Tuesday, October 15, 2013

Jeevan Darshan 3 (जीवन दर्शन)



नेपोलियन ने चुकाया वृद्धा का कर्ज
नेपोलियन बोनापार्ट फ्रांस का महान सम्राट था। साहस के साथ ईमानदारी और सहजता उसके स्वभाव में थे। अपने बचपन में नेपोलियन ने घोर गरीबी देखी थी। मित्रों की मदद से नेपोलियन ने शिक्षा प्राप्त की। जिस पाठशाला में वह पढऩे जाता था, उसके निकट ही फल बेचने वाली एक वृद्धा बैठती थी। नेपोलियन उससे फल खरीदता था। जब भी उसके पास पैसे नहीं होते, तब वह वृद्धा उसे फल उधार भी दे देती थी। बड़ा होने पर नेपोलियन अपनी योग्यता के बल पर मामूली सैनिक से अफसर और फिर देश का सम्राट बन गया।

सम्राट बनने के बाद एक बार वह अपने गांव आया और अपनी पाठशाला पहुंचा। वहां उसने लोगों से उस वृद्धा का पता पूछा और उससे मिलने पहुंचा। उसने वृद्धा से कहा, 'अम्मा! क्या तुम मुझे जानती हो.? वृद्धा फौजी वर्दी में खड़े नेपोलियन के रौबदार व्यक्तित्व को देख थोड़ा सहमी फिर बोली  'मैं आपको नहीं जानती। तब नेपोलियन ने कहा, 'तुम्हें ऐसा कोई लड़का याद है, जो तुमसे फल उधार लेकर खाता था।

वृद्धा ने इनकार किया। नेपोलियन बोला, 'तुम मुझे भले ही भूल गई हो, किंतु मुझे भली-भांति याद है। मैं ही वह लड़का हूं और उन फलों के दाम आज चुकाने आया हूं। यह कहते हुए नेपोलियन ने रुपयों से भरी एक थैली वृद्धा को दी और पुन: चरण स्पर्श कर चला गया। बाद में किसी ने वृद्धा को बताया कि वह फ्रांस का सम्राट नेपोलियन था। वृद्धा की आंखें भीग गईं। पद-प्रतिष्ठा से बड़ा बनने पर भी अपने मददगारों के प्रति कृतज्ञता का भाव बनाए रखना बड़प्पन का लक्षण है।

दान में नहीं होना चाहिए अहंकार
एक अमीर आदमी था। वह निर्धनों व असहायों को पर्याप्त दान देता था। लेकिन जितना वह देता, उससे अधिक उसका बखान करता। इस कारण लेने वाले के दिल पर उसके अहसान का भार हो जाता था।

एक दिन वह किसी संत के पास मिलने गया। संत के सामने भी वह काफी देर तक आत्म प्रशंसा करता रहा।  फिर उठते समय उसने अपने सहायक को संकेत किया। उसने तत्काल आगे बढ़कर संत के समक्ष रुपए से भरी थैली रख दी। संत ने अमीर की ओर प्रश्न सूचक दृष्टि से देखा, तो वह बोला, 'पैसे की कमी के कारण आप अनेक कल्याणकारी कार्य कर नहीं पाते होंगे। मैंने सोचा कि आपकी कुछ मदद कर दूं।

संत ने अमीर की बनावटी विनम्रता में छिपे अहंकार को समझकर कहा, 'मुझे आपके धन की नहीं, आपकी आवश्यकता है। अमीर के लिए यह पहला अनुभव था जब किसी ने उसके दान को ठुकराया हो। उसे संत के व्यवहार पर हैरानी भी हुई और बुरा भी लगा। उसने कहा, 'महात्मन्!  आपने तो मेरे दान को व्यर्थ समझकर अस्वीकार कर दिया। ऐसा क्यों? उसकी बात सुनकर संत मुस्कुराए।

फिर स्नेह से उसे समझाकर बोले, 'सेठ! जिस दान के साथ दाता स्वयं को नहीं देता, वह मिट्टी के बराबर होता है। दान से आशय है- सम-विभाजन। दूसरे का हिस्सा अतिरिक्त धन के रूप में तुम्हारे पास है, वही तुम दान के रूप में लौटा रहे हो। फिर इसमें मैंने दिया का अहंकार होना ही नहीं चाहिए। तुम जब इस भाव से दोगे, तो मैं अवश्य लूंगा। संत की गहरी बातों ने अमीर का जमीर जाग्रत कर दिया और उसने स्वयं की सोच में आवश्यक सुधार किया।

क्षमा ने अपराधी का जीवन सुधारा
आयरलैंड  की श्रीमती जोसफ अत्यंत सहृदय महिला थीं। वे सदैव मजबूर और गरीब वर्ग की सहायता करती थीं। एक दिन वे किसी सभा में हिस्सा लेने पहुंचीं। वहां एक शराबी व्यक्ति ने पहले उन्हें अपशब्द कहे और फिर गोली चला दी। सौभाग्य से श्रीमती जोसफ बच गईं किंतु उनका एक कान बुरी तरह से जख्मी हो गया।

सभा में मौजूद लोगों ने शराबी को पकड़ लिया। उस पर हत्या का मुकदमा चलाया गया। जिस दिन न्यायालय में उसकी पहली पेशी थी, जनता का सैलाब उमड़ पड़ा। श्रीमती जोसफ के प्रति सभी के मन में अपार श्रद्धा थी इसलिए अपराधी के लिए सभी घृणा व क्रोध से भरे हुए थे।

लेकिन लोग उस समय चकित रह गए, जब उन्होंने देखा कि श्रीमती जोसफ उस शराबी की पैरवी कर रही हैं। वे न्यायाधीश से बोलीं, 'मैं जानती हूं कि इस व्यक्ति ने मुझ पर जानलेवा हमला किया है, किंतु मेरा स्पष्ट अभिमत है कि यह अपराधी होकर भी दोषी नहीं है। न्यायाधीश ने आश्चर्य से पूछा, 'फिर यह क्या है? श्रीमती जोसफ बोलीं, 'यह निर्बल है। अपनी सोच और कर्म से कमजोर है।

इसका यह दोष सजा देने से दूर नहीं होगा। इसे सहानुभूति की जरूरत है। वही इसे ठीक मार्ग बताएगी। यह कहते हुए श्रीमती जोसफ ने अपने चिकित्सकसे कहकर स्वयं को हल्की चोट आने संबंधी कागज प्रस्तुत किए और अपराधी को कठोर दंड से मुक्त करवा दिया। ग्लानि महसूस कर अपराधी ने श्रीमती जोसफ से क्षमा मांगी और सदा के लिए सुधर गया। दुष्टों से दुष्टता से नहीं बल्कि स्नेह से जीता जा सकता है। इसलिए दंड से पहले उन्हें क्षमा कर सुधरने का अवसर देना चाहिए।

स्वार्थ से परे होती है सच्ची मित्रता
बंगाल के नवाबी माहौल में पले दो मित्र चिन्मय और अनुराग शतरंज के शौकीन थे। चूंकि अनुराग के पिता निर्धन थे, इसलिए कभी-कभी अनुराग, चिन्मय से पैसे उधार लेता था। एक दिन शतरंज खेलते समय चिन्मय ने कोई चाल चली। जवाबी चाल में अनुराग ने काफी देर लगा दी। ऊबकर चिन्मय ने कहा, भाई! चाल चलो। तुम तो एक घंटे से वजीर पकड़े बैठे हो। अनुराग बोला, ऐसी भी क्या जल्दी है? मुझे ठीक से सोचने तो दो।

चिन्मय ने उसे और चिढ़ाया, क्रयह खेल शाही लोगों का है, तुम जैसे बुद्धुओं का नहीं। काफी देर की हुज्जत के बाद अनुराग ने एक मोहरे को उठाकर कहीं रखा, लेकिन हाथ से पकड़े रहा। उसकी चाल पर चिन्मय ने प्रसन्न होकर अपनी चाल चलनी चाही, किंतु अनुराग ने मोहरा वहां से उठाकर फिर पहले वाले स्थान पर रख दिया। चिन्मय ने मोहरा वहीं पर रखने को कहा। नाराज होकर अनुराग कभी चिन्मय के घर न आने की शपथ लेकर अपने घर चला गया।

थोड़े दिनों बाद चिन्मय के पास अनुराग की चिट्ठी आई। उसमें लिखा था, क्रभाई! मुझ पर तुम्हारा कर्ज बाकी है। उस कर्ज को स्वीकारने के लिए प्रमाण के रूप में पत्र लिखकर भेज रहा हूं। चिट्ठी पढ़कर चिन्मय नाराज होकर चिट्ठी लाने वाले से बोला, क्रउससे कह देना कि मैं इतना गिर नहीं गया हूं कि मित्र से पत्र लिखवाऊं और प्रमाण इकट्ठा करूं।

चिन्मय की बात सुनकार अनुराग का गुस्सा काफूर हो गया। वह दौड़ता हुआ चिन्मय के घर पहुंचा और उसे गले लगा लिया। चिन्मय तो शायद इसी क्षण की प्रतीक्षा में था। सारे गिले-शिकवे हवा हो गए और शतरंज की बाजी फिर जम गई। सच्ची मित्रता भौतिक स्वार्थों से परे होती है।

राजेंद्र प्रसाद ने किया निरुत्तर
भारत  के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद के जीवन का एक प्रसंग है। बात आजादी के पहले की है। अंग्रेजों के प्रति गुस्सा सभी के मन में था। किंतु विरोध का साहस कम ही लोगों में था। यूं भी भारतीय अपनी सहनशीलता के कारण जाने जाते थे। अंग्रेजों ने उनके इस गुण का भरपूर फायदा उठाया। वे उन पर अत्याचार करने में जरा भी नहीं चूकते थे।

जहां भी और जितना भी परेशान कर सकते थे, अवश्य करते थे। एक दिन डॉ. राजेंद्र प्रसाद नौका में बैठकर अपने गांव जा रहे थे। उनके समीप ही एक अंग्रेज अधिकारी बैठा था। कुछ देर बाद उसने सिगरेट पीना शुरू कर दीं। राजेंद्र बाबू सहित नौका में बैठे सभी लोगों को सिगरेट के धुएं से तकलीफ होने लगी, किंतु शासक-वर्ग का होने के कारण किसी ने विरोध नहीं किया। आखिरकार राजेंद्र बाबू से रहा नहीं गया।

वे बोले- ये जो सिगरेट आप पी रहे हैं, क्या आपकी है? अंग्रेज अधिकारी ने तुनककर कहा- मेरी नहीं, तो क्या तुम्हारी है? तुम मूर्ख हो, जो ऐसा प्रश्न कर रहे हो। तब राजेंद्र बाबू बोले- तो फिर यह धुआं भी आपका ही है, इसे दूसरों पर क्यों फेंक रहे हो? इसे भी अपने पास संभालकर रखो। राजेंद्र बाबू का सटीक जवाब सुनकर अंग्रेज अधिकारी सकपका गया।

उससे कुछ बोलते नहीं बना। उसने सिगरेट तत्काल बुझा दी और शेष सफर चुपचाप तय किया। विरोध के अनेक ऐसे अवसरों पर हम लोग प्राय: विवाद के भय से अथवा हमें क्या करना के अनुत्तरदायी भाव को पाले हुए चुप रहते हैं, किंतु अनुचित का विरोध प्रत्येक स्थान पर उचित है, क्योंकि इसी से समाज एक बड़े परिवार का रूप लेता है।

क्षमा से सुधर गया चोर का जीवन
एक  सभा में वक्ता के तौर पर एक अत्यंत विद्वान व्यक्ति को आमंत्रित किया गया था। उन्होंने बोलना शुरू किया  क्रआज मैं आपको एक ऐसी घटना सुनाऊंगा, जो अत्यंत प्रेरणास्पद है। इस घटना के सूत्रधार बंगाल के हाजी मोहम्मद मोहसिन हैं। हाजी साहब जितने अच्छे तलवारबाज थे, उतने ही श्रेष्ठ विद्वान भी थे। धनवान होने के साथ वे दयालु भी थे। एक रात उनके घर में एक चोर घुस आया। उसने जैसे ही घर टटोलना शुरू किया, हाजी साहब जाग गए।

उन्होंने तत्काल उसे पकड़ लिया और वे यह देखकर चकित रह गए कि चोर उनका पड़ोसी ही था। जो अपनी बुरी आदतों के कारण अपना सब कुछ गंवा चुका था, किंतु हाजी साहब ने यह नहीं सोचा था कि वह उनके ही घर में चोरी की हिम्मत कर लेगा। उन्होंने नाराज होते हुए उससे कहा- तुम्हें ऐसी घटिया हरकत करते शर्म नहीं आती? वह रोने लगा और उनसे क्षमा मांगने लगा। तब हाजी साहब ने उसे कुछ रुपए देकर कहा- इन रुपयों से कोई सम्मानजनक काम करो। आज से मैं तुम्हारा अभिभावक हूं।

तुम्हें वही करना होगा, जो मैं कहूंगा। जाओ, कल आना। उस रात के बाद से चोर की जिंदगी ही बदल गई। आप लोग जानकर हैरान होंगे कि वह चोर मैं ही हूं। आज हाजी साहब की सही सीख और सहायता ने मुझे आप लोगों के सम्मान का पात्र बनाया है। अपने परम आदरणीय विद्वान वक्ता की जीवन कथा सुनकर पहले तो सभा में सन्नाटा छा गया, फिर उसकी गहराई व महत्व जानकर सभी ने करतल ध्वनि से उनका स्वागत किया। सार यह है कि कई बार क्षमा से अपराधी का जीवन सुधर जाता है, इसलिए अपने मन को बड़ा रखकर क्षमाभाव बनाए रखना चाहिए।

अशोक के भीतर का इंसान जाग उठा
मगध के सम्राट अशोक अपने विजय अभियान को कलिंग तक बढ़ा चुके थे। अपने शिविर में विचारमग्न बैठे अशोक को उनके सेनापति जयगुप्त ने आकर कहा, सम्राट की जय हो! कलिंग युद्ध में हमारी विजय हुई। सेनापति के मुख से यह शुभ समाचार सुनकर सम्राट अशोक के हर्ष की सीमा न रही। जयगुप्त ने उनसे जाने की आज्ञा ली।

वह जाने के लिए पलटा ही था कि एक बौद्ध भिक्षु से उसका सामना हुआ। भिक्षु ने सम्राट अशोक से कहा, महाराज! कलिंग के युद्ध में आपकी विजय नहीं, बल्कि पराजय हुई है। सम्राट आश्चर्यचकित हो गए। उन्होंने जयगुप्त को प्रश्नसूचक मुद्रा में देखा तो वह बोला, मैंने असत्य नहीं कहा, सम्राट! आपको विजयश्री ही प्राप्त हुई है।

भिक्षु ने कहा, सम्राट! आप मेरे साथ रणभूमि में चलकर देखिए कि हार हुई या जीत? रणभूमि पहुंचकर उन्होंने चारों ओर व्याप्त रुदन और चीखें सुनीं। भिक्षु बोला, आपके इस युद्ध ने गांव के गांव उजाड़ दिए। किसी का पति तो किसी का पुत्र मारा गया। कोई अपना भाई खो बैठा है तो कोई अपना पिता। सम्राट यह दृश्य देखकर दुखी हो गए।

चारों ओर फैले भयावह मातम के बीच साधु ने पूछा, आप इसे विजय मानते हैं या पराजय? अशोक बोले, आप सच कहते हैं। नरसंहार को देखकर लगता है कि मेरी भीषण पराजय हुई है। सम्राट तो जीत गया, किंतु इंसान हार गया। आज से मैं प्रतिज्ञा करता हूं कि भविष्य में कभी युद्ध नहीं करूंगा। उन्होंने भगवान बुद्ध से दीक्षा लेकर अपना समस्त जीवन मानवता की सेवा हेतु समर्पित कर दिया। विजय, स्नेह और उदारता से भी पाई जा सकती है। बलपूर्वक पाई गई जीत क्षणभंगुर होती है।

पुत्र ने दिखाई पिता को सही राह
जातक कथाओं में एक कथा आती है। प्राचीनकाल के वाराणसी में एक किसान गृहस्थ के घर बड़े ही योग्य पुत्र ने जन्म लिया। माता-पिता ने नाम रखा- सुजातकुमार। सुजात ने कभी ऐसा कोई काम नहीं किया, जिससे माता-पिता को कष्ट हो अथवा उनकी प्रतिष्ठा पर आंच आए। सुजात के दादाजी भी उससे बहुत खुश रहते थे। जब सुजात युवा हुआ तो एक दिन उसके दादाजी का अल्प बीमारी के बाद निधन हो गया।

इस शोक से सुजात के पिता मुक्त नहीं हो पाए। उन्होंने श्मशान से अपने पिता की अस्थियां मिट्टी का एक स्तूप बनाकर उसमें रख पूजा करनी शुरू कर दी। कई बार तो वे स्तूप के चारों ओर घूमते हुए जोर-जोर से रोते। न वे अपना खेती का काम देखते, न भोजन समय से करते।

पिता को मां समझाकर थक गई। तब एक दिन सुजात ने एक मृत बैल की देह को अपने घर के आंगन में रख लिया और उसके सामने चारा-पानी डालकर कहने लगा, 'ले खा, ले पी। पिता ने सुना तो वे व्याकुल होकर बेटे के पास आए और उसे समझाते हुए कहने लगे, 'तेरे चारा-पानी देने से क्या मृत बैल जीवित हो जाएगा? तब सुजात ने उन्हें कहा, 'तो फिर आप अस्थियों पर स्तूप बनाकर क्यों रोते हैं? क्या ऐसा करने से आपके पिताजी जीवित हो जाएंगे।

आपके  द्वारा ऐसा करने से उनकी आत्मा कष्ट ही पाती होगी। पिता को तत्क्षण अपनी गलती महसूस हुई और उन्होंने सामान्य जीवन जीना शुरू कर दिया। परिजनों की मृत्यु पर शोक उचित है, किंतु उसे स्थायी भाव बनाकर कर्महीन हो जाना अनुचित है। दिवंगत परिजनों की मधुर स्मृतियों को मन में रखते हुए अपने कर्तव्यों का समुचित निर्वहन ही बुद्धिमानों को श्रेयस्कर है।

बेईमानी से सुकून नहीं मिलता
एक आदमी रोज अलसुबह मंदिर में जाता और अत्यंत श्रद्धाभाव से दीपक जलाकर रख देता। मंदिर में उस समय आने वाले लोग उसे देखकर बड़े ही आदर-भाव से भर उठते। एक दिन उससे एक युवक ने पूछा, भाई साहब! आपकी ईश भक्ति सच में प्रणम्य है। आपके जैसा श्रद्धा भाव मैं स्वयं में भी पैदा करना चाहता हूं। उसकी बात सुनकर आदमी हंसकर बोला, भाई! सवाल श्रद्धा का नहीं है। सत्य तो यह है कि एक बार मैं एक मुकदमे में फंस गया।

मैंने उस समय भगवान से प्रार्थना की कियदि मैं मुकदमा जीत गया तो रोज मंदिर में आकर दीपक जलाऊंगा। भगवान ने मेरी प्रार्थना सुन ली और मैं जीत गया। तभी से मैं अपने वचन का पालन कर रहा हूं। युवक ने मुकदमे के विषय में जानना चाहा तो वह बोला, मैं चाहता था कि मेरे पड़ोसी की उपजाऊ जमीन मेरी हो जाए। मैंने अधिकारियों को रिश्वत देकर वह जमीन अपने नाम पर करा ली।

पड़ोसी ने मुझ पर मुकदमा कर दिया, किंतु भगवान की कृपा से मैंने उसे हरा दिया। यह सुनकर युवकके मन में उसके प्रति सम्मान जाता रहा और वह बोला, भगवान ने कैसे तुम्हारे अन्याय में तुम्हारा साथ दिया मैं नहीं जानता, किंतु इस धोखाधड़ी का फल तुम्हें जरूर मिलेगा।

पड़ोसी का श्राप तुम्हें लगेगा। वह आदमी व्यंग्य से हंसकर अपनी राह चला गया। युवक ने समझ लिया कि बाहर दीपक जलाने वाले इस आदमी के भीतर का दीपक बुझा हुआ है। बेईमानी से जो उपलब्धि हासिल हो, वह न तो प्रशंसनीय होती है और न ही भीतर का सुकून देती है। वस्तुत: नैतिक रूप से जो गलत है, वह सुख, संतोष और सराहना का पात्र नहीं बन सकता।

भाइयों ने पेश की प्रेम की मिसाल
एक  किसान के दो पुत्र थे। बड़े पुत्र के तीन बच्चे थे और छोटे के यहां कोई संतान नहीं थी। किसान ने यह सोचकर कि मेरी मृत्यु के बाद संपत्ति को लेकर दोनों भाइयों में कोई विवाद न हो, दोनों बेटों में बराबरी से जमीन और धन का बंटवारा कर दिया। किसान जब मृत्यु को प्राप्त हुआ, तो उसके मन में अपार संतोष था कि दोनों बेटे प्रेम से रहेंगे और हुआ भी यही।

किसान के दोनों पुत्रों में पिता की मृत्यु के बाद कोई विवाद नहीं हुआ। दोनों अपने-अपने खेत में खूब परिश्रम करते और मन में यही भावना रहती कि मैं भले ही कष्ट उठा लूं, किंतु मेरे भाई को कोई परेशानी न हो। एक साल दोनों भाइयों के खेत में खूब धान उपजी। दोनों के खलिहान भर गए। धान की रक्षा के लिए दोनों खलिहान पर ही सोते थे। एक रात को बड़े भाई के मन में विचार आया कि मैं कितना स्वार्थी हूं। बड़े ही आराम से खाता-पीता हूं और अपने परिवार की देखरेख में छोटे भाई को देखना भूल ही जाता हूं। मेरे तो बच्चे हैं, जो कुछ वर्षों में जवान होकर कमाने लगेंगे, किंतु छोटे की तो संतान ही नहीं है। मुझे अपनी धान में से कुछ उसे देना चाहिए।

यह सोचकर वह कुछ बोरे धान छोटे भाई के खलिहान में चुपचाप रख आया। उधर छोटे भाई ने स्वयं को मतलबी सोचते हुए विचार किया कि मैं तो संतानहीन हूं। बड़े भाई के तीन बच्चे हैं। मुझे अपनी धान में से उन्हें कुछ देना चाहिए। वह भी कुछ बोरे भाई के खलिहान में रख आया। सुबह दोनों ने देखा कि उनके संग्रह में से धान कम नहीं हुई। दोनों हैरान थे। अगली रात दोनों फिर खलिहान में धान रखने के विचार से निकले, लेकिन दोनों ने एक-दूसरे को देख लिया। दोनों एक-दूसरे के भाव जान गए और स्नेह से लिपट गए। अपने स्वार्थों को छोड़कर एक-दूसरे का अधिक से अधिक ध्यान रखने का भाव संबंधों में स्नेह की ऊष्मा बनाए रखता है और यही भाव संबंधों को स्थायी भी बनाता है।

कालिदास ने दिखाई ज्ञान की राह
अल्पज्ञानी चार ब्राह्मणों ने तय किया कि राजा भोज के दरबार में चलकर उन्हें कोई अच्छा-सा कवित्त सुनाएं, तो वे हमें इनाम देंगे। वे चल दिए। रास्ते में उन्हें भूख लगी। तभी उन्हें जामुन का एक वृक्ष दिखाई दिया। जामुनों से उन्होंने पेट भरा। एक ब्राह्मण बोला, जामुन अंत न पाई अर्थात ऐसे जामुन कभी खाने को नहीं मिले। अब चारों बड़ के एक पेड़ के नीचे सुस्ताने लगे। पेड़ पर चिडिय़ों को लड़ते देख दूसरे ब्राह्मण ने कवित्त बनाया, बरा तरी मंच गै रार अर्थात बड़ के पेड़ पर झगड़ा हो गया। कुछ दूर जाने पर उन्हें गूलर का पेड़ दिखाई दिया।

जिस पर एक भी गूलर नहीं था। इस पर तीसरे ने कवित्त बनाया, ऊमर रहै निझर गै अर्थात गूलर के फल-फूल सब झड़ गए। आगे एक स्त्री टोकरी में पीपल के पत्ते ले जाती दिखी। चौथे ब्राह्मण ने कवित्त बनाया, पीपर लाई नार अर्थात नारी पीपल चुनकर लाई है। चारों राजा के दरबार में पहुंचे। उन्होंने राजा को अपने कवित्त सुनाए। राजा को उनके कवित्त समझ नहीं आए तो उन्होंने महाकवि कालिदास को व्याख्या करने को कहा।

कालिदास बोले, क्रइसमें मंदोदरी रावण को समझा रही है कि हे स्वामी! आप किससे लड़ रहे हैं? जामुन अंत न पाई अर्थात जिसका अंत ऋषि-मुनियों ने नहीं पाया। बरा तरी मंच गै रार आपने उससे बराबरी करके झगडऩा शुरू कर दिया है। अत: ऊमर रहै निझर गै अर्थात आपके उम्र रूपी पेड़ के फल गिर गए यानी आप अधिक दिन जीवित नहीं रह सकते, क्योंकि पीपर लाई नार- आप दूसरे की नारी का हरण कर अपने घर पीड़ा लाए हैं। राजा भोज यह व्याख्या सुनकर बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने उन्हें खूब दान-दक्षिणा दी। ब्राह्मण अपने कवित्त की ऐसी ज्ञानपूर्ण व्याख्या सुनकर स्वयं की अज्ञानता पर लज्जित हुए और राजा से प्राप्त दान-राशि को स्वयं के ज्ञानार्जन पर व्यय करने का निश्चय किया।

लोभी साधु ने खोया धन और मान
एक दिन एक ग्वाला अपनी गाय को तालाब पर नहला रहा था। तभी उसने देखा कि पेड़ की ओट में एक साधु ने कुछ अशर्फियां गिनकर अपने बटुए में रखीं और उन्हें अपने जटाजूट में छिपा लिया। यह देख ग्वाले ने एक योजना बनाई। उसने साधु के पास जाकर उन्हें प्रणाम कर कहा- बाबा! आज शाम आप मेरे घर पधारिये। अब तक मुझे कोई सच्चा गुरु नहीं मिला। कृपा कर मुझे और मेरी पत्नी को अपना शिष्य बनाकर हमारा जीवन धन्य कर दीजिए। साधु का लोभ जाग्रत हुआ। वह बोला, बच्चा! यदि तू मुझे दक्षिणा में दो अशर्फियां देगा, तो मैं तुम दोनों को शिष्य बनाऊंगा।

ग्वाला मान गया। शाम को साधु ग्वाले के घर आया। ग्वाले और ग्वालिन ने प्रेमपूर्वक साधु को बैठाया और फिर व्यंजनों से भरी थाली परोसी। भोजन के बाद साधु ने विश्राम किया। जब साधु के जाने का समय हुआ तो उसने दक्षिणा मांगी। ग्वाले ने अपनी पत्नी को संदूककी चाबी देकर कहा- संदूक में अशर्फियां रखी हैं। उनमें से दो गुरुजी को दे दो। ग्वालिन को संदूकमें अशर्फियां नहीं मिलीं। जब उसने ग्वाले से यह बात कही तो वह चिढ़कर बोला- मैंने अपने हाथों से अशर्फियां संदूक में रखी थीं।

जरूर तूने ही उन्हें छिपाया है। मैं तेरी तलाशी लूंगा। ग्वालिन ने तलाशी दे दी, किंतु अशर्फियां नहीं मिलीं। तब ग्वाले ने खुद की तलाशी भी ग्वालिन से लेने को कहा। अशर्फियां तब भी नहीं मिलीं। फिर ग्वाले ने साधु को ग्वालिन के शंकालु स्वभाव का हवाला देकर उनकी भी तलाशी देने को कहा। बाबा के जटाजूट में से अशर्फियां निकलने पर ग्वाला बोला, देख भागवान! साधु महाराज ने अपने तप से हमारी अशर्फियां ला दीं। अब इनमें से दो उन्हें अर्पित कर शेष संदूक में रख ले। ग्वालिन ने यही किया। लोभी साधु मन मसोसकर रह गया। वस्तुत: लोभ करने से प्रतिष्ठा चली जाती है, इसलिए लोभ से बचना चाहिए।

राजा ने जाना योग्य जीवनदर्शन
धार्मिक व प्रजा हितैषी वृत्ति का एक राजा साधु-संतों से हमेशा पूछता, गृहस्थ धर्म श्रेष्ठ है या संन्यास? राजा   स्वयं संन्यास को श्रेष्ठ मानता था। एक दिन राजा ने दरबार में आए एक ज्ञानी संत के सामने यह प्रश्न रखा तो वे बोले - क्रराजन्! कुछ दिन आपको मेरे साथ रहना होगा। तब इस प्रश्न का उत्तर मिलेगा। राजा राजपाट अपने मंत्री के भरोसे छोड़ संत के साथ हो लिया। दोनों घूमते हुए ऐेसे राज्य में पहुंचे जहां राजकुमारी के लिए स्वयंवर हो रहा था। रूप-गुण संपन्न राजकुमारी ने एक युवा व ओजस्वी संन्यासी के गले में वरमाला डाल दी, किंतु संन्यासी ने यह कहते हुए वरमाला तोड़कर फेंकदी कि वह संन्यासी है और विवाह बंधन उसके लिए त्याज्य है।

वह तत्क्षण वहां से चला गया। राजकुमारी भी उसके पीछे चल दी। संन्यासी एक घाटी में जाकर अदृश्य हो गया। राजकुमारी रोने लगी। उसके पीछे राजकुमारी के पिता और संत भी राजा के साथ पहुंचे फिर तीनों लोग एक  पेड़ के नीचे बैठ गए। उस पेड़ पर रहने वाले कबूतर व कबूतरी अपने बच्चों सहित आग में कूद गए ताकि भोजन की व्यवस्था हो सके। राजकुमारी ने संत से कबूतर परिवार को पुनर्जीवित करने की प्रार्थना की।

संत ने ऐसा किया और फिर राजा से कहा, क्रयदि तुम्हें गृहस्थ बनना है तो कबूतर-कबूतरी का त्याग देखों और उस संन्यासी की भांति रूप, धन, राजपाट को तनिक भी मत देखो। वस्तुत: दोनों ही धर्म महान हैं, बस उचित निर्वाह की जरूरत है। तब राजा व राजकुमारी ने परस्पर विवाह किया और प्रजाहित में लग गए। अपने कर्तव्यों का समुचित निर्वहन करने वाला श्रेष्ठ मानव होता है, फिर चाहे वह गृहस्थ हो या संन्यासी।

हाजिर जवाबी ने जीवन बदल डाला
एक वृद्ध भिखारी दिनभर घूमकर खूब सारा अनाज  इकट्ठा करता। लोगों को वह उसकी जरूरत से अधिक लगता। एक दिन लोगों ने उससे पूछा कि इतने सारे अनाज का क्या करते हो? वह बोला, मुझे चार सेर अनाज नित्य मिलता है। एक सेर मैं एक राक्षसी को देता हूं। एक सेर उधार देता हूं। एक सेर बहते पानी में बहा देता हूं और एक सेर से मंदिर के देवता को भोग लगाता हूं।

लोगों को कुछ समझ में नहीं आया। वे उसे पाखंडी समझकर राजा के पास ले गए। राजा से वह बोला, राक्षसी मेरी पत्नी है, जो सिर्फ खाना, पहनना और सोना जानती है, किंतु उसे खिलाना मेरा कर्तव्य है। अत: एक सेर अनाज उसे देता हूं। उधार मैं अपने पुत्र को देता हूं। वह छोटा है, इसलिए उसका पेट भरना मेरा दायित्व है। जब मैं बूढ़ा और वह जवान हो जाएगा तो वह मुझे कमाकर खिलाएगा। इसे मैं उधार देना कहता हूं।

मेरी बेटी जब बड़ी होगी तो शादी कर पति के घर चली जाएगी।  उसे खिलाने का मतलब बहते पानी में अनाज फेंकना ही है, किंतु वह मेरा धर्म भी है। मेरा यह शरीर मंदिर है और उसमें बसने वाले प्राण मंदिर के देवता हैं। यदि इन्हें भोग न लगाऊं तो मेरे परिवार की गुजर-बसर कैसे हो? राजा भिखारी की हाजिर जवाबी पर बड़ा प्रसन्न हुआ और उसने उससे कहा -क्रतुम तो पंडित जान पड़ते हो।

आज से तुम्हें अपना विशेष सलाहकार नियुक्त करता हूं। इस प्रकार भिखारी ने अपनी चतुराई से अपने जीवन की कायापलट कर ली। हाजिर जवाबी एक ऐसा गुण है, जो लोगों को प्रभावित करने की क्षमता रखता है। यदि इसे अपने स्वभाव का अंग बना लें, तो अनेक अवसरों पर सफलता मिलती है।

लोकसेवा के बल पर पाया सर्वाधिक पुण्य
एक वृद्धा बिल्कुल अकेली थी। पति का देहांत काफी वर्षों पूर्व ही हो गया था और संतान थी नहीं। वह अपनी आजीविका के लिए खेतों में छोटे-मोटे काम करती थी। बचे समय में वृद्धा भगवान के स्मरण में लगी रहती। उसकी बड़ी इच्छा थी कि चार धाम की तीर्थ यात्रा करे। वह वर्षों से इसके लिए पैसे जमा कर रही थी। गांव के सभी लोग उसकी इस इच्छा के विषय में जानते थे। आखिर इतनी लंबी प्रतीक्षा के बाद वह समय आया, जब वृद्धा ने तीर्थ यात्रा के लिए जरूरी पैसे जमा कर लिए। वह अत्यधिक प्रसन्न थी, क्योंकि इतने वर्षों की साध जो पूरी होने जा रही थी।

उसने सामान बांधना शुरू किया। जिस दिन उसे तीर्थ यात्रा पर जाना था, उससे एक दिन पहले रात में तूफान आया और गांव का लगभग हर घर तबाह हो गया। कहीं माता-पिता न रहे, तो कहीं संतानों ने प्राण त्याग दिए। लोगों का सब कुछ पानी में बह गया। संयोग से वृद्धा का घर सामान और पैसे तूफान में सुरक्षित रहे, किंतु गांव वालों  के कष्ट को देखकर वृद्धा का मन ही न हुआ कि तीर्थ यात्रा करें। उसने अपनी सारी धनराशि, जनकल्याणार्थ दान कर दी और अपने गांव को फिर स्वयं के पैरों पर खड़ा कर दिया।

इससे उसे बड़ा सुकून मिला, किंतु कड़ी मेहनत के कारण बीमार होकर वह कुछ ही दिनों में मृत्यु को प्राप्त हुई। परलोक में धर्मराज ने उसे सर्वाधिक पुण्यवान घोषित कर कहा, क्रजिस भावना की अभिव्यक्ति के लिए तीर्थ यात्रा की जाती है, उस भावना का वृद्धा ने व्यवहार में निर्वाह किया है। इसलिए उसका पुण्य सर्वाधिक है। लोकसेवा में सच्ची ईश-सेवा निहित है। नि:स्वार्थ भाव से की जाने वाली सेवा से भगवान निश्चित रूप से प्रसन्न होते हैं और फिर उनकी कृपा बरसती है।

शिव-कृपा से संवरा चोर का जीवन
एक  चोर जब भी चोरी करता, उसका एकहिस्सा गरीबों पर अवश्य खर्च करता। ऐसा करते हुए वह ईश्वर से अपने बुरे कामों की माफी भी मांगता था, किंतु परिजनों के लाख समझाने के बावजूद चोरी करना नहीं छोड़ता। एकरात वह जहां-जहां चोरी करने गया, उसे कोई न कोई जागता हुआ मिला। उसने मन में सोचा कि जो भगवान सभी की रोजी-रोटी की व्यवस्था करता है, क्या वह आज मुझे खाली हाथ और भूखे पेट रखना चाहता है? एक-दो स्थानों पर उसने और कोशिश की, किंतु सफलता हाथ नहीं लगी।

अब वह बुरी तरह थक चुका था। अत: सामने स्थित शिव मंदिर में जाकर लेट गया। लेटे-लेटे वह सोचने लगा कि दो घंटे विश्राम कर लूं, फिर एक बार प्रयास करूंगा। शायद कहीं सफलता मिल जाए। सोचते-सोचते अचानक उसकी दृष्टि मंदिर में लटकेपीतल के एक बड़े घंटे पर गई। वह प्रसन्न हुआ कि भगवान ने मेरे लिए कितनी अच्छी व्यवस्था कर दी। उसने सोचा कि आसपास सीढ़ी तो है नहीं, इसलिए इतने बड़े घंटे को शिवलिंग पर चढ़कर निकाल लेना चाहिए।

उसने शिवलिंग पर चढ़कर घंटा उतार लिया। तभी भगवान शिव प्रकट होकर उससे बोले-भक्त! आज तू वर मांग। मैं तेरी हर इच्छा पूर्ण करूंगा। चोर घबरा गया। उसने अपनी गलती के लिए क्षमा मांगी। तब भगवान बोले- क्रलोग मुझ पर बिल्व पत्र चढ़ाकर मुक्ति द्वार खोजते हैं और तू तो स्वयं ही मुझ पर चढ़ गया।

फिर तू गरीबों का मददगार भी है। आज से तू यह काम छोड़कर व्यापार कर। तुझे अवश्य ही सफलता मिलेगी। चोर ने उसी दिन से चोरी छोड़ सद्मार्ग अपना लिया। सार यह है कि ईश्वर की कृपा से प्रतिकूलताएं अनुकूलताओं में बदल जाती हैं। अत: उस पर भरोसा रखकर धर्म की राह पर चलना चाहिए।

बुद्धि और विवेक से दूर हुई निर्धनता
एक व्यापारी के चार पुत्र घाटे के कारण निर्धन हो गए। सबसे छोटी बहू ने एक घर में साथ रहने की सलाह दी ताकि खर्च कम हो जाए। फिर बहू ने एक दिन अपने ससुर से कहा, 'आप  क्षेत्र के लोगों से कहिए कि वे अपना कचरा लाकर हमारे घर के सामने रख दें। व्यापारी को अजीब लगा पर उसने लोगों को इस बात पर राजी कर लिया। निश्चित दिन उनके दरवाजे के सामने कूड़े का ढेर लग गया। उस कूड़े में एक मृत सांप भी था, जिसे एक चील ने देखा। वह उसे उठा ले गई और अपनी चोंच में दबा एक स्वर्णहार वहीं छोड़ गई।

वह स्वर्णहार  राज्य की रानी का था। बहू ने वह स्वर्णहार जब रानी को लौटाया तो उसने प्रसन्न होकर इनाम देना चाहा। तब बहू ने मांग रखी, इस दीपावली की रात मेरे घर के अलावा किसी के घर दीपक न जलाए जाएं। रानी ने नगर में ऐसी मुनादी करवा दी। जब दीपावली का दिन आया तो व्यापारी के घर ही दीपक प्रज्वलित हुए। शेष घरों में अंधेरा था। जब लक्ष्मीजी आईं तो हर जगह अंधकार देखा। आखिर वे व्यापारी के घर पहुंचीं, जहां रोशनी थी। जब लक्ष्मीजी वहां पहुंचीं तो बहू ने कहा, आप दूसरा घर देखिए।

मुझ निर्धन के यहां आपका क्या स्वागत हो पाएगा? लक्ष्मीजी फिर से पूरे नगर में घूमीं, किंतु रोशनी व्यापारी के घर के अलावा कहीं नहीं थी। अंतत: वे फिर व्यापारी के घर आईं और बहू से कहा, हे कुलदेवी! द्वार खोलो। मैं तुम्हारी सभी मनोकामनाएं पूर्ण करूंगी। तब बहू ने द्वार खोले और घर की निर्धनता सदा के लिए दूर करने का वर मांगा, जो लक्ष्मीजी ने सहर्ष दिया। समस्याएं आने पर घबराने के स्थान पर धैर्य से काम लेना चाहिए। धैर्य रखने पर बुद्धि और विवेक जागृत रहते हैं, जो उचित निर्णय लेने में सहायता करते हैं।

तिलक ने जीता कैदियों का मन
स्वतंत्रता आंदोलन के दिनों की बात है। लोकमान्य तिलक मांडले जेल में कैद थे। वे स्वभाव से बहुत सहज व सरल थे इसलिए किसी विशेष सुविधा की उन्हें दरकार न थीं। किंतु उनके व्यक्तित्व और कृतित्व से प्रभावित होने वालों की संख्या जेल के अंदर भी कम नहीं थी। अन्य कैदी उनका बहुत ध्यान रखते थे। उन्हीं में से एकका नाम था बीआर कुलकर्णी। यह महाराष्ट्र निवासी उनकी अत्यंत श्रद्धाभाव से सेवा करता था। तिलक भी उससे बहुत स्नेह रखते थे। एक बार बीमार होने के कारण वह तिलक के पास नहीं जा पाया।

तिलकको चिंता हुई कि वह क्यों नहीं आया? जब वे उसे देखने पहुंचे तो पता चला कि वह तो बीमार है। कुलकर्णी के मना करने के बावजूद तिलक ने उसकी सेवा की और कुछ दिनों में कुलकर्णी स्वस्थ हो गया। जेलर, तिलक जैसी हस्ती को कुलकर्णी जैसे सामान्य व्यक्ति की  सेवा करते देखकर हैरान था। उसे तिलक की सहजता पर हैरानी होती कि कैसे सामान्य कैदी उनसे घुल-मिल जाते हैं।

एक दिन उसने देखा कि तिलक की बैरक में एक गौरेया आकर उनके कंधे पर बैठ गई। तिलक ने उसे प्यार किया और फिर पुस्तक पढऩे लगे। गौरेया उनके कंधे तो कभी गोद में बैठती। जेलर ने तिलक से पूछा, क्या गौरेया को आपसे डर नहीं लगता? तिलक बोले, पक्षी भी स्नेह की भाषा समझते हैं।

गौरेया को मुझ पर विश्वास है कि मैं उसे कोई हानि नहीं पहुंचाऊंगा। जेल के दूसरे कैदियों से मेरे आत्मीय संबंधों का आधार भी यही है। दुनिया में जो काम दवा से न हो, वह स्नेहपूर्ण वाणी और व्यवहार से हो जाता है। इसलिए अपने दिल को सभी के प्रति स्नेह से भरपूर रखें। यह आत्मिक संपन्नता ही नैतिक बल बन जाती है।

फकीर की विनम्रता से सुधरा युवक
एक पहुंचे हुए फकीर थे। सादगी और विनम्रता के धनी इस फकीर के जीवन का उद्देश्य था लोगों का भला करना। एक बार राह से गुजरते वक्त उन्होंने एक युवक  को तम्बूरा बजा-बजाकर भद्दे गीत गाते देखा। लोग उसके भद्दे गीत सुनकर नाराज हो रहे थे। फकीर को लगा कि यदि युवक कुछ देर और इसी प्रकार गाता रहा तो लोग उसे मारेंगे। फकीर ने युवक की रक्षा के लिए जोर-जोर से यह गाना शुरू कर दिया, अल्लाह! तू महान है। बिना तेरी कृपा के कोई कुछ नहीं कर सकता। परवरदिगार! मुझ पर सदा दया-दृष्टि रखना।

फकीर  के ऊंचे स्वर में गाने से क्रोधित होकर युवक बोला, क्रचुप हो जा फकीर! यह क्या बकवास लगा रखी है? फकीर ने उसकी बात अनसुनी करते हुए गाना जारी रखा, हे खुदा! बेअक्लों को अक्ल दे, भटको को सही राह दिखा। गुस्से में आकर युवक ने तम्बूरा फकीर के सिर पर दे मारा। तम्बूरा टूट गया और फकीर के सिर से खून बहने लगा। यह देख युवक वहां से भाग गया। फकीर अपनी कुटिया में पहुंचे तो शागिर्दों ने उनकी मरहम पट्टी की।

फिर फकीर ने एक शागिर्द से कहा, तू उस युवक के पास जाकर तम्बूरे की कीमत दे और साथ में मिठाई भी ले जाना। क्रोध बहुत बुरी वृत्ति है और मुझे अफसोस है कि मेरे कारण उसे इतना क्रोध आया। शागिर्द जब ये चीजें लेकर युवक के पास पहुंचा तो उसे बहुत हैरानी हुई। उसने स्वयं के खराब आचरण पर शर्मिंदगी महसूस की। वह उसी वक्त फकीर के पास पहुंचा और माफी मांगी। इसके बाद युवक फकीर का शागिर्द बन गया। अनेक अवसरों पर विनम्रता व सहनशीलता सुधार का मार्ग बन जाते हैं। इसलिए इन्हें अपनी स्वाभाविक वृत्ति बनाकर उचित अवसर पर उपयोग करना चाहिए।

सत्य बोलकर जीता डाकुओं का दिल
अपने माता-पिता को खो चुका एक आठ वर्षीय बालक निखिल दादी के साथ तीर्थयात्रा पर निकला। गांव के कई लोग उनके साथ थे। यात्रा कभी पैदल तो कभी बैलगाड़ी पर होती थी। दादी उसे सदाचार की शिक्षा देती और निखिल उन्हीं के अनुरूप आचरण करता था। एक दिन यात्रा के दौरान निखिल दादी से बिछड़ गया और रोने लगा। अचानक चार व्यक्ति मशाल लेकर उसके पास आए। उनमें से एक ने कड़ककर पूछा, क्रतुम कौन हो? यहां कैसे आए? निखिल समझ गया कि ये डाकू हैं। वह भीतर से डर तो गया था पर हिम्मत जुटाकर अपना परिचय दिया।

दादी से बिछडऩे की कथा भी सुना दी। डाकू सरदार ने अपने साथियों से उसकी तलाशी लेने को कहा किंतु तलाशी में कुछ नहीं मिला। डाकू सरदार ने उसे जाने को कहा पर निखिल बोला, मेरे पास पचास रुपए हैं, जो दादी को चप्पल दिलाने के लिए मैंने बचाए थे। उनकी चप्पल टूट गई है और नई खरीदने के लिए उनके पास पैसे नहीं हैं। पिछले दो साल से बिना चप्पल पहने चल-चलकर उनके पैर सूज गए हैं और छाले भी पड़ गए हैं।

मैं इतने समय से एक-एक पैसा इसी कारण जोड़ रहा था, किंतु दादी ने सिखाया है कि झूठ नहीं बोलना चाहिए। इसलिए ये रहे पैसे। यह कहते हुए निखिल ने अपनी टोपी में बनी जेब से पैसे निकालकर डाकू सरदार को दे दिए। बच्चे की ईमानदारी देख सभी डाकुओं का मन भर आया और अपने कृत्य पर पछतावा हुआ। उन्होंने निखिल को पैसे वापस कर उसकी दादी के पास पहुंचाया और स्वयं भी बुरा कार्य छोडऩे का संकल्प लिया। सत्य और ईमानदारी नैतिकता के ऐसे दो प्रकाश स्तंभ हैं, जो कई बार कुमार्गियों को सही राह पर ला देते हैं।

भीतर से ही आती है वास्तविक शांति
एक अत्यंत वीर व साहसी युवक किसी राज्य की सेना में भर्ती हुआ। उसकी वीरता राजा ने अनेक लड़ाइयों में देखी। वह जहां होता, वहां विजय सुनिश्चित हो जाती थी। राजा उससे बहुत प्रसन्न था। राज्य के वार्षिकोत्सव के अवसर पर राजा ने युवक को राज्य का सबसे बड़ा सम्मान देने की घोषणा की। राजा ने सोचा कि युवक यह सुनकर खुश होगा।

किंतु राजा को पता चला कि युवक खुश नहीं है। राजा ने उसे बुलवाकर पूछा, युवक! तुम्हें क्या चाहिए? तुम जो चाहो, मैं दूंगा। तब युवक बोला, महाराज! आप मुझे क्षमा करें। मुझे पुरस्कार, सम्मान, पद या पैसा नहीं चाहिए। मैं तो केवल मन की शांति चाहता हूं। यह सुनकर असमंजस में पड़े राजा ने कहा, क्रतुम जो चीज मांग रहे हो, वह मेरे पास भी नहीं है। फिर तुम्हें कैसे दूं। फिर कुछ देर विचार कर राजा ने कहा, क्रमैं एक ज्ञानी साधु को जानता हूं।

शायद वे तुम्हें मन की शांति दे सकेंगे। राजा युवक को लेकर साधु के पास गया। साधु अपने आश्रम में ध्यानरत थे। उनके चेहरे की आभा बता रही थी कि वे भीतर से शांत व संतुष्ट हैं। जब उन्होंने आंखें खोलीं तो राजा ने युवक की मांग के विषय में उन्हें बताया।

तब साधु ने युवक को समझाया, क्रशांति ऐसी संपत्ति नहीं है, जिसे कोई ले अथवा दे सके। उसे तो स्वयं ही पाना होता है, क्योंकि यह भौतिक नहीं, मानसिक वस्तु है, जिसे अपनी निजता में ही हासिल करना होता है। उसे कोई छीन भी नहीं सकता। साधु की बातों से युवक की अंतर्दृष्टि खुल गई। वस्तुत: मन की शांति विकारमुक्त हृदय में संभव है और ऐसा स्वयं की इच्छाशक्ति से ही संभव होता है। अत: शांति बाहर से नहीं पाई जा सकती, वह भीतर से आती है।

सत्य को न जानने से पुत्र खोया
एक दंपती अपने पांच वर्षीय पुत्र के साथ सुखी थे। कमाई अधिकन होने पर भी वे लोग संतुष्ट थे क्योंकि पत्नी घर को बड़ी ही सूझबूझ से चलाती कि अभाव महसूस ही नहीं होते और परिवार में हमेशा सुख-चैन बना रहता।

अचानक एक दिन अल्प बीमारी के बाद पत्नी का देहांत हो गया। आदमी अत्यंत दुखी हो गया। अब उसके जीवन का आधार पुत्र ही था। वह उसे बहुत प्रेम करता था। एक दिन आदमी को किसी काम से शहर जाना था। उसने पुत्र को खाना खिलाया, उसे थपकी देकर सुलाया और ताला लगाकर चला गया। रात को लौटा तो देखा कि घर को लुटेरों ने लूटकर आग लगा दी है। जले हुए घर में उसे एक बच्चे की लाश दिखी।

अपने पुत्र को मृत जानकर आदमी दुख के मारे विक्षिप्त जैसा हो गया। उसने बच्चे का दाह-संस्कार कर उसकी भस्म व अस्थियां एक थैले में रख लीं। वह इस थैले को हमेशा साथ रखता। कामकाज छूट गया। पड़ोसी खाना देते तो खा लेता। न सोने की सुध-बुध रही, न कपड़ों की। चार वर्ष बाद एक रात किसी ने उसका दरवाजा खटखटाया। उसने पूछा, 'कौन है? जवाब मिला, मैं आपका बेटा।

उसके पुत्र-प्रेम का कोई उपहास कर रहा है, यह सोचकर उसने ध्यान नहीं दिया और सो गया। जबकि सच यह था कि लुटेरे उसके बच्चे का अपहरण करके ले गए थे और आज चार वर्ष बाद वह बड़ी कठिनाई से उनके चंगुल से छूटकर भाग आया था। उसने बहुत देर तक द्वार खटखटाया। फिर हारकर वहां से चला गया। पिता-पुत्र सदा के लिए बिछड़ गए। बिना जांचे-परखे किसी को धु्रव सत्य मान लेने से अंतत: नुकसान ही उठाना पड़ता है। इसलिए परीक्षण करने  के बाद ही सत्य-असत्य का निर्णय करना चाहिए।

स्नेह पाकर चोरी करना छोड़ दिया
एक महिला के पति की नौकरी किसी अन्य शहर में थी। वे कभी-कभार ही आ पाते थे। महिला अकेली ही गांव में रहती थी। घर में कोई और नहीं था। अपने स्वभाव से वह बहुत उदार व स्नेहपूर्ण थी। पड़ोसियों की सदा मदद करती और कभी किसी का दिल नहीं दुखाती। चूंकि वह अधिकतर अकेली ही रहती थी, इसलिए एक चोर की निगाह काफी दिनों से उसके घर पर थी।

एक दिन अवसर पाकर चोर घर में घुसा और महिला को छुरा दिखाते हुए कहा, क्रयदि तुमने शोर मचाया तो मैं तुम्हें मार डालूंगा। बेहतर यही होगा कि तुम चुप रहो और मुझे जो ले जाना हो, वह ले जाने दो। महिला न चिल्लाई, न घबराई। वह बड़ी शांति से चोर की बात सुनती रही और फिर बोली, मैं शोर नहीं मचाऊंगी। तुम चोरी करने मेरे घर आए, इसका मतलब ही यह है भैया कि तुम्हें मुझसे अधिक इन वस्तुओं की आवश्यकता है। तुम्हें जो चाहिए, खुशी से ले जाओ। मैं तुम्हारे इस कार्य में सहायता ही करूंगी। मुझे जब इन वस्तुओं  की जरूरत होगी तो भगवान मेरे लिए व्यवस्था करेगा। महिला की बातें सुनकर चोर के हाथ से छुरा गिर पड़ा और वह सजल नेत्रों से बिना कुछ लिए वहां से चला गया।

अगले दिन महिला को एक पत्र मिला, जिसमें लिखा था, बहन! मैं चोर हूं, बुरा आदमी हूं। मुझे अब तक घृणा और अपशब्द ही मिले, जिससे मेरा दिल पत्थर के समान कठोर हो गया। किंतु तुम पहली हो, जिसने मुझे प्रेम दिया और मैं रास्ता बदलने के लिए बाध्य हो गया। आज से मैं चोरी करना छोड़ रहा हूं। स्नेह की सरसता दुष्टता को खत्म कर देती है। स्नेह भाव से जटिल काम भी सरल हो जाते हैं।

व्यावहारिक भी होता है पूर्ण ज्ञान
एक संत जंगल में  बने अपने आश्रम में  आठ-दस शिष्यों के साथ भगवद् भजन में लीन रहते और सदुपदेश देते थे। एक दिन उनके किसी शिष्य ने दुनिया में घूमकर ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा प्रकट की। इसे उचित मानकर उन्होंने सभी शिष्यों से कहा, 'जाओ, तुम सभी दुनिया में जहां चाहो घूम आओ। अपना मन-मस्तिष्क खुला रखकर हर जगह से जितना ज्ञान अर्जित कर सकते हो, करना।

लगभग दो वर्ष की अवधि में एक-एक कर वे सभी लौटे और अपने अनुभव संत को सुनाए। एक शिष्य को चुप देखकर संत ने पूछा, 'तुम क्या सीखकर आए हो? वह बोला, 'मैंने तो कुछ नहीं सीखा। संत को उसका उत्तर सुनकर हैरानी हुई, किंतु वे कुछ नहीं बोले। सभी शिष्यों ने फिर से आश्रम में अपनी-अपनी जिम्मेदारी संभाल ली। एक दिन वही शिष्य संत के पैर दबा रहा था। तभी उनसे मिलने एक ख्यात महात्मा आए।

महात्मा ने ज्ञान की बड़ी-बड़ी बातें कहीं और चले गए। उनके जाने के बाद शिष्य बोला, 'मंदिर तो अच्छा है, किंतु भीतर भगवान की मूर्ति नहीं है। संत समझ गए कि यह टिप्पणी महात्मा की कोरी ज्ञानपरक बातों पर की गई है। एक बार संत के कक्ष में एक मधुमक्खी घुस आई और द्वार खुला होने पर भी निकलने के लिए दीवारों पर टकराने लगी। तब वहीं मौजूद वह शिष्य बोला, 'जिधर से आई है, उधर ही जा। द्वार वहीं है।  विद्वान संत ने आत्मा-परमात्मा को केंद्र में रखकर कही गई इस बात की गहराई को समझ लिया। वे समझ गए कि उनका यह शिष्य कोरा ज्ञान सीखकर नहीं आया है, बल्कि गुनकर भी आया है। पढ़कर या सुनकर अर्जित किया गया ज्ञान तभी पूर्ण माना जाता है, जबकि व्यवहार के धरातल पर उसका उचित उपयोग हो।

बोधिसत्व ने जानी सच्चई की राह
एक जातक कथा है। वाराणसी में राजा ब्रम्हदत्त के शासन में बोधिसत्व एक ब्रह्मण कुल में पैदा हुए। तक्षशिला में ज्ञान प्राप्त करने के बाद वे साधना के लिए वन में चले गए। वहां एक कमलसरोवर के किनारे उन्होंने छोटी सी कुटिया बना ली। वहां वे घंटों साधना में लीन रहते।

एक दिन सरोवर में उतरकर सूर्य को अघ्र्य देने के पश्चात उनकी दृष्टि खिले हुए कमल के फूलों पर पड़ी। वे उन्हें बिना तोड़े सूंघने लगे। उन्हें ऐसा करते देख अचानकवहां आई एक देवकन्या ने कहा, यह जो आप बिना किसी के दिए कमल-फूल सूंघ रहे हैं, यह गंध की चोरी है। बोधिसत्व ने पूछा, न मैं कमल-पुष्प ले जाता हूं, न तोड़ता हूं, मात्र दूर से सूंघता हूं। फिर कैसे यह चोरी हुई?

उसी समय थोड़ी दूरी पर एकआदमी कमल तोड़ रहा था। उसे दिखाते हुए बोधिसत्व ने कहा, तुम इस आदमी को कुछ नहीं कहोगी, जो कमल तोड़कर ले जा रहा है? तब देवकन्या बोली, जो लोभ में पड़ा हुआ है और जिसका मन मलिन हो, उसे कुछ कहना व्यर्थ है। किंतु जो श्रमण है, जो नित्य पवित्रता के लिए प्रयासरत है, वह बाल की नोक के बराबर भी पाप करे तो यह असहनीय होता है। अत: मैं आपसे निवेदन करती हूं किआप यह काम न करें, यह आपके पुण्य घटाएगा।

बोधिसत्व, देवकन्या की बात का मर्म जानकर उसके प्रति आभारी हुए और भविष्य में ऐसी गलती न दोहराने का संकल्प लिया।

समाज के लिए प्रकाश-स्तंभ बन चुके महान लोगों को अपने आचरण में अत्यंत सावधान रहना चाहिए। चूंकि समाज उनसे प्रेरणा लेकर सच्चई के रास्ते पर आगे बढ़ता है, इसलिए उनके द्वारा कुछ भी नीति विरुद्ध नहीं होना चाहिए।

शंकालु सेठ को नौकर ने दिखाया आईना
शंकालु प्रवृत्ति का एक सेठ नौकर तो ठीक, अपने परिजनों तक पर विश्वास नहीं करता था। एक बार उसने अपनी विधवा भाभी की मदद करने के उद्देश्य से उसके पुत्र को अपने यहां नौकरी पर रख लिया। सेठ अपने भतीजे के ईमानदार व मेहनती होने के गुण से परिचित था, किंतु शंकालु स्वभाव के चलते उसने लड़के की परीक्षा लेनी चाही। एक दिन सेठ ने वहां कुछ पैसे रख दिए, जहां बैठकर लड़का काम करता था। लड़के ने पैसे देखे तो तत्काल सेठ को वापस कर दिए।

अगले दिन सेठ ने थोड़े अधिक पैसे कमरे में रख दिए। जब लड़का आया तो वह समझ गया कि सेठ उसकी नीयत परखना चाहता है। उसे अपने चाचा के अविश्वास पर दुख हुआ, किंतु वह कुछ नहीं बोला और पूर्व की भांति सेठ को पैसे वापस कर दिए। इस बात को बमुश्किल एक सप्ताह ही बीता होगा कि एक दिन लड़के को एक लाख रुपए की गड्डी कमरे के फर्श पर पड़ी मिली। यह देख उसके धैर्य ने जवाब दे दिया।

वह अपना काम छोड़कर नोट लेकर सेठ के पास पहुंचा और बोला, चाचा! यह लो आपके पैसे और आपकी नौकरी। मैं इतने दिनों तक सहन करता रहा, किंतु आपके अविश्वास की कोई सीमा ही नहीं है। याद रखिए कि निरंतर अविश्वास से विश्वास नहीं पाया जा सकता।

मेरे लिए आपके घर में काम करना संभव नहीं है। लड़का काम छोड़कर चला गया और सेठ को जीवन का एक महत्वपूर्ण सबक दे गया। सार यह है कि विश्वास की परख के लिए गंभीर समझदारी से भरा एक अवसर काफी होता है, किंतु बार-बार इसे दोहराने पर स्वयं की विश्वसनीयता पर ही संकट खड़ा हो जाता है।

साधु ने जाना सच्चे वैराग्य का अर्थ
जंगल में कुटिया बनाकर रहने वाले एक साधु के यहां एक दिन कोई महात्मा आए। साधु ने उनका यथोचित सत्कार किया। वह अपनी कुटिया बहुत सजा-संवारकर रखता था, लेकिन महात्मा ने इस बात पर कोई ध्यान नहीं दिया। साधु को लगा कि महात्मा का इस ओर ध्यान आकर्षित कराना चाहिए। अत: जब महात्मा जाने लगे तो साधु ने कहा, महात्मन्! आपने मेरी कुटिया की सुंदरता पर गौर किया? मैंने बड़े परिश्रम से इसे तैयार किया है।

महात्मा ने उत्तर दिया, साधु महाराज! आपकी कुटिया वास्तव में बहुत सुंदर है, किंतु अब जबकि आप घर-परिवार त्याग चुके हैं, तब कुटिया के प्रति मोह उचित नहीं है। यह कहकर महात्मा कुटिया से निकल गए। साधु ने सोचा कि महात्मा उसे वैरागी के स्थान पर रागी समझ रहे हैं। यह विचार आते ही उसने अपनी कुटिया में आग लगा दी और महात्मा के पीछे-पीछे तेजी से जाकर उन्हें मार्ग में रोका।

उसने महात्मा से कहा, महात्मन्! यह मत समझिए कि मैं मोहासक्त आदमी हूं। मैं अभी-अभी अपनी कुटिया में आग लगा आया हूं। किंतु यह आपको भी मानना पड़ेगा कि मेरी कुटिया थी बहुत सुंदर उसकी बात सुनकर महात्मा बोले, आपकी घास-फूस की झोपड़ी आग लगाने पर भी नष्ट नहीं हुई, क्योंकि वह तो आपके मन में जमी बैठी है। जब तक आपके मन की आसक्ति नहीं मिटेगी, आपको ज्ञान की प्राप्ति नहीं होगी।

साधु को अपनी भूल का अहसास हुआ और उस दिन से उसने सच्चा संन्यासी बनने का संकल्प ले लिया। विकार रहित निर्मल मन में ही सही अर्थों में वैराग्य बसता है और यही परम शांति का सर्जक होता है।


जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,

और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है... मनीष

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