूर्वकाल में सारे दैत्यों का संहार किया था। यदि तुम्हे उस अस्त्र का ज्ञान हो तो अवश्य ही कल जयद्रथ का वध कर सकोगे। उसके बाद अर्जुन ने अपने आप को ध्यान की अवस्था में कृष्ण का हाथ पकड़े देखा। कृष्ण के साथ वे उडऩे लगे और सफेद बर्फ से ढके पर्वत पर पहुंचे। वहां जटाधारी शंकर विराजमान थे। दोनों ने उन्हें प्रणाम किया। शंकरजी ने कहा वीरवरों तुम दोनों का स्वागत है। उठो, विश्राम करों और शीघ्र बताओ तुम्हारी क्या इच्छा है। भगवान शिव की यह बात सुनकर श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनों हाथ जोड़े खड़े हो गए और उनकी स्तुति करने लगे।
अर्जुन ने मन ही मन दोनों का पूजन किया और शंकरजी से कहा भगवन मैं आपका दिव्य अस्त्र चाहता हूं। यह सुनकर भगवान शंकर मुस्कुराए और कहा यहां से पास ही एक दिव्य सरोवर है मैंने वहां धनुष और बाण रख दिए हैं। बहुत अच्छा कहकर दोनों उस सरोवर के पास पहुंचे वहां जाकर देखा तो दो नाग थे। दोनों नाग धनुष और बाण में बदल गए। इसके बाद वे धनुष और बाण लेकर कृष्ण-अर्जुन दोनों शंकर भगवान के पास आ गए और उन्हें अर्पण कर दिए। शंकर भगवान की पसली से एक ब्रह्मचारी उत्पन्न हुआ जिसने मंत्र जप के साथ धनुष को चढ़ाया वह मंत्र अर्जुन ने याद कर लिया और शंकरजी ने प्रसन्न होकर वह शस्त्र अर्जुन को दे दिया। यह सब अर्जुन ने स्वप्र में ही देखा था।
अर्जुन से युद्ध करने से पहले ही क्यों घबरा गया दुर्योधन?
दूसरे दिन युद्ध की शुरुआत में ही अर्जुन ने कौरवसेना में हाहाकार मचा दिया। जयद्रथ का वध करने की इच्छा से द्रोणाचार्य और कृतवर्मा की सेनाओं को चीरकर व्यूह में घुस गए और उनके हाथ से सुदक्षिण और श्रुतायु का वध हो गया तो अपनी सेना को भागती देखकर दुर्योधन अकेला ही अपने रथ पर चढ़ा और बड़ी फूर्ती से द्रोणाचार्य के पास आया और कहा मुझे पूरा विश्वास था कि अर्जुन जीते जी आपको लांघकर सेना में नहीं घुस सकेगा।
लेकिन मैं देखता हूं कि वह आपके सामने व्यूह में घुस गया है।आज मुझे अपनी सारी सेना विकल और नष्ट सी दिखाई दे रही है। द्रोणाचार्य ने कहा मैं तुम्हारी बातों को बुरा नहीं मानता। मेरे लिए तुम अश्वत्थामा के समान हो।लेकिन जो सच्ची बात है वह मैं तुम से कहता हूं। अर्जुन के सारथि श्रीकृष्ण हैं और उनके घोड़े भी बड़े तेज है। इसलिए थोड़ा सा रास्ता मिलने पर भी वे तत्काल घुस जाते हैं। मैंने सभी धर्नुधरों के सामने युधिष्ठिर को पकडऩे की प्रतिज्ञा की थी। इस समय अर्जुन उनके पास नहीं हैं। वे अपनी सेना के आगे खड़े हैं। इसलिए मैं अर्जुन से लडऩे नहीं जाऊंगा।
तुम पराक्रम में अर्जुन के समान ही हो इसलिए तुम अर्जुन से युद्ध करो। दुर्योधन ने कहा वो आपको लांघ गया तो मैं उससे युद्ध कैसे करुंगा? तब द्रोणाचार्य बोले तुम ठीक कहते हो मैं एक ऐसा उपाय देता हूं जिससे तुम जरूर ही उसकी टक्कर झेल सकोगे। आज श्रीकृष्ण के सामने ही तुम अर्जुन युद्ध करोगे। मैं तुम्हे एक अभेद्य कवच देता हूं।उस कवच को धारण करके तुम अर्जुन से युद्ध करो।
जब दुर्योधन अर्जुन से लडऩे पहुंचा तो....
जब अर्जुन और श्रीकृष्ण कौरवों की सेना में घुस गए और उनके पीछे दुर्योधन भी चला गया, तो पांडवों ने सोमक वीरों को साथ लेकर बहुत कोलाहल किया द्रोणाचार्य पर धावा बोल दिया। बस दोनों ओर से बड़ी घमासान लड़ाई छिड़ गई। उस समय जैसा युद्ध हुआ, वैसा हमने न तो कभी देखा है और न सुना ही है। पुरुषसिंह धृष्टद्युम्र ने भी बाणों की झड़ी लगा दी थी। द्रोण पांडवों की जिस-जिस रथ सेना पर बाण छोड़ते थे। उसी-उसी की ओर से बाण बरसाकर धृष्टद्युम्न उन्हें हटा देता था। इस प्रकार बहुत प्रयत्न करने पर भी धृष्टद्युम्र का सामना करने पर कौरवों की सेना के तीन भाग हो गए। पांडवों की मार से घबराकर कुछ सैनिक कृतवर्मा की सेना में जा मिले। अन्त में कौरव सेना बहुत छिन्न-भिन्न हो गई।
माद्रीपुत्र नकुल और सहदेव ने बाणों की वर्षा करके अपने प्रति बैरभाव रखने वाले शकुनि की नाक में दम कर दिया। जब धृष्टद्युम्र ने देखा कि आचार्य बहुत करीब आ गए हैं तब उन्होंने कई सौ बाण मारकर उसकी ढाल को और दस बाणों से उसकी तलवार को काट डाला।
फिर चौसठ बाणों से उसके घोड़ों का काम तमाम कर दिया और बाणों से ध्वजा और छत्र काटकर पाश्र्वरक्षकों को भी धराशाही कर दिया। तब आचार्य ने क्रोध में आकर कई हजार बाणों की वर्षा कर दी। उस समय सात्यकि ने चौदह तीखें बाणों से उसे बीच में ही काट डाला और आचार्य चंगुल में फंसे हुए धृष्टद्युम्र को बचा लिया।इस प्रकार द्रोण से मुकाबले पर सात्यकि आ गया तो पांचाल वीर धृष्टद्युम् को रथ में चढ़ाकर तुरंत ही दूर ले गए।
युधिष्ठिर को क्यों लगा कि अर्जुन युद्ध में मारे गए?
जब द्रोणाचार्य पांडवों के व्यूह को इस प्रकार जहां-तहां से रौंदने लगे तो पांचाल, सोमक और पांडव वीर वहां से दूर भागने लगे। अब धर्मराज युधिष्ठिर को अपना कोई सहायक नहीं दिखाई देता था। उन्होंने अर्जुन को देखने के लिए निगाहे दौड़ाई। जब अर्जुन नहीं दिखाई दिए तो उन्होंने व्याकुलता पूर्वक भीम को बुलाया। जब भीम ने पूछा धर्मराज आप इतने व्याकुल क्यों दिखाई दे रहे हैं।
तब युधिष्ठिर ने गहरी सांस लेकर कहा भैया श्रीकृष्ण के रोष पूर्वक बजाए जाते हुए पांचजन्य की आवाज सुनाई दे रही है। तुम्हारा भाई अर्जुन मृत्युशैय्या पर पर पड़ा हुआ है। उसके मारे जाने पर श्रीकृष्ण संग्राम कर रहे हैं। यही मेरे शोक का कारण है। अर्जुन और सात्यकि की चिंता मेरी शोकाग्नि को बार-बार भड़का देती है। देखों उनका मुझे कोई चिन्ह नहीं दिख रहा है इससे अनुमान होता है कि अर्जुन और सात्यकि युद्ध में मारे गए हैं और श्रीकृष्ण युद्ध कर रहे हैं। मैं तुम्हारा बड़ा भाई हूं। मेरा कहना मानों और उधर जाओ जिधर अर्जुन और सात्यकि गए हैं।
धृष्टद्युम्न क्यों दिया युधिष्ठिर की रक्षा करने का वचन?
यदि तुम्हे अर्जुन,श्रीकृष्ण और सात्यकि मिल जाएं तो तुम सिंहनाद कर देना। भीमसेन ने कहा-महाराज जिस रथ पर पहले ब्रह्मा, वरूण और महादेव सवारी कर चुके हैं अर्जुन उस रथ पर बैठकर गए हैं। इसलिए उनके विषय में कोई खटके की बात नहीं हैं तो भी मैं आपकी आज्ञा को शिरोधार्य करके जा रहा हू। मैं उन पुरुषसिंहों से मिलकर से मिलकर आपको सूचना दूंगा। धर्मराज से ऐसा कहकर वहां से चलते समय महाबली भीमसेन ने धृष्टद्युम्र से कहा, महाबाहो! महारथी द्रोण जिस प्रकार सारी युक्तियां लगाकर धर्मराज को पकडऩे पर तुले हुए हैं वह तुम्हे मालूम ही है। इसलिए मेरे लिए महाराज की रक्षा करना आवश्यक है। लेकिन धर्मराज की आज्ञा मुझे माननी होगी। सो अब तुम खूब सावधान रहकर धर्मराज की रक्षा करना। तब धृष्टद्युम्र ने भीमसेन से कहा- पार्थ आप निश्चित होकर जाइए। मैं आपके इच्छानुसार ही सब काम करूंगा।
द्रोणाचार्य संग्राम में धृष्टद्युम्र का वध किए बिना किसी प्रकार धर्मराज को कैद नहीं कर सकते। अब भीमसेन शत्रुओं पर अपनी भयंकरता प्रकट करते हुए चल दिए। वे अपने धनुष की डोरी खींचकर बाणों की वर्षा करते हुए कौरवसेना के अग्रभाग को कुचलने लगे। उनके पीछे-पीछे दूसरे पांचाल और सोमक वीर भी बढऩे लगे। भीमसेन बड़ी तेजी से उन्हें पीछे छोड़कर द्रोण की सेना पर टूट पड़े। उसके आगे जो गजसेना थी उस बाणों की झड़ी लगा दी। पवनकुमार भीम ने बात-बात में उस सारी को नष्ट कर डाला। भीमसेन बड़ी तेजी से उन्हें पीछे छोड़कर द्रोण की सेना पर टूट पड़े तथा उसके आगे जो गजसेना थी। उस पर बाणों की झड़ी लगा दी।
इसके बाद उन्होंने फिर बड़े जोर से द्रोणाचार्य की सेना पर धावा बोल दिया। आचार्य ने उन्हें आगे बढऩे से रोका तथा मुस्कुराते हुए एक बाण द्वार उनके ललाट पर चोट की। फिर वे बोले भीमसेन मुझे जीते बिना अपनी शक्ति द्वारा तुम शत्रु सेना में प्रवेश नहीं कर सकोगे। अब भीमसेन शत्रुओं पर अपनी भयंकरता प्रकट करते हुए चल दिए। वे अपने धनुष को डोरी खींचकर बाणों की वर्षा करते हुए कौरवसेना के अग्रभाग कुचलने लगे। उनके पीछे-पीछे दूसरे पांचाल और सोमक वीर बढऩे लगे। तब उनके सामने दु:सह, विकर्ण, शल, चित्रसेन, दीर्घबाहु, सुदर्शैन सुवर्मा आदि आपके पुत्र अनेकों सैनिक और पदतियों को लेकर आए और उन्हें चारों ओर से घेरने लगे। भीमसेन बड़ी तेजी से उन्हें पीछे छोड़कर द्रोण की सेना पर टूट पड़े।
भीम ने युधिष्ठिर का दुख कब और कैसे दूर किया?
पवनकुमार भीम ने द्रोण की सेना को नष्ट कर डाला। सभी इधर-उधर भागने लगे। आचार्य ने उन्हें आगे बढ़ने से रोका। वे भीमसेन से बोले तुम मुझे हराए बिना मेरी सेना में प्रवेश नहीं कर सकते। द्रोणाचार्य के मुंह से ऐसी बात सुनकर भीमसेन की आंखे क्रोध से लाल हो गई। उन्होंने द्रोणाचार्य पर कई बाणों की वर्षा कि ओर व्यूह में प्रवेश कर गए।
जब उन्होंने व्यूह में प्रवेश किया। तब उन्हें सामने ही अर्जुन जयद्रथ का वध करने के लिए युद्ध करते दिखाई दिए। यह देख उन्हें बहुत प्र्रसन्नता हुई उन्होंने जोर से सिंहनाद किया। उनके साथ ही अर्जुन और श्रीकृष्ण भी सिंहनाद करने लगे। जैसे ही उनका सिंहनाद युधिष्ठिर के कानों में पड़ा वे बहुत खुश हो गए। वे मन ही मन कहने लगे भीम तुमने खूब सुचना दी, तुमने अपने बड़े भाई की आज्ञा का पालन किया अब मेरा शोक दूर हो गया है। जो तुमसे द्वेश रखते हैं संग्राम में उनकी विजय कभी नहीं हो सकती।
भीम ने युद्ध में कर्ण को क्यों नहीं मारा?
कर्ण ने जब कौरवों को मरते देखा तो वह बड़ा क्रोधित हुआ, उसे अपना जीवन भी भारी सा मालूम होने लगा। उसके देखते-देखते भीमसेन ने कौरव पुत्रों को मार डाला, इससे वह अपने को अपराधी समझने लगा। वह भीमसेन से युद्ध के लिए कूद पड़ा। इतने ही में भीमसेन ने पहले उसे पांच बाणों से और फिर सत्तर बाणों से घायल किया।
भीमसेन उसके सारथि और घोड़ों का भी काम तमाम कर दिया और धनुष काट डाला। अब महारथी कर्ण रथ से कूद पड़ा और एक गदा उठाकर उसे बड़े क्रोध से भरकर भीमसेन के ऊपर फेंका। भीमसेन सारी सेना के सामने उसे बीच में ही बाणों से रोक दिया। दोनों में भीषण युद्ध हुआ। भीमसेन के सारे अस्त्र समाप्त हो चुके थे। इसलिए उनके हाथ में जो भी आया उन्होंने कर्ण के ऊपर फेंकना शुरु कर दिया। अब भीमसेन ने घूंसा तानकर उसी से कर्ण का काम तमाम करना चाहा। लेकिन फिर अर्जुन की प्रतिज्ञा याद आ जाने से उन्होंने समर्थ हो जाने पर भी, उसे मार डालने का विचार छोड़ दिया।
अगर अर्जुन पूरी नहीं करते ये प्रतिज्ञा तो कौरव जीत जाते महाभारत
इस प्रकार दोनों के भीषण युद्ध के चलते कर्ण ने भीम के सामने से हटने में ही भलाई समझी और दूसरी ओर सात्यकि ने भूरीश्रवा का वध कर दिया। भूरिश्रवा के परलोक को प्रस्थान करने पर महाबाहु अर्जुन ने श्रीकृष्ण से कहा -कृष्ण चलिए अब आप जयद्रथ की ओर रथ बढ़ा लीजिए। उसके बाद अर्जुन को जयद्रथ का वध करने के लिए आगे बढ़ते देख कर्ण ने दुर्योधन से कहा- अब थोड़ा ही दिन रह गया है आज आप कैसे भी करके अर्जुन को रोक लें तो वहअपनी प्रतिज्ञा के अनुसार अग्रि में प्रवेश कर जाएगा और बचे हुए पांडव हमारा कुछ भी नहीं बिगाड़ पाएंगे। यह सुनकर दुर्योधन व कर्ण के साथ ही सभी कौरवों ने अपने प्रयास तेज कर दिए और अर्जुन पर बाणों की वर्षा करने लगे लेकिन अर्जुन भी प्रतिज्ञा के पक्के थे। उन्होंने सूर्यास्त से पूर्व ही सबको बाणों से बींधकर और जयद्रथ की गर्दन धड़ से अलग कर अपनी प्रतिज्ञा। पूरी की।
भीम ने ऐसा क्या कहा कि द्रोणाचार्य ने हथियार डाल दिए?
जब धृष्टद्युम्र ने जब आचार्य द्रोण को युद्ध के कारण शोकाकुल देखा तो धृष्टद्युम्र ने अपने तरकश में अग्रि के समान एक तेजस्वी बाण रखा। अर्जुन द्रोणाचार्य का वध करने की कामना के साथ उनसे युद्ध करने लगे। द्रोणाचार्य और उनके बीच भीषण युद्ध हुआ द्रोणाचार्य ने धृष्टद्युम्र पर शक्ति से वार किया तो सात्यकि भी युद्ध में कूद पड़े।
सात्यकि ने द्रोणाचार्य के बाण को काट डाला तो दुर्योधन आदि महारथियों का बहुत दुख हुआ। वे बहुत फूर्ती से सात्यकि पर बाण छोडऩे लगे। भीमसेन ने जब सात्यकि को घिरते देखा तो उन्होंने आचार्य के रथ के पास जाकर धीरे से कहा यदि ब्राह्मण अपना काम छोड़कर युद्ध नहीं करते तो क्षत्रियों का संहार नहीं होता। ब्राह्मण होकर भी आपने चाण्डाल की तरह राजाओं का संहार कर डाला। जिसके लिए आपने हथियार उठाया है वो आपका पुत्र अश्वत्थामा तो मरा पड़ा है और युधिष्ठिर का भी यही कहना है। यह सुनकर द्रोणाचार्य शोक में डूबकर रथ की पीछे की तरफ बैठकर ध्यान मग्र हो गए और धृष्टद्युम्र ने उनकी गर्दन को काट डाला।
द्रोणाचार्य के मारे जाने के बाद अश्वत्थामा ने क्या किया?
द्रोणाचार्य के वध की खबर सुनकर अश्वत्थामा क्रोधित हो गया। उसने नाराणास्त्र का प्रयोग किया। उसने पांडवों की सेना पर ऐसा प्रहार किया की सभी इधर-उधर भागने लगे। अर्जुन ने यह देखकर अश्वत्थामा से कहा तुममें जितनी वीरता है, जितनी शक्ति है, जितना प्रेम है सब आज दिखा दो। धृष्टद्युम्र का या कृष्ण सहित मेरा सामना करने आ जाओ। आज मैं तुम्हारा सारा घमंड तोड़ दूंगा। अश्वत्थामा अर्जुन के ऐसे वचन सुनकर अश्वत्थामा क्रोधित हो उठा उसने मंत्रोच्चार कर जितने भी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष शत्रु थे। उनका नाश करने के लिए अस्त्र छोड़ा। पांडव सेना जलने लगी। अश्वत्थामा ने अमर्ष भरकर उस समय जैसे अस्त्र का प्रहार किया था, वैसा किसी ने पहले नहीं किया था।
अर्जुन ने अश्वत्थामा के अस्त्र का नाश करने के लिए ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया। फिर तो एक क्षण में ही अश्वत्थामा के प्रहार से जो अंधकार फैल गया था वह दूर हो गया चारों और प्रकाश फैल गया। श्रीकृष्ण और अर्जुन ने शंखनाद किया और ज्वाला से मुक्त होकर अर्जुन का रथ वहां शोभा पाने लगा। पाण्डवों के हर्ष की सीमा न रही। वे शंख और भेरी बजाने लगे। श्रीकृष्ण और अर्जुन ने भी शंखनाद किया। जब अश्वत्थामा ने ये देखा तो वह रथ से कूदकर रणभूमि से भागचला। उसे रास्ते में भगवान व्यास दिखे जिन्हें उसने प्रणाम किया।
अश्वत्थामा का अस्त्र क्यों नहीं दिखा पाया अर्जुन पर अपना असर?
वह रूका उसने व्यासजी से पूछा-भगवन् इसे माया कहें या देव की इच्छा मेरी समझ में नहीं आता-यह सब क्या हो रहा है। यह अस्त्र झूठा कैसे हुआ? मुझसे कौन सी गलती हो गई है। यह संसार के किसी उलट-फेर की सूचना है।
जिससे कृष्ण और अर्जुन जीवित बच गए हैं। मेरे चलाए गया अस्त्र इतनी जल्दी कैसे शांत हो गया। श्रीकृष्ण और अर्जुन का में वध करना चाहता था लेकिन इनका वध क्यों नहीं हुआ? आप मेरे प्रश्रों का ठीक-ठीक उत्तर दीजिए।
यह बात सुनकर व्यासजी बोले- तू जिसके संबंध में आश्चर्य के साथ प्रश्र कर रहा है वह बड़ा महत्वपूर्ण विषय है। कृष्ण और अर्जुन कोई मनुष्य नहीं बल्कि स्वयं नर और नारायण हैँ। वेदव्यासजी की बातें सुनकर मन ही मन अश्चत्थामा ने श्रीकृष्ण को प्रणाम किया। उसने रोमांचित शरीर से व्यासजी को प्रणाम किया और सेना को शिविर में जाने की आज्ञा दी।
अश्वत्थामा को हराने के लिए श्रीकृष्ण ने अर्जुन से क्या कहा?
द्रोणाचार्य के मारे जाने पर दुर्योधन बहुत घबरा गया। उसने कर्ण को सेनापति बनाने का निर्णय लिया। उस रात उसने वहीं दु:शासन और कर्ण के ही शिविर में आराम किया। सुबह विधिपूर्वक कर्ण का अभिषेक किया। सेना युद्ध के लिए तैयार हो गई। सेनापति कर्ण एक दमकते रथ पर युद्ध के लिए निकल पड़ा। युद्ध भुमि में पहुंचकर कौरवों ने व्यूह बनाया। जिसके मुख के स्थान पर कर्ण उपस्थित हुआ। इस तरह व्यूह बनाकर कर्ण रण की ओर कूच किया। चित्र का वध हुआ अश्वत्थामा और भीमसेन में भयंकर युद्ध हुआ।
राजा पांड्य का भी वध हो गया।अश्वत्थामा लगातार पांडव सेना का संहार कर रहा था। यह देखकर श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा -पार्थ आज मुझे ऐसा क्यों लग रहा है कि द्रोण पुत्र तुम से ज्यादा पराक्रम दिखा रहा है। तुम्हारी भुजाओं में कहीं बल का अभाव तो नहीं हो गया है। श्रीकृष्ण के ऐसा कहने पर अर्जुन ने एक ही प्रहार में अश्चत्थामा की धनुष, ध्वजा,छत्र, आदि सब नष्ट कर डाला। अश्वत्थामा बेहोश हो गया। उसका सारथि अर्जुन से उसकी रक्षा करने के लिए उसे रणभूमि से ले गया।
युद्ध में कर्ण के सामने जब आए युधिष्ठिर तो....
दूसरी ओर युधिष्ठिर को आते देख दुर्योधन क्रोध से भर गया। उसने अपनी आधी सेना साथ ले सहसा निकट जाकर उन्हें सब ओर से घेर लिया। युधिष्ठिर को घिरा देखकर नकुल, सहदेव व धृष्टद्युम्र तीनों उनकी सहायता के लिए आ गए। लेकिन तब भी कौरव उन पर लगातार प्रहार करते रहे। युधिष्ठिर पर कर्ण ने दस बाणों से प्रहार किया तब वे घायल हो गए और नकुल और सहदेव उन्हें शिविर में ले गए।
राजा मल्य ने जब बिना रथ के नकुल व सहदेव को युधिष्ठिर को शिविर में ले जाते देखा तो उन्हें दया आ गई उन्होंने कर्ण से कहा सुत-पुत्र आज तो तुम्हे अर्जुन से युद्ध करना है। फिर इतने क्रोध से भरकर धर्मराज से किस लिए लड़ रहे हो। वहां देखो भीमसेन ने दुर्योधन को दबोच रखा है। उनके प्राण संकट में हैं जाकर पहले दुर्योधन को बचाइए।
जानिए, क्यों युधिष्ठिर का वध करने के लिए अर्जुन ने उठा ली तलवार?
युधिष्ठिर के घायल होने की खबर सुनकर अर्जुन और कृष्ण उनसे मिलने पहुंचे। धर्मराज युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण से कहा देवकीनंदन तुम्हारा स्वागत है और अर्जुन से कहा धनंजय तुम्हारा भी स्वागत है। उस समय धर्मराज ये समझे थे कि कर्ण मारा गया। इसीलिए युधिष्ठिर ने कहा- इसका मतलब तुम्हारी सेना रणभूमि छोड़कर भाग आई है। तुम कर्ण का बिना वध किए भीम को युद्ध के मैदान में अकेले छोड़कर यहां भाग आएं।
तुम अपना गांडीव दूसरो को दे दो। तुम्हारे जन्म के समय आकाशवाणी हुई थी कि यह बालक इंद्र के समान पराक्रमी होगा लेकिन तुमने सारी बातों को झुठा साबित कर दिया तुम तो भयभीत होकर भाग आए।। युधिष्ठिर के ऐसा कहने पर अर्जुन को बहुत गुस्सा आया। तब अर्जुन ने क्रोध में आकर तलवार उठा ली। श्रीकृष्ण ने उनसे पूछा अर्जुन तुमने तलवार क्यों उठा ली तो उन्होंने कहा श्रीकृष्ण मैंने गुप्तरूप से प्रतिज्ञा की है कि जो कोई मुझे कह देगा कि गांडीव दसरे को दे डालो मैं उसका सिर काट दूंगा।
जब अर्जुन ने युधिष्ठिर पर तलवार उठाई तो श्रीकृष्ण ने क्या किया?
यह सुनकर श्रीकृष्ण ने कहा धिक्कार है!धिक्कार है! फिर अर्जुन से बोले पार्थ आज मुझे मालूम हुआ कि तुमने कभी वृद्ध पुरुषों की सेवा नहीं की है। तभी तो बिना मतलब ही इतना क्रोध आ गया। यहां तुमने जो धर्मभीरुता और अज्ञानता का काम किया है। वह तुम्हारे योग्य काम नहीं है। जो खुद धर्म का आचरण करके शिष्यों द्वारा उपासना किया जाने पर उन्हें धर्म का उपदेश देते हैं। धर्म के संक्षेप और विस्तार से जानने वाले उन गुरुजनों का इस विषय में क्या निर्णय है। इसे तुम नहीं जानते।
उस निर्णय को नहीं जानने वाला मनुष्य कर्तव्य व अकर्तव्य के निश्चय में तुम्हारी ही तरह असमर्थ और मोहित हो जाता है क्या करना चाहिए क्या नहीं? इसे जान लेना सहज नहीं है। इसका ज्ञान होता है शास्त्र का तुम्हे पता ही नहीं है। तुम अज्ञानवश जो खुद को धर्म का ज्ञाता मानकर जो तुम धर्म की रक्षा करने चले हो। उसमें जीवहिंसा का पाप है-यह बात तुम्हारे जैसे धार्मिक की समझ में नहीं आती। मेरे विचार से प्राणियों की हिंसा न करना ही सबसे बड़ा धर्म है।
किसी की प्राणरक्षा के लिए झूठ बोलना पड़े तो बोल दें लेकिन हिंसा न होने दें।भला तुम्हारे जैसा धर्मज्ञ अपने बड़े भाई और चक्रवर्ती राजा को मारने के लिए कैसे तैयार हो गया। जो युद्ध न करता हो, शत्रुता न रखता हो, रण से विमुख होकर भागा जा रहा हो, शरण में आता हो, हाथ जोड़कर खड़ा हो या असावधान हो तुम्हारे भाई में ये सभी गुण हैं। तुमने नासमझ बालक की तरह पहले ही प्रतिज्ञा कर ली। इसलिए मुर्खतावश अधर्म कार्य करने को तैयार हो गए। बताओ तो भला तुम बिना सोचे विचारे अपने बड़े भाई का वध करने कैसे दौड़ पड़े।
अर्जुन ने क्यों किया खुद को खत्म करने का फैसला?
अर्जुन धर्मभीरु थे। वे कृष्ण की ये सारी बातें सुनकर उदास हो गए। यह जानकर की मुझसे बहुत बड़ा पाप हो गया। उसके चित्त में बड़ा खेद हुआ। बार-बार सांस खींचते हुए उन्होंने फिर तलवार उठा ली। यह देखकर श्रीकृष्ण ने कहा- अर्जुन ये क्या? तुम फिर तलवार उठा रहे हो? मुझे जवाब दो। मैं तुम्हें कोई उपाय बताऊंगा। पुरुषोत्तम के ऐसा कहने पर अर्जुन दु:खी होकर बोले मैंने जिद में आकर भाई का अपमान स्वरूप महान पाप कर डाला है, इसलिए अब अपने इस शरीर को नष्ट कर डालूंगा।
अर्जुन की बात सुनकर भगवान से कहा- राजा युधिष्ठिर को तू मात्र कहकर तुम इतने दुख में क्यों डूब गए? उफ इसी के लिए आत्मघात करना चाहते हो? अर्जुन श्रेष्ठ पुरुषों ने कभी ऐसा नहीं किया है। धर्म का स्वरूप सुक्ष्म है और उसका समझना कठिन। अज्ञानियों के लिए तो और भी मुश्किल है। यहां तो कर्तव्य है, उसे मे बताता हूं, सुनो भाई का वध करने से जिस नरक की प्राप्ति होती है, उससे भी भयानक नरक तुम्हे आत्मघात करने से मिलेगा। इसलिए अपने ही मुंह से अपने गुणों का बखान करो, ऐसा करने से यही समझा जाएगा कि तुमने अपने ही हाथों अपने को मार लिया।
अर्जुन ने क्यों मांगी युधिष्ठिर से क्षमा?
यह सुनकर अर्जुन ने कृष्ण की बातों का अभिनंदन किया और तथास्तु कहकर धनुष को नवाते हुए वे युधिष्ठिर से बोले- राजन् अब मेरे गुणों को सुनिए पिनाकधारी भगवान शंकर को मेरे चरणों में रथ और ध्वजा के चिन्ह है। मुझ जैसा वीर यदि युद्ध में पहुंच जाए तो उसे कोई भी नहीं जीत सकता। उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम इन सभी दिशाओं के राजाओं का मैंने संहार किया है। कृष्ण अब हम दोनों विजयशली रथ पर बैठकर सूतपुत्र कर्ण का वध करने के लिए शीघ्र ही चल दें। आज या तो कर्ण की माता पुत्रहीन होगी या माता कुंती ही मुझसे हीन हो जाएगी। मैं सत्य कहता हूं, अपने बाणों से कर्ण को मारे बिना आज मैं कवच नहीं उतारूंगा। यह कहकर अर्जुन ने तुरंत अपने हथियार और धनुष नीचे डाल दिए। तलवार म्यान में रख दी फिर लज्जित होकर उन्होंने युधिष्ठिर के चरणों में सिर को झुकाया फिर हाथ जोड़कर कहा-महाराज मैंने जो कुछ कहा है, उसे क्षमा कीजिए और मुझ पर प्रसन्न हो जाइए। धर्मराज युधिष्ठिर अर्जुन की बात सुनकर अपनी जगह पर खड़े हो गए। उस समय उनका चित्त बहुत दुखी हो गया।
वे कहने लगे। मैंने अच्छे काम नहीं किए हैं पार्थ। महात्मा भीमसेन ही राजा होने के योग्य हैं। मैं तो क्रोधी और कायर हूं। यह कहकर युधिष्ठिर पलंग पर कूद पड़े और वन में जाने को उद्यत हो गए। यह देखकर भगवान कृष्ण ने उन्हें प्रणाम करके कहा- राजन् आपको तो सत्यप्रतिज्ञ अर्जुन कह यह प्रतिज्ञा मालूम ही है कि जो उन्हें गांडीव धनुष दूसरे को देने के लिए कहेगा वह उनका वध्य होगा। फिर भी आपने वैसी बात कह दी। अर्जुन ने तो सत्य को दृष्टिगत रखते हुए आपसे न्याय के विरुद्ध आचरण किया था। उसे आप क्षमा कीजिए। कृष्ण की बात सुनने के बाद युधिष्ठिर ने अर्जुन को क्षमा कर दिया।
जानिए, कैसे हुआ कर्ण का वध?
श्रीकृष्ण के समझाने पर अर्जुन को अपनी गलती का एहसास हुआ और उन्होंने कर्ण से युद्ध का प्रण लिया।अर्जुन ने श्रीकृष्ण से कहा भगवान में सूतपुत्र का वध करने के लिए महान भयंकर अस्त्र प्रकट कर रहा हूं। इसके लिए मुझे सभी देवताओं की आज्ञा चाहिए। भगवान से ऐसा कहकर अर्जुन ने सबसे पहले ब्रह्माजी से आशीर्वाद लिया और ब्रह्मास्त्र प्राप्त किया। लेकिन कर्ण ने बाणों की बौछार से उस अस्त्र को खत्म कर दिया।
यह देखकर भीमसेनक्रोध से तमतमा उठे, भीमसेन ने अर्जुन से कहा सब लोग चाहते हैं तुम उत्तम ब्रह्मास्त्र का उपयोग करो। तब अर्जुन ने कर्ण पर जलते हुए सैकड़ों बाणों की वर्षा कर दी। अर्जुन ने कर्ण को बाणों से बींध डाला।
सारी कौरव सेना यह देखकर इधर-उधर भागने लगी। जब कर्ण ने चारों और नजर डाली तो उसे सब सूना दिखाई पड़ा। लेकिन उसके उत्साह में जरा भी कमी नहीं आई उसने अर्जुन पर धावा बोल दिया। कर्ण ने श्रीकृष्ण को बारह और अर्जुन को नब्बे बाणों को घायल कर दिया। फिर एक भयंकर बाण से अर्जुन को बींध दिया और जोर से गर्जना करने लगा।
कर्ण ने हंसकर अपनी प्रसन्नता प्रकट की , वह अर्जुन से नहीं सही गई। उन्होंने सैकड़ों बाण मारकर कर्ण के शरीर को बींध डाला।फिर अर्जुन ने छाती और यमदण्ड पर नौ बाण मारे। कर्ण धनुष उठाकर वेग से बड़ा श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा अर्जुन इस कर्ण का सिर तुम रथ पर चढ़ने से पहले ही काट दो। अर्जुन ने भगवान की आज्ञा को स्वीकार किया और कर्ण के रथ की ध्वजा को गिरा दिया। जिससे कौरवों की सारी कामना का पतन हो गया। अर्जुन ने कर्ण का सिर काट डाला। अर्जुन ने कर्ण को मार डाला है यह देखकर पांडव पक्ष के लोग शंखनाद करने लगे।
कर्ण ने हंसकर अपनी प्रसन्नता प्रकट की , वह अर्जुन से नहीं सही गई। उन्होंने सैकड़ों बाण मारकर कर्ण के शरीर को बींध डाला।फिर अर्जुन ने छाती और यमदण्ड पर नौ बाण मारे। कर्ण धनुष उठाकर वेग से बड़ा श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा अर्जुन इस कर्ण का सिर तुम रथ पर चढ़ने से पहले ही काट दो। अर्जुन ने भगवान की आज्ञा को स्वीकार किया और कर्ण के रथ की ध्वजा को गिरा दिया। जिससे कौरवों की सारी कामना का पतन हो गया। अर्जुन ने कर्ण का सिर काट डाला। अर्जुन ने कर्ण को मार डाला है यह देखकर पांडव पक्ष के लोग शंखनाद करने लगे।
जानिए, महाभारत में क्या हुआ कर्ण के वध के बाद?
श्रीकृष्ण और नकुल व सहदेव ने हर्ष से भरकर शंख बजाए। सोमकों ने सेना सहित सिंहनाद किया। दूसरे योद्धाओं ने भी बहुत प्रसन्न होकर बाजा बजाना आरंभ कर दिया। कितने ही राजा आकर अर्जुन को गले लगाकर नाचने लगे। कर्ण के शरीर को खून से लथपथ हो पृथ्वी पर पड़ा देख राजा शल्य उस टूटी हुई ध्वजा वाले रथ के द्वारा ही वहां से भाग गए। कर्ण की मृत्यु का समाचार सुनकर दुर्योधन के आंखों में आंसू भर आए। वह बारंबार उच्छवास करने लगा। दोनों पक्ष के लोग कर्ण की लाश देखने के लिए उसे घेरकर खड़े हो गए। कोई प्रसन्न्ज्ञ था, कोई भयभीत।
किसी के चेहरे पर विषाद की छाया थी तो कोई आश्चर्य में डूबा हुआ था। सारांश यह कि जिनकी जैसी प्रकृति थी वे उसी प्रकार हर्ष या शोक में मग्र हो गए। कर्ण के मरने पर भीम ने भयंकर सिंहनाद किया पूरा आकाश कांप गया। वे धृतराष्ट्र के पुत्रों को डराते हुए ताल ठोक कर नाचने लगे। उस समय शल्य दुर्योधन के पास पहुंचे और आंसू बहाते हुए बोले तुम्हारी सेना नष्ट- भ्रष्ट हो गई। मानों उनके ऊपर यमराज का आधिपत्य हो। आज कर्ण और अर्जुन ने जैसा युद्ध किया था। वैसा पहले कभी नहीं हुआ था।
कर्ण ने सभी को अपने काबू में कर लिया था लेकिन फिर भी वह मारा गया। निश्चय ही दैव पांडवों के अधीन होकर काम कर रहे हैं। यही कारण है कि तुम्हारी सेना के वीर बलपूर्वक शत्रु सेना द्वारा मारे गए। मद्रराज की ये बातें सुनकर और मन ही मन अपने अन्यायों का भी स्मरण करके दुर्योधन बहुत उदास हो गया। उसकी बुद्धि कुछ काम नहीं दे रही थी। वह मन ही मन अर्जुन को मारने का प्रण कर युद्ध करने लगा। इस प्रकार जब कर्ण को मारा गया और कौरव सेना भागने लगी तो कृष्ण ने अर्जुन को गले लगा लिया। धर्मराज भी कर्ण के वध का समाचार सुनकर बहुत प्रसन्न हुए।
कर्ण के बाद राजा शल्य को क्यों बनाया गया कौरवों का सेनापति?
कर्ण की मृत्यु के बाद कृपाचार्य ने दुर्योधन को बहुत समझाया की पांडवों से संधि करने में ही सबकी भलाई है पर दुर्योधन नहीं माना। उसने कहा क्षत्रिय के लिए खाट पर सोकर मरना एक बड़ा पाप है। जो क्षत्रिय युद्ध में अपने प्राण त्यागता है वही श्रेष्ठ है। दुर्योधन की सेना के सारे योद्धा हिमालय की तराई में विश्राम करने के बाद एकत्रित हुए।
दुर्योधन ने रथ पर सवार होकर महारथी अश्वत्थामा के पास गया। अश्वत्थामा युद्ध की संपूर्ण कलाओं का ज्ञाता था। उसे संपूर्ण वेदों और धर्मशास्त्रों का ज्ञान था। अश्वत्थामा से बोला आप हमारे गुरु के पुत्र हैं हम सब लोगों को आप पर भरोसा है। आप ही बताइए कि हम किसे सेनापति बनावें? अश्वत्थामा ने कहा-हम लोगों में राजा शल्य ही अब ऐसे हैं जो उत्तम कुल, पराक्रम, तेज, यश व लक्ष्मी जैसे सभी गुणों से सम्पन्न हैं। द्रोणकुमार के ऐसा कहने पर सभी योद्धा राजा शल्य को घेरकर खड़े हो गए और उसकी जय-जयकार करने लगे।
ऐसे हुआ कौरव सेना के इस सेनापति का अंत
मद्रराज शल्य मेघ के समान बाणों की और शक्तियों का ही अधिक प्रहार हो रहा था। दोनों ही ओर से सायको की सहस्त्रों धाराएं बरस रही थी। पहले दुर्योधन ही धृष्टद्युम्न ने भी सत्तर बाणों से दुर्योधन को मारकर उसे विशेष पीड़ा पहुंचाई। दुसरी नकुल ने अपने मामा राजा शल्य पर बाणों की झड़ी लगा दी। हंसते-हंसते उन्होंने शल्य की छाती बाणों से छेद डाली।
शल्य युधिष्ठिर की ओर बढ़े और युधिष्ठिर शल्य की ओर। भगवान श्रीकृष्ण के कहे अनुसार युधिष्ठिर ने शल्य के वध का फैसला लिया। युधिष्ठिर ने अपनी दमकती शक्ति को मद्रराज के ऊपर चलाया। मद्रराज शल्य शक्ति की चोट सहने के लिए गरज उठे। पर उस शक्ति ने उन्हे लहुलुहान कर दिया।
शकुनि ने महाभारत में जब खेली कुटनीति ...
इस प्रकार यह घोर संग्राम चल ही रहा था कि पांडवों अपनी सेना में भगदड़ मचा दी। उस समय दुर्योधन ने सात सौ रथियों को राजा युधिष्ठिर का सामना करने के लिए भेजा। उन रथियों ने राजा युधिष्ठिर पर चारों ओर से इतनी बाण वर्षा की कि वे अदृश्य हो गए। उनकी यह करतूत शिखण्डी आदि महारथियों से नहीं सही गई। वे अपने-अपने रथों पर बैठकर युधिष्ठिर की रक्षा के लिए पहुंचे। पांडवों ने दुर्योधन के भेजे हुए उन सात महारथियों को मौत के घाट उतार दिया। पांडवों के साथ आपके पुत्र ने महान युद्ध छेड़ा, वैसा पहले कभी न तो देखा गया न सुना गया।
चारों ओर मर्यादा तोड़कर लड़ाई हो रही थी। शकुनि ने कौरवों से कहा तुम लोग सामने युद्ध करों मैं पीछे से पांडवों का संहार करता हूं। इस सलाह के अनुसार जब सब लोग पीछे की तरफ बढ़ें तो मद्रदेश के योद्धा अत्यंत प्रसन्न हो गए। थोड़ी देर बार मद्रराज की सेना मारी गई। यह देख दुर्योधन की सेना फिर पीठ दिखाकर भागने लगी। उस समय शकुनि के पास दस हजार घुड़सवारों की सेना मौजूद थी। उसी को लेकर वह पाण्डव सेना के पिछले भाग की ओर गया। सेना की यह अवस्था देखकर सहदेव बोले -भैया जरा इस मुर्ख शकुनि को देखो, वह पीछे की ओर से प्रहार कर रहा है।
दुर्योधन क्यों गया सरोवर के अंदर.....
शकुनि की कूटनीति से आहत पांडवों ने कौरवों पर हमला बोल दिया। भीम ने धृतराष्ट्र के बारह पुत्रों का वध कर दिया। भीम ने शकुनि व उलूक का वध। शकुनि की मृत्यु का समाचार सुनकर दुर्योधन बहुत क्रोधित हुआ।
वह अपनी सेना का संहार देखकर मन ही मन बहुत दुखी हुआ। दुर्योधन ने ग्यारह अक्षौहिणी सेना इकट्ठी की थी। उसमे से अब उसे अपनी सेना नजर ही नहीं आ रही थी। राजा दुर्योधन जब अकेला हो गया तो वह सरोवर की ओर चल पड़ा। उसने सरोवर में प्रवेश किया।
संजय ने धृतराष्ट्र से कहा मैंने जब दुर्योधन को रास्ते में जाते हुए देखा तो उन्होंने मुझसे कहा संजय तुम महाराज और मेरे अन्य साथियों से जाकर बोल देना की दुर्योधन महासंग्राम से जीवित बचकर भरे पानी में सो गया है। इसके बाद कृपाचार्य, अश्वत्थामा, कृतवर्मा ये वहां से गुजरे उन्होंने कहा सौभाग्य की बात है संजय तुम जीवित हो। फिर वे लोग आपके पुत्र का समाचार पूछते हुए बोले-संजय क्या हमारे राजा दुर्योधन जीवित है तो मैंने उन्हें दुर्योधन द्वारा कही गई पूरी बात विस्तार से बताई।
दुर्योधन को भीमसेन के द्वारा मारा गया देख पांडव व पांचालों को बड़ी प्रशंसा हुई। वे सिंहनाद करने लगे। किसी ने धनुष टंकारा तो कोई शंख बजाने लगा। उस समय भगवान श्रीकृष्ण ने कहा मरे हुए शत्रु को अपनी कठोर बातों से फिर मारना उचित नहीं है। कृष्ण बोले यह मर तो उसी दिन गया था जब इसने लज्जा को त्यागकर पापियों के समान काम करना शुरू कर दिया था। श्रीकृष्ण की बात सुनकर सब नरेश अपने-अपने शंख बजाते हुए शिविर को चले गए। सब लोग पहले दुर्योधन की छावनी में गए वहां कुछ बूढ़े मंत्री और किन्नर बैठे थे बाकि रानियों के साथ राजधानी चले गए थे। श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा- तुम स्वयं उतरकर अपने अक्षय तरकस व धनुष को भी रथ से उतार लो। इसके बाद में उतारूंगा यही करने में तुम्हारी भलाई है। अर्जुन ने वैसा ही किया। फिर भगवान ने घोड़ों की बागडोर छोड़ दी और स्वयं भी रथ से उतर पड़े। जैसे ही कृष्ण रथ से उतरे ही उस रथ पर बैठा हुआ दिव्य कपि अंर्तध्यान हो गया।
पांडवों को कैसे पता चला कि दुर्योधन तालाब में छुपा हुआ था?
दुर्योधन के ऐसा कहने पर अश्वत्थामा ने कहा-राजन् तुम्हारा कल्याण हो। उठो हमलोग अवश्य ही अपने शत्रुओं को जीतेंगे। मैं अपने यज्ञ-याग, दान, सत्य और जप आदि पुण्यकर्मों की सौगंध खाकर कहता हूं। आज मैं सोमको को अवश्य मार डालूंगा। इस प्रकार जब वे बात कर रहे थे। उसी समय मांस के बोझ से थके हुए। कुछ व्याधे पानी पीने के लिए अकस्मात वहां पहुंचे। उनकी भीमसेन के प्रति बड़ी भक्ति थी। उन व्याधो ने सारी बात सुनकर जाकर भीमसेन को बता दी। यह समाचार सुनकर भाइयों सहित युधिष्ठिर बहुत प्रसन्न हुए और भगवान कृष्ण को आगे करके तुरंत सरोवर की ओर चल दिए। युधिष्ठिर की सेना ने जब प्रस्थान किया।
उसी समय उसका महान् कोलाहल सुनकर कृतवर्मा ने महान कोलाहल सुनकर कहा पांडव इसी ओर आ रहे हैं। कृतवर्मा के ये कहने पर दुर्योधन ने उनसे कहा अच्छा आप लोग जाइए। ऐसा कहकर वह सरोवर के भीतर चला गयाऔर माया से जल को बांध दिया। कृतवर्मा आदि महाराज से आज्ञा लेकर शोक मग्र होकर वहां से दूर हुए। वे थके तो थे ही, एक बरगद के पेड़ के नीचे बैठकर विचार करने लगे कि अब राजा दुर्योधन की क्या दशा होगी? यही सब सोचते-सोचते उन्होंने घोड़ों को रथ से खोल दिया और सब के सब पेड़ के नीचे आराम करने लगे।
जब पांडव तालाब के पास पहुंचे तो दुर्योधन की क्या दशा हुई?
उस सरोवर पर पहुंचकर युधिष्ठिर ने भगवान् कृष्ण से कहा माधव!देखिए तो दुर्योधन ने पानी के अंदर कैसी माया का प्रयोग किया है। यह पानी रोककर यहां सो रहा है। तब भगवान ने कहा आप भी ऐसे ही माया का प्रयोग करके इसका वध कर दीजिए। भगवान के ऐसा कहने पर युधिष्ठिर हंसते-हंसते दुर्योधन से कहा तुमने यह अनुष्ठान किस लिए किया है तुम संपूर्ण कुल का विनाश करवाकर अब पानी में जा घुसे। तुम्हारा अभिमान कहा चला गया। सभा में सब लोग तुम्हे शुरवीर कहते हें। जो अपनी प्रशंसा किया करता था। अब वही दुर्योधन छुपता क्यों फिर रहा है। उठो और क्षत्रिय की तरह युद्ध करो। धर्मराज की ये बात सुनकर दुर्योधन बोला महाराज प्राणों का भय तो किसी को भी हो सकता है।
लेकिन मैं प्राणों के भय से यहां नहीं आया हूं। मेरे पास रथ नहीं है न था। मेरे सारथि भी मारे जा चुके हैं। सेना भी नष्ट हो गई। इस दशा में मेरी थोड़ी देर विश्राम करने की इच्छा हुई। मैंने थकने के कारण ऐसा किया है तुम भी कर सकते हो। जिन भाइयों के लिए मैं राज्य चाहता था अब वही नहीं रहे। समस्त पृथ्वी श्रत्रियहीन व श्रीहीन हो गई है। लेकिन मैं पांडवों और पांचालों का उत्साह भंग करने के लिए तुमसे युद्ध करना चाहता हूं। आज से यह सारी पृथ्वी तुम्हारी हुई मैं इसे नहीं चाहता।
युधिष्ठिर ने कैसे किया दुर्योधन को युद्ध के लिए तैयार?
युधिष्ठिर ने कहा गांधारी नंदन उठो तो सही एक-एक के साथ ही गदायुद्ध करके अपने पुरुषत्व का परिचय दो। महाराज युधिष्ठिर के इस कथन को दुर्योधन नहीं सह सका। उसे बहुत क्रोध हुआ। वह हाथ में गदा लिए खड़ा हुआ। युधिष्ठिर बोले दुर्योधन जिस समय बहुत से महारथियों ने मिलकर अकेले अभिमन्यु को मार डाला। उस समय तुम्हे न्याय व अन्याय की बात सुझी। यदि तुम्हारा धर्म यही कहता हैं कि बहुत से योद्धा मिलककर एक को न मारें तो उस दिन तुमने अभिमन्यु को क्यों मार डाला। सच है स्वयं पर जब संकट आता है तो अक्सर लोग धर्म पर विचार नहीं करते।
लेकिन सुनों मैं तुम्हे वरदान देता हूं तुम पांचों पांडव में से जिससे भी चाहो उससे युद्ध करो यदि जिसके साथ तुम युद्ध करोगे और उसे मार डालोगे तो राज्य तुम्हारा ही होगा और खुद मारे गए तो तुम्हारे लिए स्वर्ग तो है ही। इसके अतिरिक्त भी बताओ, हम तुम्हारा कौन सा प्रियकार्य करें। उसके बाद दुर्योधन ने सोने कवच और सुनहरा टोप-ये दो चीजें मांग ली और धारण भी कर लिए। फिर वह गदा हाथ में लिए बोला मैं जानता हूं गदा युद्ध में मुझसे बेहतर कोई नहीं है। इसीलिए तुम में से कोई भी मुझसे गदा युद्ध कर सकता है।
जानिए, महाभारत का युद्ध जीतने के बाद युधिष्ठिर ने क्यों खेला जूआ?
दुर्योधन बार-बार गर्जना करने लगा। उस समय श्रीकृष्ण क्रोधित होकर युधिष्ठिर से बोले- राजन् आपने यह कैसी दु:साहसपूर्ण बात कह डाली कि हम में से एक को ही मारकर कौरव राजा हो जाओ। अगर दुर्योधन अर्जुन, नकुल, सहदेव या आप में से किसी एक के साथ युद्ध करने को बोल देता है तो क्या होगा? मैं आप लोगों में इतनी शक्ति नहीं देखता। इसने भीमसेन का वध करने के लिए तेरह वर्षों तक लोहे की मूर्ति के साथ गदा अभ्यास किया। दुर्योधन का सामना करने वाला इस समय भीमसेन की सिवा दूसरा कोई नहीं है। आपने फिर पहले के समान जूआ खेलना शुरू कर दिया।
आपका यह जूआ शकुनि के जूए से कहीं अधिक भयंकर है। माना कि भीमसेन बलवान् और समर्थ है। राजा दुर्योधन ने अभ्यास अधिक किया है। एक ओर बलवान् हो और दूसरी ओर युद्ध अभ्यासी तो उनमें अभ्यास करने वाला ही बड़ा माना जाता है। इसलिए आपने अपने शत्रु को समान मार्ग पर ला दिया। भला कौन ऐसा होगा, जो सब शत्रुओं को जीत लेने के बाद एक ही बाकी रह जाए और वह भी संकट में पड़ा हो तो अपने हाथों में आया हुआ। राज्य दांव पर लगाकर हार जाए। एक के साथ युद्ध करने की शर्त लगाकर लडऩा पसंद करे। यहिद हम न्याय युद्ध करें तो भीमसेन की विजय में भी संदेह है। यह सुनकर भीमसेन ने कहा मधुसुदन आप चिंता मत कीजिए। आज का युद्ध में दुर्योधन को अवश्य हराऊंगा। इसमें तनिक भी संदेह नहीं है।
भीमसेन व दुर्योधन युद्ध शुरु करने वाले ही थे तभी....
भीमसेन ने जब ऐसी बात कही तो भगवान बड़े प्रसन्न हुए और उनकी प्रशंसा करते हुए बोले-महाबाहो!इसमें तनिक भी संदेह नहीं कि राजा युधिष्ठिर ने तुम्हारे ही भरोसे अपने शत्रुओं को मारकर उज्जवल राज्य लक्ष्मी प्राप्त की है। धृतराष्ट्र के सब पुत्र तुम्हारे ही हाथ से मारे गए हैं। कितने राजे, राजकुमार और हाथी तुम्हारे द्वारा मौत के घाट उतारे जा चुके हैं। कलिंग, मगध, प्राच्य, गांधार, और कु रुदेश के राजाओं का तुमने संहार किया है।इसी प्रकार आज तुम संपूर्ण पृथ्वी और समुद्र को जीतकर धर्मराज के हवाले कर दो।
तुमसे भिडऩे पर पापी दुर्योधन जरूर मारा जाएगा। भीम ने युधिष्ठिर से कहा यह पापी मुझे कदापि नहीं मार सकता। मेरे दिल में इसके प्रति बहुत दिनों से क्रोध जमा हो रहा है उसे आज इसके ऊपर छोड़ूंगा और गदा से इसका विनाश करके दिल का कांटा निकाल दूंगा। दुर्योधन उनकी ललकारा न सह सका, वह तुरंत ही भीम का सामना करने के लिए उपस्थित हो गया। उस समय दुर्योधन के मन में न घबराहट थी न भय न ग्लानि न व्यथा। भीमसेन और दुर्योधन में महाभयंकर संग्र्राम छेडऩे वाले ही थे तभी वहां बलरामजी आ पहुंचे। उन्हें देखकर पांडवों को बहुत प्रसन्नता हुई। राजा युधिष्ठिर ने बलरामजी को गले से लगाकर उनकी कुशल पूछी, श्रीकृष्ण और अर्जुन भी प्रणाम करके उनसे गले मिले।
बलरामजी ने क्यों नहीं लड़ा महाभारत का युद्ध?
सभी ने बलदेवजी का पूजन किया। जन्मजेय ने कहा जब महाभारत युद्ध का आरंभ हुआ तब पहले ही भगवान श्रीकृष्ण की सम्मति लेकर अन्य वृष्णवंशियों के साथ तीर्थ यात्रा के लिए चले गए और जाते-जाते यह कह गए। मैं न तो दुर्योधन की सहायता करूंगा न पांडवों की। जिन दिनों पांडव उपलव्य नामक स्थान पर छावनी डालकर ठहरे हुए थे, उन्ही दिनों की बात है, पांडवों ने सब प्राणियां के हित के लिए भगवान श्रीकृष्ण को धृतराष्ट्र के पास भेजा।
उन्हें भेजने का उद्देश्य यह था कि कौरव-पांडवों में शांति बनी रहे- कलह न हो। भगवान हस्तिनापुर जाकर धृतराष्ट्र जाकर मिले और उनसे सबके लिए हितकर और याथार्थ बातें कही। लेकिन उन्होंने भगवान का कहना नहीं माना। जब वहां संधि कराने में सफल न हो सके तो भगवान उपलव्य लौट आए और पांडवों से बोले- कौरव अब काल के वश में हो रहा है। इसलिए मेरा कहना नहीं मानते। अब तुम लोग मेरे साथ पुष्य नक्षत्र में युद्ध के लिए निकल पड़ो। जब कौरव व पांडव में संधि नहीं हुई तो बलरामजी तीर्थयात्रा के लिए निकल पड़े।
जानिए, क्यों युद्ध भूमि पर नहीं बल्कि इस जगह हुआ था दुर्योधन व भीम का युद्ध...
राजा जन्मेजय इस प्रकार होने वाला उस तुमुज युद्ध की बात सुनकर धृतराष्ट्र को बड़ा दुख हुआ और उन्होंने संजय से पूछा- सूत! गदायुद्ध के समय बलरामजी को उपस्थित देख मेरे पुत्र ने भीमसेन के साथ किस प्रकार युद्ध किया। संजय ने कहा- महाराज बलरामजी वहां उपस्थित देख दुर्योधन को बड़ी खुशी हुई। राजा युधिष्ठिर तो उन्हें देखते ही खड़े हो गए। वे बहुत प्रसन्न हुए। बलरामजी उनसे बोले राजन् कुरूक्षेत्र बड़ा ही पवित्र तीर्थ है। वह स्वर्ग प्रदान करने वाला है। देवता, ऋषि, ब्रह्मण सदा उसका सेवन करते हैं। वहां युद्ध करके प्राण त्यागने वाले मनुष्य निश्चय ही स्वर्ग में इंद्र के साथ निवास करेंगे। इसीलिए हम लोग समन्तक क्षेत्र में चले।
वह देवलोक में प्रजापति की उत्तर वेदी के नाम से विख्यात है। वह त्रिभुवन का अत्यंत पवित्र एवं सनातन तीर्थ हैं। वहां युद्ध करने से जिसकी मृत्यु होगी, वह अवश्य ही स्वर्गलोक जाएगा। राजा दुर्योधन भी हाथ में बहुत बड़ी गदा लें पांडवों के साथ पैदल चले। दोनों ही कवच पहनकर युद्ध के लिए तैयार हो गए। दुर्र्योधन भी सिरपर टोप लगाए सोने का कवच बांधे भीम के सामने डट गया। गदाएं ऊपर उठी और दोनों भयंकर पराक्रम दिखाने लगे। कृष्ण ने अर्जुन से कहा भीमसेन को आज अपनी प्रतिज्ञा का पालन करना चाहिए जो उन्होंने सभा में की थी कि मैं युद्ध में दुर्योधन की गदा तोड़ दूंगा।
दुर्योधन और भीम का युद्ध देख क्यों आया बलरामजी को गुस्सा?
अर्जुन श्रीकृष्ण का इशारा समझ गए। उन्होंने भीमसेन की ओर देखकर उनकी जंघाओं की तरफ इशारा किया। भीमसेन समझ गए। दोनों का युद्ध चलता रहा। तब भीमसेन ने दुर्योधन की जंघाओं पर वार किया और दुर्योधन की दशा खराब हो गई। लेकिन यह युद्ध के नियमों के खिलाफ था। जब बलराम ने यह देखा कि दुर्र्योधन के साथ अधर्म किया जा रहा है तो वे अन्याय देखकर चुप न रह सके। उन्होंने कहा कि भीमसेन तुम्हे धित्कार है। बड़े अफसोस की बात है कि इस युद्ध के नियमों का पालन न करके आप नाभि के नीचे प्रहार कर रहे हें।
इसके बाद इन्होंने दुर्योधन की ओर दृष्टिपात किया, उसकी दशा देख उनकी आंखे क्रोध से लाल हो गई। वे कृष्ण से कहने लगे- कृष्ण दुर्योधन मेरे समान बलवान है इसकी समानता करने वाला कोई नहीं हे। आज अन्याय करके दुर्योधन ही नहीं गिराया गया है। तब श्रीकृष्ण ने उन्हें समझाया कि जब दुर्योधन ने द्रोपदी के साथ र्दुव्यहार किया था तब भीम ने प्रतिज्ञा की थी कि वे अपनी गदाओं से दुर्योधन की जंघाओं को तोड़ देंगे।
दुर्योधन को भीमसेन के द्वारा मारा गया देख पांडव व पांचालों को बड़ी प्रशंसा हुई। वे सिंहनाद करने लगे। किसी ने धनुष टंकारा तो कोई शंख बजाने लगा। उस समय भगवान श्रीकृष्ण ने कहा मरे हुए शत्रु को अपनी कठोर बातों से फिर मारना उचित नहीं है। कृष्ण बोले यह मर तो उसी दिन गया था जब इसने लज्जा को त्यागकर पापियों के समान काम करना शुरू कर दिया था। श्रीकृष्ण की बात सुनकर सब नरेश अपने-अपने शंख बजाते हुए शिविर को चले गए। सब लोग पहले दुर्योधन की छावनी में गए वहां कुछ बूढ़े मंत्री और किन्नर बैठे थे बाकि रानियों के साथ राजधानी चले गए थे। श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा- तुम स्वयं उतरकर अपने अक्षय तरकस व धनुष को भी रथ से उतार लो। इसके बाद में उतारूंगा यही करने में तुम्हारी भलाई है। अर्जुन ने वैसा ही किया। फिर भगवान ने घोड़ों की बागडोर छोड़ दी और स्वयं भी रथ से उतर पड़े। जैसे ही कृष्ण रथ से उतरे ही उस रथ पर बैठा हुआ दिव्य कपि अंर्तध्यान हो गया।
युधिष्ठिर के अलावा कोई भी पांडव वनवास नहीं जाना चाहता था क्योंकि.....
यह सुनकर भीमसेन बोले जब आपने राजधर्म की निंदा कर आलस्यपूर्ण जीवन व्यतीत करने का ही निश्चय कर रखा था तो बेचारे कौरवों का नाश कराने से क्या लाभ था?आपका यह विचार अगर पहले मालूम होता तो हम हथियार नहीं उठाते, न किसी का वध करते।आप ही की तरह शरीर को त्यागने का संकल्प लेकर हम भी भीख ही मांगते। ऐसा करने से राजाओं यह भयंकर संग्राम तो नहीं होता। यह धर्म बताया गया है कि वे राज्य पर अधिकार जमावें और उसके बीच में अगर कोई रूकावट डाले तो उसे मार डालें। दुष्ट कौरव हमने उनका वध किया है। अब आप धर्मपूर्वक इस पृथ्वी का उपभोग कीजिए। अन्यथा सारा प्रयत्न व्यर्थ चला जाएगा। जैसे कोई मनुष्य मन में किसी तरह की आशा करता है और मंजिल तक पहुंचकर उसे वहां उसे निराश होना पड़ता है। कोई भी बुद्धिमान पुरुष इस मौके को त्याग करने की प्रशंसा नहीं करेगा।
जो अतिथियों को भोजन देने की शक्ति नही रखता है। वही जंगल में जाकर रहने का निर्णय लेता है। सभी भाइयों को इस तरह परेशान देखकर द्रोपदी कहती है। महाराज- आपके ये भाई आपका संकल्प सुनकर सुख गए हैं। पपीहे की तरह रट लगा रहे हैं। फिर भी आप अपनी बातों से इन्हें प्रसन्न कर रहे हैं। जब हमने सालों तक वनवास व्यतीत किया तब दुख के समय आप अपने भाइयों से कहते थे कि एक बार कौरवों को हराने के बाद हम संपूर्ण पृथ्वी का सुख भोगेंगे। तब आपने ऐसी बातें करके हौसला बढ़ाया तो अब क्यों हम लोगों का दिल तोड़ रहे हैं। जो अवसर देखकर क्षमा भी करता है, क्रोध भी करता है, शरणागतों को निर्णय भी करता है। वह राजा धर्मात्मा कहलाता है।
व्यासजी ने युधिष्ठिर को वनवास पर न जाने के लिए कैसे मनाया?
वैशम्पायनजी कहते हैं युधिष्ठिर को इस तरह का हट करते हुए देखा।
महर्षि व्यास कहने लगे- सौम्य गृहस्थ धर्म बहुत उत्तम है और शास्त्रों में उसका
वर्णन किया गया है। धर्मज्ञ तुम शास्त्रानुसार स्वधर्म का ही आचरण करो। तुम्हारे
लिए घर छोड़कर वन में जाने का विधान नहीं है। देखो, देवता, पितर, अतिथि और सेवक इन सबका
निर्वाह गृहस्थ द्वारा ही होता है। इसलिए तुम इन सबका पालन करो।
पशु-पक्षी और समस्त प्राणियों का पेट भी गृहस्थों के कारण ही भरता
है। इसलिए गृहस्थ की सबसे श्रेष्ठ है। तुम्हे वेद का पूरा ज्ञान है। तुमने तपस्या
भी बहुत बड़ी की है। इसलिए अपनी पैतृक
राज्य का भार उठाने में तुम सब प्रकार समर्थ हो। तप, यज्ञ, विद्या, भिक्षा, इंद्रियों का संयम, ध्यान, एकांतसेवन, संतोष और
शास्त्रज्ञान-ये सब बातें तो ब्राहणों को सिद्धि देने वाली है। क्षत्रियों के धर्म
यद्यपि तुम जानते ही हो तो भी मैं उन्हें सुनाता हूं-यज्ञ, विद्याभ्यास, शत्रुओं पर चढ़ाई, राजलक्ष्मी की प्राप्ति
से कभी संतुष्ट न होना, दण्ड देना, दबादबा रखना, प्रजा का पालन करना, समस्त वेदों का ज्ञान
प्राप्त करना इन्ही धर्मों के द्वारा क्षत्रियों को सिद्धि प्राप्त कर ली थी।
इन 9 बातों को
याद नहीं रखने
वाले होते हैं
मूर्ख
यह माना जाता
है कि शास्त्र पढ़कर भी लोग
मूर्ख होते हैं,
किंतु जो उसके
अनुसार आचरण करता
है, वस्तुत: वही
विद्वान है। महाभारत के उद्योग पर्व
में विदुर नीति
में मिले वर्णन
के अनुसार कुछ
काम ऐसे होते
हैं जिसे करने
वाला मूर्ख कहलाता
है।
- बिना पढ़े
ही गर्व करने
वाला।
- दरिद्र होकर
भी बड़े-बड़े
मंसूबे बांधने वाला।
- बिना काम
किए ही धन
पाने की इच्छा
रखने वाले मनुष्य
को पण्डित लोग
मूर्ख कहते हैं।
- जो अपना
कर्तव्य छोड़कर दूसरे
के कर्तव्य का
पालन करता है।
- जो मित्र
के साथ झूठा
आचरण करता है।
- न चाहने
वालों को चाहता
है और चाहने
वालों को त्याग
देता है।
- जो हमेशा
व्यर्थ का काम
करता है।
- बात-बात
पर संदेह करने
वाला।
- जल्दी होने
वाले काम को
भी करने में
देर लगाता है,वह मूर्ख
होता है।
संग्राम से जीवित
बचे।
अश्वत्थामा ने
उत्तरा के गर्भ को नष्ट करने के लिये उस पर अस्त्र का प्रयोग किया। वह गर्भ उसके
अस्त्र से प्राय: दग्ध हो गया था; किंतु भगवान्
श्रीकृष्ण ने उसको पुन: जीवन-दान दिया। उत्तरा का वही गर्भस्थ शिशु आगे चलकर राजा
परीक्षित् के नाम से विख्यात हुआ। कृतवर्मा, कृपाचार्य तथा
अश्वत्थामा- ये तीन कौरवपक्षीय वीर उस संग्राम से जीवित बचे।
दूसरी ओर पाँच
पाण्डव, सात्यकि तथा भगवान श्रीकृष्ण-ये सात ही जीवित रह सके; ओर कोई नहीं बचे। उस समय सब ओर अनाथा स्त्रियों का आर्तनाद व्याप्त
हो रहा था। भीमसेन आदि भाइयों के साथ जाकर युधिष्ठिर ने उन्हें सान्त्वना दी तथा
रणभूमि में मारे गये सभी वीरों का दाह-संस्कार करके उनके लिये जलांजलि दे धन आदि
का दान किया। तत्पश्चात कुरुक्षेत्र में शरशय्या पर आसीन शान्तनुनन्दन भीष्म के
पास जाकर युधिष्ठिर ने उनसे समस्त शान्तिदायक धर्म, राजधर्म (आपद्धर्म), मोक्ष धर्म तथा दानधर्म की बातें सुनीं। फिर वे राजसिंहासन पर आसीन
हुए।
इसके बाद उन शत्रुमर्दन राजा ने अश्वमेध यज्ञ करके उसमें ब्राह्मणों को बहुत
धन दान किया। तदनन्तर द्वारका से लौटे हुए अर्जुन के मुख से मूसलकाण्ड के कारण
प्राप्त हुए शाप से पारस्परिक युद्ध द्वारा यादवों के संहार का समाचार सुनकर
युधिष्ठिर ने परीक्षित् को राजासन पर बिठाया और स्वयं भाइयों के साथ महाप्रस्थान
कर स्वर्गलोक को चले गये।
यदुकुल
का संहार और पाण्डवों का स्वर्गगमन
जब युधिष्ठिर
राजसिंहासन पर विराजमान हो गये, तब धृतराष्ट्र
गृहस्थ-आश्रम से वानप्रस्थ-आश्रम में प्रविष्ट हो वन में चले गये। (अथवा ऋषियों के
एक आश्रम से दूसरे आश्रमों में होते हुए वे वन को गये।) उनके साथ देवी गान्धारी और
पृथा (कुन्ती) भी थीं। विदुर जी दावानल से दग्ध हो स्वर्ग सिधारे। इस प्रकार भगवान्
विष्णु ने पृथ्वी का भार उतारा और धर्म की स्थापना तथा अधर्म का नाश करने के लिये
पाण्डवों को निमित्त बनाकर दानव-दैत्य आदि का संहार किया।
तत्पश्चात भूमिका
भार बढ़ाने वाले यादवकुल का भी ब्राह्मणों के शाप के बहाने मूसल के द्वारा संहार कर
डाला। अनिरूद्ध के पुत्र वज्र को राजा के पद पर अभिषिक्त किया। तदनन्तर देवताओं के
अनुरोध से प्रभासक्षेत्र में श्रीहरि स्वयं ही स्थूल शरीर की लीला का संवरण करके
अपने धाम को पधारे वे इन्द्रलोक और ब्रह्मलोक में स्वर्गवासी देवताओं द्वारा पूजित
होते हैं। बलभद्र जी शेषनाग के स्वरूप थे, अत: उन्होंने
पातालरूपी स्वर्ग का आश्रय लिया। अविनाशी भगवान श्रीहरि ध्यानी पुरुषों के ध्येय
हैं। उनके अन्तर्धान हो जाने पर समुद्र ने उनके निजी निवासस्थान को छोड़ कर शेष
द्वारकापुरी को अपने जल में डुबा दिया।
अर्जुन ने मरे हुए यादवों का दाह-संस्कार
करके उनके लिये जलांजलि दी और धन आदि का दान किया। भगवान् श्रीकृष्ण की रानियों को, जो पहले अप्सराएँ थीं और अष्टावक्र के शाप से मानवीरूप में प्रकट
हुई थीं, लेकर हस्तिनापुर को चले। मार्ग में डंडे लिये हुए ग्वालों ने
अर्जुन का तिरस्कार करके उन सबको छीन लिया। यह भी अष्टावक्र के शाप से ही सम्भव
हुआ था। इससे अर्जुन के मन में बड़ा शोक हुआ। फिर महर्षि व्यास के सान्त्वना देने
पर उन्हें यह निश्चय हुआ कि 'भगवान् श्रीकृष्ण के
समीप रहने से ही मुझमें बल था।' हस्तिनापुर में आकर
उन्होंने भाइयों सहित राजा युधिष्ठिर से, जो उस समय प्रजावर्ग
का पालन करते थे, यह सब समाचार निवेदन किया। वे बोले-
'भैया! वही धनुष है, वे ही बाण हैं, वही रथ है और वे ही घोड़े हैं, किंतु भगवान् श्रीकृष्ण के बिना सब कुछ उसी प्रकार नष्ट हो गया, जैसे अश्रोत्रिय को दिया हुआ दान।' यह सुनकर धर्मराज युधिष्ठिर ने राज्य पर परीक्षित् को स्थापित कर दिया
इसके बाद बुद्धिमान् राजा संसार की अनित्यता का विचार करके द्रौपदी तथा भाइयों को साथ ले हिमालय की तरफ महाप्रस्थान के पथ पर अग्रसर हुए। उस महापथ में क्रमश: द्रौपदी, सहदेव, नकुल, अर्जुन और भीमसेन एक-एक करके गिर पड़े। इससे राजा शोकमग्न हो गये। तदनन्तर वे इन्द्र के द्वारा लाये हुए रथ पर आरूढ़ हो (दिव्य रूप धारी) भाइयों सहित स्वर्ग को चले गये।
'भैया! वही धनुष है, वे ही बाण हैं, वही रथ है और वे ही घोड़े हैं, किंतु भगवान् श्रीकृष्ण के बिना सब कुछ उसी प्रकार नष्ट हो गया, जैसे अश्रोत्रिय को दिया हुआ दान।' यह सुनकर धर्मराज युधिष्ठिर ने राज्य पर परीक्षित् को स्थापित कर दिया
इसके बाद बुद्धिमान् राजा संसार की अनित्यता का विचार करके द्रौपदी तथा भाइयों को साथ ले हिमालय की तरफ महाप्रस्थान के पथ पर अग्रसर हुए। उस महापथ में क्रमश: द्रौपदी, सहदेव, नकुल, अर्जुन और भीमसेन एक-एक करके गिर पड़े। इससे राजा शोकमग्न हो गये। तदनन्तर वे इन्द्र के द्वारा लाये हुए रथ पर आरूढ़ हो (दिव्य रूप धारी) भाइयों सहित स्वर्ग को चले गये।
वहाँ उन्होंने
दुर्योधन आदि सभी धृतराष्ट्रपुत्रों को देखा। तदनन्तर (उन पर कृपा करने के लिये
अपने धाम से पधारे हुए) भगवान् वासुदेव का भी दर्शन किया इससे उन्हें बड़ी
प्रसन्नता हुईं।
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......मनीष
आपकी टिप्पणि हमारे लिए बहुमूल्य हैं,अपने भाव प्रकट करने का बहुत बहुत आभार..
ReplyDelete