यहां से शुरू होती है महाभारत...
महाभारत की कहानी जितनी बड़ी, रोचक और घटनाक्रमों वाली है, ऐसी कोई दूसरी कथा नहीं है। महाभारत हमें कर्म करने की शिक्षा देती है, इस कथा का मूल केंद्र कर्म ही है। यहां हर पात्र एक जिम्मेदारी से बंधा हुआ है और सारे पात्र आपसी रिश्तों में गूंथे हुए हैं। महाभारत की कथा शुरू होती है पांडवों के पड़पौते जनमजेय के नाग यज्ञ से।
अभिमन्यु के पुत्र राजा परीक्षित की मृत्यु के उपरांत उनके पुत्र जनमेजय राजा बने। राजा जनमेजय को पता चला की उनके पिता की मृत्यु तक्षक नाग के काटने से हुई है तो उन्होंने संपूर्ण नाग जाति से बदला लेने के लिए सर्प यज्ञ किया जिसमें सभी लोकों में रहने वाले खतरनाक सर्प आ-आकर गिरने लगे। तभी आस्तिक नामक ऋषि ने वहां आकर उस सर्पयज्ञ को रुकवाया तथा नागों की जाति को समाप्त होने से बचाया। यज्ञ के पश्चात जब राजा जनमेजय दरबार लगाकर बैठे थे वहां श्रीकृष्मद्वैपायन वेद व्यास आए। जनमेजय ने उनका विधिवत आदर सत्कार किया। तब राजा जनमेजय ने महर्षि वेद व्यास से कहा कि- आपने कौरवों और पाण्डवों को अपनी आंखों से देखा है। वे तो बड़े महात्मा थे फिर उन लोगों में अनबन का क्या कारण हुआ?
कुरुक्षेत्र में जो युद्ध तथा उसमें क्या-क्या घटनाएं घटीं। उनकी पूरी कहानी मुझे सुनना है। तब वेद व्यासजी ने अपने शिष्य वैशम्पायन से महाभारत की कथा जनमजेय को सुनाने को कहा। वैशम्पायन ने बताया कि महाभारत की कथा एक लाख श्लोकों में कही गई है। इसके श्रवण, कीर्तन से मनुष्य सारे पापों से छूट जाता है। इसमें भरतवंशियों के महान जन्म का वर्णन है इसलिए इसको महाभारत कहते हैं। भगवान श्रीकृष्मद्वैपायन ने तीन साल में इस रचना को पूरा किया है। यह ग्रंथ भारतीय संस्कृति की अमूल्य धरोहर है। महाभारत की कथा का आरंभ महर्षि वैशम्पायन ने यहीं से किया है।
जानिए, महाभारत में कौन किसका अवतार था...
महाभारत में जितने भी प्रमुख पात्र थे वे सभी देवता, गंधर्व, यक्ष, रुद्र, वसु, अप्सरा, राक्षस तथा ऋषियों के अंशावतार थे। भगवान नारायण की आज्ञानुसार ही इन्होंने धरती पर मनुष्य रूप में अवतार लिया था। महाभारत के आदिपर्व में इसका विस्तृत वर्णन किया गया है। उसके अनुसार-
वसिष्ठ ऋषि के शाप व इंद्र की आज्ञा से आठों वसु शांतनु के द्वारा गंगा से उत्पन्न हुए। उनमें सबसे छोटे भीष्म थे। भगवान विष्णु श्रीकृष्ण के रूप में अवतीर्ण हुए। महाबली बलराम शेषनाग के अंश थे। देवगुरु बृहस्पति के अंश से द्रोणाचार्य का जन्म हुआ जबकि अश्वत्थामा महादेव, यम, काल और क्रोध के सम्मिलित अंश से उत्पन्न हुए। रुद्र के एक गण ने कृपाचार्य के रूप में अवतार लिया। द्वापर युग के अंश से शकुनि का जन्म हुआ। अरिष्टा का पुत्र हंस नामक गंधर्व धृतराष्ट्र तथा उसका छोटा भाई पाण्डु के रूप में जन्में। सूर्य के अंश धर्म ही विदुर के नाम से प्रसिद्ध हुए। कुंती और माद्री के रूप में सिद्धि और धृतिका का जन्म हुआ था। मति का जन्म राजा सुबल की पुत्री गांधारी के रूप में हुआ था।
कर्ण सूर्य का अंशवतार था। युधिष्ठिर धर्म के, भीम वायु के, अर्जुन इंद्र के तथा नकुल व सहदेव अश्विनीकुमारों के अंश से उत्पन्न हुए थे। राजा भीष्मक की पुत्री रुक्मिणी के रूप में लक्ष्मीजी व द्रोपदी के रूप में इंद्राणी उत्पन्न हुई थी। दुर्योधन कलियुग का तथा उसके सौ भाई पुलस्त्यवंश के राक्षस के अंश थे। मरुदगण के अंश से सात्यकि, द्रुपद, कृतवर्मा व विराट का जन्म हुआ था। अभिमन्य, चंद्रमा के पुत्र वर्चा का अंश था। अग्नि के अंश से धृष्टधुम्न व राक्षस के अंश से शिखण्डी का जन्म हुआ था।
विश्वदेवगण द्रोपदी के पांचों पुत्र प्रतिविन्ध्य, सुतसोम, श्रुतकीर्ति, शतानीक और श्रुतसेव के रूप में पैदा हुए थे। दानवराज विप्रचित्ति जरासंध व हिरण्यकशिपु शिशुपाल का अंश था। कालनेमि दैत्य ने ही कंस का रूप धारण किया था। इंद्र की आज्ञानुसार अप्सराओं के अंश से सोलह हजार स्त्रियां उत्पन्न हुई थीं। इस प्रकार देवता, असुर, गंधर्व, अप्सरा और राक्षस अपने-अपने अंश से मनुष्य के रूप में उत्पन्न हुए थे।
इसलिए हमारे देश का नाम भारत पड़ा
हमारे देश का पुराना नाम आर्यावर्त था। पूरुवंश के राजा दुष्यंत के पुत्र भरत के नाम पर ही इसका नाम भारत पड़ा। पूरुवंश ही आगे जाकर भरतवंश कहलाया । कौरव तथा पांडव भरतवंशी थे।
पूरुवंश का प्रवर्तक राजा दुष्यंत था। उसके राज्य में सभी सुखी थे। एक दिन राजा दुष्यंत अपनी सेना के साथ वन में गया। वह वन अत्यंत ही सुंदर था। उसे वह एक आश्रम दिखाई दिया। दुष्यंत आश्रम में गया। आश्रम में उसे एक सुंदर स्त्री दिखाई दी। दुष्यंत ने उसका परिचय पूछा तो उसने अपना नाम शकुंतला बताया। शकुंतला ने बताया कि वह ऋषि विश्वामित्र व स्वर्ग की अप्सरा मेनका की पुत्री है, जिसे ऋषि कण्व ने पाला है। उसके रूप को देखकर दुष्यंत उस पर मोहित हो गया।
दुष्यंत ने शकुंतला से गंधर्व विवाह करने का प्रस्ताव रखा, जिसे उसने सहर्ष स्वीकार कर लिया। शकुंलता को ले जाने का भरोसा दिलाकर दुष्यंत पुन: अपने नगर में आ गया। इधर जब ऋषि कण्व आए तो उन्होंने अपनी दिव्य दृष्टि से सब जान लिया और इस विवाह को शास्त्रसम्मत बताया। समय आने पर शकुंतला ने एक पुत्र को जन्म दिया। उसका नाम भरत रखा। भरत अत्यंत ही पराक्रमी था। छः वर्ष की आयु में ही वह भयंकर जंगली प्राणियों के साथ खेलता था। जब भरत बड़ा हो गया तो ऋषि कण्व ने शकुंतला को भरत के साथ दुष्यंत के पास जाने को कहा।
शकुंतला भरत के साथ जब दुष्यंत के महल में पहुंची तो दुष्यंत ने उसे पहचानने से इंकार कर दिया तभी आकाशवाणी हुई कि भरत तुम्हारा ही पुत्र है इसे स्वीकार करो। तब दुष्यंत ने शकुंतला व भरत को स्वीकार कर लिया तथा समय आने पर भरत को युवराज बनाया। भरत बहुत न्यायप्रिय राजा थे। उन्होंने पूरे आर्यावर्त के विभिन्न राज्यों को एकजुट किया था।
क्यों बहाया गंगा ने अपने पुत्रों को नदी में ?
दुष्यंत व शकुंतला का पुत्र भरत चक्रवर्ती सम्राट बना। भरत के वंश में आगे जाकर प्रतीप नामक राजा हुए। प्रतीप के बाद उनके पुत्र शांतनु राजा हुए। एक बार शांतनु शिकार खेलते-खेलते गंगातट पर जा पहुंचे। उन्होंने वहां एक परम सुंदर स्त्री देखी। उसके रूप को देखकर शांतनु उस पर मोहित हो गए। शांतनु ने उसका परिचय पूछते हुए उसे अपनी पत्नी बनने को कहा। उस स्त्री ने इसकी स्वीकृति दे दी लेकिन एक शर्त रखी कि आप कभी भी मुझे किसी भी काम के लिए रोकेंगे नहीं अन्यथा उसी पल मैं आपको छोड़कर चली जाऊंगी।
शांतनु ने यह शर्त स्वीकार कर ली तथा उस स्त्री से विवाह कर लिया। इस प्रकार दोनों का जीवन सुखपूर्वक बीतने लगा। समय बीतने पर शांतनु के यहां सात पुत्रों ने जन्म लिया लेकिन सभी पुत्रों को उस स्त्री ने गंगा नदी में डाल दिया। शांतनु यह देखकर भी कुछ नहीं कर पाएं क्योंकि उन्हें डर था कि यदि मैंने इससे इसका कारण पूछा तो यह मुझे छोड़कर चली जाएगी।
आठवां पुत्र होने पर जब वह स्त्री उसे भी गंगा में डालने लगी तो शांतनु ने उसे रोका और पूछा कि वह यह क्यों कर रही है? उस स्त्री ने बताया कि वह गंगा है तथा जिन पुत्रों को उसने नदी में डाला था वे वसु थे जिन्हें वसिष्ठ ऋषि ने श्राप दिया था। उन्हें मुक्त करने लिए ही मैंने उन्हें नदी में प्रवाहित किया। आपने शर्त न मानते हुए मुझे रोका इसलिए मैं अब जा रही हूं। ऐसा कहकर गंगा शांतनु के आठवें पुत्र को लेकर अपने साथ चली गई।
किसने रोका था बाणों से गंगा का प्रवाह?
गंगा जब शांतनु के आठवे पुत्र को साथ लेकर चली गई तो राजा शांतनु बहुत उदास रहने लगे। इस तरह थोड़ा समय और बीत गया। शांतनु एक दिन गंगानदी के तट पर घूम रहे थे। वहां उन्होंने देखा कि गंगाजी में बहुत थोड़ा जल रह गया है और वह भी प्रवाहित नहीं हो रहा है। इस रहस्य का पता लगाने जब शांतनु आगे गए तो उन्होंने देखा कि एक सुंदर व दिव्य युवक अस्त्रों का अभ्यास कर रहा है और उसने अपने बाणों के प्रभाव से गंगा की धारा रोक दी है।
यह दृश्य देखकर शांतनु को बड़ा आश्चर्य हुआ। तभी वहां शांतनु की पत्नी गंगा प्रकट हुई और उन्होंने बताया कि यह युवक आपका आठवां पुत्र है। इसका नाम देवव्रत है। इसने वसिष्ठ ऋषि से वेदों का अध्ययन किया है तथा परशुरामजी से इसने समस्त प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों को चलाने की कला सीखी है। यह श्रेष्ठ धनुर्धर है तथा इंद्र के समान इसका तेज है। देवव्रत का परिचय देकर गंगा उसे शांतनु को सौंपकर चली गई। शांतनु देवव्रत को लेकर अपनी राजधानी में लेकर आए तथा शीघ्र ही उसे युवराज बना दिया। गंगापुत्र देवव्रत ने अपनी व्यवहारकुशलता के कारण शीघ्र प्रजा को अपना हितैषी बना लिया।
जब भीष्म ने ली भीषण प्रतिज्ञा
गंगापुत्र भीष्म महाभारत के प्रमुख पात्रों में से एक हैं। भीष्म का नाम पूर्व में देवव्रत था। उन्हें इच्छामृत्यु का वरदान प्राप्त था। देवव्रत का नाम भीष्म क्यों पड़ा इसकी कथा इस प्रकार है-
एक दिन राजा शांतनु यमुना नदी के तट पर घूम कर रहे थे। तभी उन्हें वहां एक सुंदर युवती दिखाई दी। परिचय पूछने पर उसने स्वयं को निषादकन्या सत्यवती बताया। उसके रूप को देखकर शांतनु उस पर मोहित हो गए तथा उसके पिता के पास जाकर विवाह का प्रस्ताव रखा। तब उस युवती के पिता ने शर्त रखी कि यदि मेरी कन्या से उत्पन्न संतान ही आपके राज्य की उत्तराधिकारी हो तो मैं इसका विवाह आपके साथ करने को तैयार हूं। यह सुनकर शांतनु ने निषादराज को इंकार कर दिया क्योंकि वे पहले ही देवव्रत को युवराज बना चुके थे।
इस घटना के बाद राजा शांतनु चुप से रहने लगे। देवव्रत ने इसका कारण जानना चाहा तो शांतनु ने कुछ नहीं बताया। तब देवव्रत ने शांतनु के मंत्री से पूरी बात जान ली तथा स्वयं निषादराज के पास जाकर पिता शांतनु के लिए उस युवती की मांग की। निषादराज ने देवव्रत के सामने भी वही शर्त रखी। तब देवव्रत ने प्रतिज्ञा लेकर कहा कि आपकी पुत्री के गर्भ से उत्पन्न महाराज शांतनु की संतान ही राज्य की उत्तराधिकारी होगी। तब निषादराज ने कहा यदि तुम्हारी संतान ने मेरी पुत्री की संतान को मारकर राज्य प्राप्त कर लिया तो क्या होगा? तब देवव्रत ने सबके सामने अखण्ड ब्रह्मचर्य की प्रतिज्ञा लीl देवव्रत की इस प्रतिज्ञा को सुन देवता पुष्पवर्षा करने लगे।
इसी भीषण प्रतिज्ञा के कारण ही देवव्रत का नाम भीष्म पड़ा।
भीष्म ने क्यों किया काशी के राजा की पुत्रियों का हरण?
भरतवंशी राजा शांतनु को पत्नी सत्यवती से दो पुत्र हुए- चित्रांगद और विचित्रवीर्य। दोनों ही बड़े होनहार व पराक्रमी थे। अभी चित्रांगद ने युवावस्था में प्रवेश भी नहीं किया था कि राजा शांतनु स्वर्गवासी हो गए। तब भीष्म में माता सत्यवती की सम्मति से चित्रांगद को राजगद्दी पर बैठाया। लेकिन कुछ समय तक राज करने के बाद ही उसी के नाम के गंधर्वराज चित्रांगद ने उसका वध कर दिया। तब भीष्म में विचित्रवीर्य को राजा बनाया।
जब भीष्म ने देखा कि विचित्रवीर्य युवा हो चुका है तो उन्होंने उसका विवाह करने का विचार किया। उन्हीं दिनों काशी के राजा की तीन कन्याओं का स्वयंवर भी हो रहा था। लेकिन काशी नरेश ने द्वेषतापूर्वक हस्तिनापुर को न्योता नहीं दिया। क्रोधित होकर भीष्म अकेले ही स्वयंवर में गए और वहां उपस्थित सभी राजाओं व काशी नरेश को हराकर उनकी तीनों कन्याओं अंबा, अंबिका व अंबालिका को हर लाए। तब काशी नरेश की बड़ी पुत्री अंबा ने भीष्म से कहा कि वह मन ही मन में राजा शाल्व को अपना पति मान चुकी है। यह बात जानकर भीष्म ने अंबा को उसके इच्छानुसार जाने की अनुमति दे दी तथा शेष दो कन्याओं का विवाह विचित्रवीर्य से कर दिया।
धृतराष्ट्र अंधे व पाण्डु पीले क्यों थे?
अंबिका व अंबालिका से विवाह होने के बाद विचित्रवीर्य दोनों पत्नियों के साथ प्रेम से रहने लगे। इस तरह सात वर्ष खुशी-खुशी बीत गए। लेकिन इसके बाद यौवनावस्था में ही विचित्रवीर्य को क्षय रोग हो गया। बहुत उपचार करने के बाद भी विचित्रवीर्य बिना संतान उत्पन्न किए ही स्वर्गवासी हो गए। तब हस्तिनापुर का सिंहासन खाली हो गया। तब माता सत्यवती ने भीष्म को कहा कि वे काशीनरेश की कन्याओं के द्वारा संतान उत्पन्न कर अपने वंश की रक्षा करें। तब भीष्म ने अपनी प्रतिज्ञा को न तोडऩे का संकल्प दोहराया।
भीष्म की प्रतिज्ञा सुनकर सत्यवती ने अपने पुत्र महर्षि वेदव्यास को बुलाया। महर्षि व्यास के आने पर सत्यवती ने उन्हें विचित्रवीर्य के क्षेत्र में संतान उत्पन्न करने के लिए कहा। माता की आज्ञा मानकर व्यासजी ने अंबिका से धृतराष्ट्र व अंबालिका से पाण्डु को उत्पन्न किया। जब अंबिका व्यासजी के पास गई तो उन्हें देखकर उसने अपनी आंखें बंद कर ली इसी कारण धृतराष्ट्र जन्म से ही अंधे हुए। अंबालिक जब व्यासजी के पास गई तो उन्हें देखकर उसका शरीर पीला हो गया। इसी कारण पाण्डु पीले व कमजोर हुए। तब अंबिका की प्रेरणा से उसकी दासी ने व्यासजी के द्वारा ही विदुर को उत्पन्न किया।
इस तरह धृतराष्ट्र, पाण्डु व विदुर से कुरुवंश आगे बढ़ा।
पाण्डु को ही क्यों बनाया गया राजा?
महर्षि वेदव्यास की कृपा से ही कुरुवंश में धृतराष्ट्र, पाण्डु और विदुर ने जन्म लिया। उन दिनों भीष्म बड़ी लगन से धर्म की रक्षा और राज्य का काम-काज देखते थे। धृतराष्ट्र, पाण्डु व विदुर के कार्य देखकर हस्तिनापुरवासियों को बड़ी प्रसन्नता होती थी। भीष्म बड़ी सावधानी से राजकुमारों की रक्षा करते थे। जब ये तीनों बड़े हुए तो भीष्म ने उनकी शिक्षा का उचित प्रबंध किया।
इस प्रकार धृतराष्ट्र, पाण्डु व विदुर तीनों ने ही अपने-अपने अधिकारानुसार अस्त्र व शास्त्रज्ञान का अध्ययन किया। पाण्डु की रुचि शस्त्र ज्ञान में अधिक थी वे श्रेष्ठ धनुर्धर थे और सबसे बलशाली थे धृतराष्ट्र, उनमें अनेक हाथियों का बल था। विदुर के समान धर्म को जानने वाला संसार में कोई और नहीं था। जब ये तीनों युवा हुए तो भीष्म ने सत्यवती की सम्मति से किसी एक को राज्य का भार सौंपने का विचार किया। धृतराष्ट्र जन्म से ही अंधे थे और विदुर दासी पुत्र, इसलिए वे दोनों राज्य के अधिकारी नहीं माने गए।
इस प्रकार सर्वसम्मति से पाण्डु को राज्य का अधिकारी माना गया। भीष्म ने बड़े उत्साह से पाण्डु का राज्याभिषेक किया।
गांधारी ने क्यों बांधी आंखों पर पट्टी?
पाण्डु के राज्याभिषेक के बाद भीष्म ने धृतराष्ट्र, पाण्डु व विदुर का विवाह करने का विचार किया। भीष्म ने सुना कि गांधारराज सुबल की पुत्री गांधारी सब लक्षणों से सम्पन्न है और उसने भगवान शंकर की आराधना कर सौ पुत्रों का वरदान भी प्राप्त किया है। तब भीष्म ने गांधारराज के पास धृतराष्ट्र के विवाह के लिए प्रस्ताव भेजा जिसे सुबल ने स्वीकार कर लिया। गांधारी को जब पता चला कि धृतराष्ट्र अंधे हैं तो उसने अपनी आंखों पर भी पट्टी बांध ली और जीवन भर इस प्रकार रहकर अपने पति की सेवा करने का निश्चय किया। इस तरह धृतराष्ट्र का विवाह गांधारी से हो गया।
यदुवंशी शूरसेन की पृथा नाम की कन्या थी। इस कन्या को शूरसेन ने अपनी बुआ के संतानहीन लड़के कुन्तीभोज को गोद दे दिया था। इस प्रकार पृथा कुंती के नाम से प्रसिद्ध हुई। कुंती जब विवाह योग्य हुई तो कुंतीभोज ने स्वयंवर का आयोजन किया जिसमें कुंती ने पाण्डु को जयमाला पहनाई। इस तरह पाण्डु का विवाह कुंती से हो गया। तब भीष्म ने पाण्डु के एक और विवाह करने का निश्चय किया तथा मद्रराज के राजा शल्य की बहन माद्री से पाण्डु का विवाह किया। पाण्डु कुंती व माद्री के साथ सुखपूर्वक रहने लगे।
इसके बाद भीष्म ने राजा देवक की दासीपुत्री जो गुणों में विदुर के समान ही थी, का विवाह विदुर से करवा दिया।
कर्ण को सूर्यपुत्र क्यों कहते हैं?
महाभारत में कई ऐसे पात्र हैं जो अलग-अलग बातों के लिए जानें जाते हैं। ऐसे ही एक पात्र हैं कर्ण, जो अपनी दानवीरता के लिए प्रसिद्ध हैं। कर्ण को सूर्यपुत्र भी कहते हैं। कर्ण के जन्म का पूरा वृतांत महाभारत के आदिपर्व में है।
यदुवंशी राजा शूरसेन की एक कन्या थी जिसका नाम पृथा था। इस कन्या को शूरसेन ने अपनी बुआ के संतानहीन पुत्र कुंतीभोज को दे दिया। इस प्रकार पृथा कुंती के नाम से प्रसिद्ध हुई। कुंती जब छोटी थी तो ऋषियों की सेवा करने में उसे बड़ा आनन्द आता था। एक बार कुंती ने महर्षि दुर्वासा की बड़ी सेवा की। जिससे प्रसन्न होकर दुर्वासा ने उसे एक मंत्र दिया और कहा कि इस मंत्र से तुम जिस देवता का आवाहन करोगी, उसी की कृपा से तुम्हें पुत्र उत्पन्न होगा। दुर्वासा ऋषि की बात सुनकर कुंती को बड़ा आश्चर्य हुआ।
उसने एकांत में जाकर भगवान सूर्य का आवाहन किया। सूर्यदेव ने आकर तत्काल कुंती को गर्भस्थापन किया, जिससे तेजस्वी कवच व कुंडल पहने एक सर्वांग सुंदर बालक उत्पन्न हुआ। उस समय कुंती कुंवारी थी इसलिए उसने कलंक के भय से उस बालक को छिपाकर नदी में बहा दिया। रथ चलाने वाले अधिरथ ने उसे निकाला और अपनी पत्नी राधा के पास ले जाकर उसे पुत्र बना लिया। उसका नाम
वसुषेण रखा गया। यही वसुषेण आगे जाकर कर्ण के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
कैसे हुआ कौरवों का जन्म ?
एक बार महर्षि वेदव्यास हस्तिनापुर आए। गांधारी ने उनकी बहुत सेवा की। जिससे प्रसन्न होकर उन्होंने गांधारी को वरदान मांगने को कहा। गांधारी ने अपने पति के समान ही बलवान सौ पुत्र होने का वर मांगा। समय पर गांधारी को गर्भ ठहरा और वह दो वर्ष तक पेट में ही रहा। इससे गांधारी घबरा गई और उसने अपना गर्भ गिरा दिया। उसके पेट से लोहे के समान एक मांस पिण्ड निकला।
महर्षि वेदव्यास ने अपनी योगदृष्टि से यह सब देख लिया और वे तुरंत गांधारी के पास आए। तब गांधारी ने उन्हें वह मांस पिण्ड दिखाया। महर्षि वेदव्यास ने गांधारी से कहा कि तुम जल्दी से सौ कुण्ड बनवाकर उन्हें घी से भर दो और सुरक्षित स्थान में उनकी रक्षा का प्रबंध कर दो तथा इस मांस पिण्ड पर जल छिड़को। जल छिड़कने पर उस मांस पिण्ड के एक सौ एक टुकड़े हो गए।
व्यासजी ने कहा कि मांस पिण्डों के इन एक सौ एक टुकड़ों को घी से भरे कुण्डों में डाल दो। अब इन कुण्डों को दो साल बाद ही खोलना। इतना कहकर महर्षि वेदव्यास तपस्या करने हिमालय पर चले गए। समय आने पर उन्हीं मांस पिण्डों से पहले दुर्योधन और बाद में गांधारी के 99 पुत्र तथा एक कन्या उत्पन्न हुई।
यह हैं धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों के नाम
महर्षि वेदव्यास के कथनानुसार गांधारी के पेट से निकले मांस पिण्ड से सौ पुत्र व एक पुत्री ने जन्म लिया। महाभारत के आदिपर्व के अनुसार उनके नाम यह हैं-
गांधारी का सबसे बड़ा पुत्र था दुर्योधन। उसके बाद दु:शासन, दुस्सह, दुश्शल, जलसंध, सम, सह, विंद, अनुविंद, दुद्र्धर्ष, सुबाहु, दुष्प्रधर्षण, दुर्मुर्षण, दुर्मुख, दुष्कर्ण, कर्ण, विविंशति, विकर्ण, शल, सत्व, सुलोचन, चित्र, उपचित्र, चित्राक्ष, चारुचित्र, शरासन, दुर्मुद, दुर्विगाह, विवित्सु, विकटानन, ऊर्णनाभ, सुनाभ, नंद, उपनंद, चित्रबाण, चित्रवर्मा, सुवर्मा, दुर्विमोचन, आयोबाहु, महाबाहु, चित्रांग, चित्रकुंडल, भीमवेग, भीमबल, बलाकी, बलवद्र्धन, उग्रायुध, सुषेण, कुण्डधार, महोदर, चित्रायुध, निषंगी, पाशी, वृंदारक, दृढ़वर्मा, दृढ़क्षत्र, सोमकीर्ति, अनूदर, दृढ़संध, जरासंध, सत्यसंध, सद:सुवाक, उग्रश्रवा, उग्रसेन, सेनानी, दुष्पराजय, अपराजित, कुण्डशायी, विशालाक्ष, दुराधर, दृढ़हस्त, सुहस्त, बातवेग, सुवर्चा, आदित्यकेतु, बह्वाशी, नागदत्त, अग्रयायी, कवची, क्रथन, कुण्डी, उग्र, भीमरथ, वीरबाहु, अलोलुप, अभय, रौद्रकर्मा, दृढऱथाश्रय, अनाधृत्य, कुण्डभेदी, विरावी, प्रमथ, प्रमाथी, दीर्घरोमा, दीर्घबाहु, महाबाहु, व्यूढोरस्क, कनकध्वज, कुण्डाशी और विरजा।
गांधारी की पुत्री का नाम दुश्शला था जिसका विवाह राजा जयद्रथ के साथ हुआ था।
ऋषि किंदम ने क्यों दिया पाण्डु को श्राप?
राजा पाण्डु एक बार वन में घूम रहे थे। तभी उन्हें हिरनों का एक जोड़ा दिखाई दिया। पाण्डु ने निशाना साधकर उन पर पांच बाण मारे, जिससे हिरन घायल हो गए। वास्तव में वह हिरन किंदम नामक एक ऋषि थे जो अपनी पत्नी के साथ विहार कर रहे थे। तब किंदम ऋषि ने अपने वास्तविक स्वरूप में आकर पाण्डु को श्राप दिया कि तुमने अकारण मुझ पर और मेरी तपस्नी पत्नी पर बाण चलाए हैं जब हम विहार कर रहे थे। अब तुम जब भी अपनी पत्नी के साथ सहवास करोगे तो उसी समय तुम्हारी मृत्यु हो जाएगी तथा वह पत्नी तुम्हारे साथ सती हो जाएगी। इतना कहकर किंदम ऋषि ने अपनी पत्नी के साथ प्राण त्याग दिए। ऋषि की मृत्यु होने पर पाण्डु को बहुत दु:ख हुआ। ऋषि की मृत्यु का प्रायश्चित करने के उद्देश्य से पाण्डु ने सन्यास लेने का विचार किया। जब कुंती व माद्री को यह पता चला तो उन्होंने पाण्डु को समझाया कि वानप्रस्थाश्रम में रहते हुए भी आप प्रायश्चित कर सकते हैं। पाण्डु को यह सुझाव ठीक लगा और उन्होंने वन में रहते हुए ही तपस्या करने का निश्चय किया। पाण्डु ने ब्राह्मणों के माध्यम से यह संदेश हस्तिनापुर भी भेजा। यह सुनकर हस्तिनापुरवासियों को बड़ा दु:ख हुआ। तब भीष्म ने धृतराष्ट्र को राजा बना दिया। उधर पाण्डु अपनी पत्नियों के साथ गंधमादन पर पर्वत पर जाकर ऋषिमुनियों के साथ साधना करने लगे।
जब कुंती ने पाण्डु को बताया मंत्र का रहस्य
ऋषि किंदम के श्राप के कारण पाण्डु वानप्रस्थाश्रम के अनुसार कुंती व माद्री के साथ गंदमादन पर्वत पर रहने लगे। पाण्डु वहां रहते हुए प्रतिदिन तप किया करते और कुंती व माद्री उनकी सेवा करती थी। एक बार पाण्डु ने देखा कि बड़े-बड़े ऋषि-महर्षि कहीं जा रहे थे। पाण्डु के पूछने पर उन्होंने बताया कि वे ब्रह्माजी के दर्शन के लिए ब्रह्मलोक की यात्रा कर रहे हैं। यह बात जानकर पाण्डु भी अपनी पत्नियों के साथ उनके पीछे चलने लगे। लेकिन फिर पाण्डु ने सोचा कि संतानहीन के लिए तो स्वर्ग के द्वार बंद है। यह सोचकर वे सोच में पड़ गए।
तब ऋषियों ने दिव्य दृष्टि से देखकर बताया कि पाण्डु आपके देवताओं के समान पुत्र होंगे और तब आप स्वर्ग जा सकेंगे। किंतु पाण्डु यह जानते थे कि किंदम ऋषि के श्राप के कारण वे सहवास नहीं कर सकते। इसी सोच में पाण्डु एक दिन बैठे थे तभी कुंती वहां आई और उसने पाण्डु से परेशानी का कारण पूछा। पाण्डु ने सारी बात कुंती को बता दी। तब कुंती ने पाण्डु को बताया कि बालपन में मैंने दुर्वासा ऋषि की खूब सेवा की थी जिससे प्रसन्न होकर उन्होंने मुझे एक मंत्र दिया था जिसके स्मरण से मैं किसी भी देवता का आवाहन कर सकती हूं और उसी की कृपा से मुझे संतान उत्पन्न होगी। यह बात सुनकर पाण्डु अत्यंत प्रसन्न हुए।
कैसे हुआ पाण्डवों का जन्म?
ऋषि किंदम की मृत्यु का प्रायश्चित करने के लिए जब पाण्डु कुंती व माद्री के साथ वन में रहने लगे तो उन्हें संतान न होने की चिंता सताने लगी। जब यह बात कुंती को पता चली तो उन्होंने पाण्डु को ऋषि दुर्वासा द्वारा दिए मंत्र की बात बताई। यह जानकर पाण्डु अत्यंत प्रसन्न हुए।तब पाण्डु ने कुंती से कहा कि तुम धर्मराज (यमराज) का आवाहन करो। कुंती ने धर्मराज का आवाहन किया। मंत्र के प्रभाव से धर्मराज तुरंत वहां उपस्थित हुए और उनके आशीर्वाद से कुंती को गर्भ रहा। समय आने पर कुंती ने युधिष्ठिर को जन्म दिया।
इसके बाद कुंती ने पाण्डु की इच्छानुसार वायुदेव का स्मरण किया। वायुदेव की कृपा से महाबली भीम का जन्म हुआ। इसके बाद कुंती ने देवराज इंद्र का आवाहन किया। इंद्र की कृपा से अर्जुन का जन्म हुआ। तभी आकाशवाणी हुई कि यह बालक भगवान शंकर व इंद्र के समान पराक्रमी होगा। यह अनेक राजाओं को पराजित कर तीन अश्वमेध यज्ञ करेगा। तब एक दिन पाण्डु ने कुंती से कहा कि तुम वह मंत्र जो तुम्हें ऋषि दुर्वासा ने दिया है, माद्री को भी बताओ जिससे यह भी पुत्रवती हो सके।
कुंती ने माद्री को वह मंत्र बताया। तब माद्री ने अश्विनकुमारों का चिंतन किया। अश्विनकुमारों ने आकर माद्री को गर्भस्थापन किया, जिससे माद्री को जुड़वा पुत्र नकुल व सहदेव हुए। इस प्रकार कुंती के गर्भ से युधिष्ठिर, भीम व अर्जुन तथा माद्री से गर्भ से नकुल व सहदेव का जन्म हुआ। तब पाण्डु अपने पुत्रों व पत्नियों के साथ वन में प्रसन्नतापूर्वक रहने लगे।
क्यों हुई महाराज पाण्डु की मौत... ?
पाण्डवों के जन्म के पश्चात पाण्डु अपने पत्नियों के साथ तपस्वियों की तरह जीवन व्यतीत कर रहे थे। एक दिन जब पाण्डु व माद्री अकेले वन में घुम रहे थे तभी पाण्डु के मन में कामभाव का संचार हो गया और उन्होंने माद्री को बलपूर्वक पकड़ लिया। माद्री ने पाण्डु को रोकने की कोशिश की लेकिन तब तक ऋषि किंदम के श्राप के प्रभाव से पाण्डु ने प्राण त्याग दिए। माद्री यह देखकर रोने लगी। तभी वहां कुंती व पांचों पाण्डव भी आ गए। तब माद्री ने सारी बात कुंती को बताई तो वे भी पाण्डु के शव से लिपटकर विलाप करने लगीं।जब पाण्डु के अंतिम संस्कार का समय आया तो कुंती पाण्डु के साथ सती होने लगी तभी माद्री ने कुंती को रोका और स्वयं सती होने का हठ करने लगी तथा पाण्डु की चिता पर चढ़ कर सती हो गई।
पाण्डु की मृत्यु के बाद वन में रहने वाले साधुओं ने विचार किया कि पाण्डु के पुत्रों, अस्थि तथा पत्नी को हस्तिनापुर भेज देना ही उचित है। इस प्रकार समस्त ऋषिगण हस्तिनापुर आए और उन्होंने पाण्डु पुत्रों के जन्म और पाण्डु की मृत्यु के संबंध में पूरी बात भीष्म, धृतराष्ट्र आदि को बताई। पाण्डु की मृत्यु के कुछ दिन बाद महर्षि वेदव्यास हस्तिनापुर आए और उन्होंने विपरीत समय आता देख माता सत्यवती तथा अंबिका व अंबालिका को वन में जाने का निवेदन किया। तब वे तीनों वन में चली गई और तप करते हुए अपने शरीर का त्याग कर दिया।
जब दुर्योधन ने भीम को विष पिलाया
हस्तिनापुर में आने के बाद पाण्डवों को वैदिक संस्कार सम्पन्न हुए। पाण्डव तथा कौरव साथ ही खेलने लगे। दौडऩे में, निशाना लगाने तथा कुश्ती आदि सभी खेलों में भीम सभी धृतराष्ट्र पुत्रों को हरा देते थे। भीमसेन कौरवों से होड़ के कारण ही ऐसा करते थे लेकिन उनके मन में कोई वैर-भाव नहीं था। परंतु दुर्योधन के मन में भीमसेन के प्रति दुर्भावना पैदा हो गई। तब उसने उचित अवसर मिलते ही भीम को मारने का विचार किया।
दुर्योधन ने एक बार खेलने के लिए गंगा तट पर शिविर लगवाया। उस स्थान का नाम रखा उदकक्रीडन। वहां खाने-पीने इत्यादि सभी सुविधाएं भी थीं। दुर्योधन ने पाण्डवों को भी वहां बुलाया। एक दिन मौका पाकर दुर्योधन ने भीम के भोजन में विष मिला दिया। विष के असर से जब भीम अचेत हो गए तो दुर्योधन ने दु:शासन के साथ मिलकर उसे गंगा में डाल दिया। भीम इसी अवस्था में नागलोक पहुंच गए। वहां सांपों ने भीम को खूब डंसा जिसके प्रभाव से विष का असर कम हो गया। जब भीम को होश आया तो वे सर्पों को मारने लगे। सभी सर्प डरकर नागराज वासुकि के पास गए और पूरी बात बताई।
तब वासुकि स्वयं भीमसेन के पास गए। उनके साथ आर्यक नाग ने भीम को पहचान लिया। आर्यक नाग भीम के नाना का नाना था। वह भीम से बड़े प्रेम से मिले। तब आर्यक ने वासुकि से कहा कि भीम को उन कुण्डों का रस पीने की आज्ञा दी जाए जिनमें हजारों हाथियों का बल है। वासुकि ने इसकी स्वीकृति दे दी। तब भीम आठ कुण्ड पीकर एक दिव्य शय्या पर सो गए।
जब भीम सकुशल हस्तिनापुर लौट आए
जब दुर्योधन ने भीम को विष देकर गंगा में फेंक दिया तो उसे बड़ा हर्ष हुआ। शिविर के समाप्त होने पर सभी कौरव व पाण्डव भीम के बिना ही हस्तिनापुर के लिए रवाना हो गए। पाण्डवों ने सोचा कि भीम आगे चले गए होंगे। जब सभी हस्तिनापुर पहुंचे तो युधिष्ठिर ने माता कुंती से भीम के बारे में पूछा। तब कुंती ने भीम के न लौटने की बात कही। सारी बात जानकर कुंती व्याकुल हो गई तब उन्होंने विदुर को बुलाया और भीम को ढूंढने के लिए कहा। तब विदुर ने उन्हें सांत्वना दी और सैनिकों को भीम को ढूंढने के लिए भेजा।
उधर नागलोक में भीम आठवें दिन रस पच जाने पर जागे। तब नागों ने भीम को गंगा के बाहर छोड़ दिया। जब भीम सही-सलामत हस्तिनापुर पहुंचे तो सभी को बड़ा संतोष हुआ। तब भीम ने माता कुंती व अपने भाइयों के सामने दुर्योधन द्वारा विष देकर गंगा में फेंकने तथा नागलोक में क्या-क्या हुआ, यह सब बताया। युधिष्ठिर ने भीम से यह बात किसी और को नहीं बताने के लिए कहा। इसके बाद भी दुर्योधन ने कई बार भीम को मारने का षडय़ंत्र रचा लेकिन वह कामयाब नहीं हो पाया।
पाण्डव सबकुछ जानकर भी विदुर की सलाह के अनुसार चुप ही रहे। जब धृतराष्ट्र ने देखा कि सभी राजकुमार खेल-कूद में ही लगे रहते हैं तो उन्होंने कृपाचार्य को उन्हें शिक्षा देने के लिए निवेदन किया। इस तरह कौरव व पाण्डव कृपाचार्य से धनुर्वेद की शिक्षा प्राप्त करने लगे।
कौन थे कृपाचार्य ?
कृपाचार्य महाभारत के प्रमुख पात्रों में से एक थे। उनके जन्म के संबंध में पूरा वर्णन महाभारत के आदिपर्व में मिलता है। उसी के अनुसार-महर्षि गौतम के पुत्र थे शरद्वान। वे बाणों के साथ ही पैदा हुए थे। उनका मन धनुर्वेद में जितना लगता था, उतना पढ़ाई में नहीं लगता था। उन्होंने तपस्या करके सारे अस्त्र-शस्त्र प्राप्त किए। शरद्वान की घोर तपस्या और धनुर्वेद में निपुणता देखकर इंद्र बहुत भयभीत हो गया। उसने शरद्वान की तपस्या में विघ्न डालने के लिए जानपदी नाम की देवकन्या भेजी। वह शरद्वान के आश्रम में आकर उन्हें लुभाने लगी। उस सुंदरी को देखकर शरद्वान के हाथों से धनुष-बाण गिर गए। वे बड़े संयमी थे तो उन्होंने स्वयं को रोक लिया।
लेकिन उनके मन में विकार आ गया था इसलिए अनजाने में ही उनका शुक्रपात हो गया। उन्होंने धनुष, बाण, आश्रम और उस सुदंरी को छोड़कर तुरंत वहां से यात्रा कर दी। उनका वीर्य सरकंडों पर गिरा था इसलिए वह दो भागों में बंट गया। उससे एक कन्या और एक पुत्र की उत्पत्ति हुई। उसी समय संयोग से राजा शांतनु वहां से गुजरे। उनकी नजर उस बालक व बालिका पर पड़ी। शांतनु ने उन्हें उठा लिया और अपने साथ ले आए। बालक का नाम रखा कृप और बालिका का नाम रखा कृपी। जब शरद्वान को यह बात मालूम हुई तो वे राजा शांतनु के पास आए और उन बालकों के नाम, गोत्र आदि बतलाकर चारों प्रकार के धनुर्वेदों, विविध शास्त्रों और उनके रहस्यों की शिक्षा दी।
थोड़े ही दिनों में कृप सभी विषयों में पारंगत हो गए। अब कौरव और पाण्डव राजकुमार उनसे धनुर्वेद की शिक्षा लेने लगे। तब भीष्म ने सोचा कि इन राजकुमारों को दूसरे अस्त्रों का ज्ञान भी होना चाहिए। यह सोचकर उन्होंने राजकुमारों को द्रोणाचार्य को सौंप दिया।
कैसे हुआ द्रोणाचार्य का जन्म?
द्रोणाचार्य कौरव व पाण्डव राजकुमारों के गुरु थे। उनके पुत्र का नाम अश्वत्थामा था जो यम, काल, महादेव व क्रोध का अंशावतार था। द्रोणाचार्य का जन्म कैसे हुआ इसका वर्णन महाभारत के आदिपर्व में मिलता है-
एक समय गंगाद्वार नामक स्थान पर महर्षि भरद्वाज रहा करते थे। वे बड़े व्रतशील व यशस्वी थे। एक बार वे यज्ञ कर रहे थे। एक दिन वे महर्षियों को साथ लेकर गंगा स्नान करने गए। वहां उन्होंने देखा कि घृताची नामक अप्सरा स्नान करके जल से निकल रही है। उसे देखकर उनके मन में काम वासना जाग उठी और उनका वीर्य स्खलित होने लगा। तब उन्होंने उस वीर्य को द्रोण नामक यज्ञपात्र में रख दिया। उसी से द्रोणाचार्य का जन्म हुआ। द्रोण ने सारे वेदों का अध्ययन किया। महर्षि भरद्वाज ने पहले ही आग्नेयास्त्र की शिक्षा अग्निवेश्य को दे दी थी।
अपने गुरु भरद्वाज की आज्ञा से अग्निवेश्य ने द्रोणाचार्य को आग्नेयास्त्र की शिक्षा दी। द्रोणाचार्य का विवाह शरद्वान की पुत्री कृपी से हुआ था। कृपी के गर्भ से महाबली अश्वत्थामा का जन्म हुआ। उसने जन्म लेते ही उच्चै:श्रवा अश्व के समान गर्जना की थी इसलिए उसका नाम अश्वत्थामा था। अश्वत्थामा के जन्म से द्रोणाचार्य को बड़ा हर्ष हुआ। द्रोणाचार्य सबसे अधिक अपने पुत्र से ही स्नेह रखते
थे। द्रोणाचार्य ने ही उसे धनुर्वेद की शिक्षा भी दी थी।
जब राजा द्रुपद ने द्रोणाचार्य का अपमान किया
पृषत नामक एक राजा भरद्वाज मुनि के मित्र थे। द्रोणाचार्य के जन्म के समय ही उनके यहां भी द्रुपद नामक पुत्र पैदा हुआ। उसने भी भरद्वाज आश्रम में रहकर द्रोणाचार्य के साथ शिक्षा प्राप्त की। द्रोणाचार्य के साथ उसकी मित्रता हो गई। जब दोनों युवा हुए तो पृषत का निधन होने पर द्रुपद उत्तर पांचाल देश का राजा हुआ और द्रोणाचार्य आश्रम में रहकर तपस्या करने लगे।
आचार्य द्रोण को जब मालूम हुआ कि भगवान परशुराम ब्राह्मणों को अपना सर्वस्व दान कर रहे हैं तो वह भी भगवान परशुराम के पास पहुंचे। तब उन्होंने भगवान परशुराम से उनके सभी अस्त्र-शस्त्र उनके प्रयोग की विधि, रहस्य और उपसंहार की विधि मांग ली। अस्त्र-शस्त्र प्राप्त करके द्रोणाचार्य को बड़ी प्रसन्नता हुई। फिर वे अपने मित्र द्रुपद के पास गए। वहां राजा द्रुपद ने उनका बड़ा अपमान किया और बाल्यकाल की दोस्ती को मुर्खता बताया।
तब द्रोणाचार्य को बड़ा क्रोध आया। तब उन्होंने मन ही मन द्रुपद से इस अपमान का बदला लेने का निश्चय किया। इसके बाद द्रोणाचार्य कुरुवंश की राजधानी हस्तिनापुर में आ गए और कुछ दिनों तक गुप्त रूप से कृपाचार्य के घर पर रहे।
जब कौरव व पाण्डवों के गुरु बनें द्रोणाचार्य
एक दिन युधिष्ठिर आदि सभी राजकुमार नगर के बाहर मैदान में गेंद से खेल रहे थे। गेंद अचानक कुएं में गिर पड़ी। राजकुमारों ने उसे निकालने का प्रयत्न तो किया परंतु सफलता नहीं मिली। इसी समय उनकी दृष्टि पास ही बैठे एक ब्राह्मण पर पड़ी। उनकी शरीर दुर्बल और रंग सांवला था। राजकुमारों ने उनसे कुएं से गेंद निकालने का निवेदन किया। तब उस ब्राह्मण ने कहा कि तुम मेरे भोजन का प्रबंध कर दो और मैं तुम्हारी गेंद निकाल देता हूं।
ऐसा कहकर ब्राह्मण ने कुएं में एक अगूंठी डाली और फिर अभिमंत्रित सीकों से गेंद व अंगूठी दोनों निकाल लिए। यह देखकर राजकुमारों को बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने उस ब्राह्मण का परिचय जानना चाहा तो उन्होंने कहा कि तुम यह सब बात तुम्हारे पितामाह भीष्म से कहना वे मुझे पहचान जाएंगे। राजकुमारों ने सारी बात भीष्म को जाकर बताई तो वे तुरंत समझ गए कि वह ब्राह्मण कोई और नहीं बल्कि द्रोणाचार्य हैं।
उन्होंने सोचा कि राजकुमारों के लिए उनसे अच्छा गुरु कोई और नहीं हो सकता। ऐसा विचारकर भीष्म द्रोणाचार्य को ससम्मान हस्तिनापुर ले आए और कौरव व पाण्डव राजकुमारों की शिक्षा का भार उन्हें सौंप दिया। इस प्रकार द्रोणाचार्य भीष्म से सम्मानित होकर हस्तिनापुर में रहने लगे।
इसलिए द्रोणाचार्य का प्रिय शिष्य था अर्जुन
द्रोणाचार्य हस्तिनापुर में रहकर कौरव व पाण्डवों को विभिन्न अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा देने लगे लेकिन उनके मन में राजा द्रुपद से अपने अपमान का बदला लेने की भावना कम नहीं हुई। द्रोणाचार्य ने एक दिन अपने सभी शिष्यों को एकांत में बुलाया और पूछा कि अस्त्र शिक्षा समाप्त होने के बाद क्या तुम लोग मेरे मन की इच्छा पूरी करोगे। अन्य शिष्य तो चुप रहे लेकिन अर्जुन ने बड़े उत्साह से द्रोणाचार्य की इच्छा पूर्ण करने की प्रतिज्ञा की। यह देखकर द्रोणाचार्य बहुत प्रसन्न हुए।
द्रोणाचार्य अपने शिष्यों को तरह-तरह के दिव्य अस्त्रों की शिक्षा देने लगे। उस समय उनके शिष्यों में यदुवंशी तथा दूसरे देश के राजकुमार भी थे। सूतपुत्र के नाम से प्रसिद्ध कर्ण भी वहीं शिक्षा पा रहा था। धनुर्विद्या में अर्जुन की विशेष रूचि थी इसलिए वे समस्त शस्त्रों के प्रयोग और उपसंहार की विधियां शीघ्र ही सीख गए। एक दिन जब भोजन करते समय तेज हवा के कारण दीपक बुझ गया। अंधकार में भी हाथ को बिना भटके मुंह के पास जाते देखकर अर्जुन ने समझ लिया कि निशाना लगाने के लिए प्रकाश की आवश्यकता नहीं, केवल अभ्यास की है।
एक बार रात में अर्जुन की प्रत्यंचा की टंकार सुनकर द्रोणाचार्य उनके पास गए और उनकी लगन देखकर सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर होने का आशीर्वाद दिया।
द्रोणाचार्य ने एकलव्य से उसका अंगूठा ही क्यों मांगा?
जब द्रोणाचार्य कौरव व पाण्डव राजकुमारों को अस्त्रों की शिक्षा दे रहे थे तब एक दिन निषादपति हिरण्यधनु का पुत्र एकलव्य भी अस्त्र शिक्षा प्राप्त करने के लिए द्रोणाचार्य के पास आया लेकिन निषाद जाति का होने के कारण द्रोणाचार्य ने उसे मना कर दिया। तब एकलव्य ने वन में जाकर द्रोणाचार्य की एक मिट्टी की मूर्ति बनाई और उसी में आचार्य भाव रखकर नियमित रूप से अस्त्र चलाने का अभ्यास करने लगा।
एक बार सभी राजकुमार द्रोणाचार्य की अनुमति से शिकार खेलने के लिए वन में गए। राजकुमारों के साथ एक कुत्ता भी था। वह कुत्ता घुमता-फिरता वहां पहुंच गया जहां एकलव्य अभ्यास कर रहा था। उसे देखकर कुत्ता भौंकने लगा। तब एकलव्य ने उस कुत्ते के मुंह को तीरों से भर दिया। कुत्ता उसी अवस्था में राजकुमारों के पास आया। यह दृश्य देखकर राजकुमारों को बड़ा आश्चर्य हुआ। राजकुमारों ने एकलव्य को ढूंढ लिया और उसके गुरु का नाम पूछा तो उसने द्रोणाचार्य को अपना गुरु बताया।
तब सभी राजकुमार द्रोणाचार्य के पास गए और पूरी बात उन्हें बताई। द्रोणाचार्य ने सोचा कि यदि एकलव्य सचमुच धनुर्विद्या में इतना पारंगत हो गया है तो फिर अर्जुन को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनाने का उनका वचन झूठा हो जाएगा। तब द्रोणाचार्य वन में गए और एकलव्य से मिले। द्रोणाचार्य ने एकलव्य से कहा कि यदि तू मुझे सचमुच अपना गुरु मानता है तो मुझे गुरुदक्षिणा दे। ऐसा कहकर उन्होंने एकलव्य से उसके दाहिने हाथ का अंगूठा मांग लिया। एकलव्य ने हंसते-हंसते द्रोणाचार्य को अपने अंगूठा काटकर दे दिया।
एकलव्य की गुरुभक्ति देखकर द्रोणाचार्य अतिप्रसन्न हुए लेकिन अंगूठा कटने से एकलव्य के बाण चलाने में वह सफाई और फुर्ती नहीं रही।
जब द्रोणाचार्य ने ली राजकुमारों की परीक्षा
एक बार द्रोणाचार्य ने अपने शिष्यों की परीक्षा लेनी चाही। उन्होंने एक नकली गिद्ध एक वृक्ष पर टांग दिया। उसके बाद उन्होंने सभी राजकुमारों से कहा कि तुम्हे इस बाण से इस गिद्ध का सिर उड़ाना है। पहले द्रोणाचार्य ने युधिष्ठिर को बुलाया और पूछा और निशाना लगाने के लिए कहा। फिर उन्होंने युधिष्ठिर से पूछा तुम्हें क्या दिखाई दे रहा है। युधिष्ठिर ने कहा मुझे वह गिद्ध, पेड़ व मेरे भाई आदि सबकुछ दिखाई दे रहा है। यह सुनकर द्रोणाचार्य ने युधिष्ठिर को निशाना नहीं लगाने दिया।
इसके बाद उन्होंने दुर्योधन आदि राजकुमारों से भी वही प्रश्न पूछा और सभी ने वही उत्तर दिया जो युधिष्ठिर ने दिया था। इससे द्रोणाचार्य काफी खिन्न हो गए।सबसे अंत में द्रोणाचार्य ने अर्जुन को गिद्ध का निशाना लगाने के लिए कहा और उससे पूछा कि तुम्हें क्या दिखाई दे रहा है। तब अर्जुन ने कहा कि मुझे गिद्ध के अतिरिक्त कुछ और दिखाई नहीं दे रहा है। यह सुनकर द्रोणाचार्य काफी प्रसन्न हुए और उन्होंने अर्जुन को बाण चलाने के लिए। अर्जुन ने तत्काल बाण चलाकर उस नकली गिद्ध का सिर काट गिराया।
यह देखकर द्रोणाचार्य की प्रसन्नता की सीमा नहीं रही। उन्होंने मन ही मन निश्चय किया कि द्रुपद के विश्वासघात का बदला अर्जुन ही लेगा।
जब भीम व दुर्योधन का मुकाबला हुआ
जब सभी राजकुमार युवा हो गए और उनकी अस्त्र शिक्षा भी पूरी हो गई तब एक दिन द्रोणाचार्य ने भीष्म आदि के सामने ही राजा धृतराष्ट्र से कहा कि सभी राजकुमार सभी प्रकार की विद्या में निपुण हो चुके हैं। अब हमें उनके अस्त्र कौशल का प्रदर्शन देखना चाहिए। धृतराष्ट्र ने भी हामी भर दी और विदुर को आचार्य द्रोण के अनुसार रंगमंडप बनवाने का आदेश दिया। रंगमंडप तैयार होने पर उसमें अनेकों प्रकार के अस्त्र-शस्त्र टांगे गए और राजघराने के स्त्री-पुरुषों के लिए उचित स्थान बनवाए गए। स्त्रियों और साधारण दर्शकों के स्थान भी अलग-अलग थे।
नियत दिन आने पर राजा धृतराष्ट्र, भीष्म एवं कृपाचार्य वहां आए। गांधारी, कुंती आदि राजपरिवार की महिलाएं भी वहां आईं। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि आकर यथास्थान पर बैठ गए। सबसे पहले भीमसेन और दुर्योधन हाथ में गदा लेकर रंगभूमि में उतरे। वे पर्वत शिखर के समान हट्टे-कट्टे वीर लंबी भुजा और कसी कमर के कारण बड़े ही शोभायमान हो रहे थे। वे मदमस्त हाथी के समान पैंतरे बदल-बदल कर गदायुद्ध करने लगे। उनके बीच बड़ा भयंकर युद्ध होने लगा।
विदुरजी धृतराष्ट्र को और कुंती गांधारी को सब बातें बतलाती जाती थीं। उसे देखकर दर्शकों में उत्साह फैल गया। उस समय दर्शक दो दलों में बंट गए। कुछ भीमसेन की जय बोलते तो कुछ दुर्योधन की। स्थिति अनियंत्रित होती देख द्रोणाचार्य ने अपने बेटे अश्वत्थामा को भीम व दुर्योधन को रोकने के लिए कहा। इस प्रकार उन दोनों महाबलियों के बीच चल रहा भयंकर संग्राम समाप्त हो गया।
जब अर्जुन को ललकारा कर्ण ने
जब सभी राजकुमार अस्त्र विद्या में पारंगत हो गए तब द्रोणाचार्य ने राजकुमारों द्वारा सीखी गई अस्त्र विद्या के प्रदर्शन के लिए रंगमंडप बनवाया। उचित समय आने पर वहां सर्वप्रथम भीम व दुर्योधन के बीच कुश्ती का मुकाबला हुआ।उसके बाद द्रोणाचार्य ने अर्जुन को बुलाया।
अर्जुन ने विभिन्न तरह के बाणों का प्रदर्शन कर सबको आश्चर्यचकित कर दिया। सभी अर्जुन के पराक्रम को देखकर उसकी प्रशंसा करने लगे। उसी समय रंगमंडप में कर्ण ने प्रवेश किया और कहा कि उपस्थित सभी लोगों के सामने जो पराक्रम अर्जुन ने दिखाया है वह मैं भी दिखा सकता हूं। तब द्रोणाचार्य के कहने पर कर्ण ने भी अर्जुन के समान ही अस्त्रविद्या का प्रदर्शन किया। यह देखकर दुर्योधन बहुत प्रसन्न हुआ। तब कर्ण ने अर्जुन के साथ द्वन्द्वयुद्ध करने की इच्छा प्रकट की। तब द्रोणाचार्य ने इसके लिए हां कर दी।
तभी कृपाचार्य ने कर्ण से कहा कि अर्जुन चंद्रवंशी है तथा महाराज पाण्डु का पुत्र है इसलिए तुम भी अपने वंश का परिचय दो। इसके बाद ही द्वन्द्वयुद्ध करने का निर्णय होगा। यह सुनकर कर्ण चुप हो गया। तभी दुर्योधन ने बीच में आकर कहा कि यदि अर्जुन इसलिए कर्ण से युद्ध नहीं करना चाहता कि वह राजा नहीं है तो कर्ण को मैं इसी समय अंगदेश का राजा बनाता हूं। ऐसा कहकर दुर्योधन ने वहीं कर्ण का राज्याभिषेक कर दिया। तभी वहां कर्ण के पिता अधिरथ भी आ पहुंचे।
उन्होंने कर्ण को अपने सीने से लगाया और स्नेह किया। यह देखकर सभी लोग समझ गए कि कर्ण सूतपुत्र है। तब दुर्योधन कर्ण को अपने साथ रंगमंडप से बाहर ले गया।
जब अर्जुन ने बंदी बनाया राजा द्रुपद को
जब सभी राजकुमार अस्त्र विद्या में निपुण हो गए तो गुरु द्रोणाचार्य ने सोचा कि अब द्रुपद से बदला लेने का समय आ गया है। तब द्रोणाचार्य ने सभी राजकुमारों को एकत्रित कर कहा कि तुम लोग पांचालराज द्रुपद को युद्ध में पकड़कर ले आओ, यही मेरी सबसे बड़ी गुरुदक्षिणा होगी। गुरु की आज्ञा पाकर सभी कौरव व पाण्डव राजकुमार अस्त्र-शस्त्र लेकर पांचालदेश की ओर कूच कर गए। सबसे पहले दुर्योधन, कर्ण व दु:शासन ने पांचालदेश में प्रवेश किया। जब पांचालनरेश द्रुपद को यह पता चला तो वह भी अपने सैनिकों के साथ युद्ध करने लगे। द्रुपद की सेना तथा वहां के नागरिक कौरव सेना पर टूट पड़े। कौरव सेना पर ऐसी मार पड़ी कि वह भागने लगी।
तब अर्जुन ने द्रोणाचार्य को प्रणाम किया और नकुल, सहदेव व भीम के साथ द्रुपद के नगर में प्रवेश किया। अर्जुन ने अदुभुत पराक्रम दिखाते हुए ऐसी बाण वर्षा की कि सारी पांचाल सेना उसमें ढंक गई। थोड़ी ही देर में अर्जुन ने द्रुपद को हराकर उन्हें पकड़ लिया और गुरु दक्षिणा के रूप में द्रोणाचार्य को सौंप दिया। तब द्रोणाचार्य ने द्रुपद से कहा कि अब तुम मेरे अधीन हो। इस प्रकार तुम्हारा राज्य भी मेरा ही है। लेकिन मैं तुम्हें मारना नहीं चाहता बल्कि यह चाहता हूं कि हम पहले की भांति मित्र बन जाएं। एक बार तुमने मुझसे कहा था राजा ही राजा का मित्र हो सकता है तो मैं तुम्हें तुम्हारा आधा राज्य वापस देता हूं। द्रुपद ने सहर्ष ही इसके लिए हां कह दिया।
तब द्रुपद माकंदी प्रदेश के काम्पिल्य नगर में रहने लगे और द्रोणाचार्य अहिच्छत्र प्रदेश की अहिच्छत्रा नगरी में रहने लगे। इस प्रकार द्रोणाचार्य ने द्रुपद से अपने अपमान का बदला लिया। इससे द्रुपद के मन में असंतोष रहने लगा।
पाण्डवों से द्वेष क्यों करने लगे धृतराष्ट्र?
द्रुपद को जीतने के एक वर्ष बाद राजा धृतराष्ट्र ने युधिष्ठिर को युवराज बना दिया। युवराज बनने के बाद युधिष्ठिर ने अपने व्यवहार से प्रजा का दिल जीत लिया। इधर भीमसेन ने बलरामजी से खड्ग, गदा और रथ के युद्ध की विशिष्ट शिक्षा प्राप्त की। उस समय अर्जुन के समान अन्य कोई योद्धा नहीं था। एक दिन द्रोणाचार्य ने अर्जुन से कहा कि तुम मेरे प्रिय शिष्य हो। आज मैं तुमसे यह गुरुदक्षिणा मांगता हूं कि यदि कभी युद्ध में मेरा और तुम्हारा सामना हो तो तुम मुझसे लडऩे से मत हिचकना। तब अर्जुन ने गुरु की आज्ञा स्वीकार की।
भीमसेन और अर्जुन के समान ही सहदेव ने भी देवगुरु बृहस्पति से संपूर्ण नीतिशास्त्र की शिक्षा ग्रहण की। नुकल भी तरह-तरह के युद्धों में कुशल थे। अर्जुन ने सौवीर देश के पराक्रमी राजा दत्तामित्र को युद्ध में मार गिराया। साथ ही भीमसेन की सहायता से पूर्व दिशा और बिना किसी की सहायता से दक्षिण दिशा पर भी विजय प्राप्त की। इस प्रकार दूसरे राज्यों का धन-वैभव भी हस्तिनापुर आने लगा। सभी दूर पाण्डवों की कीर्ति फैल गई। यह देखकर यकायक धृतराष्ट्र के मन में पाण्डवों के प्रति दूषित भाव आ गया। क्योंकि धृतराष्ट्र मन ही मन चाहते थे प्रजा जिस प्रकार युधिष्ठिर से स्नेह करती है वैसा ही दुर्योधन से रखें। यही कारण था कि पाण्डवों का यश धृतराष्ट्र के मन में खटकने लगा।
पाण्डवों को क्यों जाना पड़ा वारणावत?
दुर्योधन ने जब देखा कि भीमसेन की शक्ति असीम है और अर्जुन का अस्त्र ज्ञान तथा अभ्यास विलक्षण है तो वह उनसे और अधिक द्वेष रखने लगा। उसी समय हस्तिनापुर की प्रजा भी यही कहने लगी कि अब युधिष्ठिर को राजा बना देना चाहिए। प्रजा की इस प्रकार की सुनकर दुर्योधन जलने लगा। वह धृतराष्ट्र के पास गया और कहा कि यदि युधिष्ठिर को राज्य मिल गया तो फिर यह उन्हीं की वंश परंपरा से चलेगा और हमें कोई पूछेगा भी नहीं। तब दुर्योधन ने धृतराष्ट्र को एक युक्ति सुझाई कि आप किसी बहाने से पाण्डवों को वरणावत भेज दीजिए।
यह कहकर दुर्योधन प्रजा को प्रसन्न करने में लग गया और धृतराष्ट्र ने कुछ ऐसे चतुर मंत्रियों को नियुक्त कर दिया जो वारणावत की प्रशंसा करके पाण्डवों को वहां जाने के लिए उकसाने लगे। इस प्रकार वारणावत नगर की प्रशंसा सुनकर पाण्डवों का मन भी वहां जाने को हुआ। उचित अवसर देखकर धृतराष्ट्र ने पाण्डवों को बुलाया और कहा कि इन दिनों वारणावत में मेले की धूम है यदि तुम वहां जाना चाहते हो तो हो आओ।
युधिष्ठिर धृतराष्ट्र की चाल तुरंत समझ गए लेकिन धृतराष्ट्र का कहना वे टाल न सके। इस तरह युधिष्ठिर आदि सभी पाण्डवों व कुंती धृतराष्ट्र की आज्ञा से वारणावत जाने के लिए तैयार हो गए।
पाण्डवों को मारने के लिए किसने बनवाया था लाक्षाभवन?
जब धृतराष्ट्र के कहने पर पाण्डव वारणावत जाने के लिए तैयार हो गए तो दुर्योधन को बड़ी प्रसन्नता हुई। उसने अपने मंत्री पुरोचन को एकांत बुलाया और कहा कि इससे पहले ही पाण्डव वारणावत पहुंचे तुम वहां जाओ और सन, राल व लकड़ी से ऐसा महल बनवाओ जो आग से तुरंत भड़क उठे। किसी को भी इस बात की भनक न लगे। जब पाण्डव वहां रहने लगे तो उचित अवसर देखकर तुम वहां आग लगा देना।
इस प्रकार पाण्डव जल मरेंगे और किसी को हम पर शक भी नहीं होगा। दुर्योधन की आज्ञानुसार पुरोचन वारणावत की ओर चल पड़ा।समय आने पर जब युधिष्ठिर अपने भाइयों व माता कुंती के साथ वारणावत जाने के लिए चले तो उनके पीछे कुरुवंश के बहुत से विद्वान, ब्राह्मण और प्रजा चलने लगी।वे आपस में बात करते जाते कि इसमें अवश्य ही धृतराष्ट्र और दुर्योधन की कोई चाल है। पाण्डव सदैव धर्म का पालन करने वाले हैं और युधिष्ठिर को स्वयं धर्मराज है इसलिए अब जहां युधिष्ठिर रहेंगे हम भी वहीं निवास करेंगे।
यह सुनकर युधिष्ठिर ने ही प्रजा व ब्राह्मणों से कहा कि राजा धृतराष्ट्र हमारे पिता और गुरु हैं। वे जो भी करेंगे हम वह ही करेंगे। इसलिए आप सब लोग यही निवास करें। जब हम पर कोई मुसीबत आएगी तब आप लोग हमारी सहायता अवश्य करना। युधिष्ठिर की बात सुनकर हस्तिनापुरवासी पाण्डवों को आशीर्वाद देकर नगर में लौट आए।
विदुरजी ने युधिष्ठिर को क्या गुप्त बात कही?
जब राजा धृतराष्ट्र के कहने पर पाण्डव वारणावत जाने लगे तो विदुरजी ने युधिष्ठिर को सांकेतिक भाषा में कहा कि नीतिज्ञ पुरुष को शत्रु का मनोभाव समझकर उससे अपनी अपनी रक्षा करनी चाहिए। एक ऐसा अस्त्र है जो लोहे का तो नहीं है परंतु शरीर को नष्ट कर सकता है (अर्थात शत्रुओं ने तुम्हारे लिए एक ऐसा भवन तैयार किया है जो आग से तुरंत भड़क उठने वाले पदार्थों से बना है।)
आग घास-फूस और जीव सारे जंगल को जला डालती है परंतु बिल में रहने वाले जीव उससे अपनी रक्षा कर लेते हैं। यही जीवित रहन का उपाय है (अर्थात उससे बचने के लिए तुम एक सुरंग तैयार करा लेना।)
अंधे को रास्ता और दिशा का ज्ञान नहीं होता। बिना धैर्य के समझदारी नहीं आती। (अर्थात दिशा आदि का ज्ञान पहले से ही तैयार कर लेना ताकि रात मे भटकना न पड़े।)
शत्रुओं के दिए हुए बिना लोहे के हथियार को जो स्वीकार करता है वह स्याही के बिल में घुसकर आग से बच जाता है। (अर्थात उस सुरंग से यदि तुम बाहर निकल जाओगे तो उस भवन की आग में जलने से बच जाओगे।)
जिसकी पांचों इंद्रियां वश में है, शत्रु उसकी कुछ भी हानि नहीं कर सकता (अर्थात यदि तुम पांचों भाई एकमत रहोगो तो शत्रु तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकेगा।
विदुरजी की सारी बात युधिष्ठिर ने अच्छी तरह से समझ ली। तब विदुरजी हस्तिनापुर लौट गए। यह घटना फाल्गुन शुक्ल अष्टमी, रोहिणी नक्षत्र की है।
लाक्षा भवन की आग से कैसे बचे पाण्डव ?
धृतराष्ट्र के कहने पर जब पांडव वारणावत पहुंचे तो वहां के नागरिकों में बड़े उत्साह से उनका स्वागत किया। दुर्योधन के मंत्री पुरोचन ने पांडवों के रहने व भोजन का उचित प्रबंध किया। दस दिन बीत जाने के बाद पुरोचन ने पांडवों को लाक्षा भवन के बारे में बताया तब माता कुंती के साथ लाक्षा भवन में रहने चले गए। युधिष्ठिर ने जब भवन को देखा तो उन्हें दुर्योधन की चाल तुरंत समझ में आ गई। यह बात युधिष्ठिर ने अपने भाइयों को भी बताई। तब सभी ने यह निर्णय लिया कि यहां चतुराई पूर्वक रहना ही उचित होगा।
तभी वहां विदुरजी द्वारा भेजा गया सेवक आया जो सुरंग खोदने में माहिर था। युधिष्ठिर के कहने पर उसने भवन के बीच एक बड़ी सुरंग बनाई। और उसे इस प्रकार ढ़क दिया कि किसी को उस सुरंग के बारे में पता न चले। पांडव अपने साथ शस्त्र रखकर बड़ी सावधानी से रात बिताते थे। दिनभर शिकार खेलने के बहाने जंगलों के गुप्त रास्ते पता किया करते थे। पुरोचन को लगभग एक वर्ष बाद यह विश्वास हो गया कि पांडवों को दुर्योधन की चाल का बिल्कुल ध्यान नहीं हैं। तब युधिष्ठिर ने अपने भाइयों से कहा कि अब वह समय आ गया है जब पुरोचन का वध कर यहां से भाग निकलना चाहिए।
कुंती ने एक दिन दान देने के लिए ब्राह्मण भोज कराया। जब सब खा पीकर चले गए। एक भील की स्त्री अपने पांच पुत्रों के साथ खाना मांगने आईं। वे सब शराब पीकर लाक्षा भवन में ही सो गए। उसी रात भीमसेन ने पुरोचन के कक्ष में आग लगा दी तथा जब आग बहुत भयानक हो गई तब पांचों भाई माता कुंती के साथ सुरंग के रास्ते नगर के बाहर निकल गए। वारणावत के लोगों ने जब लाक्षा भवन जलता दिखा तो उन्हें लगा कि पांडव भी जल गए हैं, यह सोचकर वे रातभर विलाप करते रहे।
लाक्षाभवन से निकलने के बाद पाण्डवों ने क्या किया?
लाक्षाभवन से निकलने के बाद पाण्डव गंगा नदी के तट पर पहुंच गए। तभी वहां विदुरजी द्वारा भेजा हुआ सेवक भी आ गया । उसने नौका से पाण्डवों को गंगा के पार पहुंचा दिया। पाण्डव बड़ी शीघ्रता से आगे बढऩे लगे। सुबह जब वारणावतवासियों ने जले हुए महल को देखा तो उन्हें पता चल गया कि महल लाख का बना हुआ था। वे तुरंत समझ गए कि यह सब दुर्योधन की ही चाल थी जिसके कारण पाण्डव इस महल में जल कर मर गए। आग बुझने पर जब महल की राख को हटाया तो उसमें से भीलनी तथा उसके पांच पुत्रों के साथ ही पुरोचन का भी शव निकला। लोगों ने समझा कि यह माता कुंती तथा पाण्डवों के ही शव हैं। तब सभी दुर्योधन को धिककारने लगे।
यह खबर जब धृतराष्ट्र को लगी तो झूठ-मूठ का विलाप करने लगा। उन्होंने कौरवों को आज्ञा दी कि शीघ्र ही वारणावत जाओ और पाण्डवों का अंत्येष्टि संस्कार करो। इस प्रकार सभी लोग यह समझने लगे की पाण्डव सचमुच मर चुके हैं। विदुर सब कुछ जानते हुए भी अनजाने बने रहे।
इधर पाण्डव तेजी से दक्षिण दिशा की ओर चलने लगे। माता कुंती तथा पाण्डव काफी थक चुके थे। इसलिए वे चलने में असमर्थ थे तब भीम ने माता कुंती को कंधे पर, नकुल व सहदेव को गोद में तथा युधिष्ठिर तथा अर्जुन को अपने दोनों हाथों पर बैठा लिया और तेजी से चलने लगे। थोड़ी देर बाद कुंती को प्यास लगी तो भीम ने सभी को नीचे उतार दिया और स्वयं पानी लेने के लिए चले गए। जब भीम वापस लौटे तो माता कुंती व भाइयों को इस अवस्था में देख बहुत दु:खी हुए। वह रात पाण्डवों ने वहीं वन में बिताई।
राक्षस हिडिम्बासुर का वध क्यों किया भीम ने?
लाक्षाभवन से निकलकर जब पाण्डव दक्षिण दिशा की ओर चले तो रास्ते में एक वन आया। सभी ने उसी वन में रात बिताई। उस वन में हिडिम्बासुर नाम का एक राक्षस रहता था। जब उसने मनुष्यों की गंध सूंघी तो उसने अपनी बहन हिडिम्बा से कहा कि वन में से मनुष्यों की गंध आ रही है तुम उन्हें मारकर ले आओ ताकि हम उन्हें अपना भोजन बना सकें। भाई की आज्ञा मानकर जब हिडिम्बा पाण्डवों को मारने के लिए गई तो सबसे पहले भीम को देखा जो पहरेदारी कर रहे थे।
भीम को देखकर हिडिम्बा उस पर मोहित हो गई। तब हिडिम्बा स्त्री का रूप बदलकर भीम के पास पहुंची और अपना परिचय देकर प्रणय निवेदन किया। उसने हिडिम्बासुर के बारे में भी भीम को बताया। लेकिन भीमसेन जरा भी विचलित नहीं हुए। उधर जब काफी देर तक हिडिम्बा नहीं पहुंची तो हिडिम्बासुर स्वयं वहां आ पहुंचा। हिडिम्बा को भीम पर मोहित हुआ देख वह बहुत क्रोधित हुआ और उसे मारने के लिए दौड़ा। इतने में ही भीमसेन बीच में आ गए और दोनों के बीच भयंकर युद्ध होने लगा।
आवाजें सुनकर पाण्डवों की नींद भी खुल गई। कुंती ने जब हिडिम्बा को वहां देखा तो उसका परिचय पूछा। हिडिम्बा ने पूरी बात कुंती को सच-सच बता दी। इधर भीम को राक्षस के साथ युद्ध करता देख अर्जुन उनकी मदद के लिए आए लेकिन भीम ने उन्हें मना कर दिया और अपने बाहुबल से हिडिम्बासुर का वध कर दिया। जब पाण्डव वहां से जाने लगे तो हिडिम्बा भी उनके पीछे-पीछे चलने लगी।
कैसे हुआ भीम व हिडिम्बा का विवाह?
जब भीमसेन ने हिडिम्बासुर का वध किया और सभी पाण्डव माता कुंती के साथ वन से जाने लगे तो हिडिम्बा भी उनके पीछे-पीछे चलने लगी। हिडिम्बा को पीछे आता देख भीम ने उससे जाने के लिए कहा तथा उस पर क्रोधित भी हुए। तब युधिष्ठिर ने भीम को रोक लिया।
हिडिम्बा ने कुंती व युधिष्ठिर से कहा कि इन अतिबलशाली भीमसेन को मैं अपना पति मान चुकी हूं। इस स्थिति में अब ये जहां भी रहेंगे मैं भी इनके साथ ही रहूंगी। आपकी आज्ञा मिलने पर मैं इन्हें अपन साथ लेकर जाऊंगी और थोड़े ही दिनों में लौट आऊंगी। आप लोगों पर जब भी कोई परेशानी आएगी उस समय मैं तुरंत आपकी सहायता के लिए आ जाऊंगी। हिडिम्बा की बात सुनकर युधिष्ठिर ने भीमसेन को समझाया कि हिडिम्बा ने तुम्हें अपना पति माना है इसलिए तुम भी इसके साथ पत्नी जैसा ही व्यवहार करो। यह धर्मानुकूल है। भीमसेन न युधिष्ठिर की बात मान ली।
इस प्रकार भीम व हिडिम्बा का गंर्धव विवाह हो गया। तब युधिष्टिर ने हिडिम्बा से कहा कि तुम प्रतिदिन सूर्यास्त के पूर्व तक पवित्र होकर भीमसेन की सेवा में रह सकती हो। भीमसेन दिनभर तुम्हारे साथ रहेंगे और शाम होते ही मेरे पास आ जाएंगे। तब भीम ने कहा कि ऐसा सिर्फ तब तक ही होगा जब तक हिडिम्बा को पुत्र की प्राप्ति नहीं होगी।
हिडिम्बा ने भी स्वीकृति दे दी। इस प्रकार भीम हिडिम्बा के साथ चले गए।
कैसे हुआ घटोत्कच का जन्म?
युधिष्ठिर की आज्ञा मानकर भीम हिडिम्बा के साथ चले गए। हिडिम्बा भीम को आकाशमार्ग से लेकर उड़ गई। तब हिडिम्बा ने सुंदर स्त्री का रूप धारण कर लिया और तरह-तरह से वह भीम को रिझाने लगी। हिडिम्बा भीमसेन से मीठी-मीठी बातें करते हुए पहाड़ों की चोटियों पर, जंगलों में, गुफाओं आदि में विहार करने लगी। समय आने पर हिडिम्बा ने एक पुत्र को जन्म दिया। उसका मुख विशाल, नुकीले दांत, तीखी दाढ़ें और विशाल शरीर था।
राक्षसों की माया से वह तुरंत ही जवान हो गया। उसके सिर पर बाल नहीं थे। भीम तथा हिडिम्बा ने उसके घट अर्थात सिर को उत्कच यानि केशहीन देखकर उसका नाम घटोत्कच रख दिया।
घटोत्कच पाण्डवों के प्रति बड़ी श्रद्धा और प्रेम रखता था तथा पाण्डव भी उस पर स्नेह रखते थे। इस प्रकार भीम की प्रतिज्ञा पूरी होने पर हिडिम्बा ने पाण्डवों को जाने के लिए हामी भर दी। तब घटोत्कच ने कुंती व पाण्डवों को नमस्कार कर पूछा कि मैं किस प्रकार आपकी सेवा कर सकता हूं।
घटोत्कच की बात सुनकर कुंती ने घटोत्कच से प्रेमपूर्वक कहा कि तू कुरुवंश में पैदा हुआ है और पाण्डवों का सबसे बड़ा पुत्र है। इसलिए समय आने पर इनकी सहायता करना। तब घटोत्कच ने कहा कि जब भी
आप मेरा स्मरण करेंगे मैं तुरंत आपकी सेवा में उपस्थित हो जाऊंगा। ऐसा कहकर वह उत्तर दिशा की ओर चला गया।
एकचक्रा नगरी में क्यों आए पाण्डव?
घटोत्कच के जन्म के बाद पाण्डव वन में विचरने लगे। भीम भी उनके साथ ही रहते थे। पाण्डवों ने सिर पर जटाएं रख ली और वृक्षों की छाल तथा मृगचर्म पहन लिए। एक बार जब पाण्डव शास्त्रों का अध्ययन कर रहे थे तभी वहां महर्षि वेदव्यास आए गए। पाण्डवों ने उन्हें ससम्मान आसन पर बैठाया। तब वेदव्यासजी ने कहा कि तुम्हें मारने के लिए दुर्योधन ने लाक्षाभवन बनवाया था। यह बात मैं जान चुका हूं। मैं तुम लोगों का हित करने के लिए ही यहां आया हूं।
यहां से पास ही एक बड़ा सुंदर नगर है जिसका नाम एकचक्रा है। तुम वहां जाकर रहो। ऐसा कहकर महर्षि वेदव्यास स्वयं पाण्डवों व कुंती को साथ लेकर एकचक्रा नगरी तक आए। वहां पहुंचकर उन्होंने कुंती से कहा कि यह सब तुम्हारे हित के लिए ही हो रहा है इसलिए तुम दु:खी मत होओ। तुम्हारा पुत्र युधिष्ठिर एक दिन संपूर्ण पृथ्वी पर राज्य करेगा।
व्यासजी ने पाण्डवों तथा कुंती को एक ब्राह्मण के घर में ठहरा दिया और जाते-जाते कहा कि एक महीने तक मेरी बाट जोहना, मैं फिर आऊंगा। ऐसा कहकर महर्षि वेदव्यास वहां से चले गए और पाण्डव माता कुंती के साथ एकचक्रा नगरी में रहने लगे। वे भिक्षावृत्ति से अपना जीवन-निर्वाह करने लगे। वे सायंकाल होने पर दिनभर की भिक्षा लाकर माता के सामने रख देते। माता की अनुमति से आधा भीमसेन खाते और आधे में शेष पाण्डव व कुंती। इस प्रकार बहुत दिन बीत गए।
कौन था बकासुर राक्षस?
जब पाण्डव ब्राह्मणों का वेष बनाकर एकचक्रा नगरी में रहने लगे तब एक दिन किसी कारणवश भीमसेन भिक्षा मांगने नहीं गए और घर पर ही रुक गए। उस दिन उस ब्राह्मण के घर में जहां पाण्डव रहते थे अचानक चीख-पुकार मच गई। तब कुंती इस विलाप का कारण जानने के लिए ब्राह्मण के पास गई। कुंती ने वहां देखा कि ब्राह्मण, उसकी पत्नी तथा पुत्री तीनों स्वयं का बलिदान देने की बात कर रहे हैं और विलाप कर रहे हैं।
यह देखकर कुंती ने इसका कारण पूछा तो ब्राह्मण ने बताया कि नगर के बाहर बकासुर नामक एक राक्षस रहता है। उसके भोजन के लिए एक गाड़ी अन्न और दौ भैंसे रोज दिए जाते हैं और जो मनुष्य यह सब लेकर जाता है राक्षस उसे भी खा जाता है। प्रतिदिन नगर के किसी एक घर से किसी एक प्राणी को जाना पड़ता है। आज राक्षस के लिए भोजन हमारे परिवार में से किसी को लेकर जाना है इसलिए यह विलाप हो रहा है।
पूरी बात सुनकर कुंती ने ब्राह्मण को सांत्वना दी और कहा कि आज आपके परिवार के बदले मेरा पुत्र राक्षस के लिए भोजन लेकर जाएगा। तब कुंती ने भीम को यह सारी बात बताई। कुंती के कहने पर भीम राक्षस के लिए भोजन ले जाने के लिए तैयार हो गए।
द्रोणाचार्य को मारने के लिए क्या किया द्रुपद ने?
बकासुर का वध करने के बाद पाण्डव वेदाध्ययन करते हुए उसी ब्राह्मण के घर में रहने लगे। कुछ दिनों बाद उसी ब्राह्मण के एक श्रेष्ठ ब्राह्मण आए। पाण्डवों ने उनका बड़ा सत्कार किया। उस ब्राह्मण ने बात ही बात में राजाओं को वर्णन करते हुए राजा द्रुपद की बात छेड़ दी और द्रोपदी के स्वयंवर की बात भी कही।
उन्होंने बताया कि जब से द्रोणाचार्य ने पाण्डवों के द्वारा द्रुपद को पराजित किया है तब से द्रुपद बदले की भावना में जल रहा है। वे द्रोणाचार्य से बदला लेने के लिए श्रेष्ठ संतान की चाह से कई विद्वान संतों के पास गए। लेकिन किसी ने भी उनकी इच्छा पूरी नहीं की। फिर एक दिन द्रुपद घुमते-घुमते कल्माषी नगर गए। वहां ब्राह्मण बस्ती में कश्यप गोत्र के दो ब्राह्मण याज व उपयाज रहते थे।
द्रुपद सबसे पहले महात्मा उपयाज के पास गए और उनसे प्रार्थना की कि आप कोई ऐसा यज्ञ कराईए जिससे मुझे द्रोणाचार्य को मारने वाली संतान प्राप्त हो। लेकिन उपयाज ने मना कर दिया। इसके बाद भी द्रुपद ने एक वर्ष तक उनकी निस्वार्थ भाव से सेवा की। तब उन्होंने बताया कि उनके बड़े भाई याज यह यज्ञ करवा सकते हैं।
तब द्रुपद महात्मा याज के पास पहुंचे और उनको पूरी बात बताई। यह भी कहा कि यज्ञ करवाने पर मैं आपको एक अर्बुद (दस करोड़) गाए भी दूंगा। महात्मा याज ने द्रुपद का यज्ञ करवा स्वीकार कर लिया।
कैसे हुआ धृष्टद्युम्न व द्रौपदी का जन्म?
महात्मा याज ने जब राजा द्रुपद का यज्ञ करवाया तो यज्ञ के अग्निकुण्ड में से एक दिव्य कुमार प्रकट हुआ। उसके सिर पर मुकुट, शरीर पर कवच था तथा हाथों में धनुष-बाण थे। यह देख सभी पांचालवासी हर्षित हो गए। तभी आकाशवाणी हुई कि इस पुत्र के जन्म से द्रुपद का सारा शोक मिट जाएगा। यह कुमार द्रोणाचार्य को मारने के लिए ही पैदा हुआ है।
इसके बाद उस अग्निकुंड में से एक दिव्य कन्या भी प्रकट हुई। वह अत्यंत ही सुंदर थी। उसके नीले-नीले घुंघराले बाल, लाल-लाल ऊंचे नख तथा उसकी आंखें कमल के समान थी। तभी आकाशवाणी हुई कि यह रमणीरत्न कृष्णा है। देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिए क्षत्रियों के विनाश के उद्देश्य से इसका जन्म हुआ है। इसके कारण कौरवों को बड़ा भय होगा। दिव्य कुमार व कुमारी को देखकर द्रुपदराज की रानी महात्मा याज के पास आई और प्रार्थना की कि ये दोनों मेरे अतिरिक्त और किसी को अपनी मां न जानें। महात्मा याज ने कहा- ऐसा ही होगा।
ब्राह्मणों ने उन दोनों का नामकरण किया। वे बोले- यह कुमार बड़ा धृष्ट(ढीट) और असहिष्णु है। इसकी उत्पत्ति अग्निकुंड की द्युति से हुई है, इसलिए इसका धृष्टद्युम्न होगा। यह कुमारी कृष्ण वर्ण की है इसलिए इसका नाम कृष्णा होगा। द्रुपद की पुत्री होने के कारण कृष्णा ही द्रौपदी के नाम से विख्यात हुई।
यज्ञ समाप्त होने पर द्रोणाचार्य धृष्टद्युम्न को अपने साथ ले आए और उसे अस्त्र-शस्त्र की विशिष्ट शिक्षा दी। द्रोणाचार्य यह जानते थे कि प्रारब्धानुसार जो होना है वह तो होकर ही रहेगा। इसलिए उन्होंने पूरी लग्न के साथ धृष्टद्युम्न को अस्त्र शिक्षा दी, जिसके हाथों उनका मरना निश्चित था।
द्रौपदी कौन थी पूर्व जन्म में?
द्रौपदी के जन्म की कथा और स्वयंवर का समाचार सुनकर पाण्डवों का मन भी वहां जाने को हुआ। उनके मन की बात जानकर कुंती ने भी पांचालदेश जाने की हामी भर दी। सभी पांचाल देश जाने की तैयारी करने लगे। उसी समय एकचक्रा नगरी में महर्षि वेदव्यास पाण्डवों से मिलने आ गए। सभी ने उनका उचित स्वागत-सत्कार किया। पांचाल देश जाने की बात सुनकर उन्होंने पाण्डवों को द्रौपदी के पूर्वजन्म की कथा सुनाई।
महर्षि वेदव्यास ने बताया कि द्रौपदी पूर्व जन्म में एक बड़े महात्मा ऋषि की सुंदर व गुणवती कन्या थी। इसके बाद भी पूर्व जन्मों के बुरे कर्मों के कारण किसी ने उसे पत्नी के रूप में स्वीकार नहीं किया। इससे दु:खी होकर वह तपस्या करने लगी। उसकी तपस्या से भगवान शंकर प्रसन्न हो गए और उसे दर्शन दिए तथा वर मांगने को भी कहा। भगवान के दर्शन पाकर द्रौपदी बहुत प्रसन्न हो गई और उसने अधीरतावश भगवान शंकर से प्रार्थना की कि मैं सर्वगुणयुक्त पति चाहती हूं। ऐसा उसने पांच बार कहा। तब भगवान ने उसे वरदान दिया कि तुने मुझसे पांच बार प्रार्थना की है इसलिए तुझे पांच भरतवंशी पति प्राप्त होंगे। ऐसा कहकर भगवान शंकर अपने लोक को चले गए।
वही ब्राह्मण कन्या इस जन्म में अग्निकुंड से द्रौपदी के रूप में जन्मी है। तुम लोगों के लिए विधि-विधान के अनुसार वहीं सर्वांगसुंदरी निश्चित है। उस पाकर तुम सुखी रहोगे। ऐसा कहकर महर्षि वेदव्यास अन्यत्र चले गए।
अर्जुन ने मशाल से ही हरा दिया गंधर्व को
पांडवों ने अपनी माता को आगे कर पांचाल देश की यात्रा शुरू की। वे लोग उत्तर की तरफ बढऩे लगे। एक दिन रात यात्रा करने के बाद वे गंगा के किनारे सोमनाथ तीर्थ पर पहुंचे। उस समय उनके आगे-आगे अर्जुन मशाल लेकर चल रहे थे। उस समय गंगा में एक अंगार्पण नामक गंधर्व स्त्रियों के साथ विहार कर रहा था। उसने उन लोगों की पैरों की आहट सुनकर वह क्रोधित हुआ। उसने अपने धनुष की आवाज करते हुए पांडवों को कहा: दिन के अन्त से ललिमामय संध्या होती है। उसके बाद अस्सी लव के अलावा सारा समय गंधर्व और राक्षसों के लिए होता है।
जो मनुष्य अपने लालच के कारण इस समय यहां आते हैं राक्षस उन्हें कैद कर लेते हैं। इसलिए रात के समय जल में प्रवेश करना मना है दूर रहो।
अर्जुन ने उसकी बात सुनकर कहा अरे मुर्ख समुद्र, हिमालय की तराई और गंगा नदी ये स्थान किसके लिए सुरक्षित है? यहां आने के समय का कोई नियम नहीं है। गंगा माई का द्वार हर समय उसके हर भक्त के लिए खुला था। यदि हम मान भी लें की तुम्हारी बात ठीक है तो हम शक्ति सम्पन्न हैं नपुसंक नहीं हैं जो डरकर गंगा जल को स्पर्श ना करें। गंधर्व ने धनुष से जहरीले बाण छोडऩे प्रारंभ किए।अर्जुन ने अपनी मशाल से ही उसके सारे बाण व्यर्थ कर दिए। उसने कहा: अरे गंधर्व वीरों के सामने धमकी से काम नहीं चलता है। ले मैं तुझसे माया युद्ध नहीं करता द्विव्य अस्त्र चलाता हूं। यह अस्त्र मुझे मेरे गुरू द्रोणाचार्य ने दिया है। वह अस्त्र के तेज से इतना चकरा गया कि रथ से कुदकर मुंह के बल लुढ़कने लगा। यह देखकर उसकी पत्नी कुंभीनसी युधिठिर के समक्ष प्रार्थना करने लगी। युधिष्ठिर की आज्ञा पाकर अर्जुन ने उसे छोड़ दिया।
राजा संवरण ने तपती को देखा तो..
गन्धर्व ने चाक्षुषी विद्या देने के बाद उसने अर्जुन को तपतीनन्दन कहकर संबोधित किया। तब अर्जुन ने गंधर्व से पूछा कि है गन्धर्व मैं तो कुन्ती का पुत्र हूं आपने मुझे तपतीनन्दन कहकर क्यों संबोधित किया। गंधर्व ने कहा हे! अर्जुन भगवान सूर्य की पुत्री तपती के नाम से विख्यात थी। वह आपकी ही माता की तरह ज्योतिषमती थी। वह सावित्री की छोटी बहन थी।
वह अपनी तपस्या के कारण तीनों लोकों में विख्यात थी। उन दिनों उसके समान कोई योग्य पुरुष भी नहीं था। जो उससे विवाह करें। उन्ही दिनों पुरूवंश में राजा ऋक्ष के पुत्र संवरण बड़े ही बलवान और धार्मिक थे। सूर्य के मन में भी यह बात आने लगी कि ये मेरी पुत्री के योग्य पति होंगे। एक दिन की बात है संवरण जंगल में शिकार खेल रहे थे। भुख प्यास से बेहाल होकर उनका घोड़ा मर गया तो वे पैदल ही चलने लगे।
उस समय जंगल में खड़ी एक अकेली लड़की पर पड़ी। उन्होने उस लड़की से पूछा कौन हो तुम? किसकी पुत्री हो? तुम्हे देखकर लगता है तीनों लोक में तुम्हारे जैसी कोई और सुन्दरी नहीं होगी। राजा की बात सुनकर वह कुछ नहीं बोली और अंर्तध्यान हो गई।राजा बेहोश होकर गिर पड़े। उन्हें धरती पर पड़ा देखकर तपती फिर आयी और बोली राजन् उठिए। राजा को चेतना आई और उन्होने कहा सुन्दरी मेरे प्राण तुम्हारे हाथ है। तुम मुझ से गंधर्व विवाह स्वीकार करों। उसने कहा मेरी ओर से कोई आपत्ति नहीं है। आप मेरे पिता को प्रसन्न करके मुझे मांग लिजिए।
यह सुनकर वे भगवान सूर्य की आराधना करने लगे। उन्होने मन ही मन अपने पुरोहित महर्षि वशिष्ठ का ध्यान किया। उन्होने राजा के मन का हाल जानकर उन्हे आश्वासन दिया और भगवान सूर्य से मिलने निकल पड़े। महर्षि वशिष्ठ ने भगवान सूर्य के पास पहुंचकर प्रार्थना की। भगवान ने उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली ओर उन्ही के साथ तपती को भेज दिया। उसके बाद विधि पूर्वक पाणी-ग्रहण संस्कार के बाद उसके साथ वे उसी पर्वत पर सुख पूर्वक रखने लगे। बारह वर्ष वहां रहने के बाद प्रजा में होने वाली अव्यवस्था को देखते हुए वे तपती को लेकर अपनी राजधानी ले आये। इन्ही तपती के गर्भ से राजा कुरू का जन्म हुआ जिनसे कुरू वंश चला।
विश्वामित्र नन्दिनी को ले जाने लगे तो...
गंधर्वराज चित्ररथ के मुख से महर्षि की महिमा सुनकर अर्जुन ने कहा गंर्धवराज महर्षि वशिष्ठ कौन थे? कृपया उनका चरित्र सुनाइये। गंधर्वराज कहने लगे हे अर्जुन महर्षि वशिष्ठ ब्रम्हा के मानस पुत्र है। उनकी पत्नी का नाम अरूंधती है। उन्होने अपनी तपस्या के बल से देवताओं पर विजय और अपनी इन्द्रियों पर भी विजय प्राप्त कर ली थी। इसलिए उनका नाम वशिष्ठ हुआ। विश्वामित्र के बहुत अपराध करने पर भी उन्होने अपने मन में क्रोध नहीं आने दिया और उन्हे क्षमा कर दिया। यहां तक कि विश्वामित्र ने उनके पूरे सौ पुत्रों का नाश कर दिया। वशिष्ठ में बदला लेने की पूरी शक्ति थी। लेकिन फिर भी उन्होने कोई प्रतिकार नहीं किया। अर्जुन ने पूछा गंधर्व राज विशिष्ठ और विश्वामित्र तो आश्रमवासी थे, उनकी दुश्मनी का क्या कारण हैं? गंधर्व ने कहा: बहुत प्राचीन और विश्वविश्रुति है। मैं तुम्हे सुनाता हूं।
एक बार राजा कुशिक के पुत्र विश्वामित्र अपने मन्त्री के साथ मरुधन्व देश में शिकार खेलते-खेलते थककर वशिष्ठ के आश्रम पर आये। विशिष्ठ ने विधिपूर्वक उनका स्वागत सत्कार किया। अपनी कामधेनु नन्दिनी से उनकी खुब सेवा की। इस सेवा से विश्वामित्र बहुत खुश हुए। उन्होने वसिष्ठ से कहा कि आप मुझ से एक अर्बुद गौएं या मेरा राज्य ले लिजिए। अपनी कामधेनु नन्दिनी मुझे दे दीजिये। वशिष्ठ बोले मैंने यह दुधार गाय देवता, अतिथि पितर और यक्षो के लिए रख छोड़ी है। विश्वामित्र बोले आप ब्राम्हण हैं और मैं क्षत्रीय हूं। अगर आप मुझे नन्दिनी नहीं देगें तो मैं उसे बलपूर्वक प्राप्त कर ले जाऊंगा। वशिष्ठ जी ने बोला आप तो बलवान क्षत्रीय है जो चाहे तुरंत कर सकते हैं।
जब विश्वामित्र बलपूर्वक नन्दिनी को ले जाने लगे तब वह विलाप करती हुई कहने लगी हे भगवन्! ये सब मुझे डंडों से पीट रहे हैं मैं अनाथों की तरह मार खा रही हूं। आप मेरी उपेक्षा क्यों कर रहे हैं? विशिष्ठ उसका करूण कुंदन सुनकर भी न क्षुब्ध हुए न धैर्य से विचलित। वे बोले क्षत्रीयों का बल हैं तेज और ब्राम्हणों का क्षमा। मेरा प्रधान बल क्षमा मेरे पास है। तुम्हारी मौज हो तो जाओ।
तुझमें शक्ति हो तो रह जा देख, तेरे बच्चे ये लोग मजबुत रस्सी से बाधकर लिए जा रहे हैं। वशिष्ठ की बात सुनकर नन्दिनी का सिर ऊपर उठ गया। आंखें लाल हो गई और उसका रोद्र स्वरूप को देखकर विश्वामित्र के सारे सैनिक भाग गए।
क्षमा करना सीखें वसिष्ठ से
महाभारत के इस दृष्टांत से हमें सीख मिलती है कि क्षमा करने वाला हमेशा श्रेष्ठ होता है इसलिए क्षमा करना और कठिन परिस्थितियों में भी धैर्य रखने की सीख महर्षि वसिष्ठ से मिलती है।मुनि वसिष्ठ की नंदिनी से विश्वामित्र के संघर्ष के बाद अब गंधर्वराज अर्जुन से कहते हैं हे!अर्जुन राजा इक्ष्वाकु के कुल में एक कल्माषपाद नाम का एक राजा हुआ। राजा एक दिन शिकार खेलने वन में गया। वापस आते समय वह एक ऐसे रास्ते से लौट रहा था। जिस रास्ते पर से एक समय में केवल एक ही आदमी गुजर सकता था। उसी रास्ते पर मुनि वसिष्ठ के सौ पुत्रों में से सबसे बड़े पुत्र शक्तिमुनि उसे आते दिखाई दिये। राजा ने कहा तुम हट जाओ मेरा रास्ता छोड़ दो तो कल्माषपाद ने कहा आप मेरे लिए मार्ग छोड़े दोनों में विवाद हुआ तो शक्तिमुनि ने इसे राजा का अन्याय समझकर उसे राक्षस बनने का शाप दे दिया। उसने कहा तुमने मुझे अयोग्य शाप दिया है ऐसा कहकर वह शक्तिमुनि को ही खा जाता है।
शक्ति और वशिष्ठ मुनि के और पुत्रों के भक्षण का कारण भी उसकी राक्षसीवृति ही थी। इसके अलावा विश्वामित्र ने किंकर नाम के राक्षस को भी कल्माषपाद में प्रवेश करने की आज्ञा दी। जिसके कारण वह ऐसे नीच कर्म करने लगा। लेकिन इतना होने पर भी महर्षि वसिष्ठ उसे क्षमा करते रहे। एक बार महषि वसिष्ठ अपने आश्रम लौट रहे थे तो उन्हे लगा कि मानो कोई उनके पीछे वेद पाठ करता चल रहा है।
वसिष्ठ बोले कौन है तो आवाज आई मैं आपकह पुत्र-वधु शक्ति की पत्नी अदृश्यन्ती हूं। आपका पौत्र मेरे गर्भ में है वह बारह वर्षो से गर्भ में वेदपाठ कर रहा है वे यह सुनकर सोचने लगे कि अच्छी बात है मेरे वंश की परम्परा नहीं टूटी। तभी वन में उनकी भेट कल्माषपाद से हुई वह वसिष्ठ मुनि को खाने के लिए दौड़ा। उन्होने अपनी पुत्रवधु से कहा बेटी डरो मत यह राक्षस नहीं यह कल्माषपाद है। इतना कहकर हाथ मे जल लेकर अभिमंत्रित कर उन्होने उस पर छिड़क दिया और कल्माषपाद शाप से मुक्त हो गया। वसिष्ठ ने उसे आज्ञा दी की तुम अब कभी किसी ब्राम्हण का अपमान मत करना। महर्षि वसिष्ठ राजा के साथ अयोध्या आए और उसे पुत्रवान बनाया।
द्रोपदी ने कर्ण को देखा तो बोल पड़ी
गंधर्व से कल्माषपद की और वशिष्ठ की महिमा सुनने के बाद सभी पांडवों ने धौम्य ऋषि को अपना पुरोहित बनाया और अपनी माता को लेकर द्रुपद श्रेष्ठ के देश उनके पुत्री द्रोपदी के विवाह को देखने चल पड़े। पांडव द्रुपद देश की ओर चलने लगे। रास्ते में उन्होने वेद व्यास के दर्शन किए। जब पाण्डवों ने देखा कि द्रुपद नगर निकट आ गया है तो उन्होने एक कुम्हार के घर डेरा डाल दिया और ब्राम्हा्रणों के समान भिक्षावृति करके अपना जीवन बिताने लगे। राजा द्रुपद के मन में भी इस बात की बड़ी लालसा था कि वे अपनी पुत्री का विवाह अर्जुन से किया। इसलिए अर्जुन को पहचानने के लिए उन्होंने एक ऐसा धनुष बनवाया जो कोई ओर ना तोड़ पाए। इसके अलावा उन्होंने एक ऐसा यंत्र टंगवा दिया जो चक्कर काटता रहे। द्रुपद ने यह घोषणा कर दी कि जो धनुष पर डोरी चढ़ाकर लक्ष्य का भेदन करेगा, वही मेरी पुत्री को प्राप्त करेगा।
युधिष्ठिर आदि राजा द्रुपद आदि उनका वैभव देखते हुए वहां आए और उन्हीं के पास बैठ गए।
धृष्टद्युम्र ने द्रोपदी के पास खड़े होकर मधुर वाणी में कहा यह धनुष है, यह और आप लोगों के सामने लक्ष्य है। आप लोग घूमते हुए यन्त्र में अधिक से अधिक पांच बाणों में जो भी लक्ष्य भेदन कर देगा द्रोपदी का विवाह उसी से होगा। ध्रष्टद्युम्र की बात सुनकर दुर्योधन, शाल्व, शल्य राजा और राजकुमारों ने अपने बल के अनुसार धनुष चढ़ाने की कोशिश की लेकिन ऐसा झटका लगा कि वे बेहोश हो गए और इसके कारण उनका उत्साह टूट गया। इन सभी को निराश देखकर धर्नुधर शिरोमणी कर्ण उठा।
उसने धनुष को उठाया और देखते ही देखते डोरी चढ़ा दी। उसे लक्ष्य वेधन करता देख द्रोपदी जोर से बोली मैं सुत पुत्र से विवाह नहीं करूंगी। कर्ण ने ईष्र्या भरी हंसी के साथ सूर्य को देखा और धनुष को नीचे रख दिया।उसके बाद शिशुपाल ने भी यही प्रयत्न और जरासन्ध ने भी प्रयास किया पर सफल नहीं हो पाए। उसी समय अर्जुन ने चित्त में संकल्प उठा कि मैं लक्ष्यवेधन करूं ।
द्रोपदी को बिना देखे कुंती ने कहा पांचों भाई आपस में बांट लो
गंधर्वराज से भेट के बाद पांडव द्रोपदी का स्वयंवर देखने द्रुपद देश पहुंचते हैं जब बड़े- बड़े योद्धा स्वयंवर की शर्त को पूरा नहीं कर पाते हैं तो अर्जुन मन ही मन स्वयंवर जीतने का प्रण करते हैं और खड़े हो जाते हैं।
अर्जुन को धनुष चढ़ाने के लिए तैयार देखकर ब्राह्मण आश्चर्यचकित रह गए। सभी ब्राह्मण अर्जुन को देखकर अनेक तरह की बातें करने लगी। अभी लोगों की आंखें अर्जुन पर ठीक से टीक भी नहीं पाई थी कि उन्होने धनुष को आसानी से उठाकर पांच बण उठाकर उनमें से एक लक्ष्य पर चलाया और वह यंत्र के छिद्र में हो गर जमीन पर गिर पड़ा। चारों तरफ शोर होने लगा पुष्पवर्षा होने लगी। द्रुपद की प्रसन्नता की सीमा ना रही। द्रोपदी प्रसन्नता के साथ अर्जुन के पास गई और उसके गले में वरमाला डाल दी।
जब राजाओं ने देखा कि द्रुपद अपनी कन्या का विवाह एक ब्राह्मण के साथ करना चाहते हैं तो वे क्रोधित हुए। राजाओं ने अपने शस्त्र उठा लिए और द्रुपद को मारने के लिए दौड़े। राजाओं को आक्रमण करते देख भीम और अर्जुन बीच में आ गए। अर्जुन और कर्ण का आमना-सामना हुआ। अर्जुन ने उनकी वीरता देखकर कहा आप ब्राह्मण पुत्र होकर भी इतने वीर हैं। दोनों आपस में युद्ध करने लगे। श्री कृष्ण पहचान चुके थे कि ये तो पांडव है इसलिए उन्होंने सभी राजाओं को समझाया उसके बाद सब कुछ शांत हो गया धीरे-धीरे भीड़ छंटने लगी। भिक्षा लेकर लौटने का समय बीच चुका था। माता कुंती पुत्रों का इंतजार करते हुए चिंतित थी। इतने में अर्जुन ने कुम्हार के घर में प्रवेश करते हुए कहा मां हम भिक्षा लाएं है यह सुनकर माता कुंती ने कहा बेटा पांचों भाई बांट लो।
तब युधिष्ठिर ने कहा द्रोपदी पांचो भाइयों की पत्नी होगी
जब कुन्ती ने देखा कि यह तो साधारण भिक्षा नहीं, राजकुमारी द्रोपदी है तब तो उन्हें बड़ा पछतावा हुआ। वे हाथ पकड़कर युधिष्ठिर के पास ले गई और बोलीं- बेटा मैने आज तक कोई बात झूठ नहीं कही है। अब तुम कोई ऐसा उपाय बताओ जिससे द्रोपदी को तो अधर्म ना हो और मेरी बात झूठी भी ना हो।
युधिष्ठिर ने कुछ देर विचार किया और अर्जुन को कहा भाई तुमने मर्यादा के अनुसार द्रोपदी को प्राप्त किया है। अब तुम विधि पूर्वक अग्रि प्रज्वलित करके उसका पाणिग्रहण करो।अर्जुन ने कहा आप मुझे अधर्म का भागी मत बनाइये। सत्पुरूषों ने कभी ऐसा आचरण नहीं किया। पहले आप, तब भीमसेन फिर मैं और फिर नकुल व सहदेव विवाह करें। इसलिए इस राजकुमारी का विवाह तो आप ही के साथ होना चाहिए।सभी पाण्डव अर्जुन का वचन सुनकर द्रोपदी की तरफ देखने लगे। उस समय द्रोपदी भी उन्ही लोगों की ओर देख रही थी। द्रोपदी के सौन्दर्य, माधुर्य और सौशील्य से मुग्ध होकर पांचो भाई एक-दूसरे को देखने लगे। तब युधिष्ठिर ने सभी भाइयों के मन भाव जानकर और महर्षि व्यास के वचनों को स्मरण कर कहा द्रोपदी हम सभी भाइयों की पत्नी होगी।उसके बाद श्री कृष्ण और बलराम उनके निवास स्थान पर पहुंचे। धर्मराज युधिष्ठिर के चरणों को स्पर्श किया अपने नाम बताये। उसके बाद पांडवों ने उनका बड़े अच्छे से स्वागत सत्कार किया। उसके बाद थोड़ी देर बाद उन्होने कहा अब हमें चलना चाहिए नहीं तो लोगों को पता चला जाएगा।
द्रोपदी के भाई ने पाण्डवों का पीछा किया और
ध्रष्टद्युम्र पाण्डवों का पीछा करते हुए कुम्हार के घर पहुंचता है। वह पांडवों के घर के निकट एक ऐसे स्थान पर बैठा था जहां से वह पांडवों की बातें तो सुन ही रहा था और द्रोपदी को देख भी रहा था। उसने पांडवों के हर काम को बड़े गौर से देखा। चारों भाइयों ने भिक्षा लाकर बड़े भाई युधिष्ठिर के सामने रख दी। कुन्ती ने द्रोपदी से कहा पहले तुम भिक्षा में से देवताओं, आश्रितो का भाग निकालो, ब्राम्हणों को भिक्षा दो। बचे अन्न का आधा हिस्सा भीम को और शेष भाग के छ: हिस्से करके हम लोग खा लें। वहां कि सारी बातें देख सुनकर द्रुपद के पास पहुंचा।
द्रुपद उस समय चिंतित हो रहे थे।उन्होने अपने पुत्र यानी द्रोपदी के भाई से पूछा बेटा द्रोपदी कहा है? उसे ले जाने वाला कौन है? कितना अच्छा होता यदि मेरी पुत्री का विवाह अर्जुन से हुआ होता।ध्रष्टद्युम्र ने कहा जिस युवक ने लक्ष्य भेदन किया द्रोपदी को ले जाते समय उसके चेहरे पर कोई शिकन नहीं थी। उसका कोईं भी राजा बाल तक बांका नहीं कर पाया। उनके साथ जो पुरुष था। उसने वृक्ष उखाड़ दिया था। वे दोनों मेरी बहन को कुम्हार के घर लेकर गए थे। वहां एक तेजस्वी स्त्री बैठी थी।
द्रोपदी को क्यों मिले पांच पति?
धर्मराज युधिष्ठिर की बात सुनकर द्रुपद प्रसन्न हो गए। उसके बाद द्रुपद ज्यो त्यों करके अपने आप को सम्भाला फिर युधिष्ठिर से वरणावत नगर से लाक्ष्या भवन तक की कहानी सुनने के बाद द्रुपद ने युधिष्ठिर से कहा अब आप अर्जुन को पाणिग्रहण की आज्ञा दें। द्रुपद से युधिष्ठिर ने कहा राजन विवाह तो मुझे भी करना ही है। द्रुपद बोले यह तो अच्छी बात है। आप द्रोपदी से विवाह कर लें। युधिष्ठिर ने कहा राजन राजकुमारी द्रोपदी हम सभी की पटरानी होगी।
राजा द्रुपद बोले कुरूवंश भूषण आप यह कैसी बात कर रहे हैं। एक राजा के बहुत सी रानियां तो हो सकती है परन्तु एक स्त्री के बहुत से पति हो ऐसा सुनने में नहीं आया है। युधिष्ठिर आप तो धार्मिक और पवित्र विचारों वाले हैं। तुम्हे तो धर्म के विपरित बात सोचनी भी नहीं चाहिए।युधिष्ठिर के साथ द्रुपद इस बात पर विचार कर ही रहे थे। तभी वहां वेदव्यास जी आए उन्होंने राजा द्रुपद को एकांत में ले जाकर समझाया।
व्यास जी द्रुपद को द्रोपदी के पूर्व जन्म की कथा सुनाने लगे। उन्होंने यह बतलाया कि द्रोपदी ने पिछले जन्म में बहुत सुन्दर युवती थी। सर्वगुण सम्पन्न होने के कारण उसे योग्य वर नहीं मिल रहा था। इसलिए उसने शंकर जी की तपस्या की और जब भगवान शंकर प्रकट हुए। उस समय द्रोपदी ने हड़बडाहट में पांच बार वर मांगे। इसलिए उसे शिव जी के वरदान के कारण इस जन्म में पांच पति प्राप्त होंगे। साथ ही वेदव्यास जी ने उन्हे पाण्डवों के पिछले जन्म के द्विव्य रूप के दर्शन भी करवाए। यह सब देखकर द्रुपद व्यास जी से बोले जब तक मैंने द्रोपदी के पूर्व जन्म की कथा नहीं सुनी थी। तब तक मुझे आपकी बात धर्मानुकूल नहीं लग रही थी। भगवान शंकर ने जैसा वर दिया था वैसा ही होना चाहिए। फिर चाहे वह धर्म हो या अधर्म अब उसमें मेरा कोई अपराध नहीं समझा जाएगा।
तब पांचों पाण्डवों से हुआ द्रोपदी का विवाह
वेदव्यास जी ने द्रुपद के साथ युधिष्ठिर के पास जाकर कहा आज ही विवाह के लिए शुभ दिन व शुभ मुहूर्त है। आज चन्द्रमा पुष्यनक्षत्र पर है। इसलिए आज तुम द्रोपदी के साथ पाणिग्रहण करो। यह निर्णय होते ही द्रोपदी ने आवश्यक सामग्री जुटाई। द्रोपदी को श्रृंगारित कर मंडप में लाया गया। उस समय विवाह मण्डप का सौन्दर्य अवर्णीय था। पांचों पांडव भी सजधजकर मंडप में पहुंचे।
पांचों ने एक-एक दिन द्रोपदी से पाणिग्रहण किया।इस अवसर पर सबसे विलक्षण बात यह हुई कि देवर्षि नारद के कथानुसार द्रोपदी प्रतिदिन कन्या भाव को प्राप्त हो जाया करती थी। विवाह में राजा द्रुपद ने दहेज में बहुत से रत्न, धन, और गहनों के साथ ही हाथी, घोड़े भी दिए। इस प्रकार पांडव अपार सम्पति और स्त्री रत्न आदि प्राप्त कर पाण्डव वहां सुख से रहने लगे। द्रुपद की रानियों ने कुन्ती के पास आकर उनके पैरों पर सिर रखकर प्रणाम किया। कुन्ती ने द्रोपदी को आर्शीवाद दिया। भगवान श्री कृष्ण ने भी पांडवों का विवाह हो जाने पर भेंट के रूप में अनेक उपहार दिए।
किस्मत का लिखा कोई नहीं बदल सकता
जब भाग्य साथ होता है या कहे भगवान साथ होता है तो कोई कितना ही षडयंत्र कर ले। आपका कुछ नहीं बिगाड़ सकता है क्योंकि जाको राखे साइया मार सके ना कोए। इसका मतलब है कि जो आपकी किस्मत में लिखा है उसे परमात्मा के अलावा कोई नहीं बदल सकता है। लाक्ष्यग्रह में कौरवों के पूरे षडयंत्र के बाद भी पांडवों का जीवित रहना इस ही बात का इशारा करता है सभी राजाओं को अपने गुप्तचरों से मालूम हो गया कि द्रोपदी का विवाह पांडवों के साथ हुआ है। लक्ष्य वेदन करने वाला और कोई नही बल्कि अर्जुन है।
जब दुर्योधन को यह समाचार मिला तो उसे बड़ा दुख हुआ। दुर्योधन से धीमे स्वर में दु:शासन बोला भाई जी अब मुझे समझ आ गया है कि भाग्य ही बलवान है। उनके हस्तिनापुर पहुंचने पर वहां का सब समाचार सुनकर विदुरजी को बड़ी प्रसन्नता हुई।वे उसी समय धृतराष्ट्र के पास जाकर बोले महाराज धन्य है धन्य। कुरूवंश की वृद्धि हो रही है। यह सुनकर धृतराष्ट्र को लगा कि द्रोपदी मेरे पुत्र दुर्योधन को मिल गई। विदुर ने उन्हे बताया कि उसका विवाह पांडवों से हुआ है। तब धृतराष्ट्र ने कहा पाण्डवों को तो मैं अपने पुत्रों से अधिक स्नेह करता हूं। उनका विवाह हो गया इससे अधिक प्रसन्नता का विषय मेरे लिए क्या हो सकता है।
जब विदुर वहां से चले गये तब दुर्योधन और कर्ण ने धृतराष्ट्र के पास आकर कहा विदुर के सामने हम आप से कुछ भी नहीं कह सकते हैं। आप उन शत्रुओं की विजय पर हर्ष कैसे जता सकते हैं। दुर्योधन ने कहा पिताजी मेरा विचार है कि कुछ विश्वासी गुप्तचर और ब्राह्मणों को भेजकर पाण्डव पुत्रों में फूट डलवा दी जाए। हमें द्रुपद को भी अपने साथ मिला लेना चाहिए। कर्ण ने कहा दुर्योधन तुम्हारी क्या राय है कर्ण ने कहा मुझे तो तुम्हारे द्वारा बतलाए गए उपायों से पाण्डवों का वश में होना सम्भव नहीं लगता।
और पांडवों का हस्तिनापुर आगमन।
तब पांडव लौट गए हस्तिनापुर.
महात्मा विदुर रथ पर सवार होकर पाण्डवों के पास राजा द्रुपद की राजधानी में गये। वे पहले नियमानुसार राजा द्रुपद से मिले। विदुर जी द्रुपद, द्रोपदी, पाण्डव आदि के लिए कई उपहार अपने साथ लेकर गये। राजा द्रुपद ने विदुर का खूब आदर सत्कार किया। विदुर उसके बाद श्री कृष्ण और बलराम से मिले। उन्होंने विदुर की बहुत आवभगत की।
विदुर जी ने कृष्ण और पाण्डवों से उचित अवसर देखकर कहा। महाराज धृतराष्ट्र ने आप लोगों के कुशल-मंगल पूछा है। आपके साथ विवाह संबंध होने से उन्हे बहुत प्रसन्नता हुई। पितामाह भीष्म और द्रोणाचार्य ने भी आपकी कुशलता का समाचार पूछा है। इस अवसर पर वे चाहते हैं कि अब आप पाण्डवों को हस्तिनापुर भेज दें। सभी कुरूवंश के लोग पाण्डवों को देखने के लिए लालायित हैं। पाण्डवों को अपने देश से चले बहुत दिन हो गये हैं।
अब आप इन लोगों को आज्ञा दें। आपकी आज्ञा होते ही मैं वहां संदेश भेज दूंगा।राजा द्रुपद ने कहा आपका कहना ठीक है। कुरूवंशियों से सम्बंध करके मुझे भी कम प्रसन्नता नहीं हुई है। लेकिन मैं अपनी जुबान से यह बात नहीं कह सकता। युधिष्ठिर ने कहा हम लोग आज्ञा होने पर ही यहां से जाएंगे। इस प्रकार सलाह करने के बाद पाण्डव विदा हो गए। पाण्डव हस्तिनापुर पहुंचे। सभी श्रेष्ठजन वहां उनकी अगवानी के लिए पहुंचे।
द्रोपदी के साथ एकांत में एक भाई दूसरे को देख ले तो...
इन्द्रप्रस्थ में राज्य पाने के बाद पांडव जब वहां सुख से रहने लगे। उसके बाद धर्मराज युधिष्ठिर अपनी पत्नी द्रोपदी के साथ इन्द्रप्रस्थ में सुखपूर्वक रहकर भाईयों के साथ प्रजा का पालन करने लगे। सारे शत्रु उनके वश में हो गये। एक दिन की बात है। सभी पाण्डव राज्यसभा में बहुमुल्य आसनों पर बैठकर काम कर रहे थे। उसी समय नारद वहां पहुंचे नारद की विधिपूर्वक पूजा की। द्रोपदी भी आई और नारद मुनि का आर्शीवाद लेकर उनकी आज्ञा से रानिवास चली गई। नारद ने पाण्डवों से कहा पाण्डवों आप पांच भाइयों के बीच मात्र एक पत्नी है, इसलिए तुम लोगों को ऐसा नियम बना लेना चाहिए ताकि आपस में कोई झगड़ा ना हो।
प्राचीन समय की बात है। सुन्द और उपसुन्द दो असुर भाई थे। दोनों के बारे में ऐसा कहा जाता है दोनों दो जिस्म एक जान हैं। उन्होंने त्रिलोक जीतने की इच्छा से विधिपूर्वक दीक्षा ग्रहण करके तपस्या प्रारंभ की। कठोर तप के बाद ब्रहा्र जी प्रकट हुए। दोनों भाईयों ने अमर होने का वर मांगा। तब ब्रहा्र कहा वह अधिकार तो सिर्फ देवताओं को है। तुम कुछ और मांग लो। तब दोनों ने कहा कि हम दोनों को ऐसा वर दें कि हम सिर्फ एक- दुसरे के द्वारा मारे जाने पर ही मरें। ब्रह्रा जी ने दोनों को वरदान दे दिया। दोनों भाईयों ने वरदान पाने के बाद तीनों लोको में कोहराम मचा दिया। सभी देवता परेशान होकर ब्रहा्र की शरण में गए। तब ब्रहा्र जी ने विश्वकर्मा से एक ऐसी सुन्दर स्त्री बनाने के लिए कहा जिसे देखकर हर प्राणी मोहित हो जाए। उसके बाद एक दिन दोनों भाई एक पर्वत पर आमोद-प्रमोद कर रहे थे। तभी वहां तिलोतमा (विश्वकर्मा की सुन्दर रचना) कनेर के फूल तोडऩे लगी। दोनों भाई उस पर मोहित हो गए। दोनों में उसके कारण युद्ध हुआ। सुन्द और उपसुन्द दोनों मारे गए।
तब कहानी सुनाने के बाद नारद बोले: इसलिए मैं आप लोगों से यह बात कह रहा हूं। तब पाण्डवों ने उनकी प्रेरणा से यह प्रतिज्ञा की एक नियमित समय तक हर भाई द्रोपदी के पास रहेगा। एकान्त में यदि कोई एक भाई दूसरे भाई को देख लेगा तो उसे बारह वर्ष के लिए वनवास होगा।
क्या हुआ, जब अर्जुन ने भंग किया युधिष्ठिर-द्रोपदी का एकांत?
पाण्डव द्रोपदी के पास नियमानुसार रहते। एक दिन की बात है लुटेरो ने किसी ब्राहा्रण की गाय लुट ली और उन्हे लेकर भागने लगे। ब्राहा्रण पाण्डवों के पास आया और अपना करूण रूदन करने लगा।ब्राहा्ण ने कहा कि पाण्डव तुम्हारे राज्य में मेरी गाय छीन ली गई है। अगर तुम अपनी प्रजा की रक्षा का प्रबंध नहीं कर सकते तो तुम नि:संदेह पापी हो। लेकिन उनके सामने अड़चन यह थी कि जिस कमरे में राजा युधिष्ठिर द्रोपदी के साथ बैठे हुए थे।उसी कमरे में उनके अस्त्र-शस्त्र थे। एक ओर कौटुम्बिक नियम और दुसरी तरफ ब्राहा्रण की करूण
पुकार। तब अर्जुन ने प्रण किया की मुझे इस ब्राहा्रण की रक्षा करना है। चाहे फिर मुझे इसका प्रायश्चित क्यों ना करना पड़े? उसके बाद अर्जुन राजा युधिष्ठिर के घर में नि:संकोच चले गए। राजा से अनुमति लेकर धनुष उठाया और आकर ब्राहा्ण से बोले ब्राहा्रण देवता थोड़ी देर रूकिए में अभी आपकी गायों को आपको लौटा
देता हूं। अर्जुन ने बाणों की बौछार से लुटेरों को मारकर गोएं ब्राहा्ण को सौंप दी। उसके बाद अर्जुन ने आकर युधिष्ठिर से कहा। मैंने एकांत ग्रह में अकार अपनी प्रतिज्ञा तोड़ दी इसलिए मुझे वनवास पर जाने की आज्ञा दें। युधिष्ठिर ने कहा तुम मुझ से छोटे हो और छोटे भाई यदि अपनी स्त्री के साथ एकांत में बैठा हो तो बड़े भाई के द्वारा उनका एकांत भंग करना अपराध है। लेकिन जब छोटा भाई यदि बड़े भाई का एकांत भंग करे तो वह क्षमा का पात्र है। अर्जुन ने कहा आप ही कहते हैं धर्म पालन में बहानेबाजी नहीं करनी चाहिए। उसके बाद अर्जुन ने वनवास की दीक्षा ली और वनवास को चल पड़े।
जब नागकन्या उलूपी अर्जुन पर मोहित हो गई....
अर्जुन वनवास को चल दिए। वे एक दिन गंगा नदी में स्नान करने पहुंचे। गंगा नदी वे स्नान और तर्पण करके हवन करने के लिए बाहर निकलने ही वाले थे कि नागकन्या उलूपी उन पर मोहित हो गई। उसने कामासक्त होकर अर्जुन को जल के भीतर खींच लिया और अपने भवन में ले गई। अर्जुन ने देखा कि वहां यज्ञ की अग्रि प्रज्वलित हो रही है। उसने उसमें हवन किया और अग्रिदेव को प्रसन्न करके नागकन्या उलूपी से पूछा सुन्दरि तुम कौन हो? तुम ऐसा साहस करके मुझे किस देश लेकर आई होउलूपी ने कहा मैं ऐरावत वंश के नाग की कन्या उलूपी हूं। मैं आपसे प्रेम करती हूं। आपके अतिरिक्त मेरी कोई गति नहीं है। आप मेरी अभिलाषा पूर्ण किजिए। मुझे स्वीकार किजिए। अर्जुन ने कहा आप लोगों ने द्रोपदी के लिए जो मर्यादा बनाई है। उसे मैं जानती हूं। लेकिन इस लोक में उसका लोप नहीं होता। आप मुझे स्वीकार किजिए वरना मैं मर जाऊंगी। अर्जुन ने धर्म समझकर उलूपी की इच्छा पूर्ण की रातभर वही रहे। दूसरे दिन वहां से चले। चलते समय उलूपी ने उन्हे वर दिया कि तुम्हे किसी भी जलचर प्राणी से कभी कोई भय नहीं रहेगा।
कैसे हुआ अर्जुन और चित्रांगदा का विवाह?
अर्जुन महेन्द्र पर्वत होकर समुद्र के किनारे चलते-चलते मणिपुर पहुंचे। वहां के राजा चित्रवाहन बहुत धर्मात्मा थे। उनकी सर्वांगसुन्दरी कन्या का नाम चित्रांगदा था। एक दिन अर्जुन की दृष्ठि उस पर पड़ गयी उन्होने समझ लिया कि यह यहां कि राजकुमारी है। और राजा चित्रवाहन के पास जाकर कहा राजन् मैं कुलीन क्षत्रीय हूं। आप मुझसे अपनी कन्या का विवाह कर दिजिए।
चित्रवाहन के पूछने पर अर्जुन ने बतलाया कि मैं पाण्डुपुत्र अर्जुन हूं। चित्रवाहन ने कहा कि हे वीर अर्जुन मेरे पूर्वजो में प्रभजन नाम के एक राजा हो गये हैं। उन्होंने संतान न होने पर उग्र तपस्या करके भगवान शंकर को प्रसन्न किया। उन्होने वर दिया कि तुम्हारे वंश में सबको एक-एक संतान होती जाएगी। तब से हमारे वंश में ऐसा ही होता आया है। मेरे यह एक ही कन्या है इसे में पुत्र ही समझता हूं। इसका मैं पुत्रिकाधर्म अनुसार विवाह करूंगा, जिससे इसका पुत्र हो जाए और मेरा वंश प्रवर्तक बने। अर्जुन ने कहा ठीक है आपकी शर्त मुझे मंजुर है और इस तरह अर्जुन और चित्रांग्दा का विवाह हुआ। उसके बाद अर्जुन राजा से अनुमति लेकर फिर तीर्थयात्रा के लिए चल पड़े।
क्या कहा कुबेर की प्रेमिका ने अर्जुन से?
वीरवर अर्जुन वहां से चलकर समुद्र के किनारे-किनारे अगस्त्यतीर्थ, सौभाग्यतीर्थ, पौलोमतीर्थ, कारन्धमतीर्थ, और भारद्वाज तीर्थ में गये। उन तीर्थो के पास ऋषि-मुनि गंगा में स्नान नहीं करते थे। अर्जुन के पूछने पर मालुम हुआ कि गंगा में बड़े-बड़े ग्राह रहते हैं, जो ऋषियों को निगल जाते हैं। तपस्वीयों के रोकने पर भी अर्जुन ने सौभाग्यतीर्थ में जाकर स्नान किया। जब वहां मगर ने अर्जुन का पैर पकड़ा, तब वे उसे उठाकर ऊपर ले आये । लेकिन उस समय यह बड़ी विचित्र घटना घटी कि वह मगर तत्क्षण एक सुन्दरी अप्सरा के रूप में परिणित हो गए। अर्जुन के पुछने पर अप्सरा ने बतालाया कि मैं कुबेर की प्रेयसीवर्गा नाम की अप्सरा हूं। एक बार मैं अपनी चार सहेलियों के साथ कुबेर जी के पास जा रही थी। रास्ते में एक तपस्वी के तप में हम लोगों ने विघ्र डालना चाहा। तपस्वी के मन में काम का भाव उत्पन्न नहीं हुआ लेकिन क्रोधवश उन्होने शाप दे दिया कि तुम पांचों मगर होकर सौ वर्ष तक पानी रहोगे। नारद से यह जानकर कि पाण्डव अर्जुन यहां आकर थोड़े ही दिनों में हमारा उद्धार कर देंगे। हम लोगों इन तीर्थो में मगर होकर रह रही हैं। आप हमारा उद्धार कर दिजिए। उलूपी के वरदान के कारण अर्जुन को जलचरों से कोई भय नहीं उन्होंने सब अप्सराओं का उद्धार भी कर दिया और उनके प्रयत्न से अधिक वहां के सब तीर्थ बाधाहीन भी हो गये।
क्या हुआ, जब अर्जुन ने बलपूर्वक सुभद्रा को रथ पर बैठा लिया?
वहां से लौटकर अर्जुन फिर एक बार मणिपुर गए। चित्रांगदा के गर्भ से जो पुत्र हुआ। उसका नाम ब्रभुवाहन रखा गया। अर्जुन ने राजा चित्रवाहन से कहा कि आप इस लड़के को ले लिजिए। जिससे इसकी शर्त पूरी हो जाए। उन्होंने चित्रांगदा को भी बभ्रुवाहन के पालन-पोषण के लिए वहां रहने की आवश्कता बताई। उसे राजसुय यज्ञ में अपने पिता के साथ इन्द्रप्रस्थ आने के लिए कहकर तीर्थयात्रा पर आगे चल पड़े। वहां उनकी मुलाकात श्री कृष्ण से हुई। वे कुछ समय तक रेवतक पर्वत पर ही रहने लगे। एक बार यदुवंशी बालक सजधजकर टहल रहे थे। गाजे बाजे नाच तमाशे की भीड़ सब ओर लगी हुई थी। इस उत्सव में भगवान श्री कृष्ण और अर्जुन सब साथ-साथ में घुम रहे थे।
वहीं कृष्ण की बहिन सभुद्रा भी थी। उसकी रूप राशि मोहित होकर अर्जुन एकटक उसकी ओर देखने लगे।भगवान कृष्ण ने अर्जुन के अभिप्राय को जानकर कहा क्षत्रियों की स्वयंवर की चाल है। कि क्षत्रियों के यहां स्वयंवर वरेगी या नहीं क्योंकि सबकि रूचि अलग-अलग होती हैं। क्षत्रीयों में बलपूर्वक हरकर ब्याह करने की भी नीति है। तुम्हारे लिए यह मार्ग प्रशस्त है। भगवान श्री कृष्ण और अर्जुन ने यह सलाह करके अनुमति के लिए युधिष्ठिर के पास दूत भेजा। युधिष्ठिर ने हर्ष के साथ इस प्रस्ताव का अनुमोदन किया। दूत के लौटने के बाद श्री कृष्ण ने अर्जुन वैसी सलाह दे दी। एक दिन सुभद्रा रैवतक पर्वत पर देवपूजा करके पर्वत की प्रदक्षिणा की। जब सवारी द्वारका के लिए रवाना हुई। तब अवसर पाकर अर्जुन ने उसे बलपूर्वक रथ में बिठा लिया। सैनिक यह दृश्य देखकर चिल्लाने लगे। बात दरबार तक पहुंची तब सभी यदुवंशीयों में अर्जन का विरोध होने लगा। तब बलराम ने बोला की आप लोग बिना कृष्ण की आज्ञा के उनका विरोध कैसा कर सकते हैं। जब यह बात कृष्ण के सामने रखी गई तो उन्होने क हा कि अर्जुन जैसा वीर योद्धा जिसे शिव के अलावा कोई नहीं हरा सकता वह अगर मेरी बहन का पति बने तो इससे ज्यादा हर्ष की बात और क्या हो सकती है।
कौन थे द्रोपदी के पुत्र जो पांडवों से हुए?
कृष्ण ने सभी को समझाया। उसके बाद अर्जुन और सुभद्रा का विधिपूर्वक विवाह करवाया गया। विवाह के एक साल बाद तक वे द्वारका में सुभद्रा के साथ ही रहे और कुछ समय पुष्कर में बिताया। वनवास के बारह साल पूरे होने के बाद वे सुभद्रा के साथ इन्द्रप्रस्थ आए। अर्जुन के इन्द्रप्रस्थ पहुंचने पर सभी ने उनका बहुत खुशी से स्वागत किया। सुभद्रा लाल रंग के ग्वालियन के वेष में रानिवास गयी। वहां जाकर सुभद्रा ने कुंती का आशीर्वाद लिया। सुभद्रा ने द्रोपदी के पैर छूकर कहा बहन मैं तुम्हारी दासी हूं।
यह सुनकर द्रोपदी ने उसे खुशी से गले लगा लिया। अर्जुन के आ जाने से महल में रौनक आ गयी थी। उनके इन्द्रप्रस्थ लौट आने की खबर सुनकर कृष्ण और बलराम उनसे मिलने इंद्रप्रस्थ आए। उन्होंने सुभद्रा को बहुत सारे उपहार दिए। बलराम और दूसरे यदुवंशी कुछ दिन रूककर वहां से चले गए लेकिन कृष्ण वही रूक गए। समय आने पर सुभद्रा ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम अभिमन्यु रखा गया। द्रोपदी ने भी एक-एक वर्ष के अंतराल से पांचों पांडव के एक-एक पुत्र को जन्म दिया। युधिष्ठिर के पुत्र का नाम प्रतिविन्ध्य, भीमसेन से उत्पन्न पुत्र का नाम सुतसोम, अर्जुन के पुत्र का नाम श्रुतकर्मा, नकुल के पुत्र का नाम शतानीक, सहदेव के पुत्र का नाम श्रुतसेन रखा गया।
अग्रि ने मांग लिया भोजन में....
एक दिन अर्जुन और भगवान श्रीकृष्ण ने जलविहार पर जाने का मन बनाया। अर्जुन भगवान श्री कृष्ण के साथ युधिष्ठिर से आज्ञा लेकर यमुना के किनारे जंगल पर जल विहार करने वाले जंगल पर जलविहार करने लगे। वहां भगवान अर्जुन और श्री कृष्ण ने बड़े ही आनंद के साथ विहार किया। उसके बाद वे लोग एक स्थान पर जाकर बैठे थे। तभी वहां एक ब्राह्मण आया। उसने दोनों से कहा मैं एक ब्रह्मभोजी ब्राह्मण हूं। मैं आप लोगों से भोजन की भिक्षा मांगने आया हूं।
श्री कृष्ण और अर्जुन ने ब्राह्मण से पूछा बोलो तुम्हारी तृप्ति किस प्रकार के अन्न से होगी। तब ब्राह्मण ने कहा कि मैं कोई साधारण बा्हा्रण ने कहा मैं अग्रि हूं। आप मुझे वही अन्न दिजिए। जो मेरे लायक हो। मैं खाण्डव वन को जला देना चाहता हूं। लेकिन इस वन में तक्षक नाग और उसका परिवार रहता है। इसलिए इन्द्र हमेशा उस वन की रक्षा करता है। जब-जब मैं इस वन को जलाने की कोशिश करता हूं। तब-तब इन्द्र मेरी इच्छा पूरी नहीं होने देता। आप लोगों की सहायता से इसे जला सकता हूं। मैं आप लोगों से इसी भोजन की याचना करता हूं।
कैसे हो गई अग्रि को आहूति से अपच!
तब जन्मेजय ने वैशम्पायनजी से कहा कि अग्रि ऐसा क्यों करना चाहते थे। तब वैशम्पायनजी ने कहा प्राचीन समय की बात है। श्वेतकि नाम का एक राजा था। वह ब्राहा्णों का बहुत सम्मान करता था। उसने कई बड़े-बड़े यज्ञ किए। अन्त में जब सब ब्राहा्रण थक गए। तब राजा ने भगवान शंकर की तपस्या की। भगवान शंकर को प्रसन्न करके ऋषि दुर्वासा से एक महान यज्ञ करवाया।
राजा श्वेतकि अपने परिवार के साथ स्वर्ग सिधारे। उस यज्ञ में बारह वर्ष तक अग्रि देव को लगातार घी की अखण्ड आहूतियां दी गई। जिसके कारण उनकी पाचन शक्ति कमजोर हो गई। रंग फीका पड़ गया और प्रकाश मन्द हो गया। जब अपच के कारण वे परेशान हो गए तो ब्रम्हा जी के पास गए। ब्रहा्रजी ने कहा तुम खांडव वन को जला दो तो तुम्हारी अरूचि खत्म हो जाएगी। अग्रि देव ने सात बार वन जलाने की कोशिश की लेकिन इन्द्र ने उन्हें सफल नहीं होने दिया।
असुर ने बनाई पाण्डवों के लिए अद्भूत सभा!
खांडवदाह के बाद मायासुर ने अर्जुन से कहा श्री कृष्ण ने तो मुझे अपने चक्र से मारने का विचार कर लिया था। अग्रि ने मुझे जलाने का निश्चय कर लिया था। मैं सिर्फ आपके कारण ही जिंदा हूं। अब आप बताइये कि मैं आपकी क्या सेवा करूं। उसने कहा मैं दानवों का विश्वकर्मा हूं। उनका प्रधान शिल्पी हूं। आप मेरी सेवा स्वीकार करें। तब अर्जुन ने कहा मैं तुम्हारी सेवा स्वीकार नहीं कर सकता हूं लेकिन मैं तुम्हारी अभिलाषा नष्ट नहीं करना चाहता हूं। जब मायासुर ने भगवान श्रीकृष्ण से प्रार्थना की तो उन्होंने विचार किया।
मायासुर से कहा यदि तुम अर्जुन की सेवा और युधिष्ठिर का कोई प्रिय कार्य करना चाहते हो तो अपनी रूचि के अनुसार एक सभा बना दो लेकिन उस सभा में मनुष्यों, देवताओं व असुरों का कौशल प्रकट होना चाहिए। कुछ दिनों तक कृष्ण वहीं ठहरे। सभा बनाने के संबंध में पाण्डवों के साथ विचार किया। फिर शुभ मुहूर्त में ब्राह्मण भोजन और दान करके सर्वगुणों से सम्पन्न सभा बनाने के लिए दस हजार हाथ चौड़ी जमीन नाप ली। पाण्डवों ने बड़े सुख से श्रीकृष्ण का सत्कार किया। वे कुछ दिनों तक वहां बहुत सुख से रहे। फिर उन्होंने वहां से विदा होने की बात कही। तब भगवान श्रीकृष्ण की यात्रा पर जाने से पहले के कार्य प्रारंभ किए गए। उन्होंने स्नान करने के बाद आभुषण धारण किए। उनकी ब्राह्मणों ने स्वास्तिवाचन के द्वारा पूजा-पाठ किया। वे सोने के रथ पर सवार हुए पांचों पाण्डव उन्हें दो कोस तक छोडऩे गए।
कैसे संदेश भेजा स्वर्गीय पाण्डु ने युधिष्ठिर के लिए?
पाण्डवों की सभा में एक दिन देवर्षि नारद आए। नारद जी ने युधिष्ठिर को कुटनीति व राजनीति से संबंधित कई बातें बताई। तब युधिष्ठिर ने नारद जी से कहा नारदजी आपने सभी लोकों की सभाए देखी हैं तो मुझे उन सभी सभाओं का वर्णन सुनाएं। तब देवर्षि ने युधिष्ठिर को देवता, वेद, यम, ऋषि, मुनि आदि की सभाओं का वर्णन सुनाया। नारद जी ने यमराज की सभा में मौजुद सभी राजाओं की उपस्थिति का वर्णन किया।
युधिष्ठिर ने उनसे पूछा नारद जी आपने मेरे पिता पाण्डु को किस प्रकार देखा था। तब देवर्षि ने कहा मैं आपको राजा हरिशचन्द्र की कहानी सुनाता हूं। हरिशचन्द्र एक वीर सम्राट थे। उन्होंने सम्पूर्ण पृथ्वी पर राजसूय यज्ञ का अनुष्ठान किया था।आपके पिता राजा हरिशचन्द्र का ऐश्वर्य देखकर विस्मित हो गये। जब उन्होंने देखा कि मैं मनुष्य लोक जा रहा हूं। तब उन्होंने आपके लिए यह संदेश भेजा है। उन्होंने कहा युधिष्ठिर तुम मेरे पुत्र हो। यदि तुम राजसूय यज्ञ करोगे तो मैं चिरकालिक आनंद भोगूंगा। नारदजी ने कहा मैंने आपके पिता से कहा कि मैं उनका यह संदेश आप तक पहुंचा दूंगा। युधिष्ठिर आप अपने पिता का संकल्प पूर्ण करें। देवर्षि नारद इतना कहकर ऋषियों सहित वहां से चले गए।
कृष्ण को क्यों जाना पड़ा इंद्रप्रस्थ?
देवर्षि नारद की बात सुनकर धर्मराज युधिष्ठिर राजसूय यज्ञ की चिन्ता से बैचेन हो गए। उन्होंने अपने धर्म पर विचार किया और जिस प्रकार प्रजा की भलाई हो ,वही करने लगे। वे किसी भी पक्ष नहीं करते थे। सारी पृथ्वी पर युधिष्ठिर की जयजयकार होने लगी। किसी का कर बढ़ाया नहीं जाता, वसुली में किसी को सताया नहीं जाता। युधिष्ठिर के राज्य में प्रजा सुख से रहने लगी। उनके राज्य में जब सब कुछ ठीक चलने लगा। तब उन्होंने एक दिन अपने मंत्री और भाइयों को बुलाकर पूछा कि राजसूय यज्ञ के संबंध में आप लोगों की क्या सम्मति है। मंत्रियों ने एक स्वर में कहा कि आपको राजसूय यज्ञ करना चाहिए। आप इसके अधिकारी है। इसमें विचार करने की कोई आवश्यकता नहीं है। मंत्रियों की बात सुनकर धर्मराज ने सभी बुद्धिजीवियों से बातचीत की। उसके बाद युधिष्ठिर ने सोचा कि श्रीकृष्ण ही मुझे इस संबंध में सही राय दे सकते हैं।
यह सोचकर युधिष्ठिर ने अपना एकदूत शीघ्रगामी रथ से द्वारका भेज दिया। जैसे ही दूत वहां पहूंचा उसकी बात सुनकर श्रीकृष्ण शीघ्र ही इन्द्रप्रस्थ के लिए निकल पढ़े। श्रीकृष्ण ने इन्द्रप्रस्थ पहुंचकर युधिष्ठिर से भेंट की। तब युधिष्ठिर ने कहा श्रीकृष्ण में राजसुय यज्ञ करना चाहता हूं। इस पर आपका क्या विचार है? युधिष्ठर ने कहा मेरे सभी मित्र एक स्वर में कहते हैं राजसुय यज्ञ करो लेकिन मुझे लगता है कि कुछ लोग अपने स्वार्थ के कारण तो कुछ अपनी भलाई को मेरी भलाई बताकर मुझे राजसूय यज्ञ करने की बात कह सकते हैं। आप ही मुझे सही गलत के बीच का फर्क बताएं कि मुझे क्या करना चाहिए।
क्यों जरूरी था जरासंध से युद्ध?
जब युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण से राजसूय यज्ञ करने के बारे में उनके विचार पूछे। तब श्रीकृष्ण ने कहा आपको राजसूय यज्ञ करना चाहिए क्योंकि आप उस यज्ञ को करने के योग्य है लेकिन इसके लिए आपको जरासंध को हराना पड़ेगा क्योंकि जितने भी बड़े राजा हैं वे जरासंध के अधीन है। जरासंध ने उन्हें अपने कब्जे में कर रखा है और वह अपने आप को पुरुषोतम कहता है। वह मेरी उपेक्षा के कारण जिंदा है।जब कंस का आतंक चारो ओर था। तब उसके अत्याचार के कारण मैंने उसे मार दिया। ऐसा करने से के बाद कंस का भय तो मिट गया लेकिन उस समय ही जरासंध ने अपने आप को शक्तिशाली बनाया। उसकी सेना उस समय इतनी बड़ी हो गई थी कि उसने सारे राजाओं को हराकर उन्हें किले में बंद कर दिया। भगवान शंकर की तपस्या से उसे ऐसा वर मिला है जिससे वह अपनी हर प्रतिज्ञा पूरी कर सकता है। इसलिए अगर आप राजसूय यज्ञ करना चाहते हैं तो सबसे पहले कैदी राजाओं को छुड़ाएं। तब युधिष्ठिर कृष्ण से पूछते हैं कि कृष्ण आप ही बताएं की जरासंध को कैसे पराजित करें।
क्यों जरूरी था जरासंध से युद्ध?
जब युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण से राजसूय यज्ञ करने के बारे में उनके विचार पूछे। तब श्रीकृष्ण ने कहा आपको राजसूय यज्ञ करना चाहिए क्योंकि आप उस यज्ञ को करने के योग्य है लेकिन इसके लिए आपको जरासंध को हराना पड़ेगा क्योंकि जितने भी बड़े राजा हैं वे जरासंध के अधीन है। जरासंध ने उन्हें अपने कब्जे में कर रखा है और वह अपने आप को पुरुषोतम कहता है। वह मेरी उपेक्षा के कारण जिंदा है।जब कंस का आतंक चारो ओर था। तब उसके अत्याचार के कारण मैंने उसे मार दिया। ऐसा करने से के बाद कंस का भय तो मिट गया लेकिन उस समय ही जरासंध ने अपने आप को शक्तिशाली बनाया। उसकी सेना उस समय इतनी बड़ी हो गई थी कि उसने सारे राजाओं को हराकर उन्हें किले में बंद कर दिया। भगवान शंकर की तपस्या से उसे ऐसा वर मिला है जिससे वह अपनी हर प्रतिज्ञा पूरी कर सकता है। इसलिए अगर आप राजसूय यज्ञ करना चाहते हैं तो सबसे पहले कैदी राजाओं को छुड़ाएं। तब युधिष्ठिर कृष्ण से पूछते हैं कि कृष्ण आप ही बताएं की जरासंध को कैसे पराजित करें।
यह दृश्य देखकर दोनों रानियां कांप उठी...
युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण की बात सुनकर उनसे कहा आप मुझे बताएं? जरासंध कौन है? यह इतना पराक्रमी क्यों है? भगवान श्रीकृष्ण ने कहा कुछ समय पहले मगधदेश में बृहद्रथ नाम के राजा थे। उन्होंने कशिराज की दो कन्याओं से शादी की और ऐसी प्रतिज्ञा की कि मैं दोनों से समान प्रेम करूंगा। शादी के बाद उन्हें पुत्र की प्राप्ति नहीं हुई। एक दिन उनके राज्य में एक महात्मा आए।
वे एक पेड़ के नीचे ठहरे हुए थे।राजा बृहद्रथ उनका आर्शीवाद लेने उनके पास गए और उनसे प्रार्थना करने लगे राजा ने उन्हें बताया कि वे संतानहीन है। तब महात्मा ने उन्हें एक फल दिया और कहा कि यह फल आप अपनी पत्नी को दें। वे इसे ग्रहण करेंगी तब आपको निश्चित ही पुत्र की प्राप्ति होगी। उनसे वह फल प्रसाद के रूप में लेकर वह फल उन्होंने दोनों रानियों को दिया।
दोनों ने उसके दो टुकड़े करके फल ग्रहण कर लिया। कुछ दिनों बाद ही रानियों ने गर्भ धारण कर लिया। राजा की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। समय आने पर दोनों के गर्भ से शरीर का एक-एक टुकड़ा पैदा हुआ। उन्हें देखकर रानियां कांप उठी। उन्होंने घबराकर यही सलाह की कि इन दोनों टुकड़ो को फेंक दिया जाए। दोनों की दासियों ने वे टुकड़े रानिवास के नीचे फेंक दिए।
दो टुकड़ों को जोडऩे पर बन गया राजकुमार!
उस बालक के दोनों टुकड़े वहा रहने वाली एक राक्षसी ने देखे। उसका नाम जरा था। वह राक्षसी वह खून-पीती और मांस खाती थी। उसने उन टुकड़ों को उठाया और संयोगवश सुविधा से ले जाने के लिए उसने दोनों टुकड़े मिलाए। टुकड़े मिलकर एक महाबली राजकुमार बन गया। राक्षसी आश्चर्य चकित हो गई।वह उस राजकुमार को उठा तक ना सकी।
उस राजकुमार ने अपनी मुठ्ठी बाधकर मुंह में डाल ली और बहुत तेज आवाज में रोने लगा। रानिवास के सभी लोग उसकी आवाज सुनकर आश्चर्यचकित हो गए। रानियां अपने पुत्र को मरा हुआ समझकर निराश हो चुकी थी, फिर भी उनके स्तनों में दूध उमड़ रहा था। जरा ने सोचा मैं इस राजा के राज्य में रहती हूं। इसे कोई संतान नहीं है और इसे संतान की बहुत अभिलाषा है। साथ ही यह धार्मिक और महात्मा भी है।
इसलिए इस राजकुमार को नष्ट करना अनुचित है।उसने वह राजकुमार जाकर राजा ब्रह्द्रथ को सौंप दिया। तब ब्रह्द्रथ ने पूछा मुझे पुत्र देने वाली तु कौन है? जरा ने राजा को अपना परिचय दिया और सारी कहानी सुनाई। राजा ने उसे धन्यवाद दिया। तब राजा ने कहा इसे जरासंध ने संधित किया है। इसलिए इसका नाम जरासंध होगा।
क्यों वेष बदला अर्जुन कृष्ण और भीम ने?
जरासंध की कहानी सुनने के बाद श्री कृष्ण ने कहा जरासंध के नाश का समय आ गया है। लेकिन आमने-सामने की लड़ाई में तो उसको हराना बहुत कठीन है। इसलिए उससे सिर्फ कुश्ती लड़कर ही जीता जा सकता है। जब एकांत में हम तीनों की उससे मुलाकात होगी तो वह जरूर ही किसी ना किसी से युद्ध करना स्वीकार कर लेगा।
कृष्ण की बातें सुनकर भीम और अर्जुन और युधिष्ठिर तीनों उनसे सहमत हो गए। युधिष्ठिर ने कहा कृष्ण आपकी बोली गई हर एक बात सच है क्योंकि आप जिसके पक्ष में होते हैं उसकी जीत निश्चित होती है। उसके बाद युधिष्ठिर सें आज्ञा लेकर तीनों मगध की ओर निकल पड़े। मगध पहुंचते ही उन्होंने वह कि बुर्ज को नष्ट कर दिया और फिर नगर में प्रवेश किया। उन दिनों मगध में बहुत अपशकुन हो रहे थे। इसलिए पुरोहित की सलाह पर जरासंध हाथी पर पूरे नगर की परिक्रमा करने निकले।
उसी समय उससे बांह युद्ध करने के उद्देश्य से कृष्ण, अर्जुन और भीम तीनों ने नगर में प्रवेश किया। जरासंध उन्हें देखते ही खड़ा हो गया और उसने उनका स्वागत किया। लेकिन कुछ ही क्षणों बाद वह उनके आचरण और कंधे पर शस्त्रों के निशान देखकर समझ गया कि वे कोई ब्राह्मण नहीं हैं। उसने तीनों का तिरस्कार करते हुए पूछा तुम लोग कौन हो? इतने निडर होकर वेष बदलकर और बुर्ज तोड़कर नगर में प्रवेश करने के पीछे तुम्हारा क्या उद्देश्य है।
इसलिए कृष्ण ने जरासंध को भीम से मरवाया...
तब कृष्ण ने जरासंध से कहा हम स्नातक ब्राह्मण हैं, ये तो आपकी समझ की बात है। स्नातक का वेष तो ब्राह्मण वैश्य, क्षत्रीय सभी धारण कर सकते हैं। हम क्षत्रिय हैं हम सिर्फ बोली के बहादुर नहीं है। दुश्मन के घर में बिना दरवाजे के प्रवेश करना और दोस्त के घर में दरवाजे से प्रवेश करना इसमें कोई अधर्म नहीं है। तब जरासंध बोला मुझे तो याद नहीं है कि आपका और मेरा किसी बात पर युद्ध हुआ हो, तो मुझे शत्रु समझने का क्या कारण है? मैं अपने धर्म को निभाता हूं। प्रजा को परेशान नहीं करता। फिर मुझे दुश्मन समझने का क्या कारण है?
तब कृष्ण ने कहा तुमने सभी क्षत्रियों को मारने का निर्णय लिया है, क्या यह अपराध नहीं है? तुम सबसे अच्छे राजा होते हुए भी सभी को मारने चाहते हो। यह तुम्हारा घमंड है। तुम अपने बराबर वालों के सामने यह घमंड छोड़ दो। तुम अपनी ये जिद छोड़ दो नहीं तो तुम्हे अपनी सेना सहित यम लोक में जाना पड़ेगा। हम ब्राह्मण नहीं है। मैं कृष्ण हूं और ये पाण्डु पुत्र अर्जुन और भीम है। हम तुम्हे युद्ध के लिए ललकारते हैं। तब जरासंध बोला मैं किसी भी राजा को यहां बिना जीते नहीं लाया हूं। उसने गुस्से में कहा तुम तीनों चाहो तो मुझ से एक साथ लड़ लो। कृष्ण को पता था कि आकाशवाणी के अनुसार इसका वध यदुवंशी के हाथ से नहीं होना चाहिए।। इसलिए उन्होंने जरासंध को खुद ना मारकर उसे भीम से मरवाया।
दुश्मन को कभी कमजोर नहीं समझना चाहिए
दुश्मन की शक्ति चाहे आपकी तुलना में कितनी भी कम क्यों ना हो लेकिन उसे कमजोर नहीं समझना चाहिए क्योंकि एक छोटी चिंगारी भी बड़ी आग लगाने की क्षमता रखती है।
जब भगवान कृष्ण ने देखा कि जरासंध युद्ध करने के लिए तैयार हो गया है। तब उन्होंने उससे पूछा तुम हम तीनों में से किससे युद्ध करना चाहते हो। जरासंध ने भीम के साथ कुश्ती लडऩा स्वीकार किया। दोनों ही ब्राह्मणों से स्वास्तिवचन करवाने के बाद अखाड़े में उतर गए। दोनों के बीच मल्ल युद्ध छिड़ गया। युद्ध लगातार तेरह दिनों तक बिना खाये-पीये और बिना रूके चलता रहा। चौदहवे दिन रात के समय जरासंध थक कर चूर हो गया। उसकी ऐसी दशा देखकर कृष्ण ने कहा भीमसेन दुश्मन के थक जाने पर उसे अधिक दबाना सही नहीं है। अधिक जोर लगाने पर वह मर ही जाएगा। इसलिए अब तुम जरासंध को दबाओ मत सिर्फ उससे बाह युद्ध करते रहो।
उनकी बात सुनकर भीम कृष्ण का इशारा समझ गए और उन्होंने जरासंध को मार डालने का संकल्प लिया। वे जरासंध को उठाकर उसे घुमाने लगे। सौ बार घुमाकर उसे उन्होंने जमीन पर पटक दिया। घुटनों से मारकर उसकी रीढ़ की हड्डी को तोड़ दिया। साथ ही हुंकार करके उसका एक पैर पकड़ा और दूसरे पैर पर अपना पैर रखकर उसे दो खण्डों में चीर डाला। भगवान कृष्ण, अर्जुन और भीम ने दुश्मन को हराने के बाद उसके शरीर को रानिवास के ड्योढी पर डाल दिया। उसके बाद उन्होंने सभी बंदी राजाओं को मुक्त करवाया।
तब शिशुपाल ने श्रीकृष्ण को फटकारना शुरू किया
जरासंध को हराने के बाद पांचों पांडवों ने दिग्विजय अभियान चलाया और सभी दिशाओं में जीत का परचम लहराया। उसके बाद जब धर्मराज ने देखा कि मेरे अन्न, वस्त्र,रत्न, आदि के भण्डार सभी पूर्ण है। तब उन्होंने यज्ञ करने का संकल्प किया।
अब युधिष्ठिर ने सभी बढ़ो की आज्ञा से और छोटों की सहमति से राजसूय यज्ञ करने का निर्णय लिया। ब्राह्मणों ने सही समय पर युधिष्ठिर को यज्ञ की दिक्षा दी। युधिष्ठिर ने अपनी भव्य सेना, मंत्रियों और सगे संबंधियों के साथ यज्ञशाला में प्रवेश किया। उनके रहने के लिए सुन्दर स्थान बनाए गए। युधिष्ठिर ने भीष्म, धृतराष्ट्र आदि को बुलाने के लिए नकुल को भेजा। सभी लोगों ने निमंत्रण स्वीकार किया। यज्ञ में आने वाले राजा और राजकुमारों को गिनना कठिन था। धर्मराज युधिष्ठिर ने भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य से प्रार्थना की-आप लोग इस यज्ञ में मेरी सहायता करो।
आप इस खजाने को अपना ही समझिए और इस तरह सब कार्य देखिए, जिससे मेरी मनोकामना पूरी हो। यज्ञ के आखिरी दिन सभी राजा सभा में बैठे थे। तब धर्मराज ने पूछा पितामह बताइए कि इन सभी सज्जनों में से हम सबसे पहले किसकी पूजा करें। तब भीष्म ने कहा इस पृथ्वी पर श्री कृष्ण से बढ़कर कौन है? इसलिए सबसे पहले उनकी ही पूजा करनी चाहिए। भीष्म की आज्ञा से सहदेव ने श्रीकृष्ण की पूजा की। चेदिराज शिशुपाल भगवान श्री कृष्ण की अग्रपूजा देखकर चिढ़ गया। उसने भरी सभा में भीष्म पितामह और युधिष्ठिर को धिक्कारते हुए कृष्ण को फटकारना शुरू किया।
क्यों किया शिशुपाल ने श्रीकृष्ण का तिरस्कार?
राजसूय यज्ञ के बाद श्रीकृष्ण की अग्रपूजा से चेदिराज शिशुपाल का चिढ़ गया।उसने भरी सभा में भीष्मपितामह और धर्मराज युधिष्ठिर को धिक्कारते हुए कृष्ण को फटकारना शुरू किया। उसने कहा कृष्ण बड़े-बड़े महात्माओं और राजाओं से महान नहीं हो सकता है।
पाण्डवों यह जो तुम कर रहे हो यह अधर्म है। कृष्ण राजा नहीं है। फिर उसे तुम राजाओं का सम्मान कैसे दे सकते हो। द्रोणाचार्य और द्रुपद जैसे श्रेष्ठ लोगों की उपस्थिति में इसकी पूजा अनुचित है। इन सभी के होते हुए तुमने कृष्ण की पूजा करके हम लोगों का तिरस्कार किया है। ऐसा करके तुमने अपनी बुद्धि का दिवालियापन दिखाया है।
उसके बाद शिशुपाल ने श्रीकृष्ण से कहा मैं मानता हूं कि पांडव बेचारे डरपोक हैं। ये अपनी कायरता और मुर्खता के कारण तुम्हारी पूजा कर रहे है।इस तरह उसने भगवान कृष्ण का बहुत अपमान किया। तभी युधिष्ठिर शिशुपाल के पास गए और उसे समझाने लगे कि इस तरह की कड़वी बातें कहना अपमानजनक तो है ही साथ ही अधर्म है।
आप से बहुत से उम्र में बड़े राजा यहां उपस्थित हैं पर किसी को भी कृष्ण की पूजा से आपत्ति नहीं है। उसके बाद भीष्मपितामह और सहदेव ने भी उसे समझाया। लेकिन शिशुपाल तो गुस्से के कारण आग बबुल हो रहा था।उसने सभी राजाओं से कहा कि आप लोग किसके डर से बैठे हैं मैं आपका सेनापति बनकर खड़ा हूं। आइए हम लोग डटकर पांडवों का सामना करते हैं। कल पढि़ए....शिशुपाल के जन्म की कथा
बच्चा पैदा होते ही गधे जैसा रेंकने लगा!
शिशुपाल का कृष्णजी के प्रति ऐसा व्यवहार देखकर भीम को बहुत गुस्सा आया। भीम गुस्से में शिशुपाल को मारने के लिए उठे। लेकिन उसे भीष्म पितामह ने रोक लिया। भीष्मपितामह भीम को समझाने लगे।
उन्होंने भीम से कहा हे भीम ये शिशुपाल चेदिराज के वंश में पैदा हुआ, तब इसकी तीन आंखें थी और चार भुजाएं थी। पैदा होते ही वह गधों के समान रेंकने लगा था। उसकी यह दशा देखकर उसके सारे रिश्तेदार डर गए। सभी रिश्तेदारों ने उसे त्यागने का विचार बनाया। तभी आकाशवाणी हुई कि तुम्हारा पुत्र बड़ा बलवान होगा। इससे डरो मत, निश्चिंत होकर इसका पालन करो।
यह सुनकर उसकी माता के मन को शांति हुई। उन्होंने कहा आप जो भी हों जिसने मेरे पुत्र के भविष्य के बारे में भविष्यवाणी की है वे कृपा करके यह भी बताएं कि इसकी मौत किसके हाथों होगी। तब आकाशवाणी ने दुबारा कहा- जिसकी गोद में जाने पर तुम्हारे पुत्र की दो अधिक भुजाएं गिर जाएं और तीसरा नेत्र गायब हो जाए उसी के हाथों तुम्हारे पुत्र की मौत होगी। उस समय शिशुपाल के विचित्र रूप का समाचार सुनकर पृथ्वी के अधिकतर राजा उसे देखने के लिए आने लगे।
जब श्रीकृष्ण ने शिशुपाल को गोद में लिया तो...
चेदिराज के घर में हुए विचित्र बालक का समाचार सुनकर सारी पृथ्वी के राजा उसे देखने आने लगे। चेदिराज ने सभी का बहुत प्रसन्नता के साथ स्वागत किया। उसके जन्म का समाचार सुनकर कृष्ण और बलराम भी अपनी बुआ से मिलने और उसे देखने पहुंचे। श्रीकृष्ण ने जैसे ही उसे गोद में लिया। उसी समय उसकी दो भुजाएं गिर गई। तीसरा नैत्र गायब हो गया।
यह देखकर शिशुपाल की मां व्याकुल होकर उससे कहने लगी श्री कृष्ण में तुमसे डर गई हूं। तब उसकी मां ने श्रीकृष्ण से हाथ जोड़कर कहा तुम मेरी ओर देखकर शिशुपाल के सारे अपराध क्षमा कर देना ये मेरी विनती है तुमसे। तब श्रीकृष्ण ने कहा बुआजी तुम चिंता मत करो मैं इसके सौ अपराध भी क्षमा कर दूंगा। जिनके बदले इसे मार डालना चाहिए।इसी कारण इस कुल के कलंक शिशुपाल ने आज इतना दुस्साहस दिखाया है। मेरा अपमान किया है। भीष्म की बातें शिशुपाल से सही नहीं गई। उसे गुस्सा आ गया।
किसने पहले ही कर दी थी महाभारत की भविष्यवाणी?
जब राजसूय यज्ञ समाप्त हो गया तब भगवान श्रीकृष्ण-द्वैपायन अपने शिष्यों के साथ धर्मराज युधिष्ठिर के पास आए। युधिष्ठर ने भाइयों के साथ उठकर उनका पूजन किया। उसके बाद वे अपने सिंहासन पर बैठ गए और सबको बैठने की आज्ञा दी। तब भगवान व्यास जी ने कहा की आपके सम्राट होने से कुरुवंश की कीर्ति बहुत उन्नति हुई। धर्मराज ने हाथ जोड़कर पितामह व्यास का चरणस्पर्श किया और कहा मुझे एक बात पर संशय है।
आप ही मेरे संशय को दूर कर सकते है।नारद ने कहा था कि भुकंप आदि उत्पात हो रहे हैं। आप कृपा करके यह बताइए की शिशुपाल की मृत्यु से उनकी समाप्ति हो गई या वे अभी बाकि है। युधिष्ठिर का प्रश्न सुनकर भगवान व्यास जी ने कहा इन उत्पातों का फल तेरह साल बाद नजर आएगा। वह होगा क्षत्रियों का संहार। उस समय दुर्योधन के अपराध से आप निमित बनोगे और इकठ्ठे होकर भीमसेन और अर्जुन के बल से मर मिटेंगें।
उसके बादभगवान कृष्ण द्वैपायन अपने शिष्यों को लेकर कैलास चले गए। युधिष्ठिर को बहुत चिन्ता हो गई। भगवान व्यास की बात याद करके उनकी सांसे गरम हो गई।
वे अपने भाइयों से बोले - भाइयों तुम्हारा कल्याण हो आज से मेरी जो प्रतिज्ञा है उसे सुनो अब मैं तेरह वर्ष तक जीकर ही क्या करूंगा? यदि जीना ही है तो आज से मेरी प्रतिज्ञा सुनों आज से मैं किसी के प्रति कड़वी बात नहीं कहूंगा। यदि जीना ही है तो आज से मैं अपने भाई-बन्धुओं के कहे अनुसार ही कार्य करूंगा। अपने पुत्र और दुश्मन के पुत्र प्रति एक जैसा बर्ताव करने से मुझमें और उसमें कोई भेद नहीं रहेगा। यह भेदभाव ही तो लड़ाई की जड़ है ना। युधिष्ठिर भाइयों के साथ ऐसा नियम बनाकर उसका पालन करने लगे। वे नियम से पितरों का तर्पण और देवताओं की पूजा करने लगे।
तब दुर्योधन पर पांचों पांडव हंसने लगे
राजा दुर्योधन ने शकुनि के साथ इन्द्रप्रस्थ में ठहरकर धीरे-धीरे सारी सभा का निरीक्षण किया। उसने ऐसा कला कौशल कभी नहीं देखा था। सभा में घूमते समय दुर्योधन स्फ टिक चौक में पहुंच गया। उसे जल समझकर उसने अपने कपड़ो को ऊंचा उठा लिया। बाद में जब उसे यह समझ आया कि यह तो स्फटिक
फर्श है तो उसे दुख हुआ।
वह इधर-उधर भटकने लगा। उसके बाद वह थोड़ा आगे बड़ा और स्फटिक की बावड़ी में जा गिरा। उसकी ऐसी हालत देखकर भीमसेन, अर्जुन, नकुल, सहदेव, सब के सब हंसने लगे। उनकी हंसी से दुर्योधन को बहुत दुख हुआ। इसके बाद जब वह दरवाजे के आकार की स्फटिक की बने दरवाजे को बंद दरवाजा समझकर उसके अंदर प्र्रवेश करने की कोशिश करने लगा। तब उसे ऐसी टक्कर लगी कि उसे चक्कर आ गया।
एक स्थान पर बड़े-बड़े दरवाजे को धक्का देकर खोलने लगा तो दूसरी ओर गिर पड़ा। एक बार सही दरवाजे पर भी पहुंचा तो धोखा समझकर वहां से वापस लौट गया। इस तरह राजसूय यज्ञ और पाण्डवों की सभा देखकर दुर्योधन के मन में बहुत जलन हुई। उसका मन कड़वाहट से भर गया। उसके बाद वह युधिष्ठिर से आज्ञा लेकर वह हस्तिनापुर लौट गया।
आदत बुरी सुधार लो
किसी भी व्यक्ति के पास कितनी ही धनसमृद्धि या पराक्रम क्यों ना हो?लेकिन एक भी बुरी आदत किसी की सारी अच्छाईयों पर भारी पड़ सकती है और दुख का कारण बन सकती हैं। युघिष्ठिर को धर्मराज कहा जाता है उनके सभी भाई उनका सम्मान करते हैं सभी धर्म के अनुसार कार्य करते हैं लेकिन किसी भी तरह का व्यसन इंसान के सुखी जीवन को दुखी बना सकता है।
दुर्योधन जब वापस लौटकर आया तो पाण्डवों की हंसी जैसे उसके कानों में गुंज रही थी। उसका मन गुस्से से भरा हुआ था मन भयंकर संकल्पों से भर गया। शकुनि ने उसका गुस्सा भाप लिया और बोला भानजे तुम्हारी सांसे लंबी क्यों चल रही है? दुर्योधन बोला मामाजी धर्मराज युधिष्ठिर ने अर्जुन के शस्त्र कौशल से सारी पृथ्वी अपने अधीन कर ली है। उन्होंने राजसूय यज्ञ करके सब कुछ जीत लिया है। उनका यह ऐश्वर्य देखकर मेरा मन जलता है।
कृष्ण ने सबके सामने ही शिशुपाल को मार गिराया। लेकिन किसी राजा ने कुछ नहीं किया। समस्या तो यह है कि मैं अकेला तो कुछ नहीं कर सकता और मुझे कोई सहायक नहीं देता है। अब मैं सोच रहा हूं कि मैं मौत को गले लगा लूं। मैने पहले भी पांडवों के अस्तित्व को मिटाने कि कोशिश की लेकिन वो बच गए और अब तरक्की करते जा रहे हैं। अब आप मुझ दुखी को प्राण त्यागने की आज्ञा दीजिए क्योंकि मैं गुस्से की आग मैं झुलस रहा हूं। आप पिताजी को जाकर यह समाचार सुना दीजिएगा।
तब शकुनि ने कहा पाण्डव अपने भाग्य के अनुसार भाग्य का भोग कर रहे हैं। तुम्हे उनसे द्वेष नहीं करना चाहिए। तुम्हारे सभी भाई तुम्हारे अधीन और अनुयायी है। तुम इनकी सहायता से चाहो तो पूरी दुनिया जीत सकते हो। दुर्योधन बोला मामा श्रीकृष्ण, अर्जुन, भीमसेन, नकुल, सहदेव, द्रुपद, आदि को युद्ध में जीतना मेरी शक्ति से बाहर है। लेकिन युधिष्ठिर को जीतने का उपाय बतलाता हूं। युधिष्ठिर को जूए का शौक तो बहुत है लेकिन उन्हें खेलना नहीं आता है। अगर उन्हें जूए के लिए बुलाया जाए तो वे मना नहीं कर पाएंगे। इस तरह उनकी शक्ति को पराजित करने का सबसे आसान तरीका है कि मैं उन्हें जूए मैं हरा दूं।
क्यों गुस्से से भर गया दुर्योधन?
हस्तिनापुर लौटने पर शकुनि ने धृतराष्ट्र के पास जाकर कहा मैं आपको ये बताना चाहता हूं कि दुर्योधन का चेहरा उतर रहा है। वह क्रोध से जल रहा है। वह दिनोंदिन पीला पड़ता जा रहा है। आप उसके तनाव का कारण पता क्यों नहीं लगाते? धृतराष्ट्र ने दुर्योधन को बुलवाया और पूछा तुम इतने गुस्से में क्यों हो शकुनि बता रहा है कि तुम किसी बात को लेकर परेशान हो? मुझे तो तुम्हारे गुस्से का कोई कारण समझ नहीं आ रहा है। क्या तुम अपने भाइयों से या अपने किसी प्रिय व्यक्ति के कारण दुखी हो। दुर्योधन ने कहा-पिताजी मैं कायरों जैसा जीवन नहीं बिता सकता हूं।
मेरे मन में पांडवों से बदला लेने की आग धधक रही है। जिस दिन से मैंने युधिष्ठिर का महल और उसके जीवन का ऐश्चर्य देखा है। तब से मुझे खाना पीना अच्छा नहीं लगता। मेरे शत्रु के घर में इतना वैभव देखकर मुझे अच्छा नहीं लग रहा है। मेरा मन बैचेन हो गया है। लोग सब ओर दिग्विजय कर लेते हैं लेकिन उत्तर की तरफ कोई नही जाता। लेकिन अर्जुन वहां से भी धन लेकर आया है। लाख-लाख ब्राह्मणों के भोजन कर लेने पर जो शंख ध्वनि होती थी। उसे सुनकर मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं। युधिष्ठिर के समान तो इन्द्र का ऐश्वर्य नहीं होगा। तब धृतराष्ट्र शकुनि के सामने ही बोले कि युधिष्ठिर जूए का शौकिन है। तुम उन्हें बुलाओ। मैं उन्हे हराकर छल से हराकर सारी सम्पति ले लुंगा।
दुर्योधन ने क्यों दी जान देने की धमकी?
दुर्योधन ने धृतराष्ट्र से बोला पिताजी मामाजी ठीक कह रहे हैं मैं जूए के अलावा किसी भी तरीके से पांडवों को नहीं हरा सकता हूं। तब धृतराष्ट्र ने कहा मेरे मंत्री विदूर बहुत बुद्धिमान है। मैं उनके कहे अनुसार ही काम करता हूं। उनसे सलाह लेकर ही मैं निश्चय करूंगा कि इस विषय पर मुझे क्या काम करना चाहिए। जो बात दोनों पक्ष के लिए हितकर होगी, वही वे कहेंगे।दुर्योधन ने कहा पिताजी यदि विदुरजी आ गए तब तो वे आपको जरूर रोक देंगे और मैं निश्चित ही अपनी जान दे दूंगा। तब आप विदुर के साथ आराम से राज्य में रहिएगा।
मुझसे आपको क्या लेना है? दुर्योधन की बात सुनकर धृतराष्ट्र ने उसकी बात मान ली। परंतु फिर जुए को अनेक अनर्थो की खान जानकर विदुर से सलाह करने निश्चय किया और उनके पास सब समाचार भेज दिया। यह समाचार सुनते ही विदुर जी ने समझ लिया कि अब कलयुगि अथवा कलयुग का प्रारंभ होने वाला है। विनाश की जड़े जमना शुरू हो गई हैं। वे बहुत ही जल्दी धृतराष्ट्र के पास पहुंचे। उन्होंने धृतराष्ट्र से कहा मैं जूए को बहुत ही अशुभ मानता हूं। आप कुछ ऐसा उपाय कीजिए जिससे मेरे भाई भतीजों में विरोध ना हो।
धृतराष्ट्र ने कहा मैं भी तो यही कहा मैं भी तो यही करता हूं। लेकिन यदि देवता अनुकू ल होंगे तो पुत्र और भतीजों में कलह नहीं होगा।इतना कहने के बाद धृतराष्ट्र ने अपने पुत्र दुर्योधन को अकेले में बुलवाया और उसे समझाने का प्रयास किया लेकिन दुर्योधन बोला पिताजी मेरी धनसम्पति तो बहुत ही सामान्य है। इससे मुझे संतोष नहीं है। मुझे बहुत दुख हो रहा है। मैंने राजसूय यज्ञ के समय युधिष्ठिर की आज्ञा से मणि, रत्न व राशि इकट्ठी की थी। उसके धन का कोई छोर नहीं है। जब रत्नों की भेंट लेते हुए मेरे हाथ थक गए थे। मैं जब उनकी सभा में घुम रहा था तो मयदानव के बनाए स्फटिक बिन्दु सरोवर ने मुझे बावला सा बना दिया था।
क्यों चले गए युधिष्ठिर जुआ खेलने?
राजा धृतराष्ट्र ने अपने मुख्य मंत्री विदुर को बुलवाकर कहा कि विदुर तुम मेरी आज्ञा से जाओ और युधिष्ठिर को बुलाकर ले आओ। युधिष्टिर से कहना हमने एक रत्न से जड़ी सभा बनवाई है। उन्हें कहना वे उसे अपने भाइयों के साथ आकर देखें और सब इष्ट मित्रों के साथ द्यूत क्रीड़ा करें।विदुर को यह बात न्याय के प्रतिकू ल लगी। इसलिए विदुर ने उनसे कहा कि मैं आपकी इस आज्ञा को स्वीकार नहीं कर सकता हूं।
तब धृतराष्ट्र ने कहा अगर तुम मेरी बात नहीं मानते हो तो दुर्योधन के वैर विरोध से भी मुझे कोई दुख नहीं है। धृतराष्ट्र की ऐसी बात सुनकर विदुर मजबूर हो गए। वे शीघ्रगामी रथ से इन्द्रप्रस्थ के लिए निकल पड़े। वहां जाकर उन्होंने युधिष्ठिर ने उनका यथोचित सत्कार किया। वहां पहुंचकर उन्होंने कौरवों का संदेश युधिष्ठिर को सुनाया। उनका संदेश सुनकर युधिष्ठिर ने कहा चाचाजी द्यूत खेलना तो मुझे सही नहीं लगता? तब विदुर ने कहा कि मैं यह जानता हूं कि जुआ खेलना सारे अनर्थो की जड़ है। ऐसा कौन भला आदमी होगा जो जुआ खेलना पसंद करेगा।
मैंने इसे रोकने की बहुत कोशिश की लेकिन मुझे सफलता नहीं मिली। आप को जो अच्छा लगे आप वही करें। युधिष्ठिर ने कहा वहा दुर्योधन, दु:शासन आदि के सिवा और भी खिलाड़ी इकठ्ठे होंगे। हमें उनके साथ जुआ खेलने के लिए बुलाया जा रहा है। तब विदुर ने कहा आप तो जानते ही हैं कि शकुनि पास फेंकने के लिए प्रसिद्ध है। युधिष्ठिर ने कहा तब तो आपका कहना ही सही है। अगर मुझे धृतराष्ट्र शकुनि के साथ जुआ खेलने नहीं बुलाते तो मैं कभी नहीं जाता। युधिष्ठिर ने इतना कहकर कहा कि कल सुबह द्रोपदी और अन्य रानियों के साथ हम पांचों भाई हस्तिनापुर चलेंगे।
और तब जूए का खेल शुरू हुआ
दूसरे दिन सुबह धृतराष्ट्र और सभी पांडव नई सभा को देखने गए। जूए में खिलाडिय़ों ने वहां सबका स्वागत किया। पांडवों ने सभा में पहुंचकर सभी से मिले। इसके बाद सभी लोग अपनी उम्र के हिसाब से अपने-अपने आसनों पर बैठे। मामा शकुनि ने सभी के सामने प्रस्ताव प्रस्तुत किया। उसने कहा धर्मराज यह सभा आपका ही इंतजार कर रही थी। अब पासे डालकर खेल शुरू करना चाहिए। युधिष्ठिर ने कहा राजन् जूआ खेलना पाप है। इसमें न तो वीरता के प्रदर्शन का अवसर है और न तो इसकी कोई निश्चित नीति है। संसार का कोई भी व्यक्ति जुआंरियों की तारिफ नहीं करता है।
आप जूए के लिए क्यों उतावले हो रहे हैं? आपको बुरे रास्ते पर चलाकर हमें हराने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। शकुनि ने कहा युधिष्ठिर देखो बलवान और शस्त्र चलाने वाले पुरुष कमजोर और शस्त्रहीन पर प्रहार करते हैं। जो पासे फेंकने में चतुर है। वह अनजान को तो आसानी से उस खेल में जीत लेगा। युधिष्ठिर ने कहा अच्छी बात है यह तो बताइये। यहां एकत्रित लोगों में से मुझे किसके साथ खेलना होगा। कौन दांव लगाएगा। कोई तैयार हो तो खेल शुरू किया जाए। दुर्योधन ने कहा दावं लगाने के लिए धन और रत्न तो मैं दूंगा। लेकिन मेरी तरफ से खेलेंगे मेरे शकुनि मामा। उसके बाद जूए का खेल शुरू हुआ। उस समय धृतराष्ट्र के साथ बहुत से राजा वहां आकर बैठ गए थे - भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य उनके मन में बहुत दुख था। युधिष्ठिर ने कहा कि मैं सुन्दर आभुषण और हार दाव पर रखता हूं। अब आप बताइए आप दावं पर क्या रखते हैं? दुर्योधन ने कहा कि मेरे पास बहुत सी मणियां और धन हैं। मैं उनके नाम गिनाकर घमंड नहीं दिखाना चाहता हूं। आप इस दावं को जीतिए तो। दावं लग जाने पर पासों के विशेषज्ञ शकुनि ने हाथ में पासे उठाए और बोला यह दावं मेरा रहा । उसके बाद जैसे ही उसने पासे डाले वास्तव में जीत उसकी ही हुई। युधिष्ठिर ने कहा मेरे पास तांबे और लोहे की संदूको में चार सौं खजाने बंद है। एक-एक में बहुत सारा सोना भरा है मैं सब का सब पर दावं लगाता हूं। इस तरह धीरे-धीरे जूआ बढऩे लगा। यह अन्याय विदुरजी से बर्दाश्त नहीं हुआ और उन्होंने युधिष्ठिर को समझाना शुरू किया।
इसीलिए कहते हैं लालच बुरी बला है
वे धृतराष्ट्र से कहते हैं ये पापी दुर्योधन जब अपनी माता के गर्भ से बाहर आया था। तब यह गीदड़ के समान चिल्लाने लगा था। यही कुरुवंश के नाश के कारण बनेगा। यह आपके घर में ही रहता है। आप अपने मोह के कारण उसकी गलतियों को देख नहीं पा रहे हैं। मैं आपको नीति की बात बताता हूं। जब शराबी शराब के नशे में रहता है तो उसे यह भी नहीं ध्यान रहता है कि वह कितनी पी रहा है।
नशा होने पर वह पानी में डूब मरता है या धरती पर गिर जाता है। वैसे ही दुर्योधन जूए के नशे में द्युत हो रहा है। पाण्डवों के साथ इस तरह छल करने का फल अच्छा नहीं होगा। आप अर्जुन को आज्ञा दें ताकि वह दुर्योधन को दंड दे सके। इसे दंड देने पर कुरूवंशी हजारों सालों तक सुखी रह सकता है। आपको किसी तरह का दुख ना हो उसका यही तरीका है। शास्त्रों में सपष्ट रूप से कहा गया है कि कुल की रक्षा के लिए एक पुरुष को, गांव की रक्षा के लिए कुल को, देश की रक्षा के लिए एक गांव को और आत्मा की रक्षा के लिए देश भी छोड़ दें।
सर्वज्ञ महर्षि शुक्राचार्य ने जम्भ दैत्य के परित्याग के समय असुरों को एक बहुत अच्छी कहानी सुनाई। उसे में आपको सुनाता हूं। एक जंगल में बहुत से पक्षी रहा करते थे। वे सब के सब सोना उगलते थे। उस देश का राजा बहुत लालची और मुर्ख था। उसने लालच के कारण बहुत सा सोना पाने के लिए उन पक्षियों को मरवा डाला, जबकि वे अपने घोसलों में बैठे हुए थे। इस पाप का फल क्या हुआ? यही कि उसे ना तो सोना नहीं मिला, आगे का रास्ता भी बंद हो गया मैं सपष्ट रूप से कह देता हूं कि पांडवों का धन पाने के लालच में आप उनके साथ धोखा ना करें।
क्यों युधिष्ठिर ने द्रोपदी को दावं पर लगा दिया?
शकुनि ने युधिष्ठिर से कहा अब तक तुम बहुत सा धन हार चुके हो। अगर तुम्हारे पास कुछ बचा हो तो दांव पर रखो। युधिष्ठिर ने कहा शकुनि मेरे पास बहुत धन है। उसे मै जानता हूं। तुम पूछने वाले कौन? मेरे पास बहुत धन है। मैं सब का सब दावं पर लगाता हूं। शकुनि ने पासा फेंकते हुए कहा यह लो जीत लिया मैंने। युधिष्ठिर ने कहा ब्राह्मण को दान की गई सम्पति को छोड़कर मैं सारी सम्पति दावं पर लगाता हूं।
शकुनि ने कहा लो यह दावं भी मेरा रहा। अब युधिष्ठिर ने कहा मेरे जिस भाई के कन्धे सिंह के समान है। जिनका रंग श्याम है और रूप बहुत सुन्दर है मैं अपने नकुल को दावं पर लगाता हूं। शकुनि ने कहा लो यह भी मेरा रहा। उसके बाद युधिष्ठिर ने सहदेव को दावं पर लगाया। शकुनि ने सहदेव को भी जीत लिया। युधिष्ठिर उसके बाद अर्जुन और भीम को भी दावं पर लगा दिया। युधिष्ठिर ने कहा कि मैं सबका प्यारा हूं।
मैं अपने आप को दांव लगता हूं। यदि मैं हार जाऊंगा तो तुम्हारा काम करूंगा। शकुनि ने कहा यह मारा और पासे फेंककर अपनी जीत घोषित कर दी। तुमने अपने को जूए में हराकर बड़ा अन्याय है क्योंकि अपने पास कोई चीज बाकि हो तब तक अपने आप को दावं पर लगाना ठीक नहीं। अभी तो तुम्हारे पास द्रोपदी है उसे दांव पर लगाकर अबकि बार दावं जीत लो। तब युधिष्ठिर ने द्रोपदी को दावं पर लगा दिया।
सबसे पहले द्रोपदी को लेने के लिए दुर्योधन ने किसे भेजा?
दुर्योधन ने विदुर जी को कहा तुम यहां आओ। तुम जाकर पाण्डवों की पत्नी द्रोपदी को जल्दी ले आओ। वह अभागिन यहां आकर हमारे महल की झाड़ू निकाले। हमारे महल की दासियों के साथ रहे। तब विदुर जी ने कहा दुर्योधन तुझे पता नहीं है कि तू फांसी पर लटक रहा है और मरने वाला है। तभी तो तेरे मुंह से ऐसी बात निकल रही है। अरे तुने शेर के मुंह में हाथ डाला है। तेरे सिर पर सांप फैलाकर फुफकार रहे है। तू उनसे छेडख़ानी करके यमपुरी मत जा।
द्रोपदी कभी तुम्हारी दासी नहीं हो सकती है। दुर्योधन ने प्रतिकामी से कहा युधिष्ठिर ने द्रोपदी को दावं पर लगाया है तुम इसी समय जाकर द्रोपदी को ले आओ। पाण्डवों से डरने की कोई बात नहीं है। प्रतिकामी दुर्योधन की आज्ञा के अनुसार द्रोपदी के पास गया। द्रोपदी से कहा महाराज युधिष्ठिर जूए में सब धन के साथ आपको भी हार गए हैं। जब दावं पर लगाने के लिए कुछ नहीं रहा तो उन्होंने आपको ही दावं पर लगा दिया। आप भी दुर्योधन की जीती हुई वस्तुओं में से है इसलिए आप मेरे साथ सभा में चलिए। तब द्रोपदी बोली जगत में धर्म सबसे बड़ी वस्तु है। मैं धर्म का उल्लंघन नहीं करना चाहती। तुम सभा में जाकर धर्मावलंबियों से पूछो की मुझे क्या करना चाहिए?
क्या कहा द्रोपदी ने जब दु:शासन उसे घसीटता हुआ सभा में ले गया?
जब प्रतिकामी द्रोपदी को बिना लिए सभा में पहुंचता है तो दुर्योधन क्रोधित होकर बोला कि जाओ प्रतिकामी तुम जाकर द्रोपदी को यही लेआओ। उसके इस प्रश्र का उत्तर उसे यहीं दे दिया जाएगा। प्रतिकामी द्रोपदी के क्रोध से डरता था। उसने दुर्योधन की बात टालकर सभा में बैठक सभी लोगों से फिर पूछा कि मैं द्रोपदी से क्या कहूं। दुर्योधन को यह बात बुरी लगी।
उसने प्रतिकामी को घुर कर देखा और अपने छोटे भाई दु:शासन से बोला भाई तुम जाओ और द्रोपदी को पकड़ लाओ। ये हारे हुए पाण्डव हमारा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते हैं। बड़े भाई की आज्ञा सुनते ही दु:शासन गुस्से में सभा से चल पड़ा। वह पाण्डवों के महल में जाकर बोला कृष्णे चल तुझे हमने जीत लिया है। अब तुम शर्माना छोड़कर हमारे साथ चलो। जब द्रोपदी चलने के लिए तैयार नहीं हुई। तब दुशासन ने द्रोपदी के घुंघराले बाल पकड़कर ।
उसे घसीटता हुआ सभा तक ले गया। दुशासन की बात सुनकर द्रोपदी दुखी हुई।उसने गुस्से में कहा अरे दुष्ट दु:शासन सभा में कई वरिष्टजन बैठे है। तु मेरे साथ जो व्यवहार कर रहा है कि यदि इन्द्र के साथ सारे देवता तेरी सहायता करें तो भी पाण्डवों के हाथ से तुझे छूटकारा न होगा। धर्मराज अपने धर्म पर अटल रहे। वे सुक्ष्म धर्म का मर्म जानते हैं। मुझे तो उनमें गुण ही गुण नजर आते हैं। धित्कार हे तुम जैसे क्षत्रियों पर कौरवों जिन्होंने अपने कुल की मर्यादा का नाश कर दिया। द्रोपदी जब ये बातें कह रही थी तो ऐसा लग रहा था मानो उसके शरीर से क्रोधाग्रि धधक रही हो।
और दु:शासन द्रोपदी के वस्त्र खींचने लगा
द्रोपदी ने सभा में आकर कहा इन सभी ने धर्मराज को धोखे से बुलाकर उनका सर्वस्व जीत लिया। उन्होंने पहले अपने भाइयों को हराकर मुझे दावं पर लगाया। अब उन्हें मुझे दावं पर लगाकर हारने का हक था या नहीं ये यहां बैठे कुरुवंशी बताएंगे। तब धृतराष्ट्र के पुत्र विकर्ण ने कहा जूआ, शराब, स्त्री ये सब आसक्ति है। इनमें संलग्र होने पर राजा युधिष्ठिर ने आकर जूए की आसक्ति के कारण द्रोपदी को दावं लगाना पड़ा।
द्रोपदी केवल युधिष्ठिर की ही पत्नी नहीं पांचो पांडवों का उस पर बराबर अधिकार है। इसलिए मेरे विचार में यह बात ध्यान देने योग्य है कि युधिष्ठिर ने अपने को हारने के बाद द्रोपदी को दावं पर लगा दिया। इन सब बातों से मैं निश्चय पर पहुंचता हूं कि द्रोपदी जूए में नहीं हारी गयी। द्रोपदी के बार-बार पूछने पर भी किसी ने कोई उत्तर नहीं दिया। थोड़ी देर बाद कर्ण बोला विकर्ण तू दुर्योधन का छोटा भाई है। तुझे धर्म का ज्ञान नहीं है।
युधिष्ठिर ने अपना सर्वस्व दावं पर लगा दिया और द्रोपदी भी उसके सर्वस्व में है। अब यह सब देखकर दु:शासन बोला विकर्ण तू बालक होकर बूढों सी बात मत कर। इसकी बात पर कोई ध्यान मत दो। पांडवों और द्रोपदी के सारे वस्त्र उतार लो।जिस समय दु:शासन द्रोपदी के वस्त्र खींचने लगा तब द्रोपदी मन ही मन प्रार्थना करने लगी। श्रीकृष्ण का ध्यान करके वह मुंह ढककर रोने लगी। तब उसकी पुकार सुनकर कृष्ण वहां पहुंचे और दु:शासन जब द्रोपदी के चीर खींचने लगा तो वस्त्रों का ढेर लग गए उन्होंने द्रोपदी की रक्षा की।
पांडव अपना धन वापस ले जाने लगे तो क्या किया दुर्योधन ने?
धृतराष्ट्र ने पाण्डवों को अपनी धनराशि ले जाने की अनुमति दे दी,यह सुनते ही दु:शासन अपने बड़े भाई दुर्योधन के पास गए और बड़े दुख के साथ कहा भैया हमने अपना सारा पांडवों से मुश्किल से जीता धन खो दिया। सब धन हमारे दुश्मनों के हाथ में चला गया। अभी कुछ सोच-विचार करना हो तो कर लो। यह सुनते ही दुर्योधन ने कर्ण और शकुनि ने आपस में सलाह की और सभी एक साथ धृतराष्ट्र के पास गए। उन्होंने बहुत विनम्रता से कहा हे राजन हम इस समय पांडवों से धन पाकर ही राजाओं को खुश कर लेते तो हमारा क्या नुकसान था। देखिए डसने के लिए तैयार सांपो को छोडऩा बेवकू फी है। इस समय पांडव भी सांपों के समान ही है। वे जिस समय रथ में बैठकर शस्त्रों पर सुसज्जित होकर हम पर हमला कर देंगे तो हम में से किसी को नहीं छोड़ेंगे। अब वे सेना एकत्रित करने में लग गए हैं। द्रोपदी की भरी सभा में जो बेइज्जती हुई है। उसे पांडव भूला नहीं पाएंगे। इसलिए हम वनवास की शर्त पर पांडव के साथ फिर से जूआ खेलेंगे। इस तरह वो हमारे वश में हो जाएंगे। जूए में जो भी हार जाए, हम या वे बारह वर्ष तक मृग चर्म पहनकर वन में रहे। किसी को पता ना चले की वे पांडव हैं। यदि पता चल जाए कि ये कौरव या पांडव हैं तो फिर बारह वर्षो तक वन में रहें। इस शर्त पर आप जूआ खेलने की आज्ञा दें। पासे डालने की विद्या में हमारे मामा शकुनि निपूण है। अगर पांडव यह शर्त पूरी कर लेंगे तो भी इतने समय में बहुत से राजाओं को अपना दोस्त बना लेंगें। धृतराष्ट्र ने हामी भर दी। उन्होंने कहा बेटा अगर पांडव दूर चले गए हों तब भी उन्हें दूत भेजकर बुलवा लो।
बिना विचारे काम करना नुकसान पहुंचा सकता है
जब धृतराष्ट्र ने दुबारा पाण्डवो को जूआ खेलने बुलाने का प्रस्ताव रखा तो सभा में उपस्थित सभी वरिष्ठजनों ने कहा जूआ मत खेलो आप लोग शांति रखो लेकिन धृतराष्ट्र मजबूर थे। उन्होंने सभी लोगों की सलाह को ठुकरा दिया। उसने पाण्डवों को जूआ खेलने के लिए बुलवाया। यह सब देख सुनकर धर्मपरायण गांधारी बहुत शोक में थी। उन्होंने अपने पति धृतराष्ट्र से कहा स्वामी दुर्योधन जन्म लेते ही गीदड़ के समान रोने लगा था। इसलिए उसी समय विदुर जी ने कहा कि इस पुत्र का त्याग कर दो। मुझे तो यही लगता है कि यह कुरुवंश का नाश कर देगा। आप इसका पक्ष लेकर मुश्किल में पड़ सकते हैं आप बंधे हुए पूल को मत तोडि़ए। शांति, धर्म और मन्त्रियों की सलाह से ही काम कीजिए। इस तरह बिना विचार किए काम करना आपको नुकसान पहुंचा सकता है। तब धृतराष्ट्र कहते हैं कि गांधारी अगर कुल का नाश होता है तो होने दो। मैं उसे नहीं रोक सकता हूं। अब तो दुर्योधन और दु:शासन जो चाहे वही होना चाहिए। पाण्डवों को लौट आने दो। राजा धृतराष्ट्र की आज्ञा से प्रतिकामी पाण्डवों के पास पहुंचा। उसने उनसे जाकर कहा आप फिर चलिए और जूआ खेलिए। तब धर्मराज और पांचों भाई कौरवों के बुलाने पर पुन: हस्तिनापुर चले आते हैं।
दोस्त वही जो समय पर सावधान कर दे
कहते हैं सच्चे दोस्त बहुत मुश्किल से मिलते हैं और जब मिलते हैं तो कई बार हम उन्हें पहचान नहीं पाते हैं। सच्चे दोस्त की सबसे बड़ी पहचान यही है कि वह आपको कोई मुसीबत आने से पहले या आपके दुश्मनों से उनकी निती से पहले ही सावधान कर दे।
जब पांडव वापस आए तो शकुनि ने कहा हमारे वृद्ध महाराज ने आपकी धनराशि आपके पास ही छोड़ दी है। इससे हमें प्रसन्नता हुई। अब हम एक दांव और लगाना चाहते हैं। अगर हम जूए में हार जाएं तो मृगचर्म धारण करके बारह वर्ष तक वन में रहेंगे और तेहरवे वर्ष में किसी वन में अज्ञात रूप से रहेंगे। यदि उस समय भी कोई पहचान ले तो बारह वर्ष तक वन में रहेंगे और यदि आप लोग हार गए तो आपको भी यही करना होगा। शकुनि की बात सुनकर सभी सभासद् खिन्न हो गए।
वे कहने लगे अंधे धृतराष्ट्र तुम जूए के कारण आने वाले भय को देख रहे हो या नहीं लेकिन इनके मित्र तो धित्कारने योग्य हैं क्योंकि वे इन्हें समय पर सावधान नहीं कर रहे हैं। सभा में बैठे लोगों की यह बात युधिष्ठिर सुन रहे थे। वे ये भी समझ रहे थे कि इस जूए के दुष्परिणाम क्या होगा। फिर भी उन्होंने यह सोचकर की पांडवों का विनाशकाल करीब है, जूआ खेलना स्वीकार कर लिया। जूए में हारकर पाण्डवों ने कृष्णमृगचर्म धारण किया।
और भीम ने की भरी सभा में प्रतिज्ञा
जूए में हारकर पाण्डवों ने कृष्णमृगचर्म धारण किया और वन में जाने के लिए तैयार हो गए। उनकी ऐसी स्थिति देखकर दु:शासन कहने लगा कि धन्य है धन्य है। अब महाराज दुर्योधन का शासन प्रारंभ हो गया। पाण्डव मुश्किल में पड़ गए। राजा द्रुपद तो बड़े बुद्धिमान हैं। फिर उन्होंने अपनी कन्या की शादी पांडवों से क्यों कर दी? अरे द्रोपदी ये पांडव गरीबी के साथ वन में अपना जीवन बितायेंगे, तू अब उनके प्रति प्रेम कैसे रखेगी? अब किसी मनचाहे पुरुष से विवाह क्यों नहीं कर लेती। दु:शासन की बात सुनकर भीम को बहुत गुस्सा आया। भीम ने उसे ललकारा और कहा तूने हमें अपने बाहुबल से नहीं जीता। तू अपने छल पर शेखी कैसे बघार सकता है।
ऐसी बात केवल पापी ही कह सकते हैं। तू अभी मेरे घावों को कुरेद कर मुझे परेशान कर ले। मैं मेरा दर्द रणभूमि में तेरे हाथ पैर काटकर तुझे याद दिलाऊंगा। इस समय भीमसेन मर्गचरम धारण किए खड़े थे। धर्म के अनुसार वे दु:शासन जैसे शत्रु का भी नाश नहीं कर सकते हैं। भीमसेन के ऐसा कहने पर पर दु:शासन ने भीम को अपशब्द कहे और भरी सभा में उन्हें बेइज्जत किया। तब भीम गुस्से से भर जाता है और कहता है यदि यह भीम कुन्ती की कोख से जन्मा है तो रणभूमि में यह तेरा कलेजा चीरकर खुन पीएगा। अगर मैं ऐसा ना करूं तो मुझे पुण्यलोक ना मिले। मैं सब के सामने ही धृतराष्ट्र के सारे पुत्रों का सहार करके शांति प्राप्त करूंगा।
जुएं में हारकर क्या हुआ पाण्डवों के साथ ?
जब पाण्डव वन जाने लगे तो दुर्योधन हंस कर उन्हें चिढ़ाने लगे। तब भीम ने अपनी प्रतिज्ञा को फिर दोहराया। अर्जुन ने भी भीम की प्रतिज्ञा का समर्थन किया। इस तरह पाण्डव और भी प्रतिज्ञाएं करके राजा धृतराष्ट्र के पास गए और वन जाने के आज्ञा मांगने लगे। यह देखकर वहां उपस्थित भीष्म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, विदुर आदि महात्माओं ने शर्म से सिर झुका लिए। तब विदुरजी ने युधिष्ठिर से कहा कि आपकी माता कुंती वृद्धा है इसलिए उनका वन में जाना उचित नहीं है। वे मेरी माता के समान है। मैं उनकी देख-भाल करुंगा। तब युधिष्ठिर ने विदुर की बात मान ली और माता कुंती को विदुरजी के संरक्षण में छोड़ दिया।
तब युधिष्ठिर सभी से आज्ञा लेकर वन जान के लिए चल पड़े। जब द्रोपदी कुंती से जाने के लिए आज्ञा लेने गई तो कुंती को बहुत दु:ख हुआ। तब कुंती ने द्रोपदी को बहुत से आशीर्वाद दिए। पाण्डवों को वन में जाते देख कुंती विलाप कनरे लगी तो विदुरजी उन्हें समझाकर अपने घर ले आए। यह सब देखकर कौरव कुल की महिलाएं द्यूत सभा में द्रौपदी को ले जाना, उन्हें केश पकड़कर घसीटना आदि अत्याचार देखकर दुर्योधन आदि की निंदा करने लगी।
वनवास जाते समय द्रौपदी ने क्या कहा?
राजा धृतराष्ट्र अपने पुत्रों द्वारा पाण्डवों पर किए गए अत्याचार को देखकर परेशान हो गए और उन्होंने तुरंत विदुरजी को बुलाया और उनके पूछा कि पाण्डव किस वन में जा रहे हैं और वे इस समय क्या कर रहे हैं यह बताओ।विदुरजी ने धृतराष्ट्र को बताया कि छल से राज्य छिन जाने के बाद भी युधिष्ठिर आपके पुत्रों पर दया भाव रखते हैं। वे अपने नेत्रों को बंद किए हुए हैं क्योंकि कहीं उनकी आंखों के सामने पड़कर कौरव भस्म न हो जाएं। भीमसेन अपने बांह फैला-फैलाकर दिखाते जा रहे हैं कि समय आने पर मैं अपने बाहुबल का जौहर दिखाकर कौरव को समाप्त कर दूंगा।
अर्जुन धूल उड़ाते हुए चल रहे हैं। वे बता रहे हैं कि युद्ध के समय शत्रुओं पर कैसी बाण वर्षा करेंगे। सहदेव ने अपने मुंह पर धूल मल रखी है। वे ये कहना चाह रहे हैं कि कोई मेरा मुंह ने देखे। नकुल ने तो अपने सारे शरीर पर ही धूल लगा ली है। उनका अभिप्राय है कि मेरा रूप देखकर कोई मुझ पर मोहित न हो। द्रौपदी अपने केश खोलकर रोते-रोते जा रही है।
द्रौपदी ने कहा है कि जिनके कारण मेरी यह दुर्दशा हुई है, उनकी स्त्रियां भी आज से चौदहवे वर्ष अपने स्वजनों की मृत्यु से दु:खी होकर इसी प्रकार हस्तिनापुर में प्रवेश करेंगी। और इनसे आगे पुरोहित धौम्य चल रहे हैं।
पाण्डवों के जाने के बाद नगर में क्या-क्या अपशकुन हुए?
विदुरजी धृतराष्ट्र से बोले- पाण्डव को वन में जाते देख हस्तिनापुर के नागरिक बहुत दु:खी हो रहे हैं और कुरुकुल के वृद्धों को तथा पाण्डवों के साथ अन्याय करने वालों को धिक्कार रहे हैं। उधर पाण्डवों के वन में जाते ही आकाश में बिना बादल के ही बिजली चमकी, पृथ्वी थरथरा गई, बिना अमावस्या के ही सूर्यग्रहण लग गया। नगर की दाहिनी ओर उल्कापात हुआ। इन सभी घटनाओं का एक ही अर्थ है भरतवंश का विनाश।
जब विदुरजी यह बात धृतराष्ट्र से कह रहे थे तभी वहां नारदजी अनेक ऋषियों के साथ आ गए और बोले- दुर्योधन के अपराध के फलस्वरूप आज से चौदहवें वर्ष भीमसेन और अर्जुन के हाथों कुरुवंश का विनाश हो जाएगा। यह सुनकर दुर्योधन, कर्ण और शकुनि ने द्रोणाचार्य को ही अपना प्रधान आश्रय समझकर पाण्डवों का सारा राज्य उन्हें सौंप दिया। तब द्रोणाचार्य ने कहा कि पाण्डव देवताओं की संतान हैं उन्हें कोई मार नहीं सकता। यदि तुम अपनी भलाई चाहते हैं तो बड़े-बड़े यज्ञ करो, ब्राह्मणों को दान दो। सभी सुख भोग लो क्योंकि चौदहवें वर्ष तुम्हें बड़े कष्ट सहना होंगे।
इसीलिए कहते हैं विनाशकाले विपरीत बुद्धि
द्रोणाचार्य की बात सुनकर धृतराष्ट्र ने कहा गुरुजी का कहना ठीक है। तुम पाण्डवों को लौटा लाओ। यदि वे लौटकर न आवें तो उनका शस्त्र, सेवक और रथ साथ में दे दो ताकि पाण्डव वन में सुखी रहे। यह कहकर वे एकान्त में चले गए। उन्हें चिन्ता सताने लगी उनकी सांसे चलने लगी। उसी समय संजय ने कहा आपने पाण्डवों का राजपाठ छिन लिया अब आप शोक क्यों मना रहे हैं? संजय ने धृतराष्ट्र से कहा पांडवों से वैर करके भी भला किसी को सुख मिल सकता है। अब यह निश्चित है कि कुल का नाश होगा ही, निरीह प्रजा भी न बचेगी।
सभी ने आपके पुत्रों को बहुत रोका पर नहीं रोक पाए। विनाशकाल समीप आ जाने पर बुद्धि खराब हो जाती है। अन्याय भी न्याय के समान दिखने लगती है। वह बात दिल में बैठ जाती है कि मनुष्य अनर्थ को स्वार्थ और स्वार्थ को अनर्थ देखने लगता है तथा मर मिटता है। काल डंडा मारकर किसी का सिर नहीं तोड़ता। उसका बल इतना ही है कि वह बुद्धि को विपरित करके भले को बुरा व बुरे को भला दिखलाने लगता है। धृतराष्ट्र ने कहा मैं भी तो यही कहता हूं।
द्रोपदी की दृष्टी से सारी पृथ्वी भस्म हो सकती है। हमारे पुत्रों में तो रख ही क्या है? उस समय धर्मचारिणी द्र्रोपदी को सभा में अपमानित होते देख सभी कुरुवंश की स्त्रियां गांधारी के पास आकर करुणकुंदन करने लगी। ब्राहण हमारे विरोधी हो गए। वे शाम को हवन नहीं करते हैं। मुझे तो पहले ही विदुर ने कहा था कि द्रोपदी के अपमान के कारण ही भरतवंश का नाश होगा। बहुत समझा बुझाकर विदुर ने हमारे कल्याण के लिए अंत में यह सम्मति दी कि आप सबके भले के लिए पाण्डवों से संधि कर लीजिए। संजय विदुर की बात धर्मसम्मत तो थी लेकिन मैंने पुत्र के मोह में पड़कर उसकी प्रसन्नता के लिए उनकी इस बात की उपेक्षा कर दी।
और चल पड़े पाण्डव वनवास पर
जन्मेजय ने वैशम्पायनजी से पूछा दुर्योधन, दु:शासन, आदि ने अपने मंत्रियों के साथ जूए में पांडवों को धोखे से हराकर जीत लिया। इतना ही नहीं, उन्होंने दुश्मनी बढ़ाने के लिए भला-बुरा भी कहा। आप बताइए उसके बाद आपने अपना समय कैसे बिताया, उनके साथ वन में कौन-कौन गए। वे वन में कैसा बर्ताव करते थे।
उनके वन में बारह साल किस तरह बीते? आप मुझे बताइए। वैशाम्पायनजी ने कहा पांडव दुर्योधन आदि के दुव्र्यवहार से दुखी होकर अपने अस्त्र-शस्त्र और रानी द्रोपदी के साथ हस्तिनापुर से निकल पड़े। वे हस्तिनापुर के वर्धमानपुर के सामने वाले द्वार से निकल कर उत्तर की ओर चले। इन्द्रसेन और चौदह सेवक उनके पीछे शीघ्रगामी रथ पर सवार होकर उनके पीछे-पीछे चले। जब हस्तिनापुर की जनता को यह बात मालूम हुई तो प्रजा बहुत दुखी हो गई। सब लोग शोक से व्याकुल होकर एकत्रित हुए और निडर होकर सभी कौरवों और श्रेष्ठजनों की निन्दा करने लगे।
वे आपस में कहने लगे दुर्योधन, शकुनि आदि की सहायता से राज्य करना चाहता है। उसने पूरे वंश की मर्यादा को त्याग चुका है। अगर इसका राज्य हुआ तो यह सब कुछ नष्ट कर देगा। हस्तिनापुर की जनता इस प्रकार आपस में विचार करके वहां से चल पड़ी और पांडवों के पास जाकर बड़ी नम्रता से हाथ जोड़कर कहने लगी-पाण्डवों आप लोग हमें हस्तिनापुर में दुख भोगने के लिए छोड़कर अकेले कहां जा रहे हैं? आप लोग जहां जाएंगे। वही हम भी चलेंगे। जब से हमें यह बात मालूम हुई है कि आप लोगों को धोखे से वनवासी बना दिया गया है तब से हम लोग बहुत डरे हुए हैं।
क्या हुआ जब हस्तिनापुर की जनता पहुंची युधिष्ठिर के पास?
प्रजा की बात सुनकर युधिष्ठिर ने कहा-प्रजाजनों वास्तव में हम लोगों में कोई गुण नहीं है, फिर भी आप लोग प्यार और दया के वश में होकर हममें गुण देख रहे है। यह बड़े सौभाग्य की बात है। मैं अपने भाइयों के साथ आप लोगों से प्रार्थना करता हूं। आप अपने प्रेम और कृपा से हमारी बात स्वीकार करें। इस समय हस्तिनापुर में पितामह भीष्म, राजा, धृतराष्ट्र, विदुर आदि सभी हमारे सगे सम्बंधी निवास करते हैं। जैसे आप लोग हमारे लिए दुखी हो रहे हैं।
उतनी ही वेदना उनके मन में भी है। आप लोग हमारी प्रसन्नता के लिए वापस लौट जाइए। आप लोग बहुत दूर तक आ गए हैं अब साथ ना चले। मेरे प्रिय लोग में आपके पास धरोहर के रूप में छोड़कर जा रहा हूं। मैं आप लोगों से दिल से कह रहा हूं आपके ऐसा करने से मुझे बहुत प्रसन्नता होगी। मैं उसे अपना सत्कार समझूंगा। जब सभी लोग उनके आग्रह पर हस्तिनापुर लौट गए तो पाण्डव रथ में बैठकर वहां से चल पड़े। उसके बाद वे गंगा तट पर प्रणाम कर बरगद के पेड़ के पास आए।
उस समय संध्या हो चली थी। वहां उन्होंने रात बिताई। उस समय बहुत से ब्राह्मण पाण्डवों के पास आए, उनमें बहुत से अग्रिहोत्रि ब्राह्मण भी थे। उनकी मण्डली में बैठकर सभी पांडवों ने उनसे अनेक तरह की बातचीत की। रात बीत गई। जब उन्होंने वन में जाने की तैयारी की। तब ब्राह्मणों ने पाण्डवों से कहा महात्माओं वन में बड़े-बड़े विघ्र और बाधाएं हैं। इसलिए आप लोगों को वहां बड़ा कष्ट होगा। इसलिए आप लोग उचित स्थान पर जाएं। हमें आप अपने पास रखने की कृपा कीजिए। हमारे पालन पोषण के लिए आपको चिंता की आवश्कता नहीं होगी। हम अपने-अपने भोजन की व्यवस्था कर लेंगे। वहां बड़े प्रेम से अपने इष्ट का ध्यान करेंगें। उससे आपका कल्याण होगा।
हर दुख का कारण यही है...
ब्राह्मणों की बात सुनकर धर्मराज युधिष्ठिर ने बहुत शोक प्रकट किया। वे उदास होकर जमीन पर बैठ गए। तब आत्मज्ञानी शौनक ने उनसे कहा राजन् अज्ञानी मनुष्यों को सामने प्रतिदिन सैकड़ों और हजारों शोक और भय के अवसर आया करते हैं, ज्ञानियों के सामने नहीं। आप जैसे सत्पुरुष ऐसे अवसरों से कर्मबंधन में नहीं पड़ते। वे तो हमेशा मुक्त ही रहते है। आपकी चित्तवृति, यम, नियम आदि अष्टांगयोग से पुष्ट है।
आपकी जैसी बुद्धि जिसके पास है उसे अन्न-वस्त्र के नाश से दुख नहीं होता। कोई भी शारीरिक या मानसिक दुख उसे नहीं सता सकता। जनक ने जगत को शारीरिक और मानसिक दुख से पीडि़त देखकर उसके लिए यह बात कही थी। आप उनके वचन सुनिए। शरीर के दुख: के चार कारण है- रोग, किसी दुख पहुंचाने वाली वस्तु का स्पर्श, अधिक परिश्रम और मनचाही वस्तु ना मिलना।
इन सभी बातों से मन में चिंता हो जाती है और मानसिक दुख ही शारीरिक दुख का कारण बन जाता है। लोहे का गरम गोला यदि घड़े के जल में डाल दिया जाए तो वह जल गरम हो जाता है। वैसे ही मानसिक पीड़ा से शरीर खराब हो जाता है। इसलिए जैसे आग को पानी से ठंडा किया जाता है। वैसे ही ज्ञान के द्वारा मन को शांत रखना चाहिए। मन का दुख मिट जाने पर शरीर का दुख मिट जाता है। मन के दुखी होने का कारण प्यार है। प्यार के कारण ही मनुष्य दुखों में फंसता चला जाता है।
द्रोपदी के खाने के बाद ही खाली होता था चमत्कारी पात्र क्योंकि...
शौनक जी ने युधिष्ठिर से कहा आप जैसे अच्छे लोग दूसरों को खिलाये बिना स्वयं खाने-पीने में संकोच करते हैं। जो लोग पापी होते हैं वे अपना पेट भरने के लिए दूसरों के हक का खा लेते हैं। जिस समय संस्कार मन के रुप में जागृत हो जाते हैं। संकल्प कामना उत्पन्न हो जाती है। अज्ञान के कारण कामनाएं, या इच्छाएं पूरी होने पर और ज्यादा बढऩे लगती है। कर्म करो और कर्म करके छोड़ दो ये दोनों ही बातें वेदों में लिखी गई है। शौनकजी का यह उपदेश सुनकर धर्मराज युधिष्ठिर अपने पुरोहित धौम्य के पास आ गए और अपने भाइयों के सामने ही उनसे कहने लगे- वेदों के बड़े-बड़े पारदर्शी ब्राह्मण मेरे सामथ्र्य नहीं है, इससे में बहुत दुखी हूं। न तो मैं उनका पालन पोषण नहीं कर सकता हूं।
ऐसी परिस्थिति में मुझे क्या करना चाहिए, आप कृपा करके यह बतलाइए। धर्मराज युधिष्ठिर का प्रश्र सुनकर पुरोहित धौम्य ने योगदृष्टी से कुछ समय तक इस विषय पर विचार किया। धर्मराज को संबोधन करके कहा धर्मराज सृष्टी प्रारंभ में जब सभी प्राणी भुख से व्याकुल हो रहे थे। तब भगवान सूर्य ने दया करके कहा धर्मराज सृष्टी के प्रारंभ में जब सभी प्राणी भुख से व्याकुल हो रहे थे। तब सूर्य ने पृथ्वी का रस खींचा। इस प्रकार जब उन्होंने क्षेत्र तैयार कर दिया तब चंद्रमा ने उसमें ओषधीयों का बीज डाला और उसी से अन्न व फल की उत्पति हुई। उसी अन्न से प्राणीयों ने अपनी भुख मिटायी। कहने का तात्पर्य यह है कि सूर्य की कृपा से अन्न उत्पन्न होता है।
सूर्य ही सब प्राणीयों की रक्षा करते हैं इसलिए तुम भगवान सूर्य की शरण में जाओ। पुरोहित धौम्य की बात सुनकर सूर्य की आराधना का तरीका बतलाते हुए कहा- मैं तुम्हे सूर्य के एक सौ आठ नाम बताता हूं तुम इन नामों का जप करना। भगवान सूर्य तुम पर कृपा करेंगे। धौम्य की बात सुनकर युधिष्ठिर ने सूर्य की आराधना प्रारंभ की। इस प्रकार युधिष्ठिर ने पूरी श्रृद्धा के साथ सूर्य की आराधना की और उनसे एक ऐसा पात्र प्राप्त किया वह पात्र अक्षय था यानी कभी खाली नहीं होता था। उन्होंने वह पात्र द्रोपदी को दे दिया। उसी से युधिष्ठिर ब्राहणों को भोजन करवाते थे। ब्राह्मणों के बाद सभी भाइयों को भोजन करवाने के बाद युधिष्ठिर भोजन करते और सबसे आखिरी में द्रोपदी भोजन करती थी।
सुखी रहने के लिए जरूरी है,अपने हक में ही संतुष्ट रहे
जब पांडव वन में चले गए तब धृतराष्ट्र को बहुत ङ्क्षचता होने लगी। धृतराष्ट्र ने विदुर को बुलाया और उनसे कहा - भाई विदुर तुम्हारी बुद्धि शुक्राचार्य जैसी शुद्ध है। तुम धर्म को बहुत अच्छे से समझते हो। कौरव और पांडव दोनों ही तुम्हारा सम्मान करते हैं। अब तुम कुछ ऐसा उपाय बताओं की जिससे दोनों का ही भला हो जाए। प्रजा किस प्रकार हम लोगों से प्रेम क रे। पाण्डव भी गुस्से में आकर हमें कोई हानि नहीं पहुंचाएं। ऐसा उपाय तुम बताओ। विदुरजी ने कहा अर्थ, धर्म और काम इन तीनों फल की प्राप्ति धर्म से ही होती है।राज्य की जड़ है धर्म आप धर्म की मर्यादा में रहकर अपने पुत्रों की रक्षा कीजिए। आपके पुत्रों की सलाह से आपने भरी सभा में उनका तिरस्कार किया है। उन्हें धोखे से हराकर वनवास दे दिया गया।
यह अधर्म हुआ। इसके निवारण का एक ही उपाय है कि आपने पांडवों का जो कुछ छीन लिया है, वह सब उन्हें दे दिया जाए। राजा का यह परम धर्म है कि वह अपने हक में ही संतुष्ट रहे, दूसरे का हक ना चाहे। जो उपाय मैंने बतलाया है उससे आपका कलंक भी हट जाएगा। भाई-भाई में फूट भी नहीं पढ़ेगी और अधर्म भी नहीं होगा।यह काम आपके लिए सबसे बढ़कर है कि आप पांडवों को संतुष्ट करें और शकुनि का अपमान करें। अगर आप अपने पुत्रों की भलाई चाहते हैं तो आपको जल्दी से जल्दी यह काम कर डालना चाहिए।
यदि आप मोहवश ऐसा नहीं करेंगे तो कुरुवंश का नाश हो जाएगा। युधिष्ठिर के मन में किसी तरह का रागद्वेष नहीं है इसलिए वे धर्मपूर्वक सभी पर शासन करें। इसके लिए यह जरूरी है कि आप युधिष्ठिर को संात्वना देकर राजगद्दी पर बैठा देना चाहिए। धृतराष्ट्र ने कहा तुम्हारा में इतना सम्मान करता हूं और तुम मुझे ऐसी सलाह दे रहे हो। तुम्हारी इच्छा हो तो यहां रहो वरना चले जाओ। धृतराष्ट्र की ऐसी दशा देखकर विदुर ने कहा कि कौरवकुल का नाश निश्चित है।
और धृतराष्ट्र बेहोश होकर गिर पड़ेजब विदुरजी हस्तिनापुर से पाण्डव के पास काम्यक वन में चले गए। तब विदुर के जाने के बाद धृतराष्ट्र को बहुत पश्चाताप हुआ। वे विदुर का प्रभाव उसकी नीति को याद करने लगे। उन्हें लगा इससे तो पाण्डवों का फायदा हो सकता है। यह सोचकर धृतराष्ट्र व्याकुल हो गए। भरी सभा में राजाओं के सामने ही मुच्र्छित होकर गिर पड़े।
जब होश आया तो उन्होंने उठकर संजय से कहा-संजय से कहा संजय मेरा प्यारा भाई विदुर मेरा परम हितैषी और धर्म की मुर्ति है। उसके बिना मेरा कलेजा फट रहा है। मैंने ही क्रोधवश होकर अपने निरापराध भाई को निकाल दिया है। तुम जल्दी जाकर उसे ले आओ। विदुर के बिना मैं जी नहीं बना सकता। धृतराष्ट्र की आज्ञा स्वीकार करके संजय ने काम्यक वन की यात्रा की।
काम्यक वन में पहुंचकर संजय ने देखा कि युधिष्ठिर अपने भाई और विदुरजी के साथ हजारों ब्राह्मणों के बीच में बैठे हुए है। संजय ने प्रणाम करके विदुरजी से कहा राजा धृतराष्ट्र आपकी याद कर रहे हैं। आप हस्तिनापुर चलिए वे आप से मिलना चाहते हैं। विदुर से मिलकर धृतराष्ट्र को बहुत खुशी है।उन्होंने कहा मेरे भाई तुम्हारा कोई जाने के बाद नींद नहीं आई। मैंने तुम्हारे साथ जो व्यवहार किया है उसके लिए तुम मुझे क्षमा कर दो। इस तरह विदुर फिर से हस्तिनापुर में रहने लगे।
कौरवों ने क्यों रचा पांडवों को जंगल में ही मार डालने का षडयंत्र?
जब दुर्योधन को यह समाचार मिला कि विदुरजी पाण्डवों के पास से लौट आए है,तब उसे बड़ा दुख: हुआ। उसने अपने मामा शकुनि, कर्ण, और दु:शासन को बुलाया। उसने उनसे कहा हमारे पिताजी के अंतरंग मन्त्री विदुर वन से लौटकर आ गए हैं। वे पिताजी ऐसी उल्टी सीधी बात समझाएंगें।
उनके ऐसे करने से पहले ही आप लोग कुछ ऐसा कीजिए। दुर्योधन की बात कर्ण समझ गया। उसने कहा क्यों ना हम वनवासी पाण्डवों को मार डालने के लिए वन चले। जब तक पाण्डव लडऩे भिडऩे के लिए उत्सुक नहीं हैं। असहाय है तभी उन पर विजय प्राप्त कर लेनी चाहिए। तभी हमारा कलह हमेशा के लिए समाप्त हो जाएगा। सभी ने एक स्वर में कर्ण की बात को स्वीकार किया। वे सभी गुस्से में आकर रथों पर सवार होकर जंगल की ओर चल दिए। जिस समय कौरव पाण्डवों का अनिष्ट करने के लिए पुरुष है।
उसी समय महर्षि वहां पहुंचे क्योंकि उन्हें अपनी दिव्यदृष्टी से पता चल गया कि कौरव पांडवों के बारे में षडयंत्र कर रहे थे। उन्होंने वहां जाकर कौरवों को ऐसा करने से रोक दिया। उसके बाद वे धृतराष्ट्र के पास पहुंचे। उनसे बोले धृतराष्ट्र मैं आपके हित की बात करता हूं। दुर्योधन ने कपट पूर्वक जूआ खेलकर पाण्डवों को हरा दिया। यह बात मुझे अच्छी नहीं लगी है। यह निश्चित है कि तेरह साल के बाद कौरवों के दिए हुए कष्टो को स्मरण करके पाण्डव बड़ा उग्ररूप धारण करेंगे और बाणों की बौछार से तुम्हारे पुत्रों का ध्वंस कर डालेंगे। यह कैसी बात हैकि दुर्योधन उनसे उनका राज्य तो छीन ही चुका है अब उन्हें मारने डालना चाहता है। यदि तुम अपने पुत्रों के मन से द्वेष मिटाने की कोशिश नहीं करोगे तो मैं तुम्हे समझा रहा हूं
क्यों मिला दुर्योधन को भीम के हाथों मरने का शाप?
व्यासजी की बात सुनकर धृतराष्ट्र ने कहा जो कुछ आप कह रहे है, वही तो मैं भी कहता हूं। यह बात सभी जानते हैं। आप कौरवों की उन्नति और कल्याण के लिए जो सम्मति दे रहे हैं वही विदुर, भीष्म, और द्रोणाचार्य भी देते हैं। यदि आप मेरे ऊपर अनुग्रह करते हैं। कुरुवंशियों पर दया करते हैं तो आप मेरे दुष्ट पुत्र दुर्योधन को ऐसी ही शिक्षा दें। व्यासजी ने कहा थोड़ी देर में ही महर्षि मैत्रेय यहां आ रहे है। वे पाण्डवों से मिलकर अब हम लोगों से मिलना चाहते हैं। वे ही तुम्हारे पुत्र को मेल-मिलाप का उपदेश देंगे। इस बात की सूचना मैं दे देता हूं कि वे जो कुछ कहे, बिना सोच-विचार के करना चाहिए।
अगर उनकी आज्ञा का उल्लंघन होगा तो वे क्रोध में आकर शाप भी दे सकते हैं। इतना कहकर वेदव्यास जी चले गए। महर्षि मैत्रेय के आते ही अपने पुत्रों के सहित उनकी सेवा व सत्कार करने लगे। विश्राम के बाद धृतराष्ट्र ने बड़ी विनय के साथ पूछा-भगवन आपकी यहां तक की यात्रा कैसी रही? पांचों पांडव कुशलपूर्वक तो हैं ना। तब मैत्रेयजी ने कहा राजन में तो तीर्थयात्रा करते हुए वहां संयोगवश काम्यक वन में युधिष्ठिर से भेट हो गई। वे आजकल तपोवन में रहते हैं। उनके दर्शन के लिए वहां बहुत से ऋषि-मुनि आते हैं। मैंने वहीं यह सुना कि तुम्हारे पुत्रों ने पाण्डवों को जूए में धोखे से हराकर वन भेज दिया। वहां से मैं तुम्हारे पास आया हूं क्योंकि मैं तुम पर हमेशा से ही प्रेम रखता हूं।
उन्होंने युधिष्ठिर से इतना कहकर पीछे मुड़ते हुए दुर्योधन से कहा तुम जानते हो पाण्डव कितने वीर और शक्तिशाली है। तुम्हे उनकी शक्ति का अंदाजा नहीं है शायद इसलिए तुम ऐसी बात कर रहे हो। इसलिए तुम्हे उनके साथ मेल कर लेना चाहिए मेरी बात मान लो। गुस्से में ऐसा अनर्थ मत करो। महर्षि मैत्रेय की बात सुनकर दुर्योधन मुस्कुराकर पैर से जमीन कुरेदने लगे और अपनी जांघ पर हाथ से ताल ठोकने लगा। दुर्योधन की यह उद्दण्डता देखकर महर्षि को क्रोध आया। तब उन्होंने दुर्योधन को शाप दिया। तू मेरा तिरस्कार करता है और मेरी बात नहीं मानता। तेरे इस काम के कारण पाण्डवों से कौरवों का घोर युद्ध होगा और भीमसेन की गदा की चोट तेरी टांग तोड़ेगी।
क्या किया अर्जुन ने जब कृष्ण को आ गया गुस्सा?
चेदि देश के धृष्टकेतु और केकय देश के सगे संबंधियो को यह समाचार मिला कि पाण्डव बहुत दुखी होकर राजधानी से चले गए और काम्यक वन में निवास कर रहे हैं, तब वे कौरवों पर बहुत चिढ़कर गुस्से के साथ उनकी निंदा करते हुए अपना कर्तव्य निश्चय करने के लिए पाण्डवों के पास गए।
सभी क्षत्रिय भगवान श्रीकृष्ण को अपना नेता बनाकर धर्र्मराज युधिष्ठिर के चारों और बैठ गए। भगवान श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को नमस्कार कर कहा- राजाओं अब यह निश्चित हो गया कि पृथ्वी अब दुरात्माओं का खुन पीएगी। यह धर्म है कि जो मनुष्य किसी को धोखा देकर सुख भोग कर रहा हो उसे मार डालना चाहिए।
अब हम लोग इकट्ठे होकर कौरवों और उनके सहायकों को युद्ध में मार डालें तथा धर्मराज युधिष्ठिर का राजसिंहासन पर अभिषेक करें। अर्जुन ने देखा कि हम लोगों का तिरस्कार होने के कारण भगवान श्रीकृष्ण क्रोधित हो गए है और अपना कालरूप प्रकट करना चाहते हैं। तब उन्होंने श्रीकृष्ण को शांत करने के लिए उनकी स्तुति की। अर्जुन ने कहा -श्रीकृष्ण आप सारे प्राणियों के दिल में विद्यमान अंर्तयामी आत्मा आप ही है। आप आपने अंहकार रूप भौमासुर को मारकर मणि के दोनों कुंडल इन्द्र को दिए और इन्द्र को इन्द्रत्व भी आपने ही दिया।
आपने जगत के उद्धार के लिए ही मनुष्यों में अवतार लिया। आप ही नारायण और हरि के रूप में प्रकट हुए थे। तब भगवान कृष्ण ने कहा अर्जुन तुम एकमात्र मेरे हो । जो मेरे हैं वे तुम्हारे हैं और जो तुम्हारे हैं वे मेरे। तुम मुझसे अभिन्न हो और हम दोनों एक-दूसरे के स्वरूप हैं।
मनुष्य पाप इसलिए करता है क्योंकि...
एक दिन शाम के समय पांडव कुछ दुखी से होकर द्रोपदी के साथ बैठकर बातचीत कर रहे थे। द्रोपदी कहने लगी- सचमुच दुर्योधन बड़ा क्रूर है। उसने हम लोगों को धोखे से वनवास पर भेज दिया। उसने एक तो जूए को धोखे से जीत लिया। आप जैसे धर्मात्माओं को उसने सभी में इतना भला-बुरा कहा। जब मैं आप लोगों को ये वनवास के कष्ट झेलते हुए देखती हूं तो मुझे बहुत दुख होता है।
आपके महल में रोज हजारो ब्राह्मण अपनी इच्छानुसार भोजन कराया जाता था। आज हम लोग फल-मूल खाकर अपनी जिंदगी बिता रहे हैं। भीमसेन अकेले ही रणभूमि में सब कौरवों को मार डालने की क्षमता रखते हैं लेकिन आप लोगों का रुख देखकर मन मसोस कर रह जाते हैं। आप सभी को इस तरह दुखी देखकर मेरा मन दुखी हो रहा है।
राजा द्रुपद की पुत्री, महात्मा पाण्डु की पुत्रवधू मैं आज वन में भटक रही हूं। द्रोपदी ने फिर कहा पहले जमाने में राजा बलि ने अपने पितामाह प्रहलाद से पूछा था कि पितामह। क्षमा उत्तम है या क्रोध? आप कृपा करके मुझे ठीक-ठीक समझाइए।युधिष्ठिर ने कहा द्रोपदी मनुष्य क्रोध के वश में न होकर क्रोध को अपने वश में करना चाहिए। जिसने क्रोध पर विजय प्राप्त कर ली। उसका कल्याण हो जाता है। क्रोध के कारण ही मनुष्य पाप करता है। उसे इस बात का पता नहीं चलता कि क्या करना चाहिए क्या नहीं?इसलिए क्रोध से बड़ी क्षमा होती है।
क्योंकि हमारे हाथ में कुछ भी नहीं है
द्रोपदी ने युधिष्ठिर से कहा आपमें और आपके महाबली भाइयों में प्रजापालन करने योग्य सभी गुण हैं। आप लोग दुख: भोगने योग्य नहीं है। फिर भी आपको यह कष्ट सहना पड़ रहा है। आपके भाई राज्य के समय तो धर्म पर प्रेम रखते ही थे। इस दीन-हीन दशा में भी धर्म से बढ़कर किसी से प्रेम नहीं करते। ये धर्म को अपने प्राणों से भी श्रेष्ठ मानते हैं। यह बात ब्राह्मण, देवता और गुरु सभी जानते हैं कि आपका राज्य धर्म के लिए भीमसेन , अर्जुन, नकुल, सहदेव और मुझे भी त्याग सकते हैं।मैंने अपने गुरुजनों से सुना है कि यदि कोई अपने धर्म की रक्षा करें तो वह अपने रक्षक की रक्षा करता है। आप जब पृथ्वी के चक्रवर्ती सम्राट हो गए थे।
उस समय भी आपने छोटे-छोटे राजाओं का अपमान नहीं किया। आपमें सम्राट बनने का अभिमान बिल्कुल नहीं था। आपने साधु, सन्यासी और गृहस्थों की सारी आवश्यकताएं पूर्ण की थी। लेकिन आपकी बुद्धि ऐसी उल्टी हो गई कि आपने राज्य, धन, भाई और यहां तक की मुझे भी दावं पर लगा दिया। आपकी इस आपत्ति-विपत्ति को देखकर मेरे मन में बहुत वेदना हुई। मैं बेहोश सी हो जाती हूं। ईश्वर हर व्यक्ति को अपने पूर्वजन्म के कर्मबीज के अनुसार उनके सुख-दुख, प्रिय व अप्रिय वस्तुओं की व्यवस्था करता है। जैसे कठपुतली सूत्रधार के अनुसार नाचती है, वैसे ही सारी प्रजा ईश्वर के अनुसार नाच रही है। सारे जीव कठपुतली के समान ही है सभी ईश्वर के अधीन है कोई भी स्वतंत्र नहीं है।
किससे डरते थे युधिष्ठिर?
पाण्डवों ने आगे बढ़कर वेदव्यासजी का स्वागत किया। उन्होंने व्यासजी को आसन पर बैठाकर विधिपूर्वक उनकी पूजा की। वेदव्यास जी ने युधिष्ठिर से कहा कि प्रिय युधिष्ठिर- मैं तुम्हारे मन की सब बात जानता हूं। इसीलिए इस समय तुम्हारे पास आया हूं। तुम्हारे मन में भीष्म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, कर्ण का जो भय है उसका मैं रीति से विनाश करूंगा। तुम मेरा बतलाया हुआ उपाय करो। तुम्हारे मन से सारा दुख अपने आप मिट जाएगा।
यह कहकर वेदव्यास युधिष्ठिर को एकांत में ले गए और बोले युधिष्ठिर तुम मेरे शिष्य हो, इसलिए मैं तुम्हे यह मूर्तिमान सिद्धि के समान प्रतिस्मृति नाम की विद्या सिखा देता हूं। तुम यह विद्या अर्जुन को सिखा देना, इसके बल से वह तुम्हारा राज्य शत्रुओं के हाथ से छीन लेगा। अर्जुन तपस्या तथा पराक्रम के द्वारा देवताओं के दर्शन की योग्यता रखता है। इसे कोई जीत नहीं सकता।
इसलिए तुम इसको अस्त्रविद्या प्राप्त करने के लिए भगवान शंकर, देवराज इन्द्र, वरूण, कुबेर और धर्मराज के पास भेजो। यह उनसे अस्त्र प्राप्त करके बड़ा पराक्रम करेगा। अब तुम लोगों को किसी दूसरे वन में जाना चाहिए क्योंकि किसी तपस्वी का लंबे समय तक एक स्थान पर रहना दुखदायी होता है। ऐसा कहकर वेदव्यास वहां से चले गए। युधिष्ठिर व्यासजी के उपदेश अनुसार मन्त्र का जप करने लगे। उनके मन में बहुत खुशी हुई।
क्रमश:...
जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......मनीष
महाभारत की कहानी जितनी बड़ी, रोचक और घटनाक्रमों वाली है, ऐसी कोई दूसरी कथा नहीं है। महाभारत हमें कर्म करने की शिक्षा देती है, इस कथा का मूल केंद्र कर्म ही है। यहां हर पात्र एक जिम्मेदारी से बंधा हुआ है और सारे पात्र आपसी रिश्तों में गूंथे हुए हैं। महाभारत की कथा शुरू होती है पांडवों के पड़पौते जनमजेय के नाग यज्ञ से।
अभिमन्यु के पुत्र राजा परीक्षित की मृत्यु के उपरांत उनके पुत्र जनमेजय राजा बने। राजा जनमेजय को पता चला की उनके पिता की मृत्यु तक्षक नाग के काटने से हुई है तो उन्होंने संपूर्ण नाग जाति से बदला लेने के लिए सर्प यज्ञ किया जिसमें सभी लोकों में रहने वाले खतरनाक सर्प आ-आकर गिरने लगे। तभी आस्तिक नामक ऋषि ने वहां आकर उस सर्पयज्ञ को रुकवाया तथा नागों की जाति को समाप्त होने से बचाया। यज्ञ के पश्चात जब राजा जनमेजय दरबार लगाकर बैठे थे वहां श्रीकृष्मद्वैपायन वेद व्यास आए। जनमेजय ने उनका विधिवत आदर सत्कार किया। तब राजा जनमेजय ने महर्षि वेद व्यास से कहा कि- आपने कौरवों और पाण्डवों को अपनी आंखों से देखा है। वे तो बड़े महात्मा थे फिर उन लोगों में अनबन का क्या कारण हुआ?
कुरुक्षेत्र में जो युद्ध तथा उसमें क्या-क्या घटनाएं घटीं। उनकी पूरी कहानी मुझे सुनना है। तब वेद व्यासजी ने अपने शिष्य वैशम्पायन से महाभारत की कथा जनमजेय को सुनाने को कहा। वैशम्पायन ने बताया कि महाभारत की कथा एक लाख श्लोकों में कही गई है। इसके श्रवण, कीर्तन से मनुष्य सारे पापों से छूट जाता है। इसमें भरतवंशियों के महान जन्म का वर्णन है इसलिए इसको महाभारत कहते हैं। भगवान श्रीकृष्मद्वैपायन ने तीन साल में इस रचना को पूरा किया है। यह ग्रंथ भारतीय संस्कृति की अमूल्य धरोहर है। महाभारत की कथा का आरंभ महर्षि वैशम्पायन ने यहीं से किया है।
जानिए, महाभारत में कौन किसका अवतार था...
महाभारत में जितने भी प्रमुख पात्र थे वे सभी देवता, गंधर्व, यक्ष, रुद्र, वसु, अप्सरा, राक्षस तथा ऋषियों के अंशावतार थे। भगवान नारायण की आज्ञानुसार ही इन्होंने धरती पर मनुष्य रूप में अवतार लिया था। महाभारत के आदिपर्व में इसका विस्तृत वर्णन किया गया है। उसके अनुसार-
वसिष्ठ ऋषि के शाप व इंद्र की आज्ञा से आठों वसु शांतनु के द्वारा गंगा से उत्पन्न हुए। उनमें सबसे छोटे भीष्म थे। भगवान विष्णु श्रीकृष्ण के रूप में अवतीर्ण हुए। महाबली बलराम शेषनाग के अंश थे। देवगुरु बृहस्पति के अंश से द्रोणाचार्य का जन्म हुआ जबकि अश्वत्थामा महादेव, यम, काल और क्रोध के सम्मिलित अंश से उत्पन्न हुए। रुद्र के एक गण ने कृपाचार्य के रूप में अवतार लिया। द्वापर युग के अंश से शकुनि का जन्म हुआ। अरिष्टा का पुत्र हंस नामक गंधर्व धृतराष्ट्र तथा उसका छोटा भाई पाण्डु के रूप में जन्में। सूर्य के अंश धर्म ही विदुर के नाम से प्रसिद्ध हुए। कुंती और माद्री के रूप में सिद्धि और धृतिका का जन्म हुआ था। मति का जन्म राजा सुबल की पुत्री गांधारी के रूप में हुआ था।
कर्ण सूर्य का अंशवतार था। युधिष्ठिर धर्म के, भीम वायु के, अर्जुन इंद्र के तथा नकुल व सहदेव अश्विनीकुमारों के अंश से उत्पन्न हुए थे। राजा भीष्मक की पुत्री रुक्मिणी के रूप में लक्ष्मीजी व द्रोपदी के रूप में इंद्राणी उत्पन्न हुई थी। दुर्योधन कलियुग का तथा उसके सौ भाई पुलस्त्यवंश के राक्षस के अंश थे। मरुदगण के अंश से सात्यकि, द्रुपद, कृतवर्मा व विराट का जन्म हुआ था। अभिमन्य, चंद्रमा के पुत्र वर्चा का अंश था। अग्नि के अंश से धृष्टधुम्न व राक्षस के अंश से शिखण्डी का जन्म हुआ था।
विश्वदेवगण द्रोपदी के पांचों पुत्र प्रतिविन्ध्य, सुतसोम, श्रुतकीर्ति, शतानीक और श्रुतसेव के रूप में पैदा हुए थे। दानवराज विप्रचित्ति जरासंध व हिरण्यकशिपु शिशुपाल का अंश था। कालनेमि दैत्य ने ही कंस का रूप धारण किया था। इंद्र की आज्ञानुसार अप्सराओं के अंश से सोलह हजार स्त्रियां उत्पन्न हुई थीं। इस प्रकार देवता, असुर, गंधर्व, अप्सरा और राक्षस अपने-अपने अंश से मनुष्य के रूप में उत्पन्न हुए थे।
इसलिए हमारे देश का नाम भारत पड़ा
हमारे देश का पुराना नाम आर्यावर्त था। पूरुवंश के राजा दुष्यंत के पुत्र भरत के नाम पर ही इसका नाम भारत पड़ा। पूरुवंश ही आगे जाकर भरतवंश कहलाया । कौरव तथा पांडव भरतवंशी थे।
पूरुवंश का प्रवर्तक राजा दुष्यंत था। उसके राज्य में सभी सुखी थे। एक दिन राजा दुष्यंत अपनी सेना के साथ वन में गया। वह वन अत्यंत ही सुंदर था। उसे वह एक आश्रम दिखाई दिया। दुष्यंत आश्रम में गया। आश्रम में उसे एक सुंदर स्त्री दिखाई दी। दुष्यंत ने उसका परिचय पूछा तो उसने अपना नाम शकुंतला बताया। शकुंतला ने बताया कि वह ऋषि विश्वामित्र व स्वर्ग की अप्सरा मेनका की पुत्री है, जिसे ऋषि कण्व ने पाला है। उसके रूप को देखकर दुष्यंत उस पर मोहित हो गया।
दुष्यंत ने शकुंतला से गंधर्व विवाह करने का प्रस्ताव रखा, जिसे उसने सहर्ष स्वीकार कर लिया। शकुंलता को ले जाने का भरोसा दिलाकर दुष्यंत पुन: अपने नगर में आ गया। इधर जब ऋषि कण्व आए तो उन्होंने अपनी दिव्य दृष्टि से सब जान लिया और इस विवाह को शास्त्रसम्मत बताया। समय आने पर शकुंतला ने एक पुत्र को जन्म दिया। उसका नाम भरत रखा। भरत अत्यंत ही पराक्रमी था। छः वर्ष की आयु में ही वह भयंकर जंगली प्राणियों के साथ खेलता था। जब भरत बड़ा हो गया तो ऋषि कण्व ने शकुंतला को भरत के साथ दुष्यंत के पास जाने को कहा।
शकुंतला भरत के साथ जब दुष्यंत के महल में पहुंची तो दुष्यंत ने उसे पहचानने से इंकार कर दिया तभी आकाशवाणी हुई कि भरत तुम्हारा ही पुत्र है इसे स्वीकार करो। तब दुष्यंत ने शकुंतला व भरत को स्वीकार कर लिया तथा समय आने पर भरत को युवराज बनाया। भरत बहुत न्यायप्रिय राजा थे। उन्होंने पूरे आर्यावर्त के विभिन्न राज्यों को एकजुट किया था।
क्यों बहाया गंगा ने अपने पुत्रों को नदी में ?
दुष्यंत व शकुंतला का पुत्र भरत चक्रवर्ती सम्राट बना। भरत के वंश में आगे जाकर प्रतीप नामक राजा हुए। प्रतीप के बाद उनके पुत्र शांतनु राजा हुए। एक बार शांतनु शिकार खेलते-खेलते गंगातट पर जा पहुंचे। उन्होंने वहां एक परम सुंदर स्त्री देखी। उसके रूप को देखकर शांतनु उस पर मोहित हो गए। शांतनु ने उसका परिचय पूछते हुए उसे अपनी पत्नी बनने को कहा। उस स्त्री ने इसकी स्वीकृति दे दी लेकिन एक शर्त रखी कि आप कभी भी मुझे किसी भी काम के लिए रोकेंगे नहीं अन्यथा उसी पल मैं आपको छोड़कर चली जाऊंगी।
शांतनु ने यह शर्त स्वीकार कर ली तथा उस स्त्री से विवाह कर लिया। इस प्रकार दोनों का जीवन सुखपूर्वक बीतने लगा। समय बीतने पर शांतनु के यहां सात पुत्रों ने जन्म लिया लेकिन सभी पुत्रों को उस स्त्री ने गंगा नदी में डाल दिया। शांतनु यह देखकर भी कुछ नहीं कर पाएं क्योंकि उन्हें डर था कि यदि मैंने इससे इसका कारण पूछा तो यह मुझे छोड़कर चली जाएगी।
आठवां पुत्र होने पर जब वह स्त्री उसे भी गंगा में डालने लगी तो शांतनु ने उसे रोका और पूछा कि वह यह क्यों कर रही है? उस स्त्री ने बताया कि वह गंगा है तथा जिन पुत्रों को उसने नदी में डाला था वे वसु थे जिन्हें वसिष्ठ ऋषि ने श्राप दिया था। उन्हें मुक्त करने लिए ही मैंने उन्हें नदी में प्रवाहित किया। आपने शर्त न मानते हुए मुझे रोका इसलिए मैं अब जा रही हूं। ऐसा कहकर गंगा शांतनु के आठवें पुत्र को लेकर अपने साथ चली गई।
किसने रोका था बाणों से गंगा का प्रवाह?
गंगा जब शांतनु के आठवे पुत्र को साथ लेकर चली गई तो राजा शांतनु बहुत उदास रहने लगे। इस तरह थोड़ा समय और बीत गया। शांतनु एक दिन गंगानदी के तट पर घूम रहे थे। वहां उन्होंने देखा कि गंगाजी में बहुत थोड़ा जल रह गया है और वह भी प्रवाहित नहीं हो रहा है। इस रहस्य का पता लगाने जब शांतनु आगे गए तो उन्होंने देखा कि एक सुंदर व दिव्य युवक अस्त्रों का अभ्यास कर रहा है और उसने अपने बाणों के प्रभाव से गंगा की धारा रोक दी है।
यह दृश्य देखकर शांतनु को बड़ा आश्चर्य हुआ। तभी वहां शांतनु की पत्नी गंगा प्रकट हुई और उन्होंने बताया कि यह युवक आपका आठवां पुत्र है। इसका नाम देवव्रत है। इसने वसिष्ठ ऋषि से वेदों का अध्ययन किया है तथा परशुरामजी से इसने समस्त प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों को चलाने की कला सीखी है। यह श्रेष्ठ धनुर्धर है तथा इंद्र के समान इसका तेज है। देवव्रत का परिचय देकर गंगा उसे शांतनु को सौंपकर चली गई। शांतनु देवव्रत को लेकर अपनी राजधानी में लेकर आए तथा शीघ्र ही उसे युवराज बना दिया। गंगापुत्र देवव्रत ने अपनी व्यवहारकुशलता के कारण शीघ्र प्रजा को अपना हितैषी बना लिया।
जब भीष्म ने ली भीषण प्रतिज्ञा
गंगापुत्र भीष्म महाभारत के प्रमुख पात्रों में से एक हैं। भीष्म का नाम पूर्व में देवव्रत था। उन्हें इच्छामृत्यु का वरदान प्राप्त था। देवव्रत का नाम भीष्म क्यों पड़ा इसकी कथा इस प्रकार है-
एक दिन राजा शांतनु यमुना नदी के तट पर घूम कर रहे थे। तभी उन्हें वहां एक सुंदर युवती दिखाई दी। परिचय पूछने पर उसने स्वयं को निषादकन्या सत्यवती बताया। उसके रूप को देखकर शांतनु उस पर मोहित हो गए तथा उसके पिता के पास जाकर विवाह का प्रस्ताव रखा। तब उस युवती के पिता ने शर्त रखी कि यदि मेरी कन्या से उत्पन्न संतान ही आपके राज्य की उत्तराधिकारी हो तो मैं इसका विवाह आपके साथ करने को तैयार हूं। यह सुनकर शांतनु ने निषादराज को इंकार कर दिया क्योंकि वे पहले ही देवव्रत को युवराज बना चुके थे।
इस घटना के बाद राजा शांतनु चुप से रहने लगे। देवव्रत ने इसका कारण जानना चाहा तो शांतनु ने कुछ नहीं बताया। तब देवव्रत ने शांतनु के मंत्री से पूरी बात जान ली तथा स्वयं निषादराज के पास जाकर पिता शांतनु के लिए उस युवती की मांग की। निषादराज ने देवव्रत के सामने भी वही शर्त रखी। तब देवव्रत ने प्रतिज्ञा लेकर कहा कि आपकी पुत्री के गर्भ से उत्पन्न महाराज शांतनु की संतान ही राज्य की उत्तराधिकारी होगी। तब निषादराज ने कहा यदि तुम्हारी संतान ने मेरी पुत्री की संतान को मारकर राज्य प्राप्त कर लिया तो क्या होगा? तब देवव्रत ने सबके सामने अखण्ड ब्रह्मचर्य की प्रतिज्ञा लीl देवव्रत की इस प्रतिज्ञा को सुन देवता पुष्पवर्षा करने लगे।
इसी भीषण प्रतिज्ञा के कारण ही देवव्रत का नाम भीष्म पड़ा।
भीष्म ने क्यों किया काशी के राजा की पुत्रियों का हरण?
भरतवंशी राजा शांतनु को पत्नी सत्यवती से दो पुत्र हुए- चित्रांगद और विचित्रवीर्य। दोनों ही बड़े होनहार व पराक्रमी थे। अभी चित्रांगद ने युवावस्था में प्रवेश भी नहीं किया था कि राजा शांतनु स्वर्गवासी हो गए। तब भीष्म में माता सत्यवती की सम्मति से चित्रांगद को राजगद्दी पर बैठाया। लेकिन कुछ समय तक राज करने के बाद ही उसी के नाम के गंधर्वराज चित्रांगद ने उसका वध कर दिया। तब भीष्म में विचित्रवीर्य को राजा बनाया।
जब भीष्म ने देखा कि विचित्रवीर्य युवा हो चुका है तो उन्होंने उसका विवाह करने का विचार किया। उन्हीं दिनों काशी के राजा की तीन कन्याओं का स्वयंवर भी हो रहा था। लेकिन काशी नरेश ने द्वेषतापूर्वक हस्तिनापुर को न्योता नहीं दिया। क्रोधित होकर भीष्म अकेले ही स्वयंवर में गए और वहां उपस्थित सभी राजाओं व काशी नरेश को हराकर उनकी तीनों कन्याओं अंबा, अंबिका व अंबालिका को हर लाए। तब काशी नरेश की बड़ी पुत्री अंबा ने भीष्म से कहा कि वह मन ही मन में राजा शाल्व को अपना पति मान चुकी है। यह बात जानकर भीष्म ने अंबा को उसके इच्छानुसार जाने की अनुमति दे दी तथा शेष दो कन्याओं का विवाह विचित्रवीर्य से कर दिया।
धृतराष्ट्र अंधे व पाण्डु पीले क्यों थे?
अंबिका व अंबालिका से विवाह होने के बाद विचित्रवीर्य दोनों पत्नियों के साथ प्रेम से रहने लगे। इस तरह सात वर्ष खुशी-खुशी बीत गए। लेकिन इसके बाद यौवनावस्था में ही विचित्रवीर्य को क्षय रोग हो गया। बहुत उपचार करने के बाद भी विचित्रवीर्य बिना संतान उत्पन्न किए ही स्वर्गवासी हो गए। तब हस्तिनापुर का सिंहासन खाली हो गया। तब माता सत्यवती ने भीष्म को कहा कि वे काशीनरेश की कन्याओं के द्वारा संतान उत्पन्न कर अपने वंश की रक्षा करें। तब भीष्म ने अपनी प्रतिज्ञा को न तोडऩे का संकल्प दोहराया।
भीष्म की प्रतिज्ञा सुनकर सत्यवती ने अपने पुत्र महर्षि वेदव्यास को बुलाया। महर्षि व्यास के आने पर सत्यवती ने उन्हें विचित्रवीर्य के क्षेत्र में संतान उत्पन्न करने के लिए कहा। माता की आज्ञा मानकर व्यासजी ने अंबिका से धृतराष्ट्र व अंबालिका से पाण्डु को उत्पन्न किया। जब अंबिका व्यासजी के पास गई तो उन्हें देखकर उसने अपनी आंखें बंद कर ली इसी कारण धृतराष्ट्र जन्म से ही अंधे हुए। अंबालिक जब व्यासजी के पास गई तो उन्हें देखकर उसका शरीर पीला हो गया। इसी कारण पाण्डु पीले व कमजोर हुए। तब अंबिका की प्रेरणा से उसकी दासी ने व्यासजी के द्वारा ही विदुर को उत्पन्न किया।
इस तरह धृतराष्ट्र, पाण्डु व विदुर से कुरुवंश आगे बढ़ा।
पाण्डु को ही क्यों बनाया गया राजा?
महर्षि वेदव्यास की कृपा से ही कुरुवंश में धृतराष्ट्र, पाण्डु और विदुर ने जन्म लिया। उन दिनों भीष्म बड़ी लगन से धर्म की रक्षा और राज्य का काम-काज देखते थे। धृतराष्ट्र, पाण्डु व विदुर के कार्य देखकर हस्तिनापुरवासियों को बड़ी प्रसन्नता होती थी। भीष्म बड़ी सावधानी से राजकुमारों की रक्षा करते थे। जब ये तीनों बड़े हुए तो भीष्म ने उनकी शिक्षा का उचित प्रबंध किया।
इस प्रकार धृतराष्ट्र, पाण्डु व विदुर तीनों ने ही अपने-अपने अधिकारानुसार अस्त्र व शास्त्रज्ञान का अध्ययन किया। पाण्डु की रुचि शस्त्र ज्ञान में अधिक थी वे श्रेष्ठ धनुर्धर थे और सबसे बलशाली थे धृतराष्ट्र, उनमें अनेक हाथियों का बल था। विदुर के समान धर्म को जानने वाला संसार में कोई और नहीं था। जब ये तीनों युवा हुए तो भीष्म ने सत्यवती की सम्मति से किसी एक को राज्य का भार सौंपने का विचार किया। धृतराष्ट्र जन्म से ही अंधे थे और विदुर दासी पुत्र, इसलिए वे दोनों राज्य के अधिकारी नहीं माने गए।
इस प्रकार सर्वसम्मति से पाण्डु को राज्य का अधिकारी माना गया। भीष्म ने बड़े उत्साह से पाण्डु का राज्याभिषेक किया।
गांधारी ने क्यों बांधी आंखों पर पट्टी?
पाण्डु के राज्याभिषेक के बाद भीष्म ने धृतराष्ट्र, पाण्डु व विदुर का विवाह करने का विचार किया। भीष्म ने सुना कि गांधारराज सुबल की पुत्री गांधारी सब लक्षणों से सम्पन्न है और उसने भगवान शंकर की आराधना कर सौ पुत्रों का वरदान भी प्राप्त किया है। तब भीष्म ने गांधारराज के पास धृतराष्ट्र के विवाह के लिए प्रस्ताव भेजा जिसे सुबल ने स्वीकार कर लिया। गांधारी को जब पता चला कि धृतराष्ट्र अंधे हैं तो उसने अपनी आंखों पर भी पट्टी बांध ली और जीवन भर इस प्रकार रहकर अपने पति की सेवा करने का निश्चय किया। इस तरह धृतराष्ट्र का विवाह गांधारी से हो गया।
यदुवंशी शूरसेन की पृथा नाम की कन्या थी। इस कन्या को शूरसेन ने अपनी बुआ के संतानहीन लड़के कुन्तीभोज को गोद दे दिया था। इस प्रकार पृथा कुंती के नाम से प्रसिद्ध हुई। कुंती जब विवाह योग्य हुई तो कुंतीभोज ने स्वयंवर का आयोजन किया जिसमें कुंती ने पाण्डु को जयमाला पहनाई। इस तरह पाण्डु का विवाह कुंती से हो गया। तब भीष्म ने पाण्डु के एक और विवाह करने का निश्चय किया तथा मद्रराज के राजा शल्य की बहन माद्री से पाण्डु का विवाह किया। पाण्डु कुंती व माद्री के साथ सुखपूर्वक रहने लगे।
इसके बाद भीष्म ने राजा देवक की दासीपुत्री जो गुणों में विदुर के समान ही थी, का विवाह विदुर से करवा दिया।
कर्ण को सूर्यपुत्र क्यों कहते हैं?
महाभारत में कई ऐसे पात्र हैं जो अलग-अलग बातों के लिए जानें जाते हैं। ऐसे ही एक पात्र हैं कर्ण, जो अपनी दानवीरता के लिए प्रसिद्ध हैं। कर्ण को सूर्यपुत्र भी कहते हैं। कर्ण के जन्म का पूरा वृतांत महाभारत के आदिपर्व में है।
यदुवंशी राजा शूरसेन की एक कन्या थी जिसका नाम पृथा था। इस कन्या को शूरसेन ने अपनी बुआ के संतानहीन पुत्र कुंतीभोज को दे दिया। इस प्रकार पृथा कुंती के नाम से प्रसिद्ध हुई। कुंती जब छोटी थी तो ऋषियों की सेवा करने में उसे बड़ा आनन्द आता था। एक बार कुंती ने महर्षि दुर्वासा की बड़ी सेवा की। जिससे प्रसन्न होकर दुर्वासा ने उसे एक मंत्र दिया और कहा कि इस मंत्र से तुम जिस देवता का आवाहन करोगी, उसी की कृपा से तुम्हें पुत्र उत्पन्न होगा। दुर्वासा ऋषि की बात सुनकर कुंती को बड़ा आश्चर्य हुआ।
उसने एकांत में जाकर भगवान सूर्य का आवाहन किया। सूर्यदेव ने आकर तत्काल कुंती को गर्भस्थापन किया, जिससे तेजस्वी कवच व कुंडल पहने एक सर्वांग सुंदर बालक उत्पन्न हुआ। उस समय कुंती कुंवारी थी इसलिए उसने कलंक के भय से उस बालक को छिपाकर नदी में बहा दिया। रथ चलाने वाले अधिरथ ने उसे निकाला और अपनी पत्नी राधा के पास ले जाकर उसे पुत्र बना लिया। उसका नाम
वसुषेण रखा गया। यही वसुषेण आगे जाकर कर्ण के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
कैसे हुआ कौरवों का जन्म ?
एक बार महर्षि वेदव्यास हस्तिनापुर आए। गांधारी ने उनकी बहुत सेवा की। जिससे प्रसन्न होकर उन्होंने गांधारी को वरदान मांगने को कहा। गांधारी ने अपने पति के समान ही बलवान सौ पुत्र होने का वर मांगा। समय पर गांधारी को गर्भ ठहरा और वह दो वर्ष तक पेट में ही रहा। इससे गांधारी घबरा गई और उसने अपना गर्भ गिरा दिया। उसके पेट से लोहे के समान एक मांस पिण्ड निकला।
महर्षि वेदव्यास ने अपनी योगदृष्टि से यह सब देख लिया और वे तुरंत गांधारी के पास आए। तब गांधारी ने उन्हें वह मांस पिण्ड दिखाया। महर्षि वेदव्यास ने गांधारी से कहा कि तुम जल्दी से सौ कुण्ड बनवाकर उन्हें घी से भर दो और सुरक्षित स्थान में उनकी रक्षा का प्रबंध कर दो तथा इस मांस पिण्ड पर जल छिड़को। जल छिड़कने पर उस मांस पिण्ड के एक सौ एक टुकड़े हो गए।
व्यासजी ने कहा कि मांस पिण्डों के इन एक सौ एक टुकड़ों को घी से भरे कुण्डों में डाल दो। अब इन कुण्डों को दो साल बाद ही खोलना। इतना कहकर महर्षि वेदव्यास तपस्या करने हिमालय पर चले गए। समय आने पर उन्हीं मांस पिण्डों से पहले दुर्योधन और बाद में गांधारी के 99 पुत्र तथा एक कन्या उत्पन्न हुई।
यह हैं धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों के नाम
महर्षि वेदव्यास के कथनानुसार गांधारी के पेट से निकले मांस पिण्ड से सौ पुत्र व एक पुत्री ने जन्म लिया। महाभारत के आदिपर्व के अनुसार उनके नाम यह हैं-
गांधारी का सबसे बड़ा पुत्र था दुर्योधन। उसके बाद दु:शासन, दुस्सह, दुश्शल, जलसंध, सम, सह, विंद, अनुविंद, दुद्र्धर्ष, सुबाहु, दुष्प्रधर्षण, दुर्मुर्षण, दुर्मुख, दुष्कर्ण, कर्ण, विविंशति, विकर्ण, शल, सत्व, सुलोचन, चित्र, उपचित्र, चित्राक्ष, चारुचित्र, शरासन, दुर्मुद, दुर्विगाह, विवित्सु, विकटानन, ऊर्णनाभ, सुनाभ, नंद, उपनंद, चित्रबाण, चित्रवर्मा, सुवर्मा, दुर्विमोचन, आयोबाहु, महाबाहु, चित्रांग, चित्रकुंडल, भीमवेग, भीमबल, बलाकी, बलवद्र्धन, उग्रायुध, सुषेण, कुण्डधार, महोदर, चित्रायुध, निषंगी, पाशी, वृंदारक, दृढ़वर्मा, दृढ़क्षत्र, सोमकीर्ति, अनूदर, दृढ़संध, जरासंध, सत्यसंध, सद:सुवाक, उग्रश्रवा, उग्रसेन, सेनानी, दुष्पराजय, अपराजित, कुण्डशायी, विशालाक्ष, दुराधर, दृढ़हस्त, सुहस्त, बातवेग, सुवर्चा, आदित्यकेतु, बह्वाशी, नागदत्त, अग्रयायी, कवची, क्रथन, कुण्डी, उग्र, भीमरथ, वीरबाहु, अलोलुप, अभय, रौद्रकर्मा, दृढऱथाश्रय, अनाधृत्य, कुण्डभेदी, विरावी, प्रमथ, प्रमाथी, दीर्घरोमा, दीर्घबाहु, महाबाहु, व्यूढोरस्क, कनकध्वज, कुण्डाशी और विरजा।
गांधारी की पुत्री का नाम दुश्शला था जिसका विवाह राजा जयद्रथ के साथ हुआ था।
ऋषि किंदम ने क्यों दिया पाण्डु को श्राप?
राजा पाण्डु एक बार वन में घूम रहे थे। तभी उन्हें हिरनों का एक जोड़ा दिखाई दिया। पाण्डु ने निशाना साधकर उन पर पांच बाण मारे, जिससे हिरन घायल हो गए। वास्तव में वह हिरन किंदम नामक एक ऋषि थे जो अपनी पत्नी के साथ विहार कर रहे थे। तब किंदम ऋषि ने अपने वास्तविक स्वरूप में आकर पाण्डु को श्राप दिया कि तुमने अकारण मुझ पर और मेरी तपस्नी पत्नी पर बाण चलाए हैं जब हम विहार कर रहे थे। अब तुम जब भी अपनी पत्नी के साथ सहवास करोगे तो उसी समय तुम्हारी मृत्यु हो जाएगी तथा वह पत्नी तुम्हारे साथ सती हो जाएगी। इतना कहकर किंदम ऋषि ने अपनी पत्नी के साथ प्राण त्याग दिए। ऋषि की मृत्यु होने पर पाण्डु को बहुत दु:ख हुआ। ऋषि की मृत्यु का प्रायश्चित करने के उद्देश्य से पाण्डु ने सन्यास लेने का विचार किया। जब कुंती व माद्री को यह पता चला तो उन्होंने पाण्डु को समझाया कि वानप्रस्थाश्रम में रहते हुए भी आप प्रायश्चित कर सकते हैं। पाण्डु को यह सुझाव ठीक लगा और उन्होंने वन में रहते हुए ही तपस्या करने का निश्चय किया। पाण्डु ने ब्राह्मणों के माध्यम से यह संदेश हस्तिनापुर भी भेजा। यह सुनकर हस्तिनापुरवासियों को बड़ा दु:ख हुआ। तब भीष्म ने धृतराष्ट्र को राजा बना दिया। उधर पाण्डु अपनी पत्नियों के साथ गंधमादन पर पर्वत पर जाकर ऋषिमुनियों के साथ साधना करने लगे।
जब कुंती ने पाण्डु को बताया मंत्र का रहस्य
ऋषि किंदम के श्राप के कारण पाण्डु वानप्रस्थाश्रम के अनुसार कुंती व माद्री के साथ गंदमादन पर्वत पर रहने लगे। पाण्डु वहां रहते हुए प्रतिदिन तप किया करते और कुंती व माद्री उनकी सेवा करती थी। एक बार पाण्डु ने देखा कि बड़े-बड़े ऋषि-महर्षि कहीं जा रहे थे। पाण्डु के पूछने पर उन्होंने बताया कि वे ब्रह्माजी के दर्शन के लिए ब्रह्मलोक की यात्रा कर रहे हैं। यह बात जानकर पाण्डु भी अपनी पत्नियों के साथ उनके पीछे चलने लगे। लेकिन फिर पाण्डु ने सोचा कि संतानहीन के लिए तो स्वर्ग के द्वार बंद है। यह सोचकर वे सोच में पड़ गए।
तब ऋषियों ने दिव्य दृष्टि से देखकर बताया कि पाण्डु आपके देवताओं के समान पुत्र होंगे और तब आप स्वर्ग जा सकेंगे। किंतु पाण्डु यह जानते थे कि किंदम ऋषि के श्राप के कारण वे सहवास नहीं कर सकते। इसी सोच में पाण्डु एक दिन बैठे थे तभी कुंती वहां आई और उसने पाण्डु से परेशानी का कारण पूछा। पाण्डु ने सारी बात कुंती को बता दी। तब कुंती ने पाण्डु को बताया कि बालपन में मैंने दुर्वासा ऋषि की खूब सेवा की थी जिससे प्रसन्न होकर उन्होंने मुझे एक मंत्र दिया था जिसके स्मरण से मैं किसी भी देवता का आवाहन कर सकती हूं और उसी की कृपा से मुझे संतान उत्पन्न होगी। यह बात सुनकर पाण्डु अत्यंत प्रसन्न हुए।
कैसे हुआ पाण्डवों का जन्म?
ऋषि किंदम की मृत्यु का प्रायश्चित करने के लिए जब पाण्डु कुंती व माद्री के साथ वन में रहने लगे तो उन्हें संतान न होने की चिंता सताने लगी। जब यह बात कुंती को पता चली तो उन्होंने पाण्डु को ऋषि दुर्वासा द्वारा दिए मंत्र की बात बताई। यह जानकर पाण्डु अत्यंत प्रसन्न हुए।तब पाण्डु ने कुंती से कहा कि तुम धर्मराज (यमराज) का आवाहन करो। कुंती ने धर्मराज का आवाहन किया। मंत्र के प्रभाव से धर्मराज तुरंत वहां उपस्थित हुए और उनके आशीर्वाद से कुंती को गर्भ रहा। समय आने पर कुंती ने युधिष्ठिर को जन्म दिया।
इसके बाद कुंती ने पाण्डु की इच्छानुसार वायुदेव का स्मरण किया। वायुदेव की कृपा से महाबली भीम का जन्म हुआ। इसके बाद कुंती ने देवराज इंद्र का आवाहन किया। इंद्र की कृपा से अर्जुन का जन्म हुआ। तभी आकाशवाणी हुई कि यह बालक भगवान शंकर व इंद्र के समान पराक्रमी होगा। यह अनेक राजाओं को पराजित कर तीन अश्वमेध यज्ञ करेगा। तब एक दिन पाण्डु ने कुंती से कहा कि तुम वह मंत्र जो तुम्हें ऋषि दुर्वासा ने दिया है, माद्री को भी बताओ जिससे यह भी पुत्रवती हो सके।
कुंती ने माद्री को वह मंत्र बताया। तब माद्री ने अश्विनकुमारों का चिंतन किया। अश्विनकुमारों ने आकर माद्री को गर्भस्थापन किया, जिससे माद्री को जुड़वा पुत्र नकुल व सहदेव हुए। इस प्रकार कुंती के गर्भ से युधिष्ठिर, भीम व अर्जुन तथा माद्री से गर्भ से नकुल व सहदेव का जन्म हुआ। तब पाण्डु अपने पुत्रों व पत्नियों के साथ वन में प्रसन्नतापूर्वक रहने लगे।
क्यों हुई महाराज पाण्डु की मौत... ?
पाण्डवों के जन्म के पश्चात पाण्डु अपने पत्नियों के साथ तपस्वियों की तरह जीवन व्यतीत कर रहे थे। एक दिन जब पाण्डु व माद्री अकेले वन में घुम रहे थे तभी पाण्डु के मन में कामभाव का संचार हो गया और उन्होंने माद्री को बलपूर्वक पकड़ लिया। माद्री ने पाण्डु को रोकने की कोशिश की लेकिन तब तक ऋषि किंदम के श्राप के प्रभाव से पाण्डु ने प्राण त्याग दिए। माद्री यह देखकर रोने लगी। तभी वहां कुंती व पांचों पाण्डव भी आ गए। तब माद्री ने सारी बात कुंती को बताई तो वे भी पाण्डु के शव से लिपटकर विलाप करने लगीं।जब पाण्डु के अंतिम संस्कार का समय आया तो कुंती पाण्डु के साथ सती होने लगी तभी माद्री ने कुंती को रोका और स्वयं सती होने का हठ करने लगी तथा पाण्डु की चिता पर चढ़ कर सती हो गई।
पाण्डु की मृत्यु के बाद वन में रहने वाले साधुओं ने विचार किया कि पाण्डु के पुत्रों, अस्थि तथा पत्नी को हस्तिनापुर भेज देना ही उचित है। इस प्रकार समस्त ऋषिगण हस्तिनापुर आए और उन्होंने पाण्डु पुत्रों के जन्म और पाण्डु की मृत्यु के संबंध में पूरी बात भीष्म, धृतराष्ट्र आदि को बताई। पाण्डु की मृत्यु के कुछ दिन बाद महर्षि वेदव्यास हस्तिनापुर आए और उन्होंने विपरीत समय आता देख माता सत्यवती तथा अंबिका व अंबालिका को वन में जाने का निवेदन किया। तब वे तीनों वन में चली गई और तप करते हुए अपने शरीर का त्याग कर दिया।
जब दुर्योधन ने भीम को विष पिलाया
हस्तिनापुर में आने के बाद पाण्डवों को वैदिक संस्कार सम्पन्न हुए। पाण्डव तथा कौरव साथ ही खेलने लगे। दौडऩे में, निशाना लगाने तथा कुश्ती आदि सभी खेलों में भीम सभी धृतराष्ट्र पुत्रों को हरा देते थे। भीमसेन कौरवों से होड़ के कारण ही ऐसा करते थे लेकिन उनके मन में कोई वैर-भाव नहीं था। परंतु दुर्योधन के मन में भीमसेन के प्रति दुर्भावना पैदा हो गई। तब उसने उचित अवसर मिलते ही भीम को मारने का विचार किया।
दुर्योधन ने एक बार खेलने के लिए गंगा तट पर शिविर लगवाया। उस स्थान का नाम रखा उदकक्रीडन। वहां खाने-पीने इत्यादि सभी सुविधाएं भी थीं। दुर्योधन ने पाण्डवों को भी वहां बुलाया। एक दिन मौका पाकर दुर्योधन ने भीम के भोजन में विष मिला दिया। विष के असर से जब भीम अचेत हो गए तो दुर्योधन ने दु:शासन के साथ मिलकर उसे गंगा में डाल दिया। भीम इसी अवस्था में नागलोक पहुंच गए। वहां सांपों ने भीम को खूब डंसा जिसके प्रभाव से विष का असर कम हो गया। जब भीम को होश आया तो वे सर्पों को मारने लगे। सभी सर्प डरकर नागराज वासुकि के पास गए और पूरी बात बताई।
तब वासुकि स्वयं भीमसेन के पास गए। उनके साथ आर्यक नाग ने भीम को पहचान लिया। आर्यक नाग भीम के नाना का नाना था। वह भीम से बड़े प्रेम से मिले। तब आर्यक ने वासुकि से कहा कि भीम को उन कुण्डों का रस पीने की आज्ञा दी जाए जिनमें हजारों हाथियों का बल है। वासुकि ने इसकी स्वीकृति दे दी। तब भीम आठ कुण्ड पीकर एक दिव्य शय्या पर सो गए।
जब भीम सकुशल हस्तिनापुर लौट आए
जब दुर्योधन ने भीम को विष देकर गंगा में फेंक दिया तो उसे बड़ा हर्ष हुआ। शिविर के समाप्त होने पर सभी कौरव व पाण्डव भीम के बिना ही हस्तिनापुर के लिए रवाना हो गए। पाण्डवों ने सोचा कि भीम आगे चले गए होंगे। जब सभी हस्तिनापुर पहुंचे तो युधिष्ठिर ने माता कुंती से भीम के बारे में पूछा। तब कुंती ने भीम के न लौटने की बात कही। सारी बात जानकर कुंती व्याकुल हो गई तब उन्होंने विदुर को बुलाया और भीम को ढूंढने के लिए कहा। तब विदुर ने उन्हें सांत्वना दी और सैनिकों को भीम को ढूंढने के लिए भेजा।
उधर नागलोक में भीम आठवें दिन रस पच जाने पर जागे। तब नागों ने भीम को गंगा के बाहर छोड़ दिया। जब भीम सही-सलामत हस्तिनापुर पहुंचे तो सभी को बड़ा संतोष हुआ। तब भीम ने माता कुंती व अपने भाइयों के सामने दुर्योधन द्वारा विष देकर गंगा में फेंकने तथा नागलोक में क्या-क्या हुआ, यह सब बताया। युधिष्ठिर ने भीम से यह बात किसी और को नहीं बताने के लिए कहा। इसके बाद भी दुर्योधन ने कई बार भीम को मारने का षडय़ंत्र रचा लेकिन वह कामयाब नहीं हो पाया।
पाण्डव सबकुछ जानकर भी विदुर की सलाह के अनुसार चुप ही रहे। जब धृतराष्ट्र ने देखा कि सभी राजकुमार खेल-कूद में ही लगे रहते हैं तो उन्होंने कृपाचार्य को उन्हें शिक्षा देने के लिए निवेदन किया। इस तरह कौरव व पाण्डव कृपाचार्य से धनुर्वेद की शिक्षा प्राप्त करने लगे।
कौन थे कृपाचार्य ?
कृपाचार्य महाभारत के प्रमुख पात्रों में से एक थे। उनके जन्म के संबंध में पूरा वर्णन महाभारत के आदिपर्व में मिलता है। उसी के अनुसार-महर्षि गौतम के पुत्र थे शरद्वान। वे बाणों के साथ ही पैदा हुए थे। उनका मन धनुर्वेद में जितना लगता था, उतना पढ़ाई में नहीं लगता था। उन्होंने तपस्या करके सारे अस्त्र-शस्त्र प्राप्त किए। शरद्वान की घोर तपस्या और धनुर्वेद में निपुणता देखकर इंद्र बहुत भयभीत हो गया। उसने शरद्वान की तपस्या में विघ्न डालने के लिए जानपदी नाम की देवकन्या भेजी। वह शरद्वान के आश्रम में आकर उन्हें लुभाने लगी। उस सुंदरी को देखकर शरद्वान के हाथों से धनुष-बाण गिर गए। वे बड़े संयमी थे तो उन्होंने स्वयं को रोक लिया।
लेकिन उनके मन में विकार आ गया था इसलिए अनजाने में ही उनका शुक्रपात हो गया। उन्होंने धनुष, बाण, आश्रम और उस सुदंरी को छोड़कर तुरंत वहां से यात्रा कर दी। उनका वीर्य सरकंडों पर गिरा था इसलिए वह दो भागों में बंट गया। उससे एक कन्या और एक पुत्र की उत्पत्ति हुई। उसी समय संयोग से राजा शांतनु वहां से गुजरे। उनकी नजर उस बालक व बालिका पर पड़ी। शांतनु ने उन्हें उठा लिया और अपने साथ ले आए। बालक का नाम रखा कृप और बालिका का नाम रखा कृपी। जब शरद्वान को यह बात मालूम हुई तो वे राजा शांतनु के पास आए और उन बालकों के नाम, गोत्र आदि बतलाकर चारों प्रकार के धनुर्वेदों, विविध शास्त्रों और उनके रहस्यों की शिक्षा दी।
थोड़े ही दिनों में कृप सभी विषयों में पारंगत हो गए। अब कौरव और पाण्डव राजकुमार उनसे धनुर्वेद की शिक्षा लेने लगे। तब भीष्म ने सोचा कि इन राजकुमारों को दूसरे अस्त्रों का ज्ञान भी होना चाहिए। यह सोचकर उन्होंने राजकुमारों को द्रोणाचार्य को सौंप दिया।
कैसे हुआ द्रोणाचार्य का जन्म?
द्रोणाचार्य कौरव व पाण्डव राजकुमारों के गुरु थे। उनके पुत्र का नाम अश्वत्थामा था जो यम, काल, महादेव व क्रोध का अंशावतार था। द्रोणाचार्य का जन्म कैसे हुआ इसका वर्णन महाभारत के आदिपर्व में मिलता है-
एक समय गंगाद्वार नामक स्थान पर महर्षि भरद्वाज रहा करते थे। वे बड़े व्रतशील व यशस्वी थे। एक बार वे यज्ञ कर रहे थे। एक दिन वे महर्षियों को साथ लेकर गंगा स्नान करने गए। वहां उन्होंने देखा कि घृताची नामक अप्सरा स्नान करके जल से निकल रही है। उसे देखकर उनके मन में काम वासना जाग उठी और उनका वीर्य स्खलित होने लगा। तब उन्होंने उस वीर्य को द्रोण नामक यज्ञपात्र में रख दिया। उसी से द्रोणाचार्य का जन्म हुआ। द्रोण ने सारे वेदों का अध्ययन किया। महर्षि भरद्वाज ने पहले ही आग्नेयास्त्र की शिक्षा अग्निवेश्य को दे दी थी।
अपने गुरु भरद्वाज की आज्ञा से अग्निवेश्य ने द्रोणाचार्य को आग्नेयास्त्र की शिक्षा दी। द्रोणाचार्य का विवाह शरद्वान की पुत्री कृपी से हुआ था। कृपी के गर्भ से महाबली अश्वत्थामा का जन्म हुआ। उसने जन्म लेते ही उच्चै:श्रवा अश्व के समान गर्जना की थी इसलिए उसका नाम अश्वत्थामा था। अश्वत्थामा के जन्म से द्रोणाचार्य को बड़ा हर्ष हुआ। द्रोणाचार्य सबसे अधिक अपने पुत्र से ही स्नेह रखते
थे। द्रोणाचार्य ने ही उसे धनुर्वेद की शिक्षा भी दी थी।
जब राजा द्रुपद ने द्रोणाचार्य का अपमान किया
पृषत नामक एक राजा भरद्वाज मुनि के मित्र थे। द्रोणाचार्य के जन्म के समय ही उनके यहां भी द्रुपद नामक पुत्र पैदा हुआ। उसने भी भरद्वाज आश्रम में रहकर द्रोणाचार्य के साथ शिक्षा प्राप्त की। द्रोणाचार्य के साथ उसकी मित्रता हो गई। जब दोनों युवा हुए तो पृषत का निधन होने पर द्रुपद उत्तर पांचाल देश का राजा हुआ और द्रोणाचार्य आश्रम में रहकर तपस्या करने लगे।
आचार्य द्रोण को जब मालूम हुआ कि भगवान परशुराम ब्राह्मणों को अपना सर्वस्व दान कर रहे हैं तो वह भी भगवान परशुराम के पास पहुंचे। तब उन्होंने भगवान परशुराम से उनके सभी अस्त्र-शस्त्र उनके प्रयोग की विधि, रहस्य और उपसंहार की विधि मांग ली। अस्त्र-शस्त्र प्राप्त करके द्रोणाचार्य को बड़ी प्रसन्नता हुई। फिर वे अपने मित्र द्रुपद के पास गए। वहां राजा द्रुपद ने उनका बड़ा अपमान किया और बाल्यकाल की दोस्ती को मुर्खता बताया।
तब द्रोणाचार्य को बड़ा क्रोध आया। तब उन्होंने मन ही मन द्रुपद से इस अपमान का बदला लेने का निश्चय किया। इसके बाद द्रोणाचार्य कुरुवंश की राजधानी हस्तिनापुर में आ गए और कुछ दिनों तक गुप्त रूप से कृपाचार्य के घर पर रहे।
जब कौरव व पाण्डवों के गुरु बनें द्रोणाचार्य
एक दिन युधिष्ठिर आदि सभी राजकुमार नगर के बाहर मैदान में गेंद से खेल रहे थे। गेंद अचानक कुएं में गिर पड़ी। राजकुमारों ने उसे निकालने का प्रयत्न तो किया परंतु सफलता नहीं मिली। इसी समय उनकी दृष्टि पास ही बैठे एक ब्राह्मण पर पड़ी। उनकी शरीर दुर्बल और रंग सांवला था। राजकुमारों ने उनसे कुएं से गेंद निकालने का निवेदन किया। तब उस ब्राह्मण ने कहा कि तुम मेरे भोजन का प्रबंध कर दो और मैं तुम्हारी गेंद निकाल देता हूं।
ऐसा कहकर ब्राह्मण ने कुएं में एक अगूंठी डाली और फिर अभिमंत्रित सीकों से गेंद व अंगूठी दोनों निकाल लिए। यह देखकर राजकुमारों को बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने उस ब्राह्मण का परिचय जानना चाहा तो उन्होंने कहा कि तुम यह सब बात तुम्हारे पितामाह भीष्म से कहना वे मुझे पहचान जाएंगे। राजकुमारों ने सारी बात भीष्म को जाकर बताई तो वे तुरंत समझ गए कि वह ब्राह्मण कोई और नहीं बल्कि द्रोणाचार्य हैं।
उन्होंने सोचा कि राजकुमारों के लिए उनसे अच्छा गुरु कोई और नहीं हो सकता। ऐसा विचारकर भीष्म द्रोणाचार्य को ससम्मान हस्तिनापुर ले आए और कौरव व पाण्डव राजकुमारों की शिक्षा का भार उन्हें सौंप दिया। इस प्रकार द्रोणाचार्य भीष्म से सम्मानित होकर हस्तिनापुर में रहने लगे।
इसलिए द्रोणाचार्य का प्रिय शिष्य था अर्जुन
द्रोणाचार्य हस्तिनापुर में रहकर कौरव व पाण्डवों को विभिन्न अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा देने लगे लेकिन उनके मन में राजा द्रुपद से अपने अपमान का बदला लेने की भावना कम नहीं हुई। द्रोणाचार्य ने एक दिन अपने सभी शिष्यों को एकांत में बुलाया और पूछा कि अस्त्र शिक्षा समाप्त होने के बाद क्या तुम लोग मेरे मन की इच्छा पूरी करोगे। अन्य शिष्य तो चुप रहे लेकिन अर्जुन ने बड़े उत्साह से द्रोणाचार्य की इच्छा पूर्ण करने की प्रतिज्ञा की। यह देखकर द्रोणाचार्य बहुत प्रसन्न हुए।
द्रोणाचार्य अपने शिष्यों को तरह-तरह के दिव्य अस्त्रों की शिक्षा देने लगे। उस समय उनके शिष्यों में यदुवंशी तथा दूसरे देश के राजकुमार भी थे। सूतपुत्र के नाम से प्रसिद्ध कर्ण भी वहीं शिक्षा पा रहा था। धनुर्विद्या में अर्जुन की विशेष रूचि थी इसलिए वे समस्त शस्त्रों के प्रयोग और उपसंहार की विधियां शीघ्र ही सीख गए। एक दिन जब भोजन करते समय तेज हवा के कारण दीपक बुझ गया। अंधकार में भी हाथ को बिना भटके मुंह के पास जाते देखकर अर्जुन ने समझ लिया कि निशाना लगाने के लिए प्रकाश की आवश्यकता नहीं, केवल अभ्यास की है।
एक बार रात में अर्जुन की प्रत्यंचा की टंकार सुनकर द्रोणाचार्य उनके पास गए और उनकी लगन देखकर सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर होने का आशीर्वाद दिया।
द्रोणाचार्य ने एकलव्य से उसका अंगूठा ही क्यों मांगा?
जब द्रोणाचार्य कौरव व पाण्डव राजकुमारों को अस्त्रों की शिक्षा दे रहे थे तब एक दिन निषादपति हिरण्यधनु का पुत्र एकलव्य भी अस्त्र शिक्षा प्राप्त करने के लिए द्रोणाचार्य के पास आया लेकिन निषाद जाति का होने के कारण द्रोणाचार्य ने उसे मना कर दिया। तब एकलव्य ने वन में जाकर द्रोणाचार्य की एक मिट्टी की मूर्ति बनाई और उसी में आचार्य भाव रखकर नियमित रूप से अस्त्र चलाने का अभ्यास करने लगा।
एक बार सभी राजकुमार द्रोणाचार्य की अनुमति से शिकार खेलने के लिए वन में गए। राजकुमारों के साथ एक कुत्ता भी था। वह कुत्ता घुमता-फिरता वहां पहुंच गया जहां एकलव्य अभ्यास कर रहा था। उसे देखकर कुत्ता भौंकने लगा। तब एकलव्य ने उस कुत्ते के मुंह को तीरों से भर दिया। कुत्ता उसी अवस्था में राजकुमारों के पास आया। यह दृश्य देखकर राजकुमारों को बड़ा आश्चर्य हुआ। राजकुमारों ने एकलव्य को ढूंढ लिया और उसके गुरु का नाम पूछा तो उसने द्रोणाचार्य को अपना गुरु बताया।
तब सभी राजकुमार द्रोणाचार्य के पास गए और पूरी बात उन्हें बताई। द्रोणाचार्य ने सोचा कि यदि एकलव्य सचमुच धनुर्विद्या में इतना पारंगत हो गया है तो फिर अर्जुन को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनाने का उनका वचन झूठा हो जाएगा। तब द्रोणाचार्य वन में गए और एकलव्य से मिले। द्रोणाचार्य ने एकलव्य से कहा कि यदि तू मुझे सचमुच अपना गुरु मानता है तो मुझे गुरुदक्षिणा दे। ऐसा कहकर उन्होंने एकलव्य से उसके दाहिने हाथ का अंगूठा मांग लिया। एकलव्य ने हंसते-हंसते द्रोणाचार्य को अपने अंगूठा काटकर दे दिया।
एकलव्य की गुरुभक्ति देखकर द्रोणाचार्य अतिप्रसन्न हुए लेकिन अंगूठा कटने से एकलव्य के बाण चलाने में वह सफाई और फुर्ती नहीं रही।
जब द्रोणाचार्य ने ली राजकुमारों की परीक्षा
एक बार द्रोणाचार्य ने अपने शिष्यों की परीक्षा लेनी चाही। उन्होंने एक नकली गिद्ध एक वृक्ष पर टांग दिया। उसके बाद उन्होंने सभी राजकुमारों से कहा कि तुम्हे इस बाण से इस गिद्ध का सिर उड़ाना है। पहले द्रोणाचार्य ने युधिष्ठिर को बुलाया और पूछा और निशाना लगाने के लिए कहा। फिर उन्होंने युधिष्ठिर से पूछा तुम्हें क्या दिखाई दे रहा है। युधिष्ठिर ने कहा मुझे वह गिद्ध, पेड़ व मेरे भाई आदि सबकुछ दिखाई दे रहा है। यह सुनकर द्रोणाचार्य ने युधिष्ठिर को निशाना नहीं लगाने दिया।
इसके बाद उन्होंने दुर्योधन आदि राजकुमारों से भी वही प्रश्न पूछा और सभी ने वही उत्तर दिया जो युधिष्ठिर ने दिया था। इससे द्रोणाचार्य काफी खिन्न हो गए।सबसे अंत में द्रोणाचार्य ने अर्जुन को गिद्ध का निशाना लगाने के लिए कहा और उससे पूछा कि तुम्हें क्या दिखाई दे रहा है। तब अर्जुन ने कहा कि मुझे गिद्ध के अतिरिक्त कुछ और दिखाई नहीं दे रहा है। यह सुनकर द्रोणाचार्य काफी प्रसन्न हुए और उन्होंने अर्जुन को बाण चलाने के लिए। अर्जुन ने तत्काल बाण चलाकर उस नकली गिद्ध का सिर काट गिराया।
यह देखकर द्रोणाचार्य की प्रसन्नता की सीमा नहीं रही। उन्होंने मन ही मन निश्चय किया कि द्रुपद के विश्वासघात का बदला अर्जुन ही लेगा।
जब भीम व दुर्योधन का मुकाबला हुआ
जब सभी राजकुमार युवा हो गए और उनकी अस्त्र शिक्षा भी पूरी हो गई तब एक दिन द्रोणाचार्य ने भीष्म आदि के सामने ही राजा धृतराष्ट्र से कहा कि सभी राजकुमार सभी प्रकार की विद्या में निपुण हो चुके हैं। अब हमें उनके अस्त्र कौशल का प्रदर्शन देखना चाहिए। धृतराष्ट्र ने भी हामी भर दी और विदुर को आचार्य द्रोण के अनुसार रंगमंडप बनवाने का आदेश दिया। रंगमंडप तैयार होने पर उसमें अनेकों प्रकार के अस्त्र-शस्त्र टांगे गए और राजघराने के स्त्री-पुरुषों के लिए उचित स्थान बनवाए गए। स्त्रियों और साधारण दर्शकों के स्थान भी अलग-अलग थे।
नियत दिन आने पर राजा धृतराष्ट्र, भीष्म एवं कृपाचार्य वहां आए। गांधारी, कुंती आदि राजपरिवार की महिलाएं भी वहां आईं। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि आकर यथास्थान पर बैठ गए। सबसे पहले भीमसेन और दुर्योधन हाथ में गदा लेकर रंगभूमि में उतरे। वे पर्वत शिखर के समान हट्टे-कट्टे वीर लंबी भुजा और कसी कमर के कारण बड़े ही शोभायमान हो रहे थे। वे मदमस्त हाथी के समान पैंतरे बदल-बदल कर गदायुद्ध करने लगे। उनके बीच बड़ा भयंकर युद्ध होने लगा।
विदुरजी धृतराष्ट्र को और कुंती गांधारी को सब बातें बतलाती जाती थीं। उसे देखकर दर्शकों में उत्साह फैल गया। उस समय दर्शक दो दलों में बंट गए। कुछ भीमसेन की जय बोलते तो कुछ दुर्योधन की। स्थिति अनियंत्रित होती देख द्रोणाचार्य ने अपने बेटे अश्वत्थामा को भीम व दुर्योधन को रोकने के लिए कहा। इस प्रकार उन दोनों महाबलियों के बीच चल रहा भयंकर संग्राम समाप्त हो गया।
जब अर्जुन को ललकारा कर्ण ने
जब सभी राजकुमार अस्त्र विद्या में पारंगत हो गए तब द्रोणाचार्य ने राजकुमारों द्वारा सीखी गई अस्त्र विद्या के प्रदर्शन के लिए रंगमंडप बनवाया। उचित समय आने पर वहां सर्वप्रथम भीम व दुर्योधन के बीच कुश्ती का मुकाबला हुआ।उसके बाद द्रोणाचार्य ने अर्जुन को बुलाया।
अर्जुन ने विभिन्न तरह के बाणों का प्रदर्शन कर सबको आश्चर्यचकित कर दिया। सभी अर्जुन के पराक्रम को देखकर उसकी प्रशंसा करने लगे। उसी समय रंगमंडप में कर्ण ने प्रवेश किया और कहा कि उपस्थित सभी लोगों के सामने जो पराक्रम अर्जुन ने दिखाया है वह मैं भी दिखा सकता हूं। तब द्रोणाचार्य के कहने पर कर्ण ने भी अर्जुन के समान ही अस्त्रविद्या का प्रदर्शन किया। यह देखकर दुर्योधन बहुत प्रसन्न हुआ। तब कर्ण ने अर्जुन के साथ द्वन्द्वयुद्ध करने की इच्छा प्रकट की। तब द्रोणाचार्य ने इसके लिए हां कर दी।
तभी कृपाचार्य ने कर्ण से कहा कि अर्जुन चंद्रवंशी है तथा महाराज पाण्डु का पुत्र है इसलिए तुम भी अपने वंश का परिचय दो। इसके बाद ही द्वन्द्वयुद्ध करने का निर्णय होगा। यह सुनकर कर्ण चुप हो गया। तभी दुर्योधन ने बीच में आकर कहा कि यदि अर्जुन इसलिए कर्ण से युद्ध नहीं करना चाहता कि वह राजा नहीं है तो कर्ण को मैं इसी समय अंगदेश का राजा बनाता हूं। ऐसा कहकर दुर्योधन ने वहीं कर्ण का राज्याभिषेक कर दिया। तभी वहां कर्ण के पिता अधिरथ भी आ पहुंचे।
उन्होंने कर्ण को अपने सीने से लगाया और स्नेह किया। यह देखकर सभी लोग समझ गए कि कर्ण सूतपुत्र है। तब दुर्योधन कर्ण को अपने साथ रंगमंडप से बाहर ले गया।
जब अर्जुन ने बंदी बनाया राजा द्रुपद को
जब सभी राजकुमार अस्त्र विद्या में निपुण हो गए तो गुरु द्रोणाचार्य ने सोचा कि अब द्रुपद से बदला लेने का समय आ गया है। तब द्रोणाचार्य ने सभी राजकुमारों को एकत्रित कर कहा कि तुम लोग पांचालराज द्रुपद को युद्ध में पकड़कर ले आओ, यही मेरी सबसे बड़ी गुरुदक्षिणा होगी। गुरु की आज्ञा पाकर सभी कौरव व पाण्डव राजकुमार अस्त्र-शस्त्र लेकर पांचालदेश की ओर कूच कर गए। सबसे पहले दुर्योधन, कर्ण व दु:शासन ने पांचालदेश में प्रवेश किया। जब पांचालनरेश द्रुपद को यह पता चला तो वह भी अपने सैनिकों के साथ युद्ध करने लगे। द्रुपद की सेना तथा वहां के नागरिक कौरव सेना पर टूट पड़े। कौरव सेना पर ऐसी मार पड़ी कि वह भागने लगी।
तब अर्जुन ने द्रोणाचार्य को प्रणाम किया और नकुल, सहदेव व भीम के साथ द्रुपद के नगर में प्रवेश किया। अर्जुन ने अदुभुत पराक्रम दिखाते हुए ऐसी बाण वर्षा की कि सारी पांचाल सेना उसमें ढंक गई। थोड़ी ही देर में अर्जुन ने द्रुपद को हराकर उन्हें पकड़ लिया और गुरु दक्षिणा के रूप में द्रोणाचार्य को सौंप दिया। तब द्रोणाचार्य ने द्रुपद से कहा कि अब तुम मेरे अधीन हो। इस प्रकार तुम्हारा राज्य भी मेरा ही है। लेकिन मैं तुम्हें मारना नहीं चाहता बल्कि यह चाहता हूं कि हम पहले की भांति मित्र बन जाएं। एक बार तुमने मुझसे कहा था राजा ही राजा का मित्र हो सकता है तो मैं तुम्हें तुम्हारा आधा राज्य वापस देता हूं। द्रुपद ने सहर्ष ही इसके लिए हां कह दिया।
तब द्रुपद माकंदी प्रदेश के काम्पिल्य नगर में रहने लगे और द्रोणाचार्य अहिच्छत्र प्रदेश की अहिच्छत्रा नगरी में रहने लगे। इस प्रकार द्रोणाचार्य ने द्रुपद से अपने अपमान का बदला लिया। इससे द्रुपद के मन में असंतोष रहने लगा।
पाण्डवों से द्वेष क्यों करने लगे धृतराष्ट्र?
द्रुपद को जीतने के एक वर्ष बाद राजा धृतराष्ट्र ने युधिष्ठिर को युवराज बना दिया। युवराज बनने के बाद युधिष्ठिर ने अपने व्यवहार से प्रजा का दिल जीत लिया। इधर भीमसेन ने बलरामजी से खड्ग, गदा और रथ के युद्ध की विशिष्ट शिक्षा प्राप्त की। उस समय अर्जुन के समान अन्य कोई योद्धा नहीं था। एक दिन द्रोणाचार्य ने अर्जुन से कहा कि तुम मेरे प्रिय शिष्य हो। आज मैं तुमसे यह गुरुदक्षिणा मांगता हूं कि यदि कभी युद्ध में मेरा और तुम्हारा सामना हो तो तुम मुझसे लडऩे से मत हिचकना। तब अर्जुन ने गुरु की आज्ञा स्वीकार की।
भीमसेन और अर्जुन के समान ही सहदेव ने भी देवगुरु बृहस्पति से संपूर्ण नीतिशास्त्र की शिक्षा ग्रहण की। नुकल भी तरह-तरह के युद्धों में कुशल थे। अर्जुन ने सौवीर देश के पराक्रमी राजा दत्तामित्र को युद्ध में मार गिराया। साथ ही भीमसेन की सहायता से पूर्व दिशा और बिना किसी की सहायता से दक्षिण दिशा पर भी विजय प्राप्त की। इस प्रकार दूसरे राज्यों का धन-वैभव भी हस्तिनापुर आने लगा। सभी दूर पाण्डवों की कीर्ति फैल गई। यह देखकर यकायक धृतराष्ट्र के मन में पाण्डवों के प्रति दूषित भाव आ गया। क्योंकि धृतराष्ट्र मन ही मन चाहते थे प्रजा जिस प्रकार युधिष्ठिर से स्नेह करती है वैसा ही दुर्योधन से रखें। यही कारण था कि पाण्डवों का यश धृतराष्ट्र के मन में खटकने लगा।
पाण्डवों को क्यों जाना पड़ा वारणावत?
दुर्योधन ने जब देखा कि भीमसेन की शक्ति असीम है और अर्जुन का अस्त्र ज्ञान तथा अभ्यास विलक्षण है तो वह उनसे और अधिक द्वेष रखने लगा। उसी समय हस्तिनापुर की प्रजा भी यही कहने लगी कि अब युधिष्ठिर को राजा बना देना चाहिए। प्रजा की इस प्रकार की सुनकर दुर्योधन जलने लगा। वह धृतराष्ट्र के पास गया और कहा कि यदि युधिष्ठिर को राज्य मिल गया तो फिर यह उन्हीं की वंश परंपरा से चलेगा और हमें कोई पूछेगा भी नहीं। तब दुर्योधन ने धृतराष्ट्र को एक युक्ति सुझाई कि आप किसी बहाने से पाण्डवों को वरणावत भेज दीजिए।
यह कहकर दुर्योधन प्रजा को प्रसन्न करने में लग गया और धृतराष्ट्र ने कुछ ऐसे चतुर मंत्रियों को नियुक्त कर दिया जो वारणावत की प्रशंसा करके पाण्डवों को वहां जाने के लिए उकसाने लगे। इस प्रकार वारणावत नगर की प्रशंसा सुनकर पाण्डवों का मन भी वहां जाने को हुआ। उचित अवसर देखकर धृतराष्ट्र ने पाण्डवों को बुलाया और कहा कि इन दिनों वारणावत में मेले की धूम है यदि तुम वहां जाना चाहते हो तो हो आओ।
युधिष्ठिर धृतराष्ट्र की चाल तुरंत समझ गए लेकिन धृतराष्ट्र का कहना वे टाल न सके। इस तरह युधिष्ठिर आदि सभी पाण्डवों व कुंती धृतराष्ट्र की आज्ञा से वारणावत जाने के लिए तैयार हो गए।
पाण्डवों को मारने के लिए किसने बनवाया था लाक्षाभवन?
जब धृतराष्ट्र के कहने पर पाण्डव वारणावत जाने के लिए तैयार हो गए तो दुर्योधन को बड़ी प्रसन्नता हुई। उसने अपने मंत्री पुरोचन को एकांत बुलाया और कहा कि इससे पहले ही पाण्डव वारणावत पहुंचे तुम वहां जाओ और सन, राल व लकड़ी से ऐसा महल बनवाओ जो आग से तुरंत भड़क उठे। किसी को भी इस बात की भनक न लगे। जब पाण्डव वहां रहने लगे तो उचित अवसर देखकर तुम वहां आग लगा देना।
इस प्रकार पाण्डव जल मरेंगे और किसी को हम पर शक भी नहीं होगा। दुर्योधन की आज्ञानुसार पुरोचन वारणावत की ओर चल पड़ा।समय आने पर जब युधिष्ठिर अपने भाइयों व माता कुंती के साथ वारणावत जाने के लिए चले तो उनके पीछे कुरुवंश के बहुत से विद्वान, ब्राह्मण और प्रजा चलने लगी।वे आपस में बात करते जाते कि इसमें अवश्य ही धृतराष्ट्र और दुर्योधन की कोई चाल है। पाण्डव सदैव धर्म का पालन करने वाले हैं और युधिष्ठिर को स्वयं धर्मराज है इसलिए अब जहां युधिष्ठिर रहेंगे हम भी वहीं निवास करेंगे।
यह सुनकर युधिष्ठिर ने ही प्रजा व ब्राह्मणों से कहा कि राजा धृतराष्ट्र हमारे पिता और गुरु हैं। वे जो भी करेंगे हम वह ही करेंगे। इसलिए आप सब लोग यही निवास करें। जब हम पर कोई मुसीबत आएगी तब आप लोग हमारी सहायता अवश्य करना। युधिष्ठिर की बात सुनकर हस्तिनापुरवासी पाण्डवों को आशीर्वाद देकर नगर में लौट आए।
विदुरजी ने युधिष्ठिर को क्या गुप्त बात कही?
जब राजा धृतराष्ट्र के कहने पर पाण्डव वारणावत जाने लगे तो विदुरजी ने युधिष्ठिर को सांकेतिक भाषा में कहा कि नीतिज्ञ पुरुष को शत्रु का मनोभाव समझकर उससे अपनी अपनी रक्षा करनी चाहिए। एक ऐसा अस्त्र है जो लोहे का तो नहीं है परंतु शरीर को नष्ट कर सकता है (अर्थात शत्रुओं ने तुम्हारे लिए एक ऐसा भवन तैयार किया है जो आग से तुरंत भड़क उठने वाले पदार्थों से बना है।)
आग घास-फूस और जीव सारे जंगल को जला डालती है परंतु बिल में रहने वाले जीव उससे अपनी रक्षा कर लेते हैं। यही जीवित रहन का उपाय है (अर्थात उससे बचने के लिए तुम एक सुरंग तैयार करा लेना।)
अंधे को रास्ता और दिशा का ज्ञान नहीं होता। बिना धैर्य के समझदारी नहीं आती। (अर्थात दिशा आदि का ज्ञान पहले से ही तैयार कर लेना ताकि रात मे भटकना न पड़े।)
शत्रुओं के दिए हुए बिना लोहे के हथियार को जो स्वीकार करता है वह स्याही के बिल में घुसकर आग से बच जाता है। (अर्थात उस सुरंग से यदि तुम बाहर निकल जाओगे तो उस भवन की आग में जलने से बच जाओगे।)
जिसकी पांचों इंद्रियां वश में है, शत्रु उसकी कुछ भी हानि नहीं कर सकता (अर्थात यदि तुम पांचों भाई एकमत रहोगो तो शत्रु तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकेगा।
विदुरजी की सारी बात युधिष्ठिर ने अच्छी तरह से समझ ली। तब विदुरजी हस्तिनापुर लौट गए। यह घटना फाल्गुन शुक्ल अष्टमी, रोहिणी नक्षत्र की है।
लाक्षा भवन की आग से कैसे बचे पाण्डव ?
धृतराष्ट्र के कहने पर जब पांडव वारणावत पहुंचे तो वहां के नागरिकों में बड़े उत्साह से उनका स्वागत किया। दुर्योधन के मंत्री पुरोचन ने पांडवों के रहने व भोजन का उचित प्रबंध किया। दस दिन बीत जाने के बाद पुरोचन ने पांडवों को लाक्षा भवन के बारे में बताया तब माता कुंती के साथ लाक्षा भवन में रहने चले गए। युधिष्ठिर ने जब भवन को देखा तो उन्हें दुर्योधन की चाल तुरंत समझ में आ गई। यह बात युधिष्ठिर ने अपने भाइयों को भी बताई। तब सभी ने यह निर्णय लिया कि यहां चतुराई पूर्वक रहना ही उचित होगा।
तभी वहां विदुरजी द्वारा भेजा गया सेवक आया जो सुरंग खोदने में माहिर था। युधिष्ठिर के कहने पर उसने भवन के बीच एक बड़ी सुरंग बनाई। और उसे इस प्रकार ढ़क दिया कि किसी को उस सुरंग के बारे में पता न चले। पांडव अपने साथ शस्त्र रखकर बड़ी सावधानी से रात बिताते थे। दिनभर शिकार खेलने के बहाने जंगलों के गुप्त रास्ते पता किया करते थे। पुरोचन को लगभग एक वर्ष बाद यह विश्वास हो गया कि पांडवों को दुर्योधन की चाल का बिल्कुल ध्यान नहीं हैं। तब युधिष्ठिर ने अपने भाइयों से कहा कि अब वह समय आ गया है जब पुरोचन का वध कर यहां से भाग निकलना चाहिए।
कुंती ने एक दिन दान देने के लिए ब्राह्मण भोज कराया। जब सब खा पीकर चले गए। एक भील की स्त्री अपने पांच पुत्रों के साथ खाना मांगने आईं। वे सब शराब पीकर लाक्षा भवन में ही सो गए। उसी रात भीमसेन ने पुरोचन के कक्ष में आग लगा दी तथा जब आग बहुत भयानक हो गई तब पांचों भाई माता कुंती के साथ सुरंग के रास्ते नगर के बाहर निकल गए। वारणावत के लोगों ने जब लाक्षा भवन जलता दिखा तो उन्हें लगा कि पांडव भी जल गए हैं, यह सोचकर वे रातभर विलाप करते रहे।
लाक्षाभवन से निकलने के बाद पाण्डवों ने क्या किया?
लाक्षाभवन से निकलने के बाद पाण्डव गंगा नदी के तट पर पहुंच गए। तभी वहां विदुरजी द्वारा भेजा हुआ सेवक भी आ गया । उसने नौका से पाण्डवों को गंगा के पार पहुंचा दिया। पाण्डव बड़ी शीघ्रता से आगे बढऩे लगे। सुबह जब वारणावतवासियों ने जले हुए महल को देखा तो उन्हें पता चल गया कि महल लाख का बना हुआ था। वे तुरंत समझ गए कि यह सब दुर्योधन की ही चाल थी जिसके कारण पाण्डव इस महल में जल कर मर गए। आग बुझने पर जब महल की राख को हटाया तो उसमें से भीलनी तथा उसके पांच पुत्रों के साथ ही पुरोचन का भी शव निकला। लोगों ने समझा कि यह माता कुंती तथा पाण्डवों के ही शव हैं। तब सभी दुर्योधन को धिककारने लगे।
यह खबर जब धृतराष्ट्र को लगी तो झूठ-मूठ का विलाप करने लगा। उन्होंने कौरवों को आज्ञा दी कि शीघ्र ही वारणावत जाओ और पाण्डवों का अंत्येष्टि संस्कार करो। इस प्रकार सभी लोग यह समझने लगे की पाण्डव सचमुच मर चुके हैं। विदुर सब कुछ जानते हुए भी अनजाने बने रहे।
इधर पाण्डव तेजी से दक्षिण दिशा की ओर चलने लगे। माता कुंती तथा पाण्डव काफी थक चुके थे। इसलिए वे चलने में असमर्थ थे तब भीम ने माता कुंती को कंधे पर, नकुल व सहदेव को गोद में तथा युधिष्ठिर तथा अर्जुन को अपने दोनों हाथों पर बैठा लिया और तेजी से चलने लगे। थोड़ी देर बाद कुंती को प्यास लगी तो भीम ने सभी को नीचे उतार दिया और स्वयं पानी लेने के लिए चले गए। जब भीम वापस लौटे तो माता कुंती व भाइयों को इस अवस्था में देख बहुत दु:खी हुए। वह रात पाण्डवों ने वहीं वन में बिताई।
राक्षस हिडिम्बासुर का वध क्यों किया भीम ने?
लाक्षाभवन से निकलकर जब पाण्डव दक्षिण दिशा की ओर चले तो रास्ते में एक वन आया। सभी ने उसी वन में रात बिताई। उस वन में हिडिम्बासुर नाम का एक राक्षस रहता था। जब उसने मनुष्यों की गंध सूंघी तो उसने अपनी बहन हिडिम्बा से कहा कि वन में से मनुष्यों की गंध आ रही है तुम उन्हें मारकर ले आओ ताकि हम उन्हें अपना भोजन बना सकें। भाई की आज्ञा मानकर जब हिडिम्बा पाण्डवों को मारने के लिए गई तो सबसे पहले भीम को देखा जो पहरेदारी कर रहे थे।
भीम को देखकर हिडिम्बा उस पर मोहित हो गई। तब हिडिम्बा स्त्री का रूप बदलकर भीम के पास पहुंची और अपना परिचय देकर प्रणय निवेदन किया। उसने हिडिम्बासुर के बारे में भी भीम को बताया। लेकिन भीमसेन जरा भी विचलित नहीं हुए। उधर जब काफी देर तक हिडिम्बा नहीं पहुंची तो हिडिम्बासुर स्वयं वहां आ पहुंचा। हिडिम्बा को भीम पर मोहित हुआ देख वह बहुत क्रोधित हुआ और उसे मारने के लिए दौड़ा। इतने में ही भीमसेन बीच में आ गए और दोनों के बीच भयंकर युद्ध होने लगा।
आवाजें सुनकर पाण्डवों की नींद भी खुल गई। कुंती ने जब हिडिम्बा को वहां देखा तो उसका परिचय पूछा। हिडिम्बा ने पूरी बात कुंती को सच-सच बता दी। इधर भीम को राक्षस के साथ युद्ध करता देख अर्जुन उनकी मदद के लिए आए लेकिन भीम ने उन्हें मना कर दिया और अपने बाहुबल से हिडिम्बासुर का वध कर दिया। जब पाण्डव वहां से जाने लगे तो हिडिम्बा भी उनके पीछे-पीछे चलने लगी।
कैसे हुआ भीम व हिडिम्बा का विवाह?
जब भीमसेन ने हिडिम्बासुर का वध किया और सभी पाण्डव माता कुंती के साथ वन से जाने लगे तो हिडिम्बा भी उनके पीछे-पीछे चलने लगी। हिडिम्बा को पीछे आता देख भीम ने उससे जाने के लिए कहा तथा उस पर क्रोधित भी हुए। तब युधिष्ठिर ने भीम को रोक लिया।
हिडिम्बा ने कुंती व युधिष्ठिर से कहा कि इन अतिबलशाली भीमसेन को मैं अपना पति मान चुकी हूं। इस स्थिति में अब ये जहां भी रहेंगे मैं भी इनके साथ ही रहूंगी। आपकी आज्ञा मिलने पर मैं इन्हें अपन साथ लेकर जाऊंगी और थोड़े ही दिनों में लौट आऊंगी। आप लोगों पर जब भी कोई परेशानी आएगी उस समय मैं तुरंत आपकी सहायता के लिए आ जाऊंगी। हिडिम्बा की बात सुनकर युधिष्ठिर ने भीमसेन को समझाया कि हिडिम्बा ने तुम्हें अपना पति माना है इसलिए तुम भी इसके साथ पत्नी जैसा ही व्यवहार करो। यह धर्मानुकूल है। भीमसेन न युधिष्ठिर की बात मान ली।
इस प्रकार भीम व हिडिम्बा का गंर्धव विवाह हो गया। तब युधिष्टिर ने हिडिम्बा से कहा कि तुम प्रतिदिन सूर्यास्त के पूर्व तक पवित्र होकर भीमसेन की सेवा में रह सकती हो। भीमसेन दिनभर तुम्हारे साथ रहेंगे और शाम होते ही मेरे पास आ जाएंगे। तब भीम ने कहा कि ऐसा सिर्फ तब तक ही होगा जब तक हिडिम्बा को पुत्र की प्राप्ति नहीं होगी।
हिडिम्बा ने भी स्वीकृति दे दी। इस प्रकार भीम हिडिम्बा के साथ चले गए।
कैसे हुआ घटोत्कच का जन्म?
युधिष्ठिर की आज्ञा मानकर भीम हिडिम्बा के साथ चले गए। हिडिम्बा भीम को आकाशमार्ग से लेकर उड़ गई। तब हिडिम्बा ने सुंदर स्त्री का रूप धारण कर लिया और तरह-तरह से वह भीम को रिझाने लगी। हिडिम्बा भीमसेन से मीठी-मीठी बातें करते हुए पहाड़ों की चोटियों पर, जंगलों में, गुफाओं आदि में विहार करने लगी। समय आने पर हिडिम्बा ने एक पुत्र को जन्म दिया। उसका मुख विशाल, नुकीले दांत, तीखी दाढ़ें और विशाल शरीर था।
राक्षसों की माया से वह तुरंत ही जवान हो गया। उसके सिर पर बाल नहीं थे। भीम तथा हिडिम्बा ने उसके घट अर्थात सिर को उत्कच यानि केशहीन देखकर उसका नाम घटोत्कच रख दिया।
घटोत्कच पाण्डवों के प्रति बड़ी श्रद्धा और प्रेम रखता था तथा पाण्डव भी उस पर स्नेह रखते थे। इस प्रकार भीम की प्रतिज्ञा पूरी होने पर हिडिम्बा ने पाण्डवों को जाने के लिए हामी भर दी। तब घटोत्कच ने कुंती व पाण्डवों को नमस्कार कर पूछा कि मैं किस प्रकार आपकी सेवा कर सकता हूं।
घटोत्कच की बात सुनकर कुंती ने घटोत्कच से प्रेमपूर्वक कहा कि तू कुरुवंश में पैदा हुआ है और पाण्डवों का सबसे बड़ा पुत्र है। इसलिए समय आने पर इनकी सहायता करना। तब घटोत्कच ने कहा कि जब भी
आप मेरा स्मरण करेंगे मैं तुरंत आपकी सेवा में उपस्थित हो जाऊंगा। ऐसा कहकर वह उत्तर दिशा की ओर चला गया।
एकचक्रा नगरी में क्यों आए पाण्डव?
घटोत्कच के जन्म के बाद पाण्डव वन में विचरने लगे। भीम भी उनके साथ ही रहते थे। पाण्डवों ने सिर पर जटाएं रख ली और वृक्षों की छाल तथा मृगचर्म पहन लिए। एक बार जब पाण्डव शास्त्रों का अध्ययन कर रहे थे तभी वहां महर्षि वेदव्यास आए गए। पाण्डवों ने उन्हें ससम्मान आसन पर बैठाया। तब वेदव्यासजी ने कहा कि तुम्हें मारने के लिए दुर्योधन ने लाक्षाभवन बनवाया था। यह बात मैं जान चुका हूं। मैं तुम लोगों का हित करने के लिए ही यहां आया हूं।
यहां से पास ही एक बड़ा सुंदर नगर है जिसका नाम एकचक्रा है। तुम वहां जाकर रहो। ऐसा कहकर महर्षि वेदव्यास स्वयं पाण्डवों व कुंती को साथ लेकर एकचक्रा नगरी तक आए। वहां पहुंचकर उन्होंने कुंती से कहा कि यह सब तुम्हारे हित के लिए ही हो रहा है इसलिए तुम दु:खी मत होओ। तुम्हारा पुत्र युधिष्ठिर एक दिन संपूर्ण पृथ्वी पर राज्य करेगा।
व्यासजी ने पाण्डवों तथा कुंती को एक ब्राह्मण के घर में ठहरा दिया और जाते-जाते कहा कि एक महीने तक मेरी बाट जोहना, मैं फिर आऊंगा। ऐसा कहकर महर्षि वेदव्यास वहां से चले गए और पाण्डव माता कुंती के साथ एकचक्रा नगरी में रहने लगे। वे भिक्षावृत्ति से अपना जीवन-निर्वाह करने लगे। वे सायंकाल होने पर दिनभर की भिक्षा लाकर माता के सामने रख देते। माता की अनुमति से आधा भीमसेन खाते और आधे में शेष पाण्डव व कुंती। इस प्रकार बहुत दिन बीत गए।
कौन था बकासुर राक्षस?
जब पाण्डव ब्राह्मणों का वेष बनाकर एकचक्रा नगरी में रहने लगे तब एक दिन किसी कारणवश भीमसेन भिक्षा मांगने नहीं गए और घर पर ही रुक गए। उस दिन उस ब्राह्मण के घर में जहां पाण्डव रहते थे अचानक चीख-पुकार मच गई। तब कुंती इस विलाप का कारण जानने के लिए ब्राह्मण के पास गई। कुंती ने वहां देखा कि ब्राह्मण, उसकी पत्नी तथा पुत्री तीनों स्वयं का बलिदान देने की बात कर रहे हैं और विलाप कर रहे हैं।
यह देखकर कुंती ने इसका कारण पूछा तो ब्राह्मण ने बताया कि नगर के बाहर बकासुर नामक एक राक्षस रहता है। उसके भोजन के लिए एक गाड़ी अन्न और दौ भैंसे रोज दिए जाते हैं और जो मनुष्य यह सब लेकर जाता है राक्षस उसे भी खा जाता है। प्रतिदिन नगर के किसी एक घर से किसी एक प्राणी को जाना पड़ता है। आज राक्षस के लिए भोजन हमारे परिवार में से किसी को लेकर जाना है इसलिए यह विलाप हो रहा है।
पूरी बात सुनकर कुंती ने ब्राह्मण को सांत्वना दी और कहा कि आज आपके परिवार के बदले मेरा पुत्र राक्षस के लिए भोजन लेकर जाएगा। तब कुंती ने भीम को यह सारी बात बताई। कुंती के कहने पर भीम राक्षस के लिए भोजन ले जाने के लिए तैयार हो गए।
द्रोणाचार्य को मारने के लिए क्या किया द्रुपद ने?
बकासुर का वध करने के बाद पाण्डव वेदाध्ययन करते हुए उसी ब्राह्मण के घर में रहने लगे। कुछ दिनों बाद उसी ब्राह्मण के एक श्रेष्ठ ब्राह्मण आए। पाण्डवों ने उनका बड़ा सत्कार किया। उस ब्राह्मण ने बात ही बात में राजाओं को वर्णन करते हुए राजा द्रुपद की बात छेड़ दी और द्रोपदी के स्वयंवर की बात भी कही।
उन्होंने बताया कि जब से द्रोणाचार्य ने पाण्डवों के द्वारा द्रुपद को पराजित किया है तब से द्रुपद बदले की भावना में जल रहा है। वे द्रोणाचार्य से बदला लेने के लिए श्रेष्ठ संतान की चाह से कई विद्वान संतों के पास गए। लेकिन किसी ने भी उनकी इच्छा पूरी नहीं की। फिर एक दिन द्रुपद घुमते-घुमते कल्माषी नगर गए। वहां ब्राह्मण बस्ती में कश्यप गोत्र के दो ब्राह्मण याज व उपयाज रहते थे।
द्रुपद सबसे पहले महात्मा उपयाज के पास गए और उनसे प्रार्थना की कि आप कोई ऐसा यज्ञ कराईए जिससे मुझे द्रोणाचार्य को मारने वाली संतान प्राप्त हो। लेकिन उपयाज ने मना कर दिया। इसके बाद भी द्रुपद ने एक वर्ष तक उनकी निस्वार्थ भाव से सेवा की। तब उन्होंने बताया कि उनके बड़े भाई याज यह यज्ञ करवा सकते हैं।
तब द्रुपद महात्मा याज के पास पहुंचे और उनको पूरी बात बताई। यह भी कहा कि यज्ञ करवाने पर मैं आपको एक अर्बुद (दस करोड़) गाए भी दूंगा। महात्मा याज ने द्रुपद का यज्ञ करवा स्वीकार कर लिया।
कैसे हुआ धृष्टद्युम्न व द्रौपदी का जन्म?
महात्मा याज ने जब राजा द्रुपद का यज्ञ करवाया तो यज्ञ के अग्निकुण्ड में से एक दिव्य कुमार प्रकट हुआ। उसके सिर पर मुकुट, शरीर पर कवच था तथा हाथों में धनुष-बाण थे। यह देख सभी पांचालवासी हर्षित हो गए। तभी आकाशवाणी हुई कि इस पुत्र के जन्म से द्रुपद का सारा शोक मिट जाएगा। यह कुमार द्रोणाचार्य को मारने के लिए ही पैदा हुआ है।
इसके बाद उस अग्निकुंड में से एक दिव्य कन्या भी प्रकट हुई। वह अत्यंत ही सुंदर थी। उसके नीले-नीले घुंघराले बाल, लाल-लाल ऊंचे नख तथा उसकी आंखें कमल के समान थी। तभी आकाशवाणी हुई कि यह रमणीरत्न कृष्णा है। देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिए क्षत्रियों के विनाश के उद्देश्य से इसका जन्म हुआ है। इसके कारण कौरवों को बड़ा भय होगा। दिव्य कुमार व कुमारी को देखकर द्रुपदराज की रानी महात्मा याज के पास आई और प्रार्थना की कि ये दोनों मेरे अतिरिक्त और किसी को अपनी मां न जानें। महात्मा याज ने कहा- ऐसा ही होगा।
ब्राह्मणों ने उन दोनों का नामकरण किया। वे बोले- यह कुमार बड़ा धृष्ट(ढीट) और असहिष्णु है। इसकी उत्पत्ति अग्निकुंड की द्युति से हुई है, इसलिए इसका धृष्टद्युम्न होगा। यह कुमारी कृष्ण वर्ण की है इसलिए इसका नाम कृष्णा होगा। द्रुपद की पुत्री होने के कारण कृष्णा ही द्रौपदी के नाम से विख्यात हुई।
यज्ञ समाप्त होने पर द्रोणाचार्य धृष्टद्युम्न को अपने साथ ले आए और उसे अस्त्र-शस्त्र की विशिष्ट शिक्षा दी। द्रोणाचार्य यह जानते थे कि प्रारब्धानुसार जो होना है वह तो होकर ही रहेगा। इसलिए उन्होंने पूरी लग्न के साथ धृष्टद्युम्न को अस्त्र शिक्षा दी, जिसके हाथों उनका मरना निश्चित था।
द्रौपदी कौन थी पूर्व जन्म में?
द्रौपदी के जन्म की कथा और स्वयंवर का समाचार सुनकर पाण्डवों का मन भी वहां जाने को हुआ। उनके मन की बात जानकर कुंती ने भी पांचालदेश जाने की हामी भर दी। सभी पांचाल देश जाने की तैयारी करने लगे। उसी समय एकचक्रा नगरी में महर्षि वेदव्यास पाण्डवों से मिलने आ गए। सभी ने उनका उचित स्वागत-सत्कार किया। पांचाल देश जाने की बात सुनकर उन्होंने पाण्डवों को द्रौपदी के पूर्वजन्म की कथा सुनाई।
महर्षि वेदव्यास ने बताया कि द्रौपदी पूर्व जन्म में एक बड़े महात्मा ऋषि की सुंदर व गुणवती कन्या थी। इसके बाद भी पूर्व जन्मों के बुरे कर्मों के कारण किसी ने उसे पत्नी के रूप में स्वीकार नहीं किया। इससे दु:खी होकर वह तपस्या करने लगी। उसकी तपस्या से भगवान शंकर प्रसन्न हो गए और उसे दर्शन दिए तथा वर मांगने को भी कहा। भगवान के दर्शन पाकर द्रौपदी बहुत प्रसन्न हो गई और उसने अधीरतावश भगवान शंकर से प्रार्थना की कि मैं सर्वगुणयुक्त पति चाहती हूं। ऐसा उसने पांच बार कहा। तब भगवान ने उसे वरदान दिया कि तुने मुझसे पांच बार प्रार्थना की है इसलिए तुझे पांच भरतवंशी पति प्राप्त होंगे। ऐसा कहकर भगवान शंकर अपने लोक को चले गए।
वही ब्राह्मण कन्या इस जन्म में अग्निकुंड से द्रौपदी के रूप में जन्मी है। तुम लोगों के लिए विधि-विधान के अनुसार वहीं सर्वांगसुंदरी निश्चित है। उस पाकर तुम सुखी रहोगे। ऐसा कहकर महर्षि वेदव्यास अन्यत्र चले गए।
अर्जुन ने मशाल से ही हरा दिया गंधर्व को
पांडवों ने अपनी माता को आगे कर पांचाल देश की यात्रा शुरू की। वे लोग उत्तर की तरफ बढऩे लगे। एक दिन रात यात्रा करने के बाद वे गंगा के किनारे सोमनाथ तीर्थ पर पहुंचे। उस समय उनके आगे-आगे अर्जुन मशाल लेकर चल रहे थे। उस समय गंगा में एक अंगार्पण नामक गंधर्व स्त्रियों के साथ विहार कर रहा था। उसने उन लोगों की पैरों की आहट सुनकर वह क्रोधित हुआ। उसने अपने धनुष की आवाज करते हुए पांडवों को कहा: दिन के अन्त से ललिमामय संध्या होती है। उसके बाद अस्सी लव के अलावा सारा समय गंधर्व और राक्षसों के लिए होता है।
जो मनुष्य अपने लालच के कारण इस समय यहां आते हैं राक्षस उन्हें कैद कर लेते हैं। इसलिए रात के समय जल में प्रवेश करना मना है दूर रहो।
अर्जुन ने उसकी बात सुनकर कहा अरे मुर्ख समुद्र, हिमालय की तराई और गंगा नदी ये स्थान किसके लिए सुरक्षित है? यहां आने के समय का कोई नियम नहीं है। गंगा माई का द्वार हर समय उसके हर भक्त के लिए खुला था। यदि हम मान भी लें की तुम्हारी बात ठीक है तो हम शक्ति सम्पन्न हैं नपुसंक नहीं हैं जो डरकर गंगा जल को स्पर्श ना करें। गंधर्व ने धनुष से जहरीले बाण छोडऩे प्रारंभ किए।अर्जुन ने अपनी मशाल से ही उसके सारे बाण व्यर्थ कर दिए। उसने कहा: अरे गंधर्व वीरों के सामने धमकी से काम नहीं चलता है। ले मैं तुझसे माया युद्ध नहीं करता द्विव्य अस्त्र चलाता हूं। यह अस्त्र मुझे मेरे गुरू द्रोणाचार्य ने दिया है। वह अस्त्र के तेज से इतना चकरा गया कि रथ से कुदकर मुंह के बल लुढ़कने लगा। यह देखकर उसकी पत्नी कुंभीनसी युधिठिर के समक्ष प्रार्थना करने लगी। युधिष्ठिर की आज्ञा पाकर अर्जुन ने उसे छोड़ दिया।
राजा संवरण ने तपती को देखा तो..
गन्धर्व ने चाक्षुषी विद्या देने के बाद उसने अर्जुन को तपतीनन्दन कहकर संबोधित किया। तब अर्जुन ने गंधर्व से पूछा कि है गन्धर्व मैं तो कुन्ती का पुत्र हूं आपने मुझे तपतीनन्दन कहकर क्यों संबोधित किया। गंधर्व ने कहा हे! अर्जुन भगवान सूर्य की पुत्री तपती के नाम से विख्यात थी। वह आपकी ही माता की तरह ज्योतिषमती थी। वह सावित्री की छोटी बहन थी।
वह अपनी तपस्या के कारण तीनों लोकों में विख्यात थी। उन दिनों उसके समान कोई योग्य पुरुष भी नहीं था। जो उससे विवाह करें। उन्ही दिनों पुरूवंश में राजा ऋक्ष के पुत्र संवरण बड़े ही बलवान और धार्मिक थे। सूर्य के मन में भी यह बात आने लगी कि ये मेरी पुत्री के योग्य पति होंगे। एक दिन की बात है संवरण जंगल में शिकार खेल रहे थे। भुख प्यास से बेहाल होकर उनका घोड़ा मर गया तो वे पैदल ही चलने लगे।
उस समय जंगल में खड़ी एक अकेली लड़की पर पड़ी। उन्होने उस लड़की से पूछा कौन हो तुम? किसकी पुत्री हो? तुम्हे देखकर लगता है तीनों लोक में तुम्हारे जैसी कोई और सुन्दरी नहीं होगी। राजा की बात सुनकर वह कुछ नहीं बोली और अंर्तध्यान हो गई।राजा बेहोश होकर गिर पड़े। उन्हें धरती पर पड़ा देखकर तपती फिर आयी और बोली राजन् उठिए। राजा को चेतना आई और उन्होने कहा सुन्दरी मेरे प्राण तुम्हारे हाथ है। तुम मुझ से गंधर्व विवाह स्वीकार करों। उसने कहा मेरी ओर से कोई आपत्ति नहीं है। आप मेरे पिता को प्रसन्न करके मुझे मांग लिजिए।
यह सुनकर वे भगवान सूर्य की आराधना करने लगे। उन्होने मन ही मन अपने पुरोहित महर्षि वशिष्ठ का ध्यान किया। उन्होने राजा के मन का हाल जानकर उन्हे आश्वासन दिया और भगवान सूर्य से मिलने निकल पड़े। महर्षि वशिष्ठ ने भगवान सूर्य के पास पहुंचकर प्रार्थना की। भगवान ने उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली ओर उन्ही के साथ तपती को भेज दिया। उसके बाद विधि पूर्वक पाणी-ग्रहण संस्कार के बाद उसके साथ वे उसी पर्वत पर सुख पूर्वक रखने लगे। बारह वर्ष वहां रहने के बाद प्रजा में होने वाली अव्यवस्था को देखते हुए वे तपती को लेकर अपनी राजधानी ले आये। इन्ही तपती के गर्भ से राजा कुरू का जन्म हुआ जिनसे कुरू वंश चला।
विश्वामित्र नन्दिनी को ले जाने लगे तो...
गंधर्वराज चित्ररथ के मुख से महर्षि की महिमा सुनकर अर्जुन ने कहा गंर्धवराज महर्षि वशिष्ठ कौन थे? कृपया उनका चरित्र सुनाइये। गंधर्वराज कहने लगे हे अर्जुन महर्षि वशिष्ठ ब्रम्हा के मानस पुत्र है। उनकी पत्नी का नाम अरूंधती है। उन्होने अपनी तपस्या के बल से देवताओं पर विजय और अपनी इन्द्रियों पर भी विजय प्राप्त कर ली थी। इसलिए उनका नाम वशिष्ठ हुआ। विश्वामित्र के बहुत अपराध करने पर भी उन्होने अपने मन में क्रोध नहीं आने दिया और उन्हे क्षमा कर दिया। यहां तक कि विश्वामित्र ने उनके पूरे सौ पुत्रों का नाश कर दिया। वशिष्ठ में बदला लेने की पूरी शक्ति थी। लेकिन फिर भी उन्होने कोई प्रतिकार नहीं किया। अर्जुन ने पूछा गंधर्व राज विशिष्ठ और विश्वामित्र तो आश्रमवासी थे, उनकी दुश्मनी का क्या कारण हैं? गंधर्व ने कहा: बहुत प्राचीन और विश्वविश्रुति है। मैं तुम्हे सुनाता हूं।
एक बार राजा कुशिक के पुत्र विश्वामित्र अपने मन्त्री के साथ मरुधन्व देश में शिकार खेलते-खेलते थककर वशिष्ठ के आश्रम पर आये। विशिष्ठ ने विधिपूर्वक उनका स्वागत सत्कार किया। अपनी कामधेनु नन्दिनी से उनकी खुब सेवा की। इस सेवा से विश्वामित्र बहुत खुश हुए। उन्होने वसिष्ठ से कहा कि आप मुझ से एक अर्बुद गौएं या मेरा राज्य ले लिजिए। अपनी कामधेनु नन्दिनी मुझे दे दीजिये। वशिष्ठ बोले मैंने यह दुधार गाय देवता, अतिथि पितर और यक्षो के लिए रख छोड़ी है। विश्वामित्र बोले आप ब्राम्हण हैं और मैं क्षत्रीय हूं। अगर आप मुझे नन्दिनी नहीं देगें तो मैं उसे बलपूर्वक प्राप्त कर ले जाऊंगा। वशिष्ठ जी ने बोला आप तो बलवान क्षत्रीय है जो चाहे तुरंत कर सकते हैं।
जब विश्वामित्र बलपूर्वक नन्दिनी को ले जाने लगे तब वह विलाप करती हुई कहने लगी हे भगवन्! ये सब मुझे डंडों से पीट रहे हैं मैं अनाथों की तरह मार खा रही हूं। आप मेरी उपेक्षा क्यों कर रहे हैं? विशिष्ठ उसका करूण कुंदन सुनकर भी न क्षुब्ध हुए न धैर्य से विचलित। वे बोले क्षत्रीयों का बल हैं तेज और ब्राम्हणों का क्षमा। मेरा प्रधान बल क्षमा मेरे पास है। तुम्हारी मौज हो तो जाओ।
तुझमें शक्ति हो तो रह जा देख, तेरे बच्चे ये लोग मजबुत रस्सी से बाधकर लिए जा रहे हैं। वशिष्ठ की बात सुनकर नन्दिनी का सिर ऊपर उठ गया। आंखें लाल हो गई और उसका रोद्र स्वरूप को देखकर विश्वामित्र के सारे सैनिक भाग गए।
क्षमा करना सीखें वसिष्ठ से
महाभारत के इस दृष्टांत से हमें सीख मिलती है कि क्षमा करने वाला हमेशा श्रेष्ठ होता है इसलिए क्षमा करना और कठिन परिस्थितियों में भी धैर्य रखने की सीख महर्षि वसिष्ठ से मिलती है।मुनि वसिष्ठ की नंदिनी से विश्वामित्र के संघर्ष के बाद अब गंधर्वराज अर्जुन से कहते हैं हे!अर्जुन राजा इक्ष्वाकु के कुल में एक कल्माषपाद नाम का एक राजा हुआ। राजा एक दिन शिकार खेलने वन में गया। वापस आते समय वह एक ऐसे रास्ते से लौट रहा था। जिस रास्ते पर से एक समय में केवल एक ही आदमी गुजर सकता था। उसी रास्ते पर मुनि वसिष्ठ के सौ पुत्रों में से सबसे बड़े पुत्र शक्तिमुनि उसे आते दिखाई दिये। राजा ने कहा तुम हट जाओ मेरा रास्ता छोड़ दो तो कल्माषपाद ने कहा आप मेरे लिए मार्ग छोड़े दोनों में विवाद हुआ तो शक्तिमुनि ने इसे राजा का अन्याय समझकर उसे राक्षस बनने का शाप दे दिया। उसने कहा तुमने मुझे अयोग्य शाप दिया है ऐसा कहकर वह शक्तिमुनि को ही खा जाता है।
शक्ति और वशिष्ठ मुनि के और पुत्रों के भक्षण का कारण भी उसकी राक्षसीवृति ही थी। इसके अलावा विश्वामित्र ने किंकर नाम के राक्षस को भी कल्माषपाद में प्रवेश करने की आज्ञा दी। जिसके कारण वह ऐसे नीच कर्म करने लगा। लेकिन इतना होने पर भी महर्षि वसिष्ठ उसे क्षमा करते रहे। एक बार महषि वसिष्ठ अपने आश्रम लौट रहे थे तो उन्हे लगा कि मानो कोई उनके पीछे वेद पाठ करता चल रहा है।
वसिष्ठ बोले कौन है तो आवाज आई मैं आपकह पुत्र-वधु शक्ति की पत्नी अदृश्यन्ती हूं। आपका पौत्र मेरे गर्भ में है वह बारह वर्षो से गर्भ में वेदपाठ कर रहा है वे यह सुनकर सोचने लगे कि अच्छी बात है मेरे वंश की परम्परा नहीं टूटी। तभी वन में उनकी भेट कल्माषपाद से हुई वह वसिष्ठ मुनि को खाने के लिए दौड़ा। उन्होने अपनी पुत्रवधु से कहा बेटी डरो मत यह राक्षस नहीं यह कल्माषपाद है। इतना कहकर हाथ मे जल लेकर अभिमंत्रित कर उन्होने उस पर छिड़क दिया और कल्माषपाद शाप से मुक्त हो गया। वसिष्ठ ने उसे आज्ञा दी की तुम अब कभी किसी ब्राम्हण का अपमान मत करना। महर्षि वसिष्ठ राजा के साथ अयोध्या आए और उसे पुत्रवान बनाया।
द्रोपदी ने कर्ण को देखा तो बोल पड़ी
गंधर्व से कल्माषपद की और वशिष्ठ की महिमा सुनने के बाद सभी पांडवों ने धौम्य ऋषि को अपना पुरोहित बनाया और अपनी माता को लेकर द्रुपद श्रेष्ठ के देश उनके पुत्री द्रोपदी के विवाह को देखने चल पड़े। पांडव द्रुपद देश की ओर चलने लगे। रास्ते में उन्होने वेद व्यास के दर्शन किए। जब पाण्डवों ने देखा कि द्रुपद नगर निकट आ गया है तो उन्होने एक कुम्हार के घर डेरा डाल दिया और ब्राम्हा्रणों के समान भिक्षावृति करके अपना जीवन बिताने लगे। राजा द्रुपद के मन में भी इस बात की बड़ी लालसा था कि वे अपनी पुत्री का विवाह अर्जुन से किया। इसलिए अर्जुन को पहचानने के लिए उन्होंने एक ऐसा धनुष बनवाया जो कोई ओर ना तोड़ पाए। इसके अलावा उन्होंने एक ऐसा यंत्र टंगवा दिया जो चक्कर काटता रहे। द्रुपद ने यह घोषणा कर दी कि जो धनुष पर डोरी चढ़ाकर लक्ष्य का भेदन करेगा, वही मेरी पुत्री को प्राप्त करेगा।
युधिष्ठिर आदि राजा द्रुपद आदि उनका वैभव देखते हुए वहां आए और उन्हीं के पास बैठ गए।
धृष्टद्युम्र ने द्रोपदी के पास खड़े होकर मधुर वाणी में कहा यह धनुष है, यह और आप लोगों के सामने लक्ष्य है। आप लोग घूमते हुए यन्त्र में अधिक से अधिक पांच बाणों में जो भी लक्ष्य भेदन कर देगा द्रोपदी का विवाह उसी से होगा। ध्रष्टद्युम्र की बात सुनकर दुर्योधन, शाल्व, शल्य राजा और राजकुमारों ने अपने बल के अनुसार धनुष चढ़ाने की कोशिश की लेकिन ऐसा झटका लगा कि वे बेहोश हो गए और इसके कारण उनका उत्साह टूट गया। इन सभी को निराश देखकर धर्नुधर शिरोमणी कर्ण उठा।
उसने धनुष को उठाया और देखते ही देखते डोरी चढ़ा दी। उसे लक्ष्य वेधन करता देख द्रोपदी जोर से बोली मैं सुत पुत्र से विवाह नहीं करूंगी। कर्ण ने ईष्र्या भरी हंसी के साथ सूर्य को देखा और धनुष को नीचे रख दिया।उसके बाद शिशुपाल ने भी यही प्रयत्न और जरासन्ध ने भी प्रयास किया पर सफल नहीं हो पाए। उसी समय अर्जुन ने चित्त में संकल्प उठा कि मैं लक्ष्यवेधन करूं ।
द्रोपदी को बिना देखे कुंती ने कहा पांचों भाई आपस में बांट लो
गंधर्वराज से भेट के बाद पांडव द्रोपदी का स्वयंवर देखने द्रुपद देश पहुंचते हैं जब बड़े- बड़े योद्धा स्वयंवर की शर्त को पूरा नहीं कर पाते हैं तो अर्जुन मन ही मन स्वयंवर जीतने का प्रण करते हैं और खड़े हो जाते हैं।
अर्जुन को धनुष चढ़ाने के लिए तैयार देखकर ब्राह्मण आश्चर्यचकित रह गए। सभी ब्राह्मण अर्जुन को देखकर अनेक तरह की बातें करने लगी। अभी लोगों की आंखें अर्जुन पर ठीक से टीक भी नहीं पाई थी कि उन्होने धनुष को आसानी से उठाकर पांच बण उठाकर उनमें से एक लक्ष्य पर चलाया और वह यंत्र के छिद्र में हो गर जमीन पर गिर पड़ा। चारों तरफ शोर होने लगा पुष्पवर्षा होने लगी। द्रुपद की प्रसन्नता की सीमा ना रही। द्रोपदी प्रसन्नता के साथ अर्जुन के पास गई और उसके गले में वरमाला डाल दी।
जब राजाओं ने देखा कि द्रुपद अपनी कन्या का विवाह एक ब्राह्मण के साथ करना चाहते हैं तो वे क्रोधित हुए। राजाओं ने अपने शस्त्र उठा लिए और द्रुपद को मारने के लिए दौड़े। राजाओं को आक्रमण करते देख भीम और अर्जुन बीच में आ गए। अर्जुन और कर्ण का आमना-सामना हुआ। अर्जुन ने उनकी वीरता देखकर कहा आप ब्राह्मण पुत्र होकर भी इतने वीर हैं। दोनों आपस में युद्ध करने लगे। श्री कृष्ण पहचान चुके थे कि ये तो पांडव है इसलिए उन्होंने सभी राजाओं को समझाया उसके बाद सब कुछ शांत हो गया धीरे-धीरे भीड़ छंटने लगी। भिक्षा लेकर लौटने का समय बीच चुका था। माता कुंती पुत्रों का इंतजार करते हुए चिंतित थी। इतने में अर्जुन ने कुम्हार के घर में प्रवेश करते हुए कहा मां हम भिक्षा लाएं है यह सुनकर माता कुंती ने कहा बेटा पांचों भाई बांट लो।
तब युधिष्ठिर ने कहा द्रोपदी पांचो भाइयों की पत्नी होगी
जब कुन्ती ने देखा कि यह तो साधारण भिक्षा नहीं, राजकुमारी द्रोपदी है तब तो उन्हें बड़ा पछतावा हुआ। वे हाथ पकड़कर युधिष्ठिर के पास ले गई और बोलीं- बेटा मैने आज तक कोई बात झूठ नहीं कही है। अब तुम कोई ऐसा उपाय बताओ जिससे द्रोपदी को तो अधर्म ना हो और मेरी बात झूठी भी ना हो।
युधिष्ठिर ने कुछ देर विचार किया और अर्जुन को कहा भाई तुमने मर्यादा के अनुसार द्रोपदी को प्राप्त किया है। अब तुम विधि पूर्वक अग्रि प्रज्वलित करके उसका पाणिग्रहण करो।अर्जुन ने कहा आप मुझे अधर्म का भागी मत बनाइये। सत्पुरूषों ने कभी ऐसा आचरण नहीं किया। पहले आप, तब भीमसेन फिर मैं और फिर नकुल व सहदेव विवाह करें। इसलिए इस राजकुमारी का विवाह तो आप ही के साथ होना चाहिए।सभी पाण्डव अर्जुन का वचन सुनकर द्रोपदी की तरफ देखने लगे। उस समय द्रोपदी भी उन्ही लोगों की ओर देख रही थी। द्रोपदी के सौन्दर्य, माधुर्य और सौशील्य से मुग्ध होकर पांचो भाई एक-दूसरे को देखने लगे। तब युधिष्ठिर ने सभी भाइयों के मन भाव जानकर और महर्षि व्यास के वचनों को स्मरण कर कहा द्रोपदी हम सभी भाइयों की पत्नी होगी।उसके बाद श्री कृष्ण और बलराम उनके निवास स्थान पर पहुंचे। धर्मराज युधिष्ठिर के चरणों को स्पर्श किया अपने नाम बताये। उसके बाद पांडवों ने उनका बड़े अच्छे से स्वागत सत्कार किया। उसके बाद थोड़ी देर बाद उन्होने कहा अब हमें चलना चाहिए नहीं तो लोगों को पता चला जाएगा।
द्रोपदी के भाई ने पाण्डवों का पीछा किया और
ध्रष्टद्युम्र पाण्डवों का पीछा करते हुए कुम्हार के घर पहुंचता है। वह पांडवों के घर के निकट एक ऐसे स्थान पर बैठा था जहां से वह पांडवों की बातें तो सुन ही रहा था और द्रोपदी को देख भी रहा था। उसने पांडवों के हर काम को बड़े गौर से देखा। चारों भाइयों ने भिक्षा लाकर बड़े भाई युधिष्ठिर के सामने रख दी। कुन्ती ने द्रोपदी से कहा पहले तुम भिक्षा में से देवताओं, आश्रितो का भाग निकालो, ब्राम्हणों को भिक्षा दो। बचे अन्न का आधा हिस्सा भीम को और शेष भाग के छ: हिस्से करके हम लोग खा लें। वहां कि सारी बातें देख सुनकर द्रुपद के पास पहुंचा।
द्रुपद उस समय चिंतित हो रहे थे।उन्होने अपने पुत्र यानी द्रोपदी के भाई से पूछा बेटा द्रोपदी कहा है? उसे ले जाने वाला कौन है? कितना अच्छा होता यदि मेरी पुत्री का विवाह अर्जुन से हुआ होता।ध्रष्टद्युम्र ने कहा जिस युवक ने लक्ष्य भेदन किया द्रोपदी को ले जाते समय उसके चेहरे पर कोई शिकन नहीं थी। उसका कोईं भी राजा बाल तक बांका नहीं कर पाया। उनके साथ जो पुरुष था। उसने वृक्ष उखाड़ दिया था। वे दोनों मेरी बहन को कुम्हार के घर लेकर गए थे। वहां एक तेजस्वी स्त्री बैठी थी।
द्रोपदी को क्यों मिले पांच पति?
धर्मराज युधिष्ठिर की बात सुनकर द्रुपद प्रसन्न हो गए। उसके बाद द्रुपद ज्यो त्यों करके अपने आप को सम्भाला फिर युधिष्ठिर से वरणावत नगर से लाक्ष्या भवन तक की कहानी सुनने के बाद द्रुपद ने युधिष्ठिर से कहा अब आप अर्जुन को पाणिग्रहण की आज्ञा दें। द्रुपद से युधिष्ठिर ने कहा राजन विवाह तो मुझे भी करना ही है। द्रुपद बोले यह तो अच्छी बात है। आप द्रोपदी से विवाह कर लें। युधिष्ठिर ने कहा राजन राजकुमारी द्रोपदी हम सभी की पटरानी होगी।
राजा द्रुपद बोले कुरूवंश भूषण आप यह कैसी बात कर रहे हैं। एक राजा के बहुत सी रानियां तो हो सकती है परन्तु एक स्त्री के बहुत से पति हो ऐसा सुनने में नहीं आया है। युधिष्ठिर आप तो धार्मिक और पवित्र विचारों वाले हैं। तुम्हे तो धर्म के विपरित बात सोचनी भी नहीं चाहिए।युधिष्ठिर के साथ द्रुपद इस बात पर विचार कर ही रहे थे। तभी वहां वेदव्यास जी आए उन्होंने राजा द्रुपद को एकांत में ले जाकर समझाया।
व्यास जी द्रुपद को द्रोपदी के पूर्व जन्म की कथा सुनाने लगे। उन्होंने यह बतलाया कि द्रोपदी ने पिछले जन्म में बहुत सुन्दर युवती थी। सर्वगुण सम्पन्न होने के कारण उसे योग्य वर नहीं मिल रहा था। इसलिए उसने शंकर जी की तपस्या की और जब भगवान शंकर प्रकट हुए। उस समय द्रोपदी ने हड़बडाहट में पांच बार वर मांगे। इसलिए उसे शिव जी के वरदान के कारण इस जन्म में पांच पति प्राप्त होंगे। साथ ही वेदव्यास जी ने उन्हे पाण्डवों के पिछले जन्म के द्विव्य रूप के दर्शन भी करवाए। यह सब देखकर द्रुपद व्यास जी से बोले जब तक मैंने द्रोपदी के पूर्व जन्म की कथा नहीं सुनी थी। तब तक मुझे आपकी बात धर्मानुकूल नहीं लग रही थी। भगवान शंकर ने जैसा वर दिया था वैसा ही होना चाहिए। फिर चाहे वह धर्म हो या अधर्म अब उसमें मेरा कोई अपराध नहीं समझा जाएगा।
तब पांचों पाण्डवों से हुआ द्रोपदी का विवाह
वेदव्यास जी ने द्रुपद के साथ युधिष्ठिर के पास जाकर कहा आज ही विवाह के लिए शुभ दिन व शुभ मुहूर्त है। आज चन्द्रमा पुष्यनक्षत्र पर है। इसलिए आज तुम द्रोपदी के साथ पाणिग्रहण करो। यह निर्णय होते ही द्रोपदी ने आवश्यक सामग्री जुटाई। द्रोपदी को श्रृंगारित कर मंडप में लाया गया। उस समय विवाह मण्डप का सौन्दर्य अवर्णीय था। पांचों पांडव भी सजधजकर मंडप में पहुंचे।
पांचों ने एक-एक दिन द्रोपदी से पाणिग्रहण किया।इस अवसर पर सबसे विलक्षण बात यह हुई कि देवर्षि नारद के कथानुसार द्रोपदी प्रतिदिन कन्या भाव को प्राप्त हो जाया करती थी। विवाह में राजा द्रुपद ने दहेज में बहुत से रत्न, धन, और गहनों के साथ ही हाथी, घोड़े भी दिए। इस प्रकार पांडव अपार सम्पति और स्त्री रत्न आदि प्राप्त कर पाण्डव वहां सुख से रहने लगे। द्रुपद की रानियों ने कुन्ती के पास आकर उनके पैरों पर सिर रखकर प्रणाम किया। कुन्ती ने द्रोपदी को आर्शीवाद दिया। भगवान श्री कृष्ण ने भी पांडवों का विवाह हो जाने पर भेंट के रूप में अनेक उपहार दिए।
किस्मत का लिखा कोई नहीं बदल सकता
जब भाग्य साथ होता है या कहे भगवान साथ होता है तो कोई कितना ही षडयंत्र कर ले। आपका कुछ नहीं बिगाड़ सकता है क्योंकि जाको राखे साइया मार सके ना कोए। इसका मतलब है कि जो आपकी किस्मत में लिखा है उसे परमात्मा के अलावा कोई नहीं बदल सकता है। लाक्ष्यग्रह में कौरवों के पूरे षडयंत्र के बाद भी पांडवों का जीवित रहना इस ही बात का इशारा करता है सभी राजाओं को अपने गुप्तचरों से मालूम हो गया कि द्रोपदी का विवाह पांडवों के साथ हुआ है। लक्ष्य वेदन करने वाला और कोई नही बल्कि अर्जुन है।
जब दुर्योधन को यह समाचार मिला तो उसे बड़ा दुख हुआ। दुर्योधन से धीमे स्वर में दु:शासन बोला भाई जी अब मुझे समझ आ गया है कि भाग्य ही बलवान है। उनके हस्तिनापुर पहुंचने पर वहां का सब समाचार सुनकर विदुरजी को बड़ी प्रसन्नता हुई।वे उसी समय धृतराष्ट्र के पास जाकर बोले महाराज धन्य है धन्य। कुरूवंश की वृद्धि हो रही है। यह सुनकर धृतराष्ट्र को लगा कि द्रोपदी मेरे पुत्र दुर्योधन को मिल गई। विदुर ने उन्हे बताया कि उसका विवाह पांडवों से हुआ है। तब धृतराष्ट्र ने कहा पाण्डवों को तो मैं अपने पुत्रों से अधिक स्नेह करता हूं। उनका विवाह हो गया इससे अधिक प्रसन्नता का विषय मेरे लिए क्या हो सकता है।
जब विदुर वहां से चले गये तब दुर्योधन और कर्ण ने धृतराष्ट्र के पास आकर कहा विदुर के सामने हम आप से कुछ भी नहीं कह सकते हैं। आप उन शत्रुओं की विजय पर हर्ष कैसे जता सकते हैं। दुर्योधन ने कहा पिताजी मेरा विचार है कि कुछ विश्वासी गुप्तचर और ब्राह्मणों को भेजकर पाण्डव पुत्रों में फूट डलवा दी जाए। हमें द्रुपद को भी अपने साथ मिला लेना चाहिए। कर्ण ने कहा दुर्योधन तुम्हारी क्या राय है कर्ण ने कहा मुझे तो तुम्हारे द्वारा बतलाए गए उपायों से पाण्डवों का वश में होना सम्भव नहीं लगता।
और पांडवों का हस्तिनापुर आगमन।
तब पांडव लौट गए हस्तिनापुर.
महात्मा विदुर रथ पर सवार होकर पाण्डवों के पास राजा द्रुपद की राजधानी में गये। वे पहले नियमानुसार राजा द्रुपद से मिले। विदुर जी द्रुपद, द्रोपदी, पाण्डव आदि के लिए कई उपहार अपने साथ लेकर गये। राजा द्रुपद ने विदुर का खूब आदर सत्कार किया। विदुर उसके बाद श्री कृष्ण और बलराम से मिले। उन्होंने विदुर की बहुत आवभगत की।
विदुर जी ने कृष्ण और पाण्डवों से उचित अवसर देखकर कहा। महाराज धृतराष्ट्र ने आप लोगों के कुशल-मंगल पूछा है। आपके साथ विवाह संबंध होने से उन्हे बहुत प्रसन्नता हुई। पितामाह भीष्म और द्रोणाचार्य ने भी आपकी कुशलता का समाचार पूछा है। इस अवसर पर वे चाहते हैं कि अब आप पाण्डवों को हस्तिनापुर भेज दें। सभी कुरूवंश के लोग पाण्डवों को देखने के लिए लालायित हैं। पाण्डवों को अपने देश से चले बहुत दिन हो गये हैं।
अब आप इन लोगों को आज्ञा दें। आपकी आज्ञा होते ही मैं वहां संदेश भेज दूंगा।राजा द्रुपद ने कहा आपका कहना ठीक है। कुरूवंशियों से सम्बंध करके मुझे भी कम प्रसन्नता नहीं हुई है। लेकिन मैं अपनी जुबान से यह बात नहीं कह सकता। युधिष्ठिर ने कहा हम लोग आज्ञा होने पर ही यहां से जाएंगे। इस प्रकार सलाह करने के बाद पाण्डव विदा हो गए। पाण्डव हस्तिनापुर पहुंचे। सभी श्रेष्ठजन वहां उनकी अगवानी के लिए पहुंचे।
द्रोपदी के साथ एकांत में एक भाई दूसरे को देख ले तो...
इन्द्रप्रस्थ में राज्य पाने के बाद पांडव जब वहां सुख से रहने लगे। उसके बाद धर्मराज युधिष्ठिर अपनी पत्नी द्रोपदी के साथ इन्द्रप्रस्थ में सुखपूर्वक रहकर भाईयों के साथ प्रजा का पालन करने लगे। सारे शत्रु उनके वश में हो गये। एक दिन की बात है। सभी पाण्डव राज्यसभा में बहुमुल्य आसनों पर बैठकर काम कर रहे थे। उसी समय नारद वहां पहुंचे नारद की विधिपूर्वक पूजा की। द्रोपदी भी आई और नारद मुनि का आर्शीवाद लेकर उनकी आज्ञा से रानिवास चली गई। नारद ने पाण्डवों से कहा पाण्डवों आप पांच भाइयों के बीच मात्र एक पत्नी है, इसलिए तुम लोगों को ऐसा नियम बना लेना चाहिए ताकि आपस में कोई झगड़ा ना हो।
प्राचीन समय की बात है। सुन्द और उपसुन्द दो असुर भाई थे। दोनों के बारे में ऐसा कहा जाता है दोनों दो जिस्म एक जान हैं। उन्होंने त्रिलोक जीतने की इच्छा से विधिपूर्वक दीक्षा ग्रहण करके तपस्या प्रारंभ की। कठोर तप के बाद ब्रहा्र जी प्रकट हुए। दोनों भाईयों ने अमर होने का वर मांगा। तब ब्रहा्र कहा वह अधिकार तो सिर्फ देवताओं को है। तुम कुछ और मांग लो। तब दोनों ने कहा कि हम दोनों को ऐसा वर दें कि हम सिर्फ एक- दुसरे के द्वारा मारे जाने पर ही मरें। ब्रह्रा जी ने दोनों को वरदान दे दिया। दोनों भाईयों ने वरदान पाने के बाद तीनों लोको में कोहराम मचा दिया। सभी देवता परेशान होकर ब्रहा्र की शरण में गए। तब ब्रहा्र जी ने विश्वकर्मा से एक ऐसी सुन्दर स्त्री बनाने के लिए कहा जिसे देखकर हर प्राणी मोहित हो जाए। उसके बाद एक दिन दोनों भाई एक पर्वत पर आमोद-प्रमोद कर रहे थे। तभी वहां तिलोतमा (विश्वकर्मा की सुन्दर रचना) कनेर के फूल तोडऩे लगी। दोनों भाई उस पर मोहित हो गए। दोनों में उसके कारण युद्ध हुआ। सुन्द और उपसुन्द दोनों मारे गए।
तब कहानी सुनाने के बाद नारद बोले: इसलिए मैं आप लोगों से यह बात कह रहा हूं। तब पाण्डवों ने उनकी प्रेरणा से यह प्रतिज्ञा की एक नियमित समय तक हर भाई द्रोपदी के पास रहेगा। एकान्त में यदि कोई एक भाई दूसरे भाई को देख लेगा तो उसे बारह वर्ष के लिए वनवास होगा।
क्या हुआ, जब अर्जुन ने भंग किया युधिष्ठिर-द्रोपदी का एकांत?
पाण्डव द्रोपदी के पास नियमानुसार रहते। एक दिन की बात है लुटेरो ने किसी ब्राहा्रण की गाय लुट ली और उन्हे लेकर भागने लगे। ब्राहा्रण पाण्डवों के पास आया और अपना करूण रूदन करने लगा।ब्राहा्ण ने कहा कि पाण्डव तुम्हारे राज्य में मेरी गाय छीन ली गई है। अगर तुम अपनी प्रजा की रक्षा का प्रबंध नहीं कर सकते तो तुम नि:संदेह पापी हो। लेकिन उनके सामने अड़चन यह थी कि जिस कमरे में राजा युधिष्ठिर द्रोपदी के साथ बैठे हुए थे।उसी कमरे में उनके अस्त्र-शस्त्र थे। एक ओर कौटुम्बिक नियम और दुसरी तरफ ब्राहा्रण की करूण
पुकार। तब अर्जुन ने प्रण किया की मुझे इस ब्राहा्रण की रक्षा करना है। चाहे फिर मुझे इसका प्रायश्चित क्यों ना करना पड़े? उसके बाद अर्जुन राजा युधिष्ठिर के घर में नि:संकोच चले गए। राजा से अनुमति लेकर धनुष उठाया और आकर ब्राहा्ण से बोले ब्राहा्रण देवता थोड़ी देर रूकिए में अभी आपकी गायों को आपको लौटा
देता हूं। अर्जुन ने बाणों की बौछार से लुटेरों को मारकर गोएं ब्राहा्ण को सौंप दी। उसके बाद अर्जुन ने आकर युधिष्ठिर से कहा। मैंने एकांत ग्रह में अकार अपनी प्रतिज्ञा तोड़ दी इसलिए मुझे वनवास पर जाने की आज्ञा दें। युधिष्ठिर ने कहा तुम मुझ से छोटे हो और छोटे भाई यदि अपनी स्त्री के साथ एकांत में बैठा हो तो बड़े भाई के द्वारा उनका एकांत भंग करना अपराध है। लेकिन जब छोटा भाई यदि बड़े भाई का एकांत भंग करे तो वह क्षमा का पात्र है। अर्जुन ने कहा आप ही कहते हैं धर्म पालन में बहानेबाजी नहीं करनी चाहिए। उसके बाद अर्जुन ने वनवास की दीक्षा ली और वनवास को चल पड़े।
जब नागकन्या उलूपी अर्जुन पर मोहित हो गई....
अर्जुन वनवास को चल दिए। वे एक दिन गंगा नदी में स्नान करने पहुंचे। गंगा नदी वे स्नान और तर्पण करके हवन करने के लिए बाहर निकलने ही वाले थे कि नागकन्या उलूपी उन पर मोहित हो गई। उसने कामासक्त होकर अर्जुन को जल के भीतर खींच लिया और अपने भवन में ले गई। अर्जुन ने देखा कि वहां यज्ञ की अग्रि प्रज्वलित हो रही है। उसने उसमें हवन किया और अग्रिदेव को प्रसन्न करके नागकन्या उलूपी से पूछा सुन्दरि तुम कौन हो? तुम ऐसा साहस करके मुझे किस देश लेकर आई होउलूपी ने कहा मैं ऐरावत वंश के नाग की कन्या उलूपी हूं। मैं आपसे प्रेम करती हूं। आपके अतिरिक्त मेरी कोई गति नहीं है। आप मेरी अभिलाषा पूर्ण किजिए। मुझे स्वीकार किजिए। अर्जुन ने कहा आप लोगों ने द्रोपदी के लिए जो मर्यादा बनाई है। उसे मैं जानती हूं। लेकिन इस लोक में उसका लोप नहीं होता। आप मुझे स्वीकार किजिए वरना मैं मर जाऊंगी। अर्जुन ने धर्म समझकर उलूपी की इच्छा पूर्ण की रातभर वही रहे। दूसरे दिन वहां से चले। चलते समय उलूपी ने उन्हे वर दिया कि तुम्हे किसी भी जलचर प्राणी से कभी कोई भय नहीं रहेगा।
कैसे हुआ अर्जुन और चित्रांगदा का विवाह?
अर्जुन महेन्द्र पर्वत होकर समुद्र के किनारे चलते-चलते मणिपुर पहुंचे। वहां के राजा चित्रवाहन बहुत धर्मात्मा थे। उनकी सर्वांगसुन्दरी कन्या का नाम चित्रांगदा था। एक दिन अर्जुन की दृष्ठि उस पर पड़ गयी उन्होने समझ लिया कि यह यहां कि राजकुमारी है। और राजा चित्रवाहन के पास जाकर कहा राजन् मैं कुलीन क्षत्रीय हूं। आप मुझसे अपनी कन्या का विवाह कर दिजिए।
चित्रवाहन के पूछने पर अर्जुन ने बतलाया कि मैं पाण्डुपुत्र अर्जुन हूं। चित्रवाहन ने कहा कि हे वीर अर्जुन मेरे पूर्वजो में प्रभजन नाम के एक राजा हो गये हैं। उन्होंने संतान न होने पर उग्र तपस्या करके भगवान शंकर को प्रसन्न किया। उन्होने वर दिया कि तुम्हारे वंश में सबको एक-एक संतान होती जाएगी। तब से हमारे वंश में ऐसा ही होता आया है। मेरे यह एक ही कन्या है इसे में पुत्र ही समझता हूं। इसका मैं पुत्रिकाधर्म अनुसार विवाह करूंगा, जिससे इसका पुत्र हो जाए और मेरा वंश प्रवर्तक बने। अर्जुन ने कहा ठीक है आपकी शर्त मुझे मंजुर है और इस तरह अर्जुन और चित्रांग्दा का विवाह हुआ। उसके बाद अर्जुन राजा से अनुमति लेकर फिर तीर्थयात्रा के लिए चल पड़े।
क्या कहा कुबेर की प्रेमिका ने अर्जुन से?
वीरवर अर्जुन वहां से चलकर समुद्र के किनारे-किनारे अगस्त्यतीर्थ, सौभाग्यतीर्थ, पौलोमतीर्थ, कारन्धमतीर्थ, और भारद्वाज तीर्थ में गये। उन तीर्थो के पास ऋषि-मुनि गंगा में स्नान नहीं करते थे। अर्जुन के पूछने पर मालुम हुआ कि गंगा में बड़े-बड़े ग्राह रहते हैं, जो ऋषियों को निगल जाते हैं। तपस्वीयों के रोकने पर भी अर्जुन ने सौभाग्यतीर्थ में जाकर स्नान किया। जब वहां मगर ने अर्जुन का पैर पकड़ा, तब वे उसे उठाकर ऊपर ले आये । लेकिन उस समय यह बड़ी विचित्र घटना घटी कि वह मगर तत्क्षण एक सुन्दरी अप्सरा के रूप में परिणित हो गए। अर्जुन के पुछने पर अप्सरा ने बतालाया कि मैं कुबेर की प्रेयसीवर्गा नाम की अप्सरा हूं। एक बार मैं अपनी चार सहेलियों के साथ कुबेर जी के पास जा रही थी। रास्ते में एक तपस्वी के तप में हम लोगों ने विघ्र डालना चाहा। तपस्वी के मन में काम का भाव उत्पन्न नहीं हुआ लेकिन क्रोधवश उन्होने शाप दे दिया कि तुम पांचों मगर होकर सौ वर्ष तक पानी रहोगे। नारद से यह जानकर कि पाण्डव अर्जुन यहां आकर थोड़े ही दिनों में हमारा उद्धार कर देंगे। हम लोगों इन तीर्थो में मगर होकर रह रही हैं। आप हमारा उद्धार कर दिजिए। उलूपी के वरदान के कारण अर्जुन को जलचरों से कोई भय नहीं उन्होंने सब अप्सराओं का उद्धार भी कर दिया और उनके प्रयत्न से अधिक वहां के सब तीर्थ बाधाहीन भी हो गये।
क्या हुआ, जब अर्जुन ने बलपूर्वक सुभद्रा को रथ पर बैठा लिया?
वहां से लौटकर अर्जुन फिर एक बार मणिपुर गए। चित्रांगदा के गर्भ से जो पुत्र हुआ। उसका नाम ब्रभुवाहन रखा गया। अर्जुन ने राजा चित्रवाहन से कहा कि आप इस लड़के को ले लिजिए। जिससे इसकी शर्त पूरी हो जाए। उन्होंने चित्रांगदा को भी बभ्रुवाहन के पालन-पोषण के लिए वहां रहने की आवश्कता बताई। उसे राजसुय यज्ञ में अपने पिता के साथ इन्द्रप्रस्थ आने के लिए कहकर तीर्थयात्रा पर आगे चल पड़े। वहां उनकी मुलाकात श्री कृष्ण से हुई। वे कुछ समय तक रेवतक पर्वत पर ही रहने लगे। एक बार यदुवंशी बालक सजधजकर टहल रहे थे। गाजे बाजे नाच तमाशे की भीड़ सब ओर लगी हुई थी। इस उत्सव में भगवान श्री कृष्ण और अर्जुन सब साथ-साथ में घुम रहे थे।
वहीं कृष्ण की बहिन सभुद्रा भी थी। उसकी रूप राशि मोहित होकर अर्जुन एकटक उसकी ओर देखने लगे।भगवान कृष्ण ने अर्जुन के अभिप्राय को जानकर कहा क्षत्रियों की स्वयंवर की चाल है। कि क्षत्रियों के यहां स्वयंवर वरेगी या नहीं क्योंकि सबकि रूचि अलग-अलग होती हैं। क्षत्रीयों में बलपूर्वक हरकर ब्याह करने की भी नीति है। तुम्हारे लिए यह मार्ग प्रशस्त है। भगवान श्री कृष्ण और अर्जुन ने यह सलाह करके अनुमति के लिए युधिष्ठिर के पास दूत भेजा। युधिष्ठिर ने हर्ष के साथ इस प्रस्ताव का अनुमोदन किया। दूत के लौटने के बाद श्री कृष्ण ने अर्जुन वैसी सलाह दे दी। एक दिन सुभद्रा रैवतक पर्वत पर देवपूजा करके पर्वत की प्रदक्षिणा की। जब सवारी द्वारका के लिए रवाना हुई। तब अवसर पाकर अर्जुन ने उसे बलपूर्वक रथ में बिठा लिया। सैनिक यह दृश्य देखकर चिल्लाने लगे। बात दरबार तक पहुंची तब सभी यदुवंशीयों में अर्जन का विरोध होने लगा। तब बलराम ने बोला की आप लोग बिना कृष्ण की आज्ञा के उनका विरोध कैसा कर सकते हैं। जब यह बात कृष्ण के सामने रखी गई तो उन्होने क हा कि अर्जुन जैसा वीर योद्धा जिसे शिव के अलावा कोई नहीं हरा सकता वह अगर मेरी बहन का पति बने तो इससे ज्यादा हर्ष की बात और क्या हो सकती है।
कौन थे द्रोपदी के पुत्र जो पांडवों से हुए?
कृष्ण ने सभी को समझाया। उसके बाद अर्जुन और सुभद्रा का विधिपूर्वक विवाह करवाया गया। विवाह के एक साल बाद तक वे द्वारका में सुभद्रा के साथ ही रहे और कुछ समय पुष्कर में बिताया। वनवास के बारह साल पूरे होने के बाद वे सुभद्रा के साथ इन्द्रप्रस्थ आए। अर्जुन के इन्द्रप्रस्थ पहुंचने पर सभी ने उनका बहुत खुशी से स्वागत किया। सुभद्रा लाल रंग के ग्वालियन के वेष में रानिवास गयी। वहां जाकर सुभद्रा ने कुंती का आशीर्वाद लिया। सुभद्रा ने द्रोपदी के पैर छूकर कहा बहन मैं तुम्हारी दासी हूं।
यह सुनकर द्रोपदी ने उसे खुशी से गले लगा लिया। अर्जुन के आ जाने से महल में रौनक आ गयी थी। उनके इन्द्रप्रस्थ लौट आने की खबर सुनकर कृष्ण और बलराम उनसे मिलने इंद्रप्रस्थ आए। उन्होंने सुभद्रा को बहुत सारे उपहार दिए। बलराम और दूसरे यदुवंशी कुछ दिन रूककर वहां से चले गए लेकिन कृष्ण वही रूक गए। समय आने पर सुभद्रा ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम अभिमन्यु रखा गया। द्रोपदी ने भी एक-एक वर्ष के अंतराल से पांचों पांडव के एक-एक पुत्र को जन्म दिया। युधिष्ठिर के पुत्र का नाम प्रतिविन्ध्य, भीमसेन से उत्पन्न पुत्र का नाम सुतसोम, अर्जुन के पुत्र का नाम श्रुतकर्मा, नकुल के पुत्र का नाम शतानीक, सहदेव के पुत्र का नाम श्रुतसेन रखा गया।
अग्रि ने मांग लिया भोजन में....
एक दिन अर्जुन और भगवान श्रीकृष्ण ने जलविहार पर जाने का मन बनाया। अर्जुन भगवान श्री कृष्ण के साथ युधिष्ठिर से आज्ञा लेकर यमुना के किनारे जंगल पर जल विहार करने वाले जंगल पर जलविहार करने लगे। वहां भगवान अर्जुन और श्री कृष्ण ने बड़े ही आनंद के साथ विहार किया। उसके बाद वे लोग एक स्थान पर जाकर बैठे थे। तभी वहां एक ब्राह्मण आया। उसने दोनों से कहा मैं एक ब्रह्मभोजी ब्राह्मण हूं। मैं आप लोगों से भोजन की भिक्षा मांगने आया हूं।
श्री कृष्ण और अर्जुन ने ब्राह्मण से पूछा बोलो तुम्हारी तृप्ति किस प्रकार के अन्न से होगी। तब ब्राह्मण ने कहा कि मैं कोई साधारण बा्हा्रण ने कहा मैं अग्रि हूं। आप मुझे वही अन्न दिजिए। जो मेरे लायक हो। मैं खाण्डव वन को जला देना चाहता हूं। लेकिन इस वन में तक्षक नाग और उसका परिवार रहता है। इसलिए इन्द्र हमेशा उस वन की रक्षा करता है। जब-जब मैं इस वन को जलाने की कोशिश करता हूं। तब-तब इन्द्र मेरी इच्छा पूरी नहीं होने देता। आप लोगों की सहायता से इसे जला सकता हूं। मैं आप लोगों से इसी भोजन की याचना करता हूं।
कैसे हो गई अग्रि को आहूति से अपच!
तब जन्मेजय ने वैशम्पायनजी से कहा कि अग्रि ऐसा क्यों करना चाहते थे। तब वैशम्पायनजी ने कहा प्राचीन समय की बात है। श्वेतकि नाम का एक राजा था। वह ब्राहा्णों का बहुत सम्मान करता था। उसने कई बड़े-बड़े यज्ञ किए। अन्त में जब सब ब्राहा्रण थक गए। तब राजा ने भगवान शंकर की तपस्या की। भगवान शंकर को प्रसन्न करके ऋषि दुर्वासा से एक महान यज्ञ करवाया।
राजा श्वेतकि अपने परिवार के साथ स्वर्ग सिधारे। उस यज्ञ में बारह वर्ष तक अग्रि देव को लगातार घी की अखण्ड आहूतियां दी गई। जिसके कारण उनकी पाचन शक्ति कमजोर हो गई। रंग फीका पड़ गया और प्रकाश मन्द हो गया। जब अपच के कारण वे परेशान हो गए तो ब्रम्हा जी के पास गए। ब्रहा्रजी ने कहा तुम खांडव वन को जला दो तो तुम्हारी अरूचि खत्म हो जाएगी। अग्रि देव ने सात बार वन जलाने की कोशिश की लेकिन इन्द्र ने उन्हें सफल नहीं होने दिया।
असुर ने बनाई पाण्डवों के लिए अद्भूत सभा!
खांडवदाह के बाद मायासुर ने अर्जुन से कहा श्री कृष्ण ने तो मुझे अपने चक्र से मारने का विचार कर लिया था। अग्रि ने मुझे जलाने का निश्चय कर लिया था। मैं सिर्फ आपके कारण ही जिंदा हूं। अब आप बताइये कि मैं आपकी क्या सेवा करूं। उसने कहा मैं दानवों का विश्वकर्मा हूं। उनका प्रधान शिल्पी हूं। आप मेरी सेवा स्वीकार करें। तब अर्जुन ने कहा मैं तुम्हारी सेवा स्वीकार नहीं कर सकता हूं लेकिन मैं तुम्हारी अभिलाषा नष्ट नहीं करना चाहता हूं। जब मायासुर ने भगवान श्रीकृष्ण से प्रार्थना की तो उन्होंने विचार किया।
मायासुर से कहा यदि तुम अर्जुन की सेवा और युधिष्ठिर का कोई प्रिय कार्य करना चाहते हो तो अपनी रूचि के अनुसार एक सभा बना दो लेकिन उस सभा में मनुष्यों, देवताओं व असुरों का कौशल प्रकट होना चाहिए। कुछ दिनों तक कृष्ण वहीं ठहरे। सभा बनाने के संबंध में पाण्डवों के साथ विचार किया। फिर शुभ मुहूर्त में ब्राह्मण भोजन और दान करके सर्वगुणों से सम्पन्न सभा बनाने के लिए दस हजार हाथ चौड़ी जमीन नाप ली। पाण्डवों ने बड़े सुख से श्रीकृष्ण का सत्कार किया। वे कुछ दिनों तक वहां बहुत सुख से रहे। फिर उन्होंने वहां से विदा होने की बात कही। तब भगवान श्रीकृष्ण की यात्रा पर जाने से पहले के कार्य प्रारंभ किए गए। उन्होंने स्नान करने के बाद आभुषण धारण किए। उनकी ब्राह्मणों ने स्वास्तिवाचन के द्वारा पूजा-पाठ किया। वे सोने के रथ पर सवार हुए पांचों पाण्डव उन्हें दो कोस तक छोडऩे गए।
कैसे संदेश भेजा स्वर्गीय पाण्डु ने युधिष्ठिर के लिए?
पाण्डवों की सभा में एक दिन देवर्षि नारद आए। नारद जी ने युधिष्ठिर को कुटनीति व राजनीति से संबंधित कई बातें बताई। तब युधिष्ठिर ने नारद जी से कहा नारदजी आपने सभी लोकों की सभाए देखी हैं तो मुझे उन सभी सभाओं का वर्णन सुनाएं। तब देवर्षि ने युधिष्ठिर को देवता, वेद, यम, ऋषि, मुनि आदि की सभाओं का वर्णन सुनाया। नारद जी ने यमराज की सभा में मौजुद सभी राजाओं की उपस्थिति का वर्णन किया।
युधिष्ठिर ने उनसे पूछा नारद जी आपने मेरे पिता पाण्डु को किस प्रकार देखा था। तब देवर्षि ने कहा मैं आपको राजा हरिशचन्द्र की कहानी सुनाता हूं। हरिशचन्द्र एक वीर सम्राट थे। उन्होंने सम्पूर्ण पृथ्वी पर राजसूय यज्ञ का अनुष्ठान किया था।आपके पिता राजा हरिशचन्द्र का ऐश्वर्य देखकर विस्मित हो गये। जब उन्होंने देखा कि मैं मनुष्य लोक जा रहा हूं। तब उन्होंने आपके लिए यह संदेश भेजा है। उन्होंने कहा युधिष्ठिर तुम मेरे पुत्र हो। यदि तुम राजसूय यज्ञ करोगे तो मैं चिरकालिक आनंद भोगूंगा। नारदजी ने कहा मैंने आपके पिता से कहा कि मैं उनका यह संदेश आप तक पहुंचा दूंगा। युधिष्ठिर आप अपने पिता का संकल्प पूर्ण करें। देवर्षि नारद इतना कहकर ऋषियों सहित वहां से चले गए।
कृष्ण को क्यों जाना पड़ा इंद्रप्रस्थ?
देवर्षि नारद की बात सुनकर धर्मराज युधिष्ठिर राजसूय यज्ञ की चिन्ता से बैचेन हो गए। उन्होंने अपने धर्म पर विचार किया और जिस प्रकार प्रजा की भलाई हो ,वही करने लगे। वे किसी भी पक्ष नहीं करते थे। सारी पृथ्वी पर युधिष्ठिर की जयजयकार होने लगी। किसी का कर बढ़ाया नहीं जाता, वसुली में किसी को सताया नहीं जाता। युधिष्ठिर के राज्य में प्रजा सुख से रहने लगी। उनके राज्य में जब सब कुछ ठीक चलने लगा। तब उन्होंने एक दिन अपने मंत्री और भाइयों को बुलाकर पूछा कि राजसूय यज्ञ के संबंध में आप लोगों की क्या सम्मति है। मंत्रियों ने एक स्वर में कहा कि आपको राजसूय यज्ञ करना चाहिए। आप इसके अधिकारी है। इसमें विचार करने की कोई आवश्यकता नहीं है। मंत्रियों की बात सुनकर धर्मराज ने सभी बुद्धिजीवियों से बातचीत की। उसके बाद युधिष्ठिर ने सोचा कि श्रीकृष्ण ही मुझे इस संबंध में सही राय दे सकते हैं।
यह सोचकर युधिष्ठिर ने अपना एकदूत शीघ्रगामी रथ से द्वारका भेज दिया। जैसे ही दूत वहां पहूंचा उसकी बात सुनकर श्रीकृष्ण शीघ्र ही इन्द्रप्रस्थ के लिए निकल पढ़े। श्रीकृष्ण ने इन्द्रप्रस्थ पहुंचकर युधिष्ठिर से भेंट की। तब युधिष्ठिर ने कहा श्रीकृष्ण में राजसुय यज्ञ करना चाहता हूं। इस पर आपका क्या विचार है? युधिष्ठर ने कहा मेरे सभी मित्र एक स्वर में कहते हैं राजसुय यज्ञ करो लेकिन मुझे लगता है कि कुछ लोग अपने स्वार्थ के कारण तो कुछ अपनी भलाई को मेरी भलाई बताकर मुझे राजसूय यज्ञ करने की बात कह सकते हैं। आप ही मुझे सही गलत के बीच का फर्क बताएं कि मुझे क्या करना चाहिए।
क्यों जरूरी था जरासंध से युद्ध?
जब युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण से राजसूय यज्ञ करने के बारे में उनके विचार पूछे। तब श्रीकृष्ण ने कहा आपको राजसूय यज्ञ करना चाहिए क्योंकि आप उस यज्ञ को करने के योग्य है लेकिन इसके लिए आपको जरासंध को हराना पड़ेगा क्योंकि जितने भी बड़े राजा हैं वे जरासंध के अधीन है। जरासंध ने उन्हें अपने कब्जे में कर रखा है और वह अपने आप को पुरुषोतम कहता है। वह मेरी उपेक्षा के कारण जिंदा है।जब कंस का आतंक चारो ओर था। तब उसके अत्याचार के कारण मैंने उसे मार दिया। ऐसा करने से के बाद कंस का भय तो मिट गया लेकिन उस समय ही जरासंध ने अपने आप को शक्तिशाली बनाया। उसकी सेना उस समय इतनी बड़ी हो गई थी कि उसने सारे राजाओं को हराकर उन्हें किले में बंद कर दिया। भगवान शंकर की तपस्या से उसे ऐसा वर मिला है जिससे वह अपनी हर प्रतिज्ञा पूरी कर सकता है। इसलिए अगर आप राजसूय यज्ञ करना चाहते हैं तो सबसे पहले कैदी राजाओं को छुड़ाएं। तब युधिष्ठिर कृष्ण से पूछते हैं कि कृष्ण आप ही बताएं की जरासंध को कैसे पराजित करें।
क्यों जरूरी था जरासंध से युद्ध?
जब युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण से राजसूय यज्ञ करने के बारे में उनके विचार पूछे। तब श्रीकृष्ण ने कहा आपको राजसूय यज्ञ करना चाहिए क्योंकि आप उस यज्ञ को करने के योग्य है लेकिन इसके लिए आपको जरासंध को हराना पड़ेगा क्योंकि जितने भी बड़े राजा हैं वे जरासंध के अधीन है। जरासंध ने उन्हें अपने कब्जे में कर रखा है और वह अपने आप को पुरुषोतम कहता है। वह मेरी उपेक्षा के कारण जिंदा है।जब कंस का आतंक चारो ओर था। तब उसके अत्याचार के कारण मैंने उसे मार दिया। ऐसा करने से के बाद कंस का भय तो मिट गया लेकिन उस समय ही जरासंध ने अपने आप को शक्तिशाली बनाया। उसकी सेना उस समय इतनी बड़ी हो गई थी कि उसने सारे राजाओं को हराकर उन्हें किले में बंद कर दिया। भगवान शंकर की तपस्या से उसे ऐसा वर मिला है जिससे वह अपनी हर प्रतिज्ञा पूरी कर सकता है। इसलिए अगर आप राजसूय यज्ञ करना चाहते हैं तो सबसे पहले कैदी राजाओं को छुड़ाएं। तब युधिष्ठिर कृष्ण से पूछते हैं कि कृष्ण आप ही बताएं की जरासंध को कैसे पराजित करें।
यह दृश्य देखकर दोनों रानियां कांप उठी...
युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण की बात सुनकर उनसे कहा आप मुझे बताएं? जरासंध कौन है? यह इतना पराक्रमी क्यों है? भगवान श्रीकृष्ण ने कहा कुछ समय पहले मगधदेश में बृहद्रथ नाम के राजा थे। उन्होंने कशिराज की दो कन्याओं से शादी की और ऐसी प्रतिज्ञा की कि मैं दोनों से समान प्रेम करूंगा। शादी के बाद उन्हें पुत्र की प्राप्ति नहीं हुई। एक दिन उनके राज्य में एक महात्मा आए।
वे एक पेड़ के नीचे ठहरे हुए थे।राजा बृहद्रथ उनका आर्शीवाद लेने उनके पास गए और उनसे प्रार्थना करने लगे राजा ने उन्हें बताया कि वे संतानहीन है। तब महात्मा ने उन्हें एक फल दिया और कहा कि यह फल आप अपनी पत्नी को दें। वे इसे ग्रहण करेंगी तब आपको निश्चित ही पुत्र की प्राप्ति होगी। उनसे वह फल प्रसाद के रूप में लेकर वह फल उन्होंने दोनों रानियों को दिया।
दोनों ने उसके दो टुकड़े करके फल ग्रहण कर लिया। कुछ दिनों बाद ही रानियों ने गर्भ धारण कर लिया। राजा की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। समय आने पर दोनों के गर्भ से शरीर का एक-एक टुकड़ा पैदा हुआ। उन्हें देखकर रानियां कांप उठी। उन्होंने घबराकर यही सलाह की कि इन दोनों टुकड़ो को फेंक दिया जाए। दोनों की दासियों ने वे टुकड़े रानिवास के नीचे फेंक दिए।
दो टुकड़ों को जोडऩे पर बन गया राजकुमार!
उस बालक के दोनों टुकड़े वहा रहने वाली एक राक्षसी ने देखे। उसका नाम जरा था। वह राक्षसी वह खून-पीती और मांस खाती थी। उसने उन टुकड़ों को उठाया और संयोगवश सुविधा से ले जाने के लिए उसने दोनों टुकड़े मिलाए। टुकड़े मिलकर एक महाबली राजकुमार बन गया। राक्षसी आश्चर्य चकित हो गई।वह उस राजकुमार को उठा तक ना सकी।
उस राजकुमार ने अपनी मुठ्ठी बाधकर मुंह में डाल ली और बहुत तेज आवाज में रोने लगा। रानिवास के सभी लोग उसकी आवाज सुनकर आश्चर्यचकित हो गए। रानियां अपने पुत्र को मरा हुआ समझकर निराश हो चुकी थी, फिर भी उनके स्तनों में दूध उमड़ रहा था। जरा ने सोचा मैं इस राजा के राज्य में रहती हूं। इसे कोई संतान नहीं है और इसे संतान की बहुत अभिलाषा है। साथ ही यह धार्मिक और महात्मा भी है।
इसलिए इस राजकुमार को नष्ट करना अनुचित है।उसने वह राजकुमार जाकर राजा ब्रह्द्रथ को सौंप दिया। तब ब्रह्द्रथ ने पूछा मुझे पुत्र देने वाली तु कौन है? जरा ने राजा को अपना परिचय दिया और सारी कहानी सुनाई। राजा ने उसे धन्यवाद दिया। तब राजा ने कहा इसे जरासंध ने संधित किया है। इसलिए इसका नाम जरासंध होगा।
क्यों वेष बदला अर्जुन कृष्ण और भीम ने?
जरासंध की कहानी सुनने के बाद श्री कृष्ण ने कहा जरासंध के नाश का समय आ गया है। लेकिन आमने-सामने की लड़ाई में तो उसको हराना बहुत कठीन है। इसलिए उससे सिर्फ कुश्ती लड़कर ही जीता जा सकता है। जब एकांत में हम तीनों की उससे मुलाकात होगी तो वह जरूर ही किसी ना किसी से युद्ध करना स्वीकार कर लेगा।
कृष्ण की बातें सुनकर भीम और अर्जुन और युधिष्ठिर तीनों उनसे सहमत हो गए। युधिष्ठिर ने कहा कृष्ण आपकी बोली गई हर एक बात सच है क्योंकि आप जिसके पक्ष में होते हैं उसकी जीत निश्चित होती है। उसके बाद युधिष्ठिर सें आज्ञा लेकर तीनों मगध की ओर निकल पड़े। मगध पहुंचते ही उन्होंने वह कि बुर्ज को नष्ट कर दिया और फिर नगर में प्रवेश किया। उन दिनों मगध में बहुत अपशकुन हो रहे थे। इसलिए पुरोहित की सलाह पर जरासंध हाथी पर पूरे नगर की परिक्रमा करने निकले।
उसी समय उससे बांह युद्ध करने के उद्देश्य से कृष्ण, अर्जुन और भीम तीनों ने नगर में प्रवेश किया। जरासंध उन्हें देखते ही खड़ा हो गया और उसने उनका स्वागत किया। लेकिन कुछ ही क्षणों बाद वह उनके आचरण और कंधे पर शस्त्रों के निशान देखकर समझ गया कि वे कोई ब्राह्मण नहीं हैं। उसने तीनों का तिरस्कार करते हुए पूछा तुम लोग कौन हो? इतने निडर होकर वेष बदलकर और बुर्ज तोड़कर नगर में प्रवेश करने के पीछे तुम्हारा क्या उद्देश्य है।
इसलिए कृष्ण ने जरासंध को भीम से मरवाया...
तब कृष्ण ने जरासंध से कहा हम स्नातक ब्राह्मण हैं, ये तो आपकी समझ की बात है। स्नातक का वेष तो ब्राह्मण वैश्य, क्षत्रीय सभी धारण कर सकते हैं। हम क्षत्रिय हैं हम सिर्फ बोली के बहादुर नहीं है। दुश्मन के घर में बिना दरवाजे के प्रवेश करना और दोस्त के घर में दरवाजे से प्रवेश करना इसमें कोई अधर्म नहीं है। तब जरासंध बोला मुझे तो याद नहीं है कि आपका और मेरा किसी बात पर युद्ध हुआ हो, तो मुझे शत्रु समझने का क्या कारण है? मैं अपने धर्म को निभाता हूं। प्रजा को परेशान नहीं करता। फिर मुझे दुश्मन समझने का क्या कारण है?
तब कृष्ण ने कहा तुमने सभी क्षत्रियों को मारने का निर्णय लिया है, क्या यह अपराध नहीं है? तुम सबसे अच्छे राजा होते हुए भी सभी को मारने चाहते हो। यह तुम्हारा घमंड है। तुम अपने बराबर वालों के सामने यह घमंड छोड़ दो। तुम अपनी ये जिद छोड़ दो नहीं तो तुम्हे अपनी सेना सहित यम लोक में जाना पड़ेगा। हम ब्राह्मण नहीं है। मैं कृष्ण हूं और ये पाण्डु पुत्र अर्जुन और भीम है। हम तुम्हे युद्ध के लिए ललकारते हैं। तब जरासंध बोला मैं किसी भी राजा को यहां बिना जीते नहीं लाया हूं। उसने गुस्से में कहा तुम तीनों चाहो तो मुझ से एक साथ लड़ लो। कृष्ण को पता था कि आकाशवाणी के अनुसार इसका वध यदुवंशी के हाथ से नहीं होना चाहिए।। इसलिए उन्होंने जरासंध को खुद ना मारकर उसे भीम से मरवाया।
दुश्मन को कभी कमजोर नहीं समझना चाहिए
दुश्मन की शक्ति चाहे आपकी तुलना में कितनी भी कम क्यों ना हो लेकिन उसे कमजोर नहीं समझना चाहिए क्योंकि एक छोटी चिंगारी भी बड़ी आग लगाने की क्षमता रखती है।
जब भगवान कृष्ण ने देखा कि जरासंध युद्ध करने के लिए तैयार हो गया है। तब उन्होंने उससे पूछा तुम हम तीनों में से किससे युद्ध करना चाहते हो। जरासंध ने भीम के साथ कुश्ती लडऩा स्वीकार किया। दोनों ही ब्राह्मणों से स्वास्तिवचन करवाने के बाद अखाड़े में उतर गए। दोनों के बीच मल्ल युद्ध छिड़ गया। युद्ध लगातार तेरह दिनों तक बिना खाये-पीये और बिना रूके चलता रहा। चौदहवे दिन रात के समय जरासंध थक कर चूर हो गया। उसकी ऐसी दशा देखकर कृष्ण ने कहा भीमसेन दुश्मन के थक जाने पर उसे अधिक दबाना सही नहीं है। अधिक जोर लगाने पर वह मर ही जाएगा। इसलिए अब तुम जरासंध को दबाओ मत सिर्फ उससे बाह युद्ध करते रहो।
उनकी बात सुनकर भीम कृष्ण का इशारा समझ गए और उन्होंने जरासंध को मार डालने का संकल्प लिया। वे जरासंध को उठाकर उसे घुमाने लगे। सौ बार घुमाकर उसे उन्होंने जमीन पर पटक दिया। घुटनों से मारकर उसकी रीढ़ की हड्डी को तोड़ दिया। साथ ही हुंकार करके उसका एक पैर पकड़ा और दूसरे पैर पर अपना पैर रखकर उसे दो खण्डों में चीर डाला। भगवान कृष्ण, अर्जुन और भीम ने दुश्मन को हराने के बाद उसके शरीर को रानिवास के ड्योढी पर डाल दिया। उसके बाद उन्होंने सभी बंदी राजाओं को मुक्त करवाया।
तब शिशुपाल ने श्रीकृष्ण को फटकारना शुरू किया
जरासंध को हराने के बाद पांचों पांडवों ने दिग्विजय अभियान चलाया और सभी दिशाओं में जीत का परचम लहराया। उसके बाद जब धर्मराज ने देखा कि मेरे अन्न, वस्त्र,रत्न, आदि के भण्डार सभी पूर्ण है। तब उन्होंने यज्ञ करने का संकल्प किया।
अब युधिष्ठिर ने सभी बढ़ो की आज्ञा से और छोटों की सहमति से राजसूय यज्ञ करने का निर्णय लिया। ब्राह्मणों ने सही समय पर युधिष्ठिर को यज्ञ की दिक्षा दी। युधिष्ठिर ने अपनी भव्य सेना, मंत्रियों और सगे संबंधियों के साथ यज्ञशाला में प्रवेश किया। उनके रहने के लिए सुन्दर स्थान बनाए गए। युधिष्ठिर ने भीष्म, धृतराष्ट्र आदि को बुलाने के लिए नकुल को भेजा। सभी लोगों ने निमंत्रण स्वीकार किया। यज्ञ में आने वाले राजा और राजकुमारों को गिनना कठिन था। धर्मराज युधिष्ठिर ने भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य से प्रार्थना की-आप लोग इस यज्ञ में मेरी सहायता करो।
आप इस खजाने को अपना ही समझिए और इस तरह सब कार्य देखिए, जिससे मेरी मनोकामना पूरी हो। यज्ञ के आखिरी दिन सभी राजा सभा में बैठे थे। तब धर्मराज ने पूछा पितामह बताइए कि इन सभी सज्जनों में से हम सबसे पहले किसकी पूजा करें। तब भीष्म ने कहा इस पृथ्वी पर श्री कृष्ण से बढ़कर कौन है? इसलिए सबसे पहले उनकी ही पूजा करनी चाहिए। भीष्म की आज्ञा से सहदेव ने श्रीकृष्ण की पूजा की। चेदिराज शिशुपाल भगवान श्री कृष्ण की अग्रपूजा देखकर चिढ़ गया। उसने भरी सभा में भीष्म पितामह और युधिष्ठिर को धिक्कारते हुए कृष्ण को फटकारना शुरू किया।
क्यों किया शिशुपाल ने श्रीकृष्ण का तिरस्कार?
राजसूय यज्ञ के बाद श्रीकृष्ण की अग्रपूजा से चेदिराज शिशुपाल का चिढ़ गया।उसने भरी सभा में भीष्मपितामह और धर्मराज युधिष्ठिर को धिक्कारते हुए कृष्ण को फटकारना शुरू किया। उसने कहा कृष्ण बड़े-बड़े महात्माओं और राजाओं से महान नहीं हो सकता है।
पाण्डवों यह जो तुम कर रहे हो यह अधर्म है। कृष्ण राजा नहीं है। फिर उसे तुम राजाओं का सम्मान कैसे दे सकते हो। द्रोणाचार्य और द्रुपद जैसे श्रेष्ठ लोगों की उपस्थिति में इसकी पूजा अनुचित है। इन सभी के होते हुए तुमने कृष्ण की पूजा करके हम लोगों का तिरस्कार किया है। ऐसा करके तुमने अपनी बुद्धि का दिवालियापन दिखाया है।
उसके बाद शिशुपाल ने श्रीकृष्ण से कहा मैं मानता हूं कि पांडव बेचारे डरपोक हैं। ये अपनी कायरता और मुर्खता के कारण तुम्हारी पूजा कर रहे है।इस तरह उसने भगवान कृष्ण का बहुत अपमान किया। तभी युधिष्ठिर शिशुपाल के पास गए और उसे समझाने लगे कि इस तरह की कड़वी बातें कहना अपमानजनक तो है ही साथ ही अधर्म है।
आप से बहुत से उम्र में बड़े राजा यहां उपस्थित हैं पर किसी को भी कृष्ण की पूजा से आपत्ति नहीं है। उसके बाद भीष्मपितामह और सहदेव ने भी उसे समझाया। लेकिन शिशुपाल तो गुस्से के कारण आग बबुल हो रहा था।उसने सभी राजाओं से कहा कि आप लोग किसके डर से बैठे हैं मैं आपका सेनापति बनकर खड़ा हूं। आइए हम लोग डटकर पांडवों का सामना करते हैं। कल पढि़ए....शिशुपाल के जन्म की कथा
बच्चा पैदा होते ही गधे जैसा रेंकने लगा!
शिशुपाल का कृष्णजी के प्रति ऐसा व्यवहार देखकर भीम को बहुत गुस्सा आया। भीम गुस्से में शिशुपाल को मारने के लिए उठे। लेकिन उसे भीष्म पितामह ने रोक लिया। भीष्मपितामह भीम को समझाने लगे।
उन्होंने भीम से कहा हे भीम ये शिशुपाल चेदिराज के वंश में पैदा हुआ, तब इसकी तीन आंखें थी और चार भुजाएं थी। पैदा होते ही वह गधों के समान रेंकने लगा था। उसकी यह दशा देखकर उसके सारे रिश्तेदार डर गए। सभी रिश्तेदारों ने उसे त्यागने का विचार बनाया। तभी आकाशवाणी हुई कि तुम्हारा पुत्र बड़ा बलवान होगा। इससे डरो मत, निश्चिंत होकर इसका पालन करो।
यह सुनकर उसकी माता के मन को शांति हुई। उन्होंने कहा आप जो भी हों जिसने मेरे पुत्र के भविष्य के बारे में भविष्यवाणी की है वे कृपा करके यह भी बताएं कि इसकी मौत किसके हाथों होगी। तब आकाशवाणी ने दुबारा कहा- जिसकी गोद में जाने पर तुम्हारे पुत्र की दो अधिक भुजाएं गिर जाएं और तीसरा नेत्र गायब हो जाए उसी के हाथों तुम्हारे पुत्र की मौत होगी। उस समय शिशुपाल के विचित्र रूप का समाचार सुनकर पृथ्वी के अधिकतर राजा उसे देखने के लिए आने लगे।
जब श्रीकृष्ण ने शिशुपाल को गोद में लिया तो...
चेदिराज के घर में हुए विचित्र बालक का समाचार सुनकर सारी पृथ्वी के राजा उसे देखने आने लगे। चेदिराज ने सभी का बहुत प्रसन्नता के साथ स्वागत किया। उसके जन्म का समाचार सुनकर कृष्ण और बलराम भी अपनी बुआ से मिलने और उसे देखने पहुंचे। श्रीकृष्ण ने जैसे ही उसे गोद में लिया। उसी समय उसकी दो भुजाएं गिर गई। तीसरा नैत्र गायब हो गया।
यह देखकर शिशुपाल की मां व्याकुल होकर उससे कहने लगी श्री कृष्ण में तुमसे डर गई हूं। तब उसकी मां ने श्रीकृष्ण से हाथ जोड़कर कहा तुम मेरी ओर देखकर शिशुपाल के सारे अपराध क्षमा कर देना ये मेरी विनती है तुमसे। तब श्रीकृष्ण ने कहा बुआजी तुम चिंता मत करो मैं इसके सौ अपराध भी क्षमा कर दूंगा। जिनके बदले इसे मार डालना चाहिए।इसी कारण इस कुल के कलंक शिशुपाल ने आज इतना दुस्साहस दिखाया है। मेरा अपमान किया है। भीष्म की बातें शिशुपाल से सही नहीं गई। उसे गुस्सा आ गया।
किसने पहले ही कर दी थी महाभारत की भविष्यवाणी?
जब राजसूय यज्ञ समाप्त हो गया तब भगवान श्रीकृष्ण-द्वैपायन अपने शिष्यों के साथ धर्मराज युधिष्ठिर के पास आए। युधिष्ठर ने भाइयों के साथ उठकर उनका पूजन किया। उसके बाद वे अपने सिंहासन पर बैठ गए और सबको बैठने की आज्ञा दी। तब भगवान व्यास जी ने कहा की आपके सम्राट होने से कुरुवंश की कीर्ति बहुत उन्नति हुई। धर्मराज ने हाथ जोड़कर पितामह व्यास का चरणस्पर्श किया और कहा मुझे एक बात पर संशय है।
आप ही मेरे संशय को दूर कर सकते है।नारद ने कहा था कि भुकंप आदि उत्पात हो रहे हैं। आप कृपा करके यह बताइए की शिशुपाल की मृत्यु से उनकी समाप्ति हो गई या वे अभी बाकि है। युधिष्ठिर का प्रश्न सुनकर भगवान व्यास जी ने कहा इन उत्पातों का फल तेरह साल बाद नजर आएगा। वह होगा क्षत्रियों का संहार। उस समय दुर्योधन के अपराध से आप निमित बनोगे और इकठ्ठे होकर भीमसेन और अर्जुन के बल से मर मिटेंगें।
उसके बादभगवान कृष्ण द्वैपायन अपने शिष्यों को लेकर कैलास चले गए। युधिष्ठिर को बहुत चिन्ता हो गई। भगवान व्यास की बात याद करके उनकी सांसे गरम हो गई।
वे अपने भाइयों से बोले - भाइयों तुम्हारा कल्याण हो आज से मेरी जो प्रतिज्ञा है उसे सुनो अब मैं तेरह वर्ष तक जीकर ही क्या करूंगा? यदि जीना ही है तो आज से मेरी प्रतिज्ञा सुनों आज से मैं किसी के प्रति कड़वी बात नहीं कहूंगा। यदि जीना ही है तो आज से मैं अपने भाई-बन्धुओं के कहे अनुसार ही कार्य करूंगा। अपने पुत्र और दुश्मन के पुत्र प्रति एक जैसा बर्ताव करने से मुझमें और उसमें कोई भेद नहीं रहेगा। यह भेदभाव ही तो लड़ाई की जड़ है ना। युधिष्ठिर भाइयों के साथ ऐसा नियम बनाकर उसका पालन करने लगे। वे नियम से पितरों का तर्पण और देवताओं की पूजा करने लगे।
तब दुर्योधन पर पांचों पांडव हंसने लगे
राजा दुर्योधन ने शकुनि के साथ इन्द्रप्रस्थ में ठहरकर धीरे-धीरे सारी सभा का निरीक्षण किया। उसने ऐसा कला कौशल कभी नहीं देखा था। सभा में घूमते समय दुर्योधन स्फ टिक चौक में पहुंच गया। उसे जल समझकर उसने अपने कपड़ो को ऊंचा उठा लिया। बाद में जब उसे यह समझ आया कि यह तो स्फटिक
फर्श है तो उसे दुख हुआ।
वह इधर-उधर भटकने लगा। उसके बाद वह थोड़ा आगे बड़ा और स्फटिक की बावड़ी में जा गिरा। उसकी ऐसी हालत देखकर भीमसेन, अर्जुन, नकुल, सहदेव, सब के सब हंसने लगे। उनकी हंसी से दुर्योधन को बहुत दुख हुआ। इसके बाद जब वह दरवाजे के आकार की स्फटिक की बने दरवाजे को बंद दरवाजा समझकर उसके अंदर प्र्रवेश करने की कोशिश करने लगा। तब उसे ऐसी टक्कर लगी कि उसे चक्कर आ गया।
एक स्थान पर बड़े-बड़े दरवाजे को धक्का देकर खोलने लगा तो दूसरी ओर गिर पड़ा। एक बार सही दरवाजे पर भी पहुंचा तो धोखा समझकर वहां से वापस लौट गया। इस तरह राजसूय यज्ञ और पाण्डवों की सभा देखकर दुर्योधन के मन में बहुत जलन हुई। उसका मन कड़वाहट से भर गया। उसके बाद वह युधिष्ठिर से आज्ञा लेकर वह हस्तिनापुर लौट गया।
आदत बुरी सुधार लो
किसी भी व्यक्ति के पास कितनी ही धनसमृद्धि या पराक्रम क्यों ना हो?लेकिन एक भी बुरी आदत किसी की सारी अच्छाईयों पर भारी पड़ सकती है और दुख का कारण बन सकती हैं। युघिष्ठिर को धर्मराज कहा जाता है उनके सभी भाई उनका सम्मान करते हैं सभी धर्म के अनुसार कार्य करते हैं लेकिन किसी भी तरह का व्यसन इंसान के सुखी जीवन को दुखी बना सकता है।
दुर्योधन जब वापस लौटकर आया तो पाण्डवों की हंसी जैसे उसके कानों में गुंज रही थी। उसका मन गुस्से से भरा हुआ था मन भयंकर संकल्पों से भर गया। शकुनि ने उसका गुस्सा भाप लिया और बोला भानजे तुम्हारी सांसे लंबी क्यों चल रही है? दुर्योधन बोला मामाजी धर्मराज युधिष्ठिर ने अर्जुन के शस्त्र कौशल से सारी पृथ्वी अपने अधीन कर ली है। उन्होंने राजसूय यज्ञ करके सब कुछ जीत लिया है। उनका यह ऐश्वर्य देखकर मेरा मन जलता है।
कृष्ण ने सबके सामने ही शिशुपाल को मार गिराया। लेकिन किसी राजा ने कुछ नहीं किया। समस्या तो यह है कि मैं अकेला तो कुछ नहीं कर सकता और मुझे कोई सहायक नहीं देता है। अब मैं सोच रहा हूं कि मैं मौत को गले लगा लूं। मैने पहले भी पांडवों के अस्तित्व को मिटाने कि कोशिश की लेकिन वो बच गए और अब तरक्की करते जा रहे हैं। अब आप मुझ दुखी को प्राण त्यागने की आज्ञा दीजिए क्योंकि मैं गुस्से की आग मैं झुलस रहा हूं। आप पिताजी को जाकर यह समाचार सुना दीजिएगा।
तब शकुनि ने कहा पाण्डव अपने भाग्य के अनुसार भाग्य का भोग कर रहे हैं। तुम्हे उनसे द्वेष नहीं करना चाहिए। तुम्हारे सभी भाई तुम्हारे अधीन और अनुयायी है। तुम इनकी सहायता से चाहो तो पूरी दुनिया जीत सकते हो। दुर्योधन बोला मामा श्रीकृष्ण, अर्जुन, भीमसेन, नकुल, सहदेव, द्रुपद, आदि को युद्ध में जीतना मेरी शक्ति से बाहर है। लेकिन युधिष्ठिर को जीतने का उपाय बतलाता हूं। युधिष्ठिर को जूए का शौक तो बहुत है लेकिन उन्हें खेलना नहीं आता है। अगर उन्हें जूए के लिए बुलाया जाए तो वे मना नहीं कर पाएंगे। इस तरह उनकी शक्ति को पराजित करने का सबसे आसान तरीका है कि मैं उन्हें जूए मैं हरा दूं।
क्यों गुस्से से भर गया दुर्योधन?
हस्तिनापुर लौटने पर शकुनि ने धृतराष्ट्र के पास जाकर कहा मैं आपको ये बताना चाहता हूं कि दुर्योधन का चेहरा उतर रहा है। वह क्रोध से जल रहा है। वह दिनोंदिन पीला पड़ता जा रहा है। आप उसके तनाव का कारण पता क्यों नहीं लगाते? धृतराष्ट्र ने दुर्योधन को बुलवाया और पूछा तुम इतने गुस्से में क्यों हो शकुनि बता रहा है कि तुम किसी बात को लेकर परेशान हो? मुझे तो तुम्हारे गुस्से का कोई कारण समझ नहीं आ रहा है। क्या तुम अपने भाइयों से या अपने किसी प्रिय व्यक्ति के कारण दुखी हो। दुर्योधन ने कहा-पिताजी मैं कायरों जैसा जीवन नहीं बिता सकता हूं।
मेरे मन में पांडवों से बदला लेने की आग धधक रही है। जिस दिन से मैंने युधिष्ठिर का महल और उसके जीवन का ऐश्चर्य देखा है। तब से मुझे खाना पीना अच्छा नहीं लगता। मेरे शत्रु के घर में इतना वैभव देखकर मुझे अच्छा नहीं लग रहा है। मेरा मन बैचेन हो गया है। लोग सब ओर दिग्विजय कर लेते हैं लेकिन उत्तर की तरफ कोई नही जाता। लेकिन अर्जुन वहां से भी धन लेकर आया है। लाख-लाख ब्राह्मणों के भोजन कर लेने पर जो शंख ध्वनि होती थी। उसे सुनकर मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं। युधिष्ठिर के समान तो इन्द्र का ऐश्वर्य नहीं होगा। तब धृतराष्ट्र शकुनि के सामने ही बोले कि युधिष्ठिर जूए का शौकिन है। तुम उन्हें बुलाओ। मैं उन्हे हराकर छल से हराकर सारी सम्पति ले लुंगा।
दुर्योधन ने क्यों दी जान देने की धमकी?
दुर्योधन ने धृतराष्ट्र से बोला पिताजी मामाजी ठीक कह रहे हैं मैं जूए के अलावा किसी भी तरीके से पांडवों को नहीं हरा सकता हूं। तब धृतराष्ट्र ने कहा मेरे मंत्री विदूर बहुत बुद्धिमान है। मैं उनके कहे अनुसार ही काम करता हूं। उनसे सलाह लेकर ही मैं निश्चय करूंगा कि इस विषय पर मुझे क्या काम करना चाहिए। जो बात दोनों पक्ष के लिए हितकर होगी, वही वे कहेंगे।दुर्योधन ने कहा पिताजी यदि विदुरजी आ गए तब तो वे आपको जरूर रोक देंगे और मैं निश्चित ही अपनी जान दे दूंगा। तब आप विदुर के साथ आराम से राज्य में रहिएगा।
मुझसे आपको क्या लेना है? दुर्योधन की बात सुनकर धृतराष्ट्र ने उसकी बात मान ली। परंतु फिर जुए को अनेक अनर्थो की खान जानकर विदुर से सलाह करने निश्चय किया और उनके पास सब समाचार भेज दिया। यह समाचार सुनते ही विदुर जी ने समझ लिया कि अब कलयुगि अथवा कलयुग का प्रारंभ होने वाला है। विनाश की जड़े जमना शुरू हो गई हैं। वे बहुत ही जल्दी धृतराष्ट्र के पास पहुंचे। उन्होंने धृतराष्ट्र से कहा मैं जूए को बहुत ही अशुभ मानता हूं। आप कुछ ऐसा उपाय कीजिए जिससे मेरे भाई भतीजों में विरोध ना हो।
धृतराष्ट्र ने कहा मैं भी तो यही कहा मैं भी तो यही करता हूं। लेकिन यदि देवता अनुकू ल होंगे तो पुत्र और भतीजों में कलह नहीं होगा।इतना कहने के बाद धृतराष्ट्र ने अपने पुत्र दुर्योधन को अकेले में बुलवाया और उसे समझाने का प्रयास किया लेकिन दुर्योधन बोला पिताजी मेरी धनसम्पति तो बहुत ही सामान्य है। इससे मुझे संतोष नहीं है। मुझे बहुत दुख हो रहा है। मैंने राजसूय यज्ञ के समय युधिष्ठिर की आज्ञा से मणि, रत्न व राशि इकट्ठी की थी। उसके धन का कोई छोर नहीं है। जब रत्नों की भेंट लेते हुए मेरे हाथ थक गए थे। मैं जब उनकी सभा में घुम रहा था तो मयदानव के बनाए स्फटिक बिन्दु सरोवर ने मुझे बावला सा बना दिया था।
क्यों चले गए युधिष्ठिर जुआ खेलने?
राजा धृतराष्ट्र ने अपने मुख्य मंत्री विदुर को बुलवाकर कहा कि विदुर तुम मेरी आज्ञा से जाओ और युधिष्ठिर को बुलाकर ले आओ। युधिष्टिर से कहना हमने एक रत्न से जड़ी सभा बनवाई है। उन्हें कहना वे उसे अपने भाइयों के साथ आकर देखें और सब इष्ट मित्रों के साथ द्यूत क्रीड़ा करें।विदुर को यह बात न्याय के प्रतिकू ल लगी। इसलिए विदुर ने उनसे कहा कि मैं आपकी इस आज्ञा को स्वीकार नहीं कर सकता हूं।
तब धृतराष्ट्र ने कहा अगर तुम मेरी बात नहीं मानते हो तो दुर्योधन के वैर विरोध से भी मुझे कोई दुख नहीं है। धृतराष्ट्र की ऐसी बात सुनकर विदुर मजबूर हो गए। वे शीघ्रगामी रथ से इन्द्रप्रस्थ के लिए निकल पड़े। वहां जाकर उन्होंने युधिष्ठिर ने उनका यथोचित सत्कार किया। वहां पहुंचकर उन्होंने कौरवों का संदेश युधिष्ठिर को सुनाया। उनका संदेश सुनकर युधिष्ठिर ने कहा चाचाजी द्यूत खेलना तो मुझे सही नहीं लगता? तब विदुर ने कहा कि मैं यह जानता हूं कि जुआ खेलना सारे अनर्थो की जड़ है। ऐसा कौन भला आदमी होगा जो जुआ खेलना पसंद करेगा।
मैंने इसे रोकने की बहुत कोशिश की लेकिन मुझे सफलता नहीं मिली। आप को जो अच्छा लगे आप वही करें। युधिष्ठिर ने कहा वहा दुर्योधन, दु:शासन आदि के सिवा और भी खिलाड़ी इकठ्ठे होंगे। हमें उनके साथ जुआ खेलने के लिए बुलाया जा रहा है। तब विदुर ने कहा आप तो जानते ही हैं कि शकुनि पास फेंकने के लिए प्रसिद्ध है। युधिष्ठिर ने कहा तब तो आपका कहना ही सही है। अगर मुझे धृतराष्ट्र शकुनि के साथ जुआ खेलने नहीं बुलाते तो मैं कभी नहीं जाता। युधिष्ठिर ने इतना कहकर कहा कि कल सुबह द्रोपदी और अन्य रानियों के साथ हम पांचों भाई हस्तिनापुर चलेंगे।
और तब जूए का खेल शुरू हुआ
दूसरे दिन सुबह धृतराष्ट्र और सभी पांडव नई सभा को देखने गए। जूए में खिलाडिय़ों ने वहां सबका स्वागत किया। पांडवों ने सभा में पहुंचकर सभी से मिले। इसके बाद सभी लोग अपनी उम्र के हिसाब से अपने-अपने आसनों पर बैठे। मामा शकुनि ने सभी के सामने प्रस्ताव प्रस्तुत किया। उसने कहा धर्मराज यह सभा आपका ही इंतजार कर रही थी। अब पासे डालकर खेल शुरू करना चाहिए। युधिष्ठिर ने कहा राजन् जूआ खेलना पाप है। इसमें न तो वीरता के प्रदर्शन का अवसर है और न तो इसकी कोई निश्चित नीति है। संसार का कोई भी व्यक्ति जुआंरियों की तारिफ नहीं करता है।
आप जूए के लिए क्यों उतावले हो रहे हैं? आपको बुरे रास्ते पर चलाकर हमें हराने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। शकुनि ने कहा युधिष्ठिर देखो बलवान और शस्त्र चलाने वाले पुरुष कमजोर और शस्त्रहीन पर प्रहार करते हैं। जो पासे फेंकने में चतुर है। वह अनजान को तो आसानी से उस खेल में जीत लेगा। युधिष्ठिर ने कहा अच्छी बात है यह तो बताइये। यहां एकत्रित लोगों में से मुझे किसके साथ खेलना होगा। कौन दांव लगाएगा। कोई तैयार हो तो खेल शुरू किया जाए। दुर्योधन ने कहा दावं लगाने के लिए धन और रत्न तो मैं दूंगा। लेकिन मेरी तरफ से खेलेंगे मेरे शकुनि मामा। उसके बाद जूए का खेल शुरू हुआ। उस समय धृतराष्ट्र के साथ बहुत से राजा वहां आकर बैठ गए थे - भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य उनके मन में बहुत दुख था। युधिष्ठिर ने कहा कि मैं सुन्दर आभुषण और हार दाव पर रखता हूं। अब आप बताइए आप दावं पर क्या रखते हैं? दुर्योधन ने कहा कि मेरे पास बहुत सी मणियां और धन हैं। मैं उनके नाम गिनाकर घमंड नहीं दिखाना चाहता हूं। आप इस दावं को जीतिए तो। दावं लग जाने पर पासों के विशेषज्ञ शकुनि ने हाथ में पासे उठाए और बोला यह दावं मेरा रहा । उसके बाद जैसे ही उसने पासे डाले वास्तव में जीत उसकी ही हुई। युधिष्ठिर ने कहा मेरे पास तांबे और लोहे की संदूको में चार सौं खजाने बंद है। एक-एक में बहुत सारा सोना भरा है मैं सब का सब पर दावं लगाता हूं। इस तरह धीरे-धीरे जूआ बढऩे लगा। यह अन्याय विदुरजी से बर्दाश्त नहीं हुआ और उन्होंने युधिष्ठिर को समझाना शुरू किया।
इसीलिए कहते हैं लालच बुरी बला है
वे धृतराष्ट्र से कहते हैं ये पापी दुर्योधन जब अपनी माता के गर्भ से बाहर आया था। तब यह गीदड़ के समान चिल्लाने लगा था। यही कुरुवंश के नाश के कारण बनेगा। यह आपके घर में ही रहता है। आप अपने मोह के कारण उसकी गलतियों को देख नहीं पा रहे हैं। मैं आपको नीति की बात बताता हूं। जब शराबी शराब के नशे में रहता है तो उसे यह भी नहीं ध्यान रहता है कि वह कितनी पी रहा है।
नशा होने पर वह पानी में डूब मरता है या धरती पर गिर जाता है। वैसे ही दुर्योधन जूए के नशे में द्युत हो रहा है। पाण्डवों के साथ इस तरह छल करने का फल अच्छा नहीं होगा। आप अर्जुन को आज्ञा दें ताकि वह दुर्योधन को दंड दे सके। इसे दंड देने पर कुरूवंशी हजारों सालों तक सुखी रह सकता है। आपको किसी तरह का दुख ना हो उसका यही तरीका है। शास्त्रों में सपष्ट रूप से कहा गया है कि कुल की रक्षा के लिए एक पुरुष को, गांव की रक्षा के लिए कुल को, देश की रक्षा के लिए एक गांव को और आत्मा की रक्षा के लिए देश भी छोड़ दें।
सर्वज्ञ महर्षि शुक्राचार्य ने जम्भ दैत्य के परित्याग के समय असुरों को एक बहुत अच्छी कहानी सुनाई। उसे में आपको सुनाता हूं। एक जंगल में बहुत से पक्षी रहा करते थे। वे सब के सब सोना उगलते थे। उस देश का राजा बहुत लालची और मुर्ख था। उसने लालच के कारण बहुत सा सोना पाने के लिए उन पक्षियों को मरवा डाला, जबकि वे अपने घोसलों में बैठे हुए थे। इस पाप का फल क्या हुआ? यही कि उसे ना तो सोना नहीं मिला, आगे का रास्ता भी बंद हो गया मैं सपष्ट रूप से कह देता हूं कि पांडवों का धन पाने के लालच में आप उनके साथ धोखा ना करें।
क्यों युधिष्ठिर ने द्रोपदी को दावं पर लगा दिया?
शकुनि ने युधिष्ठिर से कहा अब तक तुम बहुत सा धन हार चुके हो। अगर तुम्हारे पास कुछ बचा हो तो दांव पर रखो। युधिष्ठिर ने कहा शकुनि मेरे पास बहुत धन है। उसे मै जानता हूं। तुम पूछने वाले कौन? मेरे पास बहुत धन है। मैं सब का सब दावं पर लगाता हूं। शकुनि ने पासा फेंकते हुए कहा यह लो जीत लिया मैंने। युधिष्ठिर ने कहा ब्राह्मण को दान की गई सम्पति को छोड़कर मैं सारी सम्पति दावं पर लगाता हूं।
शकुनि ने कहा लो यह दावं भी मेरा रहा। अब युधिष्ठिर ने कहा मेरे जिस भाई के कन्धे सिंह के समान है। जिनका रंग श्याम है और रूप बहुत सुन्दर है मैं अपने नकुल को दावं पर लगाता हूं। शकुनि ने कहा लो यह भी मेरा रहा। उसके बाद युधिष्ठिर ने सहदेव को दावं पर लगाया। शकुनि ने सहदेव को भी जीत लिया। युधिष्ठिर उसके बाद अर्जुन और भीम को भी दावं पर लगा दिया। युधिष्ठिर ने कहा कि मैं सबका प्यारा हूं।
मैं अपने आप को दांव लगता हूं। यदि मैं हार जाऊंगा तो तुम्हारा काम करूंगा। शकुनि ने कहा यह मारा और पासे फेंककर अपनी जीत घोषित कर दी। तुमने अपने को जूए में हराकर बड़ा अन्याय है क्योंकि अपने पास कोई चीज बाकि हो तब तक अपने आप को दावं पर लगाना ठीक नहीं। अभी तो तुम्हारे पास द्रोपदी है उसे दांव पर लगाकर अबकि बार दावं जीत लो। तब युधिष्ठिर ने द्रोपदी को दावं पर लगा दिया।
सबसे पहले द्रोपदी को लेने के लिए दुर्योधन ने किसे भेजा?
दुर्योधन ने विदुर जी को कहा तुम यहां आओ। तुम जाकर पाण्डवों की पत्नी द्रोपदी को जल्दी ले आओ। वह अभागिन यहां आकर हमारे महल की झाड़ू निकाले। हमारे महल की दासियों के साथ रहे। तब विदुर जी ने कहा दुर्योधन तुझे पता नहीं है कि तू फांसी पर लटक रहा है और मरने वाला है। तभी तो तेरे मुंह से ऐसी बात निकल रही है। अरे तुने शेर के मुंह में हाथ डाला है। तेरे सिर पर सांप फैलाकर फुफकार रहे है। तू उनसे छेडख़ानी करके यमपुरी मत जा।
द्रोपदी कभी तुम्हारी दासी नहीं हो सकती है। दुर्योधन ने प्रतिकामी से कहा युधिष्ठिर ने द्रोपदी को दावं पर लगाया है तुम इसी समय जाकर द्रोपदी को ले आओ। पाण्डवों से डरने की कोई बात नहीं है। प्रतिकामी दुर्योधन की आज्ञा के अनुसार द्रोपदी के पास गया। द्रोपदी से कहा महाराज युधिष्ठिर जूए में सब धन के साथ आपको भी हार गए हैं। जब दावं पर लगाने के लिए कुछ नहीं रहा तो उन्होंने आपको ही दावं पर लगा दिया। आप भी दुर्योधन की जीती हुई वस्तुओं में से है इसलिए आप मेरे साथ सभा में चलिए। तब द्रोपदी बोली जगत में धर्म सबसे बड़ी वस्तु है। मैं धर्म का उल्लंघन नहीं करना चाहती। तुम सभा में जाकर धर्मावलंबियों से पूछो की मुझे क्या करना चाहिए?
क्या कहा द्रोपदी ने जब दु:शासन उसे घसीटता हुआ सभा में ले गया?
जब प्रतिकामी द्रोपदी को बिना लिए सभा में पहुंचता है तो दुर्योधन क्रोधित होकर बोला कि जाओ प्रतिकामी तुम जाकर द्रोपदी को यही लेआओ। उसके इस प्रश्र का उत्तर उसे यहीं दे दिया जाएगा। प्रतिकामी द्रोपदी के क्रोध से डरता था। उसने दुर्योधन की बात टालकर सभा में बैठक सभी लोगों से फिर पूछा कि मैं द्रोपदी से क्या कहूं। दुर्योधन को यह बात बुरी लगी।
उसने प्रतिकामी को घुर कर देखा और अपने छोटे भाई दु:शासन से बोला भाई तुम जाओ और द्रोपदी को पकड़ लाओ। ये हारे हुए पाण्डव हमारा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते हैं। बड़े भाई की आज्ञा सुनते ही दु:शासन गुस्से में सभा से चल पड़ा। वह पाण्डवों के महल में जाकर बोला कृष्णे चल तुझे हमने जीत लिया है। अब तुम शर्माना छोड़कर हमारे साथ चलो। जब द्रोपदी चलने के लिए तैयार नहीं हुई। तब दुशासन ने द्रोपदी के घुंघराले बाल पकड़कर ।
उसे घसीटता हुआ सभा तक ले गया। दुशासन की बात सुनकर द्रोपदी दुखी हुई।उसने गुस्से में कहा अरे दुष्ट दु:शासन सभा में कई वरिष्टजन बैठे है। तु मेरे साथ जो व्यवहार कर रहा है कि यदि इन्द्र के साथ सारे देवता तेरी सहायता करें तो भी पाण्डवों के हाथ से तुझे छूटकारा न होगा। धर्मराज अपने धर्म पर अटल रहे। वे सुक्ष्म धर्म का मर्म जानते हैं। मुझे तो उनमें गुण ही गुण नजर आते हैं। धित्कार हे तुम जैसे क्षत्रियों पर कौरवों जिन्होंने अपने कुल की मर्यादा का नाश कर दिया। द्रोपदी जब ये बातें कह रही थी तो ऐसा लग रहा था मानो उसके शरीर से क्रोधाग्रि धधक रही हो।
और दु:शासन द्रोपदी के वस्त्र खींचने लगा
द्रोपदी ने सभा में आकर कहा इन सभी ने धर्मराज को धोखे से बुलाकर उनका सर्वस्व जीत लिया। उन्होंने पहले अपने भाइयों को हराकर मुझे दावं पर लगाया। अब उन्हें मुझे दावं पर लगाकर हारने का हक था या नहीं ये यहां बैठे कुरुवंशी बताएंगे। तब धृतराष्ट्र के पुत्र विकर्ण ने कहा जूआ, शराब, स्त्री ये सब आसक्ति है। इनमें संलग्र होने पर राजा युधिष्ठिर ने आकर जूए की आसक्ति के कारण द्रोपदी को दावं लगाना पड़ा।
द्रोपदी केवल युधिष्ठिर की ही पत्नी नहीं पांचो पांडवों का उस पर बराबर अधिकार है। इसलिए मेरे विचार में यह बात ध्यान देने योग्य है कि युधिष्ठिर ने अपने को हारने के बाद द्रोपदी को दावं पर लगा दिया। इन सब बातों से मैं निश्चय पर पहुंचता हूं कि द्रोपदी जूए में नहीं हारी गयी। द्रोपदी के बार-बार पूछने पर भी किसी ने कोई उत्तर नहीं दिया। थोड़ी देर बाद कर्ण बोला विकर्ण तू दुर्योधन का छोटा भाई है। तुझे धर्म का ज्ञान नहीं है।
युधिष्ठिर ने अपना सर्वस्व दावं पर लगा दिया और द्रोपदी भी उसके सर्वस्व में है। अब यह सब देखकर दु:शासन बोला विकर्ण तू बालक होकर बूढों सी बात मत कर। इसकी बात पर कोई ध्यान मत दो। पांडवों और द्रोपदी के सारे वस्त्र उतार लो।जिस समय दु:शासन द्रोपदी के वस्त्र खींचने लगा तब द्रोपदी मन ही मन प्रार्थना करने लगी। श्रीकृष्ण का ध्यान करके वह मुंह ढककर रोने लगी। तब उसकी पुकार सुनकर कृष्ण वहां पहुंचे और दु:शासन जब द्रोपदी के चीर खींचने लगा तो वस्त्रों का ढेर लग गए उन्होंने द्रोपदी की रक्षा की।
पांडव अपना धन वापस ले जाने लगे तो क्या किया दुर्योधन ने?
धृतराष्ट्र ने पाण्डवों को अपनी धनराशि ले जाने की अनुमति दे दी,यह सुनते ही दु:शासन अपने बड़े भाई दुर्योधन के पास गए और बड़े दुख के साथ कहा भैया हमने अपना सारा पांडवों से मुश्किल से जीता धन खो दिया। सब धन हमारे दुश्मनों के हाथ में चला गया। अभी कुछ सोच-विचार करना हो तो कर लो। यह सुनते ही दुर्योधन ने कर्ण और शकुनि ने आपस में सलाह की और सभी एक साथ धृतराष्ट्र के पास गए। उन्होंने बहुत विनम्रता से कहा हे राजन हम इस समय पांडवों से धन पाकर ही राजाओं को खुश कर लेते तो हमारा क्या नुकसान था। देखिए डसने के लिए तैयार सांपो को छोडऩा बेवकू फी है। इस समय पांडव भी सांपों के समान ही है। वे जिस समय रथ में बैठकर शस्त्रों पर सुसज्जित होकर हम पर हमला कर देंगे तो हम में से किसी को नहीं छोड़ेंगे। अब वे सेना एकत्रित करने में लग गए हैं। द्रोपदी की भरी सभा में जो बेइज्जती हुई है। उसे पांडव भूला नहीं पाएंगे। इसलिए हम वनवास की शर्त पर पांडव के साथ फिर से जूआ खेलेंगे। इस तरह वो हमारे वश में हो जाएंगे। जूए में जो भी हार जाए, हम या वे बारह वर्ष तक मृग चर्म पहनकर वन में रहे। किसी को पता ना चले की वे पांडव हैं। यदि पता चल जाए कि ये कौरव या पांडव हैं तो फिर बारह वर्षो तक वन में रहें। इस शर्त पर आप जूआ खेलने की आज्ञा दें। पासे डालने की विद्या में हमारे मामा शकुनि निपूण है। अगर पांडव यह शर्त पूरी कर लेंगे तो भी इतने समय में बहुत से राजाओं को अपना दोस्त बना लेंगें। धृतराष्ट्र ने हामी भर दी। उन्होंने कहा बेटा अगर पांडव दूर चले गए हों तब भी उन्हें दूत भेजकर बुलवा लो।
बिना विचारे काम करना नुकसान पहुंचा सकता है
जब धृतराष्ट्र ने दुबारा पाण्डवो को जूआ खेलने बुलाने का प्रस्ताव रखा तो सभा में उपस्थित सभी वरिष्ठजनों ने कहा जूआ मत खेलो आप लोग शांति रखो लेकिन धृतराष्ट्र मजबूर थे। उन्होंने सभी लोगों की सलाह को ठुकरा दिया। उसने पाण्डवों को जूआ खेलने के लिए बुलवाया। यह सब देख सुनकर धर्मपरायण गांधारी बहुत शोक में थी। उन्होंने अपने पति धृतराष्ट्र से कहा स्वामी दुर्योधन जन्म लेते ही गीदड़ के समान रोने लगा था। इसलिए उसी समय विदुर जी ने कहा कि इस पुत्र का त्याग कर दो। मुझे तो यही लगता है कि यह कुरुवंश का नाश कर देगा। आप इसका पक्ष लेकर मुश्किल में पड़ सकते हैं आप बंधे हुए पूल को मत तोडि़ए। शांति, धर्म और मन्त्रियों की सलाह से ही काम कीजिए। इस तरह बिना विचार किए काम करना आपको नुकसान पहुंचा सकता है। तब धृतराष्ट्र कहते हैं कि गांधारी अगर कुल का नाश होता है तो होने दो। मैं उसे नहीं रोक सकता हूं। अब तो दुर्योधन और दु:शासन जो चाहे वही होना चाहिए। पाण्डवों को लौट आने दो। राजा धृतराष्ट्र की आज्ञा से प्रतिकामी पाण्डवों के पास पहुंचा। उसने उनसे जाकर कहा आप फिर चलिए और जूआ खेलिए। तब धर्मराज और पांचों भाई कौरवों के बुलाने पर पुन: हस्तिनापुर चले आते हैं।
दोस्त वही जो समय पर सावधान कर दे
कहते हैं सच्चे दोस्त बहुत मुश्किल से मिलते हैं और जब मिलते हैं तो कई बार हम उन्हें पहचान नहीं पाते हैं। सच्चे दोस्त की सबसे बड़ी पहचान यही है कि वह आपको कोई मुसीबत आने से पहले या आपके दुश्मनों से उनकी निती से पहले ही सावधान कर दे।
जब पांडव वापस आए तो शकुनि ने कहा हमारे वृद्ध महाराज ने आपकी धनराशि आपके पास ही छोड़ दी है। इससे हमें प्रसन्नता हुई। अब हम एक दांव और लगाना चाहते हैं। अगर हम जूए में हार जाएं तो मृगचर्म धारण करके बारह वर्ष तक वन में रहेंगे और तेहरवे वर्ष में किसी वन में अज्ञात रूप से रहेंगे। यदि उस समय भी कोई पहचान ले तो बारह वर्ष तक वन में रहेंगे और यदि आप लोग हार गए तो आपको भी यही करना होगा। शकुनि की बात सुनकर सभी सभासद् खिन्न हो गए।
वे कहने लगे अंधे धृतराष्ट्र तुम जूए के कारण आने वाले भय को देख रहे हो या नहीं लेकिन इनके मित्र तो धित्कारने योग्य हैं क्योंकि वे इन्हें समय पर सावधान नहीं कर रहे हैं। सभा में बैठे लोगों की यह बात युधिष्ठिर सुन रहे थे। वे ये भी समझ रहे थे कि इस जूए के दुष्परिणाम क्या होगा। फिर भी उन्होंने यह सोचकर की पांडवों का विनाशकाल करीब है, जूआ खेलना स्वीकार कर लिया। जूए में हारकर पाण्डवों ने कृष्णमृगचर्म धारण किया।
और भीम ने की भरी सभा में प्रतिज्ञा
जूए में हारकर पाण्डवों ने कृष्णमृगचर्म धारण किया और वन में जाने के लिए तैयार हो गए। उनकी ऐसी स्थिति देखकर दु:शासन कहने लगा कि धन्य है धन्य है। अब महाराज दुर्योधन का शासन प्रारंभ हो गया। पाण्डव मुश्किल में पड़ गए। राजा द्रुपद तो बड़े बुद्धिमान हैं। फिर उन्होंने अपनी कन्या की शादी पांडवों से क्यों कर दी? अरे द्रोपदी ये पांडव गरीबी के साथ वन में अपना जीवन बितायेंगे, तू अब उनके प्रति प्रेम कैसे रखेगी? अब किसी मनचाहे पुरुष से विवाह क्यों नहीं कर लेती। दु:शासन की बात सुनकर भीम को बहुत गुस्सा आया। भीम ने उसे ललकारा और कहा तूने हमें अपने बाहुबल से नहीं जीता। तू अपने छल पर शेखी कैसे बघार सकता है।
ऐसी बात केवल पापी ही कह सकते हैं। तू अभी मेरे घावों को कुरेद कर मुझे परेशान कर ले। मैं मेरा दर्द रणभूमि में तेरे हाथ पैर काटकर तुझे याद दिलाऊंगा। इस समय भीमसेन मर्गचरम धारण किए खड़े थे। धर्म के अनुसार वे दु:शासन जैसे शत्रु का भी नाश नहीं कर सकते हैं। भीमसेन के ऐसा कहने पर पर दु:शासन ने भीम को अपशब्द कहे और भरी सभा में उन्हें बेइज्जत किया। तब भीम गुस्से से भर जाता है और कहता है यदि यह भीम कुन्ती की कोख से जन्मा है तो रणभूमि में यह तेरा कलेजा चीरकर खुन पीएगा। अगर मैं ऐसा ना करूं तो मुझे पुण्यलोक ना मिले। मैं सब के सामने ही धृतराष्ट्र के सारे पुत्रों का सहार करके शांति प्राप्त करूंगा।
जुएं में हारकर क्या हुआ पाण्डवों के साथ ?
जब पाण्डव वन जाने लगे तो दुर्योधन हंस कर उन्हें चिढ़ाने लगे। तब भीम ने अपनी प्रतिज्ञा को फिर दोहराया। अर्जुन ने भी भीम की प्रतिज्ञा का समर्थन किया। इस तरह पाण्डव और भी प्रतिज्ञाएं करके राजा धृतराष्ट्र के पास गए और वन जाने के आज्ञा मांगने लगे। यह देखकर वहां उपस्थित भीष्म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, विदुर आदि महात्माओं ने शर्म से सिर झुका लिए। तब विदुरजी ने युधिष्ठिर से कहा कि आपकी माता कुंती वृद्धा है इसलिए उनका वन में जाना उचित नहीं है। वे मेरी माता के समान है। मैं उनकी देख-भाल करुंगा। तब युधिष्ठिर ने विदुर की बात मान ली और माता कुंती को विदुरजी के संरक्षण में छोड़ दिया।
तब युधिष्ठिर सभी से आज्ञा लेकर वन जान के लिए चल पड़े। जब द्रोपदी कुंती से जाने के लिए आज्ञा लेने गई तो कुंती को बहुत दु:ख हुआ। तब कुंती ने द्रोपदी को बहुत से आशीर्वाद दिए। पाण्डवों को वन में जाते देख कुंती विलाप कनरे लगी तो विदुरजी उन्हें समझाकर अपने घर ले आए। यह सब देखकर कौरव कुल की महिलाएं द्यूत सभा में द्रौपदी को ले जाना, उन्हें केश पकड़कर घसीटना आदि अत्याचार देखकर दुर्योधन आदि की निंदा करने लगी।
वनवास जाते समय द्रौपदी ने क्या कहा?
राजा धृतराष्ट्र अपने पुत्रों द्वारा पाण्डवों पर किए गए अत्याचार को देखकर परेशान हो गए और उन्होंने तुरंत विदुरजी को बुलाया और उनके पूछा कि पाण्डव किस वन में जा रहे हैं और वे इस समय क्या कर रहे हैं यह बताओ।विदुरजी ने धृतराष्ट्र को बताया कि छल से राज्य छिन जाने के बाद भी युधिष्ठिर आपके पुत्रों पर दया भाव रखते हैं। वे अपने नेत्रों को बंद किए हुए हैं क्योंकि कहीं उनकी आंखों के सामने पड़कर कौरव भस्म न हो जाएं। भीमसेन अपने बांह फैला-फैलाकर दिखाते जा रहे हैं कि समय आने पर मैं अपने बाहुबल का जौहर दिखाकर कौरव को समाप्त कर दूंगा।
अर्जुन धूल उड़ाते हुए चल रहे हैं। वे बता रहे हैं कि युद्ध के समय शत्रुओं पर कैसी बाण वर्षा करेंगे। सहदेव ने अपने मुंह पर धूल मल रखी है। वे ये कहना चाह रहे हैं कि कोई मेरा मुंह ने देखे। नकुल ने तो अपने सारे शरीर पर ही धूल लगा ली है। उनका अभिप्राय है कि मेरा रूप देखकर कोई मुझ पर मोहित न हो। द्रौपदी अपने केश खोलकर रोते-रोते जा रही है।
द्रौपदी ने कहा है कि जिनके कारण मेरी यह दुर्दशा हुई है, उनकी स्त्रियां भी आज से चौदहवे वर्ष अपने स्वजनों की मृत्यु से दु:खी होकर इसी प्रकार हस्तिनापुर में प्रवेश करेंगी। और इनसे आगे पुरोहित धौम्य चल रहे हैं।
पाण्डवों के जाने के बाद नगर में क्या-क्या अपशकुन हुए?
विदुरजी धृतराष्ट्र से बोले- पाण्डव को वन में जाते देख हस्तिनापुर के नागरिक बहुत दु:खी हो रहे हैं और कुरुकुल के वृद्धों को तथा पाण्डवों के साथ अन्याय करने वालों को धिक्कार रहे हैं। उधर पाण्डवों के वन में जाते ही आकाश में बिना बादल के ही बिजली चमकी, पृथ्वी थरथरा गई, बिना अमावस्या के ही सूर्यग्रहण लग गया। नगर की दाहिनी ओर उल्कापात हुआ। इन सभी घटनाओं का एक ही अर्थ है भरतवंश का विनाश।
जब विदुरजी यह बात धृतराष्ट्र से कह रहे थे तभी वहां नारदजी अनेक ऋषियों के साथ आ गए और बोले- दुर्योधन के अपराध के फलस्वरूप आज से चौदहवें वर्ष भीमसेन और अर्जुन के हाथों कुरुवंश का विनाश हो जाएगा। यह सुनकर दुर्योधन, कर्ण और शकुनि ने द्रोणाचार्य को ही अपना प्रधान आश्रय समझकर पाण्डवों का सारा राज्य उन्हें सौंप दिया। तब द्रोणाचार्य ने कहा कि पाण्डव देवताओं की संतान हैं उन्हें कोई मार नहीं सकता। यदि तुम अपनी भलाई चाहते हैं तो बड़े-बड़े यज्ञ करो, ब्राह्मणों को दान दो। सभी सुख भोग लो क्योंकि चौदहवें वर्ष तुम्हें बड़े कष्ट सहना होंगे।
इसीलिए कहते हैं विनाशकाले विपरीत बुद्धि
द्रोणाचार्य की बात सुनकर धृतराष्ट्र ने कहा गुरुजी का कहना ठीक है। तुम पाण्डवों को लौटा लाओ। यदि वे लौटकर न आवें तो उनका शस्त्र, सेवक और रथ साथ में दे दो ताकि पाण्डव वन में सुखी रहे। यह कहकर वे एकान्त में चले गए। उन्हें चिन्ता सताने लगी उनकी सांसे चलने लगी। उसी समय संजय ने कहा आपने पाण्डवों का राजपाठ छिन लिया अब आप शोक क्यों मना रहे हैं? संजय ने धृतराष्ट्र से कहा पांडवों से वैर करके भी भला किसी को सुख मिल सकता है। अब यह निश्चित है कि कुल का नाश होगा ही, निरीह प्रजा भी न बचेगी।
सभी ने आपके पुत्रों को बहुत रोका पर नहीं रोक पाए। विनाशकाल समीप आ जाने पर बुद्धि खराब हो जाती है। अन्याय भी न्याय के समान दिखने लगती है। वह बात दिल में बैठ जाती है कि मनुष्य अनर्थ को स्वार्थ और स्वार्थ को अनर्थ देखने लगता है तथा मर मिटता है। काल डंडा मारकर किसी का सिर नहीं तोड़ता। उसका बल इतना ही है कि वह बुद्धि को विपरित करके भले को बुरा व बुरे को भला दिखलाने लगता है। धृतराष्ट्र ने कहा मैं भी तो यही कहता हूं।
द्रोपदी की दृष्टी से सारी पृथ्वी भस्म हो सकती है। हमारे पुत्रों में तो रख ही क्या है? उस समय धर्मचारिणी द्र्रोपदी को सभा में अपमानित होते देख सभी कुरुवंश की स्त्रियां गांधारी के पास आकर करुणकुंदन करने लगी। ब्राहण हमारे विरोधी हो गए। वे शाम को हवन नहीं करते हैं। मुझे तो पहले ही विदुर ने कहा था कि द्रोपदी के अपमान के कारण ही भरतवंश का नाश होगा। बहुत समझा बुझाकर विदुर ने हमारे कल्याण के लिए अंत में यह सम्मति दी कि आप सबके भले के लिए पाण्डवों से संधि कर लीजिए। संजय विदुर की बात धर्मसम्मत तो थी लेकिन मैंने पुत्र के मोह में पड़कर उसकी प्रसन्नता के लिए उनकी इस बात की उपेक्षा कर दी।
और चल पड़े पाण्डव वनवास पर
जन्मेजय ने वैशम्पायनजी से पूछा दुर्योधन, दु:शासन, आदि ने अपने मंत्रियों के साथ जूए में पांडवों को धोखे से हराकर जीत लिया। इतना ही नहीं, उन्होंने दुश्मनी बढ़ाने के लिए भला-बुरा भी कहा। आप बताइए उसके बाद आपने अपना समय कैसे बिताया, उनके साथ वन में कौन-कौन गए। वे वन में कैसा बर्ताव करते थे।
उनके वन में बारह साल किस तरह बीते? आप मुझे बताइए। वैशाम्पायनजी ने कहा पांडव दुर्योधन आदि के दुव्र्यवहार से दुखी होकर अपने अस्त्र-शस्त्र और रानी द्रोपदी के साथ हस्तिनापुर से निकल पड़े। वे हस्तिनापुर के वर्धमानपुर के सामने वाले द्वार से निकल कर उत्तर की ओर चले। इन्द्रसेन और चौदह सेवक उनके पीछे शीघ्रगामी रथ पर सवार होकर उनके पीछे-पीछे चले। जब हस्तिनापुर की जनता को यह बात मालूम हुई तो प्रजा बहुत दुखी हो गई। सब लोग शोक से व्याकुल होकर एकत्रित हुए और निडर होकर सभी कौरवों और श्रेष्ठजनों की निन्दा करने लगे।
वे आपस में कहने लगे दुर्योधन, शकुनि आदि की सहायता से राज्य करना चाहता है। उसने पूरे वंश की मर्यादा को त्याग चुका है। अगर इसका राज्य हुआ तो यह सब कुछ नष्ट कर देगा। हस्तिनापुर की जनता इस प्रकार आपस में विचार करके वहां से चल पड़ी और पांडवों के पास जाकर बड़ी नम्रता से हाथ जोड़कर कहने लगी-पाण्डवों आप लोग हमें हस्तिनापुर में दुख भोगने के लिए छोड़कर अकेले कहां जा रहे हैं? आप लोग जहां जाएंगे। वही हम भी चलेंगे। जब से हमें यह बात मालूम हुई है कि आप लोगों को धोखे से वनवासी बना दिया गया है तब से हम लोग बहुत डरे हुए हैं।
क्या हुआ जब हस्तिनापुर की जनता पहुंची युधिष्ठिर के पास?
प्रजा की बात सुनकर युधिष्ठिर ने कहा-प्रजाजनों वास्तव में हम लोगों में कोई गुण नहीं है, फिर भी आप लोग प्यार और दया के वश में होकर हममें गुण देख रहे है। यह बड़े सौभाग्य की बात है। मैं अपने भाइयों के साथ आप लोगों से प्रार्थना करता हूं। आप अपने प्रेम और कृपा से हमारी बात स्वीकार करें। इस समय हस्तिनापुर में पितामह भीष्म, राजा, धृतराष्ट्र, विदुर आदि सभी हमारे सगे सम्बंधी निवास करते हैं। जैसे आप लोग हमारे लिए दुखी हो रहे हैं।
उतनी ही वेदना उनके मन में भी है। आप लोग हमारी प्रसन्नता के लिए वापस लौट जाइए। आप लोग बहुत दूर तक आ गए हैं अब साथ ना चले। मेरे प्रिय लोग में आपके पास धरोहर के रूप में छोड़कर जा रहा हूं। मैं आप लोगों से दिल से कह रहा हूं आपके ऐसा करने से मुझे बहुत प्रसन्नता होगी। मैं उसे अपना सत्कार समझूंगा। जब सभी लोग उनके आग्रह पर हस्तिनापुर लौट गए तो पाण्डव रथ में बैठकर वहां से चल पड़े। उसके बाद वे गंगा तट पर प्रणाम कर बरगद के पेड़ के पास आए।
उस समय संध्या हो चली थी। वहां उन्होंने रात बिताई। उस समय बहुत से ब्राह्मण पाण्डवों के पास आए, उनमें बहुत से अग्रिहोत्रि ब्राह्मण भी थे। उनकी मण्डली में बैठकर सभी पांडवों ने उनसे अनेक तरह की बातचीत की। रात बीत गई। जब उन्होंने वन में जाने की तैयारी की। तब ब्राह्मणों ने पाण्डवों से कहा महात्माओं वन में बड़े-बड़े विघ्र और बाधाएं हैं। इसलिए आप लोगों को वहां बड़ा कष्ट होगा। इसलिए आप लोग उचित स्थान पर जाएं। हमें आप अपने पास रखने की कृपा कीजिए। हमारे पालन पोषण के लिए आपको चिंता की आवश्कता नहीं होगी। हम अपने-अपने भोजन की व्यवस्था कर लेंगे। वहां बड़े प्रेम से अपने इष्ट का ध्यान करेंगें। उससे आपका कल्याण होगा।
हर दुख का कारण यही है...
ब्राह्मणों की बात सुनकर धर्मराज युधिष्ठिर ने बहुत शोक प्रकट किया। वे उदास होकर जमीन पर बैठ गए। तब आत्मज्ञानी शौनक ने उनसे कहा राजन् अज्ञानी मनुष्यों को सामने प्रतिदिन सैकड़ों और हजारों शोक और भय के अवसर आया करते हैं, ज्ञानियों के सामने नहीं। आप जैसे सत्पुरुष ऐसे अवसरों से कर्मबंधन में नहीं पड़ते। वे तो हमेशा मुक्त ही रहते है। आपकी चित्तवृति, यम, नियम आदि अष्टांगयोग से पुष्ट है।
आपकी जैसी बुद्धि जिसके पास है उसे अन्न-वस्त्र के नाश से दुख नहीं होता। कोई भी शारीरिक या मानसिक दुख उसे नहीं सता सकता। जनक ने जगत को शारीरिक और मानसिक दुख से पीडि़त देखकर उसके लिए यह बात कही थी। आप उनके वचन सुनिए। शरीर के दुख: के चार कारण है- रोग, किसी दुख पहुंचाने वाली वस्तु का स्पर्श, अधिक परिश्रम और मनचाही वस्तु ना मिलना।
इन सभी बातों से मन में चिंता हो जाती है और मानसिक दुख ही शारीरिक दुख का कारण बन जाता है। लोहे का गरम गोला यदि घड़े के जल में डाल दिया जाए तो वह जल गरम हो जाता है। वैसे ही मानसिक पीड़ा से शरीर खराब हो जाता है। इसलिए जैसे आग को पानी से ठंडा किया जाता है। वैसे ही ज्ञान के द्वारा मन को शांत रखना चाहिए। मन का दुख मिट जाने पर शरीर का दुख मिट जाता है। मन के दुखी होने का कारण प्यार है। प्यार के कारण ही मनुष्य दुखों में फंसता चला जाता है।
द्रोपदी के खाने के बाद ही खाली होता था चमत्कारी पात्र क्योंकि...
शौनक जी ने युधिष्ठिर से कहा आप जैसे अच्छे लोग दूसरों को खिलाये बिना स्वयं खाने-पीने में संकोच करते हैं। जो लोग पापी होते हैं वे अपना पेट भरने के लिए दूसरों के हक का खा लेते हैं। जिस समय संस्कार मन के रुप में जागृत हो जाते हैं। संकल्प कामना उत्पन्न हो जाती है। अज्ञान के कारण कामनाएं, या इच्छाएं पूरी होने पर और ज्यादा बढऩे लगती है। कर्म करो और कर्म करके छोड़ दो ये दोनों ही बातें वेदों में लिखी गई है। शौनकजी का यह उपदेश सुनकर धर्मराज युधिष्ठिर अपने पुरोहित धौम्य के पास आ गए और अपने भाइयों के सामने ही उनसे कहने लगे- वेदों के बड़े-बड़े पारदर्शी ब्राह्मण मेरे सामथ्र्य नहीं है, इससे में बहुत दुखी हूं। न तो मैं उनका पालन पोषण नहीं कर सकता हूं।
ऐसी परिस्थिति में मुझे क्या करना चाहिए, आप कृपा करके यह बतलाइए। धर्मराज युधिष्ठिर का प्रश्र सुनकर पुरोहित धौम्य ने योगदृष्टी से कुछ समय तक इस विषय पर विचार किया। धर्मराज को संबोधन करके कहा धर्मराज सृष्टी प्रारंभ में जब सभी प्राणी भुख से व्याकुल हो रहे थे। तब भगवान सूर्य ने दया करके कहा धर्मराज सृष्टी के प्रारंभ में जब सभी प्राणी भुख से व्याकुल हो रहे थे। तब सूर्य ने पृथ्वी का रस खींचा। इस प्रकार जब उन्होंने क्षेत्र तैयार कर दिया तब चंद्रमा ने उसमें ओषधीयों का बीज डाला और उसी से अन्न व फल की उत्पति हुई। उसी अन्न से प्राणीयों ने अपनी भुख मिटायी। कहने का तात्पर्य यह है कि सूर्य की कृपा से अन्न उत्पन्न होता है।
सूर्य ही सब प्राणीयों की रक्षा करते हैं इसलिए तुम भगवान सूर्य की शरण में जाओ। पुरोहित धौम्य की बात सुनकर सूर्य की आराधना का तरीका बतलाते हुए कहा- मैं तुम्हे सूर्य के एक सौ आठ नाम बताता हूं तुम इन नामों का जप करना। भगवान सूर्य तुम पर कृपा करेंगे। धौम्य की बात सुनकर युधिष्ठिर ने सूर्य की आराधना प्रारंभ की। इस प्रकार युधिष्ठिर ने पूरी श्रृद्धा के साथ सूर्य की आराधना की और उनसे एक ऐसा पात्र प्राप्त किया वह पात्र अक्षय था यानी कभी खाली नहीं होता था। उन्होंने वह पात्र द्रोपदी को दे दिया। उसी से युधिष्ठिर ब्राहणों को भोजन करवाते थे। ब्राह्मणों के बाद सभी भाइयों को भोजन करवाने के बाद युधिष्ठिर भोजन करते और सबसे आखिरी में द्रोपदी भोजन करती थी।
सुखी रहने के लिए जरूरी है,अपने हक में ही संतुष्ट रहे
जब पांडव वन में चले गए तब धृतराष्ट्र को बहुत ङ्क्षचता होने लगी। धृतराष्ट्र ने विदुर को बुलाया और उनसे कहा - भाई विदुर तुम्हारी बुद्धि शुक्राचार्य जैसी शुद्ध है। तुम धर्म को बहुत अच्छे से समझते हो। कौरव और पांडव दोनों ही तुम्हारा सम्मान करते हैं। अब तुम कुछ ऐसा उपाय बताओं की जिससे दोनों का ही भला हो जाए। प्रजा किस प्रकार हम लोगों से प्रेम क रे। पाण्डव भी गुस्से में आकर हमें कोई हानि नहीं पहुंचाएं। ऐसा उपाय तुम बताओ। विदुरजी ने कहा अर्थ, धर्म और काम इन तीनों फल की प्राप्ति धर्म से ही होती है।राज्य की जड़ है धर्म आप धर्म की मर्यादा में रहकर अपने पुत्रों की रक्षा कीजिए। आपके पुत्रों की सलाह से आपने भरी सभा में उनका तिरस्कार किया है। उन्हें धोखे से हराकर वनवास दे दिया गया।
यह अधर्म हुआ। इसके निवारण का एक ही उपाय है कि आपने पांडवों का जो कुछ छीन लिया है, वह सब उन्हें दे दिया जाए। राजा का यह परम धर्म है कि वह अपने हक में ही संतुष्ट रहे, दूसरे का हक ना चाहे। जो उपाय मैंने बतलाया है उससे आपका कलंक भी हट जाएगा। भाई-भाई में फूट भी नहीं पढ़ेगी और अधर्म भी नहीं होगा।यह काम आपके लिए सबसे बढ़कर है कि आप पांडवों को संतुष्ट करें और शकुनि का अपमान करें। अगर आप अपने पुत्रों की भलाई चाहते हैं तो आपको जल्दी से जल्दी यह काम कर डालना चाहिए।
यदि आप मोहवश ऐसा नहीं करेंगे तो कुरुवंश का नाश हो जाएगा। युधिष्ठिर के मन में किसी तरह का रागद्वेष नहीं है इसलिए वे धर्मपूर्वक सभी पर शासन करें। इसके लिए यह जरूरी है कि आप युधिष्ठिर को संात्वना देकर राजगद्दी पर बैठा देना चाहिए। धृतराष्ट्र ने कहा तुम्हारा में इतना सम्मान करता हूं और तुम मुझे ऐसी सलाह दे रहे हो। तुम्हारी इच्छा हो तो यहां रहो वरना चले जाओ। धृतराष्ट्र की ऐसी दशा देखकर विदुर ने कहा कि कौरवकुल का नाश निश्चित है।
और धृतराष्ट्र बेहोश होकर गिर पड़ेजब विदुरजी हस्तिनापुर से पाण्डव के पास काम्यक वन में चले गए। तब विदुर के जाने के बाद धृतराष्ट्र को बहुत पश्चाताप हुआ। वे विदुर का प्रभाव उसकी नीति को याद करने लगे। उन्हें लगा इससे तो पाण्डवों का फायदा हो सकता है। यह सोचकर धृतराष्ट्र व्याकुल हो गए। भरी सभा में राजाओं के सामने ही मुच्र्छित होकर गिर पड़े।
जब होश आया तो उन्होंने उठकर संजय से कहा-संजय से कहा संजय मेरा प्यारा भाई विदुर मेरा परम हितैषी और धर्म की मुर्ति है। उसके बिना मेरा कलेजा फट रहा है। मैंने ही क्रोधवश होकर अपने निरापराध भाई को निकाल दिया है। तुम जल्दी जाकर उसे ले आओ। विदुर के बिना मैं जी नहीं बना सकता। धृतराष्ट्र की आज्ञा स्वीकार करके संजय ने काम्यक वन की यात्रा की।
काम्यक वन में पहुंचकर संजय ने देखा कि युधिष्ठिर अपने भाई और विदुरजी के साथ हजारों ब्राह्मणों के बीच में बैठे हुए है। संजय ने प्रणाम करके विदुरजी से कहा राजा धृतराष्ट्र आपकी याद कर रहे हैं। आप हस्तिनापुर चलिए वे आप से मिलना चाहते हैं। विदुर से मिलकर धृतराष्ट्र को बहुत खुशी है।उन्होंने कहा मेरे भाई तुम्हारा कोई जाने के बाद नींद नहीं आई। मैंने तुम्हारे साथ जो व्यवहार किया है उसके लिए तुम मुझे क्षमा कर दो। इस तरह विदुर फिर से हस्तिनापुर में रहने लगे।
कौरवों ने क्यों रचा पांडवों को जंगल में ही मार डालने का षडयंत्र?
जब दुर्योधन को यह समाचार मिला कि विदुरजी पाण्डवों के पास से लौट आए है,तब उसे बड़ा दुख: हुआ। उसने अपने मामा शकुनि, कर्ण, और दु:शासन को बुलाया। उसने उनसे कहा हमारे पिताजी के अंतरंग मन्त्री विदुर वन से लौटकर आ गए हैं। वे पिताजी ऐसी उल्टी सीधी बात समझाएंगें।
उनके ऐसे करने से पहले ही आप लोग कुछ ऐसा कीजिए। दुर्योधन की बात कर्ण समझ गया। उसने कहा क्यों ना हम वनवासी पाण्डवों को मार डालने के लिए वन चले। जब तक पाण्डव लडऩे भिडऩे के लिए उत्सुक नहीं हैं। असहाय है तभी उन पर विजय प्राप्त कर लेनी चाहिए। तभी हमारा कलह हमेशा के लिए समाप्त हो जाएगा। सभी ने एक स्वर में कर्ण की बात को स्वीकार किया। वे सभी गुस्से में आकर रथों पर सवार होकर जंगल की ओर चल दिए। जिस समय कौरव पाण्डवों का अनिष्ट करने के लिए पुरुष है।
उसी समय महर्षि वहां पहुंचे क्योंकि उन्हें अपनी दिव्यदृष्टी से पता चल गया कि कौरव पांडवों के बारे में षडयंत्र कर रहे थे। उन्होंने वहां जाकर कौरवों को ऐसा करने से रोक दिया। उसके बाद वे धृतराष्ट्र के पास पहुंचे। उनसे बोले धृतराष्ट्र मैं आपके हित की बात करता हूं। दुर्योधन ने कपट पूर्वक जूआ खेलकर पाण्डवों को हरा दिया। यह बात मुझे अच्छी नहीं लगी है। यह निश्चित है कि तेरह साल के बाद कौरवों के दिए हुए कष्टो को स्मरण करके पाण्डव बड़ा उग्ररूप धारण करेंगे और बाणों की बौछार से तुम्हारे पुत्रों का ध्वंस कर डालेंगे। यह कैसी बात हैकि दुर्योधन उनसे उनका राज्य तो छीन ही चुका है अब उन्हें मारने डालना चाहता है। यदि तुम अपने पुत्रों के मन से द्वेष मिटाने की कोशिश नहीं करोगे तो मैं तुम्हे समझा रहा हूं
क्यों मिला दुर्योधन को भीम के हाथों मरने का शाप?
व्यासजी की बात सुनकर धृतराष्ट्र ने कहा जो कुछ आप कह रहे है, वही तो मैं भी कहता हूं। यह बात सभी जानते हैं। आप कौरवों की उन्नति और कल्याण के लिए जो सम्मति दे रहे हैं वही विदुर, भीष्म, और द्रोणाचार्य भी देते हैं। यदि आप मेरे ऊपर अनुग्रह करते हैं। कुरुवंशियों पर दया करते हैं तो आप मेरे दुष्ट पुत्र दुर्योधन को ऐसी ही शिक्षा दें। व्यासजी ने कहा थोड़ी देर में ही महर्षि मैत्रेय यहां आ रहे है। वे पाण्डवों से मिलकर अब हम लोगों से मिलना चाहते हैं। वे ही तुम्हारे पुत्र को मेल-मिलाप का उपदेश देंगे। इस बात की सूचना मैं दे देता हूं कि वे जो कुछ कहे, बिना सोच-विचार के करना चाहिए।
अगर उनकी आज्ञा का उल्लंघन होगा तो वे क्रोध में आकर शाप भी दे सकते हैं। इतना कहकर वेदव्यास जी चले गए। महर्षि मैत्रेय के आते ही अपने पुत्रों के सहित उनकी सेवा व सत्कार करने लगे। विश्राम के बाद धृतराष्ट्र ने बड़ी विनय के साथ पूछा-भगवन आपकी यहां तक की यात्रा कैसी रही? पांचों पांडव कुशलपूर्वक तो हैं ना। तब मैत्रेयजी ने कहा राजन में तो तीर्थयात्रा करते हुए वहां संयोगवश काम्यक वन में युधिष्ठिर से भेट हो गई। वे आजकल तपोवन में रहते हैं। उनके दर्शन के लिए वहां बहुत से ऋषि-मुनि आते हैं। मैंने वहीं यह सुना कि तुम्हारे पुत्रों ने पाण्डवों को जूए में धोखे से हराकर वन भेज दिया। वहां से मैं तुम्हारे पास आया हूं क्योंकि मैं तुम पर हमेशा से ही प्रेम रखता हूं।
उन्होंने युधिष्ठिर से इतना कहकर पीछे मुड़ते हुए दुर्योधन से कहा तुम जानते हो पाण्डव कितने वीर और शक्तिशाली है। तुम्हे उनकी शक्ति का अंदाजा नहीं है शायद इसलिए तुम ऐसी बात कर रहे हो। इसलिए तुम्हे उनके साथ मेल कर लेना चाहिए मेरी बात मान लो। गुस्से में ऐसा अनर्थ मत करो। महर्षि मैत्रेय की बात सुनकर दुर्योधन मुस्कुराकर पैर से जमीन कुरेदने लगे और अपनी जांघ पर हाथ से ताल ठोकने लगा। दुर्योधन की यह उद्दण्डता देखकर महर्षि को क्रोध आया। तब उन्होंने दुर्योधन को शाप दिया। तू मेरा तिरस्कार करता है और मेरी बात नहीं मानता। तेरे इस काम के कारण पाण्डवों से कौरवों का घोर युद्ध होगा और भीमसेन की गदा की चोट तेरी टांग तोड़ेगी।
क्या किया अर्जुन ने जब कृष्ण को आ गया गुस्सा?
चेदि देश के धृष्टकेतु और केकय देश के सगे संबंधियो को यह समाचार मिला कि पाण्डव बहुत दुखी होकर राजधानी से चले गए और काम्यक वन में निवास कर रहे हैं, तब वे कौरवों पर बहुत चिढ़कर गुस्से के साथ उनकी निंदा करते हुए अपना कर्तव्य निश्चय करने के लिए पाण्डवों के पास गए।
सभी क्षत्रिय भगवान श्रीकृष्ण को अपना नेता बनाकर धर्र्मराज युधिष्ठिर के चारों और बैठ गए। भगवान श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को नमस्कार कर कहा- राजाओं अब यह निश्चित हो गया कि पृथ्वी अब दुरात्माओं का खुन पीएगी। यह धर्म है कि जो मनुष्य किसी को धोखा देकर सुख भोग कर रहा हो उसे मार डालना चाहिए।
अब हम लोग इकट्ठे होकर कौरवों और उनके सहायकों को युद्ध में मार डालें तथा धर्मराज युधिष्ठिर का राजसिंहासन पर अभिषेक करें। अर्जुन ने देखा कि हम लोगों का तिरस्कार होने के कारण भगवान श्रीकृष्ण क्रोधित हो गए है और अपना कालरूप प्रकट करना चाहते हैं। तब उन्होंने श्रीकृष्ण को शांत करने के लिए उनकी स्तुति की। अर्जुन ने कहा -श्रीकृष्ण आप सारे प्राणियों के दिल में विद्यमान अंर्तयामी आत्मा आप ही है। आप आपने अंहकार रूप भौमासुर को मारकर मणि के दोनों कुंडल इन्द्र को दिए और इन्द्र को इन्द्रत्व भी आपने ही दिया।
आपने जगत के उद्धार के लिए ही मनुष्यों में अवतार लिया। आप ही नारायण और हरि के रूप में प्रकट हुए थे। तब भगवान कृष्ण ने कहा अर्जुन तुम एकमात्र मेरे हो । जो मेरे हैं वे तुम्हारे हैं और जो तुम्हारे हैं वे मेरे। तुम मुझसे अभिन्न हो और हम दोनों एक-दूसरे के स्वरूप हैं।
मनुष्य पाप इसलिए करता है क्योंकि...
एक दिन शाम के समय पांडव कुछ दुखी से होकर द्रोपदी के साथ बैठकर बातचीत कर रहे थे। द्रोपदी कहने लगी- सचमुच दुर्योधन बड़ा क्रूर है। उसने हम लोगों को धोखे से वनवास पर भेज दिया। उसने एक तो जूए को धोखे से जीत लिया। आप जैसे धर्मात्माओं को उसने सभी में इतना भला-बुरा कहा। जब मैं आप लोगों को ये वनवास के कष्ट झेलते हुए देखती हूं तो मुझे बहुत दुख होता है।
आपके महल में रोज हजारो ब्राह्मण अपनी इच्छानुसार भोजन कराया जाता था। आज हम लोग फल-मूल खाकर अपनी जिंदगी बिता रहे हैं। भीमसेन अकेले ही रणभूमि में सब कौरवों को मार डालने की क्षमता रखते हैं लेकिन आप लोगों का रुख देखकर मन मसोस कर रह जाते हैं। आप सभी को इस तरह दुखी देखकर मेरा मन दुखी हो रहा है।
राजा द्रुपद की पुत्री, महात्मा पाण्डु की पुत्रवधू मैं आज वन में भटक रही हूं। द्रोपदी ने फिर कहा पहले जमाने में राजा बलि ने अपने पितामाह प्रहलाद से पूछा था कि पितामह। क्षमा उत्तम है या क्रोध? आप कृपा करके मुझे ठीक-ठीक समझाइए।युधिष्ठिर ने कहा द्रोपदी मनुष्य क्रोध के वश में न होकर क्रोध को अपने वश में करना चाहिए। जिसने क्रोध पर विजय प्राप्त कर ली। उसका कल्याण हो जाता है। क्रोध के कारण ही मनुष्य पाप करता है। उसे इस बात का पता नहीं चलता कि क्या करना चाहिए क्या नहीं?इसलिए क्रोध से बड़ी क्षमा होती है।
क्योंकि हमारे हाथ में कुछ भी नहीं है
द्रोपदी ने युधिष्ठिर से कहा आपमें और आपके महाबली भाइयों में प्रजापालन करने योग्य सभी गुण हैं। आप लोग दुख: भोगने योग्य नहीं है। फिर भी आपको यह कष्ट सहना पड़ रहा है। आपके भाई राज्य के समय तो धर्म पर प्रेम रखते ही थे। इस दीन-हीन दशा में भी धर्म से बढ़कर किसी से प्रेम नहीं करते। ये धर्म को अपने प्राणों से भी श्रेष्ठ मानते हैं। यह बात ब्राह्मण, देवता और गुरु सभी जानते हैं कि आपका राज्य धर्म के लिए भीमसेन , अर्जुन, नकुल, सहदेव और मुझे भी त्याग सकते हैं।मैंने अपने गुरुजनों से सुना है कि यदि कोई अपने धर्म की रक्षा करें तो वह अपने रक्षक की रक्षा करता है। आप जब पृथ्वी के चक्रवर्ती सम्राट हो गए थे।
उस समय भी आपने छोटे-छोटे राजाओं का अपमान नहीं किया। आपमें सम्राट बनने का अभिमान बिल्कुल नहीं था। आपने साधु, सन्यासी और गृहस्थों की सारी आवश्यकताएं पूर्ण की थी। लेकिन आपकी बुद्धि ऐसी उल्टी हो गई कि आपने राज्य, धन, भाई और यहां तक की मुझे भी दावं पर लगा दिया। आपकी इस आपत्ति-विपत्ति को देखकर मेरे मन में बहुत वेदना हुई। मैं बेहोश सी हो जाती हूं। ईश्वर हर व्यक्ति को अपने पूर्वजन्म के कर्मबीज के अनुसार उनके सुख-दुख, प्रिय व अप्रिय वस्तुओं की व्यवस्था करता है। जैसे कठपुतली सूत्रधार के अनुसार नाचती है, वैसे ही सारी प्रजा ईश्वर के अनुसार नाच रही है। सारे जीव कठपुतली के समान ही है सभी ईश्वर के अधीन है कोई भी स्वतंत्र नहीं है।
किससे डरते थे युधिष्ठिर?
पाण्डवों ने आगे बढ़कर वेदव्यासजी का स्वागत किया। उन्होंने व्यासजी को आसन पर बैठाकर विधिपूर्वक उनकी पूजा की। वेदव्यास जी ने युधिष्ठिर से कहा कि प्रिय युधिष्ठिर- मैं तुम्हारे मन की सब बात जानता हूं। इसीलिए इस समय तुम्हारे पास आया हूं। तुम्हारे मन में भीष्म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, कर्ण का जो भय है उसका मैं रीति से विनाश करूंगा। तुम मेरा बतलाया हुआ उपाय करो। तुम्हारे मन से सारा दुख अपने आप मिट जाएगा।
यह कहकर वेदव्यास युधिष्ठिर को एकांत में ले गए और बोले युधिष्ठिर तुम मेरे शिष्य हो, इसलिए मैं तुम्हे यह मूर्तिमान सिद्धि के समान प्रतिस्मृति नाम की विद्या सिखा देता हूं। तुम यह विद्या अर्जुन को सिखा देना, इसके बल से वह तुम्हारा राज्य शत्रुओं के हाथ से छीन लेगा। अर्जुन तपस्या तथा पराक्रम के द्वारा देवताओं के दर्शन की योग्यता रखता है। इसे कोई जीत नहीं सकता।
इसलिए तुम इसको अस्त्रविद्या प्राप्त करने के लिए भगवान शंकर, देवराज इन्द्र, वरूण, कुबेर और धर्मराज के पास भेजो। यह उनसे अस्त्र प्राप्त करके बड़ा पराक्रम करेगा। अब तुम लोगों को किसी दूसरे वन में जाना चाहिए क्योंकि किसी तपस्वी का लंबे समय तक एक स्थान पर रहना दुखदायी होता है। ऐसा कहकर वेदव्यास वहां से चले गए। युधिष्ठिर व्यासजी के उपदेश अनुसार मन्त्र का जप करने लगे। उनके मन में बहुत खुशी हुई।
क्रमश:...
जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......मनीष
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